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कोरोना पर काबू संभव, लेकिन….

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन टीकों पर से पेटेंट का बंधन उठा लेता है तो 100-200 करोड़ टीकों का इंतजाम करना कठिन नहीं है। अमेरिकी, यूरोपीय, रुसी और चीनी कंपनियां चाहें तो भारत को करोड़ों टीके कुछ ही दिनों में भिजवा सकती है। खुद भारतीय कंपनियां भी इस लायक हैं कि वे हमारी टीकों की जरुरत को पूरा कर सकती हैं। खुशी की बात है कि जर्मनी के अलावा लगभग सभी देश इस मामले में भारत की मदद को तैयार हैं लेकिन असली सवाल यह है कि यदि टीके मिल जाएं तो भी 140 करोड़ लोगों को वे लगेंगे कैसे ? अभी तो हाल यह है कि विदेशों से आ रहे हजारों ऑक्सीजन-यंत्र और लाखों इंजेक्शन मरीजों तक पहुंच ही नहीं पा रहे हैं। वे या तो हवाई अड्डों पर पड़े हुए हैं या नेताओं के घरों में ढेर हो रहे हैं या कालाबाजारियों की जेब गर्म कर रहे हैं। हमारी सरकारें बग़लें झांक रही हैं। कुछ नेता लोग मन की बातें मलोर रहे हैं, उनके विरोधी मुंह की बातें फेंट रहे हैं और काम की बात कोई नहीं कर रहा है। देश की राजनीतिक पार्टियों के लगभग 15 करोड़ सदस्य, अपने-अपने घरों में बैठकर मक्ख्यिां मार रहे हैं। हमारे देश में डाॅक्टरों, नर्सों और स्वास्थ्यकर्मियों की संख्या लगभग 60 लाख है और फौजियों की संख्या 20 लाख है। यदि इन सबको टीका-अभियान में जुटा दिया जाए तो अगले 50-60 दिन में ही हर भारतीय को टीका लग सकता है लेकिन अफसोस है कि हमारे धार्मिक, सांस्कृतिक और समाजसेवी संगठन भी घरों में दुबके बैठे हुए हैं। उनके कुछ स्थानीय और छुटपुट उत्साही कार्यकर्ता जन-सेवा की पहल जरुर कर रहे हैं लेकिन इंसानियत, राष्ट्रवाद और देशभक्ति का नारा लगानेवाले इन संगठनों को लकवा क्यों मार गया है ? वे राष्ट्रीय पैमाने पर सक्रिय क्यों नहीं हो रहे हैं ? यदि वे ज्यादा कुछ न कर सकते हों और उनके नेता डर के मारे घर में ही दुबके रहना चाहते हों तो कम से कम वे इतना तो करें कि अपने अनुयायियों से कहें कि वे कालाबाजारियों को पकड़ें, उनका मुंह काला करें और उन्हें बाजारों में घुमाएं। अदालतें और सरकारें उनके खिलाफ कोई सख्त कदम उठाने लायक नहीं हैं लेकिन जनता को सीधी कार्रवाई करने से कौन रोक सकता है ? कुछ राज्यों ने टीकाकरण मुफ्त कर दिया है और कुछ ने गरीबी-रेखा के नीचेवालों के पूरे इलाज का भी इंतजाम कर दिया है। हरयाणा की सरकार ने घरों में एकांतवास कर रहे मरीजों को 5 हजार रु. की चिकित्सा-थैली (कोरोना किट) भी भेंट करने की घोषणा की है। आश्चर्य तो इस बात का है कि हमारे नेता लोग, जो चुनावों में लगातार भाषण झाड़ते थकते नहीं हैं, वे जनता को कोरोना से सावधान रहने के लिए प्रेरित क्यों नहीं कर रहे हैं ?

मेरी माँ

मेरी माँ अपने जन्म की कहानी सुनाती थी– लोगों ने पूछा- क्या हुआ दाई ने कहा- बेटी। पूछनेवाले ने कहा- कोई बात नहीं , बेटी भी तो दुर्लभ थी। तभी उसका नाम दुर्लभ रख दिया गया।
मेरी माँ पढ़ना लिखना नहीं जानती थी पर अपना नाम दुर्लभ देवी बांग्ला में हमलोगों के जिद्द करने पर उसने लिखा था.। हमलोग चकित हो गए थे। बचपन में मासे गुरुजी की पाठशाला में वह पढ़ी थी।गिनती वह कोड़ी तक कर लेती थी। उसका कोड़ी हमारा बीस था।
हमारे पिता स्कूल शिक्षक थे। पहली तारीख को अपना वेतन लाकर माँ को दे देते। जब जरूरत होती, माँ से माँगते। माँ अक्सर कहती, पैसे नहीं हैं। पिताजी नाराज होते। जोर जोर से नाराजगी जाहिर करते। माँ चुप रहती, कभी कभार आँसू बहाती। मुँह से कुछ नहीं कहती. रस्साकसी के अन्त में कभी कभार पाँच की माँग पर दो रुपए निकालती,। पिताजी उतना ही ले लेते। माँ हमसे कहती– इनका क्रोध!, साग में हल्दी क्यों नहीं दिया?
पिताजी के साथ माँ का श्रम-विभाजन स्पष्ट था। पूरा वेतन मां के हाथ देकर व्यवस्था की ओर से वे निश्चिन्त रहते थे। जब जब जरुरत समझते माँ के पास बेझिझक फरमा देते। माँ उससे ही घर चलाती, बचत भी करती। नुनदा, हमारे बड़े भाई, उसके सहायक की भूमिका मे रहा करते। पिताजी के द्वारा निरुत्साहित किए जाने के बावजूद उसने जोड़ जोड़कर बचाए गए पैसों की पूँजी के भरोसे घर बनवाने का काम शुरु कर दिया था।
मैं अपनी माँ में किताबी माँ को नहीं पाकर निराश हो जाता था, एक बार उससे कहा भी था कि माँ तो ऐसी होती है, वैसी होती है, और तुम तो बिलकुल अलग हो। वह शायद कुछ समझ नहीं पाई थी। उसे दुख भी हुआ हो ऐसा भी जाहिर नहीं लगा। हम उससे कभी नहीं कह पाए कि तुम सर्वसहा हो। वह कभी कभी अपने बारे में कहती थी, “सीता का जनम खोह में ही बीता”
तब में भागलपुर में इण्टरमिडिएट में पढ़ता था। छुट्रियों में घर आया था .शाम का वक्त था। सामान पटक कर मित्रों में अड्डेबाजी के लिए निकलने लगा। माँ बरामदे पर बैठी थी। मुझसे बोली– मेरे पास बैठो। मैंने कहा- क्या काम है. उसने कहा, तुम्हारा मुँह देखूँ. मैंने उसके सामने बैठ गया और झल्लाते हुए बोला- देख लो। वह कुछ नहीं बोली बस निहारती रही। मैं फिर निकल गया।
मैंने कॉलेज में साइन्स की पढ़ाई में नामांकन कराया था। नामांकन के बाद जब घर आया तो माँ ने पूछा कि क्या तुम वही पढ़ाई करोगे जो झलकू कर रहा रहा था। झलकू मेरे मँझले भाई थे जिनका आईएससी की पढ़ाई करते वक्त दस साल पहले मेनिन्जाइटिस की बीमारी से देहान्त हो गया था। यह हमारे परिवार के लिए असहनीय घटना थी। मेरे हाँ कहने पर वह चिन्ता में पड़ गई थी। बोली थी, झलकू ने कहा था, घण्टे भर खड़ा होकर पढ़ाई करना पड़ता है। तुम तो उससे भी दुबले हो। मेरे उस भैया का देहान्त इण्टर के प्रथम वर्ष में ही हो गया था। वह डरी हुई थी, अपने को असहाय महसूस कर रही थी।
नौकरी शुरु करने के बाद एक बार जब घर आया था, मालूम हुआ कि माँ ने बताया कि उसकी तबियत कुछअधिक ही बिगड़ गई थी। उस समय उसने कहा था कि मेरी मृत्यु होगी तो तुमको और ऊषा (हमारी बहन) तार से ही मालूम होगा। तुमलोग तो बाद ही में आओगे।मैंने सुन लिया था। हुआ भी वही।
प्रयाग में कुम्भ का मेला लगा था. देवघर से औरते जाने के लिए प्रस्तुत हो रही थीं. माँ के पास भी उसको प्रेरित करने आ रही तीं. मआं का मन भी अस्थिर हो रहा था। पिताजी ने उसको बहलाया– अभी तुम्हारे बेटे पढ़ रहे हैं। यह बड़ा कुम्भ है। ये पाँच भाई पढ़ लेंगे. कमाने लगेंगे तो हम दोनो हर साल दूर दूर के एक एक तीर्थ किया करेंगे। अभी तो इनकी पढ़ाई ही तुम्हारा तीर्थ है। माँ मान गई थी। समाज के दबाव से बचने के लिए गाँव पर चली गई.।
एक बार सुल्तानगंज से जल लेकर पैदल आने की उसकी कामना पूरी हुई थी। हमारे मँझले भाई श्री श्यामानन्दजी के साथ और सेवा की वजह से यह सम्भव हुआ था। वह कहती थी- कि बुतरुः श्यामानन्दजी ) रोज रात मेरे पाँवों में तेल मालिश कर देता था।

लाखों क्राँतिकारियों के बलिदान का जिक्र तक नहीं

9 मई महान क्राँति की स्मरण तिथि

— रमेश शर्मा

पूरी दुनियाँ में भारत का अतीत विशिष्ट है । शोध अनुसंधान और साँस्कृतिक विरासत में ही नहीं अपितु आक्रांताओं के अत्याचार, दासत्व की लंबी अवधि और स्वतंत्रता संघर्ष की आहुतियों में भी । लगभग हजार वर्ष के संघर्ष और अपने प्राणों की आहुति देने वालों के आकड़े करोड़ों में हैं । उनमें अधिकाँश का उल्लेख तक नहीं । संघर्ष में 1857 की क्राँति का इतिहास ऐसा ही है जिसमें लाखों सैनिक बलिदान हुये । क्रांति के दमन के लिये सामुदायिक सिर कलम किये गये, गाँव के गाँव जलाये गये, इनका संदर्भ तो आता है लेकिन इन बलिदानियों का विवरण कहीं नहीं मिलता । संभव है इनका विवरण उन लाखों दस्तावेजों में हो जो अभी पढ़े तक नहीं गये ।

इस क्रांति के आरंभ होने की तिथि अलग-अलग इतिहासकार अलग-अलग मानते हैं । कुछ इतिहासकार क्रांति के आरंभ होने की तिथि बंगाल इन्फैन्ट्री के सिपाही मंगल पांडे के विद्रोह से मानते हैं यह तिथि 29 मार्च 1857 है । तो कुछ इतिहासकार 10 मई 1857 मानते हैं । इस तिथि को मेरठ इन्फैन्ट्री के सिपाहियों ने दिल्ली कूच किया था । हालाँकि मार्च से मई तक प्रतिदिन कुछ न कुछ घटनाएं घटीं हैं । अप्रैल में मंगल पांडे सहित अनेक सैनिकों को फाँसी दे गई थी इन तमाम तनाव के चलते 6 मई को बंगाल की वह बटालियन भंग कर दी गई थी जिसमें मंगल पांडे सिपाही थे ।  लेकिन अधिकांश इतिहास कार क्रांति के आरंभ की तिथि नौ मई 1857 मानते हैं । इस दिन मेरठ इन्फैन्ट्री के 85 घुड़सवार सिपाहियों ने विद्रोह का बिगुल बजाया था । इन सबका कोर्ट मार्शल हुआ । वस इसके साथ ही इन्फैन्ट्री के अधिकाँश सिपाहियों ने हथियार उठा लिये, छावनी पदस्थ अंग्रेज अफसरों को बंदी बना लिया और अगले दिन 10 मई को दिल्ली कूच कर दिया था ।

