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नेपाल में ओली की मुसीबत

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय ने एतिहासिक फैसला दे दिया है। उसने संसद को बहाल कर दिया है। दो माह पहले 20 दिसंबर को प्रधानमंत्री के.पी. ओली ने नेपाली संसद के निम्न सदन को भंग कर दिया था और अप्रैल 2021 में नए चुनावों की घोषणा कर दी थी। ऐसा उन्होंने सिर्फ एक कारण से किया था। सत्तारुढ़ नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी में उनके खिलाफ बगावत फूट पड़ी थी। पार्टी के सह-अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ ने मांग की कि पार्टी के सत्तारुढ़ होते समय 2017 में जो समझौता हुआ था, उसे लागू किया जाए। समझौता यह था कि ढाई साल ओली राज करेंगे और ढाई साल प्रचंड ! लेकिन वे सत्ता छोड़ने को तैयार नहीं थे। पार्टी की कार्यकारिणी में भी उनका बहुमत नहीं था। इसीलिए उन्होंने राष्ट्रपति विद्यादेवी से संसद भंग करवा दी। नेपाली संविधान में इस तरह संसद भंग करवाने का कोई प्रावधान नहीं है। ओली ने अपनी राष्ट्रवादी छवि चमकाने के लिए कई पैंतरे अपनाए। उन्होंने लिपुलेख-विवाद को लेकर भारत-विरोधी अभियान चला दिया। नेपाली संसद में हिंदी में बोलने और धोती-कुर्त्ता पहनकर आने पर रोक लगवा दी। (लगभग 30 साल पहले लोकसभा-अध्यक्ष दमननाथ ढुंगाना और गजेंद्र बाबू से कहकर इसकी अनुमति मैंने दिलवाई थी।) ओली ने नेपाल का नया नक्शा भी संसद से पास करवा लिया, जिसमें भारतीय क्षेत्रों को नेपाल में दिखा दिया गया था लेकिन अपनी राष्ट्रवादी छवि मजबूत बनाने के बाद ओली ने भारत की खुशामद भी शुरु कर दी। भारतीय विदेश सचिव और सेनापति का उन्होंने काठमांडो में स्वागत भी किया और चीन की महिला राजदूत हाउ यांकी से कुछ दूरी भी बनाई। उधर प्रचंड ने भी, जो चीनभक्त समझे जाते हैं, भारतप्रेमी बयान दिए। इसके बावजूद ओली ने यही सोचकर संसद भंग कर दी थी कि अविश्वास प्रस्ताव में हार कर चुनाव लड़ने की बजाय संसद भंग कर देना बेहतर है लेकिन मैंने उस समय भी लिखा था कि सर्वोच्च न्यायालय ओली के इस कदम को असंवैधानिक घोषित कर सकता है। अब उसने ओली से कहा है कि अगले 13 दिनों में वे संसद का सत्र बुलाएं। जाहिर है कि तब अविश्वास प्रस्ताव फिर से आएगा। हो सकता है कि ओली लालच और भय का इस्तेमाल करें और अपनी सरकार बचा ले जाएं। वैसे उन्होंने पिछले दो माह में जितनी भी नई नियुक्तियां की हैं, अदालत ने उन्हें भी रद्द कर दिया है। अदालत के इस फैसले से ओली की छवि पर काफी बुरा असर पड़ेगा। फिर भी यदि उनकी सरकार बच गई तो भी उसका चलना काफी मुश्किल होगा। भारत के लिए बेहतर यही होगा कि नेपाल के इस आंतरिक दंगल का वह दूरदर्शक बना रहे।

किशोरी बालिकाओं की प्रेरणा बनी राधा

रमा शर्मा

जयपुर, राजस्थान

जब खुद में हिम्मत, विश्वास और हौसला हो तो रास्ते भी खुद-ब-खुद बन जाते हैं। वास्तव में कोई भी रास्ता छोटा या बड़ा नहीं होता बल्कि हर रास्ता मंज़िल तक पंहुचाने वाला होता है। यह केवल इस बात पर निर्भर करता है कि आप में उस पर चलने का हौसला कितना है। यह कहना है जयपुर से 60 किमी दूर टोंक ज़िला के मालपुरा ब्लॉक स्थित सोड़ा पंचायत की सरंपच छवि राजावत का, जो देश की पहली एम.बी.ए शिक्षा प्राप्त सरपंच है। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित लेडी श्रीराम कॉलेज से स्नातक और पुणे स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ माडर्न मैनेजमेंट से एम.बी.ए करने के पश्चात कॉर्पोरेट क्षेत्र के कार्य को छोड़कर सामाजिक सेवा को अपना उद्देश्य बनाने वाली छवि आज की युवा पीढ़ी की रोल मॉडल है और उन्हें एक नई दिशा में बढ़ने का संदेश भी देती है। उन्होंने अपने काम और आत्मविश्वास से ऐसी छवि बनाई है, जिससे हर किशोरी बालिका प्रेरणा लेकर आगे बढ़ना चाहती है।

कुछ ऐसी ही है टोंक जिला के निवाड़ी ब्लॉक स्थित ललवाडी गांव की रहने वाली राधा राजावत की। जो छवि को अपना गुरू और आदर्श मानती है और अब उन्हीं की राह पर चलते हुए गांव में शिक्षा और जागरूकता का अलख जगा रही है। इस संबंध में राधा के पिता लक्ष्मण सिंह तथा माता भंवर कंवर का कहना है कि पहले हमारी मानसिकता राधा की पढ़ाई को लेकर नकारात्मक थी, हम इसे पढ़ाना नही चाहते थे। परन्तु इसकी ज़िद्द के आगे हमे झुकना पड़ा और इसे गांव के बाहर 8 वीं के बाद पढ़ने भेजा, परन्तु राजपूत समुदाय के लोग व परिवार के अन्य लोगों के विरोध करने पर रोक दिया। लेकिन इसने हिम्मत नहीं हारी और सारे विरोध झेलते हुये 12वीं तक की पढ़ाई स्वयं मज़दूरी करके पूरी की। इतने संघर्षों के बाद भी इसने 12वीं बोर्ड में 70 प्रतिशत प्राप्त किये, जिसके बाद फिर हमने इसको कभी भी पढ़ने से नही रोका।

इस संबंध में स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता भरत मीणा का कहना है कि राधा ने 8वीं कक्षा से ही साक्षर भारत मिशन के तहत बाल संवाददाता के रूप में चयनित होकर अपने गांव व पंचायत की समस्याओं को अखबार के माध्यम से उठाना शुरू कर दिया था। जो इस गांव के लिए एक मिसाल है। वहीं किशोरी मंच की सदस्या पूनम राजावत के अनुसार 2013 में राधा ने पूरी पंचायत की बालिकाओं व महिलाओं का नेतृत्व करते हुए पंचायत स्तर पर विकास कार्यों में हो रही लापरवाही और भ्रष्टाचार तथा अन्य समस्याओं के समाधान के लिए न केवल टोंक के जिला कलेक्टर बल्कि तत्कालीन मुख्यमंत्री को भी रूबरू करवाते हुये ज्ञापन दिया था। उसने उच्च शिक्षा के लिए लड़कियों को दूर जाने और इससे उनकी शिक्षा में आ रही रुकावटों को भी ज़ोरदार तरीके से उठाया। जिसका काफी प्रभाव पड़ा था। इसका परिणाम यह रहा कि लालवाड़ी पंचायत में 12वीं तक विद्यालय हुआ। जिससे पंचायत की बालिकाओं को शिक्षा ग्रहण करने में आ रही रुकावटें दूर हो गईं और अभिभावक भी उन्हें स्कूल भेजने लगे। राधा के आत्मविश्वास और युवा नेतृत्व की क्षमता को देखते हुए स्थानीय राजनीतिक दलों ने उसे पार्टी में शामिल होने और बड़ा पद देने का प्रस्ताव भी दिया था, लेकिन उसने राजनीति से ऊपर उठकर समाज के सभी वर्गों के लिए काम करने की इच्छा जताते हुए उसे विनम्रता से अस्वीकार कर दिया।

राधा द्वारा शुरू किये गए जागरूकता का परिणाम है कि अब ललवाडी गांव में केवल राधा ही नही, राधा जैसी अन्य बालिकाएं भी अपने अधिकारों के लिए बोलने लगी हैं। पंचायत सहायक हेमराज सिंह ने बताया कि वर्ष 2014 में पंचायत प्रेरक के रूप में सभी के सहयोग से राधा ने न केवल बालिकाओं की शिक्षा को आगे बढ़ाने के लिए सक्रिय रूप से कार्य किया अपितु गांव के निरक्षर 1800 लोगो को साक्षर किया तथा उनकी परीक्षा दिलवाकर प्रमाण पत्र भी बंटवाये। राधा के पास पढ़कर साक्षर हुई शशि कंवर ने बताया कि पहले गांव में एक भी महिला पढ़ी लिखी नही थी, परन्तु राधा और इसके साथ जुड़ी अन्य किशोरी बालिकाओं के प्रयासों से आज गांव की लगभग सभी बालिकाएं पढ़ रही हैं तथा 70 प्रतिशत महिलाएं भी साक्षर हो चुकी हैं। एक अन्य पंचायत सहायक मुकेश मीणा ने भी राधा के प्रयासों को सराहनीय बताते हुये कहा कि उसके सहयोग से नरेगा में करीब 1000 लोगों को रोज़गार से जोड़ा गया तथा सभी प्रकार की पेंशन योजनाओं से 1200 महिला एवं पुरूषों को लाभ मिलना संभव हो सका। इसके अतिरिक्त गांव के 2000 परिवारों को राधा के सहयोग से शौचालय निमार्ण की सरकारी योजना से जुड़वाकर लाभ दिलवाया गया।

वर्ष 2013 से पहले यदि बालिका शिक्षा की बात करें तो यह आंकड़ा 30 प्रतिशत से अधिक नहीं था। जबकि वर्तमान में 80 प्रतिशत से अधिक बालिकाएं शिक्षा की मुख्यधारा से जुड़ चुकी हैं। वहीं 2013 से पहले सरकारी योजनाओं से लोगो के जुड़ने का प्रतिशत मात्र 40 था, जबकि आज 80 प्रतिशत लोग सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी योजनाओं से लाभांवित हो रहे हैं। पहले अभिभावक बालिकाओं को गांव से बाहर नही भेजते थे, परन्तु अब 30 से 40 प्रतिशत बालिकाएं गांव से बाहर जाकर भी अपनी पढ़ाई कर पा रही हैं। राधा की साथी मैना राणा कहती हैं कि उसकी सामाजिक सेवा की लगन व मेहनत को देखकर पंचायत की महिलाओं व किशोरी बालिकाओं तथा जागरूक लोगों ने राधा से पंचायत चुनाव लड़ने की गुज़ारिश की। ताकि पंचायत में विकास की गति तेज़ हो सके। राधा ने स्वयं के साथ साथ अपने एक साथी कार्यकर्ता देवालाल गुर्जर को भी सरपंच पद के चुनाव में खड़ा किया और योजना बनाई कि यदि हम दोनो में से जो जितेगा वह सरपंच पद पर पूर्ण ईमानदारी से कार्य करते हुये लोगो की सेवा करेगा। राधा तो जीत नहीं सकी, परन्तु साथी कार्यकर्ता की जीत भी उसी की जीत थी क्योंकि वह अब तक पंचायत में चल रही तानाशाही और भ्रष्टाचार के तंत्र पर चोट करने में सफल रही। स्थानीय शिक्षक बाबूलाल शर्मा और एक सामाजिक संस्था के कार्यकर्ता दयाराम गुर्जर ने बताया कि राधा ने सामाजिक मुद्दों, समस्याओं और चुनौतियों को न केवल पंचायत स्तर पर बल्कि समय समय पर जिला और राज्य स्तर पर भी उठाने का प्रयास किया है। समाज के प्रति उसकी लगन का ही परिणाम है कि उसे तत्कालीन उपराष्ट्रपति मो. हामिद अंसारी से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ था। राधा और उसकी साथी बालिकाएं अब बिना झिझक, हर मंच पर अपनी बात रखने में सक्षम हैं तथा अन्य बालिकाओं को भी अपने जैसा जागरूक बनाने की मुहिम छेड़ रखी है।

हालांकि सामाजिक ज़िम्मेदारियों के साथ साथ कम उम्र में ही राधा को परिवार की ज़िम्मेदारियां भी उठानी पड़ रही है। राधा के पिता लक्ष्मण सिंह ने दुखी स्वर में बताया कि वह कैंसर पीड़ित हैं। बड़ा बेटा पत्नी और बच्चों के साथ अलग रहता है। ऐसे में परिवार की बड़ी होने के नाते पूरी ज़िम्मेदारी इस पर ही आ गई है, जिसे यह प्राइवेट नौकरी करके मेरा ईलाज करवा रही है तथा अपनी पढाई भी कर रही है। परन्तु अब जयपुरिया हॉस्पिटल के वरिष्ठ डॉक्टर प्रहलाद धाकड़ के सहयोग से मेरा ईलाज निःशुल्क चल रहा है। यह सारी मेहनत राधा की है, जिसे पहले मैं पढ़ाने के पक्ष में नहीं था। परन्तु अब मुझे मेरी गलती का अहसास है। आज राधा ने महिला शिक्षा के प्रति मेरी सोच पूरी तरह से बदलकर रख दी है। राधा बताती है कि उसके माता पिता बचपन में ही उसकी शादी करवाना चाहते थे, लेकिन उसने इसका कड़ा विरोध किया और आज वह अपने परिवार की आर्थिक स्थिती का एकमात्र माध्यम है। यदि उसकी शादी हो गई होती तो उसके परिवार के सामने पैसे की किल्लत हो चुकी होती। वह कहती है कि यदि मैंने विरोध न किया होता, तो आज मेरे परिवार की क्या हालत होती, इसका अंदाज़ा मेरे अभिभावक को भी है। अब मैं जॉब के साथ साथ अपनी जैसी बालिकाओं को आगे बढ़ाने तथा शिक्षा की मुख्यधारा से उन्हें जोड़ने का प्रयास कर रही हूँ। इसके लिए अध्यापक बनने हेतु पात्रता परीक्षा रीट की तैयारी कर रही हूँ। शिक्षिका बनने के साथ साथ मैं समाज सेवा का कार्य भी निरंतर करती रहूंगी।

