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गणि राजेन्द्र विजयः दांडी पकडे़ गुजरात के उभरते हुए ‘गांधी’

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गणि राजेन्द्र विजयजी के 51वें जन्म दिवस: 19 मई 2025 
-ललित गर्ग –

प्राचीन समय से लेकर आधुनिक समय तक अनेकों संत-मनीषियों, धर्मगुरुओं, ऋषियों ने भी अपने मूल्यवान अवदानों से भारत की आध्यात्मिक परम्परा को समृद्ध किया है, इन महापुरुषों ने धर्म के क्षेत्र में अनेक क्रांतिकारी स्वर बुलंद किए। ऐसे ही विलक्षण एवं अलौकिक संतों में एक नाम है गणि राजेन्द्र विजयजी। वे आदिवासी जनजाति के होकर भी जैन संत हैं, और जैन संत होकर भी आदिवासी जनजीवन के मसीहा संतपुरुष हैं। वे आदिवासी जनजीवन का एक उजाला है, जो पिछले पांच दशक से गुजरात के आदिवासी क्षेत्रों में उनके उन्नयन एवं उत्थान के लिये संघर्षरत हैं। 19 मई 2025 को गणिजी अपने जीवन के 51वें बसंत में प्रवेश कर रहे हैं।
डॉ. गणि राजेन्द्र विजय एक ऐसा व्यक्तित्व है जो आध्यात्मिक विकास और नैतिक उत्थान के प्रयत्न में तपकर और अधिक निखरा है। वे आदिवासी जनजीवन में शिक्षा की योजनाओं को लेकर विशेष जागरूक हैं, इसके लिये सर्वसुविधयुक्त एकलव्य आवासीय मॉडल विद्यालय का निर्माण उनके प्रयत्नों से हुआ है, वहीं कन्या शिक्षा के लिये वे ब्राह्मी सुन्दरी कन्या छात्रावास का कुशलतापूर्वक संचालन कर रहे हैं। इसी आदिवासी अंचल में जहां जीवदया की दृष्टि से गौशाला का संचालित है तो चिकित्सा और सेवा के लिये चलयमान चिकित्सालय भी अपनी उल्लेखनीय सेवाएं दे रहा है। आदिवासी किसानों को समृद्ध बनाने एवं उनके जीवन स्तर को उन्नत बनाने के लिये उन्होंने आदिवासी क्षेत्र में सुखी परिवार ग्रामोद्योग को स्थापित किया है। इनदिनों वे आदिवासी क्षेत्र में मेडिकल विश्वविद्यालय बनाने की योजना पर कार्यरत है। वे अखिल भारतीय सनातन संत समाज के संगठन में आदिवासी क्षेत्र के संतत्व का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। वे आदिवासी अधिकारों के लिये व्यापक संघर्ष कर रहे हैं, उन्हें संगठित कर रहे हैं, उनका आत्म-सम्मान जगा रहे हैं। गणि राजेन्द्र विजयजी द्वारा संचालित प्रोजेक्ट एवं सेवा कार्यों की मोटी सूची में मानवीय संवेदना की सौंधी-सौंधी महक फूट रही है। लोग गांवों से शहरों की ओर पलायन रहे हैं, लेकिन गणि राजेन्द्र विजयजी की प्रेरणा से कुछ जीवट वाले व्यक्तित्व शहरों से गांवों की ओर जा रहे हैं। मूल को पकड़ रहे हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहते थे-‘भारत की आत्मा गांवों में बसती है।’ शहरीकरण के इस युग में इन्सान भूल गया है कि वह मूलतः आया कहां से है? जिस दिन उसे पता चलता है कि वह कहां से आया है तो वह लक्ष्मी मित्तल बनकर भी लंदन से आकर, करोड़ों की गाड़ी में बैठकर अपने गाँव की कच्ची गलियों में शांति महसूस करता है। स्कूल, हॉस्पीटल व रोजगार के केन्द्र स्थापित कर सुख का अनुभव करता है।
गणि राजेन्द्र विजयजी टेढ़े-मेढ़े, उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए, संकरी-पतली पगडंडियों पर चलकर सेवा भावना से भावित जब उन गरीब आदिवासी बस्तियों तक पहुंचते हैं तब उन्हें पता चलता है कि गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीने के मायने क्या-क्या हैं? कहीं भूख मिटाने के लिए दो जून की रोटी जुटाना सपना है, तो कहीं सर्दी, गर्मी और बरसात में सिर छुपाने के लिए झौपड़ी की जगह केवल नीली छतरी (आकाश) का घर उनका अपना है। कहीं दो औरतों के बीच बंटी हुई एक ही साड़ी से बारी-बारी तन ढ़क कर औरत अपनी लाज बचाती है तो कहीं बीमारी की हालत में इलाज न होने पर जिंदगी मौत की ओर सरकती जाती है। कहीं जवान विधवा के पास दो बच्चों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी तो है पर कमाई का साधन न होने से जिल्लत की जिंदगी जीने को मजबूर होती है, तो कहीं सिर पर मर्द का साया होते हुए भी शराब व दुर्व्यसनों के शिकारी पति से बेवजह पीटी जाती हैं इसलिए परिवार के भरण-पोषण के लिए मजबूरन सरकार के कानून को नजरंदाज करते हुए बाल श्रमिकों की संख्या चोरी छिपे बढ़ती ही जा रही है। कहीं कंठों में प्यास है पर पीने के लिए पानी नहीं, कहीं उपजाऊ खेत है पर बोने के लिए बीज नहीं, कहीं बच्चों में शिक्षा पाने की ललक है पर माँ-बाप के पास फीस के पैसे नहीं, कहीं प्रतिभा है पर उसके पनपने के लिए प्लेटफॉर्म नहीं।
कैसी विडंबना है कि ऐसे आदिवासी गांवों में न सरकारी सहायता पहुंच पाती है न मानवीय संवेदना। अक्सर गांवों में बच्चे दुर्घटनाओं के शिकार होते ही रहते हैं पर उनका जीना और मरना राम भरोसे रहता है, पुकार किससे करें? माना कि हम किसी के भाग्य में आमूलचूल परिवर्तन ला सकें, यह संभव नहीं। पर हमारी भावनाओं में सेवा व सहयोग की नमी हो और करुणा का रस हो तो निश्चित ही कुछ परिवर्तन घटित हो सकता है। लेकिन अब आदिवासी जन-जीवन की तस्वीर बदल रही है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसके लिये अनेक योजनाओं को लेकर सक्रिय है। उनको गणि राजेन्द्र विजयजी जैसे परोपकारी एवं समाज-निर्माता संतों पर भरोसा है। तभी वे अक्सर सार्वजनिक मंचों एवं कार्यक्रमों में गणिजी को याद करते हैं। कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी ने गुजरात में 4400 करोड़ की परियोजनाओं का शुभारंभ करते हुए ऑनलाइन कांवट की आदिवासी महिलाओं से बात करते हुए गणि राजेन्द्र विजय को जिस स्नेह और आत्मीयता के साथ याद किया, वह दृश्य पूरे देश ने देखा और उनकी सेवाओं को महसूस किया। इसी तरह पूर्व लोकसभा चुनावी सभाओं में भी मोदी ने गणि राजेन्द्र विजयजी के द्वारा आदिवासी क्षेत्र में किये जा रहे कार्यों का उल्लेख किया। मोदी द्वारा इस तरह से इस पुण्य पुरुष को याद करना हमें उनके गौरव और अस्तित्व का अहसास कराता है।
गणि राजेन्द्र विजयजी अपने इन्हीं व्यापक उपक्रमों की सफलता के लिये वे कठोर साधना करते हैं और अपने शरीर को तपाते हैं। अपनी पदयात्राओं में आदिवासी के साथ-साथ आम लोगों के बीच शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कार-निर्माण, नशा मुक्ति एवं रूढ़ि उन्मूलन की अलख जगा रहे हैं। इन यात्राओं का उद्देश्य है शिक्षा एवं पढ़ने की रूचि जागृत करने के साथ-साथ आदिवासी जनजीवन के मन में अहिंसा, नैतिकता एवं मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था जगाना है। त्याग, साधना, सादगी, प्रबुद्धता एवं करुणा से ओतप्रोत आप आदिवासी जाति की अस्मिता की सुरक्षा के लिए तथा मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठापित करने के लिए सतत प्रयासरत हैं। मानो वे दांडी पकडे़ गुजरात के उभरते हुए ‘गांधी’ हैं। इसी आदिवासी माटी में 19 मई, 1974 को एक आदिवासी परिवार में जन्में गणि राजेन्द्र विजयजी मात्र ग्यारह वर्ष की अवस्था में जैन मुनि बन गये। बीस से अधिक पुस्तकें लिखने वाले इस संत के भीतर एक ज्वाला है, जो कभी अश्लीलता के खिलाफ आन्दोलन करती हुए दिखती है, तो कभी जबरन धर्म परिवर्तन कराने वालों के प्रति मुखर हो जाती है। कभी जल, जमीन, जंगल के अस्तित्व के लिये मुखर हो जाती है। इस संत ने स्वस्थ एवं अहिंसक समाज निर्माण के लिये जिस तरह के प्रयत्न किये हैं, उनमें दिखावा नहीं है, प्रदर्शन नहीं है, प्रचार-प्रसार की भूख नहीं है, किसी सम्मान पाने की लालसा नहीं है, किन्हीं राजनेताओं को अपने मंचों पर बुलाकर अपने शक्ति के प्रदर्शन की अभीप्सा नहीं है। अपनी धून में यह संत आदर्श को स्थापित करने और आदिवासी समाज की शक्ल बदलने के लिये प्रयासरत है और इन प्रयासों के सुपरिणाम देखना हो तो कवांट, बलद, रंगपुर, बोडेली आदि-आदि आदिवासी क्षेत्रों में देखा जा सकता है। मेरी दृष्टि में गणि राजेन्द्र विजयजी के उपक्रम एवं प्रयास आदिवासी अंचल में एक रोशनी का अवतरण है, यह ऐसी रोशनी है जो हिंसा, आतंकवाद, नक्सलवाद, माओवाद जैसी समस्याओं का समाधान बन रही है।

सोशल मीडिया पर देह की नुमाइश: सशक्तिकरण या आत्मसम्मान का संकट ?

“लाइक्स की दौड़ में खोती पहचान: नारी सशक्तिकरण का असली मतलब”

 सोशल मीडिया पर नारी देह का बढ़ता प्रदर्शन क्या वाकई सशक्तिकरण है या महज़ लाइक्स और फॉलोअर्स की होड़? क्या हम सच्ची आज़ादी की ओर बढ़ रहे हैं या एक डिजिटल पिंजरे में कैद हो रहे हैं? क्या आत्मसम्मान की जगह केवल देह की नुमाइश रह गई है? क्या महिलाओं की पहचान अब सिर्फ उनके शरीर के आकार तक सिमट गई है? यह सवाल आज की डिजिटल पीढ़ी के सामने एक बड़ी चुनौती है, जो सशक्तिकरण और आत्मसम्मान के असली मायने खोजने की मांग करता है।

तो सवाल यह है कि क्या हमें इस डिजिटल कोलाहल से बाहर निकलकर असली स्वतंत्रता का अर्थ समझना होगा? या फिर हम बस लाइक्स और फॉलोअर्स के खेल में उलझकर अपने असली अस्तित्व को खो देंगे? 

-प्रियंका सौरभ

क्या हो गया है आजकल औरतों को? सोशल मीडिया पर उठते कोलाहल में हर ओर एक ही स्वर गूंज रहा है – देह प्रदर्शन का। कहीं चटकते-फड़कते रील्स में, कहीं भड़कते-उलझते डांस मूव्स में, और कहीं ज़ूम इन होती नज़रों के बीच, बस एक ही प्रदर्शन – अपनी चपल देह की अदा का। मानो देह ही पहचान बन गई हो।

सच पूछो तो इस दौर में देह का कारोबार जितना खुलकर हो रहा है, उतना पहले कभी न हुआ था। सोशल मीडिया ने देह को एक ‘प्रॉडक्ट’ बना दिया है, जिसे जितना ज्यादा दिखाओ, उतना ज्यादा लाइक्स, फॉलोअर्स और व्यूज़ बटोर लो। मानो आत्मसम्मान का कद अब कमेंट्स की लंबाई और लाइक्स की संख्या से मापा जाने लगा हो।

वो जो कभी सभ्यता की पहचान थी, अब डिजिटल हाट बाजार में बिक रही है। जिस समाज में नारी का सम्मान उसकी आंखों की लज्जा, चेहरे की सौम्यता और आचरण की मर्यादा से आंका जाता था, वहां आज उसका अस्तित्व उसके चोली के घेरे और पिंडलियों की नुमाइश में सिमट कर रह गया है।

यह डिजिटल क्रांति का अजीब दौर है, जहां औरतें ‘बोल्ड’ होने का झूठा अर्थ ‘बदन दिखाने’ से जोड़ बैठी हैं। यह कैसी आज़ादी है, जहां अपनी पहचान की कीमत देह के टुकड़ों में चुकानी पड़े? औरतें खुद को जिस फेमिनिज्म की आड़ में उभार रही हैं, क्या वो असल में नारी शक्ति का उत्थान है, या महज़ लाइक्स और फॉलोअर्स की दौड़?

सोचिए, इस देह प्रदर्शन की होड़ में कितनी महिलाएं खुद को खो रही हैं? क्या यह वाकई सशक्तिकरण है या एक नया बंधन, जहां औरतें एक डिजिटल पिंजरे में फंसती जा रही हैं, अपनी असली पहचान को खोकर बस एक देह भर बनती जा रही हैं?

नारी स्वतंत्रता का अर्थ तो आत्मसम्मान, शिक्षा, और निर्णय लेने की स्वतंत्रता था, न कि केवल बदन दिखाने का अधिकार। ये तो वही हुआ जैसे किसी को सोने की चिड़िया बना दो और फिर पिंजरे में कैद कर दो।

सवाल यह है कि क्या हमें इस डिजिटल कोलाहल से बाहर निकलकर असली स्वतंत्रता का अर्थ समझना होगा? या फिर हम बस लाइक्स और फॉलोअर्स के खेल में उलझकर अपने असली अस्तित्व को खो देंगे?

