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जल संकट : कहीं अतित का स्वप्न बन कर ना रह जाए शुद्ध पेयजल

हरियाणा के भिवानी जिले का उमरावत गांव पानी की उपलब्धता के मामले मे पहुंचा डे जीरो की स्थिति मे

भगवत कौशिक

– आर्थिक और सुरक्षा की दृष्टि मे एक दूसरे से आगे निकलने की छिडी जंग मे विश्व और हमारे देश भारत के सामने एक बड़ा संकट आ चुका है जिसे देखकर हर कोई या तो अंजान बन रहा है या फिर उन्हें इस संकट की विकरालता का आभास नहीं है। तमाम तरह की चेतावनी और जागरुकता अभियान के बावजूद कोई यह समझने को तैयार नहीं है कि विश्व में जल संकट एक बड़ा विकराल रूप लेता जा रहा है।

वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टिट्यूट (डब्ल्यूआरआई) द्वारा जारी नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया की आबादी का लगभग एक चौथाई हिस्सा गंभीर जल संकट का सामना कर रहा है। पानी का गंभीर संकट झेलने वाले 17 प्रमुख देश अपने क्रम के अनुसार क्रमशः कतर, इज़राइल, लेबनान, ईरान, जॉर्डन, लीबिया, कुवैत, सऊदी अरब, इरिट्रिया, यूएई, सैन मैरिनो, बहरीन, भारत, पाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ओमान और बोत्सवाना है। डब्ल्यूआरआई की मानें तो पानी की अत्यधिक कमी का सामना कर रहे यह 17 देश जल्द ही ‘डे जीरो’ जैसी स्थिति का सामना कर सकते हैं ।अगर भविष्य मे ऐसे हालात रहेंगे तो एक कहावत होगी “एक प्यासा कौआ था और वह प्यासा ही मर गया”।वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीटयूट की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल दो लाख लोग जल अनुपलब्धता और स्वछता संबंधी उचित व्यवहार न होने की वजह से मर जाते है।

नीति आयोग द्वारा जारी रिपोर्ट में भी यह बात स्वीकार की गयी है कि भारत के कई शहरों में जल संकट गहराता जा रहा है, और आने वाले वक्त में उसके और विकराल रूप लेने के आसार हैं। रिपोर्ट के अनुसार जहां 2030 तक देश की लगभग 40 फीसदी आबादी के लिए जल उपलब्ध नहीं होगा।मौजूदा समय मे भी देश की दस करोड़ से ज्यादा आबादी गंभीर जल संकट का सामना कर रही है।जिसका सबसे बडा कारण है बेशकीमती भूजल का बेतरतीब ढंग से दोहन।

■ पानी बेचना बना व्यवसाय-

जलसंकट को देखते हुए लोगों ने अब पानी को भी व्यवसाय का साधन बना लिया है।शहर से लेकर ग्रामीण इलाकों मे लोगों ने अवैध आरओ प्लांट लगाकर पानी को बेचना शुरू कर दिया।आज चाहे गांव हो या शहर पीने के पानी का डिब्बा 10 रूपये से लेकर 20 रूपये मे धडल्ले से भेजा जा रहा है।इसके साथ साथ पानी के टैंकर के लिए 600-700 रूपये लिए जा रहे है।

■ गिरता भूजल स्तर, खेतीबाड़ी से हो रहा है पलायन –

पानी के अंधाधुंध दोहन से हालत इस कदर बेकाबू होते जा रहे है कि किसानों के देश भारत मे अब किसान खेती से पलायन करने पर विवश है।बात चाहे पंजाब की हो ,या उत्तर प्रदेश की या हरियाणा की तीनो ही राज्य मे किसानों ने धान,गेहूं व गन्ने जैसी फसलें जिनमें पानी की खपत होती है उसी का रोपण किया।नतीजतन तीनों ही राज्यों मे भूमिगत जल स्तर बहुत ज्यादा नीचे चला गया।
भूजल स्तर की ओर विश्व बैंक की हालिया रिपोर्ट मे तो चेतावनी दी गई है कि यदि अंधाधुंध जलदोहन व जलवायु परिवर्तन का ऐसा ही हाल रहा तो आने वाले एक दशक मे 60 फीसदी कस्बे सुखे की चपेट मे होंगे।

■ ये पानी दोबारा नहीं मिलना–

जी हा यदि भूमिगत जल स्तर का ऐसे ही दोहन होता रहा तो निकट भविष्य मे पानी अतीत का स्वप्न बन कर रह जाएगा।देश मे जंहा पहले 2.26 करोड़ हेक्टेयर सिंचित क्षेत्र का क्षेत्रफल था,वह अब 6.8 करोड़ हेक्टेयर हो चूका है।यही कारण है कि तालाब व कुएं सूख रहे है।

■ जहरीली धरती और जहरीला पानी –

उत्तर भारत की बात करें तो भूजल के गिरते स्तर ने चिंता बढ़ा दी है। यहां का जल संकट गंभीर संकेत दे रहा है। मैदानी इलाकों के साथ ही पंजाब-हरियाणा में चिनाब, झेलम नदियों के किनारें हों या उत्तराखंड, बिहार और उत्तर प्रदेश में गंगा-यमुना नदियों के आसपास का क्षेत्र सभी जगह भूजल का स्तर तेजी से गिर रहा है। पंजाब में खेतों में कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों के जहरीले तत्वों के कारण धरती बंजर हो गई और कई स्थानों पर भूजल रसातल पर जा पहुंचा है। पानी और धरती के जहरीले हो जाने के कारण वहां उगा अनाज कई बीमारियों जैसे कैंसर और त्वचा संबंधी रोगों का कारण बन रहा है।

■ जंल संकट का सामना करने वाले राज्य —

छत्तीसगढ़, राजस्थान, गोवा, केरल, उड़ीसा, बिहार, उत्तरप्रदेश, हरियाणा, झारखंड, सिक्किम, असम, नागालैंड,उत्तराखंड, मेघालय

■ केवल 3 फीसदी मीठा जल है पीने के लिए —

“जल ही जीवन है” हम बचपन से सुनते आ रहे हैं। यह भी पता है कि धरती की सतह 70 फीसदी पानी से पटी हुई है। लेकिन दुनिया में पीने के लिए मीठा पानी सिर्फ 3 फीसदी है। और ये इतना सुलभ नहीं है… इसमें से भी विश्व की नदियों में प्रतिवर्ष बहने वाले 41,000 घन किमी (cubic kilometer) जल में से 14,000 घन किमी का ही उपयोग किया जा सकता है। इस 14,000 घन किमी जल में भी 5,000 घन किमी जल ऐसे स्थानों से गुजरता है, जहां आबादी नहीं है और यदि है भी तो उपयोग करने के लिए पर्याप्त नहीं है। इस प्रकार केवल 9,000 घन किमी जल का ही उपयोग पूरे विश्व की आबादी करती है।

■ डे जीरो के कगार पर शहर-

हमारे देश के प्रमुख शहर मेरठ, दिल्ली, फरीदाबाद, गुरुग्राम, कानपुर, जयपुर, अमरावती, शिमला, धनबाद, जमशेदपुर, आसनसोल, विशाखापत्तनम, विजयवाड़ा, चेन्नई, मदुरै, कोच्चि, बंगलुरु, कोयंबटूर, हैदराबाद, सोलापुर और मुंबई शहर में डे जीरो यानी भू-जल खत्म होने के कगार पर है।

दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान राज्यों में भूजल दोहन का स्तर बहुत अधिक है, जहां भूजल दोहन 100% से अधिक है। इसका अर्थ यह है कि इन राज्यों में वार्षिक भूजल उपभोग वार्षिक भूजल पुनर्भरण से अधिक है। हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश तथा केंद्र शासित प्रदेश पुद्दूचेरी में भूजल विकास का दोहन 70% और उससे अधिक है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान भूजल का उपयोग उन क्षेत्रों में बढ़ा है, जहां पानी आसानी से उपलब्ध था।

■ देश में 80 फीसदी पानी का नहीं हो पाता शुद्धिकरण-

देश में वाटर ट्रीटमेंट की भी हालत बहुत खराब है। घरों से निकलने वाले 80 फीसदी से अधिक पानी का ट्रीटमेंट नहीं हो पाता है और ये दूषित पानी के तौर पर नदियों में जाकर उसे भी दूषित करते हैं। इसी के साथ देश में सिर्फ 8 फीसदी बारिश के जल का भंडारण किया जाता है जो कि विश्व में सबसे कम है।

■ आनेवाले समय मे सिर्फ अमीर ही कर पाएंगे जरूरतों को पूरा कर —

यूएन ह्यूमन राइट्स की एक रिपोर्ट का कहना है कि विश्व उस दिशा में तेजी से बढ़ रहा है जहां सिर्फ अमीर लोग ही मूलभूत जरूरतों की भी पूर्ति कर सकेंगे। यूएन रिपोर्ट के मुताबिक साल 2030 तक पानी की जरूरतें दोगुनी बढ़ जाएंगी। इससे करोड़ों लोग जलसंकट की चपेट में आ सकते हैं। इसी संस्था की एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक भारत जनसंख्या में चीन को अगले एक दशक में पीछे छोड़ देगा जबकि साल 2050 तक 41.6 करोड़ लोग शहरों में बस जाएंगे।

दुनिया में 100 करोड़ अधिक लोगों को पीने का साफ़ पानी उपलब्ध नहीं है।तेजी से गहराते जल संकट के बीच सरकारी तंत्र की रुचि कागजी परियोजनाओं तक सिमट कर रह गई है। कानून बनाने या सर्वेक्षण कराने अथवा आकलन की कवायद ही ज्यादा होती रही है। जल संकट से निजात पाने के लिए समाज और सरकार की गंभीर हिस्सेदारी तो आज की सबसे बड़ी जरूरत है ही, व्यक्तिगत स्तर पर भी लोग या छोटे समूह पहल कर सकते हैं।अगर अब भी नहीं संभला गया तो वो दिन दूर नहीं जब तीसरा विश्व युद्ध का कारण पानी होगा और पानी केवल अतीत का स्वप्न बनकर रह जाएगा।

पानी की आस मे पथराई आंखे,30 साल से सिंचाई व पीने के पानी की किल्लत झेल रहे है उमरावतवासी

धरती पर जीवन यापन के लिए जल सबसे जरूरी मूलभूत संसाधन है।जल के बिना धरती पर जीवन की कल्पना भी नहीं कि जा सकती ,लेकिन उसी मूलभूत और आवश्यक संसाधन का यदि अभाव हो जाए तो जीवनयापन कैसा होगा ये सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते है।आज हमारे देश और प्रदेश में अनेकों ऐसे गांव है जहा दिनप्रतिदिन जलसंकट गहराता जा रहा है और ये गांव डार्क जोन मे जा रहे है।इन गांवो मे लोगो का जीवन नर्क से बदतर हो गया है।फसल तो दूर की बात है इन गांवों मे मनुष्यों और पशुओं के पीने के लिए भी पानी उपलब्ध नहीं है।ऐसी ही कहानी है एक गांव उमरावत कि जो भिवानी शहर से मात्र 4 किलोमीटर की दूरी पर भिवानी सांजरवाश रोड पर स्थित है।उमरावत गांव मे जहा पानी का जलस्तर इतना नीचे जा चुका है कि पानी इस गांव के लोगों के लिए सपना बन गया है। गहराते जलसंकट के भय ने गांवसियो को घुट घुट कर मरने पर विवश कर दिया है।

एक तरफ बारिश में देरी, सूखी नहरें और महंगे डीजल ने किसानों के चेहरों पर चिंता की लकीरें गहरी कर दी हैं। सिंचाई पानी उपलब्ध न हो पाने के कारण उमरावत गांव के किसान सूखे की मार झेल रहे है। भीषण गर्मी के बीच चल रही लू ने कृषि क्षेत्र पर संकट के बादलों को ज्यादा गहरा कर दिया है।

कभी लहलाती थी फसलें, गुंजती थी कोयलों की आवाज अब उडती है केवल धूल

आज से 30 वर्ष पूर्व कभी गांव उमरावत की उजाऊ जमीन में भी कोयले कुकती थी। वहां की भूमि में गेंहू, गन्ना, ज्वार, आदि की फसलें लहलहाती थी, लेकिन समय परिवर्तन के साथ-साथ नहर में पानी ना आने से अब वहां की जमीन बंजर हो चली है। यहां पर सालभर में केवल सरसों की फसल ही उगती है। किसानों की जिन्दगी अब अंधकारमय हो चली है।

