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‘लेडी विद द लाइट’ के लिये इम्पैक्ट गुरु की सार्थक पहल

 ललित गर्ग 

इस वर्ष अंतर्राष्ट्रीय नर्स दिवस के अवसर पर इम्पैक्ट गुरु फाउंडेशन ने अपोलो हॉस्पिटल्स ग्रुप के साथ साझेदारी में अपनी अलग तरह की एक अनूठी सामाजिक प्रभाव परियोजना ‘एंजल #थैंक ए नर्स’ की घोषणा करते हुए संकल्प व्यक्त किया गया कि अगले कुछ वर्षों में पूरे भारत में एक लाख से अधिक नर्सों को सशक्त बनाया जायेगा। एंजल का मतलब एडवांस नर्सेज की ग्रोथ, एक्सीलेंस एंड लर्निंग है। हमारी नर्सें कोरोना महामारी में बहुत लंबे समय तक जान को जोखिम में डालकर, भारी सुरक्षात्मक पीपीई गियर पहनकर, असुविधा में रहकर, खुद को अपने परिवार से अलग रखकर, निरन्तर अपनी सेवाएं दे रही है और यह करते हुए वे कोई शिकायत नहीं करती एवं आशा नहीं खोती-वे हर चुनौती का जोरदार मुस्कान के साथ सामना करती है, चाहे परेशानी एवं बीमारी कितनी भी गंभीर क्यों न हो। वास्तव में उनकी निःस्वार्थता एवं सेवाभावना उन्हें रोगियों के लिए स्वर्गदूत बनाती है, एक फरिश्ते के रूप में वे जीवन का आश्वासन बनती है और उनका बलिदान उन्हें देश के लिये कोविड योद्धा बनाता है।
ऐसी अग्रणी एवं प्रथम पंक्ति की कोविड़ योद्धाओं के उन्नत भविष्य एवं कौशल विकास के लिये इम्पैक्ट गुरु फाउंडेशन ने एक सार्थक पहल की है, फाउण्डेशन के संस्थापक श्री पीयूष जैन ने अपनी इस योजना को प्रस्तुति देते हुए कहा है कि नर्से भगवान का रूप होती है, वे ही इंसान के जन्म की पहली साक्षी बनती है और उनमें करुणा का बीज बोती है। एक रोगी को स्वस्थ करने में वे अपना सब कुछ दे देती हैं। कोरोना महामारी में उन्होंने अपना पारिवारिक सुख, करियर, जीवन, और वर्तमान सबकुछ झांेक दिया। अब हमारा यह नैतिक कर्तव्य है कि हम उनकी अनूठी एवं निःस्वार्थ सेवाओं के बदले वापस कुछ लौटाये और उनका भविष्य उन्नत करें- इस उद्देश्य से प्रारंभ किये जा रहे ‘एंजल #थैंक ए नर्स’  कार्यक्रम में उन्होंने जन-सहभागिता की आवश्यकता को उजागर किया। उन्होंने इस दूरगामी सोच से जुड़ी बहुआयामी योजना में हम सभी को हाथ मिलाने, अपनी नर्सों के करियर को फिर से परिभाषित करने, नए सिरे से विकसित करने और कौशल विकास की शक्ति के साथ उनके जीवन को बदलने के लिए यह जन-आह्वान किया हैं। एक लाख नर्सों को इस योजना से जोड़ने एवं उनके कौशल विकास का लक्ष्य रखा गया है, कार्यक्रम की अवधि में उन्नत कौशल प्रशिक्षण के लिए छात्रवृत्ति के माध्यम से प्रति नर्स 50,000 रुपये तक निवेश करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की गयी है। जिसमें अपोलो हॉस्पिटल्स ने कम-से-कम एक हजार नर्सों के कौशल विकास के लिये इस योजना से जुड़ने का संकल्प व्यक्त किया है।  इस महत्वपूर्ण परियोजना का उद्देश्य नर्स समुदाय को, जिसने महामारी में अपना सब कुछ दिया है, उनके उन्नत भविष्य के लिये वापस देना है। इस योजना में इम्पैक्ट गुरु फाउण्डेशन के साथ अपोलो हॉस्पिटल्स ग्रुप फाउंडिंग सर्कल के प्रमुख सदस्य और प्रिंसिपल डोनर होंगे। कई अन्य साथी जैसे माइक्रोसोफ्ट इंडिया, फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (एफआईसीसीआई), एमिटी यूनिवर्सिटी, आईसीएफएआई यूनिवर्सिटी, इंडियन नर्सिंग काउंसिल (आईएनएस), सिम्बायोसिस इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी और अन्य संस्थान इंपैक्ट और नॉलेज पार्टनर्स के रूप में काम करेंगे।
कोविड़-19 के संकट में एक योद्धा की तरह हर मुश्किल घड़ी में अपनी जान की परवाह किये बिना मरीजों के साथ जो खड़ी रही, वे नर्से ही थी, जिन्हें हम और आप अक्सर सिस्टर कह कर पुकारते हैं। आम दिन हो या कोरोना के खिलाफ जंग, ये नर्स बिना किसी डर के सहजता और उत्साह से अपने कर्तव्य का पालन कर रही है। इसलिए नहीं कि यह उनका काम है और उसके लिए उन्हें पैसे मिलते हैं। इसलिए कि वह सबसे पहले दूसरों के स्वस्थ होने और उनकी जान की फिक्र करती हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र में मां के स्वरूप में स्नेहपूर्ण और फिक्र के साथ हर किसी की देखभाल और परवाह करने के शब्द को ही नर्स कहा जाता है। वे अस्पताल की रीड होती है। लियो बुशकाग्लिया ने कहा भी है कि एक नर्स का एक स्पर्श, मुस्कुराहट, प्यारी बोली, ईमानदारी और देखभाल की सबसे छोटी क्रिया में सभी में जीवन को मोड़ने की क्षमता होती है।’
पूरी दुनिया में हम इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकते है कि नर्सिंग सेवाएं दुनिया में सबसे बड़ी स्वास्थ्य देखभाल का पेशा है। रोगियों के स्वास्थ्य और कल्याण को बनाये रखने के लिये नर्सों का प्रशिक्षण एवं कौशल विकास अपेक्षित है, उसी दिशा में इम्पैक्ट गुरु फाउंडेशन की ‘एंजल रुथैंक ए नर्स’  योजना एक महत्वपूर्ण कदम है, जिससे भारत की नर्सों को नयी ऊर्जा, नयी दिशा एवं नया परिवेश मिलेगा और वे अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं देने में सक्षम होगी। इससे भारत की नर्सों के लिये गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाएं देने के लिये अनुकूल वातावरण सुनिश्चित होगा। इससे नर्सें रोगियों की अधिक प्रभावपूर्ण ढंग से शारीरिक, मानसिक एवं भावात्मक भलाई करने में सक्षम होगी। ऐसी योजनाओं को सरकारों को भी प्रोत्साहन देना चाहिए। नर्सों का बस एक ही उद्देश्य होता है कि उनकी देखभाल में आया हुआ मरीज ठीक होकर हंसते हुए घर जाए। मरीज जब ठीक होकर मुस्कुराते हुए अपने परिवार वालों के साथ घर जाता है, तो वह खुशी नर्सों को और भी हिम्मत देती है। इलाज के दौरान नर्सोंे और मरीज के बीच पारिवारिक रिश्ता हो जाता है। सचमुच नर्सों की दुनिया अद्भुत है। वे दवा के साथ उन्हें मानसिक तौर पर मजबूत करती हैं और रोगों से लड़ने की प्रेरणा एवं शक्ति बनती है। यह शक्ति अधिक तेजस्वी एवं प्रखर बने, यही ‘एंजल #थैंक ए नर्स’ योजना का उद्देश्य है।
यह एक अनूठा अवसर है जब भारत में क्राउडफंडिंग के माध्यम से नर्सों के समग्र कौशल विकास एवं उनके ज्ञान को अधिक मानवीय बनाने के लिये एक बहुआयामी योजना आकार लेने जा रही है, भारत में क्राउडफंडिंग के बढ़ते प्रचलन से इस योजना की आर्थिक जरूरतों के लिये जन-अनुदान प्राप्त होगा। इम्पैक्ट गुरु डाॅट काम ने भारत में चिकित्सा के क्षेत्र में क्राउडफंडिंग के कीर्तिमान स्थापित किये हैं। हाल ही में एक असाध्य बीमारी से ग्रस्त बच्चे के लिये क्राउडफंडिंग के माध्यम से 16 करोड़ रुपये जुटाने का ऐतिहासिक लक्ष्य इम्पैक्ट गुरु डाॅट काम ने हासिल किया है। चिकित्सा क्षेत्र में  क्राउडफंडिंग का प्रयोग अधिक देखने में आ रहा है। अभावग्रस्त एवं गरीब लोगों के लिये यह एक रोशनी बन कर प्रस्तुत हुआ है। इसे ‘एक रोशनी स्वास्थ्य चमकाने’ की कहा जा सकता है, जिसके लिये देश के प्रमुख क्राउडफडिंग मंच इम्पैक्ट गुरु के प्रयास उल्लेखनीय है। असाध्य बीमारियों एवं कोरोना महामारी के पीडितों के महंगे इलाज के कारण गरीब, अभावग्रस्त एवं जरूरतमंद रोगियों की क्राउडफंडिंग के माध्यम से चिकित्सा में सहायता करते हुए इसने अनूठेे कीर्तिमान स्थापित किये है। अब क्राउडफडिंग के माध्यम से नर्सों के उत्थान एवं उन्नयन के प्रयत्न हो रहे हैं। ‘लेडी विद द लाइट’ के रूप में जो नर्सें कोरोना पीडितों के साथ जान को जोखिम में डालकर वार्ड़ों में पूरी रात देखभाल करती है, घंटों उनके साथ बिताती है, उनके पास जाती है, उनके स्वस्थ होने के समग्र प्रयास करती है, ऐसी मानवीय सेवा की अद्भूत फरिश्तों के लिये इम्पैक्ट गुरु फाउंडेशन ने दूरगामी एवं मानवीय सोच से जो योजना प्रस्तुत की है, उससे निश्चित ही नर्सों की सेवाएं अधिक सक्षम, प्रभावी एवं मानवीय होकर सामने आयेगी।
इम्पैक्टगुरु फाउण्डेशन के संस्थापक पीयूष जैन और खुशबू जैन एशिया के सबसे बड़े हेल्थकेयर समूह अपोलो हॉस्पिटल्स के मिलकर एवं अन्य संगठनों केे सहयोग से ‘एंजल #थैंक ए नर्सश् के लिये अति उत्साहित है। श्री पीयूष जैन इस बात की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं कि आम नागरिक को चिकित्सा सेवा और जनकल्याण के कार्यों में जीवन समर्पित करने वाली नर्सों के लिये क्राउडफंडिंग के माध्यम से सहयोग के लिये आगे आना चाहिए।  इम्पैक्ट गुरु ने क्राउडफंडिंग के माध्यम से करोड़ों रूपयों की चिकित्सा सहायता एवं अन्य जरूरतों के लिये आर्थिक संसाधन जुटाये हैं। केवल चिकित्सा के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी क्राउडफंडिंग का प्रचलन बढ़ रहा है। भारत के सुनहरे भविष्य के लिए क्राउडफंडिंग अहम भूमिका निभा सकती है। क्योंकि क्राउडफंडिंग से भारत में दान का मतलब सिर्फ गरीबों और लाचारों की मदद करना समझते आ रहे हैं जबकि अब कला, विज्ञान, शिक्षा, चिकित्सा और मनोरंजन को समृद्ध करने के साथ ‘एंजल #थैंक ए नर्स’ जैसी योजनाओं को सफल बनाने का सशक्त माध्यम है। 

परिवार की साख पर उठा सवाल तो सोनिया गांधी ने चला बड़ा सियासी दांव

पाटी अध्यक्ष चुनाव टालने के साथ हार के कारणों का पता लगाने के लिए कमेटी का झुनझुना

