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बापू से प्रभावित थे मार्टिन लूथर

gandhi_jiबापू अब अमेरिकियों को खूब भा रहा है। अमेरिकी हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव्स ने एक ऐसा प्रस्ताव पारित किया है, जिसमें इस बात का जिक्र है कि आम नागरिकों के अधिकार की लड़ाई लड़ने वाले मार्टिन लूथर किंग जूनियर पर महात्मा गांधी का प्रभाव था। प्रस्ताव में कहा गया है कि गांधी की विचारधारा से प्रेरित होकर ही मार्टिन लूथर ने अहिंसा को अपना हथियार बनाया था।

मार्टिन लूथर वर्ष 1959 में भारत की यात्रा की थी। उनकी इस यात्रा के स्वर्ण जयंती वर्ष के मौके पर बुधवार को इस प्रस्ताव को पारित किया गया है। इस प्रस्ताव में साफ-साफ कहा गया है कि लूथर ने गांधीवादी विचारधारा का गहरा अध्ययन किया था।

प्राप्त खबर के मुताबिक प्रस्ताव में कहा गया कि लूथर पर उनकी भारत यात्रा का गहरा असर रहा। इस यात्रा से उन्हें सामाजिक बदलाव के लिए बतौर हथियार अहिंसा का इस्तेमाल करने की प्रेरणा मिली। इससे उनके नागरिक अधिकारवादी आंदोलन को खास दिशा मिली।

उल्लेखनीय है कि अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन एक सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल को भारत रवाना करने वाली हैं। इस सांस्कृतिक दल को लूथर की भारत यात्रा की स्वर्ण जयंती के उपलक्ष्य में रवाना किया जा रहा है। यह प्रतिनिधिमंडल सबसे पहले दिल्ली पहुंचेगा और फिर गांधी की विरासत से जुड़े कुछ स्थलों का दौरा करेगा।*

भोपाल की फिजा में वेलेंटाइन डे का तड़का

ca6bepwlभोपाल, 14 फरवरी (आईएएनएस) भोपाल में वेलेंटाइन डे की गरमाहट आने लगी है। एक तरफ कुछ लोग 14 फरवरी को विशेष आयोजनों की तैयारी में जुटे हैं, जबकि दूसरी तरफ बजरंग दल जैसे कुछ संगठन इसके खिलाफ अभियान चलाने को तैयार हैं। पुलिस भी इन स्थितियों से निपटने को तैयार दिख रही है।

वेलेंटाइन डे को लेकर पिछले कुछ वर्षों से इसके समर्थन और विरोध में आवाजें उठती रही हैं। बजरंग दल ने इस दिन को भारतीय संस्कृति के खिलाफ करार देते हुए इसका विरोध किया है। इस दल ने घोषणा की है कि वह हर पार्क और चौराहे पर कड़ी नजर रखेगा। साथ ही उसे प्यार के कसीदे कड़ते जो भी जोड़े नजर आएंगे उनकी वह शादी कराएगा।

दूसरी ओर भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन ने भोपाल में सदबुद्घि यज्ञ किया। संगठन के कार्यकर्ताओं ने यज्ञ में आहुतियां देकर ईश्वर से प्रार्थना की कि वह वेलेंटाइन डे का विरोध करने वालों को सदबुद्घि दें, जिससे वे समाज में अशांति फैलाने की मंशा त्याग दें।

भोपाल पुलिस के अधिकारी ने बताया कि वेलेन्टाइन डे पर किसी भी तरह का हुड़दंग बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। गड़बड़ी फैलाने वालों से पुलिस सख्ती से निपटेगी।

बाल अधिकार आयोग ने माना बच्चों की हालत ठीक नहीं

hungry-child-in-india-small1 राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की अध्यक्ष शान्ता सिन्हा ने कहा है कि वर्तमान व्यवस्था बच्चों के जीवन के अधिकार को संरक्षित कर पाने में नाकाम रही है। उन्होंने कहा कि जरूरत इस बात की है कि जो भी बच्चा जन्म ले उसे हर हाल में जीवित रखा जाए।

मध्य प्रदेश के सतना जिले के मझगवां विकास खंड में जन सुनवाई में हिस्सा लेने आईं सिन्हा का मानना है कि बच्चों की मौत चाहे कुपोषण से हुई हो अथवा किसी अन्य वजह से। लेकिन, ऐसी मौतें तो हमारी व्यवस्था पर सवाल खड़े करने वाली हैं। उन्हें यह मानने में जरा भी हिचक नहीं है कि कुपोषण की स्थिति गंभीर है और इससे बच्चों की असमय मौत हो रही है।

 उन्होंने यहां जन सुनवाई के दौरान अपने से मिलने आए विभिन्न जन संगठनों से चर्चा करते हुए कहा कि हमें बच्चों की मौत के सच को स्वीकारना होगा। वर्तमान स्थिति में सरकारी अमले को एक दूसरे पर दोषारोपण करने से अलग सच को स्वीकार कर इस समस्या से निपटना चाहिए।

आयोग की कुपोषण विशेषज्ञ डा. वंदना प्रसाद ने किरहाई पुखरी गांव का दौरा करने के बाद बताया कि कुपोषण को समझने के लिए किसी विशेषज्ञ की जरूरत नहीं है। बच्चों की शारीरिक हालत देखकर ही हकीकत का अंदाजा लग जाता है।

