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आपकी बिजली की ज़रूरत ले रही है शायद इनकी जान

इस वक़्त अगर आप इस ख़बर को पढ़ रहे हैं तो मतलब आपके पास बिजली की सप्लाई है। और इस बात की भी पूरी उम्मीद है कि जिस बिजली से आपने अपने फोन को चार्ज किया या कम्प्यूटर को सप्लाई दी, वो कोयले के जलने से आयी होगी।
ये भी हो सकता है कि इसी बिजली की मदद से आपने अपने घर में एयर प्यूरीफायर लगा कर अपने लिए कुछ साफ हवा का इंतज़ाम किया होगा। सोचने बैठो तो आप वाक़ई ख़ास हैं। कम से कम झारखंड में रामगढ़ ज़िले के मांडू ब्लॉक की कोयले की खदानों के आसपास रहने वालों से तो आप ख़ास हैं ही और काफ़ी हद तक बेहतर हालात में हैं। आपके घर को रौशन करने के लिए सिर्फ़ वहां का कोयला नहीं जल रहा। वहाँ के लोगों का स्वास्थ्य भी जल कर ख़ाक हो रहा है। मतलब, शायद आपकी बिजली की ज़रूरत ले रही है इनकी जान।
दरअसल पीपुल्स फ़र्स्ट कलेक्टिव के चिकित्सा और सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों द्वारा किए गए एक स्वास्थ्य अध्ययन में झारखंड में रामगढ़ ज़िले के मांडू ब्लॉक (प्रखंड) में कोल माइंस (कोयले की खानों) के आसपास रहने वाले निवासियों में गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं पाई गई हैं। कोयला खनन के स्वास्थ्य और पर्यावरणीय प्रभावों के शीर्षक के अध्ययन – रामगढ़ ज़िले, झारखंड में खदानों के करीब रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य का अध्ययन, ने रामगढ़ के मांडू ब्लॉक में कोयला खदानों के 5 किलोमीटर के भीतर से 600 से अधिक लोगों का सर्वेक्षण किया गया। ब्लॉक में चरही, दुरुकसमर, पारेज, तपिन, और दुधमटिया विशेष रूप से प्रभावित हैं – कोल माइंस और कोयला वाशरी इन गांवों के क़रीब हैं, और कुछ गांव खनन कार्यों के स्थान से 50 मीटर तक के क़रीब हैं। इन गांवों के निवासियों ने कई स्वास्थ्य समस्याओं की शिकायत की है, जिनका कारण वे पास की खानों और वाशरीयों के प्रदूषकों को मानते हैं। अध्ययन के निष्कर्षों की तुलना देवघर ज़िले के एक तुलनात्मक स्थल पर किए गए निष्कर्षों से की गई, जहां जनसंख्या समान जातीय, सामाजिक और आर्थिक हालात की थी, लेकिन कोयले से संबंधित प्रदूषकों से न्यूनतम जोखिम में और कोयला खानों से 40 किमी से अधिक दूरी पर थी ।
रिपोर्ट के अनुसार, “इस अध्ययन में प्रतिभागियों के बीच कोयले की खानों के पास के प्रतिभागियों में पहचानी जाने वाली स्वास्थ्य संबंधी शिकायतें काफी अधिक हैं। सर्वेक्षण में शामिल निवासियों में दस सबसे प्रचलित क्रोनिक (पुरानी) स्वास्थ्य स्थितियों में बालों का झड़ना और ब्रिटल (भंगुर) बाल; मस्कुलोस्केलेटल जोड़ों का दर्द, शरीर में दर्द और पीठ दर्द; सूखी, खुजलीदार और / या रंग बदलाव वाली फीकी हुई त्वचा और फटे तलवे, और सूखी खांसी की शिकायत शामिल हैं।” इसके अलावा, अध्ययन के लेखकों के अनुसार, “स्वास्थ्य संबंधी शिकायतें ज्यादातर क्रोनिक (पुरानी) हैं, और संक्रामक के बजाय उत्तेजक हैं। दूसरे शब्दों में, कारण कारक संभवतः सूक्ष्मजीव के बजाय पर्यावरणीय हैं ”।
रिपोर्ट में पाया गया है कि “खनन गतिविधियों के क़रीब रहने वाले लोग अपने स्वास्थ्य के मामले में बदतर हैं। दूसरे शब्दों में, निष्कर्ष बताते हैं कि जितनी अधिक दूरी पर खदानें हैं, आबादी के स्वास्थ्य पर उतना ही कम प्रभाव पड़ेगा ”। रिपोर्ट में आगे पाया गया है कि “खानों के क़रीब रहने वाले निवासियों में स्वास्थ्य शिकायतों का अधिक प्रसार है – एक या तीन शिकायतों के विपरीत छह या अधिक शिकायतें”।
अध्ययन के प्रमुख जांचकर्ताओं में से एक के अनुसार, “इस अध्ययन के निष्कर्ष महत्वपूर्ण हैं और तत्काल उपचारात्मक उपायों की मांग करते हैं। हमारी रिपोर्ट बताती है कि बड़े पैमाने पर खनन ने झारखंड के रामगढ़ क्षेत्र में पीढ़ियों से रह रही आबादी पर नकारात्मक प्रभाव डाला है। उनके पर्यावरण, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के साथ गंभीर रूप से समझौता हुआ है। ”
रिपोर्ट के सह-लेखक डॉ प्रबीर चटर्जी के अनुसार, “स्वास्थ्य अध्ययन के निष्कर्ष स्पष्ट रूप से संकेत देते हैं कि कोयला खदानों के आसपास रहने वाले निवासी ऊपरी श्वसन संबंधी बीमारियों जैसे ब्रोंकाइटिस और COPD (सीओपीडी) या यहां तक कि गठिया और पीठ के दर्द के लिए, कोयला खदानों से दूर क्षेत्रों में रहने वालों की तुलना में, लगभग दो गुना भेद्य हैं। आँख, त्वचा, बाल और पैर के रोगों के संबंध में, कोयले की खदानों के पास के निवासी दूर रहने वाले लोगों की तुलना में 3 से 4 गुना अधिक भेद्य हैं। उच्च स्तर पर जहरीले रसायनों और भारी धातुओं की उपस्थिति और अध्ययन स्थल पर स्वास्थ्य शिकायतों की अधिकता से संकेत मिलता है कि गांवों के निवासियों द्वारा सामना की जाने वाली स्वास्थ्य समस्याओं की संभावना कोयला खानों से विषाक्त पदार्थों के संपर्क में आने के कारण है, और अन्य विविध कारणों से नहीं। “
अध्ययन के लिए चिकित्सा कैंप का नेतृत्व करने वाले डॉ स्माराजित जना के अनुसार, “खानों के पड़ोस में बहुत कम स्थानीय निवासी अच्छे स्वास्थ्य का अनुभव करते हैं। हमने लोगों के बीच कई स्वास्थ्य शिकायतों को देखा और चिकित्सकीय रूप से यह विषाक्त पदार्थों के संपर्क के एक से अधिक मार्गों को इंगित करते हैं। हमने एक से अधिक परिवार के सदस्यों को एक ही या समान स्वास्थ्य शिकायतों का सामना करते देखा। कम उम्र के लोगों में मस्कुलोस्केलेटल स्वास्थ्य संबंधी शिकायतों के उच्च स्तर को देखना चौंका देने वाला था। हमें सूखी और उत्पादक खांसी की अधिक शिकायतें मिलीं, जो रोगजनकों को नहीं बल्कि एलर्जी को इंगित करते हैं जो इन लक्षणों का कारण बन रहीं हैं। ये स्वास्थ्य लक्षण इस क्षेत्र में पानी, हवा और मिट्टी के पर्यावरणीय नमूने में पाए जाने वाले जहरीले रसायनों के प्रभाव को पुष्ट करते हैं। ”
अध्ययन में खानों का व्यापक स्वास्थ्य प्रभाव आकलन पूरा होने और मशविरे लागू होने तक मौजूदा खानों के किसी और विस्तार या नई कोयला खानों की स्थापना पर रोक लगाने की सलाह दी गई है। यह राज्य और केंद्रीय एजेंसियों को कोलमाइंस के पास के वातावरण में प्रदूषकों की प्रकृति और सीमा की पहचान करने के लिए एक अधिक गहन अध्ययन करने के लिए भी कहता है, और – वायु, मिट्टी और जल स्रोतों (सतह और भूमिगत) को साफ़ करने के उपायों का कार्य करने के लिए भी। यह अध्ययन राज्य सरकार से तत्काल प्रभाव के साथ कोयला क्षेत्र 5 किलोमीटर के भीतर रहने वाले सभी निवासियों के लिए उचित स्वास्थ्य देखभाल और विशेष उपचार मुफ्त में उपलब्ध करने का भी आह्वान करता है।
पर्यावरणीय नमूने के परिणामों के बारे में: 2019 में, चेन्नई स्थित एक संगठन, कम्युनिटी एनवायरोमेन्टल मॉनिटरिंग (सामुदायिक पर्यावरण निगरानी), जिसकी पर्यावरण नमूनों के परीक्षण और निगरानी में विशेषज्ञता है, ने रामगढ़ जिले के मांडू ब्लॉक में कोलमाइंस के आसपास एक अध्ययन किया था। एक प्रतिष्ठित प्रयोगशाला में कुल 5 हवा के नमूने, 8 पानी के नमूने, 5 मिट्टी के नमूने और 1 तलछट के नमूने का विश्लेषण किया गया। “बस्टिंग द डस्ट” शीर्षक वाली इसकी रिपोर्ट में दुरुकसमर, तपिन, दुधमटिया और चरही गाँवों के आस-पास हवा, पानी, मिट्टी और तलछट के नमूनों को गंभीर रूप से दूषित पाया।
अध्ययन के परिणामों ने यह भी बताया कि:

  1. एल्यूमीनियम, आर्सेनिक, कैडमियम, क्रोमियम, मैंगनीज, निकल, लोहा, सिलिकॉन, जिंक, लेड, सेलेनियम और वैनेडियम सहित कुल 12 जहरीली धातुएँ वायु, जल, मिट्टी और / या तलछट में पाए गए।
  2. पाए जाने वाले 12 जहरीले धातुओं में से 2 कार्सिनोजेन्स हैं और 2 संभावित कार्सिनोजन हैं। आर्सेनिक और कैडमियम कार्सिनोजेन्स के रूप में जाने जाते हैं और लेड और निकल संभावित कार्सिनोजन हैं।
  3. पाए जाने वाले धातु सांस की बीमारियों, सांस की तकलीफ, फेफड़ों की क्षति, प्रजनन क्षति, जिगर और गुर्दे की क्षति, त्वचा पर चकत्ते, बालों के झड़ने, भंगुर हड्डियों, मतली, उल्टी, दस्त, पेट दर्द सहित मांसपेशियों और जोड़ों में दर्द और कमजोरी आदि हानिकारक स्वास्थ्य प्रभावों की एक विस्तृत श्रृंखला पैदा कर सकते हैं।
  4. धातुओं में से कई श्वसन विकार, सांस की तकलीफ, फेफड़ों की क्षति, प्रजनन क्षति, जिगर और गुर्दे की क्षति, त्वचा पर चकत्ते, बालों के झड़ने, भंगुर हड्डियों, मतली, उल्टी, दस्त, पेट दर्द, मांसपेशियों और जोड़ों के दर्द और कमजोरी आदि का कारण हैं। ।
    बड़ा सवाल यहाँ ये उठता है कि इन लोगों के बिगड़ते स्वास्थ के लिए कौन ज़िम्मेदार है?

