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टीम अन्ना के ‘कांग्रेस विरोध’ के निहितार्थ

तनवीर जाफरी

समाजसेवी अन्ना हज़ारे की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम तथा जनलोकपाल विधेयक संसद में पेश किए जाने की उनकी मांग को लेकर पिछले दिनों जिस प्रकार देश की जनता उनके साथ व उनके समर्थन में खड़ी दिखाई दे रही थी अब वही आम जनता उनके ‘राजनैतिक तेवर’ को देखकर उनके आंदोलन को संदेह की नज़रों से देखने लगी है। प्रश्र उठने लगा है कि आखिर अन्ना हज़ारे व उनके चंद सहयोगियों का राजनैतिक मकसद वास्तव में है क्या? जनलोकपाल विधेयक को संसद में पारित कराए जाने के लिए संघर्ष करना या कांग्रेस पार्टी का विरोध करना ? हालांकि अभी तक कांगे्रस पार्टी के कई वरिष्ठ व जि़म्मेदार नेताओं द्वारा अन्ना हज़ारे पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व भारतीय जनता पार्टी की कठपुतली होने जैसे जो आरोप लगाए जा रहे थे उसे देश की जनता गंभीरता से नहीं ले रही थी। इन आरोपों के विषय में जनता यही समझ रही थी कि अन्ना हज़ारे व उनके साथियों को बदनाम करने के लिए तथा अन्ना के आंदोलन से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए कांग्रेस द्वारा अन्ना हज़ारे पर इस प्रकार के आरोप लगाए जा रहे हैं। परंतु गत् दिनों जिस प्रकार हिसार लोक सभा के उपचुनाव में अन्ना हज़ारे के प्रमुख सहयोगियों मनीष सिसोदिया व अरविंद केजरीवाल द्वारा कांगेस पार्टी के प्रत्याश्ी को हराए जाने की सार्वजनिक अपील एक जनसभा में की गई उसे देखकर अब तो यह स्पष्ट दिखाई देने लगा है कि टीम अन्ना का मकसद जनलोकपाल विधेयक के लिए संघर्ष करना कम तथा कांग्रेस पार्टी को हराना,उसे नुकसान पहुंचाना व कांगेस का विरोध करना अधिक है।

 

 

हिसार लोकसभा उपचुनाव में केवल अन्ना हज़ारे के सहयोगियों ने ही वहां जाकर कांग्रेस प्रत्याशी का विरोध नहीं किया बल्कि स्वयं अन्ना हज़ारे ने भी मीडिया के माध्यम से हिसार के मतदाताओं से कांग्रेस पार्टी को हराने की अपील जारी की है। टीम अन्ना के इस राजनैतिक पैंतरे को देखकर उन पर तरह-तरह के संदेह पैदा होने लगे हैं। प्रश्र यह उठने लगा है कि यदि टीम अन्ना द्वारा हिसार लोक सभा के उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी को हराने की अपील की जा रही है ऐसे में आखिर अन्ना हज़ारे व उनके साथी दूसरे किस राजनैतिक दल को लाभ पहु़ंचाना चाह रहे हैं? ज़ाहिर है इस समय देश में कांग्रेस के समक्ष मुख्य विपक्षी दल के रूप में भारतीय जनता पार्टी ही है। हिसार में भी भारतीय जनता पार्टी समर्थित उम्मीदवार के रूप में हरियाणा जनहित कांगेस के उम्मीदवार कुलदीप बिश्रोई चुनाव लड़ रहे हैं। ज़ाहिर है यदि अन्ना हज़ारे की अपील से हिसार के मतदाता प्रभावित होते हैं तो इसका लाभ भाजपा समर्थित उम्मीदवार कुलदीप बिश्रोई को मिल सकता है। या फिर इंडियन नेशनल लोकदल के प्रत्याशी अजय चौटाला क ो। अब यहां इस बात पर चर्चा करने की ज़रूरत नहीं कि भ्रष्टाचार को लेकर स्वयं चौटाला परिवार या स्वयं स्व० भजनलाल की अपनी छवि कैसी रही है।

 

हालांकि टीम अन्ना के प्रवक्ताओं द्वारा कांग्रेस की ओर से अन्ना पर आर एस एस व भाजपा समर्थित होने के आरोपों पर तरह-तरह की सफाई व तर्क दिए जा रहे हैं। अन्ना के समर्थन में खड़े होने वाले भूषण परिवार तथा मेधा पाटकर जैसे लोगों के नाम बताकर यह सफाई दी जा रही है कि मुहिम अन्ना पर संघ या भाजपा का न तो कोई प्रभाव है न ही इसे संचालित करने में संघ या भाजपा कोई भूमिका अदा कर रहा है। परंतु यदि अन्ना व उनके साथियों द्वारा अपने मुख्य लक्ष्य अर्थात् जनलोकपाल विधेयक को संसद में लाए जाने व इसे पारित कराए जाने के लक्ष्य से भटक कर अपने समर्थकों को या भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में अपने साथ जुड़े आम लोगों को कांग्रेस का विरोध करने के लिए प्रेरित किया गया और आगे चलकर इसका लाभ मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी को मिला तो ऐसी सूरत में दिग्विजय सिंह सहित कांग्रेस पार्टी के उन सभी प्रवक्ताओं व नेताओं के अन्ना पर संघ व भाजपा समर्थित होने संबंधी लगाए जाने वाले आरोप सही साबित हो जाएंगे। और यदि ऐसा हुआ तो देश की मासूम व भोली-भाली वह जनता जो अपना $गैर राजनैतिक स्वभाव रखती है तथा बिना किसी छल-कपट या बिना किसी

राजनैतिक विद्वेष अथवा पूर्वाग्रह के केवल देश में एक भ्रष्टाचार मुक्त राजनैतिक व्यवस्था की आकांक्षा रखती है वह निश्चित रूप से स्वयं को बहुत ठगा हुआ महसूस करेगी।

 

हिसार लोकसभा उपचुनाव में टीम अन्ना सदस्यों द्वारा कांग्रेस पार्टी के विरोध में खुलकर आने से जहां अब उनकी राजनैतिक महत्वाकांक्षा उजागर होती दिखाई देने लगी है वहीं अब यदि क्रांति अन्ना के पिछले पन्नों को पलटकर देखा जाए तो उनके भविष्य के इरादे निश्चित रूप से संदेहपूर्ण व राजनैतिक महत्वाकांक्षा से लबरेज़ दिखाई देते हैं। उदाहरण के तौर पर अन्ना हज़ारे द्वारा जिस समय जंतर-मंतर व उसके बाद रामलीला मैदान में अनशन किया गया उस दौरान देश में अधिकांश जगहों पर अन्ना के समर्थन में अनशन आयोजित करने वालों मे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व भारतीय जनता पार्टंी से जुड़े लोग ही आगे-आगे चल रहे थे। यहां तक कि तमाम जगहों पर अनशन का पूरा का पूरा प्रबंध व $खर्च भी इन्हीं संगठनों के लोगों द्वारा उठाया गया। हालांकि आम लोगों को अन्ना हज़ारे के नाम पर अपने साथ जोडऩे के लिए तथा अनशन में अन्ना के नाम पर लोगों को बुलाने के लिए इन संगठनों ने अपने झंडे व पोस्टर आदि लगाने से गुरेज़ किया था। परंतु जिस प्रकार हिसार में अब टीम अन्ना बेनकाब हुई है उसे देखकर तो अब यही लगने लगा है कि कहीं कांग्रेस के नेतृत्व में केंद्र में चल रही संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार को कमज़ोर व अस्थिर करने की विपक्ष की साजि़श का ही तो क्रांति अन्ना एक हिस्सा नहीं?

 

देश का प्रत्येक व्यक्ति इस समय निश्चित रूप से भ्रष्टाचार से बेहद त्रस्त व दु:खी है। इसमें भी कोई शक नहीं कि भ्रष्टाचार के जितने मामले वर्तमान यूपीए सरकार के शासनकाल में उजागर हुए हैं उतने बड़े घोटाले देश के लोगों ने पहले कभी नहीं सुने। परंतु इस बात से भी कोई इंकार नहीं कर सकता कि देश में इस समय शायद ही कोई ऐसा राजनैतिक दल हो जो स्वयं को शत-प्रतिशत भ्रष्टाचार से मुक्त होने का दावा कर सके। हां इतना ज़रूर है कि किसी पर भ्रष्टाचार के कम छींटे पड़े हैं तो किसी पर ज़्यादा। यानी किसी को चोर की संज्ञा दी जा सकती है तो किसी को डाकू की और किसी को महाडाकू की। कांग्रेस पार्टी में यदि केंद्रीय मंत्री स्तर के कई लोग भ्रष्टाचार में संलिप्त नज़र आ रहे हैं या संदेह के घेरे में हैं तो भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष से लेकर उनके भी कई केंद्रीय मंत्री,सांसद व कई-कई मुख्यमंत्री भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों का सामना कर रहे हैं। ऐसे में यदि अन्ना हज़ारे की कांग्रेस के विरोध की अपील का प्रभाव कांग्रेस पर पड़ा तथा विपक्ष ने इसका लाभ उठाया तो उनकी कथित भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को क्या कहा जाएगा?

 

इसके अतिरिक्त हालांकि अन्ना हज़ारे स्वयं भी संघ या भाजपा द्वारा निर्देशित होने के कांग्रेस के आरोपों का खंडन कर चुके हैं । परंतु राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ,विश्व हिंदू परिषद् तथा भाजपा के नेताओं द्वारा कई बार यह कहा जा चुका है कि वे तथा उनके कार्यकर्ता पूरी तरह से अन्ना हज़ारे की मुहिम व उनके आंदोलन के साथ रहे हैं। देश में तमाम जगहों पर स्थानीय स्तर पर इन कार्यकर्ताओं को अन्ना मुहिम से जुड़े हुए देखा भी गया है। अब यदि राजनैतिक हल्कों में छिड़ी इस चर्चा पर ध्यान दें तो टीम अन्ना द्वारा कांग्रेस का हिसार से विरोध किए जाने का कारण कुछ न कुछ ज़रूर समझ में आने लगेगा। $फौज में मामूली पद पर रहने वाले तथा मुंबई में $फुटपाथ पर फूल बेचने वाले साधारण व्यक्तित्व के स्वामी अन्ना हज़ारे ने जब भ्रष्टाचार के विरुद्ध देश की केंद्र सरकार की चूलें हिलाकर रख दीं तो देश की जनता एक बार तो यही महसूस करने लगी थी कि देश को दूसरा ‘गांधी’ मिल गया है।

 

जो कि साधारण व गरीब लोगों के ज़मीनी हालात को समझते हुए भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध इतनी बड़ी मुहिम छेड़ रहा है। परंतु अब राजनैतिक हल्क़ों में इस बात की चर्चा ज़ोर पकड़ रही है कि विपक्षी दल अन्ना हज़ारे के कंधे पर बंदूक़ रखकर चला रहे हैं। और कांग्रेस पार्टी को निशाना बना रहे हैं। और यदि भविष्य में सबकुछ इन सब की योजनाओं के अनुरूप चलता रहा तो अन्ना हज़ारे को विपक्ष देश के राष्ट्रपति के रूप में अपना उम्मीदवार प्रस्तावित कर एक तीर से कई शिकार खेल सकता है। यानी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के इस नायक को सडक़ों से उठाकर राष्ट्रपति भवन में सम्मान $खामोशी से रहने की राह हमवार कर सकता है तथा स्वयं अन्ना हज़ारे भी संभवत: देश के इस सबसे बड़े संवैधानिक पद को अस्वीकार करने का साहस भी नहीं जुटा सकते। कुल मिलाकर देश का राजनैतिक समीकरण क्या होगा यह तो आने वाले दो-तीन वर्षों में ही पता चल सकेगा। परंतु अन्ना हज़ारे के राजनैतिक दांव-पेंच में उलझने के बाद उनके साथ लगे गैर राजनैतिक मिज़ाज के लोग स्वयं को एक बार फिर ठगा सा ज़रूर महसूस कर रहे हैं।

