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ध्रुवीकरण के कारण पश्चिम बंगाल में हिंसा हो रही है, लोग मारे जा रहे हैं, महिलाएँ बलात्कार की शिकार हो रही हैं

ऐसा विश्लेषण करने वालों से मेरा सीधा सवाल है कि यदि आपकी बहन-बेटी-पत्नी को सामूहिक बलात्कार जैसी नारकीय यातनाओं से गुज़रना पड़ता, यदि आपके किसी अपने को राज्य की सत्ता से असहमत होने के कारण प्राण गंवाने पड़ते, क्या तब भी आपका ऐसा ही विश्लेषण होता?

सोचकर देखिए, आप ‘सामूहिक बलात्कार’ जैसे शब्द सुन भी नहीं सकते, उन्होंने भोगा है। बोलने से पहले सोचें। कुछ बातों का राजनीति से ऊपर उठकर खंडन करना सीखें। बौद्धिकता का यह दंभ सनातनी-समाज की सबसे बड़ी दुर्बलता है। ”नहीं जी, मैं उससे अलग हूँ। कि मैं तो भिन्न सोचता हूँ। कि मैं तो मौलिक चिंतक हूँ। कि मैं तो उदार हूँ। देखो, मैं तो तुम्हारे साथ हूँ, उनके साथ नहीं…. आदि-आदि!”

जुनूनी-मज़हबी भीड़ यह नहीं सोचती कि आप किस दल के समर्थन में थे? कि आप उनके साथ खड़े थे! आपको निपटाने के लिए आपका सनातनी होना ही पर्याप्त होगा? कश्मीरी पंडित किस ध्रुवीकरण के कारण मारे और खदेड़ दिए गए? वहाँ किसने उकसाया था? पाकिस्तान और बांग्लादेश में लाखों लोग किस ध्रुवीकरण के कारण काट डाले गए? मोपला, नोआखली के नरसंहार क्या ध्रुवीकरण की देन थे? भारत-विभाजन क्या ध्रुवीकरण के कारण हुआ? क्या उस ध्रुवीकरण में सनातनियों की कोई भूमिका थी? गाँधी क्या ध्रुवीकरण कर रहे थे? क्या वे केवल बहुसंख्यकों के नेता थे? ग़जनी, गोरी, अलाउद्दीन, औरंगजेब, नादिरशाह, तैमूर लंग जैसे तमाम हत्यारे शासक और आक्रांता क्या ध्रुवीकरण की प्रतिक्रिया में हिंदुओं-सनातनियों का नरसंहार कर रहे थे?

काशी-मथुरा-अयोध्या-नालंदा-सोमनाथ का विध्वंस क्या ध्रुवीकरण के परिणाम थे? यक़ीन मानिए, इससे निराधार और अतार्किक बात मैंने आज तक नहीं सुनी!

सच तो यह है कि ऐसा विश्लेषण करने वाले विद्वान या तो कायर हैं या दुहरे चरित्र वाले! किसी-न-किसी लालच या भय में उनमें सच को सच कहने की हिम्मत नहीं! बल्कि जो लोग दलगत राजनीति से ऊपर उठकर पश्चिम बंगाल की हिंसा, अराजकता, लूटमार, आगजनी, सामूहिक बलात्कार जैसी नृशंस एवं अमानुषिक कुकृत्यों पर एक वक्तव्य नहीं जारी कर सके, अपने सोशल मीडिया एकाउंट पर ऐसे कुकृत्यों का पुरजोर खंडन नहीं कर सके, वे भी ऊँची मीनारों पर खड़े होकर मोदी-योगी-भाजपा को ज्ञान दे रहे हैं। यदि किसी को लाज भी न आए तो क्या उसे निर्लज्जता की सारी सीमाएँ लाँघ जानी चाहिए! मुझे कहने दीजिए कि ढीठ और निर्लज्ज हैं आप, इसलिए पश्चिम बंगाल की राज्य-पोषित हिंसा पर ऐसी टिप्पणी, ऐसा विश्लेषण कर रहे हैं।

हिंसा पाप है। पर कायरता महापाप है। कोई भी केंद्रीय सरकार या प्रदेश सरकार भी आपकी हमारी बहन-बेटी-पत्नी की आबरू बचाने के लिए, चौबीसों घंटे हमारी जान की हिफाज़त के लिए पहरे पर तैनात नहीं रह सकती। उस परिस्थिति में तो बिलकुल भी नहीं, जब किसी प्रदेश की पूरी-की-पूरी सरकारी मशीनरी राज्य की सत्ता के विरोध में मत देने वालों से बदले पर उतारू हो! इसलिए आत्मरक्षा के लिए हमें-आपको ही आगे आना होगा। भेड़-बकरियों की तरह ज़ुनूनी-उन्मादी-मज़हबी भीड़ के सामने कटने के लिए स्वयं को समर्पित कर देना महा कायरता है! इससे जान-माल की अधिक क्षति होगी। इससे मनुष्यता का अधिक नुकसान होगा। शांति और सुव्यवस्था शक्ति के संतुलन से ही स्थापित होती है।

जो कौम दुनिया को बाँटकर देखती है, उनके लिए हर समय ग़ैर-मज़हबी लोग एक चारा हैं! जिस व्यवस्था में उनकी 30 प्रतिशत भागीदारी होती है, उनके लिए सत्ता उस प्रदेश को एक ही रंग में रंगने का मज़बूत उपकरण है। गज़वा-ए-हिंद उनका पुराना सपना है। वे या तो आपको वहाँ से खदेड़ देना चाहेंगें या मार डालना। लड़े तो बच भी सकते हैं। भागे तो अब समुद्र में डूबने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा!

हम सनातनियों की सबसे बड़ी दुर्बलता है कि हम हमेशा किसी-न-किसी अवतारी पुरुष या महानायक की बाट जोहते रहते हैं। ईश्वर से गुहार लगाते रहते हैं। आगे बढ़कर प्रतिकार नहीं करते, शिवा-महाराणा की तरह लड़ना नहीं स्वीकार करते! यदि जीना है तो मरने का डर छोड़ना पड़ेगा।

इसलिए मैं फिर दुहराता हूँ कि जो समाज गोधरा जैसी नृशंसता की प्रतिरक्षा में प्रत्युत्तर देने की ताकत रखता है, वही अंततः अपना अस्तित्व बचा पाता है। सरकारों के दम पर कभी कोई लड़ाई नहीं लड़ी व जीती जाती! सभ्यता के सतत संघर्ष में अपने-अपने हिस्से की लड़ाई या तो स्वयं या संगठित समाज-शक्ति को ही लड़नी होगी। मुट्ठी भर लोग देश के संविधान, पुलिस-प्रशासन, क़ानून-व्यवस्था को ठेंगें पर रखते आए हैं, पर हम-आप केवल अरण्य-रोदन रोते रहे हैं! संकट में घिरने पर इससे-उससे प्राणों की रक्षा हेतु गुहार लगाते रहे हैं! बात जब प्राणों पर बन आई हो तो उठिए, लड़िए और मरते-मरते भी असुरों का संहार कीजिए। आप युद्ध में हैं, युद्ध में मित्रों की समझ भले न हो, पर शत्रु की स्पष्ट समझ एवं पहचान होनी चाहिए। याद रखिए, युद्ध में किसी प्रकार की द्वंद्व-दुविधा, कोरी भावुकता-नैतिकता का मूल्य प्राण देकर चुकाना पड़ता है! इसलिए उठिए, लड़िए और अंतिम साँस तक आसुरी शक्तियों का प्रतिकार कीजिए। हमारे सभी देवताओं ने असुरों का संहार किया है। आत्मरक्षा हेतु प्रतिकार करने पर कम-से-कम आप पर हमलावर समूह में यह भय तो पैदा होगा कि यदि उन्होंने सीमाओं का अतिक्रमण किया, अधिक दुःसाहस किया या जोश में होश गंवाया तो उनके प्राणों पर भी संकट आ सकता है!

रवींद्रनाथ टैगोर : जिसने तीन देशों को दिए राष्ट्रगान व भारत को पहला नोबेल पुरस्कार

भारतीय इतिहास गौरवशाली गाथाओं से भरा हुआ है | इस पावन धरा पर विश्वविजेताओं की संख्या का भी कोई हिसाब नही | किन्तु इतिहास के राजाओं और पराक्रमियों से ही राष्ट्र महान नहीं बनता | क्या कोई सोच सकता है, कि किसी की लिखी हुई कविताएँ नोबेल पुरस्कार से विभूषित करा सकती है ? कोई भी गौरवशाली राष्ट्र राष्ट्रगान के बिना अधूरा सा लगता है, क्योंकि राष्ट्रगान उस देश के गौरव का ऐसा गीत होता है, जो प्रत्येक देशवासी को देश पर गर्व, राष्ट्रप्रेम, समर्पण और जनहित करना सिखाता है | भारत का गौरवशाली राष्ट्रगान जन–गण-मन है | आइये जानते हैं उस कविता और राष्ट्रगान के बारे में ?

