सुरेश हिन्दुस्थानी
भारतीय राजनीति कब किस समय कौन सी करवट बैठेगी, यह कोई भी विशेषज्ञ अनुमान नहीं लगा सकता। अगर इसका अनुमान लगाएगा भी तो संभव है कि उसका यह अनुमान भी पूरी तरह से गलत प्रमाणित हो जाए। हमारे देश में लम्बे समय तक सत्ता पक्ष की राजनीति करने वालों राजनेताओं के लिए यह समय वास्तव में ही अवसान काल को ही इंगित कर रहा है, अवसान इसलिए, क्योंकि उनके पास अपने स्वयं के शासनकाल की कोई उपलब्धि नहीं है। अगर उनका शासन करने का तरीका सही होता तो संभवत: उन्हें इस प्रकार की स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता। कांग्रेस आज भले ही अपनी गलतियों के कारण उत्पन्न हुई स्थितियों को वर्तमान सरकार पर थोपने का काम करे, परंतु इस बात को कांग्रेस भी जानती है कि वह केन्द्र सरकार का विरोध न करे तो उसके पास राजनीति करने के लिए कुछ भी नहीं है। आज देश में जो समस्या दिखाई दे रही है, कांग्रेस उसे ऐसा प्रचारित करती है, जैसे यह सारी समस्याएं मोदी के शासनकाल में ही आर्इं हैं।
भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद देश में सबसे ज्यादा शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी की इतनी दयनीय स्थिति क्यों बनी, इसका अध्ययन किया जाए तो यही सामने आता है कि इस स्थिति के लिए कांग्रेस के नेता ही जिम्मेदार हैं। कांग्रेस ने प्रारंभ से ही विविधता में एकता के सूत्र को स्थापित करने वाली परंपरा पर राजनीतिक प्रहार किया, एक प्रकार से कहा जाए तो कांग्रेस ने विविधता को छिन्न भिन्न करने की राजनीतिक चाल खेली। अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की सीमाओं को लांघते हुए कांग्रेस ने हिन्दू आस्था पर घातक प्रहार करने का षड्यंत्र किया। इसमें कांग्रेस के साथ वामपंथियों ने कदम से कदम मिलाकर सहयोग किया। यही चाल वह आज भी खेलती हुई दिखाई दे रही है। समाज में विभाजन की खाई को पैदा करने वाले राजनीतिक दल भले ही इस नीति पर चलकर शासन करते रहे, लेकिन देश की जो तस्वीर बनी, वह बहुत ही कमजोर चित्र को दर्शा रही है। इसमें समुदाओं के लिए बनाए गए पर्सनल कानून आग में घी डालने जैसा ही काम कर रहे हैं। अगर यह पर्सनल कानून की अवधारणा देश में नहीं होती तो स्वाभाविक रूप से समाज के बीच दरार पैदा नहीं होती। आज देश के लिए आवश्यक यह है कि समान नागरिक संहिता लागू की जाए।
गांधी की विरासत को गले से लगाने वाली कांग्रेस आज उन्हीं के सिद्धांतों से भटकती हुई दिखाई दे रही है। गांधी जी ने कहा था कि मैं एक ऐसे भारत का निर्माण करुंगा, जिसमें कहीं भी ऊंचनीच का भाव नहीं हो, साम्प्रदायिकता का अभाव हो, गौहत्या पर पूरी तरह से प्रतिबंध हो और शराब बंदी हो। लेकिन आज हम क्या देखते हैं कांग्रेस ने गांधी के सिद्धांतों को निर्मूल साबित कर दिया। आज की कांग्रेस ने समाज को वर्गों में बांटकर राजनीति की, इससे समाज में ऊंचनीच का भाव पैदा हुआ, इसी प्रकार केरल में कुछ वर्ष पूर्व कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने सरेआम गौहत्या की, वह हमने प्रत्यक्ष रुप से देखा। हालांकि बाद में भले ही कांग्रेस ने गौहत्या करने वाले कांग्रेस नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया। सबसे बड़ी बात यही है कि कांग्रेस दिखावे की राजनीति करती है, मन में कुछ और ही चल रहा होता है। इसी प्रकार हम यह भी जानते हैं कि कांग्रेस ने तुष्टिकरण की सारी सीमाओं को तोड़ते हुए यहां तक कह दिया कि देश के संसाधनों पर सबसे पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का है। कांग्रेस की यह राजनीति सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली नहीं तो और क्या कही जाएगी? कांग्रेस के शासन काल में भगवान राम द्वारा बनाए गए रामसेतु को तोड़ने का भरसक प्रयास किया, सरकार की ओर से न्यायालय में दिए गए शपथ पत्र में कांग्रेस की ओर से कहा गया था कि भगवान राम एक काल्पनिक पात्र हैं, वे तो पैदा ही नहीं हुए थे। इस प्रकार की सोच रखने वाली कांग्रेस को भारत विरोधी कहना न्याय संगत ही कहा जाएगा।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी को तो कई बार उपहास का पात्र बनते हुए पूरे भारत वर्ष ने देखा है, लेकिन अब कांग्रेस भी अपने कार्यक्रमों के माध्यम से उपहास का पात्र बनती जा रही है। समाज की नजरों से बहुत दूर जा चुकी कांग्रेस अपने आपको जनहितैषी साबित करने के लिए दम खम से प्रयास कर रही है, लेकिन यह दिखावे की राजनीति ही उसकी पोल खोलने का काम भी कर रही है। इससे यह साबित होता है कि कांग्रेस के नेता जो दिखाते हैं, सत्यता उससे बहुत दूर है। अभी हाल ही में कांग्रेस का चिंतन शिविर आयोजित किया गया। इसके बाद कांग्रेस नेताओं के भिन्न प्रकार के स्वर मुखरित हुए, जिसके कारण कुछ नेताओं को संतुष्ट करने के लिए इसी प्रकार का दूसरा लघु चिंतन शिविर फिर से आयोजित करने की स्थिति बनी।
देश से लगातार सिमटती जा रही कांग्रेस के बारे में यही कहना समुचित होगा कि आज वह छटपटा रही है। सत्ता प्राप्त करने के लिए भरसक प्रयत्न कर रही है, लेकिन उनके यह प्रयत्न सकारात्मक न होकर नकारात्मक ही कहे जाएंगे। कांग्रेस ने जितने वर्षों तक देश में शासन किया, उतने वर्षों में अगर ईमानदारी से इस वंचित समाज को आगे लाने का काम किया होता तो आज समाज में असमानता नहीं होती। इसके विपरीत वर्तमान नरेन्द्र मोदी की सरकार ने प्रारंभ से ही कहा है कि उनकी सरकार सबका साथ सबका विकास की अवधारणा पर काम करने वाली सरकार है। उनकी सरकार में किसी का भी तुष्टिकरण नहीं किया जाएगा। ऐसा हो भी रहा है, लेकिन विरोधी पक्ष के राजनीतिक दल केवल इसलिए ही मोदी सरकार का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि केन्द्र सरकार अगर सबका विकास कर देगी तो फिर राजनीति कैसे होगी? विरोधी दल के नेता केवल इतना ही सोचकर वर्तमान केन्द्र सरकार को घेर रहे हैं, जबकि यह कमजोरी पूरी तरह से पहले की सरकारों की देन है। ऐसी राजनीति करना ठीक नहीं है।
देश में कांग्रेस की नीति पर चलने के लिए अन्य राजनीतिक दल भी आतुर दिखाई दे रहे हैं। उसमें बहुजन समाज पार्टी की मायावती तो धनवान होने के बाद भी अपने आपको वंचित समाज का हितैषी मानने का दिखावा कर रही हैं। इससे यह भी साबित होता है कि मायावती समय के अनुसार ही राजनीति करती हैं, इसमें उनकी पार्टी का कोई सिद्धांत नहीं है। विरोधी दलों के लिए सबसे बड़ी परेशानी की बात यह है कि उन्हें वर्तमान सरकार में कोई खामी दिखाई नहीं दे रही, इसलिए स्वयं मुद्दे खड़ा करके केन्द्र सरकार पर आरोपित करने की राजनीति ही की जा रही है। ऐसी राजनीति देश के स्वास्थ्य के लिए कतई ठीक नहीं कही जा सकती, ऐसी राजनीति से बचना ही चाहिए।
सत्ता के लिए बेचैन होती कांग्रेस
जल-संकट गृहयुद्ध का कारण न बन जाये
– ललित गर्ग –
पिछले कई दिनों से गंभीर जल संकट से दिल्ली की जनता परेशान है। परेशानी का सबब यह है कि पानी पहुंचाने वाले टैंकरों को कड़ी सुरक्षा में चलाया जा रहा है, ताकि पानी को लेकर हिंसा की नौबत न आ जाए। दक्षिणी दिल्ली क्षेत्र में पानी की कमी से जूझ रहे लोग पानी की टंकियों और हेंडपंपों से बूंद-बूंद पानी इकट्ठा कर रहे है और अपने-अपने पानी के डिब्बों को जंजीर से बांधकर रख रहे हैं। ऐसा ही नजारा मंगलवार को वसंत विहार के कुसुमपुर पहाड़ी इलाके में देखने को मिला। यह चिंताजनक इसलिए है कि अगर ऐसे ही हालात बने रहे तो यह जल संकट कभी भी जल संघर्ष एवं हिंसा में बदल सकता है। यह तो अक्सर देखने में आता ही रहा है कि पानी को लेकर लोग एक दूसरे की जान तक लेने में भी नहीं हिचकते। भीषण गर्मी और हरियाणा में नदी में कम पानी छोड़े जाने के कारण स्थिति दिन-ब-दिन खराब होती जा रही है। दिल्ली के जल-संकट को जल्दी-से-जल्दी दूर करना सरकार की प्राथमिकता होनी ही चाहिए।
दिल्ली में जल संकट वैसे तो हर वर्ष गर्मी की समस्या है, पर इसका दुष्प्रभाव साल दर साल बढ़ता ही जा रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि बढ़ती जनसंख्या की वजह से दिल्ली में पानी की समस्या गंभीर होती जा रही है। अगर हम आंकड़ों पर गौर करें तो यह बात काफी हद तक सच भी है। जैसे दिल्ली की जनसंख्या में बीते दो दशकों में अत्यधिक वृद्धि हुई है। परंतु केवल जनसंख्या में वृद्धि ही दिल्ली में साल दर साल गहराते जल संकट का कारण नहीं है। विश्व के किसी भी शहर एवं खासकर राजधानी क्षेत्र की जनसंख्या में वृद्धि एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, पर इससे उपजने वाली विभिन्न समस्याओं एवं जल संकट का मूल आबादी की बजाय, आबादी द्वारा चुनी गई सरकार एवं उसके लिए कार्य करने वाली संस्थाएं हैं, जोकि जीवन के मूलभूत तत्वों एवं जीवन निर्वाह की मूल जरूरतों में से एक जल भी उपलब्ध नहीं करवा पाती है। यह सरकार की नाकामी को दर्शाता है।
यह कैसी सरकार है जिसके शासन में एक-एक बाल्टी पानी के लिए लोग रात-रात भर जाग रहे हैं। जहां पानी पहुंच रहा है वहां लंबी-लंबी कतारें लगी हैं। जिनके पास पानी खरीदने को पैसे नहीं हैं, वे गंदा पानी पीने को मजबूर हैं। जो खरीद सकते हैं, वे मुंहमांगा दाम दे रहे हैं। ऐसा नहीं कि ये हाल कुछेक इलाकों का है। आधी से ज्यादा दिल्ली पानी के लिए इसी तरह तरस रही है। यह हर साल का रोना है। लेकिन विडंबना यह है कि जल संकट के स्थायी समाधान के लिए क्या हो, इसकी फिक्र किसी को नहीं दिखती।
दिल्ली में जल-संकट का कारण रजनीति भी है। पानी को लेकर विवाद दूसरे राज्यों में भी होते रहते हैं। नदियों के पानी पर किसका और कितना हक हो, यह मुद्दा जटिल तो है ही, राज्यों की राजनीति ने इसे और पेचीदा बना डाला है। दिल्ली को अतिरिक्त पानी देने को लेकर उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश के साथ चर्चा करीब तीन साल से चल रही है। हरियाणा सरकार के साथ भी लंबे समय से बात चल रही है। पर अब तीनों राज्यों ने अपनी मजबूरी जता दी है। मोटे तौर पर दिल्ली में पानी का संकट तब खड़ा होता है, जब यमुना में पानी कम हो जाता है। ताजा स्थिति यह है कि वजीराबाद बैराज पर यमुना नदी का जलस्तर सामान्य से छह फीट नीचे चला गया है। यहां पानी हरियाणा से आता है। हरियाणा तर्क यह दे रहा है कि पंजाब उसे उसके हिस्से का पानी नहीं दे रहा। यानी जब पंजाब हरियाणा को पानी देगा, तब वह दिल्ली को देगा। अगर वाकई ऐसा है तो यह बेहद गंभीर बात है। इससे तो यही लग रहा है कि पानी को लेकर सरकारें राजनीति कर रही हैं। गौरतलब है कि दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार है, जबकि उत्तर प्रदेश और हरियाणा में भाजपा की। जबकि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार है और उसी की सरकार पंजाब में है तो वह समस्या के समाधान के लिये तत्पर क्यों नहीं होती? पंजाब हरियाणा को पानी दे तो दिल्ली को पानी मिल सकता है। लेकिन इस समस्या के समाधान के लिये गंभीरता क्यों नजर नहीं आ रही है? क्यो जल पर राजनीति की जा रही है? क्यों जनता को पानी के लिये त्राहि-त्राहि करने पर विवश किया जा रहाहै?
ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे राजनीतिज्ञ, जिन्हें सिर्फ वोट की प्यास है और वे अपनी इस स्वार्थ की प्यास को इस पानी से बुझाना चाहते हैं। हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और दिल्ली का यह जल-विवाद आज हमारे लोकतांत्रिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दे उससे पूर्व आवश्यकता है तुच्छ स्वार्थ से ऊपर उठकर व्यापक राष्ट्रीय हित एवं जनता के हित के परिप्रेक्ष्य मंे देखा जाये। जीवन में श्रेष्ठ वस्तुएं प्रभु ने मुफ्त दे रखी हैं- पानी, हवा और प्यार। और आज वे ही विवादग्रस्त, दूषित और झूठी हो गईं। बहुत हो चुका है। अब बस। 2022 दिल्ली के जन-संकट का समाधान का वर्ष हो।
भारत की नदियां शताब्दियों से भारतीय जीवन का एक प्रमुख अंग बनी हुई हैं। इन्हीं के तटों से ऋषियों-मुनियों की वाणी मुखरित हुई थी। जहां से सदैव शांति एवं प्रेम का संदेश मिलता था। इसमें तो पूजा के फूल, अर्घ्य और तर्पण गिरता था अब वहां निर्दोषों का खून गिरता है। हमारी सभ्यता, संस्कृति एवं विविधता की एकता का संदेश इन्हीं धाराओं की कलकल से मिलता रहा है। जिस जल से सभी जाति, वर्ग के लोगों के खेत सिंचित होते हैं। जिनमें बिना भेदभाव के करोड़ों लोग अपना तन-मन धोते हैं। जो जल मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी की भी प्यास बुझाता है, उसमें अलगाव, भेदभाव, राजनीतिक स्वार्थ का जहर कौन घोल रहा है?
सभी इन राज्यों के अपने तकनीकी व अन्य कारण हो सकते हैं। हो सकता है कि वे उचित भी हों, लेकिन जिस तरह का रवैया दिल्ली एवं पंजाब की आम आदमी पार्टी की सरकार एवं हरियाणा, उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश की भाजपा सरकारें दिखा रही हैं, उसे शायद ही कोई जायज ठहराएगा। हालांकि देखा यह भी जाना चाहिए कि इन राज्यों के पास अपने लिए कितना पानी है। दिल्ली की अपनी भौगोलिक स्थिति और अन्य मजबूरियां ऐसी हैं कि बिना दूसरे राज्यों से पानी मिले उसका गुजारा चल नहीं सकता। सारे राज्य एक ही देश के हैं, पड़ोसी हैं, सभी के नागरिक भी एक ही हैं। ऐसे में कोई राज्य किसी जरूरतमंद राज्य को पानी नहीं देकर संकट खड़ा करता है, तो यह गंभीर बात है, यह प्रदूषित राजनीति का द्योतक है।
देश की राजधानी में ही अगर इतना गंभीर जल संकट खड़ा हो जाता है और वह भी हर साल, तो सरकारों पर सवाल उठना लाजिमी है। जल-संकट के अलावा भी अन्य आम जनता से जुड़े अनेक संकट है जैसे प्रदूषण आदि। आखिर सरकारें कर क्या रही हैं? दिल्ली की अपनी सरकार है। केंद्र सरकार भी यहां है। देश की सर्वाेच्च अदालत भी यहां बैठती है। सत्ता और शक्ति का केंद्र होने के बावजूद लाखों लोग अगर पानी के लिए तरसते हैं तो निश्चित ही इसे व्यवस्था की नाकामी का नतीजा माना जाना चाहिए। नदियों ने विभिन्न प्रांतों को जोड़ा था पर राजनीतिज्ञ इसे तोड़ रहे हैं। दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, हिमाचल एक अखण्ड राष्ट्र के उसी प्रकार हिस्से हैं जिस प्रकार मनुष्य शरीर के अंग हुआ करते हैं। कोई सरकार जनता की सुरक्षा एवं संरक्षण करने में असमर्थ है और दूसरी तरफ कोई सरकार अपनी कुर्सी को चमकाने के लिए जल विवाद का लाभ उठाना चाहते हैं। ये स्थितियां गृह युद्ध की तरफ बढ़ रही हैं। जिस पर नियंत्रण पाना किसी अथॉरिटी के लिए सम्भव नहीं होगा। ये स्थितियां हमारे संवैधानिक ढांचे के प्रति भी आशंका पैदा कर रही हैं। ”नदी जल“ के लिए कानून बना हुआ है। आवश्यक हो गया है कि उस पर पुनर्विचार कर देश के व्यापक हित में विवेक से निर्णय लिया जाना चाहिए।
प्रेषकः
क्या उदयपुर अधिवेशन कांग्रेस में फूंक पाएगा जान!
उबाऊ व आसानी से सेट होने वाले नेताओं को दिखाना होगा कांग्रेस को बाहर का रास्ता!
लिमटी खरे
देश में आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस जिसके बारे में नब्बे के दशक तक यह कहा जाता था कि दक्षिण और पश्चिम बंगाल के अलावा पूरे देश में कांग्रेस का शासन है, पिछले दो दशकों से राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान और जगह बनाने के लिए जद्दोजहद करती नजर आ रही है। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को घेरकर बैठे लोगों के द्वारा जमीनी हकीकत से शीर्ष नेताओं को दूर रखकर आंकड़ों की बाजीगरी में उन्हें उलझाए रखा जाता है। कांग्रेस में जान फूंकने के लिए ठोस सुझाव देने के बजाए इन नेताओं के द्वारा नेतृत्व को उहापोह की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया जाता है।
कांग्रेस में जिस तरह नेताओं को बयानबाजी के लिए स्वतंत्र छोड़ रखा गया है उससे कांग्रेस की छवि बहुत ज्यादा खराब होने के मार्ग ही प्रशस्त होते हैं। जिस नेता का जो मन होता है वह अपने विचार ट्वीट कर देता है, जो चाहे बयान दे देता है। जबकि दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी में इस मामले में बहुत कड़क अनुशासन नजर आता है। भाजपा के नेता हर मामले में बयान देने से बचते ही नजर आते हैं।
हाल ही में राजस्थान के उदयपुर में संपन्न नवसंकल्प चिंतन शिविर में इस बात पर चिंतन नहीं किया गया कि दो दशकों में कांग्रेस के रसातल में जाने की मुख्य वजहें क्या रही हैं। देखा जाए तो अनेक मामलों में मंथन और उसके बाद लिए गए फैसलों को लागू करने में जमीन आसमान का अंतर साफ दिखाई देता है। कांग्रेस नेतृत्व के निर्देशों का पालन भी कांग्रेस के सांसद या विधायक करते नहीं दिखते। कुछ साल पहले कांग्रेस अध्यक्ष ने आपदा के दौरान प्रधानमंत्री राहत कोष में सांसदों और विधायकों से एक एक माह का वेतन जमा करने के निर्देश दिए थे, किन्तु कितनों ने जमा किए इस बारे में सुध शायद ही किसी ने ली हो।
कांग्रेस देश की सबसे पुरानी सियासी पार्टी है, इस पार्टी ने अब तक देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री और राज्यों में मुख्यमंत्री दिए हैं। इसके बावजदू भी कांग्रेस आज जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रही है जो विचारणीय प्रश्न माना जा सकता है। कांग्रेस को भविष्य की रणनीति तो बनाना चाहिए किन्तु अपने दामन में गौरवशाली इतिहास समेटने वाली कांग्रेस को यह विचार भी करना चाहिए कि आखिर कांग्रेस की सीट केंद्र और राज्यों में कम कैसे हो गईं। क्षेत्रीय क्षत्रपों के द्वारा अपने अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में ही कांग्रेस को विजय नहीं दिलाई और वे आज राष्ट्रीय और सूबाई सियासत के सिरमौर बने बैठे हैं।
चिंतन शिविर को लेकर जितनी भी खबरें और बातें सामने आईं हैं उससे ऐसा तो कतई प्रतीत नहीं हो रहा है कि कांग्रेस आने वाले समय में बचाव के बजाए आक्रमक शैली में काम करने वाली है। कांग्रेस को जरूरत है नए तेवर और क्लेवर की। हां इस शिविर के बाद यह जरूर लग रहा है कि पार्टी के जर्जर हो रहे ढांचे को नया स्वरूप देने का प्रयास किया जा रहा है। कांग्रेस में उमरदराज लोगों को जिम्मेदार पद दिए जाने पर सदा ही आवाज बुलंद होती रही है, इस मामले में भी अब तक नेतृत्व का स्पष्ट रूख सामने नहीं आया है। पार्टी के द्वारा अगर वरिष्ठ और युवाओं को मिलाकर सलाहकार समिति बनाई जाती है तो युवाओं की बात कौन सुनेगा! वरिष्ठ अपनी राग अलापेंगे और मामला अंत में ढाक के तीन पात ही निकलकर सामने आ सकता है।
सोनिया गांधी के द्वारा गांधी जयंति के अवसर पर काश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत जोड़ो यात्रा की घोषणा की है। हो सकता है कि यह आईडिया लालकृष्ण आड़वाणी की रथ यात्रा से निकलकर सामने आया हो, जिसके बाद भाजपा का वर्चस्व एकाएक देश भर में बढ़ गया था। समापन सत्र में कांग्रेस के यूथ आईकान राहुल गांधी ने बहुत ही साफगोई से यह बात स्वीकार की है कि आम लोगों को पार्टी से जुड़ाव अब टूट चुका है, इसे फिर से स्थापित करने के लिए पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं को जनता के बीच जाना ही पड़ेगा, इसके अलावा पार्टी को अब संवाद के अपने तौर तरीकों में भी बदलाव करना होगा।
पार्टी ने एक परिवार से एक से अधिक टिकिट नहीं देने की बात कही तो है पर उसमें पांच साल काम करने की बाध्यता भी रख दी है। पार्टी ने एक व्यक्ति को पांच साल से ज्यादा उस पद पर नहीं रहने के साथ ही आधे टिकिट 50 साल से कम आयुवर्ग के लोगों को देने का नियम बनाया है। सवाल यही है कि जो संकल्प पारित हुए हैं उन संकल्पों को अमली जामा कौन पहनाएगा!
