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मेरी दीवाली देशी दीवाली

नरेंद्र मोदी प्रथम राष्ट्राध्यक्ष होंगे जिनके भाषणों में बहुत छोटे छोटे से विषय स्थान पाते हैं. भारतीय परम्पराओं और शास्त्रों में केवल लाभ अर्जन करनें को ही लक्ष्य नहीं माना गया बल्कि वह लाभ शुभता के मार्ग से चल कर आया हो तो ही स्वीकार्य माना गया है.                                  “शुभ-लाभ” से यही आशय है. विभिन्न अवसरों पर जिस प्रकार हम हमारे राष्ट्रीय प्रतिद्वंदी चीन के  सामानों का उपयोग कर रहें हैं उससे तो कतई और कदापि शुभ-लाभ नहीं होनें वाला है.

        एक सार्वभौम राष्ट्र के रूप में हम, हमारी समझ, हमारी अर्थ व्यवस्था और हमारी तंत्र-यंत्र अभी शिशु अवस्था में ही है. इस शिशु मानस पर इस्लाम और अंग्रेजों की लूट खसोट की अनगिनत कहानियां हमारे मानस पर अंकित है.  यद्दपि हम और हमारा राष्ट्र आज उतने भोले नहीं है जितने पिछली सदियों में थे तथापि विदेशी सामान को क्रय करने के विषय में हमारे देशी आग्रह कमजोर क्यों पड़ते हैं इस बात का अध्ययन और मनन हमें आज के इस “बाजार सर्वोपरि” के युग में करना ही चाहिए!! 

      हम भारतीय उपभोक्ता जब इस दीपावली की खरीदी के लिए बाजार जायेंगे तो इस चिंतन के साथ स्थिति पर गंभीरता पर गौर करें कि आपकी दिवाली की ठेठ पुरानें समय से चली आ रही और आज के दौर में नई जन्मी दीपावली की आवश्यकताओं को चीनी ओद्योगिक तंत्र ने किस प्रकार से समझ बूझ कर आपकी हर जरुरत पर कब्जा जमा लिया है. दिये, झालर, पटाखे, खिलौने, मोमबत्तियां, लाइटिंग, लक्ष्मी जी की मूर्तियां आदि से लेकर कपड़ों तक सभी कुछ चीन हमारे बाजारों में उतार चुका है और हम इन्हें खरीद-खरीद कर शनैः शनैः एक नई आर्थिक गुलामी की और बढ़ रहे हैं. हमारा ठेठ पारम्परिक स्वरुप और पौराणिक मान्यताएं कहीं पीछें छूटती जा रहीं हैं और हम केवल आर्थिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक गुलामी को भी गले लगा रहे हैं. हमारे पटाखों का स्वरुप और आकार बदलनें से हमारी मानसिकता भी बदल रही है. हमारा लघु उद्योग तंत्र अति दुष्प्रभावित हो रहा है. पारिवारिक आधार पर चलने वाले कुटीर उद्योग जो दीवाली के महीनों पूर्व से पटाखें, झालर, दिए, मूर्ति आदि-आदि बनाने लगते थे वे नष्ट होने के कगार पर हैं.   लगभग पांच लाख परिवारो की रोजी रोटी को आधार देने वाले हमारे त्यौहार अब कुछ आयातको और बड़े व्यापारियों के मुनाफ़ा तंत्र का एक केंद्रमात्र बन गए हैं. बाजार के नियम और सूत्र इन आयातको और निवेशकों के हाथों में केन्द्रित हो जानें से सड़क किनारें पटरी पर दुकाने लगाने वाला वर्ग निस्सहाय होकर नष्ट-भ्रष्ट हो जाने को मजबूर है. उद्योगों से जुड़ी संस्थाएं जैसे-भारतीय उद्योग परिसंघ और भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ (फिक्की) ने चीनी सामान के आयात पर चिंतित है. आश्चर्य जनक रूप से चीन में महंगा बिकने वाला सामान जब भारत आकर सस्ता बिकता है तो इसके पीछे सामान्य बुद्धि को भी किसी षड्यंत्र का आभास भी होता है. सस्ते चीनी माल के भारतीय बाजार पर आक्रमण पर चिन्ता व्यक्त करते हुए एक अध्ययन में भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ (फिक्की) ने कहा है, “चीनी माल न केवल घटिया है, अपितु चीन सरकार ने कई प्रकार की सब्सिडी देकर इसे सस्ता बना दिया है, जिसे नेपाल के रास्ते भारत में भेजा जा रहा है, यह अध्ययन प्रस्तुत करते हुए फिक्की के अध्यक्ष श्री जी.पी. गोयनका ने कहा था, “चीन द्वारा अपना सस्ता और घटिया माल भारतीय बाजार में झोंक देने से भारतीय उद्योग को भारी नुकसान हो रहा है. भारत और नेपाल व्यापार समझौते का चीन अनुचित लाभ उठा रहा है. पटाखों के नाम पर विस्फोटक सामग्रियों के आयात का खतरा भारत पर अब बड़ा और गंभीर हो गया है. चीन द्वारा नेपाल के रास्ते और भारत के विभिन्न बंदरगाहों से भारत में घड़ियां, कैलकुलेटर,वाकमैन, सीडी, कैसेट, सीडी प्लेयर, ट्रांजिस्टर, टेपरिकार्डर, टेलीफोन, इमरजेंसी लाइट, स्टीरियो, बैटरी सेल, खिलौने, साइकिलें, ताले, छाते, स्टेशनरी, गुब्बारे, टायर, कृत्रिम रेशे, रसायन, खाद्य तेल आदि धड़ल्ले से बेचें जा रहें हैं. पटाखे और आतिशबाजी जैसी प्रतिबंधित वस्तुएं भी विदेशों से आयात होकर आ रही हैं, यह आश्चर्य किन्तु पीड़ा का विषय है. कुछ वर्ष पूर्व तिरुपति से लेकर रामेश्वरम तक की सड़क मार्ग की यात्रा में साशय मैनें भारतीय पटाखा उद्योग की राजधानी शिवाकाशी में पड़ाव डाला था. यहां के निर्धनता और अशिक्षा भरे वातावरण में इस उद्योग ने जो जीवन शलाका प्रज्ज्वलित कर रखी है वह एक प्रेरणास्पद कथा है. लगभग बीस लाख लोगों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार और सामाजिक सम्मान देनें वाला शिवाकाशी का पटाखा उद्योग केवल धन अर्जित नहीं करता-कराता है बल्कि इसनें दक्षिण भारतीयों के करोड़ों लोगों को एक सांस्कृतिक सूत्र में भी बाँध रखा है. परस्पर सामंजस्य और सहयोग से चलनें वाला यह उद्योग सहकारिता की नई परिभाषा गढ़नें की ओर अग्रसर होकर वैसी ही कहानी को जन्म देनें वाला था जैसी कहानी मुंबई के भोजन डिब्बे वालों ने लिख डाली है; किन्तु इसके पूर्व ही चीनी ड्रेगन इस समूचे उद्योग को लीलता और समाप्त करता नजर आ रहा है. यदि घटिया और नुकसानदेह सामग्री से बनें इन चीनी पटाखों का भारतीय बाजारों में प्रवेश नहीं रुका तो शिवाकाशी पटाखा उद्योग इतिहास का अध्याय मात्र बन कर रह जाएगा. भारत में 2000 करोड़ रूपये से अधिक का चीनी सामान तस्करी से नेपाल के मार्ग से  आता है इसमे से मात्र दीपावली पर बिकने वाली सामग्री 350 करोड़ की है.  विभिन्न भारतीय लघु एवं कुटीर उद्योगों के संघ और प्रतिनिधि मंडल भारतीय नीति निर्धारकों का ध्यान इस ओर समय समय पर आकृष्ट करतें रहें है. सामान्य भारतीय उपभोक्ता से भी यह राष्ट्र यही आशा रखता है कि वह यथासंभव स्वयं को चीन में बने उत्पादों से दूर रखे और शुभ-लाभ को प्राप्त करने की ओर अग्रसर हो.

पंचायत चुनावों में बढ़ रही महिलाओं की भागीदारी

सौम्या ज्योत्सना

मुजफ्फरपुरबिहार

बिहार में जारी पंचायत चुनाव में मुखिया और सरपंच सहित विभिन्न पदों पर महिला आरक्षित सीटों से अलग गैर आरक्षित सीटों पर भी बड़ी संख्या में महिला उम्मीदवारों का चुनाव लड़ना और जीतना सुर्ख़ियों में बना हुआ है. बिहार में इस बार कुल 11 चरणों में पंचायत चुनाव के लिए मतदान हो रहा है. पहले चरण का मतदान 24 सितंबर को जबकि 11वें और अंतिम चरण का मतदान 12 दिसंबर को होगा. ख़ास बात यह है कि इस बार के पंचायत चुनाव में न केवल वोट देने का प्रतिशत बढ़ा है बल्कि चुनाव जीतने वाली महिलाओं का प्रतिशत भी बढ़ा है.

दरअसल आज महिलाएं हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं क्योंकि उसने बंदिशों को तोड़ना सीख लिया है. हर मिथक और आशंकाओं को गलत साबित कर दिया है. महिला है तो कमज़ोर होगी, जैसी संकुचित सोंच वालों को अपनी सलाहियतों से जवाब दे दिया है. अब महिलाएं न केवल देश की रक्षा कर रहीं हैं बल्कि राजनीति में भी अपने परचम बुलंद कर रही हैं, जिसमें समय-समय पर मिलने वाले हौसले ने भी उनकी हिम्मत को बुलंदी प्रदान की है. बिहार सरकार ने पंचायत चुनाव में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया है ताकि महिलाएं राजनीति के क्षेत्र में भी अपना झंडा लहरा सकें और महिलाएं भी इस अवसर का पूरा लाभ उठा रही हैं. विभिन्न ग्रामीण इलाकों से महिलाएं प्रत्याशी के रूप में अपनी सहभागिता सुनिश्चित कर रही हैं, जिससे गांव-कस्बों में बदलाव की बयार बहने लगी है. अच्छी बात यह है कि इस बार के पंचायत चुनाव में दिल्ली के प्रतिष्ठित मिरांडा हाउस जैसे कॉलेज से पढ़ी और मल्टीनेशनल कंपनी में काम कर चुकी महिलाएं भी उम्मीदवार हैं.

बिहार के सीतामढ़ी जिले के सोनबरसा प्रखंड स्थित बिशनपुर गोनाही पंचायत से ताल्लुक रखने वाली और मुखिया पद की उम्मीदवार प्रियंका की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. प्रियंका के अनुसार वह एक सामान्य परिवार से ताल्लुक रखती है, जहां लड़कियों के लिए पढ़ना बहुत मुश्किल होता है, मगर पढ़ने की ललक होने के कारण ही उन्होंने आसपास से ट्यूशन लेकर अक्षर ज्ञान सीखा था. घरवालों को उसकी पढ़ाई में ज्यादा पैसे खर्च नहीं करने थे क्योंकि यहां लड़कियों के जन्म से ही दहेज के लिए पैसे जुटाने की प्रथा है. ऐसे में ट्युशन की फीस भरना ही बहुत बड़ी बात थी. जब वह 8वीं में पहुंची, उस समय ही उसकी शादी की बात चलने लगी, मगर वह शादी नहीं करना चाहती थी.

प्रियंका के अनुसार उसने यह बात दिल्ली में रहकर पढ़ाई कर रहे अपने बड़े भाई विशाल को बताई, जिन्होंने न केवल उसकी शादी रुकवाई बल्कि उनके सहयोग से ही उसकी 10वीं की पढ़ाई पूरी हो सकी. प्रियंका अपने परिवार की पहली लड़की थी, जिसने 10वीं की परीक्षा फर्स्ट डिवीजन से पास किया था. इसके बाद वह अपने भाई के साथ साल 2013 में दिल्ली आ गई और वहीं से 12वीं पास किया. जिसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए उसका एडमिशन मिरांडा हाउस में हो गया. साक्षरता के क्षेत्र में पिछड़े एक गांव से निकल कर देश की राजधानी के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में एडमिशन प्राप्त कर लेना प्रियंका के हौसले और जज़्बे को दर्शाता है. यहां से उसने दर्शनशास्त्र में अपनी पढ़ाई पूरी की. पढ़ाई के दौरान ही उसे देश की पहली एमबीए डिग्री प्राप्त सरपंच छवि राजावत के बारे में पता चला और यहीं से उसे मुखिया बनने की प्रेरणा मिली.

प्रियंका को साल 2017 में यूथ अलायन्स की ओर से ग्राम्य मंथन कार्यक्रम में भाग लेने का अवसर मिला. वहीं साल 2018 में कानपुर के गंगा दिन निबादा, खड़गपुर, बड़ी पलिया और छोटी पलिया गांव का दायित्व सौंपा गया. जहां उन्होंने शाम की पाठशाला नाम की मुहिम की शुरुआत की और अन्य विकास के कार्य किए. इन सब कामों से प्रेरणा पाकर वह अप्रैल 2020 में अपने गांव लौट आई और जागरूकता का काम करना शुरू कर दिया. फिलहाल उसकी टीम में चार लोग हैं, जो ग्राम-चेतना-आंदोलन के तहत चेतना चौपाल कार्यक्रम चला रहे हैं। जिसमें गांव-गांव घूमकर लोगों को विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर जागरूक करने का काम किया जाता है. इस बार के पंचायत चुनाव में वह मुखिया पद की उम्मीदवार है. प्रियंका के अनुसार एक महिला को राजनीति में आने के लिए पुरुषों की अपेक्षा अधिक संघर्ष करना पड़ता है क्योंकि समाज महिला को केवल रोटी बनाते हुए देखना चाहता है और यह स्थिति ग्रामीण इलाकों में ज्यादा है.

