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जोगीरा समझ न पाए पीर….

  • डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

सत्ता की सजी हुई बिसात और शतरंज की जमी हुईं मोहरें, दोनों ही रंग राजनीति के वर्चस्व को स्थापित करते हैं। सरयू के पानी की तासीर और राजनीति का केन्द्रीय क़द भारत भारत के वर्तमान और भविष्य को तय करते हैं। आम चुनाव के बाद जब उत्तर प्रदेश के चुनाव आते हैं तो वह भारत का भविष्य बनाते हैं। बीते आधे दशक से उत्तर प्रदेश में भगवा ही सत्ताधीश है किन्तु इसी दौरान आपदा और विपदाओं के साथ-साथ राम जन्मभूमि मुद्दा भी सुलझ गया। अब अयोध्या के राजा के तम्बू भी राजमहल में परिवर्तित होने जा रहे हैं। सरयू तो अयोध्या का चरण अभिषेक करने को आतुर रहती है और इस तरह केन्द्रीय राजनीति भी अपने भविष्य को लेकर उत्तर प्रदेश की तरफ़ अपनी उम्मीद का मुँह रखकर रणनीति और कूटनीति की बिसात जमाती है।

आगामी वर्ष में उत्तर प्रदेश में चुनाव का त्यौहार आ रहा है, इसी बीच कोरोना की भयावहता भी बरकरार रह रही है। तीसरी लहर की ललकार बनी हुई है, भयाक्रांत जनता भी सत्ता के मनोभावों को समझने के प्रयास में कुछ सुलझी-कुछ उलझी हुई सी है। एक तरफ़ योगी का सत्ता साम्राज्य है तो वहीं दूसरी तरफ़ साईकिल पर अखिलेश यादव की साईकिल यात्रा। प्रियंका और मायावती भी सत्ता को पलटने के लिए लालायित हैं। यहाँ सत्ता के साथ-साथ जनमत का परिवर्तन भी मायने रखता है। उत्तर प्रदेश का बनारस प्रधानमंत्री मोदी का संसदीय क्षेत्र बनता है और इसी के साथ, केन्द्र सरकार की निगाह भी उत्तर प्रदेश पर टिकी हुई रहती है।

कोरोना की भयावहता के प्रभाव इस बार चुनावों पर हावी रहेंगे क्योंकि ऑक्सीज़न, अस्पताल, इंजेक्शन, स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में जिन्होंने अपना कोई खोया है वो ताउम्र याद रहेगा, किसानों की बदहाली, उत्तर प्रदेश की ओर पलायन करता मज़दूर, रोज़गार के अभाव में घर बैठा नौजवान, नौकरियों की तलाश में दर-दर भटकता युवा, दम तोड़ती व्यवस्थाएँ, ऑक्सीज़न की कमी से मरने वाले बच्चे आदि सब जनता याद रखेगी। इसीलिए लगता है कि वर्तमान सत्ताधीश योगी आदित्यनाथ जनता की पीड़ा शायद समझ नहीं पाये। राजनीति का योग इस बार योगी जी के विरुद्ध ही जा रहा है क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी भी कहीं न कहीं योगीजी से ख़फ़ा-ख़फ़ा से रहने लगे हैं। कहीं न कहीं ये मणिकांचन योग ही योगी जी की सत्ता परिवर्तन का कारण न बन जाए।

बीते लगभग पाँच वर्षों का आँकलन किया जाए तो योगी आदित्यनाथ का अहम उस टकसाल की तरफ़ बढ़ रहा है, जिसके भीतर केन्द्रीय सत्ता का मोह निकलता है। इसी अति महत्त्वाकांक्षा के चलते राजनीति को साधने के लिए योगी जी जनता का तप भूल गए। चार सौ से अधिक विधानसभा सीटों पर होने वाले चुनावों में इस बार ध्रुवीकरण भी अपना प्रभाव दिखायेगा, गोरक्षपीठ के पीठाधीश्वर बनने के बाद योगी आदित्यनाथ का प्रभाव गोरखपुर क्षेत्र में तो बड़ा है किन्तु इस बार अखिलेश के साथ शरद पँवार मैदान में उतर रहे हैं और मायावती भी सोशल इंजीनियरिंग कर ब्राह्मणों को साध कर राजनैतिक वनवास को ख़त्म करने के प्रयास में लगी हुई हैं। एक तरफ़ अखिलेश जाट-मुस्लिम एकता का झण्डा उठाए राजनैतिक समीकरणों में सेंध लगाने के तैयारी कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर मायावती भी लगातार जातिगत वोटरों को एकजुट कर अपने पारम्परिक समीकरणों को छोड़कर राजनीति में एक नया समीकरण बना रही हैं। बीते दिनों पंचायत चुनावों में भाजपा प्रचंड बहुमत हासिल कर इसे विधानसभा चुनाव का सेमीफ़ाइनल बता रही है, उसी पंचायत चुनाव में तो उत्तर प्रदेश के 75 ज़िलों में से 22 ज़िलों के पंचायत अध्यक्ष पहले ही निर्विरोध निर्वाचित हो चुके थे, जिनमें 21 बीजेपी के और इटावा में समाजवादी पार्टी का एक उम्मीदवार ज़िला पंचायत अध्यक्ष बिना विरोध ही चुन लिया गया था।  इसी के साथ जिन 53 ज़िलों में चुनाव हुए, उनमें बीजेपी ने 46 सीटें जीती हैं. समाजवादी पार्टी को कुल पाँच सीटें मिली हैं जबकि रालोद और राजा भैया की पार्टी जनसत्ता दल को एक-एक सीट पर जीत हासिल हुई है। इसके साथ मज़ेदार बात तो यह भी है कि कुछ माह पहले हुए ज़िला पंचायत सदस्यों के चुनाव में ज़िलों के कुल 3052 सदस्यों में से बीजेपी के खाते में केवल 603 सदस्य ही जीते थे जबकि समाजवादी पार्टी के सदस्यों की संख्या 842 थी। सबसे ज़्यादा सीटें निर्दलीयों ने जीती थीं और ये अलग बात है कि यही निर्दलीय सदस्य ज़िला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में बीजेपी के खेवनहार बन गए।

यह सर्वविदित है कि उत्तर प्रदेश में राजनीति में पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह देश में जाट समुदाय के सबसे बड़े नेता के तौर पर जाने जाते थे। उन्होंने प्रदेश और देश की सियासत में अपनी जगह बनाने, राज करने के लिए ‘अजगर’ (अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत) और ‘मजगर’ (मुस्लिम, जाट, गुर्जर और राजपूत) फॉर्मूला बनाया था। पश्चिम उत्तर प्रदेश में इसी समीकरण के  सहारे आरएलडी हमेशा नेतृत्वकर्ता बनती रही है, लेकिन 2013 में मुज़फ़्फ़रनगर दंगे के बाद यह समीकरण भी पूरी तरह से टूट गया है और जाट और मुस्लिम दोनों ही आरएलडी से अलग हो गए, इसी कारण जयंत सिंह को हार का मुँह देखना पड़ा था। इस बार अखिलेश और जयंत साथ-साथ चुनाव लड़ने के लिए आमादा हैं और हो सकता है योगी और भाजपा के विरोध स्वरूप जनता इस बार अखिलेश का हाथ थाम ले। क्योंकि न योगी और न ही मोदी मिलकर उत्तर प्रदेश की जनता की पीर समझ पाए। विकास के मुद्दे पर चुनाव जीतने वाले दल भारतीय जनता पार्टी की सरकार असली विकास को धता बताकर केवल नाम परिवर्तन की राजनीति में उलझे हुए रहे, इसी कारण जनता अपना मत इस बार बदल दे और राजनीति की सभी गोटियाँ धरी की धरी रह जाएँ।

उत्तर प्रदेश में इस बार योगी आदित्यनाथ जनता की पीड़ा समझने में उतने कामयाब नहीं रहे, जितनी उनसे अपेक्षाएँ थीं और शायद यही कारण सत्ता परिवर्तन का भी हो। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि राम जी के तम्बुओं को राजमहल बनाने के अवदान के चलते भाजपा को जनता एक बार अवसर फिर दे दे किन्तु इसकी सम्भावना कम ही है। मानस में लिखा भी है कि ‘होइहि सोइ जो राम रचि राखा’ और उत्तर प्रदेश की जातिगत विभिन्नताओं में बँटी हुई राजनैतिक जाजम इस बार फिर एक करिश्मा करेगी। 

