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अजित कुमार यानि हिन्दी सहित्य का बेहद पहचाना हुआ नाम – ब्रजेश झा

अजित कुमार यानि हिन्दी सहित्य का बेहद पहचाना हुआ नाम। सहित्य से अलग अजित कुमार को आम पाठक एक जमाने में धर्मयुग पत्रिका में खूब पढ़ा करते थे। अब नए जमाने के आम पाठकों में कम ही लोग धर्मयुग और अजित बाबु के बारे में नाम से ज्यादा कुछ जानते हैं। ऐसे में लीजिए इक याद ताजा करिए।

इब्तिदाए इश्क

यात्राओं के साथ शुरू से ही प्रीति, आश्चर्य और संतोष की जो भावना मेरे मन में जुड़ी रही है और अपनी जन्मभूमि की यात्रा ने इन भावों के साथ हमेशा गहरी खुशी और नई पहचान की जो अनुभूति मुझे दी है, वह सब इस बार की उन्नाव-लखनऊ यात्रा के दौरान शुरू से आखिर तक गायब रहा। यह बात अलग है कि दिल्ली की भयानकता, खीझ और थकान की तुलना में, एक हफ्ता फिर चैन से बीता लेकिन बचपन और यौवन के दिनों में यहां जो मस्ती और बेफिक्री हुआ करती थी, उसकी जगह अनवरत भागा-दौड़ी और कशमकश ने आखिरकार उन्नाव और लखनऊ को भी मेरे लिए दिल्ली बनाकर ही छोड़ा। वह सपना खंडित चाहे अभी न हुआ लेकिन बदरंग जरूर हो गया कि ऐसा वक्त आएगा जब हम अवकाश लेकर चैन और आराम की जिन्दगी अपने वतन में बिताएंगे।

इस यात्रा ने समझाया कि चैन और आराम किसी छोटी सी छुट्टी के दौरान मनाली या गुलमर्ग में मिले तो मिले; उन्नाव, नवाबगंज और लखनऊ में तो मुकदमों, झगड़ों, फ़सादों, पटवारियों, पेशकारों, चपरासियों, अफसरों को भुगताते-निपटाते ही गुजारना होगा। सुख की कल्पना यहां तो साकार होने वाली नहीं, क्योंकि चकबंदी अधिकारी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक मुकदमों का जाल फैला हुआ है। मेरे जीवन-काल में वह सिमटने वाला नहीं, भले ही मैं औऱ बीस वर्षों तक जीने की उम्मीद करूं। सच तो यह है कि नवाबगंज का मतलब मेरे लिए पिछले तमाम वर्षों में खीझ, गुस्से, अवरोध, भरपूर कोशिश के अलावा और कुछ नहीं रहा।

इस यात्रा ने मुझे बार-बार यह सोचने के लिए मजबूर किया कि जिस जीवन की रक्षा और सुरक्षा की हम जी-तोड़ कोशिश करते हैं, वह जीवन तो गायब हो जाता है, सिर्फ कोशिश ही कोशिश यहां से वहां तक फैली रहती है। हम अपने कन्धों पर बोझ बढ़ाते चले जाते हैं और अगली पीढ़ी के लिए एक ऐसी गठरी छोड़ जाते हैं दुर्गन्धयुक्त, मैले कपड़ों की, जिसको धुलाने की लागत शायद हमारे पीछे छूट गये बैंक-बैलेन्स से कहीं ज्यादा होगी।

आखिर क्यों मुझे यह यात्रा करनी पड़ी ? इसीलिए न कि मेरे पिता ने बीस साल पहले करीब ढाई हजार रुपये में ज़मीन का एक टुकड़ा खरीदा था जिसकी कीमत आज बहुत हो चुकी है और जिसके किसी हिस्से को हथियाने में एक स्थानीय गुंडा कामयाब हो गया। अब मैं बीस साल तक उसके साथ मुकदमेबाजी करूंगा फिर मुमकिन है, जीतने पर लाख-दो लाख और लगाकर, अड़ोस-पड़ोस की थोड़ी और ज़मीन खरीद अपने बेटे-भतीजों को सौंप जाऊं। फिर जब वे हिसाब-किताब बिठा कर आत्मतृप्त होने लगेंगे कि उनके खानदान की माली हैसियत अकेले नवाबगंज में पच्चीस लाख रुपये से अधिक की है और वहां आरा मिल. पेपर मिल या कोल्ड स्टोरेज का लाभकारी धन्धा मज़े से शुरू किया जा सकता है तो उन्हें पता चले कि उनकी जमीन के किसी अन्य टुकड़े पर किसी अन्य स्थानीय लठैत ने कब्जा जमा लिया है। तब वे अपनी जमीन की कीमत अस्सी लाख या दो करोड़ रुपये हो जाने तक अनवरत मुकदमेबाजी करते जाएं…

यह सिनिरेयो दिल्ली से रवाना होते समय भीड़ भरे रेल के डिब्बे में जागते-ऊंघते कभी दिमागी तो कभी पलकों में बनता-मिटता रहा है। पहला पड़ाव था उन्नाव, जहां वकीलों से मिलने का मतलब था- एक ऐसे जाल में फंसा महसूस करना, जिससे निकलने की न कभी हम उम्मीद कर पाते हैं, न उसमें फंसे बिना अपने लिए कोई दूसरा चारा ही खोज पाते हैं। जब तुम्हारे अधिकार पर कोई दूसरा ज़बर्दस्ती दखल करे तो तुम यदि इतने विरक्त या बुद्धिमान नहीं हो कि इस कब्जे को नज़रअंदाज कर सको तो यह तय है कि तुम पुलिस कचहरी, वकील, गवाह, कागज-तारीख के अनवरत शिकंजे में जरूर ही फंस जाओगे। यह तटस्थता या होशियारी मैं अपने निजी जीवन में थोड़ी बहुत लागू कर सका, जबकि बाकी तमाम लोग इसे दब्बूपन, कायरता, सुस्ती, पलायनवाद आदि- आदि कहते समझते रहे लेकिन अपने पिता और छोटे भाई को मैं कभी नहीं समझा पाया कि ज़मीन-जायदाद और मान-मर्यादा के लिए लड़ने-झगडने में समय, शक्ति और साधन का जो अपव्यय करना पड़ता है, उससे हमेशा एक ही मसल याद आती है कि टके की बुलबुल नौ टका हुसकाई।

चूकिं, उनकी राय मुझसे मेल न खाती थी और मैं खूद भी कभी-कभी सोचने लगता था कि गलती कहीं न कहीं मेरे ही सोच में है, और कि जो भी हो मुझे ज़रूरत के वक़्त उनके हाथ मज़बूत करने चाहिए- यह मेरा नैतिक कर्तव्य है- तो आखिरकार मुझे भी, मजबूरन इस जंजाल में फंसना पड़ा, लेकिन जब मैं इस मुहिम का हिस्सा बना, तो मैंने यह भी समझा कि यहां अधिक वास्तविक दुनिया है जो हमें जीने का ज्यादा कारगर ढंग सिखा सकती है और संसार का पूर्णतर चित्र हमारे सामने रखती है। उस एक हफ्ते में मैंने बहुत जानकारी हासिल की, जिसे विस्तार से बताना जरूरी नहीं, अपनी समझ के लिए कुछ ही मुद्दे दर्ज करता हूं ताकि सनद रहे और वक़्त जरूरत काम आय। मैंने अनुभव किया कि आम तौर से निचले दर्जे के कर्मचारी अधिक सुस्त, काहिल और भ्रष्ट हैं बनिस्पक ऊंचे दर्जे के। कार्यकुशलता और शिष्टता का भी बड़ अभाव है। लेकिन हमारी व्यवस्था का ढांचा कुछ ऐसा है कि पैसे या निजी संबंधों के बल पर हम अपना अधिकतर काम इस निचले तबके के अमले से करवा सकते हैं। पटवारी, पेशकार, सिपाही, दारोगा हमारे लिए जितना कारगर हो सकता है, उतना मंत्री, सचिव या उच्च अधिकारी वर्ग नहीं हो पाता। देश का जीवन- स्तर जिस निचले दर्जे पर सामान्य रूप से चलता है, वहां सुई की उपयोगिता तलवार की तुलना में कहीं अधिक दिखाई देती है।

जहां तक उच्च अधिकारियों का संबंध है, वे किन्हीं मामलों में कारगर होते जरूर हैं, लेकिन तभी जब उन पर ऊपर से कोई गहरा दबाव पड़े या कोई अन्य बड़ी वजह हो, वरना आमतौर से वे हीला-हवाल कर मामले से बचने की और कीचड़ में कमल वाली छवि बनाये रखने की कोशिश करते हैं। यह जरूर है कि हमारी व्यवस्था में उनकी हैसियत ऐसी बनायी गई है कि यदि वे प्रभावकारी हस्तक्षेप का निर्णय लेते हैं तो तमाम बन्द दरवाजे अपने आप खुलने लगते हैं। हमारे मामले में भी यही बात लागू हुई कि एक मामूली पटवारी ने जमीन के कागजों में मौजूद तनिक से पेंच की जानकारी किसी स्थानीय हड़पबाज घुसपैठिये को दे दि और उसने हमारी जमीन में ऐसी लात घुसा दी कि उसे निकाल फेंकना मुश्किल हो गया। बहरहाल जब सत्ता के पहियों को हमने घुमाना शुरू किया तो ऐसा लगा कि पटवारी उनके वेग को संभाल नहीं पा रहा है, लेकिन यह तो लड़ाई की महज शुरूआत है। अभी से कुछ नहीं कहा जा सकता कि चक्के में फंसा पेंचकस उसको जाम कर देगा या खुद टूट-फूट जायेगा। बहुत सी अन्य बातों पर लड़ाई का नतीजा निर्भर करेगा। अभी तो मुझे न मामले की पूरी जानकारी है न झगड़े की शक्ल साफ़ हुई है। सिर्फ चार-छह बार पेशियों पर हाजिर होना और तारीखों का बढ़ जाना ही हाथ लगा है। इसे पूर्वजन्मों के संचित पुण्य का फल कहूं या किन्हीं पापों का फूट निकलना, मैं नहीं जानता।

यह बेशक मालूम है कि बिना आरक्षण वाली वापसी रेल यात्रा में पिताजी द्वारा सिखाया गया मूलमंत्र मैं कितना ही जपूं कि,बैठने की जगह मिले तो खड़े मत रहना और लेटने की गुंजाइश दिखे तो बैठे रहने से बचनालेकिन इसका क्या भरोसा कि भेड़ियाधसान मुझे डिब्बे के भीतर घुसेड़ कर ही चैन लेगी या गाड़ी छूट जाने के बाद प्लेटफार्म पर अटका और अगली ट्रेन की फिक्र में डूबा मैं देर तक दोहराता ही रह जाऊंगा- इब्तिदाए इश्क है… रोता है क्या !

आगे आगे देखिये होता है क्या !’

श्वेत क्रांति की सच्चाई

23706overviewहाल में दिल्ली में दूध की कीमतों में एक रूपये प्रतिलीटर की वृध्दि की गई। सहकारी डेयरी कंपनियों के अनुसार संग्रहण, भण्डारण, प्रसंस्करण और विपणन की बढती लागत के कारण दूध के दाम बढाना आवश्यक हो गया था। भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है। यहां प्रतिवर्ष 10.2 करोड़ टन दूध का उत्पादन होता है। यह उत्पादन किसी भी फसल की तुलना में अधिक है और किसानों को प्रति इकाई सबसे अधिक कमाई भी कराता है। फसलों की बर्बादी की क्षतिपूर्ति करने ओर सामाजिक सुरक्षा देने में दुग्ध उत्पादन ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। इसे किसानों की आत्महत्या पर राष्‍ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एम.एस.एस.ओ.) की रिपोर्ट से समझा जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार किसान आत्महत्या की घटनाएं उन क्षेत्रों में नाममात्र की हैं, जहां दूध उत्पादन से किसानों को नियमित आय हो रही है। दूध उत्पादन का कार्य अधिकांशत: लघु व सीमांत किसानों और भूमिहीन श्रमिकों द्वारा किया जाता है। इसमें महिलाओं की भी प्रभावी भागीदारी है। इससे इन वर्गों को आय व रोजगार का सतत स्रोत मिल जाता है।श्वेत क्रांति(दुग्ध उत्पादन) की इन उपलब्धियों के बीच कई खामियां भी हैं जो इसकी उपलब्धियों पर पानी फेर देती हैं। श्वेत क्रांति की सबसे बड़ी सीमा यह है कि दूध की कीमत का लाभ वास्तविक हकदारों (उत्पादकों) तक नहीं पहुंच पा रहा है। जिस दूध को नगरों-महानगरों में 26 से 27 रूपये प्रति लीटर बेचा जाता है, उसी दूध के लिए दूध उत्पादकों को मात्र 14 से 15 रूपये प्रति लीटर का भुगतान किया जाता है। इस कीमत अंतराल का एक बड़ा हिस्सा प्रसंस्करण, प्रशीतन, परिवहन, प्रबंधन में जाता है। दूध उत्पादकों को जो 15-16 रूपये लीटर कीमत मिलती है, उसका भी एक बड़ा हिस्सा चारे व पशु आहार, दुधारू पशुओं के रखरखाव आदि में खर्च हो जाता है। इससे दूध उत्पादकों का प्रतिफल और भी कम हो जाता है। दूसरे डेयरी सहकारिताओं के संग्रह के कारण गांव से दूध गायब हो गया। दूध उत्पादक दूध के बजाय चाय पीने लगे क्योंकि दूध की बिक्री से होने वाली आमदनी परिवार के लिए मुख्य हो गई। इससे किसानों, श्रमिकों में कुपोषण बढा। यद्यपि भारत विश्व का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है लेकिन प्रतिव्यक्ति दूध उपलब्धता 246 ग्राम प्रतिदिन है जो कि विश्व औसत (265 ग्राम प्रतिदिन) से कम है। दूध की खपत के राष्‍ट्रीय औसत में भी अत्यधिक असमानता विद्यमान है।

दरअसल दूध संग्रह, परिरक्षण, पैकिंग, परिवहन, विपणन, प्रबंधन कार्य में वृध्दि होने से दूध की लागत बढी है। इसे कोलकाता की दूध आपूर्ति से समझा जा सकता है। आनंद (गुजरात) से कोलकाता तक प्रतिदिन रेफ्रिजरेटेड टेंकरों की रेलगाड़ी में दूध भेजा जाता है। दो हजार किलोमीटर तक ताजे दूध की नियमित आपूर्ति करना टेक्नालाजी का कमाल तो कहा जा सकता है लेकिन यह बिजली, डीजल व रेलवे की बरबादी है। जब गुजरात, राजस्थान जैसे सूखे प्रदेशों में श्वेत क्रांति संभव है तो गीले बंगाल में क्यों नहीं। असली श्वेत क्रांति तो तब मानी जाती जब दूध उत्पादन की विकेंद्रित, स्थानीय व मितव्ययी तकनीक प्रयोग में लाई जाती।

श्वेत क्रांति के बाद भी देश में दुधारू पशुओं की दूध देने की औसत क्षमता अधिकतम 1200 किग्रा वार्षिक ही है जबकि विश्व औसत 2200 किग्रा का है। इजराइल में तो दुधारू पशुओं की उत्पादकता 12,000 किग्रा वार्षिक तक पहुंच गई है। दूध उत्पादन में उन्नत प्रजातियों का अभी भी अभाव है। संकर प्रजाति के विकास के लिए किए जा रहे प्रयास सिर्फ प्रयोगशालाओं तक सीमित हैं। पशुधन स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के कारण प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में दुधारू पशु संक्रामक रोगों के कारण मर जाते हैं।

शहरीकरण, औद्योगिकरण, प्रति व्यक्ति आय में बढोत्तरी, खान-पान की आदतों में बदलाव जैसे कारणों से दूध व दूध से बने पदार्थों की मांग तेजी से बढ रही है। वर्तमान में दूध का तरल रूप में उपयोग मात्र 46% ही होता है शेष दूध का उपयोग दूध उत्पादों के रूप में होता है। आने वाले समय में दूध उत्पादों के उपयोग का अनुपात बढना तय है। ऐसी स्थिति में उत्पादन में तीव्र वृद्धि अतिआवश्यक है। लेकिन यह तभी संभव है जब देश में पशुचारा व पशु आहार की प्रचुरता हो। देश में इस समय 65 करोड़ टन सूखा चारा, 76 करोड़ टन हरा चारा और 7.94 करोड़ टन पशु आहार उपलब्ध है। यह मात्रा पशुओं की मौजूदा संख्या की केवल 40% जरूरत को पूरा करने में सक्षम है। दुधारू पशुओं के लिए मोटे अनाज, खली और अन्य पौ31टिक तत्वों की भारी कमी है। स्पष्‍ट है भूखे पशुओं से न दूध उत्पादन की अपेक्षा की जा सकती है और न ही अन्य अत्पादों की। अत: पशुचारा विकास की ओर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। जिन सवा करोड़ लघु व सीमांत किसानों के बल पर दुग्ध उद्योग फल-फूल रहा है उनमें पशुपालन की वैज्ञानिक जानकारी का अभाव है। श्वेत क्रांति में गाय-भैसों की देसी नस्लों की भी उपेक्षा हुई और विदेशी नस्लों का प्रचलन बढा। इससे भारतीय गोवंश में जैव विविधता का तेजी से ह्रास हो रहा है। चारा उगाने के लिए रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों का भरपूर इस्तेमाल किया गया। दूध उत्पादन बढाने के लिए नुकसानदेह हारमोन युक्त इंजेक्शनों का प्रचलन बढा। इससे दूध में हानिकारक रसायनों की मात्रा बढी। महानगरों में सिंथेटिक दूध का प्रचलन एक बड़ी समस्या है।

