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परशुराम व सहस्त्रार्जुन: कथ्य, तथ्य, सत्य और मिथक

—-विनय कुमार विनायक
हे परशुराम! आप वैशाख शुक्ल अक्षय तृतीया को जन्मे थे,
किन्तु आपकी कृति मानवोचित गौरवशाली व अक्षय कहां?
क्षय-विनाश के सिवा,आपका कौन सा कर्म है भला अच्छा?

आप घोषित मातृहत्यारा और मातृकुल के संहारक भी थे,
जाति पूछकर वरदान व अभिशाप देने की प्रथा आपसे चली,
आपकी शिक्षा संहारक, जातिवादी और अर्थवाद से दूषित थी,
जिससे द्रोणाचार्य जैसी बदनाम गुरु परम्परा चल निकली!

द्रोणाचार्य;आपके शिष्य आपसे आगे बढ़कर बिना शिक्षादान दिए,
अवांछित शिष्य एकलव्य से कटा अंगूठा गुरुदक्षिणा में दान लिए!
इतना ही नहीं अपने कुपुत्र अश्वत्थामा को राजपद दिलाने खातिर,
दूजा शिष्य अर्जुन के बलबूते पर मित्र द्रुपद का राज्य हड़प किए!

आपसे तो कहीं अच्छे थे क्रोधी ऋषि दुर्वासा,
जो पेट भर भोजन खाकर, तृप्त हो जाते थे,
वरदान देने के पूर्व वे जाति नहीं विचारते थे,
अत्रिपुत्र दुर्वासा किसी का वंश नहीं उजाड़ते थे,
उनके ही शुभाशीष से पाण्डु का वंश चला था,
उनके वरदान से पृथा को पुत्र कर्ण मिला था!

पृथा पुत्र पार्थ कर्ण नहीं था श्वेत-लाल-पीला-काला,
कर्ण था देव का दिव्य शिशु, बिल्कुल भोला भाला!
किन्तु खोज ली आपने कर्ण की जाति कुवर्णवाली,
और ब्राह्मणी अहं वश कर्ण को शापित कर डाला!
दी जो शिक्षा आपने उन्हें ब्राह्मण जाति समझकर,
उसको क्षणभर में क्षीण-हीन-दीन-मलीन कर डाला!

जो अजातशत्रु महादानी थे उसे आपकी जाति ने दान लेकर,
और शाप देकर अपने ही सहोदर भाई के हाथों कटा डाला!

आपको कुछ परवर्ती शास्त्र विष्णु के अवतार कहते,
राम पूर्व आप ही राम थे, राम से बड़े परशुराम थे,
पर क्यों नहीं आपने रावण को मारा, भेद खोलिए?

राम पूर्व रावण विजेता; जो एक परमवीर अर्जुन थे,
राम पूर्व कृष्ण के पूर्वज, अर्जुनों में श्रेष्ठ सहस्त्रार्जुन;
हैहय-यदुवंशी सहस्त्रबाहु वो,गाकर जिनकी विरुदावली,
आपके पूर्वज व रावण के पितामह ऋषि पुलस्त्य ने,
दुराचारी रावण को उनकी कारा से मुक्ति दिलाई थी!

अगर रावण से जातिगत रजामंदी व दुर्भिसंधी नहीं थी,
तो रावणविजेता सहस्त्रार्जुन को आपने क्यों मारा था?
रामावतार पूर्व रावण को आपने क्यों नहीं संहारा था?

आप भारतीय संस्कृति के प्रथम मातृहत्यारा ठहरे,
सहस्त्रार्जुन पितृतुल्य मौसा थे,जिनकी हत्याकर के,
मौसी के सुहाग को उजाड़े, झूठे गोहरण के बहाने,
न भूतो ना भविष्यति,परशुराम आप उदाहरण ऐसे!

अगर सत्य में आप होते कोई अवतारी ईश्वर,
तो आपके जीते जी विष्णु क्यों लेते अवतार?
पुनः राम बनकर,एक सूर्यवंशी क्षत्रिय कुलधर?

वस्तुतः आप थे, अताताई रावण से बढ़कर के,
मानव जाति के हत्यारे,मातृघाती व कृतघ्न भी,
दिव्यास्त्र दाता स्व आराध्य देव शंकर के प्रति,
जिनके पुत्र को एकदन्त किए परशु प्रहार से!

जब आपके पिताश्री भार्गव जमदग्नि जीवित थे,
फिर किस पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लिए थे?
पचासी वर्षीय वृद्ध मौसा सहस्त्रार्जुन को मारके?
उनकी निर्दोष संततियों को इक्कीसबार संहारके?
गर्भस्थ शिशुओं की माताओं की पहरेदारी करके?

सहस्त्रबाहु वधपर आपके जीवित पिता ने कहा,
‘हाय परशुराम! तुमने यह बड़ा पाप कर्म किया,
राम! राम! तुम वीर हो, पर सर्वदेवमय नरदेव;
सहस्त्रार्जुन का व्यर्थ ही, क्योंकर वधकर दिया?
“राम राम महाबाहोभवान पापम कारषीत।
अवधीन्नरदेवं यत् सर्वदेवमयं वृथा।“(38.भा.पु.)

सचमुच कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन सर्वदेवमय नरदेव ही थे,
उनके वंशधर विष्णु के अवतार श्री कृष्ण ने कहा था,
‘मेरे ही सुदर्शनचक्र के अवतार कार्तवीर्यार्जुन धरा पर’
‘मम चक्रावतारो हि कार्तवीर्यो धरातले’ (ब्रह्मांड पुराण)
अस्तु हे परशुराम! आप विष्णु के अवतार कदापि नहीं!
प्रश्न चिन्ह है आपके विष्णु के अवतारी कहे जाने पर?

आपने तो विष्णु के अवतार राम तक को दुत्कारा था,
शिव धनुष राम के द्वारा टूटना तो एकमात्र था बहाना,
उद्देश्य था जातीय वर्चस्व व अहंकार को बनाए रखना!

(2)
हे परशुराम! आप होते परमेश्वर के अवतार यदि?
तब सोचता आपकी पूजा-अर्चना-वंदना करने की!

पर हे मातृहत्यारा! कैसे करें कोई वंदना आपकी?
जो हुए नहीं सगी मां-मौसी-मौसेरे भाई के,वे कैसे?
पराई मां-बहन-बेटी,काकी-फूफी-मामी के रिश्तेदार!
आपने लगाया क्षत्रिय नारी के गर्भ पर पहरेदार?
कंश सा किए गर्भस्थ शिशुओं से घृणित व्यवहार?
आपके विदेशी आक्रांताओं जैसे इक्कीसबार कहर से
क्षत्रिय वर्ण वैश्य-शूद्र-अंत्यज जातियों में बिखर गए!

चन्द्रसेन क्षत्रियपुत्र चन्द्रसेनी कायस्थ बने आपसे डरकर,
ऐसे ही ढेर सारी जातियां बन गई क्षत्रिय वर्ण से टूटकर,
गोप,अहीर,जाट,जडेजा,खत्री,सोढ़ी, कलचुरी, कलसुरी,
सुरी,सुढ़ी,शौरि, शौण्डिक,कलाल,जायसवाल, कलवार,
चन्द्र-पुरुरवा-ययाति-यदु-हैहयवंशी क्षत्रिय के दावेदार!

हैहयवंशी क्षत्रिय सहस्त्रार्जुन सपूत जयध्वज से,
तालजंघ,उनसे पांच कुल; भोज,अवन्ती,वीतिहोत्र,
स्वयंजात और शौण्डिकेय क्षत्रिय में बंट गए थे!
“हैहयानां कुला: पंच भोजाश्चावन्तयस्तथा।
वीतिहोत्रा: स्वयंजाता: शौण्डिकेयास्तथैव च।“(अ.पु.)

आपके भय से क्षत्रियों में मचा था ऐसा हाहाकार,
कि कश्यप ऋषि ने आपसे पृथ्वी को दान लेकर,
आपकी शर्त पर क्षत्रियों को क्षत्रियत्व से च्युतकर,
सभी अत्रिगोत्री चन्द्रवंशियों को कश्यप गोत्र देकर,
जीने का अधिकार दिया वैश्य,शूद्र,वनवासी कहकर!

आज अधिकांश जातियां कश्यपगोत्री होती इसी से,
कश्यपगोत्री में सगोत्री विवाह होता इसी कारण से!

“मेकला द्राविड़ा लाटा पौण्ड्रा:कान्वशिरास्तथा।
शौण्डिका दरदा दार्वाश्चचौरा:शबर बर्बरा:।17।
किराता यवनाश्चैव तास्ता क्षत्रिय जाति:।
वृषलत्वमनु प्राप्ता ब्राह्मणामर्षणात्।“18।(म.भा.अ.प.35)

मेकल,द्रविड़, लाट,पौण्ड्र, कान्वशिरा, शौण्डिक, दरद,
दार्व,चौर/चोल,शबर,बर्वर,किरात,यवन सभी क्षत्रिय थे,
ब्राह्मण के अमर्ष से वृषल;क्षत्रिय हो गए निम्नतर!
कोई जाति छोटी-बड़ी नहीं, कृषक,कामगार,कर्मकार,
ताम्रकार, स्वर्णकार, कांस्यकार,केशरी,ठठेरा, कुंभकार,
काश्तकार,वनवासी, सभी ऋषि-मुनि वंशज कर्मवीर!
(3)
कोई मातृहंता! कैसे हो सकते जग के तारणहार?
हे परशुराम! कोई माता, कुमाता कैसे हो सकती?

मां जो संतान को दस माह तक कुक्षि में रक्षा करती!
निज देह नोच के लख्तेजिगर को कोख से निकालती!
वक्ष चीरकर रक्त दूधिया,अमिय क्षीर बनाकर पिलाती!

हे परशुराम!आप वेद में नहीं,पर स्मृति-पुराण में हैं,
‘यत्र नारियंतु पूज्यंते रमंते तत्र देवता’ नहीं पढ़े थे?
‘माता कुमाता न भवति’,किम्वदन्ती नहीं सुने थे?
प्रश्न कि मातृहंता,पितृआज्ञापालक कैसे हो सकते?
क्या यही हमारी सभ्यता, यही पौराणिक संस्कृति?

आपके पिता वैदिक मंत्र द्रष्टा ऋषि या वहशी थे?
आप नादान बालक या होश-हवास युक्त तपी थे?
हे परशुराम! आप मनुस्मृतिकार भृगु प्रपौत्र भार्गव,
क्या आपको मनुस्मृति के सद्श्लोक पे नहीं गर्व?

आपकी माता रेणुका, इच्छवाकु क्षत्रिय राजकन्या थी,
जिसे आपके प्रौढ़ पुरोहित पिता ने कन्यादान में मांगी
रेणुराज प्रसेनजित से, जो वाक्दत्ता थी सहस्त्रबाहु की!

एक राजकन्या बनके अरण्या, बनी पांच ऋषिपुत्रों की
माता; वसुमान,वसुषेण,वसु,विश्वावसु और आपकी भी,
आप कनिष्ठ पर युवा बलिष्ठ,आपके पिता अतिवृद्ध,
माता अवश्य वृद्धा रही होगी, फिर कुमाता कैसे हुई?

हे परशुराम! आपके वृद्ध मंत्र द्रष्टा पिताश्री ने कहा था,
हे पुत्र अपनी पापिनी माता को अभी मार खेद ना कर
और आपने परशु से माता का झटपट सिर छेद किया!
‘जहीमां मातरं पापां मा च पुत्र व्यथां कृता।
तद आदाय परशु रामो मातु:शिरोऽहरत्”।। (म.भा.16/14)

घटना क्या थी, आपकी माता नदी स्नान करने गई थी,
गंधर्वराज चित्ररथ का अपनी रानी के साथ जलक्रीड़ा देख,
उस राजकन्या के मन में वैसी स्वाभाविक लालसा जगी,
और आपने हत्या कर दी, कैसे अवतारी हो बर्वर सनकी?
किस विधि-विधान से नारी की अंतरात्मा परतंत्र नर की?
(4)
हे परशुराम! यदि आप नायक,अत्याचार के शिकार,
तो आपके प्रतिद्वंद्वी सहस्त्रार्जुन को, होना चाहिए,
राम के प्रतिद्वंद्वी रावण जैसा; नारी का अपहर्ता?
कृष्ण प्रतिद्वंद्वी कंश सा;बहन कोख के शिशुघाती?
पाण्डव शत्रु कौरव सा; जर-जमीन-जोरु के हकमार?

किन्तु क्या सहस्त्रार्जुन ऐसे थे या कुछ और थे?
इन तथ्यों पर ब्राह्मणी लेखनी से कर लें विचार!

कार्तिक शुक्ल सप्तमी रविवार, श्रावण नक्षत्र घड़ी,
प्रात:शुभ मुहूर्त में,अत्रिगोत्री महाराज कृतवीर्य रानी
शीलघना पद्मिनी कोख से, अनन्त व्रत पालन से,
कार्तवीर्यार्जुन जन्मे, अनन्त नारायण की कृपा से!
“कार्तिकस्यसिते पक्ष सप्तभ्यां भानुवासरे
श्रवणर्क्षे निशानाये निशिचे सु सुभेदर्णे।“ (स्मृति पु.)

सहस्त्रार्जुन की माता पद्मिनी कोई मामूली नहीं,
वह सूर्यवंशी सत्यहरिश्चन्द्र की विदुषी कन्या थी!

