Home Blog Page 8

आक्रामकता के शिकार बच्चों की पीड़ा और दर्द को समझें

0

आक्रामकता के शिकार मासूम बच्चों का अन्तर्राष्ट्रीय दिवस- 4 जून, 2025
– ललित गर्ग –

बच्चों को देश एवं दुनिया के भविष्य की तरह देखा जाता है। लेकिन उनका यह बचपन रूपी भविष्य लगातार हो रहे युद्धों की विभीषिका, त्रासदी एवं खौफनाक स्थितियों के कारण गहन अंधेरों एवं परेशानियों से घिरा है। आज का बचपन हिंसा, शोषण, यौन विकृतियों, अभाव, उपेक्षा, नशे एवं अपराध की दुनिया में धंसता चला जा रहा है। बचपन इतना उपेक्षित, प्रताड़ित, डरावना एवं भयावह हो जायेगा, किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। आखिर क्यों बचपन बदहाल होता जा रहा है? बचपन इतना उपेक्षित क्यों हो रहा है? बचपन के प्रति न केवल अभिभावक, बल्कि समाज, सरकार एवं युद्धरत देशों की सत्ताएं इतनी बेपरवाह कैसे हो गयी है? ये प्रश्न 4 जून को आक्रमण के शिकार हुए मासूम बच्चों के दिवस को मनाते हुए हमें झकझोर रहे हैं। इस दिवस को मनाने की प्रासंगिकता आज के परिप्रेक्ष्य में ज्यादा महसूस हो रही है। इस दिवस का उद्देश्य आक्रामकता के शिकार बच्चों की पीड़ा और उनके दर्द को स्वीकार करना, बाल अधिकारों की रक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबद्धता को दोहराना, समाज में बच्चों के साथ दुर्व्यवहार और हिंसा के खिलाफ जागरूकता बढ़ाना, बच्चों के साथ हिंसा रोकने के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से प्रयास करना, बच्चों के लिए सुरक्षित, हिंसामुक्त और अनुकूल वातावरण बनाना एवं बच्चों के अधिकारों की रक्षा और उन्हें हिंसा से सुरक्षित रखने के लिए जागरूकता फैलाना है। संयुक्त राष्ट्र ने इस दिवस की शुरुआत 1982 में की थी, जब फिलिस्तीनी और लेबनानी बच्चों पर हुए अत्याचारों के बाद यह दिवस घोषित किया गया था, जिसे मनाते हुए हमें दुनिया भर में बच्चों द्वारा झेले गए दर्द को स्वीकारना होगा, जो शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक शोषण के शिकार हैं। यह दिन बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबद्धता की पुष्टि करता है।
बच्चे दुनिया की आबादी का एक चौथाई हिस्सा हैं और किसी भी समाज की भलाई के लिए बच्चों का सुरक्षित एवं संरक्षित होना जरूरी हैं। वे समाज के सबसे कमज़ोर सदस्य हैं, जिन्हें निष्कंटक, खुशहाल और सफल जीवन जीने के लिए समान अवसर दिए जाने और उनकी रक्षा किए जाने की आवश्यकता है। लेकिन, हर साल संघर्ष और युद्धों के कारण बच्चों की एक बड़ी संख्या हिंसा, विस्थापन, अपंगता और दुर्व्यवहार का शिकार होती है। यह केवल इस बात को साबित करता है कि बच्चों पर किसी भी संघर्ष का गंभीर एवं घातक प्रभाव पड़ता है। निश्चित ही रूस एवं यूक्रेन, गाजा एवं इजरायल जैसे लम्बे समय से चल रहे युद्धों के कारण हर दिन, दुनिया भर में बच्चे अकथनीय भयावहता एवं त्रासदियों का सामना कर रहे हैं। वे अपने घरों में सोने या बाहर खेलने, स्कूल में पढ़ने या अस्पतालों में चिकित्सा देखभाल प्राप्त करने में सुरक्षित नहीं हैं। हत्या और अपंगता, अपहरण और यौन हिंसा से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं पर हमले नयी बन रही विश्व संरचना के लिये गंभीर चुनौती है। बच्चे चौंका देने वाले पैमाने पर युद्धरत दलों के निशाने पर आ रहे हैं।
हाल के वर्षों में, कई संघर्ष एवं युद्ध क्षेत्रों में, महामारियों एवं प्राकृतिक आपदाओं के कारण बच्चों के खिलाफ उल्लंघन की संख्या में वृद्धि हुई है। संघर्ष, युद्ध, हिंसा एवं महामारियों से प्रभावित देशों और क्षेत्रों में रहने वाले 250 मिलियन बच्चों की सुरक्षा के लिए और अधिक प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। हिंसक अतिवादियों द्वारा बच्चों को निशाना बनाने से बचाने के लिए, अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार कानून को बढ़ावा देने के लिए और बच्चों के अधिकारों के उल्लंघन के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए और अधिक प्रयासों एवं संकल्पों की जरूरत है ताकि बच्चों के बेहतर भविष्य को सुरक्षित एवं सुनिश्चित किया जा सके। संयुक्त राष्ट्र के नए एजेंडे में पहली बार बच्चों के खिलाफ हिंसा के सभी रूपों को समाप्त करने के लिए एक विशिष्ट लक्ष्य शामिल था और बच्चों के दुर्व्यवहार, उपेक्षा और शोषण को समाप्त करने के लिए कई अन्य हिंसा-संबंधी लक्ष्यों को मुख्यधारा में शामिल किया गया। विश्वस्तर पर बालकों के उन्नत जीवन के ऐसे आयोजनों के बावजूद आज भी बचपन उपेक्षित, प्रताड़ित एवं नारकीय बना हुआ है, आज बच्चों की इन बदहाल स्थिति की प्रमुख वजहें हैं, वे हैं-सरकारी योजनाओं का कागज तक ही सीमित रहना, बुद्धिजीवी वर्ग व जनप्रतिनिधियों की उदासीनता, दुनिया की महाशक्तियों की ओर से बच्चों के ज्वलंत प्रश्नों पर आंख मूंद लेना, इनके प्रति समाज का संवेदनहीन होना एवं गरीबी-शिक्षा के लिये जागरुकता का अभाव है।
युद्धों एवं ऐसी ही स्थितियों में 11,649 बच्चे मारे गए या अपंग हो गए। अधिकांश मामलों में, विस्फोटक आयुध और बारूदी सुरंगों का उपयोग आबादी वाले क्षेत्रों में किया गया, जिसके कारण बच्चों की मृत्यु हुई और वे अपंग हो गए। 8,655 बच्चों का इस्तेमाल संघर्ष में किया गया और 4356 का अपहरण किया गया, जिनमें से सबसे ज्यादा संख्या कांगो, सोमालिया और नाइजीरिया के लोकतांत्रिक गणराज्य में पायी गयी। पीड़ितों में से लगभग 30 प्रतिशत लड़कियां थीं। 1,470 बच्चे यौन हिंसा के शिकार हुए है। संघर्ष में यौन हिंसा कलंक और कानूनी सुरक्षा की कमी के कारण लड़कियों और लड़कों दोनों के लिए सबसे कम रिपोर्ट की जाने वाली गंभीर हिंसा है। 90 प्रतिशत से अधिक यौन हिंसा लड़कियों के खिलाफ की गई, जो यौन हिंसा और जबरन विवाह से असमान रूप से प्रभावित हैं, हालांकि लड़कों के खिलाफ यौन हिंसा की घटनाओं में भी वृद्धि हुई है। 2022 से 2023 तक मानवीय सहायता से वंचित करने की घटनाओं में 32 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है, जो अक्सर अन्य गंभीर उल्लंघनों में वृद्धि के साथ मेल खाती है। 2024 के लिए, मानवीय सहायता से वंचित करने की घटनाओं में कई संदर्भों में गिरावट आने की उम्मीद है, विशेष रूप से अफ़गानिस्तान, म्यांमार और सूडान में मानवीय संगठनों और कर्मियों पर नियंत्रण बढ़ाने वाले प्रतिबंधात्मक नियमों को अपनाने के कारण। 2023 तक, स्कूलों पर हमलों में लगभग 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। कोफी अन्नान ने एक बार कहा था, ‘दुनिया में बच्चों के साथ जो भरोसा है, उससे ज्यादा पवित्र कोई भरोसा नहीं है। यह सुनिश्चित करने से ज्यादा महत्वपूर्ण कोई कर्तव्य नहीं है कि उनके अधिकारों का सम्मान किया जाए, उनके कल्याण की रक्षा की जाए, उनका जीवन भय और अभाव से मुक्त हो और वे शांति से बड़े हो सकें।’
बच्चों के खिलाफ गंभीर उल्लंघनों को समाप्त करना और रोकना बच्चों और सशस्त्र संघर्ष पर जनादेश का मुख्य हिस्सा है। बच्चों को शत्रुता से बचाने का सबसे प्रभावी तरीका उन दबाव और खींचतान वाले कारकों को खत्म करना है जो उन्हें सशस्त्र संघर्ष में शामिल होने के लिए प्रेरित करते हैं। बच्चे बहुत अच्छे लगते हैं जब वे हँसते-मुस्कुराते हैं। बच्चे यदि तनावरहित रहते हैं तो चारों तरफ खुशी का माहौल बन जाता है। क्या आपने कभी सोचा है कि बच्चे भी पीड़ा महसूस करते हैं। यह पीड़ा शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक किसी भी तरह के शोषण से पैदा होती है। बच्चे खुश, स्वस्थ और सुरक्षित होने चाहिए। उन्हें जाने-अनजाने में भी कोई पीड़ा नहीं दी जानी चाहिए। बच्चों की खुशी में देश एवं दुनिया का उज्ज्वल भविष्य छुपा है। कुछ बीमार मानसिकता यानी पीडोफिलिया ग्रस्त व्यक्ति मासूम बच्चों को क्रूरतम मानसिक व शारीरिक यातनाएं देने में आनंद की प्राप्ति करता है तथा उसके लिए यह एक ऐसा नशा बन जाता है कि वह बच्चों को यातनाएं देने कि क्रूरतम विधियां इजाद करता जाता है जिसमें बच्चो के साथ सेक्स, शरीर को चोटिल करना-काटना, जलाना, यहाँ तक कि उनके टुकडे-टुकडे कर उनके मांस तक खाना शामिल है। कुछ देशों में बच्चों को ऊंट की पीथ पर बान्धकर ऊटों को दौड़ाया जाता है जिससे बच्चे कि चीत्कार-चीख से वहां के लोग आनन्द एवं मनोरंजन की प्राप्ति करते हैं, यह भी पीडोफिलिया का ही एक उदाहरण है। इन क्रूर एवं अमानवीय स्थितियों का मासूम बच्चों पर भारी दुष्प्रभाव पड़ता है और इन कमजोर नींवों पर हम कैसे एक सशक्त दुनिया की कल्पना कर सकते हैं? 

दुग्धशाला की शक्ति का परिचायक है आत्मनिर्भरता

डॉ. शंकर सुवन सिंह

दूध में कैल्शियम, मैग्नीशियम, ज़िंक, फास्फोरस, आयोडीन, आयरन, पोटैशियम, फोलेट्स, विटामिन ए, विटामिन डी, राइबोफ्लेविन, विटामिन बी-12, प्रोटीन आदि मौजूद होते हैं। गाय के वसा रहित दूध (स्किम्ड मिल्क) में कोलेस्ट्रॉल 2-5 मिलीग्राम प्रति 100 मिलीलीटर होता है। पूर्ण वसा (फुल क्रीम) वाले दूध में कोलेस्ट्रॉल 10-15 मिलीग्राम प्रति 100 मिलीलीटर होता है। आंकड़ों के अनुसार  एक स्वस्थ्य व्यक्ति 300 मिलीग्राम कोलेस्ट्रॉल प्रतिदिन ले सकता है। अतएव दूध पीने से हृदयघात होने की संभावना नगण्य होती है। दूध में मुख्यतः केसिन और व्हेय नामक दो प्रोटीन पाए जाते हैं। दूध में प्रोटीन का 80 प्रतिशत हिस्सा केसिन के रूप में होता है और बाकी 20 प्रतिशत हिस्सा व्हे का होता है। दूध में व्याप्त केसिन प्रोटीन, कैल्शियम और फॉस्फेट के साथ मिलकर छोटे छोटे कण बनाते हैं जिन्हें मिसेल्स कहा जाता है। जब प्रकाश इन मिसेल्स से टकराता है तो यह प्रकाश अपरिवर्तित होकर फ़ैल जाता है। दूध में पाए जाने वाला वसा के कण (फैट ग्लोबुल्स) भी प्रकाश के प्रकीर्णन का कारण बनते हैं। अतएव दूध का रंग सफ़ेद दिखाई देता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस दूध में जितना ज्यादा वसा (फैट) होगा उसका रंग उतना ही सफ़ेद दिखाई देगा। गाय के दूध में भैंस के दूध की अपेक्षा वसा (फैट) कम होता है और केसिन नामक प्रोटीन भी कम होता है। इसलिए गाय का दूध हल्का पीला दिखाई देता है। दूध में कैरोटीन और कैसिन नामक दो वर्णक (पिगमेंट) होते हैं जो उसके रंग को प्रभावित करते हैं। अतएव कैरोटीन की वजह से गाय के दूध में हल्का पीला रंग होता है, जबकि कैसिन की वजह से दूध का रंग सफेद होता है। भैंस के दूध में केरोटीन कम होता है और फैट ज्यादा। जबकि गाय के दूध में केरोटीन ज्यादा और फैट अपेक्षाकृत कम होता है। अतएव हम कह सकते हैं कि दूध एक अपारदर्शी, सफेद तरल उत्पाद है।

