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अंग्रेजी मानसिकता सरकार का अधिकार है

काग्रेंस ने हमे आजादी दिलायी थी इस बात पर मै गर्व करता था ।पर ४-५ जून कि रात को सरकार और काग्रेंस ने जो कू कर्म किया वह तो अग्रेजो से भी दो कदम आगे है।सरकार के इस कदम को देख कर लगता आजादी हमे केवल गोरे अग्रेजो से मिली है अभी काले अंग्रेज(अंग्रेजी मानसिकता वाले लोग) से आजादी मिलनी बाकी है। क्योंकि जिस तरह से बाबा और उनके अनुयायियों के साथ व्यवहार किया गया,उससे यही सबित होता है। मै नहीं कहता बाबा कोई माहापुरूष है,बाबा इस देश के कर्ण धार है ।पर बाबा जिस बात को लेकर के आन्दोलन कर रहे थे उनकी जो मांगे थी वह जायज थी उनको मानने मे सरकार कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये थी।क्योकि वह पूरे देश कि समस्या है। उसके अलावा उनका आन्दोलन पूर्णतः शान्ति पूर्ण था तो उस पर लाठी चलवाने का आदेश देना संविधान और मानवता कि दृष्टिकोण से घोर अपराध है।

सरकार सायद यह भूल जाती है कि देश काग्रेंस के कहने से नही चलता है वह संविधान के प्रावधान के अनुसार चलता है।जब हमे संविधान ने शान्तिपूर्ण सभा करने का अधिकार दिया(अनुच्छॆद-१९-क) है ।तब सरकार ने ऐसा असंवैधानिक कार्य क्यो किया ।क्या बाबा के इस आन्दोल से देश को किसी तरह का खतरा था या देश का सम्प्रदायिक महौल बिगड रहा था। या बाबा के इस आन्दोलन से भारत संघ को खतरा था ।या शान्ति पूर्ण धरना देने वालो से कानून व्यवस्था बिगड रही थी। इस बात का जबाब क्या काग्रेस और सरकार दे सकती है।अगर अपनी जायज माग को लेकर सत्याग्रह करना अपराध है और उस पर लाठी चलवाना सरकार का अधिकार है तो हम यह नही कह सकते कि अंग्रजो जो भी किया वह गलत था क्योकि उन्होने जो किया वह उनका अधिकार था।क्योकि वह उस समय सरकार मे थी।

अगर सरकार  कि नजर बाबा और उनके साथ बैठे लोग अपराधी है तो इस देश के इतिहास का सबसे बडा अपराधी महात्म्मा गाँधी और नेहरूजी थे।जिन्होने देश के लोगो कि जायज माग को लेकर आन्दोलन किया और अंग्रेज सरकार कि नाक में दम कर के हमे आजादी दिलवायी थी।

सरकार अपने इस कार्यवाही को सही ठहाराने का प्रयास कर रही है कि बाबा के साथ समझौता हो गया था तो यह अनशन क्यो हो रहा था या बाबा ने योग शिविर के लिये अनुमति मागी थी अनशन के लिये नहीं। पर उसके बाद भी सरकार कि कार्यवाही वैध नहीं हो सकती है क्योकि किसी भी तरह से आराम से बैठि जनता जिससे कानून व्यवस्था कोई

खतरा नही था रात के अधेरे मे लाठी चलवाना उचित नहीं है। दिन के उजाले मे भी कार्यवाही कि जा सकती थी। उसके अलावा जानता को यह बाता कर के कि बाबा के साथ समझौता हो गया है,सरकार दो-माह तीन माह के अन्दर काले धन पर कानून लायेगी ।इस तरह से सरकार जनता को विश्वास मे ले लेती तो इससे सरकार का कद गिरता नही वरन सरकार का कद उठता हि पर सरकार ने यह मौका गवा दिया है।पर इस तरह कि कार्यवाही यह स्पष्ट होता है कि सरकार के मन मे चोर था जिस कारण से काले धन के सन्दर्भ में बनने वाला कानून भी निस्प्रभावी होता।या कोइ समिति बना कर इस कानून को दस प्रन्दह साल तक टाल या रोक ही लेगी। वरना सरकार इस तरह का बल प्रयोग कभी न करती । अतः सरकार को चाहिये कि काले धन सार्वजनिक कर के उसका राष्र्टीयकरण कर ले तथा भ्रषटाचारियों को कडॆ दन्ड का प्रावधानकरे।

यह बेदिल दिल्ली का लोकतंत्र है देख लीजिए !

सत्याग्रह के दमन से नहीं खत्म होंगे सवाल

संजय द्विवेदी

दिल्ली में बाबा रामदेव और उनके सहयोगियों के साथ जो कुछ हुआ, वही दरअसल हमारी राजसत्ताओं का असली चेहरा है। उन्हें सार्थक सवालों पर प्रतिरोध नहीं भाते। अहिंसा और सत्याग्रह को वे भुला चुके हैं। उनका आर्दश ओबामा का लोकतंत्र है जो हर विरोधी आवाज को सीमापार भी जाकर कुचल सकता है। दिल्ली की ये बेदिली आज की नहीं है। आजादी के बाद हम सबने ऐसे दृश्य अनेक बार देखे हैं। किंतु दिल्ली ऐसी ही है और उसके सुधरने की कोई राह फिलहाल नजर नहीं आती। कल्पना कीजिए जो सरकारें इतने कैमरों के सामने इतनी हिंसक, अमानवीय और बर्बर हो सकती हैं, वे बिना कैमरों वाले समय में कैसी रही होंगी। ऐसा लगता है कि आजादी, हमने अपने बर्बर राजनीतिक, प्रशासनिक तंत्र और प्रभु वर्गों के लिए पायी है। आप देखें कि बाबा रामदेव जब तक योग सिखाते और दवाईयां बेचते और संपत्तियां खड़ी करते रहे,उनसे किसी को परेशानी नहीं हुयी। बल्कि ऐसे बाबा और प्रवचनकार जो हमारे समय के सवालों से मुठभेड़ करने के बजाए योग,तप, दान, प्रवचन में जनता को उलझाए रखते हैं- सत्ताओं को बहुत भाते हैं। देश के ऐसे मायावी संतों, प्रवचनकारों से राजनेताओं और प्रभुवर्गों की गलबहियां हम रोज देखते हैं। आप देखें तो पिछले दस सालों में किसी दिग्विजय सिंह को बाबा रामदेव से कोई परेशानी नहीं हुयी और अब वही उन्हें ठग कह रहे हैं। वे ठग तब भी रहे होंगें जब चार मंत्री दिल्ली में उनकी आगवानी कर रहे थे। किंतु सत्ता आपसे तब तक सहज रहती है, जब तक आप उसके मानकों पर खरें हों और वह आपका इस्तेमाल कर सकती हो।

सत्ताओं को नहीं भाते कठिन सवालः

निश्चित ही बाबा रामदेव जो सवाल उठा रहे हैं वे कठिन सवाल हैं। हमारी सत्ताओं और प्रभु वर्गों को ये सवाल नहीं भाते। दिल्ली के भद्रलोक में यह गंवार, अंग्रेजी न जानने वाला गेरूआ वस्त्र धारी कहां से आ गया? इसलिए दिल्ली पुलिस को बाबा का आगे से दिल्ली आना पसंद नहीं है। उनके समर्थकों को ऐसा सबक सिखाओ कि वे दिल्ली का रास्ता भूल जाएं। किंतु ध्यान रहे यह लोकतंत्र है। यहां जनता के पास पल-पल का हिसाब है। यह साधारण नहीं है कि बाबा रामदेव और अन्ना हजारे को नजरंदाज कर पाना उस मीडिया के लिए भी मुश्किल नजर आया, जो लाफ्टर शो और वीआईपीज की हरकतें दिखाकर आनंदित होता रहता है। बाबा रामदेव के सवाल दरअसल देश के जनमानस में अरसे से गूंजते हुए सवाल हैं। ये सवाल असुविधाजनक भी हैं। क्योंकि वे भाषा का भी सवाल उठा रहे हैं। हिंदी और स्थानीय भाषाओं को महत्व देने की बात कर रहे हैं। जबकि हमारी सरकार का ताजा फैसला लोकसेवा आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली सिविल सर्विसेज की परीक्षा में अंग्रेजी का पर्चा अनिवार्य करने का है। यानि भारतीय भाषाओं के जानकारों के लिए आईएएस बनने का रास्ता बंद करने की तैयारी है। ऐसे कठिन समय में बाबा दिल्ली आते हैं। सरकार हिल जाती है क्योंकि सरकार के मन में कहीं न कहीं एक अज्ञात भय है। यह असुरक्षा ही कपिल सिब्बल से वह पत्र लीक करवाती है ताकि बाबा की विश्वसनीयता खंडित हो। उन पर अविश्वास हो। क्योंकि राजनेताओं को विश्वसनीयता के मामले में रामदेव और अन्ना हजारे मीलों पीछे छोड़ चुके हैं। आप याद करें इसी तरह की विश्वसनीयता खराब करने की कोशिश में सरकार से जुड़े कुछ लोग शांति भूषण के पीछे पड़ गए थे। संतोष हेगड़े पर सवाल खड़े किए गए, क्योंकि उन्हें अन्ना जैसे निर्दोष व्यक्ति में कुछ ढूंढने से भी नहीं मिला। लेकिन निशाने पर तो अन्ना और उनकी विश्वसनीयता ही थी। शायद इसीलिए अन्ना हजारे ने सत्याग्रह शुरू करने से पहले रामदेव को सचेत किया था कि सरकार बहुत धोखेबाज है उससे बचकर रहना। काश रामदेव इस सलाह में छिपी हुयी चेतावनी को ठीक से समझ पाते तो उनके सहयोगी बालकृष्ण होटल में मंत्रियों के कहने पर वह पत्र देकर नहीं आते। जिस पत्र के सहारे बाबा रामदेव की तपस्या भंग करने की कोशिश कपिल सिब्बल ने प्रेस कांफ्रेस में की।

बिगड़ रहा है कांग्रेस का चेहराः

बाबा रामदेव के सत्याग्रह आंदोलन को दिल्ली पुलिस ने जिस तरह कुचला उसकी कोई भी आर्दश लोकतंत्र इजाजत नहीं देता। लोकतंत्र में शांतिपूर्ण प्रदर्शन और घरना देने की सबको आजादी है। दिल्ली में जुटे सत्याग्रहियों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया था कि उन पर इस तरह आधी रात में लाठियां बरसाई जाती या आँसू गैस के गोले छोड़ जाते। किंतु सरकारों का अपना चिंतन होता है। वे अपने तरीके से काम करती हैं। यह कहने में कोई हिचक नहीं कि इस बर्बर कार्रवाई से केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी प्रतिष्ठा गिरी है। एक तरफ सरकार के मंत्री लगातार बाबा रामदेव से चर्चा करते हैं और एक बिंदु पर सहमति भी बन जाती है। संभव था कि सारा कुछ आसानी से निपट जाता किंतु ऐसी क्या मजबूरी आन पड़ी कि सरकार को यह दमनात्मक रवैया अपनाना पड़ा। इससे बाबा रामदेव का कुछ नुकसान हुआ यह सोचना गलत है। कांग्रेस ने जरूर अपना जनविरोधी और भ्रष्टाचार समर्थक चेहरा बना लिया है। क्योंकि आम जनता बड़ी बातें और अंदरखाने की राजनीति नहीं समझती। उसे सिर्फ इतना पता है कि बाबा भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं और यह सरकार को पसंद नहीं है। इसलिए उसने ऐसी दमनात्मक कार्रवाई की। जाहिर तौर पर इस प्रकार का संदेश कहीं से भी कांग्रेस के लिए शुभ नहीं है। बाबा रामदेव जो सवाल उठा रहे हैं, उसको लेकर उन्होंने एक लंबी तैयारी की है। पूरे देश में सतत प्रवास करते हुए और अपने योग शिविरों के माध्यम से उन्होंने लगातार इस विषय को जनता के सामने रखा है। इसके चलते यह विषय जनमन के बीच चर्चित हो चुका है। भ्रष्टाचार का विषय आज एक केंद्रीय विषय बन चुका है। बाबा रामदेव और अन्ना हजारे जैसे दो नायकों ने इस सवाल को आज जन-जन का विषय बना दिया है। आम जनता स्वयं बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त है। राजनीतिक दलों और राजनेताओं से उसे घोर निराशा है। ऐसे कठिन समय में जनता को यह लगने लगा है कि हमारा जनतंत्र बेमानी हो चुका है। यह स्थिति खतरनाक है। क्योंकि यह जनतंत्र, हमारे आजादी के सिपाहियों ने बहुत संर्धष से अर्जित किया है। उसके प्रति अविश्वास पैदा होना या जनता के मन में निराशा की भावनाएं पैदा होना बहुत खतरनाक है।

