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दक्षिण के दो राजा-त्रावणकोर और ए. राजा

साकेंद्र प्रताप वर्मा 

अभी कुछ दिनों पूर्व दक्षिण भारत के दो राजाओं से जुड़े प्रकरणों ने देश को झंकझोर कर रख दिया। एक थे त्रावणकोर के राजा जिन्होंने किसी जमाने में श्री पद्मनाथ स्वामी के मंदिर में अपने परिवार की बहुत सारी संपति दान कर दी, उसी का परिणाम था कि खुलासा होने पर आज श्री पद्मनाथ स्वामी का मंदिर दुनिया का सबसे धनाड्य मंदिर बन गया। मंदिर से प्राप्त सोना, चांदी, हीरे, जवाहरात, स्वर्णमूर्तियां तथा स्वर्ण मुद्राओं का एक मूल्य एक लाख करोड़ से 5 लाख करोड़ के मध्य आंका जा रहा है। चूंकि ये सारी वस्तुएं दान में प्राप्त की गई हैइसलिए वर्तमान में इनके ठीक-ठीक मूल्यांकलन कर पाना कठिन है। वैसे तो जिन्होंने भी मंदिर को यह संपत्ति दान दी उनकी कल्पना हिंदू धर्म के उत्थान की रही होगी। स्वाभाविक रूप से हिंदू धर्म और संस्कृति की कल्पना व्यापक संदर्भों में की जाती है। इसलिए इस अपार संपदा से उसी के अनुरूप विकास की अपेक्षा करना ठीक ही कहा जा सकता हैकिंतु केरल सहित सारे देश के कुछ तथाकथित बुध्दिजीवी अपने-अपने तरीके से इस पैसे को खर्च करने की वकालत कर रहे हैं। किसी को इस संपदा से कई किलोमीटर सड़क बनती दिखाई दे रही है, किसी को कितने ही स्कूल, कॉलेज या अस्पताल स्थापित होते दिखाई दे रहे हैं, किसी को लगता है कि यह पैसा एक साल के मनरेगा का खर्च उठा सकता है। किंतु हदें तो तब पार होती दिखाई दे रही है जब जे. एन. यू. की एक इतिहास प्राध्यापिका टी.वी. चैनलों पर यह बताने में भी नहीं संकोच करती कि चढ़ावे की यह संपदा राज्यों से लूटकर लाया गया धन है जो मंदिर में छिपा दिया गया होगा।

ऐसे ही लोग मंदिराें के राष्ट्रीयकरण की वकालत भी करने लगते हैं। केरल के उच्च न्यायालय ने भी मंदिर की देखरेख का अधिकार केरल सरकार को संपत्ति की सुरक्षा के नाते दे दिया। अन्यथा संपत्ति के दुरूपयोग की संभावना व्यक्त कर दी गई। किंतु ऐसा करने वाले लोगों ने शायद यह ध्यान नहीं दिया कि जिस राजपरिवार के द्वारा निर्मित ट्रस्ट ने कई शताब्दियों में इस संपदा का दुरूपयोग नहीं किया बल्कि रक्षक की भूमिका निभाते रहे, उसी ट्रस्ट के लोग क्यों इस संपत्ति का दुरूपयोग करने पर उतारू हो जाएंगे। वैसे तो धन संपदा का यह चौंकाने वाला दृश्य उस हर हिंदू मंदिर में मिलेगा जहां तक मुगल और फिरंगी आक्रमणकारियों की नापाक निगाहें नहीं पहुंच पायी।

अपने देश के दक्षिणी भाग में एक दूसरे राजा भी हैं जो आजकल तिहाड़ जेल की शोभा बढ़ा रहें हैं। ये वे राजा हैं जिन्होंने जनता की गाढ़ी कमाई का एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ रूपये टूजी स्पेक्ट्रम आवंटन में हड़प लिया। लेकिन ए. राजा की इस लूट पर हमारे देश के बुध्दिजीवियों ने इस लूट की संपदा से कितने स्कूल, कॉलेज, अस्पताल या सड़कें बनेगी इसका कोई हिसाब प्रस्तुत नहीं किया। जे. एन. यू. के किसी प्रोफेसर ने लूट के तरीके पर भी अपना ज्ञान प्रकट नहीं किया। यहां तक कि लूट की इस संपदा को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करने की मांग भी किसी केरल राजनैतिक वंशी सरकार ने नहीं की। उल्टे जब कालेधन को राष्ट्रीय संपदा घोषित करने की मांग बाबा रामदेव ने उठायी तो मध्यरात्रि में दिल्ली सरकार ने लाठियों से रामलीला मैदान में सो रही जनता की पिटाई कर दी। ये कौन सा दोहरा मापदंड है मंदिर की संपदा का राष्ट्रीयकरण करने की मांग करने में जिन्हें कोई संकोच नहीं होता तथा जिन सरकारों ने तमाम मंदिरों पर अपने रिसीवर बैठाकर मंदिरों का पैसा दूसरे कार्यों में लगा रखा है और हिंदू मंदिरों के पैसों से हिंदुओं के धार्मिक आयोजनों को छोड़कर अन्य मतावलंबियों की सहायता कर रखी है। उन्हें अमरनाथ यात्रा या मान सरोवर यात्रा के नाम पर सहायता देने में आर्थिक संकट दिखाई देता है। जबकि हज यात्रियों की सुविधा के नाम पर सरकारें अपने कपड़े बेचकर सहायता देने के लिए उतावली रहती हैं। इतना ही नहीं मस्जिद, मदरसे और चर्च में अरबों रूपये बाहर से आने की खुली छूट दी जाती है। यहां तक कि सरकारें उनका हिसाब तक पूछने की हिम्मत नहीं जूटा पा रही है। अगर कोई सरकारी अफसर हिम्मत वाला है भी जिसने किसी से कागजात मांग लिए तो फिर सरकारें नाक रगड़कर माफी मांगने के लिए तैयार हो जाती है।

वास्तव में भारत के दक्षिणी हिस्से के ये दोनो राजा अलग-अलग संस्कृतियों के परिचायक हैं। जहां एक ओर त्रावणकोर के राजा भारत के उस निरंजन और पुरातन हिंदू जीवनशैली पर आधारित हिंदू जीवन रचना के उदाहरण हैं। जिसमें व्यक्ति अपने लिए उतना ही अर्जन करता हैजिसको उसका जीवन सकुशल चल जाए। ‘साई इतना दीजिए, जामें कुटुंब समाय। मैं भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाए।’ प्राचीन हिंदू जीवन शैली का मूल विचार है। जबकि दूसरी ओर ए. राजा पश्चिम की भोगवादी संस्कृति का प्रतीक हैं जिसमें येन केन प्रकारेण धन संपदा का अर्चन करके भौतिक सुखों का आनंद लूटना ही जीवन का लक्ष्य है इसलिए पश्चिमी अवधारणा में मनुष्य को अर्थिक प्राणी माना गया है। यही वह संस्कृति है जिसने मंदिरों को लूटा है और देशों को लूटा है इसी कारण ए. राजा को लूटने में कोई संकोच नहीं हुआ। आज मंदिरों की संपदा को अपनी सरकारों के अधीन करने वाले उसी पश्चिमी अवधारणा के शिकार हैं जिसका शिकार होकर ए. राजा देश को लूट ले गए। हिंदू जीवन-दर्शन की दृष्टि केवल आर्थिक नहीं है। ‘आत्मनो मोक्षार्थ – जग हिताय च’ हिन्दुत्व की अवधारण है जिसमें अपने हित और जगती के कल्याण की कल्पना की जाती है। मंदिरों पर अधिकार जमाने की कोशिश करना समाज सत्ता पर राजसत्ता का अतिक्रमण है। रोम में जब राजसत्ता एक ही सिक्के के दो पहलू हो गए तब सेकुलर स्टेट की अवधारणा पश्चिमी जगत के दिमाग में आयी। जबकि हिंदुत्व का मौलिक चिंतन ही पंथनिरपेक्षता की पहली पहचान है।

भारत में ॠषि और मंदिर संस्कृति समाज सत्ता का प्रतिनिधित्व करती हैं। देश में अनेक मंदिर ट्रस्ट या सामाजिक ट्रस्ट जनता की सेवा के लिए अनाथालय, वृध्दाश्रम, चिकित्सालय, स्कूल, योग केंद्र, प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र, आदि बिना सरकार की एक कौड़ी सहायता प्राप्त किए संचालित करते हैं। राजसत्ता को कोई नैतिक अधिकार नहीं है कि समाजसेवा के इन प्रकल्पों पर व्यय करने के लिए आरक्षित धनराशि को मनमाने तरीके से हड़प लें। जिस प्रकार किसी सरकार का अपना बजट होता है, उसी प्रकार समाज का भी अपना वजट होता है। वजट की मदों का परिवर्तन वित्तीय अनियमितता का हिस्सा है। सरकारें तय करती हैं कि रक्षा, शिक्षा, चिकित्सा, सड़क निर्माण, प्रशासन आदि पर अलग-अलग कितना व्यय करेंगे। किंतु यदि कोई समझदार आदमी कहे कि रक्षा पर करोड़ों रूपये खर्च करने से क्या लाभ है? इस पैसे से तो हजारों किलोमीटर सड़क और सैक ड़ों स्कूल बन जाएंगे, तो उसके ऊपर लोग हसेंगे। फिर समाज द्वारा हिंदू धर्म के विकास के लिए श्रध्दा के साथ मंदिरों में दान की गई संपदा पर सरकारों की गिध्द दृष्टि का क्या मतलब है? क्या यह सामाजिक बजट में हेराफेरी नहीं है? संपदा चाहे श्री पद्मनाथ स्वामी मंदिर ट्रस्ट की हो, तिरूमाला ट्रस्ट की हो, सत्यसाईं बाबा ट्रस्ट की हो या फिर किसी अन्य हिंदू धर्म स्थान की हो, उसे सरकारों द्वारा अपने कब्जे में करने का प्रयास घोर निंदनीय ही नहीं असंवैधानिक भी है। वस्तुतः दान की संपत्ति में दानदाता की मंशा भी निहित रहती है अतः उसकी अनदेखी करके संपत्ति का उपयोग करना आर्थिक दुराचार है। जिसने भी अपनी गाढ़ी कमाई पद्मनाभ स्वामी को दी होगी उनकी दृष्टि में मंदिर का विकास तथा अपंग, अपाहिज, गरीब बेसहारा और वृध्दजनों की सेवा का सपना भी रहा होगा इसलिए मंदिर ट्रस्ट को ही न्यायालय इस कार्य के लिए पूर्णतया अधिकृत करे न कि सरकार को मनमाने तौर पर अपना अधिकार जमाने के लिए। मुकदमें की सुनवाई माननीय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति आर. वी. रविन्द्रन तथा न्यायमूर्ति एके पटनायक की खंड पीठ कर रही है। न्यायालय ने जहां एक ओर राज्य सरकार और मंदिर ट्रस्ट के ट्रस्टी त्रावणकोर के राजा मार्तंड वर्मा से मंदिर की सुरक्षा और खजाने के संरक्षण पर सुझाव मांगा है वहीं दूसरी ओर मंदिर ट्रस्ट के वकील के. के. वेणुगोपालन ने कहा है कि मंदिर सार्वजनिक संपत्ति है। राजपरिवार ने यहां से मिली संपत्ति पर किसी तरह का निजी स्वामित्व पेश नहीं किया है। यह संपत्ति पद्मनाभ स्वामी की है। केरल सरकार का इस पर कोई भी अधिकार नहीं होना चाहिए।

जहां तक इस मंदिर की प्राचीनता का सवाल है तो यह मंदिर ग्यारहवीं शताब्दि का बताया जाता है। त्रावणकोर में पद्मनाभ स्वामी के रूप में भगवान विष्णु की सृष्टि में सबसे बड़ी शेषमयी मूर्ति है। केवल इतना ही नहीं केरल की सामाजिक विषमता के कारण 1892 में स्वामी विवेकानंद ने केरल को भ्रांतालय (पागलखाना) कहा था। जहां पर नारायण गुरू तथा उनके अनुयायियों ने उंच-नींच का भेदभाव समाप्त करने की दृष्टि से व्यापक प्रयत्न किए। उसी केरल में तिरुअनन्तपुरम् का श्रीपद्मनाभ स्वामी का मंदिर पहला मंदिर था जहां सन् 1936 में अनुसूचित जाति के बंधुओं को समस्त हिंदू समाज का अंग मानते हुए प्रवेश का अधिकार दिया गया और 1937 में महात्मा गांधी भी सभी जातियों के लोगों के साथ इसी मंदिर में गए। जहां उन्होंने यह भी कहा था कि पद्मनाथ स्वामी मंदिर के इस कदम ने केरल को भ्रांतालय से तीर्थालय बना दिया।

मंदिर की इस महत्ता को देखते हुए न्यायालय का भी यह धर्म है कि समाज संरक्षण के इस पुनीत कार्य में बाधा न खड़ी हो। अन्यथा सरकारों का रवैया तो जगजाहिर है। दिल्ली की शीला सरकार की नीयत का खोट भी समाने आ गया जब दिल्ली के मंदिरों की संपत्ति पर ललचायी निगाहें पड़ने लगी या ऐसा लगता है कामनवेल्थ की लूट के बाद भी नयी लूट परियोजना की तलाश जारी है। दिल्ली हो या केरल, दोनों ही राज्य सरकारें उसी राजनैतिक वंशावली से जुड़ी हैं जिसने टूजी स्पेक्ट्रम के नामपर लूटा, आदर्श सोसायटी के नाम पर लूटा और कामनवेल्थ गेम में खेल किया। ए. राजा और कलमाड़ी तिहाड़ में शोभा बढ़ा रहे है। अशोक चव्हाण और दयानिधि मारन राजनैतिक वनवास में हैं, पता नही कब इनको तिहाड़माता बुलावा भेज दे। कपिल सिब्बल, पी. चिदंबरम् और खेलमंत्री गिल प्रतीक्षा सूची में है। इसलिए देश के मंदिरों को भी टूजी, आदर्श और कॉमनवेल्थ गेम न बना दे।

* लेखक समाजसेवी, स्वतंत्र पत्रकार एवं अध्यापन से जुड़े हैं।

सफलता की नई शर्त-गोरेपन का अहसास

हरिकृष्ण निगम 

ऐसा अनेक बार देखा गया है कि जब भी कोई देश की एक कड़वी सच्चाई भरी हमारी इस कमजोरी को सामने रखता है कि हम स्वभाव से गोरी चमड़ी को महत्व देते हैं और उस अर्थ में रंगभेद की भेदभाव भरी नस्लवादी मानसिकता से ग्रस्त रहते हैं, इस आरोप का हम तुरंत प्रतिरोध करने लग जाते हैं। यह एक ऐसा क टु सत्य है जो राजनीतिक रूप से हम सबके लिए अप्रिय, असुविधाजनक और असहनीय भी बन जाता है। कोई भी भारतीय अपने को नस्लवादी नहीं कहलाना चाहेगा। देखा गया है कि व्यवहार में में हम सब श्वेत चेहरे का ही अभिनंदन करते हैं और यदि हम गेंहुए या श्याम वर्ण को भी हों तो भी प्रसाधन के उत्पादनों के प्रचारतंत्र द्वारा गोरे दिखने की अघोषित प्रतिद्वंदिता में हर प्रकार की दौड़ लगाने को सदा तैयार रहते हैं।