डेयरी शब्द को दुग्ध उद्योग से जोड़ कर देख सकते हैं। दूध को विभिन्न डेरी उत्पादों में परिवर्तन के लिए प्रसंस्करण किया जाता है। दूध के विभिन्न उप उत्पाद भी होते हैं जिन्हे तकनीकी भाषा में मिल्क बाई प्रोडक्ट (दूध के उप उत्पाद) भी कहा जाता है। डेयरी उत्पाद में दूध प्राथमिक घटक के रूप में प्रयोग होता है। जैसे की दूध, दही, पनीर, आइसक्रीम। डेयरी उप उत्पादों में व्हेय, छाछ, स्किम मिल्क, घी के अवशेष (घी रेज़िड्यू) आदि आते हैं। दूधऔर डेयरी (दुग्धशाला) का सम्बन्ध बगिया और माली जैसा है। जिस प्रकार एक माली अपनी बगिया को सींचता और सम्हालता है। उसी प्रकार एक माली रूपी डेयरी (दुग्धशाला), बगियारूपी दूध को सम्हालता और संरक्षित करता है। डेयरी (दुग्धशालाएँ) दूध की सुंदरता और उनकी दिव्यता का द्योतक है। दूध का रखरखाव और उसको ताजा बनाए रखने की जिम्मेदारी डेयरी (दुग्धशाला) की होती है। जिसको तकनीकी भाषा में शेल्फ लाइफ ऑफ़ मिल्क कहा जाता है। अर्थात दूध की पोषकता को लम्बे समय तक बनाए रखना। पोषकता का सम्बन्ध शुद्धता से होना चाहिए। शुद्ध दूध ही एक स्वस्थ्य शरीर का परिचायक है। डेयरी उद्योगों (दुग्धशालाओं) के लिए शुद्धता ही प्राथमिकता होनी चाहिए। अधिकांश डेयरी उद्योग (दुग्धशालाएं) शुद्धता का ख्याल रखते हैं और शुद्ध दूध को ही जन जन तक पहुँचाते हैं। भारत में ब्रांडेड डेयरी (दुग्ध्शाला) में अमूल, पारस, ज्ञान, नमस्ते इंडिया, सुधा, आदि डेयरी आती है। भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में भी बहुत सी लोकल सर्टिफाइड डेयरी (दुग्धशालाएँ) काम कर रही हैं। ये सभी गुणवत्ता व शुद्धता के मामले में काफी आगे हैं। ये सभी डेयरी दूर दराज में रहने वाले लोगों के लिए राम बाण साबित होती हैं। जिस शहर और क्षेत्र में दुग्ध उत्पादन की कमी होती है, वहाँ इन डेयरी (दुग्ध्शाला) द्वारा कमी को पूरा किया जाता है। कुल मिलाकर जनसँख्या के हिसाब से दूध की जितनी खपत है भारत दूध का उतना उत्पादन करने में सक्षम है। अतएव हम कह सकते हैं कि दुग्धशालाएं, दूध को संरक्षित और सुरक्षित करती हैं। विश्व में भारत दुग्ध उत्पादन में प्रथम स्थान रखता है। वर्ष 2025 में विश्व दुग्ध दिवस की 25 वीं वर्षगाँठ मनाई जा रही है। विश्व दुग्ध दिवस प्रत्येक वर्ष 1 जून को मनाया जाता है। विश्व दुग्ध दिवस 2025 का थीम/प्रसंग है- आइए डेयरी की शक्ति का जश्न मनाएं। असली मायने में हम डेयरी की शक्ति का जश्न तभी मना सकते हैं जब हर घर दूध और दूध से बने उत्पाद शुद्धता के साथ पहुंचे। डेयरी उत्पाद का शुद्ध होना आवश्यक है। शुद्धता ही असली स्वास्थ्य की निशानी है। तभी हम कह सकते हैं कि दूध व दूध से बने उत्पाद वैश्विक पोषण का आधार हैं। भारत में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड डेयरी उद्योग के विस्तार के लिए काम करती है। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एन डी डी बी) के संस्थापक डॉ. वर्गीस कुरियन थे। डॉ. वर्गीस कुरियन को भारत में श्वेत क्रांति का जनक भी कहा जाता है। लोगों या किसानों को डेयरी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिए सरकार की कुछ योजनाएं हैं जिनका लाभ उठाया जा सकता है। भारत सरकार की डेयरी उद्यमिता विकास योजना (डी ई डी एस) के तहत आम नागरिक और किसान मिल्क कलेक्शन सेंटर खोल सकते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार की नंदिनी कृषक समृद्धि योजना, कामधेनु डेयरी योजना, नंद बाबा डेयरी मिशन आदि योजनाएं एक सफल डेयरी उद्योग खोलने में मदद कर सकती हैं। अतः बिना डेयरी उद्योग (दुग्धशाला) के दूध की दिव्यता अधूरी है। यह कहने में अतिश्योक्ति नहीं होगी कि दूध की दिव्यता का स्रोत डेयरी (दुग्धशाला) ही हैं। डेयरी (दुग्धशाला) सेक्टर आत्मनिर्भरता की कुंजी है। देश में बढ़ते डेयरी उद्योग लोगों को आत्मनिर्भर बना रहे हैं। आत्मनिर्भरता स्वतन्त्रता का सूचक है। स्वतन्त्रता सकून और शांति को जन्म देती है। अतएव हम कह सकते हैं कि आत्मनिर्भरता डेयरी (दुग्धशाला) की शक्ति का परिचायक है।

हिमालय की बर्फ़ खा गया ‘ब्लैक कार्बन’: दो दशक में बढ़ा 4°C तापमान, पानी संकट गहराने का ख़तरा

0

हिमालय की बर्फ़ तेजी से पिघल रही है। वजह? हमारे चूल्हों से उठता धुआं, खेतों में जलाई जा रही पराली, और गाड़ियों से निकलता धुआं — यानी ‘ब्लैक कार्बन’। दिल्ली की एक रिसर्च संस्था Climate Trends की नई रिपोर्ट बताती है कि पिछले 20 सालों में हिमालयी इलाकों में बर्फ़ की सतह का तापमान औसतन 4 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। और ये बदलाव अचानक नहीं आया — इसकी एक बड़ी वजह है हवा में घुलता काला ज़हर।

ये ‘ब्लैक कार्बन’ दिखता तो धुएं जैसा है, लेकिन असर किसी धीमे ज़हर की तरह करता है। ये बर्फ़ पर जमकर उसकी चमक यानी रिफ्लेक्टिव ताकत को कम कर देता है, जिससे सूरज की गर्मी सीधे बर्फ़ में समा जाती है और वो तेज़ी से पिघलने लगती है।

रिपोर्ट में NASA के 23 साल के सेटेलाइट डेटा (2000-2023) का विश्लेषण किया गया है। पता चला कि 2000 से 2019 तक ब्लैक कार्बन की मात्रा में तेज़ी से इज़ाफा हुआ, जिससे हिमालय की बर्फ़ लगातार सिकुड़ती गई। 2019 के बाद इसकी रफ्तार थोड़ी थमी ज़रूर है, लेकिन नुक़सान हो चुका है।

विशेषज्ञों का कहना है कि जहां ब्लैक कार्बन ज़्यादा जमा होता है, वहां बर्फ़ की मोटाई सबसे तेज़ घट रही है। इससे नदियों के जलस्तर पर असर पड़ेगा और करीब दो अरब लोगों की पानी की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है — खासतौर पर भारत, नेपाल, भूटान और बांग्लादेश जैसे देशों में।

रिपोर्ट की मुख्य लेखिका, डॉ. पलक बलियान कहती हैं, “पूर्वी हिमालय में ब्लैक कार्बन सबसे ज़्यादा पाया गया है, क्योंकि वो इलाका ज़्यादा घना बसा है और वहां बायोमास जलाने की घटनाएं आम हैं।”

अच्छी बात ये है कि ब्लैक कार्बन ज़्यादा समय तक वातावरण में नहीं टिकता। अगर अभी इसकी मात्रा को कम किया जाए — जैसे कि चूल्हों को साफ़ ईंधन में बदला जाए, पराली जलाने पर रोक लगे, और ट्रांसपोर्ट सेक्टर साफ किया जाए — तो कुछ ही सालों में असर दिख सकता है।

Climate Trends की डायरेक्टर आरती खोसला कहती हैं, “ये ऐसा मुद्दा है जहां हम जलवायु परिवर्तन और वायु प्रदूषण — दोनों को एक साथ टारगेट कर सकते हैं। और इसमें जीत जल्दी मिल सकती है।”

निचोड़ ये है कि हिमालय की बर्फ़ अब उतनी ठंडी नहीं रही। अगर हम वक़्त रहते नहीं जागे, तो आने वाले सालों में पानी का संकट और तेज़ होगा। और इसका असर सिर्फ पहाड़ों तक सीमित नहीं रहेगा — मैदानी ज़िंदगी भी इसकी चपेट में आएगी।

माता-पिता और संतान के संबंधों की संस्कृति को जीवंतता दें

0

विश्व माता-पिता दिवसः 1 जून 2025
– ललित गर्ग –

विश्व के अधिकतर देशों की संस्कृति में माता-पिता का रिश्ता सबसे बड़ा एवं प्रगाढ़ माना गया है। भारत में तो इन्हें ईश्वर का रूप माना गया है। माता-पिता को उनके बच्चों के लिए किए गए उनके काम, बच्चों के प्रति उनकी निस्वार्थ प्रतिबद्धता और इस रिश्ते को पोषित करने के लिए उनके आजीवन त्याग के लिए सम्मान और सराहना देने के लिए प्रतिवर्ष विश्व माता-पिता (अभिभावक) दिवस 1 जून को मनाया जाता है। यह संयुक्त राष्ट्र (यूएन) का पालन दिवस है। यह दिन हमें परिवारों के विकास में माता-पिता और उनके जैसे लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका की सराहना करने का अवसर प्रदान करता है। 2025 के लिए थीम है ‘माता-पिता का पालन-पोषण’। यह थीम माता-पिता के रूप में पालन-पोषण को एक महत्वपूर्ण कौशल के रूप में मान्यता देती है और हमें माता-पिता के रूप में बच्चों के विकास और कल्याण के लिए उनकी महत्वपूर्ण भूमिका पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रेरित करती है। अधिकांश देशों में सदियों से माता-पिता का सम्मान करने की परंपरा रही है। माता-पिता ईश्वर का सबसे अच्छा उपहार हैं। जीवन में कोई भी माता-पिता की जगह नहीं ले सकता। वे सच्चे शुभचिंतक हैं।
माता-पिता ही बच्चों की सुरक्षा, विकास व समृद्धि के बारे में सोचते हैं। बावजूद बच्चों द्वारा माता-पिता की लगातार उपेक्षा, दुर्व्यवहार एवं प्रताड़ना की स्थितियों बढ़ती जा रही है, जिन पर नियंत्रण के लिये यह दिवस मनाया जाता है। भारत में जहां कभी संतानें पिता के चेहरे में भगवान और मां के चरणों में स्वर्ग देखती थीं, आज उसी देश में संतानों के उपेक्षापूर्ण व्यवहार के कारण बड़ी संख्या में बुजुर्ग माता-पिता की स्थिति दयनीय होकर रह गई है। इस दिवस को मनाने की सार्थकता तभी है जब हम केवल भारत में ही नहीं है बल्कि विश्व में अभिभावकों के साथ होने वाले अन्याय, उपेक्षा और दुर्व्यवहार पर लगाम लगाने की भी है। प्रश्न है कि दुनिया में अभिभावक दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों हुई? क्यों अभिभावकों की उपेक्षा एवं प्रताड़ना की स्थितियां बनी हुई है? चिन्तन का महत्वपूर्ण पक्ष है कि अभिभावकों की उपेक्षा के इस गलत प्रवाह को कैसे रोके। क्योंकि सोच के गलत प्रवाह ने न केवल अभिभावकों का जीवन दुश्वार कर दिया है बल्कि आदमी-आदमी के बीच के भावात्मक फासलों को भी बढ़ा दिया है। विचारणीय है कि अगर आज हम माता-पिता का अपमान करते हैं, तो कल हमें भी अपमान सहना होगा। समाज का एक सच यह है कि जो आज जवान है उसे कल माता-पिता भी होना होगा और इस सच से कोई नहीं बच सकता। हमें समझना चाहिए कि माता-पिता परिवार एवं समाज की अमूल्य विरासत होते हैं। इन्हीं स्थितियों को देखते हुए 2007 में माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण विधेयक संसद में पारित किया गया है। इसमें माता-पिता के भरण-पोषण, वृद्धाश्रमों की स्थापना, चिकित्सा सुविधा की व्यवस्था और वरिष्ठ नागरिकों के जीवन और संपत्ति की सुरक्षा का प्रावधान किया गया है। लेकिन इन सब के बावजूद हमें अखबारों और समाचारों की सुर्खियों में माता-पिता की हत्या, लूटमार, उत्पीड़न एवं उपेक्षा की घटनाएं देखने को मिल ही जाती है।
विश्व में इस दिवस को मनाने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु सभी का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि वे अपने माता-पिता के योगदान को न भूलें और उनको अकेलेपन की कमी को महसूस न होने दें। हमारा भारत तो माता-पिता को भगवान के रूप में मानता है। इतिहास में अनेकों ऐसे उदाहरण है कि माता-पिता की आज्ञा से भगवान श्रीराम जैसे अवतारी पुरुषों ने राजपाट त्याग कर वनों में विचरण किया, मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार ने अपने अन्धे माता-पिता को काँवड़ में बैठाकर चारधाम की यात्रा कराई। फिर क्यों आधुनिक समाज में माता-पिता और उनकी संतान के बीच दूरियां बढ़ती जा रही है। आज के माता-पिता समाज-परिवार से कटे रहते हैं और सामान्यतः इस बात से सर्वाधिक दुःखी है कि जीवन का विशद अनुभव होने के बावजूद कोई उनकी राय न तो लेना चाहता है और न ही उनकी राय को महत्व देता है। समाज में अपनी एक तरह से अहमियत न समझे जाने के कारण हमारे माता-पिता दुःखी, उपेक्षित एवं त्रासद जीवन जीने को विवश है। माता-पिता को इस दुःख और कष्ट से छुटकारा दिलाना आज की सबसे बड़ी जरूरत है।
बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार किस सीमा तक, कितना, किस रूप में और कितनी बार होता है तथा इसके पीछे कारण क्या हैं, इस पर हुए शोध में पता चला कि 82 प्रतिशत पीड़ित बुजुर्ग अपने परिवार के सम्मान के चलते इसकी शिकायत नहीं करते। शोध के निष्कर्षों के अनुसार अभिभावकों पर होने वाले अत्याचार एवं दुर्व्यवहार की स्थितियां चिन्तनीय है। जिनमें परिजनों एवं विशेषतः बच्चों के हाथों बुजुर्ग अपमान (56 प्रतिशत), गाली-गलौच (49 प्रतिशत), उपेक्षा (33 प्रतिशत), आर्थिक शोषण (22 प्रतिशत) और शारीरिक उत्पीडऩ का शिकार (12 प्रतिशत) होते हैं और ऐसा करने वालों में बहुओं (34 प्रतिशत) की अपेक्षा बेटों (52 प्रतिशत) की संख्या अधिक है जबकि पिछले सर्वेक्षणों में बहुओं की संख्या अधिक पाई गयी है। प्रौद्योगिकी ने भी बुजुर्गों की उपेक्षा और उनसे दुर्व्यवहार में अपना योगदान दिया है और संतानें अपने माता-पिता की अपेक्षा मोबाइल फोन और कम्प्यूटरों को अधिक तवज्जो देती हैं। इसका बुजुर्गों के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
अभिभावकों को लेकर जो गंभीर समस्याएं आज पैदा हुई हैं, वह अचानक ही नहीं हुई, बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति तथा महानगरीय अधुनातन बोध के तहत बदलते सामाजिक मूल्यों, नई पीढ़ी की सोच में परिवर्तन आने, महंगाई के बढ़ने और व्यक्ति के अपने बच्चों और पत्नी तक सीमित हो जाने की प्रवृत्ति के कारण बड़े-बूढ़ों के लिए अनेक समस्याएं आ खड़ी हुई हैं। अभिभावकों के लिये भी यह जरूरी है कि वे वार्धक्य को ओढ़े नहीं, बल्कि जीएं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दूरदर्शी नारे “सबका साथ, सबका विकास एवं सबका विश्वास’’ की गूंज और भावना अभिभावकों के जीवन में उजाला बने, तभी नया भारत निर्मित होगा। मानवीय रिश्तों में दुनिया में माता-पिता और संतान का रिश्ता अनुपम है, संवेदनाभरा है। माता-पिता हर संतान के लिए एक प्रेरणा हैं, एक प्रकाश हैं और संभावनाओं के पुंज हैं। हर माता-पिता अपनी संतान की निषेधात्मक और दुष्प्रवृत्तियों को समाप्त करके नया जीवन प्रदान करते हैं। माता-पिता की प्रेरणाएं संतान को मानसिक प्रसन्नता और परम शांति देती है। जैसे औषधि दुख, दर्द और पीड़ा का हरण करती है, वैसे ही माता-पिता शिव पार्वती की भांति पुत्र के सारे अवसाद और दुखों का हरण करते हैं।
माता पिता ही है जो हमें सच्चे दिल से प्यार करते हैं बाकी इस दुनिया में सब नाते रिश्तेदार झुठे होते हैं। पता नहीं क्यों हमे हमारे पिता इतना प्यार करते हैं, दुनिया के बैंक खाली हो जाते हैं मगर पिता की जेब हमेशा हमारे लिए भरी रहती हैं। पता नहीं जरूरत के समय न होते हुए उनके पास अपने बच्चों के लिये कहां से पैसे आ जाते हैं। भगवान के रूप में माता-पिता हमें एक सौगात हैं जिनकी हमें सेवा करनी चाहिए और कभी उनका दिल नहीं तोडना चाहिए। एक बच्चे को बड़ा और सभ्य बनाने में उसके पिता का योगदान कम करके नहीं आंका जा सकता। मां का रिश्ता सबसे गहरा एवं पवित्र माना गया है, लेकिन बच्चे को जब कोई खरोंच लग जाती है तो जितना दर्द एक मां महसूस करती है, वही दर्द एक पिता भी महसूस करते हैं। पिता कठोर इसलिये होते हैं ताकि बेटा उन्हें देख कर जीवन की समस्याओं से लड़ने का पाठ सीखे, सख्त एवं निडर बनकर जिंदगी की तकलीफों का सामना करने में सक्षम हो। माँ ममता का सागर है पर पिता उसका किनारा है। माँ से ही बनता घर है पर पिता घर का सहारा है। माँ से स्वर्ग है माँ से बैकुंठ, माँ से ही चारों धाम है पर इन सब का द्वार तो पिता ही है। आधुनिक समाज में माता-पिता और उनकी संतान के संबंधों की संस्कृति को जीवंत बनाने की अपेक्षा है। 