भारत की स्वतंत्रता के लिये अब तक हुये संघर्षों में सबसे व्यापक था जिसमें भारत के हर हिस्से से अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज उठी थी । यह केवल सैनिकों भर का संघर्ष न था । इसमें हर वर्ग और हर क्षेत्र का व्यक्ति जुड़ा था । इन सबके अपने अपने कारण थे । अंग्रेजों ने कदम दर कदम अपने पैर जमाये, सत्ता पर काबिज हुये और भारत में भारतीयों का दमन शुरु किया । आज अतीत की घटनायें हमारे सामने हैं । हम एक एक घटना की समीक्षा कर सकते हैं । यदि संपूर्ण इतिहास पर समग्र दृष्टि डालें तो अंग्रेजों की क्रमबद्ध कुटिलता का आभास होगा । उन्होंने पहले चरण में व्यापार की अनुमति ली, फिर व्यापार में कुछ रियायतें । इसके बाद रियासतों के दरबार में अपना स्थान बनाया, फिर स्वयं की सुरक्षा के नाम पर सुरक्षा कर्मी नियुक्त करने की अनुमति ली । फिर रियासतों अंदरूनी कलह में हस्तक्षेप आरंभ किया फिर रियासतों के उत्तराधिकार में हस्तक्षेप आरंभ किया किया और धीरे धीरे रियासतों पर कब्जा करना आरंभ किया । उन्होंने भारतीय शासकों को पेंशन देकर किनारे करके सीधे अपना शासन स्थापित किया । अंग्रेजों का हमला मध्यकाल के हमलों से एक कदम आगे था । मध्यकाल में अब तक हुये हमलों का आधार लूट, धर्म और सत्ता स्थापित करना था । लेकिन अंग्रेजों का हमला एक कदम आगे था । अंग्रेजों का उद्देश्य लूट, सत्ता और अपने धर्म की स्थापना तो थी ही साथ ही सामाजिक हमला भी था । उन्होंने समाज की जीवन शैली में बल पूर्वक बदलाव  आरंभ कर दिये थे । उन्होंने 1850 में हिन्दू उत्तराधिकार कानून बनाया । जो इलाके सीधे कंपनी के अधिकार में थे वहां संपत्ति उत्तराधिकार उन्ही को मिलता जो ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गये थे । अंग्रेजों ने जो सेना गठित की उसमें 85 प्रतिशत सैनिक भारतीय थे लेकिन उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार था । उनका कोई सम्मान नहीं था । उन दिनों भारत में कुटीर उद्योगों का जाल बिछा था । स्थानीय आवश्यकता की प्रत्येक वस्तु का उत्पादन स्थानीय स्तर पर होता था । इससे एक नमक को छोड़कर शेष सभी गाँव की जरूरतें गाँव में ही पूरी हो जाती थीं । यहां तक कि औषधि निर्माण भी स्थानीय स्तर पर होता था । अंग्रेजों ने इस सब को तबाह कर दिया था । इंग्लैंड में बना सामान खपाया जाने लगा । इससे आजीविका की समस्या खड़ी हुई । राजस्व बसूलने और टेक्स बढ़ाने के नये नये बहाने खोजे गये । अंग्रेजों ने अपने कानून भारतीय समाज पर ही लागू न किये थे बल्कि राजाओं पर भी लागू कर दिये थे । अंग्रेजों ने 1854 में एक दत्तक उत्तराधिकार कानून लागू किया इसमें यदि किसी शासक की अपनी संतान नहीं होती थी वह किसी दत्तक संतान को उत्तराधिकारी नहीं बना सकता था । वह रियासत सीधे ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकार में चली जाती थी । यह सब चल ही रहा था कि भारत में एक रायफल आई जिसके कारतूस को मुँह से खोलना होता है । यह रायफल 1956 में भारत आई जो 1853 में निर्मित हुई थी । इस रायफल के साथ यह बात फैली कि इसमें डाले जाने वाले कारतूस के कवर में सुअर की चर्बी और गाय के मांस का पुट है । इसी का सबसे पहला विरोध बंगाल इन्फैन्ट्री में मंगल पांडे ने किया था । कुछ सिपाही साथ आये । अंग्रेजों ने क्रांतिकारी मंगल पाण्डे और उनके साथियों को फाँसी दी । इसके साथ इन्फैन्ट्री में दमन शुरु हुआ । लेकिन अंग्रेजों का दमन सफल न हो पाया । असंतोष बढ़ता गया । बंगाल इन्फैन्ट्री की बात देश भर में फैलने लगी । न केवल छावनियों में अपितु समाज के अन्य वर्गों में भी । छावनियों में सुगबुगाहट शुरु हो गयी । इसके साथ अंग्रेजों के विरुद्ध जन जागरण आरंभ हो गया । समाज में गुप्त बैठकें आरंभ हो गयीं जो लोग अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे उन्हे सहायता देने की रणनीति पर विचार होने लगा । इसी की शुरुआत मेरठ से हुई ।

वह नौ मई का दिन था । मेरठ इन्फैन्ट्री में घुड़सवार बटालियन थी जिसमें कुल 90 सिपाही थे । इनमें से 85 ने परेड में हिस्सा लेने से इंकार कर दिया वे बंदी बना लिये गये । इसका विद्रोह हुआ और अन्य सिपाहियों ने विद्रोह आरंभ कर दिया । पूरे शहर में सिपाही फैल गये, कोतवाली पर कब्जा कर लिया गया । कोतवाल धन सिंह के नेतृत्व में एक समूह ने जेल पर हमला बोला और वहां कैद 836 कैदियों को छुड़ा लिया गया । दस मई को क्राँतिकारियों ने दिल्ली कूच किया । 11 को दिल्ली घेर ली गई । 12 मई को दिल्ली पर अधिकार करके अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की बादशाहत घोषित कर दी गई ।

यह खबर पूरे देश में फैली जिसकी प्रतिक्रिया लखनऊ, भोपाल मालवा कानपुर बरेली आदि कुल 19 स्थानों पर हुई । समाज और सैनिक साथ साथ निकले । न जाति का भेद रहा न धर्म का, न राजा का भेद था न सेवक का । यदि लखनऊ की बेगम और झासी की रानी हाथ में तलवार लेकर मैदान में आईं तो कानपुर की नगर वधु ने भी कंधे से कंधा मिलाकर क्रांति युद्ध में हिस्सा लिया । इसी प्रकार क्रातिकारियों का जो समूह दिल्ली पहुँचा था उसमें अधिकाँश हिन्दू थे फिर भी सर्व सम्मति से मुगल बादशाह को स्वीकार किया था । इसका अर्थ यह है कि यह क्रांति धर्म जाति, वर्ग और क्षेत्र सब प्रकार की सीमाओं से बहुत ऊपर थी ।

पर अंग्रेजों ने हार नहीं मानी । उन्होंने योजना से पहले इस संगठित अभियान में दरारें डालीं, कुछ को लालच से तोड़ा । और क्रांति का दमन आरंभ किया । दिल्ली में बादशाहत ज्यादा न चल सकी । मात्र साढ़े चार माह बाद 21 सितम्बर 1857 को अंग्रेजों ने दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया । इसके बाद देश के विभिन्न भागों में दमन आरंभ हुआ और लगभग डेढ़ वर्ष में क्रांति का पूर्णतया दमन हो गया ।

अंग्रेजों द्वारा क्रांति के दमन की कहानियाँ क्रूरता और आतंक से भरी हैं । अवध, मालवा, गोंडवाना, बुन्देलखण्ड, और रूहेलखंड आदि में इस क्रांति की अग्नि सबसे प्रबल रही । अंग्रेजों का दमन इन्हीं इलाकों में सबसे अधिक हुआ । दिल्ली और उसके आसपास की बस्तियों में गाँव के गाँव जलाये गये । गाँव वालों को पकड़ कर सामूहिक हत्याएँ की गयीं । जिन ग्राम वासियों पर क्राँतिकारियों को सहयोग देने का संदेह था वहां गाँव और खेतों में आग लगा दी गयी । लोग अपने प्राण बचाने और पेट भरने के लिए  भागने लगे । लोग भुखमरी से प्राण देने लगे । संयोग से इस क्रांति से ठीक एक वर्ष पहले देश में अवर्षा की स्थिति थी इस कारण फसले यूँ भी कमजोर रहीं । उस पर अंग्रेजों का आतंक और फसलों और गाँव में आग लगाने से तबाही । यह दमन लगभग छै वर्षों तक चला । लाखों करोडों लोगों ने भागते भागते प्राण दे दिये । क्रांति प्रभावित गांवो में आज भी एक कहावत प्रचलित है “छप्पन का भूखा” वस्तुतः वह लगातार छै वर्षों तक सूखा नहीं था बल्कि अंग्रेजों के आतंक से कृत्रिम भुखमरी थी । जिसमें वे ही क्षेत्र प्रभावित थे, या भुखमरी का शिकार हुये जो क्रांति में अगुआ थे । जो रियासतें अंग्रेजों के साथ थीं वहां इतनी वीभत्स स्थति नहीं थी खेती हो रही थी । मौत की विभीषिका केवल वहीं थीं जिन क्षेत्रों ने क्रांति में हिस्सा लिया था ।

विद्रोह में हिस्सा लेने वालों की कुल संख्या अठारह से बीस लाख मानी जाती है इसमें लगभग आठ लाख वे  सैनिक थे जिन्होंने देश के किसी न किसी स्थान पर क्रांति में हिस्सा लिया था । लगभग एक लाख वे पंडे पुजारी थे जो कमल और रोटी का संकेत लेकर गाँव गाँव घूमें थे । जिन्होंने जमींदारों, किलेदारों, माल गुजारों और स्थानीय राज प्रतिनिधियों को तैयार किया था । क्रांति के दमन के बाद इनमें कोई जीवित नहीं बचा । कुछ इतिहासकारों का मानना है कि अंग्रेजों और उनके एजेंटों ने लगभग सात से आठ लाख लोगों की हत्या की जबकि इतने ही लोग गुमनामी में मौत का शिकार हुये । इसके अतिरिक्त लगभग एक करोड़ लोग वे हैं जो इन छै वर्षों में भूख प्यास का शिकार होकर मौत के मुँह में चले गये । ये लोग प्रकृति या अवर्षा से खेती के अभाव से नहीं बल्कि अंग्रेजों के आतंक से उजड़ी खेती के कारण भुखमरी का शिकार हुये ।

इतिहास के पन्नों में उन हुतात्माओं का विवरण तो मिलता है जिन्होंने क्रांति का नेतृत्व किया, सीधा मैदान में आकर युद्ध किया । लेकिन उन योद्धाओं का विवरण नहीं जिन्होंने क्रांति में सिपाही की भूमिका निभाही या क्रांति में सहयोग करते करते अपने प्राणों का उत्सर्ग किया । निसंदेह उनकी भूमिका, उनका बलिदान भी प्रणम्य है । आज देशवासियों के पास स्वतंत्रता है, स्वाधीनता का शुभ्र प्रकाश है लेकिन एक स्मरण उन असंख्य बलिदानियों के लिये अवश्य होना चाहिए जो गुमनामी में खो गये हैं ।

