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ऋषि दयानन्द ने न्याय को दृष्टिगत पर सामाजिक सुधार कार्य किए

-मनमोहन कुमार आर्य
ऋषि दयानन्द (1825-1883) ने अपना जीवन ईश्वर के सत्यस्वरूप तथा मृत्यु पर विजय प्राप्ति के उपायों की खोज में लगाया था। इसी कार्य के लिए वह अपनी आयु के बाइसवें वर्ष में अपने पितृ गृह का त्याग कर अपने उद्देश्य को सिद्ध करने के लिए निकले थे। अपनी आयु के 38वे वर्ष में वह अपने उद्देश्य के अनुरूप सत्य ज्ञान को प्राप्त करने में सफल हुए थे। उन्होंने इस सृष्टि के रचयिता व पालक ईश्वर का सत्यस्वरूप जाना था और मृत्यु पर विजय के उपायों में भी ईश्वर के ज्ञान व उसकी सत्य वैदिक विधि से स्तुति-प्रार्थना-उपासना को सहायक पाया था। महर्षि सन् 1863 में सार्वजनिक जीवन में प्रविष्ट हुए थे। उन्होंने पाया था कि शुद्ध सनातन ज्ञान व विज्ञान पर आधारित वैदिक मत में महाभारत काल से कुछ समय पूर्व अविद्या का प्रवेश हो चुका था जो निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होता गया। इसका प्रभाव पूरे विश्व पर हुआ था। विश्व में प्रचलित सभी मत भी अविद्या व अज्ञान से युक्त मान्यताओं, सिद्धान्तों, विश्वासों व परम्पराओं से युक्त थे। मत-मतान्तरों की अविद्या तथा मनुष्य जीवन में अविद्या के कार्य मनुष्य जाति के दुःख का कारण बनते हैं। इस अविद्या को दूर करना किसी भी सभी सच्चे विद्वानों, मनीषियों, ईश्वर भक्तों, सज्जन साधु पुरुषों तथा दिव्य गुणों से युक्त मनुष्यों के लिए आवश्यक होता है।

ऋषि दयानन्द के विद्यागुरु प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती भी देश, समाज तथा मत-मतान्तरों में अविद्या से युक्त मान्यताओं व उनके देश व समाज पर कुप्रभाव से परिचित थे। वह सच्चे ईश्वर भक्त थे और मानवता का उपकार करने के लिए तथा विश्व से दुःखों को दूर कर सत्य पर आधारित ज्ञान से युक्त मान्यताओं व परम्पराओं का प्रचलन करने के उत्सुक थे। इसी की प्रेरणा उन्होंने ऋषि दयानन्द की गुरु दक्षिणा के अवसर पर स्वामी दयानन्द को की थी। स्वामी दयानन्द ने गुरु की प्रेरणा को गुरु की आज्ञा जानकर स्वीकार किया था और अपना शेष जीवन अविद्या, अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, मिथ्या परम्पराओं व कुरीतियों को दूर करने में लगाया था। इसी के अन्तर्गत उन्होंने अपने जीवन के सभी कार्य वेद प्रचार, समाज सुधार तथा देशसुधार आदि कार्यों को किया था। उनके कार्यों का न केवल भारत अपितु पूरे विश्व पर प्रभाव पड़ा है। इससे मत-मतान्तरों का ध्यान अपने अपने मत की मान्यताओं में निहित सत्यासत्य की परीक्षा करने सहित समाज सुधारों की ओर गया परन्तु यह बात अलग है कि क्या उन्होंने ऋषि दयानन्द द्वारा प्रस्तुत सत्य मत के स्वरूप व उसकी मान्यताओं को स्वीकार किया या नहीं, अथवा किस सीमा तक स्वीकार किया है। 

ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सत्यस्वरूप का अध्ययन व अन्वेषण किया तो वेदाध्ययन से उन्हें ज्ञात हुआ कि सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ एवं सर्वव्यापक ईश्वर ही सत्य सिद्धान्तों व कार्यों का पोषक एवं न्यायकारी है। वह अन्याय से दूर है तथा अन्यायकारियों को दण्ड देता है। सभी जीव, मनुष्य व इतर प्राणी उसकी सन्तानें हैं। वह सबके साथ निष्पक्षता का समान व्यवहार करता और असत्य व अशुभ कर्म करने वालों को दण्ड देता है। उन्होंने वेदों में ईश्वर की इस आज्ञा को भी पाया था कि ईश्वर भक्त व अनुयायियों को अपना जीवन पूर्ण न्याय व ज्ञान पर आधारित बनाना चाहिये। न्याय के यथार्थ स्वरूप को जानकर उन्होंने इसको निजी, धार्मिक व सामाजिक जीवन में भी अपनाया व इसका प्रचार कर सबको अपनाने पर बल दिया। ऋषि दयानन्द ने वेदों का ज्ञान प्राप्त कर सभी धार्मिक व सामाजिक मान्यताओं की समीक्षा की थी और सभी विषयों में वेदों के सत्य व न्याय पर आधारित कल्याणकारी दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया था। वह अपनी सभी मान्यताओं को सत्य, न्याय, निष्पक्षता, तर्क एवं युक्ति पर आधारित होने पर ही स्वीकार करते थे व इनके आधार पर प्रचलित मान्यताओं का संशोधन करते थे। इसी दृष्टि से उन्होंने समाज में प्रचलित सत्य मान्यताओं का मण्डन व पोषण करने के साथ असत्य व अज्ञान से युक्त धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं का खण्डन किया था। 

ऋषि दयानन्द ने समाज को अज्ञान व पाखण्डों से मुक्त कराने का हर सम्भव उपाय व कार्य किया। उन्हीं के वेद प्रचार आदि कार्यों से लोगों को विद्या व अविद्या का यथावत् ज्ञान हुआ। उन्होंने मौखिक प्रचार द्वारा तो सत्य वैदिक मान्यताओं का प्रचार किया ही था, इसके साथ साथ मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक सभी सत्य वैदिक मान्यताओं का पोषण ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश लिखा जिसका अद्यावधि विश्व भर में प्रचार हुआ व हो रहा है। इसका परिणाम यह हुआ है कि शिक्षित व बुद्धिमान लोग वर्तमान में अपने जीवन के अधिकांश कार्य तर्क व युक्ति का आश्रय लेकर करते हैं। ऋषि दयानन्द के प्रयासों का ही परिणाम है कि देश व समाज से अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियां आदि पूर्णतः दूर तो नहीं हुए परन्तु कम अवश्य ही हुए हैं। देश की आजादी में भी ऋषि दयानन्द का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने ही स्वराज्य प्राप्ति का मूल मन्त्र सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के माध्यम से ओजपूर्ण शब्दों में दिया था और कहा था कि कोई कितना ही करे किन्तु जो स्वदेशी राज्य हेाता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। विेदशी राज्य के विषय में उन्होंने कहा है कि मत-मतान्तरों के आग्रह से रहित अपने और पराये का पक्षपातशून्य प्रजा पर पिता माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं होता है। भारत के इतिहास में देश को आजाद कराने वाले ऐसे प्रेरणादायक वचन उनसे पूर्व किसी मनीषी व विद्वान ने नहीं कहे हैं। इस कारण से ऋषि दयानन्द का देश की आजादी की प्रेरणा देने व उनके शिष्यों द्वारा उसको क्रियान्वित करने में सहयोगी होने के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान है। 

ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन काल में ऐसा कोई अन्धविश्वास नहीं था जिस का खण्डन न किया हो और वैदिक विचारों के आधार पर उसका सत्य व हितकारी समाधान प्रस्तुत न किया हो। ऋषि दयानन्द ने धर्म के अन्र्तगत ईश्वर की मूर्तिपूजा का खण्डन भी इसे अन्धविश्वास बताकर किया और इसके प्रचुर प्रमाण भी अपने वचनों व ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में दिये हैं। ऋषि अवतारवाद की कल्पना को भी मिथ्या सिद्ध करते हैं। मृतक श्राद्ध का विधान भी उनकी दृष्टि में अवैदिक व मिथ्या है। मृत्यु के तुरन्त बाद मृतक आत्मा का पुनर्जन्म हो जाने के कारण उसे अपने पूर्व परिवारजनों से किसी प्रकार से पोषण की आवश्यकता नहीं होती। ऐसा करना अज्ञान व कुछ लोगों को अनुचित महत्व देने का कारण बनता है। फलित ज्योतिष को भी ऋषि दयानन्द वेद की विचारधारा व भावनाओं के विपरीत मिथ्या मानते थे। आर्यसमाज व इसके अनुयायी फलित ज्योतिष में किंचित विश्वास नहीं रखते और उसको न मानने का प्रचार करते हैं। ऋषि दयानन्द ने वेदों के अनुसार गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वर्ण व्यवस्था को प्रचारित किया था तथा जन्मना जातिवाद व भेदभावों से युक्त इस व्यवस्था का विरोध व खण्डन किया है। जन्मना जातिवाद की व्यवस्था वेद व ईश्वरीय नियमों के विरुद्ध है जिसका उन्मूलन तत्काल किया जाना चाहिये। इससे दुर्बल तथा कृत्रिम जन्मना निम्न जातियों के साथ अन्याय होता है। 

ऋषि दयानन्द ने बाल विवाह, अनमेल विवाह, वृद्ध विवाह तथा बहु विवाह आदि का भी खण्डन किया और गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित पूर्ण युवावस्था में वर व कन्या की पसन्द के विवाह को उत्तम बताया। ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायियों ने विधवाओं के साथ होने वाले अन्यायों को दूर करने का भी प्रयास किया। उनके एक प्रमुख अनुयायी उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द ने अपने समय में एक विधवा से विवाह कर अपनी ऋषि भक्ति का परिचय दिया था। आज विधवा विवाह होना सामान्य बात है परन्तु ऋषि दयानन्द के समय में कोई इस विषय में सोच भी नहीं सकता था। ऋषि दयानन्द ने समाज सुधार का कार्य करते हुए स्त्री व शूद्र बन्धुओं को वेद पढ़ने व पढ़ाने का अधिकार भी दिया। उनके प्रयास से वर्तमान में नारी वेद परायण महायज्ञों की ब्रह्मा के पदों पर सुशोभित होती हैं। ऋषि दयानन्द व उनके संगठन आर्यसमाज के प्रचार से ही छुआछूत वा अस्पर्शयता का उन्मूलन लगभग हो गया है। 

 ऋषि दयानन्द ने सभी समाजिक कुरीतियों सहित अन्धविश्वासों एवं पाखण्डों का अध्ययन कर एक सच्चा वेदभक्त एवं ईश्वरभक्त होने का परिचय दिया। उनके कार्यों से ही देश व समाज की तस्वीर बदली व सुन्दर बनी है। देश को ऋषि दयानन्द के मार्ग पर चलना चाहिये। इसी से विश्व का कल्याण तथा मानव जाति को सुखों की प्राप्ति होगी। ऋषि दयानन्द ने जीवन के हर क्षेत्र में विद्या व न्याय को दृष्टिगत रखकर वैदिक मान्यताओं का प्रचार किया। उनके द्वारा प्रचारित सभी मान्यतायें सत्य, न्याय व निष्पक्षता पर आधारित हैं। वेदों के प्रचार व प्रसार से ही विश्व में शान्ति आ सकती हैं। ऋषि दयानन्द ने देश व समाज सुधार के जो कार्य किये उसके लिये हम उनको नमन करते हैं। ओ३म् शम्। 

निया में ग्रीन रिकवरी के लिए कैटेलिस्ट बनेगा अमेरिका

ग्रीन स्टीमुलस इंडेक्स की ताज़ा रिपोर्ट की मानें तो कोविड महामारी के दौरान और अमेरिका में बिडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद अब ऐसा माना जा सकता है कि दुनिया भर में ग्रीन रिकवरी की शुरुआत अमेरिका के नेतृत्व में हो सकती है। नेतृत्व से ज़्यादा यहाँ अमेरिका की भूमिका उत्प्रेरक या कैटेलिस्ट की होने वाली है। ऐसा इसलिए क्योंकि जहाँ डोनाल्ड ट्रम्प एक झटके में पैरिस समझौते से अमेरिका को बाहर ले आये थे, वहीँ जो बिडेन ने अपना पूरा चुनाव ही जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ जंग के नाम पर जीत लिया और पदभार सम्भालते ही अमेरिका को वापस इस जलवायु संधि में ले आये।

इस रिपोर्ट की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
• 17 देशों ने अपने ग्रीन स्टीमुलस इंडेक्स स्कोर में सुधार किया, जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका भी शामिल है, जिसने 36 अंकों की छलांग लगाकर सबसे बड़ी वृद्धि दिखाती है। नए बिडेन प्रशासन ने पहले ही पेरिस समझौते में फिर से प्रवेश करके जलवायु परिवर्तन की भू राजनीति में एक बड़ी पारी का संकेत दिया है, और प्रशासन के बदलने से संयुक्त राज्य अमेरिका के स्वच्छ तकनीक जैसे क्षेत्र, और भविष्य के अन्य उद्योग जो देश में रोजगार के अवसर लाने की संभावना रखते हैं, के समर्थन और प्रतिस्पर्धी स्थिति में भी मज़बूती आती है।