हिंदी पत्रकारिता उद्भव से लेकर डिजिटल युग तक

हिंदी पत्रकारिता दिवस (30 मई)विशेष-

-संदीप सृजन

हिंदी पत्रकारिता का इतिहास भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। यह न केवल सूचना का माध्यम है, बल्कि समाज को जागरूक करने, विचारों को प्रेरित करने और परिवर्तन की दिशा में एक उत्प्रेरक की भूमिका निभाता है। हिंदी पत्रकारिता ने अपने उद्भव से लेकर आज तक कई उतार-चढ़ाव देखे हैं।हिंदी पत्रकारिता का सफर संघर्षों और उपलब्धियों से भरा रहा है। 19वीं सदी में अपने उद्भव से लेकर डिजिटल युग तक, इसने समाज को जागरूक करने और परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आर्थिक दबाव, डिजिटल युग की चुनौतियाँ, और पत्रकारों की सुरक्षा जैसे मुद्दों ने इसके सामने कई बाधाएँ खड़ी की हैं। फिर भी, डिजिटल क्रांति, स्थानीय पत्रकारिता, और तकनीकी नवाचारों के साथ हिंदी पत्रकारिता का भविष्य उज्ज्वल है।

हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत 19वीं सदी में हुई, जब भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन अपने चरम पर था। इस दौर में हिंदी पत्रकारिता ने न केवल सूचना प्रसार का कार्य किया, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पहला हिंदी समाचार पत्र “उदंत मार्तंड” 30 मई, 1826 को पंडित जुगल किशोर शुक्ल द्वारा कोलकाता से प्रकाशित किया गया। हालांकि, आर्थिक तंगी और अन्य संसाधनों की कमी के कारण यह पत्र केवल डेढ़ साल तक चल सका। यह हिंदी पत्रकारिता के शुरुआती संघर्ष का एक उदाहरण है।

उस दौर में हिंदी पत्रकारिता को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। ब्रिटिश सरकार की सेंसरशिप, सीमित पाठक वर्ग, और तकनीकी संसाधनों की कमी ने पत्रकारों के लिए काम को और कठिन बना दिया। इसके बावजूद भारतेंदु हरिश्चंद्र, बाल गंगाधर तिलक, और महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे दिग्गजों ने हिंदी पत्रकारिता को एक मजबूत आधार प्रदान किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र की पत्रिका कवि वचन सुधाऔर हरिश्चंद्र मैगजीन ने हिंदी साहित्य और पत्रकारिता को एक नई दिशा दी। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिंदी पत्रकारिता ने जनजागरण का महत्वपूर्ण कार्य किया। स्वदेश,कर्मवीर और प्रताप जैसे समाचार पत्रों ने लोगों को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित किया। इस दौरान पत्रकारों को जेल, उत्पीड़न, और आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। फिर भी, हिंदी पत्रकारिता ने अपनी आवाज को दबने नहीं दिया।

स्वतंत्रता के बाद हिंदी पत्रकारिता ने नए आयाम हासिल किए। 1950 और 1960 के दशक में हिंदी समाचार पत्रों और पत्रिकाओं की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई। हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसे प्रकाशनों ने हिंदी पत्रकारिता को लोकप्रिय बनाया। इस दौरान हिंदी पत्रकारिता ने शिक्षा, सामाजिक सुधार, और राष्ट्रीय एकता जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया।

हालांकि, इस दौर में भी हिंदी पत्रकारिता को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। हिंदी भाषी क्षेत्रों में साक्षरता दर कम होने के कारण पाठक वर्ग सीमित था। इसके अलावा, अंग्रेजी पत्रकारिता के मुकाबले हिंदी पत्रकारिता को कम गंभीरता से लिया जाता था। फिर भी, हिंदी पत्रकारिता ने अपनी पहुंच और प्रभाव को बढ़ाने के लिए लगातार प्रयास किए।

आज के दौर में हिंदी पत्रकारिता एक ओर जहां तकनीकी प्रगति और डिजिटल क्रांति के साथ कदमताल कर रही है, वहीं इसे कई नई और पुरानी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।हिंदी पत्रकारिता पर कॉर्पोरेट और विज्ञापनदाताओं का प्रभाव बढ़ रहा है। बड़े मीडिया हाउस विज्ञापन राजस्व पर निर्भर हैं, जिसके कारण कई बार पत्रकारिता की निष्पक्षता प्रभावित होती है। पेड न्यूज और प्रायोजित सामग्री ने पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए हैं। छोटे और स्वतंत्र हिंदी समाचार पत्रों को बड़े मीडिया समूहों के साथ प्रतिस्पर्धा करना मुश्किल हो रहा है, जिसके कारण कई प्रकाशन बंद हो चुके हैं।

डिजिटल युग ने हिंदी पत्रकारिता को नई संभावनाएँ दी हैं, लेकिन इसके साथ ही कई चुनौतियाँ भी सामने आई हैं। सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर फेक न्यूज और मिसइन्फॉर्मेशन का प्रसार एक बड़ी समस्या है। हिंदी समाचार वेबसाइट्स और यूट्यूब चैनल्स की बाढ़ ने गुणवत्तापूर्ण पत्रकारिता को प्रभावित किया है। कई डिजिटल प्लेटफॉर्म सनसनीखेज और भ्रामक खबरों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिससे पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर असर पड़ता है। हिंदी पत्रकारों को अक्सर खतरनाक परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। खोजी पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों को धमकियाँ, हमले, और यहाँ तक कि हत्या का सामना करना पड़ता है। ग्रामीण और छोटे शहरों में काम करने वाले पत्रकारों को स्थानीय नेताओं और अपराधियों से खतरा रहता है। पत्रकारों की सुरक्षा के लिए ठोस कानूनी और सामाजिक ढाँचा अभी भी अपर्याप्त है।

हिंदी पत्रकारिता में प्रशिक्षित और कुशल पत्रकारों की कमी एक बड़ी चुनौती है। कई युवा पत्रकार अंग्रेजी मीडिया की ओर आकर्षित होते हैं, क्योंकि इसे अधिक प्रतिष्ठित और आर्थिक रूप से लाभकारी माना जाता है। इसके अलावा, हिंदी पत्रकारिता में नई तकनीकों और डेटा पत्रकारिता जैसे क्षेत्रों में प्रशिक्षण की कमी है। हिंदी पत्रकारिता को सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर संतुलित दृष्टिकोण अपनाने की चुनौती का सामना करना पड़ता है। जातिगत, धार्मिक, और क्षेत्रीय संवेदनशीलताओं के कारण कई बार पत्रकारों को अपनी बात कहने में सावधानी बरतनी पड़ती है। इसके अलावा, हिंदी पत्रकारिता को अक्सर पिछड़ा या क्षेत्रीय माना जाता है, जो इसकी छवि को प्रभावित करता है। हिंदी भाषा की मानकता और शुद्धता को लेकर भी बहस चलती रहती है। डिजिटल युग में हिंदी में तकनीकी शब्दावली और आधुनिक भाषा का अभाव एक समस्या है। साथ ही, हिंदी पत्रकारिता को अंग्रेजी और अन्य अंतरराष्ट्रीय भाषाओं के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है, जो वैश्विक स्तर पर अधिक स्वीकार्य हैं।

हिंदी पत्रकारिता का भविष्य आशावादी होने के साथ-साथ चुनौतियों से भरा हुआ है। डिजिटल क्रांति और तकनीकी प्रगति ने हिंदी पत्रकारिता के लिए नए अवसर खोले हैं। डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने हिंदी पत्रकारिता को व्यापक दर्शकों तक पहुँचाने में मदद की है। द वायर हिंदी, क्विंट हिंदी, बीबीसी हिंदी और न्यूज़लॉन्ड्री जैसे डिजिटल मीडिया हाउस ने हिंदी पत्रकारिता को एक नया आयाम दिया है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स जैसे ट्विटर, फेसबुक, और यूट्यूब ने हिंदी समाचारों को तेजी से प्रसारित करने में मदद की है। भविष्य में, डिजिटल पत्रकारिता हिंदी भाषी क्षेत्रों में और अधिक लोकप्रिय होगी, क्योंकि इंटरनेट की पहुँच ग्रामीण क्षेत्रों तक बढ़ रही है।

हिंदी पत्रकारिता में खोजी और डेटा पत्रकारिता का विकास एक सकारात्मक संकेत है। डेटा-आधारित पत्रकारिता से न केवल खबरों की विश्वसनीयता बढ़ती है, बल्कि यह जटिल मुद्दों को सरलता से समझाने में भी मदद करती है। भविष्य में, डेटा पत्रकारिता और विश्लेषणात्मक लेखन हिंदी पत्रकारिता का महत्वपूर्ण हिस्सा बन सकते हैं।

हिंदी भाषी क्षेत्रों में स्थानीय और ग्रामीण पत्रकारिता का महत्व बढ़ रहा है। ख़बर लहरिया जैसे स्वतंत्र मीडिया संगठनों ने ग्रामीण भारत की समस्याओं को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर लाने का काम किया है। भविष्य में, स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित पत्रकारिता हिंदी भाषी समुदायों को सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, मशीन लर्निंग, और डेटा एनालिटिक्स जैसे तकनीकी नवाचार हिंदी पत्रकारिता को और अधिक प्रभावी बना सकते हैं। AI आधारित उपकरण समाचारों के अनुवाद, विश्लेषण, और प्रसार में मदद कर सकते हैं। इसके अलावा, पॉडकास्ट और वीडियो सामग्री जैसे नए प्रारूप हिंदी पत्रकारिता को और अधिक आकर्षक बना रहे हैं।

हिंदी पत्रकारिता के भविष्य के लिए पत्रकारों का प्रशिक्षण और शिक्षा महत्वपूर्ण है। पत्रकारिता संस्थानों को हिंदी पत्रकारों के लिए विशेष पाठ्यक्रम शुरू करने चाहिए, जिसमें डिजिटल पत्रकारिता, खोजी पत्रकारिता, और डेटा विश्लेषण जैसे विषय शामिल हों। इससे हिंदी पत्रकारिता में गुणवत्ता और पेशेवरता बढ़ेगी।