 संजय सक्सेना

        गांधी परिवार काफी समय से इस ‘जुगाड़’ में लगा था कि किस तरह से पांच राज्यों के चुनाव में मिली हार के बाद पार्टी में नेतृत्व के खिलाफ जो चिंगार भड़की है उसे शोला बनने से रोका जाए। इसके साथ-साथ यह भी कोशिश हो रही थी कि कांगे्रस अध्यक्ष के लिए प्रस्तावित चुनाव किसी तरह से टाल दिया जाए। इसके लिए गांधी परिवार ने रास्ता निकाल लिया है ताकि ‘सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।’कोरोना के आड़ में  कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने चुनाव टाल दिए हैं और कमेटी बनाकर पांच राज्यों में कांगे्रस की हुई हार के कारणों का पता लगाने का फरमान अपने कुछ करीबियों को दे दिया है। वर्ना राजनीति की जरा भी समझ रखने वाला जानता है कि कांगे्रस क्यों चुनाव हारी। लेकिन सोनिया गांधी  की बढ़ती उम्र का तकाजा कहा जाए या ं ड्रामेबाजी जो उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि पांच राज्यों में हुए विधान सभा चुनाव में पार्टी की इतनी दुर्गति क्यों हुई ? चार राज्यों की बात छोड़ भी दी जाए तो केरल से कांगे्रस को काफी उम्मीद थी। वहां सत्ता में वापसी का सपना देख रही थी,क्योकि केरल अब राहुल गांधी की सियासी भूमि बन गई है। जहां की वाॅयनाड लोकसभा सीट से राहुल गांधी सांसद हैं। पिछले चुुनाव में यूपी की अमेठी लोकसभा सीट से राहुल गांधी, भाजपा नेत्री और केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी से हार गए थे। इसके बाद राहुल ने उत्तर भारतीय के लिए बहुत बुरा-भला कहा था। फिर भी केरल में कांगे्रस 2016 की तरह 2021 में भी विपक्ष की भूमिका से आगे नहीं बढ़ पाई। पश्चिम बंगाल में तो कांगे्रस का खाता तक नहीं खुल पाया। जबकि वहां सत्ता हासिल करने के लिए कांगे्रस ने देश विरोधी ताकतों तक से हाथ मिलाने में गुरेज नहीं किया था। कागे्रस ने उन वामपंथी दलों से भी हाथ मिला लिया था, जिसकी विचारधारा के खिलाफ कांगे्रस दशकों तक सियासी लड़ाई लड़ती रही थी। इतना सब करने के  बाद भी जब गांधी परिवार को लगने लगा कि बंगाल में उसकी ‘दाल’ नहीं गलेगी तो उसने तृणमूल कांगे्रस को वाॅक ओवर दे दिया ताकि भारतीय जनता पार्टी को बंगाल की सत्ता में आने से रोका जा सके। गांधी परिवार तो बंगाल चुनाव में प्रचार करने के लिए ही नहीं गया। इसी वजह से त्रिकोणीय मुकाबला दो दलों के बची सिमट गया,जिसका ममता की पार्टी को फायदा हुआ और भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ा। इसी तरह से कांगे्रस अपनी धुर विरोधी भारतीय जनता पार्टी को रोकने में जरूर सफल रही। इसी लिए उसने अपनी हार का गम मनाने की बजाए भाजपा की हार की खुशियां मनाना ज्यादा बेहतर समझा। असम में राहुल गांधी के साथ-साथ प्रियंका वाड्रा ने भी प्रचार किया था। अपनी जनसभाओं में राहुल गांधी ने एनआरसीध्सीएए के मुद्दे को जोरदार तरीके से उठाते हुए यहां तक कह दिया था कि कांगे्रस सत्ता में आई तो असम में एनआरसीध्सीएए लागू नहीं होगा, फिर भी गांधी परिवार को मुंह की खानी पड़ी,लेकिन दुख की बात यह है कि गांधी परिवार ने खामियां दूर करने की बजाए इस पर पर्दा डालने के लिए मोदी सरकार के खिलाफ हमला खोलना ज्यादा बेहतर समझा ताकि कांगे्रस के अंदुरूनी संकट से लोगों का ध्यान बटाया जा सके।
         खैर, पांच राज्यो में हार का कारण नहीं समझ में आने की वजह से सोनिया गाधंी  ने एक पांच सदस्यीय कमेटी का गठन किया है। सोनिया को लगता होगा कि यह कमेटी हार के कारणों का पता लगाने के क्रम में ‘दूध का दूध,पानी का पानी’ करने में सफल रहेगी। किन्तु सबकी ऐसी सोच नहीं है। खासकर कांगे्रस के बाहर के लोग इस कमेटी के गठन के बारे में दो टूक कहने से नहीं हिचकिचा रहे हैं कि कमेटी का गठन हार के कारणों का पता लगाने के लिए नहीं गांधी परिवार को बचाने के लिए किया गया है। यह कमेटी कितनी निष्पक्ष होकर अपनी रिपोर्ट तैयार करेगी,इस पर इसलिए सवाल उठना लाजिमी है क्योंकि कमेटी में जिन पांच लोगों को लिया गया है, उसमें से चार के बारे में तो यह जगजाहिर है कि वह पार्टी के नहीं सिर्फ और सिर्फ गांधी परिवार के प्रति वफादार हैं। इसमें सबसे बड़ा नाम पूर्व केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद का है। जिस तरह से गांधी परिवार के अधंभक्तों को कमेटी में शामिल किया गया है,उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि हार का ठीकरा गांधी परिवार पर नहीं फोड़ा जाएगा,इसकी जगह प्रत्येक राज्य में किसी न किसी ‘प्यादे’ को ‘बलि’ के लिए तलाश कर कमेटी अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेगी। पश्चिम बंगाल में इस ‘प्यादे’ को लोग वहां के प्रदेश अध्यक्ष अधीर रंजन चैधरी के नाम से जानते हैं। अधीर रंजन चैधरी की खासियत की बात की जाए तो गांधी परिवार से वफादारी के चलते ही उन्हेें  लोकसभा मंे नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी हासिल हुई। वर्ना लोकसभा में चैधरी से काबिल कांगे्रस सांसदों की संख्या कम नहीं थी। कमेटी में बस एक नाम ही चैकाने वाला है,वह है मनीष तिवारी का, जो पिछले कुछ दिनों से पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थे।
      हार के कारणों का पता लगाने के लिए बनी कमेटी महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और ठाकरे सरकार में मंत्री अशोक चव्हाण की अगुआई में गठित की गई है। सत्ता के गलियारों मेें चर्चा यह भी है कि हार की समीक्षा के लिए समिति बनाने में तत्परता दिखाते हुए कांग्रेस हाईकमान जिसे गांधी परिवार कहा जाता है, ने पार्टी में जारी उथल-पुथल को थामते हुए अपना घर दुरुस्त करने पर गंभीर होने का संदेश देने की कोशिश की है। हार के कारणों का पता लगाने के लिए गठित इस कमेटी  को 15 दिनो में अपनी समीक्षा रिपोर्ट कांग्रेस अध्यक्ष को सौंपने के लिए कहा गया है। इसको लेकर भी सवाल उठ रहे हैं,सब जानते हैं कि इस समय देश भीषण रूप से कोरोना महामारी से जूझ रहा है। कई राज्यों में लाॅक डाउन या तमाम तरह के प्रतिबंध लगे हुए हैं। कोई कहीं आ-जा नहीं रहा नहीं है। ऐसे में कमेटी कैसे 15 दिनों में जांच करके अपनी रिपेार्ट सोनिया गांधी को सौंप सकती है। इसीलिए गांधी परिवार की नियत पर लोग संदेह कर रहे हैं। लोग यह भी पूछ रहे हैं कि एक तरफ तो मैडम सोनिया गांधी कोरोना की आड़ लेकर कांगे्रस अध्यक्ष का चुनाव कराने से कतरा रही हैं,वहीं दूसरी तरफ पांच राज्यों में हार की समीक्षा कराने में उनको नहीं लगता है कि कोरोना आड़े आएगा। असल में येनकेन प्रकारेण गांधी परिवार पार्टी की बागडोर अपने पास से जाने ही नहीं देना चाहता है।  ताज्जुब तो इस बात का भी है जिस गांधी परिवार को यह समझने में जरा भी देर नहीं लगती है कि केन्द्र की मोदी और राज्यों की बीजेपी सरकारें कहां-कहां ‘चूक’ कर रही है या जनता को बेवकूफ बना रही हैं, उसी गांधी परिवार को पार्टी की हार ही नहीं चुनाव में हुई दुर्गति का अंदाजा तक नहीं है। सच्चाई यही है कि गांधी परिवार अपनी तरफ उठने वाली उंगलियों को दूसरी तरफ मोड़ने की साजिश में लगी है। वर्ना  कौन नहीं जानता है कि पांच राज्यों में हुई कांगे्रस की दुर्दशा के लिए सिर्फ और सिर्फ गांधी परिवार उसमें भी राहुलध्प्रियंका ही सबसे अधिक जिम्मेदार हैं।
     बहरहाल,कांग्रेस कार्यसमिति की दस मई को हुई बैठक के दूसरे ही दिन इस समिति का गठन कर हाईकमान ने यह भी जताने का प्रयास किया है कि पार्टी की लगातार बढ़ती चुनौतियों का रास्ता निकालने के लिए नेतृत्व त्वरित कदम उठाने को तैयार है। अशोक चव्हाण को हार की समीक्षा के लिए गठित समूह की कमान सौंपना वैसे इस लिहाज से दिलचस्प है कि वह दिल्ली की सियासत में कम ही सक्रिय रहे हैं और उनका फोकस महाराष्ट्र की राजनीति तक ही रहा है। इस समिति में चव्हाण और मनीष तिवारी के अलावा गांधी परिवार के प्रति निष्ठावान पूर्व केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद को भी रखा गया है। पूर्वोत्तर राज्यों में पार्टी की स्थिति का आकलन करने के मकसद से समूह में लोकसभा सांसद विंसेंट एच पाला को शामिल किया गया है। वहीं, केरल में हुई हार को देखते हुए सूबे से लोकसभा की युवा सांसद ज्योति मणि को इसमें जगह दी गई है। इन दोनों सांसदों को भी पार्टी से अधिक गांधी परिवार  के भरोसेमंद नेताओं में गिना जाता है। मालूम हो कि दस मई को हार पर समीक्षा के लिए हुई कार्यसमिति की बैठक में सोनिया गांधी ने पांच राज्यों में पार्टी के खराब प्रदर्शन की बेबाकी से तथ्यपरक समीक्षा करने की घोषणा करते हुए समिति बनाने का एलान किया था। कहा यह भी जा रहा है कि दस जनपथ हार की समीक्षा के लिए कमेटी बना कर उन कांगे्रसी नेताओं का मुंह बंद कर देना चाहती है,जो आजकल पार्टी आलाकमान और खासकर राहुल गांधी के साथ-साथ अब प्रियंका की काबलियत पर भी प्रश्न चिन्ह लगाने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैंे।इसे कांगे्रस की मजबूरी ही कहा जाएगा,क्योंकि पिछले कुछ वर्षो में पार्टी आलाकमान से नाराज होकर या उनकी बात नहीं सुने जाने का आरोप लगाते हुए एक-एक करके जिस से कई दिग्गज कांगे्रस नेताओं ने पार्टी से किनारा कर लिया है,कांग्रेस उस प्रवाह को किसी भी तरह से रोकना चाहती है।

   पांच राज्यो में हार के कारणों की समीक्षा करने वाली कमेटी में नाराज मनीष तिवारी को जगह देने से पहले भी सोनिया गांधी जी-23 के प्रमुख गुलाम नबी आजाद को कांग्रेस की कोविड-19 रिलीफ टास्क फोर्स की कमान सौंप चुकी थीं। आजाद की अगुआई में गठित पार्टी की इस 13 सदस्यीय टास्क फोर्स में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा के अलावा अंबिका सोनी, रणदीप सुरजेवाला, जयराम रमेश, पवन बंसल, केसी वेणुगोपाल, मुकुल वासनिक सरीखे कई वरिष्ठ नेताओं को शामिल किया गया था। साथ ही कोविड महामारी में पीड़ित लोगों की मदद के चलते सुर्खियां बटोर रहे युवा कांग्रेस के अध्यक्ष बीवी श्रीनिवास को भी इस टास्क फोर्स में शामिल गया गया था। कोरोना महामारी में राष्ट्रीय स्तर पर आम लोगों को राहत पहुंचाने के कांग्रेस के प्रयासों को संगठित स्वरूप देने के मकसद से इस टास्क फोर्स का गठन किया गया है।यहां यह बताना भी जरूरी है कि गुलाम नबी इस समय कांग्रेस के असंतुष्ट खेमे की अगुआई कर रहे हैं और पार्टी की खामियों को बयान करने में सबसे मुखर भी हैं। कार्यसमिति की बैठक के दौरान पांच राज्यों की हार पर भी आजाद ने ही सबसे ज्यादा सवाल उठाया था और बंगाल व असम में गठबंधन में हुई चूक को लेकर बेबाक बातें कही थीं। बीते चार दशक से कांग्रेस की राजनीति के प्रमुख चेहरों में शामिल रहे आजाद की नाराजगी को पार्टी के मौजूदा हालत के मद्देनजर नेतृत्व उन्हें दरकिनार करने का जोखिम नहीं उठाना चाहता। इसीलिए हार पर समीक्षा के लिए गठित समिति में जहां मनीष तिवारी को जगह दी गई है, वहीं पार्टी की कोविड टास्क फोर्स की अध्यक्षता गुलाम नबी आजाद को सौंपी गई है।

लाशों के ढेर पर संविधान धर्म का राज्‍यपाल को पाठ पढ़ाती ममता

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

बंगाल जल रहा है, मौत लोगों की दो तरह से हो रही हैं एक कोविड का महासंकट जो कहीं भी लोगों की जान ले रहा है तो दूसरा सबसे बड़ा कारण राजनीतिक वैचारिकी है, या तो मेरे साथ आओ या अपनी जान गंवाओ। कहना होगा भारत में पश्‍चिम बंगाल को छोड़कर इस समय कोई राज्‍य नहीं जहां जीवन की कीमत इतनी भी नहीं रही कि कोई खुलकर अपने विचारों का प्रदर्शन कर सके। सत्‍ता पक्ष ममता बनर्जी इस तरह से मौत के चल रहे तांडव पर मौन साध कर रखेंगी किसी ने सोचा नहीं था, जबकि यही वे ममता दीदी हैं जो छोटी-छोटी बातों को भाजपा की केंद्र व राज्‍य सरकारों को कोसती नजर आती हैं ।

वस्‍तुत: बेशर्मी की हद तो यह है कि जो खुद ममताजी राजधर्म, लोकधर्म और संविधान धर्म का पालन स्‍वयं मुख्‍यमंत्री रहते हुए नहीं कर पा रहीं वे आज राज्‍यपाल को बता रही हैं कि उनका संवैधानिक धर्म क्‍या है? यह तो केंद्र की मोदी सरकार का और राष्‍ट्रपति रामनाथ कोविन्‍द  का धन्‍यवाद है जो उन्‍होंने जगदीप धनखड़ जैसे सख्‍त और कानूनविज्ञ को  राज्‍यपाल बनाकर पश्‍च‍िम बंगाल भेजा, अन्‍यथा उनके संविधान सम्‍मत नियमों से चलने के आग्रह के बाद जब यहां इतना बुरा हाल है तब यदि कोई बहुत सहज व्‍यक्‍ति यहां आते तो स्‍थ‍िति कितनी भयानक होती इसका अंदाजा आज सहज ही लगाया जा सकता है।

पश्‍चिम बंगाल से हर रोज अनेक तस्‍वीरें और वीडियो लगातार सामने आ रही हैं, जिन्‍हें देखते ही दो प्रतिक्रियाएं ह्दय की आह के साथ बाहर निकल रही  हैं, पहली की सिस्‍टम को उखाड़ फैंकों, जहां लोकतंत्र का सरेआम मजाक उड़ाया जा रहा है, अभिव्‍यक्‍ति की आजादी तो छोड़िए अभी तो लोगों को अपनी जान के लाले पड़े हुए हैं। दूसरा इन दृष्‍यों ने रात की नींद उड़ा दी है।  महिलाओं, बुजुर्गों और जवान बेटियों के रुदन तथा उनके साथ, उनके परिवारजनों के साथ  घटी घटनाएं चित्‍कार-चित्‍कार कर कह रही हैं, कोई तो सुनो हमारे दर्द को । जिस भारतीय जनता पार्टी को विकास के लिए और परिवर्तन की आस के स्‍वप्‍न के साथ हमने लाना चाहा, क्‍या उसकी इतनी भयंकर सजा गांधी के भारत में मिलना चहिए ?

