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सामाजिक न्याय का अमृतफल

—विनय कुमार विनायक
एक सामाजिक न्याय वह भी था
जब स्वर्ण खड़ाऊ/रेशमी वस्त्र त्यागकर
निकल पड़ा था एक राजकुमार
विवस्त्र गात्र, नग्न पांव बोधिवृक्ष की छांव में
राजमहल से झोपड़ी के बीच
तीन लोक की दूरी को
एक कर गया था वामन सा ढाई डग में
बांट गया था सामाजिक न्याय का अमृतफल
सबके बीच बिना किसी जाति भेद के!

एक सामाजिक न्याय वह भी था
जब काठियावाड़ का दीवान पुत्र त्यागकर
अंग्रेजी सूट-बूट साबरमती की घांस-फूस में लेटा
आजीवन विवस्त्र शरीर टखने भर धोती में
समेटकर सामाजिक अन्याय की व्याधि
बांट गया सामाजिक न्याय का अमृतफल
सर्वधर्मावलम्बियों के मध्य वैष्णवी आस्था के साथ!

एक सामाजिक न्याय वह भी था
जब जरदगव गिद्ध ने
‘सत्तर चूहे खाकर बिल्ली चली हज को’
चरितार्थ किया खगवृन्द में जाति भावना भड़काकर
कि देखो मेरी फटी बिवाई,टूटे पदत्राण
कि देखो मैं हूं घोंसला विहीन
भग्न चपरासी क्वार्टर के मुंडेर पर बैठा
दुबका-परकटा/असहाय उपेक्षित पक्षी
कि मुझे बिरादरी में अपना लो
अपने सर आंखों पर बिठा लो
कि तुम्हारे चुनमुनों को परवरिश दूंगा
इसी बरगद की छांव में
एक पक्षी विद्यालय खोलकर!

सत्यहरिश्चन्द्री घोषणा सुनो मेरी
कि मैंने बेच दिया दारा-सुवन
तुम जैसे अस्पृश्य के हाथों
कि मैं श्रीकृष्ण सा धारण कर
तेरी उपेक्षित मोर पाखियां वचन देता हूं
गौ, भेड़, मेमने और चुनमुनों को
त्राण दिलाऊंगा हिंस्र शेर-भालुओं से
निशंक चुगो दानें प्रातः से शाम तक
कि मरेगी नहीं गौएं चारा के बिना
कि कटेंगे नहीं पसमीना भेड़ के मेमने
किसी राजा-रानी-राजनेता के
गर्म अय्याशी ऊनी वस्त्र के लिए
कि तड़पेगी नहीं स्वाति
सावन की बौछार के लिए
ललकेगी नहीं एक-एक बूंद
अमृत जल की आस में!

उजड़ेगा नहीं वन-पर्यावरण/
बाग-बगीचे, खेत-खलिहान!
कहते हैं तब से पक्षियों का राजा
जरदगव गिद्ध हो गया था
पक्षियों का सुराज सिद्ध हो गया
जब बारी-बारी से पक्षियों को
स्वगर्भगृह में बिठाकर
जरदगव गिद्ध बांटने लगा था
सामाजिक न्याय का अमृतफल
लाल चिड़े को लाल/ हरे तोते को हरा
सफेद कबूतरों को सफेद
सामाजिक न्याय का अमृतफल!

पं. लेखराम की ऋषि दयानन्द से भेंट का देश व समाज पर प्रभाव

पं. लेखराम जी के 124 वे बलिदान दिवस 6 मार्च पर-
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
पंडित लेखराम जी स्वामी दयानन्द जी के प्रारम्भ के प्रमुख शिष्यों में से एक रहे जो वैदिक धर्म की रक्षा और प्रचार के अपने कार्यों के कारण इतिहास में अमर हैं। उन्होंने 17 मई, सन् 1881 को अजमेर में ऋषि दयानन्द से भेंट की थी और उनसे अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त किया था। ऋषि दयानन्द से अपनी भेंट का वृतान्त उन्होंने अपने शब्दों में ही वर्णन किया है। उनके अनुसार 11 मई सन् 1881 को ‘संवाददाता’ (पं. लेखराम) पेशावर से स्वामीजी के दर्शनों के निमित्त चलकर 16 की रात को अजमेर पहुंचा और स्टेशन के समीप वाली सराय में डेरा किया और 17 मई को प्रातःकाल सेठ जी के बागीचे में जाकर स्वामी जी का दर्शन प्राप्त किया। उनके (स्वामी दयानन्द जी के) दर्शन से मार्ग के समस्त कष्टों को भूल गया और उनके सत्योपदेशों से समस्त गुत्थियां सुलझ गईं। जयपुर में एक बंगाली सज्जन ने मुझ (पं. लेखराम जी) से प्रश्न किया था कि आकाश भी व्यापक है और ब्रह्म भी, दो व्यापक (सत्तायें) किस प्रकार इकट्ठे (आत्मा की भीतर परमात्मा) रह सकते हैं? मुझसे इसका कुछ उत्तर न बन पाया। मैंने यही प्रश्न स्वामीजी से पूछा। उन्होंने एक पत्थर उठाकर कहा कि इसमें अग्नि व्यापक है या नहीं? मैंने कहा कि व्यापक है। फिर कहा कि मिट्टी? मैंने कहा कि व्यापक है। फिर पूछा कि जल? मैंने कहा कि व्यापक है। फिर पूछा कि आकाश और वायु? मैंने कहा कि व्यापक हैं। फिर पूछा कि परमात्मा? मैंने कहा कि वह भी व्यापक है। (स्वामी जी न मुझसे) कहा कि देखो, कितनी चीजें हैं परन्तु सभी उसमें (पथर में) व्यापक हैं। वास्तव में बात यही है कि जो (सत्ता) जिससे सूक्ष्म होती है वह उसमें (दूसरे किंचित स्थूल पदार्थ में) व्यापक हो सकती है। ब्रह्म चंूकि सबसे व अति सूक्ष्म है इसलिए वह सर्वव्यापक है। जिससे मेरी शान्ति हो गई।

मुझसे उन्होंने कहा कि और जो तुम्हारे मन में सन्देह हों सब निवारण कर लो। मैंने बहुत सोच-विचार कर 10 प्रश्न लिखे जिनमें से तीन मुझे स्मरण हैं, शेष भूल गये। 

प्रश्न-जीव-ब्रह्म की भिन्नता में कोई वेद का प्रमाण बतलाइए? उत्तर-यजुर्वेद का 40 वां अध्याय सारा जीव-ब्रह्म का भेद बतलाता है। प्रश्न-अन्य मत के मनुष्यों को शुद्ध करना चाहिए या नहीं। उत्तर-अवश्य शुद्ध करना चाहिए। प्रश्न-विद्युत क्या वस्तु है और किस प्रकार उत्पन्न होती है? विद्युत सर्वत्र है और रंगड़ से उत्पन्न होती है। बादलों की विद्युत् बादलों और वायु की रगड़ से उत्पन्न होती है। मुझसे कहा कि 25 वर्ष से पूर्व विवाह न करना। कई ईसाई और जैनी (स्वामी दयानन्द से) प्रश्न करने आते थे, परन्तु शीघ्र निरुत्तर हो जाते थे। 

एक हिन्दू नवयुवक-जिसके विचार पूर्णतया ईसाई मत की ओर झुके हुए थे--प्रतिदिन प्र्रश्न करने आता और शान्त होकर जाता था। अन्त में वह पूरी शान्ति पाने के पश्चात् ईसाई मत से विरक्त होकर वैदिक धर्मानुयायी हो गया। व्याख्यानों में सैकड़ों मनुष्य आते और लाभ उठाते जाते थे। 24 मई सन् 1881 को दोपहर के समय महाराज जी से विदा होने पर मैंने निवेदन किया कि आप मुझे अपना कोई चिन्ह प्रदान करें। (स्वामी जी ने मुझे) चिन्ह-स्वरुप अष्टाध्यायी की एक प्रति प्रदान की जो अभी तक पेशावर समाज में विद्यमान है। तत्पश्चात् उनके चरणों को हाथ लगाकर नमस्ते करके दास (पं. लेखराम) वहां से विदा होकर चला आया।  

पंडित लेखराम जी ने पहली बात यह बताई है कि उन्हें पेशावर से अजमेर पहुंचने में पांच दिन का समय लगा। इस यात्रा से उन्हें थकान हुई परन्तु वह 17 मई, 1881 को स्वामी दयानन्द जी के दर्शन से दूर हो गई। इन पंक्तियों के लेखक को लगता है कि पं. लेखराम जी ने स्वामी जी के व्यक्तित्व व उनकी विद्या के बारे में लोगों से अनेक प्रकार की बातें सुनी होगीं जिससे उन्हें स्वामी जी में उन गुणों की अपेक्षा रही होगी। स्वामी जी के दर्शन और वार्तालाप कर उन्हें उनके बारे में सुनी व समझी पूर्व की सभी बातें सत्य सिद्ध तो हुई ही, अपितु स्वामी जी का श्रेष्ठ व्यवहार देखकर वह उनसे अत्यन्त प्रभावित हुए। ऐसे में थकान का दूर होना स्वाभाविक ही था क्योंकि इस भेंट से उनका मन व हृदय प्रसन्नता से भर गया था। यदि स्वामी दयानन्द उनकी अपेक्षाओं के अनुरूप न होते तो फिर उन्हें अवश्य ग्लानि व क्षोभ हो सकता था जिससे उनकी यात्रा की थकान समाप्त होने के स्थान पर अधिक हो सकती थी। दूसरी महत्वपूर्ण बात जयपुर के बंगाली सज्जन के ईश्वर के व्यापक होने विषयक प्रश्न से सम्बन्ध रखती है। स्वामी जी ने पंडित लेखराम को उनके सभी प्रश्नों व शंकाओं को प्रस्तुत करने व उनका समाधान करवा लेने को कहा था। जयपुर के बंगाली सज्जन ने जो प्रश्न किया था हमें लगता है कि उसका जो उत्तर महर्षि दयानन्द जी ने दिया वह उस समय के अन्य किसी मताचार्य वा धर्माचार्य से मिलना असम्भव था। इससे पं. लेखराम जी की आशंका दूर हो गई। यदि किसी कारण स्वामी दयानन्द जी उन्हें न मिलते और उनके इस प्रश्न का समाधान न होता तो पं. लेखराम जी का भावी जीवन इस प्रश्न का समाधान न मिलने से वह न होता जो ऋषि से इसका समाधान प्राप्त करने पर निर्मित हुआ। हो सकता है कि वह लम्बे समय तक इस प्रश्न के उत्तर पर विचार करते और समाधान न हो पाता। ऐसी स्थिति में हो सकता था कि ईश्वर के वैदिक स्वरुप पर उनका विश्वास स्थिर न रह पाता। अतः महर्षि दयानन्द के दर्शन कर और अपने प्रश्नों का समाधान पाकर पंडित लेखराम जी की वैदिक धर्म में श्रद्धा व निष्ठा में अपूर्व वृद्धि हुई थी, ऐसा हम अनुमान करते हैं। इस घटना से वैदिक धर्म व देश को बहुत लाभ हुआ। 

