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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पराक्रम

“दिल्ली पर पाकिस्तानी कब्जे की योजना”

9 सितम्बर 1947 की मध्यरात्रि को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा सरदार पटेल को सूचना दी गई कि 10 सितम्बर को संसद भवन उड़ा कर व सभी मन्त्रियों की हत्या करके लाल किले पर पाकिस्तानी झण्डा फहरा देने की दिल्ली के मुसलमानों की योजना है। सूचना क्योंकि संघ की ओर से थी, इसलिये अविश्वास का प्रश्न नहीं था। पटेल तुरंत हरकत में आए और सेनापति आकिन लेक को बुला कर सैनिक स्थिति के बारे में पूछा। उस समय दिल्ली में बहुत ही कम सैनिक थे। आकिनलेक ने कहा कि आस-पास के क्षेत्रों में तैनात सैनिक टुकड़ियों को दिल्ली बुलाना भी खतरे से खाली नहीं है। कुल मिलाकर आकिन लेक का तात्पर्य यह था कि इतनी जल्दी भी नहीं किया जा सकता, इसके लिये समय चाहिए। यह सारी वातीसराय माउंटबैटन के सामने ही हो रही थी। लेकिन पटेल तो पटेल ही थे। उन्होंने आकिनलेक को कहा-“विभिन्न छावनियों को को संदेश भेजो, उनके पास जितनी जितनी भी टुकड़ियाँ फालतू हो सकती है, उन्हें दिल्ली तुरंत दिल्ली भेजें।” आखिर ऐसा ही किया गया। उसी दिन शाम से टुकड़ियाँ आनी शुरू हो गई। अगले दिन तक पर्याप्त टुकड़ियां दिल्ली पहुंच चुकी थी।

सैनिक कार्यवाही_

सैनिक कार्यवाही आरम्भ हुई। दिल्ली के जिन-जिन स्थानों के बारे में संघ ने सूचना दी थी, उन सभी स्थानों पर एक साथ छापे और जगह से बड़ी मात्रा में शस्त्रास्त्र बरामद हुए। पहाड़गंज की मस्जिद, सब्ज़ी मंडी मस्जिद तथा मेहरौली की मस्जिद से सबसे अधिक शस्त्र मिले l अनेक स्थानों पर मुसलमानों ने स्टेन गनों तथा ब्रेन से मुकाबला किया, लेकिन सेना के सामने उनकी एक न चली। सबसे कड़ा मुकाबला हुआ सब्जी मण्डी क्षेत्र में स्थित ‘काकवान बिल्डिंग’ में । इस एक बिल्डिंग पर कब्जा करने में सेना को चौबीस घण्टों से भी अधिक समय लगा l

मेहरौली की मस्जिद से भी स्टेनगनों व ब्रेनगनों से सेना का मुकाबला किया गया । चार-पांच घंटे के लगातार संघर्ष के बाद ही सेना उस मस्जिद पर कब्जा कर सकी।

तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष आचार्य कृपलानी के अनुसार _

“मुसलमानों ने हथियार एकत्र कर लिए थे। उनके घरों की तलाशी लेने पर बम आग्नेयास्त्र और गोला बारूद के भण्डार मिले थे। स्टेनगन, ब्रेनगन, मोटोर और वायर लेस ट्रांसमीटर बड़ी मात्रा में मिले। इनको गुप्तरूप से बनाने वाले कारखाने भी पकड़े गए।

अनेक स्थानों पर घमासान लड़ाई हुई, जिसमें इन हथियारों का खुल कर प्रयोग हुआ। पुलिस में मुसलमानों की भरमार थी। इस कारण दंगे को दबाने में सरकार को काफी कठिनाई का सामना करना पड़ा।इन पुलिस वालों में से अनेक तो अपनी वर्दी व हथियार लेकर ही फरार हो गए और विद्रोहियों से मिल गए। शेष जो बचे थे, उनकी निष्ठा भी संदिग्ध थी। सरकार को अन्य प्रान्तों से पुलिस व सेना बुलानी पड़ी।” (कृपलानी, गान्धी, पृष्ठ 292-293)

मुसलमान सरकारी अधिकारी थे योजनाकार_

_दिल्ली पर कब्जा करने की योजना बनाने वाले कौन थे ये लोग? ये कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे। इनमें बड़े – बड़े मुसलमान सरकारी अधिकारी थे, जिन पर भारत सरकार को बड़ा विश्वास था। इनमें उस समय के दिल्ली के बड़े पुलिस अधिकारी तथा दिल्ली विश्वविद्यालय के वरिष्ठ अधिकारी थे, जोकि मुसलमान थे।

एक-एक पहलू को अच्छी तरह सोच-विचार करके लिख लिया गया था और वे लिखित कागज-पत्र विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी की ही कोठी में एक तिजौरी सुरक्षित में रख लिए गए थे।

उन दिनों मुसलमान बनकर मुस्लिम अधिकारियों की गुप्तचरी करने वाले संघ के स्वयंसेवकों को इसकी जानकारी मिल गई और उन्होंने संघ अधिकारियों को सूचित किया। संघ अधिकारियों ने योजना के कागजात प्राप्त करने का दायित्व एक खोसला नाम के स्वयंसेवक को सौंपा।

खोसला ने उपयुक्त स्वयंसेवकों की एक टोली तैयार की और सभी मुसलमानी वेश में रात को विश्वविद्यालय के उस अधिकारी की कोठी पर पहुँच गए। मुस्लिम नेशनल गार्ड के कार्यकर्ता वहाँ पहरा दे रहे थे। खोसला ने उन्हें ‘वालेकुम अस्सलाम’ किया और कहा- “हम अलीगढ़ से आए हैं। अब यहाँ पहरा देने की हमारी ड्यूटी लगी है। आप लोग जाकर सो जाओ।” वे लोग चले गए।

कोठी से तिजौरी ही उठा लाए_

खोसला के लोग कोठी से उस तिजौरी को ही निकाल कर ट्रक पर रख कर ले गए। उसमें से वे कागज निकाल कर देखे गए तो सब सन्न रह गए।

नई दिल्ली में आजकल जो संसद सदस्यों की कोठियाँ हैं, इन्हीं में से ही किसी कोठी में रात को कुछ स्वयंसेवक सरकारी अधिकारियों की बैठक बुलाई गई और दिल्ली पर कब्जे की उन कागजों में अभिलेखित योजना पर मन्थन किया गया। इसी मन्थन में से यह बात सामने आई कि यह योजना इतने बड़े और व्यापक स्तर की है कि हम संघ के स्तर पर उसको विफल नहीं कर सकते। इसे सेना ही विफल कर सकती है। अतः इसकी सूचना हमें सरदार पटेल को देनी चाहिए। फलतः उस बैठक से ही दो-तीन कार्यकर्ता रात्रि को एक बजे के लगभग सीधे सरदार पटेल की कोठी पर पहुँचे तथा उन्हें जगा कर यह सारी जानकारी दी। पटेल बोले-“अगर यह सच न हुआ तो?” कार्यकर्ताओं ने उत्तर दिया- “आप हमें यहीं बिठा लीजिए तथा अपने गुप्तचर विभाग से जाँच करा लीजिए। अगर यह सच साबित न हुआ तो हमें जेल में डाल दीजिए।” इसके बाद सरदार हरकत में आए।

कल्पना करें कि यदि सरदार पटेल संघ की उक्त सूचना पर विश्वास न करते अथवा वे आकिनलेक की बातों में आ जाते तो भारत सरकार को भाग कर अपनी राजधानी लखनऊ, कलकत्ता या मुम्बई में बनानी पड़ती और परिणाम स्वरूप आज पाकिस्तान की सीमा दिल्ली तक तो जरूर ही होती।

देश में कपकपाती ठंड पर विभिन्न दलों व नेताओ के विचार ( एक व्यंग)

भाजपा:– ये कंपकपाती ठण्ड सबका साथ, सबका विश्वास का अद्भुत उदाहरण है। ये ठण्ड बिना किसी जाति, धर्म के भेदभाव किए बिना सभी पर समान रूप से पड़ रही है। हम इस सद्भावनापूर्ण ठण्ड का स्वागत करते हैं। भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं।

कांग्रेस:– ऐसा नहीं हैं कि ये ठण्ड हमारी सरकार में नहीं पड़ती थी, पड़ती थी किन्तु ऐसी भेदभावपूर्ण, विद्वेषपूर्ण ठण्ड आज से पहले कभी नहीं पड़ी। हम पूछना चाहते हैं इस सरकार से अल्पसंख्यक इलाकों में ही ज्यादा ठण्ड क्यों पड़ रही हैं ??.. लोकतंत्र में इतनी ठण्ड बर्दाश्त नहीं। हम संसद में इस कंपकपाती ठण्ड पर बहस चाहते हैं।

केजरीवाल:– हम पूछना चाहते हैं, मोदी जी से.. आखिर चुनाव के ऐनवक्त पहले ही इतनी ठण्ड क्यों पड़ रही है ??… 5 साल इतनी ठण्ड क्यों नहीं पड़ी ??..
मोदी सरकार अधिक ठण्ड पड़वाकर वोटरों को डराना चाह रही है। ये ठण्ड और मोदी जी आपस में मिले हुए हैं। हम विधानसभा का विशेष सत्र बुलवाकर इस षड्यंत्र का खुलासा करेंगे।

मायावती:– इतनी ठण्ड बीम क्षेत्रों में क्यों पड़ रही है ??.. ये ठण्ड मनुवादी ठण्ड है। ये ठण्ड असंवैधानिक हैं। ये ठण्ड संविधान के खिलाफ है। हम इस ठिठुरती ठण्ड के खिलाफ राष्ट्रपति जी को ज्ञापन सौंपेंगे।

ममता:– हम पूछना चाहता हाय दिसंबर में इतोना थोण्ड क्यों ??.. दिवाली पोर क्यों नही ??.. ओल्पसंख्यक इलाका में ही इतना थोण्ड क्यों ??..ये थोण्ड सोम्प्रदायिक थोण्ड हाय.. ये थोण्ड सेक्युरिज्म का खिलाफ हाय.. हम इस थोण्ड का बोंगाल में पड़ने पर प्रोतिबन्ध लोगाता हाय.. हम सोमस्त सेक्युलर ताकतों से ओपील कोरता हाय.. इस सोम्प्रदायीक थोण्ड का खिलाफ इकोट्ठा हो। का का छि छि… का का छि छि..

ओबेसी:– संविधान में ये कहीं नहीं लिखा, इतनी कंपकपाती ठण्ड पड़ना चाहिए। ये सरकार संविधान के खिलाफ काम कर रही है। अगर कोई मेरी गर्दन पर “बर्फ की सिल्ला” भी रख दे, तो भी मैं गर्म कपड़े नही पहनूंगा। हम इस हिटलर ठण्ड की मज़म्मत करते हैं। घोर विरोध करते हैं।

वामपंथी:– ये ठण्ड न चीन में पड़ रही है, न रूस में। अतः हमारा इससे कोई लेना-देना नही हैं।
और अंत में,

रविश कुमार: क्या मोदी सरकार चुनाव के ऐनवक्त पहले ऐसी ठण्ड पड़वाकर चुनाव जीतना चाहती है ??.. पूरे देश में एक जैसी ठण्ड न पड़कर क्या मोदी सरकार देश को बांटना चाह रही है ??..क्या सरकार इतनी ठण्ड पड़वाकर बेरोजगारी, आर्थिक मंदी, CAA से देश का ध्यान भटकाना चाहती है ??..