मुख्यमंत्री नहीं, अभिभावक की मुद्रा में शिवराजसिंह

नए मध्यप्रदेश की स्थापना के लगभग 7 दशक होने को आ रहे हैं. इस सात दशकों में अलग अलग तेवर और तासीर के मुख्यमंत्रियों ने राज्य की सत्ता सम्हाली है. लोकोपयोगी और समाज के कल्याण के लिए अलग अलग समय पर योजनाओं का श्रीगणेश होता रहा है और मध्यप्रदेश की तस्वीर बदलने में कामयाबी भी मिली है. लेकिन जब इन मुख्यमंत्रियों की चर्चा करते हैं तो सालों-साल आम आदमी के दिल में अपनी जगह बना लेने वाले किसी राजनेता की आज और भविष्य में चर्चा होगी तो एक ही नाम होगा शिवराजसिंह चौहान. 2005 में उनकी मुख्यमंत्री के रूप में जब ताजपोशी हुई तो वे उम्मीदों से भरे राजनेता के रूप में नहीं थे और ना ही उनके साथ संवेदनशील, राजनीति के चाणक्य या स्वच्छ छवि वाला कोई विशेषण नहीं था. ना केवल विपक्ष में बल्कि स्वयं की पार्टी में उन्हें एक टाइमगैप अरजमेंट मुख्यमंत्री समझा गया था. शिवराजसिंह की खासियत है वे अपने विरोधों का पहले तो कोई जवाब नहीं देते हैं और देते हैं तो विनम्रता से भरा हुआ. वे बोलते खूब हैं लेकिन राजनीति के मंच पर नहीं बल्कि अपने लोगों के बीच में. आम आदमी के बीच में. ऐसा क्यों नहीं हुआ कि जिनके नाम के साथ कोई संबोधन नहीं था, आज वही राजनेता बहनों का भाई और बेटियों का मामा बन गया है. यह विशेषण इतना स्थायी है कि वे कुछ अंतराल के लिए सत्ता में नहीं भी थे, तो उन्हें मामा और भाई ही पुकारा गया. कायदे से देखा जाए तो वे मुख्यमंत्री नहीं, एक अभिभावक की भूमिका में रहते हैं.

मध्यप्रदेश की सत्ता में मुख्यमंत्री रहने का एक रिकार्ड तेरह वर्षों का है तो दूसरा रिकार्ड चौथी बार मुख्यमंत्री बन जाने का है. साल 2018 के चुनाव में मामूली अंतर से शिवराजसिंह सरकार की पराजय हुई तो लोगों को लगा कि शिवराजसिंह का राजनीतिक वनवास का वक्त आ गया है. लेकिन जब वे ‘टायगर जिंदा है’ का हुंकार भरी तो विरोधी क्या, अपने भी सहम गए. राजनीति ने करवट ली और एक बार फिर भाजपा सत्तासीन हुई. राजनेता और राजनीतिक विश£ेषक यहां गलतफहमी के शिकार हो गए. सबको लगा कि अब की बार नया चेहरा आएगा. लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेता नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को पता था कि प्रदेश की जो स्थितियां है, उसे शिवराजसिंह के अलावा कोई नहीं सम्हाल पाएगा. देश की नब्ज पर हाथ रखने वाले मोदी-शाह का फैसला वाजिब हुआ. कोरोना ने पूरी दुनिया के साथ मध्यप्रदेश को जकड़ रखा था. पहले से कोई पुख्ता इंतजाम नहीं था. संकट में समाधान ढूंढने का ही दूसरा नाम शिवराजसिंह चौहान है. अपनी आदत के मुताबिक ताबड़तोड़ लोगों के बीच जाते रहे. उन्हें हौसला देते रहे. इलाज और दवाओं का पूरा इंतजाम किया. भयावह कोरोना धीरे-धीरे काबू में आने लगा. इस बीच खुद कोरोना के शिकार हो गए लेकिन काम बंद नहीं किया.

एक वाकया याद आता है. कोरोना का कहर धीमा पड़ा और लोग वापस काम की खोज में जाने लगे. इसी जाने वालों में एक दम्पत्ति भी औरों की तरह शामिल था लेकिन उनसे अलग. इस दम्पत्ति ने इंदौर में रूक कर पहले इंदौर की मिट्टी को प्रणाम किया और पति-पत्नी दोनों ने मिट्टी को माथे से लगाया. इंदौर का, सरकार और मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान का शुक्रिया अदा कर आगे की यात्रा में बढ़ गए. यह वाकया एक मिसाल है.

कोरोना संकट में मध्यप्रदेश से गए हजारों हजार मजदूर जो बेकार और बेबस हो गए थे, उनके लिए वो सारी व्यवस्थाएं कर दी जिनके लिए दूसरे राज्यों के लोग विलाप कर रहे थे. श्रमिकों की घर वापसी से लेकर खान-पान की व्यवस्था सरकार ने निरपेक्ष होकर की. मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की पहल पर अनेक स्वयंसेवी संस्था भी आगे बढक़र प्रवासी मजदूरों के लिए कपड़े और जूते-चप्पलों का इंतजाम कर उन्हें राहत पहुंचायी. आज जब कोरोना के दूसरे दौर का संकेत मिल चुका है तब शिवराजसिंह आगे बढक़र इस बात का ऐलान कर दिया है कि श्रमिकों को मध्यप्रदेश में ही रोजगार दिया जाएगा. संभवत: मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान देश के पहले अकेले मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने ऐसा फैसला लिया है. उनकी सतत निगरानी का परिणाम है कि लम्बे समय से कोरोना से मृत्यु की खबर शून्य पर है या एकदम निचले पायदान पर. आम आदमी का सहयोग भी मिल रहा है. कोरोना के दौर में लोगों को भय से बचाने के लिए वे हौसला बंधाते रहे हैं.

वे मध्यप्रदेश को अपना मंदिर मानते हैं और जनता को भगवान. शहर से लेकर देहात तक का हर आदमी उन्हें अपने निकट का पाता है. चाय की गुमटी में चुस्की लगाना, किसानों के साथ जमीन पर बैठ कर उनके दुख-सुख में शामिल होना. पब्लिक मीटिंग में आम आदमी के सम्मान में घुटने पर खड़े होकर अभिवादन कर शिवराजसिंह चौहान ने अपनी अलहदा इमेज क्रिएट की है. कभी किसी की पीठ पर हाथ रखकर हौसला बढ़ाना तो कभी किसी को दिलासा देेने वाले शिवराजसिंह चौहान की ‘शिवराज मामा’ की छवि ऐसी बन गई है कि विरोधी तो क्या उनके अपनों के पास इस इमेज की कोई तोड़ नहीं है.

सभी उम्र और वर्ग के प्रति उनकी चिंता एक बराबर है. बेटी बचाओ अभियान से लेकर बेटी पूजन की जो रस्म उन्होंने शुरू की है, वह समाज के लोगों का मन बदलने का एक छोटा सा विनम्र प्रयास है. इस दौर में जब बेटियां संकट में हैं और वहशीपन कम नहीं हो रहा है तब ऐसे प्रयास कारगर होते हैं. बेटियों को लेकर उनकी चिंता वैसी ही है, जैसा कि किसानों को लेकर है. लगातार कृषि कर्मण अवार्ड हासिल करने वाला मध्यप्रदेश अपने धरती पुत्रों की वजह से कामयाब हो पाया है तो उन्हें हर कदम पर सहूलियत हो, इस बात का ध्यान भी शिवराजसिंह चौहान ने रखा है. विद्यार्थियो को स्कूल पहुंचाने से लेकर उनकी कॉपी-किताब और फीस की चिंता सरकार कर रही है. विद्यार्थियों को समय पर वजीफा मिल जाए, इसके लिए भी कोशिश जा रही है. मध्यप्रदेश शांति का टापू कहलाता है तो अनेक स्तरों पर सक्रिय माफिया को खत्म करने का ‘शिव ऐलान’ हो चुका है. प्रदेश के नागरिकों को उनका हक दिलाने और शुचिता कायम करने के लिए वे सख्त हैं.

पहली दफा मुख्यमंत्री बन जाने के बाद सबसे पहले वेशभूषा में परिवर्तन होता है लेकिन जैत से निकला पांव-पांव वाले भैया शिवराज आज भी उसी पहनावे में हैं. आम आदमी की बोलचाल और देशज शैली उन्हें लोगों का अपना बनाती है. समभाव और सर्वधर्म की नीति पर चलकर इसे राजनीति का चेहरा नहीं देते हैं. इस समय प्रदेश आर्थिक संकट से गुजर रहा है लेकिन उनके पास इस संकट से निपटने का रोडमेप तैयार है. प्रदेश के हर जिले के खास उत्पादन को मध्यप्रदेश की पहचान बना रहे हैं तो दूर देशों के साथ मिलकर उद्योग-धंधे को आगे बढ़ा रहे हैं. आप मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की आलोचना कर सकते हैं लेकिन तर्क नहीं होगा. कुतर्क के सहारे उन्हें आप कटघरे में खड़े करें लेकिन वे आपको सम्मान देने से नहीं चूकेंगे. छोडि़ए भी इन बातों को. आइए जश्र मनाइए कि वे एक आम आदमी के मुख्यमंत्री हैं. मामा हैं, भाई हैं. ऐसा अब तक दूजा ना हुआ.

कुछ अच्छा सा काम करो हे मन

—विनय कुमार विनायक
कुछ अच्छा सा काम करो हे मन!
जाने क्यों असमय छूट जाता तन!

हमारे नहीं, हमारे परिजन के प्राण,
जिनके बिना दुखद होता ये जीवन!
जिनके निधन से लोग होते निर्धन!
जिनके दम पे सफल था ये जन्म!

जिन नाते-रिश्ते पर इतराते थे हम,
जिनके होने से मिलता था दम-खम,
जिनके ना होने से जगत मिथ्या-भ्रम,
जिनके बाद ना न्यारा कोई सम्बन्ध!

हे मन! कुछ तो करो ऐसा जतन,
कि जबतक छूटे ना ये भव बंधन,
तब तक ना हो कोई करुण क्रंदन!

हे मन! त्याग करो हर अहं-वहम,
झूठ,फरेब औ’ दिखावे का बड़प्पन!
प्यार करो सब जीव-जगत प्राणी से,
नफरत छोड़ो पराए आस्था-दर्शन से!

दया करो सबपे जाति धर्म भूलकर,
राष्ट्र सर्वोपरि,देशभक्ति सबसे उपर,
सिर्फ माता-पिता, सज्जन हैं ईश्वर,
बांकी सब-कुछ धार्मिक खोखलापन!