विष्णु का कथन यज्ञ दान तप विनय व विद्या में,
कार्तवीर्यार्जुन की बराबरी कोई राजा नहीं कर सकते!
“न नूनं कार्तृवीर्यस्य गतिं यास्यान्ति मानव:।
यज्ञैर्दानैस्तपोभिर्वा प्रश्रमेण श्रुतेण च।।(वि.पु.अ11/16)

वाल्मीकि ने रामायण में कहा अर्जुन विजेता में
श्रेष्ठ माहिष्मती नगरी के प्रभुत्वसंपन्न राजा थे!

‘अर्जुनो जयताम श्रेष्ठां माहिष्मत्यापति प्रभो’

उस महाबली राजा अर्जुन ने दशानन रावण को,
सहस्त्र भुजाओं में लपेटकर वैसे बंदीगृह में डाला,
जैसे भगवान नारायण ने बली को बांध दिए थे!

“सतु बाहुसहस्त्रेण बलाद् ग्रह्य दशाननम्।
बबन्ध बलवान् राजा बलिं नारायणो यथा।“(उ.का.32/64)
उक्त कथन से प्रमाणित होता कि सहस्त्रार्जुन हीं
नारायण के अवतार थे, जो पचासी वर्ष शासन कर
महाकालेश्वर शिवलिंग में ब्रह्मलीन हो गए थे!

वैशम्पायन मुनि कहते हैं, हरिवंश महापुराण में,
धर्मपूर्वक प्रजारक्षण करनेवाले राजा कार्तवीर्य के
प्रभाव वश किसी की संपत्ति नष्ट नहीं होती थी!
जो व्यक्ति सहस्त्रार्जुन के वृतांत को कहते-सुनते,
उनका धन नष्ट नहीं होता,खोई चीजें मिल जाती!
“अनष्टद्रव्यता यस्य वभूवामित्रकर्शन।
प्रभाषेण नरेन्द्रस्य प्रजा धर्मेण रक्षत:।(अ.33/36)
न तस्य वित्तनाशोऽस्ति नष्टं प्रतिलभेश्च स:।
कार्तृवीर्यस्य यो जन्मकीर्तियेहिद नित्यश:।(अ.33/56)

मत्स्य पुराण का ये कथन है, जो मनुष्य सहस्त्रार्जुन का
प्रात:स्मरण करते,उनका धन नष्ट ना होते, खोए मिलते,
उनकी आत्मा,जो भगवान कार्तवीर्यार्जुन का वृतांत कहते,
यथार्थ रुप में पवित्र और प्रशंसित होकर,रहती स्वर्ग में!
“यस्तस्य कीर्ति येन्नाम कल्य मुस्याय मानव:।
न तस्य वित्तनाश:स्यनाष्टं च लभते पुनः।।
कार्तवीर्यस्य यो जन्म:कथायेदित श्रीमत: यथावत।
स्विष्टपूतात्मा स्वर्गलोक महहीयते।“(म पु 33/52)

हे परशुराम! वेदव्यास का महाभारत में ये कथन,
कार्तवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु शक्तिशाली राजा ने
अपने शौर्य से सागर पर्यंत मही पर किए शासन!
‘कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजाबाहु सहसवान्
येन सागर पर्यन्ता धनुषा निर्जिता मही’
अर्जुन महातेजस्वी सामर्थ्यवान होकर भी संयमी,
ब्रह्मज्ञानी,शरणागत वत्सल, दानवीर, शूरवीर थे!
‘अर्जुनस्तु महातेजा बली नित्यं शमात्यक:
ब्रह्मण्यश्च शरण्यश्च दाता शूरश्च भारत।'(शां.प.49/44)

योगवाशिष्ठ में कहा गया है जिसप्रकार कार्तवीर्य
गृह में प्रतिष्ठित होने से सब दुष्ट भयभीत होते,
विष्णु क्षीरोद में स्थित होने से भू में जीव जीते,
योगी के समान सिद्धियां स्थित होती, स्वर्ग में
इन्द्रासन की इच्छा से यज्ञ किए जाते हैं,वैसे हीं
हजारों में एक सहस्त्रार्जुन ईश्वर के समान होते!
“कार्तवीर्य गृहे तिष्ठान सर्वेषां भयदोऽअभवत्।—
—सहस्त्रेमेकं भवति तथा चास्मिज्जनार्दनक:।“

श्रीमद्देवीभागवत का कथन है हैहयवंश में
उद्भूत सहस्त्रबाहु बलवान,धर्म प्रवृत्त,हरि के
अवतार दत्तात्रेय शिष्य, शाक्त, योगेश्वर थे,
महादानी यजमान वे,थे भार्गव ब्राह्मणों के!
“ कार्तृवीर्येति नामाद्रभूद्धैहय:पृथिवीपति:।
सहस्त्रबाहुर्बलवानर्जुनो धर्मतत्पर:
दत्तात्रेयस्य शिष्योऽभूदवतारो हरेखि।
सिद्ध:सर्वार्थद:शाक्तो भृगणां याज्य एव से:।“(6/56/8-9)

ये योगी अर्जुन खड्गधारी, चक्रधर, धनुर्धर,
सप्त द्वीपों में भ्रमणकर चोर तस्करों पर,
रखके नजर पचासी सवर्ष शासक रहे भूपर!

“स हि सप्तसु द्वीपेषु खड्गी चक्री शरासनी
रथी द्वीपान्युचरन् योगी पश्यति तस्करान्।
पन्चाशीतिसहस्त्राणि वर्षाणां स नराधिप:।
ससर्वरत्न सम्पूर्णश्चक्रवर्ती वभूत ह।“(म.पु.43/25-26)

महाप्रज्ञ राजा कार्तवीर्यार्जुन प्रात:स्मरणीय थे,
सद्भावी,धर्मयुक्त प्रजापालक पुण्य चरित्र थे!
सद्भावेन महाप्रज्ञ:प्रजाधर्मेण पालयन्!
कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बहु सहस्त्रवान।(म.पु.)

श्रेष्ठ धर्मज्ञानी अर्जुन ने सप्तद्वीप में फैली
धरा को बाहुबल से जीतकर दान कर दी थी!
“ददौ स पृथिवी सर्वां सप्त द्वीपाम् सपर्वताम्।
स्वबाहौस्त्रबलेनोजौ जित्वा परमधर्मवित्।“(म.भा.शा.प.49/37)

वस्तुत ये बानगी है थोड़ी, सहस्त्रार्जुन की,
वाल्मीकि रामायण, सभी पुराण,इतिहास में,
सर्वगुणी अर्जुन की भरी पड़ी है विरुदावली!
(5)
हे परशुराम! अब सुनें आप अपना गुणगान,
आपके भृगुगोत्री कन्हैयालाल मा.ला.मुंशी ने
‘लोमहर्षिणि’ में आपकी जन्म कथा कही है,

‘बालक परशुराम का जन्म जिस दिन हुआ,
वह दिन भयानक था, भयानक वर्षा, बादल
गर्जन, विद्युत का रव, बालक जब रोता था,
तब ऐसा लगता जैसे वृषभ (बैल) रंभाता हो,
बड़ा होके वह जो चाहता बल से छीन लेता!
सिर बड़ा उसका, चायमान प्रथम गुरु बना!’

ऐसा ही दुर्योधन के जन्म लेने पर हुआ था,
जब दुर्योधन गदहा के जैसा रेंकने लगा था!
उसके जन्म पे ब्राह्मणों ने भविष्यवाणी की,
यह बालक कुलघाती होगा, सचमुच दुर्योधन
पितृकुलघाती एवं आप मातृहंता-मातृकुलघाती,
आपका आचरण है, विदेशी आक्रांताओं जैसी!

‘भगवान परशुराम’ में कन्हैयालाल मुंशी ने
सहस्त्रार्जुन और आपकी शत्रुता का कारण,
राजा सुदास भगिनी लोमहर्षिणि को बताया,
जिसे सुदास चाहते थे सहस्त्रबाहु से ब्याहना,
पर आप और आपके पिताश्री की चाहत थी,
हो विवाह आपसे जो उम्र में छःवर्ष बड़ी थी!

वैदिक दासराज्ञ और सुदास युद्ध में अर्जुन,
सुदास के पक्षधर थे, दिलाए उन्हें विजयश्री!
पता नहीं उस युद्ध में आप कहां थे किन्तु,
बिना विवाह लोमहर्षिणि को बनाए संगिनी!
फिर पता नहीं आपके विवाह और वंशवृद्धि,
क्योंकि आपसे ना वंश चला,नहीं गोत्र कोई!

ना आप मंत्रद्रष्टा,नहीं वेद ऋचाएं रचना की!
फिर भी आप हैं अजर अमर जीवित पूजित!
व्यक्ति पूजा जाति धर्म नहीं,व्यक्तित्व की होती,
आप जाति वंश के नाम से पूजे जाते आज भी!
भ्रमित है भारत का ब्राह्मण आपके नाम से,
कश्यप-सूर्य-मनु,अत्रि-चंद्र-बुध पूर्वज भारत के!

भार्गव नहीं प्रतिनिधि समग्र ब्राह्मण जन के,
आपकी जाति वंश गोत्र भृगु ऋषि से निसृत,
जो वर्णवादी घृणा-द्वेष ब्राह्मणवाद पोषक थे,
अत्रिगोत्री सहस्त्रार्जुन; कश्यप संतति रक्षक थे,
कन्हैयालाल मुंशी ने कहा दास,द्रविड़,नाग के,
सहस्त्रार्जुन हितैषी होने से, परशुराम शत्रु बने!

युग सच्चाई यह थी, कि भार्गव ब्राह्मणों में
धन प्राप्ति व धनार्जन की लालसा अति थी!
श्रेष्ठ धर्मज्ञानी सहस्त्रार्जुन ने सप्तद्वीप को,
बाहुबल से जीतकर ब्राह्मण को दानकर दी!
किन्तु लोलुपता वश संपत्ति भूमि में गाड़ दी,
कृषिकार्य,जनहित में राजस्वकर अदायगी में,
तत्कालीन भार्गवों में नहीं कोई अभिरुचि थी!

पर भार्गवों की इच्छा थी राजा वन जलावे,
साफकर कृषि योग्य बनाके ब्राह्मण को देदे!
उनकी चाहत थी, गोधन भृगु आश्रम में रहे,
दासों के साथ राजा समता भाव न दिखावे!
चाहत बड़ी थी, मगर हृदय के बड़े खोटे थे,
भार्गवों के जाति अहं के आगे सब छोटे थे!

एक प्रसंग है अग्निदेव ने ब्राह्मण बनकर,
चक्रवर्ती सम्राट सहस्त्रार्जुन से याचना की,
वन जलाकर कृषि योग्य भूमि प्राप्ति हेतु!
ब्राह्मण वेशधारी अग्निदेवता की चपेट में,
दूसरे ब्राह्मण के आश्रम को लपेट में लेली,
भार्गव ने निर्दोष राजा को ब्राह्मण के हाथों,
मृत्यु होने की झूठी भविष्यवाणी कर डाली!

विनयं क्षत्रिया:कृत्वोऽप्ययाचंत धनं बहु:।
न ददुस्तेऽतिलोभार्ता नास्ति नास्तिहीति वादिन:।
(भा.पु.6/1614)

श्रीमद्भागवत का यह कथन स्वयं प्रमाण है
कि सहस्त्रार्जुन नहीं कोई शासक अत्याचारी,
और परशुराम नहीं थे नायक कोई सदाचारी!
वे दुर्भावना से उपजाए सुनियोजित विचार हैं,
किसी सच्चरित्र महामानव के चरित्र हनन के,
सहस्त्रार्जुन ही नहीं राम,कृष्ण, बुद्ध आदि भी,
शिकार हुए समय-समय में ऐसे कूटलेखन के!