दिसंबर 2020 में पूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा हस्ताक्षर किए गए यूएस (US) $ 900 के मिलियन द्विदलीय स्टिम्युलस बिल के बाद देश का GSI (जीएसआई) स्कोर आंशिक रूप से मजबूत हो गया था, जिसमें सार्वजनिक पारगमन और स्वच्छ ऊर्जा में निवेश शामिल था, लेकिन इस खर्च का अधिकांश हिस्सा अभी भी सामान्य अर्थव्यवस्था के लिए समर्पित था। जनवरी 2021 में घर और विदेश में जलवायु संकट से निपटने के लिए (Executive Order for Tackling the Climate Crisis) बिडेन के एक्सेक्यूटिव आदेश के बाद इसके स्कोर में एक बहुत ज़्यादा सुधार हुआ जिसने अंतर-सरकारी समन्वय और एक नए जलवायु कार्य बल और दूत द्वारा समर्थित लगभग सभी पर्यावरणीय रूप से प्रासंगिक क्षेत्रों में मजबूत कार्रवाई का संकेत दिया, जैसे कृषि, मत्स्योद्योग (मछली पालन), वनीकरण, दक्षता, परिवहन और एनर्जी डीकार्बोनाइज़ेशन।
वर्तमान में, एक अमेरिकी $ 1.9 ट्रिलियन ‘अमेरिकन रेस्क्यू प्लान’ कांग्रेस के माध्यम से आगे बढ़ रहा है, जो अगर 8 फरवरी 2021 तक इस ही रूप में हस्ताक्षर किए जाने पर कानून बन जाए तो पैकेज के रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका के GSI (जीएसआई) स्कोर को एक या दो अंकों से थोड़ा बेहतर करेगा चूंकि पैकेज जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता की तुलना में सामान्य आर्थिक सुधार की ओर लक्षित है। हालाँकि, अगर बिडेन द्वारा प्रस्तावित स्वच्छ ऊर्जा और पर्यावरणीय न्याय के लिए $ 1.7 ट्रिलियन जलवायु योजना लागु की जाए तो इसका स्कोर काफी हद तक बढ़ जाएगा और सूचकांक पर हर दूसरी प्रमुख अर्थव्यवस्था के आगे पहुंच जायेगा। लेकिन यूएस स्कोर GSI (जीएसआई) के इस संस्करण में नकारात्मक बना हुआ है, जो दर्शाता है कि वर्तमान में, अमेरिकी स्टिम्युलस भले से ज़्यादा नुकसान कर रहा है।
फेडरल रिजर्व के सेकेंडरी मार्केट कॉरपोरेट क्रेडिट फैसिलिटी (SMCCF) द्वारा देश की संभावित ग्रीन रिकवरी के पैमाने को खतरा हो सकता है, जो सभी क्षेत्रों में नीति संरेखण के महत्व का प्रदर्शन करता है। जीएसआई ने पहचान की कि कॉर्पोरेट बॉन्ड (सभी लेन-देन का 10%) में लगभग 555 मिलियन अमेरिकी डॉलर बड़े उत्सर्जकों के रूप में पहचाने जाने वाली कंपनियों से खरीदे गए हैं, जो उष्णकटिबंधीय वनों की कटाई में योगदान करती हैं या बड़े प्लास्टिक प्रदूषकों में शामिल हैं। यह विश्लेषण कोविड -19 रिकवरी में केंद्रीय बैंकों की भूमिका की खोज करने, और उनके संचालन नवीनीकरण के प्रयासों की ग्रीन-नेस (हरियाली) को कैसे प्रभावित कर सकते हैं, की दिशा में पहला कदम है।
• जीएसआई के इस संस्करण में सबसे बड़े पर्वतारोहियों में से एक कनाडा था, जो दिसंबर जीएसआई में अपने प्रमुख सुधारों पर निर्माण कर रहा था। दिसंबर 2020 में घोषित की गई इसकी स्वस्थ पर्यावरण और स्वस्थ अर्थव्यवस्था योजना में ऊर्जा और परिवहन में अवसंरचना निवेश सहित प्रकृति के अनुकूल पहलों की एक विशाल श्रृंखला शामिल है, और देश अक्टूबर 2020 में एक नकारात्मक जीएसआई स्कोर से स्थानांतरित होकर आज की रिपोर्ट में तीसरे स्थान पर आ गया है।
• यूनाइटेड किंगडम की हाल ही में विदेशी जीवाश्म ईंधन क्षेत्रों के लिए वित्तीय सहायता की वापसी, और 38 स्थानीय अधिकारियों द्वारा राष्ट्रीय सरकार की तुलना में पांच साल पहले शुद्ध-शून्य उत्सर्जन तक पहुंचने के लिए प्रतिबद्धताओं (2045 तक), ने भी इसे समग्र रूप से पांचवें स्थान पर धकेलने में मदद की।
• जापान की 600 बिलियन डॉलर की स्टिम्युलस राशि इस संस्करण में कुल वृद्धि के एक तिहाई से अधिक के लिए ज़िम्मेदार है, जिससे दक्षिण कोरिया, चीन, फिलीपींस, इंडोनेशिया और सिंगापुर से आगे बढ़कर देश एशिया में रैंकिंग के शीर्ष पर पॅहुचा है। जबकि इसने प्रकृति को बहाल करने और जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए किए गए कार्यों के कारण अपने स्कोर में सुधार किया, यह समग्र रूप से नकारात्मक क्षेत्र में रहा।
• उभरती अर्थव्यवस्थाएं अक्सर पर्यावरण-गहन क्षेत्रों पर सबसे अधिक निर्भर होती हैं, और अपनी स्टिम्युलस को ग्रीन करने के लिए संघर्ष करती हैं। चीन ने उत्सर्जन की तीव्रता 2030 तक 2005 के स्तर के ऊपर 65% तक कम करने की अपनी नई महत्वाकांक्षा और सौर और पवन क्षमता में एक भारी योजनाबद्ध वृद्धि के द्वारा के परिणामस्वरूप अपने स्कोर में सुधार देखा, लेकिन कुछ हद तक अपने बड़े और प्रदूषणकारी औद्योगिक क्षेत्र के लिए अपने स्टिम्युलस पैकेज समर्थन के कारण यह समग्र रूप से नकारात्मक क्षेत्र में रहा। भारत की हालिया स्टिम्युलस घोषणा (जिसमें से दो तिहाई हिस्सा ग्रीन था) में बैटरी उत्पादन और सौर, साथ ही रिन्यूएबल ऊर्जा योजनाओं के लिए प्रोत्साहन शामिल थे। चीन और भारत दोनों ने अपने जीएसआई स्कोर में सुधार किया है, लेकिन वे नकारात्मक बने हुए हैं। उनके खराब अंतर्निहित पर्यावरण प्रदर्शन और कोयले के लिए जारी समर्थन का मतलब है कि उनका स्टिम्युलस जलवायु और प्रकृति को नुकसान पहुंचाता है।
• डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड, स्वीडन और नॉर्वे को GSI के इस संस्करण में जोड़ा गया, जिसमें उल्लेखनीय रूप से अलग-अलग भाग्य हैं। ग्रीन उपायों के लिए समर्पित महामारी खर्च के महत्वपूर्ण अनुपात के परिणामस्वरूप ग्लोबल लीग टेबल में नंबर एक पर डेनमार्क है, और एयरलाइनों और जीवाश्म ईंधन उद्योग का समर्थन करने वाले अपने आर्थिक प्रोत्साहन के कारण अपनी पूर्व घोषित ग्रीन ट्रांजिशन योजना से सकारात्मक प्रभावों को काउंटर करते हुए नॉर्वे -67 के स्कोर के साथ 25 वें स्थान पर है।
जेफरी बेयर, अर्थशास्त्री, विविड इकोनॉमिक्स, और रिपोर्ट के सह-लेखक, का कहना है, “इससे पहले कि हम वास्तव में ग्रीन पोस्ट-कोविद रिकवरी देख सकें, बहुत अधिक कार्रवाई की आवश्यकता है, लेकिन हम कुछ देशों में प्रगति में छलांग से प्रोत्साहित है, विशेष रूप से अमेरिका और कनाडा। नए अमेरिकी प्रशासन ने एक नाटकीय बदलाव का संकेत दिया है जिससे जलवायु और प्रकृति को आर्थिक सुधार कार्यक्रमों में एम्बेड किया जा सकता है। अमेरिकी कार्यकारी आदेश इस बात के लिए एक मॉडल हैं कि नियामक परिवर्तन कैसे रोजगार पैदा कर सकते हैं, उत्सर्जन को कम कर सकते हैं और प्रकृति की रक्षा कर सकते हैं। लेकिन, जैसा कि जीएसआई से पता चलता है, सिर्फ अच्छी नीति पर्याप्त नहीं है – यह नौकरी-समृद्ध, ग्रीन रिकवरी को उत्प्रेरित करने के लिए प्रमुख सार्वजनिक निवेश के साथ होनी चाहिए।
“हम मानते हैं कि पिछले कुछ हफ्तों की घटनाएं जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता पर कार्रवाई में अमेरिकी नेतृत्व में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। प्रशासन को अब उत्तरदायी रखना चाहिए, और उसे जी-7 और जी-20 जैसे मंचों में जलवायु को एकीकृत करने की अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करना चाहिए, और जलवायु और प्रकृति पर वैश्विक कार्रवाई को बढ़ाने के लिए हमें जिस भू-राजनीतिक एजेंट की हमें जरूरत है उसका किरदार निभाना चाहिए।”

चारधामऑलवेदर रोड और गंगा एक्सप्रेस-वे :बहस इन पर भी हो

अरुण तिवारी

नदियों के अविरल-निर्मल पक्ष की अनदेखी करते हुए उनकी लहरों पर व्यावसायिक सवारी के लिए जलमार्ग प्राधिकरण। पत्थरों के अवैध चुगान व रेत के खनन के खेल में मिल खुद शासन-प्रशासन के नुमाइंदे। बांध-सुरंग परियोजनाएं। गंगा की ज़मीन पर पटना की राजेन्द्र नगर परियोजना। लखनऊ में गोमती के सीने पर निर्माण। दिल्ली में यमुना की ज़मीन पर विद्युत संयंत्र, अक्षरधाम, बस अड्डा, मेट्रो अड़्डा, रिहायशी-व्यावसायिक इमारतें आदि आदि। प्रकृति विरुद्ध ऐसे कृत्यों के दुष्परिणाम हम समय-समय पर भुगतते रहते हैं; बावज़ूद इसके शासन-प्रशासन द्वारा खुद अपने तथा समय-समय पर अदालतों द्वारा तय मानकों, क़ानूनों, आदेशों व नियमों की धज्जियां उड़ाने के काम जारी हैं। इसकी ताज़ा बानगी दो ख़ास सड़क परियोजनायें हैं: चारधाम ऑल वेदर रोड और गंगा एक्सप्रेस-वे।
चारधाम ऑलवेदर रोड : मानकों की अनदेखी

बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री – उत्तराखण्ड चारधाम यात्रा के मुख्य तीर्थ यही हैं। ये चारों धाम क्रमशः अलकनंदा, मंदाकिनी, भगीरथी और यमुना के उद्गम क्षेत्र में स्थित हैं। चारों धामों को आपस में जोड़ने वाली सड़कों पर वाहनों की गति तेज करने के लिए चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना नियोजित की गई है। परियोजना के नियोजक, परियोजना की सड़कों को 12 मीटर चौड़ा करने की जिद्द पर अडे़ हैं, जबकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गठित श्री रवि चोपड़ा की अध्यक्षता वाली हाईपावर कमेटी ने चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना की सड़कों की चौड़ाई को 5.5 मीटर तक सीमित करने की सिफारिश की है। 

इस सिफारिश का आधार, केन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय द्वारा 23 मार्च, 2018 को जारी एक परिपत्र है। जबकि केन्द्र सरकार ने अपने ही परिपत्र को यह कहते हुए नकार दिया है कि परिपत्र भविष्य की परियोजनाओं पर लागू होता है, चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना पर नहीं।सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई की अगली तारीख – 17 फरवरी है। सरकार के तौर-तरीके से निराश समिति अध्यक्ष तथा दो अन्य गैर सरकारी सदस्यों ने मामले को कोर्ट की कृपा पर छोड़ दिया है।


हिमालयी हितों पर भारी निजी हित
पूछने लायक सवाल है कि यदि परिपत्र में दिए मानकों का मंतव्य पर्यावरणीय क्षति को न्यून करना है तो फिर उन्हे लागू करने के लिए वर्तमान और भविष्य में भेद करने का औचित्य ? ऐसे में सत्तारुढ़ दल पर किसी खास के हितों के लिए पर्यावरणीय हितों की अनदेखी का आरोप लगे तो क्या ग़ल़त है ? गौरतलब है कि शासन ने ऐसा सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह याद दिलाने के बावजूद किया कि चारधाम ऑल  वेदर रोड परियोजना, एक निर्माणाधीन परियोजना है और परिपत्र के मानक यहां भी लागू होते हैं। इतना ही नहीं, चारधाम परियोजना को शासन के मनचाहे तरीके से निर्मित कराने के लिए कमेटी अध्यक्ष हस्ताक्षरित रिपोर्ट पर गौर करने की बजाय, कुछ सदस्यों द्वारा अलग से रिपोर्ट पेश कराने का खेल खेला गया।….और अब शासन, संवैधानिक कायदों की धज्जियां उड़ाते हुए हाईपावर कमेटी के संचालन में लगातार अनैतिक हस्तक्षेप कर रहा है। उत्तराखण्ड शासन भी पर्यावरण संबंधी मानकों व वैज्ञानिक आधारों की बजाय, बहुमत-अल्पमत आधारित राय का राग अलाप रहा है; मामला विचाराधीन होने के बावज़ूद निर्माण कार्य को जारी रखे हुए है। श्रीनगर गढ़वाल से मुनि की रेती तक के नदी तटीय क्षेत्रों पर कुछ प्रतिबंध संबंधी अधिसूचना जारी कर ज़रूर दी हैं, किंतु निर्माता एजेन्सियां भी निर्माण के दौरान मलवे को नदी भूमि पर डंप करने से नहीं चूक रही। वन क़ानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए दरख्तों को काटने से भी उन्हे कोई परहेज नहीं है। जल-विद्युत परियोजनाओं के निर्माण तथा संचालन के दौरान हिमालयी हितों की अनदेखी पहले से जारी है ही।
यह उत्तराखण्ड की सरकार ही है, जो अपने ही प्रदेश में जन्मी यमुना-गंगा को जीवित मानने वाले अपने ही प्रदेश के हाईकोर्ट के आदेश के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। क्या प्रकृति हितैषी कदमों को दलों के आने-जाने अथवा कारपोरेट स्वार्थों से प्रभावित होना चाहिए ? नहीं, किंतु भागीरथी घाटी को पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील घोषित करने वाली अधिसूचना के मूल मंतव्य की अनदेखी कर तैयार ज़ोनल मास्टर प्लान इसी रवैये का प्रदर्शन है। राज्य के एकमात्र शिवालिक हाथी रिजर्व संबंधी लागू अधिसूचना को भी रद्द करने की तैयारी की ख़बरें भी अख़बारों में है। हम चुप हैं; जबकि सच यह है कि इसका खामियाज़ा सिर्फ उत्तराखण्ड नहीं, यू पी, बिहार, झारखण्ड, बंगाल से लेकर बांग्ला देश भुगतेंगे। क्या हम यह बर्दाश्त करें ?
‘इस हादसे का जल-विद्युत परियोजनाओं से कोई संबंध नहीं।…….. तपोवन विष्णुगाड परियोजना के बैराज ने तो गाद, मिट्टी और पानी के वेग और दबाव को अपने पर लेकर इसे आगे बढ़ने से रोका।”
चमोली आपदा में पनबिजली परियोजनाओं की भूमिका पर पूछे दो भिन्न प्रश्नों के उत्तर में उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री महोदय के बयान यही हैं। स्पष्ट है कि ये सभी न तो वर्ष उत्तराखण्ड आपदा-2012 के कारण हुए भयावह नुकस़ान के कारणों से कुछ सीखने को राजी हैं और न ही भूगर्भीय प्लेटों  में बढ़ती टकराहटों से संभावित विध्वंसों की आहटों से ? तिस पर मज़ाक करता यह बयान कि शासन, गंगा की अविरलता-निर्मलता सुनिश्चित करने के लिए संकल्पबद्ध है !!
नमामि गंगे का विरोधाभास
दुःखद है कि गंगा और इसकी सहायक धाराओं का उपहास सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। एक ओर सुप्रीम कोर्ट सख्त है कि लगातार घटते प्रवाह और बढ़ते प्रदूषण ने यमुना में अमोनिया बढ़ा दी है; उत्तर प्रदेश के स्कूली पाठ्यक्रम गंगा संरक्षण पढ़ाने की अच्छी शासकीय कवायद है; बिजनौर से बलिया तक गंगा आरती की शासकीय पहल को ज़मीन को उतारते समय यदि सिर्फ पर्यटन नहीं, गंगा शुचिता और लोगों को गंगा सरोकारों का विशेष प्रयास किया गया तो इसके नतीजे भी अच्छे हो सकते हैं। वहीं दूसरी ओर उ़ प्र. सिंचाई विभाग और नोएडा प्राधिकरण मिलकर पुश्तों को प्रवाह की ओर सरका कर हिंडन व यमुना नदियों को मारने की योजना पर काम कर रहे हैं। क्या हम इसकी प्रशंसा करें ? नदी के हिस्से की ज़मीन बेचकर कुछ राजस्व कमा लेने का यह लालच, सबसे पहले नोएडा इलाके को ही बेपानी करेगा। गोमती किनारे लखनऊ के बाद, अब मथुरा में राया नगर बसाने के बहाने यमुना रिवर फ्रंट योजना को क्या कहें ? यह आत्मनिर्भर भारत के नारे के विपरीत कदम हैं और गंगा की शुचिता के भी। 
ऐसे उलट कदमों को रोकें।