स्वामी दयानन्द जी द्वारा पंडित लेखराम जी का जीव-ब्रह्म की एकता पर किया गया प्रश्न व उसका समाधान भी महत्वपूर्ण है। ऋषि दयानन्द के अनुसार यजुर्वेद का चालीसवां पूरा अध्याय जीव व ब्रह्म का भेद बताता है। हमें लगता है कि ईश्वर की व्यापकता और जीव-ब्रह्म की एकता विषयक ऋषि दयानन्द जी द्वारा दिए उत्तर स्वामी दयानन्द को वेदों का अपूर्व विद्वान होने सहित ऋषि भी सिद्ध करते हैं। इन प्रश्नों के इस प्रकार के समाधान देने वाला धार्मिक विद्वान व नेता उन दिनों देश में कहीं नहीं थे। पं. लेखराम जी का अगला प्रश्न था कि क्या दूसरे मत के लोगों को शुद्ध करना चाहिये अथवा नहीं? इसका निर्णायक दो टूक उत्तर देकर महर्षि दयानन्द ने देश हित का ऐसा कार्य किया जिससे हमारा देश, वैदिक धर्म और संस्कृति बची हुई है। हम सभी जानते हैं कि वैदिक धर्म का अशुद्ध व विकारयुक्त स्वरुप सनातन पौराणिक मत इस प्रश्न पर हमेशा नकारात्मक और देशहित के विपरीत बातें करता रहा। महाभारत काल के बाद स्वामी दयानन्द ऐसे पहले वैदिक धर्मी विद्वान हुए जिन्होंने शुद्धि का न केवल पूर्ण समर्थन किया अपितु देहरादून में एक मुस्लिम बन्धु मोहम्मद उमर को उसके परिवार सहित उसकी इच्छा से वैदिक धर्मी बनाया था। महाभारत के बाद इतिहास की यह अपूर्व घटना है। हम समझते हैं कि इस प्रश्न की महत्ता व इसके ऋषि दयानन्द के शास्त्र-सम्मत उत्तर के कारण भी पंडित लेखराम जी की ऋषि दयानन्द से यह भेंट ऐतिहासिक महत्व की थी। पं. लेखराम जी ने एक प्रश्न विद्युत की उत्पत्ति व अस्तित्व पर किया जिसका ऋषि दयानन्द द्वारा दिया गया उत्तर उनकी गम्भीर वैज्ञानिक सोच को प्रस्तुत करता है। ऋषि दयानन्द जी ने जो उत्तर दिया है वह उनके समय के किसी अन्य धार्मिक प्रवृत्ति के विद्वान से मिलना सम्भव नही दीखता। स्वामी जी के समय के सभी धार्मिक विद्वान मूूर्तिपूजा और धार्मिक अन्धविश्वासों से ग्रस्त थे। उनकी विद्या व विज्ञान की उन्नति में कोई रुचि नहीं थी, अतः उनसे ऐसा उत्तर नहीं मिल सकता था। 

पंडित लेखराम जी ने ईसाई मत से प्रभावित एक हिन्दू युवक की चर्चा कर बताया है कि वह ऋषि दयानन्द के समाधानों से सन्तुष्ट होकर वैदिक धर्मी हो गया था। देहरादून में भी ऐसी ही घटना घटी थी और परिणाम भी इस घटना के अनुसार ही हुआ था। इससे हम अनुमान करते है कि ऋषि दयानन्द के वैदिक धर्म के प्रचार से अनेक लोग विधर्मी होने से बचे जिससे धर्म व संस्कृति की रक्षा हुई है। अन्य मतों के अनेक लोगों द्वारा भी वैदिक मत अपनाया गया जिससे वैदिक धर्म की महत्ता सिद्ध होती है। ऋषि दयानन्द और पंडित लेखराम जी की इस भेंट से ज्ञात होता है कि धर्म के गहन-गम्भीर ज्ञान सहित ऋषि की विज्ञान के विषयों में भी अच्छी गति थी। लगता है कि इस स्वामी जी से भेंट की घटना से पंडित लेखराम जी के वैदिक धर्म व इसके सिद्धान्तों पर विश्वास में और अधिक वृद्धि हुई होगी जिसका परिणाम उनके बाद के जीवन को देखकर अनुमान किया जा सकता है। पंडित जी ने वैदिक धर्म के प्रचार के साथ अनेक लोगों को धर्मान्तरित होने से बचाया जिसका अनुकूल प्रभाव भविष्य के धर्मान्तरणों पर भी पड़ा। उन्होंने महर्षि दयानन्द का एक विशाल एवं खोजपूर्ण जीवन चरित देकर स्वयं को अमर कर दिया है। इस ग्रन्थ के अतिरिक्त भी आपने विपुल साहित्य का निर्माण किया है। पंडित लेखराम ऋषि दयानन्द के मिशन, वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार, के पहले शहीद कहे जा सकते हैं। यदि उनका जीवन लग्बा होता तो वह वैदिक धर्म की और अधिक सेवा करते। उनका आदर्श जीवन युगों युगों तक लोगों को देश और धर्म पर अपना सर्वस्व अर्पित करने की प्रेरणा देता रहेगा। इति। पं. लेखराम जी का बलिदान 6 मार्च सन् 1897 को लाहौर मे हुआ था। उनको उनके बलिदान दिवस पर सादर श्रद्धांजलि। 

गांव तक महिला सशक्तिकरण को मज़बूत करने की ज़रूरत

नरेन्द्र सिंह बिष्ट

नैनीताल, उत्तराखण्ड

दहेज़ के लिए मानसिक रूप से प्रताड़ित होने के बाद अहमदाबाद की आयशा द्वारा आत्महत्या ने जहां पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है, वहीं यह सवाल भी उठने लगा है कि हम जिस महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं, वास्तव में वह धरातल पर कितना सार्थक हो रहा है? सशक्तिकरण की यह बातें कहीं नारों और कागज़ों तक ही सीमित तो नहीं रह गई है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि जितना ज़ोर शोर से हम महिला दिवस की चर्चा करते हैं, उसकी गूंज सेमिनारों से बाहर निकल भी नहीं पाती है? क्योंकि हकीकत में आंकड़े इन नारों और वादों से कहीं अलग नज़र आते हैं। देश का शायद ही ऐसा कोई समाचारपत्र होगा जिसके पन्नों पर किसी दिन महिला हिंसा की ख़बरें नहीं छपी होंगी। जिस दिन किसी महिला या किशोरी को शारीरिक अथवा मानसिक रूप से प्रताड़ित नहीं किया गया होगा।

देश में महिला सशक्तिकरण योजनाएं भले ही महिलाओं के स्वाभिमान/सशक्तिकरण में सहायक हों, लेकिन लिंगानुपात आंकड़े इन योजनाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं। भले ही समाज 21वी सदी की ओर अग्रसर है, लेकिन उसकी सोंच अभी भी अविकसित ही मालूम पड़ती है। आज भी लड़के की चाहत में लड़की की गर्भ में हत्या इसका ज्वलन्त उदाहरण है। स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर बात करने वाली अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका लैंसेट ग्लोबल हेल्थ के अनुसार भ्रूण हत्याओं के द्वारा वर्ष में औसतन 2 लाख से अधिक मौतें भारत में दर्ज की जाती है। यह इस बात की ओर इशारा करता है कि यदि लिंग संबंधी भेदभाव को समाप्त करना है तो मौजूदा कानून को और भी सख़्ती से लागू करने होंगे, इसके साथ साथ समाज की सोच में भी परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। समाज को यह बताने की ज़रूरत है कि यदि वंश को बढ़ाने वाला चिराग लड़का है, तो उस चिराग का बीज महिला की कोख में ही पनपता है। जब कोख ही नहीं होगी, तो चिराग कैसे होगा? दरअसल आज भी समाज की प्राचीन संकुलन सोच का खामियाजा महिलाओं को किसी न किसी रूप में सहन करना पड़ता है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की वर्ष 2019 की रिर्पोट के अनुसार भारत में बलात्कार के प्रति घंटे 85 मामले देखने को मिलते है। वहीं दहेज निषेध अधिनियम के तहत दहेज हत्या के मामले 2018 में 690 से बढकर 2019 में 739 हो गयी है और यह निरन्तर बढ़ रहीे है। घरेलू हिंसा के 2 लाख मामले प्रति वर्ष दर्ज होते हैं, जिसके लिए घरेलू हिंसा अधिनियम का निर्माण 2005 लागू किया गया था। इसके अन्तर्गत मारपीट, यौन शोषण, आर्थिक शोषण, अपमानजनक भाषा का उपयोग की परिस्थितियों में कार्यवाही की जाती है। इसके अतिरिक्त प्रति वर्ष 300 एसिड हमले के मामले दर्ज होते हैं। जबकि आईपीसी की धारा 326ए के तहत एसिड हमले में शरीर जलने, झुलसने पर दोष साबित होने पर 10 वर्ष की कैद या उम्र कैद जैसी कड़ी सजा का प्रावधान है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी एसिड हमले को रोकने हेतु केन्द्र व राज्य सरकारों से एसिड की बिक्री को रेग्युलेट करने के लिए कानून बनाने के निर्देश दिए गए हैं, जिसके बाद एसिड हमलों में कमी तो आई है, लेकिन अभी भी महिलाओं पर एसिड हमलों को पूरी तरह से रोका नहीं जा सका है।

महिलाओं पर होने वाली हिंसा को रोकने में सबसे अधिक शिक्षा का रोल होता है। इससे जहां लड़कों में महिला सम्मान की भावना जागृत की जा सकती है तो वहीं महिलाओं और किशोरियों को भी उनके अधिकारों से परिचित कराया जा सकता है। लेकिन देश के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी व्यवस्थित रूप से शिक्षा का अभाव है। यही कारण है कि शहरों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा का प्रतिशत अधिक देखने को मिलते हैं। हालांकि ग्रामीण महिलाओं का शिक्षित और जागरूक नहीं होने के कारण इन क्षेत्रों में हिंसा के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराने के मामले बहुत कम होते हैं।