आज सोशल मीडिया एक ऐसा मंच बन चुका है, जहां कुछ महिलाएं खुद को साबित करने के लिए हर हद पार कर रही हैं। कपड़ों का छोटा होना और बोल्ड पोज़ देना ही अगर ‘बोल्डनेस’ है, तो फिर आत्मविश्वास, शिक्षा, और स्वाभिमान का क्या? क्या यही है सशक्तिकरण का असली मतलब? क्या हमारा समाज वाकई इतना सतही हो गया है कि हम केवल बदन के आधार पर किसी की कीमत आंकने लगे हैं?

सोचिए, आज जो महिलाएं देह प्रदर्शन को सशक्तिकरण मान रही हैं, क्या वो सच में खुद को सशक्त महसूस करती हैं? क्या उन्हें पता है कि वो केवल एक डिजिटल उत्पाद बनकर रह गई हैं, जिनका मूल्य केवल उनके शरीर के आकार और नृत्य कौशल से मापा जाता है?

यह समस्या केवल महिलाओं की नहीं है, बल्कि उस पूरी डिजिटल संस्कृति की है, जिसने नारी शरीर को एक मनोरंजन सामग्री बना दिया है। वो शरीर जो कभी मातृत्व, प्रेम और करुणा का प्रतीक था, आज महज़ व्यूज़ और फॉलोअर्स की भूख का साधन बन गया है।

तो सवाल यह है कि क्या हमें इस डिजिटल कोलाहल से बाहर निकलकर असली स्वतंत्रता का अर्थ समझना होगा? या फिर हम बस लाइक्स और फॉलोअर्स के खेल में उलझकर अपने असली अस्तित्व को खो देंगे? आखिर सवाल यह है कि क्या देह का प्रदर्शन वाकई सशक्तिकरण है या बस एक भ्रम? क्या आज की नारी अपनी असली पहचान से दूर होती जा रही है, जहां उसकी शक्ति, बुद्धि और आत्मविश्वास की जगह सिर्फ उसके शरीर का आकार और आकर्षण ही अहम रह गया है? यह डिजिटल युग हमें नई संभावनाओं और अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है, पर क्या यह स्वतंत्रता वाकई हमें आज़ाद कर रही है या बस एक और जाल में फंसा रही है?

नारी स्वतंत्रता का अर्थ केवल कपड़ों की लंबाई या शरीर के प्रदर्शन तक सीमित नहीं है। असली स्वतंत्रता है अपने विचारों, अधिकारों और आत्मसम्मान की रक्षा करना। यह वो स्वतंत्रता है, जो एक नारी को उसकी असल पहचान देती है – एक शिक्षित, आत्मनिर्भर और सशक्त इंसान के रूप में।

सोशल मीडिया पर जिस दिखावे की होड़ मची है, वह केवल लाइक्स और फॉलोअर्स की दौड़ नहीं, बल्कि आत्मसम्मान की गिरावट का प्रतीक है। यह एक डिजिटल पिंजरा है, जहां औरतें खुद को स्वतंत्र मानते हुए भी एक गहरे बंधन में बंधी हुई हैं।

हमें यह समझना होगा कि असली सशक्तिकरण आत्मनिर्भरता, शिक्षा और आत्मसम्मान में है, न कि केवल देह प्रदर्शन में। अगर हमें सही मायनों में नारी शक्ति को बढ़ाना है, तो हमें इस भ्रम से बाहर आना होगा और एक ऐसा समाज बनाना होगा, जहां औरतें अपनी पहचान अपने विचारों से बनाएं, न कि केवल अपने शरीर से।

क्यों जरूरी है हर विषयों पर लिखना… 

मनोज कुमार

एक दौर था जब जवानी इश्क में डूबी होती थी लेकिन एक यह दौर है जहाँ जवानी लेखन में डूबी हुई है. विषय की समझ हो या ना हो, लिखने का सऊर हो या ना हो लेकिन लिखना है, वह भी बिना तथ्य और तर्क के. ऐसे लेखकों की बड़ी फौज तैयार हो गई है जिसे हर विषय पर लिखना शगल हो गया है. जिन्हेंं अपने शहर के बारे में नहीं मालूम, जिन्होंने कभी इतिहास के पन्ने नहीं पलटे, वे सारे के सारे विषय विशेषज्ञ हो गए हैं. उन्हें शायद बात का भी भान नहीं है कि वे ऐसा करके अपना और अपने देश भारत वर्ष का कितना नुकसान कर रहे हैं. हालिया भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय कलमवीरों ने सारी हदें पार कर लिखना शुरू कर दिया. अखबारों के सम्पादकों की समझ बड़ी है तो उन्हें पता था कि अखबारों में जगह नहीं मिलेगी सो सोशल मीडिया पर टूट पड़े. आधी-अधूरी और अधकचरी जानकारी लेकर सौ-पचास शब्दों की टिप्पणी करने लगे. ऐसा लिखने वाले कुपढ़ लोगों को इस बात का भी भान नहीं था कि इससे देश और समाज को कितना नुकसान होगा लेकिन विशेषज्ञता झाडऩे के चक्कर में और सोशल मीडिया की स्वच्छंदता ने इन्हें बेलाग बना दिया था.

हैरानी ही नहीं, खतरनाक बात है कि जिन विषयों, खासकर रक्षा जैसे विषयों पर क्या जरूरत है लिखने की? क्यों हम बेताब हो रहे हैं लिखने के लिए. जबकि इन्हें यह भी नहीं मालूम की दो देशों के मध्य युद्ध की स्थिति कब बनती है? सेना की रणनीति कभी उजागर नहीं होती है और ना ही सरकार किस नीति पर कार्य योजना तैयार कर रही है, यह आम आदमी को पता ही नहीं होता है. इधर और उधर के खेल में मनचाहे ढंग से लिखा जा रहा है, बोला जा रहा है. यह सब बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है. बार बार यह चेताये जाने के बाद कि केन्द्र सरकार द्वारा जारी अधिकृत जानकारी पर ही भरोसा करें लेकिन ये हैं कि मानते ही नहीं. अच्छा होता कि ये सारे लोग स्वयं पर नियंत्रण रखते और सेना और सरकार को उनका कार्य करने देते लेकिन ऐसा नहीं किया गया. युद्ध भूमि में ही जाना देशभक्ति नहीं है बल्कि समाज में शांति और शुचिता बनाये रखने में भी अपना योगदान देकर देशभक्ति की जा सकती है. इन लोगोंंं के कारण सरकार पर अतिरिक्त दबाव है. समाज की शांति ना बिगड़े इसके लिए एक बड़ा अमला सोशल मीडिया की निगरानी के लिए तैनात करना पड़ा है. सोशल मीडिया पर नजर रखी जा रही है कि कोई भी ऐसी पोस्ट करने वालों के खिलाफ कार्यवाही की जाए. यदि ये लोग स्वयं को नियंत्रित कर लेते तो सरकार पर अनावश्यक ना दबाव होता और ना ही इस निगरानी पर अतिरिक्त बजट खर्च करना पड़ता. यह गैर जिम्मेदारी लेखन भी एक तरह का अपराध है.

अभिव्यक्ति की आजादी है लेकिन ऐसे मुद्दों पर खामोश रहना ही बेहतर होता. बल्कि यह भी होना चाहिए था कि ऐसा कोई कर रहा है, सोच रहा है तो उसे रोकने का प्रयास किया जाना चाहिए. जब सत्ता पक्ष और विपक्ष देश की सुरक्षा के लिए, सम्मान के लिए साथ हैं तो आपको क्या चूल मची है कि लिखते जाओ. मीडिया की भूमिका के बारे में कुछ कहना बेकार ही अपना ऊर्जा खर्च करना होगा. जिस तरह से मनगढंत खबरें दिखायी जा रही थीं, उससे आम आदमी के मन में धारणा गलत बन रही थी. आखिरकार सेना और सरकार की चेतावनी के बाद कुछ सम्हले लेकिन कब सम्हले रहेंगे, यह कहना मुश्किल है. टीआरपी की होड़ ने इन्हें भी बेलगाम कर दिया था. 

बिना समझे-बूझे और विषय की जानकारी के बिना गैर-जिम्मेदारी से लिखने की यह बीमारी समाज ने कोविड के दरम्यान भी देखा है. चंूकि उस समय हर व्यक्ति इस बात से भयभीत था कि जाने कब कोविड उन्हें घेर ले तो वह कभी कभी चुप्पी साध लेता था लेकिन तब भी वह गैरजिम्मेदारी लेखन से बाज नहीं आया. डॉक्टर और पुलिस के साथ जिम्मेदार मीडिया हर पल की खबर दे रहा था लेकिन कोविड के इंजेक्शन और दवाईयों को लेकर बेखौफ लिखा जा रहा था. कोविड ने कितनों को मौत की नींद सुला दिया और कितनों को श्माशान में जगह मयस्सर नहीं हुई, इस पर घर बैठे खबर लिखने वालों की कमी नहीं थी. यह गैर जिम्मेदाराना लेखन हर बार देखा जाता है. चूंकि सोशल मीडिया पर किसी का नियंत्रण नहीं है तो ऐसे कृत्य करने वालों की भरमार हो जाती है. एक किसी साहब ने सोशल मीडिया पर लिखा कि युद्ध में जाने के लिए कौन-कौन तैयार हैं लेकिन इन साहब ने यह बताने की जरूरत नहीं समझी कि वे अब तक घर पर क्यों हैं? क्यों उन्होंने रणभूमि में जाना स्वीकार नहीं किया. मध्यप्रदेश के ट्रक संचालकों ने सरकार से अनुरोध किया कि ऐसे वक्त में उनकी जरूरत है तो वे तैयार हैं. इस पर एक बुद्धिजीवि ने लिखा कि हम हैं तैयार. यह समझना मुश्किल था कि वे ट्रक संचालकों का हौसला बढ़ा रहे हैं या स्वयं ट्रक लेकर सेना की मदद के लिए जाने की बात कर रहे हैं. अफसोस कि ऐसे लोगों की संख्या बेशुमार है.

अभिव्यक्ति की आजादी है तो आप सम-सामयिक मुद्दों पर लिखिए. स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, किसान, महिलाएं, अपराध जैसे हजारों विषय है, इस पर लिखिए. कुछ गलत भी लिख दिया तो बहुत कुछ बिगड़ेगा नहीं लेकिन आपकी बुद्धि का खुलासा हो जाएगा. दरअसल ये जो तथाकथित लेखक हैं वे तर्क के साथ, तथ्यों के साथ नहीं लिख रहे हैं बल्कि उनका हथियार कुर्तक है. इनमें से ज्यादत को तो यह भी नहीं मालूम होगा कि 2025 के पहले युद्ध कब हुआ था? क्यों हुआ था और उसका परिणाम क्या निकला? इस बात पर भी बहस चल पड़ी है कि कौन सा शासक वजनदार था. इस सवाल को उठाने के पहले वे यह भूल जाते हैं कि समय और स्थिति के अनुरूप निर्णय लेना होता है. हाँ, इस बात से इंकार नहीं कि उस दौर का फैसला आज के लिए मिसाल है तो इस दौर के फैसले के परिणाम की प्रतीक्षा तो कीजिए. लेकिन हमारे पास संयम नहीं है. हम बेताब होकर जल्दबाजी में हर फैसला सुना देना चाहते हैं. ऐसा सवाल करने वाले और मिसाल देने वाले तथा गैरजिम्मेदाराना टिप्पणी करने वालों में कोई फर्क नहीं. बेहतर होगा कि हम सब एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका का निर्वाह करें. देश और समाज को मजबूत बनायें और सरकार को बेवजह मुसीबत में ना डालें. हम सब यह कर लेते हैं तो यह भी देशभक्ति की जीवंत मिसाल होगी.

संयुक्त परिवार :  मात्र समझौता नहीं, आज की “जरूरत”

अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस 15 मई पर विशेष…

प्रदीप कुमार वर्मा

कहते हैं कि परिवार से बड़ा कोई धन नहीं।  पिता से बड़ा कोई सलाहकार नहीं। मां के आंचल से बड़ी कोई दुनिया नहीं। भाई से अच्छा कोई भागीदार नहीं। और बहन से बड़ा कोई शुभ चिंतक नहीं। यही वजह है कि परिवार के बिना जीवन की कल्पना करना कठिन है। किसी भी देश और समाज की परिवार एक सबसे छोटी इकाई है। परिवार एक सुरक्षा कवच है और एक मानवीय संवेदना की छतरी भी। एक अच्छा परिवार बच्चे के चरित्र निर्माण से लेकर व्यक्ति की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। परिवार से इतर व्यक्ति का बजूद नहीं है। इसलिए परिवार के बिना अस्तित्व के बिषय में कभी सोचा नहीं जा सकता। लोगों से परिवार बनता हैं और परिवार से राष्ट्र और राष्ट्र से विश्व बनता हैं। परिवार के इसी महत्व को जान और समझकर लोग आप संयुक्त परिवार को एक बार फिर से अपनाने लगे हैं।

       देश और दुनिया में परिवार के दो स्वरूप मुख्य रूप से देखने को मिलते हैं। इनमें पितृसत्तात्मक एवं मातृ सत्तात्मक परिवार शामिल है। किसी भी सशक्त देश के निर्माण में परिवार एक आधारभूत संस्था की भांति होता है, जो अपने विकास कार्यक्रमों से दिनोंदिन प्रगति के नए सोपान तय करता है। कहने को तो प्राणी जगत में परिवार एक छोटी इकाई है। लेकिन इसकी मजबूती हमें हर बड़ी से बड़ी मुसीबत से बचाने में कारगर है। बीते सालों में यह देखने में आया है कि संयुक्त परिवार की जगह अब एकल परिवारों ने ले ली है। समाज के इस नए चलन न केवल परिवारों को बिखराव दिया है, वहीं, समूचे सामाजिक ताने-बाने पर भी संकट छा गया है। हालात ऐसे हैं कि एकल परिवारों के सदस्य अब रिश्तों के नाम तक भूलने लगे हैं, निभाने की बात तो और है। एकल परिवारों में लोग एकाकी जीवन जीने को मजबूर है और इससे उनका मानसिक स्वास्थ्य भी प्रभावित हो रहा है ।

