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चिंताजनक है पर्यावरणीय असंतुलन

डॉ. वेदप्रकाश


     विगत दिनों परमार्थ निकेतन ऋषिकेश जाना हुआ। वहां मां गंगा आरती के समय परमार्थ निकेतन के अध्यक्ष पूज्य स्वामी चिदानंद सरस्वती जी ने प्रतिदिन की भांति अपने उद्बोधन में कहा कि- आज नदियां और विभिन्न जल स्रोत प्रदूषण के शिकार हैं। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण और इनके साथ-साथ मानसिक प्रदूषण भी एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है। यह भिन्न-भिन्न प्रकार का प्रदूषण जहां एक ओर प्रकृति-पर्यावरण, संतति और संस्कृति के लिए खतरा है वहीं दूसरी ओर मनुष्य जीवन के लिए भी घातक है।
      आज जन-जन के बीच पर्यावरण को विश्लेषित करने एवं चर्चा का मुद्दा बनाने की आवश्यकता है। अनेक लोग पर्यावरण का अर्थ केवल पेड़-पौधे समझते हैं जबकि पर्यावरण तो पेड़-पौधे, झरने, नदी, पर्वत, धरती, आकाश एवं वायुमंडल में भिन्न-भिन्न प्रकार की गैसों से बनी एक ऐसी संकल्पना है जो प्रत्येक जीवधारी के लिए जीवन को संभव बनाती है अथवा उसके जीवन को अनुकूलन प्रदान करती है। ध्यान रहे पर्यावरण में उपर्युक्त वर्णित प्रत्येक घटक का अपना विशिष्ट महत्व है। इन घटकों में संतुलन का बिगड़ना ही पर्यावरणीय असंतुलन है, जो चिंताजनक है।
     भारतीय ज्ञान परंपरा में अग्नि, जल, वायु ,धरती ,आकाश, सूर्य, चंद्रमा और वनस्पतियों आदि की भिन्न-भिन्न रूपों में उपासना का विधान करते हुए उनके महत्व का विश्लेषण है। हमारे वेद, उपनिषद एवं ज्ञान परंपरा हमें प्रकृति के साथ जीने की ऐसी व्यापक अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं, जिससे पर्यावरण में संतुलन बना रह सके। वहां अंतरिक्ष, पृथ्वी, जल, वायु और वनस्पति आदि सभी शांत और संतुलन में रहें, उसके लिए प्रार्थना मिलती है – द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष शान्ति पृथिवी…। वहां तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा… अर्थात् त्यागपूर्ण और आवश्यकतानुसार उपयोग की बात कही गई है। वहां वट, तुलसी, रुद्राक्ष, कदंब, पीपल, अशोक, दूर्वा, आम आदि में देवत्व की स्थापना करते हुए उनके संरक्षण- संवर्धन की बात कही गई है। कुएं, नदी और पर्वतों की पूजा हेतु पर्वों का विधान है तो गाय, बैल, हाथी, चूहे और चीटियों के पूजन का भी महत्व बताया गया है लेकिन दूसरे श्रेष्ठ हैं, स्वयं के प्रति हीनता बोध और आधुनिक बनने की होड़ में हम अपनी श्रेष्ठ परंपराओं से दूर हटने लगे। औद्योगिकरण और अधिकाधिक उत्पादन की इच्छा में मनुष्य की भोग और लालच की वृत्ति भी बढ़ती चली गई। परिणाम स्वरूप प्रकृति और पर्यावरणीय संरचनाओं का अधिकाधिक दोहन शुरू हुआ, जिसने पर्यावरणीय असंतुलन को जन्म दिया।

हाल ही में क्लाइमेट ट्रेंड्स की रिपोर्ट में यह सामने आया है कि हमारे शहरों में फैले वायु प्रदूषण का असर सिर्फ गांव-शहरों तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि अब वह हिमालय की ऊंचाई तक भी जा पहुंचा है। हिमालय क्षेत्र में ब्लैक कार्बन का स्तर लगातार बढ़ा है। रिपोर्ट बताती है कि हिमालय के बर्फीले शिखर पर बर्फ की सतह का औसत तापमान पिछले दो दशकों में चार डिग्री सेल्सियस से भी अधिक बढ़ा है। इसके प्रभाव स्वरूप यहां बर्फ तेजी से पिघल रही है। हाल ही की वर्ल्ड वेदर एट्रीब्यूशन, क्लाइमेट सेंट्रल और द रेड क्रास के विश्लेषण के अनुसार अत्यधिक गर्मी के दिनों की संख्या बढ़ने की वजह से एक बड़ी आबादी को बीमारी, मौत और फसलों के नुकसान के साथ जीना पड़ रहा है। इसी प्रकार दिल्ली स्थित थिंक टैंक काउंसिल ऑन एनर्जी एनवायरनमेंट एंड वॉटर द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन में सामने आया है कि भारत के लगभग 57 प्रतिशत जिले जिनमें देश की लगभग 76 प्रतिशत आबादी रहती है, उनमें इस समय अधिक से बहुत अधिक गर्मी का जोखिम है। क्या यह चिंताजनक नहीं है?

नगरों व महानगरों में जनसंख्या का दबाव लगातार बढ़ रहा है। सीवरेज और  भिन्न भिन्न प्रकार के कूड़े के शोधन हेतु पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। जगह जगह कूड़े के पहाड़ बनते जा रहे हैं। जल स्रोत प्लास्टिक और अशोधित सीवेज, औद्योगिक कचरे एवं रसायनों के कारण भयंकर प्रदूषण के गिरफ्त में हैं तो वायुमंडल में कार्बन उत्सर्जन एवं अन्य गैसों की मात्रा भी लगातार बढ़ रही है। सिंगल यूज प्लास्टिक उत्पाद न केवल मानवता के लिए अपितु समूचे प्रकृति- पर्यावरण के लिए एक बड़े खतरे के रूप में उभर रहे हैं। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार देश के 25 राज्यों में 13000 वर्ग किलोमीटर से अधिक वन क्षेत्र पर अतिक्रमण है। मैदानी और पर्वतीय क्षेत्रों से पेड़ों की अंधाधुंध कटाई जारी है। बढ़ती जनसंख्या, आवास सुविधाओं और विकास योजनाओं के नाम पर खेती की जमीन और जंगल घटते जा रहे हैं। भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में कहीं न कहीं वनों की आग फैली ही रहती है, जिससे वन क्षेत्र तो नष्ट होता ही है ग्लोबल वार्मिंग भी बढ़ रही है। आंकड़ों में तो प्रतिवर्ष लाखों पेड़ लगाए जाते हैं लेकिन उनमें से कितने जीवित रहते हैं, यह भी एक बड़ा प्रश्न है?

पर्यावरणीय असंतुलन के कारण कुदरत का कहर लगातार बढ़ रहा है। आंधी, तूफान, बे मौसम और अधिक बारिश, बाढ़ सूखा और भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाएं प्रतिवर्ष आर्थिक नुकसान के साथ-साथ हजारों लोगों की मौत का कारण भी बन रही हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण विस्थापन होने से विश्व की अनेक भाषाएं व संस्कृति लुप्त हो रही हैं। हिमालय क्षेत्र के विभिन्न ग्लेशियर पिघल रहे हैं जिनमें से कई तो बेहद संवेदनशील स्थिति में पहुंच चुके हैं। विभिन्न अध्ययनों से लगातार यह सामने आ रहा है कि जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान बढ़ने से कैंसर, हृदय, फेफड़े, मस्तिष्क, गुर्दे, श्वास एवं त्वचा रोगों में बढ़ोतरी हो रही है और यह मौत और विकलांगता का कारण भी बन रहा है। पर्यावरणीय असंतुलन के कारण अत्यधिक गर्मी और अत्यधिक सर्दी नवजात शिशुओं के लिए भी बड़ा खतरा बनती जा रही है। दिसंबर 2023 के द ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार बाहरी वायु प्रदूषण भारत में प्रतिवर्ष 21 लाख 80 हजार लोगों की जिंदगी छीन लेता है, क्या ये सब बातें पर्यावरणीय असंतुलन की दृष्टि से चिंताजनक नहीं हैं?

 सकारात्मक यह है कि भारत सरकार के विभिन्न प्रयासों से कार्बन उत्सर्जन में कमी आई है। पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा व सीएनजी जैसे महत्वपूर्ण विकल्प तेजी से बढ़ाए जा रहे हैं। प्रतिवर्ष पौधारोपण और वनीकरण के माध्यम से हरित क्षेत्र भी बढ़ाने के प्रयास जारी हैं। जलवायु परिवर्तन और अधिक सर्दी व गर्मी बढ़ने से बड़ा खतरा गेहूं, चावल एवं अन्य खाद्यान्न फसलों के साथ-साथ जल की कमी का भी है। भूजल प्रदूषित है, वह घट भी रहा है। नदियां भी प्रदूषण की गिरफ्त में हैं तो वे निरंतर सूख भी रही हैं। इन सब विषयों पर राष्ट्रीय और वैश्विक फलक पर व्यापक चिंतन और योजनाओं की आवश्यकता है।

आज गांधीजी की चेतावनी को भी हमें ध्यान में रखना होगा। उन्होंने कहा था- ऐसा समय आएगा जब अपनी जरूरतों को कई गुना बढ़ाने की अंधी दौड़ में लगे लोग अपने किए को देखेंगे और कहेंगे, ये हमने क्या किया? निश्चित रूप से आज भारत सहित समूचे विश्व को विकास और उत्पादन के नए मानक बनाने की आवश्यकता है। ऐसे मानक जो प्रकृति-पर्यावरण के अनुकूल हों। यदि पर्यावरणीय असंतुलन के मुद्दे पर भारत सहित समूचा विश्व यथाशीघ्र गंभीरता से विचार नहीं करेगा तो प्रकृति- पर्यावरण के साथ-साथ मनुष्य और समस्त जीवों का अस्तित्व बचना असंभव है। अभी भी समय है स्वयं भी जागें और दूसरों को भी जगाएं। प्रकृति-पर्यावरण को प्रदूषित न करें। नीड कल्चर से ग्रीड कल्चर की ओर न जाएं

। क्योंकि प्रकृति-पर्यावरण संतुलित और सुरक्षित है तो संस्कृति और संतति सुरक्षित हैं, जीवन सुरक्षित है।


डॉ.वेदप्रकाश

ईरान के परमाणु ठिकानों पर अमेरिकी हमले के वैश्विक मायने 

कमलेश पांडेय

आखिरकार दुनिया का थानेदार समझे जाने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने मित्र यहूदी देश इजरायल की शांति के लिए चुनौती बन चुके कट्टरपंथी इस्लामिक राष्ट्र ईरान के तीन प्रमुख परमाणु स्थलों पर हवाई हमले करके जहां विगत 10 दिनों से चल रहे इजरायल-ईरान युद्ध को एक नया मोड़ दे दिया, वहीं अपनी इस अप्रत्याशित कार्रवाई से उनकी थानेदारी को महज बयानी चुनौती देने वाले चीन-रूस-उत्तर कोरिया आदि देशों को भी एक स्पष्ट संदेश दे दिया कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अपनी हद में रहो अन्यथा अंजाम और भी बुरे हो सकते हैं। इस प्रकार ईरान के परमाणु ठिकानों पर अमेरिकी हमले के वैश्विक मायने स्पष्ट हैं जो एक ध्रुवीय विश्व को बहुध्रुवीय बनाने के प्रयासों की विफलता को उजागर करते हैं। वहीं, ये कुछ अन्य महत्वपूर्ण वैश्विक पहलुओं पर भी प्रकाश डालते हैं जो अग्रलिखित हैं।

पहला, ईरान पर हुए अमेरिकी हमले से एक बार फिर यह स्पष्ट हो चुका है कि मौजूदा एक ध्रुवीय विश्व में अमेरिका के सजग और शातिर नेतृत्व को ऑन द स्पॉट चुनौती देने का दमखम अभी रूस-चीन-उत्तर कोरिया गुट के पास के पास नहीं है, खासकर अपने ऊपर आश्रित राष्ट्रों के लिए भी। ऐसा इसलिए कि जहां अमेरिका अपने मित्र नाटो देशों- इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान व ऑस्ट्रेलिया आदि को विश्वास में लेकर अपने इजरायल व यूक्रेन जैसे सहयोगियों के पक्ष निर्णायक फैसला करता रहता है, वहीं रूस-चीन-उत्तर कोरिया जैसे सीटो देश ऐन मौके पर सीरिया व ईरान जैसे अपने सहयोगियों पर आए आफत को दूर करने के लिए त्वरित एकजुटता प्रदर्शित करने और अपेक्षित सैन्य पलटवार शुरू करने के मुद्दे पर घबरा जाते हैं। 

दूसरा, चीन-रूस-उत्तर कोरिया की कथनी व करनी में बहुत अंतर पाया जाता है। वहीं ये आपसी दांवपेंच में भी सटीक निर्णय नहीं ले पाते हैं। यही वजह है कि कभी अफगानिस्तान, कभी सीरिया और कभी ईरान जैसे मुल्क इनके हाथों से निकल जाते हैं और वहां पर पुनः अमेरिका का दबदबा बढ़ जाता है। अपने देखा होगा कि जब इजरायल-ईरान युद्ध में मिसाइल हमलों में ईरान ने इजरायल पर बढ़त ले ली और इजरायल के एयर डिफेंस सिस्टम में भी सुराग लगा दिया तो अचानक अमेरिका उसके पक्ष में उतरा और ईरान के फोर्दो, नतांज और इस्फहान स्थित न्यूकलियर साइटों को निशाना बना लिया। 

तीसरा, इस अमेरिकी हमले का एक खास मकसद था जिसे उसके अलावा कोई अन्य नाटो देश इसे कदापि पूरा नहीं कर सकता था। उल्लेखनीय है कि फोर्दो न्यूकलियर साइट इसमें बेहद महत्वपूर्ण है जो तेहरान के दक्षिण में एक पहाड़ के नीचे स्थित है और बेहद गहराई पर बना है। इसे इंग्लिश चैनल टनल से भी गहरा माना जाता है। यही वजह है कि अमेरिका ने अपने हमले में  जीबीयू (GBU)-57 मैसिव ऑर्डनेंस पेनिट्रेटर (MOP) नामक भारी बम का इस्तेमाल किया जो 13,000 किलोग्राम वजनी होता है और 61 मीटर मिट्टी या 18 मीटर कंक्रीट को भेद सकता है, लेकिन इससे इस केंद्र को कितना नुकसान पहुंचा, कुछ समय बाद पता चलेगा जब सही आंकड़े व फोटो ईरान सरकार द्वारा जारी किए जाएंगे।

चतुर्थ, अमेरिकी हमले के प्रभाव की पूरी जानकारी अभी तक सामने नहीं आई है लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि निश्चित तौर पर ईरान को पिछले कई सालों से अपने न्यूकलियर रिसर्च सेंटरों पर हमले की आशंका थी जो इस बार पूरी हो गई। इसलिए ईऱान ने अपनी गुप्त रणनीति के अनुरूप कोई वैकल्पिक व्यवस्था जरूर की होगी जैसा कि एक अन्य इस्लामिक देश पाकिस्तान ने अपने न्यूक्लियर  प्रोग्राम के अधीन पाकिस्तानी हुक्मरानों के इशारे पर कर रखा है। यही वजह है कि खुद ईऱानी अधिकारियों ने दावा किया है कि न्यूकलियर साइटों को पहले ही खाली कर दिया गया था और जरूरी परमाणु रिसर्च उपकरण को हटा दिया गया था। यदि ऐसा है तो यह अमेरिका-इजरायल के लिए किसी दुःस्वप्न जैसा है।