देखा जाए तो कांग्रेस के अलावा अन्य राष्ट्रीय दल नब्बे के दशक के बाद ही रफ्तार पकड़ सके हैं, और कांग्रेस इसी के बाद ढलान पर चल पड़ी। जिस नेहरू गांधी के नाम पर कांग्रेस सदा ही सत्ता पर काबिज होती आई थी उसी नेहरू गांधी के नाम को कांग्रेस के शासनकाल में ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय के द्वारा पाठ्यक्रमों से हाशिए पर लाना आरंभ कर दिया था। दरअसल, आठवीं कक्षा से बारहवीं कक्षा तक के पाठ्यक्रमों में आप जो पढ़ते हैं वही बात आपके मतदाता बनते बनते दिल दिमाग में घर करती रहती है। यही कारण है कि भाजपा के द्वारा पाठ्यक्रमों में बदलाव की कवायद की जाने लगी है।
कांग्रेस को अगर अपनी खोई पहचान वापस पाना है, राष्ट्रीय स्तर पर जगह बनाना है तो कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को सबसे पहले अपनी किचिन कैबनेट को बदलना होगा, इसके साथ ही उबाऊ, लोगों के बीच जिन नेताओं की छवि ठीक नहीं है, जिन नेताओं की छवि लोगों के बीच आसानी से सेट हो जाने वालों की है, उन्हें जनता के सामने लाने से परहेज करना होगा। इसके साथ ही युवाओं को आगे लाकर जिलाध्यक्षों के मनोनयन के बजाए उनके चुनाव करवाए जाएं ताकि जिनके पैरों के नीचे जमीन है वे नेता ही कांग्रेस का जिला स्तर पर नेतृत्व कर सकें। कांग्रेस को अपने प्रवक्ताओं को बाकायदा प्रशिक्षण देने की आवश्यता है। आज भी जिला स्तर के प्रवक्ताओं के द्वारा जारी विज्ञप्तियां अधिकांश मीडिया संस्थानों में स्थान नहीं पा पाती हैं। कांग्रेस को अपनी आईटी सेल को प्रशिक्षित करना होगा। इस तरह के बहुत सारे मसले हैं जिन पर कांग्रेस को अपने मंथन शिविर के एजेंडे में शामिल करना चाहिए था, क्योंकि जिला स्तर पर अगर कांग्रेस मजबूत होगी तो अपने आप उस प्रदेश और देश में कांग्रेस को मजबूत होने से कोई रोक नहीं सकेगा . . .
मानसून की दस्तक – सरकारी योजनायें – डूबते शहर
निर्मल रानी
उत्तर भारत में मानसून दस्तक देने जा रहा है। निश्चित रूप से जो लोग भीषण गर्मी के प्रकोप से त्राहि त्राहि कर रहे हैं उन्हें वर्षा ऋतु से होने वाले मौसम परिवर्तन के बाद होने वाले तापमान में गिरावट से काफ़ी राहत महसूस होगी । परन्तु प्रकृति प्रदत्त यही राहत प्रायः उस समय मानव संकट में भी बदल जाती है जबकि मानसून में होने वाली यही बारिश इंसानों को सुकून व राहत देने के बजाये उसकी परेशानी,तबाही व बर्बादी का कारण बन जाती है। देश के कई राज्य आज भी ऐसे हैं जहाँ सरकार चाहते हुये भी बाढ़ के प्रकोप से इंसान व उसे होने वाले नुक़्सान को नहीं बचा पाती है। मानसून शुरू होते ही विभिन्न राज्यों की अनेक उफ़नती हुई नदियां प्रत्येक वर्ष मानवीय तबाही का नया इतिहास लिखती हैं। कहीं पुल बह जाते हैं ,कहीं बाँध टूट जाते हैं,कहीं पूरे के पूरे गांव बाढ़ की विनाशलीला की भेंट चढ़ जाते हैं। हम प्रत्येक वर्ष ऐसा हालत से जूझने के लिये मजबूर रहते हैं तथा इसे प्रकृतिक बाढ़ प्रकोप या इससे उपजी विनाश लीला समझकर इसे स्वीकार कर लेते हैं। हालांकि इसतरह की अनियंत्रित बाढ़ में भी भ्रष्टाचार एक बड़ा कारक होता है। मिसाल के तौर पर नदियों के किनारे बनने वाले बांधों के निर्माण में बड़े पैमाने पर होने वाला भ्रष्टाचार,अवैध खनन, कमज़ोर पुलों व पुलों के खम्बों का घटिया स्तर का निर्माण आदि। परन्तु बाढ़ के प्रकोप को ‘प्रकृतिक प्रकोप’ मानकर सरकार स्वयं को किसी तरह की ज़िम्मेदारी से बचा ले जाती है।
परन्तु शहरी इलाक़ों के डूबने की ज़िम्मेदार जहां मानवनिर्मित अनेक समस्यायें हैं वहीं सरकार की ग़लत योजनायें भी इसके लिये कम ज़िम्मेदार नहीं। उदाहरण स्वरूप शहरों में बनाई या मरम्मत की जाने वाली गलियां बार बार ऊँची से ऊँची की जाती हैं। और उनके दोनों तरफ़ की नालियों की गहराई को कम कर उसे और छिछला कर दिया जाता है। परिणाम स्वरूप अनेक मकानों का मुख्य स्तर गलियों व सड़कों से भी नीचे हो जाता है। इसकी वजह से थोड़ी सी भी बारिश का पानी मकानों में प्रवेश कर जाता है। और अगर बारिश तेज़ हो फिर तो गली मोहल्लों में बाढ़ जैसी स्थिति बन जाती है। उधर हरियाणा के अंबाला जैसे विभिन्न राज्यों के विभिन्न शहरों में बरसाती तथा नालों के माध्यम से जल निकासी हेतु अनेक नये नालों का निर्माण किया गया है। इसी तरह प्रायः फ़्लाई ओवर्स के नीचे भी नाले बनाये गये हैं। आज यदि पूरी ईमानदारी के साथ इन नवनिर्मित नालों की स्थिति पर नज़र डाली जाये तो यह अधिकांश जगहों पर न केवल क्षति ग्रस्त मिलेंगे बल्कि ज़्यादातर नाले अवरुद्ध भी नज़र आयेंगे। तमाम जगहों पर यह नाले नालियां पूरी तरह ढके होंगे। इतने ढके कि इनकी न तो सफ़ाई की जा सकती है न ही इनमें जमे कीचड़ मलवे को निकाला जा सकता है। गोया सरकार, निर्धारित योजनानुसार निर्माण तो कर देती है। परन्तु उसे सुचारु रूप से प्रवाहित करने की ओर ध्यान नहीं देती। यदि करोड़ों रूपये ख़र्च करने के बावजूद नालों व नालियों से गन्दा पानी प्रवाहित नहीं हो रहा है और बजाये इसके यही नाली नाले शहरों में आने वाली बढ़ का कारण भी बने फिर जनता के पैसों की बर्बादी का आख़िर क्या औचित्य है ?
शहरों के डूबने में सरकार के साथ साथ जनता भी कम दोषी नहीं है। जो गंदे नाले व नालियां गंदे घरेलू पानी या वर्षा जल को प्रवाहित करने के लिये होते हैं उन्हीं नालों में आपको मरे हुये जानवर,रज़ाई,गद्दे,कंबल,कपड़े,कांच व प्लास्टिक की बोतलें पॉलीथिन,प्लास्टिक,ईंट-पत्थर,जूते चप्पल,घरेलु कूड़ा करकट आदि न जाने क्या क्या पड़ा नज़र आयेगा। ज़ाहिर है यह ‘कारगुज़ारी’ सरकार की नहीं बल्कि आम लोगों की है। हमारी और आप की है। हमें यह समझना होगा कि हम नालियों का इस्तेमाल केवल गंदे जल के प्रवाह करने के मक़सद तक ही करें। इन्हें हम कूड़ा घर क़तई न बनने दें। हम स्वयं भी ऐसा न करें और यदि कोई ऐसा करते दिखाई दे तो उसे भी मना करें। इन्हीं लापरवाहियों के चलते बरसात के दिनों में शहरों में बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हो जाती है। और जो लोग नालों व नालियों को कूड़ाघर बनाते हैं उन्हीं के मकानों में वर्षा जल नालों के गंदे पानी के साथ प्रवेश करता है जोकि परेशानी व असुविधा के साथ साथ विभिन्न बीमारियों को भी दावत देता है।
इसके साथ साथ सरकार का भी कर्तव्य है कि वह युद्धस्तर पर शहरी नालों व नालियों की समुचित सफ़ाई करवाये। टूटे फूटे नालों व नालियों की मरम्मत कराये। इनमें जमी गाद व कचरा कूड़ा आदि पूरी तरह साफ़ करवाकर नाले नालियों के पानी की प्रवाह पूर्ण स्थिति सुनिश्चित करे। जिन लोगों ने अपनी सुविधानुसार अथवा सरकारी ठेकेदारों द्वारा नालों को इतनी दूर तक ढक दिया गया है कि उसके नीचे सफ़ाई कर पाना ही संभव नहीं,नालों के ऐसे ढके हिस्से को तुड़वाकर इन्हें खोलने की व्यवस्था की जाये ताकि सफ़ाई कर्मचारी सुगमता से इनकी सफ़ाई कर सकें। वर्तमान मशीनी युग में ऐसे नालों नालियों की सफ़ाई के लिये भी मशीनों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। नालों व नालियों का निर्माण या इनकी मरम्मत स्तरीय होनी चाहिये। भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ी ऐसी योजनाएं भी जहाँ बाढ़ का कारण बनती हैं वहीँ नालियों की गुणवत्ता की कमी से लोगों के घरों में भी नाले नाली के पानी का रिसाव होता है। इसकी वजह से मकान की नींव तो कमज़ोर होती ही है साथ ही घरों में सीलन भी पैदा होती है।
गली निर्माण व मुरम्मत के लिये भी सरकार स्पष्ट निर्देश जारी करे कि कोई भी गली पुरानी गली को खोद कर गली के उसी स्तर पर तैय्यार की जाये जो स्तर पूर्व में था। और यदि कोई ठेकेदार किसी गली को नये स्तर पर ऊँचा करता है इसका अर्थ है कि वह भ्रष्ट है और शहरवासियों को संकट में डालना चाहता है। ऐसे ठेकेदारों को काली सूची में डाला जाये और यदि किसी अधिकारी की मिलीभगत से वह ऐसा कर रहा हो तो उस अधिकारी को भी पदमुक्त किया जाना चाहिये। यदि समय रहते सरकार ने नालों व नालियों की समुचित सफ़ाई नहीं करवाई तो मानसून अपनी दस्तक दे चुका है और निःसंदेह बिना रखरखाव वाली यही ग़लत सरकारी योजनायें प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष की वर्षा ऋतू में भी डूबते हुये शहरों का करक बन सकती हैं।
मल्टीनेशनल कंपनी की नौकरी छोड़, कर रहे प्राकृतिक खेती
रूबी सरकार
भोपाल, मप्र
दिल्ली-एनसीआर, गुरुग्राम के प्रदूषित हवा से तंग आकर कुछ युवा अपने गांव वापस लौटकर न केवल प्राकृतिक खेती को अपना आजीविका का साधन बनाया बल्कि गांव के किसानों को भी इसी ओर प्रेरित कर रहे हैं. इनमें भोपाल के इंजीनियर शशिभूषण, पीएचडी फार्मा अनुज, सुधांशु और सुष्मिता और आईआईटी कानपुर, आईआईएम लखनऊ तथा इंफोसिस से पढ़ाई करने के बाद विदेश में नौकरी करने वाले संदीप सक्सेना के नाम उल्लेखनीय है. संदीप के प्रोफाइल में कई पुरस्कारों का उल्लेख है, इनमें अटल बिहारी वाजपेई जी द्वारा सम्मानित होना उल्लेखनीय है. इंजीनियर शशि भूषण गुरुग्राम के अलावा बेंगलुरु, हैदराबाद जैसे शहरों में बड़ी कंपनियों के साथ काम कर चुके हैं, लेकिन स्वास्थ्य के प्रति सजग होने के कारण वे बहुत जल्दी नौकरी छोड़कर गांव वापस आकर पुश्तैनी 25 एकड़ जमीन पर जैविक खेती करने लगे.