हम सब मिलकर मोदी सरकार और भाजपा से इस कपकपाती ठंड का जबाव मांग रहे हैं। हमे लग रहा है कही भाजपा चुनाव के चक्कर में इसे ठंडे बस्ते में न डाल दे।

आर के रस्तोगी

साहित्य का प्रदेय – साहित्य परिषद् का अगला त्रेवार्षिक सोपान

हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य को “जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब” माना है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य को “ज्ञानराशि का संचित कोश” व “समाज का दर्पण” कहा है। अनेकों विद्वानों, साहित्यकारों, संतो, महात्माओं के मतानुसार साहित्य समाज की प्रेरकशक्ति है। निस्संदेह समाज ने साहित्य की इस शक्ति को उससे मिल रहे प्रदेय के आधार पर ही माना है। क्या है यह साहित्य का प्रदेय? साहित्य के प्रदेय का संपूर्ण आकलन तो किया नहीं जा सकता किंतु इस प्रदेय का लेखन, प्रलेखन, ग्रंथीकरण, अभिनंदन का प्रयास अवश्य किया जा सकता है; इस कार्य को ही अखिल भारतीय साहित्य परिषद् ने अपने लक्ष्य रूप में स्वीकार किया है। अखिल भारतीय साहित्य परिषद् का सोलहवां राष्ट्रीय अधिवेशन अलीपुर, हरदोई, उप्र में षष्ठी एवं सप्तमी, कृष्णपक्ष, मार्गशीर्ष, संवत २०७८ को संपन्न हुआ। इस राष्ट्रीय अधिवेशन में अभासाप ने अपने त्रेवार्षिक ध्येयवाक्य के रूप में “साहित्य का प्रदेय” विषय को धारण किया है। अब आगामी तीन वर्षों तक अभासाप के कार्यक्रम, योजनाएं, यात्राएं, रचनाएं, प्रकाशन व पुस्तकें प्रमुखतः इस विषय पर केंद्रित होंगी।

            संपूर्ण राष्ट्र के साहित्यिक वातावरण के सरंक्षण, संवर्धन व संपुष्टि के कार्य में प्राणपण से कार्यरत संस्था अभासाप की स्थापना अश्विन शुल्क द्वादशी सम्वत २०३३ विक्रमी, तदनुसार २७ अक्तूबर, १९६६ को दिल्ली में हुई। इसकी देश के ३० प्रांतों में ६९५ इकाइयां कार्यरत हैं व १७३ स्थानों पर जीवंत संपर्क है। यह साहित्य के क्षेत्र में भारतीय दृष्टि को स्थापित करने, देश के बौध्दिक वातावरण को स्वस्थ बनाने, समस्त भारतीय भाषाओं एवं उनके साहित्य का संरक्षण करने तथा नवोदित साहित्यकारों को प्रोत्साहन देने हेतु कार्यरत संस्था है। इस तरह साहित्य परिषद् वर्ष १९६६ से ही विभिन्न भारतीय भाषाओं के सर्जनात्मक एवं आलोचनात्मक लेखन में भारत-भक्ति के भाव से जागरण का कार्य एकाग्र-चित्त से कर रही है। अभासाप भारतीय साहित्य और भारतीय भाषाओ की उन्नति, भारतीय साहित्य एवं भाषाओं के अनुसंधान कार्य को प्रोत्साहन तथा तत्संबंधी अनुसंधान केंद्र की स्थापना, भारतीय भाषाओं में परस्पर आदान -प्रदान और सहयोग को बढ़ावा देना, भारतीय जीवन - मूल्यों में आस्था रखने वाले साहित्यकारों को प्रोत्साहित करना तथा ऐसे साहित्य के प्रकाशन और प्रसारण में सहयोग करना, जनमानस में भारतीय साहित्य के प्रति आस्था तथा अभिरुचि उत्पन्न करना, साहित्य सामाजिक परिवर्तन का वाहक बन कर राष्ट्र की प्रगति में प्रभावी भूमिका निभा सके, इसके लिए प्रयास करना जैसे ध्येय के साथ राष्ट्र आराधना के अपने कार्य में सिद्धगति से आगे बढ़ने वाली एक प्रमुख संस्था है। 

             अभासाप के सोलहवें राष्ट्रीय अधिवेशन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य व अभासाप के पालक अधिकारी स्वांतरंजन जी, राष्ट्रीय संगठनमंत्री श्रीधर जी पराड़कर व देश भर में चर्चित व प्रसिद्द उपन्यास “आवरण” के लेखक पदमश्री भैरप्पा जी का सारस्वत मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। अपने इस अधिवेशन में अभासाप ने राष्ट्र में चल रहे साहित्यिक विमर्श की समीक्षा की व इस आधार पर अपनी आगामी कार्ययोजना को देश भर से आए कार्यकर्ताओं के समक्ष रखा।  अधिवेशन में १८ राज्यों से ढ़ाई सौ से अधिक कार्यकर्ता साहित्यकार सम्मिलित हुए। कोरोना महामारी को देखते हुए संगठन की ओर से कुछ चिन्हित कार्यकर्ताओं को ही अपेक्षित किया गया था। कड़ाके की शीतलहर के मध्य, विशेषतः उत्तरप्रदेश की हड्डियों तक को भीतर तक झुरझुरा देने वाली ठंड में एक अत्यंत छोटे से ग्राम अलीपुर में इतने साहित्य प्रेमियों का इकट्ठा होना अभासाप के कार्यकर्ताओं का साहित्य के प्रति प्रेम, समर्पण व संकल्प का ही परिणाम था। नैमिषारण्य की पावन भूमि पर इतने साहित्यकारों का यह अनुष्ठान प्राचीन समय में यहां हुए ८८ हजार ऋषियों के महान अनुष्ठान की पुनीत स्मृति का बारंबार वंदन कर रहा था।  

          अलीपुर के विशुद्ध ग्रामीण परिवेश में संपन्न इस राष्ट्रीय अधिवेशन में अतिथियों को विशुद्ध ग्रामीण व देशज शैली के वातावरण, आवास व भोजन का आनंद चखने को मिला। लाही के लड्डू, कैथ, गन्ने का रस, इमली, बथुए का रायता, मक्के की रोटी, दही जलेबी, बताशे, रेत में भुने आलू और न जाने कितने ही ग्रामीण भारत के स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ चखने को मिले। अधिवेशन प्रांगण में छोटी छोटी गोबर से लिपि पुती  कुटियाओं, उसमें बिछी रस्सी की खाट और उसमे टंगे मद्धम उजाला देते लालटेन समूचे ग्रामीण परिवेश को जीवंत और साकार किए दे रहे थी। अवध अयोध्या की सुखद बयार से  हरदोई का वातावरण सुरभित था ही और यहां का मंच नैमिषारण्य की व्यासपीठ का पावन आभास उत्पन्न करा रहा था।

             उदघाटन सत्र में अभासाप के राष्ट्रीय संगठनमंत्री श्रीधर जी पराड़कर ने अपने विस्तृत उद्बोधन में जो कहा वह निश्चित ही भारतीय साहित्य लेखन को 

भारत की परम्परा व संस्कृति की दिशा में और अधिक प्रेरित व गतिमान करने का पाथेय है। अभासाप के पालक अधिकारी स्वांतरंजन जी ने कहा कि हमें हमारी भारतीय भाषाओं के प्रति स्व का भाव जागृत करके उनका उन्नयन करना होगा। उन्होंने कहा कि हमें केवल साहित्यक कार्यक्रम नहीं करना है, साहित्य में जो विकृति जानबूझकर लाई गई है उसके स्थान पर हमें साहित्य में सुकृति लानी है व समाजोपयोगी साहित्य की रचना करनी है। १९४७ में हमें राजनैतिक स्वतंत्रता तो मिल गई किंतु स्वधर्म, स्वसंस्कृति, स्वभाषा, स्वदेशी, स्वराज्य आदि आवश्यक तत्व पीछे छूट गए। आज आवश्यकता है कि इन बातों को हम साहित्य के माध्यम से समाज के सम्मुख रखें।

         कर्नाटक के पदमश्री सम्मानित वरिष्ठ साहित्यकार डा. भैरप्पा जी ने कहा कि भारत की समृद्ध ज्ञान परम्परा रही है, हमारे पास पौराणिक साहित्य का विपुल भंडार है, रामायण आदि महाकव्य है। नेहरू के कम्युनिस्ट प्रेम के कारण हमारे शासकीय संस्थानों पर कम्युनिस्टों ने कब्जा कर लिया। भैरप्पा जी ने कहा कि कांग्रेस कार्यकारिणी के अधिकांश सदस्य सरदार पटेल के पक्ष में थे फिर भी महात्मा गांधी ने पंडित नेहरू को प्रधानमंत्री का पद पुरस्कार स्वरुप दे दिया जो कि बाद में एक बड़ी गलती सिद्ध हुआ। भैरप्पा जी ने अपने दीर्घ भाषण में कई एतिहासिक तथ्यों व रहस्यों का रहस्योद्घाटन किया जिन्हें पृथक रूप से आगे कभी लिखना उचित होगा। 

       परिषद् के राष्ट्रीय महामंत्री ऋषिकुमार मिश्र ने प्रतिवेदन में कहा कि साहित्य परिषद भारत भक्ति के भाव का जागरण करते हुए आत्मचेतस भारत के निर्माण द्वारा साहित्य रचना और आलोचना के क्षेत्र में वैचारिक स्वराज्य की स्थापना के लिए प्रयत्नशील है। 

           साहित्य परिषद् ने अपने अधिवेशन प्रस्ताव में दो संकल्पों को ॐ ध्वनि से पारित किया। प्रथम प्रस्ताव, भारत को इंडिया के नाम से नहीं पुकारने व भारत को केवल भारत नाम से लिखने - पढ़ने का प्रस्ताव है। द्वितीय प्रस्ताव में औपनिवेशिक प्रवृत्तियों से मुक्ति पाने का प्रस्ताव पारित किया गया।  

           अभासाप के नए अध्यक्ष के रूप में  डा. सुशील त्रिवेदी व संयुक्त महामंत्री के रूप मे डा. पवनपुत्र बादल को मनोनीत किया गया। इस अवसर पर क्षितिज पाट्कुले द्वारा निर्मित अभासाप के नए संकेतस्थल (वेबसाईट)www.akhilbhartiysahityaparishad.org का लोकार्पण भी हुआ । साहित्य का प्रदेय विषय पर केंद्रित आलेखों व शोधपत्रों से सज्जित अभासाप की मुखपत्रिका “साहित्य परिक्रमा” के  विशेषांक विमोचन के साथ ही इस विषय पर आगामी तीन वर्षों तक अनवरत चलने वाले विमर्श का प्रारंभ हुआ। परिषद् के पिछले त्रेवार्षिक ध्येय वाक्य “साहित्य का सामर्थ्य” पर सिद्ध चिंतन होने के पश्चात निश्चित ही “साहित्य का प्रदेय” की यह यात्रा देश के साहित्यिक वातावरण को एक नई दशा, दिशा व दक्षता प्रदान करने वाली सिद्ध होगी।

यक्षप्रश्न : बच्चों के लिए आप क्या कर रहे हैं ?

