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स्वामी श्रद्धानन्द के साहित्य पर उनके बलिदान दिवस पर विशेष छूट एवं उपहार

मनमोहन कुमार आर्य,

               हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डोन सिटी-राजस्थान आर्यजगत की एक प्रमुख साहित्य-प्रकाशक संस्था है। इस संस्थान का संचालन प्रसिद्ध ऋषिभक्त श्री प्रभाकरदेव आर्य जी करते हैं। इस संस्था का इतिहास लगभग तीन दशकों का है। इस अवधि में संस्था ने लगभग 350 छोटे-बड़े ग्रन्थों का प्रकाशन किया है। वर्तमान में लगभग 200 से कुछ अधिक ग्रन्थ ही विक्रयार्थ उपलब्ध हैं। अनेक ग्रन्थ जो इस अवधि में प्रकाशित हुए हैं, उनके समाप्त हो जाने के कारण पुनः प्रकाशित नहीं हो सके। हितकारी प्रकाशन समिति से नये नये ग्रन्थों का प्रकाशन निरन्तर होता आ रहा है। कुछ समय पूर्व ही प्रकाशन समिति से वृहदाकार ‘‘कुशवाह-ग्रन्थावली” के तीन भागों में से एक भाग अग्रिम ग्राहकों को उपलब्ध कराया गया है। शेष दो भागों के सम्पादित होकर शीघ्र प्राप्त होने की सम्भावना है। इसके साथ पाठकों को कविरत्न श्री मेधाव्रत आचार्य जी रचित दयानन्द दिग्विजय महाकाव्य का समालोचनात्मक अध्ययन’ लेखक डा. प्रदीपकुमार चतुर्वेदी की पुस्तक निःशुल्क प्रदान की गई है। इसके बाद प्रकाशन योजना से चार वेदों की मन्त्र संहिताओं का चार खण्डों में भव्य प्रकाशन हुआ है। यह सभी ग्रन्थ दिसम्बर, 2020 में अग्रिम ग्राहकों को भेजे गये हैं। इसके साथ भी डा. सोमदेव शास्त्री, मुम्बई की 650 पृष्ठों की महत्वपूर्ण पुस्तक वेदों का दिव्य सन्देश’ निःशुल्क प्रदान की गई है। महात्मा नारायण स्वामी जी के अनेक ग्रन्थों का प्रकाशन भी हितकारी प्रकाशन योजना ने इस वर्ष किया है। भविष्य में भी प्रकाशन समिति की ओर से प्रकाशन की अनेक महत्वाकांक्षी योजनायें तैयार हैं। आशा है कि ईश्वर श्री प्रभाकरदेव आर्य जी की सभी योजनाओं को पूरा करेंगे। हम इसके लिए ईश्वर से प्रार्थना व कामना करते हैं।

               दिनांक 23 दिसम्बर, 2020 को स्वामी श्रद्धानन्द जी का बलिदान दिवस मनाया गया है। इस उपलक्ष्य में हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डोनसिटी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन चरित सहित उनके कुल तीन ग्रन्थों को मूल्य में छूट एवं एक उपहार ग्रन्थ के साथ आर्य साहित्य के पाठकों को प्रदान करने की योजना प्रस्तुत की है। इस योजना में स्वामी श्रद्धानन्द जी विषयक निम्न तीन ग्रन्थ सम्मिलित हैं:-

1-  स्वामी श्रद्धानन्द (जीवनी) लेखक पं. सत्यदेव विद्यालंकार। पुस्तक पर मूल्य अंकित नहीं है। यह 448 पृष्ठों का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस जीवनी का महत्व इसे पढ़कर ही लगाया जा सकता है। सभी पाठकों को इस ग्रन्थ को एक बार अवश्य ही पढ़ना चाहिये।

2-  धर्मोपदेश-मंजरी’। इस ग्रन्थ में महात्मा मुंशीराम/स्वामी श्रद्धानन्द जी की लेखनी से लिखे गए उपदेशों का संकलन है। संकलनकर्ता श्री लब्भूराम नैय्यड़ हैं। सम्पादक डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी हैं। सम्पादक जी गुरुकुल कांगड़ी के यशस्वी स्नातक थे। आपको ग्रन्थ लेखन व सम्पादक का दीर्घकालीन अनुभव था। पुस्तक की पृष्ठ संख्या 304 है तथा इसका मुद्रित मूल्य 150 है।

3-  तीसरी पुस्तक है कल्याण मार्ग के पथिक’। यह स्वामी श्रद्धानन्द जी की आत्मकथा है। यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। इसमें स्वामी जी के जीवन सहित उनके नास्तिक बनने और ऋषि दयानन्द के सत्संग से पुनः आस्तिक बनने की कथा वणित है। स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा किये गये वेद प्रचार का विवरण भी इसमें है। इस ग्रन्थ की भूमिका भी पढ़ने और स्मरण करने योग्य है। इस पुस्तक का मूल्याकंन तो पाठक इसे पढ़कर ही कर सकते हैं। भव्य रूप में इस ग्रन्थ का प्रकाशन किया गया है। हमने भी इसे प्रेषित करने के लिये प्रकाशक जी को निवेदन किया है। आप इस ग्रन्थ को देखेंगे और पढ़ेंगे तो आपको सन्तोष होगा। इस ग्रन्थ को पढ़कर मनुष्य नितान्त गिरी हुई अवस्था से उठकर एक सच्चा मनुष्य बन सकता है तथा उच्च कोटि का सामाजिक जीवन व्यतीत कर सकता है। गांधी जी ने भी इस आत्मकथा को पढ़ा था। उन्हें स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन व एक शहीद के रूप में उनकी मृत्यु से ईर्ष्या होना लिखा था। यहीं बात हमने कहीं पढी है। पुस्तक का मूल्य हमें ज्ञात नहीं है। इसका मूल्य 150 से 200 रुपये के मध्य हो सकता है। ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसका सम्पादन वैदिक विद्वान डा. ज्वलन्त कुमार शास्त्री, अमेठी ने किया है तथा ग्रन्थ में शताधिक महत्वपूर्ण पाद टिप्पणियां दी हैं। इससे पुस्तक का महत्व बढ़ गया है।

               इन तीनों पुस्तकों का एक सैट छूट के साथ मात्र चार सौ रुपये में दिया जा रहा है। प्रेषण शुल्क भी प्रकाशक महोदय स्वयं वहन करेंगे। पुस्तकें मंगाने की कोई समय सीमा व निर्धारित अवधि नहीं है। आप चाहें दिसम्बर, 2020 व जनवरी, 2021 में भी इन पुस्तकों को मंगा सकते हैं। यह स्वर्णिम अवसर इस महत्वपूर्ण साहित्य को प्राप्त करने का है। क्रमांक 1 व 2 ग्रन्थों के प्रकाशक श्री प्रभाकरदेव आर्य, हितकारी प्रकाशन समिति ही एकमात्र हैं। अन्य किसी प्रकाशक द्वारा इनका प्रकाशन नहीं किया गया है। अतः अन्य किसी प्रकाशक से यह ग्रन्थ आपको प्राप्त नही हो सकते। अतः इन ग्रंथों का ऋषिभक्तों को लाभ उठाना चाहिये।

               तीनों पुस्तकों की कुल पृष्ठ संख्या 1000 है। उपर्युक्त तीन पुस्तकों का सैट लेने पर छूट के लाभ के साथ प्रकाशक की ओर से आपको एक अन्य ग्रन्थ उपहार में भी दिया जायेगा।

               पुस्तकें मंगाने के लिये प्रकाशक हितकारी प्रकाशन समिति’ के बैंक खाते में 400 रुपये की धनराशि जमा करनी है। खाता HDFC बैंक में है। खाता संख्या 50200027920292 है। IFS  कोड HDFC0002589 है तथा बैंक शाखा स्टेशन रोड, हिण्डोन सिटी है। पुस्तक मंगाने के लिये बैंक खाते में चार सौ रुपये की धनराशि जमा कर श्री प्रभाकरदेव जी को उनके मोबाईल नं. 7014248035 पर व्हटशप मैसेज करना है जिसमें पैसे भेजने की जानकारी, अपना डाक पता तथा मोबाईल नं. सूचित करना है। ऐसा करने पर आपको तीन पुस्तकें व उपहार ग्रन्थ कुछ ही दिनों में प्राप्त हो जायेंगे। ऐसा करने पर आप वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार में सहयोगी बनेंगे और इससे इन ग्रन्थों के प्रकाशक का भी उत्साहवर्धन होगा। स्वामी श्रद्धानन्द जी का वास्तविक श्राद्ध भी आपके ग्रन्थ को मंगाने व पढ़ने से होगा। ़            हम श्री प्रभाकर देव आर्य जी को वैदिक धर्म एवं आर्यसमाज विषयक साहित्य के प्रकाशन एवं उसके प्रचार द्वारा वैदिक धर्म की सेवा करने के लिए साधुवाद एवं हार्दिक बधाई देते हैं। ईश्वर उन्हें अच्छा स्वास्थ्य एवं दीर्घायु प्रदान करें।

एन अनफॉरगेटेबल लव स्टोरी ऑफ़ अटल

सियासी धुव्र तारे- अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती पर विशेष    

25 दिसंबर, 1924

  • श्याम सुंदर भाटिया

“अटल बिहारी वाजपेयी के लुटियंस जॉन वाले बंगले में लोग जब अटल जी से मिलने जाते थे, तब उनको राजकुमारी कौल परिवार उसी बंगले में दिखता था। इसका मतलब है, अटल जी के साथ ही कौल परिवार उनके सरकारी बंगले में शिफ्ट हो गया था। कॉलेज की मित्र राजकुमारी कौल से उनकी शादी तो न हो सकी, लेकिन राजकुमारी की शादी के बाद भी दोनों संग-संग रहे। इस रिश्ते को दोनों ने कोई नाम नहीं दिया। अटल जी का कद राजनीति में इतना बड़ा था, विरोधी दल और मीडिया कभी उनकी जिंदगी में तांकझांक न कर सके।”  

  • अटल बिहारी वाजपेयी : ए मैन ऑफ़ आल सीजंस

लेखक और पत्रकार श्री किंशुक नाग ने अपनी इस किताब में वाजपेयी की जिंदगी में उनकी मुहब्बत को लेकर अनछुए पहलुओं का खुलासा किया है। हम आपको इस अधूरी प्रेम कहानी की नायिका के बारे में बताने जा रहे हैं। जिनके इंतजार में अटल जी जीवन भर कुंवारे रहे। अटल जी की मिसेज कौल के साथ करीबी दोस्ती की चर्चा मीडिया में नहीं हुई। यह मीडिया और वाजपेयी जी के बीच एक अघोषित समझौता-सा माना जाता रहा है, जिस पर न कभी मीडिया ने रुचि दिखाई और न ही अटल जी ने इस पर सफाई देने की जरूरत समझी। मिसेज कौल ने एक बार एक मैगजीन को दिए इंटरव्यू में कहा था, अटल बिहारी वाजपेयी से उनकी दोस्ती को लेकर किसी को समझाने की जरूरत नहीं है। मिसेज कौल ने कहा, पति के साथ भी उनका रिश्ता काफी मजबूत है।  

40 के दशक में अटल जी और राजकुमारी हकसर, ग्वालियर में विक्टोरिया कॉलेज में पढ़ रहे थे। यह बात दीगर है, अब लक्ष्मीबाई कॉलेज कहा जाता है। दोनों ने एक-दूसरे की भावनाएं समझीं। विभाजन के उस दौर में किसी लड़के और लड़की के बीच की दोस्ती को सराहा नहीं जाता था। वाजपेयी और मिसेज कौल भी इस स्थिति से गुजर रहे थे। हालाँकि वाजपेयी जी ने अपनी भावनाओं का इजहार एक पत्र के माध्यम से किया, जिसे उन्होंने राजकुमारी के लिए लाइब्रेरी की एक किताब में रख दिया था। राजकुमारी ने भी ऐसे ही जवाब दिया, हालांकि उनका जवाब वाजपेयी जी तक पहुंचा ही नहीं।

भारत विभाजन के दौरान राजकुमारी के कश्मीरी पंडित पिता गोविंद नारायण हक्सर ने उनकी शादी कश्मीरी पंडित बृज नारायण कौल से कर दी।  दरअसल, हक्सर अपनी बेटी की शादी एक शख्स यानी अटल जी से नहीं करना चाहते थे। वाजपेयी जी और राजकुमारी हक्सर दोनों अपनी जिंदगी में रम गए। बाद में मिसेज कौल पति के साथ दिल्ली चली गईं और वाजपेयी कानपुर की सियासी गलियों से होते हुए लखनऊ पहुंच गए। रामजस कॉलेज में मिसेज कौल के पति बीएन कौल दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर थे। बाद में वह रामजस हॉस्टल में वार्डन भी बने। कुछ सालों बाद अविवाहित वाजपेयी जी पूरी तरह से राजनेता बन गए। एक लंबे वक्त के बाद दिल्ली में अटल जी का मिसेज कौल से मिलना हुआ। दरअसल प्रो. कौल उस वक्त हॉस्टल में रहने वाले छात्रों के प्लान में रोड़ा बन जाते थे, जब स्टुडेंट्स शराब पीने के लिए देर से हॉस्टल आने की योजना बनाते थे। ऐसे में छात्रों ने मिसेज कौल को शिकायत करने का प्लान बनाया। जब हॉस्टल में रहने वाले छात्रों का ग्रुप प्रो. कौल के घर शिकायत करने पहुंचा तो कहा जाता है कि उस वक्त उनका सामना अटल जी से हुआ।