राधा के संघर्ष और सामाजिक जागरूकता के प्रति उसका ज़ज़्बा महिला सशक्तिकरण का एक बेमिसाल उदाहरण है। वास्तव में समाज में लड़का और लड़की के बीच अंतर को दूर करना आवश्यक है। केंद्र की बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ इस दिशा में में महत्वपूर्ण कड़ी है। लेकिन इससे ज़्यादा महत्वपूर्ण लोगों की सोच में परिवर्तन लाना है। जिस दिन मां बाप बेटा और बेटी के बीच समान व्यवहार को प्राथमिकता देने लगेंगे, उस दिन से हर लड़की राधा राजावत जैसी सशक्त बन सकेगी। जो अपने क्षेत्र में परिवर्तन लाने की क्षमता रखती है।

विनायक सावरकर: स्वर्णिम अध्याय का नाम

-डॉ. पवन सिंह मलिक

“मैं तुम्हारे दर्शन करने आया हूँ मदन, मुझे तुम पर गर्व है. सावरकर तुम्हें मेरी आँखों में डर की परछाई तो नहीं दिखाई दे रही, बिल्कुल नहीं मुझे तुम्हारे चेहरे पर योगेश्वर कृष्ण का तेज दिखाई दे रहा है , तुमने गीता के स्थितप्रज्ञ को साकार कर दिया है मदन” न जाने ऐसे कितने ही जीवन है जो सावरकर से प्रेरणा प्राप्त कर मातृभूमि के लिए हस्ते हस्ते बलिदान हो गए. अपने महापुरुषों का स्मरण व सदैव उनके गुणों को आत्मसात करते हुए आगे बढ़ते रहना, यही भारत की श्रेष्ठ परंपरा है. ऐसे ही अकल्पनीय व अनुकरणीय जीवन को याद करने का दिन है सावरकर पुण्यतिथि।

यहाँ दीप नहीं जीवन जलते हैं

स्वातंत्र्य विनायक दामोदर सावरकर केवल नाम नहीं, एक प्रेरणा पुंज है जो आज भी देशभक्ति के पथ पर चलने वाले मतवालों के लिए जितने प्रासंगिक हैं उतने ही प्रेरणादायी भी. वीर सावरकर अदम्य साहस, इस मातृभूमि के प्रति निश्छल प्रेम करने वाले व स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने वाला अविस्मरणीय नाम है. इंग्लैंड में भारतीय स्वाधीनता हेतु अथक प्रवास, बंदी होने पर भी अथाह समुद्र में छलांग लगाने का अनोखा साहस, कोल्हू में बैल की भांति जोते जाने पर भी प्रसन्ता, देश के लिए परिवार की भी बाजी लगा देना, पल -प्रतिपल देश की स्वाधीनता का चिंतन व मनन, अपनी लेखनी के माध्यम से आमजन में देशभक्ति के प्राण का संचार करना, ऐसा अदभुत व्यक्तित्व था विनायक सावरकर का. सावरकर ने अपने नजरबंदी समय में अंग्रेजी व मराठी अनेक मौलिक ग्रंथों की रचना की, जिसमें मैजिनी, 1857 स्वातंत्र्य समर, मेरी कारावास कहानी, हिंदुत्व आदि प्रमुख है.

सर्वत्र प्रथम कीर्तिमान रचने वाले सावरकर

सावरकर दुनिया के अकेले स्वातंत्र्य योद्धा थे जिन्हें दो-दो आजीवन कारावास की सजा मिली, सजा को पूरा किया और फिर से राष्ट्र जीवन में सक्रिय हो गए। वे विश्व के ऐसे पहले लेखक थे जिनकी कृति 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को दो-दो देशों ने प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया। सावरकर पहले ऐसे भारतीय राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने सर्वप्रथम विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। वे पहले स्नातक थे जिनकी स्नातक की उपाधि को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण अंग्रेज सरकार ने वापस ले लिया। वीर सावरकर पहले ऐसे भारतीय विद्यार्थी थे जिन्होंने इंग्लैंड के राजा के प्रति वफादारी की शपथ लेने से मना कर दिया। फलस्वरूप उन्हें वकालत करने से रोक दिया गया। वीर सावरकर ने राष्ट्र ध्वज तिरंगे के बीच में धर्म चक्र लगाने का सुझाव सर्वप्रथम दिया था, जिसे तात्कालिक राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने माना। उन्होंने ही सबसे पहले पूर्ण स्वतंत्रता को भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का लक्ष्य घोषित किया। वे ऐसे प्रथम राजनैतिक बंदी थे जिन्हें विदेशी (फ्रांस) भूमि पर बंदी बनाने के कारण हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में मामला पहुँचा। वे पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने राष्ट्र के सर्वांगीण विकास का चिंतन किया तथा बंदी जीवन समाप्त होते ही जिन्होंने अस्पृश्यता आदि कुरीतियों के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया। दुनिया के वे ऐसे पहले कवि थे जिन्होंने अंदमान के एकांत कारावास में जेल की दीवारों पर कील और कोयले से कविताएँ लिखीं और फिर उन्हें याद किया। इस प्रकार याद की हुई दस हजार पंक्तियों को उन्होंने जेल से छूटने के बाद पुन: लिखा।

काल कोठरी के ग्यारह साल व सावरकर

क्या मैं अब अपनी प्यारी मातृभूमि के पुनः दर्शन कर सकूंगा ? 4 जुलाई 1911 में अंदमान के सेलुलर जेल में पहुँचने से पहले सावरकर के मन की व्यथा शायद कुछ ऐसी ही रही होगी। अंदमान की उस काल कोठरी में सावरकर को न जाने कितनी ही शारीरिक यातनाएं सहनी पड़ी होगी, इसको शब्दों में बता पाना असंभव है. अनेक वर्षो तक रस्सी कूटने, कोल्हू में बैल की तरह जुत कर तेल निकालना, हाथों में हथकड़ियां पहने हुए घंटों टंगे रहना, महीनों एकांत काल-कोठरी में रहना और भी न जाने किसी -किस प्रकार के असहनीय कष्ट झेलने पड़े होंगे सावरकर को. लेकिन ये शारीरिक कष्ट भी कभी उस अदम्य साहस के प्रयाय बन चुके विनायक सावरकर को प्रभावित न कर सके. कारावास में रहते हुए भी सावरकर सदा सक्रिय बने रहे. कभी वो राजबंदियों के विषय में निरंतर आंदोलन करते , कभी पत्र द्वारा अपने भाई को आंदोलन की प्रेरणा देते, कभी अपनी सजाएँ समाप्त कर स्वदेश लौटने वाले क्रांतिवीरों को अपनी कविताएं व संदेश कंठस्थ करवाते। इस प्रकार सावरकर सदैव अपने कर्तव्यपथ पर अग्रसर दिखाई दिए. उनकी अनेक कविताएं व लेख अंदमान की उन दीवारों को लांघ कर 600 मील की दूरी पार करके भारत पहुँचते रहे और समाचार पत्रों द्वारा जनता में देशभक्ति की अलख जगाते रहे.

समरसता व हिंदुत्व के पुरोधा

सन 1921 में सावरकर को अंदमान से कलकत्ता बुलाना पड़ा. वहां उन्हें रत्नागिरी जेल भेज दिया गया. 1924 को सावरकर को जेल से मुक्त कर रत्नागिरी में ही स्थानबद्ध कर दिया गया. उन्हें केवल रत्नागिरी में ही घूमने -फिरने की स्वतंत्रता थी. इसी समय में सावरकर ने हिंदू संगठन व समरसता का कार्य प्रारम्भ कर दिया। महाराष्ट्र के इस प्रदेश में छुआछूत को लेकर घूम – घूमकर विभिन्न स्थानों पर व्याख्यान देकर धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक दृष्टि से छुआछूत को हटाने की आवश्यकता बतलाई। सावरकर के प्रेरणादायी व्याख्यान व तर्कपूर्ण दलीलों से लोग इस आंदोलन में उनके साथ हो लिए. दलितों में अपने को हीन समझने की भावना धीरे-धीरे जाती रही और वो भी इस समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा है ऐसा गर्व का भाव जागृत होना शुरू हो गया. सावरकर की प्रेरणा से भागोजी नामक एक व्यक्ति ने ढाई लाख रूपए व्यय करके रत्नागिरी में ‘श्री पतित पावन मंदिर’ का निर्माण करवाया। दूसरी और सावरकर ने ईसाई पादरियों और मुसलमानों द्वारा भोले भाले हिंदुओं को बहकाकर किये जा रहे धर्मांतरण के विरोध में शुद्धि आंदोलन प्रारम्भ कर दिया। रत्नागिरी में उन्होंने लगभग 350 धर्म – भ्रष्ट हिंदुओं को पुनः हिंदू धर्म में दीक्षित किया।

युवाओं के सावरकर

सावरकर का जीवन आज भी युवाओं में प्रेरणा भर देता है. जिसे सुनकर प्रत्येक देशभक्त युवा के रोंगटे खड़े हो जाते है. विनायक की वाणी में प्रेरक ऊर्जा थी. उसमें दूसरों का जीवन बदलने की शक्ति थी. सावरकर से शिक्षा- दीक्षा पाकर अनेकों युवा व्यायामशाला जाने लगे, पुस्तकें पढ़ने लगे. विनायक के विचारों से प्रभावित असंख्य युवाओं के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आ गया. जो भोग – विलासी थे, वे त्यागी बन गए. जो उदास तथा आलसी थे, वे उद्यमी हो गए. जो संकुचित और स्वार्थी थे, वो परोपकारी हो गए. जो केवल अपने परिवार में डूबे हुए थे, वे देश-धर्म के संबंध में विचार करने लगे. इस प्रकार हम कह सकते है कि युवाओं के लिए सावरकर वो पारस पत्थर थे, की जो भी उनके संपर्क में आया वो ही इस मातृभूमि की सेवा में लग गया. सावरकर स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए व उसके बाद भी उसकी रक्षा हेतु प्रयास करते रहे. इसलिए उनका नाम ‘स्वातंत्र्य सावरकर’ अमर हुआ. तो आईये, आज वीर सावरकर पुण्यतिथि प्रसंग पर उस हुतात्मा से अभिभूत होकर, उनके जीवन मूल्यों को अपने आचरण द्वारा सत्य प्रमाणित करने का संकल्प करें।

मुद्रा स्फीति को लम्बे समय तक सह्यता स्तर पर बनाए रखना केंद्र सरकार की एक बड़ी सफलता है

मुद्रा स्फीति का तेज़ी से बढ़ना, समाज के हर वर्ग, विशेष रूप से समाज के ग़रीब एवं निचले तबके तथा मध्यम वर्ग के लोगों को आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक विपरीत रूप में प्रभावित करता है। क्योंकि, इस वर्ग की आय, जो कि एक निश्चित सीमा में ही रहती है, का एक बहुत बड़ा भाग उनके खान-पान पर ही ख़र्च हो जाता है और यदि मुद्रा स्फीति की बढ़ती दर तेज़ बनी रहे तो इस वर्ग के खान-पान पर भी विपरीत प्रभाव पड़ने लगता है। अतः, मुद्रा स्फीति की दर को क़ाबू में रखना देश की सरकार का प्रमुख कर्तव्य है।

सामान्य बोलचाल की भाषा में, मुद्रा स्फीति से आश्य वस्तुओं की क़ीमतों में हो रही वृद्धि से है। इसे कई तरह से आंका जाता है जैसे – थोक मूल्य सूचकांक आधारित; उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित; खाद्य पदार्थ आधारित; ग्रामीण श्रमिक की मज़दूरी आधारित; इंधन की क़ीमत आधारित; आदि। मुद्रा स्फीति का आश्य मुद्रा की क्रय शक्ति में कमी होने से भी है, जिससे वस्तुओं के दामों में वृद्धि महसूस की जाती है।

मुद्रा स्फीति की तेज़ बढ़ती दर, दीर्घकाल में देश के आर्थिक विकास की दर को भी धीमा कर देती है। इसी कारण से कई देशों में मौद्रिक नीति का मुख्य ध्येय ही मुद्रा स्फीति लक्ष्य पर आधारित कर दिया गया है।