       इसी चिंता और देश और दुनिया में परिवार के महत्व को देखते  हुए संयुक्त राष्ट्र ने 1980 के दशक के दौरान परिवार से जुड़े मुद्दों पर ध्यान देना शुरू किया। इसके बाद वर्ष 1983 में आर्थिक और सामाजिक परिषद सामाजिक विकास आयोग ने विकास प्रक्रिया में परिवार की भूमिका पर अपने संकल्प  की सिफारिश की और महासचिव से निर्णय लेने वालों और जनता के बीच जागरूकता बढ़ाने का अनुरोध किया। इसके साथ ही जनता को परिवार की समस्याओं और आवश्यकताओं के साथ-साथ उनकी जरूरतों को पूरा करने के प्रभावी तरीकों से अवगत कराया। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 9 दिसंबर 1989 के अपने संकल्प 44/82 में परिवार के अंतर्राष्ट्रीय वर्ष की घोषणा की और 1993 में महासभा ने फैसला किया कि 15 मई को हर साल अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस के रूप में मनाया जाएगा। 

         सामाजिक संरचना के तौर पर परिवार का विवेचन करें तो परिवार जन्म, विवाह या गोद लेने से संबंधित दो या अधिक व्यक्तियों का समूह है, जो एक साथ रहते हैं। ऐसे सभी संबंधित व्यक्तियों को एक परिवार के सदस्य माना जाता है। उदाहरण के लिए यदि एक वृद्ध विवाहित जोड़ा, उनका बेटा ओर बहू,पोता-पोती और वृद्ध जोड़े का भतीजा सभी एक ही घर या अपार्टमेंट में रहते हैं। तो वे सभी एक ही परिवार के सदस्य माने जाएंगे। परिवारों की प्रकृति की व्याख्या करें तो ऐतिहासिक दृष्टि से अधिकांश संस्कृतियों में  परिवार पितृसत्तात्मक यानि पुरुष-प्रधान परिवार ही देखने में आते हैं। इनमें परिवार के सबसे बड़े पुरुष द्वारा ही परिवार के सभी कार्यों का संचालन अथवा निर्णय लिए जाते हैं। इसके साथ ही आदिवासी समाज सहित कुछ अन्य समाजों में मातृ सत्तात्मक परिवारों की पृष्ठभूमि देखने को मिलती है। 

        ऐसे परिवारों में परिवार की बुजुर्ग महिला की प्रधानता रहती है तथा परिवार एवं समाज के सभी निर्णय लेने में बुजुर्ग महिलाएं मुख्य भूमिका निभाती है। यह सभी परिवार संयुक्त परिवार का एक रूप है जहां तीन पीढ़ियां एक साथ रहती हैं। लेकिन समय के साथ संयुक्त परिवारों की यह संकल्पना अब धूमिल हो रही है। औद्योगीकरण के साथ-साथ शहरीकरण ने जीवन और व्यावसायिक शैलियों में तीव्र परिवर्तन लाकर पारिवारिक संरचना में कई परिवर्तन उत्पन्न किए हैं। लोग,विशेषकर युवा,खेती छोड़कर औद्योगिक श्रमिक बनने के लिए शहरी केंद्रों में चले गए। इस प्रक्रिया के कारण कई बड़े परिवार बिखर गए। इसके साथ ही युवाओं में अपने निर्णय खुद लेने की प्रवृत्ति तथा रोजी रोजगार के चलते अपने परिवार से दूर रहने के कारण भी एकल परिवार की संख्या बढ़ रही है।  

           परिवार नियोजन के चलते हुए परिवार के सदस्यों की संख्या कम हो रही है। जिसके चलते भी परिवारों को आकर संयुक्त परिवार के सिकुड़ कर अब एकल परिवार के रूप में सामने आया है। यही नहीं बुजुर्गों की टोका-टाकी तथा अपना निर्णय खुद लेने की चाहत के चलते भी युवाओं की चाहत अलग अपना संसार बसाने की है। जिसके चलते भी परिवारों में बिखराव है और एकल परिवारों की संख्या बढ़ती जा रही है। एकल परिवार के दुखद पहलू के रूप में एकाकीपन तथा परिवार के सदस्यों की सहायता नहीं मिलने से कामकाजी महिला पुरुष अब यह सोचने पर मजबूर हो गए कि अगर वह संयुक्त परिवार का हिस्सा होते तो उनके कामकाज पर रहने के दौरान परिवार के बुजुर्ग तथा अन्य सदस्य उनके बच्चों का ध्यान रखते और बच्चों को डे-केअर सेंटर में छोड़ने की मजबूरी न सामने आती।

      इसके साथ ही जब एकल परिवार में रहते हैं तो बच्चों को उनके माता-पिता के अलावा और किसी रिश्ते की जानकारी होती है और ना ही अनुभव। देश की भावी पीढ़ी को ना दादा-दादी की कहानी सुनाने को मिलती हैं और ना ही चाचा और बुआ का दुलार। यही नहीं घर के कामकाज में ना तो महिला को अपनी सास और ननद की मदद मिलती है और ना ही पुरुष को अपने पिता और भाई की सहायता। इसके चलते भी एकल परिवार में रहने वाले महिला और पुरुष खुद को असहाय और अकेला महसूस करते हैं। हालात ऐसे हैं की दादी-दादी से लेकर चाचा चाचा बुआ फूफा मामा मामी तथा भैया भाभी के रिश्तो से यह नई पीढ़ी अनजान है। यही वजह है कि देर से ही सही लोग अब फिर से संयुक्त परिवारों की ओर लौट भी लगे हैं। जिसके चलते संयुक्त परिवार की संकल्पना अब धीरे-धीरे ही सही लेकिन वापस अपने मुकाम पर आने लगी है। इसके साथ ही अब यह भी स्पष्ट हो गया है कि संयुक्त परिवार अपने हितों के लिए मजबूरी में किया गया समझौता भर नहीं है। संयुक्त परिवार आज की जरूरत भी है।

प्रदीप कुमार वर्मा

तुर्किए और चीन के मीडिया चैनलों पर प्रतिबंध: भारत का तकनीकी और कूटनीतिक निर्णय !

22 अप्रैल 2025 को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में पाकिस्तान के आतंकियों द्वारा हमले के बाद भारत की ओर से पाकिस्तान और पीओके(पाक अधिकृत कश्मीर) में आतंकी ठिकानों पर ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के  बाद हाल ही में पाकिस्तान के मित्र देशों चीन और तुर्किए को भी भारत  ने कड़ा जवाब दिया। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि हाल ही में भारत के खिलाफ चीन की झूठ मशीन ‘ग्लोबल टाइम्स’ का एक्स अकाउंट बंद करने के बाद उसकी शिन्हुआ न्यूज एजेंसी को भी ब्लॉक किया गया। इतना ही नहीं, पाकिस्तान के हाथ में ड्रोन थमाने वाले तुर्किए के ब्रॉडकास्टर ‘टीआटी वर्ल्ड ‘के हैंडल पर भी भारत में ताला लगा दिया गया। वास्तव में, भारत द्वारा पाकिस्तान के मित्र देशों तुर्किए और चीन के मीडिया चैनलों  पर कुछ समय के लिए प्रतिबंध लगाया जाना, भारत की ओर से एक बड़ा तकनीकी और कूटनीतिक निर्णय है। कहना ग़लत नहीं होगा कि चीन और तुर्किए दोनों ही देश भारत के खिलाफ दुष्प्रचार, भ्रामक रिपोर्टिंग करने में, ग़लत सूचनाओं को फ़ैलाने में शामिल रहे हैं। सच तो यह है कि चीन और तुर्की ने भारत-पाक संघर्ष में प्रतिद्वंद्वी(पाकिस्तान) का समर्थन किया। गौरतलब है कि हाल ही में चैंबर ऑफ ट्रेड एंड इंडस्ट्री (सीटीआई) ने दिल्ली में 700 से अधिक व्यापारिक संगठनों से चीन और तुर्की के साथ सभी प्रकार के व्यापार को रोकने की अपील की, जो काबिले-तारीफ कदम कहा जा सकता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि चीन भारत के आंतरिक मामलों में भी दखलंदाजी करता रहा है और वह कभी हमारे देश के अरूणाचल प्रदेश में कुछ जगहों के नाम बदलने के व्यर्थ और निरर्थक प्रयास करता है, तो कभी उसकी मीडिया एजेंसियां भारत के खिलाफ उलटी सीधी व गलत रिपोर्टिंग करतीं नजर आतीं हैं। गौरतलब है कि एक्स अकाउंट पर प्रतिबंध ऐसे दिन लगाया गया, जब सरकार ने अरुणाचल प्रदेश में स्थानों का नाम लेकर चीन द्वारा उस पर क्षेत्रीय दावा करने के प्रयासों की निंदा की थी। विदेश मंत्रालय ने एक बयान में कहा कि ‘रचनात्मक नामकरण से इस निर्विवाद वास्तविकता में कोई बदलाव नहीं आएगा कि अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न और अविभाज्य अंग था, है और हमेशा रहेगा।’ बहरहाल,कहना चाहूंगा कि आज सोशल मीडिया पर भ्रामक सूचनाओं का जाल बिछा हुआ है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के इस युग में इन भ्रामक सूचनाओं पर अंकुश बहुत जरूरी हो गया है, क्यों कि आज सूचना का युग है और ग़लत व भ्रामक सूचनाओं को हथियार बनाकर भारत के दुश्मन देश भारत को कमजोर करने में लगे हुए हैं, लेकिन भारत की आतंकवाद के प्रति नीति ‘जीरो टोलरेंस'(शून्य सहनशीलता) की है और भारत किसी भी हाल और परिस्थितियों में आतंकवाद और आतंकियों को सहन नहीं करेगा। हाल फिलहाल, पाठकों को यह भी बताता चलूं कि हालांकि कुछ घंटों के बाद ग्लोबल टाइम्स और टीआरपी वर्ल्ड के सोशल मीडिया अकाउंट्स की भारत में फिर से पहुंच बहाल कर दी गई, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि भारत इन पर पुनः प्रतिबंध नहीं लगा सकता है। गौरतलब है कि तुर्किए और चीन के इन खातों पर बैन इसलिए लगाया गया था, क्योंकि भारत को यह आशंका थी कि ये प्लेटफॉर्म्स लगातार झूठी, ग़लत और भ्रामक खबरें फैला रहे हैं, खासतौर पर भारतीय सेना के अभियानों को लेकर। पाठक जानते हैं कि हाल ही में भारत ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के तहत पाकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) में आतंकी शिविरों पर सटीक हमले किए थे, और पाकिस्तान इन हमलों से बिलबिला उठा था और बाद में अमेरिका की मध्यस्थता से दोनों देशों के बीच सीजफायर हुआ। भारत द्वारा पाकिस्तान और पीओके में आपरेशन ‘सिंदूर’ के बाद इन विदेशी मीडिया प्लेटफॉर्म्स(चीन और तुर्किश) पर भारत के खिलाफ गलत सूचनाएं फैलाईं। वास्तव में, आपरेशन ‘सिंदूर’ के बाद चीन और तुर्किए अपने मित्र देश पाकिस्तान का पक्ष लेते नजर आए।गौरतलब है कि तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोआन ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ को एक विस्तृत संदेश में पाकिस्तान के प्रति समर्थन व्यक्त करते हुए तुर्की-पाकिस्तान संबंधों को ‘भाईचारा’ तथा ‘सच्ची मित्रता’ के सर्वोत्तम उदाहरणों में से एक बताया था। दरअसल,श्री एर्दोगान ने पाकिस्तान को लेकर यह बात कही थी कि, ‘हम अच्छे और बुरे समय में आपके साथ खड़े रहेंगे, जैसा कि हमने अतीत में किया है, और भविष्य में भी ऐसा ही करेंगे। आपके माध्यम से, मैं अपने मित्रवत और भाईचारे वाले पाकिस्तान को अपने हार्दिक स्नेह के साथ बधाई देता हूं। पाकिस्तान-तुर्की दोस्ती जिंदाबाद।’ गौरतलब है कि इसके बाद श्री शरीफ ने तुर्की और अंग्रेजी में अपने ‘दीर्घकालिक, समय-परीक्षणित और स्थायी भाईचारे के संबंधों’ पर जवाब दिया था। कहना ग़लत नहीं होगा कि राष्ट्रपति एर्दोआन की आतंकवाद पर पूरी तरह चुप्पी दर्शाती है कि तुर्की आतंकवाद को लेकर संवेदनशील नहीं है और वह बात-बात पर अपने मित्र पाकिस्तान का पक्ष लेता है। बहरहाल, यहां पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि 7 मई को ग्लोबल टाइम्स ने यह झूठी रिपोर्ट चलाई थी कि ‘पाकिस्तान ने एक भारतीय लड़ाकू विमान को मार गिराया है।’ हालांकि , इस पर बीजिंग स्थित भारतीय दूतावास ने सख्त ऐतराज जताते हुए यह बात कही थी कि, ‘प्रिय @ ग्लोबल टाइम्स न्यूज़ कृपया तथ्यों की पुष्टि और स्रोतों की जांच करने के बाद ही ऐसी झूठी सूचनाएं फैलाएं।’ उपलब्ध जानकारी के अनुसार बैन लगाए जाने से पहले भारत सरकार ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स को 8000 से ज्यादा खातों को ब्लॉक करने का आदेश दिया था और इस आदेश का उल्लंघन करने पर भारी जुर्माना और स्थानीय कर्मचारियों पर जेल की सजा तक का प्रावधान किया गया था। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इससे पहले, सरकार ने 16 पाकिस्तानी यूट्यूब चैनलों पर प्रतिबंध लगा दिया था, जिनमें कुछ न्यूज़ आउटलेट के चैनल भी शामिल थे।

सुनील कुमार महला

विभाजन की ओर बढ़ता पाकिस्तान?