हाल में जब बॉलीबुड की अभिनेत्री फ्रीडा पिंटो ने एक वक्तव्य में कहा है कि अपने देश के लोगों के सामाजिक मानदंड आज भी ‘गोरेपन के अहसास से लिप्त हैं और जाने-अनजाने हम इसके ऊपर उठना नहीं चाहते हैं तब नैतिकता के उच्चासन पर बैठने वालों के अहंकार को गहरी चोट पहुंची थी। यह सच है कि मनोरंजन की दुनियां में सभी अपने चेहरे-मोहरे के लिए असुरक्षित महसूस करते हैं तथा फिल्म उद्योगों की व्यवसायिकता के दबाव के कारण हर कोई अलग और विशेष रूप से अपने को प्रस्तुत करना चाहता है। चेहरे की झुरियां मिटाने, अधरों, नितंबों, उन्नत उरोजों, कटि-प्रदेश या आंखों के लिए आवश्यक प्रसाधन व शल्य चिकित्सा आदि का सहारा आज आम बात है। पर फ्रीडा पिंटो का आरोप है कि भारतीय गोरे रंग के प्रति अपना पक्षपात व आकर्षण जिस तरह दिखाते हैं वह बहुधा चर्चित नहीं होता है सच होने पर भी अनकहा रह जाता है। गोरे रंग के लिए प्रसाधन के उपकरण जिसमें बोटोक्स-झुर्रियां मिटाने की महंगी दवाएं और इंजेक्शन, क्रीम, लोशन, फेसपैक और न्यूनतम अवधि में बेहतर सफेद निखार की गारंटी देने वाले उत्पादनों के लिए कॉरपोरेट जगत द्वारा श्रव्य, दृश्य, मुद्रित आदि मीडिया के सैकड़ों करोड़ के प्रचारतंत्र के आधार से कौन अवगत नहीं है? दूसरा प्रमाण है कि महानगरों के सम्भ््राांत, धनाड्य, शिक्षित या उच्च मध्यवर्गीय परिवार से लेकर छोटी शहरों तक में लड़के के विवाह के लिए प्रकाशित विज्ञापनों में सभी को छरहरी, स्मार्ट और गोरी बहू चाहिए।

स्पष्ट है कि फ्रीडा पिंटो का यह आरोप है कि भारतीय रंगभेद के विश्वास करने वाले नस्लवादी है, गलत नहीं लगता। जीवन के हर मोड़ पर गोरी चमड़ी की खोज वस्तुतः आपत्तिजनक है जो हमें स्वीकार करने में कष्टकर प्रतीत होती है।

इस तरह का पक्षपात हर परिवार में बच्चों के शैशव से ही देखा जा सकता है। नवजात शिशु, विशेषकर यदि वह बालिका हुई और गोरी पैदा नही हुई तो मां-बाप और परिवार की सभी महिलाएं मन-मसोस कर रह जाती हैऔर उसकी मां पर विविध रूप से गुस्सा निकालती हैं। निकट संबंधी और अन्य परिजन भी काली या गेहुंए रंग की बच्ची के आगामी वर्षों में उसके लिए उचित वर के खोज का रोना शुरू कर देते हैं। लगभग शत-प्रतिशत खाते-पीते संपन्न घरों के वैवाहिक विज्ञापनों में भी गोरी लड़की की अनवरत खोज सामान्य बात है। जिसे दबे रंग की लड़की कहा जाता है चाहे वह कितनी शिक्षित, सुशील या स्मार्ट हो, हमारे देश के मां-बाप अपने बच्चों के लिए उसे पहला विकल्प कभी नहीं मानते हैं।

गोरी श्वेत काया व चेहरे के विषय में सारा देश एकजुट होकर अपनी प्राथमिकता तय करता है। इसी के पीछे निखरते रंग की सुंदरता का आश्वासन देने के लिए आज बड़ी से बड़ी कंपनियों ने दो हजार करोड़ से अधिक का बाजार खड़ा कर दिया है, सिर्फ युवतियों या महिलाएं ही नहीं अब तो पुरुषों के गोरे बनने के लिए अलग-अलग प्रसाधन उपकरणों के विपणन के लिए बॉलिबुड के अनेक महानायक भी प्रचारतंत्र से जुड़े दिखते हैं। पुरूषों को भी गोरा दिखने या बनने में कोई हीनता भाव न हो इसलिए मनोरंजन की दुनियां के बड़े रोल-मॉडलों का अनुमोदन भी जारी है। गोरी चमड़ी आपकी बेहतर जीवन-शैली की गारंटी है, यह दिनरात हमारे कानों में भरा जा रहा है।

हमें भूलना नही चाहिए कि अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब आई पी एल के मोहाली में खेले जाने वाले क्रिकेट मैच के दौरान दो अश्वेत ‘चियरलीडर’लड़कियों ने यह आरोप लगाया था कि उनके गोरे न होने की वजह से अधिकारियों ने उन्हें मैदान से बाहर कर दिया था। शायद इसीलिए देश में हर नगर में फलते-फूलते ब्यूटी या मसाज पार्लर या ब्राइबल मेकअप के अनेक पैकेजों के नाम पर या फेयरनेस क्रीम या ब्लीचेज के बहाने रंग में रूपांतरण का आश्वासन बेचा जा रहा है। मनोरंजन की हमारी दुनियां के केंद्र बॉलीबुड में गोरी सिने तारिकाएं स्वयं ऐसे उपकरणों के अनेक ब्राँडों के अनुमोदक या प्रायोजक के रूप में आज देखी जा सकती हैं। जोर शोर से अज्ञात और अनामी रिसर्च एंड डेवलपमेंट प्रयोगशालाओं के संदिग्ध शोध को उध्दृत करते हुए चाहे वे प्रसिध्द आई टी सी या हिन्दुस्थान लीवर जैसी कंपनियां हों, सभी गोरा बनाने का दावा करने में जुटी हैं। वर्षों तक फेयर एंड लवली का साठ प्रतिशत अधिक गोरा बनाने का दावा जनसाधारण को भ्रमित करता था। लक्स साबुन के प्रायोजक के रूप में जैसे कुछ सिने तारिकाओं ने सबको गोरापन बांटने की जिम्मेदारी ही ले ली थी। एडवर्टाईजिंग स्टैंड्स काउंसिल ऑफ इंडिया में बड़ी कंपनियों के विरूध्द शिकायतें आती रही पर उन्हें कौन सुनता है? आई टी सी को गोरे बनाने वाले नहाने का साबुनों को पहले पुरूषों के लिए फियामा डी विल्स और एक्वा पल्स बेदिंग बार जेल प्रचारित किया गया और अब विवेल एक्टिव फेयर और विवेल एक्टिव स्पिरिट की दिन रात हर चैनल पर बहार है।

जन संपर्क और छवि निर्माण उद्योग आज पश्चिम की नकल पर करोड़ों रूपये मात्र इस प्रकार के उत्पादों पर खर्च कर रहा है कि वस्तुतः लोगों की जिन चीजों की आवश्यकता नहीं है वे विश्वास कर लें कि उनकी जरूरत उन्हें है। सामाजिक संबंधों को तोड़ने में यह मानसिकता सहायक होती हैजैसे यदि पड़ोसी की लड़की की अपेक्षा आपकी बच्ची उतनी ही गोरी नहीं है, श्याम वर्णीं सीधी-सादी है तो उसे भी अहसास होना चाहिए कि प्रसाधन के उत्पाद उसे भी गोरा बना सकते हैं। चारों तरफ आवाभाषी, लूट और गोर बनने की दमित इच्छाओं की रेलमपेल है। मीडिया भी इस प्रचार को नए-नए छलों जैसे-फर्जी सर्वेक्षणों, क्लिनिकल ट्रायल आदि द्वारा सजाय-संवारा जाता है। प्रसाधन उद्योग के कर्णधारों की भी यह जिम्मेदारी बन जाती है। इसी को जनमानस का उपनिवेशीकरण भी कहा जा सकता है। आज प्रसाधन उद्योगों का अनगिनत सीधी-सादी साधारण युवतियों पर मीडिया का निरंतर दबाव अनैतिक भी है और नस्लवादी वर्णभेद को भी अप्रव्यक्ष बढ़ावा देता है। आज देश की टी.बी. चैनलों, पत्र-पत्रिकाओं, फिल्में, बड़ी विज्ञापन एजेंसियों, प्रसाधन व श्रंगार के उपकरणों के उत्पादक, फैशन-शो, मॉडलिंग, शराब, सिगरेट व इत्रों के निर्माता-इन सभी की मौलिक नीतियां एक जैसी है। सभी एक दूसरे के सम्मानित युवा और यौनविमुख पीढ़ी के संदेशों को मजबूत करती हैं। सेक्स व अश्लीलता को आधार बनाकर उसके लिए नए बाजार की पृष्ठभूमि तैयार करने में कभी-कभी प्रख्यात सिनेस्टार और खिलाड़ियों द्वारा इनके उत्पादों का अनुमोदन या सौंदर्य-प्रतियोगिताओं द्वारा उत्तेजक रूपतंत्र की खोज जारी है-इन सबसे समाज के प्रतिष्ठित व चर्चित लोग जुड़ते जा रहे हैं।

गोरेपन के सम्मोहन के साथ-साथ आज दृश्यरतिकों के लिए टीबी की अनेक चैनलों ने यौनाचार के अनेक आयामों में अश्लीलता के विपणन ने यौनाभिमुख नई पीढ़ी के अंतर्मन में छिपी कामुकता की जैसे सभी वर्णनाओं को एकाएक तिलांजली दे दी है। वैश्वीकरण ने शर्म की बेशर्म सीमाओं का उल्लंघन कब का कर लिया है। यद्यपि जातिवाद को जातीय श्रेष्ठता की बात देश में आज लगभग एक स्वर में दफनाई जा चुकी है पर गोरे रंग का वर्चस्व व उसके आधार पर बनाए भेदभाव का दबाव आज भी किसी न किसी रूप में स्वीकारा है।

* लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं। 

दीपावली पर्व का पौराणिक, ऐतिहासिक एवं वैज्ञानिक महत्व

राजेश कश्यप

दीपावली हमारा सबसे प्राचीन धार्मिक पर्व है। यह पर्व प्रतिवर्ष कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। देश-विदेश में यह बड़ी श्रद्धा, विश्वास एवं समर्पित भावना के साथ मनाया जाता है। यह पर्व ‘प्रकाश-पर्व’ के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व के साथ अनेक धार्मिक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक मान्यताएं जुड़ी हुई हैं। मुख्यतया: यह पर्व लंकापति रावण पर विजय हासिल करके और अपना चौदह वर्ष का वनवास पूरा करके अपने घर आयोध्या लौटने की खुशी में मनाया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार जब श्रीराम अपनी पत्नी सीता व छोटे भाई लक्ष्मण सहित आयोध्या में वापिस लौटे थे तो नगरवासियों ने घर-घर दीप जलाकर खुशियां मनाईं थीं। इसी पौराणिक मान्यतानुसार प्रतिवर्ष घर-घर घी के दीये जलाए जाते हैं और खुशियां मनाई जाती हैं।

दीपावली पर्व से कई अन्य मान्यताएं, धारणाएं एवं ऐतिहासिक घटनाएं भी जुड़ी हुई हैं। कठोपनिषद् में यम-नचिकेता का प्रसंग आता है। इस प्रसंगानुसार नचिकेता जन्म-मरण का रहस्य यमराज से जानने के बाद यमलोक से वापिस मृत्युलोक में लौटे थे। एक धारणा के अनुसार नचिकेता के मृत्यु पर अमरता के विजय का ज्ञान लेकर लौटने की खुशी में भू-लोकवासियों ने घी के दीप जलाए थे। किवदन्ती है कि यही आर्यवर्त की पहली दीपावली थी।

एक अन्य पौराणिक घटना के अनुसार इसी दिन श्री लक्ष्मी जी का समुन्द्र-मन्थन से आविर्भाव हुआ था। इस पौराणिक प्रसंगानुसार ऋषि दुर्वासा द्वारा देवराज इन्द्र को दिए गए शाप के कारण श्री लक्ष्मी जी को समुद्र में जाकर समाना पड़ा था। लक्ष्मी जी के बिना देवगण बलहीन व श्रीहीन हो गए। इस परिस्थिति का फायदा उठाकर असुर सुरों पर हावी हो गए। देवगणों की याचना पर भगवान विष्णु ने योजनाबद्ध ढ़ंग से सुरों व असुरों के हाथों समुद्र-मन्थन करवाया। समुन्द्र-मन्थन से अमृत सहित चौदह रत्नों में श्री लक्ष्मी जी भी निकलीं, जिसे श्री विष्णु ने ग्रहण किया। श्री लक्ष्मी जी के पुनार्विभाव से देवगणों में बल व श्री का संचार हुआ और उन्होंने पुन: असुरों पर विजय प्राप्त की। लक्ष्मी जी के इसी पुनार्विभाव की खुशी में समस्त लोकों में दीप प्रज्जवलित करके खुशियां मनाईं गई। इसी मान्यतानुसार प्रतिवर्ष दीपावली को श्री लक्ष्मी जी की पूजा-अर्चना की जाती है। मार्कंडेय पुराण के अनुसार समृद्धि की देवी श्री लक्ष्मी जी की पूजा सर्वप्रथम नारायण ने स्वर्ग में की। इसके बाद श्री लक्ष्मी जी की पूजा दूसरी बार, ब्रह्मा जी ने, तीसरी बार शिव जी ने, चौथी बार समुन्द्र मन्थन के समय विष्णु जी ने, पांचवी बार मनु ने और छठी बार नागों ने की थी।

दीपावली पर्व के सन्दर्भ मे एक पौराणिक प्रसंग भगवान श्रीकृष्ण भी प्रचलित है। इस प्रसंग के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण बाल्यावस्था मे पहली बार गाय चराने के लिए वन में गए थे। संयोगवश इसी दिन श्रीकृष्ण ने इस मृत्युलोक से प्रस्थान किया था। एक अन्य प्रसंगानुसार इसी दिन श्रीकृष्ण ने नरकासुर नामक नीच असुर का वध करके उसके द्वारा बंदी बनाई गई देव, मानव और गन्धर्वों की सोलह हजार कन्याओं को मुक्ति दिलाई थी। इसी खुशी में लोगों ने दीप जलाए थे, जोकि बाद मे एक परंपरा में परिवर्तित हो गई।

