विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून) पर विशेष
डगमगाते पर्यावरण को संभालने का समय
– योगेश कुमार गोयल
वर्तमान समय में पर्यावरण प्रदूषण सबसे बड़ी वैश्विक समस्या है। पिछले तीन दशकों से महसूस किया जा रहा है कि वैश्विक स्तर पर सबसे बड़ी समस्या पर्यावरण से ही जुड़ी है। मानवीय क्रियाकलापों के कारण प्रकृति में लगातार बढ़ते दखल के कारण पृथ्वी पर बहुत से प्राकृतिक संसाधनों का विनाश हुआ है। आधुनिक जीवनशैली, पृथ्वी पर पेड़-पौधों की कमी, पर्यावरण प्रदूषण का विकराल रूप, मानव द्वारा प्रकृति का बेदर्दी से दोहन इत्यादि कारणों से मानव और प्रकृति के बीच असंतुलन की भयावह खाई उत्पन्न हो रही है। जलवायु परिवर्तन और प्रदूषित वातावरण के बढ़ते खतरे हम अब लगातार अनुभव कर रहे हैं। इसीलिए पर्यावरण की सुरक्षा तथा संरक्षण के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 5 जून को पूरी दुनिया में ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा तथा संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) द्वारा 16 जून 1972 को स्टॉकहोम में पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जागृति लाने के लिए यह दिवस मनाने की घोषणा की गई थी और पहला विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून 1974 को मनाया गया था।
पर्यावरण की रक्षा और प्रकृति के उचित दोहन को लेकर हालांकि यूरोप, अमेरिका तथा अफ्रीकी देशों में 1910 के दशक से ही समझौतों की शुरूआत हो गई थी किन्तु बीते कुछ दशकों में दुनिया के कई देशों ने इसे लेकर क्योटो प्रोटोकाल, मांट्रियल प्रोटोकाल, रियो सम्मलेन जैसे कई बहुराष्ट्रीय समझौते किए हैं। अधिकांश देशों की सरकारें पर्यावरण को लेकर चिंतित तो दिखती हैं लेकिन पर्यावरण की चिंता के बीच कुछ देश अपने हितों को देखते हुए पर्यावरण संरक्षण की नीतियों में बदलाव करते रहे हैं। प्रदूषित वातावरण का खामियाजा केवल मनुष्यों को ही नहीं बल्कि धरती पर विद्यमान प्रत्येक प्राणी को भुगतना पड़ता है। बड़े पैमाने पर प्रकृति से खिलवाड़ के ही कारण दुनिया के विशालकाय जंगल हर साल सुलगने लगे हैं, जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को खरबों रुपये का नुकसान होने के अलावा दुर्लभ जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की अनेक प्रजातियां भी भीषण आग में जलकर राख हो जाती हैं। कोरोना काल में लॉकडाउन के दौरान दुनियाभर में पर्यावरण की स्थिति में सुधार देखा गया था, जिसने बता दिया था कि अगर हम चाहें तो पर्यावरण की स्थिति में काफी हद तक सुधार किया जा सकता है लेकिन दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में पर्यावरण संरक्षण को लेकर अपेक्षित कदम नहीं उठाए जाते। न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर तापमान में निरन्तर हो रही बढ़ोतरी और मौसम का लगातार बिगड़ता मिजाज गहन चिंता का विषय बना है।
जलवायु परिवर्तन से निपटने को लेकर चर्चाएं और चिंताएं तो बहुत होती हैं, तरह-तरह के संकल्प भी दोहराये जाते हैं किन्तु सुख-संसाधनों की अंधी चाहत, सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि, अनियंत्रित औद्योगिक विकास और रोजगार के अधिकाधिक अवसर पैदा करने के दबाव के चलते इस तरह की चर्चाएं और चिंताएं अर्थहीन होकर रह जाती हैं। अपनी पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ में मैंने विस्तार से यह स्पष्ट किया है कि धरती में रह-रहकर जो उथल-पुथल की प्राकृतिक घटनाएं घट रही हैं, उनके पीछे छिपे संकेतों और प्रकृति की मूक भाषा को समझना कितना जरूरी है। आधुनिकरण और औद्योगिकीकरण की दौड़ में हमने हर पल प्रकृति की नैतिक सीमाओं का उल्लंघन किया है और ये सब प्रकृति के साथ इंसान की ज्यादतियों का ही नतीजा हैं, जिसके भयावह परिणाम हमारे सामने हैं।
मानवीय क्रियाकलापों के कारण ही वायुमंडल में कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन, ओजोन और पार्टिक्यूलेट मैटर के प्रदूषण का मिश्रण इतने खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है कि हमें सांस के जरिये असाध्य बीमारियों की सौगात मिल रही है। सीवरेज की गंदगी स्वच्छ जल स्रोतों में छोड़ने की बात हो या औद्योगिक इकाईयों का अम्लीय कचरा नदियों में बहाने की अथवा सड़कों पर रेंगती वाहनों की लंबी-लंबी कतारों से वायुमंडल में घुलते जहर की या फिर सख्त अदालती निर्देशों के बावजूद खेतों में जलती पराली से हवा में घुलते हजारों-लाखों टन धुएं की, हमारी आंखें तब तक नहीं खुलती, जब तक प्रकृति का बड़ा कहर हम पर नहीं टूट पड़ता। पैट्रोल, डीजल से उत्पन्न होने वाले धुएं ने वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड तथा ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा को खतरनाक स्तर तक पहुंचा दिया है। पेड़-पौधे कार्बन डाईऑक्साइड को अवशोषित कर पर्यावरण संतुलन बनाने में अहम भूमिका निभाते रहे हैं लेकिन पिछले कुछ दशकों में वन-क्षेत्रों को बड़े पैमाने पर कंक्रीट के जंगलों में तब्दील कर दिया गया है। धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है, जिसके दुष्परिणाम स्वरूप ध्रुवीय क्षेत्रों में बर्फ पिघल रही है, जिससे समुद्रों का जलस्तर बढ़ने के कारण दुनिया के कई शहरों के जलमग्न होने की आशंका जताई जाने लगी है।
प्रकृति कभी समुद्री तूफान तो कभी भूकम्प, कभी सूखा तो कभी अकाल के रूप में अपना विकराल रूप दिखाकर हमें निरन्तर चेतावनियां देती रही है कि यदि हम इसी प्रकार प्रकृति के संसाधनों का दोहन करते रहे तो हमारे भविष्य की तस्वीर कैसी होने वाली है लेकिन हम हर बार प्रकृति का प्रचण्ड रूप देखने के बावजूद प्रकृति की इन चेतावनियों को नजरअंदाज कर खुद अपने विनाश को आमंत्रित कर रहे हैं। यदि दुनियाभर में पर्यावरण प्रदूषण की विकराल होती वैश्विक समस्या को देखें तो स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के नाम पर वैश्विक चिंता व्यक्त करने से आगे शायद हम कुछ करना ही नहीं चाहते। ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ पुस्तक’ में बताया गया है कि पर्यावरण का संतुलन डगमगाने के कारण दुनियाभर में लोग तरह-तरह की भयानक बीमारियों के जाल में फंस रहे हैं, उनकी प्रजनन क्षमता पर इसका दुष्प्रभाव पड़ रहा है, उनकी कार्यक्षमता भी इससे प्रभावित हो रही है। लोगों की कमाई का बड़ा हिस्सा बीमारियों के इलाज पर ही खर्च हो जाता है। प्रकृति हमारी मां के समान है, जो हमें अपने प्राकृतिक खजाने से ढ़ेरों बहुमूल्य चीजें प्रदान करती है लेकिन अपने स्वार्थों के चलते हम अगर खुद को ही प्रकृति का स्वामी समझने की भूल करने लगे हैं तो फिर भला प्राकृतिक तबाही के लिए प्रकृति को कैसे दोषी ठहरा सकते हैं?
