– योगेश कुमार गोयल माघ माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी ‘वसंत पंचमी’ के रूप में देशभर में धूमधाम से मनाई जाती रही है। माना जाता है कि यह दिन वसंत ऋतु के आगमन का सूचक है। शरद ऋतु की विदाई और वसंत के आगमन के साथ समस्त प्राणीजगत में नवजीवन एवं नवचेतना का संचार होता है। वातावरण में चहुं ओर मादकता का संचार होने लगता है। प्रकृति के सौंदर्य में निखार आने लगता है। शरद ऋतु में वृक्षों के पुराने पत्ते सूखकर झड़ जाते हैं, लेकिन वसंत की शुरुआत के साथ ही पेड़-पौधों पर नयी कोंपलें फूटने लगती हैं। चारों ओर रंग-बिरंगे फूल खिल जाते हैं, धरती का वातावरण महकने लगता है। वसंत पंचमी के ही दिन होली का उत्सव भी आरंभ हो जाता है और इस दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। साहित्य और संगीत प्रेमियों के लिए तो वसंत पंचमी का विशेष महत्व है, क्योंकि यह ज्ञान और वाणी की देवी सरस्वती की पूजा का पवित्र पर्व माना गया है। बच्चों को इस दिन से बोलना या लिखना सिखाना शुभ माना गया है। संगीतकार इस दिन अपने वाद्य यंत्रों की पूजा करते हैं। ऐसी मान्यता है कि इसी दिन विद्या और बुद्धि की देवी मां सरस्वती अपने हाथों में वीणा, पुस्तक व माला लिए अवतरित हुईं थी। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में इस दिन लोग विद्या, बुद्धि और वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की पूजा-आराधना करके अपने जीवन से अज्ञानता के अंधकार को दूर करने की कामना करते हैं। कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने वसंत पंचमी के दिन ही प्रथम बार देवी सरस्वती की आराधना की थी और कहा था कि अब से प्रतिवर्ष वसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती की पूजा होगी और इस दिन को मां सरस्वती के आराधना पर्व के रूप में मनाया जाएगा। प्राचीन काल में वसंत पंचमी को प्रेम के प्रतीक पर्व के रूप में ‘वसंतोत्सव’, ‘मदनोत्सव’, ‘कामोत्सव’ अथवा ‘कामदेव पर्व’ के रूप में मनाए जाने का भी उल्लेख मिलता है। इस संबंध में मान्यता है कि इसी दिन कामदेव और रति ने पहली बार मानव हृदय में प्रेम की भावना का संचार कर उन्हें चेतना प्रदान की थी, ताकि वे सौन्दर्य और प्रेम की भावनाओं को गहराई से समझ सकें। इस दिन रति पूजा का भी विशेष महत्व है। मान्यता है कि कामदेव ने वसंत ऋतु में ही पुष्प बाण चलाकर समाधिस्थ भगवान शिव का तप भंग करने का अपराध किया था, जिससे क्रोधित होकर उन्होंने अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से कामदेव को भस्म कर दिया था। बाद में कामदेव की पत्नी रति की प्रार्थना और विलाप से द्रवित होकर भगवान शिव ने रति को आशीर्वाद दिया कि उसे श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में अपना पति पुनः प्राप्त होगा। ‘वसंत पंचमी’ को गंगा का अवतरण दिवस भी माना जाता है। इसलिए धार्मिक दृष्टि से वसंत पंचमी के दिन गंगा स्नान करने का बहुत महत्व माना गया है। वसंत पंचमी को ‘श्री पंचमी’ भी कहा गया है। कहा जाता है कि इस दिन का स्वास्थ्य वर्षभर के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। अतः इस पर्व को स्वास्थ्यवर्धक एवं पापनाशक भी माना गया है।
उत्तराखंड में 2013 में आई आपदा और फिर 7 फरवरी को चमोली के तपोवन में आई जलप्रलय की घटनाएँ पूरी दुनिया को बड़े बांधों के निर्माण और पर्यावरण असंतुलन से होने वाले दुष्परिणामों से आगाह कर रही है। यह बड़े बांध स्थानीय जनता को न तो सिंचाई और न ही पेयजल की पूर्ति करते हैं बल्कि इसके विपरीत प्राकृतिक रूप से संवेदनशील पहाड़ी क्षेत्रों के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न करते हैं। बड़े बांधों में बहुत अधिक जलराशि एकत्रित होने से पहाड़ों पर अत्यधिक दबाव पड़ता है। इसके निर्माण के दौरान भारी मशीनरी और विस्फोटकों आदि का प्रयोग होता है, जो पहाड़ों की नींव को भी हिला देते हैं, जिससे पहाड़ों में भूस्खलन, भूकंप आदि की संभावनाएं भी बढ़ जाती हैं। चूँकि बड़े बांधों को भरने के लिए नदियों का प्रवाह रोकना पड़ता है, इसलिए नदी के पानी से जो नैसर्गिक भूमिगत जलसंचय होता है, उसमें भी व्यवधान पड़ता है।
विगत दिनों गढ़वाल क्षेत्र के तपोवन के पास ऋषि गंगा में ग्लेशियर टूटने से भयानक बाढ़ आने से काफी संख्या में जान और माल का नुकसान हुआ है, जिसमें बिजली उत्पादन संयत्र और कुछ जगह जलाशय भी क्षतिग्रस्त हुए हैं। इससे पहले 2013 में भी उत्तराखंड ने केदारनाथ आपदा झेली है, जिसमें भूस्खलन या ग्लेशियर के टूटने से मन्दाकिनी नदी में अचानक भयंकर बाढ़ आ गयी थी, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए या लापता हो गये थे और अत्यधिक संपत्ति का भी नुकसान हुआ था। अगर कभी इस तरह का भूस्खलन बड़े बांधों के प्रभाव क्षेत्र में होगा तो निश्चय ही देश को भयानक आपदा झेलनी पड़ सकती है। कुल मिलाकर देखें तो जलसंचय के लिए पहाड़ी क्षेत्र में बड़े जलाशयों (बांधों) का निर्माण अत्यधिक जोखिम भरा है। बड़े बांधो की बजाए जगह-जगह छोटे छोटे बांध बनाये जाएं तो वह न सिर्फ भूमिगत जलस्तर बढ़ाएंगे, बल्कि इससे पानी के प्राकृतिक जलस्रोत भी रिचार्ज होते रहेंगे। इसके अलावा बरसाती नालों में चेक-डैम बनाये जाने चाहिए, जिससे धरती की जलधारण क्षमता बढ़ती है और इस तरह वर्षा के पानी का भूमिगत जल संचय किया जा सकता है। इससे निःसंदेह ही प्राकृतिक जल स्रोत में पानी की उपलब्धता सुनिश्चित होगी और पानी की कमी से जूझ रहे ग्रामीणों को बड़ी राहत प्रदान होगी।
अब प्रश्न यह उठता है कि इसके अतिरिक्त क्या कोई अन्य प्रयास भी किये जा सकते हैं, जिससे कम संसाधनों के बल पर पहाड़ में पानी की सुलभता सुनिश्चित की जा सके? इस दिशा में कई लोगों और संगठनों ने कई बार अलग अलग जगहों में रचनात्मक प्रयास किये हैं। इसी समस्या को ध्यान में रखते हुये विगत दिनों नैनीताल जिले के रामगढ़ और धारी क्षेत्र में एक स्वयंसेवी संगठन ‘जनमैत्री संगठन’ ने पानी को बचाने की दिशा में सराहनीय कार्य किया है। चूंकि पहाड़ों में यदा कदा बारिश होती रहती है और बारिश का पानी बहकर नदियों में समा जाता है, इसलिये जरूरत थी कुदरत के इस निःशुल्क उपहार को समेटने की। इसके लिए संस्था ने बारिश के पानी को समेटने, सहेजने की तरफ अपना ध्यान केंद्रित किया। संगठन ने पानी को संग्रहित करने के लिये जमीन में गड्ढे खोद कर कच्चे टैंक बनाये, जिस पर प्लास्टिक शीट डालकर बरसात के पानी को जमा करने का इंतजाम किया।
“रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून” रहीम ने आज से सैकड़ों साल पहले ये बात समझ ली थी, कि पानी का होना कितना जरूरी है। हालांकि रहीम के समय भी सदा नीरा गंगा, यमुना जैसी नदियां बहती थीं, फिर भी उन्होंने पानी की महत्ता समझ ली थी। खैर पानी की जरूरत और किल्लत की संभावना को देखते हुए कई विश्लेषक यहां तक कह रहे हैं कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिये होगा। हालांकि दुनिया के सभ्य इंसान किसी भी चीज़ के लिये युद्ध नहीं चाहते, फिर पानी पिलाना तो धर्म का कार्य माना गया है। तो फिर ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि आखिर कैसे इस युद्ध को रोका जाय? जाहिर है अभी पानी बनाने वाली तकनीकी चलन में नहीं है। समुद्र के खारे पानी को पीने योग्य बनाने की तकनीक कुछ देशों में जरूर है, परंतु बहुत ही ख़र्चीला होने के कारण गरीब देशों की हैसियत से बाहर की चीज़ है। घूम फिरकर वही प्रश्न उठता है कि आखिर पानी की किल्लत कैसे दूर किया जाये, ताकि सभी को समान रूप से आवश्यकतानुसार न केवल पानी उपलब्ध कराया जा सके, बल्कि आने वाली पीढ़ी के लिए भी पानी को बचाया जा सके?
पर्वतीय क्षेत्र उत्तराखंड के संदर्भ में देखा जाय तो यहाँ पर असंख्य नदियों में पानी की प्रचुर उपलब्धता के बावजूद यहाँ का आमजन युगों से उस पानी का दोहन नहीं कर पाया है। कारण है कि पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण खेत खलियान ऊंचाई पर स्थित होते हैं और नदी का बहाव नीचे की ओर होता है। हालांकि पूर्व में कई जगह नदियों से नहर प्रणाली द्वारा खेतों की सिंचाई के लिये पानी की व्यवस्था की गयी, परंतु वह नाकाफी साबित हुई और कालांतर में अधिकांश परियोजनाएं ठप पड़ती गयीं। पहाड़ों में वर्षा ऋतु और उसके तीन चार महीने बाद तक तो पानी की उपलब्धता ठीक रहती है, क्योंकि बरसात के कारण भूमि में नमी रहती है और प्राकृतिक जलस्रोतों से भी पानी का उत्पादन अधिक मात्रा में होता रहता है। लेकिन ग्रीष्म ऋतु की आहट के साथ ही जहाँ एक ओर भूमि की नमी खत्म होने लगती है, वहीं प्राकृतिक जलधाराओं में भी पानी की उपलब्धता न्यून हो जाती है। कुल मिलाकर मार्च से जुलाई तक अर्थात मानसून के आने तक लगभग चार महीने उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में पानी की विकट समस्या रहती है।
अब इसे ग्लोबल वार्मिंग कहें या कोई और प्राकृतिक घटनाचक्र, पिछले कुछ समय से प्राकृतिक जलस्रोतों पर भी खतरा मंडराने लगा है। आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखंड में कई प्राकृतिक जलस्रोत या तो सूख चुके हैं या सूखने की कगार पर हैं। उत्तराखंड जल संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार फिलहाल राज्य के 500 जलस्रोत सूखने की कगार पर हैं। सम्पूर्ण उत्तराखंड पानी के संकट से गुजर रहा है। हालाँकि उत्तराखंड सरकार ने भी जल नीति घोषित की है। इसमें वर्षा जल संग्रहण के साथ-साथ पारंपरिक स्रोतों को बचाने का लक्ष्य रखा गया है। राज्य की जल नीति में भूमिगत जल के अलावा बारिश के पानी को संरक्षित करने की बात कही गयी है, परंतु अभी तक के हालातों और अनुभवों को देखते हुए नहीं लगता है कि सरकारी योजनाएं कभी जमीन पर भी साकार हो पाएंगी। हालांकि अगर सरकारें चाहें तो किसी भी बड़ी नदी या झरने से पंपिंग व्यवस्था द्वारा हर पहाड़ी गाँव को पानी उपलब्ध करा सकती है। इसके अलावा पहाड़ी नदियों पर छोटे-छोटे डैम (जलाशय) या बैराज बनाकर पानी का संचय किया जा सकता और उसे पानी की किल्लत झेल रहे पहाड़ी ग्रामीणों को उपलब्ध कराया जा सकता है। इस तरह से संग्रहित किया गया पानी न सिर्फ पहाड़ी लोगों की, अपितु पहाड़ के नीचे तराई के लोगों के लिए पानी की कमी को काफी हद तक पूरा किया जा सकता है।
परंतु अभी तक के अनुभव बताते हैं कि कोई भी सरकार इस मामले में संजीदा नहीं हैं। इस बारे में सरकारों का रवैया बहुत ही दुखद रहा है। सरकारों का ध्यान पहाड़ी क्षेत्र के लोगों की पानी की जरूरतों के समाधान के बजाय पूरी तरह राजस्व प्राप्ति के लिए व्यावसायिक कदम उठाने तक सीमित रहता है। उत्तराखंड के पहाड़ों में जगह जगह बड़े डैम बनाये गये हैं या बनाये जा रहे हैं, जिनसे बिजली उत्पादन कर प्रदेश से बाहर भी भेजा जाता है। जनमैत्री संगठन के संयोजक बची सिंह बिष्ट ने बताया कि “पानी बचाने के इस कार्य में उन्हें कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं का भी सहयोग मिला, जिन्होंने जल संचय के लिए गड्डो में बिछाने के लिए प्लास्टिक शीट उपलब्ध करवाने हेतु आर्थिक सहायता प्रदान की।“ उन्होंने बताया की “इस तरह वह अब तक हजारों गड्डे बनवाकर लाखों लीटर पानी का संचय कर चुके हैं। इस पानी से ग्रामीण स्वयं की जरुरत भी पूरी करते हैं, पशुओं को भी पानी पिलाते हैं तथा साथ में फल और सब्ज़ी उत्पादन हेतु खेतों में भी इस्तेमाल करते हैं। इससे उस क्षेत्र के ग्रामीणों की आर्थिक स्थिती पर भी सकारात्मक असर पड़ा है।