दीपावली के पावन पर्व से भगवान विष्णु के वामन अवतार की लीला भी जुड़ी हुई है। एक समय दैत्यराज बलि ने परम तपस्वी गुरू शुक्राचार्य के सहयोग से देवलोक के राजा इन्द्र को परास्त करके स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। समय आने पर भगवान विष्णु ने अदिति के गर्भ से महर्षि कश्यप के घर वामन के रूप में अवतार लिया। जब राजा बलि भृगकच्छ नामक स्थान पर अश्वमेघ यज्ञ कर रहे थे तो भगवान वामन ब्राहा्रण वेश मे राजा बलि के यज्ञ मण्डल में जा पहुंचे। बलि ने वामन से इच्छित दान मांगने का आग्रह किया। वामन ने बलि से संकल्प लेने के बाद तीन पग भूमि मांगी। संकल्पबद्ध राजा बलि ने ब्राहा्रण वेशधारी भगवान वामन को तीन पग भूमि नापने के लिए अनुमति दे दी। तब भगवान वामन ने पहले पग में समस्त भूमण्डल और दूसरे पग में त्रिलोक को नाप डाला। तीसरे पग में बलि ने विवश होकर अपने सिर को आगे बढ़ाना पड़ा। बलि की इस दान वीरता से भगवान वामन प्रसन्न हुए। उन्होंने बलि को सुतल लोक का राजा बना दिया और इन्द्र को पुन: स्वर्ग का स्वामी बना दिया। देवगणों ने इस अवसर पर दीप प्रज्जवलित करके खुशियां मनाई और पृथ्वीलोक में भी भगवान वामन की इस लीला के लिए दीप मालाएं प्रज्जवलित कीं।

दीपावली के दीपों के सन्दर्भ में देवी पुराण का एक महत्वपूर्ण प्रसंग भी जुड़ा हुआ है। इसी दिन दुर्गा मातेश्वरी ने महाकाली का रूप धारण किया था और असंख्य असुरों सहित चण्ड और मुण्ड को मौत के घाट उतारा था। मृत्युलोक से असुरों का विनाश करते-करते महाकाली अपना विवके खो बैठीं और क्रोध में उसने देवों का भी सफाया करना शुरू कर दिया। देवताओं की याचना पर शिव महाकाली के समक्ष प्रस्तुत हुए। क्रोधावश महाकाली शिव के सीने पर भी चढ़ बैठीं। लेकिन, शिव-’शरीर का स्पर्श पाते ही उसका क्रोध शांत हो गया। किवदन्ती है कि तब दीपोत्सव मनाकर देवों ने अपनी खुशी का प्रकटीकरण किया।

दीपावली पर्व के साथ धार्मिक व पौराणिक मान्यताओं के साथ-साथ कुछ ऐतिहासिक घटनाएं भी जुड़ी हुई हैं। एक ऐतिहासिक घटना के अनुसार गुप्तवंश के प्रसिद्ध सम्राट विक्रमादित्य के राज्याभिषेक के समय पूरे राज्य में दीपोत्सव मनाकर प्रजा ने अपने भावों की अभिव्यक्ति की थी। इसके अलावा इसी दिन राजा विक्रमादित्य ने अपना संवत चलाने का निर्णय किया था। उन्होंने विद्वानों को बुलवाकर निर्णय किया था कि नया संवत चैत्र सुदी प्रतिपदा से ही चलाया जाए।

दीपावली के दिन ही महान समाज सुधारक, आर्य समाज के संस्थापक और ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ के रचियता महर्षि दयानंद सरस्वती की महान् आत्मा ने ३० अक्तूबर, १८८३ को अपने नश्वर शरीर को त्यागकर निर्वाण प्राप्त किया था। परम संत स्वामी रामतीर्थ का जन्म इसी दिन यानी कार्तिक मास की अमावस्या के दिन ही हुआ था और उनका देह त्याग भी इसी दिन होने का अनूठा उदाहरण भी हमें मिलता है। इस प्रकार स्वामी रामतीर्थ के जन्म और निर्वाण दोनों दिवसों के रूप में दीपावली विशेष महत्व रखती है।

बौद्ध धर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध के समर्थकों व अनुयायियों ने २५०० वर्ष पूर्व हजारों-लाखों दीप जलाकर उनका स्वागत किया था। आदि शंकराचार्य के निर्जीव शरीर में जब पुन: प्राणों के संचारित होने की घटना से हिन्दू जगत अवगत हुआ था तो समस्त हिन्दू समाज ने दीपोत्सव से अपने उल्लास की भावना को दर्शाया था।

दीपावली के सन्दर्भ में एक अन्य ऐतिहासिक घटना भी जुड़ी हुई है। मुगल सम्राट जहांगीर ने ग्वालियर के किले में भारत के सारे सम्राटों को बंद कर रखा था। इन बंदी सम्राटों में सिखों के छठे गुरू हरगोविन्द जी भी थे। गुरू गोविन्द जी बड़े वीर दिव्यात्मा थे। उन्होंने अपने पराक्रम से न केवल स्वयं को स्वतंत्र करवाया, बल्कि शेष राजाओं को भी बंदी-गृह से मुक्त कराया था और इस मुक्ति पर्व को दीपोत्सव के रूप में मनाकर सम्पूर्ण हिन्दू और सिख समुदाय के लोगों ने अपनी प्रसन्नता को व्यक्त किया था।

कुल मिलाकर दीपावली पर्व से जुड़ी हर धार्मिक व पौराणिक मान्यता और ऐतिहासिक घटना इस पर्व के प्रति जनमानस में अगाध आस्था तथा विश्वास बनाए हुए है। दीपावली न केवल धार्मिक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी बड़ी महत्वपूर्ण है। क्योंकि दीपावली पर्व ऐसे समय पर आता है, जब मौसम वर्षा ऋतु से निकलकर शरद ऋतु में प्रवेश करता है। इस समय वातावरण में वर्षा ऋतु में पैदा हुए विषाणु एवं कीटाणु सक्रिय रहते हैं और घर में दुर्गन्ध व गन्दगी भर जाती है।

दीपावली पर घरों व दफ्तरों की साफ-सफाई व रंगाई-पुताई तो इस आस्था एवं विश्वास के साथ की जाती है, ताकि श्री लक्ष्मी जी यहां वास करें। लेकिन, इस आस्था व विश्वास के चलते वर्षा ऋतु से उत्पन्न गन्दगी समाप्त हो जाती है। दीपावली पर दीपों की माला जलाई जाती है। घी व वनस्पति तेल से जलने वाल दीप न केवल वातावरण की दुर्गन्ध को समाप्त सुगन्धित बनाते हैं, बल्कि वातावरण में सक्रिय कीटाणुओं व विषाणुओं को समाप्त करके एकदम स्वच्छ वातावरण का निर्माण करते हैं। कहना न होगा कि दीपावली के दीपों का स्थान बिजली से जलने वाली रंग-बिरंगे बल्बों की लड़ियां कभी नहीं ले सकतीं। इसलिए हमें इस ‘प्रकाश-पर्व’ को पारंपरिक रूप मे ही मनाना चाहिए।

 

माया की महत्वकांक्षा और दलित

प्रमोद भार्गव

उत्तर-प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की प्रधानमंत्री बनने की महत्वकांक्षा इतनी बलवती हो गर्इ है कि वे दलित उत्पीड़न की हकीकतों से दूर भागती नजर आ रही हैं। दलित यथार्यवाद से वे पलायन कर रही हैं। नोएडा में राष्ट्रीय दलित प्रेरणा स्थल व ग्रीन गार्डन के उदघाटन अवसर पर कांग्रेस और भाजपा को आड़े हाथों लेते हुए उन्होंने जो तेवर दिखाए उससे तो यही चिंता जाहिर होती है कि वे दलितों को मानसिक रूप से चैतन्य व आर्थिक रूप से मजबूत बनाने की बजाए इस, कोशिश में लगी हैं कि उत्तर प्रदेश में मौजूद 25 फीसदी दलित वोट बैंक को चाक-चौबंद कैसे रखा जाए। वैसे भी जिस तरह से उन्होंने डा. भीमराव अंबेडकर, कांशीराम और खुद की आदमकद मूर्तियां उधान में लगाकर प्रतीक गढ़ने की जो कवायद की है, हकीकत मे ऐसी कोशिशें ही आज तक हरिजन, आदिवासी और दलितों को कमजोर बनाए रखती चली आर्इ हैं। इस उधान में खर्च की गर्इ 685 करोड़ की धन राशि को यदि बुंदेलखण्ड की गरीबी व लाचारी दूर करने में खर्च किया जाता तो खेती-किसानी की माली हालत में निखार आता और किसान आत्महत्या के अभिशाप से बचते। मायावती की मौजूदा कार्यप्रणाली में न तो डा. अंबेडकर का दर्शन दिखार्इ देता है और न ही कांशीराम की दलित उत्थान की छवि।

मूर्तिपूजा, व्यकितपूजा और प्रतीक पूजा के लिए गढ़ी गर्इ प्रस्तर शिलाओं ने मानवता को अपाहिज बनाने का ही काम किया है। जब किसी व्यकित की व्यकितवादी महत्वकांक्षा, सामाजिक चिंताओं और सरोकारों से बड़ी हो जाती है तो उसकी दिशा बदल जाती है। मायावती के साथ भी कमोबेश यही सिथति निर्मित होती जा रही है। महत्वकांक्षा और वाद अंतत: हानि पहुंचाने का ही काम करते हैं। अंबेडकर के समाजवादी आंदोलन को यदि सबसे ज्यादा किसी ने हानि पहुंचार्इ है तो वह ‘बुद्धवाद है। जिस तरह से बुद्ध ने सांमतवाद से संघर्ष कर रहे अंगुलिमाल से हथियार डलवाकर राजसत्ता के विरूद्ध जारी जंग को खत्म करवा दिया था, उसी तर्ज पर दिलतों के बुद्धवाद ने व्यवस्था के खिलाफ समूची लड़ार्इ को कमजोर बना दिया है।

बहुजन समाज पार्टी को वजूद में लाने से पहले कांशीराम ने लंबे समय तक दलितों के हितों की मुहिम डीएस-4 के माध्यम से लड़ी थी। इस डीएस-4 का सांगठनिक ढांचा खड़ा करने के वक्त बसपा की बुनियाद पड़ी और पूरे हिन्दी क्षेत्र में बसपा की संरचना तैसार किए जाने की कोशिशें र्इमानदारी से शुरू हुइर्ं। कांशीराम के वैचारिक दर्शन में अंबेडकर से आगे जाने की सोच तो थी ही दलित और वंचितों को करिश्मार्इ अंदाज में लुभाने की प्रभावशाली शकित भी थी। यही कारण रहा कि बसपा दलित संगठन के रूप में सामने आर्इ, लेकिन मायावती की पद व धन लोलुपता ने बसपा में विभिन्न प्रयोग व प्रतीकों का तड़का लगाकर उसके बुनियादी सिद्धांतों के साथ खिलवाड़ ही कर डाला। नतीजतन आज बसपा सवर्ण और दलित तथा शोषक और शोषितों का बेमेल समीकरण है। बसपा के इस संस्करण में कार्यकर्ताओं की दलीय स्तर पर सांगठनिक संरचना नदारद है। प्रधानमंत्री पद की प्रतिस्पर्धा मायावती के लिए इतनी महत्वपूर्ण हो गर्इ है कि दलितों के कानूनी हितों की परवाह भी उन्हें नहीं रह गर्इ है। दलितों को संरक्षण देने वाले कानून सीमित व शिथिल किए जा रहे हैं। यही कारण है कि मायावती उन नीतियों को तवज्जो नहीं दे रही हैं जो सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक विषमताएं दूर करने वाली हैं।

सवर्ण नेतृत्व को दकिनार कर पिछड़ा और दलित नेतृत्व डेढ़-दो दशक पहले इस आधार पर उभरा था कि पिछले कर्इ दशकों से केंद्र व राज्यों में काबिज रही कांग्रेस ने न तो सबके लिए शिक्षा, रोजगार और न्याय के अवसर उपलब्ध कराए और न ही सांमतवादी व जातिवादी संरचना को तोड़ने में अंहम भूमिका निभार्इ। बलिक इसके विपरीत सामाजिक व आर्थिक विषमता का दायरा आजादी के बाद और विस्तृत ही होता चला गया। इसलिए जरूरी था कि पिछड़े, हरिजन आदिवासी व दलित राजनीति व प्रशासन की मुख्यधारा में आएं और रूढ़ हो चुकी जड़ताओं को तोड़ें। स्त्रीजन्य वर्जनाओं को तोड़ें। अस्पृश्यता व अंधविश्वास के खिलाफ लड़ार्इ लड़ें। हालांकि आजादी के बाद पहले तीन दशकों में कांग्रेस सरकार ने अस्पृश्यता को दंडनीय अपराध, दलितों को सामाजिक सम्मान व नौकरियों में आरक्षण के प्रावधान संविधान में दर्ज कराए। क्योंकि इस दौर में कांग्रेस के लिए दलितों के परिप्रेक्ष्य में राजनीतिक आजादी से कहीं ज्यादा सामाजिक समरसता लाने और आर्थिक विषमता दूर करने के मुददे महत्वपूर्ण थे। गांधी ने कहा था, ‘जब तक हिंदू समाज अस्पृश्यता के पाप से मुक्त नहीं होता, तब तक स्वराज की स्थापना असंभव है।

किंतु जिस 14 अक्टूबर 1956 के दिन डा. अंबेडकर ने हिंदू धर्म का परित्याग कर बौद्ध धर्म अपनाया था, उसी दिन मायावती ने ‘राष्ट्रीय दलित प्रेरणा स्थल से हुंकार भरते हुए एक तो कांग्रेस का भय दिखाया और दूसरे कांग्रेस की निंदा भी की। भय, इस परिप्रेक्ष्य में कि कांग्रेस, दलित वोट अपनी ओर खींचने अथवा विकेंदि्रकृत करने के नजरिए से किसी दलित को अगले साल पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव से पूर्व प्रधानमंत्री बना सकती है। इन राज्यों में उत्तरप्रदेश भी शामिल है। उन्होंने बतौर संभावित दलित प्रधानमंत्री के रूप में लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार और सुशील कुमार शिंदे के नाम भी उछाले। जिससे अंबेडकर व कांशीराम की निष्ठा वाला वोट बैंक न तो भ्रमित हो, न ही भटके और न ही किसी बहकावे में आए। हालांकि इन नामों को उछालना मायावती का शगूफा भर है। कांग्रेस फिलहाल डा. मनमोहन सिंह को पदच्युत कर किसी दलित को प्रधानमंत्री बनाकर बहुत बड़ा दांव खेलने वाली नहीं है। हां 2014 में होने वाले आमचुनाव से पूर्व जरूर कांग्रेस व सेानिया की राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की मंशा है। ऐसे में यदि मीरा कुमार अथवा सुशील कुमार शिंदे को प्रधानमंत्री के गौरवशाली पद से नवाजकर क्या कांग्रेस उसे एकाएक हटाने का भी जोखिम लेगी ? दलित वोट बैंक कांग्रेस द्वारा किसी दलित को प्रधानमंत्री बना देने से जितना खुश नहीं होगा, उतना हटा देने से नाराज होगा। लिहाजा दलित को प्रधानमंत्री बना देने की नादानी सोनिया जैसी चतुर व कुटनीतिक नेत्री से होने वाली नहीं है। हालांकि मायावती द्वारा दलितों को दिखाया गया है यह डर परोक्ष रूप से दलितों का डर न होकर मायावती का वह असुरक्षा भाव है, जिसके तर्इं उन्हें राहुल गांधी द्वारा दलितों के घर भोजन करने व ठहरने के चलते दलित वोट बैंक खिसक जाने का खतरा महसूस हो रहा है। इसी परिप्रेक्ष्य में मायावती ने कुटिल चतुरार्इ से बाबू जगजीवनराम को कांग्रेस द्वारा प्रधानमंत्री नहीं बनाए जाने की निंदा भी की। जिससे दलित कांग्रेस के कहकाबे में न आएं।