प्रियंका की ही तरह उच्च शिक्षा प्राप्त कर 31 वर्षीय डॉली भी पंचायत चुनाव लड़ रही हैं. वह बिहार के गया स्थित मानपुर प्रखंड के शादीपुर पंचायत से सरपंच पद की उम्मीदवार हैं. उन्होंने सिम्बायोसिस इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, पुणे से एमबीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद 2018 तक विभिन्न कॉर्पोरेट सेक्टर, मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी की. लेकिन अपने गांव लौटने की इच्छा के आगे उन्होंने अपने सेटेल करियर को छोड़ दिया. डॉली के अनुसार वह 12वीं पास करने के बाद से ही काम कर रहीं हैं. यूं कहें तो उन्होंने साल 2008 से ही काम करना शुरू कर दिया था. इसी बीच वर्ष 2014 में उनकी शादी हो गई और आज उनकी चार वर्ष की एक बेटी भी है. डॉली ने बताया कि उनकी सास 8 सालों तक शादीपुर पंचायत में सरपंच के पद पर आसीन थीं, लेकिन साल 2017 के नवंबर में कार्यकाल के दौरान ही उनका देहांत हो गया, जिसके बाद साल 2018 में उन्हें सरपंच पद के लिए चुनाव लड़ना पड़ा क्योंकि उनके स्थान पर किसी शिक्षित और दायित्व निभाने वाले ही शख्स की जरूरत थी. उन्होंने चुनाव लड़ा और जीत गईं. उसके बाद से वह अपने गांव के विकास के लिए काम कर रहीं हैं और इस साल भी ग्राम पंचायत शादीपुर से चुनाव लड़ रहीं हैं.

अपनी कार्यप्रणाली के बारे में डॉली कहती हैं कि उनके कार्यकाल में विकास के कई काम हुए. उनकी कचहरी बिहार की सबसे पहली डिजिटलाइज्ड ग्राम कचहरी है, जिसे पूरे प्रखंड में सर्वश्रेष्ठ ग्राम कचहरी का दर्जा दिया गया है. वहीं चुनौतियों के बारे में डॉली कहती हैं कि गांव में सबसे बड़ी चुनौती घरेलू हिंसा की है, जिस पर लगाम लगाने की आवश्यकता है क्योंकि महिलाएं शिकायत लेकर तो आती हैं मगर कार्यवाही होने से डरती है. वहीं कुछ सकारात्मक चीजें भी हुई हैं. यहां महिलाएं कृषि के कामों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती हैं, जिसमें मूंग, धान प्रमुख रूप से शामिल है. डॉली अपने गांव में कुटीर उद्योग की भी स्थापना करना चाहती हैं ताकि अधिक से अधिक महिलाओं को काम मिल सके और वह आर्थिक रूप से मजबूत हो सकें.

बहरहाल पंचायत जैसे छोटे स्तर के चुनाव में भी महिलाओं की अधिक से अधिक भागीदारी इस बात को साबित करता है कि महिलाएं अब अपने हक के प्रति जागरूक हो रही हैं. वह अपने अधिकारों को न केवल पहचान रही हैं बल्कि उसका उचित मंच पर इस्तेमाल भी कर रही हैं. जिस प्रकार से Covid-19 के दौर में कोरोना वारियर्स और फ्रंटलाइन वर्कर्स के रूप में महिलाओं ने अपना अतुलनीय योगदान दिया है, यह साबित करता है कि वह किसी भी मुश्किल का सामना करने की क्षमता रखती है. ऐसे में पंचायत में महिलाओं का अधिक से अधिक चुन कर आना न केवल गांव बल्कि देश के विकास में भी मील का पत्थर साबित होगा

जीवन की कुछ सच्चाईयां


ज़मीन पर बैठ कर,क्यो आसमान को देखता है,
पंख अपने ही फैला,ज़माना उड़ान को देखता है।

कमाई दूसरे की देखकर,क्यो कभी जलता है,
कमाई अपनी ही कर,उसी से काम चलता है।

बुराई मत कर किसी की,भगवान भी देखता है,
भला कर सभी का,भगवान भी उसी को देखता है।

बोए पेड़ बबूल के,आम कहां से तू खायेगा,
लगाया पेड़ खजूर का,छाया कहां से पाएगा।

अच्छे कर्मों का तू अच्छा ही फल सदा पाएगा,
बुरे कर्मों का नतीजा,सदा तेरे ही आगे आयेगा।।

महान आर्य संन्यासी स्वामी श्रद्धानन्द

-मनमोहन कुमार आर्य

      वैदिक धर्म एवं संस्कृति के उन्नयन में स्वामी श्रद्धानन्द जी का महान योगदान है। उन्होंने अपना सारा जीवन इस कार्य के लिए समर्पित किया था। वैदिक धर्म के सभी सिद्धान्तों को उन्होंने अपने जीवन में धारण किया था। देश भक्ति से सराबोर वह विश्व की प्रथम धर्मसंस्कृति के मूल आधार ईश्वरीय ज्ञान ‘‘वेदके अद्वितीय प्रचारकों में से एक थे। शिक्षा जगत, राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन, समाज जाति सुधार, बिछुड़े हुए धर्म बन्धुओं की शुद्धि, दलितों के प्रति दया से भरा हृदय रखने वाले तथा उनकी रक्षा में तत्पर, आर्यसमाज के महान नेताओं में से एक, आदर्श सद्गृहस्थी, कर्तव्य पालन में अपना सर्वस्व प्राण समर्पित वाले अद्वितीय महापुरुष थे। उनका व्यक्तित्व ऐसा है कि जिसे जानकर प्रत्येक सात्विक हृदय वाला व्यक्ति उनका अनुयायी बन जाता है। महर्षि दयानन्द के बाद आर्यसमाज और देश में उनके समान गुणों वाला व्यक्ति उत्पन्न नहीं हुआ। प्रसिद्ध आर्य वैदिक संन्यासी स्वामी डा. सत्य प्रकाश सरस्वती ने उनसे सम्बन्धित अपने कुछ संस्मरणों को प्रस्तुत करने के साथ उनके कार्यों पर अपनी राय भी दी है। इसी पर आधारित हमारा यह लेख है।

                सन् 1916 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अवसर पर लखनऊ में स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती ने महात्मा मुंशीराम  के दर्शन किए थे। 1914-15 में महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत आये थे और जनता में गांधी जी की लोकप्रियता बढ़ रही थी। नरम दल के नेता कांग्रेस से अलग हो गए थे और उन्होंने अपनी आल इण्डिया लिबरल फैडरेशन संघटित करना आरम्भ कर दिया था। गरम दल के व्यक्तियों के हृदय सम्राट् लोकमान्य तिलक जी थे। 8 अप्रैल, 1915 को गुरुकुल कांगड़ी में महात्मा मुंशीराम के आश्रम में मिस्टर गांधी आये और ‘‘महात्मागांधी बन करके वहां से निकले। महात्मा मुंशीराम जी ने ही गांधी जी को गुरुकुल में पधारने पर पहली बार उनको महात्मा शब्द से सम्बोधित किया था, यह महात्मा शब्द इसके बाद आजीवन उनके नाम के साथ जुड़ा रहा। यही गांधी जी के महात्मा गांधी बनने का इतिहास है। सन् 1916 की कांग्रेस में स्वामी सत्यप्रकाश जी ने गांधी जी और मंुशीराम जी दोनों को राष्ट्रभाषा हिन्दी सम्बन्धी एक समारोह में देखा था। दोनों की वेशभूषा की रूपरेखा बराबर उनकी आंखों के समाने बनी रही, ऐसा उन्होंने अपने लेख में वर्णित किया है। तब वहां महात्मा मुंशीराम जी भव्य दाढ़ी, सुदृढ़ शरीर और गले के नीचे पीत वस्त्र तथा गांधी जी अपनी काठियावाड़ी पगड़ी, अंगरखा और नंगे पैर उपस्थित थे। इसके बाद स्वामी सत्यप्रकाश जी प्रयाग आ गये। वहां ‘आर्यकुमार सभा’ के उत्सव पर स्वामी श्रद्धानन्द जी आये थे और तब स्वामी सत्यप्रकाश जी ने उन्हें निकट से देखा। स्वामी श्रद्धानन्द जी को प्रयाग में नयी सड़क के एक दुमंजिले मकान में ठहराया गया था।

                स्वामी सत्यप्रकाश जी ने यह भी वर्णन किया है कि 26 दिसम्बर 1919 को अमृतसर कांग्रेस में स्वामी श्रद्धानन्द स्वागताध्यक्ष थे और पं. मोतीलाल नेहरू अध्यक्ष। किम्वदन्ती है कि दोनों ने एकदूसरे को पहचानादोनों सहपाठी थे बनारस, इलाहाबाद, आगरा या बरेली में से किसी स्थान पर। महात्मा मुंशीराम जी की प्रारम्भिक शिक्षा बरेली में हुई, 1873 में उच्च शिक्षा क्वीन्स कालेज बनारस में, 1880 और पुनः 1888 में कानूनी शिक्षा लाहौर में। महात्मा मुंशीराम जी का नाम श्रद्धानन्द संन्यास के बाद पड़ा। संन्यास उन्होंने 12 अप्रैल 1917 को मायापुर (कनखल) में लिया था। स्वामी सत्यप्रकाश जी सन् 1915-16 में इन्द्र विद्वद्यावाचस्पति और पौराणिकों की बातें सुना करते थे, क्योंकि 1912-16 तक सनातन धर्म सभाओं की बड़ी धूम थी–ये सनातन धर्म सभाएं धीरे-धीरे निष्क्रिय हो गयीं।

                स्वामी सत्यप्रकाश जी ने अपने संस्मरणों में बताया है कि सन् 1925 . में मथुरा में जो महर्षि दयानन्द जन्म शताब्दी मनायी गयी थी उसके अध्यक्ष स्वामी श्रद्धानन्द थेतब तक उनका स्वास्थ्य गिर चुका था और महात्मा नारायण स्वामी जी वस्तुतः उस समारोह के कार्यकत्र्ता अध्यक्ष थे। आनन्द भवन में होने वाली कांगे्रस की बैठकों में 1922 . के बाद भी स्वामी जी इलाहाबाद कतिपय बार आये। 1921 . के अप्रैल मास में पं. मोतीलाल जी की पुत्री विजयलक्ष्मी के विवाह में भी स्वामी श्रद्धानन्द जी सम्मिलित हुए थे पर मोपला काण्ड (मालाबार, केरल) के बाद श्रद्धानन्द जी कांग्रेस से धीरेधीरे अलग हो गये। स्वामी दयानन्द ने मृत्यु के समय आर्यसमाज का नेतृत्व किसी व्यक्ति के हाथ में नहीं छोड़ा था। ईश्वर के भरोसे मानों वे चल दिये। 1883 ई. के बाद स्वयं ही आर्यसमाज में व्यक्तियोंका प्रादुर्भाव हुआ। इन व्यक्तियों में श्रद्धानन्द का इतिहास ही आर्यसमाज का इतिहास है। इस युग के अन्य लोगों में महात्मा हंसराज, पं. गुरुदत्त, पं. लेखराम, लाला लाजपतराय, स्वामी दर्शनानन्द और स्वामी नित्यानन्द का भी अभूतपूर्व व्यक्तित्व था।

                स्वामी सत्यप्रकाश जी के अनुसार स्वामी श्रद्धानन्द ने बीसवीं शती के प्रथम पाद में भारत के इतिहास में मार्मिक भूमिका निभायी। आर्यसमाज में दयानन्द के बाद श्रद्धानन्दसा दूसरा व्यक्ति देखने में नहीं आया। स्वामी सत्यप्रकाश जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी की 1924 . में प्रकाशितकल्याणमार्ग का पथिकआत्मकथा को पढ़ा। उनके पास उनका और गुरुकुल कांगड़ी में श्रद्धानन्द जी के सहयोगी आचार्य रामदेव जी द्वारा सम्पादित आर्यसमाज एण्ड इट्स डिटैक्टर्स विण्डिकेशनप्रसिद्ध ग्रन्थ था।दुःखी दिल की पुरदर्द दास्तानउन्होंने नहीं पढ़ी। (उर्दू में लिखित यह ग्रन्थ आर्यसमाज के आन्तरिक विग्रह की कष्ट कथा है।  इसका अनुवाद हरिद्वार निवासी हिन्दी कवि श्री सुमन्त सिंह आर्य ने किया है जो हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डोन-सिटी से कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित हो चुका है। कुछ विद्वान इसमें समाहित आलोचनाओं के कारण इसके प्रकाशन की आवश्यकता नहीं समझते थे। श्रद्धानन्द जी विषयक सबसे अधिक बातें स्वामी सत्यप्रकाश जी को स्वामी श्रद्धानन्द जी पर आस्ट्रेलियाई प्रो. जे.टी.एफ. जाॅर्डन्स की पुस्तक से ज्ञात हुईं।

                स्वामी सत्यप्रकाश जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी पर कई टिप्पणियां की हैं। वह लिखते हैं कि गुरुकुल के अनगिनत स्नातकों के कुलगुरु महात्मा मुंशीराम थे, कि श्रद्धानन्द। मुंशीराम और श्रद्धानन्द तो दो अलग व्यक्तित्व हैं। मुंशीराम के रूप में वे महात्मा थे, गांधी के अत्यन्त निकट, गुरुकुलीय प्रणाली के उन्नायक, शिक्षा के क्षेत्र में अनन्य प्रयोगी तथा टैगोर की समकक्षता के शिक्षाशास्त्री। दूसरा उनका स्वरूप स्वामी श्रद्धानन्द का रहासम्प्रदायवादिता मिश्रित राष्ट्रउलझनों में फंसे हुएकभी मालवीय जी के साथ, कभी हिन्दू महासभा के साथ, कभी उनसे दूर भागते हुए अत्यन्त विवादास्पद व्यक्तित्व, कभीकभी निर्वाचनों की उलझनों में फंस जाने वाले व्यक्ति। उसका उन्हें पुरस्कार मिला–23 दिसम्बर, 1926 ई. को सायंकाल 4 बजे दिल्ली में अब्दुल रशीद की गोलियों से बलिदान। वे सदा के लिए अमर हो गए। अंग्रेजों की संगीनों के सामने छाती खोलकर खड़ा होने वाला वीर राष्ट्रभक्त संन्यासी श्रद्धानन्द का एक यह तेजस्वी रूप था। (महर्षि दयानन्द के बलिदान के बाद 7 मार्च, 1897 को एक विधर्मी आततायी द्वारा वैदिक धर्म के प्रथम शहीद पण्डित) लेखराम की पंक्ति में खड़ा कर देने वाला ऋषि दयानन्द का असीम भक्त अमर शहीद श्रद्धानन्द।

