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अपने जन्मदिवस और विवाह-वर्षगांठ आदि अवसरों पर सबको परोपकार-कर्म यज्ञ करना चाहिये

-मनमोहन कुमार आर्य
वर्तमान समय में जन्म दिवस एवं विवाह की वर्षगांठ धूमधाम से मनाने का प्रचलन काफी अधिक हुआ है। ग्रामीण अंचलों में शायद यह कम होगा, परन्तु नगरों में यह प्रायः सभी परिवारों में मनाया व आयोजित किया जाता है। फेसबुक आदि पर भी बहुत से लोग इस अवसर पर अपने मित्रों व परिचितों को बधाईयां व शुभकामनायें आदि देते दिखाई देते हैं। जन्म दिन सहित विवाह की वर्षगांठ आदि सभी अवसरों को मनाते हुए मनुष्य को अग्निहोत्र यज्ञ अवश्य करना चाहिये। यदि ऐसा करेंगे तो इन दिवसों को मनाना सार्थक होगा।यदि जन्म दिवस आदि अवसरों पर यज्ञ नहीं करेंगे तो यज्ञ न किये जाने से एक कमी बनी रहेगी और अग्निहोत्र यज्ञ से जो लाभ होते हैं, उनसे मनुष्य वंचित हो जायेगा। यज्ञ से होने वाले लाभ न होना ही मनुष्य की हानि है। अतः हमें यज्ञ को जानना चाहिये।

यज्ञ में हम ईश्वर के दिए ज्ञान वेद के मन्त्रों से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना करते हैं। वेदमन्त्रों के गान, पठन तथा उसके अर्थों पर विचार व चिन्तन से अधिक उत्तम ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना नहीं हो सकती, ऐसा हम समझते हैं। उदाहरण के लिए हम स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना के आठ मन्त्रों को प्रस्तुत कर सकते हैं। स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना का प्रथम मन्त्र बानगी के रूप में यहां प्रस्तुत करते हैं। मन्त्र है ‘‘ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद्भद्रं तन्न आसुव।।” मन्त्र का ऋषि दयानन्द जी का किया हुआ अर्थ है ‘हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर! आप कृपा करके हमारे समस्त दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ है, वह सब हमको प्राप्त कीजिए।” इसी प्रकार से अन्य सात मन्त्रों से भी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने से ईश्वर से मेल, संगति, ज्ञानप्राप्ति व ज्ञानवृद्धि तथा स्तोता के गुण, कर्म व स्वभाव में सुधार होता है। ईश्वर हमारे दोषों को दूर करते हैं तथा हमें सद्गुणों से युक्त करते हैं। हमारा सर्वविध कल्याण होता है। परमात्मा से हमारा मित्र व बन्धु सहित माता व पिता का सम्बन्ध है, जो अधिक सार्थक व सुखद होता व बनता है। अतः ईश्वर की नित्य स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना करने सहित अग्निहोत्र यज्ञ करने का विधान है। सभी को यज्ञ कर्म सहित उपासना कर्म को नित्य व जीवन के प्रमुख अवसरों पर अवश्य करना चाहिये। 

मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता ज्ञान है। सत्य एवं शुद्ध ज्ञान की प्राप्ति वेद एवं वैदिक साहित्य के अध्ययन से प्राप्त होती है। यदि हम जन्म दिवस आदि अवसरों पर अपने गृहों पर यज्ञ का आयोजन करेंगे तो इससे हमें वेदों के स्वाध्याय की प्रेरणा मिलेगी और इस प्रेरणा का परिणाम हमारे अज्ञान का नाश तथा ज्ञान व गुणों की वृद्धि होगा। यज्ञ करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य एवं धर्म है। कर्तव्य व धर्म इसलिये है कि यज्ञ करने से वायु, जल, अन्न तथा पर्यावरण के दोषों का निवारण होता है और हमें शुद्ध वायु, जल तथा अन्न आदि की प्राप्ति होती है। अग्निहोत्र यज्ञ में जिन गोघृत व ओषधीय पदार्थों की आहुति दी जाती हैं वह अग्नि में जलने से सूक्ष्म होकर आकाशस्थ वायु में चहुंओर फैल जाते हैं जिससे वायु के प्रायः सभी दोष दूर होकर वायु शुद्ध व लाभप्रद बनती है। इससे हमारे हृदय व फेफड़ों में शुद्ध वायु पहुंचने से हम स्वस्थ रहते हैं। रोगों का आक्रमण कम होता है। हम सुखों का अनुभव करते हैं तथा हमारी आयु वृद्धि होती है। 

वायु की शुद्धि से वर्षा जल की भी शुद्धि होती है और शुद्ध वायु तथा शुद्ध वर्षा जल से खेतों में शुद्ध अन्न उत्पन्न होता है। इस प्रकार गृहस्थियों द्वारा यज्ञ करने से यज्ञ करने वाले तथा यज्ञ के निकटवर्ती लोगों को लाभ होता है। यज्ञ से जो जो लोग लाभान्वित होते हैं उसका पुण्य व लाभ यज्ञकर्ता मनुष्य को परमात्मा अपने विधान से देता है। यज्ञ करने वाले मनुष्य को सुख की प्राप्ति होती है। वह रोगों से मुक्त रहकर स्वस्थ जीवन व्यतीत करते हैं। धर्म उसी को कहते हैं जिससे धर्म करने वाले तथा उसके सम्पर्क में आने वाले सभी मनुष्यों को सुख प्राप्त हो। यज्ञ से क्योंकि सभी मनुष्यों व प्राणियों को सुख प्राप्त होता है, अतः यज्ञ करना धर्म सिद्ध होता है। धर्म विषयक यह भी सत्य सिद्धान्त है कि जो मनुष्य धर्म के काम करता है अर्थात् जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म भी उसकी रक्षा करता है। जो धर्म की रक्षा नहीं करता, धर्म भी उसकी रक्षा नहीं करता। मनुष्य को इसका विचार करना चाहिये और धर्म में प्रवृत्त होना चाहिये अन्यथा ऐसा भी हो सकता है कि धर्म के कार्यों को न करने के कारण मनुष्य उसके परिणामस्वरूप अनेक प्रकार की हानियों को प्राप्त हो सकता है जिसका उसे ज्ञान ही नहीं होता। हमें जीवन में जो दुःख प्राप्त होते हैं, उसका कारण व आधार हमारे सत् व असत् कर्म ही हुआ करते हैं। सत् कर्म धर्म तथा असत् कर्म अधर्म हुआ करते हैं। अतः यज्ञ से जुड़ कर और वैदिक साहित्य यथा सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय कर हमें धर्म का ज्ञान व धर्म कार्य करने की प्रेरणा मिलती है। यदि हम अपने जन्म दिवस व विवाह वर्षगांठ आदि के अवसरों पर अग्निहोत्र यज्ञ आदि परोपकार के कार्य करेंगे तो निश्चय ही हमें सुख व कल्याण की प्राप्ति होगी। हमारे परिवार व मित्र भी हमसे प्रभावित व लाभान्वित होंगे और इससे भी हमें पुण्य व सुखों की प्राप्ति होगी। अतः हमें अपने जन्म दिवस आदि अवसरों पर अग्निहोत्र यज्ञ अवश्य ही करना चाहिये। 

वैदिक धर्म में विधान है कि सभी गृहस्थियों को प्रतिदिन प्रातः व सायं अपने घरों में यज्ञ करना चाहिये। यज्ञ करने से घर के भीतर की वायु गर्म होकर ऊंचे रोशनदानों, खिड़कियों व दरवाजों से बाहर चली जाती है तथा बाहर की शुद्ध वायु भीतर आती है। यज्ञ के धूम से रोग किटाणुओं का नाश होता है। शरीरस्थ कीटाणु भी यज्ञ करने से दूर हो जाते और रोगी मनुष्य स्वस्थ होते हैं। यह सब विज्ञान सम्मत कार्य व क्रियायें हैं जिन्हें सभी शिक्षित बन्धुओं को समझना व करना चाहिये। वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर इन तथ्यों का ज्ञान होता है। 

जब हम प्राचीन साहित्य रामायण एवं महाभारत आदि ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं तो हमें विदित होता है कि हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि, राम तथा कृष्ण आदि महापुरुष अग्निहोत्र यज्ञ किया करते थे। प्राचीन काल में गुरु व आचार्य अपने शिष्यों द्वारा उन्हें समिधायें प्रदान करने पर प्रसन्न होते थे अतः जब भी कोई शिष्य या मनुष्य किसी आचार्य के पास जाता था तो वह अपने साथ यज्ञ की समिधायें लेकर जाता था। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि प्राचीन काल में यज्ञ का कितना महत्व था और किस मात्रा वा संख्या में यज्ञ किये जाते होंगे? महाभारत काल के बाद वैदिक संस्कृति व परम्पराओं के पोषक आचार्य चाणक्य तथा ऋषि दयानन्द जी आदि सभी यज्ञों के पोषक थे। महाभारत के बाद यज्ञों की क्रियाओं में विकृतियां आ गई थी जिसके परिणामस्वरूप अहिंसा पर आधारित बौद्ध एवं जैन मतों की स्थापना हुई थी। इन सब विकृतियों को ऋषि दयानन्द ने अपने अतुल वैदुष्य, वेदों के ज्ञान तथा विवेक बुद्धि से दूर किया था और यज्ञ से सभी प्रकार की हिसा को दूर कर इन्हें पूर्ण अहिंसक व विज्ञानसंम्मत कृत्य बनाया था। ऋषि दयानन्द जी ने यज्ञ की विधि तथा सोलह संस्कारों की पुस्तक भी हमें प्रदान की है। ऋषि दयानन्द के साहित्य को पढ़कर हम यज्ञ का सत्यस्वरूप जान सकते हैं और इससे लाभान्वित भी हो सकते हैं। 

जन्मदिवस तथा विवाह की वर्षगांठ पर परिवारों में अग्निहोत्र-यज्ञ एवं परोपकार के कार्य अवश्य होने चाहियें। जो बन्धु यज्ञ करना जानते हैं, वह स्वयं भी विधि पूर्वक यज्ञ कर सकते हैं। जो बन्धु यज्ञ करना नहीं जानते उन्हें चाहिये कि वह आर्यसमाज के पुरोहित जी को बुलाकर यज्ञ करवा लें। वैदिक विधि से किये जाने वाले यज्ञ में अनावश्यक पदार्थ क्रय नहीं करने पड़ते। मात्र घृत, समिधा तथा ओषधियुक्त हवन सामग्री से हवनकुण्ड में यज्ञ हो जाता है। अगर व्यय की दृष्टि से देंखे तो यज्ञ में 200 ग्राम घृत जिसका मूल्य 100 रुपये होता है तथा हवन सामग्री का मूल्य 50 रुपये में यज्ञ हो जाता है। यज्ञ में आवश्यक शेष वस्तुएं एवं पदार्थ सभी गृहस्थियों में उपलब्ध होते हैं। इनके अतिरिक्त पुरोहित जी को उचित दक्षिणा देनी होती है जो यजमान की सामर्थ्य वा देश, काल व परिस्थिति के अनुरूप दी जानी चाहिये। यज्ञ को पुण्यकारी श्रेष्ठतम कर्म कहा जाता है। यज्ञ से जो पुण्य अर्जित होता है वह हमारे कर्म संचय में जमा हो जाता है जो वर्तमान, कालान्तर तथा परजन्म में हम सबको अनेक प्रकार के सुख व लाभ देता है। दर्शन ग्रन्थ सहित आर्यसाहित्य को पढ़कर इस विषय में आश्वस्त हुआ जा सकता है। हम यहां यह अवश्य कहना चाहते हैं कि हमें यह मानव जन्म हमारे पूर्वजन्मों के कर्मों, जो सत्य व पुण्य पर आधारित थे, प्राप्त हुआ है। यज्ञ आदि पुण्य कर्मों को करने से हमारा वर्तमान, भावी जीवन तथा परजन्म अवश्य ही उन्नत व सुखदायक बन सकते हंै। अतः हमें ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए योगियो तथा धर्म-कर्म के मर्मज्ञ विद्वानों व आचार्यों की बातों पर विश्वास कर अपनी दिनचर्या बनानी चाहिये। इससे हमें सुख व कल्याण प्राप्त होगा और भविष्य व परजन्म में इस बात का क्लेश व दुःख नहीं होगा कि हमने शुभ, पुण्य, यज्ञीय कर्म आदि नहीं किये थे। अतः जन्म दिवस तथा विवाह की वर्षगांठ आदि अवसरों पर सब मनुष्यों को यज्ञ अवश्य करना चाहिये। हम स्वयं भी यज्ञ करें और अपने मित्र समुदाय को भी ऐसा करने को कहें जिससे समाज से असत्य तथा हिंसा आदि की दुष्प्रवृत्तियां दूर होकर सुख व शान्ति का वातावरण उत्पन्न हो। हम यह भी बता दें कि यज्ञ करना किसी एक समुदाय या मत के लोगों के लिए ही अभीष्ट नहीं है अपितु इसे मानवमात्र को करना चाहिये। यह ध्यान रहे कि समस्त संसार व ब्रह्माण्ड में ईश्वर केवल एक ही है और वह सब प्राणियों को जन्म व मृत्यु का दाता तथा न्यायकारी है। हमारे कर्मों के आधार पर ही हमें भविष्य व परजन्म में जन्म व सुख व दुःख प्राप्त होंगे। ओ३म् शम्। 

-मनमोहन कुमार आर्य

आज भी युवाओं में सर्वाधिक लोकप्रिय है नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जीवन चरित्र

“सैकड़ों खो रहे थे आजादी की उस लड़ाई में पर फिर भी ना जज्बे में कमी थी और ना ही साहस में, मातृभूमि से प्रेम के अलिंगन में एक ऐसी सुख-शांती का अनुभव था, जहां हर दर्द दूर हो जाता, तो हर घाव भी भर जाता था l” ऐसे ही देश के सच्चे सपूत, विराट व्यक्तिवत आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व करने वाले, भारत ही नही अपितु विदेशी भूमि से भी भारत की आजादी के उदघोष का हुंकार लगाने वाले हम सभी के “नेताजी” सुभाष चंद्र बोस के बारे में कहा जा सकता हैl

सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी, सन 1897 ई. में उड़ीसा के कटक नामक स्थान पर हुआ था। वे 6 बहनों और 8 भाइयों के परिवार में नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र जी से था। वे उनसे सदैव ही अपने अनसुलझे प्रश्नों की झड़ी व अनौपचारिक संवाद करते रहते थे l शरदबाबू प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थे, नेता जी उन्हें ‘मेजदा’ कहते थे।