वृद्धों की उपेक्षा के गलत प्रवाह को रोके

विश्व वरिष्ठ नागरिक दिवस- 8 अगस्त 2021
– ललित गर्ग –

विश्व वरिष्ठ नागरिक दिवस का मनाने का मुख्य उद्देश्य संसार के बुजुर्ग लोगों को सम्मान देने के अलावा उनकी वर्तमान समस्याओं के बारे में जनमानस में जागरूकता बढ़ाना है। प्रश्न है कि दुनिया में वृद्ध दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों हुई? क्यों वृद्धों की उपेक्षा एवं प्रताड़ना की स्थितियां बनी हुई है? चिन्तन का महत्वपूर्ण पक्ष है कि वृद्धों की उपेक्षा के इस गलत प्रवाह को रोके। क्योंकि सोच के गलत प्रवाह ने न केवल वृद्धों का जीवन दुश्वार कर दिया है बल्कि आदमी-आदमी के बीच के भावात्मक फासलों को भी बढ़ा दिया है।
वृद्धावस्था जीवन की सांझ है। वस्तुतः वर्तमान के भागदौड़, आपाधापी, अर्थ प्रधानता व नवीन चिन्तन तथा मान्यताओं के युग में जिन अनेक विकृतियों, विसंगतियों व प्रतिकूलताओं ने जन्म लिया है, उन्हीं में से एक है वृद्धों की उपेक्षा। वस्तुतः वृद्धावस्था तो वैसे भी अनेक शारीरिक व्याधियों, मानसिक तनावों और अन्यान्य व्यथाओं भरा जीवन होता है और अगर उस पर परिवार के सदस्य, विशेषतः युवा परिवार के बुजुर्गों/वृद्धों को अपमानित करें, उनका ध्यान न रखें या उन्हें मानसिक संताप पहुँचाएं, तो स्वाभाविक है कि वृद्ध के लिए वृद्धावस्था अभिशाप बन जाती है। इसीलिए तो मनुस्मृति में कहा गया है कि-“जब मनुष्य यह देखे कि उसके शरीर की त्वचा शिथिल या ढीली पड़ गई है, बाल पक गए हैं, पुत्र के भी पुत्र हो गए हैं, तब उसे सांसारिक सुखों को छोड़कर वन का आश्रय ले लेना चाहिए, क्योंकि वहीं वह अपने को मोक्ष-प्राप्ति के लिए तैयार कर सकता है।”
आधुनिक जीवन की विडम्बना है कि इसमें वृद्ध अपने ही घर की दहलीज पर सहमा-सहमा खड़ा है, उसकी आंखों में भविष्य को लेकर भय है, असुरक्षा और दहशत है, दिल में अन्तहीन दर्द है। इन त्रासद एवं डरावनी स्थितियों से वृद्धों को मुक्ति दिलानी होगी। सुधार की संभावना हर समय है। हम पारिवारिक जीवन में वृद्धों को सम्मान दें, इसके लिये सही दिशा में चले, सही सोचें, सही करें। इसके लिये आज विचारक्रांति ही नहीं, बल्कि व्यक्तिक्रांति की जरूरत है। अपेक्षा इस बात की भी है कि वृद्ध भी स्वयं को आत्म-सम्मान दें। जेम्स गारफील्ड ने वृद्धों से अपेेक्षा की है कि यदि वृद्धावस्था की झुरियां पड़ती है तो उन्हें हृदय पर मत पड़पे दो। कभी भी आत्मा को वृद्ध मत होने हो।’
विश्व में इस दिवस को मनाने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु सभी का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि वे अपने बुजुर्गों के योगदान को न भूलें और उनको अकेलेपन की कमी को महसूस न होने दें। हमारा भारत तो बुजुर्गों को भगवान के रूप में मानता है। इतिहास में अनेकों ऐसे उदाहरण है कि माता-पिता की आज्ञा से भगवान श्रीराम जैसे अवतारी पुरुषों ने राजपाट त्याग कर वनों में विचरण किया, मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार ने अपने अन्धे माता-पिता को काँवड़ में बैठाकर चारधाम की यात्रा कराई। फिर क्यों आधुनिक समाज में वृद्ध माता-पिता और उनकी संतान के बीच दूरियां बढ़ती जा रही है?
हकीकत तो यह है कि वर्तमान पीढ़ी अपने आप में इतनी मस्त-व्यस्त है कि उसे वृद्धों की ओर ध्यान केन्द्रित करने की फुरसत ही नहीं है। आज परिवार के वृद्धों से कोई वार्तालाप करना, उनकी भावनाओं की कद्र करना, उनकी सुनना, कोई पसन्द ही नहीं करता है. जब वे उच्छृखल, उन्मुक्त, स्वछंद, आधुनिक व प्रगतिशील युवाओं को दिशा-निर्देशित करते हैं, टोकते हैं तो प्रत्युत्तर में उन्हें अवमानना, लताड़ और कटु शब्द भी सुनने पड़ जाते हैं। इन्हीं त्रासद स्थितियों को देखते हुए डिजरायली ने कहा था कि यौवन एक भूल है, पूर्ण मनुष्यत्व एक संघर्ष और वार्धक्य एक पश्चात्ताप।’
यथार्थ है कि पीढ़ी-अन्तराल के कारण, पश्चिमी रंग ढंग के कारण, तथाकथित आधुनिक जीवनशैली और नवीन सोच के कारण भी पुरानी और नई पीढ़ी में टकराव दृष्टिगोचर हो रहा है। आज हम बुजुर्गों एवं वृद्धों के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने के साथ-साथ समाज में उनको उचित स्थान देने की कोशिश करें ताकि उम्र के उस पड़ाव पर जब उन्हे प्यार और देखभाल की सबसे ज्यादा जरूरत होती है तो वो जिंदगी का पूरा आनंद ले सके। वृद्धों को भी अपने स्वयं के प्रति जागरूक होना होगा।
वृद्ध समाज इतना कुंठित एवं उपेक्षित क्यों है, एक अहम प्रश्न है। अपने को समाज में एक तरह से  निष्प्रयोज्य समझे जाने के कारण वह सर्वाधिक दुःखी रहता है। वृद्ध समाज को इस दुःख और संत्रास से छुटकारा दिलाने के लिये ठोस प्रयास किये जाने की बहुत आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र ने विश्व में बुजुर्गों के प्रति हो रहे दुव्र्यवहार और अन्याय को समाप्त करने के लिए और लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए अंतरराष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस मनाने का निर्णय लिया। यह सच्चाई है कि एक पेड़ जितना ज्यादा बड़ा होता है, वह उतना ही अधिक झुका हुआ होता है यानि वह उतना ही विनम्र और दूसरों को फल देने वाला होता है, यही बात समाज के उस वर्ग के साथ भी लागू होती है, जिसे आज की तथाकथित युवा तथा उच्च शिक्षा प्राप्त पीढ़ी बूढ़ा कहकर वृद्धाश्रम में छोड़ देती है।
तथाकथित व्यक्तिवादी एवं सुविधावादी सोच ने समाज की संरचना को बदसूरत बना दिया है। सब जानते हैं कि आज हर इंसान समाज में खुद को बड़ा दिखाना चाहता है और दिखावे की आड़ में बुजुर्ग लोग उसे अपनी शान-शौकत एवं सुंदरता पर एक काला दाग दिखते हैं। आज बन रहा समाज का सच डरावना एवं संवेदनहीन है। आदमी जीवनमूल्यों को खोकर आखिर कब तक धैर्य रखेगा और क्यों रखेगा जब जीवन के आसपास सबकुछ बिखरता हो, खोता हो, मिटता हो और संवेदनाशून्य होता हो। डिजरायली का मार्मिक कथन है कि यौवन एक भूल है, पूर्ण मनुष्यत्व एक संघर्ष और वार्धक्य एक पश्चाताप।’ वृद्ध जीवन को पश्चाताप का पर्याय न बनने दे।
कटू सत्य है कि वृद्धावस्था जीवन का अनिवार्य सत्य है। जो आज युवा है, वह कल बूढ़ा भी होगा ही, लेकिन समस्या की शुरुआत तब होती है, जब युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों को उपेक्षा की निगाह से देखने लगती है और उन्हें अपने बुढ़ापे और अकेलेपन से लड़ने के लिए असहाय छोड़ देती है। आज वृद्धों को अकेलापन, परिवार के सदस्यों द्वारा उपेक्षा, तिरस्कार, कटुक्तियां, घर से निकाले जाने का भय या एक छत की तलाश में इधर-उधर भटकने का गम हरदम सालता रहता। वृद्धों को लेकर जो गंभीर समस्याएं आज पैदा हुई हैं, वह अचानक ही नहीं हुई, बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति तथा महानगरीय अधुनातन बोध के तहत बदलते सामाजिक मूल्यांे, नई पीढ़ी की सोच में परिवर्तन आने, महंगाई के बढ़ने और व्यक्ति के अपने बच्चों और पत्नी तक सीमित हो जाने की प्रवृत्ति के कारण बड़े-बूढ़ों के लिए अनेक समस्याएं आ खड़ी हुई हैं। इसीलिये सिसरो ने कामना करते हुए कहा था कि जैसे मैं वृद्धावस्था के कुछ गुणों को अपने अन्दर समाविष्ट रखने वाला युवक को चाहता हूं, उतनी ही प्रसन्नता मुझे युवाकाल के गुणों से युक्त वृद्ध को देखकर भी होती है, जो इस नियम का पालन करता है, शरीर से भले वृद्ध हो जाए, किन्तु दिमाग से कभी वृद्ध नहीं हो सकता।’ वृद्ध लोगों के लिये यह जरूरी है कि वे वार्धक्य को ओढ़े नहीं, बल्कि जीएं।
एक आदर्श एवं संतुलित समाज व्यवस्था के लिये अपेक्षित है कि वृद्धों के प्रति स्वस्थ व सकारात्मक भाव व दृष्टिकोण रखे और उन्हें वेदना, कष्ट व संताप से सुरक्षित रखने हेतु सार्थक पहल करे। वास्तव में भारतीय संस्कृति तो बुजुर्गों को सदैव सिर-आँखों पर बिठाने और सम्मानित करने की सीख देती आई है। अगर परिवार के वृद्ध कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं, रुग्णावस्था में बिस्तर पर पड़े कराह रहे हैं, भरण पोषण को तरस रहे हैं, तो यह हमारे लिए लज्जा का विषय है। वृद्धों को ठुकराना, तरसाना, सताना, भत्र्सनीय भी है और अक्षम्य अपराध भी। सामाजिक मर्यादा, मानवीय उद्घोष व नैतिक मूल्य हमें वृद्धों के प्रति आदर, संवेदना व सहानुभूति-प्रदाय की शिक्षा देते हैं। यथार्थ तो यह है कि वृद्ध समाज, परिवार और राष्ट्र का गौरव है।

अन्न उत्सव बनाम अनाज बचाने का उपाय

प्रमोद भार्गव

        देश के गरीब कल्याण इतिहास में 7 अगस्त 2021 ऐतिहासिक दिन बनने जा रहा है। इस दिन नरेंद्र मोदी ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना’ के अंतर्गत ‘अन्न उत्सव’ कार्यक्रम की शुरूआत करेंगे। इसी दिन मध्य-प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान भी मध्य-प्रदेश में इस अनूठी योजना का शुभारंभ प्रधानमंत्री से आभासी रूप मंे जुड़कर करेंगे। मध्य-प्रदेश की सभी 25,434 उचित मूल्य की दुकानों पर यह कार्यक्रम सम्पन्न होगा। प्रत्येक दुकान पर 100 हितग्राहियों को राशन की सामग्री सीलबंद थैले में वितरीत की जाएगी। इस योजना के लागू होने के बाद सबसे बड़ा लाभ देश को यह होगा कि गरीब को अनाज एक तो गुणवत्ता युक्त मिलेगा, दूसरे अनाज मिलावट से मुक्त रहेगा और तीसरे अनाज का छीजन नहीं होगा। दुकानदार तौलने में जो गड़बड़ी करते थे, वह अब नहीं कर पाएंगे। नतीजतन भोजन की पौष्टिकता बनी रहेगी। बच्चे कुपोषण से बचे रहेंगे। इस प्रकार से अनाज के वितरण में निरंतरता बनी रहती है तो हम यजुर्वेद के उस मंत्र को साकार रूप में बदलने में सफल होंगे जो भोजन और ऊर्जा के बीच अंतरसंबंध की व्याख्या करता है। शरीर को जिंदा रहने के लिए आहार की और आत्मा को अच्छे विचारों की जरूरत पड़ती है, जो शुद्ध और सात्विक भोजन से ही संभव है।

ऊॅ यन्तु नद्यौ वर्षन्तु पर्जन्या सुपिप्पला ओषधयो भवन्तु

अन्नवताम मोदनवताम मामिक्षगमयति एषाम राजा भूयासम्।

ओदनम् मुद्रवते परमेष्ठी वा एषः यदोदनः, पमावैनं श्रियं गमयति।

यजुर्वेद में दिए इस मंत्र का अर्थ है, ‘हे ईश्वर बादल पानी बरसाते रहें और नदियां बहती रहें। औषधीय वृक्ष फलें-फूलें और सभी वृक्ष फलदायी हों। मुझे अन्न और दुग्ध उत्पादन करने वालो ंसे लाभ प्राप्त हो और ऐसी धरती का मैं राजा बनूं। हे ईश्वर थाली रखा हुआ भोजन आपके द्वारा दिया प्रसाद है। यह मुझे स्वस्थ और समृद्ध बनाए रखेगा।’ साफ है राजा प्रकृति और अन्नदाता से उत्तम भोजन की सामग्री देते रहने की प्रार्थना कर रहा है। मोदी देश में शिवराज .प्रदेश में अन्न की सुरक्षा से जुड़े इसी तरह के उपायों को इस योजना के जरिए बल दे रहे हैं। इस योजना के शुरू हो जाने से देशभर के 80 करोड़ उन लोगों को लाभ मिलेगा, जो 2 रुपए किलो गेहूं और 3 रुपए किलो चावल सरकारी उचित मूल्य की दुकानों से प्राप्त कर रहे हैं। ये देश की आबादी के 67 प्रतिशत लोग हैं। हालांकि गरीबों को खाद्य सुरक्षा कानून को वजूद में लाकर यह सुविधा पूरे देश में लागू है। लेकिन इस सस्ते अनाज में मिलावट और कम तौले जाने की शिकायतें लगातार मिल रही थीं। कभी-कभी सड़ा और खराब अनाज देने की शिकायतें भी अखबारों की सुर्खियों में रही हैं। चूंकि अब बंद थैले में अनाज दिया जाएगा, इसलिए यह सुविधा इस कानून का उज्जवल पक्ष है। इसके दायरे में शहरों में रहने वाले 50 प्रतिशत और गांवों में रहने वाले 75 फीसदी लोग आएंगे।

देश में किसानों की मेहनत और जैविक व पारंपारिक खेती को मध्य-प्रदेश सरकार द्वारा बढ़ावा देने के उपायों के चलते कृषि पैदावार लगातार बढ़ रही है। अब तक हरियाणा और पंजाब ही गेहूं उत्पादन में अग्रणी प्रदेश माने जाते थे, लेकिन अब मध्य-प्रदेश, बिहार, उत्तर-प्रदेश और राजस्थान में भी गेहूं की रिकार्ड पैदावार हो रही है। इसमें धान, गेहूं, मक्का, ज्वार, दालें और मोटे अनाज व तिलहन शामिल हैं। इस पैदावार को 2020-21 तक 28 करोड़ टन पहुंचाने का सरकारी लक्ष्य रखा गया था, लेकिन यह लक्ष्य 2019-20 में ही अनाज का उत्पादन 29.19 करोड़ टन करके पूरा कर लिया। यह अनाज देश की आबादी की जरूअत से 7 करोड़ टन ज्यादा है। 2020-21 में 350 मिलियन टन किसान ने अनाज उत्पादन कर कोरोना काल में देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती दी है। आर्थिक उदारीकरण अर्थात पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की पोल कोरोना काल में खुल गई है, जबकी देश यदि इस कालखंड में भोजन से मुक्त रहा है तो यह खेती-किसानी की ही देने है। साफ है, देश की ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्था को तरल बनाए रखने के साथ देश की पूरी आबादी का पेट भरने का इंतजाम भी देश के अन्नदाता ने किया है।  मध्य-प्रदेश सरकार लगातार, भारत सरकार द्वारा रिकॉर्ड अनाज उत्पादन के क्षेत्र में कृषिकर्मण पुरस्कार प्राप्त कर रही है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था और किसान को इसलिए भी बढ़ावा देने की जरूरत है, क्योंकि देश से किए जाने वाले कुल निर्यात में 70 प्रतिशत भागीदारी केवल कृषि उत्पादों की है। यानी सबसे ज्यादा विदेशी मुद्रा कृषि उपज निर्यात करके मिलती है। सकल घरेलू उत्पाद दर में भी कृषि का 45 प्रतिशत योगदान है। जिन 80 करोड़ लोगों को कल्याणकारी योजनाओं के अंतर्गत सस्ता अनाज व अन्य लाभ दिए जाते हैं, खेती-किसानी, दूध और मांस उत्पादन में श्रमिक के रूप में बड़ी भागीदारी करते हैं। इसलिए सस्ता अनाज सुरक्षित रूप में इन तक पहुंचाने में बंद थैले की योजना अत्यंत लाभकारी सिद्ध होगी।