मुद्रा स्फीति लक्ष्य की शुरुआत सबसे पहिले 1990 के दशक में न्यूज़ीलैंड (1990), कनाडा (फ़रवरी 1991) एवं इंग्लैंड (अक्टोबर 1992) में हुई थी। इस नीति के अन्तर्गत केंद्र सरकार द्वारा, देश के केंद्रीय बैंक को यह अधिकार दिया जाता है कि देश में मुद्रा स्फीति की दर को एक निर्धारित स्तर पर बनाए रखने हेतु मौद्रिक नीति के माध्यम से आवश्यक क़दम उठाए जाएं। अतः मुद्रा स्फीति की दर को इस निर्धारित स्तर पर बनाए रखने की ज़िम्मेदारी देश के केंद्रीय बैंक की होती है।

वर्ष 2014 में केंद्र में माननीय श्री नरेन्द्र मोदी जी की सरकार के आने के बाद, देश की जनता को उच्च मुद्रा स्फीति की दर से निजात दिलाने के उद्देश्य से, केंद्र सरकार एवं भारतीय रिज़र्व बैंक ने दिनांक 20 फ़रवरी 2015 को एक मौद्रिक नीति ढांचा करार पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के अंतर्गत यह तय किया गया था कि देश में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति की दर को जनवरी 2016 तक 6 प्रतिशत के नीचे तथा इसके बाद 4 प्रतिशत के नीचे (+/- 2 प्रतिशत के उतार चड़ाव के साथ) रखा जाएगा। उक्त समझौते के पूर्व, देश में मुद्रा स्फीति की वार्षिक औसत दर लगभग 10 प्रतिशत बनी हुई थी। उक्त समझौते के लागू होने के बाद से देश में, मुद्रा स्फीति की वार्षिक औसत दर लगभग 4/5 प्रतिशत के आसपास आ गई है। जिसके लिए केंद्र सरकार एवं भारतीय रिज़र्व बैंक की प्रशंसा की जानी चाहिए। अब तो मुद्रा स्फीति लक्ष्य की नीति को विश्व के 30 से अधिक देश लागू कर चुके है।

उक्त क़रार पर हस्ताक्षर करने के बाद से भारतीय रिज़र्व बैंक सामान्यतः उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई दर के 6 प्रतिशत (टॉलरन्स रेट) के पास आते ही रेपो रेट (ब्याज दर) में वृद्धि के बारे में सोचना शुरू कर देता हैं क्योंकि इससे आम नागरिकों के हाथों में मुद्रा कम होने लगती है एवं उत्पादों की मांग कम होने से महंगाई पर अंकुश लगने लगता है। इसके ठीक विपरीत यदि देश में महंगाई दर नियंत्रण में बनी रहती है तो भारतीय रिज़र्व बैंक ब्याज दरों में कमी करने लगता है ताकि आम नागरिकों के हाथों में मुद्रा की उपलब्धता बढ़े एवं देश के आर्थिक को बल मिल सके। परंतु, देश में यदि मुद्रा स्फीति सब्ज़ियों, फलों, आयातित तेल आदि के दामों में बढ़ोतरी के कारण बढ़ती है तो रेपो रेट बढ़ाने का कोई फ़ायदा भी नहीं होता है क्योंकि रेपो रेट बढ़ने का इन कारणों से बढ़ी क़ीमतों को कम करने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। अतः यदि देश में मुद्रा स्फीति उक्त कारणों से बढ़ रही है तो रेपो रेट को बढ़ाने की कोई ज़रूरत भी नहीं होना चाहिए। इस प्रकार देश में मुद्रा स्फीति की दर को भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में बदलाव कर नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता है।

भारतीय रिजर्व बैंक ने दिनांक 5 फ़रवरी 2021 को घोषित की गई मौद्रिक नीति में लगातार चौथी बार नीतिगत ब्याज दरों में कोई बदलाव नहीं किया है। भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने रुख को नरम रखा है। दिसंबर 2020 में भी आरबीआई ने नीतिगत दरों को यथावत रखा था। मार्च और मई 2020 में रेपो रेट में लगातार दो बार कटौती की गई थी। भारतीय रिजर्व बैंक के इस एलान के बाद रेपो रेट 4 फीसदी और रिवर्स रेपो रेट 3.35 फीसदी पर बनी रहेगी। रेपो रेट वह दर है, जिस पर भारतीय रिज़र्व बैंक अन्य बैंकों को ऋण प्रदान करता है। भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर श्री शक्तिकांत दास ने मौद्रिक नीति का एलान करते हुए कहा है कि मौद्रिक नीति समिति ने सर्वसम्मति से रेपो रेट को बरकरार रखने का फैसला किया है क्योंकि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई दर के 6 प्रतिशत के सह्यता स्तर (टॉलरेंस लेवल) से नीचे रहने की सम्भावना है। वित्त वर्ष 2021-22 का बजट पेश होने के बाद यह भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा घोषित की गई पहली मौद्रिक नीति है। भारतीय रिज़र्व बैंक ने हालांकि फरवरी 2020 से अब तक, महंगाई दर के नियंत्रण में रहने के चलते रेपो रेट में 1.15 फीसदी की कटौती की है। साथ ही, चालू वित्त वर्ष 2020-21 की चौथी तिमाही जनवरी-मार्च 2021 में खुदरा महंगाई दर का लक्ष्य संशोधित कर 5.2 प्रतिशत कर दिया है और अप्रेल-सितम्बर 2021 में यह 5 से 5.2 प्रतिशत के बीच रह सकता है तथा वित्तीय वर्ष 2021-22 के दौरान यह 4.3 प्रतिशत तक नीचे रहने की सम्भावना व्यक्त की गई है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई की दर जून 2020 में 6 प्रतिशत से भी अधिक हो गई थी एवं नवम्बर 2020 में 6.9 प्रतिशत के स्तर को छूते हुए दिसम्बर 2020 में घटकर 4.6 प्रतिशत तक नीचे आ गई है।

इस प्रकार इस मौद्रिक नीति में यह भी बताया गया है कि महंगाई दर में कमी आई है और आगे आने वाले समय में इसके 6 प्रतिशत के सह्यता स्तर (टॉलरेंस लेवल) से नीचे बने रहने की प्रबल सम्भावनाएं नज़र आ रही हैं क्योंकि खरीफ एवं रबी के मौसम में अनाज की पैदावार बहुत अच्छी होने जा रही है। हां, हाल ही के समय में पेट्रोल की क़ीमतों एवं सब्ज़ियों की क़ीमतों पर ज़रूर कुछ दबाव देखने में आ रहा है। फिर भी, चूंकि इंडेक्स में शामिल अन्य वस्तुओं की क़ीमतों पर अंकुश बना रह सकता है अतः कुल मिलाकर देश में आगे आने वाले समय में भी मुद्रा स्फीति के नियंत्रण में बने रहने की सम्भावनाएं व्यक्त की जा रही हैं, जो केंद्र सरकार की नीतियों की सफलता ही कहा जाना चाहिए।

प्रहलाद सबनानी

भारत मे मदरसा शिक्षा का औचित्य

अनिल अनूप

जब से मानव सभ्यता का सूर्य उदय हुआ है तभी से भारत अपनी शिक्षा तथा दर्शन के लिए प्रसिद्ध रहा है। यह सब भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों का ही चमत्कार है कि भारतीय संस्कृति ने संसार का सदैव पथ-प्रदर्शन किया और आज भी जीवित है। वर्तमान युग में भी महान दार्शनिक एवं शिक्षा शास्त्रियों इसी बात का प्रयास कर रहे हैं की शिक्षा भारत में प्रत्येक युग की शिक्षा के उद्देश्य अलग-अलग रहें हैं इसलिए वर्तमान भारत जैसे जनतंत्रीय देश के लिए उचित उद्देश्यों के निर्माण के सम्बन्ध में प्रकाश डालने से पूर्व हमें अतीत की ओर जाना होगा। निम्नलिखित पंक्तियों में हम प्राचीन, मध्य तथा वर्तमान तीनो युगों की भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों पर प्रकाश डाल रहे हैं –

(1) पवित्रता तथा जीवन की सद्भावना – प्राचीन भारत में प्रत्येक बालक के मस्तिष्क में पवित्रता तथा धार्मिक जीवन की भावनाओं को विकसित करना शिक्षा का प्रथम उद्देश्य था। शिक्षा आरम्भ होने से पूर्व प्रत्येक बालक के उपनयन संस्कार की पूर्ति करना शिक्षा प्राप्त करते समय अनके प्रकार के व्रत धारण करना, प्रात: तथा सायंकाल ईश्वर की महिमा के गुणगान करना तथा गुरु के कुल में रहते हुए धार्मिक त्योहारों का मानना आदि सभी बातें बालक के मस्तिष्क में पवित्रता तथा धार्मिक भावनाओं को विकसित करते उसे आध्यात्मिक दृष्टि से बलवान बनाती है। इस प्रकार साहित्यिक तथा व्यवसायिक सभी प्रकार की शिक्षा का प्रत्यक्ष उद्देश्य बालक को समाज का एक पवित्र तथा लाभप्रद सदस्य बनाना था।

(2) चरित्र निर्माण – भारत की प्राचीन शिक्षा का दूसरा उद्देश्य था – बालक के नैतिक चरित्र का निर्माण करना। उस युग में भारतीय दार्शनिकों का अटल विश्वास था कि केवल लिखना-पढना ही शिक्षा नहीं है वरन नैतिक भावनाओं को विकसित करके चरित्र का निर्माण करना परम आवश्यक है। मनुस्मृति में लिखा है कि ऐसा व्यक्ति जो सद्चरित्र हो चाहे उसे वेदों का ज्ञान भले ही कम हो, उस व्यक्ति से कहीं अच्छा है जो वेदों का पंडित होते हुए भी शुद्ध जीवन व्यतीत न करता हो। अत: प्रत्येक बालक के चरित्र का निर्माण करना उस युग में आचार्य का मुख्य कर्त्तव्य समझा जाता था। इस सम्बन्ध में प्रत्येक पुस्तक के पन्नों पर सूत्र रूप में चरित्र संबंधी आदेश लिखे रहते थे तथा समय –समय पर आचार्य के द्वारा नैतिकता के आदेश भी दिये जाते थे एवं बालकों के समक्ष राम, लक्ष्मण, सीता तथा हनुमान आदि महापुरुषों के उदहारण प्रस्तुत किये जाते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि प्राचीन भारत की शिक्षा का वातावरण चरित्र-निर्माण में सहयोग प्रदान करता था।

(3) व्यक्तित्व का विकास- बालक के व्यक्तित्व को पूर्णरूपेण विकसित करना प्राचीन शिक्षा का तीसर उद्देश्य था। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए बालक को आत्म-सम्मान की भावना को विकसित करना परम आवश्यक समझा जाता था। अत: प्रत्येक बालक में इस माहान गुण को विकसित करने के लिए आत्म-विश्वास, आत्म-निर्भरता, आत्म-नियंत्रण तथा विवेक एवं निर्णय आदि अनके गुणों एवं शक्तियों को पूर्णत: विकसित करने का अथक प्रयास किया जाता था।

(4) नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का विकास- भारत की प्राचीन शिक्षा का चौथा उद्देश्य था – नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का विकास करना। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए इस बात पर बल दिया जाता था कि मनुष्य समाजोपयोगी बने, स्वार्थी नहीं। अत: बालक को माता-पिता, पुत्र तथा पत्नी के अतिरिक्त देश अथवा समाज के प्रति भी अपने कर्तव्यों का पालन करना सिखाया जाता था। कहने का तात्पर्य यह है कि तत्कालीन शिक्षा ऐसे नागरिकों का निर्माण करती थी जो अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए समाज की उन्नति में भी यथाशक्ति योगदान दें सकें।

(5) सामाजिक कुशलता तथा सुख की उन्नति – सामाजिक कुशलता तथा सुख की उन्नति करना प्राचीन शिक्षा का पांचवां उद्देश्य था- इस उद्देश्य की प्राप्ति भावी पीढ़ी को ज्ञान की विभिन्न शाखाओं व्यवसायों तथा उधोगों में प्रशिक्षण देकर की जाती थी। तत्कालीन समाज में कार्य-विभाजन का सिधान्त प्रचलित था। इसी कारण ब्राह्मण तथा क्षत्रिय राजा भी हुए और लड़का भी एवं शुद्र दर्शानिक भी। परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी सामान्य व्यक्ति के लिए यही उचित था कि वह अपने परिवार के व्यवसाय को ही अपनाये। इससे प्रत्येक व्यवसाय की कुशलता में वृद्धि हुई। परिणामस्वरूप सामाजिक कुशलता एवं सुख की निरन्तर उन्नति होती रही।

(6) संस्कृति का संरक्षण तथा विस्तार – राष्ट्रीय सम्पति तथा संस्कृति का संरक्षण एवं विस्तार भारत की प्राचीन शिक्षा का छठा महत्वपूर्ण उद्देश्य था। प्राचीन काल में हिन्दुओं ने अपने विचार तथा संस्कृति के प्रचार हेतु शिक्षा को उत्तम साधन माना। अत: प्रत्येक हिन्दू अपने बालकों को वही शिक्षा देता था, जो उसने स्वयं प्राप्त की थी। यह प्राचीन आचार्यों के घोर परिश्रम का ही तो फल है की हमारा वैदिक कालीन सम्पूर्ण साहित्य हमारे सामने आज भी ज्यों का त्यों सुरक्षति है। डॉ ए० ऐसी० अल्तेकर ने ठीक ही लिखा है – “ हमारे पूर्वजों ने प्राचीन युग के साहित्य की विभिन्न शाखाओं के ज्ञान को सुरक्षित ही नहीं रखा अपितु अपने यथाशक्ति योगदान द्वारा उसमें निरन्तर वृद्धि करके उसे मध्य युग तक भावी पीढ़ी को हस्तांतरित किया।”

