फ्रांस की संसद ने ऐसा कानून पारित कर दिया है, जिसे लेकर इस्लामी जगत में खलबली मच गई है। कई मुस्लिम राष्ट्रों के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तथा मुल्ला-मौलवी उसके खिलाफ अभियान चलाने लगे हैं। उन्होंने फ्रांस के विरुद्ध तरह-तरह के प्रतिबंधों की घोषणा कर दी है। सबसे पहले हम यह जानें कि यह कानून क्या है और इसे क्यों लगाया गया है ?
इस सख्त कानून को लाने का उद्दीपक कारण वह घटना है, जो पिछले साल अक्टूबर में फ्रांस में घटी थी। सेमुअल पेटी नामक एक फ्रांसीसी अध्यापक की हत्या अब्दुल्ला अजारोव ने इसलिए कर दी थी कि उसने अपनी कक्षा में पैगंबर मुहम्मद के कार्टून दिखा दिए थे। वह छात्रों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पाठ पढ़ा रहा था। फ्रांसीसी पुलिस ने अब्दुल्ला की भी हत्या कर दी थी। अब्दुल्ला के माता-पिता रूस के मुस्लिम-बहुल प्रांत चेचन्या से आकर फ्रांस में बसे थे। इस घटना ने पूरे यूरोप को प्रकंपित और क्रोधित कर दिया था। इसके पहले 2015 में ‘चार्ली हेब्दो’ नामक पत्रिका पर इस्लामी आतंकवादियों ने हमला बोलकर 12 फ्रांसीसी पत्रकारों को मौत के घाट उतार दिया था। ऐसी खूनी घटनाओं के पक्ष-विपक्ष में होनेवाले कई प्रदर्शनों में दर्जनों लोग मारे गए और भारी तोड़-फोड़ भी हुई।
इसी कारण फ्रांस के राष्ट्रपति इमेनुएल मेक्रों यह सख्त कानून लाने के लिए मजबूर हुए। उनके गृहमंत्री ने घोषणा की थी कि हमारे ‘‘गणराज्य के दुश्मनों को हम एक मिनिट भी चैन से नहीं बैठने देंगे।’’ फ्रांसीसी नेताओं के इन सख्त बयानों पर प्रतिक्रिया करते हुए तुर्की के राष्ट्रपति तय्यब एरदोगन ने कहा था कि फ्रांस के राष्ट्रपति अपनी दिमागी जांच करवाएं। कहीं वे पागल तो नहीं हो गए हैं। राष्ट्रपति मेक्रों ने सारे यूरोप के क्रोध को अब कानूनी रूप दे दिया है और फ्रांसीसी संसद के निम्न सदन ने पिछले सप्ताह स्पष्ट बहुमत से उस पर मुहर लगा दी है।
इस कानून में कहीं भी इस्लाम शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। इस कानून को अलगाववाद-विरोधी कानून नाम दिया गया है। इसमें सिर्फ धार्मिक या मजहबी कट्टरवाद की भर्त्सना है, किसी इस्लाम या ईसाइयत की नहीं। इस कानून में फ्रांसीसी ‘लायसीती’ याने पंथ-निरपेक्षता के सिद्धांत पर जोर दिया गया है। यह सिद्धांत 1905 में कानून के रूप में इसलिए स्वीकार किया गया था कि सरकार को चर्च के ईसाई कट्टरवाद और दादागीरी को खत्म करना था। इसी कानून के चलते सरकारी स्कूलों में किसी छात्र, छात्रा और अध्यापक को ईसाइयों का क्रॉस, यहूदियों का यामुका (टोपी) या इस्लामी हिजाब आदि पहनने पर पाबंदी लगा दी गई थी। मजहबी छुट्टियां याने ईद और योम किप्पूर की छुट्टियां भी रद्द कर दी गई थीं।
वर्तमान कानून लंबी बहस और सैकड़ों संशोधनों के बाद पारित हुआ है। यह नये फ्रांसीसी इस्लाम की स्थापना कर रहा है। इस कानून का मुख्य उद्देश्य फ्रांस के मुसलमानों को यह समझाना है कि तुम सबसे पहले फ्रांस के नागरिक हो। अफ्रीकी, अरब, तुर्क, ईरानी या मुसलमान बाद में। यदि तुम्हें फ्रांस का नागरिक बनकर रहना है तो पहले तुम अलगाववाद छोड़ों और पहले फ्रांसीसी बनो। 7 करोड़ के फ्रांस में इस समय लगभग 60 लाख मुसलमान हैं, जो अफ्रीका और एशिया के मुस्लिम देशों से आकर वहां बस गए हैं। उनमें से ज्यादातर फ्रांसीसी रीति-रिवाजों को भरसक आत्मसात कर चुके हैं लेकिन ज्यादातर मुस्लिम नौजवान वर्तमान कानून के भी कट्टर विरोधी है।
इस कानून में कहीं भी इस्लाम के मूल सिद्धांतों की आलोचना नहीं की गई है लेकिन कई अरबी रीति-रिवाजों का विरोध किया गया है। जैसे कोई भी औरत हिजाब या नक़ाब आदि पहनकर सावर्जनिक स्थानों पर नहीं जा सकती है। क्राॅस, यामुका और हिजाब सरकारी दफ्तरों और विश्वविद्यालयों में भी नहीं पहने जा सकते हैं। पहले उन पर सिर्फ स्कूलों में प्रतिबंध था। मुसलमान लड़कियों को शादी के पहले अक्षतयोनि होने का जो डाक्टरी प्रमाण पत्र देना होता था, वह नहीं देना पड़ेगा। एक से ज्यादा औरतों से शादी करने पर 13 लाख रू जुर्माना होगा। यदि कोई व्यक्ति किसी को मजहब के नाम पर डराता है या धमकी देता है तो उसे 65 लाख रु. का जुर्माना देना होगा। किसी भी सरकारी कर्मचारी या सांसद के विरूद्ध किसी को यदि कोई मजहबी आधार पर भड़काता है तो उसे सख्त सजा मिलेगी। इस्लामी मदरसों में बच्चों को क्या पढ़ाया जाता है, सरकार इस पर भी नजर रखेगी। 3 साल की उम्र के बाद बच्चों को स्कूलों में दाखिल दिलाना जरूरी होगा। मस्जिदों को मिलनेवाले विदेशी पैसों पर सरकार कड़ी नजर रखेगी। खेल-कूद के क्षेत्र, जैसे स्विमिंग पूल वगैरह आदमी और औरतों के लिए अलग-अलग नहीं होंगे। इस तरह के कई प्रावधान इस कानून में हैं, जो फ्रांस के सभी नागरिकों पर एक समान लागू होंगे, वे चाहें मुसलमान हों, ईसाई हों, यहूदी हों या हिंदू हों।
फ्रांस और यूरोप के कई गोरे संगठन और राजनेता भी इस कानून के इन प्रावधानों को बेहद नरम और निरर्थक मानते हैं। वे मुसलमानों को रोजगार देने और मदरसों के चलते रहने के विरोधी हैं। वे मस्जिदों पर ताले ठुकवाना चाहते हैं। वे धर्म-परिवर्तन के खिलाफ हैं। वे इस्लाम, कुरान और पैगंबर मुहम्मद की वैसी ही कड़ी आलोचना करते हैं, जैसे कि वे ईसा और मूसा तथा बाइबिल की करते हैं। लेकिन यूरोपीय लोग यह ध्यान क्यों न रखें कि वे जिन बातों को पसंद नहीं करते हैं, उन्हें न करें लेकिन व्यर्थ कटु निंदा करके वे दूसरों का दिल क्यों दुखाएं ? इसी तरह दुनिया के मुसलमानों को भी सोचना चाहिए कि इस्लाम क्या छुई-मुई का पौधा है, जो किसी का फोटो छाप देने या किसी पर व्यंग्य कस देने से मुरझा जाएगा ? वे इस्लाम की उस क्रांतिकारी भूमिका पर गर्व करें, जिसने अरबों की जहालत को मिटाने में अदभुत योगदान किया है।
जब तक रामविलास पासवान थे, तब तक लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) का अपना अलग वजूद था। वो अलग तरह की राजनीति करते थे। चाहे किसी की भी सरकार बने उनका मंत्री बनना तय था। ये बात अलग है कि बिहार की सियासत में भले ही उनका मुख्यमंत्री बनने का सपना अधूरा रह गया हो मगर देश की सत्ता में हमेशा काबिज रहे। एक नजर डालते हैं अपने पिता की विरासत संभाल रहे लोजपा के राजकुमार चिराग पासवान पर, तो ये जनाब पिता के निधन के बाद पार्टी को समेट पाने में कमजोर पड़ते जा रहे हैं। इसका प्रमाण है एक ही दिन बिहार में लोजपा के 200 से अधिक नेताओं का जदयू में ज्वाइन कर लेना। इतना से भी अगर बात खत्म हो जाती तो मान लेते जिस भाजपा के प्रक्षेपास्त्र बनकर बिहार में नीतीश के खिलाफ झंडा बुलंद कर रहे थे उनकी एक मात्र विधान पार्षद नूतन सिंह ने भी लोजपा का दामन छोड़कर भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली है। राजनीतिक सुझबूझ का अभावः कोरोनाकाल के दौरान बिहार विधान सभा चुनाव 2020 का आगाज हुआ। इसी दौर में केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान का निधन हो गया। हलांकि अपने जीते जी पासवान ने अपने इकलौते पुत्र चिराग पासवान को लोजपा की कमान