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युवाओं की आंखों में स्वप्न ही नहीं, बल्कि सच भी

अन्तर्राष्ट्रीय युवा दिवस, 12 अगस्त 2021 पर विशेष

– ललित गर्ग –

सारी दुनिया प्रतिवर्ष 12 अगस्त को अन्तर्राष्ट्रीय युवा दिवस मनाती है। सन् 2000 में अंतर्राष्ट्रीय युवा दिवस का आयोजन आरम्भ किया गया था। यह दिवस मनाने का मतलब है कि पूरी दुनिया की सरकारें युवा के मुद्दों और उनकी बातों पर ध्यान आकर्षित करे। न केवल सरकारें बल्कि आम-जनजीवन में भी युवकोें की स्थिति, उनके सपने, उनका जीवन लक्ष्य आदि पर चर्चाएं हो। युवाओं की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्तर पर भागीदारी सुनिश्चित की जाए। इन्हीं मूलभूत बातों एवं युवा संभावनाओं को नये पंख देने के लिये यह दिवस मनाया जाता है। जैसाकि जीनएंजिलों ने कहा भी है कि यौवन! त्ेरी आशाएं कितनी प्रेरक होती हैं। सूर्यमुखी पुष्पों की भांति वे सदा आलोक-पक्ष की ओर उन्मुख रहती हैं।’
 संयुक्त राष्ट्र ने अन्तर्राष्ट्रीय युवा दिवस की पृष्ठभूमि पर 1977 में काम करना प्रारम्भ किया था। चार चरणों की महत्त्वपूर्ण बैठक के बाद 1985 में संयुक्त राष्ट्र ने पहले ‘अंतर्राष्ट्रीय युवा पर्व’ की घोषणा की। दस वर्ष पूरे होने पर संयुक्त राष्ट्र ने युवाओं की स्थिति सुधारने के लिए वैश्विक कार्यक्रम की संकल्पना की। जिसमें शिक्षा, रोजगार, भूख, गरीबी, स्वास्थ्य, पर्यावरण, नशा मुक्ति, बाल अपराध, अवकाश के दौरान की गई गतिविधियाँ, सूचना और संचार प्रौद्योगिकी, एड्स, युवा से जुड़े विवाद और पीढ़ीगत सम्बन्ध आदि पंद्रह सूत्रीय समस्याओं को केंद्र में रखा गया। इसके बाद सन् 2000 में  ‘अन्तर्राष्ट्रीय युवा दिवस’ पहली बार मनाया गया, जिसकी तिथि 12 अगस्त घोषित की गई। इसका उद्देश्य युवाओं में गुणवत्तापूर्ण विकास करना और उन्हें सामाजिक एवं राष्ट्रीय सहभागिता के लिए तैयार करना है। हालांकि यह एक कैथोलिक मान्यता के अंतर्गत शुरू किया गया था, लेकिन वर्तमान परिदृश्य और वैश्विक रूप में युवाओं की बढ़ती भागीदारी से यह सभी सीमाओं को लाँघकर विश्वभर में मनाया जाने लगा।
युवा किसी भी देश का वर्तमान और भविष्य हैं। वो देश की नींव हैं, जिस पर देश की प्रगति और विकास निर्भर करता है। लेकिन आज भी बहुत से ऐसे विकसित और विकासशील राष्ट्र हैं, जहाँ नौजवान ऊर्जा व्यर्थ हो रही है। कई देशों में शिक्षा के लिए जरूरी आधारभूत संरचना की कमी है तो कहीं प्रछन्न बेरोजगारी जैसे हालात हैं। इन स्थितियों के बावजूद युवाओें को एक उन्नत एवं आदर्श जीवन की ओर अग्रसर करना वर्तमान की सबसे बड़ी जरूरत है। युवा सपनों को आकार देने का अर्थ है सम्पूर्ण मानव जाति के उन्नत भविष्य का निर्माण। यह सच है कि हर दिन के साथ जीवन का एक नया लिफाफा खुलता है, नए अस्तित्व के साथ, नए अर्थ की शुरूआत के साथ, नयी जीवन दिशाओं के साथ। हर नई आंख देखती है इस संसार को अपनी ताजगी भरी नजरों से। इनमें जो सपने उगते हैं इन्हीं में नये समाज की, नयी आदमी की नींव रखी जाती है।
विचारों के नभ पर कल्पना के इन्द्रधनुष टांगने मात्र से कुछ होने वाला नहीं है, बेहतर जिंदगी जीने के लिए मनुष्य को संघर्ष आमंत्रित करना होगा। वह संघर्ष होगा विश्व के सार्वभौम मूल्यों और मानदंडों को बदलने के लिए। सत्ता, संपदा, धर्म और जाति के आधार पर मनुष्य का जो मूल्यांकन हो रहा है मानव जाति के हित में नहीं है। दूसरा भी तो कोई पैमाना होगा, मनुष्य के अंकन का, पर उसे काम में नहीं लिया जा रहा है। क्योंकि उसमें अहं को पोषण देने की सुविधा नहीं है। क्योंकि वह रास्ता जोखिम भरा है। क्योंकि उस रास्तें में व्यक्तिगत स्वार्थ और व्यामोह की सुरक्षा नहीं है। युवापीढ़ी पर यह दायित्व है कि संघर्ष को आमंत्रित करे, मूल्यांकन का पैमाना बदले, अहं को तोड़े, जोखिम का स्वागत करे, स्वार्थ और व्यामोह से ऊपर उठे। युवा दिवस मनाने का मतलब है-कोई ऐसा सकारात्मक कार्यक्रम हाथ में लेना होगा, जिसमें निर्माण की प्रक्रिया अपनी गति से चलती रहे। विशेषतः राजनीति में युवकों की सकारात्मक एवं सक्रिय भागीदारी को सुनिश्चित करना होगा।
स्वामी विवेकानन्द ने भारत के नवनिर्माण के लिये मात्र सौ युवकों की अपेक्षा की थी। क्योंकि वे जानते थे कि युवा ‘विजनरी’ होते हैं और उनका विजन दूरगामी एवं बुनियादी होता है। उनमें नव निर्माण करने की क्षमता होती है। अर्नाल्ड टायनबी ने अपनी पुस्तक ‘सरवाइविंग द फ्यूचर’ में नवजवानों को सलाह देते हुए लिखा है ‘मरते दम तक जवानी के जोश को कायम रखना।’ उनको यह इसलिये कहना पड़ा क्योंकि जो जोश उनमें भरा जाता है, यौवन के परिपक्व होते ही उन चीजों को भावुकता या जवानी का जोश कहकर भूलने लगते हैं। वे नीति विरोधी काम करने लगते है, गलत और विध्वंसकारी दिशाओं की ओर अग्रसर हो जाते हैं। इसलिये युवकों के लिये जरूरी है कि वे जोश के साथ होश कायम रखे। वे अगर ऐसा कर सके तो भविष्य उनके हाथों संवर सकता है। इसीलिये सुकरात को भी नवयुवकों पर पूरा भरोसा था। वे जानते थे कि नवयुवकों का दिमाग उपजाऊ जमीन की तरह होता है। उन्नत विचारों का जो बीज बो दें तो वही उग आता है। एथेंस के शासकों को सुकरात का इसलिए भय था कि वह नवयुवकों के दिमाग में अच्छे विचारों के बीज बोनेे की क्षमता रखता था।
 आज की युवापीढ़ी में उर्वर दिमागों की कमी नहीं है मगर उनके दिलो दिमाग में विचारों के बीज पल्लवित कराने वालेे स्वामी विवेकानन्द और सुकरात जैसे लोग दिनोंदिन घटते जा रहे हैं। कला, संगीत और साहित्य के क्षेत्र में भी ऐसे कितने लोग हैं, जो नई प्रतिभाओं को उभारने के लिए ईमानदारी से प्रयास करते हैं? हेनरी मिलर ने एक बार कहा था- ‘‘मैं जमीन से उगने वाले हर तिनके को नमन करता हूं। इसी प्रकार मुझे हर नवयुवक में वट वृक्ष बनने की क्षमता नजर आती है।’’ महादेवी वर्मा ने भी कहा है ‘‘बलवान राष्ट्र वही होता है जिसकी तरुणाई सबल होती है।’’ युवापीढ़ी के सामने दो रास्ते हैं- एक रास्ता है निर्माण का दूसरा रास्ता है ध्वंस का। जहां तक ध्वंस का प्रश्न है, उसे सिखाने की जरूरत नहीं है। अनपढ़, अशिक्षित और अक्षम युवा भी ध्वंस कर सकता है। वास्तव में देखा जाए तो ध्वंस क्रिया नहीं, प्रतिक्रिया है। उपेक्षित, आहत, प्रताड़ित और महत्वाकांक्षी व्यक्ति खुले रूप में ध्वंस के मैदान में उतर जाता है। उसके लिए न योजना बनाने की जरूरत है और न सामग्री जुटाने की। योजनाबद्ध रूप में भी ध्वंस किया जाता है, पर वह ध्वंस के लिए अपरिहार्यता नहीं है।
नया भारत निर्मित करते हुए हमें अब युवा पीढ़ी के सपनों को टूटते-बिखरते हुए नहीं रहने देना है। युवापीढ़ी से भी अपेक्षा करते हैं कि वे सपने देखें, हमारी युवापीढ़ी सपने देखती भी है, वह अक्सर एक कदम आगे का सोचती है, इसी नए के प्रति उनके आग्रह में छिपा होता है विकास का रहस्य। कल्पनाओं की छलांग या दिवास्वप्न के बिना हम संभावनाओं के बंद बैग को कैसे खंगाल सकते हैं? सपने देखना एक खुशगवार तरीके से भविष्य की दिशा तय करना ही तो है। किसी भी युवा मन के सपनों की विविधता या विस्तार उसके महान या सफल होने का दिशा-सूचक है। स्वप्न हर युवा-मन संजोता है। यह बहुत आवश्यक है। खुली आंखों के सपने जो हमें अपने लक्ष्य का गूढ़ नक्शा देते हैं। एक नरेन्द्र यानी स्वामी विवेकानन्द से दूसरे नरेन्द्र यानी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रयत्नों में इन युवा सपनों को सचमुच पंख लगने चाहिए, रोजगार एवं व्यापार को प्रोत्साहन मिलना चाहिए, देश निर्माण में उनकी भागीदारी को सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
मूल प्रश्न है कि क्या हमारे आज के नौजवान भारत को एक सक्षम देश बनाने का स्वप्न देखते हैं? या कि हमारी वर्तमान युवा पीढ़ी केवल उपभोक्तावादी संस्कृति से जन्मी आत्मकेन्द्रित पीढ़ी है? दोनों में से सच क्या है? दरअसल हमारी युवा पीढ़ी महज स्वप्नजीवी पीढ़ी नहीं है, वह रोज यथार्थ से जूझती है, उसके सामने भ्रष्टाचार, आरक्षण का बिगड़ता स्वरूप, महंगी होती जाती शिक्षा, कैरियर की चुनौती और उनकी नैसर्गिक प्रतिभा को कुचलने की राजनीति विसंगतियां जैसी तमाम विषमताओं और अवरोधों की ढेरों समस्याएं भी हैं। उनके पास कोरे स्वप्न ही नहीं, बल्कि आंखों में किरकिराता सच भी है। इन जटिल स्थितियों से लौहा लेने की ताकत युवक में ही हैं। क्योंकि युवक शब्द क्रांति का प्रतीक है। इसीलिये युवापीढ़ी पर यह दायित्व है कि वह युवा दिवस पर कोई ऐसी क्रांति करे, जिससे युवकों को जीवनशैली में रचनात्मक परिवर्तन आ सके, हिंसा-आतंक-नशा की राह को छोड़कर वे निर्माण की नयी पगडंडियों पर अग्रसर हो सके। 

