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क्या कद्दावर कांग्रेसी नेता पी. चिदंबरम और शशि थरूर की परिवर्तित सियासी निष्ठा से भाजपा बनेगी अजेय?

कमलेश पांडेय


दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भाजपा भले ही अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनने में असमंजस के दौर से गुजर रही हो लेकिन भारत राष्ट्र के प्रति उसके समर्पण का ही यह तकाजा है कि अब वह अजेय पार्टी बनने जा रही है, खासकर आम चुनाव 2029 में! और यदि ऐसा हुआ तो फिर भाजपा को हराना भारतीय विपक्षी पार्टियों और उनके तथाकथित इण्डिया गठबंधन के लिए बेहद मुश्किल हो जायेगा। दरअसल, यह बात मैं नहीं कह रहा हूँ बल्कि दिग्गज कांग्रेस रणनीतिकार रहे पी चिदंबरम ने खुद कहा है। इसलिए सियासी हल्के में यह सवाल उठाया जा रहा कि क्या एक और कांग्रेस दिग्गज भी एक अन्य कांग्रेस दिग्गज शशि थरूर की राह पर चल रहे हैं, जो पहले से ही कांग्रेस लाइन से बे-लाइन चल रहे थे क्योंकि उनके बयानों से तो यही जाहिर होता है कि वे कांग्रेस के वरिष्ठ राजनेता नहीं बल्कि बीजेपी के वरिष्ठ राजनेता हैं। ऐसा इसलिए कि अब चिदंबरम ने भी कुछ शशि थरूर जैसे ही बयान देने शुरू कर दिए हैं! 

ऐसे में सवाल है कि कांग्रेस नेताओं के लिए यह महज संयोग है या फिर वैचारिक भूलभुलैय्या वाला कोई अभिनव प्रयोग! समझा जाता है कि सत्ता जाने के बाद बड़े नेताओं द्वारा इधर उधर गुंजाइश तलाशना कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन जब गाँधी परिवार के विश्वासपात्र नेता ही ऐसा करने लगें तो राहुल-प्रियंका गाँधी का चिंतित होना स्वाभाविक है जबकि वे दोनों बेफिक्र लग रहे हैं और इन बडबोले नेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई भी नहीं कर रहे हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कांग्रेस में हो रहे पीढ़ी परिवर्तन से ये नेता अनफिट घोषित किए जा चुके हैं, इसलिए वो अपने-अपने बयानों से भाजपा को पटाने में जुटे हैं। 

राजनीतिक विश्लेषक भी मानते हैं कि थरूर की सहानुभूति से केरल भाजपा और चिदंबरम की दरियादिली से तमिलनाडू भाजपा को आशातीत बढ़त मिल सकती है क्योंकि कांग्रेस के जो वफादार पुराने प्रहरी हैं उनमें से चिदंबरम-थरूर का नाम राजनीतिक हलकों में बड़ी ही साफगोई पूर्वक लिया जाता है। इसकी एक नहीं, बल्कि सैकड़ों वजहें हैं। आखिर तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद भी पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के जमाने से ही चिदंबरम कांग्रेस का झंडा मजबूती से पकड़े हुए हैं। हालाँकि कई बार उनके बयानों में भी कांग्रेस को कड़वी सच्चाई का सामना करना पड़ जाता है। वो भी बिलकुल वैसे ही कुछ करते हुए दिखाई दे जाते हैं जैसे शशि थरूर करते रहते हैं। हालाँकि कांग्रेस के कुछ अन्य नेताओं की फितरत भी यही रहती है लेकिन वो उतने बड़े और प्रभावी नहीं हैं जितने कि ये दोनों।

अब ताजा मामला ही देखिए कि चिदम्बरम ने पाकिस्तान वाले ऑप्रेशन सिंदूर के मसले पर भारत सरकार की पहले ही तारीफ की थी और अब इंडिया गठबंधन को भी जो सही आइना दिखाते हुए खरी खोटी सुना दी है, उसके अपने सियासी मायने हैं जिन्हें भुनाने में भाजपा और उसका राजग गठबंधन कतई पीछे नहीं रहेगा। उल्लेखनीय है कि राज्यसभा सांसद चिदंबरम सलमान खुर्शीद और मृत्युंजय सिंह यादव की किताब ‘कंटेस्टिंग डेमोक्रेटिक डेफिसिट’ के विमोचन अवसर पर बोल रहे थे। इस किताब में सलमान खुर्शीद और मृत्युंजय यादव ने पिछले साल के लोकसभा चुनावों से पहले कांग्रेस के पुनरुद्धार के प्रयासों पर प्रकाश डाला है। उन्होंने बताया है कि कैसे कांग्रेस ने भारत जोड़ो यात्रा और विपक्षी दलों के साथ मिलकर इंडिया ब्लॉक का गठन किया जिससे भारत में लोकतंत्र को बचाने की कोशिश की गई। उन्होंने कहा कि इंडिया ब्लॉक से जुड़े कुछ मुद्दे हैं जिनका समाधान किया जाना चाहिए। 

वहीं, इसी ऐन मौके पर चिदंबरम ने भी इंडिया गठबंधन को आइना दिखा दिया और साफ-साफ कह दिया कि ऐसा नहीं लगता कि इंडिया गठबंधन अब भी पूरी तरह से एकजुट है। यह लगभग बिखरता हुआ दिखाई देता है और इसका भविष्य उज्ज्वल नहीं दिखता। उन्होंने यहां तक कह दिया  कि इंडिया ब्लॉक का भविष्य उतना उज्जवल नहीं है जैसा कि मृत्युंजय यादव ने कहा। उन्हें लगता है कि गठबंधन अभी भी बरकरार है लेकिन मुझे यकीन नहीं है। इसका उत्तर केवल सलमान खुर्शीद ही दे सकते हैं, क्योंकि वे इंडिया ब्लॉक के लिए वार्ता करने वाली टीम का हिस्सा थे। ऐसे में अगर गठबंधन पूरी तरह बरकरार रहता है तो मुझे बहुत खुशी होगी लेकिन आए दिन उजागर होने वाली कमजोरियों से पता चलता है कि गठबंधन में सबकुछ ठीक नहीं है। हालांकि उन्होंने यह भी उम्मीद जताई कि गठबंधन अभी भी बच सकता है। अभी भी समय है। वहीं, चतुर सियासी खिलाड़ी रहे चिदंबरम ने आखिरी में यह उम्मीद भी जता दी कि इंडिया गठबंधन को अब भी जोड़ा जा सकता है। अगर समय रहते इस पर काम हुआ तो कुछ हो सकता है।

 समझा जा रहा है कि यह राहुल गाँधी की नेतृत्व क्षमता पर तो सवाल है ही, कांग्रेस के सहयोगी दलों के नेताओं की निष्ठा पर उससे भी बड़ा सवाल पैदा कर जाता है। इसलिए यह शब्द सुनकर शायद ही कांग्रेस आलाकमान और इस गठबंधन में मौजूद पार्टियों को अच्छा लगेगा। बता दें कि इससे पहले भी  चिदंबरम ने एक अंग्रेजी दैनिक में अपने एक लेख में पीएम मोदी के नेतृत्व को सराहा और कहा कि सरकार ने सीमित सैन्य कार्रवाई का रास्ता चुनकर एक बड़ा युद्ध टाल दिया। भारत ने जो कार्रवाई की वो बेहद सीमित और सुनियोजित थी, जिसका उद्देश्य आतंकी संगठनों की बुनियादी ढांचे को नष्ट करना था। वहीं उन्होंने इस कार्रवाई को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का समझदारी भरा कदम बताया है।

यही वजह है कि उनके इस परिवर्तित दृष्टिकोण ने कांग्रेस आलाकमान को सकते में डाल दिया है। कहने का तात्पर्य यह कि चिदंबरम ने महज एक सप्ताह के अंदर दूसरी बार कांग्रेस की कोर टीम को अपने बयानों से बेचैन कर दिया है। लिहाजा राजनीतिक जानकार उनके बयान को बड़ी ही करीबी से देख रहे हैं क्योंकि इससे पहले कांग्रेस के बड़े नेताओं में शशि थरूर ऐसा करते हुए पाए गए हैं जो लंबे समय से पीएम मोदी के अंदाज के मुरीद रहे हैं। इसलिए अब देखना यह होगा कि चिदंबरम के बयानों के मायने क्या निकलकर आते हैं! हालाँकि फ़िलहाल यह कहना जल्दबाजी होगी कि क्योंकि चिदंबरम कई बार अपने बयानों से चौंकाते रहे हैं। इस बार भी उन्होंने ऐसा ही किया है| ऐसा करके वो शायद अपने बेटे के लिए कोई बड़ी जिम्मेदारी चाहते हों। तमिलनाडू भाजपा को अभी ऐसे ही नेताओं के नेटवर्क की जरूरत भी है ताकि दक्षिण भारत में भाजपा की पैर जमे!

पी चिदंबरम ने भाजपा को लेकर भी विपक्षी गठबंधन को चेतावनी दी और साफगोई पूर्वक कहा कि विपक्षी गठबंधन एक दुर्जेय मशीनरी के खिलाफ लड़ रहा है, जिसे सभी मोर्चों पर लड़ा जाना चाहिए। उन्होंने कहा, ‘मेरे अनुभव और इतिहास के मेरे अध्ययन में, भाजपा जितनी मजबूत संगठित कोई राजनीतिक पार्टी नहीं रही है। यह सिर्फ एक पार्टी नहीं, बल्कि एक मशीनरी की तरह है, और इस मशीन के पीछे एक और मशीन है जो चुनाव आयोग से लेकर देश के सबसे निचले पुलिस स्टेशन तक को नियंत्रित करती है और कभी-कभी उन पर कब्जा करने में सक्षम है। यह एक दुर्जेय मशीनरी है।’ 

केंद्रीय मंत्री चिदंबरम ने कहा कि चुनाव परिणामों ने दिखाया है कि कोई भी भारत में चुनावों को कमजोर नहीं कर सकता जो अभी भी एक चुनावी लोकतंत्र है। आप भारत में चुनावों में हस्तक्षेप कर सकते हैं। आप उनमें छेड़छाड़ कर सकते हैं, लेकिन आप चुनावों से बच नहीं सकते। आप ऐसे चुनाव नहीं कर सकते जहां सत्ताधारी पार्टी 98 फीसदी वोट ले जाए। भारत में ऐसा संभव नहीं है।इसलिए कांग्रेस नेता चिदंबरम ने चेताया कि अगर 2029 का आम चुनाव भाजपा के पक्ष में निर्णायक रूप से चला गया तो फिर शायद लोकतंत्र को बचाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। इसलिए 2029 के चुनाव महत्वपूर्ण हैं और हमें पूर्ण लोकतंत्र में वापस लाना चाहिए। 

वहीं दिलचस्प बात तो यह भी है कि एक अन्य कांग्रेसी दिग्गज सलमान खुर्शीद ने चिदंबरम की बात पर सहमति जताई और स्पष्ट कहा कि हमें 2029 में एक बहुत बड़ी लड़ाई के लिए तैयार रहना होगा। इस बात पर विचार करना होगा कि गठबंधन के सहयोगियों को कैसे एक साथ लाया जाए। अगर विपक्षी दलों को चुनावी रुझानों में बड़ा उलटफेर करना है, तो उन्हें बड़े पैमाने पर सोचना होगा। केवल यह सोचने से बात नहीं बनेगी कि कौनसी पार्टी कितनी सीटों पर लड़ेगी और नतीजे आने के बाद क्या होगा। अगर हम ऐसा करते हैं तो हम देश में चुनावी रुझानों में बड़ा उलटफेर करने से चूक जाएंगे।

भाजपा के लिए यह शुभ घड़ी है कि अब विपक्षी नेता ही उसकी रणनीति को सराह रहे हैं। ऐसे में पार्टी की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। अब तो उसके नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के चयन से ही पता चलेगा कि आत्ममुग्ध भाजपा का भविष्य का दांव-प्रतिदाव कैसा और कितना सार्थक होगा। शायद इसलिए कद्दावर कांग्रेसी नेता पी. चिदंबरम और शशि थरूर की परिवर्तित सियासी निष्ठा से भाजपा के अजेय होने की चर्चा जोर पकड़ चुकी है। ऑपरेशन सिंदूर की सफलता से उसकी जनसाख भी बढ़ी है। मिशन 2029 में वह अभी से जुट गई है जबकि बिहार विधानसभा चुनाव 2025, पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2026 और उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव 2027 से यह स्पष्ट हो जाएगा कि कथित इंडिया गठबंधन भाजपा नीत एनडीए को टक्कर दे पाएगा या नहीं!

