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इक शजर ऐसा मोहब्बत का लगाया जाए….

तनवीर जाफ़री

                               देश और दुनिया के सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद एवं चिपको आंदोलन के प्रणेता स्वर्गीय सुंदर लाल बहुगुणा जी के सम्मान में दिल्ली विधानसभा भवन में उनके स्मारक और प्रतिमा का अनावरण कर दिल्ली के मुख्य मंत्री अरविंद केजरीवाल ने आज के कोरोना काल में एक ऐसे महान संत,गांधीवादी व पर्यावरणविद को सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की है जिसका पूरा जीवन पर्यावरण तथा प्रकृति की धरोहरों की रक्षा हेतु संघर्ष  करने में व्यतीत हुआ। पर्यावरण की रक्षा हेतु उनका योगदान पूरे विश्व के लिए सदैव प्रेरणादायी रहेगा। इसके अतिरिक्त दिल्ली विधानसभा परिसर में स्वर्गीय बहुगुणा जी के संघर्षपूर्ण जीवन की यादों को संजोती हुई एक 'स्मृति गैलरी' भी बनाई गई है। केजरीवाल ने बहुगुणा जी की प्रतिमा का अनावरण किया व  उनकी स्मृति में वृक्षारोपण भी किया। बहुगुणा जी सत्ता,आडंबर,स्वार्थपूर्ण राजनीति,सत्ता की चाटुकारिता जैसे सभी प्रपंचों से दूर प्रकृति से प्रेम व अंतरात्मा से पर्यावरण की रक्षा का संकल्प ले चुके एक ऐसे महामानव थे जिन्हें अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार व सम्मानों के अतिरिक्त देश का सर्वोच्च पद्मश्री व पदम् विभूषण पुरस्कार भी मिला था। स्व बहुगुणा जी ने 1987 में दिया गया पदम् श्री सम्मान तो इसलिए अस्वीकार कर दिया था क्योंकि उनके द्वारा किये गए विरोध प्रदर्शनों के बावजूद सरकार ने टिहरी बाँध परियोजना को रोकने से इनकार कर दिया था।     
                                 इसी वर्ष गत 21 मई को 94 वर्ष की आयु में कोरोना संक्रमण के कारण हुए बहुगुणा जी के देहान्त के बाद दिल्ली सरकार द्वारा उनके परिजनों की मौजूदगी में महान पर्यवरणविद के 'चिपको आंदोलन' की याद दिलाने वाले स्मारक का लगाया जाना तथा विधान भवन में उनका चित्र स्थापित करना वास्तव में आज के कोरोना संक्रमण के दौर की सबसे बड़ी ज़रुरत भी है और प्रेरणा भी। मुख्य मंत्री अरविन्द केजरीवाल ने बहुगुणा जी को भारत रत्न देने की मांग भी की है। निःसंदेह वे भारत रत्न के सच्चे हक़दार थे और उन्हें भारत रत्न ज़रूर मिलना चाहिए। कुछ समय पूर्व मुझे अपने परिवार सहित इस महान संत के देहरादून स्थित निवास पर उनका दर्शन करने व कुछ घंटे उनके व उनकी समर्पित जीवन संगिनी आदरणीय विमला बहुगुणा जी के सानिध्य में बिताने का अवसर मिला। इस परिवार की महानता के जो क़िस्से प्रकाशित व प्रसारित होते हैं वे उससे कहीं महान थे। और इसका एहसास उन्हीं लोगों को हो सकता है जो कभी उनसे मिला हो। ख़ुद ज़मीन पर बैठकर अतिथि को कुर्सी पर बैठने को कहना,पास बैठने पर और क़रीब आने को कहना। ऐसा आग्रह करने वाला कोई दूसरा महान शख़्स कम से कम मैं ने तो अपने देश में नहीं देखा। उनके बारे में जितना सुना व पढ़ा वे उससे भी कहीं अधिक 'बुलंद मरतबा' शख़्सियत थे। उच्च कोटि के ब्राह्मण परिवार के होकर भी दलितों के अधिकारों के लिए प्रथम पंक्ति में खड़े होकर संघर्ष करना ,कश्मीर से कोहिमा तक पैदल पहाड़ी क्षेत्रों की यात्रा कर प्रकृति से रूबरू होना ,जैसी अनेकानेक विशेषताओं को अपने आप में समाहित करने वाला व्यक्ति ही सुन्दर और लाल ही नहीं बल्कि इसका बहु (कई ) गुणा भी थे। उनकी मानवीय व सामाजिक चेतना का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि एक उच्च कुलीन ब्राह्मण परिवार में पैदा होने के बावजूद वे भारत विशेषकर वर्तमान उत्तरांचल क्षेत्र में सदियों से चले आ रहे दलित उत्पीड़न के विरुद्ध एक सशक्त आवाज़ थे। उन्होंने उस इलाक़े में अनेक मंदिरों में दलितों को प्रवेश न दिए जाने के विरुद्ध कई बार आंदोलन भी किया। उनका स्पष्ट मानना था कि मानव जाति में परस्पर प्रेम व सौहार्द्र के बिना पर्यावरण की रक्षा करने जैसे बड़े लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता। बहुगुणा जी नाम मात्र गांधीवादी नहीं बल्कि सही मायने में गाँधी जी की सत्य-शांति-सद्भाव-अहिंसा की नीतियों को स्वयं जीने व ताउम्र इसका प्रसार करने वाले 'आदर्श गांधीवाद' के महान  सच्चे अलंबरदार थे।
                                      पिछले दिनों देश में कोरोना संकट काल में ऑक्सीजन की कमी को लेकर जो कोहराम मचा उसे पूरी दुनिया ने देखा। जितना कोरोना संक्रमण ने विचलित किया था,ऑक्सीजन की कमी को लेकर उससे कहीं ज़्यादा हाहाकार मचा। उस समय ऐसी सैकड़ों रिपोर्टस आईं कि ऑक्सीजन की कमी का सामना करने वाले मरीज़ों ने पेड़ों की छाया में आराम कर या बग़ीचों में जाकर शुद्ध प्रकृतिक ऑक्सीजन  ग्रहण कर अपने शरीर के ऑक्सीजन स्तर को सामान्य किया और स्वास्थ्य लाभ उठाया। और इसी संकट के बाद अब यह भी देखा जा रहा है कि पर्यावरण को लेकर आम लोगों में जागरूकता बढ़ी है। सरकारी,ग़ैर सरकारी,सामाजिक तथा निजी स्तर पर वृक्षारोपण के प्रति जागरूकता बढ़ी है तथा इस की मुहिम तेज़ हुई है। यहां तक कि लोगों ने अपने घरों में गमलों में पौधे लगाने तेज़ कर दिये हैं । गोया विनाश रुपी विकास को ही वर्तमान समय का यथार्थ समझने की भूल करने वाले लोगों को अब यह एहसास हो चुका है कि उनके जीवन के लिये सबसे ज़रूरी तत्व ऑक्सीजन की भरपाई उद्योगों या सिलिंडर्स के ऑक्सीजन से नहीं बल्कि क़ुदरत द्वारा प्रदत्त शुद्ध हवा से ही संभव है और इसके लिए पर्यावरण की रक्षा  व वृक्षारोपण सबसे महत्वपूर्ण है।
                                    स्वर्गीय सुन्दर लाल बहुगुणा ने अपने पर्यावरण संरक्षण संबंधी संघर्षपूर्ण जीवन पर आधारित पुस्तक 'Fire in the heart-Fire wood on the back' जिस समय मुलाक़ात के दौरान मुझे भेंट की उस समय उस पुस्तक पर उनके हाथों से लिखी महत्वपूर्ण टिप्पणी- 'Yes to life no to death' का अर्थ वास्तव में पूरे देश को इसी वर्ष अप्रैल-मई के मध्य तब समझ आया जब ऑक्सीजन के बिना लोगों की मौत का आंकड़ा इतना बढ़ गया जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। निश्चित रूप से यह उनकी दूरदर्शिता ही थी जिसकी वजह से उन्होंने पेड़ को काटने से बचाने के लिए 'चिपको आंदोलन' चलाया था।  यह आंदोलन केवल भारत ही नहीं पूरे विश्व में पर्यावरण की रक्षा के लिए एक आदर्श आंदोलन बन गया था। दुनिया के अनेक पर्यावरण प्रेमी पर्यावरण की रक्षा के मन्त्र लेने उनके पास आते जाते रहते थे। पर्यावरण के संबंध में बहुगुणा जी ने विदेशों की भी अनेक यात्राएं कीं व अपने व्याख्यान दिए। आज देश के इस सच्चे व महान सपूत को सच्ची श्रद्धांजलि देने सबसे अच्छा तरीक़ा यही है कि हम प्रकृति प्रेम से पहले मानव प्रेम करना सीखें। और इसके लिए सबसे ज़रूरी है कि हम धर्म-जाति क्षेत्र-भाषा-रंग-भेद आदि सीमाओं व इनके कारण पैदा होने वाले तनाव,सांप्रदायिकता,जातिवाद,अतिवाद व आडंबरों का त्याग करें। अपने जीवन के सभी जन्मदिन दिन व वैवाहिक वर्षगांठ तथा अपने पूर्वजों के स्मृति दिवस जैसे सभी अवसरों पर वृक्षारोपण अवश्य करें। जल को  बर्बाद होने से रोकें। प्रदूषण फैलाने से बचें। यथासंभव पेड़ों का कटान रोकें। और प्रेम व सद्भाव  की शजरकारी (वृक्षारोपण) करें। 
                                                            बक़ौल 'ज़फ़र ज़ैदी' -        इक शजर ऐसा मोहब्बत का लगाया जाये । जिस का हम-साये के आँगन में भी साया जाये ।।

लोकतंत्र के स्तंभों में संतुलन का अभाव

लोकतांत्रिक देशों की कतार में भारत सबसे बड़ा लोकतांत्रिक ,समृद्ध लोकव्यवस्था, धर्मनिर्पेक्षता, व बहुसांस्कृतिकता को समेटे हुए एक अकेला ही देश है ।
इसी लोकतंत्र को बनाये रखने के लिए चार मजबूत स्तम्भो को निर्मित किया गया ।