अस्तु परशुराम नहीं हैं कोई अवतार ईश्वर के,
वे प्रक्षिप्त विचार हैं, कलुषित मानव मन के!
परशुराम नहीं पवित्र पयस्विनी गंगा जल की,
वे पौराणिक सदाचार में मिलाए गए छल थे!
झूठी जाति अहं घृणा द्वेष छल कपट प्रपंच,
त्याग सदविचार फैलाए जो, श्रेष्ठ ब्राह्मण वे!
—-विनय कुमार विनायक

परशुरामजी : राष्ट्र और समाज निर्माण का अवतार

झूठा है क्षत्रिय विनाश का प्रसंग

— रमेश शर्मा

सृष्टि निर्माण में अवतारों के क्रम में परशुराम जी का अवतार छठें क्रम पर है । सभी अवतारों में परशुराम जी अवतार अकेला ऐसा अवतार है जो अक्षय है, अमर है, वैश्विक है और सर्व व्यापक भी । वे अपने बाद के सभी अवतारों में निमित्त बने हैं । उनका अवतार सतयुग और त्रेता के संधिकाल में वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को हुआ । चूंकि अवतार अक्षय है इसलिये यह तिथि अक्षय तृतीया कहलाई । उनका अवतार एक प्रहर रात्रि रहते हुआ ऋषि कुल में हुआ इसलिये वह पल ब्रह्म मुहूर्त कहलाया । उनके पिता महर्षि जमदग्नि भृगु कुल ऋषि ऋचीक के पूत्र थे तो माता देवी रेणुका राजा रेणु की पुत्री थीं । उनका विवाह स्वयंबर में हुआ था । इस विवाह में ब्रह्मा जी और अन्य सभी देवगण उपस्थित थे । देवताओं खी ओर से जो विशेष भेंट मिलीं उनमें अक्षय पात्र और कामधेनू गाय थी । भगवान् परशुराम जी अपने पाँच भाइयों में सबसे छोटे थे । उनकी एक बहन भी थी । उनके कुल चार नाम थे ।नामकरण संस्कार में उनका “राम” रखा गया । माता उन्हे अभिराम कहती थी । पुराणों में वे भार्गव राम कहलाये और जब भगवान् शिव ने उन्हे दिव्यास्त्र परशु भेंट किया तो वे परशुराम कहलाये । उनके सात गुरु थे । पहली गुरु माता रेणुका, दूसरे पिता महर्षि जमदग्नि, तीसरे गुरू महर्षि चायमान, चौथे गुरू महर्षि विश्वामित्र, पाँचवे गुरू महर्षि वशिष्ठ छठवें गुरु भगवान् शिव और सातवें गुरू भगवान् दत्तात्रेय थे ।

उन्होंने समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण के लिये दो बार विश्व यात्रा की । संसार के हर क्षेत्र में उनकी उपस्थिति के चिन्ह मिलते हैं । उनके आगे चारों वेद चलते हैं । पीछे तीरों से भरा तूणीर रहता है । वे श्राप देने और दंड देने दोनों में समर्थ हैं । वे मानते थे कि व्यक्ति निर्माण में संतुलन होना चाहिए । ज्ञान का भी और सामर्थ्य का भी । सत्य अहिंसा क्षमा और परोपकार युक्त समाज निर्माण उनका लक्ष्य था । वे मानते थे कि धर्म की रक्षा के लिये और सत्य की स्थापना के लिये यदि हिंसा होती है तो वह भी अहिंसा है । इन्हीं मूल्यों की स्थापना के लिये महायुद्ध किये और एक सत्य धर्म से युक्त समाज का निर्माण किया ।

झूठा प्रचार

भगवान परशुराम जी के बारे में एक झूठा प्रचार यह है कि उन्होंने 21 बार क्षत्रियों का विनाश किया । स बसे पहले तो यहकि परशुराम जी अवतार सतयुग के समापन और त्रेता के प्रारम्भ के मिलन विंदू पर हुआ । इस काल में ब्राह्मण और क्षत्रिय शब्द प्रचलन में न थे । ऋषियों और राजाओं को उनके कुलों से जाना जाता था । उस काल में प्लानिंग ऋषियो के हाथ में थी और एग्जिक्यूशन राजाओं के हाथ में थी । यह परम्परा ईसा के चार सो साल बाद तक चली । योजना पूर्वक दोनों में विवाद पैदा किया गया ।

सबसे पहले कालिदास के रघुवंश में यह सन्दर्भ आया और इसके बाद के सारे साहित्य में आने लगा । यह ठीक वेसा ही है जैसे तुलसी दास जी ने पहली बार लक्ष्मण रेखा खींची । इससे पहले किसी राम कथा में लक्ष्मण रेखा नहीं मिलती । लेकिन तुलसी दास के बाद हर साहित्य में रेखा मिलती है । उसी प्रकार रघुवंश के बाद क्षत्रिय लिखा जाने लगा ।

इससे पहले संस्कृत में क्षत्रम् क्षयाय शब्द आया है जिसका अर्थ राज्यों का क्षय होता है न कि क्षत्रिय समूह का ।

कई स्थानों पर क्षत्रपम् विनाशाय शब्द आया । इसका अर्थ राजाओं का विनाश होता है । लेकिन दोनों के हिंदी में क्षत्रिय ही लिखा

वे 21 स्थान हैं और 21 राजा हैं जिनसे संघर्ष हुआ । इन 21 में 7 ब्राह्मणों के और 4 यवनों के हैं जो देश के विभिन कोनो में हुए ।

एक शब्द ब्रह्म द्रुह आया जिसका अर्थ होता है ब्रह्म यनि परमात्मा की परम् सत्ता । ब्रह्म का अर्थ ब्राह्मण या ब्रह्मा न होता । लेकिन हिंदी अर्थ में ब्रह्म द्रुह को ब्राह्मण विरोधी लिखा गया है । ब्रह्म यनि ईश्वर । ब्रह्म द्रोह का अर्थ हुआ जो ईश्वर के विरोधी है जो स्वयं को ही ईश्वर घोषित कर देते हैं या जो ईश्वर का पूजन रुकवाते हैं जैसा रावण ने किया । यह एक समाज को बांटने का बड़ा षडयं त्र है । समाज के प्रबुद्ध वर्ग की ज़बाब दारी है कि वे विभाजन वादी षडयंत्रो से समाज को सावधान करे ।

जीवन का सौन्दर्य एवं शक्ति है परिवार

अन्तर्राष्ट्रीय परिवार दिवस, 15 मई 2021 पर विशेष
ललित गर्ग

अन्तर्राष्ट्रीय परिवार दिवस हर साल 15 मई को मनाया जाता है। देश एवं दुनिया को परिवार के महत्व को बताने के लिए यह दिवस मनाया जाता हैं। प्राणी जगत एवं सामाजिक संगठन में परिवार सबसे छोटी इकाई है। परिवार के अभाव में मानव समाज के संचालन की कल्पना भी दुष्कर है, इस बात को हमने कोरोना महासंकट में भलीभांति समझा है। प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी परिवार का सदस्य होकर ही अपनी जीवन यात्रा को सुखद, समृद्ध, विकासोन्मुख बना पाता है। उससे अलग होकर उसके अस्तित्व को सोचा नहीं जा सकता है। हमारी संस्कृति और सभ्यता अनेक परिवर्तनों से गुजर कर अपने को परिष्कृत करती रही है, लेकिन परिवार संस्था के अस्तित्व पर कोई भी आंच नहीं आई। वह बने और बन कर भले टूटे हों लेकिन उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है। उसके स्वरूप में परिवर्तन आया और उसके मूल्यों में परिवर्तन हुआ लेकिन उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता है। हम चाहे कितनी भी आधुनिक विचारधारा में हम पल रहे हो लेकिन अंत में अपने संबंधों को विवाह संस्था से जोड़ कर परिवार में परिवर्तित करने में ही संतुष्टि एवं जीवन की परिपूर्णता-सार्थकता अनुभव करते हैं। परिवार का महत्व न केवल भारत में बल्कि दुनिया में सर्वत्र है, यही कारण है कि अन्तर्राष्ट्रीय परिवार दिवस परिवार संस्था को मजबूती देने के उद्देश्य से मनाया जाता है। इस दिवस का मुख्य उद्देश्य युवाओं को परिवार के प्रति जागरूक करना है ताकि युवा तथाकथित आधुनिक के प्रवाह में अपने परिवार से दूर न हों।
परिवार संस्था अनेक संघर्षों एवं बदलावों से रू-ब-रू होते हुए भी कायम है। अगर हम पुराने युगों की बात करें या धार्मिक मान्यताओं के आधार पर भी बात करें तो आज की ही तरह पहले भी परिवारों का विघटन हुआ करता था। लेकिन आधुनिक समाज में परिवार का विघटन आम बात हो चुकी है। ऐसे में परिवार न टूटे इस मिशन एवं विजन के साथ अंतरराष्ट्रीय परिवार दिवस मनाया जाता है। परिवार के बीच में रहने से आप तनावमुक्त व प्रसन्नचित्त रहते हैं, साथ ही आप अकेलेपन या डिप्रेशन के शिकार भी नहीं होते, कोरोना जैसी महामारी का मुकाबला करने में सक्षम होते हैं। यही नहीं परिवार के साथ रहने से आप कई सामाजिक बुराइयों से अछूते भी रहते हैं। समाज की परिकल्पना परिवार के बगैर अधूरी है और परिवार बनाने के लिए लोगों का मिलजुल कर रहना व जुड़ना बहुत जरुरी है।
परिवार दो प्रकार के होते हैं- एक एकल परिवार और दूसरा संयुक्त परिवार। एकल परिवार में पापा- मम्मी और बच्चे रहते हैं। संयुक्त परिवार में पापा- मम्मी, बच्चे, दादा दादी, चाचा, चाची, बड़े पापा, बड़ी मम्मी, बुआ इत्यादि रहते हैं। इस दिवस मानाने की घोषणा सर्वप्रथम 15 मई 1994 को संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने की थी। संयुक्त परिवार टूटने एवं बिखरने की त्रासदी को भोग रहे लोगों के लिये यह दिवस बहुत अहमियत रखता है। वास्तव में मानव सभ्यता की अनूठी पहचान है संयुक्त परिवार और वह जहाँ है वहीं स्वर्ग है। रिश्तों और प्यार की अहमियत को छिन्न-भिन्न करने वाले पारिवारिक सदस्यों की हरकतों एवं तथाकथित आधुनिकतावादी सोच से बुढ़ापा कांप उठता है। संयुक्त परिवारांे का विघटन और एकल परिवार के उद्भव ने जहंा बुजुर्गांे को दर्द दिया है वहीं बच्चों की दुनिया को भी बहुत सारे आयोजनों से बेदखल कर दिया है। दुख सहने और कष्ट झेलने की शक्ति जो संयुक्त परिवारों में देखी जाती है वह एकल रूप से रहने वालो में दूर-दूर तक नही होती है। आज के अत्याधुनिक युग में बढ़ती महंगाई और बढ़ती जरूरतों को देखते हुए संयुक्त परिवार समय की मांग कहे जा सकते हंै।
हम चाहे कितनी भी आधुनिक विचारधारा में हम पल रहे हो लेकिन अंत में अपने संबंधों को विवाह संस्था से जोड़ कर परिवार में परिवर्तित करने में ही संतुष्टि अनुभव करते हैं। भारत गांवों का देश है, परिवारों का देश है, शायद यही कारण है कि न चाहते हुए भी आज हम विश्व के सबसे बड़े जनसंख्या वाले राष्ट्र के रूप में उभर चुके हैं और शायद यही कारण है कि आज तक जनसंख्या दबाव से उपजी चुनौतियों के बावजूद, एक ‘परिवार’ के रूप में, जनसंख्या नीति बनाये जाने की जरूरत महसूस नहीं की। ईंट, पत्थर, चूने से बनी दीवारों से घिरा जमीं का एक हिस्सा घर-परिवार कहलाता है जिसके साथ ‘मैं’ और ‘मेरापन’ जुड़ा है। संस्कारों से प्रतिबद्ध संबंधों की संगठनात्मक इकाई उस घर-परिवार का एक-एक सदस्य है। हर सदस्य का सुख-दुख एक-दूसरे के मन को छूता है। प्रियता-अप्रियता के भावों से मन प्रभावित होता है।
घर-परिवार जहां हर सुबह रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा की समुचित व्यवस्था की जुगाड़ में धूप चढ़ती है और आधी-अधूरी चिंताओं का बोझ ढोती हुई हर शाम घर-परिवार आकर ठहरती है। कभी लाभ, कभी हानि, कभी सुख, कभी दुख, कभी संयोग, कभी वियोग, इन द्वंद्वात्मक परिस्थितियों के बीच जिंदगी का कालचक्र गति करता है। भाग्य और पुरुषार्थ का संघर्ष चलता है। आदमी की हर कोशिश ‘घर-परिवार’ बनाने की रहती है। सही अर्थों में घर-परिवार वह जगह है जहां स्नेह, सौहार्द, सहयोग, संगठन सुख-दुख की साझेदारी, सबमें सबक होने की स्वीकृति जैसे जीवन-मूल्यों को जीया जाता है। जहां सबको सहने और समझने का पूरा अवकाश है। अनुशासन के साथ रचनात्मक स्वतंत्रता है। निष्ठा के साथ निर्णय का अधिकार है। जहां बचपन सत्संस्कारों में पलता है। युवकत्व सापेक्ष जीवनशैली से जीता है। वृद्धत्व जीए गए अनुभवों को सबके बीच बांटता हुआ सहिष्णु और संतुलित रहता है। ऐसा घर-परिवार निश्चित रूप से पूजा का मंदिर बनता है।
परिवार एक संसाधन की तरह होता है। फिर क्या कारण है कि आज किसी भी घर-परिवार के वातायन से झांककर देख लें-दुख, चिंता, कलह, ईष्र्या, घृणा, पक्षपात, विवाद, विरोध, विद्रोह के साये चलते हुए दीखेंगे। अपनों के बीच भी परायेपन का अहसास पसरा हुआ होगा। विचारभेद मनभेद तक पहुंचा देगा। विश्वास संदेह में उतर आएगा। ऐसी अनकही तनावों की भीड़ में आदमी सुख के एक पल को पाने के लिए तड़प जाता है। कोई किसी के सहने/समझने की कोशिश नहीं करता। क्योंकि उस घर-परिवार में उसके ही अस्तित्व के दायरे में उद्देश्य, आदर्श, उम्मीदें, आस्था, विश्वास की बदलती परिधियां केंद्र को ओझल कर भटक जाती हैं। विघटन शुरू हो जाता है। इस बिखराव एवं विघटन पर नियंत्रण पाने के लिये हमने गणि राजेन्द्र विजयजी के नेतृत्व में सुखी परिवार अभियान चलाया, जिससे परिवार संस्था को मजबूती देने के व्यापक उपक्रम किये जा रहे हैं।
कोरोना महामारी ने हमें पारिवारिक रिश्तों के महत्व को समझाया है। हमने इस दौरान रिश्तों की अहमियत को गहराई से समझा। लॉकडाउन ने रिश्तों को फिर से बनाने और विशेषकर बुजुर्गों के साथ स्नेह व सहयोग बढ़ाने को प्रेरित किया है। हालांकि भारत में एकल परिवारवाद अभी ज्यादा नहीं फैला है। आज भी भारत में ऐसे कई परिवार हैं जिनकी कई पीढ़ियां एक साथ रहती हैं और कदम-कदम पर साथ निभाती हैं। लेकिन दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में स्थिति धीरे-धीरे बिगड़ने लगी है। उम्मीद है जल्द ही समाज में संयुक्त परिवार की अहमियत दुबारा बढ़ने लगेगी और लोगों में जागरूकता फैलेगी कि वह एक साथ एक परिवार में रहें जिसके कई फायदे हैं। इंसानी रिश्तों एवं पारिवारिक परम्परा के नाम पर उठा जिन्दगी का यही कदम एवं संकल्प कल की अगवानी में परिवार के नाम एक नायाब तोहफा होगा।