इंटरनेट गेमों की खुमारी में गुम होता बचपन

-ः ललित गर्ग :-
कोरोना महामारी के लाॅकडाउन के कारण स्कूली शिक्षा आॅनलाइन हुई और छोटे-छोटे बच्चें इंटरनेट की दुनिया एवं इंटरनेट गेमों से जुड़ गये। ये गेम एवं इंटरनेट की बढ़ती लत बच्चों में अनेक विसंगतियों, मानसिक विकारों एवं अस्वास्थ्य के पनपने का कारण बनी है, यह आदत बच्चों को एकाकीपन की ओर ले जाती है और एक समय के बाद वे अवसाद (डिप्रेशन) से घिर जाते हैं। बच्चे इंटरनेट गेम के आदी हो रहे हैं, धीरे-धीरे अपनी पढ़ाई और सामाजिक हकीकत से दूर होकर आभासी दुनिया के तिलिस्मी संसार में रमते जा रहे हैं। इस खौफनाक संसार ने बच्चों को आत्महत्या करने या हत्या करने की विवशता दी है, जो नये बनते समाज के लिये बहुत ही चिन्ता का विषय है।
इसी चिन्ता के मद्देनजर दिल्ली उच्च न्यायालय ने बुधवार को केंद्र सरकार से कहा कि वह बच्चों को आॅनलाइन गेम की लत से बचाने के लिए राष्ट्रीय नीति बनाने पर गंभीरता से विचार करें। दरअसल, बच्चों के बीच आॅनलाइन गेम खेलने की लत अब एक व्यापक समस्या बनती जा रही है, इसके घातक परिणाम भी सामने आ रहे हैं और लोगों के बीच इसे लेकर चिंता बढ़ रही हैं। कोरोना महामारी से पहले घरों में बच्चे अगर ज्यादा वक्त टीवी, कंप्यूटर या स्मार्टफोन में व्यस्त रहते थे तब अभिभावक उन्हें टोक देते थे। लेकिन अब आनलाइन पढ़ाई होने की वजह से हर वक्त बच्चे इंटरनेट से जुड़े रहते हैं। जब बच्चों के खेलने, मिलने-जुलने एवं परिचितों के यहां जाने की स्थितियां समाप्तप्राय है तब उन्हें खुद को व्यस्त रखने का आसान रास्ता इंटरनेट की दुनिया में व्यस्त होना लगता है।
आज इंटरनेट का दायरा इतना असीमित है कि अगर उसमें सारी सकारात्मक उपयोग की सामग्री उपलब्ध हैं तो बेहद नुकसानदेह, आपराधिक और सोचने-समझने की प्रक्रिया को बाधित करने वाली गतिविधियां भी बहुतायत में मौजूद हैं। आवश्यक सलाह या निर्देश के अभाव में बच्चे आॅनलाइन गेम या दूसरी इंटरनेट गतिविधियों के तिलिस्मी दुनिया में एक बार जब उलझ जाते हैं तो उससे निकला मुश्किल हो जाता है। इंटरनेट पर बच्चों के लिये चर्चित गेम है ‘ब्लू व्हेल‘। इस गेम की वजह से कई बच्चों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। इस गेम में कुछ टास्क पूरे करने होते थे और बच्चे उसमें उलझते चले जाते थे। इस गेम का अंतिम टास्क ‘आत्महत्या’ होता था। इस तरह के गेमों के कारण बच्चों की लगातार हो रही आत्महत्या, बढ़ते तनाव एवं अवसाद की घटनाओं को देखते हुए न्यायालय को इसमें हस्तक्षेप करते हुए इन गेमों पर बैन लगाना पड़ा।
पांच वर्ष से अठारह वर्ष के बच्चों में मोबाइल या टेक्नोलॉजी एडिक्शन की लत बढ़ रही है, जिनमें स्मार्ट फोन, स्मार्ट वॉच, टैब, लैपटॉप आदि सभी शामिल हैं। यह समस्या केवल भारत की नहीं, बल्कि दुनिया के हर देश की है। ऐसे अनेक रोगी बच्चें अस्पतालों में पहुंच रहे हैं, जिनमें इस लत के चलते बच्चे बुरी तरह तनावग्रस्त थे। कुछ दोस्त व परिवार से कट गए, कुछ तो ऐसे थे जो मोबाइल न देने पर पेरेंट्स पर हमला तक कर देते थे। बच्चे आज के समय में अपने आप को बहुत जल्दी ही अपनी उम्र से ज़्यादा बड़ा महसूस करने लगे हैं। अपने ऊपर किसी भी पाबंदी को बुरा समझते हैं, चाहे वह उनके हित में ही क्यों ना हो।
जब हम कोरोनाकाल के संकटों की बात करते हैं तो इसके दुष्प्रभावों में अर्थव्यवस्था के नुकसान, बेरोजगारी, सामुदायिक स्वास्थ्य पर खतरों को गिनते हैं लेकिन बच्चों के स्वास्थ्य और आनलाइन शिक्षा के खतरों को भूल जाते हैं। बड़ा तबका हाई स्कूल और हायर सेकेंडरी के बच्चों के कॅरियर के लिए महत्वपूर्ण एक साल बिगड़ने की तो चिन्ता तो करता है, लेकिन उनका जीवन तबाह होने की कोई चिंता नहीं करता है। कोरोना संकट के बीच बच्चों की सेहत, पनप रही गलत आदतों और पढ़ाई को लेकर हमारी चिंताएं वास्तव में बहुत सतही हैं। मनोचिकित्सकों का कहना है कि मोबाइल एडिक्शन एक गंभीर रोग है। इसका सबसे ज्यादा असर बच्चों के दिमाग पर पड़ रहा है। ऐसे मामले तेजी से बढ़ रहे हैं, जिनमें बच्चों में बढ़ती आभासी दुनिया की लत उन्हें तनाव दे रही है, अवसादग्रस्त बना रही है, हिंसक बना रही है।
इंटरनेट की यह आभासी दुनिया ना जाने और कितने सूरज व छोटे बच्चों को अपनी जाल में फंसाएगी और उनका जीवन तबाह करेगी। बच्चों के इंटरनेट उपयोग पर निगरानी व उन्हें उसके उपयोग की सही दिशा दिखाना बेहद ज़रूरी है। यदि मोबाइल की स्क्रिन और अंगुलियों के बीच सिमटते बच्चों के बचपन को बचाना है, तो एक बार फिर से उन्हें मिट्टी से जुड़े खेल, दिन भर धमा-चैकड़ी मचाने वाले और शरारतों वाली बचपन की ओर ले जाना होगा। ऐसा करने से उन्हें भी खुशी मिलेगी और वे तथाकथित इंटरनेट से जुड़े खतरों से दूर होते चले जाएंगे। अक्सर ऐसी खबरें आती रहती हैं कि किसी बच्चे ने आॅनलाइन गेम में जुआ खेलने में काफी पैसे गंवा दिए। कभी अभिभावक ने ज्यादा खेलने से मना किया तो तनाव में आकर बच्चे ने खुदकुशी कर ली। ऐसी घातक घटनाएं भले ही आम नहीं हों, लेकिन इतना तय है कि आने वाले समय के समाज की खौफनाक एवं त्रासद तस्वीर बयां कर रही है। इंटरनेट की दुनिया में जरूरत से ज्यादा व्यस्तता बच्चों के कोमल मन-मस्तिष्क पर न केवल घातक बल्कि आपराधिक असर भी डाल रही है और उन्हें मनोवैज्ञानिक रूप से गहराई से प्रभावित कर रही है। इक्कीसवीं सदी के आरम्भ से ही दुनिया भर के घरों में इंटरनेट ने अपनी पैठ बनानी प्रारम्भ कर दी थी, लेकिन कोरोना महामारी ने यह लत और गहरी पैठा दी है। पहले यह घरों तक पहुंचा, फिर इंसान की जिंदगी में घुसा और अब उनके दिलों-दिमाग पर हावी है। इस इंटरनेट की आभासी दुनिया का सबसे ज़्यादा दुष्प्रभाव बच्चों के नाजूक मन पर पड़ रहा है और इसके कुचक्र से वे बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। इसके लिए स्वयं बच्चों से ज़्यादा उनके माता-पिता उत्तरदायी हैं जिनके पास अपने बच्चों के लिए समय ना होने के कारण उन्हें मोबाइल और इंटरनेट का झुनझुना दे दिया जाता है।
कोरोना महामारी की मार से ज्यादातर लोगों का सामाजिक दायरा बेहद छोटा होकर परिवार और अपने घर में सिमट गया है और इसके सबसे ज्यादा शिकार बच्चे हुए हैं। आॅनलाइन व्यस्तता बच्चों और युवाओं को दुनिया की वास्तविकता से भागने की सुविधा मुहैया कराती है। वे समस्याओं से लड़ने के बजाय आभासी दुनिया के तिलिस्मी संसार में अपने मानसिक खालीपन की भरपाई खोजने लगते हैं। मगर उनकी ऐसी सामान्य-सी लगने वाली गतिविधियां जब लत में तब्दील हो जाती हैं तब उन्हें संभालना मुश्किल हो जाता है। इसमें दो राय नहीं कि आधुनिक तकनीकी से लैस संसाधनों और खासतौर पर इंटरनेट ने आम लोगों की जिंदगी को आसान बनाया है। लेकिन यह व्यक्ति के विवेक पर निर्भर है कि वह इन संसाधनों का सकारात्मक इस्तेमाल करता है या नकारात्मक।
इंटरनेट के संसार से जुड़े कुछ बुरे प्रभाव हैं साइबर बुलिंग या साइबर स्टॉकिंग।  इंटरनेट के ज़रिए खेले जाने वाले हिंसक गेम और इस आभासी संसार में फैली झूठी खबरें व अफवाहें बच्चों को तुरंत उत्तेजित कर किसी भी बात पर त्वरित प्रतिक्रिया देने को मजबूर कर देती हैं। साइबर बुलिंग, स्टॉकिंग या हैकिंग भले ही अलग-अलग नाम हैं लेकिन इनके अर्थ लगभग एक ही हैं। सरल शब्दों में कहें तो इन शब्दों का मतलब है ऑनलाइन किसी का पीछा करना, उसे परेशान करना, उसका डाटा या जानकारियां चुराकर ब्लैकमेल करना। साइबर बुलिंग की चपेट में बच्चे काफी जल्दी आ जाते हैं। इंटरनेट के बढ़ते प्रयोग की वजह से साइबर अपराधों की संख्या भी बढ़ रही है। हमारी सरकार एवं सुरक्षा एजेंसियां इन अपराधों से निपटने में विफल साबित हो रही हैं।

भारतीय स्वतन्त्रता का मूल है अक्षुण्ण एकता

डॉ.शंकर सुवन सिंह

भारत में स्वतंत्रता दिवस को बहुत अहम दिन माना जाता है। 200 साल की लम्बी लड़ाई के बाद 15 अगस्त 1947 को भारत को ब्रिटिश हुकूमत से पूर्ण रूप से आजादी मिली। स्वतंत्रता दिवस,1947 में ब्रिटिश शासन के अंत और स्वतंत्र भारतीय राष्ट्र की स्थापना का प्रतीक है। यह दो देशों,भारत और पाकिस्तान में उपमहाद्वीप के विभाजन की सालगिरह का प्रतीक है,जो 14 से 15 अगस्त,1947 की मध्यरात्रि को हुआ था। भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 14 अगस्त मध्यरात्रि को’ट्रिस्ट वीद डेस्टिनी’भाषण के साथ भारत की आजादी की घोषणा की। तब से हर साल 15 अगस्त को भारत में स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है,जबकि पाकिस्तान में स्वतंत्रता दिवस 14 अगस्त को मनाया जाता है। 15 अगस्त 1947 में भारत आजाद हुआ था। इसलिए भारत इस दिन को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाता है। यह भारत का राष्ट्रीय दिवस है। स्वतन्त्रता दिवस से सभी भारतीयों की भावनाएं जुडी हुई हैं।