                स्वामी श्रद्धानन्द जी के बलिदान पर पर भारत के लौहपुरुष सरदार पटेल ने अपनी श्रद्धांजलि में कहा, ‘स्वामी श्रद्धानन्द जी की याद आते ही 1919 का दृश्य मेरी आंखों के सामने आकर खड़ा हो जाता है। सरकारी सिपाही फायर करने की तैयारी में थे। स्वामी श्रद्धानन्द छाती खोलकर सामने आते हैं और कहते हैं, ‘लो, चलाओ गोलियां।उनकी उस वीरता पर कौन मुग्ध नहीं हो जाता? मैं चाहता हूं कि उस वीर संन्यासी का स्मरण हमारे अन्दर सदैव वीरता और बलिदान के भावों को भरता रहे।वीर विनायक सावरकर ने उन्हें अपनी श्रद्धांजलि में कहा, ‘इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि हमारे श्रद्धेय स्वामी श्रद्धानन्द जी ने हिन्दू-जाति पर तथा हिन्दुस्तान की बलि-वेदी पर अपने जीवन की आहुति दे दी। उनका सम्पूर्ण जीवन विशेषकर उनकी शानदार मौत हिन्दू-जाति के लिए एक स्पष्ट सन्देश देती है। …… हिन्दू-राष्ट्र के प्रति हिन्दुओं का क्या कर्तव्य है–इसे मैं स्वामी जी के अपने शब्दों में ही रखना चाहता हूं। सन् 1926 के 29 अप्रैल के ‘‘लिबरेटर” पत्र में वे लिखते हैं ‘‘स्वराज्य तभी सम्भव हो सकता है जब हिन्दू इतने अधिक संगठित और शक्तिशाली हों जाएं कि नौकरशाही तथा मुस्लिम धर्मोन्माद का मुकाबला कर सकें।उपर्युक्त उद्धरण से हिन्दू जाति की तीव्र मांग का पता चल सकता है। और विशेषकर ऐसे नाजुक समय में जबकि इस पर चारों ओर से आघात और आक्रमण हो रहे हों।’

                स्वामी श्रद्धानन्द जी ने गुरूकुल कांगड़ी की स्थापना की और उसे अपने खून से सींचा। आज यह संस्था अपने मूल उद्देश्य गौरवपूर्ण अतीत से दूर हो चुकी है। आगामी 23 दिसम्बर को स्वामी श्रद्धानन्द जी का 95 वां बलिदान दिवस है। अतः इस अवसर पर उनके पावन जीवन चरित्र का अध्ययन कर अपने जीवन को पुण्यकारी बनाया जा सकता है। धर्म की वेदी पर शहीद स्वामी श्रद्धानन्द जी का जीवन चरित्र उनके ग्रन्थों का अध्ययन कर उनके जैसा उनकी अपेक्षाओं के अनुरुप बनकर ही उन्हें श्रद्धांजलि दी जा सकती है। स्वामी श्रद्धानन्द जी के प्रायः सभी ग्रन्थों को श्रद्धानन्द ग्रन्थावली के नाम से लगभग 33 वर्ष पूर्व 11 खण्डों में प्रकाशित किया गया था। इसका नया भव्य एवं आकर्षक संस्करण एक जिन्द में ‘मैसर्स विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, 4408 नई सड़क, दिल्ली’ से दो खण्डों में प्रकाशित किया गया है। हम पाठकों को इसे पढ़ने का आग्रह करते हैं। आईये, स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन व कार्यों को जानकर उनसे प्रेरणा ग्रहण करें और वैदिक धर्म व संस्कृति की सेवा कर अपने जीवन को सफल करें। आगामी बलिदान दिवस 23 दिसम्बर को स्वामी श्रद्धानन्द जी को श्रद्धांजलि।

अपनी दुर्गति के लिए नेताओं से ज्यादा दोषी जनता है

―©®कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल 

भारतीय राजनीति नित-प्रति पतित और राजनैतिक,सांस्कृतिक,नैतिक एवं भारतीय चेतना के मूल्यों को खोती चली जा रही है।राजनीति की इस दुर्दशा के पीछे जितने बड़े अपराधी हमारे राजनेता हैं,उतना ही बड़ा अपराधी जनमानस भी है। स्वतंत्रता के पश्चात जब संविधान सभाओं की बहस हो रही थी तथा देश को चलाने के लिए संवैधानिक नियमों को मूर्तरूप दिया जा रहा था,उस समय कभी किसी ने सोचा नहीं रहा होगा कि यह राजनीति इतनी कलुषित ,नैतिकताविहीन ,मूल्यविहीन हो जाएगी। 
राजनीति के माध्यम से जिस भारतवर्ष का पुनरोत्थान तथा आमजनों के हितों का संरक्षण सम्वर्द्धन और विकास के माध्यम से जनकल्याण को सर्वोपरि रखते हुए वास्तविक तौर पर ‘जनता-जनार्दन’ को सर माथें में रखकर राजनीति को नया आयाम देना था। वह राजनीति स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अपराधियों,माफियाओं, गुण्डों ,बाहुबलियों, धन्नासेठों, के अधीन हो गई तथा उससे जनता की आवाज़ लुप्त हो गई।
जनता के पास कराह ,पीड़ा,दु:ख तथा अपनी दैन्यतम् परिस्थितियों के आगे विवश होकर रोने के अलावा कुछ भी शेष नहीं बचा है।राजनैतिक दलों उनके नेताओं द्वारा जनता को केवल चुनाव में निवाले की भाँति निगलने के अलावा और कुछ भी नहीं बचा है।चुनाव आते ही नेताओं और जनता को अपना रिश्ता याद आता है ,बाकी के दिनों सब भूल जाते हैं ।लेकिन नेता अपना रिश्ता (वोटबैंक जुगाड़) करने वाला नहीं भूलते बल्कि जनता अपने  ( मत) वाले रिश्ते की महत्ता को प्रायः भूल जाती है। विभिन्न प्रलोभनों यथा-जात-पात ,पैसा ,रुपिया,शराब ,पैर छुओ प्रतियोगिता ,सेल्फीबाजी तथा पार्टियों के जयकारे और नेताजी की तत्कालिक कुटिलतापूर्ण शाबशी और स्नेह के आगे जनता हथियार डाल देती है। राजनैतिक तंत्र को यह बखूबी पता होता है कि किसे ,किस माध्यम के द्वारा अपने पाले में किया जा सकता है,इसलिए राजनैतिक दल और उनके नेता चुनाव में अपने इन्हीं अस्त्र-शस्त्रों के माध्यम से जनता का शिकार करते हैं। 
मतदाताओं और नेताओं के बीच चुनावी सरगर्मी में एक नया उबाल पैदा होता है ,लेकिन हर बार मतदाता चुनावी उबाल में निचोड़ लिया जाता है। इसका दोषी मतदाता ही है,क्योंकि यदि उसे अपने मत का महत्व नहीं पता होता है और वह प्रलोभनों के आगे जब स्वयं को समर्पित कर देता है तो फिर उसके पास बचता ही क्या है?क्योंकि राजनैतिक दलों के नेता जब जनप्रतिनिधि बन गए तो वे उसके बाद जनता की ओर मुँह फेर देखते नहीं है। वे जनप्रतिनिधि बनने के बाद अपनी आय के माध्यम ढूँढ़ते हैं कि कैसे और किस प्रकार से कहाँ-कहाँ से धन की वर्षा होती है ? वे अपने इन अभियानों में जुटकर दिन-दुगुनी ,रात-चौगुनी गति से आर्थिक वारे-न्यारे करने के लिए जुट जाते हैं।
राजनैतिक दलों,नेतागणों से विभिन्न रिश्ते केवल चुनाव तक ही ध्यान आते हैं।वे विभिन्न हथकण्डों से राजनैतिक नैरेटिव सेट करते रहते हैं।जनता सोचती है कि हमारा हित होगा लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है क्योंकि राजनैतिक दलों की कई सारी टीमें इस पर कार्य करती हैं वे जनता की दु:खती नब्ज एवं उस संवेदनशील मुद्दे को उछालते हैं जिसके माध्यम से विभिन्न वर्गों के मतदाता गण उत्तेजित होकर उनके दल के प्रत्याशी के पक्ष में मतदान कर दें। यह स्थिति किसी विशेष दल की नहीं होती बल्कि लगभग सभी दलों की होती हैं ,जातियों के नाम पर मतदान के नैरेटिव सेट करने वाले अपने दल के विशेष जाति के ,विशेष नेता को भेजते हैं तथा जातिवाद के विभ्रम को उत्पन्न कर बदला लेने के मुद्दे को भड़काकर वोट हासिल करने का यत्न करते हैं।
राजनैतिक दलों के स्थानीय कार्यकर्ताओ की टीमें बतलाती हैं कि – कौन-किस माध्यम से चुनाव में उनके पक्ष में मतदान करेगा फिर वे इसके लिए पैसा ,रुपिया ,शराब इत्यादि की खेप पर खेप पहुँचाकर वोटों को खरीदने का काम करते हैं।अब इन स्थितियों पर विचार करिए और सोचिए कि जो नेता, राजनैतिक दल आपके वोट को खरीद रहा है ,वह भविष्य में आपका कितना बड़ा हितैषी होगा ? इसका एकदम स्पष्ट एजेंडा है कि जो आपसे विभिन्न प्रलोभनों के माध्यम से वोट खरीदने का कार्य कर रहा है ,वह उसे चुनाव जीतने के बाद हर हाल में जनता से ही वसूलेगा।
 जिन्होंने अपने वोट को विभिन्न प्रलोभनों के कारण किसी विशेष दल या प्रत्याशी को दिया है ,क्या भविष्य में वे अपने जनप्रतिनिधि से विकास एवं जनहित के मुद्दों पर बात कर सकते हैं?चुनाव में जातियों के जिन्न अचानक बोतलों से बाहर आते हैं और बड़ी ही आसानी से अपने जातीय विषवमन की जादूगरी के द्वारा जनता को वशीभूत कर लेते हैं।जनता के अंदर भी चुनावी जातीय अभिमान का भूत इस कदर चढ़ा होता है कि वे तथाकथित जातीय नेता के बहकावे में अपने ‘मत का मूल्य’ ही भूल जाते हैं।जबकि असलियत यह है कि राजनैतिक दलों का कोई भी व्यक्ति किसी जाति का रहनुमा नहीं होता ,बल्कि वह केवल और केवल अपने परिवार का सर्वेसर्वा होता है। 
जातीय नेताओं के इतिहास को उठाकर देख लीजिए कि उन्होंने अपनी जाति का कितना हित किया है?जातीय नेताओं ने केवल उस जाति को बरगलाकर वोट हासिल कर अपना वारा-न्यारा किया है।एक बात यह भी जान लेना चाहिए कि:- ‘नेता की कोई जाति नहीं होती’ बल्कि वह अपनी पार्टी का बंधुआ मजदूर और गुलाम होता है।पार्टियां उसे अपने इशारे में नचाती हैं ,वही राजनेता जो सार्वजनिक मंचों से एक-दूसरे को गाली देते नहीं थकते, वे आपस में बैठकर जाम छलकाते मिल जाते हैं।अब जनता को यह तय करना चाहिए कि उनका हित कौन करेगा? 
वर्तमान परिस्थितियों को देखकर लगता ही नहीं है कि जनता नामक कोई भी व्यक्ति बचा है,क्योंकि ज्यादातर सभी लोग विभिन्न राजनैतिक दलों से सम्बध्द ही हैं।यदि राजनैतिक दलों से सम्बध्द नहीं हैं तो उन संगठनों से सम्बध्द हैं जो किसी नेता या राजनैतिक दल के लिए वोटबैंक जुटाने का माध्यम है।किसी भी चुनाव में देख लीजिए जनता के मुद्दे सभी जगह से गायब मिल जाएँगे।राजनीति केवल आरोप-प्रत्यारोप तथा विभिन्न प्रलोभनों के इर्द-गिर्द घूमती हुई मिल जाएगी।
नेताओं ने यह सूत्र पकड़ लिया है कि जनता को झूठ ,मक्कारी ,जातीय विद्वेष, रुपिया ,शराब सहित अन्य विध्वंसक हथकंडों के माध्यम से अपने पक्ष में किया जा सकता है।इसलिए वे इन्हीं बिन्दुओं पर काम कर अपना राजनैतिक स्वार्थ सिध्द करने पर लगे रहते हैं।जनता की इन्हीं आत्मघाती प्रवृत्तियों के चलते ही सच्चा,ईमानदार, कर्त्तव्यनिष्ठ  व्यक्ति राजनीति से बाहर हो गया है। 
अब राजनीति में अपराधियों,बलात्कारियों, गुण्डों-मवालियों, धनबलियों तथा बाहुबलियों का एकछत्र राज हो चुका है।राजनैतिक दल भी इन्हीं रणनीतियों पर काम कर रहे हैं ,इसीलिए राजनैतिक दलों के द्वारा कर्त्तव्यनिष्ठ कार्यकर्ताओं को चुनाव में प्रत्याशी नहीं बनाया जाता है।जब संसद,विधानसभाओं या स्थानीय निकायों का प्रतिनिधित्व अपराधी और धनबली, बाहुबली करेंगे तो जनता यह स्वप्न में भी न सोचे कि उनके हित की नीतियाँ बनेंगी।
कोई माने या न मानें लेकिन चुनाव आयोग ने भले ही चुनावी खर्च की सीमाएँ निर्धारित की हों लेकिन राजनैतिक दलों तथा नेताओं द्वारा खर्च की जाने वाली राशि चुनाव आयोग के द्वारा निर्धारित राशि की कई गुना होती है।वह राशि केवल जनता को गुमराह करने,प्रलोभनों में फँसाकर वोटबैंक बनाने के लिए ही प्रयुक्त की जाती है। इन परिस्थितियों को निर्मित करने वाला कौन है?यही जनता जो चुनाव तथा उसके बाद अपनी किस्मत का रोना रोती रहती है। 
एक चीज साफ-साफ समझ लेनी चाहिए कि जब जनता अपने मत को विभिन्न प्रलोभनों के नाम पर किसी दल या नेता को देती है तो उसके बदले में जनता विकास एवं जनहित की नीतियों को भूल जाए । क्योंकि आपका मत ही आपका भाग्यविधाता है यदि आपने उस मत की कीमत नहीं समझी और प्रलोभनों के चक्कर में फँसकर फेंक दिया तो  आपका भविष्य अंधकारमय ही मिलेगा।जनता आखिर क्यों,नेताओं के बड़े काफिले ,धनबल, बाहुबल ,जाति या अन्य प्रतीकों के लिए ही मतदान करती है?
अगर इन प्रलोभनों के लिए मतदान किया है तो उसका परिणाम भी यही मिलेगा।राजनेताओं से भी अधिक दोषी जनता है।जनता यह ध्यान रखे कि राजनीति ,नेताओं और दलों के लिए एक धंधा है ,इसलिए वे किसी भी तरह से अपने धंधे में मुनाफा कमाने से नहीं चूकने वाले ।सिध्दांत और जनहित की बातें केवल नारेबाजी के लिए ही प्रयुक्त की जाती हैं।इसलिए जनता को ‘ऐनकेन प्रकारेण’ वे अपने पक्ष में करेंगे भले ही उन्हें इसके लिए किसी भी प्रकार की कीमत न चुकानी पड़े।
अब यह अलग बात है कि चुनाव के बाद वे उसी जनता से ही वसूलेंगे।जनता देखे कि राजनैतिक दलों, नेताओं के षड्यंत्रों की बिसात में जनता कहाँ खड़ी है?उसके मत की क्या कीमत है,जनहित या अर्थहित ?
आखिर जनता क्यों नहीं किसी सच्चे, ईमानदार व्यक्ति को अपने बीच से खड़ा करती?जनता उसके लिए स्वयं प्रचार करे ,चन्दे दे फिर उसके पश्चात देखे कि विकास होता है या नहीं। प्रत्येक व्यक्ति अपने दिल में हाथ रखकर देखे और स्वयं से पूँछे कि उसने कितनी बार निष्पक्ष तथा योग्य प्रत्याशी को मतदान किया है? आखिर जनता इन्हीं प्रत्याशियों से यह पूँछने की हिम्मत क्यों नहीं करती कि जनता का भाग्योदय अब तक क्यों नहीं हुआ है? जो लोग जहाँ निवास करते हों वे बिना किसी प्रकार का पक्षपात किए हुए अपने यहाँ प्रचार-प्रसार करने वाले प्रत्याशियों, राजनैतिक दलों,नेताओं से केवल अपने यहाँ की समस्याओं की आवाज उठाएँ और नेताओं की जवाबदेही तय करें। 
राजनैतिक दलों के नेताओं से केवल नेता और मतदाता का सम्बंध रखकर सार्वजनिक मंचों में बहस को आमंत्रित करें और पूँछें कि हमारे यहां का विकास और समस्याओं का निराकरण करने की क्या योजना है?फिर देखिए स्थितियाँ कैसे बदलने लगती हैं,लेकिन क्या जनता में इतनी हिम्मत है कि वे राजनैतिक दलों, नेताओं की आँखों में आँख डालकर केवल विकास,जनहित ,समस्याओं के निराकरण की बात कर सकें? जनता यह ध्यान दे कि जो नेता आपको विभिन्न प्रलोभनों में फँसाने का प्रयास करता है वह उनका कभी भी हितैषी नहीं हो सकता है। 
जो नेता जाति की बात करें तो उससे पूँछिए कि माननीय आपने हमारी जाति के किस व्यक्ति की मदद की है? और कैसी मदद की है? क्या नेताजी आपने ,जाति के किसी गरीब की मदद की?उसकी बेटी के ब्याह में मदद की?क्या अपनी ही जाति के आर्थिक कमजोर व्यक्ति के बच्चों की शिक्षा एवं स्वास्थ्य के लिए काम किया है?इन सवालों के जवाब अगर जाति के नाम पर वोट माँगने वाले नेता दे सकें तो फिर आप तय करिएगा कि वोट किसे देना हैं। 
जनता के वोट को जो खरीदने का काम करे ,उसके मुँह पर तमाचे मारिए और कहिए कि हम बिकाऊ नहीं हैं।क्योंकि जो जनता के वोट को खरीद रहा है वह उनके भविष्य का सौदा कर रहा होता है। अब जनता यह तय करे कि उसे क्या चाहिए ? विश्वास कीजिए कि जिस दिन से जनता राजनैतिक दलों, नेताओं के कुचक्रों में न फँसकर विकास, समस्याओं के निराकरण के लिए उनसे जवाब सवाल करने लगेगी और सही व्यक्ति के लिए मतदान करेगी उसी दिन से जनता का भाग्योदय होगा ,अन्यथा राजनैतिक दल और नेता इसी तरह से प्रलोभनोंऔर विद्वेषों की आग में जनता को झोंकते रहेंगे!!