कोविड-19 में मौतों का कारण- अत्यधिक उग्र उपचार

कोरोना की इस लड़ाई में हम न जाने कितने ही अपनों को खोते जा रहे हैं। जैसे-जैसे इसका प्रभाव बढ़ रहा है वैसे-वैसे ही हम देख रहे हैं कि डॉक्टरों की कोरोना के उपचार में उग्रता भी बढ़ती जा रही है।

आरंभ से ही यह विश्व की सभी औषधि एवं उपचार से जुड़ी संस्थाओं ने बार बार यह कहा, और यहां तक कि बड़े बड़े चिकित्सकों ने भी अनेक बार यह बताया कि बहुत सी औषधियां जो कोरोना में दी जा रही हैं, उनका इसमें कोई भी लाभ नहीं है। परंतु यदि लाभ नहीं है, तो जो हानि हो रही है उसका उत्तरदायित्व कौन लेगा ? हर एलोपैथिक औषधि के कुछ लाभ हैं तो कुछ हानियां भी अवश्य हैं। जब यह देखा जाता है कि किसी रोग की स्थिति में लाभ बहुत अधिक हैं, और हानि कम हैं, तब ही वह औषधि रोगी को दी जाती है।

यदि आप इंटरनेट पर यह जानने का प्रयास करें कि क्या वायरस इन्फेक्शन में ज्वर को नीचे लाना उचित है, तो आप आश्चयजनक रूप से यह पाएंगे कि कोई भी विश्व भर का लेख, शोध या संस्था यह नहीं बताती कि इस स्थिति में ज्वर को उतारना चाहिए। यह सभी सर्वसम्मति से कहते हैं कि वायरल इंफेक्शन में ज्वर को उतारने से न केवल रोग की अवधि बढ़ेगी, अपितु लोग मृत्यु की ओर अग्रसर भी होंगे।

पिछले दिनों अमेरिका के विश्वविख्यात वैज्ञानिकों के शोध में यह सामने आया कि ज्वर उतारने के कारण ही रोगी का इम्यून सिस्टम अर्थात् रोगप्रतिरोधी क्षमता बार-बार साइटोकाईन छोड़ रही है। और हमारे शरीर की रोगप्रतिरोधी क्षमता के जिन साइटोंकाईन्ज़ को ज्वर को हमारे मस्तिष्क के हाइपोथैलमस से चढ़वाना था, उनको ज्वर ने ही शरीर से समाप्त भी करना था। ऐसा लगता है कि बार-बार ज्वर को दवाओं से नीचे लाकर ही साईकोटाईन स्टोर्म जैसी विकट समस्या बन रही है जो आज इतने लोगों को काल के गाल में लिये जा रही है। परंतु दूसरी ओर बहुत बड़े-बड़े डॉक्टर टीवी पर आकर खुलेआम यह कह रहे हैं कि 6-6 घण्टे में तो अवश्य ही, पर हो सके तो चार चार घण्टे में ही पैरासिटामोल की 650 मिलीग्राम की गोली खाते रहें, ज्वर को ऊपर ही न आने दें। अन्य डाक्टर भी रोगियों को जो सलाह दे रहे हैं वह भी लगातार पेरासिटामोल खाने को कह रहे हैं, वह भी 650 की मात्रा दिन में 4 बार, चाहे जवर न भी हो तो भी।

यदि उन चिकित्सकों से यह पूछा जाये कि इस ज्वर उतारने और उनकी इस औषधि पैरासिटामोल का कोविड के रोग को समाप्त करने में क्या लाभ है, तो वह केवल यह बताएंगे कि इससे रोगी का कष्ट, सिर और शरीर की पीढ़ा आदि कुछ समय के लिये कम हो जाती है। तो क्या इस तुच्छ सामायिक लाभ के लिए रोग को बढ़ने दें और इससे होने वाली हानि को अनदेखा कर दें? क्या अधिक ज्वर हो तो गीली पट्टी रख कर 102 तक नहीं लाया जा सकता? यह बात भी समझनी होगी इस वायरस में प्रायः निम्न स्तर का ही ज्वर आता है जो रोग को लड़ने में शरीर की आवश्यकता भी है।

यह देखा गया है कि इस प्रकार ज्वर को दबाने से रोग की अवधि लंबी हो रही है और लोगों को अनेक विकट समस्याएं भी बढ़ती जा रही हैं। इसके साथ ही पेरासिटामोल से हमारे शरीर का जी एस एच- ग्लुटैथियोन तत्व, जो हमारे शरीर का प्राकृतिक एण्टीऔक्सीडैंट है, गिरने से अनेक प्रकार की इन्फ्लेमेशन और खून जमने की प्रक्रिया आरंभ हो गई है, फेफड़ों में अत्यधिक इन्फ्लेमेशन होने से लोगों को सांस की समस्या आ गई है, बहुत बड़ी संख्या में लोग ऑक्सीजन सपोर्ट पर पड़े हैं, चारों और ऑक्सीजन के लिए हाहाकार मचा है और दूसरी ओर खून का थक्का जमने से हार्टअटैक होने से सहस्रों लोग प्रतिदिन मर रहे हैं।

हमने विश्व की सबसे अच्छी प्रक्रियाओं को न देखना चाहा और न ही अपनाया। अमेरिका ने पेरासिटामोल की अधिकतम डोज़ मात्र 325 मिलीग्राम कर दी जिससे लोग इसके विषैले प्रभाव से बचे रहें। इंग्लैंड में केवल अधिक बुखार होने पर ही पेरासिटामोल दी जा रही है। इंग्लैंड में एक कोविड-19 रुग्णालय में काम करने वाले बड़े डॉक्टर ने बताया कि वहां 15 दिन से आपात् विभाग में कोविड-19 पेशेंट के गंभीर रोगी आने बंद हो गए हैं क्योंकि वे लोग अधिक बुखार होने पर ही थोड़ा सा पेरासिटामोल देने के अतिरिक्त न घर पर कोई औषधि दे रहे हैं ना चिकित्सालय में कोई ऐसी औषधि दे रहे हैं, जैसे एंटीबायोटिक या अन्य कई औषधियों भारत में दी जा रही हैं। केवल ऑक्सीजन सपोर्ट या किसी किसी को थोड़ा सा स्टीरॉयड दे रहे हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि फ्रांस ने पेरासिटामोल को सामान्य उपलब्ध औषधि से हटा दिया है। वहां अब आप डॉक्टर की लिखित अनुमति के बिना पेरासिटामोल नहीं खरीद सकते। और हमारे यहां तो यह मूंगफली की भांति दिन में चार बार खिलाई जा रही है।

आप सोचें जिस ज्वर ने हमारे शरीर के इम्यून सिस्टम को गति देनी थी, जिस ज्वर ने रोग को भगाना था, उस को ही रोककर आप रोग पर कैसे विजय पा पाएंगे। दूसरी ओर और हम देख रहे हैं कि एक छपा छपाया पर्चा सबको थमाया जा रहा है, अनेक एंटीबायोटिक और एंटीपैरासाइटिक अर्थात् पेट के कीड़े मारने की दवाई भी खिलाई जा रही है। एम्स के अध्यक्ष डॉक्टर रणदीप गुलेरिया के मना करने के बाद भी घर-घर में थोड़ी सी खांसी होने पर ही स्टीरायड की गोली मैड्रोल खिलाई जा रहे हैं। अनेक रोगी आंतो मे छिद्र होने से मर रहै हैं।

एंटीबायोटिक्स का काम शरीर में होने वाली बैक्टीरियल इनफेक्शन को समाप्त करना है और यह एंटीबायोटिक केवल बैक्टीरिया,अच्छे या बुरे, को ही नहीं मारते अपितु हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी क्षीण करते हैं। तो क्या हम अपने शरीर को पागल समझ कर उसको कुछ भी काम ना करने दें, वह भी तब जब सारा मेडिकल सिस्टम यह मानता है कि यह लड़ाई हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति शक्ति ने ही जितनी है। और इस प्रकार जब हमारी रोग प्रतिरोधी क्षमता नष्ट भ्रष्ट हो रही है तो न जाने किस किस प्रकार की दुनिया भर में बंद की जा चुकी औषधियां हम पर प्रयोग की जा रही हैं। जो रोगी इस सब से बच भी जाएंगे उनको आगे होने वाले समय में किस-किस प्रकार की समस्याएं आएंगी इसका अनुमान हम अभी नहीं लगा पा रहे हैं।

हमारा भारतवर्ष एक उन्नत औषधविज्ञान अर्थात आयुर्वेद, सिद्ध, प्राकृतिक चिकित्सा आदि अनेक औषधविज्ञानों से परिपूर्ण है। जब चीन अपनी पारंपरिक औषधियों से इस रोग से को परास्त कर इस से बाहर आ सकता है, तो हम क्यों नहीं? डब्ल्यू एच ओ के आंकड़े आए हैं कि 92% चीनी रोगियों को चीन की पारंपरिक औषधियां दी गई। परंतु कितना दुर्भाग्य है कि भारत में आयुर्वेद जैसे महान् एवं परिपूर्ण औषध विज्ञान को हेय दृष्टि से देखा जाता है। यह बताते हुए सुखद अनुभव होता है कि चीन की पारंपरिक औषधि आयुर्वेद की ही देन है। हमारे आचार्य जो आठवीं नौवीं शताब्दी में चीन, तिब्बत, मोंगोलिया, कोरिया, जापान आदि गए उन्होंने ही वहां इस औषधि विज्ञान को सिखाया और उन देशों ने उसको लगातार बढ़ाया और अपनाया। भारत में भी आयुर्वेद से लाखों लोग ठीक हुए हैं।

इस चरमराते मेडिकल सिस्टम में जनता को ही जागरूक होना होगा और अपने शरीर से खिलवाड़ बंद करवाना होगा। यह सोचना होगा कि इतनी मौतें कोविड-19 से हो रही हैं या इसमें खिलाई जा रही औषधियों से। हमारे आईसीएमआर, मेडिकल एसोसिएशन आदि संस्थाओं को सबको मिलकर यह देखना होगा कि क्यों इतनी अधिक मात्रा में बिना कारण दवाएं खिलाकर लोगों को काल के मुंह की ओर धकेला जा रहा है।

लेखक

विवेकशील अग्रवाल

(स्वास्थ सम्बंधित शोधकर्ता,समाज सेवी एवं व्यवसायी)