अंग्रेजों ने भारतीय उपमहाद्वीप पर अपना पहला चौकी 1619 ई. में सूरत के उत्तर-पश्चिमी तट पर स्थापित किया। उस शताब्दी के अंत तक,ईस्ट इंडिया कंपनी ने मद्रास,बॉम्बे और कलकत्ता में तीन और स्थायी व्यापारिक स्टेशन खोले थे। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक,ब्रिटिशों ने इस क्षेत्र में अपने प्रभाव का विस्तार जारी रखा,भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश के वर्तमान समय के अधिकांश हिस्सों पर उनका नियंत्रण था। भारत में ब्रिटिश शासन 1757 ई. में शुरू हुआ, जब प्लासी के युद्ध में ब्रिटिश जीत के बाद,अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी ने देश पर नियंत्रण स्थापित करना शुरू कर दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत पर 100 वर्षों तक शासन किया। इसे 1857-58 में भारतीय विद्रोह का सामना करना पड़ा। प्रथम विश्व युद्ध (28 जुलाई 1914–11 नवंबर 1918) के दौरान भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन शुरू हुआ। इसका नेतृत्व मोहनदास करमचंद गांधी ने किया था। महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन के शांतिपूर्ण और अहिंसक अंत की वकालत की। पूरे भारत में स्वतंत्रता दिवस को,झंडा उठाने वाले समारोहों,कवायदों और भारतीय राष्ट्रगान के गायन के साथ चिह्नित किया जाता है। पुरानी दिल्ली के लाल किले के ऐतिहासिक स्मारक में प्रधानमंत्री के झंडा चढ़ाने के समारोह में भाग लेने के बाद,एक परेड सशस्त्र बलों और पुलिस के सदस्यों के साथ होती है। प्रधानमंत्री तब देश को एक टेलिविज़न के माध्यम से एड्रेस देते हैं। यह एड्रेस  भारत की प्रमुख उपलब्धियों को बताता है और भविष्य की चुनौतियों और लक्ष्यों को रेखांकित करता है। 15 अगस्त  को राजपत्रित अवकाश  रखा जाता है। भारत में वर्ष 2021 में 75 वाँ स्वतन्त्रता दिवस मनाया जा रहा है। स्वाधीनता के 74 वर्ष पूरे हो गए। इस बार का स्वतंत्रता दिवस सार्वजनिक भागीदारी पर आधारित है। सत्र 2021 ई. का स्वतन्त्रता दिवस पांच विषयों को लेकर मनाया जाएगा। ये पांच विषय हैं- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और भारतीय दृष्टिकोण (विचार),भारत की उपलब्धियां,कार्य एवं दृढ संकल्प। स्वतन्त्रता के बाद व्यवस्था क्षीण होती गई। स्वतन्त्रता जैसे शब्द,शब्द तक ही सीमित रह गए। स्वतन्त्रता का अनुपालन सही मायने में नहीं हो सका। सत्य और अहिंसा विरोधी रथ पर सवार हो सत्ता के चरम शिखर पर पहुँचने वाले सुधारकों की मनोदशा ठीक नहीं है। सुधारकों की प्रवृत्ति ठीक होती तो देश में आरक्षण को लेकर राजनीति न होती। भ्रष्ट प्रशासन,शिक्षा से लेकर न्याय तक का राजनैतिककरण होना,लोकतंत्रात्मक प्रणाली का जुगाड़ तंत्रात्मक हो जाना आदि अन्य सामाजिक कुरीतियों ने जन्म ले लिया। भारत में लोकतंत्र है और राजनेताओं ने लोकतंत्र का आधार,आरक्षण को बना दिया है। 25/08/1949 ई में संविधान सभा में अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति आरक्षण को मात्र 10 वर्ष तक सिमित रखने के प्रस्ताव  पर एस.नागप्पा व बी.आई.मुनिस्वामी पिल्लई आदि की आपत्तियां आई। डॉक्टर अम्बेडकर ने कहा मैं नहीं समझता कि हमे इस विषय में किसी परिवर्तन की अनुमति देनी चाहिए। यदि 10 वर्ष में अनुसूचित जातियों की स्थिति नहीं सुधरती तो इसी संरक्षण को प्राप्त करने के लिए उपाए ढूढ़ना उनकी बुद्धि शक्ति से परे न होगा। आरक्षण वादी लोग,डॉ.अम्बेडकर की राष्ट्र सर्वोपरिता की क़द्र नहीं करता। आरक्षण वादी लोगों ने राष्ट्र का संतुलन ख़राब कर दिया है। अतएव शिक्षित व योग्य व्यक्ति को शोषण का शिकार होना पड़ रहा है। इस प्रकार की आरक्षित कोटे की शिक्षा विकास कि उपलब्धि नहीं है। यह विकास के नाम पर अयोग्य लोगों को शरण देने वाली बात है। किसी भी देश के विकास में आरक्षण अभिशाप है। ताजा स्थिति यह है कि आरक्षण राष्ट्रीय विकास पर हावी है। अखंड(अक्षुण्ण) भारत में,आरक्षण दीमक का काम कर रहा है। आरक्षण,भारत को अखंड (अक्षुण्ण) भारत बनाने की दिशा में हानिकारक सिद्ध हो रहा है। आरक्षण समुदाय की स्वतन्त्रता में बाधक है। बिना अखण्डता के स्वतंत्र नहीं हुआ जा सकता है। अतएव आरक्षण लोगों की स्वतन्त्रता में बाधक है। अखंड भारत के लिए आरक्षणमुक्त भारत होंना जरुरी है। आरक्षण,अखंडता  की निशानी नहीं है। आरक्षण,समाज को खंडित करने की निशानी है। आरक्षण,विकलांगता की निशानी है। आरक्षण किसी भी प्रकार की स्वतन्त्रता में बाधक है। स्वतन्त्रता चार उपादानों में निहित है – 1. स्वदेशी,2. स्वाधीन,3. स्वावलम्बी,4. स्वाभिमानी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का”आत्मनिर्भर भारत” का सपना भारत को स्वदेशी बनाने में अहम् भूमिका निभाएगा।  मरने से पहले किसी का ऋण लेकर न मरना यह वाक्य कहने वाला भारत जैसा देश,अरबों रुपयों के विदेशी कर्ज का ऋणी है। अल्प परिमाण में जो स्वाभिमान है,वह सिर्फ भारतीय इतिहासकारों ने बचा रखा है। अतः स्वतन्त्रता  को पुनः जीवित करने के लिए स्वदेशिता, स्वभिमानिता,स्वाधीनता एवं स्वावलम्बन को अपने निजी जीवन में उतारना होगा। अक्षुण्ण भारत (अखंड भारत) स्वदेशी,स्वावलम्बन,और स्वाधीनता को बल प्रदान करता है। जब भारत अखंड/अक्षुण्ण होगा तभी वो अपनी पुरानी संस्कृति व सभ्यता को बचा पाएगा। किसी भी देश की संस्कृति व सभ्यता वहां लोगों को  आत्मबल प्रदान करती है। भारत की संस्कृति बहुआयामी है। जैसा की उपनिषद में कहा गया है- “नायं आत्मा बल हीनेंन लभ्यः” अर्थात यह आत्मा बलहीनो को नहीं प्राप्त होती है। कहने का तातपर्य है कि बिना आत्मबल के सफलता अर्जित नहीं  की जा सकती  है। यही आत्मबल राष्ट्र के विकास में अहम् भूमिका निभाता है। भारत के कुछ राज्यों को लेकर आए दिन सीमा विवाद  तूल पकड़ लेता है। अभी हाल ही में असम और मिजोरम के बीच 49 साल से चल रहे सीमा विवाद ने को उग्र रूप धारण कर लिया। यह दो राज्यों के बीच का सीमा विवाद ना होकर भारत और चीन के बीच का सीमा विवाद बन गया है। भारत और चीन के बीच झड़पों में दशकों से बन्दूक और गोला बारूद का इस्तमाल नहीं किया जाता।  असम और मिजोरम का सीमा विवाद इतना भयावह हो गया था कि वो बंदूकें जिन्हें पुलिस को आतंकवादियों और अपराधियों से लड़ने के लिए दिए जाते हैं,वह एक दूसरे पर दाग दिए गए। वह हथियार जो कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए दिया जाता है,उसका इस्तमाल कानून तोड़ने के लिए किया गया। जो बेहद शर्मनाक और निन्दनीय था। जिसमे काफी पुलिस वाले मारे गए। 164.6 किलोमीटर लंबी अंतरराज्‍यीय सीमा मिजोरम और असम को सीमांकित करती है। मिजोरम के तीन जिले आइजल,ममित और कोलासिब असम के तीन जिलों करीमगंज,कछार और हैलाकांडी के साथ अपनी सीमा साझा करते हैं। मिजोरम का दावा है कि उसके लगभग 509 वर्गमील इलाके पर असम का कब्‍जा है। भारत के पूर्वोत्तर  में सिर्फ असम और मिजोरम के बीच ही सीमा विवाद नहीं है। असम का सीमा विवाद नागालैंड,मेघालय और अरुणाचल प्रदेश के साथ भी है। कारण साफ है- अंग्रेजों के ज़माने में सिक्किम को छोड़ कर पूरा पूर्वोत्तर सिर्फ असम राज्य के नाम से ही जाना जाता था। त्रिपुरा,मिजोरम,मेघालय,मणिपुर और नागालैंड का गठन अलग-अलग समय पर असम को विभाजित करके किया गया। अगर पूर्वोत्तर के सीमा विवाद की जड़ तक जाएं,तो इसकी जिम्मेदारी ब्रिटिश हुकूमत और स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस पार्टी की सरकार की है। अंग्रेजों ने ना सिर्फ भारत और तिब्बत के बीच विवादित नक्शा बनाया जिसके फलस्वरूप आज भी भारत और चीन के संबंधों के कटुता है। बल्कि पूर्वोत्तर के कई जंगली हिस्सों का जहां वह जा नहीं सके ठीक से नक्शा नहीं बनाया गया। आज़ादी के बाद नेहरु सरकार ने राज्य पुनर्गठन के लिए एक आयोग का गठन किया। जिसने अंग्रेजों के गलत और अनमने ढंग से बनाये नक्शों के आधार पर ही नये राज्यों का गठन कर दिया। विवाद खत्म नहीं हुआ बल्कि पूर्वोत्तर में आतंकवाद की शुरुआत ही इसी मुद्दे के आधार पर हुई। कांग्रेस सरकार इन विवादों को सुलझाने की जगह उस पर लीपापोती का काम ही करती रही। विभिन्न राज्यों के बीच सीमा का विवाद सिर्फ पूर्वोत्तर तक ही सीमित नहीं है। महाराष्ट्र और कर्नाटक,कर्नाटक और केरल,केरल और आंध्रप्रदेश,पंजाब और हरियाणा के बीच भी विवाद है। यह अलग बात है कि असम और मिजोरम के बीच युद्ध जैसे हिंसक झड़पें कहीं और नहीं हुई। सच्चाई यह है कि आज तक किन्हीं भी दो राज्यों के बीच का सीमा विवाद सुलझा नहीं है। फ़िलहाल असम और मिजोरम के बीच का सीमा विवाद सिर्फ थम गया है,ख़त्म नहीं हुआ है। चूंकि केंद्र और पूरे पूर्वोत्तर में बीजेपी या एनडीए के तहत बीजेपी के सहयोगी दलों की सरकार है। केंद्र सरकार इस विवाद पर सिर्फ टालम टोल (ढुलमुल रवैया) करने में ही सफल हुई है। राज्यों का सीमा विवाद एक ऐसा ज्वालामुखी है जो भविष्य में कभी भी फट सकता है। राज्यों के सीमा विवाद का युद्ध में तब्दील हो जाना अच्छे संकेत नहीं हैं। यही स्थिति रही तो भारत में गृह युद्ध जैसा माहौल हो जाएगा। तब वो दिन दूर नहीं जब विदेशी आक्रांता फिर से भारत को गुलाम बना लेंगे। अब वह समय आ गया है कि राज्यों के पुनर्गठन के लिए एक नए आयोग को गठित किया जाए। आज की ताजा स्थिति यह है कि आरक्षण और राज्यों की सीमाओं का विवाद भारत की स्वतन्त्रता पर हावी हो गए हैं। अभी भारत को सम्पूर्ण स्वतन्त्रता की आवश्यकता हैं। हमें भारत की अक्षुण्ण एकता को बनाए रखना होगा। भारत की अविभाजित एकता ने ही भारत की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। भारत को अखंड भारत बनाने के लिए सभी सामाजिक कुरीतियों को ख़त्म करना होगा। अखंड भारत ही आत्मनिर्भरता की निशानी है। यही अखंड भारत,स्वतन्त्रता का असली परिचायक होगा। अतएव हम कह सकते हैं कि स्वतन्त्रता,अक्षुण्ण एकता की मिसाल है।

क्या यूपी चुनाव में होगा ‘वन टू वन’ मुकाबला


                                    संजय सक्सेना


      लखनऊ। उत्तर प्रदेश की सियासी बिसात गई चुकी है। सभी दलों के नेता बेहद सधे हुए अंदाज में अपनी ‘चाल’ चल रहे हैं। बात चार बड़े दलों की कि जाए तो समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस ने घोषणा कर दी कि वह कोई बड़ा गठबंधन नहीं करेंगे और अकेले अपने दम पर भाजपा यानी योगी सरकार को उखाड़ फेकेंगे। भाजपा विपक्ष की चुनौती से भागने वाली नहीं है।यह बात सब जानते हैं। इससे भी खास बात यह है कि विपक्ष के बिखराव के कारण चुनावी माहौल भाजपा के पक्ष में बनता दिख रहा है। भाजपा के लिए इससे अच्छा कुछ हो ही नहीं सकता था कि यूपी विधान सभा चुनाव के मुकाबले में उसके सामने बिखरा हुआ विपक्ष खड़ा हो। विपक्ष एकजुट नहीं होगा तो, बीजेपी आधी लड़ाई तो वैसे ही जीत लेग। इस बात का अहसास सभी गैर भाजपा दलों को भी है, फिर भी विरोधी दलों के नेता अलग-अलग राप अलाप रहे हैं, यह थोड़ा चौंकाने वाला लगता है। इस तरह से तो भाजपा को ‘वॉक ओवर’ ही मिल जाएगा। 
     फिर भी बात मौजूदा सियासी चहलकदमी के आधार पर गैर भाजपा दलों के नेताओं के बयानबाजी की कि जाए तो उससे जरूर यह लगता है कि विधान सभा चुनाव में मुकाबला ‘कांटे’ का रहेगा? यूपी चुनाव में  कांग्रेस की भूमिका भी नये सिरे से तय होगी। 2014, 2017 और 2019 की तरह इस बार भी कहीं ‘वोट कटुआ’ पार्टी बन कर तो नहीं रह जाएगी ? या फिर प्रियंका की लीडरशिप में कांग्रेस बड़ी खिलाड़ी बनकर उभरेगीं। उधर, उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी का मिशन-2022 के तहत फिर से सत्ता पर काबिज होने का है,लेकिन इनत माम कयासों के बीच भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा के एक बयान ने सियासदारों के दिलों की धड़गन बढ़ा दी है। 
   दरअसल,भाजपा अध्यक्ष नड्डा ने गत दिवस अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए एक अजीब तरह की भविष्यवाणी कर दी थी,जिसमें उनके द्वारा कहा गया था कि अलग-अलग चुनावों में हाथ मिलाकर ताकत आजमा चुकी समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस अभी भले अलग-अलग पाले में खड़ी होकर एक-दूसरे पर हमलावर हों, लेकिन चुनाव के कुछ समय पूर्व यह सभी दल एकजुट हो जाएंगे। 2019 लोकसभा चुनाव के समय प्रदेश के प्रभारी रहे नड्डा की बात को इस लिए भी गंभीरता से लिया जा रहा है क्योंकि की वह यूपी की सियासी नब्ज से वाकिफ हो चुके हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा को ‘अर्जुन’ की आंख से दिख रहा है कि यूपी में विपक्ष का गठबंधन लगभग तय है। नड्डा ने पार्टी को इसी के मुताबिक तैयारी करने के लिए भी कहा है।
     इसके पीछे नड्डा का अपना अनुभव है। यूपी में सपा-बसपा को हमेशा सियासी ही नहीं व्यक्तिगत दुश्मन भी माना जाता था। 2019 के लोकसभा चुनाव में जब नड्डा ने प्रदेश प्रभारी के रूप में चुनावी कमान संभाली थी, तब अप्रत्याशित ढंग से सपा-बसपा के बीच गठबंधन हो गया था। दोनों दल मिलकर भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़े थे। उससे पहले 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा और कांग्रेस ने गठबंधन किया था। हालांकि, गठबंधन की संभावनाओं को जताने के साथ भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने मंत्रियों से यह भी कहा कि गठबंधन से चिंतित कतई नहीं होना है। 2017 और 2019 में भाजपा ने जिस तरह विजय हासिल की, वैसे ही फिर करेगी। फिर भी तैयारी इस चक्रव्यूह को ध्यान में रखते ही करनी है। ध्यान रहे कि किसी भी वर्ग-समाज को छोड़ना नहीं है। सभी को साथ लेकर चलना होगा।
      बहरहाल, भाजपा अध्यक्ष दो दिन के दौरे के दौरान प्रदेश की सियासत को अपने हिसाब से देखने में सफल रहे होंगे। दो दिन के प्रवास पर उत्तर प्रदेश आए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का यूपी प्रवास गत दिवस खत्म हो चुका है। अपने प्रवास के दौरान रविवार को नड्डा आगरा में थे। उससे पहले शनिवार को उन्होंने लखनऊ में मैराथन बैठकें कीं थीं। लखनऊ के इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान में विधानसभा प्रभारियों और जिला पंचायत अध्यक्ष व ब्लाक प्रमुखों को चुनावी गुरुमंत्र देने के बाद प्रदेश मुख्यालय में वह पार्टी के वरिष्ठजनों के साथ प्रदेश के राजनीतिक हालात को परखते रहे। मंत्रियों के साथ अलग बैठक की। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और कोर कमेटी के साथ मंथन किया। फिर देर रात तक राष्ट्रीय महामंत्री संगठन बीएल संतोष, प्रदेश प्रभारी राधा मोहन सिंह, प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह और प्रदेश महामंत्री संगठन सुनील बंसल के साथ चुनावी परिस्थितियों पर चर्चा करते रहे।
    सूत्रों ने बताया कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के मंत्रियों और पदाधिकारियों को नड्डा ने अपना आकलन बता दिया है। चूंकि, अपनी-अपनी ताल ठोंक रहे सभी दल कुछ शर्तों के सहारे गठबंधन की गुंजाइश की खिड़की खोले हैं, इसलिए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा को लग रहा है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में सभी विपक्षी दल मिलकर ही भाजपा से लड़ने के लिए मैदान में उतरेंगे। उनका मानना है कि अभी सभी पार्टियां छोटे दलों को शामिल करने की बात कह रही हैं, लेकिन जैसे ही चुनाव नजदीक आएंगे तो बड़े दल भी भगवा दल की विचारधारा के खिलाफ एकजुट होने में संकोच नहीं करेंगे।
    लब्बोलुआब यह है कि नड्डा को योंहि नहीं लग रहा है कि विपक्ष एकजुट हो जाएगा।पिछले कुछ महीनों के गैर भाजपा दलों के नेताओं के बयान भी भाजपा अध्यक्ष के दावे की पुष्टि करते नजर आ रहे हैं। अभी हाल ही में समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने कहा भी था कि बसपा यह तय कर ले कि उसे सपा से लड़ना है या भाजपा से। इसी तरह से कांग्रेस की लीडरशिप भी सपा-बसपा के प्रति नरम रूख अख्तियार किए हुए हैं। वैसे भी कांग्रेस की मंशा तो शुरू से ही गठबंधन करने की थी,यह और बात है कि सपा-बसपा ने उसे इसका मौका ही नहीं दिया।बात बसपा सुप्रीमों मायावती की कि जाए तो उनके बयानों से तो यह लगता है कि बसपा सुप्रीमों मायावती के लिए भाजपा और समाजवादी पार्टी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वह जितना भाजपा को कोसती हैं,उतना ही उलहाना समाजवादी पार्टी को देती हैं। इसके चलते समाजवादी पार्टी के नेता मायावती पर आरोप भी लगा रहे हैं कि उनकी भाजपा से नजदीकियां बढ़ रही हैं,लेकिन मायावती अपनी चाल से आगे बढ़ती जा रही हैं। उनके मन में जो आ रहा है,वही कर रही हैं।