बात अगर देवभूमि उत्तराखंड की करें, तो यहां भी महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। 2011 की गणना के अनुसार यहां महिला साक्षरता दर भले ही 70 प्रतिशत है, परंतु आज भी यहां महिलाओं को निर्णय लेने का अधिकारी नहीं समझा जाता है। पुरुष प्रधान समाज की प्रथा अब भी राज्य के 70 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में देखने को मिलती है। महिलाएं यदि प्रगति मार्ग पर अग्रसर भी होना चाहें तो अशिक्षा उनके मार्ग में रोड़ा बनकर आ जाता है। इन क्षेत्रों में प्रति 100 में 45 महिलाएं ही शिक्षित हैं, जो कहीं न कहीं लिंग भेदभाव, प्राचीन विचारधारा के कारण उच्च शिक्षा से वंचित हुई हैं। इसके बावजूद भी अल्प शिक्षित महिलाओं ने ऐसे कार्य किये हैं, जो सराहनीय है। नैनीताल शहर में महिलाओं द्वारा स्वरोजगार को अपनाकर आजीविका संवर्धन किया जा रहा है। शहर की धना आर्या द्वारा मोजे, टोपी, कनछप्पा बुनकर रात्रि में मालरोड़ फड़ पर इन्हे विक्रय कर अपने परिवार की आर्थिक स्थिति मजबूत करने में सहायता कर रही हैं। इसी प्रकार शहर की कई अन्य महिलाएं भी इस स्वरोजगार की सहायता से अपने परिवार की आजीविका संवर्धन में सहायता कर रही हैं, जो एक सराहनीय कार्य है। राज्य में महिला स्वयं सहायता समूह सक्रिय रूप में कार्य कर रहे हैं। ग्राम तोली में पांच समूहों द्वारा अपनी लघु बचत से लघु उघोगों को विकसित किया है। राज्य में ऐसी कई महिला समूह हैं, जो मसाला, जूस, हस्तशिल्प, मोम, बुनकर इत्यादि उघोगों से जुड़कर आत्मनिर्भर भारत के सपने को पूरा कर रहीं है। यह महिलाओं के आत्मनिर्भर बनने की दिशा में एक सुखद पहलू है।

वास्तव में यदि महिला सशक्तिकरण पर कार्य किया जाना है, तो सर्वप्रथम महिलाओं के कार्य बोझ में कमी लाने के लिए प्रयास करने होंगे। जिससे वह अपने आप को समय दे सके और अपने बेहतर भविष्य के लिए सोच सके। साथ ही स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हो पायें। पर्वतीय क्षेत्रों में महिलाएं एक दिन में 15 से 16 घण्टे अपने दैनिक कार्यो को करने में लगा देती हैं, ऐसे में जब उनके पास अपने लिए समय होगा तो वह अन्य कार्यों को कर पाने में सक्षम हो सकेंगी। जिनमें उनके आजीविका संवर्धन संबंधी कार्य भी होंगे। इस प्रकार वह अपने अस्तित्व की लड़ाई जीत पाने में सक्षम होंगी। इसके लिए महिला शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि शिक्षा ही एकमात्र बाण है, जो किसी के लिए भी आजीविका या संतोषजनक जीवन जीने के लिए कारगर साबित होता है।

प्रतिवर्ष 08 मार्च को अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है, जिसमें महिलाओं को उनके द्वारा किये जा रहे उत्कृष्ट कार्यों के लिए सम्मानित किया जाता है। सभी महिलाओं को सम्मानित किया जा सकना सम्भव भी नहीं है। लेकिन प्रत्येक महिला को व्यक्तिगत सम्मान देकर, उसकी आकांक्षाओं को पूरा करके, उसे शिक्षित तथा जागरूक करके हम उसे वह स्थान दे सकते हैं, जिसकी वह वास्तविक हकदार भी है। अक्सर महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा पर समाज ख़ामोश हो जाता है। उसकी यह ख़ामोशी तब और बढ़ जाती है जब हिंसा परिवार के बीच रह कर होती है। ज़रूरत है न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक रूप से भी प्रताड़ना के खिलाफ महिलाओं को चुप कराने की बजाये उन्हें बोलने की आज़ादी देने की। यही वह माध्यम है जो महिलाओं को सिसकते से सशक्तिकरण के रूप में परिवर्तित करेगा और महिला दिवस सच्चे अर्थों में सार्थक होगा।

मन समाज का बदलना होगा, सरकारी योजना संबल है

मनोज कुमार
भारतीय समाज की धुरी मातृशक्ति है. उसकी ताकत इतनी है कि वह चाहे तो सृष्टि का विनाश कर दे लेकिन हमेशा वात्सल्य से भरी स्त्री हमेशा से सर्जक की भूमिका में रही है. हालांकि यह सच है कि सदियों से मातृशक्ति के साथ छलावा और धोखा होता रहा है. वर्तमान समय में स्त्री की अस्मिता पर आंच आ रही है. अखबार के पन्नों पर रोज-ब-रोज छपने वाली दुखांत खबरें मन को हिला जाती हैं. प्रतिरोध का स्तर इतना है कि हम सरकार को, तंत्र को कोसते हैं. उसकी आलोचना करते हैं और हर अपराध के साथ सरकार को गैर-जवाबदार मान लेते हैं. यही नहीं, महिलाओं के समग्र उत्थान के लिए बनी योजनाओं का भी हम उपहास उड़ाने से पीछे नहीं रहते हैं. हमारा मन सरकार की आलोचना में इतना रम गया है कि जो कुछ अच्छा हो रहा है, उसे भी देखना नहीं चाहते हैं. मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान अपने पहले कार्यकाल से लेकर चौथी पारी में भी लगातार महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए विभिन्न योजनाओं का क्रियान्वयन कर रहे हैं. सच तो यह है कि सरकारी योजनाएं महिला स्वावलंबन के लिए संबल होती हैं. इन योजनाओं को सकरात्मक दृष्टि से देखें और समझें तो लगभग दो दशक में महिला सशक्त और आत्मनिर्भर हुई हैं. मध्यप्रदेश में बेटी बचाओ से लेकर पांव पखारो अभियान से महिलाओं को नई पहचान मिलने के साथ ही समाज का मन बदलने की सकरात्मक कोशिश सरकार कर रही है. अब समय आ गया है कि सरकार की योजनाओंं का लाभ दिलाकर महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाएं और महिला विरोधियों के खिलाफ सामूहिक प्रतिरोध का व्यवहार करें.
यह एक दुर्भाग्यपूर्ण समय है जब महिलाओं के साथ अत्याचार और अनाचार की खबरें लगातार बढ़ रही हैं. विकास के साथ साथ हमारा मन संकुचित हो रहा है. महिलाओं के साथ हो रहे अनाचार का प्रतिरोध करने के स्थान पर हम अपने आसपास सुरक्षा घेरा खींचकर स्वयं को सुरक्षित करने की कोशिश में जुट गए हैं. अब समय आ गया है कि हम सब मिलकर अपनी सोच में बदलाव लाएं और प्रतिरोध का स्वरूप सामूहिक हो. हम सरकार और तंत्र के साथ खड़े होकर महिलाओं की प्रतिष्ठा और सुरक्षा प्रदान करने में मदद करें. होता यह है कि किसी प्रकार की अनचाही दुर्घटना घट जाने के बाद या पूर्व में किसी अंदेशे की जानकारी मिलने पर प्रशासन कार्यवाही करता है. अब हालात यह बनना चाहिए कि ना तो किसी किस्म की दुर्घटना की आशंका हो और ना ही कोई दुर्घटना घटे. आमतौर पर हम सबकुछ सरकार से चाहते हैं. हम मानकर चलते हैं कि सरकार किसी जादुई चिराग जैसा है जो पलक झपकते ही हमारी समस्या का निदान कर देगी और जो हमें चाहिए, वह सब सौंप देगी. यह बहुत कुछ अस्वाभाविक सा नहीं है लेकिन सौ प्रतिशत उचित भी नहीं. एक लोकतांत्रिक सरकार की जवाबदारी है कि वह समाज को आत्मनिर्भर करे लेकिन यह जवाबदारी यह भी है कि समाज सरकार का सहयोग करे. सरकार की विभिन्न कल्याणकारी योजनाएं समाज के लिए संबल होती हैं. उन्हें सहायता करती हैं लेकिन आत्मनिर्भर बनने के लिए समाज को स्वयं खड़ा होना पड़ता है.
मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान हमेशा से मातृशक्ति को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में सक्रिय रहे हैं. बेटी बचाओ अभियान शुरू किया तो भू्रण हत्या जैसे कलंक पर रोक लगी. साथ ही मध्यप्रदेश देश का इकलौता राज्य होगा, जहां बाल विवाह का प्रतिशत साल-दर-साल गिर रहा है. बच्चियों को शिक्षा देने के लिए अनेक स्तर पर प्रयास किए गए जिसका परिणाम यह रहा कि आज सभी क्षेत्रों में उनकी धमक सुनाई देती है. महिलाओं और बच्चियों के प्रति सम्मान के लिए मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने किसी भी शासकीय कार्यक्रम के आरंभ में बेटियों के पांव पखारने का अभियान शुरू किया है. भारतीय संस्कृति में बेटियों को यह सम्मान परम्परागत रूप से दिया जाता रहा है जिसे आगे बढ़ाने का काम मध्यप्रदेश सरकार ने किया है.
शहरों के साथ साथ ग्रामीण परिवेश की महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में मध्यप्रदेश सतत रूप से कार्य कर रहा है. स्व-सहायता समूह की महिलाएं पूरे प्रदेश में अपनी हुनर से अलग नाम कमा रही हैं. हर विपदा से घर और समाज को बचाने में महिलाएं सक्षम हैं, यह बात कोरोना संकट के समय भी महिलाओं ने स्थापित किया है। महिला स्व-सहायता समूहों द्वारा बनाये गये मास्क और पीपीई किट ने न केवल बीमारी पर नियंत्रण पाने में मदद की. प्रदेश में अब महिला स्व-सहायता समूहों को आंगनवाड़ी केन्द्रों में वितरित होने वाले रेडी-टू-ईट पोषण आहार और शाला स्तर पर गणवेश निर्माण का कार्य दिया जा रहा है। स्व-सहायता समूहों की 33 लाख महिलाओं को स्व-रोजगार की दिशा में बढ़ावा देने के लिये की गई नवीन व्यवस्था से प्रदेश की महिलाएं सशक्त होंगी। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने महिला स्व-सहायता समूहों को बैंकों के माध्यम से दी जाने वाली सहायता सीमा 300 करोड़ से बढ़ाकर 1400 करोड़ रूपये कर दी गई है। साथ ही यह भी निर्णय लिया गया है कि बैंक ब्याज दर चार प्रतिशत से ज्यादा नहीं होगी। महिलाओं की सुरक्षा के लिए अलग अलग स्तर पर चाक-चौबंद प्रयास हो रहे हैं लेकिन सरकार के साथ समाज का सहयोग भी अपेक्षित होता है.
भारतीय संस्कृति में हर दिन महिला दिवस होता है और एक दिन मनाये जाने वाले महिला दिवस इस बात का संदेश समाज को जाता है कि बीते समय में जो कार्य मातृशक्ति ने किया, उसे जानें और समझें. अब समय है कि हम-सब मिलकर यह संकल्प लें कि महिलाओं की सुरक्षा हमारी प्राथमिक जवाबदारी है. उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए उनके भीतर साहस का संचार करें. आत्मरक्षा का कौशल विकसित करें और उन्हें शिक्षित करने के साथ जागरूक करें. महिला दिवस की सार्थकता यह है कि अगले आयोजन में जब सब मिलें तो सरकारी योजनाओं से मिले संबल से आर्थिक आत्मनिर्भरता और समाज से मिले संबल से सुरक्षित महिला पर चर्चा करें.