अन्ना या रामदेव के पास खोने को क्या हैः

बाबा रामदेव या अन्ना हजारे जैसी आवाजों को दबाकर हम अपने लोकतंत्र का ही गला घोंट रहे हैं। आज जनतंत्र और उसके मूल्यों को बचाना बहुत जरूरी है। जनता के विश्वास और दरकते भरोसे को बचाना बहुत जरूरी है। भ्रष्टाचार के खिलाफ हमारे राजनीतिक दल अगर ईमानदार प्रयास कर रहे होते तो ऐसे आंदोलनों की आवश्यक्ता भी क्या थी? सरकार कुछ भी सोचे किंतु आज अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जनता के सामने एक आशा की किरण बनकर उभरे हैं। इन नायकों की हार दरअसल देश के आम आदमी की हार होगी। केंद्र की सरकार को ईमानदार प्रयास करते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करते हुए दिखना होगा। क्योंकि जनतंत्र में जनविश्वास से ही सरकारें बनती और बिगड़ती हैं। यह बात बहुत साफ है कि बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के पास खोने के लिए कुछ नहीं हैं, क्योंकि वे किसी भी रूप में सत्ता में नहीं हैं। जबकि कांग्रेस के पास एक सत्ता है और उसकी परीक्षा जनता की अदालत में होनी तय है, क्या ऐसे प्रसंगों से कांग्रेस जनता का भरोसा नहीं खो रही है, यह एक लाख टके का सवाल है। आज भले ही केंद्र की सरकार दिल्ली में रामलीला मैदान की सफाई करके खुद को महावीर साबित कर ले किंतु यह आंदोलन और उससे उठे सवाल खत्म नहीं होते। वे अब जनता के बीच हैं। देश में बहस चल पड़ी है और इससे उठने वाली आंच में सरकार को असहजता जरूर महसूस होगी। केंद्र की सरकार को यह समझना होगा कि चाहे-अनचाहे उसने अपना चेहरा ऐसा बना लिया है जैसे वह भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी संरक्षक हो। क्योंकि एक शांतिपूर्ण प्रतिरोध को भी अगर हमारी सत्ताएं नहीं सह पा रही हैं तो सवाल यह भी उठता क्या उन्हें हिंसा की ही भाषा समझ में आती है ? दिल्ली में अलीशाह गिलानी और अरूँधती राय जैसी देशतोड़क ताकतों के भारतविरोधी बयानों पर जिस दिल्ली पुलिस और गृहमंत्रालय के हाथ एक मामला दर्ज करने में कांपते हों, जो अफजल गुरू की फांसी की फाईलों को महीनों दबाकर रखती हो और आतंकियों व अतिवादियों से हर तरह के समझौतों को आतुर हो, यहां तक कि वह देशतोड़क नक्सलियों से भी संवाद को तैयार हो- वही सरकार एक अहिंसक समूह के प्रति कितना बर्बर व्यवहार करती है।

बाबा रामदेव इस मुकाम पर हारे नहीं हैं, उन्होंने इस आंदोलन के बहाने हमारी सत्ताओं के एक जनविरोधी और दमनकारी चेहरे को सामने रख दिया है। सत्ताएं ऐसी ही होती हैं और इसलिए समाज को एकजुट होकर एक सामाजिक दंडशक्ति के रूप में काम करना होगा। यह तय मानिए कि यह आखिरी संघर्ष है, इस बार अगर समाज हारता है तो हमें एक लंबी गुलामी के लिए तैयार हो जाना चाहिए। यह गुलामी सिर्फ आर्थिक नहीं होगी, भाषा की भी होगी, अभिव्यक्ति की होगी और सांस लेने की भी होगी। रामदेव के सामने भी रास्ता बहुत सहज नहीं है,क्योंकि वे अन्ना हजारे नहीं हैं। सरकार हर तरह से उनके अभियान और उनके संस्थानों को कुचलने की कोशिश करेगी। क्योंकि बदला लेना सत्ता का चरित्र होता है। इस खतरे के बावजूद अगर वे अपनी सच्चाई के साथ खड़े रहते हैं तो देश की जनता उनके साथ खड़ी रहेगी, इसमें संदेह नहीं है। बाबा रामदेव ने अपनी संवाद और संचार की शैली से लोगों को प्रभावित किया है। खासकर हिंदुस्तान के मध्यवर्ग में उनको लेकर दीवानगी है और अब इस दीवानगी को, योग से हठयोग की ओर ले जाकर उन्होंने एक नया रास्ता पकड़ा है। यह रास्ता कठिन भी है और उनकी असली परीक्षा दरअसल इसी मार्ग पर होनी हैं। देखना है कि बाबा इस कंटकाकीर्ण मार्ग पर अपने साथ कितने लोगों को चला पाते हैं ?

भारत में वैचारिक आपातकाल का नया दौर शुरू

राजीव रंजन प्रसाद

जन-समाज, सभ्यता और संस्कृति के ख़िलाफ की गई समस्त साजिशें इतिहास में कैद हैं। बाबा रामदेव की रामलीला मैदान में देर रात हुई गिरफ्तारी इन्हीं अंतहीन साजिशों की परिणति है। यह सरकार के भीतर व्याप्त वैचारिक आपातकाल का नया झरोखा है जो समस्या की संवेदनशीलता को समझने की बजाय तत्कालीन उपाय निकालना महत्त्वपूर्ण समझती है। बीती रात को जिस मुर्खतापूर्ण तरीके से दिल्ली पुलिस ने बाबा रामदेव के समर्थकों को तितर-बितर किया; शांतिपूर्ण ढंग से सत्याग्रह पर जुटे आन्दोलनकारियों को दर-बदर किया; वह देखने-सुनने में रोमांचक और दिलचस्प ख़बर का नमूना हो सकता है, किन्तु वस्तुपरक रिपोर्टिंग करने के आग्रही ख़बरनवीसों के लिए यह हरकत यूपीए सरकार की चूलें हिलाने से कम नहीं है। केन्द्र सरकार की बिखरी हुई देहभाषा से यह साफ जाहिर हो रहा है कि जनता अब उसे बौद्धिक, विवेकवान एवं दृढ़प्रज्ञ पार्टी मानने की भूल नहीं करेगी। इस घड़ी 16 फरवरी, 1907 ई0 को भारतमित्र में प्रकाशित ‘शिवशम्भू के चिट्ठे’ का वह अंश स्मरण हो रहा है-‘‘अब तक लोग यही समझते थे कि विचारवान विवेकी पुरुष जहाँ जाएंगे वहीं विचार और विवेक की रक्षा करेंगे। वह यदि राजनीति में हाथ डालेंगे तो उसकी जटिलताओं को भी दूर कर देंगे। पर बात उल्टी देखने में आती है। राजनीति बड़े-बड़े सत्यवादी साहसी विद्वानों को भी गधा-गधी एक बतलाने वालों के बराबर कर देती है।’’

काले धन की वापसी के मुद्दे पर बाबा रामदेव ने जो सवाल खड़े किए उसका केन्द्र सरकार द्वारा संतुलित और भरोसेमंद जवाब न दिया जाना; सरकार की नियत पर शक करने के लिए बाध्य करता है। स्विस बैंक में अपनी राष्ट्रिय संपति अनैतिक ढंग से जमा है; यह जानते हुए समुचित कार्रवाई न किया जाना बिल्कुल संदिग्ध है। खासकर राहुल गाँधी जैसे लोकविज्ञापित राजनीतिज्ञ जो जनमुद्दों पर अक्सर मायावती से ले कर नीतिश कुमार तक की जुबानी बखिया उधेड़ते दिखते हैं; आज की तारीख में शायद किसी सन्नाटे में लेटे हैं।

राहुल गाँधी का ऐसे संवेदनशील समय में चुप रहना अखरता है। उनके भीतर कथित तौर पर दिखते संभावनाओं के आकाशदीप को धुमिल और धंुधला करता है। क्योंकि यूपी चुनाव सर पर है और प्रदेश कांग्रेस पार्टी इस विधानसभा में खुद को रात-दिन जोतने में जुटी है, राहुल गाँधी का काले धन के मुद्दे पर सफेद बोल न बोलना चौंकाता है।

दरअसल, यूपीए सरकार अपनी इस करतूत का सही-सही आकलन-मूल्यांकन कर पाने में असमर्थ है। उसे इस बात का अहसास ही नहीं हो रहा है कि इस वक्त जनता के सामने बाबा रामदेव की इज्जत दाँव पर न लगी हो कर खुद उसकी प्रतिष्ठा-इज्जत दाँव पर है। वैसे भी बाबा रामदेव के जनसमर्थन में जुटी भीड़ हमलावर, आतंकी या फिर असामाजिक कार्यों में संलग्न जत्था नहीं थी। यह जनज्वार तो देश में दैत्याकार रूप ग्रहण करते उस भ्रष्टाचार के मुख़ालफत

में स्वतःस्फुर्त आयोजित थी जो काले धन के रूप में स्विस बैंकों में वर्षों से नज़रबंद है। उनकी वापसी के लिए रामलीला मैदान में ऐतिहासिक रूप से जुटना जनता की दृष्टि में बाबा रामदेव को शत-प्रतिशत पाक-साफ सिद्ध करना हरगिज नहीं है। वस्तुतः बाबा रामदेव हों, श्री श्री रविशंकर हों, स्वामि अग्निवेश हों, अण्णा हजारे हों या फिर किरण बेदी व मेधा पाटेकर।

जनता को जनमुद्दों के लिए आवाज़ उठाने वाला नागरिक-सत्ता चाहिए। जनता ऐसे व्यक्तित्व के नेतृत्व में सामूहिक आन्दोलन करने के लिए प्रवृत्त होना चाहती है जिसकी बात सरकार भी सुनें और आम जनमानस भी।

बाबा रामदेव इसी के प्रतिमूर्ति थे। जनता उनसे जुड़कर(तमाम व्यक्तिगत असहमतियों एवं मतभेदों के बावजूद) अपने हक के लिए जनमुहिम छेड़ चुकी थी जिसे केन्द्र सरकार और उसके इशारे पर नाचने वाली दिल्ली सरकार ने अचानक धावा बोलकर जबरन ख़त्म करने की चाल चली। यह सीधे-सीधे सांविधानिक प्रावधानों के रूप में प्राप्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हनन है। अब जनता सरकार से किन शर्तों पर पूरी निष्ठा के साथ जुड़ी रह सकती है; यह सोचनीय एवं चिन्तन का विषय है।

बहरहाल, सबसे ज्यादा नुकसानदेह यूपीए की पार्टी को ही जमीनी स्तर पर होगी। स्थानीय पार्टी नेता और कैडर किस मुँह के साथ जनता के बीच समर्थन माँगने का चोंगा लिए फिरेंगे; देखने योग्य है। फिरंगी कुटनीतिक आधार और अक्षम राजनीतिक नेतृत्व क्या यूपी में दिग्गी राजा को देखकर वोट देगी जिन्हें सहुर से बोलना भी नहीं आता है। बाबा रामदेव के अनशन को ‘पाँचसितारा अनशन’ बताने वाले दिग्विजय सिंह क्या बताएंगे कि हाल ही में बनारस में हुए महाधिवेशन के दरम्यान उन्होंने पीसीसी कार्यकारिणी की बैठक कहाँ की थी? उनके वरिष्ठ नेता, मंत्री और हुक्मरान कहाँ ठहरे थे? होटल क्लार्क का शाही खर्चा क्या होटल-प्रबंधन ने उनकी पार्टी को सप्रेम भेंट की थी जैसे बाबा रामदेव को भेंट में एक ‘द्वीप’ हाथ लग गया है।

बाबा रामदेव अगर गैरराजनीतिज्ञ होते हुए राजनीति कर रहे हैं तो कहाँ जनता उन्हें भावी प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बनाने के लिए पागल हुए जा रही है? इस किस्म का घटिया स्टंट प्रचारित करना सिर्फ कांग्रेस जानती है; और पार्टियाँ तो अंदरुनी कलह की मारी खुद ही दौड़ से बाहर हैं। भविष्य के प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित राहुल गाँधी को क्या यहाँ अपना राजनीतिक स्टैण्ड नहीं प्रदर्शित करना चाहिए था? वह भी वैसे जरूरी समय पर जब देश की तकरीबन 55 करोड़ युवा-निगाह उन्हें क्षण-प्रतिक्षण घूर रही है; और वह परिदृश्य से गायब हैं। जागरूक और जुनूनी युवा जब रामलीला मैदान में पुलिस के हिंसक झड़पों का निशाना बन रहे थे। दिल्ली पुलिस उम्र और लिंग का

लिहाज किए बगैर लाठीचार्ज कर रही थी, तो क्या उस घड़ी राहुल गाँधी के शरीर में स्पंदन और झुरझुरी होना स्वाभाविक नहीं था? क्या इन बातों को इस वक्त बाबा रामदेव का ‘पाचनचूर्ण’ खाकर पचा लिया जाना ही बुद्धिमत्तापूर्ण आचरण है?

