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अबकी बार, ओलिंपिक पर महामारी और मौसम का वार

आज से ओलिंपिक खेलों का आग़ाज़ हुआ है। इस बार का ओलंपियाड ख़ास है क्योंकि ओलिंपिक के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ जब इन खेलों को किसी जंग के लिए नहीं बल्कि किसी महामारी की वजह से टाला गया हो। साल 2020 के टोक्यो ओलिंपिक के कोविड की वजह से टलने के पहले तीन बार (1916, 1940, 1944) टाला गया और टालने की वजह हमेशा कोई न कोई वैश्विक लड़ाई रही।

लेकिन देखा जाए तो XXXII ओलंपियाड भी एक जंग की वजह से ही टला है। मगर इस बार जंग सिर्फ कोविड महामारी से नहीं, बल्कि मौसम से भी है। ओलिंपिक खेल शुरू होने से कुछ दिन पहले, टोक्यो में इस सप्ताह गर्मी और आर्द्रता का स्तर चरम स्तर पर पहुंचा, जिस वजह से जापान की पर्यावरण एजेंसी को हीट स्ट्रोक अलर्ट जारी करना पड़ा।

ओलिंपिक में दुनिया भर से एथलीट आते हैं और उन सबके लिए कोविड की फ़िक्र के साथ मौसम की फ़िक्र सर उठाये बैठी है टोक्यो में।

जापान के सरकारी डाटा से पता चलता है कि वेट बल्ब ग्लोब तापमान – गर्मी और आर्द्रता को मिलाकर एक नाप, जिसका उपयोग आयोजकों द्वारा सुरक्षा का आकलन करने के लिए किया जाता है – 31.8°C तक पहुंच गया। यह ट्रायथलॉन जैसे कुछ खेलों के लिए खतरे की सीमा के क़रीब है, जो WBGT का स्तर 32.2 ° C से ऊपर होने पर शुरू नहीं हो सकता है।

कोविड महामारी से जुड़ी फ़िक्र और जापान की भीषण गर्मी, मिलकर बढ़ाएगी खिलाडियों की परेशानी

ओलंपिक आयोजकों का कहना है कि वे जलवायु परिवर्तन से तीव्र हुए उच्च तापमानों के लिए तैयार हैं – लेकिन खेलों से पहले संकलित एक अध्ययन में, एथलीटों और वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि गर्मी और आर्द्रता प्रतियोगियों के लिए एक महत्वपूर्ण खतरा पैदा कर सकती है।

‘रिंग्स ऑफ फायर: हाउ हीट कुड इम्पैक्ट द 2021 टोक्यो ओलंपिक’ (‘आग के छल्ले: गर्मी 2021 टोक्यो ओलंपिक को कैसे प्रभावित कर सकती है’) प्रमुख ट्रायथलेट्स, रोवर्स, टेनिस खिलाड़ियों, मैराथन धावकों और एथलीटों को चरम परिस्थितियों से कैसे निपटने इस पर सलाह देने वाले वैज्ञानिकों से सुनता है। इसे ब्रिटिश एसोसिएशन फॉर सस्टेनेबिलिटी इन स्पोर्ट (BASIS) और लीड्स यूनिवर्सिटी के प्रीस्टली इंटरनेशनल सेंटर फॉर क्लाइमेट और पोर्ट्समाउथ यूनिवर्सिटी के एक्सट्रीम एनवायरनमेंट लेबोरेटरी (चरम पर्यावरण प्रयोगशाला) के वैज्ञानिकों का समर्थन प्राप्त है।

इस घटनाक्रम पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए डॉ जॉनाथन बूज़न, भौतिकी संस्थान, जलवायु परिवर्तन अनुसंधान केंद्र के ओशगर सेंटर (Oeschger Centre for Climate Change Research), बर्न विश्वविद्यालय, कहते हैं, “टोक्यो गर्मी और उमस के उच्च स्तरों से अनजान नहीं है, और जलवायु परिवर्तन के साथ मुझे आशा है कि खेलों में भाग लेने वाले सभी ओलंपियन इन परिस्थितियों में प्रतिस्पर्धा करने के लिए तैयार आएं हैं। उन्हें यह कठिन लगेगा, और इंडुरेंस (सहनशीलता) एथलीटों को पता चलेगा के यह उनके प्रदर्शन को प्रभावित करेगा। इन खेलों की मुख्य स्वास्थ्य फोकस जापान के कोविड प्रकोप पर रही है, लेकिन आयोजकों को एथलीटों के प्रति देखभाल का कर्तव्य दिखाना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इवेंट्स खतरनाक तापमानों में शुरू नहीं हों।”

नतीजतन, मैराथन और साइकिलिंग के इवेंट्स को पहले से ही ठंडे आबहवा में स्थानांतरित कर दिया गया है, लेकिन जुलाई में आगे बढ़ने से पहले अन्य खेलों को सुरक्षा जांच का सामना करना पड़ सकता है – जबकि IOC (आईओसी) को वैश्विक तापमान में वृद्धि के परिणामस्वरूप भविष्य के स्थल मानदंडों में जलवायु डाटा को एकीकृत करने की आवश्यकता हो सकती है। यादों में 2019 दोहा एथलेटिक्स चैंपियनशिप में गिरे हुए एथलीटों की तस्वीरें ताज़ा हैं और आयोजकों ने पहले से ही स्वीकार कर लिया है कि टोक्यो में गर्मी और उमस का स्तर एक ‘कुस्‍वप्‍न’ हो सकता है।

आगे, डॉ फहद सईद, वैज्ञानिक मॉडल और डाटा प्रबंधक – जलवायु एनालिटिक्स, कहते हैं, “जापान में हाल के वर्षों में रिकॉर्ड तोड़ हीट वेव्स देखी गई हैं, और हम जानते हैं कि यह मानव संचालित जलवायु परिवर्तन के कारण है। उच्च तापमान और आर्द्रता की एथलीटों के प्रदर्शन, विशेष रूप से आउटडोर खेलों में, पर दबाव डालने की संभावना है। हम जानते हैं कि 32°C वेट बल्ब तापमान पर बाहरी श्रम खतरनाक हो जाता है, यहां तक कि घातक भी। इसे मैराथन का प्रयास करने के साथ जोड़ दें, और आप गंभीर स्वास्थ्य खतरों के साथ खेल रहे हैं।”

इस नवंबर में स्कॉटलैंड के ग्लासगो में वार्षिक COP26 संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन होने के साथ 2021 प्रमुख इवेंट्स का वर्ष है। सभी देशों से तेल, गैस और कोयले के उपयोग में कटौती के लिए अधिक मज़बूत लक्ष्यों की घोषणा करने की उम्मीद की जाती है – हालांकि प्रमुख कोयला उपयोगकर्ता जापान अब तक स्वच्छ ईंधन पर स्विच करने के प्रयासों का प्रतिरोध कर रहा है।

माइक टिपटन, पोर्ट्समाउथ विश्वविद्यालय में एक्सट्रीम एनवायरनमेंट लेबोरेटरी, स्कूल ऑफ स्पोर्ट, हेल्थ एंड एक्ससरसाइज़ साइंस में ह्यूमन एंड अप्लाइड फिजियोलॉजी (मानव और अनुप्रयुक्त शरीर क्रिया विज्ञान) के प्रोफेसर, कहते हैं, “ओलंपिक आयोजकों को इस रिपोर्ट में चेतावनियों को गंभीरता से लेना चाहिए वरना उन्हें एक्सहॉस्टशन (गर्मी की थकावट) के कारण प्रतियोगियों के ढहने के वास्तविक जोखिम का सामना करना पड़ेगा।”

खिलाडियों का पक्ष रखते हुए एलीट ब्रिटिश रोवर मेलिसा विल्सन कहती हैं, “मुझे लगता है कि हम निश्चित रूप से एक खतरे के क्षेत्र की तरफ़ बढ़ रहे हैं… वह एक भयानक क्षण होता है जब आप एथलीटों को लाइन पार करते हुए देखते हैं, उनके शरीर पूरी तरह से थकावट में चूर-चूर पीछे गिरते हुए और फिर नहीं उठते हुए।”

मारा यामुइची, बीजिंग 2008 ओलंपिक एथलीट और अब तक की दूसरी सबसे तेज़ ब्रिटिश महिला मैराथन धावक कहती हैं, “मुझे पूरी उम्मीद है कि एथलीटों की भावी पीढ़ियां ओलंपिक मैराथन प्रतियोगिता में सुरक्षित रूप से में भाग लेने में सक्षम होगीं, जैसा करने में मैं भाग्यशाली रही थी। लेकिन अधिकाधिक गर्मी दशानुकूलन आवश्यक हो जाएगा, न कि गर्म वातावरण में प्रतिस्पर्धा करने वाले सभी मैराथन धावकों के लिए सिर्फ़ वांछनीय।”

टोक्यो, राजधानी शहर और 2021 ओलंपिक का मेज़बान, में औसत वार्षिक तापमान 1900 के बाद से 2.86°C बढ़ गया है, जो दुनिया के औसत से तीन गुना तेज़ है। वैज्ञानिकों का कहना है कि 1990 के दशक के बाद से टोक्यो में अधिकतम दैनिक तापमान 35°C से अधिक होना आम हो गया है, और 2018 में एक कठोर टोक्यो हीटवेव जलवायु परिवर्तन के बिना असंभव होती।

ब्रिटिश ट्रायथलॉन फेडरेशन के मुख्य कोच बेन ब्राइट कहते हैं, “रेस के दिन 1-2 डिग्री के अंतर का इस बात पर बड़ा प्रभाव पड़ेगा कि क्या इवेंट (प्रतिस्पर्धा) चलाना सुरक्षित है।”

और अंत में BASIS के CEO रसेल सीमोर एक महत्वपूर्ण बात साझा करते हुए कहते हैं, “वह समय आ चूका है कि प्रमुख वैश्विक खेल आयोजनों के आयोजकों को जलवायु प्रभावों, साथ ही पर्यावरणीय सस्टेनेबिलिटी, को यह तय करने में एक केंद्रीय फैक्टर बनाया कि उन्हें कहां और कैसे होस्ट (आयोज) किया जाना चाहिए। जैसा कि इस रिपोर्ट से पता चलता है, हम जलवायु परिवर्तन को मामूली चिंता के रूप में देखना जारी नहीं रख सकते। एथलीटों और दर्शकों के लिए जोखिम एक केंद्रीय चिंता का विषय है।”

गुरु-शिष्य संबंधों की संस्कृृति के बदलते मायने

गुरु पूर्णिमा- 23 जुलाई 2021 पर विशेष
-ललित गर्ग-

भारतीय संस्कृति में गुरु पूर्णिमा का विशेष महत्व है, यह अध्यात्म-जगत का महत्वपूर्ण उत्सव है, इसे अध्यात्म जगत की बड़ी घटना के रूप में जाना जाता है। पर्वों, त्यौहारों  और संस्कारों की भारतभूमि में गुरु का स्थान सर्वोपरि माना गया है। पश्चिमी देशों में गुरु का कोई महत्व नहीं है, वहां विज्ञान और विज्ञापन का महत्व है परन्तु भारत में सदियों से गुरु का महत्व रहा है। यहां की माटी एवं जनजीवन में गुरु को ईश्वरतुल्य माना गया है, क्योंकि गुरु न हो तो ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग कौन दिखायेगा? गुरु ही शिष्य का मार्गदर्शन करते हैं और वे ही जीवन को ऊर्जामय बनाते हैं।