एसएमएस से भावनाओं का इजहार करने में आगे हैं महिलाएं

t-mobile-mda महिलाएं बेशक प्रत्यक्ष रूप से अपनी भावना का इजहार करने में पुरुषों की अपेक्षा अधिक सकुचाती हैं। लेकिन, संचार के नए माध्यमों के जरिए अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में वे पुरुषों से आगे हैं। यहां उनका वैचारिक खुलापन भी अधिक झलकता है।

तकनीकी ने महिलाओं की सोच में खुलेपन और उदारता का पुट दिया है। अमेरिका के एक विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने पाया कि जब महिलाओं को किसी मेलजोल कार्यक्रम के दौरान मोबाइल के जरिए भावना का इजहार करने की छूट दी गई तो वे इस मामले में पुरुषों से आगे निकल गईं। महिलाएं दिल की गहराइयों में छिपी भावना, चाहे वह रोमांस हो या कोई और  इसके लिए भाषाई अनुशासन को तोड़ने से वे परहेज नहीं करती।

 शोधकर्ताओं ने पाया कि महिलाओं ने एसएमएस के जरिए अपनी भावना का खुले मन से इजहार किया, जबकि पुरुषों के एसएमएस में झिझक का पुट दिखा। इस शोधकार्य के दौरान करीब 1164 एमएमएस का अध्ययन किया गया।

शोधकर्ताओं ने बताया कि प्रत्यक्ष इजहार के मामले में महिलाएं शिष्टाचार का भरपूर ख्याल रखती हैं, लेकिन मोबाइल के जरिए भेजे गए अपने संदेश में वे रोमांस आदि मसलों पर अधिक मुखर हो जाती हैं। वे संक्षिप्त शब्दों का इस्तेमाल कर इजहार को नाटकीय और असरदार बनाने में ज्यादा दिलचस्पी लेती हैं।

बांग्लादेश में मिला रवींद्रनाथ का लिखा खत

ravindra-nath-tagoreबीसवीं सदी के प्रारंभ में नोबल पुरस्कार से सम्मानित विश्व विख्यात बांग्ला भाषी कवि रवींद्रनाथ ठाकुर का लिखा एक खत बांग्लादेश के बज्र देहाद में मिला है। ठाकुर के निधन के ठीक 66 वर्षों बाद मिला यह पत्र उनसे जुड़ी एक अमूल्य निशानी है।

पूरे छह पन्नों का यह पत्र बांग्लादेश के नवगांव जिले के पातीसार गांव से प्राप्त हुआ है। सिराजगंज जिले में रवींद्रनाथ कच्चरीबारी संग्रहालय की कर्ताधर्ता ने इस बाबत जानकारी दी है। जानकारी के मुताबिक पत्र में पश्चिम बंगाल के बोलापुर के किसी व्यक्ति का पता दर्ज है। पत्र में खास बात यह है कि इसमें ठाकुर की जन्मतिथि छह मई, 1861 बताई गई है। एक स्थानीय समाचार पत्र डेली स्टारके मुताबिक पत्र पर भद्र 28, बंगाली वर्ष 1317 की तारीख दर्ज है।बांग्लादेश पुरातत्व विभाग का मानना है कि ठाकुर द्वारा लिखे गए किसी पत्र की पांडुलिपि देश के किसी भी संग्रहालय में नहीं है।

अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारतीय संगीतकारों का डंका बजा

a_r_rahmanभारतीय संगीतकारों का इन दिनों अंतर्राष्ट्रीय मंच पर डंका बजा रहा है। उन्हें खूब वाह-वाही मिल रही है। अभी-अभी देश के दो दिग्गज संगीतकार ए.आर. रहमान और मशहूर तबला वादक जाकिर हुसैन को अलगअलग अंतर्राष्ट्रीय संगीत सम्मान से नवाजा गया।

एक तरफ रहमान ब्रिटिश अकादमी ऑफ फिल्म एंड टेलीविजन आर्ट्स (बाफ्टा)सम्मान प्राप्त करने में सफल रहे। वहीं दूसरी तरफ दुनिया भर को अपने तबले की थाप से मंत्रमुग्ध करने वाले हुसैन ग्रैमी अवार्ड से नवाजे गए हैं।

हालांकि रहमान स्लमडॉग मिलियनेयरके लिए पहले ही गोल्डन ग्लोब अवार्ड प्राप्त कर चुके हैं। उन्हें इसी फिल्म के लिए बाफ्टा ने भी सम्मानित किया है, जबकि हुसैन ने अपने  एलबम ग्लोबल ड्रम प्रॉजेक्टके लिए यह अवार्ड हासिल किया है। गौरतलब है कि उन्हें कन्टेंपरेरी वर्ल्ड म्यूजिक एलबमवर्ग के लिए नामांकित किया गया था।

रहमान को तो ऑस्कर के लिए भी नामांकित किया गया है। वे आस्कर के तीन वर्गो में नामांकित किए गए हैं। अब ऐसा महसूस होने लगा है कि पश्चिमी देश के लोग भारतीय संगीतकारों के हुनर को पहचानने लगे हैं।