        भारतीय अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में अमत्र्य सेन और अभिजीत बनर्जी सहित थॉमस पिकेटी दावा करते रहे हैं, कि कोरोना से ठप हुई ग्रामीण भारत पर जबरदस्त अर्थ-संकट गहराएगा। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 2017-18 के निष्कर्ष ने भी कहा था कि 2012 से 2018 के बीच एक ग्रामीण का खर्च 1430 रुपए से घटकर 1304 रुपए हो गया है, जबकि इसी समय में एक शहरी का खर्च 2630 रुपए से बढ़कर 3155 रुपए हुआ है। अर्थशास्त्र के सामान्य सिद्धांत में यही परिभाषित है कि किसी भी प्राकृतिक आपदा में गरीब आदमी को ही सबसे ज्यादा संकट झेलना होता है। लेकिन इस कोरोना संकट में पहली बार देखने में आया है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के पैरोकार रहे बड़े और मध्ययम उद्योगों में काम करने वाले कर्मचारी न केवल आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं, बल्कि उनके समक्ष रोजगार का संकट भी पैदा हुआ है। लेकिन बीते दो कोरोना कालों में खेती-किसानी से जुड़ी उपलब्धियों का मूल्यांकन करें तो पता चलता है कि देश को कोरोना संकट से केवल किसान और पशु-पालकों ने ही उबारे रखने का काम किया है। फसल, दूध और मछली पालकों का ही करिश्मा है कि पूरे देश में कहीं भी खाद्यान्न संकट पैदा नहीं हुआ। यही नहीं जो प्रवासी मजदूर ग्रामों की ओर लौटे उनके लिए मुफ्त भोजन की व्यवस्था का काम भी गांव-गांव किसान व ग्रामीणों ने ही किया। वे ऐसा इसलिए कर पाए, क्योंकि उनके घरों में अन्न के भंडार भरपूर थे।

नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में न्यूनतम समर्थन मूल्य में भारी वृद्धि की थी, इसी क्रम में ‘प्रधानमंत्री अन्नदाता आय सरंक्षण नीति’ लाई गई थी। तब इस योजना को अमल में लाने के लिए अंतरिम बजट में 75,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था। इसके तहत दो हेक्टेयर या पांच एकड़ से कम भूमि वाले किसानों को हर साल तीन किश्तों में कुल 6000 रुपए देना शुरू किए गए थे। इसके दायरे में 14.5 करोड़ किसानों को लाभ मिल रहा है। जाहिर है, किसान की आमदनी दोगुनी करने का यह बेहतर उपाय है। यदि फसल बीमा का समय पर भुगतान, आसान कृषि ऋण और बिजली की उपलब्धता तय कर दी जाती है तो भविष्य में किसान की आमदनी दूनी होने में कोई संदेह नहीं रह जाएगा। ऐसा होता है तो किसान और किसानी से जुड़े मजदूरों का पलायन रुकेगा और खेती 70 फीसदी ग्रामीण आबादी के रोजगार का जरिया बनी रहेगी। गोया, बंद थैलों में गरीबों तक अनाज पहुंचाने का उपाय खेती-किसानी, दुग्ध पालकों और मांस उत्पादकों के श्रम से जुड़े मजदूरों को भविष्य में बड़ा सहारा बनेगी।

प्रमोद भार्गव

आदिवासी अपनी संस्कृति के प्रति उदासीन क्यों?

अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस 9 अगस्त 2021 पर विशेषः

-ः ललित गर्ग :-

अन्तरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस, विश्व में रहने आदिवासी लोगों के मूलभूत अधिकारों (जल, जंगल, जमीन) को बढ़ावा देने और उनकी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और न्यायिक सुरक्षा के लिए प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को मनाया जाता है। यह दिवस उन उपलब्धियों और योगदानों को भी स्वीकार करता है जो मूल निवासी लोग पर्यावरण संरक्षण, आजादी, महा आंदोलनों, जैसे विश्व के मुद्दों को बेहतर बनाने के लिए करते हैं। यह पहली बार संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा दिसंबर 1994 में घोषित किया गया था।
‘विश्व आदिवासी दिवस‘ अर्थात विश्व की सभी जनजातियों यानी आदिवासियों का दिवस। आदिवासी अर्थात जो प्रारंभ से यहां रहता आया है। करीब 400 पीढ़ियों पूर्व सभी भारतीय वन में ही रहते थे और वे आदिवसी थे परंतु विकासक्रम के चलते पहले ग्राम बने फिर कस्बे और अंत में नगर, महानगर। यही से विभाजन होना प्रारंभ हुआ। जो वन में रह गए वे वनावासी, जो गांव में रह गए वे ग्रामवासी और जो नगर में चले गए वे नगरवासी कहलाने लगे। भारत में लगभग 25 प्रतिशत बन क्षेत्र है, इसके अधिकांश हिस्से में आदिवासी समुदाय रहता है। लगभग नब्बे प्रतिशत खनिज सम्पदा, प्रमुख औषधियां एवं मूल्यवान खाद्य पदार्थ इन्हीं आदिवासी क्षेत्रों में हैं। भारत में कुल आबादी का लगभग 11 प्रतिशत आदिवासी समाज है।
स्वतंत्रता आन्दोलन में आदिवासी समाज की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आज भी जब भी जरूरत होती है, यह समाज देश के लिये हर तरह का बलिदान देने को तत्पर रहता है। फिर क्या कारण है कि इस जीवंत एवं मुख्य समाज को देश की मूल धारा से काटने के प्रयास निरन्तर किये जा रहे हैं। आजादी के बाद बनी सभी सरकारों ने इस समाज की उपेक्षा की है। यही कारण है कि यह समाज अनेक समस्याओं से घिरा है। अन्तर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस मनाते हुए हमें आदिवासी समाज के अस्तित्व एवं अस्मिता को धुंधलाने के प्रयासों को नियंत्रित करने पर चिन्तन करना होगा। क्योंकि यह दिवस पूरी दुनिया में आदिवासी जन-जीवन को समर्पित किया गया है, ताकि आदिवासियों के उन्नत, स्वस्थ, समतामूलक एवं खुशहाल जीवन की नयी पगडंडी बने, विचार-चर्चाएं आयोजित हो, सरकारें भी सक्रिय होकर आदिवासी कल्याण की योजनाओं को लागू करें। इस दिवस को आयोजित करने की आवश्यकता इसलिये पड़ी कि आज भी आदिवासी लोग दुनियाभर में उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं, उनको उचित सम्मान एवं उन्नत जीवन नहीं मिल पा रहा है।
 वर्तमान दौर की एक बहुत बड़ी विडम्बना है कि आदिवासी समाज की आज कई समस्यायें से घिरा है। हजारों वर्षों से जंगलों और पहाड़ी इलाकों में रहने वाले आदिवासियों को हमेशा से दबाया और कुचला जाता रहा है जिससे उनकी जिन्दगी अभावग्रस्त ही रही है। केंद्र सरकार आदिवासियों के नाम पर हर साल हजारों करोड़ों रुपए का प्रावधान बजट में करती है। इसके बाद भी उनकी आर्थिक स्थिति, जीवन स्तर में कोई बदलाव नहीं आया है। स्वास्थ्य सुविधाएं, पीने का साफ पानी आदि मूलभूत सुविधाओं के लिए वे आज भी तरस रहे हैं। जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ने वाले आदिवासियों को अपनी भूमि से बहुत लगाव होता है, उनकी जमीन बहुत उपजाऊ होती हंै, उनकी माटी एक तरह से सोना उगलती है।
जनसंख्या वृद्धि के कारण भूमि की मांग में वृद्धि हुई है। इसीलिये आदिवासी क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों एवं उनकी जमीन पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की नजर है। कम्पनियों ने आदिवासी क्षेत्रों में घुसपैठ की है जिससे भूमि अधिग्रहण काफी हुआ है। आदिवासियों की जमीन पर अब वे खुद मकान बना कर रह रहे हैं, बड़े कारखाने एवं उद्योग स्थापित कर रहे हैं, कृषि के साथ-साथ वे यहाँ व्यवसाय भी कर रहे हैं। भूमि हस्तांतरण एक मुख्य कारण है जिससे आज आदिवासियों की आर्थिक स्थिति दयनीय हुई है। माना जाता है कि यही कंपनियां आदिवासी क्षेत्रों में युवाओं को तरह-तरह के प्रलोभन लेकर उन्हें गुमराह कर रही है, अपनी जड़ों से कटने को विवश कर रही है। उनका धर्मान्तरण किया जा रहा है। उन्हें राष्ट्र-विरोधी हरकतों के लिये उकसाया जाता है।
तथाकथित राजनीतिक एवं आर्थिक स्थितियां आदिवासी समाज के अस्तित्व और उनकी पहचान के लिए खतरा बनती जा रही है। आज बड़े ही सूक्ष्म तरीके से इनकी पहचान मिटाने की व्यापक साजिश चल रही है। कतिपय राजनीतिक दल उन्हें वोट बैंक मानती है। वे भी उनको ठगने की कोशिश लगातार कर रही है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज भी विमुक्त, भटकी बंजारा जातियों की जनगणना नहीं की जाती है। तर्क यह दिया जाता है कि वे सदैव एक स्थान पर नहीं रहते। आदिवासियों की ऐसी स्थिति तब है जबकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आदिवासी को भारत का मूल निवासी माना है लेकिन आज वे अपने ही देश में परायापन, तिरस्कार, शोषण, अत्याचार, धर्मान्तरण, अशिक्षा, साम्प्रदायिकता और सामाजिक एवं प्रशासनिक दुर्दशा के शिकार हो रहे हैं।
आदिवासी समाज की मानवीय गरिमा को प्रतिदिन तार-तार किया जा रहा है। हजारों आदिवासी दिल्ली या अन्य जगहों पर रोजगार के लिए बरसों से आते-जाते हैं पर उनका आंकड़ा भी जनगणना में शामिल नहीं किया जाता है, न ही उनके राशन कार्ड बनते हैं और न ही वे कहीं के वोटर होते हैं। अर्थात इन्हें भारतीय नागरिकता से भी वंचित रखा जाता है। आदिवासियों की जमीन तो छीनी ही गई उनके जंगल के अधिकार भी छिने गए। इतना ही नहीं उन्हें मूल लोकतांत्रिक अधिकार देश की नागरिकता से भी वंचित किया जा रहा है। गुजरात, मध्यप्रदेश, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओडिशा राज्यों में आदिवासी प्रतिशत किसी भी अन्य राज्य की तुलना में सबसे बड़ी राजनीतिक इकाई है। इसलिये इन राज्यों में आदिवासी का कन्वर्जन कराया जा रहा है, ताकि राजनीतिक लाभ उठाया जा सके।
आदिवासियों के लिए ऋणग्रस्तता की समस्या सबसे जटिल है जिसके कारण जनजातीय लोग साहूकारों के शोषण का शिकार होते हैं। आदिवासी लोग अपनी गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी तथा अपने दयनीय आर्थिक स्थिति के कारण ऋण लेने को मजबूर होते हैं, जिसके कारण दूसरे लोग इनका फायदा उठाते हैं। किस तरह ठेकेदारों तथा अन्य लोगों से सीधे संपर्क के कारण समस्त भारतीय जनजातीय जनसंख्या ऋण के बोझ से दबी हुई है। देश में ‘गरीबी हटाओ’ जैसे कार्यक्रम भी बने, मगर उसका क्रियान्वयन ठीक से नहीं हो पाया। केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने भी गरीबी कम करने के लिए कई योजनाएं चलाई किन्तु उसे भी पूर्ण रूप नहीं दिया जा सका। साथ ही आदिवासियों से जंगलों के वन-उत्पाद संबंधित उनके परम्परागत अधिकार पूरी तरह से छिन लिए गए। आदिवासी समाज से कटकर भारत के विकास की कल्पना करना अंधेरे में तीर चलाने जैसा होगा।
एक साजिश के तहत गैर आदिवासी को आदिवासी बनाने से भी अनेक समस्याएं खड़ी हुई है। इससे उनकी भाषा भी छिन रही है क्योंकि उनकी भाषा समझने वाला अब कोई नहीं है। जिन लोगों की भाषा छिन जाती है उनकी संस्कृति भी नहीं बच पाती। उनके नृत्य को अन्य लोगों द्वारा अजीब नजरों से देखे जाते हैं इसलिए वे भी सीमित होते जा रहे हैं। जहां उनका ‘सरना’ नहीं है वहां उन पर नए-नए भगवान थोपे जा रहे हैं। उनकी संस्कृति या तो हड़पी जा रही है या मिटाई जा रही है। हर धर्म अपना-अपना भगवान उन्हें थमाने को आतुर है।
गुजरात में आदिवासी जनजीवन के उत्थान और उन्नयन के लिय आदिवासी माटी में जन्मे जैन संत गणि राजेन्द्र विजयजी लम्बे समय से प्रयासरत है और विशेषतः आदिवासी जनजीवन को उन्नत बनाने, उन क्षेत्रों में शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, संस्कृति-विकास की योजनाओं लागू करने के लिये उनके द्वारा प्रयास किये जा रहे हैं, इसके लिये उन्होंने सुखी परिवार अभियान के अन्तर्गत अनेक स्तरों पर प्रयास किये हैं। वे रोजगार की दृष्टि से इसी क्षेत्र में व्यापक संभावनाओं को तलाश रहे है। शिक्षा के साथ-साथ नशामुक्ति एवं रूढ़ि उन्मूलन की अलख जगा रहे हैं। पढ़ने की रूचि जागृत करने के साथ-साथ आदिवासी जनजीवन के मन में अहिंसा, नैतिकता एवं मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था जगाना उनका ध्येय है। हर आदिवासी अपने अन्दर झांके और अपना स्वयं का निरीक्षण करे।
आज आदिवासी समाज इसलिए खतरे में नहीं है कि सरकारों की उपेक्षाएं बढ़ रही है बल्कि उपेक्षापूर्ण स्थितियां सदैव रही है- कभी कम और कभी ज्यादा। सबसे खतरे वाली बात यह है कि आदिवासी समाज की अपनी ही संस्कृति एवं जीवनशैली के प्रति आस्था कम होती जा रही है। अन्तराष्ट्रीय आदिवासी दिवस मनाने की सार्थकता तभी है जब हम इस जीवंत समाज को उसी के परिवेश में उन्नति के नये शिखर दें। इस दृष्टि से प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नये भारत की परिकल्पना को आदिवासी समाज बहुत ही आशाभरी नजरों से देख रहा है।