लेखक- रमेश कुमार दुबे
(लेखक पर्यावरण एवं कृषि विषयों पर कई पत्र-पत्रिकाओं में स्‍वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं)

फोटो साभार-www.fnbnews.com 

गंगाजल आपरेशन का सच – ब्रजेश झा

gangaडिब्रूगढ़ (असम) से हाल ही में दिल्ली आए एक व्यक्ति से मुलाकात हुई। वे हिन्दी सिनेमा बड़े चाव से देखते हैं। उन्होंने कहा, डिब्रूगढ़ आते-जाते जब भी ट्रेन भागलपुर स्टेशन पहुंचती है तो फिल्म- ‘गंगाजल-द हौली वैपन ‘ की खूब याद आती है। यह फिल्म शहर में हुई अंखफोड़वा कांड (गंगाजल आपरेशन) घटना पर आधारित है।

आगे उन्होंने कहा, ‘सोचता हूं कि इस घटना का सच क्या रहा होगा ?’ इस फिल्म के निर्देशन प्रकाश झा हैं। वे यह मानने से इनकार करते रहे हैं कि फिल्म भागलपुर में हुई अंखफोड़वा कांड पर आधारित है। हालांकि वे फिल्म पर घटना के प्रभाव की बात स्वीकारते हैं।

खैर! घटना को तीन दशक बीत गए। लेकिन तब जो सवाज उपजे थे, वे आज भी खड़े हैं। यह समझना जरूरी हो गया है कि आखिर क्यों लोगों को वह घटना यकायक याद आ जाती है। इन सवालों का जवाब सही-सही तलाशने के लिए उन परिस्थितियों को जानना जरूरी है, जिन स्थितियों में यह घटना घटी।

शहर के कोतवाली थाने के एक तात्कालीन पुलिस अधिकारी ने बताया कि घटना की शुरुआत 1979 में भागलपुर जिले के नवगछिया थाने से हुई थी। यहां पुलिस ने गंभीर आरोपों में लिप्त कुछ अपराधियों की आंखों में तेजाब डालकर अंधा कर दिया था। इसके बाद सबौर, बरारी, रजौन, नाथनगर, कहलगांव आदि थाना क्षेत्रों से भी ऐसी खबरें आईं।

ऐसी घटनाएं रह-रहकर अक्टूबर 1980 तक होती रहीं। घटना की जांच कर रही समिति के मुताबिक जिले में कुल 31 लोगों के साथ ऐसा बर्ताव किया गया। इनमें लक्खी महतो, अर्जुन गोस्वामी, अनिल यादव, भोला चौधरी, काशी मंडल, उमेश यादव, लखनलाल मंडल, चमनलाल राय, देवराज खत्री, शालिग्राम शाह, पटेल शाह, बलजीत सिंह जैसे लोग थे। बलजीत सिक्ख समुदाय का था। संभवतः इसलिए 6 अक्टूबर 1980 को उसके साथ ऐसी घटना होने पर मामला राजधानी दिल्ली में खूब उछला। हालांकि यह मामला उक्त समुदाय के किसी एक व्यक्ति के साथ घटित होने मात्र का नहीं था। उस समय तक जनता सरकार चुनाव हारकर सत्ता से बाहर हो गई थी और इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी। दुख की बात है कि इस मुल्क में कुछ चीजों को देखने का यही अनकहा चलन बन गया है।

बहरहाल, बाद में दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में इन लोगों की आंखों की जांच हुई। इसके बाद डाक्टरों ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि इनकी आंखों को भेदकर उसमें क्षयकारी पदार्थ डाल दिए गए हैं। इससे आंखों की पुतलियां जल गई हैं। नेत्र-गोल नष्ट हो गए हैं, जिससे इन लोगों की दृश्य-शक्ति हमेशा के लिए समाप्त हो गई है।

जानकारी के मुताबिक आंखों को भेदने के लिए टकुआ (बड़ी सुई) नाई द्वारा नख काटने के औजार और साइकिल के स्कोप का इस्तेमाल किया जाता था। कई महीने तक जिला पुलिस ने यह कार्य जारी रखा। इससे मालूम पड़ता है कि राज्य प्रशासन ने अशिक्षा, बेरोजगारी और गरीबी के बीच पनप रही आपराधिक प्रवृत्तियों को खत्म करने का सरल व निहायत अमानवीय रास्ता अख्तियार कर रखा था।

अपराधी प्रवृति के इन लोगों को दिन में शहर के विभिन्न थाना क्षेत्रों में पकड़ा जाता था और रात में उनकी आंखें फोड़ दी जाती थीं। यह जानकारी घटना की जांच के लिए उच्चतम न्यायालय की ओर से भेजी गई आर. नरसिम्हन समिति को जेल में बंद कुछ अंधे कैदियों ने दी थी। इसकी चर्चा समिति ने अपनी रिपोर्ट में भी की है।

राज्य सरकार को इस बात की जानकारी थी। फिर भी वह चुप बैठी रही। 26 अक्टूबर 1979 को अर्जुन को सेंट्रल जेल लाया गया था। उसने 20 नवम्बर 1979 को सीजीएम भागलपुर के नाम आवेदन दिया। जिसमें उसने अपने अंधेपन की जांच कराने की मांग की थी। 30 जुलाई 1980 को अन्य 11 अंधे कैदियों ने भी जांच की मांग करते हुए कानुनी सहायता की याचना की थी।

पर, शहर की अदालत ने यह कहते हुए उनकी याचना को ठुकरा दिया कि ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिसके तहत इनको कानुनी सहायता दी जाए। हालांकि, मार्च 1979 में उच्चतम न्यायालय ने हुसैनआरा खातून मामले में सभी कैदियों को कानुनी सहायता देने की बात कह चुका था। फिर भी जिला न्यायालय इस फैसले की अंदेखी कर गया, जो संविधान के अनुच्छेद 141 का उल्लंघन था।

राज्य सरकार से एक भारी भूल उस समय भी हुई जब 30 जुलाई 1980 को सेंट्रल जेल के अधीक्षक बच्चुलाल दास की ओर से अंधे कैदियों की जानकारी सरकार को देने के पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। यह जानकर ताज्जुब होगा कि राज्य के जेल महानिरीक्षक ने भी अपने दौरे के समय बांका जेल में देखे गए तीन अंधे कैदियों की जानकारी सरकार को दी थी। साथ ही इसे रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाने का आग्रह किया था। बिहार सरकार पर इन बातों का कोई असर नहीं हुआ। और 6 अक्टूबर 1980 को बलजीत सिंह और पटेल शाह सहित अन्य आठ कथित अपराधियों को अंधा कर दिया गया।

इस मामले को एस.एन.आबदी और अरुण सिन्हा जैसे पत्रकारों ने खूब उठाया। घटना के बाबत दो मामले उच्चतम न्यायालय में दर्ज किए गए। पहला- अनिल यादव और अन्य बनाम बिहार सरकार(रिट पटिसन संख्या- 5352 / 1980)। दूसरा- खत्री और अन्य बनाम बिहार सरकार (रिट पटिसन संख्या- 5760/ 1980)। न्यायालय में पीड़ितों की पैरवी अधिवक्ता कपिला हिंगोरानी कर रही थीं। बाद में दोषी पाए गए कई पुलिस अधिकारी व कर्मियों को निलंबित कर दिए गए और कईयों का तबादला।

शहर की आम जनता पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध की जा रही कार्रवाई के सख्त खिलाफ थी। सन् 1980 के आम चुनाव में नव-निर्वाचित सांसद भागवत झा आजाद के नेतृत्व में जनता ने सरकार के खिलाफ खूब प्रदर्शन किया। वे लोग पुलिस की कार्रवाई को उचित करार दे रहे थे। लोगों का कहना था कि इन अपराधियों को राजनेताओं का संरक्षण प्राप्त था और परिस्थितियों के हिसाब से उनसे निपटने का यह रास्ता सही था।

यकीनन ऐसी घटनाएं किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकती हैं। वह तो एक टीस छोड़ जाती है। लेकिन, आज जब देश की सबसे ऊंची पंचायत में कथित अपराधी भी पहुंच रहे हैं। समाज में भय पहले की अपेक्षा बढ़ा है तो जनता-जनार्दन क्या समाधान चुनती है ? यह बात देखऩे वाली होगी। *

ब्रजेश झा

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आटो के पीछे क्या है?

rickshaw01सुबह-सबेरे दिल्ली की सड़कों पर चलते वक्त यदि आटो रिक्शा के पीछे लिखा दिख जाय बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला तो अन्यथा न लें बल्कि गौर करें। क्या ये चुटकीली पंक्तियां शहरी समाज के एक तबके को मुंह नहीं चिढ़ा रही हैं? गौरतलब है कि ऐसी सैकड़ों पंक्तियां तमाम आटो रिक्शा व अन्य गाडि़यों के पीछे लिखी दिख जायेंगी जो बेबाक अंदाज में शहरी समाज की सच्चाई बयां करती हैं। अंदाजे-बयां का ये रूप केवल हिन्दुस्तान तक ही सीमित नहीं है बल्कि पूरे दक्षिण एशिया में प्रचलित है। इन पंक्तियों के पीछे भला क्या मनोविज्ञान छिपा हो सकता है, इस दिलचस्प विषय पर शोध कर रहे दीवान ए सराय के श्रृंखला संपादक रविकांत ने कहा कि आटो रिक्शा के पीछे लिखी चौपाइयां, दोहे और शेरो-शायरी वहां की शहरी लोक संस्कृतियों का इजहार करती हैं। मनोभावों की अभिव्यित का ये ढंग पूरे दक्षिण एशिया में व्याप्त है। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में भी आपको आटो रिक्शा के पीछे लिखा दिखेगा कायदे आजम ने फरमाया तू चल मैं आया। कहने का मतलब यह है कि हर वैसी चीजें जो शहरी समाज का हिस्सा हैं वह शब्दों के रूप में आटो रिक्शा व अन्य वाहनों के पीछे चस्पां हैं। वह रूहानी भी हैं और अश्लील भी। सियासती भी हैं और सामाजिक भी। फिलहाल मैं और प्रभात इन लतीफों को इकट्ठा कर रहा हूं जिसे अब तक गैरजरूरी समझ कर छोड़ दिया गया था। यकी नन इससे शहरी लोक संस्कृतियों को समझने में काफी मदद मिलेगी। खैर! इसमें दो राय नहीं है कि आटो रिक्शा व अन्य गाडि़यों को चलाने वाले चालकों का जीवन मुठभेड़ भरा होता है। इन्हें व्यक्ति, सरकार और सड़क तीनों से निबटना पड़ता है। तनाव के इन पलों में ऐसी लतीफे उन्हें गदुगुदा जाते हैं। पर क्या अब दिल्ली में इजहारे-तहरीर पर भी सियासती रोक लगा दी गयी है?

ब्रजेश झाbrajesh-4-copy (Brajesh Jha)

भुखमरी की जड़

_44733146_children_226अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आईएफपीआरआई) के ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2008 के अनुसार भारत में भूख की समस्या चिंताजनक स्तर तक पहुंच गई है। भारत की स्थिति अफ्रीका के उपसहारा क्षेत्र के 25 देशों से भी बदतर है। दक्षिण एशिया में सिर्फ बांग्लादेश हमसे पीछे है। यह इंडेक्स निकालने के लिए बच्चों के कुपोषण, बाल मृत्युदर और समुचित कैलोरी से वंचित लोगों की संख्या को आधार बनाया गया। इसके अनुसार भारत में 50% से अधिक बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। इनमें 20% की हालत अत्यधिक चिंताजनक है। कुपोषण के संबंध में मुख्य बात मातृत्व और बच्चों के स्वास्थ्य का है। जो महिलाएं पहले से ही कुपोषण का शिकार रहती हैं, वे स्वाभाविक रूप से कुपोषित बच्चों को जन्म देंगी। यदि जन्म के बाद भी बच्चे को संतुलित आहार नहीं मिल पाएगा तो वह जीवन भर के लिए शारीरिक व मानसिक रूप से कमजोर हो जाएगा। अत: बच्चों के कुपोषण को परिवार से जोड़कर देखना होगा। इस संबंध में स्थिति अत्यंत निराशाजनक है।राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की 2006-07 की रिपोर्ट के अनुसार एक औसत भारतीय महीने मे खाने पर सिर्फ 440 रूपये खर्च करता है। ग्रामीण भारत में यह खर्च 363 रूपये प्रतिमाह है तो शहरी भारत में 517 रूपये। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे 2005-06 के अनुसार ग्रामीण भारत में एक व्यक्ति प्रति माह फलों पर सिर्फ 12 रूपये खर्च करता है जबकि शहरी व्यक्ति का फलों पर प्रति महीने का खर्च 28 रूपये का है। अनाज और इसके वैकल्पिक खाद्य पदार्थों पर ग्रामीण भारत में 115 रूपये और शहरी भारत में 119 रूपये खर्च होते हैं। इस उपभोग व्यय में स्वस्थ बच्चों का जन्म कैसे होगा ? देश में एक ओर भूख की समस्या बढी है तो दूसरी ओर एक छोटा वर्ग लगातार फलफूल रहा है। पिछले दो दशकों में भारत में एक ऐसा नवधनाडय वर्ग पैदा हुआ है जो उपभोग के मामले में दुनिया में किसी से पीछे नहीं रहना चाहता।

गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, असमान विकास की उपर्युक्त स्थितियां एक दिन में पैदा नहीं हुई हैं। इसकी जड़ स्वायत्तशासी आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थतंत्र के क्रमिक पतन में निहित हैं। आजादी के बाद पूंजी प्रधान विकास रणनीति अपनाने से विकास क्रम में मानव शक्ति का महत्व गौण हो गया। इसके परिणामस्वरूप भारत के अपने शिल्प, लघु व कुटीर उद्योग, कला और पारंपरिक रूप से चलते आ रहे अन्य धंधे धीरे-धीरे खत्म होने लगे। इन धंधों से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली अधिकांश जनता को आय होती थी, लोगों की जरूरतें स्थानीय स्तर पर पूरी होती थी और गरीबों का पेट पलता था। इन धंधों के उजड़ने से गरीबों का सहारा छिनता रहा। इससे धीरे-धीरे गांव उद्योगविहीन हो गए और वहां खेती-पशुपालन के अतिरिक्त नियमित आय का कोई स्रोत नहीं रह गया। अब गांव और खेती एक दूसरे के पर्याय तथा गांव और उद्योग परस्पर विरोधी हो गए।

आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थतंत्र के विखराव के कारण परंपरागत व्यवसायों में लगे करोड़ों लोगों की जीविका छिन गई। बढर्ऌ, लोहार, कुम्हार, चमड़े के कार्य करने वाले , दस्तकार, कपड़ा बुनने वाले लोगों के पेशे विकास की अंधी दौड़ में समाप्त हो गए। इसी के साथ वे शहर भी सूख गए जिनकी ये शान हुआ करते थे जैसे बनारस, आजमगढ, मुरादाबाद। यहां के उत्पाद अब सामान्य की जगह विशिष्ट हो गए ओर हाट-बाजार, गली-कूचे की जगह दिल्ली हाट जैसी जगहों में प्रदर्शन की वस्तु बन गए।

आजादी के बाद खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिए कृषि क्षेत्र में पूंजी प्रधान कृषि रणनीति (हरित क्रांति) की शुरूआत हुई। हरित क्रांति ने खाद्यान्न उत्पादन में बढाेत्तरी तो किया लेकिन इसने प्रकृति व किसानों से बहुत बड़ी कीमत वसूल की। इसने ग्रामीण जनसंख्या के विस्थापन और रोजगार संकट को बढाते हुए खाद्यान्न संकट का आधार तैयार किया। इसी का दुष्परिणाम है कि एक ओर सरकारी अनाज खरीद का रिकार्ड बन रहा है वहीं दूसरी ओर 20 करोड़ से अधिक लोग ऐसी हालत में जी रहे हैं कि उन्हें सुबह उठकर पता नहीं होता कि दिन में खाना मिल पाएगा या नहीं।

भूख, कुपोषण, असमान विकास के संकट को बढाने में उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण की नीतियों ने आग में घी का कार्य किया। इन नीतियों के माध्यम से विकसित देशों की भीमकाय कंपनियां साम,दाम, दंड, भेद को अपनाकर विकासशील देशों के आत्मनिर्भर ढांचे को तहस-नहस करती हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन जैसी वैश्विक संस्थाओं की नीतियों को भी इन्हीं की सुविधा व आवश्यकतानुसार परिवर्तित किया जाता रहा है। इन नीतियों के तहत विकासशील देशों ने जीवन-यापन की देशज परंपराओं को नकारकर खर्चीली तकनीक आधारित पध्दतियों को अपनाया। इससे प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हुआ और एक बड़ी जनसंख्या को प्रकृति प्रदत्त संसाधनों के इस्तेमाल से वंचित कर दिया गया।

गरीबों, वंचितों, बुनकरों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों के कल्याण के लिए जो योजनाएं चलाई गई उनका स्वरूप दान-दक्षिणा वाला ही रहा है। परंपरागत पेशों के आधुनिकीकरण, इन्हें छोटी मशीनों से जोड़ने और लोगों को बड़े पैमाने पर प्रशिक्षण देने की महती संभावना को भी भुला दिया गया। उदारीकरण, निजीकरण ने जहां किसानों, मजदूरों, बुनकरों, दस्तकारों के लिए अभाव और दरिद्रता का समुद्र निर्मित किया वहीं दूसरी ओर शिक्षित, कौशल संपन्न युवा वर्ग के लिए समृध्दि के टापू बनाया। इसका परिणाम यह हुआ देश इंडिया व भारत में विभाजित हो गया। यही असमान और विभाजनकारी विकास रणनीति गरीबों, वंचितों को भुखमरी व कुपोषण की गहरी खाई में धकेल रही है।

लेखक- रमेश कुमार दुबे
(लेखक पर्यावरण एवं कृषि विषयों पर कई पत्र-पत्रिकाओं में स्‍वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं)