हिंदी पत्रकारिता के भविष्य की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह कितनी निष्पक्ष और विश्वसनीय रह पाती है। पाठकों का भरोसा जीतने के लिए हिंदी मीडिया को पेड न्यूज, सनसनीखेज खबरों, और पक्षपात से बचना होगा। स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता ही हिंदी पत्रकारिता को दीर्घकालिक सफलता दिला सकती है। हिंदी पत्रकारिता को अपने मूल्यों निष्पक्षता, विश्वसनीयता, और सामाजिक जिम्मेदारी को बनाए रखते हुए आगे बढ़ना होगा। पत्रकारों, मीडिया संगठनों, और पाठकों को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि हिंदी पत्रकारिता न केवल जीवित रहे, बल्कि समाज के लिए एक सकारात्मक बदलाव का माध्यम बने। यदि हिंदी पत्रकारिता अपनी चुनौतियों का सामना कर पाए और नई संभावनाओं को अपनाए, तो यह निश्चित रूप से भारत के लोकतांत्रिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और स्तम्भकार हैं)

संदीप सृजन

युवाओं की जिंदगी को गर्त में धकेल रही आनलाइन गेमिंग

हाल ही में भारत के माननीय सुप्रीम कोर्ट ने स्टूडेंट्स सुसाइड और गेमिंग ऐप से बर्बादी पर चिंता जताई है और इस पर सख्त लहजा अपनाते हुए यह बात कही है कि ‘विद्यार्थी मर रहे हैं, सरकार कर क्या रही है…? मामले को हल्के में न लें !’ पाठकों को बताता चलूं कि हाल ही में 23 मई 2025 को ही सुप्रीम कोर्ट ने  ऑनलाइन और ऑफलाइन सट्टेबाज़ी ऐप्स को विनियमित करने की मांग वाली एक जनहित याचिका (पीआइएल) पर केंद्र सरकार से जवाब मांगा है। दरअसल,यह कदम युवाओं और बच्चों पर इन ऐप्स के कथित दुष्प्रभाव को लेकर बढ़ती चिंता के बीच उठाया गया है। यह वाकई बहुत ही चिंताजनक है कि आज सट्टेबाज़ी और जुए की लत के कारण विशेष रूप से तेलंगाना में सैकड़ों युवाओं ने आत्महत्या कर ली है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार अकेले तेलंगाना में 1,023 से अधिक लोगों ने आत्महत्या की है। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज बॉलीवुड और टॉलीवुड के 25 से अधिक अभिनेता और सोशल  मीडिया इन्फ्लुएंसर इन ऐप्स का प्रचार कर रहे हैं, जिससे बच्चे इनकी ओर आकर्षित हो रहे हैं। यहां तक कि कुछ पूर्व क्रिकेटर भी इन ऐप्स का प्रचार कर रहे हैं जिससे युवाओं में इसकी लत बढ़ रही है। जानकारी के अनुसार तेलंगाना में इन इन्फ्लुएंसर्स के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई है क्योंकि यह मामला मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। गौरतलब है कि इस पर सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि कानून बनाना हमेशा ऐसे सामाजिक विचलनों को रोकने का उपाय नहीं हो सकता। जस्टिस सूर्यकांत ने टिप्पणी की, ‘सैद्धांतिक रूप से हम आपके साथ हैं कि इसे रोका जाना चाहिए… लेकिन शायद आप इस भ्रांति में हैं कि इसे कानून से रोका जा सकता है। जैसे हम हत्या को पूरी तरह नहीं रोक सकते, वैसे ही सट्टेबाज़ी और जुए को भी नहीं रोका जा सकता।’ इतना ही नहीं, इधर कोटा में आत्महत्याओं पर भी माननीय कोर्ट ने राजस्थान सरकार को फटकार लगाई है। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में दो अलग-अलग मामलों की सुनवाई में गेमिंग ऐप के जरिए सट्टे के कारण युवाओं की बरबादी और कोचिंग व शिक्षण संस्थानों में विद्यार्थियों की आत्महत्या के प्रकरणों पर चिंता और सख्ती दिखाई। पाठक जानते होंगे कि कोटा शिक्षा नगरी के नाम से पूरे देश में विख्यात है और यहां विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से छात्र नीट व इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी करने आते हैं। कोचिंग का हब कहलाने वाले कोटा में पिछले कुछ सालों से छात्र-छात्राओं की आत्महत्याओं की खबरें हर किसी को विचलित करतीं हैं और अब माननीय कोर्ट ने देश में मेडिकल और इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी के लिए कोचिंग हब बने राजस्थान के कोटा में विद्यार्थियों की सुसाइड पर कोर्ट ने राजस्थान सरकार को कड़ी फटकार लगाई है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की बेंच कोटा व खड़गपुर आइआइटी में विद्यार्थियों के सुसाइड मामलों की सुनवाई कर रही थी। सुनवाई के दौरान बेंच कोटा में एक छात्रा के सुसाइड मामले में एफआइआर दर्ज नहीं करने से नाराज दिखी और राजस्थान सरकार के वकील से इस संबंध में तीखे सवाल पूछे। खड़गपुर आइआइटी में छात्र के सुसाइड मामले में माननीय कोर्ट ने यह कहा कि ‘एफआइआर दर्ज करने में चार दिन क्यों लगे? बेंच ने कहा कि कोटा में इसी साल 14 कोचिंग स्टूडेंट सुसाइड कर चुके हैं, सरकार इसे लेकर कर क्या रही है? कोटा में ही विद्यार्थी क्यों मर रहे हैं, क्या सरकार ने इस पर कोई विचार नहीं किया?’ बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि आजकल ऑनलाइन गेमिंग सिर्फ एंटरटेनमेंट का साधन ही नहीं, बल्कि युवाओं में एक गंभीर लत बन चुका है। पाठकों को बताता चलूं कि कई रिपोर्ट्स में यह सामने आया है कि ऑनलाइन गेमिंग की लत के कारण किशोर और युवा मानसिक तनाव में आकर आत्महत्या तक कर रहे हैं।आज आनलाइन का युग है और ऑनलाइन गैंबलिंग में पैसे या पुरस्कार जीतने के लिये खेल और आयोजनों पर दाँव लगाकर इंटरनेट के माध्यम से जुआ गतिविधियों में भाग लेना शामिल है। इसे विभिन्न उपकरणों जैसे कंप्यूटर, एंड्रॉयड मोबाइल फोन, लैपटॉप आदि पर खेला जा सकता है और इसमें नकदी के बजाय वर्चुअल चिप्स या डिजिटल मुद्राएँ शामिल होती हैं। भारत आज विश्व का एक बड़ा देश है और यदि हम यहां आंकड़ों की बात करें तो एक उपलब्ध जानकारी के अनुसार आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और ऑनलाइन गेमिंग वर्ष 2026-27 तक भारत की जीडीपी में 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक जोड़ सकते हैं। यदि हम यहां पर भारत में ऑनलाइन गेमिंग और गैंबलिंग की वैधता की स्थिति की बात करें तो भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची II (राज्य सूची) की प्रविष्टि संख्या 34 के तहत राज्य विधानमंडल को गेमिंग, बेटिंग या सट्टेबाजी और गैंबलिंग या जुए के संबंध में कानून बनाने की विशेष शक्ति दी गई है। भारत में डिजिटल कैसीनो, ऑनलाइन गैंबलिंग एवं गेमिंग की चुनौतियों से निपटने के लिये 

सार्वजनिक जुआ अधिनियम 1867 की स्थापना की गई है लेकिन यह अपर्याप्त कानून है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि शिक्षा मंत्रालय ने 27 सितंबर, 2021 को ऑनलाइन गेमिंग के नुकसानों पर काबू पाने के लिए अभिभावकों और शिक्षकों के लिए एक एडवाइजरी जारी की थी। इसके बाद, शिक्षा मंत्रालय ने 10 दिसंबर, 2021 को बच्चों के सुरक्षित ऑनलाइन गेमिंग पर अभिभावकों और शिक्षकों को भी एक एडवाइजरी जारी की थी। दरअसल, अभिभावकों और शिक्षकों को एडवाइजरी को व्यापक रूप से प्रसारित करने और बच्चों को मानसिक और शारीरिक तनाव से जुड़े सभी ऑनलाइन गेमिंग नुकसानों पर काबू पाने में प्रभावी उपयोग सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कार्रवाई के लिए उन्हें शिक्षित करने की सिफारिश की गई।बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि आज भारत धीरे-धीरे एक डिजिटल क्रांति की ओर अग्रसर हो रहा है। हमारे यहां ऑनलाइन गेमिंग को विनियमित करने के लिए हालांकि कदम उठाए गए हैं लेकिन ऑनलाइन गेमिंग में मजबूत विनियमन की तत्काल आवश्यकता है।ऑनलाइन गेमिंग से जहां एक ओर हमारी युवा पीढ़ी में इसकी लत विकसित हो रही है, वहीं दूसरी ओर यह हमारे युवाओं के मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य को भी गंभीर नुकसान पहुंचा रहा है। बच्चे पढ़ाई से विमुख हो रहे हैं और अनेकों बार वे अतिवादी कदम उठाने को मजबूर हो रहे हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि ऑनलाइन गेमिंग जहां वित्तीय धोखाधड़ी को जन्म दे रहा है वहीं दूसरी ओर यह राष्ट्रीय सुरक्षा जोखिमों को भी कहीं न कहीं जन्म दे रहा है। अतः बहुत अच्छा हो यदि देश में आनलाइन गेमिंग को विनियमित करने के क्रम में और भी अधिक प्रभावी व माकूल कदम उठाए जाएं।

सुनील कुमार महला

विश्वसनीयता के संकट से जूझती हिंदी पत्रकारिता

डॉ घनश्याम बादल

30 मई 1826 को कोलकाता से प्रकाशित हिंदी के पहले समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ के प्रकाशन की ऐतिहासिक शुरुआत को याद करते हुए हर साल 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। 

बेशक, हिंदी पत्रकारिता का इतिहास गौरवशाली है लेकिन आज हिंदी पत्रकारिता की देश में सबसे ज्यादा समाचार पत्रों एवं चैनल होने के बावजूद भी वह जगह नहीं है जो उसे मिलनी चाहिए। 

आज हिंदी पत्रकारिता अनेक संकटों से जूझ रही है। उनमें से कुछ बाह्य संकट हैं तो कुछ उसने खुद पैदा किए हैं। 

    आज हिंदी पत्रकारिता का बड़ा हिस्सा कॉरपोरेट घरानों के अधीन है। इससे स्वतंत्रता प्रभावित हुई है और कमाई व विज्ञापन आधारित अर्थ केंद्रित पत्रकारिता हावी हो गई है। सूचनाओं की विश्वसनीयता में गिरावट आई है. फेक न्यूज़, अफवाहों और आधी-अधूरी खबरों का चलन बढ़ा है।  इंटरनेट, सोशल मीडिया और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म  पारंपरिक पत्रकारिता के समक्ष एक बड़ी चुनौती बनकर खड़े हैं। अच्छे खासे संसाधन होने के बावजूद हिंदी मीडिया शहरी और राजनीति-केंद्रित खबरों पर ज़्यादा आश्रित हो गया है जिससे सामाजिक मुद्दे पीछे छूट रहे हैं। यदि एक नज़र हिंदी के समाचार पत्रों पर डाले तो अधिकांश नकारात्मक खबरों के बल पर ही ज़िंदा हैं । भेदभाव भरी रिपोर्टिंग और कॉपी पेस्ट वाले संपादकीय हिंदी पत्रकारिता का स्तर और भी गिरा रहे हैं .अब क्योंकि संपादक की डेस्क मैनेजमेंट ,मालिकों की जी हुजूरी तक सीमित रह गई है इसलिए हिंदी पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर भी बड़े प्रश्नवाचक चिन्ह लगे हैं । 

     एक समय था जब हिंदी पत्रकारिता में गणेश शंकर विद्यार्थी की परिपाटी वाले पत्रकारों की बड़ी संख्या थी. राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, लाला जगत नारायण, जगदीश किंजल्क जैसे एक से बढ़कर एक प्रखर पत्रकार हिंदी पत्रकारिता ने दिए हैं लेकिन आज ऐसे लोग न के बराबर रह गए हैं। 

    एक युग वह भी था जब हिंदी पत्रकारिता ने जनजागरण का कार्य किया। गणेश शंकर विद्यार्थी, बाल मुकुंद गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी जैसे पत्रकारों का का बोलबाला था जिन्हें सिद्धांतों से डिगाने की हिम्मत न राजनीति में थी ,न पैसे में । संपादक के रूप में उन्हें अखबार के मालिकों तक के आगे झुकना मंज़ूर नहीं था मगर अब वह बात कहां?

संकट अनेक है लेकिन फिर भी कुछ बात तो है हिंदी पत्रकारिता में जो आज भी ‘देश की पत्रकारिता’ के रूप में पहचान रखती है। हिंदी पत्रकारिता ने न केवल आमजन तक सूचनाएं पहुंचाईं अपितु भारत जैसे बहुभाषी देश में हिंदी माध्यम से करोड़ों लोगों को समाचार उपलब्ध कराए जो एक बड़ी उपलब्धि है। इंटरनेट के माध्यम से हिंदी न्यूज़ पोर्टल्स, टीवी चैनल्स और यूट्यूब चैनल्स ने ग्रामीण और दूरस्थ क्षेत्रों तक पहुँच बनाई है। अब हिंदी पत्रकारिता सिर्फ अखबारों तक सीमित नहीं है। राज्यों और जिलों में सशक्त क्षेत्रीय हिंदी पत्रकारिता विकसित हुई है,  एक दौर वह भी था जब ख़बरों की सत्यता और विश्वसनीयता के लिए केवल अंग्रेजी अखबारों को ही मानक माना जाता था लेकिन आज ऐसी बात नहीं है और इससे कहा जा सकता है कि हिंदी पत्रकारिता का भविष्य अंधकारमय तो नहीं ही है। 

       समय के साथ हिंदी में डिजिटल कंटेंट की माँग बढ़ रही है। पोडकास्ट, यूट्यूब चैनल्स और ब्लॉगिंग के माध्यम से नई पीढ़ी हिंदी पत्रकारिता से जुड़ रही है। डेटा जर्नलिज्म और खोजी पत्रकारिता भी अब हिंदी पत्रकारिता का एक अनन्य अंग बन चुका है। भविष्य में तो ख़ैर हिंदी पत्रकारिता में डेटा आधारित रिपोर्टिंग और इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म की अहम भूमिका होगी ही।

    हिंदी पत्रकारिता की एक खास बात इसका लचीलापन भी है. यदि अन्य भारतीय भाषाओं के साथ सहयोग बढ़े तो राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत वैकल्पिक मीडिया मॉडल बन सकता है। भविष्य में “पाठक-समर्थित पत्रकारिता” जैसे मॉडल हिंदी में भी फल-फूल सकते हैं ।