प्राचीन युग की शिक्षा के उपर्युक्त उद्देश्यों पर प्रकाश डालने के पश्चात हम इस निष्कर्ष पर आते हैं की हमारी तत्कालीन शिक्षा-पद्धति ऐसी थी जसमें भारतीय जीवन तथा बालक के शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा अध्यात्मिक आदि सभी प्रकार के विकास का व्यापक दृष्टिकोण निहित था।

मध्य युग में भारतीय शिक्षा के उद्देश्य
भारत के मध्य युग की शिक्षा का अर्थ इस्लामी अथवा मुस्लिम शिक्षा से है। मुस्लिम शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित है –

(1) इस्लाम का प्रसार- इस्लामी शिक्षा का पहला उद्देश्य मुस्लमान धर्म का प्रसार करना था। अत: जगह-जगह मकतब और मदरसे खोले गये। प्रत्येक मस्जिद के साथ एक मकतब खोला जाता था जिसमें मुस्लिम बालकों को कुरान पढाया जाता था। साथ ही मदरसों में इस्लाम का इतिहास, दर्शन, तथा उच्च प्रकार की धर्म संबंधी शिक्षा प्रदान की जाती थी।

(2) मुसलमानों में शिक्षा का प्रसार –

मुस्लिम शिक्षाशास्त्रियों का विश्वास था कि शिक्षा के ही द्वारा मुसलमानों को धार्मिक तथा अधार्मिक बातों का अन्तर समझाया जा सकता है। अत: मुसलमानों को शिक्षा प्रदान करना इस्लामी शिक्षा का दूसरा उद्देश्य था।

(3) इस्लामी राज्यों में वृद्धिकरण – इस्लामी शिक्षा का तीसरा इस्लामी राज्यों में वृद्धि करना था। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए मुसलमानों को लड़ने की कला सिखाई जाती थी जिससे वे इस्लामी राज्यों में वृद्धि कर सकें।

(4) नैतिकता का विकास – इस्लामी शिक्षा का चौथा उद्देश्य नैतिकता का विकास करना था। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लये मुस्लिम बालकों को नैतिक पुस्तकों का अध्ययन कराया जाता था।

(5) भौतिक सुखों को प्राप्त करना – इस्लामी शिक्षा का पांचवां उद्देश्य भौतिक सुखों को प्राप्त करना था। इसके लिए बालकों को उपाधियाँ तथा मौलवियों को ऊँचे-ऊँचे पड़ दिये जाते थे जिससे वे भौतिक सुखों का आनन्द ले सकें।

(6) शरियत का प्रसार – इस्लामी शिक्षा का छठा उदेहय शरियत के कानूनों को लागू करना था। अत: शिक्षा द्वारा इस्लाम के कानून, राजनीतिक सिधान्त तथा इस्लाम की सामाजिक परम्पराओं का प्रसार किया गया।

(7) चरित्र निर्माण – मोहम्मद साहब का विश्वास था कि केवल चरित्रवान व्यक्ति ही उन्नति कर सकता है। अत: इस्लामी शिक्षा का सातवाँ उद्देश्य मुस्लमान बालकों के चरित्र का निर्माण करना था।

वर्तमान भारत में शिक्षा के उचित उद्देश्यों का निर्माण
भारत हजारों वर्षों तक दासता की बेड़ियों में जकड़ा रहा। इसलिए न हमारी शिक्षा भारतीय संस्कृति पर ही आधारित रही और न ही हमारी शिक्षा का कोई राष्ट्रीय उद्देश्य रह सका। 15 अगस्त सन 1947 को हमारे यहाँ विदेशी नियंत्रण समाप्त हुआ। उसी दिन से भारत एक सर्वसत्ता लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। ध्यान देने की बात है कि जनतंत्र की बागडोर उन नागरिकों के हाथ में होती है जो आज के स्कूलों में पढ़ रहे हैं। दुसरे शब्दों में, जनतंत्र की आत्मा शिक्षा होती है। अत: हमारी जनतंत्रीय सरकार, शिक्षाशास्त्रियों, दार्शनिकों तथा समाज सुधारकों ने शिक्षा को भारतीय संस्कृति पर आधारित करने तथा नये जनतांत्रिक समाज को सफल बनाने के लिए, शिक्षा के उचित उद्देश्यों के निर्माण की आवश्यकता अनुभव की। अत: भारत सरकार ने – (1) विश्वविधालय शिक्षा आयोग (2) माध्यमिक शिक्षा आयोग तथा (3) कोठारी आयोग की नियुक्ति की। इन आयोगों ने समाज तथा व्यक्ति की आवश्यकताओं को दृष्टि में रखते हुए भारतीय शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्यों को निर्धारित किया है –

(अ) विश्वविद्यालय आयोग के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

विश्वविद्यालय आयोग ने भारतीय शिक्षा के अगलिखित उद्देश्य निर्धारित किये हैं –

(1) विवेक का विस्तार करना।

(2) नये ज्ञान के लिए इच्छा जागृत करना।

(3) जीवन का अर्थ समझने के लिए प्रयत्न करना।

(4) व्यवसायिक शिक्षा की व्यवस्था करना।

(ब) माध्यमिक आयोग के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य

माध्यमिक शिक्षा आयोग ने व्यक्ति तथा भारतीय समाज की आवश्यकताओं को दृष्टि में रखते हुए शिक्षा के निम्नलखित उद्देश्य निर्धारित किये हैं –

जनतांत्रिक नागरिकता का विकास- भारत एक धर्म निरपेक्ष गणराज्य है। इस देश के जनतंत्र को सफल बनाने के लिए प्रत्येक बालक को सच्चा, ईमानदार तथा कर्मठ नागिरक बनाना परम आवश्यक है। अत: शिक्षा का परम उद्देश्य बालक को जनतांत्रिक नागरिकता की शिक्षा देना है। इसके लिए बालकों को स्वतंत्र तथा स्पष्ट रूप से चिन्तन करने एवं निर्णय लेने को योग्यता का विकास परम आवश्यक है, जिससे वे नागरिक के रूप में देश की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक सभी प्रकार की समस्याओं पर स्वतंत्रतापूर्वक चिन्तन और मनन करके अपना निजी निर्माण लेते हुए स्पष्ट विचार व्यक्त कर सकें। इन सभी शक्तियों का विकास बौद्धिक विकास के द्वारा किया जा सकता है। बौद्धिक विकास की हो जाने से व्यक्ति इस योग्य बन जाता है कि वह सत्य और असत्य तथा वास्तविकता और प्रचार से अन्तर समझते हुए अंधविश्वासों तथा निरर्थक परम्पराओं का उचित विश्लेषण करके अपने जीवन में आने वाली विभिन्न समस्याओं के विषय में वैज्ञानिक दृष्टिकोण द्वारा अपना निजी निर्णय ले सके। चूँकि स्पष्ट चिन्तन का भाषण देने तथा लेखन की स्पष्टता से घनिष्ठ सम्बन्ध है इसलिए बालकों को शिक्षा के द्वारा इस योग्य बनाया जाये कि वे भाषणों तथा लेखों के द्वारा अपने विचारों से जनता को प्रभावित करके अपनी ओर आकर्षित कर सकें।

कुशल जीवन-यापन कला की दीक्षा – शिक्षा का दूसरा उद्देश्य बालक को समाज में रहने अथवा जीवन-यापन की कला में दीक्षित करना है। एकांत में रहकर न तो व्यक्ति जीवन-यापन की कर सकता है और न ही पूर्णत: विकसित हो सकता है। उसके स्वयं के विकास तथा समाज के कल्याण के लिए यह आवश्यक है कि वह सहअस्तित्व की आवश्यकता को समझते हुए व्यवहारिक अनुभवों द्वारा सहयोग के महत्व का मुल्यांकन करना सीखे। इस दृष्टि में चेतना तथा अनुशासन एवं देशभक्ति आदि अनेक सामाजिक गुणों का विकास किया जाना चाहिये जिससे प्रत्येक बालक इस विशाल देश के विभिन्न व्यक्तियों का आदर करते हुए एक-दुसरे के साथ घुलमिल कर रहना सीख जायें।

व्यवसायिक कुशलता की उन्नति – शिक्षा का तीसरा उद्देश्य बालकों में व्यवसायिक कुशलता की उन्नति करना है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लये व्यासायिक प्रशिक्षण की आवश्यकता है। अत: बालकों के मन में श्रम के प्रति आदर तथा रूचि उत्पन्न करना एवं हस्तकला के कार्य पर बल देना परम आवश्यक है। यही नहीं, पाठ्यक्रम में विभिन्न व्यवसायों को भी उचित स्थान मिलना चाहिये जिससे प्रत्येक बालक अपनी रूचि के अनुसार उस व्यवसायों को चुन सकें जिसे शिक्षा समाप्त करने के पश्चात अपनाना चाहता हो। इससे हमें जहाँ एक ओर विभिन्न व्यवसायों के लिए कुशल कारीगर प्राप्त हों सकेंगे वहाँ दूसरी ओर औधोगिक परगति के कारण देश की आर्थिक दशा में भी निरन्तर सुधार होता रहेगा। इस दृष्टि से स्कूलों में व्यवसायिक क्षमता की उन्नति की ओर ध्यान देते हुए बालकों को इस बात का ज्ञान करना परम आवश्यक है कि आत्म सन्तुष्टि तथा राष्ट्रीय समृद्धि कार्य-कुशलता द्वारा सम्भव है।

व्यक्तित्व का विकास – शिक्षा का चौथा उद्देश्य बालक के व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास करना है। व्यक्ति के विकास का तात्पर्य बालक के बौद्धिक विकास, शारीरिक, सामाजिक तथा व्यवसायिक आदि सभी पक्षों एवं रचनात्मक शिक्तियों के विकास से है। इस उद्देश्य के अनुसार बालकों को क्रियात्मक तथा रचनात्मक कार्यों को करने के लिए प्रेरित करना चाहिये जिससे उनमें साहित्यिक, कलात्मक एवं सांस्कृतिक आदि नाना प्रकार की रुचियों का निर्माण हो जाये। इस विभिन्न रुचियों के विकास से उनकी आत्माभिव्यक्ति, सांस्कृतिक तथा सामाजिक सम्पति की वृद्धि, अवकाश काल के सदुपयोग की योग्यता तथा चहुंमुखी विकास में सहायता मिलेगी। अत: बालकों के व्यक्तित्व के विकास हेतु उन्हें रचनात्मक कार्यों में भाग लेने के अवसर मिलने चाहियें।

नेतृत्व के लिए शिक्षा – भारत को अब ऐसे नेताओं की आवश्यकता है जो देश को आदर्श नेतृत्व प्रदान कर सके। अत: नेतृत्व की शिक्षा प्रदान करना शिक्षा का पांचवा मुख्य उद्देश्य है। इस उद्देश्य के अनुसार हमें बालकों में अनुशासन, सहनशीलता, त्याग, सामाजिक भावनाओं की समझदारी तथा नागरिक एवं व्यावहारिक कुशलता आदि गुणों को विकसित करना चाहिये जिससे वे बड़े होकर राजनितिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में अपने-अपने उतरदायित्व को सफलतापूर्वक निभाते हुए सफल नेतृत्व कर सकें।

(स) कोठारी आयोग के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

कोठारी कमीशन ने भारतीय शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य निर्धारित किये हैं –

(1) उत्पादन में वृद्धि करना – वर्त्तमान जनतंत्रीय भारत का प्रथम उद्देश्य है – उत्पादन में वृद्धि करना। भारत में जनसंख्या की वृद्धि के साथ-साथ उत्पादन नहीं बढ़ रहा है। हम देखते हैं कि हमारे देश खाद्य सामग्री, वस्त्र दवाइयां तथा कल-पुर्जे आदि आवश्यक वस्तुयों की अब भी बहुत कमी है। इन सबके लिए हमें दुसरे देशों का मुहं देखना पड़ता है। हमें चाहिये कि हम अपने यहाँ विभिन्न क्षेत्रों में उत्पादन को गति-प्रदान करें। इस महान उद्देश्य को पूरा करने के लिए हमें कृषि तथा तकनीकी शिक्षा पर बल देने के साथ-साथ माध्यमिक शिक्षा को भी अधिक व्यवसायिक रूप प्रदान करना होगा। इस सम्बन्ध में आयोग ने कुछ कैसे सुझाव भी प्रस्तुत किये है जिनको कार्य रूप में परिणत करने से उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है।

(2) सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता का विकास – राष्ट्र के पुननिर्माण के लिए राष्ट्रीय एकता परम आवश्यक है। इस एकता के न होने से सभी नागरिक राष्ट्र हित की परवाह न करते हुए केवल अपने-अपने निजी हितों को पूरा करने में ही व्यस्त हो जाते हैं इससे राष्ट्र निर्बल तथा प्रभावहीन हो जाता है। परिणामस्वरूप उसे एक दिन रसातल में जाना ही पड़ता है। कहने का तात्पर्य यह है कि राष्ट्र के निर्माण हेतु सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता परम आवश्यक है। इस एकता की भावना का विकास केवल शिक्षा के द्वारा ही सम्भव है। अत: शिक्षा का उद्देश्य सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता का विकास होना चाहिये। आयोग ने एक शैक्षिक कार्यक्रम की रुपरेखा प्रस्तुत की है जिसके द्वारा इस उद्देश्य को सफलतापूर्वक प्राप्त किया जा सकता है।