जीत नहीं तो क्या हुआ, जीत से बढ़कर ये हार है…

हारीं तुम नहीं चन्द्रिके,
हारा वो हर शख्श है,
जिसने सदा तुम्हें टोका
बढ़ते कदमों को पीछे मोड़ा,
प्रगति पथ पर बन कर रोड़ा।

जमाना औरों के लिए सुखदायी था,
पर तुम्हारे लिए ये सदा खराब रहा,
हल्की सी हंसी भी, तीर ज्यों चुभी
सांस भी सोच समझकर लिया,क्योंकि,
भले घर का मेडल, तुम्हारे ही नाम रहा।

वक्त न कभी बुरा था, न कभी होगा,
वक्त को पार, सदा वक्त ने ही किया है,
कमी तुम में न थी, न कभी होगी
कमी सोच में थी, जो पहचान गए,
तभी तो आज दिल से सलाम किया है।

आसान नहीं, गिरि शिखर को पाना,
सहज नही, समुंद्र को पार जाना,
ये देश तुम्हारे आंसुओं से स्तब्ध है,
सौ दरवाजे पार कर, मिला ‘नवीन’ ये उपहार है,
जीत नहीं तो क्या हुआ, जीत से बढ़कर ये हार है।

– सुशील कुमार ‘नवीन’

जेवलिन थ्रोअर नीरज चौपडा ने किया कमाल

भगवत कौशिक – पिछले 121 साल से एथलेटिक्स मे मैडल का सपना देख रहे भारतवासियों के लिए शनिवार का दिन दिवाली से कम नहीं रहा । जेवलिन थ्रोअर नीरज चोपड़ा ने भारत को एथलेटिक्स स्पोर्ट्स 121 साल बाद भारत को  गोल्ड मेडल दिलाया। उन्होंने फाइनल में 87.58 मीटर के बेस्ट थ्रो के साथ गोल्ड मेडल अपने नाम किया। नीरज ने पहले अटैम्प्ट में 87.03 मीटर और दूसरे अटैम्प्ट में 87.58 मीटर दूर भाला फेंका था। तीसरे अटैम्प्ट में उन्होंने 76.79 मीटर, चौथे और 5वें में फाउल और छठे अटैम्प्ट में 80 मीटर से ज्यादा थ्रो किया।
86.67 मीटर थ्रो के साथ चेक के जाकुब वेदलेच दूसरे नंबर पर रहे। वहीं 85.44 मीटर के थ्रो के साथ चेक के वितेस्लाव वेसेली तीसरे नंबर पर रहे। नीरज ने क्वालिफाइंग राउंड में 86.65 मीटर थ्रो किया था और अपने ग्रुप में पहले नंबर पर रहे थे। भारत का यह अब तक का सबसे सफल ओलिंपिक बन गया है। भारत ने इसमें 1 गोल्ड, 2 सिल्वर और 4 ब्रॉन्ज समेत कुल 7 मेडल जीते। 2012 लंदन ओलिंपिक में 6 मेडल जीते थे।
ओलंपिक मे 13 साल बाद भारत को गोल्ड
ओलिंपिक गेम्स में 13 साल बाद भारत को किसी इवेंट में गोल्ड मेडल मिला है। इससे पहले 2008 में बीजिंग ओलिंपिक निशानेबाज अभिनव बिंद्रा ने गोल्ड जीता था। बिंद्रा ने 10 मीटर एयर राइफल इवेंट का गोल्ड अपने नाम किया था।
भारत ने जीते है अभी तक ओलंपिक मे 10 गोल्ड मेडल
ओलिंपिक गेम्स में भारत ने अब तक 10 गोल्ड मेडल जीते है जिसमे से 8 गोल्ड मेडल हाकी मे, 1 गोल्ड मेडल शूटिंग मे तथा 1 गोल्ड मैडल आज एथलेटिक्स मे जीता है। इस तरह भारत का यह सिर्फ दूसरा इंडिविजुअल गोल्ड मेडल भी है।
भारत के लिए अब तक का सबसे सफल ओलिंपिक
टोक्यो ओलंपिक भारत के लिए अब तक का सबसे सफल ओलंपिक बन गया है। लंदन ओलिंपिक में भारत ने 6 मेडल जीते थे। टोक्यो ओलिंपिक में भारत ने 7 मेडल जीत लिए हैं। नीरज के गोल्ड के अलावा मीराबाई चानू ने वेटलिफ्टिंग में सिल्वर, पीवी सिंधु ने बैडमिंटन में ब्रॉन्ज और लवलिना बोरगोहेन ने बॉक्सिंग में ब्रॉन्ज मेडल जीता है। इसके अलावा भारतीय पुरुष हॉकी टीम ने ब्रॉन्ज और कुश्ती में रवि दहिया ने सिल्वर मेडल जीता। वहीं बजरंग ने शनिवार को ब्रॉन्ज मेडल जीता।

खाली हाथ!


ममता बनर्जी पांच दिनों तक दिल्ली प्रवास पर रही पर उन्हे मुख्य विपक्षीदल कांग्रेस से कोई भाव नहीं मिला। शरद पवार ने तो मिलने से ही कन्नी काट ली। ममता जिन विपक्षी नेताओं से मिली उनमें २०२४ के चुनाव में भाजपा को पटखनी देना तो दूर भाजपा का बाल भी बांका करने की दम नहीं है।
किसान नेता राकेश टिकैत जो ममता के समर्थन में पश्चिम बंगाल तक जा पहुंचे थे उन्हे ममता ने दिल्ली आकर भी घास तक नहीं डाला।
अलवत्ता दीदी १६ अगस्त को देशभर में ‘खेला होबे दिवसÓ मनाने का ऐलान जरूर कर गई।
पश्चिम बंगाल में प्रचंड बहुमत से तीसरी बार सरकार बनाने में सफ ल रहने वाली तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी २६ जुलाई से २९ जुलाई तक दिल्ली प्रवास पर रही। दिल्ली में ५ दिन रूकने का उनका मकसद विपक्षीदलों को एककर २०२४ के आम चुनाव में भाजपा को सत्ता से उखाड़ फेंकने की ठोस शुरूआत करने की थी। पर हालात बताते हैं कि इस दिशा में उन्हे कुछ भी हाथ नहीं लगा।
अंतत: वो १६ अगस्त को देशभर में ‘खेला होबे दिवसÓ मनाने का शिगूफ छोड़कर कोलकाता वापस लौट गई।
राजनीतिक समीक्षकों का कहना है कि पश्चिम बंगाल में तीसरी बार सरकार बनाने के बाद पहली बार लम्बे दौरे पर दिल्ली जिस मकसद से दीदी आई थी वो न केवल बुरी तरह असफ ल दिखा वरन् उन्हे भविष्य का आइना भी दिखा गया। उन्हे उम्मीद थी कि पश्चिम बंगाल में तीसरी बार सरकार बना लेने व भाजपा को पटखनी देने में सफ लता के बाद कांग्रेस सहित सभी विपक्षीदल उन्हे हाथोंहाथ लेगें पर जब वो पांच दिन में बामुश्किल केवल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी व डीएमके नेताओं से ही मिल सकी तो उन्हे भी समझ में आ गया होगा कि भाजपा के खिलाफ  विपक्षी एकता इतनी आसान नहीं है। और यह भी भान हो गया होगा कि कदाचित कोई भी मजबूत दल उन्हे विपक्षी गठबंधन का अगुवा व नेता स्वीकारने को भी तैयार नहीं है।
ममता दीदी को अच्छी तरह पता है कि भाजपा के विरूद्ध विपक्षी एकता तब तक सार्थक सिद्ध होने वाली नहीं है जब तक कांग्रेस का समर्थन नहीं हासिल होगा। इसके लिये उन्होने सोनिया गांधी से मिलने के पहले ताना-बाना भी बुना था। उन्होने एक पत्रकार वार्ता कर भाजपा नीत केन्द्र सरकार व भाजपा पार्टी पर तीखे हमले बोले। उन्होने भाजपा के चुनावी नारे पर कटाक्ष करते हुये कहा कि बहुत हुये अच्छे दिन अब सच्चा दिन देखना चाहती हूँ।
उन्होने भाजपा को रोकने के लिये विपक्ष का चेहरा बनाये जाने के मुद्दे पर मिली जुली प्रतिक्रिया दी। जब उनसे पूछा गया कि आप क्या विपक्ष का चेहरा बनना चाहती हैं? ममता ने कहा मै कोई राजनीतिक भविष्य वक्ता नहीं हूँ यह परिस्थिति, संरचना पर निर्भर करता है। अगर कोई और नेतृत्व करता है तो मुझे समस्या नहीं। जब इस मुद्दे पर चर्चा होगी तब हम निर्णय ले सकते हैं। मै अपना निर्णय किसी पर थोप नहीं सकती।
सूत्रों का कहना है कि सुबह पत्रकार वार्ता करने के बाद शाम को सोनिया गांधी से उनके आवास पर मिली ममता बनर्जी का जिस अनमने ढंग से सोनिया व राहुल गांधी ने स्वागत किया उससे ही दीदी का दिमाग घूम गया। किसी तरह चाय पर इधर उधर चर्चा करने के बाद जब ममता दीदी बाहर निकली तो सोनिया, राहुल ने उन्हे बाहर तक छोड़ने की बजाय घर की चौखट से ही बाय-बाय कर दिया। तिलमिलाई दीदी करती भी क्या? इसलिये उन्होने एक बार पुन: विपक्षी एकता राग अलापा। पत्रकारों के बार-बार यह पूछने पर कि सोनिया गांधी विपक्षी एकता के लिये तैयार है अथवा विरोधी दल का नेता क्या आप बनेगी या कोई और? तो ममता दीदी ने कहा उनकी सोनिया जी से मौजूदा हालात और विपक्ष की एकजुटता पर चर्चा हुई। उन्होने कहा सबको एक होना होगा। विपक्षी एकता में उनकी क्या भूमिका होगी इस सवाल पर ममता ने कहा हम लीडर नहीं कैडर है। ममता ने कहा अभी कई राज्यों में विधान सभा चुनाव होने वाले है। हम संसद सत्र के बाद सभी राजनीतिक दलों के साथ मिलकर बात करेंगे। उन्होने कहा कि अगर विपक्षी मोर्चे पर गंभीर होकर काम करते है तो छ: महीने में नतीजे दिख सकते हैं।
राजनीतिक विश£ेषकों का कहना है कि ममता दीदी को सबसे बड़ा झटका राकांपा प्रमुख शरद पवार से लगा जब दिल्ली में रहते हुये भी उन्होने ममता से मिलने से कन्नी काटी। जबकि इसी बीच श्री पवार राजद नेता लालू प्रसाद यादव व सपा नेता रामगोपाल यादव से मुलाकात की थी। ऐसे में केजरीवाल (आम आदमी पार्टी) अथवा कनिमोझी (डीएमके) से मिलने से उन्हे क्या हासिल होगा वो अच्छी तरह जानती है।
यहां पर स्मरण कराना जरूरी है कि कुछ दिनों पहले ही श्री पवार के घर पर ही १४ विपक्षीदलों की एक बैठक हुई थी और यह बैठक तृणमूल प्रमुख ममता के नये मित्र बने कभी भाजपा के खास रहे पूर्व केन्द्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा के राष्ट्रमंच के नाम पर हुई थी। तो आखिर ऐसा क्या हो गया कि श्री पवार ममता दीदी से नहीं मिले।
समझा जाता है कि श्री पवार को अच्छी तरह मालूम है कि कांग्रेस कभी भी ममता बनर्जी को विपक्षी एकता का सूत्रधार व नेता स्वीकार नहीं करेगी। उन्हे यह भी पता है कि ममता दीदी की पार्टी केवल और केवल क्षेत्रीय पार्टी है फि र जिस तरह उनका केन्द्र सरकार से आज तक टकराव जारी है और जिस तरह केन्द्र सरकार की जांच एजेन्सियां उनकी पार्टी के कई नेताओं की कारगुजारियों पर शिंकजा कसने में जुटी हैं उससे उनका बच पाना आसान नहीं है।
राजनीति के घाघ खिलाड़ी श्री पवार जानते है कि केन्द्र सरकार से टकराव लेना उनके हित में भी नहीं है। जिस तरह केन्द्र सरकार ने अलग से सहकारिता मंत्रालय बनाकर उसकी जिम्मेदारी अमित शाह को सौपी है वो कम से कम उनके व उनके जैसे सहकारिता के माफियाओं के लिये किसी गंभीर खतरें के संकेत से कम नहीं है।
कौन नहीं जानता कि महाराष्ट्र में पवार जैसे अनेक राजनेताओं की राजनीति सहकारिता के बलबूते ही जमी हुई है।
सूत्रों का कहना है कि श्री पवार की जाने भी दें तो आखिर ममता बनर्जी से सपा, बसपा, बीजू जनता दल, वाईआरएस एवं टीआरएस जैसे क्षेत्रीय दलों के नेता भी क्यों नहीं मिले। इस सवाल का जवाब भी ममता बनर्जी को ही ढूंढना होगा।
राजनीतिक समीक्षकों का कहना है कि चौंकाने वाली बात तो यह है ममता दीदी ने उन किसान नेता राकेश टिकैत से मिलना गवारा नहीं किया जो टिकैत पश्चिम बंगाल में चुनाव के दौरान उनके समर्थन में कोलकाता में डेरा डाले हुये थे।
यही नहीं टिकैत  २०२२ के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में भाजपा को हराने का बार-बार ऐलान भी कर रहे है और ममता बनर्जी का भी यही लक्ष्य है तो भी टिकैट से उनका परामर्श छोड़ मिलने तक गंवारा न करना संदेह तो पैदा करता ही है।
सूत्रों के अनुसार लब्बोलुआब यह है कि ममता बनर्जी का विपक्षी एकता का पहला प्रयास कतई असफ ल व निराश करने वाला ही रहा है। भविष्य में क्या गुल खिलेगा यह तो भविष्य ही बतायेगा पर आसार अच्छे नजर नहीं आते।
 
