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लड़कियां महान बलवती हैं, फिर सामाजिक अबला क्यों?

बदलते सामाजिक परिवेश में लड़कियों की भूमिका अपने आप में बहुत सालों से एक चर्चा का विषय रहा है। चूंकि ऐसा कहा एवं माना जाता है कि भारत पुरुष प्रधान देश है। इस कथन की सार्थकता कितनी है यह आकलन करना आसान नहीं है परन्तु इसके सार्थकता से नकारा भी नहीं जा सकता है। तमाम ऐतिहासिक परिवर्तनों ने आज समाज के प्रबुद्ध तबके को यह सोचने पर विवश कर दिया है कि आज के वर्त्तमान परिवेश में एक लड़की की भूमिकाएं क्या-क्या है? यह ज्वलंत प्रश्न है कि आज एक लड़की कि इच्छाशक्ति की सीमाएं क्या हो सकती हैं? एक लड़की की कार्य कुशलता के मानक कौन कौन से हो सकते हैं? प्राचीन काल के इस “अबला” शब्द में किस बदलाव की संभावनाओं को देखा जा रहा है या आधुनिक लड़कियां किन किन पुराने सामाजिक मानकों को ध्वस्त कर नए आयाम गढ़ने में लगी हैं? उपरोक्त सभी सवालों का जवाब देना इतना आसान नहीं प्रतीत होता है परन्तु यह तथ्य विचारणीय अवश्य है। अगर १८ वी एवं १९वी शताब्दी के कुछ दशकों की बात करें तो लड़की शब्द के इतने वृहद् मायने नहीं थे जितने आज के समय में हैं। तत्कालीन दौर में लड़की महज़ एक सामाजिक साधन की तरह थी और पुरुष का प्रभुत्व साधक की तरह था। लड़कियों ने समाज के एक ख़ास तबके के समक्ष अनेकों बार घुटने भी टेके हैं। परन्तु यह कहा जाता है कि कोई भी सामाजिक धारा चिरकालीन तो हो सकती है परन्तु अनंत कालीन नहीं। धीरे-धीरे समाज के शोषित वर्ग ने सुसुप्त सामाजिक क्रांति को जन्म दिया और १९वी शताब्दी के अंतिम दशकों में अपने पाँव फैलाने शुरू किये। आज के आधुनिक दौर में चाहें अधौगिक क्षेत्र हो या शैक्षिक क्षेत्र हो , मीडिया हो या कोई और गैर सरकारी संगठन, इन सबमें लड़कियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती जा रही है। शायद शत प्रतिशत तो नहीं परन्तु काफी हद तक समाज ने स्वीकार कर लिया है कि कार्य कुशलता एवं कार्यक्षमता को मापने के लिए पुरुष एवं महिला, लड़का एवं लड़की जैसे को मानक नहीं हो सकते। किसी कार्य को करने एवं जीवन जीने कि इच्छाशक्ति दोनों में सामान भी हो सकती है। शिक्षा का स्तर लड़कियों में भी सर्वोत्तम हो सकता है।

परन्तु केवल यह कह देना काफी नहीं है कि लडकियाँ हर काम कर सकती हैं या वो हर भूमिका निभा सकती हैं जो सामाजिक अपेक्षाओं एवं विकास के लिए आवश्यक होता है। बहस का मुद्दा यहाँ यह भी है कि तमाम उदाहरणों के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में यह मानसिकता विकसित क्यों नहीं हो रही है? आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में तमाम परिवार ऐसे मिल जाएंगे जो लड़कियों की उच्च शिक्षा के खिलाफ हैं। तमाम लोग ऐसे भी मिलेंगे जो अपने घर की लड़कियों को निजी संस्थानों में नौकरी नहीं करने देते हैं। मेरा मानना है कि लड़कियों कि सोच एवं कार्य क्षमता की तुलना में उनका विकास स्तर काफी निम्न है। आज सामाजिक अन्धप्रवृतियों या पूर्वनियोजितधाराओं के चलते लडकियाँ अपनी सम्पूर्ण इच्छाशक्ति का इस्तेमाल भी नहीं कर सकती हैं। आज की लड़की में निजीस्तर पर हर क्षेत्र में आयाम स्थापित करने की कला है, कार्यक्षमता है, आत्मविश्वास है, बुद्धिलब्धि है, जीवन शैली है परन्तु सामाजिक स्तर पर आज भी लड़की की स्थिति अबला या इस शब्द के इर्द गिर्द ही है। लड़की खुद को कभी अबला नहीं मानती , वह तो महान बलवती है परन्तु लड़की के जो समाजिक उत्तरदायित्व हैं वो उसे अबला बना कर रखता है। नितान्त अकेले में अगर वह निश्चेष्ट शैल की भाति है तो समाज में पिघलते हुए हिम की तरह। अगर वो अकेली खड़ी हो तो सारी दुनिया से लड़ सकती है परन्तु जब समाज के साथ कतार में खड़ी है तो उसे चुप ही रहने को कहा जाता है। जब तक खुद को समाजिक दायित्वों के प्रति पूर्णतया समर्पित करती रहेगी समाज उसे अबला कहता

महिला आरक्षण का राजनीतिक महाख्यान

सन् 1970 के बाद तेजी से स्त्रीवादी आन्दोलन का विकास होता है और इसी दौर में मार्क्सवादी स्त्रीवादी सैद्धान्तिकी ने यह माना कि स्त्री के संदर्भ में मार्क्सवादी नजरिए में कुछ कमियां रही हैं। स्त्रीवादी मार्क्सवादी विचारकों ने पहलीबार घरेलू श्रम को श्रम माना। घरेलू श्रम के कारण स्त्री के होने वाले शोषण पर रोशनी डाली गयी। भारत में कुछ विश्वविद्यालय हैं जहां मार्क्सवादी अर्थशास्त्री पढ़ाते हैं। ये लोग निरंतर अर्थशास्त्र के मसलों पर लिखते रहते हैं। इनके लेखन का मुख्य क्षेत्र है अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंध और उससे जुड़ी समस्याएं। इन लोगों ने कभी महिला के आर्थिक सवालों पर विचार नहीं किया। भारत में स्त्रीवादी विचारकों ने आरंभ में स्त्री के जबरिया श्रम का दस्तावेजीकरण किया। इसके बाद ऐतिहासिक नजरिए से क्षेत्र विशेष में सेंनसस औए गजट आदि के आंकड़ों के आधार पर स्त्री का मूल्यांकन किया गया। औरतों की शिरकत में आयी गिरावट को तकनीकी परिवर्तनों के साथ जोड़कर देखा गया। इसके कारण औरतों के काम के क्षेत्रों के खत्म हो जाने को रेखांकित किया गया। खासकर खनन, कपड़ा आदि क्षेत्रों में औरत के काम के अवसर खत्म हो जाने की ओर ध्यान खींचा गया। इसके अलावा 1974 में पहलीबार महिलाओं की अवस्था पर जो राष्ट्रीय रिपोर्ट आयी उसमें स्त्री की गिरती हुई अवस्था पर गहरी चिन्ता व्यक्त की गई। साथ ही परंपरागत अर्थव्यवस्था में औरत के स्पेस के सवाल पर पहलीबार गंभीरता से विचार किया गया।

इसी रिपोर्ट में पहलीबार यह दरशाया गया कि औरतें घर में क्या-क्या काम करती हैं। इसके आंकड़े पहलीबार सामने आए। ये आंकड़े अर्थषास्त्र का हिस्सा बने, इस प्रकार स्त्री का श्रम पहलीबार अर्थषास्त्र में दाखिल हुआ। बाद में स्त्री के किन कार्यों में पगार कम मिलती है, सेंसस में औरतों के आंकड़े किस तरह मेनीपुलेट किए जाते रहे हैं, कृषि क्षेत्र में औरतों के श्रम से जुड़ी समस्याएं क्या हैं, मानव विकास जेण्डर डवलपमेंट इण्डेक्स की महत्ता, भूमंडलीकरण और नव्य उदारतावादी आर्थिक नीतियों के औरतों पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में अध्ययन हुए हैं।

सन् 1996 में पहलीबार महिला आरक्षण विधेयक पेश किया गया था। तबसे लोकसभा -में मांग उठती रही है। पंचायतों में 33 फीसदी आरक्षण लागू हो चुका है। हाल ही में केन्द्रीय मंत्रीमंडल ने इसे स्वीकृति दे दी है और उम्मीद की जा रही है कि 8मार्च 2010 को इसे संसद से स्वीकृति मिल जाएगी। इस समय कांग्रेस, भाजपा, वाम, टीडीपी, बीजू जनतादल वगैरह का इस विधेयक को समर्थन मिल चुका है। सपा, बसपा, जद आदि विरोध कर रहे हैं।

इस प्रक्रिया का सर्वसम्मत परिणाम है महिला की राजनीतिक केटेगरी के रूप में स्वीकृति। यह इस बात का संकेत है कि समाज में औरतें आज भी काफी पीछे हैं। उन्हें अभी तक समाज में बराबरी का दर्जा नहीं मिला है। जेण्डर की केटेगरी के राजनीतिक क्षेत्र में प्रयोग के बारे में ऐतिहासिक तौर पर विचार करें तो पाएंगे कि स्त्री को राजनीतिक केटेगरी के रूप में गांधीजी के प्रथम असहयोग आन्दोलन में पहलीबार स्वीकार किया गया।

बाद में दूसरीबार 90 के दशक में राजनीतिक केटेगरी के रूप में स्वीकार किया गया। इसके अलावा सब समय स्त्री की उपेक्षा हुई है उसे राजनीतिक केटेगरी के रूप में देखने से हम इंकार करते रहे हैं।

सारी दुनिया के जितने भी जनतांत्रिक देश हैं वे महिलाओं को मतदान का अधिकार देने के पक्ष में नहीं थे। उदारवादी पूंजीवादी नजरिया यह मानता रहा है कि समाज, राजनीति, संस्कृति, तर्क, न्याय, दर्शन, पावर, स्वाधीनता आदि मर्द के क्षेत्र हैं। स्त्री और पुरूष दोनों अलग हैं। इनमें वायनरी अपोजीशन है। औरत की जगह प्राइवेट क्षेत्र में है। उसका स्थान निजी, व्यक्तिगत, प्रकृति, भावना, प्रेम,नैतिकता, इलहाम आदि में हैं। खासकर समर्पण में उसकी जगह है। यहां तक कि स्पेयर्स की सैद्धान्तिकी स्त्री को नागरिकता से वचित करती है। इस सवाल पर औरतों ने 18वीं शताब्दी से लेकर आज तक लम्बी लड़ाईयां लड़ी हैं जिनके परिणामस्वरूप स्त्रियों को बीसवीं के आरंभ में खासकर प्रथम विश्व युध्द की समाप्ति के बाद मतदान का अधिकार मिला। इन संघर्षों का विभिन्न देशों पर अलग-अलग असर हुआ।

सन् 1917 में वूमेन्स इण्डियन एसोसिएशन की ओर से सरोजिनी नायडू के नेतृत्व एक प्रतिनिधिमंडल मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड कमेटी से मिलने गया। जिसमें अन्य मांगों के अलावा यह मांग रखी गयी कि औरतों को मर्दों की तरह ही मतदान का अधिकार दिया जाए। इसमें शिक्षा और संपत्ति की शर्त्त लगी हुई थी। उल्लेखनीय है कि स्त्री के लिए सामाजिक क्षेत्र मे अपने लिए जगह बनाने का सवाल लम्बे समय से विवाद के केन्द्र में रहा है। सार्वजनिक स्थान और प्राइवेट स्थान के रूप में लंबे समय से स्त्री-पुरूष के बीच में विभाजन चला आ रहा है। इसे स्वाधीनता संग्राम के दौरान स्त्रियों ने चुनौती दी।

भारतीय समाज में स्त्री को हमेशा सम्पूरक के रूप में देखा गया। उसके स्वतंत्र अस्तित्व को कभी स्वीकृति नहीं दी गयी। इसके खिलाफ स्वाधीनता संग्राम के दौरान भारतीय औरतों ने जमकर संघर्ष किया। बंगाल के स्वदेशी अंदोलन में सक्रिय सरलादेवी चौधरानी ने सन् 1918 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए कहा कि पुरूष-स्त्री के बीच बुद्धि और भावनाओं के आधार पर काल्पनिक विभाजन किया हुआ है।

स्त्री के सामाजिक जगत में पुरूष के साथ कामरेडशिप भी आती है जो उसके जीवन के सुख-दुख में शामिल होने से पैदा होती है। साथ ही राजनीति और अन्य क्षेत्र में सहकर्मी होने के कारण कामरेडशिप पैदा होती है। स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वली औरतें सोचती थीं कि राजनीति सिर्फ मर्दों का ही क्षेत्र नहीं है बल्कि इसमें औरतों की भी हिस्सेदारी होनी चाहिए। औरतें मांग कर रही थीं कि उन्हें मतदान का अधिकार दिया जाए और महिलाओं को चुनने का अधिकार दया जाए। किन्तु ब्रिटिश शासकों ने इन दोनों मांगों के बारे में कोई निर्णय नहीं लिया और उसे प्रान्तीय परिषदों के ऊपर छोड़ दिया।

प्रान्तीय सरकारों को सन् 1919 के कानून के द्वारा यह अधिकार दिया गया कि वे चाहें तो इस संबंध में फैसले ले सकती हैं।

स्त्रियों को मतदान और औरतों को चुनने का अधिकार देने के मामले में औपनिवेषिक शासकों से ज्यादा उदार भारतीय लोग साबित हुए और सन् 1921 में बम्बई और मद्रास,सन् 1923 में संयुक्त प्रान्त,सन् 1926 में पंजाब और बंगाल और अन्त में सन् 1930 में असम, केन्द्रीय प्रान्तों, बिहार और उड़ीसा में स्त्रियों को मतदान का अधिकार प्रान्तीय सरकारों ने दे दिया । इसका अर्थ यह भी है कि भारत में औरतों को मतदान का अधिकार और महिला उम्मीदवारों को चुनने का अधिकार अंग्रेजों ने नहीं भारत की में साइमन कमीषन से शुरु होती है। विभिन्न सामाजिक समूहों जैसे मुसलमान, पिछड़े वर्ग और महिलाओं के लिए आरक्षण के सवाल पर गंभीर मंथन शुरू हुआ और ब्रिटिश सरकार इन समुदायों के आरक्षण के लिए राजी हो गयी। यह चरण 1935 में भारत सरकार के कानून पास किए जाने के साथ समाप्त होता है। इस कानून के मुताबिक पहलीबार इन समुदायों को आरक्षण मिलता है। पहलीबार महिलाओं के लिए अन्य 11 केटेगरी में बताए समूहों के साथ आरक्षित सीटें आवंटित की गईं। इस क्रम में ‘ महिला जनरल’ के तहत मुस्लिम महिला,हिन्दू महिला और एंग्लो-इंडियन महिला के रूप में वर्गीकरण किया गया। इस तरह का महिलाओं के लिए किया गया वर्गीकरण इस बात को दर्शाता है कि महिलाओं को एक समुदाय के रूप में राजनीतिक आरक्षण नहीं दिया गया। बल्कि धर्म के आधार पर आरक्षण दिया गया।