फोटो साभार-https://news.bbc.co.uk

ग्रामीण स्वास्थ्य की दशा

village20health20campभारत ने पिछले दशकों में स्वास्थ्य मानकों में महत्वपूर्ण प्रगति की है। शिशु व मातृत्व मृत्यु दर में लगातार कमी आई है। कई गंभीर बीमारियों की समाप्ति और जीवन प्रत्याशा में भी वृध्दि हुई है। इन उपलब्धियों के बाद भी जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा, विशेषकर ग्रामीण भारत उचित स्वास्थ्य देखरेख से वंचित है। अभी भी बहुमूल्य मानव समय, निवारण योग्य बीमारियों में खप जाता है। पुरानी बीमारियों के साथ-साथ संक्रामक बीमारियों के फैलाव और जीवन प्रत्याशा में वृध्दि के कारण बुजुर्गों की बढती संख्या ने स्वास्थ्य के समक्ष नई चुनौतियां प्रस्तुत की है। भौतिकवादी सुख सुविधाओं के प्रसार तथा जीवन शैली में हुए परिवर्तन के कारण किसी जमाने में शहरी बीमारी समझे जाने वाले कैंसर, हृदय रोग, मधुमेह अब ग्रामीणों को भी अपनी चपेट में ले चुके हैं।

यद्यपि भारत ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है लेकिन अब यह जनसंख्या वृध्दि की तुलना में पिछड़ता जा रहा है। पिछले एक दशक में जनसंख्या में 16% की वृध्दि हुई है जबकि प्रति हजार जनसंख्या में बीमार व्यक्तियों की संख्या में 66%। इस दौरान प्रति हजार जनसंख्या पर अस्पताल में बेडों की संख्या मात्र 5.1% बढी। देश में औसत बेड घनत्व (प्रति हजार जनसंख्या पर बेड की उपलब्धता) 0.86 है जो कि विश्व औसत का एक तिहाई ही है। चिकित्साकर्मियों की कमी और अस्पतालों में व्याप्त कुप्रबंधन के कारण कितने ही बेड वर्ष भर खाली पड़े रहते हैं। इससे वास्तविक बेड घनत्व और भी कम हो जाता है।

स्वास्थ्य सुविधा के उपर्युक्त आंकड़े राष्ट्रीय औसत के हैं। ग्रामीण स्तर पर देखें तो इसमें अत्यधिक कमी आएगी। आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में जहां देश की 72% जनसंख्या निवास करती है, वहां कुल बेड का 19 भाग तथा चिकित्साकर्मियों का 14 भाग ही पाया जाता है। ग्रामीण स्वास्थ्य उपकेंद्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में चिकित्साकर्मियों की भारी कमी है। इन केंद्रों में 62% विशेषज्ञ चिकित्सकों, 49% प्रयोगशाला सहायकों और 20% फार्मासिस्टों की कमी है। यह कमी दो कारणों से है। पहला जरूरत की तुलना में स्वीकृत पद कम हैं, दूसरे, बेहतर कार्यदशा की कमी और सीमित अवसरों के कारण चिकित्साकर्मी ग्रामीण क्षेत्रों में जाने से कतराते हैं। इससे ग्रामीणों को गुणवक्तायुक्त चिकित्सा सेवा नहीं मिलती और वे निजी क्षेत्र की सेवा लेने के लिए बाध्य होते हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2004 के अनुसार 68% देशवासी सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं को नहीं लेते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि यहां ठीक ढंग से इलाज नहीं होगा। सरकारी स्वास्थ्य सेवा की तुलना में अत्यधिक महंगी होने के बावजूद बहुसंख्यक भारतीय निजी चिकित्सालयों की सेवा लेते हैं।

1983 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति ने चिकित्सा क्षेत्र में निजी भागीदारी को प्रोत्साहित किया। इसके बाद निजी स्वास्थ्य सेवा का तेजी से विस्तार हुआ। आज देश में 15 लाख स्वास्थ्य प्रदाता हैं जिनमें से 13 लाख निजी क्षेत्र में हैं। समुचित मानक और नियम-विनिमय की कमी ने निजी स्वास्थ्य सेवा को पैर फैलाने का अवसर दिया। चूंकि निजी स्वास्थ्य सुविधाएं अधिकतर नगरीय क्षेत्रों में स्थित हैं इसलिए ग्रामीण एवं नगरीय स्वास्थ्य सुविधाओं की खाई और चौड़ी हुई। निजी स्वास्थ्य सेवा इतनी महंगी होती है कि 70% देशवासी उसे वहन करने में सक्षम नहीं होते। यद्यपि सरकार ने विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य बीमा योजनाएं शुरू की हैं लेकिन केवल 12% देशवासी ही स्वास्थ्य बीमा कराते हैं।

महंगी निजी स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण ग्रामीण वर्ग चिकित्सा खर्च के लिए बड़े पैमाने पर कर्ज लेते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के औसतन 41% भर्ती होने वाले और 17% वाह्य रोगी कर्ज लेकर इलाज कराते हैं। इस प्रकार ग्रामीण गरीबी का एक बड़ा कारण सरकारी चिकित्सालयों की अव्यवस्था भी है। इसके लिए चिकित्सा पाठयक्रम भी उत्तरदाई हैं। चिकित्सा पाठयक्रमों में रोगों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पहलुओं पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है। मेडिकल शिक्षा का मुख्य बल इस बात पर रहता है कि बीमारी हो जाने पर उसका इलाज कैसे किया जाय। जो रोग गरीबी की देन हैं उनकी या तो उपेक्षा कर दी जाती है या कामचलाऊ इलाज किया जाता है। उदाहरण् के लिए महिलाओं में खून की कमी या बच्चों के कुपोषण को इलाज इंजेक्शन या विटामिन की गोली से किया जाता है न कि इनके सामाजिक हालात को समझने की कोशिश।

ग्रामीणों को सस्ती और जवाबदेह चिकित्सा सहायता उपलब्ध कराने के लिए 12 अप्रैल 2005 से राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की शुरूआत की गई। इसके तहत प्रतिकूल स्वास्थ्य संकेतक वाले राज्यों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। मिशन का उद्देश्य समुदाय के स्वामित्व के अधीन पूर्णतया कार्यशील विकेंद्रित स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराना है। मिशन स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद का 2.3% खर्च करना चाहता है जो कि फिलहाल 0.9% है। इस क्षेत्र में केंद्र सरकार अपना बजट बढा रही है लेकिन राज्य सरकारों को भी प्रत्येक वर्ष कुल बजट का कम से कम 10% खर्च करना होगा। वर्तमान समय में स्वास्थ्य के क्षेत्र में केंद्र और राज्य सरकार के खर्च करने का अनुपात 80:20 है। केंद्र सरकार इसे 60:40 तक लाना चाहती है। समग्रत: ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता तभी बढेग़ी जब बिजली, सड़क, संचार की सुविधाएं बढे, मेडिकल पाठयक्रमों को ग्रामीणोनमुखी बनाया जाए और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी निवेश बढे।
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संदर्भ-
• स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट.
• ग्रामीण स्वास्थ्य पर फिक्की द्वारा कराए गए अध्ययन की रिपोर्ट.
• राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण से प्राप्त आंकड़े
• राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के आंकड़े
फोटो साभार-https://www.driste.org

लेखक- रमेश कुमार दुबे
(लेखक पर्यावरण एवं कृषि विषयों पर कई पत्र-पत्रिकाओं में स्‍वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं)

झुमरीतिलैया है या ‘झूम री तिलैया’

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ब्रजेश झा (पत्रकार)

झारखंड के झुमरीतिलैया शहर के किस्से बड़े निराले हैं, खासकर फिल्मी गीतों को लेकर। कहा जाता है कि इस इलाके से केवल फरमाइशी गीतों की लहरें उठती हैं। रेडियो सिलोन (श्रीलंका) हो या फिर विविध भारती, इन रेडियो स्टेशनों से जब भी गीत प्रसारित होते हैं तो यहां के लोग मचल उठते हैं।

तिलैयावासी संजीव बर्नवाल बताते हैं, “आप इस छोटे से शहर में घूमें। तब आपको पता चलेगा कि फिल्मी गीतों के कितने कद्रदान यहां आकर बस गए हैं।” पहाड़ी पर बसे तिलैया शहर ने फरमाईशी गीतों के विविध कार्यक्रमों के बूते अपनी खास पहचान बनाई है। एक समय कहा जाने लगा था कि फरमाईशी गीतों के कार्यक्रमों को तिलैया वालों ने हिट कर दिया है, जिसमें एक महत्वपूर्ण नाम रामेश्वर प्रसाद बर्नवाल का

रामेश्वर बर्नवाल अब नहीं रहे लेकिन रेडियो सिलोन (श्रीलंका)और विविध भारती का पता लिखा पोस्टकार्ड अब भी उनकी आलमारी में पड़ा है। उनकी पत्नी द्रोपदी देवी ने बताया, “मेरे पति गीतों के बड़े शौकीन थे और फिल्मी गीतों को खूब सुनते थे।”

उन्होंने कहा, “साठ और सत्तर के दशक में जिन-जिन रेडियो स्टेशनों से फरमाईशी गीतों के कार्यक्रम प्रसारित होते थे, उन सभी स्टेशनों पर एक-एक पोस्टकार्ड भेजना उनका रोज का काम था।”

रामेश्वर के बेटे संजीव ने बताया, “पिताजी बताते थे कि यह प्रक्रिया खेल-खेल में शुरू हो गई। उन दिनों गीत सुनने की अपेक्षा रेडियो में अपना व अपने शहर का नाम सुनना लोगों को अधिक रोमांचित करता था। धीरे-धीरे फरमाईशी गीतों के कार्यक्रमों को सुनना तिलैयावासियों की आदत हो गई।”

हजारीबाग के निकट बसे इस शहर में सन सत्तर के आसपास ‘झुमरीतिलैया रेडियो श्रोता संघ’ का गठन किया गया था। गंगा प्रसाद, मनोज बागरिया, राजेश सिंह, अर्जुन साह जैसे लोग इसके सदस्य

बाद के दिनों में फरमाईशी गीतों को सुनने का ऐसा जादू चढ़ा कि लोग टेलीग्राम के माध्यम से भी पसंदीदा गीतों को बजाने की मांग करने लगे। इसकी शुरुआत भी रामेश्वर ने की थी। संजीव ने बताया कि सबसे पहले उन्होंने ‘दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गया रे'(फिल्म-गंगा यमुना) गीत सुनने के लिए विविध भारती को टेलीग्राम किया था।

एक समय ऐसा भी कहा जाने लगा था कि हिन्दी फिल्मों का चलताऊ संगीतकार भी झुमरीतिलैया के श्रोताओं के बल पर सुख की नींद सोता है। आखिर ऐसा हो भी क्यों न! लोग इस शहर को झुमरीतिलैया की जगह ‘झूम-री-तिलैया’ जो कहने लगे हैं।

भूमंडलीकरण के दौर में खेल

sportsआर्थिक बदलावों की आंधी से खेलों की दुनिया भी नहीं बची रह सकी। आज खेलों का अपना एक अलग अर्थशास्त्र है। पिछले दिनों भारत में आयोजित इंडियन प्रीमियर लीग यानी आईपीएल ने यह साबित कर दिया कि खेलों का बाजारीकरण किस हद तक किया जा सकता है और यह कितने भारी मुनाफे का सौदा है। हालांकि, पहले से ही क्रिकेट में पैसे की भरमार रही है लेकिन आईपीएल ने इस खेल की अर्थव्यवस्था को ऐसा विस्तार दिया है कि इसका असर लंबे समय तक बना रहेगा। बीते दिनों बीजिंग में संपन्न खेलों के महासमर यानी ओलंपिक ने भी यह साबित कर दिया कि खेलों की अपनी एक अलग अर्थव्यवस्था है और भूमंडलीकरण के इस दौर में इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है।

बहरहाल, अब हालत ऐसी हो गई है कि खेल प्रतिस्पर्धाएं कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बजट पर असर डालने लगी हैं। इस बात में किसी को भी संदेह नहीं होना चाहिए कि खेलों ने एक उद्योग का स्वरूप ले लिया है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में खेल उद्योग का आकार दस हजार करोड़ रुपए सलाना तक पहुंच गया है। बाजार ने खेलों को एक ऐसे उत्पाद में तब्दील कर दिया है कि इससे सामान्य जनजीवन पर असर पड़ने लगा है। मैच के हिसाब से लोग अपनी दिनचर्या तय करने लगे हैं। क्रिकेट के अलावा अगर देखें तो भारत में भी अब अन्य खेलों में पैसे का दखल बढ़ा है। ईएसपीएन-स्टार स्पोर्टस और भारतीय हाकी महासंघ द्वारा मिलकर आयोजित किए जाने वाले प्रीमियर हाकी लीग का बजट भी अच्छा-खासा है। गोल्फ में भी तीन विश्वस्तरीय प्रतिस्पर्धाएं भारत में आयोजित हो रही हैं। जिनकी ईनामी राशि भी भारी-भरकम है। दिल्ली में गत साल फरवरी में आयोजित एमार-एमजीएफ इंडियन मास्टर्स गोल्फ प्रतियोगिता की ईनामी राशि साढ़े बारह करोड़ रुपए थी। इसके थोड़े दिनों बाद ही गुड़गांव में आयोजित जॉनी वाकर क्लासिक्स गोल्फ प्रतियोगिता की ईनामी राशि तो तकरीबन तेरह करोड़ रुपए थी। इस खिताब पर कब्जा जमाने वाले न्यूजीलैंड के मार्क ब्राउन इस रकम के हकदार बने। इस हिसाब से देखा जाए तो 1964 से देश में हर साल आयोजित होने वाले हीरो होंडा इंडियन ओपन की ईनामी राशि अपेक्षाकृत कम है। इस प्रतिस्पर्धा में बतौर ईनाम तकरीबन ढाई करोड़ की रकम बांटी जा रही है। इसी तरह टेनिस में भी भारत में दो बड़ी प्रतिस्पर्धाएं आयोजित हो रही हैं। इसमें पहला नाम है चेन्नई ओपन का और दूसरी प्रतिस्पर्धा है किंगफिशर एयरलाइन ओपन। इन दोनों प्रतियोगिताओं की ईनामी राशी तकरीबन बाईस करोड़ रुपए है। उल्लेखनीय है कि यह भारत में किसी भी खेल प्रतिस्पर्धा की सबसे बड़ी ईनामी राशि है।

बीजिंग ओलंपिक में भारत ने तीन पदक जीता। इसका असर यह हुआ कि अभी तक क्रिकेट में ही बड़ा निवेश करने वाले पूंजीपति दूसरों खेलों में भी खुले मन से निवेश कर रहे हैं। भारतीय उद्योग जगत और खेल जगत में तो इस महत्वकांक्षा की भी चर्चा चल रही है कि अगर सही ढंग़ से निवेश किया गया और उपयुक्त ढांचा विकसित हुआ तो भारत लंदन ओलंपिक में तीस पदक जीत सकता है। गौरतलब है कि 2012 में खेलों के महासमर का आयोजन लंदन में होने वाला है। यह खेलों के प्रति थैलीषाहों का बढ़ता रूझा नही है कि लक्ष्मी नारायण मित्तल की कंपनी आर्सेलर मित्तल ने 2012 तक भारतीय खेलों में 43.5 करोड़ रुपए निवेश करने का मन बनाया है। मित्तल की कंपनी निशानेबाजी, मुक्केबाजी, तैराकी और बैडमिंटन समेत कई खेलों को बढ़ावा देने में यह रकम लगाएगी। सुनील मित्तल के स्वामित्व में भारती समूह ने 2008-18 के बीच सिर्फ फुटबॉल में तकरीबन सौ करोड़ रुपए लगाने का निर्णय लिया है। उम्मीद की जा रही है कि फुटबॉल में इतना पैसा लगने से वैश्विक स्तर पर भारत की रैंकिंग सुधरेगी। इसके अलावा टाटा स्टील ने हर साल फुटबॉल और एथलेटिक्स को बढ़ावा देने के लिए पांच करोड़ रुपए खर्च करने का एलान किया है। इसके अलावा अपोलो टायर ने टेनिस में 2018 तक तकरीबन सौ करोड़ रुपए लगाने का फैसला किया है। इसके जरिए अपोलो कम उम्र के प्रतिभाओं को तराषने का काम करेगी। पूंजीपतियों के बढ़ते रूझान को देखकर भी यह बात साफ तौर पर मालूम पड़ती है कि खेलों में निवेश अब फायदे के सौदे में तब्दील हो चुका है। क्योंकि इस बात से तो सब वाकिफ हैं कि पूंजीपति समाज कल्याण और खेलों के कल्याण के मकसद से तो भारी-भरकम रकम निवेश करेंगे नहीं बल्कि उनका अहम मकसद तो ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना ही है।

खैर, बात बीजिंग ओलंपिक की। बीजिंग में आयोजित ओलंपिक का कई तरह से फायदा चीन को मिला। यहां यह बताना जरूरी है कि इस दौर में खेल उद्योग होने के साथ कई देशों के रिश्ते भी तय करते हैं। सबको अच्छी तरह याद होगा कि भारत-पाकिस्तान के बीच की खेल प्रतिस्पर्धाएं उस वक्त बाधित होती रही हैं जब इन देशों के बीच संबंध ज्यादा तनावपूर्ण रहा है। इस बार के ओलंपिक पर तिब्बत के मसले को लेकर कई बार संकट मंडराता हुआ दिखा। पर चीन ने इसके सफल आयोजन में कोई कसर नहीं छोड़ा। इससे पूरी दुनिया में चीन यह संदेश देने में सफल रहा कि अंतरराष्‍ट्रीय स्तर पर खेलों के जरिए भी अपनी छवि को एक हद तक बनाया जा सकता है।

वैसे तो ओलंपिक में पदक जीतने वालों को कोई ईनामी राशि नहीं मिलती है। पर जैसे ही कोई खिलाड़ी पदक जीतता है वैसे ही उस पर धन की बरसात होने लगती है। प्रायोजक ऐसे खिलाड़ियों के जरिए अपने उत्पाद को लोकप्रिय बनाने का मौका नहीं गंवाते हैं। बहरहाल, इस मर्तबा के ओलंपिक के बारह मुख्य प्रायोजक थे। इसमें कोडक जैसी कंपनी भी शामिल रही। जिसने आधुनिक खेलों का साथ 1896 से ही दिया है। इसके अलावा ओलंपिक के बड़े प्रायोजकों में कोका कोला भी थी। जो 1928 से ओलंपिक के साथ जुड़ी हुई है। इन बारह मुख्य प्रायोजकों से आयोजकों की संयुक्त आमदनी 866 मिलियन डॉलर यानी तकरीबन 4300 करोड़ रुपए रही। इसके अलावा कई छोटे प्रायोजक भी ओलंपिक में शामिल थे।

 हिमांशु शेखर

(लेखक आईआईएमसी से पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे हैं)

तुष्टिकरण और इसके नतीजे

504650292_af3f37111c क्या मुस्लिम तुष्टिकरण संघ परिवार द्वारा अपने राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए दशकों से गढ़ा एक तथ्य है या कल्पित शब्द? इस प्रसंग में तुष्टिकरण का अर्थ क्या है और क्या इससे आम मुस्लिम का भला हुआ है? और तुष्टिकरण की नीति से राष्ट्र के रूप में भारत तथा अन्य समुदायों पर क्या प्रभाव पड़ा?