खेला होबे दिवस मनाने का ऐलान
दिल्ली दौरे से जब ममता दीदी को कोई खास सफ लता  नहीं मिली और भविष्य भी दमदार नजर नहीं आया तो उन्होने १६ अगस्त को देशभर में खेला होबे दिवस मनाने का ऐलान करके कांग्रेस सहित अन्य विपक्षीदलों को यह संदेश देना चाहा है कि वो केन्द्र सरकार व भाजपा से टक्कर लेने में पीछे हटने वाली नहीं है।
ममता का कहना है कि जब तक भाजपा पूरे देश से साफ नहीं हो जाती, तब तक सभी राज्यों में खेला होगा। बीजेपी को देश से खदेड़ने तक खेला चलता रहेगा।
ममता बनर्जी कह रही है कि बीजेपी को देश से खदेड़े बिना लोकतंत्र को बचाना मुश्किल होगा। हमने बंगाल में एक बार खेला दिखा दिया है। अब देश भर में फिर से भगवा पार्टी को खेला दिखाएंगे। 16 अगस्त को हम खेला होबे दिवस मनाएंगे।
बुध को हैलो हाय, गुरू को खंजर
कांग्रेस एवं सोनिया गांधी तो उसी दिन से ममता बनर्जी से अति कुपित व सावधान रहने लगी थी जिस दिन से उन्होने कांग्रेस छोड़कर अपनी नई पार्टी टीएमसी बना ली थी। तब से भले ही शिष्टचारवश वो दीदी से मिलती रही हैं पर दीदी से दिल नहीं मिला पाई हैं।
आखिर मैडम सोनिया, दीदी ममता पर भरोसा करें भी तो कैसे करें। अतीत की जाने भी दें तो ताजी घटना ने उन्हे झकझोर कर रख दिया है।
बुधवार को जब ममता बनर्जी दिल्ली में सोनिया गांधी के घर पर चाय पर चर्चा कर रही थी तो त्रिपुरा में उनके रणनीतिकार कांग्रेस को बड़ा झटका देने की तैयारी में मशगूल थे। आखिर गुरूवार को त्रिपुरा में दीदी ने बड़ा खेला कर ही डाला। त्रिपुरा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सुबल भौमित का सहित कई कांग्रेस नेताओं ने टीएमसी का दामन थाम लिया।
ज्ञात रहे अगले साल त्रिपुरा में विधान सभा चुनाव होने वाले है और दीदी की निगाहें त्रिपुरा पर लग गई हैं। बंगाल में प्रचंड जीत के बाद अब वह हर हाल में त्रिपुरा में टीएमसी की सरकार बनाने का हर दांव चल रही हैं।
इस घटना के बाद से कांग्रेस आलाकमान और सतर्क हो गई हंै। उन्होने राहुल गांधी, प्रियंका गांधी व अन्य वरिष्ठ सहयोगियों से चर्चा के बाद तय कर लिया है कि कांग्रेस कीे टीएमसी से दूरी बनाकर चलने में ही भलाई है। 

औछी मानसिकता का परिणाम है खिलाड़ी की जाति खोजना…

जाति है कि आख़िर जाती क्यों नहीं? 

देश की राजनीति में जातिवाद का जहर किसी से छिपा नही है। लेकिन जब यही जातिवाद का जहर खेलों और खिलाड़ियों के लिए भी शुरू हो जाए तो कई सवाल खड़े होते हैं। जब भी खिलाड़ी अपने बेहतर खेल प्रदर्शन से देश का मान बढ़ाते हैं। फ़िर लोग उनके खेल प्रदर्शन की चर्चा न करके उनकी जातियां जानने में दिलचस्पी लेते है। सोचिए यह कितने दुर्भाग्य की बात है।  जब खिलाड़ी आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहे होते है तब कोई उनकी जाति नहीं पूछता। उनका मज़हब नहीं जानना चाहता और न ही कोई दल उनकी सुध लेता है, लेकिन जैसे ही कोई खिलाड़ी पदक जीतता है। फ़िर खिलाड़ी को जाति-धर्म के साँचे में बंटाने की फ़ितरत जन्म ले लेती है। अब जरा सोचिए कि क्या हमारा देश ऐसे ही विश्वगुरू बनेगा? क्या जातियों में बांटकर हम खेलों में शीर्ष पर पहुँच पाएंगे? आख़िर यह जाति है कि जाती क्यों नहीं? वैसे तो हम नारा बुलंद करते हैं संप्रभु भारत का। फ़िर आख़िर बीच में जाति-धर्म और राज्य कहाँ से आ जाता है? चक दे इंडिया एक फ़िल्म आई थी। जिसमें एक खूबसूरत डायलॉग है कि, ” मुझे स्टेट के नाम न सुनाई देते हैं, न दिखाई देते हैं। सिर्फ़ एक मुल्क का नाम सुनाई देता है-इंडिया।” फ़िर सवाल यहीं कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसा नेता कैसे खिलाड़ियों को राज्यों में बांट सकते है? ऐसे नेताओं से सिर्फ़  यही सवाल है कि क्या इन खिलाड़ियों की विदेशों में पहचान उनके राज्य से होती है नहीं न। फ़िर ऐसी औछी मानसकिता क्यों? 

खिलाड़ी हमारे राष्ट्र का गौरव है, पर दुर्भाग्य देखिए कि आज उन्हें भी जाति धर्म मे बांटने की औछी राजनीति की जा रही है। हाल के कुछ सालों में सियासत ने खेलों में भी जातियों की घुसपैठ करा दी है जो कि बेहद ही ख़तरनाक है। खेलों को जातियों के चश्मे से देखने की कोशिश देश में की जाने लगी है। जिन खिलाड़ियों को प्रोत्साहन मिलना चाहिए। उनके बेहतर प्रदर्शन के लिए। आर्थिक, मानसिक तौर पर सहायता की जाना चाहिए तब कोई सरकार या कोई जाति धर्म वर्ग विशेष के लोग आगे आकर सहायता भले न करे। लेकिन जब वही खिलाड़ी कोई मेडल जीत ले तो लोगों को उन खिलाड़ियों में जाति धर्म नजर आने लगता है। बात चाहे हिमादास की हो या फिर दीपिका कुमारी या पीवी सिंधू की। इन सभी खिलाड़ियों ने अपने बेहतर खेल प्रदर्शन से देश का मान सम्मान बढ़ाया। लेकिन दुर्भाग्य देखिए हमारे अपने देश के लोगों को इनके खेल से ज्यादा इनकी जाति जानने में दिलचस्पी है। पीवी सिंधू ने हाल ही में ओलंपिक में कांस्य पदक जीत कर देश को गौरवांवित किया। लोगो को उनकी मेहनत, उनका समर्पण नही नजऱ आया बल्कि लोग यह जानने में लगे है कि वह किस जाति से है।  हाल ही में गूगल द्वारा जारी किए गए डेटा से पता चला है कि लोग पीवी सिंधू के खेल से कही ज्यादा उनकी जाति सर्च करने में लगे हुए हैं। यह किसी एक खिलाड़ी के साथ नहीं हुआ है। जब दीपिका कुमारी ने तीरंदाज़ी में बेहतरीन प्रदर्शन किया और कई स्पर्धाओं में स्वर्ण पदक जीता। उनकी जीत के बाद दीपिका की जाति को लेकर भी सोशल मीडिया में जिस तरह के पोस्ट आए वह भी शर्मसार करने वाले थे। देश में बहस छिड़ गई थी। हर किसी को उन्हें अपनी जाति का बताने की होड़ लगी थी। किसी ने उनके नाम के साथ ‘महतो’ जोड़ा तो किसी ने ‘मल्लाह’। क्या खिलाड़ियों का महिमामंडन इस तरह से किया जाना सही है। यह सवाल व्यक्ति को स्वयं पूछना चाहिए। खिलाड़ी सिर्फ खिलाड़ी होता है वह अपनी मेहनत, अपने खेल के दम पर देश का मान बढ़ाता है। क्या खिलाड़ियों की कोई जाति होती है। हमारे लिए तो देश का गौरव बढ़ाने वाले हर खिलाड़ी जाति-धर्म से ऊपर होता है। फिर क्यों इस तरह की औछी राजनीति का विष खेलों में घोला जा रहा है। खिलाडियों को खिलाड़ी ही रहने दिया जाए, वरना जाति और धर्म के बंधन में बंधकर तो देश का विकास अवरुद्ध हो गया, फ़िर खेल का विकास क्या हो पाएगा? 

बात भारतीय एथलीट हिमा दास की ही करे। तो अंडर-20 विश्व एथलेटिक्स चैंपियनशिप की 400 मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक जीतने के बाद हिमा दास चर्चा में थी और चर्चा भी इस बात को लेकर की वह किस जाति से आती है। हमारे ही देश का एक बड़ा तबका उनकी जाति जानने में लगा हुआ था। गूगल पर उनका नाम लिखने मात्र से ही सबसे पहला सुझाव उनकी जाति के बारे में ही आता था। कभी किसी ने यह जानने की कोशिश भले न कि हो कि वह किन अभावों में बड़ी हुई। उन्होंने यह मुकाम कैसे हासिल किया। लेकिन उनकी जाति उनके खेल से भी ऊपर हो गई। यह ख़बर भले सोशल मीडिया पर आलोचना का विषय बनी थी। लेकिन इन खबरों ने हमे आइना जरूर दिखा दिया था कि किस तरह हम 21वीं सदी में भी जातियों में जकड़े हुए है। सभी को अपने धर्म का सम्मान करना चाहिए। लेकिन किसी की जाति पर सिर्फ इसलिए चर्चा करना कि वह किस धर्म किस वर्ग से आती है यह निंदनीय है। हिमा दास की जाति में रुचि दिखाने वालों ने बता दिया है कि भारत आज भी जातिवाद के फेर में फंसा हुआ है। वैसे हमारे देश की राजनीति धर्म के आधार पर ही चल रही है। हालांकि यह बहस का विषय है कि हिमा या पीवी सिंधु जैसे कामयाब लोगों की जाति के बारे में लोगो की दिलचस्पी लेना सही है या गलत। 

यह तो हम सभी को मालूम है कि हमारा भारतीय समाज जातियों में विभाजित है। हर समाज के व्यक्ति को उसका हिस्सा होने पर गर्व होना चाहिए। यदि किसी समाज विशेष का व्यक्ति कोई उपलब्धि हासिल करता है तो समाज को उस पर गर्व होना स्वभाविक है। लेकिन वह समाज तब कहा होता है जब वह व्यक्ति संघर्ष के दौर से गुजर रहा होता है। वैसे इस बात में कोई दोराय नही है कि व्यक्ति के सफल होने पर लोगो की लम्बी कतार लग जाती है। लाखो हमदर्द बनकर आ जाते है लेकिन जब वह व्यक्ति अपनी ज़िंदगी के खराब दौर से गुजर रहा होता है तो अपने भी आंख मूंद लेते है। खैर इंसान की फितरत ही यही है। वैसे भी आज धर्म की परिभाषा भी अपने मतलब के अनुरूप बदल दी गई है। आज के दौर में धर्म के ठेकेदार सोशल मीडिया पर धर्म और संप्रदाय के अपने-अपने प्रोफ़ाइल चला रहे हैं। लाखों लोग उन्हें फ़ॉलो कर रहे हैं। लोगो का मानना है कि धर्म या जाति विशेष का होना गर्व की बात है तो इसमें क्या बुराई है कि लोग कामयाब लोगो को जाति के आधार पर विभाजित करें।
गौरतलब हो कि जब भी कोई खिलाड़ी पदक जीतता है तो वह सिर्फ एक मैडल भर नहीं होता है बल्कि उस मैडल के पीछे उस खिलाड़ी के संघर्ष और वर्षों की तपस्या होती है। कैसे एक खिलाड़ी अपने खेल के लिए कड़ा परिश्रम करता है। बात चाहे फिर मीरा दास चानू की ही क्यों न हो या फिर किसी अन्य की …! इन खिलाड़ियों की कड़ी मेहनत बताती है कि कैसे इनके राह में लाख कठिनाईयों के बावजूद भी ये अपनी मंजिल को पाने के लिए जुनूनी थे। क्या इनके संघर्षों की कहानी से प्रेरित होकर देश के युवाओं को खेल के प्रति जागृति करने से जरूरी कुछ और हो सकता है भला? वैसे इससे बड़ा देश का दुर्भाग्य भला क्या हो सकता है कि जब तक कोई खिलाड़ी अपने बेहतर खेल प्रदर्शन से देश की झोली में कोई मैडल न डाल दे तब तक देश उसे जानता तक नहीं है। 
हमारे देश में ऊंची जाति, नीची जाति, अमीर-गरीब, छोटे-बड़े और स्त्री-पुरुष बल्कि यह कहे कि हर जगह भेदभाव की कभी न मिटने वाली लकीर खींच दी गई है। इसकी जड़ें वर्तमान दौर में और गहरी होती जा रही है। तमाम राजनैतिक दल अपने अपने राजनैतिक लाभ के लिए जातिवाद को बढ़ावा दे रहे है। हमारे संविधान-प्रदत्त अधिकार और कानूनी प्रावधान भी जातीय भेदभाव, उत्पीड़न और अन्याय को खत्म करने में बहुत सफल नही हो रहे है क्योंकि देश की राजनीति को संचालित करने वाली शक्तियां ही नहीं चाहती कि देश से जातिवाद खत्म हो और इससे भी बड़ी विडंबना तो तब हो जाती है। जब एक पढ़ी-लिखी एंकर मंत्री जी से सवाल पूछते वक्त यह कह देती है कि आपके मंत्री बनने पर तो पदक की बौछार हो रही। अब समझिए कि देश किस तरफ़ बढ़ रहा है और खेल भावना कहाँ पीछे छूटती जा रही है। आज शिक्षा, साहित्य, कला, संस्कृति राजनीति, खेल ऐसा कोई क्षेत्र नही बचा। जहां भेदभाव न होता हो। खेल हो या फ़िल्म जगत कही जातिवाद है तो कही परिवार वाद। भारत में ये कह देना कि जातीय भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं है, महज एक जुमला भर हो सकती है या किसी राजनीतिक पार्टी का आकर्षक नारा, लेकिन ऐसा वास्तव में सम्भव हो पाए यह कहना बहुत दूर की कौड़ी है और जब तक यह विकसित नहीं होगा न देश के भीतर खेल संस्कृति पनपेगी और न ही राष्ट्र उत्थान कर सकता है। यह लिखकर रख लीजिए।

