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सांसों को साधिए मिलेगी वायरस से लड़ने की शक्ति

-प्रो.संजय द्विवेदी

ये सच में बहुत कठिन दिन हैं। डरावने, भय और आशंकाओं से भरे हुए। मीडिया में आती खबरें दहशत जगा रही थीं। कई मित्रों,शुभचिंतकों और जानने वालों की मौत की खबरें सुनकर आंखें भर आती थीं। लगता था यह सिलसिला कब रूकेगा? बुखार आया तो लगा कि हमारे भी बुरे दिन आ गए हैं। रात में सोना कठिन था। फिल्में देखने और पढ़ने-लिखने में भी मन नहीं लग रहा था। बुखार तो था ही, तेज खांसी ने बेहाल कर रखा था। एक रोटी भी खा पाना कठिन था। मुंह बेस्वाद था। कोरोना का नाम ही आतंकित कर रहा था। मन कहता था “मौसमी बुखार ही है, ठीक हो जाएगा।” बुद्धि कहती थी “अरे भाई कोरोना है, मौसमी बुखार नहीं है।” अजीब से हालात थे। कुछ अच्छा सोचना भी कठिन था।

मुझे और मेरी पत्नी श्रीमती भूमिका को एक ही दिन बुखार आया। बुखार के साथ खांसी भी तेज थी। जो समय के साथ तेज होती गई। टेस्ट पाजिटिव आने के बाद मैंने तत्काल गंगाराम अस्पताल, दिल्ली के डाक्टर अतुल गोगिया से आनलाईन परामर्श लिया। उनकी सुझाई दवाएं प्रारंभ कीं। इसके साथ ही होम्योपैथ और आर्युवेद ही भी दवाएं लीं। हम लगभग 20 दिन बहुत कष्ट में रहे। साढ़े छः साल की बेटी शुभ्रा की ओर देखते तो आंखें पनीली हो जातीं। कुछ आशंकाएं और उसका अकेलापन रूला देता। करते क्या, उसे अलग ही रहना था। मैं और मेरी पत्नी भूमिका एक कक्ष में आइसोलेट हो गए। वह बहुत समझाने पर रोते हुए उसी कमरे के सामने एक खाट पर सोने के लिए राजी हो गयी। किंतु रात में बहुत रोती, मुश्किल से सोती। दिन में तो कुछ सहयोगी उसे देखते, रात का अकेलापन उसके और हमारे लिए कठिन था। एक बच्चा जो कभी मां-पिता के बिना नहीं सोया, उसके यह कठिन था। धीरे-धीरे उसे चीजें समझ में आ रही थीं। हमने भी मन को समझाया और उससे दूरी बनाकर रखी।

लीजिए लिक्विड डाइटः

दिन के प्रारंभ में गरम पानी के साथ नींबू और शहद, फिर ग्रीन टी, गिलोय का काढ़ा और हल्दी गरम पानी। हमेशा गर्म पानी पीकर रहे। दिन में नारियल पानी, संतरा या मौसमी का जूस आदि लेते रहे। आरंभ के तीन दिन लिक्विड डाइट पर ही रहे। इससे हालात कुछ संभले। शरीर खुद बताता है, अपनी कहानी। लगा कुछ ठीक हो रहा है। फिर खानपान पर ध्यान देना प्रारंभ किया। सुबह तरल पदार्थ लेने के बाद फलों का नाश्ता जिसमें संतरा,पपीता, अंगूर,किवी आदि शामिल करते थे।

खुद न करें इलाजः

खान-पान, संयम और धीरज दरअसल एक पूंजी है। किंतु यह तब काम आती हैं, जब आपका खुद पर नियंत्रण हो। मेरी पहली सलाह यही है कि बीमारी को छिपाना एक आत्मछल है। खुद के साथ धोखा है। अतिरिक्त आत्मविश्वास हमें कहीं का नहीं छोड़ता। इसलिए तुरंत डाक्टर की शरण में जाना आवश्यक है। होम आइसोलेशन का मतलब सेल्फ ट्रीटमेंट नहीं है। यह समझन है। प्रकृति के साथ, आध्यात्मिक विचारों के साथ, सकारात्मकता के साथ जीना जरूरी है। योग- प्राणायाम की शरण हमें लड़ने लायक बनाती है। हम अपनी सांसों को साधकर ही अच्छा, लंबा निरोगी जीवन जी सकते हैं।

इन कठिन दिनों के संदेश बहुत खास हैं। हमें अपनी भारतीय जीवन पद्धति, योग, प्राणायाम, प्रकृति से संवाद को अपनाने की जरूरत है। संयम और अनुशासन से हम हर जंग जीत सकते हैं। भारतीय अध्यात्म से प्रभावित जीवन शैली ही सुखद भविष्य दे सकती है। अपनी जड़ों से उखड़ने के परिणाम अच्छे नहीं होते। हम अगर अपनी जमीन पर खड़े रहेंगें तो कोई भी वायरस हमें प्रभावित तो कर सकता है, पराजित नहीं। यह चौतरफा पसरा हुआ दुख जाएगा जरूर, किंतु वह जो बताकर जा रहा है, उसके संकेत को समझेंगें तो जिंदगी फिर से मुस्कराएगी।

मेरे सबकः

  1. होम आईसोलेशन में रहें किंतु सेल्फ ट्रीटमेंट न लें। लक्षण दिखते ही तुरंत डाक्टर से परामर्श लें।
  2. पौष्टिक आहार, खासकर खट्टे फलों का सेवन करें। संतरा, अंगूर, मौसम्मी, नारियल पानी, किन्नू आदि।
  3. नींबू,आंवला, अदरक,हल्दी, दालचीनी, सोंठ को अपने नियमित आहार में शामिल करें।
  4. नकारात्मकता और भय से दूर रहें। जिस काम में मन लगे वह काम करें। जैसे बागवानी, फिल्में देखना, अच्छी पुस्तकें पढ़ना।
  5. यह भरोसा जगाएं कि आप ठीक हो रहे हैं। सांसों से जुड़े अभ्यास, प्राणायाम, कपाल भाति, भस्त्रिका, अनुलोम विलोम 15 से 30 मिनट तक अवश्य करें।
  6. दो समय पांच मिनट भाप अवश्य लें। हल्दी-गुनगुने पानी से दो बार गरारा भी करें।
  7. दवा के साथ अन्य सावधानियां भी जरूरी हैं। उनका पालन अवश्य करें। शरीर को अधिकतम आराम दें। ज्यादा से ज्यादा नींद लें। क्योंकि इसमें कमजोरी बहुत आती है और शरीर को आराम की जरूरत होती है।
  8. अगर सुविधा है तो बालकनी या लान में सुबह की गुनगुनी धूप जरूर लें। साथ ही सप्ताह में एक बार डाक्टर की सलाह से विटामिन डी की गोलियां भी लें। साथ ही विटामिन सी और जिंक की टेबलेट भी ले सकते हैं।

कोरोना महामारी के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था के मजबूत बने रहने के संकेत

देश में कोरोना महामारी के फैले दूसरे चरण के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था के मजबूत बने रहने के संकेत मिले हैं। माह अप्रेल 2021 के दौरान देश में जीएसटी संग्रहण, पिछले सारे रिकार्ड को पार करते हुए, एक नए रिकार्ड स्तर पर पहुंच गया है। माह अप्रेल 2021 में 141,384 करोड़ रुपए का जीएसटी संग्रहण हुआ है। यह मार्च 2021 माह में संग्रहित की गई राशि से 14 प्रतिशत अधिक है। पिछले 7 माह से लगातार जीएसटी संग्रहण न केवल एक लाख रुपए की राशि से अधिक बना हुआ है बल्कि इसमें लगातार वृद्धि दृष्टिगोचर हो रही है।

इसी प्रकार, वित्त वर्ष 2020-21 में सकल व्यक्तिगत आयकर (रिफंड सहित) में पिछले वित्त वर्ष की तुलना में 2.5 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है। आयकर संग्रह में वृद्घि तब हुई है, जब केलेंडर वर्ष 2020 में अधिकतर समय पूरे देश में तालाबंदी लगी हुई थी। वित्त वर्ष 2020-21 में रिकॉर्ड रिफंड जारी किए गए। इसके बावजूद शुद्घ प्रत्यक्ष कर संग्रहण 9.5 लाख करोड़ रुपये का रहा है। पिछले चार सालों में पहली बार कुल प्रत्यक्ष कर संग्रहण संशोधित अनुमान से ज्यादा रहा है। हालांकि, निगमित कर संग्रह 6.4 लाख करोड़ रुपये रहा, जो वित्तीय वर्ष 2019-20 के कर संग्रहण 6.7 लाख करोड़ रुपये से कुछ ही कम है।

2.34 करोड़ व्यक्तिगत करदाताओं को करीब 87,749 करोड़ रुपये का आयकर रिफंड किया गया, जबकि निगमित कर के मामलों में 1.74 लाख करोड़ रुपये के रिफंड किए गए। उल्लेखनीय है कि 94 प्रतिशत से ज्यादा मामलों में करदाताओं का स्पष्टीकरण मान लिया गया है और अतिरिक्त कर या जुर्माना नहीं लगाया गया। सिर्फ 1600 मामलों में यह माना गया है कि आय कम करके दिखाई गई है। उक्त कारणों के चलते वर्ष 2020-21 में शुद्घ प्रत्यक्ष कर संग्रह में कुछ कमी इसलिए भी आई है, क्योंकि अर्थव्यवस्था पर महामारी का नकारात्मक प्रभाव देखकर सरकार द्वारा रिफंड के मामलों का एक निश्चित समय-सीमा के अंदर निपटारा किया गया है।

सकल प्रत्यक्ष कर संग्रह 12.1 लाख करोड़ रुपये रहा, जो पिछले साल के 12.33 लाख करोड़ रुपये के करीब है। माना जा रहा है कि अग्रिम कर में उल्लेखनीय वृद्घि से व्यक्तिगत आयकर संग्रह में वृद्धि हुई है। सकल व्यक्तिगत आयकर संग्रहण वित्तीय वर्ष 2019-20 के 5.55 लाख करोड़ रुपये की तुलना में वित्तीय वर्ष 2020-21 में करीब 5.7 लाख करोड़ रुपये रहा है बावजूद इसके कि वित्तीय वर्ष 2020-21 में प्रत्यक्ष कर रिफंड पिछले साल की तुलना में 43.3 प्रतिशत अधिक है। केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) ने 2.38 करोड़ से ज्यादा करदाताओं को 2.62 लाख करोड़ रुपये के रिफंड जारी किए हैं। पिछले साल 1.83 लाख करोड़ रुपये के रिफंड जारी किए गए थे।

