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डाकघर के कर्मवीर

—विनय कुमार विनायक
हे डाकघर
तुम जैसे वैसेतेरे कर्मवीर
तेरे गात्र की लालीसाही
बहताहैउनका अश्रु नीर!

तेरी ही पत्र पेटी केजैसा
उनका पेटकभी नही भरता
कठिन कामकर अर्धदाम पर
अधखाए असमय ही मरता!
इसका तुम्हेंनहीकुछ भान?

बेवक्त के अधबूढ़े जैसा,
तंगहाल पर तीव्र चाल से
डाकघर की ओर अग्रसर
वह अंतर्देशीयनुमा ढांचा!

पहला मोड़ घुटने पर,
दूसरा कमर,तीसरा गर्दन पर
मैल गोंद से चिपका कालर
इन श्रमवीरों का बोलो
किसने किया अपमान?

एक डाककर्मी अच्छे पद का
लगता यौवन में बूढ़ेजैसा,
अटपटे फाइलों में दबे चिपटे
वो लगता खुद से चिढ़ेसा!

बंजर जमीं पर उगे झाड़ सा दाढ़
सर्ट-पेंट यूं मुड़ा-तुड़ा लगता है कूड़े सा!

इस विकट दुर्दशा का कैसे हुआ निर्माण?
हेडाकघर तेरेश्रमजीवी मात्र पंद्रह पैसे के
टिकट परपोस्टकार्ड को जन के मुराद को
बढ़ती महंगाई के दौर मेंभारत भ्रमण कराता!

इस घाटे की भरपाई बोलो कौन कर जाता?
क्या नही कटाके वेडाककर्मीअपनी कौर से,
मगर श्रेय भारतसरकार को जाता
हायरे श्रमशोषण,वाह जनकल्याण!
—विनय कुमार विनायक

राजनीतिक संग्राम में बदलता पेगासस जासूसी विवाद

प्रमोद भार्गव

                 पेगासस फोन जासूसी विवाद संसद में राजनीति के संग्राम में बदल गया है। संसद के दोनों सदनों में विपक्ष के नेताओं, न्यायाधीशों और पत्रकारों समेत प्रमुख हस्तियों के फोन टैप कराए जाने का आरोप लगाते हुए समूचा विपक्ष नरेंद्र मोदी सरकार पर आक्रामक है। विपक्ष इस मुद्दे पर संसद में तत्काल चर्चा के साथ ‘संयुक्त संसदीय समीति’ से जासूसी प्रकरण की जांच कराने की मांग कर रहा है। वहीं सरकार इस पूरे मामले को ही निराधार बता रही है। राज्यसभा सांसद दिग्विजय सिंह ने ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान सवाल किया कि सरकार सिर्फ इतना स्पष्ट करे कि सरकार ने पेगासस स्पाईवेयर सॉफ्टवेयर की निर्माता कंपनी एनएसओ से कोई सौदा किया है अथवा नहीं ? इस प्रश्न के उत्तर में पूर्व सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि ‘देश में आतंकवाद या सुरक्षा के मसले पर यदि जांच एजेंसियां किसी की निगरानी करती है तो इसके लिए पूरी प्रक्रिया अपनाई जाती है।’ यह उत्तर कुछ उस तर्ज पर दिया गया है, जिसमें महाभारत युद्ध के दौरान द्रोणचार्य ने युधिष्ठिर से पूछा कि अश्वत्थामा की मृत्यु के बारे में सच बताओ ? तब युधिष्ठिर बोले ‘अश्वत्थामा मारा गया, परंतु हाथी।’ किंतु हाथी शब्द इतना धीमे स्वर में बोला कि उसे ठीक से सुनने से पहले द्रोणाचार्य अचेत होते चले गए। रविशंकर का बयान भी कुछ ऐसा ही रहस्यमयी है।

भारत की स्थिर सरकार को अस्थिर करने के हथकंडे पश्चिमी मीडिया अपनाता रहा है। इसलिए उसने कथित पेगासस प्रोजेक्ट बम ऐसे समय पटका, जब संसद के मानसून सत्र की शुरूआत होनी थी। नतीजतन पिछले सात वर्ष से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार से मुंह की खा रहे विपक्ष को हंगामे का नया हथियार मिल गया। डिजीटल सॉफ्टवेयर पेगासस के जरिए दुनिया की सरकारें अपने नागरिकों, विरोधियों या अन्य संदिग्धों की जासूसी करवाती रही हैं। यह नया कथित खुलासा 16 मीडिया संस्थानों ने मिलकर किया है। इसके नतीजे पश्चिम के प्रमुख अखबार ‘द गार्जियन’ और ‘वाशिंगटन पोस्ट’ समेत कई मीडिया पोर्टल पर जारी किए गए हैं। इनमें 40 भारतीयों के नाम हैं। प्रमुख लोगों में राहुल गांधी, ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी, चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर, पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा, पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिला के साथ पांच भारतीय पत्रकार भी शामिल हैं। ‘द वायर’ ने भी यह सूची जारी की है। द वायर भारत सरकार के खिलाफ अजेंडा चलाती रही है। यदि वास्तव में इन हस्तियों के मोबाइल फोन टेप किए जा रहे थे, तो इसकी सच्चाई जानने के लिए इन लागों को अपने फोन फॉरेंसिक जांच के लिए एमनेस्टी इंटरनेशनल को देने होगें। अब तक अकेले प्रशांत किशोर ने अपना मोबाइल जांच के लिए सौंपा है। यहां सवाल उठता है कि यदि अन्य लोग मोबाइल पर आपत्तिजनक कोई बात नहीं कर रहे थे, तब वे अपने फोन जांच के लिए क्यों नहीं दे रहे ? इस खुलासे से संसद से सड़क तक बेचैनी जरूर है, लेकिन इसके परिणाम किसी अंजाम तक पहुंचने वाले नहीं हैं ?

यह मुखबिरी पेगासस के माध्यम से भारत के लोगों पर ही नहीं 40 देशों के 50 हजार लोगों पर कराई जा रही थी। इस सॉफ्टवेयर की निर्माता कंपनी एनएसओ ने दावा किया है कि इसे वह अपराध और आतंकवाद से लड़ने के लिए केवल सरकारों को ही बेचती है। पूर्व आईटी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने संसद में एनएसओ का पत्र लहराते हुए पूरे मामले को नकार दिया। तय है कि सरकार ने ऐसा कोई अनाधिकृत काम नहीं किया है, जो निंदनीय हो अथवा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करता हो। इसीलिए इस रहस्य का खुलासा करने वाली फ्रांस की कंपनी फारबिडन स्टोरीज और एमनेस्टी इंटरनेशनल ने ऐसे कोई तथ्य नहीं दिए हैं, जो फोन पर की बातचीत को प्रमाणित करते हों ? गोया बिना साक्ष्यों के कथित खुलासा व्यर्थ है और हंगामा भी संसद में कीमती समय की बर्बादी है। अतएव सत्ताधारी दल पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र की हत्या जैसे आरोप वेबुनियाद हैं।

एक तरफ भारत ही नहीं दुनिया की नीतियां ऐसी बनाई जा रही हैं कि नागरिक डिजीटल तकनीक का उपयोग करने के लिए बाध्य हो या फिर स्वेच्छा से करे। दूसरी तरफ सोशल साइट ऐसे ठिकाने हैं, जिन्हें व्यक्ति निजी जिज्ञासा पूर्ति के लिए उपयोग करता है। इस दौरान की गई बातचीत पेगासस सॉफ्टवेयर ही नहीं, कई ऐसे अन्य सॉफ्टवेयर भी हैं जो व्यक्ति की सभी गतिविधियों का क्लोन तैयार कर लेने में सक्षम हैं। इसकी खासियत है कि इसके प्रोग्राम को किसी स्मार्टफोन में डाल दिया जाए तो यह हैकर का काम करने लगता है। नतीजतन फोन में संग्रहित सामग्री आॅडियो, वीडियो, चित्र, लिखित सामग्री, ईमेल और व्यक्ति के लोकेशन तक की जानकारी पेगासस हासिल कर लेता है। इसकी विलक्षणता यह भी है कि यह एन्क्रिप्टेड संदेशों को भी पढ़ने लायक स्थिति में ला देता है। पेगासस स्पाईवेयर इजराइल की सर्विलांस फर्म एनएसओ ने तैयार किया है। पेगासस नाम का यह एक प्रकार का वायरस इतना खतरनाक व शाक्तिशाली है कि लक्षित व्यक्ति के मोबाइल में मिस्ड कॉल के जरिए प्रवेश कर जाता है। इसके बाद यह मोबाइल में मौजूद सभी डिवाइसों को एक तो सीज कर सकता है, दूसरे जिन हाथों के नियंत्रण में यह वायरस है, उनके मोबाइल स्क्रीन पर लक्षित व्यक्ति की सभी जानकरियां क्रमवार हस्तांरित होने लगती हैं। गोया, लक्षित व्यक्ति की कोई भी जानकारी सुरक्षित व गोपनीय नहीं रह जाती। यह वायरस इतना चालाक है कि निशाना बनाने वाले मोबाइल पर हमले के कोई निशान नहीं छोड़ता। कम से कम बैटरी, मेमौरी और डेटा की खपत करता है। यह महज एक सेल्फ-डिस्ट्रक्ट आॅप्शन (विनाशकारी विकल्प) के रूप में आता है, जिसे किसी भी समय इस्तेमाल किया जा सकता है।

वैसे पेगासस या इस जैसे सॉफ्टवेयर पहली बार चर्चा में नहीं हैं। देश के रक्षा संस्थानों की हनीट्रेप के जरिए जासूसी करने के भी अनेक मामले ऐसे ही सॉफ्टवेयरों से अंजाम तक पहुंचाए गए हैं। इजरायली प्रौद्योगिकी से वाट्सऐप में सेंध लगाकर 1400 भारतीय सामाजिक कार्यकताओं व पत्रकारों की बातचीत के डेटा हैक कर जासूसी का मामला भी 2019 में आम चुनाव के ठीक पहले सामने आया था। इसमें देश के 13 लाख क्रेडिट-डेबिट कार्ड का डेटा लीक कर हैकर्स आॅनलाइन बेच रहे थे। साफ है, इन डिजीटल महा-लुटेरों से निपटना आसान नहीं है। बावजूद यह शायद आम चुनाव के ठीक पहले मोदी सरकार की छवि खराब करने की दृष्टि से सामने लाया गया था।

दुनियाभर में ड़ेढ़ करोड़ उपभोक्ताओं वाले वाट्सऐप में सेंघ लगाकर पत्रकारों विपक्षी नेताओं, मानवाधिकारों व सामाजिक कार्यकताओं की जासूसी करने के आरोप भी लगे थे, लेकिन इसमें भी कोई प्रमाण अब तक सामने नहीं आए हैं। उस समय फेसबुक के स्वामित्व वाली वाट्सऐप ने स्वयं जानकारी दी थी कि इजरायली स्पाइवेयर ‘पेगासस’ के मार्फत चार महाद्वीपों में करीब 1400 लोगों के फोनों में सेंघ लगाई गई है। इस रहस्योद्घाटन के बाद वाट्सऐप ने अमेरिका के कैलिफोर्निया में स्थित संघीय न्यायालय में एनएसओ समूह के विरुद्ध मुकदमा भी दायर किया हुआ है। इस एफआईआर में वाट्सऐप ने कहा है कि ‘1400 फोन में स्पाइवेयर पेगासस डालकर उपभोक्ताओं की महत्वपूर्ण जानकारी चुराई गई हैं।’ हालांकि वाट्सऐप ने कुटिलता बरतते हुए प्रभावितों की संख्या सही नहीं बताई है। यह जानकारी तब चुराई गई थी, जब भारत में अप्रैल-मई 2019 में लोकसभा के चुनाव चल रहे थे। इसलिए इस परिप्रेक्ष्य में विपक्ष ने यह आशंका जताई थी कि इस स्पाइवेयर के जरिए विपक्षी नेताओं और केंद्र सरकार के खिलाफ संघर्षरत लोगों की अपराधियों की तरह जासूसी कराई गई।’ हालांकि इस मामले में भी अब तक कोई तथ्यपूर्ण सच्चाई सामने नहीं आई है।

वैसे आइटी कानून के तहत भारत में कार्यरत कोई भी सोशल साइट या साइबर कंपनी यदि व्यक्ति विशेष या संस्था की कोई गोपनीय जानकारी जुटाना चाहती है तो केंद्र व राज्य सरकार से लिखित अनुमति लेना आवश्यक है। ये नियम इसलिए बनाए गए हैं, जिससे व्यक्ति की निजता का हनन न हो। ऐसे मामले सामने आने पर सरकार भी, निजता गोपनीय बनी रहे, इस सुरक्षा के प्रति, प्रतिबद्वता जताती रही है। वैसे सरकारों द्वारा अपने विरोधियों के टेप करने के मामले जब तक सामने आते ही रहते हैं। जो कांग्रेस पेगासस जासूसी कांड पर हंगामा बरपाए हुए है, उसी कांग्रेस ने 2011 में डॉ मनमोहन सिंह सरकार में तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए राजा और रानीतिक लॉबिस्ट नीरा राड़िया की बातचीत का टेप लीक हुआ था। कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार पर यह बड़ा संकट था। अरूण जेटली ने तो ¬प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का स्तीफा तक मांग लिया था। बाद में सूचना के अधिकार के अंतर्गत चाही गई जानकारी से खुलासा हुआ कि यूपीए सरकार रोजाना 300 फोन एवं 20 ईमेल टेप करा रही थी। हालांकि भारत में 10 ऐसी सरकारी गुप्तचर जांच एजेंसियां हैं। जो आधिकारिक रूप से संदिग्ध व्यक्ति अथवा संस्था की जांच कर सकती हैं। हालांकि भारत में संचार उपकरण से जुड़ा, पहला बड़ा मामला राष्ट्रपति ज्ञानी जैल की जासूसी से जुड़ा है। इस फोन टैपिंग के समय राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे। इस मामले में राष्ट्रपति के पत्रों की जांच करने का आरोप राजीव गांधी सरकार पर लगा था। इसी तरह पूर्व वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के सरकारी दफ्तर में भी जासूसी यंत्र ‘बग’ मिलने की घटना सामने आई थी। इस समय डॉ. मनमोहन सिंह ही प्रधानमंत्री थे। यानी जिस प्रधानमंत्री को कठपुतली प्रधानमंत्री माना जाता था, उन्हीं के कार्यकाल में सबसे ज्यादा जसूसी के गोपनीय मामले सामने आए थे। इन रहस्यों के उजागर होने से इलेक्ट्रोनिक प्रौद्योगिकी के प्रयोग को लेकर लोगों के मन में संदेह स्वाभाविक है। लिहाजा सरकार को अपनी जबावदेही स्पष्ट करने की जरूरत है। लेकिन हंगामे के बीच सफाई कैसे दी जाए ? शोर थमे तब सरकार का स्पष्टीकरण सामने आए ?