सौंप दी थी। चिराग को लेकर राजनीतिक गलियारे में काफी उम्मीदें पाल रखी थी लोजपा ने तो विपक्षी इनकी कार्यशैली से खार खाए हुए थे। वक्त की नजाकत बदली और चिराग को बिहार विधान सभा 2020 चुनाव लड़ने के लिए पूरी ताकत झोंकनी पड़ गई। उन्होंने मेहनत भी किया, मगर अफसोस की दिशाहीन होकर सत्तारुढ़ दल के खिलाफ ही मैदान में ताल ठोंक दिया। बात यहां तक होती तो चल भी जाती मगर जनाब भाजपा के कभी मुख्यमंत्री पद के दावेदार राजेंद्र सिंह और जनसंघी भाजपाई रामेश्वर चौरसिया, उषा विद्यार्थी को ही तोड़कर नीतीश कुमार को मात देने के लिए भाजपा को ही तोड़ने लगे। आज उसी का नतीजा है कि जदयू ने उनके 200 से अधिक सदस्यों को अपने साथ कर लिया तो भाजपा ने भी लोजपा विधान पार्षद नूतन सिंह को अपने साथ लाकर रही सही कसर पूरी कर दी। नीतीश के साथ नहीं तो किसके साथः बिहार में नीतीश के चेहरे को आगे करके एनडीए ने चुनाव लड़ा और सत्ता पर पुनः काबिज हुई। बिहार का विकास मॉडल की पूरी दुनिया मुरीद है। जिस बिहार से लोग पलायन कर रहे थे, उस बिहार की गद्दी पर नीतीश के बैठने के बाद बिहार की परिभाषा ही बदल गई और आज की ताऱीख में बिहार विकास की इबारत लिख रहा है। पर्यटकों को लुभाने के साथ शिक्षा के अपने पुराने गौरव को वापस स्थापित कर रहा है। वैसे में लोजपा नेता चिराग पासवान, जो की अपरोक्ष रुप में भाजपा के गाईडलाइन पर काम करने की बातें कही जाती रही हैं। आज उसी चिराग तले अंधेरा रह गया है। लोजपा के एक मात्र विधायक राजकुमार सिंह ने एक बयान में कहा था कि वो उस एनडीए का हिस्सा हैं जिसके बिहार में नीतीश कुमार नेता हैं और दिल्ली में नरेंद्र मोदी नेता हैं। उन्होंने कहा कि चिराग पासवान क्या बोलते हैं और नीतीश कुमार को लेकर क्या टिप्पणी करते हैं इससे उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। पार्टी की विचारधारा अलग है और उनकी व्यक्तिगत राय अलग है। इस बयान से अंदाजा लगाया जा सकता है कि लोजपा के अंदरखाने में क्या चल रहा है। बसपा के बाद अब जनता दल युनाइटेड की नजर लोजपा पर है। पार्टी के एकमात्र विधायक राजकुमार सिंह की हाल के दिनों में जदयू के नेताओं के साथ नजदीकियां बढ़ी हैं। राजकुमार सिंह ने तो यहां तक कह दिया कि बिहार में कानून के राज को स्थापित करने से लेकर राज्य को नीतीश कुमार नई ऊंचाइयों तक ले गए हैं।
अपने ही जाल में फंस गए चिरागः राजनीति को अपने फिल्मी करियर की तरह ही हल्के में लेने वाले चिराग पासवान अपने मूल से भटक गए या यों कहें की अतिमहत्वाकांक्षा ने उनकी लुटिया डूबो दी। बिहार की सियासत के तीन खिलाड़ी रामविलास, लालू और नीतीश हैं। लालू और नीतीश अपने-अपने तरीके से बिहार की सत्ता पर बने रहे। लेकिन रामविलास पासवान भी इनसे पीछे नहीं रहे और वो अपने संपूर्ण जीवन केंद्रीय मंत्री बनकर राज करते रहे। जिस तरह लालू ने नीतीश की पाठशाला में तेजस्वी और तेजप्रताप को राजनीति के पाठ पढ़ाए आज उसी का नतीजा है कि लालू के लाल कमाल कर रहे हैं। जबकि रामविलास के लाल चिराग को पासवान ने स्थापित कर ही दिया। इनके आने से तो लगा था कि बिहार की सत्ता में त्रिकोणीय संघर्ष देखने को मिलेगा। मगर यहां तो एनडीए के साथ रहकर भी एनडीए के एक साथी जदयू के खिलाफ पूरे चुनाव आग उगलते रहे उसी का नतीजा रहा कि लोजपा चारोखाने चीत हो गई। जिस वक्त चिराग को अपना कैंपेन चलाना था तो वो एनडीए के साथ रहकर नीतीश को उखाड़ फेंकने का सपना पाल रखे थे। वो शायद ये भूल गए कि दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भाजपा जब नीतीश को बिहार में अपना नेता मानकर चुनाव मैदान में थी, तो इस इशारे को चिराग का नहीं समझना उनको उनके ही चाल में फंसा दिया।
महाभारत के सबसे प्रसिद्ध पात्र कर्ण के ऊपर बन रही फ़िल्म “सूर्यपुत्र महावीर कर्ण” का टेलर लॉंच होते ही सोशल मीडिया पर छा गया है। फ़िल्म का ट्रेलर लॉंच होने के कुछ मिनट के भीतर ही ट्विटर पर ट्रेंड करने लगा। ट्रेलर को फ़िल्म जगत की कई सिलेब्रिटीज़ ने भी रीट्वीट किया है। लोगों ने इस पौराणिक पात्र को लेकर इतने बड़े स्तर पर बनी रही इस के ऊपर कई तरह की प्रतिक्रियाएँ दी हैं तथा ट्रेलर खूब पसंद किया जा रहा है। इस फ़िल्म के संवाद तथा सभी गीतों मशहूर कवि व साहित्यकार डॉ. कुमार विश्वास लिखने वाले हैं। सोशल मीडिया पर इस बात को लेकर डॉ. कुमार विश्वास के प्रशंसकों में भी ज़बरदस्त उत्साह की लहर देखने को मिली। उनके द्वारा सोशल मीडिया पर ट्रेलर रीट्वीट करने के बाद प्रशंसकों ने टिप्पणी करते हुए लिखा कि अपने समय के इतने बड़े किरदार कर्ण को वर्तमान समय के सबसे बड़े कवि की भाषा में जीवंत देखना हम सबके लिए बहुत ही अनूठा अनुभव होने वाला है। ग़ौरतलब हो कि यह फ़िल्म एक बड़े प्रोडक्शन हाउस द्वारा बड़ी लागत के साथ बनाई जा रही है जिसमें फ़िल्म जगत के कुछ बड़े सितारों द्वारा किरदार निभाने की संभावना है।
-मनमोहन कुमार आर्य वर्तमान समय से लगभग 5,200 वर्ष पूर्व महाभारत का विनाशकारी युद्ध हुआ था। महाभारत काल तक वेद अपने सत्यस्वरूप में विद्यमान थे जिसके कारण संसार में विद्या व सत्य ज्ञान का प्रचार व प्रसार था। महाभारत के बाद वेदों के अध्ययन अध्यापन तथा प्रचार में बाधा उत्पन्न हुई जिसके कारण विद्या धीरे धीरे समाप्त होती गई और इसका स्थान अविद्या व अविद्यायुक्त मतों, मान्यताओं व पन्थों आदि ने ले लिया। अविद्या को अज्ञान का पर्याय माना जाता है। अविद्या के कारण लोग ईश्वर तथा आत्मा के सत्यस्वरूप तथा ज्ञान से युक्त मनुष्यों के सत्य वैदिक कर्तव्यों को भी भूल गये थे। वेदों के अध्ययन व प्रचार की समुचित व्यवस्था न होने के कारण अविद्या व अविद्या से उत्पन्न होने वाले अन्धविश्वास तथा सामाजिक कुरीतियों में वृद्धि होती गई। सृष्टि के आदि काल से आर्यावर्त की सीमाओं में वर्तमान के अनेक देश आते थे। आर्यावर्त के अन्तर्गत राज्य भी सिकुड़ कर छोटे छोटे स्वतन्त्र राज्यों व रियासतों में परिणत हो गये थे। अन्धविश्वासों एवं सामाजिक कुरीतियों के कारण मानव का निजी जीवन अविद्या से युक्त था। इसके कारण सगठित रूप से देश्ज्ञ व समाज की उन्नति के जो प्रयास करने होते हैं वह भी शिथिल व न्यून होते थे जिससे देश असंगठित होता गया और देश में अविद्या पर आधारित अनेक विचारधारायें एवं अनेक धार्मिक मत व सम्प्रदाय अस्तित्व में आते रहे।