शशि ने बहुत दिलचस्प बातें बताई कि उनकी उपज के ग्राहक उसी के आस-पास के ग्रामीण हैं. उन्होंने कहा कि आस-पास गांव के सभी किसान अपनी जमीन पर गेहूं बोते हैं. परंतु वे उनसे गेहूं खरीद के ले जाते हैं कारण यह है कि चूंकि वे अपने खेतों में जहर उगाते हैं, इसलिए शुद्ध खाने के लिए शशि से अनाज खरीदते हैं और अपना रसायन युक्त उपज बाजार में बेच देते हैं. सुधांशु और सुष्मिता की जोड़ी थोड़ी अलग है, वे अपने तथा अन्य लोगों के स्वास्थ्य के लिए जैविक खेती कर रहे हैं. दरअसल सुधांशु और सुष्मिता उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद गुरुग्राम में करोड़ों की पैकेज पर नौकरी करने गए थे. करीब एक दशक तक नौकरी के बाद अपने गिरते स्वास्थ्य को देखते हुए दोनों ने यह निर्णय लिया कि वापस अपने शहर लौटकर जैविक खेती करना इससे बेहतर है. मल्टीनेशनल की नौकरी छोड़ दोनों ने दो साल के भीतर जैविक खेती से न केवल अपने लिए शुद्ध आहार का प्रबंध किया, बल्कि गांव के अन्य छोटे किसानों को जोड़कर उन्हें भी जैविक खेती करने के लिए प्रेरित किया.
आज सुधांशु का जैविक जीवन ब्रांड इतना प्रसिद्ध हो गया कि उसके पास ग्राहकों की लम्बी फेहरिस्त है, जिन्हें वह ऑर्गेनिक स्टोर, अमेज़ॅन और व्हाट्सएप के जरिए जैविक खाद्य सामग्री उपलब्ध करवा रहे हैं. सुधांशु बताते हैं कि करोड़ों का पैकेज न सही, लेकिन खुद को और दूसरों को स्वस्थ रखने के लिए वे जो प्रयास कर रहे हैं, उससे उन्हें आत्मसंतोष मिल रहा हैं. वहीं सुष्मिता एक दशक से अधिक समय तक सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रही थी. उन्हें जमीनी स्तर से लेकर नीति निर्माण तक का व्यापक अनुभव हो गया था. स्वास्थ्य के बारे में उनकी समझ व्यापक है. वह कहती हैं कि दूषित हवा से 70 फीसदी लोग फेफड़ों के कैंसर से जूझ रहे हैं. वह एक प्रमाणित पोषण विशेषज्ञ, फिटनेस ट्रेनर और क्रॉसफिटर भी हैं जबकि सुधांशु ने यूके में लीड्स यूनिवर्सिटी बिजनेस स्कूल से स्नातक किया और भारत की प्रमुख बीमा कंपनी के साथ काम किया. सुधांशु के पास स्वास्थ्य बीमा, शिक्षा और चिकित्सा प्रौद्योगिकी क्षेत्र में एक दशक से अधिक का अनुभव है, यानी सुधांशु और सुष्मिता दोनों के पास स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं की जानकारी पहले से थी.
मध्यप्रदेश में पले-बढ़े सुधांशु और सुष्मिता को जब बड़े शहरों का जीवन उबाऊ लगने लगा, तो दोनों ने कुछ नया करने का सोचा. नए में खेती का आईडिया सबसे पहले उनके जेहन में आया. सुष्मिता कहती हैं कि बड़े शहरों में कोई भावनात्मक संबंध नहीं, कोई ठहराव नहीं, सिर्फ लोग पैसे के पीछे दिन-रात भागते हैं, इससे उनके स्वास्थ्य पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ रहा है. उसने यह भी बताया कि असल में नौकरी मिलते ही लोग पहले कर्ज लेकर गाड़ी, बंगला खरीद लेते हैं और पूरी जिंदगी ईएमआई चुकाने के लिए भागते रहते हैं. हमलोगों के साथ अच्छी बात यह थी कि हमने ऐशो-आराम के लिए बैंक से कोई कर्ज नहीं लिया था. हमें लग्जरी जीवन नहीं जीना था, हमें सुकून की जिंदगी चाहिए थी. ईएमआई का कोई पंगा नहीं था, इसलिए आसानी से नौकरी छोड़ने का निर्णय ले पाए.
अब दोनों ने मिलकर विदिशा मुख्यालय से सिर्फ 5 किलोमीटर दूर धनौरा हवेली गांव में अपनी पुश्तैनी 14 एकड़ जमीन पर 2018 से जैविक खेती का सफर शुरू किया. शुरुआत दोनों ने जैविक औषधी से की थी. परंतु धीरे-धीरे खेत को एकीकृत जैविक खेत में बदल दिया. वर्तमान में उनके खेत में कई प्रकार की सब्जियां, हल्दी, अरहर, हरा चना, ज्वार, मक्का, मूंगफली, तिल, काले चने, भूरे चने, प्राचीन खापली और बंसी गेहूं, जौ, सरसों, धनिया, मवेशियों के चारे के लिए बरसीम घास, कई पौधे उगाए जाते हैं. अमरूद, केला और नींबू का उत्पादन हो रहा है. खेत में ही एक प्रसंस्करण केंद्र है जहां उत्पादित सामग्रियों को प्रसंस्करित कर पैक किया जाता है. उसके सारे अवशेष गौशाला में गायों के लिए चला जाता है. जिससे जीरो वेस्ट फार्म की कल्पना साकार होने में मदद मिलती है. सुधांशु के गौशाला में इस समय बिना दूध देने वाली 15 गायें हैं, जिन गायों को लोगों ने सड़कों पर छोड़ दिया था, उन्होंने उन गायों को गोद लिया, ताकि उसे जैविक खेती के आवश्यक गौमूत्र और गोबर मिल सके.
सुधांशु ने अपने खेत में ही एक बड़ा तालाब बनाया है, जहां बरसात का पानी इकट्ठा होता है, जो साल भर सिंचाई के लिए काम आता है. वर्तमान में उसके पास ग्राहकों की एक लम्बी फेहरिस्त है, जिन्हें वह जैविक उत्पाद बेचते हैं. उनकी कंपनी जैविक जीवन का उत्पाद ग्राहक अमेजन से मंगवाते हैं. अब तो हाल यह है कि उनके ग्राहकों की संख्या को देखते हुए 14 एकड़ कृषि भूमि भी उसके लिए कम पड़ने लगी है. सुधांशु बताते हैं कि मेरा खेती करने का अनुभव रोमांचक और चुनौतीपूर्ण रहा है. परंतु अब दुनिया को स्वस्थ बनाने का यह तरीका मुझे अच्छा लगने लगा है. वे गांव में छोटे-छोटे किसानों को अपने साथ जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं और उन्हें जैविक खेती करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. उन्होंने कहा कि शुरू में किसानों के मन में यह डर था कि जैविक से उत्पादन बहुत कम हो जाएगा. लेकिन अब यह भ्रम टूट चुका है.
जैविक खाद के सिलसिले में उन्होंने कहा कि सड़कों पर बहुत सारी गाय विचरण करती रहती है. हम उन्हें आसरा देकर उनके गोबर और गौमूत्र को खाद के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं. इस तरह जीरो बजट वाली खेती को संभव कर सकते है. सब्जियों की खेती के संबंध में उन्होंने कहा कि केवल दो से ढाई महीने में सब्जियां तैयार हो जाती हैं. किसान खेतों को टुकड़े-टुकड़े में बांटकर अलग-अलग मौसम की सब्जियां उगाकर अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं. हम उन्हें बाजार उपलब्ध कराने में मदद कर रहे हैं ताकि वे जैविक खेती करने के लिए उत्साहित हों.
अब सुधांशु जीरो बजट वाली खेती की सीख को सैकड़ों सीमांत किसानों तक ले जाना चाहते हैं ताकि वे भी इस अमूल्य श्रृंखला का हिस्सा बनकर लाभान्वित हो सके. इससे न केवल उन्हें अपनी उपज के लिए बाजार प्राप्त करने में मदद मिलेगी बल्कि उन्हें अपने खेतों को टिकाऊ बनाने और मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने में भी मदद मिलेगी.