सर विंस्टन चर्चिल ने कहा था, ‘एक तुष्टिकर्ता वह है जो मगरमच्छ को भोजन देता है और यह उम्मीद करता है कि वह उसे एक दिन निगल लेगा।’ मुस्लिम कट्टरपंथियों के साथ नरम रवैये के भारतीय अनुभवों पर यह एक पूर्णतया उचित कथन है। इसकी शुरूआत गांधीजी के उस समर्थन से हुई थी, जब उन्होंने 1920 में पूरे मन से सुदूर तुर्की में ‘खिलाफत’ की बहाली का समर्थन किया था। तुष्टिकरण की यह प्रक्रिया तीसरे और चौथे दशक में भी अबाधित रूप से जारी रही और 1947 में भारत के बंटवारे व पाकिस्तान के निर्माण के साथ शिखर पर पहुंची। तब से पाकिस्तान वैश्विक आतंकवाद के केंद्र के रूप में उभरा, जिसका मुख्य निशाना ‘शेष’ भारत को बनाया गया।

जनवरी 2004 और मार्च 2007 के बीच जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर भारत और वामपंथी आतंकवादी हिंसक घटनाओं में कुल 3,647 बेगुनाह लोग मारे गए, जिसके कारण भारत को इराक के बाद विश्व के दूसरे सबसे खतरनाक क्षेत्र के रूप में विशेष पहचान मिली। पिछले एक दशक में भारत में 53,000 से ज्यादा लोग आतंकवादी हिंसा के शिकार हुए, जबकि कारगिल समेत सभी युध्दों में महज 8,023 लोग मारे गए।

यह सिर्फ आंकड़ों की बात नहीं हैं, बल्कि उसके बाद की गई अथवा न की गई कार्यवाही से तुष्टिकरण की नीति और अधिक स्पष्ट हो जाती है। टाइम्स ऑफ इंडिया की जांच-पड़ताल (अगस्त 2007 के आखिरी सप्ताह में प्रकाशित हुई थी) जिस से पता चला कि अधिकांश जिहादी वारदातों में चाहे कितने ही बड़े पैमाने पर हिंसा क्यों न हुई हो और चाहे कितनी ही संपत्ति क्यों न नष्ट हुई हो-मामले दर्ज नहीं किए गए। अधिकांश मामलों की जांच किसी न किसी बहाने से रोक दी गई, क्योंकि खोज के सूत्र किसी खास समुदाय की ओर बढ़ रहे थे। यह तुष्टिकरण है। क्या यह किसी प्रकार राष्ट्रवादी मुस्लिमों की सहायता करता है, जो मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा हिस्सा है।

हैदराबाद के लुंबिनी पार्क विस्फोट के तीन महीने पहले ठीक इसी तरह का विस्फोट मक्का मस्जिद में हुआ था। अभी तक इसकी जांच-पड़ताल एक इंच भी आगे नहीं बढ़ी। दरअसल, जैसा कि आडवाणीजी ने संसद में (मानसून सत्र 2007) उल्लेख किया था, तीन संदेहास्पद व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया था। बाद में उन्हें छोड़ दिया गया, वह इसलिए नहीं कि वे बेगुनाह थे, बल्कि ऐसा करने के लिए राजनैतिक दबाव पड़ा। अर्थशास्त्री विवेक राय ने उल्लेख किया कि हालिया हैदराबाद के विस्फोट से महज कुछ दिन पहले इस्लामिक चरमपंथी गुट एआईएमआईएम ने, जिसके पास महज एक संसद सदस्य एवं चार विधान सभा सदस्य हैं, मक्का मस्जिद विस्फोट की जांच तथा आतंकवादियों के खिलाफ आतंक निरोधी दस्ते की कठोर रवैये की निंदा की। तत्पश्चात् जांच सीबीआई के हवाले कर दी गई।

टाइम्स ऑफ इंडिया की खोजबीन से मालूम हुआ कि जांच का एक हिस्सा ही सीबीआई को सौंपा गया, इसलिए जांच आगे नहीं बढ़ सकी। परिणामस्वरूप संपूर्ण जांच ठंडी पड़ गई। यह भी उल्लेखनीय है कि गृह मंत्री शिवराज पाटिल, आडवाणीजी द्वारा लगाए गए आरोपों का उत्तर देने में असफल रहे कि मक्का मस्जिद मामले में संदेहास्पद राजनैतिक कारणों से छोड़े गए थे। न तो इस केस में और न ही मालेगांव विस्फोट में तथा न ही मुंबई टे्रन धमाके के अभियुक्तों की धर-पकड़ अभी तक हो सकी है। और असल में सभी पूर्व जांच को स्थगित कर दिया गया है। कारण बिल्कुल साफ है। जांच की सुई मुस्लिम समुदाय वाले इलाकों की ओर संकेत करती है। जाहिर है कि वोट बैंक के कारण वे आधिकारिक निगरानी से पूर्णतया सुरक्षित हैं कि उनके बीच कौन से संदेहास्पद व्यक्ति आते-जाते हैं।

टाइम्स ऑफ इंडिया अपने संपादकीय में कहता है कि आतंकवादियों के प्रति भारत की कमजोर व ढुलमुल (दफ्तरी) प्रतिक्रिया, ज्यादा आतंकी घटनाओं का प्रमुख कारण है और वास्तव में यह तुष्टिकरण नीति के स्वाभाविक नतीजे हैं। केंद्रीय गृह-मंत्री पोटा जैसे कठोर आतंकविरोधी कानून की मांग को इंकार करते हैं। जैसा कि हम जानते है कि पोटा को वर्तमान सरकार ने सत्ता में आते ही रद्द कर दिया था। उनकी प्रतिक्रिया थी कि इस तरह का कानून, राक्षसी कानून होगा। टाइम्स ऑफ इंडिया ने लोकतांत्रिक देशों की एक फेहरिस्त दी है, जिन्होंने कठोर आतंक विरोधी कानूनों का निर्माण किया है, जिसके जरिए जांच अधिकारी संदेहास्पद व्यक्तियों की धर-पकड़, उनके ठिकाने की जांच और साइबर आधारित प्रमाणों को हासिल करते हैं। अधिकांश मामलों में आतंकी गतिविधियों की सजा आजीवन कारावास से कम नहीं होती, वह भी इसलिए कि अधिकांश यूरोपियन देशों ने मौत की सजा रद्द कर दी है। यहां के सेक्युलर इस तरह के कानूनों को राक्षसी कानून कहकर खारिज करते हैं। इस प्रकार जेहादी आतंकी गुटों को पहले ही नोटिस भेज दी जाती है कि उनके साथ सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाया जाएगा।

सत्ताधारी गठबंधन-
क्या इनकी गतिविधियों को देखकर हम इन्हें माफिया कहें?- ने आतंकवादी गतिविधियों पर आंखें मूंद ली हैं और इसे महज दिग्भ्रमित बच्चों का कारगुजारी बताया हैं। दरअसल, सत्ताधारी गठबंधन आतंक के खिलाफ युध्द छेड़ने से जानबूझकर अलग है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने ठीक ही कहा कि बहुत लंबे समय से हम आतंक को राजद्रोह की तरह निपटने में असफल रहे। फिर कैसे हम आतंकवादियों के खिलाफ लोगों को एकजुट खड़े होने के लिए प्रेरित कर सकते हैं?

तुष्टिकरण नीति उस वक्त बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है, जब हम आतंकी घटनाओं से निपटने के वर्तमान सरकार के दृष्टिकोण की तुलना अंतराष्ट्रीय प्रयासों मसलन- अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया की नीतियों से करते हैं। यहां तक कि सऊदी अरब, मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम देश भी इसे अंतर्राष्ट्रीय समस्या मानते हैं। लेकिन भारत ऐसा नहीं मानता। पेट्रियाट एक्ट (जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है) आतंकवादियों को आम आदमी से भिन्न व्यवहार करता है। यह कानून आतंकवादियों, उनको समर्थन देने वालों व उन्हें वित्तीय मदद मुहैया कराने वालों के साथ कठोर है। लगभग सभी देशों ने आतंकवादियों को वित्तीय मदद से रोकने के लिए कदम उठाए हैं, लेकिन हमारी सरकार सुस्त है। आखिर क्यों? माक्र्सवादियों द्वारा समर्थित जेहाद का भयानक चेहरा यूपीए सरकार व कांग्रेस के पीछे छिपा है।

आतंकवाद जैसे गंभीर मुद्दे पर कांग्रेस ने कैसे अपने आप को एआईएमआईएम के हवाले कर दिया। बांग्लादेश के सीमा पर पकड़े गए एक व्यक्ति से खुफिया एजेंसी को पहले ही सूचना प्राप्त हो चुकी है कि बांग्लादेश और पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर आरडीएक्स न केवल पहुंच चुका है, बल्कि उसका वितरण भी हो चुका है। समाचार-पत्रों की रिपोर्ट के अनुसार वे इसकी जांच करना चाहते थे और ठिकानों का पता भी लगाना चाहते थे। लेकिन आश्चर्यजनक यह है कि आंध्र प्रदेश की कांग्रेसी सरकार ने अधिकारियों को ऐसा करने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि उन्हें डर था कि इससे मुस्लिम भावनाएं भड़केगी। मुसलमानों की प्रतिक्रिया की डर से पकड़े गए इन लोगों को छोड़ दिया गया। आशंका के मुताबिक हैदराबाद का दूसरा विस्फोट इसी का नतीजा था।

ये तुष्टिकरण नीति के पुरूस्कार हैं। लेकिन मामला यहीं पर खत्म नहीं होता। अफजल गुरू की फांसी पर टाल-मटोल रवैये को देखें। एक कांग्रेसी मुख्यमंत्री खुले रूप से कहता है कि वह चाहता है कि सरकार फांसी की सजा को क्रियान्वित न करे। केंद्रीय गृह मंत्री यह बताने में असफल रहे हैं कि किस परिस्थिति बस संसद पर हमले की योजना में शामिल व्यक्ति की फांसी में देरी हो रही है। वामपंथी और स्वयंभू समाजवादी बड़े मसले को उठा रहे हैं कि एक समुदाय की भावना किस तरह प्रभावित होगी, यदि कोर्ट द्वारा दी गई फांसी के आदेश का क्रियान्वयन नहीं होता है। इसका अर्थ है कि इस देश में दो कानून हैं। एक गैर मुस्लिमों के लिए और दूसरा मुस्लिमों के लिए तथा अपराधियों मुस्लिम कानूनन मिलने वाले दण्ड से भी मुक्त रहते हैं मुस्लिम समुदाय के डर से आतंकी सौदागरों के प्रति अनिच्छुक कार्यवाही, धर्मनिरपेक्ष गुटों की एक रणनीति है, जो तुष्टिकरण नीति के रूप से लगातार जारी है। दूसरे अर्थों में इसका मतलब यह भी है कि मुस्लिम समुदाय का तथाकथित गुस्सा और इस गुस्से के कारण आतंक का सहारा लेने वालों के प्रति प्रदर्शित सहानुभूति को न्याय-संगत बनाता है।

अनेकमुंही शैतान
आतंकवाद के प्रति नरम रवैया दरअसल, तुष्टिकरण की सौ-मुंही नीति का महज एक भाग है। नेहरू की सेक्यूलर छूट जिसमें जम्मू-कश्मीर को धारा 370 व हिंदू कोड बिल कानून (लेकिन समान नागरिक संहिता नहीं) के जरिए स्वायत्तता दी गई। धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत धर्म-परिवर्तन व अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान जारी रहे। गौ-हत्या प्रतिबंध मखौल की वस्तु बना और हज सब्सिडी दी गई। इनको आस्था की वस्तु के रूप में (राष्ट्र के राजनीतिक जीवन में) देखा गया और इन सेक्युलर प्रावधानों के बुरे नतीजे अब हमारे सामने स्पष्ट हैं।

समय के साथ, बीमारी बढ़ती ही गई। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषणा की कि भारत के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक है। 2001 की जनगणना के धर्म आधारित आंकड़ों की मनचाही व्याख्या, पोटा को निरस्त करना, मुस्लिमों की आर्थिक स्थिति में सुधार की सिफारिश के लिए सच्चर कमेटी की नियुक्ति, मुस्लिमों को 5 प्रतिशत आरक्षण देने की वकालत, अल्पसंख्यक संस्थाओं को अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण से बाहर रखना, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक दर्जा, आईएमडीटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटने की कोशिश, अल्पसंख्यकों के लिए एक अलग मंत्रालय का गठन, हज सब्सिडी में बढ़ोत्तरी, मदरसों को यूनिवर्सिटी से संबध्द करने के इरादे की घोषणा आदि तुष्टिकरण नीति के विविध रूप हैं।

छद्म-भावना, छद्म-सहानुभूति और पवित्र संवेदनशीलता ने सेक्युलरवाद के चारों तरफ एक तिलिस्म तैयार किया है। यह भी एक आकस्मिक घटना है कि पूरा विश्व अमेरिका से लेकर यूरोप और आस्ट्रेलिया तक एक ही समय में एक साथ एक ही समस्या से जूझ रहा है। भारत इससे केवल एक विचित्र संतुष्टि प्राप्त कर सकता है कि उत्तर औपनिवेशिक काल में समस्त विश्व की तुलना में भारत मुस्लिम समस्या को समझने में ज्यादा गलती नहीं की।

पश्चिम में पिछले कुछ समय में आतंकवाद पर तमाम पुस्तकें लिखी गई, जिसमें इस्लामिक आतंकवाद के उभार व उनके कारण पश्चिम में मडंराते खतरों पर चर्चा हुई। मुख्य प्रकाशक, यूनिवसिर्टी प्रेस व मुख्य मीडिया ने इस समस्या पर काफी गौर किया और काफी विवेचना की। उन्होंने इसका खुलासा किया कि पश्चिम के उदारवादी मूल्यों, मसलन बहु-सांस्कृतिकवाद, लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्लामिक चरमपंथी उद्देश्यों के लिए किस तरह दुरूपयोग किया गया। वहीं भारत की मीडिया, शैक्षणिक समुदाय व राजनीतिज्ञों ने शायद ही इस प्रकार की खोजबीन की। ऐसे प्रश्नों पर चर्चा चलाने मात्र से ही, हालांकि अकादमिक तौर पर ही, उसे सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाता है। ऐसा क्यों?

