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रेत-समाधिः बधाई लेकिन…?

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

गीताजंलि श्री के उपन्यास ‘रेत-समाधि’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘टूम्ब आॅफ सेन्ड’ को बुकर सम्मान मिलने पर हिंदी जगत का गदगद होना स्वाभाविक है। मेरी भी बधाई। मूल अंग्रेजी में लिखे गए कुछ भारतीय उपन्यासों को पहले भी यह सम्मान मिला है। लेकिन किसी भी भारतीय भाषा के उपन्यास को मिलनेवाला यह पहला सम्मान है। लगभग 50 लाख रु. की यह सम्मान राशि उसकी लेखिका और अनुवादिका डेजी राॅकवेल के बीच आधी-आधी बटेगी। इतनी बड़ी राशिवाला कोई सम्मान भारत में तो नहीं है। इसलिए भी इसका महत्व काफी है। वैसे हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में इतने उत्कृष्ट उपन्यास लिखे जाते रहे हैं कि वे दुनिया की किसी भी भाषा की कृतियों से कम नहीं हैं लेकिन उनका अनुवाद अपनी भाषाओं में ही नहीं होता तो विदेशी भाषाओं में कैसे होगा? भारतीय भाषाओं में कुल मिलाकर जितनी रचनाएं प्रकाशित होती हैं, उतनी दुनिया के किसी भी देश की भाषा में नहीं होतीं। इसीलिए पहले तो भारत में एक राष्ट्रीय अनुवाद अकादमी स्थापित की जानी चाहिए, जिसका काम भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ ग्रंथों का सिर्फ आपसी अनुवाद प्रकाशित करना हो। इस तरह के कुछ उल्लेखनीय अनुवाद-कार्य साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ और कुछ प्रादेशिक संस्थाएं करती जरुर हैं। उस अकादमी का दूसरा बड़ा काम विदेशी भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियों को भारतीय भाषाओं में और भारतीय भाषाओं की रचनाओं का विदेशी भाषाओं में अनुवाद करना हो। यह कार्य भारत की सांस्कृतिक एकता को सुदृढ़ बनाने में सहायक तो होगा ही, विश्व भर की संस्कृतियों से भारत का परिचय बढ़ाने में भी यह अपनी भूमिका अदा करेगा। अभी तो हम सिर्फ अंग्रेजी से हिंदी और हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद पर सीमित हैं, जो कि गलत नहीं है लेकिन यह हमारी गुलाम मनोवृत्ति का प्रतिफल है। आज भी हम भारतीयों को पता ही नहीं है कि रूस, चीन, फ्रांस, जापान, ईरान, अरब देशों और लातीनी अमेरिका में साहित्यिक और बौद्धिक क्षेत्रों में कौन-कौन से नए आयाम खुल रहे हैं। अंग्रेजी की गुलामी का यह दुष्परिणाम तो है ही, इसके अलावा यह भी है कि अंग्रेजी में छपे साधारण लेखों और पुस्तकों को हम जरुरत से ज्यादा महत्व दे देते हैं। हमारे लिए बुकर सम्मान और नोबेल प्राइज़ हमारे भारत रत्न और ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी अधिक सम्मानित और चर्चित हो जाते हैं। गीताजंलि का उपन्यास ‘रेत-समाधि’ भारत-पाक विभाजन की विभीषिका और उससे जुड़ी एक हिंदू और मुसलमान की अमर प्रेम-कथा पर केंद्रित है। वह भारत के अत्यंत प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह राजकमल ने छापा है तो वह उत्कृष्ट कोटि का तो होगा ही लेकिन सारे देश का ध्यान उस पर अब इसलिए जाएगा कि उसे हमारे पूर्व स्वामियों और पूर्व गुरुजन (अंग्रेजों) ने मान्यता दी है। भारत अपनी इस बौद्धिक दासता से मुक्त हो जाए तो उसे पता चलेगा कि उसने जैसे दार्शनिक, विचारक, राजनीतिक चिंतक, साहित्यकार और पत्रकार पैदा किए हैं, वैसे दुनिया के अन्य देशों में मिलने दुर्लभ हैं।

पितृसत्ता के बोझ तले दबी स्त्री

खुशबू बोरा

पिंगलो, गरुड़

बागेश्वर, उत्तराखंड

भारतीय समाज एक पुरुष प्रधान समाज रहा है, जहां पुरूषों को महिलाओं की तुलना में ज्यादा अधिकार दिए गए हैं. पितृसत्तात्मक समाज के अंतर्गत भारतीय समाज में पुरुषों को महिलाओं की तुलना में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से श्रेष्ठता दी गई है. इसमें हमेशा से पुरुषों का वर्चस्व रहा है. हालांकि समय समय पर महिलाओं ने अपनी हुनर, काबलियत और मेहनत से यह साबित किया है कि वह किसी भी रूप में पुरुषों से कम नहीं है और समाज को उसे भी बराबरी का अवसर और सोच प्रदान करनी चाहिए. ज़मीन से लेकर अंतरिक्ष तक महिलाओं ने सुनहरे अक्षरों में अपनी सफलता की गाथा लिख दी है. लेकिन इसके बावजूद 21वीं सदी के इस दौर में भी उसे अपने मौलिक अधिकारों के लिए भी संघर्ष करनी पड़ रही है.

ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि पुरुष और महिला के मध्य जो असमानताएं देखने को मिलती हैं, क्या प्रकृति ने उसे खुद बनाया है या इस पितृसत्तात्मक समाज के खोखले कानून हैं? दरअसल महिलाओं को कमज़ोर साबित करने और कमतर आंकने का रूढ़िवादी नजरिया पुरुष प्रधान समाज ने तैयार किया है. इस परंपरा ने स्त्रियों को विवशता की बेड़ियों में जकड़ कर रखा है. ऐसी व्यवस्था जहां पुरुष घर का मुखिया माना जाता है और उसका निर्णय ही प्रभावी होता है चाहे उसका निर्णय एक स्त्री की अस्मिता और उसके अधिकारों को ही क्यों न रौंदता हो. पितृसत्तात्मक समाज में किसी स्त्री का पुरुषों द्वारा लिए गए निर्णयों के विरोध का कोई स्थान नहीं होता है. यदि किसी ने हिम्मत भी दिखाई तो उसके हिस्से में केवल चारित्रिक लांछन और बहिष्कार ही आता है. समाज में लड़की या स्त्री से अधिक लड़के या पुरुष को महत्व दिया जाता है और वही शक्ति का केंद्र होता है. चाहे घर पर सबसे बड़ी और उम्रदराज़ महिला ही क्यों न हो, लेकिन व्यावहारिक रूप से अंतिम निर्णय उससे छोटे पुरुष का ही माना जाता है. आज भी बेटे के पैदा होने पर सोहरगाना, केवल लड़का होने पर पूजा करना आदि पितृसत्तात्मक समाज में मौजूद लड़के-लड़की के बीच मौजूद अंतर को दिखाता है.

पितृसत्तात्मक समाज की यह अवधारणा शहरों की अपेक्षा ग्रामीण भारत में अधिक दिखाई देती है. पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में भी पितृसत्तात्मक समाज गहराई से अपनी जड़ें जमाये हुए है. राज्य के बागेश्वर जिला स्थित गरुड़ ब्लॉक का पिंगलो गांव इसका उदाहरण है. जहां महिलाओं के खिलाफ कई प्रकार के भेदभाव और कुप्रथाएं आज भी हावी हैं. जहां पुरुषों को ही हमेशा स्त्री से उच्च दर्जा दिया जाता है. वैज्ञानिक रूप से तो देश आगे बढ़ रहा है, लेकिन सामाजिक और वैचारिक रूप से आज भी पिछड़ा हुआ है. जहां समाज में कई प्रकार से स्त्री और पुरुष में भेदभाव किया जाता है. सदियों से चले आ रहे रीति-रिवाज आज भी ज्यों-के-त्यों विधमान हैं. गांव भले ही इंटरनेट के माध्यम से देश और दुनिया से जुड़ कर विकास की राह पर चल पड़ा हो, लेकिन स्त्रियों को कमतर समझने वाले आज भी वही पुराने रीति रिवाज विधमान हैं.

गांव का समाज अभी तक इन सब बातों को मानता है. जैसे गांव में अक्सर पुरुष ही काम करने के लिए बाहर जाता है और स्त्री घर का काम करती है. इसके बावजूद घर के निर्णय लेने का अधिकार पुरुष का ही होता है. उस निर्णय में कभी भी स्त्री की राय नहीं ली जाती है. इस संबंध में गांव की एक किशोरी दीक्षा का कहना है कि हमारे घर के फैसले मेरे दादाजी और पिताजी लेते हैं, यदि वह घर पर नहीं होते हैं तो मेरा भाई फैसला लेता है. जिसे हम सब को मानना होता है. परंतु यह सही नहीं है. उनका फैसला हमेशा सही नहीं हो सकता है. कभी महिलाओं से भी पूछना चाहिए कि वह क्या चाहती है? उसकी राय को भी महत्त्व दिया जाना चाहिए. नए युग और आधुनिक समाज में जन्मी दीक्षा का यह विचार सही है, लेकिन पुरुष आधिपत्य वाले समाज में यह मुमकिन नहीं है.

वहीं गांव की एक महिला कविता देवी का कहना है कि हमारे घर के सभी फैसले पुरुष लेते हैं. महिलाओं को कभी यह अधिकार दिया ही नहीं गया. अगर हम कभी कुछ बोलते भी हैं, तो वह कहते हैं कि यह पुरुषों का काम है. महिलाओं को चूल्हा संभालना चाहिए, घूंघट में रहना और पुरुषों के निर्णयों को स्वीकारना ही उनका धर्म है. इसी विषय पर गांव की एक बुज़ुर्ग नरुली देवी का कहना है कि मैने हमेशा से देखा है कि घर के फैसले पुरुष ही लेते आए हैं, अगर बड़े पुरुष घर पर न हो तो घर का बेटा फैसले लेता है, लेकिन हमसे कभी नहीं पूछा जाता है. हालांकि वह इसे गलत मानती हैं, लेकिन अगले ही पल इसे परंपरा का हिस्सा मानकर स्वीकार कर लेती हैं.

आज़ादी के बाद से ही समाज में महिलाओं को बराबरी का हक़ दिलाने के उद्देश्य से समय समय पर केंद्र और राज्य सरकारों ने कई कदम उठाये हैं. इसमें सबसे अहम पंचायतों में 50 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित करना है. इससे महिलाओं की भागीदारी तो बढ़ी है, लेकिन क्या वास्तव में इससे महिलाओं को निर्णय लेने का अधिकार मिल गया है? आज भी यह प्रश्न अपनी जगह बरकरार है. इस संबंध में गांव की सरपंच उषा देवी का कहना है कि “आधिकारिक रूप से कागज़ों में मैं सरपंच तो ज़रूर हूं, लेकिन गांव की किसी भी मीटिंग में अंतिम फैसला पुरुषों का ही होता है. मैं तो सिर्फ नाम की और उन फैसलों पर अंतिम मुहर लगाने की सरपंच हूं. चाहे वह फैसला महिलाओं के लिए ही क्यों न हो, उस पर महिला होने के बावजूद मेरे निर्णय का कोई महत्व नहीं होता है. इस संबंध में महिला सामाजिक कार्यकर्ता नीलम ग्रैन्डी का कहना है कि आज भी हमारा समाज पितृसत्ता से पीड़ित है. किसी भी निर्णय के अंतिम में मुहर पुरषों का ही होता है. न केवल बाहर, बल्कि घर के अंदर भी पुरुषों का ही अधिकार होता है. यह फैसला भी उन्हीं के हाथ में रहता है कि महिलाएं घर से बाहर जाकर काम करेगी या नहीं?