जीएसटी एवं प्रत्यक्ष कर संग्रहण के इत्तर अगर हाल ही के समय में उद्योग क्षेत्र में दर्ज की गई वृद्धि दर की बात की जाय तो मार्च 2021 में 8 कोर क्षेत्र के उद्योगों द्वारा 6.8 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। सीमेंट उत्पादन में तो रिकार्ड 32.5 की वृद्धि दृष्टिगोचर हुई है। यह वृद्धि दर इन उद्योगों द्वारा उपयोग की गई ऋण की राशि में भी हुई वृद्धि दर से मिलान दिखाती नजर आ रही है। मार्च 2021 माह में मध्यम उद्योगों द्वारा उपयोग की गई ऋण की राशि में 28.8 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है जबकि मार्च 2020 के दौरान इन उद्योगों के ऋण की राशि में 0.7 प्रतिशत की ऋणात्मक वृद्धि दर रही थी।

विदेशी व्यापार के क्षेत्र में भी अच्छी खबर आई है। भारत द्वारा विदेशों को किए जाने वाले निर्यात की राशि में भी बहुत अच्छी वृद्धि दर्ज की गई है। जनवरी-मार्च 2021 तिमाही के दौरान भारत के निर्यात में 20 प्रतिशत की प्रभावशाली वृद्धि दर्ज हुई है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निर्यात करने वाले सबसे बड़े देशों के बीच यह वृद्धि दर चीन के बाद दूसरे नम्बर पर आती है। विश्व व्यापार संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, केलेंडर वर्ष 2021 के दौरान, वैश्विक स्तर पर भी विदेशी व्यापार में 8 प्रतिशत की असरदार वृद्धि दर रह सकती है, जबकि इसमें केलेंडर वर्ष 2020 के दौरान 5.3 प्रतिशत की कमी दृष्टिगोचर हुई थी। मुख्यतः कपड़ा उद्योग, जेम्स एवं ज्वेलरी उद्योग, पेपर उद्योग, लेदर उद्योग, ग्लास उद्योग, लकड़ी उद्योग एवं खाद्य पदार्थ प्रसंस्करण उद्योग द्वारा उपयोग किए गए ऋण की राशि में, माह मार्च 2021 में, माह मार्च 2020 की तुलना में, वृद्धि दर अधिक रही है। कृषि क्षेत्र द्वारा उपयोग की गई ऋण की राशि में भी माह मार्च 2021 के दौरान 12.3 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है जबकि माह मार्च 2020 में यह वृद्धि दर मात्र 4.2 प्रातिशत की रही थी। उक्त उद्योगों द्वारा ऋण की अधिक राशि का उपयोग करने का आश्य यह है कि इन उद्योगों में उत्पादन गतिवधियों का स्तर बढ़ रहा है।

कृषि क्षेत्र एवं विभिन उद्योगों में बढ़ते उत्पादन के स्तर को देखते हुए भारतीय रिज़र्व बैंक ने भी भारत के सकल घरेलू उत्पाद में वित्तीय वर्ष 2021-22 के दौरान 10.5 प्रतिशत की वृद्धि दर का अनुमान लगाया है जबकि वित्तीय वर्ष 2020-21 में देश के सकल घरेलू उत्पाद में 8 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई थी। भारतीय रिज़र्व बैंक के ही अनुमान के अनुसार वित्तीय वर्ष 2021-22 की प्रथम तिमाही में देश के सकल घरेलू उत्पाद में 26.2 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज होगी, वहीं द्वितीय तिमाही में यह वृद्धि दर 8.3 प्रतिशत की रह सकती है, तृतीय तिमाही में यह दर 5.3 प्रतिशत की रह सकती है और चतुर्थ तिमाही में 6.2 प्रतिशत की वृद्धि दर रह सकती है।

वित्तीय वर्ष 2020-21 के प्रथम माह अप्रेल 2021 माह में जीएसटी का शानदार संग्रहण, मध्यम उद्योग एवं कृषि क्षेत्र द्वारा ऋणों का अधिक उपयोग, निर्यात के क्षेत्र में आई तेजी एवं देश में कोरोना महामारी को रोकने के उद्देश्य से तेजी से चल रहे टीकाकरण से यह विश्वास हो चला है कि कोरोना महामारी के दूसरे दौर के बावजूद देश की अर्थव्यवस्था वित्तीय वर्ष 2020-21 के दौरान तेज गति से आगे बढ़ने की ओर तत्पर दिखाई दे रही है।

प्रेस की स्वतंत्रता और मूल्यवादी पत्रकारिता

अरविंद जयतिलक
आज दुनिया भर में विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाया जा रहा है। यह दिवस मीडिया की आजादी पर हमलों से मीडिया की रक्षा तथा अपने प्राणों की आहुति देने वाले पत्रकारों को श्रद्धांजलि के तौर पर मनाया जाता है। प्रेस की स्वतंत्रता के बीच मूल्य आधारित पत्रकारिता आज की मीडिया की सबसे बड़ी चुनौती है। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में मीडिया को अपना नजरिया चुनने की आजादी के साथ उसका सकारात्मक पक्ष तभी फलीभूत होता है जब पत्रकारिता मूल्यवादी हो। भारत में मूल्य आधारित पत्रकारिता की नींव स्वतंत्रता आंदोलन के वक्त ही पड़ गयी। उसी दौरान दीनबंधु सीएफ एंड्रयूज ने लाला लाजपत राय से आग्रह किया कि वह अपना ध्यान भारत को एक ऐसा दैनिक पत्र देने के लिए केंन्द्रित करें, जो भारतीय जनमत के लिए वैसा ही करे जैसा कि सीपी स्काॅट के ‘मांचेस्टर गार्डियन’ ने ब्रिटिश जनमत के लिए किया। लाला लाजपत राय और उनके सहयोगियों ने सीएफ एंड्रयूज के राष्ट्रवादी सुझाव को सिर-माथे पर लिया और एक राष्ट्रवादी दैनिक पत्र के प्रकाशन के निमित्त जुट गए। शीध्र ही लाला लाजपत राय और उनके सहयोगियों ने अक्टुबर, 1904 में समाचार पत्र ‘द पंजाबी’ का शुभारंभ कर दिया। ‘द पंजाबी’ ने अपने प्रथम संस्करण से ही आभास करा दिया कि उसका उद्देश्य महज एक दैनिक पत्र बनना नहीं बल्कि ब्रिटिश हुकूमत से भारतमाता की मुक्ति के लिए देश के जनमानस को जाग्रत करना और राजनीतिक चेतना पैदा करना है। ‘द पंजाबी’ ने रुस की जार सरकार के विरुद्ध जापान की सफलता की ओर देश का ध्यान आकर्षित करने के साथ ही बंगाल में गर्वनर कर्जन द्वारा प्रेसीडेंसी को दो भागों में विभाजित करने तथा पंजाब में उपराज्यपाल इब्बटसन के भूमि तथा नहर कालोनी कानूनों के मसले पर देशवासियों को जाग्रत किया। ‘द पंजाबी’ ने यह भी सुनिश्चित किया कि स्वतंत्रता आंदोलन में मीडिया की भूमिका और उसका सरोकार क्या होना चाहिए। ‘द पंजाबी’ के अलावा लाजपत राय ने यंग इंडिया, यूनाइटेड स्टेट आॅफ अमेरिका, ए हिंदूज इन्प्रेशंस एंड स्टडी, इंगलैंड डैट टू इंडिया, पोलिटिकल फ्यूचर आॅफ इंडिया जैसे ग्रंथों के माध्यम से जनता को आजादी की लड़ाई के लिए प्रेरित किया और राष्ट्रवादी पत्रकारिता की नींव डाली। इसी दौरान एक और घटना घटी जिससे पत्रकारिता का काला पक्ष उजागर हुआ। लाहौर के एक प्रमुख भारतीय समाचार पत्र के संपादक ने कुछ छात्रों के गुप्त नाम से प्रकाशित किए गए लेख की मूल पांडुलिपि गवर्नमेंट कालेज के प्रिंिसपल को सौंप दी। इस लेख से स्कूल प्रशासन बेहद नाराज हुआ और कठोरतापूर्वक छात्रों को प्रताड़ित किया। संपादक का यह कृत्य न सिर्फ पत्रकारिता के सिद्धांतों, मूल्यों और उत्तरदायित्वों के विरुद्ध था बल्कि युवाओं में अंगड़ाई ले रही आजादी और राष्ट्रप्रेम की भावना को कुचलने का प्रकटीकरण भी था। इस घटना से साबित हुआ कि उस दौरान भी मीडिया का एक वर्ग भारतीयता, आजादी और राष्ट्रवाद के विरुद्ध था। आजादी के दौरान पत्रकारिता के अग्रदूतों ने मूल्य आधारित राष्ट्रवादी पत्रकारिता की नींव इसलिए डाली कि आजादी के लक्ष्य को हासिल करने के साथ लोकतंत्र का चैथा स्तंभ देश के नागरिकों विशेषकर युवाओं में राष्ट्रीय भावना का संचार करेगा। पत्रकारिता के अग्रदूतों का लक्ष्य अपनी लेखनी और विचारों के जरिए भारतीय संस्कृति, मूल्य, प्रतिमान और सारगर्भित विचारों की विरासत को सहेजना और एक सामथ्र्यवान भारत का निर्माण करना था। उचित होगा कि आज की पत्रकारिता के सिरमौर भी लाला लाजपत राय, महामना मदनमोहन मालवीय, विपिनचंद्र पाल, गणेश शंकर विद्यार्थी, बाल गंगाधर तिलक और विपिन चंद्र पाल सरीखे आजादी के दीवानों की पत्रकारिता को अपना आदर्श मूल्य व विचार बनाएं। बाल गंगाधर तिलक ने जब मराठी भाषा में ‘केसरी’ और अंग्रेजी भाषा में ‘मराठा’ नामक पत्रों का प्रकाशन प्रारंभ किया तो उन्होंने राष्ट्रीय व सामाजिक सरोकारों को आगे रखा। उनके आंखों में भारत की आजादी और समतामूलक समाज का सपना था, जो उनके पत्रों में स्पष्ट परिलक्षित और प्रतिबिंबित होता था। उन दिनों कोल्हापुर रियासत के शासन में बड़ा अंधेर मचा था। इस अंधेरगर्दी के खिलाफ ‘केसरी’ ने जोरदार आवाज बुलंद की लेकिन गोरी सरकार को यह रास नहीं आया। सो उसने बाल गंगाधर तिलक और उनके सहयोगियों पर मुकदमा चलाकर जेल में डाल दिया। लेकिन तिलक अपने पत्रों के जरिए भारतीय जनमानस में चेतना भरने में कामयाब रहे। यही नहीं वे इन समाचारपत्रों के जरिए ब्रिटिश शासन तथा उदार राष्ट्रवादियों की, जो पश्चिमी तर्ज पर सामाजिक सुधारों तथा संवैधानिक तरीके से राजनीतिक सुधारों का पक्ष लेते थे, की भी कटु आलोचना के लिए विख्यात हो गए। लाल-बाल-बाल की तिकड़ी के तीसरे नायक व क्रांतिकारी विचारों के जनक विपिन चंद्र पाल ने अपनी धारदार पत्रकारिता के जरिए स्वतंत्रता आंदोलन में जोश भर दिया। उन्होंने अपने गरम विचारों से स्वदेशी आंदोलन में प्राण फूंका और अपने पत्रों के माध्यम से ब्रिटेन में तैयार उत्पादों का बहिष्कार, मैनचेस्टर की मिलों में बने कपड़ों से परहेज तथा औद्योगिक तथा व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में हड़ताल इत्यादि हथियारों से ब्रिटिश हुकूमत की नींद उड़ा दी। उन्होंने 1880 में परिदर्शक, 1882 में बंगाल पब्लिक ओपिनियन, 1887 में लाहौर ट्रिब्यून, 1892 में द न्यू इंडिया, 1901 में द इनडिपेंडेंट इंडिया, 1906-07 में वंदेमातरम्, 1908-11 में स्वराज, 1913 में हिंदू रिव्यू, 1919-20 द डैमोक्रैट और 1924-25 में बंगाली के जरिए आजादी की लड़ाई को धार दिया और भविष्य की पत्रकारिता के मूल्यों को परिभाषित किया। महान देशभक्त पंडित मदन मोहन मालवीय ने देश की चेतना को प्रबुद्ध करने के लिए कई पत्रों का संपादन किया। कालाकांकर के देशभक्त राजा रामपाल सिंह के अनुरोध पर उन्होंने उनके हिंदी व अंग्रेजी समाचार पत्र हिंदुस्तान का संपादन कर देश की जनता को जाग्रत किया। उन्होंने 1907 में साप्ताहिक ‘अभ्युदय’ और ब्रिटिश सरकार समर्थक पत्र पायनियर के समकक्ष 1909 में दैनिक ‘लीडर’ अखबार निकालकर जनमत निर्माण का महान कार्य संपन्न किया। फिर 1924 में दिल्ली आकर हिंदुस्तान टाइम्स को सुव्यवस्थित किया तथा सनातन धर्म को गति देने हेतु लाहौर से विश्वबन्ध जैसे अग्रणी पत्र को प्रकाशित करवाया। देश में नवजागृति और नवीन चेतना का संचार करने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी महामना के पत्र ‘अभ्युदय’ से जुड़ गए और 1913 में ‘प्रताप’ नामक समाचार पत्र का प्रकाशन कर ब्रिटिश हुकूमत की चूलें हिलानी शुरु कर दी। ‘प्रताप’ के प्रथम संस्करण में ही उन्होंने हुंकार भरा कि हम राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक-आर्थिक क्रांति व उत्थान, जातीय गौरव और साहित्यिक विरासत के लिए, अपने हक अधिकार के लिए संघर्ष करेंगे। ‘प्रताप’ में प्रकाशित नानक सिंह की ‘सौदा ए वतन’ कविता से नाराज होकर अंग्रेजों ने विद्यार्थी जी पर राजद्रोह का आरोप लगाकर ‘प्रताप’ का प्रकाशन बंद करवा दिया। लेकिन हार न मानने वाले इस शूरवीर ने ‘प्रताप’ का पुनः प्रकाशन किया और सरकार की दमनपूर्ण नीति की सख्त मुखालफत की। गौर करें तो स्वतंत्रता आंदोलन की जंग से पूर्व ही 1857 की क्रांति की घटना ने राष्ट्रीय जागरण के युग की शुरुआत कर दी और 19 वीं शताब्दी के प्रथम अर्धभाग में अंग्रेजी तथा देशी भाषाओं में समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने नवचेतना का संचार करना शुरु कर दिया। राष्ट्रवादी संपादकों, पत्रकारों एवं लेखकों ने अपने संपादकीय, लेखों और खबरों के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिलानी शुरु कर दी। उनका लक्ष्य ब्रिटिश पंजे से भारत को मुक्ति दिलाना ही नहीं बल्कि स्वतंत्रता बाद एक लोकतांत्रिक और समतामूलक समाज का निर्माण करना भी था। 18 वीं शताब्दी में जब भारतीय समाज बहु-विवाह, बाल-विवाह, जाति प्रथा और पर्दा-प्रथा जैसी सामाजिक बुराईयों से अभिशप्त था उस दरम्यान भी पत्रकारिता के अग्रदूतों ने समाज को संस्कारित करने का काम किया। इन अग्रदूतों में से एक राजाराम मोहन राय ने ‘संवाद कौमुदी’ और ‘मिरातुल अखबार’ के जरिए भारतीय जनमानस को जाग्रत किया। नवजागरण के परिणाम स्वरुप देश में अनेक समाचार पत्रों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ जिनमें 1861 में टाइम्स आॅफ इंडिया, 1865 में पायनियर, 1868 में अमृत बाजार पत्रिका, 1875 में स्टेट्समैन और 1880 में ट्रिब्यून इत्यादि समाचार पत्र प्रमुख है। इन समाचार पत्रों में कुछ ब्रिटिश हुकूमत के पाल्य भी थे जिससे देश की आजादी ही नहीं भारतीय संस्कृति को भी भारी नुकसान पहुंचा। ध्यान देना होगा कि समाचार पत्रों की भूमिका तब और प्रासंगिक हो जाती है जब राष्ट्र संक्रमण के दौर में होता है।