पर्यावरण प्रदूषण मानवता के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती
मौन की राख, विजय की आँच
प्रियंका सौरभ
छायाओं में ढलती साँझ सी,
वह हार जब आयी चुपचाप,
न याचना, न प्रतिकार…
बस दृष्टि में एक बुझा हुआ आकाश।
होठों पर थरथराती साँसें,
मन भीतर एक अनसुनी रागिनी,
जिसे किसी ने सुना नहीं,
जिसे कोई बाँध न सका आँसू की धार में।
वह पुरुष…
जो शिखरों का स्वप्न लिए
घाटियों में उतर गया था चुपचाप,
कहीं कोई पतझड़ था उसकी पीठ पर,
और वसंत अभी बहुत दूर।
पर जब मिली उसे विजय की पीली धूप,
तो वह कांप उठा —
जैसे बाँसुरी पहली बार गूंज उठी हो
किसी तपी हुई चुप्पी के कंठ से।
वह रोया नहीं, पर पलकों से
एक स्वर्ण रेखा फिसल गई —
विजय की नहीं थी वह,
वह हार के साथ जमी राख का गीलापन थी।
उसकी विह्वलता —
कोई जयघोष नहीं,
एक लंबा मौन टूटने की आवाज़ थी।
“विजय उसकी देह पर नहीं, आत्मा पर आई थी,
और आत्मा — मौन में ही गाती है…”
सनातन संस्कृति श्रेष्ठ जीवन दर्शन
परन्तु सनातन के नाम पर पाखंड और अंधविश्वास समाज में बढ़ती विकृति
भारतीय सनातन संस्कृति को विश्व की सबसे प्राचीन, वैज्ञानिक और उत्कृष्ट जीवनशैली के रूप में जाना जाता है। यह मात्र एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि जीवन को संतुलित, नैतिक और सामाजिक रूप से समृद्ध बनाने की अद्वितीय व्यवस्था है। सहस्त्रों वर्षों पूर्व हमारे ऋषि-मुनियों ने अपने कठोर तप, अनुसंधान और चिंतन से मानव जीवन के लिए ऐसे नियम और व्यवस्थाएं निर्धारित कीं, जो आज भी पूर्णत: प्रासंगिक और वैज्ञानिक प्रमाणों से पुष्ट हैं।
भारतीय संस्कृति में जीवन को चार आश्रमों — ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास — में विभाजित कर व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन को चरणबद्ध और अनुशासित बनाया गया। इसके अतिरिक्त, मनुष्य के जीवन में 16 संस्कार निर्धारित कर प्रत्येक महत्वपूर्ण पड़ाव को पवित्र, सामाजिक और नैतिक दायित्वों से जोड़ा गया। इसी संस्कृति ने यह भी बताया कि मनुष्य न केवल व्यक्तिगत, बल्कि सामाजिक प्राणी है और उसके आचरण, आहार-विहार और व्यवहार से सम्पूर्ण समाज प्रभावित होता है।
वैज्ञानिक पद्धति और यौगिक क्रियाओं का महत्व
सनातन संस्कृति ने मनुष्य के स्वास्थ्य और दीर्घायु जीवन के लिए योग, प्राणायाम और आयुर्वेद जैसी वैज्ञानिक पद्धतियों को जन्म दिया। आज पूरा विश्व योग और भारतीय जीवनशैली की उपयोगिता को स्वीकार कर रहा है। हमारे पूर्वजों ने यौगिक क्रियाओं और संतुलित आहार-विहार के माध्यम से न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक स्वास्थ्य को भी सुदृढ़ बनाए रखने की व्यवस्था की थी। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने भी अब यह स्वीकार किया है कि योग और प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धतियां कई असाध्य रोगों में कारगर सिद्ध हो रही हैं।
धर्म का वास्तविक अर्थ और उसकी भूमिका
सनातन संस्कृति में धर्म का अर्थ किसी विशेष पंथ अथवा सम्प्रदाय से नहीं, बल्कि मानव जीवन की अच्छाइयों को धारण कर उनके नियमों का पालन करना है। धर्म, वह व्यवस्था है जो व्यक्ति को कर्तव्यपरायण, समाजोपयोगी और राष्ट्रप्रेमी बनाती है। इसमें राष्ट्रधर्म को सर्वोपरि मानते हुए, समाज में प्रेम, सद्भावना और नैतिकता का संदेश दिया गया है।
पाखंड और अंधविश्वास : समाज में बढ़ती विकृति
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि वर्तमान समय में कुछ स्वार्थी, तथाकथित धर्माचार्य और पाखंडी बाबाओं ने सनातन संस्कृति का नाम लेकर समाज में भ्रम और अंधविश्वास फैलाना शुरू कर दिया है। तंत्र-मंत्र, गंडा-ताबीज और झाड़-फूंक जैसी अवैज्ञानिक गतिविधियों के माध्यम से ये भोले-भाले लोगों को ठगने में लगे हुए हैं। हैरानी की बात यह है कि पढ़े-लिखे और समझदार लोग भी इनके झांसे में आ रहे हैं।
हाल ही में एक राष्ट्रीय चैनल ने ऐसे पाखंडियों के विरुद्ध व्यापक मुहिम चलाई, जिसमें यह उजागर हुआ कि किस प्रकार इन ठगों ने धर्म और आस्था की आड़ में अंधविश्वास का व्यापार खड़ा कर रखा है।
सरकार और समाज की भूमिका
इस विकृति को समाप्त करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को चाहिए कि ऐसे पाखंडियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करें। इसके साथ ही, समाज में जागरूकता लाने के लिए धार्मिक और सामाजिक संस्थाएं भी आगे आएं। सच्चे सनातन धर्म के प्रचारकों और संत समाज को भी इस दिशा में सार्थक प्रयास करने होंगे।
धर्म के वास्तविक स्वरूप को जन-जन तक पहुँचाकर ही हम सनातन संस्कृति की गरिमा को अक्षुण्ण रख सकते हैं। अंधविश्वास और पाखंड का उन्मूलन कर, सनातन संस्कृति के वैज्ञानिक और नैतिक पक्ष को समाज के सामने प्रस्तुत करना ही समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
भारतीय सनातन संस्कृति न केवल प्राचीन जीवनशैली है, बल्कि यह एक वैज्ञानिक, नैतिक और श्रेष्ठ जीवन दर्शन है। इसे पाखंडियों की गिरफ़्त से मुक्त कराना समाज, शासन और हर जागरूक नागरिक का दायित्व है। यदि हम समय रहते इस दिशा में ठोस कदम नहीं उठाते, तो आस्था के नाम पर अंधविश्वास का यह जाल और गहराता जाएगा।
– सुरेश गोयल धूप वाला
जब आँसू अपने हो जाते हैं
डॉ सत्यवान सौरभ
जीवन के इस सफ़र में,
हर मोड़ पर कोई न कोई साथ छोड़ देता है,
कभी उम्मीद, कभी लोग —
तो कभी ख़ुद अपनी ही परछाईं पीछे रह जाती है।
हर हार सिर्फ हार नहीं होती,
वो एक आईना होती है —
जिसमें हम देखते हैं अपना असली चेहरा,
बिना मुखौटे, बिना तालियों के शोर के।
जब आँखें भर आती हैं,
पर सामने कोई कंधा नहीं होता,
तो वही पल —
हमें भीतर से लौह बना देता है।
हम उसी दिन बड़े हो जाते हैं,
जिस दिन किसी और के नहीं,
अपने ही आँसू अपने हाथों से पोंछते हैं,
और कहते हैं —
“अब और नहीं, अब मैं रुकूँगा नहीं।”
क्योंकि आँसू जब बहते हैं,
तो या तो कमज़ोरी बनते हैं,
या बनते हैं प्रेरणा —
एक विराट ललकार की तरह!
जैसे मैदान पर
विराट कोहली गिरते हैं,
तो उठते भी हैं —
वो भी ऐसे कि गेंदबाज़ की साँसें थम जाती हैं।
वो सीख हैं —
कि हार में भी गरिमा हो सकती है,
और जीत — सिर झुकाकर भी मिल सकती है।
कोई स्टेडियम नहीं चीखता
जब आप चुपचाप दर्द सहते हैं,
पर जब आप फिर उठते हैं,
तो पूरी दुनिया आपको सलाम करती है।
“बचपन आँसुओं में डूबता है,
पर बड़प्पन वहीं जन्म लेता है —
जहाँ आँसू सुखाकर,
इंसान मुस्कुराकर कहता है — चलो फिर से!”