सच्ची बात कही थी मैंने…

लोकेन्‍द्र सिंह राजपूत

उस दिन ग्वालियर की गुलाबी ठंडी शाम थी। वाकया नवंबर २००४ का है। मौका था रूपसिंह स्टेडियम में आयोजित ‘जगजीत नाइट’ का। कार्यक्रम में काफी भीड़ पहुंची थी। मैंने ‘भीड़’ इसलिए लिखा है क्योंकि वे सब गजल रसिक नहीं थे। यह भीड़ गजल के ध्रुवतारे जगजीत सिंह को सुनने के लिए नहीं शायद देखने के लिए आई थी। बाद में यह भीड़ जगजीत सिंह की नाराजगी का कारण भी बनी। दरअसल गजल के लिए जिस माहौल की जरूरत होती है। वैसा वहां दिख नहीं रहा था। लग रहा था कोई रईसी पार्टी आयोजित की गई है। जिसमें जाम छलकाए जा रहे हैं। गॉसिप रस का आनंद लिया जा रहा है। जगजीत सिंह शायद यहां उस भूमिका में मौजूद हैं, जैसे कि किसी शादी-पार्टी में कुछेक सिंगर्स को बुलाया जाता है, पाश्र्व संगीत देने के लिए। गजल सम्राट को इस माहौल में गजल की इज्जत तार-तार होते दिखी। आखिर गजल सुनने के लिए एक अदब और सलीके की जरूरत होती है। यही अदब और सलीका आज की ‘जगजीत नाइट’ से नदारद था। गजल के आशिक और पुजारी जगजीत सिंह से गजल की यह तौहीन बर्दाश्त नहीं हुई। उनका मूड उखड़ गया। उन्होंने महफिल में बह रहे अपने बेहतरीन सुरों को और संगीत लहरियों को वापस खींच लिया। इस पर आयोजक स्तब्ध रह गए। सभी सन्नाटे में आ गए। आयोजकों ने जगजीत जी से कार्यक्रम रोकने का कारण पूछा। इस पर गजल सम्राट ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा था कि ‘गजल मेरे लिए पूजा है, इबादत है। यहां इसका सम्मान होता नहीं दिख रहा है। अगर गजल सुननी है तो पहले इसका सम्मान करना सीखें और सलीका भी। मैं कोई पार्टी-शादी समारोह में गाना गाने वाला गायक नहीं हूं। गजल से मुझे इश्क है। मैं इसका अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकता। यहां उपस्थित अधिकांश लोग मुझे गजल श्रोता, गजल रसिक नहीं दिखते। संभवत: आप लोग यहां सिर्फ जगजीत सिंह को देखने के लिए आए हैं। ऐसे में मेरे गजल कहने का कोई मतलब नहीं है। मैं खामोश ही भला। उनका इतना कहना था कि आयोजकों के चेहरे देखने लायक थे। काफी अनुनय, विनय और माफी मांगने पर जगजीत सिंह फिर से गाने के लिए तैयार हुए। लेकिन, उन्होंने चिट्ठी न कोई संदेश… गाकर ही कार्यक्रम को विराम दे दिया। जगजीत सिंह की महफिलों में अक्सर यही आखिरी गजल होती है। यह घटनाक्रम दूसरे दिन शहर के सभी अखबारों की सुर्खियां बना। उस दिन ग्वालियरराइट्स के दिलों में गजल के लिए सम्मान के भाव जगा दिए थे। इस पूरे वाकए पर उनकी लोकप्रिय गजलों में से एक ‘सच्ची बात कही थी मैंने…’ सटीक बैठती है।

गजल के प्रति यह समर्पण देखकर ही गुलजार साहब उन्हें ‘गजल संरक्षक’ कहते हैं। यह उनकी आवाज का ही जादू था कि इतने लम्बे समय तक गजल और जगजीत सिंह एक दूजे का पर्याय बने रहे। वर्ष २००४ के दौरान मैंने जब अपने पसंदीदा गजल गायक के बारे अधिक जानने की कोशिश की तो पता चला कि आपकी जीवनसंगिनी चित्रा सिंह भी बेहतरीन गजल गायिका हैं। चित्रा से जगजीत जी का विवाह १९६९ में हुआ था। दोनों ने १९७० से १९८० के बीच संगीत की दुनिया में खूब राज किया। बाद में सड़क दुर्घटना में बेटे विवेक की मौत के बाद चित्रा सिंह ने गाना छोड़ दिया। जबकि जगजीत सिंह बेटे के गम में डूबने से बचने के लिए गजल और आध्यात्म में और अधिक डूब गए। गजल को अधिक लोकप्रिय बनाने में जगजीत सिंह का योगदान अतुलनीय है। ऑर्केस्ट्रा के साथ गजल प्रस्तुत करने का सिलसिला भी इन्हीं की देन है। यह फॉर्मूला बेहद हिट हुआ। जगजीत सिंह गजल गायक, संगीतकार, उद्योगपति के साथ ही बेहतरीन इंसान भी थे। वे कई कलाकारों की तंगहाली में मदद करते रहे, क्योंकि उन्होंने भी शुरूआती दिनों में संघर्ष की पीड़ा का डटकर सामना किया। आखिर में इस महान गायक का जन्म ८ फरवरी १९४१ को राजस्थान के श्रीगंगानगर में हुआ था। ७० वर्ष का सफर तय कर मुंबई में १० अक्टूबर २०११ को निधन हो गया। पिता ने उनका नाम जगमोहन रखा था। उनके गुरु ने ही उन्हें जगजीत सिंह नाम दिया। गुरु का मान रखते हुए उन्होंने ‘जग’ से विदा लेते-लेते इसे ‘जीत’ लिया था।

बढ़ती असमानता : बारूद के ढ़ेर जैसी खतरनाक

डॉ.किशन कछवाहा

सत्ता का एक बड़ा पक्ष होने के नाते यह आशा की जाती है कि कांग्रेस लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में विश्वास रखे। लेकिन उसके व्यवहार से जनता को कभी यह आभास नहीं होता कि उसका परस्पर बातचीत में विश्वास है। गत एक वर्ष के दौरान घटी घटनाओं से तो यही निष्कर्ष निकल कर आया है। बाबा रामदेव के आंदोलन को जिस तरह आधीरात को कुचला गया। अण्णा साहब के जंतर मंतर के अनशन के बाद साझा समिति गठित करना और उसका गला घोंटना। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर जे.पी.सी. की मांग पर एक पूरे सत्र की बलि चढ़ाया जाना आदि। मंहगाई, भ्रष्टाचार, कालाधन, आतंकवाद ये सब एक व्यक्ति या एक दल से जुड़े मामले नहीं हैं। ये राष्ट्रहित से जुड़े मुद्दे हैं। बातचीत से गतिरोध दूर करने की यदि कांग्रेस की मानसिकता दृढ़ होती तो 42 साल से लटका लोकपाल विधेयक कानून की राह पर होता ।

वर्तमान प्रधानमंत्री विश्वविख्यात अर्थशास्त्री है। देश-विदेश में उनके ज्ञान की चर्चा होती है। बीस साल पहले जब वे वित्त मंत्री थे तब उन्होंने देश वासियों को एक सपना दिखाया था कि सन् 2010 तक देश से बेरोजगारी को समाप्त कर दिया जायेगा। सारी सड़कों का पक्कीकरण हो जायगा, बिजली की कमी का रोना भी नहीं रहेगा, किसान खुशहाल होंगे। मजदूरों की कोई समस्या नहीं रहेगी, उनकी जरूरतें पूरी होंगी। उस समय से आज तक जनता उस आश्वासन को पूरा होने की बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही है। एक भी लक्षण सार्थक नजर नही आ रहे।

मंहगाई बेकाबू हो गई है। करों का बोझ बढ़ा दिया गया है। कृषि क्षेत्र को अनदेखा किये जाने के कारण किसान आत्महत्या करने मजबूर है। भ्रष्टाचार मिटाने के मामले में प्रधानमंत्री जी की बेबसी साफ झलकती दिखाई दे रही है। जबकि भ्रष्टाचार अन्य सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक है।

अण्णा साहब के आन्दोलन में आम आदमी, रिक्शाचालकों से लेकर प्रतिष्ठित वर्ग वकील, डाक्टरों का जुड़ना केन्डल मार्च निकालना, सड़कों पर आकर नारेबाजी करना इस बात का घोतक है कि जिन मुद्दों पर सरकारी पक्ष आंख मूंदे हुये हैं, उससे उनमें रोष व्याप्त है। यह देश की वह अस्सी प्रतिशत जनता है जो खेतों-खलिहानों से लेकर कारखानों में दिन-रात अपना सक्रिय योगदान दे रही है। सुई से लेकर हवाईजहाज तक उत्पादन में लगी हुयी है लेकिन उसका उस पर कोई नियंत्रण अधिकार नही होता । असल में यह सारा दोष उस पूंजीवादी व्यवस्था में हैं जहां से भ्रष्टाचार की त्रिवेणी प्रवाहित होती है। वहीं से बहुसंख्यक मेहनतकश जनता की लूट की बयार बह रही है। जनतंत्र में जनता की उपेक्षा का भाव और पूंजी को प्रश्रय देनेवाली सरकार द्वारा कानूनी जामा पहना दिये जाने के कारण मामला और भी पेचीदा बनता चला जा रहा है। क्या इस सबके चलते भ्रष्टाचार को समाप्त करने का दावा किया जा सकता है ।

12 दिन तक चले अण्णा साहब के अनशन की सुखद समाप्ति से देशवासियों ने राहत की सांस ली। लोकप्रिय जनभावनाओं का कद्र करने की आदत सरकार की बनी होती तो एक 74 वर्षीय वृध्द व्यक्ति को भूखे रखने के पाप से इस आध्यात्मिक आत्मा वाले देश को बचा लिया गया होता। एक तो जनभावनाओं का आदर नहीं किया गया दूसरे तरह तरह के घिनौने आरोपों और अपशब्दों की सत्ता पक्ष की ओर से बौछारें की गयीं। तरह तरह की दलीलें दी गई कि संसद लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था है । नि:संदेह सर्वोच्च है। चुनौती कौन दे रहा था ?

अण्णा साहब और उनकी टीम ने एक मसविदा बनाया था। उसे सरकार और आम जनता के सामने रखा गया था। जनतंत्र में क्या माँग उठाना आपत्तिजनक है ? इसका अर्थ तो यह हुआ कि जनसेवा का व्रत लेने वाले हमारे ये जनप्रतिनिधि कुछ भी करें जनता चूं-चपाट भी न करें। ये बात क्यों नही समझी जानी चाहिये कि अंतिम शक्ति तो इसी जनता में निहित है। रही तथ्य की बात तो यह भी स्पष्ट है कि देश में एक भी दल ऐसा नहीं है जो यह दावा कर सके कि उसे पचास प्रतिशत से अधिक जनता का प्रतिनिधित्व प्राप्त है।

प्रधानमंत्री जी ने स्वयं लालकिले की प्राचीर से कहा था कि ‘अनशन ठीक नहीं है’। संसदीय लोकतंत्र को चुनौती नहीं दी जा सकती। तो क्या गांधी के इस देश में अनशन और सत्याग्रह को नकारे जाने की मानसिकता को बल दिया जा रहा है। उन्होंने यह भी कहा था कि भ्रष्टाचार को मिटाने उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। लेकिन जनता ने यह अवश्य देखा है कि आंदोलनों को कुचलने के लिये उनके पास पुलिस की लाठी जरूर है। जनता की उपेक्षा का आलम यह है कि गैर बराबरी सीमा को लांघ चुकी है । सतहत्तार प्रतिशत जनता बीस रूपये से कम आमदनी पर जहां अपना जीवन निर्वाह करने मजबूर है, वही सत्तार प्रतिशत हमारे जनप्रतिनिधि सांसद करोड़पति हैं । इनमें से 162 पर अपराधिक मामले चल रहे हैं । इतना ही नहीं देश के नेताओं और अधिकारियों की अरबो-खरबों की काली कमाई प्रतिवर्ष जमीन जायजाद की खरीदी, खनन के पट्टे, शेयर बाजार, मीडिया और मनोरंजन जगत और अवैघ उद्योगों-व्यापारों, भवन निर्माण, साहूकारी, स्कूल, कालेजों के धंधे तथा सोने जवाहरात हीरे आदि की खरीद में लगी होती है। अधिकतर पेट्रोल पम्प, गैस एजेन्सियां, पत्थर की खदानें, टोलटेक्स आदि के ठेके इन्हीं नेताओं के परिवारों और रिश्तेदारों के अलावा किसी और को प्राप्त ही नहीं हो सकते। सरकारी पक्ष रट लगाये है कि विकास हो रहा है। किसका विकास हो रहा है ? सरकार में बेठे लोगों का विकास हो रहा है। सरकार ने देश के विकास का एक मात्र पैमाना माना है सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) को । सरकार के पास आंकड़ों की जादूगरी है जिसमें वह आम आदमी को उलझा कर रखने में माहिर है।