महिला सुरक्षा को लेकर कितने गंभीर हैं हम?

  • योगेश कुमार गोयल
    संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुतारेस ने वर्तमान सदी को महिलाओं के लिए समानता सुनिश्चित करने वाली सदी बनाने का आग्रह किया था। उनका कहना था कि न्याय, समानता तथा मानवाधिकारों के लिए लड़ाई तब तक अधूरी है, जब तक महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव जारी है। महिलाओं के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने और उनके अधिकारों पर चर्चा करने के लिए प्रतिवर्ष आठ मार्च को ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ मनाया जाता है। इस वर्ष अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की थीम कोरोना काल में सेवाएं देने वाली महिलाओं और लड़कियों के योगदान को रेखांकित करने के लिए ‘महिला नेतृत्व: कोविड-19 की दुनिया में एक समान भविष्य को प्राप्त करना’ रखी गई है। हर साल पूरे उत्साह से दुनियाभर में यह दिवस मनाया जाता है, इस अवसर पर बड़े-बड़े सेमिनार, गोष्ठियां, कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं लेकिन 46 वर्षों से महिला दिवस प्रतिवर्ष मनाते रहने के बावजूद पूरी दुनिया में महिलाओं की स्थिति में वो सुधार नहीं आया है, जिसकी अपेक्षा की गई थी। समूची दुनिया में भले ही महिला प्रगति के लिए बड़े-बड़े दावे किए जाते हैें पर वास्तविकता यही है कि ऐसे लाख दावों के बावजूद उनके साथ अत्याचार के मामलों में कमी नहीं आ रही और उनकी स्थिति में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है।
    प्रतिवर्ष महिला दिवस का आयोजन जिस उद्देश्य से किया जाता रहा है, उसके बावजूद जब महिलाओं के साथ लगातार सामने आती अपराधों की घटनाओं को देखते हैं तो सिर शर्म से झुक जाता है। महिलाओं के साथ आए दिन हो रही हैवानियत से हर कोई हैरान, परेशान और शर्मसार है। आए दिन देश के किसी न किसी हिस्से से बेटियों से होने वाली हैवानियत के सामने आते मामले दिल को झकझोरते रहते हैं। एक तरफ हम महिला सुरक्षा को लेकर कड़े कानूनों की दुहाई देते हैं, दूसरी ओर इन कानूनों के अस्तित्व में होने के बावजूद जब हर साल महिला अपराध के हजारों मामाले दर्ज होते हैं और ऐसे बहुत से मामलों में पुलिस-प्रशासन का रवैया भी उदासीन होता है तो ऐसे में समझना कठिन नहीं है कि महिला सुरक्षा को लेकर हम वास्तव में कितने गंभीर हैं। समूची मानवता को शर्मसार करने वाली ऐसी घटनाएं कई बार सिस्टम पर भी गंभीर सवाल खड़े करती हैं। बहुत से मामले तो ऐसे होते हैं, जिनकी चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर नहीं हो पाती और उनमें से अधिकांश मामले इसी का फायदा उठाकर दबा दिए जाते हैं तथा पीडि़ताएं और उनके परिवार भय के साये में घुट-घुटकर जीने को विवश होते हैं। निर्भया कांड के बाद वर्ष 2012 में देशभर में सड़कों पर महिलाओं के आत्मसम्मान के प्रति जिस तरह की जन-भावना और युवाओं का तीखा आक्रोश देखा गया था, तब लगने लगा था कि समाज में इससे संवदेनशीलता बढ़ेगी और ऐसे कृत्यों में लिप्त असामाजिक तत्वों के हौंसले पस्त होंगे लेकिन यह सामाजिक विडम्बना ही है कि समूचे तंत्र को झकझोर देने वाले निर्भया कांड के बाद भी हालात बदतर ही हुए हैं। ऐसी कोई भी वीभत्स घटना सामने के बाद हर बार एक ही सवाल खड़ा होता है कि आखिर भारतीय समाज में कब और कैसे मिलेगी महिलाओं को सुरक्षा? कब तक महिलाएं घर से बाहर कदम रखने के बाद इसी प्रकार भय के साये में जीने को विवश रहेंगी?
    कानून व्यवस्था और न्याय प्रणाली में ढ़ीलेपन का ही नतीजा है कि कुछ साल पहले निर्भया कांड के बाद पूरे देश का प्रचण्ड गुस्सा देखने के बाद भी समाज में महिलाओं के प्रति अपराधियों के हौंसले बुलंद नजर आते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं के प्रति अपराधों में वर्ष दर वर्ष बढ़ोतरी हो रही है। एनसीआरबी के अनुसार वर्ष 2015 में देश में महिला अपराध के 329243, वर्ष 2016 में 338954 तथा 2017 में 359849 मामले दर्ज किए गए। इनमें हत्या, दुष्कर्म, एसिड अटैक, क्रूरता तथा अपहरण के मामले शामिल हैं। वर्ष 2017 में देश में महिलाओं के साथ दुष्कर्म की 32559 तथा 2018 में 33356 घटनाएं दर्ज की गई। एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक 2017 में महिलाओं के प्रति अपराधों के मामलों में सजा की दर करीब 24 फीसदी ही रही। वर्ष 2019 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 405861 मामले सामने आए थे, जिनमें प्रतिदिन औसतन 87 मामले बलात्कार के दर्ज किए गए। रिपोर्ट के अनुसार देशभर में वर्ष 2018 के मुकाबले 2019 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में 7.3 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई। चिंता की बात यह है कि महिला अपराधों के मामलों में साल दर साल स्थिति बदतर होती जा रही है और अपराधियों को सजा मिलने की दर बेहद कम है। यही कारण है कि अपराधियों के हौंसले बुलंद रहे हैं। ऐसे मामलों में फास्ट ट्रैक कोर्ट की कार्रवाई भी कितनी ‘फास्ट’ है, यह पिछले कुछ वर्षों में हमने देखा ही है।
    महिला अपराधों के मामलों में अक्सर यही देखा जाता रहा है कि जब भी कोई बड़ा मामला सामने आता है तो हम पुलिस-प्रशासन को कोसने और संसद से लेकर सड़क तक कैंडल मार्च निकालने या अन्य किसी प्रकार से विरोध प्रदर्शन करने की रस्म अदायगी करके शांत हो जाते हैं। दोबारा तभी जागते हैं, जब वैसा ही कोई बड़ा मामला पुनः सुर्खियां बनता है। कहने को देशभर में महिलाओं की मदद के लिए हेल्पलाइन नंबर भी बनाए गए हैं किन्तु बहुत बार यह तथ्य भी सामने आए हैं कि इन हेल्पलाइन नंबरों पर फोन करने पर फोन रिसीव ही नहीं होता। महज कानून बना देने से ही महिलाओं के प्रति हो रहे अपराध थमने से रहे, जब तक उनका ईमानदारीपूर्वक कड़ाई से पालन न किया जाए। महिला अपराधों पर अंकुश के लिए समय की मांग यही है कि सरकारें मशीनरी को चुस्त-दुरूस्त बनाने के साथ-साथ प्रशासन की जवाबदेही सुनिश्चित करें।

राहुल जी शिशु वाटिका जाइए ना !

महात्मा गाँधी के विभिन्न रूपों से बच्चों को परिचित कराने वाली अनु वंदोपाध्याय की पुस्तक बहुरूपी गाँधी की भूमिका में नेहरू जी ने लिखा – यह पुस्तक बच्चों के लिए है किन्तु बहुत से बड़े लोग भी इसे खुशी से पढेंगें… | आज यदि नेहरू जी होते तो वर्तमान गाँधी (राहुल जी ) के विभिन्न रूपों पर रीझते या खीजते इसका अनुमान तो पुराने कांग्रेसी ही लगा सकते हैं | राहुल जी किसे प्रभावित करने के लिए बार-बार रूप और विचार बदल देते हैं यह भी अपने आप में एक पहेली है | बड़ों के लिए या बच्चों के लिए ! उनका प्रत्येक नया रूप ,नया वक्तव्य अपने ही पुराने रूप और वक्तव्य से व्युत्क्रम अनुपात में होता है | वे एक ओर संसद में आँख मारकर हँसमुख-रँगीले-युवा की छवि में दीखते  हैं तो दूसरी ओर किसी आमसभा में आस्तीनें चढ़ा कर बाहुबली दिखने का प्रयास करते हैं | कभी इन्नोसेंट युवा बनजाते हैं तो कभी अपने पूज्य पिता की स्टाइल में आजाते हैं | कभी-कभी अल्वर्ट आइन्स्टीन वाले लुक में वीडियों पोस्ट कर स्वयं को गंभीर दिखाने का प्रयास करते  हैं | अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ने अपनी पुस्तक ‘ए प्रॉमिस्ड लैंड में संभवतः इसीलिये उन्हें एक ऐसा नर्वस और अपरिपक्व छात्र कहा , जिसने अपना होमवर्क किया है और टीचर को इम्प्रेस करने की कोशिश में है | यद्यपि मैं ओबामा जी की टिप्पणी से सहमत नहीं हूँ | प्रश्न यह है कि क्या राहुल जी किसी को इम्प्रेस करना चाहते हैं या किसी तय एजेंडे के अनुसार  भ्रमित किये जा रहे हैं | वे अभी तक किसी एक निश्चित छवि में नहीं ढल पाए हैं | स्वयं कांग्रेस पार्टी को इससे भारी क्षति उठानी पड़ रही है |