गोमुख की चाहे एक बूंद, प्रयागराज न पहुंचती हो, लेकिन राजनैतिक बयान गोमुख से प्रयागराज को सड़क मार्ग से जोड़ने के शासकीय इरादे पर अपनी पीठ ठोंक रहे हैं। इस इरादे को पूरा करने के लिए गंगा एक्सप्रेस-वे परियोजना को ज़मीन पर उतारने का काम शुरु हो गया है।

पुनः प्रस्तुत गंगा एक्सप्रेस-वे
गौर कीजिए कि गंगा एक्सप्रेस-वे का प्रस्ताव पहली बार वर्ष 2007 में अस्तित्व में आया था। तब इसका रूट नोएडा से बलिया तक 1047 किलोमीटर लंबा था। सर्वप्रथम इसे उत्तर प्रदेश के सिंचाई विभाग द्वारा बाढ़ रोकने के उपाय के रूप में प्रस्तावित किया गया था। विरोध होने पर लोक निर्माण विभाग ने इसे सड़क के रूप में प्रस्तावित किया था। गंगा-यमुना एक्सप्रेस-वे प्राधिकरण बाद में अस्तित्व में आया। कर्जदाता विश्व बैंक ने इसमें खास रुचि दिखाई। कालातंर में गंगा एक्सप्रेस-वे को गंगा के लिए नुक़सानदेह मानते हुए उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट द्वारा इसकी पर्यावरणीय मंजूरियों को रद्द कर दिया गया। इसके साथ ही इसका काम ठ्प्प पड़ गया।
अब योगी सरकार ने गंगा से 10 कि.मी. की दूरी पर निर्मित करने के बदलाव के साथ गंगा एक्सप्रेस-वे परियोजना को पुनः प्रस्तुत कर दिया है। ऊंचाई 08 से 10 मीटर, लेन फिलहाल 06, आगे चलकर 08। कुल 12 चरण, सम्पन्न करने का लक्ष्य वर्ष 2024। परियोजना की कमान, अब उत्तर प्रदेश एक्सप्रेस-वे औद्योगिक विकास प्राधिकरण (यूपीडा) के हाथ है। यूपीडा  एक्सप्रेस वे तथा उसके दोनो ओर 130-130 मीटर चौड़ी लेन के अलावा भविष्य में उद्योगों को भी स्थापित करने के लिए भी अतिरिक्त भूमि अधिग्रहित करेगा। मुआवजा राशि को भी पहले से कई गुना ज्यादा कर दिया गया है। 
गंगा एक्सप्रेस-वे का ताज़ा प्रस्ताव, पहले उत्तर प्रदेश में उत्तराखण्ड सीमा से लेकर वाया मेरठ, प्रयागराज, वाराणसी, बलिया तक प्रस्तावित था। 

मुख्यमंत्री महोदस ने हाल ही में इसे बढ़ाकर हरिद्वार तक करने की घोषणा की है। 
गंगा प्रवाह के पांचों राज्यों की परियोजनाओं पर निगाह डालें तो कह सकते हैं कि असल इरादा, गंगा एक्सप्रेस-वे को गंगा जलमार्ग के साथ जोड़कर दिल्ली से हावड़ा तक व्यापारिक व औद्योगिक लदान-ढुलान को बेरोकटोक गति प्रदान करना तो है ही, जल-संकटग्रस्त उद्योगों को गंगा का मनचाहे उपयोग की छूट देना भी है।

बुनियादी प्रश्न : तीन आधार

बुनियादी प्रश्न है कि क्या योगी सरकार द्वारा किए गए बदलाव मात्र से विरोध के वे सभी आधार खत्म हो गए, जिनकी बिना पर उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट ने गंगा एक्सप्रेस-वे परियोजना की पर्यावरणीय मंजूरी को रद्द कर दिया था ?
याद कीजिए कि शुरुआती प्रस्ताव के विरोध के तीन मुख्य आधार थे:
पहला, यदि गंगा एक्सप्रेस-वे निर्माण का मकसद बाढ़ नियंत्रण है तो बाढ़ नियंत्रण के ज्यादा सस्ते व सुरक्षित विकल्प मौजूद हैं। शासन को उन्हे अपनाना चाहिए। गंगा के ऊंचे तट की ओर नगर बसे हैं। निचले तट की ओर एक्सप्रेस-वे बना देने से गंगा दोनो ओर से बंध जाएगी; लिहाजा, बाढ़ का वेग बढे़गा। भूमिगत् जल के रिसाव में तीव्रता आएगी। परिणामस्वरूप, कटान और नुक़सान…दोनो बढेंगे। ऊंचे तट भी टूटेंगे। बसावटें हिलने को मज़बूर होंगी। एक्सप्रेस-वे बाढ़ के दुष्प्रभाव कम करने की बजाय, बढ़ाएगा।
विरोध का दूसरा आधार यह था कि अधिग्रहित भूमि तो किसान के हाथ से जाएगी ही; एक्सप्रेस-वे बनने से मृदा क्षरण, बालू जमाव में तेज़ी आएगी। इस कारण एक्सप्रेस-वे और गंगा के बीच की हजारों एकड़ बेशकीमती उपजाऊ भूमि दलदली क्षेत्र में तब्दील होने से किसान अपनी शेष भूमि पर भी खेती नहीं कर सकेगा। जाहिर है कि ऐसी भूमि के गैर-कृषि उपयोग की कोशिशें होंगी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय, सिविल इंजीनियरिंग विभाग में गंगा प्रयोगशाला के संस्थापक प्रो. यू के चौधरी का निष्कर्ष था कि यदि गंगा एक्सप्रेस-वे बना तो अगले एक दशक बाद उत्तर प्रदेश करीब एक लाख एकड़ भूमि का कृषि योग्य रकबा खो देगा। आबादी बढ़ रही है। ऐसे में उत्तर प्रदेश में खेती योग्य रकबे में लगातार हो रही घटोत्तरी और मौसमी बदलावों के कारण उपज उत्पादन से नई चुनौतियां पैदा होंगी ही। इस तरह गंगा एक्सप्रेस-वे उपज और आय में कमी का वाहक साबित होगा। यह घातक होगा। किंतु क्या तीन कृषि कानूनों के विरोध में डटा किसान इसे लेकर चिंतित है ?
विरोधियों द्वारा पेश तीसरा प्रश्न यह था कि यदि मक़सद सड़क निर्माण है, तो सड़क को गंगा किनारे-किनारे बनाने की जिद्द क्यों ? कृपया इसे कहीं और ले जाइए। पहले राजमार्गों को बेहतर बनाइए। उनसे जुड़ी अन्य छोटी सड़कों को बेहतर कीजिए, गंगा एक्सप्रेस-वे की ज़रूरत ही नहीं बचेगी।
पर्यावरण विशेषज्ञ चिंतित थे कि एक्सप्रेस-वे पर चलने वाली गाड़ियों लगातार छोड़ी जाने वाली गैसों के कारण वाष्पीकरण की रफ्तार बढ़ेगी। गंगाजल की मात्रा घटेगी। गंगाजल में ऑक्सीजन की मात्रा घटेगी। चूंकि गंगा एक्सप्रेस-वे के किनारे औद्योगिक व संस्थागत इकाइयों का निर्माण प्रस्तावित है; अत़ जहां वे एक ओर जहां जल-निकासी करेंगी, वहीं दूसरी ओर उनके मलीन बहिस्त्राव व ठोस कचरे के चलते गंगा, शोषण-प्रदूषण का शिकार मात्र बनकर रह जाएगी। भूले नहीं कि भारत देश में ऐसा नहीं होने की गारंटी न कभी दी जा सकी है और हमारे रवैये के चलते न निकट भविष्य में देना संभव भी नहीं होगा।
विरोध का एक अन्य आधार, किसी वजह से परियोजना के बाधित हो जाने पर अधिग्रहित की गई भूमि के विकासकर्ता की हो जाने की शर्त थी। कम मुआवजे को लेकर भी विरोध था। तत्कालीन मायावती सरकार द्वारा आंदोलन के दमन की कोशिशें हुईं। परिणामस्वरूप हुई मौत .व अन्य नुक़सान भी विरोध को आगे ले जाने का आधार बनी।
लालच के खिलाफ खड़ा विज्ञानगौर करने योग्य विरोधाभासी तथ्य यह है कि गंगा एक्सप्रेस-वे को लेकर धरना-प्रदर्शन इस बार भी है, किंतु इस बार मकसद कृषि भूमि अथवा गंगा के पर्यावरण की सुरक्षा नहीं है। बिजनौर, बुलन्दशहर, फर्रुखाबाद आदि ज़िलों के प्रदर्शनकारियों की मांग हैं कि गंगा एक्सप्रेस-वे उनके इलाके से होकर जाना चाहिए। वजह, अधिक मुआवजे का लालच है। इसे चाहे ज़माने का फेर कहें या मुद्दे की बजाय, दलों के पक्ष-विपक्ष अनुसार अपना रवैया बदलने की बढ़ती जन-प्रवृत्ति; वैज्ञानिक तथ्य इसके पक्ष में नहीं है।
वैज्ञानिक तथ्य कह रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में गंगा बाढ़ क्षेत्र की अधिकतम चौड़ाई – 28 किलोमीटर दर्ज है। खासकर, प्रयागराज में यमुना व फर्रुखाबाद में रामगंगा के मिलने तथा हरिद्वार के बाद के इलाके में गंगा बाढ़ क्षेत्र में बढोत्तरी होती है। गंगा बाढ़ क्षेत्र की सबसे अधिक – 42 मीटर की चौड़ाई  बिहार के मुंगेर इलाके के बाद का प्रवाह मार्ग है। यह तथ्य, आई आई टी समूह द्वारा किए गए अध्ययन का हिस्सा है, जिसने राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के लिए पर्यावरण प्रबंधन योजना तैयार की। उक्त तथ्य के आइने में विचार करना चाहिए कि योगी सरकार द्वारा गंगा एक्सप्रेस-वे को गंगा से मात्र 10 किलोमीटर की दूरी पर प्रस्तावित करना, आइने की अनदेखी है या नहीं ?
गुड गवर्नेन्स की दरकार
मुआवजा राशि को छोड़ दे तो तथ्य यह है कि गंगा एक्सप्रेस-वे का विरोध करते पर्यावरणीय और कृषि हितैषी अन्य आधार, वर्ष 2007 की तुलना में आज ज्यादा प्रासंगिक हैं। प्रश्न यह है कि क्या इसके बावजूद भी हम गंगा एक्सप्रेस-वे को इसके प्रस्तावित स्वरूप में स्वीकार करें ? शुरुआती प्रस्ताव का विरोध करने वालों में शामिल जल बिरादरी, कृषि भूमि बचाओ मोर्चा, फाॅरवर्ड ब्लाॅक, भाकपा (मार्क्सवादी), समेत जैसे ज़मीनी संगठनों व नागरिकों को तो इस पर विचार करना ही चाहिए। खासकर, भारतीय जनता पार्टी विधायक दल के तत्कालीन नेता ओम् प्रकाश सिंह को इस प्रश्न का जवाब अवश्य देना चाहिए; चूंकि उन्होने सोनिया गांधी, अटल जी, जनेश्वर मिश्र, अमरसिंह, राजबब्बर समेत उत्तर प्रदेश के कई तत्कालीन सांसदों को पत्र लिखकर गंगा एक्सप्रेस-वे परियोजना को रोकने की गुहार लगाई थी।
यदि तंत्र खुद अपने द्वारा तय मानकों, आदेशों आदि की अनदेखी करने लगे और लोक को लालच हो जाए; ऐसे में नदियों के लोकतांत्रिक अधिकारों की सुरक्षा तो खतरे में पड़ेगी ही। कहना न होगा कि भारत की नदियों की अविरलता-निर्मलता को आज पर्यावरणीय समझ से ज्यादा, गुड गवर्नेन्स की दरकार है। निजी स्वार्थों के लिए प्रकृति हितैषी तथ्यों की अनदेखी न होने पाए; लोकतंत्र के चारों स्तंभों को मिलकर यह सुनिश्चित करना चाहिए। लोकतंत्र की मांग यही है और चमोली हादसे की सीख भी यही। क्या हम पूरी करेंगे ?