सन् 1930 के बाद के वर्षों में इण्डियन वूमेन ऑर्गनाइजेशन ने भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस के साथ मिलकर सार्वभौम वयस्क मताधिकार और चुनाव के अधिकार को लेकर आन्दोलन षुरू किया जिसकेकारण धीरे-धीरे स्त्री की राजनीतिक हिस्सेदारी का सवाल एकसिरे से गायब होता चला गया। इसके बाद जेण्डर की एक राजनीतिक केटेगरी के रूप में मौत हो गयी।

सन् 1930 में इण्डियन वूमेन ऑर्गनाइजेशन के अध्यक्ष का पदभार संभालते हुए सरोजिनी नायडू ने बम्बई में कहा कि औरतों के लिए विशेष अधिकार की मांग इस बात की स्वीकारोक्ति है कि औरतें इनफियर हैं। किंतु भारत में ऐसी कोई चीज नहीं है। महिलाएं हमेशा से कौंसिल और संघर्ष के मैदान में पुरुषों के साथ रही हैं। घर और बाहर दोनों में कोई झगड़ा नहीं रहा। हमें अपने मतभेदों का अतिक्रमण करना होगा। हमें राष्ट्रवाद, धर्म और सेक्स से ऊपर उठना चाहिए।

सन् 1935 से 1974 के बीच महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान का प्रस्ताव तीन बार खारिज हुआ। सन् 1939 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तहत नेशनल प्लानिंग कमेटी, जिसका गठन जवाहरलाल नेहरू और एस.सी.बोस ने किया था, इस कमेटी ने महिलाओं के लिए कोटा तय किए जाने वाले प्रस्ताव को एकसिरे से खारिज कर दिया। सन् 1950 में जब संविधान पास हुआ तब भी महिलाओं के लिए आरक्षण के सवाल को खारिज कर दिया गया।

इस संदर्भ में जनप्रिय तर्क यह था कि संविधान की नजर में स्त्री-पुरुष बराबर हैं,उनमें कोई भेद नहीं ह। इन दोनों के मूलभूत अधिकार एक हैं। अत: महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था करने की कोई जरूरत नहीं है।

किन्तु मजेदार बात यह है कि एससी,एसटी के लिए आरक्षण और आर्थिक तौर पर पिछडों के लिए विशेष परिस्थितियों में आरक्षण की बात को मान लिया गया। सन् 1953 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में राष्ट्रीय पिछडावर्ग आयोग का गठन किया गया। अपनी रिपोर्ट में काका कालेलकर ने लिखा कि भारत में औरतों की विलक्षण स्थिति है।हम हमेशा महसूस करते हैं कि वे भयानक सामाजिक अभावों में जीती हैं अत: उन्हें पिछडावर्ग का दर्जा दिया जाना चाहिए। चूंकि वे अलग से समुदाय के रूप में नहीं हैं अत: हम उन्हें पिछडावर्ग की केटेगरी में नहीं रख पा रहे हैं। उच्च मध्यवर्ग और मध्यवर्ग में उनकी स्थिति थोड़ी बेहतर है।इस वर्ग में वे एक आत्मनिर्भर वर्ग हैं।जबकि पिछड़े वर्ग की औरतों की अवस्था अभी भी बेहद खराब है। वे समाज को पुनर्रूज्जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। हम उनकी समस्याओं की अनदेखी नहीं कर सकते।

काका कालेलकर यह मानते थे कि महिला वर्ग है। किन्तु समुदाय नहीं हैं और मर्दों से अलग उनका कोई भविष्य नहीं है। तकरीबन इससे ही मिलते-जुलते विचार सन् 1974 में प्रकाशित कमेटी ‘ऑन स्टेटस ऑफ वूमेन इन इण्डिया’ के फॉरवर्ड में पेश किए गए। यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र संघ के महिला दशक (1975-1985) के आयोजनों के क्रम में

‘टुवर्डस इक्वलिटी’ के नाम से प्रकाशित हुई। इसमें स्त्री-पुरूष के बीच समानता की धारणा पर जोर दिया गया। इस रिपोर्ट ने आसानी से संविधान में वर्णित स्त्री-पुरूष की समानता और वास्तविक जिन्दगी के यथार्थ के बीच मौजूद अंतराल की अनदेखी की गई। और कहा गया कि महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण की कोई जरूरत नहीं है। रिपोर्ट में कहा गया कि महिला समुदाय नहीं है। वह केटेगरी है। औरतों के लिए अलग से चुनाव क्षेत्र बनाने से उसका दृष्टिकोण सीमित हो जाएगा। महिलाओं की व्यापक राजनीतिक हिस्सेदारी को सुनिश्चित बनाने की बजाय कमीशन ने महिला पंचायत के गठन का सुझाव दिया।पंचायतों में महिलाओं की हिस्सेदारी के बाद राजनीतिक दल अपने महिला प्रतिनिधित्व में निरंतर इजाफा करेंगे और कालान्तर में विधानसभाओं में महिलाओं के कुल जनसंख्या के अनुपात में स्थान तय किए जा सकते हैं।

बाद के वर्षों में महिला आन्दोलन के बढ़ते हुए प्रभाव ने यह स्थिति पैदा की कि राजीव गांधी सरकार ने ‘ टुवर्डस इक्वेलिटी’ के आंकड़ों को अपडेट करते हुए ” दि नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान फॉर वूमेन” सन् 1988 में जारी किया। इस प्लान में सिफारिश की गई कि चुनी हुई जगहों पर महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित की जाएं।यह कार्य गांव से लेकर केन्द्र के स्तर तक करना होगा।राजनीतिक दलों को महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बढ़ाने के लिए 33 फीसदी महिलाओं को चुनाव टिकट देने चाहिए। इन दो सिफारिशों का अर्थ था जेण्डर की राजनीतिक केटेगरी के रूप में सर्वस्वीकृति। 8मार्च 2010 को संसद इसके ही आधार पर 33 प्रतिशत महिला आरक्षण का विधेयक विचार करने जा रही है।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष/समाज और महिलाएं

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर सभी महिलाओं को हार्दिक शुभकामनाएं, लगातार कई सालों महिला दिवस हम मनाते आ रहे हैं लेकिन आज एक बार फिर हम महिलाओं के अस्तित्व को पहचानने की कोशिश करते हैं। क्या सिर्फ आज के ही दिन महिला सम्मान की बातें करने से महिला सम्मान की सुरक्षा हो जाती है। या ये सिर्फ एक ख़ाना पूर्ति ही है? जरूरत इस बातकी है कि महिलाएं ख़ुद अपने अस्तित्व को पहचाने।

नारी के विभिन्न स्वरूप

इस देश में नारी को श्रद्धा, देवी, अबला जैसे संबोधनों से संबोधित करने की पंरपरा अत्यंत प्राचीन है। नारी के साथ इस प्रकार के संबोधन या विशेषण जोडकर या तो उसे देवी मानकर पूजा जाता है या फिर अबला मानकर उसे सिर्फ भोग्या या विलास की वस्तु मानी जाती रही है। लेकिन इस बात को भुला दिया जाता है नारी एक रूप शक्ति का भी रूप है, जिसका स्मरण हम औपचारिकता वश कभी कभीही किया जाता रहाहै। नारी मातृ सत्ता का नाम है जो हमें जन्म देकर पालती पोसती और इस योग्य बनाती है कि हम जीवन मेंकुछ महत्तवपूर्ण कार्य कर सकें। फिर आज तो महिलाएं पुरूषों के समान अधिकार सक्षम होकर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी प्रतिभा औऱ कार्यक्षमता का लोहा मनवा रही है। नई और आधुनिक शिक्षा तथा देश की स्वतंत्रता में नारी को घर की चारदीवारी से बाहर निकलने का अवसर दिया है, जरूरत इस शिक्षा के व्यापक प्रचार प्रसार की है जिससे ग्रामीण इलाकों की महिलाएं भी लाभान्वित हो सकें साथ महिलाएं अपनों अधिकारों के प्रति ज्यादा से ज्यादा जागरूक हो सकें। प्राचीन काल से चली आ रही परपंराओं पर भी नज़र डाले तो ऐसा कोई भी युग नहीं है जिसके किसी भी कालखंड़ ये नहीं मिलेगा जहां नारी का किसी नव निर्माण में कोई सहयोग नहीं रहा हो, वैदिक युग की बात करें तो आर्यावर्त जैसे महान राष्ट्र के निर्माण की परिकल्पना में निश्चय ही गार्गी, मैत्रयी, अरूधंती जैसे महान् नारियों निश्चित ही योगदान रहा है। पौराणिक काल से चली आ रही ऐसी कई कथाएं हैं जिनमें नारियों की महानता की बातें हैं….महाराजा दशरथ के युद्ध के अवसर पर उनके सारथी का काम करने वाली कैकयी द्वारा रथ के पहिये के टूट जाने पर अपने हाथ को धुरी की जगह रखकर दशरथ को युद्ध जीताना क्या राष्ट्र रक्षा, सेवा और निर्माण नहीं है, मध्य काल में भी ऐसे कई उदाहरण हैं जिन्होंने इतिहास में अपनी उपस्थिति को दर्शाया है और हर प्रकार से अपने आप को राष्ट्र और मानवता के लिए अर्पित किया है। रजिया सुल्तान, चाँद बीबी, झांसीकी रानी, लक्ष्मीबाई, अहिल्या बाई, जैसे कई नामों से लेकर सरोजनीय नायडू, अरूणा आसफ अली, विजय लक्ष्मी, आजाद हिंद फौज में एक पूरी पलटन का नेतृत्व करने वाली लक्ष्मी तथा क्रांतिकारियों का सहयोग देने वाली नारियों की एक लंबी सूची हमारे सामने हैं जिन्होने देश निर्माण के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया।देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी,पहली महिला आई पी एस किरण बेदी और वर्तमान में पहली महिला राषट्रपति प्रतिभा पाटिल ऐसे तमात उदाहरण हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है किमहिलाओं ने हर दौर मे अपनी सशक्त उपस्थिचि दर्ज कराई है।

समाज का असली चेहरा और महिलाएं

ये तो वो उदाहरण हैं जिनसे इस बात का दावा पक्का हो जाता है कि महिलाओं ने समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है….पर क्या? महज़ ऊंगलियों में गिनी जाने वाली इन महिलाओं के बलबूते पर हम यह कह सकते हैं कि महिलाओं की समाज में उपस्थिति सशक्त हैं……शायद नहीं यह जबाब तो आप भी जानते हैं… आजादी के 60 साल बाद भी महिलाओं की स्थिति कोई ज्यादा सुधार नहीं हुआ है….छत्तरपुर में 4 दबंगो के द्वारा महिला को दिन दहाडे जिंदा जला दिया जाता है (TIME TODAY NEWS 04 FEB 2010) …..तो दूसरी तरफ सतना में मामा ही अपनी भांजी के लिए यमराज बन जाता है(TIME TODAY NEWS 06 FEB 2010)…..ये वो ताजा उदाहरण हैं जिन्होंने हमारी आंखों पर बंधी पट्टी को खोलने में मज़बूर कर दिया है ऐसे और भी ना जाने कितने ऐसे मामले हैं जो जिनके बारे हमें पता ही नहीं है….ये तो समाजिक हालात हैं लेकिन 21 वी सदी में भी अभी तक महिलाओं को ना तो आर्थिक आजादी मिलसकी और ना ही सामाजिक.. कभी एक बात आपने गौर की है कि बारह पंद्रह साल की किसी लडकी को घर से अकेले जाने में कई दफा सोचना पडता है कई बार तो उसके साथ आठ नौं साल के अबोध बच्चों के साथ उन्हें घर से जाने की इज़ाजत दी जाती है यह जानतेहुए भी रास्तें में होने वाली किसी घटना में वह मासूम चाह के भी कुछ नहीं कर पायेगा…..रही बात घर के भीतर की तो आज घरेलु महिलाओं को इस बात की इज़ाजत नहीं वे अपने मन से कुछ बना सके आज भी महिलाएं खाना बनाने से पहले यह पूछती हैं कि आज क्या बनना है क्या खाना चाहतेहैं घर के मुखिया…..महिला आरक्षण विधेयक आज भी लंबे समय से हाशिये पर पड़ा है.नारियों की सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता देखकर तो दुखद रूप से स्वीकार करना पडेगा कि देश का और कथित प्रगतिशील पुरूष समाज अभीतक नारी के प्रति अपना परंपरागत दृष्टिकोण पूर्णतया बदल नहीं पाया है अवसर पाकर उसकी कोमलता से अनुचित लाभ उठानेकी दिशा में सचेष्ट रहता है, आवश्यकता इस बात की है कि अपनी इस मानसिकता से छुटकारा पाकर वह नारी को निर्भय और मुक्त भाव से काम करने का अवसर प्रदान करें।

“नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में।

पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में।।“

-केशव आचार्य

अदालत का सामना करें ‘भगोड़े’ हुसैन: विहिप

विश्व हिन्दू परिषद ने कहा है कि हिंदू देवी-देवताओं के अश्लील चित्रकारी कर चर्चित हुए विवादित चित्रकार एम.एफ. हुसैन को अपने कुकृत्यों के कारण चल रहे मुकदमों का डटकर सामना करना चाहिए।

विहिप के राष्ट्रीय प्रवक्ता डा. सुरेन्द्र जैन ने शुक्रवार को संवाददाताओं को संबोधित करते हुए कहा कि हुसैन को भगोड़े अपराधियों की तरह भारत से भागने के बजाए, भारत में आकर न्यायपालिका का सामना करना चाहिए।

डा. जैन ने कहा कि कला के नाम पर भारत माता और हिंदू देवी-देवताओं के अश्लील चित्रण के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं, इसको हुसैन अपने समर्थकों से ज्यादा समझते हैं। इसलिये उनके समर्थन में चलाये जा रहे अभियानों से वे प्रभावित नहीं हो रहे।