खैर, जो भी हो। एक बात तो तय है कि कांग्रेस के रणनीतिकार और खुद को बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञ मानने वाले पार्टी नेताओं ने कांग्रेसी-पतलून को अचानक ही ढीली कर दी है जिसे चालाक और हमलावर मीडिया ने एकदम से हथिया लिया है। सनसनी के स्वर में ब्रेकिंग न्यूज ‘ओवी वैन’ के ऊपर चढ़ बैठे हैं। जनता देख रही है कि आमआदमी के हित-प्रयासों, मसलों एवं मामलों को ये राजनीतिक सरपरस्त कैसे-कैसे भुना सकते हैं? कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह भले इस घड़ी विजय की रणभेरी बजा रहे हों; दिल्ली के 10-जनपथ पर उत्सव का माहौल तारी हो। लेकिन इस क्षणिक खुशी से आगे भी जहान है जिसे देखने की दूरदृष्टि केवल जनता के पास है। वह आसन्नप्रसवा उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में इस अविवेकी एवं अराजक कार्रवाई का अपने वैचारिक तपोबल से बदला अवश्य लेगी। पाँचसितारा होटलों में कांग्रेस-सरकार चाहे कितने भी दिवास्वप्न देख ले, आगामी दिनों में कांग्रेस पार्टी को इस अभियान को इस तरीके से कुचलना काफी महंगा पड़ेगा।

रामलीला मैदान से लाखों की जमावट-बसावट को हटा देना दिल्ली पुलिस की बहादुरी मानी जा सकती है; लेकिन जनता को झूठी दिलासाओं, भौड़ी नौटंकी वाले सन्देश यात्राओं तथा ख्याली राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक घोषणापत्रों से विचलित कर ले जाना बेहद मुश्किल है। आप अधिक से अधिक पार्टी कैडर बना सकते हैं, किन्तु बहुसंख्यक जनता जो आपके किए कारस्तानियों का यंत्रणा टप्पल, दादरी, भट्टा-पारसौल से ले कर दिल्ली के रामलीला मैदान तक भुगत चुकी है; वह किसी झाँसे और लोभ की आकांक्षी नहीं है। यह तय मानिए बाबा रामदेव फिर कल से अपने अनुयायियों को योग सिखाएंगे। सार्वजनिक मंच से आपके द्वारा किए गए जुल्म की भर्त्सना करेंगे। उनकी पंताजंलि योग पीठ में पहले की माफिक श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहेगा। किन्तु जनता आपको नहीं भूलेगी, नहीं बख्शेगी। जनता आपका पीछा सन 2014 के लोकसभा चुनाव के उस परिणाम तक करेगी जब तक आप देश की जनता के सामने पछाड़ खा जाने की असलियत नहीं स्वीकार लेते हैं।

सत्‍याग्रहियों पर बर्बर हमला

नई दिल्ली, 5 जून 2011 – रात्रि लगभग एक बजे रामलीला मैदान में जब सभी अनशनकारी और बाबा रामदेव विश्राम कर रहे थे तो लगभग 10000 पुलिसकर्मी रामलीला मैदान के अंदर घुस गए सबसे पहले मंच को घेर लिया और बाबा रामदेव से कहा हम आपको गिरफ्तार करने आए हैं। जब तक बाबा कुछ सोचते पुलिस वालों ने जो लोग मंच पर बैठे हुए थे उनको लाठियां मारनी शुरु कर दीं और मंच से धक्के देने शुरू कर दिए। इस बीच बाबा ने मंच से छलांग लागाई, उनकी खुशकिस्मती थी कि उनके समर्थकों ने जो नीचे खड़े थे उन्हें जमीन पर नहीं गिरने दिया। इसके पश्‍चात् जो नादिरशाही दृश्‍य देखने के मिला वह भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में कभी नहीं घटा, इससे तो जलियांवाला बाग कांड की याद ताजा हो गई। देखते ही देखते पुलिस ने आंसू गैस के गोले, लाठियां बरसानी शुरु कर दीं जिसमें साधु-संतो को महिलाओं को बुजुर्गों को व छोटे बच्चों को भी नहीं बक्षा गया। पुलिस द्वारा महिलाओं के साथ बदसलूकी की गई। कई महिलाओं के कपड़े फाड़ दिए गए। लगभग 100 लोगों को गंभीर घायल अवस्था में अस्पतालों में भर्ती करवाना पड़ा। अनशनकारी देश के विभिन्न भागों से आए थे जिसमें बूढ़े, बच्चे और महिलाएं भी थीं, महिलाएं चिल्लाती रही कि रात के दो बजे हम कहां जाएं लेकिन इस निर्दयी केन्द्र सरकार एवं पुलिस ने उनकी न सुनी और उनको अनशन स्थल से बाहर फैंकना शुरु कर दिया।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य राममाधव ने कहा ”सरकार भ्रष्टाचारियों को बचाने का प्रर्यास कर रही है। इतनी बर्बरता तो आपातकाल में भी नहीं हुई। साधु संतों, बच्चों और बुर्जुगों को भी नहीं बख्‍शा गया। जब कभी भी कांग्रेस भ्रष्टाचार में फंसती है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम लगाती है। सरकार का यह कदम हैरान करने वाला है। इससे यह आंदोलन और भड़केगा। दिल्ली प्रांत के कार्यकर्ता जो अनशनकारी बाहर से आए हुए हैं, उनकी हर प्रकार से सहायता करने के लिए तैयार हैं।” इस शर्मनाक कार्रवाई की विभिन्न सामाजिक संगठनों व राजनीतिक दलों, ने भी निंदा की है।

मसखरे लफ़फाज़ ओर ढोंगी बाबाओं से ज़न-क्रांति की उम्मीद करने वालो सावधान!

श्रीराम तिवारी

जब -जब इस धरती पर कोई नया भौतिक आविष्कार हुआ ,इंसान को लगा कि ‘दुःख भरे दिन बीते रे भैया ,अब सुख आयो रे’ इसी तरह जब-जब किसी निठल्ले आदमी ने धर्म-अध्यात्म के कंधेपरचढ़करअपनी शाब्दिक लफ्फाजी से समाज में आदर्श राज्यव्यवस्था स्थापित करने और परिवर्ती व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया तो तत्कालीन समाज के सकरात्मक परिवर्तनों की प्रक्रिया को ठेस पहुंची.मानव सभ्यताओं के राजनैतिक इतिहास में इन दोनों घटनाक्रमों के अंतहीन सिलसिले का ही परिणाम है आज की विश्व व्यवस्था.भारत के ज्ञात इतिहास का निष्कर्ष भी यही है.जब-जब धर्म और अध्यात्म ने राजनीति में हस्तक्षेप किया तब-तब अन्याय और अत्याचार में ,शोषण के सिलसिले में तेजी से बृद्धि होती चली गई.कई बार तो भारत [भरतखंड या जम्बू द्वीप]को इस वाहियात मक्कारी से पराजय का मुख देखना पड़ा.

मुहम्मद -बिन-कासिम ने जब सोमनाथ पर आक्रमण का ऐलान किया तो तत्कालीन गुर्जर नरेश सौराष्ट्र वीर भीमसेन देव ने सोमनाथ की रक्षा का संकल्प व्यक्त किया.उनके निकट सहयोगी आचार्य गंग भद्र ने उन्हें युद्ध से विमुख करने की वह एतिहासिक गलती की जो बाद में भारत की बर्बादी का सबब बनी.सोमनाथ मंदिर के पुजारियों ने और आचार्य गंग भद्र ने यह विश्वाश व्यक्त किया था कि जो भगवान् सोमनाथ सारे संसार की रक्षा कर सकता है ,क्या वह अपनी स्वयम की रक्षा नहीं कर सकेगा? जैसा की सारे संसार को मालुम है कि न केवल मुहम्मद-बिन-कासिम बल्कि उसके बाद मुहम्मद गौरी , गजनवी और मालिक काफूर ने भरपल्ले से न केवल सोमनाथ न केवल काशी,मथुरा,द्वारका,अयोध्या बल्कि सुदूर दक्षिण में मह्बलिपुरम से लेकर देवगिरी तक भारत की अत्यंत समृद्ध सांस्कृतिक और आध्यत्मिक धरोहर को कई-कई बार लूटा.इसके मूल में विजेताओं की भोग लिप्सा और उनकी जहालत को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है किन्तु विजित कौम भी अपने तत्कालीन तथाकथित ‘दंड-कमंडल’या संघम शरणम् गच्छामि के अपराध से मुक्त नहीं हो सकती.

इन दिनों भारत में वही २ हजार साल पुरानी खडताल बजाई जा रही है,जिसमें कोरी शाब्दिक लफ्फाजी और मक्कारी के अलावा कुछ भी नहीं है.जबकि निकट पश्चिम में काल- व्याल कराल के रूप में ‘हत्फ’ गौरी” गजनी’जैसे मिसाइल लांचर और घातक परमाणु बमों के जखीरे तैयार हो रहे हैं. यहाँ भारत कि जनता को धरम कीर्तन और नाटक-नौटंकी में उलझाया जा रहा वहाँ पाकिस्तान में साम्प्रदायिक तत्वों की कोशिश है कि न केवल पाकिस्तान में बल्कि समूचे भारतीय उप महाद्वीप में उनके मंसूबे कामयाब हों.बहरहाल तो अमेरिका के पाकिस्तान में घुसकर ओसामा को मार देने से भारत विरोध की जगह अमेरिका विरोध अन्दर-अन्दर सुलगने लगा है.भारत के प्रति पाकिस्तान की अमनपसंद जनता का रुख कुछ मामूली सा द्रवित हुआ है.किन्तु भारत में अमूर्त सवालों को लेकर कोहराम मचा हुआ है ,विदेशी हमलों से निपटने का जज्वा नदारत है. भारतीय मीडिया ने क्रिकेट की तरह सारे संसार में अपने वैभव का लोहा मनवाने का बीजमंत्र खोज लिया है.वह कभी भ्रस्टाचार को ,कभी सत्ता पक्ष को,कभी विपक्ष को,कभी भ्रुस्ट व्यवस्था को,कभी अन्ना एंड कम्पनी के जंतर-मंतर पर ज़न-लोकपाल विधेयक कि मांग को लेकर किये गए अनशन को और कभी दिल्ली के रामलीला मैदान में अभिनीत ‘बाबा रामदेव के योग से राजनीती की और परिभ्रमण ‘के प्रहसन को ,एक अद्द्य्तन प्रोडक्ट के रूप में संपन्न माध्यम वर्ग और साम्प्रदायिक तत्वों के समक्ष परोसने में जुटा है. बाबा रामदेव के वातावरण प्रदूश्नार्थ उबाऊ ,चलताऊ भाषणों और उनके पांच सितारा नकली सत्याग्रह को तमाम इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने लगातार महिमा मंडित करने की मानो शपथ ले रखी है.दूसरी ओर इसी दिल्ली में २३ फरवरी २०११ को देश भर से आये १० लाख नंगे भूंखे मजदूर-किसान और शोषित सर्वहारा न तो इस बिकाऊ मीडिया को दिखे और न ही अन्न्जी या रामदेव को दिखे.

