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गणि राजेन्द्र विजय : आदिवासी प्रकाश स्तंभ

19 मई 2022, को जन्मदिवस पर विशेषः

ललित गर्ग

भारतीय संत परम्परा में गणि राजेन्द्र विजयजी का महत्ववपूर्ण स्थान है। आदिवासियों के मसीहा एवं जैन संत के रूप में उनके तपोमय जीवन, दिव्यवाणी और चमत्कारपूर्ण आध्यात्मिक आभामंडल से हजारों-लाखों व्यक्तियों के जीवन की दिशा बदली है। उनके जादुई स्पर्श से गुजरात के आदिवासी अंचलों में खासकर छोटा उदयपुर, कंवाट, बलद, रंगपुर, बोडेली आदि क्षेत्रों में नई चेतना का संचार हुआ है।
एक संतपुरुष के रूप में उनका नेतृत्व समूचे राष्ट्र और मानवता के लिए बहुत उपयोगी है। इस माह में 19 मई 2022 को उनका 47वां जन्मदिवस भी है, इसे गुजरात के साथ देश के अन्य क्षेत्रों में ‘सामाजिक सद्भावना दिवस’ के रूप में मनाया जा रहा है। 19 मई, 1974 को एक आदिवासी परिवार में जन्म लेने वाले गणि राजेन्द्र विजयजी, मात्र ग्यारह वर्ष की अवस्था में जैन मुनि बन गये। गणि राजेन्द्र विजयजी त्याग, साधना, सादगी, प्रबुद्धता एवं करुणा से ओतप्रोत आदिवासी जाति की अस्मिता की सुरक्षा के लिए तथा मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठापित करने के लिए सतत प्रयासरत हैं। बीस से अधिक पुस्तकें लिखने वाले इस संतपुरुष ने स्वस्थ एवं अहिंसक समाज निर्माण के लिये जिस तरह के प्रयत्न किये हैं, उल्लेखनीय हैं। अपनी धुन में आदिवासी समाज की शक्ल बदलने के लिये प्रयासरत हंै और इन प्रयासों के सुपरिणाम देखना हो तो कंवाट, बलद, रंगपुर, बोडेली आदि-आदि आदिवासी क्षेत्रों में देखा जा सकता है।
सुखी परिवार अभियान के प्रणेता गणि राजेन्द्र विजय पिछले 30 वर्ष में करीब-करीब पूरे देश की पैदल यात्रा कर चुके हैं। वे आदिवासी जनजीवन के उत्थान और उन्नयन के लिये लम्बे समय से प्रयासरत है और विशेषतः आदिवासी जनजीवन में शिक्षा की योजनाओं को लेकर जागरूक है, इसके लिये सर्वसुविधयुक्त करीब 12 करोड़ की लागत से जहां एकलव्य आवासीय माडल विद्यालय का निर्माण उनके प्रयत्नों से हुआ है, वहीं कन्या शिक्षा के लिये वे ब्राह्मी सुन्दरी कन्या छात्रावास का कुशलतापूर्वक संचालन कर रहे हैं। इसी आदिवासी अंचल में जहां जीवदया की दृष्टि से गौशाला का संचालित है तो चिकित्सा और सेवा के लिये चलयमान चिकित्सालय भी अपनी उल्लेखनीय सेवाएं दे रहा है। अपने इन्हीं व्यापक उपक्रमों की सफलता के लिये वे कठोर साधना करते हैं और अपने शरीर को तपाते हैं। एक-एक दिन में वे 50-50 किलोमीटर की पदयात्राएं कर लेते हैं। इन यात्राओं का उद्देश्य है शिक्षा एवं पढ़ने की रूचि जागृत करने के साथ-साथ आदिवासी जनजीवन के मन में अहिंसा, नैतिकता एवं मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था जगाना है।
भारत को आज सांस्कृतिक क्रांति का इंतजार है। यह कार्य सरकार तंत्र पर नहीं छोड़ा जा सकता है। सही शिक्षा और सही संस्कारों के निर्माण के द्वारा ही परिवार, समाज और राष्ट्र को वास्तविक अर्थों में स्वतंत्र बनाया जा सकता है। इसी दृष्टि से हम सबको गणि राजेन्द्र विजय के मिशन से जुडना चाहिए एवं एक स्वस्थ समाज निर्माण का वाहक बनना चाहिए। इंसान की पहचान उसके संस्कारों से बनती है। संस्कार उसके समूचे जीवन को व्याख्यायित करते हैं। संस्कार हमारी जीवनी शक्ति है, यह एक निरंतर जलने वाली ऐसी दीपशिखा है जो जीवन के अंधेरे मोड़ों पर भी प्रकाश की किरणें बिछा देती है। उच्च संस्कार ही मानव को महामानव बनाते हैं। सद्संस्कार उत्कृष्ट अमूल्य सम्पदा है जिसके आगे संसार की धन दौलत का कुछ भी मौल नहीं है। सद्संस्कार मनुष्य की अमूल्य धरोहर है, मनुष्य के पास यही एक ऐसा धन है जो व्यक्ति को इज्जत से जीना सिखाता है।
गणि राजेन्द्र विजयजी के आध्यात्मिक आभामंडल एवं कठोर तपचर्या का ही परिणाम है आदिवासी समाज का सशक्त होना। सर्वाधिक प्रसन्नता की बात है कि अहिंसक समाज निर्माण की आधारभूमि गणि राजेन्द्र विजयजी ने अपने आध्यात्मिक तेज से तैयार की है। सचमुच आदिवासी लोगों को प्यार, करूणा, स्नेह एवं संबल की जरूरत है जो गणिजी जैसे संत एवं सुखी परिवार अभियान जैसे मानव कल्याणकारी उपक्रम से ही संभव है। गणि राजेन्द्र विजयजी की विशेषता तो यही है कि उन्होंने आदिवासी उत्थान को अपने जीवन का संकल्प और तड़प बना लिया है।
गणि राजेन्द्र विजयजी बच्चों को कच्चे घड़े के समान मानते हैं। उनका कहना है उन्हें आप जैसे आकार में ढालेंगे वे उसी आकार में ढल जाएंगे। मां के उच्च संस्कार बच्चों के संस्कार निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसलिए आवश्यक है कि सबसे पहले परिवार संस्कारवान बने माता-पिता संस्कारवान बने, तभी बच्चे संस्कारवान चरित्रवान बनकर घर की, परिवार की प्रतिष्ठा को बढ़ा सकेंगे। अगर बच्चे सत्पथ से भटक जाएंगे तो उनका जीवन अंधकार के उस गहन गर्त में चला जाएगा जहां से पुनः निकलना बहुत मुश्किल हो जाएगा। बच्चों को संस्कारी बनाने की दृष्टि से गणि राजेन्द्र विजय विशेष प्रयास कर रहे हैं।
भारतीय समाज में जिन आदर्शों की कल्पना की गई है, वे भारतीयों को आज भी उतनी ही श्रद्धा से स्वीकार हैं। मूल्य निष्ठा में जनता का विश्वास अभी तक समाप्त नहीं हुआ। व्यक्ति अगर अकेला भी हो पर नैतिकता का पक्षधर हो और उसका विरोध कोई ताकतवर कुटिलता और षड्यंत्र से कर रहा हो तो जनता अकेले आदमी को पसन्द करेगी। इन्हीं मूल्यों की प्रतिष्ठापना, गणि राजेन्द्र विजय की यात्रा का उद्देश्य है।
गणिजी के यात्राओं के दौरान हजारों लोगों से सम्पर्क करते हैं, उन्हें ग्रामीण भाषा में समझाते हैं, अपने होने का भान कराते हैं। उनका कहना है कि आदिवासी समाज को उचित दर्जा मिले। वह स्वयं समर्थ एवं समृद्ध है, अतः शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिये स्वयं आगे आएं। एक तरह से एक संतपुरुष के प्रयत्नों से एक सम्पूर्ण पिछडा एवं उपेक्षित आदिवासी समाज स्वयं को आदर्श रूप में निर्मित करने के लिये तत्पर हो रहा है, यह एक अनुकरणीय एवं सराहनीय प्रयास है। लेकिन इन आदिवासी लोगों को राजनीतिक संरक्षक भी मिले, इसके लिये वे राजधानी दिल्ली में कई बार चातुर्मास किया और सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से सम्पर्क स्थापित कर आदिवासी जीवन के दर्द से उन्हें अवगत कराया।
आज राज्यों एवं देश के शासन-प्रशासन के क्षेत्र में कई साधु-संत ऐसे हैं जो प्रत्यक्ष रूप से जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं एवं उनके कार्य से जनता भी भलीभांति परिचित एवं संतुष्ट हैं। वर्तमान में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथजी ऐसे ही विरल व्यक्ति हैं, जो संत समाज से हैं। गणि राजेन्द्र विजयजी का आदिवासी समाज के उत्थान में महत्ती भूमिका रही है। अतः आदिवासियों के विकास के साथ-साथ राज्य एवं देश के विकास में शासन-प्रशासन के क्षेत्र में प्रत्यक्ष रूप से इनकी भागीदारी होनी चाहिए, जिससे अभी जो भी विकास का कार्य हो रहा है उसकी गति और तेज हो सकें। आओ हम सब एक उन्नत एवं आदर्श समाज की नींव रखें जो सबके लिये प्रेरक बने।

क्या चिंतन के बाद कम होगी कांग्रेस की चिंता?