आज हिंदी पत्रकारिता संक्रमण काल से गुजर रही है। एक ओर वह कॉरपोरेट और तकनीकी दबावों से जूझ रही है, वहीं दूसरी ओर डिजिटल युग में उसके सामने नए अवसर भी हैं। यदि हिंदी पत्रकारिता जनहित, निष्पक्षता और विश्वसनीयता को बनाए रख सके, तो उसका भविष्य उज्ज्वल हो सकता है।

    लेकिन आज भी हिंदी पत्रकारिता में कई सुधार जरूरी हैं ताकि वह फिर से जनविश्वास अर्जित कर सके और लोकतंत्र का सशक्त स्तंभ बन सके।

    हिंदी पत्रकारिता की स्वतंत्रता और निष्पक्षता बनाए रखनी है तो पत्रकारों पर राजनीतिक या कॉरपोरेट दबाव नहीं होना चाहिए और दबाव हो भी तो उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। खबरें निष्पक्ष और तथ्यों पर आधारित होनी चाहिए, न कि किसी एजेंडा के अनुसार। फेक न्यूज़ और अफवाहों पर नियंत्रण के लिए फैक्ट-चेकिंग टीमों का गठन हो । आज हर खबर की सत्यता की जांच समय की मांग है। भ्रामक हेडलाइन और ‘क्लिकबेट’ यानी सुर्खियों से शिकार संस्कृति पर भी लगाम कसे जाने की सख़्त जरूरत है। किसानों, आदिवासियों, महिलाओं, मज़दूरों, बेरोजगारी आदि जैसे मुद्दों को प्राथमिकता दी जाएगी तो हिंदी पत्रकारिता अधिक प्रभावशाली होकर सामने आएगी। 

हिंदी पत्रकारिता के उज्जवल भविष्य के लिए अत्यावश्यक है कि क्षेत्रीय पत्रकारों को आर्थिक व कानूनी सुरक्षा प्रदान की जाए, उन्हें डिजिटल टूल्स, डेटा जर्नलिज्म, और एथिकल रिपोर्टिंग का नियमित प्रशिक्षण दिया जाए। अपनी अलग पहचान बनाए रखने के लिए हिंदी पत्रकारिता को भाषा की शुद्धता और उच्च आदर्श व निष्पक्षता का मानक तय करना होगा । भाषा की दृष्टि से भी गुणवत्ता में भारी गिरावट आई है। व्याकरण, शैली और शब्द चयन में  बहुत सुधार आवश्यक है।

      इनके साथ-साथ ‘पेड न्यूज’ के दौर में प्रायोजित समाचार और खबरों के बीच स्पष्ट अंतर दिखना चाहिए और ‘पेड न्यूज़’ की प्रवृत्ति पर सख्त नियंत्रण होना बहुत ज़रूरी है। खबर और विज्ञापन को स्पष्ट रूप से अलग नज़र आना ही चाहिए। 

     अब अखबार केवल हार्ड कॉपी के रूप में नहीं अपितु ई पेपर के रूप में भी फल फूल रहे हैं । ऑनलाइन पत्रकारिता में त्वरित रिपोर्टिंग के दबाव में  अक्सर तथ्यात्मक गलतियाँ होती हैं पर इसे रोकना होगा। सोशल मीडिया पर पत्रकारिता करते समय भी पेशेवर मानकों का पालन आवश्यक है।

      इन सबसे बढ़कर हिंदी पत्रकारिता के दिशा निर्देशकों पाठकों की भागीदारी बढ़ाने की और विशेष ध्यान देना होगा। ओपन कमेंट सेक्शन, फीडबैक कॉलम और जन संवाद के माध्यम से पाठकों की राय को महत्व दिया जाए व जनहित पत्रकारिता को प्राथमिकता मिले तो हिंदी पत्रकारिता सब संकटों से पार पाकर नई ऊंचाइयों पर दिखाई देगी इसमें संदेह नहीं है  मगर संदेह है तो केवल इस बात का कि आज के अर्थप्रधान युग में निरर्थक खबरें, निहितस्वार्थ, राजनीतिक दबाव, मालिकों की मनमानी, कमजोर संकल्प वाले संपादक और बदहाली में जी रहे स्थानीय संवाददाता और उन पर मंडराता माफियाओं के साया क्या ऐसा होने देगा ?

 यदि हिंदी पत्रकारिता को लोकतंत्र का मजबूत स्तंभ बनना है तो उसे अपने सिद्धांतों, भाषा, और ज़िम्मेदारी का पुनः मूल्यांकन करना होगा और तकनीकी, पारदर्शिता और जनसरोकार को प्राथमिकता देकर ही यह विश्वसनीयता प्राप्त की जा सकती है।

डॉ घनश्याम बादल 

सावधान रहना होगा कोरोना के नए वेरियंट्स से

संजय सिन्हा

भारत सहित अन्य देशों में एक बार फिर से कोरोना वायरस संक्रमण का खतरा मंडराने लगा है। स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी हालिया आंकड़ों के अनुसार देश में अब तक कुल 1200 से अधिक कोविड-19 के सक्रिय मामले दर्ज किए जा चुके हैं, जबकि 12 लोगों की मौत की पुष्टि हुई है। एक ओर जहां लंबे समय तक कोरोना के मामलों में गिरावट देखने को मिली थी, वहीं अब नए वेरिएंट्स के साथ यह वायरस एक बार फिर लोगों को चिंता में डाल रहा है। आइये समझते हैं महामारी की वापसी कैसे हुई।

2020 और 2021 में देश ने कोरोना की भयावह लहरों का सामना किया था जिसने लाखों लोगों को प्रभावित किया। टीकाकरण और जनसहभागिता के चलते पिछले कुछ समय से स्थिति नियंत्रण में थी लेकिन अब 2025 में फिर से मामलों में इजाफा देखने को मिल रहा है। भारत में 1200 से अधिक सक्रिय मामले सामने आ चुके हैं और इस बार भी सबसे अधिक असर दक्षिणी राज्यों, विशेषकर केरल, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में देखा जा रहा है। अगर हम राज्यों की स्थिति के बारे में सोचें तोः केरल में 420 से अधिक सक्रिय मामले हैं, तीन मौतें भी हुईं । महाराष्ट्र में 280 केस, दो मौतें। दिल्ली और गुजरात में धीरे-धीरे मामले बढ़ते हुए दिख रहे हैं। नए वेरिएंट्स में जे एन1, एल एफ.7 और एन बी.1.8.1 से खतरा बढ़ा है। वर्तमान में जिन वेरिएंट्स के कारण संक्रमण फैल रहा है, वे हैं जे एन1, एल एफ.7 और एन बी.1.8.1। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि ये वेरिएंट्स पहले के मुकाबले अधिक संक्रामक हैं, हालांकि इनमें से कुछ वेरिएंट गंभीर लक्षण उत्पन्न नहीं करते। विशेषज्ञों की राय है कि येल यूनिवर्सिटी द्वारा हाल में किए गए अध्ययन में यह स्पष्ट हुआ है कि नए वेरिएंट्स तेजी से म्यूटेट हो रहे हैं और यह हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को चकमा दे सकते हैं हालांकि, बूस्टर डोज और अपडेटेड टीकों से इनका प्रभाव काफी हद तक रोका जा सकता है।

गौरतलब है कि नए वेरिएंट्स के लक्षण मुख्यतः समान ही हैं लेकिन कुछ मामलों में हल्के बदलाव देखे जा रहे हैं। अधिकतर मरीजों को हल्के बुखार, गले में खराश, खांसी और बदन दर्द की शिकायत हो रही है। विशेषज्ञ मानते हैं कि लक्षण हल्के हैं परंतु उच्च जोखिम वाले वर्गों (60 वर्ष से ऊपर, पहले से बीमार व्यक्ति) में इसका खतरा अधिक है। सामान्य लक्षणों में गले में खराश, हल्का या तेज बुखार, सिरदर्द, सांस फूलना, बदन दर्द और स्वाद और गंध का जाना (कुछ मामलों में)। मई 2025 की स्थिति को देखते हुए राज्य सरकारें और केंद्र सरकार सतर्क हो चुकी हैं। रेलवे स्टेशनों, एयरपोर्ट्स, बस अड्डों पर फिर से थर्मल स्क्रीनिंग, रैपिड एंटीजन टेस्टिंग, और आर टी पी सी आर टेस्ट को अनिवार्य किया जा रहा है, खासकर उन यात्रियों के लिए जो विदेश या उच्च संक्रमण क्षेत्रों से आ रहे हैं। सरकार के प्रयासों में सभी जिलों में कोविड-हेल्पलाइन नंबर सक्रिय। अस्पतालों में ऑक्सीजन बेड्स की संख्या बढ़ाई गई। स्वास्थ्य कर्मियों को फिर से प्रशिक्षण दिया जा रहा है।

गर हम अस्पतालों की तैयारी के बारे में बात करें तो दूसरी लहर जैसी स्थिति की पुनरावृत्ति नहीं है। मध्यप्रदेश के ग्वालियर स्थित जी आर मेडिकल कॉलेज समेत कई सरकारी अस्पतालों में कोविड वॉर्ड्स को दोबारा सक्रिय किया गया है। इनमें अतिरिक्त ऑक्सीजन सिलेंडर्स, वेंटिलेटर्स और दवाओं का स्टॉक सुनिश्चित किया जा रहा है। इसी प्रकार अस्पताल प्रबंधन में पृथक कोविड वार्डों की स्थापना। बायोमेडिकल कचरे के सुरक्षित निपटान की व्यवस्था। डॉक्टरों और नर्सों की तैनाती में तेजी। याद रहे टीकाकरण अभियान का देश में 2021 से ही आरंभ हो गया था जिसके बाद लाखों लोगों को दोनों डोज़ दी गईं। अब 2025 में यह प्रश्न उठ रहा है कि क्या पहले ली गई वैक्सीन वर्तमान वेरिएंट्स के विरुद्ध प्रभावी है? विशेषज्ञों का उत्तर है— “आंशिक रूप से हां”। येल यूनिवर्सिटी के शोध में यह निष्कर्ष सामने आया है कि बूस्टर डोज या अपडेटेड वैक्सीन इन वेरिएंट्स से रक्षा में सहायक हो सकती हैं। सरकार द्वारा तीसरी और चौथी डोज़ की सिफारिश की जा रही है, विशेष रूप से वरिष्ठ नागरिकों और कमजोर रोग प्रतिरोधक क्षमता वाले लोगों को। अब बात आती है कि क्या लॉकडाउन की फिर से जरूरत पड़ेगी? फिलहाल सरकार ने लॉकडाउन की कोई योजना घोषित नहीं की है परंतु ‘माइक्रो-कंटेनमेंट जोन’ की नीति को फिर से लागू किया जा रहा है। संक्रमण की दर बढ़ने पर प्रभावित इलाकों में सीमित आवागमन, दुकानें बंद करना और स्कूल-कॉलेजों को ऑनलाइन करना संभव है।लोगों से अपील है कि सतर्क रहें, घबराएं नहीं।

स्वास्थ्य मंत्रालय और विशेषज्ञों ने साफ तौर पर कहा है कि यह स्थिति 2021 जैसी नहीं है, लेकिन सावधानी जरूरी है। यदि लोग कोविड अनुरूप व्यवहार अपनाएं, तो तीसरी या चौथी लहर जैसे हालातों से बचा जा सकता है। नागरिकों के लिए दिशा-निर्देशों में मास्क पहनें, विशेष रूप से भीड़भाड़ वाले स्थानों पर। हाथों को नियमित रूप से सैनिटाइज करें। सामाजिक दूरी बनाए रखें।लक्षण दिखने पर घर पर रहें और जांच कराएं।इस दौरान मीडिया और सोशल मीडिया की भूमिका अहम है। अफवाहें और भ्रम की स्थिति से बचने के लिए मीडिया को भी जिम्मेदारी से काम करने की जरूरत है। सोशल मीडिया पर चल रहे भ्रामक वीडियो और फर्जी दावा लोगों में डर फैला सकते हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय के आधिकारिक बुलेटिन और विशेषज्ञों की बातों पर ही विश्वास करें।अंत में कह सकते हैं कि भारत एक विशाल देश है और यहां की जनसंख्या के हिसाब से संक्रमण का खतरा कभी भी अधिक हो सकता है। परंतु अगर जनभागीदारी, सरकारी नीतियों और वैज्ञानिक सलाहों को गंभीरता से लिया जाए, तो इस संकट को बड़े स्तर पर फैलने से रोका जा सकता है। हमें याद रखना चाहिए कि “हम सुरक्षित तभी हैं जब हर कोई सुरक्षित है।”

संजय सिन्हा

प्रकाशन की लागत बढ़ने से गहराया आर्थिक संकट

हिंदी पत्रकारिता :  क्षेत्रीय भाषा और आर्थिक संकट की “छाया”

प्रदीप कुमार वर्मा

भारतीय शासन व्यवस्था में मुख्य रूप से तीन स्तंभ हैं जिनमें कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका शामिल हैं। देश में स्वतंत्र पत्रकारिता के महत्व एवं उपयोगिता को देखते हुए पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। पत्रकारिता हर आम और खास को विभिन्न समाचारों, घटनाओं और मुद्दों से अवगत कराती है। पत्रकारिता को जनमानस को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक के रूप में भी जाना जाता है। पत्रकारिता के इसी महत्व को रेखांकित करने का दिन “हिंदी पत्रकारिता दिवस” है। यह हिंदी पत्रकारिता के गौरवशाली इतिहास को याद करने और इसकी वर्तमान उपलब्धियों का जश्न मनाने का दिन भी है। यह दिवस उन सभी पत्रकारों और लेखकों को याद करने का अवसर है जिन्होंने हिंदी भाषा को गौरव और सम्मान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत में हर साल 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है।

       यह दिन भारत के इतिहास का एक महत्वपूर्ण दिन है, क्योंकि वर्ष 1826 में इसी दिन हिंदी भाषा का पहला समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ प्रकाशित हुआ था। इस प्राचीन समाचार पत्र का प्रकाशन कलकत्ता शहर से पंडित जुगल किशोर शुक्ल द्वारा शुरू किया गया था। यह ऐसा समय था जब भारत में उर्दू, अंग्रेजी, बांग्ला और फारसी भाषा का प्रचार-प्रसार चरम पर था। ऐसे समय में हिंदी भाषी लोगों के सामने साहित्य और पत्रकारिता का संकट पैदा हो रहा था।  तब हिन्दी भाषा के पाठकों को हिंदी समाचार पत्र की आवश्यकता हुई। हिंदी पत्रकारिता की इसी अनिवार्य आवश्यकता के चलते 30 मई 1826 को हिन्दी भाषा का प्रथम समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ प्रकाशित  हुआ था। यह महज एक समाचार पत्र ही नहीं था बल्कि साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में हिंदी के “उत्थान” के लिए किया गया यह एक प्रयोग भी था। 