यह सिर्फ ममता की जीत नहीं, भाजपा के लिए भी है आशावादी परिणाम

डॉ. निवेदिता शर्मा
पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजों ने एक बार फिर से तय कर दिया है कि राज्यों के चुनाव के लिए स्थानीय स्तर का नेतृत्व और स्थानीय मुद्दे अहम स्‍थान रखते हैं। यहां भले ही भाजपा ने अबकी बार 200 पार का नैरेटिव गड़ा था, उसके कार्यकर्ताओं के बीच जिस तरह से उत्‍साह का वातावरण चुनाव के दौरान देखने को मिला,उससे एक बार तो यही लगने लगा था कि कहीं इस बार के चुनावी नतीजे तृणमूल के विरोध में ना चले जाएं।

भाजपा का उत्साह देखते ही बन रहा था, किंतु अब जब स्‍थ‍िति साफ हो गई है, तब कहा जाने लगा है कि है कि यह भारतीय जनता पार्टी के ओवरकॉन्फिडेंस का नतीजा है, जो उसने 200 पार सीट लाने का सपना देखा वह तो विधानसभा की 100 सीटें भी नहीं पा सकी है। लेकिन इस दृष्‍टि से ही इन चुनावी परिणामों का अध्‍ययन करना उचित होगा ? हकीकत यह है कि भाजपा ने यहां इस बार अपने लिए बहुत कुछ पा लिया है।

पश्चिम बंगाल के चुनावों पर यदि गंभीरता से नजर डाली जाए तो चुनावी मैदान में तीन खेमें नजर आते थे, टीएमसी, बीजेपी और कांग्रेस-लेफ्ट का गठबंधन । लेकिन आज हर जगह भाजपा और तृणमूल की ही बातें हो रही हैं, तीसरे खेमे की कोई बात ही नहीं कर रहा । वास्‍वत में इस तीसरे खेमे द्वारा टीएमसी के सामने पहले ही हथियार डाल दिए गए थे और जहां थोड़ा बहुत प्रयास किया गया वहां केवल भाजपा को हराने का ही प्रयास दिखाई दिया।

यहां हम सभी को 2019 का लोकसभा चुनाव याद करना होगा, जब भाजपा के विरोध में महागठबंधन बना । टीएमसी उस महागठबंधन का हिस्सा थी, ऐसे में महागठबंधन जिसका एकमात्र उद्देश्य मोदी को हराना था। क्या वर्तमान परिप्रेक्ष्‍य में इस गठबंधन के सदस्‍य यह चाहते कि बीजेपी यहां से जीत जाती ? इसलिए पश्चिम बंगाल में अंदरखाने यही सामने आया है कि कहीं भी कांग्रेस और लेफ्ट प्रभावी चुनाव प्रचार करती नजर नहीं आईं । यह कहना गलत ना होगा कि यदि यहां पर महागठबंधन का एलान करते हुए बीजेपी के विरोध में चुनाव होता तो शायद भाजपा ही इस वक्‍त इस राज्‍य में सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आती और पहली बार यहां भाजपा की ही सरकार बन रही होती ।

वस्‍तुत: लोकसभा चुनाव को ध्‍यान में रखते हुए मतदाताओं को बड़ी सफाई से मूर्ख बनाते हुए कांग्रेस और लेफ्ट ने चुनावी मैदान में अपने कमजोर प्रतिनिधि उतारे, फिर उनके लिए वैसा प्रचार भी नहीं किया जैसा की प्राय: विधानसभा चुनावों में जीत के लिए अपेक्षित है। इसके पीछे जो कारण स्‍पष्‍ट सामने दिखता है वह सिर्फ भाजपा को हराने का ही है ना की ममता को हराने के लिए । नहीं तो यह अविश्वसनीय है कि आजादी के बाद जहां पश्चिम बंगाल में पहले कांग्रेस का और फिर 35 साल वामपंथियों का शासन रहा हो, इसी तरह से पिछले विधानसभा चुनावों में जिनके पास 70 से अधिक सीटें रही हों, आज वह दोनों ही पार्टियां एक सीट पर ही जद्दोजहद करती नजर आईं।

इसके साथ कहना यह भी होगा कि भाजपा की हार महागठबंधन की आंतरिक राजनीति का हिस्सा है, जिसे दिल्ली के चुनावों में दौरान भी देखा गया था। भाजपा एक बार फिर इसे भांपने में नाकामयाब रही। राहुल गांधी का एक भी बड़ी रैली में यहां ना आना यह साबित भी करता है । कोरोनावायरस तो मात्र केवल एक बहाना था। जब राहुल गांधी अन्य जगहों पर शो कर सकते हैं तब बंगाल में क्‍यों नहीं ? यहां वे एक जिम्मेदार भारतीय नागरिक बनकर कोरोना की आड़ में दीदी का समर्थन करते नजर आते हैं।

देखा जाए तो इस चुनाव में भाजपा का नारा अबकी बार 200 पार निरर्थक नहीं गया है। युद्ध में सेनापति का काम है अपने सैनिकों का मनोबल बनाए रखना। लक्ष्य जितना कठिन होगा, सफलता भी उतनी ही बड़ी होती है। यह बिल्कुल सही है कि यदि भाजपा अपना ऐड़ी चोटी का जोर नहीं लगाती तो शायद इतनी सीटें भी नहीं जीत पाती, जितनी अभी वह लेकर आई है। इस लिहाज से भाजपा का प्रदर्शन निश्चित तौर पर सराहनीय कहा जा सकता है। इस चुनाव में यह भी साफ हो गया और भाजपा को समझ आ गया होगा कि जब 80 के नजदीक आने का सफर इतना कठिन है, तब 200 पार करने का लक्ष्य कितना कांटों भरा है ।