मायावती ने बड़ी विनम्रता से भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चला रहे अन्ना हजारे और बाबा रामदेव को भी उत्तरप्रदेश की धरती पर भ्रष्टाचार मुकित के लिए आमंत्रित किया। क्योंकि वे जानती हैं अन्ना और रामदेव मतदाता को लुभा रहे हैं। इसलिए इन्हें मनाने में ही सार है। दूसरी तरफ माया ने भाजपा की जनचेतना रथयात्रा को लालकृष्ण आडवाणी की निजी हसरत बताते हुए उसे आमजन की आंखों में धूल झोंकने व पार्टी में प्रधानमंत्री पद की दावेदारी मजबूत करने से प्रेरित होकर निकाली यात्रा बताकर, यात्रा की भ्रष्टाचार विरोधी मंशा को सिरे से खारिज कर दिया। मायावती ने खुद को पाक दामन घोषित करते हुए कहा, आय से अधिक संपत्ति के मामले में आयकर विभाग की क्लीन चिट के बावजूद सीबीआर्इ के मार्फत मुझे फंसा रखा है। सर्वोच्च न्यायालय की रूलिंग है कि एक जैसी प्रकृति के प्रकरण में दोहरे मापदण्ड नहीं अपनाए जा सकते। लिहाजा यदि आयकर विभाग ने माया को क्लीन चिट दे दी है तो इस बिना पर यदि आय से अधिक संपत्ति के कोर्इ नए साक्ष्य सीबीआर्इ नहीं बटोर पाती तो उसकी जांच के कोर्इ मायने नहीं रह जाते। बहरहाल उत्तप्रदेश में कांग्रेस और भाजपा सिर फुटौअल चाहे जितनी करलें मायावती की तुलना में वे कुछ ज्यादा हासिल कर ले जाएं, ऐसा नमुमकिन ही है। इसके बावजूद मायावती पदलोलुपता के चलते दलितों से जुड़ी उन समस्याओं को लगातार नजरअंदाज करती चली आ रहीं है जो दलितों को मुख्यधारा में लाने में बाधा बनी हुर्इ हैं। देश में 13 लाख से भी ज्यादा दलित महिलाएं सिर पर मैला ढोने के काम में लगीं हैं, लेकिन मायावती ने कभी इन समस्याओं से दलितों के छुटकारे के लिए कोर्इ कारगर पहल की हो ऐसा देखने में नहीं आया। चूंकि मायावती को अवसर मिला है इसलिए उन्हें अपनी महत्कांक्षा से ज्यादा दलितों का कल्याण कैसे हो यह र्इमानदारी से सोचने की जरूरत है।

 

आडवाणी की रथयात्रा और मीडिया का अनर्गल प्रलाप

गौतम चौधरी

भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी एक बार फिर से यात्रा पर निकल गये हैं। आडवाणी की वर्तमान यात्रा न तो भगवान राम के मंदिर के लिए है और न ही प्रधानमंत्री की दावेदारी के लिए। भाजपा सूत्रों पर भरोसा करे तो इस यात्रा में आडवाणी जी विशुद्धता के साथ सतर्कता भी बरत रहे हैं। इस बार की रथयात्रा में आडवाणी जी बता रहे हैं कि किस प्रकार केन्द्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबधन सरकार आम लोगों के साथ धोखा और मजाक कर रही है। आडवाणी जी बता रहे हैं कि देश पर षासन करने वाली सरकार निहायत भ्रष्ठ है। इस बार की रथयात्रा का एक खास पहलू यह है कि यात्रा किसी हिन्दू धर्मस्थल से प्रारम्भ नहीं हुआ है। यह यात्रा उन्होंने लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जन्मभूमि सिताबदियरा से शुरु की है। भारत में इस प्रकार की यात्रा के तीन पहलु हुआ करते हैं। एक तो यात्रा किस थीम पर है। दूसरा यात्रा के दौरान किन किन बिन्दुओं को उठाया जा रहा है। फिर यात्रा के दौरान किन बिन्दुओं को ज्यादा प्रभावी ढंग से रखा जा रहा है। इसके अलावा यात्रा के दौरान किस व्यक्ति, समूह, दल एवं संगठन पर प्रहार किया जा रहा है। आडवाणी जी इस बार कुल मिलाकर भ्रष्‍टाचार को प्रमुख मुद्दा बना रहे है। आडवाणी जी के यात्रा के दौरान दिये गये भाषणों की मीमांसा की जाये तो ऐसा लगता है कि वे एक सार्थक और समझ वाले विषयों को उठा रहे हैं। आडवाणी जी विदेशी बैंकों में भारतीयों के काले धन का मुद्दा उठा रहे हैं। इस यात्रा के दौरान कही कही आडवाणी जी ने अन्ना हजारे के जनलोकपाल और बाबा रामदेव के भ्रठाचार विरोधी अभियान का भी समर्थन किया है। इस प्रकार देखे तो अबके आडवाणी जी पूरे राष्ट्रीयता का विचार कर यात्रा कर रहे हैं। इस यात्रा में आडवाणी जी न तो किसी खास व्यक्ति पर प्रहार कर रहे हैं और न ही अनर्गल बयानबाजी ही कर रहे हैं वाबजूद देश की सत्तारूढ दल, भारतीय मीडिया, विदेशी पैसों पर पलने वाले गैर सरकारी संगठन तथा भ्रष्ट नौकरशाहों के बीच मानों खलबली मच गयी है। सबसे घटिया भूमिका में तो देश का समाचार माध्यम है जो आडवाणी जैसे नेता को बिना बात के विवादों में घसीटने को आतुर दिख रहा है।

आडवाणी के हालिया यात्रा में समाचार माध्यमों की भूमिका बडी ओछी रही है। समाचार माध्यमों ने आडवाणी के व्यक्तित्व और कृतृत्व पर कोई टिप्पणी नहीं छापी लेकिन आडवाणी के साथ गुजरात के मुख्यमंत्री की लडाई प्रधानमंत्री की दावेदारी को लेकर हो गयी है इसकी खबर हर समाचार माध्यम ने प्रमुखता से दिखाया और और छापा जबकि दोनों ने इस खबर का खंडन किया। आज समाज नामक अखबार ने तो इस परिकल्पनात्मक खबर पर अपना संपादकीय तक लिख दिया। प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पर न तो आडवाणी कुछ बोल रहे हैं और न ही मोदी लेकिन अखबार और समाचार वाहिनी लगातार लिखे दिखाये जा रहा है कि दोनों में घमासान है। अब इस परिकल्पनात्मक खबर को क्या कहा जाये। इसे परिपक्व या तटस्थ भूमिका कही जा सकती है क्या? एक बात समझ लेनी चाहिए कि यदि राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक गठबंधन को बहुमत मिलता है तो प्रधानमंत्री की कुर्सी भाजपा के खाते में आएगा। भाजपा के खाते की कुर्सी बिना आडवाणी की सहमति के किसी को दिया नहीं जा सकता है। यह भाजपा की परंपरा है कि जो सबसे वरिष्ठ होता है वही वरिष्ठ पद का भी अधिकारी होता है। ऐसे में भाजपा आखिर किसको प्रधानमंत्री बनाएगा यह कोई साधारन मीमांसक भी समझ सकता है तो फिर बेवजह की बातों को तुल देने की क्या जरूरत है। लेकिन आडवाणी जी यात्रा को विवादित बनाना है इसलिए ऐसा करना जरूरी है। क्योंकि मीडिया कांग्रेस नीति गढबंधन को बढत दिलाना चाहती है उसके लिए आडवाणी जी को विवादित करना जरूरी है और वही भारतीय मीडिया कर रही है। तो अब किस प्रकार भारतीय मीडिया को परिपक्व कहा जाये। जहां तक प्रधानमंत्री के दावेदारी क सवाल है तो आडवाणी जी के बाद डॉ0 मुरली मनोहर जोशी हैं फिर भाजपा के दूसरी पंक्ति के नेता हैं। उसमें नरेन्द्र भाई का नाम आता है। आडवाणी ने ही भारतीय जनता पार्टी जैसे मरी और कमजोर पार्टी को देश की मुख्यधारा की पार्टी बनाई, बावजूद उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनाया। अटल जी के बाद अनुभव और आयु में आडवाणी पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता हैं तो फिर प्रधानमंत्री की दावेदारी पर प्रश्‍न का सवाल कहां उठता है। इसमें समाचार माध्यमों को नाहक और अनरगल विवाद नही खडा करना चाहिए। भारत की मीडिया कुशल और चरित्रवान होती तो आडवाना के उठाये मुददों पर जनता को प्रबोधित करती न की आडवाणी मोदी विवाद को लोगो के सामने प्रस्तुत करती।

इस संदर्भ का दूसरा पक्ष और स्‍याह है। समाचार पत्रों में खबर आयी कि आडवाणी जी का वर्तमान रथ पर करोडो रूपये का व्यय हुआ है। उनके इसस पूरे यात्रा कर इवेंट प्रबंधन नीरा राडिया कर रही है। आडवाणी जी के यात्रा की पूरी व्यवस्था भाजपा संसदीय दल के सचिव अंनत कुमार सम्भाल रहे हैं। कुल मिलाकर समाचार माध्यमों ने आडवाणी की पूरी यात्रा को नकारात्मक तरीके से लोगो के सामने प्रस्तुत किया जो एक जिम्मेवार मीडिया की भूमिका पर प्रश्‍न खडा करता है। दूसरी ओर मीडिया ने कांग्रेस सांसद राहुल और सोनिसा गांधी को ही नहीं चिदंबरम को भी बेदाग घोषित कर दिया। लाख चिल्लाने के बाद भी खबर नही बनी कि आखिर सोनिया जी विदेश जाती है तो किसी को बताती क्यों नहीं। एक बडी खबर को लगातार छुपाया जा रहा है कि सोनिया की वर्तमानन अमेरिकी यात्रा स्वास्थ्य के कारण नहीं किसी दूसरे कारण से हुआ था। जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष सुब्रमन्यम स्वामी ने आरोप लगाया है कि सोनिया जी जिस चिकित्सक से चिकित्‍सा की बात कर रही हैं उसके यहां वे गयी ही नहीं। इस खबर को लगातार मीडिया छुपा रही है। मीडिया बिना बात के राहुल गांधी को प्रोजेक्ट कर रहा है। यही नहीं मीडिया ने नरेन्द्र मोदी के उपवास पर भी खूब महौल बनाया । यहां एक बात बताना ठीक रहेगा, मोदी की मंशा चाहे जो हो लेकिन मीडिया की परिपक्वता और आदर्श की हवा तब निकल गई जब मोदी के उपवास के दौरान देश के सभी मीडिया घरानो को गुजरात सरकार का बडा विज्ञापन उपलब्ध कराया गया। जिस पन्ने पर विज्ञापन छपा ठीक उसी के पीछे मोदी के उपवास का विवरण भी छापा गया। इसे क्या कहेंगे? इस खबर को छापने की ताकत किसी ने दिखायी कि आखिर बेवजह गुजरात सरकार का यह विज्ञापन क्यों? इस विषय पर किसी ने अपनी कलम नहीं चालाई तो देश की मीडिया को कैसे परिपक्व कहा जा सकता है। समाचार माध्यमों में मोदी के उपवास की चर्चा मोदी के व्यक्तित्व या कृतित्व के कारण नहीं हुई। अखबार और समाचार वाहिनियों में मोदी की चर्चा गुजराती विज्ञापन का प्रतिफल था। इस प्रकार आज राहुल गांधी और नरेन्द्र भाई पैसे के बल पर आडवाणी के उद्दात छवि को टक्कर दे रहे है । यह इस देश का दुर्भाग्य है कि देश की मीडिया एक राजनीतिक कर्मयोगी की तुलना बचकाने और गैरजिम्मेदार राजनेताओ के साथ कर रही है। बावजूद पुराना महारथी एक बार फिर से रथ पर आरुढ हो गया है। मीडिया का समर्थन मिले या नहीं अब देश की 50 प्रतिशत जनता पारंपरिक मीडिया पर भरोसा करना छोड दी है। इस बार आडवाणी के साथ बिहार का समाजवादी जमात है जहां से आडवाणी की यात्रा बंद हुई थी संयोग है कि उसी राज्य से आडवाणी जी ने यात्रा प्रारंभ की है। बिहार के मुख्यमंत्री और समाजवादी नेता नीतिश खुद सिताब जा कर यात्रा को हरी झंडी दिखा आये हैं। सब ठीक रहा और आडवाणी ने जो अपनी छवि बनाई है उससे आडवाणी को कितना फरयदा होगा यह तो भविष्य बताएगा लेकिन बेरोजगारी, मंहगाई, भ्रष्ठाचार, आंतकवाद से हलवान भारतीय जनता को थोडी राहत जरुर मिलेगी। आडवाणी जी लगभग चौरासी वर्ष के हैं। अगर वे जयप्रकाश जी की तरह सत्ता और व्यवस्था परिवर्तन में सफल रहे तो प्रधानमंत्री बने या नहीं देश उन्हें लंबे समय तक याद जरूर रखेगा। इसलिए आडवाणी बिना किसी की परवाह किये दिनकर का याद करें और गाएं : –

सदियों की ठंडी बुझी राख सुगबुगा उठी

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है

दो राह समय के रथ का घर्र-घर्र! नाद सुनो

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

शक्ति-पूजा का विस्मरण – शंकर शरण

कश्मीर के विस्थापित डॉक्टर कवि कुन्दनलाल चौधरी ने अपने कविता संग्रह ‘ऑफ गॉड, मेन एंड मिलिटेंट्स’ की भूमिका में प्रश्न रखा थाः “क्या हमारे देवताओं ने हमें निराश किया या हम ने अपने देवताओं को?” इसे उन्होंने कश्मीरी पंडितों में चल रहे मंथन के रूप में रखा था। सच पूछें, तो यह प्रश्न संपूर्ण भारत के लिए है। इस का एक ही उत्तर है कि हम ने देवताओं को निराश किया। उन्होंने तो हरेक देवी-देवता को, यहाँ तक कि विद्या की देवी सरस्वती को भी शस्त्र-सज्जित रखा था। और हमने शक्ति की देवी को भी मिट्टी की मूरत में बदल कर रख दिया। चीख-चीख कर रतजगा करना शेराँ वाली देवी की पूजा नहीं। पूजा है किसी संकल्प के साथ शक्ति-आराधन करना। सम्मान से जीने के लिए मृत्यु का वरण करने के लिए भी तत्पर होना। किसी तरह तरह चमड़ी बचाकर नहीं, बल्कि दुष्टता की आँखों में आँखें डालकर जीने की रीति बनाना। यही वह शक्ति-पूजा है जिसे भारत के लोग लंबे समय से विस्मृत कर चुके हैं।