जलवायु परिवर्तन ने 30 गुना बढ़ाया भारत और पाकिस्तान में समय से पहले हीटवेव का खतरा
भारत और पाकिस्तान में पिछले लंबे समय से चल रही ताप लहर (हीटवेव) की वजह से इंसानी आबादी को बड़े पैमाने पर मुश्किलों का सामना करना पड़ा है और इसने वैश्विक स्तर पर गेहूं की आपूर्ति पर भी असर डाला है। दुनिया के प्रमुख जलवायु वैज्ञानिकों के एक अंतरराष्ट्रीय दल द्वारा किए गए रैपिड एट्रीब्यूशन विश्लेषण के मुताबिक इंसान की नुकसानदेह गतिविधियों के कारण उत्पन्न जलवायु परिवर्तन की वजह से ऐसी भयंकर गर्मी पड़ने की संभावना करीब 30 गुना बढ़ गई है।
भारत और पाकिस्तान के अनेक बड़े हिस्सों में इस साल समय से पहले अप्रत्याशित हीटवेव शुरू हो गई। यह मार्च के शुरू में प्रारंभ हुई और काफी हद तक अब भी बरकरार है। भारत में मार्च का महीना पिछले 122 सालों में सबसे गर्म माह रहा। वहीं, पाकिस्तान में भी तापमान ने कई रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए। इसके अलावा अप्रैल में ताप लहर और भी प्रचंड हो गई। मार्च का महीना बेहद सूखा रहा। इस दौरान पाकिस्तान में सामान्य से 62% कम मानसूनपूर्व बारिश हुई जबकि भारत में यह आंकड़ा 71% रहा। हीटवेव की वजह से कम से कम 90 लोगों की मौत हुई। अगर मौतों का आंकड़ा ठीक से दर्ज किया जाए तो इस संख्या में निश्चित रूप से बढ़ोत्तरी होगी।
हीटवेव की जल्द आमद और बारिश में कमी की वजह से भारत में गेहूं के उत्पादन पर बुरा असर पड़ा। नतीजतन सरकार को गेहूं के निर्यात पर पाबंदी का ऐलान करना पड़ा, जिसकी वजह से वैश्विक स्तर पर गेहूं के दामों में तेजी आई। भारत ने इससे पहले रिकॉर्ड एक करोड़ टन गेहूं के निर्यात की उम्मीद लगाई थी जिससे यूक्रेन-रूस युद्ध की वजह से पैदा हुई गेहूं की किल्लत को दूर करने में मदद मिलती।
पूरी दुनिया में आज जिस तरह की ताप लहर चल रही है उसे जलवायु परिवर्तन ने और भी ज्यादा तीव्र और जल्दी-जल्दी आने वाली आपदा में तब्दील कर दिया है। भारत और पाकिस्तान में लंबे वक्त तक अधिक तापमान पर जलवायु परिवर्तन के असर को नापने के लिए वैज्ञानिकों ने पियर रिव्यूड मेथड का इस्तेमाल करके कंप्यूटर सिमुलेशन और मौसम संबंधी डाटा का विश्लेषण किया ताकि मौजूदा जलवायु की तुलना 19वीं सदी के उत्तरार्ध से 1.2 डिग्री सेल्सियस ग्लोबल वार्मिंग पर, पूर्व की जलवायु से की जा सके।
यह अध्ययन मार्च और अप्रैल के दौरान गर्मी से सबसे बुरी तरह प्रभावित हुए उत्तर पश्चिमी भारत तथा दक्षिण पूर्वी पाकिस्तान के औसत अधिकतम दैनिक तापमान पर केंद्रित है। इसके नतीजे दिखाते हैं कि लंबे समय से चल रही मौजूदा हीटवेव की संभावना अभी बहुत कम है, यानी कि इसकी संभावना हर साल मात्र 1% ही है मगर इंसान की गतिविधियों के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन ने इसकी संभावना को 30 गुना बढ़ा दिया है। यानी कि अगर मनुष्य की हरकतों की वजह से उत्पन्न जलवायु परिवर्तन नहीं होता तो यह भीषण हीटवेव का दौर अत्यंत दुर्लभ होता।
जब तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर पूरी तरह रोक नहीं लगती तब तक वैश्विक तापमान इसी तरह बढ़ता रहेगा और इससे संबंधित चरम मौसमी घटनाएं और भी जल्दी जल्दी होती रहेंगी। वैज्ञानिकों ने पाया है कि अगर वैश्विक तापमान में वृद्धि 2 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाती है तो ऐसी हीटवेव की संभावना हर 5 साल में एक बार होगी। यहां तक कि प्रदूषणकारी तत्वों के उत्सर्जन में कटौती की धीमी प्रक्रिया की वजह से भी ऐसी हीट वेव की संभावनाएं बरकरार रह सकती हैं।
हो सकता है कि इस अध्ययन के नतीजे इस बात को कम करके आंकें कि अब ऐसी हीटवेव कितनी सामान्य बात है और अगर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन इसी तरह जारी रहा तो यह हीटवेव और कितनी जल्दी जल्दी उत्पन्न होंगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि मौसम से संबंधित डाटा रिकॉर्ड उतने विस्तृत रूप में उपलब्ध नहीं है कि शोधकर्ता उनका सांख्यिकीय विश्लेषण कर सकें।
इस अध्ययन को 29 शोधकर्ताओं ने वर्ल्ड वेदर अटरीब्यूशन ग्रुप के तहत अंजाम दिया है। इस समूह में भारत, पाकिस्तान, डेनमार्क, फ्रांस, नीदरलैंड्स, न्यूजीलैंड, स्विटजरलैंड, ब्रिटेन और अमेरिका के विभिन्न विश्वविद्यालयों तथा मौसम विज्ञान संबंधी एजेंसियों से जुड़े वैज्ञानिक शामिल हैं।
अपनी प्रतिक्रिया देते हुए आईआईटी दिल्ली में सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक साइंस के प्रोफेसर कृष्ण अचुता राव ने कहा, ‘‘भारत और पाकिस्तान में तापमान का उच्च स्तर पर पहुंच जाना एक सामान्य सी बात है लेकिन इस बार अप्रत्याशित बात यह रही कि यह सिलसिला बहुत जल्दी शुरू हो गया और लंबे वक्त से जारी है। दोनों देशों के ज्यादातर हिस्सों में लोगों को आखिरी के हफ्तों में भीषण गर्मी से कुछ राहत मिली। भीषण गर्मी से खासतौर पर खुले में काम करने वाले करोड़ों श्रमिकों और मजदूरों को बहुत मुश्किल भरे हालात का सामना करना पड़ा। हम जानते हैं कि आने वाले वक्त में ऐसी स्थितियां बार-बार पैदा होगी क्योंकि तापमान बढ़ रहा है और हमें इससे निपटने के लिए और बेहतर तैयारी करने की जरूरत है।’’
आगे, आईआईटी मुंबई के सिविल इंजीनियरिंग और क्लाइमेट स्टडीज में प्रोफेसर अर्पिता मोंडल ने बताया, “हीटवेव में जंगलों में आग लगने का खतरा बढ़ाने की क्षमता है। यहां तक कि इससे सूखा भी उत्पन्न हो सकता है। क्षेत्र के हजारों लोग, जिनका ग्लोबल वार्मिंग में बहुत थोड़ा सा योगदान है, वे अब इसकी भारी कीमत चुका रहे हैं। उन पर यह आपदा जारी रहेगी, अगर वैश्विक स्तर पर प्रदूषणकारी तत्वों के उत्सर्जन में उल्लेखनीय कटौती नहीं की गई।”
इसी क्रम में इंपीरियल कॉलेज लंदन के ग्रंथम इंस्टीट्यूट के डॉ फ्रेडरिक ओटो ने कहा, “ऐसे देशों में जहां हमारे पास डाटा उपलब्ध है, वहां हीटवेव सबसे जानलेवा चरम मौसमी घटना है। साथ ही साथ तेजी से गर्म होती धरती में यह हीटवेव सबसे मजबूती से बढ़ रही चरम मौसमी घटना भी है। जब तक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन जारी रहेगा तब तक ऐसी मौसमी आपदाएं और भी ज्यादा आम मुसीबत बनती जाएंगी।”
अपने विचार रखते हुए डेनमार्क की यूनिवर्सिटी ऑफ कोपनहेगन के पब्लिक हेल्थ डिपार्टमेंट के डॉक्टर इमैनुअल राजू ने कहा, “हीटवेव को आपदा कहे जाने पर जोर देना बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया गया तो इनके प्रभावों में योगदान देने वाले अनेक कारकों को नजरअंदाज किया जा सकता है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि क्षतिपूर्ति और राहत प्रणालियों पर आपदाओं के गंभीर प्रभाव पड़ते हैं।”
पाकिस्तान से इस्लामाबाद से क्लाइमेट एनालिटिक्स के लिए काम कर रहे जलवायु वैज्ञानिक डॉक्टर फहद सईद ने कहा ‘‘सबसे अफसोस की बात यह है कि ग्लोबल वार्मिंग के मौजूदा स्तर पर क्षेत्र की एक बड़ी गरीब आबादी के लिए अनुकूलन की सीमा का उल्लंघन किया जा रहा है। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि 2 डिग्री सेल्सियस गर्म दुनिया के लिए भी यह कितना बुरा होगा। एक मजबूत अनुकूलन और शमन वाली कार्रवाई के अभाव में डेढ़ डिग्री सेल्सियस से अधिक की कोई भी वार्मिंग कमजोर आबादी के लिए अस्तित्व का खतरा पैदा कर सकती है।’’
सरबोने यूनिवर्सिटी के इंस्टिट्यूट पियरे सिमोन लाप्लास सीएनआरएस के प्रोफेसर रॉबर्ट वाटार्ड कहते हैं, ‘‘जलवायु परिवर्तन से खाद पानी पाई हीटवेव की वजह से खाद्य पदार्थों के दामों में प्रत्यक्ष बढ़ोत्तरी हो रही है। भारत ने इस साल गेहूं का रिकॉर्ड निर्यात करने की योजना बनाई थी ताकि रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण पैदा हुई किल्लत को दूर करने में मदद मिल सके। मगर अब जलवायु परिवर्तन के कारण पड़ी हीटवेव के चलते गेहूं का ज्यादातर निर्यात रद्द कर दिया गया है, जिसकी वजह से वैश्विक स्तर पर गेहूं के दामों में इजाफा हुआ है और पूरी दुनिया में भुखमरी बढ़ी है।”
ईश्वर हमारा सबसे अधिक हितैषी एवं जन्म-जन्मान्तर का साथी है
-मनमोहन कुमार आर्य
हम इस बने बनाये संसार में रहते हैं। हमें मित्रों, हितैशियों, सहयोगियों व सुख-दुःख बांटने वालें सज्जन व संस्कारित मनुष्यों की आवश्यकता पड़ती है। हमारे परिवार के लोग हमारे सहयोगी रहते हैं। कुछ यदा-कदा विरोधी भी हो सकते हैं व हो जाते हैं। हमारे माता-पिता, पत्नी एवं बच्चे प्रायः सहयोगी रहते ही हैं। भाई व बहिन भी सहयोगी रहते हैं परन्तु अपवाद स्वरूप इनमें परस्पर मधुरता कम होती भी देखने को मिलती है। ऐसी स्थिति में यह विचार आता है कि हमारा सबसे अधिक हितैशी व उपकारी कौन है? जब हम इस विषय में विचार करते हैं तो हमें एक सत्ता ईश्वर का नाम भी स्मरण आता है। अन्यों की तो बात नहीं परन्तु वैदिक धर्मी और स्वाध्यायशील आर्यसमाजी बन्धु इस विषय को अधिक अच्छी तरह से समझते हैं। एक वेद मन्त्र है जिसमें कहा गया है कि हे ईश्वर! तू ही हमारा माता व पिता है। हम आपके पुत्र व पुत्रियां हैं। एक मन्त्र में ईश्वर को मित्र, वरुण, अर्यमा, राजा, ज्ञान दाता आदि कहा है। हमारे एक मित्र प्रा0 अनूप सिंह जी ने एक बार एक पारिवारिक सत्संग में एक प्रवचन किया था। सत्संग में एक वेदमंत्र की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा था कि ईश्वर हमारा शाश्वत मित्र है। वह कभी हमारा साथ नहीं छोड़ता। ईश्वर व जीवात्मा अनादि सत्तायें हैं। दोनों अनादि काल से एक साथ रह रही हैं और अनन्त काल तक इसी प्रकार से साथ रहेंगी। ईश्वर व मनुष्य का व्याप्य-व्यापक और स्वामी-सेवक का सम्बन्ध है। ईश्वर हमारी जीवात्मा के भीतर भी व्यापक है। इसलिये उसे सर्वान्तर्यामी कहा जाता है। वह हमारी आत्मा, मन व हृदय के भावों को जानता है। हमें सत्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा भी वह करता है। वह हमारे पूरे अतीत से परिचित है। उसने ही हमारे लिये इस सृष्टि को बनाया है। उसी ने हमारे पूर्वजों को ज्ञान दिया था। उसी परमात्मा से हमें स्वाभाविक ज्ञान भी मिलता है। स्वाभाविक ज्ञान अनेक प्राणी योनियों में भिन्न भिन्न प्रकार का देखने को मिलता है। मनुष्य गौरेया का घोसला नहीं बना सकता। गौरेया अपने स्वाभाविक ज्ञान से यह कार्य करती है। उसे व अन्य पक्षियों को उड़ना आता है। मछलियों व समुद्री जीव जन्तुओं को स्वाभाविक रूप से तैरना आता है। दूसरी ओर मनुष्य हंसता है, रोता है, माता का दुग्धपान करता है, अपने शरीर की स्वाभाविक क्रियायें करता हैं। सभी योनियों में स्वाभाविक क्रियायें कुछ कुछ भिन्न प्रतीत होती है। इससे यह प्रतीत होता है कि भिन्न भिन्न योनियों में स्वाभाविक ज्ञान में कुछ-कुछ अन्तर है। ऐसा प्रतीत होता है कि भिन्न-भिन्न योनियों में आत्मा के स्वाभाविक ज्ञान में कुछ भाग ईश्वर प्रदत्त होता है।