आनन्द निकेतन, नई दिल्ली 

लॉकडाउन और स्कूल

अनुपमा झा

30 अप्रैल 2021 एक बार फिर बहुत बड़े असमंजस की स्थिति का सामना करने का दिन था। वह दिन जिसे मैं टाल रही थी जैसे आँखें बंद कर स्थिति को नकारना चाह रही थी| अपने फ़ोर्थ ग्रेड स्टाफ को बुला कर वापस मुझे यह कहना पड़ा कि हम उन्हें रेगुलर बेसिस पर फिलहाल के लिए अपने साथ जोड़े नहीं रख सकते| आर्थिक तौर पर हम उन्हें अभी बहुत साथ नहीं दे पाएंगे, उन्हें यह कह पाना मेरे लिए बहुत कठिन हो रहा था, पर कहना था | उस दिनों राम कला , उर्मिला का बाय कहना बिछुड़ने का सा एहसास दे गया| एक साल पहले भी हमने इसी जद्दोजहद का सामना किया था, आज फिर वहीं हैं शायद उससे बुरी हालत में। इस विद्यालय और मेरे बीच का संबंध चार साल पुराना होने चला। इस विद्यालय से जुडने का संतोष यह था कि मैं खुद को तलाश पा रही थी| मुझे एक ऐसा प्लेटफॉर्म मिला था जो हर तरह कि चुनौतियों से अटा पड़ा था | हमारी अटकी सोच, आर्थिक पक्ष, सीखने सिखाने की प्रक्रिया से जुड़ी हमारी धारणा, शिक्षा का बाजार, समाज के विभिन्न तबकों के बीच के फासले और बहुत कुछ मेरे सामने लठठ लिए खड़े थे | फिर भी हमने धीरे धीरे आगे बढ़ना शुरू किया, मैंने अपनी समझ को आजमाना शुरू किया और सही मायने में शायद बहुत कुछ सीखना शुरू किया | मैं एक प्रिंसिपल हो कर किस तरह काम कर सकती हूँ इसे लेकर हम सबके मन में एक प्रश्न चिन्ह था| इस प्रश्न चिन्ह के साथ ही मैंने काम करना शुरू किया था| मेरे स्वभाव की एक कमी के साथ मुझे काम करना था वह कमी है किसी को चैलेंज नही करने की कमी। यह डर अपनी जगह बना हुआ था कि क्या मैं लोगों से काम करवा पाऊँगी, या लोग मुझ पर हावी हो जाएंगे। क्योंकि मेन्डेल द्वारा दिए गए Law of Dominance के अनुसार मैं एक recessive allele हूँ। साथ ही यहाँ के माहौल को देख मुझे लग गया था बहुत कुछ है बदलने वाला और बहुत कुछ आएगा विरोध करता हुआ। संयोग से इस विद्यालय का मूल उद्देश्य इस क्षेत्र ;जहाँ literacy rate काफी कम है, के बच्चों को इस लायक बनाना है कि वह बाहरी दुनिया में अपना स्थान तलाश पाएं, कम से कम हम ऐसा कहते है| हाँ, यहाँ खुली सोच वाले, क्रातिकारी विचार वाले और नई तकनीक और शिक्षा जगत में हो रही चर्चा से जुड़े लोग के साथ की विलासिता नहीं है| हमारी टीम में भी अपनी रोजी रोटी के लिए हर विकल्प से बेजार हो कर आए सदस्य ही हैं, या फिर लड़कियां जिनके माँ पिता को यह क्षेत्र सबसे अधिक सुरक्षित नजर आता है| कुल मिला कर इतना समझना आसान था कि यहाँ बदलाव की बात सीधे तौर पर नहीं हो सकती| मास्टर मोशाय का ईगो पुरुष होने कर भी यहाँ रहने का frustration, सीनियर या फिर हाथ में सत्ता होने का भान इन सबके साथ ही चलना था। एक चीज जो सबसे अच्छी थी वह थी receptive surface की मौजूदगी | इस surface को पाकर बच्चों के साथ विद्यालय की पूरी टीम साथ साथ हौले हौले कदम से चल रही थी | संयोग से और धीरे-धीरे सीखने सिखाने की पद्धति को जाने अनजाने ही हम नए आयाम देने की कोशिश करने लगे थे | अगल बगल के गाँव जा कर वहाँ के लोगों से बात कर बच्चों को विद्यालय तक लाने में कुछ हद तक सफल भी हो रहे थे | यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां शिक्षा को आवश्यक आवश्यकयता के रूप में नहीं देखा जाता है| फिर भी हमारा प्रयास जारी है, थोड़े बहुत हिचकोले खाते हुए हम आगे भी बढ़ रहे थे बच्चों के साथ हमारी टीम में आते बदलाव मुझे या हमारी पूरी टीम जिसमें विद्यालय प्रबंधन कमिटी भी शामिल है को ऊर्जा दे रही थी | विद्यालय प्रबंधन कमिटी भी हमारा साथ देने में पीछे नहीं थी | हम और अधिक विस्तार करने की परिकल्पना के साथ आगे बढ़ रहे थे | मार्च 2020 का अंतिम सप्ताह पूरे विश्व के सामने एक भयावह रूप लेकर आया, सब कुछ थमने का सदेश लेकर आया| सब थम गया | यह अवधि हर विद्यालय के लिए एक महत्वपूर्ण अवधि होती है | हम एक सीढ़ी चढ़ते हैं, बदलाव का आलिंगन करते हैं, पहिये में ऊर्जा भरते हैं ताकि हमारा रथ अड़चनों से टकरा कर रुके नहीं, एक स्थिर गति से आगे बढ़ता जाए | हमारे मन में जो दवंद था वह यह भी था कि इस ऊर्जा का संचय कहाँ से करें, पॉज़ का बटन दब चुका है, लेकिन यह पॉज़ हमारे लिए चुनौतियों का तूफान लेकर आ रहा है, यह हमें साफ नजर या रहा था। क्या हम रुक जाएँ? यह साफ था कि अगले तीन चार महीने इस स्थिति में जीना है | यह भी पता था अगर राबता नहीं रहेगा तो आगे बढ़ने का पथ और अधिक कठिन हो उठेगा| एक ऐसा विद्यालय जिसने अभी थोड़ी थोड़ी मजबूती पाई थी अपनी पूरी संरचना को बनाए रख पाएगा? पहली जरूरत महसूस हुई, जुड़े रहने की जरूरत, बच्चों को जोड़े रखने की आवश्यकता, क्योंकि हमें यह भी पता था कि इन बच्चों के लिए स्कूल ही एक ऐसा जरिया है जो सीखने सिखाने की प्रक्रिया को सोच समझ कर उनके सामने रखता है, इससे दूर होने पर यह प्रक्रिया अलग रूप लेगी | अब प्रश्न था फिर क्या करें? हमारे शिक्षक/शिक्षिका रिमोट टेक्नॉलजी से वाकिफ नहीं हैं और न ही बच्चे। साथ ही दूर गाँव में बैठे परिवार जिनके बच्चे ने ही किताब कॉपी को उठाया है इस तकनीक को कैसे समझेंगे? साथ ही नेटवर्क की दिक्कत यहाँ तक कि हम ऐसे परिवार से भी जुड़े है जिनके पास स्मार्ट फोन नहीं हैं| बहुत बड़ी चुनौती| ऐसे में नजर आया एक जरिया वह था व्हाट्स एप का, यह एक ऐसा जरिया है जो अधिकतर लोगों के द्वारा इस्तेमाल किया जाता है और हम पहले से इसका इस्तेमाल कर रहे हैं, सूचना का आदान प्रदान करने में। शिक्षक/शिक्षिकायों से बात हुई सब इस माध्यम के लिए सहमत हो गए। हमने पठन पाठन का काम इस माध्यम के साथ शुरू कर दिया | माध्यम तो चुन लिया पर क्या हम तैयार हैं इस माध्यम के लिए? और फिर शुरू हुई तलाश किन किन तरीकों को आजमाएं, अपने शहर में हम पहले थे जिन्होंने इस माध्यम को अपनाया | मिली जुली प्रतिक्रिया मिली हमें | कहीं से साधुवाद मिला, तो कुछ ने नीरा चोंचला कहा, कुछ निस्पृह रहे | पर हम चल पड़े | इस नौका का माझी होने के कारण मुझे चप्पू तो पकड़ना ही था साथ में नाविकों को तैयार करना था| संयोगवश मैंने अपने शिक्षक /शिक्षिकायों को डिजिटल दुनिया से पहले ही जोड़ दिया था, वह सब के सब कंप्युटर लिटरेट हो चुके थे , इसलिए टायपिंग और अपनी बात पहुंचाने का काम तो हो जाएगा | जमीन तो तैयार हो गई लेकिन साधन और उसे कारगर तरीके से उपयोगी बनाने के उपाय की खोज जारी थी | आना जाना हो नहीं सकता किताबें भी हमारे पास नहीं है, यह जानी हुई बात है हम आज भी किताबों पर निर्भर करते हैं, आज भी बिना किताबों के एक शून्यता आती है वह स्वाभाविक है | फिर डिजिटल माध्यम से ही शिक्षण सामग्री का आदान प्रदान शुरू हुआ,। प्रकाशक और शिक्षकों के बीच की कड़ी थी मैं; साधन के आदान प्रदान का चक्र चल पड़ा। इस समस्या के साथ हमने चलना सीखा, प्रक्रिया चल पड़ी किन्तु अनेक प्रश्न सामने थे। बच्चे सामने नहीं है, उनकी आँखें, चेहरे, बैठने की भंगिमा नजर नहीं आती कैसे समझें बच्चों तक बात पहुँच रही है नहीं, बातों को असरदार कैसे करें, सारे प्रयास व्यर्थ तो नहीं होंगए? इसलिए सिर्फ लिखित संवाद काफी नही होगा, टीचर को विडिओ भी बनाने होंगे। फिर शुरू हुआ प्रशिक्षण का सिलसिला। यह भी आसान नहीं था जब आपको यह साफ पता चलता है कि आमने सामने नही रहने के कारण दूसरी तरफ बातें ठीक उस तरह नहीं पहुंचाई जा सकती जैसा आप चाहते हैं, यूं तो वह आमने सामने रह कर भी नहीं होता | उसके बाद शिक्षक/शिक्षिकाओं का संकोच, कक्षा के चहरदीवारी में बच्चों के सामने पढ़ाना और एक ऐसे माहौल में प्रदर्शन करना जहां हो सकता है अनेक आँखें आपको तौल रहीं हों आसान नहीं है। हमने लाइव क्लास का विकल्प इस कारण भी नहीं लिया था , मुझे हम सबका तौला जाना गँवारा नही था | मुझे पहले उन्हें तैयार करना था फिर धीरे धीरे सुविधा और तैयारी के हिसाब से वह रास्ता तय करना था | अनेक माध्यम और तरीके अपना कर हमने शिक्षण की प्रक्रिया से थोड़ा संतोष पाना शुरू किया, हाँलाकि परिपूर्णता तो नही आ रही थी, अनेक बच्चे अभी भी छूटे हुए हैं| सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि इस प्रक्रिया में हमें माता पिता का सहयोग चाहिए लेकिन वह नगण्य था। होता भी कैसे, लोग अपनी जीविका के लिए लड़ रहे थे| बोर्ड अपनी तरफ से कोर्स डिजाइन कर भेज रही थी, पढ़ने पढ़ाने के तरीकों की झड़ी लगा रही थी लेकिन वह किस हद तक लागू हो पाएगा यह उन्हें कौन बताए | पूरा विश्व ऑन लाइन पढ़ाई करा रहा था| हमने भी तो पूरी कक्षाएं सजा दी थी | और फिर दूसरी लड़ाई शुरू हुई वह थी कुछ जागरूक अभिभावक की आपत्ति “ क्या बच्चे फोन से ही चिपके रहें”, यह कौन सा तरीका है” | दूसरी झड़ी थी हमारे तीन बच्चे हैं “क्या हम सबको फोन दे ?” “हमें ऑनलाईन नहीं पढ़ाना, यह स्कूल के फीस लेने के तरीके हैं|” कुछ आपत्ति हमें जायज लगी, उस पर काम हुआ बच्चों के स्क्रीन टाइम को घटा दिया, कक्षाओं के समय में भी अदला बदली की गई, बच्चों को कॉपी में काम करने के लिए प्रोत्साहित किया गया | इन सब तरीकों को अपना कर हम पठन पाठन का काम करने की कोशिश कर रहे थे लेकिन schooling नही हो पा रही थी | इसके लिए फिर हमने गतिविधियां करनी शुरू की| जो चीज सबसे अधिक परेशान करने लगी वह थी इस परिस्थिति से जूझने के लिए बच्चों में खुद से सीखने की इच्छा और माद्दा जगाना होगा| लेकिन कैसे? मैं आज की मानसिक संरचना में इस चीज पर विश्वास करती हूँ कि अगर सीखने सिखाने की प्रक्रिया में कुछ आयाम जोड़ने हैं तो उसे मूल्यांकन से जोड़ों, मैंने वही किया । हमारी मूल्याकन प्राणाली में सेल्फ़ एक्स्प्रेससन को खास जगह मिली | कुछ हद तक अच्छा लगा लेकिन अभी भी majority हमारे पास नहीं थी। इन सब तरीकों के साथ एक जो जबरदस्त खींच तान चल रही थी वह था आर्थिक पक्ष। सक्षम अभिभावक भी विद्यालय फीस देने राजी नहीं थे, फिर जिन्हें परेशानी थी उनकी बात ही जुदा है। हम फीस क्यों दे या फिर पूरी फीस क्यों दें वाली बहस। सरकार की घोषणाएं इन्हें और हवा देतीं, साथ ही शिक्षा का व्यवसाय भी अपने हथौड़े बरसा रहा था | मजबूरी गहराने लगी लोगों का हाथ छूटने लगा। किसी तरह दोनों पक्षों के जोड़ तोड़ के बाद साथ निभाने के वादे के साथ हम चलते रहे | लेकिन अभी भी जिस चीज ने सबसे ज्यादा परेशान कर रखा था वह थी schooling न कर पाने की तकलीफ। यह नजर आ रहा था है कि कुछ क्षेत्र में हमारा प्रयास काम कर रहा है, लेकिन इतने प्रयास के बावजूद न जाने कितने बच्चों का हाथ छूट गया, कितने वापस उसे दुनिया में लौट गए जहाँ से हम उन्हें बाहर लाने की कोशिश कर रहे थे। उनकी दूरी किताबों की दुनिया से ही नहीं बनी थी बल्कि उन सारे आयाम से हुई थी जिसके द्वारा उनके चेहरे पर खूबसूरत, खिली मुस्कान आती थी। यह दर्द बुरी तरह चुभता है। इन सबके साथ इस तंत्र से जुड़े हर पक्ष को आर्थिक और मानसिक रूप से कमजोर होते देखना और महसूस करना सबसे बड़ी त्रासदी महसूस होती है, इसके आगे कोरोना का भय कहीं खो जाता है।