‘ग्लोबल फाइनेंसियल इंट्रीग्रिटी रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ सन् 2000-2008 के बीच एक सौ पच्चीस अरब डालर की रकम कालेधन के रूप में देश से बाहर गयी है। स्विस बैंक के अलावा लगभग चालीस और सुरक्षित ठिकाने है जहां इस तरह की पूंजी (कालाधन) रखी गयी है। वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था ने अमीर और गरीब के बीच खाई को चौड़ा किया है। इसे लेकर स्थायी शांति का झूठा दावा ही किया जा सकता है । अभी हाल ही में लंदन में भड़के दंगों से सबक लिया जाना चाहिये। बिछे हुये बारूद के लिये एक चिन्गारी भी पर्याप्त होती है। अण्णा की मुहिम से सारा देश सहमत है । कतिपय निहित स्वार्थी तत्वों को छोड़कर ऊपर से नीचे तक फैले भ्रष्टाचार ने देश को खोखला कर दिया है। अण्णा ने व्यवस्था पर सवाल उठाया है। सरकार उनकी बात सुनने के बजाय दबाने की ही कोशिश करती रही। बाबा रामदेव के अभियान को आधी रात को बलपूर्वक कुचला है। अण्णा के खिलाफ भी हठधर्मिता के साथ आरोप-प्रत्यारोप के दौर पूरी ताकत के साथ चलाये गये ।

अर्थशास्त्री और विशेषज्ञों का मानना है कि गत वर्षों मे जो भारीभरकम घपले-घोटालों की तथा-कथा सामने आयी है उसका गहरा सम्बंध उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों से है जिन्हें सन् 1991 से देश में लागू किया गया है। इसमें देशी और विदेशी कम्पनियों का गोरखधंधा स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार के साथ साथ आम लोगों को बाजार के भ्रष्टाचार से भी जूझना पड़ रहा है। शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में क्या कम लूट मची है ? इसमें आम आदमी की गाढ़ी कमाई के पैसे को फलता-फूलता व्यवसाय बनाकर खुले आम लूटा जा रहा है। जल, जंगल जमीन तो प्राकृतिक संसाधन थे। इन्हें कंपनी और उद्योगों को सौंपने का रास्ता किसने आसान किया है ? यह देखने और समझने की बात है।

अण्णा का यह कदम एक शुरूआती संकेत है। भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये लम्बी लड़ाई की जरूरत है । अण्णा की इस मशाल को जलाये रखा जाना चाहिये। और सबसे ज्यादा जरूरी बात यह है कि जनता को छोटे बड़े आन्दोलनों के माध्यम से जागरूक बनाये रखा जाना है। कालाधन और भ्रष्टाचार एक परिवार के सगे संबंधी हैं । इनके चरित्र को अलग अलग देखने की गलती नहीं की जाना चाहिये। ट्रांसपरेन्सी इंटरनेशनल द्वारा जारी ग्लोबल करप्शन बैरोमीटर 2009 के अनुसार भारत में सबसे ज्यादा भ्रष्ट नेता हैं। नेतागिरी एक फलता-फूलता व्यवसाय बन चुका है जिसके कारण आम आदमी का जीवन कठिनतर होता जा रहा है। एक तरफ रोजमर्रा के उपयोग में आने वाली वस्तुओं के दाम बेतहासा बढ़ते जा रहे हैं वही करों का बोझ भी बढ़ता चला जा रहा है।

(लेखक प्रसिध्द स्तंभकार है) 

मुझे मिल गया नास्त्रेदमस का मेबस

क्या पहले मुझे नास्त्रेदमस का परिचय देने की जरूरत है। मुझे नहीं लगता क्योंकि सब कुछ विकीपीडिया में मिल जाएगा सो वहां से आप पढ लिजिए। मैं तो लिखने बैठा हूँ इस दुनिया की तबाही के बारे में महान भविष्यवक्ता नास्त्रेदमस की भविष्यवाणीयों के बारे में कुछ बताने और कुछ आपको सुझाने के लिए।

मैने इस संबंध में एक लेख लिखा था तीसरा विश्वयुद्ध शुरू – नास्त्रेदमस की भविष्यवाणी पूर्णता की ओर इसमें मैने बताया था की दुनिया तीसरे विश्वयुद्ध के ना केवल कगार पर है बल्कि बहुत तेजी से युद्ध शुरूआत होने की भूमिका लगभग तय हो गई है । किस तरह से लडाई छिडेगी इसका एक खाका तैयार हो गया है । आगे मैं जो भी लिखने जा रहा हूँ उस पर केवल पढनें तक सीमीत ना रहे बल्कि आप इससे आगे की सोचें…….।

मेबस (MABUS) के बारे में सबसे पहले चर्चा करते हैं। इस नाम को आडा-टेढा उल्टा-सीधा सब कुछ करके दुनिया के विशेषज्ञों नें देख लिये हैं अब इसके बारे में मेरा जो नजरिया है उस पर गौर फरमाएं और यदि सही लगे तो प्लीज…. अपना नाम जोड कर मत बता देना की ये आपकी खोज है। दरअसल इस नाम की खोज पर कई सालों से मैं भी लगा हुआ था और हर उभरते नाम के साथ इस नाम को जोडने का प्रयास करता रहा।

Mabus तो जल्द ही मर जाएगा, वहाँ आ जाएगा लोगों और जानवरों में से एक भयानक भगदड़:

फिर अचानक एक प्रतिशोध देखेंगे, सौ, हाथ, प्यास, भूख जब धूमकेतु चलेंगे (सदी द्वितीय, 62 रुबाई).

अब कोई इसे मेबस कहता है तो कोई माबस कहेगा लेकिन मैं इसे केवल मबुस ही समझा और इसी आधार पर उस मबुस की खोज करने निकल पडा। .. बोर हो गए ना… लेकिन अब जो बता रहा हूँ उसे आप भूमिका कह सकते हैं । जैसा की मैने तीसरा विश्वयुद्ध शुरू लेख में बता चूका हूँ की गद्दाफी पनडुब्बी अथवा अन्या साधनों से होता हुआ इटली तक पहुंचेगा। लेकिन पुनः नास्त्रेदमस की भविष्यवाणी में सेंचुरी 9 के 3 खंड में लिखा है:

The “great cow” at Racenna in great trouble, Led by fifteen shut up at Fornase,

At Rome there will be born two double-headed monsters, Blood, fire, flood, the greatest ones in space .

यहां पर खोजबीन किया तो पाया की Racenna में मात्र एक स्पेलिंग का फेरबदल करो और c की जगह पर v का इस्तेमाल करने पर इस नाम का इटली का एक समुद्र तटीय नगर है । अब जबकि रेवेना मिल गया तो वहां से लिबिया का पहुंच मार्ग ढुंढा और त्रिपोली से रेवेना का नक्शा इस तरह से बना —-

अब इसके साथ नीचे की नीली लाइन पर गौर फरमाएं यह लाइन सीधे त्रिपोली, लिबिया तक के लिये खींची गई है (कुछ मेहनत आप भी करो औऱ गुगल मेप से रास्ता ढुंढो) मुझे कुल समुद्री दुरी 1000 किलोमीटर के आसपास की मिली। अब आपको लगेगा की इस दूरी का मेबस से क्या जोड हो सकता है । हां .. आप सही है इन दोनो का कोई जोड नही है लेकिन जोड बनाना है तो कुछ गुणा भाग भी तो करना पडेगा।

At Rome there will be born two double-headed monsters, इस लाइन का क्या आप हिंदी में रूपांतरण करेंगे । मुझे जितनी अंग्रेजी समझ में आई उसके अनुसार नास्त्रेदमस रोम में दो सिर वाले राक्षस के जन्म लेने की बात कहते हैं । जी हां …..ये है दो सिर वाला राक्षस …मेबस या माबस लेकिन मेरी भाषा में मबुस।

गद्दाफी गायब है और इस लेख को लिखे जाने तक लापता ही है लेकिन नास्त्रेदमस की भविष्यवाणी के अनुसार वह इस समय या तो इटली के रेवेना शहर तक पहुंच चुका होगा या पहुंचने वाला और यही गद्दाफी है मबस का MA (गद्दाफी के नाम के पहले मुअम्मर लगता है जिसके उच्चारण का एक हिस्सा मुअम् … फिर मुअम् से म बना इस तरह से बना आपके मेबस का और मेरे मबुस का म ।

जब मबस का म मिल गया तो पीछे के BUS को ढुंढने मे कोई कठिनाई नही पडी। दो सिर वाले राक्षसों का एक सिर मुअम्मर गद्दाफी है तो दुसरा सिर उस बुस का है जो गद्दाफी का परम प्रिय हो या फिर ऐसा आदमी जो गद्दाफी की तरह का तानाशाही रवैय्या रखते हुए अय्याशी कर रहा हो और रहता इटली में हो । …. अरे वाह आप भी पहचान गये … जी हां मबुस का बुस बुर्लोस्कोनी ही है … कैसे .. जरा उसके नाम के हिस्सों को अलग अलग करो .. बुर्लोस्-कोनी… फिर से कहो .. बुर्लोस् …. फिर से कहो … बुस् … हो गया हिज्जों में तैय्यार मबुस नामक दो सिरों वाला राक्षस । … ।

कहते हैं की जब दुनिया के सबसे बडे दुश्मन को अपने घर में छिपाना हो तो दुनिया के सामने उसे अपना सबसे बडा दुश्मन बताओ (पाकिस्तान ने ओसामा के साथ यही नाटक दुनिया के सामने दिखाया था) तब मुझे समझ आया की क्यों बुर्लोस्कोनी गद्दाफी को अपना सबसे बडा दुश्मन बता रहा है । उसका बयान जब मैने पढा की गद्दाफी का बस चले तो वह मुझे अभी मरवा डाले तो मुझे गडबड लगी, क्योंकि दोनो की एक फोटो से मुझे उनके रिश्ते बडे मीठे लगे थे .।.. आप भी देखें ….