भारतीयता का मूल हैं हमारे परिवार जहां मिलती है सुरक्षा, संरक्षण और आत्मविश्वास

-प्रो.संजय द्विवेदी

भारत में ऐसा क्या है जो उसे खास बनाता है? वह कौन सी बात है जिसने सदियों से उसे दुनिया की नजरों में आदर का पात्र बनाया और मूल्यों को सहेजकर रखने के लिए उसे सराहा। निश्चय ही हमारी परिवार व्यवस्था वह मूल तत्व है, जिसने भारत को भारत बनाया। हमारे सारे नायक परिवार की इसी शक्ति को पहचानते हैं। रिश्तों में हमारे प्राण बसते हैं, उनसे ही हम पूर्ण होते हैं। आज कोरोना की महामारी ने जब हमारे सामने गहरे संकट खड़े किए हैं तो हमें सामाजिक और मनोवैज्ञानिक संबल हमारे परिवार ही दे रहे हैं। व्यक्ति कितना भी बड़ा हो जाए उसका गांव, घर, गली, मोहल्ला, रिश्ते-नाते और दोस्त उसकी स्मृतियां का स्थायी संसार बनाते हैं। कहा जाता है जिस समाज स्मृति जितनी सघन होती है, जितनी लंबी होती है, वह उतना ही श्रेष्ठ समाज होता है।

परिवार नाम की संस्था दुनिया के हर समाज में मौजूद हैं। किंतु परिवार जब मूल्यों की स्थापना, बीजारोपण का केंद्र बनता है, तो वह संस्कारशाला हो जाता है। खास हो जाता है। अपने मूल्यों, परंपराओं को निभाकर समूचे समाज को साझेदार मानकर ही भारतीय परिवारों ने अपनी विरासत बनाई है। पारिवारिक मूल्यों को आदर देकर ही श्री राम इस देश के सबसे लाड़ले पुत्र बन जाते हैं। उन्हें यह आदर शायद इसलिए मिल पाया, क्योंकि उन्होंने हर रिश्ते को मान दिया, धैर्य से संबंध निभाए। वे रावण की तरह प्रकांड विद्वान और विविध कलाओं के ज्ञाता होने का दावा नहीं करते, किंतु मूल्याधारित जीवन के नाते वे सबके पूज्य बन जाते हैं, एक परंपरा बनाते हैं। अगर हम अपनी परिवार परंपरा को निभा पाते तो आज के भारत में वृद्धाश्रम न बन रहे होते। पहले बच्चे अनाथ होते थे आज के दौर में माता-पिता भी अनाथ होने लगे हैं। यह बिखरती भारतीयता है, बिखरता मूल्यबोध है। जिसने हमारी आंखों से प्रेम, संवेदना, रिश्तों की महक कम कर भौतिकतावादी मूल्यों को आगे किया है।

न बढ़ाएं फासले, रहिए कनेक्टः

आज के भारत की चुनौतियां बहुत अलग हैं। अब भारत के संयुक्त परिवार आर्थिक, सामाजिक कारणों से एकल परिवारों में बदल रहे हैं। एकल परिवार अपने आप में कई संकट लेकर आते हैं। जैसा कि हम देख रहे हैं कि इन दिनों कई दंपती कोरोना से ग्रस्त हैं, तो उनके बच्चे एकांत भोगने के साथ गहरी असुरक्षा के शिकार हैं। इनमें माता या पिता, या दोनों की मृत्यु होने पर अलग तरह के सामाजिक संकट खड़े हो रहे हैं। संयुक्त परिवार हमें इस तरह के संकटों से सुरक्षा देता था और ऐसे संकटों को आसानी से झेल जाता था। बावजूद इसके समय के चक्र को पीछे नहीं घुमाया जा सकता। ऐसे में यह जरूरी है कि हम अपने परिजनों से निरंतर संपर्क में रहें। उनसे आभासी माध्यमों, फोन आदि से संवाद करते रहें, क्योंकि सही मायने में परिवार ही हमारा सुरक्षा कवच है।

आमतौर सोशल मीडिया के आने के बाद हम और ‘अनसोशल’ हो गए हैं। संवाद के बजाए कुछ ट्वीट करके ही बधाई दे देते हैं। होना यह चाहिए कि हम फोन उठाएं और कानोंकान बात करें। उससे जो खुशी और स्पंदन होगा, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। परिजन और मित्र इससे बहुत प्रसन्न अनुभव करेगें और सारा दिन आपको भी सकारात्मकता का अनुभव होगा। संपर्क बनाए रखना और एक-दूसरे के काम आना हमें अतिरिक्त उर्जा से भर देता है। संचार के आधुनिक साधनों ने संपर्क, संवाद बहुत आसान कर दिया है। हम पूरे परिवार की आनलाईन मीटिंग कर सकते हैं, जिसमें दुनिया के किसी भी हिस्से से परिजन हिस्सा ले सकते हैं। दिल में चाह हो तो राहें निकल ही आती हैं। प्राथमिकताए तय करें तो व्यस्तता के बहाने भी कम होते नजर आते हैं।

जरूरी है एकजुटता और सकारात्मकताः

सबसे जरूरी है कि हम सकारात्मक रहें और एकजुट रहें। एक-दूसरे के बारे में भ्रम पैदा न होने दें। गलतफहमियां पैदा होने से पहले उनका आमने-सामने बैठकर या फोन पर ही निदान कर लें। क्योंकि दूरियां धीरे-धीरे बढ़ती हैं और एक दिन सब खत्म हो जाता है। खून के रिश्तों का इस तरह बिखरना खतरनाक है क्योंकि रिश्ते टूटने के बाद जुड़ते जरूर हैं, लेकिन उनमें गांठ पड़ जाती है। सामान्य दिनों में तो सारा कुछ ठीक लगता है। आप जीवन की दौड़ में आगे बढ़ते जाते हैं, आर्थिक समृद्धि हासिल करते जाते हैं। लेकिन अपने पीछे छूटते जाते हैं। किसी दिन आप अस्पताल में होते हैं, तो आसपास देखते हैं कि कोई अपना आपकी चिंता करने वाला नहीं है। यह छोटा सा उदाहरण बताता है कि हम कितने कमजोर और अकेले हैं। देखा जाए तो यह एकांत हमने खुद रचा है और इसके जिम्मेदार हम ही हैं। संयुक्त परिवारों की परिपाटी लौटाई नहीं जा सकती, किंतु रिश्ते बचाए और बनाए रखने से हमें पीछे नहीं हटना चाहिए। इसके साथ ही सकारात्मक सोच बहुत जरूरी है। जरा-जरा सी बातों पर धीरज खोना ठीक नहीं है। हमें क्षमा करना  और भूल जाना आना ही चाहिए। तुरंत प्रतिक्रिया कई बार घातक होती है। इसलिए आवश्यक है कि हम धीरज रखें। देश का सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसे ही पारिवारिक मूल्यों की जागृति के कुटुंब प्रबोधन के कार्यक्रम चलाता है। पूर्व आईएएस अधिकारी विवेक अत्रे भी लोगों को पारिवारिक मूल्यों से जुड़े रहने प्रेरित कर रहे हैं। वे साफ कहते हैं ‘भारत में परिवार ही समाज को संभालता है।’

जुड़ने के खोजिए बहानेः

हमें संवाद और एकजुटता के अवसर बनाते रहने चाहिए। बात से बात निकलती है और रिश्तों में जमी बर्फ पिधल जाती है। परिवार के मायने सिर्फ परिवार ही नहीं हैं, रिश्तेदार ही नहीं हैं। वे सब हैं जो हमारी जिंदगी में शामिल हैं। उसमें हमें सुबह अखबार पहुंचाने वाले हाकर से लेकर, दूध लाकर हमें देने वाले, हमारे कपड़े प्रेस करने वाले, हमारे घरों और सोसायटी की सुरक्षा, सफाई करने वाले और हमारी जिंदगी में मदद देने वाला हर व्यक्ति शामिल है। अपने सुख-दुख में इस महापरिवार को शामिल करना जरूरी है। इससे हमारा भावनात्मक आधार मजूबूत होता है और हम कभी भी अपने आपको अकेला महसूस नहीं करते। कोरोना के संकट ने हमें सोचने के लिए आधार दिया है, एक मौका दिया है। हम सबने खुद के जीवन और परिवार में न सही, किंतु पूरे समाज में मृत्यु को निकट से देखा है। आदमी की लाचारगी और बेबसी के ऐसे दिन शायद भी कभी देखे गए हों। इससे सबक लेकर हमें न सिर्फ सकारात्मकता के साथ जीना सीखना है बल्कि लोगों की मदद के लिए हाथ बढ़ाना है। बड़ों का आदर और अपने से छोटों का सम्मान करते हुए सबको भावनात्मक रिश्तों की डोर में बांधना है। एक दूसरे को प्रोत्साहित करना, घर के कामों में हाथ बांटना, गुस्सा कम करना जरूरी आदतें हैं, जो डालनी होंगीं। एक बेहतर दुनिया रिश्तों में ताजगी, गर्माहट,दिनायतदारी और भावनात्मक संस्पर्श से ही बनती है। क्या हम और आप इसके लिए तैयार हैं?

कभी न कभी तो वो सुबह आयेगी

कभी न कभी तो वो सुबह आयेगी
पनहारिन जब पनघट पर जायेगी
पानी भरकर घड़े सिर पर लायेगी,
गीत सहेलियों के संग वह गायेगी।

खुल जाएंगे, बन्द मंदिर मस्जिद
घंटे अजान की आवाजे आयेगी,
लग जाएंगे लंगर सब गुरुद्वारों मे,
जनता लंगर छक कर खायेगी।।

खुल जाएंगे सब स्कूल कॉलेज,
बिटिया बस्ता लेकर जाएगी
मौज मस्ती सहेलियों संग करेगी
चेहरो पर उनके रंगत आयेगी।।

बन्द पड़ें जो बुजुर्ग अपने घरों में
बाहर निकल कर कभी तो आयेंगे
करेंगे जब अपनी वे पुरानी बातें,
चेहरो पर उनके चमक आयेगी
कभी न कभी तो वो सुबह आयेगी

आर के रस्तोगी

जंग जारी है

पृथ्वीराज चौहान और जयचंद के वंशज परस्पर संघर्ष कर रहे हैं। हिंसा, हत्या और लूट का बाजार गर्म है। महमूद गजनबी तथा मोहम्मद गोरी के वंशधर मुस्कुरा रहे हैं, माल खा रहे हैं और धीरे-धीरे अपनी सैन्य-शक्ति (वोटबैंक) का संख्या बल बढ़ाते हुए भारतवर्ष की समस्त सनातन-परंपराओं को निर्मूल करने की दिशा में निरंतर सक्रिय हैं। ‘चिकन नेक‘काटने का अल्टीमेटम मिल चुका है, फिर भी जयचंद, मानसिंह और जयसिंह के अनुयायी चेत नहीं रहे। वे मस्त हैं और अभी तैमूरी मानसिकता वालों के सहयोग से सत्ता-सुख भोगने में व्यस्त हैं। अभी-अभी बंगाल में बहुमत पाकर उन्मादित और आनंदित भी हैं। गोरी और जयचंद की  दुरभिसंधि को समझकर भी अपनी विजय के प्रति आश्वस्त पृथ्वीराज के ध्वजवाहकों की अतिरिक्त आत्ममुग्धता और यत्किंचित अदूरदर्शिता के कारण चुनाव मैदान में अभी-अभी उन्हें भारी हानि हुई है किन्तु उनके पैर रणभूमि में अधिक दृढ़ता से जम गए हैं। तीन से सतहत्तर तक की यात्रा भी एक बड़ी उपलब्धि है। साथ ही देश के लिए यह एक शुभ संकेत भी है।

          भारतीय इतिहास में पृथ्वीराज, जयचंद और शहाबुद्दीन मोहम्मद गोरी  सात सौ वर्ष पुराने ऐतिहासिक चरित्र हैं किंतु भारतीय-समाज के धरातल पर यह तीनों ही जीवित-जागृत व्यक्तित्व हैं, जिनका कृतित्व यहाँ की जीवन-शैली को सतत प्रभावित करता हुआ दिखाई देता है। वस्तुतः यह हमारे समाज की तीन प्रमुख धाराएं हैं जिनका प्रवाह विगत सात सौ वर्षों से हमारे जीवन को निरंतर प्रभावित कर रहा है। भारतवर्ष का इस्लामीकरण हो रहा है। एक ओर हिन्दू समाज अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्षरत है तो दूसरी ओर मुस्लिमों की आक्रामक मुद्रा में कोई कमी नहीं आयी है। स्वतंत्रता से पूर्व और पश्चात की असंख्य घटनाएं इस तथ्य की साक्षी हैं। पश्चिम बंगाल की समसामयिक हिंसक घटनाएं भारतीय समाज के धरातल पर छिडे़ उपर्युक्त संघर्ष का नूतन संस्करण हैं।

