लेख साइलेंट किलर ‘ध्वनि प्रदूषण’ के आगोश में मानवजाति

साइलेंट किलर ‘ध्वनि प्रदूषण’ के आगोश में मानवजाति

सुनील कुमार महला ध्वनि प्रदूषण की समस्या भारत में आज एक बड़ी शहरी समस्या है, जो एक अदृश्य प्रदूषण है। सच तो यह है कि ध्वनि प्रदूषण एक साइलेंट किलर है। बढ़ती जनसंख्या, लगातार बढ़ते शहरीकरण, अंधाधुंध औधोगिकीकरण, लगातार बढ़ते ट्रैफिक, विकास के आयामों के कारण आज ध्वनि प्रदूषण की समस्या ने बहुत ही विकराल रूप धारण कर लिया है। औधोगिक घरानों में मशीनों से होने वाला ध्वनि प्रदूषण,वाहनों के हॉर्न बजाने से होने वाला प्रदूषण, सड़क पर काम करने वाले लोगों द्वारा ड्रिलिंग करने से होना वाला प्रदूषण, डीजे, बैंड व लाउडस्पीकरों से होने वाला प्रदूषण तथा अन्य चीजों से पैदा होने वाला शोर हमारे शांत वातावरण में जहां एक ओर व्यवधान पैदा करता है वहीं दूसरी ओर जैसा कि विशेषज्ञ बताते हैं, ध्वनि प्रदूषण प्रजनन चक्र बाधित होने के साथ ही साथ प्रजातियों के विलुप्त होने को भी तेज करता है। आज प्लंबिंग, बॉयलर, जनरेटर, एयर कंडीशनर और पंखे, कूलर शोर का कारण बनते हैं।बायलर, टरबाइन, क्रशर तो बड़े कारक हैं ही, परिवहन के लगभग सभी साधन तेज ध्वनि पैदा कर, कोलाहल के साथ वायु प्रदूषण भी बढ़ाते हैं। विभिन्न प्रकार के निर्माण कार्यों के पैदा होने वाला शोर भी बड़ा कारण है। इतना ही नहीं,बिना इन्सुलेशन वाली दीवारें और छतें पड़ोसी इकाइयों से आने वाले संगीत, आवाज़ें, कदमों और अन्य गतिविधियों को प्रकट करतीं हैं। विमान, ड्रिलिंग , विभिन्न आपातकालीन वाहन यथा एंबुलेंस, अग्निशमन यंत्र व गाड़ियां, पटाखों का फोड़ना भी शोर के कारण बनते हैं। मनोरंजन के साधन टीवी, रेडियो भी ध्वनि प्रदूषण फैलाते हैं। जेट विमान तो शोर के कारण हैं ही। विभिन्न धार्मिक, वैवाहिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक कार्यक्रमों में भी ध्वनि विस्तारकों का प्रयोग शोर को बढ़ावा देता है। इतना ही नहीं बिजली कड़कने, ज्वालामुखी, भूकंप , विस्फोट अन्य कारण हैं। यहां तक कि वैक्यूम क्लीनर और विभिन्न रसोई उपकरण शोर पैदा करते हैं। आज के समय में विवाह शादियों में खानपान, डीजे डांस और नाइटलाइफ़, आउटडोर बार, रेस्तरां और छतों पर 100 डीबी से ज़्यादा शोर सुनने को मिलता है। सच तो यह है कि पब और क्लब शोर करते हैं। यहां तक कि मस्जिदों, मंदिरों, चर्चों और अन्य संस्थानों में भी आज निश्चत डेसिबल स्तरों से ऊपर शोर सुनने को मिलता है। इतना ही नहीं,पशु-पक्षियों तक की भूमिका भी बहुत बार शोर में होती है।उल्लेखनीय है कि ध्वनि प्रदूषण एक अवांछित ध्वनि है जो पशु (वन्य जीवों ) और मानव व्यवहार को प्रभावित कर सकती है, हालांकि यह भी एक तथ्य है कि सभी शोर प्रदूषण नहीं होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन 65 डेसिबल से ऊपर के शोर को प्रदूषण के रूप में वर्गीकृत करता है। 75 डेसिबल पर शोर हानिकारक है और 120 डेसिबल पर कष्टदायक है। शोर का उच्च स्तर मनुष्य और प्राणियों दोनों के ही स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुंचा सकता है।शोर का उच्च स्तर बच्चों और बुजुर्गों में टिनिटस या बहरापन पैदा कर सकता है। चिकित्सकों का मानना है कि 80 डीबी(डेसिबल) वाली ध्वनि कानों पर अपना प्रतिकूल असर डालती है। 