क्या कहते है ग्रामीण

ग्रामीणों ने बताया कि उनकी दादरी डिस्ट्रीब्यूटरी नहर से जुडाव है। उनकी नहर जब कच्ची थी तो पानी भरपूर मात्रा में आता था और सभी के खेतों में पानी लगता था। खेत खलिहान फसलों से लहलहाते थे, लेकिन समय के साथ-साथ जब सत्ता परिवर्तन हुआ तो गठबंधन सरकार ने नहर का नवीनीकरण करवाकर इस पर करोड़ों रूपए खर्च किये। ग्रामीणों को भी पूरी आस बंध गई कि अब उनके आखिरी टेल तक पानी जरूर जायेगा और फसलों को सिंचित करने के लिए भी पानी मिलेगा, लेकिन उनकी यह आस भी अब धूमिल हो गई। नहर निर्माण के समय बड़े-बड़े अधिकारी जांच के लिए आए व ग्रामीणों को विश्वास दिलाया कि अब पूरी मात्रा में आएगा।
ग्रामीणों ने बताया कि विधायक भी नहर की टेल तक आए थे लेकिन आज भी गांव का जलघर व उनके खेत सूखे पड़े है। जिसकी कोई सुध नहीं ले रहा है। नहर में पानी न आने के कारण उनके खेत बंजर होते जा रहे हैं। अधिकतर किसानों ने तो पानी के अभाव में अपनी जमीन तक को बेच दिया है। जिन किसानों ने बैंक से लोन लिया है उसको वो फसल पर चुकता करते लेकिन यहां न तो अच्छी पैदावार है और किसानों की हालत भी माली है। ऐसे में किसान बैंक के कर्ज तले दबे हुए हैं। उन्हें अपनी जमीनें बेचने के अलावा कोई रास्ता दिखाई नहीं देता है। किसानों ने सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि सत्ता में आने से पहले तो सरकार बड़े-बड़े दावे करती थी कि वह किसानों को आखिरी टेल तक पानी पहुंचाने के लिए वचनबद्ध है। किसानों ने विधायक, मंत्री व भिवानी दौरे के दौरान मुख्यमंत्री से भी पानी की समस्या के समाधान की बात रखी थी। जिस पर स्वयं मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने उन्हें आश्वासन दिया था कि उनके यहां सिंचाई के लिए पानी नवीनीकरण के बाद जरूर आ जाएगा, लेकिन अब तक आश्वासनों के सिवा ग्रामीणों को कुछ भी नहीं मिल पाया है।

रेत पर अमरूद की खेती कर कृषि को नया आयाम देते किसान

फूलदेव पटेल
मुजफ्फरपुर, बिहार

खेती किसानी अर्थव्यवस्था का मेरुदंड है. प्रत्येक देश का विकास कृषि उत्पादन पर निर्भर है. महामारी के दौरान खेती किसानी ही भारत की बड़ी आबादी के लिए ईंधन का काम किया है. अच्छे मौसम की वजह से रबी और खरीफ फसलों का उत्पादन भी बेहतर हुआ है. यह जरूर है कि सब्जियों और फलों की बिक्री कुछ दिनों तक प्रभावित रही है लेकिन ग्रामीण इलाकों में में भुखमरी की स्थिति नहीं बनी. इस दौरान किसानों ने नकदी फसल और फलों की खेती के लिए प्रयास जारी रखा.

परंतु कृषि विभाग की उदासीनता की वजह से किसानों को बीज, रासायनिक उर्वरक, पानी, बिजली आदि के लिए अधिक कीमत चुकानी पड़ी. महंगाई की मार झेल रहे किसानों के लिए खेतीबाड़ी आसान काम नहीं था. इसके बावजूद वह तेलहन, दलहन के साथ फल की खेती, चावल, गेहूं, ज्वर, बाजरा, चना, मूंग, अरहर, मसूर, सरसों, तोड़ी, मूंगफली, आदि की खेती में लगे रहे. इस दौरान कुछ किसानों ने खेती में नया करने का सोचा. उन्होंने बालू की रेत पर तरबूज, खरबूज और सब्जी जैसी परंपरागत की खेती की जगह अमरूद की खेती शुरू की. जो इनके लिए वरदान साबित हुई.

बिहार के मुजफ्फरपुर जिला स्थित पारु ब्लॉक के धरफरी गांव के निवासी किसान हरिनाथ साह बालू पर अमरूद की खेती कर अपने इलाके में काफी चर्चित हैं. हरिनाथ साह पहले कोलकाता के एफसीआई कैंटीन में काम करते थे. इसी दौरान उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई. हरिनाथ साह के छोटे-छोटे चार बच्चे थे. उस समय हरिनाथ साह की उम्र लगभग पच्चीस साल थी. पत्नी की मृत्यु बाद बच्चों के लालन पालन की ज़िम्मेदारी के कारण उन्हें कोलकाता की नौकरी छोड़नी पड़ी. वह बताते हैं कि पत्नी की मृत्यु का दुख तो दूसरी तरफ, चार छोटे-छोटे बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी निभाते हुए घर-गृहस्थी चलाने के लिए खेती किसानी का काम करने लगे.

इसी दौरान उन्हें खेती के परंपरागत ढांचा से अलग कुछ करने का ख्याल आया और इसी क्रम में उन्होंने बालू वाली ज़मीन पर अमरुद उगाने का काम शुरू कर दिया. इस सिलसिले में गांव के अन्य किसान चन्देश्वर साह, बसंत महतो, रामचन्द्र राय कहते हैं कि हरिनाथ आज अपने बालू की रेत पर अमरूद की खेती कर स्वावलंबन का एक नया तरीका ढूंढ़ निकाला है. इस क्षेत्र में अमरूद की खेती इससे पहले नहीं होती थी. हरिनाथ साह से प्रेरित होकर कई किसानों ने इसे खेती के तौर पर अपनाया और आज कई किसानों को नकदी आमदनी के लिए अमरूद की खेती करना फायदेमंद लग रहा है.

हरिनाथ साह बताते हैं कि उनके एक करीबी विजयनंदन साह ने माली हालत सुधारने के लिए अमरूद की खेती की सलाह दी. जबकि विजयनंदन के रिश्तेदार ने उन्हें अमरूद के उन्नत किस्म की जानकारी दी तथा इसकी खेती का तौर-तरीका सिखाया. हरिनाथ ने पंद्रह वर्षों के लिए जमीन लीज पर लेकर अमरूद की खेती शुरू की. लीज पर ली गई जमीन के लिए उन्हें कई किसानों के साथ लीज एग्रीमेंट करना पड़ा. जमीन वाले को प्रत्येक साल अनाज के रूप में 10 किलो प्रति कट्ठा के हिसाब से एवं अलग से 10 किलो अमरूद फसल के समय डाली के रूप में देना तय कर अमरूद की खेती शुरू की. उन्होंने कुल 57 कट्ठा यानी लगभग ढाई हेक्टेयर भूमि पर कुल 560 अमरुद के पौधे लगाए.

इस संबंध में हरिनाथ साह बताते हैं कि अमरूद की खेती में एक पौधे से दूसरे पौधे की दूरी कम-से-कम 12-15 फीट की होनी चाहिए. इस प्रकार के पौधे रोपने के लिए एक मजदूर एक दिन में मात्र 20 पौधे ही रोपते हैं. पौधे की रोपनी के समय उर्वरक, जैविक खाद, रासायनिक खाद, दवाइयां प्रत्येक पौधे में देनी पड़ती है. इसके अतिरिक्त प्रत्येक पौधे में डीएपी 200 ग्राम, यूरिया 200 ग्राम, जैविक खाद 500 ग्राम, पोटेशियम खाद 50 ग्राम, थाइमेट 10 ग्राम की मात्रा देना आवश्यक है. हरिनाथ साह को 560 पौधे रोपने में कुल 45146 रुपए की पूंजी लगी.

अब पौधे लगाने के एक साल के बाद पहली बार अमरूद के एक पौधे से लगभग 4 से 5 फल निकलते हैं. इस तरह से कुल पौधे को मिला कर 280 किलो अमरूद का फल निकलता है. उन्होंने बताया कि स्थानीय बाज़ार में अमरूद 25 से 30 रूपए प्रति किलो बिकता है. धीरे-धीरे फलों की संख्या प्रति पेड़ में बढ़ने लगती है. एक साल के बाद 25 से 50 फल प्रति पेड़ के हिसाब से बढ़ जाते हैं. अमरूद की खेती के जरिए हरिनाथ पूरे परिवार की देखभाल के साथ-साथ बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा कर रहे हैं. वह बताते हैं कि पहले एवं दूसरे साल फसल में लगी पूंजी निकली जबकि चौथे एवं पांचवें साल से अच्छा मुनाफा मिलने लगा है. उन्होंने कहा कि यदि वह और भी पहले से अमरूद की खेती शुरू कर देते तो अपने तीन बड़े बेटों को अच्छी शिक्षा देने में समर्थ होते. वर्तमान में इसी अमरूद की खेती से न केवल उनका सबसे छोटा बेटा आई टी आई कर चुका है बल्कि पोते और पोतियां भी अच्छे स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करने में सक्षम हो गए हैं.

इस संबंध में स्थानीय पूर्व जिला पार्षद देवेश चंद्र कहते हैं कि आज हरिनाथ किसानों के रोल मॉडल हो चुके हैं. मुज़फ़्फ़रपुर के पारु ब्लॉक और उससे सटे वैशाली जिले में सबसे अधिक अमरूद की खेती और उसका व्यापार किया जाता है. यदि कृषि विभाग जिले के पश्चिमी दियारा में भी किसानों को अमरूद की उन्नत खेती की तकनीकी प्रशिक्षण, बैंक ऋण, सरकारी लाभ दे, तो यहां के किसान खेतों में सोना उगाएंगे. इस संबंध में पारू ब्लॉक स्थित कृषि विभाग के कृषि पदाधिकारी गुरु चरण चौधरी इसे एक सकारात्मक शुरुआत मानते हैं.

जब उनसे पूछा गया कि किसान हरिनाथ साह ने ग्रामीण क्षेत्र दियारा में अमरूद की खेती की है उन्हें सरकारी लाभ कैसे मिलेगा? उन्होंने कहा कि जो भी किसान अपने या लीज लेकर किसी भी प्रकार के फलों की खेती करते हैं, तो उन्हें सबसे पहले सरकार की वेबसाइट पर जाकर पंजीकरण कराना होगा. जिसके बाद विभाग द्वारा जमीन की जांचोपरांत लागत का कम-से-कम उन्हें 50 प्रतिशत तक अनुदान दिया जाता है. वहीं, फलदार पौधे पर सरकारी अनुदान 100 प्रतिशत तक देने का प्रावधान है. अनुदान के लिए किसानों को जमीन के मूल कागज, मालगुजारी रसीद, लगान की रसीद, बैंक पासबुक, आधार कार्ड की छायाप्रति के साथ चार पासपोर्ट साईज फोटो विभाग में जमा करना पड़ता है.

बहरहाल अनुदान मिले या न मिले, लेकिन हरिनाथ जैसे किसान खुद के बलबूते अमरूद की खेती करके न केवल अपने घर की माली हालत को सुधार रहे हैं बल्कि अन्य किसानों के लिए भी प्रेरणास्रोत बन रहे हैं.