सुरेश हिन्दुस्थानी
वर्तमान में कांग्रेस पार्टी ने गंभीर चिंतन कर लिया है, लेकिन इस चिंतन में नया कुछ भी नहीं निकला। कांग्रेस के चिंतन शिविर की मुख्य अवधारणा चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की सुझाई गई बातों पर पर ही केंद्रित होती दिखाई दी। चिंतन के बाद राजनीतिक विश्लेषकों का ध्यान इसी पर है कि अब क्या कांग्रेस की चिंता कम होगी। क्योंकि आज की कांग्रेस की स्थिति को देखकर यही कहा जा सकता है कि कांग्रेस को जिस चिंतन की आज से आठ साल पूर्व आवश्यकता थी, वह अब हुआ है। यानी कांग्रेस ने अपनी पार्टी को दुर्गति से बचाने के लिए बहुत देर कर दी। कांग्रेस को इस प्रकार के चिंतन की आवश्यकता बहुत पहले से रही है, लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व ने मात्र इसी बात पर चिंतन किया कि पूरी कांग्रेस पार्टी की कमान गांधी परिवार के पास कैसे रहे? गत दो लोकसभा चुनावों के बाद कांग्रेस के भीतर नेतृत्व बदलाव को लेकर आवाज उठी भी थी और गैर कांग्रेस दलों ने परिवारवाद के नाम पर कांग्रेस को इस प्रकार से घेरा कि कांग्रेस का दायरा सिमट गया। इतना होने के बाद भी कांग्रेस एक परिवार के एकाधिकार से बाहर नहीं आ सकी है। कांग्रेस के चिंतन शिविर में भी पूरी कवायद गांधी परिवार के आसपास ही रही।
कांग्रेस के चिंतन शिविर में पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कांग्रेस नेताओं को जनता के बीच जाना होगा। यानी राहुल गांधी ये तो मानने को तैयार हो गए हैं कि कांग्रेस के नेताओं की जनता से दूरी बढ़ी है। इस चिंतन को एकतरफा निरूपित किया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि कांग्रेस का राजनीतिक अस्तित्व कमजोर होने का कारण कांग्रेस नेताओं की बजाय जनता की दूरी भी हो सकती है। कांग्रेस के चिंतन का आधार यह होना चाहिए था कि जनता कांग्रेस से दूर क्यों होती जा रही है। अगर इस पर चिंतन किया जाता तो वे तमाम बातें भी सामने आ जाती जो कांग्रेस के कमजोर होने का मुख्य कारण है। इसमें कांग्रेस नेताओं की कार्यशैली भी जिम्मेदार है। जिसके कारण भारत की जनता कांग्रेस से दूर होती चली गई। कांग्रेस की कार्यशैली की बात करें तो तमाम प्रकार की बातें दिखाई देती हैं, जिसमें एक प्रमुख बात यह भी है कि जिस प्रकार से राहुल गांधी अपने को हिन्दू होने के लिए प्रमाण प्रस्तुत करते हैं, वह नितांत झूंठ है। क्योंकि यह सभी जानते हैं कि राहुल फिरोज खान का नाती है। और उसी खानदान का अंश है। दूसरी बड़ी बात यह भी है कि अगर राहुल गांधी हिन्दू मानते हैं तो उस समय उनका खून खौल जाना चाहिए, जब देश में रामनवमी और हनुमान जन्मोत्सव पर पत्थर बरसाए जा रहे थे, लेकिन ऐसा लगता है कि राहुल का हिंदुत्व प्रेम केवल चुनावों के समय ही जाग्रत होता है। इस प्रकार की मानसिकता को देश की जनता भलीभांति समझती है।
हालांकि जब से कांग्रेस अधोगति के मार्ग पर बढ़ी है, तब से ही कांग्रेस के नेताओं द्वारा कांग्रेस की दशा सुधारने को लेकर बयान दिए हैं, लेकिन उनकी आवाज पर कांग्रेस नेतृत्व ने कोई चिंतन नहीं किया। अगर उस समय ही कांग्रेस विचार करने के लिए तैयार हो जाती, तो संभवत: आज इस प्रकार का चिंतन करने की आवश्यकता नहीं होती। कांग्रेस के बड़े नेता आज या तो गांधी परिवार के सहारे राजनीति कर रहे हैं या फिर किनारे पर जाते हुए दिखाई दे रहे हैं। एक बार जयराम रमेश ने खुले अंदाज में कहा था कि कांग्रेस में अब बुजुर्ग नेताओं के दिन बीत चुके हैं। इसका तात्पर्य यह भी है कि राजनीतिक अस्तित्व रखने वाले कांग्रेस के नेता केवल अपनी दम पर ही कांग्रेस में टिके हुए हैं। हम यह भी जानते हैं कि जनाधार वाले कांग्रेस आज या तो कांग्रेस से दूर जा चुके हैं या फिर जाने का प्रयास कर रहे हैं। ये स्थिति क्यों बन रही है, कांग्रेस को इस पर भी चिंतन करना चाहिए था, लेकिन आज की कांग्रेस इस पर क्यों चिंतन करना नहीं चाहती, यह भी बड़ा सवाल है।
कांग्रेस के चिंतन शिविर को लेकर यह भी सवाल उठ रहे हैं कि कांग्रेस को इस समय चिंतन करने की आवश्यकता क्यों हो रही है? इसके पीछे यही कहा जा रहा है कि कांग्रेस को सत्ता चाहिए। मात्र सत्ता के लिए ही यह सब कवायद की जा रही है। इसके लिए कांग्रेस नेतृत्व परिवर्तन भी कर सकती है, लेकिन ऐसा भी लगता है कि वह मात्र जनता को भ्रमित करने के लिए ही होगा। उनका उद्देश्य केवल सत्ता प्राप्त करना ही है। हालांकि यह भी कहा जा रहा है कि कुछ राज्यों में विधानसभा चुनावों की तैयारी करने के लिए यह चिंतन किया गया है। ऐसे में सवाल यह भी उठ रहा है कि कांग्रेस के चिंतन शिविर में क्या उन बातों पर भी चर्चा हुई होगी, जो नेतृत्व को लेकर उठाए जा रहे थे। सुना यह भी जा रहा है कि इस शिविर में मात्र उन्हीं लोगों को शामिल करने का अवसर दिया गया, जो सोनिया गांधी और राहुल गांधी की कृपा पर राजनीति की मुख्य धारा में बने हुए हैं। कांग्रेस अगर वर्तमान में प्रासंगिक नेताओं पर ध्यान दे तो उसे चिंतन करने की आवश्यकता नहीं होगी, लेकिन कांग्रेस ऐसा करेगी, इसकी गुंजाइश कम ही है।
अभी हाल ही में चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर द्वारा जिस प्रकार से कांग्रेस को आइना दिखाया, वह एक कांगे्रस के लिए बड़ा झटका जैसा ही था। राजनीतिक गुणा भाग करने वाले चिंतक इसका एक अर्थ यह भी निकालते हैं कि प्रशांत किशोर ने गंभीर चिंतन करने के बाद ही कांग्रेस में शामिल होने से इसलिए ही इनकार किया है, क्योंकि अंदरूनी तौर पर कांग्रेस के पास वह राजनीतिक प्रभाव नहीं बचा है, जो उसे उत्थान के मार्ग पर ले जाने में समर्थ हो सके। कांग्रेस के कमजोर होते जाने का एक बड़ा कारण यह भी माना जा सकता है कि कांग्रेस के नेता बिना सोचे कोई भी बयान दे देते हैं। कांग्रेस जिस प्रकार से देश की सरकार को बदनाम करने में अपनी शक्ति लगा रही है, अगर वही शक्ति अपनी पार्टी की दशा सुधारने में लगाए तो बहुत संभव है कि कांग्रेस की स्थिति सुधर जाए, लेकिन ऐसा इसलिए भी नहीं लग रहा है, क्योंकि कांग्रेस को आज भी यही लगता है कि मात्र वे ही देश को चलाने के लिए पैदा हुए हैं। कांग्रेस को इस प्रकार की मानसिकता से बाहर निकलना होगा। इसके अलावा आज कांग्रेस की विसंगति यह भी है कि वह सरकार के कामकाज में कमियां देखने में ही अपना सारा समय लगा रही है। जो समय के हिसाब से अनुकूल नहीं कहा जा सकता। आज का समय यही कहता है कि जो सच है, उसे सच मान लेना चाहिए। झूठ के सहारे लम्बे समय तक राजनीति नहीं की जा सकती। कांग्रेस को सच को स्वीकार करने का साहस दिखाना चाहिए, फिर चाहे वह सच सरकार का हो या फिर गैर कांग्रेसी दलों का। इसी प्रकार झूठ या देश विरोधी बातें कोई भी करता हो, उसका विरोध करने का सामर्थ्य भी पैदा करना चाहिए। उल्लेखनीय है कि कांग्रेस ने उन लोगों का भी साथ दिया, जो देश को तोड़ने की बात करते हैं। कांग्रेस के चिंतन शिविर में इस बात का भी चिंतन होना चाहिए कि उसके नेताओं को सरकार की सभी बातों का विरोध करना चाहिए या कुछ बातों का समर्थन भी करना चाहिए। अगर कांग्रेस के चिंतन शिविर में यह चिंतन का विषय नहीं है तो कैसा चिंतन। दूसरी बड़ी बात यह है कि कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन की बात भी लम्बे समय से उठ रही है, लेकिन चिंतन शिविर में नेतृत्व परिवर्तन पर कितनी बात हुई, इसकी परिणति आने वाला समय ही बता सकता है। चिंतन शिविर के बाद भी कांग्रेस नेतृत्व में बदलाव दिखेगा, ऐसा कहा नहीं जा सकता, क्योंकि अभी तक यही माना जाता है कि सोनिया गांधी पुत्र मोह के चलते राहुल के सिंहासन को डिगाना नहीं चाहतीं। इसके पीछे यह भी कारण हो सकता है कि राहुल गांधी के पास इतनी योग्यता नहीं है कि वह अपनी दम पर कांग्रेस की कमान संभाल सकें। अब देखना यह है कि चिंतन शिविर के बाद कांग्रेस कौन से रास्ते पर जाती है?

रतन लाल जैसे कालनेमि शिक्षकों की सघन जांच आवश्यक है

दिल्ली विश्वविद्यालय में पूरे देश के विद्यार्थी शिक्षा लेने आते है परन्तु इस विश्वविद्यालय के अनेकों शिक्षा केंद्रों में बहुत से अध्यापक ऐसे हैं जो समाज के लिए कालनेमि रूपी दानव की भूमिका निभा रहे हैं । हिन्दू कालेज में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत रतन लाल ने ज्ञानवापी शिवलिंग पर अभद्र टिप्पणी करते हुए कहा कि यदि यह शिवलिंग है तो लगता है इसका खतना हो चुका है । क्या इतनी हिम्मत मोहम्मद के विरुद्ध बोलने की है ,ऐसे ही कुछ अध्यापक जो धर्मयोद्धा योगिराज श्रीकृष्ण को भी रंगीला घोषित करने हेतु षड्यंत्र में लगे रहते हैं। क्या वह बुद्धिजीवी अति शिक्षित अध्यापक रसूल को भी रंगीला कहने की हिम्मत रखते हैं। सभ्य समाज जब ऐसे विषकारी शिक्षकों के विरुद्ध कुछ भी बोलता है तो वामपंथी गैंग तुरंत यह राग अलापना शुरू कर देता है कि हमें डराया जा रहा है, हमारी अभिव्यक्ति की आजादी का हनन हो रहा है । जबकि वास्तविकता यह है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के अंतर्गत विभिन्न शिक्षा केंद्रों की जांच की जाए तो न केवल हिन्दू कालेज अपितु मिरांडा जैसे अनेकों कॉलेजों में असंख्य अध्यापक ऐसे मिल जाएंगे जो विद्यालयों में शिक्षा देने के स्थान पर वामपंथी व हिन्दू विरोधी राजनीति का बीज विद्यार्थियों के मस्तिष्क में रोपाई के लिए जाते हैं। यदि कुछ समय पूर्व की बात की जाए तो दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा कॉलेज की बहूत सी अद्यापिका सी ए ए के विरुद्ध आंदोलनों में जाने हेतु कालेज की लड़कियों को प्रेरित करती थी । लेक्चर को बंद करके कहा जाता था कि सभी लडकिया आंदोलन स्थल पर जाकर कानून का विरोध करें । जिसके चलते जो लडकिया पढ़ना चाहती थी या तो उन्हें अपनी अध्यापिका का विरोध झेलना पड़ता था या अध्यापिका के मार्गदर्शन में अन्य लड़कियों का ग्रुप तैयार कर पढ़ने वाली लड़कियों को परेशान किया जाता था । अर्थात या तो आपको सहजता से वामपंथी विचारधारा का समर्थन करना पड़ेगा अन्यथा विषम परिस्थियों का सामना करने हेतु सदैव तत्तपर रहना होगा । सरकार को ऐसे शिक्षकों की सघन जांच करवानी चाहिए । जिनका मुख्य उद्देश्य हिन्दू धर्म को अपमानित करना व देश विरोधी गतिविधियों में अप्रत्यक्ष रूप से सम्मिलित होना है । ऐसे अध्यापकों को किसी आतंकवादी से कम नही कहा जा सकता जो मानसिक तौर पर युवा पीढ़ी को भारतीय संस्कृति व राष्ट्र के विरुद्ध शिक्षा देकर उनके मस्तिष्क मे सांकेतिक आतंकवाद को जन्म दे रहे हैं । क्यूंकि यह निश्चित है की हजारों अनपढ़ आतंकीयो से ज्यादा घातक एक शिक्षित आतंकवादी होता है ।

चिंता का सबब बनता गिरता हुआ रुपया

-सत्यवान ‘सौरभ’

रुपये के मूल्यह्रास का मतलब है कि डॉलर के मुकाबले रुपया कम मूल्यवान हो गया है। अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया 77.44 के सर्वकालिक निचले स्तर पर आ गया। सख्त वैश्विक मौद्रिक नीति, अमेरिकी डॉलर की मजबूती और जोखिम से बचने, और उच्च चालू खाता घाटे से भारतीय रुपये के लिए गिरावट चिंता का विषय है।