  1. न्यायपालिका
  2. कार्यपालिका
  3. विधायका
  4. मीडिया

इस चौथे खम्बे को बाकी 3 इकाइयों के काम पर काम निगाह रखने , जनहित की सूचनाये समय पर प्रसारित करने , लोकव्यवस्था निर्माण करने व समाज को एक सूत्र में बांधे रखने के आधार पर रखा गया था । लेकिन मिडिया ने अपने को व्यवसाय निर्मित करने की आहुति में स्वतः झोंका है ,जिसका नकारात्मक पहलू साफ नजर आता है ।
आप ये अंदाजा लगा सकते है कि
भारतवर्ष में केवल कथित हिन्दू मुस्लिम मसलो के अलावा भी एक समाज है ,समाज मे कट्टरता को घोलकर जनता को उसकी मूल आवश्यकताओं से परे रखा जा रहा है जिसका निर्देशन मौजूदा सरकार कर रही है।
मीडिया भी आज अलग विचार और एजेंडे को अपना चुकी है जिसका अपना अपना लक्षित समाज है । जिसमे उसकी विचारात्मकता से जुड़ी खबरों का खूब बोलबाला है ।मीडिया की यह बड़ी जिम्मेदारी बनती है कि सम्वेदनशील स्थितियों में समाज की अखंडता को बनाये रखने, बेबाक व तर्कहीन सूचना को समाज मे फैलाने से बचाने की । विरोधी दलों से मैं पूछना चाहूंगा कि क्या संसद सिर्फ इसीलिए है कि आप वहां बैठकर एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते रहें? संसद के विगत और वर्तमान सत्र में कितने कानून बने, कितने राष्ट्रीय मुद्‌दों पर सार्थक बहस हुई, कितना नीति-निर्माण हुआ- इन सब प्रश्नों के जवाब क्या निराशाजनक नहीं हैं?
जब कार्यपालिका,विधानपालिका और न्यायपालिका का यह हाल है तो बेचारी खबरपालिका क्या करे? जैसा चेहरा होगा, वैसा प्रतिबिंब होगा। टीवी चैनलों पर कोई गंभीर विचार-विमर्श नहीं होता। पार्टी-प्रवक्ताओं की तू-तू, मैं-मैं ने टीवी पत्रकारिता को टीबी (तीतर-बटेर) पत्रकारिता बना दिया है। इस धमाचौकड़ी से हमारे अखबार अभी तक बचे हुए हैं, लेकिन क्या हम आशा करें कि हमारे लोकतंत्र का यह दौर अल्पकालिक सिद्ध होगा और इसके चारों स्तंभ शीघ्र ही अपना-अपना काम सही-सही करने लगेंगे।
संविधान के अनुसार विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका लोकतन्त्र के तीन स्तम्भ हैं लेकिन पत्रकारिता को असंवैधानिक तौर पर लोकतन्त्र का ‘चौथा स्तम्भ’ का स्थान प्राप्त है। पत्रकारिता ही वह शस्त्र है जिसका इस्तेमाल करके जनता के हित में सत्ता से प्रश्न पूछे जाते हैं। सत्ता को जवाबदेह बनाये रखकर आम नागरिक के अधिकारों की सुरक्षा तय की जाती है
मीडिया का काम है सच दिखाना। जनता के विश्वास ने ही इस संस्थान को ‘चौथा स्तम्भ’ का दर्जा दिया है। मीडिया की आज़ादी छीनने की और उसकी आवाज़ दबाने की कोशिशें हमेशा की जाती रही है
चैनल पर ‘लाइव बहस’ चलाने की प्रवृति ने शोर मचाकर झूठ फैलाने की परम्परा स्थापित की है। मीडिया का काम सही खबर देना है, खबरों में सन्तुलन करना नहीं।
भारत देश के संदर्भ में देखे तो स्वतंत्रता के बाद भारत के संविधान की प्रस्तावना में, भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने का संकल्प लिया गया है।।लेकिन हमारे संविधान का लगभग दो-तिहाई भाग अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कानून पर आधारित है। इसका यह अर्थ हुआ कि गुलामी के शासन की पुरानी अवधारणा को स्वतंत्र भारत के संविधान में जगह दे दी गयी और जो जटिल और आम नागरिक के समझ के बाहर है। जिसके कारण भरपूर संसाधन होते हुए भी आज हमारा देश पिछड़ेपन, महँगाई और भ्रष्टाचार से ग्रसित है।हमारे संविधान में सुधार के नाम पर एक के बाद एक संशोधन होते जा रहे, लेकिन ये सभी संशोधन आमजनता के लिए तो ऊँट के मुँह में जीरे के समान नगण्य सिद्ध हुए।
दूसरी कमी,भारत मे निरक्षरता, लिंग भेदभाव, गरीबी, सांस्कृतिक असमानता, राजनीतिक प्रभाव, जातिवाद और सांप्रदायिकता जैसे समस्यायों का सामना करना पड़ता है जो लोकतंत्र के सुचारु कामकाज मे बाधाएं उत्पन्न करते हैं ये सब कारक भारतीय लोकतंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। लेकिन फिर भी हमारा लोकतंत्र कई उतार चढ़ावों और चुनौतियों का सामना करते हुए,समय के साथ समृद्ध होता गया, लोकतंत्र का सबसे मजबूत स्तम्भ विधायिका होती है। जो देश की दिशा और दशा निर्धारित करती है।जिससे साथ दूसरे स्तम्भ मिलकर देश को मजबूती प्रदान करते है। ऐसे में केवल राजनीतिक दलों के भीतर, लोकतंत्र को मज़बूत बनाने के लिए एक मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रूरत है।
पर क्या राजनीतिक पार्टियों संविधान के अनुसार कार्य कर रही हैआज राजनीतिक दलों में ही लोकतंत्र एक बड़ी चुनौती बन गया है। परिवाद वाद, बड़े नेतायों की मनमानी,टिकटों का बंटवारा मे पारदर्शिता न होना राजनीतिक दलों मे आम बात हो गयी है। जिससे उम्मीदवार जो समाज को प्रभावित करता हो या जो धन बली और बाहू-बली हो चुनाव के लिए पार्टी के टिकट वितरण के दौरान ऐसे लोगों को ही तरज़ीह दी जाती है। जिससे जातिवाद,भ्रष्टाचार और अपराधीकरण को बढ़ावा मिलता है।
संविधान में अंग्रेजों के जमाने के कानूनों के कारण राजनीतिक दलों पर नियंत्रण की कोई वैधानिक और बाध्यकारी व्यवस्था नहीं हुई। जिसका असर ये हुआ कि देश मे एक शोषक वर्ग का जन्म होने लगा। राजनीतिक पहुँच वाले व्यक्ति कोई भी अपराध करके साफ बच निकल जाते है। प्रशासन और न्यायालय को डरा-धमकाकर या धन से साफ बच जाते तथा जनता को धन,शराब का लालच देकर या जातियों में बांटकर उनको वोट बैंक बनाकर चुनाव जीत जा रहे हैं। जिससे विधायिका क्षेत्रवादी और जातिवादी हो गयी है। वोट राजनीति और सत्ता की लालसा के कारण भ्रष्टाचार देश की जड़ तक पहुँच गया है।
जहां विधायिका को जनता की अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व करना चाहिए था।वो विधायिका कुछ लोगो के हाथों का खिलौना बन गयी।धन और ताकत सर्वोपरि हो गए।जिसके कारण संसद में धीरे-धीरे चर्चा, बहस और मंथन नगण्य होता जा रहा है और अराजकता, अमर्यादित आचरण और शब्दों का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है । विपक्ष, सत्ता पाने की लालसा मे संसद को रोड पर ला दिया गया। लोकतंत्र के नाम पर देशद्रोही ताकतों के साथ मिलकर बेवजह रोड ब्लॉक करना, धरना-प्रदर्शन करना और सरकारी सम्पत्ति को नुक्सान पहुंचाने की प्रवृत्ति अपनाते जा रहें हैं
आज अजीब सी बेरुखी और बेबसी का माहौल बन गया है। जनता का जर्नादन स्वरूप किताबों में सिमट कर रह गया है। जनता की केवल ‘मतदाता के रूप में पहचान बची है, जिसे देश के कर्णधार अपने हिसाब से इस्तेमाल करते हैं। धार्मिकता, राष्ट्रवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद का चूरन चटाकर और उसके आगे ‘वादों की गाजर लटकाकर जनता को मूर्ख बनाया जा रहा है- जनता मूर्ख बन रही है, बनती रही है। शायद यही लोकतंत्र में ‘लोक का प्रारब्ध है।
लोकतंत्र के भी चार स्तंभ हैं- विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और खबर पालिका। लगता तो यही है कि ‘लोकतंत्र के चारों पांव ठीक काम कर रहे हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि इन ‘पांवों के काम-काज में बुनियादी फर्क आ गया है। इस बात को या तो देखा नहीं जा रहा है या फिर देखकर अनदेखा किया जा रहा है कि या तो एक ‘पांव से दूसरे ‘पांव का काम किया जा रहा है अथवा कोई ‘पांव खुद इतना थक गया है कि उसका किया और न-किया बराबर हो जाता है।
लोकतंत्र के चार ‘पांवों में सबसे ज्यादा सशक्त मानी जाने वाली पत्रकारिता कुछ-कुछ लकवा ग्रस्त सी दिखाई देती है। इसके लिए पत्रकारों को ही दोषी ठहराना उचित नहीं होगा। जिन संस्थानों के मालिक ही सत्ता के आगे दंडवत अवस्था में पड़े हों, जिनमें पत्रकार काम करते हैं- तो केवल पत्रकारों को दोष नहीं दिया जा सकता, नहीं देना चाहिए। दोषी वास्तव में मीडिया संस्थानों के वे मालिक ही ज्यादा हैं, जो सत्ता से नजदीकियां बढ़ाकर अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति करते हैं। बहरहाल, कैसी भी स्थिति हो पत्रकारों को सवाल करने से रोका जाना लोकतंत्र के चौथे चरण या चौथे स्तंभ का अपमान है।लेकिन इसे चुपचाप स्वीकार कर लिया जाएगा क्योंकि मीडिया संस्थानों के मालिक इसी में देश-प्रदेश और अपनी भलाई देखते हैं और बढ़ती बेरोजगारी-बेकारी के दौर में ‘पत्रकार अपनी नौकरी खोना नहीं चाहते हैं।
लोकतंत्र के चार चरणों में से अब केवल न्यायपालिका पर ही विश्वास टिका है,चौथा चरण अपने कर्तव्य से भटककर कहीं और इस्तेमाल हो रहा है। फिर भी कलियुग में इसी चौथे-चरण का सहारा है।

पवार के मोदी से मिलने के मायने

-निरंजन परिहार

वैसे तो देश के दो बड़े नेताओं का मिलना कोई बड़ी खबर नहीं बनता, लेकिन नेता अगर शरद पवार हो, मुलाकात अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हो और मामला महाराष्ट्र का हो, तो सचमुच बड़ी खबर तो बन ही जाता है। क्योंकि महाराष्ट्र में तीन दलों की खिचड़ी सरकार के गठबंधन की गांठ पवार ही है, और बीजेपी उस सरकार के कभी भी गिरने के सपनपाले बैठी है। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात प्रधानमंत्री आवास पर हुई। दोनों नेताओं की करीब एक घंटा मीटिंग चली। इससे एक दिन पहले शरद पवार ने रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और पीयूष गोयल से मुलाकात की थी। अब इन मुलाकातों के कई मायने निकाले जा रहे हैं। और सबसे बड़ी चर्चा यही है कि बीजेपी-एनसीपी मिलकर महाराष्ट्र में सरकार बना सकते हैं, जो कि बीजेपी चाहती भी है।

प्रधानमंत्री मोदी से पवार की इस मुलाकात पर कांग्रेस के दिग्गज नेता सुशील कुमार शिंदे ने कहा है कि पवार साहब और मोदी जरूर मिले होंगे। लेकिन चिंता की कोई बात नहीं है। क्योंकि पवार साहब गुगली फेंकने में माहिर हैं। वे ऐसी गुगली कई बार फेंक चुके हैं। शिवसेना ने भी कहा है कि महाविकास आघाड़ी सरकार में सब कुछ ठीक चल रहा है और साथी पार्टियों के मंत्रियों को जितनी छूट इस सरकार में मिली है, उतनी किसी सरकार में नहीं मिली है। कहा तो पवार की पार्टी के प्रवक्ता नवाब मलिक ने भी है कि बैंक नियामक प्राधिकरण में हुए परिवर्तन को लेकर चर्चा करने के लिए पवार मोदी से मिले हैं। लेकिन बीजेपी इस बात को हवा दे रही है कि आनेवाले दिनों में महाराष्ट्र सरकार गिर सकती है और बीजेपी फिर से सत्ता में आनेवाली है।

वैसे, पीएम मोदी और शरद पवार की मुलाकात के प्रकट कारण कुछ भी बताए जा रहे हैं, लेकिन राजनीतिक मायने यही है कि हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ है, जिसमें महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को मंत्री बनाए जाने की जबरदस्त चर्चा रही। लेकिन मोदी ने फडणवीस को अपनी सरकार में हिस्सा नहीं बनाया। मतलब साफ है कि मोदी भी फडणवीस को प्रदेश में ही बनाए रखना चाहते हैं। महाराष्ट्र में जबसे बीजेपी को छोड़कर शिवसेना ने कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस का दामन थामा है, तब से ही बीजेपी के राजनीतिक समीकरण सुधरने के साथ ही उसकी सरकार फिर से बनने के संकेत दिखाए जाते रहे हैं। शिवसेना ने भी बीच में कहा था कि वह अब भी वहीं पर खड़े होकर इंतजार कर रही है जहां से बीजेपी ने उसका साथ छोड़ा था। लेकिन उसकी अपनी शर्तें हैं।

बीजेपी के महाराष्ट्र में सत्ता में आने की ललक इतनी मजबूत है कि बीजेपी के नेता शिवसेना के दूर चले जाने के बावजूद उसके प्रति अपना प्रेम दर्शाने से कभी नहीं चुकते। वे अकसर शिवसेना के प्रति अपना पुराना स्नेह भाव दिखाते रहते हैं। लेकिन शिवसेना राज्य में बीजेपी के साथ सरकार बनाने के मामले में अपना 50 – 50 वाला फॉर्मूला छोड़ने को बिल्कुल तैयार नहीं है। इसका साफ मतलब है कि ताजा हालात में देवेंद्र फडणवीस शिवसेना के साथ गठबंधन में मुख्यमंत्री नहीं बन सकते। अब बात अगर पवार की पार्टी की करें तो देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री बन सकते हैं। माना जा रहा है कि इसलिए वे केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल नहीं हुए और शरद पवार ने दिल्ली में प्रधानमंत्री से मिलने से पहले पीयूष गोयल और राजनाथ सिंह से अलग अलग मुलाकात की। इसीलिए माना जा रहा है कि कुछ खिचड़ी जरूर पक रही है। क्योंकि बीजेपी पवार की पार्टी एनसीपी के साथ महाराष्ट्र में सरकार बनाएगी, तभी देवेंद्र फडणवीस दोबारा मुख्यमंत्री बन सकते हैं।

लेकिन ये सारी बातें लगभग सपने जैसी अविश्वसनीय है, और कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस और शिवसेना की राजनीतिक हालत देखते हुए तीनों का साथ रहना तीनों के लिए जरूरी है। लेकिन यह भी सच है कि बीजेपी हर हाल में सत्ता में आना चाहती है। क्योंकि 2024 में होनेवाले अगले लोकसभा चुनाव में बीजेपी को हर हाल में पिर से केंद्र में सत्ता में आना ही है। सो, महाराष्ट्र की 48 सीटों में से ज्यादातर पर जीतना जरूरी है। सो, अपना मानना है कि अगले लोकसभा चुनाव से साल भर पहले उद्धव ठाकरे की सरकार तो गिरेगी, और हर हाल में गिरेगी, और बीजेपी शिवसेना या राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ फिर से सत्ता में आएगी। वरना मोदी की 2024 में देश में दिग्विजय यात्रा पूरी होना आसान नहीं है।