(3) जनतंत्र के सुद्रढ़ बनाना- जनतंत्र को सफल बनाने के लिए शिक्षा परम आवश्यक है। अत: जनतंत्र को सुद्रढ़ बनाना शिक्षा का तीसरा उद्देश्य है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार से करनी चाहिये कि प्रत्येक व्यक्ति जनतंत्र के आदर्शों और मूल्यों को प्राप्त कर सके। आयोग ने शिक्षा के द्वारा जनतंत्र सुद्रढ़ बनाने तथा राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न करने के लिए कुछ ठोस सुझाव प्रस्तुत किये हैं जो उक्त दृष्टि से अत्यंत उपयोगी है।

(4) देश का आधुनिकीकरण करना – शिक्षा का चौथा उद्देश्य है – देश का आधुनिकीकरण करना। प्राग्तिशील देशों में वैज्ञनिक तथा तकनीकी ज्ञान में विकास होने के कारण दिन-प्रतिदिन नये-नये अनुसंधान हो रहे हैं। इन अनुसंधानों के परिणामस्वरूप प्राचीन परम्पराओं, मान्यताओं तथा दृष्टिकोण में परिवर्तन हो रहे हैं। इन परिवर्तनों के कारण नव-समाज का निर्माण हो रहा है। खेद का विषय है कि भारतीय समाज में अभी तक वही परम्पराओं, मान्यताओं तथा दृष्टिकोण प्रचलित है जिन्हें प्राचीन युग में महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता था। भारत अब स्वतंत्र है। यदि भारत को अब उन्नतिशील राष्ट्रों के साथ-साथ चलना है तो हमें भी वैज्ञानिक तथा तकीनीकी ज्ञान का विकास करके औधोगिक क्षेत्र में उन्नति करते हुए अपनी सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं, मान्यताओं एवं दृष्टिकोण में समयानुकूल परिवर्तन करके देश का आधुनिकीकरण करना होगा। चूँकि ये सभी बातें शिक्षा के ही द्वारा सम्भव हैं, इसलिए हमें शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार से करनी चाहिये की यह उद्देश्य सरलतापूर्वक प्राप्त हो जाये।

(5) सामाजिक, नैतिक तथा अध्यात्मिक मूल्यों का विकास करना – शिक्षा का पाँचवां उद्देश्य है – सामाजिक, नैतिक तथा अध्यात्मिक मूल्यों को विकास करना। देश का आधुनिकीकरण करने के लिए कुशल व्यक्तियों का होना परम आवश्यक है। अत: हमको पाठ्यक्रम में विज्ञान तथा तकीनीकी विषयों को मुख्य स्थान देना होगा। इन विषयों से चारित्रिक विकास एवं मानवीय गुणों को क्षति पहुँचने की सम्भावना है। अत: आयोग ने सुझाव प्रस्तुत किया है कि पाठ्यक्रम में वैज्ञानिक विषयों के साथ-साथ मानवीय विषयों को भी सम्मिलित किया जाये जिससे औधोगिक उन्नति के साथ-साथ मानवीय मूल्य भी विकसित होते रहें और प्रत्येक नागरिक सामाजिक, नैतिकता तथा अध्यात्मिक मूल्यों को प्राप्त कर सकें। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए भी आयोग ने अनेक सुझाव प्रस्तुत किये हैं।

बंगाल में सक्षम नेतृत्व की सार्थक तलाश जरूरी

-ललित गर्ग –

आज पश्चिम बंगाल के चुनाव का मुद्दा राष्ट्रीय चर्चा एवं चिन्ता की प्राथमिकता लिये हुए है। संभवतः आजादी के बाद यह पहला चुनाव हैं जो इतना चर्चित, आक्रामक होकर राष्ट्रीय अस्मिता एवं अस्तित्व का प्रश्न बन गया है। इसलिये जरूरी है कि अब पश्चिम बंगाल पर औपचारिक या राजनीतिक लाभ वाले भाषण नहीं हों। जो कुछ हो वह साफ-साफ हो। एक राय का हो। पश्चिम बंगाल की अखण्डता, लोकतांत्रिक समाधान और उसे शांति एवं समृद्धि की ओर ले जाना देश की प्राथमिकता की सूची में पहले नम्बर पर होना चाहिए। देश के अल्पसंख्यक क्यों भूल जाते हैं कि पश्चिम बंगाल सुरक्षित नहीं तो वे कैसे सुरक्षित रह सकते हैं, उनका मौन बहुत बड़ा अहित कर रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मजबूत संकल्प शक्ति के कारण जम्मू-कश्मीर की फिजां बदली है। उनकी राष्ट्रीयता एवं उसे मजबूती देने का संकल्प उनका सबसे बड़ा राजनीतिक गुण है और यह बात आम मतदाता को आसानी से समझ भी आती है। निस्संदेह, हर इंसान की कुछ न कुछ चाहत होती है, लेकिन उसे कामयाबी तभी मिलती है, जब उसकी इच्छाशक्ति मजबूत हो। आज पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र के सशक्तीकरण एवं राजनीतिक परिवर्तन की अपेक्षा सभी कोई महसूस कर रहे हैं। इसी अपेक्षा के रथ पर भारतीय जनता पार्टी सवार होकर इसे एक चुनौती के रूप में लिया है और इसी अनुरूप चुनावी संकल्पों की संरचना एवं रणनीति बनाने में वह जुटी है। इसी कारण पश्चिम बंगाल ऐसे ही संकल्पों का रणक्षेत्र बन गया है। भाजपा ने जिस तरह से इसे कुरुक्षेत्र का मैदान बना दिया है, यहां परिवर्तन लाना और ममता बनर्जी का राजनीतिक नियंत्रण खत्म करना भाजपा का सबसे बड़ा लक्ष्य है। यही कारण है कि गृहमंत्री एवं पार्टी के चाणक्य माने जाने वाले सबसे कद्दावर नेता अमित शाह लम्बे समय से अपनी सारी शक्ति, सोच एवं ऊर्जा पश्चिम बंगाल में खपा रहे हैं। निश्चित ही उनके हर दिन के प्रयत्न पार्टी में कुछ नया उत्साहपूर्वक परिवेश बना रहे हैं, पार्टी की जीत को सुनिश्चित कर रहे हैं। बावजूद इसके पार्टी नेतृत्व जानता है कि ममता को कमतर आंकना उसकी भूल साबित होगी। ममता बनर्जी एक जुझारू एवं जमीन से जुड़ी नेता हैं। उसका एक राजनीतिक वजूद है, जनता पर उसकी पकड़ है। उसकी स्वतंत्र सोच है, जीत किस तरह सुनिश्चित की जा सकती है, यह गणित उसे भलीभांति आता है। उसे परास्त करना एक बड़ी चुनौती है।
भाजपा ने स्वल्प समय में सफलता के नये कीर्तिमान गढ़े है, नरेन्द्र मोदी ने तो अपनी राजनीतिक दूरदर्शिता, नेतृत्व क्षमता एवं कौशल से अनेक अनूठे एवं राजनीतिक कीर्तिमान गढ़े ही है। लेकिन जब अमित शाह भाजपा के अध्यक्ष बने थे, तभी उन्होंने संकल्प व्यक्त किया था कि भाजपा को अखिल भारतीय पार्टी बनाना एवं गैरभाजपा प्रांतों में भाजपा की सरकारें बनाना उनका सपना है। उन्होंने साफ-साफ कहा था कि पूर्व और दक्षिण में भाजपा कमजोर है, जिसे मजबूत बनाने की तरफ ध्यान दिया जाएगा। आज पूर्वोत्तर तक में पार्टी पहुंच गई है, जबकि दक्षिण में कर्नाटक में उसका झंडा लहरा रहा है। ऐसे में, स्वाभाविक तौर पर उनकी नजर पश्चिम बंगाल पर है, जो राजनीतिक रूप से संवेदनशील और सांस्कृतिक रूप से बेहद उर्वर राज्य है।
असम में भाजपा की सरकार है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने असम में एक रैली को संबोधित करते हुए संकेत दिया कि मार्च 2021 के पहले हफ्ते में चुनाव आयोग वहां चुनाव तारीखों की घोषणा कर सकता है। बहरहाल, असम के साथ ही पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी में भी चुनाव होने वाले हैं और इनकी धमक काफी पहले से सुनाई दे रही है। भाजपा ने चुनाव चाहे नगरपालिका के हो या पंचायतों के, विधानसभा के हो या लोकसभा के, उसे जहां पहली बार अपनी सहभागिता करनी थी एवं जहां जीत का परचम फहराना था, वहां उसके लिये कोई चुनाव छोटा या गैरमामूली नहीं होता। हैदराबाद के नगरपालिका चुनावों पर भी भाजपा की हफ्तों चहल-पहल हमने हाल में देखी है। लोकतंत्र के लिए निश्चित रूप से यह एक अच्छी बात है, इस सदाबहार चुनावी गहमागहमी की अगुआई भाजपा कर रही है। उसी ने इसको शुरू किया और वही आगे भी बढ़ा रही है।
इस बार चुनाव तो पांच विधानसभाओं के होने वाले हैं लेकिन दो राज्यों से ज्यादा ही चुनावी उग्रता एवं गहमागहमी की खबरें आ रही हैं। असम, जहां बीजेपी सत्ता में है और पश्चिम बंगाल, जहां वह पहली बार सत्ता की दौड़ में शामिल है। केरल में वाम मोर्चे की सरकार को चुनौती कांग्रेस की तरफ से है जबकि तमिलनाडु में मुख्य लड़ाई एआईएडीएमके और डीएमके के बीच है। पुडुचेरी में बीजेपी का कोई निर्वाचित विधायक नहीं है लेकिन तीन मनोनीत विधायकों के जरिये वहां विधानसभा में उसकी उपस्थिति बनी हुई है। केरल में मेट्रोमैन ई श्रीधरन के भाजपा मे आने और पुडुचेरी में छह विधायकों के इस्तीफे के कारण नारायण सामी सरकार गिरने के बाद कहा जाने लगा है कि इन राज्यों के चुनाव में भी भाजपा का दखल निर्णायक रहेगा। एक कमाल की बात इधर यह हुई है कि ‘प्यार और जंग में सब जायज है’, वाले सूत्रवाक्य में चुनाव में भी सब जायज ही जायज है, भले श्रीधरन की उम्र 80 हो। चुनाव में राजनीतिक दबाव बनाने के लिये सभी तरीकों को आजमाया जाना भी सभी आदर्श की बातों को किनारे कर देता है, बंगाल में भाजपा की सरकार का दावा किया जा रहा है और यह हकीकत बन भी सकता है क्योंकि ममता का पूरा ध्यान चुनाव में जीत पर केन्द्रित है और इसके चलते वह बंगाल के लिए कुछ ठोस करने में विफल साबित हुई हैं। यही वजह है कि आज भाजपा विकास की बात करते हुए साम-दाम-दंड-भेद, हर नीति को अपना रही है। उदाहरण मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी के घर पर सीबीआई टीम का पहुंचना है। घोटाले के हर आरोप की स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच होनी ही चाहिए, लेकिन जांच एजेंसियों की इस तेजी को चुनावों से जोड़कर देखने के लिए किसी अतिरिक्त प्रयास की जरूरत नहीं है।
भाजपा एवं तृणमूल कांग्रेस के बीच राजनीतिक धमासान छिड़ा हुआ है, नरेंद्र मोदी और ममता बनर्जी दोनों के लिये यह चुनाव राजनीतिक प्रतिष्ठा का चुनाव है, इसलिये येन-केन-प्रकारेण जीत को सुनिश्चित करना दोनों का लक्ष्य है। इसके लिये ‘जैसे को तैसा’ का राजनीतिक दांव चला जा रहा है। एक आरोप उधर से उठता है, तो दूसरे यहां से लगाए जाते हैं। हालांकि, दोनों राजनीतिक योद्धाओें में समानताएं भी खूब हैं। दोनों जमीनी नेता हैं और उन्हें विरासत में राजनीति नहीं मिली। दोनों राजनीति में महारत हासिल है और दोनों लोकप्रिय भी खूब हैं- मोदी देश में, तो ममता राज्य में। ऐसे में, पूरा चुनाव मोदी बनाम ममता बन गया है। हालांकि, ममता के सामने मोदी को खड़ा करना भाजपा की मजबूरी भी है, क्योंकि राज्य में उसका कोई चेहरा नहीं है। देखा जाए, तो यही भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती भी है।
पांच चुनावों में सबसे आक्रामक चुनाव बंगाल का होने जा रहा है। इस चुनाव में राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का स्तर एवं भाषा में जबर्दस्त गिरावट देखने को मिल रही है, तू-तू, मैं-मैं हो रही है। दोनों दल एक-दूसरे को सीधे-सीधे टक्कर दे रहे हैं। दोनों के लिये सिद्धान्त से अधिक अहमियत सत्ता की है। लेकिन बंगाल के लिये ज्यादा जरूरी अराजकता एवं अस्थिरता मिटाने के लिये सक्षम एवं प्रभावी नेतृत्व की है, जो भी दल आये उसकी नीति एवं निर्णय में निजता से अधिक निष्ठा की जरूरत है।