पर्यावरण चेतना जगाती भारतीय संस्कृति
डा. विनोद बब्बर
पिछले दिनों भारत के प्रदेश तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद की उस शर्मनाक और आत्मघाती कृत्य की सोशल मीडिया पर बहुत चर्चा रही जिसमें हैदराबाद के फेफड़े कहे जाने वाली कांचागाची बोवली गांव से सटी वन भूमि पर उन 40, 000 से अधिक वृक्षों को काट दिया गया जो न केवल पूरे क्षेत्र को प्राणवायु दे रहे थे बल्कि लाखों जीव जंतुओं का आश्रय स्थल भी थे। राष्ट्रीय पक्षी मोर सहित हजारों पशु-पक्षियों का काल बनी इस घटना की व्यापक निंदा आलोचना हुई। अनेक ऐसे वीडियो भी सामने आए जिसमें मासूम खरगोश हिरण आंसू बहा रहे थे। द्रवित कर देने वाले इन दृश्यों का वहां की सरकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि उसे वह जमीन बेचकर बहुत बड़ी धनराशि प्राप्त होने वाली थी। उसने उच्चतम न्यायालय में बेरोजगारी का तर्क प्रस्तुत करते हुए उस भूमि पर उद्योग तथा व्यापारिक केंद्र स्थापित करने की दुहाई दी।
यह संतोष की बात है कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने उस कुतर्क को अस्वीकार करते हुए कहा कि संपूर्ण देश रोजगार और विकास चाहता है लेकिन पर्यावरण की कीमत पर ऐसे अपराध की अनुमति नहीं दी जा सकती। वास्तव में तेलंगाना सरकार और उसके अधिकारियों की असंवेदनहीनता इस बात का प्रमाण है कि हम अपनी संस्कृति और उसमें समाहित जीवन मूल्यों से कट रहे हैं। इसलिए यह आज की परम आवश्यकता है भारतीय संस्कृति में जिस पर्यावरण चेतना को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है उसे स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल कर देश के हर बच्चे के हृदय में स्थापित किया जाए।
भारतीय संस्कृति इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड को एक कुटुम्ब मानती है, जहाँ किसी का अलग अस्तित्व नहीं है। यह विचार पर्यावरण-सुरक्षा का सूत्र समेटे हुए है। जब हम अपनी सांस्कृतिक परम्परा की बात करते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम आधुनिकता को पूरी तरह से नकार रहे है। हमारा उद्देश्य आधुनिकता के नाम पर प्रकृति के सम्मान की परंपरा को दुत्कारते हुए अपने ही परिवेश को असंतुलित बनाने की बढ़ती प्रवृत्ति के विरुद्ध जनजागरण है। वर्तमान का सत्य यह है कि आज आधुनिकता और विकास के नाम पर हो रही अंधी दौड़ प्रकृति का दोहन कर रही है जिससे भविष्य अनिश्चित दिखाई देने लगा है।
भारतीय दर्शन में समस्त संसार को जड़ और चेतन में विभाजित किया गया है। हर छोटे- बड़े जीव से पेड़ -पौधों तक चेतना है। इस चेतना को साकार बनाये रखने के लिए ‘आवरण’ चाहिए। ये आवरण पंचतत्वों से निर्मित है जिसे हम मिट्टी, जल, वायु, आकाश, अग्नि भी कहते हैं। इन तत्वों की संतुलित उपस्थिति का बने रहना प्राणी-जगत् के अस्तित्व की अनिवार्य शर्त है। बस यही है पर्यावरण-संरक्षण। जब यह संतुलन बिगड़ जाए तो स्वाभाविक है कि जैविक समीकरण भी सलामत नहीं रहता। इससे प्रकृति का चक्र भी प्रभावित होता है जो अनेक प्रकार के विनाशों का कारण बनता है। बस यही है प्रदूषण।
प्रदूषण सबसे पहले हमारे मन-मस्तिष्क में प्रवेश कर हमारी चेतना को बंदी बनाता है। जब मस्तिष्क आत्म केंद्रित और स्वार्थी होकर केवल निज सुख का ही चिंतन करता है तो वहीं से आरंभ होता है प्रदूषण। हम लेना तो सब कुछ चाहते हैं लेकिन कुछ भी देने की सोच नहीं रखते। जबकि पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रकृति से सामंजस्य आवश्यक है। हमारे ज्ञान के स्रोत वेदों में इन दोनों तत्वों की चर्चा है जिसके अनुसार हमें प्रकृति से उतना ग्रहण करने का अधिकार जिससे प्रकृति की पूर्णता को क्षति न पहुंचे। परिवारों में माँ-दादी-नानी इसी भाव से तुलसी की पत्तियां तोड़ती थी।
प्राचीन भारतीय वाङ्मय-वैदिक-साहित्य ,पुराणों, धर्मशास्त्रों, रामायण, महाभारत, संस्कृत -साहित्य के अन्यान्य ग्रन्थों, पालि-प्राकृत साहित्य आदि की छानबीन करने पर पुरातन भारत की अरण्य-संस्कृति के मनोहर स्वरूप का साक्षात्कार होता है।
कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में अनेक रमणीय उद्यानों का संकेत मिलता है। ‘अग्निपुराण’ में कहा गया है कि जो मनुष्य एक भी वृक्ष की स्थापना करता है, वह तीस हज़ार इन्द्रों के काल तक स्वर्ग में बसता है । जितने ही वृक्षों का रोपण करता है, अपने पहले और पीछे की उतनी ही पीढ़ियों को वह तार देता है । ‘मत्स्यपुराण’ में वृक्ष-महिमा प्रसंग में कहा गया है कि दस कुओं के समान एक बावड़ी, दस बावड़ियों के समान एक एक तालाब, दस तालाबों के समान एक पुत्र का महत्त्व है जबकि दस पुत्रों के समान महत्त्व एक वृक्ष का अकेले है।
पर्यावरण और जीवन का एक-दूसरे से घनिष्ठ संबंध है कि पर्यावरण के बिना जीवन नहीं हो सकता और जीवन के बिना पर्यावरण नहीं हो सकता। भारतीयता का अर्थ ही है-हरी-भरी वसुंधरा और उसमें लहलहाते फूल, गरजते बादल, नाचते मोर और कल-कल बहती नदियां। यहां तक कि भारतीय संस्कृति में वृक्षों और लताओं का देव-तुल्य माना गया है। जहां अनादिकाल से इस प्रार्थना की गूंज होती रही है- ‘हे पृथ्वी माता तुम्हारे वन हमें आनंद और उत्साह से भर दें।’ पेड़-पौधों को सजीव और जीवंत मानने का प्रमाण भारतीय वाङ्मय में विद्यमान है।
वेदों में पर्यावरण को अनेक तरह से बताया गया है, जैसे- जल, वायु, ध्वनि, वर्षा, खाद्य, मिट्टी, वनस्पति, वनसंपदा, पशु-पक्षी आदि। जीवित प्राणी के लिए वायु अत्यंत आवश्यक है। प्राणी जगत के लिए संपूर्ण पृथ्वी के चारों ओर वायु का सागर फैला हुआ है।
ऋग्वेद में वायु के गुण बताते हुए कहा गया है- ‘वात आ वातु भेषजं मयोभु नो हृदे, प्रण आयूंषि तारिषत’ शुद्ध ताजा वायु अमूल्य औषधि है, जो हमारे हृदय के लिए दवा के समान उपयोगी है, आनंददायक है। वह उसे प्राप्त कर हमारी आयु को बढ़ाता है। वृक्षों से ही हमें खाद्य सामग्री प्राप्त होती है, जैसे फल, सब्जियां, अन्न तथा इसके अलावा औषधियां भी प्राप्त होती हैं और यह सब सामग्री पृथ्वी पर ही हमें प्राप्त होती हैं।
अथर्ववेद में कहा है- ‘भोजन और स्वास्थ्य देने वाली सभी वनस्पतियां इस भूमि पर ही उत्पन्न होती हैं। पृथ्वी सभी वनस्पतियों की माता और मेघ पिता हैं, क्योंकि वर्षा के रूप में पानी बहाकर यह पृथ्वी में गर्भाधान करता है। वेदों में इसी तरह पर्यावरण का स्वरूप तथा स्थिति बताई गई है और यह भी बताया गया है कि प्रकृति और पुरुष का संबंध एक-दूसरे पर आधारित होता है।
नीम-पीपल आदि वृक्षों को घर-आँगन या आसपास लगाना हमारी परम्परा का विस्तार है। वृक्ष हमारे जीवन में रचे-बसे हैं इसीलिए तो हमारी लोक-गाथाओं, लोकगीतों में शुद्ध सुगंध शीतल समीर, खुला आकाश, निर्मल जलधारा को पर्याप्त सम्मान प्राप्त है। पीपल जैसे पर्यावरण-रक्षक वृक्ष के महत्व की चर्चा जन-जन के हृदय में है। गौतम बुद्ध के ज्ञान का साक्षी यही बोधिवृक्ष रहा है तो विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘गीता’ में श्री कृष्ण विराट रूप दिखाते हुए कहते हैं, ‘अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम्’ अर्थात् हे अर्जुन! मैं वृक्षों में पीपल हूँ।