रामदेव यदि बाबा या स्वामी होते तो अनशन को सत्याग्रह में क्यों बदलते?पतंजलि योगसूत्र के स्वद्ध्याय से क्रमिक विकाश की मंजिल राजनीती की गटर गंगा नहीं होती -समझे बाबा रामदेव!यम ,नियम,आसन,प्रत्याहार,प्राणायाम ,ध्यान,धारणा और समाधी में से आप किसी एक को ही आजीवन करते रहेंगे तो दोई दीन से जायेंगे.क्योंकि अष्टांगयोग एक सम्पूर्ण विधा और ब्रहम विद्द्या है ,आप अकेले लोम-विलोम या शारीरिक आसनों को योग बताकर भारत के सम्पूर्ण योग शाश्त्रों का मखौल उड़ा रहे हैं अस्तु आप न तो योगी हैं और न स्वामी ,आप केवल नट-विद्द्या और शाब्दिक राष्ट्रवादी लफ्फाजी में सिद्धहस्त हैं .आप कभी भारत स्वाभिमान,कभी विदेशी वस्तू बहिष्कार,कभी आयुर्वेद बनाम एलोपैथी का विरोध,कभी विदेशी बैंकों में जमा काला धन और अब ४ जून २०११ को पूर्व लिखित स्क्रिप्ट अनुसार आपने ऐंसी तमाम मांगें रामलीला मैदान में बखान की कि बरबस ही वाह!वाह!कहना पड़ा.तब तो आपने हद ही कर दी जब ‘व्यवस्था परिवरतन’का नारा दे दिया .अब यह तो सारा संसार जानता है कि इसका तात्पर्य होता है ‘क्रांति’ जो कि साम्यवादियों,समाजवादियों,नक्सलवादियों और मओवादिओं का पेटेंट है. मान गए बाबा रामदेव आपने संघ परिवार को तो पहले से ही साध रखा थाकिन्तु कांग्रेस को साधने में गच्चा खा गए. बाबा रामदेव ने वही गलती की जो एक बन्दर ने की थी और नाई कीदेखा देखी अपने हाथों अपनी गर्दन काट ली थी.रामदेव इतने मूर्ख हो सकते हैं ये तो जनता को तब मालूम पड़ा जब कपिल सिब्बल ने आचार्य बालकृष्ण का हस्ताक्षक्षारित सहमती पत्र मीडिया के सामने खोला.उस पत्र के खुलासे ने न केवल बाबाजी के चटुकारकरता-धर्ता बल्कि मीडिया भी अब बाबाजी की जड़ें खोदने में जुट गया है. ,अबबाबा जी के नकली सत्याग्रह की कहानिया चठ्कारे लेकर लिखी जाएँगी.पढ़ी भी जाएगी. ४ जून से २० जून २०११ तक दिल्ली के रामलीला मैदान में पूर्वानुमति से और पूर्ण सहमती से कांग्रेस और केंद्र सरकार को साधकर ही बाबा रामदेव ने ये नकली सत्याग्रह किया है .अब तक परिस्थतियों ने कांग्रेस और खास तौर से दिग्विजय सिंह का साथ दिया है.उन्होंने बाबा पर और बाबा के शुभ चिंतकों पर जो-जो आरोप लगाये थे वे सहज ही सच सवित होते जा रहे हैं.

भोली भाली देश भक्त जनता जो कि भ्रष्टाचार से आजिज आकर किसी अवतार या क्रांति कि तलबगार हो चुकी थी उसे एक बार फिर उल्लू बनाया गया और बनाने वाले भले ही रंगे हाथ पकडे गए किन्तु धन-दौलत को मान -सम्मान से ऊँचा समझने वाले बाबा रामदेव आप ! वाकई आज इस भारत भूमि पर सबसे बड़े वैश्विक कलाकार हो.आपके उज्जवल भविष्य की शुभकामनाओं के साथ ,क्रांति के लिए वेस्ब्री से इन्तजार करता आपका एक चिर आलोचक विनम्र निवेदन करता है किअपने गुनाहों को छिपाने के लिए धर्म -अध्यात्म और भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को दांव पर न लगायें.धन्यवाद. आपके दकियानूसी भाषणों और कोरी राष्ट्रवादी लफ्फाजी से आहात आपका एक चिर आलोचक.

भ्रष्टाचार महाक्ति कलियुगे!!

बाजे गाजे की आवाज सुन हड़बड़ाया जाग कर बाहर निकला तो पैरों तले से जमीन खिसक गई। वे सुबह सुबह अपने फसली बटेरों के जुलूस के साथ झोटे सी गरदन को चंदे के गुड्डी कागजों की मालाओं से लक दक किए गंजे सिर पर लाल साफा बांधे, मुहल्ले के मास्टर जी की पहले तो ट्रांसफर करवा फिर उसे रूकवाने की दौड़ धूप के मानदेय के रूप में अर्जित किए झक सफेद कुरता पाजामा डाले बाजे गाजे के साथ मुहल्ले से निकल रहे थे तो ये देख कलेजा मुंह को आ गया। मुहल्ले वाले तो मुहल्ले वाले, पूरे कस्बे के लोग जिन जिनको ये दिमाग फाड़ू संगीत सुनाई दे रहा था वे वे गालियां देते हुए जाग रहे थे।

बाहर आ आंखें मलते हुए देखा तो गड्ों का पेट भरती भरती हारी सड़क पर सबसे आगे आठ दस सिरों पर फल फ्रूटों,,मेवों मिठाइयों की टोकरियां उठाए चले जा रहे थे। उनके पीछे वे मुसकराते हुए। खैर, नेता किसी भी लेबल का हो । उसकी किस्मत में हंसना ही होता है । रोता तो वह दिखावे के लिए ही है। उनकी थुल थुलाई पत्नी लाल साड़ी पहने उस वक्त किसी वीरांगना से कम नहीं लग रही थी। साथ में महिला जागरण मंच की पांच सात सदस्याएं भजन गा रही थीं। सोचा कि नेता जी अगले चुनाव का टिकट मांगने के लिए भगवान के किसी मंदिर में जा रहे हों। पर नहीं , मंदिर में तो वे टिकट मांगने जा नहीं जा सकते क्योंकि उन्हें पता है कि टिकट भगवान से नहीं, हाई कमान से लिया जाता है। अगर इस देश के चुनाव में भगवान भी खड़ा होना चाहे तो उसे भी टिकट के लिए हाई कमान के आगे नाक रगड़ा पड़े, हाई कमान को आश्वासन दिलवाना पड़े कि महाराज! मुझे केवल पार्टी का टिकट दे दो! मैं आपसे चुनाव लड़ने के लिए पैसा नहीं मांगूगा। बल्कि उल्टै टिकट की एवज में पांच सात करोड़ पार्टी फंड में दे दूंगा। मेरे पास सबकुछ है बस, चुनाव लड़ने के लिए पार्टी टिकट नहीं। मेरे भीतर जनता को खाने का जोश हिलोरें मार रहा है। अब तक तो मेरे नाम पर पुजारी ही जनता को खाता रहा। अब मुझे भी जनता को खाने का एक चांस दे कृतार्थ करें माई बाप!

हक्का बक्का हो जब सड़क पर उतर आया तो मुझे देख वे और भी अकड़ कर मुस्कराते हुए चलने लगे। मैंने उनके नजदीक जा उनको पूछा,”नेता जी! आज सुबह सुबह!ये कौन सी यात्रा पर जा रहे हो? अमर नाथ यात्रा पर तो नहीं?’

तभी उनके साथ किराए के समर्थकों ने नेता जी अमर रहें का नारा लगाया तो वे और भी अकड़ कर बोले,’ बस, बहुत हो गया! हम दिल्ली जा रहे हैं।’

‘किसलिए? इतनी गर्मियों में वहां जाकर क्या करोगे? यहां पर कम से कम बिजली तो रह रही है।’

‘ भ्रटाचार के संरक्षण हेतु आमरण अनशन पर बैठने,’ मन बल्लियां उछलने लगा कि चलो! मुहल्ले से एक सदाबहार लफंगा तो कम होगा। नहीं तो अपने मुहल्ले की नियति तो यह है कि अगर कोई कुछ नहीं बन पाता तो सुबह नेता बना होता है,’ तो ये फलों, मिठाइयों की टोकरियां किसलिए?’

‘ अरे कलम घांचू! इतना भी नहीं जानता ! नेता जी ठहरे जन्म जात खाने वाले ! जन्म से खाने की आदत के चलते ये सबकुछ छोड़ सकते हैं पर खाना नहीं। बस इसीलिए ये टोकरियां साथ ले जा रहे हैं कि दांव लगते ही मुंह मार लिया करेंगे। इनकी देश को सख्त जरूरत है। आमरण अनशन के बाद भी इनका जिंदा रहना हर हाल में आवश्यक है,’ उनके एक कार्यकर्ता ने फलों का टोकरा अपने सिर पर से उठा मेरे सिर पर रखा और अपना सिर खुजलाने लगा।

, अब हद हो गई! पानी सिर से ऊपर जा चुका है। जिसे देखो वही भ्रटाचार के नाम पर रोटियां सेकने को उतारू हो रहा है। अब देखो न! पीएम समझाते मर गए बाबा को कि बाबा! छोड़ो भ्रटाचार के खिलाफ सत्याग्रह करने की जिद्द! योगा करते रहो, मौज करते रहो! भ्रटाचार व्यक्तिगत मुद्दा नहीं ,राष्ट्रीय मुद्दा है । यहां तो जब आदमी अपने ही खड़े किए मुद्दे हल नहीं कर पा रहा है तो राट्रीय मुद्दे को अपने हिसाब से चलने दो। अगर कल को कोई मुद्दा ही नहीं रहा तो सरकार किस लिए चुनेंगे? वह करेगी क्या?? राट्रीय मुद्दों के लिए सत्याग्रह की जरूरत नहीं होती। वे तो अगर हल हो भी रहे हों तो उन्हें हर हाल में जिंदा रखने की जरूरत होती है। ये मुद्दा तो जब तक सरकारें हैं चलता रहेगा। पर बाबा है कि हीरो बनने के चक्कर में अपनी सीमाएं लांघ रहे हैं। बाबा हैं यार तो बाबाओं की तरह रहो और ये राजनीति के लफड़े हम पर छोड़ दो! बाबा को कहां राजनीति सों काम! पर नहीं, योगा छोड़ अब सत्याग्रह करेंगे! काले धन को राट्र की संपत्ति घोाित करवाएंगे जब कि यहां राट्र की संपत्ति भी राष्ट्र की संपत्ति नहीं। तो लो भैया! अगर वे सेर हैं तो हम सवा सेर! भ्रष्टाचार के पक्ष में जंतर मंतर पर तब तक आमरण अनशन पर बैठ दांव लगते ही तब तक खाते रहेंगे जब तक भ्रष्टाचार  को देश में नैतिकता नहीं मान लिया जाता! फिर देखता हूं अन्ना हजारे और बाबा को! बैठा लें हर जिले में अपने मंच के बंदों को अपने समर्थन में अनशन पर । मैंने अगर घर से लेकर हर दफ्तर तक हर कैडर के बंदे भ्रष्टाचार के पक्ष में आमरण अनशन पर नहीं बैठाए तो मेरा नाम बदल कर रखना। फिर चारों ओर बस एक ही आवाज होगी भ्रष्टाचार जिंदाबाद! भ्रष्टाचार जिंदाबाद!! कलियुग में भ्रष्टाचार के विकास के अतिरिक्त कोई भी आंदोलन चला लीजिए, दूसरे दिन औंधे मुंह न गिरे तो मूंछे कटवा कर रख दूं। तो तुम मेरे साथ भ्रष्टाचार के पक्ष में जंतर मंतर बैठने पर किस रोज आओगे?