इस बीच विहिप प्रवक्ता ने साफ कहा कि, ‘एम.एफ. हुसैन हिन्दूवादी संगठनों से डरकर नहीं अपितु अपने कुकृत्यों की वजह से चल रहे मुकदमों के संभावित परिणामों से डरकर भारत से भागे थे।’

उन्होंने कहा कि भारत माता का नंगा चित्र बनाते समय उन्हें अवश्य स्मरण रहा होगा कि उन्होंने मदर टेरेसा और फातिमा का चित्रण शालीनता के साथ किया था। उनका यह दोहरा मापदंड आंख पर पट्टी बांधने वाले समर्थकों को शायद नहीं दिखाई दे रहा है। डा. जैन ने कहा कि हुसैन का समर्थन करने वाले कलाकारों को बीबी फातिमा और मदर टेरेसा के अश्लील चित्र बनाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता की दुहाई देनी चाहिए।

विहिप प्रवक्ता ने कहा कि विश्व हिन्दू परिषद किसी भी व्यक्ति की आस्था का अपमान करने के पक्ष में नहीं है। इसीलिये जब बड़ोदरा के एक चित्रकार ने जीसस का अपमानजनक चित्र बनाया था तो हमने उसका विरोध किया था। परन्तु तस्लीमा नसरीन और एम.एफ. हुसैन के कृत्यों से भारत की सैक्युलर बिरादरी का दोगलापन स्पष्ट हो गया है। उन्होंने कहा कि जब पंजाब के किसी अखबार में जीसस का आपत्तिजनक चित्रण होता है, कर्नाटक में कोई मनगढ़ंत लेख छपता है या किसी स्वीडिश पत्रकार के चित्रों से अकारण हिंसा भड़कती है एवं तथा निर्दोष हिंदुओं के जानमाल पर हमला किया जाता है तो ये सेक्युलर बिरादरी गला फाड़कर आस्थाओं के सम्मान की बात करती है परन्तु कोई भी हिंसा की निंदा नहीं करता।

डा. जैन ने कहा कि एम.एफ. हुसैन को कतर ने अपनी नागरिकता हिन्दू धर्म के अपमान के कारण दी है न कि कला के सम्मान के लिए। विहिप प्रवक्ता ने कहा कि भारत का हिंदू समाज किसी भी प्रकार की आलोचना से डरने वाला नहीं है।

मीडिया में ‘साहित्य’ का बाजारीकरण

वर्षों से मीडिया में अपनी पैठ बना चुके साहित्य को भी पूंजीवादी संस्कृति ने नहीं बख्शा है। इसके झंझावाद में फंसे साहित्य की कसमसाहट भी सामने दिखती हैं। व्यवसायिक होती मीडिया ने खबरों को माल की तरह बेचना प्रारंभ कर दिया है। बदलते परिवेश में साहित्य के लिए मीडिया कोई जगह नहीं। आज मीडिया में ‘साहित्य’ का बाजारीकरण हो गया है।

प्रिंट हो या फिर इलैक्ट्रोनिक मीडिया, साहित्य का दायरा धीरे-धीरे सिमटता ही जा रहा है। पत्रकारिता के इतिहास पर नजर डालें तो साफ पता चलता है कि पहले अधिकांशत: साहित्यिक अभिरूचि वाले लोग ही पत्र-पत्रिकाओं का संपादन कार्य किया करते थे। यही नहीं, पत्र-पत्रिकाओं में साहित्य को खास अहमियत दी जाती रही थी। पत्रकारिता का जन्म साहित्यिक अभिरूचि का ही परिणाम है। इस बात को दरकिनार कर दिया गया।

हिन्दी पत्रकारिता के उदय काल में भी ऐसे कई पत्र थे, जिनमें राष्ट्रीय चेतना की उद्बुद्ध सामग्री होने के साथ-साथ साहित्यिक सामग्री प्रचुर मात्रा में रहा करती थी। ‘भारत मित्र’, ‘बंगवासी’, ‘मतवाला’, ‘सेनापति’, ‘स्वदेश’, ‘प्रताप’, ‘कर्मवीर’, ‘विश्वमित्र’, आदि कई पत्रों में साहित्य को खासा स्थान दिया जाता था। भारतेन्दु काल में ही हिन्दी साहित्य की आधुनिकीकरण की प्रकिया की शुरुआत हुई थी। इसी दौर में हिन्दी पत्रकारिता का विकास उत्तरोत्तर होता रहा। भारतेन्दु जी के संपादन में ‘कविवचन सुधा’, ‘हरिश्चन्द्रचन्द्रिका’, ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ और ‘बाला-बोधिनी’ में समसामयिक विषयों के अलावा साहित्य को खास महत्व दिया गया। भारतेन्दु युग में साहित्यिकारों ने पत्रकारिता के माध्यम से साहित्य को दिशा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। बालकृष्ण भट्ट ने ‘हिन्दी प्रदीप’ और प्रताप नारायण मिश्र ने ‘ब्राहम्ण’ पत्र निकाल कर कार्य को आगे बढ़ाया। वहीं द्विवेदी युग में ‘सरस्वती’ के बारे में कहा जाता है कि यह साहित्य और पत्रकारिता के एक पर्याय के रूप में सामने आया था। ‘सरस्वती’ ने साहित्य और पत्रकारिता के मानदंडों की जो पृष्ठभूमि बनायी, वह आज भी मिसाल है। ‘सरस्वती’ ने जो सिलसिला प्रारंभ किया था उसे और व्यापक बनाने में ‘माधुरी’, ‘सुधा’, ‘मतवाला’, ‘समन्वय’, ‘विशाल भारत’, ‘चांद’, ‘हंस’, आदि पत्रों ने कोई कसर नहीं छोड़ी।

आजादी के बाद भी कई ऐसे साहित्यकार सक्रिय रहे जिन्होंने साहित्य के साथ-साथ पत्रकारिता से जुड़ कर साहित्य के प्रचार प्रसार में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। ‘विशाल भारत’, ‘दिनमान’, ‘नवभारत टाइम्स’ से अज्ञेय जुड़े रहे, तो ‘धर्मयुग’ से धर्मवीर भारती और ‘सारिका’ से कमलेश्वर। हालांकि कमलेश्वर ‘श्रीवर्षा’ और ‘गंगा’ के भी संपादक रहे। राजेन्द्र यादव ‘हंस’, रघुवीर सहाय ‘दिनमान’, भैरव प्रसाद गुप्ता, भीष्म साहनी एवं अमृतराय ‘नयी कहानी’, शैलेश मटियानी ‘विकल्प’, महीप सिंह ‘संचेतना’, मनोहर श्याम जोशी ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ आदि कई चर्चित साहित्यकार हैं जिन्हें साहित्य के साथ-साथ पत्रकारिता के लिये भी जाना जाता है। उस दौर के सारे पत्र बडे पूंजीपति घरानों से ही संबध्द थे और आज भी हैं, लेकिन आज एक बड़ा बदलाव आ गया है ।

बढ़ते खबरिया चैनलों के बीच साहित्य को उतना स्थान नहीं मिल पा रहा है जो आकाशवाणी या दूरदर्शन पर मिलता रहा है। हालांकि इसमें भी गिरावट देखी जा रही हैं। आकाशवाणी से समय समय पर कई साहित्यिकार जुडे। भगवतीचरण वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, नरेंद्र शर्मा, फणीश्वर नाथ रेणु, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय आदि कई साहित्यकार हैं जो आकाशवाणी से जुड़े रहे। वहीं, दूरदर्शन पर भी साहित्य की विभिन्न विधाओं का नियमित प्रचार प्रसार होता रहा है। एक समय था जब दूरदर्शन पर भीष्म साहनी की ‘तमस’ को दिखाया गया, तो घर-घर में साहित्य की चर्चा होने लगी थी। कई चर्चित साहित्यकारों की कृतियों को लेकर धारावाहिक बनें। जिनमें प्रेमचंद की निर्मला, शरत चन्द्र का ‘श्रीकांत’, रेणु का ‘मैला आंचल’, विमल मित्र की ‘मुजरिम हाजिर हो’, श्रीलाल शुक्ल की ‘रागदरबारी’, आर.के.नारायणन का ‘मालगुडी डेज’ आदि काफी चर्चित रहा है। अब रियलीटी शो का जमाना है। सच के नाम पर, सनसनी के नाम,रोमांच पैदा करने के नाम पर आदि आदि …..।

खबर को मसालेदार बना कर बेचे जाने के बीच साहित्य नही के बराबर है। हर कोई मीडिया प्रेम को छोड़ नहीं पा रहा है। बाजारवाद की वजह से आम खास होते मीडिया की मोह-माया से साहित्य भी नहीं बच पाया है। साहित्य को आम खास तक पहुंचाने के लिए मीडिया का सहारा लेना पडता है। जाहिर है पत्र-पत्रिकाएं ही साहित्य को आम और खास लोगों तक पहुंचा सकती है। शायद ही कोई ऐसा पत्र हो जिसमें साहित्य किसी न किसी रूप में न छपता हो। इसके बावजूद मीडिया का रवैया साहित्य के साथ अच्छा नहीं प्रतीत होता है। तभी तो समाचार पत्रों के आकलन से साफ तौर पर पता चलता है कि अमूमन सभी अखबार साहित्य की दो से तीन प्रतिशत ही खबरें प्रकाशित करते हैं।

साहित्य, मीडिया में आज केवल ‘फिलर’ के रूप में दिखता है। खास तौर से प्रिंट मीडिया ने बाजारवाद और उपभोक्तावादी संस्कृति के बढ़ते प्रकोप में साहित्य को वस्तु के रूप में ही रखा है। वर्षो से सप्ताह में साहित्य को पूरा एक पेज देने वाले अखबार अब विज्ञापन को प्राथमिकता दे रहे हैं। विज्ञापन विभाग इतना हावी है कि साहित्य के बने पूरे पृष्ठ को अंतिम क्षण में बदलवा देता है।

मजेदार बात यह है कि यह सब कुछ खेल या फिर सिनेमा के नियमित फीचर पेज के साथ कतई नहीं होता है। और यह सब हर स्तर पर छपने वाले अखबारों के साथ होता है। अमूमन राष्ट्रीय और स्थानीय अखबार अपने फीचर पेज में साहित्य से संबंधित सामग्री छापते हैं। मासिक-साप्ताहिक व्यवसायिक पत्रिकाएं भी साहित्य को वैसे ही देख रहे हैं जैसे अखबार। इंडिया टुडे का साहित्यिक विशेषांक का लोगों को खासा इंतजार रहता था। वहीं पर कई राष्ट्रीय समाचार पत्रों का भी विशेषांक छपना लगभग बंद हो गया है। गिनी चुनी पत्र-पत्रिकाएं ही कभी-कभार साहित्यिक विशेषांक निकालते हैं।

पिछले कई वर्षो से अखबारों के चरित्र में व्यापक बदलाव हुआ है। किसी पत्र में रविवारीय परिशिष्ट को अत्यंत ही महत्वपूर्ण माना जाता है जिसमें हर विधा पर सामग्री होती है और उसमें साहित्य को खासा स्थान दिया जाता है। लेकिन आज उसमें भी ठहराव साफ दिखता है। रविवारीय परिशिष्ट आज भूत-प्रेत, रहस्य, अपराध और सिनेमा को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं। उसमें साहित्य को ढूंढ़ना पड़ता है। बाजार के मुताबिक फिल्म, सेहत, तंत्र-मंत्र, मनोंरजन, अपराध, भविष्यवाणी, और रेसिपी आदि के बढ़ते क्रेज के सामने साहित्य दबता जा रहा है। जहां थोडी सी जगह मिल भी जा रही है, उसके संपादक के साहित्य प्रेम को ही आधार माना जा सकता है।

चर्चित साहित्यकारों के जन्म दिन या साहित्यिक समाराहों को तरजीह न देकर फिल्मी हीरो-हीरोइनों के विवाह करने, मंदिर जाने जैसी खबरों को खास बनाते हुए पूरा परिशिष्ट निकालने में मीडिया मषगूल है। चर्चित साहित्यकार कमलेश्वर के निधन की खबर को ही लें, कितनों ने खास परिशिष्ट निकाला वह आपके सामने है? इसमें केवल पत्र ही शामिल नहीं बल्कि खबरिया चैनल भी शामिल है। किसी साहित्यकार पर उनका फोकस नहीं होता है। वहीं पर अश्लील और फूहड़ चुटकुलों से लोगों को हंसाने जैसे कार्यक्रम को दिखाने की होड़ लगी रहती है। यों तो साहित्य की खबरें चैनलों पर आती नहीं, आती भी है तो चंद मिनटों में समेट दी जाती है।

साहित्य व साहित्यिकारों से जुड़ी खबरें स्थान पाती भी है तो मुष्किल से वहीं हीरो-हीरोइन-खिलाड़ियों को ज्यादा तरजीह दी जाती है। जाहिर है साहित्य नहीं बिकता और जो बिकता है उसे मीडिया तरजीह देने में लगी है।

-संजय कुमार

राजनीति और मीडिया-लेनदेन पर टिका संबंध

राजनीति और मीडिया के आपसी संबंधों पर लिखना बड़ा ही पेचीदा मसला है। आज जैसा की राजनीति तथा मीडिया के बारे में हम जानते हैं उस सबसे यह दोनों ही काफी आगे (?) निकल गए हैं। अब न वह राजनीति है और स्वाभाविक रूप से न ही वह मीडिया ही रही है। समय के साथ राजनीति तथा मीडिया की नई परिभाषाएं आ गईं हैं तथा उन्हीं के आधार पर इनके आपसी संबंधों को भी देखा जाना चाहिए।

भारत की स्वतंत्रता के समय की राजनीति तथा आज की राजनीति के बारे में किसी ने लिखा था-