सुभाष बाबू का हृदय बचपन से ही भारतीयों के साथ अंग्रेज़ों द्वारा हो रहे अत्यचार देखकर व्यथित रहता थाl उन्होंने इस भेदभावपूर्ण व्यवहार को देखकर एक बार अपने भाई से पूछा- “दादा कक्षा में आगे की सीटों पर हमें क्यों बैठने नहीं दिया जाता है?” नेताजी हमेशा जो भी कहा करते थे, पूरे आत्मविश्वास से कहते थे। स्कूल में अंग्रेज़ अध्यापक भी बोस जी के अंक देखकर अधिकत्तर हैरान रह जाते थे, उनकी बुद्धिमत्ता व नवसृजन के विचार सभी को चकित करते थे।

जब बोस द्वारा कक्षा में सबसे अधिक अंक लाने पर भी छात्रवृत्ति अंग्रेज़ बालक को दी गई, तो वे उखड़ गए और उन्होंने वह मिशनरी स्कूल ही छोड़ दिया।

उसी समय अरविंद घोष ने बोस बाबू से कहा- “हम में से प्रत्येक भारतीय को डायनमो बनना चाहिए, जिससे कि हममें से यदि एक भी खड़ा हो जाए तो हमारे आस-पास हज़ारों व्यक्ति प्रकाशवान हो जाएँ।” उस दिन से अरविन्द जी के शब्द बोस बाबू के मस्तिष्क में सदैव गूंजा करते थे l उनके प्रेरणादायी शब्दों का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा और देश को स्वतंत्र करवाना ही उनके जीवन का एक मात्र मार्ग सुनिश्चित हो गया l

कोहिमा, नागालैंड के आक्रमण की विफलता पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस भारत माता को ग़ुलामी की हथकड़ी पहने हुए देखते थे l वे देश भक्ति की भावना से प्रेरित होकर अंग्रेज़ी शिक्षा को निषेधात्मक शिक्षा मानते थे। किन्तु बोस जी को उनके पिता ने समझाया- हम भारतीय अंग्रेज़ों से जब तक प्रशासनिक पद नहीं छीनेंगे, तब तक देश का भला कैसे होगा।

अपने पिता से प्रेरणा लेकर नेताजी ने इंग्लैंड में जाकर आई. सी. एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की। वे प्रतियोगिता में सिर्फ उत्तीर्ण ही नहीं हुए बल्कि चतुर्थ स्थान पर भी रहे। नेता जी एक बहुत मेधावी व प्रतिभावन छात्र थे। वे चाहते तो उच्च अधिकारी के पद पर सुशोभित हो सकते थे। परन्तु उनकी देश भक्ति की भावना ने उन्हें कुछ अलग करने के लिए हमेशा प्रेरित किया। बोस जी ने नौकरी से त्याग पत्र दे दिया और सारा देश हैरान रह गया l उन्हें अनेक प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा समझाते हुए कहा गया- तुम जानते भी हो कि तुम लाखों भारतीयों के सरताज़ होगे हज़ारों देशवासी तुम्हें नमन करेंगे? तब सुभाष चंद्र बोस ने कहा था – “मैं लोगों पर नहीं उनके मनों पर राज्य करना चाहता हूँ। उनका हृदय सम्राट बनना चाहता हूँ।”

भारत की सामाजिक दशा पर उनके समकालीन विचार आज भी बड़े मूल्यवान है, उनका मानना था “हमारी सामाजिक स्थिति बदतर है, जाति-पाँति तो है ही, ग़रीब और अमीर की खाई भी समाज को बाँटे हुए है। निरक्षरता देश के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। इसके लिए संयुक्त प्रयासों की आवश्यकता है।”

सुभाष चंद्र बोस जब देश आजाद करवाने चले , तो पूरे देश को अपने साथ लेकर चल पड़े। वे जब गाँधी जी से मिले तो उन्होंने सुभाष बाबू को देश को समझने और जानने को कहा। उनका अनुसरण कर वे देश भर में घूमें और देश को निकटता से जाना | कांग्रेस के एक अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस ने कहा- “मैं अंग्रेज़ों को देश से निकालना चाहता हूँ। मैं अहिंसा में विश्वास रखता हूँ, किन्तु इस रास्ते पर चलकर स्वतंत्रता काफ़ी देर से मिलने की आशा है।”

सुभाष चंद्र बोस तो जैसे भारतीयता की पहचान ही बन गए थे और भारतीय युवक आज भी उनसे सर्वाधिक प्रेरणा लेते हैं। वे भारत की एक ऐसी अमूल्य निधि थे जिन्होंने देश को ‘जय हिन्द’ का नारा दिया था । उन्होंने कहा था कि- “स्वतंत्रता बलिदान चाहती है। आपने आज़ादी के लिए बहुत त्याग किया है, किन्तु अभी प्राणों की आहुति देना शेष है। आज़ादी को आज अपने शीश फूल चढ़ा देने वाले पागल पुजारियों की आवश्यकता है। ऐसे नौजवानों की आवश्यकता है, जो अपना सिर काट कर स्वाधीनता देवी को भेट चढ़ा सकें। “तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा”। इस वाक्य के जवाब में नौजवानों ने कहा- “हम अपना ख़ून देंगे।” उन्होंने आईएनए को ‘दिल्ली चलो’ का नारा भी दिया।

नेता जी के जीवन के अनेक पहलू सामाजिक जीवन में हमे एक नई ऊर्जा प्रदान करते हैं। वे एक सफल संगठनकर्ता भी थे। उनकी वक्तव्य शैली में जादू था और उन्होंने देश से बाहर रहकर ‘स्वतंत्रता आंदोलन’ चलाया। नेता जी मतभेद होने के बावज़ूद भी अपने साथियो का मान सम्मान रखते थे।

उन्होंने 21 अक्टूबर, 1943 को आजाद हिन्द अर्थात स्वतंत्र भारत की एक सरकार का भी गठन किया था। जिसे विश्व के 7 देशों ने मान्यता भी प्रदान की थी। वह सात देश थे-जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, इटली, मानसूकू और आयरलैंड। इस सरकार के पास अपना बैंक, डाक टिकट और झंडा भी था। हमारा तिरंगा जो तब से लेकर अब तक लगातार शान से लहरा रहा है। इस सरकार ने आपने नागरिकों के मध्य आपसी अभिवादन के समय ‘जय हिंद’ कहने का निर्णय भी लिया था।

ऐसा था स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस याने हमारे “नेताजी” का प्रेरणादायी जीवन चरित्र l प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी और भारत सरकार द्वारा मनाये जा रहे “स्वतंत्रता का 75वाँ अमृत महोत्सव” एवं उनकी जन्म जयंती पर सादर नमन l

  • सुयश त्यागी

क्या उत्तर प्रदेश का मुद्दा है विकास ? या जाति-धर्म से ही है लोगों की आस

उत्तर प्रदेश सहित देश के कुल 5 अलग अलग राज्यों में विधानसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है | सभी पार्टियों के नेता अपने अपने जीत के दावे कर रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ दल-बदल का खेल भी शुरू हो चुका है | खास तौर पर उत्तर प्रदेश चुनाव की जब बात आती है तो मामला बेहद दिलचस्प हो जाता है, क्योंकि एक तरफ 403 विधानसभा सीटें केंद्र के लिहाज से भी इस बड़े राज्य में पार्टी की पकड़ मजबूत करती है, इसलिए आज हर पार्टी यूपी जीतना चाहते है | वहीं दूसरी तरफ अपने बेहद ही उग्र और हिन्दुत्ववादी छवि वाले मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, जिन्हें अप्रत्यक्ष रूप से जनता मोदी के उत्तराधिकारी के रूप में देखती है | ऐसे में आदित्यनाथ योगी के लिए भी यह चुनाव साख की लड़ाई है |
हर बार चुनाव में पार्टियां अनगिनत वादे लेकर आती हैं, जिसमें जनता को लुभाने के नायाब तरीके शामिल होते हैं | लेकिन कभी हार तो कभी जीत और एक बार फिर जब चुनाव आते हैं तो कहीं न कहीं नेतागण उन्ही मुद्दों के इर्द-गिर्द जनता को घुमाना शुरू कर देते हैं | आज भी उत्तर प्रदेश चुनाव में बेरोजगारी, विकास और बिजली-पानी के मुद्दे उठाये जा रहे हैं, और इनसे सम्बंधित वादे किए जा रहे हैं | विचार करने की बात यह है कि सालों पहले भी अक्सर चुनाव में यही मुद्दे रहे हैं और इनके वादे किये गए, लेकिन आज भी जनता के बीच इन चीजों की दरकार है या यूं कह लें कि नेताओं द्वारा चुनाव के पश्चात उसे पूरा नही किया जा सका |
गौरतलब है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और बिजली-पानी की बेहतर व्यवस्था सरकार का दायित्व है, जो किसी विशेष मैनिफेस्टो का हिस्सा नही यह बुनियादी रूप से आवश्यक होना चाहिए, लेकिन पार्टियाँ लगातार इन्ही मुद्दों को चुनाव में उठाती रहे हैं और आज़ादी के लगभग 73 साल बाद भी उसी मुद्दे पर चुनाव लड़ा जा रहा है, भला आज़ाद, समृद्ध और ख़ुशहाल भारत की इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है |
बहुत लम्बे समय से उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बसपा का वर्चस्व रहा है। उनके अलावा भाजपा लम्बे समय तक वहा अपना अस्तित्व तलाशती रही है, लेकिन साल 2014 केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद, मोदी लहर ऐसी जारी रही कि उत्तरप्रदेश में सपा और बसपा का सफाया हो गया | दरअसल उत्तरप्रदेश की राजनीति में जातीय समीकरण का अपना अहम रोल रहा है | देखा जाय तो उत्तरप्रदेश में अपनी एक विशेष राजनितिक पकड़ रखने वाली सपा और बसपा का आधार जातिवाद ही रहा है और लम्बे समय तक दोनों पार्टियाँ जाति आधारित राजनीति कर सत्ता में बने रहें | वहीं साल 2014 में विकास और हिंदुत्व का ऐसा डंका पीटा गया कि लोगों ने सत्ता परिवर्तन कर दिया | हाँ, निश्चित रूप से योगी सरकार के कार्यकाल के दौरान उत्तर प्रदेश में अपराध का काफी हद तक सफाया हुआ है , जो कि पूर्व सरकारों के समय कभी चरम पर हुआ करता था | लेकिन आज भी जनता अपने मूल जरूरतों से इतर अन्य मुद्दों में 5 साल उलझी रहती है या यूं कह लें कि नेतागण जनता को उलझाए रहते हैं और चुनाव आते ही हर बार की तरह गरीबी, महंगाई, बिजली, पानी, सड़क और स्वास्थ्य जैसे आम विषय जो कि लोगों की मुलभुत आवश्यकता है, वही विपक्ष के लिए चुनावी मुद्दे बन जाते हैं | लेकिन वहीं पार्टियाँ जब सत्ता में आने के बाद उन्ही मुद्दों को शायद उसे अगले चुनावी मुद्दे के लिए छोड़ देती है |
हर चुनाव के नतीजे जातीय गुणा-गणित, धार्मिक गोलबंदी, राजनीतिक अस्मिता की पहचान के अलावा इस बात पर भी निर्भर करते हैं कि किसी राज्य की सत्ता के अधीन आम लोग कैसा महसूस कर रहे हैं? उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विकास योजनाओं के शिलान्यास-उद्घाटन के बहाने सबसे ज्यादा चुनावी दौरे हो रहे हैं। समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव परिवर्तन रथ पर सवार होकर पूरे प्रदेश में ‘बाइस में बाईसाइकिल’ के नारे के तहत पूरा प्रदेश मथ रहे हैं। बसपा खेमे में अभी खामोशी है। विद्वतजन सम्मेलन के अलावा और कोई राजनीतिक सक्रियता सुश्री मायावती की ओर से अभी नजर नहीं आ रही है।