कोलकाता में एक समाज-सुधारक के पुत्र के रूप में 7 मई 1868 को जन्मा था राष्ट्रगान का लेखक, जिसका नाम था रवींद्रनाथ ठाकुर | हालांकि उन्हें रवींद्रनाथ टैगोर के नाम से बहुतायत से जाना जाता है | नाम की पुष्टि हमेशा से विवादों में रहकर भी पूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाई है | कहा जाता है, कि रवींद्रनाथ जी का परिवार अपने नाम के साथ ‘ठाकुर’ का उपयोग करता था और बाद में उन्हें ‘टैगोर’ कहा जाने लगा। बाल्यकाल से ही हिंदी प्रेमी रहे रवींद्रनाथ ने आठ वर्ष की उम्र में अपनी पहली कविता लिखी और 16 वर्ष के हुई तो उनकी लघुकथा ने सबको मुग्ध कर दिया | टैगोर के बंग्ला गीतों का संग्रह “गीतांजलि” बहुत लोकप्रिय हुआ | “गीतांजलि” के साथ अन्य संग्रहों से गीत चुनकर बनाए गये अंग्रेजी गद्यानुवाद संग्रह के लिए साहित्यिक क्षेत्र में उन्हें नोबेल पुरस्कार दिया गया, जिसे प्राप्त करने वाले वे प्रथम भारतीय हैं | जिस संग्रह को पुरस्कार के लिए चुना गया उसका नाम कवि ने “गीतांजलि : सॉंग ऑफ़रिंग्स” रखा था | रवींद्रनाथ टैगोर न केवल कवि वरन निबंधकार, उपन्यासकार, नाटककार व गीतकार भी थे | भारत को “जन–गण-मन”, श्रीलंका को “श्रीलंका माता” और बांग्लादेश को “आमान सोनार बंग्ला” नामक राष्ट्रगान की सौगात देने वाले टैगोर एकमात्र भारतीय कवि हैं | उनकी रचनाओं में गीतांजली, गीताली, गीतिमाल्य, कहानी, शिशु, शिशु भोलानाथ, कणिका, क्षणिका, खेया आदि प्रमुख हैं | उन्होंने कई किताबों का अनुवाद अंग्रेज़ी में किया। अंग्रेज़ी अनुवाद के बाद उनकी रचनाएं जगत का दिल छू लिया | हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली से इनके गीत प्रभावित हैं |

वर्तमान समाज और प्राचीन समाज की समीक्षा करें तो विचार आता है, कि कागजी लेखन को कितने मनोरम रूप में पढ़ा जाता होगा | रवींद्रनाथ टैगोर की साहित्यिक उपलब्धियां उस समय के साहित्यिक समाज की चरम सृजनात्मकता का बखान चीख – चीखकर कर रही है | आज समाज विकास की मुख्य धारा से जुड़ने के लिए अनवरत प्रयास कर रहा है, किन्तु सही और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव 21वी सदी के लिए शापित है | आधारभूत शिक्षा, नैतिक मूल्य और व्यवहारिक ज्ञान आज सुनियोजित समाज की अपेक्षा है, जिससे बढ़ता अपराध, द्वेष की भावना, भाई-भतीजावाद, आतंकवाद, हिंसा और दुराचार कम और ख़त्म हो सके | रवीन्द्रनाथ टैगोर जी ने लन्दन के विश्वविद्यालय से कानून की शिक्षा ली किन्तु डिग्री प्राप्त किए बिना ही भारत लौट आए | उनसे सीखा जा सकता है, कि केवल डिग्री प्राप्त करना ही शिक्षा की पूर्णता का प्रमाण नहीं है, बल्कि यथार्थ ज्ञान का होना महत्वपूर्ण है |

हिन्दी उर्दू एक सिर दो धड़ है

—विनय कुमार विनायक
जवाहरलाल नेहरू का कहना है,
हिन्दी उर्दू एक सिर दो धड़ है!

इससे सटीक परिभाषा हो नहीं
सकती हिन्दी व उर्दू भाषा की!

हिन्दी वाक्य रचना में संस्कृत,
औ’कुछ देशी-विदेशी शब्द होते!

इन विदेशी शब्दों में अरबी एवं
फारसी सायास मिलाई जाती है!

उर्दू जबतक विदेशी लिपी में है,
तब तक जनता नहीं चाहती है!

नस्तालीक उर्दू की है दुखती रग,
नागरी लिपि में उर्दू फैलेगी जग!

उर्दू की इकलौती विधा ये गजल,
गजल होती नहीं है काव्य प्रांजल,

गजल का क्षेत्र है, इश्क मुहब्बत,
या ईश्वर, अल्लाह,खुदा और रब!

अरबी गजल में औरत की बातें,
फारसी इश्क मजाजी से हकीकी!

भारतीय गजल का जनक खुसरो
एक विदेशी,जिसे प्रिय थी हिन्दी!

पच्चीस मिसरे तक होती गजल,
काव्य-महाकाव्य ना होती गजल!

गजल तुकबंदी के, बल पे टिकी,
गजल में देश-धर्म, संस्कृति नहीं!

गजल की पहचान साम्प्रदायिक,
साम्प्रदायिक सोच-विचार गजल!

गजल में धौंस जमाने की प्रवृत्ति,
गजल कोसने हेतु है विधा-विधि!
—विनय कुमार विनायक
दुमका, झारखण्ड-814101.

सोनू सूद: सेवा को तत्पर सिनेमा का नायक

वो बेटे के एक ट्वीट पर उसकी मां को आॅक्सीजन पहुंचा रह है। एक अनुरोध पर जीवनदायिनी दवा का इंतजाम कराता है। लाॅकडाउन में फसे मजदूरों के लिए लग्जरी बस पहुंचाकर उन्हें घर की दहलीज तक सुरक्षा देता है। खुद बीमार होकर लगातार सबकी खैर खबर लेता है। कोरोना को 5 दिन में हराने की प्रेरक कहानी खुद असल जीवन में जीकर दिखाता है। वो महामारी के इस तांडव में सबकी पीठ पर विश्वास का हाथ नजर रखे हुए नजर आता है। फिर क्यों न कहें हम फिल्मों के ऐसे नायक को असली जिंदगी का महानायक।
दोस्तों अभिनेता सोनू सूद आपदा के इस काले अंधेरे में ऐसे नायक के रुप में ही हमारे सामने हैं। यूं तो फिल्मी दुनिया के अनेक सितारे किसी न किसी तरीके से लोगों की मदद कर रहे हैं। इनमें अक्षय कुमार, अजय देवगन से लेकर उत्तराखंड की उर्वशी रतौला आदि बहुत से नए पुराने सितारे हैं। कुछ सितारे खुद खर्च कर रहे हैं तो कुछ अपने संबंधों के जरिए स्वास्थ्य व्यवस्थाओं के लिए काम कर रहे हैं। मथुरा की सांसद हेमामालिनी ने केट आरोह के जरिए आॅक्सीजन का कुछ इंतजाम कराया है। प्रियंका चोपड़ा अमेरिका से बैठकर अपने देश के लिए कुछ करती नजर आ रही हैं। उन्होंने अपने प्रशंसकों से आपदा में भारत की मदद का आहवान किया है। इन सारी नेकी को सैल्यूट। अगर कुछ नेकी चुपचाप की जा रही हैं तो उनको बारंबार सैल्यूट। हमारा आपका प्यारा भारत देश हर छोटे से छोटे सहयोग से इस समय आत्मविश्वास पाएगा। कोई दो राय नहीं सिनेमा की दुनिया से नेकी के इन प्रयासों में सोनू सूद मीलों आगे चल रहे हैं। पिछले साल 2020 में जब दुनिया को डराता हुआ कोरोना भारत आया तो लाॅकडाउन से काफी कुछ बदल गया। सारे काम धंधों और कमाने खाने की दिनचर्या जैसे थम सी गयी। ऐसे दौर में हमारे श्रमिक और दिल्ली, मुंबई में महानगरों में रहने आए प्रवासी मजदूर सबसे पहले परेशान हुए। लाॅकडाउन में जब वे घर के अंदर खाली जेब और खत्म राशन से दो चार हुए तो मीलों दूर पैदल ही अपने घर को निकल पड़े। जगह जगह पुलिस बैरीकेडिंग के बीच तपती धूप में मीलों बीबी बच्चों सहित पैदल चलते रहे। इन विकट दृश्यों से जब शासन प्रशासन जूझता नजर आया तो मदद के बड़े हुए हाथों में एक हाथ बड़े दिल वाले नायक सोनू सूद का भी था। उन्होंने भूखों को खाना, नंगे पैर वाले को जूते चप्पल से लेकर राशन, आवागमन को बस, रेल और यहां तक की हवाई जहाज के टिकट का इंतजाम भी कराया। वे साल भर से दवाई, बेड आदि के लिए मदद कर रहे थे और कोरोना की दूसरी लहर में भी उनका हौंसला कमजोर नहीं पड़ा है।