गुरु-पूर्णिमा गुरु-पूजन का पर्व है। सन्मार्ग एवं सत-मार्ग पर ले जाने वाले महापुरुषों के पूजन का पर्व, जिन्होंने अपने त्याग, तपस्या, ज्ञान एवं साधना से न केवल व्यक्ति को  बल्कि समाज, देश और दुनिया को भवसागर से पार उतारने की राह प्रदान की है। जीवन विकास के लिए भारतीय संस्कृति में गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका मानी गई है। गुरु की सन्निधि, प्रवचन, आशीर्वाद और अनुग्रह जिसे भी भाग्य से मिल जाए उसका तो जीवन कृतार्थता से भर उठता है। क्योंकि गुरु बिना न आत्म-दर्शन होता और न परमात्म-दर्शन। गुरु भवसागर पार पाने में नाविक का दायित्व निभाते हैं। वे हितचिंतक, मार्गदर्शक, विकास प्रेरक एवं विघ्नविनाशक होते हैं। उनका जीवन शिष्य के लिये आदर्श बनता है। उनकी सीख जीवन का उद्देश्य बनती है। अनुभवी आचार्यों ने भी गुरु की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है- गुरु यानी वह अर्हता जो अंधकार में दीप, समुद्र में द्वीप, मरुस्थल में वृक्ष और हिमखण्डों के बीच अग्नि की उपमा को सार्थकता प्रदान कर सके।
गुरु पूर्णिमा आत्म-बोध की प्रेरणा का शुभ त्योहार है। आषाढ़ की समाप्ति और श्रावण के आरंभ की संधि को आषाढ़ी पूर्णिमा, व्यास पूर्णिमा अथवा गुरु पूर्णिमा कहते हैं। यह त्योहार गुरु-शिष्य के आत्मीय संबंधों को सचेतन व्याख्या देता है। काव्यात्मक भाषा में कहा गया है- गुरु पूर्णिमा के चांद जैसा और शिष्य आषाढ़ी बादल जैसा। गुरु के पास चांद की तरह जीए गये अनुभवों का अक्षय कोष होता है। इसीलिये इस दिन गुरु की पूजा की जाती है इसलिए इसे ‘गुरु पूजा दिवस’ भी कहा जाता है। प्राचीन काल में विद्यार्थियों से शुल्क नहीं वसूला जाता था अतः वे साल में एक दिन गुरु की पूजा करके अपने सामथ्र्य के अनुसार उन्हें दक्षिणा देते थे। महाभारत काल से पहले यह प्रथा प्रचलित थी लेकिन धीरे-धीरे गुरु-शिष्य संबंधों में बदलाव आ गया।
गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश के समान समझ कर सम्मान करने की पद्धति पुरातन है। ‘आचार्य देवोभवः’ का स्पष्ट अनुदेश भारत की पुनीत परंपरा है और वेद आदि ग्रंथों का अनुपम आदेश है। ऐसी मान्यता है कि हरिशयनी एकादशी के बाद सभी देवी-देवता चार मास के लिए सो जाते है। इसलिए हरिशयनी एकादशी के बाद पथ प्रदर्शक गुरु की शरण में जाना आवश्यक हो जाता है। परमात्मा की ओर संकेत करने वाले गुरु ही होते है। गुरु एक तरह का बांध है जो परमात्मा और संसार के बीच और शिष्य और भगवान के बीच सेतु का काम करते हैं। इन गुरुओं की छत्रछाया में से निकलने वाले कपिल, कणाद, गौतम, पाणिनी आदि अपने विद्या वैभव के लिए आज भी संसार में प्रसिद्ध है। गुरुओं के शांत पवित्र आश्रम में बैठकर अध्ययन करने वाले शिष्यों की बुद्धि भी तद्नुकूल उज्ज्वल और उदात्त हुआ करती थी।
आजकल विद्यार्थियों को व्यावहारिक शिक्षा देने वाले शिक्षक को और लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान देने वाले को गुरु कहा जाता है। शिक्षक कई हो सकते है लेकिन गुरु एक ही होते है। हमारे धर्मग्रंथों में गुरु शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा गया है कि जो शिष्य के कानों में ज्ञान रूपी अमृत का सींचन करे और धर्म का रहस्योद्घाटन करे, वही गुरु है। यह जरूरी नहीं है कि हम किसी व्यक्ति को ही अपना गुरु बनाएं। योग दर्शन नामक पुस्तक में भगवान श्रीकृष्ण को जगतगुरु कहा गया है क्योंकि महाभारत के युद्ध के दौरान उन्होंने अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश दिया था। माता-पिता केवल हमारे शरीर की उत्पत्ति के कारण है लेकिन हमारे जीवन को सुसंस्कृत करके उसे सर्वांग सुंदर बनाने का कार्य गुरु या आचार्य का ही है।
पहले गुरु उसे कहते थे जो विद्यार्थी को विद्या और अविद्या अर्थात आत्मज्ञान और सांसारिक ज्ञान दोनों का बोध कराते थे लेकिन बाद में आत्मज्ञान के लिए गुरु और सांसारिक ज्ञान के लिए आचार्य-ये दो पद अलग-अलग हो गए। भारत के महान् दार्शनिक ओशो ने जब यह कहा कि हमारी शिक्षण संस्थाएं अविद्या का प्रचार कर रही हैं तो लोगों ने आपत्ति की लेकिन वे बात सही कह रहे थे। आज हमारे विद्यालयों में ज्ञान का नहीं बल्कि सूचनाओं का हस्तांतरण हो रहा है। विद्यार्थियों का ज्ञान से अब कोई वास्ता नहीं रहा इसलिए आज हमारे पास डाॅक्टर, इंजीनियर, वकील, न्यायाधीश, वैज्ञानिक और वास्तुकारों की तो एक बड़ी भीड़ जमा है लेकिन ज्ञान के अभाव में चरित्र और चरित्र के बिना सुंदर समाज की कल्पना दिवास्वप्न बन कर रह गई है।
शिक्षा का संबंध यदि चरित्र के साथ न रहा तो उसका परिणाम यही होगा। परंतु इस मूल प्रश्न की ओर कौन ध्यान दे? सत्ताधारी लोग अपने पद को बनाये रखने के लिए शिक्षा का संबंध चरित्र की बजाय रोजगार से जोड़ना चाहते हैं। जो लोग शिक्षा का संबंध रोजगार से जोड़ने की वकालत करते हैं वे वस्तुतः शताब्दियों तक अपने लिए राज करने की भूमिका तैयार कर रहे हैं और उनके तर्क इतने आकट्य हैं कि सामान्य व्यक्ति को महसूस होता है कि समाज के सबसे अधिक हिंतचिंतक यही लोग हैं। यही कारण है कि देश में आज जिस तरह का माहौल बनता जा रहा है, अनैतिकता और अराजकता फैलती जा रही है, हिंसा और आतंक बढ़ता जा रहा है, भ्रष्टाचार और अपराध जीवनशैली बन गयी है। इसका मूल कारण गुरु को नकारकर, चरित्र को नकारकर हमने केवल भौतिकता को जीवन का आधार बना लिया है। ज्ञान तो गुरु से ही प्राप्त हो सकता है लेकिन गुरु मिलें कहां? अब तो ट्यूटर हैं, टीचर हैं, प्रोफेसर हैं पर गुरु नदारद हैं। गुरु के प्रति अविचल आस्था ही वह द्वार है जिससे ज्ञान का हस्तांतरण संभव है।
आज नकली, धूर्त, ढोंगी, पाखंडी, साधु-संन्यासियों और गुरुओं की बाढ़ ने असली गुरु की महिमा को घटा दिया है। असली गुरु की पहचान करना बहुत कठिन हो गया है। भगवान से मिलाने के नाम पर, मोक्ष और मुक्ति दिलाने के नाम पर, कुण्डलिनी जागृति के नाम पर, पाप और दुःख काटने के नाम पर, रोग-व्याधियां दूर करने के नाम पर और जीवन में सुख और सफलता दिलाने के नाम पर हजारों धोखेबाज गुरु पैदा हो गये हैं जिनको वास्तव में कोई आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं है। जो स्वयं आत्मा को नहीं जानते वे दूसरों को आत्मा पाने का गुर बताते हैं। तरह-तरह के प्रलोभन देकर धन कमाने के लिए शिष्यों की संख्या बढ़ाते हैं। जिसके बाड़े में जितने अधिक शिष्य हों वह उतना ही बड़ा और सिद्ध गुरु कहलाता है।
 मूर्ख भोली-भाली जनता इनके पीछे-पीछे भागती है और दान-दक्षिणा देती है। ऐसे धन-लोलुप अज्ञानी और पाखंडी गुरुओं से हमें सदा सावधान रहना चाहिए। कहावत है कि ‘पानी पीजै छान के और गुरु कीजै जान के।’ सच्चा गुरु ही भगवान तुल्य है। इसीलिए कहा गया है कि ‘गुरु-गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय, बलिहारी गुरु आपनो जिन गोविंद दियो मिलाय।’ यानी भगवान से भी अधिक महत्व गुरु को दिया गया है। यदि गुरु रास्ता न बताये तो हम भगवान तक नहीं पहुंच सकते। अतः सच्चा गुरु मिलने पर उनके चरणों में सब कुछ न्यौछावर कर दीजिये। उनके उपदेशों को अक्षरशः मानिये और जीवन में उतारिये। सभी मनुष्य अपने भीतर बैठे इस परम गुरु को जगायें। यही गुरु-पूर्णिमा की सार्थकता है तथा इसी के साथ अपने गुरु का भी सम्मान करें।