उत्तर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी का इलाका भी पूर्वी उत्तर प्रदेश ही है। हाल-हाल तक गोरखपुर और बनारस गुंडई-दबंगई-बाहुबली राजनेताओं के हनक का केंद्र रहा है । सत्ता के संरक्षण में पालित-पोषित राजनेताओं का रसूख भी एक अरसे तक पूरे परवान था । कुछ हद तक योगी राज में ऐसे बाहुबली नेताओं के मनमानेपन पर रोक लगी है। ऐसा कोई भी देख-समझ और महसूस कर सकता है । कहना न होगा कि पूर्वांचल की राजनीति में यह एक महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा है, और चर्चा में भी है ।
एनबीटी ने हाल ही में एक सर्वे किया है । जिसमें सवाल था कि इस बार UP विधानसभा चुनाव में वोट करते समय आपके लिए सबसे बड़ा मुद्दा क्या रहेगा? विकल्प के रूप में महंगाई, बेरोजगारी, मंदिर- मस्जिद और अच्छे स्कूल- अस्पताल रखा। लोगों को इस बार चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा महंगाई का लगता है। 29.8 फीसदी लोगों ने महंगाई पर मुहर लगाया।
यूपी चुनाव में दूसरा बड़ा मुद्दा बेरोजगारी बन सकता है । 28.1 फीसदी लोगों ने बेरोजगारी को वोट दिया है। वहीं तीसरे नंबर पर अच्छे स्कूल अस्पताल को वोट मिले हैं। 23.2 फीसदी लोग स्कूल -अस्पताल को ध्यान में रखकर मतदान करने की बात कर रहे हैं। वहीं मंदिर-मस्जिद को 18.9 फीसदी वोट मिले ।
दरअसल, भाजपा अभी तक गुजरात मॉडल या यूं कह लें कि प्रधानमंत्री नरेंद मोदी के विकासपुरुष की छवि और हिंदुत्व के दम पर ही चुनाव लड़ती और जीतती रही है । इस बार फर्क यह दिख रहा है भाजपा के कार्यकर्ताओं में उदासीनता है। यह उदासीनता भाजपा को लेकर उतना नहीं है, जितना योगी आदित्यनाथ की कार्य पद्धति को लेकर है । शायद इसका एक कारण राममंदिर केस का निपटारा भी हो सकता है, जिसका निर्णय आ जाने के बाद अब शायद कोई वैसा ठोस मुद्दा न बचा हो |
वहीं समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता मनोज काका कहते हैं कि ‘समाजवादी पार्टी का चुनावी मुद्दा किसान नौजवान और महिला होगा। इसके अलावा सरकार बनने पर समाजवादी पार्टी बड़ा रोजगार सृजन करेगी। संगठित और असंगठित क्षेत्र दोनों को बूस्टअप करेगी और रोजगार देगी।’
कांग्रेस के पास अभी कोई राजनीतिक पूंजी तैयार नहीं हो पाई है। बड़े करीने से सहेज कर एक अरसे तक बची राजनीतिक पूंजी नब्बे के दशक से ही खत्म होना शुरू हुई। अब तक तमाम प्रयासों के बावजूद पार्टी के राजनीतिक जमा खाते में रूठी लक्ष्मी की वापसी संभव नहीं हो पाई है। इस वजह से कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी तमाम वादों के बावजूद लोगों को भरोसा नहीं जीत पा रही हैं।
आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 20 लाख नौकरियाँ देनें तो सपा फ्री बिजली, पेंशन योजना और जातीय जनगणना का वादा कर रही है | वही भाजपा फ़िलहाल माफियाओं पर अपने एक्शन और अन्न योजना को भुनाने की कोशिश कर रही है | लेकिन यह विचारणीय है कि क्या कोई भी सरकार यूपी में सत्ता में आने पर अपने वादों को पुरी तरह से पूरा कर पाई है? और क्या उत्तर प्रदेश का विकास करने में यह सक्षम हुए है? दरसल हर चुनाव में जनता के लिए हर पार्टियों द्वारा एक एजेंडा तय किया जाता है और प्रायः जनता एक बार फिर उनमें फास कर रह जाती है | कहीं न कहीं आम जनता चुनाव नजदीक आते आते अपने मूल मुद्दों को भूलकर विरोधी और समर्थक के रूप में उभर आते हैं और लोगों की मूलभूत आवश्यकताएं और मुद्दें चुनावी खीच-तान और वैचारिकी नफरत में कहीं नीचे दब जाते हैं |
2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए ने भारी बहुमत से जीत हासिल की थी, मुद्दा था राम मंदिर, राष्ट्रवाद और विकास | विकास के पैमाने पर एनडीए के कई नेता बेहद खरे उतरे, उन्होंने अपने काम से अपनी एक विशेष पहचान बनाई और जनता को लाभान्वित किया | उनमें से ही एक नाम पूर्व केन्द्रीय मंत्री मनोज सिन्हा का आता है, जो फिलहाल जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल हैं | मनोज सिन्हा साल 2014 में गाज़ीपुर, उत्तर प्रदेश से सांसद रहे हैं | उनके काम को देखते हुए उन्हें विकासपुरुष का दर्जा दिया गया और काफी हद तक उन्होंने गाज़ीपुर का कायाकल्प बदला, विकास किया | लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में मनोज सिन्हा के विकासवाद के आगे कहीं न कहीं जातिवाद और धर्मवाद भारी पड़ा | जनता ने विकास को चुनने के बजाय इनके प्रतिद्वंदी अफ़ज़ल अंसारी को चुना जो कि सपा और बसपा के गठबंधन की सीट पर चुनाव लड़े थे | राजनीति का यह अध्याय कहीं न कहीं उत्तर प्रदेश के जातीय और धार्मिक कट्टरता की सोच को दिखाता है, ऐसे में यह सवाल आज भी उठाता है कि क्या जनता वास्तव में बुनियादी विकास चाहती है, या जातीय कट्टरता के आधार पर ही विकास तलाश रही है | यदि राजनैतिक विचारधारा से इतर देखें तो मनोज सिन्हा के अथक सकारात्मक प्रयासों के बावजूद जनता ने उन्हें चुनने के बजाय अफ़ज़ल अंसारी को चुना, जिनपर न जाने कितने आपराधिक मामले दर्ज रहे हैं |
यदि विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में देखा जाय तो जातिवाद अक्सर विकासवाद पर भारी पड़ा है | 2017 से पहले तक ओबीसी, एससी, एसटी और मुस्लिम वोट किसी पार्टी के जीत के मुख्य आधार बने रहते थे, इसके अनुसार ही पार्टिया खुद को इनका हितैषी साबित करती आई हैं | खासतौर पर सपा खुद के समाजवादी विचारधारा के फैलाने का बात करती रही है लेकिन कहीं न कहीं सपा भी एक निश्चित वर्ग व समुदाय के प्रति अधिक मोहित रही है | वहीं साल 2017 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश का वोट बैंक जाति से धर्म में तब्दील हो गया | इसके बाद हुए लोकसभा चुनाव की बात करें या मौजूदा विधानसभा चुनाव की, आज कुछ निश्चित पार्टियाँ पहले की भातिं किसी निश्चित समुदाय की नही बल्कि खुद को धार्मिक स्तर पर परोसने व साबित करने में लगे हैं | यदि देखा जाय तो आज अधिकतर राजनैतिक पार्टियाँ जाति से हटकर अब धर्म पर शिफ्ट हो चुकी हैं और इसके साथ कुछ मुद्दों को लेकर जनता को बरगलाने की कोशिश कर रही हैं, जिसमें किसी न किसी को सत्तर तो मिल जाएगी लेकिन आम जनता के हाथों में एक बार फिर झूठे विकास व वादों का झुनझुना आएगा |

बीते सात साल थे पृथ्वी के इतिहास के सबसे गर्म साल

यूरोपीय संघ की कॉपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस ने अपने सालाना निष्कर्ष जारी करते हुए बताया है कि वैश्विक स्तर पर वर्ष 2021 अब तक का सातवां सबसे गर्म साल था। इस साल यूरोप ने प्रचंड गर्मी का अनुभव किया। इस दौरान भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में तपिश के जबरदस्त थपेड़े महसूस किए गए और मध्य यूरोप में बाढ़ ने अपना कहर ढाया। इस दौरान कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन के संकेंद्रण में उल्लेखनीय रूप से वृद्धि जारी रही।

यूरोपियन सेंटर फॉर मीडियम रेंज वेदर फोरकास्ट्स (ईसीएमडब्ल्यूएफ) ने यूरोपियन कमीशन की ओर से यूरोपीय संघ के वित्तपोषण से कॉपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस (सी3एस) लागू की है। सी3एस द्वारा जारी किए गए ताजा आंकड़ों से जाहिर होता है कि पिछले 7 साल वैश्विक स्तर पर सबसे गर्म 7 वर्ष रहे और इनके बीच तापमान का अंतर भी काफी स्पष्ट है। वैश्विक स्तर पर इन 7 वर्षों में 2021 अपेक्षाकृत ठंडा रहा। इसके अलावा 2015 और 2018 भी कुछ ठंडे रहे। इस बीच, यूरोप में अब तक की सबसे गर्म ग्रीष्म ऋतु का अनुभव हुआ। यह पिछले सबसे गर्म साल रहे वर्ष 2010 और 2018 के काफी नजदीक रहा। सी3एस ने कॉपरनिकस एटमॉस्फेयर मॉनिटरिंग सर्विस के सहयोग से यह भी बताया है कि सेटेलाइट मापन के प्रारंभिक विश्लेषण से यह मालूम हुआ है कि वातावरणीय ग्रीन हाउस गैसों का संकेंद्रण वर्ष 2021 के दौरान लगातार बढ़ता रहा। इस दौरान कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर करीब 414 पीपीएम के सालाना वैश्विक कॉलम-औसत दर्ज किया गया जबकि मीथेन (सीएच4) का सालाना रिकॉर्ड लगभग 1876 पीपीबी का रहा। वैश्विक स्तर पर जंगलों में लगी आग से कुल 1850 मेगाटन कार्बन पैदा हुआ। खास तौर पर साइबेरिया के जंगलों में लगी आग से बहुत भारी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन हुआ। यह पिछले साल (1750 मेगाटन कार्बन उत्सर्जन) के मुकाबले कुछ ज्यादा था। हालांकि वर्ष 2003 से इसमें गिरावट का रुख है।

वैश्विक भूतल वायु तापमान

· वैश्विक स्तर पर वर्ष 2021 पांचवा सबसे गर्म साल रहा मगर यह 2015 और 2018 के मुकाबले कुछ ही ज्यादा गर्म था।

· सालाना औसत तापमान वर्ष 1991-2020 की संदर्भ अवधि के दौरान दर्ज तापमान से 0.3 डिग्री सेल्सियस अधिक था। साथ ही यह 1850-1900 के प्री इंडस्ट्रियल स्तर से 1.1-1.2 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा।

· पिछले 7 साल वैश्विक स्तर पर अब तक के सबसे गर्म 7 वर्ष रहे और इनके बीच तापमान का अंतर भी काफी स्पष्ट था।

वैश्विक स्तर पर साल के शुरूआती 5 महीनों के दौरान दर्ज किए गए तापमान हाल के बहुत गर्म वर्षों के मुकाबले कुछ कम रहे। हालांकि जून से लेकर अक्टूबर तक के सालाना तापमान के स्तर कम से कम चौथे सबसे गर्म महीनों के स्तर पर लगातार बने रहे। पिछले 30 वर्षों (1991 से 2020) के दौरान दर्ज तापमान प्री इंडस्ट्रियल स्तर से करीब 0.9 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। इस ताजातरीन 30 साल की संदर्भ अवधि के मुकाबले सबसे अधिक औसत तापमान वाले क्षेत्रों में अमेरिका और कनाडा के पश्चिमी तट से लेकर पूर्वोत्तर कनाडा और ग्रीनलैंड तक का इलाका शामिल है। इसके अलावा मध्य और उत्तरी अफ्रीका तथा मिडिल ईस्ट के बड़े हिस्से भी इसमें शामिल हैं। पश्चिमी और पूर्वी साइबेरिया, अलास्का, मध्य और पूर्वी प्रशांत क्षेत्र में सबसे निम्न औसत तापमान पाया गया। इसके अलावा वर्ष की शुरुआत तथा अंत में ला नीना स्थिति के साथ साथ ऑस्ट्रेलिया के अधिकांश और अंटार्कटिका के कुछ हिस्सों में भी यही स्थिति पाई गई।

यूरोपियन भूतल वायु तापमान

· पूरे 1 वर्ष को देखें तो यूरोप का तापमान वर्ष 1991 से 2020 के औसत से महज 0.1 डिग्री सेल्सियस अधिक था। यह स्तर सबसे गर्म 10 वर्षों की श्रेणी में भी नहीं आता।

· यूरोप के लिए 10 सबसे गर्म वर्ष साल 2000 के बाद के रहे। इनमें सबसे गर्म 7 साल 2014 से 2020 के बीच दर्ज किए गए।

यूरोप में सर्दियों के आखिरी कुछ महीने और वसंत ऋतु की पूरी अवधि आमतौर पर वर्ष 1991 में 2020 के औसत के करीब या फिर उससे कुछ नीचे रही। एक अपेक्षाकृत गर्म मार्च के बाद अप्रैल में एक ठंडा चरण होने से महाद्वीप के पश्चिमी हिस्सों में देर से सीजन फ्रॉस्‍ट पड़ा। इसके विपरीत 2021 में यूरोप में पड़ी गर्मी अब तक की सबसे गर्म ऋतु रही। हालांकि यह वर्ष 2010 और 2018 की पिछली प्रचंड गर्मी के नजदीक ही रही। जून और जुलाई दोनों ही दूसरे सबसे गर्म महीने रहे जबकि अगस्त समग्र औसत के करीब रहा। मगर दक्षिण में औसत से अधिक तापमान और उत्तर में औसत से कम तापमान के बीच एक बड़ा विभाजन भी देखा गया।

यूरोप में पड़ी गर्मी की चरम परिघटनाएं

यूरोप में वर्ष 2021 की गर्मियों के दौरान गहरा प्रभाव छोड़ने वाली अनेक चरम मौसमी घटनाएं हुईं। जुलाई में पश्चिमी मध्य यूरोप में संतृप्ति के करीब मिट्टी वाले क्षेत्र में बहुत भारी वर्षा हुई, जिससे अनेक देशों में गंभीर बाढ़ के हालात उत्पन्न हो गए। इससे सबसे ज्यादा प्रभावित देशों में जर्मनी, बेल्जियम, लक्जमबर्ग और नीदरलैंड्स शामिल हैं। भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में पूरे जुलाई और अगस्त के कुछ हिस्से के दौरान लोगों को जबरदस्त तपिश का सामना करना पड़ा। इस दौरान ग्रीस, स्पेन और इटली खासतौर पर बहुत अधिक तापमान की गिरफ्त में रहे। सर्वाधिक तापमान का यूरोपियन रिकॉर्ड सिसिली में टूट गया जहां 48.8 डिग्री सेल्सियस अधिकतम तापमान रिकॉर्ड किया गया जो पिछले सर्वाधिक तापमान से 0.8 डिग्री सेल्सियस अधिक था। हालांकि वर्ल्ड मेट्रोलॉजिकल ऑर्गेनाइजेशन ने इसकी अब तक के सर्वाधिक तापमान के रिकॉर्ड के तौर पर पुष्टि नहीं की है। गर्म और सूखी परिस्थितियों की वजह से जंगलों में जबरदस्त और लंबे वक्त तक चलने वाली आग लग गई। खासतौर पर पूर्वी तथा मध्य भूसागरीय इलाके के जंगलों में। तुर्की सबसे ज्यादा प्रभावित देशों में शामिल रहा इसके अलावा ग्रीस, इटली, स्पेन, पुर्तगाल, अल्बानिया, नॉर्थ मेसिडोनिया, अल्जीरिया और ट्यूनीशिया में भी जंगलों की आग ने जबरदस्त असर डाला।

उत्तरी अमेरिका

वर्ष 2021 के दौरान उत्तरी अमेरिका के अनेक इलाकों में तापमान में काफी विसंगतियां देखी गयीं। उत्तर-पूर्वी कनाडा में साल के शुरु और शरद ऋतु में औसत प्रतिमाह तापमान असामान्य रूप से गर्म रहा। उत्तरी अमेरिका के पश्चिमी भागों में जून में अप्रत्याशित गर्मी पड़ी। इस दौरान अधिकतम तापमान के रिकॉर्ड कई डिग्री सेल्सियस से टूट गए, जिसकी वजह से इस महाद्वीप में इस साल अब तक का सबसे गर्म जून का महीना रहा। क्षेत्रीय स्तर पर गर्म और सूखी परिस्थितियों के कारण पूरे जुलाई और अगस्त के महीनों में जंगलों की आग की श्रंखला और भी भड़क उठी। कनाडा के अनेक प्रांत तथा अमेरिका के पश्चिमी तटीय राज्य सबसे बुरी तरह प्रभावित इलाकों में शामिल रहे। हालांकि सभी क्षेत्र समान रूप से प्रभावित नहीं हुए। इस दौरान ‘डिक्सी फायर’ के तौर पर कैलिफोर्निया के इतिहास में दूसरी सबसे व्यापक आग दर्ज की गई। इससे न सिर्फ बड़े पैमाने पर विनाश हुआ बल्कि इससे उठने वाले प्रदूषण के कारण हजारों लोगों को दूषित हवा में सांस लेने को मजबूर होना पड़ा। इस दौरान पूरे महाद्वीप में वायु की गुणवत्ता में गिरावट आई क्योंकि जंगलों की आग के कारण उत्पन्न पार्टिकुलेट मैटर तथा अन्य प्रदूषणकारी तत्व पूरब की तरफ बह चले। कुल मिलाकर उत्तरी अमेरिका को सबसे ज्यादा मात्रा में कार्बन उत्सर्जन का अनुभव करना पड़ा। इस दौरान जंगलों की आग से 83 मेगाटन कार्बन तथा अन्य ज्वरकारक तत्वों का उत्सर्जन हुआ। यह वर्ष 2003 से अब तक किसी गर्मी में रिकॉर्ड किया गया सर्वाधिक सीएएमएस डाटा है।