पंचम, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का कहना है कि परमाणु साइटें पूरी तरह से नष्ट कर दी गई हैं लेकिन कई पूर्व अमेरिकी राजनयिकों का मानना है कि यह कहना अभी जल्दबाज़ी होगा कि इरानी न्यूक्लियर रिसर्च सेंटर पूरी तरह से नष्ट या खत्म हो गए हैं। हो सकता है कि राष्ट्रपति ट्रंप ने इजरायल को संतुष्ट करने के लिए या महज दिखावे के लिए न्यूक्लियर रिसर्च सेंटरों पर हमला किया हो, क्योंकि ट्रंप व्यापारी है, व्यापार उनकी प्राथमिकता है, और अमेरिका को पूर्ण युद्ध में वो शायद नहीं शामिल करना चाहते है। यही वजह है कि ईरान प्रशासन को उन्होंने पहले ही आगाह कर दिया था कि वह उनके परमाणु ठिकाने पर हमला करेंगे लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति पर इजरायल पब्लिक अफेयर्स कमेटी औऱ यहूदी काउंसिल फॉर पब्लिक अफेर्यस का दबाव है, जो रिपब्लिकन और डेमोक्रेट दोनों को फंड करती है। उल्लेखनीय है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था वहां के 2 प्रतिशत यहूदियों के इशारे पर ही कुलांचें मारती फिरती है।

छठा, वैसे तो ईरान को न्यूक्लियर रिसर्च सेंटरों पर हमले की संभावना लंबे समय से व्यक्त की जा रही थी, इसलिए जरूरी न्यूक्लियर रिसर्च उपकरणों को बचाने का वैकल्पिक इंतजाम ईऱान ने पहले ही कर रखा होगा। बता दें कि ईऱान की तरह पाकिस्तान भी अपने न्यूक्लियर सेंटर्स पर हमले की आशंका व्यक्त करता रहा है। पाकिस्तान का स्ट्रैटजिक प्लान डिविजन जो नेशनल कमांड अथॉरिटी का सचिवालय है, ने अपने जरूरी न्यूक्लियर रिसर्च उपकरणों के लिए लगभग 15 गोपनीय स्थान बना रखे हैं जहां समय-समय पर इसे रखा जाता है। 

सातवां, यूँ तो पाकिस्तान ने भी लगातार यही आशंका प्रकट की है कि अमेरिका, भारत या इज़राइल उसकी परमाणु क्षमताओं को नष्ट करने की कोशिश कर सकते हैं। बता दें कि 1980 और 1990 के दशक में पाकिस्तान ने कई बार अपने परमाणु रिसर्च केंद्रों पर हमले की संभावना जतायी जबकि मौजूदा दौर में ईरान भी वैसी ही मनोदशा से गुजर रहा है। गौरतलब है कि 1982 में इज़राइल द्वारा इराक के ओसिराक रिएक्टर पर हमले के बाद, पाकिस्तान को आशंका हुई कि भारत भी पाकिस्तान के परमाणु केंद्रों पर हमला कर सकता है। पाकिस्तान के तत्कालीन शासक जनरल जिया उल हक ने खुले तौर पर स्वीकार किया था कि भारत पाकिस्तान पर ओसिराक रिएक्टर पर हुए इजरायली अटैक की तरह हमला कर सकता है। उस समय भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थी। 

आठवां, वर्ष 1984 में पाकिस्तानी अधिकारियों ने कनैडियन और यूरोपियन इंटेजिलेंस एजेंसियों की रिपोर्ट के हवाले से यह आशंका व्यक्त की थी कि इज़राइल पाकिस्तान के काहुटा न्यूक्लियर रिसर्च सेंटर पर हमले की योजना बना रहा है। इसके लिए इजरायल, भारत और तत्कालीन सोवियत संघ (अब रूस) की मदद ले सकता है। वहीं, 1985 में फिर से पाकिस्तान ने काहुटा पर भारत द्वारा संभावित हमले की आशंका जताई। उस समय भी जिया पाकिस्तान के शासक थे जबकि मिस्टर क्लीन के नाम से मशहूर राजीव गाँधी भारत के प्रधानमंत्री थे। वहीं, साल 1998 में भारत ने जब परमाणु परीक्षण किया तो पाकिस्तान ने फिर कहा कि उसके परमाणु केंद्रों पर हमला हो सकता है। उस समय नवाज शरीफ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे और अटल बिहारी वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री थे।

नवम, ईरान पर हमले के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्र को संबोधित किया और ईरान और इजरायल के युद्ध पर खुलकर बात की। इस दौरान ट्रंप ने ईरान को दो टूक शब्दों में चेतावनी दी है कि अगर ईरान में शांति नहीं हुई तो फिर विनाश तय है। इससे साफ है कि गत 13 जून 2025 को शुरू हुए इजरायल और ईरान के तनाव में अब अमेरिका की एंट्री हो गई है क्योंकि अमेरिका ने ईरान के परमाणु ठिकानों पर बम बसराए हैं। डोनाल्ड ट्रंप ने व्यथा पूर्वक बताया कि ईरान पिछले 40 साल से अमेरिका के खिलाफ है और कई अमेरिकी इस नफरत की भेंट चढ़ चुके हैं। अब यह और नहीं होगा। ईरान की वजह से हजारों अमेरिकियों और इजरायली नागरिकों की जान गई है मगर बस, अब यह और नहीं होगा। ईरान पर अमेरिका के हमले का उद्देश्य परमाणु खतरे को हमेशा के लिए खत्म करना था। इसीलिए अमेरिका ने ईरान की परमाणु साइट्स को निशाना बनाया है। 

दशम, ट्रंप ने साफ शब्दों में चेतावनी देते हुए कहा है कि अगर ईरान में शांति स्थापित नहीं हुई तो फिर विनाश होगा। ईरान आगे और भी हमलों के लिए तैयार रहे। भविष्य के हमले इससे कहीं ज्यादा भयानक होंगे। ट्रंप ने आगे कहा कि बीती रात अमेरिका ने ईरान के जिन परमाणु ठिकानों को निशाना बनाया था, वो बेहद कठिन थे मगर अमेरिकी सेना ने यह कर दिखाया। अब तेहरान का सबसे महत्वपूर्ण परमाणु प्रोग्राम साइट फोर्डो तबाह हो चुकी है।

ग्यारह, ईरान के परमाणु ऊर्जा संगठन (AEOI) ने भी फोर्डो, नतांज और इस्फहान परमाणु ठिकानों पर हमलों की पुष्टि की है। AEOI का कहना है कि अमेरिका की यह कार्रवाई अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन है। इसमें अंतरराष्ट्रीय परमाणु एजेंसी (IAEA) ने भी अमेरिका का साथ दिया है। वैश्विक समुदाय को इस हमले की कड़ी निंदा करनी चाहिए। ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम को जारी रखेगा, यह किसी भी कीमत पर नहीं रुकेगा।

बारह, तेहरान में शरियातमदारी के हवाले से कहा गया है, “अब बिना देरी किए कार्रवाई करने की हमारी बारी है। पहले कदम के तौर पर हमें बहरीन में अमेरिकी नौसेना के बेड़े पर मिसाइल हमला करना चाहिए और साथ ही अमेरिकी, ब्रिटिश, जर्मन और फ्रांसीसी जहाजों के लिए होर्मुज जलडमरूमध्य को बंद करना चाहिए।” बता दें कि होर्मुज जलडमरूमध्य फारस की खाड़ी और ओमान की खाड़ी के बीच एक जलडमरूमध्य है। यह फारस की खाड़ी से खुले समुद्र तक एकमात्र समुद्री मार्ग प्रदान करता है और दुनिया के सबसे रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण चोक पॉइंट्स में से एक है। यदि ऐसा हुआ तो यह पूरी दुनिया में ऊर्जा संकट पैदा कर देगा।

तेरह, इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने भी अमेरिका के इस कदम को साहसिक करार दिया है। उन्होंने कहा कि, मैं और ट्रंप यही मानते हैं कि शक्ति से ही शांति स्थापित होती है। पहले शक्ति दिखाई जाती है और फिर शांति होती है। अमेरिका ने ईरान पर पूरी ताकत के साथ कार्रवाई की है। उल्लेखनीय है कि अमेरिका ने ईरान के तीन सबसे महत्वपूर्ण परमाणु स्थल फोर्डो, नतांज और इस्फहान पर कुल 6 जीबीयू (GBU)-57 बंकर बस्टर बम गिराए हैं। बी (B)-2 स्टील्थ बॉम्बर्स से इन महा विशालकाय बमों को गिराए हैं और उन्हें नेस्तनाबूद कर दिया है। 

चौदह, सवाल है कि अगर अमेरिका खुलकर युद्ध में कूदता है तो क्या ईरान की सरकार का युद्ध में टिकना मुश्किल हो जाएगा। तो जवाब होगा- हां। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि अमेरिका विजेता होगा। बल्कि अफ़ग़ानिस्तान, इराक़, लीबिया, सीरिया, हर जगह पश्चिमी हस्तक्षेप के बाद जैसे स्थिति बदतर हुई और कट्टरपंथी ताक़तें सत्ता में आ गईं और आतंकवाद बढ़ा। लिहाजा, ईरान की हार से पश्चिमी एशिया में फिर से वही चक्र शुरू हो सकता है, शरणार्थी संकट, अस्थिरता और आतंकवाद का बढ़ना।

पंद्रह, ईरानी दूतावास ने कहा है कि वो इस हमले से रूकने वाला नहीं है। यह हमला उस समय हुआ जब कूटनीतिक बातचीत चल रही थी। वह इजराइल जैसे आक्रामक देश का साथ देकर एक खतरनाक जंग की शुरुआत कर रहा है। ईरान ने साफ कहा कि वह अपने देश की सुरक्षा और हितों की रक्षा के लिए पूरी ताकत से जवाब देगा। ईरान ने अमेरिका को एक गैर-जिम्मेदार देश बताया जो किसी भी नियम का पालन नहीं करता।

सोलह, पश्चिमी एशिया व यूरोपीय देशों का मानना है कि अगर इसराइल और ईरान के बीच संघर्ष और बढ़ा, तो इसका असर केवल क्षेत्रीय सीमाओं तक सीमित नहीं रहेगा बल्कि यह पूरी दुनिया को प्रभावित करेगा। इसलिए अब हर किसी की नज़र इस बात पर टिकी है कि अमेरिका के ईरान पर हमलों के बाद इस्लामिक देशों का रुख़ क्या होगा? जबकि ईरान की परमाणु ऊर्जा संस्था ने एक तीखा और भावनात्मक बयान जारी किया है। भारत स्थित ईरानी दूतावास ने इस बयान को जारी करते हुए अमेरिका की सख्त शब्दों में निंदा की गई है और फिर से परमाणु कार्यक्रम शुरू करने की कसम खाई गई है। 

सत्रह, ईरानी बयान में अमेरिका के इस हमले को ‘जंगल का कानून’ बताया गया है। इसके अलावा ईरान ने IAEA की चुप्पी की निंदा करते हुए देश के ‘परमाणु शहीदों’ के नाम पर शपथ ली है और फिर से अपने परमाणु कार्यक्रम को जारी रखने की कसम खाई है। परमाणु सुविधाओं पर हमले के बाद ईरान के परमाणु ऊर्जा संगठन की तरफ से जारी बयान में अमेरिका की निंदा की गई है। ईरानी दूतावास ने अपने बयान में कहा है कि “हाल के दिनों में जायोनी दुश्मन द्वारा किए गए क्रूर हमलों के बाद, आज सुबह देश के कई परमाणु स्थलों पर बर्बर हमला किया गया, जो अंतरराष्ट्रीय कानूनों, विशेष रूप से एनपीटी का उल्लंघन है। 

अठारह, ईरान ने दो टूक कहा है कि अमेरिकी कार्रवाई, जो अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन करती है, वो दुर्भाग्य से अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) की उदासीनता, और यहां तक कि मिलीभगत से हुई है। अमेरिकी दुश्मन ने वर्चुअल सैटेलाइट तस्वीरों के माध्यम से और अपने राष्ट्रपति की घोषणा के द्वारा साइटों पर हमलों की जिम्मेदारी ली है जो सुरक्षा समझौते और एनपीटी के मुताबिक लगातार IAEA निगरानी के अधीन हैं। यह उम्मीद की जाती है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय “जंगल के नियमों” में निहित इस अराजकता की निंदा करेगा और ईरान को उसके वैध अधिकारों का दावा करने में समर्थन देगा।”

उन्नीस, ईरानी दूतावास ने कहा है कि “ईरान का परमाणु ऊर्जा संगठन ईरान के महान राष्ट्र को आश्वस्त करता है कि अपने दुश्मनों की दुर्भावनापूर्ण साजिशों के बावजूद, हजारों क्रांतिकारी और प्रेरित वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों के समर्पण के साथ, यह परमाणु शहीदों के खून पर बने इस राष्ट्रीय उद्योग के डेवलपमेंट को रुकने नहीं देगा। यह संगठन कानूनी कार्रवाइयों सहित महान ईरानी लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए आवश्यक कदम उठा रहा है।” ईरान ने यह आरोप लगाया कि यह हमला उन ठिकानों पर किया गया है जो पहले से ही अंतरराष्ट्रीय निरीक्षण और निगरानी में थे और इसलिए यह कदम पूरी तरह अवैध और उकसावे की कार्यवाही है।

बीस, निष्कर्षत:, इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने अमेरिका के इस कदम को साहसिक करार दिया और  कहा कि, “मैं और ट्रंप यही मानते हैं कि शक्ति से ही शांति स्थापित होती है। पहले शक्ति दिखाई जाती है और फिर शांति होती है। अमेरिका ने ईरान पर पूरी ताकत के साथ कार्रवाई की है। नेतन्याहू ने ट्रम्प को स्वतंत्र दुनिया का साहसी नेता और इजराइल का सबसे बड़ा दोस्त बताया।” उन्होंने कहा कि, ‘‘पूरे यहूदी समुदाय और इजराइली नागरिकों की ओर से मैं उनका आभार प्रकट करता हूं।’’

कमलेश पांडेय

बॉलीवुड में पहचान बना रहीं साउथ एक्‍ट्रेस

सुभाष शिरढोनकर

पिछले कुछ वक्‍त से साउथ सिनेमा की अनेक एक्ट्रेसेस हिंदी फिल्मों में नजर आने लगी हैं। यहां के दर्शक न केवल उन्हें   पहचान रहे हैं बल्कि हिंदी बेल्‍ट में उनकी लोकप्रियता काफी बढ़ चुकी है। ऐसी एक्‍ट्रेसों का सिलसिलेवार ब्‍योरा पेश है।

रश्मिका मंदाना

एक्ट्रेस रश्मिका मंदाना इस लिस्ट में सबसे ऊपर हैं। रश्मिका मंदाना तमिल फिल्‍म इंडस्‍ट्री की एक लोकप्रिय एक्‍ट्रेस हैं। अपने छोटे से करियर में रश्मिका मंदाना ने इतनी ब्लॉकबस्टर दी हैं जितनी कई एक्टर मिलकर भी नहीं कर पाते।  