‘तब सेवा का भाव था और सत्ता कमजोर,

अब सत्ता का भाव है और सेवा कमजोर।

यानि, हम कह सकते हैं कि राजनीति एक प्रोफेशन के रूप में लोगों को भाने लगा है। सबसे बड़ी बिडंबना यह भी है कि जब कोई और रास्ता नहीं बच जाता है तो लोग राजनीति करने लगते हैं। (इस मामले में इक्का-दुक्का अपवाद हो सकता है।) लोगों में एक मानसिकता बन गई है कि राजनीति में आने के लिए झूठ और फरेबी तथा गुंडागर्दी ही सबसे बड़ी योग्यता है। राजनीति के बारे में समाज में किस प्रकार की छाप बनी है इसे इस वाकये से आसानी से समझा जा सकता है। एक बार अपने पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम किसी विद्यालय में गए थे। डा. कलाम को बच्चों से काफी प्यार है तथा वे अक्सर बच्चों से बातें करने का समय निकाल लेते हैं। उस विद्यालय में भी उन्होंने बच्चों से बातचीत शुरू की तथा उनसे पूछने लगे कि वे भविष्य में क्या बनना चाहते हैं। स्वाभाविक रूप से बच्चे डीएम, एसपी वगैरह-वगैरह बता रहे थे। इसी बीच एक छोटे बच्चे ने कहा कि वह नेता बनना चाहता है। उसके इतना कहते ही वहां पर उपस्थित सभी लोग जोर-जोर से हंसने लगे। इस घटना को कतई एक साधारण घटना के रूप में नहीं लिया जा सकता है। प्रजातंत्र के चार स्तंभ (उसमें भी सबसे मजबूत स्तंभ) विधायिका के बारे में बच्चों में इस प्रकार की भावना, कि अगर कोई कहे कि वह नेता बनना चाहता है तो वह मजाक का पात्र बन जाए, निश्चित रूप से अच्छा संकेत नहीं है।

इसी प्रकार अगर मीडिया को देखा जाय तो मीडिया भी राजनीति की तरह एक प्रोफेशन बन गया है। इसमें भी इलेक्ट्रानिक मीडिया के आने के बाद इस प्रोफेशन के साथ ग्लैमर भी जुड़ गया है। मीडिया रोजगार के नाम पर भी सबसे फलते-फूलते क्षेत्र के रूप में प्रकट हुआ है। प्रिंट, टीवी चैनल के साथ ही अब इंटरनेट ने इस क्षेत्र में रोजगार की संभावनाओं को बढ़ाया है। रोजगार के साथ ही ग्लैमर के जुड़ जाने से स्वाभाविक रूप से इसके प्रति युवाओं का रुझान बढ़ा है। टीवी पर एक बार आते ही स्टार बन जाने की कल्पना तथा प्रेस कार्ड का धौंस। इसके लिए कई लोग तो मुफ्त में भी काम करने को तैयार हो जाते हैं। अब जो लोग बिना पैसे के केवल प्रेस कार्ड पर काम करने को तैयार हो जाते हैं निश्चित रूप से प्रेस कार्ड के उसके द्वारा संभावित उपयोग के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है। मीडिया के साथ एक और बात जुड़ी है कि यह भी साबुन-तेल की तरह एक उत्पाद बन गया है। इसका उत्पादन होता है तथा इसे बेचा जाता है। बेचे जाने के लिए बाजार चाहिए तथा उत्पादन के लिए पैसा।

लेकिन, मीडिया तथा साबुन-तेल के उत्पाद में एक अंतर है। साबुन-तेल जितना बिकता है उससे उतना ही फायदा होता है। लेकिन, मीडिया के आम लोगों के हाथों बिकने से कोई लाभ नहीं होता बल्कि इसका नुकसान ही होता है। कुछ बड़े अखबार जो तीन रुपये में बिकते हैं उसके लिए कागज तथा छपाई का खर्च ही 10-15 रुपये होता है। यही हाल छोटे अखबारों का भी है। वह अगर दो रुपये में बिकता है तो कागज तथा छपाई का खर्च चार रुपये होता है। इसलिए अगर कोई बड़ा व्यक्ति अखबार खरीद ले तो फिर टेंशन खत्म। मीडिया वाले इसी जुगत में लगे रहते हैं। इस कोशिश में सफलता भी मिल ही जाती है। मीडिया के लिए सरकार के हाथ में डीएवीपी के माध्यम से बहुत कुछ होता है। इस बहुत कुछ के लिए मीडिया के पास भी सरकार के लिए बहुत कुछ होता है। दोनों के बीच इस बहुत कुछ का आदान-प्रदान होता रहता है।

ऐसा नहीं है कि इस सबके बीच जो विपक्ष में हैं उनके पास कुछ भी नहीं होता। उनके पास भी आजकल मीडिया के लिए बहुत कुछ होता है। इस बहुत कुछ के लिए मीडिया उसे अपने अखबार के बारह-पंद्रह पन्नों में बहुत कुछ दे देती है। यह सारा मामला इस बहुत कुछ की लेन देन पर टिका है। तथा मीडिया एवं राजनीति इस बहुत कुछ के ईर्द-गीर्द घूमता रहता है। अब बेचारा निरीह रिपोर्टर जिस अखबार में जाता है वह उसी विचारधारा से बंध जाता है। उसका अपना कुछ नहीं होता है। मीडिया बहुत कुछ के आधार पर अपनी नीति तय करते हैं तथा रिपोर्ट थोड़े कुछ के लिए उस नीति पर चलता है। हां, इस पक्ष तथा विपक्ष के पास मीडिया के लिए बहुत कुछ होने के कारण आम लोगों को भी इसका लाभ मिल जाता है तथा वो दो अखबारों के माध्यम से पक्ष विपक्ष का बहुत कुछ जान लेता है। एक अखबार पढ़नेवाला आम आदमी यह जरूर सोचता रह जाता है :-

‘राजनीति का असली चेहरा देखें किसमें

हर दल के हैं अपने-अपने अखबार दुहाई’

-अमृतांशु कुमार मिश्र

सेक्स उद्योग और सैन्य मिशन

फोटो साभार: बीबीसी

फोटो साभार: बीबीसी

सारी दुनिया में सेक्स उद्योग में आई लंबी छलांग के दो सबसे प्रमुख कारण हैं पहला है युद्ध और दूसरा है उन्नत सूचना एवं संचार तकनीकी। आज वेश्यावृत्ति और पोर्न दोनों का ही औद्योगिकीकरण हो चुका है। विश्व स्तर पर वेश्यालयों के कानूनी संरक्षण,वेश्यावृत्ति को कानूनी स्वीकृति दिलाने का आन्दोलन तेजी से चल रहा है इस मामले में सबसे आगे विकसित पूंजीवादी मुल्क हैं।

विकसित पूंजीवादी मुल्कों में वेश्यावृत्ति पेशा है। वेश्याएं सरकार को टैक्स अदा करती हैं। सन् 2001 में जर्मनी में वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता दे दी गयी। अब वेश्यावृत्ति वहां पर अनैतिक धंधा नहीं रह गया है। बल्कि नैतिक और कानूनी तौर पर मान्यता प्राप्त धंधा है। वेश्याएं शरीर बेचने के बदले सरकार को टैक्स देती हैं। अब वेश्याओं को पुलिस परेशान नहीं करती। प्रति वेश्या प्रतिमाह 180 डॉलर टैक्स देना होता है।

एक अनुमान के अनुसार वेश्यावृत्ति के धंधे में प्रतिवर्ष 40 लाख नयी लड़कियां और दस लाख बच्चे आ रहे हैं। वेश्यावृत्ति वस्तुत: गुलामी है। इसका लक्ष्य है शारीरिक और कामुक शोषण, इस शोषण का अर्थ है कामुक उत्तेजना, कामुक शांति और वित्तीय लाभ। नयी विश्व व्यवस्था ने कानूनों एवं नियमों में ढिलाई एवं परिवर्तन का जो दबाव पैदा किया है उसके कारण सेक्स और पोर्न संबंधी कानूनों में भी बदलावा आया है। सेक्स और पोर्न संबंधी कानून ज्यादा उदार बने हैं, इसके कारण सेक्स उद्योग और पोर्न उद्योग के प्रति अलगाव और अनैतिक भाव नष्ट हुआ है।

अब पोर्न और सेक्स उद्योग सम्मानित उद्योग हैं। इस उद्योग में काम करने वाले समाज में आज सम्मानित हैं। पोर्न एवं सेक्स उद्योग की वैधता के कारण स्त्री और बच्चों का शारीरिक शोषण और भी बढ़ा है। हमारे समाज में जो लोग भूमंडलीकरण के अमानवीय चरित्र की उपेक्षा करके उसकी अंधी हिमायत में लगे हैं उन्हें फिलीपीन्स के अनुभवों से सबक हासिल करना चाहिए।

फिलीपींस में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक आदि के इशारों पर स्त्रीमुक्ति का जो रास्ता अख्तियार किया गया वह वह स्त्री को आत्मनिर्भर नागरिक नहीं बनाता, बल्कि सेक्स बाजार में ठेलता है।लेबर एक्सपोर्ट के नाम पर साठ और सत्तर के दशक में बड़े पैमाने पर फिलीपीनी औरतों का निर्यात किया गया।सत्तर के दशक में मध्य-पूर्व में निर्माण उद्योग के लिए मर्दो का निर्यात किया गया। सत्तर और अस्सी के शक में फिलीपींस के बाहर काम करने वाली अधिकांश औरतें ही थीं। वियतनाम युद्ध के बाद वेश्यावृत्ति का विश्वबाजार तेजी से विकसित होता है।

अमेरिका, ब्रिटेन,फ्रांस आदि देशों की सेनाओं ने जिन देशों में हस्तक्षेप किया,जिन इलाकों में अपने सैनिक अड़डे बनाए उनके आसपास के देशों में वेश्यावृत्ति तेजी से फैली। यही स्थिति संयुक्त राष्ट्र संघ के नेतृत्व में चलने वाले शांति मिशन अभियानों की है। शांति मिशन अभियानों में शामिल सैनिकों को औरतों और बच्चों की तस्करी करते रंगे हाथों पकड़ा गया है।

सोमालिया, मोगादिसु, साइप्रस, कम्बोडिया, सर्बिया, बोसनिया, कोसोवो आदि इलाकों में शांति सैनिक औरतों की तस्करी करते पकड़े गए हैं।

कम्बोडिया में 1992-93 के शांतिमिशन के समय वेश्यावृत्ति कई गुना बढ़ गयी। 25 फीसदी से ज्यादा सैनिक एचआईवी पॉजिटिव होकर लौटे। सोमालिया में फ्रेंच सैनिकों ने वेश्यावृत्ति में कई गुना इजाफा कर दिया।

सन् 2002 में संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा इटली के शहर तूरिन में ” प्रोस्टयूशन ,सेक्स ट्रेफिकिंग एण्ड पीसकीपिंग” शीर्षक से अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार आयोजित किया गया। जिसमें यह तथ्य सामने आया कि शांति मिशन के कार्य जब चरम पर होते हैं तब ही वेश्यावृत्ति और अन्य देशों के लिए औरतों कह बिक्री अचानक बढ़ जाती है।यह स्थिति निकोशिया, फामुगुस्ता, बुडापेस्ट, कोसोवो, डिली-डारविन, नोमपेन्ह-बैंकाक, होंडुररास, अल-सल्वाडोर, ग्वाटेमाला,सोमालिया आदि देशों में देखी गयी है।

आज स्थिति यह है कि भूमंडलीय विचारकों के दबाव के कारण भूमंडलीय आतंकवाद, जनसंहारक अस्त्र, सर्वसत्तावादी या आततायी राज्य, शक्ति संतुलन, भूमंडलीकरण आदि विषयों पर चतरफा काम हो रहा है।ये विषय सर्वोच्च प्राथमिकता की कोटि में हैं। किन्तु ‘सेक्स ट्रेफिकिंग’ सर्वोच्च वरीयता की सूची के बाहर है। उसे ‘वूमेन्स स्टैडीज’, ‘थर्ड वर्ल्ड डवलपमेंट’, ‘एरिया स्टैडीज’ आदि क्षेत्रों के हवाले करके हाशिए पर फेंक दिया गया है। जबकि इसे वरीयता क्रम में ऊपर रहना चाहिए। इस तरह से ‘सेक्स ट्रेफिकिंग’ से बौध्दिकों का अलगाव बढ़ा है। वे इसे एक विच्छिन्न विषय या घटना मात्र समझते हैं। विकासमूलक अर्थव्यवस्था की समस्या के रूप में देखते हैं। सवाल उठता है कि क्या इस तरह हाशिए पर रखकर इस समस्या का सही अध्ययन संभव है? इस विषय पर जो मूल्यांकन मिलते हैं उनमें सेक्स ट्रेफिकिंग के विवरण ज्यादा होते हैं। इस तरह के मूल्यांकनों में मूलत: निम्न बातों पर जोर रहता है,जैसे, ग्राहक मनोरंजन के लिए औरतों का शोषण कर रहे हैं। दलाल मुनाफे के लिए शोषण कर रहे हैं। जो औरतें बेची जा रही हैं वे उत्पीडित हैं। इस तरह मूल्यांकन इस समस्या के समाधान की रणनीति बनाने में मदद नहीं करते। इनसे समाधान की कोई बुनियादी रणनीति नहीं निकलती।

जहां वेश्यावृत्ति वैध है वहां सरकार धन कमाती है,किन्तु जहां अवैध है वहां भ्रष्ट अधिकारी और अपराधी गिरोह चांदी काटते हैं।वेश्यावृत्ति के कारोबार में व्यापार का मुनाफा इस बात पर निर्भर करता है कि नयी औरतों का फ्लो कितना है। नयी औरतें कितनी आ रही हैं।विदेशी औरते कितनी आ रही हैं। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के महिला संगठनों की 1991 में एक काँफ्रेंस हुई जिसमें अनुमान लगाया गया कि सत्तर के बाद से सारी दुनिया में तीन करोड़ औरतें बेची गयी हैं।जापान से सालाना एक लाख औरतें जहाजों में भरकर लाकर सेक्स उद्योग के हाथ बेची जाती हैं। ये औरतें ‘वार’ और वेश्यालयों में काम करती हैं। वर्मा, नेपाल, थाईलैण्ड, बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान से सालाना तीन लाख से ज्यादा औरतें बिक्री होती हैं।

सन् 1960 और 1970 के दशक में आईएमएफ और विश्वबैंक ने पर्यटन पर ज्यादा जोर दिया। प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर जोर दिया।होटल और रिसोर्ट बनाने को प्राथमिकता दी।जिससे विदेशी पूंजी को आकर्षित किया जा सके। इस पर्यटन का एक आकर्षक हिस्सा सेक्स पैकेज हुआ करता था।जिसमें हवाईभाड़ा, होटल का भाड़ा,औरत या मर्द जो भी चाहिए, उसका भाड़ा, कार आदि का खर्चा शामिल हुआ करता था।विश्तनाम युद्ध के कारण अकेले सैगोन में पांच लाख वेश्याएं थीं। जबकि युद्ध के पहले सैगोन की कुल आबादी ही पांच लाख की थी।