इन तस्वीरों को देखकर आप क्या कहेंगे । सबसे बडी बात यह है की इन दोनो महानुभावों का व्यवहार । दोनो की भाषाओं में तानाशाही झलकती है । दोनो ही कानून की परवाह नही करते । दोनो को एशोआराम पसंद है । दोनो को खूबसूरत लडकियों का शौक है । वगैरह वगैरह … अब आप ही सोचें की क्या मेरी खोज गलत है । अगर गलत लगे तो मेरे अगले लेख को जरूर पढ लिजियेगा ।

आरक्षण के प्रश्न पर चुनावी मजबूरियां

हरिकृ ष्ण निगम

आज देश की राजनीति जिस तरह करवटें ले रही है और आरक्षण की चुनावी लाचारियों ने इस समस्या पर विमर्श के स्तर को इतना गिरा दिया है कि कुछ लोग धर्म के आधार पर भी आरक्षण की आवश्यकता को निर्लज्जतापूर्वक संविधान-सम्मत मानने लगे हैं। इसी तरह प्रकाश झा की हाल ही ‘आरक्षण’ फिल्म ने दशकों के बाद इस दबे मूद्दे और आरक्षण की चुनावी मजबूरियों की फिर पोल खोल दी है। राजनीतिक सच इतना खोखला होता है कि वह असुविधाजनक कड़वा सच नहीं पचा पाता है। इस फिल्म में मंडल-मसीहा के मुखर पक्षधरों ने आरक्षण बनाम के योग्यता के वर्तमान-विमर्श को संवेदनशील वर्गों के आमने-सामने ला खड़ा किया है।

आरक्षण का मुद्दा हर रोज कुछ नया मोड़ लेता ही दीखता है और निरंतर लगाए जाने वाले आरोप-प्रत्यारोप एक ओर देश के उपेक्षित चेहरों को राजनीतिक मोहरा बनाते दीखते हैं वहीं दूसरी ओर बुध्दिजीवियों का दुराग्रही दिवालियापन सामाजिक समरसता को भंग करने पर तुला हुआ है। एक ओर शुद्र, दलित, हरिजन, पिछड़ा आदमी, उपेक्षित जाति और अनेक और तिरस्कृत वर्ग सभी को सब्जबाग वे लोग दिखा रहे हैं जो उनके लिए प्रतिनिधित्व का दावा कर रहे हैं पर उनमें से हर नेता की चुनावों के समय घोषित संपत्ति करोड़ों की निकलती है। यह धनराशि उनके दल की नहीं, निजी है। पिछड़ी जातियों को उनकी स्थिति का एहसास दिलाने के लिए कदाचित वे उन्हें वे आईना दिखाते रहेंगे। जो अनंतकाल तक एक राजनीति ढाेंग बनकर रह सकता है। जाति के दल-दल से परे सबसे उपेक्षित और अभिशप्त तो एक गरीब है वह चाहे किसी क्षेत्र या जाति का हो उसकी गरीबी ही उसका सबसे बड़ा पाप है। शुद्र आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो हमारे यहां साधारण मजदूर की दशा अमेरिका के अश्वेतों से भी गई गुजरी हुई है। प्रश्न केवल गरीबी, अशिक्षा और तिरस्कार का ही नहीं है। वह अन्याय के विरूध्द बगावत करने पर भी मजबूर हीे तो उसे राजनीतिक दलालों के माध्यम से ही जाना होगा जिनकी नइ्र संपन्न पीढ़ी उन पर पिछड़ेपन के दाग को धोने के बजाय उसे एक माध्यम बनाकर अपना राजनीतिक वर्चस्व बनाए रहना चाहता है।

आजादी के दशकों बाद भी आज के गांवों में रहने वाले करोड़ों इंसानों और गाय-बैलों में कोई अंतर नहीं है। यद्यपि उनकी दुहाई देकर राजनीति की सीढ़ियों पर चढ़ने वाले अपराधिक छवि वाले राजनेता सब जगह है जो सबसे पहले उन्हीं का शोषण करते हैं और सच तो यह है कि उन्हें गरीबी और अन्याय के साथ अप्रत्यक्ष रूप से जीना सिखाते हैं। सह-आस्तित्व का सिध्दांत शायद यहीं पर सबसे सच्चे रूप में लागू होता है।

आप स्वयं चारों ओर देखिए, पिछड़े समाजों की स्थिति और उन्हीं के बल पर पनपे नेताओं की नई समृध्दि व उनका अहंकार आपको विस्मित भी करेगा और शर्मिंदगी भी महसूस करा सकता है। गत पांच दशकों में न तो कांग्रेस ने या किसी और दल ने इस समस्या की वस्तुस्थिति समझने की कोशिश की है। वे सिर्फ वोटों के लिए जातिवाद को जिलाते रहे थे। राजनीतिवाजों का असली एजेंडा और मंतव्य चाहे शिक्षा हो या स्वास्थ्य या कोई भी कल्याणकारी कदम रहा हो, घोर जातिवाद जीवित रहने वाले जिस उन्माद से सेकुलरवाद की बातें करते हैं वह पाखंड जैसा है।

युवा छात्रों के उच्च शिक्षा के संस्थानों में आरक्षण ने असली मुद्दे से हमें भ्रमित करने की कोशिश की है। सर्वाधिक विपन्न वर्ग के हितों को फिर अनदेखा करते हुए यह सिर्फ वोटलोलुप कांग्रेस नेताओं का नया अवसरवादी खेल हैं। प्रसिध्द अर्थशास्त्री लार्ड मेघनाद देसाई ने जो स्वयं एक समय मार्क्सवादी प्रोफेसर थे, हाल में कहा कि देश में समानता और सामाजिक न्याय के नाम पर हम लगभग हर क्षेत्र में गुणवत्ता को नष्ट करने पर तुले हैं। वे उच्च शिक्षा के केंद्रों पर आरक्षण के विरोधी है। इसके बदले में वे अमेरिका और दूसरे देशों में लागू की गई ”सकारात्मक कार्यक्रमों” या ”अफरमेटिव एक्शन” की अवधारणा का समर्थन करते हैं। सदियों के रंगभेद के अन्यायों के विरूध्द इसका प्रयोग अमेरिका ने किया और कुछ अर्थों में हमारे देश की आरक्षण की राजनीति से यह कहीं बेहतर सिध्द हुआ है। सीधी सी बात है कि समाज में गरीबी चाहे ऊंची जाति का या पिछड़े वर्गों की हो वह सभी के लिए समान रूप से अभिशाप है। उपेक्षित किसी भी जाति या धर्म को हो सकता है। उनमें फर्क करना जनतांत्रिक पाखंड में रूपांतरित हो जाता है। गरीबी के बीच दीवारें खींचने वाले सिर्फ स्वार्थी और दंभी राजनीतिज्ञ हो सकते हैं, सच्चे समाज हितैषी नहीं। एक जाति को दूसरी जाति को संकीर्ण आधार पर भिड़ाना और चुनावी समीकरण बनाना देश के लिए महंगा सिध्द हो सकता है।

प्रसिध्द उद्योगपति रतन टाटा ने भी हाल में कहा कि सरकार द्वारा नियंत्रित प्रबंधन, शैक्षणिक एवं संगणक संस्थानों में प्रस्तावित आरक्षण-कोटे से देश टूट सकता है। आज की स्थिति यह है कि पिछले दौर के सरकारी आरक्षण की स्थिति से मध्यवर्ग ने येन-केन-प्रकारेण समझौता कर लिया था और वे युवा बाकी क्षेत्रों को छोड़कर आईआईटी, आईआईएम एवं मेडिकल की दुनियां में प्रतिद्वंद्विता का मूल्य बचा हुआ था। एक लेखक के अनुसार समानता का यह अर्थ नही है कि आप एक सक्षम धावक की जगह एक अपंग व्यक्ति को ओलंपिक दौड़ के लिए चुनें। राजनीतिक रूप से आप इस टिप्पणी को सही न मानें पर यह सिध्द करता है कि आज के युग में कड़वा सच गले के नीचे उतरना मुश्किल है।

शायद भारत ही अकेला ऐसा देश है जहां किसी शोध, सर्वेक्षण एवं अध्ययन व संभावित परिणामों को बिना समझे सामाजिक न्याय के लिए नारेबाजी की जाती है क्योंकि राजनीतिज्ञों को ताकत के श्रोतों पर हालत मे कब्जा करने का मंतव्य पूरा करना ही है। आरक्षण की अवधारणा में देश के हर नागरिक की पहचान उसकी जाति है। सामाजिक प्रणाली में दरारें पड़ती जा रही है और इसको प्रतिरोध का कभी कोई बौध्दिक आंदोलन न पनप सकेगा। आज का आरक्षण के प्रश्न पर सभी दल अपने मतभेद, विचार भेद भुलाकर चुनाव को ध्यान में रखकर एक विचारधारा के हो जाते हैं। यह उसी तरह की स्थिति है जैसे संसद और विधान सभाओं ामें जब उनको अपना वेतन, भत्ता, सुख-सुविधा बढ़ानी होती हैतब हम एक अभूतपूर्व वैचारिक एकता दिखाई देती है।

आज सारी दुनियां में भारत शायद अकेला देश है जहां सत्ता-लोलुप राजनीतिज्ञ प्रतिभा और योग्यता के साथ निःसंकोच खिलवाड़ कर रहे हैं, मात्र वोटों के लिए। सामाजिक न्याय के नाम पर जैसे एक समय ‘मंडल मसीहा’ वी पी सिंह ने जातीय आधार पर बहुसंख्यकों के वोट बांटे थे और जिनका उस समय संकीर्ण उद्देश्य देवीलाल के पिछड़े वोटबैंक में सेंध लगाना था उसी तरह चुनावों की पूर्वसंध्या पर यही दुष्चक्र हर बार कांग्रेस के अन्य कुछ दल हर बार चलाते हैं।

* लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं।

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

निर्मल रानी

भारत वर्ष में सर्वधर्म संभाव व सांप्रदायिक सौहार्द्र जैसी बुनियादी प्रकृति को उजागर करने वाले अल्लामा इकबाल की यह पंक्तियां-मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना-हिंदी हैं हम वतन हैं हिंदोस्तां हमारा, गत 6 अक्तूबर को हरियाणा के बराड़ा कस्बे में साक्षात रूप से चरितार्थ होते देखी गर्इं। यह अवसर था विश्व के सबसे ऊंचे 185 फुट के रावण के पुतले को फंूके जाने का। लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड 2011 में दर्ज रावण का यह पुतला गत् 5 वर्षों से लगातार अपने ही पिछले कीर्तिमानों को तोड़ता आ रहा है। श्री राम लीला क्लब बराड़ा के संस्थापक अध्यक्ष राणा तेजिंद्र सिंह चौहान इस महत्वाकांक्षी योजना के सूत्रधार, निर्देशक तथा प्रमुख कर्ता-धर्ता भी हैं। इस रावण की लम्बाई का कारण समाज में बढ़ती हुई बुराईयों व कुरीतियों को बताया गया । आतंकवाद,सांप्रदायिकता,जातिवाद ,जनसंख्या वृद्धि,दहेज प्रथा,भ्रष्टाचार,कन्या भू्रण हत्या,अशिक्षा,मिलावटखोरीव मंहगाई जैसी तमाम बुराईयों को रावण की लंबाई के रूप में प्रतिबिंबित किया जाता है। इस वर्ष 6 अक्तूबर के आयोजन का मकसद विजयदशमी के अवसर पर जहां अपने विश्व कीर्तिमानों को तोडऩे के लगातार 5वें वर्ष में प्रवेश करना था वहीं सबसे ऊंचे रावण के रूप में लिम्का बुक में नाम दर्ज होने के उत्सव स्वरूप भी इस आयोजन को बड़े ही भव्य व उत्साहजनक तरीके से मनाया गया। एक अनुमान के अनुसार लगभग डेढ़ लाख भक्त जनों व दर्शकों ने न केवल बराड़ा व आस पास के क्षेत्रों से बल्कि,पंजाब,हिमाचल प्रदेश,उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान जैसे पड़ोसी राज्यों से भी आकर इस कार्यक्रम में शिरकत की। इस महत्वपूण आयोजन को देखने के लिए 110 वर्ष के बुज़ुर्ग तक को दूर -दराज़ से चलकर आते हुए देखा गया।

हमारा देश अपनी गंगा-जमनी तहज़ीब के लिए प्रारंभ से ही प्रसिद्ध रहा है। यह परंपरा आज भी पूर्ववत् जारी है। देश में तमाम जगहों से आज भी ऐसे समाचार प्राप्त होते हैं जिनसे यह पता लगता है कि कहीं किेसी मुसलमान द्वारा मंदिर के लिए ज़मीन दान में दी गई तो क हीं किसी मुसलमान ने पूरे मंदिर का निर्माण करोड़ों रूपये खर्च कर कराया। कहीं किसी मंदिर में मोहर्रम के ताजि़ए सजाने की $खबर मिलती है तो कहीं मुस्लिम समुदाय के लोग गणेशपूजा करते व गणेशपूजा उत्सव में बढ़-चढ़ कर शरीक होते दिखाई देते हैं। कहीं हिंदू समुदाय के लोग रमज़ान के महीने में रोज़ा रखते दिखाई देते हैं तो कहीं हिंदू समाज के लोग मोहर्रम मनाते,मातमदारी करते व ईद-बकरीद जैसे खुशियों भरे त्यौहार में अपने मुस्लिम भाईयों के साथ गले मिलते नज़र आते हैं व त्यौहार का भरपूर आनंद उठाते हुए दिखाई देते हैं। इसी सांझी भारतीय संस्कृ ति की सांझी विरासत को आगे बढ़ाते हुए अंबाला जि़ले का बराड़ा क़स्बा पूरे विश्व में मशहूर होता जा रहा है।