यह चुनाव परिणाम दूर से ठीक वैसा ही नजर आता है जैसा कि महाभारत काल में अभिमन्‍यु का चक्रव्‍यूह में जाना और संघर्ष करना । पूरी कहानी हमारे सामने है, महाभारत के युद्ध में जब चक्रव्यूह को भेदने के लिए अभिमन्यु को भेजा गया, तो वह वीरगति को प्राप्त हो जाता है, इसका मतलब यह नहीं कि अभिमन्यु को चक्रव्यूह में भेजने का निर्णय गलत था या वह ओवरकॉन्फिडेंट निर्णय था अथवा वह कमजोर था। अभिमन्यु वीर था और कौरवों की तरफ से अनेक महायोद्धा अभिमन्यु से लड़ रहे थे, इसलिए वह वीरगति को प्राप्त हुआ । वस्तुत: यहां भी पश्चिम बंगाल चुनाव कुछ ऐसा ही है, भाजपा लड़ी पूरी ताकत से लड़ी। जीत हार तो बाद का विषय है, इसलिए जो लड़े नहीं, उन्‍होंने दीदी को बधाई देना प्रारंभ कर दिया, क्‍योंकि वे सभी मोदी विरोधी हैं ना कि दीदी के समर्थक, यदि ऐसा नहीं है तो पहले टीएमसी क्‍यों लेफ्ट के विरोध में लड़ रही थी और कांग्रेस को पानी पी-पी कर कोसती थी। इस चुनाव में भाजपा के पास स्‍थानीय नेताओं का अभाव था और ममता दीदी का पूरा का पूरा स्‍थानीय नेतृत्‍व खड़ा दिखाई देता है । ऊपर से बंगाल मानुष, बंगाल अस्‍मिता, बाहरी-बंगाली मुद्दा, अल्‍पसंख्‍यकों को कसम में बांधने का प्रयास और भाजपा को लेकर डर दिखाने का खेला अलग से । इसलिए यहां कहा जा सकता है कि इतनी चुनौतियों के बाद जैसा प्रदर्शन चुनावों में भाजपा ने यहां दिखाया है, वह बहुत सराहनीय कहा जा सकता है।

इसके साथ ही यहां भाजपा को बहुत कुछ सीखने की जरूरत भी है, जिसमें अहम है, सभी भाषायी राज्यों में वहां का स्थानीय नेतृत्व मजबूत करें । यदि शुभेंदु अधिकारी जैसे बंगाल के दिग्‍गज नेता दिसम्‍बर 2020 की जगह एक साल पहले भाजपा में आ जाते तो आज निर्णय कुछ और ही होता। इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए कि भाजपा यहां वर्तमान की तुलना में बहुत अधिक मजबूत दिखाई देती। ऐसे में अब जरूरत है कि भाजपा अपने शीर्ष नेतृत्व में भाषाई राज्यों के नेताओं को महत्‍वपूर्ण स्थान दे। पार्टी में योजनाबद्ध तरीके से दक्षिण भारत, पूर्वी राज्यों के नेताओं को आगे लाने की आवश्यकता है। केंद्र में आज इन राज्यों की समस्या रखने वाला कोई भी चर्चित चेहरा दिखाई नहीं देता। जो कार्य करता है वह केवल जमीनी स्तर का कार्यकर्ता है, जिसकी अपनी कोई बड़ी पहचान नहीं, इसलिए जब अन्य दलों के लोग भाजपा में आए और उन्हें सिर माथे बैठाया गया तो हो सकता है कि भाजपा के लिए वर्षों से संघर्ष कर रहे लोगों को बुरा लगा हो ।

ऐसा भी माना जा सकता है कि जितने उत्साह से उसे चुनाव में भाग लेना चाहिए वह उसने नहीं लिया । हम यह भी मान सकते हैं इन्हीं कार्यकर्ताओं के दम पर भाजपा ने लोकसभा चुनाव के तहत बंगाल में सराहनीय प्रदर्शन किया था लेकिन चुने हुए सांसदों द्वारा स्थानीय नेतृत्व को मजबूत करने का प्रयास निश्चित तौर पर नहीं किया गया और इसलिए भाजपा को किराए के लोगों से काम चलाना पड़ा। अब यदि भारतीय जनता पार्टी को यहां से चुनाव जीतना है तो आगामी चुनावों के लिए अभी से स्थानीय स्तर के नेतृत्व को मजबूत करने और उसे देश की मुख्यधारा की राजनीति में स्थान देने के प्रयासों को आरंभ कर देना होगा। फिर इसके अगले पांच साल बाद विधानसभा चुनावों का जो स्‍वरूप होगा उसके बारे में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। नए आनेवाले परिणाम खुद-ब-खुद सब कुछ बता देंगे।

कृष्णनगर से सांसद बनकर राष्ट्रीय राजनीति में आएंगी ममता?

उत्तम मुखर्जी

कोलकाता । सुनने में कुछ अटपटा सा लग रहा है लेकिन देश की राजनीति के अंदरखाने में यह बात शुरू हो गई है ।
दरअसल ममता बनर्जी ने बंगाल के चुनाव में मोदी-शाह के विजय-अभियान को रोककर देश की राजनीति में एक नया विकल्प देने की सोच को मजबूत बनाया। अब तक जो तस्वीर थी उसमें मोदी-शाह के पास पूरा मैदान खाली पड़ा था । बंगाल में भी रैली , भीड़ , प्रचार और ममता के खुद के दल में टूट देखकर लग रहा था कि भाजपा की सरकार बननी तय है। एग्जिट पोल को छोड़ दें तो मीडिया को भी लग रहा था कि खेला होबे ना , एबार परिवर्तन होबे।

हालांकि ममता ने एलान कर रखा था कि भांगा पाए खेला होबे…टूटा हुआ पैर में भी खेल होगा। बहुत अधिक सीटों में उनकी पार्टी जीती है। खुद पीएम ने भी उन्हें बधाई देकर पूरा सहयोग देने का आश्वासन दिया है लेकिन ममता अभी भी दुखी हैं। जिस तरह चुनाव के दौरान मोदीजी ने उन पर व्यंग किया तथा केंद्रीय एजेंसी चुनाव के समय उनके भतीजे के घर पहुंची उसे वह सही वक्त नहीं मान रही हैं। उन्होंने आज भी कहा चुनाव आयोग पीएम के एजेंट के रूप में काम कर रहा था । दल तोड़ने से लेकर सेंट्रल फोर्स, सीबीआई , ईडी , आईटी , नज़रबंद करना सबकुछ चुनाव में इस्तेमाल हुआ। नन्दीग्राम सीट पर पहले जीत की बात फिर अंतिम में हार दिखलाना वे इसमें साज़िश देख रही हैं तथा कोर्ट जाने की बात कह रही हैं। हालांकि उन्होंने सभी को कोरोना संकट से लोगों को उबारने के लिए लगने को कहा है।देश के कई बड़े नेताओं ने आज उनसे बात की जिसमे अखिलेश यादव भी हैं। उन्होंने ममता से राष्ट्रीय राजनीति में आने का आग्रह किया। मोदी-शाह के विकल्प के रूप में जो नया समीकरण बनने की गुंजाइश है उस पर विचार शुरू हो गया है। कुछ लोग बिना विधायक बने मोरल ग्राउंड पर सीएम नहीं बनने का आग्रह ममता से किया तो कुछ लोगों ने कहा महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ के सीएम तो बिना विधायक बने पद पर आसीन हुए हैं। जैसा कि जानकारों का मानना है कि इस नई ऊर्जा और ऊष्मा का इस्तेमाल ममता दिल्ली में कर सकती हैं। एक तो उनका कद बढ़ेगा तथा दूसरा बंगाल की राज्य सरकार को केंद्र छेड़ भी नहीं सकता है। एक दबाव बना रहेगा।
अगर ऐसा होता है तो ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि सीएम की कुर्सी पर वे किसे बैठा सकती हैं? फिरहाद हाक़िम बॉबी , पार्थो चटर्जी समेत कई दिग्गज इसके लिए लाइन में हैं लेकिन ममता की पसन्द सांसद महुआ मोइत्रा होंगी। हाल में संसद में पूर्व चीफ जस्टिस के खिलाफ बोलकर विशेषाधिकार का वह नोटिस पा चुकी हैं। संसद में वे बेबाक बोलती हैं। अभी एक बार टिप्पणी की थी संसद चालू है और होम मिनिस्टर बंगाल का टूर कर रहे हैं।
जब फिल्मी अभिनेत्री शताब्दी राय , देवश्री समेत कई साथ रहकर भी मदद नहीं कर पाईं तब महुआ साये की तरह न सिर्फ साथ रहीं बल्कि सड़क से लेकर मीडिया और संसद तक ममता का डिफेंस करती रहीं।
महुआ मोइत्रा का जन्म मई 1976 में हुआ । वे जेपी मॉर्गन में वाईस प्रेसिडेंट रहीं। बाद में पॉलिटिक्स जॉइन की। पहले करीमनगर से एमएलए बनी। फिर 2019 में कृष्णनगर से सांसद बनी। ममता चाहती हैं कि अगर वे नैशनल पॉलिटिक्स में जाती हैं तो किसी महिला को सीएम होना चाहिए और इस हिसाब से महुआ फिट हैं। ऐसा होने पर कृष्णनगर से ममता संसद में जाएंगी।
आगे देखना है कि ममता क्या फैसला लेती हैं?