सेना की गरिमा को ठेस पहुंचाता डिप्टी सीएम का बयान

संदीप सृजन

भारतीय राजनीति में नेताओं के विवादित बयान कोई नई बात नहीं हैं। समय-समय पर विभिन्न दलों के नेता अपनी टिप्पणियों के कारण सुर्खियों में आते हैं जिससे न केवल उनकी पार्टी को असहज स्थिति का सामना करना पड़ता है बल्कि समाज में भी तनाव और बहस का माहौल बनता है। हाल ही में मध्य प्रदेश के वनमंत्री विजय शाह के कर्नल सोफिया कुरैशी पर दिए बयान ने पूरे देश में हलचल मचा रखी है और इसी बीच म.प्र. के उपमुख्यमंत्री जगदीश देवड़ा के एक बयान ने राजनीतिक गलियारों में हलचल को तेज कर रहा है। उन्होंने जबलपुर में एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि “पूरा देश, देश की सेना और सैनिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चरणों में नतमस्तक हैं।” इस बयान ने न केवल विपक्षी दलों को हमलावर होने का मौका दिया बल्कि सेना जैसे सम्मानित संस्थान को राजनीतिक बयानबाजी में शामिल करने के लिए व्यापक आलोचना भी झेलनी पड़ रही है।

16 मई 2025 को मध्य प्रदेश के जबलपुर में सिविल डिफेंस वॉलिंटियर्स के एक प्रशिक्षण कार्यक्रम में उपमुख्यमंत्री जगदीश देवड़ा ने अपने भाषण में जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में 22 अप्रैल 2025 को हुए आतंकी हमले का जिक्र किया। इस हमले में आतंकियों ने पर्यटकों से उनका धर्म पूछकर चुन-चुनकर हत्याएं की थीं जिससे देश में गुस्से और तनाव का माहौल था। देवड़ा ने इस घटना का उल्लेख करते हुए कहा कि इस हमले ने पूरे देश को झकझोर दिया था, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय सेना ने ऑपरेशन सिंदूर के तहत आतंकियों के ठिकानों को नष्ट करके इसका बदला लिया। इसी संदर्भ में उन्होंने कहा, “प्रधानमंत्री जी ने जो साहसिक निर्णय लिया, उसके लिए पूरा देश और देश की सेना उनके चरणों में नतमस्तक है।”

भारतीय सेना एक ऐसी संस्था है जो अपनी निष्पक्षता, अनुशासन और देश के प्रति समर्पण के लिए जानी जाती है। सेना किसी भी राजनीतिक दल या नेता के प्रति नतमस्तक नहीं होती बल्कि वह भारत के संविधान और राष्ट्र की सेवा में कार्य करती है। देवड़ा के बयान को कई रक्षा विशेषज्ञों और पूर्व सैनिकों ने अनुचित ठहराया, क्योंकि यह सेना की स्वतंत्रता और गरिमा को कमतर करता है। सेना का काम देश की सुरक्षा करना है, और इसे किसी व्यक्ति विशेष की प्रशंसा से जोड़ना न केवल गलत है, बल्कि सेना के बलिदान को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने का प्रयास भी माना जा सकता है। सोशल मीडिया पर भी इस बयान को लेकर तीखी बहस देखने को मिल रही है। जहां कुछ लोगों ने इसे प्रधानमंत्री के नेतृत्व की प्रशंसा के रूप में देखा, वहीं अधिकांश ने इसे सेना की गरिमा के खिलाफ बताया है।

भाजपा ने देवड़ा के बयान का बचाव करते हुए कहा कि इसे गलत तरीके से पेश किया जा रहा है। पार्टी के प्रवक्ता ने दावा किया कि देवड़ा का उद्देश्य केवल प्रधानमंत्री के नेतृत्व की सराहना करना था न कि सेना का अपमान। उन्होंने कहा कि भाजपा हमेशा सेना का सम्मान करती है और उनके बलिदान को सर्वोच्च मानती है। लेकिन, विपक्ष ने इस बचाव को खारिज किया है।

जगदीश देवड़ा का यह बयान मध्य प्रदेश में भाजपा नेताओं के विवादित बयानों की श्रृंखला में एक और कड़ी है। हाल ही में राज्य के वन मंत्री विजय शाह भी अपने एक बयान के कारण विवादों में घिरे थे। शाह ने ऑपरेशन सिंदूर में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली भारतीय सेना की कर्नल सोफिया कुरैशी को “आतंकियों की बहन” कहकर संबोधित किया था। इस बयान ने न केवल सेना के एक सम्मानित अधिकारी का अपमान किया बल्कि पूरे देश में आक्रोश पैदा किया। सुप्रीम कोर्ट ने शाह को इस बयान के लिए कड़ी फटकार लगाई, और उनके खिलाफ कई जगहों पर मामले दर्ज किए गए। कांग्रेस ने शाह के इस्तीफें की मांग की, और भाजपा को इस मामले में बैकफुट पर आना पड़ा है। विजय शाह का यह बयान भी पहलगाम हमले के संदर्भ में आया था, जहां उन्होंने कहा था कि “प्रधानमंत्री ने आतंकियों की बहन को भेजकर उनकी ऐसी-तैसी कर दी।” इस टिप्पणी को न केवल आपत्तिजनक बल्कि महिला विरोधी और सेना के प्रति असम्मानजनक माना गया। शाह पहले भी कई बार विवादित बयानों के लिए चर्चा में रहे हैं, लेकिन इस बार उनकी टिप्पणी ने पार्टी को गंभीर संकट में डाल दिया।

विवादित बयान केवल मध्य प्रदेश या भाजपा तक सीमित नहीं हैं। भारतीय राजनीति में विभिन्न दलों के नेताओं ने समय-समय पर ऐसी टिप्पणियां की हैं, जिन्होंने सामाजिक और राजनीतिक तनाव को बढ़ाया है। कांग्रेस के नेताओं ने भी कई बार विवादित बयान दिए हैं।

जगदीश देवड़ा और विजय शाह जैसे बयान सेना जैसे निष्पक्ष और सम्मानित संस्थान को राजनीति में घसीटते हैं। यह न केवल भारतीय सेना की गरिमा को ठेस पहुंचाता है, बल्कि जनता के बीच अविश्वास भी पैदा करता है। धर्म, जाति, या लिंग जैसे संवेदनशील मुद्दों पर दिए गए बयान समाज में विभाजन पैदा करते हैं। पहलगाम हमले जैसे मामलों में धर्म आधारित टिप्पणियां सामुदायिक तनाव को बढ़ाती हैं। विवादित बयान अक्सर पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचाते हैं। भाजपा, जो अपनी राष्ट्रवादी छवि के लिए जानी जाती है, को ऐसे बयानों के कारण विपक्ष के निशाने पर आना स्वाभाविक है। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट जैसे संस्थान कई बार नेताओं को उनके बयानों के लिए फटकार लगाते हैं। विजय शाह के मामले में कोर्ट की सख्ती इसका उदाहरण है।

राजनीतिक दलों को अपने नेताओं को संवेदनशील मुद्दों पर बोलने से पहले प्रशिक्षण देना चाहिए। सार्वजनिक मंच पर बोलने से पहले बयानों की समीक्षा जरूरी है। विवादित बयानों के खिलाफ त्वरित और सख्त कानूनी कार्रवाई से नेताओं में जवाबदेही बढ़ेगी। मीडिया को विवादित बयानों को सनसनीखेज बनाने के बजाय तथ्यपरक विश्लेषण करना चाहिए। जनता को भी ऐसी टिप्पणियों के खिलाफ अपनी आवाज उठानी चाहिए, ताकि नेता अपनी जिम्मेदारी समझें।

जगदीश देवड़ा का बयान भारतीय राजनीति में विवादित टिप्पणियों की एक लंबी श्रृंखला का हिस्सा है। सेना जैसे सम्मानित संस्थान को राजनीतिक बयानबाजी में शामिल करना न केवल अनुचित है, बल्कि देश की एकता और अखंडता के लिए भी हानिकारक हो सकता है। मध्य प्रदेश में विजय शाह जैसे अन्य मंत्रियों के बयानों ने भी यह साबित किया है कि नेताओं को अपनी भाषा और संदेश पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। भारतीय राजनीति को ऐसी बयानबाजी से ऊपर उठकर रचनात्मक और समावेशी संवाद की ओर बढ़ना होगा, ताकि देश का सामाजिक ताना-बाना मजबूत रहे और संस्थानों की गरिमा बनी रहे।

संदीप सृजन

गोविंदा के बेटे यशवर्धन आहुजा को मिली डेब्‍यू फिल्‍म

गोविंदा ने पिछले 35 बरसों में ‘आंखें’, ‘साजन चले ससुराल’, ‘कुली नं1’, ‘एक और एक ग्यारह’, ‘भागमभाग’ और ‘पार्टनर’ जैसी कॉमिक फिल्मों के जरिए फैंस के दिलों में जबर्दस्‍त गुदगुदी पैदा की है।

गोविंदा के फैंस के लिए एक गुड न्यूज है कि अब वे गोविंदा के बेटे यशवर्धन आहुजा को स्क्रीन पर देख पाएंगे। वे इसी साल सिल्वर स्क्रीन पर अपना एक्टिंग डेब्यू करने वाले हैं।

यशवर्धन आहुजा ने लंदन के मेट फिल्म स्कूल से एक्टिंग और फिल्ममेकिंग में कोर्स किया है जिसमें उन्‍होंने एक्टिंग के साथ-साथ फिल्म निर्माण की बारीकियां भी सींखीं।

असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर यशवर्धन ‘किक 2’, ‘ढिशूम’ ‘बागी’ और ‘तड़प’ जैसी फिल्‍मों के लिए काम कर चुके है। वह फिल्‍म मेकर साजिद नाडियाड वाला की मार्केटिंग टीम का हिस्सा भी रहे हैं।

रिपोर्ट्स के मुताबिक, लगभग 79 ऑडिशन में रिजेक्ट होने के बाद, 9 साल की कड़ी मेहनत के बाद यशवर्धन को डेब्यू फिल्म मिल चुकी है।

वे अपनी एक्टिंग की शुरुआत हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में नेशनल अवॉर्ड विनिंग डायरेक्टर साई राजेश की आने वाली फिल्म से करने जा रहे हैं।  मधु मंटेना, अल्लू अरविंद और एस के एन फिल्म्स द्वारा प्रोड्यूस की जाने वाली ये फिल्म एक खास लव स्टोरी होगी।

यह फिल्म गोविंदा की विरासत को आगे बढ़ाने वाली एक खास प्रेम कहानी होगी। फैंस गोविंदा के बेटे यशवर्धन आहुजा को बड़े पर्दे पर देखने के लिए बहुत एक्साइटेड हैं।

फैंस यशवर्धन के अभिनय और डांसिंग स्किल्स को लेकर काफी उत्साहित हैं क्योंकि वह अपने पिता गोविंदा की तरह डांस में भी माहिर माने जाते हैं।

फिल्म के लिए यशवर्धन के अपोजिट फीमेल लीड की तलाश जारी है। मेकर्स उनके अपोजिट मुकेश छाबड़ा की अगुवाई में किसी नई लड़की को लॉन्च करना चाहते हैं।  