इन्टरनेट दिवस

अंतर्राष्ट्रीय इंटरनेट दिवस दुनिया भर में हर साल 29 अक्टूबर को मनाया जाता है। वर्ष 2005 से अंतर्राष्ट्रीय इंटरनेट दिवस दूरसंचार और प्रौद्योगिकी के इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिन के रूप में मनाया जाता है। यह पहला संदेश, पहला इलेक्ट्रॉनिक संदेश भेजने की घटना थी, जिसे 1969 में एक कंप्यूटर से दूसरे में स्थानांतरित किया गया था। यह कैलिफोर्निया, संयुक्त राज्य अमेरिका में स्थित था। आज अंतर्राष्ट्रीय इंटरनेट दिवस भी समाज से, समाज के लिए और समाज से अंकुरित होने वाली एक ऑन-लाइन परियोजना है। अंतर्राष्ट्रीय इंटरनेट दिवस परियोजना हर किसी के लिए खुली है और किसी के लिए भी इंटरनेट तक पहुंच सभी के लिए खुली और मुफ्त है। अंतर्राष्ट्रीय इंटरनेट दिवस इस प्रकार इस भव्य लोकतांत्रिक उत्सव का जश्न मनाता है जो आवश्यक रूप से मुक्ति के इस विचार से जुड़ा हुआ है, जहां सभी को समान अवसर और सेवाओं को साझा करने के लिए एक समान लाभ दिया जाता है, जो दुनिया को एक-दूसरे से जोड़ते हैं।

घटना के इतिहास में पीछे हटना हमें सूचित करेगा कि आसान संचार के इस युग की यात्रा Google के बारे में जानकारी के रूप में सरल नहीं थी।  शुरुआत के लिए यह वर्तमान परिदृश्य कई वर्षों के प्रयासों से पहले का है, जिसमें टेलीप्रिंटर्स और अन्य उपकरणों का उपयोग करने के बजाय डिजिटल डेटा को सभी को दिखाई देने के असफल प्रयास शामिल हैं।  जिस समय इतिहास बनाया जा रहा था, उस समय इंटरनेट को ARPANET (एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी नेटवर्क) के नाम से जाना जाता था। यह 1969 का वर्ष था जब यूसीएलए में एक छात्र प्रोग्रामर चार्ली क्लाइन ने 1969 में 29 अक्टूबर को पहली बार संदेश प्रेषित किया था। यह घटना चांद पर पहले आदमी के उतरने के कुछ महीने बाद ही थी। दुनिया में महान चीजें हो रही थीं, और यह एक था। प्रोफेसर लियोनार्ड क्लेरॉक की देखरेख में काम करने वाले चार्ली क्लाइन ने UCLA में रखे कंप्यूटर से स्टैनफोर्ड रिसर्च इंस्टीट्यूट के कंप्यूटर पर तैनात कंप्यूटर पर एक संदेश प्रसारित किया। यूसीएलए में दो कंप्यूटर, एसडीएस सिग्मा 7 होस्ट कंप्यूटर था और रिसीवर स्टैनफोर्ड रिसर्च इंस्टीट्यूट में एसडीएस 940 होस्ट था। दिलचस्प रूप से पर्याप्त संदेश एक पाठ संदेश था जिसमें ‘लॉगिन’ शब्द शामिल था। लेकिन चूंकि यह केवल L और O अक्षर को पार करेगा, क्योंकि प्रारंभिक संचरण के बाद सिस्टम ध्वस्त हो गया और ट्रांसमिशन बंद हो गया।
इंटरनेट इंटरकनेक्टेड कंप्यूटर नेटवर्क की दुनिया भर में, सार्वजनिक रूप से सुलभ श्रृंखला है जो मानक आईपी (इंटरनेट प्रोटोकॉल) का उपयोग करके पैकेट स्विचिंग द्वारा डेटा संचारित करता है। अब इंटरनेट हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है। हममें से अधिकांश लोग बिना इंटरनेट के एक दिन बिताने के बारे में नहीं सोच सकते। इंटरनेट ने हमारे जीवन को बहुत आसान बना दिया है और सुविधाजनक बना दिया है,इसके कारण ही हम संसार के किसी भी कोने से तुरंत जुड़ जाते है।

कोरोना टीके की ‘100 करोड़’ डोज ने रखी ‘आपदा में उत्सव’ मनाने की बुनियाद!

दीपक कुमार त्यागी


वर्ष 2020 में जब पूरी दुनिया में कोरोना का तेजी से प्रकोप होना शुरू हुआ था तो उस वक्त डब्ल्यूएचओ व दुनियाभर के अधिकांश कोरोना विशेषज्ञों के जहन में एक बात बार-बार कौंध रही थी कि इस घातक महामारी का भविष्य भारतवासियों के व्यवहार पर बहुत अधिक निर्भर है। लेकिन हमारे अधिकतर देशवासियों ने बेहद विकट परिस्थितियों जीवनयापन करते हुए, अत्याधिक जनसंख्या घनत्व होने के बाद भी बड़े पैमाने पर कोरोना से बचाव के सरकार द्वारा तय उपायों का अक्षरशः पालन करके इस महामारी को नियंत्रण में करने का कार्य पहली व दूसरी लहर में सरकार व सिस्टम के साथ कंधे से कंधा मिलाकर बखूबी किया था। वहीं सरकार व सिस्टम के द्वारा कोरोना टीके की 100 करोड़ डोज लगवाने का कार्य करके लोगों को महामारी से बचाव का सुरक्षा कवच प्रदान किया गया, इस स्थिति के बाद देश की जनता व ‘मोदी सरकार’ को जश्न मनाने की लंबें समय के बाद एक मजबूत बुनियाद मिल गयी है। भारत की जनता को घातक कोरोना महामारी से सुरक्षित रखने के लिहाज से “21 अक्टूबर 2021” गुरुवार के दिन हमारे देश ने कोरोना से बचाव के टीकाकरण के क्षेत्र में इतिहास रचने का कार्य कर दिया है। हमारे देश के सिस्टम ने अपनी बेहतरीन कार्यशैली का परिचय देते हुए आपसी जन सहयोग व सूझबूझ से 100 करोड़ टीके की डोज महामारी के चलते बीच-बीच में बेहद भयावह व विकट परिस्थिति उत्पन्न होने के बाद भी लोगों को लगाकर इतिहास रचने का कार्य किया है। 
“बहुत कम दिनों में किसी भी टीके की 100 करोड़ डोज भारत जैसे सीमित संसाधनों वाले देश में लोगों को सुरक्षित तरीक़े से लगा देना अपने आप में दुनिया को आश्चर्यचकित करने वाला एक बड़ा बेहद जटिल टीकाकरण अभियान है। इस अभियान में ऐतिहासिक लक्ष्य को हासिल करने में सभी पक्षकारों का जिम्मेदारी से परिपूर्ण व्यवहार बेहद कारगर रहा है। यह अभियान हमारे देश की केन्द्र व राज्य सरकारों, सिस्टम, स्वास्थ्यकर्मियों, आशाकर्मी, आगंनबाड़ी कर्मी, वैज्ञानिकों, टीके का युद्धस्तर पर निर्माण करने वाली सभी कंपनियों और उनके दिनरात एक करके काम करने वाले प्रबंधन व कर्मचारियों की बुद्धिमत्ता, प्रबंधन व मेहनत की देश व दुनिया के सामने एक बड़ी मिसाल है।”
भारत में चलने वाला यह बृहद टीकाकरण अभियान विकट परिस्थितियों में आधुनिक विज्ञान व हमारे देश के सिस्टम के अद्भुत तालमेल का एक बेहतरीन परिचायक है। भविष्य में यह दुनिया के लिए अध्ययन का मसला बनते हुए प्रबंधन व कार्यान्वन के लिए एक बहुत बड़ी नजीर बन सकता है। यह अभियान दुनिया को भारत की प्रबंधन क्षमता, दृढसंकल्प, इच्छाशक्ति व मेहनत से परिपूर्ण कार्यक्षमता का परिचय भी देता है। टीकाकरण का हासिल यह बड़ा लक्ष्य दुनिया को संदेश देता है कि भारत अगर किसी बात के लिए ठान ले तो वह विकट से विकट परिस्थितियों में भी असंभव को भी संभव कर सकता है। यहाँ आपको यह याद दिलाना आवश्यक है कि भारत में कोरोना से आम जनमानस को सुरक्षित रखने के लिए बृहद टीकाकरण अभियान “16 जनवरी 2021” को शुरू किया गया था। हमारे देश में सबसे पहले कोरोना से प्रथम पंक्ति पर रहकर संघर्ष करने वाले हमारे जाबांज योद्धाओं डॉक्टरों, नर्सों, सफाईकर्मियों और अन्य सभी स्वास्थ्यकर्मियों को टीके लगवाने का कार्य सरकार के द्वारा एक बहुत बड़े उत्सव की तर्ज पर शुरू किया गया था। हालांकि टीकाकरण के इस अभियान में शुरुआती चंद दिनों के जोश के बाद देश में सुस्त रफ्तार ने आमजनमानस के मन में एक बड़ा संशय उत्पन्न करने का कार्य कर दिया था कि कहीं हमारे देश के फ्रंटलाइन कोरोना वॉरियर्स टीका लगवाने से बच तो नहीं रहे हैं। वहीं टीकाकरण के विरोधी लोग व कुछ राजनीतिक दलों के बयानों ने भी इस आग में घी डालकर जनता को ‘मोदी विरोध’ के चक्कर में गुमराह करने का प्रयास भी बहुत किया था। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, सरकार, सिस्टम डॉक्टरों व कोरोना के विशेषज्ञों ने जनता के इस संशय को तत्काल खत्म करने का कार्य बाखूबी अंजाम दिया था। उसके बाद देश की बुज़ुर्ग आबादी व फिर युवाओं को कोरोना से बचाव के लिए टीके का सुरक्षा कवच प्रदान किया जाने लगा था, जो आज भी निरंतर नये-नये रिकॉर्ड बनाने के साथ चल रहा है।
देशवासियों को अच्छे से ध्यान होगा कि कोरोना का टीकाकरण अभियान बहुत ही ज़ोर-शोर और उत्साह के साथ शुरू किया गया था, लेकिन चंद दिनों बाद धरातल पर जब तरह-तरह की समस्याएं आने लगी थी, जिसके चलते हम भारतीयों की क्षमताओं पर दुनिया में संदेह करने वाले बहुत लोग थे। हालांकि धरातल पर उत्पन्न स्थिति देखकर एकबार तो यह लगने लगा था कि कोरोना टीकाकरण यह अभियान लंबा कई वर्षों तक चलेगा, तब कहीं जाकर देश की जनता का टीकाकरण हो पायेगा। हालांकि टीकाकरण का यह भी सबसे बड़ा एक कटु सत्य है कि देश के नीतिनिर्माताओं के लिए सबसे बड़ी चिंता की बात यह थी उस समय टीकों के कम उत्पादन के चलते टीका निर्माता कंपनियों की तरफ से टीके की आपूर्ति सीमित मात्रा में ही हो रही थी, जिसकी वजह से टीकाकरण केन्द्रों के धरातल पर टीकों की भारी किल्लत होने लगी थी, जिसके चलते भारत का टीकाकरण कार्यक्रम जल्द ही पटरी से उतर गया और लगने लगा था कि सरकार के द्वारा टीकाकरण का जो लक्ष्य दिया जा रहा है वह एक जुमला मात्र है। वहीं लोगों की जिंदगी को सुरक्षित करने वालें इस टीकाकरण अभियान के दौरान भी पक्ष-विपक्ष में जमकर राजनीति भी हुई थी, लोगों ने भी रोजाना राजनेताओं की तू-तू मैं-मैं का भरपूर आनंद भी लिया था, टीके के पक्ष-विपक्ष में तर्क-वितर्क व कुतर्क भी देखें थे, टीके को लेकर के जमकर हर तरह के प्लेटफार्म पर प्रचार व दुष्प्रचार भी देखा था। लेकिन धीरे-धीरे दृढ इच्छाशक्ति के चलते इस अभियान को धरातल पर चलाने वालें कर्मचारियों के बुलंद हौसले के आगे देश में हर तरह का नकारात्मक दुष्प्रचार पस्त हो गया, वहीं दूसरी तरफ कंपनियों के द्वारा युद्धस्तर टीके का उत्पादन बढ़ाया गया और फिर तो देश के टीकाकरण अभियान ने नित-नये आयाम स्थापित करने शुरू कर दिये।
जिसके परिणामस्वरूप भारत ने कोरोना के ख़िलाफ़ जंग में 100 करोड़ टीके की डोज देने की जबरदस्त उपलब्धि मात्र 278 दिन के अंतराल में हासिल कर ली है। देश में कोरोना से बचाव के लिए 100 करोड़ टीके लगाए जाने के बाद ‘आपदा में उत्सव’ के जश्न का माहौल दिखाई दे रहा है, इस मौके को यादगार बनाने के लिए मोदी सरकार की ओर से भी पूरी तैयारी की गई है। देश की ऐतिहासिक इमारतों से लेकर हवाई जहाज तक पर इस उपलब्धि का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। मोदी सरकार के मंत्री व भाजपा के शीर्ष नेता तक अपने छोटे-बड़े कार्यक्रमों के माध्यम से उपलब्धि का बखान कर रहे हैं। 
“जनता को भी कोरोना काल में लंबें समय के बाद त्योहारी सीजन में बड़ा उपहार मिल गया है उसके चेहरे पर भी बड़े दिनों के बाद धूमधाम से त्योहार मनाने की खुशियां स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं। लेकिन हम सभी को पूरी सावधानी के साथ यह ध्यान रखना है कि ‘आपदा को उत्सव’ में बदलने का जो मौका ईश्वर ने हम लोगों को दिया है, हम लोगों को उसमें कोरोना गाइडलाइंस का अक्षरशः पालन करते हुए टीकाकरण करवाकर, बेवजह भीड़भाड़ ना करके अब हमेशा के लिए बरकरार रखना है।”
हम लोगों को याद रखना है सारी दुनिया में कोराना महामारी स्वास्थ्य के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बन गयी है, इससे बचाव की विभिन्न पाबंदियों के चलते लोगों की ज़िंदगी बेहद कठिन हो गयी है, कोरोना काल में उनको लंबें समय से आजीविका का निरंतर बड़ा नुकसान होता चला आ रहा है, देश की अर्थव्यवस्था खस्ताहाल हो गयी है। इसलिए भविष्य में इस तरह की स्थिति उत्पन्न होने से बचने के लिए देश में कोरोना के जोखिम को कम करने के लिए हमकों निरंतर जागरूक नागरिक बनकर प्रयास जारी रखने होंगे, वहीं कोरोना से बचाव के उपाय, टीकाकरण व “दो गज की दूरी मास्क है जरूरी” के नियमों का पालन स्वैच्छिक रूप से करना होगा, तब ही हम भविष्य में इस कोरोना आपदा का खात्मा करके पूरे जोशोखरोश के साथ उत्सव मना पायेंगे।
।। जय हिन्द जय भारत ।।।। मेरा भारत मेरी शान मेरी पहचान ।।