बेहद जरूरी है संकटग्रस्त जैव प्रजातियों का संरक्षण

अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस (22 मई) पर विशेष

  • योगेश कुमार गोयल
    मनुष्यों की ही भांति जीव-जंतु तथा पेड़-पौधे भी धरती के अभिन्न अंग हैं लेकिन अपने निहित स्वार्थों तथा विकास के नाम पर मनुष्य ने न केवल वन्यजीवों के प्राकृतिक आवासों को बेदर्दी से उजाड़ने में बड़ी भूमिका निभाई है और वनस्पतियों का भी तेजी से सफाया किया है। धरती पर अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए मनुष्य को प्रकृति प्रदत्त उन सभी चीजों का आपसी संतुलन बनाए रखने की जरूरत होती है, जो उसे प्राकृतिक रूप से मिलती हैं। इसी को पारिस्थितिकी तंत्र या इकोसिस्टम भी कहा जाता है लेकिन चिंतनीय स्थिति यह है कि धरती पर अब वन्य जीवों तथा दुर्लभ वनस्पतियों की अनेक प्रजातियों का जीवनचक्र संकट में है। वन्यजीवों की असंख्य प्रजातियां या तो लुप्त हो चुकी हैं या लुप्त होने के कगार पर हैं। पर्यावरणीय संकट के चलते जहां दुनियाभर में जीवों की अनेक प्रजातियों के लुप्त होने से वन्य जीवों की विविधता का बड़े स्तर पर सफाया हुआ है, वहीं हजारों प्रजातियों के अस्तित्व पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। यही स्थिति वनस्पतियों के मामले में भी है। वन्य जीव-जंतु और उनकी विविधता धरती पर अरबों वर्षों से हो रहे जीवन के सतत् विकास की प्रक्रिया का आधार रहे हैं। वन्य जीवन में ऐसी वनस्पति और जीव-जंतु सम्मिलित होते हैं, जिनका पालन-पोषण मनुष्यों द्वारा नहीं किया जाता। आज मानवीय क्रियाकलापों तथा अतिक्रमण के अलावा प्रदूषिण वातावरण और प्रकृति के बदलते मिजाज के कारण भी दुनियाभर में जीव-जंतुओं तथा वनस्पतियों की अनेक प्रजातियों के अस्तित्व पर दुनियाभर में संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
    ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ पुस्तक में मैंने विस्तार से यह उल्लेख किया है कि विभिन्न वनस्पतियों और जीव-जंतुओं की संख्या में कमी आने से समग्र पर्यावरण किस प्रकार असंतुलित होता है। दरअसल विभिन्न वनस्पतियों और जीव-जंतुओं की संख्या में कमी आने से समग्र पर्यावरण जिस प्रकार असंतुलित हो रहा है, वह पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय बना है। पर्यावरण के इसी असंतुलन का परिणाम पूरी दुनिया पिछले कुछ दशकों से गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं और प्राकृतिक आपदाओं के रूप में देख और भुगत भी रही है। लगभग हर देश में कुछ ऐसे जीव-जंतु और पेड़-पौधे पाए जाते हैं, जो उस देश की जलवायु की विशेष पहचान होते हैं लेकिन जंगलों की अंधाधुंध कटाई तथा अन्य मानवीय गतिविधियों के चलते जीव-जंतुओं के आशियाने लगातार बड़े पैमाने पर उजड़ रहे हैं, वहीं वनस्पतियों की कई प्रजातियों का भी अस्तित्व मिट रहा है। हालांकि जीव-जंतुओं तथा पेड़-पौधों की विविधता से ही पृथ्वी का प्राकृतिक सौन्दर्य है, इसलिए भी लुप्तप्रायः पौधों और जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियों की उनके प्राकृतिक निवास स्थान के साथ रक्षा करना पर्यावरण संतुलन के लिए भी बेहद जरूरी है। इसीलिए पृथ्वी पर मौजूद जीव-जंतुओं तथा पेड़-पौधों के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए तथा जैव विविधता के मुद्दों के बारे में लोगों में जागरूकता और समझ बढ़ाने के लिए प्रतिवर्ष 22 मई को अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस मनाया जाता है। 20 दिसम्बर 2000 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा प्रस्ताव पारित करके इसे मनाने की शुरूआत की गई थी। इस प्रस्ताव पर 193 देशों द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे। दरअसल 22 मई 1992 को नैरोबी एक्ट में जैव विविधता पर अभिसमय के पाठ को स्वीकार किया गया था, इसीलिए यह दिवस मनाने के लिए 22 मई का दिन ही निर्धारित किया गया।
    धरती पर पेड़-पौधों की संख्या बड़ी तेजी से घटने के कारण अनेक जानवरों और पक्षियों से उनके आशियाने छिन रहे हैं, जिससे उनका जीवन संकट में पड़ रहा है। पर्यावरण विशेषज्ञों का स्पष्ट कहना है कि यदि इस ओर जल्दी ही ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में स्थितियां इतनी खतरनाक हो जाएंगी कि धरती से पेड़-पौधों तथा जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियां विलुप्त होकर सदा के इतिहास के पन्नों का हिस्सा बन जाएंगी। माना कि धरती पर मानव की बढ़ती जरूरतों और सुविधाओं की पूर्ति के लिए विकास आवश्यक है लेकिन यह हमें ही तय करना होगा कि विकास के इस दौर में पर्यावरण तथा जीव-जंतुओं के लिए खतरा उत्पन्न न हो। अगर विकास के नाम पर वनों की बड़े पैमाने पर कटाई के साथ-साथ जीव-जंतुओं तथा पक्षियों से उनके आवास छीने जाते रहे और ये प्रजातियां धीरे-धीरे धरती से एक-एक कर लुप्त होती गई तो भविष्य में उससे उत्पन्न होने वाली भयावह समस्याओं और खतरों का सामना हमें ही करना होगा। दरअसल बढ़ती आबादी तथा जंगलों के तेजी से होते शहरीकरण ने मनुष्य को इतना स्वार्थी बना दिया है कि वह प्रकृति प्रदत्त उन साधनों के स्रोतों को भूल चुका है, जिनके बिना उसका जीवन ही असंभव है। आज अगर खेतों में कीटों को मारकर खाने वाले चिडि़या, मोर, तीतर, बटेर, कौआ, बाज, गिद्ध जैसे किसानों के हितैषी माने जाने वाले पक्षी भी तेजी से लुप्त होने के कगार हैं तो हमें आसानी से समझ लेना चाहिए कि हम भयावह खतरे की ओर आगे बढ़ रहे हैं और हमें अब समय रहते सचेत हो जाना चाहिए। जैव विविधता की समृद्धि ही धरती को रहने तथा जीवनयापन के योग्य बनाती है, इसलिए लुप्तप्रायः पौधों और जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियों की उनके प्राकृतिक निवास स्थान के साथ रक्षा करना पर्यावरण संतुलन के लिए भी बेहद जरूरी है।

देश में रतनलाल जैसे प्रद्यापक हैं फिर दुश्‍मनों की क्‍या जरूरत ?

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

भारतीय संविधान देश के प्रत्‍येक नागरिक को यह स्‍वतंत्रता देता है कि वह अपनी अभिव्‍यक्‍ति के लिए स्‍वतंत्र है, भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के अंतर्गत लिखित और मौखिक रूप से अपना मत प्रकट करने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का प्रावधान किया गया है। किंतु यह अधिकार क्‍या कुछ भी बोल देने की अनुमति देता है? क्‍या ऐसी बातें बोली जा सकती हैं जो सीधे-सीधे किसी को नीचा दिखाएं, उसे अपमानित करें, उसे ठेस पहुंचाए? कहना होगा कि ऐसा बिल्‍कुल भी नहीं है। संविधान द्वारा प्रदत्‍त अभियक्ति की स्वतंत्रता का यह अधिकार निरपेक्ष नहीं है इस पर युक्तियुक्त निर्बंधन हैं।

यानी कि भारत की एकता, अखंडता एवं संप्रभुता पर खतरे की स्थिति में, वैदेशिक संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव की स्थिति में, न्यायालय की अवमानना की स्थिति में इस अधिकार को बाधित किया जा सकता है। भारत के सभी नागरिकों को विचार करने, भाषण देने और अपने व अन्य व्यक्तियों के विचारों के प्रचार की स्वतंत्रता प्राप्त है। किन्‍तु इस शर्त के साथ कि परस्‍पर सभी एक-दूसरे का सम्‍मान भी करेंगे।

वस्‍तुत: यहां जिन लोगों का यह मानना है कि विचार की स्वतंत्रता का अधिकार, अंतरात्मा की स्वतंत्रता का अधिकार और असंतोष का अधिकार यह तीनों ही किसी भी स्वस्थ्य और परिपक्व लोकतंत्र के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। इसलिए लोकतंत्र में लोगों की सहभागिता बढ़ाने के लिए उन्‍हें अपनी हर कुछ बात कहने का हक है। अत: भारत जैसे सामाजिक संस्कृति वाले देश में सभी नागरिकों जैसे-आस्तिक, नास्तिक और आध्यात्मिक को अभिव्यक्ति का किसी भी हद तक अधिकार है। इनके विचारों को सुनना लोकतंत्र का परम कर्तव्य है। तब फिर विचार करना होगा कि जो यह कह रहे हैं यदि उस पर अमल किया जाने लगे तो वर्तमान और भविष्‍य का भारत कैसा होगा?

वस्‍तुत: जब इस अभिव्‍यक्‍ति की आड़ में ”रतनलाल” जैसे प्रद्यापक खुले तौर पर लाखों नहीं करोड़ों लोगों की भावनाओं को आहत करने का काम करें तब फिर उन्‍हें क्‍या ”अभिव्‍यक्‍ति” के नाम पर यूं ही छोड़ देना चाहिए? क्‍या उनके कहे को सही माना जा सकता है? जिसके लिए लोग सड़कों पर उतर आए? क्‍या उनके समर्थन में बोले जा रहे यह शब्‍द और उनके वकील का कहना कि ‘प्रोफेसर के खिलाफ दर्ज केस झूठा है। एफआईआर में कोई भी शिकायत ऐसी नहीं है जो संज्ञेय अपराध की श्रेणी में आती हो। पुलिस के पास अधिकार ही नहीं है कि वो गिरफ्तारी कर सके, उनकी गिरफ्तारी मतलब अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3 का उल्लंघन है।’ दूसरी ओर ”रतन लाल” की गिरफ्तारी के खिलाफ वामपंथी अखिल भारतीय छात्र संघ (आइसा) के कार्यकर्ताओं का दिल्ली विश्वविद्यालय के कला संकाय के बाहर धरना देना। छात्र कार्यकर्ता तख्तियां दिखाकर कह रहे थे, ‘हमारे शिक्षकों पर हमला बंद करो’, ‘लोकतांत्रिक आवाजों पर अंकुश लगाना बंद करो’ और ‘रिलीज प्रोफेसर रतन लाल’।

‘लोकतांत्रिक आवाजों पर अंकुश लगाना बंद करो’ की यह कमाल की दुहाई है! वास्‍तव में जिस तरह की प्रतिक्रिया प्रोफेसर ‘रतनलाल’ ने ”ज्ञानवापी” मामले में लिखकर फेसबुक पर दी है, उसके लिए उन्‍हें सजा दिलवाना यह उस प्रत्‍येक भारतीय नागरिक का संविधानिक अधिकार है जिनकी आस्‍थाओं पर सीधे तौर पर प्रहार और अनादर करने का कार्य इतिहास के इन प्राद्यापक महोदय द्वारा किया गया है।

माना कि ”रतनलाल” जैसे तमाम लोगों की आस्‍था सनातन या हिन्‍दू प्रतीकों एवं आस्‍था केंद्रों में नहीं होगी। किन्‍तु क्‍या इससे उन्‍हें कुछ भी कहने का अधिकार मिल जाता है? भारत में तो पृथ्‍वी को चपटी माननेवाले और सूर्य द्वारा प्रतिदिन पृथ्‍वी का चक्‍कर लगाने का कहने वालों या कहें ऐसी तमाम मान्‍यताओं को मानने वालों का भी बराबर से सम्‍मान है। फिर जिसमें कि सनातन या हिन्‍दू धर्म में तो जो भी कुछ है उसके पीछे एक परम्‍परा ही नहीं बल्‍कि वैज्ञानिकता भी विद्यमान है। जब तक आप उसे धर्म की दृष्टि से धारण किए हो, अच्‍छी बात है करें और जब भी आपमें उसका चिंतन वैज्ञानिक अधुनातन सत्‍यता के आधार पर प्रकट होने लगे, तब फिर दर्शन से मिलनेवाले उस परम आनन्‍द का भी स्‍वागत है। यहां कह सकते हैं कि भारत का सनातन धर्म, उसकी प्राचीनता, प्रमाणिकता, उसमें निहित वैज्ञानिकता अद्भुत है । इसमें ऐसा कुछ भी निरर्थक नहीं, जिसे स्‍वीकार्य नहीं किया जा सकता ।

आप स्‍वयं विचार करें कि कैसे एक प्रोफेसर स्‍तर का व्‍यक्‍ति सार्वजनिक मंच पर किसी भी धर्म या पंथ को लेकर इतना हल्‍का और निम्‍नस्‍तर का लिख सकता है। ”रतनलाल” जो लिखते हैं, वह उनके असमानता से भरे उस मतिष्‍क की ओर इंगित करता है जोकि वस्‍तुत: स्‍वस्‍थ लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है। आप स्‍वयं पढि़ए और विचार करिए कि उन्‍होंने जो लिखा वह कितना सही है ? “यदि यह शिवलिंग है तो लगता है शायद शिव जी का भी खतना कर दिया गया था।” साथ ही फेसबुक पोस्ट के बाद चिढ़ाने वाला इमोजी भी वे लगाते हैं। फिर वह यहीं नहीं रुकते, जब इस पोस्ट पर विरोध और विवाद उठा तब माफ़ी माँगने से मना कर देते हैं । वे अभी भी अपनी कही बात को दूसरे ढंग से सही ठहराने में लगे हुए हैं।

यहां हद तो यह है कि ”रतन लाल” यह कहते हुए दिखाई देते हैं कि उन्होंने इतिहास के छात्र के रूप में केवल एक प्रश्न रखा था। ‘लोग किसी भी चीज से आहत हो सकते हैं। इस कारण अकादमिक डिस्‍कोर्स को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। मैंने एक साधारण सा प्रश्न पूछा था कि तथाकथित शिवलिंग तोड़ा गया या काटा गया। मुल्लाओं और पंडितों को इस पर टिप्पणी करने की जरूरत नहीं है। एक आर्ट हिस्‍टोरियन को इस प्रश्न का उत्तर देना चाहिए।’ मतलब यहां जो समझा जा सकता है या वे कहना चाह रहे हैं कि मैं इतिहास का प्राद्यापक हूं, मेरे कहे पर कोई प्रश्‍न नहीं उठा सकता। भारत के आम नगरिक फिर वे यदि मुल्लाजी और पंडितजी हैं तो उन्‍हें तो उनके कहे पर ना बुरा मानना चाहिए और ना ही उन्‍हें कुछ भी बोलने का हक है। मतल‍ब कि अभिव्‍यक्‍ति, वाक् की स्‍वतंत्रता के लिए ”आर्ट हिस्‍टोरियन” होना जरूरी है।

यहां प्रोफेसर ”रतन लाल” के कहने से तो यही लग रहा है कि भारत के संविधान ने सभी अधिकार उन्‍हें अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत दे रखे हैं, (जैसा कि उनके वकील ने बोला है)। वे जो चाहें कहने के लिए और करने के लिए स्‍वतंत्र हैं, फिर इस पर मजाल है कि कोई उनका विरोध कर पाए। यदि आप विरोध करेंगे तो मतलब साफ है, दलितों पर अत्‍याचार किया जा रहा है।

वस्‍तुत: यहां ऐसा इसलिए भी कहा जा रहा है क्‍यों कि उनके ट्वीटर खाते में प्रवेश करते ही यही प्रतीत हो रहा है। ट्वीटर पर उनकी यह पोस्‍ट आप भी देख सकते हैं। इन्‍होंने जो लिखा, उस पर माफी मांगना तो दूर आप लिख रहे हैं कि ”मैंने सिर्फ राय रखी है, आलोचना तो कबीर, पेरियार आंबेडकर ने किया है और भारत सरकार उनकी किताबों को छापती है.” अब कोई इनसे पूछे कि कबीर के साहित्‍य में ऐसा क्‍या लिखा है? पेरियार और आंबेडकर ने भी क्‍या ऐसा लिख दिया, जिसे पढ़कर किसी को आहत किया जाता है और सरकारें उसे छापकर पढ़वा रही हैं ?