सालों-साल तक अटल जी कौल के घर नियमित बेरोकटोक आने-जाने वालों में शामिल थे। बाद में अटल जी कौल हाउस में शिफ्ट हो गए जबकि उस वक्त तक प्रोफेसर कौल रामजस कॉलेज के वार्डन थे, लेकिन 1978 में अटल बिहारी वाजपेयी जब मोरारजी सरकार में विदेश मंत्री बने तो वे मिसेज कौल और उनकी बेटियों के साथ सरकारी आवास में शिफ्ट हो गए।  उन्होंने कौल की बेटी नमिता और बाद में उनकी दोहिती निहारिका को गोद ले लिया था। अटल जी के प्रधानमंत्री बनने तक वे उनके साथ ही रहे। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने एक अंग्रेजी अख़बार को दिए इंटरव्यू में बताया था, ‘हम वाजपेयी जी के पड़ोस में रहते थे। घरों की दीवार से लगा एक दरवाजा था, जिससे कि दोनों परिवार के लोग आसानी से आ-जा सके। अटल जी मछली के शौकीन थे। नमिता अक्सर हमारे घर आती थी। मेरी पत्नी और मिसेज कौल की अच्छी बॉन्डिंग थी। जब नमिता की शादी तय हुई तो मेरी पत्नी ने तैयारी की थी, क्योंकि दूल्हा बंगाली था। बता दें कि नमिता की शादी रंजन भट्टाचार्य से हुई थी।

अमर लेखिका अमृता प्रीतम ने एक बार कहा था कि कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं, जो हर हाल में रहते हैं। स्वीकृति से जन्मते और कायम रहते तो ठीक था, लेकिन यह कई बार अस्वीकृति में से भी जन्म ले लेते हैं। सिर्फ जन्म ही नहीं लेते बल्कि इन्सान के साथ भी जीते हैं। मरने के बाद भी। एक ऐसा ही अटूट रिश्ता अटल जी और श्रीमती कौल के बीच था। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर के अनुसार ये खूबसूरत प्रेम कहानी थी। अटल जी और राजकुमारी कौल के बीच चला यह अपनापन खूबसूरत रिश्ते में बुनता चला गया। हर किसी को मालूम था, राजकुमारी कौल अटल जी के लिए सबसे प्रिय है।

पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी से एक बार सवाल पूछा गया था कि आप अब तक कुंवारे क्यों हैं? इसके जवाब में अपनी वाकपटु शैली में वाजपेयी जी ने पत्रकारों को लाजवाब करते हुए कहा था कि मैं अविवाहित हूं लेकिन कुंवारा नहीं हूं। वाजपेयी के इस बयान का मर्म चाहे जो भी निकाला जाए, लेकिन इस लोकप्रिय राजनेता की ज़िंदगी का एक अविस्मरणीय हिस्सा ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज से जुड़ा रहा है। बताते हैं, अटल जी पर जनसंघ के सीनियर लीडर्स का दबाव था, वह इस रिश्ते से मोह छोड़ दें, लेकिन वह नहीं माने। अटल जी इस अटूट रिश्ते के प्रति आजीवन अटल रहे। वाजपेयी जी ने शादी भले ही नहीं की। हालांकि मिसेज कौल प्रधानमंत्री आवास में भी उनके साथ रहीं, लेकिन पत्नी की हैसियत से नहीं। प्रधानमंत्री प्रोटोकॉल के हिसाब-किताब में उनका नाम नहीं था। वाजपेयी की आलोचना करने वाले नेताओं और दलों ने भी कभी इस निजी मसले को राजनीति के मैदान में नहीं घसीटा। यह प्रेम की एक ऐसी अलिखित कहानी थी, जिसे कोई नाम नहीं मिला।

जादुई सोच से नई दुनिया रचने वाला शख्स

मिर्जा गालिब जन्म जयंती- 27 दिसम्बर 2020
– ललित गर्ग-

वास्तविक रचनाकार एवं सृजनकार अपने हूनर से ही नहीं, बल्कि अपनी सोच एवं मूल्यों से ख्याति पाते हैं और इतिहास बनाते हैं, ऐसे अनूठे एवं विलक्षण इंसान परंपरावादी दुनिया की सारी सीमाओं को तोड़कर जज्बातों के बवंडर से नई सूरत गढ़ते हैं। ऐसी शख्सियतें खुद अपनी सोच के जादू से नई दुनिया बनाते हैं। ऐसे ही थे मिर्जा असदुल्ला बेग खान अर्थात मिर्जा गालिब। वे भारत की एक ऐसे चर्चित, प्रतिशिष्ट एवं विशिष्ट शख्स थे, जिन्होंने प्रेम और दर्शन के, सोच एवं सीरत के नए पैमाने तय किए पर जिनकी जिंदगी खुद ही वक्त और किस्मत के थपेड़ों से लड़ती रही, जूझती रही, लेकिन थकी नहीं, हारी नहीं। उस उर्दू और फारसी भाषा के मशहूर शायर मिर्जा गालिब की आज 223वीं जयंती है। उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 को काला महल आगरा में हुआ था। भले ही गालिब को गुजरे करीब दो शताब्दियां बीत गयी है, लेकिन उनकी शायरी, गजलें और बेबाकी हिन्दुस्तानियों के दिलों में आज भी जिंदा है। बीती दो शताब्दियों की पीढ़ियों के अधिकांश पाठकों का जीवन गालिब की शेरों-शायरी एवं गजलों के सम्मोहन में बीता, जिनमें दर्द है, प्रेम की अनकही बेचैनियां है, त्याग की दीप्ति है, जीवन के सुख-दुःख है।
बारह साल की छोटी उम्र से ही उर्दू और फारसी में लिखना शुरू कर देने वाले मिर्जा गालिब कलम एवं शब्दों के जादूगर थे। उन्हें उर्दू, फारसी और तुर्की समेत कई भाषाओं का ज्ञान था। उन्होंने फारसी और उर्दू में रहस्यमय-रोमांटिक अंदाज में अनगिनत गजलें लिखी, शायरी की। उन्हें जिंदगी के फलसफे के बारे में बहुत कुछ लिखा है। अपनी गजलों में वे अपने महबूब से ज्यादा खुद की भावनाओं को तवज्जो देते हैं। गालिब की लिखी चिट्ठियां भी बहुत मशहूर हुई। उन चिट्ठियों को उर्दू लेखन का महत्वपूर्ण दस्तावेज माना जाता है। मिर्जा गालिब को मुगल शासक बहादुर शाह जफर ने अपना दरबारी कवि बनाया था। उन्हें दरबार-ए-मुल्क, नज्म-उद दौउ्ल्लाह के पदवी से नवाजा था। इसके साथ ही गालिब बादशाह के बड़े बेटे के शिक्षक भी थे। मिर्जा गालिब पर कई किताबें है जिसमें दीवान-ए-गालिब, मैखाना-ए-आरजू, काते बुरहान शामिल है। बाद में उन्हें मिर्जा नोशा का खिताब भी मिला। इसके बाद वे अपने नाम के आगे मिर्जा लगाने लगे।
गौर करने वाली बात है की गालिब अपने जमाने में काफी मशहूर थे इसके बावजूद वे बहुत गरीब थे, उनका जीवन संघर्षों एवं झंझावतों में गुजरा। छोटी सी उम्र में गालिब के पिता अब्दुल्ला बेग खाँ की मौत हो गई, जिसके बाद उनके चाचा ने उन्हें संभाला लेकिन उनका साथ भी ज्यादा दिन नहीं रहा। जिसके बाद उनकी देखभाल उनके नाना-नानी ने की। वे बचपन से ही अनियंत्रित, बेपरवाह, स्वच्छंद एवं फक्कड़ स्वभाव के थे। वस्तुतः उनका जीवन विचित्रताओं का अनूठा आख्यान है। मिर्जा गालिब का विवाह 13 साल की उम्र में उमराव बेगम से हो गया था। ऐसा कहा जाता है कि गालिब की सात संतानें हुईं, पर कोई भी जीवित नहीं रह सकी। अपने इसी गम से उबरने के लिए उन्होंने शायरी का दामन थाम लिया। वे जीवनभर दिल्ली के बल्लीमरान में किराए के घरों में ही रहे। हर बार सच को देखने, पकड़ने में वे जख्मी होते रहे। काल का हर मुहरा उन्हें छलता रहा। जटिल हालातों एवं समस्याओं से घिरे गालिब के जीवन के इन्द्रधनुषी रंग बनते-बिखरते रहे फिर भी सच को जीने की उनकी कोशिशें जारी रही। सत्य को जीना उनके जीने का अहम हिस्सा रहा है पर हालातों से उपजी स्थितियां उनके जीवन को जख्मी बनाती रही। इन जटिल हालातों में भी उन्होंने अपना आत्मसम्मान कायम रखा, जब माली हालत ठीक नहीं थी तब भी उन्होंने अपने स्वाभिमान का सौदा नहीं किया।
गालिब अपना अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। वे हमेशा सकारात्मक रहे और अपने स्वाभिमान एवं मूल्यों को साथ लेकर चले। कभी उसे चोट नहीं लगने दी। वे किसी भी मजहबी रंगत के बजाय इंसानियत को ही तवज्जो देते थे। उनकी कलम से निकले शब्दों ने दिल की हर सतह को छुआ, किसी भी मोड़ पर कतराकर नहीं निकले। जिंदगी ने उनकी राह में कांटे ही बोए, पर वे उनका जवाब अपने लफ्जों के गुलों से देते रहे। हिज्र और विसाल दोनों के गले में एक साथ हाथ डालकर चलते रहे। वेदना को अद्भुत शब्द देने की उनकी जादूगरी का कायल सारा संसार है। उन्होंने जीवन को यायावरी शैली में ही जिया। उनके शेर शब्दों के हुजूम नहीं हैं बल्कि वह तो जज्बातों की नक्काशी से बनी मुकम्मल शक्ल है। गालिब अपने बारे में खुद कहा करते थे-
हैं और भी दुनिया में सुख नवर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि गालिब का है अन्दाजे-बयां और।
मिर्जा गालिब को गोश्त, शराब और जुए का शौक था। कहा जाता है कि एक बार गालिब को अंग्रेजों ने पकड़ लिया और सार्जेंट के सामने पेश किया। उनका वेश देखकर पूछा- क्या तुम मुसलमान हो? तब गालिब ने जवाब दिया कि मुसलमान हूं पर आधा, शराब पीता हूं, सूअर नहीं खाता। इसके अलावा एक और घटना है जब गालिब उधार ली गई शराब की कीमत नहीं चुका सके। उन पर दुकानदार ने मुकदमा कर दिया। अदालत में सुनवाई के दौरान उनसे सवाल-जवाब हुए तो उन्होंने एक शेर पढ़ दिया-
कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां,
रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन।
इतना ही कहने पर उनका कर्जा माफ हो गया, और उन्हें छोड़ दिया गया। उनकी शायरी में गम का ये कतरा भी घुलता रहा। उन्होंने कहा था-
शहादत थी मिरी किस्मत में, जो दी थी यह खू मुझको
जहां तलवार को देखा, झुका देता था गर्दन को।
गालिब की जिंदगी फक्कड़पन में गुजरी। वे अपनी पूरी आमदनी शराब पर ही खर्च कर दिया करते थे। कभी-कभी इंसान के सामने अभाव और संघर्ष की मोटी दीवार खड़ी होती है। आदमी उससे टकराकर टूट भी जाता है तो कभी जीत भी जाता है। जो भी उस दीवार में दरार पैदा करने में कामयाब होता है, मंजिल वही पाता है क्योंकि उन्हीं दरारों से नैसर्गिकता, मौलिकता और रचनात्मकता फूटती है। यही वो चीज है जिसने गालिब को मकबूल बनाया। उन्होंने दर्द को भी एक आनंद का जामा पहनाकर जिंदगी को जिया। उन्होंने ‘असद’ और ‘गालिब’ दोनों नामों से लिखा। फारसी के दौर में गजलों में उर्दू और हिन्दी का इस्तेमाल कर उन्होंने आम आदमी की जबान पर चढ़ा दिया। उन्होंने जीवन को कोरे कागज की तरह देखा और उस पर दिल को कलम बनाकर दर्द की स्याही से जज्बात उकेरे। उनकी जिंदगी का फलसफा अलहदा था जो इस शेर में है…
था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता।
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता।
गालिब शब्दों से खेलते नहीं, बल्कि वे शब्दों को जीते थे। उनकी गजलें एवं शायरी हर जाति, वर्ग, धर्म की धड़कन बनी, जो उनके अहसास की अभिव्यक्ति का माध्यम थी। ये उनका जादू ही है जो अब तक हम सबके सिर चढ़कर बोलता है। उन्होंने अनेक रास्तों और अनेक तरीकों से, जीवन की अर्थवत्ता को खोज निकाला था और खुद को उसमें खपा दिया था, वे वही बात बतातेे, जिन्हें उन्होंने खुद आजमाया था। वे फरिश्ते थे, ऐसा मैं नहीं मानता। लेकिन वे अच्छे इंसान थे, और उन्होंने आत्मविश्वास, स्वाभिमान, नैतिकता एवं चरित्र का खिताब ओढ़ा नहीं, उसे जीकर दिखाया। जो भाग्य और नियति के हाथों के खिलौना बनकर नहीं बैठे, स्वयं के पसीने से अपना भाग्य लिखा। उनकी गजलों एवं शायरी में समायी अपराजेय मेधा का उत्सव मनाया जाये, उनके पदचिन्हों पर चलते हुए आने वाले कल का आविष्कार किया जाय।उस महान् शब्द एवं भाव शिल्पी को उनके जन्म दिन पर नमन!