प्रमोद भार्गव

कहानी चंद्रमोहीम के जनक वार्नर वॉन ब्राउन की

  • कल्पना पांडे

सबसे शक्तिशाली रॉकेट ‘सैटर्न V’ का आविष्कार महान जर्मन वैज्ञानिक ब्राउन ने किया था। ब्राउन अंतरिक्ष यात्रा मिशन के जनक थे। 1969 में, ब्राउन ने एक नायक के रूप में दुनिया भर में ख्याति प्राप्त की। ‘सैटर्न V’ नील आर्मस्ट्रांग और एल्ड्रिन बज़ को चाँद पर ले गया और उन्हें वहाँ पहुँचने वाले पहले व्यक्ति बने। लेकिन मीडिया में कहीं भी यह उल्लेख नहीं किया गया कि वह एक पूर्व नाजी थे। ब्राउन ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान रॉकेट द्वारा लंदन पर विस्फोटकों की बारिश करने की योजना बनाई थी। वह एक साधारण नाजी कार्यकर्ता नहीं था, बल्कि एक उच्च पदस्थ एसएस अधिकारी था जो हेनरिक हिमलर के बहुत करीब था। वह एक ऐसी शक्ति का हिस्सा था जिसने लोगों को गुलाम बनाया और इस्तेमाल किया और मार डाला। फिर भी अमेरिका ने इस राक्षस के लिए अपने दरवाजे खोल दिए। यह युद्ध अपराधी अमेरिका की सबसे बड़ी हस्तियों में से एक और मैन ऑन द मून प्रोजेक्ट का प्रमुख बन गया। वॉन ब्राउन अमेरिका के हीरो बने। वह एक प्रतिभाशाली वैज्ञानिक थे और उन्होंने अपनी प्रतिभा के उपयोग के लिए कड़ी मेहनत की. उसके पापों का हिसाब उसकी प्रतिभा से कभी नहीं लिया गया। उसने कभी अपना गुनाह कबूल नहीं किया। ऐसा नहीं लगा कि उसे इसका पछतावा है।

वार्नर वॉन ब्राउन का जन्म 1912 में एक धनी जमींदार परिवार में हुआ था। परिवार से कई सरकारी सेवा या सेना में थे। ब्राउन के पिता को उम्मीद थी कि वह भी कुछ ऐसा ही करेगा। जब से राइट बंधुओं ने पहला हवाई जहाज बनाया और उड़ाया, तब से इस बात की बहुत चर्चा हो रही है कि मनुष्य आगे किस अवस्था में पहुँचेगा। जब ब्राउन युवा थे, अंतरिक्ष यात्रा कई हास्य पुस्तक लेखकों और फिल्म निर्माताओं का पसंदीदा विषय था। जब वह तेरह वर्ष का था, ब्राउन के माता-पिता उसके लिए एक दूरबीन लाए। जब से उन्होंने हरमन ओबर्थ की किताब, रॉकेट इन इंटरप्लेनेटरी स्पेस को पढ़ा, तब से उनमे इसकी दिलचस्पी जागी। 1920 के दशक में बर्लिन शहर में रॉकेट साइंस और अंतरिक्ष यात्रा को लेकर काफी उत्सुकता थी। सभी के पास अंतरिक्ष यान की तस्वीरें थीं। कई अन्य बच्चों की तरह युवा ब्राउन में अंतरिक्ष यात्रा का रोमांच पैदा हुआ, शोध करने और अधिक जानने की इच्छा। वह इस कल्पना को हकीकत में बदलना चाहते थे।

उन 16 साल के थे जब मैक्स वैलियर ने बर्लिन में अपनी क्रांतिकारी रॉकेट-कार का अनावरण किया। रॉकेट कार ईंधन के धमाके के साथ 230 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ी। 18 साल की उम्र में उन्होंने बर्लिन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एरोनॉटिकल इंजीनियरिंग में प्रवेश लिया। राकेट विज्ञान उस समय एक नया और बहुत ही जटिल विषय था। ब्राउन कुछ बड़ा करना चाहता था। अपने खाली समय में, वह एमेच्योर जर्मन सोसाइटी फॉर स्पेस ट्रैवल नामक एक छोटे से संगठन में शामिल हो गए। यह विज्ञान कथा लेखकों और कुछ शौकिया विज्ञान प्रेमियों का एक समूह था जो शराब का उपयोग करके छोटे और बड़े प्रयोग करते थे। ब्राउन और उसके साथियों ने सैन्य हथियारों का इस्तेमाल करते हुए एक बहुत ही कच्चा रॉकेट बनाया। उसने इतने रॉकेट बनाए लेकिन उनमें से कोई भी उड़ नहीं पाया। हालांकि विभिन्न मिश्रणों का उपयोग किया गया था, पर वो उड़ने से पहले ही ढेर हो जाते.

लेकिन इस असफलता ने उन्हें मूलभुत बातें सीखने में मदद की। वॉन ब्राउन और उनके शौकिया दोस्त के लिए सबसे बड़ी चुनौती रॉकेट को ध्वस्त हुए बिना जमीन से गुरुत्वाकर्षण की विपरीत दिशा में उड़ना था। कभी-कभी रॉकेट थोड़ा ऊंचा उड़ता था, लेकिन जब यह दुर्घटनाग्रस्त हो जाता था, तो इन लोगों को नुकसान के कारण छिप जाना पड़ता था। ब्राउन ने यह धारणा बनाई कि इस समूह के अधिकांश लोग बेरोजगार थे, उनमें से कुछ को तकनीकी ज्ञान था। वे इस इंतजार मे रहते कि कोई उन्हें आर्थिक मदद दे। 1932 के वसंत में, रॉकेट सोसाइटी ने लॉन्च के लिए अपना नया रॉकेट, मिराक 2 बनाया। भीड़ में रॉकेट साइंस में दिलचस्पी रखने वाले जर्मन सैन्य अधिकारी कैप्टन वाल्टर भी थे। जो ऐसे शौकिया विज्ञान समूहों से नई प्रतिभाओं की तलाश में रहते थे। जब बंदूकें लगीं और उनकी सीमाओं का एहसास हुआ, तो सेना का ध्यान अधिक घातक मिसाइलों और लंबी दूरी की मिसाइलों और रॉकेटों पर था।

प्रथम विश्व युद्ध में, जर्मनी ने अपनी 700 टन की सुपर गन बनाई। लेकिन सभी जानते थे कि अगर रॉकेट का इस्तेमाल किया जाए तो बम समुद्र के उस पार के देशों में भी गिराए जा सकते हैं। बहुत तेजी से हमला करने की अपनी अनूठी क्षमता के कारण सेना को रॉकेट चाहिए थे। इसका एक और फायदा यह था कि यह अजेय था क्योंकि रॉकेट हमले का पता लगाने का कोई तकनीकी ज्ञान नहीं था। दुनिया भर की तमाम सैन्य ताकतों की नजर रॉकेट साइंस के विकास पर थी।

कुछ रॉकेटों के प्रयोग से प्रभावित होकर, जर्मन अधिकारी ने 20 वर्षीय वर्नर वॉन ब्रौन की नज़र पकड़ी। उन्होंने उन्हें सैन्य आयुध अनुसंधान विभाग में नौकरी की पेशकश की। वॉन ब्राउन सहमत हुए। वह जानता था कि रॉकेट बनाना बहुत महंगा काम है और इससे किसी भी व्यवसाय को तुरंत फायदा नहीं होगा। ब्राउन के पास अब जर्मन सरकार का बहुत सारा पैसा था। वह अब रॉकेट साइंस में दिलचस्पी रखने वालों में नहीं, बल्कि नाजी खाकी वर्दी में कर्मचारियों के बीच था। वह लोगों को नष्ट करने के लिए एक हथियार बनाना चाहता था। सेना ने उसे एक सहायक, पैसा, स्थान, कार्यालय, सब कुछ प्रदान किया। अंतरिक्ष यान के लिए अनुसंधान अब लंबी दूरी की मिसाइलों तक बढ़ा दिया गया है। हिटलर जर्मनी का चांसलर बन गया और दुनिया को उखाड़ फेंकना चाहता था। हिटलर ने जर्मन सैनिकों पर भारी खर्च करना शुरू कर दिया। उस समय जर्मनी ब्रिटेन से चार गुना अधिक विज्ञान का उत्पादन कर रहा था। विज्ञान के उत्पादन और अनुसंधान पर भारी मात्रा में धन खर्च किया जा रहा था।

केवल 22 वर्ष की आयु में ही वॉन ब्राउन एक महत्वपूर्ण सैन्य वैज्ञानिक बन गए। उन्होंने बर्लिन के बाहर कॉमर्सडॉर्फ रेंज में प्रयोगों के लिए एक बड़ा स्थान पाया। वहां उन्होंने कुशलता से कई रॉकेट बनाए। साइट बर्लिन के पास स्थित थी, इसलिए परीक्षण के दौरान कई रॉकेटों को नष्ट किया जाना था। तकनीकी प्रशिक्षक बनने के साथ ही उनका महत्व बढ़ गया था। उनके अनुरोध पर, बाल्टिक तट के पास, पिनेमुंडे को 25 वर्ग किलोमीटर जगह दी गई थी। ये छोटे-छोटे गाँव अब औद्योगिक कॉलोनियों में बदलने लगे। सैकड़ों गणितज्ञों, रसायनज्ञों, भौतिकविदों और इंजीनियरों के लिए हवाई अड्डे और सरकारी घर यहाँ बनाए गए थे। कुछ वर्षों के भीतर, पिनेमुंडे गांव जर्मन सैन्य हथियारों के विकास का केंद्र बन गया। अरबों रूपये बहा दिये गए। रॉकेट्स नाजी तकनीकी शक्ति की आन बनने वाले थे। ब्राउन का रॉकेट डिजाइन 1929 की फिल्म वूमन ऑन द मून में दिखाए गए जैसा ही था। उस पर फिल्म का लोगो भी था। लेकिन रॉकेट जमीन पर या कम ऊंचाई पर तक ही पहुँच पता.

नवंबर 1937 में, ब्राउन नाजी पार्टी के पूर्ण सदस्य बन गया। उसके पास नाजी सरकार और सेना के लोगों द्वारा यहूदी लोगों से लूटा गया ढेर सारा धन था। 1934 में, युद्ध की बढती संभावनाओं के साथ, जर्मनी को महाशक्ति बनाने के लिए उस पर दबाव बढ़ने लगा। हिटलर ने पिनमंडे का दौरा किया और बहुत खुश हुआ। लेकिन ब्राउन का रॉकेट हिटलर को प्रदर्शन करते हुए अंतरिक्ष में दुर्घटनाग्रस्त हो गया। हिटलर ने गुस्से में फंडिंग काट दी और टैंक, बंदूकें, गोला-बारूद पर खर्च बढ़ाने का आदेश दिया। हिटलर को रॉकेट की कीमत काफी महंगी लगी। ब्राउन को लगा जैसे उसका सपना सच हो गया हो। उन्होंने एसएस प्रमुख हेनरिक हिमलर से संपर्क किया। हिमलर युद्ध जीतने के लिए रॉकेट की शक्ति में विश्वास करते थे। वह जानता था कि अगर वह सफल हुआ तो हिमलर और अधिक शक्तिशाली हो जाएगा। ब्राउन का समर्थन करने के बदले में उन्होंने एसएसएस का अधिकारी बनने की पेशकश की। तब तक एसएस हजारों यहूदियों की हत्या के लिए बदनाम हो चुका था। युद्ध की शुरुआत में, एसएस ने पोलैंड में 65,000 निर्दोष यहूदियों को मार डाला। जर्मनी में, उन्होंने यहूदी महिलाओं, पुरुषों और बच्चों को दैनिक आधार पर मार डाला। एसएस नाजी पार्टी का दमन, आतंक और नरसंहार का हथियार था। 1940 में जब ब्राउन दूसरे लेफ्टिनेंट के रूप में एसएस में शामिल हुए, तो उन्हें इस बात का पूरा अंदाजा था कि वह संगठन और उसकी महाशक्ति क्या है। ब्राउन को यकीन था कि एसएस का मतलब बहुत सारा पैसा और अनंत शक्ति है। हिमलर के संपर्कों और एक वरिष्ठ एसएस अधिकारी बनने के साथ, ब्राउन को वह मिलना शुरू हो गया जो वह चाहता था। ब्राउन की पहली चुनौती थी इंजन को पावर देना ताकि रॉकेट साढ़े तीन किलोमीटर की रेंज तक पहुंच सके। कम समय में सैकड़ों टन विस्फोटकों को फिर से भरना पड़ा। उन्होंने अमेरिकी रॉकेट वैज्ञानिक रॉबर्ट गोडार्ड के तरल ईंधन भरने वाले बंधनों का इस्तेमाल किया। वह तरल ऑक्सीजन और अल्कोहल के संयोजन के साथ एक उच्च-ऊर्जा इंजन बनाने में सफल रहा। यह इंजन रॉकेट साइंस का अगला खाका बनने वाला था। इसके बाद कई दशकों तक इस डिजाइन का इस्तेमाल किया गया। हालांकि रॉकेट ने हवा में ऊंची छलांग लगाई, लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा था कि हवा में अपनी दिशा को कैसे नियंत्रित किया जाए। उन्हें इस नई चुनौती का अंदाजा नहीं था। आज यह इतना आसान नहीं था क्योंकि उस समय तक कंप्यूटर का विकास नहीं हुआ था। उन्होंने उसी अमेरिकी वैज्ञानिक की तरकीब से जाइरोस्कोप की मदद से इसे फिर से स्थिर कर दिया। गोडार्ड के पास विचार थे लेकिन ब्राउन के पास असीमित धन और सैनिक थे। कई प्रयोगों के बाद, मॉडल सफल हुआ।

3 अक्टूबर 1942 को ब्राउन की टीम ने अपने A4 रॉकेट का परीक्षण किया। रॉकेट बिना विस्फोट के ऊंची उड़ान भरी। रॉकेट ने आसमान में 80 किलोमीटर से अधिक की उड़ान भरी। इतनी ऊंचाई तक पहुंचने वाला यह पहला मानव निर्मित उपकरण था। ब्राउन ने घोषणा की कि वह एक रॉकेट के माध्यम से अंतरिक्ष में प्रवेश करेगा। लेकिन सभी जानते थे कि अंतरिक्ष यान भेजने वाला रॉकेट सिर्फ रॉकेट नहीं, बल्कि विस्फोटक भेजने वाली युद्ध मशीन थी। इस खबर ने हिमलर को उत्साहित कर दिया। उसने हिटलर को रोमांचक खबर सुनाई। जर्मनी रूस के साथ एक साल से अधिक समय से युद्ध में था। हिटलर को ऐसे चमत्कारी हथियार की जरूरत थी। उन्होंने जल्द से जल्द 12,000 रॉकेट बनाने का आदेश दिया। ब्राउन के रॉकेट का नाम बदलकर V-2 कर दिया गया। वी शब्द वेंज का पहला अक्षर था। जब अंग्रेजों को पता चला, तो उनके पसीने छूट गए। खतरे को भांपते हुए, उन्होंने तुरंत जर्मन बेस को नष्ट करने का फैसला किया। 17 अगस्त 1943 को, ब्रिटिश रॉयल एयर फोर्स ने पिनमंडे में जर्मन शस्त्रागार पर हवाई हमले शुरू करने के लिए ‘ऑपरेशन हाइड्रा’ शुरू किया। आधी रात को 1,800 टन बम पिनेमुंडे पर गिराए गए, जिससे उस सामरिक केंद्र को नुकसान हुआ। स्वच्छ वातावरण की कमी के कारण केंद्र को ज्यादा नुकसान नहीं हुआ, लेकिन चूंकि वहां रहना और महत्वपूर्ण हथियार रखना खतरनाक था इसलिए इस पूरे केंद्र को स्थानांतरित करना पड़ा। इससे रॉकेट उत्पादन में और सात सप्ताह की देरी हुई। ब्राउन के नए रॉकेट का केंद्रबिंदु हार्ज़ पर्वत में भूमिगत रखा गया था ताकि इसे देखा न जा सके और गुप्त रखा जा सके। इन कारखानों को ‘मिटलवर्क’ कहा जाता है। ब्राउन इसके निर्माण के लिए जिम्मेदार था।