हर कोई रिश्तेदार यहां पिछले जन्म का

—विनय कुमार विनायक
हर कोई रिश्तेदार यहां पिछले जन्म का,
हर कोई किराएदार यहां पिछले जन्म का!
हर कोई कर्ज चुकाने,उगाहने आता पिछले जन्म का!

यहां नहीं कोई मित्र, नहीं कोई शत्रु होता,
दोस्त और दुश्मन आ मिलते, पिछले जन्म का,
जिससे तुमने जो लिया, दिया, वो सब ले, दे जाएंगे!

खाली हाथ आए,खाली हाथ जाएंगे,
जो भी तुमने लिया, दिया यहीं आकर,
सारे लेन, देन का चुकता होगा यहीं पर!

इस धरती का हर चीज, इस धरती में रह जाएगी,
इस धरती से देह मिली, नेह मिला, देह-नेह यहीं रह जाएंगे,
जिसको जितनी खुशियां बांटी, उतनी वो लौटाएंगे!

जिसका तुमने जितना खून पिया, आंसू पिए,
उतना खून वो पी के रहेंगे, आंसू गिरा ही देंगे!

खारे समुद्र का एक भी खारा बूंद नहीं घटता,
जितना जल मेघ पीता उतना जल उझल देता!

जितना अहं,दंभ,षड्यंत्र, करोगे, उतना तो सहोगे हीं,
जितना घन घमंड करता, उतनी बिजली नर्तन करती!

बेजुबानों की जुबां हरोगे,बेजुबान हो के रहोगे,
क्यों निष्ठुर बनते हो, सामने वाले को जीने दो!

मीठी बोली बोलो, पीने को जल दो, बैठने तो कहो!

बेदाम जो वस्तु मिले हैं,उसे बांटते क्यों नहीं हो?
सब कोई अपना,सब परमात्मा के आत्मज हो!

आत्मा की जाति नहीं होती,ना बड़ी छोटी होती,
आत्मा जितनी टूटती बंटती, उतनी की, उतनी होती!

काया चाहे जितनी छोटी, बड़ी होती, आत्मा उतनी होती!

आत्मा, आत्मा में भेद नहीं,आत्मा ही परमात्मा होती,
हर जीव ईश्वर है, ईश्वर की हर जीवात्मा थाती!

जीवात्मा स्वस्थ एवं बलवान शरीर को ही धारण करती है अन्य नहीं

-मनमोहन कुमार आर्य
हम जानते हैं कि सभी मनुष्यों एवं चेतन प्राणियों के शरीरों मेंएक चेतन आत्मा की सत्ता भी निवास करती है। मनुष्य के जन्म व गर्भकाल में आत्मा निर्माणाधीन शरीर में प्रविष्ट होती है। मनुष्य शरीर में आत्मा का प्रवेश अनादि, नित्य, अविनाशी सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सच्चिदानन्दस्वरूप ईश्वर कराते हैं। समस्त संसार, सभी जीवात्मायें एवं प्राणी उनके वश में होते हैं। वह अपनी व्यवस्था एवं नियमों के अनुसार जीवात्मा के जन्म व उसके जीवन की व्यवस्था करते हैं। जीवात्मा एक सूक्ष्म चेतन अनादि व नित्य सत्ता है। यह अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, जन्म मरण धर्मा तथा मनुष्य योनि में कर्म करने में स्वतन्त्र तथा अपने कर्मों का फल भोगने में परतन्त्र होती है। यदि परमात्मा जीवात्मा को उसके पूर्व जन्म के कर्मों वा प्रारब्ध के अनुसार उसे प्राणी योनि (जाति), आयु और भोग प्रदान न करें तो आत्मा का अस्तित्व अपनी महत्ता को प्राप्त नहीं होता। परमात्मा का यह अनादि व नित्य विधान है कि वह प्रकृति नामक सूक्ष्म, त्रिगुणों सत्व, रज व तम से युक्त कणों व परमाणुओं की पूर्वावस्था से इनमें विकार उत्पन्न कर महतत्व, अहंकार, पांच तन्मात्रायें एवं पंचमहाभूत आदि पदार्थों का निर्माण करते हैं और ऐसा करके इस स्थूल सृष्टि व जगत सहित इसमें विद्यमान सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, नक्षत्र, ग्रह व उपग्रहों को अस्तित्व में लाते हैं। परमात्मा व जीवात्मा की भांति प्रकृति भी अनादि तथा नित्य सत्ता व पदार्थ है। प्रकृति व आत्मा को परमात्मा बनाते नहीं हैं। परमात्मा को भी कभी किसी ने बनाया नही है। इन तीन पदार्थों का अनादि काल से अस्तित्व विद्यमान है और सर्वदा रहेगा। इन तीन पदार्थों में कभी किसी एक भी पदार्थ का भी अभाव नहीं होगा। विचार करने पर विदित होता है कि हमारी सृष्टि जैसी आज वर्तमान है ऐसी ही सृष्टि अनादि काल में भी रही है और भविष्य में अनन्त काल तक रहेगी। इसमें प्रलय व कल्प नाम से रात्रि व दिवस के समान अवस्थायें परमात्मा के द्वारा उत्पन्न की जाती रहेंगी और हम सब अनन्त जीवात्मायें अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखते हुए सृष्टिकाल में अपने कर्मानुसार मनुष्य आदि नाना योनियों में जन्म लेते रहेंगे। यह सिद्धान्त व ज्ञान वेदों व वैदिक परमम्पराओं की समस्त संसार को महान देन है जिससे वैदिक धर्म एवं संस्कृति न केवल सबसे प्राचीन सिद्ध होती है अपितु सब धर्म, मत, पन्थों व संस्कृतियों से महान व श्रेष्ठ भी सिद्ध होती है।

संसार में हम देखते हैं कि मनुष्य का जन्म माता व पिता से एक शिशु के रूप में होता है। माता के गर्भ काल में जीवात्मा पिता के शरीर से माता के शरीर में प्रविष्ट होती है। इससे पूर्व यह आत्मा संसार व आकाश में रहती है। आकाश में आने से पूर्व यह अपने पूर्वजन्म में किसी प्राणी योनि में रहती है जो मनुष्य व अन्य कोई भी योनि हो सकती है। परमात्मा जीवात्मा को प्रेरणा कर उसे गति प्रदान करते हैं व उसके योग्य पिता के शरीर में प्रविष्ट कराते हैं जहां से वह माता के गर्भ में प्रविष्ट होती है। दस माह तक माता के गर्भ में जीवात्मा का बालक व कन्या का शरीर बनता है और इसके बनने पर जन्म होता है। जन्म होने के बाद माता के दुग्ध व समय समय पर अन्य पदार्थों के सेवन से शरीर में वृद्धि होती है। समय के साथ शरीर बढ़ता व वृद्धि को प्राप्त होता जाता है। बालक इस अवधि में माता की भाषा को बोलना सीखता है, अपने परिवार के सदस्यों को पहचानता है और उन्हें सम्बन्ध सूचक दादा, दादी, पिता, माता, बुआ, चाचा, चाची आदि शब्दों से सम्बोधित भी करने लगता है। हम देखते हैं कि मनुष्य का आत्मा शरीर वृद्धि की अवस्था सहित युवावस्था में तथा बाद में भी जब तक वह स्वस्थ रहता है शरीर में सुख पूर्वक निवास करता है। स्वस्थ, निरोग तथा बलवान शरीर का सुख उत्तम सुख होता है। निरोगी काया को सुखी जीवन का आधार बताया जाता है। युवावस्था व्यतीत हो जाने पर मनुष्य के शरीर में उसके पूर्वकाल के किये भोजन, निद्रा की कमी व अधिकता, व्यायाम व अनियमित जीवन आदि के कारण कुछ विकार होने से रोग उत्पन्न होने लगते हैं। इन रोगों के कारण शरीर का बल घटता है। अस्वस्थ शरीर में आत्मा को कष्टों का अनुभव होता है। इन्हें दूर करने के लिए चिकित्सा, ओषधियों सहित भोजन छादन, व्यायाम, प्राणायाम, तप, सत्य कार्यों का सेवन, ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, माता-पिता तथा वृद्धों की सेवा, अतिथि सत्कार आदि पर ध्यान देना होता है। ऐसा करके हम अधिक समय व कालावधि तक मनुष्य अपने शरीर को स्वस्थ व निरोग रख सकते हैं। 

पचास व साठ वर्ष के बाद हम मनुष्य के शरीर में अस्वस्थता व बल की कमी का होना अनुभव करते हैं। ऐसे समय में कुछ रोग भी अधिकांश मनुष्यों में होना आरम्भ हो जाते हैं। आजकल रक्तचाप, मधुमेह, मोटापा आदि रोग बहुतायत में देखे जाते हैं। इन रोगों से मनुष्य के शरीर में बल की कमी आती है। आयु बढ़ने के साथ शरीर का भार भी कम हो जाता है। चेहरे पर पहले जैसी सुन्दरता व रौनक नहीं रहती। धीरे धीरे शरीर में रोगों की तीव्रता में वृद्धि देखने को मिलती है। सत्तर व उससे अधिक आयु में रोगों का प्रभाव बढ़ता हुआ देखा जाता है। ऐसे समय व परिस्थिति में मनुष्य को अपने दैनिक कर्तव्य पूरे करने में भी कुछ कुछ बाधायें आना आरम्भ हो जाती है। जो मनुष्य इस आयु में भी पूर्ण स्वस्थ रहते हैं वह भाग्यशाली होते हैं। इसका कारण उनका आरम्भ की अवस्था से संयम तथा नियमित जीवन जीना होता है। ऐसे लोगों ने आरम्भ से ही स्वास्थ्य के नियमों का पालन किया होता है। ऐसा लगता है कि उन्होंने जीवन के आरम्भकाल में जो संयम, शुद्ध व स्वास्थ्यवर्धक भोजन, आसन, प्राणायाम, व्यायाम, समय पर सोना व जागना, शुद्ध व पवित्र विचार, स्वस्थ चिन्तन व दृष्टिकोण रखना तथा स्वास्थ्य के अन्य नियमों का पालन किया होता है, उनका स्वास्थ्य उन्हीं कार्यों का परिणाम होता है। जो मनुष्य पूर्ण स्वस्थ नहीं होते हैं, उन्हें नाना प्रकार के शारीरिक कष्ट सताते हैं। इससे आत्मा में क्लेश होता है। आजकल देश में एलोपैथी, अस्पतालों एवं सभी पद्धति के चिकित्सकों की अधिकता है। लोग उपचार के लिए प्रायः एलोपैथी का चुनाव करते हैं जो अत्यधिक खर्चीली होती है। रक्तचाप, हुदय, मधुमेह, मोटापा व अन्य कुछ रोग इन एलोपैथी उपचार पद्धति से पूर्णतया तो किसी के भी ठीक नहीं होते अपितु अत्याधिक दवाओं के सेवन से भी शरीर अधिक दुर्बल होता जाता है। एक अवस्था ऐसी आती है कि शरीर पर मनुष्य का पूर्ण नियन्त्रण नहीं रहता और नाना प्रकार की कठिनाईयों का अनुभव होता है। ऐसा होते हुए ही मनुष्य का अन्तिम समय आ जाता है और वह अस्पतालों व घरों में मृत्यु का शिकार हो जाता है। किसी मनुष्य की मृत्यु का मूल्याकंन करते हैं तो यही ज्ञात होता है कि रोग, अस्वस्थता व निर्बलता ही मनुष्य की मृत्यु का कारण हुआ करती है। हमें जीवन में निरोग व स्वस्थ रहने के सभी उपायों व साधनों का सेवन करना चाहिये। इसके लिये हमें अपने ऋषियों के ज्ञान आयुर्वेद एवं वैदिक जीवन पद्धति को अपनाना चाहिये। ऐसा करने से हम स्वस्थ जीवन व लम्बी आयु को प्राप्त हो सकते हैं और बलवान होने से हमें कष्ट भी कम होते हैं व उन्हें सहन करने की अधिक शक्ति उपलब्ध होती है। 

यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है कि स्वस्थ एवं बलवान शरीर में ही मनुष्य की आत्मा निवास करती है और जब तक वह स्वस्थ रहता है उसकी मृत्यु उससे दूर रहती है। इस सिद्धान्त को जानकर हमें अपने जीवन में, हम जीवन की जिस अवस्था में भी हों, वहीं से स्वास्थ्य के सभी नियमों का पालन करना आरम्भ कर देना चाहिये। रोगों को दूर करने के उपाय करने चाहियें और स्वस्थ कैसे रहें, इस पर चिन्तन करते हुए उसके लिए आवश्यक साधनों को अपनाना चाहिये। भोजन पर हमारा पूरा नियंत्रण होना चाहिये। हानिकारक पदार्थ फास्ट फूड, तले व बासी पदार्थों का सेवन न करें तो अच्छा है। इनका पूर्णरूप से त्याग करना ही भविष्य में स्वस्थ जीवन व्यतीत करने का आधार हो सकता है। हमें वैदिक जीवन पद्धति के अनुसार प्रातः 4 से 5 बजे तक जाग जाना चाहिये और नियमित शौच के बाद वायु सेवन व भ्रमण, स्नान, ईश्वरोपासना व अग्निहोत्र, माता-पिता आदि वृद्ध परिवार जनों की सेवा आदि कार्यों को करना चाहिये। स्वाध्याय में प्रमाद नहीं करना चाहिये। स्वाध्याय में हम सत्यार्थप्रकाश का प्रथम अध्ययन पूरा करें। इससे हमें इसके बाद अन्य किन किन ग्रन्थों का अध्ययन करना है, उसकी प्रेरणा मिलती है। इसके बाद हम उपनिषदों, दर्शनों तथा वेद वा वेदभाष्य का भी अध्ययन कर सकते हैं। उनके मध्य व बाद में हम बाल्मीकि रामायण तथा संक्षिप्त महाभारत का भी अध्ययन कर सकते हैं। ऋषि दयानन्द तथा अन्य महापुरुषों के जीवन चरित्रों का अध्ययन भी हमें करना चाहिये। हमें अपना ध्यान स्वास्थ्य के नियमों पर केन्द्रित रखना चाहिये और वैदिक जीवन पद्धति को अपनाना चाहिये क्योंकि वैदिक जीवन पद्धति ही संसार में श्रेष्ठ पद्धति है। हमारे आचार, विचार, चिन्तन व हमारा जीवन शुद्ध व पवित्र होना चाहिये। इस जीवन पद्धति को अपनाकर ही हमारे जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष प्राप्त होते हैं। हमारा जीवन महर्षि दयानन्द के जीवन से प्रेरणा प्राप्त कर जीनें से ही सफल होगा, ऐसा हम अनुभव करते हैं। ओ३म् शम्। 