~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

समय बदल रहा है। आवश्यकताएँ बदल रही हैं। बेहतर से बेहतर संसाधन जुटाने की होड़ मची हुई है। और इस भ्रामक होड़ में कोई भी पीछे नहीं छूटना चाहता है। सबको अव्वल आना है,मगर देश एवं समाज को जहाँ अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए । वहाँ न जाने क्यों भीषण अकाल उत्पन्न हो गया है? आधुनिकता का लबादा ओढ़ा हुआ समाज अपने नैसर्गिक विकास एवं मूल दायित्वों को भूलकर, एक ऐसी दुनिया बनाने में जुटा हुआ है जिसकी नींव ही नहीं है।

प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चों को अपनी सामर्थ्य एवं उससे आगे जाकर ‘वेल अप टू डेट’ बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। उन्हें महँगे खिलौने,महँगे कपड़े,महँगे स्कूल, मोबाइल, कम्प्यूटर जैसे गैजेट्स व तथाकथित आधुनिकता की मानक मानी जाने वाली सभी आवश्यकताओं की पूर्ति तो कर रहे हैं। लेकिन उन्हें असल में जिसकी सबसे ज्यादा आवश्यकता है उससे वंचित रखने में भी कोई कोताही नहीं बरती जा रही है। बच्चों का बचपन छिनता चला रहा है। बच्चे अब समय से पहले बड़े होते जा रहे हैं। लोरियाँ, किस्से,कहानियाँ,बाल संस्कार व खेलकूद से बचपन दूर होता जा रहा है।

बच्चों का बचपन अब पूर्णतया यन्त्रवादी बनता चला जा रहा है। बच्चों का खेलना , घूमना, बाल मनुहार,जिज्ञासात्मक प्रश्न व कलाओं में रुचि जागृत करने वाली सारी गतिविधियाँ ऑनलाईन गैजेट्स ,बस्ते के बोझ व माता-पिता के शौक व अपेक्षाओं की बलि चढ़ते जा रहे हैं। बच्चे अब रुठते हैं तो उन्हें मोबाइल, कम्प्यूटर सहित अन्य गैजेट्स थमाए जा रहे हैं। यदि बच्चे खाना नहीं खाते हैं तो उन्हें यही लालच देकर मनाया जा रहा है। अपने घर-परिवार,आस -पास के परिवेश में देखें तो लगभग छ: महीने से अधिक आयु के बच्चों के हाथों में मोबाईल फोन सौंप कर माता-पिता ने अपनी समस्त जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ा लिया है। इस कारण बच्चों की दुनिया संकटग्रस्त घेरे में कैद होती जा रही है।

बाल्यावस्था में जिस उमङ्ग के साथ बच्चे अपने परिवेश को देखकर स्वयं को गढ़ते हैं,अब उसके स्थान पर उनमें चिड़चिड़ापन, अकेलापन, झुँझलाहट व अवसाद सी! स्थिति देखने को मिल रही है। अधिक नहीं लेकिन आज से लगभग दस से पन्द्रह वर्ष पहले घर-परिवार में रिश्तेदारों व अतिथियों के आने से बच्चों में जो उत्साह व खुशियाँ देखने को मिलती थीं,वह अब बच्चों में कहीं नजर नहीं आती हैं। अधिकाँशतः स्थिति इतनी गम्भीर हो चुकी है कि – अब घर-परिवार में कौन आता है ? इससे उन्हें फर्क ही नहीं पड़ता है। बच्चे अब उसी मोबाइल फोन व गेमिंग में मस्त मिलते हैं। यह स्थिति लगभग सभी जगह होती जा रही है। इतना ही नहीं आगन्तुकों के साथ आने वाले बच्चे भी मोबाइल लेकर उसी में खो! जाते हैं। एक बच्चे को अपने परिवेश से जो सीखना चाहिए, उसके स्थान पर वह तथाकथित इस आधुनिकता का शिकार होकर अपने बचपन को तकनीक को सौंप रहा है।

इसमें बच्चों की कोई गलती नहीं है,बल्कि उनके घर-परिवार के वातावरण ने उन्हें जैसा बनाया,वे ठीक उसी साँचे में ढलते चले जा रहे हैं। जब ममत्व व स्नेह की थाप का स्थान तकनीक व महँगी वस्तु दिलवाने का लालच दिया जाएगा, तो बच्चे आखिर! और क्या बनेंगे? हमारे देश व सम्पूर्ण विश्व में जितने भी महापुरुष या महान कार्य करने वाले हुए हैं,उनके विकास के पीछे उनका सुव्यवस्थित बचपन,माता-पिता,घर-परिवार तथा सामाजिक परिवेश की महनीय भूमिका रही है। बच्चे अपने वातावरण तथा बड़ों से निरन्तर सीखते हैं। उनमें दया,क्षमा,करुणा,प्रेम,समानुभूति, सहानुभूति, वीरता व साहस जैसे अनेकानेक गुणों का क्रमिक विकास अपने परिवेश के आधार पर ही होता है। और बच्चे बचपन में जो कुछ भी सीखते-अपनाते हैं जीवन पर्यन्त उनके जीवन में वही सब परिलक्षित होता है।

देश के विभिन्न कोनों से कम आयु के बच्चों द्वारा आत्महत्या के बढ़ते मामले भी इस संकट की भयावहता की ओर संकेत कर रहे हैं,लेकिन समाज को कोई फर्क ही नहीं पड़ता। माता-पिता,परिजन केवल यह बात कहकर अपना पल्ला झाड़ रहे हैं – समय बहुत खराब है,हम क्या कर सकते हैं? इतना ही नहीं दुर्भाग्य की बात तो यह है कि- आजकल यही माता-पिता, परिजन अपने बच्चों के लिए भी सरकारी कानून के हस्तक्षेप की बात करते हैं। काम-काजी माता -पिता बच्चों को समय देने के स्थान पर उन्हें डिजिटल गैजेट्स व अन्य सभी वस्तुओं की ढेर लगा रहे हैं,लेकिन उनके पालन-पोषण की मूल जिम्मेदारी से सब कोई हाय-तौबा कर रहे हैं।

डिजिटल गैजेट्स लगातार बच्चों की सोचने-समझने की शक्ति, सम्वेदनाएँ व मूल्यबोध छीने जा रहा है,लेकिन समाज इस संकट को दूर करने की बात तो अलग ही है,उसे समझने की भी कोशिश नहीं कर रहा है। लोगों को समझ ही नहीं आ ! रहा है कि भौतिक गतिविधियों, सामाजिक संस्कारों, खेलकूद व मूल्य आधारित मानसिक खुराक की घुट्टी बच्चों के विकास के लिए कितनी अनिवार्य है। बच्चों की बालसुलभ चेष्टाएँ, कल्पनाशीलता, जिज्ञासु वृत्ति व खेल-खेल के माध्यम से सीखने के गुण में इतना बड़ा ह्रास गम्भीर चेतावनी है। किन्तु वर्तमान के विभीषक दौर में किसी को भी बच्चों के लिए सोचने व उन्हें समय देने,सुगठित करने,सँवारने की फुर्सत ही नहीं मिल रही है। सबकुछ रुपयों ,ऐश्वर्य व आधुनिकता की चकाचौंध में नष्ट होता जा रहा है।

वहीं संयुक्त परिवारों के विघटन व फ्लैट वाली जिन्दगी ने यदि सबसे ज्यादा बेड़ा गर्क किया है,तो वह है बच्चों व उनके भविष्य का।दादा-दादी,नाना-नानी,चाचा-चाची,भाई-बहन सहित संयुक्त परिवारों की अनूठी विरासत लगभग अपने अन्तिम दौर में जाती हुई प्रतीत हो रही है। माताओं की लोरियाँ और बुजुर्गों के अनुभवों से पके हुए किस्से और कहानियाँ गुजरे जमाने की बातें होती जा रही हैं। संयुक्त परिवार के मूल्यों, पारस्परिक सहयोग, अपनत्वता व समन्वय के संस्कार जो बच्चों को संसार की प्रत्येक चुनौती से जूझने व उस पर विजय पाने का साहस प्रदान करते थे । वह सब आज गायब हो चुके हैं।

अब समाज ‘हम’ के स्थान पर ‘मैं’ तक ही सीमित होता चला जा रहा है। बच्चों के कानों में संस्कारों के गीत,धर्मग्रन्थों की सीखें,आदर्श, प्रेरणा ,साहस,अपनत्वता की भावना नहीं घुल मिल रही है। यह इसी का दुष्परिणाम है कि स्वमेव विकसित होने वाले नैतिक एवं मानवीय मूल्य अब दूर की कौड़ी बनते चले जा रहे हैं। समाज तकनीक के सदुपयोग, दुरुपयोग व अपने दायित्वों के विषय में सचेत नहीं हो पा रहा है। बच्चों के हाथों में प्रेरणादायक किताबें, संस्कार, स्नेह की मिठास व सबको साथ लेकर सर्जन करने के स्थान पर पूरी पीढ़ी का समुचित विकास ही अपने आप में यक्षप्रश्न बनता चला जा रहा है।

अतएव आवश्यक है कि समाज बच्चों के बचपन को लौटाए ,बचपन के महत्व को समझते हुए काल सम्यक ढँग से उनके चहुँमुखी विकास व उन्नति के लिए अपना समय दे। दायित्वों को समझकर ऐसी पीढ़ी का निर्माण करे जो सुगठित होकर राष्ट्र के भविष्य की रीढ़ बनें। थोड़ा रुकिए -ठहरिए और स्वयं से पूँछिए आप बच्चों के लिए क्या कर रहे हैं? यदि समाज ऐसा करने में अपनी रुचि नहीं दिखाता तो विश्वास कीजिए धन-दौलत, अभिमान व बच्चों के लिए जुटाने वाले संसाधन कभी काम नहीं आएँगे। बच्चों को उनके भविष्य का उतना ज्ञान नहीं है,इस कारण वे वर्तमान दौर की अन्धी सुरंग में उतरते चले जा रहे हैं। लेकिन जब बहुत देर हो चुकी होगी,और बच्चे जब अपने अतीत की ओर झाँकेंगे तो तय मानिए वे आपको क्षमा नहीं कर पाएँगे!!
कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