छोड़ो फिरकापरस्ती की घिनौनी रीति,
निस्वार्थ भाव से करो मानव से प्रीति!
करो ना अहित किसी जन का रे मन!
हत्या ना करो किसी प्राणी का निर्मम!

मचाओ नहीं धर्म के नाम कोई उधम,
पाप की कमाई करना छोड़ दो हे बंदे,
झूठ-पाखंड का झंडा मत गाड़ो रे मन!

यौवन के नशे में, नहीं करो अपमान,
किसी उम्रदराज जन के चौथेपन को,
दीन-हीन पदविहीन की उपेक्षा करना,
पद-पैसा-प्रतिष्ठा का मुखापेक्षी होना,
मानव जीवन के दुःख का है कारण!

रंगभेदी,जातिवादी,धार्मिक-उन्मादी होना,
सज्जन के कृतकार्य का कृतघ्न बनना,
दुर्जन का प्रशस्तिगान नहीं है शुभकर्म!

ठीक नहीं है पद-पैसे के प्रति पागलपन,
ये नहीं मानव जीवन का लक्ष्य-आभूषण!

जीवन है रंगमंच, अच्छा सा किरदार चुनो,
राम बनो,लक्ष्मण बनो, सीता, मंदोदरी बनो,
मगर रावण बनना,कभी नहीं स्वीकार करो,
चाहे मंच रहे या टूटे,रंगमंच से चक्कर छूटे,
हे मन!छल-प्रपंच को स्वयं दरकिनार करो!

अपने कृत कर्म का न कोई दूजा जिम्मेदार,
पराए को प्रतिवादी बनाना छोड़ दो हे मन!
—विनय कुमार विनायक

मिलावट तो मौन-हत्या है

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

खाद्य-पदार्थों और दवाइयों में मिलावट करनेवाले अब जरा डरेंगे, क्योंकि बंगाल, असम और उप्र की तरह अब मध्यप्रदेश भी उन्हें उम्र कैद देने का प्रावधान कर रहा है। अब तक उनके लिए सिर्फ 6 माह की सजा और 1000 रु. के जुर्माने का ही प्रावधान था। इस ढिलाई का नतीजा यह हुआ है कि आज देश में 30 प्रतिशत से भी ज्यादा चीजों में मिलावट होती है। सिर्फ घी, दूध और मसाले ही मिलावटी नहीं होते, अनाजों में भी मिलावट जारी है। सबसे खतरनाक मिलावट दवाइयों में होती है। इसके फलस्वरूप हर साल लाखों लोगों की जानें चली जाती हैं, करोड़ों बीमार पड़ते हैं और उनकी शारीरिक कमजोरी के नुकसान सारे देश को भुगतने पड़ते हैं। मिलावट-विरोधी कानून पहली बार 1954 में बना था लेकिन आज तक कोई भी कानून सख्ती से लागू नहीं किया गया। 2006 और 2018 में नए कानून भी जुड़े लेकिन उनका पालन उनके उल्लंघन से ही होता है। उसके कई कारण हैं। पहला तो यही कि उस अपराध की सजा बहुत कम है। वह नहीं के बराबर है। मैं तो यह कहूंगा कि वह सजा नहीं, बल्कि मिलावटखोर को दिया जानेवाला इनाम है। यदि उसे 6 माह की जेल और एक हजार रु. जुर्माना होता है तो वह एक हजार रु. याने लगभग डेढ़ सौ रुपए महिने में जेल में मौज मारेगा। उसका खाना-पीना, रहना और दवा- सब मुफ्त ! अपराधी के तौर पर कोई सेठ नहीं, उसका नौकर ही पकड़ा जाता है। अब कानून ऐसा बनना चाहिए कि मिलावट के अपराध में कंपनी या दुकान के शीर्षस्थ मालिक को पकड़ा जाए। उसे पहले सरे-आम कोड़े लगवाए जाएं और फिर उसे सश्रम कारावास दिया जाए। उसकी सारी चल-संपत्ति जब्त की जानी चाहिए। यदि हर प्रांत में ऐसी एक मिसाल भी पेश कर दी जाए तो देखिए मिलावट जड़ से खत्म होती है कि नहीं। थोड़ी-बहुत सजा मिलावटी समान बेचनेवालों को भी दी जानी चाहिए। इसके अलावा मिलावट की जांच के नतीजे दो-तीन दिन में ही आ जाने चाहिए। मिलावटियों से सांठ-गांठ करनेवाले अफसरों को नौकरी से हमेशा के लिए निकाल दिया जाना चाहिए। स्वास्थ्य मंत्रालय सभी भाषाओं में विज्ञापन देकर लोगों को यह बताए कि मिलावटी चीजों को कैसे घर में ही जांचा जाए। दवाइयों और खाद्य-पदार्थों में मिलावट करना एक प्रकार का हत्या-जैसा अपराध है। यह हत्या से भी अधिक जघन्य है। यह सामूहिक हत्या है। यह अदृश्य और मौन हत्या है। इस हत्या के विरुद्ध संसद को चाहिए कि वह सारे देश के लिए कठोर कानून पारित करे।

अणुव्रत सूर्योदय है नये भारत का

अणुव्रत आंदोलन स्थापना दिवस-1 मार्च, 2021 पर विशेष

-ललित गर्ग –

नये युग के निर्माण और जन चेतना में नैतिक क्रांति के अभिनव एवं अनूठे मिशन के रूप में अणुव्रत आन्दोलन न केवल देश बल्कि दुनिया का पहला नैतिक आन्दोलन है जो इतने लम्बे समय से इंसान को इंसान बनाने में जुटा है। यह अशांत विश्व को शांति की जीवनशैली का अनूठा उपक्रम है। 1 मार्च, 1949 – अणुव्रत आंदोलन के प्रवर्तन यानी स्थापना का ऐतिहासिक दिन है। 72 वर्ष पूर्व आजाद भारत को असली आजादी अपनाने के संदेश के साथ आचार्यश्री तुलसी ने अणुव्रत के रूप में इसका राजमार्ग भी सुझाया था। आचार्यश्री तुलसी द्वारा प्रदत्त अणुव्रत का यह दर्शन आज विश्व दर्शन के रूप में प्रस्थापित हो चुका है। 21 वीं सदी के दूसरे दशक का समापन कोरोना वायरस की महामारी के रूप में एक वैश्विक त्रासदी के साथ हुआ है। ऐसी त्रासदी जिसने इंसान को अपने जीवन मूल्यों और जीवनशैली पर पुनर्चिंतन करने को मजबूर किया है। इसी बदलाव की चैखट पर अणुव्रत आन्दोलन एक ऐसी जीवनशैली लेकर प्रस्तुत हो रहा हैै, जिसे अपनाकर मानवमात्र स्व-कल्याण से लेकर विश्व कल्याण की भावना को चरितार्थ करने में सक्षम हो सकेगा।


अणुव्रत आंदोलन के बहत्तर वर्ष की लंबी यात्रा का एक उजला इतिहास है, यह नये भारत के सूर्योदय का प्रतीक है। राष्ट्रीय चरित्र निर्माण के एक कठिन प्रयास को लेकर यह मिशन राष्ट्र की हर समस्या को छूता हुआ अंतर्राष्ट्रीय स्तर के विभिन्न मंचों तक पहुंचा। एक सम्मानजनक मान्यता अणुव्रत आंदोलन को मिली। इसकी आवश्यकता को साधारण व्यक्ति से लेकर शिखर तक सभी ने स्वीकारा। अणुव्रत के प्रवर्तक आचार्य श्री तुलसी और उनके बाद के अनुशास्ता आचार्य श्री महाप्रज्ञ एवं वर्तमान आचार्य श्री महाश्रमण ने पूरे राष्ट्र एवं पडौसी देशों की अनेक पदयात्राएं कीं एवं चैपालों से लेकर राष्ट्र के सर्वाेच्च मंचों तक मनुष्य को मनुष्य बनने के लिए सार्थक एवं प्रभावी उपक्रम किये। नैतिक मूल्यों की गिरावट तथा मनुष्य की दुष्प्रवृत्तियों पर बराबर प्रहार करते रहे।
तीनों ही आचार्यों ने अपने संघ तथा सम्प्रदाय से ऊपर उठकर सर्वधर्म समन्वय ही बात को प्राथमिकता दी। ”धर्म“ और ”धर्म निरपेक्षता“ की सही परिभाषा दी। इनके नेतृत्व में मानवीय और जागतिक समस्याओं के समाधान का दायरा और व्यापक होता गया। अणुव्रत युग यात्रा की आवाज बना है। दुनिया में अनेक राजनीति से प्रेरित अनेक विचारधाराएं एवं वाद हैं तथा इनको क्रियान्वित करने के लिए अनेक तंत्र, नीतियां एवं प्रणालियां हैं। इन पर अलग-अलग राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्ष देश, काल, स्थिति अनुसार इनकी संचालन शैली भी बदलते रहते हैं। लेकिन नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिये कोई वाद, कोई विचारधारा एवं कोई आन्दोलन चला उसका केन्द्र भारत ही रहा है। लोग कहते हैं कि आज जो कोई भी राजनीतिक एवं नैतिक चिंतन, योजना या वाद को प्रतिष्ठापित करते हैं वे कोई भी गांधी से बाहर नहीं निकल सके। जो निकला या जिसने निकलने का प्रयास किया उसे लौट कर वापस आना पड़ा। अगर हम गांधी-दर्शन को समझें और उसकी गहराई में जाएं तो लगेगा कि आचार्य तुलसी के दर्शन से, अणुव्रत आन्दोलन से कोई बाहर नहीं निकल सका।