विनाश की तरफ बढ़ रही है दुनिया

संयुक्त राष्ट्र की आज जारी ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार अगले 20 सालों में दुनिया के तापमान में  1.5 डिग्री सेल्सियस इजाफा तय, ग्लोबल वार्मिंग की इस रफ्तार पर भारत में गर्म चरम मौसम की आवृत्ति में वृद्धि की उम्मीद

धरती की सम्‍पूर्ण जलवायु प्रणाली के हर क्षेत्र में पर्यावरण में हो रहे बदलावों को दुनिया भर के वैज्ञानिक देख रहे हैं। जलवायु में हो रहे अनेक परिवर्तन तो अप्रत्‍याशित हैं जो सैकड़ों-हजारों सालों में भी नहीं देखे गये। कुछ बदलाव तो पहले ही अपना असर दिखाना शुरू कर चुके हैं, जैसे कि समुद्र के जलस्‍तर में लगातार हो रही बढ़ोत्‍तरी। इन बदलावों का असर हजारों सालों तक खत्‍म नहीं किया जा सकता। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्‍लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की आज जारी हुई रिपोर्ट में इन बातों के लिये आगाह किया गया है।
आईपीसीसी वर्किंग ग्रुप वन की रिपोर्ट ‘क्लाइमेट चेंज 2021: द फिजिकल साइंस बेसिस’ के मुताबिक हालांकि कार्बन डाइऑक्साइड तथा अन्य ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में मजबूत और सतत कटौती किए जाने से जलवायु परिवर्तन सीमित हो जाएगा। जहां हवा की गुणवत्ता के फायदे तेजी से सामने आएंगे, वहीं वैश्विक तापमान को स्थिर होने में 20 से 30 साल लग सकते हैं। इस रिपोर्ट को आईपीसीसी में शामिल 195 सदस्य देशों की सरकारों ने पिछली 26 जुलाई को शुरू हुए दो हफ्तों के वर्चुअल अप्रूवल सेशन के दौरान शुक्रवार को मंजूरी दी है।
वर्किंग ग्रुप 1 की रिपोर्ट आईपीसीसी की छठी असेसमेंट रिपोर्ट (एआर6) की पहली किस्त है।
यूरोपियन क्लाइमेट फाउंडेशन के CEO, लारेंस टुबियाना, कहते हैं, विश्व के नेताओं को जलवायु परिवर्तन के बारे में गंभीर होने की जरूरत है। पेरिस समझौते ने सरकारों द्वारा कार्रवाई में तेज़ी लाने के लिए एक स्पष्ट रूपरेखा तैयार की: अफसोस की बात है कि कई बड़े प्रदूषक एक उस समझौते को अनदेखी कर रहे हैं जिसे उन्होंने प्रदान करने में मदद की, और 2015 में किए गए अपने वादों को तोड़ रहे हैं। हम अभी भी 1.5 डिग्री से नीचे रह सकते हैं, लेकिन इसे विलंबित और इंक्रीमेंटल उपायों से हासिल नहीं किया जा सकता । सरकारों को संयुक्त राष्ट्र महासभा में कड़ी कार्रवाई करने, गरीब देशों के लिए समर्थन की पेशकश करने और उनकी जलवायु योजनाओं को बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए।

रिपोर्ट में भारत से संबंधित कुछ प्रमुख निष्कर्ष
१. आईपीसीसी  की इस हालिया रिपोर्ट से साफ़ ज़ाहिर होता है कि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने का वक़्त हाथ से फिसल चूका है और ऐसे में  भारत चाहे वह चमोली में आई आपदा हो, सुपर साइक्लोन ताउते और यास हों और देश के कुछ हिस्सों में हो रही जबरदस्त बारिश हो, भारत जलवायु से संबंधित जोखिमों  का सामना कर रहा है।
आलोक शर्मा, COP26 अध्यक्ष कहते हैं, “विज्ञान स्पष्ट है, जलवायु संकट के प्रभावों को दुनिया भर में देखा जा सकता है और अगर हम अभी कार्रवाई नहीं करते हैं, तो हम जीवन, आजीविका और प्राकृतिक आवासों पर सबसे ख़राब प्रभाव देखना जारी रखेंगे।
“हर देश, सरकार, व्यवसाय और समाज के हिस्से के लिए हमारा संदेश सरल है। अगला दशक निर्णायक है, विज्ञान का अनुसरण करें और 1.5C के लक्ष्य को जीवित रखने के लिए अपनी जिम्मेदारी को स्वीकार करें।
“महत्वाकांक्षी 2030 एमिशन रिडक्शन टार्गेट्स और सदी के मध्य तक नेट ज़ीरो के मार्ग के साथ दीर्घकालिक रणनीतियों के साथ आगे बढ़कर, और कोयला बिजली को समाप्त करने के लिए अभी कार्रवाई कर के, इलेक्ट्रिक वाहनों के रोल आउट में तेज़ी ला कर, वनों की कटाई से निपटने और मीथेन उत्सर्जन को कम करते हुए, हम यह एक साथ कर सकते हैं।”
विशेषज्ञों के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग 1.5 डिग्री सेल्सियस तक जाने पर भारत के मैदानी इलाकों में तपिश, अत्यधिक गर्मी और जानलेवा आसमान से बरसती आग जैसी मौसम की मार वाली घटनाएं में इज़ाफा होना  तय है।  अगले दस सालों  में जानलेवा गर्मी की घटनाओं में बढ़ोत्तरी से निपटने के लिए भारतवासीयों को कमर कस लेनी  चाहिए । इनमें दस वर्ष में     5 गुना तक इजाफा मुमकिन है । अगर ग्लोबल वार्मिंग 2 डिग्री सेल्सियस  तक होती है तो अपने अधिकांश मैदानी हिस्सों में तपती गर्मी के चलते जीना दूभर हो जायेगा ।
२. वार्षिक औसत वर्षा में वृद्धि का अनुमान है। वर्षा में वृद्धि भारत के दक्षिणी भागों में अधिक गंभीर होगी। दक्षिण-पश्चिमी तट पर, 1850-1900 के सापेक्ष वर्षा में लगभग 20% की वृद्धि हो सकती है। यदि हम अपने ग्रह को 4 डिग्री सेल्सियस तक गर्म करते हैं, तो भारत में सालाना वर्षा में लगभग 40% की वृद्धि देखी जा सकती है।ऐसे में अत्यधिक वर्षा जल और बाढ़ से बचने का बंदोबस्त हमारे सामने एक बड़ी चुनौती होगी।३. 7,517 किमी समुद्र तट के साथ, भारत को बढ़ते समुद्री जलस्तर  का सामना करना पड़ेगा। एक अध्ययन के अनुसार,ग्लोबल वार्मिंग के चलते  अगर समुद्र का स्तर 50 सेंटीमीटर बढ़ जाता है तो छह भारतीय बंदरगाह शहरों – चेन्नई, कोच्चि, कोलकाता, मुंबई, सूरत और विशाखापत्तनम में – 28.6 मिलियन लोग तटीय बाढ़ की चपेट में आ जाएंगे । बाढ़ के संपर्क में आने वाली संपत्ति लगभग 4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की होगी। भारत के वे क्षेत्र जो समुद्र के स्तर से नीचे होंगे और समुद्र के स्तर में 1 मीटर की वृद्धि होगी, उन्हें इस मानचित्र पर दिखाया गया है (यह वर्तमान बाढ़ सुरक्षा को ध्यान में नहीं रखता है)।
४. भारत दुनिया के  दस में से छह सबसे प्रदूषित शहरों का घर है और लगातार वायु प्रदूषण से जूझ रहा है – 2019 में वायु प्रदूषण के चलते  देश में 1.67 मिलियन लोगों का  जीवन दांव पर लगा । सबसे ज्यादा इसकी चपेट में गरीब और मेहनतकश शहरों में कम करके रोटी रोजी कमाने वाले लोग हैं ।  वहीं  दूसरी तरफ यह ग्लोबल स्तर पर दुनिया का तीसरा सबसे अधिक मीथेन उत्सर्जित करने वाला देश है । इन दोनों प्रदूषकों पर लगाम कसने की चुनौती हमारे सामने खड़ी है ।  
५. भारत में, हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियर क्षेत्र में रहने वाले 240 मिलियन लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण जल आपूर्ति है, जिसमें 86 मिलियन भारतीय शामिल हैं – जो संयुक्त रूप से देश के पांच सबसे बड़े शहरों के बराबर है। पश्चिमी हिमालय के लाहौल-स्पीति क्षेत्र में ग्लेशियर 21 वीं सदी की शुरुआत से बड़े पैमाने पर खो रहे हैं, और अगर उत्सर्जन में गिरावट नहीं होती है, तो हिंदू कुश हिमालय में ग्लेशियरों में दो-तिहाई की गिरावट आएगी।

इस सब पर भूटान की सोनम पी वांगडी, COP26 में सबसे कम विकसित देशों के समूह की अध्यक्ष कहती हैं,  “अलार्म की घंटियाँ बज रही हैं; मुझे उम्मीद है कि हर कोई उन्हें सुन रहा होगा। यह रिपोर्ट एक और कड़ी चेतावनी के रूप में सामने आई है। विज्ञान और भी स्पष्ट है: वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि जारी है, जलवायु संकट बदतर हो रहा है, और इसके प्रभाव विनाशकारी होंगे। रिपोर्ट से पता चलता है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य अभी भी पहुंच के भीतर है, लेकिन हमें अभी कार्य करना होगा – सभी को एक साथ – तत्काल वार्मिंग को सीमित करने और आने वाले प्रभावों के लिए अपने समुदायों को तैयार करने के लिए।”
इस रिपोर्ट के निष्कर्षों का महत्त्व समझते हुए ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और COP26 के अध्यक्ष आलोक शर्मा ने वैश्विक उत्सर्जन में कटौती के लिए तत्काल कार्रवाई का आह्वान किया है।
ब्रिटिश प्रधान मंत्री बोरिस जॉनसन का इस रिपोर्ट पर कहना है, ” मुझे उम्मीद है कि महत्वपूर्ण COP26 शिखर सम्मेलन के लिए नवंबर में ग्लासगो में मिलने से पहले, आज की IPCC रिपोर्ट दुनिया के लिए अभी कार्रवाई करने के लिए एक वेकउप कॉल होगी।”
डॉ रॉक्सी मैथ्यू कोल, वरिष्ठ वैज्ञानिक, भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान और प्रमुख लेखक, IPCC SROCC बताते हैं कि, “पिछली IPCC रिपोर्टों ने पहले ही प्रदर्शित कर दिया है कि मानव निर्मित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कारण जलवायु बदल रही है। IPCC AR6 रिपोर्ट का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि पेरिस समझौते के माध्यम से राष्ट्रों द्वारा प्रस्तुत मिटिगेशन और एडाप्टेशन रणनीतियाँ (जो राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान या NDCs के रूप में जानी जाती हैं) वैश्विक सतह के तापमान में वृद्धि को 1.5° C या 2°C की भी सीमा के भीतर रखने के लिए अपर्याप्त हैं। वैश्विक औसत तापमान वृद्धि के अब 1 डिग्री सेल्सियस से ऊपर जाते हुए, भारत एक महत्वपूर्ण मोड़ पर है जहां हम पहले से ही चक्रवात, बाढ़, सूखा और हीट वेव्स (गर्मी की लहरों) जैसी चरम मौसम की घटनाओं का सामना कर रहे हैं। जलवायु अनुमान सर्वसम्मति से दिखाते हैं कि तापमान बढ़ने के साथ ये सभी गंभीर मौसम की स्थितियां अधिक लगातार और तीव्र हो जाएगी क्योंकि हम मनुष्य उत्सर्जन पर पर्याप्त रूप से अंकुश नहीं लगा रहे हैं। हमें इन अनुमानित परिवर्तनों के आधार पर जोखिमों का तत्काल मानचित्रण करने की आवश्यकता है, लेकिन भारत में हमारे पास देखे गए परिवर्तनों के आधार पर देशव्यापी जोखिम असेसमेंट (मूल्यांकन) भी नहीं है। हमें अपने शहरों को रीडिज़ाइन करना (नया स्वरूप देना) पड़ सकता है। किसी भी तरह के विकास की योजना इन जोखिमों के असेसमेंट (आकलन) के आधार पर बनाई जानी चाहिए — चाहे वह एक्सप्रेसवे हो, सार्वजनिक बुनियादी ढांचा या यहां तक कि खेत या घर।”