शैक्षणिक व्यवस्था के विकास की आधारशिला है शोध

डॉ.शंकर सुवन सिंह
शोध उस प्रक्रिया अथवा कार्य का नाम है जिसमें बोधपूर्वक प्रयत्न से तथ्यों का संकलन कर सूक्ष्मग्राही एवं विवेचक बुद्धि से उसका अवलोकन- विश्लेषण करके नए तथ्यों या सिद्धांतों का उद्घाटन किया जाता है। रैडमैन और मोरी ने अपनी किताब “दि रोमांस ऑफ रिसर्च” में शोध का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है, कि नवीन ज्ञान की प्राप्ति के व्यवस्थित प्रयत्न को हम शोध कहते हैं। एडवांस्ड लर्नर डिक्शनरी ऑफ करेंट इंग्लिश के अनुसार- किसी भी ज्ञान की शाखा में नवीन तथ्यों की खोज के लिए सावधानीपूर्वक किए गए अन्वेषण या जांच- पड़ताल को शोध की संज्ञा दी जाती है। स्पार और स्वेन्सन ने शोध को परिभाषित करते हुए अपनी पुस्तक में लिखा है कि कोई भी विद्वतापूर्ण शोध ही सत्य के लिए, तथ्यों के लिए, निश्चितताओं के लिए अन्चेषण है। वहीं लुण्डबर्ग ने शोध को परिभाषित करते हुए लिखा है कि अवलोकित सामग्री का संभावित वर्गीकरण,साधारणीकरण एवं सत्यापन करते हुए पर्याप्त कर्म विषयक और व्यवस्थित पद्धति है। शोध के अंग-ज्ञान क्षेत्र की किसी समस्या को सुलझाने की प्रेरणा,प्रासंगिक तथ्यों का संकलन ,विवेकपूर्ण विश्लेषण और अध्ययन, परिणाम स्वरूप निर्णय। शोध का महत्त्व- शोध मानव ज्ञान को दिशा प्रदान करता है तथा ज्ञान भंडार को विकसित एवं परिमार्जित करता है। शोध से व्यावहारिक समस्याओं का समाधान होता है। शोध से व्यक्तित्व का बौद्धिक विकास होता है। शोध सामाजिक विकास का सहायक है। शोध जिज्ञासा मूल प्रवृत्ति की संतुष्टि करता है। शोध अनेक नवीन कार्य विधियों व उत्पादों को विकसित करता है। शोध पूर्वाग्रहों के निदान और निवारण में सहायक है। शोध ज्ञान के विविध पक्षों में गहनता और सूक्ष्मता प्रदान करता है। शोध करने हेतु प्रयोग की जाने वाली पद्धतियाँ। सर्वेक्षण पद्धति -आलोचनात्मक पद्धति ,समस्यामूलक पद्धति,तुलनात्मक पद्धति,वर्गीय अध्ययण पद्धति,क्षेत्रीय अध्ययन पद्धति,आगमन,निगमन,काव्यशास्त्रीय पद्धति,समाज शास्त्रीय पद्धति,भाषावैज्ञानिक पद्धति (शैली वैज्ञानिक पद्धति,मनोवैज्ञानिक पद्धति,शोध के प्रकार-(उपयोग के आधार पर)-विशुद्ध/मूल शोध,प्रायोगिक/प्रयुक्त या क्रियाशील शोध,काल के आधार पर,ऎतिहासिक शोध, वर्णनात्मक/विवरणात्मक शोध। शोध के कुछ मुख्य प्रकार- वर्णनात्मक शोध- शोधकर्ता का चरों पर नियंत्रण नहीं होता। सर्वेक्षण पद्धति का प्रयोग होता है। वर्तमान समय का वर्णन होता है। मूल प्रश्न होता है: “क्या है?” विश्लेषणात्मक शोध–शोधकर्ता का चरों पर नियंत्रण होता है। शोधकर्ता पहले से उपलब्ध सूचनाओं व तथ्यों का अध्ययन करता है। विशुद्ध/मूल शोध – इसमें सिद्धांत निर्माण होता है जो ज्ञान का विस्तार करता है। प्रायोगिक/प्रयुक्त शोध : समस्यामूलक पद्धति का उपयोग होता है। किसी सामाजिक या व्यावहारिक समस्या का समाधान होता है। इसमें विशुद्ध शोध से सहायता ली जाती है। मात्रात्मक शोध : इस शोध में चरों का संख्या या मात्रा के आधार पर विश्लेषण किया जाता है। गुणात्मक शोध : इस शोध में चरों का उनके गुणों के आधार पर विश्लेषण किया जाता है। सैद्धांतिक शोध:सिद्धांत निर्माण और विकास पुस्तकालय शोध या उपलब्ध डाटा के आधार पर किया जाता है। आनुभविक शोध : इस शोध के तीन प्रकार हैं–क) प्रेक्षण ख) सहसंबंधात्मक ग) प्रयोगात्मक, अप्रयोगात्मक शोध वर्णनात्मक शोध के समान, ऎतिहासिक शोध : इतिहास को ध्यान में रख कर शोध होता है। मूल प्रश्न होता है: “क्या था?” नैदानिक शोध : समस्याओं का पता लगाने के लिए किया जाता है। शोध प्रबंध की रूपरेखा- सही शीर्षक का चुनाव विषय वस्तु को ध्यान में रख कर किया जाए। शीर्षक ऎसा हो जिससे शोध निबंध का उद्देश्य अच्छी तरह से स्पष्ट हो रहा हो। शीर्षक न तो अधिक लंबा ना ही अधिक छोटा हो। शीर्षक में निबंध में उपयोग किए गए शब्दों का ही जहाँ तक हो सके उपयोग हॊ। शीर्षक भ्रामक न हो। शीर्षक को रोचक अथवा आकर्षक बनाने का प्रयास होना चाहिए। शीर्षक का चुनाव करते समय शोध प्रश्न को ध्यान में रखा जाना आवश्यक है।शोध समस्या का निर्माण चरण। समस्या का सामान्य व व्यापक कथन समस्या की प्रकृति को समझना,संबंधित साहित्य का सर्वेक्षण ,परिचर्चा के द्वारा विचारों का विकास,शोध समस्या का पुनर्लेखन। बंधित साहित्य के सर्वेक्षण से तात्पर्य उस अध्ययन से है जो शोध समस्या के चयन के पहले अथवा बाद में उस समस्या पर पूर्व में किए गए शोध कार्यों, विचारों,सिद्धांतों,कार्यविधियों, तकनीक, शोध के दौरान होने वाली समस्याओं आदि के बारे में जानने के लिए किया जाता है। संबंधित साहित्य का सर्वेक्षण मुख्यत: दो प्रकार से किया जाता है: प्रारंभिक साहित्य सर्वेक्षण-प्रारंभिक साहित्य सर्वेक्षण शोध कार्य प्रारंभ करने के पहले शोध समस्या के चयन तथा उसे परिभाषित करने के लिए किया जाता है। इस साहित्य सर्वेक्षण का एक प्रमुख उद्देश्य यह पता करना होता है कि आगे शोध में कौन-कौन सहायक संसाधन होंगे। व्यापक साहित्य सर्वेक्षण -व्यापक साहित्य सर्वेक्षण शोध प्रक्रिया का एक चरण होता है। इसमें संबंधित साहित्य का व्यापक अध्ययन किया जाता है। संबंधित साहित्य का व्यापक सर्वेक्षण शोध का प्रारूप के निर्माण तथा डाटा/तथ्य संकलन के कार्य के पहले किया जाता है। साहित्य सर्वेक्षण के स्रोत- पाठ्य पुस्तक और अन्य ग्रंथ, शोध पत्र, सम्मेलन/सेमिनार में पढ़े गए आलेख,शोध प्रबंध,पत्रिकाएँ एवं समाचार पत्र,इंटरनेट,ऑडियो-विडियो,साक्षात्कार,हस्तलेख अथवा अप्रकाशित पांडुलिपि,परिकल्पना। जब शोधकर्ता किसी समस्या का चयन कर लेता है तो वह उसका एक अस्थायी समाधान एक जाँचनीय प्रस्ताव के रूप में करता है। इस जाँचनीय प्रस्ताव को तकनीकी भाषा में परिकल्पना/प्राक्कल्पना कहते हैं। इस तरह परिकल्पना/प्राकल्पना किसी शोध समस्या का एक प्रस्तावित जाँचनीय उत्तर होती है। किसी घटना की व्याख्या करने वाला कोई सुझाव या अलग-अलग प्रतीत होने वाली बहुत सी घटनाओं को के आपसी सम्बन्ध की व्याख्या करने वाला कोई तर्कपूर्ण सुझाव परिकल्पना कहलाता है। वैज्ञानिक विधि के नियमानुसार आवश्यक है कि कोई भी परिकल्पना परीक्षणीय होनी चाहिये। सामान्य व्यवहार में, परिकल्पना का मतलब किसी अस्थायी विचार से होता है जिसके गुणागुण अभी सुनिश्चित नहीं हो पाये हों। आमतौर पर वैज्ञानिक परिकल्पनायें गणितीय माडल के रूप में प्रस्तुत की जाती हैं। जो परिकल्पनायें अच्छी तरह परखने के बाद सुस्थापित हो जातीं हैं,उनको सिद्धान्त कहा जाता है।परिकल्पना की विशेषताएँ -परिकल्पना को जाँचनीय होना चाहिए । बनाई गई परिकल्पना का तालमेल अध्ययन के क्षेत्र की अन्य परिकल्पनाओं के साथ होना चाहिए। परिकल्पना को मितव्ययी होना चाहिए। परिकल्पना में तार्किक पूर्णता और व्यापकता का गुण होना चाहिए। परिकल्पना को मितव्ययी होना चाहिए। परिकल्पना को अध्ययन क्षेत्र के मौजूदा सिद्धांतों एवं तथ्यों से संबंधित होना चाहिए। परिकल्पना को संप्रत्यात्मक रूप से स्पष्ट होना चाहिए। परिकल्पना को अध्ययन क्षेत्र के मौजूदा सिद्धांतों एवं तथ्यों से संबंधित होना चाहिए। परिकल्पना से अधिक से अधिक अनुमिति किया जाना संभव होना चाहिए तथा उसका स्वरूप न तो बहुत अधिक सामान्य होना चाहिए और न ही बहुत अधिक विशिष्ट परिकल्पना को संप्रत्यात्मक रूप से स्पष्ट होना चाहिए: इसका अर्थ यह है कि परिकल्पना में इस्तेमाल किए गए संप्रत्यय/अवधारणाएँ वस्तुनिष्ठ ढंग से परिभाषित होनी चाहिए।परिकल्पना निर्माण के स्रोत- व्यक्तिगत अनुभव, पहले किए शोध के परिणा, पुस्तकें, शोध पत्रिकाएँ, शोध सार आदि,उपलब्ध सिद्धांत, निपुण विद्वानों के निर्देशन में शोध प्रक्रिया के प्रमुख चरण-अनुसंधान समस्या का निर्माण, संबंधित साहित्य का व्यापक सर्वेक्षण,परिकल्पना/प्राकल्पना का निर्माण,शोध की रूपरेखा/शोध प्रारूप तैयार करना, आँकड़ों का संकलन/तथ्यों का संग्रह, आँकड़ो/तथ्यों का विश्लेषण, प्राकल्पना की जाँच,सामान्यीकरण एवं व्याख्या, शोध प्रतिवेदन तैयार करना। किसी भी देश का विकास वहाँ के लोगों के विकास के साथ जुड़ा हुआ होता है। इसके मद्देनज़र यह ज़रूरी हो जाता है कि जीवन के हर पहलू में विज्ञान-तकनीक और शोध कार्य अहम भूमिका निभाएँ। विकास के पथ पर कोई देश तभी आगे बढ़ सकता है जब उसकी आने वाली पीढ़ी के लिये सूचना और ज्ञान आधारित वातावरण बने और उच्च शिक्षा के स्तर पर शोध तथा अनुसंधान के पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हों। जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान के साथ जय अनुसंधान भी कहना उचित होगा। एक समारोह कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान में “जय अनुसंधान” भी जोड़ दिया था। उनका कहना था कि यह विज्ञान ही है जिसके माध्यम से भारत अपने वर्तमान को बदल रहा है और अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का कार्य कर रहा है। भारतीय वैज्ञानिकों का जीवन और कार्य प्रौद्योगिकी विकास तथा राष्ट्र निर्माण के साथ गहरी मौलिक अंतःदृष्टि के एकीकरण का शानदार उदाहरण रहा है। केंद्र और राज्यों के मध्य प्रौद्योगिकी साझेदारी को बढ़ावा देने के लिये उपयुक्त कार्यक्रम चलाए जाने चाहिये। विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में शिक्षकों की संख्या में बढ़ोतरी की जाए ताकि विश्वविद्यालयों में शिक्षकों का अभाव जैसी मूलभूत समस्या को दूर किया जा सके। भारत और विदेशों में आर एंड डी अवसंरचना निर्माण के लिये मेगा साइंस प्रोजेक्ट में निवेश भागीदारी, अनुसंधान एवं विकास गतिविधियों को बढ़ाने के लिये विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थानों में उचित संस्थागत ढाँचे, उपयुक्त अवसंरचना, वांछित परियोजनाएँ और पर्याप्त निवेश की भी ज़रूरत है।प्रतिभाशाली छात्रों के लिये विज्ञान,शोध और नवाचार में करियर बनाने के अवसर प्रदान करने की आवश्यकता है।इन सब बातों के मद्देनज़र एक ऐसी नीति बनानी होगी जिसमें समाज के सभी वर्गों में वैज्ञानिक प्रसार को बढ़ावा देने और सभी सामाजिक स्तरों से युवाओं के बीच विज्ञान के अनुप्रयोगों के लिये कौशल को बढ़ाने पर ज़ोर दिया गया हो।भारत में वैज्ञानिक अनुसंधान का स्तर गिरता जा रहा है, क्योंकि शोध कार्यों के क्षेत्र में करियर उतना आकर्षक नहीं है, जितना कारोबार, व्यवसाय, इंजीनियरिंग या प्रशासन में है।‘

सुरेखा सीकरी: सख्त मिजाज दादी-सा असल जिंदगी में थी खुशमिजाज

  • योगेश कुमार गोयल
    लोकप्रिय टीवी शो ‘बालिका वधू’ सहित कई बड़े टीवी धारावाहिकों तथा बॉलीवुड फिल्मों का अहम हिस्सा रही जानी-मानी अभिनेत्री सुरेखा सीकरी का कार्डियक अरेस्ट से 16 जुलाई को 75 साल की आयु में निधन हो गया। वह लंबे समय से बीमार चल रही थी। 2018 में उन्हें पैरालाइटिक स्ट्रोक आया था और 2020 में दूसरी बार ब्रेन स्ट्रोक आया था, तभी से उनकी तबीयत काफी खराब चल रही थी। बॉलीवुड से लेकर छोटे परदे तक अपना सिक्का चलाने वाली यह दिग्गज अभिनेत्री अभिनय की दुनिया में 40 वर्षों से भी ज्यादा समय तक निरन्तर सक्रिय रही और दमदार अभिनय के लिए उन्हें अपने जीवनकाल में तीन बार ‘सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री’ का राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। पहला राष्ट्रीय पुरस्कार उन्हें 1988 में आई फिल्म ‘तमस’ के लिए, दूसरा 1995 में फिल्म ‘मम्मो’ के लिए और तीसरा 2018 में आई फिल्म ‘बधाई हो’ के लिए मिला था। इनके अलावा उन्हें एक फिल्मफेयर अवार्ड, एक स्क्रीन अवार्ड और छह इंडियन टेलीविजन एकेडमी अवार्ड भी प्राप्त हुए। हिन्दी थिएटर में उल्लेखनीय योगदान के चलते उन्हें 1989 में संगीत नाटक अकादमी द्वारा भी सम्मानित किया गया था।
    आयुष्मान खुराना अभिनीत सुपरहिट फिल्म ‘बधाई हो’ में सुरेखा ने दुर्गा देवी कौशिक नामक दादी का यादगार किरदार निभाकर दर्शकों का दिल जीत लिया था, जिसके लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया और यह पुरस्कार लेने वह व्हील चेयर पर पहुंची थी। पुरस्कार लेने के बाद उन्होंने कहा था कि इनाम मिलते हैं तो किसे खुशी नहीं होती लेकिन तब और ज्यादा खुशी होती, अगर मैं अपने पैरों पर खड़े होकर यह पुरस्कार ले पाती। फिल्म में गजराज राव और नीना गुप्ता ने उनके बेटे और बहू का किरदार निभाया था। इस फिल्म में उन्होंने जीतू (गजराज राव) की मां और नकुल (आयुष्मान खुराना) की दादी का ऐसा रोल निभाया था, जो सदैव अपनी बहू से मनमुटाव रखती थी लेकिन एक ऐसे महत्वपूर्ण अवसर पर वह उसी बहू के पक्ष में उठ खड़ी होती है, जब अधेड़ उम्र की उनकी बहू की नज़दीकी रिश्तेदार इस बात के लिए आलोचना कर रहे होते हैं कि वह इस ढ़लती उम्र में मां बनने जा रही है।
    वैसे तो एक्टिंग की दुनिया की सबसे मंझी हुई खिलाडि़यों में शुमार सुरेखा ने अपने बहुत लंबे अभिनय कैरियर में थियेटर, फिल्मों तथा टीवी में एक से बढ़कर एक दमदार रोल किए और 1978 में इमरजेंसी पर बनी फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ से डेब्यू किया था लेकिन उन्हें घर-घर में सबसे बड़ी पहचान दिलाई थी टीवी धारावाहिक ‘बालिका वधू’ ने, जिसमें उन्होंने सख्तमिजाज ‘दादी-सा’ (कल्याणी देवी) का ऐसा किरदार निभाया था, जिसने उन्हें घर-घर की दादी-सा बना दिया था। यह सीरियल ‘कलर्स’ टीवी चैनल पर 2008 से 2016 तक ऑन एयर रहा। उनकी चर्चित फिल्मों में ‘सरफरोश’, ‘नसीम’, ‘नजर’, ‘सरदारी बेगम’, ‘दिल्लगी’, ‘जुबैदा’, ‘रेनकोट’, ‘शीर कोरमा’, ‘घोस्ट स्टोरीज’, ‘देव डी’, ‘सलीम लंगड़े पे मत रो’, ‘तमस’, ‘मम्मो’, ‘हरी-भरी’, ‘मिस्टर एंड मिसेज अय्यर’, ‘तुमसा नहीं देखा’ प्रमुख थी जबकि लोकप्रिय सीरियल्स में ‘परदेस में है मेरा दिल’, ‘महाकुंभ: एक रहस्य, एक कहानी’, ‘सात फेरे: सलोनी का सफर’, ‘केसर’, ‘बनेगी अपनी बात’, ‘एक था राजा एक थी रानी’, ‘कभी कभी’, ‘जस्ट मोहब्बत’ इत्यादि शामिल हैं। ‘मम्मो’ में फय्याजी और ‘सलीम लंगडे पे मत रो’ में अमीना का उनका निभाया किरदार लोग कभी नहीं भूले। निर्देशक जॉन मैथ्यू मैथन उन्हें अपनी फिल्म ‘सरफरोश’ के जरिये व्यावसायिक सिनेमा में लेकर आए, जिसमें वह सुल्तान की मां बनी थी। आखिरी बार उन्हें नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई जोया अख्तर की फिल्म ‘घोस्ट स्टोरीज’ में देखा गया, जिसमें जाह्नवी कपूर ने मुख्य किरदार निभाया था। सुरेखा ने बॉलीवुड फिल्मों के अलावा कुछ मलयालम फिल्मों में भी काम किया।
    वर्ष 1945 में उत्तर प्रदेश में जन्मी सुरेखा अल्मोड़ा और नैनीताल में पली-बढ़ी। उनके पिता एयरफोर्स में और माता शिक्षिका थी। लीक से हटकर काम करना पसंद करने वाली सुरेखा फिल्मों में आने से पहले लेखक और पत्रकार बनना चाहती थी लेकिन किस्मत को उनका अभिनेत्री बनना ही मंजूर था। उन्होंने 1971 में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) से ग्रेजुएशन किया था। वैसे उनके एनएसडी पहुंचने की कहानी भी काफी दिलचस्प है। दरअसल वास्तव में सुरेखा की छोटी बहन अभिनेत्री बनना चाहती थी और इसीलिए वह एनएसडी का दाखिला फॉर्म लेकर आई थी लेकिन जब बहुत जल्द उसके सिर से एक्टिंग का भूत उतर गया तो परिवार के सदस्यों की सलाह पर सुरेखा ने वह फॉर्म भर दिया और उनका दाखिला एनएसडी में हो गया। उसके बाद सुरेखा ने अभिनय की दुनिया में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनकी शादी हेमंत रेगे से हुई थी, जिनका करीब 12 वर्ष पूर्व 20 अक्तूबर 2009 को हार्ट फेल होने के कारण निधन हो गया।
    परदे पर अक्सर सख्त मिजाज दिखने वाली सुरेखा असल जिंदगी में बेहद खुशमिजाज थी। लोग अक्सर उनकी खुद्दारी की मिसाल दिया करते थे। उनके जीवन में कुछ ही समय पहले ऐसा दौर भी आया, जब उनके पास कोई काम नहीं था। तब अफवाहें भी उड़ी कि सुरेखा की आर्थिक हालत बहुत खराब है और उन्हें मदद की जरूरत है। ऐसे समय में बॉलीवुड से जुड़े कई लोग उनकी आर्थिक मदद के लिए आगे भी आए लेकिन अपनी खुद्दारी के लिए विख्यात सुरेखा ने आर्थिक मदद लेने से इन्कार कर दिया और साफ शब्दों में कहा कि उन्हें पैसे देने के बजाय काम दिया जाए. जिसे वह सम्मानपूर्वक करना चाहती हैं। दरअसल कोरोना के चलते 65 वर्ष से अधिक आयु के लोगों पर लगी पाबंदियों को लेकर वह काफी नाराज थी और एक अवसर पर उन्होंने कहा भी था कि वह इस तरह घर पर बैठकर अपने परिवार पर बोझ नहीं बनना चाहती और लोगों के बीच कोई गलत धारणा भी नहीं डालना चाहती कि मैं भीख मांग रही हूं बल्कि मैं काम करने में सक्षम हूं और चाहती हूं कि मुझे काम दिया जाए। सुरेखा का कहना था कि वह अभिनय से कभी रिटायर होना नहीं चाहती और उनकी दिली इच्छा थी कि वह किसी फिल्म में अमिताभ बच्चन के साथ भी काम करें। बहरहाल, अभिनय की दुनिया में महिला सशक्तिकरण का जीता जागता उदाहरण मानी जाती रही सुरेखा सीकरी ने अपने सशक्त अभिनय से दर्शकों के दिलोदिमाग में अपनी ऐसी पहचान बनाने में सफलता हासिल की कि दुनिया से चले जान के बाद भी उन स्मृतियों को कभी मिटाया नहीं जा सकेगा।