कांग्रेस के मिशन-2022 का लगेगा बड़ा झटका

                                                                  संजय सक्सेना

 उत्तर भारत के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश ने जिस नेहरू-गांधी परिवार को ‘पाला-पोसा‘ देश की सियासत में न केवल एक ‘मुकाम’ बल्कि उसे सत्ता की सीढ़िया चढ़ाया। यूपी के बल पर ही कांगे्रस ने दशकांे तक देश पर राज किया।इतना ही नही यूपी की बदौलत ही इस खानदान से देश को तीन-तीन प्रधानमंत्री मिले। नेहरू-गांधी परिवार का कोई सदस्य ऐसा नहीं होगा जो उत्तर प्रदेश से चुनाव जीत कर सांसद नही बना होे,लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी को अमेठी की जनता ने क्या नकारा राहुल बाबा उसी प्रदेश की जनता की समझ पर सवाल खड़े करने लगे हैं। अपने नये संसदीय क्षेत्र वाॅयनाड में राहुल गांधी ने उत्तर भारतीयों के लिए ऐसा कुछ कह दिया कि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने दिल्ली से यूपी-बिहार तक में उनके खिलाफ ‘तलवारें’ खींच लीं। निश्चित ही राहुल के विवादित बयान से उनके मिशन 2022 को बड़ा झटका लग सकता है जिसके तहत राहुल ने यूपी की सत्ता में कांगे्रस की वापसी के लिए प्रियंका वाड्रा को राज्य का प्रभारी बनाया था। प्रियंका वाड्रा इधर कुछ दिनों से मिशन-2022 को लेकर प्रदेश में काफी सक्र्रिय नजर आ रही थीं,लेकिन अब राहुल के बयान के चलते प्रियंका बैकफुट पर हो गई हैं। कांगे्रसी भी नही समझ पा रहे हैं कि वह राहुल गांधी के नासमझी वाले बयान का कैसे बचाव करें।

दरअसल, राहुल को इस बात का अफसोस है कि जिस उत्तर प्रदेश से वह 15 वर्षों तक सांसद रहे, वहां लोग मुद्दों की सतही राजनीति करते है। केरल में अपने संसदीय क्षेत्र वायनाड के दौरे पर गए कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने तिरूअंतपुरम में एक सभा में कहा, पहले के 15 साल मैं उत्तर भारत से सांसद था। मुझे वहां दूसरे तरह की राजनीति का सामना करना पड़ता था। यहां के लोग मुद्दों की राजनीति करते हैं और सिर्फ सतही नहीं, बल्कि मुद्दों की तह तक जाते हैं। राहुल का यह बयान सुर्खियों में आते ही भारतीय जनता पार्टी हमलावर हो गई। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड़डा ने ट्वीट किया, ‘कुछ ही दिन पहले वह (गांधी) पूर्वोत्तर में थे, देश के पश्चिमी भाग के खिलाफ जहर उगल रहे थे। आज दक्षिण में वह उत्तर के खिलाफ जहर उगल रहे हैं। जेपी ने कहा बांटो और राज करो की राजनीति अब नहीं चलने वाली है, इसी लिए राहुल गांधी को लोगों ने खारिज कर दिया है।
उधर, राहुल गांधी पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने निशाना साधते हुए ट्वीट किया,‘ राहुल जी, सनातन आस्था की तपस्थली केरल से लेकर प्रभु श्रीराम की जन्मस्थली उत्तर प्रदेश तक सभी लोग आपको समझ चुके हैं। विभाजकारी राजनीति आपका राजनीति संस्कार है। हम उत्तर या दक्षिण में नहीं, पूरे भारत को माता के रूप में देखते हैं। एक अन्य ट्वीट में सीएम योगी ने राहुल को संबोधित करते हुए लिखा-श्रद्धेय अटल जी ने कहा था कि भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, जीता जागता राष्ट्र पुरूष है। कृपया आप इसे अपनी ओछी राजनीति की पूर्ति के लिए ‘क्षेत्रवाद‘ की तलवार से काटने का कुत्सित प्रयास न करें। भारत एक था एक है, एक ही रहेगा।
अमेठी में राहुल गांधी को हार का स्वाद चखाने वाली भाजपा सांसद और केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी भी राहुल गांधी के बयान से काफी आहत हैं। उन्होंने राहुल पर तंज सकते उन्हें एहसान फरामोश बताया। स्मृति ईरानी ने कहा कि राहुल जिस उत्तर भारत पर सवाल खड़े कर रहे हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि सोनिया गांधी भी यहां से ही सांसद हैं।
स्मृति ने कहा कि अगर उत्तर भारत के लोगों के प्रति हीन भावना है, तो ये उत्तर भारत में क्यों राजनीति कर रही हैं। प्रियंका वाड्रा ने अभी तक राहुल के बयान का खंडन क्यों नहीं किया। अमेठी की सांसद स्मृति ईरानी ने कहा कि गांधी परिवार जब फिर से अमेठी लौटेगा,तो उन्हें इस बात का जवाब देना होगा। उन्होंने कहा कि राहुल गांधी जिस उत्तर भारत का अपमान कर रहे हैं, वो भूल रहे हैं कि उसी इलाके से उनकी माता सोनिया गांधी भी सांसद हैं, ऐसे में राहुल गांधी ने जो बात कही, वो माफ करने लायक ही नहीं है।स्मृति ईरानी ने राहुल पर निशाना साधते हुए कहा कि यह अमेठी जनता का अपमान है। अमेठी की जनता मेरा परिवार है और मेरे परिवार का अपमान करके माफी से काम नहीं चलता। उन्होंने कहा कि जब गांधी परिवार अमेठी आएगा, तब उन्हें अमेठी की जनता अपने अपमान का करारा जवाब देगी। उन्होंने कि राहुल गांधी को अमेठी की जनता ने नकार दिया, तो वे वायनायड पहुंचे और वहां पहुंच कर अमेठी की जनता का अपमान कर रहे हैं। बता दें कि ईरानी ने पिछले आम चुनाव में गांधी को उनके पारिवारिक गढ़ माने जाने वाली अमेठी में हराया था, लेकिन वह केरल में वायनाड से जीत गए थे। वह वायनाड से भी चुनाव लड़े थे।
इससे पहले, स्मृति ने राहुल के बयान पर ट्वीट कर हमला बोला था।

राहुल गांधी ने उत्तर भारतीयों को लेकर ऐसे समय में बयान दिया है जब उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव होने में एक वर्ष का समय शेष बचा है। राहुल के इस बयान को भारतीय जनता पार्टी ने बड़ा मुद््दा बनाने की तैयारी कर ली है। बीजेपी ही नहीं राहुल के बयान से यूपी में कांगे्रस की वापसी के लिए मेहनत कर रहे नेताओं और कार्यकर्ताओं में भी काफी नाराजगी है। कांगे्रसी खुलकर कह रहे हैं कि राहुल के इस तरह के बयानों से कांगे्रस के मिशन-2022 को करारा झटका लग सकता है।

चम्बल में डाकू म्यूजियम का औचित्य

यद्यपि चम्बल अंचल में डकैत समस्या समाप्त हो चुकी है किन्तु चम्बल से डकैतों के नाम एक चौंकाने वाला समाचार आया है | कहा जा रहा है कि मध्यप्रदेश पुलिस, भिंड में डाकू म्यूजियम बनाने जा रही है | म्यूजियम अर्थात संग्रहालय,एक ऐसा संस्थान जो अपनी विरासत या धरोहर को सहेजने का कार्य करता है | प्रश्न यह है कि क्या डाकू भी हमारी धरोहर हैं ? कुछ स्थानीय लोग कहते हैं कि ये डाकू नहीं बाग़ी थे किन्तु आजादी के बाद चम्बल में जितने भी डाकुओं के एनकाउंटर हुए या जिन्होंने समर्पण किये उनमें से संभवतः कोई भी बाग़ी या विद्रोही नहीं था | बाग़ी या विद्रोही तो सरकार के दमन या अव्यवस्था के विरुद्ध झंडा उठाते हैं,वे देश और समाज के उद्धार के लिए लड़ते हैं इन डकैतों का ऐसा कोई ध्येय था ? संपत्ति के बँटवारे में हुए मर्डर,भूमि विवाद,जातीय संघर्ष या निजी बैर आदि के कारण लोग डाकू बने सभी ने संविधान से परे जा-जाकर बन्दूक उठाई अपने-अपने बदले लिए | संभव है कुछ लोग सरकार से न्याय न मिल पाने के कारण डाकू बनने पर विवश हुए किन्तु डाकू बनने के बाद इन्होने सामाजिक न्याय की लड़ाई नहीं लड़ी अपितु और भी जघन्य अपराध किये | इनके द्वारा किये गए अत्याचार न तो क्षम्य हैं न अनुकरणीय और न हीं किसी संग्रहालय में सजाने योग्य | समाज के सभ्रांत लोगों की हत्या करना,लूटना,अपहरण कर फिरौती (पैसे)माँगना ये तो बागियों के लक्षण नहीं हैं | चूँकि अँगरेज शासन में क्रांतिकारियों को बाग़ी/विद्रोही भी कहा जाता था पर जनता इन बाग़ियों को सम्मान की दृष्टि से देखती थी | डाकुओं ने भी समाज से सम्मान पाने और अपने प्रति घृणा कम करने के लिए स्वयं को बाग़ी कहलवाया,गाँव के लोग भय से इन्हें भी बाग़ी कहने लगे और तब से यह शब्द चल पड़ा |
डकैत समस्या के कारण चम्बल के इतिहास,संकृति,पुरातत्व पर पर्याप्त कार्य नहीं हो पाया | जबतक डकैतों का महिमामंडन होता रहेगा तब तक अन्य विषय गौण ही रहेगें | कितने लोगों को ज्ञात है कि चम्बल के लोग पानीपत की पहली लड़ाई में राजा विक्रमादित्य के साथ बाबर के विरुद्ध लड़ने गए थे | क्या लोगों को पता है कि हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की सेना में यहाँ के लोग राजा रामशाह के नेतृत्व में लड़े थे | नेताजी सुभास चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फ़ौज बनी तब उसमें भी चम्बल के लोग थे | अमर शहीद पं.रामप्रसाद बिस्मिल का नाम तो पूरा संसार जानता है, वे भी इसी चम्बल की माटी के सपूत थे | चम्बल आज भी देश की सेनाओं में बड़ी संख्या में सैनिक भेजती है | देश रक्षा में चम्बल अपने असंख्य बेटों का बलिदान कर चुकी है | आज उस चम्बल में डाकू म्यूजियम बनाया जा रहा है क्यों ? यदि म्यूजियम ही बनाना है तो हुतात्मा सैनिकों का बनाइए | यह भी सत्य है कि डकैतों से तो पुलिस को ही लड़ना पड़ता है | कई मुठ-भेड़ों में मध्यप्रदेश पुलिस के जवानों ने अपना अतुलनीय बलिदान दिया है | ऐसे पुलिस वालों को भी उस सैनिक संग्राहलय में स्थान दिया जाना चाहिए | पुलिस चाहे तो बलिदानी पुलिस कर्मियों का प्रथक से संग्रहालय बना सकती हैं | किन्तु डाकुओं का महिमामंडन या डकैतों के नाम पर संग्रहालय बनाना तो किसी भी भाँति उचित नहीं जान पड़ता | जो लोग केवल सिनेमा के माध्यम से ही चम्बल को जानते हैं वे सोचते हैं चम्बल के बीहड़ों में डाकू लोग शोले के गब्बर सिंह की भाँति अभी भी आते होंगे | दुर्भाग्य से हिन्दी सिनेमा ने चम्बल क्षेत्र को डाकुओं के लिए इतना बदनाम कर दिया है कि यहाँ के इतिहास,भूगोल,समाज संस्कृति किसी भी चीज को गंभीरता से नहीं लिया जाता | अब यदि डाकू संग्रहालय और स्थापित हो जाएगा तो चम्बल क्षेत्र का सम्पूर्ण विमर्श इसी पर केन्द्रित हो कर रह जाएगा |
महत्व पूर्ण प्रश्न यह भी है कि डाकू संग्रहालय बनाकर हम देश और चम्बल के युवाओं को क्या सन्देश देना चाहते हैं ? डाकुओं के परिवार वाले चाहेंगें कि उन्हें डाकू न कहकर बागी कहा जाए और उनका महिमा मंडन कर, उनके पक्ष या प्रशंसा में अतिरंजित कहानियाँ गढ़ी जाएँ | जिन लोगों के घर परिवार वालों को इन दस्युओं ने मारा या लूटा वे चाहेंगें कि इन्हें खूँखार डकैत के रूप में ही चित्रित किया जाए | कुल मिलकर इस विमर्श से समाज को कोई लाभ होने वाला नहीं है | जब चम्बल के पास महाभारत काल से लेकर राजा अनंग पाल और बिस्मिल जी तक एक गौरव पूर्ण इतिहास है तो भला डाकुओं की विरासत सहेजने और प्रचारित करने का औचित्य ही क्या है |
आज अमेरिका,आस्ट्रेलिया सहित पूरे योरोपीय देशों में चम्बल के युवा विभिन्न क्षेत्रों में अपनी सेवाएँ दे रहे हैं | कितने ही इंजीनियर्स,डॉक्टर्स और वैज्ञानिक विश्व फलक पर चम्बल का नाम ऊँचा कर रहे हैं | इनमें कुछ मेरे विद्यार्थी और सहपाठी मित्र भी हैं वे चाहते हैं कि भिंड -मुरैना में शिक्षा क्षेत्र में कुछ उल्लेखनीय कार्य हो | किन्तु जब वे सुनेंगे कि हम अभी डाकू संग्रहालय से आगे ही नहीं बढ़ पाए, तो क्या सोचोंगे ? और पूरा देश चम्बल के बारे में क्या कहेगा ? इसकी चिंता किसी को नहीं है | कैसी विडंबना है कि देश के विभिन्न जिलों और संभागों में नए-नए आईआईटी,एम्स और बड़ी-बड़ी इंडस्ट्रियल यूनिट्स खोली जा रही हैं और चम्बल में डाकू संग्रहालय |

‘अभिव्यक्ति’ को सलाखें नहीं ‘आजादी’ चाहिए ?