श्रीअरविंद ने अपनी रचना भवानी मंदिर (1905) में क्लासिक स्पष्टता से यह कहा था। उनकी बात हमारे लिए नित्य-स्मरणीय हैः “हमने शक्ति को छोड़ दिया है और इसलिए शक्ति ने भी हमें छोड़ दिया है। … कितने प्रयास किए जा चुके हैं। कितने धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक आंदोलन शुरू किए जा चुके हैं। लेकिन सबका एक ही परिणाम रहा या होने को है। थोड़ी देर के लिए वे चमक उठते हैं, फिर प्रेरणा मंद पड़ जाती है, आग बुझ जाती है और अगर वे बचे भी रहें तो खाली सीपियों या छिलकों के रूप में रहते हैं, जिन में से ब्रह्म निकल गया है।”

शक्ति की कमी के कारण ही हमें विदेशियों की पराधीनता में रहना पड़ा था। अंग्रेजों ने सन् 1857 के अनुभव के बाद सचेत रूप से भारत को निरस्त्र किया। गहराई से अध्ययन करके वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे, कि इसके बिना उनका शासन असुरक्षित रहेगा। तब भारतीयों को निःशस्त्र करने वाला ‘आर्म्स एक्ट’ (1878) बनाया। गाँधीजी ने अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में गलत बात लिखी कि अंग्रेजों ने हमें हथियार बल से गुलाम नहीं बना रखा है। वास्तविकता अंग्रेज जानते थे। कांग्रेस भी जानती थी। इसीलिए वह सालाना अपने अधिवेशनों में उस एक्ट को हटाने की माँग रखती थी। कांग्रेस ने सन् 1930 के ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन में भी प्रस्ताव पास करके कहा था कि अंग्रेजों ने “हमें निःशस्त्र करके हमें नपुंसक बनाया है।”

मगर इसी कांग्रेस ने सत्ता पाने के बाद देश को उसी नपुंसकता में रहने दिया! यदि स्वतंत्र होते ही अंग्रेजों का थोपा हुआ आर्म्स एक्ट खत्म कर दिया गया होता, तो भारत का इतिहास कुछ और होता। हर सभ्यता में आत्मरक्षा के लिए अस्त्र-शस्त्र रखना प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार रहा है। इसे यहाँ अंग्रेजों ने अपना राज बचाने को प्रतिबंधित किया, और कांग्रेस के शब्दों में हमें ‘नपुंसक’ बनाया! हम सामूहिक रूप में निर्बल, आत्मसम्मान विहीन हो गए। पीढ़ियों से ऐसे रहते अब यह हमारी नियति बन गयी है।

आज हर हिन्दू को घर और स्कूल, सब जगह यही सीख मिलती है। कि पढ़ो-लिखो, लड़ाई-झगड़े न करो। यदि कोई झगड़ा हो रहा हो, तो आँखें फेर लो। किसी दुर्बल बच्चे को कोई उद्दंड सताता हो, तो बीच में न पड़ो। तुम्हें भी कोई अपमानित करे, तो चुप रहो। क्योंकि तुम अच्छे बच्चे हो, जिसे पढ़-लिख कर डॉक्टर, इंजीनियर या व्यवसायी बनना है। इसलिए बदमाश लड़कों से मत उलझना। समय नष्ट होगा। इस प्रकार, किताबी जानकारी और सामाजिक कायरता का पाठ बचपन से ही सिखाया जाता है। बच्चे दुर्गा-पूजा करके भी नहीं करते! उन्हें कभी नहीं बताया जाता कि दैवी अवतारों तक को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा लेनी पड़ती थी। क्योंकि दुष्टों से रक्षा के लिए शक्ति-संधान अनिवार्य मानवीय स्थिति है। अपरिहार्य कर्तव्य है।

वर्तमान भारत में हिन्दू बच्चों को वास्तविक शक्ति-पूजा से प्लेग की तरह बचा कर रखा जाता है! फिर क्या होता है, यह पंजाब, बंगाल और कश्मीर के हश्र से देख सकते हैं। सत्तर साल पहले इन प्रदेशों में विद्वता, वकालत, अफसरी, बैंकिंग, पत्रकारिता, डॉक्टरी, इंजीनियरी, आदि तमाम सम्मानित पदों पर प्रायः हिन्दू ही आसीन थे। फिर एक दिन आया जब कुछ बदमाश बच्चों ने इन्हें सामूहिक रूप से मार, लताड़ और कान पकड़ कर बाहर भगा दिया। अन्य अत्याचारों की कथा इतनी लज्जाजनक है कि हिन्दुओं से भरा हुआ मीडिया उसे प्रकाशित करने में भी अच्छे बच्चों सा व्यवहार करता है। या गाँधीजी का बंदर बन जाता है।

तब अपने ही देश में अपमानित, बलात्कृत, विस्थापित, एकाकी हिन्दू को समझ नहीं आता कि कहाँ गड़बड़ी हुई? उस ने तो किसी का बुरा नहीं चाहा। उसने तो गाँधी की सीख मानकर दुष्टों, पापियों के प्रति भी प्रेम दिखाया। कुछ विशेष प्रकार के दगाबाजों, हत्यारों को भी ‘भाई’ समझा, जैसे गाँधीजी करते थे। तब क्या हुआ, कि उसे न दुनिया के मंच पर न्याय मिलता है, न अपने देश में? उलटे, दुष्ट दंबग बच्चे ही अदबो-इज्जत पाते हैं। प्रश्न मन में उठता है, किन्तु अच्छे बच्चे की तरह वह इस प्रश्न को भी खुल कर सामने नहीं रखता। उसे आभास है कि इससे बिगड़ैल बच्चे नाराज हो सकते हैं। कि ऐसा सवाल ही क्यों रखा? तब वह मन ही मन प्रार्थना करता हुआ किसी अवतार की प्रतीक्षा करने लगता है।

हिन्दू मन की यह पूरी प्रक्रिया बिगड़ैल बच्चे जानते हैं। यशपाल की एक कहानी हैः फूलो का कुर्ता। फूलो पाँच वर्ष की एक अबोध बालिका है। उसके शरीर पर एक मात्र वस्त्र उसकी फ्रॉक है। किसी प्रसंग में लज्जा बचाने के लिए वह वही फ्रॉक उठाकर अपनी आँख ढँक लेती है। कहना चाहिए कि दुनिया के सामने भारत अपनी लज्जा उसी बालिका समान ढँकता है, जब वह खूँखार आतंकवादियों को पकड़ के भी सजा नहीं दे पाता। बल्कि उन्हें आदर पूर्वक घर पहुँचा आता है! जब वह पड़ोसी बिगड़ैल देशों के हाथों निरंतर अपमानित होता है, और उन्हीं के नेताओं के सामने भारतीय कर्णधार हँसते फोटो खिंचाते हैं। इस तरह ‘ऑल इज वेल’ की भंगिमा अपना कर लज्जा छिपाते हैं। स्वयं देश के अंदर पूरी हिन्दू जनता वही क्रम दुहराती है, जब कश्मीरी मुसलमान ठसक से हिंन्दुओं को मार भगाते हैं, और उलटे नई दिल्ली पर शिकायत पर शिकायत ठोकते हैं। फिर भारत से ही से अरबों रूपए सालाना फीस वसूल कर दुनिया को यह बताते हैं कि वे भारत से अलग और ऊँची चीज हैं। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर ‘आजाद कश्मीर’ है, यह बयान श्रीनगर की गद्दी पर बैठे कश्मीरी मुसलमान देते है!

दूसरे प्रदेशों में भी कई मुस्लिम नेता खुले आम संविधान को अँगूठा दिखाते हैं, उग्रवादियों, दंगाइयों की सामाजिक, कानूनी मदद करते हैं। जिस किसी को मार डालने के आह्वान करते हैं। जब चाहे विदेशी मुद्दों पर उपद्रव करते हैं, पड़ोसी हिन्दुओं को सताते-मारते हैं। फिर भी हर दल के हिन्दू नेता उनकी चौकठ पर नाक रगड़ते नजर आते हैं। वे हर हिन्दू नेता को इस्लामी टोपी पहनने को विवश करते हैं, मगर क्या मजाल कभी खुद भी रामनामी ओढ़ लें! उनके रोजे इफ्तार में हर हिन्दू नेता की हाजिरी जरूरी है, मगर वही मुस्लिम रहनुमा कभी होली, दीवाली मनाते नहीं देखे जा सकते। यह एकतरफा सदभावना और एकतरफा सेक्यूलरिज्म भी बालिका फूलो की तरह हिन्दू भारत की लज्जा छिपाती है।

यह पूरी स्थिति देश के अंदर और बाहर वाले बिगड़ैल बखूबी जानते हैं। जबकि अच्छा बच्चा समझता है कि उसने चुप रहकर, या मीठी बातें दुहराकर, एवं उद्योग, व्यापार, कम्प्यूटर और सिनेमा में पदक हासिल कर दुनिया के सामने अपनी लज्जा बचा ली है। उसे लगता है किसी ने नहीं देखा कि वह अपने ही परिवार, अपने ही स्वधर्मी देशवासी को गुंडों, उग्रवादियों के हाथों अपमानित, उत्पीड़ित होने से नहीं बचा पाता। सामूहिक और व्यक्तिगत दोनों रूपों में। अपनी मातृभूमि का अतिक्रमण नहीं रोक पाता। उसकी सारी कार्यकुशलता और अच्छा बच्चापन इस दुःसह वेदना का उपाय नहीं जानता। यह लज्जा छिपती नहीं, बल्कि और उजागर होती है, जब सेक्यूलर बच्चे मौन रखकर हर बात आयी-गयी करने की दयनीय कोशिश करते हैं। डॉ. भीमराव अंबेदकर की ऐतिहासिक पुस्तक ‘पाकिस्तान या भारत का विभाजन’ (1940) में अच्छे और बिगड़ैल बच्चे, दोनों की संपूर्ण मनःस्थिति और परस्पर नीति अच्छी तरह प्रकाशित है।

मगर अच्छे बच्चे ऐसी पुस्तकों से भी बचते हैं। वे केवल गाँधी की मनोहर पोथी ‘हिन्द स्वराज’ पढ़ते हैं, जिसमें लिखा है कि आत्मबल तोपबल से भी बड़ी चीज है। इसलिए वे हर कट्टे और तमंचे के सामने कोई मंत्र पढ़ते हुए आत्मबल दिखाने लगते हैं। फिर कोई सुफल न पाकर कलियुग को रोते हैं। स्वयं को कभी दोष नहीं देते, कि अच्छे बच्चे की उन की समझ ही गलत है। कि उन्होंने अच्छे बच्चे को दब्बू बच्चे का पर्याय बना दिया, जिस से बिगड़ैल और शह पाते हैं। कि यह प्रकिया सवा सौ साल से अहर्निश चल रही है। शक्ति-पूजा भुलाई जा चुकी है। यही अनेक समस्याओं की जड़ है।

आज नहीं कल, यह शिक्षा लेनी पड़ेगी कि अच्छे बच्चे को बलवान और चरित्रवान भी होना चाहिए। कि आत्मरक्षा के लिए परमुखापेक्षी होना गलत है। मामूली धौंस-पट्टी या बदमाशों तक से निपटने हेतु सदैव पुलिस प्रशासन के भरोसे रहना न व्यवहारिक, न सम्मानजनक, न शास्त्रीय परंपरा है। अपमानित जीना मरने से बदतर है। दुष्टता सहना या आँखें चुराना दुष्टता को खुला प्रोत्साहन है। रामायण और महाभारत ही नहीं, यूरोपीय चिंतन में भी यही सीख है। हाल तक यूरोप में द्वंद्व-युद्ध की परंपरा थी। इसमें किसी से अपमानित होने पर हर व्यक्ति से आशा की जाती थी कि वह उसे द्वंद्व की चुनौती देगा। चाहे उसमें उसकी मृत्यु ही क्यों न हो जाए।

इसलिए, कहने को प्रत्येक शरद ऋतु में करोड़ों हिन्दू दुर्गा-पूजा मनाते है। इसे शक्ति-पूजन भी कहते हैं। किन्तु यह वह शक्ति-पूजा नहीं, जो स्वयं भगवान राम को राक्षसों पर विजय पाने के लिए आवश्यक प्रतीत हुई थी। जिसे कवि निराला ने अपनी अदभुत रचना ‘राम की शक्तिपूजा’ में पूर्णतः जीवन्त कर दिया है। आइए, उसे एक बार ध्यान से हृदयंगम करें!

कहो कौन्तेय-४४ (महाभारत पर आधारित उपन्यास अंश)

(जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण)

विपिन किशोर सिन्हा

काम्यकवन की छटा इन्द्र के नन्दनकानन से कम नहीं थी। हमने वनवास का अन्तिम चरण इस रमणीय वन में पूरा करने का निश्चय किया। महर्षि तॄणविन्दु ने पहले ही हमें अपने आश्रम में आकर निवास करने का निमन्त्रण दे रखा था। महर्षि धौम्य के नेतृत्व में एक शुभ मुहूर्त निकाल हम वहां पहुंचे। महर्षि तृणविन्दु के आश्रम में कुछ दिवस व्यतीत करने के उपरान्त, समीप ही हमने एक पर्णकुटी बनाई और सुखपूर्वक उसमें निवास करने लगे।

द्रौपदी काम्यकवन की सुन्दरता पर मुग्ध थी। चपल बालिका-सी पुष्प लताओं के बीच डोलती रहती, तितली की भांति इस पुष्प से उस पुष्प तक गुनगुनाती फिरती। उसको प्रसन्न देख मन को बड़ी प्रसन्नता और शान्ति मिलती। लेकिन हमलोगों की प्रसन्नता से नियति को कुछ चिढ़-सी थी।

उस दिन आखेट के लिए हम, अरण्य के गहन भाग की ओर चले गए थे। महर्षि धौम्य ने ब्राह्मणों के भोजन हेतु कुछ विशेष प्रकार के फल ले आने का निर्देश दिया था। आश्रम में महर्षि धौम्य और द्रौपदी नित्य के कामों में व्यस्त थे।

हमारी पर्णकुटी के समीप ही विस्तृत अरण्य-पथ था। सिन्धु देश का राजा जयद्रथ पूरे आडंबर के साथ बारात लेकर विवाह की इच्छा से शाल्व देश की ओर जा रहा था। आश्रम के पास से जाते हुए उसकी दृष्टि द्रौपदी पर पड़ी। वह उसके सौन्दर्य पर मुग्ध हो गया। घना वन, वन में पर्णकुटी, पर्णकुटी के द्वार पर खड़ी, एकाकी अनिन्द्य सुन्दरी। जयद्रथ के मतिभ्रम के लिए इतना पर्याप्त था। काम के वशीभूत वह कृष्णा के सम्मुख उपस्थित हुआ और अपना परिचय दिया। वह दुर्योधन की बहन दुःशीला का पति था। द्रौपदी उसे पहचानती थी। उसे यह भी ज्ञात था कि दुःशीला न सिर्फ कौरवों की अपितु हम पाण्डवों की भी लाडली थी। उसने स्नेहपूर्वक जयद्रथ का स्वागत किया। पाद-प्रक्षालन के लिए शीतल जल की व्यवस्था की। पूरी बारात के लिए अक्षय पात्र की सहायता से जलपान का प्रबन्ध किया। आतिथ्य सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी।