सुब्बाराव देश की अमूल्य धरोहर थे, आत्मा थे

-ललित गर्ग-

सलेम नानजुंदैया सुब्बाराव यानी सुब्बारावजी, अनेकों के भाईजी अब हमारे बीच में नहीं है, 93 साल की उम्र में दिल का दौरा पड़ा और दिल ने सांस लेना छोड़ दिया, वे हमें जीवन के अन्तिम पलों तक कर्म करते हुए, गाते-बजाते हुए अलविदा कह गये। वे आजादी के सिपाही तो थे ही, लेकिन आजादी के बाद असली आजादी का अर्थ समझाने वाले महानायक एवं महात्मा गांधी के सच्चे प्रतिनिधि थे। उन्होंने गांधी के रहते तो गांधी का साथ दिया ही, लेकिन उनके जाने के बाद गांधी के अधूरे कार्यों को पूरा करने का बीड़ा उठाया। वे पुरुषार्थ की जलती मशाल थे। उनके व्यक्तित्व को एक शब्द में बन्द करना चाहे तो वह है- पौरुष। सुब्बाराव ने बहुत कुछ किया, लेकिन अपना पहनावा कभी नहीं बदला, हाफ पैंट और शर्ट पहने हंसमुख सुब्बाराव बहुत सर्दी में भले ही पूरी बांह की शर्ट में मिलते थे। अपने अटल विश्वास, अदम्य साहस, निर्भीकता, लेकिन अपने व्यवहार में विनीत व सरल सुब्बाराव इस देश की अमूल्य धरोहर थे, आत्मा थे। महात्मा गांधी के विचारों को आत्मसात करके जीने और उससे समाज को सतत समृद्ध-सम्पन्न करते रहने वाली पीढ़ी के वे एक अप्रतिम व्यक्ति-जुझारू व्यक्तित्व थे।
सुब्बारावजी का निधन एक युग की समाप्ति है। वे गांधीवादी सिद्धांतों पर जीने वाले व्यक्तियों की शंृखला के प्रतीक पुरुष थे। उनका जीवन सार्वजनिक जीवन में शुद्धता की, मूल्यों की, गैरराजनीति की, आदर्श के सामने राजसत्ता को छोटा गिनने की या सिद्धांतों पर अडिग रहकर न झुकने, न समझौता करने के आदर्श मूल्यों की प्रेरणा था। हो सकता है ऐसे कई व्यक्ति अभी भी विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे हों। पर वे रोशनी में नहीं आ पाते। ऐसे व्यक्ति जब भी रोशनी में आते हैं तो जगजाहिर है- शोर उठता है। सुब्बारावजी ने आठ दशक तक सक्रिय सार्वजनिक गांधीवादी जीवन जिया, उनका जीवन मूल्यों एवं सिद्धान्तों की प्रेरक दास्तान है। वे सदा दूसरों से भिन्न रहे। घाल-मेल से दूर। भ्रष्ट सार्वजनिक जीवन में बेदाग। विचारों में निडर। टूटते मूल्यों में अडिग। घेरे तोड़कर निकलती भीड़ में मर्यादित। रचनात्मक कार्यकर्ता बनाने का कठिन सपना गांधीजी का था, लेकिन सुब्बाराव ने रचनात्मक मानस के युवाओं को जोड़ने का अनूठा काम किया। उनके पास युवकों के साथ काम करने का गजब हूनर था। वे सच्चे सर्वोदयी कार्यकर्ता बन हजारों-लाखों युवकों तक पहुंचे और उनकी भाषा, उनकी संस्कृति, उनकी बोलचाल में उनसे संवाद स्थापित किया।
सुब्बारावजी वैचारिक क्रांति के साथ समाज-क्रांति केे पुरोधा थे। उनके क्रांतिकारी जीवन की शुरुआज मात्र 13 साल की उम्र में शुरू हो गयी थी, जब 1942 में गांधीजी ने अंगे्रजी हुकूमत को ‘भारत छोड़ो’ का आदेश दिया था। कर्नाटक के बंगलुरु के एक स्कूल में पढ़ रहे 13 साल के सुब्बाराव को और कुछ नहीं सूझा, तो उन्होंने अपने स्कूल व नगर की दीवारों पर बड़े-बड़े शब्दों में लिखना शुरू कर दिया – ‘क्विट इंडिया- भारत छोड़ो।’ नारा एक ही था, तो सजा भी एक ही थी- जेल। 13 साल के सुब्बाराव जेल भेजे गए। बाद में सरकार ने उम्र देखकर उन्हें रिहा कर दिया, पर हालात देखकर सुब्बाराव ने इस काम से रिहाई नहीं ली। आजादी के संघर्ष में सक्रिय सहभागिता निभाई।
सुब्बारावजी की सोच प्रारंभ से ही अनूठी, लीक से हटकर एवं मौलिक रही। 1969 में गांधी शताब्दी वर्ष को मनाने की भी सुब्बाराव की कल्पना अनूठी थी। वे सरकार के सहयोग से दो रेलगाड़ियां- गांधी-दर्शन ट्रेनों को लेकर समूचे देश में घूमें और गांधी दर्शन को जन-जन का दर्शन बनाने का उपक्रम किया, पूरे साल ये ट्रेनें छोटे-छोटे स्टेशनों पर पहुंचती-रुकती रहीं और स्कूल कॉलेज के विद्यार्थी, आम लोग इनसे गांधी दर्शन एवं जीवन को देखते-समझते रहे। यह एक महा-अभियान ही था, जिसमें युवाओं से सीधे व जीवंत संपर्क हुआ। अणुव्रत में काम करते हुए मुझे भी गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में उनके सान्निध्य एवं सम्पर्क करने का अवसर मिलता रहा।
मध्य प्रदेश के चंबल के इलाकों में सुब्बाराव ने जो काम किया, वह असंभव सरीका था।  सरकार करोड़ों रुपये खर्च करके और भारी पुलिस-बल लगाने के बाद भी कुछ खास हासिल नहीं कर पायी थी। फिर कहीं से कोई लहर उठी और डाकुओं की एक टोली ने संत विनोबा भावे के सम्मुख अपनी बंदूकें रखकर कहा- हम अपने किए का प्रायश्चित करते हैं और नागरिक जीवन में लौटना चाहते हैं! यह डाकुओं का ऐसा समर्पण था, जिसने देश-दुनिया के समाजशास्त्रियों को कुछ नया देखने-समझने पर मजबूर कर दिया। बागी-समर्पण के इस अद्भुत काम में सुब्बाराव की अहम भूमिका रही। यह अहिंसा का एक विलक्षण प्रयोग था।
सुब्बारावजी के महान् एवं ऊर्जस्वल व्यक्तित्व को समाज-सुधारक के सीमित दायरे में बांधना उनके व्यक्तित्व को सीमित करने का प्रयत्न होगा। उन्हें नये समाज का निर्माता कहा जा सकता है। उनके जैसे व्यक्ति विरल एवं अद्वितीय होते हैं। उनका गहन चिन्तन समाज के आधार पर नहीं, वरन् उनके चिन्तन में समाज अपने को खोजता है। उन्होंने साहित्य के माध्यम से स्वस्थ एवं गांधीवादी मूल्यों को स्थापित कर समाज को सजीव एवं शक्तिसम्पन्न बनाने का काम किया। समाज-निर्माण की कितनी नयी-नयी कल्पनायें उनके मस्तिष्क में तरंगित होती रही है, उसी की निष्पत्ति थी चंबल के डाकुओं का समर्पण। चंबल के ही क्षेत्र जौरा में सुब्बाराव का अपना आश्रम था, जो दस्यु समर्पण का एक केंद्र था।
पन्द्रह से अधिक भाषाओं के जानकार सुब्बारावजी बहुआयामी व्यक्तित्व और विविधता में एकता के हिमायती रहे। वे महात्मा गांधी सेवा आश्रम में अपने कार्यों व गतिविधियों के माध्यम से समाज के अंतिम व्यक्ति के उत्थान के लिए समर्पित रहे। खादी ग्रामोद्योग, वंचित समुदाय के बच्चों विशेषकर बालिकाओं की शिक्षा, शोषित व वंचित समुदाय के बीच जनजागृति व प्राकृतिक संसाधनों पर वंचितों के अधिकार, कृषि आधारित अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण, युवाओं के विकास में सहभागिता के लिए नेतृत्व विकास, महिला सशक्तिकरण, गरीबों की ताकत से गरीबोन्मुखी नियमों के निर्माण की पहल आदि के माध्यम से समाज में शांति स्थापना करने के लिए वे संकल्पित रहे। उनके जीवन के अनेक आयाम रहे, उनके हर आयाम से आती ताजी हवा के झोंकों से समाज दिशा एवं दृष्टि पाता रहा है। भारत की माटी को प्रणम्य बनाने एवं कालखंड को अमरता प्रदान करने में भाईजी की अहं भूमिका रही।
सुब्बारावजी ऐसे कर्मठ कर्मयौद्धा थे कि अंत समय तक भी काम ही करते रहे। उनके लिए आजादी का मतलब समयानुरूप बदलता रहा। कभी अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति का संघर्ष, तो कभी अंग्रेजीयत की मानसिक गुलामी से आजादी की कवायद। पूज्य विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण ने विचारों की जंग छेड़ी तो सुब्बारावजी उनके साथ में भी मजबूती से डटे रहे। वे आजाद भारत में कभी गरीबों के साथ खड़े होते तो कभी किसानों के साथ। लेकिन उनका विश्वास गांधीवाद में दृढ़ रहा, देश के विकास एवं राष्ट्रीयता की मजबूती के लिये वे प्रयत्नशील रहे। आजादी के बाद के समय में गांधीवादी व्यक्तियों का अकाल रहा या राजनीति की धरती का बांझपन? पर वास्तविकता है-लोग घुमावदार रास्ते से लोगों के जीवन में आते हैं वरना आसान रास्ता है- दिल तक पहुंचने का। हां, पर उस रास्ते पर नंगे पांव चलना पड़ता है। सुब्बाराव नंगे चले, बहुत चले, अनथक चलते रहे। आजाद भारत के ‘महान सपूतों’ की सूची में कुछ नाम हैं जो अंगुलियों पर गिने जा सकते हंै। सुब्बारावजी का नाम प्रथम पंक्ति में होगा। सुब्बारावजी को अलविदा नहीं कहा जा सकता, उन्हें खुदा हाफिज़ भी नहीं कहा जा सकता, उन्हें श्रद्धांजलि भी नहीं दी जा सकती। ऐसे व्यक्ति मरते नहीं। वे हमंे अनेक मोड़ों पर नैतिकता का संदेश देते रहेंगे कि घाल-मेल से अलग रहकर भी जीवन जिया जा सकता है। निडरता से, शुद्धता से, स्वाभिमान से।

स्वायत्त बहुजन राजनीति और कांशीराम की विरासत..