पश्चिम बंगाल की राजनीतिक हिंसा का जिम्मेदार कौन?

शायद ही कोई ऐसा भारतीय होगा जो बंगाल की प्रतिभा एवं बौद्धिकता को देखकर अचंभित न रह जाता हो! पर कैसी विचित्र विडंबना है कि जो बंगाल कला, सिनेमा, संगीत, साहित्य, संस्कृति की समृद्ध विरासत और बौद्धिक श्रेष्ठता के लिए देश ही नहीं पूरी दुनिया में विख्यात रहा है, वह आज हिंसा, रक्तपात, राजनीतिक हत्याओं के लिए जाना-पहचाना जाने लगा है। कदाचित ही कोई दिन ऐसा बीतता हो जब वहाँ होने वाली हिंसक राजनीतिक झड़पें अख़बारों की सुर्खियाँ न बनती हों! क्या ऐसे ही बंगाल की कल्पना बंकिम-रवींद्र-सुभाष ने की होगी? क्या यह महाप्रभु चैतन्य, परमहंस रामकृष्ण और स्वामी विवेकानंद का बंगाल है? क्या इन मनीषियों में अपार श्रद्धा रखने वाले तमाम बंगालियों एवं समस्त भारतवासियों ने सपने में भी ऐसे बंगाल की कल्पना की होगी? पश्चिम बंगाल के ऐसे रक्तरंजित परिवेश में क्या ‘माँ, माटी, मानुष” का नारा केवल छलावा नहीं लगता?

दुर्भाग्यपूर्ण है कि कतिपय बुद्धिजीवी अतिरिक्त उत्साह या उतावलेपन में बंगाल की वर्तमान हिंसा एवं अराजकता को उसकी स्थाई पहचान बताने लगते हैं। जबकि वे जानते हैं कि बंगाल प्रतिभा एवं पांडित्य की धरती है, आस्था एवं विश्वास की धरती है, नव-जागरण एवं सामाजिक सुधारों की धरती है। कुछ तो वहाँ हो रही हिंसा एवं अराजकता को सामान्य चुनावी घटना बताकर प्रकारांतर से उसकी पैरवी-सी करने लगते हैं। पर वे यह नहीं बताते कि इसी भारतवर्ष में अनेक ऐसे राज्य हैं, जहाँ चुनावी हिंसा बीते ज़माने की बात हो गई है। माना कि बंगाल में हिंसा का चलन नितांत नया नहीं है। पर क्या उसके राजनीतिक चाल-चरित्र में बीते छह दशकों से व्याप्त हिंसा के उत्तरदायी मूल कारणों और कारकों की कभी खुली, स्पष्ट एवं ईमानदार विवेचना की गई? हिंसा एवं ख़ूनी क्रांति में विश्वास रखने वाले वामपंथ को क्या कभी उसके लिए कठघरे में खड़ा किया गया? एक अनुमान के मुताबिक 60 के दशक से आज तक 9000 से भी अधिक राजनीतिक कार्यकर्त्ता बंगाल में हिंसा के कारण मारे जा चुके हैं। तृणमूल सरकार तो केवल 1977 से 2007 के बीच 28000 राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं की हत्या का दावा करती है। कुछ बुद्धिजीवी जान-बूझकर बंगाल में हिंसा की परिपाटी को स्वतंत्रता-पूर्व तक ले जाते हैं। बंग-भंग और भारत-विभाजन के समय हुई हिंसा की तुलना भला स्वातंत्र्योत्तर-भारत की हिंसा से कैसे की जा सकती है? बंगाल में वास्तविक हिंसा 60 के दशक में नक्सलवाड़ी आंदोलन से प्रारंभ हुई। इस आंदोलन में किसानों-मजदूरों को न्याय दिलाने के नाम पर तमाम राजनीतिक हत्याएँ की गईं। 1977 में वाममोर्चे की सरकार बनने के बाद तो हिंसा एवं हत्या को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा। सरकारी मशीनरी का भारी पैमाने पर राजनीतिकरण होता चला गया। पुलिस-प्रशासन से लेकर अधिकतर सरकारी महकमा व अधिकारी कम्युनिस्ट कैडर की तरह काम करने लगे। गैस-बिजली-पानी कनेक्शन से लेकर राशन कार्ड, आवास प्रमाण-पत्र बनवाने या रोज़मर्रा की तमाम ज़रूरतों के लिए आम-निष्पक्ष नागरिकों को कम्युनिस्ट कैडरों, स्थानीय नेताओं, दबंगों पर निर्भर रहना पड़ता था। जिसने भी इन वामपंथी निरंकुशता या मनमानेपन के विरुद्ध मुखर एवं निर्णायक आवाज उठाई उसे या तो भय दिखाकर चुप करा दिया गया या हमेशा-हमेशा के लिए उसके जीवन का ही पटाक्षेप कर दिया गया। कहते हैं कि 77 से 80 के मध्य सीपीएम कैडरों और उनके संरक्षित बाहुबलियों ने शरणार्थी बांग्लादेशी हिंदुओं पर इतना ज़ुल्म ढाया कि उनके कहर से बचने के लिए उनमें से कई समुद्र में कूद जाया करते थे। इन विषम एवं प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण वहाँ की सर्वसाधारण जनता के लिए भी हिंसा एक स्वीकार्य दबावकारी औज़ार बनती चली गई। 1977 से 2011 के बीच कम्युनिस्टों के शासनकाल में ही हिंसा बंगाल का प्रमुख राजनीतिक चरित्र बना। और इस अवधि में वहाँ तमाम नरसंहारों को अंजाम दिया गया।

तृणमूल काँग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी निरंकुश एवं सर्वाधिकारवादी वामपंथी सत्ता के विरुद्ध सबसे मुखर एवं सशक्त आवाज़ बनकर उभरीं। वे अनेक बार वामपंथी हिंसा का शिकार भी हुईं। इसलिए 2011 में उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद देश में एक उम्मीद जगी कि अब पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसा के दौर का अवसान होगा। पर हुआ उलटा। सत्ता से बेदख़ल होने के बाद सरकारी सुविधाओं एवं पैसों की मलाई खाने के अभ्यस्त वामपंथी कैडरों और स्थानीय नेताओं-दबंगों ने तृणमूल का दामन थाम लिया। परिणामतः बंगाल की राजनीति का हिंसक रक्तचरित्र यथावत रहा। सत्ता बदली, पर सत्ता का कम्यूनिस्टिक चरित्र नहीं बदला। सत्ता को मिलने वाली चुनौती यथास्थितिवादियों को न तब स्वीकार थी, न अब। और कोढ़ में खाज जैसी स्थिति हाल के वर्षों में तेजी से बदलती पश्चिम बंगाल की डेमोग्राफी, रोहिंगयाओं व बांग्लादेशी घुसपैठियों की बढ़ती तादाद के कारण भी निर्मित हुई। दरअसल आज वहाँ जो संघर्ष दिख रहा है, वह प्रतिगामी-यथास्थितिवादी और प्रगत-परिवर्तनकामी शक्तियों के मध्य है।

भाजपा की सक्रिय उपस्थिति, बढ़ते जनाधार, केंद्रीय मंत्रियों के दौरे और तृणमूल में मची टूट-फूट और भगदड़ के बाद यह संघर्ष और खुले रूप से सतह पर आने लगा है। ममता की राजनीतिक ज़मीन बड़ी तेज़ी से दरकती और खिसकती जा रही है। पहले तो भय दिखाकर उन्होंने अपने विरोधियों को रोकने की भरसक कोशिश की। राज्य में सत्ताधारी तृणमूल का ऐसा खौफ़ रहा है कि 2018 में हुए पंचायत चुनाव में उसके लगभग 35 प्रतिशत उम्मीदवार निर्विरोध चुन लिए गए थे, क्योंकि तब उनके ख़िलाफ़ जाकर पर्चा दाख़िल करने का साहस तक कोई नहीं जुटा सका था। पर 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने तृणमूल से केवल 3 प्रतिशत कम यानी 40.3 प्रतिशत वोट हासिल करके राज्य की 42 में से 18 सीटों पर जीत दर्ज की। इस ऐतिहासिक जीत के बाद भाजपा कार्यकर्त्ताओं में भी साहस एवं उत्साह का संचार हुआ है। वे सरकारी संरक्षण में फल-फूल रहे तृणमूल कार्यकर्त्ताओं और नेताओं का खुलकर प्रतिकार करने लगे हैं। अल्पसंख्यकों के भयावह तुष्टिकरण और बहुसंख्यकों की घनघोर उपेक्षा का अब वहाँ डटकर विरोध किया जाने लगा है। ममता के काफिलों के गुज़रने पर स्थानीय लोगों द्वारा जय श्रीराम के नारे लगाए जाने लगे हैं। जो तल्ख़ तेवर एवं बाग़ी अंदाज़ कभी ममता की ताक़त हुआ करती थी, आज उनकी कुढ़न और कमज़ोरी मानी जाने लगी है। पिछले साल अमित शाह के रोड शो के दौरान हुई हिंसा, कुछ समय पूर्व हुई बीजेपी विधायक देवेंद्रनाथ की हत्या और हाल ही में बीजेपी अध्यक्ष जे.पी.नड्डा और कैलाश विजयवर्गीय के काफ़िले पर हुए हमले ने पश्चिम बंगाल में सियासी पारे को परवान चढ़ाया है।

गृहमंत्री अमित शाह की रैली एवं रोड शो में उमड़ी जबरदस्त भीड़ और मेदिनीपुर व उसके आस-पास के 50 विधानसभा सीटों पर अच्छा-खासा प्रभाव रखने वाले शुवेंदु अधिकारी समेत लगभग 10 विधायकों एवं एक सांसद का बीजेपी में शामिल होना आगामी विधानसभा चुनाव की तस्वीरें साफ़ करता है। पर राजनीति की बिसात पर तब तक न जाने और कितने मासूमों-बेगुनाहों को वहाँ अपनी कुर्बानी देनी पड़े? यह कम-से-कम बंकिम का ”सुजलाम, सुफलाम् …शस्यश्यामलाम् ” या टैगोर का 1906 में लिखा ”आमार शोनार बांग्ला” वाला बंगाल तो बिलकुल नहीं है। कोई भी भद्र बंगाली मानुष या भारतीय ऐसे हिंसक सत्ता-तंत्र की दुःस्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकता!

प्रणय कुमार

लोकतंत्र में हिंसा एवं अराजकता के लिए कोई स्थान नहीं!

लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति गहन आस्था, विकास एवं सुधार को राजनीति की केंद्रीय धुरी बनाने, आम नागरिकों के साथ प्रत्यक्ष संवाद स्थापित करने की कला में माहिर होने तथा गहरी प्रशासनिक सूझ-बूझ के कारण प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता तमाम चुनौतियों के बीच भी बरक़रार है। स्वाभाविक है कि उनके विरोधी भी नित नवीन अवसर की ताक में रहते हैं। पहले जेएनयू-जामिया-एएमयू के विद्यार्थियों को उकसाकर, फिर शाहीनबाग में चल रहे धरने-प्रदर्शन को हवा देकर, फिर हाथरस में हुई कथित दलित उत्पीड़न की घटना को विश्व-पटल पर उछालकर  और अब किसान-आंदोलन को खुला समर्थन देकर विपक्षी पार्टियों ने अपने इरादे ज़ाहिर कर दिए हैं। देखना दिलचस्प होगा कि प्रधानमंत्री किसानों की ओट लेकर चली जा रही इन राजनीतिक चालों से कैसे उबरते हैं? पर सवाल यह है कि किसानों-मज़दूरों-विद्यार्थियों के नाम पर चलाए जा रहे इन आंदोलनों से आख़िर देश को क्या हासिल होगा?
ऐसा भी नहीं है कि लोकतंत्र में जन-भावनाओं एवं जन-आंदोलनों की महत्ता  को पूर्णतया खारिज़ किया जा सकता है। स्वतंत्रता-पूर्व से लेकर बाद के अनेक सार्थक-सकारात्मक बदलावों में जन-आंदोलनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। चाहे वह स्वतंत्रता से पूर्व का असहयोग, सविनय अवज्ञा, भारत छोड़ो या विदेशी वस्त्रों एवं वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन रहा हो या स्वातंत्रत्योत्तर-काल का भूदान, संपूर्ण क्रांति, श्रीरामजन्मभूमि या अन्ना-आंदोलन सबमें जनसाधारण की स्वतःस्फूर्त सहभागिता रही। तभी वे जन-आंदोलन की शक़्ल ले सके। इन सभी जन-आंदोलनों में यह सामान्य प्रवृत्ति देखने को मिली कि इनका नेतृत्व अपने ध्येय एवं नीति-नीयत-प्रकृति-परिणाम को लेकर भ्रमित या दिशाहीन बिलकुल नहीं रहा। बल्कि स्वतंत्रता-आंदोलनों में तो गाँधी जैसा दृढ़ एवं आत्मानुशासित नेतृत्व था, जो आंदोलनकारियों के हिंसक हो उठने पर अच्छे-भले सफल आंदोलन को भी स्थगित करने का नैतिक साहस रखता था। चौरी-चौरा में आंदोलनकारियों के हिंसक हो उठने के बाद उन्हें रोक पाना गाँधी जैसे नैतिक एवं साहसी नेतृत्व के लिए ही संभव था। सांस्कृतिक संगठनों को यदि छोड़ दें तो कदाचित राजनीतिक नेतृत्व से ऐसे उच्च मापदंडों की आज कल्पना भी नहीं की जा सकती। 
यह वह दौर था जब आंदोलन के भी सिद्धान्त या उसूल हुआ करते थे। विदेशी सत्ता से लड़ते हुए भी उन आंदोलनों में स्वानुशासन, नैतिक नियमों एवं मर्यादित आचरण का पालन किया जाता था। सरकारी नीतियों-क़ानूनों का प्रतिकार या असहमति प्रकट करते हुए भी व्यक्तियों-संस्थाओं की गरिमा को ठेस न पहुँचाने का यत्नपूर्वक प्रयास किया जाता था। लोकतांत्रिक मूल्यों एवं संयम-संवाद के प्रति आम भारतीयों की आस्था ही रही कि आज़ादी के बाद भी जागरूक एवं प्रबुद्ध नेतृत्व द्वारा कमोवेश इन नैतिक मानदंडों का ध्यान रखा जाता रहा। और जिस नेतृत्व ने इन मानदंडों का उल्लंघन किया जनमानस ने उन्हें बहुत गंभीरता से कभी नहीं लिया। उनका प्रभाव और प्रसार अत्यंत सीमित या यों कहें कि नगण्य-सा रहा। भारत ने सदैव संवाद और सहमति की भाषा को ही अपना माना। धमकी और दबाव भरी आक्रामक भाषा से भारतीय जन-मन की स्वाभाविक दूरी रही।
अपनी माँगों को लेकर अहिंसक एवं शांतिपूर्ण प्रदर्शन या आंदोलन आंदोलनकारियों का लोकतांत्रिक अधिकार है। यह सरकार और जनता के बीच उत्पन्न गतिरोध एवं संवादहीनता को दूर करने में प्रकारांतर से सहायक है। पर बीते कुछ वर्षों से यह देखने को मिल रहा है कि चाहे वह जे.एन.यू-जामिया-एएमयू में चलाया गया आंदोलन हो, चाहे सी.ए.ए के नाम पर शाहीनबाग में चलाया गया या फिर दलितों-पिछड़ों के नाम पर या वर्तमान में कृषि-बिल के विरोध के नाम पर; ये सभी आंदोलन अपनी मूल प्रकृति में ही हिंसक और अराजक रहे। अपनी माँगों को लेकर देश की राजधानी एवं क़ानून-व्यवस्था को बंधक बना लेना, हिंसक एवं अराजक प्रदर्शनों के द्वारा सरकारों पर दबाव बनाना, सरकारी एवं सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाना, आने-जाने के मुख्य मार्गों को बाधित एवं अवरुद्ध करना, निजी एवं सरकारी वाहनों में तोड़-फोड़ करना, घरों-दुकानों-बाज़ारों में लूट-खसोट, आगजनी करना, मार-पीट, ख़ून-खराबे आदि की भाषा बोलना- किसी भी सभ्य समाज या लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए मान्य एवं स्वीकार्य नहीं होतीं, न हो सकतीं। इन सबसे जान-माल की क्षति और रोज़मर्रा की ज़िंदगी तो बाधित होती ही होती है। आम नागरिकों के परिश्रम और कर से अर्जित करोड़ों-करोड़ों रुपए नाहक बरबाद होते हैं, पुलिस-प्रशासन की ऊर्जा अन्य अत्यावश्यक कार्यों से हटकर प्रदर्शनकारियों को रोकने-थामने पर व्यय होती है, विकास की गाड़ी पटरी से उतरती है, पूरी दुनिया में देश की छवि धूमिल होती है, विदेशी निवेश प्रभावित होते हैं, पर्यटन और व्यापार पर प्रतिकूल असर पड़ता है और अनुकूल एवं उपयुक्त अवसर की ताक में घात लगाकर बैठे देश के दुश्मनों को खुलकर खेलने और कुटिल चालें चलने का मौक़ा मिल जाता है।
उल्लेखनीय है कि गाँधी स्वयं सत्याग्रह, असहयोग, सविनय अवज्ञा, अनशन-उपवास जैसे प्रयोगों को कमज़ोरों-कायरों-दिशाहीनों के लिए सर्वथा वर्जित एवं निषिद्ध मानते थे। कदाचित वे इसके संभावित दुरुपयोग का अनुमान लगा चुके थे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रायः तमाम उपद्रवी एवं अराजक तत्त्व भी स्वतंत्रता-आंदोलन में आजमाए गए इन प्रयोगों की आड़ में अपने हिंसक एवं अराजक व्यवहार को उचित एवं सही ठहराने की दलीलें देते हैं। विरोध या आंदोलनरत लोगों या समूहों को यह याद रखना होगा कि उनकी लड़ाई अब किसी परकीय या विदेशी सत्ता से नहीं है। अपितु वे लोकतांत्रिक पद्धत्ति से चुनी हुई अपनी ही सरकार तक अपनी बातें-माँगें पहुँचाना चाहते हैं। विधायिका और कार्यपालिका का तो काम ही सुधार की दिशा में क़ानून बनाना है। भारत में कोई स्विस-संविधान की तरह जनमत का प्रावधान तो है नहीं। यहाँ चुने हुए विधायक-सांसद ही जनता के प्रतिनिधि माने जाते हैं। वे ही सरकार और जनता के बीच सेतु का काम करते हैं। सरकार तक अपनी भावनाओं को पहुँचाने के तमाम पारंपरिक माध्यम भी जनता के पास मौजूद हैं ही। वैसे भी लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि होती है। हर चुनाव में सत्तारूढ़ दल के समर्थन या विरोध में उसे अपने मताधिकार के निर्णायक प्रयोग का अवसर मिलता है। आंदोलनरत स्वरों-समूहों को यह भी ध्यान रखना होगा कि जिन करोड़ों लोगों के समर्थन से कोई दल सत्तारूढ़ होता है, आख़िर उनके मत का भी कुछ-न-कुछ महत्त्व तो होता ही है! और होना भी चाहिए। क्या हम कल्पना में भी ऐसे समाज या तंत्र की कामना कर सकते हैं, जिसमें हल्ला-हंगामा करने वाले हुड़दंगियों-उपद्रवियों एवं अराजक तत्त्वों की तो सुनवाई हो, पर शांत-संयत-प्रबुद्ध-विधायी-अनुशासित नागरिक-समाज के मतों की उपेक्षा कर दी जाय? इसलिए संवेेेदनशील एवं सरोकारधर्मी सरकारें भले ही पक्ष-विपक्ष के स्वरों को समान रूप से महत्त्व दे। पर भिन्न-भिन्न प्रकार के आंदोलन या विरोध का नेतृत्व करने वाले नेताओं या समूहों की यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने भीतर के अराजक एवं उपद्रवी तत्त्वों की पहचान कर उन्हें बाहर का रास्ता दिखाएँ। संसदीय प्रक्रियाओं को खुलेआम चुनौती देने, संस्थाओं को ध्वस्त एवं अपहृत करने तथा क़ानून-व्यवस्था को बंधक बनाने की निरंतर बढ़ती प्रवृत्ति देश एवं लोकतंत्र के लिए घातक है। इन पर अविलंब अंकुश लगाना समय और सुव्यवस्था की माँग है।
प्रणय कुमार

हिंदुत्व कभी कट्टर और आक्रामक नहीं हो सकता।


ठंड में कोरोना के बढ़ते प्रसार और उसकी चिंताओं के बीच पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी और असदुद्दीन ओवैसी के बयानों ने पर्याप्त सुर्खियाँ बटोरीं और संभवतः वे चाहते भी यही थे। ओवैसी को राजनीति करनी है, इसलिए उनके वक्तव्यों के निहितार्थ समझ आते हैं, पर आश्चर्य है कि उपराष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद पर दस वर्षों तक आरूढ़ रहा व्यक्ति भी उनके सुर में सुर मिलाता हुआ वैसी ही बात करता है, लगभग एक जैसे लबो-लहजे, मुहावरे और प्रतीकों के साथ। न तो पृथक पहचान की राजनीति इस मुल्क़ के लिए नई है और न मुसलमानों में भय एवं असुरक्षा की भावना पैदा करके राजनीतिक रोटियाँ सेंकने की कोशिश। बल्कि देश का तथाकथित प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष धड़ा तो 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने के पूर्व से ही मुसलमानों में डर का माहौल पैदा करने की कोशिश कर रहा था। स्वाभाविक है कि प्रधानमंत्री के रूप में ज्यों-ज्यों उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई, त्यों-त्यों उस धड़े की ओर से भारत में बढ़ती कथित असहिष्णुता के स्वर भी जोर-शोर से उठाए जाते रहे। देश ने पुरस्कार-वापसी का एक दौर भी देखा। कमाल की बात यह है कि फ्रांस, ऑस्ट्रिया, कनाडा समेत लगभग पूरी दुनिया में आए दिन होने वाले कट्टरपंथी इस्लामिक हमलों पर मौन साधने की कला में सिद्धहस्त एवं पारंगत तमाम कथित धर्मनिरपेक्षों को भारत के बहुसंख्यकों में कट्टरता, असहिष्णुता एवं आक्रामक राष्ट्रवाद का उभार अवश्य दिखाई दे जाता है!!
सवाल यह है कि जिस मुल्क़ में एक विदेशी मूल की महिला (सोनिया गाँधी) सबसे बड़े और पुराने राजनीतिक दल की ताक़तवर अध्यक्षा रही हों, सिख समुदाय से आने वाले मनमोहन सिंह दस साल तक देश के प्रधानमंत्री रहे हों, देश के सार्वकालिक महानतम राष्ट्रपति या व्यक्तित्व के रूप में स्वर्गीय ए.पी.जे अब्दुल कलाम की स्वीकार्यता रही हो, सर्वाधिक लोकप्रिय फ़िल्मी कलाकार अल्पसंख्यक समुदाय से आते हों, वहाँ ऐसे वक्तव्य पूर्वाग्रह-प्रेरित, मनगढ़ंत एवं निरर्थक ही अधिक प्रतीत होते हैं। ऐसा कौन-सा क्षेत्र है जहाँ अल्पसंख्यक प्रतिभाओं की प्रगति में अवरोध पैदा किया जाता है या उन्हें प्रोत्साहित करने में कोई संकोच दिखाया जाता है? बल्कि भारतीय मन-मिज़ाज को तो ऐसे भी समझा जा सकता है कि वह सामान्य बोल-चाल में भी अपने मुस्लिम सहकर्मियों या परिचितों-अपरिचितों के नाम के साथ ‘साहब’ या भाई संबोधन लगाना मुनासिब समझता है। सवाल यह भी कि इस देश में मुसलमानों से भी बहुत कम की संख्या में रहने वाले समुदायों से कभी ऐसी कोई बात क्यों नहीं सामने आती? यदि आक्रामक राष्ट्रवाद या हिंदुत्व ख़तरा होता तो उनके लिए भी होना चाहिए था। 
ऐसे वक्तव्य इसलिए भी निरर्थक हैं कि अतीत से लेकर वर्तमान तक धार्मिक मतों के आधार पर हिंदू समाज के आक्रामक, अनुदार या विस्तारवादी होने का एक भी दृष्टांत नहीं मिलता। इसके विपरीत इतिहास ऐसे दृष्टांतों से भरा पड़ा है, जब हिंदू जीवन-पद्धत्ति में विश्वास रखने वाले भारतीय समाज ने  दुनिया भर के उपेक्षितों-पीड़ितों-विस्थापितों को सहर्ष गले लगाया। वस्तुतः हिंदुत्व का पूरा दर्शन ही सह-अस्तित्ववादिता पर केंद्रित है। जबकि उदार समझा जाने वाला पश्चिमी जगत प्रगति के अपने तमाम दावों के बावजूद अब तक केवल सहिष्णुता तक पहुँच सका है। सहिष्णुता में विवशता परिलक्षित होती है, वहीं सह-अस्तित्ववादिता में सहज स्वीकार्यता का भाव है। हिंदुत्व जड़-चेतन सभी में एक ही विराट सत्ता के पवित्र प्रकाश देखता है। वह प्राणि-मात्र के कल्याण की कामना करता है। वहाँ जय  है तो धर्म की, क्षय है तो अधर्म की। वहाँ संघर्ष के स्थान पर सहयोग और सामंजस्य पर बल दिया जाता है। हिंदुत्व एक राजनीतिक विचार न होकर सांस्कृतिक अवधारणा है। भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले सभी मत-पंथ के लोगों में उसके न्यूनाधिक प्रभाव देखे जा सकते हैं। चींटीं से लेकर पहाड़, धरती से लेकर आकाश, वनस्पतियों से लेकर समस्त प्राणियों एवं जीव-जंतुओं तक की इसमें चिंता की जाती है। हिंदुत्व के सरोकार विश्व-मानवता और चराचर जगत के सरोकार हैं। जीवन और जगत का जहाँ इतना व्यापक एवं सूक्ष्म चिंतन किया गया हो, वहाँ किसी भिन्न विचार-पंथ के प्रति आक्रामकता एवं अनुदारता कैसे संभव है? ‘एकं सत्य, विप्राः बहुधा वदन्ति’, ‘आत्मवत सर्वभूतेषु’, ‘नेति-नेति’ ‘यत पिंडे, तत् ब्रह्माण्डे’ ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्मम्’ जैसे हिंदुत्व के ध्येय-वाक्यों का सार बस इतना है कि अलग-अलग रास्ते एक ही ईश्वर की ओर जाते हैं। और जो कुछ भेद या भिन्नता है, वह दृष्टि-भ्रम एवं अज्ञान का परिणाम है। बल्कि समस्त पार्थक्य-बोध को मिटाकर अणु-रेणु में व्याप्त उस सर्वव्यापी सत्ता के दर्शन और चेतना का उत्तरोत्तर विकास एवं विस्तार ही हिंदुत्व का लक्ष्य है। उसने सदैव विस्तार को जीवन और संकीर्णता को मृत्यु का पर्याय माना है।
बल्कि जिस संघ-परिवार को ध्यान में रखकर ओवैसी और हामिद अंसारी ने यह बयान ज़ारी किया है, उसके प्रमुख एवं शीर्ष पदाधिकारियों ने भी बार-बार हिंदुत्व को एक जीवन-पद्धत्ति के रूप में माने-अपनाए जाने की पैरवी की है। कुछ दिनों पूर्व ही विजयादशमी के अवसर पर अपने उद्बोधन में संघ-प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था- ”हिन्दू राष्ट्र कोई राजनीतिक संकल्पना नहीं है। भारत में अथवा सारे विश्व में कोई भी व्यक्ति जो अपने को भारत माता की संतान मानता है, जो भारत की संस्कृति का सम्मान करता है, जो अपने भारतीय पूर्वजों का स्मरण करता है, वह हमारी दृष्टि में हिंदू है। हमारा मानना है कि जो अपने को हिन्दू नहीं कहता, कोई और नाम कहता है, वह भी हिंदू है।” क्या इस परिभाषा में किसी के लिए कोई आक्रामकता, अनुदारता या अस्वीकार्यता है? 
जहाँ तक ‘आक्रामक राष्ट्रवाद’ की बात है तो ध्यान रहे कि हिंदुत्व से निःसृत राष्ट्रवाद पश्चिम की तरह का एकांगी और प्रभुत्ववादी राष्ट्रवाद नहीं है। वह यूरोप के नेशन स्टेट की तरह विस्तार की कामना और प्रभुत्व की भावना से प्रेरित-संचालित नहीं है। वह सत्ता (स्टेट) पर आधारित न होकर लोक (पीपुल) और जीवन-दृष्टि पर आधारित है। उसमें सर्वाधिकार की प्रवृत्ति नहीं, स्वत्व-बोध की जागृत्ति है। यूरोपीय राष्ट्रवाद ने दुनिया को दो-दो विश्वयुद्ध दिए; उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और साम्यवाद जैसी एकांगी-विखंडनवादी अवधारणाएँ दीं, पर भारतीय राष्ट्रीय विचार विश्व-दृष्टि रखता आया है। वह समग्रता या ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की अवधारणा में विश्वास रखता है। वह अंधी व अंतहीन प्रतिस्पर्द्धा नहीं, संवाद, सहयोग और सामंजस्य पर बल देता है। वह संकीर्ण, आक्रामक और विस्तारवादी नहीं, अपितु सर्वसमावेशी है। वह राष्ट्रवाद यूरोप की तरह रक्त की शुद्धता पर बल नहीं देता। उसमें श्रेष्ठता का दंभ नहीं, जीवन-जगत-प्रकृति-मातृभू के प्रति कृतज्ञता की भावना है। वह समन्वयवादी है। उसका मानना है कि मज़हब बदल लेने से पुरखे, परंपरा और संस्कृति नहीं बदलती। वह सभी मत-पंथ-प्रांत, भाषा-भाषियों को साथ लेकर चलता है। वह एकरूपता नहीं, विविधता का पोषक है। वह एकरस नहीं, समरस व संतुलित जीवन-दृष्टि में विश्वास रखता है। उसमें अस्वीकार और आरोपण नहीं, स्वीकार और नवीन रोपण का भाव निहित है। बल्कि राष्ट्र के साथ वाद जैसा शब्द जोड़ना ही पश्चिमी चलन है। यूरोपीय राष्ट्रवाद का प्रतिपादक जॉन गॉटफ्रेड हर्डर को माना जाता है, जिन्होंने 18वीं सदी में पहली बार इस शब्द का प्रयोग करके जर्मन राष्ट्रवाद की नींव डाली थी। उस समय यह सिद्धान्त दिया गया कि राष्ट्र केवल समान भाषा, नस्ल, धर्म या क्षेत्र से बनता है। उसे आधार बनाकर ही कुछ लोग हिंदू संस्कृति और भारत की मूल प्रकृति को जाने-समझे बिना उग्र या आक्रामक राष्ट्रवाद का रोना रोते रहते हैं।
वस्तुतः भारत के मर्म और मन को पहचान पाने में असमर्थ विचारधाराओं ने ही सार्वजनिक विमर्श में हिंदू, हिंदुत्व, राष्ट्रीय, राष्ट्रीयत्व जैसे  विचारों एवं शब्दों को नितांत वर्जित और अस्पृश्य माना है। जो चिंतक-विचारक-राजनेता या सर्वसाधारण लोग भारत को भारत की दृष्टि से देखते, समझते और जानते रहे हैं उन्हें न तो इन शब्दों से कोई आपत्ति है, न इनके कथित उभार से। बल्कि हिंदू-दर्शन, हिंदू-चिंतन, हिंदू जीवन सबके लिए आश्वस्तकारी है। वहाँ सब प्रकार की कट्टरता और आक्रामकता का पूर्णतः निषेध है। वहाँ सामूहिक मतों-मान्यताओं-विश्वासों के साथ-साथ व्यक्ति-स्वातंत्र्य एवं  सर्वथा भिन्न-मौलिक-अनुभूत सत्य के लिए भी पर्याप्त स्थान है।