सुरेश हिंदुस्तानी

पाकिस्तान की ओर से भारत के पहलगांव में हुए आतंकी हमले के बाद आखिरकार युद्ध विराम हो गया है, लेकिन इस युद्ध विराम के बाद फिर से सवाल उठने लगे हैं कि क्या आतंक को संरक्षण देने वाले पाकिस्तान पर विश्वास किया जा सकता है। यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है, क्योंकि पूर्व में ऐसा कहने के बाद भी हर बार पाकिस्तान की ओर से कश्मीर में आतंकी घटनाएं की जाती रही हैं। पहलगांव की घटना में आतंकवादियों ने निर्दोष 26 हिन्दु पर्यटकों को मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद भारत की ओर से की गई जवाबी कार्रवाई के बाद पाकिस्तान पस्त हो गया। पाकिस्तान सरकार की ओर से युद्ध विराम के बारे में कहा गया कि इस समय पाकिस्तान को बचाने की जरूरत है। इस कथन का बहुत ही स्पष्ट आशय यह भी निकाला जा सकता है कि अगर युद्ध जारी रहता तो पाकिस्तान नाम का देश इस धरती पर नहीं रहता। इसलिए पाकिस्तान ने अपने देश को बचाने के लिए ही यह रास्ता चुना। अमेरिका ने इस मामले में दखल देते हुए दोनों देशों के बीच सहमति बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत की ओर से हमेशा यही कहा गया कि भारत आतंकवाद को समाप्त करने के लिए अपना अभियान चला रहा है। इस मामले में विश्व के अधिकांश देश भारत के साथ खड़े होते दिखाई दिए, वहीं पाकिस्तान अकेला हो गया था। इससे पाकिस्तान निराश हो गया। इसके अलावा एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी माना जा सकता है कि पाकिस्तान के ऊपर ग्रे सूची में आने का खतरा बढ़ता जा रहा था। एफएटीएफ की ओर से पाकिस्तान का ऐसी चेतावनी भी दे दी गई थी। अगर पाकिस्तान ग्रे सूची में आता तो उस पर कई प्रकार के प्रतिबंध लग सकते थे, जो पाकिस्तान के हित में नहीं होते। युद्ध विराम का एक बड़ा यह भी हो सकता है, क्योंकि आर्थिक रूप से बदहाल हो चुके पाकिस्तान को अब कर्ज भी मिल सकता है। जिसकी उसे बहुत आवश्यकता है।

अब पाकिस्तान, भारत की जवाबी कार्यवाही से बच गया। लेकिन पाकिस्तान के अंदर ही अंदर जो लावा सुलग रहा है। पाकिस्तान की सरकार को उससे बचने का कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है। भारत की ओर से की गई जवाबी कार्रवाई के दौरान ब्लूचिस्तान ने अपनी आजादी की लड़ाई को जारी रखते हुए पाकिस्तान की सेना को अपना निशाना बनाया। यानी पाकिस्तान एक तरफ भारत से लड़ाई लड़ रहा था, वहीं दूसरी ओर उसे अपने ही देश में ब्लूचिस्तान की ओर से कड़ी चुनौती मिल रही थी। पाकिस्तान का आरोप था कि ब्लूचिस्तान को भारत भड़का रहा है। इसे इसलिए भी सच नहीं माना जा सकता, क्योंकि ब्लूचिस्तान ऐसी लड़ाई लम्बे समय से लड़ रहा है। अभी कुछ महीने पहले ही बीएलए के सैनिकों ने पाकिस्तान की ट्रेन को हाईजैक करके पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था। अब यही कहा जा सकता है कि ब्लूचिस्तान शायद ही पाकिस्तान में रहे। ऐसे में सवाल यह भी है कि क्या पाकिस्तान विभाजन के रास्ते पर चल रहा है? क्योंकि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में भी ऐसी ही स्थिति दिखाई देती है। कई विशेषज्ञ यह दावा भी करते दिख रहे हैं कि पाकिस्तान चार टुकड़ों में विभाजित हो जाएगा। यह इसलिए भी कहा जा रहा है कि पाकिस्तान के अंदर यही स्थिति बन रही है।

वर्तमान में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहवाज शरीफ अपने ही देश की जनता के निशाने पर हैं। इसके अलावा पाकिस्तान की सेना और सेना के साथ कदम मिलाने वाले आतंकी संगठन सरकार के युद्ध विराम वाले निर्णय से नाखुश हैं। इसका परिणाम क्या होगा, यह तो आने वाला समय ही बताने में समर्थ होगा। लेकिन यह पाकिस्तान की वास्तविकता है कि युद्ध जैसी स्थिति बनने के बाद सेना और आतंकियों ने सरकार के समक्ष गंभीर संकट पैदा किया है। यहां तक कि सेना ने सरकार को अपदस्थ करके खुद सत्ता का संचालन किया है। दूसरी बात यह भी है कि जंग के हालात पैदान करने के लिए पाकिस्तान की जनता सरकार और सेना प्रमुख को ही पूरी तरह से दोषी बता रहे हैं। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान के सेना प्रमुख असीम मुनीर ने पहलगांव की घटना से तीन दिन पूर्व कहा था कि हिन्दू और मुसलमान एक साथ कभी नहीं रह सकते। इसके साथ ही यह भी कहा कि भारत का कश्मीर पाकिस्तान के गले की नस है। सेना प्रमुख का यह बयान मुसलमानों को भड़काने जैसा ही था। इसलिए पहलगांव की घटना को इसी बयान की प्रतिक्रिया स्वरूप माना जा रहा है।

पहलगांव की आतंकी घटना के बाद भारत की ओर से आपरेशन सिन्दूर चलाकर पाकिस्तान स्थिति आतंकी शिविरों को नष्ट करके पाकिस्तान के आक्रमण की योजना को असफल कर दिया। भारत की ओर की गई जवाबी कार्रवाई में सौ से ज्यादा आतंकी मारे गए। यह पाकिस्तान के लिए जबरदस्त आघात ही था, क्योंकि पाकिस्तान की सरकार और सेना इन्हीं आतंकियों की दम पर भारत को आंखें दिखा रहा था। इसके अलावा पाकिस्तान के हर आक्रमण को भारत ने असफल कर दिया। जिसके बाद पाकिस्तान बेदम सा होता चला गया। अब हालांकि युद्ध विराम हो गया है, लेकिन सवाल यह भी है कि क्या पाकिस्तान पर विश्वास किया जा सकता है। विश्वास करना इसलिए भी कठिन सा लग रहा है, क्योंकि पाकिस्तान में जो आतंकी शिविर चल रहे हैं, उनमें केवल और केवल भारत के विरोध में नफरत का पाठ पढ़ाया जाता है। यह नफरती फौज भविष्य में भारत में आतंक फैलाने के लिए ही तैयार की जा रही है। पाकिस्तान अगर वास्तव में ही युद्ध विराम को लागू करना चाहता है तो उसे पाकिस्तान में चल रहे आतंकी शिविरों को समाप्त करना होगा। जब तक पाकिस्तान ऐसा नहीं करेगा। तब तक उस पर विश्वास करना कठिन ही है। खैर… कुछ भी हो, पाकिस्तान अंदर से तो टूट ही रहा है, अब युद्ध विराम के बाद वहां की सरकार, सेना और जनता अलग अलग राग अलाप रहे हैं। इसकी परिणति पाकिस्तान के लिए खतरनाक भी हो सकती है।

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प्रशासन से पॉपुलैरिटी तक: आईएएस अधिकारियों का डिजिटल सफर

“आईएएस अधिकारी: सोशल मीडिया स्टार या सच्चे सेवक?”

आईएएस अधिकारियों का सोशल मीडिया पर बढ़ता रुझान एक नई चुनौती बनता जा रहा है। वे इंस्टाग्राम, यूट्यूब और ट्विटर पर नीतियों से जुड़ी जानकारियाँ और प्रेरणादायक कहानियाँ साझा कर रहे हैं, जो जागरूकता बढ़ा सकती हैं। लेकिन क्या यह डिजिटल स्टारडम उनकी वास्तविक प्रशासनिक जिम्मेदारियों से समझौता है? व्यक्तिगत छवि बनाने की होड़ में पारदर्शिता और निष्पक्षता प्रभावित हो सकती है। ऐसे में एक संतुलन जरूरी है, जहां अधिकारी डिजिटल दुनिया में सक्रिय रहते हुए भी जनता की सेवा को प्राथमिकता दें।

-डॉ. सत्यवान सौरभ

भारत में सिविल सेवा हमेशा से ही सम्मान और प्रतिष्ठा का प्रतीक रही है। एक आईएएस अधिकारी का दायित्व न केवल नीतियों को लागू करना होता है, बल्कि जनता की समस्याओं को समझकर उन्हें हल करना भी है। लेकिन हाल के वर्षों में एक नया चलन देखने को मिल रहा है – आईएएस अधिकारियों का सोशल मीडिया की ओर बढ़ता आकर्षण। कुछ अधिकारी इंस्टाग्राम, यूट्यूब और ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्म पर लगातार सक्रिय रहते हैं, अपने जीवन के पहलुओं को साझा करते हैं, व्लॉग बनाते हैं, और अपने प्रशासनिक अनुभवों के जरिए प्रेरणा देने का प्रयास करते हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या यह डिजिटल सक्रियता उनके मूल कर्तव्यों से ध्यान भटकाने का कारण बन रही है या फिर यह एक नई तरह की जनसेवा है?

सोशल मीडिया का बढ़ता प्रभाव

सोशल मीडिया का युग आते ही हर क्षेत्र ने अपनी उपस्थिति वहां दर्ज की है, तो भला नौकरशाही कैसे पीछे रह सकती थी। आईएएस अधिकारी भी इस डिजिटल दुनिया का हिस्सा बन चुके हैं। वे अपने अनुभव, सरकारी योजनाएं, और प्रेरणादायक कहानियाँ साझा करते हैं, जिससे आम जनता का प्रशासन पर विश्वास बढ़ता है। उदाहरण के लिए, बिहार की चर्चित आईएएस अधिकारी टीना डाबी हों या फिर कश्मीर के शाह फैसल, इन अधिकारियों ने अपनी ऑनलाइन उपस्थिति से लाखों युवाओं को प्रेरित किया है।

जनजागरूकता का नया माध्यम

सोशल मीडिया पर सक्रिय आईएएस अधिकारी अपने फॉलोअर्स को न केवल सरकारी योजनाओं की जानकारी देते हैं, बल्कि सामाजिक मुद्दों पर जागरूकता भी फैलाते हैं। वे आपदाओं के समय महत्वपूर्ण सूचनाएं साझा करते हैं और जनता से सीधा संवाद स्थापित करते हैं। यह पारंपरिक नौकरशाही के उस पुराने ढर्रे से बिल्कुल अलग है जहां अधिकारी केवल कागजों पर या सरकारी बैठकों में ही सीमित रहते थे।

लोकप्रियता और चुनौती

लेकिन सवाल यह है कि क्या इस डिजिटल सक्रियता का मतलब है कि ये अधिकारी अपने असली कर्तव्यों से भटक रहे हैं? क्या सोशल मीडिया पर छवि निर्माण का यह खेल उनकी प्रशासनिक जिम्मेदारियों से समझौता है? कई बार यह देखा गया है कि कुछ अधिकारी सोशल मीडिया पर इतना व्यस्त हो जाते हैं कि उनकी मूल जिम्मेदारियां प्रभावित होने लगती हैं। उदाहरण के लिए, किसी जिले के डीएम का समय अधिकतर क्षेत्रीय समस्याओं और विकास कार्यों में जाना चाहिए, न कि इंस्टाग्राम रील्स बनाने में।

अधिकारियों का स्टारडम

कुछ अधिकारी अपने सोशल मीडिया फॉलोअर्स की संख्या बढ़ाने में इतने लिप्त हो जाते हैं कि वे सेलिब्रिटी जैसी पहचान बना लेते हैं। यह न केवल उनके व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करता है, बल्कि उनके निर्णयों की पारदर्शिता पर भी सवाल खड़े करता है। क्या यह संभव है कि एक अधिकारी जनता की सेवा और लोकप्रियता की होड़ के बीच संतुलन बना सके?

प्रभाव और पारदर्शिता का सवाल

इसके अलावा, यह भी ध्यान देने वाली बात है कि जब अधिकारी सोशल मीडिया पर अपने व्यक्तिगत विचार साझा करते हैं, तो इससे उनकी निष्पक्षता पर भी सवाल उठ सकते हैं। जनता के प्रति उनकी जवाबदेही और निष्पक्षता का संतुलन बनाए रखना कठिन हो सकता है। एक ओर वे जनता के सामने सीधे संवाद कर रहे हैं, तो दूसरी ओर वे एक छवि बनाने में भी लगे हैं, जो अक्सर वास्तविकता से भिन्न हो सकती है।

निजता और सुरक्षा का मुद्दा

सोशल मीडिया पर अधिक सक्रियता से अधिकारियों की निजता और सुरक्षा भी खतरे में आ सकती है। वे जिस प्रकार से अपने दिनचर्या, लोकेशन और व्यक्तिगत जीवन की जानकारी साझा करते हैं, वह सुरक्षा के लिहाज से खतरनाक हो सकता है। साथ ही, साइबर अपराधों और ट्रोलिंग का खतरा भी बना रहता है।

संवेदनशील मुद्दों पर जिम्मेदारी

इसके अलावा, अधिकारियों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वे कौन सी जानकारियां साझा कर रहे हैं। कई बार उनका एक बयान या विचार राजनीतिक विवादों को जन्म दे सकता है। इससे न केवल उनकी व्यक्तिगत छवि बल्कि पूरे प्रशासनिक ढांचे की निष्पक्षता पर सवाल खड़े हो सकते हैं।

आम आदमी की अपेक्षाएँ

जब जनता एक अधिकारी को डिजिटल प्लेटफॉर्म पर देखकर उसकी तारीफ करती है, तो कहीं न कहीं उनकी अपेक्षाएँ भी बढ़ जाती हैं। वे यह मानने लगते हैं कि जो अधिकारी ऑनलाइन इतना सक्रिय है, वह ज़मीनी हकीकत में भी उतना ही समर्पित होगा। लेकिन क्या यह हमेशा सच होता है? क्या डिजिटल स्टारडम वास्तविक प्रशासनिक कार्यों में भी प्रभावी हो सकता है?