मध्यकाल व उसके बाद के सभी मत अविद्या के पर्याय अन्धविश्वास, पाखण्ड तथा सामाजिक कुरीतियों से युक्त हो गये। मनुष्य समाज भी नाना प्रकार की जन्मना जातियों एवं ऊंच-नीच की भावनाओं से युक्त हो गया। ऐसे समय में मनुष्य जाति की उन्नति व उसके सुखों की प्राप्ति की सम्भावनायें भी न्यून व समाप्त हो गईं थीं। देश के कुछ भाग पहले यवनों तथा बाद में अंग्रेजों की गुलामी को प्राप्त हुए जिससे देश की जनता नरक के समान दुःखों से युक्त जीवन जीने पर विवश हुई। ऐसे अज्ञानता वा अविद्या के समय में ऋषि दयानन्द (1825-1883) का आविर्भाव हुआ। ऋषि दयानन्द एक पौराणिक शिवभक्त परिवार में जन्में थे। अपनी आयु के चौदहवें वर्ष में शिवरात्रि पर्व पर मूर्तिपूजा व व्रत उपवास करते हुए उन्हें बोध की प्राप्ति हुई थी। उन्हें बोध हुआ कि सच्चे शिव व उसकी मूर्ति के स्वरूपों व गुण, कर्म व स्वभावों में अन्तर है। जिस सच्चे शिव की लोग उपासना करते हैं वह उसकी मूर्ति बनाकर परम्परागत विधि से पूजा करने पर वह उपासना सत्य सिद्ध नहीं होती। उनके मन में मूर्तिपूजा के प्रति अनेक आशंकायें उत्पन्न र्हुइं। वह उनके समाधान अपने विद्वान पिता तथा विद्वान पण्डितों से जानना चाहते थे परन्तु किसी से उनका समाधान नहीं हुआ। कुछ काल बाद अपनी बहिन व चाचा की मृत्यु होने पर भी उन्हें मृत्यु की औषधि को जानने का बोध हुआ था। अपने प्रश्नों के उत्तर न मिलने और इनके अनुसंधान में अपने माता-पिता व परिवार का सहयोग न मिलने के कारण उन्होंने आयु के बाइसवें वर्ष में अपने पितृगृह का त्याग कर दिया था और अपना जीवन अपनी आशंकाओं को दूर करने सहित सच्चे शिव व ईश्वर की खोज, उसकी प्राप्ति, ईश्वरीय ज्ञान वेद के अध्ययन व प्रचार सहित देश व समाज सुधार के कार्यों में व्यतीत किया।
ऋषि दयानन्द योग व वेद विद्या में प्रवीण होकर ऋषि बने थे। उन्होंने अपने तप व अध्ययन तथा सत्यासत्य की परीक्षा से सत्य व असत्य के यथार्थस्वरूप को जान लिया था। उन्होंने जाना था कि मनुष्यों के सभी दुःखों का कारण अविद्या वा वेदों के सत्य ज्ञान को न जानना है। उन्होंने अनुभव किया था कि वेदों के सत्यार्थ को जानकर तथा उसके अनुरूप सभी देश व विश्ववासियों का जीवन बनाकर ही अविद्या को दूर कर विश्व के सभी मनुष्यों के जीवन को सत्य ज्ञान, शारीरिक व आत्मिक बल सहित सुख व शान्ति से युक्त किया जा सकता है। इसी कार्य को उन्होंने पूर्ण निष्पक्षता तथा अपने प्राणों को जोखिम में डाल कर किया जिसका पूरे विश्व पर सकारात्मक प्रभाव हुआ। उनके कार्यों से पूरे विश्व में ही वेदों व विद्या के सत्यस्वरूप का प्रकाश हुआ। योग विद्या में निष्णात होने तथा विश्व में वेदों का प्रचार कर अविद्या को दूर करने में आंशिक सफलता प्राप्त करने के कारण से ही ऋषि दयानन्द विश्व के सभी महापुरुषों से भिन्न एवं ज्येष्ठ हैं। उनके जीवन तथा कार्यों को जानकर, वेदाध्ययन कर तथा वैदिक साहित्य उपनिषद, दर्शन, विशुद्ध मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कार विधि एवं आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर ही मनुष्य जीवन को विद्या से युक्त तथा अविद्या से मुक्त किया जा सकता है। विद्या की प्राप्ति कर ईश्वर का साक्षात्कार करना तथा अमृत व मोक्ष को प्राप्त होना ही मनुष्य जीवन व जीवात्मा का मुख्य लक्ष्य होता है। ऋषि दयानन्द ने वेदप्रचार कर सभी मनुष्यों को ईश्वर का सत्य ज्ञान कराया। उन्होंने मनुष्यों को ईश्वर की प्राप्ति, उसका साक्षात्कार व प्रत्यक्ष कराने सहित मोक्ष प्राप्ति में अग्रसर कर जीवन को कृतकार्य होने का ज्ञान कराया। इस कारण से ऋषि दयानन्द विश्व के अद्वितीय महापुरुष, महामानव, वेद ऋषि तथा ईश्वर के एक महान पुत्र हैं।
ऋषि दयानन्द को अपने जीवन के चौदहवें वर्ष में शिवरात्रि के दिन ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर उपासना करने का बोध हुआ था। इसी का परिणाम उनके ईश्वर सिद्ध योगी बनने सहित वेद वेदांगों का अपूर्व विद्वान व ऋषि बनने के रूप में हमारे सम्मुख आया। ऋषि दयानन्द सच्चे वेद प्रचारक, ईश्वर के सत्यस्वरूप व गुण-कर्म-स्वभाव का ज्ञान कराने वाले, सोलह संस्कारों से युक्त जीवन बनाने हेतु संस्कार विधि ग्रन्थ लिखकर देने वाले, समाज में प्रचलित सभी अन्धविश्वासों तथा पाखण्डों सहित सभी मिथ्या व कृत्रिम सामाजिक मान्यताओं को दूर करने वाले, पूर्ण युवावस्था में कन्या व वर के गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार विवाह का विधान करने वाले, विधवाओं व महिलाओं के प्रति विशेष सम्मान एवं आदर की भावना रखने वाले, महिलाओं पर मध्यकाल में हुए अन्यायों को दूर कर उनके वेदाध्ययन एवं नारी सम्मान का अधिकार दिलाने वाले, देश को आजादी का मन्त्र देने वाले तथा जीवन के सभी क्षेत्रों से अविद्या व मिथ्या मान्यताओं को दूर कर सत्य कल्याणप्रद वैदिक मान्यताओं को प्रचलित कराने वाले अपूर्व महापुरुष हुए हैं। उनके जीवन चरित्र सहित उनके प्रमुख ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय सहित वेदभाष्य को पढ़कर उनके ज्ञान व व्यक्तित्व से परिचित हुआ जा सकता है। ऋषि दयानन्द अपने व पराये की भावना से सर्वथा मुक्त एवं पक्षपातरहित महात्मा व ऋषि थे। उन्होंने स्वमत व परकीय मतों के प्रति किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया।
ऋषि दयानन्द संसार के सभी मनुष्यों व प्राणियों को ईश्वर की सन्तान व अपने समान सुख व दुःखों का अनुभव करने वाला मानते थे। गाय के प्रति एक सच्चे मानव की वेदना को अनुभव कर उन्होंने गोरक्षा का महान कार्य किया और गोरक्षा व गोसंवर्धन पर एक अद्वितीय लघु ग्रन्थ ‘गोकरुणानिधि’ लिखा। ऋषि दयानन्द ने ही सत्य वैदिक मान्यताओं वा वैदिक धर्म के प्रचार हेतु ही आर्यसमाज संगठन की स्थापना 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई में की थी। आर्यसमाज ने देश से अन्धविश्वास, ईश्वर की मिथ्यापूजा को दूर करने सहित वायुशोधक तथा स्वास्थ्यप्रद यज्ञों के प्रचार का भी महान कार्य किया। देश को अविद्या व अशिक्षा के कूप से निकालने के लिए ऋषि दयानन्द द्वारा प्रचारित विचारों के अनुसार उनके शिष्यों ने देश में गुरुकुल तथा दयानन्द ऐंग्लो वैदिक स्कूल व कालेजों को स्थापित कर देश से अज्ञान दूर करने का भी अपूर्व कार्य किया। ऋषि दयानन्द तथा उनके आर्यसमाज ने आर्य हिन्दू जाति को अनेकानेक विदेशी षडयन्त्रों तथा उन्हें धर्मान्तरित होने से बचाया। विदेशी शासन व विदेशी मत से देश को सुरक्षित करने की प्रेरणा की जो उनके बाद सफल हुई लगती है। ऐसे अनेकानेक कार्य ऋषि दयानन्द ने किये जिनकी गणना करना कठिन व असम्भव है। यह सब लाभ ऋषि दयानन्द को शिवरात्रि पर हुए बोध के कारण सम्भव हो सके। इसके लिए ईश्वर का कोटिशः धन्यवाद है। सारा देश व मानवता ऋषि दयानन्द की ऋणी है। देश व विश्व के सभी लोग ऋषि दयानन्द के कार्यों से किसी न किसी रूप में लाभान्वित हैं। ईश्वर व ऋषि दयानन्द के उपकारों के लिए उनको सादर नमन है।
हाल ही में हुए एक अध्ययन में पाया गया है कि भारतीय शहरों में राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (NCAP) के तहत किए गए पौधारोपण, योजनाबद्ध तरीके से न किये जाने के कारण अप्रभावी हैं। ज्यादातर मामलों में, या तो वृक्षारोपण अभियान ने प्रमुख प्रदूषण वाले हॉटस्पॉट को अपवर्जित रखा या ऐसी प्रजातियों का इस्तेमाल किया जो प्रदूषण को अवशोषित नहीं करती हैं।
लीगल इनिशिएटिव फॉर फॉरेस्ट एंड एनवायरमेंट (LIFE) द्वारा किए गए इस अध्ययन के मुताबिक़ शहरों में हो रहे वृक्षारोपण की योजना में उपयुक्त स्थानों या प्रजातियों की पहचान ण होने के करण प्रक्रिया विफल रहती हैं। शहरों में वृक्षारोपण अभियान के पीछे NCAP का लक्ष्य प्रदूषण की रोकथाम है। फिर भी, यह उद्देश्य काफी हद तक अधूरा ही है क्योंकि शहर प्रदूषण के केंद्रों, यातायात गलियारों और राजमार्गों जैसे प्रदूषण के केंद्रों को प्राथमिकता देने में विफल रहे हैं।