उन्हें भी होगा कोविड-19 सा डर

—विनय कुमार विनायक
चलते हैं हम मास्क लगाकर
जैसे रुस का ऋक्ष और भारत के
टोटमवादी वानर जामवंत, हनुमान
कभी बन जाते थे ब्राह्मण और
कभी पूंछधारी लंगूर सा बन्दर!

शायद उन्हें भी होगा कोविड-19 सा
मानव प्रजाति के विनाश का कोई डर!

मानव जो भयभीत रहते
अपने अस्तित्व बचाने को लेकर
तकनीकी यद्यपि थी काफी विकसित,
हनुमान उड़ सकते थे सिंगल सीटर
वायुयान की तरह आसमान और समुद्र पर!
राम सूखा सकते थे एक बाण से समंदर!

फिर भी सीता को खोज रहे थे
वन-वन विचरण करके नर-वानर मिलकर!

संकल्प से जल उठती थी अग्नि,
लक्ष्मण रेखा को लांघने पर
मंत्र पूत अग्नि पहचान लेती थी
किसे जलाना और किसे जिलाना है!

मंत्र से चल सकता था ब्रह्मास्त्र,
आज सा रिमोट का इंटर कांटीनेंटल मिसाइल,
ब्रह्मोस,राफाल,युद्धक विमान, आग्नेयास्त्र!

फिर भी अधिनायकवादी रावण से
सहमी थी विश्व भर की तमाम प्रजातियां;
देव,मानव, वनवासी समस्त चराचर!

रावण था चीन के जैसा छली-छद्मवेशी
विश्व विनाशक मानसिकता वाला,
विश्व की महाशक्तियों को डराने वाला,
विषाणु-जीवाणु का हथियार बनाने वाला,
अतिमहत्वाकांक्षी, रावण ने हरण किया था
भारत की भूमिजा का किन्तु भारत के
महाबली महानायक से डरकर,भारत भू
अस्मिता का स्पर्श तक नहीं किया था!

रावण हारा था भारत के शौर्य से,
चीन भी हारेगा अपने जैविक हथियार सहित
भारत की वीर विजयिनी सेना से!

कोविड-19 जल्द मरेगा मास्कधारी डॉक्टर,
वैज्ञानिक और भारत जन की जिजीविषा से!
—विनय कुमार विनायक

राजनीति के महायोध्दा थे अटल बिहारी वाजपेयी जी

  (96वें जन्मदिवस 25 दिसम्बर 2020 पर विशेष आलेख)

भारत माँ के सच्चे सपूत, राष्ट्र पुरुष, राष्ट्र मार्गदर्शक, सच्चे देशभक्त ना जाने कितनी उपाधियों से पुकार जाता था भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी जी को वो सही मायने में भारत रत्न थे। इन सबसे भी बढ़कर पंडित अटल बिहारी वाजपेयी जी एक अच्छे इंसान थे। जिन्होंने जमीन से जुड़े रहकर राजनीति की और ‘‘जनता के प्रधानमंत्री’’ के रूप में लोगों के दिलों में अपनी खास जगह बनायी थी। एक ऐसे इंसान जो बच्चे, युवाओं, महिलाओं, बुजुर्गों सभी के बीच में लोकप्रिय थे। देश का हर युवा, बच्चा उन्हें अपना आदर्श मानता था। अटल बिहारी वाजपेयी जी ने आजीवन अविवाहित रहने का निर्णय लिया और जिसका उन्होंने अपने अंतिम समय तक निर्वहन किया। बेशक अटल बिहारी वाजपेयी जी कुंवारे थे लेकिन देश का हर युवा उनकी संतान की तरह था। देश के करोङो बच्चे और युवा उनकी संतान थे। पंडित अटल बिहारी वाजपेयी जी का बच्चों और युवाओं के प्रति खास लगाव था। इसी लगाव के कारण पंडित अटल बिहारी वाजपेयी जी बच्चों और युवाओं के दिल में खास जगह बनाते थे। भारत की राजनीति में मूल्यों और आदर्शों को स्थापित करने वाले राजनेता और प्रधानमंत्री के रूप में पंडित अटल बिहारी वाजपेयी जी का काम बहुत शानदार रहा। उनके कार्यों की बदौलत ही उन्हें भारत के ढांचागत विकास का दूरदृष्टा कहा जाता है। सब के चहेते और विरोधियों का भी दिल जीत लेने वाले बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी पंडित अटल बिहारी वाजपेयी का सार्वजनिक जीवन बहुत ही बेदाग और साफ सुथरा था इसी बेदाग छवि और साफ सुथरे सार्वजनिक जीवन की वजह से अटल बिहारी वाजपेयी जी का हर कोई सम्मान करता था। उनके विरोधी भी उनके प्रशंसक थे। पंडित अटल बिहारी वाजपेयी जी के लिए राष्ट्रहित सदा सर्वोपरि रहा। तभी उन्हें राष्ट्रपुरुष कहा जाता था। पंडित अटल बिहारी वाजपेयी जी की बातें और विचार सदां तर्कपूर्ण होते थे और उनके विचारों में जवान सोच झलकती थी। यही झलक उन्हें युवाओं में लोकप्रिय बनाती थी। पंडित अटल बिहारी वाजपेयी जी जब भी संसद में अपनी बात रखते थे तब विपक्ष भी उनकी तर्कपूर्ण वाणी के आगे कुछ नहीं बोल पाता था। अपनी कविताओं के जरिए अटल जी हमेशा सामाजिक बुराइयों पर प्रहार करते रहे। उनकी कवितायेँ उनके प्रशंसकों को हमेशा सही रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करती रहेंगी 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक से लेकर प्रधानमंत्री तक का सफर तय करने वाले युग पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी जी का जन्म ग्वालियर में बड़े दिन के अवसर पर 25 दिसम्बर 1924 को हुआ। अटल जी के पिता का नाम पण्डित कृष्ण बिहारी वाजपेयी और माता का नाम कृष्णा वाजपेयी था। पिता पण्डित कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर में अध्यापक थे। कृष्ण बिहारी वाजपेयी साथ ही साथ हिन्दी व ब्रज भाषा के सिद्धहस्त कवि भी थे। अटल बिहारी वाजपेयी मूल रूप से उत्तर प्रदेश राज्य के आगरा जिले के प्राचीन स्थान बटेश्वर के रहने वाले थे। इसलिए अटल बिहारी वाजपेयी का पूरे ब्रज सहित आगरा से खास लगाव था। अटल बिहारी वाजपेयी जी की बी०ए० की शिक्षा ग्वालियर के वर्तमान में लक्ष्मीबाई कालेज के नाम से जाने वाले विक्टोरिया कालेज में हुई। ग्वालियर के विक्टोरिया कालेज से स्नातक करने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने कानपुर के डी. ए. वी. महाविद्यालय से कला में स्नातकोत्तर उपाधि भी प्रथम श्रेणी में प्राप्त की। अटल बिहारी वाजपेयी एक प्रखर वक्ता और कवि थे। ये गुण उन्हें उनके पिता से वंशानुगत मिले। अटल बिहारी वाजपेयी जी को स्कूली समय से ही भाषण देने का शोक था और स्कूल में होने वाली वाद-विवाद, काव्य पाठ और भाषण जैसी प्रतियोगिताएं में हमेशा हिस्सा लेते थे। अटल बिहारी वाजपेयी छात्र जीवन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बने और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में हिस्सा लेते रहे। अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने जीवन में पत्रकार के रूप में भी काम किया और लम्बे समय तक राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन आदि राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। अटल बिहारी वाजपेयी जी भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य थे और उन्होंने लंबे समय तक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसे प्रखर राष्ट्रवादी नेताओं के साथ काम किया।