बेमानी है प्रेस फ्रीडम की बातें

मनोज कुमार
तीन दशक पहले संयुक्त राष्ट्र संघ ने 3 मई को विश्व प्रेस फ्रीडम डे मनाने का ऐलान किया था. तब से लेकर आज तक हम इसे पत्थर की लकीर मानकर चल रहे हैं. इन तीन दशकों में क्या कुछ हुआ, इसकी मीमांसा हमने नहीं की. पूरी दुनिया में पत्रकार बेहाल हैं और प्रेस बंधक होता चला जा रहा है. खासतौर पर जब भारत की चर्चा करते हैं तो प्रेस फ्रीडम डे बेमानी और बेकार का ढकोसला लगता है. दशकवार जब भारत में पत्रकारिता पर नजर डालें तो स्थिति खराब नहीं बल्कि डरावना लगता है. लेकिन सलाम कीजिए हम पत्रकारों की साहस का कि इतनी बुरी स्थिति के बाद भी हम डटे हुए हैं. हम पत्रकार से मीडिया में नहीं बदल पाये इसलिए हमारे साहस को चुनौती तो मिल रही है लेकिन हमें खत्म करने की साजिश हमेशा से विफल होती रही है. इस एक दिन के उत्सवी आयोजन से केवल हम संतोष कर सकते हैं लेकिन फ्रीडम तो कब का खत्म हो चुका है बस समाज की पीड़ा खत्म करने का जज्बा ही हमें जिंदा रखे हुए है.
भारत में पत्रकारिता के पतन की शुरूआत और उसकी स्वतंत्रता खत्म करने का सिलसिला साल 1975 में ही शुरू हो गया था. आपातकाल के दरम्यान जो कुछ घटा और जो कुछ हुआ, वह कई बार बताया जा चुका है. उसे दोहराने का अर्थ समय और स्पेस खराब करना है. लेकिन एक सच यह है कि पत्रकारिता इसके बाद से दो हिस्सों में बंटती चली गई. लोगों ने मिशन से बाहर आकर इसे प्रोफेशन मान लिया. अखबारों और पत्रिकाओं की संख्या मे इजाफा होना शुरू हो गया. कल तक जिनके लिए किसी स्कूल में शिक्षक बन जाना आसान था, उन्हें यह भी आसान लगा कि पत्रकार बन जाओ. ना शिक्षा की पूछ-परख और ना ही अनुभव का कोई लेखा-जोखा. मैं कुछ ऐसे पत्रकारों को जानता हंू जो शीर्ष संस्थाओं के प्रमुख हैं लेकिन जमीनी पत्रकारिता से उनका कोई वास्ता नहीं रहा. डिग्री हासिल की और सुविधाजनक ढंग से बड़े पदों पर आसीन हो गए. नयी पीढ़ी उन्हें प्रखर पत्रकार और आचार्य संबोधित करने लगे. मिश्री घुली बातों से वे चहेते बन गए और आज जिस बात का हम रोना रो रहे हैं, वह इन्हीं महानुभावों की वजह से उत्पन्न हुआ है. इसमें तथाकथित प्रखर पत्रकार और आचार्य बन चुके रसमलाई में लिपटे लोगों की गलती तो थोड़ी है. इससे बड़ी गलती उन दिग्गज लोगों की है जो जानते हुए भी उन्हें आगे बढ़ाने में लग रहे.
बेहिसाब पत्रकारिता के शिक्षण संस्थान शुरू हो रहे हैं. यहां पढऩे वाले विद्यार्थियों को पत्रकारिता को छोडक़र शेष सारी विधायें सिखायी जाती हैं. डिग्री और बेहतर नौकरी के साथ सुविधाजनक जिंदगी की चाहत लिए पत्रकारिता के नौनिहाल सवाल करना भी जानते हैं. संवाद और अध्ययन से उनकी कोसों दूरी है. कभी किसी पर इनकी खबर का केवल इंट्रों देख लीजिए तो माथा पीट लेंगे. पू्रफ रीडिंग जैसी बुनियादी सबक कभी इन्हें सिखाया नहीं गया. जुम्मा-जुम्मा चार साल की पत्रकारिता और वरिष्ठ पत्रकार का खिताब. इन सालों में एक खबर ऐसी नहीं कि जो छाप छोड़ गई हो. हालांकि निराशाजनक स्थिति के बावजूद मैं कह सकता हूं कि कुछेक विद्यार्थी हैं जो पत्रकारिता करने आये थे और पत्रकारिता कर रहे हैं. पत्रकारिता शिक्षण संस्थाओं में अध्यापन के दौरान उन्हें इस बात का भी ज्ञान नहीं दिया गया कि पत्रकारिता और मीडिया क्या है? आज पत्रकारिता दिवस है और सोशल मीडिया में निश्चित रूप से मीडिया को शुभकामनाएं दी जा रही होंगी. प्रेस की स्वतंत्रता के मायने यह नहीं है कि आपको लिखने की आजादी है. प्रेस स्वतंत्रता का अर्थ है आप सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता करें. पेजथ्री की पत्रकारिता से बाहर आकर एक बार विद्यार्थी, पराडकर, गांधी और तिलक को पढ़ें. मैं यह भी नहीं कहता कि आधुनिक संचार माध्यमों में वह सबकुछ संभव है जो पराधीन भारत की पत्रकारिता में था लेकिन जैसे सृृष्टि ने मां बनाया तो सदियां बदल जाने के बाद भी मां ही है, वैसे ही माध्यम बदल जाए, विकास हो जाए लेकिन पत्रकारिता की आत्मा जिंदा रहना चाहिए. पत्रकारिता हमारी अस्मिता है.
जब हम प्रेस स्वतंत्रता की बात करते हैं तो इन दिनों कोरोना काल में जो कुछ घट रहा है, वह हमें आईना दिखाने के लिए बेहतर है. देशभर में पत्रकारों को फ्रंटलाइन कोरोना वर्कर मानने के लिए सरकारों को अर्जियां दी जा रही हैं. फिर राजशाही की तरह सरकार हम पर एहसान कर कहती है कि फलां सरकार ने पत्रकारों को फ्रंटलाइन कोरोना वर्कर मान लिया है. समाज में शुचिता और सकरात्मकता का भाव उत्पन्न करने की जिम्मेदारी पत्रकारिता की. सरकार के प्रयासों को लोगों तक पहुंचाने की अपेक्षा पत्रकारिता से. लेकिन पत्रकारों को फ्रंटलाइन कोरोना वर्कर मानने के लिए सरकारों से बात करना होगी. क्या सरकारों की जिम्मेदारी नहीं है कि वह हमारा ध्यान रखे? इस स्थिति के लिए भी हम दोषी हैं. रोहित सरदाना की मृत्यु हो जाती है तो हम खेमें में बंट जाते हैं. हम भूल जाते हैं कि वो भी एक पत्रकार था और हम सब भी. यह भी सच है कि जिस अखबार, पत्रिका या चैनल में काम करेेंगे, उसकी नीति के अनुरूप बोलना होगा. यह बंधन सबके लिए है. हमारी आपस की बैर और खेमेबाजी राजनीतिक दलों के लिए सुविधा पैदा करती है. आज सचमुच में प्रेस स्वतंत्र होता तो सरकारें आगे आकर फ्रंटलाइन कोरोना वर्कर मानने के लिए मजबूर होती लेकिन दुर्भाग्य से हम खेमेबाज पत्रकार हैं. इसलिए सब बातें बेमानी है.
उम्मीद कीजिए और भरोसा रखिए कि देश के कोने कोने से कोराना के चलते जो पत्रकार जान गंवा रहे हैं, उनसे हम सीख लें. एक साथ खड़े हो जाएं. जिस दिन हम यह साहस कर पाएंगे हर प्रबंधन को आगे आकर वेतन आयोग की शर्ते मानना होगी और सरकारों को भी. लेकिन इसके लिए इंतजार करना होगा कि क्योंकि एक ऐसी अदृश्य शक्ति है जो हमें इसमें या उसमें बांट रही है.

हे ब्राह्मण! तुम अपना सत्कर्म करो

—विनय कुमार विनायक
हे ब्राह्मण! तुम अपना सत्कर्म करो
तुम्हारे ही कर्म के अनुसरण से
अन्य वर्ण अपने-अपने कर्म करते,
तुम अगर बली विरोधी शाकाहारी बनोगे
तो यजमान भी क्यों बली करेगा!

हे ब्राह्मण तुम निर्णय करो,
तुम अगर गौ-धन-रत्न दान नहीं चाहोगे,
तो रत्नों का मूल्य नीचे गिर जाएगा,
तुम अगर सोने को पीतल से निकृष्ट,
चांदी को एल्यूमिनियम की जाति कहोगे
तो दान दहेज तिलक कुप्रथा मिट जाएगी!

हे ब्राह्मण स्मरण करो
तुम अगर पूर्व की तरह अब्राह्मण से
विवाह संस्कार करोगे तो जातिप्रथा
स्वत: ही लुट-पीट जाएगी!

हे ब्राह्मण कुछ तो विचार करो,
तबके सनातनी झा-सिंह-मंडल-दास नहीं होते थे
फिर क्यों बंदरिया के मरे बच्चे की तरह
चिपकाए हो द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी सी उपाधि को,
जबकि चारों वेदों के कोई एक मंत्र नहीं जानते!

अस्तु अपने अंत:करण का निग्रह करो
दमन करो दसों इन्द्रियों को वशवर्ती बनाओ
अंदर बाहर से शुद्ध बनो, अशुद्ध मत बनो
दूसरे का अपराध क्षमा करो, बदला ना लो
समाज में बदलाव करो ईश्वर का सुमिरन करो!

मन, इन्द्रिय, तन को सरल रखो,वक्र ना करो,
वेद, शास्त्र, ईश्वर व परलोक में श्रद्धा रखो,
वेद शास्त्र का अध्ययन करो, अध्यापन करो,
और परम तत्व ब्रह्म का अनुभव-अनुसरण करो!
ये सब ब्राह्मण मन में उत्पन्न स्वाभाविक कर्म हैं!

अपने कर्म से पलायन मत करो
वेद शास्त्र अध्ययन/अध्यापन को प्रतिबंधित मत करो!
अब्राह्मण चौथे वर्ण को वेदाध्ययन से वंचित ना करो!

हे क्षत्रियो! वीर सैनिकों!
शूरवीर बनो, धैर्य, तेज, चतुरता धारण करो!
अपने कर्म से कदापि पलायन मत करो!
‘अर्जुनस्य प्रतिज्ञै द्वय न दैन्यं न पलायनम्!’
योग्य पात्र को दान दो और सृष्टि पर स्वामीभाव रखो
ये सब क्षत्रिय वीरों का स्वाभाविक गुण कर्म है!

हे कृषक वैश्य वणिक!
कृषि-गोपालन,क्रय-विक्रय में सच्चाई वरण करो,
अपने अनुचित लाभ हेतु अन्न भंडारण ना करो!
ये वैश्य वर्ण के स्वाभाविक कर्म है, सत्कर्म करो!
शेष कर्म, शेष वर्ण विहीन जातियों को छोड़ दो!

‘ब्राह्मण: क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्ण द्विजातय:
चतुर्थो एक जातिस्तु शूद्रो नास्ति तु पंचम:'(मनु)

ये तीन वर्ण ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य द्विज जाति हैं!
इस तीन द्विजाति वर्णों से निसृत
चौथा शुद्र वर्ण नहीं अपितु जाति समूह है!

हे वर्णाश्रमी अपने-अपने स्वाभाविक कर्म करो,
क्योंकि कर्म वर्ण-वंश-जाति से नहीं,
स्वभाव से उत्पन्न होता!
जो जन त्रिवर्ण में नहीं है वे स्वभाव से
त्रिवर्ण के सहायक कर्म को अपना कर्म समझो!

हरकोई अध्यापक, योद्धा, क्षेत्रपति-कृषक-पशुपालक,
चिकित्सक या अन्य अध्यवसायी नहीं हो सकते!