काल सुसंगत सैन्य-भाव को जाग्रत किया : गुरु पूर्णिमा-२४ जुलाई

[गुरु पूर्णिमा-२४ जुलाई ]

इंजि. राजेश पाठक



                   श्री अर्जुन देव के बलिदान के फलस्वरूप सिक्ख-धर्म के गुरुपद को जिन्होंने ग्रहण किया वो थे गुरु हरगोविंद सिंह. मुग़ल बादशाह जहाँगीर के हाथों अपने गुरु अर्जुन देव की दिल दहला देने वाली यातनापूर्ण हत्या नें अब तक शांतिप्रिय और अपनी इश्वर-भक्ति में लीन रहने वाले सिक्खों की ऑंखें खोल के रख दी. एकांत में माला जपने या मंदिर में जाकर पूजा-पाठ कर लेनें भर से ना धर्म का प्रभाव बढ़ने वाला है और ना  समाज की रक्षा ही होने वाली है इस घटना नें दुनिया के इस चलन को उन्हें भलीभांति समझा दिया.परिणामस्वरूप, तब के समाज में व्याप्त परंपरा में क्रन्तिकारी परिवर्तन लाते हुए, जिससे की समाज में सामरिकता की भवना निर्मित हो, श्री हरगोविंद नें मंदिर में मिठाई और फूल के साथ-साथ घोड़े,अस्त्र-शस्त्र और धन चढ़ावे के रूप में लाने  पर बल दिया. साथ ही समर्पित और वेतन-प्राप्त दोनों ही प्रकार के सैनिकों से युक्त एक सेना तैयार करना शुरू  की; और अमृतसर की सुरक्षा के लिए लोहगढ़ किले का निर्माण भी किया. हरिमंदिर से अध्यात्मिक प्रवचन देने का चलन पुराना था, पर तत्कालीन परस्थिति में सत्ता और मजहब के विस्तार के लिए काफिरों के साथ छल-कपट, और उनके  रक्तपात को जायज़ मानकर  चलने वाले विदेशी हमलावरों के  सम्मुख अब सिर्फ इससे काम चलने वाला नहीं था. इस असंतुलन को मिटाते हुए, श्री हरगोविंद सिंह नें हरिमंदिर के सामने ही ईसवीं सन १६०६ में अकाल-तख़्त का निर्माण किया. अब यहाँ से भौतिक-जगत के यथार्थ पर भी प्रवचन दिए जाने लगे.जिससे कि अनुयायियों के बीच संगठन और एकत्व के भाव प्रबल हों हरगोविंद सिंह नें सामूहिक प्रार्थना की अपने समय की एक ऐसी दुर्लभ  परंपरा शुरू की जिसमें ऊँच-नींच, अमिर-गरीब के भेद-भाव का कोई स्थान न थ.
       ये वो समय था जबकि ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले जाट अपनी अदम्य लड़ाकू वृति व मजबूत कद-काठी के लिए जाने जाते थे. ‘चाहे जो हो अन्याय का बदला लेकर रहना’- उनमें पाया जानेवाला ये विशेष गुण था. जाटों की ये बातें गुरु को प्रभवित करने के लिए काफी थी, और दूरदृष्टि रखते हुए उन्होंने बड़ी संख्या में सिक्ख-धर्म में उन्हें  दीक्षित किया. अनुयायी जैसा अपने गुरु को पाते हैं, वैसा वे स्वयं होने की कोशिश करते हैं. इसको ध्यान में रखते हुए उन्होंने गुरु के द्वारा दो तलवार धारण करने की परंपरा डाली- एक पीरी,आध्यात्मिकता की प्रतीक; तो दूसरी मीरी,भौतिक संपन्नता की. श्री हरगोविंद स्वयं शिकार के शौकीन थे, और मांस भक्षण को गलत नहीं मानते थे. साथ ही अनुयायी मांस-भक्षण करें या न करें ये उन्होंने उनकी इच्छा पर छोड़ रखा था. वैसे लंगर जैसे सहभोज के  धार्मिक आयोजन को जरूर इससे दूर रखा, जिसका पालन आज भी होता है. धर्म की रक्षा की दृष्टि से इस व्यवस्था की बड़ी भूमिका रही. क्योंकि तब ऐसे हिन्दुओं की भी कमी न थी जो मांस-भक्षण की अपनी लालसा को तृप्त करने के लिए इस्लाम स्वीकार कर लेने से अपने को रोक नहीं पाते थे. पर अब सिक्ख-धर्म के रहते उन्हें किसी और धर्म में शरण लेने की जरुरत न थी. गुरु हरगोविंद सिंह के द्वारा सिक्ख-धर्म में समावेश ये बदलाव सिक्खों के इतिहास में नए युग का सूत्रपात्र करने वाले सिद्ध हुए. और इसलिए आगे चलकर दसवें व अंतिम गुरु गोविन्द सिंह और उनके बाद महाराजा रणजीत सिंह और उनके निष्ठावान सैनिकों में जो शौर्य और पराक्रम देखने को मिलता है वो श्री हरगोविंद सिंह के द्वारा डाली क्षात्रत्व की परंपरा के कारण ही संभव हो पाया.  

आज गोरक्षा सिर्फ संघ परिवार नहीं गांधीवादी व अहिन्दुओं के लिए भी है

—विनय कुमार विनायक
सृष्टि के आरंभ में अभाव था कृषि अन्न का,
तभी जीव ही जीव का भोजन था,
सृष्टि के आरंभ में परिवार बहुत ही कम था
रिश्ते में बहन और भाई में विवाह का प्रचलन था!

पर आज ऐसी परम्परा हिन्दुओं में नाजायज है एकदम हीं,
आज पवित्र है मां, मातृसम नारियां बहन बेटी और गाय भी!

आरंभ से आए दिन तक गाय की बढ़ती गई महत्ता,
गाय देती है दूध, दही, मक्खन, घी, राबड़ी, मिष्टान्न,
जैविक गोबर खाद और खेती के लिए बैल पशुधन!

आज लाख प्रमाण के साथ द्विजेंद्रनारायण झा ने लिख डाला
‘होली काऊ बीफ ट्रेडिशन इन इंडियन डायट्री सिस्टम’
फिर भी यह मान्यता स्वीकार्य नहीं हिन्दू धर्म संस्कृति में!

महात्मा गांधी ने तो यहां तक कह दिया
‘गोमाता कई प्रकार से हमें जन्म देने वाली माता से बढ़कर,
हमारी माता हमें साल दो साल दूध पिलाती
और हमसे आशा करती है कि बड़े होकर उसकी सेवा करेंगे,
गोमाता हमसे चार दाना के सिवा कुछ नहीं चाहती,
हमारी माता अकसर बीमार पड़ जाती,
और हमसे तिमारदारी की आशा करती,
गोमाता शायद ही कभी बीमार पड़ती हो,
हमारी माता की मृत्यु होती है तो हमें उसे दफनाने
या दाह संस्कार करने में भारी खर्च उठाना पड़ता,
गोमाता मरकर भी
उतनी ही उपयोगी होती जितनी जीते जी!’
वस्तुत: वैष्णव गांधी की अर्थवादी नजरिया ने झुठला दिया
कि कभी यज्ञ यजन भोजन हेतु गो वध की जाती होगी!

वैदिक कालीन आर्य देवताओं को पशु बलि पसंद थी,
हिंद-ईरान के सम्मिलित देवता इंद्र,अग्नि,अश्विन आदि थे
इंद्र को सांड बहुत प्रिय था,अग्नि को घोड़े सांड गाय चाहिए
सोम,मरुत, अश्विन को गौ बलि दी जाती थी!

लेकिन आज के हिन्दू इन इंडो-ईरानी देवों को नहीं पूजते,
आज ये आर्य देवता वैदिक कथा कहानी तक सीमित हैं!

आर्यों के बौद्ध, जैन, हिन्दू होने तक पशुबलि घटते गई,
ब्राह्मणी यज्ञ बलि पर, क्षत्रिय की अहिंसा नीति भारी पड़ते गई!

वस्तुत:आज के हिन्दू सीधे तौर पर आर्य नहीं हैं,
आज के हिन्दू आर्य द्रविड़ मंगोल आस्ट्रिक से मिले जुले हैं,
आज के हिन्दू वैदिक आर्यों से अधिक सात्त्विक व सहिष्णु हैं!
आज के हिन्दू गोरक्षी अधिक याज्ञिक कर्मकांडी कम है,
आज के हिन्दू इंद्र वरुण नहीं, विष्णु शिवोपासक हैं,
आज भगवान परशुराम नहीं, राम कृष्ण बुद्ध जिन हैं

सात सौवीं सदी के संस्कृत नाटककार भवभूति ने
अपने ग्रंथ महावीर चरितम में उल्लेख किया
कि वशिष्ठ ने क्रुद्ध परशुराम से अनुरोध किया
वे बछिया मांसयुक्त जनक के आतिथ्य को स्वीकार करे!

उनके उत्तररामचरितम के अनुसार बाल्मीकि आश्रम में
श्रोत्रिय ब्राह्मण वशिष्ठ ने बछड़ा मांस रसास्वादन किया!