पंडित अटल बिहारी वाजपेयी सन् 1968 से 1973 तक भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे। अटल बिहारी वाजपेयी सन् 1957 के लोकसभा चुनावों में पहली बार उत्तर प्रदेश की बलरामपुर लोकसभा सीट से जनसंघ के प्रत्याशी के रूप में विजयी होकर लोकसभा में पहुँचे। अटल जी 1957 से 1977 तक लगातार जनसंघ की और से संसदीय दल के नेता रहे। अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने ओजस्वी भाषणों से देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू तक को प्रभावित किया। एक बार अटल बिहारी वाजपेयी के संसद में दिए ओजस्वी भाषण को सुनकर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उनको भविष्य का प्रधानमंत्री तक बता दिया था। और आगे चलकर पंडित जवाहर लाल नेहरू की भविष्यवाणी सच भी साबित हुई। अटल बिहारी वाजपेयी का व्यक्तित्व बहुत ही मिलनसार था। उनके विपक्ष के साथ भी हमेशा सम्बन्ध मधुर रहे। 1971 के भारत पाकिस्तान युध्द में विजयश्री के साथ बांग्लादेश को आजाद कराकर पाक के 93 हजार सैनिकों को घुटनों के बल भारत की सेना के सामने आत्मसमर्पण करवाने वाली देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी जी को अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में दुर्गा की उपमा से सम्मानित किया था। और 1975 में इंदिरा गाँधी द्वारा आपातकाल लगाने का अटल बिहारी वाजपेयी ने खुलकर विरोध किया था। आपातकाल की वजह से इंदिरा गाँधी को 1977 के लोकसभा चुनावों में करारी हार झेलनी पड़ी। और देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार जनता पार्टी के नेतृत्व में बनी जिसके मुखिया स्वर्गीय मोरारजी देसाई थे। और अटल बिहारी वाजपेयी को विदेश मंत्री जैसा महत्वपूर्ण विभाग दिया गया। अटल बिहारी वाजपेयी ने विदेश मंत्री रहते हुये पूरे विश्व में भारत की छवि बनायीं। और विदेश मंत्री के रूप में संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण देने वाले देश के पहले वक्ता बने। अटल जी 1977 से 1979 तक देश के विदेश मंत्री रहे। 1980 में जनता पार्टी के टूट जाने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने सहयोगी नेताओं के साथ भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की। अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय जनता पार्टी के पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। 1996 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। भाजपा द्वारा सर्वसम्मति से संसदीय दल का नेता चुने जाने के बाद अटलजी देश के प्रधानमंत्री बने। लेकिन अटल जी 13 दिन तक देश के प्रधानमंत्री रहे। उन्होंने अपनी अल्पमत सरकार का त्यागपत्र राष्ट्रपति को सौंप दिया। 1998 में भाजपा फिर दूसरी बार सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और अटल बिहारी वाजपेयी दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री बने। लेकिन 13 महीने बाद तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय जयललिता के समर्थन वापस लेने से उनकी सरकार गिर गयी। लेकिन इस बीच अटल बिहारी वाजपेयी ने  प्रधानमंत्री रहते हुए दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए पोखरण में पाँच भूमिगत परमाणु परीक्षण विस्फोट कर सम्पूर्ण विश्व को भारत की शक्ति का एहसास कराया। अमेरिका और यूरोपीय संघ समेत कई देशों ने भारत पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए लेकिन उसके बाद भी भारत अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में हर तरह की चुनौतियों से सफलतापूर्वक निबटने में सफल रहा। अटल बिहारी वाजपेयी ने दूसरी बार प्रधानमंत्री रहते हुए पाकिस्तान से संबंधों में सुधार की पहल की और पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने 19 फरवरी 1999 को सदा-ए-सरहद नाम से दिल्ली से लाहौर तक बस सेवा शुरू कराई। इस सेवा का उद्घाटन करते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान की यात्रा करके नवाज शरीफ से मुलाकात की और आपसी संबंधों में एक नयी शुरुआत की। लेकिन कुछ ही समय पश्चात् पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ की शह पर पाकिस्तानी सेना व पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादियों ने कारगिल क्षेत्र में घुसपैठ करके कई पहाड़ी चोटियों पर कब्जा कर लिया।  भारतीय सेना और वायुसेना ने पाकिस्तान द्वारा कब्जा की गयी जगहों पर हमला किया और पाकिस्तान को सीमा पार वापिस जाने को मजबूर किया। एक बार फिर पाकिस्तान को मुँह की खानी पड़ी और भारत को विजयश्री मिली। कारगिल युध्द की विजयश्री का पूरा श्रेय अटल बिहारी वाजपेयी को दिया गया। कारगिल युध्द में विजयश्री के बाद हुए 1999 के लोकसभा चुनाव में भाजपा फिर अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बाद भाजपा ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 13 दलों से गठबंधन करके राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के रूप में सरकार बनायी। और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने अपना पूरा पांच साल का कार्यकाल पूर्ण किया।  इन पाँच वर्षों में अटल बिहारी वाजपेयी ने देश के अन्दर प्रगति के अनेक आयाम छुए। और राजग सरकार ने गरीबों, किसानों और युवाओं के लिए अनेक योजनाएं लागू की। अटल सरकार ने भारत के चारों कोनों को सड़क मार्ग से जोड़ने के लिए स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना की शुरुआत की और  दिल्ली, कलकत्ता, चेन्नई व मुम्बई को राजमार्ग से जोड़ा गया। 2004 में कार्यकाल पूरा होने के बाद देश में लोकसभा चुनाव हुआ और भाजपा के नेतृत्व वाले राजग ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में शाइनिंग इंडिया का नारा देकर चुनाव लड़ा। लेकिन इन चुनावों में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला। लेकिन वामपंथी दलों के समर्थन से काँग्रेस ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व में केंद्र की सरकार बनायी और भाजपा को विपक्ष में बैठना पड़ा। इसके बाद लगातार अस्वस्थ्य रहने के कारण अटल बिहारी वाजपेयी ने राजनीति से सन्यास ले लिया। अटल जी को देश-विदेश में अब तक अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 2015 में भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को उनके घर जाकर सम्मानित किया। भारतीय राजनीति के युगपुरुष, श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ, कोमलहृदय संवेदनशील मनुष्य, वज्रबाहु राष्ट्रप्रहरी, भारतमाता के सच्चे सपूत, अजातशत्रु पूर्व प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी का 16 अगस्त 2018 को 93 साल की उम्र में निधन हो गया। उनका व्यक्तित्व हिमालय के समान विराट था। अटल जी भारत देश के लोगों के जीवन में अपनी महान उपलब्धियों और अपने विचारों का ऐसा उजाला डाल कर गए हैं जो कि देश के नौजवानों को सदां राह दिखाते रहेंगे। अटल जी सदां मुस्कराहट का परिधान पहने रहते थे उनकी मुस्कराहट उनकी आत्मा के गुणों को दर्शाती थी उनकी आत्मा सच में एक पवित्र आत्मा थी जिसे दैवीय शक्ति प्राप्त थी। अटल जी की ईमानदारी, शालीनता, सादगी और सौम्यता हर किसी का दिल जीत लेती थी। उनके जीवन दर्शन और कविताओ ने भारत के युवाओं को एक नई प्रेरणा दी। करोङो लोगों के वह रोल मॉडल हैं। भारत के लोकप्रिय प्रधानमंत्री के रूप में देश के आर्थिक विकास और गरीब वर्ग के सामाजिक कल्याण के लिए उनके योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा। भारतीय राजनीति के भीष्म पितामह को राष्ट्र हमेशा याद करेगा। उनकी अटल आवाज और उनके किये महान कार्य हमेशा राष्ट्र के बीच अमर रहेंगे।

घर में बच्चे दो ही अच्छे नीति कर देगी सामाजिक बंधन कच्चे

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण -5 (एनएफएचएस -5) के नवीनतम आंकड़ों से पता चलता है कि भारत को घर में बच्चे दो ही अच्छे नीति की आवश्यकता नहीं है। रिपोर्ट का कहना है कि ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में आधुनिक गर्भ निरोधकों का उपयोग से परिवार नियोजन मांगों में सुधार को पूरा किया जा रहा है। बच्चों की औसत संख्या में गिरावट ये साबित करते हैं कि देश की आबादी स्थिर है। कुल प्रजनन दर (प्रति महिला जन्म लेने वाले बच्चों की संख्या) 17 में से 14 राज्यों में कम हो गई है और या तो प्रति महिला 2.1 बच्चे या उससे कम है।

आलोचकों का तर्क है कि भारत की जनसंख्या वृद्धि स्वाभाविक रूप से धीमी हो जाएगी क्योंकि देश समृद्ध और अधिक शिक्षित होता जा रहा है। चीन की एक-बाल नीति के साथ पहले से ही अच्छी तरह से प्रलेखित समस्याएं हैं, अर्थात् लिंग असंतुलन जो पहले से ही उनके एक बच्चे के माता-पिता से पैदा हुए थे। जन्म दर के साथ हस्तक्षेप नकारात्मक जनसंख्या वृद्धि के साथ भविष्य का सामना करता है, जो अधिकांश विकसित देशों को उलटने की कोशिश कर रही है। संबंधित कानून महिला विरोधी भी हो सकता है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का तर्क है कि कानून जन्म से ही महिलाओं के खिलाफ भेदभाव (गर्भपात या कन्या भ्रूण और शिशुओं के गर्भपात के माध्यम से) करता है। दो बच्चों के लिए एक कानूनी प्रतिबंध युगल को सेक्स-चयनात्मक गर्भपात के लिए जाने के लिए मजबूर कर सकता है क्योंकि उनके पास केवल दो ‘प्रयास’ होते हैं।

परिवार नियोजन सेवाएं “व्यक्तियों और दंपतियों को अपने बच्चों की वांछित संख्या और अंतर और उनके जन्म की समय-सीमा का अनुमान लगाने और प्राप्त करने की क्षमता है। भारत में परिवार नियोजन बड़े पैमाने पर भारत सरकार द्वारा प्रायोजित प्रयासों पर आधारित है। 1965 से 2009 तक, गर्भनिरोधक उपयोग तीन गुना से अधिक (1970 में 2009 में विवाहित महिलाओं की 13% से 2009 में) और प्रजनन दर आधी से अधिक है (1966 में 2.4 से 2012 में 2.4), लेकिन राष्ट्रीय प्रजनन दर निरपेक्ष संख्या में अधिक रहता है, जिससे दीर्घकालिक जनसंख्या वृद्धि की चिंता होती है। भारत हर 20 दिनों में अपनी जनसंख्या में 1,000,000 लोगों को जोड़ता है

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या अनुमान के अनुसार सदी के अंत तक दुनिया की आबादी 11 बिलियन तक पहुंच जाएगी। 2050 तक वैश्विक आबादी में अनुमानित वृद्धि का आधा हिस्सा सिर्फ 9 देशों में केंद्रित होगा। इसमें भारत और इसके बाद नाइजीरिया, पाकिस्तान, कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य, इथियोपिया, तंजानिया, इंडोनेशिया, मिस्र और अमेरिका हैं। 2031 तक भारत जनसंख्या वृद्धि में चीन से आगे निकल जाएगा। 2012 से 2019 तक भारत परिवार नियोजन के लिए 2.8 बिलियन डॉलर का आवंटन कर चुका है। अनुमान के अनुसार, भारत में गर्भ निरोधकों की मांग 74.3% है।

भारत सरकार ने राज्यों में गर्भ निरोधकों और परिवार नियोजन सेवाओं की पहुंच बढ़ाने के लिए मिशन परिवार विकास शुरू किया है। नई गर्भनिरोधक विकल्प इंजेक्शन और गर्भ निरोधक को जोड़ा गया है।डिलीवरी के तुरंत बाद आईयूसीडी सम्मिलन की एक नई विधि यानी पोप-पार्टम आईयूसीडी (पीपीआईयूसीडी) शुरू की गई है। गर्भनिरोधक पैकेजिंग और कंडोम पैकेजिंग में अब सुधार किया गया है और इन वस्तुओं की मांग को बढ़ाने के लिए फिर से डिज़ाइन किया गया है।

लाभार्थियों के दरवाजे पर आशा द्वारा गर्भ निरोधकों के वितरण के लिए योजना, जन्मों में अंतर सुनिश्चित करने के लिए योजना, समुदाय में उपयोग के लिए आशा की दवा किट में प्रेगनेंसी परीक्षण किट के प्रावधान के लिए योजना, फैमिली प्लानिंग लॉजिस्टिक मैनेजमेंट एंड इंफॉर्मेशन सिस्टम (एफपी-एलएमआईएस), स्वास्थ्य सुविधाओं के सभी स्तरों पर परिवार नियोजन वस्तुओं के सुचारू पूर्वानुमान, खरीद और वितरण को सुनिश्चित करने के लिए एक समर्पित सॉफ्टवेयर, राष्ट्रीय परिवार नियोजन क्षतिपूर्ति योजना के तहत ग्राहकों को मृत्यु, जटिलता और नसबंदी के बाद विफलता की स्थिति में बीमा शुरू किया गया है।

भारत में बच्चे पैदा करने की आवश्यकता पर जोर देने वाले भाग्यवाद और धार्मिक विश्वास के कारण जन्म नियंत्रण के उपाय लोगों को उनके कथित भ्रमात्मक दुष्प्रभावों, संवेदनाहारी विशेषताओं आदि के कारण स्वीकार्य नहीं होते हैं। परिवार नियोजन के तरीके भी उतने प्रभावी नहीं हैं। उदाहरण के लिए, पारंपरिक गर्भनिरोधक केवल 50% प्रभावी हैं। पितृसत्ता भी ज्यादा बच्चों की ओर ले जाती है। संबंधित कानून महिला विरोधी भी हो सकता है। महिलायें पुरुषों की देखभाल करने वाली और बच्चे की देखभाल करने वाली हैं इसलिए महिला अपने प्रजनन स्वास्थ्य पर नियंत्रण खो देती है और परिवार नियोजन के उपाय अपनाती है

द मिसिंग वुमन में अमर्त्य सेन ने खूबसूरती से प्रस्तुत किया कि आर्थिक गतिशीलता कुल जनसंख्या भार को कैसे कम करती है, लेकिन प्रौद्योगिकी के माध्यम से चयनात्मक प्रजनन को बढ़ाती है। नारी का शैक्षणिक स्तर उन्हें परिवार नियोजन के प्रति जागरूक करता है। प्रभावी गर्भनिरोधक उपाय और अंतर्गर्भाशयी कार्यक्रम विशेष रूप से निम्न आय वर्ग के परिवारों को लक्षित करते हैं। उदाहरण के लिए: गर्भनिरोधक सेवाएं, आपूर्ति और जन्म नियंत्रण के बारे में जानकारी प्रदान करने के लिए अमेरिका का शीर्षक X परिवार कार्यक्रम।