अपनी पेन इंडिया फिल्‍मों के जरिए उन्‍होंने काफी कम समय में जबर्दस्‍त लोकप्रियता हासिल की है।  रनबीर कपूर की ‘एनिमल’, अल्लू अर्जुन के साथ ‘पुष्‍पा’ और ‘पुष्प 2’, विक्की कौशल के साथ  ‘छावा’ और सलमान के साथ ‘सिकंदर’ जिस किसी फिल्म के साथ रश्मिका का नाम जुड़ता है, उस फिल्म की किस्मत ही बदल जाती है।

हालांकि सलमान के साथ वाली उनकी फिल्‍म ‘सिकंदर’ उतनी नहीं चली। लेकिन उस फिल्‍म के न चलने की अपनी कुछ अलग ही वजहें थीं।  

नयनतारा

साउथ की फीमेल सुपरस्टार कही जाने वाली नयनतारा इस लिस्ट में दूसरे नंबर हैं। नयनतारा ने 2023 में रिलीज शाहरुख खान की फिल्म ‘जवान’ से बॉलीवुड में कदम रखा। फिल्म में दोनों की केमिस्ट्री फैंस को काफी पसंद आई।

नयनतारा न केवल खूबसूरती के मामले में बल्कि पढ़ाई-लिखाई के मामले में भी बहुत आगे हैं। उन्होंने इंग्लिश लिटरेचर में डिग्री ली है।

सामंथा रूथ प्रभु

एक्ट्रेस सामंथा रूथ प्रभु साउथ फिल्‍म इंडस्ट्री की हाईपेड एक्ट्रेसेस में से एक हैं। इस लिस्ट में वे तीसरे नंबर पर है। सामंथा ने ना सिर्फ साउथ बल्कि हिंदी फिल्में और वेब सीरीज भी की हैं।

वह आखिरी बार वरुण धवन के साथ ‘सिटाडेल: हनी बनी’ में नजर आई थीं। ये वेब सीरीज अमेरिकन सीरीज ‘सिटाडेल’ का हिंदी वर्जन थी। इस एक्शन थ्रिलर वेब सीरीज में अपने हिस्‍से के सारे स्‍टंट खुद उन्‍होंने ही किए थे।

साई पल्लवी

एक्ट्रेस साई पल्लवी इस लिस्ट में चौथे नंबर पर है। इन्होंने साउथ की कई हिट फिल्में की हैं. फिलहाल वे नीतेश तिवारी की फिल्म ‘रामायण’ में माता सीता का रोल प्ले कर रही हैं। फिल्‍म में एक्टर रनबीर कपूर उनके अपोजिट भगवान श्रीराम के किरदार में नजर आएंगे।

तमन्ना भाटिया

साउथ में मिल्‍क ब्‍यूटी के नाम से मशहूर एक्‍ट्रेस तमन्ना भाटिया इस लिस्ट में पांचवे नंबर पर है। तमन्ना ने ना सिर्फ साउथ बल्कि हिंदी फिल्मों में भी अपनी परियों जैसी खूबसूरती और एक्टिंग टेलेंट का जलवा दिखाया है।

प्रियंका मोहन

एक्ट्रेस प्रियंका मोहन इस लिस्ट में छठवें नंबर पर है। प्रियंका ने कुछ समय पहले ही साउथ फिल्मों में डेब्यू किया है और उन्हें  उनके पहले ही कदम पर जोरदार कामयाबी मिली।

तृष्णा कृष्णन

तृष्णा कृष्णन तमिल फिल्‍म इंडस्‍ट्री की एक फेमस एक्ट्रेस हैं। लोग उन्हें  काफी पसंद करते हैं। इन्होंने कुछ हिंदी फिल्मों में भी काम किया है। इस लिस्ट में इनकी पोजीशन सातवें नंबर पर है।

कीर्ति सुरेश

साउथ एक्ट्रेस कीर्ति सुरेश भी साउथ की सबसे ज्‍यादा कामयाब एक्‍ट्रेस में से एक हैं। उनका नाम अब तक तमिल के अलावा साउथ की अन्‍य भाषाओं की अनेक कामयाब फिल्‍मों के साथ जुड़ चुका है।

ज्योतिका

एक्ट्रेस ज्योतिका साउथ की पॉपुलर एक्ट्रेसेस में से एक हैं। हाल ही में इन्होंने ‘शैतान’ और ‘श्रीकांत’ जैसी फिल्में की हैं जो हिट रहीं। ज्योतिका साउथ के साथ कुछ हिंदी फिल्मों में भी नजर आ चुकी है।

श्रुति हासन

साउथ सुपरस्टार कमल हासन की बेटी एक्ट्रेस श्रुति हासन को इस लिस्ट में 10वें नंबर पर है। श्रुति ना सिर्फ साउथ फिल्मों में एक्टिव हैं बल्कि कई हिंदी  फिल्में भी कर चुकी हैं।

सुभाष शिरढोनकर

अजेय बाजीराव पेशवा प्रथम के संघर्ष का अंतिम दस्तावेज़ ‘रावेरखेड़ी’

डॉअर्पण जैन ‘अविचल

निमाड़ अंचल न केवल नीम के वृक्षों से भरा हुआ है बल्कि माँ रेवा के अतिरिक्त लाड़ से लबरेज़ भी है और ऐतिहासिकता को अपने भीतर सजाए हुए नज़र आता है। पूर्वी निमाड़ में रेवा का लाड़ कुछ इस तरह बहता है कि यहाँ प्राणदायिनी के रूप में नर्मदा का स्थान है। इसी नर्मदा के आँचल में एक स्थान ऐसा भी है, जहाँ 40 वर्षीय, वीर भारतीय सेना नायक, चतुर्थ मराठा छत्रपति शाहू जी के पेशवा बाजीराव प्रथम ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया था।

बाजीराव का जन्म 18 अगस्त 1700 को महाराष्ट्र के नासिक के पास सिन्नर में भट्ट परिवार में हुआ था। उनके पिता बालाजी विश्वनाथ तो शाहू प्रथम के पेशवा थे और उनकी माँ राधाबाई बर्वे थीं। बाजीराव का एक छोटा भाई चिमाजी अप्पा और दो छोटी बहनें अनुबाई और भिउबाई थीं। शिक्षित चितपावन ब्राह्मण परिवार में पैदा होने के कारण उनकी शिक्षा में पढ़ना, लिखना और संस्कृत सीखना शामिल था। हालाँकि वे अपनी किताबों तक ही सीमित नहीं रहे।बचपन से बाजीराव को घुड़सवारी करना, तीरन्दाज़ी, तलवार-भाला, बनेठी, लाठी आदि चलाने का शौक़ था। 13-14 वर्ष की खेलने की आयु में बाजीराव अपने पिताजी के साथ घूमते हुए युद्धनीति, दरबारी चाल-चलन व रीतिरिवाज़ों को आत्मसात करते रहते थे। बचपन से ही सेना और राष्ट्र के लिए अपने हौंसलों से उन्होंने पिता के साथ सेना में कार्य करना आरम्भ कर दिया था।

उनके दो विवाह हुए, उनकी पहली पत्नी काशीबाई थीं। उनका विवाह 1720 में हुआ था। उनके चार पुत्र थे, जिनमें से बालाजी बाजीराव और रघुनाथराव, जो आगे चल कर पेशवा बने। बाजीराव की दूसरी पत्नी मस्तानी थीं, जो कि बुंदेलखंड के हिंदू राजा छत्रसाल और उनकी एक फ़ारसी मुस्लिम पत्नी रुहानी बाई की बेटी थीं। पेशवा परिवार ने इस शादी को स्वीकार नहीं किया। कुछ लोगों का मानना है कि बाजीराव ने मस्तानी से विवाह किया था, जबकि कुछ लोगों का मानना है कि वह उनकी उपपत्नी थीं। बाजीराव और मस्तानी का एक बेटा था, जिसका नाम कृष्ण राव रखा गया था, बाद में उसका नाम शमशेर बहादुर रखा गया।

बाजीराव 1719 में अपने पिता के साथ दिल्ली के अभियान पर गए थे और उन्हें विश्वास था कि मुग़ल साम्राज्य बिखर रहा है और उत्तर की ओर मराठा विस्तार का विरोध करने में असमर्थ होगा। उसी संघर्ष के दौरान जब 1720 में बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु हो गई, तो शाहू ने अन्य सरदारों के विरोध के बावजूद 20 वर्षीय बाजीराव के सैन्य कौशल को देखकर उन पर विश्वास करते हुए उन्हें 17 अप्रैल 1720 को पेशवा (प्रधानमंत्री) नियुक्त किया।

भाट (भट्ट) वंश के नौ पेशवाओं में सबसे अधिक प्रभावशाली पेशवा बाजीराव ही माने जाते हैं। उनके अनथक श्रम और अभूतपूर्व युद्ध कौशल के कारण मराठा राज्य के विस्तार में महत्ती भूमिका रही। उन्होंने मालवा, निमाड़, गुजरात, निज़ाम, पुर्तगालियों तथा दिल्ली के सुल्तान की सेनाओं को परास्त किया। गुजरात के गायकवाड़, ग्वालियर के शिंदे, जिन्हें सिंधिया कहा जाता है, इन्दौर के होलकर, धार के पँवार, नागपुर के भोंसले को मराठा साम्राज्य के अधीन कर मराठा संघ बनाया।

कुल 40 वर्षों के जीवन में अधिकांशतः बाजीराव ने युद्ध ही किए। उत्तर भारत के युद्ध अभियान के दौरान अपने एक लाख से अधिक सैनिकों के साथ बाजीराव निमाड़ में नर्मदा तट पर डेरा डाले हुए थे। लगातार युद्धों और सैन्य अभियानों के कारण बाजीराव का शरीर कमज़ोर हो गया था।  वैसे निमाड़ में गर्मी और लपट बहुत तेज़ होती है। इस दौरान 23 अप्रैल को बाजीराव को पहली बार ग्रीष्माघात यानी लू लग गई, तब लक्षण हल्के थे। 26 अप्रैल को बुखार इतना बढ़ गया कि बाजीराव बेसुध हो गए। रविवार यानी 28 अप्रैल 1740 को उनकी मृत्यु हो गई। उसी दिन नर्मदा नदी के तट पर रावेरखेड़ी में उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया।

अमेरिकी इतिहासकार बर्नार्ड माण्टोगोमेरी ने बाजीराव पेशवा को ‘भारत के इतिहास का सबसे महानतम सेनापति’ कहा है। उन्होंने विशेष रूप से बाजीराव प्रथम की पालखेड़ युद्ध में निज़ाम को हराने की क्षमता की प्रशंसा भी की है। इतिहासकार वी.एस. स्मिथ ने बाजीराव पेशवा की युद्ध कला और रणनीतिक कौशल को देखते हुए उन्हें “भारत का नेपोलियन” कहा था। जबकि क्या स्मिथ को यह ज्ञात नहीं कि बाजीराव का जन्म 1700 ई. में हुआ और निधन 28 अप्रैल 1740 ई. में हो गया। और नेपोलियन बोनापार्ट का जन्म 1769ई. में हुआ। इस मायने से तो नेपोलियन ने बाजीराव के शौर्य का अनुसरण किया होगा और इस कारण से तो नेपोलियन को विश्व का बाजीराव कहा जाना चाहिए।

बालाजी बाजीराव ने राणोजी शिंदे को स्मारक के रूप में एक छतरी बनाने का आदेश दिया। स्मारक एक धर्मशाला से घिरा हुआ है। परिसर में दो मंदिर हैं, जो नीलकंठेश्वर महादेव (शिव) और रामेश्वर (राम) को समर्पित हैं। यह स्मारक बाजीराव के सबसे वफ़ादार सरदार माने जाने वाले ग्वालियर के शिंदे यानी सिंधिया ने रावेरखेड़ी में उनकी समाधि बनवाई। श्रीमन्त पेशवा बाजीराव बल्लाळ भट्ट को ‘बाजीराव बल्लाळ’ तथा ‘थोरले बाजीराव’ के नाम से भी जाना जाता है।

इतिहास और प्राकृतिक आह्लाद से परिपूर्ण रावेरखेड़ी निमाड़ में इंदौर से लगभग 106 किमी दूर है। ओंकारेश्वर-सनावद से क़रीब 27 किमी दूर रावेर गाँव से पास 5 किमी दूर खेड़ी गाँव आता है। मध्यप्रदेश के दक्षिणी पश्चिमी हिस्से में बसे निमाड़ अंचल के खरगोन जिले में नर्मदा नदी के दक्षिण तट पर यह बसा है। यह सिद्धक्षेत्र ओंकारेश्वर से पश्चिम में 40 किलोमीटर एवं महेश्वर से पूर्व में 45 किलोमीटर की दूरी पर पड़ता है। मुख्य नर्मदा परिक्रमा मार्ग पर होने एवं पेशवा बाजीराव प्रथम की समाधि स्थल के कारण देश भर में प्रसिद्ध है।

इस छोटे से गाँव में एक परकोटा बना है, जिसके बीचो-बीच एक छोटी-सी समाधि बनी हुई है। बलुआ पत्थर से बनी इस समाधि और परकोटे की बनावट सादगीपूर्ण है और इसके पास बहने वाली नर्मदा नदी इसकी ख़ूबसूरती में चार चाँद लगा देती है। यूँ तो इसका ज़्यादातर हिस्सा पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो चुका है लेकिन जितना भी भाग बचा है, वह इसकी ख़ूबसूरती, भव्यता और मज़बूती की दास्तां सुनाता है। इस समाधि स्थल के पास ही नर्मदा नदी बहती है, जो बरसात में और भी ख़ूबसूरत नज़र आती है।

रावेरखेड़ी में स्थित यह समाधि शांत वातावरण में है, नर्मदा का सहज भाव में बहना इसके शांतिपूर्ण और राजसी माहौल को और भी बढ़ा देता है। समाधि की वास्तुकला मराठा और मुग़ल शैलियों का एक शानदार मिश्रण है, जो इस क्षेत्र की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को दर्शाता है। रावेर गाँव में एक विशाल प्रवेश द्वार मिलेगा, जो जटिल नक़्क़ाशीदार आकृतियों और रूपांकनों से सुसज्जित है। प्रवेश द्वार एक विशाल प्रांगण की ओर जाता है, जिसमें सुंदर ढंग से बनाए गए बग़ीचे हैं, जो शांत एवं सुखद वातावरण की अनुभूति करवाते हैं।

वर्तमान में समाधि स्थल पर एक बग़ीचा भी तैयार करवाया गया है। वैसे इस गाँव के पास में ही बेड़िया मंडी, डूडगाँव इत्यादि गाँव हैं, जो कृषि उपज, मंडी क्षेत्र के लिए पूरे निमाड़ में प्रसिद्ध हैं। वर्तमान में देखभाल के अभाव में समाधि स्थल के आस-पास बिखरे कचरे के ढेर और अंदर से जीर्ण-शीर्ण होती इमारत एक भय को पैदा करने वाली रही कि भविष्य में शौर्य सम्राट के वृहद् इतिहास को आने वाली पीढ़ी कैसे जानेगी! समाधि स्थल पर लगे बोर्ड केवल बाजीराव के रावेरखेड़ी में रुकने और निधन की गाथा को बताते है किन्तु बाजीराव के शौर्य की दास्तां वह भी नहीं कह पाते।