प्रलय का भय

प्रमोद भर्गव

प्रलय का भय भी बाजार का हिस्सा बन गया। टीवी समाचार मीडिया इस भय को इस हद तक भुना रहा हैं कि बस प्रलय अभी आएगा और अपनी सुनामी लहरों में दुनिया निगल जाएगा। लेकिन याद रखें प्रलय चाहे जितना प्रबल और प्रलयंकारी आए, समूची दुनिया एकाएक खत्म होने वाली नहीं है। इस बात की सच्चाई उस प्रलय से उजागर होती हैं जिसके आने के बाद न केवल दुनिया कायम रही बल्कि मनु ने राज भी किया। जब प्रलय के कारण दुनिया समुद्र्र में समा चुकी थी तो फिर मनु ने राज किस प्रजा पर किया ? जब प्रजा बची ही नहीं थी तो प्रशासनिक व्यवस्था किस पर लागू की ? शतपथ ब्रा्रहम्ण और जयशंकर प्रसाद की कामायानी में जलप्लावन के विशद विवरण के साथ प्राकृतिक आपदा से उजड़े जीवन को संवारने का भी पूरा दर्शन हैं। इसलिए प्रलय का जो भय दिखाया जा रहा है, वह बाजारवाद की देन है। समाचार चैनल जहां इस भय से टीआरपी ब़ाने का धंधा कर रहे हैं, वहीं वैश्विक बाजार बहुराष्ट्र्रीय कंपनियों का माल बेचने के लिए नकारात्मक संदेश दे रहे हैं कि धनसंचय मत करो और जो संचित धन है उसे प्रलय कि तारीख आने से पहले मौज मस्ती में उड़ा दो। यहां गौरतलब यह भी हैं कि प्रलय की अब तक जितनी भी भविष्यवाणियां हुई हैं, वे गलत साबित हुई हैं। हालांकि यह सही हैं कि जलप्रलय महाविनाश के कारण बने हैं।

हिन्दू, इस्लाम और ईसाई धर्म ग्रंथों में प्रलय का उल्लेख हैं। धर्म ग्रंथों में होने के कारण हम इन्हें मिथक कह कर या तो नकारते रहे हैं अथवा प्रलय का भय दिखाकर धर्मवीरू मानव समाज का भयादोहन करते रहे हैं। श्रीमद भागवत कथा के चौबीसवें अध्याय के मत्स्यावतार में वर्णित महाप्रलय के प्रसंगानुसार भगवान विष्णु कहते है, सत्यव्रत आज से सातवें दिन तीनों लोक समुद्र्र में डूब जाएंगे। तब तुम 1 बड़ी नौका में समस्त प्राणियों के सूक्ष्म शरिरों, वनस्पातियों और धान्य ;अनाजद्ध के बीजों को लेकर उसमें बैठ जाना। नाव को एक बड़ी मत्स्य ;मछलीद्ध खींच कर हिमालय के किनारे लगाएगी। जहां तुम नए जीवन की शुरूआत करना। यही सत्यव्रत बाद में वैवस्त मनु कहलाए। हिमालय क्षेत्र में आने पर मनु को कमगोत्र की स्त्री शतरूपा मिली। मनु ने इससे प्रेम किया और गर्भावस्था में छोड़कर सारस्वत प्रदेश चले गए। इस प्रदेश की रानी इड़ा थी। जो ठीक से अपने राज की शासन व्यवस्था नहीं चला पा रही थी। मनु ने इड़ा से प्रेम विवाह किया और सारवस्त प्रदेश की प्रजा को एक सुचारू शासन व्यवस्था की। यहां सोचने वाली बात यह है कि जब प्रलय ने समस्त प्रजा लील ली थी तो मनु और इड़ा ने राज किस प्रजा पर किया ?

प्रलय का भय अब पूरब की बजाए पश्चिम से ज्यादा उठ रहा हैं। 21 मई 2011 को जिस प्रलय के शाम 6 बजे आने की भविष्यवाणी की गई थी, वह अमेरिका के प्रवर्चनकर्ता की हरकत थी। इस भविष्यवाणी का पश्चिम में इतना जबरदस्त प्रभाव देखने में आया की लाखों की संख्या में लोग सुरक्षा की तलश में लग गए। पूजा, प्रार्थनाएं कीं। पुण्य के फेर में अपनी जमा पूंजी भी गवां दी। अब प्रवचनकर्ता फरारी में हैं और परलोक सुधारने के बहाने पूंजी नष्ट करने वाले लोग अपने घर की दिवारों को माथा पीट रहे हैं। अब प्रलय की भविष्यवाणी की तारीख ब़ाकर 21 जून कर दी गई हैं। मानो ईश्वर अथवा ब्रहाम््रण्ड की कार्य प्रणालियों की कूंजी चंद भविष्यवक्ताओं की मुट्ठी में हो।

प्रलय की 2 साल से प्रचारित की जा रही भविष्यवाणी की तीरीख 21 दिसंबर 2012 है। इस तारीख को प्रलय की संभावना मय सभ्यता के पंचांग ;कैलेण्डरद्ध के आधार पर जताई जा रही है। इस पंचांग में इस तारीख को प्रलय आने का कोई उल्लेख नहीं है। दरअसल यह पंचांग इसी तिथि तक है। इस कारण पांखण्डी प्रवचनकर्ताओं और भविष्यवक्ताओ ने मान लिया कि 21 दिसंबर 2012 के बाद दुनिया रह ही नहीं जाएगी। इस कारण पंचांग में आगे की तिथियां, मास और वर्ष नदारद हैं। यह अर्थ मनग़ंत है। इन लोगों से पूछना चाहिए कि क्या कोई ऐसा कैलेण्डर अब तक बना है, जिसमें ब्रहा्रम्ण्ड की उम्र मापी गई हो ? आज हम तकनीक के आधुनिकतम युग में हैं। क्या इसके बावजूद हम आगामी एक हजार अथवा एक लाख वर्ष तक का कैलेण्डर बना पाए ? जब हम आज आगामी हजारों सालों का कैलेण्डर नही बना नहीं पा रहे हैं तो आज की तुलना में तकनीकी रूप से कमोवेश अक्षम रहे मय सभ्याता के लोग कैसे बना पाते ? वैसे मय दानव जाति के लोग वास्तुकला में इतने दक्ष थे कि इन्हें स्थापत्य का जादूगर कहा जाता था। प्राचीन अमेरिका और रामायण कालीन लंका इन्हीं मय दानवों ने ही बसाई थी। रावण की पटरानी मंदोदरी इन्हीं मय दानवों के वंश की थी।

मय पंचांग की भविष्यवाणी सामने आने से पहले फ्रांस के नॉस्त्रादम ने 16 वीं शताब्दी में भविष्यवाणी की थी कि जुलाई 1999 में पृथ्वी पर प्रलय आएगी और संपूर्ण पृथ्वी जलमग्न हो जाएगी। सेंचुरीज नाम से 1955 में प्रकाश्ति इस पुस्तक में नॉस्त्रादम ने रेखचित्रों के माध्यम से इस भविष्यवाणी की घोषणा की थी, लेकिन 1999 निकल चुका हैं और प्रलय ने इस साल दुनिया के किसी भी देश में ऐसी ताबाही नहीं मचाई कि उस देश का वजूद खत्म हो गया हो ? वैसे भी आज तक इस किताब की एक भी भविष्यवाणी सटीक नही बैठी है।

प्रलय को वैज्ञानिक भी सच मान रहे हैं। वे इस खतरे को अंतरिक्ष से उतरता देख रहे हैं। अंतरिक्ष अनेक ऐसे क्षुद्रग्रहों और मलबों से भरा है, जो यदि पृथ्वी से टकरा जाएं तो महाविनाश अवश्यसंभावी है। इस नजरिये से वैज्ञानिक दावा है कि जुलाई, अगस्त 1926 में स्विफ्ट टटल नामक धूमकेतु पृथ्वी से टकाराकर महाप्रलय का तांडव रचेगा। दुनिया के विनाश की आशंकाएं नाभिकीये उष्मा से भी की जा रही हैं। यदि यह परमाणु उर्जा आतंकवादियों के हाथ लग जाए अथवा भूलवश विस्फोट का बटन दब जाए तो चंद पलों में विनाश हो जाएगा। इस उर्जा की विभाीषिका का सामना जापान, हिरोशिमा और नागाशाकी में तो पहले ही देख चुका है प्राकृतिक आपदा के चलते फुकुशिमा के भी एक बड़े क्षेत्र में परमाणु विकिरण का खतरा मंडरा रहा है। रूस के चेरनोबिल में भी परमाणु उर्जा विनाश का सबब बन चुकी है।

सब कुल मिलाकर प्रलय के भय की तरीखें बाजारवाद को ब़ावा देने के नियोजित करनामे हैं। इनसे भयभीत होने की बजाय इन्हें प्रलय की बीत चुकी भष्यिवाणीयों से खंडित व खारिज करने की जरूरत है। प्रलय की चिंता और उससे भयभीत होने के वनस्वित हमें जरूरत है हम प्रकृति को संतुलित बनाए रखने की कोशिशें तेज करें। प्राकृतिक संपदा से भोग विलास का सामान जुटाने के लिए दोहन करने की बजाए उसे इंसान के आहार विहार तक सीमित रखें। उत्तर आधुनिक समाज में जिज्ञासाएं और रोमांच उत्तरोत्तर घट रहे हैं। पश्चिमी समाज में धन की बेशुमारी मानवाजनय आकांक्षाओं की आपूर्ति जल्द कर रहा है। इसलिए वहां हिंसा और विंध्वंस की कल्पानएं ही इंसान को थोड़ा बहुत रोमांचित कर पा रही हैं। लेकिन पूरब में ऐसा नहीं है। धनाभाव में भी जीवन के प्रति हमारा भरोसा मजबूत है। जिजिविषा की यह जीवटता हमारे पूर्वजों में और भी ज्यादा सघन थी। इसी कारण वह विदेशी आक्रांताओं से सामना करते हुए न केवल अपने सासंकृतिक मूल्यों को अक्षुण्ण रख पाए, बल्कि जीवन के प्रति सकारत्मकता भी बनाए रखे। प्रलय का आना प्राकृतिक सत्य हो, धार्मिक सत्य हो अथवा वैज्ञानिक सत्य हो, हकीकत यह भी है कि प्रलय के बाद भी जीवन बचा रहा हैं और बचा रहेगा।

 

पर्यावरण का करो ख्याल……..

दुनिया भर में 5 जून का दिन विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाता है। 1973 में सबसे पहले अमेरिका में विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया गया था। इस वर्ष भी हर वर्ष की तरह पर्यावरण दिवस पर दो-चार पेड़ लगाकर हम अपने दायित्व को पूरा कर लेंगे। लेकिन प्रकृति को समझने की कोशिश नहीं करेंगे। देखा जाए तो सृष्टि के निर्माण में प्रकृति की अहम भूमिका रही है। यहां हमने इतिहास के वो पन्ने पलटने की कोशिश की है जिनके बारे में सुनने, पढ़ने या फिर सोचने के बाद शायद हमें समझ आ जाए। हम आप का ध्यान उस दौर की और आकर्षित करना चाहते हैं जहां पर विशाल से विशाल जीवों ने प्रकृति के खिलाफ जाने की कोशिश की और अपना अश्तित्व ही खो दिया। देखा जाए तो सृष्टि का निर्माण प्रकृति के साथ ही हुआ है। इस दुनिया में सबसे पहले वनस्पितयां आई। जो कि जीवन का प्राथमिक भोजन बना। उसके बाद अन्य जीवों ने अपनी जीवन प्रक्रिया शुरू की। माना जाता है कि मनुष्य की उत्पत्ति अन्य जानवरों के काफी समय बाद हुयी है। अगर कहा जाए तो मनुष्य की उत्पत्ति के बाद से ही इस सृष्टि में आये दिन कोई न कोई बदलाव होते आ रहें हैं। मनुष्य ने अपने बुद्धी व विवेक के बल पर खुद को इतना विकसित कर लिया की और कोई भी जीव उससे ज्यादा विवेकशील नहीं है। यही कारण है कि दिन प्रतिदिन मनुष्य अपनी बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रकृति की कुछ अनमोल धरोहरों को भेंट चढ़ाता जा रहा है।