गांधीजी के नाम से याद आया, वस्‍तुत: पश्चिम बंगाल के आज के दृष्‍य ‘मनोज सिंह’ के उस एतिहासिक लेख ‘कथा व्यथा की कहना मत’ की याद दिला रहे हैं जिसमें उन्‍होंने नोआखाली का जिक्र किया है  । उन तमाम अल्‍पसंख्‍यक (मुसलमानों) ने कभी अविभाजित भारत के इसी बंगाल में नोआखाली जिले के अतर्गत आने वाले रामगंज, बेगमगंज, रायपुर, लक्ष्मीपुर, छागलनैया और सन्द्विप इलाके (जो दो हज़ार से अधिक वर्ग मील में है) दंगे के बाद वो पूरा इलाका हिन्‍दुओं की लाशों से पाट दिया था ।

एक सप्ताह तक बे रोक-टोक हुए इस नरसंहार में 5000 से ज्यादा हिन्दू मारे गए थे। सैकड़ों महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और हजारों हिंदू-पुरुषों और महिलाओं को जबरन इस्लाम क़बूल करवाया गया था । जिसके बाद लगभग 50,000 से 75,000 हिन्दुओं को कोमिला, चांदपुर, अगरतला और अन्य स्थानों के अस्थायी राहत शिविरों में आश्रय दिया गया था ।

इतिहास का यह आक्रोशित कर देनेवाला सच है कि मजहबियों ने चुना भी तो कौन सा दिन, 10 अक्टूबर 1946 , लक्ष्मी पूजा का पावन दिन, लेकिन नोआखाली के दुर्भाग्यशाली हिन्दू बंगालियों पर वो दिन वज्रपात बन कर टूट पड़ा था। क्षेत्र मुसलामानों का था। मुस्लिम लीग का पूरा वर्चस्व था । छह  सितम्बर को ग़ुलाम सरवर हुसैनी ने, मुस्लिम लीग की सदस्यता ली थी और सात सितम्बर को ही उसने शाहपुर बाज़ार में, मुसलामानों को हिन्दुओं का नृशंस क़त्लेआम करने का आह्वान किया। उसका यह कथन कि हर मुसलमान हथियार उठाएगा और हिन्दुओं को किसी भी हाल में नहीं बक्शेगा। 12 अक्टूबर का दिन तय किया गया , इस वहशत को अंजाम देने के लिए ।

योजना के मुताबिक़, हमला सुनियोजित तरीके से किया गया और 12 अक्टूबर को ही जिले के कई प्रसिद्ध और धनाढ्य हिन्दुओं का क़त्ल हो गया। उसके बाद तो यह क़त्लो-ग़ारत पूरे हफ़्ते चलता रहा। मुसलमानों ने अपने आक़ाओं के इशारे पर वहशियत का वो नाच नाचा कि हैवानियत भी शर्मसार हो गई। हिन्दुओं का नरसंहार, बलात्कार, अपहरण, हिन्दुओं की संपत्ति की लूट-पाट, आगज़नी, धर्म परिवर्तन, सबकुछ किया उन नरपिशाचों ने । तात्पर्य यह कि शायद ही ऐसा कोई जघन्य कर्म रहा हो, जो तत्‍कालीन मुसलामानों ने उस दिन, हिन्दुओं के साथ नहीं किया। औरतों के साथ सामूहिक बलात्कार, पत्नियों के सामने ही उनके पतियों की हत्या, पतियों की लाशों के सामने ही, औरतों का उसी वक्त धर्म परिवर्तन किया गया, और मरे हुए पति के लाश के सामने ही, उन्हीं आतताईयों में से किसी एक से बल पूर्वक निक़ाह भी कर दिया गया, जिन्होंने उनके ही पतियों का क़त्ल किया था। हैवानियत की कोई इन्तेहाँ नहीं थी ।

इसके बाद सात नवंबर 1946 गांधी जी ने, शांति और सांप्रदायिक सद्भाव बहाल करने के लिए, नोआखाली का न सिर्फ दौरा किया, बल्कि वो पूरे चार महीने तक वहीँ डेरा जमाये रहे। लेकिन पीड़ितों का विश्वास वो नहीं जीत पाए। विश्वास बहाल करने की उनकी हर कोशिश नाक़ामयाब रही। फलतः विस्थापित हिन्दुओं का पुनर्वास भी नहीं हो पाया। शांति मिशन की इस विफलता के बाद दो मार्च को गांधी जी ने नोआखाली छोड़ दिया। बचे हुए अधिकतर हिन्दू, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और आसाम के हिन्दू बहुल इलाकों में चले गए। उसके बाद आप सभी को ज्ञात हो, नोआखली जिले के खिलपारा नामक स्थान में 23 मार्च 1946 को मुसलामानों ने ‘पाकिस्तान दिवस’ मनाया था। इसके तुरंत बाद ही कांग्रेस के नेतृत्व में भारत ने, देश का विभाजन स्वीकार कर लिया। इस फैसले के बाद शांति मिशन को बर्खास्त कर दिया गया और राहत शिविरों को भी बंद कर दिया गया। और फिर 15 अगस्त 1947 भारत आज़ाद देश हो गया।

आजादी के उल्लास ने नोआखाली में गिरे हर लाश पर विस्मृति का कफ़न डाल दिया। देश बंट गया पर वो दर्द आज भी अखंड है। वो दारुण इतिहास आज भी हताहत करता है। वस्‍तुत: बंगाल फिर कुछ ऐसे ही कारणों से आज फिर चर्चा का केंद्र बना हुआ है। लेकिन इसी के साथ आज बड़ा प्रश्‍न यह भी है कि नोआखाली की हिन्‍दू हत्‍या क्‍या इसलिए इन अल्‍पसंख्‍यकों को माफ कर दिया गया, क्‍योंकि इन्‍हें अपने मजहब के मुताबिक अलग धर्म के आधार पर अलग देश मिल चुका था, जो मुसलमान भारत में रहे वे इस आधार पर कि वे भारत को अपना मानते हैं, भारत की सरजमी जिसमें कि सभी कुछ समाहित है, उसे उतना ही मानते हैं जितना कि वे अपने आराध्‍य को, किंतु यह क्‍या आज जब यहां की तस्‍वीरें आ रही हैं तो देखने में वही हरा कलर और टोपियां बहुसंख्‍या में, किसी को भी पकड़कर समूह में आकर ले जा रही हैं। लोग विवश हैं, जान बचाने के लिए भागने को मजबूर हैं। अब इस स्‍वतंत्र भारत में जिसका कि विभाजन ही धर्म के आधार पर यह कहकर हुआ कि हम दो अलग-अलग धर्म हैं एक साथ नहीं रह सकते । फिर यह तृणमूल की आड़ में बहुसंख्‍यक हिन्‍दुओं के भारत में कौन सा खेला यहां खेला जा रहा है?

वस्‍तुत: ममता की चुप्‍पी के क्‍या मायने हैं? वे राज्‍यपाल को राजधर्म समझा रही हैं, लेकिन उन हत्‍यारों को सजा ए मौत नहीं सुना रहीं जो समूह में आकर एकल हिन्‍दू को, उसके परिवार को निशाना बना रहे हैं। मौत की सजा सरे आम सुना रहे हैं। बेटियों के साथ खुले में बलात्‍कार कर रहे हैं। केन्‍द्रीय मंत्री को घायल करते हैं।  आज देश यह बड़ा प्रश्‍न उन तमाम बुद्धिजीवियों से पूछ रहा है जो हर छोटी बात को बड़ा करके लिखने व बोलने में विश्‍वास रखते हैं लेकिन बंगाल में हो रही घटनाओं पर चुप्‍पी साधकर बैठे हुए हैं। काश, ये लोग ममता से भी कुछ पूछ लें और अच्‍छा होता ममता दीदी भी राज्‍यपाल को राजधर्म का पाठ पढ़ाने से पूर्व स्‍वयं भी इस पाठ को याद कर लेतीं जिसकी उन्‍होंने अभी हाल ही में तीसरी बार मुख्‍यमंत्री के रूप में संविधान की रक्षा के लिए पद एवं गोपनीयता के साथ सपथ ली  है।

सामान्य मानसून के अनुमानों के बीच कृषि क्षेत्र के लिए केंद्र सरकार कर रही है विशेष तैयारियां

भारत में मौसम सम्बंधी विभिन्न संस्थानों द्वारा वर्ष 2021 में मानसून के सामान्य से कुछ अधिक बने रहने की उम्मीद जताई गई है। देश के ज़्यादातर भागों में सामान्य से अधिक बारिश होने की सम्भावना व्यक्त की गई है। देश में कृषि क्षेत्र के लिए यह एक शुभ संकेत है। बाकी क्षेत्रों (सेवा एवं उद्योग) पर कोविड महामारी का लगातार विपरीत असर पड़ रहा है। पिछले वर्ष की भांति इस वर्ष भी कृषि क्षेत्र ही देश के आर्थिक विकास को गति देने में अपनी अग्रणी भूमिका निभाता नजर आ रहा है। पिछले वर्ष भी केवल कृषि क्षेत्र में ही वृद्धि दर्ज की गई थी। जब कि देश के सकल घरेलू उत्पाद में ऋणात्मक वृद्धि दर्ज हुई थी। दरअसल, केंद्र सरकार की कृषि नीति सम्बंधी उपायों का असर अब देश के कृषि विकास पर स्पष्ट रूप से देखने में आ रहा है।

वित्तीय वर्ष 2020-21 के दौरान चारों तिमाहियों में कृषि क्षेत्र एवं मछली पालन इत्यादि क्षेत्रों में विकास दर सकारात्मक रही है। यह प्रथम तिमाही में 3.3 प्रतिशत, द्वितीय तिमाही में 3.0 प्रतिशत, तृतीय तिमाही में 3.9 प्रतिशत एवं चतुर्थ तिमाही में 1.9 प्रतिशत की रही थी।

सकल मूल्य योग (ग्रोस वैल्यू एडिशन – विकास का आकलन करने के लिए सकल घरेलू उत्पाद की तरह का एक पैमाना) में कृषि क्षेत्र का योगदान वर्ष 2015-16 में 17.7 प्रतिशत, 2016-17 में 18 प्रतिशत, 2018-19 में 18 प्रतिशत, 2018-19 में 17.1 प्रतिशत एवं 2019-20 में 17.8 प्रतिशत रहा है, वह 2020-21 में बढ़कर 18 प्रतिशत से कहीं अधिक रहने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है।

अनाज के उत्पादन में भी लगातार वृद्धि दृष्टिगोचर हो रही है। अनाज का उत्पादन वर्ष 2017-18 में 28.5 करोड़ टन एवं 2018-19 में 28.52 करोड़ टन था जो वर्ष 2019-20 में बढ़कर 29.66 करोड़ टन हो गया। गेहूं और चावल के उत्पादन में भी लगातार बढ़त देखने को मिली है। गेहूं का उत्पादन वर्ष 2017-18 में 9.99 करोड़ टन, 2018-19 में 10.36 करोड़ टन एवं 2019-20 में बढ़कर 10.76 करोड़ टन का हो गया है। वहीं चावल का उत्पादन भी वर्ष 2017-18 में 11.28 करोड़ टन, 2018-19 में 11.65 करोड़ टन एवं 2019-20 में बढ़कर 11.84 करोड़ टन का हो गया है।

मौसम सम्बंधी संस्थानों के अनुमानों के अनुसार इस वर्ष केवल जम्मू एवं कश्मीर, उत्तर-पूर्व का कुछ भाग, हरियाणा, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे कुछ इलाकों में सामान्य से कुछ कम बारिश हो सकती है। मानसून सम्बंधी इन मिले जुले पूर्वानुमानों का देश की अर्थव्यवस्था, विशेष रूप से कृषि क्षेत्र पर कोई बुरा प्रभाव पड़ने की सम्भावना नहीं के बराबर ही है, क्योंकि उक्त वर्णित क्षेत्रों जहां मानसून की तुलनात्मक रूप से कम वर्षा होने का अनुमान लगाया गया है इन क्षेत्रों में खरीफ मौसम की मुख्य फसल धान की पैदावार कम ही होती है। हां, इन इलाकों में मानसून के कमजोर रहने के कारण कृषि क्षेत्र की गतिविधियों में कमी आने से मजदूरों के लिए बेरोजगारी में वृद्धि देखने में आ सकती है। परंतु, मनरेगा योजना के अंतर्गत रोजगार के अधिक अवसर निर्मित कर इन क्षेत्रों में बेरोजगारी सम्बंधी परेशानी को कम किया जा सकता है।

देश के अन्य भागों में यदि मानसून की बारिश अनुमान के अनुसार अच्छी रहती है तो बारिश का समग्र कृषि क्षेत्र पर भी अच्छा असर देखने में आ सकता है, किसानों की आय बढ़ सकती है। यह देश के लिए राहत भारी खबर हो सकती है वह भी ऐसे माहौल में जब कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने पूरे देश को अपनी चपेट में ले लिया है एवं जिसके चलते सेवा एवं उद्योग के क्षेत्र पहिले से ही दबाव में है।

खरीफ मौसम में फसल की पैदावार में, धान की पैदावार में, वृद्धि देखने को मिलेगी। लगभग 15.4 करोड़ टन की पैदावार खरीफ मौसम की फसल से हो सकती है जो वर्ष भर में होने वाले अनुमानित 30.3 करोड़ टन पैदावार का 50 प्रतिशत से कुछ अधिक ही है। जून माह में खरीफ का मौसम शुरू होता है। इसके साथ ही यदि पानी का अच्छा संग्रहण करने में सफलता हासिल कर ली जाती है तो रबी मौसम की फसल के स्तर में भी अच्छी वृद्धि होने की सम्भावनाएं बढ़ जाएंगीं। केंद्र सरकार द्वारा ग्रामीण इलाकों में स्वच्छ जल पहुंचाने एवं पानी के संग्रहण के लिए जल शक्ति अभियान की शुरुआत दिनांक 1 जुलाई 2019 से की जा चुकी है। यह अभियान देश में स्वच्छ भारत अभियान की तर्ज पर जन भागीदारी के साथ चलाया जा रहा है।

देश में प्रति वर्ष पानी के कुल उपयोग का 89 प्रतिशत हिस्सा कृषि की सिंचाई के लिए खर्च होता है, 9 प्रतिशत हिस्सा घरेलू कामों में खर्च होता है तथा शेष 2 प्रतिशत हिस्सा उद्योगों द्वारा खर्च किया जाता है। इस लिहाज से देश के ग्रामीण इलाकों में पानी के संचय की आज आवश्यकता अधिक है। क्योंकि ग्रामीण इलाकों में हमारी माताएं एवं बहनें तो कई इलाकों में 2-3 किलोमीटर पैदल चल कर केवल एक घड़ा भर पानी लाती देखी जाती हैं। अतः खेत में उपयोग होने हेतु पानी का संचय खेत में ही किया जाना चाहिए एवं गांव में उपयोग होने हेतु पानी का संचय गांव में ही किया जाना चाहिए। केंद्र सरकार द्वारा एवं स्थानीय स्तर पर आवश्यकता अनुरूप कई कार्यक्रमों को लागू कर इन जिलों के भूजल स्तर में वृद्धि करने हेतु विशेष प्रयास किए जा रहे हैं। पानी के संचय हेतु विभिन्न संरचनाएं यथा तालाब, चेकडेम, रोबियन स्ट्रक्चर, स्टॉप डेम, पेरकोलेशन टैंक जमीन के ऊपर या नीचे बड़ी मात्रा में, जल शक्ति अभियान के अंतर्गत भी बनाए जा रहे हैं। इसी कारण से यह उम्मीद की जा रही है कि इस वर्ष रबी की फसल भी अच्छी मात्रा में हो सकती है।

देश में बुनियादी ढांचे को विकसित करने के लिए केंद्र सरकार लगातार काम कर रही है। जिसके चलते आज यातायात की मजबूत चैन देश में उपलब्ध हो गई है। अतः देश के किसी भी क्षेत्र में यदि मानसून के कमजोर होने से अनाज की पैदावार कम होती है तो एक स्थान से दूसरे स्थान पर खाद्य पदार्थों को आसानी से पहुंचाया जा सकता है। इसके साथ ही सप्लाई चैन भी यदि ठीक काम करती है, जैसा कि कोरोना महामारी के पहिले दौर के दौरान सप्लाई चैन मजबूत बनी रही थी, ऐसी स्थिति में खाद्य पदार्थों की कीमतों के बढ़ने की कम सम्भावना रहेगी।

केंद्र एवं राज्य सरकारों के संयुक्त प्रयासों से देश में आजकल कृषि क्षेत्र में यंत्रीकरण भी तेजी से बढ़ रहा है। अतः श्रम पर निर्भरता लगातार कम हो रही है। ट्रैक्टर, हार्वेस्टर जैसे संयत्रों का उपयोग तो अब छोटे एवं मझोले किसान भी करने लगे हैं। इस तरह के संयत्र आज गावों में उपलब्ध हैं, गावों में मशीन बैंक बनाए गए हैं। छोटे एवं मंझोले किसान इन संयंत्रों को किराए पर लेकर कृषि कार्यों के लिए इन संयंत्रो का उपयोग अब आसानी से करने लगे है। जिसके चलते कृषि क्षेत्र में उत्पादकता में भी वृद्धि देखने में आ रही है। देश में अब ऐसे बीजों का उपयोग होने लगा है जिसमें पानी के कम उपयोग से भी अच्छी पैदावार ली जा सकती है।