आजादी की जंग को नई धार देने वाला महानायक

डॉ.शंकर सुवन सिंह

सुभाष का शाब्दिक अर्थ उदय होता है। उदय अर्थात उगना(ऐराइस)। सुभाष चंद्र बोस उगते हुए सूरज के सामान थे। सूर्य रूपी सुभाष का उदय अंधकार रूपी गुलामी को ख़त्म करने के लिए हुआ था। सुभाष का उदय ही गुलामी की जंजीर में जकड़े हुए भारत को स्वतंत्र कराने के लिए हुआ था। हिन्दुओं के पवित्र ग्रन्थ “उपनिषद”– बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28 में एक श्लोक है- असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय ॥ अर्थ- मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो। मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो॥ राष्ट्र को असत्य से सत्य, अंधकार से प्रकाश और मृत्यु से अमरत्व का पाठ पढ़ाने वाले सुभाष जी शानदार व्यक्तित्व के धनी थे। राष्ट्र प्रेम में मृत्यु ,अमरत्व की ओर ले जाती है। अतएव राष्ट्र भक्ति से बढ़कर कोई भक्ति नहीं होती है। राष्ट्र भक्ति में जान भी गवानी पड़े तो वह मृत्यु नहीं अपितु अमरत्व कहलाती है। वर्ष 2022 में भारतीय स्वतंत्रता के प्रमुख सेनानी नेता जी सुभाषचन्द्र बोस की 126 वीं जयंती है। भारत में प्रत्येक वर्ष के 23 जनवरी को सुभाष चंद्र बोस की जयंती बड़े ही धूम धाम से मनाई जाती है। सुभाष चन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़ीसा प्रांत में कटक में हुआ था। उनके पिता जानकी दास बोस एक प्रसिद्ध वकील थे। प्रारम्भिक शिक्षा कटक में प्राप्त करने के बाद यह कलकता में उच्च शिक्षा के लिये गये। नेताजी सुभाष चंद्र बोस,स्वामी विवेकानंद शिक्षण संस्थान से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। सुभाष चन्द्र बोस भारतीय इतिहास के ऐसे युग पुरुष हैं जिन्होंने आजादी की जंग को नई धार दी थी। भारत को आजाद कराने में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अहम भूमिका थी। नेता जी सुभाष चंद्र बोस, भारतीय इतिहास का एक ऐसा चरित्र है जिसकी तुलना विश्व में किसी से नहीं की जा सकती। सुभाष चंद्र बोस वर्ष 1920 में भारतीय सिविल सेवा (आई सी एस) परीक्षा में चौथा स्थान पाए थे। अंग्रेजी हुकूमत के समय आई सी एस परीक्षा पास करने वाले ये पहले भारतीय थे। सुभाष जी ने दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह हिटलर से मुलाकात की थी। सुभाष जी की देशभक्ति देख कर हिटलर उनके बड़े प्रशंसक बन गए थे। सुभाष चंद्र बोस को “नेता जी” कहा जाता है। नेता का शाब्दिक अर्थ होता है नेतृत्व करने वाला अर्थात अगुआ या अगुआई करने वाला। यह उपाधि,भारत में सिर्फ सुभाष चंद्र बोस को ही मिली है। जर्मनी के तानाशाह अडोल्फ हिटलर ने ही सुभाष चंद्र बोस को पहली बार ‘नेताजी’ कहकर बुलाया था। कर्मठ क्रांतिकारियों में उस समय भगत सिंह भी भारत को आज़ाद कराने के लिए जी जान से लगे थे। अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह को गिरफ्तार कर लिया था और उन्हें फाँसी की सज़ा सुनाई गई थी। नेता जी भगत सिंह को फाँसी की सजा से बचाना चाहते थे। उस समय महात्मा गाँधी ने अंग्रेज सरकार से समझता किया और सभी कैदियों को रिहा करवा दिया लेकिन अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी को रिहा करने से साफ़ इंकार कर दिया था। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी दी गई। नेता जी ने महात्मा गांधी को अंग्रेज सरकार के साथ करार तोड़ने को कहा था लेकिन गांधी जी नहीं माने। इसके बाद नेता जी और महात्मा गांधी में अनबन हो गई। यही वजह नेता जी और गांधी जी में मतभेद का कारण बनी थी। वर्ष 1936 ई. में नेता जी ने भारत की आजादी के लिए विदेशी नेताओं से दवाब डलवाने के लिए इटली में मुसोलिनी, आयरलैंड में वलेरा, फ्रांस में रोमा रोनाल्ड और जर्मनी के शासक से मुलाक़ात की। दुनिया इन तानाशाहों से डरती थी पर नेता जी ऐसे शख्स थे कि इन तानाशाहों से भारत की आज़ादी के लिए मदद मांगने पंहुचे। वर्ष 1938 ई. में हरिपुर अधिवेशन में नेता जी को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। रविंद्र नाथ टैगोर ने शांति निकेतन में नेता जी का सम्मान किया। वर्ष 1939 में नेता जी ने महात्मा गांधी के उम्मीदवार सीतारमय्या को हराकर एक बार फिर कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर कब्जा किया। नेता जी ने नवंबर 1941 ई. में स्वतंत्र भारत केंद्र और स्वतंत्र भारत रेडियो की स्थापना की थी। जिसका लक्ष्य आज़ादी की लड़ाई के लिए भारत में सन्देश पहुँचाना था। अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई को तेज करने के लिए आजाद हिंद फौज की स्थापना की गई थी। आजाद हिंद फौज की स्थापना टोक्यो (जापान) में 1942 ई. में रास बिहारी बोस ने की थी। इसका उद्देश्य द्वितीय विश्वयुद्ध (1 सितम्बर 1939 – 2 सितम्बर 1945) के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ लड़ना था। आजाद हिंद फौज का जापान ने काफी सहयोग दिया था। देश के बाहर रह रहे लोग आजाद हिन्द फौज में शामिल हो गए। सुभाष चंद्र बोस के रेडियो पर किए गए एक आह्वान के बाद रास बिहारी बोस ने 4 जुलाई 1943 को 46 वर्षीय सुभाष को इसका नेतृत्व सौंप दिया। 21 अक्टूबर 1943 को सुभाष चंद्र बोस ने सिंगापुर में अस्थायी भारत सरकार ‘आज़ाद हिन्द सरकार’ की स्थापना की। नेताजी ने ये घोषणा सिंगापुर के कैथे सिनेमा हाल में की थी। स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार की स्थापना की ऐतिहासिक घोषणा सुनने के लिए इस सिनेमा हाल में लोग खचाखच इकट्ठे थे। सुभाष चंद्र बोस इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष तीनों थे। इस सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दे दी थी। आजाद हिन्द फ़ौज के संरक्षक के रूप में क्रमशः मोहन सिंह- रास बिहारी बोस- सुभाष चंद्र बोस थे। कहने का तात्पर्य आजाद हिंद फौज की स्थापना का विचार सबसे पहले जनरल मोहन सिंह के मन में आया था। रास बिहारी बोस ने आजाद हिन्द फौज को जिन्दा रखा और सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज का पुनर्गठन और नेतृत्व किया। जुलाई 1943 में नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने ‘झांसी की रानी’ रेजिमेंट बनाई थी। झांसी की रानी रेजिमेंट भारतीय राष्ट्रीय सेना की महिला रेजिमेंट थी। झांसी की रानी रेजिमेंट को लीड करने की जिम्मेदारी लक्ष्मी सहगल को सौंपा गया था, जिन्होंने खुद ऐसा करने की इच्छा जताई थी। नेताजी लक्ष्मी के बहादुरी से प्रभावित हुए और उन्हें कैप्टन बना दिया था। इससे स्पष्ट होता है कि नेता जी की फौज में पुरुष और महिलाएं दोनों थे। पुरुष और महिलाएं दोनों ने आज़ादी की लड़ाई में भरपूर योगदान दिया था। 21 मार्च 1944 ई. को ‘चलो दिल्ली’ के नारे के साथ आजाद हिंद फौज का हिन्दुस्तान की धरती पर आगमन हुआ। आजाद हिंद फौज एक ‘आजाद हिंद रेडियो’ का इस्तेमाल करती थी, जो लोगों को आजादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित करती थी। इस पर अंग्रेजी,हिंदी,मराठी,बंगाली,पंजाबी,पाष्तू और उर्दू में खबरों का प्रसारण होता था। सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व कर अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। महात्मा गांधी को सुभाष चंद्र बोस ने ही पहली बार राष्ट्रपिता कहकर संबोधित किया था। अभी तक सुभाष चंद्र बोस(नेता जी) की मृत्यु का सही कारण पता नहीं लग पाया। मृत्यु का सही कारण पता लगाने के लिए भारत की सरकारें मुखर्जी आयोग से पूर्व दो जांच आयोग गठित कर चुकी हैं। सबसे पहले शाहनवाज कमेटी बनाई गई जबकि उसके बाद खोसला आयोग का गठन किया गया। शाहनवाज कमेटी नेता जी की मौत का सही पता न लगा सकी। खोसला आयोग ने कई दस्तावेजों के आधार पर कहा था कि सुभाष चंद्र बोस(नेता जी)की मृत्यु के होने का कोई उचित साक्ष्य नहीं है। के.जी.बी. से जुड़े दो जासूसों ने 1973 में वॉशिंगटन पोस्ट को बिना अपना नाम बताए कहा था कि जापान के टैनकोजी मंदिर में रखी हुई अस्थियां नेता जी की नहीं हैं। नेता जी के भतीजे अमियनाथ ने खोसला आयोग को बताया था कि एक बार उन्हें ब्रिटिश अधिकारी ने फोन पर जानकारी दी थी कि 1947 में नेता जी सुभाष चंद्र बोस के साथ रूसी अधिकारियों ने गलत और अपकृत्य व्यवहार किया था। सुभाषचंद्र बोस के भाई शरत चंद्र बोस ने 1949 में कहा था कि सोवियत संघ में नेता जी को साइबेरिया की जेल में रखा गया था तथा 1947 में स्टालिन ने नेता जी को फांसी पर चढ़ा दिया था। सुभाष चंद्र बोस के साथ विमान में यात्रा करने वाले कर्नल हबीब रहमान ने मृत्यु के कुछ दिन पूर्व यह स्वीकार किया था कि ताईवान में कोई विमान दुर्घटना नहीं हुई थी। देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य रहा कि वह नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु के कारणों का सही पता न लगा पाई। आयोग की जांच व पूर्ववर्ती सरकारों की निष्क्रियता का सबसे बड़ा प्रमाण यही है। वर्ष 2021 में माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने सुभाषचंद्र बोस के जन्मदिन(23 जनवरी)को ‘पराक्रम दिवस’ के तौर पर मनाने का फैसला किया। अतएव वर्ष 2021 में सुभाष चंद्र बोस की 125 वीं जयंती के उपलक्ष्य में 23 जनवरी को पराक्रम दिवस की शुरुआत हुई। भारत सरकार ने इसके लिए एक गजट नोटिफिकेशन जारी कर दिया था। पराक्रम दिवस भारत के युवाओ में राष्ट्र के प्रति प्रेम, भक्ति और बलिदान की भावना को जाग्रत करेगा। नेता जी ने राष्ट्र भक्ति के जज्बे को कभी मरने नहीं दिया। नेता जी ने भारतवासियों के दिल में राष्ट्र भक्ति के जज्बे को अमर कर दिया। अतएव हम कह सकते हैं कि नेता जी राष्ट्र भक्ति को अमरता प्रदान करने वाले महानायक थे। गुलामी की दीवार पर आखिरी हथौड़ा, नेता जी ने ही मारा था। अतएव हम कह सकते हैं कि नेता जी आज़ादी की जंग को नई धार देने वाले महानायक भी थे।

पाकिस्तान की इस नीति पर कैसे करें ऐतबार

पाकिस्तान ने 14 जनवरी को पहली बार अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति की घोषणा की है। जब से पाकिस्तान बना है, ऐसी घोषणा पहले कभी नहीं की गई। इसका अर्थ यह नहीं है कि पाकिस्तान की कोई सुरक्षा नीति ही नहीं थी। यदि ऐसा होता तो वह अपने पड़ोसी भारत के साथ कई युद्ध कैसे लड़ता और आतंकवाद को अपनी स्थायी रणनीति क्यों बनाए रखता? परमाणु बम तो वैसी स्थिति में बन ही नहीं सकता था। अफगानिस्तान के साथ वह कई-कई बार युद्ध के कगार पर कैसे पहुंच जाता? अफगानिस्तान के सशस्त्र गिरोहों को पिछले 50 साल से वह शरण क्यों देता रहता? किसी सुरक्षा नीति के बिना अमेरिका के सैन्य-गुटों में वह शामिल क्यों हो गया था? पहले अमेरिका और अब चीन का पिछलग्गू बनने के पीछे उसका रहस्य क्या है? बस वही, सुरक्षा नीति! सुरक्षा किससे? भारत से।

डर से उपजी नीति
जब से पाकिस्तान बना है, उसके दिल में यह डर बैठा हुआ है कि भारत उसका वजूद मिटा देगा। भारत उसे खत्म करके ही दम लेगा। भारत ने 1971 में पूर्वी पाकिस्तान को तोड़कर बांग्लादेश बना दिया। उसे लगता है कि वह पाकिस्तान के कम से कम चार टुकड़े करना चाहता रहा है। एक पंजाब, दूसरा सिंध, तीसरा बलूचिस्तान और चौथा पख्तूनिस्तान। तो पाकिस्तान भी भारत के टुकड़े करने की कोशिश क्यों न करे? उसकी कोशिश कश्मीर, खालिस्तान, असम, नगालैंड और मिजोरम को खड़ा करने की रही है। तू डाल-डाल तो हम पात-पात! नहले पर दहला मारने की यही नीति पाकिस्तान की सुरक्षा नीति रही है। भारत ने परमाणु बम बनाया तो पाकिस्तान ने भी जवाबी बम बना लिया।

ऐसी सुरक्षा नीति की भला कोई सरकार घोषणा कैसे कर सकती थी? उसे जितना छिपाकर रखा जाए, उतना ही अच्छा। लेकिन उसके नतीजों को आप कैसे छिपा सकते हैं? पिछले 7-8 दशकों में वे नतीजे सारी दुनिया के सामने अपने आप आने लगे। अपने आप को तुर्रम खां बताने वाले पाकिस्तान के फौजी तानाशाहों, राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों को मालदार मुल्कों के आगे भीख का कटोरा फैलाए खड़े रहना पड़ता रहा है। मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान का जो गुब्बारा 1947 में फुलाया था, उसकी हवा आज तक निकली पड़ी है। जिन्ना के सपनों का पाकिस्तान एक आदर्श इस्लामी राष्ट्र क्या बनता, वह दक्षिण एशिया के सबसे पिछड़े राष्ट्रों में शुमार हो गया।

सुरक्षा नीति में आर्थिक हितों को सबसे ऊपर रखने की बात कही गई है, फिर रक्षा बजट इतना बड़ा क्यों?