यहां वस्‍तुत: कहने के लिए बहुत कुछ है, किंतु हम सभी को यह सोचना है कि हम कौन सा भारत गढ़ रहे हैं। क्‍या वह असहमति में सहमति ढूंढकर विकास के रास्‍ते पर आगे बढ़नेवाला है ? या फिर वह सहमति में भी असहमति ढूंढने निकला है ? कमियों पर विचार करने बैठेंगे तो सदियां गुजारी जा सकती हैं, किंतु इससे किसका भला होगा? यह अवश्‍य ही सोचनीय है। बहुलतावादी संस्‍कृति वाले अपने महान देश में अच्‍छा हो सभी के विचारों का सम्‍मान संविधान के दायरे में रहकर किया जाए। अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता का अर्थ यह कदापि नहीं है कि कोई भी किसी से भी जो मन में आएगा कहेगा और सामने वाला चुपचाप सुनने के लिए बाध्‍य होगा।

अमेरिका में भारतीय प्रतिभाओं की जरूरत 

प्रमोद भार्गव
डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति रहते हुए अमेरिका में संरक्षणवादी नीतियों को इसलिए अमल में लाया गया था, जिससे स्थानीय अमेरिकी नागरिकों को अवसर मिलें। किंतु चार साल के भीतर ही इन नीतियों ने जता दिया कि विदेशी प्रतिभाओं के बिना अमेरिका का काम चलने वाला नहीं है। इसमें भी अमेरिका को चीन और पाकिस्तान की बजाय भारतीय उच्च शिक्षितों की आवश्यकता अनुभव हो रही है। क्योंकि एक तो भारतीय अपना काम पूरी तल्लीनता और ईमानदारी से करते हैं, दूसरे वे स्थानीय लोगों के साथ घुल-मिल जाते हैं। जबकि चीनी तकनीशियनों की प्राथमिकता में अपने देशों के उत्पाद रहते हैं। पाकिस्तान के संग संकट यह है कि उसके कई युवा इंजीनियर अमेरिका में आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त पाए गए हैं। इसलिए अमेरिका दोनों ही देशों के तकनीकियों पर कम भरोसा करता है। ऐसे में अमेरिका को विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में चीन के उत्पादों को वैश्विक स्तर पर चुनौती देना मुश्किल हो रहा है। अतएव संरक्षणवादी नीतियों के चलते विदेशी पेशेवरों को रोकने की नीति के तहत ग्रीन कार्ड वीजा देने की जिस सुविधा को सीमित कर दिया था, उसके दुष्परिणाम चार साल के भीतर ही दिखने लगे हैं। नतीजतन अमेरिका इस नीति को बदलने जा रहा है। इससे भारतीय युवाओं को अमेरिका में नए अवसर मिलने की उम्मीद बढ़ जाएगी।  
पेशेवर विज्ञान व इंजीनियरिंग तकनीकियों की कमी के चलते अमेरिका में रक्षा और सेमीकंडक्टर निर्माण उद्योगों पर तो संकट के बादल मंडरा ही रहे हैं, स्टेम सेल (स्तंभ कोषिका) से जुड़े जैव, संचार और अनुवांषिक प्रोद्यौगिकी भी संकट में पड़ते जा रहे हैं। ऐसा तब भी देखने में आया, जब ये उद्योग लाखों डाॅलर का निवेष कर देने के बावजूद उड़ान भरने में विफल रहे। इसके दुष्परिणाम यह देखने में आए कि अमेरिकी राज्य एरिजोना में इंजीनियरों की कमी के चलते ताइवान सेमिकंडक्टर निर्माण कंपनी के उत्पादन का लक्ष्य काफी पीछे चल रहा है। नतीजतन इन कंपनियों को आउटसोर्स से काम चलाने को विवश होना पड़ रहा है। इसलिए पचास से अधिक राष्ट्रीय सुरक्षा अधिकारियों ने अमेरिकी कांग्रेस को पत्र लिखकर वीजा नीतियों में छूट देने की मांग की है। 
इस पत्र में कहा है कि ‘चीन सबसे महत्वपूर्ण तकनीकी और जिओ पाॅलिटिक्स (दूर-संचार) प्रतियोगी है। जिसका अमेरिका ने सामना भी किया है। किंतु अब स्टेम प्रतिभाओं के बिना अमेरिका के लिए आगे यह लड़ाई लड़ना कठिन होगी। इसलिए स्टेम पीएचडी शिक्षितों को मौजूदा ग्रीन कार्ड नीति में छूट दी जाए। यह छूट स्टेम मास्टर डिग्री स्नातकों को भी मिले। साथ ही इसमें यह शर्त जोड़ दी जाए कि उन्हें यह सुविधा केवल सेमिकंडक्टर कंपनियों में काम करने पर ही मिलेगी। इन प्रतिभाशालियों के बिना अमेरिका राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर सकता है। फिलहाल अमेरिका सेमिकंडक्टर के उत्पादन में चीन से बहुत पीछे चल रहा है। 1990 में अमेरिका ने दुनिया के लगभग 40 प्रतिशत सेमिकंडक्टर बनाए, जबकि आज महज 10 प्रतिशत ही बना पा रहा है। इस बीच चीन ने एक दशक के भीतर ही सेमिकंडक्टर बाजार में अपनी धाक जमा ली है। चीन की इस उत्पादन क्षमता से चिप्स की वैश्विक आपूर्ति को भी खतरा है। वर्तमान में डायनेमिक रैंडम-एक्सेस मेमोरी चिप्स का 93 प्रतिशत उत्पादन ताइवान, दक्षिण कोरिया और चीन में होता है। जिओ पॉलिटिक्स का आधार जिओ तकनीक अर्थात जी-5 दूर-संचार तकनीक का विस्तार करना है। दुनिया के डिजिटल भविष्य का निर्माण इसी से होगा। इस तकनीक का राजनीतिकरण काई नई बात नहीं है। 5-जी की इस ताकत को डोनाल्ड ट्रंप ने अपने कार्यकाल में समझ लिया था, इसलिए वह चीन की इस तकनीकि विस्तार में दखल देने में लगे हुए थे। दरअसल चीन का तकनीकि राष्ट्रवाद ‘टिकटाॅक-कूटनीति‘ के युग में तब्दीन होता जा रहा है। चीन लगातार इस क्षेत्र की कंपनियों की प्रतिद्वंद्विता को चुनौती देता हुआ अपनी घरेलू कंपनियों को बढ़ावा देने में लगा है। इसलिए अमेरिका का चिंतित होना जरूरी है। चीन और अमेरिका की इन नीतियों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहले ही समझ लिया था, इसलिए उन्होंने भारतीय दूरसंचार कंपनी और रिलांयस इंस्ट्रीजरीज के माध्यम से पूर्णस्वामित्व वाली सहायक कंपनी ‘जिओ‘ खड़ी की और अब यह कंपनी जिओ-5 से आगे निकलकर जिओ-6 के विस्तार को अमल में ला रही है।  
अमेरिका की संरक्षणवादी नीतियों के चलते भारतीय नागरिकों के हितों पर कुठाराघात हुआ है। नतीजतन अमेरिका में बेरोजगार भारतवंषियों की संख्या बढ़ गई और जो युवा पेषेवर अमेरिका में नौकरी की तलाष में थे, उनके मंसूबों पर पानी फिर गया। राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एच-1-बी वीजा के नियम  कठोर कर दिए थे। ट्रंप की ‘अमेरिका प्रथम‘ जैसी राश्ट्रवादी भावना के चलते अमेरिकी कंपनियों के लिऐ एच-1-बी वीजा पर विदेषी नागरिकों को नौकरी पर रखना मुश्किल हो गया। नए प्रावधानों के तहत कंपनियों को अनिवार्य रूप से यह बताना होगा कि उनके यहां पहले से कुल कितने प्रवासी काम कर रहे हैं। एच-1 बी वीजा भारतीय पेषेवरों में काफी लोकप्रिय है। इस वीजा के आधार पर बड़ी संख्या में भारतीय अमेरिका की आईटी कंपनियों में सेवारत हैं। अमेरिकी सुरक्षा विभाग ने भी अमेरिकी नागरिकता और आव्रजन सेवा (यूएससीआईएस) में एच-1 बी वीजा के तहत आने वाले रोजगारों और विशेष व्यवसायों की परिभाशा को संशोधित कर बदल दिया था। लिहाजा सुरक्षा सेवाओं में भी प्रवासियों को नौकरी मिलना बंद हो गईं। ट्रंप की ‘बाय अमेरिकन, हायर अमेरिकन नीति‘ के तहत यह पहल की गई थी। इन प्रावधानों का सबसे ज्यादा प्रतिकूल असर भारतीयों पर तो पड़ा ही, किंतु अब लग रहा है कि यह नीति गलत थी। इस कारण अमेरिका के उद्योगों में उत्पादन घट गया, नतीजतन वह उत्पादन क्षमता में चीन से पिछड़ता जा रहा है और चीन तकनीक से जुड़े विश्व -बाजार को अपने आधिपत्य में लेता जा रहा है।  
अमेरिका में इस समय स्थाई तौर से बसने की वैधता प्राप्त करने के लिए सालों से छह लाख भारतीय श्रेष्ठ कुशल पेशेवर लाइन में लगे हैं। इस वैधता के लिए ग्रीन कार्ड प्राप्त करना होता है। अमेरिका ने आम श्रेणी के लोगों के लिए 65000 एच-1 बी वीजा देने का निर्णय लिया है, इसके अतिरिक्त 20000 एच-1- बी वीजा उन लोगों को दिए जाएंगे, जो विज्ञान, प्रौद्योगिकी और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में अमेरिका के ही उच्च शिक्षण संस्थानों से शिक्षा प्राप्त की है। अमेरिका में जो विदेशी प्रवासियों के बच्चे हैं, उनकी उम्र 21 साल पूरी होते ही, उनकी रहने की वैधता खत्म हो जाती है। दरअसल एच-1 बी वीजा वाले नौकरीपेशाओं के पत्नी और बच्चों के लिए एच-4 वीजा जारी किया जाता है, लेकिन बच्चों की 21 साल उम्र पूरी होने के साथ ही इसकी वैधता खत्म हो जाती है। इन्हें जीवन-यापन के लिए दूसरे विकल्प तलाशने होते हैं। ऐसे में ग्रीन-कार्ड प्राप्त कर अमेरिका के स्थायी रूप में मूल-निवासी बनने की संभावनाएं शून्य हो जाती हैं। दरअसल, अमेरिका में प्रावधान है कि यदि प्रवासियों के बच्चे 21 वर्ष की उम्र पूरी कर लेते हैं और उनके माता-पिता को ग्रीन-कार्ड नहीं मिलता है तो वे कानूनी स्थाई रूप से अमेरिका में रहने की पात्रता खो देते हैं। बहरहाल अमेरिकी संसद उपरोक्त सिफारिशों को मान लेती है तो भारतीय पेशेवरों को अमेरिका में नौकरी मिलने का रास्ता खुल जाएगा। 


पत्रकारिता के सिद्धांतों के रक्षक ‘अमिताभ अग्निहोत्री’

दीपक कुमार त्यागी

देश में पिछले कुछ वर्षों से आम जनमानस निरंतर चंद पत्रकारों व उनकी पत्रकारिता पर प्रश्नचिन्ह लगाने का कार्य कर रहा है, आम जनता को लगता है कि आज की पत्रकारिता के दौर में जनसरोकार के मुद्दे ना जाने कहां गायब हो गये हैं, जिसके चलते अब जनता के निशाने पर चंद राजनेताओं के साथ-साथ कुछ पत्रकार भी हैं। आज जिस तरह टीआरपी के लिए देश के अधिकांश मीडिया घरानों के द्वारा आम जनमानस के बेहद ज्वलंत मसलों को छोड़कर रोजाना सनसनी खेज ख़बरों को तरजीह दी जा रही है, वह स्थिति बेहद चिंताजनक है। ऐसे दौर में लोगों को जनसरोकार के मुद्दों पर निष्पक्ष व निर्भीक बेबाक होकर बात करने वाले पत्रकारों की याद आती है, आज के समय में जनता के इस मापदंड पर देश के दिग्गज पत्रकार ‘अमिताभ अग्निहोत्री’ एकदम खरे उतरते हैं। वैसे तो हमारे देश में आम जनमानस व पक्ष-विपक्ष के बीच सियासत पर आयेदिन अक्सर चर्चा होती रहती है, लेकिन आजकल यह देखा जाता है कि सियासी चर्चा में पत्रकारिता जगत के लोगों का जिक्र अवश्य होता है, उन पर भी जन अदालत में सियासतदानों की तरह अब आरोप-प्रत्यारोप लगते हैं। वैसे देखा जाए तो आज के व्यवसायिक दौर में पत्रकारों पर अपने संस्थानों के हितों की पूर्ति के साथ-साथ सरकार, सिस्टम, राजनेताओं, पाठकों, दर्शकों व देश के आम जनमानस को संतुष्ट करने की एक बहुत बड़ी चुनौती है। आज के व्यवसायिक दौर में पत्रकारों पर बहुत ज्यादा दबाव हैं, जिसके चलते कुछ पत्रकारों ने तो पत्रकारिता के सिद्धांतों को ही तिलांजलि देकर के पक्ष-विपक्ष में बंटकर के अपनी-अपनी पसंद के राजनेताओं व राजनीतिक दलों के एजेंडे पर चलना शुरू कर रखा है, जो कि देश में निष्पक्ष पत्रकारिता के सिद्धांतों के हिसाब से उचित नहीं है। इस स्थिति के चलते ही जन अदालत में आयेदिन पत्रकार व पत्रकारिता की निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह खड़े होने का कार्य हो रहा हैं, देश के चंद बेहद ताकतवर पत्रकारों के द्वारा पत्रकारिता के सिद्धांतों से समझौता करने के चलते आम जनमानस के बीच पत्रकारों की छवि खराब होने का कार्य हो रहा है, जबकि आज भी देश में ईमानदारी से पत्रकारिता करने वाले लोगों की जमात हर स्तर पर मौजूद है। संतोषजनक बात यह है कि पत्रकारिता के इस बेहद व्यवसायिक दौर में भी देश में कुछ ऐसे विश्वसनीय चर्चित चहरे मौजूद हैं, जो कि पूर्ण रूप से जन सरोकारों के मुद्दों को उठाते हुए निष्पक्ष व निर्भीक होकर एक पत्रकार व पत्रकारिता के सिद्धांतों की रक्षा के अपने दायित्व का निर्वहन बेखौफ होकर धरातल पर पूर्ण ईमानदारी व निष्ठा के साथ ध्वजवाहक बनकर कर रहे हैं।