120 डीबी की ध्वनि कान के पर्दों पर भीषण दर्द उत्पन्न कर देती है और यदि ध्वनि की तीव्रता 150 डीबी अथवा इससे अधिक हो जाए तो कान के पर्दे फट सकते हैं, जिससे व्यक्ति बहरा हो सकता है। गौरतलब है कि मानव कान अनुश्रव्य (20 हर्ट्ज से कम आवृत्ति) और पराश्रव्य (20 हजार हर्ट्ज से अधिक आवृत्ति) ध्वनि को सुनने में अक्षम होता है। आज लगातार शोर के संपर्क में रहने से मानव कान कमजोर होते जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, दुनियाभर में लगभग डेढ़ अरब लोग इस समय कम सुनाई देने की अवस्था के साथ जीवन गुजार रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट दर्शाती है कि 2050 तक दुनिया में हर चार में से एक व्यक्ति यानी लगभग 25 प्रतिशत आबादी किसी न किसी हद तक श्रवण क्षमता में कमी की अवस्था के साथ जी रही होगी। अत्यधिक तेज, लगातार शोर के कारण श्वसन संबंधी उत्तेजना, नाड़ी का तेज चलना, उच्च रक्तचाप, माइग्रेन, गैस्ट्राइटिस, कोलाइटिस और दिल का दौरा पड़ना आदि हो सकता है। शोर परेशानी, थकान, अवसाद, चिंता, आक्रामकता और उन्माद पैदा कर सकता है। यह हमारी एकाग्रता में कमी लाता है। अध्ययन में विशेष व्यवधान पैदा करता है। 45 डेसिबल से अधिक शोर नींद में खलल(अनिद्रा की शिकायत) डालता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) 30 डेसिबल की सिफारिश करता है। बहरहाल, आंकड़े बताते हैं कि संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि हर वर्ष योरोपीय संघ में ध्वनि प्रदूषण के कारण 12 हजार लोगों की असामयिक मौत हो जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, वायु प्रदूषण के बाद शोर स्वास्थ्य समस्याओं का दूसरा सबसे बड़ा पर्यावरणीय कारक है। शोर हमारे हमारे शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के साथ ही हमारी जीवनशैली को भी प्रभावित करता है। अवांछित और अप्रिय शोर मनुष्य में तनाव, अवसाद लाता है और चिड़चिड़ापन पैदा करता है। यहां यह गौरतलब है कि वर्ष 2018 में जारी अपने दिशा-निर्देशों में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दिन के समय ध्वनि प्रदूषण के विभिन्न स्रोतों के लिए पृथक मापदंड जारी किये थे, जिसके अनुसार सड़क यातायात में दिन के समय शोर का स्तर 53 डेसिबल, रेल परिवहन में 54, हवाई जहाज और पवन चक्की चलने के दौरान 45 डेसिबल से अधिक नहीं होना चाहिए। आज लोग भले ही ध्वनि विस्तारकों को प्रतिष्ठा का प्रश्न मानने लगें हों लेकिन ये प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं है। वर्ष 2005 में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने लाउडस्पीकरों पर आदेश देते हुए यह कहा था कि ऊंची आवाज़ सुनने के लिए मजबूर करना मौलिक अधिकारों का हनन है। आज सार्वजनिक स्थलों पर रात दस बजे से सुबह छह बजे तक शोर मचाने वाले उपकरणों पर पाबंदी है लेकिन बावजूद इसके लोग ऐसा करते हैं। आज आबादी, अस्पताल और स्कूली क्षेत्र में प्रेशर हार्न बजाने,तेज पटाखों को छोड़ने पर रोक है।ध्वनि प्रदूषण नियम, 2000 के अनुसार व्यावसायिक, शांत और आवासीय क्षेत्रों के लिए ध्वनि तीव्रता की सीमा तय है।औद्योगिक क्षेत्रों में दिन में 75 और रात न 70 डेसिबल की सीमा सुनिश्चित है। व्यावसायिक क्षेत्रों के लिए दिन में 65 और रात में 55, आवासीय क्षेत्रों में दिन में 55 और रात में 45 तो शांत क्षेत्रों में दिन में 50 और रात में 40 डेसिबल तीव्रता की सीमा तय है। यह ठीक है कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 (1) एक मौलिक अधिकार है, जो किसी को भी बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांति से इकट्ठा होने, भारत के किसी भी हिस्से में रहने आदि की स्वतंत्रता की गारंटी देता है लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि कोई भी अपने मौलिक अधिकारों का दुरूपयोग करे। जीवन को शांति और संयम के साथ जीने का अधिकार धरती के प्रत्येक प्राणी को है, इसलिए इस धरती का सर्वश्रेष्ठ प्राणी होते हुए हमें यह चाहिए कि हम ऐसा कोई भी व्यवहार न करें जिससे दूसरों की ज़िंदगी में खलल, व्यवधान अथवा कोई परेशानियां पैदा हों। सुनील कुमार महला