विश्व के प्रथम ग्रन्थ वेदों के हिन्दी में प्रचारक ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज

धार्मिक एवं सामाजिक संस्था आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने 10 अप्रैल, सन्  1875 को मुम्बई नगरी में की थी। स्वामी जी की मातृभाषा गुजराती थी। आर्यसमाज एक धार्मिक एवं सामाजिक संगठन व आन्दोलन है जिसका उद्देश्य धर्म, समाज व राजनीति के क्षेत्र से असत्य को दूर करना व उसके स्थान पर सत्य को स्थापित करना है। क्या धर्म, समाज व राजनीति आदि में असत्य का व्यवहार होता है? इसका उत्तर हां में हैं। यदि धर्म के क्षेत्र में असत्य की बात करें तो हमें सृष्टि की आरम्भ में ईश्वर प्रदत्त वेद ज्ञान की चर्चा करनी आवश्यक प्रतीत होती है। सृष्टि की उत्पत्ति के पश्चात जब प्रथमवार मनुष्यों के रूप में युवा स्त्री व पुरूषों की अमैथुनी उत्पत्ति ईश्वर ने की, तो उन्हें अपने दैनन्दिन व्यवहारों वा बोलचाल के लिये एक भाषा सहित कर्तव्य व अकर्तव्य के ज्ञान की आवश्यकता थी। वह आवश्यक ज्ञान ‘‘वेद” के रूप में ईश्वर ने मनुष्यों की प्रथम पीढ़ी को दिया जिससे वह अपना समस्त कर्तव्य-व्यवहार आदि जान सके। आदि सृष्टि के मनुष्य ही संसार के सभी मनुष्यों के पूर्वज सिद्ध होते हैं। वह सब वेदों व वैदिक धर्म के अनुयायी थे। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्योत्पत्ति के साथ ही वैदिक धर्म की स्थापना स्वयं परमात्मा ने चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को वेद ज्ञान देकर की थी।

      यह भी निर्विवाद है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक के लगभग 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख वर्षों तक पूरे भूमण्डल पर वेद वैदिक धर्म ही प्रचलित रहे जो ज्ञान विज्ञान की कसौटी पर पूर्ण सत्य और तर्कसंगत थे। महाभारत युद्ध में हुई जान माल की भारी क्षति के कारण देश में अध्ययन अध्यापन का पूरा ढांचा ध्वस्त हो गया था। यद्यपि धर्म तो वैदिक धर्म ही रहा परन्तु वेद वैदिक साहित्य के अध्ययन अध्यापन की समुचित व्यवस्था होने के कारण इसमें अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां, सामाजिक असमानतायेंविषमतायें तथा अनेक पाखण्डों सहित संस्कृति सभ्यता में भी विकार उत्पन्न होने लगे। अज्ञान के कारण स्वार्थ ने भी शिर उठाया और गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वैदिक वर्ण व्यवस्था का स्थान जन्मना जाति व्यवस्था ने ले लिया। वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण शिखर तथा शूद्र निम्न स्थान पर था। यहां तक कहा गया कि ब्राह्मण द्वारा कही गई प्रत्येक बात अन्य वर्णों को माननीय होती है। इसका अर्थ यह था की ज्ञानी या अज्ञानी ब्राह्मण कोई अनुचित बात भी कहे, तो उसे इतर सभी मनुष्यों को बिना सोचे विचारे स्वीकार करना होगा। यह ऐसा ही था जैसी कुछ मतों व सम्प्रदायों में वर्तमान में भी व्यवस्था है, जिसके अनुसार धर्म में अकल का दखल नहीं है। इन्हीं कारणों से वैदिक धर्म अनेक अन्धविश्वासों से ग्रस्त रहा।

      संसार में वैदिक धर्म के बाद भारत से बाहर दूसरा मत जो अस्तित्व में आया, उसे पारसी मत के नाम से जाना जाता है। इसके बाद भारत में बौद्धमत जैनमतों का आविर्भाव हुआ और कालान्तर में भारत से सुदूर देशों में ईसाई इस्लाम मत का प्रादुर्भाव हुआ। इन सभी मतों की भाषा संस्कृत से भिन्न, पारसी, पाली, हिब्रू, अरबी आदि थीं। इसके बाद भारत में सिख मत की स्थापना भी हुई जिनका धर्म ग्रन्थ गुरूग्रन्थसाहब गुरूमुखी भाषा में है। इस प्रकार से सन् 1875 तक अस्तित्व में आये किसी भी मत सम्प्रदाय के धर्मग्रन्थ की भाषा हिन्दी नहीं थी। महर्षि दयानन्द विश्व इतिहास में पहले व्यक्ति थे जिन्होंने वैदिक धर्म के विकारों वा अन्धविश्वासों के सुधार के लिए युक्तियों व तर्क से वैदिक धर्म के यथार्थ स्वरूप को अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में प्रस्तुत किया। यह सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ आर्यसमाज के अनुयायियों के धर्मग्रन्थ वेद के व्याख्या ग्रन्थ के समान धर्म सम्बन्धी मान्यताओं व प्रावधानों के कारण एक धर्म व्याख्या ग्रन्थ वा धर्मग्रन्थ के समान ही है। सत्यार्थप्रकाश विश्व का पहला धर्मग्रन्थ है जो हिन्दी में है तथा जिसे महर्षि दयानन्द ने आर्यभाषा अर्थात् आर्यों की भाषा नाम दिया।

                सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की प्रथम रचना सन् 1874 के उत्तरार्ध में काशी में महर्षि दयानन्द जी ने की थी। इसका सन् 1883 में नया संशोधित संस्करण तैयार किया गया जिसका प्रकाशन सन् 1884 में हुआ। यही संस्करण वेदों के स्वतः प्रमाण धर्म ग्रन्थ के बाद वर्तमान में आर्यों के धर्मग्रन्थ के रूप में पूरे विश्व में प्रचलित प्रसिद्ध है। यह क्रान्तिकारी ग्रन्थ है। इसका प्रभाव यह हुआ है कि बड़ी संख्या में पौराणिक मान्यता प्रधान सनातन धर्म के बन्धुओं ने इसे पढ़कर तथा इससे सहमत होकर इसे स्वीकार किया है। ने केवल पौराणिक बन्धुओं ने अपितु प्रायः सभी मतों के बन्धुओं ने समयसमय पर वैदिक धर्म को स्वीकार किया है। इसका कारण वैदिक धर्म की अन्य मतों से भिन्न श्रेष्ठ, युक्तिसंगत एवं हितकारी मान्यतायें हैं। सत्यार्थप्रकाश के हिन्दी में होने के कारण महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज के देश-विदेश के सभी अनुयायियों ने हिन्दी सीखी। अन्य मतों के लोगों ने भी सत्यार्थप्रकाश में वर्णित वेदमत व इतर मतों के गुण व दोषों को जानने की दृष्टि से भी हिन्दी सीखी जिससे एक लाभ यह हुआ कि हिन्दी का प्रचार व प्रसार हुआ। हिन्दी के प्रचार व प्रसार की दृष्टि में रखकर ही महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के अंग्रेजी व उर्दू आदि भाषाओं में अनुवाद की अनुमति नहीं दी थी। इस कारण भी देश-विदेश में लोगों ने हिन्दी सीखी और हिन्दी का देश देशान्तर में प्रचार हुआ।

                महर्षि दयानन्द के जीवन काल में जब ब्रिटिश सरकार ने भारत में राजकार्यों में भाषा के प्रयोग की संस्तुति के लिये हण्टर कमीशन बनाया तो महर्षि दयानन्द ने हिन्दी को राजकार्यों में प्रथम भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए एक आन्दोलन किया। इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप देश भर में आर्यसमाज के अधिकारियों अनुयायियों ने बड़ी संख्या में देशवासियों के हस्ताक्षरों से युक्त ज्ञापन आर्यभाषा हिन्दी को देश के राजकार्य की प्रथम भाषा बनाने हेतु हंटर कमीशन को भेजे थे। महर्षि दयानन्द की प्रेरणा से आर्यसमाज में आर्यदर्पण, भारत-सुदशा-प्रवर्तक आदि अनेक हिन्दी पत्रों का प्रकाशन आरम्भ किया गया था जिससे हिन्दी का प्रचार देश भर में हुआ। यह भी जानने योग्य है कि महर्षि दयानन्द से प्रभावित उदयपुर, शाहपुरा व जोधपुर आदि रिसायतों के राजाओं ने अपने यहां हिन्दी को राज-कार्यों की भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की थी। महर्षि दयानन्द ने अपना समस्त पत्रव्यवहार हिन्दी में ही किया। हिन्दी के सर्वाधिक प्रतिष्ठित पुरुष भारतेन्दु हरिश्चन्द्र स्वामी दयानन्द जी के काशी के सत्संगों में सम्मिलित हुए थे और उन्होंने स्वामीजी की प्रशंसा की है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने अन्धेर नगरीनामक नाटक सन् 1881 में लिखा था। यह नाटक सत्यार्थप्रकाश की प्रेरणा से लिखा गया प्रतीत होता है। मनुष्य जो पढ़ता व सुनता है उनका संस्कार बनता है। इस प्रकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी पर भी ऋषि दयानन्द के संस्कार पड़े ऐसा प्रतीत होता है।

                महर्षि दयानन्द के परलोक गमन के बाद आर्य समाज ने गुरूकुल तथा डी00वी0 स्कूल कालेज खोले जिनमें हिन्दी को मुख्य भाषा के रूप में स्थान मिला। आर्यसमाज का यह कार्य भी हिन्दी के प्रचार प्रसार में सहायक रहा। इसके साथ आर्यसमाज में हिन्दी की अनिवार्यता के कारण हिन्दी के अनेक विद्वान, वेदभाष्यकार, कवि, पत्रकार, प्रोफेसर, अध्यापक, स्वतन्त्रता आन्दोलन के नेता आन्दोलनकारी आदि भी उत्पन्न हुए जिन्होंने हिन्दी में साहित्य सृजन कर हिन्दी के स्वरूप को निखारने उसे घरघर पहुंचाने में प्रभावशाली योगदान किया है। आर्यसमाजों के लिए अपना समस्त कार्य हिन्दी में करना अनिवार्य होता था। रविवार के सत्संगों में विद्वानों के सभी उपदेश हिन्दी में ही होते थे। यह बात भी महत्वपूर्ण है कि महर्षि दयानन्द ने अपनी आत्मकथा हिन्दी में लिखी जिसे हिन्दी की प्रथम आत्मकथा होने का गौरव प्राप्त है। ऋषि दयानन्द की इस आत्मकथा का महत्व इस कारण भी है कि विश्व के इतिहास में ऋषि दयानन्द से पूर्व कभी किसी ऋषि या किसी मत के संस्थापक आचार्य ने अपनी आत्मकथा नहीं लिखी। इस प्रकार से आर्यसमाज व इसके हिन्दी के लिये समर्पित विद्वानों की छत्रछाया में देश में हिन्दी ने अपना नया प्रभावशाली व उन्नत स्वरूप प्राप्त किया है। आर्यसमाज के विद्वानों ने प्रचुर मात्रा में हिन्दी में धार्मिक व सामाजिक साहित्य भी दिया है। इस दृष्टि से देश की अन्य कोई भी धार्मिक, सामाजिक व राजनैतिक संस्था हिन्दी के प्रचार-प्रसार व संवर्धन में आर्यसमाज से समानता नहीं रखती। आर्यसमाज का हिन्दी के प्रचार व प्रसार में सर्वोपरि योगदान रहा है। आज देश में हिन्दी का जितना प्रचार है, उसके केन्द्र में आर्यसमाज ही है। यदि आर्यसमाज न होता तो हिन्दी देश की राजभाषा न होती। दुर्भाग्य यह है कि देश ने आर्यसमाज के हिन्दी के प्रचार, प्रसार व इसे लोकप्रिय बनाने के लिए किये गये योगदान को देश ने मान्यता प्रदान नहीं की है। हिन्दी को जिस आर्यसमाज ने गौरवपूर्ण स्थान दिलाया है, उसका ज्ञान भी हमारे देशवासियों को न होना कष्ट देता है।