हमारे समाज में पेड़ों को देवताओं के प्रतीक रूप में पूजा-अर्चना तथा सुरक्षा की लोक परम्परा हैं, जैसे तुलसी विष्णुप्रिया है, केला वृहस्पति का रूप है, बरगद शिव का निवास है, नीम देवी का वास है, पीपल विष्णु का प्रतिरूप है। जैन तेरापन्थ’ में तो गुरुदीक्षा के नियमों में से एक है, ‘हरे पेड़ को न काटना।
पृथ्वी, नदियों-सरोवरों, आकाश, वायु आदि को देवत्व प्रदान कर, धरती व नदियों को माता और आकाश को पिता के रूप में अंगीकार कर भारतीय मनीषा ने जलवायु को प्रदूषण-मुक्त रखने के भाव को भी अमूर्त्त प्रेरणा दी है। वैदिक युग के तैंतीस देवता प्राकृतिक शक्तियों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं । ऋग्वेद का ‘अप् सूक्त’ और अथर्ववेद का ‘भूमिसूक्त’ क्रमशः जल व ज़मीन पर लिखी विश्व की सम्भवतः प्रथम कविता है।
पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई रोकने हेतु देशी तरीके से जन-संघर्ष का यहाँ शानदार इतिहास रहा है । ऐसा कौन जागरूक भारतीय हो सकता है जिसे 1731 की राजस्थान की इस घटना की जानकारी न हो। जोधपुर के समीप स्थित खेजड़ीली गाँव में, खेजड़ी वृक्ष को बचाने के लिए बिश्नोई समूह के 363 नर-नारियों ने अपने प्राणों की बलि दे दी । पेड़ों से चिपक कर उन्होंने उन्हें काटने का विरोध किया। बेशक उस समय अत्याचारी राजा के आदेश पर कुल्हाड़ियों ने उनके प्रतिं बेरहमी दिखाई लेकिन उनका बलिदान व्यर्थ न गया। बाद में कटाई रोक दी गयी थी।
टिहरी-गढ़वाल का ‘चिपको आन्दोलन जिसके प्रणेता सुन्दरलाल बहुगुणा रहे हैं, स्वतन्त्र भारत में पेड़ों को बचाने में सफल एवं ऐतिहासिक आन्दोलन था। इसी प्रकार से जल संचय और जल संरक्षण के लिए भी अनेक प्रयास होते हैं। जल पुरुष रूप के नाम से सुविख्यात राजेन्द्र सिंह जी जल बिरादरी के माध्यम से नदियों की निर्मलता और निरन्तरता के लिए अभियान चलाये हुए हैं। उनके प्रयासों की सफलता राजस्थान, गुजरात में अनुभव की जा रही है जहाँ विलुप्त प्राय नदियों को उन्होंने जन चेतना के माध्यम से जीवित करने में सफलता प्राप्त की है।
प्राकृतिक तन्त्रों का संरक्षण और उनके बीच सन्तुलन स्थापित रखने का आशय यह है कि उनका उपयोग इस तरह हो, जिससे उनके मूल रूप में कम-से-कम परिवर्तन हो, जिस से आसान पुनःचक्रण (रि-साइकलिंग) द्वारा आसानी से उनकी क्षति-पूर्त्ति होती रहे और प्राकृतिक संसाधन यथासम्भव अपने मूल रूप में सुरक्षित रहें। यह तब संभव है, जब हम लालच से रहित होकर प्रकृति की उदारता का उपयोग करें,उपभोग नहीं। इसकी प्रेरणा ‘ईशावास्योपनिषद्‘ का प्रथम मन्त्र दे रहा है ‘इस संसार में जो कुछ है, वह सब ईश्वर से व्याप्त या ईश्वर का आवास है, इसलिए उन का उपभोग करना हो तो बिना उन में आसक्ति रखे, त्याग-भाव से उपभोग करें, कारण यह धन है किस का? अर्थात् किसी एक का तो है नहीं।
भारत भूमि में जन्म हमारा सौभाग्य है जहाँ ऋृषियों ने हमें जीवन-दृष्टि दी। पर्यावरण के हर अंग की स्वच्छता तथा सबके बीच सौमनस्य बनाए रखने के लिए सदा सचेष्ट रहने वाली मानसिकता से ही कभी मन्त्र रूपी शांतिपाठ सृजित हुआ होगा, जो सदियों से हमारी नित्य-प्रार्थना का अंग है।
ऋचाओं में पर्यावरण के तत्वों – पृथ्वी, जल, आकाश, वायु के प्रति सभी ऋषि नत्मस्तक होकर प्रणाम करते हैं अर्थात् भारत में नदियों को माँ तुल्य स्थान एवं सम्मान दिया गया है। वृक्षों के प्रति हमारे पूर्वजों की श्रद्धा सर्वविदित है। पीपल, तुलसी ही नहीं हर वृक्ष में प्राण है, यह अवधारणा सर्वप्रथम हमने ही विश्व को दी और संयोग से इसे अपने वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध करने वाले जगदीश चन्द बसु भी हमारे ही थे।
अन्त में उस प्राचीन परम्परा का उल्लेख करना समीचीन होगा जो कुछ क्षेत्रों में आज भी जीवान्त है। गाँव में जब भी कोई नया कुआँ बनता था, तो तब तक उसका उपयोग शुरु नहीं होता था, जब तक किसी बरगद-तरु के साथ उसके ब्याह की रस्म पूरी नहीं कर दी जाती थी। इसे अन्धविश्वास घोषित करने वाले नहीं समझ सकते कि इस लोकाचार में पर्यावरण के प्रति हमारी सांस्कृतिक चेतना की प्रतिबद्धता है जो वनस्पति और जल के परस्पर सकारात्मक सम्बन्धों की साकार अभिव्यक्ति है। तथाकथित विकासवादी शायद नहीं जानते हो कि इस मान्यता को आज के पर्यावरणविद भी सराहते हैं। उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में प्रचलित यह सोहाग-गीत वृक्षों संग जन-मन का अटूट रिश्ता की झलकक प्रस्तुत करता है जिसमें विदा होेती बेटी कहती है, ‘बाबा! नीम का पेड़ मत काटना, उस में चिड़ियाँ बसती हैं।’ पेड़ को मायके का प्रतीक मानते हुए बेटी संकेत में कह रही है कि उसे दूर देश भेज तो रहे पर बुलाना मत भूलना, अन्यथा यह देश छूट जाएगा।
आज हम सभी को अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या हमने अपनी अगली पीढ़ियों को पर्यावरण चेतना के इन सूत्रों से परिचित करवाया? क्या हमने अपने और अपने प्रियजनों के जन्म दिवस पर वृक्षारोपण की परंपरा को आत्मसात किया? आधुनिकता के नाम पर पत्थरों के शहर तो हमने अनेकानेक बना डालें, लेकिन उनमें रहने वाले उन पत्थरदिलों को प्राण वायु कहां से मिलेगी, जो दस कदम चलने के लिए भी वाहनों के धुएं से अपने ही परिवेश को दूषित करते हैं? आवश्यक है अपने और अपनो के मन मस्तिष्क को उस मानसिक प्रदूषण से मुक्त करें जो भारतीय संस्कृति में निहित श्रेष्ठ जीवन दर्शन को अवैज्ञानिक और पिछड़ापन कहकर नकारते हैं।
डा. विनोद बब्बर
सांस की कीमत पूछी गई
साँस-साँस को मोहताज किया,
जीवन को नीलाम किया।
मासूम थी, बस एक साल की,
फिर भी व्यवस्था ने इनकार किया।
“वेंटिलेटर चाहिए?” — पूछा गया,
“सिफ़ारिश है?” — तौल कर कहा।
दोपहर से लेकर रात तलक,
बच्ची की साँसों ने दस्तक दी हर पल।
कभी सिस्टम की फाइल में अटकी,
कभी डॉक्टरों के मुँह के फेर में भटकी।
कंधे पर बैठी थी ममता की पुकार,
पर अस्पताल ने लगाया इंतज़ार।
PGI की गलियों में चीख गूँजती रही,
परदीवारें खामोश रहीं, मशीनें बंद पड़ी रहीं।
नही थी वो वोट, न पहचान की सिफारिश,
बस थी एक जान – मासूम, बेगुनाह, बेपरवाह।
सिस्टम का क्या दोष कहें?
यहाँ तो जिंदा रहने के लिए भी पहचान चाहिए।
गरीब की बेटी हो या किसान का बेटा,
बिना जुड़ाव, बिना सत्ता — नहीं मिलता हक़ जीने का।
— डॉ सत्यवान सौरभ
दर्द से लड़ते चलो
(आत्महत्या जैसे विचारों से जूझते मन के लिए)
ज़िंदगी जब करे सवाल,
और उत्तर न मिले हर हाल,
तब भी तुम थक कर बैठो नहीं,
आँखों में आँसू हो, पर बहो नहीं।
देखा है मैंने अस्पतालों में,
साँसों को बचाने की जंग में,
कोई ज़मीन बेचता है,
कोई गहने गिरवी रखता है।
जीवन को जीने की कीमत,
हर दिन वहाँ कोई चुकाता है।
तो क्यों तुम जीवन से भागो?