 

zakirhussain

हीरामन की बैलगाड़ी अब भी है सुरक्षित

harimancortपटना। सन 1966 में बनी यादगार फिल्म तीसरी कसम की चर्चा मात्र से साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु की खूब याद आती है। जिले के कसबा प्रखंड के बरेटा गांव में मौजूद एक बैलगाड़ी भी इसी की एक कड़ी है। यह वही बैलगाड़ी है जिसपर फिल्म के नायक हीरामन यानी हिन्दी सिनेमा के शोमैन राजकपूर ने सवारी की थी। 

गाड़ी की खासियत यहीं खत्म नहीं होती है। इसपर अक्सर खुद रेणु भी सवार होकर गढ़बनैली स्टेशन आयाजाया करते थे। साथ ही तीसरी कसम से जुड़ी कई फिल्मी हस्तियों ने गाड़ी पर सफर किया था।

हाल ही में एक दैनिक अखबार में छपी रपट से यह बात सामने आई। इस बैलगाड़ी को तीसरी कसम फिल्म के मुहूर्त में भी शामिल किया गया था। रेणु ने भी अपनी कुछ रचनाओं में इस बैलगाड़ी से अपने लगाव का जिक्र किया है। 

खैर, बैलगाड़ी से रेणु के गहरे प्रेम का ही नतीजा है कि आज भी उनका भांजा और बरेटा गांव के तेजनारायण विश्वास ने उसे घर में धरोहर की तरह संभाल कर रखा है। गौरतलब है कि तीसरी कसम फिल्म रेणु की कहानी मारे गये गुलफाम पर आधारित है। साथ ही फिल्म के कई दृश्यों की शूटिंग भी इसी इलाके में की गई थी। इसी क्रम में फिल्म के नायक राजकपूर व नायिका वहीदा रहमान जिस गाड़ी पर गुलाबबाग आतेजाते दिखायी पड़ते हैं, वह गाड़ी रेणु की बड़ी बहन की थी। 

हालांकि अब उनकी बहन इस दुनिया में नहीं रहीं। लेकिन बहन की इच्छा को ध्यान में रखते हुए उनके पुत्र आज भी इस गाड़ी को रखे हुए हैं और उसमें रेणु की छवि देखते हैं। तेजनारायण विश्वास बतलाते हैं कि रेणु जी जब कभी उनके गांव आते थे, गढ़बनैली स्टेशन उन्हें लेने यही गाड़ी जाती थी। फिर इसी गाड़ी से उन्हें स्टेशन भी छोड़ा जाता था।

खास आकार के चलते इस गाड़ी से उन्हें बेहद प्रेम हो गया था। जब तीसरी कसम फिल्म निर्माण की बात सामने आई तो रेणु ने बिना सोचे ही फिल्म में इस गाड़ी के उपयोग की बात राजकपूर के समक्ष रखी थी। 

विश्वास के मुताबिक एक संस्मरण में इस बात की झलक भी है। चूनांचे , रेणु की यादों को संजोये इस बैलगाड़ी का भविष्य क्या होगा, यह बताना मुश्किल है। क्योंकि, यह जानकारी कम ही लोगों के पास है।

महात्मा गांधी का आर्थिक चिन्तन

economics_ashram_lg1किसी भी देश की उन्नति और विकास इस बात पर निर्भर होते हैं कि वह देश आर्थिक दृष्टि से कितनी प्रगति कर रहा है तथा औद्योगिक दृष्टि से कितना विकास कर रहा है।आज भारतवर्ष का कौन ऐसा नागरिक है जो महात्मा गांधी के नाम तथा राष्ट्र-निर्माण में उनके कार्यकलाप से भली-भांति अवगत नहीं है!

महात्मा गांधी उच्च कोटि के चिंतक थे। उनके बारे में विश्वविख्यात वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्सटाइन का यह मत है कि-”हम बड़े भाग्यशाली हैं और हमें कृतज्ञ होना चाहिए कि ईश्वर ने हमें ऐसा प्रकाशमान समकालीन पुरुष दिया है-वह भावी पीढ़ियों के लिए भी प्रकाश-स्तंभ का काम देगा।”

ग्राम-विकास को प्राथमिकता

महात्मा गांधी भारतवर्ष को आत्मनिर्भर देखना चाहते थे। उन्होंने माना था कि भारत की आत्मा गांवों में निवास करती है, इसलिए उनका दृष्टिकोण था कि भारत को विकास-मार्ग पर ले जाने के लिए ‘ग्राम-विकास’ प्राथमिक आवश्यकता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सर्वोपरि स्थान दिया था। उनकी दृष्टि में इस अर्थव्यवस्था का आधार था-‘ग्रामीण जीवन का उत्थान’। इसीलिए, गांधीजी ने बड़े-बड़े उद्योगों को नहीं, वरन् छोटे-छोटे उद्योगों (कुटीर उद्योगों) को महत्व प्रदान किया, जैसे-चरखे द्वारा सूत कताई, खद्दर बुनाई तथा आटा पिसाई, चावल कुटाई और रस्सी बांटना आदि।

‘हिन्द स्वराज’ में उन्होंने विशाल उद्योगों एवं मशीनीकरण की कड़ी भर्त्सना की है। चरखे को वह भौण्डेपन का नहीं, वरन् श्रम की प्रतिष्ठा का प्रतीक समझते थे। चरखे पर सूत कातने में ‘चित्त की एकाग्रता’ बनाने की आवश्यकता पड़ती है। सन् 1923 ई. में उन्होंने ‘अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ’ की भी स्थापना की थी, जिसका मूल उद्देश्य था-घरेलू तथा ग्रामीण उद्योगों को उन्नत बनाना।