”जनमैत्री संगठन ने वर्ष 2017-18 से 2019-20 में कुल 314 टैंक बनाये, जिनमें 73 नैनीताल के धारी ब्लाक के बुढ़िबना गाँव में, 16 रामगढ़ ब्लाक के सूपी में, 4 लोद और गल्ला में तथा 2 नथुवाखान गाँव में। शेष सतबुंगा ग्राम पंचायत के पाटा, धुरा, दुत्कानधार, लोधिया में बनाये गए हैं। 2015 व 2016 में भी गल्ला व आसपास के क्षेत्रों में जनमैत्री द्वारा 100 प्लास्टिक के टैंक बनाये गए थे, जिनमें अभी भी बहुत से टैंक जिंदा और कार्यरत हैं। इस तरह जनमैत्री के सहयोग से बनाये गए पानी के टैंको से लगभग 50 लाख लीटर पानी संचय किया गया, जिसका उपयोग स्थानीय ग्रामीणों द्वारा पेयजल के रूप में, घरेलू कार्यों के उपयोग में, पशुओं को पिलाने के लिए और फल एवं सब्जियों की सिंचाई आदि में किया गया। जल संचय की उनकी इस मुहिम में रामगढ़ और धारी ब्लॉक के सूपी, पाटा, बूढीबना, देवटांडा, जयपुर, लोद, अल्मोड़ी, गल्ला, कोकिलबना आदि अनेकों गांवों के ग्रामीण शामिल होकर लाभ उठा चुके हैं।
स्थानीय कृषक महेश गलिया ने बताया कि “इस क्षेत्र में पानी की बहुत किल्लत है। पीने के पानी के लिये भी ग्रामीणों को जूझना पड़ता है। यदि किसी को गृह निर्माण आदि के लिये पानी चाहिये होता है तो उसे डेढ़ रुपया/लीटर पानी का मूल्य चुका कर टेंकर से पानी खरीदना पड़ता है।” वह आगे कहते हैं कि “मुझे अपने घर के निर्माण के दौरान उन्हें इन टैंकों की उपयोगिता का पता लगा।” महेश गालिया के पास तीन पानी के टैंक हैं, जिनमें हरेक की क्षमता लगभग 10 हजार लीटर है। इस तरह उन्होंने घर के निर्माण के लिए 30 हजार लीटर पानी इन टैंकों से इस्तेमाल किया और लगभग 45 हजार रुपये सिर्फ पानी के खर्च का बचा लिया। उन्होंने बताया कि जो टैंक घर के पास बनाये गये हैं उनके पानी का इस्तेमाल घर की जरूरतों, मवेशियों आदि के पीने के लिये होता है, जबकि खेतों के बीच में बनाये टैंकों के पानी से फलों के पौधों और मटर आदि सब्ज़ी को उगाने में सिंचाई के लिए प्रयोग किया जाता है। स्थानीय किसान हरि नयाल ने बताया कि “उन्हें स्वयंसेवी संगठन जनमैत्री के मार्फ़त 2007 के आसपास प्लास्टिक शीट मिली, जिसे उन्होंने गड्ढा खोदकर उससे पानी बचाया और पहले ही साल लगभग 30 हजार रुपये का खीरा पैदा किया।” हरि नयाल के अनुसार इस समय उनके पास 4 टैंक हैं, जिनमें वे लगभग 40 हजार लीटर तक पानी बचा लेते हैं। वे इस पानी का इस्तेमाल सेव, खुमानी, आड़ू, नाशपाती और मटर,आलू, खीरा आदि सब्जियों की सिंचाई में करते हैं। इस तरह बचाये हुये पानी से हरि नयाल सालाना लगभग 3-4 लाख रुपये का फल और सब्ज़ी का व्यवसाय करते हैं। हरि नयाल का कहना है कि इस तरह अपनी खेती करने से वे आत्मनिर्भर हैं ही, साथ ही नौकरी जैसी टेंसन से मुक्ति भी मिली है।
चूंकि इस तरह गड्डे खोदकर और उनमें प्लास्टिक शीट बिछाकर पानी बचाना शुरुआत में थोड़ा खर्चीला कार्य जरूर है और पहाड़ के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए उसकी व्यवस्था करना थोड़ा कठिन रहता है, इसलिए यदि सामुदायिक और सहकारी रूप में इस कार्य को किया जाय तो पहाड़ी क्षेत्र के ग्रामीणों के लिए जल का संचय करना कठिन कार्य नहीं रहेगा। संभव है कि वर्षा जल संग्रहण जैसा कदम पर्वतीय क्षेत्रों की उन्नति में मील का पत्थर साबित होगा। प्रधानमंत्री भी आज ‘आत्मनिर्भर’ होने की बात करते हैं। यदि पर्वतीय उत्तराखंड को ‘आत्मनिर्भर’ बनाना है तो उसके लिए सबसे पहला प्रयास जल का संचय कर हर ग्रामीण परिवार तक जल की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी। तभी इस ग्रामीण प्रदेश का समेकित विकास संभव है।
आज सोशल मीडिया हर आमोखास के लिए केवल अपनी बात मजबूती के साथ रखने का एक शक्तिशाली माध्यम मात्र नहीं रह गया है बल्कि यह एक शक्तिशाली हथियार का रूप भी ले चुका है। देश में चलने वाला किसान आंदोलन इस बात का सशक्त प्रमाण है। दरअसल सिंघु बॉर्डर और गाजीपुर बॉर्डर पर पिछले दो माह से भी अधिक समय से चल रहा किसान आंदोलन भले ही 26 जनवरी के बाद से दिल्ली की सीमाओं में प्रवेश नहीं कर पा रहा हो लेकिन ट्विटर पर अपने प्रवेश के साथ ही उसने अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को पार कर लिया। वैसे होना तो यह चाहिए था कि बीतते समय और इस आंदोलन को लगातार बढ़ते हुए अंतरराष्ट्रीय मंचो की उपलब्धता के साथ आंदोलनरत किसानों के प्रति देश भर में सहानुभूति की लहर उठती और देश का आम जन सरकार के खिलाफ खड़ा हो जाता। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। बल्कि इसी साल की जनवरी में एक अमेरिकी डाटा फर्म की सर्वे रिपोर्ट सामने आई जिसमें प्रधानमंत्री मोदी को भारत ही नहीं विश्व का सबसे लोकप्रिय और स्वीकार्य राजनेता माना गया। इस सर्वे में अमरीका फ्रांस ब्राज़ील जापान समेत दुनिया के 13 लोकतांत्रिक देशों को शामिल किया गया था जिसमें 75 फीसदी लोगों ने प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व पर भरोसा जताया है। लेकिन यहाँ प्रश्न प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता का नहीं है बल्कि किसान आंदोलन की विश्वसनीयता और देश के आम जनमानस के ह्रदय में उसके प्रति सहानुभूति का है। क्योंकि देखा जाए तो 26 जनवरी की हिंसा के बाद से किसान आंदोलन ने अपनी प्रासंगिकता ही खो दी थी और किसान नेताओं समेत इस पूरे आंदोलन पर ही प्रश्नचिन्ह लगने शुरू हो गए थे। क्योंकि जब 26 जनवरी को देश ने दिल्ली पुलिस के जवानों पर आंदोलनकारियों का हिंसक आक्रमण देखा तो इस आंदोलन ने देश की सहानुभूति भी खो दी। दरअसल देश इस बात को बहुत अच्छे से समझता है कि देश का किसान जो इस देश की मिट्टी को अपने पसीने से सींचता है वो देश के उस जवान पर कभी प्रहार नहीं कर सकता जो इस देश की आन को अपने खून से सींचता है। शायद यही कारण है कि जो सहानुभूति इस आंदोलन के लिए “आन्दोलनजीवी” इस देश में नहीं खोज पाए उस सहानुभूति को उनके द्वारा अब विदेश से प्रायोजित करवाने के प्रयास किए जा रहे हैं जिसमें ट्विटर जैसी माइक्रोब्लॉगिंग साइट और अन्य विदेशी मंचों का सहारा लिया जाता है।आइए कुछ घटनाक्रमों पर नज़र डालते हैं,
कुछ तथाकथित अंतरराष्ट्रीय सेलेब्रिटीज़ के द्वारा किसान आंदोलन के समर्थन में उनके द्वारा किए गए ट्वीट के बदले में उन्हें 2.5 मिलियन डॉलर दिए जाने की खबरें सामने आती हैं।
इन तथाकथित सेलेब्रिटीज़ में एक 18 साल की लड़की है और दो ऐसी महिलाएं हैं जो स्वयं अपने बारे में भी एक महिला की भौतिक देह से ऊपर उठ कर नहीं सोच पातीं। जब ऐसी महिलाएं किसान आंदोलन पर ट्वीट करके चिंता व्यक्त करती हैं तो कहने को कम और समझने के लिए ज्यादा हो जाता है।
इतना ही नहीं कथित पर्यावरणविद ग्रेटा थनबर्ग द्वारा पहले किसान आंदोलन से संबंधित टूलकिट को शेयर किया जाता है और फिर हटा लिया जाता है जो अपने आप में कई गंभीर सवालों को खड़ा कर देता है।
किसान आंदोलन में ट्विटर के इस प्रकार भ्रामक एवं लोगों की भावनाओं को भड़काने वाली जानकारी फैलाने वालों के खिलाफ सरकार के कहने के बाद भी कोई कार्यवाही नहीं करना। अब भारत सरकार ने ट्विटर पर आईटी एक्ट की धारा 69 ए के तहत कार्यवाही करने की चेतावनी दी है।
5.दरअसल सरकार ने ट्विटर को 1178 ट्विटर एकाउंट को यह कहते हुए बंद करने और उनके ट्वीट हटाने का निर्देश दिया था कि यह अकॉउंट खालिस्तान समर्थकों के हैं जिनका इस्तेमाल भड़काऊ और विवादित खबरें फैलाने के लिए किया जा रहा है। लेकिन ट्विटर द्वारा अपने नियम कायदों का हवाला देते हुए सरकार के निर्देशों की अनदेखी करना अब उसके लिए भारत में मुश्किलें पैदा कर सकता है ।
6.इससे पहले भी सरकार ट्विटर से 257 अकॉउंट बंद करने के लिए कहती है जिन्हें ट्विटर ने पहले ब्लॉक कर देता है लेकिन बाद में अनब्लॉक भी कर देता है।
हाल ही में अमेरिका की लोकप्रिय सुपर बाउल लीग के दौरान भी किसान आंदोलन से जुड़ा विज्ञापन चलाया जाता है जिसमें इसे “इतिहास का सबसे बड़ा प्रदर्शन” बताया जाता है।
8.इस बीच लेबर पार्टी के सांसद तनमजीत सिंह धेसी के नेतृत्व में 40 ब्रिटिश सांसदों द्वारा ब्रिटेन की सरकार पर भारत में चल रहे किसान आंदोलन को ब्रिटेन की संसद में उठाकर भारत पर दबाव बनाने का प्रयास किया जाता है लेकिन ब्रिटेन की सरकार इसे भारत का अंदरूनी मामला बताकर खारिज कर देती है।
9.किसान आंदोलन को लेकर कनाडा सरकार का रुख जगजाहिर है।
जाहिर है इन तथ्यों से देश में फॉरेन डिस्ट्रुक्टिव आइडियोलॉजी का प्रवेश तथा आन्दोलनजीवियों के हस्तक्षेप से इनकार नहीं किया जा सकता।
लेकिन किसान आंदोलन के पीछे चल रही इस राजनीति के बीच जब देश के कृषि मंत्री देश की संसद में यह खुलासा करते हैं कि पंजाब में जो कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एक्ट बना है उसमें करार तोड़ने पर किसान पर न्यूनतम पांच हजार रुपए जुर्माना जिसे पांच लाख तक बढ़ाया जा सकता है, इसका प्रावधान है जबकि केंद्र द्वारा लागू कृषि कानूनों में किसान को सजा का प्रावधान नहीं है तो कांग्रेस का दोहरा चरित्र देश के सामने रखते हैं। क्योंकि पंजाब में फार्मिंग कॉन्ट्रैक्ट का यह कानून 2013 में बादल सरकार ने पारित किया था। हैरत की बात है कि पंजाब की वर्तमान कांग्रेस सरकार ने केंद्र के कृषि क़ानूनों के विरोध में तो प्रस्ताव पारित कर दिया लेकिन पहले से जो फार्मिंग कॉन्ट्रैक्ट कानून पंजाब में लागू था जिसमें किसानों के लिए भी सज़ा का प्रावधान था उसे रद्द करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। इस प्रकार मूलभूत तथ्यों को दरकिनार करते हुए जब किसानों के हितों के नाम विपक्ष द्वारा की जाने वाली राजनीति देश विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देती हैं तो तात्कालिक लाभ तो दूर की बात है इस प्रकार के कदम यह बताते हैं कि विपक्ष में दूरदर्शी सोच का भी अभाव है। काश कि वो यह समझ पाते कि इस प्रकार के आचरण से कहीं उनकी भावी स्वीकार्यता भी न समाप्त हो जाए।