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आर्थिकी भारत में सहकारिता आंदोलन को सफल होना ही होगा

भारत में सहकारिता आंदोलन को सफल होना ही होगा

भारत में आर्थिक विकास को गति देने के उद्देश्य से सहकारिता आंदोलन को सफल बनाना बहुत जरूरी है। वैसे तो हमारे देश में सहकारिता आंदोलन की शुरुआत वर्ष 1904 से हुई है एवं तब से आज तक सहकारी क्षेत्र में लाखों समितियों की स्थापना हुई है। कुछ अत्यधिक सफल रही हैं, जैसे अमूल डेयरी, परंतु इस प्रकार की सफलता की कहानियां बहुत कम ही रही हैं। कहा जाता है कि देश में सहकारिता आंदोलन को जिस तरह से सफल होना चाहिए था, वैसा हुआ नहीं है। बल्कि, भारत में सहकारिता आंदोलन में कई प्रकार की कमियां ही दिखाई दी हैं। देश की अर्थव्यवस्था को यदि 5 लाख करोड़ अमेरिकी डालर के आकार का बनाना है तो देश में सहकारिता आंदोलन को भी सफल बनाना ही होगा। इस दृष्टि से केंद्र सरकार द्वारा एक नए सहकारिता मंत्रालय का गठन भी किया गया है। विशेष रूप से गठित किए गए इस सहकारिता मंत्रालय से अब “सहकार से समृद्धि” की परिकल्पना के साकार होने की उम्मीद भी की जा रही है।       भारत में सहकारिता आंदोलन का यदि सहकारिता की संरचना की दृष्टि से आंकलन किया जाय तो ध्यान में आता है कि देश में लगभग 8.5 लाख से अधिक सहकारी साख समितियां कार्यरत हैं। इन समितियों में कुल सदस्य संख्या लगभग 28 करोड़ है। हमारे देश में 55 किस्मों की सहकारी समितियां विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रही हैं। जैसे, देश में 1.5 लाख प्राथमिक दुग्ध सहकारी समितियां कार्यरत हैं। इसके अतिरिक्त 93,000 प्राथमिक कृषि सहकारी साख समितियां कार्यरत हैं। ये मुख्य रूप से ग्रामीण इलाकों में कार्य करती हैं। इन दोनों प्रकार की लगभग 2.5 लाख सहकारी समितियां ग्रामीण इलाकों को अपनी कर्मभूमि बनाकर इन इलाकों की 75 प्रतिशत जनसंख्या को अपने दायरे में लिए हुए है। उक्त के अलावा देश में सहकारी साख समितियां भी कार्यरत हैं और यह तीन प्रकार की हैं। एक तो वे जो अपनी सेवाएं शहरी इलाकों में प्रदान कर रही हैं। दूसरी वे हैं जो ग्रामीण इलाकों में तो अपनी सेवाएं प्रदान कर रही हैं, परंतु कृषि क्षेत्र में ऋण प्रदान नहीं करती हैं। तीसरी वे हैं जो उद्योगों में कार्यरत श्रमिकों एवं कर्मचारियों की वित्त सम्बंधी जरूरतों को पूरा करने का प्रयास करती हैं। इसी प्रकार देश में महिला सहकारी साख समितियां भी कार्यरत हैं। इनकी संख्या भी लगभग एक लाख है। मछली पालन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से मछली सहकारी साख समितियां भी स्थापित की गई हैं, इनकी संख्या कुछ कम है। ये समितियां मुख्यतः देश में समुद्र के आसपास के इलाकों में स्थापित की गई हैं। देश में बुनकर सहकारी साख समितियां भी गठित की गई हैं, इनकी संख्या भी लगभग 35,000 है। इसके अतिरिक्त हाउसिंग सहकारी समितियां भी कार्यरत हैं।  उक्तवर्णित विभिन क्षेत्रों में कार्यरत सहकारी समितियों के अतिरिक्त देश में सहकारी क्षेत्र में  तीन प्रकार के बैंक भी कार्यरत हैं। एक, प्राथमिक शहरी सहकारी बैंक जिनकी संख्या 1550 है और ये देश के लगभग सभी जिलों में कार्यरत हैं। दूसरे, 300 जिला सहकारी बैंक कार्यरत हैं एवं तीसरे, प्रत्येक राज्य में एपेक्स सहकारी बैंक भी बनाए गए हैं। उक्त समस्त आंकडें वर्ष 2021-22 तक के हैं।    इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि हमारे देश में सहकारी आंदोलन की जड़ें बहुत गहरी हैं। दुग्ध क्षेत्र में अमूल सहकारी समिती लगभग 70 वर्ष पूर्व प्रारम्भ हुई है, जिसे आज भी सहकारी क्षेत्र की सबसे बड़ी सफलता के रूप में गिना जाता है। सहकारी क्षेत्र में स्थापित की गई समितियों द्वारा रोजगार के कई नए अवसर निर्मित किए गए हैं। सहकारी क्षेत्र में एक विशेषता यह पाई जाती है कि इन समितियों में सामान्यतः निर्णय सभी सदस्यों द्वारा मिलकर लिए जाते हैं। सहकारी क्षेत्र देश के आर्थिक विकास में अपनी अहम भूमिका निभा सकता है। परंतु इस क्षेत्र में बहुत सारी चुनौतियां भी रही हैं। जैसे, सहकारी बैंकों की कार्य प्रणाली को दिशा देने एवं इनके कार्यों को प्रभावशाली तरीके से नियंत्रित करने के लिए अपेक्स स्तर पर कोई संस्थान नहीं है। जिस प्रकार अन्य बैकों पर भारतीय रिजर्व बैंक एवं अन्य वित्तीय संस्थानों का नियंत्रण रहता है ऐसा सहकारी क्षेत्र के बैकों पर नहीं है। इसीलिए सहकारी क्षेत्र के बैंकों की कार्य पद्धति पर हमेशा से ही आरोप लगते रहे हैं एवं कई तरह की धोखेबाजी की घटनाएं समय समय पर उजागर होती रही हैं। इसके विपरीत सरकारी क्षेत्र के बैंकों का प्रबंधन बहुत पेशेवर, अनुभवी एवं सक्रिय रहा है। ये बैंक जोखिम प्रबंधन की पेशेवर नीतियों पर चलते आए हैं जिसके कारण इन बैंकों की विकास यात्रा अनुकरणीय रही है। सहकारी क्षेत्र के बैंकों में पेशेवर प्रबंधन का अभाव रहा है एवं ये बैंक पूंजी बाजार से पूंजी जुटा पाने में भी सफल नहीं रहे हैं। अभी तक चूंकि सहकारी क्षेत्र के संस्थानों को नियंत्रित करने के लिए प्रभावी तंत्र का अभाव था केंद्र सरकार द्वारा किए गए नए मंत्रालय के गठन के बाद सहकारी क्षेत्र के संस्थानों को नियंत्रित करने में कसावट आएगी एवं इन संस्थानों का प्रबंधन भी पेशेवर बन जाएगा जिसके चलते इन संस्थानों की कार्य प्रणाली में भी निश्चित ही सुधार होगा। सहकारी क्षेत्र पर आधरित आर्थिक मोडेल के कई लाभ हैं तो कई प्रकार की चुनौतियां भी हैं। मुख्य चुनौतियां ग्रामीण इलाकों में कार्य कर रही जिला केंद्रीय सहकारी बैकों की शाखाओं के सामने हैं। इन बैंकों द्वारा ऋण प्रदान करने की स्कीम बहुत पुरानी हैं एवं समय के साथ इनमें परिवर्तन नहीं किया जा सका है। जबकि अब तो ग्रामीण क्षेत्रों में आय का स्वरूप ही बदल गया है। ग्रामीण इलाकों में अब केवल 35 प्रतिशत आय कृषि आधारित कार्य से होती है शेष 65 प्रतिशत आय गैर कृषि आधारित कार्यों से होती है। अतः ग्रामीण इलाकों में कार्य कर रहे इन बैकों को अब नए व्यवसाय माडल खड़े करने होंगे। अब केवल कृषि व्यवसाय आधारित ऋण प्रदान करने वाली योजनाओं से काम चलने वाला नहीं है।  