मुंबई के अनेक सितारों की गाढ़ी कमाई के बाबजूद ऐसी दिलेरी हर कोई नहीं दिखा पाया है। दशकों से पूरे भारत को कोका कोला और थम्सअप पिलाना सिखाने वाले हमारे अनेक सितारा बंधु क्या कितना कर रहे हैं वे ही जानते होंगे। वे जितना अभी कर रहे हैं उसके लिए उन्हें बहुत बहुत साधुवाद। वे इससे ज्यादा भी बहुत कुछ कर सकते हैं। हिन्दी फिल्मों के महानायक कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन भी जो कर रहे हों उसको बार बार प्रणाम। वे इसके आगे भी कई गुना ज्यादा कर सकते हैं क्योंकि उनका कद हर मोर्चे पर बहुत उंचा है। वे मदद के लिए देश भर के धनवानों से अपील क्यों नहीं करते। आमिर, सलमान, शाहरुख भी अब तक जो कर रहे हैं उसके लिए उनका अभिनंदन मगर देश जानता है कि वे इससे बहुत ज्यादा करने की ताकत रखते हैं। छोटे नवाब और पटौदी के जागीरदार सैफ अली खान को भी मुश्किल वक्त में तैमूर को गोदी से उतारकर और चौथी संतान का बराबर ख्याल रखते हुए मदद के इस अभियान में दमदारी से आगे आना चाहिए। दीपिका पादुकोण, स्वरा भास्कर, कांेकणा सेन शर्मा, जावेद अख्तर, शबाना आजमी को इस समय खुलकर मदद की अपील करना चाहिए और जो जितना खुद से बन पड़े लोगों की मदद करना चाहिए। कंगना रनौत को भी अपनी सितारा छवि के जरिए सावधानी की हर अपील बार बार लगातार करना चाहिए। वे और उन जैसे हर क्षमतावान नायक नायिका और फिल्मकार को दिल खोलकर लोगों की मदद करना चाहिए। करोड़ों के विज्ञापन और फीस आपको निर्माता भी देता है जब देश के ये लोग आपकी फिल्मों और विज्ञापनों को पसंद करते हैं। अपनी जेब ढीली करके आपकी फिल्में देखते हैं। आपकी की हुई मदद को बारंबार प्रणाम मगर आप सबको अभी रुकना नहीं है। आपकी आवाज में बहुत ताकत है। आप आपदा में देश के लोगों का हौंसला बढ़ा सकते हैं, डाॅक्टरों की नसीहत उनके दिल दिमाग में बैठा सकते हैं और अपने अपने बस तक बहुत सारी मदद कर सकते हैं तो ऐसा करते रहिए। सोनू सोद को आखिर में दुबारा सलाम। वे रास्ते बनाते हुए आॅक्सीजन, दवाएं आदि लेकर आगे आगे चल रहे हैं। बाकी सितारे तबीयत से उनका पीछा करें और नेकी की इस रेस में एक दूसरे को हराने में पीछे न रहें।

कोरोना त्रासदी(अपनों को खोने का गम )


अंधेरे में डूबा है यादों का गुलशन
कहीं टूट जाता है जैसे कोई दर्पण
कई दर्द सीने में अब जग रहे हैं
हमारे अपने ,हमसे बिछड़ रहे हैं
न जाने ये कैसी हवा बह रही है
ज़िन्दगी भी थोड़ी सहम सी गई है
हवाओं में आजकल ,कुछ तल्खियां हैं
राहों में आजकल ,कुछ पाबंदियां लग गई हैं ||
आंखों का है धोखा या धोखा मिट रहा है
फूलों में आजकल ,कुछ बेनूरियां हो गई हैं
ज्वार समुन्दर में आया बेमौसम है
नदियां बेखौफ मचलने लगी हैं
विसाते जीस्त पर वक्त ,एक बाजी चल रहा है
उठता धुआं, आकाश की लालिमा पी रहा है
न जाने ये कैसी हवा बह रही है
ज़िन्दगी भी थोड़ी सहम सी गई है
हवाओं में आजकल ,कुछ तल्खियां हैं
राहों में आजकल ,कुछ पाबंदियां लग गई हैं ||
अब रंगों में ,जहर घुल गया है
आग कितनी आम हो गई है
अल्फाज थक गये हैं या ख़त्म बाते हुई हैं
दर्द की तस्वीरों में ,आरजू बिखर सी गई है
न जाने ये कैसी हवा बह रही है
ज़िन्दगी भी थोड़ी सहम सी गई है
हवाओं में आजकल ,कुछ तल्खियां हैं
राहों में आजकल ,कुछ पाबंदियां लग गई हैं ||
नाम : प्रभात पाण्डेय

बदहाली के दलदल में धंसते श्रमिक

-अरविंद जयतिलक
यह विडंबना है कि एक ओर वैश्विक समुदाय कल्याणकारी योजनाओं के जरिए श्रमिकों की दशा में सुधार के लिए प्रयासरत है वहीं श्रमिक उबरने के बजाए बदहाली के दलदल में धंसते जा रहे हैं। कल्याणकारी योजनाओं के लागू होने के बाद उम्मीद जगी कि श्रमिकों की संख्या में कमी आएगी। लेकिन गौर करें तोउनकी संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की मानें तो उभरते हुए विकासशील देशों में आज 70 करोड़ से अधिक श्रमिक गरीबी का दंश भोगने को मजबूर हैं।े इस संगठन के आंकड़ें के मुताबिक यह श्रमिक वर्ग प्रतिदिन 3.50 डाॅलर प्रति व्यक्ति की आय से खुद को उपर नहीं उठा पा रहा है। आंकड़ों के मुताबिक उनके विकास और प्रगति की दर बेहद धीमी और निराशाजनक है। सच कहें तो विकासशील देश बढ़ते श्रम बल के साथ श्रमिकों को बेहतर जीवन देने में अभी तक नाकाम साबित हुए हैं। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के जरिए भी तथ्य उजागर हो चुका है कि दुनिया भर में आर्थिक समृद्धि बढ़ी है लेकिन उस अनुपात में श्रमिकों की हालत में सुधार नहीं हुआ है। भारत के संदर्भ में बात करें तो यहां श्रमबल जनसंख्या तकरीबन 460 मिलियन है जिसमें 430 मिलियन कामगार असंगठित क्षेत्र की विषम परिस्थितियों से संबंधित हैं। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 65 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र के कामगारों से प्राप्त होता है। इनमें भी असंगठित क्षेत्र का लगभग 48.5 प्रतिशत महिला कामगारों का है। गौर करें तो इन पर उत्पादन कार्य और प्रजनन का दोहरा बोझ है। इन श्रमिकों का जीवन बदतर और बदहाल है। जबकि आजादी के बाद से ही देश की सरकारें कल्याणकारी योजनाओं और सुधारात्मक कानून के जरिए कृषि श्रमिकों, बाल श्रमिकों, महिला श्रमिकों एवं संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के जीवन स्तर को सुधारने में जुटी हैं। लेकिन अभी तक कोई क्रांतिकारी बदलाव देखने को नहीं मिला है। कृषि-श्रमिकों की ही बात करें तो यह वर्ग भारतीय समाज का सबसे दुर्बल अंग बन चुका है। यह वर्ग आर्थिक दृष्टि से अति निर्धन तथा सामाजिक दृष्टि से अत्यंत शोषित है। इनकी आय बहुत कम है। यह वर्ग गरीबी रेखा के नीचे जीवन गुजारने को अभिशप्त हैं। अधिकांश कृषि-श्रमिक भूमिहीन तथा पिछड़ी, अनुसूचित जाति एवं जनजातियों से हैं। इनके बिखरे हुए एवं असंगठित होने के कारण किसी भी राज्य में इनके सशक्त संगठन नहीं है जो इनके अधिकारों की रक्षा कर सके। नतीजा उनकी समस्याएं दिनों दिन बढ़ती जा रही है। एक आंकड़े के मुताबिक देश में कृषि मजदूरों की संख्या में हर वर्ष इजाफा हो रहा है। यह स्थिति तब है जब कृषि-श्रमिकों के कल्याण के लिए देश में रोजगार के विभिन्न कार्यक्रम मसलन ‘अंत्योदय अन्न कार्यक्रम’, ‘काम के बदले अनाज’, ‘न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम’, ‘जवाहर रोजगार योजना,’ ‘रोजगार आश्वासन योजना’ एवं ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण गारंटी योजना’ जैसी कई योजनाएं चलायी जा रही हैं। यहां समझना होगा कि कृषि करने वाले किसान ही कृषि-श्रमिक बन रहे हैं। दरअसल प्रकृति पर आधारित कृषि, देश के विभिन्न हिस्सों में बाढ़ एवं सूखा का प्रकोप, प्राकृतिक आपदा से फसल की क्षति और ऋणों के बोझ ने किसानों को दयनीय बना दिया है। हां यह सही है कि सरकार ने कृषि-श्रमिकों आर्थिक एवं सामाजिक दशाओं में सुधार के लिए न्यूनतम मजदूरी अधिनियम गढ़ा है लेकिन इस अधिनियम के प्रावधानों का कड़ाई से पालन नहीं होने से श्रमिकों की दशा में अपेक्षित सुधार नहीं हो पा रहा है। उचित होगा कि सरकार इस अधिनियम के प्रावधानों का कड़ाई से पालन कराए तथा श्रमिकों के कार्य के घंटों का नियमन करे। यह भी सुनिश्चित करे कि अगर कृषि-श्रमिकों से अतिरिक्त कार्य लिया जाता है तो उन्हें उसका उचित भुगतान हो। भूमिहीन कृषि-श्रमिकों की दशा सुधारने के लिए उन्हें भूमि दी जाए। जोतों की अधिकतम सीमा के निर्धारण द्वारा प्राप्त अतिरिक्त भूमि का उनके बीच वितरण किया जाए। भू आंदोलन के अंतर्गत प्राप्त भूमि का वितरण करके उनके जीवन स्तर में सुधारा लाया जाए। गौर करें तो महिला श्रमिकों की हालत और भी त्रासदीपूर्ण है। एक आंकड़े के मुताबिक विश्व के कुल काम के घंटों में से महिलाएं दो तिहाई काम करती हैं लेकिन बदले में उन्हें सिर्फ 10 प्रतिशत ही आय प्राप्त होता है। भारतीय संदर्भ में महिला श्रमिकों की बात करें तो पिछले दो दशक के दौरान श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। भारत में अधिकतर महिलाएं विशेष रुप से गामीण महिलाएं कृषि कार्य से जुड़ी हैं। किंतु चिंता की बात है कि उन्हें उनके परिश्रम का उचित मूल्य और सम्मान नहीं मिल रहा है। यही नहीं एक श्रमिक के रुप में महिला श्रमिक की पुरुष श्रमिक से अलग समस्याएं होती हैं जिनका श्रम कानूनों में कोई उल्लेख नहीं हैं उचित होगा कि देश की सरकारें इस दिशा में सुधारवादी कदम उठाएं। यहां जानना आवश्यक है कि संगठित क्षेत्र में 20 हजार से अधिक श्रमिक संगठन हैं। वे अपनी समस्याओं को पुरजोर तरीके से उठाते हैं। सरकार से अपनी मांग पूरा कराने में भी कामयाब हो जाते हैं। लेकिन असंगठित क्षेत्र को यह लाभ नहीं मिल पा रहा है। छोटे व सीमांत किसान, भूमिहीन खेतीहर मजदूर, हिस्सा साझा करने वाले, मछुवारे, पशुपालक, बीड़ी रोलिंग करने वाले, भठ्ठे पर काम करने वाले, पत्थर खदानों में लेबलिंग एवं पैकिंग करने वाले, निर्माण एवं आधारभूत संरचनाओं में कार्यरत श्रमिक, चमड़े के कारीगर इत्यादि असंगठित क्षेत्र के श्रमिक हैं। गौरतलब है कि श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने असंगठित क्षेत्र में आने वाले श्रमिकों के कल्याण के लिए श्रमिक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम 2008 अधिनियमित किया है। लेकिन जब तक सरकार सुरक्षा अधिनियम के प्रावधानों को कड़ाई से क्रियान्वयन नहीं कराएगी तब तक उसका समुचित लाभ श्रमिकों को नहीं मिलेगा। देखा जा रहा है कि सख्त कानून के बावजूद भी कल-कारखाने, कंपनियां और उद्योग समूह अपने कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा रहे हैं। कोरोना महामारी के इस समय हालात तो और अधिक बदतर हैं। उचित होगा कि सरकार श्रमिकों की सुरक्षा के लिए ऐसी कंपनियों और उद्योगों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई करे ताकि असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के साथ नाइंसाफी न हो। दूसरी ओर देश से बालश्रम मिटाने की चुनौती भी जस की तस बरकरार है। देश में सख्त कानून होने के बावजूद भी तकरीबन 50 लाख बाल श्रमिकों की स्थिति दयनीय बनी हुई है। याद होगा गत वर्ष पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने बाल श्रमिकों की दुर्दशा को लेकर सख्त नाराजगी जताते हुए सरकार को ताकीद किया था कि बाल मजदूरी से जुड़ी शिकायतों पर 24 घंटे के भीतर कार्रवाई हो और बचाए गए बच्चों को मुआवजा देने और उनके पुनर्वास का काम 45 दिनों में सुनिश्चित हो। लेकिन इस सख्त आदेश के बावजूद भी बाल श्रमिकों के साथ ज्यादती जारी है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 23 व 24 में स्पष्ट प्रावधान है कि मानव तस्करी व बलात् श्रम के अलावा 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखानें और जोखिम भरे कार्यों में नहीं लगाया जा सकता। दुखद पहलू यह भी कि बाल श्रम से जुड़े बच्चों का इस्तेमाल वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी जैसे घृणित कार्यों में हो रहा है। एक जिम्मेदार राष्ट्र व संवेदनशील समाज के लिए यह स्थिति शर्मनाक है। आंकड़ों पर विश्वास करें तो आज भारत 14 साल से कम उम्र के सबसे ज्यादा बाल श्रमिकों वाला देश बन चुका है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक दुनिया भर में तकरीबन 20 करोड़ से अधिक बच्चे जोखिम भरे कार्य करते हैं जिनमें से सर्वाधिक संख्या भारतीय बच्चों की ही है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ के मुताबिक विश्व में करीब दस करोड़ से अधिक 14 वर्ष से से कम उम्र की लड़कियां विभिन्न खतरनाक उद्योग-धंधों में काम कर रही हैं इनमें भी सर्वाधिक संख्या भारतीय बच्चियों की ही है। आज की तारीख में इनका जीवन संकट में है। वे आर्थिक बदहाली के कारण त्रासदी भोगने को मजबूर हैं। सच कहें तो यह स्थिति भारत राष्ट्र के माथे पर कलंक जैसा है। उचित होगा कि देश की सरकारें संगठित व असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की दशा सुधारने के लिए मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाएं।