-अरविंद जयतिलक उत्तराखंड के चमोली जिले के नीती घाटी स्थित रैणी क्षेत्र में ग्लेशियर टूटने से मची तबाही में व्यापक स्तर पर जन-धन का नुकसान रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है कि हम पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर तनिक भी चिंतित नहीं हैं। इस हादसे में तकरीबन दो सैकड़ा से अधिक लोग लापता हुए हैं और अनेकों लोगों की जान गयी है। एनटीपीसी का तपोवन प्रोजेक्ट और ऋषि गंगाा हाइडेल प्रोजेक्ट पूरी तरह तबाह हो गया है। यह हृदयविदारक घटना वर्ष 2013 की केदारनाथ त्रासदी की याद दिलाती है जब चैराबाड़ी ग्लेशियर के टूटने से मंदाकिनी नदी ने विकराल रुप धारण कर लिया था जिसमें हजारों लोगों की जान गयी। अगर मानव समाज पर्यावरण के प्रति संवेदनशील हो तो शायद प्रकृति की ओर से भी ऐसी प्रतिक्रियात्मक विभिषिका देखने को नहीं मिलेगी। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिमालयी राज्यों में बार-बार ग्लेशियर टूटने और बर्फीले तूफान से जनधन की हानि हो रही है और उसके बचाव के लिए उपाय नहीं किए जा रहे हैं। उत्तराखंड राज्य की ही बात करें तो यहां की सरकारों ने ग्लेशियरों पर बनी समिति की सिफारिशों पर अब तक अमल नहीं किया। नतीजा हर वर्ष ग्लेशियर टूटकर मानव के लिए मौत का शबब बन रहे हैं। उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड सरकार द्वारा ग्लेशियरों को लेकर गठित विशेषज्ञ समिति ने 7 दिसंबर, 2006 को कई तातकालिक और दीर्घकालिक सिफारिशें की गयी लेकिन उस पर अभी तक अमल नहीं हुआ। इस सिफारिश में प्रदेश सरकार के आपदा प्रबंधन एवं पुनर्वास विभाग को सुझाव दिया गया था कि ग्लेशियरों से पैदा होने वाले खतरों से बचाव के लिए उपाय तलाशा जाए। इस सिफारिश में उन आबाद इलाकों को चिन्हित करने को कहा गया जो ग्लेशियरों से पैदा होने वाले खतरे से प्रभावित हो सकते हैं। इसके साथ ग्लेशियरों के पीछे खिसकने के हाइड्रोलाॅजिकल और क्लाइमेटोलाॅजिकल आंकड़े भी जमा किए जाने की सिफारिश की गयी। ऐसा इसलिए कि इन आंकड़ों के आधार पर ही आने वाली बाढ़ और ग्लेशियरों से पानी के बहाव की माॅनिटरिंग की जानी थी। यहीं नहीं इस सिफारिश में यह भी कहा गया कि प्रदेश में स्थापित होने वाले हर हाइड्रोप्रोजेक्ट के लिए नदियों के उदगम क्षेत्र में मौसम केंद्र स्थापित किए जाएं तथा भागीरथी घाटी की केदार गंगा और केदार बामक के आसपास के ग्लेशियल झीलों की माॅनिटरिंग की जाए। गौर करें तो इस तात्कालिक उपाय के अलावा कुछ दीर्घकालीन उपाए भी सुझाए गए। मसलन ग्लेशियरों एवं ग्लेशियल झीलों के बड़े परिमाण के मानचित्रों के साथ की इनवेंट्री बनायी जाए। माॅनिटरिंग सिस्टम को मजबूत करने के लिए एडब्ल्यूएस नेटवर्क के जरिए पर्यावरण एवं बर्फ, ग्लेशियल झीलों उनके बनने और संभावित खतरे की लगातार माॅनिटरिंग हो। साथ ही बर्फ के गलने और उस पर अवसाद तथा मलबे के भार का आंकलन हो। लेकिन इस दिशा में कारगर पहल नहीं हुआ। नतीजा सामने है। ग्लेशियरों के लगातार टूटने-पिघलने से दो-चार होना पड़ रहा है। दूसरी ओर सर्दियों के मौसम में बर्फीले तूफान का संकट भी बरकरार है। भारत का जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड समेत उत्तर-पूर्व के कई राज्य हिमालय की गोद में बसे हैं। ऐसे में यहां के लोगों की बर्फीले तूफान की चपेट में आने की संभावना बनी रहती है। यही नहीं भू-स्खलन और बादल फटने की घटनाएं भी सर्वाधिक रुप से इन्हीं राज्यों में होती है। इन घटनाओं में अब तक हजारों लोगों की जान जा चुकी है। पर्यावरणविदों का कहना है कि ग्लेशियरों के टूटने, बादल के फटने और बर्फीले तूफान के आने की प्रमुख वजहें जलवायु परिवर्तन, भारी हिमपात या फिर ऊंचे शोर की वजह से होता है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इन घटनाओं के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई और ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन भी जिम्मेदार है। सर्वाधिक चिंता की बात यह है कि हिमालयी क्षेत्रों में मानकों को ध्यान में रखे बगैर सैकड़ों बांधों का निर्माण हो रहा है। इन बांधों ने ग्लेशियरों की जड़ें हिला दी है। गोमुख से निकलने के बाद गंगा का सबसे बड़ा कैदखाना टिहरी जलाशय बन चुका है। इस जलाशय से कई राज्यों को पानी और बिजली की आपूर्ति होती है। यह भारत की सबसे बड़ी पनबिजली परियोजनाओं में से एक है। ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी कीमत गंगा को विलुप्त होकर चुकाना पड़ेगा। पर्यावरणविदों का कहना है कि गंगा पर इस बांध के बनाए जाने से जल प्रवाह में कमी आयी है जिससे गंगा में बहाए जा रहे कचरा, सीवर का पानी और घातक रसायनों का बहाव समुचित रुप से नहीं हो रहा है। पर्यावरणविदों का तर्क यह भी है कि गंगा पर हाइड्रो पाॅवर प्रोजेक्ट लगाने से पर्यावरणीय असंतुलन पैदा हो रहा है। एक अन्य शोध के मुताबिक गंगा पर प्रस्तावित सभी बांध अस्तित्व में आए तो गंगा का 39 फीसद हिस्सा झील बन जाएगा जिसका सबसे अधिक प्रतिकूल असर हिमालयी ग्लेशियरों पर पड़ेगा। दूसरी ओर ग्लोबल वार्मिंग के कारण एशियाई ग्लेशियरों के सिकुड़ने का खतरा बढ़ गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर पृथ्वी के तापमान में मात्र 3.6 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होती है तो आर्कटिक के साथ-साथ अण्टाकर्टिका के विशाल हिमखण्ड पिघल जाएंगे और समुद्र के जल स्तर में 10 इंच से 5 फुट तक वृद्धि हो जाएगी। इसका परिणाम यह होगा कि समुद्रतटीय नगर समुद्र में डूब जाएंगे। भारत की बात करें तो मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, पणजी, विशाखापट्टनम कोचीन और त्रिवेंद्रम नगर समुद्र में डूब जाएंगे। निश्चित रुप से मनुष्य के विकास के लिए प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का दोहन आवश्यक है लेकिन उसकी सीमा निर्धारित होनी चाहिए। किंतु ऐसा हो नहीं रहा है। जिस तरह बिजली उत्पादन के लिए नदियों के सतत प्रवाह को रोककर बांध बनाया जा रहा है उससे खतरनाक पारिस्थितिकीय संकट उत्पन हो गया है। जल का दोहन स्रोत सालाना रिचार्ज से कई गुना बढ़ गया है। पेयजल और कृषि जल का संकट गहराने लगा है। अगर ग्लेशियरों को बचाने की मुहिम तेज नहीं हुई तो सदी के अंत तक एशियाई ग्लेशियर अपने कुल भाग का एक तिहाई खत्म हो जाएंगे। वैज्ञानिकों का दावा है कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से आने वाले एक-दो वर्षों में आर्कटिक समुद्र की बर्फ पूरी तरह समाप्त हो जाएगी। इसका आधार वैज्ञानिकों द्वारा अमेरिका के नेशनल स्नो एंड आइस डाटा सेंटर की ओर से ली गयी सैटेलाइट तस्वीरे हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक आर्कटिक समुद्र के केवल 11.1 मिलियन स्क्वेयर किलोमीटर क्षेत्र में ही बर्फ बची है जो कि पिछले तीस साल के औसत 12.7 मिलियन स्क्वेयर किलोमीटर से कम है। उनका दावा है कि तेजी से बर्फ पिघलने से समुद्र भी गर्म होने लगा है। यह स्वाभाविक भी है कि जब बर्फ की मोटी परत नहीं होगी तो पानी सूर्य की किरणों को ज्यादा मात्रा में सोखेगी। अगर तापमान अपने मौजूदा स्तर पर स्थिर बना रहता है तब भी ग्लेशियर कई दशकों तक अनवरत गति से पिघलते रहेंगे। एक शोध के मुताबिक आर्कटिक क्षेत्र में आर्कटिक महासागर, कनाडा का कुछ हिस्सा, ग्रीनलैंड (डेनमार्क का एक क्षेत्र) रुस का कुछ हिस्सा, संयुक्त राज्य अमेरिका (अलास्का) आइसलैंड, नार्वे, स्वीडन और फिनलैंड में भी ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। हिमालय क्षेत्र में पिछले पांच दशकों में माउंट एवरेस्ट के ग्लेशियर 2 से 5 किलोमीटर सिकुड़ गए हैं और 76 फीसद ग्लेशियर चिंताजनक गति से सिकुड़ रहे हैं। वैज्ञानिकों ने उद्घाटित किया है कि कश्मीर और नेपाल के बीच गंगोत्री ग्लेशियर भी तेजी से सिकुड़ रहा है। पर्यावरणविदों का कहना है कि इस प्राकृतिक आपदा को टालना तो कठिन है लेकिन इससे होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। मसलन हिमालयी क्षेत्रों में अंधाधुंध वनों की कटाई पर रोक लगे, अनावश्यक बांधों का निर्माण न हो, हाइड्रोपाॅवर परियोजनओं की क्षमता का अध्ययन हो। दूसरी ओर स्कीईग रिजोर्ट जैसी जगहों पर छोटे विस्फोट के जरिए ग्लेशियरों को टूटने से रोका जाए। इस प्रक्रिया से ग्लेशियरों के एक तरफ खिसकने या टूटने की संभावना कम हो जाती है। बचाव का जो बेहतर तरीका है वह यह कि मानव जाति प्रकृति के साथ तादातम्य स्थापित करे। अन्यथा ग्लेशियरों के टूटने जैसी अनगिनत प्राकृतिक आपदा के संकट को टालना कठिन होगा।
इंदौर के कुछ प्रमुख व्यापारियों ने कल एक ऐसा काम कर दिखाया है, जिसका अनुकरण देश के सभी व्यापारियों को करना चाहिए। इंदौर के नमकीन और मिठाई व्यापारियों ने शपथ ली है कि वे अपने बनाए नमकीनों और मिठाइयों में किसी तरह की मिलावट नहीं करेंगे। वे इनमें कोई ऐसे घी, तेल और मसाले का उपयोग नहीं करेंगे, जो सेहत के लिए नुकसानदेह हो। यह शपथ मुंहजबानी नहीं है। 400 व्यापारी यह शपथ बाकायदा 50 रु. के स्टाम्प पेपर पर नोटरी करवाकर ले रहे हैं। इन व्यापारियों के संगठनों ने घोषणा की है कि जो भी व्यापारी मिलावट करता पाया गया, उसकी सदस्यता ही खत्म नहीं होगी, उसके खिलाफ त्वरित कानूनी कार्रवाई भी होगी। व्यापारियों पर नजर रखने के लिए इन संगठनों ने जांच-दल भी बना लिया है लेकिन मप्र के उच्च न्यायालय ने जिला-प्रशासन को निर्देश दिया है कि किसी व्यापारी के खिलाफ थाने में रपट लिखवाने के पहले उसके माल पर जांचशाला की रपट को आने दिया जाए। एक-दो व्यापारियों को जल्दबाजी में पकड़कर जेल में डाल दिया गया था। नमकीन और मिठाई का कारोबार इंदौर में कम से कम 800 करोड़ रु. सालाना का है। इंदौर की ये दोनों चीजें सारे भारत में ही नहीं, विदेशों में भी लोकप्रिय हैं। इनमें मिलावट के मामले सामने तो आते हैं लेकिन उनकी संख्या काफी कम है। महिने में मुश्किल से 8-10 ! लेकिन इन संगठनों का संकल्प है कि देश में इंदौर जैसे स्वच्छता का पर्याय बन गया है, वैसे ही यह खाद्यान्न शुद्धता का पर्याय बन जाए। इंदौर के व्यापारी लगभग 50 टन तेल रोज़ वापरते हैं। इनमें से 40 व्यापारी अपने तेल को सिर्फ एक बार ही इस्तेमाल करते हैं। इस्तेमाल किए हुए तेल को वे बायो-डीजल बनाने के लिए बेच देते हैं। यदि सारे देश के व्यापारी इंदौरियों से सीखें तो देश का नक्शा ही बदल जाए। इंदौर के व्यापारियों ने अभी सिर्फ खाद्यान्न की शुद्धता का रास्ता खोला है, यह रास्ता भारत से मिलावट, भ्रष्टाचार और सारे अपराधों को लगभग शून्य कर सकता है। इसने सिद्ध किया है कि कानून से भी बड़ी कोई चीज है तो वह है— आत्म-संकल्प! देश के करोड़ों लोग शराब नहीं पीते, मांस नहीं खाते, व्यभिचार नहीं करते तो क्या यह सब वे कानून के डर से नहीं करते ? नहीं। ऐसा वे अपने संस्कार, अपने संकल्प, अपनी पारिवारिक पंरपरा के कारण करते हैं। यदि देश के नेता और नौकरशाह भी स्वच्छता की ऐसी कोई शपथ ले लें तो इस देश की गरीबी जल्दी ही दूर हो जाएगी, भ्रष्टाचार की जड़ों में मट्ठा डल जाएगा और भारत महाशक्ति बन जाएगा।