आज देश में आवश्यकता इस बात की है कि देश के किसान अब केवल धान एवं गेहूं की पैदावार से कुछ हटकर सोचें। बागवानी एवं उद्यान कृषि (फल एवं सब्जी) की पैदावार को अब बाजार से जोड़ना आवश्यक है क्योंकि इस तरह की फसलें बहुत जल्दी खराब हो जाने वाली पैदावार हैं। सप्लाई चैन को और भी मजबूती प्रदान करने की आज आवश्यकता है। यह हर्ष का विषय है कि आज देश में छोटे एवं मझोले किसानों का योगदान, बड़े किसानों की तुलना में, बागवानी एवं उद्यान कृषि क्षेत्र में धीरे धीरे बढ़ रहा है। बागवानी एवं उद्यान कृषि में सूक्ष्म सिंचाईं पद्धति का उपयोग कर कृषि की पैदावार में पानी के उपयोग को कम किया जा सकता है।

मौसम सम्बंधी संस्थानों द्वारा वर्ष 2021 के लिए जारी किए गए मानसून संबंधी अनुमानों में बाद केंद्र सरकार ने देश के 661 जिलों के लिए आपात योजना बना ली है। देश के कुछ भागों में यदि मानसून की वर्षा कम होती है तो इन जिलों में उक्त योजनाओं को तुरंत लागू किया जाएगा। इन जिलों की फसलों में विविधता लाने की भी योजना है। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि देश में खरीफ के मौसम में मुख्यत: धान की फसल ली जाती है एवं वर्तमान में देश में धान का लगभग 200 लाख टन का आधिक्य है। यदि धान उगाने वाले इलाकों में मानसून की वर्षा कमजोर होती है तो ऐसी स्थिति में इन इलाकों/जिलों में धान के स्थान पर अन्य उत्पादों की फसलों, जिनमें कम पानी की आवश्यकता पड़ती है, को लिया जा सकता है। इस प्रकार यदि आवश्यकता पड़ी तो धान की फसल लेने वाले लगभग 60 लाख हेक्टर क्षेत्र को अन्य कृषि उत्पादों की फसलों में परिवर्तिति किया जा सकता है। इन फसलों में मुख्यतः सब्जियां एवं मक्का आदि जैसी फसलों को चुना गया है। इस प्रकार की योजनाएं देश के कृषि विभाग द्वारा तैयार कर ली गई है एवं जरूरत के अनुसार इन योजनाओं को उचित समय पर लागू कर लिया जाएगा।

कोरोना से कराह रहे गांव

मदन कोथुनियां

जयपुर, राजस्थान

आजकल कोरोना महामारी का कहर ग्रामीण इलाकों में तेजी से बढ़ रहा है। चाहे वह उत्तरप्रदेश हो, बिहार, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश हो या फिर कोई अन्य राज्य। जबकि राज्य सरकारों का दावा है कि कोरोना महामारी का संक्रमण गांवों में बढ़ने से रोकने के लिए ट्रैकिंग, टेस्टिंग और ट्रीटमेंट के फार्मूले पर कई दिन से सर्वे अभियान चलाया जा रहा है। यानी अभी तक सिर्फ़ सर्वे? ऐसी ही कुछ स्थिति राजस्थान की भी है। खबरों के मुताबिक राजधानी जयपुर के देहाती इलाके चाकसू में एक ही घर में तीन मौतें कोरोना के कारण हुई हैं। यही हाल टोंक जिले का भी है। महज दो दिनों में टोंक के अलग-अलग गांवों में दर्जनों लोगों की एक दिन में मौत की खबरें आईं हैं। इसके बाद शासन-प्रशासन हरकत में आया है। जयपुर व टोंक के अलावा राज्य के कई जिलों के गांवों में बुखार से मौतें होने की सूचनाएं आ रही हैं। राजस्थान के भीलवाड़ा में भी गांवों में बहुत अधिक मौतें हो रही हैं। इसी तरह दूसरे गांवों में भी कोरोना महामारी के बढ़ने की खबरें आ रही हैं।

कोरोना की पहली लहर में गांव बच गए थे, लेकिन दूसरी लहर में गांव भी अछूते नहीं हैं। गांवों से बुखार-खांसी जैसी समस्याएं ही नहीं बल्कि मौतों की खबरें भी लगातार आ रही हैं। हालांकि पिछले साल लॉकडाउन में करीब डेढ़ करोड़ से अधिक प्रवासी शहरों से देश के विभिन्न गांवों में पहुंचे थे। इसके बावजूद कोरोना से मौतों की सुर्खियां बनने वाली खबरें नहीं आई थीं, लेकिन इस बार परिस्थिति बिल्कुल विपरीत है। कई राज्यों में गांव के गांव बीमार पड़े हैं, लोगों की जानें जा रही हैं। हालांकि इनमें से ज्यादातर मौतों के आंकड़े दर्ज नहीं हो रहे हैं, क्योंकि अधिकतर जगहों पर या तो टेस्टिंग की सुविधा नहीं है या जागरूकता के अभाव में लोग करा नहीं रहे हैं। जयपुर जिले के चाकसू तहसील स्थित भावी निर्माण सोसायटी के सदस्य गिरिराज प्रसाद के अनुसार “पिछले साल शायद ही किसी गांव से किसी व्यक्ति की मौत की खबर आई थी। लेकिन इस बार हालात बहुत बुरे हैं। मैं आसपास के 30 किमी के गांवों में काम करता हूं। गांवों में ज्यादातर घरों में कोई न कोई बीमार है।” गिर्राज प्रसाद की बात इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि वह और उनकी संस्था के साथी पिछले छह महीने से कोरोना वॉरियर्स की भूमिका निभा रहे हैं।

वहीं कोथून गांव के एक किसान राजाराम (44 वर्ष) जो खुद घर में आइसोलेट होकर अपना इलाज करा रहे है। उनके मुताबिक गांव में 30 फीसदी लोग कोविड पॉजिटिव हैं। राजाराम फोन पर बताते हैं, “मैं खुद कोरोना पॉजिटिव हूँ। गांव में ज्यादातर घरों में लोगों को बुखार-खांसी की दिक्कत है। पहले गांव में छिटपुट केस थे, फिर जब 5-6 लोग पॉजिटिव निकले तो सरकार की तरफ से एक वैन आई और उसने जांच किया तो कई लोग पॉजिटिव मिले हैं। जो एक चिंता का विषय है।” जयपुर-कोटा एनएच- 12 के किनारे बसे इस गांव की जयपुर शहर से दूरी 50 किलोमीटर है और यहां की आबादी राजाराम के मुताबिक करीब 4000 है। गांव में ऐसा क्या हुआ कि इतने लोग बीमार हो गए? इस सवाल के जवाब में राजाराम बताते हैं कि, “सबसे पहले तो गांव में एक दो बारातें आईं, फिर 23-24 अप्रैल को यहां आंधी पानी (बारिश) आया था, जिसके बाद लोग ज्यादा बीमार हुए। शुरू में लोगों को लगा यह मौसमी बुखार है, लेकिन लोगों को दिक्कत होने पर जांच हुई तो पता चला कोरोना है। ज्यादातर लोग घर में ही इलाज करा रहे हैं।”

जयपुर के रहने वाले स्वास्थ्य कार्यकर्ता और जन स्वास्थ्य अभियान से जुड़े सदस्य आरके चिरानियां फोन पर बताते हैं, “कोरोना का जो डाटा है वह ज्यादातर शहरों का ही होता है। गांव में तो पब्लिक हेल्थ सिस्टम बदतर है। जांच टेस्टिंग की सुविधाएं नहीं हैं। लोगों की मौत हो भी रही है तो इसका वास्तविक कारण पता नहीं चल रहा। दूसरा अगर आप शहरों की स्थितियां देखिए तो जो डाटा हम लोगों तक आ रहा है वह बता रहा है कि शहरों में ही मौतों का आंकड़ों से कई गुना ज्यादा है। अगर ग्रामीण भारत में सही से जांच हो तो यह आंकड़ा और भी अधिक भयानक होगा।”

ग्रामीण भारत में हालात कैसे हैं? इसका अंदाजा छोटे-छोटे कस्बों के मेडिकल स्टोर और इन जगहों पर इलाज करने वाले डॉक्टरों (डिग्रीधारी और गैर डिग्री वाले, जिन्हें स्थानीय भाषा में झोलाछाप कहा जाता है) के यहां भीड़ से लगाया जा सकता है। गांवों और कस्बों के मेडिकल स्टोर्स पर इस समय सबसे ज्यादा लोग खांसी-बुखार की दवाएं लेने आ रहे हैं। एक मेडिकल स्टोर के संचालक दीपक शर्मा बताते हैं, “रोज करीब 100 लोग बुखार और बदन दर्द की दवा लेने आ रहे हैं। पिछले साल इन दिनों के मुकाबले ये आंकड़ा काफी ज्यादा है।” इतनी ज़्यादा मांग की वजह से कोविड-19 से जुड़ी दवाएं तो अलग बात है, बुखार की सामान्य टैबलेट पेरासिटामोल, विटामिन सी की टैबलेट और यहां तक कि खांसी के सिरप तक नहीं मिल रहे हैं। ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि खांसी और बुखार को लोग सामान्य फ्लू मानकर चल रहे हैं।

एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के प्रभारी गांव में बुखार और कोविड के बारे में पूछने पर कहते, “कोविड के मामलों से जुड़े सवाल सीएमओ (जिला मुख्य चिकित्सा अधिकारी) साहब ही दे पाएंगे बाकी बुखार-खांसी का मामला है कि इस बार की अपेक्षा पिछली बार कुछ नहीं था। कई गांवों से लोग दवा लेने आते हैं। फिलहाल हमारे यहां 600 के करीब एक्टिव केस हैं।” इस सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के अधीन 42 ग्राम पंचायतें आती हैं। यानि औसतन करीब 250 गांव शामिल हैं। वह कहते हैं, ‘अगर सबकी जांच हो जाए तो 40 फीसदी लोग कोरोना पॉजिटिव निकलेंगे। गांवों के लगभग हर घर में कोई न कोई बीमार है और लक्षण सारे कोरोना जैसे हैं। लेकिन न कोई जांच करवा रहा और न सरकार को इसकी चिंता है।

महामारी बेकाबू रफ्तार से ग्रामीण इलाकों पर अपना शिकंजा कसती जा रही है। हालात यह है कि ग्रामीण इलाकों के कमोबेश हर घर को संक्रमण अपने दायरे में ले चुका है। लगातार हो रही मौतों से ग्रामीण दहशत में हैं। बावजूद, प्रशासन संक्रमण की रफ्तार थाम नहीं पा रहा है। यहां तक कि कोरोना जांच की गति भी बेहद धीमी है। कोरोना की पहली लहर में ग्रामीण इलाके महफूज रहे थे। लेकिन, दूसरी लहर ने शहर की पॉश कॉलोनियों से लेकर गांव की पगडंडियों तक का सफर बेकाबू रफ्तार के साथ तय कर लिया है। जिसे रोकना केवल सरकार, प्रशासन और पंचायत ही नहीं बल्कि हम सब की ज़िम्मेदारी है और यह ज़िम्मेदारी सजगता और जागरूकता से ही संभव है।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए बूस्टर डोज है गौ-पालन

-प्रो.संजय द्विवेदी

   गाय आज भी भारतीय लोकजीवन का सबसे प्रिय प्राणी है। अथर्ववेद में कहा गया है..''धेनु: सदनम् रचीयाम्'' यानी ‘‘गाय संपत्तियों का भंडार है।’ हम गाय को केंद्र में रखकर देखें, तो गांव की तस्वीर कुछ ऐसी बनती है कि गाय से जुड़े हैं किसान, किसान से जुड़ी है खेती और खेती से जुड़ी है ग्रामीण अर्थव्यवस्था। गाय हमारे आर्थिक जीवन की ही नहीं वरन आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन की भी आधारशिला है। सही मायने में ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए गौ-पालन बूस्टर डोज बन सकता है।

  कौटिल्य के अर्थशास्त्र को देखें, तो आप पाएंगे कि उस समय में गायों की समृद्धि और स्वास्थ्य के लिये एक विशेष विभाग था। भगवान श्रीकृष्ण के समय भी गायों की संख्या, सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक मानी जाती थी। नंद, उपनंद, नंदराज, वृषभानु, वृषभानुवर आदि उपाधियां गोसंपत्ति के आधार पर ही दी जाती थीं। गर्ग संहिता के गोलोक खंड में ये लिखा गया है कि जिस गोपाल के पास पांच लाख गाय हों, उसे उपनंद और जिसके पास 9 लाख गायें हो उसे नंद कहते हैं। महाभारत में युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्न ‘‘अमृत किम् ?’’ यानी 'अमृत क्या है?' के उत्तर में कहा कि ‘‘गवाऽमृतम्’’ यानी 'गाय का दूध'। महात्मा गांधी ने भी कहा था कि ‘‘देश की सुख-समृद्धि गाय के साथ ही जुड़ी हुई है।’’

   जानकर हैरानी होगी कि जो पशु सूर्य की किरणों को सर्वाधिक ग्रहण करता है, वह है ‘गाय’ और यह दूध के माध्यम से हमें सौर ऊर्जा देती है। आपने कभी सोचा कि आज पश्चिमी देश क्यों उन्नति कर रहे हैं? विदेशों में चले जाइये, आपको भैंस नहीं मिलेगी, प्रायः आपको गाय मिलेगी। दो दशक से पश्चिमी देशों में श्वेत क्रांति चल रही है। एक अमेरिकन व्यक्ति प्रतिदिन एक से दो लीटर गाय का दूध पीता है और मक्खन खाता है। जबकि भारतीय व्यक्ति को औसतन मात्र 200 ग्राम दूध मुश्किल से प्राप्त होता है।    कोलंबस 1492 में अमेरिका गया, वहां एक भी गाय नहीं थी। सिर्फ जंगली भैसों का पालन होता था। कोलंबस जब दूसरी बार अमेरिका गया, तब अपने साथ 40 गायों को ले गया, जिससे दूध की जरुरत पूरी हो सके। सन् 1640 में ये 40 गायें बढ़कर 30,000 हो गयीं। 1840 तक ये गायें बढ़कर ड़ेढ करोड़ और सन् 1900 में 4 करोड़ हो गईं। 1930 में इनकी संख्या 6 करोड़ 40 लाख थी तथा मात्र पांच वर्ष पश्चात सन् 1935 में इनकी संख्या बढ़कर 7 करोड़ 18 लाख हो गई। 1985 में अमेरिका में 94 प्रतिशत लोगों के पास गायें थीं और हर किसान के पास दस से पंद्रह गायें होती थीं।

  पशु विशेषज्ञ डॉ.राइट ने 1935 में कहा था कि ‘‘गोवंश से होने वाली वार्षिक आय 11 अरब रुपये से अधिक है।” यह गणना 1935 के वस्तुओं के भावों के अनुसार लगाई गयी थी। आज सन् 1935 की अपेक्षा वस्तुओं के भाव कई गुना अधिक बढ़ गये हैं। इसलिए मेरा मानना है कि गोवंश से होने वाली आय लगभग 100 अरब रुपये से अधिक है। आप देखिए कि भारत में पूरे वर्ष में केवल साढ़े तीन माह ही वर्षा होती है और वह भी अनिश्चितता लिए हुए होती है। इस अनिश्चितता में किसान किसका सहारा ले? इसलिए प्रत्येक किसान को गो-पालन को पूरक व्यवसाय बनाना चाहिए। महर्षि दयानंद ने कहा था कि “गाय है तो हम हैं,गाय नहीं तो हम नहीं। गाय मरी तो बचेगा कौन? और गाय बची तो मरेगा कौन?”