लेकिन दुष्ट जयद्रथ के मानसिक विकार को वह भांप नहीं पाई। अल्पाहार, विश्राम आदि से तृप्त होने के बाद, जब जयद्रथ ने प्रणय निवेदन किया तो उसका हृदय भय से कांप उठा, भृकुटि रोष से तन गई। दुर्योधन तो नीच था ही, उसके संबन्धी भी इतने निकृष्ट होंगे, उसने कल्पना तक नहीं की थी। दो पग पीछे हटकर, जयद्रथ का तिरस्कार करते हुए उसे धिक्कारा –

“मुझसे भूल हुई, जो ननदोई समझ तुम्हारा स्वागत किया। अतिथि देवता समान होता है। मैंने धर्मानुकूल आचरण किया। अधर्मी कामुक! तूने एक पतिव्रता स्त्री से प्रणय-निवेदन कर धर्म का अपमान किया है। नीच पापी! मेरे पतियों के लौटने के पूर्व काम्यकवन की सीमा से दूर चला जा, अन्यथा शाल्व-कन्या या कृष्णा नहीं, वरन् स्वयं मृत्यु तुम्हारा वरण करेगी।”

पर जड़ बुद्धि में चेतना कहां? विनाश उपस्थित होने पर, वैसे ही बुद्धि विपरीत आचरण करती है। काम, क्रोध, मद और लोभ – इनमें से एक ही दुर्गुण, मनुष्य को पतन की खाई में ले जाने के लिए पर्याप्त है। जयद्रथ के सिर पर तो चारो एक साथ सवार थे। उसने बलपूर्वक द्रौपदी का अपहरण कर लिया।

कुछ ही समय पश्चात हम सभी पर्णकुटी में लौटे। दासी ने रोते हुए पूरी घटना का विवरण सुनाया। पवन वेग से हमलोगों ने जयद्रथ का पीछा किया। उसके रथचक्रों के चिह्न ने हम सबका मार्ग-दर्शन किया। कुछ ही दूर जाने के उपरान्त जयद्रथ की सेना दिखाई पड़ी। हमने प्रबल बाण-वर्षा करके चारों ओर से मार्ग अवरुद्ध कर दिया। सर्वत्र अंधेरा छा गया। भीमसेन की क्रोधाग्नि में उसका मुख्य सेनानायक आहुति बना, त्रिगर्त नरेश, युधिष्ठिर का कोपभाजन बन मृत्यु को प्राप्त हुआ। मैंने नकुल, सहदेव की सहायता से पूरी सेना का संहार कर दिया। जयद्रथ भय के मारे सूखे पत्ते की भांति कांप रहा था। द्रौपदी को रथ से उतार, प्राण रक्षा हेतु, द्रूत गति से वन की ओर भागा। द्रौपदी मूर्च्छित थी। जल की शीतल बून्दों से उसका उपचार किया गया। शीघ्र ही चेतना लौट आई। भीमसेन ने आश्वासन दिया –

“डरो नहीं पांचाली, तुम हमलोगों के बीच में हो। तुम पूर्णतया सुरक्षित हो। पापात्मा जयद्रथ पीठ दिखाकर भाग गया। हमने उसके सहयोगियों और संपूर्ण सेना का संहार कर दिया है।”

“मेरा अपहरण करने के बाद भी वह कुटिल नीच अभी तक जीवित है? उसे आपलोगों ने बचकर भागने का अवसर क्यों दिया? मुझे उसकी मृत्यु से कम कुछ भी स्वीकार नहीं। लेकिन मैं उसका शव भी नहीं देखना चाहती। उसकी कलुषित देह अरण्य में शृगालों के बीच फेंक दी जाय।”

अत्यन्त क्रोध में द्रौपदी ने अपना मन्तव्य प्रकट किया और पुनः मूर्च्छित हो गई।

महर्षि धौम्य, युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव को द्रौपदी के उपचार के लिए छोड़, भीमसेन और मैं, जयद्रथ की खोज में निकल पड़े। युधिष्ठिर ने मृदु स्वर में भीमसेन से आग्रह किया –

“महाबाहु भीम! यद्यपि सिन्धुराज जयद्रथ ने अक्षम्य अपराध किया है, तो भी बहन दुःशीला के वैधव्य का कारण बनने से बचना। जयद्रथ का वध मत करना।”

जय्द्रथ हमसे दो योजन आगे निकल गया था। मैंने अभिमन्त्रित शस्त्रों की सहायता से उसके अश्वों को मार डाला। अब वह रथ से उतर, पैदल ही वन में भागने लगा लेकिन भीमसेन से वह कबतक बचता? उन्होंने वेगपूर्वक दौड़कर उसकी चोटी पकड़ ली, दोनों घुटनों के बल बैठ, उसकी छाती पर चढ़ गए और मुष्टिका प्रहार आरंभ कर दिया। चार-पांच प्रहारों के बाद ही वह अचेत हो गया। भीम का क्रोध शान्त नहीं हो रहा था। वे उसके वध पर उतारू थे। मैंने उन्हें रोका –

“महाबली! धर्मराज की आज्ञा और बहन दुःशीला के वैधव्य पर तनिक चिन्तन तो कर लें। कृपया अब प्रहार रोक दें। अन्यथा यह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा।”

भीमसेन के हाथ तो रुक गए लेकिन दांत पीसते हुए मुझसे बोले –

“इस नीच पापी ने द्रौपदी को कष्ट पहुंचाया है, अतः मेरे हाथों वध के लिए सर्वथा योग्य है। लेकिन क्या करूं? युधिष्ठिर सदा ही दयालू बने रहते हैं। और तुम भी उनकी हां में हां मिलाकर, मेरे कार्यों में बाधा पहुंचाया करते हो। अब मैं इसका वध तो नहीं करूंगा लेकिन दंड अवश्य दूंगा।”

उन्होंने एक अर्धचन्द्राकार बाण की सहायता से, जयद्रथ के लांबे-लंबे बालों को मूंड़कर. पांच चोटियां रख दी। कटु स्वर में तिरस्कार करते हुए आदेश दिया –

“मूढ़मति! यदि तू जीवित रहना चाहता है तो मेरी बात सुन। कान पकड़कर यह प्रतिज्ञा कर कि किसी भी राजसभा में अपना परिचय देते हुए स्वयं को दास बताएगा। यदि मेरी शर्त तुम्हें स्वीकार हो, तब तो ठीक, अन्यथा मृत्यु के लिए स्वयं को तैयार कर।”

जयद्रथ ने वह सब स्वीकार किया जो भीम ने कहा। मरता क्या न करता! वह धूल में लथपथ और अचेतप्राय हो गया था। भीम का मुष्टिका-प्रहार हिडिम्ब, बकासुर और किर्मीर भी नहीं सह पाए थे, तो जयद्रथ किस खेत की मूली था? मैंने और भीमसेन ने उसे रज्जु से बांधा और गट्ठर की भांति रथ में डाल दिया। पर्णकुटी पहुंच दंड देने के लिए उसे महाराज युधिष्ठिर के सम्मुख प्रस्तुत किया। धर्मराज युधिष्ठिर भी उसे देख अपनी हंसी रोक नहीं पाए, बोले –

“तुम लोगों ने पहले ही इसकी दुर्गत कर रखी है। इसे पर्याप्त दंड मिल चुका है। अब इसे मुक्त कर दो।”

“नहीं महाराज, तनिक धैर्य रखिए। यह अधम द्रौपदी का अपराधी है। यद्यपि इसने हमारा दासत्व स्वीकार कर लिया है, फिर भी इसके भविष्य का निर्णय पांचाली ही करेगी।” भीम ने उत्तर दिया।

“शास्त्र में निर्देशित है कि परस्त्री हरण करने वाला या परराज्य हरण करने वाला, शरण में आए तो भी उसे जीवित छोड़ना अनुचित होता है। वह समाज का प्रधान शत्रु होता है। इस तरह यह नीच जयद्रथ मृत्युदंड का अधिकारी है। लेकिन महाराज युधिष्ठिर ने जब इसे क्षमादान दे दिया है तो इसे मुक्त कर देना ही उचित होगा।” द्रौपदी ने अपना मत प्रकट किया।

भीमसेन ने जयद्रथ से सबके पांव पकड़वाए, साष्टांग प्रणिपात करवाया और क्षमा मंगवाई। प्राणों के भय से उसने सब किया। सिन्धुराज आए थे, वर-वेश में और जा रहे थे, घुटे सिर, एक वस्त्र धारण कर। जाते-जाते उसने द्रौपदी का चरण-स्पर्श कर क्षमायाचना का प्रयास किया। घृणा से मुंह फेर कृष्णा ने धिक्कारा –

“विवेकहीन कामुक पुरुष का स्पर्श तो दूर, छाया तक देखना सती नारी के लिए अनुचित है। मेरे पांवों की धूल भी स्पर्श करने के योग्य नहीं हो तुम। अविलंब हम सबकी दृष्टि से ओझल हो जाओ।”

लज्जित, पराजित, भग्नमनोरथ, अर्धनग्न जयद्रथ चला गया। उसका मन अशान्त था। अपने राज्य वापस लौटने के बदले वह हरिद्वार पहुंचा। भगवान शंकर की घोर तपस्या की, उन्हें प्रसन्न किया और मात्र एक दिन के लिए, मुझे छोड़, शेष पाण्डवों को युद्ध में पीछे हटाने का वर प्राप्त किया।

क्रमशः

वो मेरे साथी नहीं, गुरु थे

जगमोहन फुटेला 

सरताज

सन 69 के आसपास तब नैनीताल जिले के किच्छा कसबे के एक हाई स्कूल में पढ़ता था मैं. और नौंवीं दसवीं में मेरा एक सहपाठी था, सरताज जैदी. उसकी हथेलियाँ राजनाथ सिंह से भी बड़ी थीं. बहुत खूबसूरत गाता था वो. मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ उसपे किसी भी अनवर या सोनू निगम से कहीं ज्यादा फब्ती थी. वैसी ही मुर्कियाँ लेता था वो. उसे सुनना रफ़ी साहब के साथ जीने जैसा था.

कुछ तो गायन की प्रतिभा मुझे अपने पूज्य पिता जी से विरासत में मिली थी. कोई पेशेवर गायक नहीं थे वे. लेकिन संगीत के प्रति प्रेम उनमें बहुत अधिक था. पाकिस्तान से विस्थापित होकर आये थे ’47 में. मेहँदी हसन को रेडियो पे गाँव के दीवान चंद ग्रोवर अंकल के साथ वे रात रात भर सुनते थे. शौक इतना था कि उसे पूरा करने के लिए खुद का सिनेमा लगा लिया था शहर में. मुगले आज़म उन्होंने उस छोटे से कसबे में कोई तीन हफ्ते चलाई और कुल इकसठ में से कोई पचास शो तो उन्होंने खुद भी देखे थे. ऐसे में सरताज के साथ पढ़ना, रहना और अक्सर उसके साथ युगलबंदी करना जैसे एक आसान और सुखद अनुभव हो गया था. उसी ने सलाह दी कि आवाज़ मुकेश जी से ज्यादा मिलने की वजह से मैं उनके गीत गाया करूं . स्कूल से बाद में यूनिवर्सिटी के कार्यक्रमों तक मैं मुकेश को ही गाता और उस की वजह से अपने गुरुओं, साथियों और दोस्तों का प्यार पाता रहा. वो शौक धीरे धीरे मुकेश जी के प्रति अपार श्रद्धा में परिवर्तित हो गया. बाद में सन ’76 में अपने दोस्त और सहपाठी ज़फर मूनिस के साथ टिकट उपलब्ध न हो पाने के बावजूद इलाहाबाद में मुकेश जी के एक कार्यक्रम में घुसना और उनसे स्टेज के पीछे जा कर मिलना आज भी जैसे रोमांचित कर देता है.

बघेल

प्लस वन टू को तब यूपी में इंटरमीडिएट कहा जाता था. वो करने मैं पंतनगर गया तो सुभाष भवन (होस्टल) में कमरा मिला. पलिया कलां के दो भाई प्रेम और सुनील मिल गए. दोनों मुझसे एक साल जूनियर थे. लेकिन खासकर प्रेम को संगीत बहुत प्रिय था. दस्तक फिल्म आई ही आई थी और हम लोग हल्द्वानी के लड़कियों की तरह गोरे, पतले और वैसे ही नाज़ुक बिरेंदर को नायिका मान कर ‘तुमसे कहूं एक बात परों से हलकी’ गाया करते थे. तब यूनिवर्सिटी छात्र संघ के अध्यक्ष जयराम वर्मा सहित सीनियर कुछ शायद मुझे और मेरे एक दोस्त रवितेज गोराया को इस लिए भी अपने साथ रखते थे कि हम दोनों ही कुल बारह किलोमीटर दूर ज़मींदारों के बेटे थे. रवितेज के दारजी (पिता जी) सरदार गुरबचन सिंह गोराया यूपी स्टेट अकाली दल के अध्यक्ष हुआ करते थे. कुछ उसके बड़े भाई साहब सर्वजीत सिंह उन दिनों बाद में गन्ने की प्रजाति में क्रान्ति ले आने वाले टिश्यू कल्चर पे शोध कर रहे थे. उनका बहुत नाम और सम्मान था यूनिवर्सिटी में. ये वजहें थीं कि रवितेज कुछ ज्यादा ही एक्टिविस्ट सा और दबंग था. वर्मा जी जब भी ज़रूरत पड़ती अगल बगल के गाँवों से लड़के लुडके हम खूब मंगा लेते थे. डील डौल में मुझ से काफी हल्का मगर एक साल सीनियर बिहार एक लड़का आर.एस.बघेल पता नहीं बड़ों की हमारी संगत से मुझे खुद से सीनियर मान कर हर बार पहले नमस्कार करने लग गया था. तब बड़ों का सम्मान कुछ ऐसा था कि लाबी में अगर सामने से कोई सीनियर आता हो तो सम्मानस्वरूप एक किनारे रुक जाना होता था. अभिवादन करना होता था और उनके पास से निकल जाने के बाद जाना होता था. बघेल भाई ये करते रहे. उनकी मुझ से वरिष्ठता से पूरी तरह अनभिग्य मैं वो अभिवादन स्वीकार भी करता रहा.

पता तब चला कि जब आर.एस.बघेल एक दिन सुबह सवेरे दनदनाते हुए मेरे कमरे के बाहर आये. गरियाते हुए. मैं नींद से जागा. बाहर निकला तो उनका सवाल था कि मेरी हिम्मत कैसे हुई उन से नमस्ते करवाते रहने की. रवितेज ने उनको उनकी वरिष्ठता का ज्ञान हो जाने के बाद भी पटक ही दिया होता अगर मैंने उसे रोका और बघेल ‘सर’ से माफ़ी नहीं मांग ली होती. उन्हें जब लगा कि जैसे उन्हें, वैसे ग़लतफ़हमी मुझे भी थी तो उन ने अपने कहे को ये कह के समेटा कि कोई नमस्ते करवाने नहीं, उस लायक हो जाने से बड़ा होता है. बघेल ‘सर’ से मिली वो सीख मुझे आज भी याद है.