मध्यप्रदेश सरकार चाहे तो समाधि स्थल पर शिलालेखों के माध्यम से अथवा पुस्तकालय के माध्यम से पेशवा बाजीराव प्रथम के जीवन वृत की प्रदर्शनी भी बनवा सकती है और आने वाले पर्यटकों की सुविधा के लिए भी कार्य कर सकती है। एक अच्छे ऐतिहासिक पर्यटन स्थल के रूप में रावेरखेड़ी को तैयार किया जा सकता है।

बाजीराव पेशवा की समाधि स्थल रावेरखेड़ी में अन्य महत्त्वपूर्ण स्थान

1. समाधि स्थल

2. अंत्येष्टि ओटला (जहाँ पेशवा बाजीराव की अंत्येष्टि की गई)

3. सराय (धर्मशाला)

4. रामेश्वरम मंदिर (बाजीराव द्वारा स्थापित शिवलिंग, जिसकी पूजा बाजीराव ने सपत्नी की)

5. वृंदा द्वार

पेशवा बाजीराव प्रथम की समाधि

अफ़गान के शासक नादिरशाह ने 1739 में दिल्ली पर आक्रमण किया और लूट पाट मचाना शुरू कर दिया, इसके बाद मुग़ल बादशाह को तख़्त से हटाकर ख़ुद उस पर क़ाबिज़ हो गया। जब इस बात की ख़बर पेशवा के पास पुणे पहुँची तो पेशवा बाजीराव ने 1 लाख सैनिकों के साथ पुणे से दिल्ली की ओर युद्ध के लिए कूच किया, जब पेशवा बाजीराव अपनी सैनिक छावनी सहित रावेरखेड़ी में 20 अप्रैल 1740 के लगभग पहुँचे। उन्होंने विश्राम किया, नर्मदा स्नान के और निमाड़ की भीषण गर्मी के कारण पेशवा बाजीराव को लू लग गई एवं तेज़ दिमाग़ी बुखार आने के कारण 28 अप्रैल 1740 को सैनिक छावनी रावेरखेडी में ही पेशवा बाजीराव का निधन हो गया।

पेशवा के ख़ास, मराठा सूबेदार राणो जी शिंदे ग्वालियर ने, अपने पेशवा की स्मृति में इस समाधि का निर्माण कराया था। समाधि सराय के मध्य में बनी हुई है, जो चार तल में निर्मित है। नीचे का भाग आयताकार, उसके ऊपर अष्टकोण एवं उसके ऊपर षटकोण आकार में पूर्ण रूप से पत्थर की बनी है, जिसके ऊपर शिवलिंग की स्थापना की गई है। समाधि पर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। समाधि के पत्थरों को तराश कर फूल जाली एवं नक़्क़ाशी से सुशोभित किया गया है। इतिहासकारों का मानना है कि पेशवा के अस्थि कलश रखकर समाधि का निर्माण कराया गया है। इसे 18 अप्रैल 1930 को भारतीय  पुरातत्व सर्वेक्षण रिकॉर्ड में दर्ज कर लिया गया था।

अंत्येष्टि ओटला

28 अप्रैल 1740 को बाजीराव पेशवा के जीवन की अंतिम यात्रा  जिस स्थान पर पहुँची, उस अंत्येष्टि स्थान से ही बाजीराव की देह पंचतत्व में विलीन हो गई, यह चबूतरा अंत्येष्टि स्थल के नाम से जाना जाता है, जो खेड़ी ग्राम में ही नर्मदा तट पर बना हुआ है। समाधि के झरोखों से उत्तर दिशा में नर्मदा के बीच में पत्थर का ओटला दिखाई देता है, जिस पर शिवलिंग स्थापित है। इतिहासकारों का यह मानना है कि इसी स्थान पर पेशवा बाजीराव का अंतिम क्रियाकर्म किया गया था। कुछ लोगों का मानना है कि यह बाजीराव के घोड़े की समाधि है किन्तु किसी घोड़े की समाधि पर शिवलिंग की स्थापना सहज स्वीकार नहीं होता क्योंकि मराठा साम्राज्य के जिन योद्धाओं की समाधियाँ बनी हैं, उन योद्धाओं की प्रत्येक समाधि पर शिवलिंग स्थापित है, जिसकी पूजा नहीं होती। ऐसे में घोड़े की समाधि गले नहीं उतरती।

सराय (धर्मशाला)

सराय का अर्थ धर्मशाला होता है। बाजीराव पेशवा प्रथम की समाधि सराय के मध्य में बनी हुई है। चारों ओर धर्मशालानुमा स्थान पर यात्रियों के लिए रहने का खुला स्थान है। सराय और समाधि के पत्थरों को तराशकर नक़्क़ाशीदार खिड़कियाँ बनाई हैं, जिससे रहने वाले लोग नर्मदा दर्शन कर सकें।

रामेश्वरम मन्दिर

पेशवा की समाधि की पूर्व दिशा में एक प्राचीन मंदिर बना हुआ है। इतिहासकार बताते हैं कि पेशवा बाजीराव ने पत्नी काशीबाई के कहने पर 1731 में इस मंदिर का निर्माण कराया था, जिसमें पेशवा बाजीराव सपत्नी पूजा-पाठ करते थे। दस्तावेज़ों के अनुसार बाजीराव के जीवन के अंतिम दिनों में बाजीराव के स्वास्थ्य और जीवन की अनुकूलता के लिए लाखों महामृत्युंजय महामंत्र के जाप इसी मंदिर में कराए गए थे। वर्तमान में मंदिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। इसके संरक्षण की आवश्यकता है। शिवरात्रि के पर्व पर विशेष दर्शन के लिए क्षेत्र के श्रद्धालु आते हैं।

‘वृन्दा द्वार’ या ‘चुंगी नाका’

रावेरखेड़ी ग्राम में प्रवेश करते वक्त एक नाका मिलता है। इतिहासकारों द्वारा इस स्मारक को चुंगी नाका, कचहरी के नाम से उल्लेखित किया गया है। वहीं पुरातत्व विभाग के रिकॉर्ड के अनुसार इसे वृन्दा द्वार कहा जाता है जो कि 18 जनवरी 1930 से पुरातत्व विभाग के रिकॉर्ड में दर्ज है। इस स्थान पर एक तुलसी का पौधा होने से इसे वृन्दा द्वार कहा जाता है। मालवा प्रांत पेशवा के सूबेदार के अधीन होने के कारण जो लोग नर्मदा पार कर मालगुज़ारी करते थे, उन्हें इस स्थान पर ‘कर’ देना होता था। उस काल में वृन्दा द्वार पर कुछ सैनिक स्थाई रूप से इसमें निवास करते थे। यहाँ रसोईघर और कुछ कमरे बने हुए थे। आज यह स्थान खंडहर में बदल चुका है, केवल द्वार शेष रह गया है।

डॉअर्पण जैन ‘अविचल

इस मोबाइल ने आदमी को अलग जीव जन्तु बना दिया

—विनय कुमार विनायक
इस मोबाइल फोन ने आदमी को
कुछ अलग सा जीव जन्तु बना दिया
घर बैठे दुनिया का एक प्राणी घुमंतू बना दिया!

इस फोन ने अपने भाई बहन बहनोई साले रिश्ते
एक झटके में खा पका कर सीधे-सीधे पचा दिया
इस मोबाइल ने सच को मार झूठ को बचा लिया!

जिससे उम्मीद नहीं की जानी चाहिए अपनेपन की
उस बेगाने ने एक फरेबी वाट्सएप फेसबुक चाट से
अपने ढेर सारे मजबूत रिश्ते का विकेट चटका दिया
उकसा दिया बहका दिया भड़का दिया भटका लिया!

इस फोन ने पराए में अपनेपन का ख्वाब दिखा दिया
दूसरों को सब्जबाग दिखा कर अपनों को झाँसा दिया
इस फोन ने मानव की पहुँच को जितना आसान किया
मनुष्य के आपसी संबंधों का उतना ही नुकसान किया!

फोन के वाट्सएप फेसबुक के झूठे मक्कार फरिश्ते ने
झूठी सहानुभूति के सहारे सारे रिश्ते बेगाना बना दिया
इस मोबाइल ने अपनों के घर आना जाना मना किया
इस मोबाइल ने मनुज को अपनों से अंजाना बना दिया!

जिस संबंध को बनाने में माँ-पिता ने बरसों पापड़ बेले थे
हमारी पीढ़ी ने भी कुछ कम नहीं दुख सुख झमेले झेले थे
उस संबंध को किसी चैटर ने एक ही चैटिंग में निपटा दिया
इस मोबाइल ने अपने को अपनों से झटका देके पलटा दिया
जिससे कोई मतलब ना था उनलोगों ने सबकुछ उलटा दिया!

ये मोबाइल भी गजब चीज,नाचीज की कमाई का बना साधन
जिसमें थोड़ा भी ज्ञान था वे बने गुरु यूट्यूबर कमाया ढेर धन
ये फोन ना होता वाट्सएप फेसबुक ईमेल पबजी खेल ना होता
सीमा पार की सीमा को भारत के किसी मीना से मेल ना होता!

अगर ये मोबाइल ना होता तो सोनम शबनम नहीं होती बेवफा
किसी माँ पिता का राजा बेटा जीवन से नहीं हो जाता रफा दफा
कोई धोखेबाज दूसरे धर्म की बाला को छल प्रपंच में ना फँसाता
कोई धर्म पंथ की बुराई को ईश्वरी आदेश कह घृणा ना फैलाता!

इस मोबाइल ने आतंकी जिहादी को साईबर तकनीक बता दिया
इस मोबाइल ने देश की खुफ़िया जानकारी लीक कर खता किया
इस मोबाइल फोन ने आदमी के टोन में इस कदर बदलाव किया
बड़े प्रेम से फोन किया रौंग नम्बर कहकर कुछ नहीं भाव दिया!

इस मोबाइल ने पति पत्नी के बीच के प्यार को दिया कुम्हला
इस मोबाइल फोन ने भले आदमी को भी नहीं रहने दिया भला
जिस आशिक माशूका को भूले थे उसके स्टैटस को दिखा दिया
इस मोबाइल ने पढ़नेवाले विद्यार्थी को गलत काम सिखा दिया!
—विनय कुमार विनायक

परमाणु आपदा का गहराया संकट

nuclear energy
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संदर्भः- ईरान के तीन परमाणु ठिकानों पर अमेरिकी हमले से हो सकता है विकिरण

प्रमोद भार्गव

     ईरान के एक साथ तीन परमाणु ठिकानों पर अमेरिकी हमले से परमाणु रिसाव होता है तो बहुत बड़े भू-गर्भ और भूमि क्षेत्र पर विकिरण का खतरा पैदा हो सकता है। यह हमला ईरान के परमाणु संवर्धन प्रतिश्ठान फोदों, नतांज और इस्फहान पर अत्याधुनिक बी-2 घातक बम गिराए गए हैं। इन बमों को सटीक निषाने पर दागने के लिए अमेरिकी पनडुब्बियों ने पहले दो मिसाइलों से बम गिराए, जिससे बंकर बस्टर बमों के लिए मैदान साफ हो जाए। इसके बाद बमवर्षकों  ने आसमान से एक के बाद एक 14 जीबीयू-57 बी बंकर बस्टर दाग दिया। इस पूरे अभियान को नतीजे तक पहुंचाने के लिए अमेरिका ने 15 युद्धक विमानों का इस्तेमाल किया। उपग्रह द्वारा निर्देशित 2400 किलो परमाणु विस्फोटक साथ ले जाने वाला यह बम जमीन में घूमता हुआ 60 मीटर गहराई तक जाने के बाद विस्फोट करके अपने लगक्ष्य को साधने में सफल हो जाता है। अमेरिका ने तीनों ठिकानों पर 14000 किलो विस्फोटक वाले बम गराए हैं। बावजूद ईरान ने हमले को स्वीकारते हुए कहा है कि हमें ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है। लेकिन परमाणु हथियारों में रिसाव होता है तो बड़ी मात्रा में विकिरण फैल सकता है।

     अमेरिका ने जिन तीन परमाणु स्थलों पर हमला किया है, वह सभी ईरान के प्रमुख यूरेनियम संवर्धन ठिकाने हैं। यहां संयंत्रों में प्राकृतिक यूरेनियम को अत्यधिक संवर्धित यूरेनियम में बदला जाता है। इसी यूरेनियम को प्रयोग परमाणु बम में किया जाता है। परमाणु बिजली बनाने के लिए 3-5 प्रतिषत का यूरेनियम संवर्धन पर्यापत होता है, लेकिन हथियार बनाने के लिए यूरेनियम-235 संवर्धन की जरूरत होती है। यह हमले जिस तादाद में किए गए हैं, उससे बड़े पैमाने पर परमाणु विकिरण रिसाव की आषंका जताई जा रही है। परमाणु बम युद्ध में इस्तेमाल किए जाने वाले पारंपरिक विस्फोटाकों और रसायनों से भिन्न होते हैं। ये बहुत कम समय में बहुत अधिक मात्रा में ऊर्जा छोड़ते हैं, यह ऊर्जा अनेक कड़ियों में रसायनिक प्रक्रियाएं आरंभ कर देती हैं। जो व्यापक और दीर्घकालिक क्षति पहुंचा सकती है। परमाणु हथियार कुछ ही पलों में बड़ी मात्रा में ऊर्जा छोड़ते हैं, जो आसपास के वायुमंडल को लाखों डिग्री सेल्सियस तक गरम कर देती हैं। इस विस्फोट से अनेक प्रकार के विद्युत चुंबकीय विकिरण फैल जाते है, जो अत्यंत घातक होते हैं। हालांकि ईरान के इन ठिकानों में रखे परमाणु हथियारों में विस्फोट की कोई आषंका नहीं है। क्योंकि विस्फोट के लिए परमाणु उपकरणों का सहारा लेना पड़ता है। जो हमलों से संभव नहीं है, लेकिन इनमें रिसाव हो जाता है तो ऐसे में रासायनिक और रेडियोलाजिकल रिसाव दोनों ही संकट में डालने वाले होते है। रेडियोलाजिकल रिसाव 1996 में रूस के चेर्नोबिल और 2011 में तूफान आने से जापान के फुकुशिमा में हुआ था। अतएव हमलों के कारण परमाणु विकिरण रिसाव की आशंका बनी हुई है।

     अमेरिका का यह हमला नटखट बालक की जिद की तर्ज पर उस हद से बाहर चला गया है, जो दुनिया के अंतरराष्ट्रीय कानून और अपने ही देश के कानूनों की परवाह नहीं करता है। इसीलिए अमेरिका के भीतर इस परमाणु हमले को लेकर अमेरिकी जनमत विभाजित दिखाई दे रहा है। दरअसल किसी देश पर हमला करने के लिए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिकी संसद में हमले का प्रस्ताव लाकर अनुमोदन की जरूरत थी। परंतु उन्होंने इस प्रक्रिया पर अमल नहीं किया। जबकि अमेरिका की ही बात करें तो अप्रैल 2003 में ईराक पर अमेरिका ने सद्दाम हुसैन को सत्ता से बेदखल के लिए हमला किया था तब तत्कालीन राष्ट्रपति बुश ने संसद से मंजूरी ली थी। इसलिए ट्रंप के समर्थकों के साथ विपक्ष भी नाराज है।        