राहुल जी एक ओर जनेऊ पहन कर भारतीय संस्कृति में रंगे हुए दिखना चाहते हैं  दूसरी ओर भारत की  सांस्कृतिक संस्थाओं की तुलना पाकिस्तान के जिहादी मदरसों से कर देते हैं | क्या उन्हें पता है कि भारत के कई मदरसे भी संदिग्ध गति विधियों में संलग्न हैं | क्या राहुल जी ने कभी सोचा है कि उनकी इस भयानक टिप्पणी से देश के हजारों सरस्वती शिशु मंदिरों में पढ़ने वाले लाखों बच्चों के मन पर क्या बीतेगी ? आज देश में असंख्य डॉक्टर्स,इंजीनियर्स,वैज्ञानिक,शिक्षाविद और सामाजिक कार्यकर्ता शिशुमंदिरों से निकले छात्र-छात्राएं हैं | क्या राहुल जी को पता है कि उनकी अपनी पार्टी कांग्रेस में भी बड़ी संख्या में ऐसे लोग  हैं जो शिशु मंदिरों में पढ़े हैं या उनके बच्चे पढ़ रहे हैं |

यह जानते हुए भी कि भारत में इसाई मिशनरियाँ शिक्षा के नाम पर धर्मान्तरण कराती रही हैं और अभी भी करा रही हैं राहुल जी तमिलनाडु के इसाई विद्यालय सेंट जोसेफ में नाचते हैं, दण्ड बैठक करते हैं और फिर  भारतीय  संस्कृति का का प्रचार करने वाली शैक्षणिक संस्थाओं पर कीचड़ उछालते हैं | यह तो सभी जानते हैं कि  वनवासी अंचलों में  इसाई मिशनरियों को  संघ प्रेरित संस्थाओं से चुनौती मिल रही है | क्या राहुल गाँधी इसाई मिशनरियों और मुसलामानों को प्रसन्न करने के लिए ही इस नए रूप में आ रहे हैं |

सरस्वती शिशु मंदिर शिक्षा की भारतीय पद्धति के श्री विग्रह हैं | वह विग्रह जिसे अँगरेजों ने खंडित कर दिया था ये वही विग्रह है जिसे पूज्य बापू ने द ब्यूटीफुल ट्री कहकर नैवद्य अर्पित किया था  | महात्मा गाँधी जी ने दुनिया को बताया कि भारत के लोगों को अँगरेजों ने पढ़ना लिखना नहीं सिखाया अपितु अँगरेजों के आने से पूर्व भी भारत में शिक्षा का एक बहुत सुन्दर वृक्ष था जिसे अँगरेजों ने नष्ट कर दिया | आर्यभट्ट,महर्षि पाणिनी, वरःमिहिर,चरक, सुश्रुत चाणक्य, नागार्जुन से होती हुई कालि दास, भवभूति, और तानसेन तक वह किसी न किसी गुरुकुल के माध्यम से सतत चलती रही | इतिहासकार धर्मपाल जी ने गाँधी जी के इसी शीर्षक से एक शोध ग्रन्थ लिखा है | उन्होंने सप्रमाण सिद्ध किया है कि अँगरेजों के आने से पूर्व भारत में एक सुदृढ़ शिक्षा प्रणाली अस्तित्व में थी जोकि हजारों वर्ष से निरंतर चली आ रही थी | अँगरेजों के देश पर कब्ज़ा किये जाते समय देश के लगभग सभी गाँवों में एक विद्यालय संचालित था | यह समझने वाली बात है कि शिक्षा की जिस भारतीय व्यवस्था ने देश को आयुर्वेद,गणित खलोग,ज्योतिष आदि के विश्व पूज्य विद्वान दिए, हमने अब तक उसकी उपेक्षा ही की है | विद्याभारती शिक्षा के उसी भारतीय मॉडल पर कार्य कर रहा है | क्या हमारी हजारों वर्ष प्राचीन शिक्षा की आचार्य परंपरा जिहादी है ? राहुल जी के परामर्श मंडल में कौन लोग हैं ? जो उन्हें लाखों विद्यार्थियों के मध्य अलोक प्रिय बनाना चाहते हैं |

मेरे विचार से राहुल जी को एक बार शिशु मंदिरों का भ्रमण अवश्य कर लेना चाहिए | वहाँ की कार्य पद्दति,पाठ्यक्रम संस्कार परिमार्जन का अवलोकन किये बिना गंभीर आरोप लगा देने से उनकी आपनी छवि भी धूमिल हो रही है |

मेरा सुझाव है,राहुल जी कभी शिशु वाटिका में जाइए वहाँ लव, कुश, ध्रुव, प्रहलाद रूपों को साक्षात् देखियए, माँ भारती की सेवा में अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने वाले भगत सिंह जी ,बिस्मिल जी  आदि हुतात्माओं के चित्रों से सजे परिसरों को देखिये, भारत माता का पूजन कैसे किया जाता है अपनी मिट्टी,अपने देश,अपनी संस्कृति, अपने पूर्वजों पर गर्व कैसे किया जाता है, ये सब शिशु वाटिका में हीं सिखाया जाता है | पशु पक्षियों, नदियों,पर्वतों,वनस्पतियों तक से प्रेम करो, आपस में भैया बहन कहो, बड़ों का अभिवादन करो ये शिशुमंदिरों के सहज संस्कार हैं आप स्वयं जा कर देखिये | मुझे विश्वास है जब आप वहाँ जाएँगे तो स्वयं को एक नए रूप में अनुभव करेंगे  |

चलो एक नई उम्मीद बन जाऊँ…

    प्रभुनाथ शुक्ल

चलो एक नई उम्मीद बन जाऊँ!
बसंत सा बन मैं भी खिल जाऊँ!!

प्रकृति का नव रूप मैं हो जाऊँ!
गुनगुनी धूप सा मैं खिल जाऊँ!!

अमलताश सा मैं यूँ बिछ जाऊँ!
अमराइयों में मैं खुद खो जाऊँ!!

धानी परिधानों की चुनर बन जाऊँ!
खेतों में पीली सरसों बन इठलाऊं!!

मकरंद सा कलियों से लिपट जाऊँ!
बसंत के स्वागत का गीत बन जाऊँ!!

आधे आँगन की धूप सा बन जाऊँ!
मादकता का मैं संगीत बन जाऊँ!!

बनिता का मैं नचिकेता बन जाऊँ!
टेंशू बन उसके केशों में सज पाऊं!!

बहुरंगी जीवन में बसंत हो जाऊँ!
मादकता का मैं मलंग हो जाऊँ!!

के-पॉप का हाथ, अब जलवायु परिवर्तन के मुद्दे के साथ!

दुनिया भर के युवाओं में कोरियन पॉप, या के-पॉप, संगीत ने धूम मचाई हुई है। लेकिन इस संगीत के प्रशंसक सिर्फ संगीत के उन्माद में ही चूर नहीं रहते, बल्कि अपनी सामाजिक भूमिका को भी बड़ी संजीदगी से लेते हैं।

जहाँ एक ओर के-पॉप ने हाल के वर्षों में सांस्‍कृतिक फलक पर खासा दबदबा बना लिया  है, वहीं इसके प्रशंसक सामाजिक न्‍याय के लिये अपने अनोखे और सशक्‍त सक्रियतावाद के लिये मशहूर हैं। जंगलों को बचाने के लिए याचिका दायर करने से लेकर, आपदा पीड़ितों के लिए नकदी जुटाने तक, दुनिया भर में के-पॉप प्रशंसकों की बढ़ती सेना जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक लड़ाई में नवीनतम बल के रूप में उभरी है।

युवा और तकनीक के जानकार, के-पॉप प्रेमियों ने राजनीतिक मुद्दों को उठाने के लिए अपनी सोशल मीडिया शक्ति का उपयोग किया है, जिसमें पिछले साल संयुक्त राज्य में ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन के लिए धन जुटाना और थाईलैंड के लोकतंत्र समर्थक विरोध का समर्थन करना शामिल है।

लेकिन समूह अब जलवायु परिवर्तन पर तेजी से मुखर हो रहा है। और पर्यावरण के मुद्दों पर सुर्खियों में है। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसे दुनिया के कुछ हिस्सों में अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया जाता है।

और इसी क्रम में नवम्‍बर में आयोजित होने जा रही 26वीं यूएन क्‍लाइमेट चेंज कांफ्रेंस ऑफ द पार्टीज (सीओपी26) से पहले केपॉप4प्‍लैनेट नामक के-पॉप प्रशंसकों द्वारा संचालित अपनी तरह के एक पहले जलवायु संरक्षण कार्रवाई मंच की शुरुआत की गयी है।

बल्कि कुछ ही दिन पहले के-पॉप सुपरस्‍टार्स ब्‍लैकपिंक सीओपी26 के आधिकारिक पैरोकार नियुक्‍त किये गये हैं। पिछले साल दिसम्‍बर में ब्‍लैकपिंक ने जलवायु परिवर्तन को रोकने के अपील करते हुए एक वीडियो जारी किया था, जिसे 20 लाख से ज्‍यादा लोगों ने देखा था। उसके बाद उन्‍हें सीओपी26 से जुड़ी यह जिम्‍मेदारी दी गयी है।

के-पॉप इन प्रशंसकों ने अमेरिका के राष्‍ट्रपति चुनाव के दौरान टलसा में तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति डोनाल्‍ड ट्रम्‍प द्वारा दिये गये प्रचार अभियान भाषण को सोशल मीडिया पर खासा ट्रोल किया था। वहीं, #blacklivesmatter मुहिम के लिये धन भी जुटाया। इसके अलावा उन्‍होंने थाइलैंड में लोकतंत्र की स्‍थापना के लिये प्रदर्शन भी किये।