भारतीय रुपये के मूल्यह्रास के पीछे विभिन्न कारक देखे तो वैश्विक इक्विटी बाजारों में एक बिकवाली जो अमेरिकी फेडरल रिजर्व (केंद्रीय बैंक) द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि, यूरोप में युद्ध और चीन में कोविड -19 के कारण विकास की चिंताओं से शुरू हुई थी। अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा दरों में 50 आधार अंकों की बढ़ोतरी के साथ, वैश्विक बाजारों में बिकवाली हुई है क्योंकि निवेशक डॉलर की ओर बढ़ गए हैं। डॉलर का बहिर्वाह उच्च कच्चे तेल की कीमतों का परिणाम है और इक्विटी बाजारों में सुधार भी डॉलर के प्रतिकूल प्रवाह का कारण बन रहा है।

भारत में, विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने कोटक के आंकड़ों के अनुसार, इस वित्तीय वर्ष की शुरुआत से लगभग 5.8 बिलियन डॉलर की निकासी की है, जिससे मुद्रा पर दबाव बढ़ गया है। बढ़ती मुद्रास्फीति का मुकाबला करने के लिए मौद्रिक नीति को कड़ा करने के लिए आरबीआई द्वारा उठाए गए कदमों से भी मूल्यह्रास हुआ है। बढ़ते व्यापार घाटे के कारण भी दबाव है – अप्रैल में घाटा मार्च में 18.7 अरब डॉलर से बढ़कर 20 अरब डॉलर हो गया। दरअसल, विश्लेषकों के मुताबिक, चालू खाता घाटा 2013 के संकट के बाद से अपने उच्चतम स्तर पर रहने की संभावना है।

कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी, मुद्रास्फीति की आशंका, ब्याज दरों में बढ़ोतरी और कमजोर घरेलू इक्विटी से निवेशकों की धारणा प्रभावित होने के कारण सोमवार को अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया 77.43 के ताजा निचले स्तर पर आ गया। वैश्विक बाजारों में जोखिम से बचने, डॉलर की मजबूती ने जोखिमपूर्ण परिसंपत्तियों की मांग को प्रभावित किया, जिससे स्थानीय इकाई कम हुई। ग्रीनबैक के मुकाबले रुपया 0.7% गिरकर 77.43 पर आ गया, जो इस साल मार्च में 76.98 के पिछले सर्वकालिक निचले स्तर को छू गया था। विश्लेषकों ने कहा कि विदेशी निवेशकों द्वारा भारतीय संपत्तियों की लगातार बिक्री को लेकर चिंता का भी मुद्रा पर असर पड़ा। फरवरी में रूस द्वारा यूक्रेन पर आक्रमण करने के बाद से रुपये पर दृष्टिकोण खराब हो गया है क्योंकि संघर्ष के कारण वैश्विक कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि हुई है।

रुपये में गिरावट का भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव दूरगामी प्रभाव छोड़ेगा; चालू खाता घाटा बढ़ने, विदेशी मुद्रा भंडार में कमी और रुपये को कमजोर करने के लिए बाध्य है। कच्चे तेल की ऊंची कीमतों और अन्य महत्वपूर्ण आयातों के साथ, अर्थव्यवस्था निश्चित रूप से लागत-मुद्रास्फीति की ओर बढ़ रही है। कॉस्ट-पुश इन्फ्लेशन जिसे मजदूरी-पुश इन्फ्लेशन के रूप में भी जाना जाता है; तब होता है जब मजदूरी और कच्चे माल की लागत में वृद्धि के कारण समग्र कीमतों में वृद्धि (मुद्रास्फीति) होती है। कंपनियों को उच्च लागत का बोझ उपभोक्ताओं पर पूरी तरह से डालने की अनुमति नहीं दी जा सकती है, जो बदले में, सरकारी लाभांश आय को प्रभावित करती है, बजटीय राजकोषीय घाटे के बारे में सवाल उठाती है।

मजबूत अमेरिकी मुद्रा के साथ-साथ निराशावादी वैश्विक बाजार की भावना रुपये के मूल्यह्रास का कारण बन रही है। बाजार की धारणा भी आहत हुई है क्योंकि निवेशक बढ़ती मुद्रास्फीति, दुनिया के प्रमुख देशों में मौद्रिक नीति के सख्त होने, आर्थिक मंदी और बढ़ते भू-राजनीतिक तनाव से चिंतित हैं। इसके अतिरिक्त, व्यापक व्यापार बिल के रूप में देश अपनी तेल जरूरतों का 85% आयात करता है, ने निवेशकों को हिला दिया है। “बाजार सहभागियों को डर है कि कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों से भारत के व्यापार और चालू खाते को नुकसान होगा।

रुपये में गिरावट भारतीय रिजर्व बैंक के लिए दोधारी तलवार है। कमजोर रुपये को सैद्धांतिक रूप से भारत के निर्यात को बढ़ावा देना चाहिए, लेकिन अनिश्चितता और कमजोर वैश्विक मांग के माहौल में, रुपये के बाहरी मूल्य में गिरावट उच्च निर्यात में तब्दील नहीं हो सकती है। मुद्रास्फीति आयातित मुद्रास्फीति का जोखिम पैदा करता है, और केंद्रीय बैंक के लिए ब्याज दरों को रिकॉर्ड स्तर पर लंबे समय तक बनाए रखना मुश्किल बना सकता है। भारत अपनी घरेलू तेल आवश्यकताओं का दो-तिहाई से अधिक आयात के माध्यम से पूरा करता है। भारत खाद्य तेलों के शीर्ष आयातकों में से एक है। एक कमजोर मुद्रा आयातित खाद्य तेल की कीमतों को और बढ़ाएगी और उच्च खाद्य मुद्रास्फीति को बढ़ावा देगी।

मूल्यह्रास का मुकाबला करने के लिए गैर-आवश्यक वस्तुओं के आयात पर अंकुश लगाने से डॉलर की मांग कम होगी और निर्यात को बढ़ावा देने से देश में डॉलर के प्रवाह को बढ़ाने में मदद मिलेगी, इस प्रकार रुपये के मूल्यह्रास को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी। मसाला बॉन्ड सीधे भारतीय मुद्रा से जुड़ा होता है। यदि भारतीय उधारकर्ता अधिक रुपये के मसाला बांड जारी करते हैं, तो इससे बाजार में तरलता बढ़ेगी या बाजार में कुछ मुद्राओं के मुकाबले रुपये के स्टॉक में वृद्धि होगी और इससे रुपये का समर्थन करने में मदद मिलेगी।

बाहरी वाणिज्यिक उधार (ईसीबी) विदेशी मुद्रा में एक प्रकार का ऋण है, जो अनिवासी उधारदाताओं द्वारा किया जाता है। इस प्रकार, ईसीबी की शर्तों को आसान बनाने से विदेशी मुद्राओं में अधिक ऋण प्राप्त करने में मदद मिलती है, जिससे विदेशी मुद्रा का प्रवाह बढ़ेगा, जिससे रुपये की सराहना होगी। भारतीय रिजर्व बैंक मुद्रा की स्लाइड को नरम करने के लिए हस्तक्षेप कर रहा है – इसके विदेशी मुद्रा भंडार में गिरावट से पता चलता है कि यह गंभीर मामला है। यह मुद्रा की अस्थिरता को कम करता है।

यह देखते हुए कि रुपये का मूल्य अधिक है, केंद्रीय बैंक को मुद्रा को फिसलने की अनुमति देनी चाहिए, जिससे वह अपने स्तर का पता लगा सके, केवल अतिरिक्त अस्थिरता को कम करने के लिए हस्तक्षेप कर सके। मुद्रा मूल्यह्रास एक स्वचालित स्टेबलाइजर के रूप में कार्य करेगा। यह आयात पर अंकुश लगाकर चालू खाते के दबाव को कम करने में मदद करेगा, लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह मौजूदा समय में देश की अर्थव्यवस्था के एक महत्वपूर्ण चालक के निर्यात को बढ़ावा देने में मदद करेगा।