अब इमरान सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा नीति की जो घोषणा की है, उसमें आर्थिक सुरक्षा का स्थान सबसे ऊंचा है। इसीलिए उसमें साफ-साफ कहा गया है कि पाकिस्तान अब सामरिक सुरक्षा के बजाय आर्थिक सुरक्षा पर अपना ध्यान केंद्रित करेगा। यदि वह सचमुच ऐसा करेगा तो बताए कि उसका रक्षा-बजट कुल बजट का 16 प्रतिशत क्यों है? यदि अपने इस 9 बिलियन डॉलर के फौजी बजट को वह आधा कर दे तो क्या बचे हुए पैसों का इस्तेमाल पाकिस्तानियों की शिक्षा, चिकित्सा और भोजन की कमियों को पूरा करने में नहीं किया जा सकता? इस नई सुरक्षा नीति की घोषणा के बाद देखना है कि अब उसका बजट कैसा आता है।

यह नई सुरक्षा नीति कोई रातोरात बनकर तैयार नहीं हुई है। पिछले सात साल से इस पर काम चल रहा है, नवाज शरीफ के जमाने से। मियां नवाज के विदेश मंत्री और सुरक्षा सलाहकार रहे बुजुर्ग नेता सरताज अजीज ने इस नई नीति पर काम शुरू किया था। उन्हीं दिनों भारत में बीजेपी की नरेंद्र मोदी सरकार कायम हुई थी। मियां नवाज के घर मोदी अचानक जाकर उनकी नातिन की शादी में शामिल भी हुए थे। उसके पहले मोदी के शपथ-विधि समारोह में नवाज और अजीज ने शिरकत की थी। उन्हीं दिनों इस नई सुरक्षा नीति की नींव पड़ी थी, लेकिन अब जो दस्तावेज प्रकट हुआ है, उसमें मोदी और संघ की कटु आलोचना है। इस नीति की घोषणा करते समय कही गई इस बात पर कौन भरोसा करेगा कि पाकिस्तान अगले सौ साल तक भारत से अपने संबंध सहज बनाए रखेगा? सचमुच आपका यही इरादा है तो अभी भी आपने आधी नीति छिपाकर क्यों रखी है?

भारत ने तो अफगानिस्तान के लिए 50 हजार टन अनाज और दवाइयां भिजवाने की घोषणा की थी, लेकिन पाकिस्तान ने अभी तक उसे काबुल पहुंचाने का रास्ता नहीं खोला है। भारत ने अफगानिस्तान पर बात करने के लिए पड़ोसी राष्ट्रों की बैठक में पाकिस्तान को भी बुलाया था। लेकिन उसने चीन के साथ मिलकर उसका बहिष्कार कर दिया। अफगान-संकट ने तो ऐसा मौका पैदा कर दिया था कि उसका मिल-जुलकर समाधान करते हुए भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ती हो सकती थी। यदि पाकिस्तान को आर्थिक रूप से समृद्ध होना है तो उसे दक्षिण और मध्य एशिया के बीच एक सेतु की भूमिका तुरंत स्वीकार करनी चाहिए। यदि वह एक सुरक्षित पुल बन जाए तो मध्य एशिया के गैस, तेल, लोहा, तांबा, यूरेनियम आदि से भारत और पाकिस्तान मालामाल हो सकते हैं। अभी तो भारत-पाक व्यापार पर भी तालाबंदी लगी हुई है।

संवाद पर हो जोर
नई नीति में यह ठीक कहा गया है कि अब पाकिस्तान कश्मीर के कारण भारत से बातचीत बंद नहीं करेगा। लेकिन तब भी वह राग कश्मीर अलापता ही रहेगा। अंतरराष्ट्रीय समुदाय की अब कश्मीर में कोई रुचि नहीं है। चीन भी उस पर चुप ही रहता है। लेकिन हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर कश्मीर को घसीटने से पाकिस्तान बाज नहीं आता। अच्छा हो कि इमरान सरकार इस मुद्दे पर भारत सरकार से सीधे संवाद की पहल करे। पाकिस्तान के जितने भी राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और बुद्धिजीवियों से पिछले 50 साल में मेरा संवाद हुआ है, उनसे मैंने यही कहा है कि जुल्फिकार अली भुट्टो का यह कथन आप भूल जाइए कि कश्मीर लेने के लिए आप हजार साल तक भारत से लड़ते रहेंगे। कश्मीर का हल लात से नहीं, बात से ही होगा। कश्मीर के बहाने पाकिस्तान ने सारी दुनिया से बदनामी मोल ले ली। वह आतंक और फौजी तानाशाही का गढ़ बन गया। भारत के साथ उसकी दुश्मनी खत्म हो जाए तो उसे अमेरिका या चीन जैसे राष्ट्रों का चरणदास नहीं बनना पड़ेगा और पाकिस्तान के लोग भारतीयों की तरह लोकतंत्र और खुशहाली में जी सकेंगे।

राजनीतिक समुद्र मंथन में शिव की भूमिका के रूप में श्री संजय जोशी

जब अमृत और देवी लक्ष्मी की खोज में समुद्र मंथन किया था वही ऐसा अवसर था जब असुर और देवता एक साथ आए थे l जो असुर और देवता आपस में हमेशा झगड़ते रहते थे l वह आज अमृत प्राप्ति के लिए एक साथ आए थे l मंदराचल पर्वत को समुद्र में रखा और मरने की तैयारी शुरू हुई तब भगवान विष्णु ने कच्छप अवतार लेकर मंदराचल को अपनी पीठ पर धारण किया और समुद्र मंथन शुरू हुआ l सबसे पहले विश निकला और सब लोग भागने लगे तब शिव ने विष को अपने कंठ में धारण किया इस प्रकार समुद्र मंथन के दौरान 14 रत्न निकले जो अलग-अलग देवताओं ने अपने अपने ले लिए l
अमृत प्राप्ति के लिए दानवों ने देवताओं का वेश धारण करना शुरू कर दिया और देवताओं की कतार में आकर बैठ गए इस प्रकार से 2 दानवों ने तो अमृत पान भी कर लिया था l जो आज तक चंद्रमा और सूर्य का ग्रहण करते रहते हैं l उसी प्रकार से आज मंदराचल के रूप में लखनऊ है और विष्णु के कश्यप अवतार के रूप में आज संघ अपने कंधों पर मंथन करवा रहा है l लेकिन जिस प्रकार से पहले विष निकला था उसी प्रकार से आज जो अन्य दलों से भाजपाई बनके आए थे वह आज भाग रहे हैं और इसी प्रकार हर एक दल में खलबली मच गई है l अब इस विश को कंठ में धारण करने वाला सिर्फ एक व्यक्ति है वह है संजय जोशी जो अपने कार्यकर्ताओं को अपने बगल में दबाए हुए हैं, इधर-उधर के दलों में अपने कार्यकर्ताओं को भागने नहीं दे रहे हैं और उन्हें समझा-बुझाकर भारतीय जनता पार्टी के लिए काम करने का प्रयास रहे हैं l जिस प्रकार से शिव को अमृत का लोभ नहीं था उसी प्रकार संजय जोशी को भी सत्ता का लालच, पद का लालच नहीं है l निस्वार्थ भाव से भारतीय जनता पार्टी का कार्य कर भी रहे हैं और जो कार्यकर्ता नाराज हो रहे हैं उन्हें मनाने का काम भी संजय जोशी ही कर रहे हैं l इसीलिए हमारा कहने का तात्पर्य है की हर बार राजनीतिक मंथन कर दूसरे दलों के लोगों को बुलाकर सत्ता प्राप्ति करने से अच्छा है जो अपने पुराने कार्यकर्ता हैं, जो वर्षों से भारतीय जनता पार्टी का झंडा उठाए खड़े हैं उन्हीं को साथ में लेकर चुनाव लड़ा जाए तो जो विष आज निकल रहा है वह आगे नहीं निकलेगा l क्योंकि अपना व्यक्ति कभी भी भागकर दूसरे दल में नहीं जाता जो बाहर से आते हैं वही भाग कर जाते हैं

स्वामी विवेकानंद: चलो देश के लिए जीते हैं

  • डॉ. पवन सिंह

हिन्दुस्थान नौजवान है, युवाशक्ति से भरा हुआ है। युवा के मन में व आँखों में सपने होते हैं, नेक इरादे होते हैं। मजबूत संकल्प शक्ति होती है, युवा पत्थर पर भी लकीर खींचने का सामर्थ्य रखते हैं। और इन्हीं युवाओं के भरोसे स्वामी विवेकानंद ने आह्वान किया था की मैं मेरी आँखों के सामने भारत माता को पुनः विश्व गुरु के स्थान पर विराजमान होते हुए देख रहा हूँ। ‘ओ मेरे बहादुरों इस सोच को अपने दिल से निकाल दो की तुम कमजोर हो। तुम्हारी आत्मा अमर,पवित्र और सनातन है। तुम केवल एक विषय नहीं हो, तुम केवल एक शरीर मात्र नहीं हो’। यह कथन है लाखों – करोड़ों दिलों की धड़कन व प्रेरणा स्त्रोत स्वामी विवेकानंद का। ऊर्जा, उमंग, उत्साह के साथ देशहित सपनों को जीने वाले युवाओं से देश का वर्तमान व भविष्य लिखा जाता है। काल, परिस्थिति व समाज की आवश्यकता के अनुसार जीवन की दिशा को तय करने का नाम ही युवा है। आज चारों ओर जिस प्रकार का बौद्धिक विमर्श दिखाई दे रहा है, उसमें युवा होने के नाते अपनी मेधा व बौद्धिक क्षमता का परिचय हम को देना ही होगा। यही वास्तव में आज हमारी ओर से सच्ची आहुति होगी। इसके लिए अपनी सर्वांगीण तैयारी कर देश के लिए जीना इस संकल्प को ओर अधिक बलवान बनाना होगा। स्वामी विवेकानंद जी भी कहते थे “बस वही जीते हैं, जो दूसरों के लिए जीते हैं”।

युवा दिलों की धड़कन: उम्र महज 39 वर्ष, अपनी मेधा से विश्व को जीतने वाले, युवाओं को अंदर तक झकझोर कर रख देने वाले, अपनी संस्कृति व गौरव का अभिमान विश्व पटल पर स्थापित करने वाले स्वामी विवेकानंद का यह 159वां जयंती वर्ष है। कल्पना कीजिए विवेकानंद के रुप में उस एक नौजवान की। गुलामी की छाया न जिसके विचार में थी, न व्यवहार में थी और न वाणी में थी। भारत माँ की जागृत अवस्था को जिसने अपने भीतर पाया था। ऐसा एक महापुरुष जो पल- दो पल में विश्व को अपना बना लेता है। जो पूरे विश्व को अपने अंदर समाहित कर लेता है। जो विश्व को अपनत्व की पहचान दिलाता है और जीत लेता है। वेद से विवेकानंद तक, उपनिषद से उपग्रह तक हम इसी परंपरा में पले बढ़े हैं। उस परंपरा को बार-बार स्मरण करते हुए, सँजोते हुए भारत को एकता के सूत्र में बांधने के लिए सद्भावना के सेतु को जितना बल हम दे सकते हैं, उसे देते रहना होगा।

बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी: विवेकानंद के जीवन को पढ़ने से ही रोंगटे खड़े हो जाते है। कैसे एक बालक विवेकानंद, योद्धा सन्यासी विवेकानंद के रुप में पूरे विश्व की प्रेरणा बन गया। स्वामी विवेकानंद का सम्पूर्ण जीवन बहुआयामी व्यक्तित्व और कृतित्व का धनी रहा है। हमारे आज के जो सरोकार हैं, जैसे शिक्षा, भारतीय संस्कृति का सही रूप, व्यापक समाज सुधार, महिलाओं का उत्थान, दलित और पिछड़ों की उन्नति, विकास के लिए विज्ञान की आवश्यकता, सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्यों की आवश्यकता, युवकों के दायित्व, आत्मनिर्भरता, स्वदेशी का भाव, भारत का भविष्य आदि। भारत को अपने पूर्व गौरव को पुनः प्राप्त व स्थापित करने के लिए, समस्याओं के निदान के लिए स्वामी विवेकानंद के विचारों का अवगाहन करना होगा।