वास्तव में पितृसत्ता, एक ऐसा शब्द है, जिसके निहितार्थ को समझना आज के दौर में युवतियों के लिए बहुत जरूरी है. दरअसल यह बहेलिए के उस जाल की तरह है, जिसमें चिड़िया फंस जाती है और फिर कभी बाहर नहीं निकल पाती है. मगर पितृसत्ता का जाल उससे भी भयानक है. कभी परिवार की मर्यादा के नाम पर, कभी समाज का भय दिखा कर, तो कभी पुरुषों से कमजोर बता कर महिलाओं को पिता, भाई, पति और अंत में बेटे के अधीन बनाकर उसके सपनों को कुचल दिया जाता है. ऐसे में इस मानसिकता को समाप्त करना जरूरी है. महिलाओं के अपने सपने, अपनी सोच और अपनी आजादी को इसी जाल में उलझा कर ख़त्म कर दिया जाता है. पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने लोगो की मानसिकता को इस प्रकार जकड़ लिया है कि उन्हें लगता ही नहीं है कि कुछ गलत हो रहा है. तमाम तरह के उत्पीड़नों को कुदरती या प्राकृतिक कहकर जायज ठहरा दिया जाता है. प्रकृति का फैसला बताकर उसे कभी न बदलने वाला नियम बना दिया जाता है.

स्त्री को स्‍वतंत्र इंसान न समझ कर उसे पुरुष का गुलाम माना जाता है. यही कारण है कि उसे पुरुषों जैसा सम्मान नहीं दिया जाता है. यह परंपरा और सोच पीढ़ी-दर-पीढ़ी शान से हस्तांतरित की जाती रही है. जबकि मान-अपमान का प्रश्न समाज में सभी के लिए समान महत्व रखता है. इसके बावजूद एक स्त्री जब समाज में अपमानित महसूस करती है तो उसके अपमान को सामान्‍य व्‍यवहार बताकर बार-बार दोहराया जाता है. यदि कोई स्त्री इस तरह के व्यवहार का विरोध करे भी तो इससे परिवार टूट जाएगा, समाज की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी, कह कर चुप करा दिया जाता है. यही सोचकर महिलाओं को इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था के तहत केवल सहन करना सिखाया जाता है. सवाल यह उठता है कि क्या कभी इस समाज में स्त्री को पुरुष के समान अधिकार मिलेंगे? क्या उसे कभी स्वयं घर का निर्णय लेने का भी अधिकार मिल पाएगा? या पितृसत्ता के बोझ तले वह ऐसे ही दबी रहेगी?

राजनैतिक दल स्पष्ट करें डिलिस्टिंग के पक्ष में हैं या विरोध में ? 

जनजातीय मुद्दों पर प्रतिदिन अपने स्वार्थ की रोटियां सेंकने वाले विभिन्न संगठन व राजनैतिक दल डिलिस्टिंग जैसे संवेदनशील मुद्दे पर चुप क्यों हैं? स्पष्ट है कि वे कथित धर्मान्तरित होकर जनजातीय समाज के साथ छलावा और धोखा देनें वाले लोगों के साथ खड़े हैं. ये कथित दल, संगठन और एनजीओ भोले भाले वनवासी जनजातीय समाज के साथ नहीं बल्कि उन लोगों के साथ खड़े हैं जो धर्मांतरण करके जनजातीय परम्पराओं को छोड़ चुके हैं और आरक्षण का 80 प्रतिशत लाभ केवल अपने परिवार, कुनबे और आसपास के 20 प्रतिशत लोगों को दिला रहे हैं. इन कथित नकली जनजातीय समाज के लोगों के कारण आरक्षण का लाभ हमारे वास्तविक और सच्चे वनवासी समाज को मिल ही नहीं पा रहा है. आरक्षण की आत्मा व मूल तत्व को इन लोगों ने नष्ट कर दिया है. कवि दुष्यंत की ये पंक्तियाँ यहां पूरी तरह चरितार्थ होती है – यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा।

            आज जबकि देश में एक बड़ा ही सकारात्मक शब्द गुंजायमान हो रहा है - डिलिस्टिंग.   ग्रामसभा, पंचायत, चौपाल, विधानसभा, लोकसभा और समूचा समाज इन दिनों डिलिस्टिंग की चर्चा कर रहा है. जनजातीय विषयों पर बड़ी मुखरता से बोलने वाले और इनके कंधों पर अपनी बंदूक रखकर राजनीति करने वाले व्यक्ति, संगठन, राजनैतिक दल, एनजीओ सभी इस विषय पर चुप हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार को छोड़ दें तो इस संवेदनशील व अतीव महत्वपूर्ण विषय पर सभी चुप्पी साधे हैं और देखो और बढ़ो की सुरक्षात्मक नीति अपनाए हुए हैं.         

     डीलिस्टिंग के अंतर्गत संविधान के अनुच्छेद 342 में अनुच्छेद 341 जैसा मूल तत्व स्थापित किया जाना है अर्थात अनुसूचित जनजातियों के मानक में अनुसूचित जातियों की भांति धर्मपरिवर्तित लोगों को डिलिस्ट करना है अर्थात बाहर करना है. ई साई  व मु स्लिम धर्म में धर्मांतरित हो चुके विकसित कथित जनजातीय लोग अल्पसंख्यकों को मिलने वाली सुविधाओं का भी लाभ उठाते हैं और जनजातीय आरक्षण का भी. 1970 में डॉ कार्तिक उरांव ने लोकसभा में 348 सांसदों के हस्ताक्षर से इस विसंगति के विरोध में प्रस्ताव रखा था. यदि डॉ. कार्तिक उरांव का यह प्रस्ताव मान लिया जाता तो आज जनजातीय आरक्षण में चल रहा अन्याय का पूर्ण चक्र ही समाप्त हो जाता. आरक्षण की मूल आत्मा के अनुरूप लाखों वंचित व निर्धन जनजातीय परिवारों का उन्नयन हो चुका होता. कार्तिक उरांव  जी के उस प्रस्ताव को संविधान में सम्मिलित कराना ही आज के डिलिस्टिंग अभियान का प्रमुख उद्देश्य है. भगवान बड़ादेव या पड़ापेन या भोलेनाथ जनजातीय समाज के आराध्य हैं और डिलिस्टिंग का बड़ा ही सरल अर्थ है “जो भोलेनाथ का नहीं वह हमारी जाति का नहीं”. 

   डिलिस्टिंग के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट का केरल राज्य बनाम चंद्रमोहन का निर्णय अतीव प्रासंगिक है. जस्टिस वीएन खरे सीजे, एसबी सिन्हा एवं एसएच कपाड़िया ने कहा कि "आर्टिकल 342 के अनुसार अनुसूचित जनजातियों को आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ेपन को ध्यान में रखते हुए, जहां से वे पीड़ित हैं, संरक्षण प्रदान करने के प्रयोजन के लिए अधिकार प्रदान करना है. यहां जहां वे हैं पद का आशय जिस रीति रिवाजों, परम्पराओं, आदि विश्वास और आस्था मय संस्कृति, जिसे सनातन धर्म कहा जाता है, से है." चूंकि पीड़िता के माता-पिता ने ईसाई धर्म अपना लिया है, इसलिए पीड़ित अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं है. धर्म परिवर्तन के कारण कोई जनजाति व्यक्ति जनजाति नहीं रह जाता है, जबकि संविधान (अनुसूचित जाति) [(केंद्र शासित प्रदेश)] आदेश, 1951 के तहत अधिसूचित अनुसूचित जातियों के संबंध में यह दिखाने के लिए कि कोई भी व्यक्ति जो हिंदू, सिख या बौद्ध से अलग धर्म को मानता है, उसे समझा नहीं जाएगा. अनुसूचित जाति का सदस्य होने के लिए, ऐसा कोई प्रावधान संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश, 1950 में निहित नहीं है। हमारी राय में यह अनुरोध स्वीकार नहीं किया जा सकता है. 



      आज आरक्षण सुविधाओं का 80 प्रतिशत लाभ समाज का एक ऐसा धर्मांतरित वर्ग उठा लेता है जो धनाड्य है व सभी दृष्टि से विकसित है. हमारे देश का जनजातीय समाज समूचे राष्ट्र हेतु एक श्रमशील, दाता, सबसे समरस होने वाला किंतु स्वयं के महत्त्व से अनभिज्ञ व भोला भाला समाज रहा है. इस समाज के भोलेभाले स्वभाव का ही परिणाम रहा कि लालची, देश विरोधी व समाज में अलगाव घोलने वाले तत्वों हेतु जनजातीय समाज गतिविधियों का केंद्र रहा है. देश के जनजातीय समाज को मुख्यधारा से बाहर रखने व इन्हें मिलने वाले लाभों से इन्हें वंचित रखने के कार्य के केंद्रबिंदु वे लोग रहे जो इस समाज के ही हैं व इस समाज को मिलने वाली शासकीय सुविधाओं का लाभ उठाकर उच्चवर्गीय हो गए हैं. दुखद स्थिति है कि आरक्षण का लाभ उठाने हेतु मु स्लिम समाज ने इस समाज की युवा भोली भाली लड़कियों को लवजि हाद का शिकार बनाने का अभियान चला रखा है और ई साई समाज ने इस वंचित जनजातीय समाज को धर्मांतरण से अपनी विभाजनकारी गतिविधियों का केंद्र  बनाया हुआ है.
     जनजातीय समाज ने असम में “मेंठाग रोग मेंठाग अजक कोंग” का नारा लगाया, में “अबुवा दिशुम अबुवा राज” का नारा लगाया, महाराष्ट्र में “आमच्या गावांत आमच्या सरकार” का नारा लगाया, उड़िसा में “आमोरो गारे आमोरो  शासन” का नारा लगाया मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के लोगों ने “मावा नाटे मावा राज” का नारा लगाया. ये सारे नारे व आंदोलन अच्छे शब्दाडंबर से बंधे हुए भाषणों से लदे फदे और जनजातीय समाज हेतु बड़े ही हितकारी प्रतीत होते हैं किंतु अधिकाँश अवसरों पर यह देखने में आता है कि हमारे भोले भाले वनवासी समाज को देश के विभाजनकारी, विघ्नसंतोषी वामपंथी अपने षड्यंत्रों मे फंसा लेते है. 
         संविधान के अनुच्छेद 341 एवं 342 में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए अखिल भारतीय व राज्यवार आरक्षण तथा सरंक्षण की व्यवस्था की गई थी. सूची जारी करते समय धर्मांतरित ई साई और मु स्लिमों को अनुसूचित जाति में तो शामिल नहीं किया गया किंतु अनुसूचित जनजातियों की सूची से धर्मांतरित होने वालों को इस सूची से बाहर नहीं किया गया और आज यह बड़ी विसंगति है. इस कारण हमारे समाज में आरक्षण की मूल भावना व आत्मा ही नष्ट हो रही है. इस विसंगति पर कार्तिक उरांव जी ने “20 वर्ष की काली रात” पुस्तक भी लिखी.  इस विसंगति को दूर करने के लिए तब संयुक्त संसदीय समिति का गठन भी हुआ था जिसने अनुच्छेद 342 में धर्मांतरित लोगों को बाहर करने के लिए 1950 में राष्ट्रपति द्वारा जारी आदेश में संशोधन की अनुशंसा की थी. इस दिशा में 1970 के दशक में प्रयास जारी थे किंतु कानून बनने से पहले ही लोकसभा भंग हो गई. जनसँख्याविद डॉ. जे. के. बजाज के अध्ययन में भी इस प्रकार के अन्य तथ्य समाज व शासन के समक्ष रखे गए थे व ये सुझाव दिए गए थे -  

*राजनीतिक दल अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीट पर धर्मांतरित व्यक्ति को टिकट नहीं दें.