के-पॉप जलवायु परिवर्तन रोकने की दिशा में भी उल्‍लेखनीय योगदान कर रहा है। प्रतिमाओं के सम्‍मान में पौधे लगाना, लुप्‍तप्राय जानवरों को अंगीकार करना और जलवायु सम्‍बन्‍धी आपदाओं के शिकार हुए लोगों की मदद के लिये वित्‍तीय जनसहयोग लेना के-पॉप की आम गतिविधियों में शामिल है। हालांकि आवाजें खासी बिखरी हुई थीं इस वजह से उन पर अब तक ज्‍यादा ध्‍यान नहीं दिया गया।

केपॉप4प्‍लैनेट नामक इस नये मंच का लक्ष्‍य एक ऐसा मंच बनने का है जहां के-पॉप के प्रशंसक एकजुट हों, जलवायु सम्‍बन्‍धी संकट पर विचार-विमर्श करें और सीखें। साथ ही इस मुद्दे पर समान विचारों वाले लोगों के साथ मिलकर जलवायु संरक्षण की दिशा में सार्थक प्रयास करें। इससे सरकारों तथा कारोबारी इकाइयों को हमारे भविष्‍य को सुरक्षित रखने के लिये सार्थक प्रयासों के लिये प्रेरित करने की दिशा में के-पॉप के अनोखे और सशक्‍त सक्रियतावाद (एक्टिविज्‍म) का सही इस्‍तेमाल किया जा सकेगा।

कोरिया के विदेश मामलों के मंत्रालय के मुताबिक वर्ष 2019 तक 98 देशों में के-कल्‍चर के 1799 फैन क्‍लब थे, जिनके 10 करोड़ से ज्‍यादा सदस्‍य हैं। इससे जाहिर होता है कि उनकी मुहिम में एक नयी तरह की वैश्विक जलवायु कार्रवाई की शक्‍ल लेने की असीम क्षमता है।

केपॉप4प्‍लैनेट के संगठनकर्ता और के-पॉप की प्रशंसक नूरुल सरीफा ने कहा कि विभिन्‍न मंचों के प्रशंसकों ने उनके अभियान को पहले ही अपना लिया है और पूरी दुनिया से उन्‍हें समर्थन मिल रहा है।

नूरुल ने कहा ‘‘जलवायु परिवर्तन हमारी पीढ़ी का संकट है। के-पॉप के प्रशंसकों में ज्‍यादातर जेन जेड और मि‍लेनियल्‍स शामिल हैं, हम उन लोगों में से हैं जो आज लिये गये फैसलों या निर्णय नहीं लिये जाने से सबसे ज्‍यादा प्रभावित होंगे। जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई का मतलब अपने भविष्‍य के लिये संघर्ष करना है।’’

के-पॉप के प्रशंसकों का जलवायु परिवर्तन के प्रति संरक्षण अभियान में शामिल होना कोई नया चलन नहीं है। पिछले कुछ वर्षों से प्रशंसकों के समूहों की तरफ से जलवायु सम्‍बन्‍धी न्‍याय और अन्‍य सामाजिक मुद्दों को लेकर लगातार आवाज उठायी जा रही है।

उत्तर-दक्षिण भाषा-सेतु के वास्तुकार : मोटूरि सत्यनारायण

                                                                                      ·         डॉ. अमरनाथ

  आजादी के आन्दोलन के दौरान गाँधी जी के साथ हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में विकसित करने का जिन लोगों ने सपना देखा और उसके लिए आजीवन निष्ठा के साथ संघर्ष किया उनमें मोटूरि सत्यनारायण (2.2.1902-6.3.1995) का नाम पहली पंक्ति में लिया जा सकता है. वे भारतीय हिंदी आंदोलन के एक ऐसे अपराजेय सेनानी और योजनाकार थे जिन्होंने मन, वचन और कर्म से हिन्दी के अखिल भारतीय स्वरूप को मजबूत आधार प्रदान करने के लिए जीवन भर संघर्ष किया. महात्मा गाँधी के अनन्य अनुयायी मोटूरि सत्यनारायण उत्तर से दक्षिण तक हिन्दी भाषा के सेतु थे. उन्होंने गाँधी जी का संदेश गाँव-गाँव एवं घर-घर तक पहुँचाया और हिन्दी को राष्ट्रीयता की संवाहिका और भारतीय भाषाओं के एकीकरण की मजबूत कड़ी मानकर उसके प्रचार-प्रसार में न केवल अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया बल्कि इसके लिए जेल भी गए.

उन्होंने ‘हिन्दी प्रचारक’ (1926-1936),’हिन्दी प्रचार समाचार’ (1938-1961) तथा ‘दक्षिण भारत’ (1947-1961) जैसी पत्रिकाओं का कुशल संपादन किया. केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा, भारतीय संस्कृति संगम, दिल्ली, तेलगु भाषा समिति, हैदराबाद, हिंदी विकास समिति, मद्रास एवं हिंदुस्तानी प्रचार सभा, वर्धा जैसी संस्थाओं की स्थापना का श्रेय भी उन्हें है.

मोटूरि सत्यनारायण का जन्म दक्षिण भारत के आन्ध्र प्रदेश के कृष्णा जिले के दोण्डापाडु नामक गाँव में हुआ था. प्राथमिक शिक्षा के बाद उन्होंने नेशनल कॉलेज माचिलिपट्टनम से अंग्रेजी, तेलुगू और हिन्दी की शिक्षा प्राप्त की और गाँधी जी के विचारों से प्रभावित होकर दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा में स्वयंसेवक बन गए. धीरे- धीरे उन्होंने अपनी प्रतिभा और कार्य क्षमता से वहाँ जगह बना ली और वे सभा के सचिव बने और फिर प्रधान सचिव नियुक्त हुए. इसके बाद का अपना पूरा जीवन उन्होंने आजादी की लड़ाई और हिन्दी की प्रतिष्ठा को समर्पित कर दिया.

महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चलाए गए सत्याग्रह तथा 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में उन्होंने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था. उन दिनों हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना स्वाधीनता-आन्दोलन का ही अविभाज्य हिस्सा था. गाँधी जी ने हिन्दी आन्दोलन को आजादी के आन्दोलन से जोड़ दिया था. आन्दोलन में भाग लेने के कारण ही मोटूरि सत्यनारायण को बन्दी बनाया गया था. उन्होंने जेल में रहते हुए भी हिन्दी के प्रचार का कार्य जारी रखा. जेल से मुक्त होने पर उन्होंने हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक योजनाएँ बनाईं. इन योजनाओं में केन्द्रीय हिन्दी शिक्षण मंडल की योजना भी थी.

मोटूरि जी कई भाषाओं के ज्ञाता थे. वे अपनी मातृभाषा तेलुगु के साथ तमिल, अंग्रेजी, उर्दू, हिंदी तथा मराठी में समान दक्षता रखते थे. राष्ट्रीय चेतना और राजनीतिक दूर-दृष्टि के साथ उनके बहुभाषा ज्ञान ने उनकी भाषा-दृष्टि को सर्वग्राही और समावेशी बनाया. वे समस्त भारतीय भाषाओं के विकास के पक्षधर थे. उनके द्वारा स्थापित केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निर्माण के पीछे महात्मा गाँधी की प्रेरणा काम कर रही थी. इसके पूर्व गाँधी जी की प्रेरणा से ही मद्रास में स्थापित दक्षिण भारत हिन्‍दी प्रचार सभा में वे महत्वपूर्ण योगदान दे रहे थे. वे हिन्‍दीतर राज्‍यों में सेवारत हिन्‍दी शिक्षकों को हिन्‍दी भाषा के सहज वातावरण में रखकर उन्‍हें हिन्‍दी भाषा, हिन्दी साहित्य एवं हिन्‍दी शिक्षण का विशेष प्रशिक्षण प्रदान करने की आवश्‍यकता का अनुभव कर रहे थे. उनका मत था कि भाषा सार्वजनिक समाज की वस्तु है. इसलिए इसका विकास भी सामाजिक विकास के साथ-साथ ही चलते रहना चाहिए. केंद्रीय हिदी संस्थान को वे भाषायी प्रयोजनीयता के केन्द्र के रूप में विकसित करना चाह रहे थे. वे प्रयोजनमूलक हिंदी आंदोलन के जन्मदाता थे और उन्होंने संस्थान के माध्यम से इस आंदोलन को संचालित किया.

मोटूरि जी को यह भी चिन्‍ता थी कि हिन्‍दी कहीं सिर्फ साहित्‍य की भाषा बनकर न रह जाए. उसे जीवन के विविध प्रकार्यों की अभिव्‍यक्‍ति में समर्थ होना चाहिए. उन्‍होंने कहा कि भारत एक बहुभाषी देश है. हमारे देश की प्रत्‍येक भाषा दूसरी भाषा जितनी ही महत्‍वपूर्ण है, अतएव उन्‍हें राष्‍ट्रीय भाषाओं की मान्‍यता दी गई है. भारतीय राष्‍ट्रीयता को चाहिए कि वह अपने आपको इस बहुभाषीयता के लिए तैयार करे. उनकी दृष्टि में हिन्‍दी को देश के लिए किए जाने वाले विशिष्‍ट प्रकार्यों की अभिव्‍यक्‍ति का सशक्‍त माध्‍यम बनना है और खुद को उसके अनुरूप ढलना और उसके लिए तैयार होना है. केन्द्रीय हिन्दी संस्थान की स्थापना के पीछे उनकी यही परिकल्पना थी.

अपने उद्देश्य को साकार करने के लिए मोटूरि जी ने 1951 में आगरा में ‘अखिल भारतीय हिंदी परिषद्’ नामक एक हिंदी शिक्षक-प्रशिक्षण संस्था का आरंभ किया. उनके निर्देशन में इस परिषद् ने एक हिन्दी विद्यालय शुरू किया. संविधान सभा के अध्‍यक्ष एवं भारत के प्रथम राष्‍ट्रपति डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद परिषद के अध्‍यक्ष थे. श्री रंगनाथ रामचन्‍द्र दिवाकर तथा लोकसभा के तत्‍कालीन स्‍पीकर श्री मावलंकर परिषद्‌ के उपाध्‍यक्ष थे. प्रसिद्ध उद्योगपति श्री कमलनयन बजाज परिषद्‌ के कोषाध्‍यक्ष थे और मोटूरि सत्‍यनारायण इसके सचिव. सन्‌ 1958 में इस संस्था का नाम ‘‘अखिल भारतीय हिन्‍दी महाविद्यालय, आगरा’ रखा गया और इसके कार्य- क्षेत्र का विस्तार हुआ. मोटूरि सत्यनारायण के प्रयास से इस संस्था को अपने समय के अनेक विख्यात हिंदी विद्वानों, मनीषियों और शिक्षाविदों का सान्निध्य मिला. 1960 में केंद्र सरकार ने केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल का गठन करके इसके संचालन का दायित्व अपने हाथ में ले लिया. मोटूरि सत्यनारायण इसके प्रथम अध्यक्ष बनाए गए. 1975 से 1979 तक वे दूसरी बार संस्थान के अध्यक्ष रहे. मंडल का प्रमुख उद्देश्य भारत के संविधान की धारा 351 की मूल भावना के अनुरूप अखिल भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के शिक्षण-प्रशिक्षण, शैक्षणिक अनुसंधान, बहुआयामी विकास और प्रचार-प्रसार से जुड़े कार्यों का संचालन करना निश्चित किया गया और इसका नामकरण केंद्रीय हिंदी संस्थान के रूप में किया गया. इस तरह आज का केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा वास्तव में डॉ. मोटूरि सत्यनारायण के सपनों का ही मूर्तिमान रूप है.