जय जगदीश हरे आरति के रचयिता पण्डित श्रद्धाराम फिल्लौरी

आत्माराम यादव पीव
भारतवर्ष ही नहीं अपितु देश-दुनिया में कई देशों के सनातन धर्मावलम्बियों, वैष्णवों, साधु-संतों व ईश्वर के प्रति उत्कट प्रेम करने वाले भक्तों के हृदयों को पण्डित श्रद्धाराम फिल्लौरी द्वारा सन 1870 में 32 वर्ष की आयु में रचित आरति ’’ओम जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे, भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करें’’ पिछले 151 वर्षो से भक्ति-प्रेम की त्रिवेणी में स्नान कराकर समस्त दूषित प्रवृत्तियों को विसर्जित करने का मार्ग प्रशस्त करते आ रही है। समाज के हर वर्ग-तबके के अल्पबुद्धि से लेकर आचार्यो, ज्ञानाचार्यो, कृपाचार्यो, भगवतकथाचार्यो जगतगुरूओं, ज्ञान की साक्षात मूर्तितुल्य स्वामियों, आध्यात्म और ईश्वर प्रेम का पंचामृत में अपनी सर्वोत्कृष्टता को आहूत करने वालो के हृदयंगत भावों में ईश्वर का जो भी चित्र प्रतिबिम्बित होता है उसे प्रसन्न करने के लिये भावनाओं को विस्मृत कर आरति भाव में अनुरक्तित होने वाला स्तुतिगान में ’’ओम जय जगदीश हरें’’का भाव सभी के हृदय की सरलता,निष्कपटता का प्रतीक होकर ईश्वर को रिझाकर उसकी कृपाप्रसाद के रूप में लौकिक वस्तु, सुख की प्राप्ति आदि का सरलतम मार्ग है। पण्डित श्रद्धाराम फिल्लोरी की यह आरति ओम जय जगदीश हरे, एक प्रबल प्रार्थना है और हर मनुष्य की व्यक्तिगत प्रार्थना होकर यह आरति भाव बलवती हो गये वही सामूहिक प्रार्थना में स्थान पाकर यह देश, समाज और राष्ट् की सामूहिक प्रार्थना बनने से यह आरति एक शक्तिउत्पन्न करने वाली श्रद्धा,भक्ति, प्रेम की प्राप्ति का उल्लास बन गयी है जहॉ तल्लीनता और एकाग्रता और शांन्ति का भाव लिये व्यक्ति इसे फलदायक बना देता है।
श्रेष्ठ साहित्यकार श्रद्धाराम जी का जन्म पंजाब के जालन्धर जिले के फुल्लौर नामक ग्राम में 30 सितम्बर सन 1837 में आश्विन मास की शुक्ल प्रतिपदा गुरूवार को नवरात्रि की मंगलबेला ब्रम्हमुर्हुत में 4-5 बजे सुबह उच्च ब्राम्हण कुल के जोशी परिवार में हुआ था। माता का नाम विष्णुदेवी और पिता का नाम जयदयाल था। इनके पिता शक्ति के उपासक एवं उच्च कोटि के ज्योतिषाचार्य थे जिन्हें गायन-कला में सभी राग-रागनियों का पूर्णज्ञान होने से वे गायन-विद्या के कुशल ज्ञाता थे। बचपन में ही पिता से मिली इस विरासत को पाकर श्रद्धाराम की इन विद्याओं में गहन अभिरूचि के शोक का ही परिणाम रहा कि वे इन सब कलाओं में पारंगत हो गये। उन्होंने बाल्यावस्था में सतलज नदी की गोद में तैरना सीखा और तैरते समय शवासन, वीरासन आदि आसन लगाकर घन्टों पानी में योग कर लोगों को अचंभित करते रहे। इनके द्वारा बचपन में ही बाजीगरी एवं जादूगरी का कर्तव्य सीख कर दिखाने का काम शुरू कर दिया था। इसी तरह वे गाने बजाने के रूबाई, ठुमरी के स्वरूप के लक्षण विवेद को कंठस्थ कर चुके थे और सभी रागों को सीखकर निपुण हो गये थे तब इनके पिता के द्वारा संवत 1907 में ब्रम्हवेत्ता स्वामी मइयाराम के हाथों इनका उपनयन संस्कार कराया गया। श्रद्धाराम जी की बुद्धि इतनी पैनी और धारणाशक्ति इतनी प्रबल थी कि ये वर्षो में प्राप्त की जाने वाली विद्या को कुछ ही दिनों में ग्रहण कर लेते थे। इन्होंने 10 वर्ष की अवस्था में संस्कृत भाषा में अपूर्व योग्यता प्राप्त कर व्याकरण, न्याय वेदान्त का अध्ययन करते हुये उपनिषदों, महाभारत, भागवत पुराण आदि का परिशीलन कर सभी के रहस्यमय तत्वों का सूक्ष्मतम परिचय पा लिया और स्वयं कथावाचक बनकर कथावाचकों में श्रेष्ठ स्थान रखने लगे। युवावस्था में इन्होंने उर्दू-फारसी, अरबी, अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त कर इन भाषाओं पर पूर्णाधिकार रखने लगे। रसायनी साधुओं के सम्पर्क में आने पर इनके द्वारा रसायनी विद्या का पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया वहीं संवत 1923 में ये ज्योतिष विद्या के सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्यों के ज्ञात बन गये और कपूरथला नरेश के साथ कश्मीर यात्रा के समय रमलविद्या का विशेष अध्ययन कर आजीवन विद्योपार्जन में लगे रहे।
परमानन्दी गंभीर सागर महर्षि श्रीमद् पण्डित श्रद्धाराम जी महाराज अठवंश योगी सारस्वत ब्राम्हण थे और उन्हें ब्रम्हश्रोति, ब्रम्हनेष्ठि, तत्ववेत्ता,वेदशास्त्रपारगामी, सर्व मतमतान्तर के मर्मज्ञाता,सत-पथ प्रदर्शक, आप्त वक्ता, सदाचार के अवतार,मोहन उपदेष्टा तथा जिन महान आत्माओं ने वेद-वेदान्त रचे, अनेक विद्या प्रगट की, उसी अमोघ देवीमेघा के उच्चत्तर निगमागमकार के रूप में उन्हें तत्समय राजा और प्रजा में गौरव हासिल था। संवत 1914 में पण्डित श्रद्धाराम जी के द्वारा सुनाई जाने वाली कथाओं में महाभारत के प्रति लोगों को गहन रूचि थी और हजारों लोग उन्हें सुनने आते थे तब अंग्रेजों को लगा कि यह पण्डित लोगों को अंग्रेज सरकार के खिलाफ भड़काने का काम कर विद्रोह की तैयारी कर रहा है तब अंग्रेजों ने उनकी लोकप्रियता को देखते हुये कठोर दण्ड देने से जनता में विद्रोह होने के भय से उन्हें बुलाकर फिल्लौर से दो वर्षो के लिये बाहर निकाल दिया । इस प्रतिबन्ध को लुधियाना के पादरी न्यूटन साहिब ने हटवाया तब तक वे इन दो वर्षो मेंं हरिद्वार और ऋषिकेश में संस्कृत के ग्रन्थों के भाषान्तर के अलावा पादरी न्यूटन के आग्रह पर ईसाई धर्म की पुस्तकों का हिन्दी और उर्दू में अनुवाद करने में लगे रहे जो संवत 1918 तक जारी रहा इसके बाद वे संवत 1930 तक देश के विभिन्न हिस्सों में भ्रमणकर धर्मोपदेश देते रहे। कपूरथला के नरेश महाराजा रणधीरसिंह अंग्रेज पादरियों के प्रभाव के वशीभूत होकर ईसाई धर्म अपनाने की तैयारी में थे जिससे पूरे कपूरथला राज्य में प्रजा के भी धर्मान्तरण की तैयारी शुरू हो गयी जिसकी जानकारी पण्डित श्रद्धाराम जी को हुई तब उन्होंने कपूरथला नरेश को एक पत्र लिखकर बिना उनसे मिले, ईसाई धर्म अपनाने से रोका तब उन्होंने श्रद्धाराम जी को आमंत्रित किया। श्रद्धाराम जी आये और हिन्दू धर्म से अपना विश्वास गॅवा चुके नरेश से भेंट की तब उनके व नरेश के बीच लगातार 18 दिन तक विवाद चला जिसमें पण्डित श्रद्धाराम जी की विजय हुई और नरेश की हिन्दू धर्म के प्रति आस्था और गहरी होने से वे हिन्दू बने रहे तथा उनके प्रभाव के कारण हजारों लोग ईसाई धर्म अपनाने को तैयार हुये थे उन्हें राहत के साथ अपने स्वधर्म में बने रहने पर अपार खुशी हुई और पूरा प्रान्त ईसाई होने से बच गया। महाराज रणधीरसिंह ने श्रद्धानन्द जी की प्रकाण्ड विद्ववता के समक्ष नतमस्तक होकर उनका सम्मान करते हुये 500 रूपये वार्षिक वृत्ति से सम्मानित किया। चूंकि उनकी आजीविका का साधन कथावाचन व ज्योतिष रहा था जिसमें वह दौर भी आया जब संवत 1931 में फिल्लौर में होने वाली उनकी नियमित कथा आयोजन में प्रबन्धकों के बीच कहासुनी हो गयी तब उनके द्वारा कथा में आने वाली भारी मात्रा में चढ़ोत्तरी लेने से इंकार कर दिया। तब श्रद्धाराम जी ने लेखन का कार्य अपना लिया और 22 पद्यों के संस्कृत में लिखे संकलन को नित्यप्रार्थना नाम से प्रकाशित कर उसमें लिखे पद्य जो महिमन स्त्रोत की शैली के थे, के माध्यम से अपनी देशव्यापी लोकप्रियता की ओर अग्रसर हुये जिसमें उनका दूसरा संस्कृत संस्करण आत्मचिकित्सा संवत 1934 तथा तीसरा संस्कृत का ही संस्करण सत्यामृत प्रवाह प्रकाशित हुआ। इसके अतिरिक्त भृगुसंहिता, हरितालिका व्रत एवं कृष्णनाम संकीर्तन के अलावा तत्वदीपक, सत्यधर्म मुक्तावली, भाग्ववती उपन्यास, रमल कामधेनु, आदि का लेखन किया जिसमें सत्यधर्म मुक्तावली में आरति आदिक भजनों का संकलन था जिसे तत्समय हर नर-नारीगण उमंग से कंठ करते और प्रेम से नृत्य करते हुये गाकर आत्मविभोर हो जाते थे-
पण्डित श्रद्धाराम ने स्त्रोत ठुमरी में भगवान राम के तीनों लोकों में बसे होने तथा किसी भी प्रकार के शोक आदि में न होने का भाव प्रगट किया है और उन्हें आदि,अनंत और अगोचर तथा पूर्ण परमात्मा बतलाया है। उनके द्वारा की गयी यह स्तुति भक्ति की पराकाष्ठा है-
जय राम रमे तिहुॅ लोकन में, पड़ते कबहॅॅू नहीं शोकन में
वह आदि अनंत अगोचर है, उस पूरण का सबमें घर है।
वह एक अखण्डित आतम हैं, परमेश्वर है परमातम है
वह श्याम न लाल सुपेद नहीं, नित मंगल मूरति खेद नहीं।।
निरवैर निरंजन नायक हो, तुम संतन संग सहायक हो।।
तुम मात पिता हम बाल सबी,तुमको तजके हम जाये कहॉ
तुमरे बिन शीश झुकाये कहॉ, तुम आप ही पंथ दिखाओ हमें।।
तुमको तजके हम जाये कहॉ, तुमरे बिन सीस झुकायें कहॉ
तुम आप ही पंथ दिखाओं हमें, अपने मग आप चलाओ हमें।।
तुम माधव मंगलरूप हरी, सबकी विपदा तुम दूर करी
तुम पाप निवारण कारण हो, मदमोह म्लेछ के मारण हो।
तुम जानत हो सबके मन की, सुध भूलत न हमरे तन की
तुम सदचित आनन्द रूप प्रभु, कलिकाल विनाश अनूप प्रभु।।
जब से जन्मे हम पाप भरे, छल से बल से हम चित्त धरें
तब भी तुम दृष्टि न फेरत हो, नित मात पिता बन टेरत हो।।
तुमरे सम कौन दयाल सदा, तुम ही सब ठौर कृपाल सदा
हमरे सब पाप विनाश करो, श्रद्धा निज भक्ति हृदय में धरों।।
श्रद्धाराम जी ने सर्वेश्वर ईश्वर की महान सत्ता का परिचय देते हुये उनका गुणानुवाद कर उनकी महिमा का सुन्दर चित्रण करते लिखा है कि राम की महिमा अपरम्पपार है जिसका यशगान स्वयं बुद्धिप्रदाता शारदा तक गाते गाते थक चुकी है लेकिन वह उनका भेद नहीं जान सकी और चारों वेदपुराण उनके नाम का महत्व बखान करते है और भगबवान शंकर और सनकादि मुनि जिन्हें नित्य ध्याते है-
नहीं प्रभु अंत तुम्हारों पायो
महिमा गाई थकित भई शारद, नारद मनहि सकुचाओं।
शेषनाग नित रटत अनेक मुख, तबहुं पार न पाओ।।
चारहॅू वेद अनंत कहे नित, शिव सनकादि चुपाओं
भरसत फिरे सदा शशि सूरज, चहुॅू दिशि चित्त चलाओ।
तुम्हरी यिती की ठौर न पाई, अन्त अथाह बताओ।।
कहत न बने न लिखित समावे,यश ताको जग छाओ।।
कहो समान कौन के श्रद्धा, हरि सब सो अधिकाओं।।
यह संसार चार दिनों का मेला है जिसमें जन्म लेने वाले जीव कभी पिता के रूप मेंं तो कभी बेटे के रूप में तो कोई गुरू के रूप में पैदा होतो है। श्रद्धाराम जी यहॉ इस नश्वर शरीर की गति का वर्णन करते हुये संसाररूपी माया में पदार्थो के मोह से मुक्त होने की बात कहते हुये भगवान के चरणों में प्रीति करने की बात कहते है ताकि अगर उनके चरणों में सच्ची प्रीति हो जाये तो सभी बंधनों से मुक्त हुआ जा सकता हैः-
जगत मों चार दिनन को मेलो
कोउ बाप कोउ सुत बन बैठो, कोउ गुरू कोउ चेलो
जल का बूंद गरभ मा बैठत, नख शिख अंग दिखावे।
ब्राम्हण वैश्य देह को मानत है, माटी को ढेलों।
भूपन वस्त्र विविध विधि भोजन, जा तन हेत बटोरे
सो तन श्वासविहीन होत तब, मोल न परत अधेलों
देस्या जगत घूम को बादर,विनसत विलग न लागे
श्रद्धा सो हरि के पद पकरो, फेर न मिले है बेलों।।
श्रद्धाराम जी द्वारा जहॉ अनेक पदों में प्रभु भक्ति के मार्ग का अनुसरण कर उन्हें प्राप्ति के लिये जीव के कर्म की सुन्दरतम व्याख्या करते है वहीं वे कुटुम्ब-परिवार में मिले नाते-रिश्तों की अहमियत को भी प्रकट करते है ताकि सदियों से सोये हुये मानव को अपने मोक्ष के लिये सुझाये साधन से मुक्ति मिल सके। इसके लिये वे सरल शब्दों में कहते है कि कोई भाई-बंधु मित्र नहीं है जिस प्रकार पक्षी एक पेड़ पर आकर रात काटकर चले जाते है, एक नाव में अनेक लोग एक़त्र हो नदी पार करते ही अपनी-अपनी राह ले लेते है उसी प्रकार व्यक्ति अर्थ-काम में लिप्त होकर भगवान के विमुख हो जाता हैः-
रे मन करत का पर मान
कौन तेरो मित्र जग मो कौन बंधु सुजान
एक तरू पर अनेक पंछी रात काटत आन।
कौन का को मीत कहिये, करत गमन विहान।।
चढ़त एक ही नाव बहु जन, होत छनक मिलान।।
पीठ दै दे चलति सब ही, रहति नाहि पछांन
अरथ पर सब होत अपने, कहित प्राण समान
अंत बेमुख होई श्रद्धा सिमिर श्रीभगवान।।

आचार्य श्रद्धाराम ने अपने प्रत्येक भजन-गीत, आरति के अंत में अपने आधे नाम केवल ’’श्रद्धा’’ का प्रयोग किया है चूॅूकि श्रद्धा शब्द द्वार्थ वाचक होने से कर्ता होने का बोध विलुप्त हो जाता है जिसमें रचने वाले का बोध नहीं होता कि किसने रचा है। उनकी लिखी आरति ’ जय जगदीश हरे, भक्त जनों के संकट छिन मूं दूर करें।’’ ने भारत ही नहीं अपितु देश-दुनिया में खूब प्रचार पाकर अमरता पाई है। दुनिया के किसी भी कोने में बसे किसी भी सनातनी हिन्दू धर्मावलम्बी के हृदय में बचपन से ही संस्कारित ओम जय जगदीश हरे आरति की छाप उसके मन में बस गयी और उन्हें कुछ याद रहे या रहे किन्तु सहज-सरल शब्दों में भावपूर्ण होकर इस आरति को याद रखकर गाना उनका नित्यकर्म बन गया। आज देश के हर मंदिर में, कथाकारों के उपदेशों मेंं, साधु-संत महात्माओं के संत्सगों में, गायक-गंधर्वो तथा भजन-मण्डलियों में, साधारण-असाधारण जनों में, जय जगदीश हरे आरति का गायन में कोई भेद न कर सभी एकस्वर में प्रेम से भरे इस आरति को गाकर भक्ति और श्रद्धा से भर जाते है। सत्यधर्म मुक्तावली के मंगलाचरण में पण्डित श्रद्धाराम जी निवेदित करते है कि-
नमो नमो करता पुरूष, भवभय भंजनहार।
नमो नमो परमात्मा, पाप हरण सुखकार। ।
आदि अंत जिसका नहीं, पूरण है सब ठौर।
श्रद्धा नेक प्रणाम है, ताके तुल्य न ओर।।
पण्डित श्रद्धाराम जी ने हिन्दी के अलावा उर्दू, पारसी और पंजाबी में भी अनेक रचनायें लिखी है जिसमें दुर्जन मुख चपेटिका, धर्म कसौटी, धर्म रक्षा, धर्मसंवाद, उपदेशक संग्रह तथा असूले मजाहिब, विशेषरूप से उल्लेखित है। सामाजिक परिस्थितियों एवं धार्मिक विश्वासों के इतिहास की दृष्टि से उनकी रचनायें महत्वपूर्ण है वहीं काव्यरूप भाषा एवं शैली के विकास की दृष्टि से उनका महत्व कम नहीं है। सत्यामृत प्रवाह की भाषा की प्रौढ़ता एवं सम्पन्नता उस युग में हिन्दी गद्यकार की अभिव्यंजना सामर्थ का परिचायक है इसलिये निसन्देह श्रद्धाराम जी को अपने समय का सच्चा हिन्दी हितैशी और लेखक कहने में गर्व होता है।पण्डित श्रद्धाराम शर्मा के विषय में ’’हिन्दी साहित्य के इतिहास’’ के लेखक पण्डित रामचन्द शुक्ल पृष्ठ 515-17 में लिखते है कि आपकी हिन्दी सदा ही अनुपम थी। वर्तमान हिन्दी के गद्य साहित्य के प्रवक्ता में आप भी एक थे। हिन्दी साहित्य की अक्षय निधि के ऐसे ऋषितुल्य पण्डित श्रद्धाराम जी शर्मा का 43 वर्ष की उम्र में ही आषाढ़ वदी 13 संवदत 1938 तदनुसार 24 जून 1881 को देहान्त हो गया। आज भले वे हमारे बीच नहीं है। फिल्लोरी नगरपरिषद में उनकी मूर्ति 20 वर्षो तक अंधेरे कमरे में पड़़ी रही जिसे 1995 में बेअंत सरकार ने गंभीरता से लेते हुये सम्मानित कर फिल्लौर शहर मे ंउनकी मूर्ति लगायी गयी है। यह सुखद ही है कि फिल्लौर शहर में उनके नाम से एक टस्ट काम करता है जो प्रतिवर्ष उनकी जयंती एवं पुण्यतिथि मनाकर उन्हें फिल्लौर में जीवित रखे हुये है जबकि वे ओम जय जगदीश हरे आरति के रूप में हर दिल में जिंदा है।