चिर पुरातन नित्य नूतन के वाहक: अतीत को पढ़ो, वर्तमान को गढ़ो और आगे बढ़ो यही विवेकानंद जी का मूल संदेश रहा। जो समाज अपने इतिहास एवं वांग्मय की मूल्यवान चीजों को नष्ट कर देता है, वह निष्प्राण हो जाते हैं और यह भी सत्य है कि जो समाज इतिहास में ही डूबे रहते हैं, वह भी निष्प्राण हो जाते हैं। वर्तमान समय में तर्क और तथ्य के बिना किसी भी बात को सिर्फ आस्था के नाम पर आज की पीढ़ी के गले नहीं उतारा जा सकता। भारतीय ज्ञान को तर्क के साथ प्रस्तुत करने पर पूरी दुनिया आज उसे स्वीकार करती हुई प्रतीत भी हो रही है। विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893 शिकागो भाषण में इस बात को चरितार्थ भी करके दिखाया था। जहां मंच पर संसार की सभी जातियों के बड़े – बड़े विद्वान उपस्थित थे। डॉ. बरोज के आह्वान पर 30 वर्ष के तेजस्वी युवा का मंच पर पहुंचना। भाषण के प्रथम चार शब्द ‘अमेरिकावासी भाइयों तथा बहनों’ इन शब्दों को सुनते ही जैसे सभा में उत्साह का तूफान आ गया और 2 मिनट तक 7 हजार लोग उनके लिए खड़े होकर तालियाँ बजाते रहे। पूरा सभागार करतल ध्वनि से गुंजायमान हो गया।

शब्दों के जादूगर: विवेकानंद के संवाद का ये जादू शब्दों के पीछे छिपी चिर –पुरातन भारतीय संस्कृति, सभ्यता, अध्यातम व उस युवा के त्यागमय जीवन का था। जो शिकागो से निकला व पूरे विश्व में छा गया। उस भाषण को आज भी दुनिया भुला नहीं पाती। इस भाषण से दुनिया के तमाम पंथ आज भी सबक ले सकते हैं। इस अकेली घटना ने पश्चिम में भारत की एक ऐसी छवि बना दी, जो आजादी से पहले और इसके बाद सैकड़ों राजदूत मिलकर भी नहीं बना सके। स्वामी विवेकाननंद के इस भाषण के बाद भारत को एक अनोखी संस्कृति के देश के रूप में देखा जाने लगा। अमेरिकी प्रेस ने विवेकानंद को उस धर्म संसद की महानतम विभूति बताया था। और स्वामी विवेकानंद के बारे में लिखा था, उन्हें सुनने के बाद हमें महसूस हो रहा है कि भारत जैसे एक प्रबुद्ध राष्ट्र में मिशनरियों को भेजकर हम कितनी बड़ी मूर्खता कर रहे थे। यह ऐसे समय हुआ, जब ब्रिटिश शासकों और ईसाई मिशनरियों का एक वर्ग भारत की अवमानना और पाश्चात्य संस्कृति की श्रेष्ठता साबित करने में लगा हुआ था।

शरीर धर्म का मुख्य साधन: अपनी प्रथम विदेश यात्रा से लौटने के बाद भारत की दुर्दशा पर स्वामीजी ने गहन चिंतन किया। उनके अनुसार इसके मुख्य कारण थे अत्यधिक आस्तिकता और शारीरिक कमजोरी। वो अक्सर कहते थे ‘हे भगवान’, ‘हे भगवान’ की रट लगाना और नाक पकड़कर मोक्ष की कामना करना, इसी कारण भारतीयों के मन मरे हुए और कलाईयां सिकुड़ी हुई हैं। ‘होई है सोई जो राम रचि राखा’, इस भाग्यवाद के भरोसे रहकर ही भारतीय बंधुओं ने पराधीनता की बेड़ियों से अपने हाथों को जकड़ रखा है। इसलिए स्वदेश लौटते ही स्वामीजी ने अपने प्रत्येक भाषण में ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ के इस महामंत्र का मजबूती से उद्घोष किया। कर्म की प्रधानता का महत्व बताते हुए, युवाओं को विवेकानंद छाती ठोककर कहते थे, व्यायाम के आगे भगवतगीता का पाठ करना भी बेकार है। व्यायाम कीजिए, खेल खेलिए, फुटबाल को जोर से किक कीजिए, आसमान में गेंद जितनी ऊंचाई पर पहुंचेगी, उतनी ही दूर तक आप आकाशस्थ ईश्वर के पास पहुंचेंगे, गीता पाठ से कभी भी नहीं।

भारत बोध की प्रेरणा: दुनिया में लाखों-करोड़ों लोग उनके विचारों से प्रभावित हुए और आज भी उनसे प्रेरणा प्राप्त कर रहे हैं। सी राजगोपालाचारी के अनुसार “स्वामी विवेकानंद ने हिन्दू धर्म और भारत की रक्षा की”। सुभाष चन्द्र बोस के कहा “विवेकानंद आधुनिक भारत के निर्माता हैं”।महात्मा गाँधी मानते थे कि ‘विवेकानंद ने उनके देशप्रेम को हजार गुना कर दिया । स्वामी विवेकानंद ने खुद को एक भारत के लिए कीमती और चमकता हीरा साबित किया है। उनके योगदान के लिए उन्हें युगों और पीढ़ियों तक याद किया जायेगा’। जवाहर लाल नेहरु ने ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में लिखा है- “विवेकानंद दबे हुए और उत्साहहीन हिन्दू मानस में एक टॉनिक बनकर आये और उसके भूतकाल में से उसे आत्मसम्मान व अपनी जड़ों का बोध कराया”।

कुल मिलाकर यदि यह कहा जाए कि स्वामी विवेकानंद आधुनिक भारत के निर्माता थे, तो उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह इसलिए कि स्वामीजी ने भारतीय स्वतंत्रता हेतु भारतवासियों के मनों में एक स्वाभिमान का माहौल निर्माण किया। आज के समय में विवेकानंद के मानवतावाद के रास्ते पर चलकर ही भारत एवं विश्व का कल्याण हो सकता है। वे बराबर युवाओं से कहा करते थे कि हमें ऐसे युवकों और युवतियों की जरूरत है जिनके अंदर ब्राह्मणों का तेज तथा क्षत्रियों का वीर्य हो। आज विवेकानंद जयंती पर उनके जीवन को पढ़ने के साथ ही उसे गुनने की भी जरूरत है। हम भाग्यवान है कि हमारे पास एक महान विरासत है। तो आईए, उस महान विरासत के गौरव को आधार बना युवा मन के साथ संकल्पबद्ध होकर आगे बढ़े।

स्वदेशी अपनाकर स्वावलम्बन का भाव भी जगाते रहे अमर शहीद हेमू कालाणी

अविभाजित भारत के सिंध प्रांत में एक युवा द्वारा अपनी किशोरावस्था में ही विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने का आग्रह किया गया था एवं उस समय पर भी सिंध प्रांत के नागरिकों में स्वावलम्बन का भाव जगाने का प्रयास उनके द्वारा किया जा रहा था। उस युवा का नाम था अमर शहीद श्री हेमू कालाणी। उन्हें केवल 19 वर्ष की अल्पआयु में ही बर्बर अंग्रेज सरकार द्वारा फांसी दे दी गई थी। जब श्री हेमू कालाणी की आयु मात्र सात वर्ष की थी, तब इस अल्पआयु में भारतमाता का तिरंगा लेकर अपने मित्रों के साथ अंग्रेजों की बस्ती में जाकर निर्भीक होकर भारत माता को परतंत्रा की बेड़ियों से मुक्त कराने की दृष्टि से की जा रही सभाओं की व्यवस्थाओं में उत्साहपूर्व भाग लेते थे। श्री हेमू कालाणी अपनी पढ़ाई-लिखाई पर भी पूरा ध्यान देते हुए एक अच्छा तैराक तथा धावक बनने का प्रयास कर रहे थे। तैराकी की कई प्रतियोगिताओं में तो वे कई बार पुरस्कृत भी हुए थे। बचपन से ही श्री हेमू कालाणी एक कुशाग्र बुद्धि के बालक थे।

अमर शहीद श्री हेमू कालाणी का जन्म अविभाजित भारत के सक्खर, सिंध प्रांत में 23 मार्च 1923 को हुआ था। आपके पिताश्री का नाम श्री पेसूमल जी कालाणी एवं माताश्री का नाम श्रीमती जेठीबाई कालाणी था।

वर्ष 1942 में, पूरे भारत वर्ष के साथ ही, सिंध प्रांत की जनता ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध उग्र आंदोलन की शुरुआत की थी जिससे क्रांतिकारी गतिविधियों में बहुत तेजी आई। श्री हेमू कालाणी भी अन्य कई नवयुवकों के साथ इस आंदोलन से जुड़ गए थे और उन्होंने इस दौर में सिंधवासियों में जोश और स्वाभिमान का संचार कर दिया था। चूंकि श्री हेमू कालाणी अपने बचपन काल से ही सिंध प्रांत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के सम्पर्क में रहे थे अतः एक बार वर्ष 1942 में उन्हें अपने साथियों के माध्यम से यह गुप्त जानकारी मिली कि बलूचिस्तान में चल रहे उग्र आंदोलन को कुचलने के उद्देश्य से 23 अक्टोबर 1942 की रात्रि में अंग्रेजी सेना, हथियारों एवं बारूद से भरी, रेलगाड़ी में सिंध प्रांत के रोहड़ी शहर से होकर सक्खर शहर से गुजरती हुई बलूचिस्तान के क्वेटा शहर की ओर जाने वाली है। प्राप्त हुई इस गुप्त सूचना के आधार पर श्री हेमू कालाणी ने अपने कुछ साथियों को इकट्ठा कर आनन फानन में एक योजना बनाई कि किस प्रकार रेल की पटरियां उखाड़कर इस रेलगाड़ी को गिराया जाए ताकि अंग्रेजी सेना का भारी नुकसान हो सके। बस फिर क्या था, रात्रि काल में अत्यंत गुपचुप तरीके से कुछ साथी मिलकर उस स्थान पर पहुंच गए जहां रेल की पटरियों को नुकसान पहुंचाने का निर्णय लिया गया था। वहां पहुंचकर उन्होंने रिंच और हथौड़े की सहायता से रेल की पटरियों की फिशप्लेटों को उखाड़ने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। परंतु पास ही में पुलिस की एक टुकड़ी पहरा दे रही थी। उन्होंने रेल की पटरियों पर किए जा रहे प्रहार की आवाजें सुन लीं और वे तुरंत वहां पहुंच गए जिस स्थान पर श्री हेमू कालाणी अपने साथियों के साथ रेल के पटरियों को नुकसान पहुंचाने का कार्य कर रहे थे। पुलिस को आते देख श्री हेमू कालाणी के दो साथी तो भाग खड़े हुए परंतु श्री हेमू कालाणी पुलिस द्वारा पकड़ लिए गए।