प्रकृति का वह आवरण जिससे हम घिरे हुए है पर्यावरण कहलाता है। आज वही पर्यावरण प्रदुषण की चरम सीमा पर पहुंच चुका है। हर कोई किसी न किसी प्रकार से पर्यावरण को प्रदुषित करने का काम कर रहा है। जहां कलकारखानें लोगों को रोजगार दे रहें हैं। वहीं जल-वायु प्रदुषण में अहम भूमिका भी निभा रहें हैं। कारखानों से निकलने वाला धूंआ हवा में कार्बन डाई आक्साइड की मात्र को बढ़ा देता है जो कि एक प्राण घातक गैस है। इस गैस की वातावरण में अधिक मात्रा होने के कारण सांस लेने में घुटन महसूस होने लगती है। चीन और अमेरिका जैसे कई विकसित देशों के वातावरण में गैसिए संतुलन विगड़ने से लोगों को गैस मासक लगाकर घुमना पड़ता है। अभी अपने देश में यह नौवत नहीं आयी है। लेकिन इस बात से भी मुंह नहीं फेरा जा सकता कि आने वाले भविष्य में हम भी उन्हीं देशों की तरह शुद्ध हवा के लिए गैस मासक लगा कर घुमते नजर आएंगे।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि हमारा देश तरकी कर रहा है। आज हम किसी भी देश से कम नहीं है। लेकिन क्या यह सही है कि हम अन्य विकसित देशों की विकास की दौड़ में तो दौड़ते जा रहें हैं परंतु अपनी धरोहर को नष्ट करते जा रहें हैं। जो देश आज प्रदुषण को कम करने में लगा है। एक ओर हम है कि अपने देश में हरे-भरे जंगलों को तहस-नहस करते जा रहें हैं।

भारतवर्ष पुरातत्व काल से ही वनों को अत्याधिक महत्व दिया गया है। हम अगर अपने वेद-पुराण उठा ले तो उनमें भी वनों व वृक्षों को पुजनीय बताया गया है। हमारे धर्मों व कागज की जरूरत पूरा करने के लिए काटे जा रहा है और उन स्थान पर पूनः वृक्षारोपण कारने की बजय रियासी काॅलोनियां व नगर बसाये जा रहें हैं जिससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ता जा रहा है।

एक दिन ऐसा आने वाला है जब हम अपनी आने वाली पीढ़ी को वन, उपवन की बातें अपने धार्मिक ग्रंथ रामायण व महाभारत में पढ़कर सुनाएंगे। वन होते क्या है, यह आने वाली पीढ़ी नहीं समझ पाएगी? अब अगर बात की जाए प्रदुषण की तो वृक्षोें का कटना प्रकृतिक संतुलन को बिगाड़ रहा है जिसके कारण वायु प्रदुषण बढ़ता जा रहा है। वायु में बढ़ती कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा को पेड़ ही कम कर पाते हैं। पेड़ कार्बन डाई आक्साइड को ग्रहण कर शुद्ध आक्साीजन छोड़ते हैं जिससे प्रकृति में गैसों का संतुलन बना रहता है। लेकिन अब कार्बन उत्साहित करने वाले श्रोत बढ़ते जा रहें हैं। जबकि आक्सीजन बनाने वाले पेड़ों की संख्या दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है।

जल ही जीवन है लेकिन उस जीवन में भी प्रदुषण नाम का जहर घुलता जा रहा है। पानी इंसान की अमूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। बिना जल के जीवन की कल्पना करना भी बेकार है। आज के दौर में जल भी प्रदुषण की चरम सीमा पर है। जलवायु के नाम से पर्यावरण को जाना जाता है। लेकिन अब न तो जल प्रदुषण मुक्त है न ही वायु। देश की गंगा, यमुना, गंगोत्री व वेतबा जैसी बड़ी-बड़ी नदियां प्रदुषित हो चुकी है। सभ्यता की शुरूआत नदियों के किनारे हुई थी। लेकिन आज की विकसित होती दुनिया ने उस सभ्यता को दर किनार कर उन जन्मदयत्री नदियों को भी नहीं बक्शा।

भारत देश हमेशा से ही धर्म और आस्था का देश माना जाता रहा है। पुराणों में यहां की नदियों का विशेष महत्व वर्णन किया गया है। हिन्दु धर्म आस्था की मुख्य धरोहर गंगा आज आपनी बदनसीबी के चार-चार आंसू रो रही है। धर्म ग्रंथों के अनुसार राजा भागीरथ ने गंगा को स्वर्ग लोक से मृत्युलोक (पृथ्वी) पर बुलाने के लिए तपस्या की। तपस्या से खुश होकर गंगा पृथ्वी पर अवतरित हुई जिसने भागीरथ के बताए रास्ते पर चलकर उनके पूर्वजों को तार दिया। तभी से गंगा में स्नान कर लोग अपने पापों से मुक्ति पाने आते हैं। धर्म आस्था के चलते गंगा के किनारे कुंभ मेलों का आयोजन किया जाता है। देश भर में चार स्थान हरिद्वार, नासिक, प्रयाग व उन्नाव में कुम्भ के मेले का आयोजन होता है जिसमें देश के कोने-कोने से लाखों की तादात में श्रद्धालू अपने पापों से मुक्ति पाने व अपने बंश को तारने के लिए आते हैं।

जिस गंगा ने भागीरथ के बंश को तारा आज वो दुनिया भर के श्रद्धालुओं के पापों तार रही है। लेकिन उस भगीरथ ने कभी नहीं सोचा होगा जो गंगा उनकी तपस्या से पृथ्वी लोक पर मानव उद्धार के लिए आयी थी एक दिन वो खुद अपने उद्धार के लिए किसी भागीरथ की वाट हेरेंगी। आज गंगा नदी इतनी प्रदुषित हो गयी है कि खुद अपने आप को तारने के लिए किसी भागीरथ का इंतजार करेंगी। जो आए और उसकी व्यथा को समझे।

हम यह क्यों भूल जाते है कि प्रकृति जीवन का आधार है जिसे हम लगातार दुषित करते जा रहे है। इतिहास गवाह है कि प्रकृति के अनुकूल चलने वाला ही विकास करता है। जबकि विपरीत चलने वाले जीवन का तो नमोनिशान नहीं मिला। अब वक्त है कि हम इन बातों पर विचार करना होगा। आखिर कब तक आने वाले संुदर भविष्य के सपने बुनने के लिए अपने पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे। एक दिन तो अति का भी अंत हो जाता है। तो हम क्या है? अभी ज्यादा वक्त नहीं गुजरा आज भी समय है चेतने का इस अपने पर्यावरण को शुद्ध रखने और प्रकृति को बचाने का। इसका एक ही उपाय है वो है प्रकृति को बचाना है प्रदुषण को कम करना है तो हमें ज्यादा से ज्यादा वृक्ष लगाने होंगे। वृक्ष हमें लगाने होंगे लेकिन सरकारों की तरह कागजों पर नहीं बल्कि हमें आज से तय करना होगा कि आने वाली पीढ़ी को अगर हसता-खेलता देखना है तो प्रत्येक को कम से कम एक वृक्ष लगाना होगा।

एक अनशन जनता के लिए

अभी हाल ही में कुछ दिन पहले अन्ना हजारे ने अनशन किया और मान गए और अब बाबा रामदेव अनशन कर रहे हैं। ये सब अनशन और आंदोलन और धरना प्रदशर्न जो हमारे देश में होते हैं वे सिस्टम के खिलाफ होते हैं और सब लोग मिलकर सारा दोा सरकार व सरकार चलाने वाले नेताओं पर म देते हैं और उनके खिलाफ इस प्रकार के प्रदशर्न कर अपना विरोध प्रदशिर्त करते हैं। इन सब प्रदशर्नों को देखकर ऐसा लगता है कि सारा का सारा दोष इन नेताओं का ही है और एक मात्र राजनीति करने वाले ये लोग ही इस देश का बंटाधार कर रहे हैं। मैं इन सब के बीच एक बात कहना चाहूँगा कि हम लोग लोकतांत्रिक व्यवस्था में जीते हैं और इस सिस्टम का निर्माण हमारी जनता ने ही किया है। जनता ही इस सारे सिस्टम और इस सारे नेताओं के मूल में है। लोकतंत्र में जनता जनार्दन है और भारत के भाग्य की विधाता भी जनता ही है।

क्या वास्तव में सारे नेता ही इस सिस्टम और नकारापन के कारण है। ऐसा नहीं है वास्तव में हमारे देश की जनता भी इस सब दोषियों के लिए बराबर की भागीदार है और सबसे बड़ा दोष जनता का ही है। लोकतंत्र में आखिरी निर्धारक जनता है सो जनता की ही जिम्मेदारी है कि वह जिस सिस्टम का निर्माण कर रही है उसे भली भाँति बनाए और सारे सिस्टम के बारे में सोचकर अपने वोट का प्रयोग करें।

वास्तव में जनता ने ही इस सारे सिस्टम को खराब किया है। देश में काम करने वाले करोड़ो लोग चाहे वह आईएएस हो, क्लर्क हो, चपरासी हो, ठेकेदार हो, दुकानदार हो, व्यापारी हो सब के सब भ्रट हैं। इस देश की जनता ने खुद ने भ्रटाचार को पनाह दी है। देश का आईएएस भ्रटाचार में लिप्त हैं, क्लर्क पैसे खाता है, डॉक्टर बिना फिस देखता नहीं, इ्रंजीनियर घूस खाकर काम करता है, ठेकेदार मिलावट करने से चूकता नहीं, व्यापारी व उद्योगपति जमाखोरी कालाबाजारी में लगे हुए हैं, धर्म के नाम पर धंधा चल रहा है, साधु संयासियों के आश्रम ऐसो आराम और अय्यासी के अड्उे बने हुए हैं। कहने का मतलब है कि चारों ओर लूट मची है तो ऐसी स्थिति में सिर्फ नेताओं और राजनीति करने वालों पर दोष मंढ कर मुक्त नहीं हुआ जा सकता।

क्या इस देश के आईएएस, क्लर्क, चपरासी, डॉक्टर, इंजीनियर, ठेकेदार का दायित्व नहीं है कि वो ईमानदारी से काम करें वो अपना सब कुछ देश के हित में लगाए। जब ये सब के सब वर्ग के लोग भ्रटाचार में लिप्त है तो सिर्फ राज करने वाले लोगों पर दोष  देना कितना उचित है। हमारी मानसिकता में परिवर्तन लाना बहुत जरूरी है। हम सरकार की चीज को दुरूपयोग के लिए ही समझते हैं, सरकारी सम्पत्ति को तोड़ना, उसका उचित उपयोग न करना हम अपना दायित्व समझते हैं। आम आदमी खुद अपने पर नजर डाले कि वो टैक्स की चोरी कितनी करता है, दिन भर में कितनी दिवारों पर पान कि पीक थूकता है, यत्र तत्र कितना कूड़ा फैलाता है, ट्रेफिक नियमों को दिन भर में कितनी बार तोड़ता है, कितनी सरकारी सम्पत्ति का दुरूप्योग करता है, अपने काम पर समय पर जाता है क्या और अपने दफतर में कितनी देर बातें करता है, कितनी देर काम करता है, काम की चोरी कितनी करता है। क्या इस देश के आम नागरिक की जिम्मेदारी नहीं है कि वह खुद अपने पर ध्यान दें और अपने में सुधार के प्रयास करें।

हम दूसरे विकसित देशों की बड़ाई करते हैं लेकिन एक बार सोचे कि हम अमेरिका या जर्मनी या कुआलालाम्पुर कहीं पर भी विदेश में जाते है” तो क्या एयरपोर्ट पर थूकते हैं, क्या सार्वजनिक जगहों को  शौचालय बनाते हैं, क्या हम वहाँ पर ट्रेफिक नियमों का उल्लघंन करते हैं, क्या हम वहाँ पर बिना टिकट यात्रा करने का प्रयास करते हैं नहीं ना तो फिर दिल्ली, मुम्बई में घूसते ही हमें ऐसा क्या हो जाता है कि इन सब बातों को हम धड़ल्ले से करते हैं वहाँ कौनसा नेता आकर कहता है कि आप खुले आम थूकों, टिकट बिना यात्रा करों आदि आदि। एक नजर अपने पर डाले कि क्या धरना व प्रदशर्न जो कर रहे हैं वो कहीं अपने खिलाफ ही करें तो कितना अच्छा हो।