*अनुसूचित जनजाति सीट का प्रतिनिधित्व करने वाले जनप्रतिनिधि इस मांग के समर्थन में आएं व धर्मांतरित व्यक्तियों को अनुसूचित जनजाति की सूची से डिलिस्ट करने की मांग करें.

*जनजातीय वर्ग के वंचित वर्ग के साथ कर रहे इस प्रकार के समस्त आरक्षणधारी जन प्रतिनिधियों को पदों से हटाने हेतु वातावरण तैयार करें.

*जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित सरकारी नौकरियों को हथियाने वाले षड्यंत्रकारी धर्मांतरित व्यक्तियों के विरुद्ध न्यायालयीन कार्यवाही हो.

*विकसित जनजातीय बंधू अपने समाज के वंचित वर्ग को आरक्षण का लाभ दिलाने हेतु वातावरण निर्मित करें.

गृह-शांति के लिये आतंक से लड़ाई का सन्देश

  • ललित गर्ग –

जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के नेता यासीन मलिक को उम्रकैद की सजा उन सभी अलगाववादी नेताओं और आतंकियों के लिए कड़ा संदेश है जो राष्ट्र विरोधी गतिविधियों, हिंसा एवं आतंक फैलाने एवं राष्ट्रीय जीवन को अस्त-व्यस्त करने में लगे हैं। यासीन मलिक को यह सजा आतंकवाद फैलाने के लिए पैसे जुटाने और देने के मामले में मिली है। उस पर भारतीय वायुसेना के चार जवानों की हत्या, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री (दिवंगत) मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबिया सईद के अपहरण और कश्मीरी पंडितों की हत्या जैसे संगीन आरोपों में भी मामले चल रहे हैं। यासीन मलिक ने काफी पहले ही अपने गुनाह कबूल कर लिए थे। विडम्बना देेखिये कि जेल से बाहर आकर यासीन मलिक ने खुद को गांधीवादी कहना शुरू कर दिया। हैरानी की बात यह रही कि कश्मीर से लेकर दिल्ली तक गांधी के नाम पर राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेंकने वाले तथाकथित राजनीतिक लोग उसे सचमुच गांधीवादी बताने में जुट गए। ऐसी शख्सियतंे तो थोक के भाव बिखरी पड़ी हैं, जो स्वांग राष्ट्रनेता होने का करते हैं लेकिन उनकी हरकतें राष्ट्र तोड़क होती है। हर दिखते समर्पण की पीठ पर स्वार्थ चढ़ा हुआ है। इसी प्रकार हर अभिव्यक्ति में कहीं न कहीं स्वार्थ है, अराष्ट्रीयता है, किसी न किसी को नुकसान पहुंचाने एवं राष्ट्र को आहत करने की ओछी मनोवृत्ति है।
आखिरकार एनआइए की एक अदालत ने आतंकी यासीन मलिक को आतंक से जुड़े विभिन्न मामलों में दोषी करार देते हुए उम्र कैद की सजा सुना दी, लेकिन बड़ा प्रश्न है कि ऐसे गंभीर अपराधों एवं राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में जुड़े लोगों को सजा में क्यों इतना विलम्ब होता है? मलिक को सजा देने में जरूरत से ज्यादा देरी हुई है, वह न्याय व्यवस्था पर कई गंभीर सवाल खड़े करती है। ये सवाल आतंकवाद से लड़ने में हमारी प्रतिबद्धता की कमजोरी ही बयान करते हैं। इन्हीं कमजोरियों के कारण देश में आतंकवाद पनपता रहा है। यासीन मलिक ने जैसे एनआइए अदालत के समक्ष आतंकी फंडिंग के मामले में अपने पर लगे आरोपों को स्वीकार किया, वैसे ही एक समय उसने यह माना था कि जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के एरिया कमांडर के रूप में उसने वायु सेना के चार जवानों को मारा था और वीपी सिंह सरकार के समय गृहमंत्री रहे मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी का अपहरण भी किया था। इन संगीन अपराधों के बावजूद वह कुछ समय ही जेल में रहा। उसे राजनीतिक संरक्षण का ही परिणाम है कि उसके आतंकवादी हौसले बुलन्द रहे।
यासीन मलिक जैसी अराजक, आतंकवादी एवं राष्ट्र-विरोधी शक्तियों को राजनीतिक संरक्षण एवं समर्थन देने वाले लोग भी राष्ट्र के गुनाहगार है, ऐसे लोग जानते नहीं कि वे क्या कह रहे हैं। उससे क्या नफा-नुकसान हो रहा है या हो सकता है। ऐसे लोग राजनीति में हैं, सत्ता में हैं, सम्प्रदायांे में हैं, पत्रकारिता में हैं, लोकसभा में हैं, विधानसभाओं में है, गलियों और मौहल्लों में तो भरे पड़े हैं। आये दिन ऐसे लोग, विषवमन करते हैं, प्रहार करते रहते हैं, राष्ट्रीयता को आहत करते है, चरित्र-हनन् करते रहते हैं, सद्भावना और शांति को भंग करते रहते हैं। उन्हंे राष्ट्रीयता, भाईचारे और एकता से कोई वास्ता नहीं होता। ऐसे घाव कर देते हैं जो हथियार भी नहीं करते। किसी भी टूट, गिरावट, दंगों व युद्धों तक की शुरूआत ऐसी ही बातों से होती है। आजादी के पचहतर वर्षों में जम्मू-कश्मीर या अन्य प्रांतों में अशांति, आतंक एवं हिंसा का कारण ऐसे ही लोग रहे हैं। व्यक्ति का चरित्र देश का चरित्र है। जब चरित्र ही बुराइयों की सीढ़िया चढ़ने लग जाये तो भला कौन निष्ठा, समर्पण एवं ईमानदारी से देश का नया भविष्य गढ़ सकता है और कैसे लोकतंत्र एवं राजनीतिक मूल्यों के आदर्शों की ऊंचाइयां सुरक्षित रह सकती है?
सिर्फ सत्ता पाने की महत्वाकांक्षा ने राष्ट्र की बुनियाद को खोखला कर दिया है। न जिन्दगी सुरक्षित रही और न राष्ट्रीय मूल्यों की विरासत। हिंसा, भय, आतंक, शोषण, अन्याय, अनीति जैसे घृणित कर्मों ने साबित कर दिया कि राजनीतिक स्वार्थों के मैदान में राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता से ज्यादा राष्ट्र तोड़क शक्तियां महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि जब किन्ही अज्ञात कारणों से 1994 में यासीन मलिक जेल से बाहर आया तो जेल से बाहर आकर उसने खुद को गांधीवादी कहना शुरू कर दिया। हैरानी की बात यह रही कि कई प्रभावशाली राजनीतिक लोग एवं राजनीतिक दल उसे सचमुच गांधीवादी बताने में जुट गए। इनमें सरकारी एजेंसियों के साथ-साथ सिविल सोसायटी के भी लोग थे और नेता भी। उसे न केवल विभिन्न मंचों पर शांति के मसीहा के रूप में आमंत्रित किया जाने लगा, बल्कि युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत भी कहा जाने लगा। यह सब काम खुद को सेक्युलर, लिबरल और मानवाधिकारवादी कहने वाले लोग यह जानते हुए भी बिना किसी शर्म-संकोच कर रहे थे कि यासीन मलिक ने कश्मीर को आतंक की आग में झोंकने का काम किया और उसके कारण कश्मीरी हिंदुओं का वहां रहना दूभर हो गया।
भारत में एक पाकिस्तान भी बसता है, जो राजनीति में, पत्रकारिता में है, धर्म-संगठनों में है, सत्ता में है, वह पाकिस्तान की जबान में ही सोचता है और वैसे ही देश की एकता एवं अखण्डता को तार-तार करने के लिये उतावला रहता है। हर तरह की आतंकी गतिविधियों में लिप्त होने के बावजूद यासीन मलिक का जिस तरह महिमामंडन किया गया, उसका परिणाम यह हुआ कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग भी उस पर मेहरबान हो गए। वे उससे मेल-मुलाकात करने लगे। उसके अतीत की अनदेखी कर उसे पासपोर्ट दे दिया गया और पता नहीं किसकी आर्थिक मदद से वह अमेरिका, ब्रिटेन, पाकिस्तान की यात्रा करने लगा। इससे एक ओर जहां कश्मीर में सक्रिय आतंकियों को बल मिलने लगा, वहीं आतंकवाद से लड़ने में भारत का संकल्प भी भोंथरा होने लगा। भारत में पाकिस्तान के पूर्व उच्चायुक्त अब्दुल बासित और पूर्व क्रिकेटर शाहिद अफरीदी जैसे लोग मलिक के समर्थन में उतर आए हैं, लेकिन उस समर्थन से क्या होगा। भारत अब पहले वाला भारत नहीं है, यहां राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता को बलशाली बनाने वाली सरकार का शासन है। मलिक जैसी अराजक एवं आतंकी शक्तियां इसी सरकार के कारण अपने मनसूंबों में कामयाब नहीं हो पा रही हैं। मलिक को सजा के बाद पाकिस्तान को भी यह समझना चाहिए कि वह भारत के खिलाफ जिन लोगों का इस्तेमाल करेगा, उनसे कानून के दायरे में ऐसे ही निपटा जाएगा।
कश्मीर में जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट और उसके नेता यासीन मलिक की अलगाववादी गतिविधियां उग्र रही है। वह पाकिस्तान के इशारे पर काम करता रहा। इसके लिए उसे वहां से पैसा व अन्य मदद मिलती रही, जो आज भी जारी है। खुद भी हिंसा के बल पर उगाही करता रहा, कुछ साल पहले कश्मीरी छात्रों को पाकिस्तान के इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेजों में दाखिला दिलाने के नाम पर पैसा वसूलने के मामले का खुलासा भी हुआ था। इस पैसे का इस्तेमाल घाटी में आतंकी गतिविधियोें, पथराव और दूसरी वारदातों को अंजाम देने के लिए और नौजवानों को आतंकी संगठनों में भर्ती करने जैसे कामों में इस्तेमाल होता रहा है। उसका खमियाजा वहां के बेगुनाह लोगों को उठाना पड़ा है। पिछले साढ़े तीन दशक में हजारों लोग हिंसा का शिकार हुए। लाखों कश्मीरी पंडितों को घाटी से पलायन करने को मजबूर होना पड़ा। नौजवानों का भविष्य चौपट हो गया। सबसे दुखद तो यह कि नौजवान पीढ़ी को आतंकी संगठनों में भर्ती होने के लिए मजबूर किया गया। मलिक एवं उसके अलगाववादी संगठनों को लेकर पूर्व सरकारों का उदार रुख भी समस्या का बड़ा कारण रहा। अगर अलगाववादी संगठनों पर पहले ही नकेल कसने की हिम्मत दिखाई होती तो शायद हालात इतने नहीं बिगड़ते। यासीन मलिक को सजा से यह भी साफ हो गया है कि अगर पुलिस और जांच एजेंसियां ईमानदारी एवं पारदर्शिता से काम करें, पर्याप्त सबूत जुटा कर अदालत के समक्ष रखें और ऐसे मामलों में जल्द सुनवाई हो तो आतंकवाद में लिप्त लोगों को सीखचों के पीछे पहुंचाने में देर नहीं लगती। वरना अक्सर यह देखा गया है कि सबूतों के अभाव में आतंकी छूट जाते हैं। यासीन मलिक को सजा पर पाकिस्तान के भीतर बौखलाहट पैदा होना भी स्वाभाविक है।

गर्मी का ईलाज

सूनी पड़ी सभी गली व सड़के।
बाहर हो रही आग की बारिश,
सारे जीव पानी को है तरसे।।

सूखे पड़े है सब ताल तलैया,
पशु पक्षियों का हाल है बेहाल।
तरस रहे है वे सब पानी को,
कोई रख रहा न उनका ख्याल।।