वियतनाम युद्ध के कारण फिलीपींस,कोरिया,कम्बोडिया,थाईलैण्ड आदि देशों में वेश्यावृत्ति कई गुना बढ़ गयी। इसी तरह ओकीनावा में अमेरिकी सैन्य अड्डा बनने के बाद नए किस्म के विश्राम और आनंद के केन्द्रों का व्यापक पैमाने पर आसपास के इलाकों में निर्माण कियागया। इन सभी देशों में वेश्यावृत्ति को वैध बनाने के लिए कानून पास किए गएंसत्तर के दशक में मनीला और बैंकाक वेश्यावृत्ति के दो बड़े केन्द्र बनकार उभरे। उसके बाद नेपाल का विकास हुआ।इन तीन केन्द्रों ने सेक्स पर्यटन को तेजी से बढ़ावा दिया।सिर्फ सेक्स पर्यटन के कारण ही इन केन्द्रों की अरबों डालर की सालाना आय थी।मसलन् थाईलैण्ड में प्रतिवर्ष 50 लाख पर्यटक आते हैं। इनमें 75 फीसदी पुरूष होते हैं। सेक्स उद्योग के नए क्षेत्रों में कर मुक्त इलाके, औद्योगिक क्षेत्र, पूंजी विकास केन्द्र औरतों की बिक्री के बड़े केन्द्र के रूप में उभरकर सामने आए हैं।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

महानरेगा की महाआरती

दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने देश में बढती महंगाई का अजीबोगरीब कारण महानरेगा के कारण आई समृद्धि को ठहराया है। शीला दीक्षित का बयान मंहगाई से पिसते गरीबो के जले पर नमक छिडकने जैसा है। महानरेगा ग्रामीण भारत की तस्वीर भले ही न बदल पायी हो परन्तु इसने सरपंचो की रंगत जरुर बदल दी है। महानरेगा में जहां ग्रामीणों को साल में 100 दिन काम की गारंटी है जिसमे प्रतिदिन 100 रुपये के हिसाब से भुगतान किया जाना है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री सीपी जोशी ने स्वंय स्वीकार किया है कि नरेगा में 70 फीसदी लोगों को एक दिन भी काम नहीं मिल पाया है।

महानरेगा यानि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, को लाने के पीछे उद्देश्य था कि अप्रशिक्षित ग्रामीण मानव शक्ति को गावों में ही रोजगार दिया जाये जिससे ग्रामीण मजदूरों की क्रयशक्ति बढे तथा स्थानीय बाजारों में व्यापार में वृध्दि हो। ग्रामीण महिलाओं को गावों में ही काम मिले जिससे उनका शोषण रोका जा सके और गावों से महानगरों की ओर पलायन रोका जा सके। इस प्रकार महानरेगा महानगरों को बचाने का उपक्रम था परन्तु हो यह रहा है कि उ.प्र. तथा बिहार से पंजाब जाने वाले खेतिहर मजदूरों की संख्या में भारी कमी आयी है। ऐसे मामले सामने आये हैं कि जिनमे जॉब कार्ड बनाने के बाद काम हिटाची मशीनों से करा लिया गया। और कमीशनखोरी के चलते मजदूरों को 100 दिनों के भुगतान के बिना काम के ही 1500 से 2000 रुपये देकर खानापूर्ति कर ली गयी। इस प्रकार के मामले सामने आने पर अब 1 अक्टूबर 2008 से इस भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिये शासन ने मजदूरों को सीधे बैंकखातों से भुगतान करने की प्रक्रिया कर दी है तो कम कमीशन के कारण काम में सुस्ती आ गयी है और योजना को पलीता लगाने के नये तरीके इजाद किये जा रहे हैं।

महानरेगा की महाआरती की महातैयारी मध्यप्रदेश में अभी हाल में सम्पन्न हुये पंचायत चुनावों में में देखने को मिली। 22795 ग्राम पंचायतों के अर्न्तगत 55,393 गावों में 3,63,337 पंचों तथा 313 जनपदों में 6816 जनपद सदस्यों तथा 50 जिलों के 843 जिला पंचायत सदस्यों के मतदान में सर्वाधिक हिंसा सरपचं के पद के लिये हुयी। इस भारी मारा-मारी को देखकर प्रश्न किया जा सकता है कि हर कोई केवल सरपंच ही क्यों बनना चाहता है? लायसेंसी हथियारों के थानों में जमा होने के बाबजूद अवैध हथियारों के साथ इतनी अराजकता तो सांसद पद के लिये भी नहीं हुयी थी। कारण साफ है कि सरपंच की कुर्सी पाकर महानरेगा के महाबजट पर हाथ साफ करके अधिकतर सरपंच रातोंरात मालामाल होना चाहते हैं। 22795 ग्राम पंचायतों के लिये चालू वित्ताीय वर्ष 2009-10 में महानरेगा के लिये 39,100 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। इसका मतलब है कि एक पंचायत के हिस्से में औसत 1,71,52,884 रुपये तो केवल महानरेगा के ही है। जिसमें ग्रामीण विकास, जल संचय, कृषि, पौधरोपण, बाढ़ नियंत्रण, तालाबों का निर्माण, छोटे चैक डेम का निमार्ण, लोक निर्माण के अर्न्तगत आने वाले ऐसे कार्य जिनमे जान का जोखिम न हो करवाने के अधिकार सरपंच को दिये गये हैं। इन कामों के अलावा यदि 30 लाख रुपये प्रतिवर्ष का अतिरिक्त अन्य विभागों से मिलने वाला आबंटन भी इसमें जोड दिया जाये तो यह राशि 2 करोड़ रुपये से भी ज्यादा बैठती है जो एक सांसद निधि से भी अधिक है। पंचायती राज में सरपंच को जिस प्रकार के अधिकार दिये गये हैं उतने तो राष्ट्रपति को भी नहीं है। संरपच खुद सामान खरीदते हैं खुद ही बिल बना लेते हैं और खुद ही पास कर के चैक बना कर खुद ही पैसा बैंक से निकाल लेते हैं। एक ही पद पर इतने अधिकार भारतीय संबिधान में किसी भी संबिधानिक पद को प्राप्त नहीं है।

केन्द्रीय राज्यमंत्री प्रदीप जैन को अगस्त 2009 में टीकमगढ़ जिले के दौरे में एक ही दिन में अलग-अलग स्थानों के बारे में नरेगा में गड़बड़ियों की 300 शिकायतें मिली थीं। यह किस्सा केवल एक जिले का हो ऐसा नहीं है पूरे प्रदेश में कमोवेश हालात ऐसे ही हैं। 2005 से शुरु हुयी इस योजना में पिछले तीन सालों मे कमीशनखोरी और निमार्ण कार्य में की गयी गंभीर अनियमितताओं से मजदूरों के हकों के पैसे का बंदरबांट किया जा रहा है। पैसे की इस बारिश ने सरपंचो और महानरेगा से जुडे लोगों को तरबतर कर दिया है और यही कारण है कि जो युवा कल तक अपने गांव और खेतों की ओर उपेक्षा से देखते थे वे अब गांवों की राजनीति में गहरी रुचि ले रहे हैं। पंचायत चुनावों में इस बार जिला डेलीगेट और डेलीगेट से भी ज्यादा रुचि सरपंच के पद को लेकर रही है क्यों कि ग्रामों में होने वाले सभी कार्यो के लिये नोडल ऐजेन्सी ग्राम पंचायत ही होती है। यंहा तक कि बीपीएल सूची में भी सरपंच की अनुशंसा से ही नाम दर्ज होता है। विगत पांच वर्षो की तस्वीर देखें तो साफ पता चलता है कि महानरेगा ने ग्रामीण मजदूरों को दो जून की रोटी की व्यबस्था भले ही न कर पायी हो परन्तु सरपंचों और संबधितों को मलाई जरुर दी है। एक अनुमान के मुताबिक लगभग तीन चौथाई सरपंचों के पास लक्जरी चारपहिया बाहन हो गये है। जब कि नरेगा को लागू हुये कुल तीन ही साल हुये हैं।

केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री डॉ सी पी जोशी के खुद के निर्वाचन क्षेत्र भीलवाडा की 11 ग्राम पंचायतों में हुई एक बर्ष की सोशल ऑडिट में एक ग्राम पंचायत में ही 20 लाख रुपये का फर्जीवाडा सामने आया है यह तो केवल नमूना है सारे देश में ही महानरेगा का महा घालमेल चल रहा है। चुनावों मे इस बार सरपंच पद के लिये जिस प्रकार धन और बल लगाया गया है वह सरपंच बनने के बाद महानरेगा से ही महाबसूली होनी है। धन के इस प्रवाह ने सरपंच की हैसियत डेलीगेट और जिला डेलीगेट से से भी ज्यादा कर दी है। डेलीगेट और जिलाडेलीगेट का महत्व तो जनपद अध्यक्ष और जिला पंचायत अध्यक्ष बनने के बाद किसी विशेष काम का का नहीं रह जाता है, जबकि सरपंच के पास पांच सालों तक विकास कार्यों के नाम पर धन का सतत् प्रवाह बना रहता है।

-डॉ. मनोज जैन

सांगोपांग समाज जीवन की शर्त है अन्त्योदय

19वीं सदी के अदभुत विचारक थे जॉन रस्किन। इनकी पुस्तक अन टू दी लास्ट पढ़ने के बाद महात्मा गांधी ने कहा कि अब मैं वह नहीं रह गया हूँ, जो मैं इस पुस्तक को पढ़ने के पहले था। इसी पुस्तक के शीर्षक का अनुवाद महात्मा जी ने किया अन्‍त्योदय। अन्‍त्‍योदय विचार को ही अंतत: महात्मा जी सर्वोदय विचार के रूप में परिभाषित किया। सर्वोदय में ही अन्‍त्‍योदय निहित है। समग्र से काट कर अंतिम व्यक्ति को न्यायपूर्वक विकसित नहीं किया जा सकता। महात्मा जी जिस भारतीय मनीषा के वाहक थे, इस अंग्रेज विचारक के तर्कों को पढ़ कर वे प्रभावित ही नहीं हुये, वरन् भारतीय मनीषा के संदर्भ में जो सवाल उनके मन में उठे थे, वे सब शांत हो गये, तब यह भी पुष्टि हुई कि भारत का चिंतन एक देशीय नहीं वरन् वैश्विक है।

भारतीय विचार प्रवाह के वाहक दीनदयाल:

भारतीय विचार प्रवाह के अधुनातन वाहक थे पंडित दीनदयाल उपाध्‍याय। अपने समकालीन विचारमंथन की स्थिति को रेखांकित करते हुये उन्होंने कहा है, ”स्वातंत्र्योत्तर काल में भारतीय राजनैतिक दर्शन का विचार बिल्कुल नहीं हुआ यह कहना सत्य नहीं होगा किंतु अभी संकलित प्रयत्न करना बाकी है” गांधीजी की परंपरा को आगे बढ़ाते हुये तथा भारतीय दृष्टिकोण से विचार करते हुये, सर्वोदय के विभिन्न नेताओं ने महत्वपूर्ण कल्पनाएं रखी हैं। किंतु विनोबा भावे ने ग्रामदान के कार्य को जो अतिरेकी महत्व दिया है, उससे उनका वैचारिक क्षेत्र का योगदान पिछड़ गया है। जयप्रकाश बाबू भी जिन पचड़ों में पड़ गये हैं, उससे उनका चिंतन का कार्यक्रम रुक गया है। रामराज्य परिषद् के संस्थापक स्वामी करपात्रीजी ने भी रामराज्य और समाजवाद लिखकर पाश्चात्य जीवन दर्शनों की मीमांसा की है तथा अपने विचार रखे हैं, किंतु उनकी दृष्टि मूलत: सनातनी होने के कारण, वे सुधारवादी आकांक्षाओं व आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं करते। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मा. स. गोलवलकर भी समय-समय पर भारतीय दृष्टिकोण से राजनैतिक प्रश्नों का विवेचन करते हैं। भारतीय जनसंघ ने भी एकात्म मानववाद के आधार पर उसी दिशा में कुछ प्रयत्न किया है। हिंदूसभा ने हिंदू समाजवाद के नाम पर समाजवाद की कुछ अलग व्याख्या करने का प्रयत्न किया है, किंतु वह विवरणात्मक रूप से सामने नहीं आया है। डॉ. संपूर्णानंद ने भी जो समाजवाद पर विचार व्यक्त किये हैं, उनके भारतीय जीवन दर्शन का अच्छा विवेचन है। चिंतन की इस दिशा को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है।”

भारतीय चिंतन की मूल प्रवृत्ति है समग्रता। एकांगिता के प्रति निरन्तर सावधान रहने के लिये भारत अपनी प्रतिभाओं को सम्प्रेरित करता रहा। इसी प्रेरणा ने महात्मा जी से अन्‍त्योदय की व्याख्या सर्वोदय विचार से करवाई। समाज की अंतिम सीढ़ी पर खड़ा व्यक्ति भी सब के साथ आना चाहिये यही अन्‍त्योदय का मंतव्य है। इस मंतव्य को समग्रता से व्यक्त करना था। अत: महात्मा जी ने इसे सर्वोदय कहा। आखिर समग्रता भी क्या है? दीनदयालजी ने समग्रता को एकात्मता के रूप में व्याख्यायित किया। पृथक-पृथक पड़ी विषमधर्मी अस्मिताओं को कृत्रिम गठबंधन नहीं है समग्रता। वरन् समग्रता इस सृष्टि की या ब्रह्माण्ड की एकात्मता का नाम है। यह न केवल समग्र है, वरन् एकात्म भी है। अत: समष्टि जीवन का कोई अंगोपांग समुदाय या व्यक्ति उत्पीड़ित उपेक्षित या वंचित रहता है तो वह समग्र यानी विराट पुरूष को विकलांग करता है। अत: दीनदयाल जी ने कहा सांगोपांग समाज-जीवन की आवश्यक शर्त है अंत्योदय। मानव की एकात्मता तब आहत हो जाती है, जब उसका कोई भी घटक समग्रता से पृथक पड़ जाता है। अत: समाज के योजकों को अंत्योदयी होनी चाहिये।

पाश्चात्य अर्थों के व्यक्तिवादी किंवा पूंजीवादी समर्थ्योदयी हैं। उनकी घोषणा ही है समर्थ ही जीयेगा (Survival of जhe fiजजesज) यह एक अमानवीय विचार है, जो समाज का निषेध कर मात्स्य न्याय की स्थापना करता है। पाश्चात्य अर्थों के समाजवादी किवां साम्यवादी सरकारोदयी होते हैं। वे व्यक्ति के एवं समाज के व्यक्तित्व का ही निषेध करते हैं तथा एक वर्ग की तानाशाही के माधयम से सामाजिक समता प्राप्त करने की परिकल्पना करते हैं। यह नितांत अवैज्ञानिक एवं राक्षसी विचार है। रूस व चीन ने इस त्रासद विचार को खूब सहा है, भारत में चलने वाले हिंसक नक्सलवाद की प्रेरणा का भी अधिष्ठान यही विचार है।