वर्ष 2021 में CO2 और CH4 संघनन में बढ़ोत्तरी जारी रही

सेटेलाइट से प्राप्त डाटा के शुरुआती विश्लेषण से यह जाहिर हुआ है कि कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर में लगातार वृद्धि का दौर 2021 में भी जारी रहा जिसकी वजह से सालाना वैश्विक कॉलम एवरेज (एक्ससीओ2) करीब 414.3 पीपीएम रिकॉर्ड किया गया। संकेंद्रण की सबसे ज्यादा मात्रा अप्रैल 2021 में रिकॉर्ड की गई जब एक्ससीओ2 का वैश्विक प्रतिमाह माध्य स्तर 416.1 पीपीएम तक पहुंच गया। वर्ष 2021 के लिए एक्ससीओ2 की वैश्विक सालाना अनुमानित माध्य वृद्धि दर 2.4 +_ 0.4 पीपीएम प्रतिवर्ष थी। यह वर्ष 2010 से अब तक देखी गई करीब 2.4 पीपीएम प्रतिवर्ष की औसत वृद्धि दर के नजदीक भी है। मगर यह वर्ष 2015 में नापी गई 3.0 पीपीएम प्रतिवर्ष और 2016 की 2.9 पीपीएम प्रतिवर्ष की उच्च विकास दर से नीचे रही। यह दोनों ही मजबूत अलनीनो जलवायु परिवर्तन से संबंधित थी।

सेटेलाइट डाटा के शुरुआती विश्लेषण के अनुसार वर्ष 2021 में वातावरणीय मीथेन संकेंद्रण में भी वृद्धि जारी रही और यह करीब 1876 पीपीबी के अधिकतम अप्रत्याशित वैश्विक कॉलम औसत (एक्ससीएच4) के स्तर तक पहुंच गया। एक्ससीएच4 की अनुमानित सालाना माध्य विकास दर 16.3 +3.3 पीपीबी/प्रतिवर्ष थी। इसी वर्ष 2020 की विकास दर (14.6 + 3.1 पीपीबी/वर्ष) से कुछ ज्यादा है। यह दोनों ही दरें पिछले दो दशकों के दौरान एकत्र सेटेलाइट डाटा के मुकाबले काफी अधिक हैं। हालांकि अभी यह पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है कि ऐसा क्यों है। वृद्धि की यह शुरुआत कहां से हुई है, इसे पहचानना चुनौतीपूर्ण है क्योंकि मीथेन के कई स्रोत हैं। इनमें कुछ मानवजनित गतिविधियां (जैसे कि तेल और गैस का अत्यधिक दोहन) तो हैं ही, साथ ही साथ कुछ कुदरती या अर्द्ध प्राकृतिक कारण (वेटलैंड) भी हैं।

यूरोपियन कमिशन के डायरेक्टरेट जनरल फॉर डिफेंस इंडस्ट्री एंड स्पेस के अर्थ ऑब्जर्वेशन विभाग के प्रमुख मौरो फचीनी ने कहा “पेरिस समझौते के तहत यूरोप की संकल्पबद्धता तभी मूर्त रूप ले सकती है जब जलवायु संबंधी सूचनाओं का प्रभावी विश्लेषण हो। कॉपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस हमारी जलवायु के बारे में संचालनात्मक उच्च गुणवत्ता वाली सूचना के माध्यम से जरूरी वैश्विक संसाधन उपलब्ध कराता है जोकि जलवायु न्यूनीकरण तथा अनुकूलन संबंधी नीतियों, दोनों ही के लिए महत्वपूर्ण है। वर्ष 2021 का विश्लेषण हमें दिखाता है कि वैश्विक स्तर पर पिछले 7 वर्ष अब तक के सबसे गर्म 7 साल रहे हैं। यह हमें याद दिलाता है कि वैश्विक तापमान में वृद्धि लगातार जारी है और इस पर अंकुश लगाने के लिए फौरन मुस्तैदी से काम करना होगा।”

कॉपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस के निदेशक कार्लो बुओंटेंपो ने कहा “वर्ष 2021 यूरोप में सबसे भीषण गर्मी के साथ अत्यधिक तापमान का एक और साल था। भूमध्यसागरीय क्षेत्र में गर्म थपेड़े और उत्तरी अमेरिका में तापमान में अप्रत्याशित बढ़ोत्‍तरी हुई। पिछले 7 वर्ष रिकॉर्ड पर लिए गए अब तक के सबसे गर्म 7 साल रहे हैं। यह घटनाएं हमें झकझोर कर यह याद दिलाती हैं कि हमें अपने तौर-तरीकों को बदलने, एक सतत समाज के निर्माण की दिशा में निर्णायक और प्रभावी कदम उठाने और शुद्ध कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लिए काम करने की जरूरत है।’’

कॉपरनिकस एटमॉस्फेयर मॉनिटरिंग सर्विस के निदेशक विंसेंट हेनरी पियूच ने कहा “कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन के संकेंद्रण में साल दर साल वृद्धि का सिलसिला जारी है और इसमें गिरावट के भी कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं। यह ग्रीन हाउस गैसें ही जलवायु परिवर्तन की मुख्य कारक हैं। यही वजह है कि सीएएमएस की अगुवाई में नई अवलोकन आधारित सेवा मानव जनित कार्बन डाइऑक्साइड और CH4 उत्सर्जन अनुमानों की निगरानी और सत्यापन का समर्थन करने के लिए उत्सर्जन शमन उपायों की प्रभावशीलता का आकलन करने के लिहाज से एक महत्वपूर्ण जरिया होगी। सिर्फ पर्यवेक्षणात्मक सुबूतों द्वारा समर्थित दृढ़ प्रयासों के साथ ही हम जलवायु संबंधित तबाही के खिलाफ अपनी लड़ाई में एक वास्तविक अंतर ला सकते हैं।

सी3एस अपने सालाना प्रकाशन यूरोपियन स्टेट ऑफ द क्लाइमेट (European State of the Climate) में वर्ष 2021 में यूरोप में हुई जलवायु संबंधी विभिन्न घटनाओं की विस्तृत समीक्षा को पेश करेगा। इसे अप्रैल 2022 में प्रकाशित किया जाएगा।

अमीरी-गरीबी की बढ़ती खाई को पाटना जरूरी

-ललित गर्ग-
गरीबी-अमीरी के असंतुलन को कम करने की दिशा में काम करने वाली वैश्विक संस्था ऑक्सफैम ने अपनी ताजा आर्थिक असमानता रिपोर्ट में समृद्धि के नाम पर पनप रहे नये नजरिया, विसंगतिपूर्ण आर्थिक संरचना एवं अमीरी गरीबी के बीच बढ़ते फासले की तथ्यपरक प्रभावी प्रस्तुति देते हुए इसे घातक बताया है। आज देश एवं दुनिया की समृद्धि कुछ लोगों तक केन्द्रित हो गयी है, भारत में भी ऐसी तस्वीर दुनिया की तुलना में अधिक तीव्रता से देखने को मिल रही है। देश में मानवीय मूल्यों और आर्थिक समानता को हाशिये पर डाल दिया गया है और येन-केन-प्रकारेण धन कमाना ही सबसे बड़ा लक्ष्य बनता जा रहा है। आखिर ऐसा क्यों हुआ? क्या इस प्रवृत्ति के बीज हमारी परंपराओं में रहे हैं या यह बाजार के दबाव का नतीजा है? कहीं शासन-व्यवस्थाएं गरीबी दूर करने का नारा देकर अमीरों को प्रोत्साहन तो नहीं दे रही है? इस तरह की मानसिकता राष्ट्र को कहां ले जाएगी? ये कुछ प्रश्न ऑक्सफैम की आर्थिक असमानता रिपोर्ट के सन्दर्भ महत्त्वपूर्ण हैं, आम बजट से पूर्व इस रिपोर्ट का आना और उसके तथ्यों पर मंथन जरूरी है।
ताजा रिपोर्ट के चौंकाने वाले तथ्य है कि कोरोना महामारी के बावजूद दुनिया भर में धनपतियों का खजाना तेजी से बढ़ा है। भारत में भले 84 फीसदी परिवारों की आमदनी महामारी की वजह से कम हो गई, लेकिन अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो गई है। इतना ही नहीं, मार्च 2020 से लेकर 30 नवंबर, 2021 के बीच अरबपतियों की आमदनी में करीब 30 लाख करोड़ रुपये का इजाफा हुआ है और वह 23.14 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 53.16 लाख करोड़ रुपये हो गई है, जबकि 2020 में 4.6 करोड़ से अधिक नए भारतीय अति-गरीब बनने को विवश हुए।
इस रिपोर्ट में साफ-साफ कहा गया है कि पूरे विश्व में आर्थिक असमानता बहुत तेजी से फैल रही है। अमीर बहुत तेजी से ज्यादा अमीर हो रहे हैं। साम्राज्यवाद की पीठ पर सवार पूंजीवाद ने जहां एक ओर अमीरी को बढ़ाया है तो वहीं दूसरी ओर गरीबी भी बढ़ती गई है। यह अमीरी और गरीबी का फासला कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है जिसके परिणामों के रूप में हम आतंकवाद को, नक्सलवाद को, सांप्रदायिकता को, प्रांतीयता को देख सकते हैं, जिनकी निष्पत्तियां समाज में हिंसा, नफरत, द्वेष, लोभ, गलाकाट प्रतिस्पर्धा, रिश्तांे में दरारें आदि के रूप में देख सकते हैं। सर्वाधिक प्रभाव पर्यावरणीय असंतुलन एवं प्रदूषण के रूप में उभरा है। चंद हाथों में सिमटी समृद्धि की वजह से बड़े और तथाकथित संपन्न लोग ही नहीं बल्कि देश का एक बड़ा तबका मानवीयता से शून्य अपसंस्कृति का शिकार हो गया है। अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई तब तक नहीं कम होगी, जब तक सरकार की तरफ से इसको लेकर ठोस कदम नहीं उठाए जाते हैं। असमानता दूर करने के लिए सरकार को गरीबों के लिए विशेष नीतियां अमल में लानी होगी।
वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम के सालाना सम्मेलन एवं भारत के आम बजट के आसपास ऑक्सफेम इस तरह की रिपोर्ट जारी कर बताना चाहता है कि भले वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम पूंजीपतियों की वकालत करे, लेकिन उसका मुख्य उद्देश्य दुनिया में बढ़ आर्थिक असमानता को दूर करने का भी होना चाहिए। अमीरी और गरीबी की बढ़ती खाई को पाटना जरूरी इसलिये भी है कि पिछले दो वर्षों से हम महामारी से गुजर रहे हैं और यह उम्मीद थी कि कम से कम कोरोना काल में गरीबों को ज्यादा मदद दी जाएगी और उनकी आमदनी सुरक्षित रखी जाएगी। मगर ऐसा नहीं हुआ। आंकड़े यही बता रहे हैं कि महामारी में जिस वर्ग ने सबसे ज्यादा फायदा उठाया, वह धनाढ्य वर्ग है। उसकी संपत्ति और आमदनी बढ़ी है, जबकि गरीबों का जीना और दुश्वार हो गया है। इसके लिए सरकारों को निचले तबके की आमदनी में इजाफा करने और धनाढ्य तबके से जायज टैक्स वसूलने की कोशिश करनी होगी।
आर्थिक असमानता घटाने का तरीका ही यही है कि मजदूरों को उनकी वाजिब मजदूरी मिले, खेती करने वालों को अपनी उपज का उचित दाम मिले, मजदूरों को खून-पसीने की कमाई मिले और कोई भी इंसान व्यवस्था का लाभ उठाकर जरूरत से ज्यादा अपनी तिजोरी न भर सके। ऐसा होने से समाज में एक विद्रोह पनपेगा, जो हिंसक क्रांति का कारण बनेगा। भारत में सरकार की नीतियां गरीब दूर करने का स्वांग करती है। असलियत में सरकार अमीरों को ही लाभ पहुंचाती है। वर्ष 2019 में केंद्र सरकार ने टैक्स में छूट देकर देश के पूंजीपति वर्ग को दो लाख करोड़ रुपये की माफी दे दी। मदद की जरूरत धनाढ्यों को नहीं, गरीबों को थी। असंगठित क्षेत्र के लोग थे, जिनको सहायता मिलनी चाहिए थी। मगर वे मुंह ताकते रह गए और मलाई धनाढ्य ले उड़े। सच यही है कि पिछले पांच साल से लोगों की वास्तविक आमदनी नहीं बढ़ी है। मनरेगा की मजदूरी, जो सरकार खुद तय करती है, वह भी बाजार में मिलने वाली मजदूरी से कम है। जबकि इसके बरक्स शेयर बाजार नित नई ऊंचाइयों पर दिखने लगा है। इन सबसे स्वाभाविक तौर पर अमीरी-गरीबी के बीच की खाई बढ़ रही है।
हमारे देश में जरूरत यह नहीं है कि चंद लोगों के हाथों में ही बहुत सारी पूंजी इकट्ठी हो जाये, पूंजी का वितरण ऐसा होना चाहिए कि विशाल देश के लाखों गांवों को आसानी से उपलब्ध हो सके। लेकिन क्या कारण है कि महात्मा गांधी को पूजने वाले सत्ताशीर्ष का नेतृत्व उनके ट्रस्टीशीप के सिद्धान्त को बड़ी चतुराई से किनारे कर रखा है। यही कारण है कि एक ओर अमीरों की ऊंची अट्टालिकाएं हैं तो दूसरी ओर फुटपाथों पर रेंगती गरीबी। एक ओर वैभव ने व्यक्ति को विलासिता दी और विलासिता ने व्यक्ति के भीतर क्रूरता जगाई, तो दूसरी ओर गरीबी तथा अभावों की त्रासदी ने उसके भीतर विद्रोह की आग जला दी। वह प्रतिशोध में तपने लगा, अनेक बुराइयां बिन बुलाए घर आ गईं। अर्थ की अंधी दौड़ ने व्यक्ति को संग्रह, सुविधा, सुख, विलास और स्वार्थ से जोड़ दिया। नई आर्थिक प्रक्रिया को आजादी के बाद दो अर्थों में और बल मिला। एक तो हमारे राष्ट्र का लक्ष्य समग्र मानवीय विकास के स्थान पर आर्थिक विकास रह गया। दूसरा सारे देश में उपभोग का एक ऊंचा स्तर प्राप्त करने की दौड़ शुरू हो गई है। इस प्रक्रिया में सारा समाज ही अर्थ प्रधान हो गया है।
समाज को अर्थ नहीं, जीवन प्रधान बनाना होगा। इसके लिये सरकारों को लंबी अवधि और छोटी अवधि, दोनों के लिए योजनाएं बनानी होंगी। अल्पावधि कार्यक्रमों में जहां असंगठित क्षेत्र को समर्थन देना, उस तक सीधी नकदी पहुंचाना बहुत जरूरी है, मनरेगा जैसी योजनाओं का बजट बढ़ाना भी जरूरी है, ताकि मजदूर वर्ग तक नकद राशि पहुंचे। हमारे गांवों में एक बड़ा तबका अब भी कृषि पर आधारित है। उन लोगों की आमदनी बढ़ाने के लिए जरूरी है कि उनकी लागत कम की जाए और आय बढ़ाई जाए। दीर्घावधि की योजनाओं में शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और रोजगार पर खर्च करने की जरूरत है। जबकि सरकारें इन जीवन से जुड़ी सेवाओं को अपने हाथ में रखने की बजाय निजी क्षेत्रों को सौंप रही है, जिससे ये सेवाएं अब व्यवसाय हो गयी है। इस प्रक्रिया में सारी सामाजिक मान्यताओं, मानवीय मूल्यों, मर्यादाओं को ताक पर रखकर कैसे भी धन एकत्र कर लेने को सफलता का मानक माने जाने लगा है जिससे राजनीति, साहित्य, कला, धर्म सभी को पैसे की तराजू पर तोला जाने लगा है। इस प्रवृत्ति के बड़े खतरनाक नतीजे सामने आ रहे हैं। अब तक के देश की आर्थिक नीतियां और विकास का लक्ष्य चंद लोगों की समृद्धि में चार चांद लगाना हो गया है। चंद लोगों के हाथों में समृद्धि को केन्द्रित कर भारत को महाशक्ति बनाने का सपना भी देखा जा रहा है। संभवतः यह महाशक्ति बनाने की बजाय हमें कमजोर राष्ट्र के रूप में आगे धकेलने की तथाकथित कोशिश है।