सैंया भये कोतवाल

“हर आम -ओ- खास को इत्तला दी जाती है कि फेसबुक और व्हाट्सएप्प ग्रुप की महारानी हवाखोरी के लिये नैनीताल गयी हैं ,उनकी रियाया जो कि इल्म की भूखी है उसकी जेहनी खुराक के लिए जनाब कालीन कर्मा और मोहतरमा ओमनी शर्मा को वजीर घोषित किया जाता है ,मोहतरमा ओमनी शर्मा खरीद -बिक्री का हिसाब -किताब देखेंगी और इस सल्तनत के हर कलेक्शन की रपट महारानी को रोज शाम को मोबाइल से भेज दिया करेंगी “।

एक तालिब -ए-इल्म ने सवाल किया –

“तो कालीन भैया क्या करेंगे खाली इल्म का कट्टा बेचेंगे मिर्जापुर वाले कालीन भैया की तरह “।

मुनादी वाला जोर से चीखा –

“चुप रहो, ये महारानी की शान में गुस्ताखी है । फेसबुकिया सल्तनत में ऐसे सवालों की सजा सिर्फ ब्लॉक है । लेकिन हमारी महारानी लोगों के खून -पसीने को चूसकर, नहीं-नहीं अपना खून -पसीना बहाकर महारानी बनी हैं ,इसलिये वो रियाया को मुआफी दे देती हैं। ए कमजर्फ मुनादी पूरी सुन । कालीन कर्मा साहब मौके पर सदर -ए -रियासत होंगे। कालीन कर्मा साहब ने अपनी बीवी को मायके भेज दिया है और बच्चे की आन लाइन क्लास वहीं से होगी। हमारी महारानी उनकी खिदमत से बेहद खुश हैं , महफिलों में दरी बिछाने से लेकर चाय -पानी तक की अपनी जेब से खिदमत की है ,इसलिये महारानी आज उनको ये मुकाम अता फरमा रही हैं “।

रियाया से किसी ने अपने दिल का दर्द बयां किया –

“अजब दुनिया है शायर यहां पर सर उठाते हैं
जो शायर हैं वो महफिलों में दरी चादर उठाते हैं “।

मुनादी करने वाला चीखा –

“चुप कर नामाकूल , महारानी जी कहती हैं कि हमने किसी शायर से दरी -चादर नहीं उठवाई ,अलबत्ता दरी -चादर उठाने वालों को हमने शायर बना दिया ।कुलीन कर्मा एडहॉक पर सीढियां उठाते थे सरकारी महकमे की , अब देखो बड़े -बड़े तमगे उठाएंगे। उन्हें ये अख्तियार होगा कि वो बड़े से बड़े अदीब को फेसबुक ग्रुप से निकाल सकें , उन्हें ये भी अख़्तियार होगा कि वो जलीलतरीन किस्सों पर तबादले -ए-ख्याल करवा सकेंगे फेसबुक के ओपन फोरम पर । जो ख्याल किस्से के खिलाफ होंगे उनको नेस्तानाबूद कर दिया जायेगा और जो ख्याल किस्से के हक में होंगे ,उस जलीलतरीन किस्से के बेहतरीन होने की तस्लीम करेंगे ,उनको ही शाया होने दिया जायेगा “।

रियाया में फिर एक आवाजे बुलन्द आयी –

“तुम्हारी महफ़िल का तो हर किस्सा घटिया -ए-अजीम है । फिर वो खुशनसीब किस्सा किस नेकबख्त का होगा उसे कौन तय करेगा कालीन कर्मा या और कोई “।
मुनादी वाला फिर चीखा –

“ए कमजर्फ , बद दिमाग , तनखैय्या वजीरों को हुकूमतों के रोजमर्रा के कामों के लिये रखा जाता है ,बादशाही फैसले तो बेगम साहिबा ,मतलब महारानी ही लिया करेंगी , फैसले रियाया को और वजीरों को इत्तला कर दिए जाएंगे। किस जलील तरीन किस्से को चुनकर बेहतरीन का खिताब देना है ,ये बादशाही फैसले नैनीताल से ही आएंगे”।
कोई अहमक रियाया फिर पूछ ही बैठा –

“तो कोई जिस बदतरीन किस्से को ख़िताब देकर बेहतरीन किया जायेगा ,उसे रिसालों में जगह मिलेगी या नहीं । और एक रजील फरमा रहा था कि उस बदतरीन किस्से पर मुकम्मल किताब शाया होगी या नहीं ,और होगी तो मदद -ए-माश का रेट बताएं “।

मुनादी वाला और मोहतरमा वजीर -ए -खजाना दोनों तिलमिला उठे। शाही फरमान पर कुछ बोलने ही वाले थे कि किसी इल्मी रियाया ने एक शेर पढा –
“खुदा ने हुस्न नादानों को
बख्शा जर रजीलों को
अक्लमंदों को रोटी खुश्क
औ हलुआ वखीलों को “।