श्री हेमू कालाणी पर कोर्ट में केस चलाया गया और इस कोर्ट में जब जब भी उनसे पूछा गया कि आपके साथ और कौन से साथी थे तो उन्होंने कोर्ट में जवाब दिया कि मेरे साथी तो केवल रिंच और हथौड़ा ही थे। सक्खर की कोर्ट ने श्री हेमू कालाणी को, उनकी मात्र 19 वर्ष की अल्पायु होने के कारण, देशद्रोह के अपराध में आजीवन कारावास की सजा प्रदान की। जब उक्त निर्णय को अनुमोदन के लिए हैदराबाद (सिंध) स्थित सेना मुख्यालय में भेजा गया तो सेना मुख्यालय के प्रमुख अधिकारी कर्नल रिचर्डसन ने श्री हेमू कालाणी को ब्रिटिश राज का खतरनाक शत्रु मानते हुए उनकी आजीवन कारावास की सजा को फांसी की सजा में परिवर्तित कर दिया। श्री हेमू कालाणी की अल्पायु को देखते हुए सिंध के गणमान्य नागरिकों ने कोर्ट में एक पिटीशन फाइल की एवं अंग्रेज वायसराय से आग्रह किया कि श्री हेमू कालाणी को दी गई फांसी की सजा को निरस्त किया जाय। अंग्रेज वायसराय ने इस आग्रह को एक शर्त के साथ स्वीकार किया कि श्री हेमू कालाणी रेल के पटरियों को नुकसान पहुंचाने वाले अपने अन्य साथियों के नाम अंग्रेज प्रशासन को बताएं। परंतु, श्री हेमू कालाणी ने वायसराय की इस शर्त को नकारते हुए खुशी खुशी फांसी पर चढ़ जाना बेहतर समझा और इस प्रकार 21 जनवरी 1943 को प्रातः सात बजकर 55 मिनट पर अंग्रेजों द्वारा श्री हेमू कालाणी को फांसी दे दी गई। श्री हेमू कालाणी ने ‘इंकलाब-जिंदाबाद’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाते हुए खुद अपने हाथों से फांसी का फंदा अपने गले में डाला, मानो वे फूलों की माला पहन रहे हों। जब फांसी दिए जाने के पूर्व श्री हेमू कालाणी से उनकी अंतिम इच्छा के बारे में पूछा गया तो उन्होंने मां भारती की गोद में पुनः जन्म लेने की इच्छा प्रकट की। मात्र 19 वर्ष की आयु में अमर शहीद श्री हेमू कालाणी का प्राणोत्सर्ग सदैव याद रखा जाएगा एवं अंग्रेजो को भारत से भगाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले जिन हजारों वन्दनीय वीरों को जब जब याद किया जाएगा तब तब उनमें सबसे कम उम्र के बालक क्रांतिकारी अमर शहीद श्री हेमू कालाणी को भी सदैव याद किया जाएगा।

अविभाजित भारत के सिंध प्रांत के वीर योद्धा अमर शहीद श्री हेमू कालाणी की अक्षुण याद बनाए रखने के उद्देश्य से एवं उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए उनकी एक आदमकद प्रतिमा स्वतंत्र भारत की संसद में स्थापित की गई है एवं भारत सरकार द्वारा उनकी स्मृति में एक डाक टिकट भी जारी किया गया है।

प्रहलाद सबनानी

उ.प्र. बना रहा भारत के लोकतंत्र को थोकतंत्र

उत्तरप्रदेश का चुनाव है तो प्रांतीय लेकिन इसका महत्व राष्ट्रीय है, क्योंकि यह देश का सबसे बड़ा प्रदेश है। इसके सांसदों की संख्या 80 है और विधायकों की 4 सौ से भी ज्यादा है। भारत के जितने प्रधानमंत्री इस प्रदेश ने दिए हैं, किसी अन्य प्रदेश ने नहीं दिए। भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री वैसे तो गुजराती हैं लेकिन वे चुनकर आए हैं, उत्तरप्रदेश से ही ! इसीलिए पांच राज्यों के चुनावों में शेष राज्यों के मुकाबले देश का ध्यान सबसे ज्यादा उत्तरप्रदेश पर ही केंद्रित हो रहा है। इसके चुनाव परिणामों से अगला लोकसभा चुनाव प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता।

उत्तरप्रदेश के इस चुनाव के बाद किस पार्टी की सरकार बनेगी, यह कहना अभी आसान नहीं है लेकिन इस चुनावी दंगल ने भारत के लोकतंत्र को थोकतंत्र में बदल दिया है। सभी पार्टियां एक ही रास्ते पर चल पड़ी हैं। वे नहीं चाहतीं कि हर मतदाता अपने उम्मीदवारों और पार्टियों के गुण-दोषों के आधार पर अपना मतदान करे। उन्हें चाहिए अंधा थोक वोट! इस थोक वोट की दो खदाने हैं। एक है, जाति और दूसरी है, मजहब! कोई भी पार्टी सबके साथ और सबके विकास की बात नहीं कर रही है। सत्तारुढ़ भाजपा भी अपने विकास कार्यों को रेखांकित करने की बजाय उसी गेंद को ठप्पे दे रही है, जिसे समाजवादी पार्टी ने उछाल रखा है।

उ.प्र. के चुनाव में इस समय दो ही पार्टियों का बोलबाला है। भाजपा और सपा ! बसपा और कांग्रेस भी मैदान में हैं लेकिन दोनों हाशिए पर हैं। भाजपा और सपा ने अपने उम्मीदवारों की जो पहली सूची जारी की है, उनमें इन उम्मीदवारों की खूबियां नहीं, जातियां गिनाई गई हैं। यही काम पिछले दिनों केंद्रीय मंत्रिमंडल में हुए फेर-बदल के समय भी किया गया था। महान समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया की ‘सप्त क्रांति’ में से एक क्रांति थी- ‘जात तोड़ो’ अब समाजवादी पार्टी का नारा है- ‘जात जोड़ो’। उसने यह चूसनी भी जनता के सामने लटका दी है कि वह सत्तारुढ़ हो गई तो वह जातीय जन-गणना भी करवाएगी!

भाजपा ने अपना वोट बैंक पक्का करने के लिए पिछले कुछ वर्षों से धार्मिक ध्रुवीकरण का दांव मार रखा था। अयोध्या का राम मंदिर, काशी का विश्वनाथ गलियारा और मथुरा में मंदिर आदि के सवालों पर जैसा प्रचारतंत्र खड़ा किया गया, उसके संदेश स्पष्ट था। उसके पहले पड़ौसी देशों के गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए जो नागरिकता-कानून बना था, वह एक अच्छी पहल थी लेकिन उसकी खिड़कियों में से भी मज़हबी ध्रुवीकरण झांक रहा था। पाकिस्तान की आतंकी हरकतों का माकूल जवाब देना जरुरी था लेकिन उससे उक्त ध्रुवीकरण को भी बल मिलता रहा। पाकिस्तान से भी ज्यादा गुस्ताखी चीन ने की है। वह हमारी सीमाओं में घुस गया है। उससे तो हम लगातार बातें कर रहे हैं लेकिन पाकिस्तान से नहीं, क्योंकि चीन का हमारे आंतरिक राजनीतिक ध्रुवीकरण से कोई संबंध नहीं है।

क्या ही अच्छा होता कि योगी आदित्यनाथ की सरकार ने जो लोक-कल्याणकारी काम किए हैं, उनका प्रचार किया जाता। सरकारी विज्ञापनों, सरकारी सचित्र पर्चों और टीवी चैनलों पर उ.प्र. के लाखों लोगों को मुफ्त मकान, मुफ्त भोजन सामग्री, मुफ्त गैस कनेक्शन और रोजगार आदि मुहय्या करवाने के दावे हम देखते रहे हैं लेकिन अब इन पर जोर देने की बजाय योगी सरकार भी मजबूरन जातिवाद के पैंतरे में उलझ गई है।
यों तो पिछले सभी प्रांतीय चुनाव स्थानीय नेताओं की बजाय नरेंद्र मोदी और अमित शाह के दम पर लड़े गए लेकिन योगी की छवि कुछ ऐसी बनी कि उप्र के इस चुनाव के महानायक योगी ही हैं। यह अफवाह भी चली कि योगी ही मोदी के उत्तराधिकारी बनेंगे। लेकिन योगी को अयोध्या या काशी से लड़ने की बजाय गोरखपुर इसीलिए चुनना पड़ा है कि वह सीट उनके लिए अधिक सुरक्षित है।

योगी सरकार की दाल पतली करने में किसान आंदोलन की भी भारी भूमिका रही है। इसका भान केंद्र सरकार को बहुत अच्छी तरह हो गया था। इसीलिए कृषि-कानूनों को सरकार ने वापस ले लिया। इसके बावजूद यह कहना कठिन है कि पश्चिमी उत्तरप्रदेश में जितनी सीटें भाजपा को पिछली बार मिली थीं, उतनी ही इस बार भी मिल सकेंगी। उस इलाके की अधबुझी पार्टियां फिर से रोशन हो रही हैं और उन्होंने सपा से गठबंधन कर लिया है। किसान नेताओं को पटाने की भरपूर कोशिश भाजपा कर रही है लेकिन किसान-असंतोष और जातिवाद का मिलन ऐसा हो गया है, जैसे करेला और नीम चढ़ा!

2017 में पिछले चुनाव के दौरान जो भाजपा ने किया था, वैसा ही अब सपा कर रही है। उ.प्र. की छोटी-मोटी जातिमूलक पार्टियों का जो गठबंधन 2017 में बना था, वह अब भाजपा से टूटकर सपा में जुड़ रहा है। योगी सरकार के वर्तमान और पूर्व मंत्रियों और विधायकों का टूटकर सपा में शामिल होना इसका प्रमाण है। उ.प्र. की राजनीति में अब कमंडल की बजाय मंडल का जोर बढ़ता लग रहा है। पहले के यादव, मुस्लिम और कांग्रेस गठबंधन की बजाय अभी जो गठबंधन विपक्ष के साथ बन रहा है, वह उप्र के 44 प्रतिशत पिछड़े मतदाताओं का दावा कर रहा है। पिछली सरकारों से असंतुष्ट रहे सैनी, मौर्य, कुशवाह, कश्यप, जाट, गुर्जर अब सपा के साथ एकजुट हो रहे हैं। योगी का 80 प्रतिशत हिंदू और 20 प्रतिशत मुसलमानों की बजाय अब समीकरण ऐसा बन रहा है कि 20 प्रतिशत ऊँची जातियाँ और 80 प्रतिशत पिछड़े और अल्पसंख्यक !

ऊँची जातियों से भी शिकायत यह आ रही है कि योगी ने ब्राह्मणों और बनियों के बजाय अपनी जाति के राजपूतों को जरुरत से ज्यादा महत्व दिया है। इसके अलावा दलबदलू मंत्री और विधायक योगी पर अकड़ू होने का आरोप भी लगा रहे हैं। वे उनकी बेइज्जती और उपेक्षा के किस्से सबको अब बता रहे हैं। उनसे कोई पूछे कि पिछले साढ़े चार साल आपकी बोलती बंद क्यों रही?

चुनाव के वक्त दल-बदल करना भारतीय राजनीति का स्थायी चरित्र बन गया है। 2017 में भी भाजपा ने पांच दर्जन से ज्यादा दलबदलुओं को सहर्ष स्वीकार किया था। नेताओं और पार्टियों के ऊपर बताए गए आचरण हमारे लोकतंत्र को खोखला कर ही रहे हैं, यह दलबदल इसे हास्यास्पद भी बना रहा है। अब संसद को चाहिए कि हर दलबदलू पर वह यह प्रतिबंध लगाए कि वह अगले पांच साल तक कोई चुनाव न लड़ सके। दल-बदल की बढ़ती हुई प्रवृत्ति यही सिद्ध करती है कि हमारे लोकतंत्र में विचारधारा, सिद्धांत, नीति और आदर्शों का स्थान घटता जा रहा है। अब कुर्सी ही ब्रह्म है, बाकी सब मिथ्या है।

दलबदल के जरिए मिलनेवाली कुर्सी अपने पांवों पर पांच साल टिकी रहे, ऐसा मुश्किल से ही दिखाई पड़ता है। या तो वह पहले ही उलट जाती है या पांच साल तक वह बराबर डगमगाती रहती है। ऐसी डगमगाती कुर्सी पर बैठी हुई सरकार का ध्यान लोकसेवा पर कम, आत्मरक्षा और आत्म-श्लाघा पर कहीं ज्यादा होता है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत को इस दुविधा से कब मुक्ति मिलेगी, भगवान ही जाने।

सनातन संस्कार कभी बासी नहीं होते

—विनय कुमार विनायक
सनातन संस्कार कभी बासी नहीं होते,
सदाचार छोड़के जीने वाले हमेशा रोते!