यह अणुव्रत के दर्शन की विशेषता है कि वहां बहुत खुलापन, बहुत गहराई और बहुत सूक्ष्मता है। उनका दर्शन वैज्ञानिकता की कसौटी पर भी खरा उतरता है। जीवन के श्रेष्ठ मूल्यों को जीना साधारण मनुष्य के लिए मुश्किल है, परंतु उन श्रेष्ठ मूल्यों को समझें तो सही। हृदय परिवर्तन और दृष्टि परिवर्तन को अणुव्रत ने महत्व दिया है। बहुत बार आज की राजनीति ने भी मूल्यों की स्थापना की है, जिन्हें स्वस्थ कहा जा सकता है पर व्यक्ति की स्वस्थता के अभाव में वे धराशायी हो गये। समय के साथ लोगों की सोच बदलती है, अपेक्षाएं बदलती है, विकास की नई अवधारणाएं बनती हैं। कई पुरानी मान्यताएं, शैलियां पृष्ठभूमि मंेे चली जाती हैं। जिनकी कभी तूती बोलती थी, वे खामोश हो जाती हैं। कुछ धीरे-धीरे व मजबूत कदमों से चलने में विश्वास रखते हैं, कुछ बहुत तेज चलने में ताकि प्रगति के छोर को अपने जीवन में ही देख लें। पर ठहराव को कोई भी स्वीकार नहीं करता। विकास में ठहराव या विलंबन (मोरेटोरियम) परोक्ष में मौत है। जो भी रुका, जिसने भी जागरूकता छोड़ी, जिसने भी सत्य छोड़ा, वह हाशिये में डाल दिया गया। आज का विकास, चाहे वह एक व्यक्ति का है, चाहे एक समाज का है, चाहे एक राष्ट्र का है, वह दूसरों से भी इस प्रकार जुड़ा हुआ है कि अगर कहीं कोई गलत निर्णय ले लेता है तो प्रथम पक्ष बिना कोई दोष के भी संकट में आ जाता है। इसलिए आज का विकास यह संदेश देता है कि सबका विकास हो। प्रथम से लेकर अंतिम तक का। इसे ही गांधी और विनोबा ने ‘सर्वोदय’ कहा, इसे ही महावीर ने ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’ कहा और इसे ही आचार्य तुलसी ने ‘निज पर शासन फिर अनुशासन’ कहा।
भ्रष्टाचार के भयानक विस्तार में नैतिकता की स्थापना ज्यादा जरूरी है। इस आवाज को उठाने एवं नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिए अणुव्रत आन्दोलन सदा ही माध्यम बना है। नैतिकता का प्रबल पक्षधर बना है। कई बार ठहराव आया, कई बार गति आई, पर रुका नहीं। अनेक रूपों में, अनेक आकारों में यह आन्दोलन गतिशील रहा है। इसे कितने ही स्वरूपों, संस्थाओं एवं उनके शीर्ष नेतृत्व ने अपने दृष्टिकोश एवं सोच के पैनेपन से संवारा है। खुराक दी है। अपना पसीना दिया है। अब अणुव्रत विश्व भारती एवं उसके अध्यक्ष श्री संचय जैन को एक विरासत मिली है जो स्वयं एक दीपक है और जिसे जलता रखकर इसमें और तेल भरने को वे तत्पर है। 1 मार्च, 2021 – 73वें अणुव्रत स्थापना दिवस पर वे और अणुव्रत का प्रत्येक कार्यकर्ता एक नए संकल्प के साथ स्वयं को मानव कल्याण के इस मिशन में पुनः समर्पित कर रहा है। ‘अणुव्रत जीवनशैली’ जन-जन की जीवनशैली बने, इस उद्देश्य से अणुव्रत आंदोलन एक सुदीर्घ अभियान की शुरुआत इसी दिन से करने जा रहा है।


आज जिन माध्यमों से नैतिकता मुखर हो रही है, वे बहुत सीमित हैं। प्रभावक्षीण तथा चेतना पैदा करने में काफी असमर्थ हैं। हम देख रहे हैं कि ऐसे आन्दोलनों एवं माध्यमों की अभिव्यक्ति एवं भाषा में एक हल्कापन आया है। ऐसे में एक गम्भीरता एवं सशक्त कार्यक्रमों के साथ आगे आना ही एक साहस है। समय यह मानता है कि जब-जब नैतिक क्षरण हो, तब-तब नैतिक स्थापना के माध्यम और ज्यादा ताकतवर व ईमानदार हो।
मनुष्य की प्रगति में कई बार ऐसे अवसर आते हैं जब जीवन के मूल्य धूमिल हो जाते हैं। सारा विश्वास टूट जाता है। एवं कुछ विजातीय तत्व अनचाहे जीवन शैली में घुस आते हैं। जीवन का यही आनन्द है, यह जीवन की प्रक्रिया है, नहीं तो जीवन, जीवन नहीं है। पर नियति की यह परम्परा रही है कि वे इसे सदैव के लिए स्वीकार नहीं करती। स्थाई नहीं बनने देती। टूटना और बनना शुरू हो जाता है। नये विचार उगते हैं। नई व्यवस्थाएं जन्म लेती हैं एवं नई शैलियां, नई अपेक्षाएं पैदा हो जाती हैं। इन झंझावातों के बीच भी नैतिक प्रयासों के दीप जलाये रखने हैं। उन नन्हें दीपकों को हम अंधेरे रास्तों में रख देंगे ताकि लोग ”रोशनी“ को भूल न पायें।

संत श्री रविदास ने सामाजिक समरसता के लिए अपना जीवन अर्पित किया था

“मन चंगा तो कठौती में गंगा”, ये कहावत आपने जरूर सुनी होगी। क्या आप जानते हैं ये कहां से आई, इसके पीछे एक दिलचस्प घटना है, जिसका संबंध मिलजुल कर रहने, भेदभाव मिटाने और सबके भले की सीख देने वाले सामाजिक समरसता के महान संत शिरोमणी श्री रविदास जी महाराज से है। प्रति वर्ष माघ पूर्णिमा के दिन संत रविदास जी महाराज की जयंती मनाई जाती है। आपका जन्म सम्वत् 1433 में माघ पूर्णिमा रविवार के दिन वाराणसी के पास गोवरधनपुर गांव में हुआ था। इस स्थान को आज श्री गुरु रविदास जन्म स्थान के रूप में जाना जाता है। आपके माता का नाम श्रीमती कलसा माता एवं पिता का नाम श्री संतोखदासजी था।

संत श्री रविदास जी महाराज ने बचपन से ही साधु संतो की संगति में पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया। वे जूते बनाने का काम किया करते थे और अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर विशेष ध्यान देते थे। संत श्री रामानन्द जी महाराज के शिष्य बनकर उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित किया। संत श्री रविदास जी महाराज ने स्वामी श्री रामानन्द जी महाराज को, श्री कबीर साहब जी के कहने पर, अपना गुरु बनाया था, जबकि उनके वास्तविक आध्यात्मिक गुरु श्री कबीर साहब जी ही थे। उनकी समयानुपालन की प्रवृत्ती तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग उनसे बहुत प्रसन्न रहते थे। प्रारम्भ से ही संत श्री रविदास जी महाराज बहुत परोपकारी तथा दयालू थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-संतों की सहायता करने में उनको विशेष आनंद मिलता था। वे उन्हें प्रायः मूल्य लिए बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके इस स्वभाव के कारण उनके माता-पिता अक्सर उनसे अप्रसन्न रहते थे।

संत श्री रविदास जी महाराज भारत के उन चुनिंदा महापुरुषों में से एक हैं जिन्होंने अपने वचनों से सारे संसार की एकता और समरसता पर ज़ोर दिया। असमानता की भावना और समाज में जाति पंथ और सम्प्रदाय की मुश्किल परिस्थितियों में अपने अनुयायियों को और समाज बंधुओं को हिन्दू बनाए रखना उनके लिए बड़ी चुनौती थी। वह भारत में इस्लाम के आक्रमण का काल था साथ ही हिन्दू समाज को प्रताड़ित करने का भी वह कालखंड था ऐसे समय में महान संत श्री रामानन्द जी महाराज की प्रेरणा व आशीर्वाद प्राप्त कर समाज में समरसता की बहार लाने का काम संत श्री रविदास जी महाराज ने बख़ूबी किया। आपने समाज में फैली कुरीतियों जैसे जात-पात के अंत के लिए जीवन भर काम किया। संत श्री रविदास जी महाराज की अनूप महिमा को देख कई राजा और रानियां आपकी शरण में आकर भक्ति मार्ग से जुड़े। संत श्री रविदास जी महाराज के भक्ति मार्ग पर आगे बढ़ते हुए निर्गुण धारा के उपासक होने के बाद भी सगुण धारा की उपासक मीराबाई ने आपको अपना गुरु मानकर अपनी आध्यात्मिक उन्नति की एवं मोक्ष प्राप्त किया।

संत श्री रविदास जी महाराज को लेकर कई कहानियां मशहूर हैं। एक कथा के अनुसार, एक बार उनके एक मित्र की मौत हो गई थी। जब ये बात उनको पता चली तो वे बहुत दुखी हो गए उन्होंने अपने दोस्त के शव के पास आकर कहा उठो मित्र ये समय सोने का नहीं है, मेरे साथ खेलने चलो। इतना सुनकर उनका मृत साथी उठकर खड़ा हो गया। बताया जाता है कि संत श्री रविदास जी महाराज के पास बचपन से ही कई अलौकिक शक्तियां थीं। इसी प्रकार, एक और प्रचिलित कथा के अनुसार एक बार एक सदना कसाई उनकी हत्या करने के उद्देश्य से उनके पास आया था परंतु संत श्री रविदास जी महाराज के पद और वाणी सुनकर उस कसाई का हृदय परिवर्तन हो गया और वह उनका शिष्य बन गया और उसने अपना मुस्लिम धर्म छोड़कर रविदास जी का अनुयायी बनना स्वीकार कर लिया और जीवन भर इसका पालन भी किया। संत श्री रविदास जी महाराज के निर्मल मन और वाणी का इतना व्यापक प्रभाव था कि सभी अनुयायी उसे बड़े भक्ति के साथ सुनकर अपने को कृत कृत धन्य मानते थे।

भगवान श्री राम और श्री कृष्ण की भक्ति में लीन संत श्री रविदास जी महाराज धीरे धीरे लोगों की भलाई करते गए और संत बन गए। आपको विद्वानों की संगत में रहने एवं साधुओं के साथ वक़्त बिताने में बड़ा आनंद आता था। एक बार आस पास के लोग गंगा स्नान के लिए जा रहे थे तो किसी ने आपको भी गंगा स्नान के लिए चलने को कहा। अपने काम में मग्न संत श्री रविदास जी महाराज ने उन्हें एक सुपारी दी और कहा कि मेरी तरफ से ये मां गंगा को अर्पित कर देना। जैसे ही उस शख़्स ने वह सुपारी मां गंगा को अर्पित की उसे सोने का एक कंगन मिल गया। उस व्यक्ति के मन में लालच आ गया उसने कंगन संत श्री रविदास जी महाराज के बजाय, इनाम की लालसा में, राजा को दे दिया। रानी ने उस शख़्स से वैसा ही एक और कंगन लाने को कह दिया। राजा ने आदेश दिया कि यदि ये इच्छा पूरी नहीं हुई तो उसे दंड मिलेगा। परेशान व्यक्ति ने जब पूरी कहानी संत श्री रविदास जी महाराज को बताई तो उन्होंने नाराज़ होने के बजाय पूरे मन और शक्ति से मां गंगा को याद किया, अपनी कठौती में हाथ डाला और एक कंगन उसमें से नकालकर उस व्यक्ति को दे दिया और कहा कि मन चंगा तो कठौती में गंगा।

संत श्री रविदास जी महाराज का विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित भावना तथा सदव्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर आपने बहुत बल दिया। आपके मत के अनुसार, ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि लघु शरीर की चींटी इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है। इसी प्रकार, अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्यागकर विनम्रता पूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है। संत श्री रविदास जी महाराज की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत प्रोत होती थी। इसलिए आपके वचनों का श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। आपके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का संतोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वतः उनके अनुयायी बन जाते थे। उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके श्रद्धालु बन गए।

आज भी संत श्री रविदास जी महाराज के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। आपने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सदव्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण संत श्री रविदास जी महाराज को अपने समय के समाज में अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। संत श्री रविदास जी महाराज के 40 पद गुरु ग्रंथ साहब में भी मिलते हैं जिसका सम्पादन गुरु श्री अर्जुनसिंह देव जी महाराज ने 16वीं सदी में किया था।