शिवलिंग की वैश्विक महिमा

 संदर्भः काशी की ज्ञानवापी मस्जिद के कुंड में मिला शिवलिंग
प्रमोद भार्गव
वाराणसी अर्थात काशी की ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में न्यायालय के आदेश के अंतर्गत हुए वीडियो एवं फोटोग्राफी सर्वेक्षण में विशाल शिवलिंग मिला है। मस्जिद प्रांगण में वजू करने की जगह बने कुंड में मिला है। इसकी लंबाई 12 फीट 8 इंच और व्यास 4 फीट है। इसमें आश्चर्य की बात हैै कि काशी विश्वनाथ मंदिर प्रांगण में नंदी महाराज का जिस ओर  में मुंह है, उसी दिशा में शिवलिंग मिला है। ध्वस्त किए गए वर्तमान विश्वनाथ मंदिर को 1780 में इंदौर की रानी अहिल्याबाई होल्कर ने बनवाया था। मुख्य मंदिर को 1194 में मोहम्मद गोरी ने, 1505 एवं 1515 में सिकंदर लोधी ने, 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने और अंतिम बार 1669 में औरंगजेब ने ध्वस्त किया था। कैथरीन एसर ने अपनी पुस्तक आर्किटेक्चर ऑफ मुगल इंडिया में लिखा है कि मुगलों ने काशी में राजा मानसिंह द्वारा निर्मित प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था, ताकि हिंदुओं को मानसिक दंड दे सकें। वैसे शिवलिंग भारत में तो उत्खनन में मिलते ही रहे हैं, लेकिन पूरी दुनिया में शिवलिंग मिलते रहे हैं। इससे पता चलता है कि चार से दस हजार साल पहले तक भगवान शिव के अनुयायी पूरी दुनिया में थे।  
विकसित होती सभ्यता कैसे संस्कारों में ढलती है, इसका एक उदाहरण लोक साहित्य में अभिव्यक्त ऋशियों, ऋशि-पत्नियों और अनार्य देव षिव के साथ घटी घटना में देखते हैं। एक बार वन में इकट्ठे हुए ऋशि, पत्नियों के साथ यज्ञ कर रहे थे। तभी नंग-धड़ंग अक्खड़ षिव ने यज्ञ-स्थल के बगल से गमन किया। ऋषि पत्नियां शिव को दिगंबर अवस्था में देख काम सुख भोगने को इच्छुक हो गईं। भोग की लालसा लिए वे शिव दल के पीछे चल दीं। अनायास हुई इस अमर्यादित स्थिति से ऋषि क्रोधित हो गए। उनका पुरुशोचित अहंकार विचलित हो गया। उन्होंने तत्काल यज्ञ की महिमा व षक्ति से एक बाघ, एक विशैला सर्प और एक क्रूर राक्षस षिव के दमन के लिए पीछे दौड़ा दिए। अब षिव को तो अनंत षक्तियों का रचायिता व निर्माता माना जाता है, सो उन्हें इनके समाहार में क्या परेषानी थी ? अतएव उन्होंने बाघ को मारकर चर्म उतारा और कमर में लपेट लिया। उनकी यह उदात्त पहल प्रकृति प्रदत्त अवस्था से सभ्यता की ओर प्रस्थान थी। सर्प को पकड़कर वषीभूत किया और गले में हार बना लिया। यह प्रकृति के जीवों के सरंक्षण का लोक हितकारी पहला उपाय था। तत्पष्चात उन्होंने राक्षस को दबोचा और भूमि पर पटक दिया। फिर वे उसकी पीठ पर चढ़े और नाचने लगे। यह वही नृत्य था, जिसकी अवलोकित होने वाली छवि को ‘नटराज‘ की संज्ञा दी गई। इसमें राक्षसी बल का अहंकार त्यागकर सरलता से जीवन जीने का संदेष अंतर्निहित है। सभ्यता के विकासक्रम में ये तीन बिंदु नग्नता पर आवरण, सर्प के संदर्भ में प्रकृति का सरंक्षण और नृत्य के रूप में आनंद की अनुभूति से जुड़े हैं। नृत्य और संगीत सनातन संस्कृति की अद्वितीय देन हैं। नृत्य, संगीत और चित्रकला के माध्यम से जो भी रूप भारतीय पौराणिक मिथकों के रूप में प्रचलित हैं, उन्हें प्रत्येक विचारधारा में प्रगतिषील माना गया है। किंतु यहीं मिथक-रूप जब विज्ञान के संदर्भ में परिभाशित किए जाते हैं, तो तथाकथित वाममार्गी वितण्तावाद खड़ा कर देते हैं। 
वैदिक काल में इंद्र ने जब देव संगठन बना लिया और स्वयं को स्वयंभू घोषित कर देवराज इंद्र बन गए, तब इंद्र ने शिव के अनुयायी रुद्रों की उपेक्षा षुरू कर दी। परिणामस्वरूप वे यज्ञ-भाग से वंचित हो गए। इस घटना के साथ ही इंद्र और विवस्वान सूर्य ने अपनी व्यक्ति पूजा आरंभ करा दी। ब्राह्मणों को दान-दक्षिण देकर ऋचाएं और और गीत अपनी प्रशंसा में सृजन करा दिए। इसीलिए ऋग्वेद में सबसे ज्यादा ऋचाएं इंद्र पर संकलित हैं। यहीं से प्रशंसा प्रणाली या अपने मत के विचार को विस्तृत करने की धारा ने जन्म लिया। इस एकपक्षीय वैचारिक प्रणाली के विकसित हो जाने से रुद्रों के समक्ष अस्तित्व का संकट पैदा हो गया। फलतः उन्होंने अपनी भिन्न सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने की दृष्टि से भग और लिंग की पूजा प्रारंभ कर दी। मिट्टी, काठ व पत्थर के योनि-लिंग इसी समय से आकार लेने लग गए। इस अभियान से रुद्रों के समर्थक बढ़ गए। लिंग पूजकों की बढ़ती संख्याबल से इंद्र चिंतित हो गए। देवराज इंद्र ने इस चिंता के समाधान के लिए एक सभा आहूत की और उसमें रुद्रों को भी आमंत्रित किया। रुद्र सभा में उपस्थित हुए। तब इंद्र ने रुद्रों से पूछा, ‘आप सभी रुद्र गण हमारे ही वंश के हैं, फिर हमसे पृथक रह कर अपनी अलग पूजा पद्धति क्यों विकसित कर रहे हैं ? रुद्र ने उत्तर दिया, ‘आपने हमें देव संगठन और यज्ञ-भाग से निष्कासित किया हुआ है, अतएव हमने भिन्न मार्ग और उपासना पद्धति चुन लिए हैं। आपने स्वयं को तो देवराज घोषित किया, किंतु हमें नगण्य मानकर बहिष्कृत कर दिया।‘ तब इंद्र ने ‘हर‘ को महादेव कहा और रुद्रों की यज्ञ-भाग में भागीदार स्वीकार की। यहीं रुद्रों ने लिंग-पूजा करने की शर्त भी मनवा ली। रुद्र लिंग-पूजा इसलिए अनवरत रखना चाहते थे, जिससे स्त्री-पुरुश को संसर्ग के लिए प्रेरित करके अपने समूह का संख्याबल बढ़ा सकें।
इस समझौते के बाद संपूर्ण संसार में योनि-लिंग की पूजा प्रचलन में आ गई। इसके साथ ही रुद्रों के वंषों का पृथ्वी के बहुत बड़े भू-भाग पर विस्तार होने लगा। ऋग्वेद, साइक्स कृत पर्शिया का इतिहास और विष्णु पुराण में इस विस्तार का उल्लेख है। आरंभ में रुद्र हेमकूट, हिंदुकुश और सरवन पर्वत क्षेत्रों में रहे। सरवन एशिया माइनर में है। इसी को उस कालखंड में शिव-देश कहा जाता था। ईरान में शंकर प्रदेश के अंतर्गत एक ‘जाट‘ प्रांत है। यहां जाटा और जिप्सी जाति के लोग रहते हैं। एक समय यहीं शिव रहा करते थे। इस भूखंड में रहने के कारण ही शिव जटाधारी कहलाए। ईरान में एक स्थल का नाम ‘हिरात‘ है। देव व असुर युग में इसी भू स्थल का नाम ‘हर राश्ट्र‘ था। यही रुदबर प्रदेष था। यहां रुद्र रहते थे। कैलाश पर्वत के पूर्व की ओर लोहित्य गिरी के ऊपर ‘भद्रवट‘ नाम का भूखंड है, यहां भी शिव रहे हैं। अरब और अफ्रीका में भी अनेक जगह षिव रहे हैं। अरब में एक ‘उमा‘ प्रदेश है। षिव की पत्नी का नाम उमा है। इससे ज्ञात होता है कि दक्ष प्रजापति के राज का विस्तार उमा प्रदेष तक था। अतएव उनकी पुत्री का नाम उमा पड़ा। इन्हीं उमा का एक नाम सती है। षिव का प्रभाव अफ्रीका तक रहा है। जिसे आज सूड़ान कहा जाता है, एक समय वह ‘षिवदान-प्रदेष‘ या ‘सुदान‘ कहलाता था। षिवदान का ही अपभ्रंष सूड़ान है। अरब का प्राचीन धर्म षिव या षैव संप्रदाय से ही संबद्ध था। मक्का का प्रसिद्ध ‘संगे-असबद‘ प्राचीन षिव-लिंग ही है। यही कारण है कि षिवलिंग के प्रमाण आज भी पष्चिम एषिया, अरब एवं अफ्रीका में तो मिलते ही हैं, भू-गर्भ का उत्खनन करने पर भी अनायास भी मिल जाते हैं। इसीलिए पृथ्वी के बहुत बड़े भूखंड का आदि स्रोत सनातन संस्कृति है। 

शिव और नंदी का संबंध
शिव के वाहन नंदी यानी वृषभ का नंदी शिव के वाहन के रूप में जाने जाते हैं, क्योंकि वृषभ लोकव्यापी प्राणी होने के साथ खेती-किसानी का भी प्रमुख आधार है। यानी खेती का यांत्रिकीकरण होने से पहले बिना बैल के खेती संभव ही नहीं थी। फिर शिव ने लोक कल्याण की दृष्टि से सर्वहारा वर्ग के ज्यादा हित साधे हैं, उन्हीं के बीच उन्होंने अधिकतम समय बिताया है। इसलिए ऐसे उदार नायक का वाहन बैल ही सर्वोचित है। नंदी के वाहन होने के कारण शिव को नंदीश्वर, वृषध्वज और वृशभकेतन नामों का विष्णु धर्मोत्तरपुराण, मत्स्यपुराण, रामायण और महाभारत में उल्लेख किया गया है। 
हमारे ऋषि -मुनियों ने प्रकृति के रहस्यों की गवेशणा को आरंभिक अवस्था में ही समझ लिया था कि प्रकृति के अन्य जीव-जगत के साथ ही मनुश्य का सह-अस्तित्व संभव व सुरक्षित है। इसी कारण सभ्यता और संस्कृति का विकास-क्रम आगे बढ़ा, वैसे-वैसे अलौकिकि शक्तियों में प्रकृति के रूपों को प्रक्षेपित करने के साथ, पषु-पक्षियों को भी देवत्व से जोड़ते गए। नंदी को विरक्ति का द्योतक माना जाता है, इसलिए साधनारत षिव के लिए नंदी षक्ति के भी प्रतीक हैं और विरक्ति के भी। 
पूराणों में वृषभ को धर्म-रूप में प्रस्तुत किया गया है। इनके चार पैरों को सत्य, ज्ञान, तप तथा दान का प्रतीक माना गया है। शिवलिंग की उत्पत्ति को विद्युत तरंगों से भी होना मानते हैं। इसके आकार को ब्रह्मांड  का रूप माना गया है। इस कारण शिव को विद्युताग्नि और नंदी को बादलों का प्रतीक माना गया है। बादल के प्रतीक होने के कारण ही शिव के नंदी शुभ्र-श्वेत हैं। शिवलिंग के रूप में योनि और लिंग प्रजनन के शक्ति के प्रतीक भी हैं, इसलिए वृशभ को काम का प्रतीक भी माना गया है। इसे काम का प्रतीक इसलिए भी माना गया है, क्योंकि इसमें काम शक्ति प्रचुर मात्रा में होती है। इस नाते वृषभ, सृजन शक्ति का प्रतीक है। षिव को नंदी पर आरुढ़ भी दिखाया गया है। इसका आशय है कि एक षिव ही हैं, जो कामियों की वासनाओं को नियंत्रित करने में या उन पर विजय प्राप्त करने में सक्षम हैं। स्पश्ट है, काम के रूप में वृषभ का प्रतीक षिव को विष्व की सृश्टि के लिए अभिप्रेरणा का द्योतक भी है। अतएव जहां-जहां शिवलिंग मिलते हैं, वहां-वहां नंदी भी मिल जाते हैं। 
प्रमोद भार्गव

  

ऐसा था गौतम बुद्ध संन्यासी का कहना

—विनय कुमार विनायक
ऐसा था गौतम बुद्ध संन्यासी का कहना,
आरोग्य परमं लाभ: स्वास्थ्य ही है जीवन,
संतुष्टि परमं धनम् संतोष ही है परम धन,
विश्वास सबसे बड़ा बंधु; विश्वास आश्वासन,
निर्वाण प्राप्ति है सबसे बड़ा सुख को पाना!

ऐसा था गौतम बुद्ध संन्यासी का कहना,
शरीर की जरूरत रोटी कपड़ा मकान पाना,
मन की आवश्यकता गीत संगीत साहित्य,
आत्मा की चाह चैतन्य हो मुक्त हो जाना,
देह-मन के फेर में आत्मचेतना ना भुलाना!

ऐसा था गौतम बुद्ध महा ज्ञानी का मानना,
एक निर्धन कभी भी धार्मिक नहीं हो सकता,
‘भूखे भजन ना होई गोपाला ले लो कंठीमाला’
एक निर्धनजन धन के लिए स्वधर्म बेच देता,
समृद्ध धन से धर्म की ओर गतिशील होता!

ऐसा था गौतम बुद्ध संन्यासी का आकलन,
निर्धनों का पहला लक्ष्य होता धर्म नहीं धन,
बुद्ध ने निर्धनता में देखा अंगुलीमाल सा मन
भारत के पड़ोसी अरब ईरान तुर्की थे निर्धन
जहां से लुटेरे आते रहे अंगुलीमाल सा दुर्जन!

ऐसा कहते वेद वेदांत ज्ञानी गौतम संन्यासी,
वेदना वेद से निकली बोधन है और पीड़ा भी,
जहां वेदना होती वहां आत्मचेतना ठहर जाती,
वेद वेदना ना बने बुद्ध ने निकाली ये युक्ति
आत्मज्ञान हेतु जरूरी दैहिक वेदना से मुक्ति!

ऐसा कि बुद्ध का भारतवर्ष सोने की चिड़िया थी,
हमसे हीन चीन,ईरान,यूनान,मिस्र,मेसोपोटामिया थी,
खुद बुद्ध स्वर्णमुकुट को त्यागके संन्यासी बने थे,
समृद्धि बड़ी थी मगर भेदभाव पाखंड की घड़ी थी,
पशुबलि प्रधान वैदिकधर्म में विकृति आन पड़ी थी!