ट्रस्टीशिप का सिध्दांत

गांधीजी शिक्षा से अर्थशास्त्री नहीं थे, किन्तु इस विषय में भी उनका चिन्तन क्रांतिकारी है। उन्होंने कहा था कि अपनी जरूरत से अधिक संग्रह करने का अर्थ है-‘चोरी’। उनके मतानुसार अर्थशास्त्र एक नैतिक विज्ञान है- ”इंसान की कमाई का मकसद केवल सांसारिक सुख पाना ही नहीं, बल्कि अपना नैतिक और आत्मिक विकास करना है।” इसीलिए उन्होंने त्यागमय उपभोग की बात का समर्थन किया था।

आर्थिक समानता और पूंजीपतियों की भोगवादी महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगाने के लिए उन्होंने ‘ट्रस्टीशिप’ का विचार प्रस्तुत किया था। उनका मानना था कि पूंजीपति सामाजिक सम्पत्ति का ट्रस्टी या संरक्षक मात्र है। वस्तुत: गांधीजी का आर्थिक चिन्तन ‘नैतिक आदर्शों पर स्थापित समाजवाद’ या रामराज्य है।

गांधीजी ने यह माना था कि हर नागरिक को अपनी आजीविका ‘शारीरिक परिश्रम’ के द्वारा कमानी चाहिए। उन्होंने बुध्दिजीवी के लिए भी ‘शारीरिक परिश्रम’ की शिक्षा दी थी। इस बात को गांधीजी ने ‘रोटी का परिश्रम’ कहा था।

बुनियादी शिक्षा योजना

शिक्षा के बारे में गांधीजी का दृष्टिकोण वस्तुत: व्यावसायपरक था। वह ‘बुनियादी तालीम’ के पक्षधर रहे थे। उनका मत था कि भारत जैसे गरीब देश में शिक्षार्थियों को शिक्षा प्राप्त करने के साथ-साथ कुछ धनोपार्जन भी कर लेना चाहिए जिससे वे आत्मनिर्भर बन सकें। इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने ‘बर्धा-शिक्षा-योजना’ बनायी थी। शिक्षा को लाभदायक एवं अल्पव्ययी करने की दृष्टि से सन् 1936 ई. में उन्होंने ‘भारतीय तालीम संघ’ की स्थापना की।

गांधीजी का क्रांतिकारी चिन्तन आज भी सार्थक एवं अनुकरणीय है। उनके चिन्तन के आधार पर अनेक समस्याओं के समाधान उपस्थित किए जा सकते हैं। हमें यह बात कहने में कोई आपत्ति नहीं है कि भारत की आर्थिक-औद्योगिक व्यवस्था को लेकर गांधीजी का जो जीवन-दर्शन देशवासियों को उपलब्ध हुआ है, वह सदैव उपयोगी रहेगा।

-डॉ. महेशचन्द्र शर्मा

रीडर एवं अध्यक्ष,
हिंदी विभाग, लाजपतराय कॉलेज,
128ए, श्याम पार्क (मेन), साहिबाबाद,
गाजियाबाद-201005

फोटो साभार- https://www.calpeacepower.org/

गोविंदाचार्य से ब्रजेश कुमार झा की बातचीत

govindji__27प्रश्न- आपने गत 14 और 15 जनवरी को इलाहाबाद में देश की छोटी-छोटी पार्टियों के साथ एक बैठक की थी। इस बैठक में क्या हुआ ?

उत्तर- देश के विभिन्न प्रांतों में सक्रिय कई छोटी राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधि के साथ इस बैठक में सामाजिक कार्यकर्ता व विभिन्न विषयों के जानकार भी शामिल हुए। वे सभी देश की मौजूदा राजनीतिक तंत्र की बदहाली से खासे चिंतित दिखे। अब सभी इस बात से सहमत हैं कि सुधार की छोटी-बड़ी कोशिशों के बावजूद देश की राजनीति निरंतर अमीरपरस्त, विदेशपरस्त होने के साथ दबंग लोगों के गिरोह में तबदील हो रही है। वर्तमान चुनाव प्रक्रिया में सज्जन शक्ति का चुन कर आना नामुमकिन होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में चुनाव प्रक्रिया में सुधार की तत्काल जरूरत है। इस बाबत आम सहमति से राष्ट्रवादी मोर्चा का गठन किया गया है। यह मोर्चा चुनाव सुधार प्रक्रिया के लिए चौतरफा प्रयास करेगा।

प्रश्न- इस काम को राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन अपने तरीके से कर ही रहा है। फिर नए मोर्चे की जरूरत क्यों पड़ी ?

उत्तर- यह सही है। लेकिन, किसी राजनीतिक पार्टी का कार्यकर्ता राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन का सक्रिय सदस्य नहीं बन सकता है। जबकि, सक्रिय राजनीति में कई ऐसे लोग हैं जो वर्तमान चुनाव प्रक्रिया में बुनियादी स्तर पर मौजूद कमियों को महसूस कर रहे हैं। वे एक ऐसे मंच की तलाश में थे, जहां से इस दिशा में सार्थक पहल की जा सके। पिछले दिनों प्रवास के दौरान मेरी कई लोगों से मुलाकात हुई और तब एक सही मोर्चा के गठन की जरूरत महसूस हुई।

प्रश्न- बैठक में किन-किन पार्टियों के प्रतिनिधि शामिल थे ?