आईएएस अधिकारियों का सोशल मीडिया पर सक्रिय होना एक सकारात्मक कदम हो सकता है, बशर्ते वे इसे अपने कर्तव्यों से ऊपर न रखें। डिजिटल दुनिया में उनकी उपस्थिति समाज को प्रेरित कर सकती है, जागरूकता बढ़ा सकती है, और युवाओं के लिए मार्गदर्शक बन सकती है। लेकिन यह भी सच है कि कभी-कभी यह लोकप्रियता का पीछा करने का खेल बन जाता है, जिससे उनके प्रशासनिक कार्य प्रभावित हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, बिहार की टीना डाबी, जिन्होंने अपने सोशल मीडिया पोस्ट्स से लाखों युवाओं को सिविल सेवा में आने की प्रेरणा दी, या फिर शाह फैसल, जिन्होंने सोशल मीडिया पर सक्रिय रहकर कश्मीर के मुद्दों पर खुलकर अपने विचार रखे। लेकिन दूसरी ओर, अधिक डिजिटल सक्रियता से उनकी पारदर्शिता, निष्पक्षता, और सुरक्षा पर भी सवाल खड़े होते हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि अधिकारी डिजिटल स्टारडम और प्रशासनिक जिम्मेदारियों के बीच संतुलन बनाए रखें, ताकि वे न केवल एक अच्छे नेता, बल्कि एक जिम्मेदार अधिकारी भी साबित हो सकें। आखिरकार, उनकी सबसे बड़ी सेवा जनता की समस्याओं का समाधान है, न कि सिर्फ लाइक्स और फॉलोअर्स बटोरना।

आईएएस अधिकारियों का सोशल मीडिया पर सक्रिय होना एक सकारात्मक कदम हो सकता है, बशर्ते वे इसे अपने कर्तव्यों से ऊपर न रखें। डिजिटल दुनिया में उनकी उपस्थिति समाज को प्रेरित कर सकती है, जागरूकता बढ़ा सकती है, लेकिन इसके लिए एक संतुलन बनाए रखना अनिवार्य है। आखिरकार, एक अधिकारी का सबसे बड़ा धर्म उसकी जनता की सेवा है, न कि केवल डिजिटल स्टारडम।

अरुणाचली चाल है पाक के हक में चीन की बौखलाहट

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  ललित गर्ग 

पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत के सफल ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद चीन बौखला गया है। पाकिस्तान की करारी हार एवं उसे दिये गये सबक को चीन पचा नहीं पा रहा है। चीन-पाक की सदाबहार दोस्ती के उदाहरण बार-बार सामने आते रहे हैं, हाल ही में सैन्य टकराव के दौरान चीन ने प्रत्यक्ष व परोक्ष तौर पर पाकिस्तान का समर्थन ही नहीं किया, बल्कि सैन्य व आर्थिक मदद भी की। ऐसे ही संवेदनशील समय पर चीन ने भारतीय जमीन पर दावेदारी जताने एवं अरुणाचल के 27 स्थानों को चीनी नाम देने की कुचेष्टा की है। उसकी यह नापाक कोशिश भी पाक के साथ खड़े होने का ही प्रयास है। यह ध्यान रहे कि वह अरुणाचल एवं उसके अनेक क्षेत्रों, इनमें आवासीय क्षेत्रों के साथ पहाड़ और नदियां भी हैं, इनको पहले ही चीनी नाम दे चुका है। भारत सरकार ने अरुणाचल के भीतरी स्थानों को नए नाम देने के चीन के निराधार और बेतुके प्रयासों को स्पष्ट रूप से खारिज करते हुए इसकी निन्दा की है। चीन अपनी दोगली नीति, षडयंत्रकारी हरकतों एवं विस्तारवादी मंशा से कभी बाज नहीं आता। वह हमेशा कोई ऐसी कुचेष्टा करता ही रहता है जिससे भारत चीन बॉर्डर पर अक्सर तनाव रहता है। हालांकि भारत ने दो टूक जवाब देते हुए साफ कहा है कि अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न अंग है और यह चीनी दुष्प्रचार के सिवाय कुछ नहीं है। चीन की इस हरकत ने यह साफ कर दिया है कि उससे संबंध सुधारने की भारत की तरफ से कितनी ही पहल हो जाए, वह सुधरने वाला नहीं है।
निश्चित ही चीन की ये दकियानूसी हरकतें पूरी तरह से अस्वीकार्य हैं, यह उसके दुस्साहस एवं उच्छृंखलता का द्योतक है। नाम बदलने से इस स्पष्ट और निर्विवाद वास्तविकता को नहीं बदला जा सकता कि अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न और अविभाज्य अंग था, है और हमेशा रहेगा। इस तरह की करतूतों, बचकानी एवं बेतूकी हरकतों से भारत को उकसाना चाहता है। इसी नीति के तहत वह भारत के पड़ोसी देशों में अपनी पैठ बना कर पुलों, सड़कों, व्यावसायिक केंद्रों आदि का निर्माण कर भारत की सीमा पर तनाव पैदा करने की भी कोशिश करता रहा है। शायद उसने यह मुगालता पाल लिया है कि ताजा घटनाक्रम से भारत दबाव में आ जाएगा लेकिन भारत अब ऐसे किसी दबाव में न तो आयेगा, बल्कि इनका सक्षम एवं तीक्ष्ण तरीके से जबाव देने में भारत सक्षम है। चीन का अधिक बौखलाहट एवं खीज का बड़ा कारण भारत ने उसके एयर डिफेंस सिस्टम, ड्रोन, मिसाइल आदि की इस कदर पोल खोल कर रख दी कि अब उसके लिए दुनिया के निर्धन देशों को अपने दोयम दर्जे एवं घटिसा किस्म के चीनी हथियार बेचना कठिन होगा। पाकिस्तान ने जिस चीनी मिसाइल का इस्तेमाल किया था, उसे भारत ने नाकाम कर दिया।
  चीन यह तो चाहता है कि भारत उसके हितों को लेकर अतिरिक्त सावधानी बरते, लेकिन खुद उसकी ओर से भारत के प्रति अपेक्षित संवेदनशीलता को लगातार नजरअंदाज करता है। चीन भरोसे लायक देश नहीं है, चीन के प्रति कठोर रवैया जरूरी है। निस्संदेह नाम बदलने जैसी घटनाएं हमें सतर्क करती हैं कि चीन के साथ मैत्री संबंधों के निर्धारण के दौरान हमें सजग, सावधान व सचेत रहना चाहिए। अन्यथा चीन पीठ पर वार करने से नहीं चूकने वाला है। भारत को चीन के साथ अपनी तिब्बत नीति पर भी नए सिरे से विचार करना होगा। पिछले तीसरे साल में चीन ने अरुणाचल प्रदेश के अनेक स्थानों के नाम बदले हैं। चीन अरुणाचल को जांगनान के नाम से दर्शाता है। वहीं इसे तिब्बत के दक्षिणी हिस्से के रूप में होने का दावा करता है। चीन किये गये वायदों एवं समझौतों से पीछे हटता रहा है, चीनी राष्ट्रपति ने दोनों देशों के बीच 1993, 1996, 2005 और 2013 में परस्पर भरोसा पैदा करने वाले समझौतों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। उन्होंने अपनी सेना को भारतीय दावे वाले इलाकों में अतिक्रमण करने का आदेश दिया। इसी का अंजाम रही जून 2020 में गलवान घाटी जैसी घटना। जिसमें  उसके सैनिक गलवान घाटी में घुस आए थे, जिन्हें रोकने में खूनी संघर्ष हुआ। तबसे दोनों देशों के रिश्ते तनावपूर्ण बने हुए हैं। भारत के हिस्से की जमीन पर कब्जा करने के इरादे से वह चोरी-छिपे और चालबाजी से घुसपैठ करने की कोशिशें करता रहता है। चीन की विस्तारवादी नीति भारत सहित सम्पूर्ण एशिया के लिये ही नहीं, पूरे विश्व के लिए बड़ा खतरा है।
चीन भारत की बढ़ती ताकत एवं रूतबे से परेशान है। भारत की बढ़ती आर्थिक और सामरिक ताकत चीन को चुभती रही है, इसलिए वह चोरी, चालाकी और चालबाजी से भारत को कमजोर करने की चालें चलता रहता है। दरअसल, सीमाओं को लेकर नित नए विवादास्पद तथ्य लाना चीन की फितरत में शामिल है। अरुणाचल प्रदेश ही नहीं, अक्साई चिन, ताइवान और विवादित दक्षिण चीन सागर पर भी चीन अपना दावा जताता रहा है। शातिर और चालबाज चीन अरुणाचल के किसी दस्तावेज पर भारत का नाम स्वीकार नहीं करता। कुछ मौकों पर तो वह अरुणाचल को अपने नक्शे में शामिल कर दुनिया के सामने साबित करने की कोशिश कर चुका है कि वह उसका इलाका है। मगर भारत की तरफ से मिले सख्त प्रतिरोध की वजह, सामरिक शक्ति और रणनीतिक सूझ-बूझ से उसे हर बार मुंह की खानी पड़ी है।
भारत को अनेक मोर्चों पर चीन को आडे हाथ लेना होगा, सबसे जरूरी है चीन सामान का बहिष्कार, इस पर सरकार के साथ हमारे उद्योग जगत एवं आम जनता को भी गंभीरता से सोचना होगा। ऐसा करके ही चीन की कमर को तोड़ा जा सकता है, आज दुनिया के अनेक देश चीनी सामान का बहिष्कार कर रहे हैं, हमें भी कठोर कदम उठाने होंगे। भारत ने जब भी पाकिस्तान में पनाह पाए आतंकियों को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादियों की सूची में डलवाने का प्रयास किया, चीन संयुक्त राष्ट्र में अपने वीटो का प्रयोग कर उसे रोकने की कोशिश करता रहा है, जबकि पूरी दुनिया आतंकवाद के खिलाफ युद्ध का समर्थन करती रही है। जिससे पता चलता है कि अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत से दोस्ती का हाथ बढ़ाने तथा व्यापार-कारोबार बढ़ाने की बात करने वाला चीन भारत के प्रति कैसी दुर्भावना रखता है। वह वैश्विक संगठनों व मंचों पर भारत के साथ खड़ा होने का दावा एवं ढोंग ही करता है।
भारत एवं चीन दोनों देशों के बीच संबंधों में आने वाली तल्खी की बड़ी वजह भी चीन की नीयत में खोट, उच्छृंखलता एवं अनुशासनहीनता ही है। चीन ने एक बार फिर अपनी इस हरकत से भारत के प्रति शत्रुता को ही जाहिर किया है। भारत के साथ चीन का बर्ताव हमेशा दोगला एवं द्वेषपूर्ण रहा है। इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि चीन किस तरह पाकिस्तान को भारत के खिलाफ मोहरे की तरह इस्तेमाल करता रहा है। जाहिर बात है कि चीन ने ऐसा न केवल चुनौतीपूर्ण समय में भारत का ध्यान भटकाने के लिये किया है, बल्कि पाकिस्तान के साथ एकजुटता दिखाने के लिये भी किया है। अपनी आर्थिक शक्ति के नशे में चूर अहंकारी चीन अंतरराष्ट्रीय नियम-कानूनों को जिस तरह धता बता रहा है, उससे वह विश्व व्यवस्था के लिए खतरा ही बन रहा है। अब यह भी किसी से छिपा नहीं कि वह गरीब देशों को किस तरह कर्ज के जाल में फंसाकर उनका शोषण कर रहा है। चीन भूल गया है कि अब भारत 1962 वाला भारत नहीं है, यह नया भारत है और आज का भारत चीन को मिट्टी में मिलाने की ताकत रखता है। भारत की रणनीति साफ है, स्पष्ट है। आज का भारत समझने और समझाने की नीति पर विश्वास करता है लेकिन अगर हमें आजमाने की कोशिश होती है तो जवाब भी उतना ही प्रचंड देने में वह समर्थ हैं। भारतीय सेना में सरहदें बदल देने की क्षमता है, दुश्मनों को इरादों को ध्वस्त करने का मादा है इसलिये चीन अपने नक्शे में भले ही छेड़छाड़ करता रहे, लेकिन भारत की भूमि पर कब्जाने की उसकी मंशा अब कभी साकार नहीं होगी। 

कांग्रेस की रणनीति, गहलोत की प्रेस कॉन्फ्रेंस और नेताओं की हैसियत !