धन ऐश्वर्य समृद्धि हेतु गलाकाट प्रतिस्पर्धा थी,
पुत्र पिता-भ्राता की हत्याकर गद्दी हथिया रहे थे,
हर्यक राजवंश पितृहंता वैदिक अशोक भातृहंता थे,
पुरोहितवाद और निरंकुश राजतंत्र की विपदा थी,
ऐसे में तर्कवादी अहिंसक बुद्ध पे जहां फिदा थी!
—-विनय कुमार विनायक

समान नागरिक संहिता मुस्लिम महिलाओं के लिए सम्मानजनक कानून है

-डॉ. सौरभ मालवीय
समान नागरिक संहिता को लेकर देशभर में एक बार फिर से बहस जारी है। देश में समान नागरिक संहिता को लागू करने की बात बार-बार उठती रही है, परन्तु इस पर विवाद होने के पश्चात यह मामला दबकर रह जाता है। किन्तु जब से उत्तर प्रदेश में भाजपा की वापसी हुई है, तब से यह मामला फिर से चर्चा में है। जहां भाजपा इसे देशभर में लागू करना चाहती है, वहीं मुस्लिम संगठन इसका कड़ा विरोध कर रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि मुस्लिम समाज में विवाह कानूनों को लेकर ब्रिटिश शासनकाल से ही विवाद होता रहा है, क्योंकि मुसलमानों में बहु पत्नी प्रथा का चलन है। शरीयत के अनुसार पुरुषों को चार विवाह करने का अधिकार है। ऐसी स्थिति में मुस्लिम समाज में महिलाओं की स्थिति कितनी दयनीय होगी, यह सर्वविदित है। पति जब चाहे पत्नी को तीन तलाक कहकर घर से निकाल देता है। ऐसी स्थिति में महिला का जीवन नारकीय बन जाता है। शाह बानो प्रकरण ने लोगों का ध्यान इस ओर खींचा था। वर्ष 1978 में शाह बानो नाम की वृद्धा को उसके पति ने तीन तलाक देकर घर से निकाल दिया था। उसके पांच बच्चे थे। पीड़ित महिला के पास जीविकोपार्जन का कोई साधन नहीं था। उसके पति ने उसे गुजारा भत्ता देने से स्पष्ट इनकार कर दिया था। इस पर महिला ने न्यायालय का द्वार खटखटाया। इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचने में सात वर्ष लग गए। वर्ष 1985 में सर्वोच्च न्यायालय ने उसके पति को निर्देश दिया कि वह अपनी तलाकशुदा पत्नी को जीविकोपार्जन के लिए मासिक भत्ता दे। न्यायालय ने यह निर्णय अपराध दंड संहिता की धारा-125 के अंतर्गत लिया था। विदित रहे कि अपराध दंड संहिता की यह धारा सब लोगों पर लागू होती है चाहे वे किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय से संबंध रखते हों। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से मुस्लिम महिलाओं की स्थिति बेहतर हो जाती, परन्तु कट्टरपंथियों को यह सहन नहीं हुआ और उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय का कड़ा विरोध किया। उन्होंने ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड नाम की एक संस्था का गठन किया तथा सरकार को देशभर में आन्दोलन करने की चेतावनी दे डाली। परिणामस्वरूप तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी कट्टरपंथियों के आगे झुक गए था तथा उनकी सरकार ने 1986 में संसद में कानून बनाकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को पलट दिया। इससे शाह बानो के सामने जीविकोपार्जन का संकट खड़ा हो गया। मानवता के नाते जिस समाज को वृद्धा की सहायता करनी चाहिए थी, वही उसका शत्रु बन गया। आज भी यही स्थिति है। मुस्लिम समाज में शाह बानो जैसी महिलाओं की कमी नहीं है। मुस्लिम समाज में ऐसे मामले सामने आते रहते हैं कि पति ने तीन तलाक कहकर पत्नी को घर से बाहर निकाल दिया। ऐसी स्थिति में पीड़ित महिला का कोई साथ नहीं देता। मुस्लिम समाज की महिलाओं की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए पहले भाजपा सरकार ने तीन तलाक को रोकने का कानून बनाया और अब समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए प्रयासरत है। भाजपा ने वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में वादा किया था कि यदि भाजपा सत्ता में आती है, तो देश में समान नागरिक संहिता को लागू करने की प्रक्रिया प्रारंभ की जाएगी। वर्ष 1998 में भी भाजपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में देश में समान नागरिक संहिता को लागू करने का वादा किया था।

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा है कि भाजपा शासित राज्यों में सामान नागरिक संहिता कानून लाया जाएगा। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में चुनाव से ठीक पहले हमने समान नागरिक संहिता कानून लाने की घोषणा की थी। अब इसे विधानसभा से पारित करके कानून बना लिया जाएगा। इसी प्रकार अन्य भाजपा शासित राज्यों में भी इसे लागू कर दिया जाएगा। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने कहा है कि समान नागरिक संहिता का मसौदा तैयार करने के लिए शीघ्र ही एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया जाएगा और राज्य में सांप्रदायिक सौहार्द को किसी भी कीमत पर बाधित नहीं होने दिया जाएगा। वहीं उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य का कहना है कि इसे देश-प्रदेश में लागू किया जाना चाहिए, ऐसा करना अत्यंत आवश्यक है। उनका यह भी कहना है कि प्रदेश सरकार समान नागरिक संहिता कानून लागू करने पर विचार कर रही है। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने कहा है कि प्रदेश में समान नागरिक संहिता को लागू करने के बारे में सरकार गंभीरता से विचार कर रही है। उन्होंने कहा कि यह विशेष रूप से मुस्लिम महिलाओं के लिए एक सम्मान का विषय है।

उल्लेखनीय है कि समान नागरिक संहिता के अंतर्गत देश में निवास करने वाले सभी लोगों के लिए एक समान कानून का प्रावधान किया गया है। धर्म के आधार पर किसी भी समुदाय को कोई विशेष लाभ प्राप्त नहीं हो सकेगा। इसके लागू होने की स्थिति में देश में निवास करने वाले प्रत्येक व्यक्ति पर एक ही कानून लागू होगा, अर्थात
कानून का किसी धर्म विशेष से कोई संबंध नहीं रह जाएगा। ऐसी स्थिति में अलग-अलग धर्मों के पर्सनल लॉ समाप्त हो जाएंगे। वर्तमान में देश में कई निजी कानून लागू हैं, उदाहरण के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ, इसाई पर्सनल लॉ एवं पारसी पर्सनल लॉ। इसी प्रकार हिंदू सिविल लॉ के अंतर्गत हिंदू, सिख एवं जैन समुदाय के लोग आते हैं।
समान नागरिक संहिता लागू होने से इनका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा तथा विवाह, तलाक एवं संपत्ति के मामले में सबके लिए एक ही कानून होगा।

इसके दूसरी ओर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने समान नागरिक संहिता को असंवैधानिक और अल्पसंख्यक विरोधी बताते हुए सरकार से इसे लागू न करने की अपील है। बोर्ड का कहना कि भारत के संविधान ने देश के प्रत्येक नागरिक को उसके धर्म के अनुसार जीवन जीने की अनुमति दी है। इसे मौलिक अधिकारों में सम्मिलित किया गया है।

नि:संदेह देश में समान नागरिक संहिता लागू होने से मुस्लिम समाज की महिलाओं का जीवन स्तर बेहतर हो जाएगा। यह कानून मुस्लिम समाज से बहुपत्नी प्रथा का उन्मूलन करने में प्रभावी सिद्ध हो सकेगा, क्योंकि इस समाज के पुरुष अपनी पत्नी के जीवित रहते दूसरा, तीसरा एवं चौथा विवाह नहीं कर पाएंगे। इतना ही नहीं, संपत्ति में भी पुत्रियों को पुत्रों के समान ही भाग मिलेगा। इसमें दो मत नहीं है कि समान नागरिक संहिता मुस्लिम महिलाओं के लिए सम्मानजनक कानून है, जो उन्हें सम्मान से जीवन जीने का अधिकार देगा।

हरे राम हरे कृष्ण मंत्र गान से चैतन्य हो गए महाप्रभु समान

—विनय कुमार विनायक
राम कहो या कह लो श्याम
दोनों में कुछ न अंतर जान!

दोनों हैं एक अन्तर्यामी प्रभु
दोनों एक व्यक्त महा प्राण!

राम कहो या कह लो श्याम
दोनों हैं एक ही रुप भगवान!

आस्था बहुत बड़ी बात होती
हिन्दू होते हैं बड़े आस्थावान!

राम ने राक्षसों को संहारा था
कृष्ण संहारे रिश्तेदार शैतान!

राम कहो या कह लो श्याम
दोनों परम तत्व एक समान!

जो राम के नहीं हुए वे दीन
जो कृष्ण के नहीं वे मलीन!

दीन मलीन क्यों रहना चाहो
राम नाम मन ही मन गाओ!

राम का नाम है बड़ा सुखदाई
भगवान कृष्ण गोपाल कन्हाई!

राम नाम ईश्वर हरि का नाम
कृष्ण ने दिया गीता का ज्ञान!

राम नाम में शक्ति अति भारी
सुवा पढ़ावन गणिका गई तारी!

राम नाम से पुत्र को पुकार कर
पापी अजामिल गए विष्णु धाम!

हरे राम हरे कृष्ण मंत्र गान से
चैतन्य हो गए महाप्रभु समान!