बड़े अवसर की तलाश में हैं खुशी मुखर्जी

फिल्म और वेब सीरीज की खूबसूरत एक्‍ट्रेस, खुशी मुखर्जी एमटीवी के मशहूर शोज ‘स्प्लिट्सविला सीजन 10’, टीवी सीरीज ‘लव स्कूल 3’ और सोनी सब की फंतासी सीरीज ‘बालवीर रिटर्न्स’ के लिए पहचानी जाती हैं। वह तमिल और तेलुगू फिल्मों के अलावा कई एडल्ट हिंदी वेब सीरीज में भी नजर आ चुकी हैं।

मुंबई के बंगाली हिंदू परिवार में जन्मी खुशी ने अपनी शिक्षा मुंबई के ठाकुर कॉलेज ऑफ साइंस एंड कॉमर्स से पूरी की। 3 साल की उम्र से ही उन्‍होंने एक्ट्रेस बनने के बारे में सोचना शुरू कर दिया था। ग्रेजुएशन  पूरी होने के बाद खुशी ने मॉडलिंग की ओर रुख किया।

मॉडलिंग करते हुए उन्हें तमिल फिल्म ‘अंजलतुरई’ (2013) में काम करने का मौका मिला। उसके बाद बाद खुशी मुखर्जी ने दो तेलुगू फिल्म ‘हार्ट अटैक’ और ‘डोंगाप्रेमा’ में काम किया।

टेलीविजन के छोटे पर्दे पर खुशी की एंट्री ‘एमटीवी स्प्लिट्सविला सीजन 10’ (2017) के साथ हुई जहां उन्होंने अपनी बोल्ड और बिंदास छवि से दर्शकों का ध्यान खींचा।

इसके बाद वे ‘एमटीवी लव स्कूल सीजन 3’ में भी दिखाई दीं। खुशी को सबसे ज्यादा लोकप्रियता ‘बालवीर रिटर्न्स’ से मिली जिसमें उन्‍होंने ‘ज्वाला परी’ का शक्तिशाली और आकर्षक किरदार निभाया।

इसके अलावा, खुशी ने ‘कहत हनुमान.. जय श्री राम’, ‘जय बजरंगबली’ और ‘सिंहासन बत्तीसी’ जैसे टीवी शोज भी किए ।

खुशी सोशल मीडिया पर भी काफी सक्रिय रहती हैं और अक्सर अपनी ग्लैमरस तस्वीरें शेयर करती हैं जो उनके फैंस के बीच खूब वायरल होती हैं।

खुशी मुखर्जी की खूबसूरती और आत्मविश्वास ने उन्हें मनोरंजन जगत में एक उभरती हुई प्रतिभा के रूप में स्थापित किया है। वह एक भरतनाट्यम, कथक डान्सर के अलावा बैले डान्सर भी है। खुद को फिट रखने के लिए वह नियमित वर्कआउट करती हैं।

हाल ही में खुशी ने एक फिल्म साइन की है जिसमें उनका एक जोरदार आइटम नंबर होगा। इसके अलावा खुशी अब बड़े टीवी शो और बॉलीवुड में मुख्य किरदार निभाने के अवसर की तलाश में हैं।  

कपूर परिवार का एक और ‘कपूर’, ज़हान कपूर 

11 मार्च, 1992 को मुंबई में एक्‍टर कुणाल कपूर और शीना सिप्पी के घर पैदा हुए हिंदी फ़िल्म, सीरीज़ और थिएटर एक्‍टर ज़हान कपूर के दादा एक्‍टर शशि कपूर और उनकी दादी जानी मानी थियेटर अभिनेत्री जेनिफर केंडल थीं। उनके नाना फिल्म निर्देशक, अभिनेता और निर्माता रमेश सिप्पी थे।

ज़हान कपूर के चाचा करण कपूर और मामा रोहन सिप्पी हैं और उनकी आंटी पूर्व अभिनेत्री संजना कपूर हैं। करिश्मा कपूर, करीना कपूर, रणबीर कपूर, अरमान जैन और आधार जैन उनके चचेरे भाई हैं। ज़हान कपूर की एक बहन है जिसका नाम शायरा लॉरा कपूर है. वह एक सेट डिजाइनर के रूप में काम करती है।

कपूर परिवार में पले-बढ़े ज़हान ने, दादा शशि कपूर के नक्शेकदम पर चलते हुए अपना ज़्यादातर समय पृथ्वी थिएटर में बिताया। उन्होंने बच्चों के लिए एक कार्यशाला में थिएटर निर्देशक सुनील शानबाग के असिस्‍टेंट के रूप में अपना करियर शुरू किया।

ज़हान कपूर ने 2019 में, पृथ्वी थिएटर में मकरंद देशपांडे के नाटक ‘पिताजी प्लीज कास्‍ट’ से अपना थिएटर डेब्यू किया। इसके बाद फ़िल्म ‘फ़राज़’ (2022) से फिल्‍म इंडस्‍ट्री में अपने अभिनय की शुरुआत की। इस फिल्‍म में उनके व्‍दारा निभाए गए फ़राज हुसैन के किरदार को काफी पसंद किया गया।

‘पिताजी प्लीज कास्‍ट’ (2019) के बाद ज़हान कपूर पृथ्‍वी थियेटर के एक और नाटक ‘सियाचिन लीड’ (2023) में नजर आए। ज़हान कपूर ने इस साल थ्रिलर सीरीज़ ‘ब्लैक वारंट’ (2025) के जरिए टीवी पर डेब्‍यू किया। इस में उन्‍होंने सुनील गुप्‍ता का किरदार निभाया है।

फैशन डिजाइनर मसाबा गुप्ता के साथ एक मैगज़ीन के लिए फोटो शूट कर चुके ज़हान अक्षत वर्मा द्वारा निर्देशित अमेज़ॅन प्राइम वीडियो वेब श्रृंखला ‘जनता बैंड’ में भी नजर आ चुके हैं।

नेताओं के बिगड़े बोल से आहत होती राष्ट्रीयता

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– ललित गर्ग

सेना के शौर्य पर सम्मान की बजाय अपमान के बिगड़े बोल को लेकर राजनीतिक घमासान छिड़ जाना स्वाभाविक है। कर्नल सोफिया और विंग कमांडर ब्योमिका सिंह के संबंध में क्रमशः मंत्री विजय शाह और सपा महासचिव राम गोपाल यादव द्वारा की गई टिप्पणियों पर राजनीतिक विवाद और कानूनी कार्रवाई की मांग तेज हो गई है। बड़ा प्रश्न है कि क्या धर्म और जाति के नाम पर वोट के लिए सेना और सेना से जुड़ी  बेटियों के सम्मान को चोट पहुंचाई जाना उचित है? चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष वाणी का संयम अपेक्षित है। भारतीय राजनीति में बिगड़े बोल, असंयमित भाषा एवं कड़ावपन की मानसिकता चिन्ताजनक है। ऐसा लगता है ऊपर से नीचे तक सड़कछाप भाषा ने अपनी बड़ी जगह बना ली है। यह ऐसा समय है जब शब्द सहमे हुए हैं, क्योंकि उनके दुरूपयोग की घटनाएं लगातार जारी हैं।
जब देश पहलगाम की त्रासद घटना एवं उसके बाद पाकिस्तान से बदला लेने की शौर्य की महत्वपूर्ण घटना के मोड़ पर खड़ा है, तब कुछ नेताओं के बिगड़े बोल बहुत दुखद और निंदनीय हैं। मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार के एक मंत्री विजय शाह एवं समाजवादी पार्टी के रामगोपाल यादव के खिलाफ गुस्सा बढ़ता जा रहा है। विजय शाह को राज्य मंत्रिमंडल से हटाने की मांग तेज हो गई है। कर्नल सोफिया कुरैशी के खिलाफ विजय शाह की विवादास्पद टिप्पणी एक ऐसा दाग है, जिसे आसानी से नजरंदाज नहीं किया जा सकता। यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा और मामला भी दर्ज हो गया, तो आश्चर्य नहीं । देश के नेताओं व मंत्रियों को ऐसी हल्की और स्तरहीन बातों से परहेज करना चाहिए।
नफरती सोच एवं हेट स्पीच का बाजार बहुत गर्म है। राजनीति की सोच ही दूषित एवं घृणित हो गयी है। नियंत्रण और अनुशासन के बिना राजनीतिक शुचिता एवं आदर्श राजनीतिक मूल्यों की कल्पना नहीं की जा सकती। नीतिगत नियंत्रण या अनुशासन लाने के लिए आवश्यक है सर्वोपरि राजनीतिक स्तर पर आदर्श स्थिति हो, अनुशासन एवं संयम हो, तो नियंत्रण सभी स्तर पर स्वयं रहेगा और इसी से देश एक आदर्श लोकतंत्र को स्थापित करने में सक्षम हो सकेगा। युद्ध जैसे माहौल में सेना एवं उसके नायकों का मनोबल बढ़ाने की बजाय उनके साहस एवं पराक्रम पर छींटाकशी करना दुर्भाग्यपूर्ण है। चर्चा में बने रहने के लिए ही सही, राजनेताओं के विवादित बयान गाहे-बगाहे सामने आ ही जाते हैं, लेकिन ऐसे बयान एक ऐसा परिवेश निर्मित करते हैं जिससे राजनेताओं एवं राजनीति के लिये घृणा पनपती है। यह सही है कि शब्द आवाज नहीं करते, पर इनके घाव बहुत गहरे होते हैं और इनका असर भी दूर तक पहुंचता है और देर तक रहता है। इस बात को राजनेता भी अच्छी तरह जानते हैं इसके बावजूद जुबान से जहरीले बोल सामने आते ही रहते हैं।
यह चिंताजनक है कि इधर के वर्षों में कुछ भी बयान दे देने की बुरी आदत बढ़ रही है। बिगड़े बोल वाले नेता बेलगाम हो रहे हैं। कोई दो राय नहीं कि पहले राजनीतिक दलों और उसके बाद सरकारों को इस मोर्चे पर अनुशासन एवं वाणी संयम का बांध बांधना चाहिए । विजय शाह करीब आठ बार चुनाव जीत चुके हैं, मतलब, अनुभवी नेता हैं, तो क्या वह चर्चा में रहने के लिए बिगड़े बोल का सहारा लेते हैं? सर्वोच्च न्यायालय में खिंचाई के बाद अब वह सफाई देने में लगे हैं। उन्होंने स्पष्टीकरण जारी करते हुए कहा है कि उनकी टिप्पणियों को संदर्भ से बाहर ले जाया गया और उनका मकसद कर्नल कुरैशी की बहादुरी की प्रशंसा करना था। उन्होंने यह भी कहा कि कर्नल सोफिया कुरैशी मेरी सगी बहन से भी बढ़कर हैं। वह माफी भी मांग रहे हैं, तो साफ है कि उनका पद खतरे में है। अगर वह पहले ही सावधानी बरतते या गलती होते ही माफी मांग लेते, तो मामला इतना नहीं बढ़ता। विजय शाह का मामला थमा भी नहीं है कि मध्य प्रदेश के ही उप- मुख्यमंत्री जगदीश देवड़ा ने भी बिगड़े बोल को अंजाम दे दिया है। उनका मानना है कि देश की सेना प्रधानमंत्री के सामने नतमस्तक है। वास्तव में, ऐसी गलतबयानी से किसी के भी सम्मान में वृद्धि नहीं होती है। देश अभी-अभी एक संघर्ष से निकला है। यह एकजुटता और परस्पर समन्वय बढ़ाने के लिए संभलकर बोलने का समय है। राष्ट्रीय एकता एवं राजनीतिक ताने-बाने को ध्वस्त कर रहे जहरीले बोल की समस्या दिन-प्रतिदिन गंभीर होती जा रही है।
संकीर्णता एवं राजनीति का उन्माद एवं ‘हेट स्पीच’ के कारण न केवल विकास बाधित हो रहा है, सेना का मनोबल प्रभावित हो रहा है, बल्कि देश की एकता एवं अखण्डता भी खण्ड-खण्ड होने के कगार पर पहुंच गयी है। राजनेताओं के नफरती, उन्मादी, द्वेषमूलक और भड़काऊ बोलों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने भी कड़ी टिप्पणियां की है। भाषा की मर्यादा सभी स्तर पर होनी चाहिए। कई बार आवेश में या अपनी बात कहने के चक्कर में शब्दों के चयन के स्तर पर कमी हो जाती है और इसका घातक परिणाम होता है। मुद्दों, मामलों और समस्याओं पर बात करने की बजाय जब नेता एक-दूसरे पर निजी हमले करने लगें तो यह उनकी हताशा, निराशा और कुंठा का ही परिचायक होता है। यह आज के अनेक नेताओं की आदत सी बन गई है कि एक गलती या झूठ छिपाने के लिए वे गलतियों और झूठ का अंबार लगा देते हैं। क्या यह सत्ता का अहंकार एवं नशा है? संसद में गलती एक बार अटल बिहारी वाजपेयी से भी हुई थी, उन्होंने तत्काल सुधार करते हुए कहा था कि चमड़े की जुबान है, फिसल जाती है। बेशक, अच्छा नेता वही होता है, जो गलतियां नहीं करता और अगर गलती हो जाए, तो तत्काल सुधारता है।
जिम्मेदार पदों पर बैठे नेताओं को हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि उनके अच्छे-बुरे बोल व गलत-सही कारनामे इतिहास में दर्ज हो रहे हैं। ध्यान रखना होगा, पहले केवल शब्द वायरल होते हैं, पर अब शब्द के साथ वीडियो भी वायरल होता है। ध्यान रहे, समय के साथ मीडिया का बहुत विस्तार हुआ है और उसका एक बड़ा हिस्सा ऐसी ही गलतबयानी का भूखा है। उसे ऐसे ही बिगड़े बोल वाले कंटेंट की तलाश है। अतः कम से कम देश के जिम्मेदार दलों के नेताओं को कोई भी राष्ट्र-विरोधी अप्रिय या प्रतिकूल ध्वनि नहीं पैदा करनी चाहिए। अनेक राजनीतिक दलों के नेता ऐसे वक्तव्य देते हैं और विवाद बढ़ता देख बाद में सफाई देने से भी नहीं चूकते। वोट के लिए धर्म, सम्प्रदाय, जाति, समाज किसी को भी नहीं छोड़ा जा रहा। पार्टी कोई सी भी हो, नेता अपने विरोधियों के खिलाफ जहर उगलने से नहीं चूकते लेकिन सेना नायकों पर टिप्पणियां बहुत ही घातक है।
नेता चाहे सत्ता पक्ष से जुड़े हों या प्रतिपक्ष से, अक्सर वाणी असंयम एवं बिगड़े बोल में हदें पार कर देते हैं। सुप्रीम कोर्ट के समय-समय पर दिए गए निर्देशों की भी इन्हें परवाह नहीं है। पूरे विश्व में आज जब हिंदुस्तान का डंका बज रहा है, तो देश के भीतर और देश के बाहर बैठी ‘भारत विरोधी शक्तियां’ एकजुट होकर राष्ट्रीय एकता एवं लोकतांत्रित मूल्यों के ताने-बाने को क्षत-विक्षित करना चाहती है। ऐसी शक्तियां किसी भी तरह भारत से विकास का एक कालखंड छीन लेना चाहती हैं। उन्हें नेताओं के बिगड़े बोलों से ऊर्जा मिलती है। सोचने की बात तो यह है कि राजनीतिक भावनाओं एवं नफरती सोच को प्रश्रय देने वाले नेताओं का भविष्य भी खतरे से खाली नहीं हैं। उनका भविष्य कालिमापूर्ण है। उनकी नफरती कोशिशों पर देश एवं दुनिया की नजरे टिकी हैं। वे क्या बोलते हैं, क्या सोचते हैं, इसी से भारतीय लोकतंत्र की गरिमा दुनिया में बढ़ सकती है। जरूरत है कि हमारे राजनीति दल अपनी सोच को परिपक्व बनाये, मतभेदों को स्वीकारते हुए मनभेद को न पनपने दे।
”राजनीतिक सिस्टम“ की रोग मुक्ति, स्वस्थ समाज एवं राष्ट्र का आधार होगा। राष्ट्रीय चरित्र एवं राजनीतिक चरित्र निर्माण के लिए नेताओं एवं उनके दलों को आचार संहिता से बांधना ही होगा। अब तो ऐसा भी महसूस होने लगा है कि देश की दंड व्यवस्था के तहत जहां ‘हेट स्पीच’ या बिगडे़ बोल को नये सिरे से परिभाषित करने की आवश्यकता है वहीं इस समस्या से निपटने के लिए ‘हेट स्पीच’ एवं बिगडे़ बोल को अलग अपराध की श्रेणी में रखने के लिए कानून में संशोधन का भी वक्त आ गया है?