     अंतरराश्ट्रीय कानून परमाणु बम के उपयोग को मानवता के विरुद्ध अमानुशिक कृत्य मानते हैं। इनके उपयोग के बाद संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद (यूएनएससी) के कठोर आर्थिक व राजनीतिक प्रतिबंधों का सामना भी करना पड़ता है। लेकिन जितनी भी अंतरराश्ट्रीय संस्थाएं हैं, वे सब अमेरिका या अन्य पष्चिमी देषों के दबाव में रहती हैं। यही देष इन संस्थानों को चलाने के लिए धन मुहैया कराते हैं और इन्हीं देषों के लोग इन संस्थानों के सदस्य होते हैं, इसलिए यहां पक्षपात साफ दिखाई देता है। अतएव ईरान में परमाणु विकिरण फैल भी जाए, तब भी अमेरिका के विरुद्ध कोई प्रतिबंध लगाना असंभव है। ब्रिटिष प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर ने तो कहा है कि यह संघर्श बड़ा रूप ले सकता है। अतएव संकट का कूटनीतिक हल निकालना जरूरी है। इसलिए ईरान का परमाणु कार्यक्रम रोकना जरूरी है। उसे समझौते के लिए बात करनी चाहिए। दूसरी तरफ ईरान के विदेष मंत्री अब्बास अराघची ने कहा है कि अमेरिका ने लक्ष्मण रेखा पार कर ली है, कूटनीति का समय समाप्त हो गया है, अतएव ईरान को अपनी रक्षा करने का अधिकार है। साफ है, तनाव और युद्ध फिलहाल बने रहेंगे।

     ईरान ने अमेरिकी सहयोग से 1957 में परमाणु कार्यक्रम शुरू किया था। 1970 में परमाणु बिजली घर बना लिया था। 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद अमेरिका ने ईरान को सहयोग करना बंद कर दिया। बावजूद पश्चिमी देश ईरान पर परमाणु बम बना लेने का आरोप लगाते रहे। परमाणु अप्रसार संधि में शामिल होने के बाद भी ईरान पर शंकाएं की जाती रहीं। इजरायल ने जासूसी करके कुछ ऐसे सबूत जुटाए, जिनसे यूरेनियम संवर्धन की आशंका मजबूत हुई। 2000 में वैष्विक परमाणु निरीक्षकों को नतांज में सवंर्धित यूरेनियम मिला। हालांकि ईरान ने पहले संवर्धन रोक दिया था, लेकिन इजरायल की बढ़ती सामरिक क्षमता के चलते उसने गुपचुप परमाणु कार्यक्रम षुरू कर दिया था। इस कारण ईरान पर पष्चिमी देषों ने यह कहते हुए अनेक आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए थे कि ईरान परमाणु बम बनाने के निकट पहुंच गया है। बाद में कई साल चली वार्ता के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने प्रतिबंध कहटा लिए थे। इस समझौतें में ईरान को असैन्य यूरेनियम संवर्धन को 3.67 प्रतिशत तक रखना मान्य कर लिया था। लेकिन 2018 में जब डोनाल्ड ट्रंप पहली बार राष्ट्रपति बने तो उन्होंने समझौते से हाथ खींच लिए और ईरान पर कई प्रतिबंध लगा दिए। 2023 में आईएईए ने कहा कि ईरान में 83.7 प्रतिशत शुद्धता के यूरेनियम कर्ण मिले हैं और उसके पास 128.3 किलो संवर्धित यूरेनियम है। मई 2025 में आईएईए ने दावा किया कि ईरान के पास 60 प्रतिशत संवर्धित यूरेनियम की मात्रा 408 किलो है। इससे 9 परमाणु बम बनाए जा सकते है। इसे ही नश्ट करने को लेकर इजरायल ने ईरान पर हमला किया और अब अमेरिका इस लड़ाई में कंूद पड़ा है। अब यह लड़ाई बर्बादी के किस मुकाम पर पहुंचती हैं, कुछ कहा नहीं जा सकता है।

प्रमोद भार्गव

नशीली दवाओं के खिलाफ महत्वाकांक्षी युद्ध का आह्वान

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नशीली दवाओं के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय दिवस – 26 जून, 2025
– ललित गर्ग –

नशीली दवाओं के दुरुपयोग और अवैध तस्करी के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय दिवस हर साल 26 जून को नशीली दवाओं मुक्त दुनिया को निर्मित करने के लक्ष्य को प्राप्त करने, कार्रवाई और सहयोग को मजबूत करने के लिए मनाया जाता है। इसका उद्देश्य गलत सूचनाओं का मुकाबला करना और नशीली दवाओं के बारे में तथ्यों को साझा करना है। साथ ही साक्ष्य आधारित रोकथाम, स्वास्थ्य जोखिमों और विश्व नशीली दवाओं की समस्या, उपचार और देखभाल से निपटने के लिए उपलब्ध समाधानों के बारे में जागरूकता पैदा करना है। अवैध ड्रग्स एवं तस्करी मानव के लिए बहुत बड़ी पीड़ा एवं संकट का स्रोत हैं। सबसे कमज़ोर लोग, खास तौर पर युवा लोग, इस संकट का खामियाजा भुगतते हैं। ड्रग्स का इस्तेमाल करने वाले और नशे की लत से जूझ रहे लोग अंधेरी दुनिया में भटकते हुए कई चुनौतियों का सामना कर रहे है। नशीली दवाओं एवं ड्रग्स के खुद के हानिकारक प्रभाव, उनके द्वारा झेला जाने वाला कलंक, स्वास्थ्य संकट और भेदभाव और अक्सर उनकी स्थिति के प्रति कठोर और अप्रभावी प्रतिक्रियाएं दुनिया को एक महासंकट में धकेल रही है। इसलिये नशे एवं नशीली दवाओं के बढ़ते प्रचलन एवं तस्करी को रोकने के लिये दुनिया को एकजुट होकर इस महत्वाकांक्षी युद्ध को सफल बनाना नितांत अपेक्षित है।
हर साल संयुक्त राष्ट्र मादक पदार्थ एवं अपराध कार्यालय (यूएनओडीसी) वैश्विक जागरूकता अभियानों और नीति सिफारिशों का मार्गदर्शन करने के लिए एक थीम निर्धारित करता है। 2025 की थीम है- ‘‘जंजीरों को तोड़ना : सभी के लिए रोकथाम, उपचार और पुनर्प्राप्ति!’’ यह नारा सामुदायिक समर्थन, स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच और नशीली दवाओं के दुरुपयोग और अवैध तस्करी से निपटने में वैश्विक एकजुटता की आवश्यकता पर जोर देता है। यूएनओडीसी की विश्व मादक पदार्थ रिपोर्ट 2020 के अनुसार, वर्ष 2018 में वैश्विक स्तर पर 269 मिलियन लोगों ने मादक पदार्थों का उपयोग किया, जो वर्ष 2009 की तुलना में 30 प्रतिशत अधिक है; तथा अनुमान है कि 35 मिलियन लोग मादक पदार्थ उपयोग विकारों से पीड़ित हैं। यह दिवस न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और वैकल्पिक आजीविका सहित रोकथाम में निवेश का आह्वान करता है-जो टिकाऊ लचीलेपन के निर्माण के साथ उन्नत एवं स्वस्थ मानव जीवन का आधार हैं। दुनिया में सभी राष्ट्रों में राजनीति और ड्रग्स का चोली दामन का संबंध है, सभी देशों में बड़ी राजनीतिज्ञ पार्टियों की नशा माफिया एवं नशीले पदार्थों के तस्करों के साथ काफी मिलीभगत है और यही वजह है कि दुनिया ‘नशीले पदार्थों की राजनीति’ के युग से गुजर रही है। इसलिये भी यह समस्या उग्र से उग्रतर होती जा रही है। जिससे समय के साथ दुनिया में हेरोइन, अफीम, गांजा, चरस के अलावा अन्य नशों के साथ कैप्सूल और नशीली दवाइयों का चलन बढ़ने लगा है।
नशीली दवाओं का दुरुपयोग और अवैध तस्करी वैश्विक स्तर पर चिंता का विषय बनी हुई है, जिससे लाखों व्यक्ति, परिवार और समाज प्रभावित हो रहे हैं। इसीलिये यह दिवस एक स्वस्थ और नशीली दवाओं से मुक्त समाज बनाने के लिए साक्ष्य-आधारित नीतियों, सामुदायिक सहभागिता और नुकसान कम करने की रणनीतियों के महत्व पर प्रकाश डालता है। पिछले वर्ष विश्वभर में 15-64 वर्ष की आयु के 300 मिलियन से अधिक लोगों ने नशीले पदार्थों का उपयोग किया है। मादक द्रव्यों के सेवन संबंधी विकार से पीड़ित 8 में से 1 व्यक्ति को उपचार मिल पाता है, जिससे बेहतर स्वास्थ्य सेवा पहुंच की तत्काल आवश्यकता उजागर होती है। वैश्विक नशीली दवाओं का व्यापार प्रतिवर्ष 400 बिलियन डॉलर से अधिक उत्पन्न करता है, जिससे संगठित अपराध, भ्रष्टाचार और हिंसा को बढ़ावा मिलता है। इस बड़े संकट की रोकथाम की आवश्यकता को महसूस करते हुए ही संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 7 दिसंबर, 1987 को संकल्प 42/112 के माध्यम से आधिकारिक तौर पर इस दिवस को स्थापित किया। इसका लक्ष्य नशीली दवाओं से संबंधित समस्याओं से निपटने में वैश्विक सहयोग को मजबूत करना और दंडात्मक उपायों के बजाय सार्वजनिक स्वास्थ्य-आधारित प्रतिक्रियाओं को बढ़ावा देना है। नशीली दवाओं का दुरुपयोग शरीर में लगभग हर प्रणाली को प्रभावित करता है, जिससे गंभीर अल्पकालिक और दीर्घकालिक परिणाम सामने आते हैं। मादक द्रव्यों के सेवन से दीर्घकालिक स्वास्थ्य स्थितियाँ पैदा होती हैं, जिसमें ओपिओइड, मेथ और सिंथेटिक ड्रग्स सबसे ज्यादा मृत्यु दर और दीर्घकालिक अंग क्षति का कारण बनते हैं। इसके अलावा, नशीली दवाओं के दुरुपयोग के मानसिक स्वास्थ्य परिणाम उपयोगकर्ता से परे तक फैल जाते हैं, जिससे अक्सर परिवार टूट जाते हैं, रोजगार छिन जाता है और अपराध दर बढ़ जाती है।
भारत में नशीली दवाओं का दुरुपयोग एक बढ़ता हुआ संकट है, जो भौगोलिक रूप से कमजोर, बढ़ती उपलब्धता और कम उम्र में इसकी शुरुआत से प्रेरित है। यह समस्या सभी आयु समूहों में फैली हुई है, लेकिन युवाओं में यह विशेष रूप से चिंताजनक है, जिसके स्वास्थ्य और सामाजिक परिणाम महत्वपूर्ण हैं। नशा मुक्त भारत अभियान – जागरूकता, शिक्षा और सामुदायिक कार्रवाई वाला एक राष्ट्रीय अभियान है। सीमा नियंत्रण और नारकोटिक्स ब्यूरो (एनसीबी)- बढ़ते नशीली दवाओं एवं नशे उत्पादों की तस्करी से निपटता है। यह नशीली दवाओं की जब्ती और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग पर काम करता है। नशे एवं ड्रग्स के धंधे की रोकथाम एवं जन-जागृति के लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत में उल्लेखनीय उपक्रम किये हैं, नयी-नयी योजनाओं को लागू किया है। मोदी सरकार नशीली दवाओं के दुरुपयोग के शिकार लोगों के कल्याण, नशामुक्ति एवं नशामुक्त भारत को निर्मित करने के प्रतिबद्ध है।
पाकिस्तान ने भारत में आतंकवाद की ही तरह नशे एवं ड्रग्स को व्यापक स्तर पर फैलाया है, जिसके दुष्परिणाम विशेषतः पंजाब के साथ-साथ समूचे देश को भोगने को विवश होना पड़ रहा है। पंजाब नशे की अंधी गलियों में धंसता जा रहा है, सीमा पार से शुरू किए गए इस छद्म युद्ध की कीमत पंजाब की जनता को चुकानी पड रही है, देर आये दुरस्त आये की भांति लगातार चुनौती बने नशीली दवाओं एवं ड्रग्स के धंधे के खिलाफ आप सरकार ने एक महत्वाकांक्षी युद्ध एवं अभियान शुरू किया है। दरअसल, सबसे बड़ा संकट यह है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ईरान में हेरोइन उत्पादन के केंद्र- गोल्डन क्रिसेंट के निकट होने के कारण पंजाब लंबे समय से मादक पदार्थों की तस्करी से जूझ रहा है। पंजाब के 26 प्रतिशत युवा चरस, अफीम तथा कोकीन व हेरोइन जैसे सिंथेटिक ड्रग्स लेने में लिप्त हैं। पंजाब देश में ड्रग्स में सर्वाधिक संलिप्त राज्यों में आता है। यह डाटा गतदिनों गृहमंत्री अमित शाह की उपस्थिति में ‘मादक पदार्थों की तस्करी एवं राष्ट्रीय सुरक्षा’ पर आयोजित क्षेत्रीय सम्मेलन में सामने आया।
पंजाब में नशे की समस्या पर सुप्रीम कोर्ट भी चिन्ता व्यक्त करता रहा है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी पूर्व में ‘ड्रग्स-फ्री इंडिया’ अभियान चलाने की बात कहकर इस राष्ट्र की सबसे घातक बुराई की ओर जागृति का शंखनाद किया है। देश के युवा अपनी अमूल्य देह में बीमार फेफड़े और जिगर सहित अनेक जानलेवा बीमारियां लिए एक जिन्दा लाश बने जी रहे हैं, पौरुषहीन भीड़ का अंग बन कर। ड्रग्स के सेवन से महिलाएं बांझपन का शिकार हो रही हैं। पुरुषों पर भी इसका प्रभाव पड़ रहा है। नशे के ग्लैमर की चकाचौंध ने जीवन के अस्तित्व पर चिन्ताजनक स्थितियां खड़ी कर दी है। चिकित्सकीय आधार पर देखें तो अफीम, हेरोइन, चरस, कोकीन, तथा स्मैक जैसे मादक पदार्थों से व्यक्ति वास्तव में अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है एवं पागल तथा सुप्तावस्था में हो जाता है। मामला सिर्फ स्वास्थ्य से नहीं अपितु अपराध से भी जुड़ा हुआ है। कहा भी गया है कि जीवन अनमोल है। नशे के सेवन से यह अनमोल जीवन समय से पहले ही मौत का शिकार हो जाता है या अपराध की अंधी गलियों में धंसता चला जाता है, पाकिस्तान युवाओं को निस्तेज करके एक नये तरीके के आतंकवाद को अंजाम दे रहा है। संगठित अपराध और मादक पदार्थों की तस्करी के चक्र को तोड़ने के लिए समन्वित दीर्घकालिक कार्रवाई की आवश्यकता है। जरूरत है दुनिया की इस बड़े संकट एवं नासूर बनती इस समस्या को जड़मूल से समाप्त करने के लिये सरकारों के साथ गैर-सरकारी संगठन कमर कसे।