तेजी से बढ़ती गर्मी
यह रिपोर्ट में बताया गया है कि तापमान में बढ़ोत्तरी को डेढ़ डिग्री सेल्सियस तो दूर 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना भी दुनिया की पहुंच से बाहर हो जाएगा। रिपोर्ट से जाहिर होता है कि वर्ष 1850 से 1900 के बीच तापमान में हुई 1.1 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी के लिए इंसानी गतिविधियों के कारण उत्पन्न ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन जिम्मेदार है। औसतन अगले 20 वर्षों के दौरान दुनिया के तापमान में डेढ़ डिग्री सेल्सियस या उससे ज्यादा की वृद्धि हो जाएगी।
उल्का केलकर, निदेशक, जलवायु कार्यक्रम, विश्व संसाधन संस्थान भारत (WRI) का कहना है, ’‘IPCC की ओर से 30 साल की चेतावनियों के बावजूद यह नई रिपोर्ट भीषण मौसम पर चिंता के बीच आई है। भारत के लिए, इस रिपोर्ट की भविष्यवाणियों का मतलब है लंबी और अधिक लगातार हीट वेव्स (गर्मी की लहरों) में लोग काम करंगे, हमारी सर्दियों की फसलों के लिए वार्मर (और गर्म) रातें, हमारी गर्मियों की फसलों के लिए अनियमित मानसूनी बारिश, विनाशकारी बाढ़ और तूफान जो पीने के पानी या चिकित्सा ऑक्सीजन उत्पादन के लिए बिजली की आपूर्ति को बाधित करते हैं। ”
’‘हमें अपने शहरों का निर्माण करते समय जलवायु जोखिमों के लिए योजना बनाने की आवश्यकता है। हमें ऐसी टेक्नोलॉजी की ज़रुरत है जो – हरित हाइड्रोजन और पुनर्चक्रण के साथ – हमारे उत्पादन के तरीके में क्रांतिकारी बदलाव लाए। और हमें आजीविका का समर्थन करने के लिए अपनी भूमि और प्राकृतिक संसाधनों का जिम्मेदारी से उपयोग करने की आवश्यकता है।”

रियलिटी चेक
आईपीसीसी वर्किंग ग्रुप 1 की सह अध्यक्ष वैलरी मैसन डेलमाट ने कहा “यह रिपोर्ट एक रियलिटी चेक है। अब हमारे पास गुजरे वक्त, वर्तमान और भविष्य की ज्यादा साफ तस्वीर है जो यह समझने के लिए जरूरी है कि हम किस दिशा में बढ़ रहे हैं ।”
अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन के महानिदेशक डॉ अजय माथुर ने कहा, “नई IPCC रिपोर्ट कहीं अधिक कठोर और अधिक निश्चित है कि जलवायु परिवर्तन मानव प्रेरित उत्सर्जन का प्रत्यक्ष परिणाम है। वैश्विक ऊर्जा क्षेत्र (बिजली, गर्मी और परिवहन) हमारे कुल उत्सर्जन के लगभग 73% का हिस्सेदार है; यह हर देश की आर्थिक और विकासात्मक योजनाओं के पीछे का इंजन भी है – और उभरती और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में, जहां जीवन की गुणवत्ता, और साथ में ऊर्जा की खपत वैश्विक औसत से कम है, और भी ज़्यादा। और इसलिए यह हमारे लिए और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम वातावरण में अधिक CO2 जोड़े बिना अपनी बढ़ती ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने में सक्षम हों। सौर ऊर्जा सभी देशों को एक आदर्श समाधान प्रदान करती है। टेक्नोलॉजी तैयार है और यह लागत प्रभावी है; हमें इसे घातांकीय रूप से और शीघ्र से बढ़ाने के लिए वैश्विक सहयोग की आवश्यकता है। ”

यह सिर्फ तापमान से जुड़ा मामला नहीं
वैश्विक तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी होने पर तपिश बढ़ेगी और गर्मी के मौसम लंबे होंगे तथा सर्दियों की अवधि घट जाएगी। ग्लोबल वार्मिंग में 2 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी होने पर गर्मी कृषि और सेहत के लिहाज से असहनीय स्तर तक बढ़ जाएगी।
इन बदलावों में नमी से लेकर खुश्की तक, बर्फ और हिम, तटीय क्षेत्र और महासागर शामिल हैं। उदाहरण के तौर पर :
•जलवायु परिवर्तन की वजह से जल चक्र का सघनीकरण हो रहा है। इसकी वजह से बेतहाशा बारिश बाढ़ के साथ-साथ अनेक क्षेत्रों में भीषण सूखा भी पड़ रहा है।
•जलवायु परिवर्तन की वजह से बारिश की तर्ज पर भी असर पड़ रहा है। ऊंचाई वाले इलाकों में वर्षा में वृद्धि होने की संभावना है।
•21वीं सदी की संपूर्ण अवधि के दौरान तटीय क्षेत्रों में समुद्र का जल स्तर लगातार बढ़ेगा, जिसकी वजह से निचले इलाकों में भीषण तटीय बाढ़ आएगी । समुद्र के जल स्तर से जुड़ी चरम घटनाएं जो पहले 100 साल में कहीं एक बार हुआ करती थीं वह इस सदी के अंत तक हर साल हो सकती हैं।
•भविष्य में तापमान और बढ़ने से परमाफ्रास्ट के पिघलने, , ग्लेशियरों और आर्कटिक समुद्री बर्फ कम हो रही है ।
• समुद्री हीटवेव्स, महासागरों के अम्लीकरण और ऑक्सीजन के स्तरों में कमी के रूप में महासागर में होने वाले बदलाव का सीधा संबंध मानवीय प्रभाव से जुड़ा है।

काश कि तुम विषपायी होते शिव के जैसे

—विनय कुमार विनायक
कल तक जो पानीपी-पीकरकोस रहे थे
दलित आदिवासी पिछडे़जन कोमत दो,
शिक्षा और नौकरी में आरक्षण,वही आज
आरक्षण का अमृत पान कर चुप क्यों हैं?

काश कि तुम विषपायीहोते शिव के जैसे,
एक शिव हीहैं जो बिना वर्ण-जाति विचारे
सबको वरदान देते, खुद कालकूटपी लेते,
सबको अमृत पिलाने वाले, खुद नहीं पीते!

आरक्षण तबतक बुरा जबतकनहीं मिला,
आरक्षण नहीं, आरक्षित जातियों से गिला,
आरक्षण संगआरक्षितों को गालियां मिली,
क्या तुमजातियों की घृणित गाली लोगे?

आज शस्त्र और शास्त्र दूषित लगता क्यों?
अगर पूर्वमें मानव को मानव समझे होते,
जितनी गालियां दी तुमनेउससे राहत देते,
काश कि तुमविषपायी होते शिव के जैसे!

आरक्षितों ने आरक्षण पाया है नहींसिर्फ
शिक्षा,दीक्षा, रोजगार पाने के लिए, बल्कि
यह हर्जाना है गालियों का जो तुमने दिए,
काश कि तुम विषपायी होते शिव के जैसे!

गीत गाया पत्थरों ने : रामप्पा मंदिर

भारत ने एक बार फिर विश्व को अपनी ओर आकर्षित ही नहीं किया बल्कि अपनी संस्कृति और कला का लोहा भी मनवाया। तेलंगाना के रामप्पा मंदिर को यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर की सूची में शामिल किया जाना एक तरफ भारत के लिए गौरव का पल था तो विश्व के वैज्ञानिकों के लिए एक अचंभा भी था। दरअसल आज से लगभग 800 साल पहले निर्मित रामप्पा मंदिर सिर्फ एक सांस्कृतिक धरोहर ही नहीं है बल्कि ज्ञान और विज्ञान से परिपूर्ण भारत के गौरवशाली अतीत का जीवित प्रमाण भी है। यह पत्थरों पर उकेरा हुआ एक महाकाव्य है। वो महाकाव्य जो 800 सालों से लगातार शान से भारत की वास्तुकला और विज्ञान की गाथा गा रहा है। और अब तो इसके सुर विश्व के कोने कोने को मुग्ध कर रहे है। रामप्पा मंदिर का एक मंदिर से विश्व धरोहर बनने का यह सफर लगभग 800 साल लंबा है जो शुरू हुआ था 1213 में जब तेलंगाना के तत्कालीन काकतीय वंश के राजा गणपति देव के मन में एक ऐसा शिव मंदिर बनाने की प्रेरणा जागी जो सालों साल उनकी भक्ति का प्रतीक बनकर मजबूती के साथ खड़ा रहे। यह जिम्मेदारी उन्होंने सौंपी वास्तुकार रामप्पा को। और रामप्पा ने भी अपने राजा को निराश नहीं किया।उन्होंने अपने राजा की इच्छा को ऐसे साकार किया कि राजा को ही मोहित कर लिया। इतना मोहित कि उन्होंने मंदिर का नामकरण रामप्पा के ही नाम से कर दिया। आखिर राजा मोहित होते भी क्यों नहीं, रामप्पा ने राजा के भावों को बेजान पत्थरों पर उकेर कर उन्हें 40 सालों की मेहनत से उसे एक सुमधुर गीत जो बना दिया था। जी हाँ, रामप्पा ने 40 सालों में जो बनाया था वो केवल मंदिर नहीं था, वो विज्ञान का सार था तो कला का भंडार था। यह कलाकृति एक शिव मंदिर है जिसे रुद्रेश्वर मंदिर भी कहा जाता है। किसी शिल्पकार के लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि उसके द्वारा बनाया गया मंदिर उसके नाम से जाना जाए। आज भी यह विश्व का शायद इकलौता मंदिर है जो अपने वास्तुकार के नाम पर जाना जाता है। मशहूर खोजकर्ता मार्को पोलो ने जब इसे देखा था तो इसे ” मंदिरों की आकाशगंगा का सबसे चमकीला सितारा” कहा था।

आप सोच रहे होंगे कि आखिर ऐसा क्या है इस मंदिर में?

दअरसल जब इस मंदिर का अध्ययन किया गया तो वैज्ञानिकों और पुरातत्वेत्ताओं के लिए यह तय करना मुश्किल हो गया कि इसका कला पक्ष भारी है या इसका तकनीकी पक्ष।

सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि यह चमत्कार है या विज्ञान कि 17 वीं सदी में जब इस इलाके में 7.7 से 8.2 रेक्टर का भीषण भूकंप आया था जिसके कारण इस मंदिर के आसपास की लगभग सभी इमारतें ध्वस्त हो गई थीं, लेकिन 800 साल पुराना यह मंदिर ज्यों का त्यों बिना नुकसान के कैसे खड़ा रहा? इस रहस्य को जानने के लिए मंदिर से एक पत्थर के टुकड़े को काट कर जब उसकी जाँच की गई तो पत्थर की यह विशेषता सामने आई कि वो पानी में तैरता है! राम सेतु के अलावा पूरे विश्व में आजतक कहीं ऐसे पत्थर नहीं पाए गए हैं जो पानी में तैरते हों। यह अभी भी रहस्य है कि ये पत्थर कहाँ से आए क्या रामप्पा ने स्वयं इन्हें बनाया था? आज से 800 साल पहले रामप्पा के पास वो कौन सी तकनीक थी जो हमारे लिए 21 वीं सदी में भी अजूबा है?

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस मंदिर को उसका यह स्वरूप देने से पहले रामप्पा ने ऐसा ही एक छोटा सा मंदिर बनाया था जिसे हम आज के दौर में प्रेजेंटेशन मॉडल कहते हैं। इसके बाद ही रामप्पा ने इस रूद्रेश्वर मंदिर का निर्माण किया।

छ फुट ऊँचे सितारे के आकार के प्लेटफार्म पर बनाए गए 1000 पिलर वाले इस मंदिर की नींव सैंडस्टोन तकनीक से भरी गई थी जो भूकम्प के दौरान धरती के कम्पन की तीव्रता को कम करके इसकी रक्षा करती है। इसके अलावा मंदिर की मूर्तियों और छत के अंदर बेसाल्ट पत्थर प्रयोग किए गए हैं। अब यह वाकई में आश्चर्यजनक है कि वो पत्थर जिसे डायमंड इलेक्ट्रॉनिक मशीन से ही काटा जा सकता है वो भी केवल एक इंच प्रति घण्टे के दर से! कल्पना कीजिए आज से 800 से साल पहले भारत के पास केवल ऐसी तकनीक ही नहीं थी बल्कि कला भी बेजोड़ थी! इस मंदिर की छत पर ही नहीं बल्कि पिलरों पर भी इतनी बारीक कारीगरी की गई है कि जो आज के समय में भी मुश्किल प्रतीत हो रही है क्योंकि उन पत्थरों पर उकेरी गई कलाकृतियों की कटाई और चमक देखते ही बनती है। कला की बारीकी की इससे बेहतर और क्या मिसाल हो सकती है कि मूर्ति पर उसके द्वारा पहने गए आभूषण की छाया तक उकेरी गई है। आज 800 सालों बाद भी इन मूर्तियों की चमक सुरक्षित है। इससे भी बड़ी बात यह है कि पत्थरों की यह मूतियाँ थ्री डी हैं। शिव जी के इस मंदिर में जो नन्दी की मूर्ति है खड़ी मूर्ति है जो इस प्रकार से बनाई गई है कि ऐसा लगता है कि नन्दी बस चलने ही वाला है। इतना ही नहीं इस मूर्ति में नन्दी की आंखें ऐसी हैं कि आप किसी भी दिशा से उसे देखें आपको लगेगा कि वो आपको ही देख रहा है। मंदिर की छत पर शिवजी की कहानियां उकेरी गई हैं तो दीवारों पर रामायण और महाभारत की। मंदिर में मौजूद शिवलिंग के तो कहने ही क्या! वो अंधेरे में भी चमकता है। आज एक बार फिर भारत की सनातन संस्कृति की चमक विश्व भर में फैल रही है।

