दोहे साहित्य घन घन घण्ट देवालय टकोरे, अविरत गूँजे जा रहे हैं॥ May 29, 2019 / May 29, 2019 by डॉ. मधुसूदन | 3 Comments on घन घन घण्ट देवालय टकोरे, अविरत गूँजे जा रहे हैं॥ डॉ. मधुसूदन (१) घन घन घण्ट देवालय टकोरे,—अविरत गूँजे जा रहे हैं। मेरे भारत की आरति–आज, विश्व सारा गा रहा है॥ —आनंद आकाश छू रहा है॥ (२) पांचजन्य* सुन, बज रहा है—हो रहा, विलम्बित *सबेरा। भोर की, आरति भारत की—–गा रहा है विश्व सारा ॥ घन घन घण्ट देवालय टकोरे,—अविरत गूँजे जा रहे हैं। (पांचजन्य* […] Read more » घन घन घण्ट देवालय टकोरे
दोहे साहित्य संस्कार की शुभ गति निरखि ! March 26, 2019 / March 27, 2019 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment संस्कार की शुभ गति निरखि, आभोग को कबहू परखि; मम मन गया सहसा चहकि, कबहुक रहा था जो दहकि ! झिझके झुके झिड़के जगत, भिड़के भयानक युद्ध रत; हो गए जब संयत सतत, भव बहावों से हुए च्युत ! बाधा व्यथा तब ना रही, धुनि समर्पण की नित रही; चाहत कहाँ तब कोई रही, जो मिल गया भाया वही ! भावों में भुवनेश्वर रमा, ईशत्व में स्वर को समा; ऐश्वर्य में उर प्रस्फुरा, आलोक लख लुप्तित धरा ! घन-श्याम में हर लहर तकि, ब्रज धाम गोपी रस थिरकि; ‘मधु’ परसि प्राणों की झलक, प्रभु की धरा पाए कुहक ! Read more »
दोहे विश्वास ना निज स्वत्व में ! March 26, 2019 / March 27, 2019 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment विश्वास ना निज स्वत्व में, अस्तित्व के गन्तव्य में; ना भरोसा जाया है जो, ले जाएगा ले दिया जो ! बुद्धि वृथा ही लगा कर, आत्मा की बिन पहचान कर; ना नियंता को जानते, ना सृष्टि की गति चीन्हते ! आखेट वे करते फिरे, आक्रोश में झुलसे रहे; बिन बात दूजों को हने, वे स्वयं के भी कब रहे ! राहों को वे मुश्किल किए, राहत किसी को कब दिए; चाहत किसी की कहँ लखे, व्याहत हुए बिन रब तके ! ‘मधु’ की महक औ ठुमक में, रचना के रस की ललक में; वे सहज हो पाए नहीं, आ स्वयम्भू की गोद में ! Read more »
दोहे काले दिवस के सफेद दोहे June 28, 2018 / June 28, 2018 by आर के रस्तोगी | Leave a Comment आर के रस्तोगी कोई किसे हिटलर कहे,कोई किसे को औरंगजेब जब जिसको मौका मिले,काटे जनता की ये जेब काला दिवस मना कर,क्या करना चाहते हो सिद्ध दोनो आपस में ऐसे लड़ रहे ,जैसे मांस पर गिद्ध बीती गई बिसार दो,एक दूजे की टांग खीचते क्यों ? गड़े मुर्दे उखाड़ने में,समय बर्बाद करते हो तुम […] Read more » औरंगजेब काले दिवस के सफेद दोहे भाषण बाजी हिटलर
दोहे धेनु चरन न तृणउ पात ! April 26, 2018 / April 27, 2018 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment धेनु चरन न तृणउ पात, त्रास अति रहत; राजा न राज करउ पात, दुष्ट द्रुत फिरत ! बहु कष्ट पात लोक, त्रिलोकी कूँ हैं वे तकत; शोषण औ अनाचारी प्रवृति, ना है जग थमत ! ना कर्म करनौ वे हैं चहत, धर्म ना चलत; वे लूटनों लपकनों मात्र, गुप्त मन चहत ! झकझोरि डारौ सृष्टि, द्रष्टि बदलौ प्रभु अब; भरि परा-द्रष्टि जग में, परा-भक्ति भरौ तव ! विचरहिं यथायथ सबहि विश्व, तथागत सुभग; मधु क्षरा पाएँ सुहृद ‘मधु’, करि देउ प्रणिपात ! रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’ Read more » Featured डारौ सृष्टि त्रिलोकी द्रष्टि मधु क्षरा राजा
दोहे कभी चल पड़ते हैं हम सर छत्र धारे ! July 8, 2017 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment कभी चल पड़ते हैं हम सर छत्र धारे, छोड़ चल देते कभी सारे नज़ारे; प्रीति की कलिका कभी चलते सँवारे, सुर लिए कोई कभी रहते किनारे ! ज़माने की भीड़ में उर को उबारे, हिय लिए आनन्द की अभिनव सी धारें; भास्वर भव सुरभि की अनुपम घटाएँ, विश्व विच व्यापक विलोके चिर विधाएँ ! […] Read more » कभी चल पड़ते हैं हम सर छत्र धारे !