                प्रभुनाथ शुक्ल

दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने जलवायु एक्टिविस्ट दिशा रवि को एक लाख के निजी मुचलके पर चर्चित ‘टूलकिट’ मामले में तिहाड़ जेल से रिहा करने का आदेश दिया है। अदालत के आदेश के बाद दिल्ली पुलिस खुद कटघरे में खड़ी हो गई है। सवाल उठता है कि क्या सरकार के खिलाफ बोलना, लिखना देशद्रोह है। वास्तव में अगर ऐसा है तो यह उन्मुक्त लोकतंत्र की अंतिम सांस है। अदालत की तरफ से जो तीखी टिप्पणी की गई है उसका साफ संदेश भी तो यही है।

अदालत की तरफ से यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को किस तरह बाधित ना होने दिया जाए। सरकार से असहमति का यह मतलब देशद्रोह नहीं होता है। अपनी बातों को समझाने के लिए अदालत ने ऋग्वेद का भी उदाहरण दिया है। जमानत आम आदमी का अधिकार भी है अगर उसने कोई बड़ा जुर्म नहीं किया है। इस मामले में अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी। हालांकि अदालत ने साफ तौर पर कह दिया है कि टूलकिट में हिंसा फैलाने के की कोई बात नहीं है। इससे साफ जाहिर होता है कि दिशा रवि और दूसरे लोग भविष्य में देशद्रोह के आरोप से मुक्त हो सकते हैं

पटियाला हाउसकोर्ट ने साफ तौर पर कहा है कि किसी भी देश के नागरिक देश को दिशा देने वाले होते हैं। उन्हें सिर्फ इसलिए जेल नहीं भेजा जा सकता है कि वह सरकार की नीतियों से सहमत हैं। सरकार से असहमति और नीतियों का विरोध लोकतंत्र को और पारदर्शी एवं स्वस्थ्य बनाता है। नागरिकों की आलोचनाओं को दृष्टिगत रखते हुए सरकारें अपनी कार्यप्रणाली और करतब में विशेष सुधार ला सकती हैं। देश में सजग नागरिक मजबूत राष्ट्रवाद का द्योतक है। सरकार की हां में हां मिलाने वाले लोगों से भले इस तरह के सजग नागरिक हैं।

अदालत की तरफ से ऋगवेद का उदाहरण देते हुए कहा गया है कि अलग-अलग विचारों को रखना हमारी सभ्यता और मजबूत लोकतंत्र का आधार है। किसी भी मुद्दे पर सरकार से असहमति सामान्य सी बात है। हमें इस तरह के विचारों से कोई असहमति नहीं होनी चाहिए। जबकि दिल्ली पुलिस ने दिशा रवि की जमानत का विरोध किया। पुलिस ने कहा कि उन्होंने व्हाट्सएप ग्रुप बनाया और टूलकिट को एडिट किया। पुलिस की दलील को अदालत में अमान्य कर दिया और कहा कि व्हाट्सएप ग्रुप बनाना कोई राष्ट्र दोष नहीं होता है।

अदालत ने कहा कि दिशा रवि की तरफ से की गई गतिविधियों का कोई ऐसा लिंक भी नहीं मिला है जो देशद्रोह की श्रेणी में आता हो, जिसके आधार पर उसे जमानत न दी जाए। अदालत की तरफ से की गई तल्ख टिप्पणियों का संज्ञान हमें लेना चाहिए। बेवजह किसी भी नागरिक को परेशान नहीं करना चाहिए।अभिव्यक्ति की आजादी बनाए रखना भी स्वस्थ लोकतंत्र की परंपरा और सरकारों का दायित्व भी है।

टूलकिट मामले में दिशा रवि और दूसरे लोगों को अदालत से राहत भले मिल गईं हो लेकिन दिल्ली के लाल किले पर 26 जनवरी को जो कुछ हुआ वास्तव में इसे हम उचित नहीं ठहरा सकते हैं। दिल्ली पुलिस की जांच में जो तथ्य सामने आए हैं उससे तो यहीं लगता है कि पंजाब में खालिस्तान से जुड़े लोग एक बार फिर आतंकवाद की नई कोपलें उगाना चाहते हैं। किसान आंदोलन की आड़ में अपनी साजिश को कामयाब करना चाहते हैं।

देश में ‘टूलकिट’ पर राजनीतिक सरगर्मियां भी खूब हुई। दिशा रवि और अन्य की गिरफ्तारी को लेकर सत्ता के खिलाफ विपक्ष लामबंद भी हुआ। लेकिन दिल्ली पुलिस की प्राथमिक जांच में जो तथ्य सामने आए उससे तो यही साबित होता है कि कनाडा में बैठे खालिस्तान संगठन और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने मिल कर इस साजिश को अंजाम दिया। हालांकि अभी जांच की प्रक्रिया लम्बी चलेगी लेकिन दिशा और अन्य की जमानत के बाद दिल्ली पुलिस को झटका लगा है उसकी पारदर्शिता भी बेनकाब हुई है। उसका उत्साह भी कमजोर पड़ सकता है।

‘टूलकिट’ एक गूगल दास्ताबेज है जिसे अपनी सुविधा के अनुसार एडिट किया जा सकता है। सोशलमिडिया पर यह किट अपने संगठन से जुड़े लोगों के बीच वायरल की जाती है। इस ‘टूलकिट’ में सारी बातें बिस्तार से लिखी होती हैं, जिसमें आंदोलन को कैसे तेज करना है। किन लोगों को जोड़ना है। जिसके पास अधिक फॉलोवर होते हैं उसे वरीयता के आधार पर जोड़ा जाता है। इसमें सारी बातें लिखित होती हैं।

अदालत की तरफ से ‘टूलकिट’ मामले में दिशा रवि और दूसरे लोगों को जमानत भले मिल गईं हो लेकिन यह मामला देश की आंतरिक सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। दिल्ली पुलिस की जांच में अब तक जितने लोगों के नाम आए हैं उनमें अधिकांश पर्यावरणविद और जलवायु एक्टिवस्ट हैं। सभी युवा और ग्लोबल स्तर पर चर्चित चेहरे हैं। लेकिन इसमें खालिस्तान संगठन की भूमिका भी उभर कर आयीं है। ग्रेटा और तमाम विदेशी चेहरे भी बेनक़ाब हुए हैं।

सवाल उठता है कि ‘टूल किट’ का उपयोग कर देश और विदेश में बैठे लोग किसान आंदोलन को भड़काने का काम क्यों किया। मैं यह मानता हूँ कि किसी मसले पर सरकार से असहमति रखना देशद्रोह नहीं हो सकता है। लेकिन जब देश में किसान आंदोलन चल रहा हो उस दशा में विदेशी लोगों से मिल कर टूलकिट को वायरल करना क्या गलत कार्य नहीं है। ग्रेटा थनबर्ग और दिशा के बीच हुए चैट खुद इसकी गवाही देते हैं। दिशा ने खुद पर शिकंजा कसने की बात चैट में कहा था। देशद्रोह के नाम पर किसी को बेवजह परेशान नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन टूलकिट की सच्चाई भी देश के सामने आनी चाहिए।

संविधान की नेपाल में बम-बम

● श्याम सुंदर भाटिया
नेपाल में अंततः नकारात्मक सियासत हार गई, संविधान जीत गया। वहां की शीर्ष अदालत के संसद बहाली के सुप्रीम आदेश के बाद लोकतंत्र मुस्करा उठा है। नेपाल की बड़ी अदालत ने प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को बड़ा झटका देते हुए प्रतिनिधि सभा को फिर से बहाल कर दिया है। मुख्य न्यायाधीश चोलेंद्र शमशेर जेबीआर के नेतृत्व में पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने ओली के फैसले को असंवैधानिक करार देते हुए सरकार को अगले 13 दिनों के भीतर सदन सत्र बुलाने का भी आदेश दिया है। नेपाली सुप्रीम कोर्ट ने 20 दिसंबर, 2020 को संसद भंग होने के बाद प्रधानमंत्री केपी ओली के विभिन्न संवैधानिक निकायों में की गई सभी नियुक्तियों को रद्द कर दिया है। इसके अलावा कोर्ट ने उस अध्यादेश को भी रद्द कर दिया है, जिसे ओली ने इन नियुक्तियों के लिए पारित किया था। दरअसल किसी भी संवैधानिक निकाय में नियुक्ति करने के लिए एक बैठक होती है, जिसे बाइपास करने के लिए ओली ने यह अध्यादेश पारित किया था। 20 दिसंबर, 2020 को राष्ट्रपति विद्या देव भंडारी ने प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की सिफारिश पर संसद को भंग करके चुनावों की तरीखों का भी ऐलान कर दिया था। ओली के इस तानाशाही फैसले के विरोध में सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्य सचेतक देव प्रसाद गुरुंग सहित 13 रिट याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की थीं। इन सभी याचिकाओं ने नेपाली संसद के निचले सदन की बहाली की मांग की गई थी। इन्हीं याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए नेपाली सुप्रीम कोर्ट ने यह ऐतिहासिक फैसला सुनाया। संसद भंग किए जाने के बाद से सबकी नजर सुप्रीम कोर्ट पर टिकी थी। ओली को अब संसद में बहुमत सिद्ध करना होगा, लेकिन अब उनके पास बहुमत नहीं है। यदि वह बहुमत साबित नहीं कर पाए तो उन्हें इस्तीफा देना होगा। नेपाल का अगला प्रधानमंत्री कौन होगा, यह सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय समय में पता चल जाएगा अन्यथा नेपाल को नए चुनाव का सामना करना होगा।

नेपाल में प्रतिनिधि सभा और राष्ट्रीय सभा दो सदन हैं। सरकार बनाने के प्रतिनिधि सभा में बहुमत जरुरी होता है। प्रतिनिधि सभा के 275 में से 170 सदस्य सत्तारुढ़ एनसीपी- नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के पास हैं। नेपाल में 2015 में नया संविधान बना था। 2017 में अस्तित्व में आई संसद का कार्यकाल 2022 तक का था। 2018 में ओली के नेतृत्व वाली सीपीएन -यूएमएल और पुष्प कमल दहल प्रचंड के नेतृत्व वाली सीपीएन (माओवादी केंद्रित) का विलय होकर नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी -एनसीपी का गठन हुआ था। विलय के समय तय हुआ था, ढाई वर्ष ओली पीएम रहेंगे तो ढाई वर्ष प्रचंड पीएम रहेंगे। प्रचंड चाहते थे, एक पद-एक व्यक्ति के सिद्धांत पर एनपीसी को चलाया जाए, इसीलिए प्रचंड ओली पर पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ने का दबाव डालते रहे, लेकिन ओली टस से मस नहीं हुए थे। इसके उलट जब प्रचंड को पीएम का पद सौंपने का वक्त आया तो उन्होंने संसद भंग करने की सिफारिश कर दी थी। उल्लेखनीय है, 44 सदस्यों वाली स्टैंडिंग कमेटी में भी ओली अल्पमत में थे। प्रचंड के पास 17, ओली के पास 14 और नेपाल के साथ 13 सदस्य हैं। प्रतिनिधि सभा भंग करने से पूर्व भी दिलचस्प सियासी कहानी है। एनसीपी के असंतुष्ट प्रचंड गुट ने 20 दिसंबर की सुबह पीएम ओली के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पत्र का नोटिस दिया था। प्रचंड खेमे ने राष्ट्रपति से विशेष सत्र बुलाने का आग्रह भी किया था, लेकिन ओली समर्थकों को इसकी भनक लग गई थी। साथ ही साथ ओली अपने खिलाफ राजशाही वापसी को लेकर देश में हो रहे धरने और प्रदर्शन से भी खासे तनाव में थे। नतीजन प्रधानमंत्री ओली ने आनन-फानन में संसद भंग करने की सिफारिश कर दी थी। बताते हैं, इस अविश्वास प्रस्ताव को प्रचंड खेमे के मंत्रियों और 50 सांसदों का समर्थन प्राप्त था।