              भारतीय समाज लम्बे समय से तीन धाराओं में विभक्त है। पहली धारा के लोग भारतीय-संस्कृति की रक्षा के लिए संघर्षरत हैं और अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त करना चाहते हैं किन्तु संगठन के अभाव में सत्ता से दूर रह जाते हैं। दूसरी धारा के भारतीय विदेशी आक्रामक शक्तियों के सहयोग से प्रथम धारा के संघर्ष को निष्फल करके सत्ता प्राप्त करते रहे हैं। तीसरी धारा विदेशी मूल के आक्रांताओं की है जिसमें लगभग नब्बे प्रतिशत से अधिक लोग भारतीय मूल के ही हैं किन्तु धर्मांतरण के कारण स्वयं को अरब की परंपराओं के निकट मानकर अपना संबंध तुर्कां और अरबों से जोड़कर स्वयं को विजेता की भूमिका में देखते हैं। उनकी दृष्टि में पहली परंपरा उनकी शत्रु है और दूसरी परंपरा उनकी मित्र है क्योंकि उसका सहयोग उनके लक्ष्य ‘गजबा-ए-हिन्द’ की पूर्ति में सहायक है। इन तीनों धाराओं की टकराहट भारतीय समाज सागर में जब-तब तूफान लाती रहती है।

            भारतवर्ष की पहली सशक्त धारा-परंपरा में पर्वतक (पोरस) और चंद्रगुप्त हैं, जो भारतीय भूमि और संस्कृति के लिए जीवन दांव पर लगाते हैं। महाराज पर्वतक तक्षशिला के युवराज अम्भी की तरह सिकंदर के लिए भारत का द्वार नहीं खोलते, युद्ध करते हैं। यह अलग बात है कि उनकी पराजय उन्हें सिकंदर से सन्धि करने को विवश बना देती है। फिर भी राष्ट्र की रक्षा के लिए उनका प्रयत्न प्रणम्य है। चंद्रगुप्त अपने गुरु चाणक्य के मार्गदर्शन में सेल्यूकस को पराजित कर राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा करने में सफल होते हैं। विदेशी आक्रांताओं से रक्षा का दूसरा संघर्ष पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गोरी के युद्धों में देखने को मिलता है। यहां भारत-हृदय सम्राट की अप्रतिम वीरता उनकी रणनीतिक अकुशलता के कारण व्यर्थ हो जाती है और गोरी की  कुटिलता को भारत के हृदय पर पदाघात करने का अवसर मिल जाता है। पांडवों का गौरवशाली इंद्रप्रस्थ विदेशी आक्रमणकारियों की मुट्ठी में चला जाता है। देर तक संघर्ष थमा रहता है किंतु राष्ट्रीय गौरव के रक्षा के लिए दबी-ढंकी आग अलाउद्दीन खिलजी के समय में रावल रतनसिंह के शौर्य और पद्मिनी के जौहर की लपटों में भारतीय स्वातंत्र्य-चेतना का परचम लहराती है, मेवाड़ के महाराणाओं में नई लपट लेकर धधक उठती है। महाराणा सांगा, महाराणा कुंभा, महाराणा प्रताप आदि इस परंपरा को हर संभव बलिदान देकर भी आगे बढ़ाते हैं। परवर्ती कालखंड में संघर्ष की यही धारा महाराष्ट्र में शिवाजी, मध्यभारत में छत्रसाल और पंजाब में सिख गुरुओं के संघर्ष का प्लावन-प्रवाह लेकर उमड़ती है और मुगल सत्ता को धूल चटाती है। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध इस धारा के वीर अट्ठारह सौ सत्तावन का महासमर रचते हैं। इसके विफल होने पर बाद के वर्षों में कूका आंदोलन और सशस्त्र संघर्ष के प्रयत्न करते हुए चंद्रशेखर आजाद, ठाकुर रोशन सिंह, रामप्रसाद विस्मिल, वासुदेव बलवंत फड़के, मदन लाल धींगरा, खुदीराम बोस, प्रफुल्लचंद्र चाकी आदि असंख्य क्रांतिकारियों के रूप में फांसियों पर चढ़ते हैं। विनायक दामोदर सावरकर बनकर अंडमान की जेलों में अमानुषिक यंत्रणाएँ झेलते हैं और सुभाष चंद्र बोस के रूप में सर्वथा साधन-विहीन होकर भी आजाद हिंद फौज का गठन कर दुश्मन की छाती पर आ गरजते हैं। कांग्रेस में इस धारा का प्रभाव लोकमान्य तिलक, पंडित मदनमोहन मालवीय, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और सरदार बल्लभ भाई पटेल जैसे नेताओं में ही दिखाई देता है। इस धारा में वे मुसलमान भी शामिल हैं जो भारत को अपना देश मानते हैं और यहाँ की सनातन परंपराओं के साथ समरस होकर रहने के अभ्यासी हैं।  दाराशिकोह से लेकर अशफाक उल्ला खाँ, वीर अब्दुल हमीद और ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जैसे असंख्य भारतीय मुसलमानों का कृतित्व इस तथ्य का साक्षी है। भारत की सनातन परंपराओं, सांस्कृतिक-मान्यताओं, धार्मिक-प्रतिष्ठानों और जैन, बौद्ध आदि भारतीय चिंतनधाराओं की अस्मिता के लिए, हिंदुत्व के अस्तित्व के लिए यह धारा संघर्ष कर रही है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघ के अनुषांगिक संगठनों के रूप में राष्ट्र की सेवा और सुरक्षा हेतु सतत संघर्षरत है। इस परंपरा धारा के लोग कभी स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र की संवैधानिक छांव तले  आपातकाल के नाम पर दूसरी परंपरा से जुडे़ सत्ताधीशों के अत्याचार सहते हैं तो कभी गोधरा स्टेशन पर तीसरी धारा के लोगों द्वारा जिंदा जला दिए जाते हैं। स्वतंत्र भारत में राजनीतिक स्तर पर पहले जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दल इस धारा के वर्तमान संवाहक हैं।

       पारस्परिक राजनीतिक विद्वेष की आग में आत्मगौरव और स्वाभिमान की बलि देकर भी अपने निजी स्वार्थ और अहंकार पूर्ण हठांे को महत्व देने वाली दूसरी परंपरा का प्रथम उद्गम भारतीय राजा पोरस के विरुद्ध यूनानी आक्रांता सिकंदर का साथ देने वाले राजा अम्भि के स्वार्थपूर्ण आचरण में मिलता है। अपनी क्षेत्रीय सीमाओं में विलासमग्न मगध नरेश घनानंद की राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति उदासीन दृष्टि भी इसी परंपरा धारा का आदिस्रोत है। यह धारा विदेशी आक्रांताओं को विजय दिलाकर और भारतीयता की रक्षक शक्तियों के विनाश में सहायक बन कर सत्ता सुख भोगने की लोभ-लिप्सा से ग्रस्त रही है। जयचंद द्वारा मोहम्मद गोरी की सहायता किया जाना और आगे चलकर राजा मानसिंह, टोडरमल आदि का अकबर की सत्ता को शक्तिमान करते हुए मेवाड़ के पराभव का कारण बनना इस स्थिति का प्रमाण है। शिवाजी के समय में राजा जयसिंह भी इसी परंपरा के ध्वजवाहक हैं। औरंगजेब निर्धन हिंदू जनता पर जजिया कर लगाता है, बलात धर्मांतरण के लिए उन्हें विवश करता है, प्रसिद्ध मंदिरों को तोड़ने के लिए नित नए फरमान जारी करता है और अपनी शासन सीमाओं में समस्त भारतीय परंपराओं को समूल नष्ट कर डालने के लिए कटिबद्ध मिलता है लेकिन जयसिंह को कोई कष्ट नहीं होता। उसका राज्य उसके अधिकार में सुरक्षित है तो उसे अपने अन्य धर्मावलंबियों पर हो रहे अत्याचारों से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह तो औरंगजेब की मनसबदारी में ही मस्त रहता है। भारत के प्रायः सभी राजघराने मुगलसत्ता की दासता भरी छाँव में राज्य सुख भोगने के उपरांत उसकी शक्ति क्षीण होते ही शक्तिशाली अंग्रेजों की गोद में जा बैठते हैं और उनकी कृपा-छाया में राज्य सुख भोगते हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में गांधी-नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस अंग्रेजों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई लड़ती है और अनेक अवसरों पर उनका सहयोग करती हुई भारतीयों को अहिंसा का पाठ पढ़ाते हुए अंग्रेजों का सुरक्षा कवच बनाती है। इसीलिए स्वतंत्रता-संघर्ष में कांग्रेस का कोई नेता ना कभी काले पानी की सजा पाता है, ना फांसी पर चढ़ाया जाता है। वह ब्रिटिश-सत्ता के साथ प्रायोजित-सीमित संघर्ष करता हुआ उसके तथाकथित जेलखानों में भी राजनीतिक कैदी के नाम पर अंग्रेजी शासन द्वारा दी जाने वाली सुख-सुविधाओं का भरपूर उपभोग करता है। दूसरी धारा के ये कथित देशभक्त कहीं पर भी स्वतंत्रता की लड़ाई में पहली धारा का समर्थन करते दिखाई नहीं देते। मानसिंह और जयसिंह की परंपरा के ये नेता सत्ता-प्राप्ति की हड़बड़ी में अंग्रेजों की मंशा के अनुरूप देश का विभाजन स्वीकार कर सत्ता पर अधिकार प्राप्त कर लेते हैं। एक ओर दिल्ली मानसिंह, जयसिंह की तर्ज पर हिन्दुस्तान में आजादी का उत्सव मनाती हुई दिखाई देती है तो दूसरी ओर पाकिस्तान में तीसरी परंपरा के लोग तांडव करते हुए हिंदुओं-सिखों का भीषण संहार कर डालते हैं किंतु दूसरी परंपरा के लोग पीड़ितों-विस्थापितों को ही उनकी दुर्दशा के लिए उत्तरदाई करार देकर अपने सिंहासन के पाए मजबूत करने में जुट जाते हैं। अंग्रेजों के चले जाने के बाद परिवर्तित राजनैतिक परिस्थितियों में इस दूसरी परंपरा के लोगों का सत्ता के लिए सीधा संघर्ष पहली परंपरा के नेताओं से होता है अतः वे उसे प्रभावहीन करने के लिए फिर तीसरी परंपरा को पुष्ट करने में लग जाते हैं, उसमें अपना वोट बैंक तलाशते हैं। उन्हें अतिरिक्त सुविधाएं देकर उनकी आक्रामकता को पोषित करते हैं और उनके संख्या बल में अपार वृद्धि के अवसर देकर, भारतीय-संस्कृति को दांव पर रखकर सत्ता पर काबिज रहने के लिए संगठित होते रहे हैं। कांग्रेस के नेताओं के साथ-साथ टी.एम.सी., सपा, बसपा, आप आदि अन्य अनेक दलों की नीतियाँ इस तथ्य की पुष्टि करती हैं। इनकी सफलता के साथ ही तीसरी धारा की आक्रामकता बढ़ जाती है। भारत की मूल संस्कृति पर संकट के बादल और घने हो जाते हैं। पश्चिम बंगाल की वर्तमान अशांत स्थितियाँ और हिंसक घटनाएं यही बताती हैं।