-ः ललित गर्ग:- मनुष्य इस दुनिया का एक हिस्सा है या उसका स्वामी? वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न बन गया है क्योंकि मनुष्य के कार्य-व्यवहार से ऐसा मालूम होने लगा है, जैसे इस धरती पर जितना अधिकार उसका है, उतना किसी और का नहीं है- न वृक्षों का, न पशुओं का, न पक्षियों का, न नदियों-पहाड़ों का। मौजूदा समय में जब प्रकृति का दोहन एवं पशुओं पर बढ़ती क्रूरता चिंता का विषय बन गई है और वन क्षेत्र सिमटने से वन्यजीवों के समक्ष एवं ग्लेशियर के टूटने से मनुष्य जीवन का प्रश्न खड़ा हो गया है। अक्सर हम समाचार पत्रों में विभिन्न शोध-अनुुसंधान रिपोर्ट के आंकड़ों को देखते हैं कि किस तरह गिद्धों, कोवों, गौरैया, जुगनूओं आदि पक्षियों की संख्या लगातार घट रही हैं। यही हाल मधुमक्ख्यिों का हो रहा है। शोध बताते हैं कि यूरोपीय मधुमक्खियों की संख्या में तेजी से कमी आ रही है। मनुष्य अपने लोभ एवं लालच के लिये न केवल प्रकृति का दोहन कर रहा है, बल्कि प्रकृति, वन्यजीवों एवं पर्यावरण का भारी नुकसान पहुंचा रहा है। जंगल काटे जा रहे हैं। वन्यजीवों के रहने की जगहें उनसे छिनती जा रही हंै। उसी कारण वन्यजीवों की संख्या भी काफी कम हो चुकी है। इससे कुल मिलाकर प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है। जिसके कारण प्राकृतिक आपदाओं का आये दिन हमें सामना करना पड़ता है। ये वन्यजीव प्रकृति का हिस्सा है। अगर हम उन्हें नष्ट करते हैं तो जैव विविधता का समस्त तंत्र ही गड़बड़ा जाएगा। पशुओं को भी इस दुनिया में मनुष्यों की ही तरह खुलकर जीने का अधिकार है, इस सोच को आगे बढ़ाने की जरूरत है। अगर हमने पर्यावरण, वन्यजीवों एवं पक्षियों की हिफाजत नहीं की तो धरती पर बड़ा संकट आ सकता है। प्रकृति, पर्यावरण एवं वन्यजीवों से जुड़े एक शोध में चांैकाने वाला तथ्य सामने आया है कि मनुष्य ने 1970 से 2014 के पैंतालिस वर्षों में धरती से साठ प्रतिशत वन्य जीव, जंतु, कीट-पतंग लुप्त हो चुके हैं। अमेजन के जंगलों में बीस प्रतिशत भाग महज पिछले पचास वर्षों में मनुष्य आबादी में तब्दील हो चुका है। एक अन्य शोध के अनुसार तीन करोड़ वर्षों में समुद्र इतना तेजाबी नहीं हुआ जितना हाल के वर्षों के दौरान हुआ है। शोधकर्ता के कहने का आशय था कि इस धरा पर मनुष्य की मौजूदगी बीस लाख वर्षों से है। लेकिन बढ़ती आबादी, शहरीकरण, जंगलों का सिकुड़ते, समुद्र का दूषित होते जाना इन वन्य जीव, जंतु, कीट-पतंग के विलुप्ति की वजह बना है। प्रकृति की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह अपनी चीजों का उपभोग स्वयं नहीं करती। जैसे-नदी अपना जल स्वयं नहीं पीती, पेड़ अपने फल खुद नहीं खाते, फूल अपनी खुशबू पूरे वातावरण में फैला देते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि प्रकृति किसी के साथ भेदभाव या पक्षपात नहीं करती, लेकिन मनुष्य जब प्रकृति से अनावश्यक खिलवाड़ एवं दोहन करता है तब उसे गुस्सा आता है। जिसे वह समय-समय पर सूखा, बाढ़, सैलाब, चक्रावात, ग्लेशियर का टूटना, तूफान के रूप में व्यक्त करते हुए मनुष्य को सचेत करती है। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से तरह-तरह के प्राकृतिक हादसों की आशंकाएं लगातार जताई जाती रही है, हाल ही में उत्तराखंड के चमोली जिले में ग्लेशियर टूटने से भारी तबाही जितनी दुखद है, उतनी ही चिंताजनक भी। हमें इस दुखद घड़ी में फिर एक बार प्रकृति, वन्यजीवों एवं पक्षियों के साथ हो रहे खिलवाड़ पर विचार करना चाहिए। यह बार-बार कहा जाता रहा है कि धरती गर्म हो रही है। ग्रीन हाउस गैसों का बढ़ता उत्सर्जन हमें चुनौती दे रहा है। हिमालय को वैसे भी बहुत सुरक्षित पर्वतों में नहीं गिना जाता। पिछले दशकों में यहां ग्लेशियर तेजी से पिघलते चले जा रहे हैं। नदियों के अस्तित्व पर सवाल खड़े होने लगे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि ग्लेशियर को पिघलने से रोकने के लिए जितनी कोशिश होनी चाहिए, नहीं हो पा रही है। इतना ही नहीं, पहाड़ों पर उत्खनन और कटाई का सिलसिला लगातार जारी है। पहाड़ों पर लगातार निर्माण और मूलभूत ढांचे, जैसे सड़क, सुविधा निर्माण से खतरा बढ़ता चला जा रहा है। बहुत दुर्गम जगहों पर मकान-भवन निर्माण से जोखिम का बढ़ना तय है। जब पहाड़ों पर सुविधा बढ़ रही है, तब वहां रहने वाले लोगों की संख्या भी बढ़ रही है। हमने मैदानों का परिवेश तो बिगाड़ा ही, अब पहाड़ों पर भी विनाश करने को तत्पर है। पहाड़ों पर न केवल बसने को लालायिक है बल्कि वहां उद्योग लगा रहे हैं, होटल व्यवसाय पनपा रहे हैं। इसका असर पहाड़ों पर साफ तौर पर दिखने लगा है। जहां पहाड़ों पर हरियाली हुआ करती थी, वहां कंक्रीट के जंगल नजर आने लगे हैं, नतीजा सामने है। समय-समय पर पहाड़ और ग्लेशियर हमें रुलाने लगे हैं। इस हादसे के बाद हमें विशेष रूप से पहाड़ों और प्रकृति के बारे में ईमानदारी से सोचने की शुरुआत करनी चाहिए। पर्यावरण रक्षा के नाम पर दिखावा अब छोड़ देना चाहिए। प्रकृति और मनुष्य के बीच बहुत गहरा संबंध है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। मनुष्य के लिए धरती उसके घर का आंगन, आसमान छत, सूर्य-चांद-तारे दीपक, सागर-नदी पानी के मटके, वन्यजीव संतुलित पर्यावरण और पेड़-पौधे आहार के साधन हैं। इतना ही नहीं, मनुष्य के लिए प्रकृति से अच्छा गुरु नहीं है। आज तक मनुष्य ने जो कुछ हासिल किया वह सब प्रकृति से सीखकर या प्रकृति से पाया है। न्यूटन जैसे महान वैज्ञानिकों को गुरुत्वाकर्षण समेत कई पाठ प्रकृति ने सिखाए हैं तो वहीं कवियों ने प्रकृति के सान्निध्य में रहकर एक से बढ़कर एक कविताएं लिखीं। इसी तरह आम आदमी ने प्रकृति के तमाम गुणों को समझकर अपने जीवन में सकारात्मक बदलाव किए। दरअसल प्रकृति हमें कई महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाती है। जैसे-पतझड़ का मतलब पेड़ का अंत नहीं है। इस पाठ को जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में आत्मसात किया उसे असफलता से कभी डर नहीं लगा। ऐसे व्यक्ति अपनी हर असफलता के बाद विचलित हुए बगैर नए सिरे से सफलता पाने की कोशिश करते हैं। वे तब तक ऐसा करते रहते हैं जब तक सफलता उन्हें मिल नहीं जाती। इसी तरह फलों से लदे, मगर नीचे की ओर झुके पेड़ हमें सफलता और प्रसिद्धि मिलने या संपन्न होने के बावजूद विनम्र और शालीन बने रहना सिखाते हैं। उपन्यासकार प्रेमचंद के मुताबिक साहित्य में आदर्शवाद का वही स्थान है, जो जीवन में प्रकृति का है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि प्रकृति में हर किसी का अपना महत्व है। एक छोटा-सा कीड़ा भी प्रकृति के लिए उपयोगी है, जबकि मत्स्यपुराण में एक वृक्ष को सौ पुत्रों के समान बताया गया है। इसी कारण हमारे यहां वृक्ष पूजने की सनातन परंपरा रही है। पुराणों में कहा गया है कि जो मनुष्य नए वृक्ष लगाता है, वह स्वर्ग में उतने ही वर्षो तक फलता-फूलता है, जितने वर्षो तक उसके लगाए वृक्ष फलते-फूलते हैं। प्रकृति की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह अपनी चीजों का उपभोग स्वयं नहीं करती। जैसे-नदी अपना जल स्वयं नहीं पीती, पेड़ अपने फल खुद नहीं खाते, फूल अपनी खुशबू पूरे वातावरण में फैला देते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि प्रकृति किसी के साथ भेदभाव या पक्षपात नहीं करती, लेकिन मनुष्य जब प्रकृति से अनावश्यक खिलवाड़ करता है तब उसे गुस्सा आता है। जिसे वह समय-समय पर सूखा, बाढ़, सैलाब, तूफान के रूप में व्यक्त करते हुए मनुष्य को सचेत करती है। वन्यजीवों एवं जंगलों में कुछ जादुई संसार एवं रोमांच होता है। जीवन के अनेकानेक सुख, संतोष और रोमांच में से एक यह भी है कि हम कुछ समय के लिए अपने को भुलाकर जंगलों में कहीं खो जाएं, लेकिन इसका अर्थ जंगलों को विनाश की आग में झोंक देना कत्तई न हो। यह एक हकीकत है कि दुनिया में बहुत सारे पशु-पक्षी हैं, जिनके कारण इंसान का जीवन न केवल आसन बनता है, बल्कि उनका होना मनुष्य जीवन में अभिन्न रूप से जुड़ा है। चैंकाने वाला तथ्य है कि धरती का मात्र पच्चीस प्रतिशत भाग ऐसा बचा है, जहां मनुष्य की गतिविधि न के बराबर है। आशंका व्यक्त की जा रही है कि सन् 2050 में घटकर यह क्षेत्र दस प्रतिशत रह जाने वाला है। पृथ्वी की अपनी अलार्म घड़ी है, जो पूरी मानवजाति को जगाने की कोशिश कर रही है। अब भी हम अगर नहीं जागे तो आने वाली पीढ़ी को कैसी बदसूरत दुनिया विरासत में देकर जाएंगे, यह सोचकर ही सिहरन होती है।
बसंत के मौसम में बांकेलाल के चेहरे की रौनक बौराई अमराई और गदराई सरसों की तरह दिख रहीं थी। आमतौर पर उनके चेहरे की रौनक बुझी सी दिखती थी। ‘वेलेंटाइन दिवस’ पर मसाज पार्लर से निकलते देख हमने उन्हें छेड़ ही दिया। क्या हाल हैं जनाब ! आजकल बदले-बदले से दिख रहे हैं। क्या इरादा है ‘वेलेंटाइन’ की बिजली किस पर गिरेगी ?…अरे ! आप तो पचपन में भी बचपन से लग रहे हैं।
बांकेलाल ने कहा हूँ, आप भी पूरे बुडबक़ हैं जी। अरे क्या गुनाह कर डाला हमने खबरीलालजी। वह बोल पड़े, अरे! बसंत का मौसम है, आपको कुछ दीखता नहीं। आँख के अंधे हैं क्या सावन में भी हरियाली नहीं दिखती। मुझ पर तंज कसते हुए बोले, ‘अन्हरा बांटे सिन्नी देख-देख’। दुनिया की खबर आप लेते हैं और बदले मौसम का हाल मुझसे पूछते हैं।
बांकेलाल ने कहा देखिए, वैसे भी हमारे यहाँ चार ऋतुएं होती हैं। गर्मी, जाड़ा और बरसात, लेकिन उसमें भी कई उप ऋतुएं होती हैं। आपको महाकवि जायसी के बारे में पता ही होगा। उन्होंने ‘चौमासा’ को ‘बारहमासा’ बना दिया और प्रेम के महाकाव्य ‘पद्ममावत’ की रचना कर डाली। आपको शायद पता नहीं है खबरीलालजी, अपने मुलुक में अपनी जरुरत के अनुसार फ़िजाएं बनायी और बिगाड़ी जाती है यानी मन मुताबित ‘बसंत’ तैयार किया जाता है।
अब देखिए रोज-डे, चाकलेट-डे, टैडी बियर-डे, प्रॉमिस-डे, हग-डे, किस-डे और वेलेंटाइन-डे जैसे अनगिनत ‘डे’ हैं जनाब। वैसे भी अपनी इच्छा के अनुसार मौसम बनाए और बिगाड़े जाते हैं। देश में लोकतंत्र है यहाँ सबको अपने-अपने इजहार की आजादी है। वैसे भी आजकल लोगों को आजादी से कुछ अधिक ही इश्क हो गया है। जब भी जी करता है आजादी… आजादी करने लगते हैं।
खबरीलालजी, हमारे देश में अनेका नेक दिन और मौसम होते हैं। जैसे प्रदर्शन-डे, आंदोलन-डे ,चुनावी-डे, एग्जाम-डे, बड्ड-डे, एनवरसरी-डे, अनशन-डे, मैरिज-डे आदि। अब हम आपको जीवी और जीविता का उदाहरण समझाते हैं। हमारे आसपास बुद्धजीवी के साथ-साथ काफी संख्या में ‘कांदा’ और ‘बटाटाजीवी’ भी हैं। हमारी युवा पीढ़ी ‘डाटाजीवी’ हो गईं है। हमारे आसपास तो काफी ‘परजीवी’ भी विद्यमान हैं। हालांकि हमारे बांकेलाल जी ‘भाषणजीवी’ प्रजाति से आते हैं।
‘वेलेंटाइन-डे’ पर अपनी ‘भाषणजीविता’ को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा देखिए, खबरीलालजी ! वैलेंटाइन-डे यानी ‘इजहार-ए-इश्क’ की तैयारियां जोरों पर हैं। ‘इश्कजीवी’ अभी से खुद को ‘प्री-प्लांड’ में लगा रखा है। मसलन मासूका से किस होटल, रिशॉर्ट, बीच और पार्क में मिलाना है उसकी तैयारी में लगे हैं। अपनी ‘लैला’ को किस अंदाज में गुलाब देना है और ‘इश्क’ का इजहार किस अनूठे किस्म से करना है जैसे विषयों सब पर ‘रिहर्सल’ शुरू हो गया है।कई ‘इश्कजीवियों’ ने तो चुनावों की तरह बाकायदा ‘लव प्रोफ़ेशनलों’ को ‘हायर’ कर लिया है।
उधर शहर के ‘सांस्कृतिक रक्षादल’ के लोग भी छुट्टे सांडो की तरह अखाड़ रहे हैं। उन्होंने इश्कजीवियों के लिए ‘हज्जाम’ के साथ ‘गधे’ भी ले रखे हैं। साल के 365 दिन बांकेलाल को कोई कभी भी ‘इजहार-ए-इश्क’ से नहीं रोकता। वे खुलेमन से ‘इश्कजीवी’ परम्परा को आगे बढ़ाते हुए शहर की चलती मेट्रो, पार्क, बीच और सड़क पर खुलेमन से ‘संत वैलेंटाइन’ की आराधना में समर्पित रहते हैं। लेकिन तब कभी उन्हें किसी ‘संस्कृति रक्षकजीवि’ ने नहीं रोका। लेकिन सत्ता विरोधियों की तरह आजकल ‘इश्क विरोधियों’ की भी फौज तैयार हो गईं है। ‘संत वैलेंटाइन’ का मिशन आगे बढ़ता नहीं देखना चाहती। वह इश्कजीवियों को देखते ही पिल पड़ती है। वे सरकार की ‘एफडीआई’ नीति को भूल ‘स्वदेशी’ बन जाते हैं।