दोनों वजीरों और मुनादी करने वालों के सर के ऊपर से बात निकल गयी । उन्हें याद आया कि वो शायरी के तुकबंद तो हैं ,चुनाँचे कि उर्दू उन्होंने सीखी नहीं है ।
ये तो मसला -ए -फजीहत है सो उन्हेंने बेगम -ए-इल्म को नैनीताल फोन लगाया । बेगम साहिबा को याद आया कि उनके पास उर्दू के आलिम और संस्कृत के शास्त्री की डिग्री तो है मगर ये जुबानें उंन्होने सीखी नहीं है , उनके फेसबुक के हामियों की मेहरबानी है कि ये कि संस्कृत की डिग्री उन्हें दिल्ली की बुटीक वाली खातून ने बनवा दी थी दोस्ती का नजराना देकर और संस्कृत के शास्त्री डिग्री का बंदोबस्त उनके जयपुर के एक और दरी -चादर उठाने वाले तुकबंद शायर ने दी थी । उन्हीं कागजी नजरानों के एवज में आज उनको दो वजीर मिले ।
लेकिन रियाया , हुक्मरानों से ज्यादा होशियार निकली , उसमें किसी ने ऐसा शेर पढ़ दिया कि हुक्मरान तिलमिला उठे फेसबुक ग्रुप के।
ताकीद की गयी कि बादशाही मसले यूँ सबके सामने नुमायां नहीं किये जा सकते ।
नतीजतन एक और मुनादी की गई –
“जिस भी मोहतरमा या हजरात को बेगम के बादशाही फैसलों पर नुक्ता चीनी करनी वो व्हाट्सअप ग्रुप में शामिल हो जाएं। बेगम की बादशाहीयत पर यूँ सरेआम सवाल उठाना अदीब की नहीं अदब की गुस्ताखी है “।

“सवाल गुस्ताखी का नहीं सवाल रेट का है ,कितने लगेंगे ,जितने पिछली बार लगे थे क्या उतने ही लगेंगे ” अदब की रियाया में घुसे एक मामूली शख्स ने पूछा ?

मुनादी वाले के साथ -साथ दोनों वजीर चीखे –

“ए नामाकूल ये नाफरमानी है , बेगम साहिबा किसी से पैसे नहीं लेतीं ,कोई नहीं कह सकता कि उन्होंने किसी से पैसे लिये हो कभी ,अलबत्ता ये तो उनके फ़ेसबुकिया रियाया की प्यार मोहब्बत है जिसकी वो मेहमाननवाजी कुबूल फरमाती रही हैं। कपड़े,पापड़,अचार , और तमाम जनाना सामान उन्हें चढ़ावे में मिलते हैं , वैसे तो वो बहुत मना करती हैं मगर लोग हैं कि मानते नहीं ।अब ये तो उनकी फेसबुक पर सल्तनत है कि लोग उन पर प्यार और समान लुटाते हैं”।

“तो ये नैनीताल का सफर अपने पैसों से हो रहा है कि ये भी किसी मेहमाननवाज का प्यार है “
रियाया के किसी चोट खाये तुकबंद शायर ने पूछा ।

मुनादी वाला , मोहतरम और मोहतरमा वजीर तिलमिलाए । वो कुछ कहने वाले थे तब तक एक और चोट खायी बन्दी चीखी-

” बेगम साहिबा से कहो ,नैनीताल बाद में जाएं ,पहले गुजिश्ता बरस दिल्ली सफर के जो देनदारियां हैं वो निपटा दें , वो मैंने जाती कर्जा दिया था ,उंन्होने तस्लीम भी किया था ,और अब उसे वो जबरदस्ती मेरी मेहमाननवाजी के तले दबाना चाहती हैं। मांग -मांग कर थक गए मगर बेगम हैं कि यही फरमाती हैं कि वो पैसों के बदले मुझे बड़ा शायर बना देंगी। जब इन्हें एक अदने से शेर का तर्जुमा नहीं मालूम तो मुझे क्या खाक शायर बनाएंगी।
ये सुनिए मोहतरम
“शायरी चारा समझकर वैसाखनन्दन चरने लगे
शाइरी आये नहीं, शायरी करने लगे”
ये शेर पढ़कर उसने फरियाद की
“बेगम साहिबा मेरे पैसे दो “।

उसके ऐसा कहती ही मुनादी करने वाले ने मुनादी छोड़कर उस अदनी सी रियाया पर छलांग लगा दी पिटाई करने के लिये , बेगम साहिबा की शान में गुस्ताखी होने पे मोहतरम कालीन कर्मा ने सचमुच कट्टा निकाल लिया ,दूसरी मोहतरमा वजीर ने अपनी सैंडिल निकालकर वार करना शुरू कर दिया।
इधर ये जूतमपैजार चल रही थी उसी के पीछे एक बारात निकल रही थी जिसमें गाना बज रहा था –
“सैयां भये कोतवाल ,अब डर काहे का “।

ये सब देखकर मैंने हुकूमत और रियाया के झगड़े से खिसक कर बारात का लुत्फ़ लेना ही उचित समझा।☺️

मिथक से यथार्थ बनी ययाति कन्या माधवी की गाथा

—–विनय कुमार विनायक
हे माधवी!
जिन आठ सौ अश्वमेधी/श्यामकर्णी
श्वेतवर्णी घोड़े के लिए तुम बेच दी गई
चार-चार पुरुषों के हाथों में,
वे महज घोड़े नहीं औकात के पैमाने थे
एक कुंवारी कन्या के पिता के,
चक्रवर्ती-महादानी होने के मिथ्या दंभ के!

जो सहस्त्रों गौ-हाथी-घोड़े दान करके
रिक्त हस्त हो चुके चतुर्थाश्रमवासी ययाति थे
जो समय रहते एकमात्र कन्या तुझ माधवी को
ब्याहने से चूके लाचारी में संन्यासी हुए थे!

हां माधवी! ये तुम्हारे पिता ययाति हीं थे
जिनकी मिटी नहीं थी आकांक्षा
पूरे राजकीय तामझाम से दान-दहेज देकर
किसी चक्रवर्ती से कन्या ब्याहने की,
चक्रवर्ती दौहित्रों के नाना कहलाने की!

हे माधवी!
जिन आठ सौ अश्वमेधी/श्यामकर्णी
श्वेतवर्णी घोड़े के लिए
तुम ढकेल दी गई थी तीन अधबूढ़े राजे
और चौथेपन में राजर्षि से ब्रह्मऋषि बने
बूढ़े गुरु विश्वामित्र के शयन कक्ष में,
वे महज घोड़े नहीं तत्कालीन,
दमित वासना-कामना के आईने थे
राजभोगी से ब्रह्मयोगी बने गुरु के गुरूर के!

जिन्होंने एक ब्राह्मण शिष्य गालव से
मांगी थी अब्राह्मणोचित गुरु दक्षिणा में
उन आठ सौ अश्वमेधी-श्यामकर्णी
श्वेतवर्णी घोड़े को जो समस्त आर्यावर्त के
सभी अश्वमेधी घोड़ों की गिनती थी!

जो राजर्षि गुरु विश्वामित्र के पिता गाधी से
उनके पुरोहित ऋचिक ने चालाकी वश दान में लिए
और लगे हाथ बनियों की भांति
कई राजे-महाराजे को बेच दिए थे!

उन घोड़ों की गृहवापसी के लिए
यजमान जाति से याचक जाति बने थे
विश्वरथ से गुरु राजर्षि विश्वामित्र!

हे माधवी!
जिन आठ सौ अश्वमेधी/श्यामकर्णी
श्वेतवर्णी घोड़े के लिए
तुम थमा दी गई थी एक महत्वाकांक्षी
स्नातक ब्राह्मण ब्रह्मचारी गालव के हाथों
वे महज घोड़े नहीं मतलब परस्ती के आखिरी इंतहा थे
एक सर्टिफिकेट जुगाड़ू शिष्य के!

जिसे तुमने मन ही मन पति वरण कर ली थी,
जिनकी गुरु दक्षिणा शुल्क उगाही हेतु,
जिनके कहने पर तुमने कई बार
कई राजपुरुषों को अपनी अस्मत बेची थी!

उस गालव ने भरी स्वयंवर सभा में
तुम्हारी उसी देह को अपवित्र कहकर
ठुकरा दिया था जिससे तुमने
कई अवश्यंभावी चक्रवर्ती राजकुमार जने थे!

जिसे कई चक्रवर्ती राजा थामने को लालायित थे
और प्रलोभन दे रहे थे तुम्हारे ही परित्यक्त बालकों को
अपनी गोद में बिठाकर कि तुम जयमाला पहना दो
अपने चक्रवर्ती लक्षणयुक्त पुत्रों के किसी एक चक्रवर्ती पिता को
किन्तु देहधरे को दंड मिलना ही था
अहल्या/द्रौपदी—से लेकर और न जाने किस-किस को!