ऐसी स्थिति में तुम त्रिवर्ण में स्थान ले लो,
ब्राह्मण का सहयोगी होकर गुरु ज्ञानी बन लो,
वीर सैनिक योद्धाओं के मददगार बनो
वीर रस संचार करो,कवि लेखक शब्दकार बनो,
चिट्ठी,पत्री,रसद पहुंचाने का कोई कार्य व्यापार करो!

बनो सहायक कृषक व्यवसायी चिकित्सक आदि के
काश्तकार, वणिक, नर्स,मिश्रक ड्रेसर आदि कार्य करो!

क्योंकि कर्म शूद्र नहीं होता,कर्म का वर्ण नहीं होता,
कर्म स्वभाव से प्रेरित होता,स्वभाव शूद्र नहीं होता!

स्वभाव मानवीय भाव होता सब वर्णो में
अपने-अपने मनोनुकूल कर्म ढूंढ लो,
नित नवीन कर्मों का सृजन हो रहा है
जाति वर्ण से कई गुणा कर्म में बहुलता होती!
—विनय कुमार विनायक

तुष्टिकरण की राजधानी में अब भाजपा सशक्त विपक्ष

पिछले वर्षों में संपूर्ण भारत में तुष्टिकरण की राजनीति की राजधानी बनकर कोई राज्य उभरकर आया है तो वह राज्य है पश्चिम बंगाल! तुष्टिकरण की राजनीति की प्रयोगशाला या राजधानी बनकर उभरा पश्चिम बंगाल इस घृणित राजनीति की एक बड़ी कीमत चुका बैठा है व आगामी दिनों में भी चुकाएगा यह स्पष्ट दिख गया है इस विधानसभा चुनाव के परिणाम में. अंततः ममता बनर्जी की तृणमूल पुनः पश्चिम बंगाल में सत्ता संभाल रही है व भाजपा वहां एक सुदृढ़ विपक्ष की भूमिका निभाने जा रही है. यह दुखद ही है की ममता बनर्जी का पुनः सत्तारूढ़ होना इस बात का परिचायक ही कहलायेगा कि बंगाल की जनता को तृणमूल की मुस्लिम राजनीति पसंद आ गई है. किंतु, दुसरा पक्ष यह भी है कि भाजपा को मिले लगभग सौ विधायक ममता की तानाशाही व मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति के विरुद्ध एक जनमत भी है और राष्ट्रनायक नरेंद्रभाई मोदी की विकास की राजनीति के पक्ष में एक सशक्त्त स्वर भी.

  सैकड़ों राजनैतिक हत्याओं व हजारों रक्तरंजित राजनैतिक संघर्षों को झेलकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता बंगाल में सत्ता प्राप्त करने का लक्ष्य तो प्राप्त नहीं कर पाए किंतु सशक्त्त विपक्ष की एक बड़ी राजनैतिक उपलब्धि प्राप्त करने में अवश्य सफल हो रहे हैं. 

     बंगाल के राजनैतिक वातावरण के संदर्भ में ममता बनर्जी का पिछ्ला दस वर्षीय शासन का स्मरण आवश्यक हो जाता है. मुख्यमंत्री रहते हुए ममता बनर्जी ने बंगाल में हिंदुओं को अपमानित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ा. वहां मुहर्रम के त्यौहार पर पश्चिम बंगाल के सबसे बड़े पर्व दुर्गा पूजा या नवरात्रि की बलि चढ़ा दी थी. मुहर्रम के लिए दुर्गा प्रतिमा विसर्जन की तिथियां बदल दी जाती थी. मस्जिदों के मौलाना ममता शासन के एजेंट के रूप में प्रशासनिक अधिकारियों को आदेश देने लगे थे. ऐसी कितनी ही घटनाएं वहां होने लगी थी जिनसे हिंदुत्व अपने आप को अपमानित और इस्लाम अपने आप को शहंशाह समझने लगा था. इस पुरे वातावरण में जब भाजपा ने अपना बंगाल अभियान पश्चिम बंगाल 2016 में कैलाश विजयवर्गीय जी के नेतृत्व में प्रारंभ किया तब किसी को भी आशा नहीं थी कि भाजपा बंगाल में सत्ता प्राप्त करने का लक्ष्य लेकर चुनाव लड़ेगी व अंततः एक बेहद सुदृढ़ विपक्ष बनकर उभर आएगी. 

 स्पष्ट है कि भाजपा इस चुनाव में बंगाल में सरकार बनाने का अपना लक्ष्य तो प्राप्त नहीं कर पाई किंतु पश्चिम बंगाल में तुष्टिकरण की राजनीति की बलि चढ़ाने में अवश्य सफल हो गई है. विगत दस वर्षों में जो ममता बनर्जी किसी मंदिर, मठ, आश्रम में जाते आते नहीं दिखी, सतत निरंतर मुस्लिमों के भेष में, उनकी ही भाषा  बोलते नजर आती थी वही ममता मंदिरों और पुजारियों के आसपास चक्कर लगाते दिखने लगी थी. ममता बनर्जी के बड़े खासमखास सिपहसलार, उनके मंत्री, कोलकाता के मेयर फिर्रहाद हाकिम की बात से देश को बंगाल की राजनीति में तुष्टिकरण के भयानक रूप को समझ लेना चाहिए. फिरहाद हाकिम उर्फ़ बाबी हाकिम ने पाकिस्तान के समाचार पत्र द डान को दिए एक साक्षात्कार में बड़े ही चुनौतीपूर्ण ढंग से कहा था कि “मुस्लिमों के बंगाल पाकिस्तान से भी अधिक सुरक्षित स्थान है”. ये ममता बनर्जी व फिरहाद हाकिम का ही किया धरा है कि पुरे देश में जितने भी बांग्लादेशी घुसपैठिये घूम रहें हैं वे सभी बंगाल के रास्ते से ही देश में घुसे हैं. इन घुसपैठियों को बंगाल में इनका तंत्र बड़ी ही योजनापूर्ण पद्धति से इनके भारतीय परिचय पत्र आदि बनवा देता है व फिर इन्हें देश भर में अराजकता फैलाने के लिए छोड़ देता है. बांग्लादेशी घुसपैठियों का यह गोरखधंधा चल ही रहा था कि इन्होने रोहिंग्याई घुसपैठियों को भी देश में घुसाना प्रारंभ कर दिया और एक नई समस्या को जन्म दिया. ममता बनर्जी तुष्टिकरण की राजनीति छोड़कर इस कदर आगे बढ़ी कि अपने मंचों से चंडी पाठ करने लगी. इस अभियान में उन्होंने अपने लगभग चार दशक के राजनैतिक जीवन में पहली बार स्वयं के शांडिल्य गोत्र में जन्में ब्राह्मण होने की बात की. ऐसा लगा जैसे भाजपा के चुनाव अभियान ने उन्हें अचानक अपने कुल-गोत्र-वर्ण का स्मरण करा दिया हो. 

    प्रसन्नता इस बात की नहीं है की ममता बनर्जी को अपना हिंदुत्व स्मरण हो आया. प्रसन्नता इस बात की है कि ममता बनर्जी की तुष्टिकरण की राजनीति व तुष्टिकरण की राजनधानी पश्चिम बंगाल को अब भाजपा का सशक्त विपक्ष चुनौती देने हेतु उपस्थित हो गया है. प्रसन्नता इस बात की भी है कि पश्चिम बंगाल से अब वामपंथियों के शेष अवशेष भी समाप्त हो गए हैं. प्रसन्नता इस बात की भी है कि बंगाल कांग्रेसमुक्त हो गया है. तमाम प्रयासों, श्रम व लगन भरे अभियान के बाद भी भाजपा के लिए बंगाल में सत्ता प्राप्त न कर पाना एक झटके जैसा अवश्य दिखता है किंतु जिनमें तनिक सी भी राजनैतिक बुद्धि है वे समझ सकते हैं कि बंगाल के भद्रलोक ने यदि भारतीय जनता पार्टी को इतने कम समय के परिचय में, इतने नए नवेले संगठन के बाद भी यदि 18 सांसद व लगभग सौ विधायक दे दिए हैं तो यह एक अच्छा संकेत है. अच्छी बात यह भी है कि पश्चिम बंगाल का शोनार बांग्ला स्वप्न भाजपा के लिए एक आजीवन मिशन बन गया है. भाजपा को भले ही बंगाल में सत्ता न मिली हो किंतु भारतवर्ष के नागरिक इस बात की जवाबदारी भाजपा को ही देते हैं कि एक सशक्त विपक्ष के रूप में वह बंगाल को अब घुसपैठियों का प्रवेशद्वार कतई नहीं बनने देगी.  

फेला होबे’ की नहीं चली गुगली, ‘खेला होबे’ डबल सैंचुरी पार…

सुशील कुमार ‘नवीन’

भाजपा के लिए बंगाल फतेह स्वप्न ही रहा। वो ‘फैला होबे, फैला होबे’ कहते रह गए, उधर दीदी ‘खेला होबे’ बोलती-बोलती हैट्रिक बना गई। हालांकि नन्दीग्राम से दीदी की हार जरूर जख्म पर मरहम है पर मलहम जरा तीखा है। जो दर्द कम करने की जगह बढ़ाएगा ही।

बंगाल चुनाव में इस बार कई बड़े मुद्दे लगातार चर्चा में रहे। इन्हीं मुद्दों पर पूरा चुनाव फोकस रहा। ये किसी के लिए पॉजिटिव थे तो किसी के लिए नेगेटिव होकर भी पॉजिटिव। ‘ जय श्री राम’ का नारा ही लीजिए। चुनाव में इसे प्रमुख मुद्दा बनाने में भाजपा ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। कामयाबी नहीं मिली। हालांकि जय श्री राम के उद्घोष से ममता दीदी आग बबूला होती कई बार जरूर दिखी।

दूसरी तरफ देखें तो बंगाल की राजनीति में मुस्लिम वोटों का बहुत बड़ा रोल रहता है। इस बार भी इसे अपनी ओर करने का प्रयास कइयों ने किया। भाजपा को तो ये वोट मिलने की संभावना वैसे ही कम थी। अब्बास सिद्दीकी द्वारा ममता बनर्जी का साथ छोड़कर इंडियन सेक्युलर फ्रंट बनाना और ओवैसी का बंगाल की सियासत में कदम रखना इसे और महत्वपूर्ण बना गया था। कहना गलत नहीं होगा कि इससे ममता बनर्जी की टेंशन जरूर बढ़ी। पर ममता पर इसका कोई खास असर परिणाम में नहीं दिख पाया। चुनाव में किसान भी इस बार बड़ा मुद्दा रहे हैं। ममता खुलकर तीनों कानूनों का विरोध करती रहीं हैं। भाजपा अपने तर्कों से कृषि कानूनों के फायदे गिनाकर भी इसे ममता विरोधी बनाने में कामयाब नहीं हो पाई।

बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा बंगाल में बरसों पुराना रहा है। इस मुद्दे पर भाजपा हमेशा साफ रही। उनके अनुसार सत्ता में आते ही इन्हें सहन नहीं किया जाएगा। रोहिंग्या के खिलाफ कार्रवाई की चर्चा भी खूब चली। नागरिकता संशोधन कानून का भी ममता शुरू से ही विरोध करती रहीं। ममता को यहां भी फायदा ही हुआ। भाजपा ने ममता सरकार को तोलाबाजों की सरकार तक करार दिया था। प्रधानमंत्री समेत सभी भाजपा नेताओं ने इस मुद्दे को पूरा हवा देने का प्रयास किया। ममता बनर्जी ने चुनाव में बंगाली वर्सिज बाहरी को खूब भुनाया। ममता साफ तौर पर भाजपा को बाहरी करार देती रही।

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में खूब नारे चले। सबमें ‘खेला होबे ज्यादा चर्चा में रहा। इस नारे से ममता जहां भाजपा को चिढ़ाती रही, वहीं भाजपा ने ‘अबकी टीएमसी के फेला होबे’ का इस्तेमाल कर इसे और चर्चित किया। कुल मिलाकर भाजपा इस चुनाव में जिन ऑलराउंडरी मुद्दों से ममता को शिकस्त देने का दम्भ भर रही थी। सबकी ममता ने हवा निकालकर रख दी। ‘पोरिबोर्तोन’ तो जरूर हुआ, 2016 में 3 सीट वाली भाजपा दूसरी बड़ी पार्टी बनने में जरूर कामयाब हो गई। जो आने वाले समय मे बंगाल में भाजपा को और मजबूती प्रदान करने का काम करेगा।

निर्भीक-निड़र-बेबाक पत्रकार ‘रोहित सरदाना’ के यूं चले जाने पर विश्वास नहीं होता!

दीपक कुमार त्यागी

जिसने प्रथ्वी पर किसी भी रूप में जन्म लिया है, उसका एक दिन जाना तय है, यह सर्वशक्तिमान ईश्वर का बनाया हुआ नियम है, लेकिन कोई भी व्यक्ति अगर अपनी पारिवारिक व सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करके आयु के अंतिम पड़ाव पर दुनिया से चला जाता है तो उसके जाने की वेदना अधिक नहीं होती है। जिस तरह से अचानक शुक्रवार की सुबह भारतीय मीडिया जगत की नामचीन बड़ी हस्ती दिग्गज पत्रकार ‘रोहित सरदाना’ की नोएडा के अस्पताल में तबीयत खराब हुई और फिर अस्पताल से मीडिया जगत के लिए हैंड लाईन बनने वाली वज्रपात करने वाली बेहद दुखद खबर आयी की मेट्रो अस्पताल के डॉक्टर भारतीय पत्रकारिता जगत के दिग्गज ‘रोहित सरदाना’ को बचाने में कामयाब नहीं हो सकें। जब मैने इस दुखद खबर को देखा तो उसने मेरे दिलोदिमाग को झकझोर कर मुझे निशब्द करके रख दिया, मुझे अभी तक भी विश्वास नहीं हो पा रहा है कि कैसे हंसता बोलता बेबाक बेखौफ चेहरा दुनिया को एक ही पल में अलविदा कह कर चला गया। वैसे सर्वशक्तिमान विधाता के निर्णय के आगें किसी भी छोटे या बड़े व्यक्ति का कोई बस नहीं चलता है, वो ताकतवर से ताकतवर व्यक्ति को भी एक ही पल में बहुत बेबस लाचार बना देता है। ईश्वर का विधान ऐसा है कि हम सभी लोगों को अच्छी से अच्छी या विपरीत से विपरीत कैसी भी परिस्थितियों में भी ईश्वर के किये गये निर्णय मानना ही पढ़ता है, उसका निर्णय अंतिम व सर्वमान्य होता है। लेकिन फिर भी हम लोग एक इंसान है, जो व्यक्ति के व्यवहार रिश्ते-नातों आपसी संबंधों की मजबूत डोर की वजह से एक दूसरे से लगाव रखते हैं। ‘रोहित सरदाना’ का तो व्यवहार ही गजब था वो आपसी संबंधों को जीवन भर निभाने वाले एक बहुत बेहतरीन शख्सियत वाले व्यक्तित्व थे। उनसे जीवन में जब भी मुलाकात हुई उन्होंने हमेशा अपने व्यवहार से दिल जीतने का कार्य किया, जब भी उनसे बात होती थी वो हमेशा बेहद सकारात्मक रहते थे और उत्साहवर्धन करते थे। ऐसे व्यक्ति के यूं एक ही पल में दुनिया से चले जाने पर विश्वास नहीं होता है।

कोरोना की बीमारी से संक्रमित होने के बाद भी जिस तरह से ‘रोहित सरदाना’ लगातार महामारी से जूझ रहे लोगों के जीवन रक्षक बनकर उनके मददगार बन रहे थे, वह काबिलेतारीफ था। उनके इस मददगार व्यवहार ने रोहित को जीवन के अंतिम काल में आम लोगों के बीच बेहद लोकप्रिय बना दिया था। एक दिन पहले तक भी जिस तरह से ‘रोहित सरदाना’ अपने बेहद गंभीर संक्रमण की चिंता ना करके, संक्रमित लोगों के लिए ऑक्सीजन का बंदोबस्त करवा कर उनके जीवन के लिए साँसों का इंतजाम करवाने में बेहद व्यस्त थे, उसको भूलना असंभव है। वह अपना दुख-दर्द भूलकर लोगों की मदद करने में इतना अधिक सक्रिय थे कि लोगों का कोरोना का इलाज करवाने के लिए उनका अस्पताल में एडमिशन, साधारण बेड, ऑक्सीजन वाले बेड, आईसीयू, वेन्टीलेटर, दवाई, प्लाज़्मा व इंजेक्शन आदि तक की व्यवस्था करवाने के लिए लगातार सोशल मीडिया व अन्य विभिन्न सशक्त माध्यम से बेहद सक्रिय थे। ‘रोहित सरदाना’ भयंकर आपदाकाल में लोगों से लगातार एक दूसरे का सहयोग करने की अपील कर रहे थे। लेकिन किसी को नहीं पता था कि आपदा में लोगों की हिम्मत व हौसला बढ़ाकर, कोरोना से संक्रमित लोगों के लिए साँसों का इंतजाम करने वाले इस महायोद्धा के लिए ईश्वर ने साँस बहुत कम लिखी हैं, एक दिन बाद ही वह अपने भरेपूरे परिवार को हंसते-खेलता एक ही पल में रोता-बिलखता छोड़़कर दुनिया से यूं रूखसत हो जायेगें, यह दुखद स्थिति अविश्वसनीय है।

हरियाणा के कुरुक्षेत्र से आकर दिल्ली के शक्तिशाली राज दरबार में दखल रखने वाले ‘रोहित सरदाना’ ने बहुत कम समय में ही अपनी मेहनत योग्यता विशेष शैली और अपने प्रशंसकों के प्यार के बलबूते, भारतीय पत्रकारिता जगत में अपना विशेष बेहद महत्वपूर्ण स्थान हासिल किया था। इलैक्ट्रोनिक मीडिया की दुनिया में ‘रोहित सरदाना’ अपना विशेष स्थान बनाकर ऐसी अमिट छाप छोड़कर गये हैं कि भविष्य में जिस तक पहुंचना पत्रकारों का बड़ा सपना होगा। वह देश के एक ऐसे मशहूर दिग्गज न्यूज एंकर थे जिसके नाम से ही ‘दंगल’ जैसा कार्यक्रम मशहूर था। ‘रोहित सरदाना’ अपने आप में टीवी जगत के सशक्त ब्रांड बन चुके थे, टीआरपी की दुनिया में उनके द्वारा किये जाने वाला कार्यक्रम की रैंकिंग बहुत जबरदस्त होती थी, अब स्थिति यह थी कि बड़े-बड़े न्यूज चैनल भी ‘रोहित सरदाना’ की शख्सियत के सामने बौने साबित होने लगे थे। देश के आम-जनमानस, भारतीय इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में उनकी छवि एक राष्ट्रवादी विचारधारा, हिन्दुत्ववादी सोच रखने वाले दिग्गज क्रांतिकारी पत्रकार की बन गयी थी। ‘रोहित’ टीवी पत्रकारिता में निर्भीकता के साथ वैचारिक क्रांति लाने के सूत्रधार थे। यही वजह है कि ‘रोहित सरदाना’ का अचानक यूं चले जाना सभी को अंचभित कर रहा है, किसी का भी मन आसानी से इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। वो अपने परिवार, मित्रों, शुभचिंतकों के साथ भारतीय टीवी पत्रकारिता के लिए उम्मीद की किरण थे। लेकिन उनके आकस्मिक निधन से परिवार, मित्र व शुभचिंतकों का सफर अब ठहर गया है। ‘रोहित सरदाना’ का निधन न केवल परिवार व उनके चाहने वालों के लिए व्यक्तिगत क्षति है, बल्कि भारतीय पत्रकारिता में एक देशहित की सोच रखने वाले लोगों के लिये गहरा धक्का है और अपूरणीय क्षति है। ‘रोहित सरदाना’ का निधन पत्रकारिता के क्षेत्र में एक युग की समाप्ति है।

‘रोहित सरदाना’ को भारतीय मीडिया जगत में बेहद बेबाक निर्भीक तरीके से अपनी बात रखने के लिए जाना जाता था, उनके जैसे स्पष्ट बोलने वाले बहुत कम लोग मीडिया जगत में बचे हैं। लंबे समय से वह टीवी मीडिया का बेहद चर्चित चेहरा रहे हैं, ‘रोहित सरदाना’ इन दिनों ‘आज तक’ न्यूज चैनल पर प्रसारित होने वाले बेहद चर्चित डिवेट शो ‘दंगल’ की एंकरिंग करते थे। उन्हें पत्रकारिता जगत के कई पुरस्कारों से भी नवाजा गया था और वर्ष 2018 में ही ‘रोहित सरदाना’ को बेहद प्रतिष्ठित ‘गणेश शंकर विद्यार्थी’ पुरस्कार से नवाजा गया था। कोरोना के क्रूर काल चक्र ने ‘रोहित सरदाना’ को भी हम लोगों से हमेशा के लिए छीन लिया है, यह अभी भी अविश्वसनीय, अकल्पनीय लगता है। सर्वशक्तिमान ईश्वर से प्रार्थना हैं कि वह ‘रोहित सरदाना’ को अपने श्री चरणों में स्थान दें और बेहद दुख की इस घड़ी को सहन करने की परिवार को शक्ति प्रदान करें।। ॐ शांति ॐ शांति ॐ शांति।।