प्रदूषण के केंद्रों पर ध्यान नहीं दिया गया है
यह अध्ययन विभिन्न विभागों से सूचना का अधिकार (आरटीआई) प्रतिक्रियाओं के विश्लेषण पर आधारित है। छह शहरों में प्रदूषण के केंद्रों के साथ वृक्षारोपण स्थानों को सूपरइम्पोज़ किया गया: कोरबा, हैदराबाद, दिल्ली, आगरा, चंडीगढ़ और वाराणसी। इसके साथ, यह पाया गया कि हैदराबाद में किए गए 43 बागानों में से केवल एक प्रदूषण हॉटस्पॉट के पास था। इसी तरह, भारत के सबसे प्रदूषित शहरों में से एक, वाराणसी में, यातायात जंगक्शन में 8% के मुकाबले 60% बागान आवासीय क्षेत्रों में थे। चंडीगढ़ के मामले में, पार्क और सामुदायिक केंद्र वृक्षारोपण के लिए पसंदीदा स्थान थे, जबकि यातायात जंक्शनों को छोड़ दिया गया था। यह दृष्टिकोण चिंताओं को जन्म देता है क्योंकि पहले से ही हरे स्थानों को अधिक वृक्षारोपण मिलता है, जब कि शहर में वाहनों का आवागमन प्रदूषण का प्रमुख स्रोत है।
प्रजातियों में खराब विकल्प
वाराणसी में, कनक चम्पा (पर्टोस्पर्मम ऐसरीफोलियम), पेलटोफ़ोरम (पेलटोफ़ोरम पटेरोकार्पम) और सेमुल (बॉम्बैक्स सीइबा) का उपयोग ग्रीन बेल्ट के विकास में किया गया है, जब कि ये केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा अनुशंसित नहीं किये गए हैं। शहरों को उन देशी प्रजातियों के चयन की ओर बढ़ना चाहिए जो प्रदूषक अवशोषण के लिए अच्छे हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि केवल पेड़ लगाने से प्रदूषण का स्तर कम नहीं हो सकता है। इसमें कहा गया है, “शहरों की ग्रीनिंग को एक सुनियोजित वैज्ञानिक प्रक्रिया होना चाहिए जिसका उद्देश्य प्रदूषण नियंत्रण और घास, झाड़ियों और पेड़ों के मिश्रण के माध्यम से जैव विविधता को बढ़ाना है।”
LIFE के मैनेजिंग ट्रस्टी रितविक दत्ता कहते हैं, “गलत स्थानों पर और गलत प्रजातियों के साथ शहरों की ग्रीनिंग से प्रदूषण कम नहीं होगा। हर शहर को मौजूदा पेड़ों की सुरक्षा को पहली प्राथमिकता देनी चाहिए, विशेष रूप से प्रदूषण के केंद्रों में। प्रत्यारोपण इसका उचित जवाब नहीं है क्योंकि पेड़ों को प्रदूषण वाले हॉटस्पॉट क्षेत्रों से हरियाली वाले क्षेत्रों में प्रत्यारोपित किया जाएगा। अगर हम क्या लगाए और कहाँ लगाए पर विस्तृत योजना के बिना बस पेड़ लगाते हैं तो एनसीएपी (NCAP) का लक्ष्य पूरा नहीं होगा।
श्वेता नारायण, एडवाइजर, हेल्दी एनर्जी इनिशिएटिव इंडिया, कहती हैं, “ग्रीनबेल्ट उद्योगों के लिए ईसी (EC) के तहत एक कानूनी आवश्यकता है और पूरी तरह से उद्योगों की जिम्मेदारी है। इसलिए, अगर ग्रीनबेल्ट की कमी है, तो इकाइयां ईसी रद्द होने और अभियोजन का जोखिम उठाती हैं। पर कोरबा में किए गए लगभग सभी एनसीएपी (NCAP) संयंत्र थर्मल पावर प्लांट, उद्योगों और खानों के पास हैं। इसका मतलब यह है कि या तो मौजूदा ग्रीनबेल्ट आवश्यकता का अनुपालन नहीं किया जा रहा है (जो ईसी शर्त के अनुपालन के तहत अवैध है) या पूर्ण अनुपालन के बावजूद धूल के उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए मौजूदा ग्रीनबेल्ट मानक अपर्याप्त है। अगर ऐसा है, तो हमें NCAP के मानदंडों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।”
एनसीएपी (NCAP) दस्तावेज़ के अनुसार, इन वृक्षारोपणों को क्षतिपूरक वनीकरण कोष का उपयोग करके वित्त पोषित किया जाना है, जो कि ग्रीन इंडिया मिशन का हिस्सा है। यह मिशन पेरिस समझौते में भारत के राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान का हिस्सा है, और 10 वर्षों में पांच मिलियन हेक्टेयर वन / वृक्ष कवर को जोड़ने की योजना है।
मुख्य निष्कर्ष:
· कोरबा में 50% से अधिक वृक्षारोपण थर्मल पावर प्लांट के आसपास है, जबकि शहर के प्रदूषण के केंद्र जैसे कि यातायात जंक्शनों में कोई वृक्षारोपण नहीं है। विशेष रूप से, बिजली संयंत्र के चारों ओर एक ग्रीनबेल्ट विकसित करना परियोजना के प्रस्तावक की जिम्मेदारी है।
· हैदराबाद में 43 वृक्षारोपण क्षेत्रों में से केवल एक वृक्षारोपण क्षेत्र प्रदूषण वाले हॉटस्पॉट में है, जबकि बाकी मध्यम प्रदूषित या कम प्रदूषित क्षेत्रों में हैं।
· दिल्ली ने शहर के मध्य और पूर्वी हिस्सों के पक्ष में द्वारका, मुंडका, नरेला और बवाना में हॉटस्पॉट्स की उपेक्षा की है।
· वाहनों से प्रदूषण के प्रमुख प्रदूषण स्रोत होने के बावजूद, चंडीगढ़ ने जंक्शनों और सड़कों के बजाय उद्यानों और पार्कों में रोपण जारी रखा।
· वाराणसी में कुल 25 वृक्षारोपण स्थानों में से 60% आवासीय क्षेत्रों में हैं जिसकी तुलना में सिर्फ 8% यातायात हब और जंक्शनों के आसपास हैं।
· गुवाहाटी में कोई भी वृक्षारोपण कार्य नहीं किया गया है। यहां तक कि वृक्षारोपण योजना, जिसमें किए जाने वाले कार्यों और उनकी समयसीमा का विवरण होता है, उसका ब्यौरा नहीं किया गया है। यह एनसीएपी (NCAP) के साथ स्पष्ट विरोधाभास में है।
· अधिकांश शहरों ने विदेशी और असंगत प्रजातियों या सजावटी प्रजातियों को लगाया है जो वायु प्रदूषण को कम करने में फायदेमंद नहीं होंगे।
लीगल इनिशिएटिव फॉर फॉरेस्ट एंड एनवायरनमेंट (LIFE) की इस रिपोर्ट में 2019 में एनसीएपी (NCAP) के वृक्षारोपण की पहल के तहत किए गए कार्यों का विश्लेषण किया गया है। इस शोध के लिए 15 शहरों को लक्षित किया गया था, लेकिन हमारे आरटीआई का जवाब केवल सात ने दिया: कोरबा, हैदराबाद, दिल्ली, आगरा , चंडीगढ़, वाराणसी और गुवाहाटी। अधिकारियों द्वारा साझा किए गए वृक्षारोपण स्थानों को, शहरी उत्सर्जन के APnA सिटी कार्यक्रम से नक्शों का उपयोग करके, गूगल धरती (Google Earth) का उपयोग करके प्लॉट किया गया और शहर के प्रदूषण हॉटस्पॉट्स पर सूपरइम्पोज़ किया गया। जिन शहरों के लिए प्रदूषण हॉटस्पॉट मानचित्र उपलब्ध नहीं थे, कुछ प्रदूषित क्षेत्रों की पहचान निरंतर परिवेश वायु गुणवत्ता निगरानी स्टेशन (CAAQMS) से PM2.5 मूल्यों के आधार पर की गई और वृक्षारोपण स्थानों के साथ सूपरइम्पोज़ किया गया।
आत्मनिर्भरता के परिणाम अब ग्रामीण स्तर पर दिखाई देने लगा है। ग्रामीण अपनी जमीन पर खेती के साथ-साथ आय बढ़ाने के अन्य साधन भी ढूंढ़ने लगे हैं। विशेषकर ग्रामीण महिलाएं अब मजदूरी छोड़कर अपना स्टार्टअप शुरू कर रही हैं। मध्य प्रदेश के सीहोर जिले के दौरे के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में इसके कई उदाहरण देखने को मिले। जब सड़क पर सरपट भागती गाड़ी एकाएक पानी के लिए मायाबाई कुमरे की दुकान पर रूकी। गांव लावापानी की 38 वर्षीय महिला माया एक स्वयंसेवी संस्था स्वस्ति द्वारा गठित आस्था स्वयं सहायता समूह की सदस्या है। उसके सामने उस समय मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा था, जब अक्टूबर 2020 में उसके पति का एक्सीडेंट में पैर टूट गया। घर के एकमात्र कमाने वाले सदस्य का अचानक बिस्तर पकड़ लेने से आर्थिक तंगी हो गई। उसने सोचा, मात्र दो एकड़ जमीन के भरोसे कैसे परिवार का गुजारा होगा?