भारत को इंडोनेशिया की बंजार प्रणाली से सीखना चाहिए। सरकारी प्रयासों को गाँव परिवार समूहों के माध्यम से स्थानीयकृत किया जाना चाहिए। दूरदराज के स्थानों और पृथक परिवारों तक पहुंचने के लिए परिवार कल्याण सहायकों का निर्माण जैसे बांग्लादेश ने परिवार कल्याण सहायकों के माध्यम से दक्षिण एशिया में सबसे कम प्रजनन दर हासिल की है। गाँव समुदाय के सदस्यों को प्रशिक्षित करके, सरकार गाँव स्वयं सहायता समूह भी बना सकती है। ये समूह ग्रामीणों को उपलब्ध जन्म नियंत्रण उपायों पर शिक्षित कर सकते हैं। शहरों में, कम आय वाले परिवारों के साथ क्षेत्रों की पहचान की जानी चाहिए और अन्य गर्भनिरोधक तरीकों पर जागरूकता फैलाने के लिए प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मियों को भेजा जाना चाहिए।

जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रमों का मुख्य लक्ष्य यह होना चाहिए कि पुरुषों और महिलाओं दोनों को सूचित विकल्प बनाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के साथ सभी नसबंदी शिविरों को बंद करने और राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के लिए भारत सरकार को जनसंख्या नियंत्रण लक्ष्यों का मूल्यांकन करना महत्वपूर्ण है।

जम्मू-कश्मीर चुनाव का अर्थ

डॉ वेदप्रताप वैदिक
जम्मू-कश्मीर के जिला विकास परिषद के चुनाव-परिणामों का क्या अर्थ निकाला जाए ? उसकी 280 सीटों में से गुपकार गठबंधन को 144 सीटें, भाजपा को 72, कांग्रेस को 26 और निर्दलीयों को बाकी सीटें मिली हैं। असली टक्कर गुपकार मोर्चे और भाजपा में है। दोनों दावा कर रहे हैं कि उनकी विजय हुई है। कांग्रेस ने अपने चिन्ह पर चुनाव लड़ा है लेकिन वह गुपकार के साथ है और निर्दलीयों का पता नहीं कि कौन किसके खेमे में जाएगा। गुपकार मोर्चे के नेता डाॅ. फारुक अब्दुल्ला का कहना है कि जम्मू-कश्मीर के लोगों ने धारा 370 और 35 ए को खत्म करने के केंद्र सरकार के कदम को रद्द कर दिया है। इसका प्रमाण यह भी है कि इस बार हुए इन जिला चुनावों में 51 प्रतिशत से ज्यादा लोगों ने मतदान किया। 57 लाख मतदाताओं में से 30 लाख से ज्यादा लोग कड़ाके की ठंड में भी वोट डालने के लिए सड़कों पर उतर आए। वे क्यों उतर आए ? क्योंकि वे केंद्र सरकार को अपना विरोध जताना चाहते हैं। अंदाज लगाया जा रहा है कि अब 20 जिला परिषदों में से 13 गुपकार के कब्जे में होंगी। गुपकार-पार्टियों ने गत वर्ष हुए दो स्थानीय चुनावों का बहिष्कार किया था लेकिन इन जिला-चुनावों में उसने भाग लेकर दर्शाया है कि वह लोकतांत्रिक पद्धति में विश्वास करती है। इसके बावजूद उसे जो प्रचंड बहुमत मिलने की आशा थी, वह इसलिए भी नहीं मिला हो सकता है कि एक तो उसके नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के तीखे आरोप लगे, उनमें से कुछ ने पाकिस्तान और कुछ ने चीन के पक्ष में अटपटे बयान दे दिए। इन पार्टियों के कुछ महत्वपूर्ण नेताओं ने अपने पद भी त्याग दिए। इतना ही नहीं, पहली बार ऐसा हुआ है कि कश्मीर की घाटी में भाजपा के तीन उम्मीदवार जीते हैं। पार्टी के तौर पर इस चुनाव में भाजपा ने अकेले ही सबसे ज्यादा सीटें जीती हैं लेकिन जम्मू-क्षेत्र में 70 से ज्यादा सीटें जीतने के बावजूद उसकी सीटें कम हुई हैं। उसका कारण शायद यह रहा हो कि इस बार कश्मीरी पंडितों ने ज्यादा उत्साह नहीं दिखाया और भाजपा ने इस बार विकास आधारित रचनात्मक अभियान पर कम और गुपकार को सिर्फ बदनाम करने में ज्यादा ताकत लगाई। अब यदि ये जिला-परिषदें ठीक से काम करेंगी और उप-राज्यपाल मनोज सिंह उनसे संतुष्ट होंगे तो कोई आश्चर्य नहीं कि नए साल में जम्मू-कश्मीर फिर से पूर्ण राज्य बन जाएगा। 

जलवायु परिवर्तन का पृथ्वी पर अति-गम्भीर प्रभाव एवं भारत के प्रयास

कई अनुसंधान प्रतिवेदनों के माध्यम से अब यह सिद्ध किया जा चुका है कि वर्तमान में  अनियमित हो रहे मानसून के पीछे जलवायु परिवर्तन का योगदान हो सकता है। कुछ ही  घंटों में पूरे महीने की सीमा से भी अधिक बारिश का होना, शहरों में बाढ़ की स्थिति  निर्मित होना, शहरों में भूकम्प के झटके एवं साथ में सुनामी का आना, आदि प्राकृतिक  आपदाओं जैसी घटनाओं के बार-बार घटित होने के पीछे भी जलवायु परिवर्तन एक मुख्य कारण हो सकता है। एक अनुसंधान प्रतिवेदन के अनुसार, यदि वातावरण में 4 डिग्री सेल्सियस से तापमान बढ़ जाय तो भारत के तटीय किनारों के आसपास रह रहे लगभग  5.5 करोड़ लोगों के घर समुद्र में समा जाएंगे। साथ ही, चीन के शांघाई, शांटोयु, भारत के कोलकाता, मुंबई, वियतनाम के हनोई एवं बांग्लादेश के खुलना शहरों की इतनी ज़मीन समुद्र में समा जाएगी कि इन शहरों की आधी आबादी पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा। वेनिस एवं पीसा की मीनार सहित यूनेस्को विश्व विरासत के दर्जनों स्थलों पर समुद्र के बढ़ते स्तर का विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी एक प्रतिवेदन के अनुसार, पिछले 20 वर्षों के दौरान जलवायु सम्बंधी आपदाओं के कारण भारत को 7,950 करोड़ अमेरिकी डॉलर का नुक़सान हुआ है। जलवायु सम्बंधी आपदाओं के चलते वर्ष 1998-2017 के दौरान, पूरे विश्व में  290,800 करोड़ अमेरिकी डॉलर का नुक़सान हुआ है। सबसे ज़्यादा नुक़सान अमेरिका, चीन, जापान, भारत जैसे देशों को हुआ है। बाढ़ एवं समुद्री तूफ़ान, बार बार घटित होने वाली दो मुख्य आपदाएं पाईं गईं हैं। उक्त अवधि के दौरान, उक्त आपदाओं के कारण  13 लाख लोगों ने अपनी जान गवाईं।

संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि प्रतिवर्ष विश्व में 1.20 करोड़ हेक्टेयर कृषि उपजाऊ भूमि ग़ैर-उपजाऊ भूमि में परिवर्तित हो जाती है।  दुनियां में 400 करोड़ हेक्टेयर ज़मीन डिग्रेड हो चुकी है। एशिया एवं अफ़्रीका की लगभग 40 प्रतिशत आबादी ऐसे क्षेत्रों में रह रही है, जहां मरुस्थलीकरण का ख़तरा लगातार बना हुआ है। इनमें से अधिकतर लोग अपनी आजीविका के लिए कृषि एवं पशु-पालन जैसे व्यवसाय पर निर्भर हैं।  भारत की ज़मीन का एक तिहाई हिस्सा, अर्थात 9.7 करोड़ से 10 करोड़ हेक्टेयर के बीच ज़मीन डिग्रेडेड है। ज़मीन के डिग्रेड होने से  ज़मीन की जैविक एवं आर्थिक उत्पादकता कम होने लगती है। दूसरा, पैदावार की लाभप्रदता एवं किसान की आय पर भी असर होता है। तीसरा, छोटे एवं सीमांत किसान जिनके पास बहुत ही कम ज़मीन है उनकी तो रोज़ी रोटी पर ही संकट आ जाता है। रोज़गार के अवसर कम होते जाते हैं एवं लोग गावों से शहरों की ओर पलायन करने लगते है। ज़मीन के डेग्रडेशन की वजह से देश को  4600 करोड़ अमेरिकी डॉलर का नुक़सान प्रतिवर्ष हो रहा है।

सिंगल यूज़ प्लास्टिक अपनी रासायनिक संरचना के कारण, आसानी से नष्ट नहीं होता है एवं इसे आसानी से रीसायकल भी नहीं किया जा सकता है। यह ज़मीन में सैकड़ों वर्षों तक बना रहता है और कभी नष्ट नहीं होता, इससे ज़मीन बंजर हो जाती है। प्लास्टिक थैले, कटलरी, पानी की बोतल, ग्लास-कप, स्ट्रॉ, सेशे-पाउच और थरमाकाल से बनी कटलरी, इस श्रेणी में गिनी जाती है। सिंगल यूज़ प्लास्टिक डम्प साइट पर बायोडीग्रेडेबल वेस्ट से मिलकर मीथेन गैस बनाता है। यही पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है। मीथेन गैस कार्बन डायआक्सायड की तुलना में 30 गुना अधिक ख़तरनाक है। जलवायु परिवर्तन के लिए भी यही गैस ख़ास तौर से ज़िम्मेदार मानी जाती है। हर साल प्रत्येक भारतीय औसतन 11 किलो सिंगल यूज़ प्लास्टिक का इस्तेमाल करता है। प्लास्टिक उत्पादन में भारत का दुनिया में 5वां स्थान है। हर साल देश में 56 लाख टन कचरे का उत्पादन होता है, जिसमें से सिंगल यूज़ प्लास्टिक का कचरा 25 हज़ार टन का निकलता है। दुनिया में प्लास्टिक का उत्पादन 300 करोड़ टन के पार हो चुका है। प्लास्टिक जल कर हवा में कार्बन डाय आक्सायड को बढ़ाता है। प्लास्टिक में मौजूद कसनोजेनिक केमिकल से कैन्सर होने की आशंका रहती है।

उक्त वर्णित आंकड़ों से स्थिति की भयावहता का पता चलता है। अतः यदि हम अभी भी  नहीं चेते तो आगे आने वाले कुछ समय में इस पृथ्वी का विनाश निश्चित है।

जलवायु परिवर्तन में सुधार हेतु भारत सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयास

जलवायु परिवर्तन में सुधार हेतु भारत तेज़ी से सौर ऊर्जा एवं वायु ऊर्जा की क्षमता विकसित कर रहा है। उज्जवला योजना एवं एलईडी बल्ब योजना के माध्यम से तो भारत पूरे विश्व को ऊर्जा की दक्षता का पाठ सिखा रहा है। ई-मोबिलिटी के माध्यम से वाहन उद्योग को गैस मुक्त बनाया जा रहा है। बायो इंधन के उपयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है, पेट्रोल एवं डीज़ल में ईथनाल को मिलाया जा रहा है। 15 करोड़ से अधिक परिवारों को कुकिंग गैस उपलब्ध करा दी गई है।  भारत द्वारा प्रारम्भ किए गए अंतरराष्ट्रीय सौर अलायंस के 80 से अधिक देश सदस्य बन चुके हैं। वैश्विक तापमान के प्रभाव को कुछ हद्द तक कम करने के उद्देश्य से भारत ने पहिले तय किया था कि देश में 175 GW नवीकरण ऊर्जा की स्थापना की जायगी। इस लक्ष्य को हासिल करने की ओर भारत तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। अब भारत ने अपने लिए देश में नवीकरण ऊर्जा की स्थापना के लिए एक नया लक्ष्य, अर्थात 450 GW निर्धारित किया है।

देश में बढ़ते मरुस्थलीकरण को रोकने के उद्देश्य से, भारत ने वर्ष 2030 तक 2.10 करोड़ हेक्टेयर ज़मीन को उपजाऊ बनाने के लक्ष्य को बढ़ाकर 2.60 करोड़ हेक्टेयर कर दिया है। साथ ही, भारत ने मरुस्थलीकरण को बढ़ने से रोकने के लिए वर्ष 2015 एवं 2017 के बीच देश में पेड़ एवं जंगल के दायरे में 8 लाख हेक्टेयर की बढ़ोतरी की है। केंद्र सरकार की एक बहुत ही अच्छी पहल पर अभी तक 27 करोड़ से अधिक मिट्टी स्वास्थ्य कार्ड किसानों को जारी किए जा चुके हैं। इसमें मिट्टी की जांच में पता लगाया जाता है कि किस पोशक तत्व की ज़रूरत है एवं उसी हिसाब से खाद का उपयोग किसान द्वारा किया जाता है। पोषक तत्वों का संतुलित उपयोग करने से न केवल ज़मीन की उत्पादकता बढ़ती है ब्लिंक उर्वरकों का उपयोग भी कम होता है।