सूख गए है सभी पेड़ और पौधे,
सूख गई है सारी हरी भरी घास।
सूख गए है सारे वन व उपवन,
मानव हों गया है बड़ा उदास।।

चारो तरफ चल रही गर्म हवाएं,
जिसको कहते है हम सब लू।
घर के बाहर कोई न निकले,
नही तो लग जायेगी तुम्हे लू।।

बार बार सभी ठंडा पानी मांगे,
किसी तरह इस गर्मी को काटे।
पर ये गर्मी अब बढ़ती जा रही,
सब को लगा रही मुंह पर चाटे।।

इस गर्मी को कोई करे इलाज,
ऐ सी कूलर भी फीके पड़ गए।
अब तो प्रभु है इसके डाक्टर,
जो कर सकते है इसका इलाज।।

झम झम जब बारिश बरसे,
तब होगा गर्मी का ईलाज।
इंद्रदेव से सब करे प्रार्थना।
वे कर सकते इसका ईलाज।।

आर के रस्तोगी

मोदी की कथनी और करनी में गजब की समानता

सुरेश हिन्दुस्थानी
जब कोई व्यक्ति पूरी ईमानदारी के साथ अपने कर्म पथ पर अग्रसर होता है तो विश्व समुदाय उसका अनुगामी हो जाता है। इस दायरे में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को रखा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ऐसा लगता है कि स्वतंत्रता के पश्चात देश में ऐसी पहली सरकार बनी है, जिस पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं है, इसके विपरीत इसके पूर्ववर्ती सरकार के दामन पर भ्रष्टाचार के अनेक दाग लगे। भारत की जनता ने इस बात की उम्मीद ही छोड़ दी थी कि अब भारत में भ्रष्टाचार कभी समाप्त होगा, लेकिन वर्तमान केन्द्र सरकार ने इस धारणा को पूरी तरह से बदलकर रख दिया। वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी एक ऐसी बड़ी लकीर खींचने का अहर्निश साहस दिखा रहे हैं, जिसकी देश को दशकों से आवश्यकता थी। वर्षों तक विदेशों के समकक्ष दायित्व वालों के पीछे रहने वाला भारत आज उनके साथ गौरव के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है। जो कहीं न कहीं भारत की शक्ति को प्रकट कर रहा है।
अभी हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि मैं पत्थर पर लकीर खींचता हूं, मक्खन पर नहीं। यह पंक्ति भले ही एक कहावत के तौर पर प्रचलित है, लेकिन इसके भावार्थ बहुत ही गहरे हैं। प्रधानमंत्री के तौर पर नरेन्द्र मोदी ने जो कार्य किए हैं, वह आज मील के पत्थर के तौर पर स्थापित हुए हैं। वह चाहे तीन तलाक का मामला हो या फिर जम्मू-कश्मीर से धारा 370 के हटाने का मामला ही क्यों न हो, राजनीतिक दलों ने देश का जनमानस ऐसा बना दिया था कि इसके बारे में बात करने से भी पसीने छूट जाते थे। इतना ही नहीं जो राजनीतिक दल इसका राजनीतिक और आर्थिक लाभ उठा रहे थे, उन्होंने भी देश में इस प्रकार का डर का वातावरण पैदा किया कि धारा 370 को हटाने के बाद देश में गृह युद्ध के हालात पैदा हो सकते हैं, लेकिन यह केवल बातें ही सिद्ध हुईं। कौन नहीं जानता कि जम्मू कश्मीर में राजनीति करने वाले फारुक अबदुल्ला और मेहबूबा मुफ्ती ने किस प्रकार की भाषा बोली। उनकी वाणी से हमेशा यही प्रतीत होता था कि वह पाकिस्तान परस्त भाषा बोल रहे हैं। उन्होंने कहा था कि कश्मीर में तिरंगा उठाने वाला कोई नहीं मिलेगा। मैं उनसे कहना चाहता हूं कि तिरंगा कोई सामान्य कपड़ा नहीं है, जिसको उठाने की आवश्यकता हो। तिरंगा तो इस देश की आन बान और शान का प्रतीक है। इसके बारे में इस प्रकार की धारणा रखना, निश्चित ही देश भाव के साथ मजाक ही है। इस प्रकार भाषा पाकिस्तान के किसी व्यक्ति द्वारा बोली जाती तो समझ में आता है, लेकिन हमारे भारत के मुकुटमणि के बारे में ऐसा बोलना निश्चित ही देशद्रोहिता ही कही जाएगी। अब जम्मू कश्मीर में सुखद बयाी की अनुभूति कराने वाला दृश्य एपस्थित हो रहा है। जो मोदी सरकार की एक बड़ी लकीर के रूप में प्रमाणित हो रहा है।
इसी प्रकार लम्बे समय से निर्णय की प्रतीक्षा करते हुए राम मंदिर का मामला भी मोदी जी के कार्यकाल में सुखद परिणाम देने वाला रहा। वास्तविकता में इस मामले का हल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निकाला गया, लेकिन इसका श्रेय मोदी सरकार के कार्यकाल को ही दिया जा सकता है। यह सारे मामले वास्तव में पत्थर पर लकीर खींचने जैसे ही कहे जा सकते हैं। इसी कारण देश की जनता उनके इन साहसिक निर्णयों के साथ जुड़ती जा रही है। जबकि विपक्षी राजनीतिक दलों की कार्य संस्कृति के चलते जनता इतनी दूर हो गई है कि उनको अपने भविष्य को बचाने के लिए राजनीतिक चिंतन और मंथन की आवश्यकता होने लगी है। हम जानते हैं कि अभी हाल ही में कांगे्रस ने सत्ता पाने की चाह में राजस्थान के उदयपुर में चिंतन किया, जो वास्तव में ढाक के तीन पात वाला ही सिद्ध हुआ। यह वास्तविकता ही है कि कांगे्रस ने जिस प्रकार से मुस्लिम और ईसाई तुष्टिकरण का कार्य किया, उसके कारण निश्चित ही देश का राष्ट्रीय भाव के साथ विचार करने वाला बहुसंख्यक समाज उससे दूर होता चला गया। जबकि प्रधानमंत्री मोदी की कार्यशैली में सबका साथ और सबका विकास वाली अवधारणा ही दिखाई देती है। अब तो केन्द्र सरकार ने अंत्योदय की अवधारणा पर कदम बढ़ाते हुए सबका विश्वास अर्जित करने का साहसिक प्रयास करने की ओर कदम बढ़ा दिया है, जिसके परिणाम भी अच्छे आएंगे, यह पूरा विश्वास भी है।
आज देश के विपक्षी राजनीतिक दल मोदी सरकार की कार्यशैली से इसलिए भी भयभीत से दिखाई देते हैं, क्योंकि दोनों की कार्यशैली में जमीन आसमान का अंतर है। जहां एक ओर देश की जनता मोदी के कार्यों से प्रभावित होकर भाजपा को पसंद कर रही है, वहीं कांगे्रस की भाषा को सुनकर दूर होती जा रही है। आज कांगे्रस की जो स्थिति दिखाई देती है, उसके लिए मोदी जिम्मेदार नहीं, बल्कि स्वयं कांगे्रस ही जिम्मेदार है, क्योंकि देश की जनता कांगे्रस के कार्यों से त्रस्त हो चुकी थी, तब जनता को साहस के साथ निर्णय लेने वाला दमदार नेतृत्व लेने वाले नायक की आवश्यकता महसूस हो रही थी, मोदी में यह सब दिखाई दिया। और जनता ने देश की बागडोर मोदी के हाथ में सौंप दी। मोदी ने अवसर पाकर ऐसे निर्णय लिए जो भाजपा के मुख्य केन्द्र बिन्दु थे। और इसी के आधार पर देश की जनता से वोट भी मांगे थे।
एक बात और… देश के संपन्न मुसलमान और तुष्टिकरण करने वाले राजनीतिक दल गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले मुसलमानों को गुमराह करके भाजपा से डराने का भरसक प्रयास कर रहे हैं, लेकिन यह प्रामाणिक तौर पर कहा जा सकता है कि केन्द्र सरकार योजनाओं का लाभ उन मुसलमानों को भी मिला है, जो इसके लिए पात्र हैं। इसलिए वह भी यह समझने लगे हैं कि भाजपा की सरकार बिना पक्षपात के कार्य करती है। वास्तव में मोदी की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं है। मोदी किसी को छोटा नहीं करते, बल्कि अपने कार्यों के माध्यम से पत्थर पर ऐसी लकीर स्थापित करते हैं, जो देश के समाज को आगे बढ़ने के लिए मार्ग बनाए।

क्रिप्टो की अंधी गलियां

रवि कुमार
मैं आपका दर्द झकझोर देने वाले इस एक छोटे से किस्से के जरिए बयां कर रहा हूं। हालिया माय टोकन नाम की एक नकली ऐप निवेशकों को अरबों-खरबों रुपए का चूना लगाकर फुर्र हो गई। मानों, इंवेस्टर्स के स्वर्णिम सपने पलक झपकते ही धूल-धूसरित हो गए। यूं तो इस ऐप का श्रीगणेश अक्टूबर, 2021 को हुआ था। लोगों को लगा, अब तो रातों-रात धनवान हो जाएंगे क्योंकि ऐप तरह-तरह के लुभावने ऑफर देता था। प्रति सप्ताह माय टोकन ऐप तरह-तरह के आकर्षक ऑफर्स की स्कीम लांच करता रहता था, लेकिन निवेशक माय टोकन के मंसूबों से बेखबर रहे। मुंबई में अपना एक ऑफिस खोलने की फेक न्यूज़ भी इंटरनेट पर वायरल कर दी, जिससे धीरे-धीरे आवाम के बीच इस ऐप की पॉपुलैरिटी तो रातों-रात बढ़ती चली गई। कमाल तो यह है, इस ऐप का कोई आधिकारिक संपर्क विवरण भी नहीं था। बावजूद इसके लाखों इंवेस्टर्स ने इसमें अरबों-खराबों रुपए का इन्वेस्टमेंट कर डाला। यकायक 1 अप्रैल, 2022 को निवेशकों को पैसे का रिर्टन बंद हो गया। इसके बाद माय टोकन की वेबसाइट पर नोटिस आया कि निवेशकों का पैसा सुरक्षित है और कुछ टाइम के बाद पैसे की निकासी शुरु हो जाएगी, लेकिन हुआ यह कि न तो ऐप रहा और न ही वेबसाइट। इंवेस्टर्स का अरबों-खरबों रुपया डूब गया। बहुतेरे लोग बर्बाद हो गए, जिन्होंने माय टोकन पर यकीन करके एक बड़ा अमाउंट इन्वेस्ट कर दिया था। इंवेस्टर्स के संग यह धोखा पहली बार नहीं हुआ है जब स्कैमर्स ने धोखाधड़ी की हो। इससे पहले ओटूओवीके, ओरिच ऐप, एचपीजेड टोकन, जाज़ बाइक ऐप, पावर बैंक ऐप, ओएमजी ब्रुश ऐप आदि फेक ऐप लाखों निवेशकों की पीठ में खंजर घोंप कर रफूचक्कर हो चुके हैं।