सपनों के पर

चिड़िया सी उड़े, सपनों की डोर,
आसमान छूने का हो हर ओर शोर।
नन्हे पंखों में हो इतनी ताक़त,
हर मुश्किल से लड़ने का हो हिम्मत।

तारों की चमक, चाँद की चांदनी,
बचपन की हँसी, प्यारी सी नादानी।
धरती पे पाँव, आँखों में आसमान,
छोटे कदमों से रचें नये आयाम।

हाथों में कंचे, दिल में उमंग,
मिट्टी की खुशबू, सपनों की तरंग।
आगे बढ़ते जाओ, थामे अपनों का हाथ,
मुस्कुराहटों से भर दो ये छोटी सी बात।

दूरसंचार क्रांति : कबूतर से की-बोर्ड तक का “सफर”

विश्व दूरसंचार दिवस 17 मई पर विशेष…

प्रदीप कुमार वर्मा

प्राचीन काल में कोई संदेश या कोई चिट्ठी भेजने के लिए कबूतरों या फिर दूत और संदेशवाहक की परंपरा देखने को मिलती है। डाक सेवा के शुरू होने के बाद में पोस्टमैन से यह काम करते थे लेकिन समय के साथ बदलते दौर में अब सूचना और संदेश के भेजने की प्रकृति तथा जरिया भी बदल चुका है। आज इंटरनेट की वजह से संदेश पहुंचाना आसान हो गया है। आज का युग सूचना का युग है। इसी वजह है कि बदले जमाने में “दूरसंचार” ने पृथ्वी और आकाश की सम्पूर्ण दूरी को मिटा दिया है। दूरसंचार क्रांति के माध्यम से ना केवल देश,अपितु विश्व के कोने-कोने में सूचनाओं का आदान-प्रदान तीव्र गति से हो रहा है। यही वजह है कि आज फोन, मोबाइल और इंटरनेट लोगों की प्रथम आवश्यकता बन गये हैं। दूरसंचार क्रांति का ही असर है कि अब सूचना का सफर कबूतर से लेकर कीबोर्ड तक आ चुका है।

        दूरसंचार का उदेश्‍य था कि देश दुनिया  के हर आदमी तक सूचना पंहुचे ओर संचार सुलभ हो। इसलिए विश्व दूरसंचार दिवस के दिन सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के फायदों के प्रति लोगों में जागरूकता पैदा की जाती है। यह दिन अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार संघ की स्थापना और साल 1865 में पहले अंतर्राष्ट्रीय टेलीग्राफ समझौते पर हस्ताक्षर होने की याद में मनाया जाता है। मार्च 2006 में एक प्रस्ताव को अपनाया गया था, जिसमें कहा गया है कि हर साल 17 मई को विश्व सूचना समाज दिवस मनाया जाएगा। विश्व दूरसंचार दिवस मनाने की परंपरा 17 मई 1865 में शुरू हुई थी लेकिन आधुनिक समय में इसकी शुरुआत वर्ष 1969 में हुई। तभी से पूरे विश्व में इसे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। 

    भारत में दूरसंचार क्रांति के अतीत के बारे में पता चलता है कि वर्ष 1880 में दो टेलीफोन कंपनियों ‘द ओरिएंटल टेलीफोन कंपनी लिमिटेड’ और ‘एंग्लो इंडियन टेलीफोन कंपनी लिमिटेड’ ने भारत में टेलीफोन एक्सचेंज की स्थापना करने के लिए भारत सरकार से संपर्क किया। इस अनुमति को इस आधार पर अस्वीकृत कर दिया गया कि टेलीफोन की स्थापना करना सरकार का एकाधिकार था और सरकार खुद यह काम शुरू करेगी। इसके बाद वर्ष  1881 में सरकार ने अपने पहले के फैसले के ख़िलाफ़ जाकर इंग्लैंड की ‘ओरिएंटल टेलीफोन कंपनी लिमिटेड’ को कोलकाता, मुंबई, मद्रास (चेन्नई) और अहमदाबाद में टेलीफोन एक्सचेंज खोलने के लिए लाइसेंस दिया। इससे 1881 में देश में पहली औपचारिक टेलीफोन सेवा की स्थापना हुई। 

        इसी क्रम में 28 जनवरी, 1882 भारत के टेलीफोन इतिहास में ‘रेड लेटर डे’ है। इस दिन भारत के तत्कालीन गवर्नर-जनरल काउंसिल के सदस्य मेजर ई. बैरिंग ने कोलकाता, चेन्नई और मुंबई में टेलीफोन एक्सचेंज खोलने की घोषणा की। कोलकाता के एक्सचेंज का नाम ‘केंद्रीय एक्सचेंज’ था।  केंद्रीय टेलीफोन एक्सचेंज के 93 ग्राहक थे। मुंबई में भी 1882 में ऐसे ही टेलीफोन एक्सचेंज का उद्घाटन किया गया था। इसके बाद में संचार क्रांति में बदलाव आया और 2जी के बाद 3जी, 4जी तथा 5 जी स्पेक्ट्रम के जरिए मोबाइल सेवा अस्तित्व में आई। दूरसंचार के क्षेत्र में इंटरनेट के जरिये हमें घर में मोबाइल , कंप्यूटर, लैपटॉप,या टीवी में देखने में मिलता है।  वर्तमान समय में दूरसंचार का एक बहुत बड़ा हिस्सा इंटरनेट है।    

      इसमें कोई शक नहीं है कि जिन लोगों की पहुंच इंटरनेट तक है, उनके जीवन में एक बड़ा बदलाव देखने को मिला है। दूरसंचार की सहायता से हम ऑनलाइन मोबाइल के द्वारा बिजली एवं नल का बिल, डिस्क रिचार्ज, बैंकिंग, बीमा तथा अन्य काम अपने घर में बैठे-बैठे ही पूरा कर सकते हैं। इसका सबसे ज्यादा फायदा महिला, बच्चे तथा बुजुर्गों को मिलता है। जिनके लिए यह सभी काम बहुत आसान और आरामदायक बन जाते है। इंटरनेट के जरिए हम असंख्य सूचनाओं को पलक झपकते ही मात्र कुछ चंद सेकेंड में प्राप्त कर लेते हैं। इंटरनेट सिर्फ सूचनाओं के लिहाज से ही नहीं, बल्कि सोशल नेटवर्किग  के लिए अब अहम बन चुका है।

 गूगल के ई-मेल, अन्य सोशल मीडिया के माध्यम जैसे फेसबुक, स्नैपचैट, इंस्टाग्राम, थ्रेड तथा अन्य सोशल प्लेटफॉर्म के जरिए से हजारों किलोमीटर की दूरियां सिमट कर अब चंद सेकेंड के फासले में बदल गयी हैं। 

         पहले जहाँ किसी से संपर्क साधने के लिए लोगों को काफ़ी मशक्कत करनी पड़ती थी, वहीं आज मोबाइल और इंटरनेट ने इसे बहुत ही आसान बना दिया है। आज  इंटरनेट ने हमारे जीवन को सरल बनाने में अहम योगदान दिया है, उसी तरह इसने कई ऐसी समस्याएँ भी उत्पन्न कर दी हैं, जिससे कहीं न कहीं हमारा समाज दूषित हो रहा है। देखें तो आज इंटरनेट पर काम कम और इसका दुरुपयोग ज्यादा हो रहा है। पोर्नोग्राफी जैसी समस्या इंटरनेट के हर हिस्से में पहुंच चुकी है। देखने में यह आया है कि नासमझ लोग अपने यार-दोस्तों की तस्वीरें इंटरनेट पर डाल देते हैं, लेकिन अश्लीलता परोसने वाली वेबसाइट्स उन्हें चुराकर उनका दुरुपयोग करना शुरू कर देती हैं। इसके सामने एक और बड़ी चुनौती साइबर अपराध भी है, जिसकी आड़ में लोग अफवाह फैला कर देश में साइबर युद्ध जैसे हालात पैदा करने की कोशिश करते रहते हैं। इन सब नकारात्मक तथ्यों के बावजूद भी दूरसंचार तकनीक आज भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देशों में समृद्धि के लिए सहायक सिद्घ हो रही है। 