दिनेश मोहन

कुछ ही दिन बाद चितरंजन भवन का एक ब्लाक तैयार हो गया तो हम इंटर कालेज वाले वहां शिफ्ट हो गए. कुल 456 कमरों वाला वो होस्टल दरअसल इसी नाम से मशहूर था. इस होस्टल के लिए मारामारी कुछ ज्यादा रहती थी. लड़कियों का होस्टल सरोजिनी इसके बगल में था. ‘चिंगारी कोई भड़के’ गाना जब भी रेडियो पर आता तो सैकड़ों ट्रांज़िस्टर फुल वाल्यूम के साथ बाहर बालकनी में आ विराजते थे. मैं 65 नंबर कमरे में था. मेरी बगल में मुझसे एक साल सीनियर बी.एस.सी.-एजी कर रहे दिनेश मोहन कंसल थे. एक दिन डेढ़ सौ लड़कों से भरे कैफेटेरिया (कैंटीन) में खाना खाते समय उन्होंने अपनी पूरी भरी थाली मुझ पे ये कहते हुए दे मारी थी कि अगर खाना मैंने थाली में बचा ही देना था तो उतना लिया क्यों? उन ने कहा था, मालूम है जितना खाना तुमने छोड़ा उतना सिर्फ अगर इसी होस्टल के लोग छोड़ दें तो सामने वाली पूरी कालोनी आज रात पेट भर के सो सकती थी.

एक दिन मैं कामन बाथरूम में वाश बेसिन खाली होने के इंतज़ार में ‘ठाड़े रहियो…’ की व्हिसलिंग कर रहा था. जैसे ही रुका तो उन्हीं कंसल ‘सर’ ने पूरे गाने की व्हिसलिंग करने को बोला. वे मुझे वहां से कोई पचहत्तर किलोमीटर दूर बरेली ले कर गए. पाकीज़ा दिखाई. यूनिवर्सिटी की कल्चरल सोसायटी का मेम्बर बनवाया और एक दिन यूनिवर्सिटी के आडिटोरियम में गाना गवाया.

महेंद्र सिंह पाल

यहाँ से ग्रेजुएशन करने मैं नैनीताल गया तो आसानी से कहीं कोई होस्टल या कोई प्राइवेट कमरा तक नहीं मिला. एक दोस्त ने कहा ऐसा करते हैं प्रेजिडेंट (छात्र संघ के) महेंद्र सिंह पाल के कमरे में चलते हैं. वो नेता हैं, अच्छे आदमी हैं. किसी को मना नहीं करते. वहां और भी बहुत से लोग रहते हैं. वहीं रह लेते हैं. हम लंग्हम हाउस (होस्टल) के उनके उस कमरे में रहने और नीचे ही कारपेट पे सोने लगे. उन ने कहीं मुझे गुनगुनाते सुन लिया होगा. उनकी बदौलत मैं एनुअल फंक्शन के दौरान आडिटोरियम की स्टेज पे चढ़ और हीर गाने के बाद छा गया. इसके बाद तो सारा कालेज जानने पहचानने लगा. काशीपुर के विजय भटनागर ने नाल बजानी सिखा दी. मैं गाने के साथ साथ बजाने भी लगा. गुरुओं से भी प्यार मिला. पढाई में भी ठीक ठाक था. हमारी टीम छात्रसंघ चुनाव जीत गई. कल्चरल एसोसिएशन के चुनाव में मुझे खड़ा कर दिया. स्टेज पे उधर गाने बजाने से लेकर अनाउन्समेंट तक सब मैं ही करता था. चुनाव में जैसे मुकाबले जैसा कुछ था ही नहीं. मतदान से दो दिन पहले मैंने ‘अमरप्रेम’ देखी. सुबह कालेज आया तो नीचे से पहाड़ चढ़ती आती लड़कियों की तरफ मुंह करके खड़े अपने ही छात्रसंघ वाले साथियों पर राजेश खन्ना का डायलाग मार दिया…’ इन्हें देख कर तुम्हें अपनी बहनों की याद नहीं आती?’ ..अगले दिन मतदान था. मैं चुनाव हार गया.

गुड्डो

ग्रेजुएशन कम्प्लीट हो गई. मैं इलाहाबाद चला गया, ला पढ़ने. यहाँ मिला ज़फर मूनिस. पाकिस्तान से आने के बाद से पिता जी का मन मुसलामानों में ज्यादा रमते देखा था. अपना भी बचपन कई मुसलमान चचाओं और चचियों की गोद में गुज़रा था. ऊपर से सरताज की हर जगह तलाश. बस ज़फर अपना दोस्त हो गया. इस लिए भी कि उसके अब्बा हुज़ूर तब इलाहबाद के नामी वकील थे और अपने को सीखने के लिए ज़फर के घर जैसा कोई और हो नहीं सकता था. मैं अक्सर उसके घर आने जाने लगा. उसकी तब छोटी सी बहन ने एक दफे राखी का मतलब पूछा. मैंने बताया कि कैसे इस बहाने से बहन भाई की लम्बी दुआ के बदले में उस से अपनी हिफाज़त का वायदा लेती है. एक दिन वो हमेशा की तरह उछलती कूदती आई और कुर्सी के पीछे लटके मेरे हाथ की कलाई पे धागा सा बाँध कर तालियाँ बजाती, ये चिल्लाती हुई भीतर चली गई कि अब आप भी भाई जान हो गए. वो गुड्डो अब कोई पैंतीस साल से लगातार राखी बांधती आ रही है.

इलाहाबाद में मैं अपने ही एक प्रोफ़ेसर सी.एस.सिन्हा के साथ कर्नलगंज में रहता था. उनकी पत्नी के बारे में मुझे कुछ नहीं पता. लेकिन अम्मा आती थीं कभी कभार बनारस से. हर आधे घंटे बाद पान के लिए बाज़ार रपटाते थे सिन्हा सर. इलाहाबाद की गर्मी बड़ी भयंकर होती है. एक दिन मैं चार पान इकट्ठे ही बंधवा लाया. तीन बाहर छुपा, एक उनको थमा दिया. आधे घंटे बाद फिर आदेश हुआ तो नीचे श्रीवास्तव के कमरे में बीस मिनट बिता मैं ऊपर आया. उन तीन में एक बीड़ा उठाया. दिया. जैसे उन ने मुंह में डाला तो खूब गरियाए. बोले, बे गधे मुझे पागल समझता है तू. जितनी तेरी उम्र है उस से ज्यादा साल मुझे पान खाते हो गए. जा, ताज़ा पान लगवा के ला.

श्रीवास्तव जी

यहाँ मुझे असली गुरु मिला नीचे वाला श्रीवास्तव. उसके कमरे पे मेरी नज़र बहुत दिन से थी. एक तो वो ग्राउंड फ्लोर पे होने के कारण ठंडा रहता था. दूसरे सरकारी नल उसके कमरे के ठीक बाहर लगा था. पता लगा कि श्रीवास्तव का सलेक्शन हो गया डाक्टरी के लिए. मैंने सुबह ही उन्हें ऊपर से आवाज़ दी. वे ब्रश मुंह में डाले डाले बाहर निकले. जैसे ही उन ने ऊपर देखा, मैंने पूछा कब तक जाओगे आप कमरा छोड़ के?…श्रीवास्तव ने अधबीच में ही ब्रश मुंह से निकाला. कुल्ला किया. ऊपर देखा और बड़े प्यार से कहा,”मुझे बहुत अच्छा लगता अगर आप पूछते कि मैं कब तक यहाँ हूँ”. वो दिन और आज का दिन. कुछ भी लिखने और बोलने से पहले आज मैं दस बार सोचता हूँ. उस आदमी ने मेरी सोच बदल दी. मैं अपने उन सभी मित्रों का बहुत आभारी हूँ जिन्होंने मुझे मुझ जैसा होने में मदद की.

दुर्भाग्य ये है कि बहुत तलाश के बावजूद मैं सरताज, दिनेश मोहन कंसल और श्रीवास्तव जी को ढूंढ नहीं सका. पर, मुझे यकीन है कि वे जहां भी होंगे मेरे जैसे लोगों को तराश रहे होंगे.

व्यंग्य/ मेरो मंत्र भरत ने भी माना!

अशोक गौतम

पत्नी के हजार बार घर से बाजार को यह कह कर कि दीवाली सिर पर आ गई है, अपने लिए नहीं तो न सही, पर पड़ोसियों के लिए अब तो बाजार जा आओ! नहीं तो पड़ोसियों को क्या मुंह दिखाएंगे? और मैं लोक लाज के लिए बड़ी हिम्मत जुटा बाजार निकल ही गया। पर मत पूछो मेरे क्या हाल थे।

बड़े अजीब से दिन आ गए हैं भाई साहब अब तो! अपने लिए नहीं, औरों के लिए जीना पड़ रहा है। बाजार में दूर से ही हर दिखावटी और मिलावटी चीजों को छूने के बदले उंगली लगा हरेक के दाम पूछ ही रहा था कि सामने भरत आते दिखे। आए होंगे बेचारे दीवाली के लिए सामान खरीदने? पर मायूस से! कमाल है यार! दीवाली में राम के लौटने के चंद ही दिन तो शेष बचे हैं। देश की जनता है कि राम के आने के बहाने की खुशी में बाजार को ही सिर पर उठाए घर आ रही है, कराहती हुई, लंगड़ाते हुई। ऐसे में जबकि पूरा देश खुश है, तो बंदे को खुश भी होना चाहिए कि चलो, हर बंदे को खुश रखने का पंगे से तो निजात मिलेगी। वरना आज तो जनता के हाल ये हैं कि उसे चाहे चौबीसों घंटे घी में ही तर कर रखो। चुनाव के वक्त वोट मांगने जाओ तो खुश्‍क की खुश्‍क ही मिलेगी। कहेगी, कौन जात के हो साहब! पहली बार देखा। कुछ लाए हो क्या? फोक्ट में कोई बात नहीं। मुंह का टेस्ट तुमने ही तो बिगाड़ कर रखा है।

पर फिर सोचा ,चौदह साल सत्ता का उपभोग करते कम नहीं होते! अब तो सत्ता का उपभोग करने अडिक्टिड हो गए होंगे। सोच रहे होंगे कि राम के आने पर सब मौज मस्ती चली जाएगी। आह रे सत्ता सुख! तबही उदास होंगे। यहां तो हमने ऐसे ऐसे बंदे भी देखे हैं कि दो दिन पहले जैसे कैसे चुन कर आते ही कुर्सी पर यों पसर जाते हैं मानों कुर्सी पर ही पैदा हुए हों। ऐसे में सत्ता का चौदह साल उपभोग तो बहुत होता है भाई साहब! क्या कहना है आपका इस बारे में?

उनसे जन्मों का परिचय था सो उन्हें रोकते पूछा,’ नमस्कार भाई साहब! और क्या हाल हैं? कुछ अधिक ही परेषान दिख रहे हो! राम के आने पर सत्ता सौंपने के बाद आम आदमी होने का दुख तो नहीं साल रहा है?ये सत्ता का नशा होता ही ऐसा है कि नेता तो नेता, नेता का चमचा खुद को नेता का बाप कहता फिरता है। पर साहब!सत्ता सदा को किसकी रही, चौदह साल मजे कर लिए अब तो …. ‘ तो वे मेरे कांधे पर अपना सिर रख बोले, ‘ मित्र! गलतफहमी पाल रखी है मेरे बारे में तुमने! मैं उनके आने पर दुखी नहीं हूं। मैं आदर्श भाई हूं! आज चाहे आपका बेटा भी आदर्श न रहा हो! मैंने तो उनके जाने के बाद सत्ता सुख को नहीं, उनके आदर्शों को पूजा है। मैं तुम्हारे लोकतंत्र के नेताओं की तरह नहीं जो कुर्सी मिलने पर बेचारे चाहकर कहीं अपना इलाज भी नहीं करवा पाते इस डर से कि अगर वे अपना इलाज करवाने किसी अस्पताल गए तो कहीं ऐसा न हो कि अगले क्षण उनमें आस्था रखने वाला ही उनकी कुर्सी पर फन न मार डाले और वे बेचारे अस्पताल में ही लेटे लेटे अपने में विश्‍वास रखने वालों को उंगली पर गिनते रहें। असल में मैं तो परेशान इसलिए हूं कि उनको लाने के लिए एक भी रथ ही नहीं मिल रहा। जहां थी रथ किराए पर लेने की बात करता हूं, रथ वाले कहते हैं कि रथ खाली नहीं। वैसे भी देश में अब गिनती के ही रथ बचे हैं। और जो हैं उनपर तुम्हारे नेता लोकनायक हो रथयात्रा पर हैं। बस, मुझे अब यही गम खाए जा रहा है । उनके आने को अब बचे ही कितने दिन हैं? और मैं अभी तक एक अदद रथ का भी इंतजाम नहीं कर पाया हूं। क्या सोचेंगे वे! कैसा शासन रहा मेरा! जब उनके आने पर उनके लिए ही एक रथ का इंतजाम नहीं कर पाया तो जनता के लिए क्या करता रहा हूंगा मैं?’ कह उनकी आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई तो मैंने उन्हें सांत्वना देते कहा,’ उनसे बात करके देख लो! शायद बात बन जाए। अबके उनकी रथयात्रा को कोई विषेश मकसद तो है नहीं। अपने लिए भर है। उनसे कहना कि भगवान जी से पार्टी को कहलवा उन्हें पार्टी से प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनवा देंगे,’ तो जैसे भरत को संजीवनी मिली,’ उनका नंबर है आपके पास?’ ‘ हां! ये लो!’ मैंने नंबर दिया तो वे थैंक्स मेरे हनुमान कह मुझे गले लगा आगे हो लिए। आइडियों की अपने पास कोई कमी नहीं है साहब! पर हम जैसों का मोल पारखी ही जानते हैं।

सौरभ मालवीय को मिली पीएचडी की उपाधि

भोपाल, 20 अक्टूबर। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल ने श्री सौरभ मालवीय को उनके शोधकार्य ‘हिंदी समाचार-पत्रों में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रस्तुति का अध्ययन’ विषय पर डाक्टर आफ फिलासिफी की उपाधि प्रदान की है। श्री मालवीय ने अपना शोधकार्य विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला के मार्गदर्शन में संपन्न किया है।

गौरतलब है कि डॉ. सौरभ मालवीय वर्तमान में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में प्रकाशन अधिकारी का दायित्‍व संभाल रहे हैं और इसके साथ ही अध्‍यपान कार्य में जुटे हैं।

अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के लिए ख्‍यात डॉ. मालवीय सन् 2004 से 2009 तक भारतीय जनता पार्टी, मीडिया प्रकोष्‍ठ की केन्‍द्रीय टीम के सदस्‍य के नाते छत्‍तीसगढ़, गुजरात सहित अनेक राज्‍यों में हुए विधानसभा चुनावों में उल्‍लेखनीय भूमिका निभा चुके हैं।