बराड़ा में गत् 6 अक्तूबर अर्थात विजयदशमी के दिन जिस विश्व के सबसे ऊंचे रावण के 185 फुट ऊं चे पुतले को सामाजिक बुराईयों के प्रतीक के रूप में फूंका गया उसका निर्माण विगत् कई वर्षों से एक मुस्लिम परिवार करता आ रहा है। मोहम्मद उस्मान कुरेैशी नामक मुस्लिम कारीगर अपने पूरे परिवार व अपने मुस्लिम सहयोगियों के साथ बराड़ा में स्थाई रूप से रहकर तेजिंद्र सिंह चौहान के निर्देशन में इस पुतले का निर्माण करता है। इस दौरान रावण के पुतले के निर्माण की कार्यशाला में बने एक मंदिर की देखभाल मोहम्मद उस्मान की पत्नी किया करती है। वह जहां रमज़ान के महीने में पवित्र रोज़े धारण करती है व नमाज़ अदा करती है वहीं वह इस मंदिर में भी पूरी श्रद्धा के साथ झाड़ू -सफाई आदि का कर्तव्य भी अदा करती है। उधर तेजिंद्र सिहं चौहान भी इस परिवार की सभी धार्मिक ज़रूरतों को सहर्ष पूरा करते हैं। मोहम्मद उस्मान कुरैशी ने ही इस वर्ष रावण के विशाल पुतले की पृष्ठभूमि में सोने की लंका का निर्माण कर इस आयोजन को और आकर्षक व शानदार बनाया।

दूसरी ओर गत् पांच वर्षों से इस आयोजन में राणा तेजिंद्र सिंह चौहान का साथ हरियाणा साहित्य अकादमी शासी परिषद् के पूर्व सदस्य तथा लेखक व स्तंभकार तनवीर जाफरी द्वारा भरपूर तरीके से दिया जा रहा है। सामाजिक महत्व के इस आयोजन को विश्व प्रसिद्ध स्तर का आयोजन बनाने में तनवीर जाफरी की महत्वपूर्ण भूमिका है। इतना ही नहीं बल्कि लगभग तीन घंटे तक लगातार चलने वाले इस रावण दहन कार्यक्रम को भी गत् पांच वर्षों से जा$फरी द्वारा अपने विशेष साहित्यिक अंदाज़ से संचालित किया जा रहा है। अपने संचालन में जहां वे भगवान श्री राम की महिमा का लाखों दर्शकों की उपस्थिति में गुणगान करते हैं वहीं वे इस विशाल जनसमूह के बीच जय श्री राम के नारे भी लगवाते हैं। इस वर्ष के आयोजन में तो तनवीर जाफरी द्वारा सामाजिक बराईयों के प्रतीक विश्व के इस सबसे ऊंचे रावण की शान में एक बेहतरीन कसीदा भी पढ़ा गया। अपने इस कसीदे में उन्होंने रावण की लंबाई के महत्व व उसके कारणों का जहां जि़क्र किया वहीं इस रचना को सांप्रदायिक सौहाद्र्र के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय उदाहरण भी बताया।

उधर बराड़ा में उमड़े जनसैलाब में भी सभी धर्मों व संप्रदायों के लोगों ने बड़ी संख्या में शिरकत की। इसकी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रसिद्धि को देखते हुए इस वर्ष हरियाणा के प्रसिद्ध महर्षि मार्केण्डय विश्वविद्यालय द्वारा इस आयोजन को श्री रामलीला क्लब बराड़ा के साथ मिलकर सह प्रायोजित किया गया। अशिक्षा के विरुद्ध ज़ोरदार संघर्ष चलाने वाले महर्षि मार्केण्डय विश्वविद्यालय के चेयरमैन तरसेम गर्ग व विश्वविद्यालय संचालन समिति के सचिवों सर्वश्री संजीव गर्ग व विशाल गर्ग ने रिमोट का बटन दबाकर बुराईयों के प्रतीक रावण के पुतले को अग्रि की भेंट किया।

सर्वधर्म संभाव,सांप्रदायिक सौहाद्र्र तथा देश व दुनिया में फैली तमाम सामाजिक बुराईयों को समाप्त करने जैसे संकल्प का प्रतीक बन चुके इस आयोजन को इस वर्ष देश की तमाम महत्वपूर्ण हस्तियों की भी शुभकामनाएं व उनके संदेश प्राप्त हुए। देश के जिन महत्वपूर्ण व अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने श्री रामलीला क्लब बराड़ा विशेषकर इसके संस्थापक अध्यक्ष तेजिंद्र सिंह चौहान के इन प्रयासों की अपने शुभकामना संदेशों के माध्यम से सराहना की उनमें भारत की महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटिल, हरियाणा के महामहिम राज्यपाल श्री जगन्नाथ पहाडिय़ा, हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा, दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित,गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी,केंद्रीय आवास एवं शहरी $गरीबी उपशमन मंत्री कुमारी सैलजा,केंद्रीय संसदीय कार्य एवं जल संसाधन मंत्री श्री पवन कुमार बंसल के अतिरिक्त और भी कई मंत्रियों व सांसदों के शुभाशीष इस आयोजन को प्राप्त हो चुके हैं।

यह आयोजन केवल हिंदू या मुस्लिम एकता को ही नहीं दर्शाता बल्कि जातिगत् सद्भावना का भी यह बहुत बड़ा प्रतीक है। लगभग 8 महीने तक लगातार चलने वाले रावण के इस पुतले के निर्माण में दलित व पिछड़ी जातियों के भी सैकड़ों लोग दिन-रात एक किए रहते हैं। इन सब का लक्ष्य केवल एक ही होता है कि किसी प्रकार से तेजिंद्र चौहान के नेतृत्व में बराड़ा का नाम पूरी दुनिया में रौशन हो तथा बराड़ा इस विश्वविख्यात रावण के पुतले के माध्यम से पूरे देश व दुनिया को सांप्रदायिकता,जातिवाद तथा आतंकवाद जैसी अनेक बुराईयों के विरुद्ध अपना स्पष्ट संदेश दे सके। राणा तेजिंद्र सिंह चौहान जोकि न केवल श्रीरामलीला क्लब बराड़ा के संस्थापक अध्यक्ष हैं बल्कि स्वयं एक बेहतरीन कलाकार, संगीत प्रेमी तथा परोपकारी प्रवृति के व्यक्ति भी हैं। चौहान का कहना है कि जिस प्रकार वे अपने इस आयोजन को सामाजिक कुरीतियों के प्रतीक स्वरूप मना रहे हैं तथा सर्वधर्म संभाव का संदेश इस आयोजन के माध्यम से पूरी दुनिया को दे रहे हैं उसी प्रकार सभी धर्मों के सभी आयोजनों में प्रत्येक धर्म व समुदाय के व्यक्ति को बढ़-चढ़ कर व खुले दिल से हिस्सा लेना चाहिए क्योंकि वास्तव में यही एक समृद्ध व संपन्न भारत की सांझी तहज़ीब है। आशा की जानी चाहिए कि देश में होने वाले इस प्रकार के आयोजन हमारे देश की धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रीय एकता व अखंडता को बर$करार रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे। देश के किसी भी भाग में किसी भी धर्म अथवा समुदाय के व्यक्तियों या संगठनों द्वारा जहां भी ऐसे आयोजन किए जा रहे हों उन्हें न केवल आम लोगों द्वारा बल्कि शासन व प्रशासन द्वारा भी पूरी तरह प्रोत्साहित किए जाने की सख्त ज़रूरत है।

नक्सली ही हैं विनायक सेन

पवन कुमार अरविंद

मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ. विनायक सेन नक्सली ही हैं। उनको निकट से जानने वाले के लिए इसमें कोई किंतु-परंतु की बात ही नहीं है। भले ही इस देश की सर्वोच्च अदालत ने पिछले दिनों उनको जमानत पर रिहा कर दिया हो, लेकिन मात्र जमानत के कारण ही कोई आरोपी दूध का धुला नहीं कहा जा सकता है। हालांकि मामले में अंतिम फैसला आना शेष है। जमानत का आधार तर्क और सबूत होते हैं; लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जायेगा कि अभियोजन पक्ष के हाथ वे सबूत नहीं लग सके जो विनायक सेन को उचित और कठोर दण्ड दिलवाने में मदद करते। क्या छत्तीसगढ़ सरकार की डॉ. सेन से कोई जातीय दुश्मनी थी, जो उनके खिलाफ उठ खड़ी हुई? वहां की सरकार तो पिछले कई वर्षों से हिंसक नक्सली गतिविधियों के खिलाफ जूझ रही है और राज्य में शांति व्यवस्था की स्थापना के लिए कटिबद्ध है।

सबसे दु:खद है कि शीर्ष अदालत से जमानत मिलने के बाद केंद्र की कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार ने उनको योजना आयोग की स्वास्थ्य संबंधी सलाहकार समिति का सदस्य नामित कर दिया। केंद्र का यह रवैया घातक ही साबित हो रहा है। क्योंकि रिहाई के बाद सेन पुन: नक्सली गतिविधियों में प्राण-पण से लग गये हैं। सेन की नक्सल गतिविधियों के संदर्भ में खुफिया ब्यूरो (आईबी) ने अभी हाल में एक रिपोर्ट केंद्रीय गृह मंत्रालय को सौंपी है। इसमें स्पष्ट कहा गया है कि रिहाई के बाद सेन नक्सली गतिविधियों में पूरी तरह सक्रिय हैं और सरकार के खिलाफ रणनीति बनाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। हालांकि इस रिपोर्ट के पहले आईबी ने पिछले पांच महीने में कई बार विनायक सेन की हर गतिविधि के बारे में गृह मंत्रालय को लगातार सूचित किया था, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गयी।

आईबी के अनुसार, सेन ने 10 सितंबर को डेमोक्रेटिक राइट आर्गनाइजेशन की बैठक में भी हिस्सा लिया था। यह नक्सलियों के 20 संगठनों का शीर्ष संगठन है। कोलकाता में हुई इस बैठक में सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून और गैर-कानूनी गतिविधि रोकथाम कानूनों को हटाने के लिए राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू करने का फैसला किया गया। हैरानी की बात यह है कि आईबी की रिपोर्ट के बावजूद अभी तक विनायक सेन की योजना आयोग की सलाहकार समिति की सदस्यता को रद्द करने की कोई पहल नहीं की गई है।

उल्लेखनीय है कि रायपुर की अदालत ने 24 दिसम्बर 2010 को सेन को देशद्रोह का दोषी मानते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी। न्यायालय ने सेन के साथ दो अन्य लोगों को भी देशद्रोह का दोषी करार दिया था, जिसमें प्रतिबंधित संगठन भाकपा (माओवादी) से जुड़े नारायण सान्याल और कोलकाता के तेंदू पत्ता व्यवसायी पीयूष गुहा शामिल हैं। सेन ने निचली अदालत के फैसले के खिलाफ छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में अपील की थी, जिसको न्यायालय ने ठुकरा दी थी। इसके बाद उन्होंने शीर्ष न्यायालय में अपील की, जहां उनको 15 अप्रैल 2011 को जमानत मिल गयी। सेन पर आरोप था कि उन्होंने प्रतिबंधित संगठन भाकपा (माओवादी) का शहरों में नेटवर्क ख़डा करने में अहम भूमिका अदा की है। इसके अलावा उन पर बिलासपुर जेल में बंद माओवादी नेता नारायण सान्‍याल की चिट्ठियां अन्‍य माओवादियों तक पहुंचाने के भी आरोप लगे थे। वहीं गुहा पर भी सान्याल का संदेश चोरी-छिपे माओवादियों तक पहुंचाने के आरोप लगे थे।