उत्तर- कई पार्टियों के प्रतिनिधि थे। इनमें डा. स्वामी की जनता पार्टी, भारतीय जनशक्ति पार्टी, जागृत भारत पार्टी, सद्भावना पार्टी, राष्ट्रीय क्रांति पार्टी आदि के प्रतिनिधि थे। साथ ही पहले से संविधान में सुधार व चुनाव सुधार की जरूरत पर बल देते हुए गंभीर बहस चला रहे बुद्धीजीवी भी बैठक में शामिल हुए यानी कुल 44 लोग थे।

प्रश्न- राष्ट्रवादी मोर्चा में शामिल राजनीतिक पार्टियां आगामी आम चुनाव में क्या एक साथ मैदान में उतरने की तैयारी में है ?

उत्तर- मैं इतना कह सकता हूं कि यह मंच सभी पार्टियों के बीच समझ का एका बनाएगा। साथ ही वर्ष 2009 में होने वाले आम चुनाव से पहले चुनाव प्रक्रिया में सुधार के लिए चुनाव आयोग के समक्ष एक संवर्धित चुनाव सुधार पत्रक प्रस्तुत करेगा।

प्रश्न- चुनाव प्रक्रिया में सुधार के लिए आपकी क्या मांगे हैं ?

उत्तर- आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए पहली और सबसे छोटी मांग है कि वोटिंग मशीन (ईवीएम) में तमाम बटनों के साथ एक बटन यह भी लगा हो कि इनमें से कोई प्रत्यासी उचित नहीं । ताकि उम्मीदवार पसंद न आने के बावजूद मतदाताओं के पास अपने विचार अभिव्यक्त करने का विकल्प वहां मौजूद हो। दूसरी बात चुनाव अभियान के दौरान खर्च की जाने वाली राशि ठीक व इमानदारी से तय की जाए, जिससे पार्टी या उम्मीदवार को मुकाबला मूल्यों और मुद्दों के आधार पर लड़े के लिए बाध्य किया जा सके। किसी को संसाधनों के बेजा इस्तेमाल की छूट न दी जाए। ये दो छोटी मांगे हैं। इसपर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

प्रश्न- कई लोग मानते है कि राष्ट्रवादी मोर्चा लालकृष्ण आडवाणी के प्रधानमंत्री बनने में बाधा उत्पन्न कर सकता है !

उत्तरसबों को सोचने व समझने का अधिकार है। पर मैं यह कहूंगा कि न काहू से दोस्ती न काहू से बैर।

प्रश्न- राष्ट्रवादी मोर्चा में शामिल लोग यदि अपनी चुनावी सभा में आपको बुलाते हैं तो क्या आप जाएंगे ?

उत्तर- मुझे नहीं लगता कि कोई प्रत्यासी अपनी चुनावी सभा में भीड़ कम करने के लिए ऐसा करेंगे। यदि वे ऐसा करेंगे तो देखा जाएगा।

सुरा पर फिदा तहजीब – ब्रजेश झा

20090129pubattackपब संस्कृति को खत्म करने के नाम पर श्रीराम सेना के लोगों ने बड़ा उत्पात मचाया। इस दौरान युवतियों के साथ जो बेअदबी हुई, उससे भारतीय संस्कृति से जुड़े कई गहरे सवाल खड़े हुए हैं। इसपर बहस जारी है और यह जरूरी है।

दरअसल, खान-पान निहायत व्यक्तिगत पसंद की चीज है। किसी भी तरह के खाने-पीने की आदतों व शौकों से उस जगह की तहजीब खूब समझ में आती है। लेकिन, उदार बाजारवाद की बयार ने इस तहजीब को बदला है। जहांजहां यह बयार पहुंची है, वहां ठेठ देशी संस्कृति आहत हुई है। आप खुद देख लें ! अब ज्यादातर समौसे की दुकान से सरसों की चटनी गायब है। बोतलबंद सॊस हावी है। दूसरी तरफ अब लोग लिट्टी खाकर उतना लुत्फ नहीं उठाते, जितना मोमोज खाकर उठाते हैं।

हालांकि, इस देश में पब का विकल्प भी जमाने से मौजूद है। इस देश की देहाती-दुनिया में आबादी से दूर कलाल-खाना (मद्यशाला) सेवा चलती रही है। दारू व ताड़ी के मुरीद वहां मजे से अपना शौक पूरा करते हैं। पर, इस कलाल-खाने से निकलकर कोई रईसजादा राहगीरों को नहीं कुचलता है। वहां किसी युवती को भी गोली नहीं मारी जाती है और न ही कोई सेना धमाचौकड़ी मचाती है। लेकिन, जब बाजार उदार हुआ तो इस मामले को लेकर कुछ लोग ज्यादा ही उदार हो गए। बड़े शहरों में शराबनोशी का अंदाज इससे बड़ा प्रभावित व प्रोत्साहित हुआ। मजे की बात यह है कि पहले शराबखोरी छिपकर होती थी। अब यह पार्टियों के ठाठ की पहचान बन गई है। इसके बारी-बारी से कई रंग दिख रहे हैं आम जनजीवन भी प्रभावित हो रहा है।