         इसीलिए इस दिवस को हिन्दी पत्रकारिता दिवस के रूप में मानते हैं। भले ही यह पत्र एक साप्ताहिक के रूप में कलकत्ता से प्रकाशित होना प्रारम्भ हुआ था लेकिन इसने तत्कालीन समय में हिंदी भाषा एवं हिंदी पत्रकारिता को एक संजीवनी प्रदान की थी। उस जमाने मे कलकत्ता में हिन्दी पाठकों की संख्या बहुत कम थी। हिन्दी भाषी स्थानों पर यह डाक से भेजा जाता था, जिससे यह महंगा होता था और इसका खर्च नहीं निकल पाता था। इसके अलावा  उस समय आर्थिक तंत्र कुछ कुलीन लोगों के हाथ में था। जिनका हिंदी से कोई लेना देना नहीं था। यही वजह रही  कि ‘उदन्त मार्तण्ड’ को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा। उस समय जुगल किशोर शुक्ल ने सरकार से अखबार को हिंदी पाठ उत्तर पहुंचने के लिए डाक खर्च में कुछ रियायत देने का अनुरोध भी ब्रिटिश सरकार से किया लेकिन तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने हिंदी भाषा के चलते इस अनुरोध को नकार दिया। 

            यही वजह रही  कि मात्र कुछ ही महीनों के बाद आर्थिक तंगी के कारण 19 दिसंबर 1826 को इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा। इसके मात्र 79 अंक ही निकले थे  लेकिन करीब करीब दो सौ साल के लंबे सफर के बावजूद आज भी हिंदी पत्रकारिता पर संकट के बादल छाए हैं। संकट के यह बादल भाषाई पत्रकारिता में आए उछाल, सोशल मीडिया के बढ़ते दखल तथा अखबारों के प्रकाशन में बड़े खर्च और लागत को लेकर है। बदले समय में अब अखबारों को विज्ञापन कम मिल रहे हैं। इसके साथ ही कागज और छपाई के खर्चे बढ़ गए हैं। जिसके चलते अखबार मालिकों को अखबारों की रेट भी बढ़ानी पड़ी है। हालात ऐसे हैं कि आज के समय में कोई भी राष्ट्रीय अथवा प्रादेशिक समाचार पत्र 5 रुपये की कीमत से कम नहीं है और यह है कीमत कई अखबारों के मामले में 10 से 15 रुपए तक भी है। क्षेत्रीय भाषाओं के बढ़ते प्रभाव के चलते कुछ बड़े मीडिया घरानों ने देश के विभिन्न राज्यों में भाषा के आधार पर अपने क्षेत्रीय प्रकाशन भी शुरू कर दिए हैं  जिसकी वजह से भी आज के दौर में हिंदी पत्रकारिता को चुनौती मिल रही है।

अखबारों को मिल रही सरकारी मदद के बारे में गौर करें,तो आज भी आशा के अनुरूप सरकारी मदद का इंतजार अखबारों को है। देश में  केंद्रीय विज्ञापन एजेंसी डीएवीपी और राज्यों के सूचना एवं जनसंपर्क निदेशालयों की ओर से भी विज्ञापन जारी करने की संख्या में कमी आई है। जिसके चलते विज्ञापनों के रूप में अपेक्षित सरकारी मदद अखबारों को नहीं मिल पा रही है। इसके साथ ही सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों से मिलने वाले विज्ञापनों पर एक मोटा कमीशन विज्ञापन एजेंसी को देना पड़ता है और इसका असर भी अखबारों की आर्थिक स्थिति पर पड़ रहा है। इसके अलावा लगभग हर राजनीतिक एवं जनप्रतिनिधियों, सामाजिक एवं व्यापारिक संस्थाओं ने भी अपने “प्रचार-प्रसार” का माध्यम सोशल मीडिया को बना लिया है।

         इसके चलते कम से कम विज्ञापन के मामले में उन्हें अखबारों की आवश्यकता ना के बराबर रह गई है। आज हिंदी पत्रकारिता दिवस के मौके पर इस बात पर भी चिंतन और मनन किया जाना जरूरी है कि हिंदी पत्रकारिता को कैसे न केवल जिंदा रखना जाए, बल्कि उसका पोषण और संवर्धन भी किया जाए? इस दिशा में जनता जनार्दन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है और आज लोगों को यह संकल्प लेना होगा कि वह हिंदी समाचार पत्रों को पहले की तरह अपना प्रेम और आशीर्वाद देंगे। इसके साथ ही केंद्र एवं राज्य सरकारों को भी अखबारों को आर्थिक संकट से उबारने के लिए कोई विशेष नीति बनानी होगी। यह नीति सजावटी विज्ञापनों की संख्या में बढ़ोतरी के साथ-साथ रियायती दर पर अखबारों के प्रकाशन संस्थानों के लिए बिजली एवं पानी  तथा अन्य प्रकार के पैकेज दिए जा सकते हैं। जिससे वर्तमान दौर के साथ-साथ आने वाले समय में हिंदी पत्रकारिता को “संजीवनी” मिल सके और हिंदी पत्रकारिता को भाषायी और आर्थिक संकट की “छाया” से उबारा जा सके।

 प्रदीप कुमार वर्मा

सुप्रीम कोर्ट -किशोरों के बीच सहमति के संबंधों में पोक्सो एक्ट के तहत जेल क्यों?

रामस्वरूप रावतसरे

सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रकरण की सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार से कहा है कि किशोरों के बीच सहमति से बनने वाले प्रेम-संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने और देश में यौन व प्रजनन स्वास्थ्य शिक्षा (सेक्स एजुकेशन) की नीति बनाने पर विचार करना चाहिए। ऐसा इसलिए ताकि किशोरों को प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंसेज (पोक्सो) एक्ट के तहत जेल न जाना पड़े। एक मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने सरकार को इस मुद्दे पर एक विशेषज्ञ समिति बनाने और 25 जुलाई 2025 तक रिपोर्ट देने को कहा। कोर्ट ने यह भी कहा कि वह इस रिपोर्ट के आधार पर आगे के निर्देश देगा।

यह पूरा मामला पश्चिम बंगाल की एक महिला की कानूनी लड़ाई से शुरू हुआ। इस महिला के पति को पोक्सो एक्ट के तहत 20 साल की जेल हुई थी क्योंकि जब वह 14 साल की थीं, तब उनके बीच सहमति से रिश्ता था। महिला अपने पति को बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुँची। इस मामले को देखते हुए कोर्ट ने दो वरिष्ठ महिला वकीलों, माधवी दीवान और लिज मैथ्यू, को इस संवेदनशील मुद्दे पर सलाह देने के लिए नियुक्त किया। इन वकीलों ने कहा कि पोक्सो एक्ट का मकसद बच्चों को यौन शोषण से बचाना है लेकिन किशोरों के बीच सहमति वाले रिश्तों में इसका सख्ती से लागू करना कई बार गलत नतीजे देता है। इससे न सिर्फ किशोरों को, बल्कि उनके परिवारों को भी नुकसान होता है।

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में पहले तो पति की सजा बरकरार रखी थी लेकिन सजा के अमल पर रोक लगाकर एक कमेटी का गठन कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट की ‘न्यायमित्र’ कमेटी ने कुछ महत्वपूर्ण तथ्य सामने रखे जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने महिला के पति की सजा खत्म कर दी। इस फैसले के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने बेहद लचीला रुख अपनाया। सुप्रीम कोर्ट ने महिला के संघर्षों, उसके भविष्य, दोनों के बच्चे और उनके साथ रहने को भी अपने फैसले में शामिल किया। इस मामले के बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से इस अहम मुद्दे पर सोच विचार करने के लिए कहा है।

जानकारी के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि पोक्सो एक्ट के तहत 18 साल से कम उम्र के किशोरों के बीच सहमति से बने रिश्तों को अपराध न माना जाए। कोर्ट ने सरकार से कहा कि वह इस मुद्दे की जाँच के लिए एक विशेषज्ञ समिति बनाए। इस समिति में महिला और बाल विकास मंत्रालय के सचिव, वरिष्ठ सरकारी अधिकारी और कुछ विशेषज्ञ शामिल हों। कोर्ट ने यह भी कहा कि समिति में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टीआईएसएस) की डॉ. पेखम बसु, क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट जयिता साहा, और दक्षिण 24 परगना के जिला सामाजिक कल्याण अधिकारी संजीब रक्षित को स्थायी सदस्य के तौर पर शामिल किया जाए। समिति को इस मुद्दे पर विचार करके 25 जुलाई 2025 तक अपनी रिपोर्ट देनी होगी।

कोर्ट ने यूनेस्को की एक रिपोर्ट का हवाला दिया, जिसमें कहा गया कि भारत में यौन शिक्षा सिर्फ सेकेंडरी स्कूलों में दी जाती है, और वह भी बहुत सीमित तरीके से। कोर्ट का कहना है कि अगर किशोरों को सही समय पर यौन और प्रजनन स्वास्थ्य की जानकारी दी जाए तो वे अपने फैसलों के कानूनी और सामाजिक परिणामों को बेहतर समझ सकेंगे। कोर्ट ने सरकार से कहा कि वह इस दिशा में एक ठोस नीति बनाए। इस दरम्यान सुप्रीम कोर्ट ने कई हाई कोर्ट्स के फैसलों का जिक्र किया, जो इस मुद्दे पर पहले ही संवेदनशील रुख अपना चुके हैं। कोर्ट ने खास तौर पर दिल्ली, मद्रास और कलकत्ता हाई कोर्ट के फैसलों का उल्लेख किया है।

मद्रास हाई कोर्ट ने कई मामलों में कहा कि पोक्सो एक्ट का मकसद सहमति वाले रिश्तों को अपराध बनाना नहीं था। कोर्ट ने यह भी माना कि सहमति वाले रिश्तों में ‘पेनेट्रेटिव सेक्सुअल असॉल्ट’ की परिभाषा लागू नहीं होनी चाहिए क्योंकि इसमें ‘हमला’ जैसी कोई बात नहीं होती। 2001 में भी मद्रास हाई कोर्ट ने सुझाव दिया था कि ऐसे रिश्तों को सजा से बचाने के लिए कानून में बदलाव करना चाहिए।

कलकत्ता हाई कोर्ट के अनुसार पोक्सो एक्ट में ‘पेनेट्रेशन’ को एकतरफा हरकत माना गया है यानी इसे सिर्फ आरोपित की हरकत माना जाता है लेकिन सहमति वाले रिश्तों में यह जिम्मेदारी सिर्फ एक पक्ष पर नहीं डाली जा सकती।

दिल्ली हाई कोर्ट ने फरवरी 2024 में एक लड़के को राहत देते हुए उसके खिलाफ पोक्सो का मामला रद्द कर दिया। कोर्ट ने कहा कि कानून का मकसद शोषण और दुरुपयोग को रोकना है, न कि प्रेम को सजा देना। कोर्ट ने यह भी कहा कि प्रेम एक बुनियादी मानवीय अनुभव है और किशोरों को भी सहमति से भावनात्मक रिश्ते बनाने का हक है बशर्ते उसमें कोई दबाव या शोषण न हो। उच्च न्यायालयों ने यह भी माना कि अगर ऐसे मामलों में कानूनी कार्रवाई की जाए, तो इससे पीड़ित (लड़की) और उसके परिवार को भी नुकसान हो सकता है। कई बार ऐसे मामलों को रद्द किया, जहाँ आगे कार्रवाई करना पीड़ित के लिए ही हानिकारक था।

दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने बीते साल एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि ज्यादातर लोग इस बात से अनजान हैं कि सहमति की उम्र (एज ऑफ कंसेंट) को 2012 में 16 साल से बढ़ाकर 18 साल कर दिया गया है। इस अनजानपन की वजह से कई किशोर अनजाने में कानून तोड़ रहे हैं। पोक्सो एक्ट के तहत अगर कोई 18 साल से कम उम्र के व्यक्ति से यौन संबंध बनाता है तो उसे अपराध माना जाता है, भले ही वह सहमति से हो। इसके अलावा कोर्ट ने माना कि किशोरावस्था में हार्मानल और जैविक बदलावों की वजह से लड़के-लड़कियाँ रिश्तों की ओर आकर्षित होते हैं। ऐसे में उन्हें सजा देने के बजाय, उनके माता-पिता और समाज को उनका समर्थन और मार्गदर्शन करना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि किशोरों के फैसलों को बड़ों के नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि इससे उनके प्रति सहानुभूति की कमी हो सकती है।

सुप्रीम कोर्ट की सलाह से साफ है कि पोक्सो एक्ट और यौन शिक्षा को लेकर कुछ बदलाव जरूरी हैं। जैसे सहमति वाले रिश्तों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के लिए पोक्सो एक्ट में बदलाव की जरूरत है। खासकर 16-18 साल के किशोरों के मामले में कानून को और संवेदनशील करना होगा। स्कूलों में यौन और प्रजनन स्वास्थ्य शिक्षा को अनिवार्य करना चाहिए। इससे किशोरों को अपने शरीर, रिश्तों, और कानूनी सीमाओं की सही जानकारी मिलेगी। समाज को किशोरों के रिश्तों को अपराध की तरह देखने के बजाय, उन्हें समझने और समर्थन देने की जरूरत है।

सुप्रीम कोर्ट की यह सलाह किशोरों के हितों को ध्यान में रखते हुए एक बड़ा कदम बताया जा रहा है। पोक्सो एक्ट जरूरी है लेकिन इसका गलत इस्तेमाल किशोरों और उनके परिवारों को नुकसान पहुँचा सकता है। सहमति वाले रिश्तों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने और यौन शिक्षा की नीति बनाने से न सिर्फ किशोरों को सही दिशा मिलेगी, बल्कि समाज में यौन शोषण के खिलाफ लड़ाई भी मजबूत होगी।

 जानकारों के अनुसार सुप्रीम कोर्ट की सलाह को देखें तो ये पश्चिमी देशों की व्यवस्थाओं, सामाजिक बुनियादों, स्वच्छंदता, अपराधिक माइंडसेट जैसे नजरियों को ध्यान में रख रहा है। माननीय सुप्रीम कोर्ट को इन मुद्दों पर भारत की व्यापकता को देखना होगा क्योंकि पश्चिमी समाजों में जो नियम चल सकते हैं, वे भारत में भारी नुकसान पहुँचा सकते हैं। भारत में पहले से ही जबरन बाल विवाह, नाबालिग लड़कियों की निकाह, शादी के नाम पर मानव तस्करी और धर्म परिवर्तन के लिए ग्रूमिंग जैसी गंभीर समस्याएँ हैं। अगर किशोरों के बीच सहमति वाले यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया तो ये एक कानूनी खामी बन सकती है जिसका गलत लोग फायदा उठा सकते हैं।

पोक्सो एक्ट का मकसद प्रेम को रोकना नहीं है लेकिन इसे इसलिए भी बनाया गया था ताकि बड़े लोग नाबालिग लड़कियों के साथ ‘किशोर प्रेम’ के नाम पर शादी या रिश्ते बनाकर उनका शोषण न करें। कई बार निकाह का रास्ता अपनाकर पोक्सो एक्ट से बचा जाता है। उदाहरण के लिए, जून 2022 में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने शरिया का हवाला देकर कहा था कि 16 साल की मुस्लिम लड़की निकाह के लिए योग्य है। क्या ऐसी नरमी तस्करों और शोषण करने वालों को और हिम्मत नहीं देगी जो पहले से ही सिस्टम का गलत इस्तेमाल कर रहे हैं?