विनायक सेन को समिति का सदस्य नामित करने पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने गहरी नाराजगी जताते हुए योजना आयोग के पदेन अध्यक्ष प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया को पत्र लिखा था। मुख्यमंत्री ने कहा था- “डॉ. विनायक सेन को अदालत ने राजद्रोह का दोषी पाते हुए सजा दी है। वे इसके सहित कुछ और कानूनों के तहत सजा काट रहे हैं। उनकी अपील हाईकोर्ट में लंबित है लेकिन उनकी सजा पर रोक नहीं लगाई गई है। योजना आयोग की साख बहुत महत्वपूर्ण है और इस नाते ऐसी संस्था में डॉ. विनायक सेन को रखा जाना बहुत ही सदमे का मुद्दा है। यह तमाम तौर-तरीकों के खिलाफ भी है क्योंकि उन्हें राज्य के खिलाफ युद्ध छेडऩे के आरोप में सजा मिली हुई है।”

यह एक मान्य सिद्धांत है कि कोई भी व्यक्ति जो उम्र कैद की सजा काट रहा है, उसे राष्ट्रीय स्तर की किसी समिति में या ऐसे किसी मंच पर कभी सदस्य नहीं बनाया जाता। देश में ऐसी कोई दूसरी मिसाल भी नहीं है। यह भी कम हैरानी की बाद नहीं है कि इस समिति में रखने के लिए देशभर में योजना आयोग को विनायक सेन से ज्यादा योग्य कोई और व्यक्ति नहीं मिला। पत्र में डॉ. रमन सिंह ने यह भी कहा था कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में डॉ. सेन के योगदान को बढ़ा-चढ़ाकर बताया जा रहा है, जबकि हकीकत में ऐसी किसी बात के सुबूत नहीं हैं।

डॉ. रमन सिंह ने प्रधानमंत्री से इस मनोनयन पर पुनर्विचार करने का भी अनुरोध किया था और घोषणा करते हुए कहा- “मैं बहुत भारी मन के साथ यह फैसला ले रहा हूँ कि जब तक विनायक सेन के मनोनयन पर पुनर्विचार नहीं किया जाता, मैं योजना आयोग की बैठकों में हिस्सा नहीं लूंगा।”

अब प्रश्न उठता है कि एक तरफ प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह स्वयं ही कई अवसरों पर नक्सलवाद को इस देश की आंतरिक सुरक्षा और लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा बता चुके हैं। ऐसे में एक ऐसी समिति जिसके पदेन अध्यक्ष स्वयं प्रधानमंत्री हैं, में संदिग्ध व्यक्ति को शामिल करना केंद्र द्वारा नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई के सारे दावे को खोखला ही साबित करता है। हालांकि केंद्र नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई में छत्तीसगढ़ सरकार की मदद करने की बार-बार दुहाई देता है, लेकिन प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के पत्र पर पुनर्विचार करने को कतई गंभीर नहीं था। फिलहाल चाहे जो कुछ भी हो लेकिन केंद्र की खुफिया एजेंसी आईबी की रिपोर्ट ने मुख्यमंत्री के दावे को और मजबूती प्रदान की है। अत: यह कहा जा सकता है कि आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे पर कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार का रवैया कांग्रेस की अधोगति का शोकगीत बनेगी। इस कारण कांग्रेस को इतिहास के काले अध्याय में जगह मिलेगी।

सिक्किम नेपाल और तिब्बत सीमा पर हिलने को मजबूर धरती

भारतीय भूकम्प से नुकसान को रोकने की एक पहल

मनोज श्रीवास्तव ‘‘मौन’’

अठ्ठारह सितम्बर की शाम हो रही थी अभी सूरज आधा ही डूबा था समय छः बजकर ग्यारह मिनट ही हो रहा था। तभी सिक्किम स्थित मंगल में छः दशमलव आठ की रिक्टर तीव्रता का एक जोरदार भूकम्प आया जिसने उत्तर पूर्वी भारत के साथ साथ इससे सटे हुए नेपाल और तिब्बत के काफी हिस्सों में जोरदार नुकसान किया। इसमें नेपाल का विराट नगर जिले में भी काफी क्षति हुई। इस भूकम्प ने सिक्किम में गैगटोंक, मंगन सहित तिब्�¤ �त के काफी भाग में क्षति पहुचायी। भारत में छः दशमलव आठ की तीव्रता का इससे पूर्व में 29 मार्च 1999 में उत्तराखण्ड के चमोली जिले में भी भूकम्प आया था।

भारत में यह भूकम्प एक पखवारे में लगातार तीन बार भूकम्प आये। इस भूकम्प पहले 7 सितम्बर को ही 4.2 की तीव्रता वाला एक भूकम्प आया था जिसका केन्द्र बिन्दु सोनीपत था जो भारत की राजधानी दिल्ली से काफी करीब था। भूकम्प के अगले ही दिन भारत के दूसरे हिस्से में महाराष्ट्र के सोलापुर, लातूर, उस्मानाबाद तथा कर्नाटक के गुलबर्गा सहित कई क्षेत्रों में 3.9 तीव्रता वाले भूकम्प के झटके दर्ज किए गये।

 

भारतीय भूकम्प के प्रमाणिक इतिहास पर नजर डालने से पता चलता है कि यह लगभग 191 वर्ष पुराना है। सबसे प्राचीन दर्ज भूकम्प 16 जनवरी 1819 में गुजरात के कच्छ में 8 तीव्रता वाला था और वर्तमान में आया भूकम्प 6.8 तीव्रता वाला सिक्किम में 18 सितम्बर को आया था। भारत में अब तक सबसे तीव्रतम भूकम्प 12 जनवरी 1897 में शिलांग में 8.7 की तीव्रता का आया था जो कि वर्तमान में सिक्किम में आये भूकम्प के काफी करीब आने वा�¤ �ा भूकम्प था। यदि अन्तराल को गौर किया जाय तो यह लगभग 114 वर्ष पर आया है जो पहले आये भूकम्प से थोड़ी ही कम तीव्रता का रहा है। 16 जनवरी 1819 से लेकर सितम्बर 2011 तक भारत में आये भूकम्प पर एक नजर दौड़ाने पर एक बात सामने आती है कि यहां पर 6 तीव्रता से लेकर 8.7 तीव्रता वाले भूकम्प आते रहे है। भारत में विभिन्न तीव्रता वाले आये भूकम्प में राज्यवार जम्मू काश्मीर, अरूणान्चल प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र में एक-एक बार हिमान्चल प्रदेश, विहार नेपाल सीमा, उत्तराखण्ड में दो-दो बार, गुजरात में अकेले ही कच्छ में दो बार और भुज में एक बार आया। अण्डमान व निकोबार में तीन बार, आसाम में चार बार और सिक्किम नेपाल तिब्बत सीमा पर अभी सितम्बर माह में आये हैं।

भारतीय क्षेत्र में हिमालयी श्रृंखला भूकम्प के लिए अतिसंवेदनशील मानी जाती है क्योंकि भारतीय प्लेट हर वर्ष करीब 2 सेन्टीमीटर उत्तर की ओर युरेशियन प्लेट की ओर खिसक रही है। यह सिलसिला आज से पचास लाख वर्ष पहले से शुरू हुआ है जिसके कारण ही हिमालय पर्वत श्रृंखला का निमार्ण हुआ है। जब दो चट्टाने अपने आप को स्थापित करने के लिए खिसकती है तो एक दूसरे के उपर या नीचे हो जाती है जिसमे विशाल म ात्रा में उर्जा उत्पन्न होती है जो सिस्मोग्राफ के माध्यम से पता लगायी जाती है। इस तरह के भूकम्प को ‘स्ट्राईक-स्लिप’ कहते है। भूकम्प विभाग रूड़की के एम.एल.शर्मा के अनुसार सिक्किम या हिमालय क्षेत्र में आने वाले अन्य भूकम्प अन्य भूकम्प से अलग होते है। दरअसल ये दो भूगर्भीय रेखाओं यानी लीनियामेन्ट्स से जुड़ी होती हैं। एक लीनियामेन्ट्स का रूख 220 डिग्री है जिसे कंचनजंगा लीनियामेन्ट् स कहते हैं दूसरा लीनियामेन्ट्स 130 डिग्री का रूख लिए हुए है जिसे तीस्ता लीनियामेन्ट्स कहते हैं। इस तरह के क्षेत्र में होने वाले भूकम्प को ‘डिप-स्लिप’ कहते हैं। सिक्किम में आये भूकम्प की वजह इन्हीं दोनों लीनियामेन्ट्स के टकराहट वाले क्षेत्र में होने की वजह से यह भूकम्प डिप-स्लिप प्रकृति वाला भूकम्प था। वर्तमान में सिक्किम में आया भूकम्प भविष्य के लिए गम्भीर खतरे की ओर संकेत कर रहा है।

सिक्किम में भूकम्प से निपटने के लिए भारत सरकार के द्वारा राहत आपदा प्रबन्धन टीम को 4 घन्टे के भीतर ही भेजा गया। यह टीम एक बड़े दल के रूप में थी जिसमें राहत आपदा प्रबन्धन दल में 5500 सेना के जवानो, 2200 आई टी बी पी के जवान, 200 एन डी आर एफ के जवानों को 6 मालवाहक विमान और 15 हेलीकाप्टर के साथ सिक्किम में गये। लेकिन इस क्षेत्र में ग्राउण्ड जीरो तक पहुॅचने में लैण्डस्लाइड से राजमार्ग कई जगह से क्षतà ��ग्रस्त हो जाने और खराब मौसम खासकर बारिश होने के कारण सेना और राहत आपदा प्रबन्धन दल को काफी परेशानी का सामना करना पड़ा। 48 घण्टो के बाद भी पूर्णरूप से दल अपनी सेवाए नहीं दे पाया। एक ओर जहां राहत दल भूकम्प पीड़ितों तक पहुच भी नहीं पाया था तभी भारत के दूसरे हिस्से में महाराष्ट्र के सोलापुर, लातूर, उस्मानाबाद तथा कर्नाटक के गुलबर्गा सहित कई क्षेत्रों में 3.9 तीव्रता वाले भूकम्प के झटके �¤ �र्ज किए गये।

धरती के हिलने की घटना से होने वाले विनाश को जानने के लिए जापान में हुए विनाश से समूचे विश्व के लिए सबक है। भारत में जमीन के टुकड़ों को गगनचुम्बी आकार देने में कहीं न कहीं हम भूकम्परोधी, अग्निशमन, तथा पर्यावरण आदि के मानकों के उपकरणों रहित अवस्था में भी इजाजत दे कर काम कर रहे हैं जिससे भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदा में जानमाल के अधिकाधिक नुकसान को दावत देने में मदद ही कर रहे हैं। भारत को विगत 20 वर्षों में कई बार भूकम्प, भूस्खलन और धरती फटने जैसी तमाम प्राकृतिक आपदाओं से रूबरू होना पड़ रहा है। इस तरह के विनाश से होने वाली अनुमानित क्षति भारतीय अर्थव्यवस्था (जीडीपी) का 2 प्रतिशत वार्षिक खर्च करने पर विवश होना पड़ रहा है। अखिल विश्व में केवल भूकम्प से सबसे ज्यादा नुकसान जापान को हुआ है।

भारत में महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तराखण्ड, गुजरात, असम, सिक्किम, अरूणान्चल प्रदेश, दिल्ली, बिहार, मध्य प्रदेश, हिमान्चल प्रदेश, जम्मू काश्मीर व आंशिक रूप से उत्तर प्रदेश भूकम्प से अक्सर प्रभावित होते रहते हैं। कुछ राज्यों को छोड़ दिया जाए तो लगभग सम्पूर्ण भारत ही बाढ, भूकम्प, सुनामी, भूस्खलन व धरती फटने जैसी प्राकृतिक आपदाओं को झेल रहा है। जिससे प्रभावित होने वाले लोगों को संवारनà �‡ में खरबों रूपये भारत सरकार के प्रतिवर्ष ही खर्च हो रहे हैं। आज सरकार के साथ ही निमार्ण के लिए एक भी ईंट रखने के पूर्व भूकम्परोधी, अग्निशमक, पर्यावरण संरक्षण, भूर्गभ जल संचयी आदि उपकरणों के प्रयोग को सुनिश्चित करके सामाजिक दायित्वों का निवार्ह सभी के अनिवार्य करने की आवश्यकता है। आपदा काल के लिए संरक्षण की दृष्टि से उपयुक्त स्थान का भी ध्यान रखने की जरूरत है और साथ ही पुरानी जीर्णशीर्ण इमारतों को भी उचित प्रबन्धन देने की आवश्यकता है। पर्याप्त पर्यावरणीय नियंत्रणों का प्रयोग भी आवश्यक है ऐसा करने के लिए सरकारी बजट के माध्यम से भी जनता के सुविधा सरकार को सस्ती और सर्वसुगम करने की आवश्यकता है तभी हम प्राकृतिक आपदाओं में सरकार के नुकसान को कम कर सकते है और जान माल को भी सुरक्षा प्रदान कर पायेंगे।