डॉ अजय खेमरिया

कांशीराम

क्या देश की संसदीय राजनीति में ‘स्वायत्त दलित राजनीतिक अवधारणा’ के दिन लद रहे है या राष्ट्रीय दलों में  दलित प्रतिनिधित्व की  नई राजनीति इसे विस्थापित कर रही है।कांग्रेस एवं भाजपा जैसे दलों में दलित नुमाइंदगी प्रतीकात्मक होने के आरोप के  साथ बहुजन राजनीति की शुरुआत हुई थी। बड़ा सवाल आज यह है कि क्या उत्तर भारत में  बहुजन राजनीति अपने ही अंतर्विरोधों से अप्रसांगिक होने के खतरे से नही जूझ रही है। अगले साल यूपी सहित पांच राज्यों  के विधानसभा चुनाव होने है जिसकी बिसात बिछ चुकीं है और ऐसे में सबकी निगाह मायावती के प्रदर्शन या सही मायनों में स्वायत्त दलित राजनीतिक अवधारणा के भविष्य पर भी टिकी हुई है।असल में मायावती की सफलता और विफलता के साथ डॉ अम्बेडकर औऱ कांशीराम की उस दलित चेतना का सीधा संबन्ध भी है जिसे सामाजिक न्याय के साथ देखा जाता है।सवाल यह है कि क्या मायावती के साथ ही उस स्वायत्त दलित राजनीति का अंत भी हो जाएगा जिसे कांशीराम ने खड़ा किया था क्योंकि मौजूदा पूर्वानुमान यही इशारा कर रहे है कि उप्र में मायावती भाजपा और सपा की तुलना में पिछड़ सकती हैं।ऐसे में इस सवाल के समानांतर राष्ट्रीय दलों में दलित प्रतिनिधित्व की राजनीति को भी विश्लेषित किये जाने की आवश्यकता  है।हाल ही में पंजाब में कांग्रेस ने रामदसिया दलित बिरादरी के सिख को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया है तो भाजपा ने उत्तराखंड की राज्यपाल बेबी रानी मौर्य को स्तीफा कराकर पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया है।जाहिर है राष्ट्रीय दल अब प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व को मजबूत करते हुए दीर्धकालिक चुनावी लक्ष्यों को साधने के लिए जुट गए है।

बड़ा सवाल यही है कि क्या जिस तरह 2007 में मायावती ने अपने दम पर यूपी की सत्ता पर कब्जा कर स्वायत्त दलित राजनीतिक ताकत का खंब ठोका था वह महज एक संयोग भर था।क्योंकि 2012 औऱ 2017 के विधानसभा चुनाव हो या 2014 औऱ 2019 के लोकसभा नतीजे,मायावती की बहुजन थियरी लगातार कमजोर होते हुए आज अपने अस्तित्व से क्यों जूझ रही है।इसके जबाब में दलित आंदोलन के नवसामंती तत्वों को समझने की आवश्यकता भी है क्योंकि मायावती  कांशीराम की विरासत को संभालने में नाकाम साबित हुई है। डॉ अम्बेडकर ने शिक्षित,संगठित दलित समाज की अवधारणा को गढ़ा था जिसे 90 के दशक में कांशीराम ने जमीन पर कुछ परिवर्तन के साथ उतारने का काम किया।बेशक कांशीराम जाति को जाति से काटने की बुनियाद पर चले लेकिन उनके मिशन में एक सांस्कृतिक पुट भी था जो कतिपय ऐतिहासिक जातिगत अन्याय को उभारकर आगे बढ़ा था।कांशीराम ने प्रवास औऱ अहंकार मुक्त सम्पर्क के बल पर दलित राजनीति की स्वायतत्ता को आकार दिया।मायावती ने इसे एक एटीएम की तरह उपयोग किया और उस पक्ष को बिसार दिया जो कांशीराम के परिश्रम और सम्पर्कशीलता से जुड़ा था।नतीजतन मंडल औऱ कमंडल की काट में खड़ा किया गया एक सफल दलित आंदोलन आज महज चुनाव लड़ने के विचार शून्य सिस्टम में तब्दील होकर रह गया।उत्तरप्रदेश में आज कोई भी पूर्वानुमान मायावती को 2007 की स्थिति में होंने का दावा नही कर रहा है।आज दलित बिरादरी में मायावती औऱ बसपा को जाटव एवं कुछ पॉकेट में मुस्लिम वोटों की ताकत तक आंका जा रहा है।कभी 30 फीसदी वोटों वाली मायावती दो लोकसभा चुनाव में उस कोर जाटव वोट को भी सहेज कर नही रख पाई जो कांशीराम के जमाने से इस पार्टी का सबसे सशक्त आधार था।

बेशक आज भी यूपी में वह 20 फीसदी से ज्यादा मत प्रतिशत पर काबिज है लेकिन जिन गैर जाटव औऱ गैर यादव ओबीसी वोटों के साथ बहुजन आंदोलन कांशीराम ने खड़ा किया था उसकी उपस्थिति मायावती के साथ नही है।2014 में अमित शाह ने जिस सोशल इंजीनियरिंग को उप्र में अंजाम दिया था वह 2019 में भी कायम नजर आई और अब खतरा बहुजन आंदोलन के सामने यह खड़ा है कि जाटव कोर वोट में भी भाजपा सेंधमारी की फूल प्रूफ तैयारी के साथ मैदान में उतर चुकी है।बेबीरानी मौर्य मायावती की उसी जाटव जाति से आती है औऱ प्रदेश के सभी 75 जिलों में उनके दौरे एवं सम्पर्क सभाओं का प्लान पार्टी ने तय किया है खासकर जाटव महिलाओं के बीच।उधर प्रियंका गांधी और चंद्रशेखर रावण,एवं जिगनेश मेवानी  की कैमेस्ट्री भी जाटव वोटरों के इर्दगिर्द दिखती है।जिस रामदसिया दलित जाति से कांशीराम आते थे पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी भी उसी जाति से है ऐसे में कांशीराम की विरासत पर मायावती को चुनौती भाजपा के साथ कांग्रेस से भी सीधे मिलनी है।

जाहिर है मायावती के भरोसे जिस स्वायत्त दलित राजनीति का सपना कांशीराम ने देखा था वह मायावती के सामंती व्यवहार से फ़िलहाल संकट में नजर आ रहा है।उप्र में जाटव जाति की संख्या कुल 20 फीसदी दलित में 12 फीसदी गिनी जाती है और जाटव बिरादरी के युवा बढ़ी संख्या में चंद्रशेखर की भीम आर्मी से जुड़ रहे है।यानी मायावती जिस सकल डीएस 4और बामसेफ की जमीन पर खड़ी थी वह जमीदोज हो रही है।नव सामंती बुराइयों ने दलितों के अंदर से ही  स्वायत्त दलित सत्ता की संभावनाओं को खारिज करना शुरू कर दिया है।यह स्थिति दलितों के अंदर सामंती स्थितियों की उपज ही है क्योंकि जाटवों को एक वर्ग को छोड़कर मायावती ने अन्य दलितों को  सत्ता और वर्चस्व में भागीदारी को स्वीकार ही नही किया।डॉ अंबडेकर औऱ कांशीराम जिस समावेशी सत्ताई दलित भागीदारी की वकालत कर रहे थे वह मायावती के साथ नजर नही आती है।उन्होंने दलित चेतना के नाम पर खुद के महिमामंडन औऱ विरासत की तानाशाह वारिस की तरह काम किया।विरासत की निधि को केवल चुनावी सिस्टम में तब्दील करके दलित आंदोलन के सामने खुद को एक मजबूरी के रूप में स्थापित किया।नतीजतन आज उप्र में वे प्रासंगिकता की लड़ाई लड़ती हुई दिख रही है।संवाद या विमर्श मायावती के शब्दकोश में है ही नही।

मप्र उप्र,हरियाणा,पंजाब में कितने नेताओं को उन्होंने पार्टी से निकाल दिया जो कांशीराम के समय से सक्रिय थे।हाल ही में पंजाब के अध्यक्ष समेत अन्य नेताओं के साथ भी यही व्यवहार हुआ।पंजाब में अकालियों से गठबंधन के मामले में भी उनकी भूमिका संदिग्ध नजर आई है। ईमानदारी से देखें तो मायावती औऱ कांशीराम के व्यक्तित्व एवं कृतित्व में कोई भी बुनियादी साम्य नही है।कांशीराम का व्यक्तित्व ऐसा था कि वो तुरंत ही आम लोगों, ख़ासकर बहुजन महिलाओं से जुड़ जाते थे।ऐसी कई महिलाएं थीं जिन्होंने कांशीराम के बहुजन संघर्ष का नेतृत्व किया लेकिन आज उन्हें कोई नही जानता है।कांशीराम आंदोलन से जुड़े हर व्यक्ति की अहमियत को समझते थे। वे अक्सर काडर के सदस्यों के घर चले जाते थे और उनके पास ठहरकर लंबी बातचीत किया करते थे। मायावती कभी किसी कार्यकर्ता के घर गईं हो यह किसी को नही पता।संवाद तो दूर उनसे पार्टी के बड़े नेताओं का मिलना तक कठिन होता है।वे कभी जमीन पर आंदोलन करती हुई नजर नही आई।उनकी सभाओं में कुर्सी ऊंची औऱ सबसे दूर लगाई जाती है।उनके दौलत से अनुराग को यह कहकर खारिज किया जाता है कि क्या दौलतमंद होना केवल सवर्णों का अधिकार है लेकिन उनके वकील यह भूल कर गए कि दौलत का वितरण दलितों के एक सिंडिकेट से आगे कभी हुआ ही नही है।एक ऐसा सामंती आवरण मायावती के ईर्दगिर्द खड़ा हुआ मानो वे दैवीय अवतार हो।स्वयं मायावती औऱ उनके पैरोकार यह भूल गए कि कांशीराम मायावती को उनके घर से बुलाकर खुद लाये थे।

वस्तुतः कांशीराम नीचे जमीन से उठे हुए नेता थे, जिनका आम लोगों के साथ एक गतिशील रिश्ता था।वो असली मायनों में एक बड़े नेता थे।आज अगर चंद्रशेखर रावण के साथ पढ़े लिखे जाटव युवा जुड़ रहे है तो इसके पीछे मायावती का यही दैवीय आवरण जिम्मेदार है।दूसरी तरफ बेबीरानी मौर्य,प्रियंका रावत जैसी दलित महिलाओं को बीजेपी जाटव बिरादरी में आगे रखकर चल रही है तो इसका मतलब साफ है कि बसपा की कोर पूंजी बिखरने के कगार पर है।साथ ही एक नई राजनीतिक धारा के स्थापित होने की स्थितियां भी निर्मित हो रही है वह है राष्ट्रीय दलों में दलितों की प्रतीकात्मक नही दीर्धकालिक भागीदारी।सामाजिक न्याय और बहुजन आंदोलन ने एक अनुमान के अनुसार दलित और पिछडेवर्ग के महज 10 जातीय समूहों को नुमाइंदगी दी है शेष 40 जातीय समूह आज भी सामाजिक न्याय के मामले में हांसिये पर ही है।क्या बसपा के पराभव के साथ दलितों का स्वाभाविक प्रतिनिधित्व राष्ट्रीय दलों में लोहिया के जुमले अनुरूप कायम हो पायेगा।यह आने वाले समय में भारतीय संसदीय राजनीति का देखने वाला पक्ष होगा।फिलहाल तो स्वायत्त दलित राजनीति की अवधारणा अस्ताचल की ओर कही जा सकती है।जिसका मूल कारण अम्बेडकर औऱ कांशीराम के वारिसों का सामंती व्यवहार ही माना जाना चाहिये।

केंद्रीय विद्यालय परिसर में मस्जिद का होना

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में केंद्रीय विद्यालय नंबर-2 के परिसर में मस्जिद का अवैध रूप से बनना और विद्यालय समय में नमाजियों का सभी नियमों को ताक पर रखकर नमाज पढ़ना।  वस्‍तुत: यह एक ऐसा गंभीर विषय है, जिस पर आज सभी को स्वयं इस्‍लाम को माननेवालों को भी चिंतित होना चाहिए।  यह चिंता इसलिए भी की जानी चाहिए, क्योंकि शिक्षा के मंदिर का अपना एक सिस्‍टम है, उसमें इन नमाजियों का क्‍या काम? इनके बेरोकटोक आने से एक ओर जहां अध्‍ययन में व्‍यवधान आता है तो दूसरी ओर इनके वाहनों के कारण से संपूर्ण परिसर भी संकट में आ जाता है।  कई बार परिसर में छोटे-छोटे बच्‍चे भी तेज दौड़ते हुए नजर आते हैं, उनके जीवन के लिए भी खतरा है।

इसके साथ ही सवाल यह भी है कि जब अभिभावकों को आसानी से अंदर आने को नहीं मिलता, उन्‍हें अपनी पहचान बतानी पड़ती है और छुट्टी होने पर अपने बच्‍चे को घर ले जाने के लिए इंतजार बाहर रहकर ही करना होता है, तब फिर ये नमाजी बिना रोक-टोक सिर्फ टोपी की पहचान से अंदर कैसे जाते हैं? क्‍या भोपाल में मस्‍जिदों की कमी है जो इस्‍लाम के माननेवालों को केंद्रीय विद्यालय के भीतर अपनी एक मस्‍जिद जरूरी लगती है? जबकि एक रिकार्ड के अनुसार भोपाल शहर में कुल 680 बड़ी मस्जिदें मौजूद हैं।