हमारे अनशन करने वाले लोग राजघाट जाकर अपने इस शुभ कायोर्ं की  शुरुआत करते हैं ताकि आम जन में ये संदेश जाए कि गाँधी जी के बताए सिद्घांतों व आदशोर्ं पर चलने का प्रयास किया जा रहा है। पर याद करो कि महात्मा गाँधी ने एक अनशन जनता के खिलाफ भी किया था। जब इस देश का विभाजन हुआ और चारों तरफ मारकाट मची थी तो इस युग पुरू ने दिल्ली में भूख हड़ताल शुरु ही आम आदमी के खिलाफ और कहा कि जब तक आम आदमी  शांति से नहीं रहेगा वे अनशन नहीं तोड़ेगे। आम आदमी ने उस राट्रपिता की बात को सुना और माना। मारकाट बंद हुई तो क्या आज के इन बाबाओं को या समाज सेवकों को या किसी की भी ये जिम्मेदारी नहीं बनती कि वे आम जनता को सुधाने के लिए अनशन करें और जनता को बनाए कि वह कितना गलत कर रही है।

सिस्टम खराब है, राजनेता ईमानदार नहीं रहे पर क्या जनता के आदशर उच्च रहे हैं नहीं ना तो इस सिस्टम को जन्म देने वाली जनता ही पवित्र न होगी तो इससे पैदा होने वाला सिस्टम कैसे पवित्र होगा। हमें चाहिए कि हम अपने नैतिक चरित्र व राट्रीय चरित्र को उच्च बनाए और महात्मा गाँधी के कहे उन शब्दों पर गौर करें कि किसी भी काम को करने से पहले यह सोचें कि आपके द्वारा किए गए इस काम से इस देश के सबसे गरीब आदमी को क्या फायदा होगा अगर कोई उस अंतिम आदमी को कोई फायदा हो तो ही वह काम करें अन्यथा नहीं।

मेरी राय है या मांग है इन नेताओं से संस्थाओं से धर्म गुरूओं से कि वे एक विशाल अनशन करें जनता के खिलाफ, जनता की आदतों के खिलाफ, ताकि आम जन को लगे कि वो भी गलत है और इस सारी व्यवस्था में बराबर का भागीदार है।

भ्रष्टाचार ने बड़ौ दुख दीनौ

ऱाष्ट्रकुल खेलों में भरपेट भ्रष्टाचार का खेल खेलने के बाद भ्रष्टाचार मिटाओ का खेल आजकर देश में काफी लोकप्रिय हो रहा है। जिसे मौका मिलता है नही भ्रष्टाचार मिटाने पर आमादा हो जाता है। मीडिया भी क्रिकेट के बाद भ्रष्टाचार मिटाओ की लुभावनी झांकी को दिखाते हुए छलक-छलक जा रहा है। और लोगबाग भी बड़े श्रद्धा भाव से इस झांकी के देवताओं को निहारते हुए,राजनेताओं को गरियाने के अखंड कीर्तन में लगे हुए हैं। मीडिया जिस उत्साह से पहले संसार में प्रलय ला रहा था उसी आस्था के साथ अब वो भ्रष्टाचार मिटाने में जुट गया है। तिहाड़ जेल में पिकनिक मना रहे भ्रष्टाचार के सिद्ध खलीफा बड़े मुदित भाव से इस आयटम को लाफ्टर शो की जगह देख-देखकर अट्टहास कर रहे हैं। जैसे तलाक की धमकी के आगे कभी शरीफ बीवियां थर-थर कांपने लगती थीं ठीक वैसे ही भ्रष्टाचार मिटाने की धमकी के आगे अब सरकार कांपने लगी है। वैसे भी कुछ लोग बीवी को सरकार और कुछ सरकार को बीवी ही समझते है। अभी अन्ना के अनशन से चौकन्ना सरकार संभलने-संभलने को थी कि अब उसे सताने योगीजी आ पहुंचे। सतयुग में जब कोई योगी उग्र तपस्या करता था तो उसकी तपस्या से इंद्र का सिंहासन डोल जाता था। अब कलयुग में तो इंद्र के सिंहासन को हिलाना ही योगियों की तपस्या हो गयी है। योगी खुद दिल्ली पहुंच जाते हैं,अपने चेले-चेलियों के साथ। मामला भ्रष्टाचार का जो ठहरा। और ये जनम-जनम के भ्रष्टाचार उखाड़ू।

पुराने ज़माने की कहानियों में राक्षस के प्राण पिंजरे में कैद किसी तोतो में हुआ करते थे। राक्षस को मारना असंभव होता था। फिर कोई बुढ़िया राजकुमार या राजकुमारी को पिंजरे के तोते का भेद बताती थी। भटकता हुए राजकुमार या राजकुमारी पिंजरे तक पहुंचते थे और राक्षस की गर्दन मरोड़ देते थे। लगता है इन भ्रष्टाचारहटाओ नस्ल के उस्तादों को भी पता लग गया है कि सरकार के प्राण भ्रष्टाचार के तोते में ही बसते हैं। वे जान गए हैं कि भ्रष्टाचार के बिना सरकार तो बिना स्क्रीन का कंप्यूटर होती है। वे सरकार को धमकी देते हैं। मरोड़ूं तेरी गर्दन। हटाऊं भ्रष्टाचार। इधर धमकी दी करि उधर सरकार कदमों में गिरकर गिड़गिड़ाने लगती है-मेरी जान बख्श दो मेरे आका। बदले में जो चाहो ले लो। शास्त्रों में लिखा है कि ऐसे भावुक मौके पर अच्छी डील हो जाती है। सौ-सौ के नोट लेकर चुंगी से ट्रकों को छोड़ता नाकेदार, रिश्वत लेकर चोर को छोड़ता थानेदार,टेबिल के नीचे से नोट लेकर फाइल आगे बढ़ाता बाबू,दूध में पानी मिलाता दूधिया,सीमेंट में रेत मिलाता ठेकेदार अर्थात् भारत देश के नाना प्रकार के श्रेष्ठ आर्यजन कोरस में गा रहे हैं- स्वामीजी आएंगे…भ्रष्टाचार मिटाएंगे। ईमानदारी का हाथ…अन्ना के साथ। बाबा भ्रष्टाचारियों को फांसी देने की जिद पर अड़ गए हैं। सरकार की तो जान के लाले पड़ गए हैं। सरकार सोच रही है कि कहीं उसने सीरियसली भ्रष्टाचारियों को फांसी पर लटकाने का उत्सव शुरू कर दिया तो देश में शेष-विशेष कितने ग्राम लोग बच पांएगे। इघर बाबा भी सोच-सोचकर तनाव में है कि सरकार कहीं उनके मज़ाक को गंभीरता से न ले बैठे। और कहीं खेल-खेल में बाजी अन्ना लोकपाली के हाथ न आ जाए। बाबा की भूख-प्यास गायब है। वे अनचाहे ही अनशन की चपेट में हैं। भ्रष्टाचार हटाओं स्थल से लौटे कई लोगों की जेबें साफ हो गईं हैं। वे भुनभुनाते हुए गुनगुना रहे हैं- हो रामा…भ्रष्टाचार ने बड़ौ दुख दीनौ..।

मैने खुद सा दुनिया मे बेवफा नही देखा

1. मैने खुद सा दुनिया मे बेवफा नही देखा

मैने खुद सा दुनिया मे बेवफा नही देखा

फिर भी उस के होठो पर कुछ गिला नही देखा

चॉद चख्रर्र से आकर कह गया है कानो मै

लाख चेहरे देखे हे आप सा नही देखा

आओ मेरी ऑखो मे देख कर सॅवर जाओ

आज लग रहा तुमने आईना नही देखा

एक चॉद बदली मै एक रु ब रु मेरे

ऐसी रात का मन्जर दिलरुबा नही देखा

सिर्फ उस की ऑखो से मयकशी का आदी हॅू

मैने आज तक लोगो मयकदा नही देखा

उस की मेरी उल्फत भी एतकाफ जैसी है

आज तक किसी ने भी नक्श ऐ पा नही देखा

जिसने प्यार मे ‘शादाब’ जिन्दगी गुजारी हो

मेने आज तक ऐसा दिलजला नही देखा

 

2 ऐसे कपडो का अब तो चलन हो गया

ऐसे कपडो का अब तो चलन हो गया

जैसे शीश् मै रक्खा बदन हो गया 

अब ना सीता मिलेगी ना राधा यहा

थोडा थोडा सा पेरिस वतन हो गया

कैसे बच्चे शराफत से पालूगा मै

गुण्डा गर्दी का अब तो चलन हो गया

रो के सो जाये मॉ बाप भूखे मेरे

मै तो बच्चो मो अपने मगन हो गया

घर मेो बेटी सियानी मेरे हो गई

सोच कर बू मेरा बदन हो गया

बेच कर मैने इमा तरक्की तो की

मेरी नजरो में मेरा पतन हो गया

लोग ‘शादाब॔ होगे कहा से भला

जान सस्ती हे महंगा कफन हो गया

 

3. कहूगा रात को सुबहा गजल सूना दूगां

कहूगा रात को सुबहा गजल सूना दूगां

मै दिल का हाल उसे इस तरहा बता दूगां

सुकून दिन को मिलेगा ना रात मै उस को

मै दिल चुराने की ऐसी उसे सजा दूगां

मिसाल देगा जमाना मेरी मोहब्बत की

मै अपने प्यार को वो मर्तबा दिला दूगां

नजर बचा के जमाने से तुम चली आना

मै कर के याद तुम्हे हिचकिया दिला दूगां

वो मेरे सामने आयेगी जब दुल्हन बनकर

नजर का टीका उसे चूम कर लगा दूगां

वो मुझ को देख के “शादाब’’ मुस्कुरा देगे

मै उस को देख के एक कहकहा लगा दूगां

तृणमूल कांग्रेस ने अधिक वोट हस्‍तगत किए, वामपंथ पराजित नहीं हुआ

वीरेन्द्र जैन

प्रवक्ता की यह परिचर्चा अच्छी और जरूरी है बशर्ते कि पूर्वाग्रह से मुक्त हो और ऐसी कतर ब्योंत न की जाये जिससे कि मंतव्य ही बदल जाये ।

पहली बात तो यह कि परिचर्चा के जो आधार दिये गये हैं वे अधूरे हैं और सत्य का एक पक्ष देखते हुए लगते हैं। सबसे पहली बात तो यह कि वामपंथी दलों और उनकी सरकारों को उन्हीं पैमानों से नहीं तौला जा सकता है जिनसे कि गैर वामपंथी दलों व सरकारों को उनके कार्य परिणामों से तौला जा सकता है क्योंकि वामपंथी दल व्यवस्था परिवर्तन के लिए गठित दल हैं जबकि गैर वामपंथी दल इसी व्यवस्था में केवल सरकारें बदलने के लिए काम करते हुए चुनावी दल होकर रह गये हैं। गैरवामपंथी दल चुनाव लड़ने, सरकारों में घुसने और उन से दलीय या व्यक्तिगत लाभ कमाने के लिए कार्यरत होते हैं जबकि वामपंथी दलों में से दो तीन दल ही घोषित नीति के अंतर्गत चुनाव लड़ते हैं ताकि अपने जनसमर्थन से इस लोकतंत्रातिक व्यवस्था में भी हस्तक्षेप कर उसकी सीमाओं को सामने ला सकें और सत्ताओं के दमनकारी दस्तों से होने वाले हमलों को किसी हद तक कम कर सकें।

• वामपंथी दलों के केन्द्र में ही नहीं, अपितु कुल स्थान का एक बड़ा हिस्सा सीपीएम का है इसलिए उसको केन्द्र में रखकर ही बात करें तो वे एक कैडर आधारित दल हैं। उनमें कभी भी कहीं से भी आने वाले किसी भी व्यक्ति को सदस्यता नहीं दे दी जाती अपितु उम्मीदवार सदस्य बनाने के बाद, निरीक्षण, परीक्षण और प्रशिक्षण के बाद ही सदस्यता दी जाती है। उनके प्रत्येक सदस्य को अपनी आय के अनुसार तयशुदा दर से पार्टी को लेवी देना होती है।