सामाजिक समता के घोषित लक्ष्य के कारण अनेक संवेदनशील व्यक्ति समाजवाद के विचार से जुड़ते हैं, तथा अनेक प्रकार से इसे मानवीय बनाने का प्रयत्न भी करते हैं। इसी प्रकार वैयक्तिक सामर्थ्य को सम्मानित करने के कारण एवं लोकतंत्र का पुरस्कर्ता होने के कारण व्यक्तिवाद तथा तथाकथित उदारवाद ने भी अनेक संजीदा व्यक्तित्वों को आकर्षित किया है, लेकिन दीनदयाल जी मानते हैं कि यह एक मृगमरीचिका है। हमें अपने भारतीय अधिष्ठान पर लौटकर, उसे ही युगानुकूल आकार देने के अपने स्वाभाविक कर्तव्य को निभाना होगा, अत: उन्होंने एकात्म मानव की साधना का आवाह्न किया।

व्यावहारिक उद्बोधन

इस विवेचन में किसी को भी वैचारिक दुरूहता का आभास हो सकता है, किसी को लग सकता है कि यह केवल दार्शनिक अठखेलियाँ हैं, लेकिन दीनदयाल जी ने एकात्म मानव के अंत्योदय दर्शन को अपने व्यवहार में जीया। दीनदयाल जी पांचजन्य में एक विचार-वीथी स्तम्भ लिखा करते थे। 11 जुलाई 1955 को अपने इस स्तम्भ में उन्होंने मानवीय श्रम एवं नवीन तकनीक (अभिनवीकरण) के संदर्भ में अपना विचार व्यक्त किया ”अभिनवीकरण का प्रश्न जटिल है तथा केवल मजदूरों तक सीमित नहीं है; अपितु अखिल भारतीय है। ……… वास्तव में तो बड़े उद्योगों की स्थापना एवं पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का आधार ही अभिनवीकरण है। आज का विज्ञान निरंतर प्रयास कर रहा है ऐसे यंत्रों का निर्माण करने का, जिनके द्वारा मनुष्यों का कम से कम उपयोग हो। जहाँ जनसंख्या कम है तथा उत्पादन के लिए पर्याप्त बाजार है वहाँ ये नए यंत्र वरदान सिद्ध होते हैं। हमारे यहाँ हरेक नया यंत्र बेकारी लेकर आता है।”

इसी प्रकार उन्होंने 18 जुलाई 1955 को अपने इसी स्तम्भ में दुकानहीन विक्रेताओं का सवाल खड़ा किया ”….. शायद जितने दुकानदार हैं, ज्यादा संख्या ऐसे लोगों की है जो बिना किसी दुकान के खोमचों, रेहडियों तथा ठेलों के सहारे अपनी जीविका चलाते हैं। दिल्ली नगरपालिका के उपनियमों के अनुसार इन लोगों को पटरियों पर बैठकर सामान बेचने की इजाजत नहीं है। दिल्ली के अधिकारियों के सामने टै्रफिक की ज्यादा समस्या है: क्योंकि इन पटरी वालों और खोमचे वालों के कारण सड़क पर इतनी भीड़ हो जाती है कि मोटर आदि का निकलना ही दुष्कर हो जाता है। फिर दुकानदारों को भी शिकायत है। सामने पटरी पर बैठे व्यापारियों के कारण उनकी दुकानदारी में बाधा पहुँचती है। नगर के सौंदर्य का भी प्रश्न है। टूटे-फूटे ठेलों और गंदे खोमचों से राजधानी की सड़कों का सौंदर्य मारा जाता है। फलत: दिल्ली सरकार ने पटरी वालों के खिलाफ जोरदार मुहिम छेड़ दी है।”

उपाध्‍याय ने गरीब खोमचेवालों व पुलिस के व्यवहार, उनकी हीनग्रंथियों व तज्जनित मनोविज्ञान का सजीव वर्णन अपने इस निबंध में करते हुये, अंत में लिखा है: ”आज देश में जिस प्रकार भूमिहीन किसानों की समस्या है, वैसे ही दुकानहीन व्यापारियों की समस्या है। हमें उनका हल ढँढ़ना होगा।”

समाज की सम्पत्ति का सीमित हाथों में केन्द्रीकरण अनुचित होता है। यह प्रवृत्ति मानव की एकात्मता को आहत करती है तथा वंचित समुदाय का सृजन करती है। इस संदर्भ में दीनदयाल जी की दृष्टि को समझने के लिये 1956 में विंधयप्रदेश की जनसंघ प्रदेश कार्यकारिणी ने दीनदयाल जी के निर्देश पर हीरा खदान मालिकों के विषय में एक प्रस्ताव पारित किया, उसको जानना अच्छा रहेगा।

”कार्यसमिति ने पन्ना-हीरा खदान जाँच समिति की रिपोर्ट पर संतोष व्यक्त किया। …. समिति ने कहा, जनसंघ उक्त जाँच समिति द्वारा सुझाये गये इस सुझाव से कि सरकार और जनता दोनों के सहयोग से एक स्वतंत्र कॉरपोरेशन बनाया जाय, के पक्ष में है। कार्यसमिति ने हीरा खदानों के लीज होल्डरों को मुआवजा देने का तीव्र विरोध किया और कहा कि उन लीज होल्डरों ने मिनरल कंसेशन रूल की धारा 48 व 51 का उल्लंघन किया है। अत: धारा 53 के अनुसार उनकी लीज जब्त होनी चाहिये।”

(पांचजन्य, 19 मार्च, 1956 , पृष्ठ 13)

ये उदाहरण दीनदयाल जी द्वारा प्रतिपादित एकात्मता के अंत्योदयी संदर्भ को व्यावहारिक रूप से व्याख्यायित करते हैं।

अर्थनीति का भारतीयकरण एवं आर्थिक लोकतंत्र

भौतिक विकास किसी भी राष्ट्र की अर्थनीति का स्वाभाविक लक्ष्य होता है। दीनदयाल जी विकास के पाश्चात्य मॉडल को मानवीय एकात्मता के लिये अहितकर मानते थे अत: उन्होंने अर्थनीति के भारतीयकरण का आह्वान किया ”देश का दारिद्रय दूर होना चाहिये, इसमें दो मत नहीं; किंतु प्रश्न यह है कि यह गरीबी कैसे दूर हो? हम अमेरिका के मार्ग पर चलें या रूस के मार्ग को अपनावें अथवा युरोपीय देशों का अनुकरण करें? हमें इस बात को समझना होगा कि इन देशों की अर्थव्यवस्था में अन्य कितने भी भेद क्यों न हों इनमें एक मौलिक साम्य है। सभी ने मशीनों को ही आर्थिक प्रगति का साधन माना है। मशीन का सर्वप्रधान गुण है कम मनुष्यों द्वारा अधिकतम उत्पादन करवाना। परिणामत: इन देशों को स्वदेश में बढ़ते हुये उत्पादन को बेचने के लिए विदेशों में बाजार ढूँढने पड़े। साम्राज्यवाद-उपनिवेशवाद इसी का स्वाभाविक परिणाम बना। इस राज्य विस्तार का स्वरूप चाहे भिन्न भिन्न हो किन्तु क्या रूस को, क्या अमेरिका को तथा क्या इंग्लैण्ड को, सभी को इस मार्ग का अवलम्बन करना पड़ा। हमें स्वीकार करना होगा कि भारत की आर्थिक प्रगति का रास्ता मशीन का रास्ता नहीं है। कुटीर उद्योगों को भारतीय अर्थनीति का आधार मानकर विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था का विकास करने से ही देश की आर्थिक प्रगति संभव है।

(पिलानी, शेखावटी जनसंघ सम्मेलन मे उदघाटन भाषण, पांचजन्य 12 दिसम्बर, 1955 पृ 11)

दीनदयाल जी अंत्योदय के लिये लोकतंत्र को आवश्यक मानते थे, लोकतंत्र राजनीति में अंतिम व्यक्ति की सहभागिता का आश्वासन देता है। दीनदयाल जी राजनैतिक लोकतंत्र की सार्थकता के लिये आर्थिक लोकतंत्र को भी परमावश्यक मानते थे। उनका मत है ”प्रत्येक को वोट जैसे राजनीतिक प्रजातंत्र का निकष है, वैसे ही प्रत्येक को काम यह आर्थिक प्रजातंत्र का मापदण्ड हैं।” प्रत्येक को काम के अधिाकार की व्याख्या करते हुये वे कहते है : ”काम प्रथम तो जीविकोपार्जनीय हो तथा दूसरे, व्यक्ति को उसे चुनने की स्वतंत्रता हो। यदि काम के बदले में राष्ट्रीय आय का न्यायोचित भाग उसे नहीं मिलता हो तो उसके काम की गिनती बेगार में होगी। इस दृष्टि से न्यूनतम वेतन, न्यायोचित वितरण तथा किसी न किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था आवश्यक हो जाती है।” दीनदयाल जी आगे कहते हैं:

”जैसे बेगार हमारी दृष्टि में काम नहीं है वैसे ही व्यक्ति के द्वारा काम में लगे रहते हुये भी अपनी शक्ति भर उत्पादन न कर सकना काम नहीं है। अण्डर इम्पलॉइमेण्ट भी एक प्रकार की बेकारी है।”

उपाध्‍याय उस अर्थव्यवस्था को अलोकतांत्रिक मानते हैं जो व्यक्ति के उत्पादन-स्वातंत्र्य या सृजनकर्म पर आघात करती है। अपने उत्पादन का स्वयं स्वामी न रहने वाला मजदूर या कर्मचारी अपनी स्वतंत्रता को ही बेचता है। आर्थिक स्वतंत्रता व राजनीतिक स्वतंत्रता परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। ”राजनीतिक प्रजातंत्र बिना आर्थिक प्रजातंत्र के नहीं चल सकता। जो अर्थ की दृष्टि से स्वतंत्र है वही राजनीतिक दृष्टि से अपना मत स्वतंत्रतापूर्वक अभिव्यक्त कर सकेगा। अर्थस्य पुरुषो दास: (पुरुष अर्थ का दास हो जाता है)”

मनुष्य के उत्पादन स्वातंत्र्य पर सबसे बड़ा हमला पूँजीवादी औद्योगीकरण ने किया है। अत: उपाध्‍याय औद्योगीकरण का इस प्रकार ने नियमन चाहते हैं कि जिससे वह स्वतंत्र, लघु एवं कुटीर उद्योगों को समाप्त न कर सके : ”आज जब हम सर्वांगीण विकास का विचार करते हैं तो संरक्षण की आवश्यकता को स्वीकार करके चलते हैं। यह संरक्षण देश के उद्योगों को विदेशी उद्योगों की प्रतिस्पर्धा से तथा देश के छोटे उद्योगों को बड़े उद्योगों से देना होगा।” उपाध्‍याय यह महसूस करते हैं कि पश्चिमी औद्योगीकरण की नकल ने भारत के पारम्परिक उत्पादक को पीछे धकेला है तथा बिचौलियों को आगे बढ़ाया है। ”हमने पश्चिम की तकनीकी प्रक्रिया का ऑंख बंद करके अनुकरण्ा किया है। हमारे उद्योग का स्वाभाविक विकास नहीं हो रहा। वे हमारी अर्थव्यवस्था के अभिन्न व अन्योन्याश्रित अंग नहीं अपितु ऊपर से लादे गये है। (इनका विकास) विदेशियों के अनुकरणशील सहयोगी अथवा अभिकर्ता कतिपय देशी व्यापारियों द्वारा हुआ है। यही कारण है कि भारत के उद्योगपतियों में, सब के सब व्यापारी आढ़तियों तथा सटोरियों में से आए हैं। उद्योग एवं शिल्प में लगे कारीगरों का विकास नहीं हुआ है”

देश के आम शिल्पी व कारीगर की उपेक्षा करनेवाला औद्योगीकरण अलोकतांत्रिक है। पूँजीवाद व समाजवाद के निजी व सार्वजनिक क्षेत्र के विवाद को उपाध्‍याय गलत मानते हैं। इन दोनों ने ही स्वयंसेवी क्षेत्र (Self Employed Secजor) का गला घोंटा है। आर्थिक लोकतंत्र के लिये आवश्यक है स्वयंसेवी क्षेत्र का विकास करना। इसके लिये विकेन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था जरूरी है:

”राजनीतिक शक्ति का प्रजा में विकेन्द्रीकरण करके जिस प्रकार शासन की संस्था का निर्माण किया जाता है, उसी प्रकार आर्थिक शक्ति का भी प्रजा में विकेन्द्रीकरण करके अर्थव्यवस्था का निर्माण एवं संचालन होना चाहिये। राजनीतिक प्रजातंत्र में व्यक्ति की अपनी रचनात्मक क्षमता को व्यक्त होने का पूरा अवसर मिलता है। ठीक उसी प्रकार आर्थिक प्रजातंत्र में भी व्यक्ति की क्षमता को कुचलकर रख देने का नहीं; अपितु उसको व्यक्त होने का पूरा अवसर प्रत्येक अवस्था में मिलना चाहिये। राजनीति में व्यक्ति की रचनात्मक क्षमता को जिस प्रकार तानाशाही नष्ट करती है, उसी प्रकार अर्थनीत में व्यक्ति का रचनात्मक क्षमता को भारी पैमाने पर किया गया औद्योगीकरण नष्ट करता है। इसलिए तानाशाही की भाँति ऐसा औद्योगीकरण भी वर्जनीय है।”

(आर्थिक लोकतंत्र शीर्षक के अन्तर्गत आये सभी उद्धरण दीनदयाल जी की पुस्तक भारतीय अर्थनीति: विकास की एक दिशा से लिये गये हैं)

एक गणितीय सूत्र ज x x x इ:

यन्त्रचलित औद्योगीकरण की मर्यादा को स्पष्ट करते हुये उपाध्‍याय एक समीकरण प्रस्तुत करते हैं: ”प्रत्येक को काम का सिध्दांत स्वीकार कर लिये जाए तो सम-वितरण की दिशा सुनिश्चित हो जाती है और हम विकेन्द्रीकरण की ओर बढ़ते हैं। औद्योगीकरण को उदेश्य मानकर चलना गलत है। इस सिध्दांत को गणित के सूत्र में यों रख सकते हैं:           ज  x क  x य  x इ