अब क्या बताएं ‘वैलेंटाइन-डे’ पर बेचारे बांकेलाल अपने कालेज की एक सहपाठी को वैलेंटाइन का गुलाब देने पार्क में पहुंच गए। कालेज के दिनों की मासूका को जैसे ही गुलाब भेंट कर बीते दिनों की याद करना चाहा तभी ‘सिर मुड़ाते ही ओले पड़’ गए। बेचारे बांकेलाल ‘संस्कार’ और ‘संस्कृतिवादियों’ के राडार पर आ गए। फिर क्या था धुनाई के बाद सिरमुड़ाई हुई और कालीखपोत ‘गधे’ पर बिठा जुलूसजीवि बना दिया गया। इश्कजीविता वीडियो भी ‘सोशलमीडिया’ पर वायरल होने लगा। कुछ घंटों में यह वीडियो बांकेलाल की धर्मपरायाण पत्नी यानी भाभी जी के मोबाइल तक पहुंच गया।
अब घर में दाखिला लेते ही बेचारे बांकेलाल का इश्कियाँ वाला भूत उतर चुका था। भाभी ने वायरल वीडियो दिखा कर सवालों की झड़ी लगा दिया। ‘वेलेंटाइन’ के विशेष अवसर को देखते हुए बांकेलाल जैसे पतियों से पीड़ित भाभियों के ग्रुप ने ‘वेलेंटाइन-डे’ पर विशेष ‘बेलन बेबिनार’ का आयोजन किया था। अब बांकेलाल का ‘वेलेंटाइन-डे’ ‘बेलन-डे’ में तब्दील हो चुका था। बेलन हमले का सीधा प्रसारण हो रहा था। इश्क में लुटे-पीटे बेचारे बांकेलाल की पिक्चर बिगड़ चुकी थी। ‘इश्कजीविता’ के लाभ हेतु उनका अस्पताल में दाखिला हो चुका था। ‘इश्क’ में लुटे पीटे बांकेलाल ने ‘वेलेंटाइन-डे’ से ताउम्र तौबा-तौबा करने की कसम खाई थी।
ग्यारह दौर की वार्त्ता, निरंतर किसानों से संपर्क और संवाद साधे रखने के प्रयास, उनकी हर उचित-अनुचित माँगों को मानने की पेशकश, यहाँ तक की कृषि-क़ानून को अगले डेढ़ वर्ष तक स्थगित रखने के प्रस्ताव के बावजूद सरकार और किसानों के मध्य गतिरोध ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। सरकार बार-बार कह रही है कि वह किसानों से महज़ एक कॉल की दूरी पर है। बातचीत के लिए सदैव तैयार एवं तत्पर है, फिर भी किसान-नेता आंदोलन पर अड़े हुए हैं? असहयोग आंदोलन के दौरान चौरी-चौरा में हुई हिंसक घटना के शताब्दी वर्ष पर यह सवाल स्वाभाविक ही होगा कि किसानों-मज़दूरों-विद्यार्थियों-दलितों आदि के नाम पर आए दिन होने वाले इन हिंसक आंदोलनों से आख़िर देश को क्या हासिल होता है?
26 जनवरी को आंदोलन के नाम पर कथित किसानों ने जो किया उसके बाद तो यह तय हो गया कि उनका नेतृत्व कर रहे नेताओं की नीयत में शुरू से ही खोट था। यह सर्वविदित है कि 26 जनवरी 1950 हम भारतीयों के लिए ऐतिहासिक महत्त्व रखता है। यह न केवल प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला राष्ट्रीय पर्व है, अपितु यह हमारी समृद्ध गणतंत्रात्मक विरासत, राष्ट्रीय एकात्मता एवं अखंडता का जीवंत प्रतीक है। यह दिवस स्वराज एवं स्वतंत्रता के लिए हमारे त्याग, बलिदान, संघर्ष एवं साहस की कही-अनकही अनगिन पवित्र सुधियाँ समेटे है। और ठीक इसी प्रकार लालकिले का भी अपना एक इतिहास है, अपनी गौरव-गाथा है। वह ईंट-गारे-चूने-पत्थर से बना महज़ एक किला ही नहीं, बल्कि हमारे राष्ट्रीय गौरव एवं स्वाभिमान का प्रतीक है।
जिस प्रकार इन कथित किसानों ने लाल किले को निशाना बनाया, तिरंगे को अपमानित किया, पुलिस-प्रशासन पर हिंसक हमले किए, बच्चों-महिलाओं आम लोगों तक को नहीं बख़्शा, जैसे नारों-झंडों-भाषाओं का इस्तेमाल किया, जिस प्रकार वे लाठी-डंडे-फरसे-कृपाण से लैस होकर सड़कों पर उग्र प्रदर्शन करते दिखाई दिए- वे सभी स्तब्ध एवं व्यथित करने वाले हैं। बल्कि उनमें से कुछ तो अपने हाथों में बंदूक तक लहरा रहे थे। ऐसे में किसी के लिए भी यह विश्वास करना कठिन है कि ये किसान हैं और हमारे देश के किसान ऐसे भी हो सकते हैं? यहाँ तक कि उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए दिशानिर्देशों एवं ट्रैक्टर-रैली निकालने से पूर्व सरकार से किए गए वायदों की भी खुलेआम धज्जियाँ उड़ाईं। उन्होंने इन सबको करने के लिए जो दिन चुना, वह भी अपने भीतर गहरे निहितार्थों को समाविष्ट किए हुए है। देश जानना चाहता है कि गणतंत्र-दिवस का ही दिन क्यों? कथित किसानों के परेड की ज़ुनूनी ज़िद क्यों? और जब वे दावा कर रहे थे कि किसानों द्वारा तिरंगे को सलामी देने में हर्ज ही क्या है तो फिर लालकिला पर हिंसक हमला व उपद्रव क्यों? उस लालकिले पर जिसके प्राचीर से प्रधानमंत्री हर वर्ष 15 अगस्त को देश को संबोधित करते हैं और हमारी आन-बान-शान के प्रतीक राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को फहराते हैं। भारतवर्ष जब ब्रिटिश उपनिवेश से स्वतंत्र होकर एक संप्रभु-लोकतांत्रिक देश बना तो तत्कालीन प्रधानमंत्री ने पहली बार लाल किले पर ही तिरंगा फहराया था। लालकिले ने इससे पूर्व भी आक्रांताओं के हमलों के बहुत-से ज़ख्म और घाव झेले हैं। पर उसका ताज़ा ज़ख्म व घाव उससे कहीं गहरा एवं मर्मांतक है, क्योंकि यह अपनों की ओट लेकर दिया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इन तथाकथित किसानों ने लालकिले पर 26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय-दिवस पर जैसा उपद्रव-उत्पात मचाया है, किले के गुंबदों को जो क्षति पहुँचाई है उससे लोकतंत्र शर्मसार हुआ है। उससे पूरी दुनिया में हमारी छवि धूमिल हुई है, हमारे मस्तक पर हमेशा-हमेशा के लिए कलंक का टीका लगा है। और उससे भी अधिक विस्मयकारी यह है कि अभी भी कुछ नेता, सामाजिक-राजनीतिक संगठन, तथाकथित बुद्धिजीवी इस हिंसक आंदोलन को जन-आंदोलन की संज्ञा देकर महिमामंडित करने की कुचेष्टा कर रहे हैं।
सच तो यह है कि 26 जनवरी को हुई हिंसा सुनियोजित षड्यंत्रों की त्रासद परिणति थी। कोई आश्चर्य नहीं कि इस षड्यंत्र में देश-विरोधी बाहरी और भीतरी शक्तियों की संलिप्तता हो। यह वास्तव में किसी भी राष्ट्र की प्रभुसत्ता को सीधी चुनौती है। इससे पूर्व भी 15 अगस्त, 2020 को लाल किले पर खालिस्तानी झंडा फहराने के लिए सिख फॉर जस्टिस नाम के खालिस्तानी आतंकी संगठन ने लोगों को भड़काने का प्रयास करते हुए ऐसा करने पर भारी रकम तक देने की पेशकश की थी। यद्यपि पुलिस की सतर्कता के बल पर तब ऐसा संभव नहीं हो सका, परंतु उससे एक दिन पूर्व वे मोगा के एक प्रशासनिक भवन पर खालिस्तानी झंडा फहराने में सफल रहे। मोगा में ही 15 अगस्त को एक गुरुद्वारे पर खालिस्तानी झंडा फहराया गया था। कुछ दिनों बाद हरियाणा के सिरसा से भी ऐसी ख़बरें आईं। 4 अक्टूबर को भी शंभू टोल प्लाजा पर खालिस्तानी झंडा फहराने पर आतंकी संगठन द्वारा इनाम देने की घोषणा की गई। इन सब छिटपुट प्रयासों के बाद अंततः 26 जनवरी 2021का दिन भारतीय लोकतंत्र को कलंकित करने एवं हमारी प्रभुसत्ता को सीधी चुनौती देने के लिए पुनः चुना गया और इस बार यह कुचक्र किसान-आंदोलन की आड़ में चला गया। इसके लिए बड़ी आयोजना से सोशल मीडिया का दुरुपयोग किया गया। फेसबुक-ट्विटर आदि के माध्यम से लोगों को हिंसक आंदोलन के लिए भड़काया गया, 26 जनवरी का विशेष एवं ऐतिहासिक दिवस चुना गया ताकि पूरी दुनिया का ध्यान आकृष्ट किया जा सके, एक चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार को अस्थिर किया जा सके, उसकी साख़ और विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा किया जा सके, संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर तमाम वैश्विक संस्थाओं एवं मित्र देशों की सरकारों की निगाहों में उसे बदनाम किया जा सके, उसे मानवाधिकारों को दबाने और कुचलने वाला बताया जा सके। उनकी तैयारी का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने इन प्रयासों के लिए देश-विदेश की तमाम प्रसिद्ध हस्तियों तक से संपर्क साधा, उनका सहयोग लिया। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, ब्रिटेन आदि देशों में लगातार अभियान चलाए। भले ही सितारा हैसियत वाली हस्तियों को आंदोलन का चेहरा बनाए जाने से इनकी साख़ को बट्टा लगा हो, पर इतना तो तय है कि रेहाना, मियाँ ख़लीफ़ा, ग्रेटा थनबर्ग जैसी हस्तियों का सहयोग उन्हें बिना मूल्य चुकाए तो मिला नहीं होगा? मुस्कान तक बेचने की कला एवं अदा में माहिर इन चमकते-दमकते सितारा चेहरों ने कथित किसानों की पीड़ा से पसीजकर ट्वीट किया है, यह एक नितांत वायवीय, रूमानी-सा ख़्याल है! हाँ, किसानों के प्रति इनकी संवेदना तब कुछ मायने भी रखती, जब ये भारत की माटी, मन-मिजाज़ से नाम मात्र को भी परिचित होते। एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग के हालिया ट्वीट से सामने आए दिशानिर्देशों, कार्यक्रमों एवं योजनाओं ने इन षड्यंत्रकारियों की कलई खोलकर रख दी है। चहुँ ओर हो रही आलोचना और नेपथ्य की कथा-पटकथा के उज़ागर हो जाने की आशंका में ग्रेटा से वह ट्वीट भले ही डिलीट करवा लिया गया हो, पर इससे इस आंदोलन के पीछे की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय साज़िशों का पर्दाफ़ाश तो हुआ ही है। यह सब देखते-जानते-समझते हुए भी यदि अब भी हम इसे भोले-भाले, मासूम किसानों-अन्नदाताओं का आंदोलन कह रहे हैं तो या तो हम निरा भोले हैं या नितांत धूर्त्त। राजनीति की पाठशाला का ककहरा जानने वाला व्यक्ति भी यह देख-जान-समझ सकता है कि किसान-आंदोलन दिशाहीन हो चुका है, इसका सूत्र अब नेपथ्य के खिलाड़ियों के हाथों में है, वही बिसात बिछा रहा है, वही चालें चल रहा है और दाँव पर अब केवल मोदी सरकार ही नहीं, बल्कि देश और दुनिया का सबसे प्राचीन, विशाल एवं महान लोकतंत्र लगा है। यदि हम अब भी नहीं चेते तो सचमुच देर हो जाएगी। अवसर की ताक में घात लगाकर बैठीं देश-विरोधी ताक़तें अपना मतलब-मक़सद साधेंगी। ऐसी हिंसा, अराजकता, उच्छृंखलता, स्वेच्छाचारिता और पुलिस-प्रशासन, क़ानून-व्यवस्था, राज्य-राजधानी को अपहृत करने, बंधक बनाने की बढ़ती प्रवृत्ति अंततः हमारे देश और लोकतंत्र पर भारी पड़ेगी। इसलिए सरकार के साथ-साथ अब आम नागरिक-समाज को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। सर्वसाधारण और प्रबुद्ध वर्ग को एक साथ आगे आकर ऐसी निरंकुश एवं अराजक प्रवृत्तियों का पुरज़ोर खंडन करना पड़ेगा और हर हाल में राष्ट्रीय एकता, अखंडता एवं संप्रभुता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अपना-अपना योगदान देना पड़ेगा।
किसी ने सच ही कहा है कि कुछ लोग सिर्फ समाज बदलने के लिए जन्म लेते हैं और समाज का भला करते हुए ही खुशी से मौत को गले लगा लेते हैं. उन्हीं में से एक हैं दीनदयाल उपाध्याय, जिन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी समाज के लोगों को ही समर्पित कर दी. पंडित दीनदयाल उपाध्याय को साहित्य से एक अलग ही लगाव था शायद इसलिए दीनदयाल उपाध्याय अपनी तमाम जिन्दगी साहित्य से जुड़े रहे. उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे. केवल एक बैठक में ही उन्होंने ‘चंद्रगुप्त नाटक’ लिख डाला था. दीनदयाल ने लखनऊ में राष्ट्र धर्म प्रकाशन नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए एक मासिक पत्रिका राष्ट्र धर्म शुरू की. बाद में उन्होंने ‘पांचजन्य’ (साप्ताहिक) तथा ‘स्वदेश’ (दैनिक) की शुरुआत की.