ऐसे में मायाबाई मदद के लिए अपने स्वयं सहायता समूह के पास पहुंची, जहां समूह की सदस्यों ने उसकी हिम्मत बढ़ाई और कहा, कि तुम्हारे पास दो एकड़ का एक छोटा खेत है। वह भी बटाई पर है। इससे तुम्हारा गुजारा नहीं होगा, लेकिन तुम यह मत भूलो कि तुम्हारा खेत भोपाल से इंदौर को जोड़ने वाले मुख्य हाइवे पर है, तुम वहां कोई दुकान डाल लो। मायाबाई को यह सुझाव बहुत अच्छा लगा। समूह ने एक साथ फैसला किया और मायाबाई को दस हजार रुपये का ऋण दिया। स्वस्ति की जागृति महिला संगठन उद्यम से किराना सामान के साथ एक छोटा सा व्यवसाय खोलने के लिए उसने अपनी खेत जो सड़क से लगा हुआ है, उस पर झोपड़ीनुमा दुकान बनाकर किराने का सामान बेचना शुरू कर दिया। पहले ही महीने में उसे इस दुकान से आठ हजार रूपये का मुनाफा हुआ। जिसे वह दुकान को बड़ा रूप देने के लिए बचत कर रही है।
पिछले दो महीनो की बचत से उसने दूकान को बढ़ाना शुरू कर दिया है। अब वह महिलाओं से जुडी अन्य सामग्री भी रखने पर विचार कर रही है। गांव में एक महिला द्वारा आत्मनिर्भरता के लिए उठाये गये इस कदम को बड़ी सराहना मिल रही है। इस दुकान से न केवल परिवार, बल्कि पूरा गाँव यहां तक कि सड़क से गुजरती गाडि़यों में बैठे लोग भी उसका सम्मान कर रहे हैं। माया केवल आर्थिक रूप से ही आत्मनिर्भर नहीं हुई, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक दृष्टि से भी मज़बूत हुई है। उसके भीतर का डर और झिझक खत्म हो चुका है, वह एक साहसी महिला के रूप में सम्मान पा रही है। माया ने बताया, उसके दो बेटे हैं और दोनों पढ़ाई कर रहे है। उल्लेखनीय है, कि लावापानी गांव, सीहोर जिले के नसरुल्लागंज ब्लॉक के रेहटी तहसील का आदिवासी बहुल गांव है।
माया से प्रेरित होकर रेहटी तहसील के कई गांवों की महिलाएं स्वयं का व्यवसाय शुरू करने के लिए आगे आईं और स्वयंसहायता समूह से जुड़ी हैं। समूह से ऋण लेकर उन्होंने अपना व्यवसाय शुरू किया है। माया ने जो राह दिखाया उससे गांवों को आत्मनिर्भर बनाने की पकड़ मजबूत हुई है। गांव की महिलाओं में साहस और संकल्प दिखाई देने लगा है। बबीताबाई और ममताबाई किराना सामग्री के साथ मनीहारी सामान को अपने गांव के साथ-साथ आस-पास के गांवों में लगने वाले हाट में भी बेचती हैं। ममता केवट सलकनपुर मंदिर के पास त्योहारों के मौके पर नारियल, अगरबत्ती, चुनरी आदि की दुकान लगाती हैं। सभी महिलाओं ने व्यावसाय शुरू करने के लिए जागृति महिला संस्थान से ऋण लिया।
अब तो इन विकास खण्डों के 33 गांवों के अलग-अलग लोकेशन पर कुल 120 दुकानों का संचालन महिलाएं कर रही है। इन दुकानों में रोजमर्रा की जरूरतों वाले किराना सामनों के साथ-साथ महिलाओं के श्रंगार की सामग्री भी उपलब्ध है। इतने कम समय में इन महिलाओं ने इतनी बड़ी संख्या में अलग-अलग 200 समूहों का गठन कर लिया और इन छोटे-छोटे समूहों का एक बड़ा फेडरेशन जागृति महिला संस्थान के नाम से पंजीकृत करवाया। समूह की महिलाओं ने अपने रोजमर्रा के खर्चों से बचत कर फेडरेशन के खाते में अब तक 3 लाख से अधिक की रकम जमा कर चुकी हैं। व्यवसाय के साथ-साथ महिलाओं ने अपने स्वास्थ्य को बेहतर किया और डॉक्टरों पर होने वाले खर्च को भी बचाया है। इसी बचत को वह समूह के खाते में जमा करती हैं और जरूरत पड़ने पर इसी से ऋण लेती हैं। इतना ही नहीं वह ईमानदारी से ऋण लौटाती भी हैं। आज तक समूहों की एक भी महिला डिफाल्टर नहीं है।
फेडरेशन की अध्यक्षा कविता गौर एकल मां है, वह बताती हैं कि दो बच्चों की परवरिश और गुजारे के लिए उनके पास मात्र 5 एकड़ कृषि भूमि थी। पति के निधन के बाद उसके आंखों के सामने अंधेरा छा गया था। तब समूह की महिलाओं ने उसे हौसला दिया। हालांकि वह लोगों के ताने भी सुनी, फिर भी घर की चौखट से बाहर निकलकर व्यवसाय की बात सोची। कविता ने कहा, हमलोग व्यवसाय शुरू करने से पहले समूह की बैठकों में इसकी चर्चा करते है, कि उन्हीं चीजों पर पैसा लगाया जाये, जिसकी जरूरत हमेशा रहती है। कविता ने स्वयं पहले दोना बनाने की मशीन के लिए समूह से ऋण लिया। उसने कहा, शादी-विवाह, त्योहार आदि में दोने की जरूरत पड़ती है। ऐसे व्यवसाय कभी ठप्प नहीं होता है। इसके अलावा वह चूड़ी बनाने की मशीन भी गांव में लाना चाहती है। फेडरेशन की सचिव सरोज भल्लावी कहती हैं कि बकरी पालन में भी महिलाएं आगे आ रही हैं, क्योंकि आबादी के हिसाब से दूध की जरूरत कभी खत्म नहीं होगी। इतना ही नहीं, समूह में हाथों से बने सामानों के व्यवसाय को बढ़ावा भी दिया जाता है।
फेडरेशन की कोषाध्यक्ष ज्योति गौर ने बताया कि समूह से जुड़ने के बाद वह पैसे का हिसाब-किताब अच्छे से रख पाती हैं। साथ ही बचत का महत्व भी समझने लगी हैं। वह कहती हैं कि सबसे बड़ी बात यह है कि अब पति भी कभी-कभी खेती के लिए समूह से ऋण की मांग करते है। ज्योति ने कहा कि एक बड़ा परिवर्तन यह देखने में आया है कि हमलोगों की बचत की आदत देखकर पुरुष भी नशे से पैसे बचाने लगे है। बचत समूह की ओर से गांवों में यह बड़ा संदेश गया है। स्वस्ति संस्था की कम्युनिटी वेलनेस डायरेक्टर संतोषी तिवारी बताती हैं कि संस्था वर्ष 2017 में वंचित समुदाय को स्वास्थ्य और सशक्त बनाने के उद्देश्य से सीहोर जिले के दो विकासखण्डों क्रमशः बुदनी और नसरूल्लागंज में काम शुरू किया गया। वंचित समुदाय की महिलाओं को सशक्त बनाने की दिशा में जब संस्था ने यहां विभिन्न माध्यम से प्रयास शुरू किए थे, उस समय अधिकतर महिलाएं मजदूरी के लिए घर से दूर जाती थीं। इसका उन महिलाओं और उनके बच्चों के सेहत पर बहुत बुरा असर पड़ता था। बच्चों की उपेक्षा तथा भविष्य दोनों प्रभावित हो रहा था। संस्था ने काम के लिए बहुसंख्यक आदिवासी वाले गांवों को चुना।
अब तक 33 गांवों में अलग-अलग समूहों में कुल 2157 सदस्य हैं। जिन गांवों में महिलाएं आत्मनिर्भर बन रही हैं, वह जिला मुख्यालय से 80 किलोमीटर दूर है। इसलिए यहां ग्रामीणों की सरकारी योजनाओं तक पहुंच बने, उन्हें और अधिक लाभ एवं सुविधाएं समयबद्ध तरीके से मिल पाये, इसी उद्देश्य से यहां काम शुरू किया है। साथ ही यहां वंचित समुदाय का स्वास्थ्य, शिक्षा, आजीविका और व्यवहार परिवर्तन हो, इसकी आवश्यकता संस्था को महसूस हुई। आज दूर-दूर मजदूरी के लिए जाने वाली महिलाएं अब अपने-अपने घरों में रहकर व्यवसाय कर रही हैं। डिजिटल तकनीक से कदम से कदम मिलाते हुए संस्था की सदस्यों ने भी दुकान में सामानों की आपूर्ति के लिए एक वाट्सएप्प ग्रुप बना रखा है, इसमें वह जरूरत के सामानों की सूची भेज देती हैं और अगले दिन उनके पास सामान पहुंचा दिया जाता है।
बड़ी खूबसूरत है ये ज़िंदगी….. इसी ने मुझे संघर्ष करना सिखाया हंसना सिखाया,रोना भी सिखाया कभी अपने को कम समझना नहीं हैं ये सिलसिला भी ज़िंदगी ने सिखाया…..
कठिन से कठिन को आसान बनाना ये हौसला भी ज़िंदगी से ही आया कभी हार जाओ, उदासी न लाना ये मुस्कान भी ज़िंदगी से ही आया….
समझते हैं ख़ुद को बड़े ही नादान ज्ञान की परिभाषा जिंदगी ने सिखाया हर एक पड़ाव पर जीने का सलिका ज़िंदगी ने ही मुझको सिखाया…..
ईश्वरएकसर्वव्यापक, सर्वशक्तिमानएवंसर्वज्ञसत्ताहैजबकिजीवात्माएकएकदेशी, ससीमतथाअल्पज्ञसत्ताहै।अल्पज्ञहोनेकेकारणसेजीवात्मावामनुष्यकोअपनेजीवनकोसुखीबनानेएवंलक्ष्यप्राप्तिकेलियेसद्ज्ञानएवंशारीरिकशक्तियोंकीआवश्यकताहोतीहै।सत्यस्वरूपईश्वरसर्वज्ञहैएवंवहपूर्णज्ञानीहै।संसारमेंजोभीज्ञानहैवहसबईश्वरसेहीउत्पन्न, प्रचारितएवंप्रसारितहै।ईश्वरनेहीहमारीइससमस्तसृष्टिकोउत्पन्नकियाहैतथावहीइसकाधारणएवंपालनकर्ताभीहै।संसारमेंईश्वर, जीवात्मातथाप्रकृतिइनतीनसत्यपदार्थोंकाहीअस्तित्वहै। यह तीनों पदार्थ अनादि, नित्य एवं सनातन हैं। यदि यह तीन पदार्थ न होते तो हमारी इस सृष्टि का तथा हमारे जीवन का अस्तित्व भी न होता। ईश्वर एक धार्मिक, परोपकारी, दयालु तथा न्यायकारी सत्ता है। वह अनादि काल से हमारी वर्तमान सृष्टि के समान ही सृष्टि की रचना, पालन एवं सृष्टि की प्रलय करती आ रही है। उसे इस संसार को बनाने व चलाने का पूर्ण ज्ञान है। सर्वज्ञ होने के कारण उसके ज्ञान में न्यूनता व वृद्धि नहीं होती। उसका ज्ञान सदा एकरस, एक समान तथा न्यूनता व वृद्धि आदि से रहित होता है। इसी कारण से हमारी इस सृष्टि में कहीं कोई न्यूनता नहीं है।