भज लो प्रियवर राम का नाम
भज लो प्यारे गिरिधर श्याम!
—विनय कुमार विनायक

सर्वश्रेष्ठ लोक संचारक एवं आदर्श आदि पत्रकार देव ऋषि नारद

नारद जयंती (17 मई) के पर विशेष

  • ललित गर्ग –
    देव ऋषि नारद या नारद मुनि ब्रह्माजी के पुत्र और भगवान विष्णु के बहुत बड़े भक्त महान तपस्वी, तेजस्वी, सम्पूर्ण वेदान्त एवं शस्त्र के ज्ञाता तथा समस्त विद्याओं में पारंगत हैं, वे ब्रह्मतेज एवं अलौकिक तेजोरश्मियों से संपन्न हैं। हैं। वे आदि-पत्रकार हैं जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक जगह की खबर दूसरी जगह पहुंचाने एवं इधर की बात उधर करके, दो लोगों के बीच आग लगाने के लिये काफी प्रसिद्ध हैं। माना जाता है कि उन्हंे सब खबर रहती हैं कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कहाँ क्या हो रहा हैं। मूंह पर नारायण नारायण और हाथ में वीणा लिये, नमक-मिर्च लगा के बातें फैलाना, एक बात को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाने, सृष्टि के हित में सृष्टि की किसी बड़ी घटना की आहट को पहचानकर उसे एक लोक से दूसरे लोक में पहुंचाने में उनकी महारत थी। उन्हंे दुनिया का आदि पत्रकार माना गया है। जगह-जगह में जो चल रहा है, उसकी सुध लेते, इस लोक से उस लोक तक भ्रमणशील रहते, नारद खबरों को संप्रेषित करते, प्रसारित करते। देवर्षि नारद ने अपने धर्मबल से परमात्मा का ज्ञान प्राप्त किया। वे समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए उपस्थित रहते थे। वे देव, दानव और मानव समाज के हित के लिये सर्वत्र विचरण करते हुए चिंतन व विचार मग्न रहते थे। संगीत के मर्मज्ञ एवं पंडित नारद को हम इहलोक, देवलोक और असुरलोक- तीनों लोेकों में एक समान विचरने वाले सर्वश्रेष्ठ लोक संचारक एवं आदर्श पत्रकार के रूप याद कर सकते हैं। नारद को केवल मात्र एक पत्रकार के रूप में समझना या प्रस्तुत करना संभवतः उनके प्रति एकपक्षीय दृष्टि है, क्योंकि उनका व्यक्तित्व बहुआयामी है। उन्होंने ब्रह्मा से ज्ञान प्राप्त किया। संगीत का आविष्कार किया। समाज में भक्ति के मार्ग का प्रतिपादन किया और संवाद के माध्यम से लोकहित का कार्य किया। वे तमस से ज्योति की, असत्य से सत्य की एवं अंधकार से प्रकार की एक सतत यात्रा हैं।
    नारद मुनि के व्यक्तित्व रहस्यमय हैं, उन्हें समझना आसान नहीं हैं। यूं तो वे हमेशा खुश और आनन्दित दिखते हैं पर वे काफी संजीदा और विद्वान भी हैं। हिन्दू पौराणिक कथाओं की मानें तो उन्होंने भगवान विष्णु के कई काम पूरे किये हैं। नारदजी को विष्णु का संदेशवाहक माना गया है इसीलिये उन्हें आदि-पत्रकार कहा जाता है। नारदजी के विभिन्न उपनाम भी हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उन्हें संचारक अर्थात सूचना देने वाला पत्रकार कहा गया है। इसके अतिरिक्त संस्कृत के शब्द कोष में उनका एक नाम आचार्य पिशुन आया है जिसका अर्थ है सूचना देने वाला संचारक, सूचना पहुंचाने वाला, सूचना को एक स्थान से दूसरे स्थान तक देनेवाला है। आचार्य का अर्थ गुरु, शिक्षक, यज्ञ का मुख्य संचालक विद्वान अथवा विज्ञ होता है। आचार्य पिषुन से स्पष्ट है कि देवर्षि नारद तीनों लोकों में सूचना अथवा समाचार के प्रेषक के रूप में परम लोकप्रिय पत्रकार एवं संवाद-प्रेषक, संवाद-वाहक हैं ।
    भूत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी, स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात, गर्भावस्था में ही अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्ता तथा अपने ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियों से घिरे हुए देवता, द्विज और नृपदेवर्षि कहे जाते हैं। जनसाधारण देवर्षि के रूप में केवल नारदजी को ही जानता है। उनकी जैसी प्रसिद्धि किसी और को नहीं मिली। वायुपुराण में बताए गए देवर्षि के सारे लक्षण नारदजी में पूर्णतः घटित होते हैं। सम्पूर्ण भारत में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, राम, कृष्ण और अनेक देवी-देवताओं की एक समान जानकारी हर भारतवंशी को होने के पीछे नारदजी की पत्रकारिता एवं सुसंवादिता ही मुख्य है।
    नारद की छवि किसी जाति, वर्ग, समुदाय, सम्प्रदाय से नहीं जुड़ी थी। वे मनुष्य थे या देवता, यह कहना कठिन है। कहीं-कहीं वे गंधर्व के रूप में भी प्रकट होते हैं। परन्तु उस काल में वे देवताओं, मानवों और दानवों सभी के मित्र-हितैषी थे और उनको कुछ सिद्धियां एवं अधिकार प्राप्त थे, जिससे वे पलक झपकते ही सृष्टि के किसी भी कोने में पहुंच जाते और ब्रह्मा, विष्णु, महेश एवं अन्य सभी के दरवाजे उनके लिये हरदम खुले रहते थे। बिना किसी रोक-टोक के वे कहीं भी आ जा सकते थे।
    एक बार त्रिदेवी – लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती के बीच में अहम की लड़ाई हो गयी कि कौन सी माता सबसे श्रेष्ठ है। नारदजी ने इस मौके का पुरा फायदा उठाया और हर देवी के पास जाकर दूसरी दो देवियों की बातें बतायी। आखिर में नारदजी के कहने पर अपनी शक्ति का प्रणाम देने के लिये तीनो देवियों ने एक चमत्कार करने की ठानी। ज्ञान की देवी सरस्वती ने एक गूंगे-बहरे आदमी को रातों-रात विद्वान बना दिया। धन की देवी लक्ष्मी ने एक गरीब औरत को रानी बना दिया और बल की देवी पर्वती ने एक बहुत डरपोक आदमी को बल देकर सेनापति बना दिया। थोड़ी देर में ही उस राज्य में कोहराम मच गया क्योंकि आम जनता ने उस सेनापति के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि उस रानी ने उस विद्वान को मृत्यु-दंड दे दिया था। उस विद्वान ने रानी की प्रशंसा करने के लिये मना कर दिया था। तब तीनो देवियों को एहसास हुआ यह सारा खेल नारदजी का ही किया धरा था। इस तरह नारदजी आपस में लड़ाने में माहिर थे। आधुनिक समय में आम तौर पर यदि कोई दो लोगों के बीच लड़ाई कराये तो उसे हम ‘नारद मुनि’ की उपाधि देते है। विष्णु पुराण के एक आनंदमय श्लोक के अनुसार जो दो लोगों के बीच कलह करवाये वह नारद है। लेकिन नारदजी की नीयत हमेशा साफ होती है। वे परोपकारी एवं जनउद्धारक हैं। वे जो कुछ भी करते हैं प्रभु की इच्छा अनुसार ही करते हैं, कभी बदले की भावना या कभी किसी को नुकसान पहंुचाने की भावना से नहीं करते। जन-जन का कल्याण ही उनकी इच्छा होती है। सकारात्मकता, सज्जनता एवं परोपकार उनका मुख्य ध्येय होता है। देवर्षि नारद व्यास, वाल्मीकि, शुकदेवजी जैसे ऋषियों के गुरु हैं। नारद ने ही प्रहलाद, ध्रूव, राजा अम्बरीष, आदि को भक्तिमार्ग पर प्रवृत्त किया।
    माना जाता है ऋषि नारद के कारण ही असुर हिरण्यकशिपु के प्रह्लाद जैसा संत एवं भक्त पुत्र समाज को प्राप्त हुआ। यह उदाहरण अकेला नहीं है। नारद ने ऐसे अनेक कार्य किये जिनसे भविष्य का घटनाक्रम ही बदल गया। कंस के मन में उन्होंने यह शक पैदा किया कि देवकी की कोई भी आठवीं संतान हो सकती है जो उसका वध करेगी। नारद ने ऐसा इसलिये किया कि कंस के अत्याचार और पाप इतने बढ़ जायें जिससे उसका वध करना समाज हित के लिए एक अनिवार्य कार्य हो जाए। व्यापक दृष्टि से देखें तो नारद केवल मात्र सूचनाओं का आदान-प्रदान नहीं करते थे। वे तो वाणी का प्रयोग लोकहित में करते थे। महत्वपूर्ण यह भी है कि नारद स्थायी रूप से कहीं नहीं रहते थे। कहा जाता है कि प्रजापति ने उन्हें यह श्राप दिया था कि वे निरंतर भ्रमण करते रहें और एक स्थान पर रहना उनके लिए अवांछनीय था।
    एक पत्रकार का कहा हुआ समाज एवं देश हित में माना जाता है, पत्रकारिता के प्रति यह विश्वसनीयता नारदजी के कारण ही है। ऐसा इसलिये भी है कि नारद ने जैसा कहा, उसे उस समय हर किसी ने सौ प्रतिशत सत्य और तथ्यात्मक माना। इतना ही नहीं, नारद ने जो सुझाव दिया, उसे किसी दानव, मानव या देवता ने न माना हो, ऐसा भी प्रकरण नहीं आता है। यहां तक कि पार्वती अपने पति शिव की बात को न मानकर नारद के कहने पर अपने पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में जाती हैं और एक बड़े घटनाक्रम का सूत्रपात होता है जिसमें शिव के तांडव का उद्घाटन है। ऐसा संभव नहीं लगता कि नारद केवल एक ही व्यक्ति थे क्योंकि सतयुग, द्वापर और त्रेता युग- सभी में नारद की उपस्थिति के प्रमाण मिलते हैं। अविरल भक्ति के प्रतीक और ब्रह्मा के मानस पुत्र माने जाने वाले देवर्षि नारद का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक भक्त की पुकार भगवान तक पहुंचाना है। वह विष्णु के महानतम भक्तों में माने जाते हैं और इन्हें अमर होने का वरदान प्राप्त है। भगवान विष्णु की कृपा से यह सभी युगों और तीनों लोगों में कहीं भी प्रकट हो सकते हैं। आज की पत्रकारिता उनसे प्रेरणा ले और मानवता के कल्याण के लिये प्रतिबद्ध हो, ऐसा होने से नारदजी की स्मृति एवं उनकी उपस्थिति का अहसास हम युग-युगों तक जीवंत रख पाएंगे।