अमेरिकी वर्चस्ववाद के शिकार डोनाल्ड ट्रंप

संदर्भः इजरायल-ईरान युद्ध और परमाणु टकराव

प्रमोद भार्गव

     इजरायल के कंधे पर बंदूक रखकर डोनाल्ड ट्रंप अमेरिकी वर्चस्ववाद की महिमा को स्थापित करने में लगे हैं। उनका यही बर्ताव पहली बार राष्ट्रपति बनने के बाद ईरान के परिप्रेक्ष्य में रहा था। परमाणु शक्ति संपन्न पश्चिमी देशों को आशंका है कि ईरान परमाणु बम बना लेने के निकट है। यही आशंका इजरायल की है। हालांकि अभी तक इजरायल घोषित रूप में परमाणु शक्ति संपन्न देश नहीं है, लेकिन अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों का उसके सिर पर वरदहस्त है। अतएव इजरायल अपनी संपूर्ण शक्ति से ईरान पर हमला कर रहा है। ऐसी भी जानकारी आ रही है कि की उसने ईरान के परमाणु केंद्र नतांज पर भी हमला बोल दिया है। कई ईरानी वैज्ञानिक भी हताहत हो चुके हैं। ट्रंप धमकी के लहजे में कह रहे हैं कि हम इस जंग का समापन ‘असली अंत‘ के रूप में देखना चाहते हैं, जो केवल संघर्ष विराम में नहीं है। यह असली अंत ईरान को परमाणु समझौते के लिए बाध्य करने के साथ परमाणु कार्यक्रम को पूरी तरह खत्म करने में निहित लग रहा है। या फिर ईरान के 86 वर्शीय सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई को सत्ता के षीर्श पद से पदच्युत कर उन्हीं के वंष के किसी व्यक्ति को नेता बनाना है। इसी परिप्रेक्ष्य में यूएस ने दो लड़ाकू जहाज ईरान के निकट भेज दिए हैं। यूके ने भी इजरायल की मदद के लिए लड़ाकू विमान तैनात किए हैं। फ्रांस भी ईरान की मदद करने को तत्पर है। साफ है, ईरान के अस्तित्व पर चहुंओर से खतरा मंडरा रहा है।

     ट्रंप 2018 में उस ऐतिहासिक परमाणु समझौते से अलग हो गए थे, जिसे बराक ओबामा ने अंजाम तक पहुंचाया था। हालांकि यह संभावना टं्रप के राश्ट्रपति बनने के बाद से ही बन गई थी। ट्रंप ने चुनाव प्रचार के दौरान इस समझौते का खूब मखौल भी उड़ाया था। ट्रंप को हमेशा यह संदेह बना रहा है कि ईरान समझौते की शर्तों का उल्लंघन कर रहा है। यह आशंका इसलिए पुख्ता दिखाई दे रही थी, क्योंकि ईरान लगातार गैर परमाणु बैलिस्टिक मिसाइलों का परीक्षण कर रहा था। वर्तमान के युद्ध में ईरान इन्हीं मिसाइलों से इजरायल की राजधानी तेल अवीव और अन्य नगरों में भीषण हमले कर रहा है, इससे इजरायल को भारी नुकसान हुआ है। उस समय ओबामा ने ट्रंप के निर्णय को बड़ी भूल बताया था। दरअसल ओबामा को भरोसा था कि समझौते के बाद ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम में कटौती की थी, लेकिन ट्रंप अंध-राश्ट्रवाद और अमेरिकी वर्चस्व को लेकर इतने पूर्वाग्रही हैं कि उन्हें न तो अमेरिकी विदेष नीति की फिक्र है और न ही विष्व षांति के प्रति उनकी कोई प्रतिबद्धता दिखाई देती है। इसीलिए यह आषंका जताई जा रही है कि ईरान ट्रंप के दबाव में नहीं आता है तो विष्व षक्तियों के संतुलन बिगड़ सकता है ?

     ईरान पर लगे प्रतिबंध हटने के साथ ही विष्वस्तरीय कूटनीति में नए दौर की ष्ुरूआत होने लगी थी। ईरान, अमेरिका, यूरोपीय संघ और छह बड़ी परमाणु षक्तियों के बीच हुए समझौते ने एक नया अध्याय खोला था। इसे ‘संयुक्त व्यापक कार्रवाई योजना‘ नाम दिया गया था। इसकी षर्तों के पालन में ईरान ने अपना विवादित परमाणु कार्यक्रम बंद करने की घोशणा की थी। बदले में इन देषों ने ईरान पर लगाए गए व्यावसायिक प्रतिबंध हटाने का विष्वास जताया था। प्रतिबंधों के बाद से ईरान अलग-थलग पड़ गया था। इसी दौर में ईरान और इराक के बीच युद्ध भी चला,जिससे वह बर्बाद होता चला गया। यही वह दौर रहा जब ईरान में कट्टरपंथी नेतृत्व में उभार आया और उसने परमाणु हथियार निर्माण की मुहिम षुरू कर दी थी। हालांकि ईरान इस मुहिम को असैन्य ऊर्जा व स्वास्थ्य जरूरतों की पूर्ति के लिए जरूरी बताता रहा था, लेकिन उस पर विश्वास नहीं किया गया। प्रतिबंध लगाने वाले राश्ट्रों के पर्यवेक्षक समय-समय पर ईरान के परमाणु कार्यक्रम का निरीक्षण करते रहे थे, लेकिन उन्हें वहां संदिग्ध स्थिति का कभी सामना नहीं करना पड़ा। अंत में आषंकाओं से भरे इस अध्याय का पटाक्षेप तब हुआ जब अंतरराश्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी ने निगरानी के बाद यह कहा कि ईरान ऐसे किसी परमाणु कार्यक्रम का विकास नहीं कर रहा है,जिससे दुनिया का विनाष संभव हो। ओबामा ने इस समझौते में अहम् भूमिका निभाई थी। किंतु ट्रंप को पहली बार राष्ट्रपति बनने के बाद लगा कि  इस समझौते में अमेरिका कुछ ज्यादा झुका है। बावजूद उसके कोई हित नहीं सध रहे हैं। ट्रंप की मंशा थी कि ईरान प्रतिबंधों से पूरी तरह बर्बाद हो जाए और अमेरिका के आगे घुटने टेक दे। लेकिन ऐसे परिणाम नहीं निकले। पश्चिमी एषियाई की राजनीति में ईरान की तात्कालिक हसन रूहानी सरकार का वर्चस्व कायम रहा। उसने रूस, चीन और भारत के साथ मजबूत द्विपक्षीय संबंध बनाए, जो ट्रंप को कभी रास नहीं आए। ट्रंप की वजह से ही कोरिया प्रायद्वीप में अमेरिका की जगहंसाई हुई।दरअसल अमेरिका अपनी षक्ति की नींव पर ही कोई संधि करने का आदि रहा है। साफ है कि अमेरिका ईरान से करार तोड़कर ऐसे प्रतिबंधों की मंषा पाले था कि ईरान उसकी ताकत के आगे नतमस्तक तो हो ही और यदि भविश्य में समझौता हो तो पूरी तरह एकपक्षीय हो।यह निर्णय इस्लाम और ईसाईयत में टकराव का कारण भी बन सकता है।

     इस समझौते की प्रमुख शर्ते थी कि अब ईरान 300 किलोग्राम से ज्यादा यूरेनियम अपने पास नहीं रख सकेगा। ईरान अपनी परमाणु सेन्ट्रीफ्यूज प्रयोगशालाओं में दो तिहाई यूरेनियम का 3.67 फीसदी भाग ही रख सकेगा। यह षर्त इसलिए लगाई गई थी, जिससे ईरान परमाणु बम नहीं बना पाए। दरअसल यूरेनियम की प्राकृतिक अवस्था में 20 से 27 प्रतिशत ऐसे बदलाव करने होते हैं, जो यूरेनियम को खतरनाक परमाणु हथियार में तब्दील कर देते हैं। ईरान ने यूरेनियम में परिवर्तन की यह तकनीक बहुत पहले हासिल कर ली थी। इस षंका के चलते उसे न्यूनतम मात्रा में यूरेनियम रखने की अनुमति समझौते में दी गई थी, जिससे वह आसानी से परमाणु बम नहीं बना पाए। सबसे अहम् षर्तों में अंतरराश्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के निरीक्षकों को परमाणु सेन्ट्रीफ्यूजन के भंडार, यूरेनियम खनन एवं उत्पादन की निगरानी का  भी अधिकार दे दिया गया था। यह षर्त तोड़ने पर ईरान पर 65 दिनों के भीतर फिर से प्रतिबंध लगाने की षर्त भी प्रारूप में दर्ज की गई थी। ईरान को उसे मिसाइल खरीदने की भी छूट नहीं दी गई थी। ईरान के सैन्य ठिकाने भी संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में थे। साफ है ईरान ने आर्थिक बदहाली के चलते इन षर्तों को मानने को बाध्य हुआ था। प्रतिबंध की षर्तों से मुक्त होने के बाद ईरान तेल और गैस बेचने लग गया था। भारत ने भी ईरान से बड़ी मात्रा में कच्चा तेल खरीदना षुरू कर दिया था। भारत के लिए ईरान से तेल खरीदना इसलिए लाभदायी रहता है, क्योंकि भारत के तेल षोधक संयंत्र ईरान से आयातित कच्चे तेल को परिषोघित करने के लिहाज से ही तैयार किए गए हैं। गोया, ईरान के तेल की गुणवत्ता श्रेश्ठ नहीं होने के बावजूद भारत के लिए यह लाभदायी रहता है। भारत ईरान से रुपए में तेल खरीदता है, इसलिए यह तेल डॉलर या पौंड में खरीदे जाने की तुलना में सस्ता पड़ता है। 

     ईरानी विदेष मंत्रालय के प्रवक्ता इस्माइल बाघेई ने कहा है कि इजरायल ईरान पर जब तक परमाणु हमले बंद नहीं करता है तब तक परमाणु वार्ता स्थगित रहेगी। क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में उस पक्ष से बातचीत व्यर्थ है, जो आक्रमणकारी का सबसे बड़ा समर्थक है। दूसरी तरफ ईरान ने धमकी दी है कि अगर अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इजरायल को मदद करते हैं तो वह इन देषों के हितों को नुकसान पहुंचाएगा। दरअसल अमेरिका के पष्चिम एषिया क्षेत्र के ईराक में विषेश बलों के बड़े षिविरों के अड्डे हैं। खाड़ी में अनेक सैन्य अड्डे हैं। ईरान के समर्थक सषक्त आतंकी गुट हमास और हिजबुल्ला भले ही कमजोर हो गए हों, लेकिन ईराक में इनके समर्थक मिलिषिया अभी भी मजबत है। अमेरिका को ऐसी आषंका पूर्व में ही हो गई थी, इसलिए उसने अनेक सुरक्षाबलों को वापिस बुला लिया है। बहरहाल मध्यपूर्व में बढ़ता यह तनाव कहां पहुंचेगा फिलहाल कुछ निष्चित नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि जो अमेरिका खुद के वर्चस्व के लिए युद्ध की जमीन को रक्त से सींच रहा है, अमेरिका बड़बोले ट्रंप के राश्ट्रपति बनने के बाद न तो रूस और यूक्रेन के युद्ध को रोक सका है और न ही इजरायल और फिलिपींस के बीच युद्ध विराम कर पाया है। लिहाजा ट्रंप का यह अहंकार अस्थिर होती दुनिया में वैष्विक संघर्श को बढ़ावा देने का काम कर रहा है।   

प्रमोद भार्गव

कॉलर ट्यून या कलेजे पर हथौड़ा: हर बार अमिताभ क्यों?

 प्रियंका सौरभ

सरकार को समझना चाहिए कि चेतावनी सिर्फ चेतना के लिए होती है, प्रताड़ना के लिए नहीं। एक बार, दो बार, चलिए तीन बार — पर हर कॉल पर वही ट्यून, वही स्क्रिप्ट, वही अंदाज़ — यह सिर्फ संचार व्यवस्था को बोझिल नहीं बना रही, बल्कि जनता का भरोसा भी खो रही है। आखिर हम कब तक तकनीक के इस बोझ को झेलती रहेंगी?

भाई साहब, बात एकदम सीधी और साफ है — मैं भी अमिताभ बच्चन की कला की उतनी ही बड़ी प्रशंसक हूँ जितना कोई और। कौन नहीं है? वे अभिनय के सम्राट हैं, आवाज़ में गरज है, आंखों में भाषा है, और संवाद अदायगी ऐसी कि शब्दों को भी पसीना आ जाए। लेकिन अब वक्त आ गया है कि हम भावुकता और वास्तविकता को अलग-अलग करके देखें। एक तरफ हम उस कलाकार का सम्मान करते हैं, तो दूसरी तरफ आज आम जनता जिस मानसिक थकावट और व्यवहारिक समस्या से जूझ रही है, उस पर सवाल उठाना भी जरूरी है। जी हाँ, मैं बात कर रही हूँ उस चेतावनी भरी कॉलर ट्यून की, जो अमिताभ बच्चन की आवाज़ में साल भर से हर मोबाइल कॉल पर हमारे कानों में हथौड़ा मार रही है।

अब सोचिए, जब भी आप किसी को कॉल करते हैं, आपको पहले 30 सेकंड तक अमिताभ बच्चन की कर्कश, बूमिंग आवाज़ में एक रटा-रटाया साइबर ठगी से बचने का उपदेश सुनना पड़ता है। न मर्जी पूछी जाती है, न विकल्प दिया जाता है। आप चाहे दिन में पहली बार कॉल कर रहे हों या पचासवीं बार, वही चेतावनी… वही लय, वही थर्राती चेतावनी। लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि ये कॉलर ट्यून अब जनता का मानसिक उत्पीड़न बन चुकी है। दिमाग की नसों में जो कंपकंपी फैलती है, उसे विज्ञान वाले ‘वाइब्रेशन’ कहें, पर आम जनता इसे ‘तंग आना’ कहती है। किसी से एक ज़रूरी बात करनी हो, और सामने से आवाज़ आती है — “आपका कॉल साइबर अपराध से सुरक्षा हेतु रोका गया है…” — आदमी खुद को अपराधी न मान बैठे, तो क्या करे?

अब मुद्दे की बात ये है कि आखिर ये कॉलर ट्यून क्यों अभी भी जारी है? यह कोई नया अभियान नहीं है। यह चेतावनी करीब एक साल से हर मोबाइल उपभोक्ता तक रोज़ाना, बार-बार पहुंचाई जा रही है। क्या इस देश में अब भी कोई ऐसा कोना बचा है जहाँ यह संदेश नहीं पहुंचा? क्या सचमुच सरकार को लगता है कि आम जनता इतनी जड़ है कि 365 दिन में भी वह यह नहीं समझ पाई कि उसे OTP किसी को नहीं बताना चाहिए? क्या सरकार ने कभी यह अध्ययन किया कि इस कॉलर ट्यून के शुरू होने के बाद साइबर ठगी के मामलों में कोई गिरावट आई भी है या नहीं?