हजारों रॉकेट, स्पेयर पार्ट्स और कारखाने के हिस्सों को ले जाने के लिए एक बड़ी सुरंग बनाई गई थी। यह एक बहुत बड़ा निर्माण था और इस निर्माण की कहानी अमानवीय और चौंकाने वाली है। इन पर्वत श्रृंखलाओं में मिट्टलबाऊ-डोरा कॉन्सनट्रेशन कॅम्प स्थापित किया गया था। यह अत्याचार शिविर ब्राउन के कारखाने को निर्बाध श्रम की आपूर्ति के लिए बनाया गया था। एसएस अधिकारी ब्राउन के पास हजारों यहूदी कैदियों के लिए मुफ्त मानव श्रम उपलब्ध था। इस नरक में, कई यहूदी कैदियों को तब तक काम करने के लिए मजबूर किया गया जब तक कि वे भोजन, नींद या स्वच्छता के बिना मर नहीं गए। नाजियों को उम्मीद थी कि वे केवल कुछ ही सप्ताह जियेंगे और कड़ी मेहनत करेंगे। जब उनकी मृत्यु हुई, तो उनका शरीर उनके द्वारा बनाई जा रही सुरंग के नीचे दबा दिया जाता। ब्राउन और उनके साथ आए सभी रॉकेट वैज्ञानिक इन गुलामों और स्थिति से पूरी तरह वाकिफ थे। वह उस सरकार का हिस्सा था जिसने उन यहूदी दासों को मार डाला और उन्हें गुलाम बना लिया। उसने परवाह नहीं की। ब्राउन की महत्वाकांक्षाओं और हिटलर के विश्व नेता बनने के सपने को पूरा करने के लिए कई यहूदी बंदियों को बेरहमी से प्रताड़ित किया गया।

लेकिन 1944 में, जब रूसी लाल सेना ने जर्मनी के दक्षिण से एक निर्णायक हमला किया, तो स्थिति हाथ से निकलने लगी। रूसी सैनिकों ने पोलैंड में घुसपैठ की और अमेरिकी और ब्रिटिश सेना ने इटली के रास्ते उत्तर से हमले शुरू किए। रूस बर्लिन की ओर बढ़ रहा था। दूसरी ओर सितंबर 1944 तक ब्राउन का सपना एक सुपरपावर रॉकेट बनाने का था। पहला रॉकेट नीदरलैंड से लंदन की ओर दागा गया और पश्चिम लंदन में स्टैवली रोड पर उतरा। इससे भले ही कुछ लोगों को नुकसान पहुंचा और इमारतों को नष्ट कर दिया गया लेकिन ब्रिटेन का हौसला पस्त करने और हिटलर को खुश करने के लिए इतना काफी था। अब लंदन विनाश के साये में था। ब्राउन ने नरसंहार के एक नए हथियार का आविष्कार करके इतिहास रच दिया। यह अग्नेयास्त्र कुपोषित और मरणासन्न कैदियों द्वारा निर्मित था। जो तकनीकी तौर पर अकुशल थे। इसके कई दोषों को दूर करने के लिए कई परीक्षणों और समय की आवश्यकता थी। अधिकांश V2 मिसाइल लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाई या बहुत कम नुकसान किया। 6000 V2 मिसाइलों ने केवल 5000 ब्रिटिश नागरिकों की हत्या की. इसकी तुलना में पारंपरिक हथियार सस्ते और अधिक प्रभावी थे। इस शास्त्र को बनाने में कई गुना अधिक यहूदी मारे गए। ब्राउन के रॉकेट मिशन पर जर्मनी ने अरबों खर्च हुए। उस समय यदि इतना धन टैंकों, बमों और अन्य हथियारों पर खर्च किया जाता, तो बर्लिन में घुसने वाले बलों को और अधिक संघर्ष करना पड़ता।

1945 के वसंत में, लाल सेना पिनेमुंडे से केवल ढाई सौ किलोमीटर दूर थी। जैसे ही सेना पास आई, सभी को हथियार उठाने और लड़ने के लिए कहा गया। ब्राउन को इसकी उम्मीद नहीं थी। उन्होंने एक और फैसला किया। चूंकि उनकी कोई पत्नी या बच्चे नहीं थे, इसलिए उनके लिए यह अपेक्षाकृत आसान था। जैसे ही ब्राउन और अन्य रॉकेट वैज्ञानिक कार से भागे, उन्होंने एक तबाह जर्मनी को देखा और आश्वस्त हो गए कि सब कुछ बदल गया है। जब उसकी कार पहाड़ों से भागते समय दुर्घटनाग्रस्त हो गई, उनका हाथ फ्रैक्चर हो गया। लेकिन फिर भी वह ऑस्ट्रियाई सीमा के पास लक्ज़री अल्पाइन रिज़ॉर्ट नामक एक होटल में रुका। रॉकेटमैन अपने महत्व को जानता था। वह जानता था कि अमेरिकी उसे ढूंढ रहे हैं। उनके पास शोध दस्तावेजों से जुड़े कई टन बक्से थे। उनकी योजना आत्मसमर्पण से बचने के बदले प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण पर बातचीत करने की थी। ये लोग व्यावहारिक दुनिया के सयानों में थे।

11 अप्रैल 1945 को अमेरिकी सेना ने डोरा कैंप पर कब्जा कर लिया। इस शिविर की स्थिति मानवता के लिए भयानक थी। हर तरफ लाशें थीं। हजारों मरते हुए कुपोषित और बीमार यहूदी लाशों के सड़ते ढेर में बच गए। पास ही में, ब्राउन के अनुसंधान केंद्र में ट्रेनों में V2 और विभिन्न चरणों में इसके विशाल स्पेयर पार्ट्स थे। अमेरिकी अधिकारी उस तकनीक को देख रहे थे जो जर्मनी में थी और संयुक्त राज्य अमेरिका से मीलों आगे थी। अमेरिकी सेना की खुफिया और विशेष इकाई को टी-फोर्स कहा जाता था। उन्होंने जर्मन वैज्ञानिकों की खोज शुरू की। उनकी सूची में डॉ. वार्नर वॉन ब्राउन शीर्ष पर थे। वर्नर ब्राउन का अमेरिकी लोगों के प्रति आकर्षण स्वाभाविक था। वह उस समय के सबसे प्रसिद्ध रॉकेट वैज्ञानिक थे। वर्नर के सोवियत संघ की कम्युनिस्ट रेड आर्मी के हाथों में पड़ने से पहले वे इसे चाहते थे। चूंकि सोवियत सेना ने ब्रिटिश और अमेरिकी सेनाओं की तुलना में जर्मनी में गहराई से प्रवेश किया, इसलिए अधिक से अधिक जर्मन वैज्ञानिकों और तकनीशियनों की तलाश करने की आवश्यकता थी।

इस बात का कोई संकेत नहीं था कि ब्राउन एक युद्ध अपराधी था जब उसे अमेरिकी सेना ने पकड़ लिया था। वह मुस्कुरा रहा था और सिगरेट पी रहा था। अमेरिकी सैन्य अधिकारी भी खुश थे कि दोनों एक-दूसरे के साथ अच्छा व्यवहार कर रहे हैं। वरिष्ठ खुफिया अधिकारी बातचीत कर रहे थे। यह तय किया गया था कि वार्नर अमेरिका को V2 तकनीक की आपूर्ति करेगा और बदले में अमेरिका उसे शरण, सुरक्षा देगा और उसके डोरा शिविर में आतंकवादी अपराधों की अनदेखी करेगा। वे नैतिकता के बारे में कोई सवाल नहीं पूछेंगे। वे एक भूरा सिर चाहते थे, आदमी नहीं। इस बात का कोई सबूत नहीं है कि मित्तलवर्क डोरा कैंप में उनकी भूमिका की जांच की गई थी। इससे जुड़े दस्तावेजों को दबा दिया गया। 20 सितंबर, 1945 को नाजी सेना के शीर्ष रॉकेट वैज्ञानिक वार्नर वॉन ब्राउन को उनकी टीम के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका ले जाया गया। वे न्यू मैक्सिको के रेगिस्तान में एक सैन्य अड्डे पर गुप्त रूप से तैनात थे। V2 के पुर्जे जर्मनी से लाए गए थे और इस पर काम शुरू हो गया था। जनरल इलेक्ट्रिक इंजीनियर अमेरिकी सेना के लिए दक्षिणपूर्वी मिसाइल विकसित कर रहे थे। वार्नर ने अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई क्योंकि उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका को प्रौद्योगिकी प्रदान की।

लेकिन ब्राउन और उनके सहयोगियों की खूनी और कुख्यात नाजी पृष्ठभूमि में बहुतों को दिलचस्पी नहीं थी। एलेनोर रूजवेल्ट और महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने नाजी भागीदारी की कड़ी निंदा की। अमेरिकी वैज्ञानिक समुदाय ने भी इस कदम का विरोध किया। लेकिन अमेरिकी अधिकारियों और कई वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को नैतिकता, युद्ध अपराध और हत्या के मुद्दे से निपटने की अनुमति नहीं थी। उन्होंने इसे एक अवसर के रूप में देखा। अमेरिकी सेना की राय थी कि उनके पास अपनी सेना को मजबूत करने का कोई दूसरा रास्ता नहीं था। उनके अनुसार, कम्युनिस्टों के पास कुछ ऐसे नाज़ी वैज्ञानिक भी हैं और उनका अपना रॉकेट प्रोजेक्ट भी है। उनके विचार में, कम्युनिस्टों का उदय अमेरिकी स्वतंत्रता और लोकतंत्र के लिए खतरा होगा। यह शीत युद्ध की शुरुआत थी। वॉन ब्राउन को हंट्सविले, अलबामा भेजा गया, जहां उन्होंने रेडस्टोन रॉकेट्स पर काम करना जारी रखा। यह पहली बैलिस्टिक मिसाइल थी जो परमाणु बम ले जाने में सक्षम थी। ब्राउन मिसाइल विकास कार्य के निदेशक बने। हिटलर के प्रमुख रॉकेट वैज्ञानिक अब अमेरिका के प्रमुख रॉकेट वैज्ञानिक बन गए थे।

ब्राउन ने शादी कर ली और अपने 3 बच्चों के साथ रहने लगी। वह चर्च जाते थे और सार्वजनिक उद्घोषणाओं और भाषणों में धार्मिक उद्धरणों का इस्तेमाल करते थे। 1955 में उन्हें अमेरिकी नागरिकता प्रदान की गई। वह एक अमेरिकी नायक थे। संयुक्त राज्य अमेरिका ने नस्लीय घृणा के बजाय वैज्ञानिक अनुसंधान में वार्नर को शामिल किया। संयुक्त राज्य अमेरिका में, अंतरिक्ष यान निर्माण कार्यक्रम पूरे जोरों पर हैं। वॉर्नर का अंतरिक्ष यान बनाने का बचपन का सपना नई उम्मीद के साथ फिर से जीवंत हो गया। लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका के पास जर्मनी जितनी सुरक्षा, लागत और मानव श्रम नहीं था। उन्हें मानव जीवन की सुरक्षा को महत्व देना था।

अमेरिका उस समय रूस से आगे निकलना चाहता था। 1957 में, सोवियत संघ ने दुनिया का पहला कृत्रिम उपग्रह, स्पुतनिक लॉन्च किया। अमेरिकी लोगों के मन में उनके मन में यह भाव था कि वे दुनिया में सर्वश्रेष्ठ हैं। कृत्रिम उपग्रह स्पुतनिक ने उस भावना को चकनाचूर कर दिया। तथ्य यह है कि स्पुतनिक संयुक्त राज्य अमेरिका से अंतरिक्ष में दिखाई दिया, इसने अमेरिकी नागरिकों के बीच यह भावना पैदा की कि रूस इसी तरह पृथ्वी की कक्षा से एक परमाणु बम गिरा सकता है। स्पुतनिक ने अमेरिका में तहलका मचा दिया। इसने एक ऐसा माहौल तैयार किया जिसमें लोगों की भावना थी कि संयुक्त राज्य अमेरिका को कड़ी प्रतिक्रिया देनी चाहिए। नतीजतन, ब्राउन और उसके सहयोगियों में अमेरिकियों का विश्वास बढ़ गया। स्पुतनिक के चार महीने बाद, ब्राउन ने जूनो -1 को अंतरिक्ष में लॉन्च किया। यह पृथ्वी की कक्षा में प्रक्षेपित होने वाला पहला कृत्रिम उपग्रह था। लॉन्च के मौके पर ब्राउन खुद मौजूद थे। लेकिन अमेरिकी अंतरिक्ष कार्यक्रम परिष्कृत होने के बावजूद सोवियत संघ से पीछे था।

शीतयुद्ध उस समय तेज हो गया था जब सोवियत उस समय अंतरिक्ष की दौड़ में थे। 12 अप्रैल, 1961 को, पश्चिमी अहंकार को कड़ी चोट लगी जब सोवियत संघ ने यूरी गगारिन को दुनिया के पहले व्यक्ति के रूप में अंतरिक्ष में भेजा। इसे एक प्रमुख साम्यवाद की जीत।के रूप में मनाया गया. अमेरिकी अधिकारियों पर बहुत दबाव था, जो पूंजीवाद के शीर्ष पैरोकार हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने अपनी लोकप्रियता को बनाए रखने के लिए अत्यधिक दबाव में, मनुष्य को चंद्रमा पर ले जाने और उसे अमेरिकी लोगों के पास वापस लाने का फैसला किया। वार्नर ब्राउन अब अमेरिकी राष्ट्रपति के करीबी सहयोगी बन गए हैं। उन्हें फिर से बड़ी मात्रा में असीमित धन और संसाधन प्राप्त होने लगे। ब्राउन के लिए अपने दम पर इस सपने को पूरा करने का यह एक अभूतपूर्व अवसर था। मुद्दा अंतरिक्ष में रॉकेट लॉन्च तक सीमित नहीं था। वह दूसरी दुनिया में लौटने वाला था। द्वितीय विश्व युद्ध का नाजी युद्ध अपराधी अब अमेरिकी आशा और सेलिब्रिटी बन गया। वह महत्वाकांक्षी ‘मैन ऑन द मून परियोजना’ के प्रमुख व्यक्तियों में से एक थे।

वॉन ब्राउन के नेतृत्व में सैटर्न वी, नासा की सुपर हैवी-लिफ्ट लॉन्च मिसाइल थी, जिसे 1967 और 1973 के बीच निर्मित किया गया था। उनमें मनुष्यों को ले जाने की क्षमता थी। इसमें तीन चरण होते हैं, प्रत्येक तरल को एक प्रणोदक द्वारा ईंधन दिया जाता है। इसे मनुष्यों को चंद्रमा पर भेजने के लिए अपोलो कार्यक्रम का समर्थन करने के लिए विकसित किया गया था, और बाद में इसका उपयोग पहले अमेरिकी अंतरिक्ष केंद्र, स्काईलैब को लॉन्च करने के लिए किया गया था। ‘सैटर्न V’ को बिना किसी के हताहत हुए बिना कैनेडी स्पेस सेंटर से 13 बार लॉन्च किया गया था। 2021 तक, सैटर्न V अब तक का सबसे लंबा, सबसे भारी और सबसे शक्तिशाली रॉकेट रहा है। माल, यात्री, फ्लाइट क्रू, हथियार, वैज्ञानिक उपकरण या प्रयोग, या अन्य उपकरणों से लैस होकर पृथ्वी की निचली कक्षा (LEO) में 140,000 किलोग्राम पेलोड के साथ क्रियाशील रहने की क्षमता रखने वाला यह क्षेपणास्त्र है। मिशन के तीसरे चरण में, संयुक्त राज्य अमेरिका अपोलो अंतरिक्ष यान को चंद्रमा पर भेजने में सफल रहा। सैटर्न V को 16 जुलाई 1969 को डॉ वार्नर वॉन ब्राउन द्वारा लॉन्च किया गया था। यह अब तक का सबसे शक्तिशाली रॉकेट था। इसने नील आर्मस्ट्रांग, बज़ एल्ड्रिन और माइकल कॉलिन को चाँद पर पहुँचाया।