प्रदीप कुमार वर्मा

अंतर समीक्षा में चूक करती भारतीय राजनीति

पहलगाम आतंकी हमले के बाद प्रधानमंत्री श्री मोदी ने जिस प्रकार देश का नेतृत्व किया है, उससे उनके व्यक्तित्व में और चार चांद लग गए हैं । आगामी कुछ समय में जिन-जिन प्रान्तों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, वहां पर एनडीए को इसका लाभ मिलेगा। यहां तक कि 2027 में उत्तर प्रदेश में भी योगी आदित्यनाथ को इसका लाभ मिलना निश्चित है। यही कारण है कि देश के कुछ राजनीतिक दल और उनके नेता भरपूर प्रयास कर रहे हैं कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ में जितना राजनीतिक लाभ मोदी-योगी की जोड़ी को मिलता हुआ दिखाई दे रहा है, उसके प्रभाव को क्षीण किया जाए।
राजनीतिक स्वार्थों की सिद्धि के लिए अखिलेश यादव और राहुल गांधी के सुर इस समय एक साथ एक जैसे निकलते हुए दिखाई दे रहे हैं। इन दोनों को उत्तर प्रदेश के राजनीतिक मैदान की चिंता है, जिसके लिए इनके गले इसी समय बैठ चुके हैं। अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने के लिए राहुल गांधी एंड ब्रिगेड पाकिस्तान पर कार्रवाई को लेकर जहां सरकार के साथ खड़ी दिखाई दी, वहीं सीजफायर के समय अमेरिका की भूमिका को लेकर ये ब्रिगेड कई प्रकार के सवाल भी खड़े कर रही है। ये ब्रिगेड भली प्रकार जानती है कि प्रधानमंत्री श्री मोदी राष्ट्रीय राजनीति में इस समय सबसे चमकते हुए सितारे हैं। बस, यही वह कारण है जो इनको रात को सोने नहीं देता। प्रधानमंत्री को आभाहीन करने के लिए इन्होंने संसद का सत्र बुलाने की बात भी कही है। 2024 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने 99 सीट प्राप्त कर भाजपा को थोड़ा पीछे धकेलने में सफलता प्राप्त की थी। जिससे राहुल गांधी और उनकी बहन प्रियंका गांधी बहुत उत्साहित दिखाई दिए थे। उन्हें यह आभास नहीं था कि इतनी शीघ्रता से मोदी लोकप्रियता की अपनी ऊंचाई को फिर से प्राप्त कर लेंगे और वह फिर से इतने ताकतवर हो जाएंगे कि उन्हें कोई चुनौती देने की स्थिति में नहीं होगा। अपनी इसी खोई हुई स्थिति को प्राप्त करना राहुल गांधी के लिए प्राथमिकता है। उनकी प्राथमिकता के साथ शोर मचाना उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष की मजबूरी है और इसी प्राथमिकता व मजबूरी को समझकर शोर मचाना कांग्रेस के सभी सांसदों के गले की फांस है।
प्रधानमंत्री श्री मोदी के लिए यह बात बहुत सुखदायक कही जाएगी कि जहां राहुल 77 यूपीए-2 में विदेश राज्य मंत्री रहे कांग्रेस सांसद शशि थरूर सहित शरद पवार, उमर अब्दुल्ला, फारूक अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती के बाद अब सुखबीर सिंह बादल उस सूची में सम्मिलित हो गए हैं जो प्रधानमंत्री मोदी की ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के समय में निभाई गई भूमिका को सराहनीय करार दे रहे हैं। एआईएआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने तो अपनी देशभक्ति के प्रदर्शन में इन सभी नेताओं को पीछे छोड़ दिया है। उनके वक्तव्य और भाषणों से स्पष्ट हो रहा है कि वह वास्तव में इस समय श्री मोदी को राष्ट्रीय नेता मान चुके हैं। जब राहुल गांधी अपनी परंपरागत राजनीति का परिचय देते हुए जनता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का असफल प्रयास कर रहे हैं, तभी इन नेताओं का उनके साथ खड़ा न होना उनके लिए एक नई समस्या खड़ी कर रहा है। यद्यपि वह लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के रूप में सारे विपक्ष को अपने साथ दिखाने का प्रयास करते हैं परंतु दुर्भाग्य यह है कि उनका अपना घर अर्थात कांग्रेस भी उनके साथ नहीं है। केंद्र सरकार ने जब पहलगाम हमले को लेकर सर्वदलीय बैठक बुलाई थी तो शिवसेना और कांग्रेस ने उस बैठक में प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति पर अपना तीखा विरोध व्यक्त किया था। उस समय कांग्रेस के आचरण को लेकर समाचार पत्रों में उसकी आलोचना हुई थी। इस समय कांग्रेस के नेता अजय राय ने राफेल पर नींबू मिर्च लगाकर प्रधानमंत्री पर व्यंग्य कसने का
कुत्सित ढंग खोज निकाला। कांग्रेस की ओर से इंटेलिजेंस के असफल होने की बात उठाई गई तो शशि थरूर ने इस पर मरहम लगाते हुए कहा कि ऐसा किसी भी देश में हो सकता है। वास्तव में शशि थरूर जो कुछ कह रहे थे, वह सच्चाई के अधिक निकट था। पर्याप्त सावधानियां बरतने के उपरांत भी इंटेलिजेंस फैलियर की संभावना बनी रहती है। जब सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति पर सवाल उठाए गए तो जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कांफ्रेंस के बड़े नेता फारूक अब्दुल्ला ने विपक्ष की उस मिसाइल को भी निशाने पर पहुंचने से पहले ही ध्वस्त कर दिया। उन्होंने कहा कि जब हमने प्रधानमंत्री को इस समय अपना समर्थन दे ही दिया है तो इस प्रकार के सवाल उठाने निरर्थक है। जनता में देशभक्ति के ज्वार को देखते हुए कांग्रेस के नेता अजय राय के साथ पार्टी का कोई नेता खड़ा हुआ दिखाई नहीं दिया। सब मैदान छोड़कर भाग गए । कुछ देर बाद अजय राय ने देखा कि उनके साथ कहीं कोई दूर-दूर तक भी नहीं खड़ा है तो वह स्वयं ही अपनी मूर्खता पर प्रायश्चित करने लगे। छोटी हरकत छोटी सोच से जन्म लेती है, जो व्यक्ति को और उसके कद को छोटा करती है। जो दूसरों पर व्यंग्य करते हैं, वह स्वयं ही मजाक का पात्र बन जाते हैं।
ऑपरेशन सिंदूर के बाद जिस प्रकार सारे विश्व में भारत के सम्मान में वृद्धि हुई है ,उसके दृष्टिगत भारत की सारी राजनीति को अपनी अंतर समीक्षा करनी चाहिए थी। विशेष रूप से विपक्ष को यह देखना चाहिए था कि जब सारा संसार भारत का कीर्तिगान कर रहा हो, तब हम अपने निजी और घरेलू मतभेदों को प्रकट न होने दें। परंतु इन लोगों ने अपनी तुच्छ मानसिकता का प्रदर्शन करते हुए भारत के यशोगान के क्षणों को अनजाने में ही मोदी का यशोगान बना दिया। यदि देश के विपक्ष के नेता विशेष रूप से राहुल गांधी थोड़ी देर धैर्य का परिचय देते तो इस समय जितना विदेश में भारत का कीर्ति दान हो रहा था उसे सब के दिए राहुल गांधी भी प्रशंसा का पात्र बन जाते ।
तब भारत के कीर्तिगान की यह माला अकेले प्रधानमंत्री श्री मोदी के गले में न पड़ती बल्कि यह भारत की सारी राजनीति के गले में पड़ती , जिसके केंद्र में राहुल गांधी भी खड़े होते।
छोटी सोच बड़ी उपलब्धियां से व्यक्ति को वंचित कर देती है, यह हमने राहुल गांधी एंड ब्रिगेड के प्रधानमंत्री श्री मोदी की टांग खींचनेकी वर्तमान राजनीति के फलितार्थ के रूप में देखा है।

डॉ राकेश कुमार आर्य

युद्ध विराम के फलादेश  

विजय सहगल              

11 मई 2025 को भारत पाकिस्तान के बीच चल रहे युद्ध के बीच, दोनों देशों के  मिलिट्री ऑपरेशन के महानिदेशकों के बीच जैसे ही संघर्ष विराम पर सहमति बनी, भारत  के राजनैतिक क्षितिज पर बैठे राजनैतिक दलों के महारथियों के चेहरों पर अचानक से बने इस घटनाक्रम पर निस्तब्धता छा गयी यद्यपि  इसी  दिन शाम 5 बजे से लागू  किये  गये  संघर्ष विराम को पाकिस्तान की सेना ने एक बार फिर तोड़ कर अपने झूठे और अविश्वासनीय चरित्र को उजागर कर दिया।

पाकिस्तान के डीजीएमओ के आग्रह और अनुरोध पर भारत-और पाकिस्तान के बीच अचानक युद्ध विराम के समाचार से भारत के विपक्षी दलों के कुछ छूट भैये नेताओं की नींद उड़ा दी। दोनों देशों के डीजीएमओ की युद्ध विराम की घोषणा के कुछ समय पूर्व, अमेरिका के राष्ट्रपति के उस ट्वीट ने आग मे घी का काम किया जिसमे उन्होने भारत पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम कराने मे अपनी भूमिका का जिक्र करते हुए अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने की चेष्टा की। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के ट्वीट के तथ्यों को जाने विना कॉंग्रेस और अन्य दलों के प्रवक्ताओं ने भारत और पाकिस्तान के बीच अमेरिका जैसे किसी तीसरे पक्ष को शामिल करने की भारत की नीति पर प्रधान मंत्री मोदी से  सवालों की झड़ी लगाते हुए संसद के विशेष सत्र बुलाने की मांग कर दी।

अमेरिका के राष्ट्रपति के बड़बोलेपन से दुनियाँ के सारे देश बखूबी परिचित हैं जो कभी कनाडा और  कभी पनामा नहर पर अमेरिका के कब्जे की चर्चा के लिए पहले से ही प्रसिद्ध थे। वे भारत और कश्मीर समस्या को हजारों साल से चली आ रही समस्या बता कर पहले ही अपनी जग हँसाई करवा चुके हैं। जब सोश्ल मीडिया पर ऊलजलूल टिप्पड़ी के लिये, किसी गली छाप आदमी को नहीं रोका जा सकता हैं तो कोई, अमेरिका के राष्ट्रपति को ट्वीटर पर भारत-पाकिस्तान के युद्ध विराम संधि का उल्लेख करने से कैसे रोक सकता हैं? ये विचारणीय प्रश्न है? अमेरिका के राष्ट्रपति के अपेक्षा हमे भारतीय सेना के  अपने डीजीएमओ के कथन पर विश्वास करना चाहिये, इसलिये विपक्षी दलों का प्रधानमंत्री मोदी पर, कश्मीर मसले पर किसी तीसरे देश के हस्तक्षेप का आरोप लगाना न्यायोचित नहीं है।