   गौपशुओं की 20 करोड़ से भी अधिक संख्या के साथ भारत दुनिया में प्रथम है। विश्व की गौपशुओं की कुल आबादी का 33.39 प्रतिशत उसके पास है। 22.64% के साथ ब्राज़ील और 10.03% के साथ चीन दुनिया के गौपशुओं की आबादी की दृष्टि से क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर है।  हर भारतीय को गर्व की अनुभूति होनी चाहिये कि हम दुनिया में दूध के सबसे बड़े उत्पादक हैं। वर्ष 2017 में भारत का कुल दूध उत्पादन लगभग 155 मिलियन टन था, जो 2022 में बढ़कर 210 मिलियन टन होने की संभावना है। यह भारत की गायों की आबादी के कारण ही है कि हम पिछले 10 वर्षों से दुग्ध उत्पादन में 4% की वार्षिक वृद्धि कर रहे हैं। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड को अगले कुछ वर्षों के दौरान 7.8% की वार्षिक वृद्धि की उम्मीद है।

  देश में प्रति व्यक्ति दूध उत्पादन भी 1991 के मात्र 178 ग्राम से बढ़कर 2015 में 337 ग्राम हो गया था और कुछ वर्षों में यह बढ़कर 500 ग्राम हो जाएगा। भारत में गाय की कोई 30 नस्लें अच्छी तरह से वर्णित हैं। कुछ भारतीय नस्लें, जैसे साहीवाल, गिर, लाल सिंधी, थारपारकर और राठी दुधारू नस्लों में से हैं। कंकरेज, लाल कंधारी, मालवी, निमाड़ी, नगोरी, आदि बैलों की जानी मानी नस्लें हैं। हरियाणा राज्य की “हरियाणा बैल” नस्ल दुनिया में सबसे मजबूत कद-काठी वाली नस्लों में से एक मानी जाती है। केरल में पाई जाने वाली वेंचुर नस्ल दुनिया की सबसे छोटी मवेशी नस्ल है। इसे एक मेज पर खड़ा करके दुहा जा सकता है। वेंचुर गाय बहुत अच्छे बैल पैदा करती है। पहाड़ी क्षेत्रों में मवेशियों के बिना कृषि अकल्पनीय है। पर्वतीय समुदाय प्रायः पशुधन पर निर्भर हैं। पशु शक्ति पर आधारित खेती में पेट्रोल और डीजल जैसे जीवाश्म ईंधनों की भी आवश्यकता नहीं होती। पशुधन-आधारित खेती कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करती है।

गाय को धार्मिक नजरिए के बजाए उसके औषधीय महत्व को देखना होगा । देसी गायों के दूध में ए-2 नामक औषधीय तत्व पाया जाता है, जो मोटापा, आर्थराइटिस, टाइप-1 डाइबिटीज व मानसिक तनाव को रोकता है। आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में तो ए-2 कार्पोरेशन नामक संस्था बनाकर भारतीय नस्ल की गायों के दूध को ऊंची कीमत पर बेचा जाता है। दूसरी ओर हॉलस्टीन व जर्सी जैसी विदेशी नस्ल की गायों में यह प्रोटीन नहीं पाया जाता है। ‘आपरेशन फ्लड’ के दौरान यूरोपीय नस्ल की गायों को आयात कर उनके साथ देसी नस्लों की क्रॉस ब्रीडिंग का नतीजा ये हुआ कि जहां भारत में देसी नस्लें खत्म होती जा रही हैं, वहीं दूसरी ओर भारतीय मूल की ‘गिर गाय’ ब्राजील में दूध उत्पादन का रिकार्ड बना रही है। वर्षों पहले ब्राजील ने मांस उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए भारत से 3000 गिर गायों का आयात किया था। उसने इनके दूध के औषधीय महत्व को देखा तो वह दूध उत्पादन के लिए इन्हें बढ़ावा देने लगा। आस्ट्रेलिया में भारतीय नस्ल के ‘ब्राह्मी बैलों’ का डंका बज रहा है। दुर्भाग्य है कि भारतीय नस्ल की गायों का उन्नत दूध विदेशी पी रहे हैं और हम विदेशी नस्लों का जहरीला दूध।

    मांस उद्योग सबसे क्रूर जलवायु खलनायकों में से एक है, जो वायुमंडल में बहुत बड़े कार्बन पदचिन्ह छोड़ रहा है। औद्योगिक युग की शुरुआत के बाद से जब दुनिया ने जीवाश्म ईंधन को जलाना शुरू किया, हमने दुनिया को 0.8 डिग्री सेल्सियस तक गर्म कर दिया है। विश्व बैंक की रिपोर्ट में कहा गया है कि अतीत और पूर्वानुमानित कार्बन उत्सर्जन के कारण दुनिया 1.5 डिग्री सेल्सियस गर्म हो जाएगी। दिसंबर, 2016 की पेरिस जलवायु वार्ता में विश्वव्यापी तापक्रम बढ़ोत्तरी का लक्ष्य 2 डिग्री सेल्सियस तय किया गया। 2 डिग्री सेल्सियस का आंकड़ा देखने में छोटा लगता है, लेकिन इसका जीवन और जीवित ग्रह पर अभूतपूर्व नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। खानपान की आदतें यूं तो एक व्यक्तिगत मामला है, जिस पर प्रश्न उठाना अटपटा-सा लगता है, लेकिन हमारी जलवायु पर सबसे बड़ी और सबसे विस्फोटक मार मांसाहार की प्रवृत्ति से पड़ रही है। एक रिपोर्ट से पता चलता है कि विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों के कारण सबसे बड़ा कार्बन पदचिन्ह गोमांस के कारण होता है, जो बीन्स, मटर और सोयाबीन यानी शाकाहारी आहार की तुलना में लगभग 60 गुना बड़ा है।

इतिहास के पन्ने पलटते हैं, तो पता चलता है कि बाबरनामे में एक पत्र में बाबर, बेटे हुमायूं को नसीहत देता है-“तुम्हें गौहत्या से दूर रहना चाहिए। ऐसा करने से तुम हिन्दुस्तान की जनता में प्रिय रहोगे। इस देश के लोग तुम्हारे आभारी रहेंगे और तुम्हारे साथ उनका रिश्ता भी मजबूत हो जाएगा।” बादशाह बहादुर शाह जफ़र ने भी 28 जुलाई, 1857 को बकरीद के मौके पर गाय की कुर्बानी न करने का फ़रमान जारी किया और चेतावनी दी कि जो भी गौ-हत्या करने का दोषी पाया जाएगा, उसे मौत की सज़ा मिलेगी। उस समय गौ-हत्या के खिलाफ अलख जगाने का काम करने वाले पत्रकार मोहम्मद बाकर को अंग्रेजों ने मौत की सजा सुनाई थी।

 कवि-पत्रकार पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने 1920 में मप्र के सागर जिले के रतौना नामक स्थान पर लगाए जा रहे कसाईखाने के विरोध में अभियान चलाया, इस कत्लखाने में प्रतिमाह ढाई लाख गौ-वंश को काटने की योजना थी। कसाईखाने के विरुद्ध जबलपुर के उर्दू समाचार पत्र 'ताज' के संपादक मिस्टर ताजुद्दीन मोर्चा पहले ही खोल चुके थे। उधर, सागर में मुस्लिम नौजवान और पत्रकार अब्दुल गनी ने भी गोकशी के लिए खोले जा रहे इस कसाईखाने का विरोध प्रारंभ कर दिया। मात्र तीन माह में ही अंग्रेजों को कसाईखाना खोलने का निर्णय वापस लेना पड़ा। सच कहें तो गौ-शक्ति से संपन्न भारत ही खुशहाल भारत होगा।

उफ़ ! जब माँ गंगा भी रोई होंगी…?

                  प्रभुनाथ शुक्ल

भारत कोविड-19 संक्रमण को लेकर संकट काल से गुजर रहा है। यह महामारी इतनी भयंकर रुप लेगी इसकी कल्पना न तो कभी सरकारों को थीं और न नागरिकों को। हलांकि चिकत्साविेशेषज्ञों ने इसकी चेतावनी दे दिया था कि इसकी दूसरी लहर भी आ सकती है। अब तीसरी लहर के और अधिक भयानक होने की बात भी आ रही है। फिर सरकारों ने क्यों नहीं चेता। दुनिया के साथ भारत को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। लाखों की संख्या में आम से लेकर खास नागरिक इस महामारी का शिकार हुआ और हो रहा है। अभी यह कब तक चलेगा इसका कोई अंदाजा नहीं है। देश की 130 करोड़ जनता अब तक की सभी सरकारों से यह सवाल पूछ रहीं है कि हमने आपको सत्ता, रुतबा, अधिकार और सांविधानिक शक्तियां दिया, लेकिन आपने आजाद भारत में हमें क्या दिया ? यह आप अपने गिरेबाँ में झांक कर देखें। जहाँ ऑक्सीजन और इलाज के आभाव में लाखों लोग दमतोड़ देते हैं, उस देश के नागरिक किस सत्ता और सरकारों पर गर्व करेंगे ? लाख सरकारें हों जब सिस्टम गांधारी बन जाएगा तो कुछ नहीं होगा।

कोविड-19 की पहली लहर तो किसी तरह गुजर गयी थी। जिस तरह के दृश्य लोगों के आंखों के सामने गुजरे थे उसकी पीड़ा आज भी ताजा है। बेगुनाह लोग पालायन की वजह से बेमौत मारे गए। हजारों किलोमीटर की पैदल यात्रा कर गाँव पहुंचे और सरकारें असहाय बनी रहीं। लोग उस त्रासदी को आहिस्ता आहिस्ता भूल रहे थे। प्रवासियों की मौत और सरकारों की नाकामियों को भी लोगों ने भूला दिया था। अर्थव्यस्था पटरी पर आने लगी थी। कामगार शहरों को लौट गए थे लेकिन दूसरी लहर ने देश को तबाह कर दिया है। शहरों के साथ इस बार ग्रामीण इलाकों में इसका प्रकोप अधिक है। उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में मानव पूंजी का बहुत बड़ा नुकसान हुआ है। महामारी की डर की वजह से इंसानियत खत्म हो गई। अपनों ने भी दूरिया बना लिया। गंगा हजारों लाशों से पट गयी। शवों का अंतिम संस्कार करने के बजाय लोगों ने सीधे गंगा में प्रवाहित कर दिया।

देश में सबसे अधिक बदतर हालात स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर हुई है। न्याय व्यवस्था की अहमपीठ यानी अदालतों को सरकारों के खिलाफ तल्ख टिप्पणी करनी पड़ी। चिकित्सा सुविधा को लेकर सरकारों को कटघरे में खड़ा होना पड़ा। सोशलमीडिया पर भुक्तभोगियों ने जिस तरह अपनी पीड़ा के वीडियो शेयर किए वह मरती हुई इंसानियत को बताने में काफी है। हमारा मसशद किसी सरकार को कटघरे में खड़ा करने का नहीं है, लेकिन सरकार क्यों है यह भी अहम सवाल है। हमारी स्वास्थ्य व्यस्था जिस तरह बदहाल है उसे देख कर तो यही लगता है कि हम दूसरे हिस्सों में चाहे जो प्रगति कर लिया हो लेकिन स्वस्थ्य सुविधाओं को लेकर अभी हमें बहुत कुछ करना होगा।फिलहाल हम यह नहीं कहते हैं कि स्वास्थ्य सुविधाओं का विकास नहीं हुआ या सरकारों ने काम नहीं किया हमारा सवाल बस इतना है कि अगर सबकुछ हुआ है तो ऑक्सीजन और चिकित्सा सुविधओं के अभाव में लोगों की मौतें क्यों हुई।

चिकित्सा सुविधा के अभाव में इंसान तो बेमौत मारे गए, लेकिन लाखों युवा और दूसरे लोग इस दुनिया से रुख्सत हो गए। उनकी मौत परिजनों को जिंदगी भर की टींस दे गयी। क्योंकि उनकी बाकि बची हुई जिंदगी सरकारों और व्यवस्था की नाकामियों की वजह से ऑक्सीजन और इलाज के अभाव में खत्म हो गई। परिजनों के सपने खत्म हो गए, जीवन की उम्मींदे टूट गयी। निजी अस्पतालों में जिस तरह लूट और सरकारी अस्पतालों में जिस तरह लापरवाही की खबरें आयीं वह शर्मसार करने वाली हैं। जिन भगवान स्वरुप चिकित्सकों के लिए देश की जनता ने तालिया और दीये जलाए थे उन्हीं में तमाम ने अपने कर्तव्य और नैतिकता को तिलांजलि दे दिया। हम सभी चिकित्सकों पर सवाल नहीं उठाते, लेकिन इस तरह की हरकत करने वाले बहुतायत हैं जिनकी वजह से देश और समाज शर्मसार हुआ। जिन पर हमें गर्व करना चाहिए उन्होंने इंसानियत को ताख पर रख दिया।

सरकारों से यह सवाल तो जनता पूछेगी। क्योंकि आप नागरिक अधिकार की रक्षा क्यों नहीं किया। जनता ने आपको चुना फिर आप उसकी उम्मीद पर खरा क्यों नहीं उतरे। आपने उसे क्या दिया ? क्या सिर्फ सत्ता ही आपका धर्म और कर्म है। सरकारें निश्चित रुप से अपनी नैतिक जिम्मेवारी से नहीं बच सकती। सरकारों से कहीं न कहीं भूल हुई है जिसकी भरपाई वे कभी नहीं कर सकती हैं। जिस तरह के कदम आज उठाए जा रहे हैं वह पहले क्यों नहीं उठाए गए। एक महामारी ने हमारी नीति, नैतिकता और व्यवस्था को नंगा कर दिया। जिस परिवार में जवान बेटा, बेटिया, पति और पत्नी मर गए क्या उनकी वेदनाएं हमें कभी माफ करेंगी। यह अपने आप में विचारणीय प्रश्न है।

विपक्ष आज सत्ता को कटघरे में खड़ा कर रहा है, लेकिन कल जब वे सत्ता में थे तो उन्होंने क्या किया इसका भी उन्हें हिसाब देना होगा। उन्हें भी अपने गिरेबान में झांकना होगा। बेगुनाह लोगों की मौत के लिए जितनी वर्तमान सरकारें जिम्मेदार और जबाबदेह हैं उससे कहीं अधिक विपक्ष है। क्योंकि अगर उनकी सरकारों ने स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर किया होता तो इस महामारी में शायद देश को यह पीड़ा न देखनी पड़ती।