दीनदयाल उपाध्याय एक विचारक, प्रचारक, विस्तारक, राष्ट्रषि, संपादक, पत्रकार अर्थशास्त्री,समाजसेवी, एक प्रखर वक्ता, शिक्षाविद तथा अपूर्व संगठनकर्ता थे। उन्होंने अहोरात्र भारत माता की सेवा करते-करते अपने जीवन को होम कर दिया। दीनदयाल जी ने लेखन तथा संपादन की शिक्षा, आज के महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों से नहीं लिया था। उन्होंने ‘आर्गेनाइजर में ‘पॉलिटिकल डायरी तथा ‘पांचजन्य में ‘विचार- विथि नाम से नियमित स्तंभों का लेखन किया। उन्होंने भारतीय सभ्यता-संस्कृति पर होने वाले प्रहारों से व्यथित होकर लेखनी को चुना। वे लेखकों के लेखक तथा संपादकों के संपादक थे। जिनके मार्गदर्शन में मा. अटलबिहारी वाजपेयी, राजीव लोचन अग्निहोत्री, देवेन्द्र स्वरूप तथा भानुप्रताप शुक्ल ने पत्रकारिता के क ख और ग को सीखा।
आज जहां पत्रकारिता मिशन, प्रोफेशन से चलकर कमीशन में बदल गयी है। ऐसे समय में दीनदयाल उपाध्याय और पत्रकारिता के प्रति उनकी विहंगम सामाजिक दृष्टि का महत्व और बढ़ जाता है। आज जहां ‘पेड न्यूजों की चारों तरफ भरमार हैं समाचार-विचार पर विज्ञापन तथा कमीशन रूपी बाजार का बोलबाला है ऐसे समय मूल्यपरक पत्रकारिता हेतु दीनदयाल जी की प्रासंगिक और बढ़ जाती है।
समग्र अथवा एकात्म दृष्टि से मानव जीवन के सभी आयामों को देखने ,समझने और जीने की अदभुत क्षमता के धनी थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय . पत्रकारिता को भी उन्होंने इसी दृष्टि से एक दिशा दीA वे स्वयं कभी संपादक या औपचारिक संवादाता नहीं रहे A उन्होंने संपादकों एवं संवादाताओं को सजीव सान्निध्य एवं सहचर्य प्रदान किया A तभी संपादक व पत्रकार उन्हें सहज ही अपना मित्र एवं मार्गदर्शक मानते थे .
पत्रकार के नाते आदरणीय पंडित जी का योगदान अनुकरणीय था A वे पत्रकार थे किंतु कार्ल मार्क्स ने जिस श्रेणी को जर्नलिस्टिक थिंकर कहा है,उस श्रेणी में आप नहीं थे .. उनकी पत्रकारिता केवल समकालीन परिस्थितियों में ही उपयुक्त हो ,ऐसी नहीं थी A उनकी पत्रकारिता तो सुदूर भविष्य तक उपयोगी रहने वाली पत्रकारिता थी .
पत्रकारिता और लेखक समाचार व लेख के बीच बड़ी बारीक रेखा है। यदि किसी ने कुछ लिख दिया और उस पर टिप्पणी हो गई तथा कुछ जनता के लिए संदेष हो गया, वह समाचार बन जाता है और सिर्फ अपने ही विचारों को व्यक्त करता लेख व्यक्तित्व लेख बन जाता है, जैसे लेख, लेखक, पत्रकारिता, समाचार के बीच बहुत बारीक रेखा है, ठीक उसी प्रकार की बारीक रेखा दीनदयालजी के चरित्र में थी। पंडितजी आज की परिभाषा में पत्रकार नहीं थे। क्योंकि आज पत्रकार कौन है, जिसने किसी काॅलेज, यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता की परीक्षा पास की हो, उसके बिना कोई अपने समाचार-पत्र में पत्रकार भरती करेगा ही नहीं। लेकिन इससे पहले समय था कि प्रभाकर जैसे और बड़े-बड़े पत्रकार हो गए, जिन्होंने कोई डिग्री नहीं ली, चेलापतिराय जैसे। उस श्रेणी में दीनदयालजी परोक्ष रूप से पत्रकार माने जा सकते हैं।
उनकी गणना उस समय के प्रतिष्ठित पत्रकारों में भी होती थी। उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व को समझने के लिए सर्वप्रथम यह बात ध्यान में रखनी होगी कि दीनदयाल जी उस युग की पत्रकारिता का प्रतिनिधित्व करते थे जब पत्रकारिता एक मिशन होने के कारण आदर्श थी, व्यवसाय नहीं।
स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अनेक नेताओं ने पत्रकारिता के प्रभावों का उपयोग अपने देश को स्वतंत्रता दिलाकर राष्ट्र के पुनर्निमाण के लिए किया। विशेषकर हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषायी पत्रकारों में खोजने पर भी ऐसा सम्पादक शायद ही मिले जिसने अर्थोपार्जन के लिए पत्रकारिता का अवलम्बन किया हो।
किसी भी प्रकार के लेखन के प्रति उनकी दूरदृष्टि रहती थी, अपने एक लेख के माध्यम से दीनदयाल जी कहते हैं- चुगलखोर और संवाददाता में अंतर है। चुगली जनरुचि का विषय हो सकती है, किन्तु सही मायने में वह संवाद नहीं है। संवाद को सत्यम्, शिवम् और सुंदरम् तीनों आदर्शों को चरितार्थ करना चाहिए। केवल सत्यम् और सुंदरम् से ही काम नहीं चलेगा। सत्यम् और सुंदरम् के साथ संवाददाता शिवम् अर्थात कल्याणकारी का भी बराबर ध्यान रखता है। वह केवल उपदेशक की भूमिका लेकर नहीं चलता । वह यथार्थ के सहारे वाचक को शिवम् की ओर इस प्रकार ले जाता है की शिवम् यथार्थ बन जाता है। संवाददाता न तो शून्य में विचरता है और न कल्पना जगत की बात करता है। वह तो जीवन की ठोस घटनाओं को लेकर चलता है और उसमें से शिव का सृजन करता है।”
पिछले लगभग 200 वर्षों की पत्रकारिता के इतिहास पर यदि हम गौर करें तो स्पष्ट हो जाता है कि इस इतिहास पर विभाजन रेखा खींच दी जाती है, स्वतन्त्रता के पहले की पत्रकारिता और स्वतंत्रता के बाद की पत्रकारिता। स्वतंत्रता के पहले की पत्रकारिता को कहा जाता है कि वह एक व्रत था और स्वतंत्रता के बाद की पत्रकारिता को कहा जाता है कि वह एक वृत्ति है। यानी व्रत समाप्त हो गया है और वृत्ति आरम्भ हो गई। जो दोष आज हम पत्रकारिता में देखते हैं, उनकी तरफ दीनदयाल जी अपने बौद्धिक और लेखों के माध्यम से ईशारा किया करते थे।
वर्तमान पत्रकारिता का जब हम अवलोकन करते हैं तो उपरोक्त कथन ठीक मालूम पड़ता है कि पत्रकारिता वृत्ति बन गई है। दीनदयाल जी आजादी के बाद के पत्रकारों में भी थे। लेकिन आजादी के बाद भी दीनदयाल जी पत्रकारों के पत्रकार और सम्पादकों के सम्पादक थे। उनकी पत्रकारिता में उन वृत्तियों का कहीं पता नहीं चलता है। यहां तक कि कोई लक्षण भी देखने को नहीं मिलता है जिनसे आज की पत्रकारिता ग्रसित है।
पंडित दीनदयालजी निःसंदेह एक महान पत्रकार थे। वे पेटू पत्रकार नहीं थे। वे चाटुकार नहीं थे। वे लकीर के फकीर नहीं थे। वे आत्मसाक्षात्कारी थे। अपनी पैनी लेखनी द्वारा आत्मा की आवाज ही प्रस्फुटित करते थे। इसलिए उनकी लिखी बातें पाठकों के हृदय को छू जाती थीं। उनका लेखन कभी उथला या छिछला नहीं रहा। हर छोटी बड़ी घटना में वे चिरंतन मूल्य खोजते थे और उन्हें शब्दांकित करते थे। लिखते समय मानो उनकी समाधि लग जाती थी। जनकल्याण व देषहित उनकी लेखनी में हमेषा सर्वोपरि रहता था।
उनकी जीवनी का मंत्र चरैवेति रहा। दीनदयाल जी ने पत्रकारिता द्वारा अपने लेखन के रूप में भारत को भारत से परिचय कराया A ऐसे विलक्षण ,मनीषी और पत्रकार थे दीनदयालA स्वतंत्र भारत में मिशनरी पत्रकारिता के अग्रणी पुरुष दीनदयाल जी ने जो नींव डाली थी, उसी पर आगे बढ़ते हुए अक्षरशः हजारों पत्रकार भारत के अगले दौर की यात्रा का पथ निर्माण कर रहे हैं A सही अर्थों में दीनदयाल जी संपादकों के संपादक थे, भारतीय पत्रकारिता के लिए वे आज भी प्रेरणा पुंज हैं और उनकी पत्रकारिता रूपी दृष्टि आज भी वर्तमान समय के हिसाब से शत – प्रतिशत प्रासांगिक सिद्ध होती है A
40वीं वर्षगांठ मना रहे भारत भवन की देहरी में खुशियों ने एक फिर दस्तक दी है. ये खुशी कुछ-कुछ अनायस है और कुछ सायस. साल-दर-साल अपना वैभव खोते भारत भवन एक बार फिर चर्चा में है तो इसलिए कि उसने अपने उस कलाकार को पाहुना बनाया है जिसने कभी इसी भारत भवन में ईंट-गारा उठाने का काम किया था. इस पाहुना का नाम है भूरी बाई. भूरी बाई को आज पूरा भारत जानने लगा है. यह स्वाभाविक भी है कि फर्श से अर्श तक पहुंचने वाली भूरी बाई के हिस्से उसके भीतर बसे कलाकार ने उसे ऊंचाई दी. कभी ईंट-गारा ढोने वाली भूरी बाई के नाम के साथ पद्मश्री जुड़ गया है.