-निरंजन परिहार

भारतीय राजनीति में संदेश (मैसेजिंग) इन दिनों केंद्रीय भूमिका में है। यह वह युग है जहां किसी मुद्दे की गंभीरता और उसका प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि उसे कौन प्रस्तुत कर रहा है। जैसा कि कहा जाता है – ‘जिस स्तर का काम, उसी स्तर का नेता’, यह सूत्र भारतीय राजनीति में तेजी से प्रासंगिक हो रहा है। कांग्रेस पार्टी ने इस तथ्य को न केवल समझा है, बल्कि इसे अपनी रणनीति का हिस्सा बनाया है। इसका एक स्पष्ट उदाहरण हाल ही में भारत-पाकिस्तान युद्धविराम के मुद्दे पर सरकार से सवाल करने के मामले में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अशोक गहलोत की प्रेस कॉन्फ्रेंस में देखने को मिला। कांग्रेस संगठन द्वारा सचिन पायलट की प्रेस कॉन्फ्रेंस से मैसेजिंग की लगभग असफलता के तत्काल बाद गहलोत की प्रेस कॉन्फ्रेंस करवाने की रणनीति में राजनीतिक विश्लेषक कांग्रेस की इस आंतरिक रणनीति के विभिन्न पहलुओं, पार्टी की रणनीति, गहलोत की भूमिका, और इसके व्यापक राजनीतिक निहितार्थों के विस्तार में कांग्रेस राजनीति के माय़ने तलाशने लगे हैं।

गहलोत के मोदी से सवालों का असर

अशोक गहलोत भारतीय राजनीति में एक ऐसा नाम है, जिसका कद और अनुभव बेजोड़ है। तीन बार राजस्थान के मुख्यमंत्री, तीन प्रधानमंत्रियों, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और पी.वी. नरसिम्हा राव के साथ केंद्रीय मंत्री, 5 बार सांसद, और 6 बार से लगातार विधायक रहने का उनका रिकॉर्ड उन्हें कांग्रेस के सबसे मजबूत स्तंभों में से एक बनाता है। नई दिल्ली में सरकार से सवाल के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस हेतु गहलोत का चयन केवल एक संयोग नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था। गहलोत की प्रेस कॉन्फ्रेंस ने दोहरे उद्देश्य पूरे किए। पहला,  इसने केंद्र सरकार पर युद्ध विराम के मुद्दे को लेकर दबाव बनाया और सरकार की नीतियों पर सवाल उठाए तो इसने पार्टी के भीतर गहलोत की वरिष्ठता और उनके राजनीतिक कद के भी बरकरार होने का संदेश दिया। यह संदेश न केवल जनता के लिए, बल्कि कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए भी था, कि पार्टी अपने अनुभवी नेता गहलोत को महत्व दे रही है।

पायलट की प्रेस कॉन्फ्रेंस से सबक

 इसके विपरीत, कुछ दिन पहले इसी मुद्दे पर सचिन पायलट की प्रेस कॉन्फ्रेंस का प्रभाव उतना नहीं पड़ा, जितना अपेक्षित था। पायलट, जो कि कांग्रेस के युवा नेताओं में से एक हैं, निश्चित रूप से हिंदी – अंग्रेजी अच्छी बोलने वाले नेता हैं। लेकिन, उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस का संदेश जनता और मीडिया में उस तरह से चर्चा का विषय नहीं बन पाया, जैसा कि गहलोत की प्रेस कॉन्फ्रेंस को महत्व मिला। इसका कारण स्पष्ट है कि पायलट का अनुभव और राजनीतिक कद, गहलोत की तुलना में अभी भी सीमित है। युद्ध विराम जैसे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे पर जनता और मीडिया एक ऐसे नेता की बात को अधिक गंभीरता से लेते हैं, जिसका अनुभव और विश्वसनीयता लंबे समय से स्थापित हो। इस घटना ने कांग्रेस को एक महत्वपूर्ण सबक दिया कि बड़े मुद्दों पर सवाल उठाने के लिए दिग्गज नेताओं की ही आवश्यकता होती है, गहलोत इसी कीरण पायलट पर भारी रहे।

विश्लेषकों की राय में सही कदम

नई दिल्ली में कांग्रेसी राजनीति के जानकार अजीत मैंदोला कहते हैं कि कांग्रेस की अशोक गहलोत को भारत-पाकिस्तान युद्ध विराम के मुद्दे पर प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए चुनकर यह साफ संदेश दिया है कि गहलोत की ताकत बरकरार है। राजनीतिक विश्लेषक राजकुमार सिंह कहते हैं कि सचिन पायलट की प्रेस कॉन्फ्रेंस से मिले सबक ने कांग्रेस को यह समझने में मदद की कि बड़े मुद्दों पर दिग्गज नेताओं की आवश्यकता होती है। राहुल गांधी का यह कदम, कि अनुभवी नेताओं को महत्व दिया जाए, पार्टी के लिए एक सकारात्मक संकेत है। कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति के जानकार संदीप सोनवलकर कहते हैं कि आने वाले समय में, कांग्रेस को इस रणनीति को और मजबूत करना होगा। अनुभव और युवा ऊर्जा के बीच संतुलन, प्रभावी मैसेजिंग, और जनता के बीच विश्वसनीयता स्थापित करना—ये वे प्रमुख क्षेत्र होंगे, जहां कांग्रेस को ध्यान देना होगा। शताब्दी गौरव के संपादक सिद्धराज लोढ़ा कहते हैं कि पार्टी अब मैसेजिंग की राजनीति की बारीकियों को समझ रही है। अशोक गहलोत का अनुभव, उनका राजनीतिक कद, और उनकी विश्वसनीयता ने इस प्रेस कॉन्फ्रेंस को प्रभावी बनाया। साथ ही, इसने पार्टी के भीतर उनके महत्व को भी रेखांकित किया। वरिष्ठ पत्रकार राकेश दुबे कहते हैं कि कांग्रेस की गहलोत के जरिए सरकार से सवाल करने की यह रणनीति न केवल एक राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक थी, बल्कि यह भी दर्शाती है कि गांधी परिवार का भरोसा आज भी उन पर बरकरार है।

दिग्गजों को महत्व देने का दांव

कांग्रेस अब अपनी रणनीति में बदलाव कर रही है। लंबे समय तक, कांग्रेस पर यह आरोप लगता रहा है कि वह अपने युवा नेताओं को बढ़ावा देने के चक्कर में अपने अनुभवी नेताओं को दरकिनार कर रही है। हालांकि, गहलोत को इस तरह के महत्वपूर्ण मुद्दे पर आगे करने का निर्णय यह भी दर्शाता है कि राहुल गांधी और पार्टी नेतृत्व को यह समझ में आ रहा है कि दिग्गजों को नजरअंदाज करके पार्टी को मजबूत करना आसान नहीं है। राहुल गांधी की रणनीति में युवा नेताओं को मौका देना और पार्टी को एक नया रूप देना शामिल रहा है। लेकिन, गहलोत जैसे दिग्गज नेताओं को महत्वपूर्ण अवसरों पर खास भूमिकाएं देकर, राहुल यह संदेश भी दे रहे हैं कि वे अनुभव और युवा ऊर्जा के बीच संतुलन बनाना चाहते हैं।

मोदी के सामने बराबरी का चेहरा

बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक रणनीति का एक प्रमुख हिस्सा यह रहा है कि वे बड़े मुद्दों पर स्वयं या अपने सबसे वरिष्ठ नेताओं को ही सामने लाते हैं। मोदी का व्यक्तित्व और उनका राजनीतिक कद इतना बड़ा है कि उनके सामने किसी सामान्य नेता का टिक पाना मुश्किल है। कांग्रेस को इस बात का अहसास हो गया है कि मोदी को जवाब देने के लिए उन्हें भी उसी कद के नेता की आवश्यकता है। अशोक गहलोत का चयन इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। गहलोत न केवल अपने अनुभव और विश्वसनीयता के लिए जाने जाते हैं, बल्कि उनकी राजनीतिक सूझबूझ और जनता से जुड़ने की क्षमता भी उन्हें एक मजबूत चेहरा बनाती है। उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस ने न केवल सरकार पर दबाव बनाया, बल्कि यह भी दिखाया कि कांग्रेस के पास ऐसे नेता हैं, जो बड़े मुद्दों पर प्रभावी ढंग से अपनी बात रख सकते हैं।

मैसेजिंग की राजनीति का युग

भारतीय राजनीति में संदेश का महत्व हमेशा से रहा है, लेकिन डिजिटल युग और सोशल मीडिया के आगमन ने इसे और तीव्र कर दिया है। आज, कोई भी राजनीतिक दल केवल नीतियों या कार्यों के आधार पर नहीं, बल्कि अपनी बात को कितनी प्रभावी ढंग से जनता तक पहुंचा पाता है, इस आधार पर भी मूल्यांकन किया जाता है। यह मैसेजिंग की राजनीति है, जहां संदेश का प्रभाव उसकी सामग्री के साथ-साथ उसकी प्रस्तुति और प्रस्तुतकर्ता पर भी निर्भर करता है। कांग्रेस ने इस बदलते परिदृश्य को समझ लिया है। भारत-पाकिस्तान युद्ध विराम जैसे संवेदनशील और राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे पर सरकार पर सवाल उठाने के लिए पार्टी ने अपने सबसे अनुभवी और वरिष्ठ नेताओं में से एक, अशोक गहलोत को चुना। यह निर्णय न केवल रणनीतिक था, बल्कि यह भी दर्शाता है कि कांग्रेस अब मैसेजिंग की बारीकियों को समझने और उसका उपयोग करने में सक्षम हो रही है।

शानदार जीत से भारत एशिया की एक बड़ी शक्ति बना

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ललित गर्ग

भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा पर जारी तनाव एवं युद्ध की स्थितियों के बीच भारत ने बड़ा ऐलान करते हुए सीज फायर लागू किया। चार दिन चले सैन्य संघर्ष में परिस्थितियां और भी ज्यादा नाजुक हो गई थीं एवं पाकिस्तान की भारी तबाही हुई। दोनों परमाणु सम्पन्न देशों के बीच के बढ़ते तनाव के बीच समझौते के बाद भले ही पाकिस्तान के विनाश का सिलसिला थम गया हो, लेकिन उसकी एक भूल भारी का सबब बन सकता है। क्योंकि भारत ने यह बड़ा फैसले लेते हुए कहा था कि भविष्य में उसकी जमीन पर किसी भी आतंकवादी हमले को भारत के खिलाफ युद्ध की कार्रवाई माना जाएगा और उसकी गोली का जवाब गोले से दिया जाएगा। पाकिस्तान की फितरत को देखते हुए भारत सरकार एवं भारतीय सेना अधिक चौकस, सावधान एवं सतर्क रहते हुए संघर्ष-विराम के लिये यदि सहमत हुई है तो उसका स्वागत होना चाहिए। जब भारत ने पाकिस्तान को सबक सिखाकर कड़ा संदेश दे दिया तो संघर्ष विराम को एक समझदारी भरा फैसला ही माना जायेगा। यदि पाकिस्तान ने फिर आतंकवादियों को मदद-हथियार देकर भारत पर हमले करवाये तो उसकी हर हरकत का जवाब पहले से ज्यादा ताकतवर, विनाशकारी एवं विध्वसंक होगा। शनिवार को हुए समझौते के कुछ ही घंटों के बाद सीज़ फायर के अतिक्रमण ने बता दिया कि पाकिस्तान में चुनी हुई सरकार के बजाय सेना ही समांतर रूप से सत्ता चला रही है। जिसे भारत-पाक के बीच शांति पसंद नहीं है। तभी भारत ने स्पष्ट किया है कि पाक के साथ बातचीत राजनीतिक, ईएएम स्तर पर या एनएसए के बजाय सिर्फ डीजीएमओ स्तर पर ही होगी।
पाकिस्तान को परमाणु ठिकानों पर हमले का डर सता रहा था, भय एवं डर की इन स्थितियों के बीच पाकिस्तान ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से सहयोग मांगा एवं युद्ध विराम के लिये अपनी सहमति दी, भारत ने अपनी शर्तों पर, पाकिस्तान को झटका देने के बाद इस सीज फायर पर सहमति जताई है तो यह भारत का बडप्पन है, उसकी बड़ी सोच का ही परिचायक है और भारत की कूटनीतिक जीत है। एक बार फिर पाकिस्तान को उसकी जमीन दिखाई गयी है। दुनिया ने भी भारत की सैन्य पराक्रम एवं स्वदेशी हथियारों की ताकत को देखा और समझा है। एक बानगी भर में जब पाकिस्तान ने पुंछ और राजौरी समेत रिहायशी इलाकों को निशाना बनाया तो जवाबी कार्रवाई करते हुए भारतीय सेना ने भी पाकिस्तानी सेना के कई महत्वपूर्ण अड्डों को तबाह कर दिया। सेना ने रावलपिंडी समेत पाक सेना के 4 एयरबेस नष्ट कर दिए। पाकिस्तान की फतेह मिसाइल को हवा में ही खत्म कर दिया गया। लाहोर एवं करांची सहित पाकिस्तान में अनेक स्थानों पर भारी तबाही से सहम गये पाकिस्तान ने घुटने टेक दिये। भारत ने उसके एयर डिफेंस सिस्टम की धज्जियां उड़ाकर जिस तरह उसके प्रमुख एयरबेस ध्वस्त किए, उसके बाद उसके सामने और अधिक तबाही एवं शर्मिंदगी झेलने के अलावा और कोई चारा नहीं रह गया था।
यह ठीक है कि सैन्य टकराव रोकने की घोषणा अमेरिकी राष्ट्रपति ने की, लेकिन इसका मूल कारण तो भारत का यह संकल्प रहा कि इस बार पाकिस्तान को छोड़ना नहीं है। भारत ने संघर्ष विराम केवल सैन्य टकराव रोकने तक सीमित रखकर कूटनीति एवं राजनीतिक परिपक्वता का ही परिचय दिया है। भारत ने पाकिस्तान को सही रास्ते पर लाने के लिए उसके खिलाफ सिंधु जल समझौते स्थगित करने जैसे जो कठोर फैसले लिए, वे यथावत रहेंगे। ये रहने भी चाहिए, क्योंकि धोखा देना एवं अपनी बात से बदलना पाकिस्तान की पुरानी आदत है। इस पर यकीन के साथ कुछ कहना कठिन है कि अब वह भारत में आतंक फैलाने से बाज आएगा। उसने और खासकर उसकी सेना ने भारत के प्रति जो नफरत पाल रखी है, उसके दूर होने में संदेह है। भारतीय नेतृत्व को पाकिस्तान के प्रति अपने संदेह से तब तक मुक्त नहीं होना चाहिए, जब तक वह आतंक से तौबा नहीं करता और कश्मीर राग अलापना बंद नहीं करता।
सीजफायर की कहानी 9-10 मई की रात से शुरू होती है, जब पाकिस्तान पर करारा पलटवार करते हुए भारतीय वायुसेना ने पाक सैन्य ठिकानों पर ब्रह्मोस-ए क्रूज मिसाइल दाग दी। इस दौरान रावलपिंडी के नूरखान, चकलाला और पंजाब के सरगोधा एयरबेस को निशाना बनाया गया। यह हमला रावलपिंडी में पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय के बेहद करीब हुआ। इसके बाद पीओके में जकोबाबाद, भोलारी और स्कार्दू एयरबेस को भी तबाह किया गया। भारत के द्वारा पाकिस्तानी एयरबेस पर हमले से बौखलाए पाक को अगला निशाना उनके परमाणु कमांड और कंट्रोल इंफ्रास्ट्रक्चर पर होने का डर सताने लगा। ऐसे में पाकिस्तान ने अमेरिका से मदद मांगी। अमेरिका पहले से दोनों देशों के संपर्क में था। मगर, परमाणु की बात सुनकर अमेरिका भी हड़बड़ी में आ गया।
पहलगाम आंतकी हमले के बाद तेजी से बदले घटनाक्रम के चलते ‘ऑपरेशन सिंदूर’ शुरू होते ही पाक स्थित बहावलपुर, मुरीदके व मुजफ्फराबाद में आतंकी ठिकानों को सेना ने मिट्टी में मिला दिया। फिर एक बार भारतीय सेना प्रोफेशनल एवं सैन्य मानकों पर खरी उतरी। जिसमें वायुसेना-नौसेना की महत्वपूर्ण भूमिका रही। ‘ऑपरेशन-सिंदूर’ की कामयाबी से बौखलाए पाक ने एलओसी समेत कई शहरों पर हमले किये, जिसे हमारे प्रतिरक्षातंत्र ने विफल किया। विदेशी डिफेंस सिस्टम के साथ मिलाकर बनायी गई कई परतों वाली प्रतिरक्षा प्रणाली ने पाकिस्तान के तमाम हमले विफल कर दिए। तमाम विदेशी रक्षा विशेषज्ञों ने इस प्रणाली की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। भारत के मारक हमलों के सामने असहाय पाकिस्तान ने अमेरिका, सऊदी अरब व चीन जैसे देशों से सीज़ फायर के लिये गुहार लगायी। लेकिन भारत ने अपनी शर्तों पर सीज़ फायर पर सहमति जतायी। प्रधानमंत्री ने दो टूक शब्दों में कहा कि सीमा पार से यदि कोई गोली चली तो उसका जवाब गोले से दिया जाएगा।
पाकिस्तान का यह आरोप बेबुनियाद है कि तनाव की शुरुआत भारत ने की। भारत ने पाकिस्तानी सेना के ठिकानों को अभी तक निशाना नहीं बनाया है। दरअसल, आतंकवाद के मामले में पाकिस्तान लंबे अरसे से दुनिया को गुमराह करता आया है। ताजा मामले में भी वह झूठ फैला रहा है कि भारत की स्ट्राइक उसके धार्मिक स्थलों पर हुई और इसमें आतंकी नहीं, आम नागरिक मारे गए हैं। यह झूठ दरअसल उसी साजिश का हिस्सा है, जिसके तहत आतंकियों ने टारगेटेड किलिंग करके भारत में सांप्रदायिक तनाव फैलाने का प्रयास किया था। सच्चाई तो यह है कि धर्म को आतंक से पाकिस्तान ने जोड़ा है। आतंकवादियों को पालना-पोसना और उनके जरिये छद्म युद्ध लड़ना पाकिस्तान की पुरानी आदत रही है, लेकिन इस बार वह जिस तरह आम लोगों का इस्तेमाल ढाल की तरह कर रहा है, वह निंदनीय एवं शर्मनाक होने के साथ-साथ चिंताजनक भी है। इससे उसकी हताशा झलकती है।
  भारत का मकसद आतंकवाद का खात्मा है, युद्ध नहीं है। प्रधानमंत्री ने अमेरिकी उप राष्ट्रपति जेडी वेंस को साफ बताया था कि पाकिस्तान की किसी भी हरकत की प्रतिक्रिया विनाशकारी साबित हो सकती है। निस्संदेह, भारत की सटीक कार्रवाई और पाकिस्तान के हमलों को विफल बनाने से दुनिया में स्पष्ट संदेश गया कि भारत एशिया की एक बड़ी शक्ति है। यह भी कि भारत अपनी सुरक्षा को लेकर न केवल सतर्क है बल्कि पाकिस्तानी हमलों को विफल बनाने की ताकत भी रखता है। भारतीय सेनाओं का उत्कृष्ट प्रदर्शन इसकी मिसाल है। आधुनिक तकनीक व मजबूत प्रतिरक्षा तंत्र के बूते भारत पाक के सैन्य प्रतिष्ठानों, हवाई अड्डों व प्रतिरक्षा प्रणाली को करारी चोट देने में सफल हुआ। पाक को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। वहीं उसके मित्र तुर्की व चीन द्वारा दिए गए हथियारों, ड्रोन व प्रतिरक्षा प्रणाली को भारतीय सेनाओं ने नेस्तनाबूद कर दिया। हमने दुनिया को बताया कि हम अपनी संप्रभुता और नागरिकों की सुरक्षा से कोई समझौता नहीं करेंगे। पाकिस्तान के पास विकल्प बहुत ज्यादा नहीं हैं। उसकी अर्थव्यवस्था इस संघर्ष को लंबा झेल पाने में असमर्थ है, युद्ध को तो वह भूल ही जाए। इसके बाद भी अगर वह दुस्साहस करने की सोच रहा है, तो यह जरूरी हो जाता है कि उस तक पहुंचने वाली मदद को भी रोका जाए। उसे आईएमएफ से नए राहत पैकेज का इंतजार है और भारत सरकार इसका विरोध करेगी। दुनिया को समझ लेना चाहिए कि पाकिस्तान को मिलने वाली कोई भी मदद आखिरकार आतंक फैलाने में ही इस्तेमाल होगी।