मिथक से यथार्थ बनी
एक स्त्री की यह गाथा है तबकी जब
‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमंते तत्र देवता’ की
घोषणा हो चुकी थी,
काफी जद्दोजहद के बाद क्षत्रिय राजर्षि से
ब्रह्मऋषि ब्राह्मण बन चुके विश्वामित्र ने
गायत्री मंत्र की ऋचाएं सृजित कर ली थी,
वस्तुत: हे माधवी ये तुम्हारी नहीं
गुरु और शिष्य की पतन कथा थी!
—–विनय कुमार विनायक

मानवीयता की छीजत का परिणाम है कोरोना

– ललित गर्ग-

हिंदुस्तान में आज लाखों लोगों को कोरोना नहीं मार रहा, इंसान इंसान को मार रहा है, इंसान का लोभ एवं लालच इंसान को मार रहा है। ऐसे स्वार्थी लोगों को राक्षस, असुर या दैत्य कहा गया है जो समाज एवं राष्ट्र में तरह-तरह से कोरोना महामारी को फैलाने मंे जुटे हैं। असल में इस तरह की दानवी सोच वाले लोग सिर्फ अपना स्वार्थ देखते हैं। ऐसे लोग धन-संपत्ति आदि के जरिए सिर्फ अपना ही उत्थान करना चाहते हैं, भले ही इस कारण दूसरे लोगों और पूरे समाज ही मौत के मुंह में जा रहे हो, यह मानवीय संवेदनाओं के छीजने की चरम पराकाष्ठा है। विभिन्न राजनीतिक दल एवं लोग प्रधानमंत्री एवं सरकारों को गाली दे रहे हैं, लेकिन, जो 700- 800 का ऑक्सीमीटर 3000़ में बेच रहे, जो ऑक्सीजन की कालाबाजारी कर रहे हैं, जो रेमडेसीविर को 20000़ प्लस में बेच रहे हैं, जो श्मशान की लकड़ियों में बेईमानी कर रहे हैं, नारियल पानी हो या फल, सब्जी, अंडा, चिकन, दाल में लूट करने से लेकर अस्पतालों में बेड दिलाने तक का झांसा देने वाले लोगों ने ही कोरोना को फैलाया है। यह कैसी विडम्बना एवं विसंगतिपूर्ण दौर है जिसमें जिसको जहां मौका मिला वह लूटने में लग गया, यहाँ कोई भी व्यक्ति सिर्फ तब तक ही ईमानदार है जबतक उसको चोरी करने का या लूटने का मौका नहीं मिलता।
देश में कोरोना महामारी महासंकट बन असंख्य लोगों की जान ले रहा है, तब दवाइयों और इंजेक्शनों के तमाम जमाखोर सक्रिय हो गये हैं। इस जमाखोरी एवं कालाबाजारी पर रोक लगाने की कोशिशें सफल होती नजर नहीं आ रही हैं। संकट में पड़े अपनों का जीवन बचाने के लिये लोग कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। इसी आतुरता का फायदा उठाने के लिये आपदा में अवसर ढूंढ़ने वाले मनमाने दाम वसूल रहे हैं। हद तो तब हो गई जब कई जगह जीवनरक्षक इंजेक्शनों की जगह नकली इंजेक्शन तैयार करने की खबरें आ रही हैं। इस मामले में कुछ गिरफ्तारियां भी हुई हैं। कालाबाजारी के इन गोरखधंधों में कुछ दवा निर्माताओं और डॉक्टरों तक की गिरफ्तारी हुई हैं। लेकिन इस कालाबाजारी पर पूरी तरह रोक लगाने की कोशिशें सफल होती नजर नहीं आती। ऐसा नहीं हो सकता कि ऐसी कालाबाजारी पर नियंत्रण करने वाले विभागों व पुलिस को इंसानियत के ऐसे दुश्मनों की कारगुजारियों की भनक न हो। मगर, समय रहते ठोस कार्रवाई होती नजर नहीं आ रही, क्योंकि इन दरिन्दों एवं कालाबाजारियों की शक्ति एवं संगठन ज्यादा ताकतवर है, यही इस देश की बड़ी त्रासदी एवं विडम्बना है।
दुर्भाग्य देखिये कि दिल्ली में ऑक्सीजन सिलेंडर खरीदने गये एक मरीज को कुछ लोगों ने अग्निशमन में काम आने वाले सिलेंडर बेच दिए। महिला की शिकायत के बाद दो युवकों की गिरफ्तारी हुई। कुछ इंसान चंद रुपयों के लालच में किस हद तक गिर जाते हैं कि संकट में फंसे लोगों के जीवन से खिलवाड़ करने पर उतारू हो जाते हैं। जाहिर-सी बात है कि महामारी का जो विकराल एवं वीभत्स रूप हमारे सामने है, उसमें ऑक्सीजन और दवाओं की किल्लत स्वाभाविक है। लेकिन यह किल्लत इसलिये सामने आयी कि स्वार्थी एवं लालची लोगों ने इसका संग्रह करना एवं मनमाने दामों में बेचना शुरू कर दिया। यह पहली बार है कि मरीजों को जीवनदायिनी मेडिकल ऑक्सीजन की जरूरत इतनी बड़ी मात्रा पर हुई हो। दरअसल, मांग व आपूर्ति के संतुलन से चीजों की उपलब्धता होती है। बताया जा रहा है कि रेमडेसिविर इंजेक्शन की मांग सितंबर के बाद जनवरी तक न के बराबर हो गई थी, इसलिए कंपनियों ने इसका उत्पादन बंद कर दिया था। अब अचानक महामारी के फैलने के बाद मांग बढ़ने से इसकी पूर्ति नहीं हो पा रही है, जिससे इसकी कालाबाजारी लगातार बढ़ती जा रही है।
हम कितनें लालची एवं अमानवीय हो गये हैं, हमारी संवेदनाओं का स्रोत सूख गया है, तभी तो लॉकडाउन की खबर सुनते ही गुटके की कीमत 5 से 7 कर देते हैं, तभी शराब की दुकानों पर लम्बी कतारे लग जाती है, तभी डॉक्टरों द्वारा विटामिन सी अधिक लेने की कहने पर 50 रुपये प्रति किलो का नींबू 150 रुपये प्रति किलो बेचने लगते हैं, तभी 40-50 रुपए का बिकने वाला नारियल पानी 100 का बेचने लगते हैं, तभी ऑक्सीजन एवं रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी करनी शुरू कर देते हैं, तभी अपना ईमान बेच कर इंजेक्शन में पैरासिटामोल मिलाकर बेचने लगते हैं, डेड बॉडी लाने के नाम पर पानीपत से फरीदाबाद तक के 36000 मांगने लगते हैं, तभी मरीज को दिल्ली गाजियाबाद मेरठ नोएडा स्थित किसी हॉस्पिटल में पहुंचाने की बात करते हैं तो एंबुलेंस का किराया 10 से 15 हजार मांगने लगते हैं, क्या वास्तव में हम बहुत मानवीय हैं या लाशों का मांस नोचने वाले गिद्ध? गिद्ध तो मरने के बाद अपना पेट भरने के लिए लाशों को नोचता है पर हम तो अपनी तिजोरियां भरने के लिए जिंदा इंसानों को ही नोच रहे हैं, कहाँ लेकर जाएंगे ऐसी दौलत या फिर किसके लिए? यह कैसी मानवीयता है?
अस्पतालों में बेड, दवाइयां और वेंटिलेटर नहीं हैं, क्योंकि इस महासंकट में मनुष्य का एक घिनौना, क्रूर एवं अमानवीय चेहरा इनकी कालाबाजारी कर रहा है। एक तो नई महामारी का कोई कारगर इलाज नहीं है, दूसरा इस बीमारी में काम आने वाली तमाम जरूरी दवाइयां लालची लोगों ने बाजार से गायब कर दी हैं। यह बीमारी इन राक्षसों के कारण ही बेकाबू हुई है। सरकारें इन त्रासद स्थितियों एवं बीमारी पर नियंत्रण पाने में नाकाम साबित हुई है। देश के लाखों लोग कातर निगाहों से शासन-प्रशासन की ओर देख रहे हैं कि कोई तो राह निकले। सरकार का व्यवस्था पर नियंत्रण कमजोर होता दिख रहा है। हमारे पास न तो पर्याप्त मेडिकल ऑक्सीजन की उपलब्धता है और न ही उपलब्ध ऑक्सीजन को अस्पतालों तक पहुंचाने की कारगर व्यवस्था। इस महामारी में किसी हद तक शुरुआती दौर के उपचार में कारगर बताये जा रहे रेमडेसिविर इंजेक्शन के नाम पर भारी कालाबाजारी की जा रही है। जीवन के संकट से जूझ रहे मरीजों से इनके मुंहमांगे दाम वसूले जा रहे हैं। मरीजों से पचास हजार से लेकर एक लाख तक की कीमत वसूले जाने की शिकायतें मिल रही हैं। बड़े निजी अस्पताल भी अवसर की गंभीरता को देखते हुए नोट छापने की मशीन बने हैं। सरकारी अस्पतालों पर वीवीआईपी का कब्जा है। आम आदमी जाए तो कहां जाये?
विश्व को श्रेष्ठ, नैतिक एवं मानवीय बनने का उपदेश देने वाला देश आज कहां खड़ा है? आज इन मूल्यों एवं संवेदनाओं की दृष्टि से देश कितना खोखला एवं जर्जर हो गया है, कोरोना महामारी ने इसे जाहिर किया है। कोरोना महामारी ऐसी ही दूषित सोच एवं अपवित्र जीवन की निष्पत्ति है। कोरोना महामारी से मुक्ति की सुबह तभी होगी जब मानव की कुटिल चालों एवं दूषित आर्थिक सोच से मानवता की रक्षा की जाएगी। ऐसा करने की आवश्यकता कोरोना महामारी ने भलीभांति समझायी है। आज भौतिक एवं स्वार्थी मूल्य अपनी जड़ें इतनी गहरी जमा चुके हैं कि उन्हें निर्मूल करना आसान नहीं है। मनुष्य का संपूर्ण कर्म प्रदूषित हो गया है। सारे छोटे-बड़े धंधों में अनीति प्रवेश कर गई है। यदि धर्म, प्रकृति एवं जीवन मूल्यों को उसके अपने स्थान पर सुरक्षित रखा गया होता तो कोरोना महाव्याधि की इतनी तबाही कदापि न मचती। संकट इतना बड़ा न होता।
समाज की बुनियादी इकाई मनुष्य है। मनुष्यों के जुड़ने से समाज और समाजों के जुड़ने से राष्ट्र बनता है। यदि मनुष्य अपने को सुधार ले तो समाज और राष्ट्र अपने आप सुधर जायेंगे। इसलिए परोपकार, परमार्थ की महिमा बताई गई है, निज पर शासन फिर अनुशासन का घोष दिया गया है। मनुष्यों के जीवन और कृत्य के परिष्कार के लिए उससे बढ़कर रास्ता हो नहीं सकता। अगर मनुष्य का आचरण सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, त्याग एवं संयम आदि पर आधारित होगा तो वह अपने धंधे में किसी प्रकार की बुराई नहीं करेगा और न जीवन में विसंगतियों की धुसपैठ होने देगा। जीवन एवं कर्म की शुद्धता ही कोरोना जैसी महामारी पर नियंत्रण की आधार-शिला है।
भारत में तेजी से कोरोना महामारी का दायरा बढ़ता जा रहा है, दवाओं व ऑक्सीजन की कालाबाजारी एक कलंक बनकर उभरा है। निस्संदेह यह संकट जल्दी समाप्त होने वाला नहीं है। ऐसे में सरकारों को दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखकर रणनीति बनानी होगी। कालाबाजारी करने वाले तत्वों पर सख्ती की भी जरूरत है। साथ ही संकट को देखते हुए तमाम चिकित्सा संसाधन जुटाने की जरूरत है।