यहाँ जन का परिचायक है, कर्म की अवस्था व व्यवस्था का, यंत्र अथवा तकनीकि का तथा समाज की प्रभावी इच्छा या इच्छित संकल्प का द्योतक है। तथा तो सुनिश्चित है। और के अनुपात में तथा को सुनिश्चित करना है। लेकिन औद्योगीकरण लक्ष्य होने पर सब को नियंत्रित करता है। के अनुपात में जन की छँटनी होती है। के अनुपात में को भी यंत्रों के अति उत्पादन का अनुसरण करना पड़ता है। जो कि सर्वथा अवांछनीय है। की छँटनी कर देनी वाली कोई भी अर्थव्यवस्था अलोकतांत्रिक है। इ को नियंत्रित करने वाली अर्थव्यवस्था तानाशाही है। अत: तथा के नियंत्रण मे तथा का नियोजन होना चाहिये। वही लोकतांत्रिक एवं मानवीय अर्थव्यवस्था कही जा सकती है।                       (दीनदयाल उपाध्‍याय कृत ‘राष्ट्र जीवन की समस्यायें’ पृ 42)

एकात्म मानवदर्शन के अंत्योदय आयाम के लिये उन्होंने दृष्टिकोण के भारतीयकरण आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना, सत्ता एवं वित्त के विकेन्द्रीकरण तथा यंत्र योजित नहीं वरन् मानव योजित व्यवस्था के निर्माण का सांगोपांग आग्रह किया। हमें उनके इस आग्रह को दृष्टिपथ में रख कर सामाजिक अनुसंधान एवं प्रयोग संचालित करने चाहिये।

-डॉ. महेशचन्द्र शर्मा

मध्य प्रदेश में जारी है सामंती प्रथा

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भारत देश को आजाद हुए छ: दशक से ज्यादा बीत चुके हैं, भारत में गणतंत्र की स्थापना भी साठ पूरे कर चुकी है, बावजूद इसके आज भी देश के हृदय प्रदेश में मध्ययुगीन सामंती प्रथा की जंजरों की खनक सुनाई पड रही है। कहने को केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा देश भर में सर पर मैला ढोने की प्रथा समाप्त करने के लिए ढेर सारे जतन किए हों, पर कागजी बातों और वास्तविकता में जमीन आसमान का अंतर दिखाई पड रहा है। पिछले साल मानवाधिकार आयोग के सर्वेक्षण में मध्य प्रदेश में सर पर मैला ढोने वाले लोगों की तादाद लगभग सात हजार दर्शाया जाना ही अपने आप में सबसे बडा प्रमाण माना जा सकता है। उधर देश को सबसे अधिक प्रधानमंत्री देने वाले उत्तर प्रदेश सूबे में दलितों की हालत बद से बदतर ही है।

मध्य प्रदेश के अलावा देश के और भी सूबे एसे होंगे जहां सर पर मानव मल ढोने वालों की खासी तादाद होगी। मध्य प्रदेश में ही होशंगाबाद, सीहोर, हरदा, शाजापुर, नीमच, मंदसौर, भिण्ड, टीकमगढ, राजगढ, उज्जैन, पन्ना, छतरपुर, नौगांव, निवाडी आदि शहरों और एक दर्जन से भी अधिक जिलों में इस तरह की अमानवीय प्रथा को प्रश्रय दिया जा रहा है। देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस भले ही दलितों के उत्थान के लिए गगनभेदी नारे लगती रही हो पर सच्चाई यह है कि आज भी इसी कांग्रेस की नीतियों के चलते बडी संख्या में दलित समुदाय के लोग इस तरह की प्रथा के जरिए अपनी आजीविका कमाने पर मजबूर हैं। विडम्बना यह है कि आज भी हिन्दु धर्म में बाल्मिकी समाज तो मुस्लिमों में हैला समाज के लोग देश में सर पर मैला ढोने का काम कर रहे हैं।

हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि आज भी परंपरागत तरीके से सिर पर मैला ढोने का काम, शौचालयों की साफ सफाई, मरे पालतू या शहरों में पाए जाने वाले जानवरों को आबादी से दूर करने, नाले नालियों की सफाई, शुष्क शौचालयों के टेंक की सफाई, चिकित्सालय में साफ सफाई, मलमूत्र साफ करने के काम आदि को करने वाले दलित सुमदाय के लोगों का जीवन स्तर और सामाजिक स्थितियां अन्य लोगों की तुलना में बहुत ही दयनीय है। सरकारों द्वारा इन्हें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल अवश्य ही किया जाता हो, पर इन्हें मुख्य धारा में शामिल होने नहीं दिया जाता है। सरकारों द्वारा दलित उत्थान के लिए बनाई गई योजनाओं का लाभ इस वर्ग के दलित लोगों को ही मिल पाता है, इस बात में कोई संदेह नहीं है।

गौरतलब है कि भारत सरकार ने अपनी दूसरी पंचवर्षीय योजना में सर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा को समाप्त करने की गरज से राज्यों और नगरीय निकाय संस्थाओं को शुष्क शौचालय बनाने के लिए नागरिकों को प्रोत्साहन देने के लिए वित्तीय प्रावधान भी किए थे। आश्चर्य तो तब होता है जब इतिहास पर नजर डाली जाती है। 1971 में भारत सरकार ने दस साल की आलोच्य अवधि में सर पर मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने हेतु चरणबध्द तरीके से अभियान चलाया था। दस साल तो क्या आज चालीस साल बीतने को हैं, पर यह कुप्रथा बदस्तूर जारी है।

इसके बाद 1993 में सरकार की तंद्रा टूटी थी, तब सफाई कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालय संनिर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम 1993 लागू किया गया था, जिसके तहत प्रावधान किया गया था कि जो भी व्यक्ति यह काम करवाएगा उसे एक वर्ष के कारावास और दो हजार रूपए अर्थदण्ड की सजा का भोगमान भुगतना पड सकता है। कानून के जानकार बताते हैं कि देश में कुछ इस तरह के कानून और भी अस्तित्व में हैं, जो सर पर मैला ढोने की प्रथा पर पाबंदी लगाते हैं। रोना तो इसी बात का है कि सब कुछ करने के बाद भी चूंकि जनसेवकों की नीयत साफ नहीं थी इसलिए इसे रोका नहीं जा सका।

सरकार द्वारा इस काम में संलिप्त लोगों के बच्चों को अच्छा सामाजिक वातावरण देने, साक्षर और शिक्षित बनाने के प्रयास भी किए हैं। सरकार ने इसके लिए बच्चों को विशेष छात्रवृति तक देने की योजना चलाई है। इसके तहत बच्चों को छात्रवृत्ति भी दी गई। मजे की बात यह है कि जिन परिवारों ने इस काम को छोडा और कागजों पर जहां जहां सर पर मैला ढोने की प्रथा समाप्त होना दर्शा दी गई वहां इन बच्चों की छात्रवृत्ति भी बंद कर दी गई है।

देश के पिता की उपाधि से अंलकृत राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम को भुनाने में कांग्रेस द्वारा अब तक कोई कोर कसर नही रख छोडी है। बापू इस अमानवीय प्रथा के घोर विरोधी थे। बापू द्वारा उस समय के अपने शौचालय को स्वयं ही साफ किया जाता था। सादगी की प्रतिमूर्ति महात्मा गांधी के नाम को तो खूब कैश कराया है कांग्रेस ने पर जब उनके आचार विचार को अंगीकार करने की बात आती है तब कांग्रेस की मोटी खाल वाले खद्दरधारी नेताओं द्वारा मौन साध लिया जाता है।

दलित अत्याचार के मामले में यूपी कम नहीं

दलित परिवारों को प्रश्रय देने में उत्तर प्रदेश काफी हद तक पिछडा माना जा सकता है। उत्तर प्रदेश में 2006 में एससी एसटी के 1759, 2007 में 2410, तो 2008 में 2390 मामले दर्ज किए गए। आईपीसी के मामलों ने तो सारे रिकार्ड ही ध्वस्त कर दिए। 2206 में 2238, 2007 में 3064 तो 2008 में इनकी संख्या बढकर 3543 हो गई थी। दलित महिलाओं की आबरू बचाने के मामले में 2006 से 2008 तक 255, 339 एवं 333 मामले प्रकाश में आए। ये तो वे आंकडे हैं जिनकी सूचना पुलिस में दर्ज है। गांव के बलशाली लोगों के सामने घुटने टेकने वाले वे मामले जो थाने की चारदीवारी तक पहुंच ही नहीं पाते हैं, उनकी संख्या अगर इससे कई गुना अधिक हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

खबरें तो यहां तक आ रहीं हैं कि दलित बच्चों के साथ शालाओं में भी भेदभाव किया जाता है। अनेक स्थानों पर संचालित शालाओं में दलित बच्चों को मध्यान भोजन के वक्त उनके घरों से लाए बर्तनों में ही खाना परोसा जाता है। इतना ही नहीं शिक्षकों द्वारा इन बच्चों को दूसरे बच्चों से अलग दूर बिठाया जाता है। देश के ग्रामीण अंचलों में आज भी दासता का सूरज डूबा नहीं है। आलम कुछ इस तरह का है कि दलित लोगों के साथ अन्याय जारी है। गांव के दबंग लोग इनसे बेगार करवाने में भी नहीं चूक रहे हैं। हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि आजादी के बासठ सालों बाद भी गांवों में बसने वाला भारत स्वतंत्रता के बजाए मध्य युगीन दासता में ही उखडी उखडी सांसे लेने पर मजबूर है।

-लिमटी खरे

कैसे लगे धनवंतरी के वंशजों पर अंकुश

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पीडित मानवता की सेवा का संकल्प लेने वाले हिन्दुस्तान के चिकित्सकों की मानवता कभी की मर चुकी है। आज के युग में चिकित्सा का पेशा नोट कमाने का साधन बन चुका है। आज के समय को देखकर कहा जा सकता है कि मरीज की कालर एक डाक्टर द्वारा बिस्तर पर ही पकडी जाती है। दवा कंपनियों की मिलीभगत के चलते मरीजों की जेब पर सीधे सीधे डाका डाला जा रहा है। चिकित्सकों और दवा कंपनियों ने मिलकर तंदरूस्ती हजार नियामत की पुरानी कहावत पर पानी फेरते हुए अपना नया फंडा इजाद किया है कि स्वास्थ्य के नाम पर जितना लूट सको लूट लो। इसी तारतम्य में स्वयंभू योग गुरू बाबा रामदेव ने बिना मेडीकल रिपर्जेंटेटिव ही स्वास्थ्य की उपजाउ भूमि पर न केवल अपना साम्राज्य स्थापित किया है, वरन् अब तो वे देश पर राज करने का सपना भी देखने लगे हैं। संस्कृत की एक पुरानी कहावत है, ”न दिवा स्वप्नं कुर्यात” अर्थात दिन में सपने नहीं देखना चाहिए, किन्तु बाबा रामदेव को लगता है कि योग के बल पर उन्होंने जो आकूत दौलत और शोहरत एकत्र की है, उसे वे भुना सकते हैं।

बहरहाल मेडीकल काउंसलि ऑफ इंडिया द्वारा इसी माह एक कोड लाने की तैयारी की जा रही है, जिसके तहत दवा कंपनियों से तोहफा लेने वाले चिकित्सकों का लाईसेंस रद्द किए जाने का प्रावधान है। एमसीआई द्वारा स्वास्थ्य के देवता भगवान धनवंतरी के वर्तमान वंशजों अर्थात चिकित्सकों पर लगाम कसने की कवायद की जा रही है। एमसीआई अपने इस कोड के निर्णय को अमली जामा कैसे पहनाती है, यह तो वक्त ही बताएगा किन्तु इस सबमें दवा कंपनियों की मश्कें कसने की बात कहीं भी सामने नहीं आई है। अर्थात कहीं न कहीं चोरी करने के लिए थोडी सी जमीन जरूर छोड दी गई है।

एमसीआई कोड के अनुसार चिकित्सक और उसके परिजन अब दवा कंपनियों के खर्चे पर सेमीनार, वर्कशाप, कांफ्रेंस आदि में नहीं जा सकेंगे। कल तक अगर चिकित्सक एसा करते थे, तब भी वे उजागर तौर पर तो किसी को यह बात नहीं ही बताते थे। इसके अलावा दवा कंपनियों के द्वारा चिकित्सकों को छुट्टियां बिताने देश विदेश की सैर कराना प्रतिबंधित हो जाएगा। चिकित्सक किसी भी फार्मा कंपनी के सलाहकार नहीं बन पाएंगे तथा मान्य संस्थाओं की मंजूरी के उपरांत ही शोध अथवा अध्ययन के लिए अनुदान या पैसे ले सकेंगे।

एमसीआई कोड भले ही ले आए पर चिकित्सकों के मुंह में दवा कंपनियों ने जो खून लगाया है, उसके चलते चिकित्सक इस सबके लिए रास्ते अवश्य ही खोज लेंगे। देखा जाए तो दुनिया का चौधरी अमेरिका इस मामले में बहुत ही ज्यादा सख्त है। अमेरिका में अनेक एसे उदहारण हैं, जिनको देखकर वहां के चिकित्सक और दवा कंपनी वालों की हिम्मत मरीजों की जेब तक हाथ पहुंचाने की नहीं हो पाती है। अमेरिका की एली लिली कंपनी ने तीन हजार चार सौ चिकित्सकों और पेशेवरों के लिए 2.20 करोड डालर (एक अरब रूपए से अधिक) दिए, बाद में गडबडियों के लिए उस कंपनी को 1.40 अरब डालर (64.40 अरब रूपए से अधिक) की पेनाल्टी भरनी पडी।

इसी तरह फायजर कंपनी ने चिकित्सकों और पेशेवरों के माध्यम से गफलत करने पर 2.30 अरब डॉलर (एक सौ पांच अरब रूपए से अधिक) का दण्ड भुगता। ग्लेक्सोस्मिथक्लाइन ने 30909 डालर (14 लाख रूपए से अधिक) के औसत से 3700 डॉक्टर्स को 1.46 करोड डालर (6.71 अरब रूपए से अधिक) दिए तो मर्क ने 1078 पेशेवरों को 37 लाख डालर (सत्रह करोड रूपए से अधिक) का भुगतान किया।

अमेरिका में फिजिशियन पेमेंट सानशाइन एक्ट लाया जा रहा है, जिसके तहत दवा कंपनियों को हर साल 100 डालर से अधिक के भुगतान की जानकारी देनी होगी। जानकारी देने में नाकाम या आनाकानी करने वाली कंपनी को हर भुगतान पर कम से कम 1000 डालर और जानबूझकर जानकारी छिपाने के आरोप में कम से कम दस हजार डालर का भोगमान भुगतना पडेगा।