रातों-रात धन कमाने की सनक किसी को भी गर्त में झोंक देती है। माय टोकन तो महज एक उदाहरण है, लेकिन दुनिया का कोई भी इंसान इसी तरह बर्बाद होता है। जैसे आजकल स्कैमर्स नकली वेबसाइट और ऐप्स बना कर पब्लिक की रकम लूट रहे हैं। स्कैमर्स हमेशा आपकी गाढ़ी मेहनत की कमाई का पैसा चुराने की फ़िराक में रहते हैं। चैनेलिसिस के डाटा हमें न केवल चौंकाते हैं बल्कि चेताते भी हैं। आंकडे़ बताते हैं, दुनिया में क्रिप्टोकरेंसी का कुल ट्रांजेक्शन 2021 में बढ़कर 15.8 ट्रिलियन डॉलर हो गया है। क्रिप्टोकरेंसी में कानूनी लेन-देन के मुकाबले अवैध लेन-देन ज्यादा है, जो दिन प्रतिदिन सुपरसोनिक विमान की गति से बढ़ता ही जा रहा है। आजकल क्रिप्टोकरेंसी ट्रेडिंग और वालेट की हज़ारांे नकली वेबसाइट्स इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। नकली वेबसाइट असली वेबसाइट के डोमेन जैसा नाम ही उपयोग में लेते हैं, जिससे उपयोकर्ता को असली और नकली डोमेन में फर्क करना बड़ा कठिन हो जाता है। इसी क्रम में स्कैमर्स ने नए-नए तरीक़े इज़ाद कर लिए हैं। इन नकली वेबसाइट को अधिक भरोसेमंद बनाने के लिए स्कैमर्स नकली रिकार्ड्स और प्रशंसापत्र शो करते हैं। केरल पुलिस ने 1200 करोड़ की नकली क्रिप्टोकरेंसी का भंडाफोड़ किया। नागपुर में 40 करोड़ से ज्यादा क्रिप्टो निवेश के धोखाधड़ी का खुलासा हुआ। पुणे पुलिस ने आला अफसर के वॉलेट से चोरी 900 से ज्यादा बिटकॉइन की तफ्तीस कर रही है, जिनकी मौजूदा कीमत 320 करोड़ से भी अधिक है।

स्कैमर्स नकली वेबसाइट और क्रिप्टो वालेट बनाकर रखते हैं, जो असली वेबसाइट और वॉलेट से मिलते-जुलते होते हैं। इन वेबसाइट और वालेट की लिंक्स को इंस्टाग्राम ,फेसबुक और टेलीग्राम सरीखे सोशल मीडिया प्लेटफार्मस पर ग्रुप बना कर लोगों के सूचनाएं साझा की जाती हैं। हैकर्स के जरिए तैयार की गई कुछ विशेष प्रकार की लिंक उपयोग में लाई जाती हैं, जो ईमेल, व्हाट्सअप, टेलीग्राम के जरिए रैंडम्ली लोगों को भेजी जाती हैं। उपयोगकर्ता यदि इन लिंक्स पर अपनी जानकारियां साझा कर देता है तो हैकर्स इन इनपुट्स का उपयोग कर अपराध को अंजाम देते हैं। ठगी करने वालों के जरिए लोगों को किसी नए टोकन के बारे में जानकारी दी जाती है। सोशल मीडिया प्लेटफार्म के जरिए इंफोरमेशन्स देकर लोगों को सम्मोहित किया जाता है, जिससे लोग उस टोकन में पैसा इन्वेस्ट कर बैठते हैं। इससे टोकन की कीमत काफी बढ़ जाती है, स्कैमर्स अपनी होल्डिंग्स को अच्छे दामों में बेचकर निकल जाते हैं। कुछ ही घंटों में टोकन की कीमत एकदम से गिरा जाती है, इससे लोगों का पैसा डूब जाता है।

गूगल प्ले जैसे सरीखे प्लेटफार्म पर सैकड़ों नकली क्रिप्टोऐप्स मिल जाती हैं। लोग इन्हें डाउनलोड कर अपना पैसा गवां देते हैं। हालांकि इन ऐप्स को गवर्नमेंट की ओर से जल्दी ही बैन कर दिया जाता है, लेकिन तब तक बहुत से लोगों का पैसा डूब चुका होता है। स्कैमर्स, लोगों को मेल या संदेश भेज कर धमकियां देते हैं। आपके द्वारा देखी गई एडल्ट वेबसाइट का रिकॉर्ड उनके पास है। इसके बदले अगर आप उनको क्रिप्टोवालेट की जानकारी या क्रिप्टोकरेंसी नहीं देंगे तो वे आपको बेनकाब कर देंगे। जालसाज एक योजना के तहत लोगों को अच्छे रिटर्न्स देने का वादा करते हैं। रातों-रात जल्दी पैसा कमाने की धुन में लोग जालसाजों के चुंगल में फंस जाते है। यह केवल एक भ्रम है, अतः इस प्रकार के किसी भी जाल में न फसें। क्रिप्टोकरेंसी के लिए व्हाइट पेपर होना जरुरी है, जिसमें क्रिप्टो की संपूर्ण जानकारी समाहित होती है। हैकर्स जाली व्हाइट पेपर बना कर लोगों को बेवकूफ बनाकर ठगी करते हैं। इंटरनेट पर कई कम्पनीज़ की ऐसी वेबसाइट्स उपलब्ध हैं, जिनकी गवर्निंग बॉडी का कोई अता-पता नहीं होता है। क्रिप्टो निवेश के अच्छे ऑफर को वेबसाइट पर शो कर लोग को सम्मोहित करते हैं और लोग उनके बिछे चंगुल में आसानी से फंस जाते हैं।

यदि आप क्रिप्टोकरेंसी में निवेश करते हैं तो अपने वालेट या ट्रेडिंग वेबसाइट की जानकारी किस भी व्यक्ति विशेष के साथ साझा न करें। सदैव अपने वालेट और ट्रेडिंग वेबसाइट पर पैनी नजर रखें। समय-समय पर अपने पासवर्ड को बदलते रहे। किसी भी अनजान कॉल या नकली आप के झांसे में न पड़े रातों रात अमीर बनाने वाले प्लान्स से दूर रहें। किसी भी ऐप की किसी वेबसाइट से डाउनलोड न कर ऑथेंटिक सोर्स जैसे गूगल प्ले , एप्पल स्टोर इत्यादि से ही किसी भी ऐप को डाउनलोड कर सत्यापित जरूर करें, आँख बंद करके उपयोग में न लें । घटना के तुरंत बाद सभी जानकारियां अपने बैंक को दें, जिससे आगे आने वाली समस्या का पहले ही समाधान हो सके। हाल ही में गूगल ने इन जाली क्रिप्टो एप्स को गूगल प्ले स्टोर से हटा दिया है, जैसे- बिटफंड- क्रिप्टो क्लाउड माइनिंग, बिटकॉइन माइनर- क्लाउड माइनिंग, बिटकॉइन बीटीसी- पूल माइनिंग क्लाउड वालेट, क्रिप्टो होलिक- बिटकॉइन क्लाउड माइनिंग, दैनिक बिटकॉइन पुरस्कार- क्लाउड आधारित खनन प्रणाली, बिटकॉइन 2021, माइनबिट प्रो- क्रिप्टो क्लाउड माइनिंग और बीटीसी माइनर, एथेरियम- पूल माइनिंग क्लाउड आदि। ट्रेंड माइक्रो के अनुसार 120 से अधिक नकली क्रिप्टोकरेंसी माइनिंग ऐप इंटरनेट पर अब भी उपलब्ध हैं।

कृष्ण जन्म भूमि : जानिए वह डिक्री, जिसमें मंदिर और ईदगाह पर बनी थी बात

नई दिल्ली में वर्ष 1984 में हुई धर्म संसद (Delhi Dharam Sansad 1984) के दौरान तीन मंदिरों को मुक्त कराने का प्रस्ताव पास किया गया। ये मंदिर थे, अयोध्या का राम मंदिर (Ayodhya Ram Mandir), वाराणसी का काशी विश्वनाथ मंदिर (Kashi Vishwanath Mandir) और मथुरा का श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर (Shri Krishna Janmbhoomi Mandir)। तीनों मंदिरों मुगल काल के दौरान तोड़े जाने की बात कही गई और वहां पर मुस्लिम धार्मिक स्थलों का निर्माण किया गया। हालांकि, तीनों ही मंदिरों का मुद्दा कोई 1984 में शुरू नहीं हुआ। यह मामला वर्षों नहीं सदियों पुराना था। बाद के समय में तीनों ही मंदिरों
का मुद्दा धार्मिक से अधिक राजनीतिक होता गया और अयोध्या राम मंदिर ने तो कई सरकारें बनाईं और गिराईं।

वर्ष 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से तीनों मंदिरों का मुद्दा खासा जोर पकड़ने लगा और इसे एक वर्ग ने अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ दिया। आखिरकार राम जन्मभूमि विवाद का हल वर्ष 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने किया। वाराणसी में भले ही काशी विश्वनाथ कॉरिडोर को सजा दिया गया हो, बाबा विश्वेश्वरनाथ और माता श्रृंगार गौरी मुद्दा एक बार फिर गरमाया हुआ है। इन सबके बीच मथुरा कोर्ट ने भी शाही ईदगाह मस्जिद को हटाए जाने संबंधी याचिका को स्वीकार कर प्रदेश में राजनीतिक से लेकर आस्था तक के सवाल को खासा गरमा दिया है। अब मथुरा कोर्ट वर्ष 1968 के उस समझौते की समीक्षा करेगा, जिसके तहत श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ और ट्रस्ट शाही ईदगाह मस्जिद कमिटी के बीच एक सहमति बनी थी। इसमें देखा जाएगा कि क्या श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ को मस्जिद ट्रस्ट के साथ समझौते का अधिकार था? सवालों के जवाब कोर्ट में आएंगे, जमीन पर राजनीति चरम पर है। 64 साल बाद समझौते की समीक्षा ने यूपी के राजनीतिक माहौल को गरमा दिया है। कानूनी मसलों पर चर्चा के बीच विवादों के इतिहास पर भी अब विमर्श शुरू हो गया है।
श्रीकृष्ण जन्मभूमि विवाद 1991 के एक्ट के तहत नहीं…मथुरा केस में कोर्ट ने क्या-क्या कहा, जानें सभी बड़ी बातें
ज्ञानवापी 213 साल तो कृष्ण जन्मभूमि का मसला 404 साल पुराना
ज्ञानवापी मस्जिद पर हिंदू पक्ष की ओर से दावेदारी काफी पुरानी है। 213 साल पहले यानी वर्ष 1809 में ज्ञानवापी मस्जिद में बाहर नमाज पढ़े जाने के मसले पर वाराणसी में पहली बार दंगा हुआ था। उसके बाद से लगातार हिंदू और मुस्लिम इस मुद्दे को लेकर आमने-सामने आते रहे हैं। वर्ष 1991 में ज्ञानवापी मस्जिद पर अधिकार के लिए पहली बार हिंदू पक्ष की ओर से याचिका दायर की गई। हालांकि, इलाहाबाद हाई कोर्ट ने वर्ष 1999 में इस पर सुनवाई से रोक लगा दी थी। अब ज्ञानवापी सर्वे का लोअर कोर्ट से आदेश और वहां पर शिवलिंग मिलने के दावों एवं माता श्रृंगार गौरी के मंदिर में पूजा-अर्चना का मसला गरमाने के बाद इलाहाबाद हाई कोर्ट में एक बार फिर यह मामला शुरू हो गया है। 31 साल पुरानी याचिका पर सुनवाई हो या नहीं, इस पर इलाहाबाद हाई कोर्ट 6 जुलाई को सुनवाई करेगी।