एक संप्रभु राष्ट्र की जनता ने आपको सत्ता सौंपी लेकिन आपने उसे क्या दिया। हम उन्हें एक अदत अस्पताल और ऑक्सीजन की बॉटल तक उपलब्ध नहीं करा पाए। क्या कभी सरकारों ने इसका मूल्याकंन किया। हमने सिर्फ सत्ता के लिए लोगों को धर्म, जाति, और संप्रदाय में बांट कर सियासी उल्लू सीधा कर भावनात्मक शोषण किया। देश की जनता को हमने इस तरह उलझाए रखा कि वह कभी अपने अधिकार की बात ना करे। हमने नागरिक अधिकारों को भेंड़ बकरियों से भी कम समझा। आजाद भारत में नागरिकों के लिए ऑक्सीजन अस्पताल तक मुहैया नहीं करा पाए। अस्पताल मिला तो डाक्टर नहीं। डाक्टर हैं तो ऑक्सीजन और दवाएं नहीं। सबकुछ है तो कुछ डाक्टरों की मरी हुई संवदनाओं ने जिंदा लोगों को मार डाला। संक्रमित मरीजों को अस्पतालों में भर्ती नहीं किया जा रहा। नागरिकों को पीएमओ, सीएमओ और मंत्रीयों से गुहार लगानी पड़ी, लेकिन कुछ भी काम नहीं आया, सबकुछ लुट गया।

देश की चिकित्सा व्यवस्था पर अदालतों ने किस तरफ की टिप्पणीयां की वह भी किसी से छुपी नहीं है। आखिर यह सब क्यों हुआ और हो रहा है। हमारा सिस्टम आँखों पर पट्टी बाँध गंधारी की भूमिका में क्यों बैठा रहा। श्मशान लाशों से पटता रहा। अंतिम संस्कार को लकड़ियां खत्म हो गईं। लाशों से गंगा अट गईं और हम मौन होकर देखते रहे। सिस्टम को भले न कोई फर्क पड़ा हो लेकिन मानवीय शवों के ढेर को देख माँ गंगा की आँखे भी नम हो गईं होंगी और वह आँचल से आसूंओं को पोछ जरूर रोई होंगी। सत्ता विपक्ष तो विपक्ष सत्ता पर आरोप लगता रहा, लेकिन दमतोड़ते लोगों को ऑक्सीजन नहीं उपलब्ध करा पाया। हम क्या इस तरह की घटनाओं से सबक लेंगे। क्या देश में अब तक सरकार नाम की संस्थाएं रहीं हैं, अगर रहीं हैं तो उन्होंने क्या किया। जब हम देश नागरिक प्राणवायु के लिए लड़ रहा हो और हम चुनावों में लगे हों क्या यही हमारा दायित्व है। क्या अडालातों की नसीहत के बाद ही हमारी नैतिकता और दायित्वबोध जागते हैं। अब तक की सरकारों को लिए यह बेहद शर्म की बात है। स्वास्थ्य सुविधाओं का सवाल अब भी हासिए पर है। इस संक्रमणकाल में इस पर गंभीरता से मंथन होना चाहिए।

काव्य प्रेमियों के लिए बेशकीमती उपहार है मार्गेश राय(मार्गदर्शन) की खुशबू बिखेरती पगडंडियाँ

मोबाइल और टीवी के बढ़ते चलन की वजह से कहानी और कविता पढ़ने के प्रति लोगों का रुझान ख़त्म हो गया था। पिछले वर्ष कोरोना लॉकडाउन के बाद एक बार फिर से पढ़ने वालों की तादाद बढ़ी है। अपने ख़्यालात, अपने जज़्बात को पेश करने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम होती हैं कविताएं।
कविताओं के माध्यम से कवि पाठकों को जीवन के विभिन्न रंगों से रुबरु करवाता है। कुछ कविताएं विपरित परिस्थितियों में प्रोत्साहित करने का अनमोल कार्य करती हैं तो कुछ कविताएं पाठकों को प्राकृतिक सौंदर्य के अलौकिक आनंद में डूब जाने को मजबूर करती हैं।

अपनी पहली अंग्रेज़ी काव्य संग्रह “पोयट्री – अ गारलैंड ऑफ वर्ड्स” की अपार सफलता के बाद, मार्गेश राय(मार्गदर्शन) की नई प्रस्तुति है “खुशबू बिखेरती पगडंडियाँ”। 120 कविताओं को इस संग्रह में सहेजते हुए मार्गेश राय(मार्गदर्शन) ने लोगों को प्रेरणा से भरपूर मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया है। जितनी सहजता के साथ इस युवा कवि ने अपनी भावनाओं को काव्य के माध्यम से प्रकट किया है उससे एक बात स्पष्ट होती है कि मार्गदर्शन जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं और जीवन के हर पहलू पर इनकी तगड़ी पकड़ है। वैसे तो सारी कविताएं मुझे बेहतरीन लगी, पर 8-10 कविताएं ऐसी है जो मेरे जेहन में बस चुकी है।
आइए नज़र डालते हैं खुशबू बिखेरती पगडंडियाँ पुस्तक की कुछ सदाबहार कविताओं की चुनिंदा पंक्तियों पर-

1- कलम की ताकत
एक बार फिर मैं प्रेम रंग में डूबकर लिखूँगा
तेरी नशीली आंखों के जाम पीकर लिखूँगा
एक बार फिर बिन मौसम बरसात होगी
मैं उस बारिश में भीगकर लिखूँगा……

2- लक्ष्य
कर्मवीर है तू, बस अपना काम किए जा
सफलता असफलता की ना सोच, संघर्ष के पथ पर चले जा
चट्टानों से तेरा सामना होगा, तूफान भी तेरा रास्ता रोकेंगे
पर तू बेपरवाह बढ़े जा…….

3- सुबह का मंज़र
सुबह का ये मंज़र तो देखो
प्रकृति का मनोरम नज़ारा तो देखो
सूरज के किरणों की लालिमा तो देखो
काली कोयलिया की मधुर आवाज़ को सुनकर
मीठी निंद्रा को त्यागकर संसार को देखो…….

4- मेरी कलम
जब जब मैं बेज़ार पड़ जाता हूँ मेरी कलम बोलती है,
जो राज़ मेरे दिल में दफन हैं, वो मेरी कलम खोलती है
जब तन्हा होता हूँ तो मैं उठाता हूँ अपनी कलम,
बेहद गहरे मौन को काग़ज़ के पन्नों पर तौलती है…….

5- वैरागी हो जाऊँ
मैं मस्तमौला सा अपनी ही धुन में झूमता रहूँ
मैं वैरागी हो जाऊँ
मैं अपने मन पर अंकुश लगा पाऊँ
मैं वैरागी हो जाऊँ……..

6- नेता
आया रे आया देखो शहर में नेता आया है
जुमलों का पिटारा अपने संग लेकर आया है
बड़े बड़े ख़्वाब दिखाने, जनता को बेवकूफ़ बनाने
नेता के रूप में एक बहुरूपिया आया है
स्कीम्स की भरमार लेकर आया है वो
पर वास्तव में वो स्कैम करने आया है…….

कोरोनाकाल के दौरान लोग हताशा,निराशा और भय से घिरे हुए हैं। काव्य जगत में अपनी एक अलग पहचान बनाने वाले कवि मार्गेश राय(मार्गदर्शन) की “खुशबू बिखेरती पगडंडियाँ” ऐसे वक्त में किसी संजीवनी बूटी से कम नहीं है। कविता और जीवन की लय में काफी समानताएं हैं। युवा कवि ने इसी लय को बरकरार रखने की कोशिश की है और वो इसमें क़ामयाब भी हुए हैं। अगर आप हिन्दी कविताएं पढ़ने के शौकीन है, तो आप ये काव्य संग्रह पढ़ सकते हैं।

पुस्तक- खुशबू बिखेरती पगडंडियाँ
लेखक- मार्गेश राय(मार्गदर्शन)
प्रकाशक- इविंसपब पब्लिशिंग
मूल्य- 249 Rs.

आपदा में अवसर


वो एक बड़े अखबार में काम करता था । लेकिन रहता छोटे से कस्बेनुमा शहर में था। कहने को पत्रकार था ,मगर बिल्कुल वन मैन शो था ।
इश्तहार, खबर , वितरण , कम्पोजिंग सब कुछ उसका ही काम था । एक छोटे से शहर तुलसीपुर में वो रहता था । जयंत की नौकरी लगभग साल भर के कोरोना संकट से बंद के बराबर थी ।
घर में बूढ़े माँ -बाप , दो स्कूल जाती बच्चियां और एक स्थायी बीमार पत्नी थी । वो खबर ,अपने अखबार को लखनऊ भेज दिया करता था ।इस उम्मीद में देर -सबेर शायद हालात सुधरें ,तब भुगतान शुरू हो।
लेकिन खबरें अब थी ही कहाँ ?
दो ही जगहों से खबरें मिलती थीं, या तो अस्पताल में या फिर श्मशान में।

श्मशान और कब्रिस्तान में चार जोड़ी कंधों की जरूरत पड़ती थी । लेकिन बीमारी ने ऐसी हवा चलाई कि कंधा देने वालों के लाले पड़ गए।
हस्पताल से जो भी लाश आती ,अंत्येष्टि स्थल के गेट पर छोड़कर भाग जाते , जिसके परिवार में अबोध बच्चे और बूढ़े होते उनका लाश को उठाकर चिता तक ले जाना खासा मुश्किल हो जाता था ।
कभी श्मशान घाट पर चोरों -जुआरियों की भीड़ रहा करती थी ,लेकिन बीमारी के संक्रमण के डर से मरघट पर मरघट जैसा सन्नाटा व्याप्त रहता था ।
जयंत किसी खबर की तलाश में हस्पताल गया , वहां से गेटमैन ने अंदर नहीं जाने दिया , ये बताया कि पांच छह हिंदुओं का निधन हो गया है और उनकी मृत देह श्मशान भेज दी गयी है ।

खबर तो जुटानी ही थी , क्योंकि खबर जुटने से ही घर में रोटियां जुटने के आसार थे।सो वो श्मशान घाट पहुंच गया । वो श्मशान पहुंच तो गया मगर वो वहां खबर जैसा कुछ नहीं था ,जिसके परिवार के सदस्य गुजर गए थे ,लाश के पास वही इक्का दुक्का लोग थे ।
उससे किसी ने पूछा-
“बाबूजी आप कितना लेंगे “?
उसे कुछ समझ में नहीं आया । कुछ समझ में ना आये तो चुप रहना ही बेहतर होता है ,जीवन में ये सीख उसे बहुत पहले मिल गयी थी ।
सामने वाले वृद्ध ने उसके हाथ में सौ -सौ के नोट थमाते हुए कहा –
“मेरे पास सिर्फ चार सौ ही हैं ,बाबूजी । सौ रुपये छोड़ दीजिये ,बड़ी मेहरबानी होगी , बाकी दो लोग भी चार -चार सौ में ही मान गए हैं । वैसे तो मैं अकेले ही खींच ले जाता लाश को ,मगर दुनिया का दस्तूर है बाबूजी ,सो चार कंधों की रस्म मरने वाले के साथ निभानी पड़ती है। चलिये ना बाबूजी प्लीज “।

वो कुछ बोल पाता तब तक दो और लोग आ गए ,उंन्होने उसका हाथ पकड़ा और अपने साथ लेकर चल दिये।
उन सभी ने अर्थी को कंधा दिया , शव चिता पर जलने लगा ।
चिता जलते ही दोनों आदमियों ने जयंत को अपने पीछे आने का इशारा किया । जयंत जिस तरह पिछली बार उनके पीछे चल पड़ा था ,उसी तरह फिर उनके पीछे चलने लगा ।
वो लोग सड़क पर आ गए । वहीं एक पत्थर की बेंच पर वो दोनों बैठ गए। उनकी देखा -देखी जयंत भी बैठ गया ।
जयंत को चुपचाप देखते हुये उनमें से एक ने कहा –
“कल फिर आना बाबू ,कल भी कुछ ना कुछ जुगाड़ हो ही जायेगा ।
जयंत चुप ही रहा।
दूसरा बोला –
“हम जानते हैं इस काम में आपकी तौहीन है ।हम ये भी जानते हैं कि आप पत्रकार हैं। हम दोनों आपसे हाथ जोड़ते हैं कि ये खबर अपने अखबार में मत छापियेगा , नहीं तो हमारी ये आमदनी भी जाती रहेगी। बहुत बुरी है , मगर ये हमारी आखिरी रोजी है । ये भी बंद हो गयी तो हमारे परिवार भूख से मरकर इसी श्मशान में आ जाएंगे। श्मशान कोई नहीं आना चाहता बाबूजी , सब जीना चाहते हैं ,पर सबको जीना बदा हो तब ना “।
जयंत चुप ही रहा ।वो कुछ समझ ही नहीं पा रहा था कि क्या उसने कर दिया ,क्या उसके साथ हो गया ?
दूसरा व्यक्ति धीरे से बोला –
“हम पर रहम कीजियेगा बाबूजी ,खबर मत छापियेगा,आप अपना वादा निभाइये ,हम अपना वादा निभाएंगे । जो भी मिलेगा ,उसमें से सौ रुपए देते रहेंगे आपको फी आदमी के हिसाब से “।

जयंत ने नजर उठायी , उन दोनों का जयंत से नजरें मिलाने का साहस ना हुआ ।
नजरें नीची किये हुए ही उन दोनों ने कहा –

“अब आज कोई नहीं आयेगा, पता है हमको। चलते हैं साहब , राम -राम “।

ये कहकर वो दोनों चले गए,थोड़ी देर तक घाट पर मतिशून्य बैठे रहने के बाद जयंत भी शहर की ओर चल पड़ा।
शहर की दीवारों पर जगह -जगह इश्तिहार झिलमिला रहे थे और उन इश्तहारों को देखकर उसे कानों में एक ही बात गूंज रही थी ,
“आपदा में अवसर”।

केवल रोग के लक्षणों का उपचार-कितना भयानक

मानव शरीर में किसी रोग के प्रवेश कर जाने और उसके बढ़ने पर उसका पता रोग के कुछ लक्षणों से ही पता चलता है। उनमें मुख्य हैं पीड़ा होना और ज्वर होना। पीड़ा चाहे फिर गले में हो, पेट में हो, या शरीर के अन्य अंगों में जैसे कि जोड़ों आदि में, इसका कारण भिन्न भिन्न रोग हो सकते हैं। यहां समझने की बात यह है कि पीड़ा अर्थात् पेन हमारे शरीर का एक उत्तम सूचना तंत्र है। पीड़ा स्वयं में रोग नहीं है, उससे तो आपको केवल सूचना मिल रही है कि आपके शरीर के किसी भाग में या किसी महत्वपूर्ण अंग में कोई समस्या है, रोग है। ऐसे में हम प्रायः पीड़ा को कम करने वाली अर्थात् उस सूचना तंत्र को रोकने वाली औषधियां ले लेते हैं। अब बताएं की यदि आपको छाती में अत्यधिक पीड़ा है और बाईं बाजू की ओर भी जा रही है तो आप अनुमान लगाते हैं कि आपके हृदय में कोई समस्या आई है। तो क्या आप उस समय केवल पीड़ा का उपचार करेंगे या अपने हृदय विशेषज्ञ के पास शीघ्रातिशीघ्र जायेंगे। ऐसे ही हमें अपनी पीड़ा को कम करने की चिंता करने की अपेक्षा यह सोचना चाहिए कि जिस रोग की वह सूचना दे रही है उस समस्या का निदान ढूंढा जाए। 

परन्तु ज्वर तो केवल सूचना का एक तंत्र ही नहीं वास्तव में यह तो शरीर के उस रोग का उपचार भी है। ज्वर चढ़ना हमारी रोग प्रतिरोधी क्षमता की एक ईश्वर द्वारा दी गयी प्राकृतिक प्रतिक्रिया है क्योंकि हमारी वायरस के विरूद्ध एण्टीबाडीज़ बनाने वाली बी और टी कोशिकाएं ज्वर होने पर ही अच्छा काम करती हैं और वायरस को शरीर से समाप्त कर पाती हैं।  सारा शरीर विज्ञान और अनुसंधान केवल यही बात बताता है। ज्वर आने और उस समय शरीर में होने वाली पीड़ा साथ ही शरीर को विश्राम करने पर विवश भी कर देती है, क्योंकि शरीर की ऊर्जा को रोग से लड़ने में लगना होता है। यदि आप उस समय अधिक चलेंगे, दौड़ेंगे, काम करेंगे तो शरीर की ऊर्जा उस ओर लगेगी। पर यदि विश्राम करेंगे तो शरीर की ऊर्जा रोग से लड़ने में अधिक लगेगी। ऐसे ही जब अधिक ज्वर होता है तो रोगी का कुछ खाने को मन नहीं करता। यह भी ईश्वर के बनाए इस मानव शरीर की अद्भुत संरचना है। क्योंकि यदि रोग से लड़ना है और उस समय आप अधिक खाएंगे तो शरीर की ऊर्जा को पाचन में भी काम करना पड़ेगा। तो आप पाचन से शरीर की ऊर्जा को बचाकर रोग से लड़ने की ओर लगा रहे हैं। है न अद्भुत!!! 