वास्तव में ब्राह्मण में गोमांसयुक्त मधुपर्क खाने की प्रथा थी
जबकि क्षत्रिय आदि वर्ण में निरामिष मधुपर्क का प्रचलन था!
बाल्मीकि का एक शिष्य कहता है
‘अपने श्रोत्रिय अतिथि को बछिया या सांड
अथवा बकरा परोसना गृहस्थ का धर्म है’
‘समांसो मधुपर्क इत्यमनायं बहुमान्यमान: श्रोत्रियायाभ्यगताय
वत्सतरीम् महोक्षं वा महाजं वा निर्वपन्ति गृहमेदिन:’
बाल्मीकि का शिष्य सौधातकि कहता है
महर्षि वशिष्ठ के आने पर तो बछिया मारी गई
परन्तु आज ही आए राजर्षि जनक को बाल्मीकि ने
केवल दही और मधु का मधुपर्क दिया बछिया नहीं दी गई!

वस्तुत: खाद्य अखाद्य वस्तुओं का निर्धारण
तत्कालीन ऋषि-मुनि ब्राह्मणों द्वारा की गई थी,
ब्राह्मण व अन्य वर्णों हेतु अलग-अलग भक्ष्य सामग्री थी,
जितनी भी अच्छी बुराइयां हिन्दू धर्म में चल पड़ी,
सब ब्राह्मण पुरोहितों से ही उद्भूत होकर निकल पड़ी!

मनुस्मृति में भृगु ने ऊंट छोड़ सभी दंतधारी पशु को कहा खाद्य भक्षण,
बलि-श्राद्ध के अवसर पर विभिन्न पशु मांस भक्षण करते थे ब्राह्मण!

हिन्दुओं के पूर्वज आरम्भिक आर्यों का जमावड़ा ठंडे स्थानों में था,
जहां वर्फ के कारण कृषि फसलों की खाद्य उत्पादकता नहीं होती थी,
आर्यों का जीवन पालतू गाय भैंस अजा अश्व सूकर मछली पर निर्भर था!

परन्तु आज हिन्दू जातियों का जीवन कृषि व्यवसाय पर आधारित है,
आज गोधन के बहुआयामी उपयोगिता के मद्देनजर गोवंश रक्षणीय धन है,
आज गोरक्षा सिर्फ संघ परिवार नहीं, गांधीवादी व अहिन्दुओं के लिए भी है!
—विनय कुमार विनायक

नेपाल में लगेगी मोबाइल के ग्रे बाजार पर लगाम!

– योगेश कुमार गोयल
नेपाल दूरसंचार प्राधिकरण (एनटीए) द्वारा अवैध मोबाइल फोन सेट के जरिये मोबाइल सेवाओं के संचालन को रोकने के लिए मोबाइल डिवाइस प्रबंधन प्रणाली (एमडीएमएस) को लागू कर दिया गया है। इसके लागू होने के बाद अब 16 जुलाई से आईएमईआई नंबर पंजीकरण के बिना नेपाल में प्रवेश करने वाले मोबाइल फोन पर प्रतिबंध लग गया है। एनटीए के अनुसार यह प्रणाली अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार संघ द्वारा निर्धारित मोबाइल मानकों के अनुसार मोबाइल उपकरणों को आयात करने में मदद करती है और इससे मोबाइल फोन के इस्तेमाल से होने वाली आपराधिक गतिविधियों पर भी लगाम लगेगी। बताया जा रहा है कि लंबी तैयारी के बाद नेपाल में यह व्यवस्था लागू की गई है। एमडीएमएस लागू होने के बाद अवैध रूप से ग्रे मार्केट में खरीदा गया मोबाइल फोन और विदेश से रिश्तेदारों द्वारा खरीदा गया कोई भी मोबाइल सैट अब तब तक काम नहीं करेगा, जब तक कि उसका आईएमईआई नंबर पंजीकृत नहीं हो जाता। हालांकि एनटीए का कहना है कि एमडीएमएस के कार्यान्वयन से वर्तमान में सक्रिय मोबाइल फोन के संचालन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा और व्यक्तिगत स्तर पर खरीदे गए मोबाइल फोन सैटों का पंजीकरण एनटीए की वेबसाइट के माध्यम से किया जा सकता है। एनटीए द्वारा आम जनता से नेपाल में वर्तमान में उपयोग में आने वाले मोबाइल फोन को पंजीकृत करने का आग्रह किया गया है। अवैध फोन कॉल के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए लागू की गई एमडीएमएस प्रणाली उन मोबाइल फोन सैटों से दूरसंचार सेवा के उपयोग पर रोक लगाती है, जो नकल और चोरी के सैट के माध्यम से टैक्स चोरी करते हैं। एमडीएमएस के सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर के संचालन के लिए चाबहिल में एक अलग भवन भी बनाया गया है।
एनटीए द्वारा जारी बयान के मुताबिक आपराधिक गतिविधियों को नियंत्रित करने और राज्य में राजस्व बढ़ाने के लिए इस तरह के नियमों को सख्ती से लागू किया गया है। वर्तमान में चल रहे मोबाइलों पर यह नियम सख्ती से लागू नहीं है लेकिन अब यह नियम सख्ती से लागू होगा। इस नियम के लागू होने के बाद मोबाइल फोन के रजिस्ट्रेशन से राज्य को मिलने वाले राजस्व में वृद्धि होगी और मोबाइल फोन भी सुरक्षित रहेंगे। नई प्रणाली के लागू होने के बाद मूल रूप से ग्रे मार्केट से मोबाइल आयात और बिना बिल तथा वारंटी के बेचे जाने वाले फोन का कारोबार खत्म हो जाएगा। नए नियम के तहत नेपाल में फोन सेट पर मोबाइल सिम कार्ड तब तक काम करेगा, जब तक सैट का इंटरनेशनल मोबाइल इक्विपमेंट आइडेंटिटी (आईएमईआई) नंबर रजिस्टर नहीं किया जाता। हालांकि मोबाइल फोन सेवा बाधित न हो, इसके लिए एनटीए द्वारा ऐसे लोगों के लिए पंजीकरण कराने के लिए अभी लंबा समय निर्धारित किया है, जिनके पास पहले से ही ऐसे मोबाइल हैं। एक बार जब फोन मोबाइल नेटवर्क से कनेक्ट हो जाता है तो सिस्टम की मदद से उसके आईएमईआई नंबर का पता लगाया जाता है। यदि मोबाइल औपचारिक चैनलों के माध्यम से नहीं आया है तो उसे ब्लॉक कर दिया जाएगा, इसलिए नेपाल में अब मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने के लिए उसका रजिस्ट्रेशन अनिवार्य है।
अब भी जान लें कि एमडीएमएस आखिर है क्या? यह एक ऐसा सुरक्षा सॉफ्टवेयर है, जो दूरसंचार नियामक को उन नीतियों को लागू करने में सक्षम बनाता है, जो अंतिम उपयोगकर्ता मोबाइल उपकरणों को सुरक्षित, मॉनीटर तथा प्रबंधित करती हैं। नेपाल सरकार की यह केन्द्रित प्रणाली मोबाइल उपकरणों का उनके ‘अंतर्राष्ट्रीय मोबाइल उपकरण पहचान’ (आईएमईआई) नंबर के साथ पंजीकृत होने के बाद रिकॉर्ड रखती है। दरअसल प्रत्येक मोबाइल फोन का 15 अंकों का एक विशिष्ट आईएमईआई नंबर होता है और डुअल सिम फोन सैट के लिए दो आईएमईआई नंबर होते हैं। एमडीएमएस की महत्ता के बारे में एनटीए के उपनिदेशक अच्युतानंद मिश्र का कहना है कि लंबे समय तक रिचार्ज करने पर मोबाइल सैट फटने और कपड़े की जेब में रखे मोबाइल सैट में विस्फोट होने की कई दुर्घटनाएं हुई हैं, जो खासकर तभी होता है जब डिवाइस कम गुणवत्ता का हो। दरअसल ऐसे मोबाइल सैट आवश्यक मानकों को पूरा किए बिना निर्मित किए जाते हैं और एमडीएमएस गुणवत्ता तथा मानकों को पूरा करने वाले वास्तविक मोबाइल उपकरणों को आयात करने में मदद करेगा। यह खोए हुए या चोरी हुए फोन का पता लगाने तथा वास्तविक गुणवत्ता वाले फोन आयात करने में भी मदद करेगा।
नेपाल में मोबाइल फोन के अवैध आयात के कारण सरकार को राजस्व का भी भारी नुकसान हो रहा था और यह प्रणाली सरकार के राजस्व संग्रह में योगदान देने वाले ग्रे मोबाइल फोन के आयात को पूरी तरह समाप्त कर देगी। दरअसल सरकार नेपाल में आयात होने वाले प्रत्येक मोबाइल फोन पर ढ़ाई फीसदी उत्पाद शुल्क और तेरह फीसदी वैट वसूलती है। ग्रे बाजार ऐसा बाजार है, जहां से हजारों मोबाइल सैट बिना बिल और बिना वारंटी के आयात किए जाते हैं। लोग बड़ी आसानी से बैग, कार्गो या अपने कपड़ों की जेब में ही ऐसे मोबाइल खरीदकर लाते रहे हैं। व्यापारी संगठनों के अनुसार नेपाल ने वित्त वर्ष 2019-20 में 4.3 मिलियन यूनिट मोबाइल फोन का आयात किया, जिनमें से करीब 40 फीसदी ग्रे चैनल के माध्यम से आए। नेपाल में बाहर से आने वाले मोबाइल फोन का बहुत बड़ा बाजार है। सीमा शुल्क विभाग के अनुसार देश ने चालू वित्त वर्ष के शुरूआती 11 महीनों में 34.14 अरब रुपये के मोबाइल फोन का आयात किया जबकि उससे पिछले वित्त वर्ष की इसी अवधि के दौरान आयात केवल 15.74 अरब रुपये था। नेपाल के सीमा शुल्क विभाग के अनुसार लोगों को अब अपने साथ दो मोबाइल डिवाइस लाने की अनुमति होगी, एक उपयोग में और दूसरा अतिरिक्त या नए फोन सेट के रूप में। यदि कोई इससे ज्यादा मोबाइल सैट लाता है तो उसे खरीद बिल जमा करके सीमा शुल्क का भुगतान करना होगा। नेपाली मोबाइल डीलरों का मानना है कि एमडीएमएस प्रणाली लागू होने के बाद नेपाल में मोबाइल फोन महंगे हो सकते हैं और खासकर जो ग्रे मार्केट से आयात होते रहे हैं।
भारत से भी बड़ी संख्या में मोबाइल फोन नेपाल जाते हैं लेकिन नया नियम लागू होने के बाद इस कारोबार पर बड़ा असर पड़ना तय है। भारत-नेपाल के बीच रोटी-बेटी के संबंध हैं, इसीलिए दोनों देशों के नागरिक एक-दूसरे से सामान खरीदकर ले जाते हैं लेकिन नए नियम का भारत के सीमांत बाजार पर काफी असर पड़ेगा, जिस कारण सीमांत के व्यापारियों में आक्रोश है। बड़ी संख्या में नेपाली नागरिक भारतीय सीमा से मोबाइल खरीदते हैं क्योंकि यहां अपेक्षाकृत कम कीमत में बढि़या मोबाइल मिलते रहे हैं किन्तु नए नियम के बाद भारत से नेपाल जाने वाले मोबाइल सेट पर भारी टैक्स लगेगा, जिससे वहां के नागरिक भारतीय बाजारों से मोबाइल फोन खरीदने में संकोच करेंगे और इस प्रकार सीमायी बाजारों में भारतीय मोबाइल फोन का व्यवसाय काफी हद तक प्रभावित होगा। नए नियम के तहत दूसरे देशों से नेपाल घूमने या अन्य कार्यों से आने वाले लोगों के मोबाइल फोन में भी नेपाली सिम नहीं चलेंगी लेकिन वे अपनी सिम का इस्तेमाल रोमिंग में अवश्य कर सकेंगे। इसीलिए वहां सरकार से मांग की जा रही है कि पर्यटकों के मोबाइलों को नेपाली सिम कार्ड लगाने से प्रतिबंधित नहीं किया जाए। दरअसल प्रतिदिन हवाई और सड़क मार्ग से बड़ी संख्या में लोग नेपाल जाते हैं, भारत से भी बहुत से लोग नेपाल घूमने जाते हैं। नेपाल जाने पर वहां की स्थानीय सिम का इस्तेमाल करने से सस्ती दरों पर कॉल होती है, इसीलिए अधिकांश लोग वहां जाने पर अपने मोबाइल में नेपाली सिम का प्रयोग करते हैं लेकिन नए नियम लागू होने के बाद ऐसा नहीं हो सकेगा।

न्यायसंगत एनर्जी ट्रांजिशन के लिए कोयला क्षेत्र से जुड़े हर व्‍यक्ति के हितों की रक्षा ज़रूरी