सच तो यह है कि अगर इस चेतावनी से कोई फर्क पड़ता, तो अब तक तो साइबर अपराधी बोरिया-बिस्तर समेटकर दुबई या नाइजीरिया भाग चुके होते। लेकिन सच्चाई यह है कि ठगी भी वैसी की वैसी है, और जनता की झल्लाहट भी। क्योंकि असली समाधान यह नहीं है कि हर बार कान में चिल्ला-चिल्ला कर डराया जाए, बल्कि यह है कि तंत्र को मज़बूत किया जाए, डिजिटल साक्षरता बढ़ाई जाए, और साइबर अपराधियों पर त्वरित कार्यवाही हो।

लेकिन इस देश में समस्या का समाधान जनता पर मानसिक बोझ डालकर ढूंढा जाता है। कहने को यह ट्यून सिर्फ 30 सेकंड की है, लेकिन इसका असर कई गुना बड़ा है। किसी को दिल का दौरा पड़ गया, दुर्घटना हो गई, कोई बच्चा जलते हुए कमरे में फंसा है — और आपको मदद के लिए कॉल करनी है। लेकिन कॉल से पहले 30 सेकंड तक आपको ‘सावधान! OTP किसी को न दें!’ सुनना पड़ेगा। सोचिए, ऐसे में क्या बीतती होगी? उस कॉल का हर सेकेंड कीमती है, लेकिन हम सिस्टम से उम्मीद नहीं कर सकते कि वह आम इंसान की जान को प्राथमिकता देगा।

एक बार एक हादसा हुआ था — अहमदाबाद में एक अस्पताल में आग लग गई। चंद सेकेंडों में 300 जानें चली गईं। अब कल्पना कीजिए, यदि वहाँ से किसी ने बचाव के लिए फोन किया हो, और उससे पहले कॉलर ट्यून चल गई हो — क्या वह 30 सेकंड उस वक्त ज़्यादा ज़रूरी थे, या इंसानी ज़िंदगी?

और अब तो यह स्थिति और खतरनाक हो गई है। मान लीजिए किसी लड़की का अपहरण हो जाए, और किसी तरह उसे मौका मिले फोन करने का — तो पहले उसे विज्ञापन सुनना पड़ेगा। क्या हम यकीन के साथ कह सकते हैं कि तब तक कोई अनहोनी नहीं होगी? आपातकाल में एक-एक सेकेंड जिंदगी और मौत के बीच की रेखा बन जाता है, और हमारा सिस्टम उसमें ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ की लोरी सुनाता है।

लोग अब सोशल मीडिया पर इस ट्यून के खिलाफ मोर्चा खोलने लगे हैं। कहा जा रहा है कि इस ट्यून को दिन की पहली कॉल तक सीमित कर दिया जाए, या उपभोक्ता को विकल्प मिले कि वह इसे बंद कर सके। लेकिन जैसे किसी सरकारी दफ्तर में फाइल दबा दी जाती है, वैसे ही जनता की ये आवाज़ भी अनसुनी रह जाती है। टेलीकॉम कंपनियाँ तो मानो अपना पल्ला झाड़ चुकी हैं — उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आता।

सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इस पूरी समस्या का विरोध करते ही कुछ लोग तुरंत आहत हो जाते हैं। “अरे! यह तो अमिताभ बच्चन की आवाज़ है! उनका अपमान कैसे कर सकते हो?” तो भाइयों और बहनों, कृपया समझिए — यहाँ कोई बच्चन साहब के खिलाफ नहीं है। उनकी कला के प्रति पूरा देश श्रद्धा रखता है। पर आवाज़ की जगह और समय भी कोई चीज होती है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कोई किसी की मृत्युशैया पर बैठा हो, और आप उसके कान में ‘खुश रहो अहले वतन’ की देशभक्ति ट्यून बजा दें। भावना की कोई जगह होनी चाहिए।

यह आवाज़, जो कभी हमारी जागरूकता का प्रतीक थी, अब धीरे-धीरे एक मानसिक शोर में बदलती जा रही है। यह सरकारी प्रणाली की असंवेदनशीलता का प्रमाण बनती जा रही है, जो जनता की थकान को नहीं, केवल अपनी औपचारिकता को देखती है। कहीं ऐसा न हो कि कल को हम किसी गंभीर परिस्थिति में फोन करने से डरने लगें कि पहले 30 सेकेंड तक वही चिल्लाती आवाज़ झेलनी पड़ेगी। लोग अब कॉल करने से पहले सोचते हैं — “अरे यार! फिर वही ट्यून सुननी पड़ेगी।”

सरकार को समझना चाहिए कि चेतावनी सिर्फ चेतना के लिए होती है, प्रताड़ना के लिए नहीं। एक बार, दो बार, चलिए तीन बार — पर हर कॉल पर वही ट्यून, वही स्क्रिप्ट, वही अंदाज़ — यह सिर्फ संचार व्यवस्था को बोझिल नहीं बना रही, बल्कि जनता का भरोसा भी खो रही है। आखिर हम कब तक तकनीक के इस बोझ को झेलती रहेंगी?

यदि आप भी इस समस्या की भुक्तभोगी हैं, तो अब वक्त आ गया है कि एक आवाज़ बनें। सोशल मीडिया पर लिखिए, जनप्रतिनिधियों को टैग कीजिए, याचिका शुरू कीजिए। मैं अमिताभ बच्चन से शिकायत नहीं कर रही, मैं सरकार से सवाल कर रही हूँ। क्योंकि जीवन की अंतिम सांसों पर यदि कोई आवाज़ सबसे पहले पहुँचे — तो वह किसी अपने की होनी चाहिए, न कि एक रिकॉर्डेड चेतावनी।

याद रखिए, चेतावनी से ज़्यादा जरूरी है चेतना। अब फैसला आपको करना है — आप कब तक फोन कॉल की हर शुरुआत को सरकारी भाषण से बर्बाद होने देंगी? या आप अपनी आवाज़ मिलाकर इस सिस्टम को सुधारने की कोशिश करेंगी?

भारत आध्यात्म एवं युवाओं के बल पर प्रतिव्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में अतुलनीय वृद्धि कर सकता है

जापान की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ते हुए भारत आज विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है और संभवत आगामी लगभग दो वर्षों के अंदर जर्मनी की अर्थव्यवस्था से आगे निकलकर विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की अपनी अपनी विशेषताएं हैं, जिसके  आधार पर यह अर्थव्यवस्थाएं विश्व में उच्च स्थान पर पहुंची हैं एवं इस स्थान पर बनी हुई हैं। प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के मामले में आज भी कई विकसित देश भारत से आगे हैं। इन समस्त देशों के बीच चूंकि भारत की आबादी सबसे अधिक अर्थात 140 करोड़ नागरिकों से अधिक है, इसलिए भारत में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद बहुत कम है। अमेरिका के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 30.51 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है और प्रति ब्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 89,110 अमेरिकी डॉलर हैं। इसी प्रकार, चीन के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 19.23 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 13,690 अमेरिकी डॉलर है और जर्मनी के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 4.74 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 55,910 अमेरिकी डॉलर है। यह तीनों देश सकल घरेलू उत्पाद के आकार के मामले में आज भारत से आगे हैं। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 4.19 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है तथा प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद केवल 2,880 अमेरिकी डॉलर है। भारत के पीछे आने वाले देशों में हालांकि सकल घरेलू उत्पाद का आकार कम जरूर है परंतु प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के मामले में यह देश भारत से बहुत आगे हैं। जैसे जापान के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 4.18 लाख करोड़ है और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 33,960 अमेरिकी डॉलर है। ब्रिटेन के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 3.84 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 54,950 अमेरिकी डॉलर है। फ्रान्स के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 3.21 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 46,390 अमेरिकी डॉलर है। इटली के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 2.42 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 41,090 अमेरिकी डॉलर है। कनाडा के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 2.23 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 53,560 अमेरिकी डॉलर है। ब्राजील के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 2.13 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 9,960 अमेरिकी डॉलर है। 

सकल घरेलू उत्पाद के आकार के मामले में विश्व की सबसे बड़ी 10 अर्थव्यवस्थाओं में भारत शामिल होकर चौथे स्थान पहुंच जरूर गया है परंतु प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के मामले में भारत इन सभी अर्थव्यवस्थाओं से अभी भी बहुत पीछे है। इस सबके पीछे सबसे बड़े कारणों में शामिल है भारत द्वारा वर्ष 1947 में राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात, आर्थिक विकास की दौड़ में बहुत अधिक देर के बाद शामिल होना। भारत में आर्थिक सुधार कार्यक्रमों की शुरुआत वर्ष 1991 में प्रारम्भ जरूर हुई परंतु इसमें इस क्षेत्र में तेजी से कार्य वर्ष 2014 के बाद ही प्रारम्भ हो सका है। इसके बाद, पिछले 11 वर्षों में परिणाम हमारे सामने हैं और भारत विश्व की 11वीं अर्थव्यवस्था से छलांग लगते हुए आज 4थी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। दूसरे, इन देशों की तुलना में भारत की जनसंख्या का बहुत अधिक होना, जिसके चलते सकल घरेलू उत्पाद का आकार तो लगातार बढ़ रहा है परंतु प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद अभी भी अत्यधिक दबाव में है। अमेरिका में तो आर्थिक क्षेत्र में सुधार कार्यक्रम 1940 में ही प्रारम्भ हो गए थे एवं चीन में वर्ष 1960 से प्रारम्भ हुए। अतः भारत इस मामले में विश्व के विकसित देशों से बहुत अधिक पिछड़ गया है। परंतु, अब भारत में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले नागरिकों की संख्या में तेजी से कमी हो रही है तथा साथ ही अतिधनाडय एवं मध्यमवर्गीय परिवारों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है, जिससे अब उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे आने वाली समय में भारत में भी प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में तेज गति से वृद्धि होगी।   

विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, अमेरिका में सेवा क्षेत्र इसकी सबसे बढ़ी ताकत है। अमेरिका में केवल 2 प्रतिशत आबादी ही कृषि क्षेत्र पर निर्भर है और अमेरिका की अधिकतम आबादी उच्च तकनीकी का उपयोग करती है जिसके कारण अमेरिका में उत्पादकता अपने उच्चत्तम स्तर पर है। पेट्रोलीयम पदार्थों एवं रक्षा उत्पादों के निर्यात के मामले में अमेरिका आज पूरे विश्व में प्रथम स्थान पर है। वर्ष 2024 में अमेरिका ने 2.08 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर मूल्य के बराबर का सामान अन्य देशों को निर्यात किया है, जो चीन के बाद विश्व के दूसरे स्थान पर है। तकनीकी वर्चस्व, बौद्धिक सम्पदा एवं प्रौद्योगिकी नवाचार ने अमेरिका को विकास के मामले में बहुत आगे पहुंचा दिया है। टेक्निकल नवाचार से जुड़ी विश्व की पांच शीर्ष कम्पनियों में से चार, यथा एप्पल, एनवीडिया, माक्रोसोफ्ट एवं अल्फाबेट, अमेरिका की कम्पनियां हैं। इन कम्पनियों का संयुक्त बाजार मूल्य 12 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर से भी अधिक है, जो विश्व के कई देशों के सकल घरेलू उत्पाद से बहुत अधिक है। अतः अमेरिका के नागरिकों ने बहुत तेजी से धन सम्पदा का संग्रहण किया है इसी के चलते प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद अमेरिका में बहुत अधिक है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वर्ष 1944 में अमेरिका के ब्रेटन वुड्ज नामक स्थान पर हुई एतिहासिक बैठक में विश्व के 44 देशों ने वैश्विक वित्तीय व्यवस्था के नए ढांचे पर सहमति जताते हुए अपने देश की मुद्रा को अमेरिकी डॉलर से जोड़ दिया था। इसके बाद से वैश्विक अर्थव्यवस्था में अमेरिकी डॉलर का दबदबा बना हुआ है। आज विश्व का लगभग 80 प्रतिशत अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग लेन देन अमेरिकी डॉलर में होता है।

अमेरिका के बाद विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन को पूरे विश्व का विनिर्माण केंद्र कहा जाता है क्योंकि आज पूरे विश्व के औद्योगिक उत्पादन का 31 प्रतिशत हिस्सा चीन में निर्मित होता है। चीन में पूरे विश्व की लगभग समस्त कम्पनियों ने अपनी विनिर्माण इकाईयां स्थापित की हुई हैं। चीन के सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण इकाईयों का योगदान 27 प्रतिशत से अधिक हैं। पूरे विश्व में आज उत्पादों के निर्यात के मामले में प्रथम स्थान पर है। विभिन्न उत्पादों का निर्यात चीन की आर्थिक शक्ति का प्रमुख आधार है। सस्ती  श्रम लागत के चलते चीन में उत्पादित वस्तुओं की कुल लागत तुलनात्मक रूप से बहुत कम होती है। वर्ष 2024 में चीन का कुल निर्यात 3.57 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक का रहा है। 

विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अर्थात जर्मनी ने पिछले एक वर्ष में 25,000 पेटेंट अर्जित किए हैं। जर्मनी को, ऑटोमोबाइल उद्योग ने, पूरे विश्व में एक नई पहचान दी है। चार पहिया वाहनों के उत्पादन एवं निर्यात के मामले में जर्मनी पूरे विश्व में प्रथम स्थान पर है। जर्मनी में निर्मित चार पहिया वाहनों का 70 प्रतिशत हिस्सा निर्यात होता है। यूरोपीय यूनियन के देशों की सड़कों पर दौड़ने वाली हर तीसरी कार जर्मनी में निर्मित होती है। जर्मनी विश्व का तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक देश है, जिसने 2024 में 1.66 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर मूल्य के बराबर राशि के उत्पाद एवं सेवाओं का निर्यात किया था। मुख्य निर्यात वस्तुओं में मोटर वाहनों के अलावा मशीनरी, रसायन और इलेक्ट्रिक उत्पाद शामिल हैं।

आज भारत सकल घरेलू उत्पाद के आकार के मामले में विश्व में चौथे पर पहुंच गया है परंतु भारत को प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के मामले में जबरदस्त सुधार करने की आवश्यकता है। भारत पूरे विश्व में आध्यात्म के मामले में सबसे आगे है अतः भारत को धार्मिक पर्यटन को सबसे तेज गति से आगे बढ़ाते हुए युवाओं के लिए रोजगार के नए अवसर निर्मित करने चाहिए जिससे नागरिकों की आय में वृद्धि करना आसान हो। दूसरे, भारत में 80 करोड़ आबादी का युवा (35 वर्ष से कम आयु) होना भी विकास के इंजिन के रूप में कार्य कर सकता है। भारत की विशाल आबादी ने भारत को विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने में अपना योगदान दिया है। भारत की अर्थव्यवस्था में विविधता झलकती है और यह केवल कुछ क्षेत्रों पर निर्भर नहीं है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान 16 प्रतिशत है तथा रोजगार के अधिकतम अवसर भी कृषि क्षेत्र से ही निकलते हैं, जिसके चलते प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद विपरीत रूप से प्रभावित होता है। सेवा क्षेत्र का योगदान 60 प्रतिशत से अधिक है परंतु, विनिर्माण क्षेत्र का योगदान बढ़ाने की आवश्यकता है। वाणिज्य मंत्रालय द्वारा प्रदान की गई जानकारी के अनुसार वित्तीय वर्ष 2024-25 में भारत में 81 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ है अर्थात विदेशी निवेशक भारत में अपनी विनिर्माण इकाईयों की स्थापना करते हुए दिखाई दे रहे हैं। आज विदेशी निवेशकों का भारतीय अर्थव्यवस्था में विश्वास बढ़ा है। आज भारत का विदेशी मुद्रा भंडार भी 694 अरब अमेरिकी डॉलर की आंकड़े को पार कर गया है। आगे आने वाले समय में अब विश्वास किया जा सकता है कि भारत में भी प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में तेज गति से वृद्धि होती हुई दिखाई देगी। 

प्रहलाद सबनानी 

क्या पुरस्कार अब प्रकाशन-राजनीति का मोहरा बन गए हैं?