प्राकृतिक चिकित्सा विशेषज्ञ प्रायः ज्वर में रोगी को कुछ भी न खिलाने, केवल गर्म पानी या कुछ फलों का जूस आदि देने और विश्राम करने को कहते हैं। आयुर्वेद भी औषधि के साथ इन्हीं बातों पर अधिक बल देता है। अब आप सोचिए आज जो कोविड-19 इतना अधिक फैला है और उसका कोई सीधा उपचार न होने पर केवल लक्षणों का उपचार किया जा रहा है, उससे कितनी प्रकार की असाध्य समस्याएं हो रही हैं, लोग सहस्रों की संख्या में प्रतिदिन काल के गाल में समाए जा रहे हैं। प्रौढ़ व्यक्ति से लेकर युवा भी आज इसकी चपेट में बुरी तरह से आ गए हैं। कितना ही अच्छा होता यदि हम लक्षणों का उपचार बंद कर, विशेष रूप से ज्वर उतारकर रोग प्रतिरोधक क्षमता को क्षीण करने वाली और इम्यूनिटी को बिगाड़ने वाली अन्य दवाओं को रोककर, शरीर को तो अपना कार्य करने देते। 

शरीर को रोग से लड़ने के लिए हम जिस प्रकार भी सहायक हो सकते हैं वह हम हों। विश्राम करके, कम खाकर या रोग प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ाने वाली जैसे विटामिन, मिनरल या अन्य आयुर्वेदिक अथवा होम्योपैथिक औषधियां लेकर हम यह कर सकते थे। परंतु हमने केवल लक्षणों पर ही ध्यान दिया, लक्षणों को पूरी तरह दबाने पर ही एकमात्र काम किया, क्या इसलिए क्योंकि हमारे पास इस कोरोना रोग से लड़ने वाली कोई औषध ही नहीं है? तो क्या हम जो काम शरीर कर सकता है उसको भी रोके रखें और रोग को बढ़ने दें? और साथ ही अत्यधिक उग्र इलाज, वह भी मात्र लक्षणों का ऐसे ही करते रहें। उससे जो अनेक प्रकार की विकट स्थिति बन रही है, कॉम्प्लिकेशंस आ रही हैं, उनका क्या?

ऐसे ही शिरोवेदना अर्थात् सिर के दर्द के अनेक कारणों में प्रमुख हैं पेट का स्वच्छ ना होना, आंतों में गैस का बनना। प्रायः देखा गया है कि लोग इसे माइग्रेन का नाम देकर मस्तिष्क के उन कोशिकाओं और सूचना तंत्रों को सुन्न करने वाली औषधियां खाते रहते हैं जिन्होंने हमें उस समस्या अथवा रोग की केवल सूचना मात्र देनी थी। उस सूचना तंत्र को रोकने को जिस प्रकार के केमिकल हम खा रहे हैं उससे यकृत, गुर्दे और यहां तक कि ह्रदय आदि को भी हम अत्यधिक हानि पहुंचा रहे हैं। आप सुनकर आश्चर्यचकित होंगे कि छोटे बच्चों को सिर दर्द के लिए दी जाने वाली सैरीडॉन दवा से उनके मस्तिष्क में एडिमा या कहें पानी भर जाने जैसी स्थिति बन जाती है जिससे उनमें से कई को जीवन भर मिर्गी की भांति दौरे आते रहते हैं। हजारों लोग बार-बार दर्दनाशक दवा खा अपनी किडनी खराब करके आज किडनी प्रत्यारोपण के लिए दानकर्ता ढूंढ रहे हैं।

आज  इस कोरोनावायरस के काल में जो भय का वातावरण बना हुआ है, घर घर में लोग बीमार पड़े हैं, चिकित्सकीय सुविधाएं चरमरा गई हैं, किसी डॉक्टर को सिर उठाने का भी समय नहीं मिल रहा है, ऐसे समय में हर व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह सोचे कि किस प्रकार हम अपने रोगियों को व्यर्थ की कठिन समस्याओं से बचा सकते हैं, क्या हम रोग को छोड़ केवल उसके सिम्टम्स को मैनेज करने में इतने उग्र हो रहे हैं कि उससे रोग भी बढ़ रहा है और हमारे फेफड़े तक खराब हो रहे हैं लोग मृत्यु लोक की ओर जाते जा रहे हैं। 

संक्रमण हमेशा साथ तो फिर विकल्प क्या

. जानकार जो बता रहे हैं उसके मुताबिक यह कोरोनावायरस का संक्रमण हमारे जीवन काल का एक अभिन्न हिस्सा बन गया है. विश्व स्वास्थ्य संगठन चाहे प्राइवेट स्तर पर महामारी पर अध्ययन करने वाली संस्थाएं लगभग सभी यह साफ कह भी रही है, अब ऐसे में सवाल उठता है जो बहुत अहम है कि अगर संक्रमण हमारे बीच में हमेशा के लिए मौजूद है तो फिर हमारे जहान को बचाने के लिए विकल्प क्या है? हमारे पास सवाल तो सारी दुनिया के लिए यही है कि जान भी और जहान भी कैसे बचाई जाए और दुनिया भर के लोग अब घरों में बंद होकर उबचुके हैं डिप्रेशन में भी जा रहे हैं आर्थिक परेशानियों का सामना भी कर रहे हैं ऐसे में यह चुनौती और ज्यादा बड़ी हो जाती है कि हमें अब दूसरे विकल्प की तरफ बढ़ना और सोचना जरूरी हो गया है क्या केवल मास्क और 2 गज की दूरी के नियम और सिद्धांत बाजार और व्यापार खोलने पर हमें इस संक्रमण से बचा पाने में सक्षम हैं यकीनन अगर बहुत सारे लोग इसका अनुपालन करें तो इस बीमारी से लगभग बचा जा सकता है लेकिन क्या हिंदुस्तान में इसकी परिकल्पना किया जाना स्वभाविक है सबसे बड़ा जो चिंता का विषय है वह यह है कि वैक्सीनेशन होने के बावजूद भी संक्रमण का खतरा तो कम से कम बना ही रहेगा जान जाए या बच जाए वह बात अलग है वैक्सीन के दोनों डोज लेने वाला व्यक्ति भी दूसरे लोगों को संक्रमित कर सकता है यह जानकारी भी पूरी तरह से स्पष्ट है और जिस तरह से लॉकडाउन लगाए जाने के बाद में संक्रमण में गिरावट दर्ज की जा रही है उससे यह भी बिल्कुल साफ हो गया है कि कहीं ना कहीं लोगों का मिलना जुलना ही इस वायरस के संक्रमण का सबसे बड़ा आधार है ऐसे में बाजार खोलना कितना जोखिम भरा हो सकता है इसका अंदाजा भी साफ तौर पर लगाया जा सकता है लेकिन अब सरकार एक करें भी तो क्या करें और आम आदमी वह भी अब करें ना तो फिर जिए कैसे वायरस चाइना से आया है या प्रकृति से आया है लेकिन एक विडंबना जरूर अपने साथ लाया है कि उसने ना इधर का छोड़ा है और ना उधर का छोड़ा है हालात यह है कि एक कहावत चरितार्थ होती नजर आती है और वह यह कि जबरा मारे भी और रोने भी ना दे खैर यह तो हालात है जो सामने है और इनको समझा जा सकता है लेकिन हम बात कर रहे हैं कि आखिर विकल्प क्या देखिए विकल्प के रूप में अगर हम इसे समझना चाहे तो सबसे पहले हमें अनुशासित शिक्षित और वायरस के प्रति सावधान और सचेत होने की नितांत आवश्यकता है स्वास्थ्य से जुड़ी हुई बहुत सारी संस्थाएं और जानकार यह बता रहे हैं कि वैक्सीनेशन इस वायरस से जीत हासिल करने का सबसे बड़ा मंत्र है जबकि कुछ लोगों का यह कहना भी है कि वायरस तो हमारे बीच में है ही और हमें हो सकता है कि साल दर साल वैक्सीन के बूस्टर भी लेने पड़े ऐसे में जब वैक्सीनेशन को लेकर के भारत में क्या हालात हैं आप अच्छी तरह समझ सकते हैं और अगर हमने इस गति के साथ वैक्सीनेशन किया तो लगभग 3 से 4 साल हमको पूरी आबादी को कवर करने में लग जाएंगे और अगर इस बीच बूस्टर की आवश्यकता पड़ी तो हमारी हालत क्या होगी इसका अंदाजा साफ तौर पर आप अपने ध्यान में लगा सकते हैं बताया जा रहा है कि मई के आखिर तक पीक हिंदुस्तान से अपना काम करके गुजर जाएगा और उसके बाद सरकारें शायद लॉकडाउन खोलने की तरफ बढ़ने लगेंगे लेकिन एक बात जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता मैया की वायरस तो जिंदा रहेगा ही ऐसे में अगर लॉकडाउन खुला और दोबारा भीड़ जमा हुई तो एक बार फिर तीसरी लहर के रूप में प्रकोप हमारे सामने आएगा तो आखिर किया क्या जाए शायद सबसे पहले तो हमें बाजार को एक दिन छोड़कर खोलने की अनुमति देनी चाहिए और केवल बाजार को ही नहीं बल्कि सरकारी दफ्तरों को भी इसी रूटीन में खोला जाए तो बहुत ज्यादा बेहतर होगा अब दूसरा सवाल है आने वाली भीड़ का तो भीड़ को नियंत्रित करने के लिए भी हम एक उपाय कर सकते हैं इसके साथ साथ हमें लगता है कि हमारी सभ्यता को और मौजूदा मांग को ध्यान में रखते हुए ऑनलाइन व्यापार ऑनलाइन डिलीवरी और बहुत सारी चीजों को ऑनलाइन के माध्यम से बहुत ज्यादा तेजी के साथ प्रोत्साहित करना होगा और यह प्रक्रिया को जल्द से जल्द शहरों के साथ-साथ गांवों तक पहुंचाने की योजना पर काम करने की जरूरत पड़ेगी सरकारी दफ्तरों बैंक बीमा दफ्तरों अन्य दफ्तरों के साथ कंपनी के दफ्तरों और फैक्ट्रियों और उद्योग धंधों को संचालित करने की एक नई नीति की स्थापना किए जाने की अब तत्काल आवश्यकता महसूस होने लगी है क्योंकि कई लोगों का ऐसा मानना है कि जब जब लॉकडाउन खोला जाएगा उसके थोड़े दिनों के अंतराल के बाद फिर वही चुनौती और वही वायरस का प्रकोप हमारे जीवन में देखने को आएगा और हम एक बार फिर लॉकडाउन की तरफ बढ़ते जाएंगे लेकिन क्या लॉकडाउन में जाना समस्या का हल और समाधान है क्या स्थाई रूप से इस वायरस से हम निजात पा सकने में सक्षम हो पाएंगे शायद लॉकडाउन से हम संक्रमण कम कर सकते हैं लेकिन स्थाई समाधान नहीं कर सकते ऐसे में बड़े पैमाने पर सरकारी नीति को बना करके ऐसे सख्त निर्देश बनाए जाएं कि गैर जरूरी काम के लिए कोई भी बाहर ना आ सके बहुत सारे प्रोटोकॉल ऐसे स्थापित किए जाने की अब सख्त आवश्यकता महसूस होने लगी है कि बाजारों में जाकर काम करने वाले व्यक्तियों को यह मानकर पूरी सुरक्षा से लेकर जाने की अनुमति दी जाए जैसे कि वह किसी युद्ध में अपनी जान जोखिम में डालने जा रहा हो और कोई बड़ी बात नहीं है कि हम ऐसी ड्रेस या ऐसे पहनावे की तरफ बहुत जल्द बढ़ जाएं जहां वायरस के खतरे को कम से कम किया जा सके कहा तो यह भी जा रहा है कि कोरोना से संक्रमित हुआ मरीज आगे चलकर किसी अन्य दुविधा में कोरोनावायरस की वजह से फंस सकता है तो ऐसे में सचेत और सावधानी बहुत ज्यादा बढ़ जाती है हिंदुस्तान की लगभग 150 करोड़ की आबादी को कैसे सुरक्षित करने का काम हम कर पाएंगे इस पर एक विशाल समीक्षा नीति दिशा निर्देश और गाइडलाइंस को सख्त से सख्त तौर पर लागू किए जाने की आवश्यकता है और चाहे इसके लिए सरकारों को बड़े से बड़े जुर्माने क्यों ना करना पड़े लेकिन अगर इंसान और इंसान इस सभ्यता को बचाना है तो हमें बहुत जल्द इस पर अपना काम शुरू कर देना चाहिए क्योंकि जहां तक मैं समझ पाया हूं या जो जानकार समझ पाए हैं वह सब के सब एक बात पर पड़े हैं और उनका यह साफ तौर पर कहना है कि वायरस के साथ हमें जीने की आदत डालनी होगी और इससे कोई इनकार नहीं कर सकता यह वायरस कब तक पृथ्वी पर रहेगा कब तक हम लोगों को संक्रमित करता रहेगा और कब तक बेकसूर लोगों को मारता रहेगा यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि लॉकडाउन तक सफल हो पाता जब हमें पता होता है कि 19 दिसंबर से 2020 से 31 मई 2021 तक हमें लॉकडाउन रहने की आवश्यकता है और तब तक हम वायरस पर पूरी तरह पकड़ बना लेंगे और इससे निजात मिल जाएगी और हम सुरक्षित होकर अपने व्यापार काम धंधे और अन्य कामों को करने में लग जाएंगे लेकिन ऐसा तो कुछ भी नहीं है किसी के पास इस वायरस के अंत की डेडलाइन नहीं है तो फिर ऐसे में लॉकडाउन पर हम ज्यादा निर्भर क्यों हैं जिस प्रकार से हम अभी तक बाजारों में जाकर अपना काम करते हैं भीड़ एक साथ जोड़ती है मंदिरों में शादी समारोह में राजनीतिक रैलियों में या किसी भी अन्य प्रकार के सामाजिक गैर सामाजिक कार्यक्रमों में भीड़ का जमा होना और एक साथ लोगों का मौजूद होना इस वायरस के बीच में बेहद बेहद खतरनाक है अब अगर सरकार सोचती यह है कि वह लोगों को जागरूक करके उन्हें दिशा निर्देशों का ज्ञान कराकर इस तरह की भीड़ इस तरह के आयोजनों पर रोक लगा पाने में सक्षम होगी तो शायद वह गलत सोचती है वायरस के बीच में इंसान इंसान और जिंदगी को बचाने के लिए सरकारों को बेहद सख्त होना ही पड़ेगा और जो लोग समझ सकते हैं समझदार हैं जागरूक हैं उन्हें भी इन गाइडलाइंस का पूरी कड़ाई के साथ पालन करना पड़ेगा तब हम इस वायरस के साथ जिंदा रहते हुए चांदी और जहान भी बचा पाने की दिशा में बढ़ते हुए दिखाई देंगे अन्यथा हालात यह होंगे कि यह वायरस धीरे-धीरे करके हमारी इंसानी जमात में इस तरह पैड बना लेगा कि हर साल इस वायरस की चपेट में आकर लोग काल कनित होते रहेंगे और हम मजबूरी में अपने घरों में कैद होने को इसी तरह मजबूत बने रहे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए सरकार को इस वायरस की भयावहता इसके दूरगामी परिणाम और इससे जुड़ी हुई हर एक सच्चाई को इन्वेस्टिगेट करके अपनी जनता के साथ में खुले विचारों के साथ खुले मन के साथ शेयर करना ही होगा यह सोच कर कि जनता के बीच में मैसेज आएगा तो पैनिक बढ़ेगा बढ़ेगी या उससे किसी प्रकार की जनहानि होने की संभावना है यह अगर सरकार सोचती रही तो पैनिक बड़े ना पड़े लेकिन इंसान की जान खतरे में ज्यादा तेजी के साथ पढ़ती रहेगी क्योंकि जानकारों का यह भी मानना है कि जो कुछ भी वायरस से जुड़ी हुई चीजें हैं उनको अगर ठीक तरीके से सरकार अपना आधार बनाकर जनता के बीच जाएं तो शायद जनता इस वायरस के साथ करने लगे और उसको यह समझ आ जाएगी अब जीवन के जीने के आधार में मूलभूत परिवर्तन होने जा रहा है और यह मूलभूत आधार परिवर्तन करके ही अब जान और जहां दोनों को बचाया जा सकता है इस पूरे कार्यकाल में समय जरूर लगेगा हम लोगों को सचेत सावधान करने और जागरूक करने में कामयाब देर से ही क्यों ना हो लेकिन होंगे जरूर और यह आंतोंगत्वा सरकारों को आम आदमी को जान और जान दोनों बचाने के लिए करना ही पड़ेगा इससे पहले कि बहुत देर हो जाए और हम समझ भी ना पाए और वायरस हमारे समाज हमारे देश में हमारे गांव की आबादी में अपनी बहुत ज्यादा हद तक पैठ बना ले और हमारे पास लॉकडाउन के अलावा कोई विकल्प ही ना बचे उससे पहले हमें और सरकार दोनों को सतर्क और सावधान हो जाने की बहुत ज्यादा जरूरत है और अंत मैं जब हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं तो यकीनन हमारे सामने एक ही निजोर सामने आता है कि वायरस तो अब जाएगा नहीं वायरस तो हमारे बीच में हमारे बिन बुलाए मेहमान की तरह रहेगा ही रहेगा अब हमें उस बिन बुलाए मेहमान को इग्नोर कैसे करना है उसे अनदेखा करते हुए हमें आगे कैसे पढ़ना है उससे बचने के लिए हमें किन किन उपायों को करना जरूरी है हम कैसे अपनी जान जिंदगी को संचालन करने वाले उद्योग धंधे व्यापार और अर्थव्यवस्था को संभाल सकते हैं इस पर हमें एक सूत्र में बंधकर बहुत अनुशासित होकर अपने जीवन को संचालित करने की दिशा में पढ़ना पड़ेगा अब उठाकर सर कहीं भी घूमने चले गए कहीं भी कुछ भी कर लिया कहीं भी ठोक दिया कहीं भी पानी पी लिया कहीं भी हमने जो है भीड़ लगा ली कहीं भी हमने कुछ भी कर दिया यह सब चला तो हमारे देश में इंसान कम और मकान ज्यादा नजर आएंगे साफ कह देता हूं इसमें बुरा मानने वाली बात नहीं है यह सच्चाई है और इसे जितनी जल्दी जिस हद तक आप स्वीकार कर लेंगे उतनी आप इंसान और इंसान की जान और जहान बचाने में कामयाब रहेंगे वायरस की ना प्रकृति बदलेगी और ना ही वायरस अपना स्वरूप बदलेगा बल्कि वायरस और ज्यादा घातक होगा और हो सकता है कि वैक्सीन लेने के बाद भी वायरस अपने आप को इतना मजबूत कर ले कि आपको फिर द्वार एक नई वैक्सीन की खोज करनी पड़ जाए ऐसे में हालात कितने कष्टकारी हैं कितने डरावने हैं इसका एहसास दुनिया की आबादी और सरकारों को है या नहीं यह तो नहीं पता लेकिन हाल फिलहाल एशिया में बहुत सारे देश ऐसे हैं जिन्हें अच्छी तरह से पता है कि हालात बहुत ज्यादा खराब नहीं है और वायरस थोड़े दिन में काबू आ जाएगा या वैक्सीन लेने के बाद में इस वायरस से हमेशा के लिए छुट्टी मिल जाएगी देखिए अब इस वायरस को पकड़ने की कोशिश करते हैं यह वायरस का जन्म हुआ था चाइना के बुहान शहर से और कहा जाता है कि यह बुहान बायोलॉजी तो चाइना ने कैसे कंट्रोल किया अब एक छोटा सा फंडा समझ यह मान कर चलिए 235000 की आबादी वाला चाइना का एक शहर है और वहां 15 लोगों से संक्रमित पाए जाते हैं तो वह चाइना 235000 वाली आबादी के पूरे के पूरे शहर को बहुत सख्ती के साथ लव डाउन कर देता है उसके बाद लॉकडाउन किए हुए शहर के हर नागरिक का दो या तीन बार rt-pcr जांच की जाती है और जब तक संतुष्ट नहीं हो जाता चाइना तब तक लॉकडाउन नहीं खोला जाता है यानी चाइना इस वायरस को लेकर सचेत और सावधान है और छोटी सी छोटी गलती भी इस वायरस के दौरान करना नहीं चाहता यही तकनीक दुनिया के हर देश को अपनानी पड़ेगी लगातार आर्टिफिशियल जांच होती रहनी चाहिए रेंडम ली और वेरलैंडर ली जांच बेहद आवश्यक है और जैसे ही मामला सामने आता है वैसे ही हमें तत्काल चाइना की तरह ही इस पर सख्ती से अमल करने की और तत्परता के साथ कोशिश करने की जरूरत है यानी हर उस देश को जिसे वायरस से अपने नागरिकों को बचाना है उसे चाइना की तकनीक पर काम करना पड़ेगा और चाइना की तकनीक सीधी और साफ और स्पष्ट है कि उसे एक वी संक्रमित व्यक्ति समाज के बीच में बर्दाश्त नहीं है और इसके लिए उसकी सरकार उसका सिस्टम उसका प्रशासन के चिकित्सक उसकी आर्मी उसका पुलिस मुस्तैद है और पूरी बारीकी के साथ में पूरी जिम्मेदारी के साथ में वह अपना कर्तव्य पालन कर रहे हैं और वहां के नागरिक भी अपने सरकार की बताई हुई गाइडलाइंस के मुताबिक उनके दिशा-निर्देशों के तहत अपने आप को डाल चुके हैं यानी को पूरी तरह से कोविड-19 की अनदेखी नहीं कर सकते और उनका पालन करना उनकी मजबूरी है क्योंकि उनकी जान को ले करके यह वायरस मुझे बीच में भी मौजूद है लेकिन उसका कारण है वहां की सरकार और उनका प्रशासन बहुत तेजी के साथ में अपने कर्तव्य की तरफ संवेदनशील है अगर हमारे देश और दुनिया की अन्य सरकारें भी इस तरह की संवेदनशीलता दिखाएं और तत्परता गंभीरता दिखाए तो शायद वायरस के ऊपर कंट्रोल कर के हमें वायरस के साथ जीने की आदत चल सकती है यानी हम विकल्प के तौर पर इस वायरस से बचने और पटाने का तरीका निजात कर के अनुशासित होकर जान और जान दोनों को बचा पाने में सुरक्षित हो सकते हैं और अगर हम तब भी नहीं समझे तो फिर हमारे सामने लॉकडाउन के अलावा दूसरा कोई विकल्प रह नहीं जाएगा और लव डाउन हम कब तक कर सकते हैं यह आप अच्छी तरह जानते हैं