दोहे साहित्य कुछ भ्रान्तियाँ औ क्रान्तियाँ July 7, 2017 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment कुछ भ्रान्तियाँ औ क्रान्तियाँ,ले जा रहीं भव दरमियाँ; भ्रम की मिटाती खाइयाँ,श्रम कर दिखातीं कान्तियाँ। हर किरण ज्योतित भुवन कर,है हटाती परछाइयाँ; तम की तहों को तर्ज़ दे,तृण को दिए ऊँचाइयाँ। छिप कर अणु ऊर्जित रहा,पहचाना ना हर से गया; हर वनस्पति औषधि रही,जानी कहाँ पर वह गई ! हर प्राण अद्भुत संस्करण,संकलन सृष्टि विच […] Read more » कुछ भ्रान्तियाँ औ क्रान्तियाँ
दोहे साहित्य छोड़ कर जगत के बंधन ! July 6, 2017 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment छोड़ कर जगत के बंधन, परम गति ले के चल देंगे; एक दिन धरा से फुरके, महत आयाम छू लेंगे ! देख सबको सकेंगे हम, हमें कोई न देखेंगे; कर सके जो न हम रह कर, दूर जा कर वो कर देंगे ! सहज होंगे सरल होंगे, विहग वत विचरते होंगे; व्योम बन कभी व्यापेंगे, […] Read more » छोड़ कर जगत के बंधन
दोहे साहित्य दर्द से ऊपर निकलना चाहिये ! June 27, 2017 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment दर्द से ऊपर निकलना चाहिये; छिपा जो आनन्द लखना चाहिये ! झाँकना सृष्टि में सूक्ष्म चाहिये; चितेरे बन चित्त से तक जाइये ! सोचना क्यों हमको इतना चाहिये; हो रहा जो उसको उनका जानिये ! समर्पण कर बस उसे चख जाइये; प्रकाशों की झलक फिर पा जाइये ! मिला मन को इष्ट के […] Read more » दर्द से ऊपर निकलना चाहिये !
दोहे साहित्य जो छा रहा वह जा रहा ! June 12, 2017 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment जो छा रहा वह जा रहा ! जो छा रहा वह जा रहा, ना संस्कार बना रहा; प्रारब्ध है कुछ ढा रहा, ना लोभ पैदा कर रहा ! मन मोह से हो कर विलग, लग संग मन-मोहन सजग; नि:संग में सब पा रहा, वह हो असंग घुला मिला ! खिल खिला कर है वह खुला, […] Read more »
दोहे साहित्य मो कूँ रहत माधव तकत ! June 10, 2017 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment मो कूँ रहत माधव तकत, हर लता पातन ते चकित; देखन न हों पावति तुरत, लुकि जात वे लखि मोर गति ! मैं सुरति जब आवति रहति, सुधि पाइ तिन खोजत फिरति; परि मुरारी धावत रहत, चितवत सतत चित मम चलत ! जानत रहत मैं का चहत, प्रायोजना ता की करत; राखत व्यवस्थित व्यस्त नित, […] Read more » मो कूँ रहत माधव तकत
दोहे साहित्य चलि दिए विराट विश्व ! June 3, 2017 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment चलि दिए विराट विश्व, लै कें फुरकैंया; ध्यान रह्यौ निज सृष्टा, नैनन लखि पैयाँ ! पैंजनियाँ बजति रहीं, देखत है मात रही; प्रकृति ललचात रही, झाँकन रुचि आत रही ! सँभलावत गात चलत, मोहन मन कछु सोचत; अँखियन ते जग निरखत, पगडंडिन वे धावत ! पीले से वस्त्र पहन, गावत तुतलात रहत; दौड़त कबहू ठहरत, […] Read more » चलि दिए विराट विश्व !