इस सेक्युलर उद्योग में कुछ निहित स्वार्थ संलग्न हैं, जबकि सच्चाई यह है कि यह उद्योग जहरीले उत्पाद बना रहा है, जो आने वाले समय में सभ्यता का गला घोट देगी। धर्मनिरपेक्षवाद के ये झंडाबरदार सांप्रदायिकता के सबसे वीभत्स रूप को पोषित कर रहे हैं। हम नैतिक रूप से सही हैं या गलत, यह बहस अब काफी पीछे छूट चुकी है। अब हम एक ऐसे समय में हैं जब इसके द्वारा किए भयानक कृत्यों का उधार चुकाना है। केवल अच्छी-अच्छी बात करके हम राष्ट्रीय बैचेनी को नहीं ढक सकते। विस्फोटकों को ढेर किसी भी समय विस्फोट कर सकता है और इसके नतीजे बहुत ही भयानक होंगे।

स्वतंत्र भारत की नीतियों के अवलोकन से स्पष्ट हो जाता है कि धर्मनिरपेक्षवादी किस तरह मुस्लिम चरमपंथियों के जहरीले वृक्ष का पोषित किए। इस दोष का बहुत बड़ा हिस्सा निम्न कारणों से कांग्रेस के सिर पर है। गांधीयुग में हिंदू-मुस्लिम एकता के नाम पर धर्मनिरपेक्षता की मीठी-मीठी बातें हुईं, लेकिन अनैतिक बंटवारे के बाद भी कुछ भी बेहतर हाथ नहीं लगा। ब्रिटिश से सत्ता हासिल करने व अगले तीन दशकों तक शासन संभालने के कारण इसने (कांग्रेस) संवैधानिक प्रावधानों की नींव रखी। आजाद भारत के अधिकांश वर्षों में इसने ही शासन किया। भाजपा, शिवसेना और अकाली दल को छोड़कर दूसरी पार्टियों ने भी मुस्लिम चरमपंथियों की खुशामद करके कांग्रेस को बाहर करने की कोशिश की।

हिंदू-मुस्लिम संबंधों का इतिहास
यदि कोई 1300 वर्षों के हिंदू-मुस्लिम संबंधों की वस्तुपरक जानकारी लेने का इच्छुक है, तो उसे इतिहास के पन्नों में झांकना होगा। नौ-परिवहन (व्यापार) के जरिए दक्षिण भारत के तटों पर इस्लाम के पहुंचने की घटना कोई उल्लेखनीय बात नहीं थी। लेकिन जब वे मध्‍यकाल में आक्रमणकारी के रूप में उत्तर-भारत के रास्ते आए, तब उनका संघर्ष उस हिन्दू धर्म के साथ हुआ, जो कि धर्म का विरोध नहीं करता है। मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में अरबों ने 712 ईसवी में सिंध पर आक्रमण कर उस पर कब्जा कर लिया और हिंदू राजा दहीर 20 जून को मारा गया। राजा की मृत्यु के बाद रानी और दूसरी औरतों ने अपने सम्मान की रक्षा के लिए जौहर कर लिया। 17 वर्ष से ज्यादा के जिन पुरूषों ने इस्लाम स्वीकार करने से इनकार किया वे मौत के घाट उतार दिए गए।

बाद के सभी युध्दों में, जिसमें मुस्लिम विजेताओं ने गैर-मुस्लिमों को रौंदा, पराजितों को भयानक अपमान सहना पड़ा। सच तो यह है कि मध्‍यकाल का इतिहास निशंस हत्या, मारकाट, लूटपाट, जबरन धर्म-परिवर्तन, हिंदू महिलाओं के साथ बलात्कार से भरा पड़ा है, जैसा कि मुस्लिम इतिहासकारों ने भी उल्लेख किया है। मध्‍यकालीन भारत ने ऐसे सांस्कृतिक संघर्ष को देखा, जिसमें मुस्लिम काफी भारी पड़े। लेकिन शिवाजी और गुरू गोविंद के उदय के बाद (दोनों पंथ निरपेक्ष राजा थे) हिंदू अस्मिता को काफी बल मिला।

20 फरवरी 1707 को औरंगजेब की मृत्यु के बाद हिंदू-मुस्लिम संबंधों का एक युग खत्म हो गया। उस समय मुगल साम्राज्य अपने रक्तरंजित इतिहास के आधो-काल खंड से जब आगे बढ़ चुका था, तब इसका मुस्लिम वर्चस्व टूटने लगा था। औरंगजेब की मृत्यु से पहले के 180 सालों में में 6 मुगल शासक- बाबर, हुमायूं, अकबर, शाहजहां, जहांगीर और औरंगजेब ने शासन किया। सभी शासक शक्तिशाली थे। अकबर को छोड़कर शेष सभी बहुत हद तक इस्लामी धर्मान्धाता के शिकार थे। जबकि अगले 52 सालों में (1707 से लेकर 1759 तक) आठ मुगल शासक रहे, जिसमें से चार की हत्या कर दी गई, एक को अपदस्थ कर दिया और महज तीन ही शांतिपूर्ण मृत्यु हासिल कर सके। जून 1757 में प्लासी के युध्द में क्लायु के हाथों सिराजुद्दौला की हार के बाद मुगल साम्राज्य का पतन तेजी से होना शुरू हो गया।

भारतीय इस्लाम
18वीं शताब्दी में मराठा-सिख-जाट और राजपूतों के नेतृत्व में स्थानीय शक्तियों ने विदेशी शक्तियों पर अपना अधिकार (क्षेत्रीय-सांस्कृतिक दोनों) जमाना शुरू कर दिया। अंतिम मुगल बादशाह भारतीय मूल्यों से काफी प्रभावित थे। एक खास तरह के इस्लाम का तेजी से विकास हुआ, जिसने अन्य धर्मों के साथ सामंजस्य बैठाया। अवध का नबाव वाजिद अली शाह औरंगजेब से कोसों दूर था। भारत के 95 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम धर्म-परिवर्तन (हिंदुओं) से बने हैं। मेरा विश्वास है कि यह आपसी आदान-प्रदान यदि अंग्रेजों द्वारा बाधित नहीं किया गया होता, तो यहां के मुस्लिम अपने धर्म पर विश्वास करते हुए भी देश की संस्कृति में रच-बस जाते। अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफर मराठों का पेंशनर था। दूसरे आंग्ल-मराठा युध्द में पटपड़गंज की लड़ाई में मराठा, ब्रिटिश जनरल लेक के हाथों पराजित हो गए। युध्द की याद में पत्थर का एक छोटा सा स्मारक बना, जो दिल्ली के निकट नोयडा गोल्फ कोर्स के आज भी मौजूद है।

ब्रिटिश के साथ मुठभेड़ मुस्लिमों ने नहीं बल्कि हिंदुओं ने शुरू की। 1857 में पहली गोली बा्रहमण, मंगल पांडे ने चलाई। प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम में शामिल अधिकांश शासक हिंदू ही थे, लेकिन उनका मकसद बहादुर शाह द्वितीय को बतौर बादशाह गद्दी पर बैठाना था। दिल्ली की गद्दी पर बैठते ही बहादुर शाह का प्रथम आदेश गौ-हत्या पर प्रतिबंध था और जिसके न होने पर फांसी की सजा का प्रावधान था।

बांटो और राज करो
1857 के विद्रोह को दबाने के बाद परिस्थितियों में भारी बदलाव आया। अपने साम्राज्यवादी हितों को सुरक्षित करने के लिए ब्रिटिश ने ‘बांटो और राज करो’ की नीति का अनुसरण किया और दो धाराओं की मिलन प्रक्रिया को उलट दिया। एक ब्रिटिश अफसर, कर्नाटिकश ने एशियाटिक रिव्यू में लिखा है कि भारतीय प्रशासन-राजनीतिक, नागरिक व सैनिक- का सिध्दांत Divide et impera होना चाहिए। लार्ड एलफिंस्टोन ने 1859 में एक आफिशियल रिकॉर्ड में दर्ज किया कि क्पअपकम मज पउचमतं रोमन का पुराना सिध्दांत है और यह हमारा भी होना चाहिए। (Lord Elphinstone, Governor of Bombay, Minute of May 14, 1859)। 1888 में सर जान स्ट्राचे लिखते हैं, ‘विशुध्द सत्य यह है कि दो विरोधी धर्मों का एक साथ अस्तित्व भारत में हमारी राजनीतिक स्थिति का एक मजबूत आधार है।’ (Sir John Strachey, India, 1888, p.255½

द्वि-राष्ट्रीय सिध्दांत व अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी
‘बांटो और राज्य करो’ की नीति के तहत अंगरेजों ने सर सैयद अहमद खान को प्रोत्साहित करना शुरू किया, जो 1857 की क्रांति से काफी पहले ही ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में शामिल हो चुके थे। 1857 के गदर के दौरान वे अंग्रेजों के साथ रहे। बाद में चलकर वे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना की (1920), जो बाद में मुस्लिम राजनीति (पाकिस्तान मूवमेंट) का केंद्र बिंदु बना।

सर सैयद इस बात को बखूबी समझते थे कि ब्रिटिश मालिकों की सेवा करके वे मुस्लिमों के हितों की रक्षा बेहतर ढंग से कर सकते हैं। पिछले व वर्तमान शासकों के बीच की मैत्री हिंदुओं के खिलाफ थी। परंपरागत मुस्लिम समुदाय के लिए उन्होंने अपने विचारों को सैध्दांतिक जामा पहनाया। उन्होंने मुस्लिमों व ईसाइयों की मित्रता को इस्लामिक करार दिया। सर सैयद अहमद खान, मुहम्मद एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज फंड कमेटी के अवैतनिक आजीवन सचिव रहे और चंदे निश्चित तौर पर मुस्लिम व ईसाइयों से ही लिए गए न कि किसी अन्य से।

उन्होंने यह भगीरथ प्रयास किया कि मुसलमान व ब्रिटिश सबसे अच्छे मित्र हैं। मुस्लिम राजनीति में सर सैयद की परंपरा मुस्लिम लीग (1906 में स्थापित) के रूप में उभरी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1885 में स्थापित) के विरूध्द उनका प्रोपेगंडा था कि कांग्रेस हिंदू आधिापत्य पार्टी है और प्रोपेगंडा आजाद-पूर्व भारत के मुस्लिमों में जीवित रहा। कुछ अपवादों को छोड़कर वे कांग्रेस से दूर रहे और यहां तक कि वे आजादी की लड़ाई से भी हिस्सा नहीं लिया। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ब्रिटिश-भारत के मुस्लिम बहुल राज्यों मसलन-बंगाल, पंजाब में लगभग सभी स्वतंत्रता सेनानी हिंदू या सिख थे।

सर सैयद अहमद की सफलता में अंगरेजों का अपना निहित स्वार्थ था, क्योंकि उन्हें कांग्रेस के प्रतिकार के रूप में देखा गया, क्योंकि ए ओ ह्यूम द्वारा स्थापना के तीन वर्षों के अंदर अंग्रेजों को इस बात का अंदेशा हो गया था कि यह सेटी वाल्व की जगह भस्मासुर साबित होगा। अलीगढ़ कालेज का प्रधानाचार्य अंगरेज, मसलन-थिओडोर बेक व मोरीसन बने, जो सर सैयद अहमद की नीतियों के सक्रिय प्रवक्ता बने। इंग्लैंड में अपने जीवन व कैरियर को त्याग चुके बेक ने भारत में मुसलमानों की सेवा में अपने आप को समर्पित कर दिया। वह अलीगढ़ कालेज की ‘इंस्टीटयूट गजेट’ के कार्यकारी संपादक बने और अपने अनेक संपादकीय और लेखों में कहा कि भारत द्वि-राष्ट्र या अनेक राष्ट्र हैं और इसलिए संसदीय सरकार भारत के लिए उपयुक्त नहीं है। यदि यह सौंपी जाती है तो बहुसंख्यक हिंदू ही शासक होंगे और कोई मुस्लिम शासक नहीं होगा।

बेक कहते हैं, ‘कांग्रेस का उद्देश्य यह है कि देश की राजनीतिक सत्ता को हस्तांतरण ब्रिटिश से हिंदुओं के हाथ में हो। यह आर्म्स एक्ट को रद्द करने की मांग करती है और सेना के खर्च में कटौती चाहती है। जिससे परिणामस्वरूप सीमाप्रांत की रक्षा कमजोर होगी। मुसलमानों की इस मांग से कोई भी सहानुभूति नहीं है। इसलिए मुसलमानों व अंगरेजों को एकजुट रहना जरूरी है ताकि इन आंदोलनकारियों से लड़ा जा सके और लोकतांत्रिक सरकार को आने से रोका जा सके। इसलिए हम सरकार के प्रति स्वामीभक्ति व एंग्लो-मुस्लिम मित्रता की वकालत करते हैं।’

यहां पर, मार्च 16, 1888 को मेरठ में दिए गए सर सैयद अहमद के भाषण का संक्षिप्त उल्लेख जरूरी है:

क्या इन परिस्थितियों में संभव है कि दो राष्ट्र-मुसलमान व हिंदू-एक ही गद्दी पर एक साथ बैठे और उनकी शक्तियां बराबर हों। ज्यादातर ऐसा नहीं। ऐसा होगा कि एक विजेता बन जाएगा और दूसरा नीचे फेंक दिया जाएगा। ऐसी उम्मीद रखना कि दोनों बराबर होंगे, असंभव और समझ से परे है। साथ ही इस बात को भी याद रखना चाहिए कि हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों की संख्या कम है। हालांकि उनमें से काफी कम लोग उच्च अंग्रेजी शिक्षा हासिल किए हुए हैं, लेकिन उन्हें कमजोर व महत्वहीन नहीं समझना चाहिए। संभवत: वे अपने हालात स्वयं संभाल लेंगे। यदि नहीं, तो हमारे मुसलमान भाई, पठान, पहाड़ों से असंख्य संख्या में टूट पड़ेंगे और उत्तरी सीमा-प्रांत से बंगाल के आखिरी छोर तक खून की नदी बहा देंगे। अंग्रेजों के जाने के बाद कौन विजेता होगा, यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करेगा। लेकिन जब तक एक राष्ट्र दूसरे को नहीं जीत लेगा और उसे आज्ञाकारी नहीं बना लेगा, तब तक शांति स्थापित नहीं हो सकेगी। यह निष्कर्ष ऐसे ठोस प्रमाणों पर आधारित है कि कोई इसे इनकार नहीं कर सकता।

आगा खां ने 1954 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों को निम्न शब्दों में भेंट दी:
‘प्राय: विश्वविद्यालय ने राष्ट्र के बौध्दिक व आध्‍यात्मिक पुनर्जागरण के लिए पृष्ठभूमि तैयार की है।…अलीगढ़ भी इससे भिन्न नहीं है। लेकिन हम गर्व के साथ दावा कर सकते हैं कि यह हमारे प्रयासों का फल है न कि किसी बाहरी उदारता का। निश्चित तौर यह माना जा सकता है कि स्वतंत्र, सार्वभौम पाकिस्तान का जन्म अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में ही हुआ था।’

फखरूद्दीन अली अहमद के जीवनीकार रहमानी बंटबारे में अलीगढ़ की भूमिका के बारे में कहते हैं, ‘… 1940 के बाद मुस्लिम लीग ने अपने राजनैतिक सिध्दांतों के प्रसार के लिए इस यूनिवर्सिटी को एक सुविधाजनक और उपयोगी मीडिया के रूप में इस्तेमाल किया और द्विराष्ट्र सिध्दांत का जहरीली बीज बोया।… यूनिवर्सिटी के अध्‍यापक व छात्र सारे देश में फैल गए और मुसलमानों को यह समझाने की कोशिश की कि पाकिस्तान बनने का उद्देश्य क्या है और उससे फायदे क्या हैं।

अक्टूबर 1947 में ऐसा पाया गया कि पाकिस्तानी सरकार ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से अपनी सेना के लिए अफसरों की नियुक्ति की। उस समय उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को यूनिवर्सिटी के उप-कुलपति को आदेश देना पड़ा कि कोई पाकिस्तानी अफसर यूनिवर्सिटी न आने पाए। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संदिग्ध इतिहास के बावजूद सेक्युलर गुट कानून बनवाने में व्यस्त हैं कि मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाए। यह हास्यास्पद लगता है, क्योंकि अल्पसंख्यक दर्जा के बिना ही यूनिवर्सिटी के 90 प्रतिशत छात्र और शिक्षक मुस्लिम हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने इस सेक्युलर प्रयासों पर विराम लगा चुकी है।

मुस्लिम अलगाववाद का विस्तार
मुस्लिम समस्या (मुस्लिम अलगाववाद) प्रत्येक संवैधानिक सुधारों के बाद बढ़ती गई, जिसे ब्रिटिश सरकार ने उत्तरदायी सरकार बनाने के मकसद से किया। भारतीय परिषद् कानून (1892) ने पहली बार गवर्नर की विधान परिषद् में मुस्लिमों को अलग से प्रतिनिधिात्व मिला। मुसलमानों को ऐसे वर्ग के रूप में चिह्नित किया गया, जिसका प्रतिनिधित्व होना था। यह बात अलग है कि उनका प्रतिनिधि मुसलमानों के द्वारा नहीं, बल्कि गवर्नर जनरल के द्वारा चुना जाना था। मार्ले-मिंटो सुधार से पहले के बहस-मुबाहिसे के लिए 1906 में एच. एच. खान के नेतृत्व में विशिष्ट मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमंडल लार्ड मिंटो से शिमला में मिला।

उसने मांग की नगरपालिका तथा जिला परिषदों में पृथक निर्वाचन मंडल द्वारा मुसलमानों की निश्चित भागीदारी सुनिश्चित की जाय। प्रांतीय परिषदों में मुस्लिम समुदाय के राजनीतिक महत्व के अनुरूप हिस्सेदारी सुनिश्चित की जाय। यह भागीदारी एक ऐसे निर्वाचक मंडल के द्वारा तय की जाय, जिसमें केवल मुसलमान हों। इसी तरह की व्यवस्था इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के लिए भी की जाय।

1909 का मार्ले-मिंटो सुधार, जिसने केंद्रीय व प्रांतीय विधान परिषदों का विस्तार किया, ने कुछ सदस्यों के चुनाव की व्यवस्था की। प्रत्येक परिषद् में अतिरिक्त मुस्लिम सदस्यों रखे गए। ये सदस्य पृथक मुस्लिम निर्वाचक मंडल से चुन कर आते थे। पृथक निर्वाचक मंडल मद्रास और असम प्रांतीय परिषद् के लिए छह, बांबे, बिहार, उड़ीसा और संयुक्त पांत के लिए चार और बंगाल के लिए पांच सदस्य चुनने का अधिकार था। साथ ही, मुस्लिमों को यह भी अधिकार था वे आम मतदाता के साथ चुनाव में हिस्सा ले सकें। वास्तव में अंग्रेजों द्वारा पृथक निर्वाचक मंडल की व्यवस्था पाकिस्तान के निर्माण की तरफ पहला कदम था। 1946 के प्रांतीय चुनावों में उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रांत को छोड़कर, मुस्लिम लीग ने मुस्लिम क्षेत्रों में कांग्रेस को रौंद दिया।

सिविल सोसाइटी मूवमेंट में मुस्लिम विरोध
मुस्लिमों की राष्ट्रीय राजनीति से जानबूझकर अलगाव बंगाल में पहली बार देखने को मिला। 1851 में बंगाल में ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की स्थापना हुई, जिसके अध्‍यक्ष राजा राधाकांत देब और सचिव देवेंद्र नाथ टैगोर बने। धर्म, जाति व भाषा के भेदभाव के बिना कोई भी भारतीय इसका सदस्य बन सकता था। शुरूआत से ही अखिल भारतीय दृष्टिकोण रखा गया और मद्रास व पुणे में इसी तरह के संगठनों से सहयोग भी किया गया।