जनसंख्‍या के हिसाब से देखें तो 2011 की जनगणना में इस शहर की जनसंख्या 18 लाख थी जोकि 2021 में 23,64,000 लाख से कुछ अधिक होनी चाहिए और आगे यह एक अनुमान के अनुसार 2030 तक 28 लाख के करीब पहुंचेगी । इस संपूर्ण जनसंख्‍या में भोपाल में हिंदुओं की आबादी 56 प्रतिशत,  मुस्लिम जनसंख्या 40 प्रतिशत है। जबकि अन्‍य पंथ-धर्म को माननेवालों की जनसंख्या चार प्रतिशत है। भोपाल की जनसंख्या का घनत्व 10,070 प्रत्येक वर्ग किलोमीटर है। जिसमें महिलाओं की कुल जनसंख्या लगभग 11 लाख एवं पुरुषों की कुल जनसंख्या 12 लाख से कुछ अधिक है। यदि आप इस जनसंख्‍या के हिसाब से भी मंदिर और मस्‍जिद निर्माण की संख्‍या गिनेंगे तब भी आपको आश्‍चर्य ही होगा, क्‍योंकि जो 680 मस्‍जिदें शहर में बनी हुई हैं, उसकी तुलना में यहां हिन्‍दू आबादी के अनुसार एक हजार से अधिक बड़े मंदिर वर्तमान में होने चाहिए थे, जोकि धरातल पर कहीं नहीं दिखाई देते हैं। जब कोई बड़े मंदिरों की संख्‍या उंगलियों पर गिनना चाहे या कैल्‍कुलेटर लेकर गिनती शुरू करे तब भी उसे बड़े मंदिरों के नाम पर 100 की संख्‍या गिनना मुश्‍किल हो जाएगी।  

वस्‍तुत: ऐसे में फिर प्रश्‍न यही प्रत्‍यक्ष हो उठता है कि आखिर इतनी मस्‍जिदें या इबादतगाह होने के बाद केंद्रीय विद्यालय के भीतर मुसलमानों को क्‍यों मस्‍जिद बनाने की जरूरत आन पड़ी? इस स्‍तर पर गहन विचार करने के बाद आज वास्‍तविकता में लगता है कि भोपाल की सांसद साध्‍वी प्रज्ञा सिंह ने कोई गलत मुद्दा या प्रश्‍न नहीं सार्वजनिक किया है, बल्‍कि यह एक गंभीर चिंता का विषय है।  जब वह यह पूछती हैं कि स्कूल के भीतर बच्चों के पेरेंट्स नहीं आ सकते तो नमाज पढ़ने के लिए लोग कैसे घुस रहे हैं? तो उनका यह प्रशासन से पूछा जा रहा प्रश्‍न हर हाल में सही लगता है।

वैसे देखा जाए तो यदि नमाजियों की संख्या ज्यादा होने  की स्‍थ‍िति को देखते हुई उत्‍पन्‍न हुई गाड़ियों की पार्किंग समस्‍या पर विद्यालय के बाहर दुकान लगाने वालों को वहां से हटाने के लिए स्‍कूल प्रशासन ने धमकाया नहीं होता तो हो सकता है, इतना संवेदनशील और गंभीर मामला कहीं दबा ही रहता। यह तो अच्‍छा हुआ जो शिकायत सांसद तक पहुंच गई और समस्‍या की गंभीरता को भोपाल सांसद ने भी समझा तथा वे देश हित में सक्रिय हो उठीं।  

यहां सवाल अभी और भी हैं, अब यदि कोई कानून का विशेषज्ञ भारतीय संविधान के आधार पर जिसमें कि साफ तौर पर कहा गया है कि भारत में सभी धर्म के लोगों को आराधना करने की स्वतंत्रता है और उसकी नजर से सभी समान हैं को लेकर यह मांग करे कि इस मस्‍जिद की तरह ही स्‍कूल के अंदर मंदिर और गुरुद्वारा, सिर्फ इतना ही क्‍यों, अन्‍य जैनी, बौद्ध, पारसी, यहूदी, आस्‍तिक और नास्‍तिक को माननेवाले हैं, उनकी भी इबादतगाह बने,  तब क्‍या विद्यालय प्रशासन या सरकार एक विद्या के मंदिर में इस मांग को पूरा करने की अनुमति देगी? यदि नहीं दे सकती है, तब फिर ऐसी स्‍थ‍िति में इस मस्‍जिद को यहां क्‍यों होना चाहिए?

अभी कुछ पहले ही भोपाल में अवैध रूप से मजार बनाने का मामला सामने आया था। सिर्फ भोपाल ही क्‍यों देश भर में अनेक जिलों से ऐसी खबरें आए दिन सामने आती हैं कि कैसे रातोंरात किसी सुनसान या सड़क किनारें मजार खड़ी कर दी गई और उसे किसी सूफी बाबा का नाम दे दिया गया। इस पर भी जहां आम नागरिक जागृत रहे, वहां से तो वे तत्‍काल हटा ली जाती हैं किंतु जहां किसी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया, वहीं यह हमेशा के लिए स्‍थायी हो जाती हैं। ऐसे में फिर वे बातें जो अब आए दिन सुनाई देती हैं कि लव जिहाद के बाद देश में बड़े स्‍तर पर लैंड जिहाद भी चल रहा है, सच लगने लगती हैं। वैसे और भी कई जिहाद हैं जो चल रहे हैं, जैसे- जनसंख्‍या जिहाद, शिक्षा जिहाद, पीड़ित जिहाद, सीधा जिहाद और इसके आगे आर्थ‍िक जिहाद, मीडिया जिहाद, एतिहासिक जिहाद, फिल्‍म और संगीत का जिहाद, धर्मनिरपेक्षता का जिहाद वस्‍तुत: आज ये सभी जिहाद देश में कहीं ना कहीं घटित होते आपको दिखाई दे जाएंगे। 
वैसे जिहाद का अर्थ इस्‍लाम में बहुत व्‍यापक है। मुस्लिम धर्मगुरु मानते हैं कि इस शब्द को गलत नजरिये से पेश किया जाता रहा है जबकि कुरान में इसका जिक्र बहुत ही साफ है और वह है खुद की बुराइयों पर विजय पाना। स्‍वयं में बदलाव करने की बड़ी कोशिश।  कुछ परिस्थितियों में जिहाद को अत्याचार के खिलाफ खड़ा होना भी बताया जाता है।  दूसरी तरफ इसका अर्थ दीन-ए-हक की और बुलाने और उससे इनकार करनेवाले से जंग करने या संघर्ष करने को लेकर है । कुरान में ‘जिहाद की सबी लिल्लाह’ शब्द पैंतीस और ‘कत्ल’ 69 बार आया है’  (जिहाद फिक्जे़शन, पृ. 40)। हालांकि तीन चौथाई कुरान पैगम्बर मुहम्मद पर मक्का में अवतरित हुआ था, मगर यहाँ जिहाद सम्बन्धी पाँच आयतें ही हैं, अधिकांश आयतें मदीना में अवतरित हुईं। इतिहासकार डॉ. सदानन्‍द मोरे के अनुसार मदीना में अवतरित 24 में से, 19  सूराओं (संख्‍या 2, 3, 4, 5, 8, 9, 22, 24, 33, 47, 48, 49, 57-61, 63 और 66) में जिहाद को लेकर व्यापक चर्चा की गई है (इस्लाम दी मेकर ऑफ मेन, पृष्‍ठ 336)।

इसी प्रकार ब्रिगेडियर एस. के. मलिक ने जिहाद की दृष्टि से मदीनाई आयतों को महत्वपूर्ण मानते हुए इनमें से 17 सूराओं की लगभग 250 आयतों का ‘कुरानिक कन्सेप्ट ऑफ वार’ में प्रयोग किया है तथा गैर-मुसलमानों से जिहाद या युद्ध करने सम्बन्धी अनेक नियमों, उपायों एवं तरीकों को बड़ी प्रामाणिकता के साथ बतलाया है जो कि जिहादियों को भड़काने के लिए अक्सर प्रयोग की जाती हैं। डॉ. के. एस. लाल ने भी इस संदर्भ में बहुत शोधपरक कार्य किया है और वे इस निष्‍कर्ष पर पहुंचे कि कुरान की कुल 6326 आयतों में से लगभग 3900 आयतें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से अल्लाह और उसके रसूल (मुहम्मद) में ‘ईमान’ न रखने वाले ‘काफिरों’, ‘मुश्रिकों और मुनाफ़िकों’ से सम्बन्धित हैं।

वैसे देखा जाए तो जनसंख्या के हिसाब से इस्लाम में वह तबका बेहद छोटा है जो आतंकवाद या हिंसा से जिहाद को जोड़ता है, किंतु ये एक सच्चाई है कि आज सबसे अधिक प्रभावी यही नजर आ रहा है । दुनिया भर के देशों में इसके उदाहरण भरे पड़े हैं। यहां दो ही उदाहरण समझने के लिए पर्याप्त होंगे ।  वस्‍तुत: मुंबई में 2008 को घटित हुई आतंकी  घटना 26/11 एक जिहाद थी, जिसमें करीब 160 लोगों की जान गई और 300 से ज्यादा लोग घायल हुए थे और दूसरी घटना 11 सितंबर 2001 की है, जब दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति अमेरिका के न्यूयॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकियों का हवाई हमला हुआ, जिसमें कि 2,977 लोगों की जान चली गई थी, कट्टर इस्‍लाम के अनुसार यह भी एक प्रकार का जिहाद था।

वस्‍तुत: यहां हम जिहाद की विस्तृत व्याख्या के साथ पुन: अपने मूल विषय पर वापस आते हैं, जिसमें स्पष्ट तौर पर कहा जा रहा है कि जब देश भर में मस्जिदों की कोई कमी नहीं हैं, भोपाल में मुसलमानों की कुल जनसंख्या के अनुपात में अधिक मस्जिदें बन चुकी हैं, फिर क्यों इस्लाम पंथियों को आज सरकारी विद्यालय को इबादतगाह बनाने की आवश्यकता आन पड़ी है? ऐसी संदेहास्पद परिस्थितियों को देखकर स्वाभाविक है, भारतीय संविधान में अपना विश्‍वास रखनेवाले  किसी भी व्‍यक्‍ति को गुस्सा आएगा।

सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने आज जो प्रश्‍न खड़े किए हैं, निश्चित ही वर्तमान हालातों में वे सही प्रतीत हो रहे हैं। अब मध्य प्रदेश प्रशासन को चाहिए कि वे तत्काल प्रभाव से कार्रवाई करते हुए अवैध निर्माण को ध्वस्त करे जोकि विद्यालय में बच्चों की सुरक्षा के लिए एक संकट के रूप में आज हमारे सामने है । इन सभी बच्‍चों की सुरक्षा को देखते हुए कहना होगा कि सरकार को  इस अवैध मस्जिद से विद्या के इस मंदिर केंद्रीय विद्यालय को तेजी के साथ मुक्त कर देना चाहिए । वस्‍तुत: इसी में सबका हित निहित है।