सिनेमा व टेलीविजन भी इस मामले में समय के साथ कमदताल कर रहा है। पेज थ्री के नामवर बंदे यहां दर्शन देने लगे। इससे शहरी समाज में संदेश गया कि भई, शराब तो हमारी तहजीब का हिस्सा है। और पब उनमुक्तता का प्रतीक। कलाल-खाना की तरह पब शहर व आबादी से दूर नहीं खोला जाता, बल्कि प्रमुख चौराहे पर जगह तलाशी जाती है। एक और बात यह है कि शहरी समाज पर हावी हो रही इस नई तहजीब को बारीकी से समझने के लिए उन चेहरों की पहचान, उनके दैनिक जीवन की जरूरतों, उलझनों व जटिलताओं को समाजशास्त्रीय निगाह से जानना होगा।

लेकिन, मालूम पड़ता है कि श्रीराम सेना को इतनी फुर्सत नहीं। वे लोग एक समस्या का दूसरी बड़ी समस्या खड़ी कर हल ढूंढ़ रहे हैं। दरअसल, नोट और वोट के इस दौड़ में सबों की अपनी डफली और अपना राग है। पर इसमें दोराय नहीं कि सुरा पर देशी तहजीब कुछ ज्यादा ही फिदा है। *

वैयक्तिक अधिकार व पब कल्चर के बीच पिसता समाज व शालीनता

20070507pub01भारतीय संस्कृति के समुद्र में अनेक संस्कृतियां समाहित हैं। भारत की धरती पर अब एक नई संस्कृति उभर रही है पब कलचर। इस नई संस्कृति के उदगम में समाज नहीं वाणिज्य और बाज़ारभाव का योगदान अमूल्य है। पर मंगलौर में एक पब में जिस प्रकार से महिलाओं और लड़कियों पर हाथ उठाया गया वह तो कोई भी संस्कृति –और कम से कम भारतीय तो बिल्कुल ही नहीं– इसकी इजाज़त नहीं देती। इसकी व्यापक भर्त्सना स्वाभाविक और उचित है क्योंकि यह कुकर्म भारतीय संस्कृति के बिलकुल विपरीत है।

पब एक सार्वजनिक स्थान है जहां कोई भी व्यक्ति प्रविष्ट कर सकता है। यह ठीक है कि पब में जो भी जायेगा वह शराब पीने-पिलाने, अच्छा खाने-खिलाने और वहां उपस्थित व्यक्तियों के साथ नाचने-नचाने द्वारा मौज मस्ती करने की नीयत ही से जायेगा। पर साथ ही किसी ऐसे व्यक्ति के प्रवेश पर भी तो कोई पाबन्दी नहीं हो सकती जो ऐसा कुछ न किये बिना केवल ठण्डा-गर्म पीये और जो कुछ अन्य लोग कर रहे हों उसका तमाशा देखकर ही अपना मनोरंजन करना चाहे।

व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और उच्छृंखलता में बहुत अन्तर होता है। जनतन्त्र में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की तो कोई भी सभ्य समाज रक्षा व सम्मान करेगापर उच्छृंखलता सहन करना किसी भी समाज के लिये न सहनीय होना चाहिये और न ही उसका सम्मान। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की दोहाई के पीछे है हमारी गुलामी की मानसिकता जिसके अनुसार पश्चिमी तथा विदेशी संस्कृति में सब कुछ अच्छा है और भारतीय में बुरा। हम इस हीन भावना से अभी तक उबर नहीं पाये हैं। इसलिये हम उस सब की हिमायत करते हैं जो हमारे संस्कार व संस्कृति के विपरीत है और बाहरी संस्कृति में ग्राहय। इसलिये पब जैसे सार्वजनिक स्थान पर तो हर व्यक्ति को मर्यादा में ही रहना होगा और ऐसा सब कुछ करने से परहेज़ करना होगा जिससे वहां उपस्थित कोई व्यक्ति या समूह आहत हो। क्या स्वतन्त्रता और अधिकार केवल व्यक्ति के ही होते हैं समाज के नहीं? क्या व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और अधिकार के नाम पर समाज की स्वतन्त्रता व अधिकारों का हनन हो जाना चाहिये? क्या व्यक्तिगत स्वतन्त्रता (व उच्छृंखलता) सामाजिक स्वतन्त्रता से श्रेष्ठतम है?

व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की दोहाई के पीछे है हमारी गुलामी की मानसिकता जिसके अनुसार पश्चिमी तथा विदेशी संस्कृति में सब कुछ अच्छा है और भारतीय में बुरा। हम इस हीन भावना से अभी तक उबर नहीं पाये हैं। इसलिये हम उस सब की हिमायत करते हैं जो हमारे संस्कार व संस्कृति के विपरीत है और बाहरी संस्कृति में ग्राहय।

एक सामाजिक प्राणी को ऐसा कुछ नहीं करना चाहिये जो उसके परिवार, सम्बन्धियों, पड़ोसियों या समाज को अमान्य हो। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की दोहाई देने का तो तात्पर्य है कि सौम्य स्वभाव व शालीनता व्यक्तिगत स्वतन्त्रता व अधिकार के दुश्मन हैं।