ईश्वरकीबनाईहुईसृष्टिकीसभीरचनायेंअपनेआपमेंपूर्णएवंआदर्शहैं।उसीईश्वरनेहमारीइससृष्टिकोरचकरअमैथुनीसृष्टिमेंउत्पन्नहमारेपूर्वजयुवाचारऋषियोंअग्नि, वायु, आदित्यतथाअंगिराकोचारवेदऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेदतथाअथर्ववेदकाज्ञानदियाथा।वेदोंकाज्ञानअपनेआपमेंपूर्णहै।इससेमनुष्यकोजीवनजीनेऔरअपनेजीवनकेलक्ष्यधर्म, अर्थ, कामवमोक्षकोप्राप्तकरनेकाज्ञानवविधिकाज्ञानभीप्राप्तहोताहै। वेद ज्ञान विद्या से युक्त है जिसमें अविद्या का लेश भी नहीं है। कोई भी मत मतान्तर ऐसा नहीं है जिसमें अविद्या न हो। अविद्या मनुष्य के लिए मृत्यु के समान तथा विद्या अमृत व मोक्ष सुख के समान होती है। अतः मनुष्यों का कर्तव्य होता है कि वह वेदों की अमृतमय विद्या से युक्त मान्यताओं व सिद्धान्तों को जानें व उनका ही पालन करें और अविद्या को छोड़कर अपने जीवन को सुखी व कल्याणप्रद बनायें। इस दृष्टि से वेदों का मनुष्य के लिए सर्वाधिक महत्व है। बिना वेद ज्ञान के मनुष्य का जीवन ऐसा ही है जैसे कि बिना गन्तव्य को जाने यात्रा करना। ऐसा मनुष्य कहीं नहीं पहुंचता। आजकल के मनुष्यों की भी यही स्थिति है। वह जीवन के लक्ष्य को जाने बिना भौतिक सुखों की प्राप्ति से युक्त जीवन व्यतीत करते हैं और मनुष्य के ईश्वर के प्रति कर्तव्यों की उपेक्षा कर अवागमन में फंसे रहते हैं। अतः सबको ईश्वरीय ज्ञान वेदों की शरण में जाकर मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिये। ऋषि दयानन्द द्वारा 10 अप्रैल, सन् 1875 को स्थापित आर्यसमाज संगठन एक वेद प्रचार आन्दोलन है। वह मनुष्य जीवन की वेद ज्ञान की आवश्यकता की पूर्ति करने के साथ उसके सुख एवं कल्याणयुक्त जीवन व्यतीत करने में सहायक होता है। इसी कारण ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के तीसरे नियम में बताया है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्य वा श्रेष्ठ मनुष्यों का परम धर्म एवं कर्तव्य है। वेदाध्ययन करने पर यह नियम सत्य सिद्ध होता है।
आर्यसमाजकीस्थापनासंसारमेंविद्यमानअविद्याकोदूरकरनेतथाविद्याकाप्रचारकरनेकेलिएहीऋषिदयानन्दनेअपनेविद्यागुरुप्रज्ञाचक्षुदण्डीस्वामीविरजानन्दसरस्वतीजीकीप्रेरणासेमुम्बईमेंकीथी।इसविषयकआर्यसमाजकाआठवांनियमभीहै।नियममेंकहागयाहैकिअविद्याकानाशतथाविद्याकीवृद्धिकरनीचाहिये।आर्यसमाजवेदोंकोविद्याकेग्रन्थमानताहैऔरइनकाप्रचारकरनाहीअपनाध्येयसमझताहै।वेदोंमेंकिसीकाइतिहासवकिसीप्रकारकेकहानीकिस्सेनहींहै।इसवेदप्रचारसेहीमनुष्योंकेसमस्तदुःखोंपरविजयपायीजासकतीहैऔरदेशवसमाजकीउन्नतिहोसकतीहै। विद्या की उन्नति के लिए मनुष्य को असत्य को छोड़ना तथा सत्य का ग्रहण करना आवश्यक होता है। इसके लिए आवश्यक होता है कि हमें सत्य व असत्य का ज्ञान हो। इस आवश्यकता की पूर्ति भी वेदाध्ययन एवं वेदों के सिद्धान्तों को जानकर होती है। वेद एवं इसके सभी सिद्धान्त सत्य पर आधारित है। वेदों में कोई असत्य बात नहीं है। इस कारण से मनुष्यों की सर्वांगीण उन्नति आर्यसमाज व इसके सिद्धान्तों सहित वेदाध्ययन एवं वैदिक साहित्य के अध्ययन से ही प्राप्त की जा सकती है।
आर्यसमाजकेइसउद्देश्यकीपूर्तिकेलिएहीआर्यसमाजकेसंस्थापकऋषिदयानन्दनेवैदिकसिद्धान्तोंएवंमान्यताओंपरआधारितविश्वकाएकअपूर्वग्रन्थसत्यार्थप्रकाशलिखावप्रचारितकिया।इसग्रन्थमेंहमेंवेदोंकीप्रायःसभीमुख्यमुख्यमान्यताओंकाज्ञानहोताहै।हमअविद्याकोजानकरउसकोछोड़करसत्यज्ञानवसत्यसिद्धान्तोंकोप्राप्तहोसकतेहैं।ऋषिदयानन्दनेसत्यार्थप्रकाशकेअतिरिक्तऋग्वेदआंशिकतथायजुर्वेदसम्पूर्णकासंस्कृतवहिन्दीमेंभाष्यभीकियाहै।उनकावेदभाष्यआदर्शएवंप्रामाणिककोटिकाहै।चारोंवेदोंकीभूमिकाभीऋषिदयानन्दजीनेऋग्वेदादिभाष्यभूमिकाकेनामसेलिखीहै। संस्कारविधि एवं आर्याभिविनय जैसे उत्तम ग्रन्थ भी उन्होंने लिखे हैं जिनसे हम वेदों के प्रायः पूर्ण एवं यथार्थ तात्पर्य को जान सकते हैं। इससे हमें ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति के सत्यस्वरूप तथा गुण, कर्म व स्वभावों का ज्ञान होता है। हम वेदों के ज्ञान से लाभ उठाकर उपासना की उचित रीति से साधना कर ईश्वर व आत्मा का साक्षात्कार कर सकते हैं। ईश्वर व जीवात्मा का साक्षात व प्रत्यक्ष करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य होता है। ऐसा करके मनुष्य सभी प्रकार की अविद्या व दुःखों से छूट जाता है। इससे मनुष्य को अमृत वा मोक्ष की प्राप्ति होती है और भिन्न भिन्न योनियों में जीवात्मा का आवागमन बन्द हो जाता है। मुक्त जीवात्मा ईश्वर के सान्निध्य में 31 नील वर्षों से अधिक अवधि तक रहकर दुःखरहित सुख व आनन्द की अवस्था का लाभ करती है। मोक्ष विषयक विस्तृत ज्ञान को प्राप्त करने के लिए सभी मनुष्यों को सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के नवम समुल्लास का पाठ करना चाहिये। इससे मोक्ष के सत्य स्वरूप का ज्ञान होने सहित मोक्ष से सम्बन्धित सभी भ्रान्तियां दूर हो जाती हैं।
आर्यसमाजविश्वकासबसेअनूठासंगठनहै।यहसंसारमेंव्यापकवसृष्टिकेरचयिताईश्वरकेअनादिज्ञानवेदकोमानताहै, वेदोंकोपूर्णतःजानताभीहैऔरउसकाविश्वमेंप्रचारभीकरताहै।वेदमानवतावादकेपोषकग्रन्थहैं।वेदकाअध्ययनकरवउसकीशिक्षाओंकापालनकरनेसेमनुष्य, समाज, देशवविश्वकीसर्वांगीणउन्नतिहोतीहै।वसुधैवकुटुम्बकम्काभावभीवेदोंकीशिक्षाओंकीहीदेनहै।संसारकेसभीमनुष्यएवंसमस्तप्राणीजगतपरमात्माकीसन्तानहोनेसेपरस्परबन्धुएवंसमानहै।सभीकोएकदूसरेकाहितकरनेवसबकोसुखदेनेकीभावनासेकर्मकरनेचाहिये। इन उद्दात विचारों व भावनाओं सहित अविद्या व असत्य से पूर्णतया मुक्त होने के कारण वेद ज्ञान संसार के सब मनुष्यों के लिए ग्राह्य एवं धारण करने योग्य है। वेदों के प्रचार व धारण से ही विश्व का उपकार वा विश्व शान्ति का लक्ष्य प्राप्त हो सकता है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ही आर्यसमाज अपने आरम्भ काल से कार्य कर रहा है। इसी कारण आर्यसमाज असत्य मान्यताओं व सामाजिक कुरीतियों का खण्डन करता है तथा वैदिक सत्य मान्यताओं का प्रमाणों, युक्तियों व तर्कों से मण्डन करता है। वह अविद्या को हटाता तथा विद्या का प्रसार करता है। आर्यसमाज ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही अपने आरम्भ काल में ही वेदानुकूल शिक्षा के प्रचार के लिए ही दयानन्द ऐंग्लो वैदिक स्कूल व कालेज सहित वेदों के पठन पाठन के लिए गुरुकुलों की स्थापना की थी। इन शिक्षा संस्थानों के द्वारा वैदिक विचारों व मान्यताओं का विश्व में प्रचार हुआ है। आर्यसमाज के कारण ही विश्व में अन्धविश्वास व अविद्या कम हुई है। भारत देश सदियों की गुलामी के बाद आजाद हुआ है। अनेक समस्याओं एवं चुनौतियों के बाद भी भारत आज विश्व की एक बड़ी शक्ति है। भारत निरन्तर तेजी से प्रगति कर रहा है। अनेक मत-मतान्तरों ने विगत डेढ़ शताब्दी में अपनी मान्यताओं व सिद्धान्तों में सुधार किये हैं। आर्यसमाज के सभी सिद्धान्त वेदों पर आधारित हैं और अद्यावधि अपरिवर्तनीय बने हुए हैं और सदा ऐसे ही रहेंगे। अतः संसार के सभी मनुष्यों को आर्यसमाज की शरण में आकर वेदों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये और अपनी अविद्या दूर करनी चाहिये। ऐसा करके सभी मनुष्य अपने जीवन को ईश्वर की इच्छा व आज्ञा के अनुरूप बनाकर जन्म जन्मान्तर में सुखों से युक्त कर सकते हैं और इससे सभी देश व स्थानों में मानव जाति के दुःखों में न्यूनता आकर सुखों की वृद्धि हो सकती है।