फग्गन सिंह कुलस्ते : प्रभावी राजनेता एवं आदिवासी उन्नायक


-ललित गर्ग –

भारतीय राजनीति में सादगी, कर्मठता, ईमानदारी एवं राजनीतिक कौशल से अपनी जगह बनाने वाले एवं आदिवासी जनजीवन के लिये उजाला बनने वाले फग्गन सिंह कुलस्ते वर्तमान राजनीति के एक प्रभावी एवं सक्षम राजनेता है। वे अपनी प्रभावी एवं शालीन भूमिका से देश के आदिवासी जन-जीवन के उत्थान एवं उन्नयन की एक बड़ी उम्मीद बने हैं। कुलस्ते एक ऐसे प्रभावी, कठोर, जुझारु, चमत्कारी एवं राजनीति व्यक्तित्व हैं जिन्होंने एक बार नहीं, बल्कि अनेक बार सांसद बनकर अपने राजनीतिक वजूद, कौशल एवं आमजनता पर अपनी पकड़ का परिचय दिया है। वे धैर्य, लगन, आत्मविश्वास, दृढ़ संकल्प, राजनीतिक कौशल के साथ खुद को बुलन्द रखते हैं, जिससेे उनके राजनीतिक रास्ते से बाधाएं हटती ही है और संभावनाओं का उजाला होता ही है। चुनौतीभरे रास्तों में समूचे राष्ट्र में आदिवासियों के लिये उजाले के प्रतीक बनने वाले कुलस्ते का व्यक्तित्व राजनीति की प्रयोगशाला में तपकर और अधिक निखरा है। कुलस्ते एक जुझारु एवं कर्मठ राजनीतिज्ञ तथा वर्तमान में केन्द्रीय इस्पात राज्यमंत्री, भारत सरकार हैं। वे जुलाई 2016-सितंबर 2017 तक केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्य मंत्री रहे, नवंबर 1999-मई 2004 तक वे जनजातीय मामलों के केंद्रीय राज्य मंत्री बने और अक्टूबर- नवंबर 1999 में कुलस्ते संसदीय कार्य राज्य मंत्री बनाए गए। वे भारत की सत्रहवीं लोक सभा के सांसद हैं। 2019 के चुनावों में वे मध्य प्रदेश के मण्डला से निर्वाचित हुए। वे भारतीय जनता पार्टी से संबद्ध हैं और अपने क्षेत्र के साथ-साथ समूचे आदिवासी क्षेत्रों में भाजपा की आवाज को पहुंचाने वाले सक्षम एवं कार्यक्षम व्यक्तित्व है।
फग्गन सिंह कुलस्ते जितने प्रभावी राजनेता है उतने ही प्रखर समाजसेवी एवं शिक्षासेवी है। समाज में शिक्षा का प्रसार करने के लिए कार्य करना, कई समितियां गठित करके आदिवासियों को अपने अस्तित्व एवं सांस्कृतिक कार्यकलापों से जुडे़ रखने के लिए प्रोत्साहित करना, शैक्षिक संस्थाओं के संस्थापक और व्यवस्थापक, समाज के कमजोर वर्गों के लोगों को निःशुल्क शिक्षा प्रदान करना, आदिवासियों के उत्थान और शिक्षा के प्रसार के लिए बाबलिया विकास खंड की स्थापना आदि कुलस्ते के कार्यक्षेत्र है।
फग्गन सिंह कुलस्ते जमीनी स्तर से कार्य करते हुए, भारत की सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के प्रमुख आदिवासी नेता के तौर पर उभरे हैं। वे सफल संगठनकर्ता एवं राजनीति कौशल के महारथि हैं। नरेन्द्र मोदी सरकार के मंत्री कद्दावर नेता कुलस्ते लम्बे समय से अपनी सारी शक्ति, सोच एवं ऊर्जा आदिवासी उत्थान एवं उन्नयन में खपाते रहे हैं। निश्चित ही उनके हर दिन के प्रयत्न से आदिवासी समुदाय में कुछ नया उत्साहपूर्वक परिवेश बनता रहा है, वे एक जुझारू एवं जमीन से जुड़े नेता हैं। उनका राजनीतिक वजूद विलक्षण एवं अद्भुत है, जनता पर उनकी पकड़ है। उनकी स्वतंत्र सोच है, जीत किस तरह सुनिश्चित की जा सकती है, यह गणित उन्हें भलीभांति आता है। यही कारण है कि कुलस्ते लगातार सांसद बनते रहे हैं, पहले 11वीं, 12वीं, 13वीं, 14वीं, 16वीं और 17वीं लोकसभा के सदस्य रह चुके हैं। वे 2012 में राज्यसभा के लिए चुने गए।
कुलस्ते सांसद के साथ-साथ अनेक संस्थाओं एवं गतिविधियों से जुड़े हैं। वे अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद के अध्यक्ष हैं। वे भाजपा (अ.ज.जा. प्रकोष्ठ) 1993, राष्ट्रीय सचिव (प्रभारी) एवं भाजपा (अ.ज.जा. प्रकोष्ठ) 1996, उपाध्यक्ष भी रहे हैं। अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद् दिल्ली एवं अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद्, मध्य प्रदेश के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे हैं। भाजपा अनुसूचित जनजाति मोर्चा, 2004 एवं 2010 (दो कार्यकाल), भाजपा, मध्यप्रदेश, 2006-2010 (दो कार्यकाल) महासचिव रहे, अखिल भारतीय गोंड संघ, 1998 से संरक्षक हैं।
फग्गन सिंह कुलस्ते का जन्म 18 मई 1959 को मध्य प्रदेश के मंडला में हुआ था। कुलस्ते के पास एमए, बीएड और एलएलबी की डिग्री है। उन्होंने अपनी पढ़ाई मंडला कॉलेज, डॉ. हरि सिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर और रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर से पूरी की। कुलस्ते ने सावित्री कुलस्ते से शादी की है और उनकी 3 बेटियां और 1 बेटा है। कुलस्ते का जीवन राजनीतिक जज्बों, प्रयोगों एवं संघर्षों से भरा रहा है। ऐसा लगता है वे आदिवासी राजनीति के लिये ही बने हैं, वे आदिवासी राजनीति के महारथि एवं महायौद्धा हैं। उन्होंने चुनौतियों को अवसर में बदलने की महारथ हासिल की है। कुलस्ते आधुनिक तकनीक एवं साधनों का प्रयोग करते हुए अपने मंत्रालय को सक्रिय किये हुए हैं। वे ऐसी अनूठी एवं विलक्षण शख्सियत हैं जिनके दम पर आदिवासी जनजीवन का नया भविष्य तलाशा जा रहा है। वे कई सालों से राजनीति में हैं और राजनीति के दांव पेच से अच्छे से वाकिफ हैं। उनके सामने चाहे कैसी भी परिस्थिति हो लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। आज आदिवासियों में जो उनका मुकाम है उसे हासिल करने के लिए उन्होंने अपने जीवन में खूब मेहनत की है, अनेक संघर्षों में तपकर-खपकर निखरे हैं। कुलस्ते मध्यप्रदेश के आदिवासियों के लिये ही एक नया सवेरा, नई उम्मीद और नई प्रेरणा बनकर नहीं उभरे, बल्कि देश के समूचे आदिवासी जनजीवन के लिये भी एक नई प्रेरणा सिद्ध हुए हैं।
फग्गन सिंह कुलस्ते टेढ़े-मेढ़े, उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए, संकरी-पतली पगडंडियों पर चलकर भाजपा-भावना से आदिवासियों की शक्ति बने हैं। वे किसी पद या जिम्मेदारी लेने की दौड से स्वयं को दूर रखते रहे हैं, उन्होंने कहा भी है कि हमारे यहां कोई व्यक्ति खुद से किसी दौड़ में शामिल नहीं होता। भाजपा में जिम्मेदारी दी जाती है। वे भाजपा की राजनीति को मूल्यों एवं राष्ट्रीयता से प्रेरित राजनीति मानते हैं। उन्होंने कहा भी है कि हम देश बनाने के लिये काम करते हैं, मातृभूमि का वैभव अक्षुण्ण रखना चाहते हैं। ऐसे ही सक्रिय होकर काम करने वाले नेताओं एवं कार्यकर्ताओं से ही भाजपा मजबूत बनी है। ऐसे ही नेताओं के चरित्र एवं साख से देश की अधिसंख्य जनता को पता चला है कि भाजपा की राष्ट्रीयता से प्रेरित राजनीति के मायने क्या-क्या हैं? भले ही कुलस्ते आज सफल राजनीतिक शख्सियतों में शुमार किये जाते हों, लेकिन राजनीतिक जीवन ने उन्हें कई थपेड़े दिये, कई बदरंग जीवन की तस्वीरों से बार-बार रू-ब-रू कराया और इन थपेड़े एवं भौंथरी तस्वीरों ने उन्हें झकझोरा भी – जीवन को हिला भी दिया लेकिन उतना ही निखारा भी।
राष्ट्रवाद के परिकल्पनात्मक स्वरूप को अगर भाजपा देश की जनता के हृदय तक पहुंचाने में कामयाब रही है तो इसका श्रेय काफी हद तक नरेन्द्र मोदी, अमित शाह एवं जेपी नड्डा के नेतृत्व में कुलस्ते जैसे नेताओं को ही जाता है। उन्होंने देश के लोगों में भाजपा के लिये सकारात्मक वातावरण बनाने की दिशा में जो प्रयत्न किये हैं, निश्चित ही उसके प्रभावी परिणाम देखने को मिलें है और मिलते रहेंगे। देश में भाजपा ने आदिवासियों की विधिवत परवाह की है और उन्हें अपने भविष्य को लेकर किसी प्रकार की चिंता से ग्रस्त नहीं होना चाहिए। स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अनेक अवसरों पर आदिवासी कल्याण एवं उन्नत जीवन के संकल्प को दोहराया है और अनेक बहुआयामी योजनाएं शुरु की है।
आजादी के आंदोलन के दौरान से ही जनसेवा की भावना राजनीतिक कर्म में समाहित रही है। इसलिए राजनीति का आज भी दावा है कि वह जनसेवा का ही माध्यम है। लेकिन हाल के कुछ वर्षों में जनसेवा के लिए सत्ता का नया आयाम जुड़ गया है। इसलिए आज राजनेता वही कामयाब माना जाता है, जिसकी जनता पर पकड़ हो, जनता के मुताबिक राजनीतिक रणनीति बना सके और इसके जरिए अपनी राजनीतिक विचारधारा को सत्ता तंत्र के शीर्ष पर पहुंचा सके। इन अर्थों में देखें तो कुलस्ते हाल के दिनों में बड़े राजनीतिक रणनीतिकार के तौर पर उभरे हैं।
मुझे कुलस्तेजी से अनेक बार मिलने एवं आदिवासी विकास पर चर्चा करने का सौभाग्य मिला। वे गुजरात के आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासी संत गणि राजेन्द्र विजयजी के नेतृत्व में संचालित सुखी परिवार अभियान एवं सुखी परिवार फाउण्डेशन के प्रारंभ से सहयोगी एवं मार्गदर्शक रहे हैं। एक संत एवं एक राजनेता- दोनों ही आदिवासी जनजीवन के उत्थान और उन्नयन के लिये लम्बे समय से प्रयासरत है और विशेषतः आदिवासी जनजीवन में शिक्षा की योजनाओं को लेकर जागरूक है। दोनों ही आदिवासी क्षेत्र में शिक्षा के साथ-साथ नशा मुक्ति एवं रूढ़ि उन्मूलन की अलख जगाते हैं। दोनों का ही जीवन-ध्येय शिक्षा एवं पढ़ने की रूचि जागृत करने के साथ-साथ आदिवासी जनजीवन के मन में अहिंसा, नैतिकता, स्वावलम्बन एवं मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था जगाना है। कुलस्ते चाहते हैं आदिवासी समाज को उचित दर्जा मिले। वह स्वयं समर्थ एवं समृद्ध है, अतः शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिये स्वयं आगे आएं। एक तरह से कुलस्ते के प्रयत्नों से एक सम्पूर्ण पिछडा एवं उपेक्षित आदिवासी समाज स्वयं को आदर्श रूप में निर्मित करने के लिये तत्पर हो रहा है, यह एक अनुकरणीय एवं सराहनीय प्रयास है।
भारत को आज सांस्कृतिक क्रांति का इंतजार है। यह कार्य सरकार तंत्र पर नहीं छोड़ा जा सकता है। सही शिक्षा और सही संस्कारों के निर्माण के द्वारा ही परिवार, समाज और राष्ट्र को वास्तविक अर्थों में स्वतंत्र बनाया जा सकता है। इसी दृष्टि से कुलस्ते का आदिवासी मिशन एक रोशनी है। एक स्वस्थ समाज निर्माण का संकल्प है। वे एक उन्नत एवं आदर्श आदिवासी समाज की स्थापना के लिये प्रतिबद्ध है। मेरी दृष्टि में फग्गन सिंह कुलस्ते के उपक्रम एवं प्रयास आदिवासी अंचलों में एक रोशनी का अवतरण है, यह ऐसी रोशनी है जो हिंसा, आतंकवाद, नक्सलवाद, माओवाद जैसी समस्याओं का समाधान बन रही है।

भारत के भाग्य जगे मर्यादित हो जाएं सभी राम के बंदे

—विनय कुमार विनायक
बापू कहते थे रामराज्य वापस लाना है,
भारत देश की गरीबी को मिटाना है,
तो क्या अतीत को फिर से बुलाना है?

अगर हां तो महापंडित रावण का भांजा
ब्राह्मण किंवा तथाकथित शूद्र शंबुक को
कहां बिठाना है किस नाम से पुकारना है?
शूद्र या कि ब्राह्मण गांधीवादी देश में!

शूद्र नाम को बापू ने नकार दिया था,
हरिभक्त बापू ने हरिजन नाम दिया था,
जिसका शूद्र से ज्यादा दुर्गत हो गया,
अब हरिजन को दलित नाम दिया गया
जाति-वर्ण-वर्गवादी अपने भारत देश में!

बापू के इंतकाल से सत्तर साल बीत गया,
दलित को बहुत कुछ फलित हुआ
मगर खादी से आजादी नहीं मिली
और राम राज्य भी वापस नही आ पाया!

सुना है राम को वनवास से वापस
लाने की आस में बापू की आंखें पथरा गई थी
गोली खाकर बोली बंद हो गई थी
मरते-मरते मुख से हे राम नाम निकली थी!

इस बीच कैकेई नहीं काकाजी आए
धर्म निरपेक्षता की देकर दुहाई राम से दूरी बनाई
आगे मंथरा नहीं सुमित्रा माई भी आई,
मगर रामराज्य लाने की बात सिरे से गायब रही!