कुछ राजनैतिक दलों को पाकिस्तान के विरुद्ध इस युद्ध मे कुछ बड़ा करने की मोदी से अपेक्षा थी? जैसे मोदी ने, पीओके को अपने कब्जे  मे क्यों नहीं लिया? ये वही लोग हैं जिन्होने भारत की स्वतन्त्रता के बाद उन नेताओं  से आज तक  कभी ये नहीं पूंछा कि कश्मीर को पाकिस्तान के कब्जे मे दिया क्यों? और जहाँ तक बात रही कुछ बड़ा करने की, क्या पाकिस्तान मे स्थित नौ आतंकी ठिकानों जिनमे जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैबा और हिज़्बुल मुजाहिद्दीन के हेडक्वार्टर और बड़े प्रशिक्षण केंद्र शामिल थे, पर मिसाइल, राकेटों और बमों से हमला कर सैकड़ों अंतंकवादियों को मार कर उन अड्डों को मिट्टी मे मिलाकर  नेस्तनाबूद कर दिया हो, वह कुछ बड़ा करने से कम था? 6-7 मई की देर रात मे इन आतंकी संगठनों के, भारत मे मोस्ट वांटेड आतंकी हाफिज़ मुहम्मद जमील, मोहम्मद युसुफ अज़हर मुहम्मद हसन खान, मुदस्सार खादियान और अबु अक्शा, अब्दुल राऊफ   भी मारे गये।

प्रधानमंत्री मोदी ने अपने इस कथन को सच कर दिखाया कि आतंकवादियों के खात्मे के लिये भारत घर मे घुसकर, चुन चुन कर मिट्टी मे मिला देगा। इन आतंकियों के जनाजे मे पाकिस्तानी फौज के बड़े बड़े अफसरों और नेताओं के  शामिल होने पर देश और दुनियाँ ने एक बार फिर देखा कि, धूर्त पाकिस्तान की सेना ही दरअसल आतंकवादियों को खाद, पानी देकर पालने  पोषने जैसे अनैतिक कार्यों मे संलिप्त हैं और पाकिस्तान सेना का सेना प्रमुख स्वयं जनरल मुनीर आतंकवादी मदरसों मे पला बढ़ा जिहादी सोच वाला मौलवी हैं।  ये पाकिस्तान नहीं बल्कि आतंकिस्तान का गढ़ है जिसका उन्मूलन अवश्य संभावी है?   

हमने अपने अभेद्य  सुरक्षा तंत्र एस400 के कारण, बिना किसी बड़ी मानवीय क्षति और हवाई अड्डों पर एक भी खरोंच आए बिना पाकिस्तान की 600 से भी ज्यादा मिसाइल हमलों, रॉकेट और ड्रोन हमलों को पूरी तरह नाकाम कर दिया, पाकिस्तान की हवाई हमला रोधी सिस्टम को नष्ट कर उनके अनेकों हवाई अड्डो के  बुनियादी स्वरूप को नष्ट-भ्रष्ट करना क्या किसी बड़ी कार्यवाही से कम हैं? हमे याद रखना होगा कि भारत का मकसद सिर्फ पाकिस्तान मे पल रहे आतंकियों और उनके आतंकी अड्डों का समूल नाश करना था!! भारत का उद्देश्य पाकिस्तानी सेना या उनके नागरिकों को नुकसान पहुंचाना नहीं था। भारतीय सशस्त्र सेना अपने लक्ष्यों को भेदने मे पूरी तरह कामयाब रही, भारतीय सेनाओं के शौर्य और पराक्रम की जितनी भी प्रशंसा की जाय, कम होगी। भारतीय सेना की थल, जल और नभ सेनाओं का आपसी सहयोग और समंजस्य अकल्पनीय और अद्भुद था, उनकी  शूरवीरता, साहस और पराक्रम का कहीं कोई मुक़ाबला नहीं हो सकता पर एक बात का उल्लेख करना यहाँ लाज़मी हैं कि हमारी सुदृढ़ सेना के पीछे देश की दृढ़ राजनैतिक इच्छा शक्ति को भी नहीं नकारा जा सकता जिसने पहली बार दुश्मन के हरेक अपवित्र, अशुद्ध और अवांछनीय  इरादों को पूरी क्षमता और ताकत के साथ मुँह तोड़ जवाब देने की खुली छूट जो दी थी।

12 मई 2025 को रात्रि 8 बजे भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान सहित सारी दुनियाँ को राष्ट्र के नाम अपने सम्बोधन मे बड़े  दृढ़ और स्पष्ट तरीके से संदेश दे कर कहा कि आतंकवाद और उसके सरपरस्त पाकिस्तान के खिलाफ कार्यवाही केवल स्थगित हुई है। ऑपरेशन सिंदूर अभी भी जारी है। पाकिस्तान ने भारत पर हमला करने का जो दुस्साहस किया, उसका जवाब पाकिस्तान के सीने पर वार कर दिया गया। पाकिस्तान के गुहार लगाने पर ही संघर्ष विराम हुआ। उन्होने स्पष्ट लेकिन कठोर शब्दों मे कहा कि आतंक और व्यापार, आतंक और बातचीत  एक साथ नहीं चल सकते। उन्होने 19 अप्रैल 1960 को भारत और पाकिस्तान के बीच हुए सिंधु जल संधि के संदर्भ मे कहा कि, “पानी और खून भी एक साथ नहीं बह सकते”। विदित हो कि 22 अप्रैल 2025 को पहलगाँव मे 26 पर्यटकों की आतंकी हमले मे हत्या के बाद भारत ने 24 अप्रैल 2025 को स्वतंत्र भारत के  इतिहास मे पहली बार सिंधु जल संधि को निलंबित किया गया।

प्रधानमंत्री ने ऑपरेशन सिंदूर पर देश के सभी राजनैतिक दलों की एकजुटता का विशेष उल्लेख करते हुए न्यूक्लियर ब्लैकमेल सहन न करने और आतंकियों और उनके आकाओं को अलग अलग न देखने की अपनी  प्रतिबद्धता को  दोहराया फिर भले ही उनके साथ पाकिस्तानी सेना क्यों न हो। उन्होने पाकिस्तानी सेना और अंतकवादियों को चेतावनी देते हुए कहा कि उन्होने भारतीय सेना के शौर्य और पराक्रम को देखा वे अच्छी तरह जान गये हैं कि पाकिस्तान मे कोई भी जगह अब ऐसी नहीं है जहाँ आतंकवादी चैन की सांस ले सके, जरूरत पड़ने पर हम फिर इन आतंकवादियों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही करेंगे। प्रधानमंत्री ने तीनों सेनाओं को सैल्यूट करते हुए उनकी प्रशंसा की और कहा कि मेड इन इंडिया हथियारों ने खुद को साबित किया है, जिन्हे सारी दुनियाँ देख रही है। उन्होने आतंकवाद के विरुद्ध एक जुटता दिखाते हुए दोहराया बेशक यह युग युद्ध का नहीं है लेकिन यह युग आतंकवाद का भी नहीं है। आतंकवाद के खिलाफ अपनी  ज़ीरो टोलरेन्स की नीति की भी याद दिलायी।

6-7 मई को आतंकवाद के विरुद्ध शुरू किये गए ऑपरेशन सिंदूर के माध्यम से आतंकवादियों और उनके पराश्रय देने वाले मार्गदर्शकों के अड्डों की तवाही इस बात के स्पष्ट संदेश थी कि अब  पाकिस्तान और उसकी सेना यदि ऐसा दुस्साहस दुबारा करेंगे तो भारतीय सशस्त्र बल और सेनाएँ किसी भी हद तक जाकर पाकिस्तान को इससे भी करारा जबाव देंगी । इस बार तो पाकिस्तान की मिलिट्री के डीजीएमओ की गिड़गिड़ाहट को भारतीय सेना ने सुन लिया, पर दुबारा शायद पाकिस्तान अपने बाजूद को खो कर गिड़गिड़ाने लायक भी न रहे।

विजय सहगल 

क्या सुप्रीम कोर्ट के नहले पर राष्ट्रपति के दहले से निकल पाएगा कोई सर्वमान्य हल


कमलेश पांडेय

भारत में विधायिका-कार्यपालिका बनाम न्यायपालिका का टकराव अब कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की ओर से तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा विधेयक पर फैसला लेने की समयसीमा तय किए जाने पर पहले तो उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ द्वारा कोर्ट के फैसले पर आपत्ति जताई गई, वहीं अब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कतिपय महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं, जिनका जवाब सर्वोच्च न्यायालय को देना चाहिए। बता दें कि समयसीमा तय किए जाने पर राष्ट्रपति ने सवाल उठाते हुए दो टूक शब्दों में कहा है कि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है! इसलिए सुलगता हुआ सवाल है कि जब कोई प्रावधान ही नहीं है तब इतना बड़ा न्यायिक अतिरेक कैसे सामने आया जिससे भारत की कार्यपालिका और विधायिका में भूचाल आ गया।


बता दें कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने गत 8 अप्रैल 2025 को दिए गए सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर दर्जनाधिक नीतिगत सवाल उठाए हैं क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल मामले में आदेश दिया था कि राज्यपालों और राष्ट्रपति को एक तय समय में उनके समक्ष पेश विधेयकों पर फैसला लेना होगा। याद दिला दें कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर काफी हंगामा हुआ था, जो अब भी विभागीय शीत युद्ध के रूप में जारी है। इसी का परिणाम है कि अब राष्ट्रपति ने इस पर आपत्ति जताई है और साफ साफ कहा है कि जब देश के संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, तो फिर सुप्रीम कोर्ट किस आधार पर यह फैसला दे सकता है।


उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से राज्यपाल की शक्तियों, न्यायिक दखल और समयसीमा तय करने जैसे विषयों पर स्पष्टीकरण मांगा है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल मामले में दिए अपने फैसले में स्पष्ट कहा था कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है। राज्यपाल की ओर से भेजे गए विधेयक पर राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर फैसला लेना होगा। अगर तय समयसीमा में फैसला नहीं लिया जाता तो राष्ट्रपति को राज्य को इसकी वाजिब वजह बतानी होगी। यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा था कि राष्ट्रपति किसी विधेयक को पुनर्विचार के लिए राज्य विधानसभा के पास वापस भेज सकते हैं। वहीं यदि विधानसभा उस विधेयक को फिर से पारित करती है तो राष्ट्रपति को उस पर अंतिम फैसला लेना होगा।


सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा था कि अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के फैसले की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। अगर राज्यपाल ने मंत्रिपरिषद की सलाह के खिलाफ जाकर फैसला लिया है तो सुप्रीम कोर्ट के पास उस विधेयक को कानूनी रूप से जांचने का अधिकार होगा। यही वजह है कि राष्ट्रपति श्रीमती मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से पूछे 14 सवाल पूछे हैं, जो इस प्रकार हैं- पहला, राज्यपाल के समक्ष अगर कोई विधेयक पेश किया जाता है तो संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत उनके पास क्या विकल्प हैं? दूसरा, क्या राज्यपाल इन विकल्पों पर विचार करते समय मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं? 

तीसरा, क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा लिए गए फैसले की न्यायिक समीक्षा हो सकती है? चतुर्थ, क्या अनुच्छेद 361 राज्यपाल द्वारा अनुच्छेद 200 के तहत लिए गए फैसलों पर न्यायिक समीक्षा को पूरी तरह से रोक सकता है? पांचवां, क्या अदालतें राज्यपाल द्वारा अनुच्छेद 200 के तहत लिए गए फैसलों की समयसीमा तय कर सकती हैं, जबकि संविधान में ऐसी कोई समयसीमा तय नहीं की गई है? छठा,  क्या अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा लिए गए फैसले की समीक्षा हो सकती है? सातवाँ, क्या अदालतें अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा फैसला लेने की समयसीमा तय कर सकती हैं? 

आठवां, अगर राज्यपाल ने विधेयक को फैसले के लिए सुरक्षित रख लिया है तो क्या अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट को सुप्रीम कोर्ट की सलाह लेनी चाहिए? नवम, क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा क्रमशः अनुच्छेद 200 और 201 के तहत लिए गए फैसलों पर अदालतें लागू होने से पहले सुनवाई कर सकती हैं। दशम, क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 के द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों में बदलाव कर सकता है? ग्यारह, क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की मंजूरी के बिना राज्य सरकार कानून लागू कर सकती है? 