किसान आंदोलन :: जातिवाद और राजनैतिक महत्वकांक्षा की पूर्ति का जरिया बना आंदोलन

भगवत कौशिक।

पिछले आठ महीने से देश की राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर तीन कृषि कानूनों के विरोध मे चल रहा किसान आंदोलन अब पूरी तरह से राजनैतिक व जातिवाद से प्रेरित हो चुका है।शुरुआत मे जहां सरकार की तरफ से बारह दौर की वार्ता करने के बाद भी किसान नेताओं का अडियल रूख नहीं बदला और 26 जनवरी को दिल्ली मे हिंसा होने के बाद सरकार ने बातचीत का दौर बंद कर दिया।जिसके बाद से आंदोलन को जिंदा रखने की चुनौती ने किसान नेताओं की चिंता बढा दी।आंदोलन की शुरुआत से ही आंदोलन के राजनैतिक होने के आरोप लगते रहे है लेकिन किसान नेताओं दवारा लगातार इन आरोपों को खारिज किया जाता रहा है।
किसान आंदोलन की शुरुआत जहां पंजाब से हुई वहीं इसका प्रभाव केवल तीन राज्यों पंजाब, हरियाणा एंव राजस्थान मे ही देखने को मिल रहा है,इसके पीछे भी दिलचस्प कहानी है। एक तरफ जहां पंजाब व राजस्थान मे कांग्रेस की सरकार है जो आंदोलन के लिए फंडिंग समेत सभी व्यवस्थाएं मुहैया करवा रही है तो वहीं हरियाणा मे बीजेपी के खिलाफ एक विशेष वर्ग खिलाफत का माहौल बनाने की कौशिश कर रह है।हरियाणा मे आंदोलन का प्रभाव जाट बहुल इलाकों व पंजाब के साथ लगते इलाकों मे ही ज्यादा है।इसके साथ साथ आंदोलन स्थलों पर कांग्रेस,कंम्यूनिस्ट पार्टियों सहित विपक्षी दलों दवारा सहयोग किया जा रहा है।

वहीं दूसरी ओर आंदोलन को लीड कर रहे भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत का राजनैतिक रूझान सभी को पता है।वे निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर विधानसभा का चुनाव भी लड चुके है,लेकिन उनको करारी शिकस्त का सामना करना पडा था ।वहीं हाल ही मे संपन्न यूपी पंचायत समिति चुनाव मे भी राकेश टिकैत समर्थित प्रत्याशी को करारी हार का सामना करना पडा।अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा पूरी न होते देख राकेश टिकैत जहां आए दिन पागलों की तरह अनगर्लत ब्यानबाजी कर रहे है वही आज उन्होंने सरकार को देश मे गृहयुद्ध करवाने की धमकी देकर न केवल देशद्रोह का काम किया है अपितु दिखा दिया है कि आंदोलन तो केवल बहाना है,आंदोलन की आड मे बीजेपी व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ माहौल बनाकर राजनैतिक महत्वाकांक्षा पूरी करना है।टिकैत ने कहा कि किसान पंचायत तक सरकार के पास 2 महीने हैं और सरकार मान नहीं रही है। टिकैत ने आगे कहा कि ऐसा लग रहा है कि देश में जंग होगी और गृहयुद्ध होगा।

आंदोलन के तथाकथित सभी किसान नेताओं का कंम्यूनिस्ट पार्टियों से रिश्ता रहा है।जिसके कारण आंदोलन पूरी तरह से किसानों के हाथों से निकलकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि धुमिल करने की कौशिश करने वाले वांमपंथियो के हाथों मे चला गया है।वांमपंथी दल जिनका कभी देश के सात राज्यों मे शासन होता था, अब केवल केरल तक सीमित हो गए है।किसान आंदोलन के जरिए अपने अस्त होते राजनैतिक अस्तित्व को बचाने के लिए इनका संघर्ष जारी है।

किसान आंदोलन अब जहां केवल और केवल भाजपा और सरकार के विरोध का जरिया बन गया है।जिन राज्यों मे भाजपा की सरकार है वहीं प्रदर्शन व भाजपा नेताओं का घेराव किया जा रहा है।जिन राज्यों मे अन्य दलों की सरकार है वहां किसानों की हालत दयनीय होने के बाद भी तथाकथित किसान नेता चुपी साधे हुए है।आंदोलन को चला रहे संगठनों मे सबसे ज्यादा संगठन पंजाब से तालूक रखते है।जब किसान यूनियन के नेता गुरनाम सिंह चढुनी ने अन्य राज्यों की तर्ज पर पंजाब मे भी राजनैतिक तौर पर उतरने व पंजाब के किसानों की दयनीय स्थिति की बात उठाई तो उन्हें सयुंक्त किसान मोर्चे से निलंबित कर दिया गया।

भगवत कौशिक

बत्तियां गुल हैं

  हो गई बत्ती अचानक  गुल,
  करूँ कैसे पढाई|

 हाथ को ना  हाथ पड़ता है दिखाई |
 कॉपियों को पुस्तकों को नींद आई |
 क्या पता बस्ता कहाँ औंधा पड़ा है ?
 आज अपने बोझ से दिन भर लड़ा है |
  हाय उसके फट गए कोने ,
  सभी उधड़ी  सिलाई |
  जोर की बौछार ने पीटी दीवारें 
  तरबतर हो खिड़कियां भी चीख मारें 
   बिजलियों ने बादलों को मार के कोड़े 
   बूँद के गजरथ धरा की और मोडे 
    हो गए बेहाल दरवाजे 
    उन्हें आई रुलाई |
   मोबाईल में जो  टार्च है वह  

जल पड़ी ।
सब और फ़ैलाने उजाला चल पड़ी ।
डूबते वालों को तिनका मिल गया ।
मन कमल सूखा हुआ था खिल गया।

ढूंढ ली माचिस तुरत चिमनी जलाई।

सृष्टि की आदि-ज्ञान-पुस्तक वेद का महत्व और हमारा कर्तव्य

मनमोहन कुमार आर्य

                ऋषि दयानन्द ने अपना जीवन ईश्वर के सत्यस्वरूप की खोज एवं मृत्यु पर विजय पाने के उपायों को जानने के लिये देश के अनेक स्थानों पर जाकर विद्वानों की संगति दुर्लभ पुस्तकों के अध्ययन  में बिताया था। इस प्रयोजन के लिये ही उन्होंने अपने मातापिता सहित बन्धुबान्धवों, कुटुम्बियों जीवन के सभी सुखों का त्याग किया था। ऋषि दयानन्द अपनी आयु के 22वें वर्ष में अपने घर परिवार के सदस्यों से दूर चले गये थे। जीवन का एकएक पल उन्होंने अपने मिशन लक्ष्य को अर्पित किया था। अथक तप पुरुषार्थ से वह अपने उद्देश्य में सफल हुए थे। वह एक सच्चे योगी थे जो लगभग 18 घंटे की निरन्तर समाधि लगा सकते थे। उन्होंने उस समाधि अवस्था को प्राप्त किया था जिसे लाखों व करोड़ों मनुष्यों में कोई एक साधक ही प्राप्त कर पाता है। हम जानते हैं कि समाधि अवस्था में योगी, साधक व उपासक को सर्वव्यापक व सृष्टि के रचयिता ईश्वर का साक्षात्कार होता है। ऋषि दयानन्द समाधि का अभ्यास यदा-कदा नहीं अपितु प्रातः व रात्रि प्रतिदिन दोनों समय करते थे और इस अवधि में उन्हें ईश्वर का साक्षात्कार हुआ करता था। स्वामी दयानन्द जी सिद्ध योगी तो बन ही चुके थे परन्तु वेद व आर्ष विद्या की प्राप्ति उन्हें सन् 1863 में गुरु विरजानन्द सरस्वती से मथुरा में दीक्षा लेने पर हुई थी। विद्या प्राप्ति के बाद ऋषि दयानन्द जी को अपना कर्तव्य निर्धारित करना था। इस कार्य में उनके विद्यागुरु स्वामी विरजानन्द जी ने प्रेरणा व सहयोग प्रदान किया था। उन्होंने ऋषि दयानन्द को बताया था कि वह संसार से अविद्या को दूर करने का प्रयत्न करें जिससे लोग अज्ञान, अन्धविश्वास एवं मिथ्याचारों से बच सकें। मिथ्या भक्ति व उपासना के स्थान पर वह ईश्वर की यथार्थ उपासना को जानकर उसे करें और लाभान्वित हों। उपासना के लाभ ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में वर्णित किये हैं। स्वामी विरजानन्द जी के इस सुझाव को अपनाने से देश व समाज के सभी मनुष्यों सहित प्राणी मात्र का उपकार होना था। ऋषि दयानन्द ने अपने गुरु जी की बात को उचित व हितकर जानकर स्वीकार किया था।

                गुरु विरजानन्द जी से मथुरा से विदा लेकर स्वामी जी आगरा आये थे। आगरा में लगभग 2 वर्ष कुछ कम अवधि तक रहकर अविद्या दूर करने के उपायों सद्धर्म प्रचार की शैली निर्धारित करने पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया था। वेदाध्ययन में सबसे अधिक महत्व वेदांग के अन्तर्गत शिक्षा, व्याकरण एवं निरुक्त का ज्ञान होना होता है। इनकी सहायता से वेदमन्त्रों के प्रत्येक पद का अर्थज्ञान होने सहित मन्त्र के अर्थ तात्पर्य की संगति लगाई जा सकती है। ऋषि दयानन्द इन तीन वेदांगों सहित अन्य तीन वेदांगों छन्द, कल्प एवं ज्योतिष में भी प्रवीण थे। इस कारण उनका किया हुआ वेदभाष्य जहां एक सिद्ध योगी, ऋषि आप्त पुरुष सहित वेदों के अंग एवं उपांगों के विद्वान का किया हुआ भाष्य है, वहीं उनका भाष्य वैदिक परम्पराओं को अपने जीवन में धारण किये हुए एक पूर्ण सिद्ध विद्वान का किया हुआ भाष्य भी है। ऋषि दयानन्द के वेदभाष्य सहित सभी ग्रन्थों का महत्व अवर्णनीय है। ऋषि के ग्रन्थों का अध्ययन करने व उसके अनुकूल आचरण करने से मनुष्य का जीवन सफल होकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होता है। वेदमार्ग पर चलने से सभी मनुष्यों का जीवन सन्तोष व सुखपूर्वक व्यतीत होकर परजन्म को सुधारने व उसकी उन्नति में भी सहायक सिद्ध होता है। अतः संसार में प्रत्येक मनुष्य के लिये ऋषि दयानन्द के वेदभाष्य सहित उनके ग्रन्थों का अध्ययन व आचरण परमधर्म एवं परम कर्तव्य है। जो मनुष्य ऐसा करते हैं वह जन्म-जन्मान्तरों में उन्नति को प्राप्त होकर मानव जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति में अग्रसर होकर लाभान्वित होते हैं। अतः सभी मनुष्यों को अज्ञान दूर करने के लिये सभी प्रकार के स्वार्थों का त्याग कर ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन एवं उनको उपयोगी पाने पर उनका आचरण अवश्यमेव करना चाहिये। मनुष्य जीवन को वैदिक जीवन पद्धति से अच्छी प्रकार जीने का संसार में अन्य कोई मार्ग व जीवन पद्धति नहीं है।

                ऋषि दयानन्द ने वेदों का प्रचार करने से पूर्व वेदों को प्राप्त किया और उनका आद्योपान्त अध्ययन कर उनकी महत्ता की पुष्टि की। उन्होंने पाया कि वेद में सर्वत्र विद्यायुक्त बातें ही हैं और अविद्या किंचित नहीं है। उनके लिए ऐसा करना आवश्यक था, इसलिये कि यदि कोई उनकी मान्यताओं के विरुद्ध प्रमाण उपस्थित कर देता तो उन्हें उत्तर देने में कठिनाई हो सकती थी। वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं, इस निर्णय को करने में स्वामी दयानन्द जी को समय लगा और निश्चय हो जाने पर उन्होंने वेदों का प्रचार करना और वेद विरुद्ध मान्यताओं सिद्धान्तों का खण्डन करना आरम्भ कर दिया। वेद प्रचार से पूर्व वह आश्वस्त थे कि वेदों में तो मूर्तिपूजा का विधान है अथवा ही किसी प्रकार की जड़ मूर्तियों की पूजा की कहीं प्रेरणा ही है। अवतारवाद के समर्थन में भी वेद में कहीं कोई वचन या कथन उपलब्ध नहीं है। मृतक श्राद्ध का भी वेदों में कही उल्लेख नहीं है और ही इसका किसी प्रकार से समर्थन ही होता है। फलित ज्योतिष का प्रचलन भी वेद विरुद्ध था जिसका भी किसी विद्वान को अद्यावधि कोई प्रमाण नहीं मिला है। ऋषि दयानन्द जी की दृष्टि में वेदों का ज्ञान मनुष्यमात्र के लिये था और वेदों पर द्विजेतर लोगों के अध्ययन-अध्यापन पर जो प्रतिबन्ध थे वह भी विद्वानों व पण्डितों के कपोल-कल्पित विधान व विचार थे। ऋषि दयानन्द ने ही स्त्री व शूद्रों सहित प्रत्येक मनुष्य को वेदाध्ययन का अधिकार दिया और इसके समर्थन में यजुर्वेद का एक मन्त्र प्रस्तुत कर सभी जन्मना ब्राह्मणों व विद्वानों को निरुत्तर कर दिया। विवाह के सम्बन्ध में भी ऋषि दयानन्द ने वेदों के अनुकूल मनुस्मृति के तर्क एवं बुद्धियुक्त विधानों का सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों के माध्यम से प्रचार किया। राजनीति विषयक नीतियों के सम्बन्ध में भी वह रामायण एवं महाभारत आदि ग्रन्थों सहित नीति ग्रन्थों को स्वीकार करते थे। सत्यार्थप्रकाश के षष्ठम् समुल्लास में उन्होंने राजधर्म विषयक वेद एवं मुख्यतः मनुस्मृति के आधार पर ही राजधर्म का निरुपण किया है। अतः ऋषि दयानन्द ने वेदों को नित्य एवं ईश्वर प्रणीत न केवल स्वीकार ही किया अपितु इसके अनेक प्रमाण भी अपने ग्रन्थों में दिये हैं।