क्यों यूँ ही टूट कर बिखर जाओ?
मरना नहीं चाहता मन,
वो बस दर्द से छुटकारा चाहता है।
थोड़ा रुको, थोड़ा सहो,
समय की नदी को बहने दो।
एक दिन सूरज फिर उगेगा,
अंधेरे का तम भी सिमटेगा।
वो दर्द जो असह्य लगता है आज,
कल बन जाएगा बीते कल का राज।
जो जीते हैं, वही लड़ते हैं,
जो लड़ते हैं, वही जीतते हैं।
तुम्हारा होना ही एक जीत है,
हर साँस तुम्हारी उम्मीद की रीत है।
मत करो उस अंतिम सन्नाटे की पुकार,
तुम ज़रूरी हो इस संसार।
उठो, जियो, फिर से मुस्कुराओ,
दर्द से लड़ो — खुद को गले लगाओ।
— डॉ सत्यवान सौरभ
दुल्हन फर्जी, रिश्ता असली बेवकूफी का!
फर्जी रिश्तों का व्यापार: शादी नहीं, ठगी का धंधा
भारत में शादियों को लेकर एक सांस्कृतिक उत्सव, पारिवारिक प्रतिष्ठा और भावनात्मक जुड़ाव की भावना जुड़ी होती है। लेकिन जब इस पवित्र रिश्ते को ठगों का व्यवसाय बना दिया जाए, तो यह सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, बल्कि पूरे समाज के विश्वास की हत्या होती है। हरियाणा के हिसार से सामने आया ताज़ा मामला इसी सामाजिक बीमारी की खतरनाक तस्वीर पेश करता है — जहाँ दुल्हन, उसके माता-पिता और पूरा रिश्ता ही नकली निकला। यह घटना सिर्फ एक समाचार नहीं, बल्कि एक सामाजिक चेतावनी है: "अब भी नहीं चेते तो हर घर को अपनी आबरू खुद बचानी होगी।"
- प्रियंका सौरभ
हिसार पुलिस ने हाल ही में ऐसे गिरोह का पर्दाफाश किया है जो विवाह के नाम पर लोगों को ठगने का सुनियोजित कारोबार चला रहा था। आरोपी पहले से कई फर्जी शादियाँ कर चुका था। इस बार, न केवल दुल्हन नकली थी, बल्कि उसके 'माता-पिता' भी फर्जी निकले। एक भोला-भाला युवक, जो जीवनसाथी की तलाश में था, शादी के सपने लिए इस जाल में फँस गया और लौटे तो खाली जेब, टूटी उम्मीदें और गहरी मानसिक चोट के साथ।
सोचिए, जब किसी के जीवन की सबसे बड़ी खुशी को शातिर गिरोह पैसे कमाने का साधन बना लें, तब कानून और समाज की जिम्मेदारी क्या बनती है?
आंकड़ों की चिंता से ज़्यादा ज़रूरत जागरूकता की
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, हर साल भारत में हजारों लोग विवाह के नाम पर ठगी का शिकार होते हैं। 2023 में ही देशभर में लगभग 3200 से अधिक फर्जी विवाह और उनसे जुड़ी ठगी की शिकायतें दर्ज हुईं। इनमें से अधिकांश में महिला और उसके तथाकथित परिजनों ने विवाह के बाद धन, जेवर और नकद लेकर फरार होने की योजना पहले से बनाई होती है।
इस बढ़ती प्रवृत्ति का सबसे दुखद पहलू यह है कि ऐसे अपराधों में शामिल महिलाएं न केवल कानून का मजाक उड़ाती हैं, बल्कि असल में शोषित और ज़रूरतमंद महिलाओं की आवाज को भी कमजोर करती हैं।
कानून की कमजोरी या सिस्टम की सुस्ती?
ऐसे मामलों में सबसे बड़ा सवाल उठता है: क्या हमारा कानूनी सिस्टम इतना सुस्त है कि शादी जैसे गंभीर और सामाजिक तौर पर महत्वपूर्ण विषय में भी फर्जीवाड़ा बेरोकटोक जारी रह सके? विवाह पंजीकरण प्रणाली को यदि सख्त और डिजिटल तरीके से लागू किया जाए, तो ऐसे 90 प्रतिशत मामलों को शुरुआती स्तर पर ही रोका जा सकता है।
इसके लिए ज़रूरी है:
1. आधार वेरिफिकेशन से जुड़ा विवाह पंजीकरण: हर शादी का डिजिटल दस्तावेजीकरण और पहचान सत्यापन अनिवार्य किया जाए।
2. शादी ब्यूरो और मैरिज एजेंटों की निगरानी: जिन संस्थानों के माध्यम से रिश्ता तय हो, उनकी पृष्ठभूमि की जांच और पंजीकरण जरूरी बनाया जाए।
3. फर्जीवाड़ा रोकने के लिए विशेष अदालतें: ऐसे मामलों की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए जाएँ ताकि पीड़ितों को न्याय जल्दी मिले।
समाज की भोली सोच और अंधा भरोसा
कई बार ऐसे मामलों में लोग यह सोचकर धोखा खा जाते हैं कि रिश्ता तय करने वाले लोग ‘परिचित’ हैं या ‘समाज के जानकार’। रिश्तों के नाम पर 'प्रस्ताव' भेजना, फिर थोड़ा दिखावा, एक-दो मुलाकातें, और शादी का दबाव — यही ट्रेंड बन चुका है।
फिर आती है समाज की सबसे बड़ी विडंबना: लड़की के परिवार को कम सवाल पूछे जाते हैं, जबकि लड़के के घरवालों से लाख शर्तें मानी जाती हैं। यह असंतुलन भी ठगों के लिए रास्ता आसान करता है।
महिलाओं की छवि पर भी असर
फर्जी दुल्हन गिरोह की खबरें समाज में महिलाओं को शक की निगाह से देखने की प्रवृत्ति को और बढ़ावा देती हैं। यह न केवल महिलाओं के अधिकारों के लिए खतरनाक है, बल्कि असल पीड़ितों को भी न्याय से वंचित करता है। जब कोई महिला सही नियत से रिश्ता बनाना चाहती है, तब समाज का यह अविश्वास उसे शर्मिंदगी और मानसिक पीड़ा देता है।
ऐसे में ज़रूरी है कि कानून ऐसे फर्जीवाड़ों को जड़ से खत्म करे, ताकि महिलाओं के प्रति समाज का विश्वास भी सुरक्षित रह सके।
मीडिया की जिम्मेदारी और भूमिका
आजकल मीडिया भी ऐसे मामलों को सनसनीखेज बनाकर परोसता है। ‘दुल्हन फरार’, ‘फर्जी सास-ससुर’, ‘लुटेरा परिवार’ जैसे शीर्षक बिकते हैं, लेकिन इससे आगे की पड़ताल — जैसे कि ठगों के नेटवर्क, एजेंटों की भूमिका, और पुलिस की निष्क्रियता — अक्सर छूट जाती है।
मीडिया को चाहिए कि वह समाज को जागरूक करे, न कि सिर्फ मज़ाक उड़ाए या TRP के लिए खबरों को मसालेदार बनाए। यह पत्रकारिता की नैतिक जिम्मेदारी है कि वह लोगों को जानकारी दे, चेतावनी दे और सही कदम उठाने की दिशा दिखाए।
पीड़ितों को शर्म नहीं, समर्थन चाहिए
सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तब पैदा होती है जब ठगी के शिकार हुए लोग समाज में मज़ाक बन जाते हैं। पीड़ित लड़का या उसका परिवार जब पुलिस के पास जाता है, तो अक्सर ‘तू ही बेवकूफ है’, ‘थोड़ा देख-परख लिया होता’, ‘लड़की की फोटो में ही शक था’ जैसे ताने सुनने को मिलते हैं।
ऐसी सोच को बदलना होगा। पीड़ितों को मदद, काउंसलिंग और कानूनी समर्थन चाहिए, न कि समाज से दुत्कार। अगर समाज पीड़ित के साथ खड़ा हो, तो अपराधियों की हिम्मत नहीं होगी दोबारा किसी के साथ ऐसा छल करने की।
ठगी की नई तकनीकें, पर पुलिस की पुरानी आदतें
आजकल ठग टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर रहे हैं — फर्जी दस्तावेज, फर्जी पहचान, और यहां तक कि Deepfake वीडियो और नकली सोशल मीडिया प्रोफाइल्स भी इस्तेमाल किए जा रहे हैं। लेकिन पुलिस अब भी पुराने तरीके अपनाकर जांच करती है — थाने बुलाना, पूछताछ करना, ‘कुछ दिन बाद आना’। जब तक पुलिस साइबर अपराध की आधुनिक तकनीकों से लैस नहीं होगी, तब तक ये अपराधी आगे निकलते रहेंगे।
हर जिले में साइबर सेल को विवाह संबंधित ठगी मामलों में विशेष प्रशिक्षण देना समय की मांग है।
शिक्षा और चेतना ही असली हथियार
सरकार और समाज को मिलकर एक व्यापक जागरूकता अभियान चलाना चाहिए:
स्कूलों-कॉलेजों में युवाओं को रिश्तों में सतर्कता के बारे में जानकारी देना।
पंचायत और ग्राम सभाओं में शादी से पहले पहचान सत्यापन और कानूनी समझ को बढ़ाना।
डिजिटल प्लेटफॉर्म पर विवाह तय करने वालों के लिए एक गाइडलाइन और चेकलिस्ट जारी करना।
क्योंकि जब तक लोग खुद सतर्क नहीं होंगे, तब तक कोई भी कानून या एजेंसी उन्हें ठगी से नहीं बचा सकती।
निष्कर्ष: रिश्तों की दुनिया में अब ज़रूरत है ‘सच’ की शिनाख्त
जिस समाज में शादी जैसा पवित्र रिश्ता भी धोखे और अपराध का माध्यम बन जाए, वहाँ आत्मावलोकन की ज़रूरत है। आज हमें यह तय करना होगा कि हम रिश्तों को भावनाओं से नहीं, समझदारी और जिम्मेदारी से जोड़ें।
क्योंकि अब समय आ गया है कि हम हर रिश्ते से पहले सवाल पूछें:
क्या सामने वाला सच बोल रहा है?