एसोसिएशन की मांगों में क्या सांप्रदायिक हो सकता था। देश के स्थानीय प्रशासन में सुधार, कानूनों व नागरिक प्रशासन में आवश्यक सुधार ताकि भारतीयों की भलाई सुनिश्चित हो सके, कर में कमी, जीवन और संपत्ति की सुरक्षा, ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार से राहत, स्थानीय उद्योगों का विकास, लोगों की शिक्षा व उच्च प्रशासनिक सेवाओं में प्रवेश के लिए प्रोत्साहन या विधान सभा की दो-तिहाई सीटें भारतीयों के लिए सुरक्षित करना उनकी मांगें थीं।

लेकिन मुस्लिम इन आंदोलनों से यह बहाना बनाकर दूर रहे कि इसमें धनी जमीदारों का आधिपत्य है और यह वर्गीय हितों को देखता है। यह मुसलमानों के हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करता, क्योंकि अधिकांश मुसलमान रैयत या किसान हैं। इसलिए मुसलमानों ने 1856 में मुहम्मडन एसोसिएशन की स्थापना की। संगठन का नाम समुदाय को दर्शाता है न कि किसी वर्ग को। लेकिन ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन ने यह कहकर मुहम्मडन एसोसिएशन की स्थापना का स्वागत किया कि यह राष्ट्रीय समस्या को हल करने में मदद करेगा। 1859 में ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन ने रैयत की मांगों का समर्थन किया और शोषक नील उत्पादकों के उस प्रयास में हिस्सा नहीं, जिसमें 1859 के एक्ट-ग् को रद्द कराने का प्रयास किया था। 1860 में इसने सरकार से अनुरोध किया कि इंडिगो प्लांटेशन संबंधी प्रश्नों को हल करने के लिए एक जांच कमेटी नियुक्ति की जाए। यह राष्ट्रीय हित में काम कर रही थी, हालांकि यह उसके वर्गीय हित के खिलाफ भी था। फिर भी मुहम्मडन एसोसिएशन की तरफ से कोई मदद नहीं मिली।

1867 में आनंदमोहन बोस और सुरेंद्र नाथ बनर्जी ने इंडियन एसोसिएशन की स्थापना की। ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की तरह यह किसी उच्च वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं करता था, बल्कि इसका काम पढ़े-लिखे मध्‍यवर्गीय लोगों में राजनीतिक चेतना फैलाना था। इंडियन एसोसिएशन ने जनहित के लिए अनेक मुद्दों-जैसे आर्म्स एक्ट, वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट, बंगाल टीनैंसी एक्ट 1885 के पक्ष या विरोध में आंदोलन किया। इसने अर्थव्यवस्था, स्थानीय स्वशासन, वैधानिक व्यवस्था तथा प्रेस की स्वतंत्रता जो सभी भारतीयों की हितों से संबंधित थे, के लिए जनमत तैयार किया। हिंदुओं तथा मुसलमानों के बीच दोस्ताना संबंध बनाना एसोसिएशन का एक प्रमुख उद्देश्य था।

परंतु, मुसलमानों की कृपा से यह केवल स्वप्न ही रह गया। 1877 में बंगाल का एक मुसलमान सैयद आमीर अली, जिसे अपने ईरानी वंशज होने का अभिमान था, ने सेंट्रल मुहम्मडन एसोसिएशन की स्थापना की। इसका घोषित लक्ष्य भारत पर मुसलमानों का सभी वैध और संवैधानिक तरीकों से कल्याण करने का था। उसने तर्क दिया कि मुसलमान शिक्षा और धन में पीछे हैं। इसलिए हिंदू-मुस्लिम भाई-चारा की बात करने के बावजूद कोई भी हिंदू वर्चस्व वाली संस्था मुस्लिम समाज के हितों को प्रतिबिंबित नहीं कर सकती। इसलिए मुसलमानों एक अलग मंच की जरूरत थी।

विचित्र बात यह थी कि जो मुसलमान सैयद आमीर अली का सेंट्रल मुहम्मडन एसोसिएशन से जुड़ रहे थे, उनकी सामाजिक आर्थिक स्थित उन हिंदुओं के समकक्ष थी, जो इंडियन एसोसिएशन के सदस्य थे। परंतु जब कि इंडियन एसोसिएशन समान भारतीय हितों का पहरेदार था, सेंट्रल मुहम्मडन एसोसिएशन केवल मुस्लिम हितों की बात करती है। पांच वर्षों के अंदर सेंट्रल मुहम्मडन एसोसिएशन की सदस्यता 100 से बढ़कर 500 हो गई। आमीर अली चतुराई से पचास शाखाओं का विस्तार बंगाल, बिहार, बांबे प्रेसीडेंसी, संयुक्त प्रांत, पंजाब से लेकर सुदूर लंदन तक किया। ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन अपना विलय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में उसकी स्थापना के समय कर दिया। लेकिन सेंट्रल मुहम्मडन एसोसिएशन ने कांग्रेस से दूरी बनाए रखा।

कांग्रेस की भर्त्सना करते हुए इलाहाबाद, लखनऊ, मेरठ, लाहौर, मद्रास तथा अन्य शहरों के मुसलमानों ने प्रस्ताव पारित किए। द् मुहम्मडन आब्जर्वर, द् विक्टोरिया पेपर, द् मुस्लिम हेराल्ड, द् रफीक ए हिंद तथा द् इंपीरियल पेपर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आलोचना करने में एकजुट थे। इन समाचार पत्रों की कतरनें उत्तर भारत की एक प्रतिष्ठित मुस्लिम प्रकाशन, अलीगढ़ इंस्टीटयूट गजट में लगातार प्रकाशित होती रही।

सर सैयद के समय से लेकर जिन्ना के समय तक मुसलमान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को हिंदू पार्टी कहकर आलोचना करते रहे। क्रांग्रेस ने मुसलमानों की आम भागीदारी अल्प रही। 1946 का अंतरिम चुनाव ने मुस्लिम मतदाताओं का मुस्लिम लीग के प्रति भारी समर्थन दर्शाया। मुस्लिम लीग साधारणत: अग्रेजों का वफादार रहा। फिर भी क्या कारण है कि मुस्लिम लीग स्वतंत्र भारत में कई दशकों तक यह मुसलमानों का सर्वाधिक प्रिय पार्टी बनी रही। यह बात तय हैं कि स्वतंत्रता-सह-बंटवारा की सुबह मुसलमान हिंदुओं के प्रति कोई विशेष प्रेम विकसित नहीं कर पाए। कांग्रेस शासन के दौरान अनेक बड़े दंगे भारत को अपने चपेट में लेता रहा। इस विरोधाभास का उत्तर तब मिलता है, जब हम सुविधा के गठजोड़ की तरफ देखें।

युवराज कृष्ण (भारत-विद्या के महान विद्वान एवं सेवानिवृत्ता सिविल अधिकारी) ने अपनी पुस्तक ‘अण्डरस्टैण्डिंग पार्टिशन’ में कहा है: अपने प्रस्तावों में, मंचों पर और प्रेस में मुस्लिम लीग ने कांग्रेस, विशेष रूप से 8 प्रांतों में कांग्रेसी सरकार के खिलाफ जमकर प्रचार किया। कांग्रेस पर आरोप लगाया गया कि उसने हिन्दू राज्य की स्थापना और भारत के मुसलमानों की संस्कृति एवं धर्म तथा उनके राजनीतिक व आर्थिक अधिकारों को मिटा डालने का इरादा कर रखा है। आरोपकर्ताओं को बार-बार चुनौती दी गई कि वे साम्प्रदायिक अत्याचार और मुसलमानों पर प्रभुत्व जमाने के कुछ तो उदाहरण पेश करें। इस चुनौती के जवाब में उन्होंने बड़े अस्पष्ट और अनिश्चित प्रकार के आरोपों, एक-तरफा कहानियां बनाने, विकृत भ्रांतियां और अतिश्योक्तिपूर्ण बातें ही कहीं। उन्होंने मुस्लिम संस्कृति को कुचलने के प्रयासों के उदाहरण पेश किए, उनमें वन्देमातरम् गान, सार्वजनिक संस्थानों पर राष्ट्रीय ध्‍वज फहराने, हिन्दुस्तानी का प्रचार करने जैसी बातें शामिल है। इस प्रकार की गतिविधियां कोई नई नहीं थी। 1920 से ही राष्ट्रीय ध्‍वज विदेशी शासन के खिलाफ और राष्ट्रीय अखण्डता का प्रतीक रहा है। वर्तमान शताब्दी के आरम्भ से ही ऐतिहासिक एसोसिएशनों ने राष्ट्रीय गीत के रूप में वन्देमातरम् का गान करती रही है और विभाजन से पहले से ही चलता आ रहा था। इसके खिलाफ मुस्लिम आन्दोलन एक नई बात थी। यहां भी, कांग्रेस ने केवल इस गीत के उस अंश को गाने की अनुमति दी थी जिस पर किसी को कोई आपत्ति हो ही सकती थी। कांग्रेस ने जिस आम भाषा की वकालत की थी, वह हिन्दुस्तानी थी, जिसे उत्तरी भारत में बोला और नागरी अथवा देवनागरी लिपि में लिखा जाता था। ये सभी गतिविधियां बहुत पुरानी थीं परन्तु इनके बारे में लीग का विरोध नया था। फिर भी, हर जगह जहां भी विरोध हुआ, कांग्रेसजनों और कांग्रेस सरकार संघर्ष से बचती रही।

मुस्लिम लीग की परिषद ने कांग्रेसी सरकारों के खिलाफ ऐसे सभी तथा अन्य अस्पष्ट से आरोपों को इकट्ठा करने के लिए एक विशेष समिति बनाई। एक रिपोर्ट पेश हुई जो पीरपुर रिपोर्ट के नाम से विख्यात है। इसके शीघ्र बाद ही संसदीय उप-समिति के अध्‍यक्ष श्री वल्लभभाई पटेल ने कांग्रेसी मंत्रियों से प्रत्येक आरोप की जांच करने और रिपोर्ट देने को कहा। कांग्रेसी सरकारों ने इन सभी आरोपों का ब्यौरेवार उत्तार तैयार कर उन्हें बेबुनियाद बताते हुए विज्ञप्तियां जारी कीं। क्या आज भी ये परिचित सी नहीं लगती हैं? अब जरा कांग्रेस के स्थान पर भाजपा को और विभाजन पूर्व मुस्लिम लीग के स्थान पर कांग्रेस और अन्य सेक्युलर पार्टियों को रख कर देखें तो आपको महसूस होगा कि जैसे इतिहास फिर से दोहराया जा रहा है।

गांधी और मुस्लिम तुष्टीकरण
कांग्रेस के नेता सदा ही मुस्लिमों को अपने साथ जुटाने के लिए लालायित थे। कुछ मुस्लिम पुरुष जैसे बदरूद्दीन तैयबजी (1887), रहिमतुल्ला एम. सायानी (1896) और नवाब सैय्यद मौहम्मद बहादुर (1919) इसके अध्‍यक्ष भी बने। परन्तु एक समुदाय के रूप में मुस्लिम कांग्रेस से अलग ही रहे। सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ने लिखा है: ”हम इस महान राष्ट्रीय कार्य में अपने मुसलमान देशवासियों का सहयोग प्राप्त करने के लिए जी-तोड़ प्रयास कर रहे हैं। कभी-कभी तो हमने मुसलमान प्रतिनिधियों को आने-जाने का किराया तथा अन्य सुविधाएं भी प्रदान कीं।”

मुस्लिम सहयोग पाने के लिए जरूरत से ज्यादा झुक जाने की परम्परा गांधीवादी कांग्रेस की विशेषता बन गई थी। गांधी ने मजहबी-नैतिक दृष्टि से ‘हिन्दू-मुस्ल्मि एकता’ मुद्दे को देखा। उन्होंने इसे अपने सिध्दांत हिंसा की तरह स्वतंत्रता आंदोलन के लिए अपनी आस्था का मुद्दा बना लिया, हालांकि उनके इस सम्पर्क प्रयास को बहुत कुछ सफलता नहीं मिली। सम्भवत:, शायद ही कुल चार प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या ही कांग्रेस की तरफ आकर्षित हो पाई।

वस्तुत: गांधी पहले ऐसे कांग्रेसी नेता थे जिन्होंने मुसलमानों को सुधारने की कोशिश की और उन्होंने निष्क्रिय पड़े खलीफाओं के संस्थानों को बचाने के लिए भी कट्टरवादियों के साथ हाथ मिलाया। मुस्लिम लीग (1906 में स्थापित) शिक्षित कंजर्वेटिव लोगों का केन्द्र थी, परन्तु ये ऐसे दकियानुसी मुस्लिम नहीं थे, जिन्होंने मुस्लिम हितों को आधुनिक आधार पर आगे न बढ़ाया हो। लीग बड़ी कड़ाई से खलीफा आन्दोलन से दूर रहे क्योंकि वे मानते थे कि इससे कट्टरवादियों को शह मिलेगी। परन्तु गांधीजी ने खिलाफत का चैम्पियन बनकर जबरदस्त परिवर्तन ला दिया। उनके सुप्रसिध्द असहयोग आन्दोलन 1 अगस्त 1920 (जैसा कि उसी दिन की तारीख के वाइसराय को लिखे उनके पत्र से स्पष्ट है) निजी स्तर पर शुरू हुआ, जो वास्तव में खिलाफत प्रश्न पर था, जिसका उल्लेख 4 सितम्बर 1920 के कांग्रेस प्रस्ताव में हुआ था। उक्त प्रस्ताव को पढ़ने से स्पष्ट है कि असहयोग आन्दोलन खिलाफत की बहाली के लिए शुरू किया गया और स्वराज की बात तो जैसे सरसरी तौर पर कही गई हो।

गांधी जी का खिलाफत आन्दोलन
खिलाफत तथा असहयोग आन्दोलन ने मुस्लिम दकियानूसी ताकतों को भारतीय राजनीति में फिर से ले आया जो 1857 के बाद से कभी संभव नहीं हो पा रहा था। बहुत से मुस्लिमों के लिए जो सामान्यतया अनपढ़ होते हैं, स्वराज भारत में मुस्लिम शासन की पुन: स्थापना का पर्याय बन गया। मालाबार (केरल) में भयावह माफला नरसंहार इसका उदाहरण है। खिलाफत आंदोलन से उपजी सर्व-इस्लामी सरगर्मी में हताश होने का आक्रोश हिन्दुओं पर उतरा। दंगों की लहर दौड़ गई जिसमें हिन्दुओं को भारी नुकसान उठाना पड़ा। फिर भी गांधी जी ने (6 दिसम्बर 1924 के) ‘यंग इण्डिया’ अंक में लिखा: ”हिन्दू-मुस्लिम एकता किसी भी तरह चरखा-कताई से कम महत्वपूर्ण नहीं है। यह हमारे जीवन की श्वास-रेखा है।”

गांधी जी ने भारतीय मानस को चकाचौंध कर दिया, परन्तु ये हिन्दू ही थे जिन्होंने गांधी को एक राजनीतिक नेता से कहीं अधिक उनका ‘ईश्वरीय रूप’ स्वीकार कर लिया। परन्तु गांधी में हिन्दुओं की इस आस्था का शोषण हुआ, क्योंकि उनकी यह आस्था अंध-विश्वासी थी। क्या हिन्दुओं को 23 मार्च 1940 के ‘हरिजन’ में गांधी जी ने जो कुछ कहा था, उसे मान लेना चाहिए था- ”यह मुस्लिम ही थे, जिन्होंने अकेले जोर-जबर्दस्ती से या अंग्रेजों की सहायता से अशांति भारत पर लाद दी थी।” यदि कांग्रेस को अपने पक्ष में कर सकता हूं तो मैं मुसलमानों को ताकत का उपयोग नहीं करने दूंगा। मैं उन्हें अपने ऊपर शासन करने दूंगा क्योंकि आखिर फिर भी यह भारतीय शासन ही होगा।” (देखिए कलेक्टेड वक्र्स आफ महात्मा गांधी, खण्ड 78, पृ. 66)।

गांधी जी ने बहुत पहले राष्ट्र के पीठ पीछे 1944 में विभाजन पर बातचीत की थी, जब वे जिन्ना से मालाबार हिल्स, बम्बई के निवास पर चौदह बार मिले थे। फिर भी, वे 1947 तक विभाजन की संभावना से इंकार करते रहे, परन्तु उन्होंने इसे रोकने के लिए जरा कुछ नहीं किया। गांधी जी ने ‘मुस्लिम प्रश्न’ पर सबसे बड़ा नुकसान किया जब उन्होंने यह कह कर इतिहास को झुठला दिया कि ब्रिटिश शासन से पहले हिन्दु-मुस्लिम वैर-भाव नहीं था और अंग्रेजों ने इसकी शुरूआत की। गांधी जी के हिन्दू-मुस्लिम एकता के सिध्दांत ने हिन्दुओं के साथ धोखा किया क्योंकि उनके शांतिवाद ने हिन्दुओं को कमजोर कर दिया।

कम्युनिस्ट और तुष्टिकरण
भारतीय राजनीति में सबसे अधिक पथ भ्रष्ट लोग कम्युनिस्ट हैं। 1943 तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मास्को-आधारित कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल का भारतीय अध्‍याय बनी रही।

एम.एन. राय की ‘दि हिस्टोरिकल रोल आफ इस्लाम’ (1937) में लिखा है कि कम्युनिस्टों का दृष्टिकोण इस्लाम को क्रांतिकारी और हिन्दू धर्म को पश्चगामी बताया गया है, जबकि अपने आवरण परिचय में राय ने लिखा है कि ‘इस्लाम की अपार सफलता के पीछे प्रमुख कारण यह रहा है कि इस्लाम ने ग्रीस, रोम, पर्शिया तथा चीन एवं भारत की प्राचीन सभ्यताओं के पतन से उत्पन्न अत्यंत निराशाजनक स्थितियों से लोगों को बाहर निकालने की क्रांतिकारी क्षमता रही है।”