                ऋषि दयानन्द ने वेदों को युक्ति, तर्क एवं प्रमाणों के साथ सर्वोपरि धर्मग्रन्थ स्वीकार करने सहित वेदों को स्वतः प्रमाण भी स्वीकार किया है। ऋषि दयानन्द को वेद कब, कहां किससे प्राप्त हुए, इस पर ऋषि जीवन से सम्बन्धित साहित्य में प्रकाश नहीं पड़ता। वर्तमान समय में हमें चारों वेद ग्रन्थ रूप में अनेक प्रकाशकों एवं पुस्तक विक्रेताओं से उपलब्ध होते हैं। ऋषि दयानन्द के काल 1825-1883 में वेद किसी पुस्तक विके्रता तथा प्रकाशक आदि से उपलब्ध नहीं होते थे। वेदों का कभी किसी ने प्रकाशन किया हो, इसका उल्लेख नहीं मिलता। उनके समय में प्रा. मैक्समूलर द्वारा अंग्रेजी में अनुदित सम्पादित ऋग्वेद का अनुवाद इंग्लैण्ड से प्रकाशित अवश्य हुआ था। बाद में स्वामी दयानन्द जी को इसकी प्रतियां अपने सहयोगियों से जयपुर के पुस्तकालय से प्राप्त कर देखने के लिये सुलभ हुईं थीं। स्वामी जी से पूर्व आचार्य सायण ने संस्कृत में चतुर्वेद भाष्य किया था। यह भाष्य स्वामी दयानन्द जी को सुलभ था। इसका प्रमाण स्वामी दयानन्द जी द्वारा अपने भाष्य व लेखों में सायण भाष्य की समालोचना व समीक्षा करना है। हम नहीं जानते कि ऋषि दयानन्द के समय व उससे पूर्व सायण का भाष्य देश में किसी प्रकाशक ने प्रकाशित किया था? हो सकता है किया हो और हो सकता है कि न भी किया हो? हमें प्रतीत होता है कि स्वामी दयानन्द जी को वेद प्राप्त करने में भी अत्यधिक पुरुषार्थ करना पड़ा और किसी ऐसे व्यक्ति को ढूढना पड़ा जिसके पास चार वेदों की हस्तलिखित संहितायें थी और जिसने स्वामी जी के अनुरोध करने पर उन्हें चारों वेद भेंट स्वरूप प्रदान किये थे। हमारा अनुमान है कि धौलपुर या करौली आदि किसी स्थान से स्वामी जी को यह वेद प्राप्त हुए थे और उसके बाद जब वह सन् 1867 के हरिद्वार के कुम्भ में पहुंचे थे तो चारों वेद उनके पास उपलब्ध थे। इसका उल्लेख पं0 लेखराम जी लिखित ऋषि जीवन चरित में मिलता है। ऋषि जीवनचरित में वर्णन हुआ है कि हरिद्वार के कुम्भ मेले में देहरादून के कबीर पंथी साधु स्वामी महानन्द जी ने ऋषि दयानन्द के डेरे में चारों वेद देखे थें व इनके विषय में ऋषि दयानन्द से बातें की थी। ऋषि दयानन्द ने वेद प्राप्ति में जो पुरुषार्थ किया वह अत्यन्त प्रशंसनीय है। यदि वह वेद प्राप्त कर वेदों का प्रचार करने सहित वेद भाष्य का महान कार्य न करते तो आज हम वेदों के मन्त्रों के सत्य अर्थों से वंचित रहते। स्वामी जी ने वेद भाष्य करते हुए जिस प्रकार प्रत्येक मन्त्र का पदच्छेद, अन्वय, संस्कृत भाषा में पदार्थ, हिन्दी भाषा मंे पदार्थ तथा भावार्थ दिया है और कुछ स्थानों पर कुछ मन्त्रों के सायण आदि भाष्यकारों की समालोचनायें भी की हैं, वह ऋषि दयानन्द जी के उच्च कोटि के ज्ञान, उनकी योग्यता, ईश्वर के उन पर सहाय एवं तप व पुरुषार्थ के कारण सम्भव हुआ है। हमें यह सब लाभ ऋषि दयानन्द के वेदभाष्य एवं इतर ग्रन्थों के अध्ययन से अनायास ही सरलता, अल्प प्रयास व पुरुषार्थ से प्राप्त हो जाते हैं। इस कारण हम वेद भाष्य का महत्व नहीं जानते। वेद हमारा सर्वस्व हैं। वेद साक्षात् ईश्वर की वाणी व उनका दिया हुआ ज्ञान है। वेद मन्त्रों के कर्ता ऋषि नहीं अपितु इन मंत्रों के कर्ता व प्रदाता स्वमेव परमेश्वर हैं। इस दृष्टि से वेद के प्रत्येक मन्त्र, प्रत्येक पद व शब्द का महत्व है। हमें अपने जीवन में वेदों के स्वाध्याय को महत्व देना चाहिये। वेदों के प्रचार एवं वेदाचरण से ही मनुष्यों के मध्य खड़ी की गईं मत-मतान्तर एवं जातिवाद सहित ऊंच-नीच की अवांछनीय दीवारों को ध्वस्त किया जा सकता है और एक श्रेष्ठ विचारों वाले विश्व व समाज का निर्माण किया जा सकता है। हमें वेदों का स्वाध्याय करने के साथ अपने निकटवर्ती बन्धुओं में भी वेदों के सन्देश को पहुंचाना है। इसीसे मानवमात्र का हित होगा।

ग्लोबल वार्मिंग बढ़ा रही आकाशीय बिजली की तीव्रता और आवृत्ति

हाल ही में राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में आकाशीय बिजली गिरने (वज्रपात) से कम से कम 74 लोगों की मौत हो गई। इनमें से 42 मौतें अकेले उत्तर प्रदेश में दर्ज की गईं, जिसमें प्रयागराज 16 मौतों के साथ चार्ट में सबसे ऊपर था। जयपुर के पास आमेर किले में बिजली गिरने से 11 पर्यटकों की जान चली गई। वहीँ मध्य प्रदेश ने कम से कम 7 मौतों को रिपोर्ट किया।

आकाशीय बिजली को वैसे तो कमतर आँका जाता है लेकिन वास्तव में ये मनुष्यों के लिए सबसे घातक प्राकृतिक घटना है। मौसम विज्ञानियों के अनुसार, इसे पृथ्वी पर सबसे पुरानी देखी गई प्राकृतिक घटनाओं में से एक के रूप में भी देखा जाता है।

नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो) (NCRB) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में आकाशीय बिजली गिरने और आंधी-तूफान से संबंधित घटनाओं के कारण 2,500 मौतें हुई हैं। वज्रपात सहित आंधी-तूफान भारत में प्राकृतिक आपदा के रूप में अकेला सबसे बड़ा हत्यारा है, जिससे हर साल 2000 से अधिक मौतें होती हैं। नेशनल डिज़ास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी (राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण) (NDMA) के सदस्य राजेंद्र सिंह ने कहा कि वास्तव में, मृतकों की संख्या विश्व स्तर पर बवंडर या तूफान में मारे गए लोगों की तुलना में अधिक है।

यहाँ अब ये जानना ज़रूरी है कि आकाशीय बिजली होती क्या है।

आकाशीय बिजली क्या है?

दरअसल यह बादलों, हवा या जमीन के बीच के वातावरण में इलेक्ट्रिसिटी (बिजली) की एक विशाल चिंगारी है। थंडरक्लॉउड्स (वज्र या गर्जनकारी बादल) के पास लाखों वोल्ट का विद्युत चार्ज (आवेश) होता है और बादल के भीतर ही अलग पोलेरिटी (ध्रुवता) होती हैं। विकास के प्रारंभिक चरणों में, बादल और जमीन के बीच और बादल में पॉजिटिव और नेगेटिव चार्ज के बीच, हवा एक इन्सुलेटर के रूप में काम करती है। जब विपरीत चार्ज पर्याप्त रूप से बढ़ जाता है, तो हवा की यह इन्सुलेट करने की क्षमता टूट जाती है और बिजली का तेज़ी से डिस्चार्ज (निर्वहन) होता है जिसे हम आकाशीय बिजली के रूप में जानते हैं। आकाशीय बिजली थंडरस्टॉर्म क्लाउड (आंधी-तूफ़ान के गर्जनकारी बादल) के भीतर विपरीत चार्जों के बीच (इंट्रा-क्लाउड लाइटनिंग) या बादल में और जमीन पर के बीच विपरीत चार्जों (क्लाउड-टू-ग्राउंड लाइटनिंग) हो सकती है।

बिजली कहाँ गिरती है?

बिजली के लिए सबसे आम लक्ष्य पेड़ और गगनचुंबी इमारतें होती हैं। पहाड़ भी अच्छा निशाना बनाते हैं। इसका कारण यह है कि इनकी चोटी तूफानी क्लाउड बेस (बादल के तल) के करीब होती है। स्काईमेट वेदर के मौसम विज्ञानी जी.पी. शर्मा ने कहा कि, “याद रखें, वातावरण एक अच्छा विद्युत इन्सुलेटर है। बिजली को जितने कम इंसुलेशन में से गुज़ारना पड़ता है, उसके लिए गिरना उतना ही आसान हो जाता है। हालांकि, इसका हमेशा यह मतलब नहीं होता है कि ऊंची वस्तुओं पर ही बिजली गिरेगी। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि चार्ज कहां जमा होता है। भले ही पेड़ों की रेखा पास में ही क्यों न हो, बिजली एक खुले मैदान में जमीन पर भी गिर सकती है।

बिजली कब गिरती है?

पूर्व-मानसून मौसम में तेज़ आंधी के गठन के लिए वायुमंडलीय परिस्थितियां काफी अनुकूल होती हैं। संवेदनशील मौसम की पॉकेट्स होती हैं जो इन तूफानों की क्रूरता को बढ़ाती हैं। जी.पी. शर्मा ने यह भी कहा कि, “बिहार, झारखंड और ओडिशा और उत्तर भारत के सिन्धु–गंगा के मैदानों सहित राजस्थान और उत्तर प्रदेश घातक बिजली गिरने की चपेट में हैं। उत्तर और उत्तर पूर्व पहाड़ी क्षेत्र इस आपदा के लिए प्रवण हैं। तेज गति वाली हवाओं और भारी बारिश के साथ आकाशीय बिजली से एक घातक संयोजन बनता है। नुकसान को कम करने के लिए पर्याप्त सावधानियां ही एकमात्र बचाव हैं।”

आकाशीय बिजली और ग्लोबल वार्मिंग के बीच का गंभीर रिश्ता

हाल के वर्षों में प्राकृतिक खतरों से होने वाले नुकसान में वृद्धि की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है और जलवायु परिवर्तन से ऐसी घटनाओं की और भी खतरनाक होने की संभावना है। इससे अधिक चिंता की बात यह है कि वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण थंडरस्टॉर्म (आंधी-तूफ़ान) / डस्टस्टॉर्म (धूल भरी आंधी) / आकाशीय बिजली की तीव्रता और आवृत्ति दोनों बढ़ने की संभावना है।

देश के विभिन्न भागों में वर्ष भर आंधी-तूफान आते हैं। पर गर्मी के महीनों में उनकी आवृत्ति और तीव्रता अधिकतम होती है: मार्च से जून, जिसे देश में प्री-मानसून सीज़न भी कहा जा सकता है। इसका कारण यह है कि थंडरस्टॉर्मों का सबसे महत्वपूर्ण कारक सतह के स्तर पर वातावरण का तीव्र ताप है, और गर्मी के महीनों के दौरान भूमि द्रव्यमान अधिकतम तपता है।

भारत आमतौर पर इस दौरान बड़े पैमाने पर बिजली गिरते हुए देखता है। हालांकि, इस साल मॉनसून के उत्तर पश्चिम भारत में आगे ना बढ़ने से और मॉनसून में न्यूनतम 10 दिनों की देरी के साथ, बारिश की अनुपस्थिति ने सतह के गर्म होने का रास्ता बनाया है। अब मॉनसून के आने के साथ, आर्द्रता में वृद्धि के कारण थंडरक्लॉउड्स का विकास हुआ और बर्फ के कणों के टकराने से चार्जिंग हुई और बिजली गिरने लगी।

“हम प्री-मानसून सीज़न के दौरान अधिक थंडरक्लॉउड्स का विकास देखते हैं, जिनमें बहुत ऊर्जा होती है। साथ ही, हवाओं के परिवर्तन और उच्च तापमान के कारण वातावरण में बहुत अस्थिरता है। हालांकि, मानसून के मौसम के दौरान, वातावरण काफ़ी स्थिर होता है, तापमान भी गिरता है और कन्वेक्शन (संवहन) कम होता है। इस प्रकार, मानसून के दौरान आकाशीय बिजली की गतिविधि कम होती है। लेकिन यह काफी स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन के कारण बिजली गिरने की घटनाएं बढ़ी हैं,” महेश पलावत, मौसम विज्ञानी, स्काईमेट वेदर ने कहा।

“आकाशीय बिजली आमतौर पर वायु द्रव्यमान के परिवर्तन के समय होती है। जैसा हमने पिछले कुछ दिनों में देखा है। पूरे उत्तर-पश्चिमी मैदानी इलाकों में बदलाव का दौर चल रहा था, प्री-मानसून सीज़न से लेकर मॉनसून तक। इसके कारण, वातावरण अस्थिर था, जिससे क्षेत्र में बिजली गिरने की संभावना बनी हुई थी। वास्तव में, राजस्थान अभी भी अगले एक सप्ताह तक बिजली गिरने की गतिविधियों के लिए अतिसंवेदनशील बना हुआ है,” जी.पी. शर्मा ने जोड़ा।