बदले बदले दल बदलू नज़र आते हैं


बदले बदले दल बदलू नज़र आते है।
एक पार्टी छोड़,दूसरी में नजर आते है।।

मिल गया टिकट हम देश को बदल देगे।
मिला नही टिकट हम पार्टी ही बदल देंगे।।

दलबदलु है नाम हमारा इसे चरितार्थ कर देंगे।
बात नही बनी तो पार्टी का नाम ही बदल देंगे।।

रहती नही बदले की भावना खुद ही बदल जाते है।
मिलता नही टिकट तो हम खुद टिकट बन जाते है।।

मिलते ही सत्ता की कुर्सी हम उसके ही हो जाते है।
छीनने पर सत्ता की कुर्सी हम पार्टी को छोड़ आते है।।

आर के रस्तोगी

झारखंड के हस्तशिल्प कला में रोज़गार की संभावनाएं

शैलेंद्र सिन्हा

दुमका, झारखंड

झारखंड में हस्तशिल्प के कई शिल्पकार अब हुनरमंद बन रहे हैं. इन्हें वस्त्र मंत्रालय, भारत सरकार और झारखंड सरकार के हस्तशिल्प, रेशम एवं हस्तकरघा विभाग प्रशिक्षण दे रहा है. इसके माध्यम से शिल्पकारों और उनके परिवारों को आर्थिक संबल प्रदान किया जा रहा है. झारखंड में बंबू क्राफ्ट, डोकरा शिल्प, एप्लिक, हैंडलूम, रेशम, काथा स्टिच, टेराकोटा और जूट सहित कई हस्तशिल्प को बढ़ावा दिया जा रहा है. डोकरा शिल्प के डिजाइनर सुमंत बक्शी बताते हैं कि यह प्राचीन कला है, जो मोहनजोदड़ो सभ्यता के समय से चली आ रही है. डोकरा शिल्प की मांग चीन, मिस्र, मलेशिया, नाइजीरिया, अमेरिका, और फ्रांस सहित विश्व के कई देशों में है.

डोकरा के शिल्पकार की परंपरा पुश्तैनी रही है. झारखंड के अतिरिक्त ओडिशा, छत्तीसगढ़, बंगाल और तेलंगाना में इसके शिल्पकार मिलते हैं. डोकरा शिल्पकार झारखंड के हजारीबाग, संथाल परगना, जमशेदपुर और खूंटी जिले में निवास करते हैं. इसके शिल्पकार मल्हार या मलहोर समुदाय के होते हैं. डोकरा शिल्प पीतल, कांसा, मोम और मिट्टी से बनाये जाते हैं. शिल्पकार हाथी, घोड़ा, बर्तन, दरवाजे का हैंडल सहित महिलाओं के सजावट के सामान बनाते हैं. शिल्पकार काल्पनिक सौंदर्य से परिपूर्ण होते हैं, इनकी कला की मांग पूरी दुनिया में है. डिजाइनर बताते हैं कि शिल्पकारों को प्रशिक्षण के दौरान बताया जाता है कि वर्तमान समय के अनुसार उन्हें कैसे उत्पाद बनाने हैं, जिनकी मांग विश्व में है.

डोकरा के शिल्पकार मियांलाल जादोपटिया, सुखचंद जादोपटिया, रत्पी बीबी, रजिया जादोपटिया, कुरैसा जादोपटिया, खातून, हीरामन, शुभू जादोपटिया, जयगुण जादोपटिया सहित दर्जनों लोगों ने बताया कि यह उनका पुश्तैनी पेशा है. लेकिन उचित मार्केटिंग की कमी के कारण वे अपने उत्पाद केवल बंगाल के शांति निकेतन में ही ले जाकर बेचते हैं. मास्टर ट्रेनर हरेज जादोपटिया बताते हैं कि उनकी कारीगरी का उचित दाम नहीं मिलता है. कुछ परिवार अब इसे बनाने से हिचक रहे हैं. वे दिहाड़ी मजदूरी करना इससे बेहतर मानते हैं. शिल्पकारों की रोजी रोटी इससे नहीं चल पा रही है. अधिकतर कारीगर गरीबी में किसी तरह अपनी जिंदगी जी रहे हैं. कारीगरों का स्वयं सहायता समूह बना है, वे आपस में लेनदेन करके अपना जीवन बसर कर रहे हैं. लेकिन सरकार की ओर से आर्थिक सहायता नहीं मिल रही है. हालांकि अब भारत सरकार इन शिल्पकारों के लिए ई-कॉमर्स और जेम पोर्टल के माध्यम से उनकी मदद कर रही है.

हस्तशिल्प से संबंधित आजीविका संवर्धन के लिये प्रयास किये जा रहे हैं. वस्त्र मंत्रालय, भारत सरकार के सहायक निदेशक भुवन भास्कर बताते हैं कि डोकरा शिल्प का काफी भविष्य है. इसकी मांग पूरी दुनिया में है. झारखंड सरकार की ओर से भी प्रमोशन किया जा रहा है. दिल्ली में संपन्न इन्वेस्टर मीट में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने हस्तशिल्प को प्रमोट किया. शिल्पकारों को बाहर भेजने के लिए सरकार की ओर से प्रयास किया जा रहा है. सरकार की ओर से आर्टिजन कार्ड भी दिया गया है, जिसमें उनके परिवार का स्वास्थ्य बीमा कराया गया है. अखिल भारतीय हस्तशिल्प सप्ताह दिसंबर में मनाया जाता है, बच्चों के बीच हस्तशिल्प प्रतियोगिता का आयोजन भी किया जाता है. केन्द्र सरकार की ओर से हस्तशिल्प के कारीगरों के उत्पाद को विपणन की सुविधा मुहैया कराई जा रही है. शिल्पकारों के साथ समय समय पर परिचर्चा आयोजित की जाती है. सरकार का प्रयास है कि जनभागीदारी को भी बढ़ाया जाये.

राज्य के हस्तशिल्प को वैल्यू एडिसन से रोजगार सृजन का प्रयास किया जा रहा है. शिल्पकारों की आय दोगुनी करने पर सरकार की ओर से प्रयास किये जा रहे है. राज्य में रेशम दूत और हस्तशिल्प से जुड़े 70 हजार परिवार को रोजगार मिल रहा है. राज्य में कोकून और तसर बीज का उत्पादन बडी मात्रा में होता है. शिल्पकारों को एमएसएमई से जोड़ा जा रहा है. स्वरोजगार की दिशा में सरकार के प्रयास का लाभ कुछ वर्षों में दिखने लगेगा. स्वयं सहायता समूह से जुड़कर शिल्पकार की प्रगति हो रही है, वे कोऑपरेटिव सोसायटी से भी जुड़ रहे हैं. तसर सिल्क में कारीगरी हो जाने से विदेश में काफी डिमांड है. सिल्क के कपडे में काथा स्टिच का वर्क हो जाने से उसकी खूबसूरती बढ़ जाती है. पूरे देश का 70 प्रतिशत सिल्क का उत्पादन झारखंड में होता है.

इसके अतिरिक्त झारखंड राज्य बंबू मिशन के प्रयास से बांस के उत्पादन, लघु एवं कुटीर उद्यम एवं हस्तशिल्प को बढ़ावा देने का काम किया जा रहा है. सरकार की ओर से किसानों के जीवन में बांस आधारित उद्योग से रोजगार उत्पन्न करने के प्रयास किये जा रहे हैं। राज्य में मोहली परिवारों की संख्या लाखों में है जो परंपरागत रूप से बांस के उत्पादन टोकरी, सूप, डलिया सहित कई सामग्री वर्षों से परंपरागत रूप से बना रहे हैं और अपनी आजीविका चला रहे है. मोहली परिवारों को बंबूकाॅफ्ट की ओर से प्रशिक्षण दिया जा रहा है. झारखंड सरकार की योजना है कि बांस के उत्पाद से आदिवासियों की जीवन शैली में बड़ा बदलाव लाया जा सके. बांस का विकास तेजी से होता है, आज उनके उत्पाद की मांग पूरे विश्व में बढ़ी है. झारखंड में 4470 स्क्वायर किलोमीटर क्षेत्र में इसका उत्पादन होता है. पूरे देश का आधा प्रतिशत बांस झारखंड में पाया जाता है, यहां के बंबूसा टुलडा, बंबूसा नूतनस और बंबूसा बालकोआ की मांग पूरे विश्व में है.

बंबू क्राफ्ट राज्य का प्रमुख उद्योग बन चुका है. लगभग 500 प्रकार के उत्पाद बांस के बन रहे हैं, जो अन्य प्रदेशों में भेजे जा रहे हैं. जिससे 50 लाख की आय प्रतिवर्ष सरकार को हो रही है. वन आधारित उत्पादों के माध्यम से लोगों को रोजगार मुहैया कराने की दिशा में प्रयास किये जा रहे है. देशभर के निवेशकों को बांस आधारित उद्योग के बारे में बांस कारीगर मेला में बताया गया है. कारीगर मेला में आईकिया, ट्राईफेड, फैब इंडिया, इसाफ सहित कई संगठन असम, त्रिपुरा, दिल्ली, मेघालय सहित कई राज्यों से जुटे थे. झारखंड में कारीगर मेला का आयोजन मुख्यमंत्री लघु एवं कुटीर उद्यम विकास बोर्ड, उद्योग विभाग, झारखंड राज्य बंबू मिशन, झारक्राफ्ट और जेएसएलपीएस ने किया था.

राज्य में हरेक जिला में बांस बहुतायत मात्रा में पाया जाता है, जिससे रोजगार की संभावना बढ़ी है. बांस आधारित सामानों के उत्पादन के विपणन की समस्या नहीं है, मल्टीनेशनल कंपनी सामान खरीदने को तैयार है. बांस के नये उत्पाद अब बनने लगे हैं जैसे सोफा सेट, टेबल, बैग, दैनिक उपयोग की कलात्मक सामग्री जिसकी मांग बढ़ी है, जिससे विश्व व्यापार भी बढ़ा हैं. गैर सरकारी संस्था ईसाफ के अजित सेन बताते हैं कि राज्य के सभी जिलों में बांस का उत्पादन होता आ रहा है. संथाल परगना में सर्वाधिक बांस का उत्पादन होता है. इसके अतिरिक्त गोड्डा, साहिबगंज, पाकुड़, दुमका, जामताड़ा, खूंटी, जमशेदपुर, रांची, गुमला, हजारीबाग, रामगढ़ जिला में बहुतायत मात्रा में बांस उपलब्ध है.