डॉ नीलम महेंद्र

आदिवासियों की विरासत सहेजने की जरुरत

-अरविन्द जयतिलक

याद होगा गत वर्ष पहले संयुक्त राष्ट्र संघ की ‘द स्टेट आफ द वल्र्डस इंडीजीनस पीपुल्स’ नामक रिपोर्ट में कहा गया था कि मूलवंशी और आदिम जनजातियां भारत समेत संपूर्ण विश्व में अपनी संपदा, संसाधन और जमीन से वंचित व विस्थापित होकर विलुप्त होने के कगार पर है। रिपोर्ट से यह भी उद्घाटित हुआ था कि खनन कार्य के कारण हर रोज हजारों जनजाति परिवार विस्थापित हो रहे हैं और उनकी सुध नहीं ली जा रही है। विस्थापन के कारण उनमें गरीबी, बीमारी और बेरोजगारी बढ़ रही है। गत वर्ष पहले नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट से भी उद्घाटित हुआ कि कोलम (आंध्रप्रदेश और तेलंगाना) कोरगा (कर्नाटक) चोलानायकन (केरल) मलपहाड़िया (बिहार) कोटा (तमिलनाडु) बिरहोर (ओडिसा) और शोंपेन (अंडमान और निकोबार) के विशिष्ट संवेदनशील आदिवासी समूहों की तादाद घट रही है। आंकड़ों पर गौर करें तो स्वतंत्रता के बाद से लेकर अब तक उनकी आबादी में दस फीसद की कमी आयी है। आदिवासी बहुल राज्य झारखंड की ही बात करें तो वर्ष 1951 में जहां इनकी आबादी 35.80 फीसद थी, वह 1991 में घटकर 27.66 फीसद रह गयी। वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक उनकी आबादी 26.30 रही जो 2011 की जनगणना के मुताबिक घटकर 26.11 फीसद रह गयी। गौरतलब है कि यह आंकड़ा गत वर्ष पहले झारखंड राज्य के जनजातीय परामर्शदातृ परिषद द्वारा जारी किया गया। यहां सवाल सिर्फ आदिवासियों की घटती तादाद तक ही सीमित नहीं है। परसंस्कृति ग्रहण की समस्या ने भी आदिवासियों को दोराहे पर ला खड़ा किया है। नतीजा न तो वे अपनी संस्कृति बचा पा रहें है और न हीे आधुनिकता से लैस होकर राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल हो पा रहें हैं। बीच की स्थिति से उनकी संस्कृति दांव पर लग गयी हैैै। गौर करें तो यह सब उनके जीवन में बाहरी हस्तक्षेप के कारण हुआ है। भारत में ब्रिटिश शासन के समय सबसे पहले जनजातियों के सांस्कृतिक जीवन में हस्तक्षेप की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। ईसाई मिशनरियों ने जनजातीय समुदाय में पहले हिन्दू धर्म के प्रति तिरस्कार और घृणा की भावना पैदा की और उसके बाद उन्हें ईसाई धर्म ग्रहण करने के लिए प्रोत्साहित किया। लिहाजा बड़े पैमाने पर उनका धर्म परिवर्तन हुआ। ईसाईयत न तो उनकी गरीबी को कम कर पायी और न ही उन्हें इतना शिक्षित ही बना पायी कि वह स्वावलंबी होकर अपने समाज का भला कर सकें। ईसाईयत के बढ़ते प्रभाव के कारण हिन्दू संगठन भी उठ खड़े हुए और जनजातियों के बीच धर्म प्रचार आरंभ कर दिए। हिन्दू धर्म के प्रभाव के कारण जनजातियों में भी जाति व्यवस्था के तत्व विकसित हो गये। आज उनमें भी जातिगत विभाजन के समान ऊंच नीच का एक स्पष्ट संस्तरण विकसित हो गया है। यह संस्तरण उनके बीच अनेक संघर्षो और तनावों को जन्म दिया है। इससे जनजातियों की परंपरागत सामाजिक एकता और सामुदायिकता खतरे में पड़ गयी है। आज स्थिति यह है कि धर्म परिवर्तन के कारण बहुत से आदिवासियों को संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है। हिन्दुओं में खान-पान ,विवाह और सामाजिक संपर्क इत्यादि के प्रतिबंधो के कारण वे उच्च हिन्दू जातियों से पूर्णतया पृथक हैं। जबकि ईसाईयों ने भी धर्म परिवर्तन करके हिन्दू बन जाने वाले आदिवासियों को अपने समूह में अधिक धुलने मिलने नहीं दिया। विवाह और सामाजिक संपर्क के क्षेत्र में उन्हें अब भी एक पृथक समूह के रुप में देखा जा रहा है। आज भारत की उत्तर पूर्वी तथा दक्षिणी भागों की जनजातियों में कितने ही व्यक्ति अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा के रुप में स्वीकार कर अपनी मूलभाषा का परित्याग कर दिया है। सत्यता तो यह है कि प्रत्येक समूह की भाषा में उसके प्रतीकों को व्यक्त करने की क्षमता होती है और यदि भाषा में परिवर्तन हो जाय तो समूहों के मूल्यों और उपयोगी व्यवहारों में भी परिवर्तन होने लगता है। जनजातीय समूहों में उनकी परंपरागत भाषा से संबधित सांस्कृतिक मूल्यों और आदर्श नियमों का क्षरण होने से जनजातीय समाज संक्रमण के दौर से गुजरने लगा है। जनजातियों की संस्कृति पर दूसरा हमला कारपोरेट जगत की ओर से हो रहा है। यह दुर्भाग्य है कि जंगलो को काटकर और जलाकर उस भूमि को जिस प्रायोजित तरीके से उद्योग समूहों को सौंपा जा रहा है, उसका भी प्रभाव उनकी संस्कृति पर दिख रहा हैं। देश में नब्बे के दशक से ही विदेशी निवेश बढ़ाने की गरज व खनन नीतियों में बदलाव के कारण आदिवासी परंपरागत भूमि से बेदखल हो रहे हैं। एक रिपोर्ट में आदिवासी जनसमुदाय की दशा पर ध्यान खींचते हुए कहा गया है कि इनकी आबादी विश्व की जनसंख्या की महज 5 फीसदी है, लेकिन दुनिया के 90 करोड़ गरीब लोगों में मूलवासी लोगों की संख्या एक तिहाई है। विकसित और विकासशील दोनों ही देशों में कुपोषण, गरीबी और सेहत को बनाए रखने के लिए जरुरी संसाधनों के अभाव और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के कारण आदिवासी जनसमूह विश्वव्यापी स्तर पर अमानवीय दशा में जी रहें हैंै। आमतौर पर जनजातीय समाज सीधा और सरल माना जाता है लेकिन उनकी परंपरागत अर्थव्यवस्था पर हमला ने उन्हें आक्रोशित बना दिया है। मूलवासी जनसमूह आजीविका के संकट से तो जूझ ही रहें हैं साथ ही उन्हें कई तरह की बीमारियों से भी लड़ना पड़ रहा है। अगर विकसित देश अमेरिका की ही बात करें तो यहां जनजातीय समूह के लोगों को तपेदिक हाने की आशंका 600 गुना अधिक है। आस्ट्रेलिया में जनजातीय समुदाय का कोई बच्चा किसी अन्य समूह के बच्चे की तुलना में 20 साल पहले मर जाता है। नेपाल में अन्य समुदाय के बच्चे से जनजातीय समुदाय के बच्चे की आयु संभाव्यता का अंतर 20 साल, ग्वाटेमाला के 13 साल और न्यूजीलैण्ड में 11 साल है। विश्व स्तर पर देखे तो जनजातीय समुदाय के कुल 50 फीसदी लोग टाइप-2 मधुमेह से पीड़ित हैं। जनजातीय समाज भाषा के संकट से भी जुझ रहा है। संभावना है कि इस सदी के अंत तक जनजातीय समाज की 90 फीसदी भाषाएं विलुप्त हो जाएंगी। गत वर्ष पहले ‘भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर’ द्वारा किए गए ‘भारतीय भाषाओं के लोकसंरक्षण’ की मानें तो विगत 50 वर्षों में भारत में बोली जाने वाली 850 भाषाओं में तकरीबन 250 भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं और 130 से अधिक भाषाओं का अस्तित्व खतरे में है। इन विलुप्त होने वाली भाषाओं में सर्वाधिक आदिवासियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएं हैं। शोध के मुताबिक असम की 55, मेघालय की 31, मणिपुर की 28, नागालैंड की 17, और त्रिपुरा की 10 भाषाएं मरने के कगार पर हैं। इन्हें बोलने वालों की संख्या लगातार तेजी से घट रही है। उदाहरण के तौर पर सिक्किम में माझी बोलने वालों की संख्या सिर्फ 4 रह गयी है। छोटे से राज्य अरुणाचल में ही 90 से अधिक भाषाएं बोली जाती है। इसी तरह ओडिसा में 47 और महाराष्ट्र एवं गुजरात में 50 से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं। चूंकि भारत भाषायी विविधता से समृद्ध देश है लिहाजा आदिवासी क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषाओं का विशेष संरक्षण जरुरी है। वैश्विक आंकड़ों पर गौर फरमाएं तो दुनियाभर में 199 भाषाएं ऐसी हैं जो आदिवासी क्षेत्रों में बोली जाती है और अब उनके बोलने-लिखने वाले लोगों की संख्या एक दर्जन से भी कम रह गयी है। किंतु दुर्भाग्य है कि इस भाषायी विविधता को बचाने का कोई ठोस पहल नहीं हो रहा है। चिंता की बात यह भी है कि जनजातीय समूह सभ्य कहे जाने वाले लोगों के भी निशाने पर हैं। अमेरिका हो या भारत हर जगह विकास के नाम पर जंगलों का उजाड़ा जा़ रहा है। अपनी सुरक्षा और रोजी-रोजगार के लिए जनजातिय समूह के लोग अपने मूलस्थान से पलायन कर रहे हैं। दूसरे समूहों में जाने और रहने के कारण उनकी भाषा और संस्कृति प्रभावित हो रही है। आज जरुरत इस बात की है कि जनजातियों का जीवन व संस्कृति दोनों बचाया जाए। अन्यथा संस्कृृति और समाज की टूटन उन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग कर देगी।

मूलनिवासी दिवस एक भ्रामक व विभाजनकारी अभियान

भारतीय दलित व जनजातीय समाज में इन दिनों एक नया शब्द चलाया जा रहा है व साथ ही एक नया दिवस मनाने का अभियान भी चलाया जा रहा है; वह है मूलनिवासी दिवस. 9 अगस्त जो की मूलतः पश्चिम के तथाकथित बुद्धिजीवी व प्रगतिशील समाज द्वारा किये गए बड़े, बर्बर नरसंहार का दिन है, उसे उसी पीड़ित व दमित जनजातीय समाज द्वारा उत्सव व गौरवदिवस रूप में मनवा लेने का षड्यंत्र है यह. आश्चर्य यह है कि पश्चिम जगत अपने विमर्श गढ़ लेने में माहिर छदम बुद्धिजिवियों के भरोसे जनजातीय समाज के नरसंहार के इस दिन को जनजातीय समाज द्वारा ही गौरवदिवस के रूप में मनवाने के आपराधिक अभियान में सफल भी होता दिख रहा है. वस्तुतः 9 अगस्त का यह दिन अमेरिका, जर्मनी, स्पेन सहित समस्त उन पश्चिमी देशों में वहां के बाहरी आक्रमणकारियों द्वारा पश्चाताप, दुःख व क्षमाप्रार्थना का दिन होना चाहिए. इस दिन यूरोपियन आक्रमणकारियों को उन देशों के मूल निवासियों से क्षमा मांगनी चाहिए जिन मूलनिवासियों को उन्होंने बर्बरतापूर्वक नरसंहार करके उन्हें उनके मूलनिवास से खदेड़ दिया था और नगर छोड़कर सुदूर जंगलों में बसने को विवश कर दिया था. पश्चिमी बौद्धिक जगत का प्रताप देखिये कि हुआ ठीक इसका उल्टा, उन्होंने इस दिन का स्वरुप, मंतव्य व आशय समूचा ही उलटा कर दिया और आश्चर्य यह कि हम भारतीय भी इस थोथे विमर्श में फंस गए. इस 9 अगस्त, इंडीजेनस डे का हमसे तो कोई सरोकार ही नहीं है. यदि जनजातीय दिवस मनाना ही है तो हमारे पास भगवान बिरसा मुंडा से लेकर टंत्या मामा भील तक हजारों ऐसे जनजातीय यौद्धाओं का समृद्ध इतिहास है जिन्होंने हमारे समूचे भारतीय समाज के लिए कई कई गौरवमई अभियान चलाये व भारतमाता को स्वतंत्र कराने हेतु अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया. वस्तुतः इस पूरे मामले की जड़ बाबा साहब अम्बेडकर के धर्म परिवर्तन के समय दो धर्मों; इस्लाम एवं इसाईयत में व वामपंथ में उपजी निराशा में है. ईसाइयत व इस्लाम धर्म नहीं अपनानें को लेकर बाबा साहब के विचार सुस्पष्ट व सुविचारित रहें हैं, उन्होंने जोर देकर इस बात को बार बार कहा था कि उनकें अनुयायी हर प्रकार से इस्लाम व ईसाइयत से दूर रहें. किंतु आज मूलनिवासी वाद के नाम पर भारत का दलित व जनजातीय समाज एक बड़े पश्चिमी व इस्लामिक षड्यंत्र का शिकार हो रहा है. तब एक बड़े और एकमुश्त धर्म परिवर्तन की आस में बैठे ईसाई धर्म प्रचारक व मुस्लिम नेता बहुत ही निराश व हताश हो गए थे, जब बाबासाहब अम्बेडकर ने किसी भारतीय भूमि पर जन्में व भारतीय दर्शन आधारित धर्म में जानें का निर्णय अपनें अनुयाइयों को दिया था. पश्चिमी इसाई धर्म प्रचारकों के इसी षड्यंत्र का अगला क्रम है मूलनिवासीवाद का जन्म! भारतीय दलितों व आदिवासियों को पश्चिमी अवधारणा से जोड़नें व भारतीय समाज में विभाजन के नए केंद्रों की खोज इस मूलनिवासी वाद के नाम पर प्रारंभ कर दी गई है. इस पश्चिमी षड्यंत्र के कुप्रभाव में आकर कुछ दलित व जनजातीय नेताओं ने अपनें आन्दोलनों में यह कहना प्रारंभ कर दिया है कि भारत के मूल निवासियों (दलितों) पर बाहर से आकर आर्यों ने हमला किया और उन्हें अपना गुलाम बनाकर हिन्दू वर्ण व्यवस्था को लागू किया.