‘केंद्रीय हिंदी संस्थान’ और ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ जैसी संस्थाओं के माध्यम से मोटूरि सत्यनारायण ने हिंदी प्रचार-प्रसार एवं विकास कार्य को अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान किया. हिन्दी के प्रचार-प्रसार के साथ उसके व्यावहारिक रूप को मजबूत बनाने के लिए वे सदा लगे रहे क्योंकि उन्हें पता था हिन्दी का व्यावहारिक पक्ष ही उसे अहिन्दी भाषी जनता को आकर्षित कर सकता है.

मोटूरि सत्यनारायण एक साथ कई मोर्चों पर काम करते रहे. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के प्रधान मंत्रित्व के पद को संभालते हुए उन्होंने तेलुगु भाषा समिति, हैदराबाद, भारतीय संस्कृति संगम, दिल्ली, हिन्दी विकास समिति, मद्रास, हिन्दुस्तानी प्रचार समिति, वर्धा आदि की भी स्थापना की और उनका सफलता पूर्वक मार्गदर्शन भी किया. मोटूरि सत्यनारायण एक प्रतिष्ठित विद्वान थे. उन्होंने हिन्दी विकास समिति, मद्रास द्वारा प्रकाशित होने वाले ‘समाज विज्ञान विश्वकोश’ का कुशल संपादन किया तथा अपनी मातृभाषा तेलुगू में भी एक विश्वकोश का संपादन किया. उन्होंने हिन्दी विकास समिति की ओर से ‘विश्व विज्ञान संहिता’ नामक ग्रंथ का भी प्रकाशन किया. प्रयोजनमूलक हिन्‍दी की उनकी संकल्‍पना से न केवल केन्‍द्रीय हिन्‍दी संस्‍थान को अपने शैक्षिक कार्यक्रमों में बदलाव के लिए प्रेरणा मिली अपितु बाद में विश्‍वविद्‌यालय अनुदान आयोग को भी इससे मार्गदर्शन प्राप्‍त हुआ.

स्वाधीनता के बाद मोटूरि सत्यानारायण 1950-52 तक अंतरिम संसद के सदस्य थे और भारत के संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के भाषा अनुभाग के भी सदस्य थे. भाषा अनुभाग के सदस्य के रूप में उन्होंने हिन्दी को संघ की राजभाषा बनाने के लिए बहुत प्रयत्न किया और इसमें उन्हें सफलता भी मिली. उन्होंने भारतीय संविधान सभा के महत्वपूर्ण सदस्य के रूप में भी ख्याति अर्जित की. राज्यसभा के मनोनीत सदस्य के रूप में वे पहली बार अप्रैल 1954 में राज्य सभा पहुँचे थे और दो कार्यकाल तक अर्थात अपैल 1966 तक लगातार सदस्य के रूप में कार्य किया. भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के द्वारा हिन्दी का स्तर बढाने के लिए गठित समिति के सभापति के रूप में उन्होंनें 1955 से 1957 तक पूरी निष्ठा के साथ दायित्व निभाया.

मोटूरि सत्यनारायण ने भारत में हिन्दी और अंग्रेजी की स्थिति और महत्व के संदर्भ मे कहा था कि सभ्य समाज में जूते और टोपी दोनों की प्रतिष्ठा देखी जाती है. जूतों का दाम साधारणतया टोपी से ज्यादा ही होता है. दैनिक जीवन में जूतों की अनिवार्यता भी सर्वत्र देखी जाती है. पर इससे टोपी की मान-मर्यादा में कोई फर्क नहीं पड़ता है. कोई भूल कर भी सिर पर जूता नहीं पहनता है, जो ऐसा करता है पागल माना जाता है. हिन्दी हमारी गाँधी टोपी के समान है, तो अँग्रेजी जूता है.

इस तरह मोटूरि सत्यनारायण दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार आन्दोलन के संगठक, गाँधी के जीवन मूल्यों के प्रतीक, हिन्दी को राजभाषा घोषित कराने तथा हिन्दी के राजभाषा के स्वरूप का निर्धारण कराने वाले सदस्यों में दक्षिण के सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्तियों में से एक थे. उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री एवं पद्मभूषण से सम्मानित किया. हम मोटूरि सत्यनारायण की पुण्यतिथि पर उनके द्वारा हिन्दी और देश के हित के लिए किए गए महान कार्यों का स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.

शब्द खतरे में


सकार शब्दों का अस्तित्व
आज खतरे में है
किन्तु शब्द खतरे में है जैसी गुहार
क्यों नहीं लगाते शब्द रचनाकार?
‘सच्चरित्र’,’सत्यवादी’, ‘सत्यनिष्ठ’,
‘सदाचारी’,’सद्व्यवहारी’, ‘संस्कारी’
जैसे लुप्तप्राय होते शब्दों के लिए
सरकार क्यों नहीं बनाती
एक योजना प्रोजेक्ट टाइगर जैसी?
मिथकीय-ऐतिहासिक
चरित्र नायकों के बूते कबतक
चलते रहेंगे ये शब्द;
मनुष्यता के लबादे
ओढ़ने-पहनने-बिछाने के
अभाव में कबतक ढो पाएगी
इन शब्दों को डिक्सनरी?
क्या शीघ्र नहीं हो जाएंगे
ये सकार सद शब्द
संग्रहालय के कचरे जैसा
लेक्सीकान की मृत शब्द सम्पदा?

क्या फारुक अब्दुल्ला देशद्रोही हैं ?

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

सर्वोच्च न्यायालय ने डॉ. फारुक अब्दुल्ला के मामले में जो फैसला दिया है, वह देश में बोलने की आजादी को बुलंद करेगा। यदि किसी व्यक्ति को किसी नेता या साधारण आदमी की किसी बात पर आपत्ति हो तो वह दंड संहिता की धारा 124ए का सहारा लेकर उस पर देशद्रोह का मुकदमा चला सकता है। ऐसा ही मुकदमा फारुक अब्दुल्ला पर दो लोगों ने चला दिया। उनके वकील ने फारुक पर आरोप लगाया कि उन्होंने धारा 370 को वापस लाने के लिए चीन और पाकिस्तान की मदद लेने की बात कही है और भारतीय नेताओं को ललकारा है कि क्या कश्मीर तुम्हारे बाप का है ? याचिकाकर्ताओं का वकील अदालत के सामने फारुक के बयान को ज्यों का त्यों पेश नहीं कर सका लेकिन उसने अपने तर्क का आधार बनाया एक भाजपा-प्रवक्ता के टीवी पर दिए गए बयान को ! फारुक अब्दुल्ला ने धारा 370 को हटाने का कड़ा विरोध जरुर किया था लेकिन उन्होंने और उनकी पार्टी ने उन पर लगे आरोप को निराधार बताया। अदालत ने दो-टूक शब्दों में कहा है कि यदि कोई व्यक्ति सरकार के विरुद्ध कुछ बोलता है तो उसे देशद्रोह की संज्ञा देना अनुचित है।
इसी तरह के मामलों में कंगना राणावत और दिशा रवि नामक दो महिलाओं को भी फंसा दिया गया था। यह ठीक है कि आप फारुक अब्दुल्ला, राहुल गांधी या दिशा रवि जैसे लोगों के कथनों से बिल्कुल असहमत हों और वे सचमुच आक्रामक और निराधार भी हों तो भी उन्हें आप देशद्रोह की संज्ञा कैसे दे सकते हैं ? उनके अटपटे बयानों से भारत का बाल भी बांका नहीं होता है बल्कि वे अपनी छवि बिगाड़ लेते हैं। जहां तक फारुक अब्दुल्ला का सवाल है, उनकी भारत-भक्ति पर संदेह करना बिल्कुल अनुचित है। वे बहुत भावुक व्यक्ति हैं। मैं उनके पिता शेख अब्दुल्लाजी को भी जानता रहा हूं और उनको भी ! देश में कई मुसलमान कवि रामभक्त और कृष्णभक्त हुए हैं लेकिन आपने क्या कभी किसी मुसलमान नेता को रामभजन गाते हुए सुना है ? ऐसे फारुक अब्दुल्ला पर देशद्रोह का आरोप लगाना और उन्हें संसद से निकालने की मांग करना बचकाना गुस्सा ही माना जाएगा। अब जरूरी यह है कि दंड संहिता की धारा 124ए का दुरुपयोग तत्काल बंद हो। 1974 के पहले इस अपराध को सिर्फ असंज्ञेय (नॉन—काग्जिनेबल) माना जाता था याने सिर्फ सरकार ही मुकदमा चला सकती थी, वह भी खोजबीन और प्रमाण जुटाने के बाद और हिंसा होने की आशंका हो तब ही। यह संशोधन अब जरूरी है। फारुक अब्दुल्ला पर यह मुकदमा किसी रजत शर्मा (प्रसिद्ध टीवी महानायक नहीं) ने चलाया है। ऐसे फर्जी मामलों में 2019 में 96 लोग गिरफ्तार हुए लेकिन उनमें से सिर्फ 2 लोगों को सजा हुई। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने इन दो मुकदमाबाजों पर 50 हजार रु. का जुर्माना ठोक दिया है।