शहरों का विकास व्यवस्थित रूप से करने के उद्देश्य से देश में अब मकानों का लंबवत  निर्माण किये जाने पर बल दिया जा रहा है, ताकि हरियाली के क्षेत्र को बढ़ाया जा सके। स्मार्ट शहर विकसित किए जा रहे हैं। शहरों में यातायात के दबाव को कम करने के उद्देश्य से विभिन्न मार्गों के बाई-पास बनाए जा रहे हैं। क्षेत्रीय द्रुत-गति के रेल्वे यातायात की व्यवस्था की जा रही है, ताकि महानगरों पर जनसंख्या के दबाव को कम किया जा सके। इस रेल्वे ट्रैक के आस पास समावेशी एवं मिश्रित रूप से विकसित शहरों का विकास किया जा रहा है, ताकि इन शहरों में रहने वाले नागरिकों को इनके घरों के आस-पास ही सभी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध हो सकें। देश के विभिन्न महानगरों में मेट्रो रेल का जाल बिछाया जा चुका है एवं कई महानगरों में विस्तार का काम बढ़ी तेज़ी से चल रहा है। देश में 100 स्मार्ट नगर बनाए जा रहे हैं। इन शहरों में नागरिकों के लिए पैदल चलने एवं सायकिल चलाने हेतु अलग मार्ग की व्यवस्थाएं की जा रही हैं एवं इन नागरिकों को पब्लिक ट्रांसपोर्ट के अधिक से अधिक उपयोग हेतु प्रोत्साहित किया जा रहा है।

2 अक्टोबर 2019 से देश में प्लास्टिक छोड़ो अभियान की शुरुआत हो चुकी है, ताकि वर्ष 2022 तक देश सिंगल यूज़ प्लास्टिक से मुक्त हो जाय। जो सिंगल यूज़ प्लास्टिक रीसायकल नहीं किया जा सकता उसका इस्तेमाल सिमेंट और सड़क बनाने के काम में किया जा सकता है। जल शक्ति अभियान की शुरुआत दिनांक 1 जुलाई 2019 से जल शक्ति मंत्रालय द्वारा कर दी गई है। यह अभियान देश में स्वच्छ भारत अभियान की तर्ज़ पर जन भागीदारी के साथ चलाया जा रहा है।  इस अभियान के अंतर्गत बारिश के पानी का संग्रहण, जल संरक्षण एवं पानी का प्रबंधन आदि कार्यों पर ध्यान दिया जा रहा है।

सुझाव

देश में हर मकान के लिए वर्षा के जल का संग्रहण आवश्यक कर देना चाहिए, ताकि पृथ्वी के जल को रीचार्ज किया जा सके। हर घर में नवीकरण ऊर्जा का उपयोग आवश्यक कर देना चाहिए, ताकि इन घरों को आवश्यक रूप से सौर ऊर्जा उत्पादन करना पड़े। समस्त कालोनियों एवं मकानों के आस-पास पेड़ों का लगाया जाना आवश्यक कर देना चाहिए। देश में ख़ाली पड़ी पूरी ज़मीन को ग्रीन बेल्ट में बदल दिया जाना चाहिए।  देश में 25 प्रतिशत प्रदूषण, यातायात वाहनों से फैलता है, अतः देशवासियों को यातायात वाहनों में नवीकरण ऊर्जा के उपयोग हेतु प्रेरित किया जाना चाहिए। इससे वातावरण में कार्बन डाई आक्सायड कम होगी एवं ऑक्सिजन की मात्रा बढ़ेगी।

“ प्रति बूंद अधिक पैदावार” के सपने को साकार करने के लिए फ़व्वारा सिंचाई एवं बूंद-बूंद सिंचाई पद्धति को देश में बढ़े स्तर पर अपनाया जाना चाहिए। खोई हुई उर्वरा शक्ति को हासिल करने हेतु  पेड़ों और बड़ी झाड़ियों को खेतों का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। दो खेतों के बीच में ज़मीन खुली न छोड़ें, इससे पोषक तत्वों का नुक़सान होता है।  ख़ाली ज़मीन पर कुछ अन्य पेड़ लगाएं। ज़मीन का उपयोग लगातार करते रहें। मिश्रित खेती करें। जैविक खेती को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

ऐसी फ़सलों जिन्हें लेने में पानी की अधिक आवश्यकता पड़ती है, जैसे गन्ना, अंगूर आदि को देश के उन भागों में स्थानांतरित कर देना चाहिए जहां हर वर्ष अधिक वर्षा के कारण बाढ़ की स्थिति निर्मित हो जाती है। देश की विभिन्न नदियों को जोड़ने के प्रयास भी प्रारम्भ किए जाने चाहिए जिससे देश के एक भाग में बाढ़ एवं दूसरे भाग में सूखे की स्थिति से भी निपटा जा सके। भूजल के अत्यधिक बेदर्दी से उपयोग पर भी रोक लगानी होगी ताकि भूजल के तेज़ी से कम हो रहे भंडारण को बनाए रखा जा सके। प्राथमिक शिक्षा स्तर पर पानी की बचत एवं संरक्षण, आदि विषयों पर विशेष अध्याय जोड़े जाने चाहिए।

प्लास्टिक के उपयोग को सीमित करने के लिए हमें कुछ आदतें अपने आप में विकसित करनी होंगी। यथा, जब भी हम सब्ज़ी एवं किराने का सामान आदि ख़रीदने हेतु जाएं तो कपड़े के थैलों का इस्तेमाल करें। इससे ख़रीदे गए सामान को रखने हेतु प्लास्टिक के थैलियों की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। हम घर में कई छोटे छोटे कार्यों पर ध्यान देकर  पानी की भारी बचत कर सकते हैं। जैसे, टोईलेट में फ़्लश की जगह पर बालटी में पानी का इस्तेमाल करें, दातों पर ब्रश करते समय सीधे नल से पानी लेने के बजाय, एक डब्बे में पानी भरकर ब्रश करें, स्नान करते समय शॉवर का इस्तेमाल न करके, बालटी में पानी भरकर स्नान करें।

पर्यावरण को रीचार्ज करके विकास एवं पर्यावरण के बीच सामंजस्य बिठाया जा सकता है। कचरा एवं प्लास्टिक को रीसायकल करना, प्राकृतिक संसाधनों की दक्षता बढ़ाना, जल का संरक्षण, ऊर्जा का दक्षता से उपयोग, शहरों में हरियाली बढ़ाना, ध्वनि प्रदूषण को कम करना, ग्रीन एंड क्लीन ट्रांसपोर्ट का विकास करना, ठोस अपशिष्ट का सही तरीक़े से प्रबंधन करना, आदि कार्य करके भी पर्यावरण में सुधार किया जा सकता है।    

प्रहलाद सबनानी

स्वाद अपरंपार

हास्य और गाम्भीर्यता की अनूठी रार,

गजब… ‘पोली’ और ‘पोली का यार’

सुशील कुमार ‘नवीन ‘

किसी रिपोर्टर ने हरियाणा के रामल से पूछा कि आप लोग बार-बार कहते सुनाई देते हो कि भई, स्वाद आग्या। ये स्वाद क्या बला है और ये आता कहां से है। रामल ने कहा-चल मेरे साथ।आगे-आगे रामल और पीछे-पीछे रिपोर्टर। दोनों चल पड़े। रास्ते में एक व्यक्ति खाट पर लेटा हुआ था। दोनों पैरों पर प्लास्टर बंधे उस व्यक्ति से रामल ने पूछा-चोट का क्या हाल है भाई। होया कुछ आराम। वो बोला-दर्द तो है पर स्वाद सा आ रहया सै। काम-धाम कुछ नहीं, दोनों टेम घरकै चूरमा बनाकै देण लाग रै सै। हल्दी मिला गरमागर्म दूध जमा तोड़ सा बिठा रहया सै। आगे चले तो दो लुगाई (औरत) गली के बीच में बात करने में जुटी हुई थी। एक सिर पर गोबर भरा बड़ा सा तसला लिए हुए थी तो दूसरी पानी से भरा घड़ा। बातों में इतनी मग्न थी कि तसले और घड़े का वजन भी उन्हें तिनके ज्यूं लग रहा था। एक घण्टे से भी ज्यादा समय उनकी मुलाकात शुरू हुए हो चुका था। अभी भी उन्हें ग्लूकॉन-डी की कमी महसूस नहीं हुई थी। होती भी कैसे दोनूं बैरण सबेरे-सबेरे लास्सी के दो ठाडे (बड़े) गिलास बाजरे के रोट गेल्या चढ़ा कै आ रहयी थी। उनसे भी वही सवाल पूछा तो जवाब मिला। औरे भाई, तू पाछे नै बतलाइए, आज या घणा दिनां म्ह मिली सै, बातां म्ह जमा स्वाद सा आ रहया सै। रिपोर्टर आगे बढ़ना छोड़ पीछे मुड़ लिया। बोला-गजब हो भई। आपके तो स्वाद का भी अलग ही जायका है। दर्द में भी और बोझ में भी स्वाद लेना कोई आपसे सीखे। रामल बोला-ये तो दो सैम्पल दिए हैं स्वाद के। हम तो जीण- मरण, खावण-पीवण, लेवण-देवण, हासण-रोवण, कूटण-पीटण सब जगह स्वाद ले लेते हैं। 

रामल ने कहा-चौपाल तक और चलो। फिर लौट चलेंगे। रिपोर्टर ने फिर से हिम्मत जुटाई और पीछे-पीछे चल पड़ा। चौपाल में चार बुजुर्ग ताश खेल रहे थे। अचानक एक बुजुर्ग जोर से चिल्लाया-इब लिए मेरे स्वाद। दूसरा बोला-कै होया, क्यूं बांदर ज्यूं उछलण लाग रहया सै। हथेलियों में फंसे मच्छर को दिखाकर वो बोला- यो तेरा फूफा इबकै काबू म्ह आया सै। एक घण्टे तै काट-काट सारी पींडी सुजा दी। तीसरा बोला-इब इसनै फैंक दे, कै(क्या) इसका अचार घालेगा। जवाब मिला-न्यू ना फेंकू। घरा ले ज्याकै तेरी भाभी नै गिफ्ट म्ह दयूंगा। रोज कहे जा सै, एक माच्छर ताईं मारा नहीं जांदा तेरे तै। चौथा कहां पीछे रहने वाला था। बोला-देखिये कदै वीर चक्र कै चक्कर में महावीर चक्र मिल ज्या। इतने में हरियाणा वाला बोल पद्य महावीर चक्र का नाम सुनते ही सब बोले-ले भाई, स्वाद आग्या। रिपोर्टर बोला-ये महावीर चक्र का क्या मामला है। और इस पर हंस क्यों रहे है। एक बुजुर्ग बोला-बेटा-एक बार सफाई के दौरान म्हारे इस साथी की घरवाली ने इसे गेहूं की बोरी साइड में रखवाने की कही। साथ में ये कह दिया कि बाहर से किसी को बुला लाओ, अकेले से नहीं उठेगी। यही बात इसके आत्मसम्मान को चुभ गई। बोला-ये बोरी क्या, मैं तो दो बोरी एक-साथ उठा दूं। कह तो दिया इसने पर दो क्या इससे आधी बोरी उठनी सम्भव नहीं थी। किसी तरह घरवाली के सहयोग से इसने एक बोरी पीठ पर लाद ली और बजरंगबली का नाम लेकर चलने का प्रयास किया। एक कदम में ही बजरंगबली से इसका कनेक्शन टूट लिया। ये नीचे और बोरी ऊपर। घरवाली बाहर से दो आदमी बुलाकर लाई और भाई को बोरी के नीचे से निकाला। उस दिन बाद ये बोरी तो छोड़ो सीमेंट के कट्टे उठाने की न सोचे।

     रिपोर्टर ने रामल से अब लौटने को कहा। स्वाद की पूरी बायोग्राफी उसके समझ आ चुकी थी। अब आप सोच रहे होंगे कि ये स्वादपुराण मैंने आपको क्यों पढ़ाया। तो सुनें। किसान आंदोलन के दौरान हरियाणा के एक युवक का मजाकिया वीडियो लगातार चर्चा में है। शुरू-शुरू में सबको सिर्फ ये हंसने-और हंसाने मात्रभर लग रहा था। माना जा रहा था कि किसी भोले युवक के रिपोर्टर स्वाद ले रहे हैं। पर उसके दूसरे वीडियो ने तो पहले वाले वीडियो को और वेल्युबल कर दिया। पहले वीडियो में हरियाणवीं युवक भजन किसान आंदोलन में अपने एक मित्र ‘पोली’ के न आने से नाराजगी दिखा रहा था। कह रहा था कि वो अपनी बहू के डर के कारण यहां नहीं आया। सोशल मीडिया पर ‘पोली’ को उसके द्वारा आंदोलन में शामिल होने के आमंत्रण का तरीका सबको भा गया। जब से ये वीडियो चर्चा में आया, तब से कमेंट में ‘आज्या पोली’ लगातार सुर्खियों में था। अब उसका एक और वीडियो आया है। उसमें भजन के साथ उसका मित्र पोली आ गया है। ये वीडियो भी पहले वाले से कमतर नहीं है। कृषि कानून बदलवाने जैसे गम्भीर विषय को लेकर जारी किसान आंदोलन के दौरान दोनों वीडियो लोगों को भरपूर स्वाद दे रहे हैं। हास्य के साथ एकजुटता की गाम्भीर्यता भरा संदेश हरियाणवीं से बेहतर कोई नहीं दे सकता। तभी तो कहा गया है कि हरियाणा वालों को कहीं भी भेज दो, स्वाद तो ये अपने आप ही ढूंढ लेंगे।