गरीबी और मजाक

 राजीव गुप्ता

आज़ादी के इतने वर्षो बाद भी गरीबी और मजाक एक दूसरे का पर्याय बने हुए है अगर ऐसा मान लिया जाय तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी ! कम से कम वर्तमान सरकार के रूख से तो ऐसे ही लगता है ! पहले गलती करना फिर तथ्यों के साथ खिलवाड़ कर तथा उसे तोड़-मरोड़ कर पेश करना और जब समाज के हर तबके में थू – थू होने लगे तो लीपापोती कर समस्या के प्रति गभीर होने का दावा कर जनता को गुमराह करने का दु:साहस करना, यह वर्तमान सरकार की फितरत बन गयी है ! मामले चाहे भ्रष्टाचार का हो अथवा योजना आयोग का जिसने अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर कर गरीबी रेखा का निर्धारण करने की नाकाम कोशिश की जो कि वर्तमान सरकार के गले हड्डी की फांस बन गयी ! योजना आयोग की यह दलील कि शहरी इलाके में 32 रुपये और ग्रामीण इलाके में 26 रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है , गले नहीं उतरती परन्तु यह काला सच जरूर साबित हो गया कि जो लोग ए.सी की हवादार बंद कमरे योजनाये बनाते है उनका वास्तविकता से कोई सरोकार ठीक उसी प्रकार नहीं है जैसे कि जब फ़्रांस में एक समय भुखमरी आई और लोग भूखे मरने लगे तो वहां की महारानी “मेरी एंटोयनेट” ने कहा कि अगर ब्रेड नहीं है तो ये लोग केक क्यों नहीं खाते ?

शहरी इलाके में 32 रुपये और ग्रामीण इलाके में 26 रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है असल में मुद्दा ये नहीं है ! आजादी के समय भारत की जनसँख्या लगभग 33 करोड़ थी परन्तु आज लगभग 41 करोड़ लोग रोजाना 26 रुपये से कम पर जीते है अगर इन्हें भुखमरी रेखा की श्रेणी में रखा जाय तो कोई हर्ज नहीं होगा ! ये संख्या चीन , वियतनाम जैसे देशो की तरह कम क्यों नहीं हो रही है ? पानी आपे से बाहर जा चुका है अब कहा पर कंट्रोल लाइन खीचना है असल मुद्दा तो यह है ! यह मामला संज्ञान में तब आया जब सुप्रीम कोर्ट ने सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता वाली कमेटी के अनुसार 2011 के मूल्य सूचकांक को देखते हुए यह कहा कि 20 और 15 रुपये में 2100 कलोरी प्राप्त करना असंभव है ! जहा एक तरफ तेंदुलकर कमेटी ने देश की कुल आबादी के 37 प्रतिशत लोगो को गरीबी रेखा से नीचे माना है तो वही दूसरी तरफ एन सी सक्सेना कमेटी ( ग्रामीण विकास मंत्रालय ) ने देश की 50 प्रतिशत जनसँख्या को गरीबी रेखा से नीचे माना है ! दरअसल ये आकड़ो की बाजीगरी के पीछे सरकार की किसी साजिश की बू आ रही है क्योंकि वर्ल्ड बैंक का सरकार पर सब्सिडी कम करने का लगातार डंडा चल रहा है !

इस गंभीर समस्या पर राष्ट्र-व्यापी चिंतन नितांत आवश्यक है न कि किसी हमदर्दी या नैतिक चिंतन का क्योकि यह मुद्दा सीधे – सीधे जनता , शासन – प्रशासन से जुड़ा है ! राष्ट्रीय सलाहकार समिति के एक सदस्य के अनुसार , देश में व्याप्त सुरसा रूपी भ्रष्टाचार अपना पैर जमा चुका है ! सरकारी आंकड़े नैतिकता के मुंह पर तमाचा मारते है ! नोयडा का एक फ़ूड माफिया ‘ रेडी टू ईट ‘ फ़ूड पैकेट 25 से 40 पैसे में तैयार करता है और उसे उत्तर प्रदेश की सरकार 4-5 रुपये में खरीदती है ! यह सुप्रीम कोर्ट के आदेश की घोर अवमानना है ! मानदंड यह है कि बच्चों को पकाया हुआ खाना मिलना चाहिए और उसमे कम से कम 300 कैलोरी होनी चाहिए ! जबकि इस फ़ूड पैकेट में मात्र 100 कैलोरी ही होती है !

केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री , श्री जयराम रमेश के तर्क के अनुसार उनके मंत्रालय द्वारा एक लाख करोड़ रुपये की भरी भरकम राशि खर्च की जाती है जिसमे से मात्र नौ फीसदी अर्थात मात्र नौ हजार करोड़ रूपया बी.पी.एल के हिस्से में जाता है ! शहरो में तो ये हिस्सेदारी और भी कम होकर मात्र पांच प्रतिशत ही बैठती है ! वो आगे कहते है कि राज्यों के बीच भी बी.पी.एल को लेकर वितरण ठीक नहीं है ! मसलन केरल में जहा एक तरफ महज तीन फीसदी बी.पी.एल है और उन्हें दस फीसदी खाद्य सब्सिडी मिलती है तो वही दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में जहा लगभग देश के अट्ठारह फीसदी से भी ज्यादा लोग बी.पी.एल की कैटेगरी में आते है वहां भी उन्हें केरल के बराबर ही मात्र दस फीसदी खाद्य सब्सिडी मिलती है !

आने वाले समय में जहां एक तरफ विकसित देश होने का दंभ भरते है और दूसरी तरफ गरीबी की भयावह तस्वीर से भी रू-ब-रू होते है ! दोनों चीजें एक साथ कैसे हो सकती है मेरी समझ से परे है ? हाँ ऐसा जरूर माना जा सकता है कि गरीब दिन प्रतिदिन गरीब होता जा रहा है और अमीर दिन प्रतिदिन और अमीर ! लेकिन आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी हम इस कलंक से मुक्त क्यों नहीं हो पाए ? हमें स्कूल में पढाया जाता था कि भारत एक कृषि प्रधान देश है परन्तु आज किसान गरीबी के कारण आत्महत्या करते है और किसी के कानो पर जूं तक नहीं रेगती ! क्या हम धन-लोलुपता में इतने स्वार्थी और आत्म-केन्द्रित हो गए है ? वर्तमान समय में अगर गरीबी उन्मूलन को निजी क्षेत्रों के हाथ में दिया जाय तो वो गरीब से भी ज्यादा मुनाफा कमाएगा और सार्वजनिक क्षेत्र भ्रष्टाचार के बिना कुछ करेगा नहीं ! मूल प्रश्न वही का वही रहा कि भला आम गरीब आदमी जाये तो जाये कहाँ ? मुझे लगता है अगर सरदार पटेल भारत के पहले प्रधान मंत्री बनते तो शायद आज भारत का दृश्य वर्तमान से कही अच्छा होता क्योंकि वो जमीन से जुड़े थे और देश के नब्ज पर पकड़ रखते थे ! हलाकि बाद में लाल बहादुर शास्त्री जी ने “जय जवान जय किसान” का नारा देकर कुछ गलतियाँ सुधारने के कोशिश जरूर की ! आज़ादी के बाद ग्रामीण भारत के विकास से भारत को आत्मनिर्भर बनाया गया होता तो शायद आज एक राज्य से दूसरे राज्य में जीविका के लिए लोगों को नहीं जाना पड़ता ! अब समय आ गया है कि राजनेताओ के अतीत के गलतियों से सबक लेकर उन्हें सुधारने का प्रयास किया जाय ! वर्तमान में स्व. नाना जी देशमुख का चित्रकूट प्रोजेक्ट तथा पूर्व राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का ” पूरा ” नामक विचार सहयोगी हो सकता है ! नहीं तो आने वाले कुछ दिनों में गरीब की बात करना अर्थात मजाक करना बन जायेगा !

मुख्यमंत्री ने किया पत्रकारिता विश्वविद्यालय की विद्या परिषद में सदस्यों का नामांकन

भोपाल, 30 सितम्बर 2011. माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय की विद्यापरिषद में सदस्यों का नामांकन विश्वविद्यालय की महापरिषद के अध्यक्ष एवं प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा किया गया है। नये सदस्यों में देश के वरिष्ठ पत्रकार श्री राधेश्याम शर्मा, वरिष्ठ साहित्यकार, लेखक एवं पत्रकार श्री कैलाश पंत, राष्ट्रीय एकता परिषद के उपाध्यक्ष वरिष्ठ पत्रकार श्री रमेश शर्मा, वरिष्ठ साहित्यकार, समाजसेवी एवं पत्रकार श्री कृष्ण कुमार अष्ठाना एवं दैनिक भास्कर, भोपाल के स्थानीय संपादक श्री आनंद पाण्डे शामिल हैं।

विद्यापरिषद विश्वविद्यालय का सर्वोच्च शैक्षणिक निकाय है, जो कि विश्वविद्यालय के शैक्षणिक एवं अकादमिक मामलों में नीतिनिर्धारण का कार्य करता है। विद्यापरिषद में सदस्यों के नामांकन का अधिकार विश्वविद्यालय की महापरिषद के अध्यक्ष प्रदेश के मुख्यमंत्री को होता है। नामांकित सदस्यों में शामिल वरिष्ठ पत्रकार श्री राधेश्याम शर्मा विश्वविद्यालय के संस्थापक महानिदेशक रहे हैं। वे देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्र ट्रिब्यून के वर्षों तक संपादक रहे। वे आज देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में मीडिया पाठयक्रमों के अध्ययनमंडल के सदस्य हैं। श्री कैलाश पंत देश के प्रख्यात साहित्कार, हिन्दी सेवी, चिंतक एवं पत्रकार हैं। वे वर्तमान में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के महामंत्री हैं

विद्यापरिषद में शामिल श्री रमेश शर्मा प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं। वे दैनिक जागरण भोपाल के पूर्व संपादक रहे हैं। साथ ही टेलीविजन समाचार चैनल सहारा समय से भी जुडे रहे हैं। वर्त्तमान में वे राष्ट्रीय एकता परिषद के उपाध्यक्ष हैं। श्री कृष्ण कुमार अष्ठाना मालवा क्षेत्र के प्रतिष्ठित समाज सेवी, साहित्यकार एवं पत्रकार है। वे इन्दौर से प्रकाशित बच्चों की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘देवपुत्र’ का संपादन कर रहे हैं। श्री आनंद पाण्डे प्रदेश के युवा पत्रकार हैं। वे लम्बे समय से प्रिन्ट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया में पत्रकारिता कर रहे हैं। श्री पाण्डे वर्तमान में दैनिक भास्कर, भोपाल के स्थानीय संपादक हैं। पूर्व में वे नई दुनिया जबलपुर के संपादक रहे है। साथ ही लम्बे समय तक जी-टीवी, आईबीएन-7 में उच्च पदों पर कार्य कर चुके हैं।

विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो बीक़े क़ुठियाला ने बताया कि विश्वविद्यालय का हमेशा यह प्रयास रहा है, कि विश्वविद्यालय के संगठनात्मक निकायों में ऐसे व्यक्तियों को जोड़ा जाये जो संचार, मीडिया, साहित्य एवं समाजसेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर रहे हो। विश्वविद्यालय मीडिया शिक्षा में अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। विश्वविद्यालय महापरिषद के अध्यक्ष प्रदेश के मुख्यमंत्री ने ख्यातिनाम सदस्यों का नामांकन विश्वविद्यालय की विद्यापरिषद के लिए किया है। इन सदस्यों के सहयोग एवं मार्गदर्शन से विश्वविद्यालय को नई पहचान मिलेगी।