‘उनमें से एक नाम देश के दिग्गज बेबाक वरिष्ठ पत्रकार ‘अमिताभ अग्निहोत्री’ का भी है, फिलहाल वह देश की बेहद ताकतवर हो चुकी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के एक न्यूज चैनल से परामर्श संपादक (कन्सल्टिंग एडीटर) के रूप में जुड़े हुए हैं। उन्होंने निष्पक्ष, निर्भीक, बेहद दमदार, बेबाक अंदाज वाली अपनी शैली के बलबूते, दर्शकों के बीच आम आदमी के दुःख दर्द को दमदार ढंग से टीवी पर उठाने वाले एक पूर्णतः निष्पक्ष पत्रकार की अपनी छवि बनाने का कार्य किया है। आज देश में जिस तरह की पक्ष-विपक्ष की पत्रकारिता का दौर चल रहा है, उस काल खंड में वरिष्ठ पत्रकार ‘अमिताभ अग्निहोत्री’ देश के आम जनमानस के बीच पूर्णतः निष्पक्ष पत्रकारिता के रक्षक व ईमानदार योद्धा माने जाते है, पत्रकारिता के क्षेत्र में हर वर्ष आने वाले युवाओं को उनसे सीखना चाहिए।’

वैसे भी हमारे देश में पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है और पत्रकारों पर इस स्तंभ के सिद्धांतों की रक्षा करने का दायित्व हमेशा से ही माना जाता है, लेकिन अफसोस आज शीर्ष पर बैठे हुए चंद पत्रकारों ने इस छवि को बट्टा लगाने का कार्य किया है। वहीं पत्रकारिता जगत के दिग्गज ‘अमिताभ अग्निहोत्री’ पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों के निर्वहन के इस महत्वपूर्ण दायित्व का अक्षरशः पूर्ण ईमानदारी के साथ निरंतर सफलता पूर्वक निर्वहन करने का कार्य कर रहे हैं। उनका राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषण, केन्द्र व राज्य सरकारों की नीतियों का ज्ञान, सरकारी व ग़ैर सरकारी संस्थानों, राजनीतिक दलों, राजनेताओं, अधिकारियों व आम जनमानस के बारे ज्ञान और विश्लेषण बहुत ही काबिलेतारिफ है। वह देश के आम जन से जुड़े हुए विभिन्न प्रकार जनसरोकार के मसलों को न्यूज़ चैनल के कार्यक्रमों के माध्यम से बेहद दमदार ढंग से उठाकर के देश के नागरिकों के हक की लड़ाई को निरंतर लड़ने का कार्य कर रहे है। उन्होंने देश की सत्ता में बैठे लोगों व विपक्ष दोनों को ही बिना किसी पूर्वाग्रह के निष्पक्ष रूप से आइना दिखाने का कार्य हमेशा किया है। उनका देश को अपने आक्रामक बेबाक अंदाज में सच्चाई बताने का तरीका हमेशा पूर्णतः निष्पक्ष और बेहद संतुलित होता है। वह हमेशा अपने कार्यक्रम में मौजूद पक्ष-विपक्ष के राजनेताओं की आवाज़ को हमेशा बराबरी का मौका देने का प्रयास करते हैं।
आज के टीआरपी के खेल के दौर में भी देखा जाये तो ‘अमिताभ अग्निहोत्री’ भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जगत के एक ऐसे सफल बड़े ब्रांड बन गये हैं, जिनकी बातों को देश-विदेश के दर्शकों का एक बहुत बड़ा वर्ग टीवी के माध्यम से अवश्य सुनना चाहता है, आज देश के आम जनमानस के बीच उनकी छवि की विश्वसनीयता का आलम यह है कि दर्शकों का एक बड़ा वर्ग उनकी बातों पर आंख मूंद कर विश्वास करता है, पत्रकार के रूप में यह उनके जीवन की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है, जिसको हमेशा कायम रखने के लिए ‘अमिताभ अग्निहोत्री’ अपने निराले अंदाज में लगातार प्रयास करते रहते हैं।

‘अमिताभ अग्निहोत्री’ की निष्पक्ष पत्रकारिता का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि उन्होंने हमेशा बेहद दमदार ढंग से जनहित के मुद्दों पर सरकारों को जन अदालत में कटघरे में खड़ा करके निष्पक्ष रूप से घेरने का कार्य किया है। अपनी इस शैली के बलबूते ही वह देश के आम जनमानस के साथ-साथ दलगत राजनीति से ऊपर उठकर पक्ष-विपक्ष के बहुत सारे दिग्गज राजनेताओं व हमारे सिस्टम को चलाने वाले ताकतवर लोगों के बीच भी बेहद लोकप्रिय है, लोगों का बड़ा वर्ग उनकी निष्पक्ष पत्रकारिता का मुरीद है। देश के पत्रकारिता जगत में भी ‘अमिताभ अग्निहोत्री’ की एक अलग छवि बनी हुई है, पत्रकारिता जगत में उनको चुनौतियों को स्वीकार करके कुछ नया करने का जज्बा रखने वाला एक निड़र निष्पक्ष पत्रकार माना जाता है। ‘अमिताभ अग्निहोत्री’ की कार्यशैली देखें तो वह अपनी पत्रकारिता पर कभी भी निजी संबंधों को हावी नहीं होने देते हैं। उनकी पत्रकारिता की सबसे बड़ी खूबी यह है कि उन्होंने ना तो कभी किसी उधोगपति, ना तो कभी किसी राजनेता, ना किसी राजनीतिक दल, ना किसी जाति-धर्म विशेष व ना किसी अन्य की विचारधारा को अपनी पत्रकारिता पर कभी भी किसी भी रूप में हावी नहीं होने दिया है। ‘अमिताभ अग्निहोत्री’ की कार्यशैली से यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि वह पत्रकारिता को जनसेवा का एक ऐसा सशक्त माध्यम मानते हैं जिसके द्वारा वह पूर्ण ईमानदारी से देश व समाज हित की, देश के जरूरतमंद लोगों की बात को उठाने का कार्य करते हैं। आज हम देशवासियों का भी यह दायित्व है कि हम ‘अमिताभ अग्निहोत्री’ जैसे निष्पक्ष, निर्भीक व जन सरोकार की पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों के साथ खड़े होकर उनकी आवाज को हमेशा बुलंद रखें, चाहें वह जिला स्तर के पत्रकार हो या राष्ट्र स्तर के पत्रकार हो, सभी की पूर्ण रूप से सुरक्षा करना ईमानदार जनता का दायित्व है।

मात पिता के अपमान पर भी मैत्री रखना कायर सन्तान की पहचान है

-दिव्य अग्रवाल

एक ऐसी सन्तान जिसके माता पिता को उसके तथाकथित मित्रो ने एक छोटे से कमरे में कैद कर दिया हो । उन्हें कैदी से भी बद्तर स्थिति, गंदगी व कीचड़ से भरे स्थान पर रखा हो । प्रतिदिन उनके ऊपर थूका हो , अपने पैरों से रौंदा हो । क्या ऐसे व्यक्तियों को अब भी अपना मित्र मानने वाले पुत्र या पुत्री को सन्तान कहलाने का अधिकार मिलना चाहिए । यदि नही तो कल्पना करनी चाहिए जिन महादेव को सम्पूर्ण हिन्दू समाज अपना परमपिता परमेश्वर मानता है उन महादेव को सैकड़ो वर्षों से इस स्थिति में रखने वाले वर्तमान मुस्लिम समाज को दोषी न मानकर केवल औरंगजेब आदि को दोष देकर  , वर्तमान मुस्लिम समाज से भाईचारे का कायरतापूर्ण संबंध रखना क्या किसी भी सनातनी को महादेव की सन्तान या भक्त होने का अधिकार दे सकता है । हिन्दू समाज किस अधिकार से महादेव पर आभिषेक कर पा रहा है जब उनके आराध्य का ही घोर अपमान किया जा रहा है ।  हिन्दू समाज यह कब समझ पायेगा की कट्टरपंथियो का लक्ष्य ही कुफ्र अर्थात काफ़िर को समाप्त कर गजवा ऐ हिन्द को पूरा करना है । जब अंग्रेज भारत आए थे तब हिन्दुओ की जनसंख्या बहूत कम बची थी । मुस्लिम आक्रांताओं ने हिन्दुओ की शक्ति , सम्मान व स्वाभिमान पूर्ण रूप से क्षीण कर दिया था । जब अंग्रेजो से आजादी की बात आयी तो मुस्लिम समाज इस पूरे राष्ट्र पर राज करना चाहता था यही कारण था कि भारत का मुसलमान बंटवारे के पक्ष में नहीं था । क्योंकि यदि आज सब मुसलमान एक होते तो जनसंख्या के दम पर अब तक यह देश मुस्लिम देश बन चुका होता । अतः यह हिन्दुओ को समझना है कि उनकी बुद्धिमता व रक्त उत्तेजना क्या मृत शैया पर विश्राम कर रही है जिसके कारण अब भी हिन्दू समाज आपसी सद्भाव की दुहाई देता है। असंख्य प्राचीन शिवलिंग व धर्मस्थल ऐसे है जिन्हें मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा खंडित किया गया एवम मुस्लिम समाज उन स्थलों को इबादतगाह के रूप में काबिज किए हुए है। सत्यता के आधार पर सभी धार्मिक स्थलों को पुनर्जीवित करना हिन्दुओ का मौलिक अधिकार है क्योंकि यह मात्र धर्मिक स्थलों हेतु नही अपितु अपने परमेश्वर , धर्म , संस्कृति , स्वाभिमान एवम आत्मसमान की लड़ाई है । अब बात संविधान व कानून की जाए तो यह भी स्पष्ठ रूप से समझ लेना चाहिए कि जिस तरह मुगलकाल में हिन्दू समाज की कोई सुनवाई नही होती थी उसी प्रकार शरीयत लागू होने के पश्चात कोई कानून या किसी संविधान का अस्तित्व इस देश मे बच पाना लगभग असंभव ही है ।

वेदों का आविर्भाव कब, कैसे व क्यों हुआ?