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के पूर्व चेयरमैन प्रियंक कानूनगो ने इस मुद्दे कहा है कि नाबालिग अपनी सरकार नहीं चुन सकते, उन्हें वोट देने का अधिकार भी नहीं है। क्या हम उनसे यह उम्मीद कर रहे हैं कि वे अपने यौन साथी को समझदारी से चुनें? सावधान रहें, इससे नाबालिग लड़कियों के साथ निकाह और बाल विवाह के अन्य रूपों को वैधता मिल सकती है। दरअसल, यह सिर्फ कानूनी भाषा का मामला नहीं है बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक जटिलताओं का भी सवाल है। अगर 14 या 15 साल की उम्र के बच्चों के बीच सहमति वाले रिश्तों को कानूनन मंजूरी दे दी गई तो प्रेम और शोषण के बीच की रेखा और धुँधली हो जाएगी। सहमति की जाँच कौन करेगा? गरीब और हाशिए पर रहने वाली लड़की, जो 14-15 साल की है, क्या वाकई में दबाव या लालच को ‘प्रेम’ समझने की गलती से बच पाएगी?

सुप्रीम कोर्ट का इरादा भले ही अच्छा हो, लेकिन भारत जैसे देश में ऐसी सलाह को बहुत सावधानी से लागू करना होगा। पश्चिमी देशों का नजरिया यहाँ काम नहीं करेगा। अगर सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भ को ध्यान में नहीं रखा गया, तो ये फैसले प्रेम को बचाने की बजाय शोषण को वैध कर सकते है जिसकी संभावना भी अधिक हैं। कानून की थोड़ी सी खामी समाज को गर्त में ले जा सकती है। इसलिए न्यायालय , सरकार और समाज को मिलकर एक ऐसा रास्ता निकालना होगा, जो किशोरों के हितों की रक्षा करे लेकिन साथ ही ’’हितों’’ का संरक्षण शोषण करने वालों को भी कोई किसी प्रकार का मौका न दे।

रामस्वरूप रावतसरे

आखिरकार बंगलादेश की कमजोर नसों को कब दबाएगा भारत?

कमलेश पांडेय

कभी ‘ग्रेटर बंगलादेश’ का स्वप्न संजोने वाले नोबेल पुरस्कार विजेता और बंगलादेश के कार्यवाहक सरकार के मुखिया मोहम्मद यूनुस अब अपने ही देश में ऐसे घिरे हैं कि जब उन्हें आगे का कोई रास्ता नजर नहीं आया तो फिर अपने जन्मदाता भारत पर ही अनर्गल लांछन लगाने लगे। वह अमेरिका, चीन, पाकिस्तान की गोद में खेलें, कोई बात नहीं लेकिन भारत और हिंदुओं से खेलेंगे तो अगले ऑपरेशन सिंदूर के लिए तैयार रहें। याद रखें, तब कोई बाप बचाने नहीं आएगा। हाल ही का पाकिस्तानी मंजर देख लें, अंजाम समझ लें और हो सके तो भारत के पड़ोस में बचकानी हरकत बंद कर दें।

बता दें कि अपनी पिछली चीन यात्रा के दौरान ही उन्होंने बढ़ चढ़ कर “भारत के चिकेन नेक” पर काबिज होने, पश्चिम बंगाल-उत्तर-पूर्व बिहार और उत्तर-पूर्व के सात बहन राज्यों को मिलाकर ग्रेटर बंगलादेश बनाने और नार्थ-ईस्ट राज्यों को लैंड लॉक्ड बताकर इलाकाई समुद्र का बेताज बादशाह होने का जो दिवास्वप्न उन्होंने देखा है, उसके मुताल्लिक भारत भी उन्हें दिन में ही तारे दिखाने की रणनीति बना चुका है। अब वो आगे बढ़ेंगे तो पीछे से भारत भी एक बार फिर बंगलादेश का अंग भंग कर देगा क्योंकि कभी पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान का अंग भंग करवाकर भारत ने ही जिस बंगलादेश का निर्माण करवाया था, आज वही बांग्लादेश जब भारत को आंखें दिखाएगा तो अपने अंजाम को भी भुगतने को तैयार रहेगा। 

इस बात में कोई दो राय नहीं कि वहां की शेख हसीना सरकार के तख्तापलट के बाद महज 6 माह में ही परवर्ती कार्यवाहक सरकार के मुखिया मोहम्मद यूनुस की अगुवाई में बंगलादेश भारत विरोधी चीनी, पाकिस्तानी और अमेरिकी अखाड़े का अड्डा बन चुका है जो उसके लिए शर्म की बात होनी चाहिए। यही वजह है कि इस विफल सरकार के खिलाफ अब वहां भी विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, जिससे देश में अस्थिरता बढ़ रही है। ऐसे में यूनुस ने अपना सारा दोष भारत पर मढ दिया है हालांकि भारत के पास उन्हें जवाब देने के लिए ऐसे-ऐसे विकल्प मौजूद हैं जिससे उनके होश उड़ सकते हैं।


स्थानीय मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, बांग्लादेश एक बार फिर से उबल रहा है, जिससे मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार अस्थिरता के बवंडर की ओर निरंतर बढ़ रही है। उनकी सेना से ही उनकी ऊटपटांग नीतियों का विरोध हो रहा है जबकि उनकी सरकार के खिलाफ जनता द्वारा भी अविलंब चुनाव की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। इससे मुल्क में तनाव का आलम व्याप्त हो चुका है। चूंकि

इस विरोध प्रदर्शन में सरकारी कर्मचारी भी शामिल हो चुके हैं। इसलिए अपनी उल्टी गिनती शुरू होते देख मोहम्मद यूनुस अपनी नाकामियों को बिना नाम लिए भारत पर थोपने की कोशिश कर रहे हैं। वहां उनकी लापरवाही और अदूरदर्शिता से अब जो कुछ भी हो रहा है, उसके लिए ‘विदेशी साजिश’ को जिम्मेदार बता रहे हैं। 

हकीकत ये है कि उन्हें सिर्फ चुनाव करवाने तक के लिए सरकार चलाने भर की जिम्मेदारी मिली है लेकिन जानकार बताते हैं कि वह चुनाव छोड़कर बाकी हर तरह के हथकंडे अपनाने में लगे हैं। बांग्लादेश की विदेश नीति, उसका संविधान, उसका इतिहास और यहां तक कि उसके जन्म की मूल अवधारणा तक को नकारने के लिए वो आत्मघाती दांव लगा रहे हैं। यही वजह है कि आज बांग्लादेशी फौज भी उनके विरोध में खड़ी हुई है। 

ऐसे में यह कहना गलत न होगा कि मोहम्मद यूनुस जब से बांग्लादेश की सत्ता में आए हैं, भारत के चीन और पाकिस्तान जैसे दुश्मनों के साथ झूम-झूम कर नाचने-गाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन उन्हें चीन के दम पर भारत के जिस भारत के चिकन नेक कॉरिडोर (सिलीगुड़ी कॉरिडोर) को दबा पाने की गलतफहमी हो गई है, ग्रेटर बंगलादेश बनवाने में विदेशियों व भारत के मुसलमानों के साथ मिलने का भ्रम हो चुका है और लैंड लॉक्ड नार्थ ईस्ट के चलते समुद्र का बेताज बादशाह होने के जो सपने उन्होंने चीन को दिखाए हैं, तब उन्हें शायद यह अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि भारत के रणनीतिकार उनके साथ और उनके हमदम चीन-पाकिस्तान-म्यांमार के साथ क्या क्या कर सकता है।


शायद मोहम्मद यूनुस शायद यह भूल चुके हैं कि बांग्लादेश की पैदाइश ही कुशल भारतीय विदेश नीति की सफल देन रही है जिसे तब अमेरिका व चीन नहीं रोक पाए थे। यह भारत की वीरता है जो युद्ध के मैदान में भारी पड़ती है। ऐसे में जब वो अपने जन्मदाता की संप्रभुता और अखंडता को ही चुनौती देने लगेंगे तो भारत को भी देर-सबेर अपने सटीक विकल्प तलाशने पड़ेंगे। यदि भारत के राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के एक हालिया साक्षात्कार को देखें तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि नागपुर मुख्यालय से भी मोदी सरकार को उसी तरफ इशारा किया गया है। 

मसलन, संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर और पांचजन्य में गत रविवार को छपे उनके एक इंटरव्यू के मुताबिक उन्होंने भारत के पड़ोस में ‘बुराई को खत्म’ करने के लिए शक्ति का इस्तेमाल करने की बात कही है, वह अब हमारी विदेश नीति का महत्वपूर्ण ध्येय बनने जा रहा है। उनके अनुसार जिन कुछ देशों में हिंदुओं पर अत्याचार हो रहा है, वहां पर हिंदू समाज की ताकत का इस्तेमाल उनकी रक्षा के लिए किया जाना चाहिए।

बता दें कि पहलगाम आतंकी हमले और ऑपरेशन सिंदूर के मुद्दे पर अपने विचार रखते हुए संघ के सर संघचालक ने ठीक ही कहा है कि, ”हमारी ताकत अच्छे लोगों की रक्षा और बुरे लोगों को नष्ट करने के लिए होनी चाहिए। जब कोई और चारा नहीं होता तो बुराई को जबरदस्ती खत्म करना पड़ता है, इसलिए, हमारे पास शक्तिशाली बनने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है क्योंकि हम अपनी सीमाओं पर बुरी ताकतों की बुराई देख रहे हैं।”


हमारा तात्पर्य यह है कि शायद जो बात मोहन भागवत ने खुलकर नहीं कहा, उसे असम के मुख्यमंत्री और पूर्वोत्तर के दिग्गज बीजेपी नेता हिमंत बिस्वा सरमा ने अधिक विस्तार से बताने की कोशिश की है जो सराहनीय है। कुछ दिन पहले भी उन्होंने मोहम्मद यूनुस के भारत के चिकन नेक कॉरिडोर पर उनकी गलत नजर पर पलटवार करते हुए बांग्लादेश के पास भी दो चिकन नेक होने की जो बात कही थी, उससे बंगलादेश व उसके हमदमों का तिलमिलाना स्वाभाविक है। 

गौरतलब है कि उन्होंने गत 25 मई रविवार को एक एक्स (X) पोस्ट डाला है, जिसमें उन्होंने दो टूक लिखा है कि ‘जिन्हें भारत को चिकन नेक कॉरिडोर पर धमकाने की आदत पड़ चुकी है, उन्हें तीन तथ्यों को ध्यान से नोट कर लेना चाहिए।’ पहला, बांग्लादेश के पास अपने दो ‘चिकन नेक’ हैं और दोनों भारत से कहीं ज्यादा असुरक्षित हैं।

पहला है 80 किमी लंबा उत्तर बांग्लादेश कॉरिडोर जो दक्षिण दिनाजपुर से दक्षिण पश्चिम गारो हिल्स (मेघालय) तक जाता है। अगर यहां कोई रुकावट आती है, तो पूरा रंगपुर डिवीजन बांग्लादेश से कट सकता है । मतलब, रंगपुर का बाकी बांग्लादेश से संपर्क टूट जाएगा।

दूसरा है 28 किमी का चटगांव कॉरिडोर, जो साउथ त्रिपुरा से बंगाल की खाड़ी तक जाता है। यह कॉरिडोर भारत के ‘चिकन नेक’ से भी छोटा है पर यह बांग्लादेश की आर्थिक राजधानी और राजनीतिक राजधानी को जोड़ने वाला एकमात्र रास्ता है।

इससे साफ है कि बांग्लादेश के मौजूदा हालात, मोहम्मद यूनुस की ओर से सत्ता में बने रहने के लिए चलाए जा रहे खौफनाक एजेंडा की गवाही दे रहे हैं और भारत में अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिए जो तल्ख विचार सामने आ रहे हैं, उससे भारतीयों को यह आस्वस्ति मिल रही है कि हमारा जवाब बहुत करारा होगा क्योंकि रंगपुर में चिकन नेक कॉरिडोर काटने का मतलब है कि भारत का सिलीगुड़ी कॉरिडोर बहुत ही विशाल हो जाएगा। कहने का तात्पर्य यह कि अभी जो लगभग 22 किलोमीटर की चौड़ी पट्टी है और जिसपर यूनुस और भारत के दुश्मनों की नजर लगी हुई है, वह अप्रत्याशित रूप से इतनी चौड़ी हो सकती है कि मतलब, पूर्वोत्तर की बहुत बड़ी समस्या एक ही झटके में खत्म हो सकती है।

वहीं, अगर हम त्रिपुरा के कुछ किलोमीटर तक नीच चले जाएं यानी चटगांव कॉरिडोर को भारत में मिला लें तो पूरे पूर्वोत्तर को जोड़ने वाला भारत का अपना समुद्र यहां भी हो जाएगा। देखा जाए तो यह सामरिक और आर्थिक रूप से बहुत ही फायदे का सौदा साबित होगा क्योंकि भविष्य में मोहम्मद यूनुस की तरह के विचार वाले बांग्लादेश के किसी अन्य शासक की भी आए दिन की होने वाली नौटंकी भी हमेशा के लिए खत्म की जा सकती है।