हमारा इस पृथिवी पर जन्म हुआ है। माता के गर्भ में हमारा शरीर बना है। हमारे शरीर में एक चेतन अनादि, अविनाशी, नित्य, अल्पज्ञ एवं अल्प शक्ति से युक्त जीवात्मा है। इसके ज्ञान व कर्म की सीमा भी अल्प ही है। यह पौरुषेय कार्य ही कर सकता है। अपौरुषेय कार्य इसकी सामथ्र्य से बाहर हैं। यह सृष्टि अपोरुषेय है। इसे मनुष्य नहीं बना सकते। मनुष्यों की उत्पत्ति से पूर्व सूर्य, चन्द्र, प्रृथिवी, ग्रह, उपग्रह एवं समस्त ब्रह्माण्ड की आवश्यकता होती है। उससे पूर्व मनुष्य का जन्म नहीं हो सकता। इस अवधि में यह अनादि व अमर जीवात्मा कहां रहता है? इसका हम कुछ अनुमान कर सकते हैं। यह ज्ञात होता है कि आत्मा प्रलयावस्था में आकाश में रहता है। इसे अपने स्वरूप का बोध नहीं होता। एक प्रकार की निद्रा व सुषुप्ति की अवस्था रहती है। निद्रा में सुख व दुःख होते हैं परन्तु सुषुप्ति अवस्था में शारीरिक दुःख भी नहीं रहता। ऐसी ही अवस्था जीव की प्रलय व सृष्टि के बनने से पूर्व होती है। उस अवस्था में जीव की रक्षा कौन करता है? ईश्वर ही तब भी हमारे साथ रहता है। उस अवस्था में भी उसे प्रत्येक जीव के अतीत के कर्मों आदि का पूर्ण ज्ञान होता है। जीवों की वह अवस्था जो दुःख रहित होती है, वह परमात्मा की ही देन है। ईश्वर के पुरुषार्थ से सृष्टि बनती है। भौतिक सृष्टि बनने के बाद जीवातमाओं को नाना प्राणी योनियों में जन्म देकर मनुष्य आदि प्राणियों की अमैथुनी सृष्टि ईश्वर ही करता है। इस अमैथुनी सृष्टि में जीवात्माओं का उनके प्रलय से पूर्व के जन्म व जीवनों के अभुक्त कर्मानुसार सुख व दुःख भोगने के लिए मनुष्य योनि में जन्म होता है। उसके बाद मैथुनी सृष्टि आरम्भ होती है। इन दोनों अमैथुनी व मैथुनी सृष्टि में मनुष्यों व अन्य प्राणियों का जन्म परमात्मा के द्वारा ही होता है। जीवात्मा को जन्म देना ईश्वर का जीवों पर कोई छोटा उपकार नहीं है। इसके लिये सभी जीवात्मायें ईश्वर की चिरऋणी हैं। जन्म के बाद मानव शिशु व अन्य प्राणियों को पालन करने के लिए माता-पिता आदि चाहियें। यह व्यवस्था भी हमारा ईश्वर ही करता है। यदि ईश्वर हम जीवात्माओं को सृष्टि बनाकर जन्म, उसके बाद मृत्यु तथा पुनः जन्म का चक्र चलाकर जन्म न देता तो हम अन्धकार रूपी दुःखों में पड़े रहते और मनुष्य जन्म लेकर जो सुख हपने व अन्यों ने प्राप्त किए व भोगें हैं, उनसे पूरी तरह वंचित रहते।
सृष्टि में हमारे भोजन एवं अन्य सभी प्रकार के साधन उपलब्ध हैं। हमें बीज बोना पड़ता है व फसल की निराई-गुडाई आदि करनी होती है। ऐसा करके हमें कई गुना अन्न वा खाद्य सामग्री प्राप्त हो जाती है। हमें जीवित रहने के लिये श्वास लेना और छोड़ना पड़ता है। इसके लिये वायु की आवश्यकता होती है। परमात्मा ने पूरी पृथिवी के चारों ओर वायुमण्डल वा वातावरण बना रखा है जहां वायु प्रचुरता से कई किलोमीटर ऊंचाई तक उपलब्ध है। श्वास लेने में भी हमें कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता न हम इस कार्य को करते हुए कभी थकते हैं, यह भी ईश्वर की हम पर बहुत बड़ी कृपा व दया है। जल भी सर्वत्र उपलब्ध है। मकान बनाने की सामग्री भी उपलब्ध है। कोई पदार्थ ऐसा नहीं जिसकी मनुष्य व पशु आदि प्राणियों को आवश्यकता हो और वह प्रकृति में उपलब्ध न हो। हमारा जीवन सुख चैन से बीतता है। यह सब परमात्मा के कारण ही सम्भव हुआ है। उसी परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों का ज्ञान दिया है। उस ज्ञान से ही हमारे पूर्वज ईश्वर व जीवात्मा सहित इस सृष्टि, अपने कर्तव्य व अकर्तव्यों को जान पाये थे। आज भी वेदों का ज्ञान सबसे उत्तम, सर्वश्रेष्ठ, प्रासंगिक एवं हितकर हैं। सभी मत-मतानतरों में अविद्या की बातें हंै। ऋषि दयानन्द ने अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में इसका दिग्दर्शन कराया है। भिन्न-भिन्न मत वाले लोग अपने हित-अहित के कारण अविद्या को छोड़ने और वेद की हितकारी बातों को अपनाने के लिए तत्पर नहीं है। यह स्थिति समस्त मनुष्य समुदाय के लिये हितकर व सुखदायक नहीं है। अतः आर्यसमाज द्वारा वैदिक धर्म के प्रचार व प्रसार की नितान्त आवश्यकता है। जिस प्रकार दुष्ट लोग अपने इष्ट कार्यों को करते हैं उसी प्रकार उससे भी अधिक सज्जन लोगों को सज्जनता के श्रेष्ठ कार्य ‘वेदों को पढ़ना-पढ़ाना और सुनना सुनाना’ सहित सत्य का ग्रहण और असत्य त्याग करना चाहिये। अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि भी करनी चाहिये। ईश्वर व आत्मा के सत्य व यथार्थ स्वरुप एवं गुण-कर्म-स्वभाव को जानकर प्रतिदिन प्रातः व सायं ईश्वर की उपासना भी करनी चाहिये। नहीं करेंगे तो हम ईश्वर के प्रति कृतघ्न होंगे जिसका परिणाम दुःख रूप में हमें भविष्य व आगामी जन्मों में भोगना होगा।
ईश्वर हमारे सभी पूर्वजन्मों, वर्तमान जन्म तथा भविष्य के जन्मों का भी एकमात्र साथी हैं। पूर्वजन्मों के हमारे सभी साथी छूट चुके हैं और वर्तमान के साथी कुछ समय बाद मृत्यु होने पर छूट जायेंगे परन्तु एक परमात्मा ही भविष्य के सभी जन्मों में हमारा साथी बना रहेगा और हमें हमारे कर्मानुसार शुभ कर्मों का सुख व बुरे कर्मों का फल दुःख प्रदान करता रहेगा। हमें अपने ज्ञान व विवेक से ईश्वर की कृपाओं को स्मरण करना चाहिये और वेदविरुद्ध आचरण को छोड़ देना चाहिये। इसी में हमारा कल्याण है। ईश्वर हर क्षण हमारे साथ है। हमें ओ३म् नाम का जप, गायत्री जप, सन्ध्या-उपासना सहित अग्निहोत्र यज्ञ एवं परोपकार के वह सभी कार्य करने चाहिये जिनका उल्लेख वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थों में मिलता है। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।
हमें सुनिश्चित करना होगा कि लड़कियां स्कूल न छोड़ें
-सत्यवान ‘सौरभ’
भारतीय महिलाओं ने ओलंपिक खेलों में अब तक भारत के लिए सबसे अधिक उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है। एक राष्ट्र के रूप में, यदि हम एक आर्थिक महाशक्ति बनने की इच्छा रखते हैं, तो हम आधे संभावित कार्यबल की उपेक्षा नहीं कर सकते हैं। एक समाज के रूप में, महिलाएं महत्वपूर्ण और स्थायी सामाजिक परिवर्तन लाने की धुरी हो सकती हैं। हालांकि, हमें बालिकाओं के स्कूल छोड़ने की समस्या के समाधान के लिए अभूतपूर्व उपायों की आवश्यकता है और उच्च शिक्षा के पेशेवर और आर्थिक रूप से पुरस्कृत क्षेत्रों में अधिक लड़कियों को लाने की आवश्यकता है।
स्वस्थ, शिक्षित लड़कियां अवसरों तक समान पहुंच के साथ मजबूत, स्मार्ट महिलाओं के रूप में विकसित हो सकती हैं जो अपने देशों में नेतृत्व की भूमिका निभा सकती हैं। इससे सरकारी नीतियों में महिलाओं के दृष्टिकोण को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलेगी। दिलचस्प बात यह है कि विभिन्न अनुमानों के अनुसार उच्च शिक्षा में महिलाओं के लिए निजी रिटर्न पुरुषों की तुलना में 11 से 17 प्रतिशत अधिक है। इसके स्पष्ट नीतिगत निहितार्थ हैं। उनके स्वयं के सशक्तिकरण के लिए, साथ ही साथ बड़े पैमाने पर समाज के लिए, हमें अधिक से अधिक महिलाओं को उच्च शिक्षा के दायरे में लाना चाहिए।
जैसे-जैसे बालिकाएँ प्राथमिक से माध्यमिक से तृतीयक विद्यालय स्तर की ओर बढ़ती हैं, उनकी संख्या साल दर साल कम होती जाती है। ग्रामीण भारत में लड़कियां स्कूल छोड़ देती हैं, क्योंकि एक, वे घरेलू गतिविधियों में लगी हुई हैं, दूसरा, उनके पास आर्थिक तंगी है, तीसरा, उन्हें शिक्षा में कोई दिलचस्पी नहीं है, और चौथा, उनकी शादी हो जाती है। समस्या न केवल गरीबी और स्कूली शिक्षा की खराब गुणवत्ता में निहित है, बल्कि लैंगिक पूर्वाग्रह और पुराने सामाजिक मानदंडों में भी है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि लड़कियों के बीच माध्यमिक विद्यालय छोड़ने की उच्चतम दर वाले राज्य भी हैं जहां लड़कियों का एक महत्वपूर्ण प्रतिशत 18 साल की उम्र से पहले शादी कर लेता है।
स्कूलों की पसंद, निजी ट्यूशन तक पहुंच और उच्च शिक्षा में गहरी जड़ें वाले लिंग पूर्वाग्रह भी परिलक्षित होते हैं। उच्च माध्यमिक स्तर पर 24 फीसदी लड़कियों की तुलना में 28 फीसदी लड़के निजी स्कूलों में जाते हैं। जो लड़कियां स्नातकडिग्री में दाखिला लेती हैं, उनमें से एक छोटा अनुपात इंजीनियरिंग (28.5 प्रतिशत) जैसे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को आगे बढ़ाता है, जबकि कई अन्य फार्मेसी (58.7 प्रतिशत) जैसे पाठ्यक्रम लेती हैं या “सामान्य स्नातक” का विकल्प चुनती हैं। शिक्षकों को उन सभी छात्रवृत्तियों और योजनाओं में भी प्रशिक्षित किया जाना चाहिए जो लड़कियों और उनके परिवारों को उनकी शिक्षा जारी रखने के लिए आर्थिक सहायता प्रदान करती हैं।
तीसरा, माध्यमिक शिक्षा के लिए लड़कियों के लिए प्रोत्साहन की राष्ट्रीय योजना को उन क्षेत्रों या राज्यों में संशोधित करने की आवश्यकता है जहां ड्रॉप-आउट और प्रारंभिक बाल विवाह के उच्च प्रसार हैं। छात्रवृत्ति राशि को बढ़ाया जा सकता है और स्नातक स्तर की पढ़ाई पूरी करने के लिए बाध्य किया जा सकता है, छात्रों को उनकी स्नातक डिग्री के प्रत्येक वर्ष के सफल समापन पर वार्षिक छात्रवृत्ति का भुगतान किया जाता है। चौथा, उन क्षेत्रों में विशेष शिक्षा क्षेत्र स्थापित करने की आवश्यकता है जो परंपरागत रूप से शिक्षा में पिछड़े रहे हैं। प्रत्येक पंचायत में बालिकाओं के बीच में छोड़ने की प्रवृत्ति में उच्च माध्यमिक (कक्षा I-XII) तक संयुक्त विद्यालय होने चाहिए।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में लिंग समावेशन निधि का प्रावधान है। इस फंड का उपयोग इन स्कूलों के साथ-साथ सभी कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों में एसटीईएम शिक्षा का समर्थन करने के लिए किया जाना चाहिए। राज्य सरकारों को उच्च शिक्षा में महिलाओं को बढ़ावा देने के लिए हस्तक्षेपों को डिजाइन करने के लिए मौजूदा योजनाओं का लाभ उठाने की जरूरत है। पांचवीं और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सामाजिक पूर्वाग्रहों और रूढ़िवादी सांस्कृतिक मानदंडों से निपटने में व्यवहारिक कुहनी महत्वपूर्ण होने जा रही है जो लड़कियों को उनकी जन्मजात क्षमता को प्राप्त करने से रोकती है।