वेलेंटाइन डे, बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना


भारत ने संसार को प्रेम और भ्रातृत्व का सन्देश दिया | हमारे यहाँ प्रेम, की वैसी परिभाषा नहीं है जैसी कि पश्चिमी देशों में है | किन्तु आज का तथाकथित एलीट वर्ग पश्चिम से आयी प्रत्येक परंपरा को प्रतिष्ठा की बस्तु (स्टेटस सिम्बल) मानकर उसके पीछे दौड़ पड़ते हैं | योरप में प्रेम का प्रतीक माना जाने वाला वेलेंटाइन डे अब वेलेंटाइन वीक बनगया है | किंवदंती है कि रोम का राजा क्लॉ डियस विवाह करने की प्रथा के विरुद्ध था | यह भी कहा जाता है कि योरप में कुछ सदी पूर्व तक विवाह की परंपरा सामान्य प्रचलन में न थी | वेलेंटाइन चाहते थे कि वासना की स्वेच्छाचरिता को समाप्त कर लोग विवाह करें किन्तु उनके इस अभियान को वहाँ दण्डनीय माना गया परिमाण यह हुआ कि उन्हें मृत्यु दण्ड मिला | जिन युगलों के उन्होंने विवाह कराए वे प्रतिवर्ष उनकी मृत्यु के दिन श्रद्दांजलि देने लगे और इस प्रकार वेलेंटाइन डे की परंपरा आरम्भ हुई | किन्तु भारत में इसका क्या औचित्य है ? यह चिंतन का विषय है | क्योंकि हमारे यहाँ तो गृहस्थ आश्रम ही समाज की रीढ़ है | भारत में कोई पुत्री अपने पिता या माँ से कहे,पापा यू आर माई वेलेंटाइन तो इसका अर्थ होगा कि पिता जी आप मेरा विवाह कराने वाले व्यक्ति हैं, आपका आभार | भारत में तो माता-पिता की इच्छा से विवाह करना श्रेष्ठ माना जाता है और यहाँ विवाह मत करो ऐसा कहने वाले लोग भी नहीं है फिर इसमें वेलेंटाइन के नाम पर क्या जोड़ें-घटाएँ यह समझ से परे है |
यदि दूसरे मिथक को मान लें जिसके अनुसार वेलेंटाइन किसी राजकुमारी से प्रेम करते थे उसे लिखे प्रेमपत्र के अंत में तुम्हारा वेलेंटाइन,ऐसा लिखा था | प्रेम करने के अपराध में उन्हें फाँसी दी गई इसीलिए वे प्रेम करने वालों के लिए प्रेरणा बन गए | यदि ऐसा है तो फिर लैला मजनू,हीर-राँझा के प्यार में कौन सी कमी रह गई कि उनकी याद में प्रेम दिवस या प्रेम या सप्ताह नहीं मनाए जाते ? हमारे यहाँ प्रेम दिवानी मीरा को पूजा जाता है किन्तु ध्यान रहे भारतीय समाज प्रेम के वासना रहित स्वरुप या कहें सात्विक प्रेम का ही अभिनन्दन करता है | वासना जनित प्रेम या प्रेम के नाम पर होने वाली कथित काम-क्रीडाओं को यहाँ सम्मान की द्रष्टि से नहीं देखा जाता |
आधुनिक वेलेंटाइन वीक के जनक हैं यूरोपीय बाजार | उपहार बनाने-बेचने वाली कंपनियों ने जब यह देखा कि क्रिसमस के बाद वेलेंटाइन डे के आस-पास भी ग्रीटिंग कार्डों की डिमांड बढ़ जाती है | तो उन्होंने इसे प्रमोट करना आरंभ किया, वेलेंटाइन को दी जाने वाली श्रद्धांजलियाँ धीरे-धीरे उल्लास और प्रेम के उत्सव में बदल दी गईं | प्रार्थनाएँ प्रपोज डे में रूपांतरित हो गईं और देखते-ही-देखते यह उत्सव वेलेंटाइन वीक बना गाया | अब पूरे सप्ताह बाजार में रौनक रहे,बिक्री बढ़े इसके लिए एक दिन रोज डे मनाकर गुलाब बेचे गए और करोड़ों अरबों का व्यापार खड़ा कर लिया गया फिर चॉकलेट वाले इसमें कूद पड़े, एक दिन में कई महीने के बरावर चॉकलेट की विक्री होने लगी | बड़े-बड़े आकर्षक विज्ञापन गढ़े गए विवाहित लोगों के घरों में प्रेमिका की भाँति पत्नी को चॉकलेट खिलाई जाने लगीं | अब फेसबुक आदि सोशल मीडिया ने इसे घर-घर में पहुँचा दिया | एक दिन टैडी डे बना दिया,इतने सब के बाद चौदह फरबरी को क्या करें यह सबसे बड़ी समस्या है | क्योंकि यह दिन तो शोक का दिन है तो इस दिन या तो वेलेंटाइन को श्रद्धांजलि अर्पित करो या एक सप्ताह से चले आ रहे प्रेम प्रसंग को विवाह में परिणत करो किन्तु यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं होता | जो होता है वह बहुत ही निंदनीय है, युवक-युवतियाँ और अधिकांश नाबालिग बच्चे दिन भर पार्कों,पर्यटन स्थलों पर भौंडी हरकते या कहें कि अश्लील व अमर्यादित आचरण करते दीखते हैं | सज्जन लोग आज के दिन सार्वजनिक स्थानों पर सपरिवार जाने से भी बचते हैं क्योंकि ऐसे अशोभनीय दृश्य कोई भी भला आदमी अपने बच्चों के साथ देखना पसंद नहीं करता | कई स्थानों पर पुलिस दिन भर इन युगलों को भगाती दीखती है तो कई स्थानों पर सामाजिक कार्यकर्त्ताओं को इन्हें खदेड़ना पड़ता है | बाजारवाद ने प्रेम के नाम पर जो वितंडा खड़ा किया है वह बहुत ही भयानक है | आज नई पीढ़ी के समक्ष प्रबोधन की आवश्यकता है कि प्रेम का वेलेंटाइन रूप हमारे सामाजिक ढाँचे के अनुरूप नहीं है |
डॉ.रामकिशोर उपाध्याय

वेद व्यास से कहना है


—विनय कुमार विनायक
हे वेद व्यासदेव कृष्णद्वैपायन!
आप वेदवेत्ता!
अठारह पुराणों के ज्ञाता,
महाभारत महाकाव्य के रचयिता!

आपके परपितामह ब्रह्मर्षि वशिष्ठ
वैदिक श्रुति-सुक्त के मंत्रवेत्ता!
पितामह शक्ति/पिता पराशर
और स्वयं आप जन्मत: क्या थे?

‘गणिका-गर्भ संभूतो, वशिष्ठश्च महामुनि:।
तपसा ब्राह्मण: जातो संस्कारस्तत्र कारणम्।।
जातो व्यासस्तु कैवर्त्या: श्वपाक्यास्तु पराशर:।
वहवोअन्येअपि विप्रत्यं प्राप्ताये पूर्वमद्विजा।।‘

आपने हीं तो महाभारत में कहा था-
गणिका के गर्भ से उत्पन्न महामुनि
वशिष्ठ तप से ब्राह्मण हो गए,
स्वयं आप व्यासदेव मल्लाही से और
श्वपाकी चाण्डाली से पिता पराशर हुए!

और दूसरे भी जो पूर्व में अद्विज थे,
किन्तु संस्कार से विप्र ब्राह्मण हो गए!

फिर क्यों प्रोन्नति के महापट को वेद-भेद के ताले
और स्मृति-विस्मृति के कीलों से झटपट बंद किए?

उन सर्वहारा जन के लिए जहां से आप उठ आए थे!
वाणी और सत्ता पर छाए थे,ब्राह्मणत्व को पाए थे!

आपने जब देखा सत्तासीन स्वजननी सत्यवती
मत्स्यगंधा को वंशहीनता के कगार पर हूक उठी
दिल में तोड़ दिया धर्म बंधन नियोग के बहाने!

अनुज विधवाओं को भोगकर
धृतराष्ट्र-पाण्डु सा संतति सृजनकर
घोषित किया अभिजात कुलीन क्षत्रिय!

उद्देश्य क्या था?
पुश्त-दर-पुश्त राज सत्ता को पाना!

किन्तु जहां स्वार्थ का लेश नहीं था
उत्तराधिकार का तनिक क्लेश नहीं था
वहां धर्मधुरीन आत्मज विदुर को
नियतिवश छोड़ा शूद्रत्व पर आंसू बहाने!

जब जीवन के चौथेपन में ब्राह्मणी परम्परा से
प्राप्त स्वज्ञानगंगा को विरासत में देने की सोची
आपने शुकी अनार्य बाला से ब्याहकर/जनकर
शुकदेव मुनि को उतराधिकार दिया ब्राह्मणत्व का!

उद्देश्य क्या था?
ऋषि परंपरा के पितृगण को लुप्त पिण्डक
होने से बचाना या अति ख्यात
वेद विस्तारक छवि को जातिवाद में ढालना!

किन्तु क्या यह नई बात थी?
नहीं-नहीं एक परम्परा पूर्व से चली आ रही थी
ब्राह्मणत्व को जाति में ढालने की
क्षत्रियत्व को आस्तीन में पालने की!

जिसने प्रथमतः ब्राह्मण भृगु बनकर
ब्राह्मणत्व अहं के महादंभ का बीज वपन
किया सृष्टि पालक विष्णु की छाती पर
मूंग दलकर/भृगुलता उगाकर!

मनु के बहाने मनुस्मृति लिखकर कैद किया
ब्राह्मणत्व को वर्ण-जाति विरासत की झोली में!

ब्रह्मर्षि वशिष्ठ बनकर
क्षत्रिय से ब्राह्मण बने राजर्षि विश्वामित्र के
ब्राह्मणत्व को दुत्कारा
शूद्र शम्बूक के ब्राह्मणत्व को नकारा!

उसी परम्परा ने परशुराम बनकर
ब्राह्मणवाद विरोधी क्षत्रियों को ललकारा!

हैहय यदुवंशी क्षत्रिय सहस्त्रार्जुन के
सहस्त्र भुजदंडों को मरोड़ कर बनाया शौण्डिकेरा;
कलचुरी राजपूत से वर्णाधम वणिक; कलसुरी-कलवारा
वृष्णि-वार्ष्णेय,माधव-मधुवंशी, शौरि,सुरी, सुरसेनी
ब्रह्मास्त्र जिज्ञासु सूरि कर्ण को सूतपुत्र कहकर फटकारा!

हे वेदवेत्ता!
आपके सम्मुख वही परंपरा गुरु द्रोण बनकर उभरा
जिसे नहीं कर्ण/नहीं एकलव्य सिर्फ राजभवन था प्यारा!

जिसने वनवासी का अंगूठा कटाकर ब्राह्मणत्व को मारा
बोटी-बोटी कर ब्रह्मणत्व का किया जाति में बंटवारा!
—विनय कुमार विनायक

माता पिता की सेवा से आशीर्वाद एवं जीवन में सुख मिलता है

-मनमोहन कुमार आर्य
मनुष्य एक मननशील प्राणी है। इसका आत्मा ज्ञान व कर्म करने की शक्ति से युक्त होता है। मनुष्य को ज्ञान अपने माता, पिता व आचार्यों से मिलता है। माता-पिता सन्तानों को श्रेष्ठ आचरण की शिक्षा देते हैं। आचार्य भी वेद व ऋषियों के ग्रन्थों सहित आधुनिक विषयों का ज्ञान अपने अपने शिष्य व विद्यार्थियों को कराते हैं। ऐसा करके ही मनुष्य ज्ञानवान होता है। जिस मनुष्य के माता पिता धार्मिक विद्वान होते हैं उतना ही अधिक उन सन्तानों का उपकार होता हैं। धर्म का अर्थ मनुष्य जीवन में धारण करने योग्य श्रेष्ठ गुणों व कर्तव्यों का धारण व आचरण करना होता है। धार्मिक माता पिता का अर्थ भी सत्य ज्ञान से युक्त तथा श्रेष्ठ आचार करने वाले माता पिता होते हैं। ऐसे माता पिता की सन्तानें उत्तम होती हैं। सन्तानों को माता पिता से सत्याचरण सहित श्रेष्ठ आचरण की शिक्षा मिलती है। यदि मनुष्य को श्रेष्ठ व उत्तम आचरण वाले वेदों के ज्ञानी आचार्य मिल जाते हैं तो मनुष्य का सर्वविधि कल्याण होता है। धार्मिक माता पिता तथा आचार्यों से पालन पोषण व विद्या को प्राप्त होकर मनुष्य के व्यक्तित्व का समुचित विकास होता है। वह अपने कर्तव्यों को भली भांति जानता व समझता है तथा उनके पालन में वह तत्पर रहता है। अपने सभी कर्तव्य का पालन करना सभी मनुष्यों का धर्म होता है। जो मनुष्य अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते वह देश व समाज में निन्दित होते हंै। सत्य के विरुद्ध व्यवहार करना सभी के लिए अनुचित होता है। मनुष्य को लोभ में फंस कर कभी भी कोई अकर्तव्य व अनुचित कार्य नहीं करना चाहिये। मनुष्य को अपने किए हुए प्रत्येक कर्म का फल ईश्वर द्वारा समयान्तर पर मिलता है। मनुष्य जीवन में ऐसा कोई भी कर्म नहीं होता जिसे मनुष्य करे और उसे उसका फल न मिले। कर्म फल सिद्धान्त का आवश्यक मन्त्र है ‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं’ अर्थात् मनुष्य को अपने प्रत्येक कर्म का फल सुख व दुःख के रूप में अवश्य ही भोगना पड़ता है। हमारे जीवन में हमें जो सुख व दुःख मिलते हैं, जिसका कारण हमें समझ में नहीं आता, वह हमारे अतीत व पूर्वजन्म में किये कर्म ही हुआ करते हैं। अतः मनुष्य को अशुभ कर्मों का त्याग तथा अपने कर्तव्य कर्मों का आलस्य व प्रमाद से रहित होकर सेवन व पालन करना चाहिये। ऐसा आचरण ही हम विद्वानों व महापुरुषों के जीवन में देखते हैं।