भारत विश्व में सबसे अधिक दूध उत्पादन करने वाले देशों में शामिल हो गया है। अब हमें दूध के पावडर के आयात की जरूरत नहीं पड़ती है। परंतु दूध के उत्पादन के मामले में भारत के कुछ भाग ही, जैसे पश्चिमी भाग, सक्रिय भूमिका अदा कर रहे हैं। देश के उत्तरी भाग, मध्य भाग, उत्तर-पूर्व भाग में दुग्ध उत्पादन का कार्य संतोषजनक रूप से नहीं हो पा रहा है। जबकि ग्रामीण इलाकों में तो बहुत बड़ी जनसंख्या को डेयरी उद्योग से ही सबसे अधिक आय हो रही है। अतः देश के सभी भागों में डेयरी उद्योग को बढ़ावा दिए जाने की आवश्यकता है। केवल दुग्ध सहकारी समितियां स्थापित करने से इस क्षेत्र की समस्याओं का हल नहीं होगा। डेयरी उद्योग को अब पेशेवर बनाने का समय आ गया है। गाय एवं भैंस को चिकित्सा सुविधाएं एवं उनके लिए चारे की व्यवस्था करना, आदि समस्याओं का हल भी खोजा जाना चाहिए। साथ ही, ग्रामीण इलाकों में किसानों की आय को दुगुना करने के लिए सहकारी क्षेत्र में खाद्य प्रसंस्करण इकाईयों की स्थापना करनी होगी। इससे खाद्य सामग्री की बर्बादी को भी बचाया जा सकेगा। एक अनुमान के अनुसार देश में प्रति वर्ष लगभग 25 से 30 प्रतिशत फल एवं सब्जियों का उत्पादन उचित रख रखाव के अभाव में बर्बाद हो जाता है।    शहरी क्षेत्रों में गृह निर्माण सहकारी समितियों का गठन किया जाना भी अब समय की मांग बन गया है क्योंकि शहरी क्षेत्रों में मकानों के अभाव में बहुत बड़ी जनसंख्या झुग्गी झोपड़ियों में रहने को विवश है। अतः इन गृह निर्माण सहकारी समितियों द्वारा मकानों को बनाने के काम को गति दी जा सकती है। देश में आवश्यक वस्तुओं को उचित दामों पर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से कंजूमर सहकारी समितियों का भी अभाव है। पहिले इस तरह के संस्थानों द्वारा देश में अच्छा कार्य किया गया है। इससे मुद्रा स्फीति की समस्या को भी हल किया जा सकता है। देश में व्यापार एवं निर्माण कार्यों को आसान बनाने के उद्देश्य से “ईज आफ डूइंग बिजिनेस” के क्षेत्र में जो कार्य किया जा रहा है उसे सहकारी संस्थानों पर भी लागू किया जाना चाहिए ताकि इस क्षेत्र में भी काम करना आसान हो सके। सहकारी संस्थानों को पूंजी की कमी नहीं हो इस हेतु भी प्रयास किए जाने चाहिए। केवल ऋण के ऊपर अत्यधिक निर्भरता भी ठीक नहीं है। सहकारी क्षेत्र के संस्थान भी पूंजी बाजार से पूंजी जुटा सकें ऐसी व्यवस्था की जा सकती हैं।     विभिन्न राज्यों के सहकारी क्षेत्र में लागू किए गए कानून बहुत पुराने हैं। अब, आज के समय के अनुसार इन कानूनो में परिवर्तन करने का समय आ गया है। सहकारी क्षेत्र में पेशेवर लोगों की भी कमी है, पेशेवर लोग इस क्षेत्र में टिकते ही नहीं हैं। डेयरी क्षेत्र इसका एक जीता जागता प्रमाण है। केंद्र सरकार द्वारा सहकारी क्षेत्र में नए मंत्रालय का गठन के बाद यह आशा की जानी चाहिए के सहकारी क्षेत्र में भी पेशेवर लोग आकर्षित होने लगेंगे और इस क्षेत्र को सफल बनाने में अपना भरपूर योगदान दे सकेंगे। साथ ही, किन्हीं समस्याओं एवं कारणों के चलते जो सहकारी समितियां निष्क्रिय होकर बंद होने के कगार पर पहुंच गई हैं, उन्हें अब पुनः चालू हालत में लाया जा सकेगा। अमूल की तर्ज पर अन्य क्षेत्रों में भी सहकारी समितियों द्वारा सफलता की कहानियां लिखी जाएंगी ऐसी आशा की जा रही है। “सहकारिता से विकास” का मंत्र पूरे भारत में सफलता पूर्वक लागू होने से गरीब किसान और लघु व्यवसायी बड़ी संख्या में सशक्त हो जाएंगे। प्रहलाद सबनानी 