राय का कहना है कि आज भारत, विशेष रूप से हिन्दुओं में मानव संस्कृति के अंशदान में इस्लाम की जो ऐतिहासिक भूमिका रही है, उसको समुचित ढंग से समझने का सर्वोच्च राजनीतिक महत्व बन गया है।” राय का मानना है कि मुस्लिमों के प्रति हिन्दुओं की पूर्वाग्रह की जड़ में इतिहास की गुलामी के संस्मरण पीड़ा पहुंचाते हैं।

राय मुस्लिम हमलावरों मंदिर-विध्‍वंस की कार्रवाई को न्यायसंगत मानते हैं। ”युगों से, थानेश्वर, मुत्तारा, सोमनाथ आदि प्रसिध्द मंदिरों की जा रही दैवीय चमत्कारिक शक्तियों से लाखों लोगों को राहत मिली। इन मन्दिरों के पुजारियों ने लोगों की भावना के आसरे पर विशाल धन-सम्पत्ति जमा कर ली थी। अचानक ही, इन कू्रर हमलावरों के आघात से कार्ड के पत्तो की तरह यह आस्था और परम्परा का सम्पूर्ण ढांचा टूट गया। जब मौहम्मद की सेना हमला करने आई तो पुजारियों ने लोगों को बताया कि हमलावर ईश्वर के भयानक आक्रोश का शिकार हो जाएंगे। लोगों को चमत्कार की आशा थी, जो पूरी नहीं हुई। बल्कि हमलावरों के ईश्वर ने चमत्कार कर दिखाया। चमत्कार पर आधारित होने के कारण आस्था भी उसी चमत्कारिक ढंग से बदल गई। मजहब के सभी पारम्परिक स्तरों की हिसाब से उस संकट के समय जिन लोगों ने इस्लाम कबूल कर लिया, उन्हें सबसे अधिक धार्मिक माना जाने लगा।” राय के अनुसार इस्लाम में आस्था मजहब है, परन्तु हिन्दू धर्म में आस्था मात्र अंधविश्वास बन कर रह गया।

बाद में उसी वर्ष मुस्लिम लीग ने लाहौर में (1940) के विभाजन या पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित हुआ तो कम्युनिस्टों ने आल इण्डिया स्टूडेण्ट्स फेडरेशन के सम्मेलन में मल्टीपल विभाजन प्रस्ताव पेश कर दिया। वहां हिरेन मुकर्जी और के एस अशरफ ने पूरे भारत की ओर से कांग्रेस को चुनौती दे डाली। प्रस्ताव पारित किया गया कि ”भारत के भविष्य को पारस्परिक विश्वास के आधार पर क्षेत्रीय राज्यों का स्वैच्छिक परिसंघ होना चाहिए।” इस प्रकार कम्युनिस्टों ने भारत के आदर्शों को मल्टी नेशनल राज्यों के रूप में स्वीकार किया। जहां जिन्ना ने ‘द्विराष्ट्रीय सिध्दांत’ का प्रचार किया, वहीं कम्युनिस्टों ने ‘मल्टीनेशनल थियोरी’ का प्रतिपादन कर दिया।

कम्युनिस्टों ने इसी थियोरी पर चलते हुए पाकिस्तान के हितों का समर्थन किया। सच तो यह है कि कम्युनिस्टों ने जिन्ना के हाथों में ‘आत्म-निर्णय के उस अधिकार’ को सौंप कर जिन्ना की वह आवश्यकता पूरी कर दी जो उसे आधुनिक भाषा के रूप में पाकिस्तान बनाने की युक्तिपूर्ण ठहराने के लिए जरूरी थी। सितम्बर 1942 में सीपीआई के केन्द्रीय समिति ने प्रस्ताव पारित किया।

स्वतंत्रता के बाद की कम्युनिस्ट रणनीति
स्वतंत्र भारत में कम्युनिस्टों ने बुध्दिजीवियों (मीडिया) पर कब्जा कर लिया। नेहरू की कृपा से वे ऐसा करने में सफल रहे क्योंकि नेहरू का कम्युनिज्म के प्रति गहन आकर्षण था, नेहरू सोवियत संघ के प्रशंसक और चीन के मित्र थे। जबकि कम्युनिस्ट सभी धर्मों को खारिज करते हैं या उनसे बराबर की दूरी बनाकर रखते हैं, परन्तु वास्तव में उनका झुकाव मुस्लिमों के प्रति रहा। वामपंथियों ने मुस्लिमों के मूर्ति भंजन और मध्‍ययुग में उनके अत्याचारों को तो सराहा परन्तु मीडिया में हिन्दुओं के झगड़ों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया और मुस्लिम कट्टरपंथियों पर ध्‍यान नहीं दिया और ‘हिन्दुओं की छवि फासीवाद’ बना डाली।

स्वतंत्र भारत के मुस्लिम कांग्रेसी की तरफ क्यों झुके?
भारत के विभाजन का मतलब था कि दो तिहाई मुस्लिम पाकिस्तान का हिस्सा बन गए। बाकी एक तिहाई मुस्लिम हिन्दु-बहुल भारत में जनसांख्यिकी रूप से कमजोर थे। पाकिस्तान से आने वाले हिन्दू और सिखों की दर्दनाक गाथा ने भारत में मुस्लिम विरोधी मिजाज तैयार कर दिया था। भारत के मुसलमान स्वयं को मुसीबत में महसूस कर रहे थे। ब्रिटिश शासन के स्वर्ण युग में उन्होंने जिस कांग्रेस की भर्त्सना की थी, अब वह कांग्रेस धोती-धारिया वाली, संघर्ष करने वाली पार्टी नहीं रह गई थी, अब तो वह सत्ता में थी और देश के शासन पर पूरा अधिकार था। इसके अलावा, सेना और पुलिस में, जहां ब्रिटिश शासन में मुस्लिमों का प्रभुत्व था, अब यहां हिन्दू विराजमान थे। अब इन मुस्लिमों ने खत्म हो जाने की बजाए घास खाना पसंद किया। उन्होंने कांग्रेस की छत्रछाया में जाना उचित समझा। यह सर सैयद अहमद खां की नीति जैसा था कि अगर आप शत्रु को हरा नहीं सकते तो उसके साथ जा मिलो। इस व्यक्ति ने 1857 से पहले ब्रिटिश और मुस्लिम, जो दोनों एक दूसरे के जानलेवा का दुश्मन थे, के बीच न केवल आपस में मेल मिलाप कर दिया, बल्कि, एक विशेष सम्बंध भी बनवा दिए। इस कारण यह था कि वे दोनों स्थितियों में जीत की हालत में थे।

यह पूछा जा सकता है कि स्वतंत्र भारत में कांग्रेस को मुस्लिमों से क्या लाभ हुआ? स्पष्ट है कि इसे चुनावी लोकतंत्र में उन्हें मत प्राप्त हुए। इसके अलावा, हालांकि मुस्लिमों ने सदा ही कांग्रेस को दुलारा है, फिर भी कांग्रेस उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करने में लगी रहती है, चाहे इसके लिए उन्हें कितना ही झुकना न पड़े। कांग्रेस को विभाजन की प्रतिक्रिया स्वरूप हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टियों से भय था कि कहीं वे उसे चुनौती देकर अपना एकाधिकार न कर लें। हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टी जनसंघ ने भारत के प्रथम आम चुनाव में भाग लिया। नेहरू चुनाव परिणामों में असफल नहीं होना चाहते थे, इसीलिए वे मुस्लिम मतों की तरफ झुके। नेहरू मुस्लिम मतों के बिना भी जीत सकते थे। परन्तु पूरे के पूरे मुस्लिम मतों को अपनी तरफ आता देख कर वह उन मतों की तरफ झुक गए। चुनावों में मुस्लिम मतों से अतिरिक्त लाभ लेने के लिए ‘सेक्युलरिज्म’ की बात कही जाने लगी।

नेहरू हिन्दू धर्म को अवमानना की दृष्टि से देखते थे और मानते थे कि वह संयोग से ही हिन्दू हैं। उन्होंने एक थियोरी निकाली कि फासीवाद हिन्दू राष्ट्रवाद के माध्‍यम से आ सकता है। वह कांग्रेस में हिन्दू प्रवृत्ति की तरफ झुकने वाले लोगों से परेशान थे जैसे राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभभाई पटेल, पीडी टण्डन, केएम मुंशी आदि। नेहरू की मृत्यु पर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि नेहरू जन्म से ब्राह्मण, शिक्षा में यूरोपीय और आस्था में मुसलमान थे। सरदार वल्लभ भाई पटेल ने नेहरू को भारत का राष्ट्रवादी मुसलमान बताया था। वे हिन्दू राष्ट्रवाद के खिलाफ इस लड़ाई में मुस्लिमों को स्वाभाविक विदेशी मानते थे। मुस्लिमों के लिए इसका अर्थ सर सैयद अहमद बनाम अंग्रेजों द्वारा इस्तेमाल की गई प्रतिकृति थी।

मदरसे
कांग्रेस एकाधिकार की कब्रगाह से निकली अन्य पार्टियों ने सेक्युलरिज्म को राजनीतिक अनिवार्यता बना दिया। हर पार्टी ने ‘सेक्युलर’ की गलत राह पर चलने के लिए कांग्रेस को मात देने की कोशिश की। इमाम, मौलाना और मौलवियों पर उनकी निर्भरता के कारण मदरसों, उर्दू आदि की प्रगति के लिए दी जाने वाली राशि ने एक विस्फोटक स्थिति पैदा कर दी है। आज भारत में स्वतंत्रता के बाद कुछ हजार मदरसों की तुलना में लाखों-लाखों मदरसे खड़े कर दिए हैं।

अच्छे से अच्छे वातावरण में भी मदरसों की पाठयचर्या में दीने-तालीम केन्द्रित रहता है अर्थात् यहां कुराने-पाक, अदीस, शरीयत लॉ, इस्लामिक धर्मशास्त्र, अरबी, फारसी और उर्दू की पढ़ाई की मजहबी शिक्षा दी जाती है। विद्यार्थियों को भारत में इस्लाम के आगमन और इसके अरबिया, पार्शिया, मिस्र और टर्की आदि में फैलाव का इतिहास पढ़ाया जाता है। मदरसे की पाठयचर्या से शायद ही आज के विश्व से कोई जुड़ाव रहता है और सच तो यह है कि इसके कारण उनके यहां जन्म लेने वाले देश तथा अन्य समुदायों की संस्कृति से उनका कोई नाता नहीं रहता है।

अलगाव की प्रक्रिया
इसमें कोई सन्देह नहीं कि मुस्लिम राष्ट्र की आकांक्षाओं तथा चिंताओं की मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ गए हैं, जिसकी शुरूआत ब्रिटिश इण्डिया से हुई थी और अब उसकी गति ‘सेक्युलर षडयंत्र’ की सक्रिय मदद से स्वातंत्र्योत्तार युग में बढ़ गई है।

1969 में मुस्लिम लीग के दबाव में मालापुरम के मुस्लिम बहुल इलाकों को कुछ अन्य जिलों की भौगोलिक सीमाओं का पुनर्गठन कर बनाया गया। एक सेक्युलर राज्य द्वारा मजहबी आधार पर एक नया जिला बनाया गया ताकि मुस्लिम गैर मुस्लिम काफिरों के प्रभुत्व से मुक्त होकर रह सके।

तुष्टिकरण की कीमत चुकानी पड़ती है। कांग्रेस सरकार ने 1959 में मुस्लिमों की हज सब्सिडी शुरू की थी। 57 मुस्लिम देशों में से कोई भी ऐसी सब्सिडी नहीं देता है। तुष्टिकरण नीति के अन्तर्गत राजीव सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक के अधिकार का संरक्षण) अधिनियम 1986 पारित किया और शाहबानो जजमेंट को शून्यीकृत बना दिया। गांधीजी की कांग्रेस ने 1932 में ‘कम्युनल एवार्ड’ खारिज कर दिया था। परन्तु अब सोनिया गांधी की कांग्रेस ने सरकारी नौकरियों में मुस्लिम आरक्षण की शुरूआत कर दी है। कांग्रेस पार्टी उस मुस्लिम लीग के साथ सरकार बनाने पर खुश है, जिसने पाकिस्तान की मांग की और वह बन भी गया। ‘सेक्युलर षडयंत्र’ आतंक के प्रति नरम रूख अपनाए है और यूपीए सरकार ने 1995 में बने टाडा की तरह ही पोटा को भी निरस्त कर दिया है। युध्द में लिप्त कश्मीर से सुरक्षा बलों को हटाने की योजना बन रही है। सेक्युलर प्रचार की कृपा से देश ने जनसांख्यिकीय हमलों को भुला दिया है, जिससे देश की सुरक्षा और भविष्य को गम्भीर खतरा पैदा हो गया है।

द्वितीय विश्व युध्द के आरम्भ होने से पहले ब्रिटिश द्वारा अपनाई गई जर्मनी के बारे में तुष्टिकरण की नीति की आलोचना करते हुए सर विंस्टन चर्चिल ने कहा था- ”अब भी, अगर आप उन अधिकारों के लिए नहीं लड़ेंगे, जबकि आप बिना खून खराबे के जीत सकते हैं; यदि आप उस विजय के लिए नहीं लड़ेंगे जो निश्चित ही आपको मिलेगी और यह विजय महंगी भी नहीं रहेगी; तो फिर आप ऐसे क्षण पर पहुंच जाएंगे जब आपको अपने ही खिलाफ हर प्रकार की मुसीबत का सामना करना पड़ेगा और आपके लिए जिंदा रहने का बहुत कम अवसर रह जाएगा।” क्या यही कथन आज हमारे लिए भी प्रासंगिक नहीं है?

लेखक- बलबीर के. पुंज

अंतिम जय का अस्त्र बनाने नव दधीचि हड्डियां गलाएं

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चावल के बारे में एक अदभुत प्रसंग है, कृष्ण और सुदामा का। ऊहापोह की स्थिति है सुदामा के पास, वे कृष्ण से मिलने जाना चाहते हैं लेकिन अपने बाल सखा के लिए उपहार लेकर क्या जाएं यही समझ में नहीं आ रहा है उन्हें। अंतत: दो मुठ्ठी चावल कांख में दबाए द्वारिकाधीश से मिलने निकल पड़े थे सुदामा। कहते हैं कि उसी चावल के बदले जनार्दन ने राज-पाट से संपन्न कर दिया था अपने गुरु भाई को।
लोकतंत्र, सत्ता के शीर्षासन का भी नाम है। यहां पर जनार्दन की भूमिका जनता को मिली होती है और जब विकास यात्रा से लेकर चुनाव प्रचार यात्रा डॉ. रमन सिंह अपने जनार्दन से मिलने निकले थे तो उनकी पोटली में भी वही चावल था। वही सुदामा सुलभ संकोच एवं सेवा करने का अवसर दुबारा देने का याचना भाव लेकर उनके सामने थे। प्रतिसाद भी उसी तरह मिला और दुबारा में भाजपा की सरकार सुनिश्चित हो गई। 1 नवंबर 2000 की अर्धरात्रि को छत्तीसगढ़ का निर्माण हुआ था और 8 दिसंबर को भरोसे का निर्माण हुआ है। इस जीत को भरोसे की जीत में तब्दील करने की महती जिम्मेदारी डा. रमन सिंह को नियति ने दी है। अपने पुराने अनुभवों से सीख एवं गलतियों से सबक लेकर, अपनी स्वाभाविक सरलता, सहजता, विनम्रता एवं भरोसे के साथ राय को विकास के पथ पर सरपट दौड़ाना उनकी चुनौती होगी।
विजय मिली, विश्राम नहीं, इसी अटल उद्धोष को उन्हें मूलमंत्र बनाना होगा। नक्सलवाद, गरीबी, अशिक्षा, जनोपयोगी औद्योगीकरण, पिछड़ापन, पलायन ये सभी ऐसे मुद्दे सरकार के सामने होंगे जिसे इसी क्रम में प्राथमिकता बनानी होगी। नक्सलवाद पर एक सुस्पष्ट संदेश छत्तीसगढ़जनों को देना होगा कि अपने आदिवासी बंधुओं की जान से यादा महत्वपूर्ण शासन के लिए कुछ भी नहीं है। बस्तरजनों की गरदन की तरफ बढ़े हर हाथ को काट देना सरकार अपना धर्म समझती रहेगी। दण्डकारण्य की 12 सीटों में से 11 पर भाजपा की विजय और वामपंथ का नेस्तनाबूद हो जाना इसका प्रमाण है कि सभी बस्तर बंधु भाजपा के साथ हैं। मुखिया को ये याद रखकर एक स्पष्ट और कड़ा कदम उठाना होगा कि कांग्रेस को वन क्षेत्रों में सबसे ज्‍यादा खामियाजा उसकी ढुलमुल नीतियों के कारण ही उठाना पड़ा है। सभी तरह के अमानवाधिकारवादियों को कुचलना (जी हां कुचलना ही) इस बार का जनादेश है। इसी तरह औद्योगीकरण का सबसे यादा फायदा यहीं के लोगों को मिले, प्रदेश की खनिज संपदा के सबसे पहले लाभार्थी यहां के माटी पुत्र ही हों, ऐसी नीति का निर्धारण सरकार को करना होगा। इसके अलावा समूचे भारत को अपना घर मानकर देश के किसी भी कोने में सम्मानजनक रोजगार के लिए प्रदेशजनों का प्रवास करना पलायन ना समझा जाए, ऐसी परिभाषा भी शासन को विकसित करनी होगी। इस हेतु लोगों को शिक्षित-प्रशिक्षित करने का कार्य सरकार की प्राथमिकता में शामिल करना होगा।
यदि मुख्यधारा के चारों रायों के परिणाम पर नजर डालें तो (जातीय संघर्षों के कारण राजस्थान के अपवाद को छोड़कर) मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि सरकारें अब अच्छा काम करने लगी हैं। लोगों का समर्थन व्यवहारकुशल एवं विनम्र प्रतिनिधि को मिलने लगा है। रमन, शिवराज और शीला में यह समानता तो है ही कि इन तीनों की भलमनसाहत इनकी आदमीयत पर विपक्षियों को भी कभी कोई संदेह नहीं रहा है….आदमी में आदमीयत है, चलो यूं ही सही। लेकिन हमारे लिए लोगों को यह संदेश भी देना समीचीन होगा कि अपनी भलमनसाहत केवल साधुजनों के लिए ही है। परित्राणाय साधुनाम, विनाशाय च दुष्कृताम।

2008 के चुनाव परिणाम ने भाजपा के मार्ग को सुगम जरूर बनाया है, उसके कार्यों पर मुहर अवश्य लगायी है, लेकिन यह एक पड़ाव है, मंजिल नहीं। दण्डकारण्य के ही रामायण प्रसंग से कलम विराम को प्राप्त होगी। यहीं पर साधुजनों की हड्डियों का ढेर देख भगवान राम ने पृथ्वी को राक्षसों से विहीन करने का संकल्प लिया था। छत्तीसगढ़ में जनादेश शायद उस संकल्प को दोहराने का भी है। इस संकल्प की पूर्ति में खुद को दधीचि बनना पड़े तो इसे अपना सौभाग्य मानना होगा। मुख्यमंत्री समेत तमाम भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए यह विजय अवसर अटल संकल्प दोहराने का है कि हम पड़ाव को मंजिल समझ लक्ष्य को ओझल नहीं होने दें। और लक्ष्य है छत्तीसगढ़ महतारी की सेवा के द्वारा माँ भारती को वैभव के चरमात्कर्ष पर पुनर्स्थापित करना। यह समय नवजागरण और पुनर्जागरण का है!