अस्मिताओं के सम्मान से ही एकात्मताः सहस्त्रबुद्धे

भोपाल, 7 अक्टूबर। विचारक विनय सहस्त्रबुद्धे का कहना है कि छोटी-छोटी अस्मिताओं का सम्मान करते हुए ही हम एक देश की एकात्मता को मजबूत कर सकते हैं। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा आयोजित व्याख्यान ‘मीडिया में विविधता एवं बहुलताः समाज का प्रतिबिंबन’ विषय पर अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। उन्होंने कहा कि अस्मिता का सवाल अतार्किक नहीं है, इसे समझने और सम्मान देने की जरूरत है। बहुलता का मतलब ही है विविधता का सम्मान, स्वीकार्यता और आदर है।

उन्होंने कहा कि इसके लिए संवाद बहुत जरूरी है और मीडिया इस संवाद को बहाल करने और प्रखर बनाने में एक खास भूमिका निभा सकता है। ऐसा हो पाया तो मणिपुर का दर्द पूरे देश का दर्द बनेगा। पूर्वोत्तर के राज्य मीडिया से गायब नहीं दिखेंगें। बहुलता के लिए विधिवत संवाद के अवसरों की बहाली जरूरी है। ताकि लोग सम्मान और संवाद की अहमियत को समझकर एक वृहत्तर अस्मिता से खुद को जोड़ सकें। आध्यात्मिक लोकतंत्र इसमें एक बड़ी भूमिका निभा सकता है। इससे समान चिंतन, समान भाव, समान स्वीकार्यता पैदा होती है। समाज के सब वर्गों को एकजुट होकर आगे जाने की बात मीडिया आसानी से कर सकता है। किंतु इसके लिए उसे ज्यादा मात्रा में बहुलता को अपनाना होगा। उपेक्षितों को आवाज देनी पड़ेगी। अगर ऐसा हो पाया तो विविधता एक त्यौहार बन जाएगी, वह जोड़ने का सूत्र बन सकती है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि दूसरों को सम्मान देते हुए ही समाज आगे बढ़ सकता है। मैं को विलीन करके ही समाज का रास्ता सुगम बनता है। मीडिया संगठनों की रचना ही बहुलता में बाधक है। साथ ही समाचार संकलन पर घटता खर्च मीडिया की बहुलता को नियंत्रत कर रहा है। विविध विचारों को मिलाने से ही विचार परिशुद्ध होते हैं। वरना एक खास किस्म की जड़ता विचारों के क्षेत्र को भी आक्रांत करती है। कार्यक्रम के प्रारंभ में विषय प्रवर्तन करते हुए जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने कहा कि समाज में मीडिया के बढ़ते प्रभाव के मद्देनजर यह जरूरी है कि समाज की बहुलताओं और विभिन्नताओं का अक्स मीडिया कवरेज में भी दिखे। इससे मीडिया ज्यादा सरोकारी, ज्यादा जवाबदेह, ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा संतुलित और ज्यादा प्रभावी बनेगा। इसकी अभिव्यक्ति में शामिल व्यापक भावनाएं इसे प्रभावी बना सकेंगी। उन्होंने कहा कि विभिन्नताओं में सकात्मकता की तलाश जरूरी है क्योंकि सकारात्मकता से ही विकास संभव है जबकि नकारात्मकता से विनाश या विवाद ही पैदा होते हैं। कार्यक्रम का संचालन प्रो. आशीष जोशी ने किया। इस मौके पर रेक्टर सीपी अग्रवाल, डा. श्रीकांत सिंह ने अतिथियों का पुष्पगुच्छ देकर स्वागत किया।

राजीव गांधी की हत्‍या और सोनिया कांग्रेस

डॉ. कुलदीप चंद अग्निहोत्री 

तमिलनाडु विधानसभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया गया है कि राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी न दी जाए। इस प्रस्ताव का करुणानिधि की डीएमके समर्थन करेगी ऐसा सभी को आभास था ही। चाहे एडीएमके दिल्ली में सोनिया कांग्रेस का समर्थन करती है और सोनिया कांग्रेस भी इसे अपना विश्वस्त सहयोगी बताती है। लेकिन राजीव गांधी की हत्या को लेकर डी एम के की भूमिका पर शुरु से ही उंगलियां उठती रही हैं। एडीएमके की जयललिता ने इस प्रस्ताव का समर्थन अपने राजनैतिक लाभ-हानि को देखकर किया होगा। परंतु सभी को विश्वास था कि सोनिया कांग्रेस के सदस्य इस प्रस्ताव का डटकर विरोध करेंगे। क्योंकि सोनिया कांग्रेस के लिए राजीव गांधी की हत्या का प्रश्न केवल एक पूर्व प्रधानमंत्री के हत्या का प्रश्न नहीं था बल्कि सोनिया कांग्रेस की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया माइनो गांधी के पति की हत्या का भी प्रश्न था। लेकिन सभी को इस बात का ताज्जुब हुआ कि सोनिया कांग्रेस के विधानसभा सदस्यों ने इस प्रस्ताव का विरोध करने के बजाय इसका खुले रूप में समर्थन करना शुरु कर दिया। इससे पहले भी राजीव गांधी की हत्या में सजा भुगत रही नलिनी को जेल से छोड़े जाने की अपिल करते हुए सोनिया गांधी ने दखलंदाजी की थी। यहां तक कि सोनिया गांधी की बेटी भी नलिनी से मिलने के लिए जेल गई थी। उसकी इस मुलाकात को यत्नपूर्वक छिपाकर रखा गया था लेकिन मीडिया की अतिरिक्त सक्रियता के चलते यह मुलाकात लोगों के ध्यान में आ गई। इससे पहले जब सोनिया कांग्रेस ने दिल्ली में सरकार बनाने के लिए डीएमके को शामिल किया था तो राजनैतिक विश्लेषकों ने इसे राजनैतिक विवशता कहकर भी व्याख्यायित किया था। लेकिन अब जब तमिलनाडु विधानसभा में सोनिया कांग्रेस खुलकर राजीव गांधी के हत्यारों को न्यायालय द्वारा दी गई सजा से मुक्त करवाने के अभियान में शामिल हो गई है तो सोनिया कांग्रेस की पूरी नीति, उसका उद्देश्य संदेह के घेरे में आ जाते हैं। यह ध्यान में रहना चाहिए कि राजीव गांधी की हत्या से अभी पूरी तरह पर्दा नहीं हटा है। उनके हत्यारे तो पकड़े गए और उनको पूरी न्यायिक प्रक्रिया के उपरांत सजा भी हो गई है। यह अलग बात है कि जो लोग उनको इस सजा से बचाना चाहते हैं उनमें सोनिया कांग्रेस भी शामिल है। लेकिन अभी भी जो प्रश्न अनुतरित है, वह यह कि इस हत्या के पीछे के षड्यंत्रकारी कौन थे? इस षड्यंत्र को बेनकाब करने के प्रयास भी हुए। इसके लिए आयोग बने, उन्होंने लंबी जांच भी की। लेकिन जिस ओर संदेह की सूई जा रही थी, उधर जाने का साहस किसी ने नहीं किया। कुछ लोग तो ऐसा भी मानते हैं कि राजीव गांधी की हत्या के बाद नरसिंहा राव प्रधानमंत्री बनें और उन्होंने हत्यारों को पकड़ने के लिए पुलिस विभाग को अतिरिक्त चौकन्ना किया। इसलिए वे हत्यारे कानून के सिकंजे में आ गए। यदि नरसिंहा राव प्रधानमंत्री न होते तो शायद राजीव के वे हत्यारे भी पकड़े न जाते। जब सोनिया गांधी और उसके कुछ अत्यंत नजदीकी साथियों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर कब्जा कर लिया और कालांतर में कुछ अन्य छोटे-बड़े दलों के सहयोग से देश के सत्ता-सूत्रों पर भी आधिपत्य जमा लिया तो देश के बहुत से लोगों को लगा था कि सोनिया कांग्रेस की सरकार अब कम-से-कम राजीव गांधी की हत्या की साजिश की तो गहरी जांच करवाएगी और षड्यंत्रकारियों को जनता के आगे नंगा करेगी। परंतु इस मामले में सोनियां कांग्रेस आश्चर्यजनक ढंग से मौन रही और अब जब इतने अरसे बाद उसने अपना मौन तोड़ा भी है तो राजीव के हत्यारों को सजा से बचाने के लिए न कि उन्हें दंड दिलवाने के लिए। इधर आतंकवाद के भुक्तभोगी मनिंदरजीत सिंह बिट्टा ने एक रहस्योद्धाटन किया है कि दिल्ली में युवा सोनिया कांग्रेस के कार्यालय पर बम विस्फोट करने वाले आतंकवादी द्रेवेन्द्रपाल सिंह की माता को लेकर दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित सोनिया गांधी के पास गई थी। देवेन्द्रपाल सिंह भुल्लर ने सोनिया कांग्रेस के कार्यालय पर जो आतंकवादी आक्रमण किया था उसमें अनेक लोगों की मौत हो गई थी। बिट्टा के ही अनुसार सोनिया कांग्रेस के एक प्रमुख मंत्री कपिल सिब्बल भुल्लर का केश कचहरियों में लड़ते रहे।

आखिर क्या कारण है कि आतंकवादी अपनी सजा माफ करवाने के लिए सोनिया कांग्रेस के ओर ही जाते हैं। सोनिया कांग्रेस की अध्यक्षा श्रीमती सोनियां गांधी ने राजीव गांधी की हत्या में सजा भुगत रही नलिनी को छुड़ाने के लिए जो कारण बताया था उसमें मुख्य कारण यह था कि राजीव गांधी के हत्यारों से बदला लेने की भावना न मुझमें है न मेरे बच्चों में है। यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि राजीव गांधी की हत्या सोनिया गांधी और उसके बच्चों का परिवारिक मसला नहीं है बल्कि यह आतंकवाद से लड़ने की रणनीति का हिस्सा है। सोनिया गांधी नलिनी के पक्ष में गुहार लगाकर और अब सोनिया कांग्रेस तमिलनाडु विधानसभा में राजीव गांधी के हत्यारों को सजा से मुक्त कर सकने का प्रस्ताव पारित करके बडी चतुराई से इस पूरी रणनीति को पलिता लगाने का प्रयास का रही है।

सोनिया कांग्रेस की इसी रणनीति के कारण आतंकवाद को भारत में पैर पसारने का मौका मिल रहा है। आतंकवादी संगठन जानते हैं कि भारत सरकार आतंकवाद से लड़ने के बजाय उसका राजनैतिक लाभ-हानि देखेगी। सोनिया कांग्रेस से ही शायद संकेत पाकर जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने यह लिखने का साहस किया कि यदि जम्मू-कश्मीर विधानसभा संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु की सजा माफ करवाने का प्रस्ताव पारित कर देती है तो देशभर में उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी? शायद उमर अब्दुल्ला की इसी भावना से प्रेरित होकर कश्मीर विधानसभा के एक सदस्य ने ऐसा प्रस्ताव विधानसभा में पेश भी कर दिया। उमर अब्दुल्ला तो अभी इस प्रकार के प्रस्ताव की प्रतिक्रिया ही देख रहे थे, आतंकवादियों ने दिल्ली हाई कोर्ट पर आक्रमण करके अफजल गुरु को मुक्त करने की मांग कर डाली। सोनियां कांग्रेस और आतंकवादी संगठनों में फांसी प्राप्त दहशतगर्दों को छुड़ाने के तरिके को लेकर हीं मतभेद है, उद्देश्य दोनों का समान हीं है। ये विधानसभा में प्रस्ताव परित करके यह काम करवाना चाहते हैं और वे दिल्ली हाईकोर्ट पर बम विस्फोट करके उसी काम को करवाना चाहते हैं। इस बात की गहराई से जांच होनी चाहिए कि आखिर सोनियां कांग्रेस आतंकवादियों को सजा से किस कारण बचाना चाहती है?

(नवोत्‍थान लेख सेवा)