क्या दस्तावेज असली हैं?
क्या यह रिश्ता भरोसे पर टिका है या किसी स्वार्थ पर?
जब तक हम यह नहीं करेंगे, तब तक ‘फर्जी दुल्हनें’ असली घरों को उजाड़ती रहेंगी। और फिर हर बार खबरों में यही लिखा जाएगा:
> “दुल्हन फर्जी, रिश्ता असली बेवकूफी का!”
पाक भारत के दम को आजमाने की भूल न करें
– ललित गर्ग –
भारत ने पहलगाम के नृशंस एवं बर्बर आतंकी हमले का जिस पराक्रम एवं शौर्य से बदला लिया, लेकिन विडम्बना है कि उस एकदम स्पष्ट सन्देश से पाकिस्तान ने कोई सबक नहीं लिया, पाकिस्तान की ऐसे सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक से भी अक्ल नहीं आयी। पाकिस्तान ऐसे कुत्ते की दूम है, जिसे चाहे कितना ही तरोड़ों-मरोडो वह टेढ़ी की टेढ़ी ही रहने वाली है। लेकिन इस बार भारत ने एक बड़ा सबक लिया है कि पाक के किसी भी झांसे एवं घड़ियाली आंसुओं में वह नहीं आयेगा। इसीलिये भारत हर मोर्चे पर सतर्क एवं सावधान है। भारत ने गैर-सामरिक एवं सामरिक मोर्चे पर सर्तकता दिखाते हुए तमाम समीकरण ही नहीं बदले हैं बल्कि भारत की सुरक्षा एवं आतंकवाद के खिलाफ सख्ती को तीक्ष्ण धार दी है। अब कोई भी आतंकी हमला युद्ध की चुनौती के रूप में लिया जाएगा और उसकी कड़ी एवं विध्वंसक प्रतिक्रिया ही होगी। भारत किसी परमाणु ब्लैकमेलिंग का शिकार नहीं होगा। आतंकियों और उनके समर्थकों में कोई भेद नहीं किया जाएगा। भारत आतंकवाद एवं कश्मीर के मामले में किसी भी महाशक्ति की मध्यस्थता स्वीकार नहीं करेगा। भारत ने हाल की स्थितियों में जो भी निर्णय लिये स्व-विवेक से लिये, अमेरिका की इसमें कोई भूमिका नहीं रही। पाक भारत के दम को कमतर न आंके और उसे आजमाने की भूल न करें।
भारत के कतिपय राजनीतिक दल एवं कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि जब भारत विजयी स्थिति में आगे बढ़ रहा था तब उसने शांति की पहल क्यों स्वीकार की? भारत ने बड़ी जीत हासिल कर ली थी और उससे भी बड़ी जीत के लिये उसकी तैयारी थी तो संघर्ष विराम क्यों किया? इसका जवाब भारत के शीर्ष नेतृत्व ने एकदम सरल तरीके से दिया है कि भारत ने अपने सभी लक्ष्य हासिल किए। भारतीय सेना को छह-सात मई की रात पाकिस्तान के आतंकी अड्डों को नष्ट करने के बाद उसके प्रमुख एयरबेस इसलिए नष्ट करने पड़े, क्योंकि उसने अपने यहां के आतंकी अड्डों को निशाना बनाए जाने से चिढ़कर भारत पर मिसाइल और ड्रोन दागने शुरू कर दिए थे। लाहौर और सियालकोट के एयर डिफेंस ध्वस्त कर दिए गए। 11 पाकिस्तानी एयरफील्ड बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुए। इनमें रावलपिंडी स्थित सामरिक महत्व वाला नूर खान बेस, सरगोधा में मुशाफ बेस और जैकबाबाद में शाहबाज बेस प्रमुख हैं। चूंकि भारतीय सेना की अभूतपूर्व जवाबी कार्रवाई से पाकिस्तान बुरी तरह पस्त पड़ गया, इसलिए उसने सैन्य कार्रवाई रोकने की गुहार लगाई-भारत से भी और अमेरिका से भी। लेकिन यह स्पष्ट है कि अमेरिका की सैन्य कार्रवाई रोकने में कोई भूमिका नहीं थी।
भारत आपरेशन सिंदूर इस शर्त पर स्थगित करने को तैयार हुआ कि इसके आगे की कार्रवाई में पाक की जनता को ही अधिक नुकसान एवं परेशानी झेलनी थी। भारत ऐसा नहीं चाहता था कि पाक आकाओं की नासमझी का शिकार आम-जनता हो। भारत ने आतंकी ढांचे को ध्वस्त कर दिया और जब पाकिस्तान ने भारतीय नागरिकों को निशाना बनाया तब भी भारतीय प्रतिक्रिया संयमित एवं उचित दायरे में रही। पाक दुष्प्रचार की पोल खोलने के लिए खुद प्रधानमंत्री आदमपुर एयरबेस गए। वह जिस सी-130जे सुपर हरक्युलिस से उतरे वही पाक के दावों को झुठलाने के लिए बहुत था। पाक के झूठे दावे अनेक बार तार-तार हुए है। अब भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संकल्प व्यक्त किया है कि आतंकियों और उनके आकाओं की कोई भी हरकत के परिणाम उनकी कल्पनाओं से भी परे होंगे। भारत कभी झूकेगा नहीं, युद्ध जैसी स्थितियां अस्तित्व बचाने के लिये ही है, किसी पर आधिपत्य करने के लिये नहीं।
भारत- पाक के बीच सैन्य टकराव रुक जाने पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यह श्रेय लेने में देर नहीं लगाई कि उनके हस्तक्षेप के कारण दोनों देश हमले रोकने को राजी हुए। यह दावा झूठा ही नहीं, बल्कि बेबुनियाद था। ट्रंप ने इसे संघर्ष विराम की संज्ञा देते हुए कहा कि मैंने व्यापार का हवाला देकर दोनों देशों की लड़ाई रोकी। इस पर भारत ने साफ कहा कि अमेरिकी राष्ट्रपति से व्यापार को लेकर कोई बात नहीं हुई। ट्रंप का दावा उस समय थोथा भी साबित हो गया, जब अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय व्यापार न्यायालय ने उनकी इस दलील को ठुकरा दिया कि उन्होंने ट्रेड की बात करके ही भारत और पाक के बीच सैन्य टकराव थामा। न्यूयार्क स्थित इस संघीय अदालत ने उनकी टैरिफ नीति को भी अवैध बता दिया। इससे सिद्ध हो गया कि ट्रंप जो कुछ कह रहे, वह सही नहीं, राजनीतिक महत्वाकांक्षा का बेहूदा प्रदर्शन है।
भारत अभी भी पाक लिये सख्त बना हुआ है, क्योंकि उसकी भूलें अक्षम्य है। भारत की पाक के खिलाफ सख्त कार्रवाइयों में मुख्य हैं सबसे प्रमुख सिंधु जल समझौते को स्थगित करना, चूंकि पाक सिंचाई संबंधी आवश्यकता के लिए एक बड़ी हद तक सिंधु और उसकी सहायक नदियों के पानी पर निर्भर है, इसलिए भारत के फैसले से उसे बड़ा झटका लगना स्वाभाविक है। पाक की कृषि एवं खाद्य सुरक्षा के लिए इस फैसले के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। इसके साथ ही भारत ने पाक के साथ तमाम व्यापारिक रिश्ते
समाप्त कर दिये हैं। जिससे पाक की अर्थ-व्यवस्था प्रभावित हो रही है। भारत की ऐसी जवाबी कार्रवाइयों से पाकिस्तान में खलबली मची हुई है। लेकिन इन सबके बावजूद पाक सुधरने को तैयार नहीं है। पाक की दुनियाभर में तीव्र भर्त्सना और निन्दा हो रही है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अस्थायी सदस्य के रूप में पाकिस्तान के पहलगाम हमले की जिम्मेदारी लेने वाले रेजिस्टेंस फोर्स की लानत-मलानत ही हुई, पाक की किसी भी बात को तवज्जो नहीं दी गयी, बल्कि उसे फटकार लगी। पाक का टूटना बिखरना खयाली पुलाव नहीं, बल्कि यह उसके आतंकी षडयंत्रों की नियति है।