सृजन एवं समभाव के स्वामी हैं शिव

महाशिवरात्रि-11 मार्च, 2021 पर विशेष
-ललित गर्ग-

शिव

सत्य ही शिव हैं और शिव ही सुंदर है। भगवान शिव की महिमा अपरंपार है। भोलेनाथ को प्रसन्न करने का ही महापर्व है महाशिवरात्रि। इस दिन भक्त जप, तप और व्रत रखते हैं और भगवान के शिवलिंग रूप के दर्शन करते हैं। शिवलिंग शिव एवं सृष्टि का प्रतीक है। शिव का अर्थ है कल्याणकारी और लिंग का अर्थ है सृजन। सर्जनहार के रूप में लिंग की पूजा होती है। मान्यताओं के अनुसार, लिंग एक विशाल लौकिक अंडाशय है, जिसका अर्थ है ब्रह्माण्ड। इसे ब्रह्मांड का प्रतीक माना जाता है।
महाशिवरात्रि पर देश के हर हिस्सों में शिवालयों में बेलपत्र, धतूरा, दूध, दही, शर्करा आदि से शिवजी का अभिषेक किया जाता है। देश एवं दुनिया में यह पर्व एक महोत्सव के रूप में मनाया जाता है क्योंकि इस दिन देवों के देव महादेव का विवाह पावर्ती से हुआ था। भगवान शिव को देवादि देव, महादेव, शंकर, विश्वनाथ, नीलकंठ, भोलेनाथ, शिव-शम्भू, महेश, महाकाल, आदिदेव, किरात, शंकर, चन्द्रशेखर, जटाधारी, नागनाथ, मृत्युंजय, त्रयम्बक, महेश, विश्वेश, महारुद्र, विषधर और भोले भंडारी जैसे अनेकों नाम से जाना जाता है। कहते हैं कि तन-मन और पूर्ण श्रद्धा से जो कोई भी भोले भंडारी की आराधना करता है उसे मनवांछित फल मिलता है। वे अपने भक्तों के दुख और परेशानियों को देख नहीं पाते। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि महाशिवरात्रि का व्रत करने वाले साधक को मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह जगत में रहते हुए मनुष्य का कल्याण करने वाला व्रत है। इससे साधक, श्रद्धालु एवं व्रती के सभी दुखों, पीड़ाओं का अंत तो होता ही है साथ ही मनोकामनाएं भी पूर्ण होती है। शिव की साधना से धन-धान्य, सुख-सौभाग्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है।
भगवान शिव सारे कष्टों एवं संकटों को हरने वाले हैं। समुद्र मंथन से 14 प्रकार के तत्व निकले। उसमें एक कालकूट विष भी निकला, उसकी भयंकर ज्वाला से समस्त ब्रह्माण्ड जलने लगा। इस संकट से व्यथित समस्त जन भगवान शिव के पास पहुंचे और उनके समक्ष प्रार्थना करने लगे, तब सभी की प्रार्थना पर भगवान शिव ने सृष्टि को बचाने हेतु उस विष को अपने कंठ में उतार लिया और उसे वहीं अपने कंठ में अवरूद्ध कर लिया। इस प्रकार इनका नाम नीलकंठ पड़ा। भगवान शिवशंकर करोड़ों सूर्य के समान दीप्तिमान हैं। जिनके ललाट पर चन्द्रमा शोभायमान है। नीले कण्ठ वाले, अभीष्ट वस्तुओं को देने वाले हैं। तीन नेत्रों वाले यह शिव, काल के भी काल महाकाल हैं। कमल के समान सुन्दर नयनों वाले अक्षमाला और त्रिशूल धारण करने वाले अक्षर-पुरुष हैं। यदि क्रोधित हो जाएं तो त्रिलोक को भस्म करने के शक्ति रखते हैं और यदि किसी पर दया कर दें तो त्रिलोक का स्वामी भी बना सकते हैं। यह भयावह भव सागर पार कराने वाले समर्थ प्रभु हैं। भोलेनाथ बहुत ही सरल स्वभाव, सर्वव्यापी और भक्तों से शीघ्र ही प्रसन्न होने वाले देव हैं। उनके सामने मानव क्या दानव भी वरदान मांगने आये तो उसे भी मुंह मांगा वरदान देने में वे पीछे नहीं हटते हैं।
भगवान शिव के प्रति जन-जन की भक्ति और निष्ठा, उनका समर्पण और उनकी स्तुति अनायास नहीं है, बल्कि भक्तों ने शिव की भक्ति में वह सब कुछ पाया है, जो उन्होंने चाहा है। यह उस अनादिअनंत, शांतस्वरूप पुरुषोत्तम शिव की भक्ति और वंदना का ही परिणाम है कि व्यक्ति अपनी परेशानियों, असाध्य बीमारियों से उभरकर स्वस्थ बन जाता है, अपने भौतिक जीवन में हर कामनाओं को पूर्ण होते हुए देखता है। वस्तुतः अपने विरोधियों एवं शत्रुओं को मित्रवत बना लेना ही सच्ची शिवभक्ति है। जिन्हें समाज तिरस्कृत करता है उन्हें शिव गले लगाते हैं। तभी तो भक्त भगवान शिव की शरण आकर निश्चिंत हो जाता है, तभी तो अछूत सर्प उनके गले का हार है। अधम रूपी भूत-पिशाच शिव के साथी एवं गण हैं। शिव सच्चे पतित पावन हैं। उनके इसी स्वभाव के कारण देवताओं के अलावा दानव भी शिव का आदर करते हैं और भक्ति करते हैं। समाज जिनकी उपेक्षा करता है, शंकर उन्हें आमंत्रित करते हैं। ऐसे पालक रुद्रदेव की शरण में भक्त स्वयं को निश्चिंत, सुखी, समृद्ध महसूस करता है। वे संपूर्ण जगत का पालन करते हुए अभिमानयुक्त नहीं हैं, निराभिमानी हैं, वे हमें श्रेष्ठ मार्ग को दिखाने के लिए हमारी तामसीवृत्ति को मिटाते हैं, हमारी बुराइयों को दूर करते हैं।
शिव का रूप-स्वरूप जितना विचित्र है, उतना ही आकर्षक भी। शिव जो धारण करते हैं, उनके भी बड़े व्यापक अर्थ हैं। शिव की जटाएं अंतरिक्ष का प्रतीक हैं। चंद्रमा मन का प्रतीक है। शिव का मन चांद की तरह भोला, निर्मल, उज्ज्वल और जाग्रत है। शिव की तीन आंखें हैं। इसीलिए इन्हें त्रिलोचन भी कहते हैं। शिव की ये आंखें सत्व, रज, तम (तीन गुणों), भूत, वर्तमान, भविष्य (तीन कालों), स्वर्ग, मृत्यु, पाताल (तीनों लोकों) का प्रतीक हैं। शिव के हाथ में एक मारक शस्त्र है। त्रिशूल भौतिक, दैविक, आध्यात्मिक इन तीनों तापों को नष्ट करता है वहीं शिव के एक हाथ में डमरू है, जिसे वह तांडव नृत्य करते समय बजाते हैं। डमरू का नाद ही ब्रह्म रूप है। शिव के गले में मुंडमाला है, जो इस बात का प्रतीक है कि शिव ने मृत्यु को वश में किया हुआ है। शिव ने शरीर पर व्याघ्र चर्म यानी बाघ की खाल पहनी हुई है। व्याघ्र हिंसा और अहंकार का प्रतीक माना जाता है। इसका अर्थ है कि शिव ने हिंसा और अहंकार का दमन कर उसे अपने नीचे दबा लिया है। शिव के शरीर पर भस्म लगी होती है। शिवलिंग का अभिषेक भी भस्म से किया जाता है। भस्म का लेप बताता है कि यह संसार नश्वर है। शिव का वाहन वृषभ यानी बैल है। वह हमेशा शिव के साथ रहता है। वृषभ धर्म का प्रतीक है। महादेव इस चार पैर वाले जानवर की सवारी करते हैं, जो बताता है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उनकी कृपा से ही मिलते हैं।
भगवान शिव जटारूपी वन से निकलती हुई गंगाजी की गिरती हुई धाराओं से पवित्र किए गले में सर्पों की लटकती हुई विशाल माला को धारण कर, डमरू के डम-डम शब्दों से मंडित प्रचंड तांडव नृत्य कर इस संसार की आसुरी शक्तियों को ललकारते हैं, वे शिव हम सबका कल्याण करते और हमारी जीवन सृष्टि को उन्नत एवं खुशहाल बनाते हैं। भगवान शिव इस संसार के पालनहार हैं, उनके एक हाथ में वर, दूसरे हाथ में अभय, तीसरे हाथ में अमृत कलश और चैथे हाथ में त्रिशुल है। आपकी कृपा चाहने वाले कोई भक्त आपके ‘वर’ के पात्र बनें, कोई भक्त ‘अभय’ के पात्र बनें और कोई हाथ में स्थित घनीभूत ‘अमृत’ के पात्र बनें और ऐसी पात्रता हर शिव भक्त में उमड़े और शिव भक्ति का एक प्रवाह संपूर्ण संसार में प्रवहमान बने, यही इस संसार और सृष्टि का उन्नयन और उत्थान कर सकती है।
भारतीय संस्कृति की भांति शिव परिवार में भी समन्वयकारी गुण दृष्टिगोचर होते हैं। वहां जन्मजात विरोधी स्वभाव के प्राणी भी शिव के प्रताप से परस्पर प्रेमपूर्वक निवास करते हैं। शंकर का वाहन बैल है तो पार्वती का वाहन सिंह, गणेश का वाहन चूहा है तो शिव के गले का हार सर्प एवं कार्तिकेय का वाहन मयूर है। ये सभी परस्पर वैरभाव को छोड़ कर सौहार्द एवं सद्भाव से रहते हैं। शिव परिवार का यह आदर्श रूप प्रत्येक परिवार एवं समाज के लिये प्रेरक है। भगवान शिव जन-जन की रक्षा करते हैं, भक्तों की रक्षा करते हैं। वे देवताओं में श्रेष्ठ, सर्वेश्वर, संहारकर्ता, सर्वव्यापक, कल्याणरूप, चंद्रमा के समान शुभ्रवर्ण हैं, जिनकी गोद में पार्वती, मस्तक पर गंगा, ललाट पर बाल चंद्रमा, कंठ में हलाहल विष और वक्ष स्थल पर सर्पराज शोभित हैं, वे भस्म से विभूषित हैं। जो जगत का भरण करते हैं पर स्वयं भिक्षु हैं, जो सब प्राणियों को निवास देते हैं परंतु स्वयं गृहहीन हैं, जो विश्व को ढकते हैं परंतु स्वयं नग्न हैं। वाणियों के उत्पत्ति स्थान होते हुए भी अज्ञानी भक्तों की वाणियों (स्तुतियों) को सुन लेते हैं। विनीतों, भक्तों के आग्रह से आप क्या-क्या नहीं करते।