जयराम दास

jay7feb@gmail.com

भारत में चर्च के पैसे से चलाया जा रहा है माओवादी तोड-फोड

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उडीसा के कंधमाल में संत लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या की जिम्मेदारी माओवादियों ने अपने ऊपर लेकर साबित कर दिया है कि माओवादी भारतीय सनातन मान्यताओं के खिलाफ और चर्च परस्त है। हालांकि जिस व्यक्ति ने अपने ऊपर हत्या की जिम्मेवारी ली है वह माओवादी है या नहीं यह भी खोज का विषय है लेकिन चर्च और चर्च समर्थित मीडिया द्वारा किये गये प्रचार से साबित हो गया है कि लक्ष्मणानंद कि हत्या चर्च के इशारे पर माओवादियों के द्वारा की गयी है।
माओपंथियों का चर्च समर्थित व्यक्तित्व कोई एक दो दिनों में नहीं गढा गया है। याद रहे भारतीय उपमहाद्वीप में माओवादियों का नेतृत्व सदा से चर्च समर्थकों के हाथ में ही रहा है। 70 के दशक में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी से चरम वामपंथियों के अलग होने के पीछे सारे कारणों के अलावे एक कारण ईसाइयत एप्रोच भी था। कानू सन्याल या फिर चारू मोजुमदार के व्यक्तित्व से साफ झलकता है कि वह भारतीय परंपराओं के खिलाफ और ईसाइयत का हिमायती था। यही नहीं बिहार के एक कैथोलिक ईसाई पादरी को योजनाबद्ध तरीके से माओवादियों के साथ लगाया गया कि वह वहां चर्च की मान्यताओं को सिखाए। कई माओपंथियों को चर्च में शरण लेते देखा गया है। माओवादियों की चर्च परस्ती कोई नई बात नहीं है। ऐसे भी ईसाइयत, इस्लाम और मार्क्सवाद तीनों भोग के प्रति समान विचार रखता है। यही कारण है कि साम्यवाद, इस्लाम और ईसाइयत से अपने आप को निकट महसूस करता है जबकि भारतीय चिंतन से कोसों दूर महसूस करता है।
चर्च भारत को एक राजनीतिक स्वरूप में नहीं देखना चाहता है। यही कारण है कि जहां जहां चर्च की ताकत बढी है वहां-वहां पृथकतावादी मानसिकता का उदय हुआ है। गंभीरता से विचार करने और भारत, नेपाल, वर्मा, श्रीलंका आदि देशों में साम्यवाद के चरमपंथ की ठीक से मीमांसा करने पर स्पष्ट हो जाता है कि माओवादी चर्च से ही प्रेरणा लेते हैं। झारखंड, छतीसगढ, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, उडीसा आदि राज्यों के माओवादी अध्यन से पता चला है कि आला माओपंथी नेता चर्च में शरण लेते हैं। वर्ष 2002 में झारखंड में दो पादरी को माओवादी गतिविधियों में संलिप्त होने के कारण गिरफ्तार किया गया था। इधर के दिनों में लगातार झारखंड, छतीसगढ, बंगाल और उडीसा के अलावा बिहार में माओवादियों ने इमानदार और हिन्दू आस्था पर श्रध्दा रखने वाले लोगों की हत्या की। यही नहीं कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं को जंगल में काम करने से माओवादियों के द्वारा रोका भी गया है।
विकास भारती के संचालक अशोक भगत, गांधी आश्रम से जुडे कई कार्यकर्ताओं को आदिवासी हितचिंतक होने के बावजूद पीपुल्स वार ग्रुप के चरमपंथियों ने कई बार अपहरण किया है। हालांकि सामाजिक पकड होने के कारण उन्हें छोडना पडा लेकिन जंगल में काम करने वाले, आदिवासियों की सांस्कृतिक पहचान के लिए लडने वालों पर आज भी माओवादी खतरा मंडरा रहा है। कई बार छतीसगढ में हिन्दु संतों पर आक्रमण हो चुका है। इन तमाम आक्रमणों में एक भी ऐसा प्रमाण नहीं मिलता जिससे यह साबित हो कि माओवादी चर्च के भी उतने ही दुश्मन हैं जितने हिन्दुत्व के। उक्त प्रदेशों में पादरी या चर्च से संबंधित लोगों की हत्या अगर हुई भी है तो आपसी षड्यंत्र के कारण न कि बाहरी हस्तक्षेप के कारण। वर्ष 2000 में लोहरदग्गा(ततकालीन बिहार अब झारखंड) के जिला पुलिस अधीक्षक अजय कुमार सिंह की हत्या माओवादियों ने कर दी। उक्त अधिकारी जंगल में चर्च के नाजायज गतिविधियों पर अंकुश लगाने का काम किया था। मिशनरियों को अबैध गतिविधियां चलाने में परेशानी होने लगी और चर्च के इशारे पर माओवादियों ने अजय को मौत की घट उतार दिया। यही हस्र भभुआ (बिहार) डीएफओ संजय सिंह के साथ हुआ। उसने भी चर्च की गतिविधयों पर अंकुश लगाने का प्रयास किया था लेकिन उसकी भी हत्या कर दी गयी। डीएफओ संजय के कारण तो जंगल के आदिवासी सजग होने लगे थे। चर्च की गतिविधियों और षडयंत्रों को समझने भी लगे थे। चर्च को अपने काम में हो रहे अवरोधों के कारण चर्च ने संजय की हत्या का षड्यंत्र किया। दोनों होनहार अधिकारी माओवादियों के हाथों मारा गया लेकिन इसके पीछे चर्च के हाथों से इन्कार नहीं किया जाना चाहिए।
तमाम आंकडों को एकत्र कर समीक्षा की जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय उपमहाद्वीप का माओवादी पूर्णरूपेण चर्च के इशारे पर काम कर रहा है। नेपाल से लेकर उत्तराखंड तक जो भी माओवादी, प्रत्यक्ष या परोक्ष गतिविधि में लगे हैं कहीं न कहीं चर्च से प्रभावित है। लगभग एक साल पहले राही नामक माओवादी उत्तराखंड से गिरफ्तार किया गया था। राही का मनोविज्ञान भी चर्च से मेल खाता है। बगहा (बिहार) के जंगल में ओशो नामक माओवादी पकडा गया था। उसका भी चर्च के साथ मधुर संबंध था। अपने बयान में ओशो ने यहां तक कहा कि वह हरनाटार के चर्च में रहा करता थ। इस प्रकार भारतीय मान्यताओं तथा आस्थाओं पर चोट करने वाले माओवदियों को धर्मनिरपेक्ष कहकर प्रचारित करना बिल्कुल गलत है। ये माओवादी चर्च के चिंतन का ही विस्तार है। इन्हें न केवल चर्च से धन मुहैया कराया जाता है अपितु इनके माध्यम से हिन्दु मान्यताओं के खिलाफ मोर्चेबंदी भी की जा रही है। चर्च के पृथकीय व्यक्तित्व का हिसाब-किताब भारतीय खुफिया एजेंसी के पास भी है लेकिन भारत में चर्च का जाल इतना मजबूत हो गया है कि उसके खिलाफ कार्रवाई करना कठिन हो गया है। लक्ष्मणानंद जी की हत्या ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि चर्च और माओपंथी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। चर्च के पैसे से माओवादी भारत में तोड-फोड कर रहा है।
भारत सरकार को इस दिशा में सोचना चाहिए तथा चर्च और माओवादियों के बीच के संबंध पर जांच होनी चाहिए। ऐसा नहीं किया गया तो चर्च पैसे के बल पर पृथकतावाद को हवा देता रहेगा। तब फिर देश को एक रखना कठिन हो जाएगा। चर्च से माओवादियों के संबंध तो हैं लेकिन हालिया घटना पूज्य लक्ष्मणानंद जी कि हत्या ने एक बार फिर चर्च और माओवादियों के नापाक संबंधों को उजागर कर दिया है।

लेखक- गौतम चौधरी

(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

विधानसभा चुनावों से उभरे संकेत

राजस्थान, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, दिल्ली और मिजोरम विधानसभा के चुनाव परिणाम आ गये हैं। इन पॉच राज्यों में से तीन पर भाजपा का कब्जा था। दिल्ली में कांग्रेस काबिज थी और मिजोरम में एम0एन0एफ0 की सरकार थी। इन चुनाव परिणामों को लेकर इसलिए ज्यादा उत्सुकता थी क्योंकि इसके कुछ महीनों के बाद ही लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं। इसलिए यह कहा जाता था कि इन पॉच विधानसभाओं के चुनाव परिणाम केन्द्र की राजनीति को प्रभावित करेंगे।

 

इन परिणामों में भाजपा का कितना कुछ ही दांव पर लगा हुआ था। क्योंकि तीन राज्यों में भाजपा की सत्ता थी और ऐसा माना जाता है कि सत्ता विरोधी लहर के कारण दूसरी पारी में सरकार बनाये रखना मुश्किल हो जाता है। इसी सत्ता विरोधी लहर के कारण लगभग साल भर पहले उतराखंड और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो चुकी है। यदि इस पैमाने से इन चुनाव परिणामों का आकलन किया जाये तो यह मानना पड़ेगा कि भाजपा इस क्षेत्र में सफल रही है। उसने तीन में से दो राज्यों मसलन मध्यप्रदेश और छतीसगढ़ में दोबारा अपनी जीत का परचम लहरा दिया है।

 

राजस्थान में सत्ता जरूर उसके हाथ से निकल गयी है लेकिन वहॉ भी पक्ष और विपक्ष में केवल 20 सीटों का ही अन्तर है। निर्दलीयों में से भी कुछ लोग ऐसे हैं जो भाजपा से बगावत करके आजाद खड़े हो गये थे और जीत गये। इसे पार्टी की मिसमनेजमैंट माना जा सकता है पराजय नहीं। राजस्थान में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी पराजित हो गये और कुछ दिन पहले ही भाजपा छोड़कर कांग्रेस में गये भरतपुर के महाराजा विश्वेन्द्र सिंह भी धूल चाटते नजर आये। मीणा जाति की राजनीति करने वाले किरोड़ी लाल मीणा भी पराजित हो गये।

 

मिजोरम में भाजपा की उपस्थिति लगभग नगण्य है। वहाँ का चुनाव एक प्रकार से चर्च ही नियंत्रित करता है। जीतने वाले दलों की आस्था भी चर्च की और ही रहती है। परन्तु इस बार सत्ता धारी एम0एन0एफ0 पराजित हो गया और सोनिया गॉधी की कांग्रेस वहॉ से जीत गयी। उसका एक बड़ा कारण यह भी रहा कि सोनिया गांधी की कैथोलिक चर्च और वेटिकन से साम्प्रदायिक संबध हैं इसलिए लम्बी रणनीति के तहत चर्च को यही लगा होगा कि सोनिया गांधी की पार्टी को ही जिताया जाये। यहॉ यह भी ध्यान रखना होगा कि मिजोरम में जो आर्कबिशप चर्च पर नियंत्रण करते हैं उनकी नियुक्ति इटली में वैटिकन सरकार ही करती है इसलिए वहॉ कांग्रेस का जीतना चर्च की भविष्य की रणनीति की और ही संकेत करता है जो जाहिर है पूर्वोत्तर भारत के लिए खतरनाक है।

 

दिल्ली का चुनाव परिणाम सचमुच चौंकाने वाला कहा जा सकता है। भाजपा को आशा थी कि दिल्ली वह इस बार कांग्रेस को परास्त कर देगी। क्योंकि पिछले दस सालों से दिल्ली पर कांग्रेस ने ही कब्जा जमाया हुआ है। साल भर पहले दिल्ली नगर निगम के लिए हुए चुनावों में भाजपा ने कांग्रेस को बुरी तरह पराजित किया था। इसी आधार पर भाजपा विधानसभा में भी जीतने की आशा लगाये हुए थी। लेकिन कांग्रेस ने तीसरी बार जीत कर हैटि्क बना दी है। अब कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं कि नगर निगम चुनावों में भी दिल्ली की कांग्रेसी मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने जान बूझ कर कांग्रेस को ही हराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। शीला दीक्षित को भय था कि यदि नगर निगम में कांग्रेस जीत गई तो निश्‍चय ही महापौर के पद पर बैठे व्यक्ति का कद भी बढ़ जायेगा। शीला दीक्षित अपने होते हुए प्रदेश कांग्रेस में किसी दूसरे को उभरने का अवसर नहीं देना चाहती। भाजपा नगर निगम के चुनावों से उत्साहित होकर विधानसभा चुनावों में अपनी जीत पक्की मानने लगी। जब पक्की जीत की धारणा बन जाये तो टिकट बाँटने के मामले में कुव्यवस्था फैलना लाजिमी होता है। टिकट लेने के लिए दरबारी किस्म के लोग घेराबंदी कर लेते हैं और टिकट ले भी जाते हैं। जनता और सब कुछ सह सकती है लेकिन दरबारियों की अकड़नुमा हरकतें नहीं। दिल्ली की पराज्य के बाद भाजपा को भीतर झांकने की शायद पहले से भी ज्यादा जरूरत है। वैसे तो दिल्ली चुनाव परिणामों के जरूरत से ज्यादा अर्थ नहीं निकाले जाने चाहिए क्योंकि कुल मिलाकर ये एक शहर की मानसिकता को और पार्टी की मिस मनैजमैंट को इंगित करते हैं। इसे प्रतिनिधि रूप नहीं स्वीकारना चाहिए।

 

भाजपा के लिए यह भी तसल्ली की बात है कि छत्‍तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में उसे जनजातीय क्षेत्रों में आशातीत सफलता मिली है। जनजातीय क्षेत्र ही ऐसे हैं जिस पर चर्च सबसे ज्यादा दावा करता है और भाजपा को जनजातीय क्षेत्रों का शत्रु बताता है। जनजातीय क्षेत्रों में भाजपा की जीत से स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती के हत्यारों की ऑखे खुल जानी चाहिए। चर्च जनजातीय समाज को धनबल और बंदूक बल के जोर पर बंधक बनाना चाहता है। छतीसगढ़ के जनजातीय समाज ने भाजपा को जिताकर चर्च के इस षडयंत्र का भी पर्दाफाश कर दिया है। भाजपा की इस जीत से एक और संकेत भी मिलता है कि नेतृत्व यदि ईमानदार और आम आदमी से जुड़ा हुआ होगा तो जनता उसकी कदर भी करती है और उसे दोबारा सत्ता में बैठाती भी है। मध्यप्रदेश और छतीसगढ़ में भाजपा की विजय में शिवराज सिंह चौहान और डा0 रमण सिंह का सहज सरल व्यक्तित्व और आम आदमी से जुड़े होने की क्षमता की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। हिमाचल प्रदेश के चुनावों में प्रो0 प्रेम कुमार धूमल के व्यक्तित्व ने भी इसी प्रकार की भूमिका निभाई थी।

 

इन चुनाव परिणामों की सबसे आश्चर्यजनक बात यह कही जा सकती है कि आम भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व करने का दंभ पालने वाला साम्यवादी टोला इन पॉचों राज्यों में कहीं दूर दूर तक दिखाई नहीं देता। वैसे वे तर्क दे सकते हैं कि दास कैपिटल के शिष्यों को बेलट पर नहीं बुलेट पर विश्वास है क्योंकि माओ कह गये थे सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। आखिर नक्सलबादी माओवादी साम्यवादी टोले के वैचारिक सहोदर ही तो हैं। परन्तु इसे सीताराम येचुरी और प्रकाश करात का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि छतीसगढ़ के नक्सलवादी क्षेत्रों में लोगों ने भाजपा को जिता दिया है। यह साम्यवादी राजनीति का भीतरी खोखलापन भी जाहिर करती है।

लेखक- डा0 कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)