पहलगाम की घटना स्पष्ट रूप से यह एक सोची-समझी आतंकी साजिश थी। इसका मकसद सांप्रदायिक तनाव को भड़काना और कश्मीर में फल-फूल रहे पर्यटन को नुकसान पहुंचाना था। वहां शांतिपूर्ण चुनाव होने एवं चुनी हुई सरकार का सफलतापूर्वक चलना भी पाक के लिये नागवार गुजर रहा था। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के बाद अथक प्रयासों से आ रही शांति एवं समृद्धि के दम पर हालात सामान्य होते जा रहे थे। उसे पाक आका एवं आतंकी छिन्न-भिन्न करना चाहते थे। पाक रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने 25 मई को स्काई न्यूज पर साक्षात्कार में आतंकी ढांचे से जुड़े सवाल के जवाब में कहा, ‘हम तीन दशकों से आतंक को पालना-पोसने का गंदा काम अमेरिका और ब्रिटेन के लिए करते आए हैं।’ पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो ने भी आतंकी ढांचे के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए कहा कि पाकिस्तान का एक अतीत रहा है। जबकि वास्तविकता यही है कि आतंक पाक का अतीत ही नहीं, बल्कि वर्तमान भी है। यह उसकी मौजूदा नीति है, इसी के तहत पाक समय-समय पर भारत की शांति को क्षत-विक्षत करने की कुचेष्ठा करता रहा है।
अपनी कार्रवाई में भारत ने नागरिक या सैन्य ठिकानों को निशाना नहीं बनाया, लेकिन आतंकी ढांचे पर सटीक एवं प्रभावी प्रहार किया। अपनी विश्वसनीयता के लिए भारत ने साक्ष्य भी प्रस्तुत किए कि यह कोई खुफिया अभियान न होकर एकदम खुली चेतावनी थी। भारत अब भी अपनी बात पर कायम है कि अगर पाक शांति चाहता है, पडोसी धर्म को निभाना चाहता है तो पहले उसे अपने यहां आतंकी ढांचा समाप्त करना होगा। आतंक के साथ न वार्ता हो सकती है और न व्यापार। पानी और खून भी एक साथ नहीं बह सकते। भारत का रुख एकदम स्पष्ट है और अब पाक को तय करना है कि वह क्या चाहता है। भारत पाक और चीन की कुचालों को समझता है, इसीलिये रक्षा परियोजनाओं में देरी पर भारतीय वायु सेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल अमरप्रीत सिंह की चिंता और सवाल वाजिब हैं। दोतरफा मोर्चे पर जूझ रही सेना के आधुनिकीकरण में तेजी लाने की भी जरूरत है। इसके लिए केवल विदेशी सौदों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता, मेक इन इंडिया प्रॉजेक्ट के तहत भी उत्पादन बढ़ाना होगा। इन्हीं जरूरतों को देखते हुए भारत अपनी सैन्य ताकत बढ़ाने में जुटा है। लेकिन भारत युद्ध नहीं चाहता, शांति एवं अमन ही उसका लक्ष्य है। भारत ने वैसे भी ‘नो फर्स्ट यूज’ की नीति अपना रखी है यानी देश परमाणु हथियारों का पहले इस्तेमाल नहीं करेगा। किसी ऐसे मुल्क के खिलाफ भी भारत एटमी वेपन नहीं निकालेगा, जिसके पास परमाणु हथियार नहीं हैं। भारत ने यह ताकत हासिल की है सुरक्षा के लिए, आक्रामकता दिखाने और आक्रमण के लिए नहीं।
वैश्विक विस्मृति के शिकार तियानमेन चौक के शहीद
राकेश सैन
वर्तमान युग लोकतंत्र का है. इस प्रणाली की लाख खामियों के बावजूद आधुनिक दुनिया अपने आप को लोकतांत्रिक व्यवस्था कहलवाना पसंद करती है। यहां तक कि मजहबी राजनीतिक व्यवस्था वाले देश भी अपने नाम में किसी न किसी तरह लोकतंत्र शब्द को शामिल करके स्वयं को प्रगतिशील साबित करने का प्रयास करते हैं पर आश्चर्य की बात है कि लोहावरणवादी कम्युनिस्ट व्यवस्था को जबरन ढो रही चीन की जनता ने आज से चार दशक पहले लोकतंत्र के पक्ष में आवाज उठाई तो उसे टैंकों ने रौंद दिया और आज लोकतांत्रिक वैश्विक समाज उस घटना को लगभग भूल सा गया लगता है। दरअसल 4 जून, 1989 में चीन के बीजिंग का तियानमेन चौक बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों का केन्द्र बना जिसे चीन के कम्युनिस्ट शासकों ने बुरी तरह कुचल दिया।
इसकी पृष्ठभूमि में जाएं तो पता चलता है कि 1980 के दशक में चीन बड़े बदलावों से गुजर रहा था। सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी ने कुछ निजी कंपनियों और विदेशी निवेश को अनुमति देना शुरू कर दिया। चीनी नेता डेंग जियाओ पिंग को इससे अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलने और लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठने की आशा थी। इस कदम से राजनीतिक खुलेपन की उम्मीद भी जगी लेकिन उस समय कम्युनिस्ट पार्टी दो भागों में बंट गई। एक वर्ग वो जो तीव्र परिवर्तन की मांग कर रहा था तथा दूसरा वो कठोर राज्य नियंत्रण बनाए रखना चाहता था। इस दौरान छात्रों के नेतृत्व में विरोध प्रदर्शन शुरू हुए। इसमें भाग लेने वालों में वे लोग शामिल थे जो विदेश में रह चुके थे और नए विचारों तथा उच्च जीवन स्तर से परिचित थे।
1989 में अधिक राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग के साथ विरोध प्रदर्शन बढ़ गये। प्रदर्शनकारियों को एक प्रमुख राजनीतिज्ञ हू याओबांग से प्रोत्साहन मिला, जिन्होंने कुछ आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तनों की देखरेख की। दो वर्ष पहले राजनीतिक विरोधियों ने उन्हें पार्टी के शीर्ष पद से हटा दिया था। अप्रैल में हू की मौत हो गई, उनके अंतिम संस्कार के दिन हजारों लोग एकत्रित हुए और उन्होंने अधिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा कम सेंसरशिप की मांग की। अगले सप्ताहों में, प्रदर्शनकारी तियानमेन चौक पर एकत्र हुए जिनकी अनुमानित संख्या दस लाख तक थी। तात्कालिक कम्युनिस्ट व्यवस्था ने इस दौरान न केवल हजारों निर्दोष नागरिकों, विशेषकर छात्रों और श्रमिकों का निर्मम दमन किया बल्कि करोड़ों चीनी नागरिकों के मौलिक संवैधानिक अधिकारों को भी रौंद दिया।
3-4 जून की रात, चीन की जनमुक्ति सेना ने बख्तरबंद टैंकों और हथियारों से छात्रों पर हमला किया। हजारों की संख्या में निर्दोष लोगों की हत्या कर दी गई। यह भयावह घटना इतिहास में चार जून की घटना या तियानमेन नरसंहार के नाम से दर्ज है जो आज भी चीन में एक वर्जित विषय बना हुआ है। घटना वाले दिन बीजिंग की सडक़ों पर वह भयावह मंजर शुरू हुआ। चीनी सेना ने राजधानी में प्रवेश कर गोलीबारी शुरू कर दी जिससे प्रारंभिक रिपोर्टों के अनुसार 35-36 लोग मारे गए लेकिन यह तो केवल शुरुआत थी। 4 जून की सुबह करीब 4 बजे, जब तियानमेन चौक पर हजारों की संख्या में निहत्थे छात्र, नागरिक, बच्चे और बुजुर्ग शांतिपूर्वक लोकतंत्र और पारदर्शिता की मांग को लेकर एकत्र थे, तब कम्युनिस्ट सरकार ने क्रूरतम रूप का प्रदर्शन किया। सरकार ने न सिर्फ टैंक और हथियारबंद जवानों को तियानमेन चौक पर भेजा बल्कि लड़ाकू विमानों तक की तैनाती की। बिना किसी चेतावनी के गोलियां बरसाई गईं। निर्दोष लोगों को कुचला गया, दौड़ते बच्चों को निशाना बनाया गया, और चौक को रक्तरंजित कर दिया गया।