                आगामी हिन्दी दिवस 14-9-2021 करे गुजरात में जन्मे महर्षि दयानन्द सरस्वती, जिनकी मातृभाषा गुजराती थी, उनके और उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज के हिन्दी भाषा के लिए किए गए योगदान को स्मरण कर हम दोनों का वन्दन करते हैं। वर्तमान समय में हिन्दी के स्वरूप को बिगाड़ने के भी प्रयत्न हो रहे हैं। उसमें अंग्रेजी उर्दू आदि भाषाओं के शब्दों को अनावश्यक रूप से मिलाया जा रहा है। देश में संचालित बच्चों के पब्लिक स्कूल अग्रेजी का खुल कर प्रचार करते और हिन्दी की उपेक्षा करते हैं। 2-3 वर्षों के हिन्दी भाषी बच्चों को भी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाया जाता है। माता-पिता व प्रशासन मूक दर्शक बने रहते हैं। इसका परिणाम देश व समाज के लिए अशुभ होगा। संसार में सम्प्रति सैकड़ों भाषायें व बोलियां हैं। सभी भाषायें अपने शुद्ध स्वरूप में ही अच्छी लगती हैं। अंग्रेजी व उर्दू में हिन्दी शब्दों को मिलाने की वकालत नहीं की जाती परन्तु हिन्दी के साथ ऐसा किया जाता है। इससे हिन्दी प्रेमियों को सावधान रहना है। हमें संस्कृत-हिन्दी के सरल व सुबोध शब्दों का ही अधिक से अधिक प्रयोग करना चाहिये जिससे यह खिचड़ी भाषा न बने। हमने लेख में संस्कृत भाषा में ईश्वर से प्रादूर्भूत वेदों को देश देशान्तर में हिन्दी भाषा में प्रचार करने में आर्यसमाज के कार्यों व योगदान की चर्चा की है। हम वैदिक सनातन धर्मियों का विशेष कर्तव्य है कि हम अपनी सभी सन्तानों को सबसे पहले संस्कृत की निकटतम हिन्दी भाषा को सिखायें जिससे वह हिन्दी के उच्च कोटि के ग्रन्थों को पढ़कर उनसे लाभ उठा सकें। वैदिक धर्मियों व उनके बच्चों को संस्कृत का भी यथेष्ट ज्ञान होना चाहिये। इसके लिये सबको प्रयत्न करने चाहियें। यदि ऐसा नही किया तो भविष्य में हिन्दी का स्थान विदेशी भाषायें ले लेंगी और हमारा धर्म व संस्कृति भी सुरक्षित नहीं रह पायेंगे।

गुलाम कश्मीर को पाकिस्तान के जुल्मोसितम से मुक्ति दिलाने के संकल्प का दिन:एकात्मता दिवस

                                                                                                       –प्रो. रसाल सिंह

पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्षा और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने अपनी पार्टी के 22 वें स्थापना दिवस (28 जुलाई) के अवसर पर फिर उत्तेजक, आपत्तिजनक और गैर-जिम्मेदाराना बयान देकर एकबार फिर आग भड़काने की साजिश की है। उन्होंने इस अवसर पर कहा है कि केंद्र सरकार ने 5 अगस्त, 2019 को कश्मीरियों से जो कुछ छीना है, उसे सूद समेत लौटाना पड़ेगा। इसीतरह का उनका एक और विवादास्पद बयान उल्लेखनीय है। उसमें उन्होंने 5 अगस्त, 2019 से पहले की स्थिति की बहाली तक तिरंगा न फहराने की कसम खायी थी। हालांकि, अपनी पार्टी और गुपकार गठजोड़ तक में अकेले पड़ जाने और राष्ट्रीय स्तर पर हुई फजीहत के दबाव में उन्हें अपना वह बयान वापस लेना पड़ा था। महबूबा की बौखलाहट और बिलबिलाहट अस्वाभाविक नहीं है। अलगाववाद और भेदभाव की राजनीति करने वाली महबूबा मुफ़्ती और उनकी पार्टी अस्तित्व-संकट से जूझ रही हैं और खात्मे के कगार पर हैं। गुपकार गठजोड़ में भी वे अलग-थलग पड़ती जा रही हैं। 24 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दिल्ली में आयोजित जम्मू-कश्मीर के प्रमुख नेताओं की सर्वदलीय बैठक में इसकी बानगी साफ दिखी। जहाँ फारूक अब्दुल्ला, गुलाम नबी आजाद और सज्जाद लोन जैसे नेता छोटी-मोटी असहमतियों के बावजूद नयी संवैधानिक स्थिति को स्वीकारते हुए जम्मू-कश्मीर को मुख्यधारा से जोड़ना चाहते हैं; वहीं महबूबा अभी भी अपनी अलगाववादी ढपली पर हिंसा, स्वायत्तता, अराजकता और आतंकवाद का बेसुरा राग अलाप रही हैं। वे 5 अगस्त, 2019 से पहले की स्थिति के ख्याली पुलाव पका रही हैं और कश्मीर घाटी के मुठ्ठी भर भ्रमित लोगों को सब्जबाग दिखा रही हैंI  जबकि वास्तविकता यह है कि तब से वितस्ता और तावी में बहुत पानी बह चुका हैI तमाम तरह की बाधाओं और दूरियों को मिटाते हुए जम्मू-कश्मीर के लोग भी आगे बढ़ते हुए राष्ट्रीय मुख्यधारा के जुड़ चुके हैंI अब बंद, हड़ताल, पत्थरबाजी, और गोलीबारी की जगह वे भी अमन-चैन और खुशहाली चाहते हैंI यह बात महबूबा भी जानती हैं और अन्य  अलगाववादी भी जानते हैंI परन्तु बुझने से पहले फड़फड़ाना दिए का स्वभाव होता हैI यह राष्ट्र-विरोधी और भड़काऊ बयानबाजी टूटती सांसों की आखिरी जद्दोजहद हैI 

आज़ादी से 5 अगस्त,2019 तक जम्मू-कश्मीर प्रदेश का अधिसंख्य समाज कश्मीर-केंद्रित नेतृत्व की भेदभावपूर्ण शासकीय  नीतियों का शिकार रहा था। यह भेदभाव विकास-योजनाओं से लेकर लोकतांत्रिक भागीदारी तक और अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के संवैधानिक अधिकारों और बहिन-बेटियों के जन्मजात अधिकारों की अवहेलना तक व्याप्त था। जातिगत, धर्म आधारित, क्षेत्रीय और लैंगिक भेदभाव जम्मू-कश्मीर राज्य का स्वातंत्र्योत्तर सच थाI इस अन्याय और भेदभाव के खिलाफ लड़ाई का भी लंबा इतिहास हैI अमर बलिदानी डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, शेरे-डुग्गर पंडित प्रेमनाथ डोगरा, महाराजा हरिसिंह, ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह और ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान जैसे महान सपूतों के संघर्ष और त्याग के परिणामस्वरूप जम्मू-कश्मीर की एकात्मता और विकास का सपना साकार हो सका है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पंडित प्रेमनाथ डोगरा ने जम्मू-कश्मीर को राष्ट्रीय चिंता और चिंतन का केंद्र बनाने के लिए लगातार संघर्ष करते हुए अनेक आंदोलन किये। उन्होंने जम्मू- कश्मीर के लोगों के साथ न्याय और समानता सुनिश्चित करने के लिए अनवरत जनजागरण किया। 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 व 35 A की समाप्ति के बाद जम्मू-कश्मीर के वर्षों से उपेक्षित-वंचित वर्गों के साथ न्याय की परियोजना प्रारंभ हुई है। लम्बी खूनी रात का अंत हुआ है और जम्मू-कश्मीर में नयी सुबह हुई हैI  यहाँ सकारात्मक बदलाव की शुरुआत हुई है।

आज जम्मू-कश्मीर में ज़मीनी बदलाव नज़र आ रहे हैं। कुछ काम हो गया है; और बहुत काम होना बाकी है…! विकास और बदलाव की ये तमाम परियोजनाएं और प्रकल्प प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के निर्देश पर उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के नेतृत्व में कार्यान्वित किये जा रहे हैंI जम्मू-कश्मीर में अभी तक हुए मुख्य बदलाव इसप्रकार हैं- 28 वर्ष की लंबी प्रतीक्षा के बाद यहाँ पिछले साल से त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था पूरी तरह लागू हो गयी है। स्थानीय निकायों को वे सभी अधिकार और संसाधन मिल गये हैं जो पूरे देशभर में मिलते हैं। जम्मू-कश्मीर में ST वर्ग (गुज्जर बक्करवाल, गद्दी, सिप्पी आदि) को राजनीतिक आरक्षण मिला है, जिससे इस वर्ग के विकास के रास्ते खुले हैं। ग्राम पंचायत, क्षेत्र विकास परिषद् और जिला विकास परिषद् चुनावों के माध्यम से ज़मीनी लोकतंत्र में अनुसूचित जनजाति  वर्ग की उल्लेखनीय भागीदारी हुई है। जम्मू-कश्मीर के अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण देकर सामाजिक-न्याय सुनिश्चित किया गया है। संविधान-शिल्पी डॉ. भीमराव अम्बेडकर का यही सपना था कि देशभर में समता और न्याय होI जाति-धर्म, क्षेत्र, लिंग के आधार पर कोई भेदभाव न होI 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्थिति में हुए परिवर्तन के बाद बाबा साहब अम्बेडकर का यह स्वप्न देश के अन्य भागों की तरह जम्मू-कश्मीर में भी साकार होने की पहलकदमी हुई हैI जम्मू-कश्मीर की अधिकार-वंचित बहिनों-बेटियों (जिनका विवाह प्रदेश से बाहर हो जाता था) को न्याय मिला है। पहले उन्हें नागरिक अधिकारों तक से वंचित कर दिया जाता थाI स्वाधीन भारत में लैंगिक भेदभाव का यह शर्मनाक उदाहरण थाI हमारे सभी संविधान-निर्माताओं ने स्वतंत्रता के समय “एक व्यक्ति-एक मत’ का प्रावधान करते हुए संयुक्त राज्य अमेरिका से भी पहले महिलाओं को मताधिकार देकर दूरदर्शिता, प्रगतिशीलता और लोकतान्त्रिक मूल्यों में गहरी आस्था व्यक्त की थीI किसी भी प्रकार के भेदभाव के विरुद्ध स्वतंत्रता, समानता और बंधुता ही उनके मार्गदर्शक सिद्धांत थेI जम्मू-कश्मीर अनुच्छेद 370 और 35ए के तहत मिले अस्थायी और संक्रमणकालीन विशेषाधिकारों की आड़ में इन सिद्धांतों की अवहेलना करता आ रहा थाI अब वहाँ भारत का संविधान पूरी तरह लागू होने से आमूलचूल सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की प्रस्तावना हुई हैI इसी के चलते जम्मू-कश्मीर में बसे हुए लाखों दलितों (विशेषकर वाल्मीकि समाज), पश्चिमी पाकिस्तानी शरणार्थियों, गोरखाओं और पीओजेके विस्थापितों को सम्मान, समान अवसर और मतदान जैसे मूल अधिकार और सुविधाएं मिली हैं।

नयी औद्योगिक नीति लागू होने और निवेशक सम्मेलनों के आयोजन से स्थानीय लोगों को रोजगार के अधिकाधिक अवसर उपलब्ध कराने की पहल हुई है। साथ ही, नई भाषा नीति लागू करके अधिसंख्य जम्मू-कश्मीरवासियों की मातृभाषाओं-डोगरी, कश्मीरी और हिंदी को राजभाषा (शासन-प्रशासन की भाषा) का दर्जा देकर स्थानीय लोगों को मुख्यधारा से जोड़ने का काम हुआ है। लगभग 98 प्रतिशत लोगों की मातृभाषा कश्मीरी, डोगरी, हिंदी और पंजाबी आदि हैंI इससे पहले उर्दू और अंग्रेजी को ही राजभाषा का दर्जा प्राप्त थाI उल्लेखनीय है कि उर्दू और अंग्रेजी दो फ़ीसदी से भी कम लोगों की मातृभाषा हैंI इससे स्थानीय लोगों की शासन-प्रशासन की योजनाओं में भागीदारी बढ़ेगीI जम्मू-कश्मीर भाषा, साहित्य और संस्कृति की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध हैI यह निर्णय समृद्ध साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण और विकास में भी सहायक होगाI इन सभी भाषाओं की अकादमियां स्थापित करके और और इन भाषाओं में लिखने-पढ़ने वाले संस्कृतिकर्मियों को प्रोत्साहन देकर यह काम किया जा सकता हैI लम्बे समय से आतंकवाद और भेदभाव के शिकार रहे पर्यटन उद्योग को पुनः विकसित किया जा रहा है। हाल तक उपेक्षित और नज़रंदाज़ किये किये पर्यटन-स्थलों के विकास पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। इस श्रंखला में जम्मू-कश्मीर शासन और तिरुपति तिरुमल देवस्थानम् के संयुक्त प्रयासों के परिणामस्वरूप श्री वेंकटेश्वर भगवान के भव्य मंदिर का निर्माण, पवित्र देविका नदी ( जिसे कि गुप्त गंगा भी कहा जाता है) और शिवखोड़ी गुफा का पुनरुद्धार आदि किया जा रहा है। इससे शेष भारत के साथ जम्मू-कश्मीर का सशक्त सम्बन्ध-सेतु निर्मित होगाI पारस्परिक अजनबीपन,अलगाव और दूरियाँ मिटेंगीI पर्यटन उद्योग की बहाली और विकास से स्थानीय स्तर पर रोजगार के अपरिमित अवसर पैदा होंगेI रोजगार के अवसर पैदा होने से न सिर्फ स्थानीय लोगों के जीवन-स्तर में गुणात्मक सुधार आएगा, बल्कि उनका प्रवासन भी रुकेगाI 

आतंकवादी और देश-विरोधी गतिविधियों में शामिल सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई  की जा रही है। जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करके आतंकवादियों के पनाहगार बने एक दर्जन  से अधिक सरकारीकर्मी बर्खास्त किये जा चुके हैं और सैकड़ों के खिलाफ ख़ुफ़िया जाँच चल रही हैI मुस्तैद सुरक्षा बलों द्वारा आतंकवादियों और अलगाववादियों की नकेल कसने और हवाला फंडिंग रुकने से राष्ट्रविरोधी हिंसक गतिविधियों में निर्णायक  गिरावट हुई है। उल्लेखनीय है कि 5 अगस्त, 2019 के बाद से आतंकवादी वारदातें 59 प्रतिशत तक कम हुई हैं। युवाओं को अलगाववादियों और आतंकवादियों के अड्डों से बचाने के लिए उनकी पढ़ाई-लिखाई को प्राथमिकता दी जा रही हैI जम्मू-कश्मीर की सरकार और युवाओं के अभिभावक अब उनके  हाथ में बंदूक और और पत्थर की जगह कलम और किताब थमा रहे हैंI इसी अभियान के तहत ‘मिशन यूथ’ प्रारम्भ किया गया हैI  इसके तहत जम्मू-कश्मीर के 3000 छात्र-छात्राओं को देश के नामी-गिरामी कोचिंग सेंटरों में प्रतियोगी परीक्षाओं और व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में प्रवेश की निःशुल्क तैयारी करायी जा रही हैI यह ‘प्रतिभा विनाश के बरक्स प्रतिभा विकास’ की अनूठी योजना हैI 

दूरदराज और दुर्गम क्षेत्रों में रहने वाले जम्मू-कश्मीरवासियों को बिजली,पानी,सड़क, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी आधारभूत सुविधायें मुहैय्या कराने पर तेजी से काम हो रहा है। प्रधानमंत्री रोजगार पैकेज के अंतर्गत कश्मीरी विस्थापितों के लिए रोजगार और आवास की व्यवस्था प्राथमिकता के आधार पर हो रही है। उनके पुनर्वास के लिए सुरक्षित और सुविधायुक्त आवासीय परिसर बनाने के प्रस्ताव को मंजूरी प्रदान की गयी है।ई-फाइलिंग के जरिये अर्धवार्षिक ‘दरबार-मूव’ की भारी-भरकम और खर्चीली कवायद को समाप्त किया गया है। शासन-प्रशासन को जवाबदेह और संवेदनशील बनाया जा रहा है। विभिन्न कार्यों के समयबद्ध निपटारे और समस्याओं के त्वरित समाधान  के लिए “सिटिजंस चार्टर” लागू किया गया है। इससे निष्क्रिय और टालू सरकारी कर्मी हरकत में आ रहे हैंI कुशल, कर्मठ और प्रतिबद्ध कर्मचारियों को पुरस्कृत और प्रोत्साहित करना और अयोग्य, अकुशल, अकर्मण्य और कर्तव्यच्युत कर्मचारियों को दण्डित करना राज-धर्म हैI ऐसा करके ही कल्याणकारी नीतियों का लाभ पंक्ति के आखिरी व्यक्ति तक पहुँचाया जा सकता हैI सरकारी नौकरियों, मेडिकल,इंजीनियरिंग और प्रबंधन जैसे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों और विकास-योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार और भेदभाव की भी समाप्ति की जा रही है। रोशनी एक्ट और शस्त्र लाइसेंस घोटाले में धर-पकड़ हो रही हैI

जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में गठित परिसीमन आयोग द्वारा विधान-सभा क्षेत्रों का परिसीमन करके उन्हें संतुलित और न्यायसंगत बनाया जा रहा है। अच्छी बात यह है कि पहले इस आयोग का बहिष्कार करने वाले नैशनल कॉन्फ्रेंस जैसे दल भी इस लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में भाग लेकर इसे समग्र और समावेशी बना रहे हैंI

एकात्मता दिवस विकास और बदलाव के इस सपने को साकार करने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले महापुरुषों को याद करने का दिन है। उनके जीवन-संघर्ष और चिंतन को आत्मसात करके और भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता को समर्पित होकर ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है। “एक विधान, एक निशान! सबको समता और सम्मान” न सिर्फ जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में देश के नीति-नियंताओं का पाथेय बने, बल्कि सम्पूर्ण भारतवर्ष के संदर्भ में इसे अमलीजामा पहनाने की आवश्यकता है। गुलाम कश्मीर भी इसका अपवाद नहीं है ; क्योंकि 26 अक्टूबर, 1948 को महाराजा हरिसिंह ने जिस जम्मू-कश्मीर रियासत का अधिमिलन भारतीय अधिराज्य में किया था, पाक-अधिक्रान्त जम्मू-कश्मीर भी उसका अभिन्न और अविभाज्य अंग है। पाकिस्तानी फौज और आई एस आई द्वारा गिलगित-बाल्टिस्तान के लोगों पर ढाये जा रहे जुल्मोसितम से निकलने वाली करुण-पुकार को लंबे समय तक अनसुना नहीं किया जा सकता है। 

इस तरह सुरक्षित रखें मॉनसून में त्वचा को

गर्मी के मौसम में धूप जहाँ त्वचा को झुलसा देती है वहीं मॉनसून में स्किन को थोड़ी ठण्डक मिलती है। वैसे हर मौसम में मेकअप का तरीका अलग होता है, इसलिये मौसम के हिसाब से त्वचा को ट्रीटमेंट देना आवश्यक हो जाता है। बरसात में अगर सही तरह से त्वचा का ध्यान न रखा जाये, तो त्वचा को काफी नुकसान हो सकता है।
बरसात के मौसम में वातावरण में चारों ओर ह्यूमिडिटी के साथ धूलकण व प्रदूषण होते हैं, जो बालों और त्वचा के लिये मुश्किल का कारण बन सकते हैं। बार – बार बालों और त्वचा को वाश करने के बावजूद भी बाल चिपचिपे और बेजान दिखने लगते हैं। पिंपल, एक्ने, त्वचा का रूखापन और उलझे बाल मौसम में बदलाव की आम समस्याएं हैं। ऐसे में जानकारों की मानें तो बारिश में त्वचा का ख्याल रखा जाकर इसे बेहतर बनाया जा सकता है।
मॉश्चराइजर है जरूरी रू ब्यूटीशियन्स के अनुसार इस मौसम में हर वक्त त्वचा को साफ और ड्राई रखने की जरूरत होती है। त्वचा के रोमछिद्र तेल और धूलकणों के कारण बंद हो जाते हैं। तेलीय त्वचा में इस तरह की परेशानी पिंपल और एक्ने होने की वजह बन सकती है।
ब्यूटीशियन्स के अनुसार इस मौसम में ऐसी परेशानी से निजात पाने के लिये त्वचा की माइल्ड फेसवाश से सफाई और एक्साफोलियेट बहुत जरूरी है। वहीं रूखी त्वचा वाले लोग त्वचा में और भी रूखापन फील करते हैं। इस सीजन में आवश्यक है कोई मॉश्चराइजर का इस्तेमाल करें। जो त्वचा के ऊपरी लेयर में पानी को एब्जॉर्ब करके त्वचा में मॉइश्चर को संतुलित रखने में मदद करता है और त्वचा को नरम और कोमल बनाये रखता है।
पपीता और बादाम से करें सफाई रू ब्यूटीशियन्स के अनुसार रूखी त्वचा की सफाई के लिये करने के लिये बादाम का पॉउडर और शहद के पेस्ट को चेहरे पर लगाकर 10 मिनिट के बाद स्क्रब करते हुए चेहरा साफ कर लें।  इससे चेहरे पर निखार आ जायेगा। तेलीय त्वचा के लिये ओटमिल स्क्रब या पके पपीते का पल्प इस्तेमाल किया जा सकता है।
ब्यूटीशियन्स के अनुसार ड्राई स्किन को मॉश्चराइज करने के लिये आप शहद, दही और जजोबा आयल के पेस्ट को दस मिनिट तक चेहरे में लगाकर ठण्डे पानी से साफ करके अच्छा नतीजा पाया जा सकता है। तेलीय त्वचा के लिये गुलाबजल में थोड़ा स्ट्राबेरी का पल्प मिलाकर चेहरे पर लगाया जा सकता है।
यह टिप्स हैं खास रू सबसे पहले जितना हो सके फाउण्डेशन को नजर अंदाज करें। इसके स्थान पर फेस पाउडर लगायें, वो भी सीमित मात्रा में। अगर फाउण्डेशन लगाना भी चाहती हैं तो वॉटर प्रूफ फाउण्डेशन ही लगायें। इस मौसम में मस्कारा से दूर रहें। लिक्विड आई लाईनर लगाने की बजाय पेंसिल आई लाईनर ही लगायें।
ब्लशिंग के लिये इस मौसम में क्रीम ब्लशर्स यूज करें। आईशेडो के लिये लाईट कलर्स जैसे पिंक, ब्राउन आदि को चुनें। लिप्स पर लिप ग्लॉस की बजाय लिपस्टिक ही लगायें। क्रीम शेडो के स्थान पर पॉउडर शेडो को यूज करना बेस्ट है।

हे भाई स्वदेश को अपना देश समझो

—विनय कुमार विनायक
हे भाई स्वदेश को अपना देश समझो,
तुममां भारती के स्वदेशी बेटे हो
अपने स्वदेशी धर्म में वापसी कर लो!

हे भाई स्वमाता-पिता को अपना समझो,
तुम अरबी,तुर्की मूलके वासिंदेनहीं हो
फिरविदेशी मजहब के गुलाम क्यों बने हो!

हे भाई तुमने क्यों परित्याग कर दिया,
देशी धर्म,संस्कृति,शास्त्रऔ’दर्शनको
अपना लिए अबूझ मजहबी किताब को!

हे मानव अपनेस्वदेशी भाई-बहनोंसे
क्योंनफरत करते होकाफिर कहकर
खुद केलिएकसाई संबोधनमिटा दो!

माना विदेशी गुलामी से उबर गए हो,
पर विदेशी धर्म से कबतक उबरोगे
कि तुम नहीं हो विदेशी नस्ल,वंश के!

इतनी छोटी-सीबात को तुम कब समझोगे
कि तुम महमूद गजनवी, मुहम्मद गोरी,
अलाउद्दीन,बाबर, तैमूरके वंशज नहीं हो!

कि तुम पर विदेशी आक्रांताओं नेथोपाहै,
विदेशीइस्लाम और ईसाई मजहबको
तुम कबतक मानते रहोगे विदेशीमजहब?

ये सिर्फ धार्मिक नहीं, भाषाई गुलामी भी है,
अपनी भाषा छोड़कर तुम पिछड़ रहे हो,
शैक्षणिक एवं सरकारीसेवा केक्षेत्रों में भी!

नाहक अरबी, फारसी,उर्दू, अंग्रेजी के फेर मेंहो,
रोजी-रोटी के लिए देशी भाषा अपना लो,
मत इतराओ विदेशी धर्म, भाषा, संस्कृति पर!

विदेशी धर्म-मजहब घृणा और आतंक के सिवा
कुछ भी सत्कर्म और मानवता नहीं सिखाते
विदेशी मजहब ईश्वर, रब,खुदा में भेद बतलाते!

खोखलेहोतेविदेशी धर्म, रीति-रिवाज,संस्कृति,
विदेशीमजहब सेविकृत हो जाती मति
मिलता नहींमानवकोसन्मार्ग, सत्संग,सद्गति!

अगर चहुंओरतरक्की करना हो तो प्यारेभाई,
अपनी धर्म, संस्कृति और भाषा में वापस आओ,
विदेशी ड्रेस कोड, दिखावा कोपरित्याग कर दो!

भेदभावपूर्ण और वर्जनायुक्त मजहब को त्यागो,
छोड़ोविदेशी धार्मिक,मानसिक, भाषाईगुलामीको,
तार्किक,नैतिक,स्वदेशीमूल केधर्म अपनाओ!

अपनी मां-माटी, पैतृक धर्म-संस्कृति कोत्यागकर
नकलची विदेशी मजहबी होना गौरव की बात नहीं,
स्वदेशी का विधर्मी होना स्वराष्ट्रके हित मेंनहीं!