          महमूद गजनबी और मोहम्मद गोरी की आक्रामक, हिंसक और सर्वग्रासी तीसरी धारा का विकास अलाउद्दीन खिलजी, बाबर, अकबर, औरंगजेब आदि शासकों में मिलता है। इनकी दुरभिलाषा भारतवर्ष के समस्त चिंतन-दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, मठ-मंदिर और सामाजिक सांस्कृतिक रीतियों-नीतियों को सर्वथा समाप्त कर समूचे देश के इस्लामीकरण की है। ‘गजवा-ए-हिंद’ का लक्ष्य लेकर भारतीयता का सर्वस्व निगल जाने को आतुर इस तीसरी परंपरा ने आरंभ से ही दूसरी परंपरा के सहयोग से प्रथम परंपरा को नष्ट करने का प्रयत्न किया है और समूचे देश में अपने पैर पसार लिए हैं। विगत सात-आठ सौ वर्षों से हिंसा, हत्या,बलात्कार और  लूट का सहारा लेती हुई इस धारा ने इस्लामिक शासनकाल में तो सत्ता के बल पर अपना विस्तार किया ही, ब्रिटिश-शासन काल में भी उसने अंग्रेजों को प्रभावित करके अपने मनोकूल निर्णय करवाने में अपूर्व सफलता प्राप्त की। खिलाफत आंदोलन के समय मालाबार में मोपलाओं की पैशाचिक पशुता, नोआखाली का भीषण नरसंहार आदि अनेक दुर्घटनाएं इस स्थिति की साक्षी हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश का विभाजन कराके भी इस धारा ने अपनी दुरभिलाषा की पूर्ति का भरपूर अवसर निर्मित किया। स्वतंत्र-भारत में भी दूसरी परंपरा के शासकों की कृपा-छाया के कारण उसे कश्मीर घाटी से भारतीयता को निर्मूल और निर्वासित करने का अवसर मिला। विडंबना यह है कि दूसरी परंपरा धारा के नेता और उनके समर्थक जनसमुदाय तीसरी परंपरा की सर्वग्रासी हिंसक प्रवृत्ति के अमानवीय स्वरूप को बार-बार देखकर भी अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए चिंतित नहीं दिखाई देते। वो तीसरी परंपरा में जन्म लेने वाले हुमायूँ और दारा शिकोह जैसे उदार और विचारशील सहअस्तित्व के विश्वासी इतिहास पुरुषों का नाम भी नहीं लेते। रहीम, रसखान, नजीर अकबराबादी और अकबर इलाहाबादी जैसे समन्वयकारी कवियों की ओर उनकी दृष्टि ही नहीं जाती। तीसरी धारा की कट्टरता को प्रोत्साहित करने बाले अल्लामा इकबाल उन्हें अधिक अच्छे लगते हैं। वह इकबाल, जिन्होंने अपनी शायरी से पाकिस्तान बनवाने के लिए तीसरी धारा की विभाजनकारी मानसिकता को पुष्ट किया। वह इकबाल, जो अपनी रचनाओं में हिंदुओं को कबूतर के समान कमजोर और मुसलमानों को बाज के समान ताकतवर बताकर उनकी आक्रामकता को प्रोत्साहित करते रहे, नोआखाली जैसे हत्याकांड कराते रहे। सच तो यह है कि तीसरी धारा की आक्रामक मानसिकता आज भी उग्र रूप धारण किए हुए है। जहां भी दूसरी धारा के लोग सत्ता में होते हैं वहां वह अपना आतंककारी भयावह रूप प्रकट करती ही है । अरविंद केजरीवाल के सत्ता में आते ही दिल्ली में होने वाला भीषण दंगा और अब पश्चिम बंगाल में ममता को बहुमत मिलते ही वहां होने वाली हिंसा और आगजनी इसकी साक्षी है। तीसरी धारा की उग्रता और आक्रामकता का उत्तर उसी की भाषा में देने का प्रयत्न प्रथम धारा के संवाहक आज भी कर रहे हैं इसीलिए जंग जारी है किन्तु इस संघर्ष में उसे विजय तब तक नहीं मिल सकती जब तक दूसरी धारा के लोग तीसरी धारा की आक्रामकता का पोषण करते रहेंगे। पहली और तीसरी धारा के संघर्ष की समाप्ति के लिए दूसरी धारा की समन्वयकारी भूमिका आवश्यक है-ऐसी भूमिका जिसमें वह तीसरी धारा की आक्रामक क्रिया को नियंत्रित कर पहली धारा को प्रतिक्रिया की विवशता से रोक सके। जब तक सत्ता का अतिरिक्त मोह त्यागे बिना दूसरी धारा इस भूमिका का निर्वाह नहीं करती तब तक इस जंग का रुक पाना और भारतीय समाज में स्थायी शांति की स्थापना हो पाना सर्वथा असंभव है।

          अब भारतीय जनमानस को तय करना होगा कि उसे पहली धारा को सशक्त कर सनातन भारतीय परंपराओं को चिरजीवी बनाना है या फिर दूसरी धारा का अंधा समर्थन कर तीसरी धारा को अपने मंसूबे पूरे करने का अवसर देना है। हिंदुस्तान का एक बड़ा भाग हमारे पुरखों की भूलों के कारण अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के रूप में पहले ही हम से अलग हो चुका है। कश्मीर और बंगाल अलग होने की ओर अग्रसर हैं। अगर अभी भी आंखें नहीं खुलीं तो इस शताब्दी के अंत तक संपूर्ण भारतवर्ष यूनान, रोम और मिस्त्र की प्राचीन सभ्यताओं की तरह ऐतिहासिक अध्ययन की विषय वस्तु बन जाएगा। इस्लामीकरण की सर्वग्राही मानसिकता सब कुछ निकल जाएगी। तब पहली धारा के साथ-साथ दूसरी धारा के लिए भी यहां कोई स्थान ना होगा। तब झंडे में केवल हरा रंग बचेगा। यदि हमें अपने राष्ट्रीय-ध्वज में केसरिया, श्वेत और नीले रंग को बचाना है तो उपर्युक्त तथ्यों पर गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा।

                                      डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र

आखिर कहां से आया गंगा नदीं में 40 शव, अनसुलझी गुत्थी का कौन है गुनहगार?

मुरली मनोहर श्रीवास्तव
वैश्विक महामारी कोरोना के इस संकटकाल कई अजीबोगरीब वाक्या देखने को मिल रहा है। बिहार के बक्सर के चौसा स्थित गंगा घाट से मन को विचलित कर देने वाली तस्वीर अब सामने आयी है। हम बात कर रहे हैं मानवता की, हम बात कर रहे हैं इंसानियत की। मगर कोरोना महामारी में इंसान इतना नीचे गिर जाएगा इसका एहसास गंगा किनारे तैरते शवों को देखकर हुआ। कल तक जहां अपनों को बचाने की जद्दोजहद चल रही थी, वहीं आज एक..दो…तीन नहीं बल्कि 40 शवों के एक साथ मिलने से कई सवाल खड़े हो गए हैं। आखिर ये शव किसके हैं, कहां से आए हैं।
बक्सर में मिले शव
बिहार के बक्सर जिले के चौसा प्रखंड में गंगा नदी में तैरते 40 शव बरामद किए जाने के बाद से इलाके में भय का माहौल कायम हो गया है। कोरोना काल की यह सबसे भयावह तस्वीर कही जा सकती है। एक बात और कही जा सकती है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि 40 से भी ज्यादा शव हों और उस पर पर्दा डालने की कोशिश की जा रही है। शवों के मामले में बक्सर के जिलाधिकारी अमन समीर का दावा है कि शव बह कर आए और उसको बक्सर में बरामद किया गया। इतनी बड़ी संख्या में शवों का मिलना कहीं न कहीं मानवता को शर्मसार तो करती ही है। चौसा बिहार और उत्तर प्रदेश का बॉर्डर है। इस जगह पर कुछ भी कह पाना मुश्किल प्रतीत होता है। मगर शवों का इस कदर मिलना प्रशासन पर ही कई सवाल खड़ा कर रहा है। लोगों का यह भी आरोप है कि शव अभी और हो सकते हैं उसे छुपाया जा रहा है। खैर, इतना शवों का एक साथ मिलना भी कम नहीं होता है।

आखिर क्या है हकीकत

चौसा प्रखंड के गंगा नदी के किनारे बहकर आए लगभग 40 शवों को क्षत-विक्षत स्थिति में पाया गया है। बक्सर के जिलाधिकारी अमन समीर का इस संदर्भ में कहना है कि गंगा नदी में पाए गए शव तीन से चार दिन पुराने हैं, इस कारण स्पष्ट है कि शव बक्सर जिले के नही हैं। शव बहकर आए हैं, यहां तक तो बात अलग है मगर कोरोना काल में मरने वाले मरीजों के शवों को उनके परिजनों को न देकर जलाने की बजाए बड़ी संख्या में गंगा में प्रवाह कर सरकारें अपना पीठ जरुर थपथपा रही हैं। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस इंसान के बूते सरकारें बनती है, सत्ता मिलती है, उनके लिए इन शवों का कोई मोल भले ही न हों मगर इन शवों का हर उस परिवार के लिए बहुत महत्व है, जिस घर से मौतें हुई हैं। इन शवों के मिलने के मामले में लोगों का कहना है कि पोस्टमार्टम से कैसे पता चल पाएगा कि ये शव कहां का है। इस जांच में ये पता चल सकता है कि इन लोगों की मौत कोरोना से हुई है या नहीं। वहीं बक्सर क्षेत्र के स्थानीय लोगों का ये भी मानना है कि ये शव बक्सर जिले के हैं। हलांकि उत्तर प्रदेश की सीमा से बहकर आने की बातों से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। इस तथ्य की सत्यता की पुष्टि के लिए बक्सर के जिलाधिकारी ने बताया कि सीमावर्ती जिलों के जिलाधिकारियों से इस मामले में बातचीत भी की गई है तथा भविष्य में ऐसी घटना को रोकने के लिए चौकसी करने का निर्देश दिया गया है। पर, सवाल ये उठता है कि शव बिहार का हो, उत्तर प्रदेश का हो, है तो इंसान का ही फिर इन शवों के साथ अमानवीय व्यवहार क्यों किया गया? आखिर इसका असली गुनहगार कौन है?

शवों को बहाया जाना कोई और वजह तो नहीं
गंगा नदी में शवों के इस कदर बहाए जाने को लेकर तरहत-तरह की बातें सामने आ रही है। कोई इसके प्रशासनिक लापरवाही, सरकार की उदासीनता मान रहा है तो कोई इस भरी गर्मी में लकड़ी का अभाव बता रहा है। कहा तो ये भी जा रहा है कि लकड़ी की कमी की वजह से शवों को बहाया जा रहा है। पीपीई किटों में लिपटे शव भले ही परिजनों के लिए बहुत कीमती हो सकती है। मगर अस्पताल प्रबंधन के लिए यह सिर्फ शव से ज्यादा कुछ नहीं है। अगर सरकार इस कार्य में अक्षम है तो कोरोना से हुई मौत के बाद उनके शवों को आखिर क्यों नहीं दिखा रहे हैं। आपको एक बात बता दूं कि पटना के पीएमसीएच में एक ऐसा ही मामला सामने आया था जीवित व्यक्ति का मृत्यु प्रमाण पत्र निर्गत कर उसके परिजन को गंगा घाट पर भेज दिया गया था। जब उसके शव को देखा गया तो वो किसी और का था। लोगों का ये भी कहना है कि कई ऐसे परिजन हैं जो शव को जलाने के लिए लकड़ी खरीदने में भी असमर्थ हैं उनके शव गंगा नदी में बहा दिए जाते हैं। अगर ऐसी बात है तो प्रशासन और सरकार पर फिर से सवाल खड़े हो जाते हैं कि बड़े-बड़े दावे करने वाली सरकार कि मृतकों का दाह संस्कार कराने में मदद करेगी। जब मदद कर ही रही है तो शव क्षत-विक्षत गंगा में तैरते क्यों पाए जा रहे हैं। सभी को पता है कि कोरोना पीड़ितों का बिहार में शवों का दाह संस्कार प्रशासन के लोग ही करा रहे हैं इसलिए शव को बाहर फेंकने की घटना समझ से परे है। रही बात उत्तर प्रदेश की तो वहां की सरकार को अगर ऐसा हुआ है तो मानवता को शर्मसार करने वाली घटना है।
इस तरह शवों का बक्सर गंगा नदीं में मिलना कोरोना काल में कई राज को खोलने के लिए काफी है। यह तो सिर्फ एक जगह का मामला है। देश के विभिन्न हिस्सों में शवों की क्या स्थिति है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। आखिरकार शवों ने अपने नहीं होने का और गंगा में प्रवाहित किए जाने का खुद से ही खुलासा कर दिया, जिससे देश और राज्य की सरकारों पर लानत है। उन्हें सोचना होगा कि आखिर लाशों पर राजनीति कितने दिनों तक होगी। रोक लीजिए इस आंधी को वर्ना इस आंधी में अगर जनता जाग गई तो बहुत बड़ा बदलाव हो सकता है। आज 40 शवों तक ही यह बात आकर नहीं ठहरती जनाब बल्कि इसकी जद में कुछ और ही होने की आशंका बढ़ गई है। देश से लेकर बिहार-उत्तर प्रदेश में सरकारें एक हैं, फिर आरोप प्रत्यारोप किस बात का। बात तो इस तरह किए जा रहे अमानवीय कार्यों पर विराम लगाने की होनी चाहिए ना कि अपना-अपना पल्ला झाड़ लेने की। बस करों सरकार, एक तो कोरोना की लड़ाई लड़ रही है असहाय जनता और यहां आप है कि बहते शवों पर भी दो राज्यों के बीच सियासत को जन्म दे रहे हो।