NDMA द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘थंडरस्टॉर्म एंड लाइटनिंग- टैकलिंग वेदर हैज़र्ड्स’, 1967 से 2012 तक, भारत में प्राकृतिक आपदाओं के परिणामस्वरूप होने वाली मौतों में से लगभग 39 प्रतिशत आकाशीय बिजली गिरने से हुई। वर्ष 2013, 2014 और 2015 में, भारत में आकाशीय बिजली गिरने से क्रमशः 2833, 2582 और 2641 लोगों की जान गई। मई 2018 के दौरान, भारत के कई हिस्सों में भयंकर डस्टस्टॉर्म्स, थंडरस्टॉर्म्स और आकाशीय बिजली गिरने के परिणामस्वरूप राजस्थान, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, उत्तराखंड और पंजाब में बड़ी संख्या में मौतें हुए और लोग घायल हुए।

हालांकि प्री-मानसून के दौरान आकाशीय बिजली की आवृत्ति अधिक होती है, लेकिन मानसून में भी आकाशीय बिजली गिरने की घटनााएँ काफी होती हैं। जी.पी. शर्मा ने आगे कहा, “जैसा कि दोहराया गया है, जब भी वायु द्रव्यमान में परिवर्तन होता है तो आकाशीय बिजली गिरती है। इस प्रकार, मानसून के आगमन के साथ, एक अर्द्ध-स्थायी ट्रफ भी बनता है, जो पूर्व से पश्चिम तक फैला हुआ है। यह ट्रफ उत्तर-दक्षिण यानी सिन्धु-गंगा के मैदानों से हिमालय की तलहटी तक दोलन करता रहता है। इसलिए, जब भी ट्रफ शिफ्ट होती है, तब थंडरक्लॉउड्स बनते हैं और आकाशीय बिजली गिरती है।”

भारत में आंधी-तूफान और बिजली गिरने से हुई वर्षवार जनहानि तालिका 1 में प्रस्तुत की गई है:

एक रिपोर्ट ‘रिलेशनशिप बिटवीन रेनफॉल एंड लइटेनिंग ओवर सेन्ट्रल इंडिया इन मॉनसून एंड प्मप्री मॉनसून सीज़ंस’ (मॉनसून और पूर्व-मॉनसून मौसम में मध्य भारतीय क्षेत्र में वर्षा और बिजली के बीच संबंध’) के अनुसार, प्री-मानसून अवधि के दौरान वर्षा और आकाशीय बिजली के बीच बहुत अच्छा सकारात्मक सहसंबंध देखा जाता है, पर मानसून अवधि के दौरान उनके बीच इतना अच्छा सहसंबंध नहीं होता है। मानसून और प्री-मानसून में वर्षा और आकाशीय बिजली के बीच अलग-अलग संबंधों के लिए मानसून अवधि के दौरान कम क्लाउड बेस (बादल तल) ऊंचाई और कम एयरोसोल एकाग्रता के कारण होने वाले इस अवधि के दौरान कम अपड्राफ्ट को जिम्मेदार ठहराया गया है। इस विश्लेषण से पता चलता है कि सक्रिय मानसून अवधि के दौरान मध्य भारतीय क्षेत्र में गहरी विद्युतीकृत संवहन प्रणालियां बनती हैं; हालांकि, इस अवधि के दौरान संवहनी वर्षा और आकाशीय बिजली की आवृत्ति के बीच संबंध पूर्व-मानसून अवधि की तरह संगत नहीं है।

इस तथ्य के बावजूद कि आकाशीय बिजली का गिरना एक प्रमुख हत्यारा है, इस खतरे को दूर करने के लिए ठोस प्रयास नहीं किए गए थे, और थंडरस्टॉर्म्स और आकाशीय बिजली के गिरने के प्रभाव को कम करने के लिए कोई राष्ट्रीय दिशानिर्देश नहीं थे।

राज्य द्वारा संचालित भारत मौसम विज्ञान विभाग ने आकाशीय बिजली गिरने पर की जाने वाली कार्रवाइयों की एक लंबी सूची जारी की है।

· बाहरी गतिविधियों को स्थगित करें

· 30/30 बिजली सुरक्षा नियम याद रखें: अगर आकाशीय बिजली देखने के बाद आप गड़गड़ाहट सुनने से पहले 30 तक गिनती नहीं कर सकते हैं तो घर के अंदर जाएं। आखिरी बजली की कड़क सुनने के बाद 30 मिनट के लिए घर के अंदर रहें

· खुले में हों तो किसी पेड़ के नीचे आश्रय न लें

· पानी से बाहर निकलें। इसमें सभी छोटी नावों को पानी से बाहर निकालना और तालों, झीलों, जल निकायों से बाहर निकलना शामिल है।

· यदि बाहरी पानी वाले क्षेत्र (जैसे धान की रोपाई आदि) में काम कर रहे हैं, तो तुरंत खेत से बाहर सूखे क्षेत्र (कम से कम खेत की सीमा तक) में चले जाएं

· पक्के घर, पक्के भवन, या हार्ड टॉप ऑटोमोबाइल (एक कनवर्टिबल या खुला ट्रक नहीं) के अंदर जाएं और दरवाजे और खिड़कियां बंद रखें

· खिड़कियों और दरवाजों से दूर रहें और बरामदों पर ना रहें। खिड़कियां बंद करें और बाहर के दरवाजे कसकर सुरक्षित तरीक़े से बंद करें

· बिजली के उपकरणों और लैंडलाइन टेलीफोन के संपर्क से बचें। तूफान आने से पहले ही सब भी इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को अच्छी तरह से अनप्लग करें

· नलसाजी और धातु के पाइप के संपर्क से बचें। हाथ न धोएं, न नहाएं, बर्तन न धोएं और कपड़े न धोएं

· अगर आपके पास फोम पैड या बोरी जैसा इंसुलेशन है, तो उसे अपने नीचे रखें

· यदि कोई आश्रय उपलब्ध नहीं है, तो तुरंत बिजली के क्राउच में बैठें: (उकडूँ बैठें या एक तंग गेंद जैसे अकार में बैठें, बाहें आपके पैरों के चारों ओर लिपटे हुए। अपने पैरों को एक साथ रखें (स्पर्श में), सिर नीचे रखें , कान ढकें, और आंखें बंद करें। वह आपको यथासंभव छोटा लक्ष्य बनाता है। लेटें बिलकुल नहीं।)

बेटी बोझ नहीं, बेटी बरक्कत का सबब

मनोज कुमार
मन के अंधियारे को दूर करने के लिए एक दीपक जलाना जरूरी होता है. और जब भारतीय समाज बेटी की बात करता है तो उसके मन में एक किस्म की निराशा और अवसाद होता है. बेटी यानि परिवार के लिए बोझ. यह किसी एक प्रदेश, एक शहर या एक समाज की कहानी नहीं है बल्कि घर-घर की कहानी है. किसी राज्य या शहर में ऐसी सोच रखने वालों की कमी या अधिकता हो सकती है लेकिन हैं सब इस मानसिक बीमारी से ग्रस्त. मध्यप्रदेश इससे अछूता नहीं था. असमय बच्चियों का ब्याह, स्कूल भेजने में हील-हवाला करना और उनके स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही आम थी. लेकिन साल 2007, तारीख 1 अप्रेल जैसे बेटियों के भाग्य खुलने का दिन था. इस दिन देश के ह्दयप्रदेश अर्थात मध्यप्रदेश बेटियों के भाग्य जगाने के लिए योजना आरंभ की थी-लाडली लक्ष्मी योजना. जैसा कि हमारा मन बना होता है सरकार की योजना है, कुछ नहीं होने वाला. कागज पर बना है और कागज पर ही दम तोड़ देगा. आहिस्ता आहिस्ता समय ने करवट ली और शहर से गांव तक बेटियों के हिस्से में खुशियां दस्तक देने लगी. सालों से सरकारी योजनाओं के बारे में बना भरम टूटने लगा. किसी को यकिन ही नहीं हो रहा था कि बेटी, बोझ नहीं, बेटी बरक्कत का सबब है. और आज जब इसमें एक नया पाठ मुख्यमंत्री शिवराजसिंह लिखते हैं कि लाड़ली लक्ष्मी योजना को शिक्षा और रोजगार से जोड़ा जाएगा तो किसी को शक नहीं होता है. बीते सालों के उनके अपने अनुभव सच के करीब होते हैं तो इस नए सबक पर कैसा शक?
2007 से लेकर 2021 तक की इस योजना की पड़ताल करें तो आप बहुत बारीक नहीं, मोटा-मोटा आंकड़ा भी देखें तो चौंक जाएंगे. इस समय लाडली लक्ष्मी योजना में 39 लाख 37 हजार बालिकाएं पंजीकृत हैं. राज्य में बेटियों को साहस और आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए लाड़ली लक्ष्मी अधिनियम 2018 प्रभावशील है. लाड़ली लक्ष्मी निधि में 9,150 करोड़ रुपए जमा हैं. इस योजना में कक्षा 6 में प्रवेश पर 2 हजार रूपए, कक्षा 9 में प्रवेश पर 4 हजार रूपए, कक्षा 11 में प्रवेश पर 6 हजार रूपए और कक्षा 12 में प्रवेश पर 6 हजार रूपए की छात्रवृत्ति दी जाती है. 5 लाख 91 हजार 203 स्कूल जाने वाली लाडलियों को 136 करोड़ की छात्रवृत्ति का अब तक वितरण किया जा चुका है. 12वीं की परीक्षा में शामिल होने लाडली और 18 वर्ष की आयु तक विवाह न करने तथा 21 वर्ष पूर्ण होने पर एक लाख रुपये भी उसके भावी जीवन के लिए सरकार की ओर से दिया जाता है.
लाडली लक्ष्मी योजना के बाद जैसे मां-बाप का मन बदलने लगा. प्रदेश में लगातार बाल विवाह का ग्राफ गिरने लगा. बेटियों को बरक्कत मानकर उन्हें पढ़ाने पर जोर दिया जाने लगा. उनके स्वास्थ्य को लेकर भी समाज में जागरूकता आयी. लैंगिक विभेद को लेकर भी लोगों का मन बदलने लगा. मध्यप्रदेश में लैंगिग समानता के लिए एक नया माहौल बनने लगा है. लाडली लक्ष्मी योजना के पहले बेटियों को लेकर जो भाव था, वह निराश कर रहा था. हालांकि इसके पहले भी योजनाएं बनी लेकिन वह बेटियों के आंगन में रोशनी पहुंचा पाती, इसके पहले दम तोड़ दे रही थीं.


बेटियों को लेकर लगातार चिंता करने वाले मध्यप्रदेश ने देश के अन्य राज्यों के लिए आदर्श बनकर खड़ा हुआ है. अलग अलग नाम के साथ लाडली लक्ष्मी योजना अन्य राज्यों में लागू है. लाडली लक्ष्मी योजना अपने आरंभिक चरण में लोगों के मन में विश्वास उत्पन्न करने में कामयाब रही. अब इसे विस्तार देते हुए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मंशा जतायी है कि अब एक कदम आगे बढक़र लाड़ली लक्ष्मी योजना को शिक्षा और रोजगार से जोड़ा जाएगा। लाड़ली लक्ष्मी योजना में पंजीकृत बेटियां सशक्त, समर्थ, सक्षम और आत्म-निर्भर बनकर समाज में योगदान दें, इसके लिए लाड़ली लक्ष्मियों को उच्च शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा, रोजगार, स्व-रोजगार आदि के लिए हरसंभव मार्गदर्शन और प्रोत्साहन उपलब्ध कराया जाएगा. लाड़ली लक्ष्मी योजना में बालिकाओं के आर्थिक सशक्तिकरण, कौशल संवर्धन और उन्हें आत्म-निर्भर बनाने के लिए आवश्यक व्यवस्था की जाएगी। 12वीं कक्षा पास करने के बाद लाड़ली लक्ष्मी की रूचि, दक्षता और क्षमता के अनुसार उच्च शिक्षा या तकनीकी/व्यवसायिक शिक्षा के लिए आवश्यक मार्गदर्शन और प्रोत्साहन उपलब्ध कराया जाएगा. इसके पहले लाड़ली लक्ष्मी योजना में पंजीकृत सभी बालिकाओं की शिक्षा की निरंतरता के लिए कक्षावार ट्रेकिंग किये जाने की योजना है. लाड़ली के पहली में प्रवेश लेने से लेकर 12वीं कक्षा तक ट्रेकिंग के लिए पोर्टल विकसित किया जाएगा. पंजीकृत बालिकाओं को 12वीं कक्षा तक पढ़ाई पूरी करने पर आगे की शिक्षा अथवा व्यवसायिक प्रशिक्षण के लिए प्रोत्साहन स्वरूप 20 हजार रूपए की राशि उपलब्ध कराई जाएगी। एक लाख रूपए में से शेष 80 हजार रुपए का भुगतान 21 वर्ष की आयु पूर्ण करने पर होगा। बालिकाओं के सर्वांगीण विकास के लिए योजना को स्वास्थ्य और पोषण से भी जोड़ा जाएगा।
मुख्यमंत्री का मानना है कि लाड़ली लक्ष्मी योजना को आर्थिक सहायता वाली योजना से बाहर लाकर बालिकाओं को यह अनुभव कराना होगा कि वे अपने माता-पिता और समाज के लिए विशेष महत्व रखती हैं। उन्हें विश्वास देना होगा कि वे जीवन में नए आयाम और उपलब्धियां प्राप्त कर सकती हैं। समाज में यह धारणा भी स्थापित करना है कि बेटी बोझ नहीं बुढ़ापे का सहारा है। मध्यप्रदेश देश ह्दय प्रदेश है और यह ह्दय बेटियों के लिए धडक़ता है क्योंकि बेटी और जल हमारा कल बनाती ही नहीं, संवारती भी है.