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
संसार में जितने भी पदार्थ है उनकी उत्पत्ति होती है और उत्पत्ति में कुछ मूल कारण व पदार्थ होते हैं जो अनुत्पन्न वा नित्य होते हैं। इन मूल पदार्थों की उत्पत्ति नहीं होती, वह सदा से विद्यमान रहते हैं। उदाहरण के लिए देखें कि हम चाय पीते हैं तो यह पानी, दुग्ध, चीनी व चायपति से मिलकर बनती है। ईधन, चाय के पात्र आदि इसमें साधारण कारण होते हैं। चाय के लिए आवश्यक सभी पदार्थों को चाय बनाने के कारण पदार्थ कहते हैं। चाय बनाने में प्रयोग की जाने वाली चीनी गन्ने के रस से बनती है। गन्ने को किसान अपने खेतों में उत्पन्न करता है। गन्ने के लिए खेत में गन्ने का बीज बोया जाता है अथवा गन्ने की कलम रोपी जाती है। खेत हमारी सृष्टि का ही एक अंग हैं। यह सृष्टि अणुओं व परमाणुओं से मिलकर बनी है। परमाणु इलेक्ट्रान, प्रोटान व न्यूट्रान आदि कणों से बने हैं। परमाणुओं से पूर्व की स्थिति पर विज्ञान में भी सम्भवतः विचार नहीं किया जाता। परमाणु किस पदार्थ से कैसे बने इसका ज्ञान उपलब्ध नहीं है। अतः परमाणु ही कार्य सृष्टि का मूल पदार्थ है जिससे उत्तरोत्तर कई चरणों में यह समस्त सृष्टि बनी है। दर्शन में सत्, रज व तम गुणों वाली अनादि व नित्य प्रकृति को सृष्टि का मूल कारण बताया गया है। सृष्टि की रचना के समय परमात्मा इस सृष्टि में विक्षोभ उत्पन्न करते हैं। पहला विकार महतत्व व दूसरा अहंकार होता है। यह पूरी प्रक्रिया दर्शन आदि ग्रन्थों में देखी जा सकती है। सृष्टि को बनाने वाली सत्ता ज्ञानवान चेतन सत्ता ही होती है। यह समस्त ब्रह्माण्ड जिसमें असंख्य सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व अन्य लोक लोकान्तर आदि हैं, अपने आप नहीं बन सकते और न ही नियमों का पालन करते हुए सूर्य के चारों ओर, अपनी धुरी पर व उपग्रह ग्रह के चारों ओर गति कर सकते हैं। जिस सत्ता ने इस सृष्टि को बनाया है और जो इस सृष्टि को चला रहा है, उसी को परमात्मा व ईश्वर कहते हैं।

सृष्टि की रचना ज्ञानादि नियमों से युक्त एक चेतन सत्ता से हुई है, अतः सृष्टि का स्रष्टा ईश्वर समस्त ज्ञान व शक्ति का भण्डार सिद्ध होता है। विशाल सृष्टि को देखकर ईश्वर सर्वव्यापक व आंखों से दिखाई न देने से सर्वातिसूक्ष्म व रंग आदि गुणों से रहित सिद्ध होता है। प्रश्न है कि वेदों की उत्पत्ति वा आविर्भाव कैसे व किससे हुआ? इसके साथ वेद क्या हैं, यह जानना आवश्यक है। वेद संस्कृत भाषा में तथा मन्त्र रूप में छन्दोबद्ध रचना का नाम है। वेद के सभी पद अर्थों से युक्त है। वेद का कोई भी पद रूढ़ नहीं अपितु धातुज, यौगिक वा योगरूढ़ हैं। वेदों के पदों के व्युत्पत्ति का ज्ञान पद में प्रयुक्त धातु से होता है और उसका अर्थ निघण्टु व निरुक्त की निर्वचन प्रणाली से किया जाता है। यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। संसार की अन्य भाषाओं में वैदिक संस्कृत भाषा के समान नियम व सिद्धान्त लागू नहीं होते क्योंकि अन्य सभी भाषाओं के पद रूढ़ होते हैं, धातुज या यौगिक नहीं होते। वेद मन्त्रों पर दृष्टि डालने व उनके अर्थों पर विचार करने पर यह ज्ञात हो जाता है कि वेद मनुष्यकृत रचना नहीं है अपितु यह अपौरूषेय ग्रन्थ है। पौरूषेय या मनुष्यकृत रचना इस लिए नहीं है कि सृष्टि के आरम्भ में जो मनुष्य उत्पन्न हुए वह भी तो हमारी ही तरह के थे। बच्चा जब उत्पन्न होता है तो वह भाषा नहीं जानता। माता-पिता व आस पास के सगे सम्बन्धितयों से वह उनकी भाषा सीखता है। संस्कृत तो सर्वोत्कृष्ट भाषा है। वह मनुष्य रचित न होकर ईश्वर प्रदत्त है। अन्य सभी भाषायें संस्कृत का विकार हैं जो सृष्टि के आदि काल से निरन्तर होता आया है।  

अब प्रश्न यह सामने आता है कि सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को किसने उत्पन्न किया और किसने उन्हें भाषा सिखाई व वेदों का ज्ञान कराया। इस प्रश्न पर वेदों के मर्मज्ञ ऋषि दयानन्द जी ने भी विचार किया था। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में यह सिद्ध किया है कि सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अमैथुनी सृष्टि की और मनुष्यों के रूप में युवावस्था में स्त्री व पुरूषों को उत्पन्न किया था। इन मनुष्यों में चार ऋषि वा पुरुष अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नाम के हुए। यह चारों मनुष्य ऋषि अर्थात् उच्च कोटि के विद्वान थे। यह पूर्वजन्म की पवित्र आत्मायें थी जिस कारण इनकी आत्माओं में ज्ञान ग्रहण करने की सर्वाधिक सामर्थ्य थी। सर्वव्यापक परमात्मा ने इन चार ऋषियों को अपना ज्ञान जिसे वेद के नाम से जानते हैं और आज भी वह सृष्टि के आदि काल जैसा ही शुद्ध रूप में उपलब्ध है, उस ज्ञान को इन चार ऋषियों की आत्माओं में स्थापित किया था। यह समझना आवश्यक है कि ईश्वर व जीवात्मा दोनों चेतन हैं। चेतन में ज्ञान प्राप्त करने व ज्ञान देने की क्षमता वा सामथ्र्य होती है। ईश्वर पहले से ही, अनादि काल से, सृष्टि में ज्ञान व विज्ञान का अजस्र स्रोत है। उसने इस सृष्टि से पूर्व अनादि काल से अनन्त बार ऐसी ही सृष्टि को बनाया है व सृष्टि का एक कल्प की अवधि तक पालन करने के बाद उसकी प्रलय भी की है। उसका ज्ञान का स्तर हमेशा एक समान रहता है। वह कभी कम व अधिक नहीं होता। 

चारों वेद उस ईश्वर के ज्ञान में अनादि काल से विद्यमान वा वर्तमान हैं और अनन्त काल तक इसी प्रकार रहेंगे। ईश्वर सभी जीवात्माओं के भीतर व बाहर विद्यमान है। वह ईश्वर अपनी सामथ्र्य से ही इस समस्त सृष्टि सहित मनुष्यादि प्राणियों की भी रचना करता है। उसी ने हमारे शरीर में बुद्धि, मन व अन्तःकरण आदि अवयवों को बनाया है। उसने ही हमें बोलने के लिए न केवल जिह्वा वा वाक् दी है अपितु सुनने के लिए श्रवणेन्द्रिय भी दी है। ईश्वर को हमें जो भी बात कहनी व समझानी होती है उसकी वह हमारी आत्मा के भीतर प्रेरणा कर देता है जिसे ज्ञानी मनुष्य जान व समझ सकते हैं। जिस मनुष्य का आत्मा जितना अधिक शुद्ध व पवित्र होता है उतनी ही शीघ्रता व पूर्णता से वह ईश्वर की प्रेरणा को ग्रहण कर सकता व समझ सकता है। ईश्वर ने अपने इस गुण व क्षमता का उपयोग कर सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों की अमैथुनी सृष्टि हो जाने पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन, अब से 1,96,08,53,122 वर्ष पूर्व, चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा की आत्माओं में प्रेरणा करके ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद का ज्ञान उनके अर्थ सहित स्थापित किया था। शतपथ ब्राह्मण अति प्राचीन ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में इस विषय की चर्चा है। चार ऋषियों ने एक एक वेद का ज्ञान ईश्वर से प्राप्त कर उसका उपदेश ब्रह्मा जी नाम के अन्य ऋषि को किया। इससे ब्रह्मा जी को चारों वेदों का ज्ञान हुआ।

ब्रह्मा जी ने चारों वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया तो उनका यह कर्तव्य था कि वह वेद ज्ञान से रहित आस पास के स्त्री व पुरुषों को वेदों का ज्ञान कराते। उन्होंने अन्य ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य आदि के सहयोग से यह कार्य किया और उपदेश द्वारा सभी व अधिक से अधिक लोगों तक वेदों का ज्ञान पहुंचाया। आदि सृष्टि में ईश्वर ने जो अमैथुनी सृष्टि की थी उसमें सभी पवित्र आत्माओं को उत्पन्न किया था जिनकी ज्ञान प्राप्त करने व उसे स्मरण रखने सहित शरीर की सामथ्र्य भी वर्तमान मनुष्यों की तुलना में बहुत अधिक थी। वह मनुष्य जो सुनते थे वह उन्हें स्मरण रहता था। उनके शरीर भी स्वस्थ थे और हम अनुमान कर सकते हैं कि वह सब लम्बी आयु तक जीवित रहे थे। उन्होंने वेद ज्ञान प्राप्त कर अपने अनुरूप वर वधु निश्चित कर विवाह किये और कालान्तर में मैथुनी सृष्टि का होना आरम्भ हुआ। तब से यह जन्म-मरण सहित वेद में वर्णित विवाह आदि परम्परायें चल रही हैं और वेदज्ञान भी परम्परा से चला आ रहा है। इस प्रकार से ईश्वर से चार ऋषियों की हृदय गुहा में स्थित जीवात्माओं को वेदों का ज्ञान प्राप्त हुआ और वेदोपदेश व वेदाध्ययन की परम्परा आरम्भ हुई जो महाभारत काल तक अबाध रूप से चली। महाभारत काल व उसके बाद यह परम्परा बाधित हुई परन्तु ऋषि दयानन्द (1825-1883) ने आकर इसे पुनः प्रवृत्त किया। ऋषि दयानन्द के प्रयत्नों के कारण ही आज हमें चारों वेद अपने सत्यार्थ सहित संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी व अन्य भाषाओं में उपलब्ध हैं। यह वेदों के आविर्भाव की यथार्थ कथा है।  

वेदों में ईश्वर, जीव, प्रकृति सहित मनुष्यों के कर्तव्य-कर्मों आदि का विस्तृत ज्ञान है। वेदों की भाषा और ज्ञान की सहायता से मनुष्य अपना जीवन सुखी रखते हुए व उन्नति करते हुए व्यतीत कर सकते हैं। वेदों का अध्ययन कर मनुष्य यदि चाहें तो जीवन के सभी क्षेत्रों में ज्ञान व विज्ञान की उन्नति कर सकते हैं। हमारे ऋषि मुनि पर्यावरण प्रेमी थे। वह यज्ञ अग्निहोत्र करते हुए वेदाध्ययन एवं अनुसंधान कार्य करते थे और प्रकृति में प्रदुषण व विकार नहीं होने देना चाहते थे। जिस क्षेत्र में जो आवश्यक था वह आविष्कार उनके द्वारा किया गया। महाभारतकाल व उससे पूर्व का भारत ज्ञान विज्ञान की दृष्टि से उन्नत व सम्पन्न था। ऐसा वर्णन भी मिलता है कि प्राचीन भारत में निर्धन लोगों के पास भी अपने अपने विमान हुआ करते थे और वह देश व विश्व का भ्रमण करते थे। तीव्र गामी समुद्री नौकायें व यान भी होते थे जिनसे हमारे देश के लोग पाताल लोक व विश्व के अनेक भागों में जाते थे। इन बातों की झलक ऋषि दयानन्द के पूना में दिए गये इतिहास विषयक प्रवचनों में मिलती है। वेदों को पढ़कर ही हमें अपने कर्तव्यों, जीवन के उद्देश्य व उसकी पूर्ति के साधनों का ज्ञान होता है। ऋषि दयानन्द ने अपने ज्ञान व अनुभव के आधार पर घोषणा की है कि वेद सब सत्य विद्वाओं की पुस्तक हैं। वेद का पढ़ना पढ़ाना एवं सुनना-सुनाना सब मनुष्यों वा आर्यों का परम धर्म है। वेद हमें सही रीति से ईश्वरोपासना करना सिखाने के साथ वायु, जल व पर्यावरण आदि को शुद्ध करने की विधि यज्ञ अग्निहोत्र आदि का ज्ञान भी कराते हैं। सभी मनुष्यों को वेदाध्ययन कर अपना जीवन सुखी व सफल बनाना चाहिये और वेदों की रक्षा में योगदान देना चाहिये। 

वेदों का आविर्भाव ईश्वर से हुआ है। ऐसा ईश्वर ने मनुष्यों के सभी विषयों व कर्तव्यों का ज्ञान कराने के लिए किया। संसार के सभी रीति रिवाजों व परम्पराओं पर वेदों का न्यूनाधिक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। वेदों के अध्ययन व वेदों की शिक्षाओं पर आचरण कर हम धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। इन चार पुरुषार्थों की प्राप्ति ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य है। इति ओ३म् शम्। 

-मनमोहन कुमार आर्य

जब नारी स्वर्ग पर ललचाएगी जीवन में दुख पाएगी

—विनय कुमार विनायक
स्वर्ण मृग की चाहत में सीता माई
अति दुख पाई और नारी को चेताई!
जब जब नारी स्वर्ण पर ललचाएगी,
तब दाम्पत्य जीवन में दुःख पाएगी!

बाली रावण ने भाईयों को दुत्कारा,
दुश्मन से हारा पैगाम दिया न्यारा!
जब भी भाई को दुत्कार भगाओगे,
तब तो शत्रु के हाथों मारे जाओगे!

जब नारी तुम रुप पर इतराओगी,
तब तो तुम नाक कान कटाओगी!
रुप गर्विता नारी कुल को डुबाएगी,
सुपर्णखा का उदाहरण बन जाएगी!

जब भी पराई नारी का चीर हरोगे,
तब तुम छाती व जंघा तुड़ा लोगे!
दुर्योधन दुशासन का देखो अंजाम,
पराई नारी का करो नहीं अपमान!

जब तुम अपनों के अंश दबाओगे,
कौरव कंश सा निर्वंश हो जाओगे!
जर,जमीन,जोरू की करो ना लड़ाई,
भाई भाई में शत्रुता से जग हंसाई!