सनातन हिंदू धर्म एवं भारत में उत्पन्न समस्त मत पंथ विश्व में शांति चाहते हैं

भारत में सनातन हिंदू धर्म तो अनादि एवं अनंत काल से चला आ रहा है परंतु बाद के खंडकाल में भारत में कई अन्य प्रकार के मत पंथ भी विकसित हुए हैं जैसे बौद्ध धर्म, जैन धर्म, सिख धर्म आदि। भारत में विकसित विभिन्न मत पंथ मूलतः सनातन हिंदू संस्कृति का ही अनुपालन करते हुए दिखाई देते हैं और ऐसा कहा जाता है कि यह समस्त मत पंथ सनातन हिंदू धर्म की विभिन्न धाराएं ही हैं। भारत में विकसित मत पंथ सामान्यतः अपने दर्शन, कर्मकांड एवं सामाजिक ताने बाने के दायरे में अपने धर्म का अनुपालन करते हैं। भारत में हिंदू धर्म के सिद्धांतों पर चलने वाले नागरिकों की संख्या सबसे अधिक हैं एवं यह भारत का सबसे बड़ा धर्म है, जिसमें विभिन्न देवी देवताओं और पूजा प्रथाओं की एक विस्तृत प्रणाली शामिल है।

भारत में विकसित हुए मत पंथों में बौद्ध धर्म की उत्पत्ति भगवान बुद्ध की शिक्षाओं के आधार पर हुई है। यह शिक्षाएं मानव जीवन से दुःख और उसके कारणों को दूर करने के सम्बंध में हैं। बौद्ध धर्म में ध्यान, प्रेम एवं करुणा पर जोर दिया जाता है। बौद्ध धर्म में कर्मकांड के महत्व को भी रेखांकित किया गया है परंतु इसका उद्देश्य ईश्वर की आराधना नहीं बल्कि मोक्ष की प्राप्ति करने से है।

भारत में ही विकसित दूसरे महत्वपूर्ण मत पंथ, जैन धर्म में अहिंसा, आत्म संयम, सत्य एवं ईमानदारी पर अधिक जोर दिया जाता है। जैन धर्म में ऐसा माना जाता है कि मोक्ष की प्राप्ति स्वयं के प्रयासों से ही सम्भव है।

भारत में ही विकसित तीसरा महत्वपूर्ण मत पंथ है सिख धर्म जिसकी स्थापना श्री गुरु नानक देव जी ने की थी। सिख धर्म ईश्वर में विश्वास, सेवा, समानता एवं सत्यनिष्ठा पर आधारित है। सिख धर्म में ईश्वर की उपासना की जाती है परंतु यह उपासना कर्मकांड से परे हैं।

भारत की सनातन हिंदू संस्कृति को पूरे विश्व में अति प्राचीन संस्कृति के रूप में देखा जाता है। मूल रूप से भारतीय सनातन हिंदू संस्कृति में आध्यात्म का विशेष महत्व है जिसके अंतर्गत “वसुधैव कुटुंबकम”, “सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय”, “विश्व का कल्याण हो”, “किसी भी जीव का अहित न हो” जैसे भावों पर अमल करने का प्रयास किया जाता है। भारत में चूंकि मनुष्य के साथ साथ जीव जंतुओं, नदियों, पहाड़ों, पेड़ पौधों एवं जंगलों, आदि में भी ईश्वर का वास माना जाता है इसलिए किसी भी जीव को कोई क्षति न हो इस भावना को न केवल को आगे बढ़ाया जाता है बल्कि इस सिद्धांत पर अमल भी किया जाता है। इसीलिए भारत मूलतः शांतिप्रिय देश माना जाता है तथा भारत में हिंसा के लिए तो कोई जगह ही नहीं है। भारत के धर्मग्रंथों में भी जाने अनजाने में भी की गई जीव हत्या को पाप की संज्ञा दी गई है। सनातन हिंदू संस्कृति के ग्रंथों, उपनिषदों, आदि द्वारा काम, कर्म एवं अर्थ को धर्म के साथ जोड़कर ही सम्पन्न करने के उपदेश दिए जाते हैं। उदाहरण के लिए, महाभारत में वेद व्यास जी ने धर्म के आठ तरीके बताए हैं – (i) यज्ञ – जिसका आश्य है कि ऐसा कर्म जो समाज के लाभ के लिए किया जाता है। (ii) दान – समाज की सहायता करना। (iii) तप – अर्थात स्वयं में सुधार करते रहना, स्वयं का मूल्यांकन करना तथा नकारात्मक गुणों को दूर कर सकारात्मक गुणों का विस्तार करना। (iv) सत्यम् – सत्य के मार्ग पर चलना। (v) क्षमा -दूसरों तथा स्वयं को गलतियों के लिए क्षमा करना। (vi) दंभ – इंद्रियों को वश में रखना। (vii) आलोभ – लालच नहीं करना एवं लालच में न आना। (viii) अध्ययन – स्वयं और दुनिया का अध्ययन करना। सनातन हिंदू धर्म एवं भारत में उत्पन्न मत पंथों के अनुयायी सामान्यतः धर्म के उक्त वर्णित आठ तरीकों पर चलने का प्रयास करते पाए जाते हैं। धर्म की इस राह पर चलकर उन्हें समाज में शांति पूर्वक रहने की प्रेरणा मिलती है एवं अंततः उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है।

इसके साथ ही, विश्व के अन्य देशों में विकसित मत पंथों का अनुसरण करने वाले नागरिक भी भारत में पर्याप्त मात्रा में निवास करते हैं जैसे यहूदी, ईसाई एवं इस्लाम के अनुयायी, आदि। विश्व के अन्य भागों में विकसित उक्त वर्णित मत पंथों को सेमेटिक रिलिजन की श्रेणी में रखा जाता है क्योंकि इनकी साझा उत्पत्ति एवं कुछ सामान्य अवधारणाएं होती हैं, जैसे एक ही ईश्वर में विश्वास, नैतिकता एवं कर्मकांड।  

यहूदी धर्म एक धर्मग्रंथ (ताल्मुद) पर आधारित है। इस धर्मग्रंथ में यहूदी लोगों की धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत को दर्शाया गया है। यहूदी धर्म सेमेटिक धर्म की श्रेणी में आता है क्योंकि इसमें एक ईश्वर (येहव) में विश्वास, अनुष्ठान एवं नैतिक नियमों का पालन किया जाता है। ईसाई धर्म ईसा मसीह की शिक्षाओं पर आधारित है, जो एक ईश्वर में विश्वास एवं ईसा मसीह के द्वारा उद्धार करने एवं उनके द्वारा ही मोक्ष करने पर जोर देता है। इसी प्रकार इस्लाम भी पैगंबर मुहम्मद साहब की शिक्षाओं पर आधारित है, जो कि एक ईश्वर (अल्लाह) में विश्वास एवं कुरान का पालन करने पर जोर देता है।

भारत में उत्पन्न विभिन्न धर्मों एवं मत पंथों में ईश्वर की अवधारणा विविध है, परंतु सेमेटिक धर्मों में केवल एक ईश्वर में ही विश्वास किया जाता है। भारतीय मत पंथों में कर्मकांड का महत्व कम है, जबकि सेमेटिक धर्मों में कर्मकांड की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। भारतीय मत पंथों में मोक्ष की प्राप्ति के विभिन्न मार्ग उपलब्ध हैं जिन पर चलकर मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है परंतु सेमेटिक धर्मों में मोक्ष की प्राप्ति केवल ईश्वर की कृपा से ही सम्भव है। भारतीय मत पंथों में विविध सामाजिक संरचना रहती है जबकि सेमेटिक धर्मों में एक समान सामाजिक संरचना रहती है एवं इसमें विविधता का अभाव है। भारत में उत्पन्न धर्मों एवं मत पंथों में तथा सेमेटिक धर्मों में सामाजिक संरचना एवं दर्शन भी अलग अलग है।  

भारत के बारे में यह कहा जाता है कि यहां विविधता में भी एकता दिखाई देती है क्योंकि आज भारत में  विभिन्न धार्मिक आस्थाओं एवं विभिन्न धर्मों की उपस्थिति तथा उनकी उत्पत्ति तो दिखाई ही देती है, साथ ही, व्यापारियों, यात्रियों, आप्रवासियों, एवं यहां तक कि आक्रमणकारियों द्वारा भी यहां लाए गए धर्मों को आत्मसात करते हुए उनका सामाजिक एकीकरण दिखाई देता है। सभी धर्मों के प्रति हिन्दू धर्म के आतिथ्य भाव के विषय में जॉन हार्डन लिखते हैं, “हालांकि, वर्तमान हिन्दू धर्म की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता उसके द्वारा एक ऐसे गैर-हिन्दू राज्य की स्थापना करना है जहां सभी धर्म समान हैं…….।”

पूरे विश्व में संभवत: केवल भारत ही एक ऐसा देश है जहां धार्मिक विविधता एवं धार्मिक सहिष्णुता को समाज द्वारा मान्यता प्रदान की जाती है। सनातन हिंदू संस्कृति में धर्म को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। भारतीय नागरिक स्वयं को किसी न किसी धर्म से सम्बंधित अवश्य बताता है। इसी के चलते, भारतीय नागरिक विश्व के किसी भी कोने में चला जाय परंतु अपनी संस्कृति को छोड़ता नहीं है। इसी कारण से यह कहा जा रहा है कि वैश्विक स्तर पर आज की परिस्थितियों की बीच केवल भारतीय सनातन संस्कृति के माध्यम से ही पूरे विश्व में एक बार पुनः शांति स्थापित की जा सकती है।  

प्रहलाद सबनानी

ये कैसी देशभक्ति है ? 