राज्य सरकार के प्रयास से लघु एवं कुटीर उद्यम विकास बोर्ड द्वारा कारीगरों के कलस्टर बना कर उन्हें प्रोत्साहित करने का काम किया जा रहा है. एक क्लस्टर में लगभग दो सौ कारीगर होते हैं, राज्य में लगभग एक हजार कल्सटर बन चुके हैं.नेशनल बंबू मिशन बांस की खेती के लिये पीपी मोड और मनरेगा अंतर्गत बांस के पौधे लगाने को प्रोत्साहित कर रहा है. झारखंड के आदिवासी अब रोजगार के लिये पलायन नहीं करेंगे, वे अपने घर में ही रोजगार पा सकेंगे, कुटीर उद्योग के माध्यम से उनके जीवन में बदलाव आने की संभावना है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पराक्रम

“दिल्ली पर पाकिस्तानी कब्जे की योजना”

9 सितम्बर 1947 की मध्यरात्रि को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा सरदार पटेल को सूचना दी गई कि 10 सितम्बर को संसद भवन उड़ा कर व सभी मन्त्रियों की हत्या करके लाल किले पर पाकिस्तानी झण्डा फहरा देने की दिल्ली के मुसलमानों की योजना है। सूचना क्योंकि संघ की ओर से थी, इसलिये अविश्वास का प्रश्न नहीं था। पटेल तुरंत हरकत में आए और सेनापति आकिन लेक को बुला कर सैनिक स्थिति के बारे में पूछा। उस समय दिल्ली में बहुत ही कम सैनिक थे। आकिनलेक ने कहा कि आस-पास के क्षेत्रों में तैनात सैनिक टुकड़ियों को दिल्ली बुलाना भी खतरे से खाली नहीं है। कुल मिलाकर आकिन लेक का तात्पर्य यह था कि इतनी जल्दी भी नहीं किया जा सकता, इसके लिये समय चाहिए। यह सारी वातीसराय माउंटबैटन के सामने ही हो रही थी। लेकिन पटेल तो पटेल ही थे। उन्होंने आकिनलेक को कहा-“विभिन्न छावनियों को को संदेश भेजो, उनके पास जितनी जितनी भी टुकड़ियाँ फालतू हो सकती है, उन्हें दिल्ली तुरंत दिल्ली भेजें।” आखिर ऐसा ही किया गया। उसी दिन शाम से टुकड़ियाँ आनी शुरू हो गई। अगले दिन तक पर्याप्त टुकड़ियां दिल्ली पहुंच चुकी थी।

सैनिक कार्यवाही_

सैनिक कार्यवाही आरम्भ हुई। दिल्ली के जिन-जिन स्थानों के बारे में संघ ने सूचना दी थी, उन सभी स्थानों पर एक साथ छापे और जगह से बड़ी मात्रा में शस्त्रास्त्र बरामद हुए। पहाड़गंज की मस्जिद, सब्ज़ी मंडी मस्जिद तथा मेहरौली की मस्जिद से सबसे अधिक शस्त्र मिले l अनेक स्थानों पर मुसलमानों ने स्टेन गनों तथा ब्रेन से मुकाबला किया, लेकिन सेना के सामने उनकी एक न चली। सबसे कड़ा मुकाबला हुआ सब्जी मण्डी क्षेत्र में स्थित ‘काकवान बिल्डिंग’ में । इस एक बिल्डिंग पर कब्जा करने में सेना को चौबीस घण्टों से भी अधिक समय लगा l

मेहरौली की मस्जिद से भी स्टेनगनों व ब्रेनगनों से सेना का मुकाबला किया गया । चार-पांच घंटे के लगातार संघर्ष के बाद ही सेना उस मस्जिद पर कब्जा कर सकी।

तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष आचार्य कृपलानी के अनुसार _

“मुसलमानों ने हथियार एकत्र कर लिए थे। उनके घरों की तलाशी लेने पर बम आग्नेयास्त्र और गोला बारूद के भण्डार मिले थे। स्टेनगन, ब्रेनगन, मोटोर और वायर लेस ट्रांसमीटर बड़ी मात्रा में मिले। इनको गुप्तरूप से बनाने वाले कारखाने भी पकड़े गए।

अनेक स्थानों पर घमासान लड़ाई हुई, जिसमें इन हथियारों का खुल कर प्रयोग हुआ। पुलिस में मुसलमानों की भरमार थी। इस कारण दंगे को दबाने में सरकार को काफी कठिनाई का सामना करना पड़ा।इन पुलिस वालों में से अनेक तो अपनी वर्दी व हथियार लेकर ही फरार हो गए और विद्रोहियों से मिल गए। शेष जो बचे थे, उनकी निष्ठा भी संदिग्ध थी। सरकार को अन्य प्रान्तों से पुलिस व सेना बुलानी पड़ी।” (कृपलानी, गान्धी, पृष्ठ 292-293)

मुसलमान सरकारी अधिकारी थे योजनाकार_

_दिल्ली पर कब्जा करने की योजना बनाने वाले कौन थे ये लोग? ये कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे। इनमें बड़े – बड़े मुसलमान सरकारी अधिकारी थे, जिन पर भारत सरकार को बड़ा विश्वास था। इनमें उस समय के दिल्ली के बड़े पुलिस अधिकारी तथा दिल्ली विश्वविद्यालय के वरिष्ठ अधिकारी थे, जोकि मुसलमान थे।

एक-एक पहलू को अच्छी तरह सोच-विचार करके लिख लिया गया था और वे लिखित कागज-पत्र विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी की ही कोठी में एक तिजौरी सुरक्षित में रख लिए गए थे।

उन दिनों मुसलमान बनकर मुस्लिम अधिकारियों की गुप्तचरी करने वाले संघ के स्वयंसेवकों को इसकी जानकारी मिल गई और उन्होंने संघ अधिकारियों को सूचित किया। संघ अधिकारियों ने योजना के कागजात प्राप्त करने का दायित्व एक खोसला नाम के स्वयंसेवक को सौंपा।

खोसला ने उपयुक्त स्वयंसेवकों की एक टोली तैयार की और सभी मुसलमानी वेश में रात को विश्वविद्यालय के उस अधिकारी की कोठी पर पहुँच गए। मुस्लिम नेशनल गार्ड के कार्यकर्ता वहाँ पहरा दे रहे थे। खोसला ने उन्हें ‘वालेकुम अस्सलाम’ किया और कहा- “हम अलीगढ़ से आए हैं। अब यहाँ पहरा देने की हमारी ड्यूटी लगी है। आप लोग जाकर सो जाओ।” वे लोग चले गए।

कोठी से तिजौरी ही उठा लाए_

खोसला के लोग कोठी से उस तिजौरी को ही निकाल कर ट्रक पर रख कर ले गए। उसमें से वे कागज निकाल कर देखे गए तो सब सन्न रह गए।

नई दिल्ली में आजकल जो संसद सदस्यों की कोठियाँ हैं, इन्हीं में से ही किसी कोठी में रात को कुछ स्वयंसेवक सरकारी अधिकारियों की बैठक बुलाई गई और दिल्ली पर कब्जे की उन कागजों में अभिलेखित योजना पर मन्थन किया गया। इसी मन्थन में से यह बात सामने आई कि यह योजना इतने बड़े और व्यापक स्तर की है कि हम संघ के स्तर पर उसको विफल नहीं कर सकते। इसे सेना ही विफल कर सकती है। अतः इसकी सूचना हमें सरदार पटेल को देनी चाहिए। फलतः उस बैठक से ही दो-तीन कार्यकर्ता रात्रि को एक बजे के लगभग सीधे सरदार पटेल की कोठी पर पहुँचे तथा उन्हें जगा कर यह सारी जानकारी दी। पटेल बोले-“अगर यह सच न हुआ तो?” कार्यकर्ताओं ने उत्तर दिया- “आप हमें यहीं बिठा लीजिए तथा अपने गुप्तचर विभाग से जाँच करा लीजिए। अगर यह सच साबित न हुआ तो हमें जेल में डाल दीजिए।” इसके बाद सरदार हरकत में आए।

कल्पना करें कि यदि सरदार पटेल संघ की उक्त सूचना पर विश्वास न करते अथवा वे आकिनलेक की बातों में आ जाते तो भारत सरकार को भाग कर अपनी राजधानी लखनऊ, कलकत्ता या मुम्बई में बनानी पड़ती और परिणाम स्वरूप आज पाकिस्तान की सीमा दिल्ली तक तो जरूर ही होती।

देश में कपकपाती ठंड पर विभिन्न दलों व नेताओ के विचार ( एक व्यंग)

भाजपा:– ये कंपकपाती ठण्ड सबका साथ, सबका विश्वास का अद्भुत उदाहरण है। ये ठण्ड बिना किसी जाति, धर्म के भेदभाव किए बिना सभी पर समान रूप से पड़ रही है। हम इस सद्भावनापूर्ण ठण्ड का स्वागत करते हैं। भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं।

कांग्रेस:– ऐसा नहीं हैं कि ये ठण्ड हमारी सरकार में नहीं पड़ती थी, पड़ती थी किन्तु ऐसी भेदभावपूर्ण, विद्वेषपूर्ण ठण्ड आज से पहले कभी नहीं पड़ी। हम पूछना चाहते हैं इस सरकार से अल्पसंख्यक इलाकों में ही ज्यादा ठण्ड क्यों पड़ रही हैं ??.. लोकतंत्र में इतनी ठण्ड बर्दाश्त नहीं। हम संसद में इस कंपकपाती ठण्ड पर बहस चाहते हैं।

केजरीवाल:– हम पूछना चाहते हैं, मोदी जी से.. आखिर चुनाव के ऐनवक्त पहले ही इतनी ठण्ड क्यों पड़ रही है ??… 5 साल इतनी ठण्ड क्यों नहीं पड़ी ??..
मोदी सरकार अधिक ठण्ड पड़वाकर वोटरों को डराना चाह रही है। ये ठण्ड और मोदी जी आपस में मिले हुए हैं। हम विधानसभा का विशेष सत्र बुलवाकर इस षड्यंत्र का खुलासा करेंगे।

मायावती:– इतनी ठण्ड बीम क्षेत्रों में क्यों पड़ रही है ??.. ये ठण्ड मनुवादी ठण्ड है। ये ठण्ड असंवैधानिक हैं। ये ठण्ड संविधान के खिलाफ है। हम इस ठिठुरती ठण्ड के खिलाफ राष्ट्रपति जी को ज्ञापन सौंपेंगे।

ममता:– हम पूछना चाहता हाय दिसंबर में इतोना थोण्ड क्यों ??.. दिवाली पोर क्यों नही ??.. ओल्पसंख्यक इलाका में ही इतना थोण्ड क्यों ??..ये थोण्ड सोम्प्रदायिक थोण्ड हाय.. ये थोण्ड सेक्युरिज्म का खिलाफ हाय.. हम इस थोण्ड का बोंगाल में पड़ने पर प्रोतिबन्ध लोगाता हाय.. हम सोमस्त सेक्युलर ताकतों से ओपील कोरता हाय.. इस सोम्प्रदायीक थोण्ड का खिलाफ इकोट्ठा हो। का का छि छि… का का छि छि..

ओबेसी:– संविधान में ये कहीं नहीं लिखा, इतनी कंपकपाती ठण्ड पड़ना चाहिए। ये सरकार संविधान के खिलाफ काम कर रही है। अगर कोई मेरी गर्दन पर “बर्फ की सिल्ला” भी रख दे, तो भी मैं गर्म कपड़े नही पहनूंगा। हम इस हिटलर ठण्ड की मज़म्मत करते हैं। घोर विरोध करते हैं।

वामपंथी:– ये ठण्ड न चीन में पड़ रही है, न रूस में। अतः हमारा इससे कोई लेना-देना नही हैं।
और अंत में,

रविश कुमार: क्या मोदी सरकार चुनाव के ऐनवक्त पहले ऐसी ठण्ड पड़वाकर चुनाव जीतना चाहती है ??.. पूरे देश में एक जैसी ठण्ड न पड़कर क्या मोदी सरकार देश को बांटना चाह रही है ??..क्या सरकार इतनी ठण्ड पड़वाकर बेरोजगारी, आर्थिक मंदी, CAA से देश का ध्यान भटकाना चाहती है ??..

हम सब मिलकर मोदी सरकार और भाजपा से इस कपकपाती ठंड का जबाव मांग रहे हैं। हमे लग रहा है कही भाजपा चुनाव के चक्कर में इसे ठंडे बस्ते में न डाल दे।

आर के रस्तोगी

साहित्य का प्रदेय – साहित्य परिषद् का अगला त्रेवार्षिक सोपान

हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य को “जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब” माना है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य को “ज्ञानराशि का संचित कोश” व “समाज का दर्पण” कहा है। अनेकों विद्वानों, साहित्यकारों, संतो, महात्माओं के मतानुसार साहित्य समाज की प्रेरकशक्ति है। निस्संदेह समाज ने साहित्य की इस शक्ति को उससे मिल रहे प्रदेय के आधार पर ही माना है। क्या है यह साहित्य का प्रदेय? साहित्य के प्रदेय का संपूर्ण आकलन तो किया नहीं जा सकता किंतु इस प्रदेय का लेखन, प्रलेखन, ग्रंथीकरण, अभिनंदन का प्रयास अवश्य किया जा सकता है; इस कार्य को ही अखिल भारतीय साहित्य परिषद् ने अपने लक्ष्य रूप में स्वीकार किया है। अखिल भारतीय साहित्य परिषद् का सोलहवां राष्ट्रीय अधिवेशन अलीपुर, हरदोई, उप्र में षष्ठी एवं सप्तमी, कृष्णपक्ष, मार्गशीर्ष, संवत २०७८ को संपन्न हुआ। इस राष्ट्रीय अधिवेशन में अभासाप ने अपने त्रेवार्षिक ध्येयवाक्य के रूप में “साहित्य का प्रदेय” विषय को धारण किया है। अब आगामी तीन वर्षों तक अभासाप के कार्यक्रम, योजनाएं, यात्राएं, रचनाएं, प्रकाशन व पुस्तकें प्रमुखतः इस विषय पर केंद्रित होंगी।

            संपूर्ण राष्ट्र के साहित्यिक वातावरण के सरंक्षण, संवर्धन व संपुष्टि के कार्य में प्राणपण से कार्यरत संस्था अभासाप की स्थापना अश्विन शुल्क द्वादशी सम्वत २०३३ विक्रमी, तदनुसार २७ अक्तूबर, १९६६ को दिल्ली में हुई। इसकी देश के ३० प्रांतों में ६९५ इकाइयां कार्यरत हैं व १७३ स्थानों पर जीवंत संपर्क है। यह साहित्य के क्षेत्र में भारतीय दृष्टि को स्थापित करने, देश के बौध्दिक वातावरण को स्वस्थ बनाने, समस्त भारतीय भाषाओं एवं उनके साहित्य का संरक्षण करने तथा नवोदित साहित्यकारों को प्रोत्साहन देने हेतु कार्यरत संस्था है। इस तरह साहित्य परिषद् वर्ष १९६६ से ही विभिन्न भारतीय भाषाओं के सर्जनात्मक एवं आलोचनात्मक लेखन में भारत-भक्ति के भाव से जागरण का कार्य एकाग्र-चित्त से कर रही है। अभासाप भारतीय साहित्य और भारतीय भाषाओ की उन्नति, भारतीय साहित्य एवं भाषाओं के अनुसंधान कार्य को प्रोत्साहन तथा तत्संबंधी अनुसंधान केंद्र की स्थापना, भारतीय भाषाओं में परस्पर आदान -प्रदान और सहयोग को बढ़ावा देना, भारतीय जीवन - मूल्यों में आस्था रखने वाले साहित्यकारों को प्रोत्साहित करना तथा ऐसे साहित्य के प्रकाशन और प्रसारण में सहयोग करना, जनमानस में भारतीय साहित्य के प्रति आस्था तथा अभिरुचि उत्पन्न करना, साहित्य सामाजिक परिवर्तन का वाहक बन कर राष्ट्र की प्रगति में प्रभावी भूमिका निभा सके, इसके लिए प्रयास करना जैसे ध्येय के साथ राष्ट्र आराधना के अपने कार्य में सिद्धगति से आगे बढ़ने वाली एक प्रमुख संस्था है। 