तुम गुरु बनो नहीं ऐसे जैसे थे द्रोण
परशुराम के ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण!
हरहि शिष्य धन पर शोक न हरहि,
ते गुरु नरक ते परहि’तुलसी कहही!
—विनय कुमार विनायक

दुनिया की हर छठी मौत के लिए प्रदूषण था ज़िम्मेदार: द लांसेट

वर्ष 2019 में 90 लाख लोगों की मौत का कारण बना वायु प्रदूषण, बीते चार सालों में स्थिति में मामूली सुधार

वर्ष 2019 में प्रदूषण करीब 90 लाख लोगों की मौत के लिये जिम्‍मेदार था। यह दुनिया भर में होने वाली हर छठी मौत के बराबर है। वास्‍तव में इस संख्‍या में वर्ष 2015 में किये गये पिछले विश्‍लेषण से अब तक कोई बदलाव नहीं आया है।
यह नयी रिपोर्ट प्रदूषण और स्‍वास्‍थ्‍य पर गठित द लांसेट कमीशन [1] का अद्यतन रूप है। ‘द लांसेट प्‍लैनेटरी हेल्‍थ’ नाम से प्रकाशित यह रिपोर्ट हमें बताती है कि अत्‍यधिक गरीबी से जुड़े प्रदूषण स्रोतों (जैसे कि घरेलू वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण) के कारण होने वाली मौतों की संख्‍या में भले ही गिरावट आयी हो, मगर इससे मिली राहत औद्योगिक प्रदूषण (जैसे कि वातावरणीय वायु प्रदूषण और रासायनिक प्रदूषण) से जोड़ी जा सकने वाली मौतों की तादाद में हुई बढ़ोत्‍तरी से ढक जाती है।
इस रिपोर्ट के प्रमुख लेखक रिचर्ड फुलर ने कहा “प्रदूषण के कारण सेहत पर पड़ने वाले प्रभाव बहुत बडे हैं, और निम्‍न तथा मध्‍यम आय वाले देशों को इसका सबसे ज्‍यादा बोझ उठाना पड़ रहा है। अपने गहरे स्‍वास्‍थ्‍य, सामाजिक तथा आर्थिक प्रभावों के बावजूद प्रदूषण नियंत्रण के मुद्दे को अंतरराष्‍ट्रीय विकास एजेंडा से आमतौर पर अनदेखा कर दिया जाता है। प्रदूषण और सेहत पर पड़ने वाले उसके प्रभावों को लेकर लोगों की चिंता के पूरे दस्‍तावेजीकरण के बावजूद वर्ष 2015 से इस पर दिये जाने वाले ध्‍यान और वित्‍तपोषण में बेहद मामूली इजाफा हुआ है।” [2]
बोस्‍टन कॉलेज में ग्‍लोबल पब्लिक हेलथ प्रोग्राम और ग्‍लोबल पॉल्‍यूशन ऑब्‍जर्वेटरी के निदेशक प्रोफेसर फिलिप लैंडरीगन ने कहा “प्रदूषण अब भी इंसानों और धरती की सेहत के लिये अस्तित्‍व का सबसे बड़ा खतरा है और इसकी वजह से आधुनिक समाज की सततता पर बुरा असर पड़ता है। प्रदूषण को रोकने से जलवायु परिवर्तन की रफ्तार धीमी की जा सकती है। इससे पृथ्‍वी की सेहत को दोहरे फायदे हो सकते हैं, और हमारी रिपोर्ट इस बात का पुरजोर आह्वान करती है कि सभी तरह के जीवाश्‍म ईंधन को छोड़कर अक्षय ऊर्जा विकल्‍पों को अपनाने के काम को बहुत व्‍यापक पैमाने पर तेजी से किया जाए।” [2]
वर्ष 2017 में प्रदूषण एवं स्‍वास्‍थ्‍य को लेकर गठित लांसेट कमीशन ने वर्ष 2015 के ग्‍लोबल बर्डन ऑफ डिसीज (जीबीडी) अध्‍ययन के डेटा का इस्‍तेमाल करते हुए यह पाया था कि प्रदूषण तकरीबन 90 लाख मौतों के लिये जिम्‍मेदार है। यह संख्‍या दुनिया भर में होने वाली मौतों के 16 प्रतिशत के बराबर है। नयी रिपोर्ट हमें प्रदूषण के कारण सेहत पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में ताजातरीन अनुमान उपलब्‍ध कराती है। यह वर्ष 2019 के नवीनतम उपलब्‍ध ग्‍लोबल बर्डन ऑफ डिसीज (जीबीडी) डेटा और कार्यप्रणालीगत अपडेट्स के साथ-साथ वर्ष 2000 से अब तक के रुख के आकलन पर आधारित है।
वर्ष 2019 में प्रदूषण की वजह से पूरी दुनिया में हुई 90 लाख मौतों में से 66 लाख 70 हजार मौतें अकेले वायु प्रदूषण (घरेलू और वातावरणीय) के कारण ही हुई हैं। जल प्रदूषण की वजह से 13 लाख 60 हजार मौतें हुई हैं। सीसा (लेड) की वजह से नौ लाख लोगों की मौत हुई है। इसके अलावा पेशे सम्‍बन्‍धी विषैले सम्‍पर्क के कारण आठ लाख 70 हजार मौतें हुई हैं।
वर्ष 2000 के बाद से परंपरागत प्रदूषण (ठोस ईंधन के इस्तेमाल के कारण घर के अंदर उत्पन्न होने वाला वायु प्रदूषण और असुरक्षित पानी) के कारण होने वाली मौतों में गिरावट का सबसे ज्यादा रुख अफ्रीका में देखा गया है। इसे जलापूर्ति एवं साफ-सफाई, एंटीबायोटिक और ट्रीटमेंट तथा स्वच्छ ईंधन के क्षेत्र में सुधार के जरिए स्पष्ट किया जा सकता है।
हालांकि इस मृत्यु दर में आई कमी को पिछले 20 साल के दौरान सभी क्षेत्रों में औद्योगिक प्रदूषण जैसे कि वातावरणीय वायु प्रदूषण, लेड प्रदूषण तथा अन्य प्रकार के रासायनिक प्रदूषण के कारण हुई मौतों में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी ने ढक लिया है। खास तौर पर दक्षिण-पूर्वी एशिया में यह स्पष्ट रूप से दिख रहा है, जहां औद्योगिक प्रदूषण का बढ़ता स्तर, बढ़ती उम्र के लोगों और इस प्रदूषण के संपर्क में आने वाले लोगों की बढ़ती संख्या के साथ जुड़ गया है।
वातावरणीय वायु प्रदूषण की वजह से वर्ष 2019 में 45 लाख लोगों की मौत हुई है। यह वर्ष 2015 के मुकाबले 42 लाख और वर्ष 2000 के मुकाबले 29 लाख ज्यादा है। नुकसानदेह रासायनिक प्रदूषकों की वजह से वर्ष 2000 में जहां 90 हजार लोगों की मौत हुई थी। वहीं, वर्ष 2015 में इसकी वजह से 17 लाख लोगों और 2019 में 18 लाख लोगों की मृत्यु हुई है। वर्ष 2019 में लेड प्रदूषण की वजह से 90 लाख लोगों की मौत हुई थी। कुल मिलाकर आधुनिक प्रदूषणकारी तत्वों की वजह से पिछले दो दशकों के दौरान मौतों का आंकड़ा 66% बढ़ा है। अनुमान के मुताबिक वर्ष 2000 में जहां इसके कारण 38 लाख लोगों की मौत हुई थी वहीं, वर्ष 2019 में इसकी वजह से 63 लाख लोग मारे गए। माना जाता है कि रासायनिक प्रदूषणकारी तत्वों के कारण मरने वालों की संख्या इससे ज्यादा हो सकती है क्योंकि ऐसे बहुत कम रसायन हैं जिन्हें सुरक्षा या विषाक्तता के पैमाने पर पर्याप्त रूप से जांचा-परखा गया है।
प्रदूषण की वजह से होने वाली अतिरिक्त मौतों के कारण वर्ष 2019 में कुल 4.6 ट्रिलियन डॉलर का आर्थिक नुकसान हुआ था। यह वैश्विक आर्थिक उत्पादन के 6.2% के बराबर है। इस अध्ययन में प्रदूषण की गहरी असमानता का जिक्र भी किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक प्रदूषण से संबंधित 92% मौतें और प्रदूषण के कारण होने वाले आर्थिक नुकसान का सबसे ज्यादा भार निम्न तथा मध्यम आमदनी वाले देशों पर पड़ रहा है।
इस नए अध्ययन के लेखक आठ सिफारिशों के साथ निष्कर्ष पर पहुंचे हैं, जो प्रदूषण तथा स्वास्थ्य पर गठित लांसेट कमीशन द्वारा की गई संस्तुतियों की आगे की कड़ी हैं। इन सिफारिशों में प्रदूषण को लेकर इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की ही तरह का विज्ञान/नीति पैनल के गठन के साथ-साथ सरकारों निजी पक्षों तथा परोपकारी दानदाताओं द्वारा प्रदूषण नियंत्रण के लिए और अधिक वित्तपोषण करना तथा सुधरी हुई प्रदूषण निगरानी और डाटा संग्रहण के आह्वान शामिल हैं। अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को भी प्रदूषण के लिए विज्ञान और नीति के बीच बेहतर संपर्क को अनुमोदित और स्थापित करने की जरूरत है।
ग्लोबल एलायंस ऑन हेल्थ एंड पोल्यूशन की सह लेखक और एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर रेचल कुपका ने कहा “प्रदूषण जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता का क्षरण एक-दूसरे से बहुत नजदीकी से जुड़े हैं। एक दूसरे से संबंधित इन खतरों को सफलतापूर्वक नियंत्रित करने के लिए एक वैश्विक स्तर पर समर्थित औपचारिक विज्ञान नीति इंटरफ़ेस की जरूरत है ताकि उपाय को सूचित किया जा सके, शोध को प्रभावित किया जा सके और वित्तपोषण को रास्ता दिखाया जा सके। हालांकि यह स्पष्ट है कि प्रदूषण पूरी धरती के लिए खतरा है और इसके विविध और व्यापक स्वास्थ्य प्रभाव सभी स्थानीय सीमाओं को तोड़ चुके हैं और उन पर वैश्विक स्तर पर प्रतिक्रिया दी जानी चाहिए। सभी प्रमुख आधुनिक प्रदूषणकारी तत्वों पर वैश्विक स्तर पर कार्रवाई करना जरूरी है।”