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मिथिला, 2025 की ओर…उम्मीदें और सियासी समीकरण : राबड़ी देवी के नेतृत्व में तेजस्वी यादव की रणनीति

अनिल अनूप 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों में राजद (राष्ट्रीय जनता दल) ने अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन मुख्यमंत्री बनने का तेजस्वी यादव का सपना अधूरा…

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राजनीति ‘सीखते हुए कमाएं’ योजना को मज़बूत और सार्थक बनाने की ज़रूरत है

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-*प्रियंका सौरभ* “सीखते हुए कमाएँ” योजना व्यावसायिक शिक्षा और कौशल प्रशिक्षण को नौकरी के व्यावहारिक अनुभव के साथ जोड़ती है, जिससे छात्रों को अपनी पढ़ाई…

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महिला-जगत बाल विवाह मुक्ति बेटियों को खुला आसमान देगा

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– ललित गर्ग – देश में बाल विवाह की प्रथा को रोकने, बढ़ते बाल-विवाह से प्रभावित बच्चों के जीवन को इन त्रासद परम्परागत रूढ़ियों की…

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महिला-जगत कब मिलेगी ग्रामीण किशोरियों के डिजिटल सपनों को उड़ान?

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महिमा जोशीकपकोट, उत्तराखंड “हमारे गांव में कंप्यूटर सेंटर न होने की वजह से हमें बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। अगर हमें कोई…

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लेख एचआईवी संक्रमण के प्रति जागरूकता जरूरी

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विश्व एड्स दिवस (1 दिसम्बर) पर विशेषएड्स पीड़ितों के प्रति बदले समाज की सोच– योगेश कुमार गोयलन केवल भारत में बल्कि समस्त विश्व में लोगों…

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लेख करोड़ों ज़िंदगी लीलता एड्स का लाल फंदा

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एक दिसंबर एड्स निरोधक  दिवस : डॉ० घनश्याम बादल    एड्स दुनियाभर की सबसे घातक बीमारियों में है और इस बीमारी ने कई महामारियों से भी अधिक…

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टेक्नोलॉजी डिजिटल ठगी से कंप्यूटर की सुरक्षा बनी चुनौती

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राष्ट्रीय कंप्यूटर सुरक्षा दिवस (30 नवंबर) ‘राष्ट्रीय कंप्यूटर सुरक्षा दिवस’ सालाना 30 नवंबर को पूरे भारत में मनाया जाता है जिसकी शुरुआत साल-1988 से हुई थी। आज इस दिवस का…

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राजनीति राहुल गांधी को राजनीति के कुछ सबक सीखने होंगे

राहुल गांधी को राजनीति के कुछ सबक सीखने होंगे

– ललित गर्ग – कांग्रेस की उलटी गिनती का क्रम रूकने का नाम नहीं ले रहे हैं। महाराष्ट्र के नतीजे इसी बात को रेखांकित कर…

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कविता समय – एक सफर है।

समय – एक सफर है।

समय – एक सफर है। एक बीज से वृक्ष बनने कासफर। एक सोच से यथार्थ बनने कासफर। एक बात से साथ तक का सफर। एक…

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लेख जवानी कायम रखने को रानी ने किया लगातार रक्त स्नान

जवानी कायम रखने को रानी ने किया लगातार रक्त स्नान

अयोध्या प्रसाद भारती उस दिन महल की दासी नेरोनिका को अर्धरात्रि का बेसब्री से इंतजार था। जैसे-जैसे समय व्यतीत हो रहा था वैसे-वैसे उसके दिल…

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