इसके अलावा, हमें यह भी पता होना चाहिए कि बांग्लादेश के चटगांव से नीचे ही म्यांमार का रखाइन इलाका है जहां पर रोहिंग्या मुसलमानों की गम्भीर समस्या है। इसका मतलब यह हुआ कि बांग्लादेश से चटगांव के कटते ही रोहिंग्या मुस्लिम समस्या खत्म हो सकती है क्योंकि तब भारत इस इलाके को रोहिंग्या मुसलमानों को सौंप सकता है और भारत में जो रोहिंग्या घुसपैठिए आ गए हैं और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं, उन्हें यहां पर स्थायी रूप से भेजा जा सकता है क्योंकि यह उनका मूल इलाका है, जहां जाकर बसना उनके लिए भी आसान हो सकता है।


इसके अलावा, म्यांमार के रखाइन से ही थोड़ा उत्तर-पूर्व में उसका चिन इलाका है जो पहाड़ी क्षेत्र है और ईसाई (क्रिश्चियन) बहुल इलाका है, जो म्यांमार से अलग होना चाहता है। यह पहले से ही मिजोरम में मिलाए जाने की मांग कर रहे हैं। ऐसे में यदि भारत ने इस पूरे इलाके पर दबदबा कायम कर लिया तो पूर्वोत्तर की कई उग्रवादी समस्याओं का हल निकालना भी आसान हो सकता है क्योंकि विदेश की यह धरती अभी उग्रवादियों के लिए नर्सरी का काम करती है, जिसे नियंत्रित करना और खत्म करना भारत के हित में है।


इस बात में कोई दो राय नहीं कि 1971 में भारत, बांग्लादेश को पाकिस्तान से अलग करवाकर एक स्वतंत्र मुल्क के रूप में जन्म दे चुका है। इसलिए ऊपर जो चार विकल्प दिए गए हैं, वह इसके लिए असंभव भी नहीं है क्योंकि मोहम्मद यूनुस के कार्यकाल में जिस तरह से बांग्लादेश फिर से पाकिस्तान की ओर झुक गया है और वहां पर आईएसआई की गतिविधियां बढ़ गई हैं, उसके दृष्टिगत भारत के लिए इस वास्तविकता को ज्यादा लंबे समय तक टालना आसान नहीं है। इसलिए भारत अपने भविष्य को महफूज रखने की नीति अपनाए तो क्षुद्र पड़ोसियों को खण्ड-खंड करके कमजोर कर दे। पाकिस्तान-बंगलादेश इसी के पात्र हैं और भारत को दृढ़तापूर्वक अपनी कार्रवाई व रणनीति को अंजाम देना चाहिए।

कमलेश पांडेय

हिन्दी पत्रकारिता को व्यवसाय नहीं, मिशन बनाना होगा

0

हिन्दी पत्रकारिता दिवस- 30 मई, 2025
– ललित गर्ग –

भारत में हिन्दी पत्रकारिता की न केवल आजादी के संघर्ष में बल्कि उससे पूर्व के गुलामी की बेड़ियों में जकड़े राष्ट्र की संकटपूर्ण स्थितियों में महत्वपूर्ण भूमिका रही है, नये बनते भारत में यह भूमिका अधिक महसूस की जा रही है, क्योंकि तब से आज तक समाज की आवाज़ उठाने, सत्ता से सवाल पूछने और जनभावनाओं को मंच देने में इसका योगदान अविस्मरणीय रहा है। हिंदी पत्रकारिता या स्थानीय पत्रकारिता, लोगों को उनकी भाषा में जानकारी उन तक पहुँचाता है और देश भर में ज्ञान के व्यापक प्रसार को सुगम बनाता है। हर साल 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है, दरअसल दो शताब्दी पूर्व ब्रिटिशकालीन भारत में जब तत्कालीन हिन्दुस्तान में दूर दूर तक मात्र अंग्रेजी, फ़ारसी, उर्दू एवं बांग्ला भाषा में अखबार छपते थे, तब देश की राजधानी “कलकत्ता” से हिन्दी भाषा में ‘उदन्त मार्तण्ड’ के नाम से पहला हिन्दी समाचार पत्र वर्ष 1826 को छपा था। पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने इसे साप्ताहिक के तौर पर शुरू किया था। इसके प्रकाशक और संपादक भी वे खुद थे। भले ही अब यह समाचार पत्र बंद हो गया है, लेकिन इसने हिंदी पत्रकारिता के सूर्य को उदित कर दिया था जो आज भी देदीप्यमान है।
उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में हिंदी के अनेक दैनिक समाचार पत्र निकले जिनमें हिन्दुस्तान, भारतोदय, भारतमित्र, भारत जीवन, अभ्युदय, विश्वमित्र, आज, प्रताप, विजय, वीर अर्जुन आदि प्रमुख हैं। बीसवीं शताब्दी के चौथे-पांचवें दशकों में अमर उजाला, आर्यावर्त, नवभारत टाइम्स, नई दुनिया, जागरण, पंजाब केसरी, नव भारत आदि प्रमुख हिंदी दैनिक समाचार पत्र सामने आए। लोकतंत्र में मीडिया चौथे स्तंभ के रूप में खड़ा है, पत्रकारिता एक ऐसा माध्यम है जिसके माध्यम से हम देश की वर्तमान स्थिति से अवगत रहते हैं। पत्रकार अथक परिश्रम करते हैं, ताकि समाचार हमारे घर तक तुरंत पहुंचे। चाहे अखबारों के जरिए हो, टीवी चैनलों के जरिए हो या सोशल मीडिया के व्यापक प्रभाव के जरिए, नित-नये बनते एवं बदलते समाज में पत्रकारिता की शक्ति को कम करके नहीं आंका जा सकता। यह हमारे दृष्टिकोण को व्यापक बनाने और सूचित संवाद को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
हिन्दी पत्रकारिता में क्रांतिकारिता का रंग गणेश शंकर विद्यार्थी ने भरा था। उन्होंने उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर से 9 नवंबर 1913 को 16 पृष्ठ का ‘प्रताप’ समाचार पत्र शुरू किया था। यह काम शिव नारायण मिश्र, गणेश शंकर विद्यार्थी, नारायण प्रसाद अरोड़ा और कोरोनेशन प्रेस के मालिक यशोदा नंदन ने मिलकर किया था। शिव नारायण मिश्र और गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ को अपनी कर्मभूमि बना लिया। विद्यार्थीजी के समाचार पत्र प्रताप से क्रांतिकारियों को काफी बल मिला। मुंशी प्रेमचंद महान् लेखक-कहानीकार होने के साथ-साथ हिन्दी के क्रांतिकारी एवं जुझारू पत्रकार थे, उनकी पत्रकारिता भी क्रांतिकारी थी, लेकिन उनके पत्रकारीय योगदान को लगभग भूला ही दिया गया है। जंगे-आजादी के दौर में उनकी पत्रकारिता ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध ललकार की पत्रकारिता थी। वे समाज की कुरीतियों एवं आडम्बरों पर प्रहार करते थे तो नैतिक मूल्यों की वकालत भी करते थे। मेरा सौभाग्य है कि मैं राजस्थान के यशस्वी पत्रकार स्व. श्रीरामस्वरूप गर्ग के पुत्र होने के नाते विरासत में पत्रकारिता के मूल्यों को आत्मसात करने का मौका मिला। उन्होंने 1936 एवं उसके बाद के दौर में ’राष्ट्रवाणी’ एवं ‘परिवर्तन’ जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन एवं सम्पादन किया। वे राजस्थान के प्रतिष्ठित दैनिक नवज्योति के साप्ताहिक रूप में निकले प्रारंभिक अंकों के सम्पादक रहे। इसका प्रारंभ पण्डित जवाहरलाल नेहरू के निजी सचिव रहे श्री रामनारायण चौधरी ने किया था।
आज जबकि हिन्दी देश एवं दुनिया में सर्वाधिक बोली एवं प्रयोग की जाने वाली तीसरी भाषा बन चुकी है, ऐसे में सहज ही हिन्दी पत्रकारिता का मूल्य बढ़ा है। निस्संदेह, सजग, सतर्क और निर्भीक हिन्दी पत्रकार एवं पत्रकारिता एक सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाकर सत्ताधीशों को राह ही दिखाता है। अकबर इलाहाबादी ने इसकी ताकत एवं महत्व को इन शब्दों में अभिव्यक्ति दी है कि ‘न खींचो कमान, न तलवार निकालो, जब तोप हो मुकाबिल तब अखबार निकालो।’ उन्होंने इन पंक्तियों के जरिए हिन्दी पत्रकारिता को तोप और तलवार से भी शक्तिशाली बता कर इनके इस्तेमाल की बात कह गए हैं। अर्थात कलम को हथियार से भी ताकतवर बताया गया है। पर खबरनवीसों की कलम को तोड़ने, उन्हें कमजोर करने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को निस्तेज करने के लिए बुरी एवं स्वार्थी ताकतें सत्ता, तलवार और तोप का इस्तेमाल कर रही हैं। लेकिन तलवार से भी धारदार कलम इसीलिये इतनी प्रभावी है कि इसकी वजह से बड़े-बड़े राजनेता, उद्योगपतियों और सितारों को अर्श से फर्श पर आना पड़ा।
हिन्दी पत्रकार एवं पत्रकारिता कई संकटों का सामना कर रहे हैं- संघर्ष और हिंसा, आतंक एवं अलगाव, साम्प्रदायिकता एवं अंधधार्मिकता, युद्ध एवं राजनीतिक वर्चस्व, गरीबी एवं बेरोजगारी, लगातार सामाजिक-आर्थिक असमानताएँ, पर्यावरणीय संकट और लोगों के स्वास्थ्य और भलाई के लिए चुनौतियाँ आदि जटिलतर स्थितियों के बीच हिन्दी पत्रकारों की महत्वपूर्ण भूमिका है। लोकतंत्र, कानून के शासन और मानवाधिकारों को आधार देने वाली संस्थाओं पर गंभीर प्रभाव के कारण ही यह भूमिका महत्वपूर्ण है। बावजूद इसके हिन्दी पत्रकारिता की स्वतंत्रता, पत्रकारों की सुरक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगातार हमले हो रहे हैं। कभी-कभी भारत में हिन्दी पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर सख्त पहरे जैसा भी प्रतीत होता है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है। जबकि बड़ी सचाई है कि इन्हीं पत्रकारों के बल पर हमें आजादी मिली है। पत्रकारिता लोकहित में सरकार को कदम उठाने का रास्ता सुझाती रहती है, इसीलिए उसकी विश्वसनीयता होती है। मगर सरकारें जब उसके मूल स्वभाव को ही बदलने का प्रयास करती हैं, तो उसकी विश्वसनीयता पर प्रहार करती हैं। ऐसे में पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ न होकर प्रचारतंत्र में तब्दील होने लगती है। पत्रकारिता आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों को दूर करने में मदद करती है। उसका लाभ उठाने के बजाय अगर उसका गला घोटने का प्रयास होगा, तो सही अर्थों में विकास का दावा नहीं किया जा सकता, नया भारत-सशक्त भारत निर्मित नहीं किया जा सकता। अगर कोई सरकार सचमुच उदारवादी और लोकतांत्रिक होगी, तो वह आलोचना से कुछ सीखने का प्रयास करेगी। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने भी हिन्दी पत्रकारिता के प्रति हमारे अविश्वसनीय समर्थन को दोहराने की बात कही है जो लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी है।’
हिन्दी पत्रकारिता कभी मिशन था, आज व्यवसाय बन गया है। आजादी के आंदोलन तक मिशन रहा। धीरे−धीरे इसमें व्यापारी आने लगे। औद्योगिक घराने उतर गए। इनका उद्देश्य समाज सेवा नही रहा, व्यापार हो गया। ये व्यापार करने लगे। वह छापने लगे जिससे इन्हें लाभ हो। डिजिटल युग में टीआरपी और व्यूज़ ही सफलता का पैमाना बन गए हैं। गंभीर पत्रकारिता की जगह सनसनीखेज खबरें, गॉसिप, और ‘डिबेट तमाशों’ ने ले ली है। तथ्य की जगह धारणा, विश्लेषण की जगह उत्तेजना, और संवाद की जगह शोर ने कब्जा कर लिया है। एंकर शोर मचाकर चीखकर पाठकों को आकर्षित करन में लगे हैं। हिन्दी पत्रकारिता ऐसी अनेक चुनौतियों एवं विसंगतियों का सामना कर रही है। बीते कुछ वर्षों में पत्रकारिता का स्तर चिंताजनक रूप से गिरा है, जबकि पत्रकारों की प्रसिद्धि, प्रभाव और पहुंच पहले से कहीं अधिक बढ़ी है। यह विरोधाभास क्यों? पत्रकार बड़े होते जा रहे हैं, पर पत्रकारिता एवं उसके मूल्य-मानक क्यों सिकुड़ रहे है? आज फेसबुक पत्रकार, न्यूज पोर्टल चलाने वाले पत्रकार, यूट्यूब चैनल चलाने वाले पत्रकारों की देश में बाढ़ सी आ गई है। टीवी पत्रकारिता का वर्चस्व बढ़ रहा है, बड़े एवं बहु-संस्करणों के दैनिक अखबार भी तेजी से बढ़ रहे हैं। आन लाइन समाचार पत्रों की रोज गिनती बढ़ती जा रही है। जिसे देखो पत्रकारिता कर रहा है। इतना सब होने के बावजूद पिछले कुछ साल में खबर एवं हिन्दी पत्रकारिता की विश्वसनीय घटी है। पत्रकारिता का स्तर गिरा है। पत्रकार का सम्मान घटा है। पहले माना जाता कि अखबार में छपा है तो सही होगा, किंतु मीडिया में आई खबर की आज कोई गारंटी देने को तैयार नहीं। पहले हिन्दी पत्रकारिता वैचारिक-क्रांति होती थी, आज खबर प्रधान बन गयी है, विचार लुप्त है। हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाना तभी सार्थक होगा जब उसे व्यवसाय नहीं, मिशन के तौर पर नये व्यक्ति, नये समाज, नये राष्ट्र का प्रेरक बनायेंगे।