संत श्री रविदास जी महाराज का जीवन प्रेरणा का एक बेमिसाल स्त्रोत है। उनका जीवन प्यार, सच्चाई और सद्भाव की सीख देता है। संत श्री रविदास जयंती पर उनके अनुयायी पवित्र नदियों में स्नान कर उन्हें याद करते हैं। प्रति वर्ष उनके जन्म स्थान पर एक भव्य कार्यक्रम का आयोजन होता है। जिसमें लाखों लोग अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं, उनके द्वारा रचित दोहों का गान करते हैं और भजन कीर्तन करते हैं। आज आपके करोड़ों अनुयायी भारत के साथ साथ विदेशों में भी निवासरत हैं। आपके विचारों ने लोगों के दिलों में आपको हमेशा हमेशा के लिए अमर कर दिया है।

भारत-पाकः शुभ-संकेत

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

भारत और पाकिस्तान को लेकर इधर कुछ ऐसी खबरें आई हैं कि यदि उन पर काम हो गया तो दोनों देशों के रिश्ते काफी सुधर सकते हैं। पहली खबर तो यही है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बारे में ऐसी बात कह दी है, जो दक्षिण एशिया का नक्शा ही बदल सकती है। दूसरी बात भारत-पाक नियंत्रण-रेखा पर शांति बनाए रखने का समझौता हो गया है। तीसरी बात यह कि सुरक्षा परिषद में सहमति हो गई है कि जब कोई आतंकी हमला किसी देश की ज़मीन से हो तो उस देश के अंदर घुसकर उन आतंकियों को खत्म करना जायज है। चौथी बात यह कि पाकिस्तान को अब भी अंतराष्ट्रीय वित्तीय टास्क फोर्स ने भूरी सूची में बनाए रखा है।
श्री मोहन भागवत ने हैदराबाद में आज ऐसी बात कह दी है, जो आज तक किसी आरएसएस के मुखिया ने कभी नहीं कही। उन्होंने कहा कि अखंड भारत से सबसे ज्यादा फायदा किसी को होगा तो वह पाकिस्तान को होगा। हम तो पाकिस्तान और अफगानिस्तान को भारत का अंग ही समझते हैं। वे हमारे हैं। हमारे परिवार के हिस्से हैं। वे चाहें, जिस धर्म को मानें। अखंड भारत का अर्थ यह नहीं कि ये देश भारत के मातहत हो जाएंगे। यह सत्ता नहीं, प्रेम का व्यापार है। यही सनातन धर्म है, जिसे हिंदू धर्म भी कहा जाता है। मोहनजी वास्तव में उसी अवधारणा को प्रतिपादित कर रहे हैं, जो मैं 50-55 साल से अफगानिस्तान और पाकिस्तान में जाकर अपने भाषणों के दौरान करता रहा हूं। उनकी बात की गहराई को हिंदुत्व और इस्लाम के उग्रवादी समझें, यह बहुत जरूरी है। मैंने कल ही श्रीलंका में दिए गए इमरान के भाषण का स्वागत किया था। अब कितना अच्छा हुआ है कि दोनों देशों के बड़ै फौजी अफसरों ने नियंत्रण-रेखा (778 कि.मी.) और सीमा-रेखा (198 किमी ज.क.) पर शांति बनाए रखने की सहमति जारी की है। पिछले कुछ वर्षों में दोनों तरफ से हजारों बार उनका उल्लंघन हुआ है और दर्जनों लोग मारे गए हैं। यह असंभव नहीं कि दोनों देश कश्मीर और आतंकी हमलों के बारे में शीघ्र ही बात शुरु कर दें। इसका एक कारण तो अमेरिका के बाइडन प्रशासन का दबाव भी हो सकता है, क्योंकि वह अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने के लिए पाकिस्तान की मदद चाहता है और वह पाकिस्तान को चीनी चंगुल से भी बचाना चाहता है। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल इस मामले में काफी चतुराई से काम कर रहे हैं। भारत भी चाहेगा कि पाकिस्तान चीन का मोहरा बनने से बचे। इमरान खान को पता चल गया है कि सउदी अरब और यूएई जैसे मुस्लिम देशों का सहयोग भी अब उन्हें आंख मींचकर नहीं मिलनेवाला है। पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं का दबाव भी बढ़ गया है। संयुक्तराष्ट्र संघ ने भी आंतकियों के कमर तोड़नेवाले बालाकोट-जैसे हमलों का समर्थन कर दिया है। यदि इन सब परिस्थितियों के चलते भारत-पाक वार्ता शुरू हो जाए तो उसके क्या कहने ?

कोख का कर्ज

                   प्रभुनाथ शुक्ल 

जगेश बाबू का कभी अपना जलवा था। रौबिले और गठिले जिस्म पर सफेद कुर्ता-धोती मारवाड़ी पगड़ी खूब फबती। हाथ में छड़ी और मुंह में पान की गिलौरी दबाए ताव से मूंछों पर हाथ भांजते रहते। शहर से गांव आते तो उनकी जेब में सूंघनी की डिब्बी और गमकौवा इत्र पड़ा रहता। जग्गन महतो गांव आते ही जगेश बाबू से तगादा ठोंक देते।

” कारे जगेशवा” ! इतना ठेका सुनते ही जगेश बाबू जग्गन महतो का इशारा समझ जाते और तपाक से बोल उठते “पांय लांगू काका। हां ! आव काका इहवां बैठ, हमरा क मजाल काबा कि हम आपक सूंघनी भूलाय जाब ” । जवाब में जग्गन काका की ओर से मिले एक ठहाके से महौल हंसी ठिठोली में बदल जाता।

जगेश बाबू जब शहर से गांव आते तो एक दिन थकान मिटाने के बाद दूसरे दिन हाथ में छड़ी लिए गांव-जवार का कुशल छेम पूंछने निकल जाते। बड़े बुजुर्गों का बेहद सम्मान करते और उनका आशीर्वाद लेते। किसी को कोई जरुरत होती तो उसे उपलब्ध भी कराते। बच्चों से खूब जमती। दशहरे और दीपावली मौके और मेले में आस पड़ोस के सभी बाल-गोपाल को बुलाकर मेला देखने के लिए रुपइया देते। उस दौर में जगेश बाबू की धर्मपत्नी लाडो काकी का अपना जमाना था। महिलाओं में उनकी खूब चलती थी। तीन बेटों को जेगेश बाबू ने पढ़ा लिखा कर काबिल बनाया दिया था। सभी शहर के सरकारी विभागों में अफसर थे। लेकिन समय जाते देर नहीं लगती। वक्त के साथ सब कुछ बदल जाता है। कुछ शेष बचते हैं तो बिताएं पल और यादें।

एक दिन अचानक जगेश बाबू को दिल का दौरा आया और वे दुनिया छोड़ गए । बेटे और बहुएं रस्म बीतने के बाद अपने- अपने बाल बच्चों के साथ शहर चले गए। घर में अकेली लाडो काकी रह गई। पति की मौत और बेटों की बेरुखी के साथ काकी सूख कर लकड़ी हो चली। गांव में अकेली रहने लगी थीं। कोई उनकी पूछ नहीं रखता था। कभी रुखी- सूखी पकाती या चुपचाप भूखे सो जाती। क्योंकि उनके जिस्म में अब दम नहीं रह गया था। पूरे अस्सी की उम्र पार कर चुकीं थीं। जिसकी वजह से भूखों सोना पड़ता। लाडो काकी की दशा देख गांव जवार के लोग अफसर बेटों पर हँसते और उन्हें कोंसते। लोग ऐसे बेटों पर थू- थू करते। लोग यह भी कहते कि ऐसी संतान से बेऔलाद भले। आखिर ओ दिन आ गए जब मां की दुर्दशा और समाज में गिरती साख को देख तीनों बेटे दीपावली पर लाडो काकी को अपने साथ शहर ले जाने के लिए गांव पहुंचे।

जगेश काका के तीनों अफसर बेटों के गांव आने की खबर जंगल में आग की तरह फैल गई। पड़ोस की औरतें और मर्द मुंहामुंह करने लगे।चलो देर से ही सही कम से कम मां-बाप के कर्ज उताने की चिंता तो हुई। भगवान ने मति तो फेरी। महिलाएं आपस में खुसर फुसर कर रही थी कि वह दौर भी था जब बुढ़िया बेचारी के पैर का महावर नहीं छूटता था। दांतों में मिसी चमकती रहती थी। पूरा शरीर गहनों से भरा होता था। जगेश काका के साथ काकी भी मचिया पर बैठ पान का बीड़ा दवाए रहती। लेकिन सब वक्त-वक्त की बात है। हे राम! यह बुढ़ौती चाहे जो करवाए। लेकिन चलो देर आए दुरुस्त आए। सुबह का भूला शाम को घर लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते। गांव वाले आपस में चर्चा कर रहे थे।

गांव वालों को भरोसा था कि लाडो काकी अब शहर चली जाएंगी उनकी तकलीफ दूर हो जाएगी। महिलाएं और गांव के बड़े बुजुर्ग उनसे मिलने आ रहे थे। लोगों की आखों में आंसू थे। गांव के लोग घर आए जगेश बाबू के तीनों अफसर बेटों का कुशल क्षेम पूछ रहे थे। पद हद में जो जैसा था वैसा व्यहार किया जा रहा था। गुनगुनी ठंड का मौसम था। दीपावली पर आए जागेश बाबू के बेटे कुछ दिन गाँव में रहने के बाद अब तैयारी में लगे थे।

जगेश बाबू का बड़ा बेटा रघुनाथ किसी थाने में दीवान था। उसकी पत्नी अंबिका सरकारी स्कूल में टीचर थीं। रघुनाथ बाबू अपनी पत्नी से कहा ” मां को कुछ दिन हम अपने पास रखते हैं”। पति की बात सुन अंबिका को जैसे सांप सूंघ गया। उसके जिस्म का सारा खून जम गया। पल भर के लिए ऐसा लगा जैसे वह बर्फ में स्नान कर निकली हो। थोड़ी देर बाद उसने कहा।

“अजी चुप रहो ! आप मां की भक्ति में जिंदगी का सूख-चैन क्यों हराम करने में लगे हैं। घर की बड़ी बहू होने के नाते हमने काफी दिनों तक बुढ़िया की सेवा की है। क्या दिया इस कलमुंही ने। जवानी में तो यह सास नहीं पूरी डायन थी। कभी फूटी कौड़ी देने और झूठी प्रशंसा के बजाय बाबू जी से मेरी शिकायत करती फिरती। मैं जब खाना पकाती उसमें कुछ न कुछ मीनमेख निकाला करती”। अंबिका ने अपने पति रघुनाथ का जबाब देते हुए यह बात कहीं। पत्नी का ऐसा तेवर देख रघुनाथ बाबू ने मौन धारण कर लिया।

” देखो! वह मां हैं। उसने नौ माह तक अपनी कोख में मुझे रखा है। हम उस कर्ज से अदा नहीं हो सकते। मां का अपमान अब मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। कहने को हम तीन बेटे हैं, लेकिन फिर बेटों के होने का मतलब क्या है। गांव वाले हमारे परिवार पर फब्तियां कस रहे हैं। जवार में शर्मिंदगी झेलनी पड़ रही है। समाज में पिताजी का बड़ा नाम था। हम पांच बच्चों को पाल सकते हैं। उन्हें पढ़ा लिखा सकते हैं फिर एक मां को क्यों नहीं रख सकते। चलो ! कोई न रखे, मां को हम अपने पास रखते हैं”। जगेश बाबू के दूसरे बेटे श्याममोहन ने अपनी पत्नी रुक्मिणी से कहा