यह ब्राउन के करियर का सबसे ऊँचा दौर था। यह मानव इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। वॉन ब्राउन को विज्ञान के लिए राष्ट्रीय पदक से सम्मानित किया गया। अलबामा विश्वविद्यालय में एक शोध केंद्र का नाम उनके नाम पर रखा गया था। चंद्रमा पर एक गड्ढे (क्रेटर) का नाम ब्राउन भी रखा गया था। 65 वर्ष की आयु में पित्ताशय की थैली के कैंसर से उनकी मृत्यु हो गई और अमेरिका में एक नायक के रूप में अमर हो गए। कहीं यह उल्लेख नहीं किया गया कि वह एक वरिष्ठ क्रूर एसएस अधिकारी थे। उनके काम के लिए उत्पीड़न शिविर का उल्लेख अमेरिकी स्तुतिगीतों से गायब हो गया है। उनके एसएस प्रमुख के रूप में, उनके पास एक उत्पीड़न शिविर चलाने और यहूदियों को मारने की नैतिक जिम्मेदारी थी। हाथ खून से सने थे, लेकिन ब्राउन ने कभी चालाकी का जिक्र नहीं किया। उस पर मुकदमा नहीं चलाया गया। उन्होंने नाजी अत्याचारों का दर्द कभी महसूस नहीं किया। उन्होंने दुनिया से कभी माफी नहीं मांगी। इतिहास में शायद बहुत कम लोग हैं जिन्हें डॉ. ब्राउन की तरह अवसर और क्षमा प्राप्त हुई है। कई कुकर्मों के बावजूद, उन्होंने नेतृत्व की ऊँचाइयाँ प्राप्त की।

  • कल्पना पांडे

भविष्य चयन में मिल रही अब बच्चों को स्वतंत्रता, बदल रही माँ-बाप की सोच

कोरोना महामारी ने आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था के साथ-साथ शिक्षा व्यवस्था को भी त्रस्त कर रखा है | पिछले सत्र से ही छात्रों की शिक्षा-दीक्षा की प्रक्रिया सुचारू रूप से संचालित नही हो पा रही है | इस बीच एक बार फिर नए अकादमिक सत्र की शुरुआत होने जा रही है, वही १२वी के परिणाम बिना एक्जाम के ही निरंतर मूल्यांकन के आधार पर घोषित होने हैं | ऐसे में सवाल यह उठता है कि ऐसे माहौल में बच्चा किस कोर्स का चयन करे? किस कॉलेज या विश्विद्यालय में दाखिला ले और बिन पढाई या मौजूदा दौर में चल रही पठन-पाठन की प्रक्रिया से बच्चों का भविष्य कितना संरक्षित होगा?
इससे इतर सामान्य अवस्था में भी छात्रों व माता-पिता / गार्जियन के जहन में एक बड़ा सवाल होता है कि १२वी के बाद क्या करना है ? सामान्य तौर पर अधिकतर मध्यमवर्गीय परिवार में माता-पिता अपने सपनों और अपने आर्थिक स्थिति के अनुरूप बच्चों को किसी निश्चित कोर्स में दाखिला लेने को बोलते हैं या फिर सामान्य बीए डिग्री कराते हुए सरकारी नौकरी हेतु प्रतियोगिता की तैयारी का सलाह देते हैं | वहीं दूसरी तरफ देखने को मिलता है कि उच्च वर्ग में बच्चे पहले से निर्धारित कर रखे होते हैं कि उन्हें आगे क्या करना है या फिर माता- पिता पहले से उनको उस माहौल में जोड़ चुके होते हैं, जिस प्रोफेशन में वे खुद हैं, उन्हें पढाई के बाद क्या करना है वह बना बनाया प्लेटफोर्म या तो उनके समक्ष परोस दिया जाता है या तो उन्हें आगे क्या करना इसकी कोई परवाह ही नही होती | इसके बाद निम्न वर्ग के बात करें तो अधिकतर लोग जीवन यापन व रोजी- रोटी से इतर उच्च शिक्षा को बहुत महत्ता नहीं दे पाते हैं | हाँ कुछ ख़ास कर्मठ छात्र जरुर आगे पढाई जारी रखने की हिम्मत जुटाते हुए आगे बढ़ते हैं, सघर्ष करते हैं लेकिन प्रायः प्रोफेशनल कोर्स उनकी प्राथमिकता की सूची में नहीं होती है |
हालांकि पिछले कुछ सालों में कोर्स या भविष्य के चयन को लेकर माता-पिता / गार्जियन की सोच में भी बदलाव हुआ है, अब अधिकतर माता-पिता अपने बच्चों के भविष्य को लेकर पहले से रिजिड (कठोर या अपना निर्णय थोपने ) होने के बजाय बच्चों की रूचि और संभावनाओं पर विचार करने लगे हैं, या फिर बच्चों की राय जानने की कोशिश कर रहे हैं | अब अधिकतर माता-पिता बच्चों की पढाई व कोर्स के चयन में अपनी आर्थिक स्थिति को भी रोड़ा नही बनने दे रहे हैं, वे एजुकेशन लोन की तरफ बढ़ रहे हैं | ऐसे में बच्चों को अपने करियर के चयन में स्वतंत्रता मिल रही है | वहीं अधिकतर ग्रामीण इलाकों से सम्बंधित ज्यादा-पढ़े लिखे न होने के कारण भी बच्चों के पसंद का कोर्स कराने को राजी हो जाते हैं | हाँ, अभी भी इसको लेकर कुछ कुछ गार्जियंस के अन्दर जागरूकता नही है, वे अब भी अपनी पसंद के कोर्स बच्चो के ऊपर थोप रहे हैं, लेकिन काफी हद तक इसमें परिवर्तन आया है |
दरअसल, आम समाज में शुरुआत से ही लोगों के जहन में उत्तम शिक्षा व समाज की एक धारणा और सफलता का एक निश्चित मानक तैयार कर दिया है कि बच्चे को किस निश्चित उम्र में क्या –क्या करना है, पढ़ना है और कौन सी नौकरी मिलने के बाद बच्चा ज्यादा सफल माना जाएगा | जैसे कि यदि बच्चा १२वी साइंस/ गणित से है तो बच्चे को इंजनियरिंग में प्रवेश लेना चाहिए, यदि कामर्स से है तो बैंकिग ही परफेक्ट है, बायो से है तो फिर मेडिकल / नर्सिंग में प्रवेश ले लो, बाकी बचे तो बीए के साथ साथ सरकारी प्रतियोगिता की तैयारी करना शुरू कर दो .. आदि आदि | वहीं पचास प्रतिशत माँ-बाप की पहली पसंद होती है कि बेटा/ बेटी (अधिकतर केस में बेटा) इंजिनियर बने, फिर डॉक्टर उसके बाद बचे तो बैंकिंग सेक्टर नही तो समाज में सफलता का स्तर गिर जाता है | भले ही बच्चा बीस हजार रूपये की नौकरी कर रहा हो लेकिन आम समाज में इंजीनयर और डॉक्टर का टैग ही सफलता का मानक बन चुका है | हाँ, सरकारी नौकरी मिल जाय तो सारे पाप धुले जा सकते हैं, चाहे आपको क्लर्क की ही नौकरी क्यों न मिल जाय | आप का सामाजिक शान ओ शौकत और दुल्हे के रूप में भाव बढ़ जाता है |
सही मायने में आज इससे इतर हुनर आधारित कोर्सेज का चयन करने की जरूरत है, जिससे आप अपने सफलता की सीढ़ी खुद चढ़ सके | साथ ही यह ध्यान रखने की जरूरत है कि आने वाले समय में किस क्षेत्र में नौकरी की संभावनाएं हैं | १२वी के बाद आप जिस किसी कोर्स का भी चयन करते हैं, उसके आधार पर ही आप अपने भविष्य निर्माण की नींव रखते हैं , चाहे उच्च शिक्षा में आगे बढ़ने की बात हो या भविष्य में नौकरी की | ऐसे में सबसे महत्वपूर्ण होता है निर्णय लेने में माता-पिता और बच्चे के बीच वार्तालाप और सामंजस्य | इस दौरान माता-पिता और बच्चों दोनों को अपने अपने स्तर पर कुछ ख़ास बिन्दुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता होती है |

  • बच्चे की रूचि किस क्षेत्र में है?
  • बच्चा जिस क्षेत्र में रूचि रख रहा है, उसके कुछ गुण बच्चे में वास्तविक रूप से है या नही ?
  • बच्चे के रूचि के क्षेत्र से सम्बंधित कौन-कौन से पाठ्यक्रम (कोर्सेज) हैं?
  • बच्चा जिस कोर्स में प्रवेश लेना चाह रहा / या आप दिलाना चाह रहे, उस क्षेत्र के मौजूदा हालात अभी क्या हैं?
  • बच्चा जब तक कोर्स कम्प्लीट करेगा, तब तक उसमें भविष्य की संभावनाए कितनी होंगी?
  • आने वाले समय में किस कोर्स की डिमांड अधिक है?
  • माता-पिता उस कोर्स को कराने में आने वाले खर्च को उठाने में सक्षम हैं कि नही ?
  • यदि नही, तो अन्य क्या-क्या श्रोत हैं? जो सुचारू रूप से उपयोग में आए, बच्चे की पढाई बाधित न हो | ऐसे तमाम बिंदु हैं जिसपर माता-पिता और बच्चों दोनों को सोचने की आवश्यकता होती है, जिससे सही पाठ्यक्रम (कोर्स) का चयन किया जा सके और पढाई के दौरान किसी तरह की बाधा न उत्पन्न हो | क्योंकि कई बार बच्चा अपने शौक और काबिलियत में फ़र्क नही समझ पाता है और उनके बीच उलझ कर रह जाता है | जरूरी नही कि बच्चे की रूचि संगीत में हो तो वह संगीतकार बनने की काबिलियत भी रखता हो या फिर यदि बच्चे को गेम खेलना अच्छा लगता हो तो वह एक अच्छा सॉफ्टवेयर इंजिनियर/ कोडर बन जाएगा | किसी भी इंसान की रूचि उसके काबिलियत से इतर हो सकती है, इसलिए जिस भी क्षेत्र में बच्चा रूचि दिखा रहा है उसका बच्चे द्वारा स्वमूल्यांकन और माता-पिता द्वारा भी बच्चे के उस क्षेत्र के प्रति गंभीरता को समझना व विचार करना जरूरी हो जाता है |
    इसके बाद दूसरी सबसे बड़ी समस्या या बाधा होती है, आर्थिक स्थिति | माता-पिता / गार्जियंस को यह समझना भी जरूरी होता है कि वह पढाई के दौरान आने वाले तमाम खर्चों को पूरण रूप से उठाने में सक्षम है या नहीं ? क्योंकि पढाई के दौरान केवल फीस ही नही बल्कि उसके साथ बच्चे के रहने-खाने और अन्य दैनिक खर्चे भी होते हैं, जो बाहर रहने के दौरान स्वभाविक हो जाता है | प्रायः आज एजुकेशन लोन लेकर फीस तो भर दिया जाता है लेकिन अप सक्षम नही हैं तो अन्य छोटे-छोटे खर्चे भी कुछ समय बाद भारी पड़ने लगते हैं | इस स्थिति में माता-पिता पैसों के जुगत में तमाम समझौते करने शुरू करते हैं और समस्याएं बढ़ने लगती है या फिर बच्चा समझौता करते हुए एडजस्ट करने की कोशिश तो करता है लेकिन मानसिक अवसाद का धीरे धीरे शिकार होने लगता है | उसका ध्यान पढाई से इतर अब आर्थिक समस्या पर भी दौड़ने लगता है, जिससे पढाई के दौरान ही उसपर एक विशेष प्रकार का दबाव बनना शुरू हो जाता है |
    इसके आलावा १२वी के बाद किसी भी कोर्स का चयन करते समय यह समझना भी जरूरी है कि उस निश्चित क्षेत्र के मौजूदा हालात क्या है? नौकरी की कौन-कौन सी संभावनाए हैं? और भविष्य में इस क्षेत्र में क्या क्या संभावनाए लग रही हैं ? कोइ कोर्स का चयन केवल इसलिए नही कर लेना होता है कि इस कोर्स का नाम आज कल बहुत है, या फिर साथ के बहुत ढेर सारे लोग कर रहे हैं, या फिर हमारा कोइ जानने वाला इस कोर्स को कर के एक अच्छे मुकाम पर है … बल्कि इससे इतर अपनी काबिलियत, मौजूदा हालात और भविष्य की संभावनाओं को ध्यान में रखना चाहिए |
    कई बार ऐसा भी देखा जाता है कि लोग (खाकसार ग्रामीण क्षेत्रों में) बीई, बीटेक, बीएससी, बीए (दो से तीन स्ट्रीम) कुछ गिने चुने कोर्सेज को छोड़कर अन्य प्रोफेशनल कोर्सेज से अनभिज्ञ हैं, जिसके कारण वह भविष्य की अन्य सम्भावनाओं को नही देख पाते हैं | वह कभी कभी सोचते तो हैं कि उन्हें यह बनना है लेकिन उस तक पहुँचने का रास्ता ही नही मालुम होता है | ऐसे में किसी भी छात्र को अपने रूचि व काबिलियत के बाद सबसे पहले अपने विषय (जो १२वी में लिया हो, आर्ट या साइंस) के बाद क्या –क्या कोर्सेज हैं उसे जानना और समझना भी जरूरी हो जाता है |
    आर्ट्स के छात्रों के लिए कोर्सेज-
    BA (History, Sociology, Hindi, Sanskrit….etc)
    BJMC – Bachelor of Journalism and Mass Communication
    BBA- Bachelor of Business Administration
    BMS- Bachelor of Management Science
    BFA- Bachelor of Fine Arts
    BEM- Bachelor of Event Management
    BTTM- Bachelor of Travel and Tourism Management
    Integrated Law Course- BA + LL.BBJMC- Bachelor of Journalism and Mass Communication
    BFD- Bachelor of Fashion Designing
    BSW- Bachelor of Social Work
    BBS- Bachelor of Business Studies
    B.A.- Interior Design
    B.A. Hospitality and Hotel Administration
    Bachelor of Design (B. Design)
    Bachelor of Performing Arts

साइंस के छात्रों के लिए कोर्सेज-
BJMC – Bachelor of Journalism and Mass Communication
B.Sc. – Nutrition & Dietetics
B.Sc- Applied Geology
BA/B.Sc. Liberal Arts
B.Sc.- Physics
B.Sc. Chemistry
B.Sc. Mathematics
B.Sc.- Information Technology
B.Sc- Nursing
BPharma- Bachelor of Pharmacy
B.Sc- Interior Design
BPT- Bachelor of Physiotherapy
BCA- Bachelor of Computer Applications
BE/B.Tech- Bachelor of Technology
B.Arch- Bachelor of Architecture
BDS- Bachelor of Dental Surgery

उपर्युक्त सूची में कुछ बेसिक कोर्सेज के बारे में बताया गया है, जो आर्ट्स और साइंस से १२वी पास छात्र कर सकते हैं, लेकिन इनमें कुछ ऐसे भी कोर्स हैं, जो साइंस और आर्ट्स दोनों के छात्र कर सकते हैं, जैसे कि बीबीए, बीजेएमसी आदि| हालांकि अधिकतर ऐसा होता है कि साइंस के छात्रों के लिए स्नातक स्तर पर के ढेर सारे रास्ते खुल जाते हैं क्योंकि वे आर्ट्स फ़ील्ड के भी कुछ कोर्स का चाहें तो चयन कर सकते हैं लेकिन आर्ट्स के छात्रों के लिए एक निश्चित दायरा होता है, जिसके अंतर्गत ही उन्हें किसी कोर्स का चयन करना पड़ता है | हालांकि एक धारणा यह भी है कि यदि बच्चे ने १२वी में साइंस लिया था तो उसे इंजीनियरिंग, बीसीए आदि जैसे ही कोर्स करना चाहिए, क्योंकिं यदि उसे आर्ट्स फ़ील्ड के कोर्स का ही चयन करना है तो १२वीं में गणित या साइंस लेने का क्या मतलब रह जाएगा | तो ऐसे में यह भी समझना जरूरी है कि जरूरी नही कि बच्चे ने१२वीं में साइंस लिया हो तो वह आगे भी बेहतर कर पाए या वह उसमें अच्छा कर रहा हो | कई बार ऐसा भी होता है कि १२वीं में बच्चा साइंस का चयन तो कर लेता है लेकिन उसमें उसका मन नही लगता या बमुश्किल वह पास हो पाता है, ऐसे में समय रहते स्नातक स्तर पर आपनी गलती सुधार लेनी चाहिए और अपने पसंद के कोर्स का चयन करना चाहिए | हालांकि माँ-बाप और स्कूली स्तर पर ही शिक्षकों को चाहिए कि शुरुआत से ही बच्चों के रूचि और क्षमता के आधार पर ही साइंस या आर्ट की श्रेणी में डालें, न कि उनपर अपना निर्णय थोपें |