सभी सन्तानों को अपने माता व पिता की श्रद्धापूर्वक सेवा करनी चाहिये। माता पिता की सेवा व पूजा करना वैदिक धर्म एवं संस्कृति का मुख्य सिद्धान्त है। वैदिक परम्परा में कहा गया है कि मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव। मनुष्य के लिए संसार में सबसे अधिक सत्कार करने योग्य अपनी माता ही होती है। माता को देवी कहा जाता है। देवी या देवता दिव्य गुणों से युक्त तथा दूसरों पर उपकार करने वाले स्त्री व पुरुषों को कहते हैं। माता, पिता व आचार्य चेतन देव होते हैं। पृथिवी, अग्नि, जल, वायु तथा आकाश आदि जड़ देवता होते हैं। इन जड़ पदार्थों में भी अनेक दिव्य गुण हैं जिनका लाभ व उपकार हम अपने जीवन में इनसे लेते हैं। इसलिये इन पदार्थों के प्रति भी हमारा कृतज्ञता व श्रद्धा का भाव होना चाहिये। माता व पिता संसार के वह दो महान व्यक्तित्व होते हैं जिनसे सन्तान का जन्म होता है। माता पिता को गर्भ धारण व प्रसव में अनेक कष्ट व दुःख होते हैं। दस महीने तक निरन्तर सन्तान को गर्भ में धारण करना होता है। इससे माता को अकथ कष्ट होता है। यह कष्ट सहन करना कोई आसान काम नहीं होता। प्रसव में भी तीव्र पीड़ा होती है। पुराने समय में तो कई माताओं की प्रसव पीड़ा से मृत्यु तक हो जाती थी। सन्तान के जन्म के बाद सन्तान की रक्षा व उसके पालन में भी माता व पिता दोनों को ही अनेक कष्ट व दुःख उठाने पड़ते हैं।

 सभी माता-पिता अपनी सन्तान को शिक्षित करते हैं। उसे स्वयं पढ़ाते व विद्यालय में भेजकर भारी व्यय उठाते हैं। उसके सुखों व भविष्य के लिये चिन्तित रहते हैं। अपने बच्चों को आश्रय व अच्छा निवास देते हैं और अपने से भी अधिक अपनी सन्तान का ध्यान रखते हैं। बड़ा होने पर सन्तान का विवाह आदि कर अपने कर्तव्य से निवृत्त होते हैं। सन्तान बड़ी होती है तो माता-पिता भी वृद्धावस्था के द्वार पर पहुंच जाते हैं। इस अवस्था में उनको अपनी सन्तानों से अच्छे मधुर व्यवहार सहित सेवा व पोषण की आवश्यकता होती है। वृद्धावस्था में वह कोई काम नहीं कर सकते। उन्हें कुछ रोग भी आ घेरते हैं। ऐसे समय में माता पिता को आश्रय सहित उनको भोजन, वस्त्र, ओषधि, चिकित्सा, सेवा व सन्तानों के मधुर व्यवहार की आवश्यकता होती है। अतः सन्तान को अपने इन सभी कर्तव्यों की पूर्ति श्रद्धा एवं निष्ठा से अवश्य ही करनी चाहिये। जो सन्तान ऐसा करते हैं वह यशस्वी एवं प्रशंसित होते हैं। न केवल माता-पिता का अपितु ईश्वर का आशीर्वाद भी उनको प्राप्त होता है। माता-पिता की सेवा सत्कर्तव्य होने से सन्तानों को इसका तात्कालिक एवं प्रारब्ध कर्मों के रूप में परजन्म में भी लाभ प्राप्त होता है। वह जन्म जन्मान्तरों में माता पिता की आत्माओं से निकले आशीर्वादात्मक वचनों से उन्नति करते हुए सुखों को प्राप्त होते हैं। अतः सभी सन्तानों को अपने माता-पिताओं के प्रति कर्तव्य पालन पर ध्यान देना चाहिये और प्रतिदिन उनकी सेवा करते हुए उन्हें किसी प्रकार का किंचित भी कष्ट नहीं होने देना चाहिये। यही हमारे वेद आदि शास्त्रों का उपदेश है। 

अनादि, नित्य तथा सनातन वैदिक धर्म में सभी मनुष्यों के पांच कर्तव्य होते हैं जिनमें तीसरा कर्तव्य व धर्म पितृयज्ञ करना होता है। यह पितृयज्ञ माता, पिता को सत्करणीय चेतन देव मानकर उनकी श्रद्धापूर्वक सेवा से उनको सन्तुष्ट करना होता है। इतिहास में भी माता पिता की सेवा के अनेक उदाहरण मिलते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम राम अपने माता-पिता के प्रति आदर बुद्धि रखते थे। राज्य के अधिकारी होने पर भी वह अपने पिता के वचनों का पालन करने के लिए बिना पिता द्वारा आज्ञा दिए ही 14 वर्ष के लिए वन में चल गये थे। उन्होंने अपनी सभी माताओं एवं पिता का आदर्श मनुष्य के रूप में पालन किया था। आज अनेक युग व्यतीत हो जाने पर भी उनका यश पूरे विश्व में व्याप्त है। श्रवण कुमार ने भी अपने माता पिता की आदर्श सेवा की। आज भी हम समाज में माता पिता की श्रद्धा व निष्ठा पूर्वक सेवा करने वाले तथा न करने वाले दोनों प्रकार की सन्तानों को देखते हैं। हमें वैदिक परम्पराओं का पालन करते हुए नित्य प्रति अपने माता पिता की व्रतपूर्वक श्रद्धापूर्वक सेवा करनी चाहिये। ऐसा करके ही हमारा पितृयज्ञ करना सफल होगा। जो सन्तानें अपने माता-पिता की सेवा नहीं करती वरन् उनको अपने व्यवहार व आचरणों से अनुचित कष्ट पहुंचाती हैं वह निन्दनीय होती हैं। वह सामाजिक नियमों से तो बच सकती हैं परन्तु परमात्मा की कर्म फल व्यवस्था से बच नहीं सकती। उनको भी भविष्य में वृद्ध होना है। उनको भी अपनी सन्तानों के प्रेम, सहयोग एवं सेवा की आवश्यकता होगी। यदि उन्होंने अपने माता-पिता की सेवा नहीं की होगी तो उनको शिकायत करने का अवसर नहीं मिलेगा। 

जो मनुष्य किसी से कुछ भी उपकार लेता है और उसके प्रति कृतज्ञ नहीं होता वह कृतघ्न कहलाता है। कृतघ्नता सबसे बड़ा पाप होता है। हमें अपने जीवन व कर्मों पर ध्यान देना चाहिये और कृतघ्न कदापि नहीं होना चाहिये। हमें परमात्मा द्वारा प्रवृत्त वैदिक धर्म मर्यादा के अनुसार ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना उपासना करने सहित अपने माता, पिता, वृद्ध पारिपारिक जनों तथा आचार्यों की सेवा करनी चाहिये और जीवन में यथाशक्ति परोपकार व दान आदि के कार्य करने चाहिये। ऐसा करके ही हमारा वर्तमान व भविष्य का जीवन तथा परजन्म उन्नत व सुखदायक होंगे। 

पेरिस समझौते के लक्ष्य पूरे होने से बच सकती हैं लाखों जानें-लैंसेट

एक स्वस्थ जनसँख्या काफ़ी कुछ कहती है अपने आस पास के पर्यावरण और जलवायु के बारे में। आप अपने शरीर का ख्याल अगर सही मायने में रख रहे हैं, तो आप पृथ्वी और पर्यावरण का ख्याल रख रहे हैं।

इसी बात की तस्दीक करती है ये ताज़ी रिपोर्ट। लैंसेट प्लेनेटरी हेल्थ जर्नल के एक विशेष अंक में स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन पर लैंसेट काउंटडाउन के एक ताज़ा शोध में जलवायु परिवर्तन से लड़ाई में स्वास्थ्य को प्राथमिकता बनाने से होने वाले लाभों पर प्रकाश डाला गया है। शोध के अनुसार यदि देश पेरिस समझौते के अनुरूप योजनाएं अपनाते हैं तो जन स्वास्थ्य पर बेहद सकारात्मक असर हो सकते हैं।

अध्ययन में नौ देशों पर शोध किया गया है और ये वो देश हैं जो दुनिया की आधी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं और 70 फ़ीसद कार्बन उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार हैं। यह देश हैं ब्राज़ील, चीन, जर्मनी, भारत, इंडोनेशिया, नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रीका, ब्रिटेन और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका। पेरिस हस्ताक्षरकर्ता देश इस वर्ष COP26 से पहले अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों को बेहतर और संशोधित कर रहे हैं क्योंकि तय कार्यक्रम के अनुसार उन्हें इसका प्रस्तुतीकरण पिछले साल करना था। वर्तमान में, यह राष्ट्रीय लक्ष्य इतने मज़बूत नहीं कि पेरिस समझौते के लक्ष्यों को प्राप्त कर सकें। इस शोध पत्र के लेखक इस बात पर जोर देते हैं कि बेहतर आहार, स्वच्छ हवा, और व्यायाम के माध्यम से जीवन और पृथ्वी को बचाया जा सकता है।

शोध के मुख्य लेखक और स्वास्थ्य और जलवायु पर लैंसेट काउंटडाउन के कार्यकारी निदेशक, इयान हैमिल्टन, जो की यूसीएल एनर्जी इंस्टीट्यूट में चेंज एंड एसोसिएट प्रोफेसर भी हैं, कहते हैं, “हमारी रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन से लड़ाई के उस फायदे पर नज़र डालती है जिसे अमूमन ध्यान में नहीं रखा जाता” वो आगे कहते हैं, “कार्बन शमन की बातें सभी करते हैं लेकिन उसके फायदे जल्दी नहीं दिखते। मगर स्वास्थ्य पर ध्यान केन्द्रित करने से नतीजे जल्द मिलते हैं। इसलिए, यह कहना गलत नहीं होगा कि पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने से जन स्वास्थ्य को बेहतर करने में बड़ी सफलता मिल सकती है।”

शोध में शामिल सभी नौ देशों के बीच, पेरिस समझौते के अनुरूप परिदृश्य बनने पर जहाँ 5.8 मिलियन लोगों की जान बेहतर ख़ुराक मिलने से बच सकती है, वहीँ स्वच्छ हवा और व्यायाम के साझा असर से 2.4 मिलियन जीवन बाख सकते हैं। शोध में पाया गया है कि सभी देशों को आहार में सुधार से सबसे अधिक लाभ होता है जबकि तीन-स्वास्थ्य मेट्रिक्स में से प्रत्येक का प्रभाव एक देश से दूसरे देश में भिन्न होता है।

बेहतर ख़ुराक से सबसे ज़्यादा फायदा जर्मनी में होने की उम्मीद है जहाँ प्रति लाख जनसंख्या पर अच्छी ख़ुराक 188 मौतों को टाल सकती है। जर्मनी के बाद आता है अमेरिका, जहाँ 171 मौतें टल सकती हैं, और उसके बाद आता है चीन जहाँ 167 मौतें टल सकती हैं।

यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है की शोध में पाया गया कि लाल मांस खाने से जुड़े जोखिम की तुलना में फल, सब्जियां, फलियां और नट्स को एक साथ ण ले पाने से ज़्यादा स्वास्थ्य समस्याएं खड़ी होती हैं।

द लैंसेट प्लेनेटरी हेल्थ के प्रधान संपादक डॉ एलेस्टेयर ब्राउन कहते हैं, “COP26 से पहले अब यही वक़्त है तमाम देशों के लिए अपनी जलवायु प्राथमिकताओं और लक्ष्यों का पुनरावलोकन करने का।”

आगे इसी विशेषांक में , विश्व स्वास्थ्य संगठन की पूर्व महानिदेशक मार्गरेट चैन कहती हैं, “एक स्वस्थ जनसँख्या भविष्य की स्वास्थ्य आपदाओं से निपटने के लिए बेहतर तरह से तैयार होगी। इस शोध के नतीजो के आधार पर देशों को अपनी कोविड -19 रिकवरी योजना भी बनानी चाहिए।

अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ता इंटरनेट शटडाउन

  • योगेश कुमार गोयल
    26 जनवरी को दिल्ली में हुई हिंसा के बाद हरियाणा के कई जिलों सहित सिंघु, गाजीपुर तथा टीकरी बॉर्डर पर सरकार के निर्देशों पर इंटरनेट सेवा बाधित की गई थी, जो विभिन्न स्थानों पर करीब दस दिनों तक जारी रही। हरियाणा में दूरसंचार अस्थायी सेवा निलंबन (लोक आपात या लोक सुरक्षा) नियम, 2017 के नियम 2 के तहत क्षेत्र में शांति बनाए रखने और सार्वजनिक व्यवस्था में किसी भी प्रकार की गड़बड़ी को रोकने के लिए इंटरनेट सेवाएं बंद करने के आदेश दिए गए थे। इंटरनेट आज न केवल आम जनजीवन का अभिन्न अंग बन चुका है बल्कि इस पर पाबंदी के कारण हरियाणा में कोरोना वैक्सीन कार्यक्रम भी प्रभावित हुआ। इंटरनेट सुविधा पर पाबंदी के कारण छात्रों की ऑनलाइन कक्षाएं बंद हो गई थी, इंटरनेट पर आधारित व्यवसाय ठप्प हो गए थे।
    विभिन्न सेवाओं और योजनाओं के माध्यम से एक ओर जहां सरकार ‘डिजिटल इंडिया’ के सपने दिखा रही है, अधिकांश सेवाओं को इंटरनेट आधारित किया जा रहा है, वहीं बार-बार होते इंटरनेट शटडाउन के चलते जहां लोगों की दिनचर्या प्रभावित होती है और देश को इसका बड़ा आर्थिक नुकसान भी झेलना पड़ता है। डिजिटल इंडिया के इस दौर में जिस तरह इंटरनेट शटडाउन के मामले लगातार बढ़ रहे हैं और लोगों को बार-बार नेटबंदी का शिकार होना पड़ रहा है, उससे भारत की छवि पूरी दुनिया में प्रभावित हो रही है। ब्रिटेन के डिजिटल प्राइवेसी एंड सिक्योरिटी रिसर्च ग्रुप ‘टॉप-10 वीपीएन’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले वर्ष भारत में कुल 75 बार इंटरनेट शटडाउन किया गया। कुल 8927 घंटे तक इंटरनेट पर लगी पाबंदी से जहां 1.3 करोड़ उपभोक्ता प्रभावित हुए, वहीं इससे देश को करीब 2.8 बिलियन डॉलर (204.89 अरब रुपये) का नुकसान हुआ। इंटरनेट पर जो पाबंदियां 2019 में लगाई गई थी, वे 2020 में भी जारी रहीं और भारत को 2019 की तुलना में गत वर्ष इंटरनेट बंद होने से दोगुना नुकसान हुआ। फेसबुक की पारदर्शिता रिपोर्ट में बताया गया था कि जुलाई 2019 से दिसम्बर 2019 के बीच तो भारत दुनिया में सर्वाधिक इंटरनेट व्यवधान वाला देश रहा था। वर्ष 2019 में कश्मीर में तो सालभर में 3692 घंटों के लिए इंटरनेट शटडाउन किया गया।
    ‘शीर्ष 10 वीपीएन’ की रिपोर्ट में बताया गया है कि बीते वर्ष विश्वभर में कुल इंटरनेट शटडाउन 27165 घंटे का रहा, जो उससे पिछले साल से 49 प्रतिशत ज्यादा था। इसके अलावा इंटरनेट मीडिया शटडाउन 5552 घंटे रहा। ब्रिटिश संस्था द्वारा इंटरनेट पर पाबंदियां लगाने वाले कुल 21 देशों की जानकारियों की समीक्षा करने पर पाया गया कि भारत में इसका जितना असर हुआ, वह अन्य 20 देशों के सम्मिलित नुकसान के दोगुने से भी ज्यादा है और नुकसान के मामले में 21 देशों की इस सूची में शीर्ष पर आ गया है। वर्ष 2020 में 1655 घंटों तक इंटरनेट ब्लैकआउट रहा तथा 7272 घंटों की बैंडविथ प्रभावित हुई, जो किसी भी अन्य देश की तुलना में सर्वाधिक है। रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनियाभर में नेटबंदी से होने वाले कुल 4.01 अरब डॉलर के नुकसान के तीन चौथाई हिस्से का भागीदार बना है। इंटरनेट शटडाउन के मामले में भारत के बाद दूसरे स्थान पर बेलारूस और तीसरे पर यमन रहा। बेलारूस में कुल 218 घंटों की नेटबंदी से 336.4 मिलियन डॉलर नुकसान का अनुमान है। रिपोर्ट में ‘इंटरनेट शटडाउन’ को परिभाषित करते हुए इसे ‘किसी विशेष आबादी के लिए या किसी एक स्थान पर इंटरनेट या इलैक्ट्रॉनिक संचार को इरादतन भंग करना’ बताया गया है और इस ब्र्रिटिश संस्था के अनुसार ऐसा ‘सूचना के प्रवाह पर नियंत्रण’ कायम करने के लिए किया जाता है।
    उल्लेखनीय है कि भारत में सरकार द्वारा इंटरनेट सेवाओं पर रोक लगाने के लिए अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग कानूनों का सहारा लिया जाता है, जिनमें कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर (सीआरपीसी) 1973, इंडियन टेलीग्राफ एक्ट 1885 तथा टेंपरेरी सस्पेंशन ऑफ टेलीकॉम सर्विसेज रूल्स 2017 शामिल हैं। पहले सूचना के प्रचार-प्रसार सहित इंटरनेट शटडाउन का अधिकार इंडियन टेलीग्राफ एक्ट 1885 तथा धारा-144 के तहत सरकार व प्रशासन को दिया गया था लेकिन टेंपरेरी सस्पेंशन ऑफ टेलीकॉम सर्विसेज रूल्स 2017 के अस्तित्व में आने के बाद इंटरनेट शटडाउन का फैसला अब अधिकांशतः इसी प्रावधान के तहत लिया जाने लगा है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 2016 में एक प्रस्ताव पारित किया गया था, जो इंटरनेट को मानवाधिकार की श्रेणी में शामिल करता है और सरकारों द्वारा इंटरनेट पर रोक लगाने को सीधे तौर पर मानवाधिकारों का उल्लंघन बताता है लेकिन यह प्रस्ताव किसी भी देश के लिए बाध्यकारी नहीं है।
    इंटरनेट शटडाउन किए जाने पर सरकार और प्रशासन द्वारा सदैव एक ही तर्क दिया जाता है कि किसी विवाद या बवाल की स्थिति में हालात बेकाबू होने से रोकने तथा शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए अफवाहों, गलत संदेशों, खबरों, तथ्यों व फर्जी तस्वीरों के प्रचार-प्रसार के जरिये विरोध की चिंगारी दूसरे राज्यों तक न भड़कने देने के उद्देश्य से ऐसा करने पर विवश होना पड़ता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सोशल मीडिया के जरिये कुछ लोगों द्वारा झूठे संदेश और फर्जी वीडियो वायरल कर माहौल खराब करने के प्रयास किए जाते हैं लेकिन उन पर शिकंजा कसने के लिए इंटरनेट पर पाबंदी लगाने के अलावा प्रशासन के पास और भी तमाम तरीके होते हैं। विश्वभर में कई रिसर्चरों का दावा है कि इंटरनेट बंद करने के बाद भी हिंसा तथा प्रदर्शनों को रोकने में इससे कोई बड़ी सफलता नहीं मिलती है, हां, लोगों का काम धंधा अवश्य चौपट हो जाता है और व्यक्तिगत नुकसान के साथ सरकार को भी बड़ी आर्थिक चपत लगती है। इंटरनेट पर बार-बार पाबंदियां लगाए जाने का देश को भारी नुकसान झेलना पड़ रहा है।
    सरकार द्वारा इंटरनेट के जरिये अफवाहों और भ्रामक तथा भड़काऊ खबरों का प्रसार रोकने के लिए इंटरनेट शटडाउन किया जाता है लेकिन इससे लोगों की जिंदगी थम सी जाती है क्योंकि रोजमर्रा की जिंदगी को चलाए रखने से जुड़ा हर कार्य अब इंटरनेट पर निर्भर जो हो गया है। ऐसे में ये सवाल उठने स्वाभाविक हैं कि एक ओर जहां सरकार हर सुविधा के डिजिटलीकरण पर विशेष बल दे रही है और बहुत सारी सेवाएं ऑनलाइन कर दी गई हैं, वहीं आन्दोलनों को दबाने के उद्देश्य से नेटबंदी किए जाने के कारण लोगों के आम जनजीवन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। किसी को अपना आधार कार्ड बनवाना या ठीक कराना हो, किसी सरकारी सेवा का लाभ लेना हो, ऑनलाइन शॉपिंग करनी हो, खाने का ऑर्डर करना हो या फिर ऑनलाइन कैब, टैक्सी, रेल अथवा हवाई टिकट बुक करनी हो, बिना इंटरनेट के इन सभी सुविधाओं का इस्तेमाल किया जाना असंभव है। इंटरनेट शटडाउन के चलते एक ओर जहां ऐसे क्षेत्रों में बैंकिंग सेवाओं पर प्रतिकूल असर पड़ता है, वहीं सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ उठाना भी लोगों के लिए मुश्किल हो जाता है। नेटबंदी की स्थिति में कोई अपनी फीस, बिजली व पानी के बिल, बैंक की ईएमआई इत्यादि समय से नहीं भर पाता तो बहुत से युवाओं को प्रतियोगी परीक्षाओं के फॉर्म भरने तथा इंटरनेट का उपयोग कर उनकी तैयारी करने में खासी परेशानियां झेलनी पड़ती हैं।
    एक अनुमान के अनुसार देश में आज 480 मिलियन से भी ज्यादा स्मार्टफोन यूजर्स हैं, जिनमें से अधिकांश इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। आज हमें जीवन के हर कदम पर इंटरनेट की जरूरत पड़ती है क्योंकि आज का सारा सिस्टम काफी हद तक कम्प्यूटर और इंटरनेट की दुनिया से जुड़ चुका है। सेल्युलर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सीओएआई) ने कुछ समय पूर्व बताया था कि देश में इंटरनेट शटडाउन के कारण हर घंटे करीब ढ़ाई करोड़ रुपये का नुकसान होता है। ‘सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेंटर’ (एसएलएफसी) भी चिंता जताते हुए कह चुका है कि डिजिटल इंडिया के इस दौर में हम ‘डिजिटल डार्कनेस’ की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसे में इस महत्वपूर्ण तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि इंटरनेट शटडाउन से लोगों की जिंदगी किस कदर प्रभावित होती है और देश की अर्थव्यवस्था को इसके कारण कितना बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता है। ऐसे में जरूरत है कुछ ऐसे विकल्प तलाशे जाने की, जिससे पूरी तरह इंटरनेट शटडाउन करने की जरूरत ही न पड़े। मसलन, प्रभावित इलाकों में पूरी तरह इंटरनेट बंद करने के बजाय फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम इत्यादि सोशल साइटों पर अस्थायी पाबंदी लगाई जा सकती है, जिससे विषम परिस्थितियों में भी इंटरनेट का इस्तेमाल कर लोग अपने जरूरी काम कर सकें।

बिदाई-बेला पर उपस्थित भावुक प्रसंगों से मिली सीख

नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आज़ाद की राज्यसभा से विदाई-बेला पर उपस्थित भावुक दृश्यों एवं प्रसंगों के आलोक में भारतीय मन-मिज़ाज और संसदीय परंपरा को बेहतर ढ़ंग से जाना-समझा जा सकता है। यह देश अपनी प्रकृति-परंपरा, मन-मिज़ाज में औरों से बिलकुल अलहदा है। इसे किसी और चश्मे से देखने पर केवल निराशा ही हाथ लगेगी, आधा-अधूरा निष्कर्ष ही प्राप्त होगा, पर गहराइयों में उतरने पर कोई यहाँ सहज ही अद्वितीय अनुभव और सार्थक जीवन-मूल्यों की थाती पा जाएगा। यहाँ प्रीति-कलह साथ-साथ चलते हैं, प्यार के साथ तक़रार जुड़ा रहता है। भारत की रीति-नीति-प्रकृति से अनजान व्यक्ति को गाँवों-चौराहों-चौपालों पर चाय के साथ होने वाली गर्मागर्म बहसों को देखकर अचानक लड़ाई-झगड़े का भ्रम हो उठेगा। पर चाय पर छिड़ी वे चर्चाएँ हमारे उल्लसित मन-प्राण, विचारों के आदान-प्रदान के जीवंत प्रमाण हैं। यहाँ मतभेद तो हो सकते हैं, पर मनभेद के स्थाई गाँठ को कदाचित कोई नहीं पालना चाहता। और मतभेद चाहे विरोध के स्तर तक क्यों न चले जाएँ, पर विशेष अवसरों पर साथ निभाना, सहयोग करना, हाथ बँटाना और काँधा देना हमें बख़ूबी आता है। हमारे यहाँ दोस्ती तो दोस्ती, दुश्मनी के भी अपने उसूल हैं, मर्यादाएँ हैं। मान-मर्यादा हमारी परंपरा का सबसे मान्य, परिचित और प्रचलित शब्द है। हम अपने-पराए सभी को मुक्त कंठ से गले लगाते हैं, भिन्न विचारों का केवल सम्मान ही नहीं करते, अपितु एक ही परिवार में रहते हुए भिन्न-भिन्न विचारों को जीते-समझते हैं और विरोध की रौ में बहकर कभी लोक-मर्यादाओं की कूल-कछारें नहीं तोड़ते। मर्यादा तोड़ने वाला चाहे कितना भी क्रांतिकारी, प्रतिभाशाली क्यों न हो, पर हमारा देश उसे सिर-माथे नहीं बिठाता! सार्वजनिक जीवन जीने वालों से तो हम इस मर्यादा के पालन की और अधिक अपेक्षा रखते हैं। यही भारत की रीति है, नीति है, प्रकृति है, संस्कृति है।

प्रधानमंत्री मोदी और गुलाम नबी आज़ाद के वक्तव्यों से भारत की महान संसदीय परंपरा का परिचय मिलता है। संसदीय परंपरा की मान-मर्यादा, रीति-नीति-संस्कृति का परिचय मिलता है। आज की राजनीति में कई बार इसका अभाव देखने को मिलता है। यह राजनीति की नई पीढ़ी के लिए सीखने वाली बात है कि भिन्न दल और विचारधारा के होते हुए भी आपस में कैसे बेहतर संबंध और संवाद क़ायम रखा जा सकता है? कैसे एक-दूसरे के साथ सहयोग और सामंजस्य का भाव विकसित किया जा सकता है। यह सहयोग-समन्वय-सामंजस्य ही तो भारत की संस्कृति का मूल स्वर है। हमने लोकतंत्र को केवल एक शासन पद्धत्ति के रूप में ही नहीं स्वीकारा, बल्कि उसे अपनी जीवनशैली, जीवन-व्यवहार का हिस्सा बनाया। लोकतंत्र हमारे लिए जीने का दर्शन है, आचार-व्यवहार-संस्कार है। कतिपय विरोधों-आंदोलनों आदि के आधार पर जो लोग भारत और भारत के लोकतंत्र को देखने-जानने-समझने का प्रयास करते हैं, बल्कि यों कहें कि दंभ भरते हैं, उन्हें संपूर्णता एवं समग्रता में भारत कभी समझ नहीं आएगा। भारत को समझने के लिए भारत की जड़ों से जुड़ना पड़ेगा, उसके मर्म और मूल को समझना पड़ेगा। उसकी आत्मा और संवेदना तक पहुँचना पड़ेगा। यह कुछ नेति-नेति, न इति, न इति या चरैवेति-चरैवेति जैसा मामला है। यहाँ गहरे पानी पैठने से ही मोती हाथ आएगा, अन्यथा सीप-मूंगे को ही मोती मान ठगे-ठिठके रहेंगें।