पप्पु यादव की गिरफ्तारी के सियासी मायने

  • मुरली मनोहर श्रीवास्तव
    कोरोना काल हो या फिर पानी में डूबा पटना, सबके लिए एक पैर पर खड़े रहने वाले, सबको जरुरत की चीज उनके मकाम तक पहुंचाने वाले, बच्चों के लिए दूध का इंतजाम करने वाले, कोरोना महामारी में पीड़ितों के लिए, जरुरतमंदों के लिए खाना पहुंचाने वाले जननेता के रुप में उभरकर सामने आए हैं जाप नेता पप्पू यादव। जिस महामारी में कोई नेता अपने जनप्रतिनिधि होने का दायित्व नहीं निभा रहे हैं अगर उस परिस्थिति में पप्पु यादव असहायों के मसीहा बनकर आए हैं तो इससे घबराने की क्या जरुरत है। इससे तो जनप्रितिनिधियों को सबक लेनी चाहिए कि उनका जो दायित्व है वो उसका कितना निर्वहन कर रहे हैं।
    अचानक से पप्पु यादव को पुलिस बिना पास घुमने को लेकर गिरफ्तार कर लेती है। रातोरात उन्हें पटना से तड़ीपार कर सुपौल पहुंचा दिया जाता है। उनके लिए देर रात कोर्ट को खोलकर 32 साल पुराने मामले में उन पर सुनवाई करते हुए उन्हें 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया जाता है। इसका बिहार की सत्तारुढ़ दल की सहयोगी दलों में भाजपा, हम और वीआईपी पार्टी ने विरोध जताया और कहा ये नहीं होना चाहिए था। फिर भी ऐसा हुआ, इस गिरफ्तारी के पीछे आखिर क्या वजह हो सकती है।
    भूख हड़ताल पर पप्पु
    14 दिनों के न्यायिक हिरासत में भेजे जाने के बाद सुबह होते ही पूर्व सांसद पप्पु यादव ने जेल में असुविधा होने को लेकर भूख हड़ताल शुरु कर दिया है। जाहिर सी बात है कि पप्पु यादव एक जनप्रतिनिधि हैं। भले ही इस बार वो सदन तक नहीं पहुंच पाए हों, मगर इतना तो कहा ही जा सकता है कि पति-पत्नी दोनों ही सदन के सदस्य रह चुके हैं। पप्पु यादव लोगों के बीच हमेशा बने रहते हैं। लेकिन इनके भूख हड़ताल करने के बाद सुविधाएं भले ही बढ़ जाएं, मगर इस गिरफ्तारी के पीछे के सच से विरोधियों की चाल उन्हीं के लिए बेड़ी बनती जा रही है।
  • विपक्ष का विरोधी स्वर
    कल तक पप्पु यादव की गिरफ्तारी को लेकर विपक्ष और पक्ष दोनों ही नीतीश कुमार के खिलाफ आग उगलने लगे थे। मगर नीतीश कुमार ने विऱोधियों के बयान को अनसूना कर कोरोना महामारी में लोगों की सुविधाओं पर खुद का ध्यान टिकाए हुए हैं। पर, चौंकिए मत जनाब नीतीश की चुप्पी से खफा विपक्षी दल राजद के पांव ही उखड़ गए हैं और वो सोच में पड़ गई है कि आखिर नीतीश की ये कौन सी चाल है। कल तक पप्पु के साथ होने का दावा करने वाले तेजस्वी अब नीतीश और पप्पु की मिलीभगत बता रहे हैं। अब राजनीति है इसमें कुछ भी हो सकता है। कौन क्या सोचता है, कौन क्या करता है और किसके क्या नतीजे निकलते हैं ये तो चाल चलने वाला ही जाने।
    बिहार की सियासत में पप्पु प्रकरण को भुनाने की पक्ष-विपक्ष दोनों ने अपने पक्ष में वोट को करने की कोशिश की। लेकिन चाल उल्टी पड़ गई और सत्ता की सियासत के माहिर खिलाड़ी नीतीश की चाल के क्या कहने। उनकी चाल के आगे केंद्रीय राजनेता से लेकर राज्यस्तरीय नेता भी फीके पड़ जा रहे हैं। अगर यकीन नहीं तो इसको समझिए चिराग पासवान विधानसभा चुनाव में नीतीश को मिटाने की बात करते थे। आज की तारीख में वो खुद ही मिट गए हैं, उनका एक विधायक था भी उनको छोड़कर नीतीश की नाव में सवार हो गया है। अब चलते हैं प्रखर विरोधी उपेंद्र कुशवाहा जी की ओर बहुत उड़े जनाब लेकिन ऐसा पर कतर दिया कि पार्टी को विलय कर नीतीश के राजनीतिक टूकड़ों पर पलने लगे हैं। चलते हैं राजद खेमें की ओर तो लालू के लाल ने सोचा की पिता की तरह वो भी करिश्मा दिखाएंगे और सत्ता पर काबिज हो जाएंगे। सीट तो ज्यादा लाने में कामयाब राजद और भाजपा दोनों लायीं मगर मात्र 43 सीटों के साथ नीतीश कुमार सत्तासीन हो गए। अगली कड़ी में पप्पु यादव को पहले बिहार के कोने-कोने में मामलों को उजागर करने दिया और जब सर के ऊपर से पानी बहा तो उन्हें हिरासत में लेकर यादव की राजनीति में पप्पु को चर्चा में लाकर लालू और तेजस्वी की सियासत को एक बार फिर फीका कर दिया है। इसीलिए कहा जाता है कि बिहार की राजनीति में नीतीश के शतरंजी चाल को समझने के लिए सोच समझकर कदम बढ़ाना होगा। वरना अपने समकक्ष नेताओं को धूल चटाया ही अब युवा नेताओं को भी लगातार मात दे रहे हैं। अब ऐसे में देखने वाली बात ये है कि आखिर राजद के आरोप और पप्पु की गिरफ्तारी के क्या हैं मायने, इसको समझ पाना थोड़ा कठिन प्रतीत होता है।

नए समय में मीडिया शिक्षा की चुनौतियां

प्रो. संजय द्विवेदी

एक समय था जब माना जाता है कि पत्रकार पैदा होते हैं और पत्रकारिता पढ़ा कर सिखाई नहीं जा सकती। अब वक्त बदल गया है। जनसंचार का क्षेत्र आज शिक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। वर्ष 2020 को लोग चाहे कोरोना महामारी की वजह से याद करेंगे, लेकिन एक मीडिया शिक्षक होने के नाते मेरे लिए ये बेहद महत्वपूर्ण है कि पिछले वर्ष भारत में मीडिया शिक्षा के 100 वर्ष पूरे हुए थे। वर्ष 1920 में थियोसोफिकल सोसायटी के तत्वावधान में मद्रास राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में डॉक्टर एनी बेसेंट ने पत्रकारिता का पहला पाठ्यक्रम शुरू किया था। लगभग एक दशक बाद वर्ष 1938 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के पाठ्यक्रम को एक सर्टिफिकेट कोर्स के रूप में शुरू किया गया। इस क्रम में पंजाब विश्वविद्यालय, जो उस वक्त के लाहौर में हुआ करता था, पहला विश्वविद्यालय था, जिसने अपने यहां पत्रकारिता विभाग की स्थापना की। भारत में पत्रकारिता शिक्षा के संस्थापक कहे जाने वाले प्रोफेसर पीपी सिंह ने वर्ष 1941 में इस विभाग की स्थापना की थी। अगर हम स्वतंत्र भारत की बात करें, तो सबसे पहले मद्रास विश्वविद्यालय ने वर्ष 1947 में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की स्थापना की। इसके पश्चात कलकत्ता विश्वविद्यालय, मैसूर के महाराजा कॉलेज, उस्मानिया यूनिवर्सिटी एवं नागपुर यूनिवर्सिटी ने मीडिया शिक्षा से जुड़े कई कोर्स शुरू किए। 17 अगस्त, 1965 को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने भारतीय जन संचार संस्थान की स्थापना की, जो आज मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में पूरे एशिया में सबसे अग्रणी संस्थान है। आज भोपाल में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, रायपुर में कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय एवं जयपुर में हरिदेव जोशी पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय पूर्ण रूप से मीडिया शिक्षण एवं प्रशिक्षण का कार्य कर रहे हैं। भारत में मीडिया शिक्षा का इतिहास 100 वर्ष जरूर पूर्ण कर चुका है, परंतु यह अभी तक इस उलझन से मुक्त नहीं हो पाया है कि यह तकनीकी है या वैचारिक। तकनीकी एवं वैचारिकी का द्वंद्व मीडिया शिक्षा की उपेक्षा के लिए जहां उत्तरदायी है, वहां सरकारी उपेक्षा और मीडिया संस्थानों का सक्रिय सहयोग न होना भी मीडिया शिक्षा के इतिहास की तस्वीर को धुंधली प्रस्तुत करने को विवश करता है। भारत में जब भी मीडिया शिक्षा की बात होती है, तो प्रोफेसर के. ई. ईपन का नाम हमेशा याद किया जाता है। प्रोफेसर ईपन भारत में पत्रकारिता शिक्षा के तंत्र में व्यावहारिक प्रशिक्षण के पक्षधर थे। प्रोफेसर ईपन का मानना था कि मीडिया के शिक्षकों के पास पत्रकारिता की औपचारिक शिक्षा के साथ साथ मीडिया में काम करने का प्रत्यक्ष अनुभव भी होना चाहिए, तभी वे प्रभावी ढंग से बच्चों को पढ़ा पाएंगे। आज देश के अधिकांश पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षण संस्थान, मीडिया शिक्षक के तौर पर ऐसे लोगों को प्राथमिकता दे रहे हैं, जिन्हें अकादमिक के साथ साथ पत्रकारिता का भी अनुभव हो। ताकि ये शिक्षक ऐसा शैक्षणिक माहौल तैयार कर सकें, ऐसा शैक्षिक पाठ्यक्रम तैयार कर सकें, जिसका उपयोग विद्यार्थी आगे चलकर अपने कार्यक्षेत्र में भी कर पाएं। पत्रकारिता के प्रशिक्षण के समर्थन में जो तर्क दिए जाते हैं, उनमें से एक दमदार तर्क यह है कि यदि डॉक्टरी करने के लिए कम से कम एम.बी.बी.एस. होना जरूरी है, वकालत की डिग्री लेने के बाद ही वकील बना जा सकता है तो पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण पेशे को किसी के लिए भी खुला कैसे छोड़ा जा सकता है? दरअसल भारत में मीडिया शिक्षा मोटे तौर पर छह स्तरों पर होती है। सरकारी विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में, दूसरे, विश्वविद्यालयों से संबंद्ध संस्थानों में, तीसरे, भारत सरकार के स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों में, चौथे, पूरी तरह से प्राइवेट संस्थान, पांचवे डीम्ड विश्वविद्यालय और छठे, किसी निजी चैनल या समाचार पत्र के खोले गए अपने मीडिया संस्थान। इस पूरी प्रक्रिया में हमारे सामने जो एक सबसे बड़ी समस्या है, वो है किताबें। हमारे देश में मीडिया के विद्यार्थी विदेशी पुस्तकों पर ज्यादा निर्भर हैं। लेकिन अगर हम देखें तो भारत और अमेरिका के मीडिया उद्योगों की संरचना और कामकाज के तरीके में बहुत अंतर है। इसलिए मीडिया के शिक्षकों की ये जिम्मेदारी है, कि वे भारत की परिस्थितियों के हिसाब से किताबें लिखें। मीडिया शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए आज मीडिया एजुकेशन काउंसिल की आवश्यकता है। इसकी मदद से न सिर्फ पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षा के पाठ्यक्रम में सुधार होगा, बल्कि मीडिया इंडस्ट्री की जरुरतों के अनुसार पत्रकार भी तैयार किये जा सकेंगे। आज मीडिया शिक्षण में एक स्पर्धा चल रही है। इसलिए मीडिया शिक्षकों को ये तय करना होगा कि उनका लक्ष्य स्पर्धा में शामिल होने का है, या फिर पत्रकारिता शिक्षण का बेहतर माहौल बनाने का है।

डिजीटल ट्रांसफार्मेशन के लिए तैयार हों नए पत्रकार

आज के समय में पत्रकारिता बहुत बदल गई है, इसलिए पत्रकारिता शिक्षा में भी बदलाव आवश्यक है। आज लोग जैसे डॉक्टर से अपेक्षा करते हैं, वैसे पत्रकार से भी सही खबरों की अपेक्षा करते हैं। अब हमें मीडिया शिक्षण में ऐसे पाठ्यक्रम तैयार करने होंगे, जिनमें विषयवस्तु के साथ साथ नई तकनीक का भी समावेश हो। न्यू मीडिया आज न्यू नॉर्मल है। हम सब जानते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के कारण लाखों नौकरियां गई हैं। इसलिए हमें मीडिया शिक्षा के अलग अलग पहलुओं पर ध्यान देना होगा और बाजार के हिसाब से प्रोफेशनल तैयार करने होंगे। नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय भाषाओं पर ध्यान देने की बात कही गई है। जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में भी हमें इस पर ध्यान देना होगा। मीडिया शिक्षण संस्थानों के लिए आज एक बड़ी आवश्यकता है क्षेत्रीय भाषाओं में पाठ्यक्रम तैयार करना। भाषा वो ही जीवित रहती है, जिससे आप जीविकोपार्जन कर पाएं और भारत में एक सोची समझी साजिश के तहत अंग्रेजी को जीविकोपार्जन की भाषा बनाया जा रहा है। ये उस वक्त में हो रहा है, जब पत्रकारिता अंग्रेजी बोलने वाले बड़े शहरों से हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के शहरों और गांवों की ओर मुड़ रही है। आज अंग्रेजी के समाचार चैनल भी हिंदी में डिबेट करते हैं। सीबीएससी बोर्ड को देखिए जहां पाठ्यक्रम में मीडिया को एक विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है। क्या हम अन्य राज्यों के पाठ्यक्रमों में भी इस तरह की व्यवस्था कर सकते हैं, जिससे मीडिया शिक्षण को एक नई दिशा मिल सके। एक वक्त था जब पत्रकारिता का मतलब प्रिंट मीडिया होता था। अस्सी के दशक में रिलीज हुई अमेरिकी फिल्म Ghostbusters (घोस्टबस्टर्स) में सेक्रेटरी जब वैज्ञानिक से पूछती है कि ‘क्या वे पढ़ना पसंद करते हैं? तो वैज्ञानिक कहता है ‘प्रिंट इज डेड’। इस पात्र का यह कहना उस समय हास्य का विषय था, परंतु वर्तमान परिदृश्य में प्रिंट मीडिया के भविष्य पर जिस तरह के सवाल खड़े किये जा रहे हैं, उसे देखकर ये लगता है कि ये सवाल आज की स्थिति पर बिल्कुल सटीक बैठता है। आज दुनिया के तमाम प्रगतिशील देशों से हमें ये सूचनाएं मिल रही हैं कि प्रिंट मीडिया पर संकट के बादल हैं। ये भी कहा जा रहा है कि बहुत जल्द अखबार खत्म हो जाएंगे। वर्ष 2008 में अमेरिकी लेखक जेफ गोमेज ने ‘प्रिंट इज डेड’ पुस्तक लिखकर प्रिंट मीडिया के खत्म होने की अवधारणा को जन्म दिया था। उस वक्त इस किताब का रिव्यू करते हुए एंटोनी चिथम ने लिखा था कि, “यह किताब उन सब लोगों के लिए ‘वेकअप कॉल’ की तरह है, जो प्रिंट मीडिया में हैं, किंतु उन्हें यह पता ही नहीं कि इंटरनेट के द्वारा डिजिटल दुनिया किस तरह की बन रही है।” वहीं एक अन्य लेखक रोस डावसन ने तो समाचारपत्रों के विलुप्त होने का, समय के अनुसार एक चार्ट ही बना डाला। इस चार्ट में जो बात मुख्य रूप से कही गई थी, उसके अनुसार वर्ष 2040 तक विश्व से अखबारों के प्रिंट संस्करण खत्म हो जाएंगे। मीडिया शिक्षण संस्थानों को अपने पाठ्यक्रमों में इस तरह के बदलाव करने चाहिए, कि वे न्यू मीडिया के लिए छात्रों को तैयार कर सकें। आज तकनीक किसी भी पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मीडिया में दो तरह के प्रारूप होते हैं। एक है पारंपरिक मीडिया जैसे अखबार और पत्रिकाएं और और दूसरा है डिजिटल मीडिया। अगर हम वर्तमान संदर्भ में बात करें तो सबसे अच्छी बात ये है कि आज ये दोनों प्रारूप मिलकर चलते हैं। आज पारंपरिक मीडिया स्वयं को डिजिटल मीडिया में परिवर्तित कर रहा है। जरूरी है कि मीडिया शिक्षण संस्थान अपने छात्रों को ‘डिजिटल ट्रांसफॉर्म’ के लिए पहले से तैयार करें। देश में प्रादेशिक भाषा यानी भारतीय भाषाओं के बाजार का महत्व भी लगातार बढ़ रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी भाषा के उपभोक्ताओं का डिजिटल की तरफ मुड़ना लगभग पूरा हो चुका है। ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2030 तक भारतीय भाषाओं के बाजार में उपयोगकर्ताओं की संख्या 500 मिलियन तक पहुंच जाएगी और लोग इंटरनेट का इस्तेमाल स्थानीय भाषा में करेंगे। जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थान अपने आपको इन चुनौतियों के मद्देनजर तैयार करें, यह एक बड़ी जिम्मेदारी है।