एनेर्जी ट्रांजिशन भारत जैसे जटिल सामाजिक और आर्थिक परिदृश्‍यों वाले देश की एक बड़ी ज़रूरत है लेकिन इस ट्रांजिशन का न्‍यायसंगत तरीके से करना भी उतना ही मुश्किल है। विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में एनेर्जी ट्रांजिशन का मतलब संगठित क्षेत्र के लाखों लोगों के साथ-साथ असंगठित क्षेत्र के करोड़ों लोगों के हितों को सुरक्षित करते हुए नेट-जीरो वाले भविष्‍य को संवारना है। निश्चित रूप से यह एक दुरूह काम है और हर पहलू को ध्‍यान में रखकर बुनी गयी सुगठित नीति और उसके सटीक क्रियान्‍वयन के जरिये ही हम अपने लक्ष्‍य को हासिल कर पाएंगे। मगर हम शायद अभी इसके तमाम पहलुओं पर नजर नहीं डाल सके हैं।
कार्बन एमिशन को कम करने की भारत की महत्वाकांक्षा को बढ़ावा देते हुए ज़्यादा से ज़्यादा राज्य अब कोयले से चलने वाली किसी भी नयी परियोजना में निवेश नहीं करने के लिये प्रतिबद्ध नज़र आ रहे हैं।  मगर कोयला सम्‍पदा के लिहाज से समृद्ध दो राज्‍यों झारखंड और छत्तीसगढ़ के लिए एनेर्जी ट्रांजिशन के तहत कोयले से बनने वाली बिजली को तिलांजलि देकर अक्षय ऊर्जा को अपनाने से पहले एक बड़ा सवाल खड़ा है कि इस रूपांतरण के कारण उन करोड़ों दिहाड़ी मजदूरों का क्‍या भविष्‍य होगा जो अपनी रोजीरोटी के लिये कोयला आधारित अर्थव्‍यवस्‍था पर निर्भर हैं। कोविड-19 महामारी ने कोयले के खेल में छुपी आर्थिक अनिश्चितताओं का पर्दाफाश किया है जिससे आने वाले दशक और उससे आगे के दृष्टिकोण पर सवाल उठे हैं।
‘कार्बनकॉपी’ ने बुधवार को इस विषय पर चर्चा करने के लिये एक वेबिनार आयोजित किया। इसमें इस बात पर चर्चा की गयी कि कैसे मजदूरों को उनके रोज़गार में आ रहे इस बदलाव के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है और कैसे जस्ट या न्यायपूर्ण ट्रांजिशन को लागू करने का आर्थिक तौर पर लाभकारी हल हासिल कर सकते हैं। इसके ज़रिये भारत को एक स्थायी भविष्य के रास्ते पर आसानी से आगे ले जाया जा सकता है।
वेबिनार में जस्ट ट्रांजिशन, आई फॉरेस्ट की निदेशक श्रेष्ठा बनर्जी, हेल्थ केयर विदाउट हार्म की क्लाइमेट एंड हेल्थ कैंपेनर श्वेता नारायण और सीईईडब्ल्यू के फेलो वैभव चतुर्वेदी ने हिस्सा लिया जबकि पर्यावरण संबंधी विषयों को कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी ने वेबिनार का संचालन किया।
श्वेता नारायण ने ऊर्जा व्‍यवस्‍था के न्‍यायपूर्ण रूपांतरण की प्रक्रिया में लोगों की उम्‍मीदों को खास तरजीह देने और जस्‍ट ट्रांजिशन करते वक्‍त कोयले के कारण क्षेत्र को हो चुके नुकसान की भरपाई की जवाबदेही पहले से ही तय करने की जरूरत पर जोर दिया। उन्‍होंने कहा कि अभी हम सिर्फ रूपांतरण की बात कर रहे हैं लेकिन इस दौरान कोयले के कारण पर्यावरण, मिट्टी, हवा और पानी पर क्या असर पड़ा और उसकी भरपाई कौन करेगा, उस पर हम बात नहीं कर रहे हैं।
श्‍वेता ने कहा कि कोयले का चलन तो खत्‍म कर दिया जाएगा लेकिन अब तक उसकी वजह से हवा, पानी और मिट्टी को जो नुकसान हुआ है, उसे कैसे ठीक किया जाएगा। हमने कोयला क्षेत्र में स्वास्थ संबंधी जितने भी अध्‍ययन किये हैं, उनमें पाया गया है कि खनन से संबंधित तमाम इलाकों में कुपोषण सबसे ज्यादा होता है। अगर विकास हो रहा है तो किसका हो रहा है, यह सवाल पूछना बहुत जरूरी है। कोयले के कारण स्‍वास्‍थ्‍य और पर्यावरण पर अभी तक जिस तरह का असर हुआ है उसके निदान का खर्च कौन उठाएगा। यह एक वास्तविकता है। इसके बारे में ज्यादा चर्चा नहीं होती।
उन्‍होंने सवाल किया कि जो लोग पावर प्लांट में काम कर रहे हैं क्या उनका स्वास्थ्य वैसा ही रहेगा कि वह वैकल्पिक रोजगार में भी पूरी क्षमता से काम कर पाएंगे। सामाजिक सुरक्षा को लेकर कौन-कौन से प्रावधान किए जा रहे हैं, इस पर कोई बात ही नहीं हो रही है। सामाजिक तंत्र का जिस तरह से सीमांतकरण हुआ है, उसकी भरपाई कैसे होगी। जंगल भी एक आजीविका है, उसमें निवेश करना जरूरी है और लोगों की क्या राय है यह जानना भी जरूरी है। हम विकल्पों की तरफ देख रहे हैं लेकिन उनका बुनियादी ढांचा कहां है? हमें फिर से सोचना पड़ेगा और जमीनी लोगों को साथ में लेकर यह जानना पड़ेगा कि आखिर विकल्प क्या है।
श्‍वेता ने कोयला क्षेत्र में रह रहे लोगों की आजीविका को लेकर व्‍याप्‍त भ्रांतियों का जिक्र करते हुए कहा कि आमतौर पर यह माना जाता है कि कोयला क्षेत्र में रहने वाले सभी लोग कोयले पर निर्भर करते हैं। ऐसा मानना सही नहीं है। कोयला खदानों में अभी जिस तरह का रोजगार ढांचा है, उससे जाहिर होता है कि अधिकतर लोग संविदा पर नियुक्‍त हैं और प्रवासी मजदूर हैं। कोयला उद्योग बहुत ही ‘परजीवी’ किस्‍म की इंडस्ट्री है। सामाजिक परिप्रेक्ष्‍य में देखें तो इसमें जातीय विभेद बहुत होता है। ऊर्जा उत्‍पादन में रूपांतरण के वक्‍त हमें उन गलतियों को दोहराने से बचना होगा जो हमने कोयला आधारित बिजली व्‍यवस्‍था बनाने के दौरान की थीं। एनेर्जी ट्रांजिशन करने से पहले हमें उन लोगों की उम्‍मीदों को जानना-समझना होगा जो इस रूपांतरण से सबसे ज्यादा प्रभावित होने जा रहे हैं।
जस्ट ट्रांजिशन, आई फॉरेस्ट की निदेशक श्रेष्ठा बनर्जी ने कहा कि झारखण्‍ड और छत्‍तीसगढ़ की खदानों में लाखों की संख्‍या में दिहाड़ी मजदूर काम करते हैं। झारखण्‍ड की ही बात करें तो वहां बहुत बड़े पैमाने पर असंगठित श्रमशक्ति है। संगठित कामगारों के मुकाबले असंगठित श्रमिकों की संख्‍या लगभग तीन गुनी है। भारत जैसे बड़े देश में ऊर्जा के न्‍यायपूर्ण रूपांतरण में सबसे बड़ी समस्‍या यह है कि हम कोयला अर्थव्‍यवस्‍था पर निर्भर कामगारों को उनका रोजगार छूटने पर उसकी भरपाई कैसे करेंगे।
उन्‍होंने कहा कि भारत में पांच राज्‍यों के करीब 65 जिलों से देश में कुल कोयला उत्‍पादन का 95 प्रतिशत हिस्‍सा आता है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोयला क्षेत्रों में रहने वालों में गरीब लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है। खासतौर पर जब हम झारखंड जैसे राज्य के बात करते हैं जहां लोग 100 साल या उससे ज्‍यादा समय से लाखों लोग अपनी रोजीरोटी के लिये पूरी तरह से कोयले पर निर्भर हैं। भारत के कोयला क्षेत्र के सामने सबसे बड़ी समस्या इस क्षेत्र की इन मुश्किलों को दूर करने की है। अक्‍सर यह माना जाता है कि कोयले का कंसंट्रेशन और रोजगार के मामले में उस पर निर्भरता सिर्फ उन्‍हीं लोगों की होती है, जो कोयला ब्‍लॉक के तीन किलोमीटर के दायरे में होते हैं, मगर सच्‍चाई कुछ और ही है। यह एक स्‍थापित तथ्‍य है कि कोयला अर्थव्‍यवस्‍था का दायरा कोल ब्‍लॉक के सिर्फ तीन किलोमीटर के दायरे तक सीमित नहीं है बल्कि इसमें वे मजदूरपेशा और ढुलाई करने वाले लोग भी शामिल हैं जो दूसरे जिलों से आकर काम करते हैं। रोजी रोटी के मामले में कोयले पर निर्भरता की बात करें तो यह तस्वीर अलग हो जाती है। जस्‍ट ट्रांजिशन करते वक्‍त हमें इस पूरे दायरे में आने वाले लोगों के हितों का भी ख्‍याल रखना होगा।
श्रेष्‍ठा ने कहा कि असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के कम से कम पांच सदस्‍यों के परिवार की औसत मासिक आमदनी 10,000 रुपये से ज्यादा नहीं होती। ‘मल्टीडाइमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स’ के मुताबिक कोयला अर्थव्‍यवस्‍था वाले राज्‍यों में आधे से ज्यादा आबादी गरीब है। उनके पास न तो बुनियादी सुविधाएं हैं और न ही शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएं मौजूद हैं। जब हम कोल ट्रांजिशन की बात करते हैं तो हमें कोयला दिहाड़ी श्रमिकों की बहुआयामी समस्याओं से सबसे पहले निपटना होगा।
सीईईडब्‍ल्‍यू के फेलो वैभव चतुर्वेदी ने ऊर्जा के न्‍यायसंगत रूपांतरण से जुड़े आर्थिक पहलुओं का जिक्र करते हुए कहा कि दरअसल आर्थिक रूपांतरण ही असल मुद्दा है। न्‍यायसंगत रूपांतरण तो उसका एक पहलू मात्र है। आने वाले समय में जस्‍ट ट्रांजिशन के सवाल पर अनेक देशों का आर्थिक वजूद दांव पर होगा। सबसे ज्‍यादा असर जीवाश्‍म ईंधन के लिहाज से सर्वाधिक सम्‍पन्‍न उन देशों पर पड़ेगा जिनसे यह कहा जाएगा कि अगर पर्यावरण को बचाना है तो वे अपनी इस प्राकृतिक सम्‍पदा का इस्‍तेमाल न करें। अगर हम आय वर्ग की बात करें तो उच्‍च आय वर्ग और निम्‍न आय वर्ग के बीच खाई बहुत चौड़ी हो गयी है। ऐसे में समानतापूर्ण विकास एक बहुत बड़ा मुद्दा बन गया है।
उन्‍होंने कहा कि जस्‍ट ट्रांजिशन को लेकर यह सबसे ज्‍वलंत सवाल है कि ज्‍यादा कोयला खनन करने वाले जिलों को सबसे ज्‍यादा नुकसान होगा? इससे बचने के लिये हमें सुगठित योजना बनानी होगी। जस्‍ट ट्रांजिशन कोई पांच या 10 साल आगे की योजना नहीं है, बल्कि 40-50 साल बाद की योजना है। उस वक्‍त दौर ही कुछ और होगा। हमें इस रूपांतरण की कीमत चुकाने लायक बनाने के लिये यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रभावित परिवारों के बच्‍चे ज्‍यादा शिक्षित और कार्यकुशल हों।
वैभव ने जस्‍ट ट्रांजिशन को एक अच्‍छा अवसर करार देते हुए कहा ‘‘मेरा मजबूत मानना है कि कोई भी संकट एक अवसर लेकर आता है। जस्ट ट्रांजिशन एक संकट है लेकिन इसमें अवसर भी है। यह बहुत महत्‍वपूर्ण पहलू है। जस्‍ट ट्रांजिशन में हम 40-50 साल आगे की बात कर रहे हैं। अगर हम कल्‍पना करें तो पायेंगे कि 50 साल बाद भारत का भविष्य कैसा होगा। निश्चित रूप से भारत के भविष्‍य की तस्‍वीर बिल्कुल अलग होगी। छत्तीसगढ़ और झारखंड में 2070 में क्या होगा, यह बेहद कौतूहल का विषय है। एक अनुमान के मुताबिक हमारी सालाना प्रति व्यक्ति आय 14000 डॉलर हो जाएगी। इस वक्‍त चीन में प्रति व्यक्ति आय 9000 डॉलर है।’’
उन्‍होंने कहा कि अगर हमें नेटजीरो का लक्ष्य हासिल करना है तो हमें कुल ऊर्जा उत्‍पादन में जीवाश्‍म ईंधन की हिस्‍सेदारी को 5 प्रतिशत से कम करना होगा। अगर हम जलवायु परिवर्तन की दिक्कतों को दूर रखना चाहते हैं तो ऐसा करना पड़ेगा। यह अच्‍छी बात है कि राजनीतिक स्‍तर पर भी चीजें धीरे-धीरे बदल रही हैं। दिल्ली जैसे अमीर राज्य में बिजली का बिल भी एक राजनीतिक विषय हो गया। इसलिए सीसीएस जैसी टेक्नोलॉजी नहीं आ पा रही है। क्‍योंकि इसकी वजह से बिजली बहुत महंगी हो जाएगी।
वेबिनार के संचालक वरिष्‍ठ पत्रकार हृदयेश जोशी ने इस मौके पर कहा कि जस्‍ट ट्रांजिशन तभी सम्‍भव है जब कोयला क्षेत्र से जुड़े हर व्‍यक्ति के हितों की रक्षा करते हुए एनेर्जी ट्रांजिशन का लक्ष्‍य हासिल किया जाए। श्रम कानूनों को लेकर सरकारों के मौजूदा रवैये को देखते हुए इस बारे में कोई भी बात पक्‍के तौर पर कहना मुश्किल है। हम चाहे जितनी बातें करें लेकिन जमीन अभी उस तरह की तैयार नहीं हुई है। सरकारों ने मजदूरों के हितों से जुड़े कानूनों को कमजोर ही किया है। उनकी यूनियन बनाने के विधिक अधिकार छीने हैं। श्रम संगठन बनाने के लिये तरह-तरह की शर्तों और औपचारिकताओं को जोड़कर प्रक्रिया को जटिल बनाया गया है। जस्‍ट ट्रांजिशन एक बहुत संवेदनशील विषय है। देश के करोड़ों लोगों का भविष्‍य कोयला आधारित अर्थव्‍यवस्‍था पर टिका है, लिहाजा एनेर्जी ट्रांजिशन जैसी बड़ी और जटिल कवायद को अंजाम देते वक्‍त उससे सबसे ज्‍यादा प्रभावित होने वाले श्रमिकों के हितों के संरक्षण को सबसे अधिक तरजीह दी जानी चाहिये।