” वाह! रे श्रवण कुमार। सारा माल तो जेठानी मस्टराइन ने निगल लिया। मोटा वाला हार, सोने की सिगड़ी और नाक की बेसर भी। इस बुढ़िया ने हमें क्या दिया। फिर बड़े आए हो मां के भक्त। जुबान मत खोलिएगा। हम इस मामले में समझौता करने वाली नहीं हूं। इस गले जिस्म को लेकर क्या…”

दूसरी बहू रुक्मिणी जो शहर में पार्लर चलाती थी। उसने यह बात अपने पति से कहा था। श्याममोहन भी आ बैल मार की स्थित देख मौन रहना ही बेहतर समझा।

“…तो तुम हरिश्चंद्र हो। जाओ-जाओ अपनी मां को लेकर रहो। आज से मुझसे इस विषय में बात मत करना। बुढ़िया ने तो हमें पैर बिछुआ तक नहीं दिए। कर्णफूल तो बड़ी चीज है। हमतो सबसे छोटी बहू हूं और तीसरे पर हूं। सारा माल तो दोनों जेठानियों ने रख लिया। फिर इस लाश को पालपोष कर मैं क्या करुंगी। कान खोल कर सुन लीजिए! इस विषय पर मुझसे कभी बात मत करिएगा”। यह बात जगेश बाबू की तीसरी बहू अरविंद कि धर्मपत्नी उर्मिला ने कहीं। अरविंद नगर निगम में बड़े बाबू के पद पर तैनात थे जबकि उर्मिला रेलवे में क्लर्क है।

काफी रात गुजर चुकी थी। बेटों और बहुओं की बात सुन लाडो काकी का कलेजा चाक हो गया था। दिल की धड़कने बढ़ गई थी। वह जगेश बाबू की यादों में खो गई। जगेश बाबू की बनाई हर विरासत तीन हिस्सों में बंट गई थी। लेकिन मां किसके हिस्से में जाएगी यह फैसला अभी तक नहीं हो सका था। कुछ देर बाद घर के कमरों की लाइटें बुझ गयी थी। अब कोई आवाज नहीं आ रही थी। रात्रि का संन्नाटा और गहराता जा रहा था। ठंड बढ़ने लगी थी। गांव में कुत्तों का झुंड भौंक रहा था। लाडो काकी गहरी सोच में डूब गई थीं। वह हांडमांस की ऐसी निरर्थक वस्तु बन कर रह गयी थी। जिनका बेटे और बहुओं की निगाह में कोई मूल्य न बंटवारा रहा।

शर्म नहीं, शक्ति का प्रतीक है माहवारी

सौम्या ज्योत्स्ना

मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार

देश में किशोरी एवं महिला स्वास्थ्य के क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों में काफी सुधार आया है। केंद्र से लेकर राज्य की सरकारों द्वारा इस क्षेत्र में लगातार सकारात्मक कदम उठाने का परिणाम है कि एक तरफ जहां उनके स्वास्थ्य के स्तर में सुधार आया है, वहीं शिक्षा के क्षेत्र में भी काफी प्रगति हुई है। कई राज्यों में महिला एवं किशोरियों के कुपोषण के दर में कमी आई है दूसरी ओर साक्षरता के दर में काफी प्रगति हुई है। लेकिन अब भी कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहां सुधार की अत्यधिक आवश्यकता है। विशेषकर माहवारी के मुद्दे पर सबसे अधिक काम करने की ज़रूरत है। हालांकि सरकार की तरफ से न केवल इस विषय पर लगातार जागरूकता चलाई जा रही है बल्कि अधिक से अधिक सेनेट्री नैपकिन के उपयोग को बढ़ाने के उद्देश्य से इसे 2018 में इसे जीएसटी मुक्त भी कर दिया गया है।

लेकिन इसके बावजूद सामाजिक रूप से अभी भी माहवारी को शर्म और संकुचित विषय के रूप में देखा जाता है। माहवारी और सेनेट्री नैपकिन जैसे शब्दों पर सार्वजनिक रूप से चर्चा करना आज भी गलत माना जाता है। यहां तक कि घर की चारदीवारियों के बीच भी बुज़ुर्ग महिलाएं इस पर बात करना पाप समझती हैं। यह परिस्थिती केवल ग्रामीण क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है बल्कि देश के कई छोटे शहरों में भी बहुत हद तक यही देखने और सुनने को मिलता है। इसका सबसे अधिक नुकसान शिक्षा प्राप्त कर रही लड़कियों को उठाना पड़ता है। पीरियड्स के दिनों में उनकी शिक्षा बाधित हो जाती है, क्योंकि इस दौरान उन्हें स्कूल या कॉलेज में सैनेट्री पैड उपलब्ध नहीं हो पाता है। कई बार कक्षा के बीच में ही उन्हें माहवारी आने पर शर्मिंदगी का सामना भी करना पड़ता है। ऐसी परिस्थिती में लड़कियों के लिए शिक्षा पाना और क्लास करना बहुत मुश्किल होता है।

यह सर्वविदित है कि देश के छोटे शहरों में लड़कियां अनेक चुनौतियों को पार करके पढ़ाई करने जाती हैं। घर की दहलीज लांघकर अपने हौसले की उड़ान भरना शुरु करती हैं, मगर पीरियड्स उनके राह का रोड़ा बन जाता है। हालांकि यह एक ऐसी प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिसमें लड़कियां किशोरी बनने की दहलीज पर कदम रखती हैं। हालांकि पीरियड्स को एक वरदान समझना चाहिए मगर लोगों की नज़रों में यह एक अभिशाप होता है। लोगों को लाल दाग से नफरत होती है, मगर लोग यह भूल जाते हैं कि जन्म के समय हर एक मनुष्य इसी लाल खून में रंगा होता है, जो महिला के जननांगों से रिसता है। लेकिन इसके बावजूद देश के छोटे शहरों में माहवारी और सैनेट्री नैपकिन पर बात करने की जगह चुप्पी साध ली जाती है।

उत्तर बिहार की अघोषित राजधानी के रूप में विख्यात और स्मार्ट शहर की उपाधि से सम्मानित मुज़फ़्फ़रपुर की हालत भी कुछ ऐसी ही है, यहां भी लड़कियों को पीरियड्स के समय कई प्रकार से परेशानियों का सामना करना पड़ता है। हालांकि बढ़ती जनसंख्या के अनुसार हर चौक-चौराहों पर लड़कियों के लिए पैड की सुविधा होनी चाहिए ताकि मुश्किल की इस घडी में उन्हें परेशानी ना उठानी पड़े। मगर आलम यह है कि चौक-चौराहों की बात तो दूर, शहर के अधिकांश गर्ल्स स्कूल और कॉलेजों में भी सैनेट्री नैपकीन की सुविधा उपलब्ध नहीं है। हालांकि सरकार की ओर से गर्ल्स स्कूल और कॉलेजों में पैड मशीन लगाने की बात कही जा रही है, जहां बहुत ही कम क़ीमत पर लड़कियों को नैपकीन उपलब्ध हो सकता है ताकि उनकी शिक्षा में कोई रुकावट नहीं आये, मगर उन स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ने वाली छात्राओं तक को पता नहीं है कि ऐसी कोई मशीन भी उपलब्ध है। जिसमें सिक्के डालने (अमूमन पांच रुपये) पर पैड उपलब्ध हो जाते हैं।

मुज़फ़्फ़रपुर के मिठनपुरा स्थित महिला केंद्रित कॉलेज एमडीडीएम की हालत भी कुछ ऐसी ही है। जहां पैड की कोई सुविधा नहीं है, अगर पीरियड आ जाए तो छात्राओं को खुद ही कोई इंतजाम करने पड़ते हैं। हालांकि यह कॉलेज उत्तर बिहार के एक प्रमुख महिला कॉलेज के रूप में विख्यात है। कुछ समय पहले इस कॉलेज में छात्र संघ द्वारा पैड मशीन लगाई गई थी, मगर यहां की छात्राओं को इसकी जानकारी होनी तो दूर, उन्हें यह भी नहीं पता कि ऐसी भी कोई मशीन होती है। छात्र संघ प्रतिनिधि सुप्रिया के अनुसार एमडीडीएम कॉलेज में पैड वेंडिग मशीन 2018-19 के आसपास लगवाई गई थी, मगर उसका सही इस्तेमाल नहीं हो सका। कुछ लड़कियों की बदमाशियां भी थीं, तो कुछ कॉलेज प्रशासन की गैर ज़िम्मेदाराना हरकत भी इसके लिए ज़िम्मेदार है, क्योंकि वहां मशीन के पास कोई भी नहीं रहता था, जिससे मशीन की उचित देखभाल की जा सके। कॉलेज की सुविधाओं के लिए प्रार्चाया समेत कॉलेज के आला-अधिकारी जवाबदेह होते हैं, मगर एमडीडीएम की प्राचार्या डॉ. कानू प्रिया को ऐसी किसी मशीन के होने की जानकारी तक नहीं है।

इसी कॉलेज से कुछ ही दूरी पर स्थित एक सरकारी गर्ल्स स्कूल ‘चैपमैन गर्ल्स स्कूल’ में भी पैड वेंडिग मशीन लगाई गई थी मगर स्कूल प्रशासन की गैर ज़िम्मेदाराना रवैये के कारण आज यह मशीन केवल दिखावे की चीज़ बन कर रह गई है। हालांकि शहर के कुछ निजी विद्यालयों ने छात्राओं की सुविधा के लिए अपने स्कूल में न केवल यह मशीन लगा राखी है बल्कि इसका सफलतापूर्वक संचालन भी किया जा रहा है। मुज़फ़्फ़रपुर शहर के बाहरी छोर शेरपुर में स्थित एक प्राइवेट स्कूल सनशाइन प्रेप-हाई स्कूल में लड़कियों के लिए पैड की उचित सुविधा है। जहां लड़कियों को पीरियड होने पर पैड की सुविधा दी जाती है। इसके अलावा मुज़फ़्फ़रपुर के मुशहरी ब्लॉक स्थित नव उत्क्रमित हाई स्कूल में छात्राओं को पीरियड्स की जानकारी के लिए एक किताब “पहेली की सहेली” उपलब्ध कराई जाती है। साथ ही सरकार द्वारा पैड खरीदने के लिए पैसे भी दिए जाते हैं। यहां सरकारी सुविधाओं को बच्चों तक बिना किसी गड़बड़ी के पहुंचाया जाता है। ज्ञात रहे कि बिहार के सभी सरकारी स्कूलों में लड़कियों के लिए पैड के पैसे की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। इसके अतिरिक्त इन स्कूलों में लड़कियों को पीरियड्स से जुड़ी जानकारी दी जाती है।