बंगाल जल रहा है ! ममता बाँसुरी बजा रही हैं


बंगाल जल रहा है ! और ममता बाँसुरी बजा रही हैं | प्रचंड बहुमत पाने वाली तृणमूल पार्टी नंदीग्राम में मिली एक पराजय से मानसिक संतुलन खोती दीख पड़ रही है | पूरा राज्य हिंसा,भय और अराजकता की चपेट में है और देश के तथाकथित बुद्धिजीवी,कलाकार व मानवाधिकार कार्यकर्त्ता चुप हैं क्यों ? जय-पराजय लोकतंत्र की परम्परा है किन्तु बंगाल में विजेता दल के कार्यकर्त्ता चुनाव परिणाम आते ही अपने राजनीतिक विरोधियों के साथ ऐसा बर्बर व्यवहार कर रहे हैं जैसा मुग़ल व अन्य विदेशी आक्रमणकारी जीत के बाद करते थे | जिन भाजपा कार्यकर्ताओं की घर में घुस कर नृशंस हत्याएँ की गईं वे भी बंगाली थे, पराजित दल का सदस्य होने से उनके नागरिक अधिकार समाप्त नहीं हो गए फिर क्यों उन्हें मारा जा रहा है ? यह कैसी बिडम्बना है कि स्वयं को पत्रकार और स्तंभकार कहने वाले लोग ममता बनर्जी से इन हत्याओं पर प्रश्न पूछने के स्थान पर उन्हें राष्ट्रिय राजनीति में कैसे आ जाना चाहिए, पर कलम घिस रहे हैं | निरपराध लोगों की गर्दने काटी जा रही हैं और नैरेटिव सैटर आगामी सात राज्यों में भाजपा को कैसे पराजित किया जाए इसकी चिंता में लगे हैं | यदि बंगाल के स्थान पर भाजपा शासित किसी राज्य में इस प्रकार विरोधी दल के कार्यालय में आग लगाई गई होती और हत्याएँ की गईं होतीं क्या तब भी देश का मीडिया और तथाकथित एक्टिविस्ट यों ही चुप रह जाते ? लोकतंत्र का यह कैसा रूप है जिसमें चुनी हुई सरकार ही अपने विरोधियों की हत्याएँ करा रही है फिर भी बंगाल में किसी को न असहिष्णुता दीखती है न हिंसा, न संविधान खतरे में है और न हीं किसी को डर लग रहा है ?
बंगाल में कम्युनिस्टों के शासन में रजनीतिक हत्याओं का जो खेला शुरू हुआ था ममता राज में वह अभी भी वैसे ही चल रहा है | इस विनाशकारी खेल को शीघ्र ही समाप्त नहीं किया गया तो अन्य राज्यों में भी छोटे-छोटे राजनीतिक दल इस रक्तचरित्र को अपनाना आरम्भ कर सकते हैं, फिर राष्ट्रिय दलों का वहाँ जीवित रह पाना भी असंभव हो जाएगा | कांग्रेस ने भले ही स्वयं समाप्त हो जाने की शर्त पर ममता के पक्ष में अपना वोट बैंक शिफ्ट हो जाने दिया हो किन्तु इस हिंसा के समर्थन से उसका भी कोई भला नहीं होने वाला | स्मरण रहे ममता बनर्जी भविष्य में विरोधियों की नेता के रूप में सोनिया गांधी का स्थान ही ले सकती हैं मोदी का नहीं | यद्यपि राज्य के चुनाव स्थानीय मुद्दों पर होते हैं तथा उससे केंद्र सरकार के भविष्य का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता | मोदी जी के लिए इसे संयोग कहें या सुअवसर कि देश के लगभग दर्जन भर से अधिक विपक्षी दलों को मिलाकर भी कोई ऐसा व्यक्ति सामने नहीं है जिसे मोदी के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया जा सके | मीडिया जगत की इस समय की टिप्पणी यही है कि, कांग्रेस के पास राष्ट्रिय स्तर का संगठन तो है पर नेता नहीं है तथा उसके अन्य सहयोगी दलों के पास नेता हैं किन्तु राष्ट्रिय स्तर का संगठन नहीं है | किन्तु यह समय ऐसे विमर्श का नहीं है | इस समय सबसे महत्व पूर्ण बात है बंगाल में होने वाली हत्याओं को तत्काल रोकना | क्या यह कम दुखद नहीं है कि स्वयं को मोदी विरोधी कहने वाले गैर भाजपाई मुख्यमंत्रियों ने भी इन हत्याओं पर शोक प्रकट नहीं किया और न हीं निंदा की ? लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत नहीं है | सरकार चाहे तृणमूल की हो या किसी भी अन्य दल की, राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखना उसका प्रथम कर्तव्य है | बंगाल में राज्य सरकार यदि अपने कर्तव्य से च्युत होती है तो उसके ऊपर संवैधानिक अंकुश लगाना ही पड़ेगा | लोकतंत्र में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है | भारत के राष्ट्रपति महोदय को या न्यायालय को स्वयं संज्ञान लेकर बंगाल में कानून व्यवस्था की समीक्षा करनी चाहिए |
डॉ.रामकिशोर उपाध्याय

‘सर्व शुक्ला सरस्वती’ एनी बीसेंट और थियोसोफिकल सोसाइटी

—विनय कुमार विनायक
मां एनी बीसेंट जन्म से एक ईसाई थी
मगर कर्म से गुलाम भारत में हिन्दुत्व को
जगाने वाली पूर्व जन्म की हिन्दू थी!

एनी बीसेंट एक प्रेत विद्या की जानकार
रुसी महिला हेलेना पेत्रोवना ब्लेवास्की
लिखित पुस्तक ‘द सीक्रेट डॉक्ट्रिन’ पढ़कर
थियोसोफिकल सोसाइटी में दीक्षित हुई!

थियोसोफिकल सोसाइटी की स्थापना
रुसी हेलेना और अमेरिकी कर्नल आलकाट ने
7 सितंबर 1875 ई. में न्यूयॉर्क में की!

तिब्बत की महान संत आत्माओं के निर्देश पर
ब्लेवास्की और आलकाट ने 16 फरवरी 1879 को
इस ब्रह्मविद्या समाज को बम्बई लेकर आए,
फिर 1882ई.में अडयार मद्रास में मुख्यालय बनाए!

एनी बीसेंट 16 नवंबर1893 ई.में भारत आई
और मृत्युपर्यंत 1933 ई.तक सभानेत्री बनी रही!
एनी बीसेंट भारत और हिंदुत्व की भक्त थी!

उनका कहना था ‘हिन्दुत्व ही वह मिट्टी है,
जिसमें भारतवर्ष का मूल गड़ा हुआ है,यदि ये मिट्टी
हटा ली गई तो भारत रुपी वृक्ष सूख जाएगा!

आर्य समाज व ब्रह्म समाज ने
जहां खंडित संशोधित हिन्दुत्व वरण किया,
वहीं एनी बीसेंट ने अखंड हिन्दुत्व अपनाया,
सिर्फ वेद उपनिषद गीता का ही हवाला नहीं,
बल्कि स्मृति,पुराण,धर्मशास्त्र,महाकाव्य, देव-देवी,
पुनर्जन्म, अवतार,आख्यान,अनुष्ठान की बातें की!

एनी बीसेंट ने कहा ‘चालीस वर्षों के
सुगंभीर चिंतन के बाद मैं यह कह रही हूं
कि विश्व के सभी धर्मों में हिन्दू धर्म से बढ़कर
पूर्ण, वैज्ञानिक,दर्शनयुक्त एवं आध्यात्मिकता से
परिपूर्ण धर्म दूसरा कोई नहीं है।‘

एनी बीसेंट भारतीय राजनीति में भी सक्रिय थी
उन्नीस सौ चौदह से तिलक के होम रुल में भाग ली
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सभापति भी बनी थी,
उन्होंने सेंट्रल हिन्दू कॉलेज बनारस स्थापना की
जो बाद में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय बनी थी!

थियोसोफी कोई अलग धर्म मजहब नहीं,
यह सर्व धर्म समन्वयवादी आंदोलन थी,
थियोसोफी होने हेतु धर्म छोड़ने की नहीं
बल्कि अच्छे स्वधर्मी होने की जरूरत थी!

भारत की खासियत है ऐसी

—विनय कुमार विनायक
भारत की खासियत है ऐसी
कि अनेक जातियों को मिलाकर
एक जाति बना देती

भारत की अच्छाई है ऐसी
कि अनेक धर्म को घोंटकर
सर्वग्राह्य एक धर्म खड़ा कर देती!

भारत की प्रवृत्ति है ऐसी
कि अनेक संस्कृतियों को मिश्रितकर
एक समेकित संस्कृति बना देती!

ऐसे ही नीग्रो,औष्ट्रिक,द्रविड़,आर्य मिलकर
एक महान संस्कृति हिन्दू का बन जाना!

कभी कोई जाति नाम संस्कृत शब्द से बनी,
बाद में अपभ्रंश होकर बनी अनेक उपजाति,
फिर दौर एक ऐसा आता कि सारी उपजाति,
एकीकृत होके बन जाती है, एक बड़ी जाति!

विदेशी आक्रांता जातियां शक-हूंन-कुषाण आदि
भारत आकर राजपूत जाति में रचपच गईं थी!

भगवान बुद्ध ने आनन्द से भविष्यवाणी की थी
‘मेरा चलाया धर्म सिर्फ पांच सौ वर्ष तक चलेगा’
सचमुच पांच सौ वर्ष के अंदर बौद्ध धर्म टूटकर
एक हीनयान दूसरा महायान शाखा में बंट गया!

मूल बौद्ध धर्म हीनयान दिन ब दिन हीन होता गया,
महायान बौद्धधर्म छोड़ हिन्दुत्व की गोद में आ गया!

बुद्ध अपने जीवन काल में ईश्वर के विषय में मौन थे,
महायानियों ने बुद्ध को ईश्वर के अवतार बना दिए थे!

बुद्ध ने देवी-देवताओं की अराधना करना मना की थी
महायानी ने बुद्ध संग देवताओं की फौज खड़ी कर दी!

बुद्ध ने अपना धर्मोपदेश लोकभाषा पाली में दिया था,
महायानी ने बुद्ध साहित्य को संस्कृत में लिख दिया!

बुद्ध ने निज धर्म में संन्यासी को मोक्षकामी बनाया था,
महायान ने समग्र गृहस्थों को मोक्ष का पात्र बना दिया!

यह शाश्वत नियम है कि अति का अंत होता,
घोर निराकारी शीघ्र साकारवाद की ओर बढ़ता,
वैराग्य की अधिकता भोगवाद को जन्म देती!

भारतीय हिन्दू संस्कृति अमरबेल सी बढ़ गई,
सदियों से जुल्म को सहकर भारत मिटी नहीं!
मिस्र रोम ईरान मिट गए, अपने धर्म बदलकर,
किन्तु भारत की प्रवृत्ति ऐसी जो बदलती नहीं!