        भारत के दलितों व जनजातीय समाज को द्रविड़ कहकर मूलनिवासी बताना व उनपर आर्यों के आक्रमण की षड्यंत्रकारी अवधारणा को स्वयं बाबा साहब अम्बेडकर सिरे से खारिज करते थे. बाबा साहब ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है – “आर्य आक्रमण की अवधारणा पश्चिमी लेखकों द्वारा बनाई गई है जो बिना किसी प्रमाण के सीधे जमीन पर गिरती है. आर्य जातिवाद की अवधारणा केवल कल्पना है और कुछ भी नहीं. अम्बेडकर जी आगे लिखते हैं – इस पश्चिमी सिद्धांत का विश्लेषण करनें से मैं जिस निर्णय पर पहुंचा हूँ वह निम्नानुसार है –

1. वेदों में आर्य जातिवाद का उल्लेख नहीं है.

2. वेदों में आर्यों द्वारा आक्रमण व उनके द्वारा उन दास व दस्युओं (दलित व जनजातीय)पर विजय प्राप्त करनें का कोई प्रमाण नहीं है, जिन्हें भारत का मूल निवासी माना जाता है.

3. ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जो आर्यों, दासों व दस्युओं में नस्लीय भेद को प्रदर्शित करता हो.

4. वेद इस बात का भी समर्थन नहीं करते कि आर्यों का रंग दासों या दस्युओं से अलग था.

स्पष्ट है कि आज बाबासाहब के नाम पर जो मूलनिवासी वाद का नया वितंडा खड़ा किया जा रहा है वह मूलतः दलितों व आदिवासियों में उपज व रच बस गए पश्चिमी व ईसाई धर्म प्रचारकों व वामपंथियों  के दिमाग का षड्यंत्र भर है. दलित व जनजातीय समाज में एक नया संगठन बना है, जो मूलनिवासी की अवधारणा को लेकर चल रहा है. इस संगठन के लोग अभिवादन में भी ‘जय भीम’ की जगह ‘जय मूलनिवासी’ बोलने लगे हैं. ये लोग कहते हैं कि वे मूलनिवासी हैं और बाकी सारे लोग विदेशी हैं. 

जबकि सच्चाई यह है कि भारत में रह रहे सभी मूल भारतीय यहां के मूलनिवासी हैं, अर्थात भारत की 90% जनसँख्या यहां की मूलनिवासी ही है. बाबा साहब कहते हैं कि “इस मत का आधार यह विश्वास है कि आर्य यूरोपीय जाति के थे और यूरोपीय होने के नाते वे एशियाई जातियों से श्रेष्ठ हैं, इस श्रेष्ठता को यथार्थ सिद्ध करने के लिए उन्होंने इस सिद्धांत को गढ़ने का काम किया. आर्यों को यूरोपीय मान लेने से उनकी रंग-भेद की नीति में विश्वास आवश्यक हो जाता है और उसका साक्ष्य वे चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था में खोज लेते हैं.” वस्तुतः इस नए षड्यंत्र का सूत्रधार पश्चिमी पूंजीवाद है, जो फंडिंग एजेंसी के रूप में आकर इस विभाजक रेखा को जन्म देकर पाल पोस रहा है. आर्य कहां से आये व कहां के मूलनिवासी थे यह बात अब तक कोई सिद्ध नहीं कर पाया.

       वैज्ञानिक अध्ययनों, वेदों, शास्त्रों, शिलालेखों, जीवाश्मों, श्रुतियों, पृथ्वी की सरंचनात्मक विज्ञान, जेनेटिक अध्ययनों आदि के आधार पर जो तथ्य सामनें आते हैं उनके अनुसार पृथ्वी पर प्रथम जीव की उत्पत्ति गोंडवाना लैंड पर हुई थी जिसे तब पेंजिया कहा जाता था और जो गोंडवाना व लारेशिया को मिलाकर बनता था. गोंडवाना लैंड के अमेरिका,अफ्रीका, अंटार्कटिका, आस्ट्रेलिया एवं भारतीय प्रायद्वीप में विखंडन के पश्चात यहां के निवासी अपने-अपने क्षेत्र में बंट गए थे. जीवन का विकास सर्वप्रथम भारतीय दक्षिण प्रायद्वीप में नर्मदा नदी के तट पर हुआ जो विश्व की सर्वप्रथम नदी है. यहां बड़ी मात्रा में डायनासोर के अंडे व जीवाश्म प्राप्त होते रहें हैं. भारत के सबसे पुरातन आदिवासी गोंडवाना प्रदेश के गोंड कोरकू समाज की प्राचीन कथाओं में यह तथ्य कई बार आता है.

इन सब तथ्यों के प्रकाश में यह विचार उपजता है कि अंततः यह मूलनिवासी दिवस मनाने का चलन उपजा क्यों व कहां से ? वस्तुतः यह मूलनिवासी दिवस पश्चिम के गोरों की देन है. कोलंबस दिवस के रूप में भी मनाये जाने वाले इस दिन को वस्तुतः अंग्रेजों के अपराध बोध को स्वीकार करनें के दिवस के रूप में मनाया जाता है.अमेरिका से वहां के मूलनिवासियों को अतीव बर्बरता पूर्वक समाप्त कर देनें की कहानी के पश्चिमी पश्चाताप दिवस का नाम है मूलनिवासी दिवस. इस पश्चिमी फंडे मूलनिवासी दिवस के मूल में अमेरिका के मूलनिवासियों पर जो बर्बरतम व पाशविक अत्याचार हुए व उनकी सैकड़ों जातियों को जिस प्रकार समाप्त कर दिया गया वह मानव सभ्यता के शर्मनाक अध्यायों में शीर्ष पर हैं. इस सबकी चर्चा एक अलग व वृहद अध्ययन का विषय है जो यहां पर इस संक्षिप्त रूप में ही उचित है.

यह सिद्ध तथ्य है कि भारत में जो भी जातिगत विद्वेष व भेदभाव चला वह जाति व जन्म आधारित है क्षेत्र आधारित नहीं. वस्तुतः इस मूलनिवासी फंडे पर आधारित यह नई विभाजनकारी रेखा एक नए षड्यंत्र के तहत भारत में लाई जा रही है जिससे भारत को सावधान रहनें की आवश्यकता है. यह भी ध्यान देना चाहिए कि भारत में सामाजिक न्याय का व सामाजिक समरसता का जो नया सद्भावी वातावरण अपनी शिशु अवस्था से होकर युवावस्था की ओर बढ़ रहा है; कहीं उसे समाप्त करनें का यह नया पश्चिमी षड्यंत्र तो नहीं है ?!

पाकिस्तान अतिक्रमित कश्मीर खाली करो

कश्मीर

सन उन्नीस सौ सेंतालीस में भारत के वीर सैनिक कबायली और पाकिस्तानी फौजों को जम्मू-कश्मीर से खदेड़ कर कुछ ही समय में सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर को शत्रु विहीन करने ही वाले थे कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जबाहर लाल नेहरू जी ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी | पराजित पाकिस्तानियों ने स्वेच्छा से शेष कश्मीर खाली करने के स्थान पर निर्लज्जता पूर्वक कुछ हिस्से पर अवैध कब्ज़ा जमाए रखा  | तब से पाकिस्तान द्वारा बलात घेरे गए जम्मू-कश्मीर के हिस्से को  हम पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) के नाम से जानते हैं | मेरे विचार से इसके लिए पाक अतिक्रमित कश्मीर शब्द का प्रयोग अधिक उचित है  | पाकिस्तान इस अवैध कब्जे वाले कश्मीर को दो भागों में बाँट कर बंदूक की नोक पर इस पर शासन कर रहा है | पीओके के एक भाग को वह आजाद कश्मीर कहता है और दूसरे को गिलगित-बाल्टिस्तान | जिस भू-भाग को पाकिस्तान आजाद कश्मीर कहता है वास्तव में वह इस्लामिक कट्टर पंथियों, आतंकवादियों और पाकिस्तानी फ़ौज का गुलाम है | यदि ऐसा न होता तो वहाँ की जनता पीओके की आजादी के लिए सतत संघर्ष न करती  | पाकिस्तान अतिक्रमित कश्मीर में वहाँ की जनता पर केवल सरकार ही नहीं फ़ौज और आतंकवादी  भी अत्याचार करते  हैं | इन अत्याचारों और अपने अवैध कब्जे को छिपाने के लिए पाकिस्तान अतिक्रमित कश्मीर में चुनाव कराने का ड्रामा करता रहता है | इस ड्रामें में वहाँ का सत्ताधारी दल स्वयं को विजयी घोषित कर अपनी कठपुतलियों को वहाँ बैठा देता है | इस बार इमरान खान की पार्टी ने चुनावी ड्रामे को पूरा कराया है |

       यद्यपि भारत सरकार ने पाकिस्तान से तत्काल इस अतिक्रमित भाग को खाली करने की चेतावनी देते हुए इन चुनावों को मान्यता नहीं दी है | इस बार के चुनावों में हुई हिंसा,अमानवीयता और धाँधली के बाद  पीओके की जनता ने अपना विरोध और भी मुखर कर दिया है इससे पाकिस्तान के इस झूठ से पर्दा हट गया है कि पीओके की जनता पाकिस्तान के साथ रहना चाहती है |

             पाकिस्तान को सदैव ही इस बात का डर रहता है कि भारत कभी भी अपने इस भूभाग को उससे छीन सकता है | पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के प्रमुख नेता बिलावल भुट्टो  का यह वक्तव्य  “पहले हम भारत से कश्मीर छीन लेने की बात करते थे किन्तु अब मुजफ्फराबाद बचाने के लाले पड़ रहे हैं “ इस बात का स्पष्ट  संकेत है | चूँकि पाकिस्तान इस बात को जनता है कि यह अतिक्रमित भाग उसका अपना नहीं है इसलिए उसने  गिलगित-बाल्टिस्तान का  एक बड़ा हिस्सा 1963 में चीन को सौंप दिया, जिसे ट्रांस काराकोरम ट्रैक्ट कहते हैं | पीओके  की जनता अपने क्षेत्र में चीन की उपस्थिति पसंद नहीं करती किन्तु वह पुलिस और फ़ौज के कारण विद्रोह करने में असमर्थ है | फिर भी  वह चीन और पाकिस्तान का सतत विरोध करती रही है |

लगभग चलीस लाख की जनसंख्या वाले तथाकथित आजाद कश्मीर में पाकिस्तान ने प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी बना रखे हैं | कहने के लिए वहाँ विधान परिषद् भी है किन्तु वास्तव में वहाँ के मूल नागरिकों को गुलामों की भाँति सताया जाता है | वहाँ मानवाधिकारों की बात करने वालों को क़त्ल कर दिया जाता है | पाकिस्तान इस अतिक्रमित भाग में आतंकवादियों को ट्रेंनिग देने के लिए अनेक जेहादी मदरसे संचालित करता है | पाकिस्तान इन जेहादियों का उपयोग सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर में दहशत फ़ैलाने के लिए करता रहा है | 

यद्यपि भारत सरकार ने  पीओके में हुए चुनावी ड्रामों  को अमान्य करते हुए उसका विरोध भी किया है किन्तु प्रश्न यह है कि क्या यह कार्रवाई और प्रतिक्रिया पूर्ण और पर्याप्त है ? जब कोई शत्रु देश भारत पर आक्रमण करता है तब प्रत्येक भारत वासी उसका विरोध करता है | अतिक्रमित कश्मीर निस्संदेह भारत का अभिन्न अंग है और उसके लिए हम अपने जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में कुछ सीटें रिक्त भी छोड़ते आए हैं किन्तु क्या इन रिक्त सीटों पर शत्रु देश द्वारा कराए गए अवैध और हिंसक चुनावों का विरोध, हमारे सभी दलों ने एक साथ समवेत स्वर में किया ? क्या विपक्ष ने सरकार पर इस बात के लिए दबाव बनाया कि वह पाकिस्तान को अतिक्रमित कश्मीर में चुनाव कराने से रोकने के लिए ठोस रणनीति बनाए ? विपक्ष, संसद में पीओके को वापस लेने के गृहमंत्री के संकल्प को हथियार बनाकर सरकार को पीओके वापस लेने के लिए प्रेरित क्यों नहीं करता ? कैसी  विडंबना है कि हमारे देश के कुछ नेता पाकिस्तान से मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने की अपील तो कर लेते हैं किन्तु अतिक्रमित/गुलाम  कश्मीर में से जेहादियों, आतंकवादियों को भगाने और वहाँ फर्जी चुनाव न कराने की अपील नहीं कर पाते | पीओके की जनता पर हो रहे अत्याचारों के विरोध में बोलने का साहस  इनमें क्यों नहीं है ?