लोग घूमते रोम, काबा, काशी मगर हो,
इरादे नापाक तो कोई ना शाबाशी देते!

दुश्मन तो जालिम होते हैं हमेशा से ही,
अच्छा होता तुम ही खुद को बदल लेते!

कब समझोगे कि आज,कल से निकलते,
तुम्हारा अतीत वर्तमान सोचने नहीं देते!

अबतक उपेक्षा भाव, जिनपर दिखाते रहे,
वे तो बदल गए, तुम खुद कब बदलोगे?

तुममें अपनापन कहां है,वो उदारपन कहां?
तुम भीतर और बाहर से अलग ही दीखते!

तुम जाति में बंटे हो, भाषा से भी कटे हो,
कोयल सी बोली नहीं, झूठ के हंस बनते?

ज्ञान गुणी सा बढ़ा नहीं, अहं भी मरा नहीं,
उपाधि फिर क्यों तिस्मार खां जैसी रखते?

राजनीति के मंच पर छल प्रपंच करते हो,
धर्मनिरपेक्ष बनके निज पूर्वजों को कोसते!

संस्कृति की बातें सिखाते नहीं घरवालों को,
हमेशा अपनी आस्था पर ही सवाल उठाते!

तुम्हारा समीकरण जाति फिरकापरस्ती में है,
भारतीयता से घृणा, विदेशी से प्रीत जताते!

जो बातें करते हमेशा गंगा यमुना तरजीह की,
वे निज गर्भनाल अरब-फारस में क्यों गाड़ते?

जहां मजहब बदलते ही राष्ट्रीयता बदल जाती,
स्वदेशी जुबान में जो अपना नाम नहीं रखते!

जो प्रेम करते हैं सिर्फ धर्म बदलने के लिए ही,
वो प्रेम कैसा जो स्वदेशी नाम तक बदल देते!
—विनय कुमार विनायक

भारत भक्ति से भरा मन है ‘स्वामी विवेकानंद’

  • लोकेन्द्र सिंह

स्वामी विवेकानंद ऐसे संन्यासी हैं, जिन्होंने हिमालय की कंदराओं में जाकर स्वयं के मोक्ष के प्रयास नहीं किये बल्कि भारत के उत्थान के लिए अपना जीवन खपा दिया। विश्व धर्म सम्मलेन के मंच से दुनिया को भारत के ‘स्व’ से परिचित कराने का सामर्थ्य स्वामी विवेकानंद में ही था, क्योंकि विवेकानंद अपनी मातृभूमि भारत से असीम प्रेम करते थे। भारत और उसकी उदात्त संस्कृति के प्रति उनकी अनन्य श्रद्धा थी। समाज में ऐसे अनेक लोग हैं जो स्वामी जी या फिर अन्य महान आत्माओं के जीवन से प्रेरणा लेकर भारत की सेवा का संकल्प लेते हैं। रामजी की गिलहरी के भांति वे भी भारत निर्माण के पुनीत कार्य में अपना योगदान देना चाहते हैं। परन्तु भारत को जानते नहीं, इसलिए उनका गिलहरी योगदान भी ठीक दिशा में नहीं होता। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक, चिन्तक एवं वर्तमान में सह-सरकार्यवाह डॉ. मनमोहन वैद्य अक्सर कहते हैं कि “भारत को समझने के लिए चार बिन्दुओं पर ध्यान देने की जरूरत है। सबसे पहले भारत को मानो, फिर भारत को जानो, उसके बाद भारत के बनो और सबसे आखिर में भारत को बनाओ”। भारत के निर्माण में जो भी कोई अपना योगदान देना चाहता है, उसे पहले इन बातों को अपने जीवन में उतरना होगा। भारत को मानेंगे नहीं, तो उसकी विरासत पर विश्वास और गौरव नहीं होगा। भारत को जानेंगे नहीं तो उसके लिए क्या करना है, क्या करने की आवश्यकता है, यह ध्यान ही नहीं आएगा। भारत के बनेंगे नहीं तो बाहरी मन से भारत को कैसे बना पाएंगे? भारत को बनाना है तो भारत का भक्त बनना होगा। उसके प्रति अगाध श्रद्धा मन में उत्पन्न करनी होगी। स्वामी विवेकानंद भारत माता के ऐसे ही बेटे थे, जो उनके एक-एक धूलि कण को चन्दन की तरह माथे पर लपेटते थे। उनके लिए भारत का कंकर-कंकर शंकर था। उन्होंने स्वयं कहा है- “पश्चिम में आने से पहले मैं भारत से केवल प्रेम करता था, परंतु अब (विदेश से लौटते समय) मुझे प्रतीत होता है कि भारत की धूलि तक मेरे लिए पवित्र है, भारत की हवा तक मेरे लिए पावन है, भारत अब मेरे लिए पुण्यभूमि है, तीर्थ स्थान है”।

        भारत के बाहर जब स्वामी विवेकानंद ने अपना महत्वपूर्ण समय बिताया तब उन्होंने दुनिया की नज़र से भारत को देखा, दुनिया की नज़र में भारत को देखा। भारत के बारे में बनाई गई मिथ्या प्रतिमा खंड-खंड हो गई। भारत का अप्रतिम सौंदर्य उनके सामने प्रकट हुआ। दुनिया की संस्कृतियों के उथलेपन ने उन्हें सिन्धु सागर की अथाह गहराई दिखा दी। एक महान आत्मा ही लोकप्रियता और आकर्षण के सर्वोच्च शिखर पर बैठकर भी विनम्रता से अपनी गलती को स्वीकार कर सकती है। स्वामी विवेकानंद लिखते हैं- “हम सभी भारत के पतन के बारे में काफी कुछ सुनते हैं। कभी मैं भी इस पर विश्वास करता था। मगर आज अनुभव की दृढ़ भूमि पर खड़े होकर दृष्टि को पूर्वाग्रहों से मुक्त करके और सर्वोपरि अन्य देशों के अतिरंजित चित्रों को प्रत्यक्ष रूप से उचित प्रकाश तथा छायाओं में देखकर, मैं विनम्रता के साथ स्वीकार करता हूं कि मैं गलत था। हे आर्यों के पावन देश! तू कभी पतित नहीं हुआ। राजदंड टूटते रहे और फेंके जाते रहे, शक्ति की गेंद एक हाथ से दूसरे में उछलती रही, पर भारत में दरबारों तथा राजाओं का प्रभाव सदा अल्प लोगों को ही छू सका- उच्चतम से निम्नतम तक जनता की विशाल राशि अपनी अनिवार्य जीवनधारा का अनुसरण करने के लिए मुक्त रही है और राष्ट्रीय जीवनधारा कभी मंद तथा अर्धचेतन गति से और कभी प्रबल तथा प्रबुद्ध गति से प्रवाहित होती रही है”।

        स्वामी विवेकानंद की यह स्वीकारोक्ति उन बुद्धिजीवियों के लिए आईना बन सकती है जो भारत के सन्दर्भ में अपने पूर्वाग्रहों को पकड़ कर बैठे हुए हैं। भारत में कई विद्वान तो ऐसे हैं जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात तो करते हैं लेकिन स्वयं विज्ञान को स्वीकार नहीं करते। यदि उनके मतानुसार विज्ञान की खोज का परिणाम नहीं आया तो उस परिणाम को ही नहीं मानते। उनकी ऐसी मति इसलिए भी है क्योंकि भारत के प्रति उनके मन में श्रद्धा नहीं है। उन्होंने न तो मन से भारत को माना है और न ही वे स्वाभाव से भारतीय हैं। अन्यथा क्या कारण हैं कि राखीगढ़ी और सिनौली की वैज्ञानिक खोजों के बाद भी उनका घोड़ा उसी झूठ पर अड़ा है कि भारत में आर्य बाहर से आये। ऐसा क्यों न माना जाये कि वे इस झूठ पर अभी भी इसलिए टिके हैं क्योंकि वे भारत को तोड़ने के लिए इस झूठ को लेकर आये थे। स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि मैं गलत था, हे आर्यों के देश तू कभी पतित नहीं हुआ। जबकि हमारे आज के विद्वान मानते हैं कि भारत तो अंधकार में था, उसको तो अन्य सभ्यताओं ने उजाला दिखाया है। भारत के स्वर्णकाल पर उनको भरोसा ही नहीं। भारत के लिए उपयोग की जाने वाले विशेषण ‘विश्वगुरु’ को हेय दृष्टि से देखते हैं। इस विशेषण को वे उपहास में उड़ाना पसंद करते हैं क्योंकि भारत के प्रति उनका मन भक्ति से भरा हुआ नहीं है। भारत के प्रति मन में भक्ति होती है तब स्वामी विवेकानंद भी अपने पूर्व मत में सुधार करने के लिए उत्साहित होते हैं।

        आज जब हम स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तब हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वामी विवेकानंद ने भारत माता के अनेक सपूतों के मन में संघर्ष करने की प्रेरणा पैदा की। क्रांतिपथ पर स्वयं को समर्पित करने की प्रेरणा जगाई। उनके मन इस प्रकार तैयार किये कि देवताओं की उपासना छोड़कर भारत माता की भक्ति में लीन हो जाएँ। उन्होंने दृढ़ होकर कहा- “आगामी 50 वर्षों के लिए हमारा केवल एक ही विचार केंद्र होगा- और वह है हमारी महान मातृभूमि भारत। दूसरे से व्यर्थ के देवताओं को उस समय तक के लिए हमारे मन से लुप्त हो जाने दो। हमारा भारत, हमारा राष्ट्र- केवल यही एक देवता है, जो जाग रहा है, जिसके हर जगह हाथ हैं, हर जगह पैर हैं, हर जगह कान हैं- जो सब वस्तुओं में व्याप्त है। दूसरे सब देवता सो रहे हैं। हम क्यों इन व्यर्थ के देवताओं के पीछे दौड़ें, और उस देवता की- उस विराट की - पूजा क्यों न करें, जिसे हम अपने चारों ओर देख रहे हैं। जब हम उसकी पूजा कर लेंगे तभी हम सभी देवताओं की पूजा करने योग्य बनेंगे”। नि:संदेह इस आह्वान के पीछे स्वामी विवेकानंद का उद्देश्य यही था कि भारतीय मन, बाहरी तंत्र के साथ चल रहे भारत के संघर्ष और उससे उपजी उसकी वेदना के साथ एकात्म हों। भारत की स्थिति को समझें। जाग्रत देवता भारत की पूजा से उनका अभिप्राय भारत की स्वतंत्रता के लिए स्वयं को होम कर देने से रहा होगा। भारत स्वतंत्र होगा, तब ही अपनी संस्कृति और उपासना पद्धति का पालन कर पाएगा। अन्यथा तो विधर्मी ताकतें जोर-जबरदस्ती और छल-कपट से अपना धर्म एवं उपासना पद्धति भारत की संतति पर थोप ही ही रही है। भारत स्वतंत्र न हुआ, तब कहाँ हम अपने देवताओं की पूजा करने के योग्य रह जाएंगे। यह ध्यान भी आता है कि स्वामी विवेकानंद से प्रेरणा लेकर अनेक क्रांतिकारी एवं स्वतंत्रता सेनानी भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में आगे आये। याद रखें कि अनेक प्रकार के आक्रमण झेलने के बाद भी भारत आज भी अपनी जड़ों के साथ खड़ा है तो उसका कारण स्वामी विवेकानंद जैसी महान आत्माएं हैं, जिन्होंने भारत को भारत के दृष्टिकोण से देखा और भारतीय मनों में भारत के प्रति भक्ति पैदा की।