आँगन का आमरूद

प्रभुनाथ शुक्ल

मैं
तुम्हारे आँगन का आमरूद हूँ
तभी तो मैं महफूज़ हूँ
तुमने
मेरा बेइंतहा ख्याल रखा
मुसीबतों से मुझे संभाल रखा

मैं
छोटा सा नन्हा एक बीज था
कोई न मेरा अस्तित्व था
तुमने
मुझे उम्मीद से धरती में डाला
अंकुरित हुआ तो मुझे पाला

मैं
खुद को कभी मरने नहीं दिया
सपनों को टूटने नहीं दिया
तुमने
मेरे हौसले को बढ़ाया
और संजीदगी से जिलाया

मैं
अब उम्मीदों के साथ खड़ा हूँ
एक बीज से नन्हा सा पौधा हूँ
तुमने
मुझे सींचा और ताप से भी बचाया
अब मैं तुम्हारी उमीदों का पेड़ हूँ

तनाव का कारण हैं अन्तहीन महत्वाकांक्षाएं

 -ः ललित गर्गः-

आंकड़े बताते हैं कि करीब 70 फीसदी लोग अपनी मौजूदा नौकरी या काम से संतुष्ट नहीं हैं और करीब 53 फीसदी लोग किसी भी रूप में खुश नहीं हैं। यह एक चिंताजनक बात है। जब हम दिल से प्रसन्न नहीं होते तो हमारे अंदर से आगे बढ़ने की चाह खत्म होने लगती है और फिर धीरे-धीरे तनाव बढ़ने लगता है, जो जीवन को नीरस और उबाऊ बना देता है। बहाने बनाने वाले, अपनी बेहतरी के मौके गंवा देते हैं। और हम बहाने इसलिए बनाते हैं, क्योंकि हार से डरते हैं। दूसरे क्या सोचेंगे, इसी में अटके रहते हैं। नतीजा, हम आसान लक्ष्य चुनते हैं और कुछ नया नहीं करते। कोच श्रीधर लक्ष्मण कहते हैं, ‘चुनौतीपूर्ण काम करना खुद पर हमारा विश्वास बढ़ाता है। नए अवसरों तक हमारी पहुंच बढ़ाता है।’
लेकिन हर मनुष्य अतृृप्त, असंतुष्ट एवं दुखी है, क्योंकि वह अन्तहीन तृष्णाओं एवं महत्वाकांक्षाओं से घिरा है। मनुष्य का स्वभाव है वह कहीं तृप्त नहीं होता। हर सुख की चाह फिर एक नई चाह पैदा कर देती है। पाने की लालसा कहीं पूर्ण विराम नहीं देती। शरीर की जरूरत कितनी है? पाव, दो पाव, तीन पाव या ज्यादा से ज्यादा कोई सेर भर खा लेता होगा। किन्तु मन की तृष्णा तो ऐसी है कि पूरा मेरू पर्वत खा लेने के बाद भी तृप्ति नहीं होती। आज के युग में अतृप्ति एक बीमारी बन गयी है। यह लगातार बढ़ती ही जा रही है। बिना पेंदे का पात्र, जिसमें डालते जाओ, कभी भरेगा नहीं।
क्या जो जैसे चल रहा है उसी बहाव में बहते चले जाएं या खुद को प्रसन्न रखने के लिए कुछ कदम उठाए जाएं? देखिए, बहुत सरल सी बात है कि ‘मुझे परवाह नहीं’, कहकर आप वास्तविकता को नकार सकते हैं। लेकिन उसे सुधारने के लिए कुछ काम करना ही पड़ेगा। मान लीजिए, आप अपनी नौकरी से संतुष्ट नहीं हैं और किसी ऐसे चमत्कार की उम्मीद कर रहे हैं, जो आपको आपके सपनों का जीवन दे देगा, संतुष्टि दे देगा। यहां आपको समझने की जरूरत है कि कल्पना की उड़ान साकार करने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। मतलब यह है कि आपके पास ऐसे उद्देश्य एवं सकारात्मक नजरिया होना चाहिये, जिसे आप प्रसन्नता से पूरा करें, ताकि जीवन सार्थक हो सके। लेकिन सबसे पहले उन उद्देश्यों को ढूंढ़ना जरूरी है, वैसी सकारात्मक सोच विकसित करनी जरूरी है। ताकि अपनी अंतहीन महत्वाकांक्षाओं को संतुलित आकार दे सके।  
तृप्ति कहीं नहीं है। देश के नम्बर एक औद्योगिक घरानों में गिने जाने वाले अडानी, अम्बानी, टाटा, बिड़ला, अब सब्जी-भाजी बेच रहे हैं। बड़े शहरों में इनके डिपार्टमेंटल स्टोर हैं। जिनमें तेल, लूण और रोज के काम में आने वाले सारी चीजें शामिल हैं। छोटे दुकानदार की रोजी-रोटी तो अब वे लोग हथिया रहे हैं। तृप्ति कैसे मिलेगी, जब इतने धनाढ्य एवं दुनिया के सर्वोपरि अमीरजादों को तृप्ति नहीं मिल रही है तो आम आदमी का कहना ही क्या? प्रश्न है तृप्ति कैसे होगी?
एक कथानक है कि जंगल के काष्ठ को जलाकर कोयला बनाने वाले मजदूर को सोते समय स्वप्न में प्यास लगी। श्रमिक जो जलती भट्ठी के सामने काम करते हैं, उन्हें बार-बार पानी पीना पड़ता है। श्रमिक सपना देख रहा है कि पानी पास में है नहीं और प्यास से कंठ सूखा जा रहा है। आखिर स्वप्न में ही उसने पास के पोखर का सारा पानी पी लिया, प्यास फिर भी नहीं मिटी। उसके बाद उसने नदी का सारा पानी पी लिया, फिर भी अतृप्त रहा। कल्पनालोक में ही वह सागर के किनारे पहुंच गया और पूरा समुद्र पी लिया, लेकिन प्यास तो अब भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। आखिर वह लौटकर कुंए के पास आता है, लेकिन पास में न तो रस्सी है, न बाल्टी। पास में कुछ पूले पड़े हैं। उन्हीं की रस्सी बनाकर पूले को कुएं में लटकाता है और ऊपर खींचकर उस पूले से टपक रहे बूंद-बूंद पानी से अपनी प्यास बुझाने का प्रयास करता है। विचारणीय बात है कि जो सारे तालाब, पोखर और यहां तक कि समुद्र को पीकर भी तृप्त नहीं हुआ, उसकी प्यास पानी की कुछ बूंदों से कैसे बुझेगी? जिन लोगों ने स्वर्ग का सुख भोग लिया, वे अब छोटे से मनुष्य जीवन में तृप्त हो जाएंगे, यह संभव नहीं लगता।
इस समस्या का एक ही समाधान है इच्छाओं का समीकरण। आदमी यह सोच ले कि शांति, समाधि, संयम ही जीवन की सार्थकता है तो यह चिन्तन पुष्ट बन जायेगा कि ‘भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता।’ हर योग्य पदार्थ की शुरूआत सुखद है पर परिणाम दुःखद। इसलिये तृप्ति एवं संतोष तभी उतरेगा जब हम कुछ त्यागना शुरू करेंगे। त्याग ही योग है। पदार्थ की ओर जाने वाला भोगी है, इसलिए उसे मिलेगी प्यास। आत्मा और चेतना की ओर जाने वाला योगी है, उसे मिलेगी तृप्ति। गीता के आलोक में हम इस अन्तर को अच्छी तरह से देख और समझ लें। मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में निहित है।
ज्यादातर समय हम मुखौटा ओढ़े रहते हैं। जैसे भीतर होते हैं, वैसे ही बाहर बने रहने से बचते हैं। डरते हैं, खुद को छिपाए रहते हैं। आप क्या चाहते हैं और क्या हैं, इसे सम्मान देना सीखें। अपनी जिंदगी जिएं। अफ्रीकी-अमेरिकी लेखिका माया एंजिलो कहती हैं, ‘साहस सबसे जरूरी गुण है। इसके साथ के बिना किसी भी अन्य गुण को जीवन में लाया नहीं जा सकता।’ हम सब साधारण इंसान हैं और ऐसा कतई जरूरी नहीं कि हम हर उद्देश्य को बिना किसी बाधा के पूरा कर ही लें। बेशक, उतार-चढ़ाव जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं, लेकिन फिर भी एक साहस एवं संतुलन जरूर होना चाहिए जो आपको हमेशा आगे बढ़ने की दौड़ में भटकाव न दें। सीधे-सीधे आसान रास्तों पर चलते हुए भी कोई भटकता रह जाता है। कुछ भटकते हुए भी मंजिल की ओर ही कदम बढ़ा रहे होते हैं। दरअसल, जब भीतर और बाहर का मन एकरूप होता है तो भटकना बेचैन नहीं करता। भरोसे और भीतर की ऊर्जा से जुड़े कदम आप ही राह तलाश लेते हैं। ओशो कहते हैं, ‘भटकता वही है, जो अपने भीतर की यात्रा करने से डरता है।’
जब आप सड़क पर गाड़ी चलाते हैं, तो हमेशा सर्तक रहते हैं। क्योंकि आप जानते हैं कि दुघर्टना एक अवांछनीय स्थिति है, जिससे आप किसी भी हालत में बचने की कोशिश करते हैं। यही बात जीवन पर भी लागू होती है। जब अपने उद्देश्य के प्रति हमारा ध्यान केंद्रित होता है, तो हम किसी भी प्रकार के उतार-चढ़ाव से घबराते नहीं हैं और न ही लक्ष्य से भटकते हैं। इसका सबसे आसान तरीका है कि अपने अंदर नई-नई चीजों को जानने की जिज्ञासा पैदा करें। यही जिज्ञासा मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है और क्या पता ऐसा करने से आपको भी अपने जीवन का उद्देश्य मिल जाए। अमेरिकी ईसाई नेता बिली ग्राहम कहते हैं, ‘जिंदगी इसी से बनी है-गलतियां करें व सीखें। इंतजार करें व आगे बढ़ें। धैर्य रखें और दृढ़ रहें।’ ये सब बदलाव के ही चरण हैं। आप नई-नई चीजों को खोजते हैं और उन्हीं में से आपको कुछ रोमांचकारी मिल जाता है, जो आपके जीवन का उद्देश्य बन जाता है। दरअसल, बदलाव से ही जीवन के उद्देश्य तय हो सकते हैं।

तुम थकना तो मेरी छांव में आना

                प्रभुनाथ शुक्ल

आंगन के मेरे आहाते में अमरूद का एक पेड़ है। बेहद खूबसूरत और मासूम सा। कितना कोमल अंकुरण था उसका, लेकिन समय के साथ अब वह तरुण हो गया है।चिलचिलाती धूप में हमने उसके तने को शीतल जल से सींचा। उसकी निराई और गुणाई की। अब वह समझने लगा है अपनी जिम्मेदारियों को। बारिश आने से पहले ही उसकी टहनियों में सुंदर सफ़ेद फूल आ गए थे। बाद में फल भी उसमें आ गए। बारिश आई तो फलों ने बड़ा आकार लिया। अब वह मीठा फल देने लगा है। अब वह मेरी मेहनत का दाम लौटने लगा है। जैसे वह मेरा ऐहसान नहीं लेना चाहता।