बारह, क्या सुप्रीम कोर्ट की कोई पीठ अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान की व्याख्या से जुड़े मामलों को सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच को भेजने पर फैसला कर सकती है? तेरह, क्या सुप्रीम कोर्ट ऐसे निर्देश/आदेश दे सकता है जो संविधान या वर्तमान कानूनों मेल न खाता हो? चौदह, क्या अनुच्छेद 131 के तहत संविधान इसकी इजाजत देता है कि केंद्र और राज्य सरकार के बीच विवाद सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ही सुलझा सकता है?

दरअसल, ये ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब देने में सुप्रीम कोर्ट को काफी माथापच्ची करनी होगी क्योंकि ये सवाल उसी नौकरशाही द्वारा तैयार किये गए होंगे, जिसका परोक्ष शिकंजा खुद कोर्ट भी महसूस करता आया है और इससे निकलने के लिए कई बार अपनी छटपटाहट भी नहीं छिपा पाता है। इसलिए सुप्रीम जवाब का इंतजार अब नागरिकों और सरकार दोनों को है, ताकि एक और ‘लीगल पोस्टमार्टम’ किया जा  सके। इसलिए लोगों के जेहन में यह बात उठ रही है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के नहले पर राष्ट्रपति के दहले से निकल पाएगा कोई सर्वमान्य हल?

कमलेश पांडेय

चलती चिता बनती बसें: निजी परिवहन की अंधी दौड़ और बेबस यात्रियों की चीखें


अशोक कुमार झा


15 मई 2025 की वह सुबह लखनऊ के लिए एक और मनहूस सुबह बनकर आई, जब बिहार के बेगूसराय से दिल्ली की ओर जा रही एक प्राइवेट स्लीपर बस (संख्या: UP17 AT 6372) लखनऊ के मोहनलालगंज क्षेत्र में किसान पथ पर आग का गोला बन गई। इस भीषण हादसे में पांच निर्दोष यात्रियों की ज़िंदा जलकर मौत हो गई – जिनमें दो बच्चे, दो महिलाएं और एक पुरुष शामिल थे। जिस बस में सपनों की यात्रा शुरू हुई थी, वह कुछ ही क्षणों में चलते-चलते श्मशान बन गई।
एक किलोमीटर तक जलती रही बसभाग गए चालक और परिचालक
घटना के चश्मदीद बताते हैं कि बस में आग लगने के बावजूद वह करीब एक किलोमीटर तक दौड़ती रही, जिससे आग की लपटें और विकराल हो गईं। चालक और कंडक्टर बस रोकने की जगह मौके से भाग निकले, यात्रियों को उनकी किस्मत पर छोड़कर। जब तक दमकल की गाड़ियाँ पहुंचतीं, तब तक आग अपने चरम पर थी। बस की खिड़कियों के शीशे तोड़कर स्थानीय लोगों और पुलिस ने किसी तरह 80 यात्रियों में से अधिकांश को बचाया, लेकिन पाँच लोगों को बचाया न जा सका।


विफल होती प्रणाली और सुरक्षा का मज़ाक
यह हादसा कोई अकेली घटना नहीं है। पिछले एक दशक में स्लीपर बसों में आग लगने की सैकड़ों घटनाएं सामने आ चुकी हैं, जिनमें सैकड़ों जानें जा चुकी हैं। सवाल यह है कि इन घटनाओं से हमने क्या सीखा? क्या बसों में फायर अलार्म, अग्निशमन यंत्र और आपातकालीन निकास जैसे मानकों का पालन किया जाता है? कड़वा सच यह है कि नहीं।
निजी बस ऑपरेटर सिर्फ मुनाफे की दौड़ में लगे हैं। वे ओवरलोडिंग करते हैं, वाहनों की नियमित जांच नहीं कराते, और ड्राइवरों की ट्रेनिंग या अनुभव की भी अनदेखी करते हैं। ऐसे में यह पूछना लाज़िमी है: क्या हमारी ज़िंदगियाँ 700 रुपये के बस टिकट से भी सस्ती हैं?


प्रशासनिक निष्क्रियता: क्या सिर्फ मुआवज़े से भर जाएगा यह खालीपन?
हादसे के बाद प्रशासन हर बार की तरह मुआवज़े की घोषणा करता है। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी मृतकों के परिजनों को 5 लाख और घायलों को 50 हजार रुपये देने की घोषणा की है। लेकिन क्या यह पर्याप्त है? मुआवज़े का अर्थ न्याय नहीं होता।
हमें यह सोचना होगा कि जिनकी लापरवाही से यह हादसा हुआ, वे क्या सिर्फ फरार होकर बच जाएंगे? क्या परिवहन विभाग की भूमिका केवल नंबर प्लेट और रजिस्ट्रेशन तक सीमित रह गई है? जब बसों की फिटनेस रिपोर्टें महज़ ‘फॉर्मेलिटी’ बन जाएं और सुरक्षा निरीक्षण कागज़ों तक सीमित रह जाए, तो हादसे टलेंगे कैसे?


यात्रा नहींयंत्रणा बनती हैं ये रातें
स्लीपर बसों का चलन पिछले कुछ वर्षों में तेज़ी से बढ़ा है, खासकर उन रूट्स पर जहाँ रेल सेवाएँ सीमित हैं लेकिन यही सुविधा, असंगठित और लापरवाह संचालन के कारण मौत का पर्याय बनती जा रही है। बंद खिड़कियों, पतली गलियों और ऊपरी बर्थ में फंसे यात्री किसी भी आपातकाल में सबसे पहले शिकार बनते हैं। और जब आग लगती है, तो यह बस नहीं जलती – इंसानी चीखें, परिवारों की उम्मीदें और ज़िंदगी की संपूर्णता राख में बदल जाती हैं।
आगे क्या?
इस भयावहता को दोहरने से रोकने के लिए सिर्फ संवेदना और सांत्वना नहीं, संकल्प और सख्ती की ज़रूरत है। कुछ जरूरी कदम जो हमें तुरंत उठाए जाने चाहिए:

1.  सभी बसों में फायर डिटेक्शन और सप्रेसन सिस्टम अनिवार्य हों।

2.  निजी ऑपरेटरों के परमिट की समय-समय पर समीक्षा और निरीक्षण।

3.  ड्राइवरों और कंडक्टर्स का मेडिकल और तकनीकी प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाए।

4.  हर यात्री बस में GPS आधारित इमरजेंसी बटन और CCTV अनिवार्य हों।

5.  प्रत्येक हादसे में सिर्फ ड्राइवर नहींकंपनी प्रबंधन भी उत्तरदायी ठहराया जाए।

व्यवस्था को अब जगना होगा
हर हादसा हमें कुछ सिखाने आता है – बशर्ते हम सीखने को तैयार हों। लखनऊ की इस घटना में पाँच निर्दोष जानें गई हैं, लेकिन यह आंकड़ा नहीं है। ये पाँच परिवार हैं, पाँच भविष्य, पाँच अधूरी कहानियाँ।
जरूरत इस बात की है कि हम इस हादसे को सिर्फ एक खबर बनाकर न छोड़ें। इसे एक नया मोड़ बनाएं – जहाँ से सड़क सुरक्षा, यात्री सम्मान और प्रशासनिक जवाबदेही की दिशा तय हो।
इस बार सिर्फ मोमबत्तियाँ न जलाएं, व्यवस्था की आंखें खोलें।

अशोक कुमार झा

सीजफायर पर रजामंदी, जारी  आर्थिक “मोर्चाबंदी”, पाक के लिए भारतीय बंदरगाह एवं एयर स्पेस बंद

प्रदीप कुमार वर्मा

कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद भारत में आतंकवाद पर कड़े प्रहार के लिए “ऑपरेशन सिंदूर” चला कर आतंकी तथा उनके आकाओं को करारा जवाब दिया है। इसके बाद भारत और पाकिस्तान के बीच छिड़े अघोषित युद्ध के बाद तीन दिन में ही दोनों देशों के बीच सीजफायर पर रजामंदी हो गई है लेकिन भारत ने आतंकवादी गतिविधियों की साजिश एवं साथ देने के चलते पाकिस्तान के विरुद्ध की गई प्रभावी आर्थिक “मोर्चाबंदी” अभी जारी है। भारत द्वारा पाकिस्तान  से आयात तो निर्यात पर लगाई रोक जारी है। वहीं, भारत के एयर स्पेस और भारत के बंदरगाहों पर पाकिस्तान के जलपोतों पर भी लगाई गई पाबंदी भी फिलहाल लागू है। इसके बाद पहले से ही आर्थिक संकट जल रहे पाकिस्तान में अब आर्थिक हालत ज्यादा खराब होने तय हैं। यही नहीं, भारत के आवाम ने पाकिस्तान का सहयोग देने वाले तुर्कीए और अजरबैजान के विरुद्ध भी आर्थिम मोर्चा खोल दिया है।

      भारत और पाकिस्तान के बीच वैसे व्यापार बहुत ज्यादा नहीं है। साल 2019 में हुए पुलवामा हमले के बाद इसमें और कमी आई थी। दोनों देशों ने एक-दूसरे के साथ व्यापार को लेकर कई बैन लगाए लेकिन कुछ आवश्यक वस्तुओं का लेन-देन दोनों देशों के बीच होता रहता है। यह ज्यादातर तीसरे देशों जैसे दुबई या सिंगापुर के रास्ते होता है। बताते चलें कि साल 2023-24 में भारत ने पाकिस्तान से 3 मिलियन डॉलर का आयात किया था जबकि 1.2 अरब डॉलर का निर्यात किया था। साल 2024 में भारत और पाकिस्तान के बीच व्यापार 127 फीसदी की बंपर बढ़ोतरी के साथ 1.2 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया था।  भारत पाकिस्तान से कई चीजें आयात करता है। इसमें ड्राई फ्रूट्स, तरबूज और अन्य फल, सीमेंट, सेंधा नमक, पत्थर, चूना, मुल्तानी मिट्टी, चश्मों का ऑप्टिकल्स, कॉटन, स्टील, कार्बनिक केमिकल्स, चमड़े का सामान आदि शामिल हैं।

       पाकिस्तान से आयात बैन होने के कारण अब वहां से न तो ड्राई फ्रूट्स आएंगे और न सेंधा नमक। भारत में सेंधा नमक का इस्तेमाल व्रत के समय काफी मात्रा में किया जाता है। भारत भी पाकिस्तान को कई चीजें एक्सपोर्ट करता है। इसमें जैविक और अजैविक केमिकल, दवाइयां, कृषि उत्पाद, कपास और सूती धागा, चीनी, मिठाइयां, प्लास्टिक, मशीनरी आदि शामिल हैं। दोनों देशों के बीच व्यापार पर बैन लगने के कारण अब भारत पाकिस्तान को न तो दवाइयां भेज पाएगा और न ही चीनी। भारत और पाकिस्तान के बीच सबसे ज्यादा व्यापार अटारी और बाघा बॉर्डर के  जरिए होता है। पहलगाम पर हुए आतंकी हमले का बदला लेने के लिए उठाए गए कदमों में भारत द्वारा इस बार्डर को बंद कर दिया गया है। इसके साथ ही भारत ने पाकिस्तानी झंडे वाले शिप की देश में एंट्री पर भी बैन लगाया है। इसके बाद समुद्री रास्ते से व्यापार बंद है।

       भारत सरकार द्वारा पाकिस्तान से आने वाले किसी भी प्रकार के डाक और पार्सल सेवाओं पर लगाई रोक जारी है। पहलगाम हमले के बाद में  भारत ने पाकिस्तान के लिए अपना एयरस्पेस बंद कर रखा है। पाकिस्तान का साथ देने वाले तुरकिए और अजरबैजान के विरुद्ध भी भारतीयों ने अब “आर्थिक मोर्चाबंदी” शुरू कर दी है। सोशल मीडिया  पर बीते तीन चार दिन से बायकॉट तुर्कीए एंड अजरबैजान ट्रेंड कर रहा है। भारत के लोगों के गुस्से का आलम यह है कि भारतीयों ने अपनी तुरकिए की यात्रा रद्द कर दी है। भारतीयों में तुर्कीए के खिलाफ आक्रोश सिर्फ यात्रा तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि भारत का हर वर्ग अब तुर्कीए को इसकी सजा देने को तैयार है। देश के व्यापारियों ने भी तुर्कीए के सामानों के आयात से मनाही कर दी है। इसमें तुर्की से सेब, ग्रेनाइट मार्बल समेत अन्य सामान खरीदने बंद कर दिए हैं। वहीं, आम लोगों ने भी तुर्कीए और अजरबैजान घूमने के लिए किए टिकट कैंसिल करवा दिए हैं।