नए क्षितिज पर भारत-ब्रिटेन संबंध

-अरविंद जयतिलक
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जाॅनसन ने वर्चुअल शिखर वार्ता के दौरान 10 वर्षों का महत्वकांक्षी रोडमैप लाॅच कर दोनों देशों के रिश्ते को मिठास से भर दिया है। दोनों प्रधानमंत्रियों ने कहा है कि 2030 तक आपसी संबंधों को रणनीतिक साझेदारी में बदलना उनकी शीर्ष प्राथमिकता में होगा। दोनों नेताओं ने स्वास्थ्य, शिक्षा में सहयोग के साथ मौजूदा द्विपक्षीय कारोबार को दोगुना करने और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर तालमेल बढ़ाने पर सहमति जतायी है। कोविड महामारी में भारत की त्वरित सहायता करने वाले ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने भरोसा दिया है कि भारत के पढ़े-लिखे पेशेवरों के लिए उनका दरवाजा अब पहले से ज्यादा खुलेगा। उन्होंने अगले दो वर्षों में 3000 प्रशिक्षित भारतीयों को रोजगार देने की बात कही है। शिखर वार्ता के दौरान दोनों देशों के बीच नौ अहम समझौते हुए हैं जिससे दोनों देशों के आर्थिक कारोबार का नए क्षितिज पर पहुंचना तय है। इन समझौतों में एक महत्वपूर्ण समझौता मुक्त व्यापार समझौता है जिसे लेकर दोनों देश बेहद उत्सुक हैं। इस मसले पर दोनों देशों के उद्योग और वाणिज्य मंत्रालयों के प्रतिनिधि बातचीत कर आगे की राह तय करेंगे। यह समझौता कितना महत्वपूर्ण है इसी से समझा जा सकता है कि गत जनवरी में ब्रिटेन के दक्षिण एशिया मामलों के मंत्री लाॅर्ड तारिक अहमद ने कहा था कि भविष्य में होने वाले मुक्त व्यापार समझौता भारत और ब्र्रिटेन की आर्थिक कारोबार के लिए अहम होगा। उन्होंने स्पष्ट कहा कि हमारा अंतिम लक्ष्य मुक्त व्यापार समझौता को मूर्तरुप देना है। गौरतलब है कि मुक्त व्यापार करार के तहत व्यापार में दो भागीदार देश आपसी व्यापार वाले उत्पादों पर आयात शुल्क में अधिकतम कटौती करते हैं। चूंकि भारत ने हमेशा से ब्रिटेन को यूरोपीय संघ के देशों के साथ व्यापार के मामले में एक ‘मुख्य द्वार’ के रुप में देखा है ऐसे में मुक्त व्यापार समझौता न केवल ब्रिटेन बल्कि भारत के लिए भी फायदे का सौदा होगा। एक अन्य दूसरा समझौता माइग्रेशन और मोबिलिटी पार्टनरशिप से संबंधित है जो भारत के प्रशिक्षित लोगों को ब्रिटेन जाने की राह को सुगम करेगा। बदलते वैश्विक परिदृश्य में दोनों प्रधानमंत्रियों ने आतंकवाद से निपटने, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की दावेदारी का समर्थन, पर्यावरण, रक्षा उपकरणों व अत्याधुनिक हथियारों का साझा उत्पादन तथा अफगानिस्तान के हालात जैसे अन्य कई मसलों पर गंभीरता से चर्चा की। प्रधानमंत्री मोदी ने भारत में आर्थिक अपराध कर ब्रिटेन में छिपे नीरव मोदी और विजय माल्या के प्रत्यर्पण का भी मसला उठाया। अच्छी बात है कि दोनों देशों के बीच आर्थिक कारोबार बढ़ाने के संकल्प के बीच भारत की 20 भारतीय कंपनियों समेत सबसे बड़ी वैक्सीन बनाने वाली भारतीय कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट आॅफ इंडिया ने ब्रिटेन में 2400 करोड़ रुपए का निवेश करने का एलान किया। इसके तहत वह ब्रिटेन में अपना एक नया बिक्री कार्यालय खोलेगी। निःसंदेह इस कारोबारी पहल से दोनों देशों के आर्थिक भागीदारी को नई ऊंचाई मिलेगी और बड़े पैमाने पर रोजगार सृजित होगा। उल्लेखनीय है कि भारत दुनिया का अब तक का सबसे बड़ा बाजार है। आने वाले समय में भारतीय अर्थव्यवस्था का डंका बजने वाला है। एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भारत वर्ष 2025 तक ब्रिटेन को पछाड़कर फिर दुनिया की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है कि वर्ष 2030 तक भारत तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक अर्थव्यवस्था के आकार में भारत 2025 में ब्रिटेन से, 2027 में जर्मनी से और 2030 में जापान से आगे निकल जाएगा। संभवतः यहीं वजह है कि ब्र्रिटेन भारत के साथ टेªड डील को लेकर बेहद गंभीर है। वर्चुअल वार्ता से पहले ब्रिटिश पीएम जाॅनसन ने भारत में एक अरब पाउंड यानी दस हजार करोड़ रुपए निवेश करने का एलान किया। उल्लेखनीय है कि दोनों देशों के मध्य व्यापार एवं पूंजी निवेश में तीव्रता आयी है। जहां तक द्विपक्षीय व्यापार का सवाल है तो ब्रिटेन भारत का विश्व में दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी देश बन चुका है। गौरतलब है कि दोनों देशों का द्विपक्षीय व्यापार जो 2018-19 में 16.7 अरब डाॅलर, 2019-20 में 15.5 अरब डाॅलर था वह अब बढ़कर 23 अरब डाॅलर यानी 2.35 लाख करोड़ रुपए के पार पहुंच चुका है। इससे दोनों देशों के तकरीबन 5 लाख लोगों को रोजगार मिलता है। गौर करें तो ब्रिटेन में लगभग 800 से अधिक भारतीय कंपनियां हैं जो आईटी क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। इस संदर्भ में टाटा इंग्लैंड में नौकरियां उपलब्ध कराने वाली सबसे बड़ी भारतीय कंपनी बन चुकी है। भारतीय कंपनियों का विदेशों में कुल निवेश 80 मिलियन अमेरिकी डाॅलर के पार पहुंच गया है। दूसरी ओर ब्रिटेन से भारत के बीपीओ क्षेत्र में आउटसोर्सिंग का काम भी बहुत ज्यादा आ रहा है। आउटसोर्सिंग दोनों देशों के लिए लाभप्रद है। एक ओर यह ब्रिटिश कंपनियों की लागत कम करता है वहीं लाखों शिक्षित भारतीयों के लिए रोजगार का अवसर उपलब्ध कराता है। ब्रिटेन में बड़ी तादाद में अनिवासी भारतीयों की मौजुदगी है। यह संख्या लगभग 2 मिलियन है। भारतीय लोग ब्रिटेन की आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था को गति दे रहे हैं। गौर करें तो पिछले दो दशकों में आर्थिक सहयोग को बढ़ाने के लिए दोनों देशों ने कई तरह की पहल की है। नतीजा ब्रिटेन में परियोजनाओं की संख्या के मामले में भारत दूसरे सबसे बड़े निवेशकर्ता देश के रुप में उभरा है। दूसरी ओर ब्रिटेन भी वर्तमान भारत में कुल पूंजीनिवेश करने वाले देशों में बढ़त बनाए हुए है। आयात-निर्यात पर नजर डालें तो भारत मुख्य रुप से ब्रिटेन को तैयार माल एवं कृषि एव इससे संबंधित उत्पादों का निर्यात करता है। इसके अतिरिक्त वह अन्य सामान मसलन तैयार वस्त्र, इंजीनियरिंग सामान, चमड़े के वस्त्र व वस्तुएं, रसायन, सोने के आभुषण, जूते-चप्पल, समुद्री उत्पाद, चावल, खेल का सामान, चाय, ग्रेनाइट, जूट, दवाईयां इत्यादि का भी निर्यात करता है। जहां तक आयात का सवाल है तो भारत इंग्लैंड से मुख्यतः पूंजीगत सामान, निर्यात संबंधी वस्तुएं, तैयारशुदा माल, कच्चा माल व इससे संबंधित अन्य सामानों का आयात करता है। गौर करें तो दोनों देश वैश्विक निर्धनता की समाप्ति, वैश्विक संगठनों में सुधार और आतंकवाद के खात्मा के लिए परस्पर मिलकर काम कर रहे हैं। भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देने के मामले में पाकिस्तान ब्रिटेन के निशाने पर है। पाकिस्तान पर भारत की एयर स्ट्राइक का ब्रिटेन द्वारा समर्थन कर चुका है। अच्छी बात है कि दोनों देश संयुक्त राष्ट्रª सुरक्षा परिषद में सुधारों पर सहमत हैं, जिससे कि 21 वीं शताब्दी की वास्तविकताओं को अधिक प्रभावी ढंग से प्रतिबिम्बित किया जा सके। इसके अलावा दोनों देश अफगानिस्तान में स्थायित्व लाने और इजरायल-फिलीस्तीन संघर्ष जैसे अन्य विवादित मसलों के समाधान में भी एक जैसे विचार रखते हैं। उल्लेखनीय है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दोनों देशों के बीच संबंधों में प्रगाढ़ता बढ़ी है। प्रधापनमंत्री बनने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने 2015 में ब्रिटेन की यात्रा कर दोनों देशों के संबंधों को एक नई ऊंचाई दी। तब उनकी तीन दिवसीय ब्रिटेन यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच 9 अरब डाॅलर मूल्य के सौदे हुए। इसमें असैन्य परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर के अलावा वित्त, रक्षा, परमाणु उर्जा, जलवायु परिवर्तन, स्वास्थ्य एवं साइबर सुरक्षा पर भी सहमति बनी। तब दोनों देशों ने रेलवे रुपया बांड जारी करने के अलावा आतंकवाद के मसले पर समान सहमति जतायी। साथ ही इस बात पर भी जोर दिया कि संयुक्त राष्ट्र संघ आतंकवाद की परिभाषा तय करे। तब इंडिया-यूके सीईओ फोरम में अपनी सरकार की ओर से उठाए गए आर्थिक सुधारों का हवाला देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने ब्रिटिश कंपनियों को भारत के तमाम सेक्टरों में पैसा लगाने के लिए आह्नान किया। अच्छी बात है कि दोनों देश भरोसे की कसौटी पर खरा हैं और कोविड-19 के बुरे दौर में एकदूसरे का हाथ मजबूती से पकड़े हैं।