वास्तव में पीरियड, माहवारी या मासिक- यह एक बायोलॉजिकल प्रक्रिया है, जिससे हर एक लड़की किशोरावस्था में गुजरती है। इस संबंध में पटना की वरिष्ठ स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. कल्पना सिंह बताती हैं कि दरअसल माहवारी के दौरान शरीर में रसायानिक बदलाव होने पर महिला के जननांगों से हर महीने खून का रिसाव होता है, क्योंकि शरीर में हर महीने कुछ बदलाव होते हैं, जिसमें एक महिला स्वयं को मां बनने के लिए तैयार करती है। वहीं जब निषेचण की प्रक्रिया नहीं होती है, तब वह अविकसित अंडा रक्त कोशिकाओं के साथ बाहर निकल जाता है, जिसे ही पीरियड्स की संज्ञा दी जाती है। यह पूर्ण रुप से सामान्य प्रक्रिया है, जिसके लिए हर किशोर लड़कियों को तैयार रहना चाहिए और उसके परिवार समेत समाज के लोगों को भी सही शिक्षा देने की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए। इस दौरान उन्हें कभी भी गंदा कपड़ा नहीं इस्तेमाल करना चाहिए, क्योंकि इससे संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है। साथ ही समय-समय पर पैड बदलते रहना चाहिए ताकि साफ-सफाई में कमी ना हो।

आज जहां एक ओर पीरियड्स पर फिल्में बनती हैं, लोग लाल रंग की बिंदी बनाकर पीरियड्स को सपोर्ट करते हैं और अनेक तरह के जागरुकता के कार्यक्रम होते हैं, ऐसे में पीरियड्स को लेकर लड़कियों की पढ़ाई में परेशानी होना निराश करने वाली घटना है। शासन-प्रशासन समेत सभी को अपने स्तर पर पीरियड्स को लेकर लड़कियों को सुविधाएं देनी चाहिए ताकि कलम मासिक धर्म के कारण ना रुके। लेकिन इसके लिए ज़रूरी है समाज को भी इस दिशा में अपने संकुचित सोंच से बाहर निकलने की, ताकि पीरियड्स शर्म का नहीं बल्कि दैनिक जीवन का विषय बन सके।

भारत की आंखें


—विनय कुमार विनायक
भारत की आंखें
बड़ी ही खूबसूरत होती है
भारत की आंखों में
ईश्वर की मोहिनी मूरत होती है
भारत की आंखों ने
देखी दिखाई दुनिया को
राम कृष्ण बुद्ध महावीर बनकर
भारत की आंखें
गुरु नानक,गोविंद,प्रताप,शिवाजी जैसी
भारत की आंखें त्रिनेत्र होती
भारत की आंखें
भूत, भविष्य, वर्तमान एक साथ देखती है
भारत की आंखें राम जैसी
राजीव नयन नयनाभिराम होती है
भारत की आंखें घनश्याम जैसी
खेल-खेल में मां को मुख में ब्रह्मांड दिखाती है
भारत की आंखें गोपाल कृष्ण जैसी
वृंदावन में गोप, गोपिका,धेनु को लुभाती है
भारत की आंखें युद्ध भूमि में
क्रुद्ध महाकाल का विश्वरुप बन जाती है
शांति काल में हंसता बुद्ध बनके
मंत्र मुग्ध कर जाती है
भारत की आंखें
हमेशा आर-पार परिणाम देखती है
भारत की आंखें अर्जुन जैसी
एकाग्रचित्त लक्ष्य अनुसंधान करती है
भारत की आंखें प्रताप जैसी
शब्द सुनकर शब्दभेदी बाण भेदती है
भारत की आंखें बड़ी सुन्दर होती है
देवबाला अप्सरा उर्वशी, मेनका,
दानवबाला हिडिंबा,नागकन्या उलूपी
कभी पुरुरवा, कभी विश्वामित्र,
कभी भीम,कभी अर्जुन की
मनोहर आंखों पर मोहित हो जाती है
भारत की आंखें
सदा नर्म व गर्म साथ-साथ होती
मगर कभी बेशर्म नहीं होती है
भारत की नर्म आंखें
अगर देखना हो तो देखो
अर्जुन की जिसने नरमी से
उर्वशी की शाप झेली थी
और अशोक पुत्र कुणाल की
जिसने खुद की आंखें विमाता की
कूट राजाज्ञा से निकलवा ली थी
भारत की आंखें वीरमदेव जैसी
जिसमें अलाउद्दीन की बेटी
फिरोजा की आंखें उलझ गई थी
भारत की आंखें
सदा से दूरदर्शी व दूरगामी होती है
भारत की आंखें स्वप्निल होती
पर बेपानी कभी नहीं होती है
भारत की आंखें
विश्व कल्याणी होती एक जैसी
बेगानी नहीं किसी की
कभी बेईमानी शैतानी नहीं करती है
भारत की आंखों ने
बुद्ध की करुणा,
महावीर की अहिंसा,
गुरु गोविंद का गुरूर सिरुर,
दयानन्द की दया,
विवेकानंद की धर्म व्याख्या
विश्व को दाय भाग में दी
भारत की आंखें
कातिल नहीं, बुजदिल नहीं
कभी आक्रांता बनकर
कत्ल नहीं करती किसी का
भारत की आंखों में
बसती है भारत का दिल
भारत की आंखें काली कजरारी
कि सुन्दरता तन में नहीं मन में होती
मन की सुन्दरता आंखों में छलकती है
भारत की आंखों में शर्म हया होती है
भारत की आंखें
जहां तक होती वहां मानवता बसती है
भारत की आंखें
दुनिया की हर भाषा को समझती है!

मैं पागल हूं, रहने दो।।

कुछ कहता हूँ कहने दो , मैं पागल हूं, रहने दो
आँसू देख तेरे आंखों में मेरे अश्क भी बहने दो
वो कहती है मैं पागल , मैं पागल हूँ रहने दो।

उसकी कद्र मैं करता हूं, पीर मैं उसके समझता हूँ
उसको अपना मानता हूँ, मन की बातें जानता हूँ
राज खुले तो मैं पागल, मैं पागल हूँ रहने दो।

उसका सब मुझ पर अर्पित है, मेरे लिए समर्पित है
उसका समर्पण देखकर सुनकर हृदय ये गर्वित है
और फिर कहती है मैं पागल, मैं पागल हूं रहने दो।

मै सोता हूं वो जागती है दुआ मेरे लिए वो मांगती है
पता नहीं क्या सोचती है, और आसमान में ताकती है
फिर कहती है मैं पागल, मैं पागल हूँ रहने दो।

मुसीबतों में वो है साहस, आंसू निकले तो कहती बस
विचलित जब भी वो होती है,मैं हूं कहकर देता साहस
खुद विचलित और मैं पागल, मैं पागल हूं रहने दो।

नादान भी देखो कितनी है, फूलों के बचपन जितनी है
छोटी सी बात पे रो देती, भावुकता उसमे इतनी है
और कहती है मुझको पागल, मैं पागल हूँ रहने दो।

वो मुझको पागल कहती ,मैं उसको कहता हूँ पगली
गम हम दोनो ही छिपाते हैं मुस्कान भी देते है नकली
कुछ पूछूं तो मैं पागल , मैं पागल हूँ रहने दो।

जब भी मुझको होता बुखार, तो उसका ताप भी बढ़ जाये
दर्द में मैं जब भी होता तो उसके आँसू बह जाये
और कहती है कि मैं पागल , मैं पागल हूं रहने दो।

सब कुछ न दे सकता उसको क्यो कि गरीब हूँ
दूर दूर रहता हूं उससे, फिर भी करीब हूं
तुमने अपना सुना दिया अब मुझको भी कुछ कहने दो
वो कहती है कि मैं पागल, मैं पागल हूं रहने दो।

जुड़े रहेंगे इक दूजे से,जब तक तन में श्वास,
जिस्म जुदा पर रूह एक है हमको है ‘एहसास’
खुद ही सारे गम ना लो, कुछ दर्द हमे भी सहने दो,
हाँ मैं पागल हूं, मुझको पागल रहने दो।।

  • अजय एहसास

धर्म सत्कर्तव्यों के ज्ञान व पालन और असत् कर्मों के त्याग को कहते हैं

-मनमोहन कुमार आर्य
धर्म के विषय में तरह तरह की बातें की जाती हैं परन्तु धर्म सत्याचरण वा सत्य कर्तव्यों के धारण व पालन का नाम है। यह विचार व सिद्धान्त हमें वेदाध्ययन करने पर प्राप्त होते हैं। महाराज मनु ने कहा है कि धर्म की जिज्ञासा होने पर उनका वेदों से जो उत्तर व समाधान प्राप्त होता है वही धर्म होता है। उनका कथन है ‘धर्म जिज्ञासानाम् प्रमाणम् परमं श्रुति’ अर्थात् धर्म की जिज्ञासा का जो समाधान वेदों से मिलता है वही परम प्रमाण होता है। विचार करने पर मनुष्य को कर्तव्यों का ज्ञान होना व उसके द्वारा उनका पालन करना ही धर्म सिद्ध होता है। मनुष्य का जीवन एक जीवात्मा द्वारा मनुष्य शरीर में विद्यमान रहकर सत्य व असत्य कर्मों का केन्द्र व स्थान होता है। मनुष्य को परमात्मा ने सत्य व असत्य कर्मों में भेद करने के लिए बुद्धि दी है। बुद्धि को सत्यासत्य का विवेक करने की क्षमता से युक्त करने के लिये ज्ञान प्राप्ति वा अध्ययन करना होता है। मनुष्य के लिए कर्तव्यों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये वेद ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसका कारण है कि वेदों में जो ज्ञान से युक्त मन्त्र व विचार हैं वह अल्पज्ञ व भ्रान्त मनुष्यों की रचनायें न होकर सर्वज्ञ परमात्मा जिसने इस जगत को बनाया व जो इस जगत का पालन कर रहा है, उसका नित्य ज्ञान है जिसमें न तो किसी प्रकार की भ्रान्ति है और न ही कहीं कुछ असत्य का समावेश है।

परमात्मा का ज्ञान निभ्र्रान्त होता है और ऐसा ही निभ्र्रान्त ज्ञान वेदों से प्राप्त होता है। संसार के वेदेतर ग्रन्थ व पुस्तकें जिनसे मनुष्य ज्ञान प्राप्त करता है, वह ज्ञान भी वहां वेदों से ही गया है परन्तु मनुष्यों द्वारा उसका संकलन व लेखन करने से उसमें अल्पज्ञता के कारण अनेक दोषों, भ्रान्तियों व असत्य का समावेश मिलता है। यही कारण है कि संसार की सर्वथा शुद्ध पुस्तक यदि वेद के बाद कोई है तो वह उन ऋषियों के ग्रन्थ हैं जिन्होंने योग-ध्यान साधना से ईश्वर का साक्षात्कार किया हुआ था। ऋषियों ने जो भी बातें लिखी हैं वह वेदों के व्याख्यान रूप में ही वेदों की बातों को साधारण मनुष्यों को समझाने के लिये लिखी हैं। यही कार्य अध्यापक विद्यालयों में अपने शिष्यों को अध्ययन कराते समय करते हैं। वेदों के बाद ऋषियों के धर्म व ज्ञान विज्ञान से युक्त जो ग्रन्थ हैं वह उपनिषद तथा दर्शन आदि ग्रन्थ हैं। विशुद्ध मनुस्मृति से भी मनुष्यों को शुद्ध ज्ञान व अपने कर्तव्यों का बोध होता है। इसलिए मनुस्मृति ग्रन्थ की संज्ञा मानव धर्मशास्त्र है। मनुस्मृति का वही भाग व सिद्धान्त ग्राह्य होते हैं जो कि सर्वथा वेदानुकूल हैं। सत्य व असत्य की परीक्षा न्याय दर्शन के सिद्धान्तों से की जा सकती है और किसी भी ग्रन्थ की सत्य व असत्य मान्यताओं को जानकर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग किया जा सकता है। इस प्रकार से हमें जो सत्य प्राप्त होता है उसका ज्ञान, उसका धारण और उसके अनुसार ही अपने सभी कर्मों को करना धर्म कहलता है। 