दूसरी तरफ, मथुरा का मुद्दा इससे बिल्कुल ही अलग रूप देता दिख रहा है। मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि के पास बनी शाही ईदगाह मस्जिद को हटाने की मांग को लेकर मथुरा कोर्ट ने मंजूरी दे दी है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि श्रीकृष्ण जन्मभूमि का यह मामला 404 साल पुराना है। पहली बार वर्ष 1618 में मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि या शाही ईदगाह मस्जिद को लेकर विवाद हुआ था। मुस्लिम पक्ष वहां मस्जिद होने का दावा करता था। वहीं, हिंदू पक्ष का कहना है कि मंदिर तोड़ी गई थी।
मामला जमीन के मालिकाना हक का नहीं, बल्कि मुस्लिम पक्ष के अवैध कब्जे का है, बोला श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान
1618 से चल रहा है श्रीकृष्ण जन्मभूमि का मामला
मथुरा में बुंदेला राजा वीर सिंह बुंदेला ने श्रीकृष्ण जन्मस्थान का निर्माण कराया था। उसके बाद मुस्लिम पक्ष की ओर से इस स्थान पर अपना दावा किया गया। कहा जाता है कि ओरछा के राजा वीर सिंह बुंदेला ने 33 लाख मुद्रा खर्च कर भगवान श्रीकृष्ण के भव्य मंदिर का निर्माण कराया। मुगल शासक औरंगजेब ने वर्ष 1670 में इस मंदिर को ध्वस्त करने का आदेश जारी किया। इसके बाद मंदिर पर आक्रमण कर इसे ढाह दिया गया। मुगल दरबार में आने वाले इटालियन यात्री निकोलस मनुची ने अपनी किताब ‘स्टोरिया डो मोगोर’ यानी मुगलों का इतिहास में लिखते हैं कि रमजान के महीने में श्रीकृष्ण धर्मस्थान को ध्वस्त किया गया। वहां ईदगाह मस्जिद बनाने का आदेश जारी किया गया।

औरंगजेब के आदेश से श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर शाही ईदगाह मस्जिद का निर्माण किया गया। श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर हिंदूओं को जाने से रोक लगा दी गई। इससे आक्रोशित मराठाओं ने जंग छेड़ दी। वर्ष 1770 में गोवर्धन में मुगल और मराठाओं के बीच भीषण जंग हुई और इसमें मराठा जीते। मराठा वीरों ने ईदगाह मस्जिद के पास 13.37 एकड़ जमीन पर भगवान केशवदेव यानी श्रीकृष्ण मंदिर का निर्माण कराया। बाद के समय में देखरेख के अभाव में मंदिर जर्जर हुआ और भूकंप में ढह गया।

वर्ष 1803 में अंग्रेजों ने मथुरा पर अपना कब्जा जमाया। उन्होंने वर्ष 1815 में कटरा केशवदेव की जमीन को नीलाम कर दिया। बनारस के राजा पटनीमल ने इस जमीन को 1410 रुपये में खरीदी। राजा पटनीमल इस स्थान पर भगवान केशवदेव का मंदिर बनवाना चाहते थे, लेकिन वर्ष 1920 से 1930 के बीच जमीन सौदे पर विवाद शुरू हो गया। मुसलमानों का दावा था कि जिस जमीन को अंग्रेजों ने राजा से बेचा, उसमें ईदगाह का भी हिस्सा था। फरवरी 1944 में उद्योगपति जुगल किशोर बिरला ने राजा पटनीमल के वारिसों से साढ़े 13 हजार रुपये में यह जमीन खरीद ली। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वर्ष 1951 में श्रीकृष्ण जन्मस्थान ट्रस्ट का निर्माण किया गया और 13.37 एकड़ जमीन मंदिर निर्माण के लिए उसे सौंप दी गई।
क्या है 1968 के विवादित समझौते का मामला?
1951 में ट्रस्ट निर्माण के बाद वर्ष 1953 में श्रीकृष्ण मंदिर के निर्माण का कार्य शुरू किया गया। इसे वर्ष 1958 में पूरा किया गया। मंदिर शाही ईदगाह मस्जिद से सटकर बनाया गया था। वर्ष 1958 में एक और संस्था का गठन किया गया। श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान नाम की इस संस्था को श्रीकृष्ण मंदिर के कानूनी अधिकारों से अलग रखा गया था। इस संस्था का मंदिर की 13.37 एकड़ जमीन पर कोई कानूनी अधिकार नहीं था। इसके बाद भी 12 अक्टूबर 1968 को श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान ने शाही ईदगाह ट्रस्ट के साथ समझौता किया। इसमें तय हुआ कि 13.37 एकड़ जमीन पर मंदिर और मस्जिद दोनों बने रहेंगे। श्रीकृष्ण जन्मस्थान ट्रस्ट हमेशा इस समझौते को धोखा बताता रहा है।

पूरा विवाद 13.37 एकड़ जमीन पर मालिकाना हक का है। इसमें 10.9 एकड़ जमीन श्रीकृष्ण जन्मस्थान और 2.5 एकड़ जमीन शाही ईदगाह मस्जिद के पास है। पूरा मामला श्रीकृष्ण के जन्मस्थान का है। हिंदू पक्ष का मानना है कि मथुरा के राजा कंस की जेल को तोड़कर शाही ईदगाह मस्जिद का निर्माण किया गया। इसी जेल में माता देवकी ने भगवान श्रीकृष्ण को जन्म दिया था। हिंदू पक्ष पूरे 13.37 एकड़ जमीन पर अपना मालिकाना हक चाहता है।
Mathura krishna janmabhoomi: ज्ञानवापी की तर्ज पर मथुरा ईदगाह का हो सर्वे, जानिए क्या है श्रीकृष्ण जन्मभूमि विवाद, कितनी याचिकाएं हैं लंबित
कोर्ट में दायर याचिका में है क्या?
सिविल कोर्ट में दायर याचिका में श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ और शाही ईदगाह मस्जिद ट्रस्ट के बीच वर्ष 1968 में हुए समझौते को अवैध घोषित करने की मांग की गई है। हिंदू पक्षकारों की मांग है कि कटरा केशवदेव जमीन को भगवान श्रीकृष्ण को वापस किया जाए। वहां पर मुसलमानों को जाने से रोका जाए। उस स्थान पर ईदगाह मस्जिद का जो ढांचा बना है, उसे हटाया जाए। इस मामले में याचिकाकर्ता भगवान श्रीकृष्ण विराजमान और स्थान श्रीकृष्ण जन्मभूमि की सखी रंजना अग्निहोत्री और पांच अन्य वादी हैं। अन्य वादियों में प्रवेश कुमार, राजेश मणि त्रिपाठी, करुणेश कुमार शुक्ला, शिवाजी सिंह और त्रिपुरारी तिवारी हैं। केस में प्रतिवादी यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड, ईदगाह मस्जिद कमिटी, श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट और श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान को बनाया गया है।

पूजा का स्थान अधिनियम यहां क्यों नहीं प्रभावी?
मस्जिद कमेटी की ओर से बार-बार प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट यानी पूजा के स्थान अधिनियम 1991 का हवाला दिया जा रहा है। इस एक्ट की धारा 4 के तहत 15 अगस्त 1947 को देश के जो धार्मिक स्थल जिस स्वरूप में थे, उनके स्वरूप में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता है। न ही उनकी प्रकृति बदली जा सकती है। इस एक्ट के हवाले मस्जिद कमेटी का कहना है कि यह मस्जिद यहां सदियों से है। ऐसे में इसको कैसे हटाया जा सकता है? इस पर कोर्ट ने 1991 के ही एक्ट की धारा 4 की उप धारा 2 का उल्लेख किया है।

कोर्ट ने कहा कि एक्ट में ही साफ किया है कि इसके लागू होने यानी वर्ष 1991 के पहले किसी कोर्ट, न्यायाधिकरण या अन्य प्राधिकारी के स्तर पर पूजा स्थलों से संबंधित केस को निपटाया गया हो, उस पर यह अधिनियम प्रभावी नहीं होगा। कोर्ट ने कहा है कि विवादित जमीन के बंटवारा का 1968 का समझौता वैध था या नहीं, यह सबूतों के आधार पर ही तय किया जा सकता है

कोर्ट ने सुनवाई के दौरान कहा कि कटरा केशव देव की पूरी संपत्ति के संबंध में क्या श्रीकृष्ण जन्मभूमि सेवा संघ के पास ट्रस्ट मस्जिद ईदगाह के साथ समझौता करने की शक्ति थी? यह साक्ष्य आधारित मामला है, जो केवल सबूतों के आधार पर निर्धारित किया जा सकता है। सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों की ओर से यह भी कहा गया है कि एक उपासक देवता के मित्र या सखी के रूप में उनके धार्मिक अधिकारों की बहाली और पुनर्स्थापना के लिए मुकदमा दायर कर सकता है।

वक्फ बोर्ड के वकील जीपी निगम ने इस मामले में टिप्पणी करने से इनकार किया। साथ ही, दावा किया कि 1991 का अधिनियम इस मामले में भी आंशिक रूप से लागू होगा, क्योंकि याचिकाकर्ताओं ने उस जमीन की मांग की है, जिस पर मस्जिद स्थित है। वहीं, वकील गोपाल खंडेलवाल ने दावा किया है कि मथुरा-वृंदावन नगर निगम के म्युनिसिपल रिकॉर्ड में भगवान केशव देव को पूरी जमीन के मालिक के रूप में उल्लेखित किया गया है। यह जमीन 13.37 एकड़ है। उन्होंने कहा कि देवता की ओर से नगर निगम को जल कर और अन्य करों का भुगतान किया जा रहा है।

ज्ञानवापी को लेकर चला विवाद अधिकार छीनने की नहीं अधिकार पाने की लड़ाई का नाम है

नीरज बधवार

साल 2020 में तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन ने हागिया सोफिया नाम के एक म्यूजियम को मस्जिद में बदल दिया। म्यूज़ियम की यह इमारत 1700 साल पुरानी थी। जो सदियों तक कभी चर्च रही और कभी मस्जिद और अभी कुछ दशकों से म्यूज़ियम थी लेकिन साल 2020 में तुर्की के राष्ट्रपति एदोर्गन ने इस्लामिक अतीत का हवाला देते हुए इस म्यूजियम को मस्जिद में कन्वर्ट कर दिया। इसी के एक महीने बाद 22 अगस्त 2020 को उन्होंने एक और बीजान्टिन चर्च को भी मस्जिद में बदल दिया गया।
हम ये नहीं कह रहे कि ऐसा करना गलत था या सही, लेकिन ये समझने की ज़रूरत है कि हर देश का अपना सांस्कृतिक और धार्मिक अतीत होता है जिसमें वो अपनी पहचान देखता है। तुर्की को हागिया सोफिया म्यूजियम में लगा, बीजान्टिन चर्च में लगा, कुछ को यरूशलेम में लगता है तो उसी तरह लाखों-करोड़ों लोगों को मथुरा और काशी को लेकर लगता है। सिर्फ लगता नहीं, उसके प्रमाणित दस्तावेज़ भी है।