 डॉ. सत्यवान सौरभ

“साहित्य समाज का दर्पण होता है।” यह वाक्य हमने न जाने कितनी बार पढ़ा और सुना है। परंतु आज साहित्य के दर्पण पर परतें चढ़ चुकी हैं—राजनीतिक, प्रकाशकीय और प्रतिष्ठान-प्रेरित परतें। प्रश्न यह नहीं है कि कौन किससे छप रहा है। प्रश्न यह है कि क्या हिंदी साहित्य का पुरस्कार अब केवल उन्हीं लेखकों को मिलेगा जो वाणी प्रकाशन या राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होंगे?

पुरस्कार: साहित्यिक मान्यता या प्रकाशकीय गठजोड़?

एक समय था जब किसी लेखक को पुरस्कार मिलने पर पूरे साहित्यिक समाज में उत्सव जैसा माहौल होता था। आज स्थिति यह है कि जैसे ही किसी लेखक को प्रतिष्ठित पुरस्कार मिलता है, सबसे पहला सवाल यह पूछा जाता है—“कहाँ से छपे हैं?” अगर जवाब वाणी या राजकमल है, तो चर्चा बदल जाती है—“चलो, सेटिंग होगी…!” यह कटाक्ष नहीं, आज के साहित्यिक वातावरण का यथार्थ है। क्योंकि अब पुरस्कार प्रतिभा का नहीं, प्रकाशन और पहुंच का प्रमाण बनते जा रहे हैं।

साहित्यिक ब्रांडिंग का दौर

वाणी और राजकमल जैसे संस्थान निस्संदेह हिंदी के प्रमुख स्तम्भ हैं। उन्होंने उत्कृष्ट लेखकों को छापा है और साहित्य की सेवा की है। लेकिन अब समस्या यह नहीं है कि वे छाप रहे हैं, समस्या यह है कि बाकी किसी को छापना, सुनना और पुरस्कृत करना साहित्यिक प्रतिष्ठानों को “जोखिम” जैसा लगता है।

जिस तरह फिल्मों में केवल बड़े बैनर की फिल्में ही राष्ट्रीय पुरस्कार पाती हैं, उसी तरह अब साहित्य में भी “ब्रांडेड प्रकाशन” ही पुरस्कारों का टिकट बन चुके हैं।

प्रतिभा बनाम पहुँच

हिंदी साहित्य के छोटे लेखक, ग्रामीण पृष्ठभूमि के रचनाकार, स्वतंत्र प्रकाशनों से जुड़ी प्रतिभाएँ — सब धीरे-धीरे इस “पुरस्कार तंत्र” से बाहर हो चुके हैं। उनके पास न तो साहित्यिक लॉबियों से संपर्क हैं, न दिल्ली-मुंबई जैसे केन्द्रों में मौजूदगी, और न ही ब्रांडेड कवर पृष्ठ। तो फिर पुरस्कार किसके हिस्से आएंगे? जवाब स्पष्ट है: उन्हीं के जो पहले से स्थापित हैं, और एक खास प्रकाशकीय घेरे में फिट होते हैं।

पुरस्कार चयन प्रक्रिया की पारदर्शिता पर सवाल

जब पुरस्कारों की चयन समितियों में उन्हीं संस्थानों के प्रतिनिधि बैठें जिनके लेखक पुरस्कार जीतते हैं, तो यह नैतिकता की नहीं, तंत्र की समस्या बन जाती है। क्या कोई लेखक इसलिए श्रेष्ठ है क्योंकि वह किसी प्रसिद्ध प्रकाशन से छपा है? क्या एक गाँव की लड़की की कहानी इसलिए उपेक्षित है क्योंकि वह “स्व-वित्तपोषित” किताब में छपी है? क्या साहित्य केवल महानगरों में लिखा जा रहा है? यह सवाल मात्र भावुकता नहीं, साहित्य के लोकतंत्र की माँग है।

“सेटिंग और गैटिंग” का साहित्यिक संस्करण

अब साहित्यिक पुरस्कार भी वैसी ही ‘लॉबिंग’ का हिस्सा बन चुके हैं जैसे राजनीति या सिनेमा में होता है। कोई वरिष्ठ आलोचक पुरस्कार समिति में बैठता है और उसी साल उसका शिष्य पुरस्कार पाता है। कोई लेखक चर्चित होता है क्योंकि उसके प्रकाशक ने किताब के विमोचन में ‘नामचीन लोगों’ को बुला लिया। समीक्षाएँ छपती हैं—पर लेखन नहीं पढ़ा जाता, सिर्फ “प्रकाशक का नाम” देख लिया जाता है।

स्वतंत्र प्रकाशकों की उपेक्षा: एक अन्यायपूर्ण प्रवृत्ति

हिंदी में आज कई स्वतंत्र, ईमानदार, मेहनती प्रकाशक सक्रिय हैं। वे बिना किसी शोर-शराबे के अच्छे लेखकों को प्रकाशित कर रहे हैं, नए विषय ला रहे हैं, जोखिम ले रहे हैं। लेकिन उन्हें पुरस्कारों की सूची में शायद ही जगह मिले। क्या इसलिए कि उनके पास प्रचार का पैसा नहीं है?

या इसलिए कि वे किसी पुरस्कार समिति के सदस्य के ‘प्रकाशकीय मित्र’ नहीं हैं?

पुरस्कार नहीं, पाठक चाहिए

आज कई लेखक इस पुरस्कार-तंत्र से परेशान होकर कहते हैं—“हमें पुरस्कार नहीं चाहिए, हमें पाठक चाहिए।” यह बदलाव एक क्रांतिकारी सोच है। क्योंकि एक समय ऐसा आएगा जब पाठक पूछेगा—“क्या यह लेखक अच्छा है, या बस पुरस्कार मिला हुआ है?”

क्या राजकमल या वाणी में छपना गुनाह है?

बिलकुल नहीं। वाणी, राजकमल या अन्य बड़े प्रकाशकों से छपना एक उपलब्धि हो सकती है, लेकिन वह एकमात्र रास्ता नहीं होना चाहिए। समस्या तब होती है जब पुरस्कार देने वाले संस्थान यह मान बैठते हैं कि अच्छा साहित्य वहीं छपता है।

इस मानसिकता को बदलना होगा, क्योंकि एक समाज का साहित्य उसकी विविधता, भूगोल, बोली और संघर्षों का समुच्चय होता है — न कि केवल दिल्ली की प्रेस या कॉफी टेबल रीडिंग।

नवलेखकों के लिए क्या संदेश है?

आज का नवलेखक यह देख रहा है कि अगर उसकी किताब किसी “ब्रांडेड” प्रकाशक से नहीं छपी, तो उसके पुरस्कार पाने की संभावना लगभग समाप्त है। यह मानसिक अवसाद और हतोत्साहन की स्थिति है। उसे यह समझाना ज़रूरी है कि —

पुरस्कार अंतिम सत्य नहीं हैं। साहित्य एक दीर्घकालीन संवाद है, जिसमें पाठक का प्रेम, समाज की प्रतिक्रिया और लेखकीय ईमानदारी सबसे महत्वपूर्ण है।

साहित्यिक लोकतंत्र की आवश्यकता

हमें ऐसे मंचों और पुरस्कार संस्थाओं की आवश्यकता है जो छोटे, स्वतंत्र, स्थानीय और डिजिटल प्रकाशकों से छपने वाली पुस्तकों को भी समान अवसर दें। हमें “साहित्यिक समानता” की बात करनी होगी, जहाँ प्रकाशन का नाम नहीं, रचना की संवेदना और सामाजिक प्रासंगिकता मूल्यांकन का आधार हो।

प्रश्न जो रह गए हैं:

क्या साहित्यिक संस्थाएँ पुरस्कार चयन से पहले अंधभक्ति की परत हटा पाएँगी? क्या आलोचक अपने संपर्कों से ऊपर उठकर नए साहित्य को खोजने का साहस दिखाएँगे? क्या हम अपने बच्चों को बताएँगे कि “सच्चा साहित्य पुरस्कारों से नहीं, अनुभवों से उपजता है?”

पुरस्कार नहीं, ईमानदारी चाहिए

पुरस्कार मिलना अच्छा है, लेकिन ईमानदारी से लेखन करना उससे कहीं ज़्यादा बड़ा पुरस्कार है। वह पुरस्कार जो आत्मा देती है, पाठक देते हैं, और समय देता है। साहित्य वह नहीं जो पुरस्कार पाता है, साहित्य वह है जो मनुष्य को भीतर से झकझोर दे — चाहे वह किसी भी प्रकाशक से छपा हो।

तो अगली बार जब कोई आपसे पूछे – “कहाँ से छपे हो?”,

तो जवाब हो — “जहाँ मेरी आत्मा ने कलम चलाई और पाठकों ने उसे पढ़ा।”

डॉ. सत्यवान सौरभ

गरम होता एशिया: समंदर से पहाड़ तक जलवायु संकट की मार, लेकिन चेतावनी और तैयारी ने बचाई जानें

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साल 2024 का साल एशिया के लिए सिर्फ गर्म नहीं था, ये एक जलवायु चेतावनी की घंटी जैसा था—कभी धधकते शहर, कभी पिघलते ग्लेशियर, तो कभी डूबते खेत। वर्ल्ड मेट्रोलॉजिकल ऑर्गनाइज़ेशन (WMO) की ताज़ा रिपोर्ट State of the Climate in Asia 2024 बताती है कि एशिया अब पूरी दुनिया से लगभग दोगुनी रफ्तार से गरम हो रहा है, और इसका असर हर किसी की ज़िंदगी पर पड़ रहा है।

तापमान ने तोड़े रिकॉर्ड, एशिया अब ‘हीट ज़ोन’

2024 में एशिया का औसत तापमान 1991–2020 की तुलना में 1.04°C ज़्यादा रहा। चीन, जापान, कोरिया, म्यांमार जैसे देशों में महीनों तक लगातार हीटवेव्स चलीं।
म्यांमार ने 48.2°C का नया रिकॉर्ड बना दिया—इतनी गर्मी कि इंसानी शरीर जवाब देने लगे। अप्रैल से लेकर नवंबर तक कुछ हिस्सों में लगातार गर्मी से राहत नहीं मिली।

समंदर भी कर रहे हैं उबाल

एशिया का पूरा समुद्री इलाका अब तेज़ी से गर्म हो रहा है। WMO की रिपोर्ट कहती है कि समुद्री सतह का तापमान अब हर दशक में 0.24°C बढ़ रहा है—ये ग्लोबल औसत (0.13°C) से लगभग दोगुना है।

2024 में रिकॉर्डतोड़ “मरीन हीटवेव्स” आईं। अगस्त-सितंबर के दौरान, करीब 15 मिलियन वर्ग किलोमीटर समुद्र इस हीटवेव से प्रभावित हुआ—यानी पूरी धरती के महासागरीय क्षेत्र का 10% हिस्सा

इससे मछलियों की ब्रीडिंग, समुद्री जीव-जंतु और तटीय आजीविकाओं पर सीधा असर पड़ा। छोटे द्वीपीय देशों और भारत के तटीय क्षेत्रों के लिए ये एक नया खतरा बन चुका है।

हिमालय से आती है एक और चिंता: पिघलते ग्लेशियर

“तीसरा ध्रुव” कहे जाने वाले हाई माउंटेन एशिया (HMA)—जो तिब्बती पठार और हिमालय क्षेत्र में फैला है—अब तेज़ी से अपनी बर्फ खो रहा है

2023–24 के आंकड़ों में, 24 में से 23 ग्लेशियरों का द्रव्यमान घटा। मध्य हिमालय और तियन शान की चोटियों पर कम बर्फबारी और अत्यधिक गर्मी ने ग्लेशियरों को खोखला बना दिया है।
उरुमची ग्लेशियर नंबर 1, जो 1959 से मॉनिटर किया जा रहा है, उसने अब तक की सबसे बड़ी बर्फीली गिरावट दर्ज की।

ग्लेशियरों के पिघलने से ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड्स (GLOFs) और भूस्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं। इसका सीधा असर पानी की सुरक्षा और लाखों लोगों की ज़िंदगी पर पड़ता है जो इन नदियों पर निर्भर हैं।

बारिश और सूखे की दोहरी मार

WMO की रिपोर्ट बताती है कि 2024 में कहीं सूखा तो कहीं भीषण बाढ़ ने ज़िंदगी को उलट-पलट कर दिया:

  • नेपाल: सितंबर में रिकॉर्ड बारिश से आई बाढ़ में 246 लोगों की मौत हुई और 130,000 से ज्यादा लोगों को समय रहते राहत दी गई
  • भारत, केरल: 30 जुलाई को भयानक बारिश (48 घंटे में 500 मिमी से ज्यादा) ने भूस्खलन और 350 से ज्यादा मौतों को जन्म दिया।
  • चीन: सूखे ने 4.8 मिलियन लोगों को प्रभावित किया, 3.35 लाख हेक्टेयर फसल नष्ट हुई, और ₹400 करोड़ से ज्यादा का नुकसान हुआ।
  • UAE: 24 घंटे में 259.5 मिमी बारिश—1949 से अब तक की सबसे ज्यादा—ने मध्य पूर्व की जलवायु स्थिरता पर सवाल खड़े कर दिए।
  • कज़ाकिस्तान और रूस: भारी बर्फ पिघलने और असामान्य बारिश ने 70 साल की सबसे बड़ी बाढ़ लाई, 1.18 लाख लोग बेघर हुए।

लेकिन चेतावनी और तैयारी काम आई

रिपोर्ट का एक अहम हिस्सा नेपाल का केस स्टडी है। जहां समय रहते “early warning systems” और स्थानीय प्रशासन की तैयारी ने जानें बचाईं।
सरकारी एजेंसियों और समुदायों के बीच तालमेल ने 1.3 लाख लोगों को पहले ही अलर्ट कर दिया, जिससे जान-माल का नुकसान सीमित रहा।

संदेश साफ है: जलवायु बदल रही है, तैयारी ही रक्षा है

WMO की महासचिव सेलेस्टे साओलो ने कहा, मौसम अब सिर्फ मौसम नहीं रहा, ये लोगों की आजीविका, अर्थव्यवस्था और सुरक्षा का सवाल बन गया है।”

रिपोर्ट सरकारों के लिए एक सीधा संदेश है:

जलवायु संकट को आंकड़ों से नहीं, तैयारी और नीतियों से जवाब देना होगा।

क्या करें आगे?

  • गांव-शहरों में लोकल वेदर वार्निंग सिस्टम्स को मज़बूत करना होगा
  • जलवायु शिक्षा और तैयारी को स्कूलों से लेकर पंचायतों तक पहुँचाना होगा
  • और सबसे अहम, स्थानीय कहानियों के ज़रिये लोगों को जोड़ना होगा—क्योंकि आंकड़े डराते हैं, लेकिन कहानियां समझाती हैं।