डब्ल्यूएचओ की चीन परस्‍ती और भारत की वैश्‍विक बदनामी

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

यह तो सभी को पता है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन डब्ल्यूएचओ के प्रमुख टेड्रोस एडेहनम ग्रेब्रेयेसस की नियुक्‍ति में चीन का बहुत बड़ा हाथ रहा है, किेंतु इसके बाद भी यह विश्‍वास किया जा रहा था कि इस वैश्‍विक स्‍वास्‍थ्‍य संगठन में कर्ताधर्ता बनने के बाद ”टेड्रोस” कम से कम स्‍वास्‍थ्‍य के मामले में किसी भी देश के साथ अन्‍याय नहीं करेंगे। लेकिन यह क्‍या ? वर्तमान हालातों में लग रहा है कि पूरा विश्व स्वास्थ्य संगठन ही चीन का गुलाम है, वह पूरी तरह से चीनी भाषा बोलता नजर आ रहा है। कम से कम भारत के संदर्भ में तो यही दिखाई दे रहा है।

आज दुनिया इस बात को जानती है कि कोरोना वायरस विश्‍व भर में फैलाने का असली गुनहगार कौन है? चीन के वुहान का सच भी विश्‍व जानता है, जब विश्व स्वास्थ्य संगठन की वैज्ञानिक टीम चीन भेजी जा रही थी, तभी कई लोगों ने यह बता दिया था कि यह सिर्फ दिखावा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) यह कभी नहीं कहेगा कि वुहान से ही कोरोना बाहर निकला और पूरी दुनिया के लिए खतरा बन गया।

वस्‍तुत: हम सभी ने देखा भी यही, जो अंदेशा था वह सही निकला। वैज्ञानिकों की टीम चीन से आते ही उसके गुणगान में लग गई। यहां तक कि अब संकट यह है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रमुख टेड्रोस एडेहनम ग्रेब्रेयेसस से लेकर अन्‍य उनके प्रमुख साथी डब्ल्यूएचओ के आपात कार्यक्रमों के प्रमुख माइकल रेयान और भी तमाम लोग आज चीन का ही गुणगान करते नजर आ रहे हैं। कल तक चीन की जो वैक्‍सीन कोरोना से लड़ने में पूरी तरह से सक्षम नहीं थी, उसके आए रिजल्‍ट अचानक से अच्‍छे हो गए हैं। आज डब्ल्यूएचओ को चीन सिनोफार्म कंपनी के कोविड रोधी टीके सही नजर आ रहे हैं, इसलिए उसके वह आपात इस्तेमाल को अपनी मंजूरी प्रदान करता है।

यहां तक भी सब्र किया जा सकता था, लेकिन भारत को बदनाम करने और चीन की तारीफ करती जो कुछ दिन पहले डब्ल्यूएचओ अधि‍कारियों के वीडियो आए, खबरें आईं। उसके बाद फिर डब्ल्यूएचओ की इसी सप्‍ताह कोरोना के बी.1.617 स्ट्रेन पर रिपोर्ट आई है, उसने पूरी तरह से स्‍पष्‍ट कर दिया है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन चीन परस्‍ती के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तैयार है। हालांकि इस 32 पृष्ठ के दस्तावेज में कोरोना वायरस के बी.1.617 वैरिएंट के साथ “भारतीय वैरिएंट” शब्द नहीं जुड़ा है। लेकिन जिस तरह की मीडिया में खबर आईं और भारत को पूरे विश्‍व भर में बदनाम करने का प्रयास किया गया, वह ऐसे ही अचानक से तो हो नहीं गया? फिर भले ही डब्ल्यूएचओ कहे कि रिपोर्ट में कहीं नाम नहीं है, किंतु हकीकत यही है कि इशारों में ही सही भारत को बदनाम करने का पूरा षड्यंत्र डब्ल्यूएचओ की तरफ से रचा हुआ यहां साफ तौर पर नजर आ रहा है।

वस्‍तुत: इस रिपोर्ट में बताया गया है कि यह बी.1.617 स्ट्रेन पहले के मुकाबले ज्यादा संक्रामक और जानलेवा है। इस स्ट्रेन ने कोरोना वैक्सीन के खिलाफ भी काफी हद तक प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर ली है । इसमें कहा गया है कि कोरोना वायरस का यह स्ट्रेन पहली बार अक्टूबर 2020 में भारत में रिपोर्ट किया गया था । भारत में कोरोना वायरस की दूसरी लहर और मौतों की बढ़ती संख्या ने इस स्ट्रेन और अन्य वेरिएंट बी.1.1.7 की संभावित भूमिका पर सवाल खड़े किए गए हैं।

इसके साथ ही इस रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया कि वायरस का यह स्ट्रेन सबसे पहले भारत में पाया गया और उसके बाद यह दुनिया के 44 देशों में फैल गया। रिपोर्ट इतनी गोलमोल है कि सीधे तो नहीं लेकिन इशारा भारत की तरफ ही है। आज आश्‍चर्य इस बात से है कि दुनिया में कोरोना फैलाए चीन और योजनाबद्ध तरीके से बदनाम किया जाए भारत को!

यह ठीक है कि इस चीन परस्‍त रिपोर्ट के आने के बाद भारत सरकार ने अपनी ओर से स्‍थ‍िति स्‍पष्‍ट की है और बताया है कि कि ऐसी रिपोर्टिंग बिना किसी आधार के की गई हैं। विभिन्न मीडिया में ऐसे समाचार आए हैं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने बी.1.617 को एक वैश्विक चिंता वाले वैरिएंट के रूप में वर्गीकृत किया है। इनमें से कुछ रिपोर्ट में बी.1.617 वैरिएंट का उल्लेख कोरोना वायरस के “भारतीय वैरिएंट” के रूप में किया है। ये मीडिया रिपोर्ट्स निराधार और बेबुनियाद हैं। किंतु सच यही है कि जो संदेश इस रिपोर्ट को देना था वह ये दे चुकी है और भारत आज विश्‍वभर में बी.1.617 को लेकर कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। ऐसे में अब जरूरी हो गया है कि हम विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन के विरोध में आवाज उठाएं, उसे विवश करें कि कोरोना का सही सच सब के सामने लाए। उससे बार-बार यह पूछा जाना चाहिए कि चीन के सच को वह कब दुनिया को लाएगा ?