             अभासाप के सोलहवें राष्ट्रीय अधिवेशन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य व अभासाप के पालक अधिकारी स्वांतरंजन जी, राष्ट्रीय संगठनमंत्री श्रीधर जी पराड़कर व देश भर में चर्चित व प्रसिद्द उपन्यास “आवरण” के लेखक पदमश्री भैरप्पा जी का सारस्वत मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। अपने इस अधिवेशन में अभासाप ने राष्ट्र में चल रहे साहित्यिक विमर्श की समीक्षा की व इस आधार पर अपनी आगामी कार्ययोजना को देश भर से आए कार्यकर्ताओं के समक्ष रखा।  अधिवेशन में १८ राज्यों से ढ़ाई सौ से अधिक कार्यकर्ता साहित्यकार सम्मिलित हुए। कोरोना महामारी को देखते हुए संगठन की ओर से कुछ चिन्हित कार्यकर्ताओं को ही अपेक्षित किया गया था। कड़ाके की शीतलहर के मध्य, विशेषतः उत्तरप्रदेश की हड्डियों तक को भीतर तक झुरझुरा देने वाली ठंड में एक अत्यंत छोटे से ग्राम अलीपुर में इतने साहित्य प्रेमियों का इकट्ठा होना अभासाप के कार्यकर्ताओं का साहित्य के प्रति प्रेम, समर्पण व संकल्प का ही परिणाम था। नैमिषारण्य की पावन भूमि पर इतने साहित्यकारों का यह अनुष्ठान प्राचीन समय में यहां हुए ८८ हजार ऋषियों के महान अनुष्ठान की पुनीत स्मृति का बारंबार वंदन कर रहा था।  

          अलीपुर के विशुद्ध ग्रामीण परिवेश में संपन्न इस राष्ट्रीय अधिवेशन में अतिथियों को विशुद्ध ग्रामीण व देशज शैली के वातावरण, आवास व भोजन का आनंद चखने को मिला। लाही के लड्डू, कैथ, गन्ने का रस, इमली, बथुए का रायता, मक्के की रोटी, दही जलेबी, बताशे, रेत में भुने आलू और न जाने कितने ही ग्रामीण भारत के स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ चखने को मिले। अधिवेशन प्रांगण में छोटी छोटी गोबर से लिपि पुती  कुटियाओं, उसमें बिछी रस्सी की खाट और उसमे टंगे मद्धम उजाला देते लालटेन समूचे ग्रामीण परिवेश को जीवंत और साकार किए दे रहे थी। अवध अयोध्या की सुखद बयार से  हरदोई का वातावरण सुरभित था ही और यहां का मंच नैमिषारण्य की व्यासपीठ का पावन आभास उत्पन्न करा रहा था।

             उदघाटन सत्र में अभासाप के राष्ट्रीय संगठनमंत्री श्रीधर जी पराड़कर ने अपने विस्तृत उद्बोधन में जो कहा वह निश्चित ही भारतीय साहित्य लेखन को 

भारत की परम्परा व संस्कृति की दिशा में और अधिक प्रेरित व गतिमान करने का पाथेय है। अभासाप के पालक अधिकारी स्वांतरंजन जी ने कहा कि हमें हमारी भारतीय भाषाओं के प्रति स्व का भाव जागृत करके उनका उन्नयन करना होगा। उन्होंने कहा कि हमें केवल साहित्यक कार्यक्रम नहीं करना है, साहित्य में जो विकृति जानबूझकर लाई गई है उसके स्थान पर हमें साहित्य में सुकृति लानी है व समाजोपयोगी साहित्य की रचना करनी है। १९४७ में हमें राजनैतिक स्वतंत्रता तो मिल गई किंतु स्वधर्म, स्वसंस्कृति, स्वभाषा, स्वदेशी, स्वराज्य आदि आवश्यक तत्व पीछे छूट गए। आज आवश्यकता है कि इन बातों को हम साहित्य के माध्यम से समाज के सम्मुख रखें।

         कर्नाटक के पदमश्री सम्मानित वरिष्ठ साहित्यकार डा. भैरप्पा जी ने कहा कि भारत की समृद्ध ज्ञान परम्परा रही है, हमारे पास पौराणिक साहित्य का विपुल भंडार है, रामायण आदि महाकव्य है। नेहरू के कम्युनिस्ट प्रेम के कारण हमारे शासकीय संस्थानों पर कम्युनिस्टों ने कब्जा कर लिया। भैरप्पा जी ने कहा कि कांग्रेस कार्यकारिणी के अधिकांश सदस्य सरदार पटेल के पक्ष में थे फिर भी महात्मा गांधी ने पंडित नेहरू को प्रधानमंत्री का पद पुरस्कार स्वरुप दे दिया जो कि बाद में एक बड़ी गलती सिद्ध हुआ। भैरप्पा जी ने अपने दीर्घ भाषण में कई एतिहासिक तथ्यों व रहस्यों का रहस्योद्घाटन किया जिन्हें पृथक रूप से आगे कभी लिखना उचित होगा। 

       परिषद् के राष्ट्रीय महामंत्री ऋषिकुमार मिश्र ने प्रतिवेदन में कहा कि साहित्य परिषद भारत भक्ति के भाव का जागरण करते हुए आत्मचेतस भारत के निर्माण द्वारा साहित्य रचना और आलोचना के क्षेत्र में वैचारिक स्वराज्य की स्थापना के लिए प्रयत्नशील है। 

           साहित्य परिषद् ने अपने अधिवेशन प्रस्ताव में दो संकल्पों को ॐ ध्वनि से पारित किया। प्रथम प्रस्ताव, भारत को इंडिया के नाम से नहीं पुकारने व भारत को केवल भारत नाम से लिखने - पढ़ने का प्रस्ताव है। द्वितीय प्रस्ताव में औपनिवेशिक प्रवृत्तियों से मुक्ति पाने का प्रस्ताव पारित किया गया।  

           अभासाप के नए अध्यक्ष के रूप में  डा. सुशील त्रिवेदी व संयुक्त महामंत्री के रूप मे डा. पवनपुत्र बादल को मनोनीत किया गया। इस अवसर पर क्षितिज पाट्कुले द्वारा निर्मित अभासाप के नए संकेतस्थल (वेबसाईट)www.akhilbhartiysahityaparishad.org का लोकार्पण भी हुआ । साहित्य का प्रदेय विषय पर केंद्रित आलेखों व शोधपत्रों से सज्जित अभासाप की मुखपत्रिका “साहित्य परिक्रमा” के  विशेषांक विमोचन के साथ ही इस विषय पर आगामी तीन वर्षों तक अनवरत चलने वाले विमर्श का प्रारंभ हुआ। परिषद् के पिछले त्रेवार्षिक ध्येय वाक्य “साहित्य का सामर्थ्य” पर सिद्ध चिंतन होने के पश्चात निश्चित ही “साहित्य का प्रदेय” की यह यात्रा देश के साहित्यिक वातावरण को एक नई दशा, दिशा व दक्षता प्रदान करने वाली सिद्ध होगी।

यक्षप्रश्न : बच्चों के लिए आप क्या कर रहे हैं ?

~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

समय बदल रहा है। आवश्यकताएँ बदल रही हैं। बेहतर से बेहतर संसाधन जुटाने की होड़ मची हुई है। और इस भ्रामक होड़ में कोई भी पीछे नहीं छूटना चाहता है। सबको अव्वल आना है,मगर देश एवं समाज को जहाँ अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए । वहाँ न जाने क्यों भीषण अकाल उत्पन्न हो गया है? आधुनिकता का लबादा ओढ़ा हुआ समाज अपने नैसर्गिक विकास एवं मूल दायित्वों को भूलकर, एक ऐसी दुनिया बनाने में जुटा हुआ है जिसकी नींव ही नहीं है।

प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चों को अपनी सामर्थ्य एवं उससे आगे जाकर ‘वेल अप टू डेट’ बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। उन्हें महँगे खिलौने,महँगे कपड़े,महँगे स्कूल, मोबाइल, कम्प्यूटर जैसे गैजेट्स व तथाकथित आधुनिकता की मानक मानी जाने वाली सभी आवश्यकताओं की पूर्ति तो कर रहे हैं। लेकिन उन्हें असल में जिसकी सबसे ज्यादा आवश्यकता है उससे वंचित रखने में भी कोई कोताही नहीं बरती जा रही है। बच्चों का बचपन छिनता चला रहा है। बच्चे अब समय से पहले बड़े होते जा रहे हैं। लोरियाँ, किस्से,कहानियाँ,बाल संस्कार व खेलकूद से बचपन दूर होता जा रहा है।

बच्चों का बचपन अब पूर्णतया यन्त्रवादी बनता चला जा रहा है। बच्चों का खेलना , घूमना, बाल मनुहार,जिज्ञासात्मक प्रश्न व कलाओं में रुचि जागृत करने वाली सारी गतिविधियाँ ऑनलाईन गैजेट्स ,बस्ते के बोझ व माता-पिता के शौक व अपेक्षाओं की बलि चढ़ते जा रहे हैं। बच्चे अब रुठते हैं तो उन्हें मोबाइल, कम्प्यूटर सहित अन्य गैजेट्स थमाए जा रहे हैं। यदि बच्चे खाना नहीं खाते हैं तो उन्हें यही लालच देकर मनाया जा रहा है। अपने घर-परिवार,आस -पास के परिवेश में देखें तो लगभग छ: महीने से अधिक आयु के बच्चों के हाथों में मोबाईल फोन सौंप कर माता-पिता ने अपनी समस्त जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ा लिया है। इस कारण बच्चों की दुनिया संकटग्रस्त घेरे में कैद होती जा रही है।

बाल्यावस्था में जिस उमङ्ग के साथ बच्चे अपने परिवेश को देखकर स्वयं को गढ़ते हैं,अब उसके स्थान पर उनमें चिड़चिड़ापन, अकेलापन, झुँझलाहट व अवसाद सी! स्थिति देखने को मिल रही है। अधिक नहीं लेकिन आज से लगभग दस से पन्द्रह वर्ष पहले घर-परिवार में रिश्तेदारों व अतिथियों के आने से बच्चों में जो उत्साह व खुशियाँ देखने को मिलती थीं,वह अब बच्चों में कहीं नजर नहीं आती हैं। अधिकाँशतः स्थिति इतनी गम्भीर हो चुकी है कि – अब घर-परिवार में कौन आता है ? इससे उन्हें फर्क ही नहीं पड़ता है। बच्चे अब उसी मोबाइल फोन व गेमिंग में मस्त मिलते हैं। यह स्थिति लगभग सभी जगह होती जा रही है। इतना ही नहीं आगन्तुकों के साथ आने वाले बच्चे भी मोबाइल लेकर उसी में खो! जाते हैं। एक बच्चे को अपने परिवेश से जो सीखना चाहिए, उसके स्थान पर वह तथाकथित इस आधुनिकता का शिकार होकर अपने बचपन को तकनीक को सौंप रहा है।

इसमें बच्चों की कोई गलती नहीं है,बल्कि उनके घर-परिवार के वातावरण ने उन्हें जैसा बनाया,वे ठीक उसी साँचे में ढलते चले जा रहे हैं। जब ममत्व व स्नेह की थाप का स्थान तकनीक व महँगी वस्तु दिलवाने का लालच दिया जाएगा, तो बच्चे आखिर! और क्या बनेंगे? हमारे देश व सम्पूर्ण विश्व में जितने भी महापुरुष या महान कार्य करने वाले हुए हैं,उनके विकास के पीछे उनका सुव्यवस्थित बचपन,माता-पिता,घर-परिवार तथा सामाजिक परिवेश की महनीय भूमिका रही है। बच्चे अपने वातावरण तथा बड़ों से निरन्तर सीखते हैं। उनमें दया,क्षमा,करुणा,प्रेम,समानुभूति, सहानुभूति, वीरता व साहस जैसे अनेकानेक गुणों का क्रमिक विकास अपने परिवेश के आधार पर ही होता है। और बच्चे बचपन में जो कुछ भी सीखते-अपनाते हैं जीवन पर्यन्त उनके जीवन में वही सब परिलक्षित होता है।

देश के विभिन्न कोनों से कम आयु के बच्चों द्वारा आत्महत्या के बढ़ते मामले भी इस संकट की भयावहता की ओर संकेत कर रहे हैं,लेकिन समाज को कोई फर्क ही नहीं पड़ता। माता-पिता,परिजन केवल यह बात कहकर अपना पल्ला झाड़ रहे हैं – समय बहुत खराब है,हम क्या कर सकते हैं? इतना ही नहीं दुर्भाग्य की बात तो यह है कि- आजकल यही माता-पिता, परिजन अपने बच्चों के लिए भी सरकारी कानून के हस्तक्षेप की बात करते हैं। काम-काजी माता -पिता बच्चों को समय देने के स्थान पर उन्हें डिजिटल गैजेट्स व अन्य सभी वस्तुओं की ढेर लगा रहे हैं,लेकिन उनके पालन-पोषण की मूल जिम्मेदारी से सब कोई हाय-तौबा कर रहे हैं।

डिजिटल गैजेट्स लगातार बच्चों की सोचने-समझने की शक्ति, सम्वेदनाएँ व मूल्यबोध छीने जा रहा है,लेकिन समाज इस संकट को दूर करने की बात तो अलग ही है,उसे समझने की भी कोशिश नहीं कर रहा है। लोगों को समझ ही नहीं आ ! रहा है कि भौतिक गतिविधियों, सामाजिक संस्कारों, खेलकूद व मूल्य आधारित मानसिक खुराक की घुट्टी बच्चों के विकास के लिए कितनी अनिवार्य है। बच्चों की बालसुलभ चेष्टाएँ, कल्पनाशीलता, जिज्ञासु वृत्ति व खेल-खेल के माध्यम से सीखने के गुण में इतना बड़ा ह्रास गम्भीर चेतावनी है। किन्तु वर्तमान के विभीषक दौर में किसी को भी बच्चों के लिए सोचने व उन्हें समय देने,सुगठित करने,सँवारने की फुर्सत ही नहीं मिल रही है। सबकुछ रुपयों ,ऐश्वर्य व आधुनिकता की चकाचौंध में नष्ट होता जा रहा है।