माँ के चरणों में मिलता है स्वर्ग

आज मातृ दिवस है, एक ऐसा दिन जिस दिन हमें संसार की समस्त माताओं का सम्मान और सलाम करना चाहिये। वैसे माँ किसी के सम्मान की मोहताज नहीं होती, माँ शब्द ही सम्मान के बराबर होता है, मातृ दिवस मनाने का उद्देश्य पुत्र के उत्थान में उनकी महान भूमिका को सलाम करना है। श्रीमद भागवत गीता में कहा गया है कि माँ की सेवा से मिला आशीर्वाद सात जन्म के पापों को नष्ट करता है। यही माँ शब्द की महिमा है। असल में कहा जाए तो माँ ही बच्चे की पहली गुरु होती है एक माँ आधे संस्कार तो बच्चे को अपने गर्भ में ही दे देती है यही माँ शब्द की शक्ति को दशार्ता है, वह माँ ही होती है पीडा सहकर अपने शिशु को जन्म देती है। और जन्म देने के बाद भी मॉं के चेहरे पर एक सन्तोषजनक मुस्कान होती है इसलिए माँ को सनातन धर्म में भगवान से भी ऊँचा दर्जा दिया गया है।

‘माँ’ शब्द एक ऐसा शब्द है जिसमे समस्त संसार का बोध होता है। जिसके उच्चारण मात्र से ही हर दुख दर्द का अंत हो जाता है। ‘माँ’ की ममता और उसके आँचल की महिमा को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। रामायण में भगवान श्रीराम जी ने कहा है कि ‘‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदपि गरीयसी।’’ अर्थात, जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। कहा जाए तो जननी और जन्मभूमि के बिना स्वर्ग भी बेकार है क्योंकि माँ कि ममता कि छाया ही स्वर्ग का एहसास कराती है। जिस घर में माँ का सम्मान नहीं किया जाता है वो घर नरक से भी बदतर होता है, भगवान श्रीराम माँ शब्द को स्वर्ग से बढकर मानते थे क्योंकि संसार में माँ नहीं होगी तो संतान भी नहीं होगी और संसार भी आगे नहीं बढ पाएगा। संसार में माँ के समान कोई छाया नहीं है। संसार में माँ के समान कोई सहारा नहीं है। संसार में माँ के समान कोई रक्षक नहीं है और माँ के समान कोई प्रिय चीज नहीं है। एक माँ अपने पुत्र के लिए छाया, सहारा, रक्षक का काम करती है। माँ के रहते कोई भी बुरी शक्ति उसके जीवित रहते उसकी संतान को छू नहीं सकती। इसलिए एक माँ ही अपनी संतान की सबसे बडी रक्षक है। दुनिया में अगर कहीं स्वर्ग मिलता है तो वो माँ के चरणों में मिलता है। जिस घर में माँ का अनादर किया जाता है, वहाँ कभी देवता वास नहीं करते। एक माँ ही होती है जो बच्चे कि हर गलती को माफ कर गले से लगा लेती है। यदि नारी नहीं होती तो सृष्टि की रचना नहीं हो सकती थी। स्वयं ब्रह्मा, विष्णु और महेश तक सृष्टि की रचना करने में असमर्थ बैठे थे। जब ब्रह्मा जी ने नारी की रचना की तभी से सृष्टि की शुरूआत हुई। बच्चे की रक्षा के लिए बड़ी से बड़ी चुनौती का डटकर सामना करना और बड़े होने पर भी वही मासूमियत और कोमलता भरा व्यवहार ये सब ही तो हर ‘माँ’ की मूल पहचान है।

दुनिया की हर नारी में मातृत्व वास करता है। बेशक उसने संतान को जन्म दिया हो या न दिया हो। नारी इस संसार और प्रकृति की ‘जननी’ है। नारी के बिना तो संसार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस सृष्टि के हर जीव और जन्तु की मूल पहचान माँ होती है। अगर माँ न हो तो संतान भी नहीं होगी और न ही सृष्टि आगे बढ पाएगी। इस संसार में जितने भी पुत्रों की मां हैं, वह अत्यंत सरल रूप में हैं। कहने का मतलब कि मां एकदम से सहज रूप में होती हैं। वे अपनी संतानों पर शीघ्रता से प्रसन्न हो जाती हैं। वह अपनी समस्त खुशियां अपनी संतान के लिए त्याग देती हैं, क्योंकि पुत्र कुपुत्र हो सकता है, पुत्री कुपुत्री हो सकती है, लेकिन माता कुमाता नहीं हो सकती। एक संतान माँ को घर से निकाल सकती है लेकिन माँ हमेशा अपनी संतान को आश्रय देती है। एक माँ ही है जो अपनी संतान का पेट भरने के लिए खुद भूखी सो जाती है और उसका हर दुख दर्द खुद सहन करती है।

लेकिन आज के समय में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो अपने मात-पिता को बोझ समझते हैं। और उन्हें वृध्दाआश्रम में रहने को मजबूर करते हैं। ऐसे लोगों को आज के दिन अपनी गलतियों का पश्चाताप कर अपने माता-पिताओं को जो वृध्द आश्रम में रह रहे हैं उनको घर लाने के लिए अपना कदम बढाना चाहिए। क्योंकि माता-पिता से बढकर दुनिया में कोई नहीं होता। माता के बारे में कहा जाए तो जिस घर में माँ नहीं होती या माँ का सम्मान नहीं किया जाता वहाँ दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती का वास नहीं होता। हम नदियों और अपनी भाषा को माता का दर्जा दे सकते हैं तो अपनी माँ से वो हक क्यों छीन रहे हैं। और उन्हें वृध्दाआश्रम भेजने को मजबूर कर रहे है। यह सोचने वाली बात है। माता के सम्मान का एक दिन नहीं होता। माता का सम्मान हमें 365 दिन करना चाहिए। लेकिन क्यों न हम इस मातृ दिवस से अपनी गलतियों का पश्चाताप कर उनसे माफी मांगें। और माता की आज्ञा का पालन करने और अपने दुराचरण से माता को कष्ट न देने का संकल्प लेकर मातृ दिवस को सार्थक बनाएं।

बचपन की यादों को यारो मत भूलाना


शाम होते ही छतो पर चढ़ जाना,
छतो पर चढ़कर पानी छिड़कना,
पानी छिड़का कर गद्दे बिछाना
गद्दे बिछाकर उसपर चादर बिछाना।
बचपन की यादों यारो मत भुलाना।।

आधी रात को बरसात का आ जाना
गद्दे चादर उठाकर नीचे भाग जाना,
भाग कर फिर से मुंह ढक कर सो जाना,
मम्मी ने सुबह डंडे मारकर जगाना,
बचपन की यादों को यारो मत भूलाना

सुबह होते ही खेतो पर चले जाना,
खेतो पर जाकर वहां रहट चलाना,
रहट चलाकर वहां नंगे नहाना,
नहाकर फिर ढेर सारे गन्ने खाना,
बचपन की यादों को यारो मत भुलाना।।

किराए की साइकिल लाकर उसको चलाना,
गद्दी पर न पैर आए उसकी कैची चलाना,
एक घंटे की जगह सवा घंटे चलाना,
पैसे देने के नाम पर करते थे बहाना,
बचपन की यादों को यारो मत भुलाना।।

फटे टायरो को गलियों में चलाना,
साईकिल के रिमो को डंडे से भगाना,
डंडा टूट जाए तो कीलो से जुड़वाना,
जुड़वा कर फिर से पहिया चलाना,
बचपन की यादों को यारो मत भुलाना।।

आंख मिचौली में किसी के घर छिप जाना,
छिपकर भी दोस्तो को आवाजे लगाना,
पकड़े गए तो रोकर घर भाग जाना,
आ जाते थे घर दोस्त, फिर उनका मनाना,
बचपन की यादों को यारो मत भुलाना।।

कोड़ा जमाई खेल में आंखे दिखना,
खोखों के खेल में किसी के पीछे छुप जाना,
कबड्डी के खेल में अपनी टीम को बनाना,
कबड्डी कबड्डी कहकर दूसरे के पाले में जाना,
बचपन की यादों को यारो मत भुलाना।।

खेल के मैदान में खुरपे से गुच्ची बनाना,
लकड़ी देकर बढ़ई से गुल्ली डंडा बनवाना,
फिर यार दोस्तो को उनके घरों से बुलवाना,
बुलवाकर फिर गुल्ली डंडे की दो टीम बनाना,
बचपन की यादों को यारो मत भुलाना।।