हमारी हिन्दी के शिखर पुरुष का जाना

 ललित गर्ग 

हिंदी का एक मौन साधक, महर्षि, मनीषी, जिसके आगे हर हिंदी प्रेमी नतमस्तक है, जिसके कर्म से हिन्दी भाषा समृद्ध बनी, ऐसे सजग हिन्दीचेता, महान् रचनाकार एवं समन्वयवादी-जुनूनी व्यक्तित्व श्री अरविन्दकुमार का गत सप्ताह मौन हो जाना, हिन्दी भाषा एवं सृजन-संसार की एक अपूरणीय क्षति है। उन जैसा हिन्दी भाषा का तपस्वी ऋषि आज की तारीख में हिंदी में कोई दूसरा नहीं है। दसवें दशक की उम्र में आज भी वह हिंदी के लिए जी-जान लगाये हुए थे। रोज छः से आठ घंटे काम करते थे, कंप्यूटर पर माउस और की बोर्ड के साथ उनकी अंगुलियां नाचती रहती थी हिन्दी भाषा को समृद्ध एवं शक्तिशाली बनाने के लिये। हिन्दी को यदि उनके जैसे दो-चार शब्द-शिल्पी और मिल जाते तो हिंदी के माथे से उपेक्षा का दंश हट जाता और वह दुनिया की प्रथम भाषा होने के साथ भारत की राष्ट्र-भाषा होने के गौरव को पा लेती।
अरविंद कुमार ने हिंदी थिसारस की रचना का जो विशाल, मौलिक, सार्थक और श्रमसाध्य कार्य किया है, उसने हिंदी को विश्व की सर्वाधिक विकसित भाषाओं के समकक्ष लाकर खड़ा किया है। उनका यह प्रयास न सिर्फ अद्भुत है, स्तुत्य है और चमत्कार-सरीखा है। निश्चित ही वे शब्दाचार्य थे, शब्द ऋषि थे, तभी हिंदी अकादमी, दिल्ली ने हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें वर्ष 2010-2011 के हिंदी अकादमी शलाका सम्मान से सम्मानित किया था। हिन्दी भाषा के लिये कुछ अनूठा एवं विलक्षण करने के लिये उम्र को अरविन्दकुमार ने बाधा नहीं बनने दिया, यही कारण है कि उम्र की शताब्दी की ओर बढ़ते पड़ाव पर भी उन्होंने खामोशी अख्तियार नहीं की है। वह लगातार काम पर काम कर रहे हैं। अरविन्दजी हिन्दी का जो स्वरून गढऋ रहे थे, वह बिलकुल नया एवं युगानुरूप था। वे अंग्रेजी की तुलना में हिन्दी को समृद्ध करना चाहते थे। उनका मानना था कि अंग्रेजी की स्पर्धा में यदि हिन्दी न खड़ी हो पाई तो हमारा सर्वस्व नष्ट हो जायेगा। इसलिये उनका नया काम थिसारस के बाद अरविंद लैक्सिकन है। आजकल हर कोई कंप्यूटर पर काम कर रहा है। किसी के पास न तो इतना समय है न धैर्य कि कोश या थिसारस के भारी भरकम पोथों के पन्ने पलटे। आज चाहिए कुछ ऐसा जो कंप्यूटर पर हो या इंटरनेट पर। अभी तक उनकी सहायता के लिए कंप्यूटर पर कोई आसान और तात्कालिक भाषाई उपकरण नहीं था। अरविंद कुमार ने यह दुविधा भी दूर कर दी थी। अरविंद लैक्सिकन दे कर। यह ई-कोश हर किसी का समय बचाने के काम आएगा।
अरविंद लैक्सिकन पर 6 लाख से ज्यादा अंग्रेजी और हिंदी अभिव्यक्तियां हैं। माउस से क्लिक कीजिए- पूरा रत्नभंडार खुल जाएगा। किसी भी एक शब्द के लिए अरविंद लैक्सिकन इंग्लिश और हिंदी पर्याय, सपर्याय और विपर्याय देता है, साथ ही देता है परिभाषा, उदाहरण, संबद्ध और विपरीतार्थी कोटियों के लिंक। उदाहरण के लिए सुंदर शब्द के इंग्लिश में 200 और हिंदी में 500 से ज्यादा पर्याय हैं। किसी एकल इंग्लिश ई-कोश के पास भी इतना विशाल डाटाबेस नहीं है। लेकिन अरविंद लैक्सिकन का सॉफ्टवेयर बड़ी आसानी से शब्द कोश, थिसॉरस और मिनी ऐनसाइक्लोपीडिया बन जाता है। इसका पूरा डाटाबेस अंतर्सांस्कृतिक है, अनेक सभ्यताओं के सामान्य ज्ञान की रचना करता है। अरविंद लैक्सिकन को माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस के साथ-साथ ओपन ऑफिस में पिरोया गया है। इस का मतलब है कि आप इनमें से किसी भी एप्लीकेशन में अपने डॉक्यूमेंट पर काम कर सकते हैं। सुखद यह है कि दिल्ली सरकार के सचिवालय ने अरविंद लैक्सिकन को पूरी तरह उपयोग में ले लिया है। अरविंद कहते हैं कि शब्द मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि है, प्रगति के साधन और ज्ञान-विज्ञान के भंडार हैं, शब्दों की शक्ति अनंत है। वह संस्कृत के महान व्याकरण महर्षि पतंजलि को कोट करते हैं, ‘सही तरह समझे और इस्तेमाल किए गए शब्द इच्छाओं की पूर्ति का साधन हैं।’ वह मार्क ट्वेन को भी कोट करते हैं, ‘सही शब्द और लगभग सही शब्द में वही अंतर है जो बिजली की चकाचैंध और जुगनू की टिमटिमाहट में होता है।’ वह बताते हैं, ‘यह जो सही शब्द है और इस सही शब्द की ही हमें अकसर तलाश रहती है।’
हिंदी और अंगरेजी के शब्दों से जूझते हुए वह जीवन में आ रहे नित नए शब्दों को अपने कोश में गूंथते रहते थे, ऐसे जैसे कोई माली हों और फूलों की माला पिरो रहे हों। ऐसे जैसे कोई कुम्हार हों और शब्दों के चाक पर नए-नए बर्तन गढ़ रहे हों। ऐसे जैसे कोई जौहरी हों और कोयले में से चुन-चुन कर हीरा चुन रहे हों। ऐसे जैसे कोई गोताखोर हों और समुद्र में गोता मार-मार कर एक-एक मोती बिन रहे हों शब्दों का। जैसे कोई चिड़िया अपने बच्चों के लिए एक-एक दाना चुनती है अपनी चोंच में और फिर बच्चों की चोंच में अपनी चोंच डाल कर उन्हें वह चुना हुआ दाना खिलाती है और खुश हो जाती है। ठीक वैसे ही अरविंद कुमार एक-एक शब्द चुनते हैं और शब्दों को चुन-चुन कर अपने कोश में सहेजते थे और सहेज कर खुश हो जाते थे उस चिड़िया की तरह ही। कोई चार दशक से वह इस तपस्या में लीन थे सभी तरह की सुध-बुध खोकर। काम है कि खत्म नहीं होता और वह हैं कि थकते नहीं। वह किसी बच्चे की तरह शब्दों से खेलते रहते हैं। एक नया इतिहास बनाया और फिर दूसरा नया इतिहास बनाने चल पड़ते।
अरविन्द कुमार का जन्म 17 जनवरी 1930 को उत्तर प्रदेश के मेरठ नगर में हुआ। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा मेरठ के नगरपालिका विद्यालय में हुई। सन 1943 में उनका परिवार दिल्ली आ गया। यहां उन्होने मैट्रिक किया। वे अंग्रेजी साहित्य में एमए हैं। उन्होंने अपनी धर्मपत्नी कुसुमकुमार के साथ मिलकर हिन्दी का प्रथम समान्तर कोश (थिसारस) रचा, उन्हांेने संसार का सबसे अद्वितीय द्विभाषी थिसारस द पेंगुइन इंग्लिश-हिन्दी-हिन्दी-इंग्लिश थिसॉरस एण्ड डिक्शनरी भी तैयार की जो अपनी तरह का एकमात्र और अद्भुत भाषाई संसाधन है। यह किसी भी शब्दकोश और थिसारस से आगे की चीज है और संसार में कोशकारिता का एक नया कीर्तिमान स्थापित करता है। इतना बड़ा और इतने अधिक शीर्षकों उपशीर्षकों वाला संयुक्त द्विभाषी थिसारस और कोश इससे पहले नहीं था।
अरविंद फिल्म पत्रिका माधुरी और सर्वोत्तम (रीडर्स डाईजेस्ट का हिन्दी संस्करण) के प्रथम संपादक थे। पत्रकारिता में उनका प्रवेश दिल्ली प्रेस समूह की पत्रिका सरिता से हुआ। कई वर्ष इसी समूह की अंग्रेजी पत्रिका कैरेवान के सहायक संपादक भी रहे। कला, नाटक और फिल्म समीक्षाओं के अतिरिक्त उनकी अनेक फुटकर कवितायें, लेख व कहानियां प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। उनके काव्यानुवाद शेक्सपीयर के जूलियस सीजर का मंचन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के लिये इब्राहम अल्काजी के निर्देशन में हुआ। 1998 में जूलियस सीजर का मंचन अरविन्द गौड़ के निर्देशन में शेक्सपियर नाटक महोत्सव (असम) और पृथ्वी थिएटर महोत्सव, भारत पर्यावास केन्द्र (इंडिया हैबिटेट सेंटर) में अस्मिता नाट्य संस्था ने किया। अरविंद कुमार ने सिंधु घाटी सभ्यता की पृष्ठभूमि में इसी नाटक का काव्य रूपान्तर भी किया है, जिसका नाम है – विक्रम सैंधव।
‘सर्वोत्तम’ अंग्रेजी परिवेश की हिन्दी पत्रिका है, इस पत्रिका को उन्होंने अपने हिन्दी-प्रेम के कारण हिन्दी की अद्भुत पत्रिका बनाया। उसके स्तंभों के नाम, उसकी भाषा और उसके विषय इतने अनूठे हुआ करते थे कि कहीं से भी अंग्रेजी की बू नहीं आती थी। शुरू से लेकर अंत तक अपनी तमाम विशेषताओं एवं अनूठेपन के साथ-साथ चलते हुए भी वे जिस एक विशेषता को हमेशा अपने साथ रखते थे, वह था उनका भाषा ज्ञान। शब्दों की उनकी जानकारी। वे जितना जटिल काम अपने हाथ में लेते हैं, उतनी ही सफलता से उसे शिखर भी देते थे। काम के प्रति कठोर एवं क्रांतिकारी होकर भी वे अपने निजी जीवन में उतने ही सरल, उतने ही सहज और उतने ही व्यावहारिक थे, तो शायद इसलिए भी कि उनका जीवन इतना संघर्षशील रहा है कि कल्पना करना भी मुश्किल होता है कि कैसे यह आदमी बाल-मजदूरी से अपनी जीवन-यात्रा प्रारंभ कर सफलता के इन मुकामों पर पहुंचा। हिन्दी के लिये उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। आज सचमुच हिन्दी का यह शब्दशिल्पी हमसे जुदा हो गया है, तो शायद ही उनकी कमी को कोई कभी भर पाए।