माता-पिता को बच्चे को स्कूल वापस भेजने और शिक्षा के महत्व के बारे में बताने के लिए प्रोत्साहित करें। बाल मजदूरी अपनाने वालों पर सख्त कानून बनाया जाए। बुनियादी ढांचे का विकास जैसे-स्वच्छता, पानी और लड़कों और लड़कियों के लिए विशेष कमरे। लड़कियों के प्रति सामाजिक अभियान चलाकर पितृसत्तात्मक मानसिकता को बदलने की जरूरत है। सामाजिक समावेश सुनिश्चित करना, विशेष रूप से लड़कियों और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के बच्चों के संबंध में, शिक्षकों को संवेदनशील बनाना, और पहली पीढ़ी के छात्रों के माता-पिता को शिक्षा के मूल्य के बारे में समझाना हमेशा एक बड़ा अंतर बनाता है।
सत्यवान ‘सौरभ
युद्ध विराम एवं शांति के लिये क्वाड पर निगाहें
- ललित गर्ग –
जापान में होने जा रहे क्वाड शिखर सम्मेलन में एक महानायक एवं करिश्माई व्यक्तित्व के रूप में भाग लेने के लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी रवाना हो गये हैं, इस सम्मेलन एवं मोदी पर दुनिया की नजरें टिकी है, क्योंकि यह सम्मेलन ऐसे अवसर पर होने जा रहा है, जब तीन माह से यूक्रेन पर रूस के हमले जारी हैं और उसके प्रमुख सहयोगी चीन के अड़ियल रवैये में कोई कमी आती नहीं दिख रही है। इसी के साथ पर्यावरण, आधुनिक तकनीक, कोरोना वायरस, हिंद-प्रशांत के लिए रणनीति आदि महत्वपूर्ण मुद्दें भी चर्चा में होंगे। भले ही क्वाड केवल चार देशों-भारत, जापान, अमेरिका और आस्ट्रेलिया की सदस्यता वाला समूह हो, लेकिन वह पूरी दुनिया के राष्ट्रों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। इस बार के सम्मेलन का एक साझा उद्देश्य चीन की साम्राज्यवादी मानसिकता पर लगाम लगाना है ताकि चीन की अकड़ ढीली पडे़। इसके लिये सदस्य देशों को आर्थिक सहयोग के साथ अपने रक्षा संबंधों को सशक्त करने पर अधिक जोर देना होगा।
क्वाड शिखर सम्मेलन पर दुनिया की दिलचस्पी होना स्वाभाविक है, क्योंकि इस बार उसके केन्द्र में चीन है, भारत समेत इन सभी देशों के लिए किसी न किसी रूप में चीन चुनौती बन गया है, इसलिए क्वाड शिखर सम्मेलन की ओर से उसे लेकर कोई कठोर बयान जारी किया जा सकता है। ऐसे किसी बयान मात्र से चीन की सेहत पर असर पड़ने के आसार कम ही हैं, इसलिए क्वाड को उन उपायों पर ध्यान देना होगा, जिससे चीन की दादागिरी पर अंकुश लगे। विश्व मानस अब अहिंसा की तेजस्विता को देखना चाहता है, वह विकास एवं शांतिपूर्ण समाज व्यवस्था चाहता है, आज सभी तरफ से विकास और प्रगति की आवाज उठ रही है। सुधार और सरलीकरण के लिए प्रयास किए जा रहे हैं और इसके लिये आज चीन जैसी हिंसक, अराजक ताकतों को रोकने का प्रयास चाहते हैं।
क्वाड शिखर सम्मेलन अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण एवं निर्णायक होगा। इस सम्मेलन से ऐसी रोशनी प्रस्फुटित हो कि दुनिया महायुद्ध की संभावनाओं से उपरत हो जाये। इसीलिये युद्ध, हिंसा एवं आतंकवाद के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन और बढ़ती ईंधन की चुनौती क्वाड नेताओं की टोक्यो बैठक के अहम मुद्दे होंगे। क्वाड की योजना हिंद-प्रशांत क्षेत्र में ग्रीन-शिपिंग नेटवर्क बनाने की है जिसका कार्बन उत्सर्जन न के बराबर हो। साथ ही हाइड्रोजन के इस्तेमाल को बढ़ाने और उसके लिए सहयोग का ढांचा बनाने पर जोर होगा। क्वाड देश जलवायु परिवर्तन पर भी सक्रिय सूचना साझेदारी बढ़ाएंगे। क्वाड इंफ्रास्ट्रक्चर समन्वय समूह के काम की समीक्षा भी इस शिखर बैठक में होगी। इसके तहत हिंद-प्रशांत इलाके की ढांचागत योजनाओं में मदद दी जाती है ताकि देश अव्यावहारिक कर्ज के फंदे में न फंसें। इस कड़ी में प्राकृतिक आपदाओं से मुकाबले और उसके लिए जरूरी ढांचा बनाने पर भी जोर है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि चीन विभिन्न देशों की सुरक्षा के साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए भी खतरा बन गया है। वह अंतरराष्ट्रीय नियम-कानूनों को धता बताने के साथ ही छोटे-छोटे देशों को अपने कर्ज के जाल में फंसाकर उनका जिस तरह शोषण कर रहा है, उससे विश्व व्यवस्था के अस्थिर होने का खतरा पैदा हो गया है।
क्वाड देशों के बीच तकनीक की साझेदारी भी नेताओं की टोक्यो बैठक का एक अहम मुद्दा होगा। इसके साथ ही उभरती हुई और अहम तकनीकों पर सहयोग को कैसे बढ़ाया जाए और बायो टैक्नोलॉजी से लेकर सेमीकंडक्टर सप्लाई चेन की मजबूती और सायबर सुरक्षा तंत्र की हिफाजत तक अनेक विषय शामिल होंगे। माना जा रहा है कि मेजबान जापान की तरफ से क्वाड अंतरिक्ष सहयोग पर भी एक ड्राफ्ट तैयार किया गया है जिसे पेश किया जाएगा। इसमें अंतरिक्ष में एक-दूसरे के उपग्रहों की सुरक्षा के लिए सूचनाएं साझा करने और जरूरी सहयोग देने पर जोर होगा। कोरोना महामारी के खिलाफ लड़ाई क्वाड देशों की साझेदारी का एक अहम पहलू रहा है। इसके तहत कोरोना टीकों के निर्माण और आपूर्ति से लेकर इस महामारी के आर्थिक दुष्प्रभावों से उबरने में मदद तक अनेक पहलू शामिल हैं। साथ ही स्वास्थ्य ढांचा मजबूत करने के लिए स्वास्थ्य सुरक्षा, जीनोमिक्स, निगरानी तंत्र, क्लीनिकल ट्रायल और भविष्य की महामारियों से निपटने की तैयारियों जैसे विषय भी हैं।
क्वाड के भविष्य और उसके प्रभावी बने रहने के लिहाज से टोक्यो की इस बैठक को खासा महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इसकी बड़ी वजह है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र के अनेक देश जहां आर्थिक और सुरक्षा की चुनौतियों से जूझ रहे हैं। वहीं क्वाड के वादे जमीन पर उतरने में फिलहाल कमजोर ही नजर आते हैं। ऐसे में अमेरिका-जापान-भारत और ऑस्ट्रेलिया के नेताओं की कोशिश होगी की ठोस नतीजे देने वाली योजनाओं को तेजी से बढ़ाया जाए। इसके लिये चारों की देशों ने व्यापक कार्य-योजना एवं रीति-नीति का निर्धारण किया है। प्रधानमंत्री मोदी चीन पर दबाव बनाने, उसकी कुचेष्टाओं एवं षडयंत्रों को रोकने के लिये प्रयास करेंगे, चूंकि क्वाड देशों में भारत अकेला ऐसा देश है, जिसकी सीमाएं चीन से मिलती हैं और वह लद्दाख सीमा पर अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है, इसलिए भारतीय नेतृत्व को कहीं अधिक सक्रियता दिखाने की आवश्यकता है।
भारत को क्वाड के जरिये ऐसे उपायों पर भी विशेष ध्यान देना होगा, जिससे आर्थिक-व्यापारिक मामलों में चीन पर निर्भरता कम की जा सके। यह ठीक नहीं कि तमाम प्रयासों के बाद भी चीन से आयात में कोई उल्लेखनीय कमी आती नहीं दिख रही है। जब यह स्पष्ट है कि क्वाड का एक साझा उद्देश्य चीन की साम्राज्यवादी मानसिकता पर लगाम लगाना है, तब फिर सदस्य देशों को आर्थिक सहयोग के साथ अपने रक्षा संबंधों को सशक्त करने पर अधिक जोर देना होगा। इससे ही हिंद प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा के लिए चीन की ओर से पैदा किए जा रहे खतरों से पार पाया जा सकता है। यह सही समय है कि क्वाड के विस्तार को गति दी जाए। जो भी देश स्वतंत्र एवं खुले हिंद प्रशांत क्षेत्र के पक्षधर हैं और चीन की दादागीरी से त्रस्त हैं, उन्हें क्वाड का हिस्सा बनाने में देर नहीं की जानी चाहिए। परिवर्तन कब किसके रोके रुका है। न पहले रुका, न आगे कभी रुकेगा। चीन जैसे शक्तिशाली राष्ट्र इसकी रफ्तार कम कर सकते हैं। यह भी प्रकृति का नियम है कि जिसे जितना रोका जाएगा, चाहे वह व्यक्ति हो या समाज या कौम या फिर राष्ट्र, वह और त्वरा से आगे बढ़ेगा।
क्वाड देशों के बीच मजबूत सुरक्षा साझेदारी का संदेश भी टोक्यो की बैठक देगी। खासतौर पर चीन के हौसलों को इस बैठक के बहाने हदें दिखाने की कोशिश होगी। बीते दिनों चीन की तरफ से पैंगोंग झील पर दूसरा पुल बनाए जाने पर भारत ने सख्त ऐतराज दर्ज कराया है। वहीं जापान ने भी पूर्वी चीन सागर में दोनों देशों की मध्यरेखा के करीब नए गैस-फील्ड ढांचे पर अपना विरोध दर्ज कराया है। इतना ही नहीं क्वाड के सदस्य देश ऑस्ट्रेलिया के करीब सोलोमन आइलैंड के साथ हुई चीन के सुरक्षा करार ने भी चिंताएं बढ़ाई हैं।
टोक्यो में होने वाली बैठक के दौरान रूस और यूक्रेन के बीच चल रही लड़ाई का मुद्दा उठना तय है। इस मसले पर जहां अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान खुलकर रूस का विरोध जता चुके हैं। वहीं भारत लगातार इस बात पर जोर दे रहा है कि संघर्ष विराम कर शांतिपूर्ण बातचीत और कूटनीति के जरिए समाधान निकाला जाना चाहिए। भारत हमेशा से अयुद्ध एवं अहिंसा का हिमायती रहा है, वह किसी भी तरह की जंग के खिलाफ है। हालांकि भारत सभी क्वाड सदस्य देशों के सामने द्विपक्षीय स्तर पर भी अपनी स्थिति स्पष्ट कर चुका है। ऐसे में भारत के रुख में किसी बड़े बदलाव के संकेत नहीं है। भारत तो चाहता है कि अब एक दौर अहिंसा, शांतिपूर्ण समाज व्यवस्था और अयुद्ध का चले। उसकी तेजस्विता का चले तो विश्व/इतिहास के अगले पृष्ठ सचमुच में स्वर्णिम होंगे।
प्रेषकः
टूटते संबंध, बढ़ता अवसाद
-डॉ. सौरभ मालवीय
मनुष्य जिस तीव्र गति से उन्नति कर रहा है, उसी गति से उसके संबंध पीछे छूटते जा रहे हैं. भौतिक सुख-सुविधाओं की बढ़ती इच्छाओं के कारण संयुक्त परिवार टूट रहे हैं. माता-पिता बड़ी लगन से अपने बच्चों का पालन-पोषण करते हैं. उन्हें उच्च शिक्षा दिलाने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं. परिवार में लड़कियां हैं, तो वे विवाह के पश्चात ससुराल चली जाती हैं और लड़के नौकरी की खोज में बड़े शहरों में चले जाते हैं. इस प्रकार वृद्धावस्था में माता-पिता अकेले रह जाते हैं. इसी प्रकार शहरों में उनके बेटे भी अकेले हो जाते हैं.