महर्षि दयानन्द जी वेदों के मर्मज्ञ विद्वान व ऋषि थे। वह वेद के मन्त्रों के सत्य अर्थों को जानने वाले थे। उन्होंने वेदों के आधार पर न केवल सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि अनेक ग्रन्थ ही लिखे हैं अपितु वेदों के मन्त्रों का क्रमशः वेदार्थ व भाष्य भी किया है। यदि विष देकर उनका जीवन समाप्त न किया गया होता तो वह कुछ काल बाद वेदभाष्य का कार्य करते हुए वेदों के साढ़े बीस हजार से कुछ अधिक मन्त्रों का पूरा भाष्य व वेदार्थ कर देते। उन्होंने आंशिक ऋग्वेद तथा सम्पूर्ण यजुर्वेद का भाष्य किया है। उनका वेदभाष्य संस्कृत व हिन्दी दोनों भाषाओं में है। एक व्यक्ति अपना कोई ग्रन्थ दो भाषाओं में एक साथ लिखे, ऐसा प्रायः नहीं होता। ऋषि दयानन्द ने विद्वानों की सन्तुष्टि सहित सामान्य जनों पर अपनी दयादृष्टि के कारण संस्कृत के साथ हिन्दी में भी अपूर्व वेदभाष्य किया। समाज में यजुर्वेद के नाम पर सबसे अधिक भ्रान्तियां थी अतः उन्होंने यजुर्वेद का भाष्य प्रथम पूरा किया। इस वेदभाष्य का अध्ययन कर लेने पर मनुष्य को ईश्वर, जीवात्मा तथा अपने सभी कर्तव्यों का बोध हो जाता है जिसको धारण व आचरण में लाकर वह सच्चा धार्मिक मनुष्य बनता है। ऋषि की आक्समिक मृत्यु के कारण जो वेदभाष्य नहीं हो सका था उसे उनके शिष्यों ने पूरा कर दिया है। सम्प्रति चार वेदों का अनेक विद्वानों द्वारा वेद के आर्ष व्याकरण पद्धति के अनुसार किया गया भाष्य उपलब्ध होता है जिसका अध्ययन कर मनुष्य ईश्वरीय ज्ञान वेदों को जान कर लाभ उठा सकते हैं। 

आर्यसमाज से जुड़े लोगों का सौभाग्य है कि उनके पास चारों वेदों का वेदभाष्य मुख्यतः हिन्दी भाषा में तो होता ही है। कुछ लोगों के पास संस्कृत तथा अंग्रेजी आदि भाषाओं में भी वेदों का भाष्य होता है जिसका अध्ययन कर मनुष्य धर्म विषयक गहन ज्ञान कर सकता है। आर्यसमाज के पास चारों वेदों का अध्ययन किये हुए अनेकों विद्वान हैं जो धर्म विषयक विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों में सिद्ध व विज्ञ कहे जा सकते हैं। वस्तुत यही विद्वान विश्व गुरु कहला सकते हैं। वेदों का अध्येता वेदाध्ययन व वेदाभ्यास से निष्पक्ष एवं मनुष्यता का उपकार करने वाला होता है। वह किसी से पक्षपात नहीं करता। अतः धर्म व अधर्म विषय में उनके विचारों व मन्तव्यों को ही देश व विश्व की जनता को मानना चाहिये। मनुष्य यदि अपना सामान्य जीवन जीते हुए प्रतिदिन एक या दो घण्टे घर पर ही वेद, उपनिषद व दर्शन आदि ग्रन्थों का अध्ययन करे तो वह कुछ महीने व वर्ष में ही समस्त वैदिक साहित्य का पारायण कर सकते हैं और सृष्टि के सभी व अधिकांश रहस्यों को जान सकते हैं। सत्य के जिज्ञासु मनुष्यों को जीवन में सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका से आरम्भ करके उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति एवं वेदों का अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करने से उनका ईश्वर, आत्मा तथा प्रकृति व सृष्टि विषयक ज्ञान उन्नति व शिखर को प्राप्त हो सकता है। हम समझते हैं कि मनुष्य वेदाध्ययन आर्यसमाज के सम्पर्क में रहकर तथा ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों से मार्गदर्शन प्राप्त कर ही सुगमता व उत्तमता से कर सकते हैं। 

धर्म सत्य ज्ञान व ज्ञानयुक्त सत्कर्तव्यों के पालन को कहते हैं। ऋषियों ने मनुष्यों की सहायता के लिये वेदों के आधार पर पंचमहायज्ञों को करने का विधान किया है। मनुष्यों पर सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान तथा सच्चिदानन्दस्वरूप अनादि व नित्य सत्ता ईश्वर के अनादि काल से अनन्त उपकार हैं। अतः मनुष्य को आचार्यों से व वेदादि साहित्य के अध्ययन से ईश्वर व आत्मा का सत्यस्वरूप जानकर ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करनी चाहिये। ईश्वर को जानना व उसकी उपासना करना मनुष्यों का सर्वोपरि प्रथम कर्तव्य व धर्म है। जो ऐसा नहीं करते वह कृतघ्न और महामूर्ख होते हैं। इसका कारण यह है कि परमात्मा ने अतीत व वर्तमान में हम पर जो उपकार किये हैं व वह जो वर्तमान में भी कर रहा है, उनको जानकर उसका धन्यवाद करना होता है। मनुष्य का यह प्रमुख प्रथम कर्तव्य है जिसे प्रथम महायज्ञ सकते हैं। इसका नाम सन्ध्या व ब्रह्मयज्ञ भी है। दूसरा महायज्ञ व कर्तव्य वायु व जल की शुद्धि सहित ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते हुए अग्निहोत्र वा देवयज्ञ का करना होता है। इससे मुख्यतः वायु व वर्षा जल की शुद्धि होकर रोगों का शमन होता है। खेतों में उत्तम अन्न उत्पन्न होता है। मनुष्य स्वस्थ एवं निरोग रहते हंै। अनेक रोग भी यज्ञ करने वाले मनुष्य के ठीक हो जाते हैं। इस यज्ञ को करने से हमारे पूर्वज ऋषियों की आज्ञाओं का पालन भी होता है और ऐसा करके इस यज्ञ का सुख रूपी फल हमें जन्म व जन्मान्तरों में परमात्मा की कृपा से प्राप्त होता है जिससे हम उन्नति करने के साथ मोक्षगामी होते हैं। 

तीसरा महायज्ञ पितृयज्ञ है जिसमें माता, पिता व परिवार के वृद्धों की सेवा व उनके भोजन, वस्त्र व निवास सहित रोगादि निवृत्ति में सहायक हुआ जाता है। पितृयज्ञ का यह भाव है कि माता-पिता वृद्ध जनों को मृत्यु पर्यन्त किसी प्रकार का कोई दुःख न हो। ऐसे सम्भावित दुःखों को दूर करने के लिए सभी सन्तानों वा पुत्रों को सदैव तत्पर रहना चाहिये। चैथा महायज्ञ अतिथि यज्ञ है। इसमें विद्वान उपदेशकों को जो घर में आते हैं उनका उचित रीति से पूर्ण श्रद्धा व सेवा भावना से आतिथ्य किया जाता है। उनको भोजन, वस्त्र तथा धन दिया जाता है और उनसे धर्म विषयक शंका समाधान करने सहित उपदेश श्रवण किया जाता है। पांचवा महायज्ञ बलिवैश्वदेवयज्ञ होता है। इस यज्ञ में हमें पशु व पक्षियों को अन्न व भोजन आदि प्रदान कर उनका सहायक बनना पड़ता है। यदि हम गाय, कुत्ते, कौवे आदि पक्षु व पक्षियों को रोटी व कुछ अन्न प्रदान करते हैं तो इससे यह कार्य हो जाता है। हमें पूर्ण अहिंसक रहकर इस यज्ञ को करना होता है। मांसाहार महापाप होता है। इसका परिणाम रोग व परजन्म में भीषण दुःख के रूप में सामने आता है। मांसाहार एवं पशु पक्षियों की उपेक्षा से हमारे कारण जो दुःख निर्दोष प्राणियों को मिलता है, उसको हमें जन्म जन्मान्तर में भोगना पड़ता है। अतः हमें तत्काल ही मांसाहार, मदिरापान, अण्डे आदि का सेवन तथा असत्य व्यवहार का त्याग कर देना चाहिये और शुद्ध शाकाहारी भोजन, दुग्ध व फलों आदि का सेवन करना चाहिये। इससे हम स्वस्थ व दीर्घायु को प्राप्त होंगे और सुखी होने सहित परजन्म में भी हमारी आत्मा व योनि परिवर्तन की दृष्टि से उन्नति को प्राप्त होगी, हमारी आत्मा की अवनति नहीं होगी। 

संसार में सभी मनुष्यों का धर्म एक ही है और वह है सत्कर्तव्यों का पालन तथा असत्कर्मों का सर्वथा त्याग। संसार में मनुष्यों द्वारा जो मत चलाये गये हैं वह धर्म नहीं अपितु मत, सम्प्रदाय आदि हैं। यह प्रायः सभी अविद्या से युक्त हैं। अविद्या से युक्त होने के कारण इनके अनुयायी सत्य धर्म व अपने सभी कर्तव्यों का उचित रीति से पालन नहीं कर पाते। ईश्वर की उपासना तथा यज्ञ की विधि का भी मत-मतान्तरों को भली प्रकार से ज्ञान नहीं है। यज्ञ करना बुद्धि से कर्तव्य सिद्ध होता है, फिर जो इस कर्म को नहीं करते उन्हें धार्मिक कैसे कहा जा सकता है। वह पूर्ण धार्मिक न होकर सीमित मात्रा में ही धार्मिक और जिस मात्रा में धर्म के कामों से दूर रहते हैं, उतनी मात्रा में उन्हें धर्म न करने वाला कहा जा सकता है। सब मनुष्यों को सभी कर्तव्यों को जानकर व उनका पालन करते हुए पूर्ण धार्मिक बनना चाहिये। धर्म के दस लक्षणों धृति,  क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, धी, विद्या, सत्य व अक्रोध को भी सभी मनुष्यों को जानना व इसे जीवन में धारण करना चाहिये।