‘तपती धरती’ का जो ज़िम्मेदार,बचाव भी उसी से दरकार

निर्मल रानी
मौसम विशेषज्ञों द्वारा ग्रीष्म ऋतू शुरू होने से पहले ही यह भविष्यवाणी कर दी गयी थी कि इस बार दुनिया के अधिकांश देश झुलसाने वाली अभूतपूर्व गर्मी का सामना कर सकते हैं। सहस्त्राब्दियों पुराने ग्लेशियर्स के लगातार पिघलते रहने के बीच जब यह ख़बर भी आयी थी कि पूरे विश्व को प्रकृतिक रूप से लगभग बीस प्रतिशत ऑक्सीजन की आपूर्ति करने वाले अमेज़ॉन के सैकड़ों किलोमीटर क्षेत्र के जंगलों को ब्राज़ील सरकार के संरक्षण में विकास के नाम पर काट दिया गया है। तभी यह अंदाज़ा होने लगा था कि दुनिया भविष्य में अभूतपूर्व तपिश का सामना करने की दिशा में आगे बढ़ रही है। और पूरे विश्व विशेषकर भारत को भी इसबार झुलसती गर्मी का सामना करना पड़ा। देश के विभिन्न स्थानों पर 2 से लेकर 3 प्रतिशत तक सामान्य तापमान में वृद्धि दर्ज की गयी। राजधानी दिल्ली के मंगेशपुर नामक एक क्षेत्र में तो पारा 49 डिग्री सेल्सियस पार कर गया। जगह जगह सूखा पड़ने की ख़बरें आईं।
निश्चित रूप से आम लोग ग्लोबल वार्मिंग रुपी इस त्रासदी से पूरी तरह तो हरगिज़ नहीं निपट सकते। क्योंकि विकास और प्रगति के नाम पर छिड़ी विश्वव्यापी प्रतिस्पर्धा के ज़िम्मेदार दुनिया के शासक और सरकारें हैं। इन्हीं का काम ऐसी ‘विकासवादी’ योजनायें बनाना है जो प्रायः पर्यावरण विरोधी होती हैं। जिनमें हरे प्राकृतिक जंगल काटे जाते हैं और सीमेंट व कंक्रीट के ‘तपते जंगलों’ का विस्तार किया जाता है। परन्तु ऐसा भी नहीं है कि हम अपने,अपने घरों के आसपास का तापमान कम या स्थिर रखने के लिये अपने स्तर पर कुछ भी नहीं कर सकते। तपिश कम करने और ग्लोबल वार्मिंग से जूझने के ऐसे तमाम छोटे छोटे उपाय हैं जिनका सीधा संबंध सरकार या शासन से नहीं बल्कि आम लोगों से है। जिन्हें अपनाकर हम स्थानीय स्तर पर कम से अपने अपने घर परिवार में तो झुलसती गर्मी से राहत महसूस कर ही सकते हैं और प्रकृति प्रदत्त इस बेशक़ीमती जल और ऑक्सीजन युक्त धरा का सम्पूर्ण नहीं तो कुछ क़र्ज़ तो अदा कर ही सकते हैं।
सर्वप्रथम हमें अपनी यह सोच बनानी होगी और अपने बच्चों में भी पैदा करनी होगी कि वातावरण को कम से कम गर्म होने दें। इसके लिये ‘धुंआ’ ,अग्नि और गर्म हवा के उत्सर्जन को जितना संभव हो सके,कम करें। प्रायः देखा गया है कि लोग अपने घरों के बाहर कूड़ा करकट ख़ासकर प्लास्टिक पॉलीथिन आदि इकट्ठाकर उसमें आग लगा देते हैं। आज कल विशेषकर स्वछता अभियान के तहत जब घर घर से कूड़ा इकट्ठा करने का कार्य सरकारी स्तर पर किया जा रहा हो और इस व्यवस्था के बदले नक़द भुगतान भी जनता ही कर रही हो ऐसे में कूड़ा व प्लास्टिक आदि जलाने का ही कोई औचित्य नहीं है। कई बार यह भी देखा गया है कि स्वयं नगर परिषद / निगम के सफ़ाई कर्मचारी ही झाड़ू से एक जगह कूड़ा इकठ्ठा कर उसमें आग लगा देते हैं। कबाड़ का काम करने वाले तमाम लोग रबड़ आदि जलाकर ज़हरीला काला धुआं पैदा करते हैं। इस पर भी नियंत्रण पाना ज़रूरी है। स्टेशन के आस पास बैठे भिखारी तो सर्दियों के अतिरिक्त गर्मी में भी कूड़ा जलाकर प्रदूषण फैलते हैं। गाय-भैंस पालक प्रायः मच्छर भगाने की परंपरा के नाम पर पशुओं के आस पास धुआं करते हैं जिससे पशु भी परेशान होते हैं और आस पास का पूरा क्षेत्र भी प्रदूषित होता है। परन्तु न तो स्वयं इनकी समझ में आता है कि यह इसी स्वर्ग रुपी पृथ्वी को कितना नुक़सान पहुंचा रहे हैं न ही इन्हें कोई समझने वाला है।
अपने आसपास के वातावरण को और अधिक गर्म होने से बचाने के लिये दूसरा उपाय है कम से कम विद्युत् खपत की जाये । विशेषकर गर्मियों में बेतहाशा व अनावश्यक रूप से चलने वाले एयर कंडीशनर्स, वातावरण को सबसे अधिक गर्म करते हैं। बड़े मकानों में तो कई कई ए सी लगाकर अधिक से अधिक बिजली बिल चुकाने व वातावरण को गर्म करने में साझीदार बनने से बेहतर है कि अपने घरों को सेंट्रली एयर कूल्ड करने की व्यवस्था करें। इससे कम बिजली ख़र्च में और पर्यावरण को हानि पहुंचाये बिना हम गर्मी में अपने मकानों को ठण्डा रख सकते हैं।सभी विद्युत् उपकरण ज़रूरी होने पर ही इस्तेमाल करें। आवश्यकता न हो तो बत्ती पंखे आदि बंद ही रखें। इन बातों को अपनी आदतों में शामिल करना होगा। इसके साथ साथ अपने घरों में अधिक से अधिक पौधे गमलों में लगायें। वृक्षारोपण को अपनी जीवनचर्या में शामिल करें। पार्कों में सड़कों के किनारे,शमशान-क़ब्रिस्तान,धर्मस्थलों जहाँ भी जगह हो अधिक से अधिक वृक्ष लगायें। अपने मकान या ज़मीन पर बड़े फलदार व छायादार वृक्ष लगायें।
धरती पर बढ़ता जल संकट भी बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग का ही परिणाम है। जहाँ हम प्रदूषण नियंत्रित कर व वृक्षारोपण आदि के माध्यम से वातावरण को वर्षानुकूल बनाने में सहायक हो सकते हैं वहीं जल की बर्बादी रोककर भी हम धरती व पर्यावरण के साथ साथ अपनी अगली नस्लों को भी अनुकूल वातावरण देने का प्रयास कर सकते हैं। यदि आप सड़कों गलियों में चलें तो अक्सर टूंटियों से पानी बहता रहता है। जहाँ पानी बहता दिखाई दे उसे तुरंत बंद करें। यदि किसी जगह टूंटी ख़राब है तो सरकारी कर्मचारी की प्रतीक्षा करने के बजाय पास पड़ोस के लोग स्वयं टूंटी का प्रबंध कर जल की बर्बादी को रोकें। तमाम लोग अपने घरों के सामने की सड़कों पर और अपने मकानों की फ़र्श आदि धोने में बेतहाशा पानी बर्बाद करते हैं। रोज़ाना कारें धोते हैं। यह सब अनावश्यक है। हर काम सीमा के भीतर होना चाहिये। और हर एक को यह महसूस करना चाहिये कि जिस जल को वह बहा रहा है वह स्वयं उसके,उसके बच्चों व मानव जीवन के लिये कितना अनिवार्य व उपयोगी है। आज पृथ्वी पर भीषण गर्मी व जल संकट के रूप में जो भी नज़र आ रहा है ज़ाहिर है हम ही उसके ज़िम्मेदार भी हैं। और इस ‘तपती धरती’ व जलसंकट का जो भी ज़िम्मेदार है बचाव के उपाय भी निश्चित तौर पर उसी से दरकार होंगे।

“सत्य ही शिव है” वह कभी पराजित नहीं होता_

“ज्ञानवापी मंदिर को मस्जिद बनाने वाले लुटेरों का अत्याचार कब तक हमें टीस देता रहेगा ?” यह अनुत्तरित प्रश्न लगभग 350 वर्षो से करोड़ों-करोड़ों शिवभक्तों को उद्वेलित किए हुए था l अतः हिन्दुओं में अपने गौरवांवित इतिहास को जानने की उत्सुकता बलवती हुई और अपने नष्ट हुए स्वाभिमान को पुनः स्थापित करने की चाहत जगी l उसी परिप्रेक्ष में ज्ञानवापी परिसर में महादेव की मुक्ति के संघर्ष के लिए समर्पित हमारे वरिष्ठ एवं विद्वान अधिवक्ताओं के वर्षो से किए जा रहे अथक परिश्रम को गति मिली l परिणामस्वरूप माननीय न्यायालय के आदेशानुसार ज्ञानवापी परिसर में हुए सर्वेक्षण से अब यह सत्य सामने आ गया है कि सैकड़ों वर्षो से शिवभक्तों को किस प्रकार सत्य से छुपाया गया और उन्हें उनके धार्मिक अधिकारों से वंचित किया जाता रहा l आज जब ज्ञानवापी मंदिर का सत्य प्रमाणित हो रहा है तो यह अवश्य ही “धर्म की जय और अधर्म की पराजय” का परिचायक बन गया हैं l

काशी-विश्वनाथ मंदिर पर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण भारत और भारतीयता पर एक कलंक था l यह वास्तव में मुगल आतताईयों की कुफ्र के लिए भारतभक्त हिन्दुओं के मान मर्दन और उत्पीड़न की सैकड़ों वर्षो से चली आ रही श्रंखला का एक और स्पष्ट प्रमाण है l मंदिर तोड़ कर बल पूर्वक मस्जिद बनाने के कुकृत्यों से वहां रहने वाले हिन्दुओं के ह्रदयों की पीड़ा को गंगा-जमुनी संस्कृति के भ्रमित कथनों से कैसे दूर किया जा सकता था और है ?

यह कितना अपमानजनक और घृणित कृत्य है कि मुस्लिम समाज वर्षो से हमारे आस्था बिंदु शिवलिंग पर अपने हाथ पैर धोकर वजू करता आ रहा था और हैं ? क्या हिन्दुओं में ऐसे अत्याचारियों के विरुद्ध कभी कोई आक्रोश जगेगा ? यह स्पष्ट है कि जेहादियों ने हिंसा के बल पर काफ़िर और कुफ्र को मिटाने के लिए हर संभव अत्याचार किए थे, वही दादागिरी और गुंडागर्दी आज भी इनकी नस नाडिय़ों और हड्डियों में रची बसी हुई है l तभी मुस्लिम भड़काऊ नेता बार – बार प्रमाणित सच को झूठ बता कर अपने समुदाय की भीड़ को भड़का कर अराजकता और लूटमार के सहारे देश का वातावरण बिगाड़ने का दुस्साहस कर रहे है l क्या सिरफिरे जेहादियों / तालिबानियों को तथ्यात्मक और न्यायिक पराजय स्वीकार नहीं या कभी हारना नहीं चाहते और आतंक के बल पर अपने को ही सही ठहराना चाहते हैं ? यह कैसी विडंबना है कि जहां बुद्धिमान समाज प्रमाणित सच को भी स्वीकार करने के लिए फूंक-फूंक कर आगे बढ़ता है, वहीं मूर्खों के समान जेहादियों की भीड़ आत्मविश्वास से भरपूर होकर सच को भी झूठा बना देने के लिए भिडने के लिए तत्पर है l जिस प्रकार पिछले दिनों दिल्ली स्थित शाहीनबाग और जहांगीरपूरी में हुए मुस्लिम भीड़ प्रशासन के निर्णयों का विरोध करते हुए सुरक्षा बलों पर ही आक्रामक हो गई थी l वहीं 2019–2020 में ‘नागरिक संशोधन अधिनियम’ (सीएए) के विरुद्ध शाहीनबाग में मुस्लिम घुसपैठियों और इनको बसाने वाले जेहादियों के बल पर 101 दिन चला राष्ट्र विरोधी आक्रामक आंदोलन भी भीड़ को भड़का कर आतंक फैलाने का बड़ा प्रमाण था l अब विचार करने वाला बिंदु यह है कि कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने (अब जब मंदिरों पर हुए अत्याचारों का सच सामने आने लगा है तो) कहा है कि मुसलमानों को बड़ा दिल दिखाते हुए काशी और मथुरा की विवादित मस्जिदों को हिन्दुओं को सौप देने चाहिए l ये मुस्लिम बुद्धिजीवी यह क्यों नहीं कहते कि भारत में बनी मुगलकालीन लगभग समस्त मस्जिदें मन्दिरों को ध्वस्त करके ही बनवाई गई थी?

जब यह एतिहासिक सच सामने आ ही गया है तो उन सभी मस्जिदों का जिनमें मंदिर-मठ आदि हिन्दू धार्मिक स्थल थे, को अब हिन्दुओं को सौपना ही चाहिए ? जबकि इस्लाम में किसी भी काफ़िर के धार्मिक स्थलों पर मस्जिद आदि बनाने को सर्वथा अशुद्ध माना गया है l इस्लाम में ऐसे स्थानों पर नमाज़ अदा करना सर्वथा पाप है, तो क्या वहां इस वास्तविकता को समझते हुए भी मुस्लिम नेता केवल हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाने और अपमानित करने लिए भोले-भाले मुसलमानों को भड़काने में लगे हुए हैं l ऐसे में उन लाखों करोड़ों मुसलमान जो सदियों से ज्ञानवापी एवं हमारे अन्य धर्म स्थलों पर नमाज़ अदा करते आ रहे थे और हैं,को क्या इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार अब काफ़िर नहीं माना जाएगा?

मानवतावादी समाज में अपने अधिकारों को पुनः प्राप्त करना सर्वथा न्यायपूर्ण कृत्य है l हिन्दुओं को काफ़िर मानने वाले जेहादियों ने कुफ्र को मिटाने के लिये हिंसा के बल पर मन्दिरों पर मस्जिदें बनवाई थी तो उन्हें पुनः न्यायिक रूप से प्राप्त करना क्या हिन्दुओं का मौलिक एवं संविधानिक अधिकार नहीं है ? इसमें यह कहना कि मुसलमानों को बड़ा दिल दिखाना चाहिए अपने आपको अपराध मुक्त करने के समान है l हाँ, यदि मुसलमानों को वास्तव में बड़ा दिल दिखाना है तो उन्हें घर वापसी करते हुए अपने पूर्वजों की संस्कृति को अपना कर भूल सुधारने का साहस अवश्य करना चाहिए l वैसे भी यदि भारत के धर्मांतरित मुसलमान सनातनी बनेंगे तो उनके पूर्वजों पर हुए मुग़लों के अत्याचारों के प्रतिशोध की अग्नि को भी शीतलता मिलेगी l परंतु यदि इनको इस्लाम से इतना ही अधिक प्रेम है तो उन्हें भारत के अपने हिस्से के उस भाग (पाकिस्तान) में चले जाना चाहिए जो उन्होंने स्वयं 1947 में मांगा था और लाखों निर्दोषों का रक्तपात करके पाया था l

इतिहास का अर्थ होता है कि ऐसा हुआ था और जो हो चुका उसे बदला नहीं जा सकता, वस्तुतः इतिहास भूतकालीन सत्य है l अपने अनुसार इतिहास को बदलने का भरसक दुस्साहस भी केवल झूठी रद्दी के समान है क्योंकि सत्य को बारम्बार प्रकट होने से कौन रोक सकता है? स्मरण रहें कि सत्य ही शिव है और सत्य को असत्य से न तो छिपाया जा सकता है, न मिटाया जा सकता और न ही पराजित किया जा सकता l इसलिए इस्लामिक अत्याचारों से भरे इतिहास का देशव्यापी प्रचार और प्रसार करके ऐसी असंख्य राष्ट्रीय वेदनाओं से आने वाली पीढ़ियों को परिचित कराना होगा l जिससे वे भारत की गौरवशाली संस्कृति और संस्कारों की रक्षा के लिये भविष्य में और अधिक सक्रिय हो कर राष्ट्र के प्रति अपने – अपने दायित्वों का निर्वाह कर सकें l

विनोद कुमार सर्वोदय