जो व्यक्ति अपना घर छोड़कर कहीं अन्यत्र –बार, पब या किसी उद्यान जैसे स्थान पर — जाता है, वह केवल इसलिये कि जो कुछ वह बाहर कर करता है वह घर में नहीं करता या कर सकता। कोई व्यक्ति अपनी पत्नी से किसी सार्वजनिक स्थान पर प्रेमालाप के लिये नहीं जाता। जो जाता है उसके साथ वही साथी होगा जिसे वह अपने घर नहीं ले जा सकता। पब या कोठे पर वही व्यक्ति जायेगा जो वही काम अपने घर की चारदीवारी के अन्दर नहीं कर सकता।

व्यक्ति तो शराब घर में भी पी सकता है। डांस भी कर सकता है। पश्चिमी संगीत व फिल्म संगीत सुन व देख सकता है। बस एक ही मुश्किल है। जिन व्यक्तियों या महिलाओं के साथ वह पब या अन्यत्र शराब पीता है, डांस करता है, हुड़दंग मचाता है, उन्हें वह घर नहीं बुला सकता। यदि उस में कोई बुराई नहीं जो वह पब में करता हैं तो वही काम घर में भी कर लेना चाहिये। वह क्यों चोरी से रात के गहरे अन्धेरे में वह सब कुछ करना चाहता हैं जो वह दिन के उजाले में करने से कतराता हैं? कुछ लोग तर्क देंगे कि वह तो दिन में पढ़ता या अपना कारोबार करता हैं और अपना दिल बहलाने की फुर्सत तो उसें रात को ही मिल पाती है। जो लोग सारी-सारी रात पब में गुज़ारते हैं वह दिन के उजाले में क्या पढ़ते या कारोबार करते होंगे, वह तो ईश्वर ही जानता होगा। वस्तुत: कहीं न कहीं छिपा है उनके मन में चोर। उनकी इसी परेशानी का लाभ उठा कर पनपती है पब संस्कृति और कारोबार।

व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की दोहाई के पीछे है हमारी गुलामी की मानसिकता जिसके अनुसार पश्चिमी तथा विदेशी संस्कृति में सब कुछ अच्छा है और भारतीय में बुरा। हम इस हीन भावना से अभी तक उबर नहीं पाये हैं। इसलिये हम उस सब की हिमायत करते हैं जो हमारे संस्कार व संस्कृति के विपरीत है और बाहरी संस्कृति में ग्राहय।

इसके अन्य पहलू भी हैं। यदि हम पब कल्चर को श्रेयस्कर समझते हैं तो यह स्वाभाविक ही है कि जो व्यक्ति रात को –या यों कहिये कि पौ फटने पर– पब से निकलेगा वह तो सरूर में होगा ही और गाड़ी भी पी कर ही चलायेगा। कई निर्दोष इन महानुभावों की मनमौजी कल्चर व स्वतन्त्रता की बलि पर शहीद भी हो चुके हैं। तो यदि शराब पीने की स्वतन्त्रता है तो शराब पी कर गाड़ी चलाना –और नशे में गल्ती से अनायास ही निर्दोषों को कुचल देना– क्यों घोर अपराध है?

एक गैर सरकारी संस्‍थान द्वारा किए गए हालिया सर्वेक्षण ने तो और भी चौंका देने वाले तथ्‍यों को उजागर किया है। दिल्‍ली में सरकार ने शराब पीने के लिए न्‍यूनतम आयु 25 वर्ष निर्धारित की है। परन्‍तु इस सर्वेक्षण के अनुसार, दिल्‍ली के पबों में जाने वाले 80 प्रतिशत व्‍यक्ति नाबालिग हैं। इस सर्वेक्षण ने आगे कहा है कि दिल्‍ली में प्रतिवर्ष लगभग 2000 नाबालिग शराब पीकर गाडी चलाने के मामलों में संलिप्‍त पाये गये हैं। वह या तो शराब पीकर गाडी चलाने के दोषी हैं या फिर उसके शिकार।

हमारी ही सरकारों ने –जिनके नेता पब कल्चर का समर्थन कर रहे हैं– शराब पीकर गाड़ी चलाने को घोर अपराध घोषित कर दिया है और उन्हें कड़ी सज़ा दी जा रही है । हमारी अदालतों –कुछ विदेशों में भी– शराब पी कर गाड़ी चलाने वालों को आतंकवादियों से भी अधिक खतरनाक बताते है जो निर्दोष लोगों की जान ले लेते हैं।

पब कल्चर एक बाज़ारू धंधा है। इसे संस्कृति का नाम देना किसी भी संस्कृति का अपमान करना है। यही कारण है कि इसके विरूध्द प्रारम्भिक आवाज़ चाहे हिन्दुत्ववादियों ने ही उठाई हो पर उनके सुर में उन लोगों नें भी मिला दिया है जिन्हें भारत की संस्कृति से प्यार है।