        भारत-पाकिस्तान में तनाव के बीच भारतीय व्यापारियों में तुर्किये के रुख को लेकर नाराजगी है। राजस्थान, दिल्ली, यूपी से लेकर महाराष्ट्र तक व्यापारियों ने तुर्किये के सामान का विरोध किया है।

भारत का मार्बल हब कहे जाने वाले उदयपुर के व्यापारियों ने एक आपात बैठक बुलाकर तुरकिए से मार्बल का आयात बंद करने का फैसला किया है। वहीं, पुणे के व्यापारियों ने भी अब तुर्कीए से सेब की खरीद नहीं करने का ऐलान किया है। व्यापारियों का कहना है कि तुर्किए ने भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष के दौरान पाकिस्तान को ड्रोन भेजे। इन्हीं ड्रोन्स से पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया। इसलिए भारत विरोधी रुक अपनाने वाले तुर्किए से कोई व्यापार नहीं किया जाएगा।  उधर,भारत-पाकिस्तान तनाव के बीच जवाहर लाल यूनिवर्सिटी ने तुर्किये की इनोनू यूनिवर्सिटी के साथ करार खत्म कर दिया है। आर्थिक मामलों के जानकारों द्वारा यह माना जा रहा है कि भारतीयों के इस कदम से तुर्कीए और अजरबेजान के पर्यटन एवं उद्योग पर काफी असर पड़ सकता है।

प्रदीप कुमार वर्मा

पाकिस्तान की शर्मनाक हार और भारत की गौरवपूर्ण जीत

संदीप सृजन

पहलगाम हमले के बाद भारत की ओर से की गई सैन्य कार्रवाई  ने एक बार फिर भारत-पाकिस्तान की तरफ पूरे विश्व का ध्यान आकर्षित किया है। पहलगाम आतंकी हमले ने भारत को आक्रामक जवाबी कार्रवाई के लिए प्रेरित किया। इस हमले में पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी संगठनों का हाथ पाया गया, जिसके बाद भारत ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ शुरू किया । इस टकराव में भारत की निर्णायक जीत और पाकिस्तान की शर्मनाक हार ने न केवल क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को प्रभावित किया, बल्कि एक नाजुक युद्धविराम के माध्यम से दोनों देशों को शांति की ओर ले जाने का प्रयास भी किया।

इस ऑपरेशन के तहत भारत ने पाकिस्तान के सैन्य ठिकानों, विशेष रूप से स्कर्दू, जकोबाबाद, सरगोधा और भुलारी जैसे हवाई अड्डों पर लक्षित हमले किए। भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के हवाई रक्षा तंत्र और रडार सिस्टम को नष्ट कर दिया जिससे पाकिस्तान की सैन्य क्षमता को गंभीर नुकसान पहुंचा। इसके साथ ही, भारत ने अपनी S-400 वायु रक्षा प्रणाली का उपयोग करके पाकिस्तान के ड्रोन और मिसाइल हमलों को नाकाम कर दिया। इस कार्रवाई ने न केवल भारत की सैन्य ताकत को प्रदर्शित किया, बल्कि पाकिस्तान की रणनीतिक कमजोरियों को भी उजागर किया।

‘ऑपरेशन सिंदूर’ भारत की सैन्य रणनीति का एक उत्कृष्ट उदाहरण था। इस ऑपरेशन में भारतीय सेना ने न केवल पाकिस्तान के सैन्य ठिकानों को निशाना बनाया बल्कि उनकी वायु रक्षा प्रणाली को भी ध्वस्त कर दिया। भारत ने लाहौर, सियालकोट, फैसलाबाद और मुल्तान जैसे शहरों में पाकिस्तान के रक्षा तंत्र को नष्ट किया, जिससे उनकी जवाबी कार्रवाई की क्षमता लगभग समाप्त हो गई। रहीम यार खान में हवाई अड्डे का रनवे भी भारतीय मिसाइल हमलों से क्षतिग्रस्त हो गया जिसने पाकिस्तान की वायुसेना को और कमजोर कर दिया।

भारत ने अपनी ब्रह्मोस मिसाइलों और अन्य उन्नत हथियारों का उपयोग करके सटीक हमले किए। इन हमलों ने पाकिस्तान के सैन्य ढांचे को गंभीर नुकसान पहुंचाया, जबकि नागरिक क्षेत्रों को न्यूनतम क्षति हुई। पाकिस्तान के ड्रोन और मिसाइल हमलों को नाकाम करने में भारत की S-400 प्रणाली ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसने भारत की रक्षा क्षमता को मजबूत किया और पाकिस्तान के हमलों को विफल कर दिया। भारतीय खुफिया एजेंसियों ने पाकिस्तान के सैन्य ठिकानों और आतंकी लॉन्च पैड्स की सटीक जानकारी प्रदान की, जिसके आधार पर भारत ने अपने हमलों को अंजाम दिया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने न केवल सैन्य कार्रवाई की, बल्कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय को अपने पक्ष में करने के लिए प्रभावी कूटनीति का सहारा लिया। अमेरिकी राष्ट्रपति और विदेश मंत्री की मध्यस्थता में युद्धविराम की प्रक्रिया शुरू हुई, जिसमें भारत की स्थिति मजबूत रही। भारतीय सेना की बहादुरी और रणनीतिक कौशल ने न केवल पाकिस्तान को घुटने टेकने पर मजबूर किया, बल्कि भारत की क्षेत्रीय शक्ति के रूप में स्थिति को और मजबूत किया।

पाकिस्तान की इस हार ने उसकी सैन्य और रणनीतिक कमजोरियों को पूरी दुनिया के सामने ला दिया। पाकिस्तान के हवाई रक्षा तंत्र और रडार सिस्टम भारतीय हमलों के सामने पूरी तरह विफल रहे। कई सैन्य विश्लेषकों का मानना है कि पाकिस्तान ने अपनी सैन्य क्षमता को बढ़ाने के बजाय आतंकवादी संगठनों पर अधिक ध्यान केंद्रित किया, जिसका खामियाजा उसे इस युद्ध में भुगतना पड़ा। पाकिस्तान पहले से ही गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रहा था। इस युद्ध ने उसकी अर्थव्यवस्था को और कमजोर कर दिया। कुछ रिपोर्ट्स के अनुसार, पाकिस्तान ने भोजन और पानी जैसी बुनियादी जरूरतों के लिए भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय से सहायता मांगी।

पाकिस्तान ने इस संघर्ष के दौरान कई भ्रामक वीडियो और सूचनाएं फैलाईं जिनका उद्देश्य भारतीय जनता को गुमराह करना था। हालांकि, ये प्रयास असफल रहे और उल्टे पाकिस्तान की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचा। पाकिस्तान के सांसदों और पत्रकारों के बीच इस हार को लेकर गहरा असंतोष देखा गया। कुछ X पोस्ट्स में दावा किया गया कि पाकिस्तानी नेता और पत्रकार लाइव टीवी पर रो रहे थे, जो उनकी हताशा को दर्शाता है। पाकिस्तान की सेना ने बाद में स्वीकार किया कि उनके एक विमान को मामूली नुकसान हुआ था, और उन्होंने भारतीय पायलट को हिरासत में लेने की खबरों का खंडन किया। यह उनकी हार को स्वीकार करने का एक अप्रत्यक्ष तरीका था। इन कारकों ने मिलकर भारत को इस संघर्ष में एक स्पष्ट विजेता बनाया।

10 मई 2025 को शाम 5 बजे से लागू हुए युद्धविराम ने इस तनावपूर्ण स्थिति को कुछ हद तक शांत किया हालांकि पाकिस्तान ने रात में गोलीबारी करके इस युद्धविराम का उल्लंघन किया, जिसके जवाब में भारत ने सख्त चेतावनी दी कि ऐसी हरकतों को युद्ध की कार्रवाई माना जाएगा। इसके बाद, अमेरिकी मध्यस्थता के तहत दोनों देशों के डीजीएमओ (डायरेक्टर जनरल ऑफ मिलिट्री ऑपरेशंस) के बीच बातचीत हुई, जिसके परिणामस्वरूप 11 मई की सुबह सीमावर्ती क्षेत्रों में स्थिति सामान्य होने लगी। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस युद्धविराम की सराहना करते हुए कहा कि दोनों देशों के नेताओं ने बुद्धिमानी दिखाई हालांकि, भारत ने स्पष्ट किया कि भविष्य में किसी भी आतंकी हमले को युद्ध की कार्रवाई माना जाएगा, जिससे पाकिस्तान पर दबाव बना रहा। जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा, सांबा, पुंछ, जम्मू, अखनूर और राजौरी जैसे क्षेत्रों में युद्धविराम के बाद जनजीवन धीरे-धीरे सामान्य होने लगा है।

इस संघर्ष का प्रभाव केवल सैन्य और राजनीतिक क्षेत्र तक सीमित नहीं रहा। भारत में इस जीत ने राष्ट्रीय गौरव की भावना को बढ़ाया। बॉलीवुड और साउथ के सितारों जैसे जेनेलिया डी सूजा, अक्किनेनी नागार्जुन और समय रैना ने सोशल मीडिया पर भारतीय सेना की बहादुरी की सराहना की। X पर कई यूजर्स ने इस जीत को भारत की ताकत और पाकिस्तान की शर्मनाक हार के रूप में प्रचारित किया। दूसरी ओर, पाकिस्तान में इस हार ने आंतरिक असंतोष को बढ़ाया। सोशल मीडिया पर कुछ यूजर्स ने पाकिस्तानी नेतृत्व और सेना की आलोचना की, जबकि कुछ ने भारत की सैन्य शक्ति को स्वीकार किया। इस हार ने पाकिस्तान की जनता में निराशा और हताशा की भावना को जन्म दिया, जो उनकी आर्थिक और सामाजिक समस्याओं को और गहरा सकती है।

इस संघर्ष और युद्धविराम के दीर्घकालिक प्रभाव कई स्तरों पर देखे जा सकते हैं जैसे भारत की इस जीत ने दक्षिण एशिया में उसकी स्थिति को और मजबूत किया है। पाकिस्तान की सैन्य कमजोरी उजागर होने से उसकी क्षेत्रीय प्रभावशीलता कम हुई है। भारत ने स्पष्ट किया है कि वह आतंकवाद के खिलाफ शून्य सहिष्णुता की नीति अपनाएगा। यह नीति भविष्य में पाकिस्तान को और दबाव में डाल सकती है। इस हार ने पाकिस्तान के आंतरिक संकट को और गहरा दिया है। यदि पाकिस्तान अपनी सैन्य और आर्थिक नीतियों में सुधार नहीं करता, तो उसकी स्थिरता और खतरे में पड़ सकती है।.इस युद्धविराम में अमेरिका की मध्यस्थता ने वैश्विक शक्तियों की भूमिका को रेखांकित किया। भविष्य में, भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव को कम करने में अंतरराष्ट्रीय समुदाय की भूमिका और महत्वपूर्ण हो सकती है।

पहलगाम हमले के बाद हुआ भारत-पाकिस्तान सैन्य टकराव एक ऐतिहासिक घटना है, जिसने भारत की सैन्य और रणनीतिक श्रेष्ठता को प्रदर्शित किया। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के माध्यम से भारत ने न केवल पाकिस्तान के सैन्य ठिकानों को नष्ट किया, बल्कि उसकी रणनीतिक कमजोरियों को भी उजागर किया। पाकिस्तान की शर्मनाक हार ने उसके आंतरिक और बाहरी संकटों को और गहरा दिया जबकि भारत की जीत ने राष्ट्रीय गौरव और आत्मविश्वास को बढ़ाया।

संदीप सृजन