स्टार्टअप के जरिए रोजगार सृजन कर रहे हैं युवा

सौम्या ज्योत्सना

मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार

युवाओं को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार हमेशा नये कदम उठाती है ताकि युवा अपना रोज़गार का सृजन स्वयं कर सकें। शहरी क्षेत्रों के साथ साथ ग्रामीण क्षेत्रों के युवाओं के लिए भी केंद्र सरकार ने दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल्य योजना की शुरुआत भी की थी ताकि वह अपने स्किल को निखार कर अन्य युवाओं के अंदर भी स्वयं का रोज़गार उत्पन्न करने का जोश भर सकें। यूएनडीपी के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया में 121 करोड़ युवा हैं, जिनमें सबसे अधिक 21 प्रतिशत युवा भारतीय हैं। अगर इन युवाओं को बेहतर स्किल और अवसर उपलब्ध कराए जाएं, तो वह अपनी तरक्की की सुनहरी दास्तां खुद लिख सकते हैं। आज विभिन्न राज्यों के युवा अपने हुनर को पहचान कर न केवल स्टार्टअप शुरू कर चुके हैं बल्कि दूसरों को रोज़गार के अवसर भी उपलब्ध करा रहे हैं। इनमें बिहार के कुछ युवाओं का कार्य भी उल्लेखनीय है।

बिहार को भले ही पिछड़ा राज्य कहा जाता रहा है। लेकिन यहां के युवाओं के हौसले और मेहनत के सामने सारी बातें खोखली लगने लगती हैं। 27 वर्षीय मनीषा राजधानी पटना की रहने वाली हैं। उन्होंने नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ फैशन टेक्नोलॉजी (निफ्ट) हैदराबाद से डिजाइनिंग की पढ़ाई पूरी की है। बड़े संस्थान से पढ़ने के बाद उसे कई मल्टीनेशनल कंपनियों में उच्च वेतनमान पर काम करने का अवसर मिल रहा था। मगर उसने बिहार लौटने का फैसला किया ताकि वह बिहार में महिलाओं को रोज़गार के अवसर उपलब्ध करवा सके। हालांकि इस दौरान मनीषा को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा, लेकिन उन सारी कठिनाइयों को परे रखकर उसने दो साल पहले टिकली नाम से एक स्टार्टअप शुरू किया।

महिलाओं के माथे की बिंदी (जिसे स्थानीय भाषा में टिकली कहा जाता है), से प्रेरणा पाकर ही मनीषा ने अपने स्टार्टअप का नाम रखा। उसने बताया कि वर्तमान में टिकली एक ऐसा ब्रांड बन चुका है, जिससे हर महिला स्वयं को जुड़ा हुआ महसूस करती है। इसके तहत नए और आकर्षक डिजाइन के कपड़ों के आर्डर लिए जाते हैं, जिसे टिकली में काम करने वाली कारीगर महिलाओं द्वारा पूरा किया जाता है। उनकी टीम में कुल मिलाकर 6 लोग हैं, जिनमें मधुबनी पेंटिग समेत सिलाई-कढ़ाई करने वाली महिलाएं भी शामिल हैं। टिकली स्टार्टअप से महिलाओं को अच्छी आमदनी भी हो रही है। हालांकि कोरोना के कारण ऑर्डर कम मिलने से काम की गति थोड़ी धीमी अवश्य पड़ गई थी, मगर लोगों ने दोबारा से ऑर्डर देना शुरू कर दिया है। टिकली के तहत दुल्हन के ब्राइडल सेट और महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले विभिन्न परिधान बनाए जाते हैं। मनीषा अपने काम के प्रचार और प्रसार के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का भी बखूबी इस्तेमाल कर लोगों तक पहुंचने का प्रयास करती हैं। जिससे उनके ब्रांड की पहचान बढ़ती जा रही है, साथ ही लोगों द्वारा बने जान पहचान और काम से प्रभावित होकर भी काफी ऑर्डर मिलते हैं।

मनीषा अपने साथ आने वाली परेशानियों के बारे में बताती हुए कहती है कि बिहार में बाढ़ एक सबसे बड़ी समस्या है, क्योंकि इससे गांव से आने वाले कारीगरों का काम प्रभावित होता है और उनकी आमदनी रुक जाती है। वहीं राज्य में अभी भी लोग कपड़ों की क्वालिटी और डिजाइन को लेकर बहुत अधिक जागरूक भी नहीं हैं, जिस कारण उन्हें नए डिजाइन को अपनाने में समय लगता है। वह कहती है कि बिहार के युवाओं में क्षमता की कोई कमी नहीं है, आईएएस और आईपीएस जैसे प्रतिष्ठित पदों के साथ साथ कई नामी गिरामी कंपनियों के उच्च पदों पर बिहार के युवा आसीन हैं, जो उनकी क्षमता को प्रदर्शित करता है। लेकिन खुद अपने ही राज्य में उन्हें उचित प्लेटफॉर्म नहीं मिलने और कई बार सरकारी उदासीनता के कारण भी बिहार के युवा अन्य राज्यों की ओर पलायन करने पर मजबूर हो जाते हैं।

मनीषा बिहार में सरकार द्वारा युवाओं को आंत्रप्रेनरशिप को लेकर जागरूक करने वाली योजनाओं में होने वाली धांधली पर भी चिंतित नज़र आती हैं। वह कहती है कि कई बार जो लोग स्टार्टअप से नहीं भी जुड़े होते हैं, वह भी पैसों की लालच में इन योजनाओं में भाग लेने लगते हैं। जैसे हाल ही में आए मुख्यमंत्री युवा उद्यमी योजना में भी धांधली की बात सामने आई है। इस योजना में बेरोजगार युवाओं को स्वरोजगार और स्टार्टअप के लिए सरकार 10 लाख रुपयों की राशि प्रदान कर रही है। लेकिन यहां भी लोग पैसों के लालच में धांधली कर रहे हैं। वह कहती हैं कि भले ही सरकार युवाओं के प्रोत्साहन के लिए योजनाएं लेकर आती है लेकिन अवसर का लाभ उन लोगों को मिल जाता है, जो उसके वास्तविक हकदार नहीं होते हैं। इन सब बातों को सरकार को गंभीरता से लेना चाहिए ताकि युवाओं को उनके अनुरूप सही अवसर मिल सके।

युवा केवल व्यवसाय में ही नहीं, बल्कि चिकित्सा के क्षेत्र में भी अपनी प्रतिभा और कौशल का लोहा मनवा रहे हैं। कोरोना काल में चिकित्सकों की कमी के कारण अधिकांश लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ा था। बिहार में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और उसकी गंभीरता को देखते हुए ग्रामीण परिवेश से पटना आए कुछ छात्रों ने समझा और मेडिशाला की नींव रखी। दरअसल पटना बीआईटी के चार छात्रों को अक्सर घर से फोन आते थे और उन्हें डॉक्टर के यहां नंबर लगाने के लिए कहा जाता था, क्योंकि गांवों में बेहतर सुविधाएं नहीं थी। डॉक्टर के यहां नंबर लगा देने के बावजूद भी गांवों से आकर इलाज करवाना लोगों को बहुत महंगा पड़ता था।

गांव वालों की इस मज़बूरी को सीवान जिले के युवा आंत्रप्रेनर अमानुल्लाह ने समझा और इसे दूर करने का बीड़ा उठाया। इसी के साथ उसने अपने तीन दोस्तों के साथ मिलकर मेडिशाला की शुरुआत की। मेडिशाला एक ऐसा एप्प है, जिसके जरिए लोग घर बैठे ही डॉक्टरी परामर्श से सकते हैं। अमानुल्लाह की टीम में तीन और लोग हैं, जिसमें समस्तीपुर से सुमन सौरभ, रांची से ऋतुराज स्वामी और हिलसा से प्रिंस कुमार शामिल हैं। मेडिशाला एप्प के माध्यम से लोग घर बैठे डॉक्टरों के पास नंबर लगा सकते हैं और वीडियो कॉल के जरिए उनसे जड़ भी सकते हैं। वहीं प्रिस्क्रिप्शन भी मरीज के मेल पर भेज दी जाती है। इसकी शुरुआती कीमत 150/- से है। वर्तमान में इस एप्प पर 250 से ज्यादा डॉक्टर्स मौजूद हैं और 8000 से ज्यादा लोगों द्वारा एप्प का इस्तेमाल किया जा रहा है। इतना ही नहीं इस एप्प के माध्यम से मरीज़ बिहार से बाहर के भी फिजिशियन से लेकर विभिन्न रोगों के एक्सपर्टस से भी जुड़ कर उनसे सलाह ले सकते हैं। इस एप्प सफलता से उत्साहित अमानुल्लाह ने बताया कि वर्तमान में उसे और विस्तार करने की योजना पर तेज़ी से काम किया जा रहा है ताकि अधिक से अधिक ग्रामीणों तक इसकी पहुंच संभव हो सके। इस एप्प का मुख्य उद्देश्य आपातकालीन स्थिति में सभी को समान रूप से डॉक्टर्स की सुविधा उपलब्ध कराना है।

बिहार में युवाओं के कौशल और क्षमता की अनगिनत कहानियां मौजूद हैं। आंत्रप्रेनरशिप और स्टार्टअप से जुड़ कर जहां उनकी प्रतिभा सामने आ रही है वहीं इससे समाज को भी लाभ मिल रहा है। कोरोना काल में जिस तरह से लोगों का व्यवसाय प्रभावित हुआ है, ऐसे समय में युवाओं द्वारा अपने स्टार्टअप के माध्यम से उन्हें आजीविका चलाने और रोज़गार मुहैया कराने का जो अवसर प्राप्त हुआ है, वह न केवल समृद्ध समाज के निर्माण की दिशा में एक बेहतर कदम है बल्कि देश की आर्थिक प्रगति में भी मील का पत्थर साबित होगा। ज़रूरत है इन युवाओं की प्रतिभा को पहचानने, उन्हें प्रोत्साहित करने और उचित मंच प्रदान करने की। युवा भारत की यही तस्वीर समृद्ध भारत के निर्माण में सहायक सिद्ध होगी।

कुपोषण एवं भूख की शर्म को दुनिया कैसे धोएं

ललित गर्ग

कोरोना वायरस महामारी से आर्थिक गिरावट आई है और दशकों से भुखमरी एवं कुपोषण के खिलाफ हुई प्रगति को जोर का झटका लगा है। एक नए अनुमान के मुताबिक कोरोना वायरस महामारी से भुखमरी एवं कुपोषण के कारण एक लाख अडसठ हजार बच्चों की मौत हो सकती है। 30 अंतरराष्ट्रीय संगठनों के एक नए अध्ययन के मुताबिक कोरोना वायरस महामारी के कारण आर्थिक गतिविधियां प्रभावित हुईं हैं जिससे भुखमरी बढ़ी है। अध्ययन में कहा गया है कि भुखमरी एवं कुपोषण के खिलाफ दशकों से हुई प्रगति कोरोना महामारी की वजह से प्रभावित हुई है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा भारत सहित पूरे विश्व में भूख, कुपोषण एवं बाल स्वास्थ्य पर चिंता व्यक्त की गई है। यह चिन्ताजनक स्थिति विश्व का कड़वा सच है लेकिन एक शर्मनाक सच भी है और इस शर्म से उबरना जरूरी है।
कुपोषण और भुखमरी से जुड़ी वैश्विक रिपोर्टें न केवल चैंकाने बल्कि सरकारों की नाकामी को उजागर करने वाली ही होती हैं। विश्वभर की शासन-व्यवस्थाओं का नाकामी एवं शैतानों की शरणस्थली बनना एक शर्मनाक विवशता है। लेकिन इस विवशता को कब तक ढोते रहेंगे और कब तक दुनिया भर में कुपोषितों का आंकड़ा बढ़ता रहेगा, यह गंभीर एवं चिन्ताजनक स्थिति है। लेकिन ज्यादा चिंताजनक यह है कि तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद कुपोषितों और भुखमरी का सामना करने वालों का आंकड़ा पिछली बार के मुकाबले हर बार बढ़ा हुआ ही निकलता है। रिपोर्टें बताती हैं कि ऐसी गंभीर समस्याओं से लड़ते हुए हम कहां से कहां पहंुचे है। इसी में एक बड़ा सवाल यह भी निकलता है कि जिन लक्ष्यों को लेकर दुनिया के देश सामूहिक तौर पर या अपने प्रयासों के दावे करते रहे, उनकी कामयाबी कितनी नगण्य एवं निराशाजनक है। कुपोषण, गरीबी, भूख में सीधा रिश्ता है। यह दो-चार देशों ही नहीं, बल्कि दुनिया के बहुत बड़े भूभागों के लिए चुनौती बनी हुई है। दुनिया से लगभग आधी आबादी इन समस्याओं से जूझ रही है। इसलिए यह सवाल तो उठता ही रहेगा कि इन समस्याओं से जूझने वाले देश आखिर क्यों नहीं इनसे निपट पा रहे हैं? इसका एक बड़ा कारण आबादी का बढ़ना भी है। गरीब के संतान ज्यादा होती है क्योंकि कुपोषण में आबादी ज्यादा बढ़ती है। विकसित राष्ट्रों में आबादी की बढ़त का अनुपात कम है, अविकसित और निर्धन राष्ट्रों की आबादी की बढ़त का अनुपात ज्यादा है। भुखमरी पर स्टैंडिंग टुगेदर फॉर न्यूट्रीशन कंसोर्टियम ने आर्थिक और पोषण डाटा इकट्ठा किया, इस शोध का नेतृत्व करने वाले सासकिया ओसनदार्प अनुमान लगाते हैं कि जो महिलाएं अभी गर्भवती हैं वो ऐसे बच्चों को जन्म देंगी जो जन्म के पहले से ही कुपोषित हैं और ये बच्चे शुरू से ही कुपोषण के शिकार रहेंगे। एक पूरी पीढ़ी दांव पर है।’’ कोरोना वायरस के आने के पहले तक कुपोषण के खिलाफ लड़ाई एक अघोषित सफलता थी लेकिन महामारी से यह लड़ाई और लंबी हो गई है।
अध्ययन में यह भी पता चला है कि दुनिया के तीन अरब लोग पौष्टिक भोजन से वंचित हैं। वास्तविक आंकड़ा इससे भी बड़ा हो तो हैरानी की बात नहीं। पर इतना जरूर है इतनी आबादी तो उस पौष्टिक खाद्य से दूर ही है जो एक मनुष्य को दुरूस्त रहने के लिए चाहिए। इनमें ज्यादातर लोग गरीब और विकासशील देशों के ही हैं। गरीब मुल्कों में भी अफ्रीकी, लैटिन अमेरिकी और एशियाई क्षेत्र के देश ज्यादा हैं। गरीबी की मार से लोग अपने खान-पान की बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं कर पाते। अगर शहरों में ही देख लें तो गरीब आबादी के लिए रोजाना दूध और आटा खरीदना भी भारी पड़ता है। राजनीतिक संघर्षों और गृहयुद्धों जैसे संकटों से जूझ रहे अफ्रीकी देशों से आने वाली तस्वीरें तो और डरावनी हैं। खाने के एक-एक पैकेट के लिए हजारों की भीड़ उमड़ पड़ती है। ऐसे में पौष्टिक भोजन की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। महंगाई के कारण मध्य और निम्न वर्ग के लोग अपने खान-पान के खर्च में भारी कटौती के लिए मजबूर होते हैं। ऐसे में एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए निर्धारित मानकों वाले खाद्य पदार्थ उनकी पहुंच से दूर हो जाते हैं। पौष्टिक भोजन के अभाव में लोग गंभीर बीमारियों की जद में आने लगते हैं।
महामारी के डेढ़ साल में कुपोषण के मोर्चे पर हालात और दयनीय हुए हैं। अब इस संकट से निपटने की चुनौती और बड़ी हो गई है। इसके लिए देशों को अपने स्तर पर तो जुटना ही होगा, वैश्विक प्रयासों की भूमिका भी अहम होगी। गरीब मुल्कों की मदद के लिए विश्व खाद्य कार्यक्रम को तेज करने की जरूरत है। विकासशील देशों को ऐसी नीतियां बनानी होंगी जो गरीबी, कुपोषण एवं भुखमरी दूर कर सकें। सत्ताएं ठान लें तो हर नागरिक को पौष्टिक भोजन देना मुश्किल भी नहीं है। लेकिन इसकी सबसे बड़ी बाधा शासन-व्यवस्थाओं में बढ़ता भ्रष्टाचार है। गलत जब गलत न लगे तो यह मानना चाहिए कि बीमारी गंभीर है। बीमार व्यवस्था से स्वस्थ शासन की उम्मीद कैसे संभव है?
आर्थिक सुधारों के क्रियान्वयन के लगभग 30 वर्षों के बाद असमानता, भूख और कुपोषण की दर में वृद्धि देखी जा रही है। हालांकि समृद्धि के कुछ टापू भी अवश्य निर्मित हुए हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी कोविड-19 के असर से पैदा हो रहे आर्थिक एवं सामाजिक तनावों पर विस्तृत जानकारी हासिल की है। भारत को लेकर प्रकाशित आंकड़े चिंताजनक हैं। वैश्विक महामारी से उत्पन्न भुखमरी पर 107 देशों की जो सूची उपलब्ध है, उसके मुताबिक भारत 94वें पायदान पर है। एक तरफ हम खाद्यान्न के मामले में न केवल आत्मनिर्भर हैं, बल्कि अनाज का एक बड़ा हिस्सा निर्यात करते हैं। वहीं दूसरी ओर दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी कुपोषित आबादी भारत में है। भारत में महिलाओं की पचास फीसदी से अधिक आबादी एनीमिया यानी खून की कमी से पीड़ित है। इसलिए ऐसे हालात में जन्म लेने वाले बच्चों का कम वजन होना लाजिमी है। राइट टु फूड कैंपेन नामक संस्था का विश्लेषण है कि पोषण गुणवत्ता में काफी कमी आई है और लॉकडाउन से पहले की तुलना में भोजन की मात्रा भी घट गई है। ऊंचे पैमाने में पारिवारिक आय में भी काफी कमी आई है। महामारी के बाद पैदा हुई भुखमरी, बेरोजगारी और कुपोषण को विस्थापन ने और भयानक बना दिया। कोरोना संकट के दौरान भारत सरकार ने लगभग 75 करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन देने की व्यवस्था संचालित की गई। बावजदू इसके एक सबक संक्रमण संकट का सरकारी वितरण प्रणाली को सुदृढ़ करना भी है।
संक्रमण संकट के दौर में आगामी बजट पर भी सभी वर्गों की निगाह टिकी है। बजट में स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च को बढ़ाना जरूरी हैं। निजी क्षेत्रों की चिकित्सा व्यवस्था ने गरीब और मध्यम वर्ग के मरीजों को लाचार और विवश बनाकर छोड़ दिया है। सरकारी स्तर पर उन्नत स्वास्थ्य सेवाएं विकसित करना होगा जिससे गरीब मरीजों को भी समुचित इलाज सुलभ हो सकें। भारत सरकार एवं वैज्ञानिकों के प्रयास निःसंदेह सराहनीय हैं कि आर्थिक संकट में भी सस्ती वैक्सीन उपलब्ध कराने के सभी प्रयास जारी हैं। केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकार भी स्वास्थ्य बजट में बढ़ोतरी कर अपने नागरिकों को सस्ता एवं स्वच्छ उपचार उपलब्ध करा सके तो कुपोषण, भूखमरी एवं बीमारियों से निजात मिल सकेगा। कुपोषण एवं भूखमरी से मुक्ति के लिये भी सरकारोें को जागरूक होना होगा।