आर के रस्तोगी

कोरोना आपदा में “हंसाने के लिए” धन्यवाद स्वरा भास्कर

विवेक कुमार पाठक
हाल ही में दिल्ली के एक सेकुलरटाइप पत्रकार ने जब ट्विटर पर अपना विचार व्यक्त किया कि कोरोना पर नियंत्रण के लिए पीएम नरेन्द्र मोदी को एक नयी टीम को जरुरत है तो मोदी सरकार और खासतौर से पीएम नरेन्द्र मोदी के खिलाफ जहरीली नफरत लगातार प्रदर्शित करने वाली स्वरा भास्कर अपना आपा खो बैठीं। आपदा में अवसर ढूंढ़ते हुए उन्होंने अपनी राजनैतिक कुंठा और नफरत को बदले हुए शब्दों में पेश की। वैश्विक और राष्ट्रीय कोरोना आपदा के समय स्वरा ने लिखा कि अब भारत को नए पीएम की जरुरत है।
मित्रों पहले तो ये कि दो चार दस पचास और कुछ हजार और यहां तक की लाख दस लोग और कुछ करोड़ स्वरा जैसे समर्थक भी चाहें तो भी कोई सेकुलरवादियों का चहेता नेता इस विशाल देश का प्रधानमंत्री नहीं बन सकता है।
हमारा भारत कुछ एजेंडाशुदा कथित बुद्धिजीवियों, सेकुलरों और राष्ट्रवादी विचार को दिन रात कोसने वाले लोगों की चाहतों से नहीं चलता। आजादी के बाद से ये देश स्वस्थ लोकतंत्र से चल रहा है। देश में करोड़ों जनता जिसे लायक समझती है वो देश का नेतृत्व करता है। भारत में नरेन्द्र मोदी ने कोई आकाश से उतरकर नईदिल्ली के सिंहासन का अपहरण नहीं कर लिया है। 2014 में सवा अरब आबादी वाले इस देश ने 10 साल के कुशासन और भ्रष्टाचार पर प्रहार करते हुए यूपीए सरकार की इमारत को जमींदोज कर दिया था। उस वक्त एनडीए की सरकार तब बनी थी जब पूर्ण बहुमत से भी ज्यादा समर्थन देश ने मोदी के नाम पर दिया था। अगर मोदी से पहले की सरकारों का देश के विकास में योगदान को कथित बुद्धिजीवी खारिज नहीं करते तो फिर एक चुनी हुई सरकार के प्रति घोर असहिष्णुता उनके मन में क्यों है। क्या ये भारत के जनमत का अपमान नहीं है। अगर एनडीए और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र सरकार देश की सेवा करने में सक्षम नहीं थी तो फिर देश की जनता ने 2019 में उन पर किस आधार पर अपना प्रचण्ड विश्वास जताया।
स्वरा भास्कर, कन्हैया कुमार, जिग्नेश मेवाणी क्यों भूल जाते हैं कि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद और प्रचंड जनादेश लेकर 2019 में भारत के दुबारा प्रधानमंत्री बने थे। क्या भारत की जनता इतनी मूर्ख है कि पांच साल मतलब करीब 1825 दिन, करीब 43800 घंटे के दीर्घ समय बीतने के बाद भी वो यह तय करने में सक्षम नहीं है कि भारत की बागडोर मौजूदा विकल्पों में से किसे सौंपी जानी चाहिए। निश्चित ही पहले 2014 में भारत की जनता ने पदलोलुप और भ्रष्टाचार में कंठ तक डूबी सरकार के खिलाफ जनादेश दिया था लेकिन 2019 का जनादेश नरेन्द्र मोदी सरकार पर देश की विश्वसनीयता का प्रतीक था। अपनी कुंठाओं और नरेन्द्र मोदी के प्रति नफरत में स्वरा भास्कर भूल जाती होंगी मगर हम नहीं भूल सकते कि 2019 में देश में विपक्ष के किसी दल और नेता की इतनी भी विश्वसनीयता नहीं बची थी कि उन्हें संसद में विपक्ष का दर्जा दिया जाए। विपक्ष के प्रति यह घोर अविश्वास क्यों स्वरा भास्कर, कन्हैया कुमार सरीखे लोग नहीं पचा पा रहे हैं।
कोई दो राय नहीं कि उन्हें सरकार के कामकाज की आलोचनाओं का लोकतांत्रिक अधिकार है। केवल स्वरा भास्कर को ही नहीं बल्कि देश के हर नागरिक को सरकार के कामकाज पर स्वस्थ आलोचना और विचार रखने का अधिकार है। कोरोना महामारी केवल भारत की नहीं बल्कि समूचे विश्व पर आयी आपदा है। जब मार्च 2020 से समूचे अमेरिका, कनाडा, इटली में कोरोना से लगातार मौत हो रहीं थी और जब इन देशों में हर क्षण शवों के आंकड़े दुनिया को दहला रहे थे तब दुनिया की दूसरी आबादी का सबसे बड़ा लाॅकडाउन नरेन्द्र मोदी सरकार की दूरदर्शिता का परिणाम था। विकासशील भारत ने तब कोरोना के साथ अर्थव्यवस्था, कमजोर वर्ग को जीवन सुरक्षा से लेकर कई मोर्चे पर संघर्ष किया था और पहली लहर से देश को लगभग सकुशल बचा लिया था। उस समय में आयात की गई पीपीई किट से लेकर एक साल में वैक्सीन बनाकर हम दुनिया को भी वैक्सीन बांट चुके हैं। इस एक साल में इन उपलब्धियों के बाबजूद हमने आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए जो काम किया वो निश्चित रुप से 2021 की दूसरी लहर के शुरुआत में कमतर साबित हुआ है। भारत सरकार ने दूसरी लहर के लिए आॅक्सीजन की सतत आपूर्ति के जो इंतजाम किए वे भरपूर और बेहतरीन तो नहीं कहे जा सकते। सच है कि सवा अरब की आबादी वाले देश में अस्पताल और बेड कम पड़े हैं मगर निरंतर युद्ध स्तर पर वे बढ़ाए भी जा रहे हैं। निश्चित ही अस्पतालों में आॅक्सीजन के लिए हायतौबी मची है मगर इसी सरकार ने आॅक्सीजन एक्सप्रेस से लेकर वायुसेना तक को इस आपदा के नियंत्रण के लिए उतारकर स्थितियां तेजी से काबू में की हैं और आगे का इंतजाम किया जा रहा है। कोरोना से दहलती दुनिया को पहली लहर में हाॅइड्रोक्लोरोक्वीन दवा लगातार भेजकर भारत ने मानवता का फर्ज निभाया था आज दूसरी लहर के चरम पर शेष दुनिया भारत के साथ आ खड़ी हुई है। अगर भारत ने कई महीने पहले दुनिया के विकसित और विकासशील देशों को कोरोना वैक्सीन की मदद की थी तो अमेरिका , बिट्रेन, रुस, आॅस्ट्रेलिया सरीखे तमाम देश भारत को स्वप्रेरणा से वैक्सीन और वैक्सीन बनाने की सामग्री प्रतिउत्तर में भेज रहे हैं। संकट के समय दूसरे देशों के प्रति भारत की भलाई आज भारत के काम आ रही है। क्या ये विदेशी मदद नरेन्द्र मोदी सरकार की विदेश नीति को देश के समाने स्पष्ट नहीं करती।
निसंदेह कोरोना की दूसरी लहर से निबटने केन्द्र और राज्य सरकारों की अपेक्षित दूरदर्शिता और रणनीति में कुछ चूक हुई है और अगर इसकी देश में अनेक लोग आलोचना कर रहे हैं तो नेतृत्वकर्ता को इसके लिए तैयार रहना चाहिए। जो काम करेगा गलतियां भी उसी से होंगी, कमियां भी उसी से होंगी और उसकी पूर्ति भी वही करेगा और उसे ही करना चाहिए। मोदी सरकार ने भी आॅक्सीजन की शुरुआती कमी सामने आने के बाद न केवल देश के विभिन्न औद्योगिक संयंत्रों को आॅक्सीजन उत्पादन केन्द्र में तब्दील कर दिया बल्कि पूरे देश में दिल्ली से लेकर जिला और ब्लाॅक स्तर तक आॅक्सीजन प्लांट युद्ध स्तर पर लगाना शुरु कर दिए। बीच की अवधि में आॅक्सीजन की आपूर्ति एक राज्य से दूसरे राज्य वायुसेना के विमानों और आॅक्सीजन एक्सप्रेसों से सुचारु कराकर पूरे देश में आपूर्ति को बहाल किया है। इसके अलावा दवाओं और आॅक्सीजन बेड की किल्लत के लिए युद्ध स्तर पर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश के मुख्यमंत्री काम कर रहे हैं।
संघीय व्यवस्था वाले भारत में प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्री ही नहीं पूरी सरकारी मिशनरी दिन रात काम कर रही है। जो सफलताएं 2020 के पहले लाॅकडाउन से मिलीं वे पीएम , सीएम, नौकरशाही सबकी थीं तो 2021 की लहर में जो कुछ कमी रही वे भी संघीय भारत में सबकी हैं। इन सबके बाबजूद केन्द्र और 28 राज्यों और 7 केन्द्र शासित प्रदेशों वाले भारत में कोरोना के खिलाफ एकजुटता से यह जंग निर्णायक रुप से लड़ी जा रही है। इस समय नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री के रुप में इस लड़ाई के मुख्य नेतृत्वकर्ता हैं तो विपक्ष से लेकर बुद्धिजीवियों, मीडिया और आम नागरिक भी उनकी स्वस्थ आलोचना से लेकर उन्हें सलाह और नसीहतें देने के हकदार हैं। सुनने और सुनकर सबक लेने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की है मगर इन सबके बीच आपदा में देश को अस्थिर करने का अवसर ढूंढ़ने वाली घृणित राजनीति के अनुभवियों को शर्म आनी चाहिए। हम जानते हैं कि आपको पीएम नरेन्द्र मोदी से पल पल प्रति क्षण होने वाली अत्यंत घृणा है। राष्ट्रवादी विचार वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से अवचेतन और चेतन मन के सभी आयामों तक घृणा है। आपको राममंदिर के नाम और उसके निर्माण के हर समाचार से घृणा है। आपको सनातन परंपराओं और हिन्दुत्व जीवनशैली विचार से भी घृणा है मगर देश के नागरिक होने के नाते आपदा में एक निवेदन इस नागरिक का भी सुनिए। इस निरंतर सिंचित घृणा में दिन रात घुटते हुए केवल मनवांछित नेता और दल विशेष को सत्ता न दिला पाने की अपनी कुंठाओं को हमेशा न सही मगर कृपया कर कोरोना की वैश्विक आपदा में तो दूर रखिए। आप समय समय पर गाल बजाकर मीडिया में लोकतंत्र की बात करते हैं तो इस देश की चुनाव प्रक्रिया में भी पूरा विश्वास रखिए। 2024 में फिर आम चुनाव होंगे तब पीएम परिवर्तन के लिए अपनी पूरी बिग्रेड को साथ लेकर यलगार अवश्य करिएगा मगर केवल तब तक के लिए कृपया भारतवर्ष द्वारा चुने गए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को तो सहन कर लीजिए। माथा ठंडा करके जरा पानी पीजिए फिर सोचिए कि आपके चाहने भर से आपके प्रिय नेता या नेत्री को जनादेश खारिज करके लोकतांत्रिक भारत कतई सहन नहीं कर सकता। अंत में एक बात के लिए धन्यवाद आपका हक है।
आपके मूर्खतापूर्ण सपनों से महामारी से जूझता भारतवर्ष कुछ क्षण के अवश्य ही हास्य आसन करेगा जिसके लिए आपका पुनः बारंबार धन्यवाद स्वरा।

माँ (हैपी मदर्स डे )


माँ के जीवन की सब साँसे
बच्चों के ही हित होती हैं
चोट लगे जब बालक के तन को
आँखें तो माँ की रोती हैं
ख़ुशी में हमारी ,वो खुश हो जाती है
दुःख में हमारे ,वो आंसू बहाती है
निभाएं न निभाएं हम
अपना वो फ़र्ज़ निभाती है
ऐसे ही नहीं वो ,करुणामयी कहलाती है
प्रेम के सागर में माँ ,अमृत रूपी गागर है
माँ मेरे सपनों की ,सच्ची सौदागर है ||
व्यर्थ प्रेम के पीछे घूमती है दुनिया
माँ के प्रेम से बढकर ,कोई प्रेम नहीं है
जितनी भी जीवित संज्ञाएँ भू पर उदित हैं
वे सब माँ के नभ की ,प्राची में अवतरित हैं
जो जीवन को नई दिशा देने ,अवतरित हुए हैं
जो अज्ञान तिमिर में ,बनकर सूरज अवतरित हुए हैं
उन सबके ऊपर ,बचपन में माँ की कृपा थी
उनके जीवन पर माँ के उपकारों की वर्षा थी
अगर ईश्वर कहीं है ,उसे देखा कहाँ किसने
माँ ईश्वर की है रचना ,पर ईश्वर से बढ़कर है
छीन लाती है अपने औलाद के खातिर खुशियां
इसकी दुआ जय के शिखरों पर बैठाती
हर रूह ,हर धड़कन में
जीने का हौसला माँ भरती
घना अंधेरा हो तो माँ दीपक बन जाती
ऐसे नहीं वो करुणामयी कहलाती
प्रेम के सागर में माँ ,अमृत रूपी गागर है
माँ मेरे सपनों की ,सच्ची सौदागर है ||