भूरी बाई को पद्म सम्मान मिलना मध्यप्रदेश के लिए गौरव की बात है. मध्यप्रदेश की छाप एक उत्सवी राज्य के रूप में रही है. इसी राज्य की पहचान भारत भवन भी है. दुनिया में भोपाल की एक पहचान कला गृह भारत से है.एक संस्था के लिए, खासतौर पर जिसकी तूती दुनिया भर में बोलती थी, उसके लिए 40 साल का सफर बहुत मायने रखती है. भूरीबाई को मिले पद्म सम्मान और उसे घर का पाहुना बनाकर बुलाने की यह रस्मअदायगी खूबसूरत है. दिल को छू लेने वाली है. हालांकि यह नहीं भूलना चाहिए कि एक समय था जब राजनीति में चमकने के लिए भारत भवन में हस्तक्षेप करना भी जरूरी माना जाता था. भारत भवन में जमने और जमाने की राजनीति पुरानी हो गई और आहिस्ता-आहिस्ता भारत भवन किनारे कर दिया गया. कभी विवादों से भारत भवन का चोली-दामन का रिश्ता था. अखबार और पत्रिका की सुर्खियों में भारत भवन हुआ करता था. अब वह महज एक आयोजक संस्था के रूप में अपनी पहचान रखता है. यह संजोग है कि भारत भवन का 40वां वर्षगांठ और उस भवन के हर ईंट पर भूरी बाई की समायी यादें. दोनों के लिए यह वक्त बेमिसाल है. भारत भवन की एक-एक ईंट अपनी उस कलाकार का बेसब्री से इंतजार कर रही है जिसने कभी खाली समय में ईंट के टुकड़ों से मन में डूबती-उतरती रेखाओं को आकार दिया करती थी. तब किसी को इस बात का इल्म भी नहीं था कि ईंट के टुकडों से चित्र को आकार देने वाली भूरीबाई कला आसमां का सितारा बनकर चमकने लगेगी. लेकिन ऐसा होना था क्योंकि जौहरी ही हीरे की पहचान रखता है. कला गुरु जगदीश स्वीमनाथन केवल भारत भवन को आकार देने वाले लोगों में नहीं थे बल्कि वे हर उस हुनरमंद को स्पेस देने लिए तलाश कर रहे थे जो उनकी कसौटी पर खरा उतरे. इन्हीं में एक भूरीबाई थी. स्वामीनाथन एक दूरदर्शी कला पारखी थे और उन्होंने भूरी बाई की कला समझ को देखा और जो भूरी बाई चित्र बनाती थी उसे स्वामीनाथन ने कलाकार बना दिया. कलाकार और कला गुरु के इस अनाम ने रिश्ते ने भारत भवन को अलहदा बनाया. यह सारा वाकया 80 के दशक का है. आज से कोई 40 साल पहले जब घनघोर आदिवासी इलाके से रोजी-रोटी की तलाश में भोपाल आया था. तब भारत भवन उनके लिए एक बिल्डिंग से ज्यादा कुछ न था. उन्हें तब इस बात की तसल्ली थी कि चलो, यहां काम तो मिला लेकिन तकदीर का लेखा था कि खरामा-खरामा भूरी बाई की कला परवान चढ़ती गई और इसी कला ने उसे आम से खास बना दिया. पद्म सम्मान से सम्मानित भूरीबाई. भूरी बाई के अतीत में थोड़ा सा झांकना होगा. जब ऐसा करेंगे तो पाएंगे कि भूरी बाई का जीवन इतना सहज नहीं था. भारत भवन मजदूरी करने गई तो उसे 6 रुपये मजदूरी मिलती थी. तब स्वामीनाथन जी ने उन्हें दस रुपये दिए। भूरी बाई को यकीन ही नहीं हो रहा था कि कोई 6 के बदले दस रुपये दे सकता है और वह भी चित्र बनाने के. भारत के अलावा राष्ट्रीय मानव संग्रहालय और वन विहार भी निर्माण की स्थिति में था तो कभी वहां भी मजदूरी करने भूरी बाई चली जाती थी. इन दोनों जगहों में मजदूरी तो मिली लेकिन पारखी गुरु भारत भवन में ही मिला. चित्र बनाने के एवज में दस दिन की मजदूरी 150 रुपये लेकर पहली बार घर पहुंची तो महाभारत हो गया. पति को लगा कि इतने पैसे कैसे मिल सकते हैं? घर के दूसरे लोगों ने भी ऐतराज जताया. यहां फिर गुरु स्वामीनाथन खड़े थे. पति को भारत भवन में चौकीदार बना दिया, इस हिदायत के साथ कि वह पत्नी भूरी बाई की भी चौकीदारी करे. खैर, वह समय गुजर गया. भूरी बाई अपनी पेंटिग के बारे में बताती हैं कि गोंड पेंटिंग में रेखाओं का इस्तेमाल बहुतायत में होता है। गेरू, नील जैसे रंगों से मैं बचपन से घर की दीवारों को रंगती थी। आस-पास का जीवन मेरी पेंटिंग में उतर आता है। यही चटख रंग मेरी पेंटिंग में उतर आता है। भूरीबाई की चित्रों में जो चटख रंग है, आज उसकी जिंदगी को रंगीन बना रहे हैं. मध्यप्रदेश शासन का शिखर, सम्मान, देवी अहिल्या सम्मान सम्मानित सात समुंदर पार भी भीली चित्रकार के रूप में भूरी बाई जानी जाती हैं. मुझे याद आता है कि तब दूरदर्शन भोपाल के पाहुना प्रोग्राम में इंटरव्यूय के लिए भूरी बाई को साथ ले गया था. उसके चेहरे पर इतनी चमक थी कि लाईट रिफलेक्ट कर रही थी. तब पावडर से चेहरे की चमक को कुछ कम कर प्रोग्राम रिकार्ड किया गया. बाद के दिनों में उन्हें स्कीन की समस्या हो गई थी. तब कला अध्येता और भूरी बाई के साथ ही पद्म सम्मान से नवाजे जाने वाले कपिल तिवारी ने मदद कर उन्हें नयी जिंदगी दी. भूरी बाई जिस परिवेश से आती है, वहां और उसके लिए कोई सम्मान मायने नहीं रखता है. यह जनपदीय समाज है जो सम्मान से कला को तौलता है. यकिनन मध्यप्रदेश शासन के शिखर सम्मान से नवाजे जाने के बाद अपनी कला में मगन लोगों ने भूरी बाई को बिसरा दिया था. 40 साल के इस पूरे दौर में कोई दो दशक से भूरी बाई हाशिये में भले ही ना हो लेकिन पद्मश्री से सम्मानित होने के बाद जिस तरह उन्हें हाथों-हाथ लिया जा रहा है, वह मौका तो शायद मध्यप्रदेश शासन के सर्वोच्च कला सम्मान मिले जाने के बाद ही आया हो. अब चर्चा इसलिए भी स्वाभाविक है कि जिस पद्म सम्मान को पाने के लिए लोग तरस जाते हैं, वह पद्म सम्मान उन्हें लेने आया था. भूरी बाई की सादगी लोगों का मन मोह लेती है. इनकी जिंदगी कितनी सहज और सरल है, यह जानना है तो शम्पा शाह की लिखी उस पंक्तियों को भी स्मरण में रखें जब वे लिखती हैं कि-जब भूरीबाई को लोगों ने बताया कि उन्हें शिखर सम्मान मिला है तो वह अपने पति जोहरसिंह से कहती हैं-घर पर तो सब सामान है, फिर ये क्या दे रहे हैं? बमुश्किल उन्हें समझाया गया कि यह समान नहीं, सम्मान है. ये सादगी हर उस कलाकार की होती है जो जमीन से जुड़ा होता है. यह सादगी उनकी कला में बसती है और आज इसी सादगी की प्रतिमूर्ति भूरी बाई को पाहुना बनाकर भारत भवन स्वयं को धन्य समझ रहा होगा. होना भी चाहिए.
स्वामी दयानन्द सरस्वती जन्म जयन्ती-12 फरवरी 2021 पर विशेष -ः ललित गर्ग:- महापुरुषों की कीर्ति किसी एक युग तक सीमित नहीं रहती। उनका लोकहितकारी चिन्तन त्रैकालिक, सार्वभैमिक एवं सार्वदेशिक होता है और युग-युगों तक समाज का पथदर्शन करता है। स्वामी दयानंद सरस्वती हमारे समाज एवं राष्ट्र के ऐसे ही एक प्रकाश स्तंभ हैं, जिन्होंने न केवल धर्मक्रांति की बल्कि राष्ट्रक्रांति के भी वे प्रेरक बने। जिस युग में उन्होंने जन्म लिया उस समय देशी-विदेशी प्रभाव से भारतीय संस्कृति संक्रमण के दौर से गुजर रही थी और उसका पतन आरंभ हो गया था। उन्होंने भयाक्रांत, आडम्बरों में जकड़ी और धर्म से विमुख जनता को अपनी आध्यात्मिक शक्ति और सांस्कृतिक एकता से संबल प्रदान किया। वे उन महान संतों-महापुरुषों में अग्रणी हैं जिन्होंने देश में प्रचलित अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, विभिन्न प्रकार के आडंबरों व सभी अमानवीय आचरणों का विरोध किया। वे आधुनिक भारत के महान् चिन्तक, समाज सुधारक, क्रांतिकारी धर्मगुरु व देशभक्त थे। हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता देने तथा हिंदू धर्म के उत्थान व इसके स्वाभिमान को जगाने हेतु स्वामीजी के महत्वपूर्ण योगदान के लिए भारतीय जनमानस सदैव उनका ऋणी रहेगा। स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी सन् 1824 में काठियावाड़ क्षेत्र (जिला राजकोट), गुजरात में टंकरा नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता का नाम कृष्णजी लालजी तिवारी और माँ का नाम यशोदाबाई था। उनके पिता एक कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के एक अमीर, समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। दयानंद सरस्वती का असली नाम मूलशंकर था और उनका प्रारम्भिक जीवन बहुत आराम से बीता। आगे चलकर एक पण्डित-मनीषी बनने के लिए वे संस्कृत, वेद, शास्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गए। महर्षि दयानन्द के हृदय में आदर्शवाद की उच्च भावना, यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति, मातृभूमि को नई दिशा देने का अदम्य उत्साह, धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक व राजनैतिक दृष्टि से युगानुकूल चिन्तन करने की तीव्र इच्छा तथा भारतीय जनता में गौरवमय अतीत के प्रति निष्ठा जगाने की भावना थी। उन्होंने किसी के विरोध तथा निन्दा की परवाह किये बिना हिन्दू समाज का कायाकल्प करना अपना ध्येय बना लिया था। स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 में गिरगांव मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज के नियम और सिद्धांत प्राणिमात्र के कल्याण के लिए है, संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। उन्होंने वेदों की सत्ता को सदा सर्वोपरि माना। स्वामीजी ने कर्म सिद्धान्त, पुनर्जन्म, ब्रह्मचर्य तथा संन्यास को अपने दर्शन के चार स्तम्भ बनाया। उन्होने ही सबसे पहले 1876 में ‘स्वराज्य’ का नारा दिया जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया। सत्यार्थ प्रकाश के लेखन में उन्होंने भक्ति-ज्ञान के अतिरिक्त समाज के नैतिक उत्थान एवं समाज-सुधार पर भी जोर दिया उन्होंने समाज की कपट वृत्ति, दंभ, क्रूरता, अनाचार, आडम्बर, एवं महिला अत्याचार की भत्र्सना करने में संकोच नहीं किया। उन्होंने धर्म के क्षेत्र में व्याप्त अंधविश्वास, कुरीतियों एवं ढकोसलों का विरोध किया और धर्म के वास्तविक स्वरूप को स्थापित किया। उनके जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं हुईं, जिन्होंने उन्हें हिन्दू धर्म की पारम्परिक मान्यताओं और ईश्वर से जुड़ी भ्रान्त धारणाओं को बदलने के लिये विवश किया। एक बार शिवरात्रि को स्वामी दयानन्द सरस्वती ने देखा कि शिवजी के लिए रखे भोग को चूहे खा रहे हैं। यह देख कर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ और सोचने लगे कि जो ईश्वर स्वयं को चढ़ाये गये प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकता वह मानवता की रक्षा क्या करेगा? इस बात पर उन्होंने अपने पिता से बहस की और तर्क दिया कि हमें ऐसे असहाय ईश्वर की उपासना नहीं करनी चाहिए। अपनी छोटी बहन और चाचा की हैजे के कारण हुई मृत्यु से वे जीवन-मरण के अर्थ पर गहराई से सोचने लगे और वे 1846 में सत्य की खोज मे निकल पड़े। गुरु विरजानन्द के पास पहुंचे। गुरुवर ने उन्हें पाणिनी व्याकरण, पातंजलि-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा- विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, मत-मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। यही तुम्हारी गुरुदक्षिणा है। महर्षि दयानन्द ने अनेक स्थानों की यात्रा की। उन्होंने हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर पाखण्ड खण्डिनी पताका फहराई। उन्होंने अनेक शास्त्रार्थ किए। वे कलकत्ता में बाबू केशवचन्द्र सेन तथा देवेन्द्र नाथ ठाकुर के संपर्क में आए। केशवचन्द्र सेन ने स्वामीजी को यह सलाह दे डाली कि यदि आप संस्कृत छोड़ कर हिन्दी में बोलना आरम्भ करें, तो देश का असीम उपकार हो सकता है। तभी से स्वामीजी ने हिन्दी में उपदेश देना प्रारंभ किया, इससे विभिन्न प्रान्तों में उन्हंे असंख्य अनुयायी मिलने लगे। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ईसाई और मुस्लिम धर्मग्रन्थों का भली-भांति अध्ययन-मन्थन किया था। उन्होंने ईसाइयत और इस्लाम के विरूद्ध मोर्चा खोला, सनातनधर्मी हिंदुओं के खिलाफ संघर्ष किया। इस कारण स्वामीजी को तरह-तरह की परेशानियां झेलनी पड़ी, अपमान, कलंक और कष्ट झेलने पड़े। संघर्ष उनके लिये अभिशाप नहीं, वरदान साबित हुआ। आंतरिक आवाज वही प्रकट कर सकता है जो दृढ़ मनोबली और आत्म-विजेता हो। दयानन्द ने बुद्धिवाद की जो मशाल जलायी थी, उसका कोई जवाब नहीं था। वे जो कुछ कह रहे थे, उसका उत्तर न तो मुसलमान दे सकते थे, न ईसाई, न पुराणों पर पलने वाले हिन्दू पण्डित और विद्वान। हिन्दू नवोत्थान अब पूरे प्रकाश में आ गया था और अनेक समझदार लोग मन ही मन अनुभव करने लगे थे कि वास्तव में पौराणिक धर्म की पोंगापंथी में कोई सार नहीं है। इस तरह धर्म के वास्तविक स्वरूप से जन-जन को प्रेरित करके उन्होंने एक महान् क्रांति घटित की। उनकी इस धर्मक्रांति का सार था कि न तो धर्मग्रंथों में उलझे और न ही धर्म स्थानों में। उनके धर्म में न स्वर्ग का प्रलोभन था और न नरक का भय, बल्कि जीवन की सहजता और मानवीय आचार संहिता का ध्रूवीकरण था। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने न केवल धर्मक्रांति की बल्कि परतंत्रता में जकड़े देश को आजादी दिलाने के लिये राष्ट्रक्रांति का बिगुल भी बजा दिया। इसके लिये उन्होंने हरिद्वार पहुँच कर वहां एक पहाड़ी के एकान्त स्थान पर अपना डेरा जमाया। वहीं पर उन्होंने पाँच ऐसे व्यक्तियों से मुलाकात की, जो आगे चलकर सन् 1857 की क्रान्ति के कर्णधार बने। ये पांच व्यक्ति थे नाना साहेब, अजीमुल्ला खां, बाला साहब, तात्या टोपे तथा बाबू कुंवर सिंह। बातचीत काफी लम्बी चली और यहीं पर यह तय किया गया कि फिरंगी सरकार के विरुद्ध सम्पूर्ण देश में सशस्त्र क्रान्ति के लिए आधारभूमि तैयार की जाए और उसके बाद एक निश्चित दिन सम्पूर्ण देश में एक साथ क्रान्ति का बिगुल बजा दिया जाए। सन् 1857 की क्रान्ति की सम्पूर्ण योजना भी स्वामीजी के नेतृत्व में ही तैयार की गई थी और वही उसके प्रमुख सूत्रधार भी थे। वे अपने प्रवचनों में श्रोताओं को प्रायः राष्ट्रवाद का उपदेश देते और देश के लिए मर मिटने की भावना भरते थे। उन्होंने यह अनुभव किया कि लोग अब अंग्रेजों के अत्याचारी शासन से तंग आ चुके हैं और देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करने को आतुर हो उठे हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज के माध्यम से समाज-सुधार के अनेक कार्य किए। छुआछूत, सती प्रथा, बाल विवाह, नर बलि, धार्मिक संकीर्णता तथा अन्धविश्वासों के विरुद्ध उन्होंने जमकर प्रचार किया और विधवा विवाह, धार्मिक उदारता तथा आपसी भाईचारे का उन्होंने समर्थन किया। इन सबके साथ स्वामीजी लोगों में देशभक्ति की भावना भरने से भी कभी नहीं चूकते थे। प्रारम्भ में अनेक व्यक्तियों ने स्वामीजी के समाज सुधार के कार्यों में विभिन्न प्रकार के विघ्न डाले और उनका विरोध किया। धीरे-धीरे उनके तर्क लोगों की समझ में आने लगे और विरोध कम हुआ। उनकी लोकप्रियता निरन्तर बढ़ने लगी। उनके विराट व्यक्तित्व को किसी उपमा से उपमित करना उनके व्यक्तित्व को ससीम बनाना होगा। उनकी जन्म जयन्ती मनाने की सार्थकता तभी है जब हम उनके बताये मार्ग पर चलते हुए गुणवत्ता एवं जीवनमूल्यों को जीवनशैली बनाये। प्रेषक
वित्तीय वर्ष 2021-22 के लिए संसद में दिनांक 1 फ़रवरी 2021 को प्रस्तुत किए गए बजट के बाद भारतीय रिज़र्व बैंक ने दिनांक 5 फ़रवरी 2021 को मौद्रिक नीति की घोषणा की है। इस वर्ष राजकोषीय नीति को विस्तारवादी बनाया गया है ताकि आर्थिक विकास को गति दी जा सके। केंद्र सरकार द्वारा वित्तीय वर्ष 2021-22 के बजट में 5.54 लाख करोड़ रुपए के पूंजीगत ख़र्चों का प्रावधान किया गया है। जबकि वित्तीय वर्ष 2020-21 में 4.12 लाख करोड़ रुपए के पूंजीगत ख़र्चों का प्रावधान किया गया था। इस प्रकार वित्तीय वर्ष 2021-22 में पूंजीगत ख़र्चों में 34.46 प्रतिशत की वृद्धि दृष्टीगोचर होगी। वित्तीय वर्ष 2020-21 में केंद्र सरकार विभिन्न मदों पर कुल मिलाकर 30.42 लाख करोड़ रुपए का भारी भरकम ख़र्च करने जा रही है और इस ख़र्चे को करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा बाज़ार से 12 लाख करोड़ रुपए का सकल उधार लिया जाएगा। चूंकि निजी क्षेत्र अभी अर्थव्यवस्था में निवेश को बढ़ाने की स्थिति में नहीं है अतः अर्थव्यवस्था को तेज़ गति से चलायमान रखने के उद्देश्य से केंद्र सरकार अपने पूंजीगत ख़र्चों में भारी भरकम वृद्धि करते हुए अपने निवेश को बढ़ा रही है। इस प्रकार वित्तीय वर्ष 2021-22 में केंद्र सरकार निवेश आधारित विकास करना चाह रही है। इस सब के लिए तरलता की स्थिति को सुदृढ़ एवं ब्याज की दरों को निचले स्तर पर बनाए रखना बहुत ज़रूरी है और यह कार्य भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा मौद्रिक नीति के माध्यम से आसानी किया जा सकता है। भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा दिनांक 5 फ़रवरी 2021 को घोषित की गई मौद्रिक नीति के माध्यम से इसका प्रयास भी किया गया है।
भारतीय रिजर्व बैंक ने दिनांक 5 फ़रवरी 2021 को घोषित की गई मौद्रिक नीति में लगातार चौथी बार नीतिगत दरों में कोई बदलाव नहीं किया है। भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने रुख को नरम रखा है। दिसंबर 2020 में भी आरबीआई ने नीतिगत दरों को यथावत रखा था। मार्च और मई 2020 में रेपो रेट में लगातार दो बार कटौती की गई थी। भारतीय रिजर्व बैंक के इस एलान के बाद रेपो रेट 4 फीसदी और रिवर्स रेपो रेट 3.35 फीसदी पर बनी रहेगी। रेपो रेट वह दर है, जिस पर भारतीय रिज़र्व बैंक अन्य बैंकों को ऋण प्रदान करता है। भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर श्री शक्तिकांत दास ने मौद्रिक नीति का एलान करते हुए कहा है कि मौद्रिक नीति समिति ने सर्वसम्मति से रेपो रेट को बरकरार रखने का फैसला किया है। साथ ही भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर ने वित्त वर्ष 2021-22 में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर 10.5 प्रतिशत रहने का अनुमान जताया है। वित्त वर्ष 2021-22 का बजट पेश होने के बाद यह भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा घोषित की गई पहली मौद्रिक नीति है। भारतीय रिज़र्व बैंक ने हालांकि फरवरी 2020 से अब तक रेपो रेट में 1.15 फीसदी की कटौती की है। साथ ही, चालू वित्त वर्ष 2020-21 की चौथी तिमाही जनवरी-मार्च 2021 में खुदरा महंगाई दर का लक्ष्य संशोधित कर 5.2 प्रतिशत कर दिया है। इस मौद्रिक नीति में यह भी बताया गया है कि महंगाई की दर में कमी आई है और यह अब 6 प्रतिशत के सह्यता स्तर (टॉलरेंस लेवल) से नीचे आई है। यह भी कहा गया है कि आज समय की मांग है कि अभी विकास दर को प्रोत्साहित किया जाय।
भारतीय रिज़र्व बैंक ने मौद्रिक नीति में नरम रूख रखते हुए यह दर्शाया है कि आगे आने वाले समय में ब्याज दरों में कमी की जा सकती है। दरअसल बजट में की गई कई घोषणाओं से भारतीय अर्थव्यवस्था में विस्तार देखने को मिलेगा, अतः तरलता को बनाए रखना आवश्यक होगा इसलिए ब्याज की दरें भी कम रखनी होंगी। इस प्रकार मौद्रिक नीति अब देश की राजकोषीय नीति का सहयोग करती दिख रही है। मौद्रिक नीति में नरम रूख अपनाना एक अच्छी नीति है क्योंकि कम ब्याज दरों पर ऋण उपलब्ध होने से ऋण की मांग बढ़ती है।
विशेष रूप से कोरोना महामारी के बाद से देश की अर्थव्यवस्था कठिनाई के दौर से गुज़र रही है। केंद्र सरकार एवं भारतीय रिज़र्व बैंक तालमेल से कार्य कर रहे हैं यह देश के हित में है। सामान्यतः खुदरा महंगाई दर के 6 प्रतिशत (टॉलरन्स रेट) से अधिक होते ही भारतीय रिज़र्व बैंक रेपो रेट में वृद्धि के बारे में सोचना शुरू कर देता हैं। परंतु वर्तमान की आवश्यकताओं को देखते हुए मुद्रा स्फीति के लक्ष्य में नरमी बनाए रखना ज़रूरी हो गया है क्योंकि देश की विकास दर में तेज़ी लाना अभी अधिक ज़रूरी है। मुद्रा स्फीति के लक्ष्य के सम्बंध में यह नरमी आगे आने वाले समय में भी बनाए रखी जानी चाहिये। वर्तमान परिस्थितियों में विकास पर फ़ोकस करना ज़रूरी है। वैसे भी अभी खुदरा महंगाई दर 5.2 प्रतिशत ही रहने वाली है, जो सह्यता स्तर से नीचे है।
दूसरे, केंद्र सरकार की वित्तीय वर्ष 2021-22 में भारी मात्रा में बाज़ार से क़र्ज़ लेने की योजना है ताकि बजट में किए गए ख़र्चों सम्बंधी वायदों को पूरा किया जा सके। इसलिए भी भारतीय रिज़र्व बैंक के लिए यह आवश्यक है कि मौद्रिक नीति में नरम रूख अपनाए और ब्याज दरों को भी कम करने का प्रयास करे। अन्यथा की स्थिति में बजट ही फैल हो सकता है। रेपो रेट को बढ़ाना मतलब केंद्र सरकार द्वारा बाज़ार से उधार ली जाने वाली राशि पर अधिक ब्याज का भुगतान करना। वैसे वर्तमान में तो भारतीय अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ी मात्रा में तरलता उपलब्ध है।
अब तो कोरोना की बुरी आशकाएं भी धीरे धीरे समाप्त होती जा रही हैं अतः व्यापारियों एवं उद्योगपतियों का विश्वास भी वापिस आ रहा है। सरकार ने बजट में ख़र्चे को बहुत बड़ा पुश दिया है और अब सरकार निवेश आधारित विकास करना चाहती है और इस ख़र्चे एवं निवेश का क्रियान्वयन केंद्र सरकार ख़ुद लीड कर रही है। वितीय सिस्टम में न तो पैसे की कमी है और न ब्याज की दरें बढ़ी हैं। अतः इन अनुकूल परिस्थितियों का फ़ायदा उठाने का प्रयास केंद्र सरकार भी कर रही है जिसका पूरा पूरा फ़ायदा देश की अर्थव्यवस्था को होने जा रहा है।
सामान्यतः देश में यदि मुद्रा स्फीति सब्ज़ियों, फलों, आयातित तेल आदि के दामों में बढ़ोतरी के कारण बढ़ती है तो रेपो रेट बढ़ाने का कोई फ़ायदा भी नहीं होता है क्योंकि रेपो रेट बढ़ने का इन कारणों से बढ़ी क़ीमतों को कम करने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। अतः यदि देश में मुद्रा स्फीति उक्त कारणों से बढ़ रही है तो रेपो रेट को बढ़ाने की कोई ज़रूरत भी नहीं हैं। साथ ही विनिर्माण क्षेत्र में स्थापित क्षमता का 60 प्रतिशत से कुछ ही अधिक उपयोग हो पा रहा है जब तक यह 75-80 प्रतिशत तक नहीं पहुंचता है तब तक निजी क्षेत्र अपना निवेश नहीं बढ़ाएगा और इस प्रकार मुद्रा स्फीति में वृद्धि की सम्भावना भी कम ही है। मुद्रा स्फीति पर ज़्यादा सख़्त होने से देश की विकास दर प्रभावित होगी, जो कि देश में अभी के लिए प्राथमिकता है। हालांकि अभी हाल ही में विनिर्माण के क्षेत्र में स्थापित क्षमता के उपयोग में सुधार हुआ है और यह इस वित्त वर्ष 2020-21 की दूसरी तिमाही (जुलाई-सितम्बर 2020) में 63.3 प्रतिशत रहा है जो पहली तिमाही (अप्रेल-जून 2020) में 47.3 प्रतिशत था। इस प्रकार अर्थव्यवस्था में रिकवरी और तेज हुई है।
वित्तीय वर्ष 2021-22 के बजट में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग को भी मदद देने की बात की गई है क्योंकि यही क्षेत्र कोरोना महामारी के दौरान सबसे अधिक प्रभावित हुआ था। इन क्षेत्रों में काम करने वाले अधिकतम लोग बेरोज़गार हो गए थे अतः इस क्षेत्र को शून्य प्रतिशत की ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराए जाने की बात की जा रही है। साथ ही इस क्षेत्र को तरलता से सम्बंधित किसी भी प्रकार की समस्या न हो इस बात का ध्यान रखा जाना ज़रूरी है। यह क्षेत्र ही देश की अर्थव्यवस्था को बल देगा। इसलिए भी मौद्रिक नीति में इन बातों का ध्यान रखा गया है कि इस क्षेत्र को ऋण आसानी से उपलब्ध कराया जा सके एवं तरलता बनाए रखी जा सके।
देश की अर्थव्यवस्था में संरचात्मक एवं नीतिगत कई प्रकार के बदलाव किए गए हैं। इन बदलावों का असर अब भारत में दिखना शुरू हुआ है। अब तो कई अंतरराष्ट्रीय संस्थान जैसे, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, आदि भी कहने लगे हैं कि आगे आने वाले समय में पूरे विश्व में केवल भारत ही दहाई के आंकड़े की विकास दर हासिल कर पाएगा और भारतीय अर्थव्यवस्था अब तेज़ी से उसी ओर बढ़ रही है। भारतीय रिज़र्व बैंक ने और केंद्र सरकार ने बजट में कहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था वित्तीय वर्ष 2021-22 में 10/10.5 प्रतिशत की विकास दर हासिल कर लेगी।
साथ ही हाल ही के समय में विश्व का भारतीय अर्थव्यवस्था पर भरोसा बढ़ा है, इसलिए देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी लगातार बढ़ रहा है। अब आवश्यकता है हमें अपने आप पर विश्वास बढ़ाने की। अब भारतीय रिज़र्व बैंक को वास्तविक एक्सचेंज दर पर भी नज़र बनाए रखनी होगी यदि यह दर बढ़ती है तो देश के विकास की गति पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। बाहरी पूंजी का देश में स्वागत किया जाना चाहिए परंतु वास्तविक एक्सचेंज दर पर नियंत्रण बना रहे और इसमें वृद्धि न हो, इस बात का ध्यान रखना भी आवश्यक होगा।