अरुण कुमार जायसवाल
सहायक प्राध्यापक
जनसंचार विभाग,
मंदसौर विश्विद्यालय

संसद में हावी होने की वासना से ग्रस्त विपक्ष

-निरंजन परिहार

संसद के मानसून सत्र की पहली सुबह देश ने देखा कि बारिश की बूंदों के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने हाथ में छाता थामकर पत्रकारों को कोई बड़ा ही महत्वपूर्ण बयान दे रहे थे। लेकिन पीएम ने क्या कहा, यह तो एक तरफ धरा रह गया और बात बन गई उनके खुद छाता पकड़कर चलने की। भले ही संसद की हर बात का देश के जनजीवन पर सीधा असर होता हो, लेकिन वहां की सामान्य प्रक्रियाओं से इस देश की सामान्य जनता को कोई बहुत लेना देना नहीं होता। मगर, संसद में घटनेवाली किसी भी असामान्य घटनाओं का इसके उलट, लोगों के दिल और दिमाग दोनों पर तत्काल बहुत प्रभावी असर होता है। इसीलिए पीएम के विपक्ष पर प्रहार के महत्वपूर्ण बयान को एक तरफ रखकर उनका अपने हाथ में खुद छाता थामकर बारिश में खड़ा होना, लोगों इतना भा गया कि कुछ ही पलों में मोदी की सादगी पर सम्मोहित सामान्य समाज विपक्ष पर बुरी तरह टूट पड़ा। चंद मिनटों में ही सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी और राहुल गांधी की वे तस्वीरें लोगों के फोन की स्क्रीन पर तैरने लगीं, जिनमें वे खुद तो चल रहे हैं और न भीगें, इसके लिए छाता कोई और थामे हुए सेवा में साथ चल रहा है। अब कांग्रेस भले ही उसकी प्रतिक्रिया में मोदी की भी वैसी तस्वीरें जारी करती रहे, लेकिन सामान्यजन पर प्रधानमंत्री मोदी के खुद छाता छामकर चलने का जो असर हुआ है, कांग्रेस की कोशिशें उसे धोने में कामयाब होती कम दिखती है। मतलब, मोदी जो करे, लोग उसमें एक ऐसा तत्व तलाश ही लेते हैं, जो उनकी छवि को और मजबूत करता है। और बाकी जो करे, वह हर हाल में उलटा ही पड़ता है। ऐसा क्यों, यह आप तय कर लीजिए!

तो, बात संसद के मानसून सत्र के शुरू होने की है। यह ऐसा वक्त है, जब देश में महंगाई और बेरोजगारी चरम पर है। लोग जीने के लिए सड़कों पर संघर्षरत हैं। भले ही इस बार भी सरकार ने कहा है कि वह हर मुद्दे पर चर्चा को तैयार है, लेकिन लोगों की राय में सिर्फ चर्चा से क्या होता है। विपक्ष ने दावा किया था कि वह कोरोना महामारी से देश की तबाही, लगातार ऊंची होती महंगाई, बेतहाशा बढ़ती बेरोजगारी, कसमसाते कृषि कानून, निजीकरण व राफेल जैसे के मुद्दे को जोरशोर से उठाएगा। लेकिन कमजोर विपक्ष यह सब कर पाएगा, इस पर किसी को भरोसा नहीं है। वैसे, एक सोची समझी रणनीति के तहत संसद के सत्र के पहले दिन ही देश के कई लोगों के फोन से हुई जासूसी का एक पुराना मामला भी सामने लाया गया। लेकिन सरकार निश्चिंत है। संसद इस बार 19 जुलाई को शुरू हुई है और 13 अगस्त तक चलनी है। कुल 19 बैठकें होनी हैं और सरकार को 29 विधेयक पारित कराने हैं, आधा दर्जन अध्यादेश भी हैं, जो कानून बनेंगे। सरकार के पास भारी बहुमत है और यह सब तो आसानी से हो ही जाएगा। विपक्ष चाहे जो कर ले, रोक नहीं सकता। लेकिन सवाल यह है कि एक बिखरा हुआ विपक्ष सरकार पर कैसे हावी होगा। बजट सत्र में भी विपक्ष ने तो कहा ही था कि वह सकार को घेरेगा, लेकिन बिखराव, नेतृत्व के अभाव, परस्पर अविश्वास और एकजुटता की कमी के कारण कुछ भी नहीं हुआ। तो, इस बार कैसे संभव होगा।

विपक्ष के परस्पर विरोधाभासी हाल का हुलिया देखना हो, तो संसद के पिछले सत्र की केवल एक घटना याद कर लीजिए। कांग्रेस के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी लोकसभा में जब सरकार पर जबरदस्त प्रहार कर रहे थे, तो दूसरी तरफ राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद करबद्द कृपापात्रता के अंदाजवाली मुदित मनमोहिनी मुद्रा में प्रधानमंत्री मोदी के भाषण पर भावुक हुए जा रहे थे। कांग्रेस नहीं स्वीकारती, लेकिन सच्चाई यही है कि पार्टी में नेतृत्व सम्हालने की अनिर्णयता, जबरदस्त वैचारिक संकट और अंतहीन अंतर्कलह उसकी कमजोरी का सबसे बड़ा कारण है। पता नहीं इस बार भी संसद सत्र की शुरूआत से ठीक पहले, राहुल गांधी ने लगभग दहाड़ते हुए यह क्यों स्वीकार किया कि उनकी पार्टी में डरपोक लोग हैं, और आरएसएस के लोग भी हैं। उन्होंने अपील भी की कि ऐसे लोगों को कांग्रेस छोड़कर चले जाना चाहिए। लेकिन न तो वे स्वयं उनको निकाल बाहर करने की हिम्मत दिखा रहे हैं और न ही वे स्वयं अध्यक्ष बनने को तैयार है। तो, नेतृत्वविहीन कांग्रेस संसद में एक सबल सरकार और पराक्रमी प्रधानमंत्री का मुकाबला कैसे करेगी, यह कांग्रेस के लिए बहुत बड़ा सवाल है। और विपक्ष की बेचारी गैर एनडीए पार्टियां तो कहने को भले ही साथ हैं, लेकिन उनके बीच परस्पर समन्वय तो दूर, विचारधारा का टकराव भी बहुत बड़ा है।

संसद में हैरत कर देनेवाला हाल यह है कि स्वयं के दुर्भाग्यकाल में भी सरकार पर हावी होने की वासना से विपक्ष आजाद नहीं हो पा रहा है। हैरत इसलिए भी है क्योंकि जब हर तरफ विकराल होती महंगाई, बढ़ती बेरोजगारी, बरबाद करती बेकारी, अस्ताचल की ओर बढ़ती अर्थव्यवस्था और कोरोना से कराहते समाज में हाहाकार मचा है, तो उसका कोई निदान बताने की बजाय विपक्ष केवल धिक्कार मंत्र जपने में लगा हैं। माना कि मोदी सरकार महंगाई रोकने के मामले में पूरी तरह से फेल है और यह भी सही है कि वे सत्ता में आए तो महंगाई उन्हें विरासत में मिली। लेकिन सही यह भी है कि इसे सुलझाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार कोई गंभीर मौलिक प्रयास नहीं कर पाई, क्योंकि कुछ करते, कि कोरोना संकट ने पूरी दुनिया की आर्थिकी को तबाही की कगार पर खड़ा कर दिया और हालात हाथ से फिसल गए। हालांकि विपक्ष के कई नेता भी इस बात को समझ रहे हैं कि वे सत्ता में होते, तो उनका भी यही हाल होता। लेकिन विपक्ष के ऐसे निर्बल नजारों के बीच शुरू हुए संसद सत्र में, क्या तो महंगाई, क्या बेरोजगारी, क्या कोरोना और क्या ही किसान और पैट्रोल के भाव का विरोध। और जनता जनार्दन से अपना आग्रह है कि आप तो बस… अपने पराक्रमी प्रधानमंत्री को अपना छाता खुद पकड़कर मतवाली चाल में चलते देखने में मस्त रहिए। देश तो यूं ही चलता रहेगा।

समान नागरिक संहिता की अनिवार्यता

समान नागरिक संहिता (ucc) समय-समय पर चर्चाओं का विषय रहता है। हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने इसकी आवश्यकता पर जोर दिया है। भारत में जब भी दो जातियों एवं धर्मों के मध्य विवाह, तलाक या उत्तराधिकार के लिए टकराव या इनसे संबंधित अधिकारों के लिए संघर्ष होता है, तब न्यायालय के सम्मुख विभिन्न धर्मों अथवा जनजातियों के निजी कानून व मान्यताएँ निर्णय देने में कठिनाई उत्पन्न करती हैं।  हाल में दिल्ली उच्च न्यायालय के सम्मुख एक ऐसी ही याचिका आयी। सतप्रकाश मीणा राजस्थान की अधिसूचित अनुसूचित जनजाति मीणा समुदाय से संबंधित हैं। उन्होंने पारिवारिक न्यायालय के फैसले को चुनौती देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी, जिसमें उनके तलाक की याचिका खारिज कर दी गई थी। सतप्रकाश मीणा की पत्नी अल्का मीणा का कहना है कि वह मीणा समुदाय से आती है, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 366(25) के अंतर्गत एक अधिसूचित अनुसूचित जनजाति है। उसने हिन्दू विवाह अधिनियम (1955) की धारा 2(2) का हवाला देते हुए तलाक लेने से मना कर दिया था।समान नागरिक संहिता भारतीय संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 44 राज्य के नीति निदेशक तत्वों के अंतर्गत आती है। इसमें भारतीय राज्य क्षेत्र के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करने की बात कही गई है। संविधान को लागू हुए 72 वर्ष पूर्ण होने को हैं। भारत में आजादी के पश्चात कई सरकारें आयीं, लेकिन सभी इसे लागू करने से परहेज करती रही हैं। ‘‘उचित समय नहीं आया है’’ कह कर ठंडे बस्ते में इस कानून को डाल दिया जाता रहा है। भारतीय जनता पार्टी ने ही इसे अपने चुनावी घोषणा पत्र में जगह दी थी।भारत में इसे लागू करने की आवश्यकता 1985 की एक याचिका श्रीमती जॉर्डन डेगे बनाम एस.एस. चोपड़ा मामले से हुई थी। श्रीमती जॉर्डन डेगे ईसाई थीं, जबकि एस.एस. चोपड़ा सिख। इनके तलाक की याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने समान नागरिक संहिता लागू करने की पहली बार आवश्यकता जाहिर की थी। इसी वर्ष एक अन्य बेहद चर्चित तलाक विवाद मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम प्रकाश में आया। तब भी उच्चतम न्यायालय ने यही कहा था। ऐसा कई बार हुआ। सरला मुद्गल मामला (1995) भी उसमें एक अहम भूमिका निभाता है।2014 में भा.ज.पा ने अपने घोषणापत्र में वादा किया था कि ‘समान नागरिक संहिता’ का मसौदा सर्वोत्तम परंपराओं पर आधारित है और आधुनिक समय के साथ उनका सामंजस्य स्थापित करता है। यहां लैंगिक समानता तब तक नहीं हो सकती, जब तक भारत समान नागरिक संहिता नहीं अपनाता, जो सभी महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करता है। बिल्कुल ऐसी ही बात न्यायमूर्ति प्रतिभा एम. सिंह ने हाल में मीणा याचिका की सुनवाई करते हुए कही है। उन्होंने कहा कि विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि के कानून सबके लिए समान होने चाहिए। भारतीय समाज शनैः-शनैः एकरूप हो रहा है। धर्म, समुदाय और जाति के मध्य अवरोध धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं। उन्होंने उम्मीद जताई कि सरकार अपने नागरिकों के लिए अनुच्छेद 44 के अंतर्गत समान नागरिक संहिता लाने पर विचार करेगी। न्यायालय द्वारा फैसले की एक प्रति कानून मंत्रालय को भी भेजी गयी, किंतु आश्चर्य तब होता है, जब अगस्त 2018 में विधि आयोग अपने परामर्श पत्र में कहता है कि ‘समान नागरिक संहिता न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय’। यह परामर्श तो बी.जे.पी के घोषणापत्र के एकदम उलट था, जहां उच्चतम न्यायालय से लेकर छोटी अदालतें तीन दशकों से समान नागरिक संहिता की जरूरत बता रही हैं, उसका भी एक तरह खंडन किया गया था।हालांकि एन.डी.ए सरकार ने तीन तलाक पर कानून बनाकर समान नागरिक संहिता की ओर एक कदम बढ़ा दिया है। अब केंद्र को यह कानून बनाने में देरी नहीं करनी चाहिए। यह समय समान नागरिक संहिता को लागू करने के लिए उचित समय है। भारत वर्षों से पंथनिरपेक्ष, उदारवादी, समानता एवं लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देता आया है। भारतीय संविधान भी इन मूल्यों की पैरवी करता है, किन्तु भारत में विभिन्न समुदायों के लिए बने निजी कानून जैसे मुस्लिम पर्सनल लॉ, स्पेशल मैरिज एक्ट(1954), हिन्दू विवाह अधिनियम(1955), दि इंडियन क्रिश्चियन मैरिज एक्ट(1872) इत्यादि कानून समय-समय पर अदालती निर्णयों में गतिरोध व टकराव पैदा कर देते हैं। इस समस्या का एक ही उपाय है समान नागरिक संहिता। ‘एक देश एक संविधान’ की तर्ज पर आज ‘एक देश एक कानून’ की भी अति आवश्यकता है।- सिद्धार्थ राणा

भारत व हिंदुत्व की कब्र खोदने के लिए दानिश सिद्दीकी जैसे पत्रकार पैदा किए जाते हैं


आचार्य श्री विष्णुगुप्त


अफगानिस्तान में तालिबान के हाथों मारा गया राइटर का फोटोग्राफर ,पत्रकार दानिश सिद्दीकी को जो लोग भी बहुत बड़ा और निष्पक्ष तथा सेक्युलर पत्रकार फोटोग्राफर मानते हो, उन्हें निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर देना चाहिए?

पहला यह कि कोरोना से मरने वाले मुस्लिम देह की दफन होती कोई तस्वीर क्यों नहीं खींची थी और उस तस्वीर को वायरल क्यों नहीं किया था ? दूसरा यह कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में कोरोना से कोई एक या दो नहीं, बल्कि 50 से अधिक मुस्लिम प्रोफेसर मारे गए थे पर उसने उनकी तस्वीर वायरल क्यों नहीं क्यो नहीं किया था! तीसरा यह कि कोरोना काल में तबलीगी जमात के हजारों लोग कोरोना फैला रहे थे, पुलिस पर सरेआम थूक रहे थे, पुलिस पर सरेआम थूकने वाले मुस्लिमों की कोई तस्वीर उसने वायरल क्यों नहीं किया था? चौथा यह कि लॉकडाउन को लागू कराने के लिए कराते समय उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान सहित अन्य प्रदेशों में मुस्लिम भीड़ सरेआम पुलिस को पिटती है ,बर्बर मुस्लिम भीड़ की कोई तस्वीर उसने क्यों नहीं वायरल किया था? पाचवा यह कि ईद के दिन मुस्लिम समुदाय के लोग सरेआम लोक डाउन की धज्जियां उड़ाई थी पर क्या उसने कोई तस्वीर वायरल किया था? छठवां यह कि हर साल शबे बरात के दिन दिल्ली की सड़कों पर रात में गुंडागर्दी होती है ,राहगीरों को पीटा जाता है, पुलिस को चुपचाप रहने के लिए विवश किया जाता है, शबे बरात की गुंडागर्दी की तस्वीर उसने कभी वायरल क्यों नहीं किया था? सातवां यह कि सीए कानून के खिलाफ प्रदर्शनों का उसने खुब तस्वीरें खींची थी, विरोध प्रदर्शनों के दौरान मुसलमानों द्वारा पत्रकारों और आम लोगों की हुई पिटाई की की तस्वीरें क्यों नहीं वायरल किया था? आठवां यह कि रोहिंग्या मुसलमान किस प्रकार से बच्चे पैदा कर रहे हैं, रोहिंग्या मुसलमान कई कई बीवियां और दर्जन बच्चे पैदा कर रहे हैं, इसकी कोई तस्वीर क्यों नहीं वायरल किया था? मोब लिनचिंग में हिंदुओं की हुई बर्बर हत्या की कोई तस्वीर उसने क्यों नहीं वायरल किया था? दसवां यह कि दिल्ली की सड़कों पर चहल कदमी करने वाली गायों और अन्य जानवरों को मुस्लिमों के बच्चे दिन में बेहोशी की सुई दे देते हैं और रात में मुस्लिमों के बच्चे के पिता और अन्य मुस्लिम उन गायों और अन्य जानवरों को उठाकर बध कर देते हैं ,इस साजिश और अपराध की कोई तस्वीरें उसने क्यों नहीं खींची और वायरल किया था ?