धारा 370 हटने के बाद देश की जनता को इस बात पर  विश्वास होने लगा है कि वह दिन दूर नहीं जब गुलाम कश्मीर पाकिस्तान की कैद से आजाद हो कर पुनः भारत में मिलेगा |  अब देखना यह है कि कौन से राजनीतिक दल इस पुनीत कार्य के लिए स्वयं को अग्रेषित कर देश का दिल जीतना चाहते हैं |  

डॉ.रामकिशोर उपाध्याय

तुम्हारे पूर्वज खुदा नहीं राम कृष्ण हैं

विनय कुमार विनायक
धन्य-धन्य हैंवो मानव दुनिया में,
जिसने भारत भूमि में जन्म लिया,
भारत है वसुंधा में एक मुल्कऐसा,
जिसनेसमग्र विश्व को ज्ञान दिया!

भारतहैअतिसुन्दरदेशजहां में,
जहां देवता आने से ललचातारहा,
भारत की सभ्यता और संस्कृति है
ऐसीजोसंपूर्णजगको भातीरही!

भारत सर्वदा सत्य,अहिंसा पर चला,
भारत में रहते हर जाति मजहबके
लोग,भारत देशहैसबके लिए भला,
भारतवंशियोंने नहीं किसी को छला!

अगर तुम हो भारत माता के सपूत,
तो फिर आक्रांताओं से क्यों जुड़े हो,
क्यों मंदिर केमलबे पर खड़े बाबरी
मस्जिद के टूटे ढांचे खातिरअड़े हो!

आक्रांताओं ने पूरी बर्बरता से पूर्वजों,
यानि वर्तमान मुस्लिमों के पितृजन,
मातृजन,बंधु बांधवोंके कत्ल किए,
या तो फिर मुस्लिम बना लिए गए!

अगर सद्विचारी बनकर मनन करो,
तब सबसे पहले आक्रांताओं के धर्म
अविलंबबदल, पितृधर्म में वापसी
कर लो,भारत मां कीजयकार करो!

क्यों मुट्ठीभर आक्रांताओं के वंशज
तुम्हें आज बरगलाने में लगे हुए हैं?
येआक्रांताएंशुद्ध अरबी तुर्की नहीं,
मातृपक्ष से हिन्दूव तुर्की दोगले हैं!

तुम बहुसंख्यक भारतीय मुस्लिम हो,
भारत मां के धर्मांतरित हिन्दू वंशज,
अपने मुंह कोदेखो और मिलान करो,
तुम अरबी-तुर्की-फारसी नहीं हिन्दू हो!

आज तुम अपने पहचान की संकट में
परमुखापेक्षी बने हो,खुदको पहचानो,
तुम्हारे पूर्वज खुदा नहीं, राम कृष्ण हैं,
तुम राम कृष्ण की परम्परा में जन्मे!

अपने पूर्वजों, भाई बंधुओंको पहचानो,
तुम्हारे पूर्वज अरब,तुर्किस्तान के नहीं,
तुम संतानखुदा नहीं,भगवान राम के,
तुम त्याग दोआक्रांताओं के धर्म को!

तुम लौट आओ अपने वंश परंपरा में,
बहुत शांति मिलेगी,देश में शांति होगी,
पाकिस्तानीमजहबसे मोह त्यागकर,
हिन्दूमूल के देशी धर्म में वापस आओ!

गर नकल करना है तो पाकिस्तानी नहीं,
इंडोनेशिया केमुसलमान की नकल करो,
धर्म तो बदला है,मगर पूर्वज बदला नहीं,
मस्जिद पर रामायण का श्लोक है खुदा!

अपनी भाषा,अपनी संस्कृति, अपनी संज्ञा,
गोरी,गजनवी,बाबर, तैमूरकी भक्ति नहीं,
सुकर्णो,सुहार्तो,मेघावती नामहिंदूधर्मका,
मन का शुद्धिकरण करो,एक ईश्वर-खुदा!

ईश्वर देशी संज्ञा,मगरखुदाविदेशी अक्षर,
राम कृष्णमानव रूप में अवतरित ईश्वर,
राम-कृष्ण,बुद्ध-महावीर को चाहिएमंदिर,
खुदा निराकार ईश्वर सा,नहीं चाहिए घर!

मंदिर-मस्जिद की लड़ाईकरना हैबेकार,
ईश्वर, अल्लाह,खुदा कीमूर्ति नहीं होती,
मंदिर हमेशा सेहोतादेवमूर्तियों का घर,
राम कृष्णजन्मे तोजन्मस्थान चाहिए!

राम कृष्ण बुद्ध महावीर के पहले ईश्वर
निराकारथे, जिनकीप्राकृतिक पूजा होती,
बाद में साकार ईश्वरावतार की मूर्ति बनी,
मूर्तिपूजा हेतु मंदिर,गुरुद्वारा चाहिए ही!

‘धर्म’, धर्म स्थलों के हमलावरों का ?

                                                                                         

      तनवीर जाफ़री
पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के ज़िले डेरा रहीम यार ख़ान के भोंग शरीफ़ नामक इलाक़े में स्थित एक गणेश मंदिर पर स्वयं को ‘गर्व से मुसलमान’ कहलवाने वाले कुछ असामाजिक  शरारती तत्वों ने गत 5 अगस्त को तोड़ फोड़ की और मंदिर को क्षति पहुंचाई। स्थानीय प्रशासन द्वारा इस घटना का कारण इससे पहले  23 जुलाई को इलाक़े की एक घटना बताई जा रही है  जिसमें कथित तौर पर हिन्दू समुदाय के एक आठ साल के बच्चे ने स्थानीय मदरसे की एक लाइब्रेरी में पेशाब कर दिया था। इसके बाद मदरसा प्रशासन ने ईशनिंदा का आरोप लगाते हुए गत 2 4 जुलाई को उस आठ साल के बच्चे  के विरुद्ध  295ए के तहत मामला दर्ज किया गया था । पाकिस्तान में ईशनिंदा कानून और इसमें सज़ा का प्रावधान अत्यंत कठोर है। इसमें 295ए के तहत 10 साल तक के दंड का प्रावधान है,जबकि 295-बी के तहत उम्र कैद की सज़ा व धारा 295-सी के अंतर्गत फांसी तक हो सकती है। भोंग शरीफ़ की स्थानीय पुलिस द्वारा  295ए के तहत प्राथमिकी  दर्ज करने के बाद उस बच्चे को गिरफ़्तार कर लिया गया था। पुलिस ने तफ़्तीश के बाद जब यह पाया कि चूँकि आरोपी बच्चा नाबालिग़ है इसलिए उसे 295 ए की धारा के अंतर्गत सख़्त सज़ा नहीं दी जा सकती लिहाज़ा इसी पुलिस रिपोर्ट के आधार पर मजिस्ट्रेट ने उस आरोपी नाबालिग़ बच्चे को 28 जुलाई को ज़मानत पर रिहा करने का आदेश दे दिया। इस पूरे प्रकरण में गणेश भगवान या किसी हिन्दू मंदिर की क्या भूमिका है उसका क्या दोष है यह बात समझ से परे है। परन्तु जिस पुलिस प्रशासन ने उस बच्चे के नाबालिग़ होने की पुष्टि अदालत में की वे भी मुसलमान थे और जिस वकील ने उस बच्चे की अदालत में पैरवी की वह भी मुसलमान ,और अदालत के जिस दंडाधिकारी ने बच्चे को ज़मानत पर रिहा करने का आदेश दिया वह भी मुसलमान। परन्तु पुलिस व अदालत के इन पढ़े लिखे मुसलमान लोगों को अपने धर्म पर न कोई ख़तरा मंडराता नज़र आया न ही ‘अल्लाह’ का किसी तरह का अपमान महसूस हुआ। निश्चित रूप से तभी इस वर्ग ने अपने ‘वास्तविक धर्म व कर्तव्य’ का परिचय देते हुए  बच्चे को रिहा करने की राह हमवार की।
                            परन्तु  आश्चर्य का विषय है कि मुट्ठी भर अशिक्षित,अतिवादी व रूढ़िवादी सोच वाले कुछ लोगों ने इस पूरे प्रकरण का ग़ुस्सा गणेश मंदिर पर हमला करके उतारा। यदि इस अतिवादी वर्ग को या इसे उकसाने वालों को बच्चे की रिहाई से  तकलीफ़ थी तो वे अपना ग़ुस्सा पुलिस थाने या अदालत पर इसी तरह से तोड़ फोड़ या आक्रमण कर उतार सकते थे। परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि ये चतुर व शातिर असामाजिक तत्व जानते हैं कि इसका अन्जाम क्या हो सकता है। लिहाज़ा इन्होंने हिन्दू अल्पसंख्यक समुदाय के आराधना स्थल गणेश मंदिर जैसा ‘साफ़्ट टारगेट’ चुना। तो क्या किसी अल्पसंख्य समाज के धर्मस्थल को अपवित्र व अपमानित करना तथा उसकी अस्मिता को चोट पहुँचाना किसी भी धर्म की शिक्षा या संस्कारी कृत्य कहा जा सकता है ? क्या इसी तरह के बुद्धिहीन अतिवादियों ने ही ‘धर्म ध्वजा’  हाथों में संभाल रखी है ? छोटे बच्चे या बुज़ुर्ग लोग किसी को भी मूत्र विसर्जन जैसी प्रकृतिक स्थिति का सामना कहीं भी करना पड़ सकता है। मूत्र विसर्जन का किसी धर्म या धर्मस्थल से क्या वास्ता ? बच्चे को तो मुआफ़ कर देना ही सज़ा देने से भी बड़ा धर्म है। इस्लाम धर्म के जिस शरीया क़ानूनों में सख़्त से सख़्त सज़ाओं का ज़िक्र है वहां भी सबसे पहली मुआफ़ करने की ही हिदायत दी गयी है।
                                                   परन्तु पाकिस्तान का वह कट्टरपंथी समाज जिसे न तो धर्म का ज्ञान है न ही उसके मर्म का वह आए दिन इस तरह की हरकतें करता रहता है। केवल मंदिर ही नहीं बल्कि इन कट्टरपंथियों की विचारधारा से भिन्न मत रखने वाले मुस्लिम समुदाय के लोगों विशेषकर शिया,हज़ारा,अहमदिया तथा ईसाई व सिख समुदाय से संबद्ध मस्जिदों,दरगाहों,इमाम बारगाहों,चर्चों तथा गुरद्वारों तथा इनके जुलूसों पर भी बड़े से बड़े यहाँ तक कि आत्मघाती हमले तक होते रहे हैं। 4 जनवरी 2011 को इसी ज़हरीली विचारधारा रखने वाले मुमताज़ क़ादरी नाम के एक कट्टरपंथी पुलिस गार्ड ने पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के गवर्नर सलमान तासीर की  हत्या कर दी थी। मुमताज़ क़ादरी की तैनाती सलमान तासीर की सुरक्षा के लिए की गयी थी। परन्तु सलमान तासीर का ‘क़ुसूर ‘ केवल यह था कि  वे इसी ईश निंदा क़ानून के दुर्योपयोग व इस क़ानून के चलते पूरी दुनिया में होने वाली पाकिस्तान की हो रही किरकिरी से चिंतित होकर इस क़ानून की पुनर्समीक्षा किये जाने के पक्षधर थे। यह बात उनके गार्ड को पसंद नहीं थी ? यह घटना इस निर्णय पर पहुँचने के लिए  एक और प्रमाण है कि जब धर्मान्धता व कट्टरपंथी विचार किसी इंसान के मस्तिष्क पर नियंत्रण कर लेते हैं उस समय न वह महात्मा गाँधी जैसे महापुरुष का व्यक्तित्व देखता है न इंदिरा गांधी जैसी महिला प्रधानमंत्री का और ना ही सलमान तासीर जैसे उदारवादी व प्रगतिशील सोच रखने वाले किसी गवर्नर का। मुमताज़ क़ादरी व इंदिरा गाँधी के हत्यारों ने तो यह भी नहीं सोचा कि उनका पहला धर्म व कर्तव्य तो अपने ‘स्वामियों’ की रक्षा करना है ?आख़िर यह कैसा धर्म व धर्मान्धता है जिसने उन्हीं निहत्थे लोगों को मारने के लिये आमादा कर दिया जिनकी सुरक्षा करने लिये उन्हें तनख़्वाह मिलती थी और उसी तनख़्वाह से उनका व उनके परिवार का पालन पोषण होता था ? और इन सबसे अफ़सोसनाक,शर्मनाक और चिंताजनक यह कि आज उनके अपने समाज में उपरोक्त सभी हत्यारों के समर्थक भी मौजूद हैं ?                                                                               बहरहाल पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने गणेश मंदिर पर हुए हमले की निंदा की और सरकार की तरफ़ से मंदिर की मरम्मत व आरोपियों के विरुद्ध सख़्त कार्रवाई का आश्वासन भी दिया। ताज़ा ख़बरों के अनुसार सी सी टी वी फ़ुटेज के आधार पर 20 संदिग्ध हमलावरों को गिरफ़्तार किया गया है तथा 150 लोगों के विरुद्ध आतंकवाद तथा अन्य धाराओं के अंतर्गत मुक़दमा दर्ज किया गया है। पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश गुलज़ार अहमद के आदेशानुसार मंदिर की मरम्मत का काम भी शुरू हो गया है। पाक संसद ने सर्वसम्मत से इस घटना की निंन्दा की है तथा अल्संख्यकों व उनके धर्मस्थलों की सुरक्षा का भरोसा भी दिलाया है। इन प्रयासों से पाकिस्तान के अल्संख्यक हिन्दू समुदाय के लोगों के आंसू अस्थायी रूप से ज़रूर पोछे जा सकेंगे। परन्तु आए दिन होने वाली इस तरह की घटनाओं के चलते उनके दिलों में स्थाई रूप से बैठे भय का निवारण कैसे हो सकेगा ? ज़ाहिर है कट्टरपंथी ज़हरीली विचारधारा रखने वाले लोग  मंदिर -मस्जिद -चर्च -गुरद्वारे -इमामबारगाह आदि का सम्मान करना या धर्म व कर्तव्य के मर्म को समझना क्या जानें। पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान-भारत -बांग्लादेश या किसी भी देश में किसी भी  धर्म के किसी भी धर्मस्थलों के हमलावर दरअसल धार्मिक प्रवृति के नहीं बल्कि धर्मान्ध होते हैं।