महामना संत रैदास भारतीय संत परम्परा और संत-साहित्य के महान् हस्ताक्षर है, दुनियाभर के संत-महात्माओं में उनका विशिष्ट स्थान है। क्योंकि उन्होंने कभी धन के बदले आत्मा की आवाज को नहीं बदला तथा शक्ति और पुरुषार्थ के स्थान पर कभी संकीर्णता और अकर्मण्यता को नहीं अपनाया। ऐसा इसलिये संभव हुआ क्योंकि रैदास अध्यात्म की सुदृढ़ परम्परा के संवाहक भी थे। वे निर्गुण रंगी चादरिया रे, कोई ओढ़े संत सुजान को चरितार्थ करते हुए सद्भावना और प्रेम की गंगा को प्रवाहित किया। मन चंगा तो कठौती में गंगा, यह संत शिरोमणि रैदासजी के द्वारा कहा गया अमर सूक्ति भक्ति दोहा है। जिसमें उनकी गंगा भक्ति को सरलता से समझा जा सकता है। हिंदू धर्म के अनुसार कोई भी इंसान जात-पांत से बड़ा या छोटा नहीं होता। अपितु मन, वचन और कर्म से बड़ा या छोटा होता हैं। संत शिरोमणि रैदासजी जात से तो मोची थे, लेकिन मन, कर्म और वचन से संत थे। उनके भक्त रैदासी कहलाते हैं। सद्गुरु स्वामी रामानन्दजी के बारह शिष्यों में से एक रैदासजी के जीवन में गंगा भक्ति से जुड़े अनेक घटना एवं प्रसंग है। जिनसे स्पष्ट होता है कि उनके जीवन निर्माण, उनकी भक्ति, उनकी धर्म-साधना, उनकी कर्म-साधना एवं साहित्य साधना में गंगा का अलौकिक एवं अनूठा महत्व एवं प्रभाव रहा है। संत कवि रैदास कबीरदास के गुरु भाई थे। गुरु भाई अर्थात् दोनों के गुरु स्वामी रामानंदजी थे। संत रैदास का जन्म लगभग 600 वर्ष पूर्व माघ पूर्णिमा के दिन काशी में हुआ था। मोची कुल में जन्म लेने के कारण जूते बनाना उनका पैतृक व्यवसाय था और इस व्यवसाय को ही उन्होंने भक्ति-साधना एवं ध्यान विधि बना डाला। कार्य कैसा भी हो, यदि आप उसे ही परमात्मा का ध्यान बना लें तो मोक्ष सरल हो जाता है। रैदासजी अपना काम पूरी निष्ठा और ध्यान से करते थे। इस कार्य में उन्हें इतना आनंद आता था कि वे मूल्य लिए बिना ही जूते लोगों को भेंट कर देते थे। रैदासजी के उच्च आदर्श और उनकी वाणी, भक्ति एवं अलौकिक शक्तियों से प्रभावित होकर अनेक राजा-रानियों, साधुओं-महात्मा तथा विद्वज्जनों ने उनको सम्मान दिया है। वे मीरा बाई के गुरु भी थे। रैदासजी श्रीराम और श्रीकृष्ण भक्त परंपरा के कवि और संत माने जाते हैं। उनके प्रसिद्ध दोहे आज भी समाज में प्रचलित हैं जिन पर कई धुनों में भजन भी बनाए गए हैं। जैसे, प्रभुजी तुम चंदन हम पानी- इस प्रसिद्ध भजन को सभी जानते हैं। महान संत, समाज सुधारक, साधक और कवि रैदास ने जीवनपर्यन्त छुआछूत, ऊंच-नीच, जातिवाद जैसी कुरीतियों का विरोध करते हुए समाज में फैली तमाम बुराइयों के खिलाफ पुरजोर आवाज उठाई और उन कुरीतियों के खिलाफ निरन्तर कार्य करते रहे। समस्त भारतीय समाज को भेदभाव से ऊपर उठकर मानवता और भाईचारे की सीख देने वाले 15वीं सदी के महान समाज सुधारक संत रैदासजी को जो चेतना प्राप्त हुई, वह तन-मन के भेद से प्रतिबद्ध नहीं है, मुक्त है। उन्हें जो साधना मिली, वह सत्य की पूजा नहीं करती, शल्य-चिकित्सा करती है। सत्य की निरंकुश जिज्ञासा ही उनका जीवन-धर्म रहा है। वही उनका संतत्व रहा। वे उसे चादर की भाँति ओढ़े हुए नहीं हैं बल्कि वह बीज की भाँति उनके अंतस्तल से अंकुरित होता रहा है। उनका जन्म ऐसे विकट समय में हुआ था, जब समाज में घोर अंधविश्वास, कुप्रथाओं, अन्याय और अत्याचार का बोलबाला था, धार्मिक कट्टरपंथता चरम पर थी, मानवता कराह रही थी। उस जमाने में मध्यमवर्गीय समाज के लोग कथित निम्न जातियों के लोगों का शोषण किया करते थे। ऐसे विकट समय में समाज सुधार की बात करना तो दूर की बात, उसके बारे में सोचना भी मुश्किल था लेकिन जूते बनाने का कार्य करने वाले संत रैदास ने आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित करने के लिए समाधि, ध्यान और योग के मार्ग को अपनाते हुए असीम ज्ञान प्राप्त किया और अपने इसी ज्ञान के जरिये पीड़ित मानवता, समाज एवं दीन-दुखियों की सेवा कार्य में जुट गए। उन्होंने अपनी सिद्धियों के जरिये समाज में व्याप्त आडम्बरों, अज्ञानता, झूठ, मक्कारी और अधार्मिकता का भंडाफोड़ करते हुए समाज को जागृत करने और नई दिशा देने का प्रयास किया। ‘रैदास’ के नाम से चर्चित इस अलौकिक संत चेतना का मूल नाम रविदास है। जूते बनाने के कार्य से उन्हें जो भी कमाई होती, उससे वे संतों की सेवा किया करते और उसके बाद जो कुछ बचता, उसी से परिवार का निर्वाह करते थे। एक दिन रैदास जूते बनाने में व्यस्त थे कि तभी उनके पास एक ब्राह्मण आया और उनसे कहा कि मेरे जूते टूट गए हैं, इन्हें ठीक कर दो। रैदास उनके जूते ठीक करने लगे और उसी दौरान उन्होंने ब्राह्मण से पूछ लिया कि वे कहां जा रहे हैं? ब्राह्मण ने जवाब दिया, ‘‘मैं गंगा स्नान करने जा रहा हूं पर चमड़े का काम करने वाले तुम क्या जानो कि इससे कितना पुण्य मिलता है?’’ इस पर रैदास ने कहा कि आप सही कह रहे हैं ब्राह्मण देवता! हम नीच और मलिन लोगों के गंगा स्नान करने से गंगा अपवित्र हो जाएगी। जूते ठीक होने के बाद ब्राह्मण ने उसके बदले उन्हें एक कौड़ी मूल्य देने का प्रयास किया तो संत रैदास ने कहा कि इस कौड़ी को आप मेरी ओर से गंगा मैया को ‘रविदास की भेंट’ कहकर अर्पित कर देना। ब्राह्मण गंगाजी पहुंचा और स्नान करने के पश्चात् जैसे ही उसने रैदास द्वारा दी गई मुद्रा यह कहते हुए गंगा में अर्पित करने का प्रयास किया कि गंगा मैया रैदास की यह भेंट स्वीकार करो, तभी जल में से स्वयं गंगा मैया ने अपना हाथ निकालकर ब्राह्मण से वह मुद्रा ले ली और मुद्रा के बदले ब्राह्मण को एक सोने का कंगन देते हुए वह कंगन रैदास को देने का कहा। सोने का रत्नजड़ित अत्यंत सुंदर कंगन देखकर ब्राह्मण के मन में लालच आ गया और उसने विचार किया कि घर पहुंचकर वह यह कंगन अपनी पत्नी को देगा, जिसे पाकर वह बेहद खुश हो जाएगी। पत्नी ने जब वह कंगन देखा तो उसने सुझाव दिया कि क्यों न रत्नजड़ित यह कंगन राजा को भेंट कर दिया जाये, जिसके बदले वे प्रसन्न होकर हमें मालामाल कर देंगे। पत्नी की बात सुनकर ब्राह्मण राजदरबार पहुंचा और कंगन राजा को भेंट किया तो राजा ने ढ़ेर सारी मुद्राएं देकर उसकी झोली भर दी। राजा ने प्रेमपूर्वक वह कंगन अपनी महारानी के हाथ में पहनाया तो महारानी इतना सुंदर कंगन पाकर इतनी खुश हुई कि उसने राजा से दूसरे हाथ के लिए भी वैसे ही कंगन की मांग की। राजा ने ब्राह्मण से वैसा ही एक और कंगन लाने का आदेश देते हुए कहा कि अगर उसने तीन दिन में कंगन लाकर नहीं दिया तो वह दंड का पात्र बनेगा। राजाज्ञा सुनकर बेचारे ब्राह्मण के होश उड़ गए। ब्राह्मण रैदास के पास पहुंचा और उन्हें सारे वृत्तांत की विस्तृत जानकारी दी। रैदासजी ने उनसे नाराज हुए बगैर कहा कि तुमने मन के लालच के कारण कंगन अपने पास रख लिया, इसका पछतावा मत करो। रही बात राजा को देने के लिए दूसरे कंगन की तो तुम उसकी चिंता भी मत करो, गंगा मैया तुम्हारे मान-सम्मान की रक्षा करेंगी। यह कहते हुए उन्होंने अपनी वह कठौती (चमड़ा भिगोने के लिए पानी से भरा पात्र) उठाई, जिसमें पानी भरा हुआ था और जैसे ही गंगा मैया का आव्हान करते हुए अपनी कठौती से जल छिड़का, गंगा मैया वहां प्रकट हुई और रैदासजी के आग्रह पर उन्होंने रत्नजड़ित एक और कंगन उस ब्राह्मण को दे दिया। इस प्रकार खुश होकर ब्राह्मण राजा को कंगन भेंट करने चला गया और रैदासजी ने उसे अपने बड़प्पन का जरा भी अहसास नहीं होने दिया। मीराबाई के आमंत्रण पर संत रैदासजी चित्तौड़गढ़ आ गये लेकिन यहां भी उनकी गंगा भक्ति तनिक भी कम नहीं हुई। वहीं पर उनका 120 वर्ष की आयु में निर्वाह हुआ। भारतीय सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक परिवेश में संत रैदासजी गंगा भक्ति इतिहास में एक अमिट आलेख है।
पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने स्वयं के अनुभव के आधार पर कहा है कि ‘मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बना, क्योंकि मैंने गणित और विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में प्राप्त की’। और यह अटल सत्य भी है कि भाषा केवल संवाद की ही नहीं अपितु संस्कृति एवं संस्कारों की भी संवाहिका है। भारत एक बहुभाषी देश है। सभी भारतीय भाषाएँ समान रूप से हमारी राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक अस्मिता की अभिव्यक्ति करती हैं। यद्यपि बहुभाषी होना एक गुण है किंतु मातृभाषा में शिक्षण वैज्ञानिक दृष्टि से व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक है। मातृभाषा में शिक्षित विद्यार्थी दूसरी भाषाओं को भी सहज रूप से ग्रहण कर सकता है । प्रारंभिक शिक्षण किसी विदेशी भाषा में करने पर जहाँ व्यक्ति अपने परिवेश, परंपरा, संस्कृति व जीवन मूल्यों से कटता है वहीं पूर्वजों से प्राप्त होने वाले ज्ञान, शास्त्र, साहित्य आदि से अनभिज्ञ रहकर अपनी पहचान खो देता है। कोई भी देश तब तक विकास नहीं कर सकता जब तक की उसकी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खुद की भाषा न हो। हम सारी भाषाओं का स्वागत करते हैं। क्योंकि भाषा किसी भी देश की संस्कृति और सभ्यता की संवाहक होती है। राष्ट्र निर्माण में भाषा की क्या भूमिका हो सकती है वह हमें चीन,कोरिया,जापान, इजराइल जैसे देशों से बखूबी सीखना चाहिए।
भारत के ख्याति प्राप्त अधिकतर वैज्ञानिकों ने अपनी शिक्षा मातृभाषा में ही प्राप्त की है। महामना मदनमोहन मालवीय, महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ ठाकुर, श्री माँ, डा. भीमराव अम्बेडकर, डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे मूर्धन्य चिंतकों से लेकर चंद्रशेखर वेंकट रामन, प्रफुल्ल चंद्र राय, जगदीश चंद्र बसु जैसे वैज्ञानिकों, कई प्रमुख शिक्षाविदों तथा मनोवैज्ञानिकों ने मातृभाषा में शिक्षण को ही नैसर्गिक एवं वैज्ञानिक बताया है। इसी प्रकार वर्तमान में विभिन्न राज्यों की बोर्ड की परीक्षाओं में उच्च अंक प्राप्त करने वाले विद्यार्थी, मातृभाषा में पढ़ने वाले ही अधिक हैं। शिक्षा के विभिन्न आयोगों एवं देश के महापुरूषों ने भी मातृभाषा में शिक्षा होनी चाहिए, ऐसे सुझाव दिये है। महात्मा गांधी ने ठीक ही कहा हैः-‘बच्चों के मानसिक विकास के लिए मातृभाषा उतनी ही आवश्यक है, जितना शारीरिक विकास के लिए माँ का दूध’। देश में मैकाले की शिक्षा पद्धति हिन्दुस्तानियों को हिंदुस्तानी अंग्रेज बनाने के उद्देश्य के तहत् शुरु की गई थी। आज भी अंग्रेजी बोलने वाले को श्रेष्ठ जबकि अन्य भारतीय भाषाओं को बोलने वाले लोग दोयम दर्जे के समझे जाते हैं। हिन्दी भाषा मां के समान है। हिन्दी अन्य भाषाओं को अपने में समाहित कर लेती है। हिन्दी में प्रशासनिक निपुणता है। उदारता तथा आत्मीयता के स्तर पर हिन्दी अन्य भाषाओं से श्रेष्ठ है। जब हम अपनी भाषा में लिखते है,पढ़ते है, तो हमें आत्मीय आनंद की अनुभूति होती है।
विश्व में विगत 40 वर्षों में लगभग 150 अध्ययनों के निष्कर्ष हैं कि मातृभाषा में ही शिक्षा होनी चाहिए, क्योंकि बालक को माता के गर्भ से ही मातृभाषा के संस्कार प्राप्त होते हैं। भारतीय वैज्ञानिक सी.वी.श्रीनाथ शास्त्री के अनुभव के अनुसार अंग्रेजी माध्यम से इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त करने वाले की तुलना में भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़े छात्र, अधिक वैज्ञानिक अनुसंधान करते हैं। राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केन्द्र की डॉ नन्दिनी सिंह के अध्ययन (अनुसंधान) के अनुसार, अंग्रेजी की पढ़ाई से मस्तिष्क का एक ही हिस्सा सक्रिय होता है, जबकि हिन्दी की पढ़ाई से मस्तिष्क के दोनों भाग सक्रिय होते हैं। सर आइजेक पिटमैन ने कहा है कि संसार में यदि कोई सर्वांग पूर्ण लिपि है तो वह देवनागरी है। गूगल के अनुसार हिन्दी दुनिया की ऐसी भाषा है जिसमें सर्वाधिक कंटेंट (पाठ्य सामग्री) का निर्माण होता है। हिन्दी सभी भाषाओं की बड़ी बहन है इसका यह अर्थ नहीं है कि हम दूसरी भाषाओं को लघुतर मानें। संस्कृत मातृभाषा है और सभी भ्रातृभाषाएं हैं। संख्यात्मक रूप से सबसे ज्यादा लोग हिन्दी जानते हैं, बोलते हैं। संस्कृति के सबसे निकट भी हिन्दी ही है। सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा भी हिन्दी ही है। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में भी हिन्दी ने देश को एकजुट करने में सशक्त भूमिका का निर्वहन किया। असहयोग आंदोलन, अवज्ञा आंदोलन जैसे शब्दों ने देश में आजादी की अलख जगाने का कार्य किया।
हिंदी के प्रति हीनता का भाव होने के कारण हम प्राचीन ज्ञान विरासत से अलग हो गए, भारतीयता से विमुख हो गए। हमें अपनी भाषा को सम्मान देना चाहिए। जब तक कोई मजबूरी न हो, तब तक देवनागरी लिपि में ही हिंदी लिखें और अपनी भाषा को विकृत न होने दें। तुर्क, अरबी और अफगानी हमलावरों ने भारत में सबसे पहले संस्कृत पाठशालाएं बंद कीं और फिर तक्षशिला एवं नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों को जलाकर भोजन पकाया। पुस्तकों के नष्ट होने से हमारा ज्ञान राख में मिल गया। सोच-विचार कर हमारे ज्ञान और भाषा को समाप्त करने के लिए किया गया था। संस्कृत भाषा हमसे छीन ली गई, जिसके कारण संस्कृत में रचा गया ज्ञान-विज्ञान भी हमसे छिन गया। संस्कृत में रचा गया साहित्य और ज्ञान हमारे सामने नहीं है। हमें यह तो पढ़ाया जाता है कि शून्य का आविष्कार आर्यभट्ट ने किया, लेकिन हमारे पाठ्यक्रम में आर्यभट्ट के गणित को नहीं पढ़ाया जाता, क्योंकि वह संस्कृत में है।
अंग्रेजों के 200 वर्ष के शासनकाल और स्वतंत्रता के बाद 73 वर्षों में हमें अंग्रेजी पढ़ाई गई। इसके बावजूद भारत में दो प्रतिशत से अधिक लोग अंग्रेजी नहीं जानते। हमने यह मान लिया है कि भारत में कुछ है ही नहीं या फिर जो कुछ है, वह निम्न कोटि का है। इस मानसिकता के कारण हम अपनी भाषा से ही नहीं, वरन भारतीयता से भी विमुख हो गए। जब कमाल पाशा ने सत्ता संभाली तो उसने सबसे पहले तुर्की भाषा को अनिवार्य किया। माओ त्से तुंग ने चीन में चीनी भाषा को लागू किया और इसी तरह इजरायल ने लगभग समाप्त हो चुकी अपनी भाषा हिब्रू को जीवित किया। आज दुनिया में हिंदी भाषा-भाषियों की संख्या करोड़ों में है, लेकिन यह लोग अपनी भाषा में लिखते-पढ़ते नहीं है। जब हम हिंदी में लिखेंगे-पढ़ेंगे नहीं, तब वह समृद्ध कैसे होगी? हमें कटिबद्ध होना चाहिए कि अपनी भाषा से प्रेम करेंगे, सम्मान करेंगे और उसे विकृत नहीं होने देंगे। मातृभाषा में शिक्षण राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का भी एक ऐतिहासिक और क्रांतिकारी प्रयास है। इस शिक्षा नीति में भाषा के सामर्थ्य को स्पष्ट रूप से इंगित करते हुए कम से कम कक्षा पाँच तक मातृभाषा, स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने पर विशेष बल दिया गया है तथा कक्षा आठ और उसके आगे भी भारतीय भाषाओं में अध्ययन का प्रावधान किया गया है। इसके साथ ही विद्यालयीय एवं उच्च शिक्षा में त्रिभाषा फ़ार्मूले के अंतर्गत देवभाषा संस्कृत तथा भारत की अन्य पारंपरिक भाषाओं में से विकल्प चुनने का प्रावधान है।
आज अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर प्रत्येक देशवासी को संकल्पबद्ध होना होगा की भारत के समुचित विकास, राष्ट्रीय एकात्मता एवं गौरव को बढ़ाने हेतु शिक्षण, दैनंदिन कार्य तथा लोक-व्यवहार में मातृभाषा को प्रतिष्ठित करने हेतु प्रभावी भूमिका निभाएंगे। इस विषय में परिवार की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। अभिभावक अपने बच्चों को प्राथमिक शिक्षा अपनी ही भाषा में देने के प्रति दृढ़ निश्चयी बनें। हम सबके छोटे-छोटे प्रयासों से ही यह कार्य संभव हो पाएगा। हमें शुद्ध हिंदी का प्रयोग करना चाहिए। उसे संवारना और समृद्ध करना चाहिए। नये शब्द गढ़ना चाहिए। जनसंचार माध्यमों को समाज का अनुकरण नहीं, बल्कि नेतृत्व करना चाहिए। भाषा और विचार के क्षेत्र में भी जनसंचार माध्यमों को समाज को दिशा देनी चाहिए। हम श्रेष्ठता को चुनते हैं। इसलिए बोलचाल के नाम पर हिंदी को बिगाड़े नहीं, बल्कि शुद्ध हिंदी शब्दों का उपयोग करें। जनमानस यदि तय कर ले कि मातृभाषा के प्रयोग को बढ़ाना है, तब राजनीति स्वत: उसका अनुकरण करेगी। देश हित में अंग्रेजी और अंग्रेजियत से छुटकारा पाना है, तो उसके लिए मातृभाषा के व्यवहारिक प्रयोग तथा उसके संरक्षण व संवर्धन हेतु भाषा प्रेमी सभी नागरिकों एवं सामाजिक, राजनैतिक नेतृत्व एवं संस्था, संगठनों को अपनी- अपनी भूमिका तय करनी होगी।