इसके उल्टा दानिश सिद्दीकी का मुस्लिम जिहाद देखिए, हिंदू द्रोह देखिए, भारत को बदनाम करने वाला उसकी देशद्रोही करतूत तो देखिए, उसकी एजेंडा बाज पत्रकारिता देखिए , उसकी इस्लाम के की काफिर मानसिकता के प्रति समर्पित पत्रकारिता देखी देखिए । कोरोना की दूसरी लहर के दौरा उसने हिंदुओं की जलती चिताओं की खूब तस्वीर खींचकर भारत को बदनाम करने का काम किया था। उसकी एजेंडाबाज तस्वीरों की भारत विरोधियों ने खूब सराही थी और भारत विरोध का हथकंडा बनाया था । रोहिंग्या मुसलमानों के पक्ष में उसने खूब दिलचस्पी दिखाई थी, रोहिंग्या को पीड़ित बताने का जिहाद चलाया पर उसने कभी भी उनकी आतंकवादी करतूत नहीं खोली थी, नहीं बताया कि रोहिंग्या मुसलमान म्यांमार में आतंकवादी करतूत में लिप्त थे, रोहिंग्या मुसलमान भारत में आतंकवादी और आबादी आक्रमण के प्रतीक हैं।

दिल्ली दंगा एक बड़ी मुस्लिम साजिश की करतूत थी , दिल्ली दंगे के तार देश के मुस्लिम संगठनों और पाकिस्तान, आईएएसआई तक जुड़े हुए थे । पीएफआई जैसे मुस्लिम संगठनों की भी संलिप्तता थी। पर उसने कभी भी इसे उजागर नहीं किया। दिल्ली दंगों में मारे गए हिंदू की कोई उल्लेखनीय तस्वीर या रिपोर्ट उसने नहीं की थी।

हलाला से प्रतिवर्ष हजारों मुस्लिम महिलाएं आहत होती हैं ,पीड़ित होती हैं पर उसने कभी भी हलाला पीड़ित मुस्लिम महिलाओं का दर्द नहीं समझा ,विपत्ति नहीं समझी । हलाला पीड़ित मुस्लिम महिलाओं की कोई तस्वीर नहीं खींची और न हीं कोई तस्वीर वायरल की । मौलवी सरेआम अंधविश्वास फैलाते हैं पर उसकी नजर में सिर्फ साधु ही गुनाहगार थे। देश के कोने कोने में मुसलमानों द्वारा हिंदू मंदिरों को तोड़ना ,अपमानित करना जारी है। पर वह उस पर खामोशी नहीं तोड़ता था। कश्मीर में लाखों हिंदू विस्थापित होकर दर-दर की ठोकरें खाते रहे हैं पर उसकी कोई प्रतिक्रिया फोटोग्राफी में नहीं दिखती थी।

अभी पड़ताल की बात यह है कि उसने इस्लाम से जुड़ी ही कुरीतियों, जिहाद और करतूतों पर कभी भी कलम या फोटोग्राफी चमकाई क्यों नहीं ? जाहिर तौर पर दानिश कोई सैक्यूँलर तो था नहीं ,वह कोई निष्पक्ष तो था नहीं, उसके अंदर में कोई मानवता के प्रति समर्पण तो था नहीं, वह फिर था क्या? उसका समर्पण किसके प्रति थी ? वह एक घोषित तौर पर मुसलमान था और उसका समर्पण सिर्फ और सिर्फ इस्लाम के प्रति था। कोई भी मुसलमान सच्चा मुसलमान तभी होगा जब वह इस्लाम को पूर्णत: स्वीकार करने वाला होता है, इस्लाम के मूल्यों के प्रति बंधा होता है, इस्लाम की काफिर मानसिकता के प्रति उनका समर्पण होता है, इस्लाम की बुराइयों और कुरीतियों के प्रति चुपचाप रहता है । दानिश सिद्दीकी की एक कट्टर और समर्पित मुसलमान था। इसलिए इस्लाम की क्रूरता, आतंकवाद एवं काफिर मानसिकता के खिलाफ में उसकी कलम, फोटोग्राफी कैसे चमकती? इसीलिए वह हलाला, आबादी बढ़ाओ ,इस्लामी घुसपैठियों के खिलाफ फोटोग्राफी चमकाने से परहेज करता था।

इस्लाम की काफी मानसिकता कोई एक नहीं बल्कि कई स्तरों पर कार्य करती है। कुरान में काफी को मारने के लिए आदेश दिया गया है। काफिर की महिलाओं को रखेल बनाकर रखना, काफिर महिलाओं के साथ बलात्कार करना, काफिर की छवि खराब करना ,काफिर की संपत्ति पर कब्जा करना आदि की करतूत को अपराध नहीं माना गया है, बल्कि ऐसा करने वालों को सच्चा मुसलमान कहा जाता है। और उसे जन्नत मिलने, जन्नत में हूरे और सुंदरियां मिलने का आश्वासन मिलता है। यही कारण है कि ऐसा करने वाले मुसलमानों ,आतंकवादियों अपराधियों को मुसलमानों द्वारा संरक्षण दिया जाता है, उसकी करतूतों पर पर्दा डाला जाता है, ऐसी मुस्लिम करतूत भारत से लेकर पूरी दुनिया में देखी जाती है ,प्रमाण के साथ सच देखने को मिलता है। दुनिया के अंदर में क्या कभी आपने यह देखा या सुना है कि कोई मुस्लिम या कोई मुस्लिम समूह अपराधी आतंकवादी आदि को पकड़कर पुलिस, सेना या पीड़ित पक्ष को प्रस्तुत करता है। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण इजराइल की नीति है, इजरायल की सुरक्षा नीति कहती हैं कि उसके बम और मिसाइल वहीं गिरेंगे जहां आतंकवादी और अपराधी छिपे हुए हैं। आतंकवादी तो आसमान में रहते नहीं है, यह तो मुस्लिम आबादी के बीच में ही शरण पाकर रहते हैं।

दानिश सिद्दीकी जैसे के लिए भारत एक काफिर देश ही है। भारत के हिंदू उसके लिए काफिर ही हैं । इसीलिए वह इस्लाम का काफिर विरोधी कुरान की आयतों का पालन करता है और भारत की छवि, हिंदुओं की छवि खराब करता है। इस्लाम और मुसलमानों की छवि को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर बचाव करता है, उसके ऊपर पर्दा डालता है।

दानिश सिद्दीकी को पुलज्जर जैसे अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार क्यों मिलता है? उसे बहुत बड़ा पत्रकार और फोटोग्राफर क्यों कहा जा रहा है ?उसकी हत्या पर छाती क्यों पिटी जा रही है ?उसे श्रद्धांजलि देने के लिए कुकुरमुत्ता की तरह लोग क्यों मरे जा रहे हैं ? इसको समझने बुझने के लिए दो प्रमुख उदाहरणों को देखना होगा , समझना होगा । पहला उदाहरण भारत विरोधियों एवं मुस्लिम समर्थकों की सोच है ,इसी सोच पर आधारित अभी-अभी एक अमेरिकी अखबार के रिपोर्टर की नियुक्ति का विज्ञापन आया था। विज्ञापन में रिपोर्टर की अहर्ताएं यह रखी गई थी कि वह भारत विरोधी हो, भारतीय अस्मिता के खिलाफ लिखता हो और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का घोर विरोधी हो आदि आदि। इसी अमेरिकी अखबार कसौटी पर दानिश सिद्दीकी, भारत , हिंदू और नरेंद्र मोदी का विरोधी था। इसी कारण वह राइटर का फोटोग्राफर की ऊपरी सीढ़ियों तक पहुंच जाता है। दुनिया का सबसे बड़ा पुरस्कार पुल्जर हासिल कर लेता है।

दूसरा उदाहरण अल जजीरा का है ।अल जजीरा एक मुस्लिम मीडिया संस्थान है। उसने आईएस को कितने मुस्लिम अपना आइकन मानते हैं इस पर एक सर्वे आयोजित किया था । सर्वे में चिंताजनक और खतरनाक तौर पर तथ्य सामने आए। कोई एक दो नहीं बल्कि 82 प्रतिशत मुसलमानों ने आतंकवादी संगठन आईएस को अपना आइकॉन माना। अल जजीरा इस्लामिक जिहाद देखिए ,इस्लाम के प्रति उनका समर्पण देखिए ,पत्रकारिता की कब्र खोदने वाली उसकी मानसिकता को देखिए। उसने अपने रिपोर्ट में कहा कि कुछ ही मुसलमान आतंकवादी संगठन आईएस को अपना आइकॉन मानते हैं । जबकि उसे अपनी रिपोर्ट में यह कहना चाहिए था कि अधिकतर मुस्लिम आतंकवादी संगठन आईएस को अपना आइकॉन मानते हैं । जिस तरह से अल जजीरा ने मुस्लिमों के प्रति अपना समर्पण दिखाया उसी प्रकार दानिश सिद्दीकी जैसे हजारों मुस्लिम पत्रकार सिर्फ और सिर्फ इस्लाम के प्रति एजेंडा पत्रकारिता करते हैं । बीबीसी सहित अधिकतर विदेशी मीडिया संस्थान ,मुस्लिम वर्ग से आने वाले पत्रकारों की नियुक्ति कर भारत की कब्र खोदने में लगे रहते हैं। दुनिया की मुस्लिम और ईसाई मानसिकता से ग्रसित मीडिया को हिंदुओं की जागरूकता और नरेंद्र मोदी के शासन से खुजली होती है।

अब भारत में दो प्रकार के नागरिक हो गए हैं । एक नागरिक वह है जो अपने राष्ट्र के प्रति समर्पित हैं, जिन्हें देश भक्ति भाती है ,देशभक्ति पर मरने मिटने की तमन्ना रखते हैं, पर उन्हें दंगाई कह कर उपहास उड़ाते हैं । दूसरे किस्म के नागरिक वे लोग हैं जो भारत को अपना भविष्य बनाने का हथकंडा तो जरूर बनाते हैं पर उन्हें भारत की अस्मिता, भारत का गौरव, भारत की पुरातन संस्कृति स्वीकार नहीं है। इसीलिए ऐसे किस्म के नागरिक हमेशा कभी भारत की कब्र खोदते हैं तो कभी भारत विरोधी नारे लगवाते हैं ,तो कभी भारत की छवि खराब करने वाली पत्रकारिता को अंजाम देते हैं । दूसरे किस्म के नागरिकों के लिए दानिश सिद्दीकी जैसे मुस्लिम एजेंडा बाज पत्रकार आइकॉन तो हो सकता है पर राष्ट्रभक्त नागरिकों के लिए दानिश सिद्दीकी जैसे प्रतीकों के प्रति सतर्क और सजग रहने की जरूरत है । राष्ट्र भक्त नागरिकों के लिए दानिश सिद्दीकी जैसे मुस्लिम एजेंडा बाज पत्रकार खलनायक ही है।