यह कार्रवाई सिर्फ एक नरसंहार नहीं बल्कि लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की भावना पर एक संगठित, राज्य-प्रायोजित प्रहार था। बीजिंग की सडक़ों पर मानव रक्त की नदियाँ बह रही थीं। यह कोई युद्ध का मैदान नहीं था बल्कि एक शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक प्रदर्शन के खिलाफ राज्य द्वारा चलाया गया सुनियोजित नरसंहार था। चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने छात्रों और नागरिकों की शांतिपूर्ण मांगों का उत्तर टैंकों और गोलियों से दिया। रात के अंधेरे में बीजिंग की सडक़ों पर टैंक गर्जना करने लगे और कुछ ही घंटों में लगभग 10,000 निर्दोष लोगों की जानें चली गईं। चीनी सरकार के अनुसार दो सौ लोग मरे और तीन हजार घायल हुए।
तियानमेन नरसंहार को लेकर वर्षों तक चीन सरकार ने मृत्यु संख्या को लेकर पूर्ण गोपनीयता बनाए रखी लेकिन समय के साथ कुछ अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेज सामने आए जिन्होंने इस भयावह घटना की असली तस्वीर उजागर की। चीन में तत्कालीन ब्रिटिश राजदूत एलन डॉनल्ड ने 1989 में लंदन भेजे अपने एक गोपनीय टेलीग्राम में स्पष्ट रूप से कहा था कि इस सैन्य कार्रवाई में कम से कम 10,000 लोगों की मृत्यु हुई। यह टेलीग्राम घटना के 28 वर्षों बाद सार्वजनिक हुआ। हांगकांग बैप्टिस्ट विश्वविद्यालय में चीनी इतिहास, भाषा और संस्कृति के विशेषज्ञ ज्यां पिए कबेस्टन ने भी इस टेलीग्राम पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि ‘ब्रिटिश राजनयिकों द्वारा भेजे गए आँकड़े हैं और इन्हें खारिज नहीं किया जा सकता।’
प्रसिद्ध चीनी लेखक और सामाजिक आलोचक लियाओ इयवु ने तियानमेन नरसंहार को लेकर अपनी लेखनी के माध्यम से चीनी सत्ता की क्रूरता को बेनकाब किया है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि चीन अब पूरी दुनिया के लिए एक गंभीर खतरा बन चुका है। ‘बॉल्स ऑफ ओपियम’ नामक अपनी पुस्तक में, जो विशेष रूप से तियानमेन चौक की घटना पर आधारित है, उन्होंने लिखा, ‘लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहे हजारों लोगों को सेना ने निर्ममता से कुचल दिया।’ यह पुस्तक न केवल चीन में प्रतिबंधित कर दी गई बल्कि लियाओ को इस विचारधारा के खिलाफ बोलने के कारण जेल, गुप्त निगरानी और अंतत: निर्वासन तक का सामना करना पड़ा।
इस घटना के बाद भी चीनी सरकार ने दमनात्मक रवैया छोड़ा नहीं बल्कि अत्याचारों की सारी सीमाएं लांघ दी। 6 जून नरसंहार के तुरंत बाद चीन में स्थित विदेशी दूतावासों ने अपने-अपने नागरिकों को सुरक्षा कारणों से देश छोडऩे के निर्देश जारी किए ताकि इस घटना पर पर्दा डाला जा सके। 16 जून को आंदोलन का नेतृत्व करने वाले छात्र नेताओं की व्यापक गिरफ्तारी शुरू हुई। विभिन्न विश्वविद्यालयों से जुड़े 1000 से अधिक छात्र नेताओं को चिन्हित कर हिरासत में लिया गया। अगले दिन 17 जून बीजिंग में 8 नागरिकों को मृत्युदंड दिया गया। 20 जून को चीन ने सभी ट्रैवल वीजा पर रोक लगा दी। यह निर्णय इसलिए लिया गया ताकि कोई भी आंदोलनकारी देश छोडक़र अंतर्राष्ट्रीय समर्थन न प्राप्त कर सके और विरोध की आवाज को सीमा के भीतर ही दबा दिया जाए।
वैसे तियानमेन नरसंहार वामपंथी विचारधारा के चरित्र का कोई अपवाद नहीं बल्कि उसकी सतत अमानवीय प्रवृत्तियों की ही एक कड़ी है। इतिहास के पन्ने पलटने पर स्पष्ट होता है कि वामपंथी अधिनायकवाद का पूरा इतिहास ऐसे ही संविधान-विरोधी अत्याचारों और दमन की घटनाओं से अटा पड़ा है। लेनिन के नेतृत्व में ‘बोल्शेविक क्रांति’ के बाद लाखों विरोधियों का दमन, स्टालिन के ‘ग्रेट पर्ज’ के दौरान अनुमानित दो करोड़ से अधिक लोगों की हत्या और माओत्से तुंग के ‘ग्रेट लीप फारवर्ड’ और ‘कल्चरल रेवेल्यूशन’ में करोड़ों लोगों की मौतें, यह दिखाती हैं कि वामपंथी शासन अक्सर आलोचना और विरोध को कुचलने के लिए नरसंहार और दमन को ही नीति का रूप दे देता है।
यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि भारत के वामपंथी विचारक और संगठन भी उन्हीं वैश्विक व्यक्तित्वों लेनिन, माओ और स्टालिन से वैचारिक प्रेरणा लेते रहे हैं, जिनकी नीतियाँ अत्याचार, दमन और हिंसा से जुड़ी रही हैं। चाहे वह बंगाल और केरल की वामशासित सरकारों में राजनीतिक हिंसा का इतिहास हो, या फिर नक्सलवाद और अर्बन नक्सलिज्म के माध्यम से राज्यविरोधी हिंसक गतिविधियाँ, इन सबमें वामपंथी विचारधारा की भूमिका बार-बार सामने आती रही है।
भारत-चीन युद्ध के दौरान जैसे भारत के कम्युनिस्टों ने दुश्मन देश का समर्थन कर अपने चरित्र का प्रमाण दिया, उसी तरह तियानमेन चौक नरसंहार पर भी उन्होंने चीन को मूक समर्थन दिया। ‘टाइम्स आफ इण्डिया’ में 16 जून, 1989 को प्रकाशित वी. आर. मणि के एक लेख ‘लेफ्ट स्टैंड ऑन चाइना कन्फलिक्ट’ में बताया गया कि ‘1989 में जब चीन के तियानमेन चौक पर लाखों छात्र लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और भ्रष्टाचार के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे, तब चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने उन पर टैंकों और बंदूकों से अत्यंत निर्मम दमन किया परंतु इस भीषण नरसंहार पर भारतीय वामपंथी दलों, विशेष रूप से सीपीआई (एम) और सीपीआई का रुख विरोधाभासी और मौन समर्थन देने वाला था। इन दलों ने न तो इस नरसंहार की स्पष्ट रूप से निंदा की और न ही चीन सरकार की आलोचना की। सीपीआई (एम) ने इसे चीन का आंतरिक मामला बताकर टालने का प्रयास किया और छात्रों की गतिविधियों को राजनीतिक अस्थिरता फैलाने वाला कहकर चीन की कार्रवाई को परोक्ष रूप से उचित ठहराया।
टाइम्स आफ इण्डिया’ के ही 16 जनवरी, 1990 को प्रकाशित सम्पादकीय में बताया गया कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) ने सार्वजनिक रूप से तियानमेन चौक नरसंहार का बचाव किया। पार्टी के मुखपत्र देशाभिमानी (मलयालम) ने तियानमेन के छात्र प्रदर्शनकारियों को उपद्रवी कहा और चीन सरकार की सैन्य कार्रवाई का समर्थन किया। दु:खद बात है कि लोकतंत्र के पक्ष में उठी एक शक्तिशाली आवाज और चीनी लोगों के जनतंत्र के लिए दिए गए उस बलिदान को दुनिया ने भुला कैसे दिया?
राकेश सैन