बढ़ती जनसंख्या – घटते संसाधन

आज यह सर्वविदित है कि हमारे प्रिय देश भारत में बढ़ती जनसँख्या एक भयानक रुप ले चुकी है ? जिससे देश में विभिन्न धार्मिक जनसँख्या अनुपात निरंतर असंतुलित हो रहा है। इससे भविष्य में बढ़ने वाले अनेक संकटों का क्या हमको कोई ज्ञान है ? निरंतर बढ़ती हुई जनसंख्या भारत के लिए अभिशाप बन चुकी है। हम अपने अस्तित्व पर आने वाले संकट के प्रति सतर्क व सावधान कब होंगे ? लोकतांत्रिक देश में चुनावी व्यवस्था के आधार पर राष्ट्र की राज्य व्यवस्था का गठन होता है और उसमें सम्मलित होने के लिए देश के समस्त नागरिकों को एक समान अधिकार होता हैं। परंतु एक विशेष सम्प्रदाय के कुछ लोग निरंतर अपनी जनसँख्या बढ़ा रहें है जिससे देश में अनेक राष्ट्रीय व सामाजिक समस्यायें बढ़ रही हैं ।

यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि जब 1947 में पूर्वी और पश्चिमी क्षेत्रों में मुस्लिम बहुसंख्यक हुए तो देश का विभाजन हुआ था। यह जनसंख्या बल का दुष्प्रभाव था जिससे तत्कालीन राजनीति ने विवश होकर धर्म के आधार पर देश का विभाजन किया। लेकिन क्या वह स्थिति पुनः बनें उससे पूर्व ऐसे षड्यंत्रकारियों के प्रति सचेत होना आवश्यक नही होगा? क्या यह अनुचित नही कि जहां जहां मुस्लिम संख्या बढ़ती जाती हैं वहां वहां उनके द्वारा साम्प्रदायिक दंगे भड़काने से वहां के मूल निवासी पलायन करने को विवश हो जाते हैं? तत्पश्चात वहां केवल मुस्लिम बहुल बस्तियां होने के कारण उनमें अनेक अलगाववादी व आतंकवादी मानसिकता पनपने लगती हैं।

इसके अतिरिक्त अधिकांश कट्टरवादी मुस्लिम समाज लोकतांत्रिक चुनावी व्यवस्था का अनुचित लाभ लेने के लिए अपने संख्या बल को बढ़ाने के लिये सर्वाधिक इच्छुक रहते हैं। अधिकांश मुस्लिम बस्तियों में यह नारा लिखा हुआ मिलता है कि “जिसकी जितनी संख्या भारी सियासत में उसकी उतनी हिस्सेदारी” । जनसंख्या के सरकारी आकड़ों से भी यह स्पष्ट होता रहा हैं कि हमारे देश में इस्लाम सबसे अधिक गति से बढ़ने वाला संप्रदाय/धर्म बना हुआ हैं। इसलिए यह अत्यधिक चिंता का विषय है कि ये कट्टरपंथी अपनी जनसंख्या को बढ़ा कर स्वाभाविक रुप से अपने मताधिकार कोष को बढ़ाने के लिए भी सक्रिय हैं। इसको “जनसंख्या जिहाद” कहा जाये तो अनुचित न होगा क्योंकि इसके पीछे इनका छिपा हुआ मुख्य ध्येय हैं कि हमारे धर्मनिरपेक्ष देश का इस्लामीकरण किया जाये।

निसंदेह विभिन्न मुस्लिम देश टर्की, अल्जीरिया, ट्यूनीशिया, मिस्र, सीरिया, ईरान, यू.ऐ. ई. , सऊदी अरब व बंग्लादेश आदि ने भी कुरान, हदीस, शरीयत आदि के कठोर रुढ़ीवादी नियमों के उपरांत भी अपने अपने देशों में जनसंख्या वृद्धि दर कम करी है। फिर भी विश्व में भूमि व प्रकृति का अनुपात प्रति व्यक्ति संतुलित न होने से पृथ्वी पर असमानता बढ़ने के कारण गंभीर मानवीय व प्राकृतिक समस्याऐ उभर रही है।

सभी मानवों की आवश्यकता पूर्ण करने के लिए व्यवसायीकरण बढ़ रहा है। जैसे – जैसे जनसंख्या बढ़ती जा रही हैं वैसे – वैसे संसाधन घटते जा रहे हैं l औद्योगीकरण होने के कारण प्रदूषण बढ़ रहा है व बढ़ती आवश्यक वस्तुओं की मांग पूरी करने के लिए मिलावट की जा रही है। जिससे स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं बढ़ रही है। इसके अतिरिक्त वायु प्रदूषण, कूड़े-कर्कट के जलने पर धुआं, प्रदूषित जल व खादय-पदार्थ, घटते वन व चारागाह, पशु-पक्षियों का संकट, गिरता जल स्तर व सूखती नदियां, कुपोषण व भयंकर बीमारियां, छोटे-छोटे झगड़ें, अतिक्रमण, लूट-मार, हिंसा, अराजकता, नक्सलवाद व आतंकवाद इत्यादि अनेक मानवीय आपदाओं ने भारत भूमि को विस्फोटक बना दिया है। फिर भी जनसंख्या में बढ़ोत्तरी की गति को सीमित करने के लिए सभी नागरिकों के लिए कोई एक समान नीति नही हैं।

प्राप्त आंकडों के अनुसार हमारे ही देश में वर्ष 1991, 2001 और 2011 के दशक में प्रति दशक क्रमशः 16.3 , 18.2 व 19.2 करोड़ जनसंख्या और बढ़ी है। जबकि उपरोक्त वृद्धि के अतिरिक्त बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और म्यांमार आदि से निरंतर आने वाले घुसपैठिये व अवैध व्यक्तियों की संख्या भी लगभग 7 करोड़ होने से एक और गंभीर समस्या हमको चुनौती दे रही है । इसके अतिरिक्त विभिन्न समाचारों से प्राप्त कुछ आंकड़ो व सूचनाओं के अनुसार ज्ञात होता हैं कि जनसांख्यकीय घनत्व के असंतुलित अनुपात के बढ़ने से भी ये विकराल समस्या बहुत बड़ी चिंता का विषय बन चुकी है। सम्पूर्ण विश्व के 149 करोड़ वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में भारत का क्षेत्र मात्र 2.4 प्रतिशत हैं, जबकि हमारी पूण्य भूमि पर विश्व की कुल जनसँख्या लगभग 7.5 अरब का 17.9 प्रतिशत बोझ है | पिछले वर्ष के अनुसार लगभग आज हमारे राष्ट्र की कुल जनसँख्या 134 करोड से अधिक हो चुकी है और जो चीन की लगभग 138 करोड जनसँख्या के बराबर होने की ओर बढ़ रही है | जबकि पृथ्वी पर चीन का क्षेत्रफल हमसे लगभग 3 गुना अधिक है | इस प्रकार हम 402 व्यक्तियों का बोझ प्रति वर्ग किलोमीटर वहन करते है जबकि चीन में उतने स्थान पर केवल 144 व्यक्तियों ही रहते है । इसीप्रकार पाकिस्तान में 260 , नेपाल में 196 , मलेशिया में 97, श्रीलंका में 323 एवं तुर्की में मात्र 97 व्यक्तियों का प्रति वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पालन हो रहा है | हम से ढाई गुना बडे क्षेत्रफल वाले ऑस्ट्रेलिया की जनसंख्या जितनी ही संख्या ‎प्रति वर्ष हमारे देश में बढ़ रही हैं ।

अतः भविष्य में आने वाली पीढ़ियों को शांति, स्वस्थ व सुरक्षित जीवन के साथ साथ समाजिक सद्भाव एवं सम्मानित जीवन जी सके इसलिये हम सब राष्ट्रवादी चिंतित हो रहे हैं। इन चिंताओं के निवारण व देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरुप को बचायें रखने के लिए आज की प्रमुख आवश्यकता है कि सभी नागरिकों के लिए एक समान “जनसंख्या नियंत्रण कानून” बनना चाहिए। इस विकराल राष्ट्रीय समस्या के समाधान के लिए देश का राष्ट्रवादी समाज विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से पिछले 5 वर्षों से सक्रिय हैं।

इस विकराल राष्ट्रीय समस्या के समाधान के लिए अखिल भारतीय संत परिषद के राष्ट्रीय संयोजक यति नरसिंहानंद सरस्वती जी ने अथक परिश्रम करते हुए राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को अपने सैकडों अनुयायियों के साथ देश के विभिन्न भागों में जा जा कर निरंतर ‎रक्त से बार – बार पत्र लिखे और एक बार लम्बे समय तक अन्न त्याग करके अनशन द्वारा भी “जनसंख्या नियंत्रण कानून” बनवाने की मांग को प्रभावकारी बनाने के लिये देशवासियों को इस अभियान से जोड़ने का विशेष दायित्व निभाया था l

इस अभियान के अंतर्गत जिले स्तर पर गोष्ठियां,सभाएं व धरने प्रदर्शन बार-बार होते आ रहे है। इसके अतिरिक्त सुदर्शन न्युज चैनल के स्वामी श्री सुरेश के. चौहान जी ने अपने कर्मठ साथियों के साथ जनजागरण हेतु बीस हज़ार किलोमीटर की राष्ट्रव्यापी यात्रा भी निकाली थी। सामाजिक व धार्मिक सम्मेलनों व व्यक्तिगत स्तर पर भी एक प्रश्नावली के माध्यम से स्थानीय संस्था ने हज़ारों नागरिकों के हस्ताक्षर सहित सर्वे करके भी प्रधानमंत्री जी को भेजे थे। प्रधानमंत्री जी को “जनसंख्या नियंत्रण कानून” बनाने के निवेदन हेतु देश के अनेक क्षेत्रों से लाखों पोस्टकार्ड भी प्रेषित करने का अभियान भी चलाया गया। इस आंदोलन को देशवासियों व अनेक सांसदों का व्यापक समर्थन मिलने के उपरांत वर्तमान केन्द्रीय सरकार के 2019 में पुनः सत्तारूढ़ होने पर सकारात्मक संकेत मिले।

आज विज्ञानमय आधुनिक युग में जब विश्व के अनेक देशों में जनसंख्या नियंत्रण के लिए आवश्यक कानून बनें हुए हैं तो फिर हमारे देश में ऐसा कानून क्यों न बनें ? यह सुखद है कि उत्तर प्रदेश सहित कुछ प्रदेशों में अब इस कानून को बनाने के लिये आवश्यक गतिविधियां आरम्भ हो गयी है l लेकिन विपक्ष में बैठे अनेक स्वार्थी नेता मुस्लिम समाज को भड़काने का कार्य कर रहे हैं l जबकि मुस्लिम समाज की भी उन्नति नियंत्रित जनसंख्या में ही निहित है l अतः जब बढ़ती जनसंख्या के कारण संसाधन घटते जा रहे हैं तो हम सब देशवासियों का यह मुख्य कर्तव्य है कि शासन को जनसंख्या नियंत्रित करने की एक समान राष्ट्रीय नीति निर्मित करने में यथासम्भव सहयोग करें l

विनोद कुमार सर्वोदय