आचार्य श्री विष्णुगुप्त

मानसून सत्र समझ और समझौते को विकसित करें

-ः ललित गर्ग:-

लोकतंत्र में सफलता की कसौटी है- संसद की कार्रवाही का निर्विघ्न संचालित होना। संसद के मानसून सत्र की शुरुआत करते हुए इस बात की आवश्यकता व्यक्त की गई। क्योंकि समूचे विपक्ष ने इस सत्र को हंगामेदार करने की ठान ली है। जहां तक महंगाई, कोरोना एवं किसान आन्दोलन जैसे मुद्दों को उठाने एवं इन विषयों पर सरकार से जबाव मांगने का प्रश्न है, यह स्वस्थ एवं जागरूक लोकतंत्र की अपेक्षा है। लेकिन इन्हीं मुद्दों को आधार बनाकर कर जहां संसद की कार्रवाई को बाधित करने की स्थितियां हंै, यह अलोकतांत्रिक है, अमर्यादित है। मानसून सत्र लोकतांत्रिक समझौते के साथ समझ को विकसित करने का उदाहरण बने, यह अपेक्षित है। समझौते में शर्तें व दवाब होते हैं जबकि समझ नैसर्गिक होती है। इन्हीं दो स्थितियों में जीवन का संचालन होता है और इन्हीं से राष्ट्र, समाज और लोकतंत्र का संचालन भी होता है।
यह तो सर्वविदित है कि विपक्ष गत कुछ समय की कतिपय राजनीतिक घटनाओं से उत्साहित एवं आक्रामक हुआ है। इन्हीं बुलन्द हुए हौसलों में विपक्ष की तरफ से संसद में जिन मुद्दों पर सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश होगी, उनमें कोरोना की दूसरी लहर के कुप्रबंधन, महंगाई, किसान आंदोलन के मुद््दे प्रमुख हैं। विपक्ष इन मुद्दों पर दोनों सदनों में चर्चा की मांग करेगा। मौजूदा माहौल में सरकार के लिए चर्चा से इनकार करना मुश्किल होगा, लेकिन विपक्ष को भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि अधिक आक्रामक रुख अख्तियार कर वह संसद में सिर्फ हंगामा करने और कार्यवाही को बाधित करने तक सीमित न रह जाए। ऐसा होने से लोकतंत्र की मूल भावना पर आघात होता है। विपक्ष सौहार्दपूर्ण माहौल बनाने और सत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए पहल करें एवं एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करें।
विपक्ष के तेवरों को देखते हुए यही प्रतीत हो रहा है कि वह दोनों सदनों में सरकार की घेराबंदी के किसी मौके को नहीं छोड़ना चाहेगा, ऐसी स्थितियां बनना देशहित में नहीं है। विरोध या आक्रामकता यदि देशहित के लिये, ज्वलंत मुद्दों पर एवं समस्याओं के समाधान के लिये हो तभी लाभदायी है। लोकमान्य तिलक ने कहा भी है कि -‘मतभेद भुलाकर किसी विशिष्ट कार्य के लिये सारे पक्षों का एक हो जाना जिंदा राष्ट्र का लक्षण है।’ राजनीति के क्षेत्र में आज सर्वाधिक चिन्तनीय विषय है- विपक्षी दलों का सत्तापक्ष के प्रति विरोध या आक्षेप-प्रत्याक्षेप करना। सत्ता पक्ष को कमजोर करने के लिये संसदीय कार्रवाई को बाधिक करना और तिल का ताड़ बनाने जैसी स्थितियों से देश का वातावरण दूषित, विषाक्त और भ्रान्त बनता है।
देश की संसद को निरपेक्ष भाव एवं सकारात्मक ढंग से राष्ट्रीय परिस्थितियों का जायजा लेते हुए लोगों को राहत प्रदान करने के प्रावधानों पर चिन्तन-मंथन के लिये संचालित करना होगा। संसद केवल विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच वाद-विवाद का स्थल नहीं होती है बल्कि जन हित में फैसले करने का सबसे बड़ा मंच होती है। इसके माध्यम से ही सत्तारूढ़ सरकार की जवाबदेही और जिम्मेदारी तय होती है और जरूरत पड़ने पर जवाबतलबी भी होती है परन्तु यह भी सच है कि सत्ता और विपक्ष की संकीर्णता एवं राजनीतिक स्वार्थ देश के इस सर्वोपरि लोकतांत्रिक मंच को लाचार भी बनाते हैं जो 130 करोड़ जनता की लाचारी बन जाते हैं। फिलहाल देश कोरोना के संक्रमण काल से गुजर रहा है अतः सबसे बड़ी जरूरत यह है कि संसद में कोरोना से निपटने की वह पुख्ता नीति तय हो जिससे चालू वर्ष के दौरान प्रत्येक वयस्क नागरिक को वैक्सीन देकर संक्रमण की भयावहता को टाला जा सके। बढ़ती महंगाई पर काबू पाने की भी सार्थक बहस हो एवं महंगाई पर नियंत्रण की व्यवस्था हो।
19 जुलाई से 13 अगस्त तक चलने वाले सत्र के दौरान सरकार की तरफ से 17 विधेयक पेश करने की योजना बनाई गई है तथा पहले से लंबित 38 विधेयकों में से नौ को पारित किया जाना है। यदि विपक्ष हंगामा करने को अपना मकसद नहीं बनाता और सत्तापक्ष उसकी ओर से उठाए गए मुद्दों को सुनने के लिए तत्पर रहता है तो संसद का यह मानसून सत्र एक कामकाजी सत्र का उदाहरण बन सकता है। संसद में केवल ज्वलंत मसलों पर उपयोगी चर्चा ही नहीं होनी चाहिए, बल्कि विधायी कामकाज भी सुचारुरूप से होना चाहिए। यदि संसद को अपनी उपयोगिता और महत्ता कायम रखनी है तो यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि वहां पर राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर सार्थक चर्चा हो। यह चर्चा ऐसी होनी चाहिए, जिससे देश की जनता को कुछ दिशा एवं दृष्टि के साथ राहत मिले। संसद में राष्ट्रीय महत्व के प्रश्नों पर सार्थक चर्चा के लिए दोनों ही पक्षों को योगदान देना होगा। संसद सत्र के पहले सर्वदलीय बैठकों में इसके लिए हामी तो खूब भरी जाती है, लेकिन अक्सर नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही अधिक रहता है।
संसद राज्यों की सरंक्षक एवं मार्गदर्शक भी है और जब हम भारत के विभिन्न राज्यों की तरफ नजर दौड़ाते हैं तो सर्वत्र बेचैनी, समस्याओं एवं अफरातफरी का आलम देखने को मिलता है। कहीं धर्म के नाम पर हिंसा तो कहीं आतंकवाद को शह देने की कोशिशें हो रही है। कहीं किसानों का आन्दोलन पिछले सात महीने से राजधानी के दरवाजे पर चल रहा है तो कहीं जानबूझकर स्थितियों को धार्मिक रंग दिया जा रहा है। बंगाल के चुनावों में एवं उसके बाद की हिंसक घटनाएं चिन्ता का कारण बनी है। भले ही वहां भाजपा को हार को मुंह देखना पड़ा, जिससे निश्चित रूप से विपक्ष का हौसला बढ़ा है। विपक्ष की नजर अब उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड पर है, जहां अगले साल चुनाव हैं। बंगाल के चुनावों ने विपक्ष को लड़ना सिखा दिया है लेकिन सार्थक जन-प्रतिनिधित्व से दूर भी किया है। इसलिए इस बार संसद के भीतर भी बिखरे विपक्ष को एकजुट करने की कोशिशें हो रही हैं। यह एकजुटता अच्छी बात है, लेकिन इसकी सकारात्मकता भी जरूरी है।
एक बात और, विपक्ष आक्रामक रहकर भले ही अपनी राजनीतिक बढ़त बनाने की कोशिश करे, लेकिन इसके बावजूद वह विधायी कार्य में कोई अड़ंगा न डाले। किसी भी तौर पर यह भविष्य की नजीर नहीं बननी चाहिए क्योंकि एक व्यक्ति की हिमाकत पूरे लोकतन्त्र को प्रदूषित नहीं कर सकती। हमारी संसद तभी लोकतन्त्र में सर्वोच्च कहलाती है जब यह अपने ही बनाये गये नियमों का शुचिता, अनुशासन एवं संयम के साथ पालन करती है। अगर हम संसद में बैठे राजनीतिक दलों की हालत देखें तो वह भी बहुत निराशा पैदा करने वाली लगती है। कहने को कांग्रेस विपक्षी पार्टी है मगर जिन राज्यों में वह सत्ता में है उनमें आपस में ही इसमें सिर फुटव्वल का वातावरण बना हुआ है। पंजाब में कांग्रेस पार्टी नवजोत सिंह सिद्धू एवं मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह के बीच हास्यास्पद संग्राम का अखाड़ा बनी हुई है।
इन जटिल हालातों में स्वयं के जीवन के लिए एवं दूसरों के साथ जीने के लिए दो चीजें आवश्यक हैं, वे हैं समझौता व समझ। देश-विदेश के सभी लेनदेन-व्यापार, परस्पर सम्बन्ध समझौता व संधि के आधार पर ही चलते हैं। हर स्तर पर एक समझौता होता है, नीतिगत और व्यवस्थागत। बल्कि पूरे जीवन को ही समझौते का दूसरा नाम कहा गया है। अपने आसपास के लोगों के साथ, परिवारजनों के साथ, स्थितियों के साथ, विचारों के साथ अपने जीवन साथी के साथ और यहां तक अपने शरीर के साथ जहां भी समझौता नहीं, वहां अशांति और असंतुलन/बिखराव हो जाते हंै। राजनीति में तो विशेष तौर पर यह स्थिति देखने को मिलती है। समझौते के आधार पर कई बार अधिकारों को लेकर, विचारों को लेकर, नीति को लेकर फर्क आ जाता है, टकराव की स्थिति आ जाती है। समझौता मौलिक नहीं होता, कई तानों-बानों से बनता है। इसमें मिश्रण भी है। माप-तौल भी है। ऊँचाई-नीचाई भी है और प्रायः मजबूरी व दवाब भी सतह पर ही दिखाई देते रहते हैं।
पर समझ जहां परस्पर बन गई और समझ के आधार पर ही सब संचालित हो रहा हो, वहां शांति है, राष्ट्रीयता है और संतोष है। वहां कुछ भी घालमेल नहीं है। वह कई कुओं का मिश्रित क्लोराइन से शुद्ध किया पानी नहीं अपितु वर्षा का शुद्ध पानी है, जिसमंे कीड़े नहीं पड़ते। समझ प्राकृतिक है। समझौता मनुष्य निर्मित है। समझ निर्बाध जनपथ है। समझौता कंटीला मार्ग है, जहां प्रतिक्षण सजग रहना होता है।
समझ स्वयं पैदा होती है। समझौता पैदा किया जाता है। पर जहां-कहीं समझ का वरदान प्राप्त नहीं है वहां समझौता ही एकमात्र विकल्प है। प्रजातंत्र में प्रदत्त अधिकारों की परिधि ने समझ की नैसर्गिकता को धुंधला दिया है। अतः समझौता ही संचालन शैली बन चुका है। समझ और समझौता दोनों ही वस्त्र हैं जो हमारे जीवन रूपी शरीर को गर्मी-सर्दी से बचाते हैं। फर्क इतना ही है कि एक सूती कपड़ा है और दूसरा टेरीलिन है। संसद का मानसूत्र समझ को विकसित करने का माध्यम बने, इसके लिये सत्ता पक्ष एवं विपक्ष दोनों को ही पहल करनी होगी, तभी लोकतंत्र जीवंतता प्राप्त कर सकेगा।

रिश्ते प्रतिशत में कभी नहीं होते

—विनय कुमार विनायक
रिश्ते प्रतिशत में कभी नहीं होते
राम है भाई श्याम के जितने
उतने राम भाई हैं रहमान के भी!

वे माता-पिता जितने हैं पुत्रों के
उतने माता-पिता वे पुत्रियों के भी!

रिश्ते कभी प्रतिशत में नहीं होते
सबके साथ रिश्ते शत प्रतिशत होते!

रिश्ते धन की तरह बांटे नहीं जाते
रिश्ते फसल की तरह काटे नहीं जाते!

मगर रिश्ते या तो निभाए जाते
या रिश्ते एक झटके में ही टूट जाते!

कोई नहीं कह सकता कि वो मामा है
आधे मेरे और आधे मेरे मौसेरे भाई के!

रिश्ते कभी रबर सा घटते बढ़ते नहीं
रिश्ते शत प्रतिशत ईश्वर सा संपूर्ण होते!

हे मानव भले कुछ बचाओ या नहीं
मगर हमेशा संपूर्ण रिश्ते को बचाए रखो!

मित्रता गहरी या उथली हो सकती
मित्रता तो घटती-बढ़ती शर्तों में होती!

तुम और वो मित्र हो सकते हो
पर तुम मेरे शत्रु, वो मेरे मित्र हो जाते!

इस अर्थ में मित्रता से ऊपर है रिश्ते
रिश्ते नहीं बांटे जाते और न काटे जाते!

रिश्ते के लिए नहीं जरुरी समान धर्म
रिश्ते तो विधर्मियों के मध्य भी हो जाते!

रिश्ते चाहे जिनके भी साथ बन जाएं
रिश्ते निभाएं क्योंकि रिश्ते छुईमुई होते!
—विनय कुमार विनायक

जनसंख्‍या के मुद्दे पर व्‍यर्थ है थरूर का तर्क

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

भारत की जनसंख्‍या वृद्ध‍ि को संतुलित करने जिस तरह से उत्तर प्रदेश से प्रारंभ होकर अन्‍य कुछ अन्य भाजपा शासित राज्यों ने इसके नियंत्रण के लिए कानून सम्‍मत कदम उठाना शुरू कर दिए हैं, उसे आज कांग्रेस नेता एवं तमाम विपक्ष यह आरोप लगा रहे हैं कि इसके पीछे की मंशा एक ‘समुदाय विशेष’ को निशाना बनाने की है। खुलकर कहें तो ये सभी कह रहे हैं कि ”मुसलमानों” को भारतीय जनता पार्टी उत्‍तर प्रदेश से शुरूआत करते हुए पूरे देश में प्रयोगशाला के रूप में टार्गेट करना चाह रही है, प्रयोग के तौर पर उत्‍तर प्रदेश से इसका आरंभ योगी सरकार से हुआ है। शशि थरूर जिनकी अपनी छवि एक ‘बौद्धिक’ की है, जब देश हित से परे जाकर इस तरह की बात कहते नजर आते हैं, तब अवश्‍य ही बहुत दुख होता है कि व्‍यक्‍ति राजनीति से ऊपर उठकर इसलिए नहीं बोलना चाहता, क्‍योंकि उसे इसका लाभ अपने हि‍त में कहीं दिखाई नहीं देता है। किंतु क्‍या व्‍यक्‍तिगत हि‍त, राष्‍ट्र और राज्‍य हि‍त के भी ऊपर होना चाहि‍ए? आखिर यह राजनीति किसलिए है? राष्‍ट्र के लिए या व्‍यक्‍ति के अपने निहित स्‍वार्थों की पूर्ति के लिए? आज ऐसे तमाम प्रश्‍न हैं जिन्‍हें उन सभी से पूछा जा रहा है जोकि देश में ”जनसंख्‍या नियंत्रण” का विरोध कर रहे हैं ।

यहां पहले बात कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर की करते हैं, वे आज आरोप लगा रहे हैं कि इस मुद्दे (जिनसंख्‍या) को उठाने के पीछे की बीजेपी की मंशा राजनीतिक है। इसका कुल मकसद एक ‘समुदाय विशेष’ को निशाना बनाना है । इसलिए भाजपा सुनियोजित मकसद से इस मुद्दे को उठा रही है । थरूर के मुताबिक, ‘यह कोई इत्तेफाक नहीं है कि उत्तर प्रदेश, असम और लक्षद्वीप में आबादी कम करने की बात हो रही है, जहां हर कोई जानता है कि उनका इरादा किस ओर है। ‘ वे कह रहे हैं ‘हमारी राजनीतिक व्यवस्था में हिंदुत्व से जुड़े तत्वों ने आबादी के मुद्दे पर अध्ययन नहीं किया है। उनका मकसद विशुद्ध रूप से राजनीतिक और सांप्रदायिक है। ‘ कुल मिलाकर अभी जनसंख्या को लेकर बहस पूरी तरह ठीक नहीं है । पूर्व केंद्रीय मंत्री थरूर का मानना है कि अगले 20 साल बाद हमारे लिए बढ़ती जनसंख्या नहीं एजिंग पॉपुलेशन प्रॉब्लम होगी ।

वस्‍तुत: आज थरूर की यह टिप्पणी इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि हाल ही में उत्तर प्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण विधेयक का एक मसौदा सामने रखा गया है, जिसमें प्रावधान है कि जिनके दो बच्चों से अधिक होंगे उन्हें सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित किया जाएगा और दो बच्चों की नीति का अनुसरण करने वालों को लाभ दिया जाएगा। यहां अव्‍वल तो यह है कि थरूर जिस 20 साल बाद एजिंग पॉपुलेशन प्रॉब्लम की बात कह रहे हैं, उसका कोई आधार इसलिए नहीं है क्‍योंकि जनसंख्‍या पर कोई पूरी तरह से रोक नहीं लगने जा रही है। बच्‍चे पैदा होते रहेंगे और भारत में हर वर्ष युवाओं की संख्‍या में भी इजाफा होता रहेगा, हां इतना अवश्‍य होगा कि जिस तरह से वर्तमान में जनसंख्‍या विस्‍फोट हो रहा है, उस पर कुछ लगाम लगेगी।

फिर जिस जनसंख्‍या नियंत्रण कानून को लेकर यह कहा जा रहा है कि इसका कुल मकसद एक ‘समुदाय विशेष’ को निशाना बनाना है तो यह कहना भी इसलिए निराधार है क्‍योंकि उत्‍तर प्रदेश सहित संपूर्ण देश में अधिकांश राज्‍यों की कुल जनसंख्‍या में हिन्‍दू आबादी ही अधिक है, स्‍वभाविक है कि जन्‍म दर जनसंख्‍या के अनुपात में उनकी ही अधिक है, ऐसे में जब यह जनसंख्‍या नियंत्रण का कानून यदि किसी राज्‍य में व्‍यवहार में लाया जाता है तो स्‍वभाविक है कि इसका असर यदि किसी पर अधिक होगा तो वे हिन्‍दू ही हैं।

पिछले साल भाजपा के वरिष्ठ नेता एवं हिमाचल प्रदेश पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर बहुत ही विस्‍तार से बताया था कि कैसे जनसंख्‍या का भारत जैसे देश में अनियंत्रित रूप से बढ़ना उसके लिए संकट खड़ा कर रहा है। उन्‍होंने इस पत्र में कहा था कि देश की राजधानी विश्व के 190 देशों की राजधानियों में सबसे अधिक प्रदूषित हो गई है। उत्तर में हिमालय और दक्षिण में समुद्र से सजा हुआ भारत आज प्रदूषण से कराह रहा है। उन्होंने इस बात पर हैरानी प्रकट की थी कि इस समस्या के असली कारण को नहीं देखा जा रहा। भारत स्वतंत्रता के बाद 35 करोड़ से बढ़ते बढ़ते आज 141 करोड़ आबादी वाला दुनिया को दूसरा सबसे बड़ा देश बना गया है। आबादी के साथ-साथ सब कुछ बढ़ता है। यही प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है। प्रदूषण ही नहीं देश में बढ़ती गरीबी और बेरोजगारी का कारण भी जनसंख्या विस्फोट है।