अब तो रामराज्य के बदले इमामेहिंद राम पधार रहे,
देश में सौहार्द हो सब रामवंशी बाबर से ना प्यार रहे,
भारत के भाग्य जगे मर्यादित हो जाएं सभी राम के बंदे
देश में हो अमन चैन बंद हो जाए सब गोरखधंधे व दंगे!

भगवा हो पहचान त्याग की भारतवंशियों के
सबको हक मिले अपने भाग और भाग्य के
अब ब्राह्मण हरिजन हो गए आरक्षण पा के!

गांधी के हरिजन को घृणा द्वेष से मुक्ति मिली,
सर्वजन आरक्षण से जाति अहं मिटाने की युक्ति मिली!
—विनय कुमार विनायक

संयुक्त परिवार जीवन पथ की दुश्वारियों को कम करने का सबसे कारगर उपाय

दीपक कुमार त्यागी

विश्व के लोगों को परिवार की अहमियत बताने व समझने के उद्देश्य से हर वर्ष 15 मई को “विश्व परिवार दिवस” मनाया जाता है। वैसे तो इस संसार या समाज में परिवार एक सबसे छोटी लेकिन महत्वपूर्ण व बेहद मजबूत इकाई है। यह हमारे जीवन की एक ऐसी आवश्यक मौलिक इकाई है, जो हमें एक-दूसरे के साथ प्यार, मोहब्बत, आपसी सहयोगात्मक, सामंजस्य के साथ जीवन जीना सिखाती है, परिवार ही हमें समाज में सौहार्दपूर्ण संबंध व आपसी मेलजोल से रहना सिखाता है। प्रत्येक इंसान किसी न किसी परिवार का महत्वपूर्ण अंग है या फिर जीवन में कभी रहा है। परिवार से अलग होकर व्यक्ति के अस्तित्व के बारे सोचना भारत में आज भी बहुत चुनौती पूर्ण है। आज भी हम भारतवासी आधुनिक संस्कृति और सभ्यता के परिवर्तनों को स्वीकार करके अपने आप को चाहें कितना भी बदल ले या परिष्कृत कर ले, लेकिन फिर भी हमने जीवन में कभी परिवार के अस्तित्व पर कोई भी आंच नहीं आने दी है, हम लोगों में अधिकतर अब भी कभी ना कभी परिवार के साथ मिल इकट्ठा जरूर रहते हैं। जीवन में रिश्तों की इस बेहद मजबूत महत्वपूर्ण कड़ी को हमने आज के व्यवसायिक दौर में भी बहुत सुरक्षित करके रखा हुआ है। हो सकता है कि भागदौड़ भरी जिंदगी में आपसी मनमुटाव के चलते कभी-कभी वह भले टूटने के कगार पर पहुंच जाती है, लेकिन फिर भी हम भारतीय परिवार व उसके लोगों के अस्तित्व को अपने जीवन में कभी नकारा नहीं सकते है, क्योंकि हमारी जिंदगी में परिवार बहुत आवश्यक है।

वैसे आज के आपाधापी व भागदौड़ भरी जिदंगी में जब हर क्षेत्र में बहुत अधिक प्रतियोगिता है, आज के दौर में इंटरनेट का प्रभाव और जीवन में कभी ना समाप्त होने वाली महत्‍वकांक्षाओं के समंंदर में अगर डूबने से कोई बचा सकता है तो वह संयुक्त परिवार ही है। वैसे भी विश्व में अलग-अलग तरह की विभिन्‍न शोधों में यह साबित हो चुका है कि वे लोग बहुत ही कम अवसाद ग्रस्‍त होते हैं जो संयुक्त परिवार में मिलजुल कर इकट्ठा रहते हैं और वो लोग अपने जीवन के लक्ष्य को बेहद आसानी से हासिल कर लेते है। आज के भौतिकवादी युग में भले ही समाज में हर तरफ व्‍यक्तिवादी और उपभोक्‍तावादी संस्‍कृति का बहुत बोलबाला हो गया है, लेकिन अब भी परिवार समाज की एक सबसे मजबूत महत्वपूर्ण ईकाई है, जिसके रिश्‍तों की बेहद घनी छांव और स्‍नेह भरे स्‍पर्श के चलते व्यक्ति एक ही पल में अपने सारे दुख दर्द भूल जाता है। परिवार सिर्फ समाज की सबसे छोटी ईकाई ही नहीं, बल्कि सबसे अधिक मजबूत ईकाई भी है। यही किसी व्‍यक्ति या समाज के विकास का सबसे मजबूत स्तंभ भी है, इसके बलबूते ही हम सभी मिलजुलकर एकजुट होकर रहते हैं।

“विश्व परिवार दिवस” के इतिहास को देखें तो समाज में परिवार के महत्‍व को देखते हुए सम्पूर्ण विश्व में लोगों के बीच परिवार की अहमियत बताने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ ने “विश्व परिवार दिवस” या “अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस” हर साल 15 मई को वर्ष 1994 से मनाना शुरू किया था। वर्ष 1993 में संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव संख्या A/RES/47/237 के द्वारा प्रतिवर्ष 15 मई 1994 से “विश्व परिवार दिवस” मानने की शुरुआत हुई। जिसके लिए हर वर्ष एक अलग विषय (थीम) चुनाव किया जाता है और तब से हर वर्ष यह सिलसिला लगातार जारी है। परिवार की महत्ता को लोगों को समझाने के लिए 15 मई को सम्पूर्ण विश्व में विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इस दिन के लिए जिस प्रतीक चिह्न को चुना गया है, उसमें हरे रंग के एक गोल घेरे के बीचों बीच एक दिल और घर अंकित किया गया है। जिससे स्पष्ट है कि किसी भी समाज का केंद्र परिवार ही होता है। परिवार में आकर ही हर उम्र व वर्ग के लोगों को जिंदगी का असली सुकून पहुँचता है। हालांकि आज के व्यवसायिक दौर में संयुक्त परिवार के स्वरूप में बहुत परिवर्तन आया है, आज परिवार के मूल्यों में भी बहुत परिवर्तन हुआ है, लेकिन फिर भी कभी जिंदगी में परिवार की अहमियत के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न नहीं लगाया जा सकता है, भारत में हर व्यक्ति के जीवन में परिवार का अपना अलग ही महत्व है।

वैसे देखा जाये तो जीवन पथ पर संयुक्त परिवार में रहने का अपना एक अलग अनमोल आनंद है और इसके बहुत सारे लाभ हैं, जो निम्न हैं-

सुरक्षा और स्वास्थ्य :- संयुक्त परिवार में रहने के बहुत लाभ हैं, परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने आपको आर्थिक रूप से, सामाजिक रूप से व असमय आने वाले खतरों से बहुत ज्यादा सुरक्षित महसूस करता है, क्योंकि उसके साथ उसका परिवार खड़ा है, वह सभी आपस में परिवार की हर तरह की सुरक्षा की जिम्मेदारी सभी परिजन मिलजुल कर इकट्ठा निभाते हैं। जिसके चलते परिवार के किसी भी सदस्य की स्वास्थ्य समस्या, सुरक्षा समस्या, आर्थिक समस्या पूरे परिवार की समस्या होती है जिससे उस समस्या का आसानी से समाधान हो जाता है।परिवार के संयुक्त प्रयास होने के चलते किसी व्यक्ति के सामने आयी कोई भी बड़ी से बड़ी अनापेक्षित रूप से आयी परेशानी आपसी सहयोग से बहुत ही सहजता व सरलता से सुलझा ली जाती है। जिससे पीडित व्यक्ति का हौसला कभी भी नहीं टूटता है और वह गम्भीर से गम्भीर स्थिति का सामना भी बहुत ही सहजता से कर लेता है।

आपस में बंट जाते हैं कार्य व जिम्‍मेदारियां :- संयुक्त परिवार में परिजनों की संख्या अधिक होने के कारण हम लोग आपस में अपने कार्यों व जिम्मेदारी का विभाजन करके जीवन जीने की राह को आसान बना लेते है। इससे परिवार के किसी एक सदस्य पर जिम्‍मेदारियों व कार्यो का ज्‍यादा बोझ नहीं पड़ता और सब लोग आपस में हंसी-खुशी से एक-दूसरे के लिए सहयोग करके अपने दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन करते हैं, जिससे परिवार तरक्की के नये आयाम स्थापित करता है।

जीवन में अनावश्यक तनाव से मुक्ति :- संयुक्त परिवार में जिम्‍मेदारियों व कार्यो का बंटवारा हो जाने से किसी एक सदस्य पर किसी तरह का अनावश्‍यक बहुत ज्यादा दबाव नहीं पड़ता है। जिससे तनाव की स्थिति उत्‍पन्‍न नहीं होती है और व्यक्ति का जीवन तनाव मुक्त रहकर सुखी व सरलता से चलता रहता है।

बच्चों के चरित्र का समुचित विकास :- संयुक्त परिवारों में हमारी भावी पीढ़ी छोटे बच्चों के लिए सर्वाधिक सुरक्षित और उचित शारीरिक एवं चारित्रिक विकास के भरपूर अवसर प्राप्त होते है। परिजनों की संख्या अधिक होने से बच्चे की इच्छाओं और आवश्यकताओं का भी अधिक ध्यान रखा जाता है। उसे परिवार में ही अन्य बच्चों के साथ खेलने कूदने का भरपूर मौका मिलता है, उसका समूचित मानसिक व शारिरिक विकास बहुत ही आसानी से होता है। साथ ही बच्चे को माता-पिता के साथ-साथ परिवार के अन्य सदस्यों विशेष तौर पर दादा, दादी का अपार स्नेह व प्यार भी मिलता है। जिससे बच्चे संस्कारवान बनते है और उनके चरित्र का समुचित विकास होता है जिससे की वो भविष्य में आने वाली हर समस्या के समाधान के लिए सशक्त रूप से तैयार हो जाते है।

विश्व परिवार दिवस का मूल उद्देश्य परिवारों के विघटन को रोकना :- आज के आधुनिक समाज में परिवारों का विघटन दिन-प्रतिदिन बहुत ही तेजी के साथ बढ़ रहा है, हमारा देश भारत भी इससे अछूता नहीं है। इस दिन का मुख्य उद्देश्य जीवन में लोगों को संयुक्त परिवार की अहमियत बताना है, संयुक्त परिवार से जीवन में होने वाली उन्नति के साथ, एकल परिवारों और अकेलेपन के नुकसान के प्रति युवाओं को जागरूक करना भी “विश्व परिवार दिवस” का मूल उद्देश्य है। जिससे युवा अपनी बुरी आदतों (शराब, धूम्रपान, जुआ, गंदा नशा आदि) को छोड़कर एक सफल जीवन की शुरुआत संयुक्त परिवार में रह कर सकें। इसी उद्देश्य के साथ अब धीरे-धीरे सम्पूर्ण विश्व में “विश्व परिवार दिवस” बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाने लगा। जिसे अब हम संयुक्त परिवार के महत्व और जीवन में परिवार की जरुरत के प्रति युवाओं में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से हर वर्ष सेलिब्रेट करते है। इसलिए आज हमको इस दिन का उद्देश्य पूरा करने के लिए संकल्प लेना होगा कि हम हमेशा अपने परिजनों का ध्यान रखेंगे और सुख-दुख में आपस में सहयोग करेंगे तथा सनातन धर्म की प्राचीन परंपरा “वसुधैव कुटुम्बकम्” जिसके अनुसार धरती ही परिवार है माना गया है पर अमल करेंगे, आज हम जिंदगी के इसी मूल मंत्र के साथ आपको व आपके परिवार को “विश्व परिवार दिवस” की बधाई देते हैं।