संयुक्त परिवार टूटने के कारण एकल परिवार बढ़ते जा रहे हैं. एकल परिवारों के कारण संबंध टूट रहे हैं. संयुक्त परिवारों में बहुत से रिश्ते होते थे. दादा-दादी, ताया-ताई, चाचा-चाची, बुआ-फूफा, नाना-नानी, मामा-मामी, मौसी-मौसा तथा उनके बच्चे अर्थात बहुत से भाई-बहन. बच्चे बचपन से ही इन सभी संबंधों को जानते थे, परन्तु अब एकल परिवारों में माता-पिता और उनके दो या एक बच्चे ही हैं. संयुक्त परिवार टूटने के अनेक कारण हैं. रोजगार के अतिरिक्त परिवार के सदस्यों में बढ़ते मतभेद, कटुता एवं स्वार्थ आदि के कारण भी एकल परिवार बढ़ते जा रहे हैं. ऐसी परिस्थितियों में व्यक्ति नितांत अकेला पड़ता जा रहा है. संयुक्त परिवार में समस्याएं सांझी होती थीं. व्यक्ति किसी कठिनाई या समस्या होने पर परिवार के सदस्यों के साथ विचार-विमर्श कर लेता था. इस प्रकार उसे समस्या का समाधान घर में ही मिल जाता था.
संयुक्त परिवार के बहुत से लाभ हैं. परिवार के प्रत्येक सदस्य की सुरक्षा का दायित्व सबका होता है. किसी भी सदस्य की समस्या पूरे परिवार की होती है. यदि किसी को पैसे आदि की आवश्यकता है, तो पैसे बाहर किसी से मांगने नहीं पड़ते. परिवार के सदस्य ही मिलजुल कर सहयोग कर देते हैं. परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण घर और बाहर के कार्यों का विभाजन हो जाता है. प्रत्येक सदस्य अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार कार्य कर लेता है तथा अन्य कार्यों से मुक्त रहता है. ऐसे में उसे अपने लिए पर्याप्त समय मिल जाता है. इसके अतिरिक्त संयुक्त परिवार में रसोई एक होने के कारण खर्च भी कम हो जाता है. उदाहरण के लिए दो या तीन एकल परिवार यदि संयुक्त परिवार के रूप में रहते हैं, तो उन्हें अधिक सामान की आवश्यकता होगी. थोक में अधिक सामान लेने पर वह सस्ता पड़ता है. इसी प्रकार तीन के बजाय एक ही फ्रिज से काम चल जाता है. ऐसी ही और भी चीजें हैं. परिवार के किसी सदस्य के बीमार होने पर उसकी ठीक से देखभाल हो जाती है. परिवार के सदस्य साथ रहते हैं, तो उनमें भावनात्मक लगाव भी बना रहता है. इसके अतिरिक्त बच्चों का पालन-पोषण भी भली-भांति आसानी से हो जाता है. उनमें अच्छे संस्कार पैदा होते हैं. वे यह भी सीख जाते हैं कि किस व्यक्ति के साथ किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए. इसमें बड़ों का सम्मान करना, अपनी आयु के लोगों के साथ मित्रवत व्यवहार करना तथा छोटों से स्नेह रखना आदि सम्मिलित हैं.
आज परिस्थितियां पृथक हैं. मनुष्य किसी भी कठिनाई या किसी संकट के समय स्वयं को अकेला ही पाता है. यदि परिवार में महिला का स्वास्थ्य ठीक नहीं है, तो तब भी उसे घर का सारा कार्य स्वयं करना पड़ता है, जबकि संयुक्त परिवार में अन्य महिलाएं होने के कारण उसे आराम करने का समय मिल जाता था. साथ ही उसकी भी उचित प्रकार से देखभाल भी हो जाती थी.
एकल परिवार में अकेले पड़ जाने के कारण व्यक्ति अवसाद का शिकार हो जाता है. अवसाद एक मानसिक रोग है. इस अवस्था में व्यक्ति स्वयं को निराश अनुभव करता है. वह स्वयं को अत्यधिक लाचार समझने लगता है. ऐसी स्थिति में प्रसन्नता एवं आशा उसे व्यर्थ लगती है. वे अपने आप में गूम रहने लगता है. वह किसी से बात करना पसंद नहीं करता. हर समय चिड़चिड़ा रहता है. यदि कोई उससे बात करने का प्रयास करता है, तो वे क्रोधित हो जाता है. कभी वह उसके साथ असभ्य अथवा उग्र व्यवहार भी करता है. मनोचिकित्सकों के अनुसार अवसाद के भौतिक कारण भी होते हैं, जिनमें आनुवांशिकता, कुपोषण, गंभीर रोग, नशा, कार्य का बोझ, अप्रिय स्थितियां आदि प्रमुख हैं. अवसाद की अधिकता होने पर व्यक्ति आत्महत्या तक कर लेता है. अवसाद के कारण आत्महत्या करने के अप्रिय समाचार सुनने को मिलते रहते हैं. ऐसे विचलित करने वाले समाचार भी मिलते हैं कि अमुक व्यक्ति ने सपरिवार आत्महत्या कर ली या परिवार के सदस्यों की हत्या करने के पश्चात स्वयं भी आत्महत्या कर ली.
कोरोना काल में जहां संयुक्त परिवारों के लोग एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर रहे, वहीं एकल परिवारों के लोग अवसाद का शिकार होने लगे. ‘द लैंसेट पब्लिक हेल्थ’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार कोरोना वायरस संक्रमण से ठीक हो चुके लोगों में अवसाद एवं घबराहट की शिकायतें देखने को मिल रही है. सात दिन या उससे अधिक समय तक कोरोना वायरस संक्रमण से पीड़ित रहे लोगों में अवसाद एवं घबराहट की दर उन लोगों की तुलना में अधिक थी, जो संक्रमित रोगी कभी अस्पताल में भर्ती नहीं हुए अर्थात वे अपने परिजनों के मध्य ही रहे. रिपोर्ट के अनुसार सार्स-कोव-2 संक्रमण वाले ऐसे रोगी जो अस्पताल में भर्ती हुए उनमें 16 महीने तक अवसाद के लक्षण देखे गए, परन्तु जिन रोगियों को अस्पताल में भर्ती नहीं होना पड़ा, उनमें अवसाद और घबराहट के लक्षण दो महीने के भीतर ही कम हो गए. सात दिनों या उससे अधिक समय तक बिस्तर पर रहने वाले लोगों में 16 महीने तक अवसाद और घबराहट की समस्या 50 से 60 प्रतिशत अधिक थी.
मनोचिकित्सकों के अनुसार अवसाद से निकलने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति अपने परिजनों एवं मित्रों के साथ समय व्यतीत करे. किसी भी समस्या या संकट के समय परिजनों से बात करे. स्वयं को अकेला न समझे. सकारात्मक विचारों वाले व्यक्तियों से बात करे. परिजनों को भी चाहिए कि वे अवसादग्रस्त लोगों में सकारात्मक विचार पैदा करने का प्रयास करें, उन्हें अकेला न छोड़ें, क्योंकि ऐसे लोग आसानी से अपराध की ओर अग्रसर हो सकते हैं. उन्हें उनकी किसी भी नाकामी के लिए तानें न दें, अपितु उनको प्रोत्साहित करें तथा उनके आत्मविश्वास को बढ़ाएं.
वास्तव में आज तकनीकी ने समस्त संसार के लोगों को जितना समीप कर दिया है, उतना ही एक-दूसरे से दूर भी कर दिया है. मोबाइल के माध्यम से व्यक्ति क्षण भर में विदेश में बैठे व्यक्ति से भी बात कर लेता है. परन्तु मोबाइल के कारण ही लोगों को परिवार के सदस्यों से बात करने का समय नहीं मिल पाता. प्रत्येक स्थान पर लोग अपने मोबाइल के साथ व्यस्त दिखाई देते हैं. परिणामस्वरूप व्यक्ति का अकेलापन बढ़ता जा रहा है. व्यक्ति व्यक्ति से दूर होता चला जा रहा है. आवश्यकता है सामूहिक संवाद की प्रत्यक्ष संवाद मन से भाव से विचार से हमे जोड़ता है दुख :सुख में सहायक होकर साथ होने की अनुभूति प्रदान करता है।
चिन्ता और चिता में अन्तर
चिन्ता ही चिता समान है।
चिता मौत का फरमान है।।
चिन्ता जिंदे को जलाती है।
चिता मुर्दे को जलाती है।।
चिता ही अंतिम सच है।
चिन्ता पहला ही सच है।।
चिता को दो गज जमीन चाहिए।
चिन्ता को केवल दिमाग चाहिए।।
चिता में आदमी जलता है।
चिन्ता में आदमी घुलता है।।
चिता तो एक बार जलाती है।
चिन्ता तो बार बार जलाती है।।
चिता तन को जलाती है।
चिन्ता मन को जलाती है।।
चिता लकड़ियों में पहुंचाती है।
चिन्ता, चिता तक पहुंचाती है।।
चिता में बिंदी नही लगती है।
चिंता में बिंदी पहले लगती है।।
चिता,चिन्ता से अच्छी है।
चिन्ता रोगों की गुच्छी है।।
आर के रस्तोगी
तुम बनो बुद्ध करो नहीं अपनों से युद्ध
—विनय कुमार विनायक
तुम बनो बुद्ध करो अपने आपको शुद्ध,
शुद्धि चाहिए स्वमन वचन और कर्म में!
तुम बनो बुद्ध करो नहीं अपनों से युद्ध,
युद्ध त्याग दो क्षुद्र स्वार्थपूर्ति के क्रम में!
तुम बनो बुद्ध होना नहीं कभी भी क्रुद्ध,
क्रोध का परित्याग हो मानववादी धर्म में!
तुम बनो बुद्ध होना नहीं कभी भी क्षुब्ध,
क्षोभ अफसोस पछतावा हो ना अंतर्मन में!
तुम बनो बुद्ध करुणा अहिंसावादी प्रबुद्ध,
हिंसा द्वेष जिलन परित्याग करो जीवन में!
देवाधिदेव महादेव अल्लाह के अल्लाह रुद्र,
पूरी कायनात के मालिक हैं रखो जेहन में!
धर्म के मर्म को समझो शिव हीं हैं सिद्ध,
सत्य सनातन सुन्दर बसे हुए जीव तन में!
शिव नहीं तो सबके सब शव खाएंगे गिद्ध,
सत्यमेव जयते सत्य को उतार लो मन में!
शिव मृत्यु के देवता,शिव गति नहीं अवरुद्ध,
शिव दिखते भू आकाश अंतरिक्ष विचरण में!
—-विनय कुमार विनायक