अब जातीय आरक्षण खत्म करें

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र में मराठा लोगों के आरक्षण को बढ़ानेवाले कानून को असंवैधानिक घोषित कर दिया है। महाराष्ट्र विधानसभा ने एक कानून सर्वसम्मति से पारित करके सरकारी नौकरियों और शिक्षा-संस्थाओं में प्रवेश के लिए मराठा जाति का कोटा 16 प्रतिशत बढ़ा दिया याने कुल मिलाकर जातीय आरक्षण 68 प्रतिशत हो गया, जो कि 50 प्रतिशत की सीमा का स्पष्ट उल्लंघन है। जातीय आरक्षण की यह उच्चतम सीमा 1992 में सर्वोच्च न्यायालय ने तय की थी। सिर्फ महाराष्ट्र ही नहीं, कई अन्य प्रांतों में अपने आप को पिछड़ा वर्ग कहनेवाले जाट, कापू, गूजर, मुसलमान आदि जाति-संगठनों ने अपने लिए आरक्षण बढ़ाने के लिए आंदोलन चला रखे हैं। महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र, बिहार, तमिलनाडु, पंजाब और राजस्थान आदि कई राज्यों ने तथाकथित पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की सीमा का पहले ही उल्लंघन कर रखा है या करना चाहते हैं। इन सब राज्यों ने अदालत से अनुरोध किया था कि वह उन्हें 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण की अनुमति दे दे। इन राज्यों की इस मांग का समर्थन सभी दलों ने किया। देश के एक भी नेता या दल की हिम्मत नहीं पड़ी कि वह इस अमर्यादित मांग का विरोध करे। वे विरोध कर ही नहीं सकते, क्योंकि इस मांग के पीछे उन्हें थोक वोट मिलने का लालच है। भारत की राजनीति इसीलिए लोकतांत्रिक कम और जातितांत्रिक ज्यादा है। आम आदमी अपना वोट डालते समय उम्मीदवार की योग्यता पर कम, अपनी और उसकी जाति पर ज्यादा विचार करता है। इस दूषित प्रक्रिया के कारण हमारा लोकतंत्र तो कमजोर होता ही है, सरकारी प्रशासन भी अपंगता का शिकार हो जाता है। उसमें नियुक्त होनेवाले 50 प्रतिशत अफसर यदि अपनी योग्यता नहीं, जाति के आधार पर नियुक्त होंगे तो क्या ऐसी सरकार लंगड़ी नहीं हो जाएगी ? इस जातीय आरक्षण का सबसे ज्यादा नुकसान तो उन्हीं अनुसूचित और पिछड़ी जातियों के लोगों को ही होता है, क्योंकि उनमें से निकले हुए मुट्ठीभर परिवारों का इन नौकरियों पर पीढ़ी दर पीढ़ी कब्जा हो जाता है जबकि इस आरक्षण का उद्देश्य था, भारत में एक समतामूलक समाज का निर्माण करना। लेकिन अब भी करोड़ों अनुसूचित और पिछड़े परिवार शिक्षा और उचित रोजगार के अभाव में हमेशा की तरह सड़ते रहते हैं। सरकार की जातीय आरक्षण नीति बिल्कुल खोखली सिद्ध हो गई है। अब नई नीति की जरुरत है। अब जाति के आधार पर नहीं, जरुरत के आधार पर आरक्षण दिया जाना चाहिए। अब नौकरियों में नहीं और उच्च-शिक्षा में नहीं लेकिन सिर्फ माध्यमिक शिक्षा तक सिर्फ जरुरतमंदों को आरक्षण दिया जाना चाहिए। 50 क्या, 70 प्रतिशत तक दिया जा सकता है। देखिए, भारत का रुपांतरण होता है या नहीं ?

मां संस्कार ही नहीं, शक्ति की दात्री है

अन्तर्राष्ट्रीय मातृत्व दिवस, 9 मई 2021
-ललित गर्ग-
अन्तर्राष्ट्रीय मातृत्व दिवस सम्पूर्ण मातृ-शक्ति को समर्पित एक महत्वपूर्ण दिवस है, जो प्रतिवर्ष मई माह के दूसरे रविवार को मनाया जाता है, जिसे मदर्स डे, मातृ दिवस या माताओं का दिन चाहे जिस नाम से पुकारें यह दिन सबके मन में विशेष स्थान लिये हुए है। अमेरिका में मदर्स डे की शुरुआत 20वीं शताब्दी के आरंभ के दौर में हुई। विश्व के विभिन्न भागों में यह अलग-अलग दिन मनाया जाता है। मदर्ड डे का इतिहास करीब 400 वर्ष पुराना है। प्राचीन ग्रीक और रोमन इतिहास में मदर्स डे मनाने का उल्लेख है। भारतीय संस्कृति में मां के प्रति लोगों में अगाध श्रद्धा रही हैं, यही कारण है कि आधुनिक तरीकों से मनाये जाने वाले मातृत्व दिवस के प्रति भी लोगों में अपूर्व उत्साह है।
मातृ दिवस-समाज में माताओं के प्रभाव व सम्मान का उत्सव है। मां शब्द में संपूर्ण सृष्टि का बोध होता है। मां के शब्द में वह आत्मीयता एवं मिठास छिपी हुई होती है, जो अन्य किसी शब्दों में नहीं होती। मां नाम है संवेदना, भावना और अहसास का। मां के आगे सभी रिश्ते बौने पड़ जाते हैं। मातृत्व की छाया में मां न केवल अपने बच्चों को सहेजती है बल्कि आवश्यकता पड़ने पर उसका सहारा बन जाती है। पूरी जिंदगी भी समर्पित कर दी जाए तो मां के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता है। संतान के लालन-पालन के लिए हर दुख का सामना बिना किसी शिकायत के करने वाली मां के साथ बिताये दिन सभी के मन में आजीवन सुखद व मधुर स्मृति के रूप में सुरक्षित रहते हैं।
समाज में मां के ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जिन्होंने अकेले ही अपने बच्चों की जिम्मेदारी निभाई। मातृ दिवस सभी माताओं का सम्मान करने के लिए मनाया जाता है। एक बच्चे की परवरिश करने में माताओं द्वारा सहन की जानें वालीं कठिनाइयों के लिये आभार व्यक्त करने के लिये यह दिन मनाया जाता है। इस दिन लोग अपनी मां को ग्रीटिंग कार्ड और उपहार देते हैं। कवि राॅबर्ट ब्राउनिंग ने मातृत्व को परिभाषित करते हुए कहा है- सभी प्रकार के प्रेम का आदि उद्गम स्थल मातृत्व है और प्रेम के सभी रूप इसी मातृत्व में समाहित हो जाते हैं। पे्रम एक मधुर, गहन, अपूर्व अनुभूति है, पर शिशु के प्रति मां का प्रेम एक स्वर्गीय अनुभूति है।
‘मां!’ यह वो अलौकिक शब्द है, जिसके स्मरण मात्र से ही रोम-रोम पुलकित हो उठता है, हृदय में भावनाओं का अनहद ज्वार स्वतः उमड़ पड़ता है और मनोःमस्तिष्क स्मृतियों के अथाह समुद्र में डूब जाता है। ‘मां’ वो अमोघ मंत्र है, जिसके उच्चारण मात्र से ही हर पीड़ा का नाश हो जाता है। ‘मां’ की ममता और उसके आंचल की महिमा को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। जिन्होंने आपको और आपके परिवार को आदर्श संस्कार दिए। उनके दिए गए संस्कार ही मेरी दृष्टि में आपकी मूल थाती है। जो हर मां की मूल पहचान होती है।
हर संतान अपनी मां से ही संस्कार पाता है। लेकिन मेरी दृष्टि में संस्कार के साथ-साथ शक्ति भी मां ही देती है। इसलिए हमारे देश में मां को शक्ति का रूप माना गया है और वेदों में मां को सर्वप्रथम पूजनीय कहा गया है। श्रीमद् भगवद् पुराण में उल्लेख मिलता है कि माता की सेवा से मिला आशीष सात जन्मों के कष्टों व पापों को दूर करता है और उसकी भावनात्मक शक्ति संतान के लिए सुरक्षा कवच का काम करती है।
प्रख्यात वैज्ञानिक और भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने मां की महिमा को उजागर करते हुए कहा है कि जब मैं पैदा हुआ, इस दुनिया में आया, वो एकमात्र ऐसा दिन था मेरे जीवन का जब मैं रो रहा था और मेरी मां के चेहरे पर एक सन्तोषजनक मुस्कान थी। एक माँ हमारी भावनाओं के साथ कितनी खूबी से जुड़ी होती है, ये समझाने के लिए उपरोक्त पंक्तियां अपने आप में सम्पूर्ण हैं।
अब्राहम लिंकन का मां के बारे में मार्मिक कथन है कि जो भी मैं हूँ, या होने की उम्मीद है, मैं उसके लिए अपने प्यारी माँ का कर्जदार हूँ। किसी औलाद के लिए ‘माँ’ शब्द का मतलब सिर्फ पुकारने या फिर संबोधित करने से ही नहीं होता बल्कि उसके लिए माँ शब्द में ही सारी दुनिया बसती है, दूसरी ओर संतान की खुशी और उसका सुख ही माँ के लिए उसका संसार होता है। क्या कभी आपने सोचा है कि ठोकर लगने पर या मुसीबत की घड़ी में माँ ही क्यों याद आती है क्योंकि वो माँ ही होती है जो हमें तब से जानती है जब हम अजन्में होते हैं। बचपन में हमारा रातों का जागना, जिस वजह से कई रातों तक माँ सो भी नहीं पाती थी। वह गिले में सोती और हमें सूखे में सुलाती। जितना माँ ने हमारे लिए किया है उतना कोई दूसरा कर ही नहीं सकता। जाहिर है माँ के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए एक दिन नहीं बल्कि एक सदी, कई सदियां भी कम है।
मां प्राण है, मां शक्ति है, मां ऊर्जा है, मां प्रेम, करुणा और ममता का पर्याय है। मां केवल जन्मदात्री ही नहीं जीवन निर्मात्री भी है। मां धरती पर जीवन के विकास का आधार है। मां ने ही अपने हाथों से इस दुनिया का ताना-बाना बुना है। सभ्यता के विकास क्रम में आदिमकाल से लेकर आधुनिककाल तक इंसानों के आकार-प्रकार में, रहन-सहन में, सोच-विचार, मस्तिष्क में लगातार बदलाव हुए। लेकिन मातृत्व के भाव में बदलाव नहीं आया। उस आदिमयुग में भी मां, मां ही थी। तब भी वह अपने बच्चों को जन्म देकर उनका पालन-पोषण करती थीं। उन्हें अपने अस्तित्व की रक्षा करना सिखाती थी। आज के इस आधुनिक युग में भी मां वैसी ही है। मां नहीं बदली। विक्टर ह्यूगो ने मां की महिमा इन शब्दों में व्यक्त की है कि एक माँ की गोद कोमलता से बनी रहती है और बच्चे उसमें आराम से सोते हैं। मदर्स डे मनाने का उद्देश्य यह है कि मातृशक्ति के इस रूप के प्रति लोग अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर सकें और माताओं के स्मरण के साथ-साथ मातृशक्ति के प्रति अपने कर्तव्यबोध के प्रति सचेत हों। मदर्स डे का पालन करना मातृशक्ति का सम्मान करना है जो निःस्वार्थ भाव से अपने बच्चों की सेवा व कल्याण के लिए अपना सारा जीवन समर्पित कर देती है।