प्रकृति किसी से कुछ लेती नहीं वह सिर्फ देती है। शायद इसी सिद्धांत का पालन वह आमरूद भी करना चाहता है।वह अपना सब कुछ मुझे लौटाना चाहता है। फल के रुप में मिठास देना चाहता है। चिड़ियों को भी बुलाने लगा है।अपने पके हुए फल उन्हें समर्पित कर देता है। चिड़िया पके फल पर चोट मारने लगी हैं। चोंच मारकर मीठे फल का आनंद ले रहीं हैं। घोंषले में चीं-चीं करते बच्चों को भी मिठास का स्वाद चखा रहीं हैं। चोंच और इंसान की हजार पीड़ा सहने के बाद भी वह लूट जाना चाहता है। जैसे समर्पण उसकी नियति बन गई है।

मेरे आंगन का आमरूद कितना परोपकारी है। वह सब कुछ लुटाने को तैयार है। वह हमें संदेश देता है कि तुम मेरे लिए थोड़ा सा करो मैं तुम्हारी जिंदगी और पीढ़ियों के लिए करूँगा। मैं तुम्हें फल दूंगा और शीतल छांव दूंगा। लकड़ियां दूंगा। तुम्हें जिंदगी का अनुभव दूंगा। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कैसे बने रहना है वह मंत्र भी मैं दूंगा। उसने कभी उदास होना नहीं सीखा। थोड़े सकून में भी वह मुस्कुराता रहता है। जब उसकी डालियों में मीठे फल आते हैं तो वह इतराता नहीं खुद झुक जाता है। लोगों को बुलाता है कि आओ और मुझे तोड़ लो। वह संदेश देता है मैं तुम्हारे और संसार के दूसरे प्राणियों के लिए जीता हूँ। तुमने मुझे पालपोष कर बड़ा किया है। फिर मैं तुम्हें कैसे भूल सकता हूँ।

आँगन का आमरूद शायद मुझसे कहता है तुमने तो मुझे सब कुछ दिया। तुम्हीं ने तो मुझे पालपोष कर इतना बड़ा किया। कौन था मेरा जो मुझे पालता। भीषण गर्मी में सूखती मेरी जड़ों में तुमने शीतल जल से सींचा। फिर मैं तुझे भूल पाऊंगा क्या। अब तो मेरा वक्त आ गया है जब मैं तुम्हारे लिए करूँ। तुम कभी हारना नहीं, अरे हाँ ! थकना भी नहीं। छोड़ो कल की बातें। कल का बोझ क्यों उठाए रहते हो। वर्तमान में जीना और उसी को बेहतर बनाना सीखो। जब वर्तमान बनेगा तो भविष्य अपने आप बन जाएगा। कल को किसी ने देखा नहीं है। फिर जिसे तुमने देखा नहीं, जाना नहीं और जिया नहीं उसके बारे में व्यर्थ की चिंता क्यों करते हो। कल तूफ़ान आएगा तो मेरा अस्तित्व मिटा देगा। फिर क्या मैं तूफान की चिंता में वर्तमान को ही मार डालूँ। आज तुम्हें मैं जो दे रहा हूँ वह क्या दे पाऊंगा ? कल की बातें छोड़ो सिर्फ वर्तमान में जियो।

अरे हां! तुमसे बतियाने का खूब मन करता है। देखो, दुनिया कितनी बदल गई है ना, सबको तो बस अपनी ही पड़ी है। कोई दूसरे की सुनता ही नहीं, कोई दूसरे को पढ़ता ही नहीं। कोई दूसरे को जानता ही नहीं। आओ मैं और तुम अपने मन की बातें करते हैं। दोस्त जिंदगी को एक मुस्कुराता हुआ गुलदस्ता बनाओ। जब फुर्सत मिले थोड़े मुस्कुराते जाओ। देखो जिंदगी कितनी आसान और हसीन हो जाएगी। मैं चाहता हूं जब तुम थक जाओ, जब तुम हार जाओ तो मेरी तरफ देख लिया करो। मैं तुम्हारा हौसला और संकल्प हूं। मैं तुम्हारा प्रकल्प हूँ। जीवन जीने का रास्ता भी हूँ। तुम कभी प्रकृति की तरफ देखते ही नहीं। वह संदेश देती है, लेकिन तुम उसे अनसुना कर देते हो। वह तुम्हें संभालती है। जीवन पथ पर तुम्हारे संकल्पों की याद दिलाती है। फिर भी दीवानगी में तुम उसे भूल जाते हो।

देखो ! मैंने अपने संकल्पों को जिया है। कल मैं एक नन्हा सा बीज था आज एक पेड़ हूँ। मेरे भीतर का संकल्प मर जाता तो मैं शायद अंकुरित ही न हो पाता। फिर इतना विशाल वृक्ष नहीं बनता। तुम अपने संकल्प को जिंदा रखो। परिस्थितियां तुम्हारी कितनी भी प्रतिकूल हों, लेकिन तुम उन्हें संघर्षों से अनुकूल बनाओ। जीवन के उल्लास और उमंग को कभी मरने मत देना। मैं तुम्हारे आंगन का वहीं बीज हूँ जिसे तुमने खुद अपने हाथों से धरती में डाला था। कल तक तुम्हें भी इतनी उम्मीद नहीं थी कि मैं इतना बड़ा हो जाऊंगा। बस! कभी हारनामत। जब थक जाना तो मेरे शीतल छांव में आ जाना और थोड़ा सा मुझसे बतिया लेना। फिर चलते जाना,चलते जाना दूर तलक उस क्षितिज के पार जहां एक नई सुबह एक उम्मीद के और संकल्प लेकर खड़ी है।

भ्रष्टाचार व कुप्रबंधन के चलते बारिश में डूबता ‘न्यू इंडिया ‘

                                                                                             निर्मल रानी

 भीषण गर्मी से त्राहिमाम कर रहे पश्चिमी उत्तर भारत लोगों  ने मानसून की आमद से निश्चित रूप से काफ़ी राहत महसूस की है। परन्तु मानसून की अभी आमद ही हुई है कि ख़ास तौर पर शहरी क्षेत्रों में जलभराव के दृश्य सामने आने लगे हैं। जिन लोगों का कारोबार लॉक डाउन के भयावह दौर से बाहर निकलने की बमुश्किल कोशिश कर रहा था, अनेकानेक शहरों व बस्तियों यहाँ तक कि नये बसाये गये कथित ‘हाई फ़ाई ‘ सेक्टर्स में भी सड़कों से लेकर घरों तक में पानी भर जाने के चलते एक बार फिर लगभग ठप्प हो गया है। कहीं दुकानों में पानी भरा है तो कहीं जलभराव की वजह से ग्राहक नदारद। कहीं ग्राहक व दुकानदार दोनों ही अपने घरों से बाहर नहीं निकल पा रहे। कहना ग़लत नहीं होगा कि जितना अधिक विकास कार्य जितना सड़कों पुलों,नालों नालियों आदि का नवनिर्माण व सुधारीकरण का काम दिखाई देता है उतना ही अधिक जलभराव भी बढ़ता जाता है। जनता की तकलीफ़ें भी उतनी ही अधिक बढ़ती जा रही हैं। सरकार की अनेक योजनायें तो साफ़ तौर पर ऐसी दिखाई देती हैं जिन्हें देखकर यही यक़ीन होता है कि इस तरह की योजनायें केवल कुप्रबंधन और भ्रष्टाचार का ही परिणाम हैं। और कुप्रबंधन व भ्रष्टाचार में डूबी ऐसी योनाओं का पूरा नुक़सान निश्चित रूप से केवल जनता को ही भुगतना पड़ता है।
                             मिसाल के तौर पर टूटी गलियों व सड़कों के निर्माण या उसकी मुरम्मत के नाम पर हर बार गलियों व सड़कों को ऊँचा किया जाता है।  इसका कारण यह है कि पुरानी सड़कों व गलियों  की लंबाई व चौड़ाई तो आम तौर पर बढ़ नहीं सकती और वह पहले जितनी ही रहती है। लिहाज़ा सड़क व गली की मोटाई अर्थात ऊंचाई के नाम पर ही भ्रष्टाचार का सारा खेल व्यवस्था की मिलीभगत से खेला जाता है। यदि सरकार चाहे तो सख़्ती से यह आदेश जारी कर सकती है और स्थाई तौर से यह नियम बना सकती है कि गलियों व सड़कों की मुरम्मत पुरानी गलियों के ऊपरी स्तर को खोद कर की जाये गलियों /सड़कों के पुराने ऊंचाई के स्तर को बरक़रार रखा जाये कई जगह जागरूक नागरिकों ने इकट्ठे होकर अपने मुहल्लों में पुराने स्तर पर ही निर्माण कराया भी है । उन्होंने अपने मुहल्लों की गलियां  ऊँची नहीं होने दीं। परन्तु जो जनता मूक दर्शक बनकर अपने ही घरों के सामने की सड़कों को ऊँचा होते देखती रही आज उनके घरों में मामूली सी बारिश का पानी भी घुस जाता है। जो आर्थिक रूप से संपन्न हैं उन्होंने तो अपने मकानों को ऊँचा करवा लिया है या तोड़ कर नया ऊँचा मकान बना लिया है और जो बेचारे दो वक़्त की रोटी के लिए जूझ रहे हैं वे हर बारिश में अपनी घरों व अपने घरों के सामने की नालियों गलियों यहां तक कि सीवरेज लाइन के गंदे व दुर्गन्धपूर्ण पानी में डूबा हुआ पाते हैं। घरेलू सामानों की बारिश व जलभराव से क्षति होती है वह अलग,साथ ही बीमारी फैलने की भी पूरी संभावना तो रहती ही है।
                                                      इसी तरह तमाम शहरों के मुख्य नाले भी ज़रा सी बारिश में  जल-प्लावन करने लगते हैं। यहाँ तक कि बारिश रुक जाने के बाद भी घंटों तक और थोड़ी अधिक बारिश होने पर तो एक दो दिनों तक लबालब भरे रहते हैं और पानी आगे बढ़ने के बजाये ठहरा रहता है। कई जगह नव निर्मित नाले  टूट फूट जाते हैं उनमें दरारें पड़ जाती हैं। कभी कोई बैंक डूबा रहता है तो कभी सरकारी या निजी कार्यालय। गोया ज़रा सी  बारिश जनता में हाहाकार पैदा कर देती है। ज़ाहिर है इस दुर्व्यवस्था के लिये जनता का तो कोई दोष नहीं? हाँ जनता का दोष इतना ज़रूर है कि शहरों की नालियों व नालों में जिसतरह ग़ैर ज़िम्मेदार लोग प्लास्टिक की बोतलें,पॉलीथिन की थैलियां, यहाँ तक कि मरे हुए जानवर तक फेंक दिया करते हैं उसके चलते भी नालों व  व नालियों का प्रवाह बाधित हो जाता है। तमाम लोगों ने अपने अपने घरों में गाय भैंसें पाल रखी हैं। रिहाइशी इलाक़ों में तमान डेयरियां चलाई जा रही हैं। ऐसे अनेक डेयरी संचालक अपने जानवरों का मल सीधे नालियों में बहाते हैं। जिसकी वजह से पानी की काफ़ी बर्बादी तो होती ही है साथ ही नालियों में गोबर जम जाने से नाली नाले भी अवरुद्ध हो जाते हैं। और बारिश के मौसम में जनता की यही लापरवाहियां स्वयं जनता की परेशानियों का ही सबब बनती हैं।                                                     इस तरह के जल भराव से बचने के लिये निश्चित रूप से जहां जनता पर यह ज़िम्मेदारी है कि वह नालियों व नालों में कूड़े कबाड़ फेंकने व उसे अवरुद्ध करने सभी हरकतों से बाज़ आये वहीं सरकार व संबंधित विभागों तथा योजनाकारों की भी बड़ी ज़िम्मेदारी है कि वह मुहल्लों,कालोनियों,शहरों व क़स्बों से जल निकासी हेतु ऐसी योजनायें बनाये जिससे लोगों के घरों में और गली मुहल्लों में बरसाती जल जमाव बंद हो। सड़कों व गलियों को ऊँचा करने का जो भ्रष्टाचारी तरीक़ा लगभग पूरे देश में अपनाया जा रहा है वह बिल्कुल बंद होना चाहिए। नालों नालियों तथा वर्षा जल निकासी के सभी स्रोतों के निर्माण में उचित व कारगर योजनायें बनानी चाहियें जिससे जनता के हितों को भी ध्यान में रखा जा सके और निर्माण भी स्तरीय अर्थात भ्रष्टाचार मुक्त हो। गलियों व नालों नालियों को ऊँचा कराने जैसी भ्रष्टाचार से डूबी योजनाओं से बाज़ आना चाहिए। जहां कहीं गलियों व सड़कों को ऊँचा करे बिना जल निकासी संभव ही नहीं ऐसे क्षेत्रों को अपवाद समझकर सामान्यतयः यह नियम बनाना चाहिये कि पुरानी सड़कों व  गलियों को खोद कर ही अपने पिछले स्तर तक ही गलियों व सड़कोंतथा नाली नालों की ऊंचाई निर्धारित  जाये। अन्यथा न्यू इण्डिया का ढोल पीटने से कुछ हासिल नहीं होने वाला। जब तक इस भ्रष्टाचार  डूबी इस व्यवस्था में  सुधार नहीं होता तब तक  भ्रष्टाचार व कुप्रबंधन के चलते थोड़ी सी ही बारिश में हमारा  ‘न्यू इंडिया ‘ हमेशा यूँही डूबता रहेगा।