~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल 

ये धूर्तता है या कुंठा है। जो लोग ये कहते हुए नहीं अघा रहे हैं कि अजी! हम तो सेना के साथ हर वक्त खड़े हैं। लेकिन वो मोदी विरोध की आड़ में सेनाओं के शौर्य और पराक्रम पर सवाल खड़े कर रहे हैं। जबकि मंदबुद्धि से लेकर पागल व्यक्ति को भी अगर तीनों सेनाओं की प्रेस कॉन्फ्रेंस सुना दी जाए तो वह ऐसी मूर्खता नहीं करेगा। जैसा तथाकथित सूरमा कर रहे हैं। ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि ये कैसी देशभक्ति है जो सिर्फ़ हर वक्त सियासत को केंद्र में रख रही है। घात लगाए मौके की तलाश में है कि कब भारत सरकार और सेना को नीचा दिखाया जाए। सीज़फायर के ऐलान के बाद 10 और 11 मई 2025 को सेना ने प्वांइट टू प्वांइट हर मुद्दे की जानकारी दी। भारत की सैन्य कार्रवाई के विषय में बताया। ललकार कर पाकिस्तान को चेतावनी दी।

 ज्यादा नहीं 11 मई 2025 को सेना की प्रेस कॉन्फ्रेंस के इन तीन  महत्वपूर्ण बिंदुओं को गौर से पढ़िए —

1. कश्मीर पर हमारी स्थिति बहुत स्पष्ट है. अब केवल एक ही मुद्दा बचा है।‌पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (PoK) को वापस करना।इसके अलावा और कोई बात नहीं है।

2. अगर वे (पाकिस्तान) आतंकियों को सौंपने की बात करते हैं, तो हम बात कर सकते हैं। हमारा किसी और विषय पर बात नहीं करना चाहते हैं।

3. हम नहीं चाहते कि कोई मध्यस्थता करे। हमें किसी की मध्यस्थता की जरूरत नहीं है।

~ क्या अब इसके बाद और कोई ज़वाब चाहिए? अगर आप सेना पर भरोसा कर रहे हैं तो सेना की ये बातें आपके दिल-दिमाग में क्यों नहीं जा रही हैं? याकि आप सेना पर विश्वास नहीं कर रहे हैं अथवा आप केवल अपना एजेंडा चला रहे हैं। क्या आप और हम हमारे सेना प्रमुखों, रक्षा विशेषज्ञों से ज़्यादा समझदार हैं? क्या हम उनसे अधिक महानता रखते हैं जो अपने प्राण हथेली पर रखकर राष्ट्र की रक्षा कर रहे हैं।  क्या आप उन पर प्रश्न चिन्ह उठा रहे हैं जिन्होंने पाकिस्तान के हर हमले को विफल किया।अपने प्राणों की आहुति दे दी लेकिन राष्ट्र रक्षा से पीछे नहीं हटे।

तीसरी बात – सरकार या सेना का एक भी ऐसा ऑफिशियल बयान लाइए जब सेना ने कहा हो कि हम युद्ध कर रहे हैं। स्पष्ट रूप से आतंकवाद के खात्मे के लिए भारत ने कार्रवाई की। आतंकियों के ठिकाने तबाह किए। पाकिस्तान ने पलटकर उन्माद दिखाया। आतंकी हमला किया।उसका पलटवार करते हुए भारत ने पाकिस्तान की औकात याद दिला दी। पाकिस्तान के कई एयरबेस से लेकर पाकिस्तान के ऑफेंसिव और डिफेंसिव सिस्टम को बर्बाद कर दिया। हालांकि इस बात की आधिकारिक पुष्टि नहीं है लेकिन ख़बर ये भी है कि पाकिस्तान के न्यूक्लियर सिस्टम को भी ख़ासा नुकसान पहुंचाया है। इतना ही नहीं आगे के लिए चेतावनी भी दी कि कोई भी आतंकी हमला युद्ध की कार्रवाई माना जाएगा। अर्थात् भारत आतंक के खात्मे के लिए प्रतिबद्ध है। हमारी सेनाएं प्रतिक्षण दुश्मन के हर नापाक मंसूबों को ध्वस्त करने के लिए तैयार हैं। क्या इतनी स्पष्टता काफ़ी नहीं है कि – पाकिस्तान से कोई बात होगी तो पीओके वापस लेने और आतंकियों को सौंपने की होगी। अतएव अपनी तीमारदारी सेना पर सवाल दागने की जगह कहीं सर्जनात्मक कार्यों में लगाइए। 

फिर जो लोग यह कहते हुए सेना पर प्रश्न चिन्ह खड़े कर रहे हैं कि – अजी ! आपने तो आतंकियों के 22-23 ठिकानों को बर्बाद करने की रणनीति बनाई थी। लेकिन आपने तो केवल 9 ठिकाने बर्बाद किए। मुझे ऐसे लोगों की इस दोगलई और नीचता पर तरस आता है। वो इसलिए कि-सेना को आप सिखाएंगे कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? याकि आपसे अनुमति लेकर सेना को कार्रवाई करनी चाहिए और उसके बाद आपको रिपोर्टिंग करनी चाहिए? क्या यही चाहते हैं आप ? राष्ट्र निष्ठा समझते हैं आप? राष्ट्र निष्ठा वह है जो दृढ़-अटल-अडिग- अविचल अपने राष्ट्र के लिए बलिदान देने के लिए तत्पर हो। संकट की स्थिति में राष्ट्रनायकों के हर निर्णय के साथ बिना किसी किंतु-परंतु के खड़े हों। दृढ़ विश्वास ऐसा हो जैसे जीवन का श्वासों से होता है।

…. इसी बीच एक और नई जमात आई और 1971 का जिगरा पेश करने लगी। इंदिरा और प्रधानमंत्री मोदी की तुलना करने लगी। यह कितनी कूटनीतिक चातुर्यता भरी राजनीति है न? जो सिर्फ़ मौके की तलाश में बैठी थी कि कैसे उसे अपनी सियासी फिल्डिंग सजाने का मौका मिले। लेकिन ये क्यों भूल जाते हैं कि 1971 में भारत पाकिस्तान युद्ध घोषित तौर पर युद्ध था। ना कि सिर्फ़ आतंकवाद के ख़िलाफ़ कार्रवाई। फिर वो युद्ध बांग्लादेश की स्वतंत्रता के लिए था।ये वही बांग्लादेश था जहां  उस समय 20 प्रतिशत हिंदू आबादी थी। लेकिन आप जिस जीत का दावा कर रहे हैं।वो कैसी जीत थी? क्या आपने बांग्लादेश को भारत में मिलाया? शिमला समझौते में पाकिस्तान को 93000 सैनिक बिना शर्त के क्यों वापस किए? पाकिस्तान के द्वारा भारत के बंधक बनाए गए 54 सैनिकों को क्यों नहीं छुड़ाया? पीओके में  भारतीय सेना द्वारा जीती गई 15 हज़ार दस वर्ग किमी क्यों वापस की थी? इसी क्षेत्र में शकरगढ़ स्थिति गुरुनानक देव की पुण्यभूमि करतारपुर क्यों गंवाई?  इंदिरा गांधी 93000 सैनिकों के बदले पीओके वापस करने की शर्त भी रख सकती थीं न? ऐसा क्यों नहीं हुआ?  फिर 2024 में बांग्लादेश में क्या हुआ? जिस 1971 के क्रेडिट लेने की होड़ में आप बौराए हुए हैं। उस क्रेडिट से भारत को क्या फायदा हुआ? उलटे वहां हिंदुओं का नरसंहार जारी है। अतएव 1971 के ये किस जिगरे की बात कही जा रही है? जो सिर्फ़ भारत के लिए नासूर दर्द बना हुआ है।

अब और भी पीछे चलिए…1948 में कश्मीर को संयुक्त राष्ट्र में कौन लेकर गया? धारा 370 और 35 ए से किसने कश्मीर में आतंक को पनाह देने की व्यवस्था की? संयुक्त राष्ट्र संघ में समझौता कर किसने पाकिस्तान को थाल में परोसकर पीओके (78 हजार वर्ग किमी) सौंपा। हमारे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने। अब 1962 को भी याद कीजिए  चीन ने पंडित नेहरू के नेतृत्व में हुए युद्ध के बाद देश की 38 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर रखा है। ये सब कौन से जिगरे का कमाल था?

आप मोदी को पीओके को लेकर घेर रहे हैं न? वो भी इसीलिए क्योंकि भाजपा ने – मोदी ने हमेशा पीओके को वापस लाने का अपना एजेंडा रखा है। क्या कांग्रेस ने कभी कहा कि – हम POK वापस लेंगे? कांग्रेस या दूसरे दल क्यों इतनी हिम्मत नहीं दिखाते? मोदी को हराना है न? तो खुलकर अपने चुनाव में पीओके को वापस लाने का एजेंडा शुरू कीजिए। आपको 370 खत्म करने से किसने रोका था? लेकिन क्यों कभी हिम्मत नहीं दिखाई? अगर हिम्मत दिखाते तो बीजेपी और मोदी सत्ता में ही नहीं आ पाते।‌ 

एक बात  और पीओके को अगर हमारे चाचा नेहरू ने पाकिस्तान को थाल में रखकर ना दिया होता तो POK वाली नौबत ही क्यों आती? अतएव जिगरा दिखाने से पहले गिरेबान में झांकना भी चाहिए न? 

~ अब इसे ट्रैप कहें या पाक-प्रेम? जो लोग पाकिस्तान के तथाकथित जुलूस, नारों और शाहबाज शरीफ के बयानों के आधार पर लहालोट हो रहे हैं। इसके बहाने सरकार और सेना को कटघरे में खड़े कर रहे हैं। उन्हें क्या यह नहीं दिखता है कि- आप पाकिस्तान के उसी एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं।जो वह चाहता है। अगर आप सेना के आधिकारिक बयान को नजरंदाज कर , पाकिस्तान के तथाकथित फोटो/ वीडियो के आधार पर विचलित हो रहे हैं। ऐसे में आपकी निष्ठा पर खुद-ब-खुद सवाल उठ रहे हैं। क्या आप पाकिस्तान प्रेमी हैं जो उसके प्रोपेगैंडा के आधार पर अपने विचार बना रहे हैं। सरकार और सेना को लांछित करने के अभियान में जुट गए हैं। 

हालांकि अधिकांशतः ऐसा करने वाले वही लोग हैं जो कल तक पहलगाम की आतंकी घटना के बाद आतंकियों को कवर फायर दे रहे थे। इस बात पर वैचारिक तलवारें खींचे हुए थे कि- अजी! आतंकियों ने तो ‘धर्म’ पूछकर नहीं मारा है। बाकायदे इसका सर्टिफिकेट बांट रहे थे। फिर पाकिस्तान पर जब कार्रवाई का मंथन चल रहा था तो हर दिन सरकार को घेर रहे थे। ऑपरेशन सिंदूर के बाद ‘De-escalate War’ का राग अलाप रहे थे। क्या आपने नहीं देखा कि इन्हीं सूरमाओं के भारत-विरोधी/ सेना विरोधी बयानों को किस तरह से पाकिस्तान ने इंटरनेशनल मीडिया के सामने पेश किया। ये कौन लोग थे जो पाकिस्तान के प्रोपेगैंडा को आगे बढ़ा रहे हैं थे? क्या यही काम आज भी ये नहीं कर रहे हैं? पुलवामा, बालाकोट से लेकर ऑपरेशन सिंदूर तक में सवालिया निशान लगाने वाली ये प्रजाति कौन सी है?जो अपने राजनीतिक दुराग्रहों, कुंठाओं की तुष्टि के लिए राष्ट्रीय अस्मिता पर प्रहार कर रही है।  क्या आपको ध्यान नहीं कि राफेल और S-400 सुदर्शन की डील के समय किनके पेट में मरोड़ें उठ रहीं थीं? वो कौन लोग थे जो भारत की सामरिक सामर्थ्य को नहीं बढ़ने देना चाहते थे? क्या यह विचारणीय नहीं है? 

अंतिम बात आपके राजनीतिक विचार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। प्रधानमंत्री मोदी को आप दूसरे मुद्दों पर कटघरे पर खड़ा कर सकते हैं। लेकिन अगर आप राष्ट्रीय अस्मिता, एकता, अखंडता और सुरक्षा को लेकर मोदी विरोध में सेना पर सवाल खड़े कर रहे हैं। ऐसे में ये सर्वथा अनुचित और आपके मानसिक दीवालियेपन का प्रतीक है। हां! अचानक हुए सीज़फायर की सूचना आते ही मुझे भी क्षणिक निराशा हुई थी। मैं भी यही चाहता था कि पीओके से लेकर पाकिस्तान के कई टुकड़े कर दिए जाएं। लेकिन जब राष्ट्र ने कोई निर्णय लिया है तो मुझे ऐसे समय में अपने राष्ट्र की सरकार और सेना पर अगाध श्रद्धा और निष्ठा है। हर भारतीय और भारतवंशी की भांति मुझे अपनी सरकार और सेना के साहसिक कार्य और निर्णय पर  आंख मूंदकर भरोसा है। यह विश्वास है कि मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले जवान एक न एक दिन अखंड भारत का संकल्प साकार करेंगे। लेकिन सवाल आपसे भी है क्या आपके पास धैर्य और बलिदान का साहस है?  सवाल ये भी कि क्या हर चीज़ ‘राजनीति’ के चश्मे से ही देखी जानी चाहिए?  क्या  आपकी नज़र में राजनीतिक दुराग्रह, सत्ता की लालसा ; राष्ट्र से बड़े हैं ? 

~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल