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चलो अब घर चलें….. मरेंगे तो वहीं जाकर जहां पर जिन्दगी है’’

अनिल अनूप

कोरोना के महप्रलयंकारी लहर के दौरान पूरे देश में फिर से प्रवासी मजदूरों के पलायन की लगातार तस्वीरें सामने आ रही हैं. चंडीगढ़ और पंजाब भी इससे अछूता नहीं है. चंडीगढ़ और उससे सटे पंजाब के कई इलाकों से लगातार प्रवासी मजदूर प्राइवेट बसों को मोटा किराया देकर यूपी और बिहार में अपने पैतृक गांवों और घरों के लिए निकल रहे हैं.

इनमें से कुछ लोग का कहना है कि वो शादी-समारोह अटेंड करने या फिर यूपी में जारी पंचायत चुनाव में वोटिंग करने के लिए जा रहे हैं, लेकिन ज्यादातर मजदूर ऐसे हैं जो खुले तौर पर ये कह रहे हैं कि उन्हें डर है कि कहीं चंडीगढ़ और पंजाब में एक बार फिर से संपूर्ण लॉकडाउन ना लग जाए और बिना काम धंधे के ही वो इन बड़े शहरों में फंसे ना रह जाएं.

मजदूर अपना पूरा सामान और परिवार यूपी और बिहार स्थित अपने घरों को भेज रहे हैं. इनमें से कई मजदूर ऐसे थे, जिनका कहना था कि पिछली बार उन्हें पैदल ही सफर करते हुए अपने घरों की ओर जाना पड़ा था और इस बार ऐसी नौबत ना आए इसके चलते लॉकडाउन की आशंका को देखते हुए वो पहले ही अपने घरों के लिए निकल रहे हैं.

हालांकि यूपी के पंचायत चुनाव का असर भी चंडीगढ़ में प्रवासी मजदूरों पर दिखाई दे रहा है. कई प्रवासी मजदूरों ने कहा कि वो अपने गांव के प्रधान के कहने पर पंचायत चुनाव में वोट डालने के लिए वापस जा रहे हैं और उनके आने-जाने का खर्चा भी उनके गांव के प्रधान के द्वारा ही दिया जा रहा है.

पंजाब में अनुमानित तौर पर आठ लाख प्रवासी मजदूत खेती से जुड़े कार्यों मे लगे है और 2,500 से 3,600 रुपये प्रति एकड़ के बीच कमाते हैं. अकेले लुधियाना में सात लाख प्रवासी श्रमिक हैं.

दरभंगा, बिहार के एक खेतिहर मजदूर गणेश कुमार ने कहा, ‘चाहे कोविड हो या कुछ और, हमें अपना पेट भरने का इंतजाम तो करना ही होगा. अगले 26 से 45 दिनों तक बहुत काम है खेतों में गेहूं की कटाई चल रही है और मंडियों में बिक्री भी शुरू हो चुकी है. इसके बाद पंजाब के तमाम खेतों में धान की रोपाई का काम शुरू हो जाएगा. वापस जाने का कोई सवाल ही नहीं उठता है.’

गणेश ने बताया कि इसके उलट घर में कोई नियमित रोजगार नहीं है. उन्होंने कहा, ‘हालांकि दर समान ही है, घर पर 300 रुपये प्रतिदिन और यहां 500 रुपये प्रतिदिन. लेकिन यहां हमारे पास नियमित काम है.’

स्थिर आय का साधन होना तो एक प्रमुख कारण है ही, तमाम प्रवासी मजदूर अन्य कारणों से भी इस बार घर जाने के बजाये यहीं रहना चाहते हैं.

इसमें से एक वजह वे पंजाब के आतिथ्य भाव को बताते हैं जो इसे दूसरी जगहों की तुलना में बेहतरीन बनाती है. कुछ लोगों का कहना है कि वह पिछले साल झेले गए कष्ट की यादों से अब तक उबर नहीं पाए हैं, जब वह सब कुछ छोड़कर चले गए थे और फिर उनके सामने रोजगार का संकट आ खड़ा हुआ था.

फिर एक तथ्य यह भी है कि उनके राज्य में टिके रहने के लिए किसान और आढ़ती अपनी तरफ से हरसंभव उपाय कर रहे हैं, जिसमें भोजन से लेकर प्राथमिक चिकित्सा और रहने की व्यवस्था तक सब कुछ शामिल है.

मोतिहारी, बिहार की रहने वाली एक खेत मजदूर रिंकी देवी ने कहा कि वह पिछले साल राज्य में ही रुक गई थी. उसने बताया, ‘गेहूं की फसल के सीजन में हमें 6,000 रुपये प्रति माह तक मिल जाते हैं, जिससे हम पेट पाल सकते हैं और गुजर-बसर कर सकते हैं. इसलिए वापस नहीं जाना चाहते.’

उसका इस साल भी यहां से जाने का कोई इरादा नहीं है. उसने कहा, ‘हम गेहूं की कटाई के बाद भी पंजाब में ही रहेंगे. इसके बाद मक्का और धान का सीजन है, जिसमें हमें काम मिल जाएगा.’

रिंकी देवी अभी पंजाब की राजपुरा मंडी में काम कर रही हैं, जहां वह कटाई के बाद आए गेहूं की साफ-सफाई का काम करती है और बिक्री के लिए बोरियों में पैक करती हैं. उसने बताया, ‘हम कई तरह के काम करते हैं, जैसे कि गेहूं की सफाई, बोरों में गेहूं भरना और उन्हें लोड कराना.’

पिछले साल की तरह इस बार कोई कमी न हो इसके लिए पंजाब के किसानों और आढ़तियों ने यह सुनिश्चित किया है कि प्रवासी मजदूरों को राज्य में रुके रहने के लिए सभी आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध हों.

राजपुरा के किसान रवि ग्रोवर, जो स्थानीय अनाज मंडी में आढ़ती भी हैं, ने कहा, ‘हमने अपने मजदूरों के लिए इस वर्ष सभी जरूरी प्रबंध किए हैं जैसे रसोई, आवास और अन्य सुविधाएं मुहैया कराना. यह सब ये सुनिश्चित करने के लिए किया जा रहा है कि वे पिछले साल की तरह अपने पैतृक गांवों न लौटें, क्योंकि उन्हें वापस लाने की लागत उन सुविधाओं से कहीं बहुत ज्यादा है जो हम उन्हें दे रहे हैं.’

पटियाला के खेतों में काम कर रहे बिहार के सुपौल निवासी एक खेत मजदूर सर्वेश मुखिया ने इस साल ऐसे तमाम प्रयास किए जाने की पुष्टि की. उसने बताया, ‘पिछले साल के पहले तक धान रोपाई के मौसम हमें किसानों की तरफ से खेत में बनाई गई कच्ची झोपड़ियों में ही रहना होता था. लेकिन पिछले साल से स्थितियां बदल गई हैं. अब हमें खेतों और मंडियों में काम करने के दौरान अपने परिवारों के साथ रहने के लिए कमरे मिलते हैं. हमारे मालिक और पंजाब में हमें रोजगार दिलाने वाले ठेकेदार हमारी अन्य जरूरतों जैसे भोजन, कपड़े और इलाज तक का प्रबंध भी कर रहे हैं.

उसने बताया, ‘उनकी तरफ से हमें मंडियों में एक फर्स्ट-एड किट और हैंड सैनिटाइजर भी मुहैया कराया जा रहा है जो पहले कभी नहीं मिलता था.’

पंजाब में काम करने वाले प्रवासी मजदूरों का कहना है कि ये राज्य अन्य जगहों की तुलना में काम के लिहाज से सबसे बेहतर है.

बिहार के अररिया निवासी एक खेतिहर मजदूर अरुण कुमार यादव ने बताया, ‘पिछले साल लॉकडाउन के दौरान जब हम अपने गांवों के लिए रवाना हो गए थे तो हमें पंजाब की सड़कों पर जगह-जगह भोजन उपलब्ध कराया गया था. हमारे लिए सबसे कठिन रास्ता तब शुरू हुआ जब हमने दिल्ली में कदम रखा और उसके बाद आगे की यात्रा की.’

यादव ने बताया, ‘मेरे रिश्तेदार जो ग्रेटर नोएडा में निर्माण श्रमिकों के रूप में काम करते थे, को पिछले साल लॉकडाउन के दौरान अपने गांव लौटने में बहुत ज्यादा कठिनाइयों का सामना करना पड़ा क्योंकि पंजाब में हमें मिले सहयोग के विपरीत उनके लिए रास्ते में कही भी भोजन या पानी उपलब्ध नहीं था.’

बहरहाल, तमाम प्रवासी मजदूर इस साल अपने गृह राज्य लौटने से इसलिए कतरा रहे हैं क्योंकि 2020 के कटु अनुभव उन्हें अभी भूले नहीं हैं. वे कहते हैं कि घर लौटने पर काम नहीं मिला और कुछ हफ्तों के बाद लौटने के लिए उन्हें ‘खासी कीमत’ चुकानी पड़ी.

गणेश भी उनमें से एक है. उसने कहा, ‘पिछले साल लॉकडाउन के बाद वापस आना बहुत मुश्किल था. ट्रेनों को बंद कर दिया गया, हमें बस से यात्रा करनी पड़ी, जिसमें टिकटों की कीमत 4,000 रुपये से 5,000 रुपये प्रति व्यक्ति थी.’

पटियाला के घनौर में काम करने वाले एक खेतिहत मजदूर फूलो मुखिया, जो दरभंगा, बिहार के रहने वाले हैं, का अनुभव भी कुछ इसी तरह का रहा था.

उन्होंने कहा, ‘लॉकडाउन के बाद हमें पंजाब लौटने के लिए बस में तीन गुना किराया चुकाना पड़ा. हम अभी तय नहीं कर पाए हैं कि यहीं रहना है या वापस घर जाना है. लेकिन ज्यादा संभावना यही है कि हम यहीं पर रुकेंगे क्योंकि गेंहू की कटाई चलने और फिर धान रोपाई का मौसम शुरू होने के साथ यहां पर हमारे पास रोजगार के मौके हैं.’

धान की बुआई जून में शुरू होती है. देशभर से खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश के प्रवासी खेत मजदूरों की पंजाब की खेती में अहम हिस्सेदारी रही है. उनकी भूमिका मुख्य तौर पर खेतों में हाथों से धान रोपने, और राज्य भर में मंडियों में पहुंचाने के लिए कटाई के बाद खाद्यान्नों की सफाई, पैकिंग और लोडिंग आदि में होती है.

गौरतलब है कि होजरी इंडस्ट्री में सबसे ज्यादा मजदूर अन्य राज्यों से आकर काम करते हैं. कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर तेजी से फैल रही है, उत्पादों की मांग कम होती जा रही है. लॉकडाउन की स्थिति को देखते हुए बड़े खरीदार भी माल मंगवाने से गुरेज कर रहे हैं. लुधियाना से ज्यादातर होजरी उत्पादों की मांग, बिहार, यूपी, मध्य प्रदेश, राजस्थान सहित अन्य प्रदेशों में होती है.

एक पखवाड़े के भीतर अकेले मालवा से 17 ट्रांसपोर्ट कंपनियों की 300 बसें उत्तर प्रदेश और बिहार भेजी गईं जो 10 हजार से ज्यादा मजदूरों को लेकर लौटी हैं.

ट्रांसपोर्टर गुरदीप सिंह के मुताबिक बसों के कई फेरे लगे हैं और उनके पास जून के अंत तक की बुकिंग है. मालवा में बड़े पैमाने पर धान की खेती होती है और रोपाई के लिए स्थानीय किसान पूरी तरह से प्रवासी मजदूरों पर निर्भर रहते हैं. इस बार वे दिक्कत में थे कि प्रवासी मजदूर नहीं आए तो फसल कैसे रोपी जाएगी.

बदलते व्यापारिक परिदृश्य

व्यापारी क्षेत्र में भी बड़े पैमाने पर मजदूरों की जरूरत रहती है और इस जरूरत को लंबे अरसे से प्रवासी पुरबिया मजदूर ही पूरा करते रहे हैं. अब परिदृश्य एकदम बदल गया है. राज्य उद्योग विभाग के अनुसार पंजाब में लगभग 2.5 लाख इंडस्ट्री है और इनमें 14 लाख से ज्यादा प्रवासी मजदूर काम करते हैं. कई मजदूर बरसों से स्थायी तौर पर यहीं रहते थे.

लुधियाना के समराला बाईपास चौक पर रहने वाले श्रमिक बाल कृष्ण यादव कहते हैं, “मैं पूर्णिया जिला का रहने वाला हूं और 33 साल से लुधियाना की एक बड़ी फैक्ट्री में नौकरी कर रहा हूं. अब जो हालात हैं, उनमें यहां रुक पाना मुश्किल है. सो मैंने सपरिवार घर वापसी के लिए आवेदन किया है. हालांकि फैक्ट्री मैनेजर खुद हमारे घर आए थे. लेकिन हमने जाना तय कर लिया है. अच्छा है बच्चों का एडमिशन नहीं करवाया.”

फेडरेशन ऑफ इंडस्ट्रियल एंड कमर्शियल ऑर्गेनाइजेशन के जनरल सेक्टरी मनजीत सिंह मठारू के मुताबिक, “हमने 1973 में मशीन टूल का कारोबार शुरू किया था. अब काम पूरी तरह बंद है. मजदूरों ने पलायन शुरू कर दिया है.

काम कैसे चलेगा?”

एसोसिएशन ऑफ लुधियाना मशीन टूल्स के चेयरमैन सुख दयाल सिंह कहते हैं, “प्रवासी श्रमिकों के बिना उद्योग चलाना नामुमकिन है. श्रमिकों के सहयोग के बगैर इंडस्ट्री में दोबारा जान नहीं आ सकती.” फोकल प्वाइंट इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के प्रधान राम लुभाया के अनुसार, “यह बहुत मुश्किल वक्त है. पहली बार इतना कठिन समय देख रहे हैं.” लुधियाना की पूरी इंडस्ट्री इस वक्त पलायन कर रहे मजदूरों को देखकर सदमे में है. हालांकि बेशुमार इंडस्ट्रीयलिस्ट उनकी यथा सहायता भी कर रहे हैं लेकिन फिर भी प्रवासी श्रमिक घर लौट जाना चाहते हैं. जून-जुलाई में श्रमिकों की कमी का एहसास ज्यादा होगा.

जालंधर से यूपी वापस लौटने के लिए आवेदन करने वाले कमल किशोर नाथ के मुताबिक, “यह संकटकाल है और पता नहीं कब तक चलेगा. ऐसे में अपने घर लौट जाना चाहिए.”

महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखंड, मध्य प्रदेश, पंजाब के हालात देखकर तो पलायन का संकट दोबारा उत्पन्न होने की आशंकाएं जोर पकड़ने लगी हैं. पिछले वर्ष जो तस्वीरें हमने देखी थीं, वे फिर से दिमाग में करवटें बदलने लगी हैं.

लॉकडाउन के चलते जब यातायात सेवाएं ठप्प हो गई थीं तो प्रतिबंधों के चलते मजदूर पैदल ही हजारों किलोमीटर पैदल चलकर अपने घरों को लौटने शुरू हो गए थे. मजदूरों के पलायन की ऐसी ​तस्वीरें सामने आई थीं जिन्होंने मन को झकझोर दिया था. कई तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हुई थीं, जिसमे एक व्यक्ति बैल के साथ खुद बैलगाड़ी को खींच रहा था और ऐसी तस्वीर सामने आई थी जिसमें दिल्ली से महोबा के लिए निकले मजदूर के परिवार में शा​मिला बच्चा जब पैदल चलता-चलता थक गया तो वह सूटकेस पर ही सो गया और उसकी मां सूटकेस खींचते हुए ​दिखी थी. कई मजदूरों की घर लौटते समय मृत्यु हो गई. इन तस्वीरों ने महामारी के दौरान व्यवस्था और श्रमिकों की लाचारगी पर बहुत से सवाल खड़े कर दिए थे.

विभाजन के बाद भारत में हुआ यह सबसे बड़ा विस्थापन था. सिर पर बैग रखे, कमर पर बच्चों को टिकाए, यही जीवन भर की कमाई लेकर मजदूर शहरों से गांव लौट रहे थे तो प्रख्यात कवि और गीतकार गुलजार ने एक सामयिक कविता लिखी थी-

‘‘महामारी लगी थी,

घर को भाग लिए थे मजदूर, कारीगर

मशीनें बंद होने लग गई थीं शहर की सारी

उन्हीं के हाथ-पावों चलते रहते थे

वर्ना जिन्दगी तो गांव में ही बो कर आए थे,

चलो अब घर चलें और चल दिए सब,

मरेंगे तो वहीं जाकर जहां पर जिन्दगी है।’’

मजदूरों का पलायन दोबारा शुरू हुआ तो अब भी उनका यही कहना है कि भूखे मरने से अच्छा अपने घरों को लौट जाएं.

राजधानी में नाइट कर्फ्यू लगाए जाने के बाद लोग फिर खौफजदा हो चुके हैं. बच्चों की परीक्षाएं नजदीक हैं, लोग बच्चों को जोखिम में नहीं डालना चाहते. अब सवाल यह है कि क्या ‘नाइट कर्फ्यू’ कोरोना संक्रमण पर काबू पाने के लिए कारगर कदम है? सोशल मीडिया पर एक सवाल उठ रहा है. ‘‘भीड़ तो दिन में होती है तो क्या कोरोना रात में ही आता है?’’

केवल यह मान लेना कि लोग रात को निकल कर होटल, रेस्त्राओं या बार आदि में पार्टी करते हैं तो ऐसी जगहों पर सतर्कता एवं सख्ती बढ़ाने की जरूरत है. अगर फुल लॉकडाउन होता है तो आर्थिक व्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा, क्योंकि अभी तक तो लोग सम्भल ही नहीं पाए हैं, परन्तु जान है तो जहान है.

कोरोना त्रासदी : अपनों को खोने का गम


अंधेरे में डूबा है यादों का गुलशन
कहीं टूट जाता है जैसे कोई दर्पण
कई दर्द सीने में अब जग रहे हैं
हमारे अपने ,हमसे बिछड़ रहे हैं
न जाने ये कैसी हवा बह रही है
ज़िन्दगी भी थोड़ी सहम सी गई है
हवाओं में आजकल ,कुछ तल्खियां हैं
राहों में आजकल ,कुछ पाबंदियां लग गई हैं ||
आंखों का है धोखा या धोखा मिट रहा है
फूलों में आजकल ,कुछ बेनूरियां हो गई हैं
ज्वार समुन्दर में आया बेमौसम है
नदियां बेखौफ मचलने लगी हैं
विसाते जीस्त पर वक्त ,एक बाजी चल रहा है
उठता धुआं, आकाश की लालिमा पी रहा है
न जाने ये कैसी हवा बह रही है
ज़िन्दगी भी थोड़ी सहम सी गई है
हवाओं में आजकल ,कुछ तल्खियां हैं
राहों में आजकल ,कुछ पाबंदियां लग गई हैं ||
अब रंगों में ,जहर घुल गया है
आग कितनी आम हो गई है
अल्फाज थक गये हैं या ख़त्म बाते हुई हैं
दर्द की तस्वीरों में ,आरजू बिखर सी गई है
न जाने ये कैसी हवा बह रही है
ज़िन्दगी भी थोड़ी सहम सी गई है
हवाओं में आजकल ,कुछ तल्खियां हैं
राहों में आजकल ,कुछ पाबंदियां लग गई हैं ||

आइए जानें कोविशिल्ड,कोवैक्सिन ,स्पूतनिक तथा अन्य वैक्सिनो के गुण क्या क्या है


कोविशील्ड (Covishield)**********************कोविशील्ड को ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और एस्ट्राजेनेका ने मिलकर तैयार किया है और इसके उत्पादन के लिए भारत में इसे पुणे की सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया बना रही है।ये एक तरह का सौदा है जिसमें प्रति वैक्सीन की आधी कीमत ऑक्सफ़ोर्ड के पास जाती है। कोविशील्ड दुनिया की सबसे लोकप्रिय वैक्सीन में से है क्योंकि कई देश इसका इस्तेमाल कर रहे हैं।कोविशील्ड म्यूटेंट स्ट्रेन्स (अर्थात रूप बदले हुए वायरस) के खिलाफ सबसे असरदार और प्रभावी है। कोवीशील्ड एक वायरल वेक्टर टाइप की वैक्सीन है।
          कोविशील्ड को सिंगल वायरस के जरिए बनाया गया है जो कि चिम्पैंजी में पाए जाने वाले एडेनोवायरस (चिंपैंजी के मल में पाया जाने वाला वायरस) ChAD0x1 से बनी है।
ये वही वायरस है जो चिंपैंजी में होने वाले जुकाम का कारण बनता है लेकिन इस वायरस की जेनेटिक सरंचना COVID के वायरस से मिलती है इसलिए एडेनो-वायरस का उपयोग कर के शरीर मे एंटीबॉडी बनाने को वैक्सीन इम्युनिटी सिस्टम को प्रेरित करती है। कोवीशील्ड को भी WHO ने मंजूरी दी है।  इसकी प्रभाविकता या इफेक्टिवनेस रेट 70 फीसदी है। यह वैक्सीन कोरोना के गंभीर लक्षणों से बचाती है और संक्रमित व्यक्ति जल्दी ठीक होता है।ये व्यक्ति को वेन्टिलर पर जाने से भी बचाती है। इसका रख-रखाव रखना बेहद आसान है क्योंकि यह लगभग 2° से 8°C पर कहीं भी ले जाई जा सकती है इसलिए इसकी उपयोग में लाने के बाद बची हुई वैक्सीन की वायल को फ्रिज में स्टोर किया जा सकता है।
कोवैक्सिन (Covaxin)
**************************कोवैक्सिन को ICMR और भारत बायोटेक ने मिलकर तैयार किया है। इसे वैक्सीन बनाने के सबसे पुराने अर्थात पारंपरिक *इनएक्टिवेटेड प्लेटफॉर्म*  पर बनाया गया है। इनएक्टिवेटेड का मतलब है कि इसमें डेड वायरस को शरीर में डाला जाता है, जिससे एंटीबॉडी पैदा होती है और फिर यही एंटीबॉडी वायरस को मारती है। यह वैक्सीन लोगों को संक्रमित करने में सक्षम नहीं है क्योंकि वैक्सीन बनाना बेहद फाइन बैलेंस का काम होता है ताकि वायरस शरीर मे एक्टिवेट न हो सके। ये इनक्टिवेटेड वायरस शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र को असली वायरस को पहचानने के लिए तैयार करता है और संक्रमण होने पर उससे लड़ता है और उसे खत्म करने की कोशिश करता है।
इस वैक्सीन से कोरोना वायरस को खतरा है, इंसानों को नहीं।
कोवैक्सीन की *प्रभाविकता 78 फीसदी* है। एक शोध में ये भी बताया गया है कि यह वैक्सीन घातक संक्रमण और मृत्यु दर के जोखिम को 100 फीसदी तक कम कर सकती है। हाल ही में हुए शोध में यह दावा किया गया है कि कोवैक्सिन कोरोना के सभी वेरिएंट्स के खिलाफ कारगर है।
Note- इन सभी वैक्सीन में सिर्फ covaxin अकेली वैक्सीन है जिसे वैक्सीन बनाने के सबसे पुराने तरीके से बनाया गया है इसमें कोरोना वायरस के ही *(इनक्टिवेटेड वायरस अर्थात मृत-स्वरूप* को उपयोग में लाया है और यही एक बड़ा कारण है जोकि covaxin को कोरोना के 671 वैरिएंट (हाल ही में हुए शोध अनुसार) के खिलाफ प्रभावी बनाता है मतलब ये कि चाहे कोरोना वायरस कितना भी म्यूटेशन कर ले (अर्थात रूप बदल लें) covaxin उन सभी पर प्रभावी रहेगी।
अब आते हैं सबसे अंत में-
स्पुतनिक- V (Sputnik V)**********************इसे मॉस्को के गमलेया रिसर्च इंस्टीट्यूट ने तैयार किया है,जिसे भारत में डॉ० रेड्डी लैब द्वारा बनाया जाएगा। इसे भी 2-8°C पर स्टोर किया जा सकता है।स्पुतनिक V भी एक *वायरल वेक्टर वैक्सीन* है, लेकिन इसमें और बाकी वैक्सीन में एक बड़ा फर्क यही है कि बाकी वैक्सीन को एक वायरस से बनाया गया है, जबकि इसमें दो वायरस हैं और इसके दोनों डोज अलग-अलग होते हैं। स्पुतनिक V को भारत ही नहीं बल्कि हर जगह अब तक की सबसे प्रभावी वैक्सीन माना गया है। इस पैमाने पर भारत की सबसे इफेक्टिव वैक्सीन है। स्पुतनिक V *91.6 % प्रभावी* है। ऐसे में इसे सबसे अधिक प्रभावी वैक्सीन कहा जा सकता है। यह सर्दी, जुकाम और अन्य श्वसन रोग पैदा करने वाले एडेनोवायरस-26 (Ad26) और एडेनोवायरस-5 ( Ad5) अर्थात 2 अलग अलग प्रकार के वायरस पर आधारित है। यह कोरोना वायरस में पाए जाने वाले कांटेदार प्रोटीन  (Spike प्रोटीन- यही वो प्रोटीन है जो शरीर की कोशिकाओं अर्थात सेल्स में एंट्री लेने में मदद करता है) की नकल करती है, जो शरीर पर सबसे पहले हमला करता है। वैक्सीन शरीर में पहुंचते ही इम्यून सिस्टम सक्रिय हो जाता है। और शरीर में एंटीबॉडी पैदा हो जाती है। यही एंटीबॉडी शरीर को कोरोना वायरस से बचाती हैं
            अब बात करते हैं स्पुतनिक की ही सिंगल डोज वाली वैक्सीन अर्थात sputnik Light की,

चूंकि स्पुतनिक वैक्सीन की दोनों डोज में दो अलग अलग वायरस उपयोग होते है तो स्पुतनिक लाइट वैक्सीन असल में स्पुतनिक-V वैक्सीन का पहला डोज ही है। ध्यान रहे कि स्पुतनिक-V में दो अलग-अलग वैक्सीन तीन हफ्ते के अंतराल के बाद दिए जाते हैं। अब इसे बनाने वाली कंपनी ने दावा किया है कि स्पुतनिक-V का पहला डोज भी कोरोना संक्रमण से बचाने में कारगर है और इसे ही स्पुतनिक-लाइट के रूप में लांच किया गया है।जिसका इफेक्टिवनेस 79.4% है जोकि अन्य वैक्सीन के दो डोज से भी अधिक है यदि इसकी मंजूरी भारत में मिलती है तो एक डोज में ही अधिक टीकाकरण किया जा सकेगा।जिससे टीकाकरण में तेजी भी लाई जा सकेगी।          इन तीनों के अलावा 2 वैक्सीन और भी हैं  जिनको विश्व में आपातकालीन मंजूरी दी गयी है लेकिन फिलहाल भारत मे मान्य नहीं है जोकि मोडर्ना और फाइजर की हैं,
           मोडर्ना को जहाँ *-20° पर* स्टोर करना होता है वहीं दूसरी ओर फाइजर की वैक्सीन को *-70°C से -75°C* पर सुरक्षित रखना पड़ता है यही कारण है भारत इन वैक्सीन को मंजूरी देने में कदम पीछे खींच रहा है क्योंकि भारत मे ऐसे तंत्र को विकसित करना मुश्किल है जिसमें इस तापमान को मेंटेन रखा जाए।इससे भी अलग एक बात ये है कि इस वैक्सीन को बनाने में परम्परागत तकनीक से अलग तकनीक उपयोग में लाई गई है।

परंपरागत वैक्सीन के जरिए हमारे शरीर के रक्तप्रवाह में जीवित या मृत वायरस डाला जाता है। साथ ही इसमें कई पदार्थ होते हैं, जो प्रतिरोधी प्रक्रिया के उत्पादन के लिए जरूरी होते हैं। लेकिन कोविड-19 की नई वैक्सीन में मैसेंजर आरएनए (MRNA) का इस्तेमाल किया गया है, जो एक प्रकार का न्यूक्लिक अम्ल है।
यह मैसेंजर आरएनए एक आनुवंशिक तंत्र (genetic mechanism) का संकेत देता है, जिससे कोविड एंटीबॉडी उत्पन्न होती है, जो वायरस के निशानों को नष्ट कर देती है। यानी इस प्रक्रिया में वायरस को शरीर में सीधे इंजेक्ट नहीं किया जाता है।
Special Note- तुलनात्मक अध्ययन सिर्फ आपकी जानकारी के लिए हैं क्योंकि अभी तक भारत में स्वीकृत तीनों ही वैक्सीन (कोविशील्ड,कोवाक्सिन और स्पुतनिक) कोविड को गम्भीर होने और वेंटिलेटर पर जाने से बचाती हैंऔर जो भी वैक्सीन मिल जाये, तुरन्त लगवाएंक्योंकि ये तीनों की वैक्सीन रोग के गम्भीर होने के खतरे को टाल देती है और आपकी रक्षा करती हैं।

शुरुआती लापरवाही से ग्रामीणों पर कोरोना पड़ा भारी

डर के कारण जांच व वैक्सीन से दूर भाग रहे ग्रामीण
रूबी सरकार

भोपाल, मप्र

मध्य प्रदेश के गांवों में सन्नाटा पसरा है। ग्रामीण सर्दी, जुकाम, खांसी और बुखार से ग्रसित हैं। अस्पताल न जाने, जांच न कराने और वैक्सीन न लेने की जिद, इन्हें मौत के मुंह में धकेल रहा है। जो अपनों को खो रहे हैं, उनकी आंखें नम है। लेकिन वह कोरोना संक्रमण से मौत पर बात करने को तैयार नहीं है। अधिकतर मृत्यु जांच न होने के कारण सामान्य माना जा रहा है। लेकिन गांव में मौतों की संख्या लगातार बढ़ रही है। अकेले पन्ना जिले के पवई विकासखंड के 18 गांवों में पिछले एक हफ्ते में 17 लोगों की मौत हुई है। इसी तरह शहडोल जिले के ब्यौहारी विकासखंड में 87, बैतूल जिले के एक ही गांव बोरगांव में 21, यहां तक प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री के विधानसभा क्षेत्र में आने वाला टिकोदा गांव में 20 दिनों में 10 लोगों की बुखार के बाद मौत हो गई और इतने ही लोग हालत बिगड़ने के बाद इलाज के लिए दूसरे शहर गए हैं, जबकि टिकोदा की कुल आबादी ही 350 हैं, जिनमें से तकरीबन आधे लोग बुखार और खांसी से पीड़ित हैं।

लोग बुखार से दम तोड़ रहे हैं। फिर भी समय रहते जांच करवाने को तैयार नहीं है। कुछ दबी जुबान कहते है, कि कुछ लोगों को वैक्सीन लगवाने के बाद बुखार आया, जो बहुत दिनों तक ठीक नहीं हुआ और कई लोगों की तो जान चली गई। उनके भीतर डर इस कदर समा गया, कि कहते हैं, जांच कराने जाएंगे, तो कोविड के लक्षण बताकर अस्पताल में अलग-थलग भर्ती कर देंगे, फिर वहां से हम घर वापस नहीं आएंगे। छिंदवाड़ा में तो स्वास्थ्य विभाग की टीम सहजपुरी गांव पहुंची तो ग्रामीणों ने हंगामा खड़ा कर दिया, टीम को उल्टे पांव वापस भागना पड़ा। हालांकि स्वास्थ्य विभाग ने वैक्सीन के बाद किसी की भी मौत को नकारा है, लेकिन यह भी सच है, कि सरकारी आंकड़ों में गांव में कोरोना या बुखार से मौतों के सही आंकड़े सामने नहीं आ रहे है। इस तरह कोविड से मौत का सही आंकड़ा कभी हमारे सामने नहीं आ पायेगा। इसलिए आज वैक्सीन से मौत के डर को खत्म करना सरकार और समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।

बैतूल जिले की रहने वाली रेखा गुजरे भीमपुर विकासखंड के 155 गांवों में काम करती है। वह बताती है कि ग्रामीण कोविड संक्रमण की जांच के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है। दूसरी तरफ लोग इतने डरे हुए हैं कि कहते हैं ‘वैक्सीन लेने से वे मर जाएंगे। टीका लगने के बाद उन्हें बुखार और चक्कर आयेगा। फिर उन्हें अस्पताल में भर्ती कर लिया जाएगा, जहां उसकी मृत्यु निश्चित है।’ वह घर में ही बीमारी का इलाज कर रहे हैं। कुछ तो पूजा-पाठ कर बीमारी को ठीक करने की कोशिश कर रहे हैं। लोगों के अंदर यह जो भ्रम है, यह बहुत खतरनाक हैं। इसे किसी भी सूरत में तोड़ना ज़रूरी है। जब मरीजों की स्थिति बहुत गंभीर होने लगती है, तभी मजबूरन उसे अस्पताल लेकर जाते है, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।

वैक्सीन का उल्लेख करते हुए रेखा गुजरे ने कहा, कि भीमपुर विकासखंड के 155 गांवों में तीन फीसदी से भी कम टीकाकरण हुआ है। रेखा ने कहा, कि ग्रामीणों द्वारा वैक्सीन को नकारे जाने पर पूरा प्रशासन और स्वास्थ्य अमला परेशान है। इनका भ्रम दूर करने और उन्हें जागरूक करने के लिए सरकार को कुछ अलग तरीके सोचनी होगी। वह बताती है, कि उनकी संस्था लगातार ग्रामीणों को जागरूक करने का काम कर रही है। उन्होंने बोरगांव का उल्लेख करते हुए कहा, कि यहां एक हफ्ते में 21 लोगों की बुखार से मृत्यु हुई है। डॉक्टरों के अनुसार मरीजों के अंदर लक्षण कोविड के ही थे, फिर भी इन मौतों को सामान्य माना गया। रेखा ने कहा संस्था अपनी तरफ से ग्रामीणों को ऑक्सीमीटर, थर्मामीटर, स्टीम मशीन आदि दे रही है। उन्हें समझा रही है वह अपना ऑक्सीजन का स्तर बराबर जांचते रहें। ऑक्सीजन का लेवल कम होने पर मरीज को तुरंत अस्पताल लेकर जाये, क्योंकि ऑक्सीजन का कम होना जानलेवा हो सकता है। लेकिन यह काम संस्था के प्रयास से बहुत कम गांव में हो पा रहा है। इसका दायरा बढ़ाने की जरूरत है।

इसी तरह पन्ना जिले के सामाजिक कार्यकर्ता रामनिवास खरे बताते हैं, कि यहां के गांवों में संक्रमण को लेकर ऐसी भ्रम की स्थिति है, कि गांव वाले कहते हैं, कि जांच रिपोर्ट में कोरोना संक्रमित बताकर हमें कोविड केयर सेंटर भेज देंगे। जहां से हम ठीक होकर घर वापस नहीं आयेंगे। रामनिवास ने अपने बड़े भाई जीतेन्द्र खरे का उल्लेख करते हुए बताया, कि भाई बीमार हुए, तो हम लोग उन्हें पन्ना से छतरपुर ले गये। क्योंकि पन्ना में इलाज की सुविधा नहीं मिल पा रही थी। कोविड की जांच हुई रिपोर्ट आने तक उन्हें जनरल वार्ड में रखा गया। रिपोर्ट में कोविड संक्रमण आने के बाद उन्हें कोविड वार्ड भेजने की तैयारी होने लगी। कोविड का नाम सुनते ही उनकी हृदय गति रूक गई।

दरअसल ग्रामीण क्षेत्रों के लोग समुदाय के साथ मिलकर रहते हैं। कोविड वार्ड में उन्हें अकेले रहना पड़ेगा, यह सोचकर ही वह डर जाते हैं। उन्होंने पन्ना के चिकित्सा सुविधा का उल्लेख करते हुए कहा, कि पवई विकासखंड के तीन आदिवासी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र जैसे मोहन्द्रा, सिमरिया और हरदुआ खमरिया में पिछले एक साल से डॉक्टर नहीं है। यहां कोई बीमार पड़े, तो झोलाछाप डॉक्टर ही इनका इलाज करते हैं। कोरोना संक्रमण की जांच सिर्फ पवई सामुदायिक केंद्र में हो रहा है, जो गांवों से लगभग 55 किलोमीटर दूर है। ग्रामीण जांच कराने इतनी दूर जाने को भी तैयार नहीं है।

मण्डला की अनीता संगोत्रा के अनुसार इस जिले के गांवों में 22 अप्रैल से महिला एवं बाल विकास विभाग की टीम घर-घर जाकर ग्रामीणों की जांच कर रही हैं। इन्हें बुखार, खांसी की दवा दी जा रही है। ग्रामीणों को कोरोना संक्रमण की चेन तोड़ने के लिए जागरूक किया जा रहा है। अनीता बताती है, कि कोरोना की दूसरी लहर पहले जैसी नहीं है, मास्क और सामाजिक दूरी से इससे बचा जा सके। इसलिए ज्यादा बुखार वाले लोगों को तुरंत कोविड केयर सेंटर में भेजा जा रहा है। मवई विकासखंड के 15 गांव में से अभी तक केवल दो गांव में संक्रमित पाये गये है, जिसमें से चंदा गांव के सरपंच और उनकी पत्नी का कोरोना से निधन हुआ है। इसके अलावा यहां विधायक के छोटे भाई की भी मृत्यु कोरोना से हुई है। फिर भी ज्यादा लोग वैक्सीन को लेकर भ्रमित है। बुखार आने पर खुद जाकर जांच नहीं करवा रहे हैं। इस भ्रम को तोड़ने के लिए पॉजिटिव से नेगेटिव हुए लोगों का अनुभव साझा करना बहुत जरूरी है। हालांकि आंगनबाड़ी और स्वास्थ्य केंद्रों में पल्स ऑक्सीमीटर से ग्रामीणों की जांच हो रही है, लेकिन वैक्सीनेशन के बारे में चर्चा करने पर ग्रामीण मुंह फेर लेते हैं। ग्रामीणों का कहना है, कि सरपंच की मौत वैक्सीन लगवाने के बाद ही हुई थी ।

दरअसल जांच न होने से बीमारी को पहचानने में देरी, इसे स्वीकार करने में देरी, फिर इलाज शुरू करने में देरी, लक्षण होने के बावजूद जांच रिपोर्ट का इंतजार करना, तुरंत इलाज शुरू न करना जैसे कारण गांव में मौतों की संख्या बढ़ाने में मददगार साबित हो रहे हैं। इससे पहले कि यह भयावह स्थिति को पहुंचे राज्य सरकार से लेकर स्थानीय प्रशासन को सतर्क होकर काम करने और ज़्यादा से ज़्यादा जागरूकता अभियान चलाने की ज़रूरत है।

टीके का असर


एक सहेली ने फोन उठाया,
अपनी दूसरी सहेली को फोन लगाया,
बोली,”बहन तुमने टीका लगवाया,
अगर लगवाया तो क्या असर पाया”।

दूसरी सहेली तपाक से बोली,
“मैंने अपने ही नहीं,
अपने पति को भी टीका लगवाया,
जिसका बहुत भयंकर असर पाया”।

पहले तो उनसे लडने मे मेरा
पांच मिनिट मे सांस फूल जाता था,
और उनका भी सांस फूल जाता था
अब तो पांच घंटे में भी सांस नहीं फूलता”।

दूसरी सहेली,बात काटते बोली
“तूने ये पहले क्यों नहीं बताया,
मै तो अभी जाकर टीका लगवाती हूं,
और अपने पतिदेव को पछाड़ती हूं”।

आर के रस्तोगी

कोरोना दवाओं को पेटेंट से मुक्त रखा जाएगा तभी बच सकेगा इंसान !

आत्माराम यादव पीव

    विश्वव्यापी महामारी कोरोना ने पूरी दुनिया में 35 लाख ओर भारत में ढाईं लाख लोगों को असमय ही मौत देकर तबाही के जो दृश्य दिखाये है उससे पूरी मानवता आहत है ओर रोज हजारों लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हो रहे है किन्तु मौतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। 21वी सदी का यह कैसा दौर है जिसमें विकास की तेज रफ्तार के पंखों को झुलसा कर जमीदोश कर दिया ओर  भारत ही नही मानों समूची दुनिया मानवता ओर मानवीय मूल्यों के घोरपतन के युग परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। एक ओर जहां इस महामारी को जड़ से समाप्त करने का कोई विकल्प नहीं तलाश पाये वहीं सेकड़ों तरह के दावे कर इससे मुक्ति दिलाये जाने के लिए बाजार में अनेक व्यापारी अपनी दुकानों को सजाकर लोगों को भयभीत कर लूटने में सफल रहे ओर सरकारे सोसलमीडिया के इस मकड़जाल से बचाने के लिए किसी प्रकार का उपाय नही कर सकी। लोग चैनलों पर बैठे समाचारों पर नजरे गढ़ाए विकल्प या इलाज की प्रतीक्षा में थे लेकिन टीवी एंकरों ने भी समाधान देने की बजाय गुमराह ही किया जिससे जहा इस आपदा की स्थिति से संभला जा सकता था लेकिन लोग संभल नहीं सके। वेक्सीनों के दावे उनसे जुड़ी तकनीकी, उपकरणो ओर उत्पादन को लेकर कुछ दवा कंपनिया अपनी वेक्सीनों को शोध उपरांत पेटेंट कराने में सफल रही वही असमंजस में फसी हुई सरकारे अंधेरे में तीर चलाती लालबुझक्कड़ की बुझ से पैदा होने वाले सारे प्रयोगधर्मी इलाजों से रोज अनेक जिंदा लोगों को कोरोना पाजेटिव सावित कर मरता देखती रही ओर भय इतना की बेटे के मरने पर बाप ओर बाप के मरने पर बेटा लाश को हाथ लगाने से इंकार करते रहे। कोरोना के भय से इलाज के प्रयोगधर्मी चिकित्सा से मरने वालों की संकया लाखों हो गई जैसे वे मानव न होकर अनुपयोगी जीवजन्तु रहे हो।

      मानवता ओर धर्म का पाठ हम तोतारटंत की तरह रटते रहे किन्तु आचरण में नही ले सके। इसका परिणाम सामने है जहा इन्सानों में लालच चरम पर आ गया है ओर वे हैवान बनकर मानवता को कलुषित कर जीवन रक्षक नकली दवाए बनाकर कारोबार करने में जुट गए वही वे लोग जो वास्तव में सरकारी दावों के अनुसार कोरोना को हराने के लिए वेक्सीन बनाने में सफल हुये उन सभी दवा कंपनियों के मालिकों ने अपनी वेक्सीनों को  पेटेंट करा लिया अकेले भारत को 270 करोड़ वेक्सीन की आवश्यकता है जबकि पेटेंट कराने वाली इन कंपनियो द्वारा प्रतिदिन 3 लाख के हिसाब से एक महीने में 90 लाख उत्पादन किया जा रहा है जो एक साल में 11 करोड़ वेक्सीन बना सकेगी तब मांग की पूर्ति में 13 साल लग जाएंगे जिससे इस महामारी से इन 13 सालों में लाखों मरने वालों की स्थित का अंदाज लगाकर रूह कांप उठती है। पेटेंट के बाद ये कंपनिया स्वास्थ्य सेवा कर रही है यह तो कतई नही है बल्कि ये सालों तक व्यापार की व्यवस्था से खुश है।

    यह बात भारत ही नही समूचे विश्व की सरकारों को सोचना है ओर विशेषकर विश्व स्वास्थ्य संगठन को विचार करनी है की कोरोना जैसे जीवनदायिनी वेक्सीन को पेटेंट कराने वाली दवा कंपनियों को अवश्यकता अनुसार वेक्सीन की पूर्ति न कर पाने से इन दवाओं के अभाव ओर संकट की स्थिति निर्मित होने पर इनके वास्तविक मूल्य से कही अधिक चौगुने- हजारगुने दाम देकर खरीदने के लिए आम व्यक्ति को छोड़ देश में  कालाबाजारी को संरक्षण दिया जाकर आरजकता पैदा की जाये या इन कंपनियों का पेटेंट समाप्त पर देश की सरकारी दवा निर्माता कंपनियों को यह वेक्सीन बनाने के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध कराकर मांग ओर पूर्ति के अंतर के समाप्त कर देश में 3 महीने के भीतर आवश्यकता के अनुरूप 270 करोड़ वेक्सीन तैयार का योजनावद्ध चरणो में देश के प्रत्येक नागरिक को उपलब्ध कराया जाकर उनके जीवन की रक्षा की जाये, जो सरकार की पहली प्रार्थमिकता हो।  

   यही नही सरकार को यह भी देखना होगा कि जहा कोरोना लोगों कि जान ले रहा है वही पर दो साल से चले आ रहे लाकडाऊन में महंगाई ने लोगों की कमर तोड़ दी। खाने का तेल हो या राशन सभी कि कीमतों में उछाल आया है ओर रोज उपयोग कि सामग्री अब आमव्यक्ति की क्रय शक्ति के बाहर हो गई है। महीनों से सभी का काम धंधा बंद है, बाजार बंद है, रोज कमाने खाने वाले व गरीब के पास पैसा नहीं है ओर न ही उसके घर में खाने को दाना है, मध्यम परिवार सभी तरह से परेशान है, उन्हे मकान का दुकान का किराया, बिजली का बिल,पानी का बिल, कर्जदारों को कर्ज अदा न करने पर बैंकवालों का उनके घर पहुँच कर धमकी देकर वसूली का दबाब उनके परिवार को अपमानित कर रहा है। लोग घरों में है, मजदूर गरीब को रोजगार के लाले पड़े है तब जिन बड़े व्यापारियों के यहा खाने का सामान उपलब्ध है वे अवसरवादी बनकर सामान की अनुप्लब्धता बताकर मुहमांगे दामों में बेच रहे है ओर प्रशासन ने बाजार को कुछेक लोगों को ज़िम्मेदारी सौपकर घरबैठे सामान उपलब्ध कराने के दायित्व से मुक्ति पा ली है जबकि इन पुजीपति व्यापारियों की मुराद पूरी हो गई जो कोरोना महामारी से बच भी जाये वे महंगाई की चपेट से खुद को बचा नहीं पा रहे है। अभी खाने पीने की सारी दुकाने बंद है ओर चंद व्यापारी घरपहुँच सेवा के नाम पर जमकर शोषण कर कालाबाजारी कर रहे है वही कुछेक छुटपुट दुकानदार दो पैसे कमाने की आड़ में अगर शटल गिराकर लोगों की मदद कर दे तो उनपर प्रशासन का हंटर चलता है ओर कानूनी कार्यवाही अलग, परिणामस्वरूप गरीब कोरोना से बच जाये तो भूखा मरने से बचाने के लिए सरकार या प्रशासन ने कोई व्यवस्था नही की है, इसलिए वे दूसरों की दया या भीख पर जीवित है, जो मांग नहीं सकते उन गरीबों की आँखों का दर्द समुंदर बनकर उबाल मार रहा है जिसमे वे ही डूबकर मर रहे है।

       दूसरी ओर अस्पताल मरीजों से भरे है ओर बीमार होने वाले सपना सब कुछ दाव पर लगाकर इलाज के लिए लाखों खर्च करने पर अस्पतालों में पलंग तक नसीब नहीं, सरकारे ओर प्रशासन तंत्र असफल है न उनके वश में कोई अस्पताल है न मेडिकल सप्लाई की व्यवस्था, न अनाज, सब्जी ओर फल उपलब्ध कराने वाले व्यापारी ही है । कलेक्टर नाम के कलेक्टर रह गए है तभी तो शमशान पर मुरदों की कतार उनकी नाकामयाबी बता रही है ओर मरने वाले के परिजन अपनों को खोकर उनके दाह संस्कार के नाम पर 10-15 हजार देने को लाचार है, लोग जिंदा लाश बने बेबश ओर मूक रह गए है। प्रशासन जिस तरह जिले का प्रभार अपने पास रखता है वैसे ही तमाम अस्पतालों ओर मेडिकल व्यवस्था को अपने अधिकार में लेकर काम करता तो तहसीलदार से लेकर कलेक्टर तक को किसी आम मरीज को बेड उपलब्ध कराने, दवा आदि के लिए अस्पतालों की न सुनना पड़ती ओर उन्हे खुद पता होता की किस अस्पताल में कितने बिस्तर है ओर कितने मरीज है, जिनकी जानकारी उन तक ये अस्पताल में ज़िंदगी का व्यापार करने वाले प्रबन्धक चलने नही देते है। सरकारी अधिकारी निजी अस्पतालों में जो व्यवस्था कराने में सक्षम साबित होता है वही व्यवस्था इन अस्पतालों में सालों से दलाली कर रहे सफ़ेदपोश दलाल सौदेवाजी कर सब सुविधा उपलब्ध कराने में अग्रणी है भले इसके लिए किसी मरीज को लगी आक्सीजन बाधित कर उनके भर्ती कराये मरीज को त्वरित उपलब्ध कराई जाने वे दूसरे मरीज को मौत हो जाये, इसकी परवाह उन्हे नहीं होती। यह सब देखकर लगता है सरकार तथा प्रशासन भ्रष्टाचार ओर नाजायज राजनीति की अवैध संतान बनकर रह गई है जिनकी नसों में नपुसंकता का खून रेंग रहा है ओर जनता इनकी लालच की भट्टी में भूनी जा रही है जहा मानवीयता का कोई मूल्य नही बचता है ओर मानव अधिकारों का झण्डा उठाकर पूरे साल चिल्लापौं कर अखबार की सुर्खियों में रहने वाले मानवतावादी वे सारे जागरूक जीव ओर संस्थान तथा मानव अधिकार आयोग इन अवसरों पर किसी भी मामले को स्वत: संज्ञान में न लेकर कुंभकरणी नींद सो गए है।    

   समूचे विश्व के वैज्ञानिकों के माथे पर इस महामारी कोरोना के इलाज के नाम पर असमंजस है ओर विश्वस्वास्थ्य संगठन सहित चिकत्सकों को भगवान समझ लोग उनपर विश्वास कर रहे है जिसमें आज भी अनेक चिकत्सक सेवा भाव से मानवीयता का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत कर रहे है वही अनेक लोग उन्हे भगवान कि दी गई उपमा को कलंकित कर सेवा के नाम पर लूट खसूट में लगे है। चिंता कि बात यह है कि जिन वेक्सीन दवा को पेटेंट कराकर उसे बनाने के अधिकार दवा कंपनियों ने अपने पास रखे है उससे पूरे मानव समाज के सामने खतरा पैदा हो गया है। पेटेंट कराने वाली दवा कंपनी चाहती है कि उनकी यह दवा उनके अलावा दूसरी कंपनिया न बनाए, उस हिसाब से आज विश्व में कोरोना दवा बनाने के लिए 17 कंपनिया पेटेंट करा चुकी है ओर वे दिनरात काम करे तो भी मांग पूरी करने में उन्हे पाँच साल से ज्यादा समय लगेगा, ऐसी स्थिति में क्या कोरोना दवा के इंतजार के लिए हमारे लिए रुका रहेगा, यह सिर्फ तमाम देश की सरकारों के बौनेपन को साबित करता है जिससे सरकारों को मुक्त होकर इन दवाओं का पेटेंट समाप्त कर दुनिया की मांग के अनुरूप दवा कंपनियों को सामग्री उपलब्ध कराकर एक दो माह के अंदर पूरी मानव जाति को इससे मुक्त करने के लिए कठोर कदम उठाने की आवश्यकता है, न की लाशों बिछने तक दवा को व्यापार की अनुमति मिलनी चाहिए वह भी तब जबकि अभी कोरोना की दूसरी लहर आने पर दुनियाभर में 35 लाख ओर अकेले भारत में ढाई लाख लोग असमय ही अपना जीवन गंवा चुके हो। 

कोरोना की रामबाण दवा नहीं है रेमडेसिविर

क्यों हो रही है रेमडेसिविर के लिए इतनी मारामारी?
– योगेश कुमार गोयल

कोरोना की दूसरी लहर भारत में इतना भयानक रूप धारण कर चुकी है कि पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट को कहने पर विवश होना पड़ा कि यह दूसरी लहर नहीं बल्कि सुनामी है और अगर हालात ऐसे ही चलते रहे तो अनुमान लगाए जा रहे हैं कि अगले कुछ महीनों के भीतर मौतों का कुल आंकड़ा कई लाखों में पहुंच सकता है। इन दिनों कोविड संक्रमण के प्रतिदिन साढ़े चार लाख से ज्यादा नए मामले सामने आ रहे हैं और हजारों लोगों की रोजाना मौत हो रही हैं। यही कारण है कि कोरोनावायरस के तेजी से बढ़ते मामलों की वजह से देशभर में अस्पतालों में बिस्तर, ऑक्सीजन सिलेंडर तथा कोरोना के इलाज में बड़े स्तर पर इस्तेमाल हो रहे रेमडेसिविर इंजेक्शन सहित कुछ दवाओं की मांग में इतनी जबरदस्त वृद्धि हो गई है कि स्वास्थ्य सेवाएं दम तोड़ने लगी हैं और रेमडेसिविर इंजेक्शन की जमकर कालाबाजारी के मामले देशभर से लगातार सामने आ रहे हैं। हालांकि एंटीवायरल दवा ‘रेमडेसिविर’ का उत्पादन देश में कई कम्पनियां करती हैं लेकिन अचानक मांग में आई तेजी के चलते इसकी किल्लत इतनी ज्यादा हो रही है कि मुनाफाखोरों को आपदा को अवसर में भुनाने में कोई शर्म नहीं आ रही। हालांकि रेमडेसिविर की मांग को देखते हुए पिछले दिनों केन्द्र सरकार द्वारा इसकी कीमतें घटाने का फैसला लिए जाने के बाद इसका उत्पादन करने वाली सात अलग-अलग कम्पनियों ने इसके दाम 899 से 3490 रुपये के बीच तय कर दिए लेकिन आज भी यह दवा 30 से 70 हजार और कहीं-कहीं एक लाख से भी ज्यादा में बेची जा रही है।
एक ओर जहां लोगों के बीच एक-एक रेमडेसिविर इंजेक्शन के लिए मारामारी मची है, वहीं आए दिन देशभर में अलग-अलग स्थानों पर पुलिस द्वारा इनकी कालाबाजारी करने वाले गिरोहों के सदस्यों को गिरफ्तार कर उनके पास से इन इंजेक्शनों की बड़ी खेप जब्त की जा रही है। दरअसल आपदा में अवसर को भुनाने वाले ऐसे असामाजिक तत्वों द्वारा इन इंजेक्शनों को 25-50 हजार तक में बेचा जा रहा है। कई जगहों पर तो ऐसे कई मामले भी सामने आ चुके हैं, जहां रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी में विभिन्न अस्पतालों का स्टाफ ही संलिप्त होता है। कुछ जगहों पर नर्सिंग कर्मियों द्वारा ही कोरोना संक्रमित मरीजों के लिए उनके परिजनों द्वारा लाए जाने वाले इंजेक्शनों को ही चोरी कर बेचने के मामले प्रकाश में आए तो भोपाल के जेके अस्पताल में तो एक नर्स कोरोना संक्रमितों को रेमडेसिविर की जगह सामान्य इंजेक्शन लगाकर रेमडेसिविर इंजेक्शन चुरा लेती थी और चोरी किए इंजेक्शन को अपने प्रेमी के जरिये 20-30 हजार में ब्लैक में बिकवाती थी। चिंताजनक स्थिति यही है कि एक ओर जहां अस्पतालों में जरूरतमंद मरीज रेमडेसिविर इंजेक्शन नहीं मिलने के कारण परेशानी झेलने को विवश हैं, वहीं प्रशासन की नाक तले रेमडेसिविर इंजेक्शन की जमकर कालाबाजारी हो रही है और देशभर में ऐसे अनेक गिरोह सक्रिय हैं।
अब सवाल यह है कि आखिर क्या वजह है कि रेमडेसिविर इंजेक्शन की इतनी मांग बढ़ रही हैं और कालाबाजारियों को आपदा को अवसर में बदलने का अवसर मिल रहा है। दरअसल कोरोना की पहली लहर के दौरान इसकी डिमांड दिल्ली, मुम्बई, बेंगलुरू, चेन्नई, लखनऊ, जयपुर, अहमदाबाद, सूरत जैसे महानगरों और बड़े शहरों तक सीमित थी लेकिन चूंकि दूसरी लहर की शुरूआत से ही अधिकांश डॉक्टरों ने इस एंटी-वायरल दवा को संक्रमण के शुरूआती दिनों में कारगर माना और कहा गया कि यह कोरोना बीमारी की अवधि को कम करती है और संक्रमण अधिक फैलने से फेफड़ों के खराब होने की स्थिति में इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। हालांकि कुछ डॉक्टरों का कहना है कि यह कोविड के 100 में से केवल 70-75 ऐसे मरीजों पर ही काम करती है, जिनके फेफड़े कोरोना के कारण प्रभावित हुए हों और इसका इस्तेमाल जरूरत के हिसाब से केवल डॉक्टरी सलाह पर ही किया जाना चाहिए। अस्पतालों में भर्ती किए जाने वाले कारोना मरीजों के लिए बहुत से डॉक्टर रेमडेसिविर लिख रहे हैं, जिसकी तलाश में परेशानहाल परिजन मुंहमांगी कीमत पर रेमडेसिविर यह खरीदने के लिए यहां-वहां भटक रहे है। कोरोना के बढ़ते आतंक को देखते हुए जरूरतमंदों के अलावा दूसरे लोगों में भी इस इंजेक्शन को हासिल करने की होड़ सी मची है।
जान लें कि रेमडेसिविर है क्या? रेमडेसिविर बनाने का पेटेंट अमेरिकी दवा निर्माता कम्पनी ‘गिलेड लाइफ साइंस’ के पास है, जिसने इसे हेपेटाइटिस सी के इलाज के लिए बनाया था और बाद में इसमें कुछ सुधार कर इसे इबोला वायरस के इलाज के लिए बनाया गया। अब कई देशों में कोरोना के इलाज में इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। विभिन्न रिपोर्टों के मुताबिक यह दवा उन एंजाइम्स को ब्लॉक कर देती है, जो शरीर में कोरोना वायरस को भयानक रूप धारण करने में मदद करते हैं। भारत में केडिला, जाइडस, डा. रेड्डी लेबोरेटरीज, हेटेरो ड्रग्स, जुबलिएंट लाइफ साइंसेज, सिप्ला लि., बिकॉन ग्रुप, माइलन इत्यादि कुछ कम्पनियां इसका निर्माण कर रही हैं, जिनका गिलेड के साथ करार है। ये कम्पनियां प्रतिमाह करीब 34 लाख यूनिट रेमडेसिविर बनाती हैं, जिनका निर्यात दुनियाभर के 120 से भी अधिक देशों में किया जाता है। दिसम्बर 2020 के बाद से भारत में कोरोना के मामलों में कमी दर्ज किए जाने के कारण रेमडेसिविर की मांग में काफी कमी आ गई थी, जिस कारण कम्पनियों ने इसका उत्पादन काफी कम कर दिया था। कोरोना की दूसरी लहर अचानक सामने आने के बाद एकाएक इसकी मांग में जबरदस्त वृद्धि हुई, यही इसकी कालाबाजारी का प्रमुख कारण है।
एक ओर जहां रेमडेसिविर इंजेक्शन की मांग लगातार बढ़ रही है, वहीं एम्स निदेशक डा. रणदीप गुलेरिया सहित कई जाने-माने डॉक्टर अब स्थिति स्पष्ट करते हुए कह रहे हैं कि रेमडेसिविर को जादुई दवाई नहीं समझें क्योंकि रेमडेसिविर इंजेक्शन कोरोना की कोई रामबाण दवा नहीं है। डा. गुलेरिया के मुताबिक रेमडेसिविर कोई जादुई दवा नहीं है और अभी तक ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है, जिससे यह पता चलता हो कि हल्के संक्रमण में रेमडेसिविर लेने से जिंदगी बच जाएगी या इसका कोई लाभ होगा। उनके अनुसार कोरोना से संक्रमित बहुत कम ऐसे मरीज हैं, जिन्हें रेमडेसिविर जैसी दवा की जरूरत है और किसी भी स्टडी से यह भी नहीं पता चलता कि रेमडेसिविर के इस्तेमाल से मृत्युदर घटती है। डा. गुलेरिया का कहना है कि अधिकांश लोग केवल कोरोना के डर की वजह से घर में क्वारंटाइन हो रहे हैं या अस्पताल जा रहे हैं जबकि ऐसे लोगों को किसी विशेष तरह के इलाज की जरूरत ही नहीं है, सामान्य बुखार की तरह पैरासिटामोल से ही उन्हें राहत मिल जाएगी और वे ठीक हो जाएंगे, उन्हें रेमडेसिविर की कोई आवश्यकता नहीं। हल्के लक्षणों वाले लोगों को समय से पहले दिए जाने पर इसका कोई फायदा नहीं है।
गुड़गांव स्थित मेदांता मेडिसिटी अस्पताल के चेयरमैन डा. नरेश त्रेहन का यही मानना है कि रेमडेसिविर इंजेक्शन कोरोना के इलाज की कोई रामबाण दवा नहीं है। उनके मुताबिक यह मृत्युदर घटाने वाली दवा भी नहीं है बल्कि देखा गया है कि यह केवल वायरल लोड कम करने में मदद करती है और हर मरीज के लिए इसका इस्तेमाल जरूरी नहीं है। उनका कहना है कि रेमडेसिविर सभी संक्रमितों को नहीं दी जाती बल्कि इसके इस्तेमाल का सुझाव मरीजों के लक्षणों और संक्रमण की गंभीरता को देखने के बाद ही किया जाता है। कोरोना संक्रमण को लेकर पटना हाईकोर्ट में एक मामले की सुनवाई के दौरान जब अदालत ने बेड, ऑक्सीजन और रेमडेसिविर को लेकर हाल ही में सरकार से जवाब मांगा तो एम्स पटना के निदेशक ने कहा था कि वहां रेमडेसिविर का इस्तेमाल कोरोना मरीजों के इलाज में नहीं किया जा रहा है क्योंकि यह इलाज में बेअसर है। उसके बाद नालंदा मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल (एनएमसीएच) ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया और एनएमसीएच अधीक्षक ने रेमडेसिविर को लेकर जारी पत्र में कहा कि डब्ल्यूएचओ द्वारा जारी गाइडलाइन में इस इंजेक्शन से मृत्युदर या संक्रमण कम होने की बात नहीं कही गई है।
गौरतलब है कि डब्ल्यूएचओ सहित कई देश रेमडेसिविर को कोरोना के इलाज की दवा सूची से बाहर निकाल चुके हैं। हालांकि शुरूआत में डब्ल्यूएचओ ने इसके आपात इस्तेमाल की अनुमति दी थी, जिसके बाद भारत में भी आईसीएमआर द्वारा इसका उपयोग केवल आपात स्थिति में करने की इजाजत दी गई थी, जिसे बाद में निजी अस्पतालों ने भारी मुनाफे के चलते धड़ल्ले से इसका इस्तेमाल शुरू दिया। बहरहाल, आईएमए बिहार के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा. सहजानंद प्रसाद सिंह ने भी अब स्पष्ट किया है कि रेमडेसिविर से कोरोना मरीजों की जान बचाने या मृत्यु कम करने का कोई वैज्ञानिक प्रमाण अब तक नहीं मिला है और चिकित्सक अपने अनुभव के आधार पर ही इसका उपयोग कर रहे हैं, इसलिए रेमडेसिविर इंजेक्शन के लिए लोगों को परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है।

चलो ये माँ से ही पूछें

बलराम सिंह

बचपन से ही आदत बनी रहती है कि जहाँ कोई शंका रहती है तो माँ से पूछते हैं। मेरे मन में राइट्स और ड्यूटीज को लेकर द्वन्द्व कम से कम तीन दशकों से चल रहे हैं, तब से जब से हमारे यूनिवर्सिटी ऑफ़ मेसाचुसेट्स सहयोगी और मित्र प्रोफेसर मधुसूदन झवेरी ने यह बताया था की भारतीय परंपरा में ड्यूटी का अधिक महत्व होता है,राइट्स का नहीं। हाल में ही मैंने यह सवाल आधे दर्जन मेरी जान पहचान की महिलाओं से पूछा, जोकि स्वयं माँ हैं। सवाल था कि आपके बच्चों के प्रति आपके राइट्स प्राथमिक हैं या ड्यूटीज। करीब ९७% राय मिली की ड्यूटी की प्राथमिकता है। अब हम देखते हैं कि आज के युग में सामाजिक व राजनितिक रूप में राइट्स और ड्यूटीज के क्या अर्थ व्यवहार में लाये जा रहे हैं। राइट और ड्यूटी को कई सन्दर्भों में देखा जा सकता है। उसमे एक सन्दर्भ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ’ह्यूमन राइट्स’ के रूप में मिलता है। ह्यूमन राइट एक पश्चिमी अवधारणा है जो पूरी तरह से अपनी संस्कृति और दर्शन में निहित है। यह स्पष्ट हो जाता है जब कोई भारतीय भाषाओं में शब्दों का अनुवाद करता है – ’ह्यूमन’ का उर्दू में आदमी और हिंदी में एव्ं कई भारतीय भाषाओं में ’मानव’ अनुवाद किया जा सकता है। सही या गलत के रूप में, वास्तव में, ’राइट’ का अर्थ है सही या उचित। इसलिए, यदि सही को सही या उचित के रूप में लिया जाता है, तो इसका अनुवाद आदमी सही या मानवोचित के रूप में किया जाएगा। हालांकि, ये बात दिलचस्प है कि ’ह्यूमन राइट’ का अधिकार के रूप में अनुवाद किया गया है, पर ऐसा अनुवाद विवादस्पद हो सकता है। अधिकार भारतीय ग्रंथों में एक बहुत अच्छी तरह से इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द है, जोकि अधि + कार से बनता है। ’अधि’ का अर्थ सुपर या अत्यधिक है, और ’कार’ शब्द कार्य से लिया गया है, जिसका अर्थ है काम या काम करना। इस तरह मानवोचित और मानवधिकार दोनों ही ह्यूमन राइट्स की इच्छित परिभाषा या अर्थ को नहीं दर्शाते हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, “ह्यूमन राइट्स सभी मनुष्यों के लिए निहित राइट्स हैं, चाहे वे नस्ल, लिंग, राष्ट्रीयता, जातीयता, भाषा, धर्म या किसी अन्य स्थिति के क्यों न हों। ह्यूमन राइट्स में जीवन और फ्रीडम का राइट, दासता और यातना से मुक्ति, राय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, काम और शिक्षा का राइट, और बहुत कुछ शामिल हैं।” (https://www.un.org/en/sections/issues-depth/human-rights/)। संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा राइट्स और फ्रीडम का मिश्रण है, लेकिन वास्तव में यहां राइट्स एंटाइटलमेन्ट्स से अधिक संदर्भित हैं। तथ्य की बात के रूप में, ह्यूमन राइट्स की संयुक्त राष्ट्र घोषणा के अनुच्छेद 2 में, यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि “हर कोई इस तरह की घोषणा में उल्लिखित सभी राइट्स और फ्रीडम का हकदार है, बिना किसी प्रकार के भेद, जैसे नस्ल, रंग, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीतिक या अन्य राय, राष्ट्रीय या सामाजिक मूल, संपत्ति, जन्म या अन्य स्थिति।” (https://www.un.org/en/universal-declaration-human-rights/index.html)। अंग्रेजी में ’एंटाइटलमेन्ट’ का अर्थ है कानून द्वारा प्रदत्त राइट। स्मरण रहे कि एंटाइटलमेन्ट और कानून के अर्थ के लिए कोई समानार्थी शब्द हिंदी में नहीं हैं – क्योंकि एंटाइटलमेन्ट के लिए पात्रता और लॉ के लिए नियम आशयित/ उद्देश्यति तथा सांस्कृतिक अर्थ को नहीं दर्शाते हैं। इस प्रकार, परिभाषा के अनुसार ह्यूमन राइट मानववाद शब्द के सांस्कृतिक अर्थ को व्यक्त नहीं करता है, फिर भी ऐसी चेष्टा किसी और द्वारा नहीं, बल्कि भारत सरकार द्वारा ही की गई है (चित्र 1), जो कि पूर्णतया गलत है। ’मानवोचित’ शब्द शायद बेहतर होगा, लेकिन यह तभी भी एंटाइटलमेन्ट को नहीं दर्शा पाता है। उचित शब्द सामाजिक और राजनीतिक व्यवहार में सांस्कृतिक सहयोग के लिए महत्वपूर्ण हैं, जिसके लिए ह्यूमन राइट्स का मानव अधिकारों के रूप में अनुवाद स्पष्ट रूप से अपूर्ण प्रतीत होता है। अधिकार को भारतीय परंपरा से राइट का अनुवाद माना जाता है। परन्तु उसका आंकलन किसी एक सन्दर्भ विशेष में ही किया जा सकता है, जैसे कि वेदांत जैसे भारतीय मानक ग्रंथों में संदर्भित उपयोग से अर्थ सुनिश्चित किया जा सकता है। भगवद्गीता एक मानक वेदांत ग्रंथ है, और उसमे अधिकार जैसे शब्दों का प्रकरण अच्छी तरह से उद्धृत किये जाने से एक उचित व्याख्या की जा सकती है। भगवद्गीता में एक बहुत ही लोकप्रिय श्लोक है जो अधिकार का अर्थ समझाने में मदद कर सकता है। कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन | मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि || 2.47 || अनुवाद आपको अपने निर्धारित कर्तव्यों को निभाने का अधिकार है, लेकिन आप अपने कार्यों के फल के हकदार नहीं हैं। कभी भी अपने आप को अपनी गतिविधियों के परिणामों का कारण न समझें, न ही निष्क्रियता से जुड़े रहें। (संदर्भ स्वामी मुकुंदानंद – भगवद्गीता – भगवान का गीत, २०१४; https://www.holy-bhagavad-gita.org/chapter/2/verse/47) अधिकार का उपयोग किसी के निर्धारित कर्तव्यों के प्रदर्शन के संबंध में किया जाता है, इस शर्त के साथ कि परिणाम के लिए क्रेडिट भी न लें। करने का मात्र भाव होता है कि अमुक कार्य करणीय है। यह संयुक्त राष्ट्र घोषणा में ह्यूमन राइट्स (UN Declaration of Human Rights)के लिए प्रदान किए गए कानून द्वारा राइट्स से मूलतः भिन्न है। एंटाइटलमेंट का अर्थ यदि पात्रता के रूप में भी लें तो इसका आशय कुछ और निकलता है। हितोपदेश (स्रोत: हितोपदेश 6) में उद्धरित निम्नलिखित श्लोक को संदर्भित करने से पात्रता के अर्थ का वास्तविक आत्मबोध होता है।: विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्। पात्रत्वाद् धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥ अर्थात विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म, और धर्म से सुख प्राप्त होता है। अंत में, जब किसी को कानूनन एंटाइटलमेंट की व्याख्या करने के लिए कानून के अर्थ पर विचार किया जाय, तो यह फिर से भारतीय संस्कृति पर आधारित तात्पर्य और यूनाइटेड नेशंस के घोषणा में दिए गए उद्देश्य में भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। जॉन ऑस्टिन के अनुसार, कानून “एक संप्रभु या शासक का आदेश है, जो कि उसके प्रतिबंधों की धमकी से समर्थित होता है, जिनके लिए लोगों को आज्ञाकारिता की आदत पड़ जाती है” (… law “commands, backed by threat of sanctions, from a sovereign, to whom people have a habit of obedience”) (विकिपीडिया)। इसमें शीर्ष संचालित दृष्टिकोण की प्रचुरता है, जबकि भारतीय अनुवाद में कानून के लिए इस्तेमाल किया गया शब्द है नियम। इस तरह ’कानून’ शब्द का पूरी तरह से अलग अर्थ और संदर्भ है, जैसा कि पतंजलि योगसूत्र में प्रस्तुत किया गया है। शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः॥२.३२॥ अर्थात नियम में सौच (पवित्रता), संतोष (संतोष और शांति), तपस (आध्यात्मिक जुनून और आग), स्वाध्याय (स्वाध्याय और निपुणता), और इश्वर प्राणधन (बीइंग की सार्वभौमिक महान अखंडता के लिए समर्पण) शामिल हैं। (https://www.integralyogastudio.com/ysp/ysp-alex-bailey-long.pdf)। जहाँ कानून एक शासक की इच्छाओं के अनुरूप कार्य करने की प्रणाली को प्रतिपादित करता है, वहीँ पर नियम इसके विपरीत है, जिसमे कि व्यक्ति इसे स्वयं सूत्रपात करके स्थापित करता है। पश्चिमी सभ्यता के अपने रिलीजियस दृष्टिकोण में भी व्यक्ति स्वयं से परे सत्ता से ग्रस्त है, जहां गॉड कोई है जो आम लोगों के पहुंच से बाहर बैठता है, उससे संपर्क के लिए पैगंबर या पादरी जैसे बिचौलिये की आवश्यकता होती है। बाइबल के दस कमांडमेंट्स (हुक्मनामे) उस सत्ता या गॉड द्वारा जारी किये गए हैं, और सभी को मोक्ष पाने के लिए उनका पालन करना चाहिए। जबकि धर्म संबंधी परिकल्पना में ’अहम् ब्रह्मास्मि’ की अवधारणा है, जिसमे आत्म तत्त्व सर्वोच्च है, और इस प्रकार स्वयं पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, चाहे वो राइट को अधिकार के रूप में, एंटाइटलमेंट को पात्रता के रूप में, या कि कानून को नियम के रूप में। उन सभी में स्वयं की पहल को महत्त्व दिया जाता है, स्वतः अभ्यास, और आत्म योग्यता को कर्म के एक तटस्थ परिणाम के रूप में माना जाता है। यह दृष्टिकोण लोगों को स्वतंत्रता प्रदान करता है, ऐसा कुछ जो कि संयुक्त राष्ट्र के ह्यूमन राइट्स की घोषणा में केवल आधे मन से स्वीकार किया जाता है। धर्म और कर्म दृष्टिकोण के एक अधिक मजबूत परीक्षण व विश्लेषण से राइट्स (अथवा अधिकारों) की पाश्चात्य लक्षित अवधारणाओं को चुनौती देने की आवश्यकता है, क्योंकि ऐसी अवधारणाएं वास्तव में लोगों के बीच सहयोग के स्थान पर टकराव अधिक उत्पन्न करती हैं। भारतीय परंपरा में माँ को ईश्वर का स्थान दिया गया है, अतः उसके विचार और उत्तर से पता चलता है कि कर्तव्य पालन से जो अधिकार बनता है, वह क़ानूनी राइट से कहीं अधिक उपयोगी है। ऐसी मातृ शक्ति को मातृ दिवस पर शत शत नमन करना चाहिए।

सर्वत्र व्याप्तम ‘कोरोना’ द्वितीयोनास्ति

                प्रभुनाथ शुक्ल

हे ! कोरोना देव आपको नमस्कार है। क्योंकि आप चमत्कार हैं। आपका विस्तार अनंत आकाश से लेकर भूगर्भ लोक तक है। पूरी दुनिया आपके सामने नतमस्तक है और भय से कांप रही है। आपने युगों- युगों में श्रेष्ठ अकासुर- बकासुर, नरकासुर, महिषासुर जैसे दिव्य असुर शक्तियों को भी मात दे दिया है। इन सबका वध तो देवताओं ने कर दिया था, लेकिन आपके वध को देवगण भी तैयार नहीं दिखते हैं।

आपका भय देवों में भी इतना व्याप्त है कि वह भी अपने कपाट बंद कर लॉकडाउन का अनुपालन कर रहे हैं। आप इस सृष्टि के महासंहारकर्ता हैं। आप देवों के देव महादेव के भी देव हैं। आप कलयुग के प्रतापी अवतार हैं। आप ऐसे अवतारी पुरुष हैं जिसका अभ्युदय संभवतः भूतो न भविष्यति है। आपकी व्यापकता सर्वव्यापी है। खड्ग में खम्भ में तृण में कण- कण में आप हैं। लिफ्ट में शिफ्ट में, नभ में नल में थाली में ताली में गाली में गीत और संगीत में आप हैं। हे ! देव आपकी सर्व ग्राह्यता को हमारा नमन है।

हे! देव। आप सबके साथ समान रुप से व्यवहार किया है। आपकी इसी नीति का मैं कायल हूँ। आप तो जानते हैं कि अपने मुलुक में समता और समानता के साथ ऊंच- नीच को लेकर आए दिन बावेला मचता है। सरकार पर प्रतिपक्ष आरोप लगाता है कि अमूक नीति समाज को बाँटने वाली है। यह अगड़े और पिछड़े की खाई बढ़ाने वाली है। यह समाज में साम्प्रदायिकता फैलाएगी। समाज में हिंसा और दंगा भड़कने की आशंका बढ़ जाएगी। राजनेता और राजनीति आमने- सामने हो जाते हैं। मीडिया में बहस छिड़ जाती है। टीवी डिबेट में विषय विशेषज्ञ अपना ज्ञान बाँटने लगते हैं। कभी- कभी यह बहस जूतमपैजार तक पहुँच जाती है। लेकिन आपने सब पर विराम लगा दिया है। इसी लिए तो मैं आपका फैन हो गया हूँ। आपने किसी को भी अपने न्याय से बख्शा नहीं है।

हे ! चालाक चाइना के चातुर्य देव, आपकी महाशक्ति के आगे पुरी दुनिया नतमस्तक है। आपका भय देवताओं को भी सताया जिसकी वजह से देश भर के मंदिर, मठ, चर्च और मस्जिदें भय से लॉक हो गईं। ऐसी स्थिति में आपसे बचने की उम्मीद भी गायब हो चली है। अब आपके सिवाय कोई दिखता भी नहीं है। आपके आतंक ने दुनिया के आतंकी समूहों को भी मात दे दिया है। लोग एकांतवासी हो गए हैं डर इतना है कि इंसान के गोलोकवासी होने बाद भी उसके पास कोई जाने को तैयार नहीं है।

हे! कोरोना देव, अब हम आपसे प्रार्थना करते हैं। आप जिस लोक से आए हैं वापस लौट जाइए। अब बहोत हो चुका नाथ। डालर और दीनार, रूबल और रुपया सब आपकी शरण में हैं। विसाल सैन्यशक्तियां और एटमी हस्तियां भी नतमस्तक हैं। कभी न फैलने वाले हाथ अब हाथ जोड़े खड़े हैं। प्रकृति ने ख़ुद को बदल दिया है। नदिया शांत और स्वच्छ हो गई हैं। प्रदूषण कम हो गया है। इस बदलाव के लिए पुरी मानव जाति आपकी आभारी है। इंसान का दर्प चूर हो चुका है। आपने मानवजाति को बड़ा संदेश दिया है। अब दुनिया समझ गई है कि ‘सर्वत्र व्याप्तम कोरोना देव: द्वितीयोनास्ति ! !

तप एवं संयम की अक्षय मुस्कान का पर्व

अक्षय तृतीया 14 मई, 2021 पर विशेष

  • ललित गर्ग-
    अक्षय तृतीया महापर्व का न केवल सनातन परम्परा में बल्कि जैन परम्परा में विशेष महत्व है। इसका लौकिक और लोकोत्तर-दोनों ही दृष्टियों में महत्व है। इस त्यौहार के साथ-साथ एक अबूझा मांगलिक एवं शुभ दिन भी है, जब बिना किसी मुहूर्त के विवाह एवं मांगलिक कार्य किये जा सकते हैं। विभिन्न सांस्कृतिक एवं मांगलिक ढांचांे में ढले अक्षय तृतीया पर्व में हिन्दू-जैन धर्म, संस्कृति एवं परम्पराओं का अनूठा संगम है। रास्ते चाहे कितने ही भिन्न हों पर इस पर्व त्यौहार के प्रति सभी जाति, वर्ग, वर्ण, सम्प्रदाय और धर्मों का आदर-भाव अभिन्नता में एकता का प्रिय संदेश दे रहा है। आज के कोरोना महासंकट एवं महामारी के समय में संयम एवं तप की अक्षय परम्परा को जन-जन की जीवनशैली बनाने की जरूरत है।
    अक्षय तृतीया इस वर्ष 14 मई, 2021 को है। यह दिन किसानों एवं कुंभकारों के लिए विशेष महत्व का दिन हैं। शिल्पकारों के लिए भी यह बहुत महत्व का दिन है। बैलों के लिए भी बड़े महत्व का दिन है। प्राचीन समय से यह परम्परा रही है कि आज के दिन राजा अपने देश के विशिष्ट किसानांे को राज दरबार में आमंत्रित करता था और उन्हें अगले वर्ष बुवाई के लिए विशेष प्रकार के बीज उपहार में देता था। लोगों में यह धारणा प्रचलित थी कि उन बीजों की बुवाई करने वाले किसान के धान्य-कोष्ठक कभी खाली नहीं रहते। यह इसका लौकिक दृष्टिकोण है।
    लोकोत्तर दृष्टि से अक्षय तृतीया पर्व का संबंध जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ के साथ जुड़ा हुआ है। तपस्या हमारी संस्कृति का मूल तत्व है, आधार तत्व है। कहा जाता है कि संसार की जितनी समस्याएं हैं तपस्या से उनका समाधान संभव है। संभवतः इसीलिए लोग विशेष प्रकार की तपस्याएं करते हैं और तपस्या के द्वारा संसार की आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों संपदाओं को हासिल करने का प्रयास करते हैं। जैन धर्म में वर्षीतप यानी एक वर्ष तक तपस्या करने वाले साधक इसदिन से तपस्या प्रारंभ करके इसी दिन सम्पन्न करते हैं। यह संसार से मोक्ष की मुस्कान, शरीर को तपाने और आत्मस्थ करने का अवसर है।
    अक्षय तृतीया तप, त्याग और संयम का प्रतीक पर्व है। इसका सम्बन्ध भगवान ऋषभदेव के युग और उनके कठोर तप से जुड़ा होने से वर्षीतप की परम्परा चली। यह ऋषभ की दीर्घ तपस्या के समापन का दिन है। अपने आदिदेव की स्मृति में जैन धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों में असंख्य श्रावक-श्राविकाएं वर्षीतप करते हैं। जिनकी तपस्या का पूर्णाहुति एवं नये वर्षीतप के संकल्प के लिये इस दिन देशभर में आचार्यों और मुनियों के सान्निध्य में अनेक आयोजन होते हैं। इसका मुख्य आयोजन हस्तिनापुर (जिला मेरठ- उत्तर प्रदेश) में श्री शांतिनाथ जैन मन्दिर में एवं प्राचीन नसियांजी, जो भगवान ऋषभ के पारणे का मूल स्थल पर आयोजित होता है, वहां पर देशभर से हजारों तपस्वी एकत्र होते हैं और अपनी तपस्या का पारणा करते हैं।
    सभ्यता और संस्कृति की विकास यात्रा का नाम है ऋषभ। वे सम्राट से संन्यासी बने, उनके प्रति जनता में गहरा आदर भाव था। यही कारण रहा कि उनके प्रजाजनों को इस बात का ज्ञान नहीं था कि भगवान ऋषभदेव को भिक्षा में भोजन की भी आवश्यकता होगी। भगवान प्रतिदिन शुद्ध आहार की गवेषणा एवं तलाश करते हुए घर-घर में घूमते, लेकिन अज्ञानता के सघन आवरण के कारण कोई भी उन्हें भोजन उपहृत नहीं करता। लोग उन्हें आदर के साथ हाथी, घोड़े, रथ, रत्नाभूषण, रत्न जड़ित पादुकाएं ग्रहण करने की प्रार्थना करते। उनका मत था कि वे अपने सृजनहार को अपने पास की सबसे बड़ी एवं कीमती वस्तु उपहृत करें। इस तरह बिना आहार के भगवान ऋषभ की तपस्या के बारह महीने पूरे हो गए। इस क्रम में आप पादविहार करते हुए हस्तिनापुर पधारते हैं। आपका प्रपौत्र श्रेयांस कुमार राजमहल के गवाक्ष में बैठा सड़क के दृश्य को देख रहा है। अचानक उसकी नजरें सड़क पर भिक्षा की गवेषणा में नंगे पैर घूमते अपने संसारपक्षीय परदादा भगवान ऋषभदेव पर पड़ती है। भगवान ने प्रपौत्र श्रेयांस के हाथों इक्षुरस का सुपात्र दान लेकर एक नई परम्परा की शुरूआत की। इन अप्रत्याशित क्षणों के साक्षी बनकर देवलोक से समागत देवतागण भी अहोदानं-अहोदानं की ध्वनि प्रकट करते हुए पांच प्रकार के द्रव्यों की वर्षा की। कहा जा सकता है कि इस महत्वपूर्ण प्रसंग से जुड़कर बैसाख शुक्ल तीज का दिन जिसे अक्षय तृतीया का सम्बोधन भी प्राप्त हुआ एक दृष्टि से धर्म क्षेत्र में नयी सोच के दर्शन कराने वाला दिन बन गया। यही सन्दर्भ तपस्या और साधना का शुभ मुहूर्त बन गया।
    समग्र जैन समाज में अक्षय तृतीया के दिन को अत्यन्त आदर और सम्मान के साथ मनाये जाने की परम्परा वर्षों से चली आ रही है। प्रतीकात्मक रूप में इसे वर्ष भर तक एकांतर तप (एक दिन छोड़कर पुनः उपवास) की साधना के साथ मनाये जाने की परम्परा ने विगत कुछ वर्षों में काफी जोर पकड़ा है। तपस्या को जैन धर्म साधना में अत्यन्त महत्पूर्ण स्थान दिया जाता है। मोक्ष के चार मार्गों में तपस्या का स्थान कम महत्वपूर्ण नहीं है। तपस्या आत्मशोधन की महान प्रक्रिया है और इससे जन्म जन्मांतरों के कर्म आवरण समाप्त हो जाते हैं। कोरोना महासंकट में इस पर्व की प्रासंगिकता अधिक सामने आयी है। जरूरत इस बात की है कि इसकी साधना से जीवन विकास की सीख हमारे चरित्र की साख बने। हममें अहं नहीं, निर्दोष शिशुभाव जागे। यह आत्मा के अभ्युदय की प्रेरणा बने।
    अक्षय तृतीया का पावन पवित्र त्यौहार निश्चित रूप से धर्माराधना, त्याग, तपस्या आदि से पोषित ऐसे अक्षय बीजों को बोने का दिन है जिनसे समयान्तर पर प्राप्त होने वाली फसल न सिर्फ सामाजिक उत्साह को शतगुणित करने वाली होगी वरन अध्यात्म की ऐसी अविरल धारा को गतिमान करने वाली भी होगी जिससे सम्पूर्ण मानवता सिर्फ कुछ वर्षों तक नहीं पीढ़ियों तक स्नात होती रहेगी। अक्षय तृतीया के पवित्र दिन पर हम सब संकल्पित बनें कि जो कुछ प्राप्त है उसे अक्षुण्ण रखते हुए इस अक्षय भंडार को शतगुणित करते रहें। यह त्यौहार हमारे लिए एक सीख बने, प्रेरणा बने और हम अपने आपको सर्वोतमुखी समृद्धि की दिशा में निरंतर गतिमान कर सकें। अच्छे संस्कारों का ग्रहण और गहरापन हमारे संस्कृति बने। तभी अक्षय तृतीया पर्व की सार्थकता होगी।
    सनातन धर्म में इसी दिन शादियों के भी अबूझ एवं स्वयंसिद्ध मुहूर्त रहता है और थोक में शादियां होती है। अक्षय तृतीया को आखा तीज भी कहा जाता है। अक्षय तृतीय हिन्दु पंचाग अनुसार वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को कहते है। माना जाता है कि इस दिन जो भी कार्य किए जाते हंै वे पुरी तरह सफल होते हैं एवं शुभ कार्यों को अक्षय फल मिलता है।
    भविष्य पुराण एवं स्कंद पुराण में उल्लेख है कि वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को रेणुका के गर्भ से भगवान विष्णु ने परशुराम रूप में जन्म लिया था। जो दक्षिण भारत में बड़े ही हर्षोउल्लास के साथ मनाई जाती है। साथ ही यह भी मान्यता है कि अक्षय तृतीया के दिन अपने अच्छे आचरण और सद्गुणों से दूसरों का आशीर्वाद लेना अक्षय रहता है। साथ ही अक्षय तृतीया के दिन सोना खरीदना अत्यंत शुभ माना जाता है तथा गृह प्रवेश, पदभार ग्रहण, वाहन खरीदना, भूमि पूजन आदि शुभ कार्य करना अत्यंत लाभदायक एवं फलदायी होते हैं। इतना ही नहीं अक्षय तृतीया के दिन ही वृंदावन के बांके बिहारी के चरण दर्शन एवं प्रमुख तीर्थ बद्रीनाथ के पट (द्वार) भी अक्षय तृतीया को ही खुलते हंै।

एक मुकम्मल कोरोना मुक्ति का ख्वाब

-ललित गर्ग-
कोरोना महामारी ने भारत को अपने सबसे खराब और चुनौतीपूर्ण दौर में पहुंचा दिया है। अभी हम दूसरी लहर से निपटने में भी सक्षम नहीं हो पाये हंै कि तीसरी लहर की चुनौती की आशंका अधिक परेशान करने लगी है। केंद्र सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार ने तीसरी लहर की पुष्टि कर दी है, इसलिए अब न तो इसमें किसी किंतु-परंतु की गुंजाइश रह गयी है और न ही इसे लेकर हैरानी-परेशानी जताने का कोई मतलब बनता है। देखना यह है कि दूसरी लहर में बरती गयी लापरवाही से सबक लेते हुए हम तीसरी लहर के आने से पहले खुद को और पूरे तंत्र को किस तरह तैयार कर पाते हैं। आजाद भारत में ऐसा संकट इसके पहले कभी नहीं आया। घोर अंधेरों एवं निराशाओं के बावजूद देश कोरोना महामारी को परास्त करने में सक्षम बन रहा है। हौले-हौले नहीं, तेज रफ्तार के साथ सभी स्तरों पर कोरोना को परास्त करने के प्रयत्न हो रहे हैं। स्वयंसेवी संस्थाएं, व्यापारिक घराने अपनी-अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए रोशनी बन रहे हैं। इन सबके सामुहिक प्रयत्नों से बेहतरी की उम्मीद जागी है।
बात कोरोना की पहली, दूसरी या तीसरी लहर की नहीं है, बात कोरोना महामारी से ध्वस्त हुई व्यवस्थाओं, मनोबल, आर्थिक संरचनाओं एवं पांव फैला रही स्वार्थ एवं लोभ की अमानवीय स्थितियों की है। न सिर्फ लोग बीमार हो रहे हैं और मारे जा रहे हैं, बल्कि स्वास्थ्य सेवाएं भी चरमराती नजर आती हैं। एक तरफ, यह विकरालता है, तो दूसरी तरफ लोगों की दुश्वारियां बढ़ाता रोजगार, उद्योग एवं व्यापार पर आया संकट है। हर नागरिक के जान-माल की रक्षा की जिम्मेदारी शासन पर है, लिहाजा जब उपचार न मिलने से लोगों की जान जा रही थी तो यह शासन की नाकामी ही थी। अब संक्रमण की तीसरी लहर आने की भी आशंका है, इसलिए दूसरी लहर से जूझ रही सरकारों को भी और सक्रियता दिखानी होगी। कायदे से उन्हें दूसरी लहर का सामना करने की भी तैयारी करनी चाहिए थी, लेकिन वे इसमें असफल रहीं। यह असफलता केंद्र और राज्यों, दोनों की है, क्योंकि समय रहते न तो आक्सीजन प्लांट लग सके, न अस्पतालों में बेड बढ़ सके और न ही दवाओं का भंडारण हो सका। ढिलाई सभी सरकारों ने बरतीं, लेकिन अब वे एक-दूसरे पर दोषारोपण में लगी हुई हैं। इस महासंकट से मुक्ति के संघर्षपूर्ण दौर में दोषारोपण की विकृत मानसिकता एक विडम्बना है, एक त्रासदी है एवं दूषित राजनीति का पर्याय है। खेद की बात यह है कि राजनीतिक वर्ग संकट का सामना मिलकर करने के बजाय तू तू- मैं मैं कर रहा है। इससे खराब बात और कोई नहीं कि विभिन्न दल और खासकर कांग्रेस संकट समाधान में सहयोगी बनने के बजाय राजनीतिक बढ़त हासिल करने के फेर में दिख रही है। प्रश्न है कि कब तक देश शासन-व्यवस्थाओं की लापरवाही एवं राजनीतिक दलों के संकीर्ण सोच एवं स्वार्थ की कीमत चुकाता रहेगा?
बेरोजगारी एक बड़ा संकट है। ‘सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी’ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में कोरोना के कहर के बीच बड़े पैमाने पर बेरोजगारी बढ़ी है। सरकारों के पास राहत की कोई तात्कालिक नीति नहीं दिख रही। तो क्या भारत एक नए संकट की ओर बढ़ रहा है, जिसमें जीवन, स्वास्थ्य, भोजन, रोजगार, पर्यावरण, जीवन निर्वाह एवं सांसें सब कुछ दांव पर लगी है। प्रश्न है कि यह जटिल एवं चुनौतीपूर्ण समय शासन की नीतियों की दूरदर्शिता और आपात एक्शन प्लान के दम पर बदला जा सकता है? पिछले चार महीनों में बेरोजगारी की दर आठ फीसदी हो चुकी है। इसमें शहरी इलाकों में साढे़ नौ फीसदी से ज्यादा की दर देखी गई है, तो ग्रामीण इलाकों में सात प्रतिशत की दर। बेरोजगारी के इस संकट से निपटने के लिए अंततः केंद्र को ही एक संबल एवं आश्वासन बनते हुए प्रो-एक्टिव कदम उठाने होंगे, दूरगामी नीति बनानी होगी और इसमें सभी राज्यों एवं आर्थिक, सामाजिक, स्वास्थ्य व विधि विशेषज्ञों को साथ लेना होगा। यह केंद्र-सरकार ही नहीं, राज्यों की सरकारों की कार्यक्षमता, विवेक एवं सुशासन जिजीविषा के लिए भी कडे़ इम्तिहान का वक्त है।
सरकारों पर निर्भरता ही पर्याप्त नहीं है, आम-जनता को भी जागरूक होना होगा। महामारी की दूसरी लहर के समक्ष सरकारें जिस तरह नाकाम हुईं, उसके लिए उन्हें लोगों के आक्रोश का सामना करना ही होगा, लेकिन यह भी ध्यान रहे कि लापरवाही का परिचय देश की जनता की ओर से भी दिया गया, कोरोना महामारी के फैलने में आम जनता की लापरवाही बड़ा कारण बनी है। विडम्बनापूर्ण तथ्य है कि आम और खास, सभी लोगों ने उन आदेशों-निर्देशों की परवाह नहीं की, जो कोरोना से बचने के लिए लगातार दिए जा रहे थे। दूसरी लहर ही विकरालता के बीच लोगों ने अमानवीयता का परिचय दिया। जमकर स्वार्थी लोगों ने दवाओं एवं आॅक्सिजन की जमाखोरी एवं कालाबाजारी की। जिससे भय एवं डर का माहौल ज्यादा बना। बिना जरूरत के भी प्रभावी एवं साधन-सम्पन्न लोगों ने चिकित्सा-सुविधाओं का बेजा इस्तेमाल किया, जिससे जरूरतमंद लोग वंचित रहे और मौत के मुंह में गये।
कोरोना वायरस के कितने और किस-किस तरह के वैरिएंट और आने वाले है, उन सब पर वैज्ञानिक गहन काम कर रही है। लेकिन अच्छी बात यह है कि वायरस के रूप जो भी हों, संक्रमण के उसके तरीकों में किसी बड़े बदलाव की संभावना नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि बचाव के तरीके लगभग वही रहेंगे। यानी दूरी बरतना, लोगों के निकट संपर्क में नहीं आना, मास्क पहनना, बार-बार हाथ धोते रहना, मनोबल बनाये रखना और हां बारी आने पर वैक्सीन जरूर ले लेना। बाजार, शापिंग मॉल, पर्यटन स्थल आदि से बचना होगा, शादी-ब्याह और अन्य सांस्कृतिक, धार्मिक आयोजन को कुछ समय के लिये भूलना होगा। जनता के साथ राजनीतिक वर्ग कोे भी सतर्कता बरतनी होगी। अन्यथा दूसरी लहर की तरह तीसरी लहर की देश को भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
पहली एवं दूसरी लहर में जो भूलें हुईं उनसे सबक सीखते हुए यह सुनिश्चित करना ही होगा कि जल्द से जल्द इतनी संख्या में लोगों को टीके लग जाएं, जो हर्ड इम्युनिटी पैदा करने में सहायक हों। इसी के साथ जनता तब तक सचेत रहे, जब तक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की ओर से यह न कह दिया जाए कि कोरोना फिर सिर नहीं उठाएगा। ये ऐसे उपाय हैं एवं मानसिकता है जिन पर सतर्क अमल सुनिश्चित कर हरेक व्यक्ति इस महासंकट से निजात पाने में अहम योगदान कर सकता है। मगर पर्याप्त वैक्सीन का उत्पादन और उसकी सप्लाई सुनिश्चित करने, आवश्यक दवाओं की उपलब्धता बनाए रखने और मरीजों के लिए ऑक्सिजन, हॉस्पिटल्स में बेड, डॉक्टर, स्वास्थ्यकर्मी वगैरह का इंतजाम करने की जिम्मेदारी सरकारी तंत्र की ही बनती है। उम्मीद की जाए कि दोनों अपने-अपने हिस्से की जिम्मेदारी का उपयुक्त ढंग से निर्वाह करते हुए तीसरी लहर को शुरू में ही नियंत्रित कर लेंगे। यह सही है कि स्वास्थ्य ढांचे की दुर्दशा के लिए सरकारें ही जिम्मेदार हैं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि जो अभूतपूर्व संकट खड़ा हो गया है, वह रातों-रात दूर नहीं हो सकता। एक मुकम्मल कोरोना मुक्ति का ख्वाब तभी आकार लेगा जब हर व्यक्ति इसके लिये जागरूक होगा।

कोरोना: वैज्ञानिक पद्धतियों से मुक़ाबला करें,पाखंड,धर्मान्धता व अन्धविश्वास से नहीं

तनवीर जाफ़री

                                                   पूरा विश्व इस समय कोरोना वायरस तथा इसके बदलते हुए स्वरूप का मुक़ाबला करने में वैज्ञानिक स्तर पर जुटा हुआ है। आए दिन नए नए वैज्ञानिक शोध किये जा रहे हैं। और पिछले लगभग एक वर्ष के गहन शोध का ही परिणाम है कि भारत सहित कई देशों ने कोरोना प्रतिरोधक वैक्सीन विकसित करने के सफल परीक्षण कर इसका विश्वव्यापी प्रयोग करना भी शुरू कर दिया है। दुनिया भर में डॉक्टर्स तथा स्वास्थ्य विभाग के तमाम कर्मी इन्हीं वैज्ञानिक उपायों का प्रयोग कर तथा अपनी जान को भी ख़तरे में डालकर कोरोना प्रभावित मरीज़ों को बचाने के लिए दिन रात संघर्षरत हैं।हज़ारों डॉक्टर्स व स्वास्थ्य कर्मियों की इसी दौरान संक्रमित होने की वजह से मौत भी हो चुकी है। परन्तु हमारे देश में जहां अभी भी अशिक्षित,धर्मांध,अंधविश्वासी तथा पाखण्ड का पोषण करने वाले लोगों की पर्याप्त संख्या है, वहां तमाम लोग ऐसे भी हैं जो इस अभूतपूर्व विश्वव्यापी महामारी व इसके दुष्प्रभावों को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। सोशल मीडिया की सक्रियता के इस दौर में कोरोना से मुक़ाबला करने के ऐसे ऐसे बेतुके अप्रमाणित  व अवैज्ञानिक तरीक़े प्रचारित किये जा रहे हैं जिनका वास्तविकता से तो कोई लेना देना है ही नहीं साथ ही यदि ऐसे ही प्रचारित उपायों पर ही इंसान निर्भर रहने लगे तो संभवतः यही अशिक्षा ,धर्मांधता,अंधविश्वास तथा पाखण्ड पूरी मानव जाति के अस्तित्व के लिए ख़तरा भी बन सकते हैं।
                                                फ़ेसबुक और वॉट्सऐप पर इस तरह के सन्देश व ऑडियो प्रसारित होते हैं जिसमें बताया जाता है कि क़ुरान शरीफ़ की अमुक दुआ पढ़िए और स्वयं को व अपने परिवार को कोरोना से महफ़ूज़ रखिये। तमाम लोगों ने इस आशय की क़ुरानी आयतों को लैमिनेशन कराकर अपने घरों के दरवाज़ों पर टांग रखा है ताकि उनकी आस्थाओं के अनुसार कोरोना वायरस उनके घरों में प्रवेश न कर सके। गत वर्ष मैंने एक गांव में रात दस बजे अचानक बेवक़्त कई मस्जिदों से एक साथ अज़ान की आवाज़ें आती सुनीं। पता चला कि मुसलमानों का एक वर्ग कोरोना भगाने की ग़रज़ से अज़ान दे रहा है। कोई तावीज़ बता रहा है तो कोई पीने के लिए पानी झाड़ फूँक कर दे रहा है। कोई क़िस्म क़िस्म की फल,सब्ज़ी बता रहा है तो कोई काढ़ा पीकर सुरक्षित रहने का दावा कर रहा है।जबकि सारी दुनिया के पढ़े लिखे व वैज्ञानिक सोच रखने वालों ने शोध के उपरांत यह निष्कर्ष निकाले हैं कि मास्क लगाना व सामाजिक दूरी का पालन करना बेहद ज़रूरी है। स्वयं वैज्ञानिक,डॉक्टर्स, विश्व के शिक्षित राजनीतिज्ञ सभी इनका पालन भी कर रहे हैं। बल्कि तीव्रता से फैलने वाले वर्तमान दौर में तो वैज्ञानिक घरों में भी मास्क पहनने व फ़ासला बनाकर रहने का प्रयास करने की सलाह दे रहे हैं।
                                                परन्तु हमारे समाज का एक वर्ग ऐसा भी है जिनपर इस तरह के वैज्ञानिक शोध व सलाहों का कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता।  कभी यह वर्ग मास्क न लगाने के तरह तरह के तर्क देता है तो कभी दो गज़ की दूरी रखने जैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन की सलाह को भी धत्ता बताता है। कभी इस महामारी को विश्व स्तर पर दवा बेचने वाले नेटवर्क का रचा हुआ ड्रामा बताकर महामारी की गंभीरता व इसके दुष्परिणामों को कम करके आंकने जैसी ग़लती करता है। इसी वर्ग के लोग कभी सामूहिक नमाज़ अदा करने की ज़िद पर अड़े रहते हैं तो कभी सभी दिशा निर्देशों की अवहेलना करते हैं। यही वर्ग है जो दवाओं पर नहीं बल्कि दुआओं पर ज़्यादा विश्वास करता है। हमारे एक केंद्रीय मंत्री तो 'गो कोरोना गो ' का नारा लगा कर ही कोरोना भगाने चले थे। वैसे भी हमारे 'विश्व गुरु ' भारत में गली गली घूमने वाले ''गुरु गण' आए दिन तरह तरह के अप्रमाणित नुस्ख़े यू ट्यूब,वाटस एप,और फ़ेसबुक आदि पर प्रसारित करते रहते हैं। कई नीम हकीमों ने तो इसी सोशल मीडिया यू ट्यूब आदि के माध्यम से अशिक्षित लोगों के बीच शोहरत पाकर अपना बड़ा जनाधार भी बना लिया है। कुछ लोग इन दिनों अपने वाट्सएप के ज्ञानार्जन के आधार पर बड़े दावे से यह बताते फिर रहे हैं कि यह कोरोना नहीं बल्कि 5 G की टेस्टिंग का दुष्प्रभाव है। बाबा रामदेव जैसे कुछ ऐसे तेज़ दिमाग़ लोग जो भारतीय समाज के सीधे व भोलेपन की नब्ज़ को पहचान चुके हैं वे तो बाक़ायदा एक समारोह में दो केंद्रीय मंत्रियों  की मौजूदगी में कोरोना की दवा ढूंढ निकालने की घोषणा कर डालते हैं तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन से उनके दावों का खंडन आने से पहले ही करोड़ों रुपयों का वारा नियारा भी कर बैठते हैं।
                                             दरअसल आम लोगों की धार्मिक भावनाओं को भुनाने में महारत रखने वाले यही लोग जो दूसरों को गौमूत्र पीकर या गंगाजल से कोरोना से ठीक हो जाने अथवा अज़ान देकर व दुआ तावीज़ से कोरोना भगाने जैसी अवैज्ञानिक बातें करते हैं  जब इन्हीं में से किसी पर ख़ुदा न ख़्वास्ता कोरोना का क़हर बरपा हुआ तो यक़ीन जानिए इन्हें भी उसी वैज्ञानिक उपलब्धियों की शरण में जाना पड़ता है और भविष्य में भी जाना पड़ेगा जिसे पूरा विश्व सर्वसम्मत रूप में मानता व स्वीकार करता है। लिहाज़ा इस महामारी काल में अपने उन मार्गदर्शकों,नेताओं व धर्मगुरुओं की बातें सुनें जो वैज्ञानिक सोच रखते हों न कि अपनी लोकप्रियता मात्र के लिए धर्म संस्कृति व परंपराओं के नाम पर अपने अनुयायियों को सुरक्षित उपाय बताने के बजाए मोत के मुंह में ढकेलने का काम करते हों। ग़लत उदाहरण भी नहीं दिए जाने चाहिए। जैसे की चुनाव हो सकते हैं और कुंभ हो सकता है तो जुलूस क्यों नहीं निकल सकता या जुमा अथवा ईद की नमाज़ क्यों नहीं हो सकती। यह दलीलें सर्वथा ग़लत हैं। क्योंकि पूरी दुनिया भारत सरकार के हर उन क़दमों की ज़बरदस्त आलोचना कर रही है जिनके चलते देश में कोरोना ने तेज़ी से पैर पसारे हैं। लिहाज़ा आईये हम सब मिलकर इस महामारी का वैज्ञानिक पद्धतियों से मुक़ाबला करें,पाखंड,धर्मान्धता व अन्धविश्वास से नहीं।