मगर सवाल ये है कि जब मुस्लिम दुनिया हागिया सोफिया म्यूज़ियम को मस्जिद में कंवर्ट करने का गर्व कर सकती है। उसे उसके पुराने स्वरूप में पाने पर अभिभूत हो सकती है तो यही बात ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर क्यों नहीं समझी जा सकती? समझना तो दूर एक वर्ग ज्ञानवापी के सर्वे के वक्त से बुरी तरह भड़का हुआ है। सर्वे के ज़रिए सच और झूठ सामने आने का इंतज़ार करने के बजाए वो तथ्यों की छानबीन करने पर ही आग बबूला हो रहा है।
उसका कहना है कि इस तरह के पुराने मामले कुरेदने से समाज में नफरत बढ़ेगी। कुछ की दलील है कि 1991 के Places of worship एक्ट के तहत ऐसे सर्वे किए ही नहीं जा सकते। कुछ लोग सर्वे में मिले शिवलिंग का मज़ाक उड़ा रहे हैं, तो कुछ लोग खुलेआम धमकी दे रहे हैं कि अगर मस्जिद के साथ छेड़खानी की गई तो लाखों-करोड़ों मुसलमान सड़कों पर आ जाएंगे। आइए हम एक-एक करके इन तमाम आपत्तियों का जवाब देने की कोशिश करते हैं।
पहली बात तो ये है कि जब भी हम न्याय की बात करते हैं तो ये बात तो कोई मायने नहीं रखती कि ज़ुल्म कितने साल पहले हुआ था। इज़राइल और यूरोपीय देशों ने दूसरे विश्व युद्ध के अपराधियों को पचास पचास साल बाद तक दुनिया के कोने-कोने से ढूंढ कर सज़ा दी। जिस हागिया सोफिया का जिक्र किया वो इमारत 1700 साल पुरानी थी। कितने ही मामलों में हत्या और रेप के आरोपियों को साठ साठ बाद तक गिरफ्तार कर सज़ाएं दी जाती हैं। कुछ दिन पहले ही बिहार में एक ज़मीन विवाद में अदालत ने 105 साल बाद फैसला सुनाया। आज भी मुस्लिम समाज यरूशलेम से लेकर आर्मेनिया के कॉकेशस तक ऐसी लड़ाइयां लड़ रहा है, तो फिर मथुरा, काशी या भोजशाला पर ऐसी आपत्तियां क्यों?
और जिन घटनाओं का हम ज़िक्र कर रहे हैं वो किसी काल्पनिक उपन्यास में नहीं, बल्कि प्रमाणित दस्तावेजों में लिखी हैं। ऐसे दस्तावेज़ जिसे हर तरह की विचारधारा वाला, हर ‘विंग’ वाला व्यक्ति मानता है। 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फरमान आज भी कोलकात्ता की एशियाटिक लाइब्रेरी में सुरक्षित है। उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खाँ द्वारा लिखित ‘मासीदे आलमगिरी’ में इस ध्वंस का वर्णन है। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी।
1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था। अहिल्याबाई होलकर ने इसी परिसर में विश्वनाथ मंदिर बनवाया जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र बनवाया। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहाँ विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई। नंदी प्रतिमा का मुख उल्टा होने का रहस्य यही है कि पहले मंदिर जहाँ थी, वहाँ मस्जिद बना ली गई।
और जैसा मैंने ऊपर कहा ये सब बातें कल्पना में नहीं, प्रमाणित इतिहास में दर्ज हैं। मगर बजाए उन ज़्यादतियों को दुरुस्त करने की बात करने के, आत्ममंथन करने के, हम आहत भावनाओं की दुहाई देकर सब कुछ एक सांस में रफा-दफा कर देते हैं।
अब दिक्कत ये है कि इंसान की खुद की औसत उम्र चूंकि आज भी 70 साल के आसपास है इसलिए जब भी वो चार-पांच सौ साल पुराने के जुल्म की बात सुनता है तो उसे लगता है कि ये मामला तो बहुत पुराना है। लेकिन जिस मानव जाति का अतीत लाखों साल पुराना है उसमें चार-पांच सौ साल पुरानी बातें तो ‘कल-परसों’ की बात की तरह हैं। इतिहास की किताब में ये कुछ सौ साल तो चंद पन्नों में सिमट जाते हैं। इसलिए मामले के पुराने होने की बात तो रहने दीजिए। मुगलकाल या किसी भी वक्त में अगर धार्मिक स्थलों के साथ कोई भी ज़्यादती हुई और आज हमारे पास उस ज़्यादती को साबित करने के पुख्ता सबूत हैं तो उसे हर हाल में दुरूस्त करना चाहिए। ज्ञानवापी मस्जिद ही नही…खिलजी का नालंदा विश्वविद्यालय को जलाना। अहमदशाह का भद्रकाली मंदिर तोड़कर वहां मस्जिद बनवाना या रूद्र महल तोड़कर जामा मस्जिद बनवाना। और ऐसे कोई दो-चार नहीं, सैकड़ों मामले हैं। इसलिए इस बात के कोई मायने नहीं रह जाते कि ये मामले कितना पुराने हैं। और ये किसने कह दिया कि गलतियों या ज़ुल्म के ज़्यादा पुराने हो जाने पर उन्हें भुला देने चाहिए। अगर ऐसा है तो लड़ाइयां पीड़ितों की ज़िंदादिली का नहीं उनकी मूर्खता का प्रमाण बन जाएंगी।
अगर आपके 6 महीने के बच्चे को कोई उठाकर ले जाए और जब वो 30 बरस का हो और आपको उसका पता लगे तो आप उसे घर लाने की कानूनी लड़ाई लड़ेंगे या ये सोचकर चुप रह जाएँगे कि ये तो काफी पुराना मामला है। वो आपका बच्चा है और आप उसके लिए किसी भी हद तक जाकर लड़ाई लडेंगे। हिंदू परंपरा मेंं देवताओं को भी नाबालिग माना जाता है और उनकी उसी तरह देखभाल की जाती है जिस तरह एक बच्चे की। ऐसे में ये कैसे संभव है कि किसी शिवलिंग का पता लगने पर उनके भक्त आंखें मूंद लें और उन्हें उनके हाल पर छोड़ दें।
दूसरी दलील ये दी जा रही है कि 1991 के Places of Worship एक्ट के तहत 1947 के बाद किसी भी धार्मिक स्थल के प्रारूप में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता। ओवैसी जैसे लोग जब भी ज्ञानवापी मामले पर बोलते हैं तो वो हमेशा इसी एक्ट का हवाला देते हैं। बदलाव क्यों होना चाहिए उसकी दलील तो मैं दे ही चुका हूं लेकिन औवेसी या उनके जैसे बाकी मुस्लिम स्कॉलर ये बात करते हैं तो हंसी आती है। अरे भाई, आप लोग कब से कानून की परवाह करने लगे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो शाहबानो केस है। जो लोग नहीं जानते उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि शाहबानो एक मुस्लिम महिला हैं जिसका 1985 में अपने शौहर से तलाक हुआ। तब अदालत ने उनके पति को आदेश दिया कि इन्हें हर महीने गुज़ारा भत्ता दें मगर इस बात से कट्टरपंथी मुस्लिम भड़क गए।
उन्होंने इसे अपनी मज़हबी व्यवस्था के खिलाफ बताया और इन्हीं कट्टरपंथियों को खुश करने के लिए राजीव गांधी सरकार संसद में कानून लेकर आई और सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को पलट दिया। मतलब जब चीज़ें कानून के मुताबिक हों लेकिन आपको पसंद न आए, तो आप मज़हबी रवायत की दुहाई देने लगें और सामने वाला अपनी आस्था की बात करे तो आप कानून की दुहाई देने लगें। इसलिए जो ओवैसी जैसे जो मुस्लिम स्कॉलर 1991 के एक्टर की बात न ही करें तो बेहतर है। औवेसी साहब आपको कानून और अदालतों की इतनी परवाह होती तो आप कानून द्वारा Instant ट्रिपल तलाक ख़त्म करने का स्वागत करते। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद राम मंदिर बनाने के आदेश को भी खुले दिल से स्वीकार करते। लेकिन उस मामले में आपकी क्या राय है ये सबको पता है।
और तीसरी और सबसे बड़ी बात…बहुत से मुस्लिम नेता, मौलवी खुलेआम ये धमकी दे रहे हैं कि ज्ञानवापी मस्जिद के साथ छेड़खानी करने की कोशिश की गई तो खून की नदियां दी जाएगी। मुझे लगता है कि इन बातों में भी कोई दम नहीं है। पिछले कुछ सालों में ये समझ आ गया है कि इस देश का मुसलमान इन घटनाओं पर वैसे रिएक्ट नहीं करता जैसे इनके तथाकथित नेता चाहते हैं।
अय़ोध्या विवाद के वक्त भी यही मुस्लिम नेता धमकी देते थे कि अगर सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर के पक्ष में फैसला दिया तो मुसलमान सड़कों पर आ जाएगा मगर कुछ हुआ नहीं। कश्मीर में सेक्शन 370 हटाने की बात पर कश्मीर के नेता अक्सर धमकी देते थे कि अगर 370 हटाई गई तो पता नहीं क्या आफत आ जाएगी मगर कुछ हुआ नहीं। ऐसे ही धमकी Instant ट्रिपल तलाक के वक्त भी दी गई मगर उसके खातमे के बाद भी कोई भूचाल नहीं आया।
मतलब साफ है…चाहे अयोध्या हो या काशी अगर कोई जगह हिंदुओं के लिए इतने धार्मिक महत्व की है और अतीत में वहां कुछ गलत हुआ है तो उसे इस देश का मुसलमान भी समझता है…इन जगहों को वापिस पाने का ये मतलब नहीं कि आज के मुसलमानों के साथ कोई ज़ुल्म हो रहा है। अगर ट्रिपल तलाक ख़त्म हुआ तो इससे मुस्लिम महिलाओं को ही फायदा हुआ। अगर 370 हटने के बाद कश्मीर में हालात सामान्य हुए, टूरिज़म कई दशकों बाद इतना बेहतर हुआ, तो सबसे ज़्यादा फायदा वहां के कश्मीरियों को ही हुआ। इसलिए मुस्लिम नेताओं के लिए बेहतर होगा कि वो आम मुसलमान के सड़क पर आने की धमकी देने के बजाए बिना पूर्वाग्रह के हिंदुओं की भावनाओं को भी समझे। ये लड़ाई किसी से उसका हिस्सा छीनने की नहीं, अपना हक पाने की है।

हिजाब यानि आधा तीतर आधा बटेर

पार्थसारथि थपलियाल

भारतीय संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनुच्छेद 19 में और जीने की स्वतंत्रता अनुच्छेद 21 में व्यक्त है। वैसे संविधान के अनुच्छेद 12 से 35 के मध्य भारतीय नागरिकों को मौलिक अधिकार प्राप्त हैं। भारतीय
संस्कृति में महिलाओं को सामाजिक और वैधानिक तौर पर विशेष दर्जा प्राप्त है। कम से कम 10 कानून तो ऐसे हैं जो महिलाओं के अधिकार, सम्मान और सुरक्षा से जुड़े हुए हैं। जैसे-दहेज निरोधक अधिनियम 1961, बाल विवाह निरोधक अधिनियम, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 2005, घरेलू हिंसा अधिनियम 2005, कार्यस्थल पर यौन हिंसा अधिनियम 2013, मातृत्व अधिनियम 2017 के अलावा भी कानून हैं जो महिला को सशक्त बनाने के लिए हैं।
इन अधिकारों की हवा कई रास्तों से निकाल दी जाती है जब इनका उपयोग उस भावना से नहीं किया जाता जिस भावना से वे कानून बनाए गए होते हैं। यह बात इसलिए उठाई जा रही है कि एक ओर कर्नाटक के एक महाविद्यालय में फरवरी 2022 में बुर्का पहनने को लेकर हंगामा हुआ। यह विचार, पक्ष और विपक्ष में बंटा। देशभर में चर्चाओं के दौर शुरू हुए। किसी ने धार्मिक स्वतंत्रता पर विरोध को कुठाराघात बताया तो किसी ने बुर्का को सभ्य समाज मे महिलाओं के अधिकार को दबाने का प्रयास बताया। संभवतः यह विवाद उतना न बढ़ता जितना मीडिया ने उसे हवा दी। कुछ लोगों का मानना है कि यह एक षड्यंत्र है।