वे यहां लिखते हैं कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पिछले छह सालों में गरीबी और बेरोजगारी को दूर करने के लिए हर संभव प्रयत्न हुए हैं। उसके बाद भी ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रतिदिन 19 करोड़ लोग भूखे पेट सोते हैं। बेरोजगारी के कारण युवा पीढ़ी हताश और निराश है और आत्महत्याएं बढ़ रहीं हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को सुझाव दिया था कि अतिशीघ्र पहल करें। देश में एक कानून बने और एक ही नारा हो। हम दो हमारे दो । अब यह अलग बात है कि केंद्र के स्‍तर पर प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी को जनसंख्‍या नियंत्रण पर राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन (एनडीए) में सहमति बनानी है जबकि उत्‍तर प्रदेश में इस प्रकार की कोई सहमति की आवश्‍यकता योगी सरकार को नहीं है, इसलिए यह पहल आज उत्‍तर प्रदेश से सबसे पहले सामने आई है।

वस्‍तुत: होना यह चाहिए था कि देश भर में कांग्रेस एवं अन्‍य दल भी इस जनसंख्‍या नियंत्रण के लिए योगी सरकार के प्रयासों का स्‍वागत करते नजर आते । प्रधानमंत्री मोदी पर भी यह दबाव बनाते कि वे भारत में अतिशीघ्र जनंसख्‍या नियंत्रण कानून लागू करें । क्‍योंकि यह किसी समुदाय विशेष से नहीं देश के विकास एवं उत्‍तरोत्‍तर उत्‍थान से जुड़ा फैसला है। यहां देखें, उत्‍तर प्रदेश की जनसंख्‍या नियंत्रण की नीति में वर्ष 2026 तक जन्म दर को प्रति हजार आबादी पर 2.1 तथा वर्ष 2030 तक 1.9 लाने का लक्ष्य रखा गया है। इसमें बच्चों और किशोरों के सुंदर स्वास्थ्य, उनके शिक्षा के लिए भी कदम हैं। मसलन 11 से 19 वर्ष के किशोरों के पोषण, शिक्षा व स्वास्थ्य के बेहतर प्रबंधन के अलावा, बुजुर्गों की देखभाल के लिए व्यापक व्यवस्था है । इसके अलावा भी बहुत कुछ ऐसा इस नीति में है जोकि एक सुखद लोककल्‍याण कारी राज्‍य की जरूरतों को और कल्‍पनाओं को साकार रूप देता दिखाई देता है। पूरी नीति में कहीं विभेदीकरण नजर नहीं आता, किंतु दुर्भाग्‍य है कि जिन्‍हें आलोचना करनी है, वे इसे धर्म और एक समुदाय विशेष से जोड़कर देख रहे हैं।

यहां हम जनसंख्‍या से जुड़े आंकड़ों के आधार पर भी वर्तमान स्‍थ‍िति की तुलना कर सकते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार देश के 33.96 करोड़ महिलाएं ऐसी हैं जिन्होंने शादी की और इनसे देश में कुल 91.50 करोड़ बच्चे हैं । मतलब औसतन हर महिला के 2.69 बच्चे हैं। देश की 53.58 फीसदी महिलाओं के दो या दो से कम बच्चे हैं, जबकि 46.42 फीसदी महिलाओं से दो से अधिक बच्चे हैं । जिसमें कि आज देश की आबादी में सबसे ज्यादा हिस्सा उत्तर प्रदेश का है । 2011 की जनगणना के अनुसार उप्र में कुल 19.98 करोड़ लोग रहते हैं । आबादी के हिसाब से देश में सबसे ज्यादा मुस्लिम भी उत्‍तर प्रदेश में ही रहते हैं । यहां औसतन हर महिला के 3.15 बच्चे हैं, जो कि राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है। 55.8 फीसदी महिलाओं से दो से ज्यादा बच्चे हैं, जबकि देश का आंकड़ा 46.42 फीसदी है। इन आंकड़ों से भी समझा जा सकता है कि योगी सरकार जनसंख्‍या नियंत्रण से संबंधित कानून क्‍यों बनाना चाहती है।

यहां जिन्‍हें जनसंख्‍या के नियंत्रण में धर्म और समुदाय विशेष नजर आते हैं उन्‍हें इन आंकड़ों पर गौर करना चाहिए कि 2011 की जनगणना के ही अनुसार उत्‍तर प्रदेश की कुल आबादी 19.98 करोड़ में 15.93 करोड़ हिन्‍दू हैं जोकि कुल जनसंख्‍या का 79.73 फीसद है। 3.84 करोड़ मुस्लिम रहते हैं, जो कि कुल आबादी का 19.26 प्रतिशत है । उत्‍तर प्रदेश की औसतन हर महिला के 3.15 बच्चे हैं । हिन्‍दू महिलाओं के औसतन 3.06 बच्चे हैं, मुस्लिम महिलाओं के औसतन 3.6 फीसदी बच्चे हैं।

कुल मिलाकर जनसंख्‍या के अनुपात में इसे समग्रता से देखें तो आज जिस तरह से जनसंख्‍या यहां बढ़ रही है, उसमें हिन्‍दू और मुसलमानों की जनसंख्‍या बराबर से बढ़ती रहेगी। ऐसे में ना तो कभी उत्‍तर प्रदेश भविष्‍य में कभी भी मुस्‍लिम बहुल्‍य होने जा रहा है और ना ही यहां हिन्‍दू कभी अल्‍पसंख्‍यक होगा। बल्‍कि इस जनसंख्‍या के आनेवाले कानून से अधिकांश हिन्‍दुओं की आबादी ही कम होगी। उसका मूल कारण हिन्‍दुओं का स्‍वभाव है, जिसमें एक अच्‍छे खुशनुमा भविष्‍य को प्राथमिकता दी जाती है।

यह कहने के पीछे का तर्क यह है कि जब साल 2006 में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आई तो पहली बार भारत के मुस्लिम समाज में पिछड़ेपन को लेकर चर्चा होने लगी, किंतु इसके पीछे के कारणों को गंभीरता पूर्वक देखें तो कौन मुसलमानों को पीछे रखने के लिए जिम्‍मेदार नजर आता है? निश्‍चित ही वे स्‍वयं और उनका नेतृत्‍व जबकि इसके उलट हिन्‍दुओं में स्‍वविवेक अपनी पीढ़ियों को अच्‍छा माहौल एवं जीवन देने का शुरू से ही देखा जा सकता है। उनका नेतृत्‍व उनसे कुछ कहे या ना कहे परिवारिक व्‍यवस्‍था ही ऐसी है कि सबसे पहले सरकारी नौकरियों से लेकर अच्‍छे व्‍यापार की ओर ध्‍यान देकर ‘मां लक्ष्‍मी’ को प्रसन्‍न करने का उपक्रम हिन्‍दू स्‍वभावगत रूप से करता है और परिणाम स्‍वरूप मुसलमानों की जनसंख्‍या के अनुपात में अच्‍छा जीवन जीता है। इसलिए अभी भी जो जनसंख्‍या को लेकर योगी सरकार की नीति है, उससे सबसे अधिक हिन्‍दुओं की जनसंख्‍या पर ही नकारात्‍मक असर होनेवाला है, फिर भी अधिकांश हिन्‍दू इस नीति के समर्थन में नजर आ रहे हैं। क्‍योंकि उन्‍हें अपने बच्‍चों के लिए हर हाल में सुखद भविष्‍य चाहिए।

देखा जाए तो जनसंख्या नियंत्रण केवल कानून का नहीं, सामाजिक जागरूकता का भी विषय है विरोध का तार्किक आधार हो तो विचार किया जा सकता है लेकिन इसे मुसलमानों को लक्षित नीति कहना निराधार है। शशि थरूर जैसे राजनीतिक विद्वानों के साथ मुसलमानों की राजनीति कर रहे एडवोकेट असादुदीन ओवैसी हों या जयराम रमेश जैसे नेता। वस्‍तुत: जनसंख्‍या नियंत्रण कानून लाने का राज्‍य के स्‍तर पर या देश में विरोध करनेवालों को आज यह समझना होगा कि भारत का भू-भाग नहीं बढ़ाया जा सकता,‍ जितनी अधिक जनसंख्‍या उतना अधिक भार । सफल जीवन जीने के लिए जरूरी है अधिक आवश्‍यक संसाधन जुटाना। जनसंख्‍या निरंत्रण के विरोध में उभरते स्‍वर, भविष्‍य में विकसित देश बनने की प्रक्रिया के लिए भी भारत की आवश्‍यकताओं को समझें । युरोप के देशों के साथ ही खासकर अमेरिका से सबक लें और जनसंख्‍या के मामले में योगी से मोदी तक समर्थन में बिना राजनीतिक नफा-नुकसान देखें व देश हित में आगे आएं।

प्रकृति पर्यावरण रक्षण भी है ईश्वर की आराधना

—विनय कुमार विनायक
हे मानव! जड़ व चेतन देवता की आराधना करो,
सूर्य चन्द्र धरती जल वायु आकाश जड़ देवता हैं,
जड़ देवता सृष्टि की रक्षा करते उनको शुद्ध रखो,
इन जड़ देवताओं की शुद्धि हेतु यज्ञ-यजन करो!

जड़ देवता के संयोग से हीं सृष्टि विकसित होती,
सृष्टि संवर्धन हेतु सनातन पथ का संवरण करो!

माता-पिता परम पूज्य चेतन देवी देवता हैं भूमि पर,
उनको वृद्धाश्रम वास ना दो,सेवा सुश्रुषा करो घर पर,
माता पिता है ईश्वर का प्रतिनिधि इस धरातल पर!

माता पिता की बराबरी करनेवाला नहीं कोई जग में,
माता पृथ्वी से भारी व पिता आकाश से ऊंचे जग में!

तृतीय चेतन देवता सद्गुरु व चतुर्थ देव अतिथि हैं,
सद्गुरु व अतिथि भी अति पूजनीय देवतुल्य होते,
सद्गुरु का पुण्य स्मरण व अतिथि का सम्मान हो!

हे आर्यपुत्र इन सभी मरणधर्मा देवों की अर्चना करो,
मूर्ति व पाहन को भी देवताओं का प्रतीक रूप समझो!

परमेश्वर का सर्वाधिक पूजनीय नाम है ॐ का,
ॐ की उपासना करने से सबकी उपासना होती!
जड़ देवता सूर्य हरक्षण सूर्यनाद करता ॐ का!

प्रकृति वनस्पति और वन पर्यावरण है जड़ देवता,
प्रकृति पर्यावरण रक्षण भी है ईश्वर की अराधना,
ईश्वर अराधना रीति है वैदिक सनातन धर्म की!
—विनय कुमार विनायक

इस्लाम मजहब का उद्भव

—विनय कुमार विनायक
ईस्वी सन् पाँच सौ सत्तर में जन्मे
इस्लाम के जन्मदाता,
हजरत मुहम्मद नाम उनका
घर अरब का मक्का!

उनकी जाति कुरैशी थी अशिक्षित,
अंधविश्वासी, मूर्ति पूजक कबिलाई
काबा के चौकोर प्रस्तर पूजन में
निहित थी उनकी भलाई!

हज़रत मुहम्मद थे एक युग द्रष्टा,
अपनी जाति-धर्म का सुधारकर्ता!

उन्होंने ‘ला इलाह इल्लल्लाह’
‘एको ब्रह्म दूजा नास्ति’ जैसा
एक ईश्वर के सिवा कोई नहीं दूजा कहकर
प्रतिबंधित किया बहुदेव-प्रकृति-मूर्ति पूजा!

क्षुब्ध हुए मक्का वासी हजरत मुहम्मद को
मिली गृह छोड़ने की सजा
सोलह जुलाई छः सौ बाईस ईस्वी में
हजरत मुहम्मद ने हिजरत यानि प्रस्थान किया
मक्का छोड़ मदीना में शरण लिया!

पैगम्बर थे क्रांतिवादी सिद्ध किया
उन्होंने अपनी सुधारवादी नीति
उम्र में बड़ी विधवा महिला से करके शादी!

हज़रत मुहम्मद अशिक्षित किन्तु ध्यानी थे
उन्हें ध्यान के दौरान देवदूत जेब्रील से मिला
ईश्वरीय ज्ञान का पता, कहलाने लगे तबसे
अल्लाह के प्रतिनिधि नबी रसूल अलबत्ता!

अल्लाह के रसूल/पैगम्बर/नबी ने बताया
इस्लाम के पाँच उसूल-
पहला; एक अल्लाह के सिवा कोई नहीं दूजा
और वे हजरत मुहम्मद अल्लाह के पैगम्बर!
(ला इलाह इल्लअल्लाह मुहम्मद उर रसूल अल्लाह)

दूसरा; मुस्लिम समाज पढ़ें नमाज रोज पाँच प्रहर!
तीसरा; निर्धन को जकात दो,चौथा; रमजान में रखो रोजा
पांचवां; हज करने जाओ वहाँ जहाँ पैगम्बर का घर!

इस्लाम का ताना बाना पारसी, यहूदी, बौद्ध,
हिन्दू,ईसाई दर्शन से मिलकर बना
और हज़रत मुहम्मद बने अंतिम पैगम्बर
उनके पूर्व अन्यान्य परम्परा वश बहुत हुए पैगम्बर
जिन्हें मुस्लिम करते पैगम्बर सा आदर!

इस्लाम के पूर्व सूत्र सूफी मत में प्रसिद्ध है
एक कहावत- ‘सूफी मत का आदम में बीज वपन,
नूह में अंकुर, इब्राहीम में कली, यहूदी मूसा में विकास,
मसीह (ईसाई धर्म प्रवर्तक) में परिपाक तथा
हजरत मुहम्मद(इस्लाम प्रवर्तक) में मधुर फलागम’

अरब के शामी जाति का सूफीमत यहूदी,
ईसाई, बौद्ध, सनातन धर्म से चलकर
परम्परागत नव इस्लाम की बनी विरासत
इसलिए वैचारिक अंतर के बावजूद
मुसलमान करते यहूदी पैगंबरों के आदर!

ईसा को ईश्वर पुत्र नहीं मानकर भी
ईसाई विश्वास-‘मृत्यु के बाद जीवन’
तथा ‘कयामत के दिन’ की बात
मुस्लिम करते तहेदिल से स्वीकार!

इस्लाम धर्मग्रंथ कुरान में संकलित
ईश्वर प्रेरित जेब्रील प्रदत्त
हज़रत मुहम्मद की बात
हदीस में पैगम्बर मुहम्मद के उपदेश
और सुन्नत में उनकी जीवन चर्या
जीवन पर्यंत सारी वाक्यात!

धर्म और मजहब सारे के सारे है अच्छे सभी,
सभी धर्म प्रवर्तक हैं ईश्वर के प्रतिनिधि नबी,
आत्मा ही क्रमशः महात्मा परमात्मा बन जाती,
देहधारी आत्मा परमात्मा में विकसित हो सकती!

हजरत मुहम्मद के पूर्ववर्ती नूह यानि मनु,
अब्राहम यानि ब्रह्म,राम, कृष्ण,बुद्ध,जिन,
मूसा,ईसा सबके सब प्रतिनिधि हैं ईश्वर के ही!

यहूदी यानि यदुदी प्राचीन चन्द्रकुल के
यदुवंशी क्षत्रिय हैं यहूदी धर्मावलंबी जाति,
सनातन धर्म से ही हुआ यहूदी धर्म विकसित!

यहूदी धर्म से ईसाई, इस्लाम का हुआ प्रवर्तन,
यहूदी, ईसाई, इस्लाम के मूल पुरुष हैं अब्राहम,
अब्राहम हीं हैं हिन्दू धर्म का सृष्टि कर्ता ब्रह्मा
कोई धर्म प्रवर्तक एक दूसरे के होते नहीं विरोधी,
सब हैं पूर्वापर सम्बन्धी मनु पुत्र मानव जाति!

हर धर्म के अनुयाई हैं आपस में भाई-भाई,
हर धर्म के अनुयाई बीच नहीं है कोई खाई,
मानव मात्र सभी एक है, नहीं कोई रुसवाई!

हमें ग्रहण करना चाहिए हर धर्म की अच्छाई,
कोई धर्म ऐसा नही जिसमें निहित नहीं सच्चाई,
सर्व धर्म को मानने में निहित मानव की भलाई!
—विनय कुमार विनायक