आशा की किरण


आज अंधेरा है,कल उजाला भी आयेगा,
आज किसी का है,कल हमारा भी आयेगा।
उम्मीद पर है दुनिया कायम ए मेरे दोस्तो,
ये अंधेरा इस संसार का कल मिट जायेगा।।

रखो आशा की किरण,निराशा से क्या होगा,
निराश होकर कभी भी कोई काम नहीं होगा।
निराशा मे ही आशा छिपी है ध्यान से देखो,
कल फिर यह हमारा भविष्य उज्ज्वल होगा।।

ध्वनि एक प्रतिध्वनि है,फिर लौट कर आयेगी,
जो कुएं में ध्वनि करोगे,वहीं ध्वनि फिर आयेगी।
यही प्रकृति का नियम ,जो सदियों से चल रहा,
आज गम है जीवन में,कल खुशी लौट आएगी।।

आर के रस्तोगी

लबादों में लिपटी मौत!

अंतिम संस्कार में स्वाहा होते संस्कार

हमारे अपनों के शव ही अब अछूत गठरियां हैं। अत्यंत आत्मीय की अकाल मृत्यु पर भी बेजान पुतला बने रहना हमारी नियती है। और पिता अपनी संतान का कंधा तक न मिलने को अभिशप्त। समान पोशाक, समान पीड़ा, समान निर्वासित भाव और दर्द भी एक समान। बहुत समानता है सबके मन के दर्द में भी। कोरोनाकाल में मरती मानवीयता और सिमटती संवेदनाओं का मार्मिक आंकलन –

◆निरंजन परिहार

कलेजा जिनके पक्के पत्थर के होंगे, मृत्यु अब उनको भी बहुत डराने लगी है। कोरोनाकाल में ईश्वर से हर किसी की प्रार्थना यही है कि जीवन भले ही हमें कैसा भी मिले, किंतु मृत्यु ऐसी किसी को न मिले, जैसी इन दिनों मिल रही है। जी हां, किसी को भी नहीं, दुश्मन को भी नहीं। सामान्य मनुष्यों को तो भूल ही जाइए, चमक दमक से लक दक और ऐश्वर्य से भरपूर बहुत विराट और वैभवशाली जीवन जिनकी जिंदगी का हिस्सा रहा है, उनको भी इन दिनों मृत्यु ऐसी मिल रही है कि वेदना स्वयं भी विदीर्ण हो रही है।  कोरोना के क्रूर जबड़ों में मनुष्य अचानक बेजान शव में परिवर्तित हो रहा है।

मृत्यु इससे पहले इतने अनादर की कुपात्र कभी नहीं रही। अनजान अस्पतालों में पार्थिव शरीर परायों के हाथों लबादो में लिपट रहे हैं, एंबुलेंस में लद रहे हैं, सीधे श्मशान में उतर रहे हैं और नंबर के हिसाब से उनकी बारी आने पर रख दिए जाते हैं चिताओं पर, परायों और अनजानों के हाथों। न शव के साथ उसका कोई अपना और न किसी अपने का अंतिम कंधा। न अंतिम स्नान और न ही अंतिम विदाई ।  न अंतिम दर्शन, न अंतिम स्पर्श, न अंतिम जल और न ही मृतक की आत्मा के मोक्ष और शांति की अंतिम प्रार्थना। न दिया, न बाती, न ही पूजा, और न ही फूल की पंखुरी तक। कुछ भी नहीं। कोरोना ने हमारे जीवन संस्कारों की सूची से मृत्यु का सम्मान भी अचानक छीन लिया है।  हालात अत्यंत दुखद, दर्दनाक और दारुण है। जिसकी दास्तान सिनने तक से सिरहन सी होने लगी है।  यह कैसा मंजर है कि मृत आत्मा की मुक्ति व मोक्ष की जिन पावन परंपराओं को हमारा समाज सदियों से संवारता आया है, उसी परंपरा का भी अंतिम संस्कार हो रहा हैं, हर जगह हर रोज और हर किसी के हाथों।

माना कि मनष्य अकेला जन्मता है,  अकेला ही मरता है, लेकिन जीवन अकेला नहीं जीता। इसीलिए कोई जब अकेला ही अंतिम राह पर निकल जाता है, तो भी लोग छोड़ने जाते हैं श्मशान तक। कंधा देने के लिए। लेकिन कोरोना तो हमसे किसी अपने की आखिरी यात्रा में शामिल होने के हक भी छीन रहा है। संक्रमित लोग अस्पतालों में अकेले हैं। भर्ती होते हैं तब भी और संसार वे विदा होते हुए भी। लोग अकेले ही चुपके चुपके संसार से चले जा रहे हैं। न अंतिम दर्शन, न मुखाग्नि और न ही अंतिम स्नेहिल स्पर्श। सूखी आंखें, भारी मन, आहत आत्मा, भींचे हुए कांपते होठ और शून्य में ताकते सन्न सांसों से अकेले ही हम अपने आंसूओं को पोछने को मजबूर। कितने मजबूर हैं हम कि हम सब एक साथ मिलकर अपने निरपराध आत्मीयजनों को अकेले ही संसार से जाता देख रहे हैं, असहाय और बिल्कुल बेचारे से। न कोई तीये की बैठक, न बारहवां और न ही तेरहवीं की रस्म, यहां तक कि प्रार्थना सभा की परंपरा भी नहीं। कोरोना हमारी संवेदनाओं को तो सोख ही रहा है, सबको निर्मम भी करता जा रहा है।

जिन अपनों ने हमें सपने देखना सिखाया और उन देखे हुए सपनों के सहारे जगत को जीतना भी सिखाया, उन्हीं की सूखती सांसों और अंतिम समय में परिस्थितियों से हारे हम जिंदा होते हुए भी तिल तिल मरने को अभिशप्त हैं। हमारी संस्कृति में जन्म से मृत्यु तक के सोलह संस्कारों से समृद्ध जीवन के हर संस्कार की अपनी महानता का महत्व है। हम अंतिम संस्कार की परंपरागत रस्मों में मृतक की आत्मा के मोक्ष और उसकी मुक्ति तलाशने वाले लोग हैं। लेकिन कोरोना के इस दर्दनाक दौर में किसी अपने के अंतिम संस्कार की परंपरा निभाने में भी हम लोग स्वयं की मृत्यु के संदेश से सहमे हुए हैं। मृत्यु हमारी कल्पनाओं के पार भी इससे पहले इतनी भयानक, भयावह और भयाक्रांत कर देनेवाली कभी नहीं थी। लेकिन आज है, तो ऐसे में सवाल सिर्फ एक ही है कि क्या अब हम अपने ईश्वर से मृत्यु की आसानी मांगना भी छोड़ दें?