वहीं संयुक्त परिवारों के विघटन व फ्लैट वाली जिन्दगी ने यदि सबसे ज्यादा बेड़ा गर्क किया है,तो वह है बच्चों व उनके भविष्य का।दादा-दादी,नाना-नानी,चाचा-चाची,भाई-बहन सहित संयुक्त परिवारों की अनूठी विरासत लगभग अपने अन्तिम दौर में जाती हुई प्रतीत हो रही है। माताओं की लोरियाँ और बुजुर्गों के अनुभवों से पके हुए किस्से और कहानियाँ गुजरे जमाने की बातें होती जा रही हैं। संयुक्त परिवार के मूल्यों, पारस्परिक सहयोग, अपनत्वता व समन्वय के संस्कार जो बच्चों को संसार की प्रत्येक चुनौती से जूझने व उस पर विजय पाने का साहस प्रदान करते थे । वह सब आज गायब हो चुके हैं।

अब समाज ‘हम’ के स्थान पर ‘मैं’ तक ही सीमित होता चला जा रहा है। बच्चों के कानों में संस्कारों के गीत,धर्मग्रन्थों की सीखें,आदर्श, प्रेरणा ,साहस,अपनत्वता की भावना नहीं घुल मिल रही है। यह इसी का दुष्परिणाम है कि स्वमेव विकसित होने वाले नैतिक एवं मानवीय मूल्य अब दूर की कौड़ी बनते चले जा रहे हैं। समाज तकनीक के सदुपयोग, दुरुपयोग व अपने दायित्वों के विषय में सचेत नहीं हो पा रहा है। बच्चों के हाथों में प्रेरणादायक किताबें, संस्कार, स्नेह की मिठास व सबको साथ लेकर सर्जन करने के स्थान पर पूरी पीढ़ी का समुचित विकास ही अपने आप में यक्षप्रश्न बनता चला जा रहा है।

अतएव आवश्यक है कि समाज बच्चों के बचपन को लौटाए ,बचपन के महत्व को समझते हुए काल सम्यक ढँग से उनके चहुँमुखी विकास व उन्नति के लिए अपना समय दे। दायित्वों को समझकर ऐसी पीढ़ी का निर्माण करे जो सुगठित होकर राष्ट्र के भविष्य की रीढ़ बनें। थोड़ा रुकिए -ठहरिए और स्वयं से पूँछिए आप बच्चों के लिए क्या कर रहे हैं? यदि समाज ऐसा करने में अपनी रुचि नहीं दिखाता तो विश्वास कीजिए धन-दौलत, अभिमान व बच्चों के लिए जुटाने वाले संसाधन कभी काम नहीं आएँगे। बच्चों को उनके भविष्य का उतना ज्ञान नहीं है,इस कारण वे वर्तमान दौर की अन्धी सुरंग में उतरते चले जा रहे हैं। लेकिन जब बहुत देर हो चुकी होगी,और बच्चे जब अपने अतीत की ओर झाँकेंगे तो तय मानिए वे आपको क्षमा नहीं कर पाएँगे!!
कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

आजादी की जंग को नई धार देने वाला महानायक

डॉ.शंकर सुवन सिंह

सुभाष का शाब्दिक अर्थ उदय होता है। उदय अर्थात उगना(ऐराइस)। सुभाष चंद्र बोस उगते हुए सूरज के सामान थे। सूर्य रूपी सुभाष का उदय अंधकार रूपी गुलामी को ख़त्म करने के लिए हुआ था। सुभाष का उदय ही गुलामी की जंजीर में जकड़े हुए भारत को स्वतंत्र कराने के लिए हुआ था। हिन्दुओं के पवित्र ग्रन्थ “उपनिषद”– बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28 में एक श्लोक है- असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय ॥ अर्थ- मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो। मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो॥ राष्ट्र को असत्य से सत्य, अंधकार से प्रकाश और मृत्यु से अमरत्व का पाठ पढ़ाने वाले सुभाष जी शानदार व्यक्तित्व के धनी थे। राष्ट्र प्रेम में मृत्यु ,अमरत्व की ओर ले जाती है। अतएव राष्ट्र भक्ति से बढ़कर कोई भक्ति नहीं होती है। राष्ट्र भक्ति में जान भी गवानी पड़े तो वह मृत्यु नहीं अपितु अमरत्व कहलाती है। वर्ष 2022 में भारतीय स्वतंत्रता के प्रमुख सेनानी नेता जी सुभाषचन्द्र बोस की 126 वीं जयंती है। भारत में प्रत्येक वर्ष के 23 जनवरी को सुभाष चंद्र बोस की जयंती बड़े ही धूम धाम से मनाई जाती है। सुभाष चन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़ीसा प्रांत में कटक में हुआ था। उनके पिता जानकी दास बोस एक प्रसिद्ध वकील थे। प्रारम्भिक शिक्षा कटक में प्राप्त करने के बाद यह कलकता में उच्च शिक्षा के लिये गये। नेताजी सुभाष चंद्र बोस,स्वामी विवेकानंद शिक्षण संस्थान से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। सुभाष चन्द्र बोस भारतीय इतिहास के ऐसे युग पुरुष हैं जिन्होंने आजादी की जंग को नई धार दी थी। भारत को आजाद कराने में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अहम भूमिका थी। नेता जी सुभाष चंद्र बोस, भारतीय इतिहास का एक ऐसा चरित्र है जिसकी तुलना विश्व में किसी से नहीं की जा सकती। सुभाष चंद्र बोस वर्ष 1920 में भारतीय सिविल सेवा (आई सी एस) परीक्षा में चौथा स्थान पाए थे। अंग्रेजी हुकूमत के समय आई सी एस परीक्षा पास करने वाले ये पहले भारतीय थे। सुभाष जी ने दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह हिटलर से मुलाकात की थी। सुभाष जी की देशभक्ति देख कर हिटलर उनके बड़े प्रशंसक बन गए थे। सुभाष चंद्र बोस को “नेता जी” कहा जाता है। नेता का शाब्दिक अर्थ होता है नेतृत्व करने वाला अर्थात अगुआ या अगुआई करने वाला। यह उपाधि,भारत में सिर्फ सुभाष चंद्र बोस को ही मिली है। जर्मनी के तानाशाह अडोल्फ हिटलर ने ही सुभाष चंद्र बोस को पहली बार ‘नेताजी’ कहकर बुलाया था। कर्मठ क्रांतिकारियों में उस समय भगत सिंह भी भारत को आज़ाद कराने के लिए जी जान से लगे थे। अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह को गिरफ्तार कर लिया था और उन्हें फाँसी की सज़ा सुनाई गई थी। नेता जी भगत सिंह को फाँसी की सजा से बचाना चाहते थे। उस समय महात्मा गाँधी ने अंग्रेज सरकार से समझता किया और सभी कैदियों को रिहा करवा दिया लेकिन अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी को रिहा करने से साफ़ इंकार कर दिया था। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी दी गई। नेता जी ने महात्मा गांधी को अंग्रेज सरकार के साथ करार तोड़ने को कहा था लेकिन गांधी जी नहीं माने। इसके बाद नेता जी और महात्मा गांधी में अनबन हो गई। यही वजह नेता जी और गांधी जी में मतभेद का कारण बनी थी। वर्ष 1936 ई. में नेता जी ने भारत की आजादी के लिए विदेशी नेताओं से दवाब डलवाने के लिए इटली में मुसोलिनी, आयरलैंड में वलेरा, फ्रांस में रोमा रोनाल्ड और जर्मनी के शासक से मुलाक़ात की। दुनिया इन तानाशाहों से डरती थी पर नेता जी ऐसे शख्स थे कि इन तानाशाहों से भारत की आज़ादी के लिए मदद मांगने पंहुचे। वर्ष 1938 ई. में हरिपुर अधिवेशन में नेता जी को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। रविंद्र नाथ टैगोर ने शांति निकेतन में नेता जी का सम्मान किया। वर्ष 1939 में नेता जी ने महात्मा गांधी के उम्मीदवार सीतारमय्या को हराकर एक बार फिर कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर कब्जा किया। नेता जी ने नवंबर 1941 ई. में स्वतंत्र भारत केंद्र और स्वतंत्र भारत रेडियो की स्थापना की थी। जिसका लक्ष्य आज़ादी की लड़ाई के लिए भारत में सन्देश पहुँचाना था। अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई को तेज करने के लिए आजाद हिंद फौज की स्थापना की गई थी। आजाद हिंद फौज की स्थापना टोक्यो (जापान) में 1942 ई. में रास बिहारी बोस ने की थी। इसका उद्देश्य द्वितीय विश्वयुद्ध (1 सितम्बर 1939 – 2 सितम्बर 1945) के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ लड़ना था। आजाद हिंद फौज का जापान ने काफी सहयोग दिया था। देश के बाहर रह रहे लोग आजाद हिन्द फौज में शामिल हो गए। सुभाष चंद्र बोस के रेडियो पर किए गए एक आह्वान के बाद रास बिहारी बोस ने 4 जुलाई 1943 को 46 वर्षीय सुभाष को इसका नेतृत्व सौंप दिया। 21 अक्टूबर 1943 को सुभाष चंद्र बोस ने सिंगापुर में अस्थायी भारत सरकार ‘आज़ाद हिन्द सरकार’ की स्थापना की। नेताजी ने ये घोषणा सिंगापुर के कैथे सिनेमा हाल में की थी। स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार की स्थापना की ऐतिहासिक घोषणा सुनने के लिए इस सिनेमा हाल में लोग खचाखच इकट्ठे थे। सुभाष चंद्र बोस इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष तीनों थे। इस सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दे दी थी। आजाद हिन्द फ़ौज के संरक्षक के रूप में क्रमशः मोहन सिंह- रास बिहारी बोस- सुभाष चंद्र बोस थे। कहने का तात्पर्य आजाद हिंद फौज की स्थापना का विचार सबसे पहले जनरल मोहन सिंह के मन में आया था। रास बिहारी बोस ने आजाद हिन्द फौज को जिन्दा रखा और सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज का पुनर्गठन और नेतृत्व किया। जुलाई 1943 में नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने ‘झांसी की रानी’ रेजिमेंट बनाई थी। झांसी की रानी रेजिमेंट भारतीय राष्ट्रीय सेना की महिला रेजिमेंट थी। झांसी की रानी रेजिमेंट को लीड करने की जिम्मेदारी लक्ष्मी सहगल को सौंपा गया था, जिन्होंने खुद ऐसा करने की इच्छा जताई थी। नेताजी लक्ष्मी के बहादुरी से प्रभावित हुए और उन्हें कैप्टन बना दिया था। इससे स्पष्ट होता है कि नेता जी की फौज में पुरुष और महिलाएं दोनों थे। पुरुष और महिलाएं दोनों ने आज़ादी की लड़ाई में भरपूर योगदान दिया था। 21 मार्च 1944 ई. को ‘चलो दिल्ली’ के नारे के साथ आजाद हिंद फौज का हिन्दुस्तान की धरती पर आगमन हुआ। आजाद हिंद फौज एक ‘आजाद हिंद रेडियो’ का इस्तेमाल करती थी, जो लोगों को आजादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित करती थी। इस पर अंग्रेजी,हिंदी,मराठी,बंगाली,पंजाबी,पाष्तू और उर्दू में खबरों का प्रसारण होता था। सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व कर अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। महात्मा गांधी को सुभाष चंद्र बोस ने ही पहली बार राष्ट्रपिता कहकर संबोधित किया था। अभी तक सुभाष चंद्र बोस(नेता जी) की मृत्यु का सही कारण पता नहीं लग पाया। मृत्यु का सही कारण पता लगाने के लिए भारत की सरकारें मुखर्जी आयोग से पूर्व दो जांच आयोग गठित कर चुकी हैं। सबसे पहले शाहनवाज कमेटी बनाई गई जबकि उसके बाद खोसला आयोग का गठन किया गया। शाहनवाज कमेटी नेता जी की मौत का सही पता न लगा सकी। खोसला आयोग ने कई दस्तावेजों के आधार पर कहा था कि सुभाष चंद्र बोस(नेता जी)की मृत्यु के होने का कोई उचित साक्ष्य नहीं है। के.जी.बी. से जुड़े दो जासूसों ने 1973 में वॉशिंगटन पोस्ट को बिना अपना नाम बताए कहा था कि जापान के टैनकोजी मंदिर में रखी हुई अस्थियां नेता जी की नहीं हैं। नेता जी के भतीजे अमियनाथ ने खोसला आयोग को बताया था कि एक बार उन्हें ब्रिटिश अधिकारी ने फोन पर जानकारी दी थी कि 1947 में नेता जी सुभाष चंद्र बोस के साथ रूसी अधिकारियों ने गलत और अपकृत्य व्यवहार किया था। सुभाषचंद्र बोस के भाई शरत चंद्र बोस ने 1949 में कहा था कि सोवियत संघ में नेता जी को साइबेरिया की जेल में रखा गया था तथा 1947 में स्टालिन ने नेता जी को फांसी पर चढ़ा दिया था। सुभाष चंद्र बोस के साथ विमान में यात्रा करने वाले कर्नल हबीब रहमान ने मृत्यु के कुछ दिन पूर्व यह स्वीकार किया था कि ताईवान में कोई विमान दुर्घटना नहीं हुई थी। देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य रहा कि वह नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु के कारणों का सही पता न लगा पाई। आयोग की जांच व पूर्ववर्ती सरकारों की निष्क्रियता का सबसे बड़ा प्रमाण यही है। वर्ष 2021 में माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने सुभाषचंद्र बोस के जन्मदिन(23 जनवरी)को ‘पराक्रम दिवस’ के तौर पर मनाने का फैसला किया। अतएव वर्ष 2021 में सुभाष चंद्र बोस की 125 वीं जयंती के उपलक्ष्य में 23 जनवरी को पराक्रम दिवस की शुरुआत हुई। भारत सरकार ने इसके लिए एक गजट नोटिफिकेशन जारी कर दिया था। पराक्रम दिवस भारत के युवाओ में राष्ट्र के प्रति प्रेम, भक्ति और बलिदान की भावना को जाग्रत करेगा। नेता जी ने राष्ट्र भक्ति के जज्बे को कभी मरने नहीं दिया। नेता जी ने भारतवासियों के दिल में राष्ट्र भक्ति के जज्बे को अमर कर दिया। अतएव हम कह सकते हैं कि नेता जी राष्ट्र भक्ति को अमरता प्रदान करने वाले महानायक थे। गुलामी की दीवार पर आखिरी हथौड़ा, नेता जी ने ही मारा था। अतएव हम कह सकते हैं कि नेता जी आज़ादी की जंग को नई धार देने वाले महानायक भी थे।