यह बात समझ से बाहर हो जाती है कि यदि बुर्का पहनना धर्म विशेष का अंग है तो यह उस सामाजिक व्यवस्था की सभी महिलाओं के लिए होनी चाहिए। ये ‘आधा तीतर आधा बटेर’ की कहावत को क्यों ज़िंदा रखा गया है। मुस्लिम समाज की एक यौवना को मीडिया इन दिनों जिस तरह से हॉट कहकर दिखा रहा है उसकी भर्त्सना किसी ने नहीं की। आए दिन उनका नए-नए रूपों में प्रदर्शित होना कितना कलात्मक है यह खोज का विषय है। अश्लीलता से भरे ‘बिग बॉस’ हमारी किस संस्कृति को प्रदर्शित करता है इसके बारे में संस्कृति मंत्रालय और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को विचार करना चाहिए। ऐसी स्थिति में महिलाओं के हित के लिए 1986 में बनाया गया कानून ‘स्त्री अशिष्ट रूपण (निषेध) अधिनियम 1986’ कितना सार्थक रह जाता है, यह समाज के लिए विचारणीय बिंदु है।
भारतीय समाज मे यह चर्चा का विषय कभी नहीं रहा कि कौन व्यक्ति क्या पहनें या न पहनें। समाज अनुकूल, कार्य अनुकूल, अवस्था और व्यवस्था अनुकूल सभ्य समाज ने मानवीय गरिमा को स्वतः बनाए रखा।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जाल में उलझा भारत स्वच्छंदता और स्वतंत्रता के भेद को इस लिए नहीं समझ पाता क्योंकि ये कंपनियां भारतीय संस्कृति को भ्रष्ट और नष्ट करने के लिए वे सभी काम प्रचार प्रसार से करती हैं कि नाव धनाढ्य वर्ग उसके पिछलग्गू बन जाता है। उसका अंधानुकरण बाकी उत्साही लोग भी करते हैं। धंधा करती हैं बड़ी बड़ी कंपनियां, जो अपना माल बेचने के लिए महिलाओं का अश्लील प्रदर्शन करती है, सियार द्वारा नोचे जा रहे मृत जानवर की हिस्सेदारी में अप संस्कृति को बढ़ावा देता मीडिया भी गिद्ध की तरह आ धमकता है। बाजारों और चौराहों पर लगे बड़े बड़े होर्डिंग्स पर महिलाओं को जिन रूपों में प्रदर्शित किया जाता है वह 1986 में बने कानून के विरुद्ध होते हैं। OTT प्लेटफार्म पर बिना नियंत्रण के सब कुछ चलता है। संस्कृति जाए भाड़ में। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग है।
हमारी गरिमामयी संस्कृति में हमारे परिधान हमारी आभा को बढ़ाते हैं। आदमी जंगली जीवन से विकसित होकर सभ्य बना है लेकिन धन कमाने की होड़ ने आधुनिक समाज ने अनेक कुसंस्कारों को जन्म दिया है। धनाढ्य वर्ग के लिए यह किसी महत्व का विषय नही है, लेकिन सांस्कृतिक मर्यादाओं को ढोता समाज ठगा जा रहा है, वह नही समझ पा रहा है कि वह कपड़ा पहने या उतारे। यह गहन चिंतन का विषय है।
किसको कहें और कौन सुने, सुने तो समझे नाहि।
कहना, सुनना, समझना सब मन ही के मन माही।।

जय श्रीराम” नाम से परहेज क्यों ?

डा.राधे श्याम द्विवेदी
जय श्रीराम ( Jaya Śrī Rāma ) भारतीय में बहुत विशाल जन समूह द्वारा अपने आराध्य के सम्मान में की गई अभिव्यक्ति है, जिसका अनुवाद “भगवान राम की महत्ता” या “भगवान राम की विजय ” के रूप में किया जाता है। इस उद्घोषणा का उपयोग सनातनियो वा हिंदुओं द्वारा अनौपचारिक अभिवादन के रूप में, हिंदू आस्था के पालन के प्रतीक के रूप में, या विभिन्न आस्था-केंद्रित भावनाओं के प्रक्षेपण के लिए किया जाता रहा है।
अयोध्या में राम के प्रतीक को सम्मानित अभिव्यक्ति का इस्तेमाल भारतीय हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी), भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और उनके आनुषंगिक संगठनों द्वारा भी किया जा रहा है। एक नारे में “जय” का पारंपरिक उपयोग ” सियावर रामचंद्रजी की जय ” (“सीता के पति राम की विजय”) के साथ है। राम का आह्वान करने वाला एक लोकप्रिय अभिवादन “जय राम जी की” और “राम-राम” भी है। “राम” के नाम का अभिवादन पारंपरिक रूप से सभी धर्म के लोगों द्वारा अधिकाधिक उपयोग किया जाता रहा है। यह नमस्ते और प्रणाम से ज्यादा लोकप्रिय रहा है।
रामायण सीरियल से शुरुवात
1980 के दशक के उत्तरार्ध में, “जय श्री राम” का नारा रामानंद सागर की टेलीविजन श्रृंखला रामायण द्वारा लोकप्रिय किया गया था, जहाँ हनुमान और वानर सेना द्वारा सीता को मुक्त करने के लिए रावण की राक्षस सेना से लड़ते हुए युद्ध के रूप में इसका इस्तेमाल किया गया था। . हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन विश्व हिंदू परिषद , भारतीय जनता पार्टी सहित और उसके संघ परिवार के सहयोगियों ने अपने अयोध्या राम जन्मभूमि आंदोलन में इसका इस्तेमाल किया। उस समय अयोध्या में स्वयंसेवक अपनी भक्ति को दर्शाने के लिए स्याही के रूप में अपने रक्त का उपयोग करते हुए, अपनी त्वचा पर नारा लिखते थे। इन संगठनों ने जय श्रीराम नामक एक कैसेट भी वितरित किया, जिसमें “राम जी की सेना चली” और “आया समय जवानों जागो” । इस कैसेट के सभी गाने लोकप्रिय बॉलीवुड गानों की धुन पर सेट थे। अगस्त 1992 में संघ परिवार के सहयोगियों के नेतृत्व में कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद के पूर्व में मंदिर की शिलान्यास रखी । यहां एक दिलचस्प बात यह है कि अभिवादन ‘जय सिया राम’ को ‘जय श्री राम’ के युद्ध घोष में परिवर्तित कर दिया गया है। अपनी अस्मिता और संस्कृति को बचाने के लिए यह अनुपयुक्त नही है।जब देश के बहुसंख्यक समाज को आए दिन “अल्लाह हो अकबर” और ” वाहे गुरु” आदि अन्य घोष से कोई असुविधा नहीं होती तो “जय श्रीराम” या “बंदे मातरम” या “भारत माता की जय” से भी किसी को असुविधा नहीं होनी चाहिए।
गोधराआंदोलन में प्रयोग
फरवरी 2002 में गोधरा ट्रेन में आग लगने की घटनाओं से पहले गुजरात विहिप और बजरंग दल जैसे उसके संबद्ध संगठनों के समर्थक, जो की अयोध्या की यात्रा पर जा रहे थे, ने रास्ते में मुसलमानों को “जय श्री राम” का जाप करने के लिए मजबूर किया, और अपनी वापसी की यात्रा पर, उन्होंने गोधरा सहित “हर दूसरे स्टेशन” पर भी ऐसा ही किया।एसा उस समय सैकड़ों कारसेवकों को धोखे से षड्यंत्र के तहत निर्मल जलाने के कुत्सित क्रिया के प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ था। राम जन्मभूमि पर समारोह में शामिल होने के लिए ये यात्राएं साबरमती एक्सप्रेस में की गईं। 2002 के गुजरात दंगों के दौरान, विहिप द्वारा वितरित एक पत्रक में नारे का इस्तेमाल किया गया था ।
राजनीति
जून 2019 में, इस नारे का इस्तेमाल मुस्लिम सांसदों को परेशान करने के लिए किया गया था जब वे 17 वीं लोकसभा में शपथ लेने के लिए आगे बढ़े थे।उस वर्ष जुलाई में, नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने एक भाषण में कहा था कि नारा “बंगाली संस्कृति से जुड़ा नहीं था”, जिसके कारण कुछ अज्ञात समूहों ने कोलकाता में होर्डिंग पर उनका बयान प्रकाशित किया। इस नारे का इस्तेमाल पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को कई मौकों पर परेशान करने के लिए भी किया गया है, जिससे उनकी नाराज़ प्रतिक्रियाएँ आयीं । अगस्त 2020 में राम मंदिर, अयोध्या के शिलान्यास समारोह के बाद, नारे को उत्सव में एक मंत्र के रूप में इस्तेमाल किया गया था।अयोध्या विवाद पर 2019 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद वकीलों द्वारा इस नारे का इस्तेमाल किया गया था। सब मिलकर ये नारा किसी को उकसाने या चिढ़ाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए।कांग्रेस पार्टी, तृण मूल पार्टी ,आम आदमी पार्टी ,समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी ,कम्यूनिष्ट पार्टी,टुकडे टुकडे गैंग आदि ने हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन विश्व हिंदू परिषद , भारतीय जनता पार्टी सहित और उसके संघ परिवार के सहयोगियों पर निशाना साधते हुए जय श्री राम नाम को संकुचित राजनीतिक बताकर दुष्प्रचार कर रहे हैं।
लोकप्रिय अभिवादन
‘सिया राम’ अनादि काल से ग्रामीण इलाकों में स्वागत का एक लोकप्रिय अभिवादन रहा है। हिंदू के कुछ प्रेमियों ने अब इस लोकप्रिय अभिवादन से सिया को बदलकर ‘ श्री ‘ (प्रभु) कर दिया है, जिससे पुरुषवादी पौरुष और मुखरता के पक्ष में स्त्री तत्व तात्कालिक किंचित परित्याग दिख रहा है । 1992 में दंगों और बाबरी मस्जिद के विध्वंस के दौरान भी यही नारा लगाया गया था। यदि इस तरह की एकजुटता और प्रयास निरंतर नही होता तो आज देश बाबरी के कलंक से अवमुक्त ना हो पाता।


परम ब्रह्म तो भावना भक्ति को महत्व देते हैं ।जय सियाराम कहना तो अति उत्तम है ही ,जय श्री राम की नाद या घोष भी उन तक पहुंचेगी। यदि इस नाम के से कोई प्रभु का राष्ट्र का समाज का या अपना कोई स्वार्थ सिद्ध कर ले तो ये राजनीतिक रोटी तो नही होगी।आत्म संतुष्टि तो रोटी से ही होती है।चाहे खेत से या बाजार से या राज धर्म से मिली हो।भगवान राम ने भी धर्म का ध्रुवीकरण कर लंका पर विजय पाई थी। प्रभु राम भी सरल चित्त वाले को पसंद करते है। वे तो बाबा तुलसी के इस विचार को अंगीकार करते हैं —
निर्मल जन मन सो मोहि पावा।मोहि कपट छल छिद्र ना भावा।
चाहे कोई प्राणी अघमोचन कहे या घमोचन। “मरा मरा” कहने वाला उत्तम गति को पा सकता है तो जय श्रीराम क्यों नही?
श्री राम जी को सब कुछ स्वीकार है जय श्री राम जी और जय सियाराम जी भी।इसलिए अनर्गल प्रलाप से बचना चाहिए। जय श्री राम जी।जय सियाराम जी की।

दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम

दाने दाने पर नाम लिखा है जिसने जिसको खाया है।
हर दाने पर मोहर लगी है जिसने जिसको उगाया है।।

खाने वाले करोड़ों मिलेगे देने वाला बस एक ही राम।
मिलेगा उसको उतना ही जिसका लिखा उसका नाम।।

मिलेगे उसको उतने दाने जितना उसका है नसीब।
चाहे जितना अमीर हो चाहे जितना हो वह गरीब।।

हर दाना है कीमती उसको कभी न तुम बर्बाद करो।
जितना जिसको मिल जाए उस पर तुम सबर करो।।

दाना चुगता पक्षी भी ,दाना ही खाता हर इंसान भी।
जैसा बोओगे वैसा काटोगे कहते हैं गीता कुरान भी।।

करता हूं प्रभु से प्रार्थना,सब को भोजन दीजिए।
भूखा कोई न सोए जगत में,ऐसी कृपा कीजिए।।

आर के रस्तोगी