अपनी अग्निधर्मा लेखनी से समाचार पत्रों, पत्रिकाओं एवं अंतर्जाल पर सांस्‍कृतिक राष्‍ट्रवादी धारा को मजबूत करने वाले डॉ. मालवीय प्रवक्‍ता डॉट कॉम के भी रेग्‍युलर कंट्रीब्‍यूटर हैं।

इस शुभ अवसर पर प्रवक्‍ता डॉट कॉम के संपादक श्री संजीव कुमार सिन्‍हा ने डॉ. मालवीय के उज्‍जवल भविष्‍य की कामना की है।

शिक्षा क्रांति से दूर लद्दाखी छात्र

स्टांजिंग आंग्मो 

हाल ही में केन्‍द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्‍बल ने राष्‍ट्रीय व्‍यावसायिक शिक्षा योग्यता फ्रेमवर्क लांच किया। इसका मकसद स्कूल और कॉलेज स्तर से ही छात्रों को व्यावसायिक पाठयक्रम की शिक्षा मुहैया करवाकर उन्हें रोजगार प्रदान करना है। इससे एक तरफ जहां देश में बढ़ती बेरोजगारी पर काबू पाने में मदद मिलेगी वहीं 2022 तक 50 करोड़ लोगों को हुनरमंद बनाने का लक्ष्य भी पूरा किया जा सकेगा। इस तरह की कोशिशों को विश्‍व मानचित्र में भारत को अग्रणी देशों की श्रेणी में खड़ा करने का एक और कामयाब पहल के तौर पर ही देखा जाना चाहिए। मौजूदा दौर में भारत को न सिर्फ उद्योग बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी चीन और अमेरिका से कड़ी टक्कर मिल रही है। लिहाज़ा सरकार स्कूल और कॉलेज स्तर पर ही दक्ष लोगों की फौज तैयार करने में जुटी है।

लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि देश में शिक्षा के दो पैमाने बन चुके हैं। एक प्राइवेट स्कूलों का स्तर और दूसरा सरकारी स्कूलों का शैक्षणिक वातावरण। आज भी देश के अधिकतर सरकारी स्कूलों की हालत काफी चिंताजनक है। जहां शिक्षा का स्तर काफी निम्न है। विशेषकर लद्दाख जैसे देश के दूर-दराज इलाकों में तो इसकी हालत और भी खराब है। अपनी अनोखी संस्कृति और शांति के लिए यह क्षेत्र विश्‍व भर में प्रसिद्ध है। हर साल दुनिया भर से लाखों की संख्या में पर्यटक यहां के खूबसूरत मठों, स्तूपों और एतिहासिक धरोहरों को देखने के लिए आया करते हैं। ठंडे रेगिस्तान के नाम से प्रसिद्ध लद्दाख जम्मू व कष्मीर राज्य का एक अभिन्न अंग है, परंतु भौगोलिक और सांस्कृतिक स्वरूप में जम्मू-कष्मीर से भिन्न होने के कारण इसे अलग स्वायत्ता प्रदान की गई। प्रतिक्रियास्वरूप 1995 में इसे स्वायत्ता दी गई और इसके कामकाज के लिए लद्दाख स्वायत्ता पर्वतीय विकास परिशद (लद्दाख ऑटोनॉमस हिल डेवेलपमेंट कांउसिल) का गठन किया गया। जो यहां के प्रशासनिक कामकाज संचालित करने में अहम योगदान देती है। पर्यटन स्थल होने के बावजूद लद्दाख आज भी कई मायनों में पिछड़ा हुआ है। विशेषकर यहां की शिक्षा व्यवस्था काफी लचर है। जिसका खामियाजा नई पीढ़ी को उठाना पड़ रहा है।

यह सर्वविदित है कि शिक्षा व्यक्ति के सामाजिक जीवन में परिवर्तन लाती है वहीं देश के विकास में भी सहायक सिद्ध होती है। परंतु लद्दाख की शिक्षा व्यवस्था यहां के युवा पीढ़ी के लिए अंधकारमय भविश्य के अलावा और कोई रास्ता नहीं दिखाता है। यहां के सरकारी स्कूलों में निजी विद्यालयों के मुकाबले शिक्षा व्यवस्था काफी लचर है। न तो नियमित कक्षाएं संचालित होती हैं न ही छात्रों को किसी प्रकार की सुविधाएं प्रदान की जाती हैं और न उनके व्यक्तित्व को उभारने के लिए कोई ठोस नीति प्रस्तावित है। वास्तव में प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव इस संबंध में सबसे प्रमुख कारण है। उन्हें पढ़ाने और स्कूल में बेहतर शैक्षणिक माहौल बनाए रखने का कोई विषेश अनुभव नहीं है और न उन्हें इस संबंध में किसी तरह का प्रशिक्षण दिया जाता है। लेह के सभी छह ब्लॉकों में कुल 167 प्राथमिक विद्यालय, 111 मध्य, 22 उच्च तथा 14 उच्चतर माध्यमिक विद्यालय हैं। परंतु प्राइवेट स्कूलों के विपरीत इन सरकारी स्कूलों की हालत ऐसी है कि अधिकतर छात्र बोर्ड परीक्षा में असफल हो जाते है। यही कारण है कि स्कूल छोड़ने वाले छात्रों की संख्या में भी अचानक वृद्धि दर्ज की गई। जिससे कई सरकारी स्कूलों को बंद करने की नौबत आ गई है। एक तरफ जहां सरकारी स्कूलों का स्तर खराब हो रहा था वहीं लद्दाख में प्राइवेट स्कूल तेजी से अपने पांव पसार रहे हैं। जिन छात्रों के माता-पिता अपने बच्चों के बेहतर भविश्य के लिए चिंतित हैं उन्होंने प्राइवेट स्कूलों का रूख करना शुरू कर दिया परंतु जो अभिभावक इन स्कूलों की भारी-भरकम फीस उठाने में सक्षम नहीं है उनके पास इन्हीं सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों का दाखिला करवाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रहता है। इसके अतिरिक्त कई अभिभावक अपने बच्चों के उज्जवल भविश्य के लिए पुरखों की जमीन और व्यवसाय छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं जिसे लद्दाखी संस्कृति के विपरीत और बुरे परिवर्तन के रूप में देखा जा रहा है।

लद्दाखी छात्रों की समस्या यहीं खत्म नहीं होती है। स्कूली शिक्षा समाप्त करने के बाद उनके पास कोई विकल्प नहीं रह जाता है कि वह क्षेत्र के एकमात्र एलिजर जॉडेन मेमोरियल कॉलेज में दाखिला लें। जहां रोजगारपरक अधिकतर कोर्सों का अभाव है। ऐसे में छात्रों के सम्मुख इन विषयों में दक्षता हासिल करने और सुनहरे भविश्य के लिए लद्दाख से बाहर दिल्ली और जम्मू पलायन करना एकमात्र विकल्प होता है। लद्दाखी छात्रों के साथ ऐसी कठिनाईयां सबसे ज्यादा होती हैं। पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण लद्दाख आने जाने के केवल सड़क अथवा हवाई रास्ते उपलब्ध हैं। भारी बर्फबारी के कारण साल में चार-पांच महीने ही सड़क मार्ग खुले होते हैं। ऐसे में अपने घरों से दूर शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं अधिकतर छात्रों को सड़क पर जमी बर्फ पिघलने का इंतजार करना पड़ता है। मध्यमवर्गी परिवार से संबंध रखने वाले छात्र अपने माता-पिता से ये उम्मीद नहीं कर सकते हैं कि वह प्रत्येक छुटटी या त्यौहारों में उन्हें घर बुलाने के लिए महंगे हवाई किराये का खर्च वहन कर सकें। प्रश्‍न उठता है कि लद्दाख को उन्नत बनाने के लिए सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों में शिक्षा का स्थान क्या है? इसके गिरते स्तर को उंचा उठाने के लिए अब तक बनाई गई कार्य योजना वास्तविक धरातल पर क्रियान्वित क्यूं नहीं हो पा रही है? ऐसे बहुत से प्रष्न हैं जिनका हल गंभीरता से सोचना होगा अन्यथा शिक्षा में हो रही क्रांति से देश के ये दूर-दराज क्षेत्र बहुत पीछे छूट जाएंगे। (चरखा फीचर्स)

इस बिहार का विकास क्‍यूं नहीं

सरिता कुमारी 

पिछले कुछ दशकों में देश के जिन राज्‍यों ने विकास की नई परिभाषा गढ़ी है उनमें बिहार का नाम सबसे उपर लिखा जा सकता है। कभी कुव्यवस्था और पिछड़ेपन का दंश झेलने वाला बिहार अब विकास की नई उचांईंयां छू रहा है। देश के कई नामी-गिरामी औद्योगिक घरानों ने राज्य में भारी निवेश की इच्छा जताई है। जो इस बात का संकेत है कि बिहार बदल गया है। विपक्षी पार्टी होने के बावजूद केंद्र के कई मंत्री विभिन्न अवसरों पर मुख्यमंत्री नितीश कुमार की तारीफ कर इसका प्रमाण दे चुके हैं। देश-विदेश की मीडिया ने भी तरक्की की राह पर आगे बढ़ते बिहार का गुनगान किया है।

विकास के इस चकाचौंध में कुछ पहलू ऐसे भी हैं जो हमारी नजरों से ओझल रह जाते हैं। वास्तव में विकास का असली पैमाना ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाले कार्यों से लगाया जाना चाहिए। जहां बेरोजगारी, भूखमरी और बीमारियां आम होती हैं। बुनियादी सुविधाओं की कमी इसका असली चेहरा होता है। देश के अन्य राज्यों की तरह बिहार में भी एक बड़ी जनसंख्या गांव में निवास करती है। जहां बुनियादी समस्याएं आज भी मुंह बाए खड़ी है। राज्य के कई ग्रामीण क्षेत्र ऐसे हैं जो विकास की दौड़ में पीछे छूटते जा रहे हैं। ऐसा ही एक गांव है छपरा घाट मठ। राजनीतिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर राज्य में प्रमुख स्थान रखने वाले दरभंगा शहर से महज़ कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस गांव के लोगों की बदनसीबी यह है कि न तो इनकी आवाज कभी सरकार तक पहुंची और न ही सरकारी सुविधा ने इस गांव का रूख किया है। एक हजार की जनसंख्या वाले इस गांव की नब्बे प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करती है। इनमें 15 प्रतिशत ऐसे भी हैं जिनका इस सूची में कभी नाम तक दर्ज नहीं हुआ है।

आजादी के 6 दशक बीत जाने के बाद भी यह गांव बिजली, सड़क, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। गांव के अधिकतर बुजुर्ग अब भी वृध्दावस्था पेंशन और इंदिरा आवास योजना की बाट जोह रहे हैं। यहां के ज्यादातर लोगों के पास रहने के लिए न तो अपनी जमीन है और न ही पक्के मकान उपलब्ध हैं। मिट्टी और प्लास्टिक के घर बरसात तथा ठंड के दिनों में कितने कारगर सिद्ध होते होंगे इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं होगा। गांव-गांव तक बिजली पहुंचाने की सरकारी योजना यहां कारगर नजर नहीं आती है। यूपीए को दुबारा सत्ता में लाने वाली मनरेगा स्कीम यहां लागु तो जरूर है परंतु यह ठेकेदारों के माध्यम से संचालित की जा रही है। यही कारण है कि यह भ्रश्टाचार की शिकार हो चुकी है। ठेकेदार गांव वालों को 100 दिनों का रोजगार देने की बजाए दस दिनों में ही काम से छुट्टी कर देता है। अलबत्ता जॉब कार्ड पर वह इन गरीबों से सौ दिनों के रोजगार दिलावाने का अंगुठा जरूर लगवा लेता है। शिक्षा से वंचित गांव में महिलाओं की स्थिती अत्यंत दयनीय है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में सुविधाओं के अभाव का सबसे ज्यादा खामियाज़ा यहां की गर्भवती महिलाओं को उठाना पड़ता है। प्रशिक्षित दाई की कमी के कारण कई बार प्रसव पीड़ा के दौरान इनकी मौत तक हो जाती है। गांव की सामाजिक कार्यकर्ता इंदुला देवी के अनुसार यहां की महिलाओं का स्वास्थ्य भगवान भरोसे है। खस्ताहाल सड़कें होने के कारण बीमारों को समय पर अस्पताल पहुंचाना काफी मुष्किल हो जाता है। वहीं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में डॉक्टरों की कमी का फायदा यहां के झोला छाप डॉक्टर उठाते हैं।

ज्ञात हो कि दरभंगा का यह क्षेत्र हर साल बाढ़ से प्रभावित होता है। इस गांव के इर्द-गिर्द तीन नदियां कमला बलान, गेंहुआ और हमेशा सुर्खियों में रहने वाली नदी कोसी अपनी मौजूदगी का एहसास कराती रहती है। वर्शा के समय इन नदियों का जलस्तर बढ़ने के साथ ही गांव वालों की मुसीबतें शुरू हो जाती हैं और उन्हें जान बचाने के लिए पलायन को मजबूर होना पड़ता है। अपना घर-बार छोड़कर महीनों बांध पर शरण लेना यहां के लोगों की नियती बन चुकी है। इंसानी जिंदगी की इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है कि बाढ़ के दौरान गांव वाले जिस पानी में मलमूत्र त्याग करते हैं उसे ही इन्हें खाने-पीने के लिए इस्तेमाल करना होता है। यही कारण है कि इस दौरान ये डायरिया और उसके जैसी कई गंभीर बिमारियों का शिकार हो जाते हैं। बाढ़ के दौरान मरने वालों को रीति रिवाज के अनुसार अंतिम संस्कार भी नसीब नहीं हो पाता है और उनकी लाशें पानी में ही बहा दी जाती हैं, क्योंकि जहां जिंदा इंसानों को रहने के लिए जगह नहीं वहां भला मुर्दों को दफन करने अथवा उन्हें जलाने के लिए लकड़ी कहां से मयस्सर हो सकती है।

यह उदाहरण सिर्फ एक छपरा घाट का नहीं है। बल्कि राज्य के ऐसे कई गांव मिलेंगे जहां ऐसी ही कुछ तस्वीर नजर आएगी। ऐसा भी नहीं है कि इनकी कोई सुध लेने वाला नहीं हैं। राज्य सरकार की तरफ से हर संभव सहायता उपलब्ध कराई जाती है और काफी गंभीरता से काम भी किया जाता है। परंतु निचले स्तर पर यह केवल राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था के मकड़जाल का शिकार होकर रह जाता है। जरूरत है व्यवस्था के एक ऐसे सिस्टम को उजागर करने की जहां विकास की लौ सभी तक पहुंचे। अगर हम बिहार के समूचे परिदृश्‍य पर नजर डालें तो यह कहने में कोई संकोच नहीं होता है कि बिहार बदल गया है। लेकिन यह बदलाव कोई जादू की छड़ी से नहीं हुआ है बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति के बलबूते हासिल किया गया है और अब इसी इच्छाशक्ति का अधिकाधिक प्रयोग करने की जरूरत है। (चरखा फीचर्स)