लोक मंगल की कामना और प्राणि-मात्र के प्रति संवेदना ही हमारी सामूहिक चेतना का ध्येय है, आधार है। आतंकी घटना के संदर्भ में ग़ुलाम नबी आजाद के इस कथन ”खुदा तूने ये क्या किया… मैं क्या जवाब दूँ इन बच्चों को… इन बच्चों में से किसी ने अपने पिता को गँवाया तो किसी ने अपनी माँ को… ये यहाँ सैर करने आए थे और मैं उनकी लाशें हवाले कर रहा हूँ” में यही चेतना-संवेदना छिपी है। कश्मीरी पंडितों के उजड़े आशियाने को फिर से बसाने की उनकी अपील, आतंकवाद के ख़ात्मे की दुआ और उम्मीद के पीछे भी यह संवेदना ही है। यह संवेदनशीलता ही भारतीय सामाजिक-सार्वजनिक और कुछ अर्थों में राजनीतिक जीवन का भी मर्म है। जो इसे जीता है, हमारी स्मृतियों में अमर हो जाता है। उनके इस बयान ने हर हिंदुस्तानी का दिल जीता है कि ”मैं उन खुशकिस्मत लोगों में हूँ जो कभी पाकिस्तान नहीं गया। लेकिन जब मैं वहाँ के बारे में पढ़ता हूँ या सुनता हूँ तो मुझे गौरव महसूस होता है कि हम हिंदुस्तानी मुसलमान हैं। विश्व में किसी मुसलमान को यदि गौरव होना चाहिए तो हिंदुस्तान के मुसलमान को होना चाहिए।” सचमुच उन्होंने अपने इस बयान से ऐसे सभी लोगों को गहरी नसीहत दी है जो कथित तौर पर बढ़ती असहिष्णुता का ढ़ोल पीटते रहते हैं या विद्वेष एवं सांप्रदायिकता की विषबेल को सींचकर विभाजन की राजनीति करते हैं।

वहीं गुलाम नबी आज़ाद के साथ बिताए गए पलों-संस्मरणों को साझा करते हुए भावुक हो उठना, सामाजिक-राजनीतिक जीवन में उनके योगदान की मुक्त कंठ से प्रशंसा करना- प्रधानमंत्री मोदी की उदारता, सहृदयता, संवेदनशीलता का परिचायक है। कृतज्ञता भारतीय संस्कृति का मूल स्वर है। उसे जी और निभाकर प्रधानमंत्री ने एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करते हुए स्वस्थ लोकतांत्रिक एवं सनातन परंपरा का निर्वाह किया है। ऐसे चित्र व दृश्य भारतीय लोकतंत्र की जीवंतता के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। दुर्भाग्य से इन दिनों ऐसे चित्र-दृश्य कुछ दुर्लभ-से हो गए हैं। संसदीय व्यवस्था में सत्ता-पक्ष व विपक्ष के बीच सतत संवाद-सहमति, सहयोग-सहकार, स्वीकार-सम्मान का भाव प्रबल होना ही चाहिए। यही लोकतंत्र की विशेषता है। इसी में संसदीय परंपरा की महिमा और गरिमा है। संभव है, इसे कुछ लोग कोरी राजनीति कहकर विशेष महत्त्व न दें, बल्कि सीधे ख़ारिज कर दें। परंतु मूल्यों के अवमूल्यन के इस दौर में ऐसी राजनीति की महती आवश्यकता है। ऐसी राजनीति ही राष्ट्र-नीति बनने की सामर्थ्य-संभावना रखती है। ऐसी राजनीति से ही देश एवं व्यवस्था का सुचारु संचालन संभव होगा। केवल विरोध के लिए विरोध की राजनीति से देश को कुछ भी हासिल नहीं होगा। विपक्ष को साथ लेना यदि सत्ता-पक्ष की जिम्मेदारी है तो विपक्ष की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह राष्ट्रीय हितों के मुद्दों पर सरकार का साथ दे, सहयोग करे, जनभावनाओं की मुखर अभिव्यक्ति के साथ-साथ विधायी एवं संसदीय प्रक्रिया एवं कामकाज को गति प्रदान करे। लोकतंत्र में सरकार न्यासी और विपक्ष प्रहरी की भूमिका निभाए,; न ये निरंकुश हों, न वे अवरोधक।

हमारी यह सृष्टि किसने, क्यों व कब बनाई है?

-मनमोहन कुमार आर्य

                मनुष्य जब संसार में आता हैं और उसकी आंखे खुलती हैं तो वह अपने सामने सूर्य के प्रकाश, सृष्टि तथा अपने माता, पिता आदि संबंधियों को देखता है। बालक अबोध होता है अतः वह इस सृष्टि के रहस्यों को समझ नहीं पाता। धीरे धीरे उसके शरीर, बुद्धि ज्ञान का विकास होता है और वह सोचना आरम्भ करता है। कुछ विचारशील बच्चों युवाओं का ध्यान सृष्टि की ओर जाता है और वह सोचता है कि इस सृष्टि जगत् को बनाने वाला कौन है?  किसने इस विशाल सृष्टि को बनाया है? इस सृष्टि को किस प्रयोजन के लिए उस सृष्टिकर्ता ने बनाया है? एक प्रश्न यह भी सम्मुख आता है कि हमारी यह सृष्टि कब बनी है? इन प्रश्नों का ठीक ठीक उत्तर आधुनिक विज्ञान के पास भी नहीं है। संसार में अनेक विचारक हो चुके हैं परन्तु सबने इन प्रश्नों के उत्तर देने में अपनी असमर्थता व्यक्त की है। यदि उनके पास उत्तर होते तो वह अवश्य अपने साहित्य व अपने शिष्यों के माध्यम से उनका प्रचार करते। यदि मनुष्य के मन में प्रश्न व शंका होती है तो उसका कुछ न कुछ उत्तर भी अवश्य होता है। हमारे ऋषियों ने संसार में किसी भी प्रश्न की उपेक्षा नहीं की। उन्होंने हर प्रश्न का सूक्ष्म दृष्टि से विचार व मन्थन किया और सत्यज्ञान से युक्त सबको स्वीकार्य उत्तर खोजे जिनसे आज हम लाभान्वित हो रहे हैं। सृष्टि को पूरा पूरा समझने के लिए मनुष्य को वेदों का ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। वेदों को पढ़कर व जानकर तथा वैदिक साहित्य व परम्पराओं का ज्ञान प्राप्त कर सृष्टि विषयक सभी प्रश्नों का सत्य समाधान हो जाता है जो कि अन्य साधनों से नहीं होता। अतः वेद एवं वेदों पर आधारित सत्य ज्ञान से युक्त तथा मनुष्य की सभी शंकाओं व भ्रान्तियों को दूर करने वाले अद्वितीय ग्रन्थ ऋषि दयानन्दकृत सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का सभी मनुष्यों को अवश्य अध्ययन करना चाहिये। यह ग्रन्थ मनुष्य की प्रायः सभी व अधिकतम शंकाओं व भ्रान्तियों को दूर करता है। जिस जीवात्मा ने भी मनुष्य जन्म लिया है और सत्यार्थप्रकाश नहीं पढ़ा, हम समझते हैं कि उस मनुष्य ने अपने मनुष्य जन्म व जीवन को सार्थक नहीं किया है। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर मनुष्य का जीवन सार्थक एवं सफल होता है। अतः मनुष्य को निष्पक्ष होकर सत्यार्थप्रकाश को आद्योपान्त पढ़ना व समझना चाहिये इससे वह अपने मनुष्य जन्म को सफल कर सकते हैं।

                सृष्टि को देखकर इसकी रचना किसी अपौरुषेय सत्ता से होने का ज्ञान होता है। एक संसार के करोड़ों मनुष्य सभी महापुरुष मिलकर भी इस सृष्टि वा इसके सूर्य, चन्द्र, पृथिवी ग्रह उपग्रहों का निर्माण नहीं कर सकते। इससे यह विदित होता है कि इस संसार में एक अपौरुषेय सत्ता विद्यमान है। वह सत्ता कैसी है, उसके गुण, कर्म, स्वभाव स्वरूप कैसा है, इसका पूरा ज्ञान हमें वेद एवं वैदिक साहित्य यथा उपनिषद, दर्शन ग्रन्थों आदि से यथावत् होता है। वेद इस संसार की रचना करने पालन करने वाली उसी सत्ता ईश्वर से प्रदत्त ज्ञान है। वेदों का अध्ययन व वेदों के मन्त्रों का सत्यार्थ जानकर ज्ञान होता है कि वेद ईश्वर से उत्पन्न हुए हैं। ईश्वर ने यह वेद ज्ञान मनुष्य को धर्म व अधर्म अथवा कर्तव्य व अकर्तव्य का बोध कराने के लिए सृष्टि की आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों में चार योग्यतम ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद प्रदान कर दिया था। वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। इसी कारण से वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब मनुष्यों का परम धर्म है। ऋषि दयानन्द चार वेदों के ज्ञानी पण्डित थे तथा वह ऋषि परम्परा में अपूर्व ऋषि हुए हैं। उन्होंने योग विद्या द्वारा सृष्टिकर्ता ईश्वर का साक्षात्कार भी किया था। उन्होंने वेदों से ईश्वर के सत्यस्वरूप व गुण-कर्म-स्वभाव का परिचय देने के लिए एक नियम बनाया है जिसमें ईश्वर के प्रमुख गुणों का उल्लेख किया है। चह नियम है ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। ईश्वर की सत्ता यथार्थ सत्ता है। ईश्वर के बनाये नियम ही इस सृष्टि में कार्य कर रहे हैं। ईश्वर के सृष्टि विषयक नियमों को सूक्ष्मता च यथार्थता से जानना ही विज्ञान कहलाता है। उस ईश्वर ने सप्रयोजन इस सृष्टि को बनाया है। योग साधना व समाधि को प्राप्त होकर ईश्वर का प्रत्यक्ष व साक्षात्कार किया जा सकता है। स्वाध्याय, ध्यान तथा चिन्तन व मनन आदि क्रियाओं व साधनाओं द्वारा भी ईश्वर को जाना व समझा जा सकता है। मनुष्य सृष्टि को नहीं बना सकते। मनुष्यांे व चेतन प्राणियों से इतर अन्य कोई चेतन सत्ता यदि है तो वह ईश्वर की ही सत्ता है जो सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान है। सृष्टि का आदि उपादान कारण त्रिगुणों सत्व, रज व तम से युक्त प्रकृति परमात्मा के पूर्ण वश व नियंत्रण में होती है। अतः सच्चिदानन्दस्वरूप वाले परमेश्वर से ही उपादान कारण प्रकृति से इस सृष्टि का निर्माण वा रचना हुई है। ऐसा वर्णन ही वेदों में मिलता है और वेदों के समर्थन में सांख्य दर्शन के सूत्रों में सृष्टि उत्पत्ति का तर्क व युक्तियों से युक्त यथावत् वर्णन मिलता है। सृष्टि किस सत्ता व पदार्थ से उत्पन्न हुई है, इसका उत्तर है कि हमारी यह सृष्टि व समस्त चराचर जगत् सर्वव्यापक व सर्वज्ञ सृष्टिकर्ता ईश्वर, जो सृष्टि का निमित्त कारण है, उससे उत्पन्न हुई है। उसने सृष्टि के उपादान कारण प्रकृति की विकृतियों द्वारा ही समस्त संसार को बनाया है। इसको अधिक विस्तार से जानने के लिए सत्यार्थप्रकाश के अष्टम समुल्लास सहित सांख्य दर्शन एवं वेदों का अध्ययन करना चाहिये जिससे सृष्टि रचना विषयक इस सिद्धान्त की पुष्टि होती है कि ईश्वर ही सृष्टिकर्ता है।

                ईश्वर ने सृष्टि क्यों बनाई है, इसका उत्तर है कि ईश्वर, जीव प्रकृति, इन तीन अनादि सत्ताओं में जीव चेतन, एकदेशी, अल्पज्ञ, अनादि नित्य सत्ता है। संसार में जीवों की संख्या अनन्त अगण्य है। यह अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल भोगने के लिए ईश्वर से सृष्टि में जन्म पाते उन कर्मों का सुख दुःख रूपी फल भोगते है। जीवों को जन्म दिये बिना जीवों के कर्मों का भोग सम्भव नहीं होता। अतः जीवों के कर्मों का सुख दुःख रूपी भोग कराने के लिए परमात्मा प्रकृति से इस सृष्टि का निर्माण करते हैं। इस सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया में प्रकृति में हलचल होकर सृष्टि के निर्माण में सहायक सभी सूक्ष्म व स्थूल पदार्थ बनते हैं। सृष्टि के बन जाने पर ही जीवों को अमैथुनी रीति से जन्म देना सम्भव होता है। अतः परमात्मा लगभग 6 चतुर्युगियों में जो 2.59 करोड़ वर्ष से अधिक का समय होता है, इस अवधि में सृष्टि का निर्माण कार्य पूरा करते हैं। हमें यह भी जानना चाहिये कि सृष्टि काल को ईश्वर का दिन तथा प्रलय काल को रात्रि की उपमा दी जाती है। इस प्रकार से ईश्वर ने इस सृष्टि का निर्माण अल्पज्ञ अनादि व नित्य तथा अविनाशी चेतन सत्ता जीवों के कर्म फल भोग के लिए व मुक्ति की प्राप्ति हेतु किया है। इस सृष्टि काल को वैदिक गणना के अनुसार 1.96 अरब वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। सृष्टि के भुक्त व निर्माण काल तथा सृष्टि की शेष अवधि की गणना को सत्यार्थप्रकाश तथा इतर वैदिक साहित्य को पढ़कर समझा जा सकता है और इस विषय में निभ्र्रान्त हुआ जा सकता है। हमने लेख में जिन प्रश्नों को उठाया है उन सभी का उत्तर संक्षेप में प्रस्तुत कर दिया है। हमें यह ज्ञात होना चाहिये कि जीवात्मा अनादि, नित्य व चेतन सत्ता है। यह कर्म फल के बन्धनों में बंधी हुई है। यदि जीवात्मा का जन्म व मरण न हो तो उसका अस्तित्व, जन्म व मरण को प्राप्त हुए बिना, सार्थकता को प्राप्त नहीं होता। जीवात्मा के अस्तित्व को सार्थकता प्राप्त करने के लिए संसार में ईश्वर नाम की सत्ता है। ईश्वर दयालु व कृपालु स्वभाव वाली सत्ता है। अतः वह अपने ज्ञान व विज्ञान सहित शक्तियों का प्रयोग कर सृष्टि उत्पत्ति सहित जीवों को उनके यथायोग्य कर्म फल देने के लिए ही इस सृष्टि का निर्माण करती व सृष्टि का संचालन करती है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को पढ़कर इस पूरे रहस्य व ज्ञान को जाना जा सकता है। हम निवेदन करेंगे कि सभी सत्यज्ञान व निभा्र्रान्त ज्ञान प्राप्ति के इच्छुक बन्धु पक्षपात से ऊपर उठकर सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन अवश्य करें। ऐसा करके तथा ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना से ही उनका जीवन सार्थक व सफल होगा। वह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त हो सकेंगे। परजन्म में उनकी उन्नति होगी। वह मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होंगे और अनेक जन्मान्तरों पर आत्मा को मोक्ष मिलना सम्भव है।