भारत और नेपाल कोई नए नवेले दोस्त नहीं हैं। सदियों से दोनों देशों के बीच बेटी-रोटी का रिश्ता है और रहेगा। नेपाल हमेशा भारत को बिग ब्रदर मानता रहा है, लेकिन कोविड के दौरान नेपाल के प्रधानमंत्री ओली की बोली जहरीली ही रही तो रीति और नीति भी एकदम जुदा रही। ओली अपने आका ड्रैगन के इशारे पर साम, दाम, दंड और भेद की नीति का अंधभक्त की मानिंद अनुसरण करते रहे। भारत को उकसाने, उस पर सांस्कृतिक हमले और सम्प्रभुता से छेड़छाड़ करने में नेपाल ने ओली के वक्त कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। ऐसा करके भारत के संग-संग नेपाल की अवाम और विरोधी नेताओं के बार-बार निशाने पर ओली रहे थे। ओली की सरकार ने भारत के तीन अटूट हिस्सों -कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को नेपाल का बताया था। यह ही नहीं, भारत के प्रबल विरोध के बावजूद नेपाल की संसद में इस विवादित नक़्शे में संशोधन का प्रस्ताव भी पारित कर दिया था। भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया नेपाल के इस बगावती रुख के पीछे चीन की हिमाकत को मानती रही है। ओली ने यह भी दावा किया था, भगवान राम नेपाल में जन्मे थे, इसीलिए भगवान राम भारतीय नहीं बल्कि नेपाली हैं। वह यह कहना भी नहीं चूके थे, असली अयोध्या भारत में नहीं, नेपाल में है। बावजूद इसके भारत अपने फर्ज से नहीं डिगा और डिगेगा। वह हमेशा परिपक्वता का परिचय देते हुए बड़े भाई की भूमिका निभा रहा है। इसमें कोई शक नहीं, नेपाली डेमोक्रेसी फिर कड़े इम्तिहान से गुजर रही है। संत कबीर दास ने ठीक ही कहा था, बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होए… सरीखा कथन मौजूदा वक्त में नेपाल के प्रधानमंत्री श्री केपी शर्मा ओली पर शत-प्रतिशत चरितार्थ हो रहा है।

काठमांडू के वरिष्ठ पत्रकार श्री युवराज घिमिरे कहते हैं, अब ओली के पास दो विकल्प हैं। या तो वे ख़ुद कुर्सी छोड़ें या संसद में अविश्वास प्रस्ताव का सामना करें। यह फ़ैसला नेपाल की स्वतंत्र न्यायपालिका के हक़ में है, लेकिन इससे कोई समाधान नहीं निकलने जा रहा है। अभी नेपाल राजनीतिक अस्थिरता के दौर में रहेगा। अब या तो कोई नई सरकार बनेगी या फिर से संसद भंग कर चुनाव में जाना होगा। नेपाली अख़बार नया पत्रिका के संपादक भी उमेश चौहान कहते हैं, सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला नेपाल के लोकतंत्र के भविष्य की उम्मीद और अपेक्षा की जीत है। श्री चौहान कहते हैं, यह बहुत ही साहसिक फ़ैसला है। यह उन तानाशाहों के लिए संदेश है जो जनमत की उपेक्षा कर मनमानी करने की मंशा रखते हैं। यह किसी व्यक्ति की जीत और हार का फ़ैसला नहीं है, लेकिन नेपाल के लोकतंत्र के हक़ में है। श्री चौहान कहते हैं, अब नेपाल में फिर से कोई सरकार बनने की पूरी उम्मीद है। नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी में प्रचंड बनाम ओली की दूरी कम हो सकती है और दोनों खेमा मिलकर कोई नया नेता चुन सकते हैं। या तो फिर कांग्रेस के समर्थन से कोई सरकार बन सकती है। नेपाल की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने भी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का स्वागत किया है। नेपाली कांग्रेस ने अपने बयान में कहा है, जब पीएम ओली ने संसद को भंग किया था तभी हमने इस फ़ैसले को असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक कहा था। सुप्रीम कोर्ट ने भी हमारी बात पर मुहर लगा दी है। भारत में नेपाल के राजदूत रहे श्री लोकराज बराल कहते हैं, सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला संविधान की जीत है।

भाई बहिन का रिश्ता


भाई बहिन का ये रिश्ता,
कैसा अजीब है ये रिश्ता।
लड़ते झगड़ते है ये आपस मे,
फिर भी टूटता ना ये रिश्ता।।

लड़ झगड़ कर एक हो जाते,
एक दूजे के बिन रह न पाते।
जब हो जाते एक दूजे से नाराज,
बिन मनाएं ये रह नहीं पाते।।

भाई बहिन एक खून का रिश्ता,
जो बनता है दो खूनो से रिश्ता।
वैसे तो संसार में अनेकों रिश्ते,
इससे बड़ा ना है कोई रिश्ता।।

भाई बहिन का अटूट है बंधन,
कभी नहीं टूटता है ये बंधन।
भले ही उनकी शादी हो जाती,
बना रहता है उनका ये बंधन।।

भाई बहिन है आंख के दो तारे,
मां बाप के है दोनों राजदुलारे।
करते हैं मां बाप दोनों को प्यार,
घर के वे है दोनों चमकते सितारे।

बहिन जब सुसराल है चली जाती,
भाई को बहिन बहुत याद है आती
करता रहता बहिन से वह निहोरा,
बहिन पीहर कभी कभी ही आती।

रक्षा बंधन व भाई दौज पर
बहिन भाई का इंतजार है करती।
बनाती है वह अनेकों व्यजन
माथे पर उसके वह तिलक लगाती

आर के रस्तोगी

फ्रांसीसी इस्लाम ने इस्लामी जगत में मचाया हड़कंप

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

फ्रांस की संसद ने ऐसा कानून पारित कर दिया है, जिसे लेकर इस्लामी जगत में खलबली मच गई है। कई मुस्लिम राष्ट्रों के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तथा मुल्ला-मौलवी उसके खिलाफ अभियान चलाने लगे हैं। उन्होंने फ्रांस के विरुद्ध तरह-तरह के प्रतिबंधों की घोषणा कर दी है। सबसे पहले हम यह जानें कि यह कानून क्या है और इसे क्यों लगाया गया है ?

इस सख्त कानून को लाने का उद्दीपक कारण वह घटना है, जो पिछले साल अक्टूबर में फ्रांस में घटी थी। सेमुअल पेटी नामक एक फ्रांसीसी अध्यापक की हत्या अब्दुल्ला अजारोव ने इसलिए कर दी थी कि उसने अपनी कक्षा में पैगंबर मुहम्मद के कार्टून दिखा दिए थे। वह छात्रों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पाठ पढ़ा रहा था। फ्रांसीसी पुलिस ने अब्दुल्ला की भी हत्या कर दी थी। अब्दुल्ला के माता-पिता रूस के मुस्लिम-बहुल प्रांत चेचन्या से आकर फ्रांस में बसे थे। इस घटना ने पूरे यूरोप को प्रकंपित और क्रोधित कर दिया था। इसके पहले 2015 में ‘चार्ली हेब्दो’ नामक पत्रिका पर इस्लामी आतंकवादियों ने हमला बोलकर 12 फ्रांसीसी पत्रकारों को मौत के घाट उतार दिया था। ऐसी खूनी घटनाओं के पक्ष-विपक्ष में होनेवाले कई प्रदर्शनों में दर्जनों लोग मारे गए और भारी तोड़-फोड़ भी हुई।

इसी कारण फ्रांस के राष्ट्रपति इमेनुएल मेक्रों यह सख्त कानून लाने के लिए मजबूर हुए। उनके गृहमंत्री ने घोषणा की थी कि हमारे ‘‘गणराज्य के दुश्मनों को हम एक मिनिट भी चैन से नहीं बैठने देंगे।’’ फ्रांसीसी नेताओं के इन सख्त बयानों पर प्रतिक्रिया करते हुए तुर्की के राष्ट्रपति तय्यब एरदोगन ने कहा था कि फ्रांस के राष्ट्रपति अपनी दिमागी जांच करवाएं। कहीं वे पागल तो नहीं हो गए हैं। राष्ट्रपति मेक्रों ने सारे यूरोप के क्रोध को अब कानूनी रूप दे दिया है और फ्रांसीसी संसद के निम्न सदन ने पिछले सप्ताह स्पष्ट बहुमत से उस पर मुहर लगा दी है।

इस कानून में कहीं भी इस्लाम शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। इस कानून को अलगाववाद-विरोधी कानून नाम दिया गया है। इसमें सिर्फ धार्मिक या मजहबी कट्टरवाद की भर्त्सना है, किसी इस्लाम या ईसाइयत की नहीं। इस कानून में फ्रांसीसी ‘लायसीती’ याने पंथ-निरपेक्षता के सिद्धांत पर जोर दिया गया है। यह सिद्धांत 1905 में कानून के रूप में इसलिए स्वीकार किया गया था कि सरकार को चर्च के ईसाई कट्टरवाद और दादागीरी को खत्म करना था। इसी कानून के चलते सरकारी स्कूलों में किसी छात्र, छात्रा और अध्यापक को ईसाइयों का क्रॉस, यहूदियों का यामुका (टोपी) या इस्लामी हिजाब आदि पहनने पर पाबंदी लगा दी गई थी। मजहबी छुट्टियां याने ईद और योम किप्पूर की छुट्टियां भी रद्द कर दी गई थीं।

वर्तमान कानून लंबी बहस और सैकड़ों संशोधनों के बाद पारित हुआ है। यह नये फ्रांसीसी इस्लाम की स्थापना कर रहा है। इस कानून का मुख्य उद्देश्य फ्रांस के मुसलमानों को यह समझाना है कि तुम सबसे पहले फ्रांस के नागरिक हो। अफ्रीकी, अरब, तुर्क, ईरानी या मुसलमान बाद में। यदि तुम्हें फ्रांस का नागरिक बनकर रहना है तो पहले तुम अलगाववाद छोड़ों और पहले फ्रांसीसी बनो। 7 करोड़ के फ्रांस में इस समय लगभग 60 लाख मुसलमान हैं, जो अफ्रीका और एशिया के मुस्लिम देशों से आकर वहां बस गए हैं। उनमें से ज्यादातर फ्रांसीसी रीति-रिवाजों को भरसक आत्मसात कर चुके हैं लेकिन ज्यादातर मुस्लिम नौजवान वर्तमान कानून के भी कट्टर विरोधी है।

इस कानून में कहीं भी इस्लाम के मूल सिद्धांतों की आलोचना नहीं की गई है लेकिन कई अरबी रीति-रिवाजों का विरोध किया गया है। जैसे कोई भी औरत हिजाब या नक़ाब आदि पहनकर सावर्जनिक स्थानों पर नहीं जा सकती है। क्राॅस, यामुका और हिजाब सरकारी दफ्तरों और विश्वविद्यालयों में भी नहीं पहने जा सकते हैं। पहले उन पर सिर्फ स्कूलों में प्रतिबंध था। मुसलमान लड़कियों को शादी के पहले अक्षतयोनि होने का जो डाक्टरी प्रमाण पत्र देना होता था, वह नहीं देना पड़ेगा। एक से ज्यादा औरतों से शादी करने पर 13 लाख रू जुर्माना होगा। यदि कोई व्यक्ति किसी को मजहब के नाम पर डराता है या धमकी देता है तो उसे 65 लाख रु. का जुर्माना देना होगा। किसी भी सरकारी कर्मचारी या सांसद के विरूद्ध किसी को यदि कोई मजहबी आधार पर भड़काता है तो उसे सख्त सजा मिलेगी। इस्लामी मदरसों में बच्चों को क्या पढ़ाया जाता है, सरकार इस पर भी नजर रखेगी। 3 साल की उम्र के बाद बच्चों को स्कूलों में दाखिल दिलाना जरूरी होगा। मस्जिदों को मिलनेवाले विदेशी पैसों पर सरकार कड़ी नजर रखेगी। खेल-कूद के क्षेत्र, जैसे स्विमिंग पूल वगैरह आदमी और औरतों के लिए अलग-अलग नहीं होंगे। इस तरह के कई प्रावधान इस कानून में हैं, जो फ्रांस के सभी नागरिकों पर एक समान लागू होंगे, वे चाहें मुसलमान हों, ईसाई हों, यहूदी हों या हिंदू हों।

फ्रांस और यूरोप के कई गोरे संगठन और राजनेता भी इस कानून के इन प्रावधानों को बेहद नरम और निरर्थक मानते हैं। वे मुसलमानों को रोजगार देने और मदरसों के चलते रहने के विरोधी हैं। वे मस्जिदों पर ताले ठुकवाना चाहते हैं। वे धर्म-परिवर्तन के खिलाफ हैं। वे इस्लाम, कुरान और पैगंबर मुहम्मद की वैसी ही कड़ी आलोचना करते हैं, जैसे कि वे ईसा और मूसा तथा बाइबिल की करते हैं। लेकिन यूरोपीय लोग यह ध्यान क्यों न रखें कि वे जिन बातों को पसंद नहीं करते हैं, उन्हें न करें लेकिन व्यर्थ कटु निंदा करके वे दूसरों का दिल क्यों दुखाएं ? इसी तरह दुनिया के मुसलमानों को भी सोचना चाहिए कि इस्लाम क्या छुई-मुई का पौधा है, जो किसी का फोटो छाप देने या किसी पर व्यंग्य कस देने से मुरझा जाएगा ? वे इस्लाम की उस क्रांतिकारी भूमिका पर गर्व करें, जिसने अरबों की जहालत को मिटाने में अदभुत योगदान किया है।