• चुनाव जीतने के लिए वे कोई सैद्धांतिक समझौते नहीं करते न ही कहीं से भी आये दलबदलू या अन्य कारणों से लोकप्रिय व्यक्तियों को टिकिट देकर अपनी सीटें बढाने में भरोसा करते हैं। उनके उम्मीदवारों में पूर्व राजा रानी, फिल्मी और टीवी के सितारे, खिलाड़ी, धार्मिक वेशभूषाधारी या अन्य किसी कारण से लोकप्रिय व्यक्ति नहीं होते बशर्ते कि वे पूर्व से विधिवत किसी भी अन्य सदस्य की तरह पार्टी के अनुशासित और जन प्रतिनिधित्व के योग्य सदस्य नहीं होते।

• उनके चुने गये सदस्यों ने न तो स्वार्थ प्रेरित होकर कभी दलबदल किया, न पार्टी की नीति के खिलाफ मतदान ही किया। अपनी नीतियों के व्यापक हित में जब भी उन्हें किसी जनवादी मोर्चे में सम्म्लित होना पड़ा या किसी गठबन्धन को समर्थन देना पड़ा तो उन्होंने सबसे पहले न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाया और समर्थन देकर भी ऐसी किसी भी सरकार में सम्मिलित नहीं हुये जहाँ पर उनके कार्यक्रम को पूरी तरह से लागू कराने लायक उनका बहुमत न हो।

• गैरवामपंथी दलों की तरह उनके यहाँ टिकिट पाने के लिए जूतम पैजार नहीं होती, क्योंकि वहाँ व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ता अपितु पार्टी लड़ती है व पार्टी ही प्रतिनिधित्व करती है। किसी भी जनप्रतिनिधि को मिलने वाले वेतन भत्ते समेत अन्य सुविधाएं भी पार्टी के विवेकानुसार ही उपयोग की जाती हैं। वामपंथी दलों का कोई भी जनप्रतिनिधि न तो सवाल पूछने के लिए धन लेने, सांसद निधि बेचने या कबूतरबाजी के लिए जाना गया है जबकि गैर वामपंथी दलों में से कोई भी दल इन बीमारियों से अछूता नहीं है। यह एक निर्विवाद अनुभव है कि दूसरे सारे राजनीतिक दलों की तुलना में वामपंथी दल के सदस्य और जनप्रतिनिधि ईमानदार, और सादगी से रहने वाले लोग हैं, जबकि उनकी औसत प्रतिभा गैरवामपंथी दलों से कई गुना अधिक होती है। देश में जितने भी समाज हितैषी फैसले हुये हैं उनके मूल में वामपंथी दल ही रहे हैं।

ये कुछ बहुत ही संक्षिप्त उदाहरण हैं जो वामपंथी दलों को दूसरे दलों से अलग करते हैं। यदि वामपंथी भी वही सब कुछ करते जो भाजपा, कांग्रेस, डीएमके, एआईडीएमके, समाजवादी, राजद, बसपा, आदि आदि करते हैं तो क्या आज उनकी संसदीय आँकड़ागत स्तिथि कुछ भिन्न न रही होती! क्या वे कम से कम केन्द्र की पाँच सरकारों में सम्मलित नहीं रहे होते या ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनवाकर कम से कम साल छह महीने केन्द्र में शासन करने का सुख नहीं उठाया होता। अगर वे भाजपा की तरह होते तो उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, तामिलनाडु. महाराष्ट्र की सरकारों को समर्थन देते हुए उन सरकारों में सम्मलित हो गये होते। यदि उनकी सिद्धांत वादिता और कुशल नीतिगत फैसले नहीं हुये होते तो भाजपा वीपीसिंह की सरकार में सम्मलित होकर पूरे कांग्रेस विरोध को हजम कर गयी होती। यदि न्यूक्लियर समझौते पर लोकसभा में हुयी बहस के दौरान एन मौके पर मुलायम-अमर जोड़ी ने धोखा न दिया होता, या सोमनाथ चटर्जी ने लोकसभा अध्यक्ष के पद से त्यागपत्र दे दिया होता तो परमाणु विधेयक गिरने के बाद यूपीए सरकार कहाँ होती! कुल मिला कर ये समझना जरूरी है कि वामपंथी दलों को उसी चाबुक से नहीं हाँका जा सकता। वामपंथी दल समता मूलक समाज की स्थापना और शोषण की व्यवस्था को निर्मूल करने के लिए गठित हुये हैं और तब तक प्रासंगिक बने रहेंगे जब तक कि ये लक्ष्य समाज को प्राप्त नहीं हो जाते। बंगाल और केरल जैसे राज्यों की जनता इन्हीं लक्ष्यों को पाने के लिए वोट करती है भले ही प्रचार से प्रभावित हो वह किसी भी पार्टी के पक्ष में वोट करे। जब तक ऐसा होता रहेगा जीत वामपंथ की ही मानी जायेगी। इस बार वामपंथ का मुखौटा लगाये नक्सलियों को साथ लेकर ममता बनर्जी यह भ्रम पैदा करने में सफल रही हैं।

और आँकड़े………….बड़े जोर शोर से यह प्रचारित किया जा रहा है बंगाल में वामपंथी किला ढह गया और वामपंथियों को धूल चटा दी गयी उनका सूफड़ा साफ कर दिया गया। असल में यह रिपोर्टिंग, पत्रकारिता और विश्लेषण का हिस्सा नहीं है अपितु मीडिया व्यापारियों के चापलूस पत्रकारों की लालच प्रेरित नफरत बोल रही है जबकि सच यह है वामपंथियों को-

• इन विधानसभा चुनावों में 2009 के लोकसभा चुनाव में मिले वोटों से ग्यारह लाख वोट ज्यादा मिले, ये ज्यादा वोट मिलना क्या समर्थन घटने की निशानी है या समर्थन बढने की निशानी है? उन्हें पिछले 42% वोटों की तुलना में 41% वोट मिले जब कि कुल वोटिंग का प्रतिशत काफी बढ गया। यह भी सही है मोर्चा बना के लड़ने के कारण तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के गठबन्धन को 34 लाख वोट अधिक मिले।

• 2006 के विधानसभा चुनावों में वामपथियों को एक करोड़ अनठानवे लाख वोट मिले थे और उन्हें 234 सीटें मिल गयी थीं पर इस बार एक करोड़ छियानवे लाख वोट पाकर भी उन्हें कुल 61 सीटें मिलीं। कल्पना करें कि यदि हमारे यहाँ आनुपातिक प्रणाली होती तो सीटों का अनुपात क्या होता। क्या तब भी ये पत्रकार ऐसी ही टिप्पणी कर रहे होते? बहरहाल एक करोड़ छियानवे लाख किसी भी दूसरे राज्य में पराजित होने वाले गठबन्धन की झोली में नहीं हैं, जबकि वामपंथ को मिलने वाला वोट सारे लालचों को ठुकरा और सारे भ्रमों को नकार के दिया हुआ वोट होने के कारण अधिक आदर्श वोट होता है, क्योंकि वामपंथियों पर उनके बड़े से बड़े विरोधी ने भी कभी यह आरोप नहीं लगाया कि वे वोट के लिए नोट या दूसरी वस्तुएं बाँटते हैं। वे कभी पेड न्यूज छपवाने के दोषी नहीं रहे जबकि उन्हें अपने विरोधियों द्वारा अपनायी गयी समस्त चुनावी चालबाजियों का नुकसान उठाना पड़ता है।

• केरल का आँकड़ागत सच तो बड़े से बड़ा झूठा मीडिया भी छुपा नहीं पा रहा जहाँ वामपंथ की साठ सीटों के मुकाबले कांग्रेस ने 38 व बीस सीटें मुस्लिम लीग और दस सीटें ईसाइयों के केरल कांग्रेस ने जीती हैं, किंतु तामिलनाडु की 19 सीटों पर वामपंथियों को मिली विजय को वामपंथ की पराजय लिखने वाले गोल किये जा रहे हैं।

यद्यपि यह सच है कि दो राज्यों में गैरवामपंथी दलों के गठबन्धनों ने अधिक सीटें जीत कर वामपंथियों को सरकार से बाहर कर दिया है किंतु जिस विकल्प ने उनका स्थान लिया है वह सैद्धांतिक रूप से घोषणा पत्रों और कार्यक्रमों सहित अपने वचनों को ईमानदारी से पालन करने में वामपंथियों से बेहतर नहीं हैं। जिस तरह किसी वकील के लुट पिट जाने से उसकी प्रोफेशनल क्षमताओं पर सन्देह नहीं किया जा सकता, उसी तरह चुनाव में विरोधियों द्वारा अधिक वोट हस्तगत कर लिए जाने से वामपंथ का विचार और संगठन पराजित नहीं हो जाता। वामपंथ का विचार पराजित नहीं हुआ है, बदली परिस्तिथियों में उन्हें नई रणनीति बनानी होगी। उनके स्वर में न तो पराजय का भाव है न चिंता का क्योंकि चुनावों का महत्व उनके लिए सीमित है।

• परिचर्चा के बिन्दुओं में कहा गया है कि ‘वामपंथियों ने पश्चिम बंगाल में कृषि सुधार, भूमि सुधार, सांप्रदायिक दंगा मुक्‍त राज्‍य के बूते 34 साल तक राज किया। लेकिन उनके शासन में राज्‍य में उद्योग व्‍यवस्‍था चौपट हो गई, कानून व्‍यवस्‍था ध्‍वस्‍त हो गया, राजनीतिक हिंसा और गुंडागर्दी चरम पर रही।‘ तो क्या नन्दीग्राम और सिंगूर उद्योग व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने के प्रयास नहीं थे? यदि राजनीतिक हिंसा और गुंडागर्दी चरम पर रही तो किसके द्वारा रही और सबसे अधिक कार्यकर्ता किसके मारे गये? अभी भी सबसे अधिक गम्भीर आरोपी उम्मीदवार और विधायक किस के पास हैं [एडीआर की रिपोर्ट देखें]

• ममता ने जो करिश्मा कर दिखाया वह कांग्रेस द्वारा समर्पण कर देने और गठबन्धन कर लेने के कारण हुआ। ममता को छोड़ कर दलीय स्तर पर कौन सा गठबन्धन सादगी पूर्ण है? सबसे अधिक करोड़पति किस गठबन्धन के पास हैं? [एडीआर की रिपोर्ट देखें]

• सिंगूर और नन्दीग्राम वामपंथी सरकार द्वारा संवाद की कमी को दर्शाता है जिसकी उन्हें भूल से ज्यादा सजा मिली है।

मैं समझता हूं कि वामपंथियों की गलतियां निम्नांकित रहीं-

• केरल में वामपंथी सरकार के रहते मुस्लिम और ईसाइयों के दल अधिक मजबूत कैसे हो गये? साम्प्रदायिक सद्भाव की चिंता और अल्पसंख्यकों की रक्षा में उन्होंने इनके तत्ववादियों को मजबूत हो जाने दिया। साथ ही वहाँ संघ भी कमजोर नहीं हुआ।

• जब उन्होंने न्यूक्लियर समझौते के विरोध में यूपीए की सरकार से समर्थन वापिस ले लिया था तो यह मानकर ही चलना चाहिए था कि अमरीका अपना खेल खेलेगा। मल्टी नैशनल कम्पनियों के मँहगे विज्ञापन कुछ खास अखबारों को खास शर्तों पर मिलते हैं जो परोक्ष में पेड न्यूज की भूमिका निभाते हैं, उसकी काट की कोई तैयारी नहीं की। अभी भी उनके पास मीडिया की कोई खास नीति नहीं है और उनकी प्रैस कांफ्रेंस के बाद सम्वाददाता के पास केवल बयान भर रहता है जबकि…………।

• पश्चिमी देशों की मन्दी के दौर में सबसे अधिक बिकने वाली पुस्तकों में मार्क्स की दास कैपिटल भी सम्मलित थी। मार्क्सवाद के बारे में इतनी टिप्पणी काफी है वैसे एक वैज्ञानिक विचारधारा होने के नाते उसे पसन्द करने वालों को उचित परिवर्तन और संशोधनों में कोई आपत्ति नहीं होगी बशर्ते वे विरोध की जगह विमर्श की तरह दिये गये हों और उन पर पूरी बहस हो।