बन्द है दरवाजे,कभी तो खुलेंगे

बन्द हैं दरवाजे,कभी तो खुलेंगे,
कभी तो हम अपनो से मिलेंगे।
उम्मीद रखो,अच्छा वक्त आयेगा,
जो बिछड़े है,वे जल्दी ही मिलेंगे।।

सूरज छिपता है,तो निकलता भी है,
बीज बोते है,तो पौधा उगता भी है।
उम्मीद पर है ये कायम दुनिया है सारी,
सोता है इंसान तो कभी जागता भी है।।

ख्तम होगा गम,खुशियां लौटकर आयेगी,
कभी न कभी तो चेहरों पर मुस्कान आयेगी।
फ़िक्र मत कर ये जलजला ख़तम हो जायेगा,
खुशी की लहरे जिंदगी में जरूर आएगी।।

रहता नहीं बख्त एक सा बदलता रहता,
बुरा बख्त हमेशा ही याद आता रहता,
आता है बुरा बख्त कुछ सिखा कर जाता,
बख्त के साथ दुनिया का रुख बदल जाता।।

जल्दी ही लौटेंगी जिंदगी में खुशियां,
अपनो से मिलकर बाटेंगे ये खुशियां।
अभी कुछ गमों का दौर है चल रहा,
इम्तिहानों के बाद मिलेगी ये खुशियां।।

आर के रस्तोगी

हैहय क्षत्रिय वंश: किसी जाति को मिटाना है तो इतिहास बिगाड़ दो

—विनय कुमार विनायक
किसी वंश या जाति को मिटाना है
तो उसका इतिहास बिगाड़ दो!

ऐसा ही किया गया है हैहयवंशी क्षत्रियों के साथ,
हैहय क्षत्रिय चंद्रकुल के यदुवंश की ज्येष्ठ शाखा है,
हैहयवंश की विरुदावली गाई गई है सभी पुराणों में!

हैहयवंश को श्रेष्ठ मुनि महात्मा कुल कहा गया
सभी पुराणों में ,अग्नि पुराण का कथन है—
“हैहयानां कुला: पंच: भोजाश्चावन्तयस्तथा वीतिहोत्रा:
स्वयंजाता: शौण्डिकेयास्तथैव च—(अग्नि पु.174/10,11)”

यानि ‘हैहयवंशी क्षत्रियकुल में भोज, अवंती, वीतिहोत्र,
स्वयंजात और शौण्डिक ये पांच क्षत्रिय शाखाएं हैं!’

“तेषां कुले मुनि श्रेष्ठा हैहयाना महात्मना—“ (ब्रह्म.पु.13/204,205)
“तेषां पंच कुलायेव हैहयाना महात्मनां—“ (पद्म पु.5.12/141,15)
“तेषा पंचगणा: ख्याता हैहयानां महात्मनां—“ (वायु पु.2/32/51,52)
“तेषां पंच कुला ख्याता हैहयानां महात्मनां—“ (मत्स्य.पु.44,48,49)
“तेषाकुलेऽति विमले हैहयानां महात्मनां” (बल्लाल चरित 2.10/51,2)!

ये कुछ पुराणों की बानगी है हैहयकुल के मुनि महात्मा होने का,
अग्नि पुराण आदि और बल्लाल चरित के अनुसार
हैहय क्षत्रिय शौण्डिक व बंगाल के सेन शासक कायस्थ
बल्लाल सेन एक ही वंश जाति हैहय क्षत्रिय मूल के थे!

हैहय वंश के मूल पुरुष चन्द्र महामुनि अत्रि ऋषि के पुत्र थे
और मातृपक्ष से, चन्द्रपुत्र बुध की भार्या इला;
मारीचि कश्यप के अदिति से उत्पन्न पुत्र
आदित्य विवश्वान सूर्यपुत्र वैवस्वत मनु की कन्या थी!

अत्रि ऋषि और अनसुईया के तीन पुत्र चन्द्र, दत्तात्रेय और दुर्वासा
क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महादेव के अवतार थे!

प्रथम अत्रिपुत्र चन्द्र आत्रेय चन्द्रकुल के मूल पुरुष थे!

द्वितीय अत्रिपुत्र दत्तात्रेय पाशुपत पंथ के संस्थापक
और चन्द्रकुल हैहयवंश के आराध्य देव विष्णु के अवतार थे!

तीसरा अत्रिपुत्र दुर्वासा अति क्रोधी महादेव के रुद्रावतार थे!

चन्द्र पौत्र; बुध-इला के पुत्र चक्रवर्ती शासक पुरुरवा
देवतुल्य मानव अप्सरा उर्वशी के भोगी जैविक पति थे!
पुरुरवा के पुत्र आयु, आयु से नहुष, नहुषपुत्र ययाति,
ययातिपुत्र यदु,यदु के पुत्र सहस्त्रजित, एवं
सहस्त्रजित पुत्र हैहय हैहयशाखा के मूल पुरुष थे!

इस पवित्र हैहयवंश में बड़े-बड़े चक्रवर्ती व विष्णु के अवतार हुए
प्रथम योगी,दानी,प्रजावत्सल,सप्तद्वीपेश्वर,सुदर्शन चक्रावतार
सम्राट सहस्त्रार्जुन और विष्णु के अवतार भगवान कृष्ण
तथा शेषावतार हलधर बलराम हैहय यदुवंशियों के विघ्नहर्ता थे!

हैहयराज सहस्त्रार्जुन के सौ पुत्रों में पांच प्रधान थे
शूरसेन,शूर, वृषसेन,मधु,जयध्वज—
ये परशुराम के हैहयवंश संहार से बचे थे—
शूर/सूर और शूरसेन/सूरसेन से शुरी/सुरी शौरि/सोढ़ी,
वृषसेन से वृष्णिवंशी/वार्ष्णेय
जिसमें भगवान श्रीकृष्ण और बलराम हुए थे!

मधु ध्वज से माधव वंश,जयध्वज से तालजंघ,
तालजंघ से वीतिहव्य/वीतिहोत्र,शर्यात/स्वयंजात,
तुण्डिकेर/शौण्डिकेर,भोज और अवन्ति ये पांच पुत्र हुए!

महाभारत के अनुशासन पर्व में कहा गया है
“मेकला द्राविड़ा लाटा पौण्ड्रा: कान्वशिरास्तथा
शौण्डिका दरदा दार्वाश्चचौरा शबर बर्वरा
किराता यवनाश्चैव तास्ता: क्षत्रिय जातय:।
वृषलत्वमनु प्राप्ता ब्राह्मण अमर्षनात्।“ अनु.प.35/17,18)

यानि ‘मेकला,द्राविड़,लाट,पौण्ड्र,कण्व शिरास्तथा
शौण्डिक,दरद,दर्वाश्चौरा,शबर,बर्वर,किरात,यवन क्षत्रिय जाति थे!

अस्तु अग्नि पुराण और महाभारत के अनुसार
हैहयवंशी क्षत्रियों की पांच शाखाओं में शौण्डिक भी एक थे!

पाणिनि ने कहा ‘शौण्डिको युद्ध निपुण क्षत्रिय प्रोच्यते बुधै’।
यानि ‘बुद्धिमान लोग युद्ध कुशल क्षत्रिय को शौण्डिक कहते’
अस्तु शौण्डिक क्षत्रिय जाति का पर्यायवाची शब्द है!

क्षत्रिय राजा प्रद्योत के बाद शुंग, काण्व, सातवाहन, भारशिव
जैसे ब्राह्मण राजाओं के काल में पूर्व काल के विजित राजवंशों पर
अधिकार प्राप्त कर उन्हें क्षत्रिय से व्रात्य जाति बना दी गई!

महाभारत में कहा गया है
‘वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणानां अमर्षनात्”
ब्राह्मण के अमर्ष यानि रोष के कारण ये क्षत्रिय जातियां
क्षत्रिय से वृषल यानि निम्नतर जाति की हो गई!

यही वो समय था जब पौराणिक क्षत्रियों का पतन हो रहा था
यही वो काल था जब पुष्यमित्र शुंग (185-149 ईसा पूर्व) का
उग्र ब्राह्मणवाद का दौर चल रहा था
मनुस्मृति, महाभारत और समग्र पुराणों का
वर्तमान संस्करण लिखा जा रहा था!

अधिक से अधिक ब्राह्मण वर्चस्ववादी
प्रक्षिप्त अंशों को शास्त्रों में जोड़ा जा रहा था
जैसे मनुस्मृति का ये प्रक्षिप्त अंश—
‘ब्राह्मण जायमानोहि पृथ्वियां अधिजायते’
यानि ब्राह्मण जन्म लेते ही पृथ्वी के स्वामी हो जाते’
बौद्ध जैन श्रावकों का उत्पीड़न,मान मर्दन
और कत्लेआम बहुतायत से किया जा रहा था!

वैदिक कर्मकाण्ड, अश्वमेध यज्ञ
और पशु बलि फिर से चलन में आ गए,
हैहय समेत वीर क्षत्रियों को
वर्ण संकर जातियों में ढकेले जाने लगे!
पुष्यमित्र शुंग एक ब्राह्मण सेनापति ने
अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ का बध करके
मगध की गद्दी हासिल कर ली थी!

पंडित विश्वेश्वर नाथ रेउ ने लिखा है
‘’हैहयवंश चन्द्रवंशी राजा यदु के परपोते हैहय से चला,
हैहय वंश के कुछ लोग महाभारत और अग्निपुराण
निर्माण काल में शौण्डिक (कलाल) कहलाते थे
और कलचुरी राजाओं के ताम्रपत्रों में भी उनको
हैहयों की शाखा लिखा गया है!”

ये कलचुरी शौण्डिक लोग शैव थे और दत्तात्रेय ऋषि के
पाशुपत पंथ के अनुयाई होने के कारण
शराब अधिक काम में लाया करते थे!’

मध्यप्रदेश जबलपुर के त्रिपुरी में कलचुरी शासकों ने
पांच सितंबर दो सौ अडतालीस (248) ईस्वी में
एक स्वतंत्र कलचुरी संवत चलाया था,
और शिलालेख ताम्रपत्रों में कलचुरी शासकों ने
हैहयराज सहस्त्रार्जुन को अपना कुलपिता माना है!

कलचुरी संवत् की स्थापना दहरसेन प्रपौत्र
ब्याघ्रसेन के पुत्र जयनाथ ने किया था!
हैहय कलचुरी वंश में कोकल्लदेव, मुग्धतुंग, युवराजदेव,
लक्ष्मन देव,गांगेयदेव,कर्ण देव,यश:कर्णदेव, नरसिंहदेव
जयसिंह,विजयसिंह,अजयसिंह देव जैसे बड़े-बड़े शासक हुए!
—विनय कुमार विनायक