दरअसल पेंच चिकित्सकों द्वारा लिखी जाने वाली दवाओं में है। निहित स्वार्थ और लाभ के लिए चिकित्सकों द्वारा कंपनी विशेष की दवाओं को प्रोत्साहन दिया जाता है। दवा कंपनी द्वारा अनेक लीडिंग प्रेक्टीशनर्स को पिन टू प्लेन सारी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं। चिकित्सकों के बच्चों की पढाई लिखाई से लेकर घर तक खरीदकर देती हैं, दवा कंपनियां। इसी बात से अंदाज लगाया जा सकता है कि दवा कंपनियों द्वारा चिकित्सकों के साथ मिलकर किस कदर मोनोपली मचाई जाती है, और मरीजों की जेब किस तरह हल्की की जाती है।

चिकित्सकों द्वारा सस्ती दवाएं नहीं लिखी जातीं हैं, क्योंकि जितनी मंहगी दवा उतना अधिक कमीशन उसे मिलता है। वहीं दूसरी ओर देखा जाए तो चिकित्सकों पर होने वाले खर्चे के कारण ही दवाओं की कीमतें आसमान छू रहीं हैं। बीते साल में ही दवाओं की कीमतों में 20 से 30 फीसदी तक इजाफा हुआ है। हृदय रोग के काम आने वाली दवाएं तो 70 फीसदी तक उछाल मार चुकीं हैं। कहा जाता है कि लगभग पचास फीसदी दवाएं तो अनुपयुक्त ही हैं। मर्क कंपनी की अथर्राइटिस की दवा वायोक्स के साईड इफेक्ट के मामले में कंपनी ने मौन साध लिया था। इसके सेवन से हार्ट अटैक की संभावनाएं बहुत ज्यादा हो जाती थीं। अनेक मौतों के बाद इस दवा को वापस लिया गया था।

महानगरों सहित लगभग समूचे हिन्दुस्तान के बडे शहरों में चिकित्सा की दुकानें फल फूल रही है, आम जनता कराह रही है, सरकारी अस्पताल उजडे पडे हैं, पर सरकारें सो रहीं हैं। नर्सिंग होम में चिकित्सकों के परमानेंट पेथालाजी लेब, एक्सरे आदि में ही टेस्ट करवाने पर चिकित्सक उसे मान्य करते हैं, अन्यथा सब बेकार ही होता है। कितने आश्चर्य की बात है कि सरकारी अस्पतालों में होने वाले टेस्ट को इन्हीं चिकित्सकों द्वारा सिरे से खारिज कर दिया जाता है। अगर वाकई सरकारी अस्पताल के टेस्ट मानक आधार पर सही नहीं होते हैं तो बेहतर होगा कि सरकारी अस्पतालों से इन विभागों को बंद ही कर देना चाहिए। यहां तक कि लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज के संसदीय क्षेत्र और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की कर्मभूमि विदिशा में जिला चिकित्सालय में पदस्थ सिविल सर्जन श्रीमति जैन के पास इतना समय है कि वे अस्पताल के ठीक गेट के सामने अपनी निजी चिकित्सा की दुकान चलाती हैं, और जनसेवक चुपचाप देख सुन रहे हैं।

चिकित्सकों पर अंकुश लगाने के लिए एमसीआई द्वारा नियमावली बनाई जा रही है, कहा जा रहा है कि मार्च माह में उसे लागू भी कर दिया जाएगा। इसके लिए विशेषज्ञों से सुझाव भी आमंत्रित करवाए जा रहे हैं। इस पाबंदी से डायरी, पेन, पेपवेट, कलेंडर जैसी चीजों को मुक्त रखा गया है। वैसे दवा कंपनियों से डी कंट्रोल श्रेणी की दवाओं के मूल्य निर्धारण का अधिकार छीनकर कुछ हद तक भ्रष्टाचार को रोका जा सकता है।

जब तक सरकार द्वारा चिकित्सकों के साथ ही साथ दवा कंपनियों पर अंकुश नहीं लगाया जाता तब तक मरीजों की जेब में डाका डालने का सिलिसिला शायद ही थम पाए। सरकार को अमेरिका जैसा कानून ”सख्ती” से लागू कराना होगा। दवा कंपनियों से यह कहना होगा कि वे किसी चिकित्सक विशेष के बजाए मेडीकल एसोसिएशन या चिकित्सकों की टीम के लिए स्पांसरशिप कर नई दवाओं की जानकारी दे। इसके अलावा एमसीआई को चिकित्सकों और जांच केंद्रों के बीच की सांठगांठ के खिलाफ कठोर पहल करनी होगी। मार्च माह में लागू किए जाने वाले कोड और आचार संहिता का पालन सुनिश्चित करने के लिए कठोर कदम ही उठाने आवश्यक होंगे।

भगवान धनवंतरी के आधुनिक वंशजों द्वारा मानवता की सेवा के लिए लिए गए संकल्प को पूरी तरह से भुला दिया गया है। आज सरकारी और गैरसरकारी चिकित्सकों द्वारा मरीजों को जमकर लूटा जा रहा है। चिकित्सकों और दवा कंपनियों द्वारा अपनी इस लूट से ”जनसेवकों” को मुक्त रखा गया है। कोई भी जनसेवक जब बीमार पडता है तो उसे देखने जाने वाले चिकित्सक द्वारा सैंपल में मिली दवाएं इंजेक्शन दिए जाते हैं, जिससे जनसेवक को पता ही नहीं चल पाता कि आम आदमी की कमर इन दोनों ही ने किस कदर तोडकर रखी है। इसके अलावा अगर चिकित्सकों को दिए जाने वाले नाट फार सेल वाले सैंपल और बाजार में मिलने वाली दवाओं के कंटेंट्स को ही मिला लिया जाए तो गुणवत्ता की कलई खुलने में समय नहीं लगे। एमसीआई द्वारा पहल जरूर की जा रही है, पर यह परवान चढ सकेगी इस बात में संदेह ही नजर आता है।

-लिमटी खरे

व्यंग्य/ दाल बंद, मुर्गा शुरु

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मैं उनसे पहली दफा बाजार में मदिरालय की परछाई में मिला था तो उन्होंने राम-राम कहते मदिरालय की परछाई से किनारे होने को कहा था। उन दिनों मैं तो परिस्थितियों के चलते शुद्ध वैष्‍णव था ही पर वे सरकारी नौकरी में होने के बाद भी इतने वैष्‍णव! मन उनके दर्शन कर आह्लादित हो उठा था। ये संसार बेकार निस्सार लगने लगा था। दोस्त की घरवाली से लंबी उनकी चोटी, माथे पर दस ग्राम खालिस चंदन का इस छोर से लेकर उस छोर तक लेप। कुरते के ऊपर से चार चार जनेऊ! हाथ में माला। मुंह में राम-राम! बगल में छुरी उस वक्त मुझे नहीं दिखी। उन्हें देखा तो लगा सरकारी दफ्तरों में धर्म अभी भी जैसे ऐसे ही सज्जनों के कारण बचा है। मन किया उनके चरणों की धूलि लेकर माथे पर अपने तो लगा ही लूं अपनी आने वाली संतानों को भी बचा कर रखूं। मन किया कि घर से भगवान का फोटो निकाल उनकी जगह बंदे का फोटो लगा दूं। पर डरा! अगर भगवान नाराज हो गए तो….

भगवान को सरकारी नौकरी दिलाने के लिए उस रोज भी मंदिर गया था सवा रुपये के लड्डू लेकर। बेराजगार बंदा किलो भर लड्डू चढ़ाने से तो रहा। ये काम तो पद का सदुपयोग करने वाले ही कर सकते हैं कि चोरी छिपे चढ़ा आए मंदिर में लाखों रूपए की पोटली और हो गए देश के महान दानी। जैसे ही मैंने रोते हुए भगवान के चरणों में ललचाए मन से वे लड्डू रख मन ही मन्नत की कि अगर अबके मैं सलैक्ट हो गया तो पांच किलो देसी घी में बने लड्डू चढ़ाऊं कि तभी पीछे से किसी ने मेरा कंधा झिंझोड़ा, ‘कौन??’ मैं घुटने टेके पीछे को हुआ तो पीछे खड़े ने कहा, ‘भगवान!’

‘पर भगवान तुम?? मेरे पीछे? मैं तो हमेशा सोचता रहा कि भगवान बंदे के आगे होते हैं।’

‘हां, मैं भगवान! यार! आजकल भक्तों के आगे आने से डर सा लग रहा है। क्यों, कोई शक?? ‘

‘कंगाली में तो गधे पर भी शक नहीं करना पड़ता भले ही वह अपने को घोड़ा कह रहा हो और आप तो भगवान हो।’ कह मैंने दोनों हाथ जोड़ दिए, गिड़गिड़ाया, ‘प्रभु! अबके बस इंटरव्यू में पार लगा दो। बस, फिर आप से कुछ मांगू तो नरक देना। देखो न,ओवरेज हो रहा हूं। षादी की उम्र तो निकल ही गई है। अब तो घरवाले लड़का होने के बाद भी मुझे अपने पर लड़की से अधिक भार समझने लगे हैं। प्रभु! अबकी बार मुझे अपने कंधों पर चढ़ा इंटरव्यू रूपी भवसागर पार करा दो। उसके बाद आप जो कहोगे करूंगा। ‘मैं जितना गिड़गिड़ा सकता था उनके आगे गिड़गिड़ाया तो उन्होंने इधर उधर देखा। उस वक्त पुजारी भी बाहर गया था। चारों ओर से निष्चिंत हो उन्होंने थके मन से कहा, ‘यार! नौकरी किसके चरणों में पड़कर मांग रहे हो? उठो और इस तरह गलत दरवाजे पर झोली फैलाना छोड़ो! ‘फिर अपनेपन से समझाते बोले, ‘सुनो जो सच कह रहा हूं। मेरे यहां आकर समय बरबाद मत करो नहीं तो अबके भी इंटरव्यू में रह जाओगे।’

‘तो किसके द्वारे जाऊं भगवन ! आपने तो बड़ों बड़ों को तारा तो अब मेरी बारी में हाथ खड़े क्यों?साफ क्यों नहीं कहते कि महंगाई के इस दौर में सवा रूपए के लड्डू कोई मायने नहीं रखते। आज आस्था मन से नहीं जेब से जुड़ गई है।’

‘यार उठो! बेकार में अपना और मेरा समय खराब न करो। जो कह रहा हूं ध्यान से सुनो! तुम्हारे ही नहीं तुम्हारे बाल बच्चों के भी काम आएगा जो विवाह हो गया तो। मैं तो आज की डेट में खुद असहाय हो गया हूं। मेरे से पावरफुल तो नेता लोग हैं। उनको पटाओ तो काम बने। मैं खुद उनको पटाने के चक्कर में हूं ताकि मुझे इस जेल से छुटकारा मिले। यहां तो मुझे चौबीसों घंटे धूर्त पुजारी यूज करने में जुटा है। तंग आ गया हूं इस पुजारी से। जब पुजारी कहे उठो। जब तक पुजारी कहे बैठे रहो, चुपचाप बैठे रहना पड़ता है। मेरा अपना अस्तित्व तो जैसे है ही नहीं। इससे बेहतर तो लगता है किसीके यहां बरतन मांज लूं। स्वतंत्रता तो होगी। यहां तो पुजारी का गुलाम बनकर रह गया हूं। इसलिए मेरी मानो तो किसी नेता को पटाओ और अपने ये सवा रूपए के लड्डू उठा भाग लो जबतक पुजारी लघु षंका से निवृत होकर आए। ये पुजारी सारा दिन मुझे भक्तों के सामने नचाता रहता है और रात को बोतल मेरे सामने ही गटक मुझे चिढ़ाता है। कई बार तो उसके घरवाले मुझे गालियां देते हुए उसे उठा कर ले जाते हैं। अब तो मन करता है सुसाइड कर लूं।’

भगवान के आदेशों का पालन करने के तत्काल बाद मैं सरकारी विभाग में फंस गया। बेरोजगार आत्मा को मुक्ति मिली। काश! भगवान ये पहले बता देते तो आज को पांच सात साल की नौकरी भी हो गई होती।

वे कल षाम अचानक ही फिर मिले। बाजार में उसी जगह। बिल्कुल मांसाहारी से। उन्हें मदिरालय की परछाई से किनारे ले जाने लगा पर वे वहीं डटे रहे। मन उन्हें देख कुछ दुखी हुआ। बढ़ी हुई तोंद। पूरा बदन यों जैसे चार सूअरों की चर्बी उठाए हों। हो सकता है बेचारों को कोई रोग लग गया हो। सरकारी नौकरी में कोई न कोई रोग तो लग ही जाता है। ये रोग भी न, शरीफों को ही रगड़ता है। मैंने उनके पांव छुए, ‘और कैसे हो?’

‘ठीक हूं सर! मैं सरकारी भी नौकर हो गया।’

‘तो बधाई!’ उनसे अपने किराए के कमरे में पधार उसे पवित्र करने के लिए गुहार लगाई तो सहज मान गए। सोचा मंहगाई के दौर में इन्हें अपने घर ले पुण्य भी कमा जाएगा और किराए का कमरा भी शुध्द हो जाएगा। बातों ही बातों में बातों का सिलसिला शुरू हुआ, ‘और भगवन! कैसे चली ही नौकरी?’

‘मेरी प्रमोशन हो गई है!’

‘तो बहुत बहुत बधाई! मैं मन कठोर कर मलका की दाल साफ करने लगा तो उन्होंने पूछा, ‘ये क्या कर रहे हो?’

‘आपके लिए वैष्‍णवी भोजन…’

‘ये दाल शाल परे करो यार! क्या मरीजों का खाना खिला रहे हो। कुछ मुर्गा शुर्गा हो यार!’ कह वे अपने होंठ चबाने लगे।

‘मतलब???? मुझे काटो तो खून नहीं।’

‘यार! तब वैश्णव होना पदीय विवशता थी। अब अफसर हो गया हूं। वह भी ऐसे विभाग में जहां कब्ज के चलते मुंह लाख बंद भी रखो पर लोग हैं कि तब भी मुंह में कुछ न कुछ घुसेड़ ही जाते हैं। ये देखो! चार महीने में ही चौथी बार दांत बदलने पड़े हैं। दांत मुश्किल से बीस दिन भी निकाल पाते।’

-अशोक गौतम