पटाखे के प्रदूषण से सब काले पड़ रहे हैं

-ललित गर्ग-

इस वर्ष दीपावली पर आतिशबाजी न हो, इसके लिये सरकारें ही नहीं गैर-सरकारी संगठन भी व्यापक प्रयत्न कर रहे हैं। दिल्ली सरकार ने इसके लिये सख्ती बरतने की तैयारी की है, प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता आमिर खान दिवाली पर पटाखेबाजी के विरुद्ध एक विज्ञापन में टीवी चैनलों पर करोड़ों को प्रेरित कर रहे हैं एवं अणुव्रत विश्व भारती ईको-फ्रेंडली दीपावली का संदेश जन जन के बीच पहुंचा रही है, क्योंकि पटाखे जलाने से न केवल बुजुर्गों बल्कि बच्चों के जीवन पर खतरनाक प्रभाव पड़ने और अनेक रोगों के पनपने की संभावनाएं हैं। आम जनता की जिंदगी से खिलवाड़ करने वाली पटाखे जलाने की भौतिकतावादी मानसिकता को विराम देना जरूरी है। कोरोना महामारी के बाद बदले माहौल एवं स्वास्थ्य-जरूरतों को देखते हुए यह नितांत अपेक्षित भी है। प्रदूषण मुक्त पर्यावरण की वैश्विक अभिधारणा को मूर्त रूप देने के लिये इको फ्रेंडली दीपावली मनाने का संकल्प लेने की आवश्यकता है।
पटाखे के प्रदूषण से ”दीपावली“ के गौरवपूर्ण अस्तित्व एवं अस्मिता के काले पड़ने की सम्भावना संस्कृतिकर्मी एवं प्रदूषण विशेषज्ञ व्यक्त कर रहे हैं। मैं और कुछ भी कह कर ”दीपावली“ की महत्ता को कम नहीं कर रहा हूं, पर और भी जो काला पड़ रहा है वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। ”दीपावली“ हमारी संस्कृति है, सभ्यता है, आपसी प्रेम है, इतिहास है, विरासत है और दीपों की कतारों का आश्चर्य है। पटाखे जलाने से दीपावली ही नहीं, ये सब भी काले पड़ रहे हैं। स्वास्थ्य चौपट हो रहा है, फिजूलखर्ची बढ़ रही है। पटाखों पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध होने के बावजूद अंधाधुंध आतिशबाजी होना जहां सरकार की लापरवाही है, गैरजिम्मेदारी है, वहीं आम जनता द्वारा गैरकानूनी तरीके से आतिशबाजी करना आपराधिक कृत्य है। इस विषम एवं ज्वलंत समस्या से मुक्ति के लिये हर व्यक्ति को संवेदनशील एवं अन्तर्दृष्टि-सम्पन्न बनना होगा। क्या हमें किसी चाणक्य के पैदा होने तक इन्तजार करना पड़ेगा, जो जड़ों में मठ्ठा डाल सके।…नहीं, अब तो प्रत्येक मन को चाणक्य बनना होगा। तभी विकराल होती वायु प्रदूषण की समस्या से मुक्ति मिलेगी।
दिल्ली के अलावा 21 शहर भी प्रदूषित शहरों की लिस्ट में शामिल हैं, पटाखों के धुएं से इन शहरों एवं समूचे देश में प्रदूषण बढ़ने की संभावनाएं हैं। सर्दियां आते ही दिल्ली की आबोहवा बच्चों और बुजुर्गों के लिए विशेष रूप से खतरनाक होने लगती है। दिल्ली की हवा में उच्च सांद्रता है, जो बच्चों को सांस की बीमारी और हृदय रोगों की तरफ धकेल रही है। शोध एवं अध्ययन में यह भी पाया गया है कि यहां रहने वाले 75.4 फीसदी बच्चों को घुटन महसूस होती है। 24.2 फीसदी बच्चों की आंखों में खुजली की शिकायत होती है। सर्दियों में बच्चों को खांसी की शिकायत भी होती है। बुजुर्गों का स्वास्थ्य तो बहुत ज्यादा प्रभावित होता ही है। सर्दियों के मौसम में हवा में घातक धातुएं होती हैं, जिससे सांस लेने में दिक्कत आती है। हवा में कैडमियम और आर्सेनिक की मात्रा में वृद्धि से कैंसर, गुर्दे की समस्या और उच्च रक्तचाप, मधुमेह और हृदय रोगों का खतरा बढ़ जाता है। इसमें आतिशबाजी एवं पराली जलाने से घातकता कई गुणा बढ़ जाती है।
किसी व्यक्ति के बारे में सबसे बड़ी बात जो कही जा सकती है, वह यह है कि ”उसने अपने चरित्र पर कालिख नहीं लगने दी।“ अपने जीवन दीप को दोनों हाथों से सुरक्षित रखकर प्रज्वलित रखने के लिये ईको-फ्रेंडली दीपावली के संकल्प को आकार देना ही होगा। अगर हमने यह संकल्प नहीं लिया तो दीपावली पर दिल्ली में फिर धुएं की चादर छा जाएगी और लोगों को सांस लेना भी दूभर हो जाएगा। वैसे तो दिल्ली सरकार ने सख्ती भी की है। दिल्ली में अगर लोग पटाखे जलाते पकड़े गए तो उनके खिलाफ विस्फोटक एक्ट के तहत एक्शन लिया जाएगा। अगर कोई लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ करता दिखाई दिया तो उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 188 और 286 के तहत कार्रवाई की जाएगी। बात दिल्ली की ही नहीं, समूचे राष्ट्र की है।
दिल्ली के पर्यावरण मंत्री गोपाल राय पटाखे नहीं दीया जलाओ अभियान की शुरूआत कर रहे हैं, ताकि लोगों को जागरूक किया जा सके। यह सही है कि प्रदूषण की रोकथाम के लिए सख्ती जरूरी है लेकिन लोग मानने को तैयार नहीं होते। हर वर्ष दीपावली को देर रात गए लोग पटाखे जलाते रहते हैं। एक विश्लेषण के अनुसार राजधानी में नवम्बर माह के पहले पन्द्रह दिनों में हवा सबसे प्रदूषित होती है। इसका कारण पराली और पटाखों से निकलने वाला धुआं होता है, जो दिल्ली को स्वास्थ्य आपातकाल में धकेल देता है। राजधानी की हवा में प्रदूषण का प्राथमिक स्रोत वाहनों का जमावड़ा और पड़ोसी राज्यों में औद्योगिक संचालन से निकलने वाला धुआं भी है।
अणुव्रत विश्व भारती के जनजागृति अभियान की भी व्यापक प्रासंगिकता है। देश में 165 स्थानों पर अणुव्रत समितियां सक्रिय हैं जो देश में पर्यावरण संरक्षण, नशामुक्ति, सद्भावना, अहिंसा प्रशिक्षण, चुनाव शुद्धि जैसे विभिन्न मुद्दों पर जन अभियान चला रही है। ’ईको-फ्रेंडली दीपावली’ के प्रचार-प्रसार में योगदान देकर समितियां एक कदम और आगे बढ़ेंगी तथा जन-जागरण से पर्यावरण को शुद्ध बनाने तथा प्रदूषण नहीं फ़ैलाने में इनकी अहम् भूमिका होगी। समिति प्रचार-प्रसार के दौरान पटाखों से प्रभावित लोगों की मार्मिक कहानी, बैनर लोकार्पण, नुक्कड़ नाटक मंचन, संकल्प पत्र, ईको-फ्रेंडली दीपावली आलेख लेखन एवं प्रकाशन सरीखें कई कार्यक्रम करेगी।
आमिर खान ने दिवाली पर पटाखेबाजी के विरुद्ध जो देश के करोड़ों लोगों से अनुरोध किया हैं उसका व्यापक असर होगा। उनका अनुरोध है कि दिवाली के मौके पर सड़कों पर पटाखेबाजी न करें। अंधाधुंध पटाखेबाजी से सड़कों पर यातायात में तो बाधा पड़ती ही है, प्रदूषण भी फैलता है और विस्फोटों से लोग भी मरते हैं। इसके अलावा पटाखों के नाम पर हम चीनी पटाखा-निर्माताओं की जेबें मोटी करते हैं। आमिर ने जन-जन की जीवन रक्षा से जुड़े इस ज्वलंत मुद्दे पर विज्ञापन करके एक सकारात्मक पहल की है। आमिर खान की तरह हमारे सभी अभिनेता और अभिनेत्रियाँ ऐसे विज्ञापनों में भाग लें, जो आम लोगों को समाज-सुधार के लिए प्रेरित करें। इससे अपराध घटेंगे, विकृतियां एवं विसंगतियां समाप्त होगी और सरकार का भार भी हल्का होगा।
प्रदूषण कम करने और दिल्ली सहित देश के अन्य महानगरों-नगरों को रहने लायक बनाने की जिम्मेदारी केवल सरकारों की नहीं है, बल्कि हम सबकी है। हालांकि लोगों को सिर्फ एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका निभानी है। यद्यपि एंटीडस्ट अभियान भी चलाया जा रहा है। लोगों को खुद भी पूरी सतर्कता बरतनी होगी। लोगों को खुली जगह में कूड़ा नहीं फैंकना चाहिए और न ही उसे जलाया जाए। वाहनों का प्रदूषण लेवल चैक करना चाहिए। कोशिश करें कि हम निजी वाहनों का इस्तेमाल कम से कम करें और सार्वजनिक वाहनों का उपयोग करें। हालांकि पराली जलाए जाने की घटनाएं पिछले साल के मुकाबले काफी कम हैं, इसलिए दिल्ली वालों को भी पटाखे जलाकर खुद की या दूसरों की जान जोखिम में नहीं डालनी चाहिए। अगर हमने पर्यावरण को लेकर पहले से ही सतर्कता बरती होती तो देश प्रदूषण का शिकार नहीं होता। हमने स्वयं अनियोजित विकास कर प्रदूषण को आमंत्रित किया है। कोरोना वायरस अभी भी हमारे बीच मौजूद है और प्रदूषण के दिनों में वायरस तेजी से फैलता है। यद्यपि कुछ जागरूक लोगों के प्रयास पूरी तरह सफल नहीं हुए तो पूरी तरह निष्फल भी नहीं हुए हैं। जरूरत है हम स्वयं को तो जागरूक बनाएं ही, पूरे समाज को इस समस्या की गम्भीरता से परिचित कराएं। देशवासियों को यह संकल्प तो लेना होगा कि वे दीप जलाकर दीपावली मनाएंगे। प्रदूषण से ठीक उसी प्रकार लड़ना होगा जैसे एक नन्हा-सा दीपक गहन अंधेरे से लड़ता है। छोटी औकात, पर अंधेरे को पास नहीं आने देता। क्षण-क्षण अग्नि-परीक्षा देता है। पर हां! अग्नि परीक्षा से कोई अपने शरीर पर फूस लपेट कर नहीं निकल सकता।

संतान की दीर्घायु व सुखी जीवन हेतु अहोई अष्टमी व्रत आज

भगवत कौशिक। भारत पूरे विश्वभर में अपनी अनोखी संस्कृति व परम्पराओं के लिए जाना जाता है। यह देश त्योहारों का देश है और यह सभी त्योहार हमारे संस्कारों तथा वैदिक परंपराओं को आज की पीड़ी तक पहुँचाने का एक माध्यम है। इन में से एक त्योहार अहोई अष्टमी का है, जिसमे सभी माताएं अपनी संतान की दीर्घ आयु और मंगलमय जीवन के लिए उपवास रखती हैं।प्राचीन काल से ही माताएं अहोई अष्टमी का व्रत करती हैं। इसे ‘होई’ नाम से भी जाना जाता है। अहोई अष्टमी का व्रत विशेष रूप से संतान की दीर्घायु, अच्छे स्वास्थ, जीवन में सफलता और समृद्धि के लिए किया जाता है। इस व्रत में माता पार्वती को ही अहोई अष्टमी माता के रूप में पूजा जाता है।हिंदू पंचांग के अनुसार कार्तिक मास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को अहोई अष्टमी का व्रत और पर्व मनाया जाता है। माताएं यह व्रत अपनी संतान की दीर्घायु, अच्छे स्वास्थ, जीवन में सफलता और समृद्धि के लिए प्रतिवर्ष करती हैं।
अहोई अष्टमी व्रत का महत्व
हिंदू धर्म में अहोई अष्टमी का विशेष महत्व है। यह व्रत संतान की सुख-समृद्धि के लिए रखा जाता है।कहते हैं कि अहोई अष्टमी का व्रत कठिन व्रतों में से एक है।इस दिन महिलाएं निर्जला व्रत रखती हैं।मान्यता है कि अहोई माता की विधि-विधान से पूजन करने से संतान को लंबी आयु प्राप्त होती है।इसके साथ ही संतान की कामना करने वाले दंपति के घर में खुशखबरी आती है।अहोई अष्टमी तिथि एवं पूजा मुहूर्त
गुरुवार को दोपहर 12 बजकर 49 मिनट से प्रारंभ होगी जोकि 29 अक्टूबर शुक्रवार को दोपहर 2 बजकर 9 मिनट तक रहेगी।अहोई अष्टमी के दिन शाम की पूजा और तारों को करवे से अर्घ्य देने का महत्व है। ऐसे में अहोई अष्टमी का व्रत 28 अक्टूबर गुरुवार को रखा जाएगा। अहोई माता की पूजा का मुहूर्त 28 अक्टूबर शाम को 1 घंटे 17 मिनट का है। जोकि शाम 5 बजकर 39 मिनट से शाम 6 बजकर 56 मिनट तक पूजा का शुभ मुहूर्त है। 28 अक्टूबर को शाम 6 बजकर 3 मिनट से व्रती महिलाएं तारों को देखकर अर्घ्य दे सकती हैं।
अहोई अष्टमी व्रत कथा
एक समय एक नगर में एक साहूकार रहता था। उसका भरापूरा परिवार था। उसके 7 बेटे, एक बेटी और 7 बहुएं थीं। दिपावाली से कुछ दिन पहले उसकी बेटी अपनी भाभियों संग घर की लिपाई के लिए जंगल से साफ मिट्टी लेने गई। जंगल में मिट्टी निकालते वक्त खुरपी से एक स्याहू का बच्चा मर गया। इस घटना से दुखी होकर स्याहू की माता ने साहूकार की बेटी को कभी भी मां न बनने का श्राप दे दिया। उस श्राप के प्रभाव से साहूकार की बेटी का कोख बंध गया।श्राप से साहूकार की बेटी दुखी हो गई। उसने भाभियों से कहा कि उनमें से कोई भी ए​क भाभी अपनी कोख बांध ले। अपनी ननद की बात सुनकर सबसे छोटी भाभी तैयार हो गई। उस श्राप के दुष्प्रभाव से उसकी संतान केवल सात दिन ही जिंदा रहती थी। जब भी वह कोई बच्चे को जन्म देती, वह सात दिन में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता था। वह परेशान होकर एक पंडित से मिली और उपाय पूछा।
पंडित की सलाह पर उसने सुरही गाय की सेवा करनी शुरु की। उसकी सेवा से प्रसन्न गाय उसे एक दिन स्याहू की माता के पास ले जाती है। रास्ते में गरुड़ पक्षी के बच्चे को सांप मारने वाली होता है, लेकिन साहूकार की छोटी बहू सांप को मारकर गरुड़ पक्षी के बच्चे को जीवनदान देती है। तब तक उस गरुड़ पक्षी की मां आ जाती है। वह पूरी घटना सुनने के बाद उससे प्रभावित होती है और उसे स्याहू की माता के पास ले जाती है।स्याहू की माता जब साहूकार की छोटी बहू की परोपकार और सेवाभाव की बातें सुनती है तो प्रसन्न होती है। फिर उसे सात संतान की माता होने का आशीर्वाद देती है। आशीर्वाद के प्रभाव से साहूकार की छोटी बहू को सात बेटे होते हैं, जिससे उसकी सात बहुएं होती हैं। उसका परिवार बड़ा और भरापूरा होता है। वह सुखी जीवन व्यतीत करती है।
अहोई अष्टमी व्रत की पूजन विधि ◆ माताएं सूर्योदय से पूर्व स्नान करके व्रत रखने का संकल्प लें।  
◆ अहोई माता की पूजा के लिए दीवार या कागज पर गेरू से अहोई माता का चित्र बनाएं और साथ ही सेह और उसके सात पुत्रों का चित्र बनाएं।
◆ सायंकाल के समय पूजन के लिए अहोई माता के चित्र के सामने एक चौकी रखकर उस पर जल से भरा कलश रखें।
◆ तत्पश्चात रोली-चावल से माता की पूजा करें।मीठे पुए या आटे के हलवे का भोग लगाएं।
◆ कलश पर स्वास्तिक बना लें और हाथ में गेंहू के सात दाने लेकर अहोई माता की कथा सुनें।
◆ इसके उपरान्त तारों को अर्घ्य देकर अपने से बड़ों के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लें।
अहोई अष्टमी पूजा सामग्री
पूजा सामग्री – चावल, रोली, मोली अथवा धूप की नाल
अहोई अष्टमी की आरती
जय अहोई माता जय अहोई माता ।तुमको निसदिन ध्यावत हरी विष्णु धाता ।।
ब्रम्हाणी रुद्राणी कमला तू ही है जग दाता ।जो कोई तुमको ध्यावत नित मंगल पाता ।।
तू ही है पाताल बसंती तू ही है सुख दाता ।कर्म प्रभाव प्रकाशक जगनिधि से त्राता ।।
जिस घर थारो वास वही में गुण आता ।कर न सके सोई कर ले मन नहीं घबराता ।।
तुम बिन सुख न होवे पुत्र न कोई पता ।खान पान का वैभव तुम बिन नहीं आता ।।
शुभ गुण सुन्दर युक्ता क्षीर निधि जाता ।रतन चतुर्दश तोंकू कोई नहीं पाता ।।
श्री अहोई माँ की आरती जो कोई गाता ।उर उमंग अति उपजे पाप उतर जाता ।।
अहोई अष्टमी पर बन रहे तीन शुभ योग
इस बार अहोई अष्टमी पर 3 विशेष योग बन रहे हैं। इसे अत्यधिक शुभ माना जा रहा है। इसमें सर्वार्थ सिद्धि योग, रवि योग और गुरु पुष्य योग एक साथ बन रहे हैं। इन योगों में पुष्य नक्षत्र को सभी नक्षत्रों का राजा माना जाता है। बृहस्पतिवार को गुरु पुष्य नक्षत्र योग होने से अत्यधिक लाभ मिलता है। ऐसे में इस बार अहोई व्रत करने वाली माताओं को कई गुना ज्यादा फल मिलेगा।