केन्द्रिय स्वास्थ मन्त्री श्री अंबुमानी रामादोस ने पब कल्चर को भारतीय मानस के विरूध्द करार दिया है और एक राष्ट्रीय शराब नीति बनाकर इस पर अंकुश लगाने का अपना इरादा जताया है। उन्होंने कहा कि देश में 40 प्रतिशत सड़क दुर्घटनाओं का कारण शराब पीकर गाड़ी चलाना है और इसमें पब में शराब पीकर लौट रहे नौजवानों की संख्या बहुत हैं। उन्होंने आगे कहा कि एक विश्लेषण के अनुसार पिछले पांच-छ: वर्षों में युवाओं में शराब पीने की लत में 60 प्रतिशत की वृध्दि हुई है जिस कारण युवाओं द्वारा शराब पीकर गाड़ी चलाने और दुर्घनाओं में मरने वालों की संख्या में वृध्दि हुई है जिनमें बहुत सारे युवक होते हैं।

कर्नाटक के मुख्य मन्त्री श्री बी0 एस0 येदियुरप्पा, जहां यह घटनायें हुईं, ने अपने प्रदेश में पब कल्चर को न पनपने देने का अपना संकल्प दोहराया है।

उधर राजस्थान के कांग्रेसी मुख्य मन्त्री श्री अशोक गहलोत भी इस कल्चर को समाप्त करने में कटिबध्द हैं। इसे राजत्थान की संस्कृति के विरूध्द बताते हुये वह कहते हैं कि वह प्यार के सार्वजनिक प्रदर्शन के विरूध्द हैं। ”लड़के-लड़कियों के सार्वजनिक रूप में एक-दूसरे की बाहें थामें चलना तो शायद एक दर्शक को आनन्ददायक लगे पर वह राजस्थान की संस्कृति के विरूध्द है। श्री गहलोत ने भी इसे बाज़ारू संस्कृति की संज्ञा देते हुये कहा कि शराब बनाने वाली कम्पनियां इस कल्चर को बढ़ावा दे रही है जिन पर वह अंकुश लगायेंगे।

अब तो पब कल्चर ने ‘सब-चलता-है’ मनोवृति व व्यक्तिगत अधिकारों और राष्ट्रीय संस्कृति, संस्कारों और शालीनता के बीच एक लड़ाई ही छेड़ दी है। अब यह निर्णय देश की जनता को करना है कि विजय किसकी हो। ***

-अम्बा चरण वशिष्ठ

(लेखक एक स्वतन्त्र टिप्पणीकार तथा एक पाक्षिक पत्रिका के सम्पादक मण्डल सदस्य हैं)

सस्ता संदेश जंग का (WAR Film) – ब्रजेश झा

war-movie-posterमुंबई में हुए आतंकवादी हमलों को बालीवुड के कई निर्माता-निर्देशक संजीदगी से नहीं ले पाए। उनपर व्यवसाय हावी है। उन्हें इस घटना में व्यावसाय नजर आ रहा है। हाल ही में ऐसी खबर आई थी कि बालीवुड के कई निर्माता-निर्देशक इस घटना को देर-सबेर रुपहले परदे पर उतारने के लिए नामों का पंजीकरण करा रहे हैं।

 

हालांकि सिनेमा के शुरुआती दिनों से ही देशभक्ति या जंगी जज्बों से सराबोर युद्ध विषयक फिल्में बनती रही हैं। एलओसी, बार्डर के आने से पहले ललकार, हकीकत और उसने कहा था जैसी फिल्में प्रदर्शित हो चुकी थीं। जिसे दर्शकों ने खूब सराहा था। इन फिल्में में देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत होकर सैनिकों को लड़ते दिखाया गया है। साथ ही युद्ध की विभीषिका में मानवीय संबंधों को भी उजागर किया गया है।

 

इन फिल्में का उद्देश्य लोगों की भावनाओं को भड़काना नहीं था, बल्कि उन संवेदनाओं को प्रकट करना था, जो इस भयावह माहौल में स्वतः पैदा लेती है। देश में जब नक्सली व आतंकवादी समस्याएं पैदा हुईं तो कुछ सतर्क निर्माता-निर्देशकों की निगाहें उधर भी गईं और सार्थक फिल्में बनीं। पर ऐसी फिल्में अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं, जिनमें माचिस, यहां, हजारों ख्वाहिशें ऐसी व ए वेडनस-डे जैसी कुछ फिल्मों के नाम याद आते हैं।

 

कुछ साल पहले जब बार्डर और एलओसी जैसी फिल्में आई थीं तो कई सवाल उठे थे। लोगों का मानना था कि भाषाई स्तर पर ऐसी फिल्मों की गरिमा कम हुई है। तात्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जमाली ने भी सार्क सम्मेलन के दौरान इन फिल्मों की भाषा पर आपत्ति दर्ज की थी। यह लाजमी था। क्योंकि, जमाना जानता है कि कला का उद्देश्य रुचि व विचार को परिष्कृत करना है और सिनेमा एक कला है। केवल व्यवसाय नहीं।

 

गत कुछ वर्षों से बालीवुड देशभक्ति के जज्बों को भुनाने की जिस बारीक कोशिश में लगा है, वहा काबिलेगौर है। फिल्म रंग दे बसंती तो इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। इन दिनों देशभक्ति से लबरेज ज्यादातर फिल्में मात्र सस्ता और उन्मादी मनोरंजन परोस रही हैं।

 

यकीनन, बालीवुड में कुछ लोगों द्वारा मुल्क के दुखते रग को भुनाने की यह बेचैनी नई आशंका को जन्म देती है। मंबई आतंकवादी हमले पर फिल्म तैयार करने के लिए नाम पंजीकृत कराने की यह प्रक्रिया इसे और गहरा देती है।