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आज कितनी कल्पनाएँ!

आज कितनी कल्पनाएँ,

और अगणित ज्योत्सनाएँ;

मुझे मग दिखला रहीं हैं,

गगन भास्वर कर रहीं हैं!

कल्प की मीमांसाएँ,

अल्प की उर अल्पनाएँ;

अभीप्साएँ शाँत की हैं,

प्रदीप्तित प्राणों को की हैं!

प्रश्रयों में बिन पले वे,

अश्रुओं को सुर दिईं हैं;

आत्म की हर ओज धारा,

धवलता ले कर बढ़ी है!

ध्यान की हर उमड़ती लय,

विलय लौकिक लड़ी की है;

कड़ी हर क्रंदन मिटा कर,

घड़ी हर घट को छुई है!

पटों में छुपती छुपातीं,

लटों शिव की उमड़ आतीं;

‘मधु’ मनों की प्रेरणाएँ,

प्रतीति में प्रकट आएँ!

एग्जिट पोल की साख का सवाल

योगेश कुमार गोयल
बिहार विधानसभा चुनाव के फैसले के बाद चुनाव परिणाम के पूर्वानुमानों पर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं। अधिकतर सर्वेक्षणों में राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) की अगुवाई में बिहार की अगली सरकार बनने का एकतरफा अनुमान लगाया गया था। 15 साल के नीतीश-भाजपा गठबंधन सरकार के खिलाफ मतदाताओं ने भारी नाराजगी से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के बहुत ही खराब प्रदर्शन का अंदेशा था। लेकिन चुनाव परिणाम लगभग उलट आए। परिणामों के पूर्वानुमानों के बार-बार के विफल होने के बाद इसकी साख पर सवाल उठाया जा रहा है।
चुनावी सर्वे कराए जाने की शुरूआत दुनिया में सर्वप्रथम अमेरिका में हुई थी। अमेरिकी सरकार के कामकाज पर लोगों की राय जानने के लिए जॉर्ज गैलप और क्लॉड रोबिंसन ने इस विधा को अपनाया, जिन्हें ओपिनियन पोल सर्वे का जनक माना जाता है। चुनाव उपरांत उन्होंने पाया कि उनके द्वारा एकत्रित सैंपल तथा चुनाव परिणामों में ज्यादा अंतर नहीं था। उनका यह तरीका काफी विख्यात हुआ। इससे प्रभावित होकर ब्रिटेन तथा फ्रांस ने भी इसे अपनाया और बहुत बड़े स्तर पर ब्रिटेन में 1937 जबकि फ्रांस में 1938 में ओपिनियन पोल सर्वे कराए गए। उन देशों में भी ओपिनियन पोल के नतीजे बिल्कुल सटीक साबित हुए थे। जर्मनी, डेनमार्क, बेल्जियम तथा आयरलैंड में जहां चुनाव पूर्व सर्वे करने की पूरी छूट दी गई है, वहीं चीन, दक्षिण कोरिया, मैक्सिको इत्यादि कुछ देशों में इसकी छूट तो है किन्तु शर्तों के साथ।
भारत में वैसे तो वर्ष 1960 में ही एग्जिट पोल अर्थात् चुनाव पूर्व सर्वे का खाका खींच दिया गया था। तब ‘सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज’ (सीएसडीएस) द्वारा इसे तैयार किया गया था। हालांकि माना यही जाता है कि एग्जिट पोल की शुरूआत नीदरलैंड के समाजशास्त्री तथा पूर्व राजनेता मार्सेल वॉन डैम द्वारा की गई थी, जिन्होंने पहली बार 15 फरवरी 1967 को इसका इस्तेमाल किया। उस समय नीदरलैंड में हुए चुनाव में उनका आकलन बिल्कुल सटीक रहा था।
भारत में एग्जिट पोल की शुरूआत का श्रेय इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ पब्लिक ओपिनियन के प्रमुख एरिक डी कोस्टा को दिया जाता है, जिन्हें चुनाव के दौरान इस विधा द्वारा जनता के मिजाज को परखने वाला पहला व्यक्ति माना जाता है। चुनाव के दौरान इस प्रकार के सर्वे के माध्यम से जनता के रूख को जानने का काम सबसे पहले एरिक डी कोस्टा ने ही किया था। शुरूआत में देश में सबसे पहले इन्हें पत्रिकाओं के माध्यम से प्रकाशित किया गया जबकि बड़े पर्दे पर चुनावी सर्वेक्षणों ने 1996 में उस समय दस्तक दी, जब दूरदर्शन ने सीएसडीएस को देशभर में एग्जिट पोल कराने के लिए अनुमति प्रदान की।
1998 में चुनाव पूर्व सर्वे अधिकांश टीवी चौनलों पर प्रसारित किए गए और तब ये बहुत लोकप्रिय हुए थे लेकिन कुछ राजनीतिक दलों द्वारा इन पर प्रतिबंध लगाए जाने की मांग पर 1999 में चुनाव आयोग द्वारा ओपिनियन पोल तथा एग्जिट पोल पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। तत्पश्चात् एक अखबार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग के फैसले को निरस्त कर दिया। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले एकबार फिर एग्जिट पोल पर प्रतिबंध लगाए जाने की मांग उठी और मांग के जोर पकड़ने पर चुनाव आयोग ने प्रतिबंध के संदर्भ में कानून में संशोधन के लिए तुरंत एक अध्यादेश लाए जाने के लिए कानून मंत्रालय को पत्र लिखा। उसके बाद जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में संशोधन करते हुए यह सुनिश्चित किया गया कि चुनावी प्रक्रिया के दौरान जबतक अंतिम वोट नहीं पड़ जाता, तब तक किसी भी रूप में एग्जिट पोल का प्रकाशन या प्रसारण नहीं किया जा सकता।
यही कारण है कि एग्जिट पोल मतदान प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही दिखाए जाते हैं। मतदान खत्म होने के कम से कम आधे घंटे बाद तक एग्जिट पोल का प्रसारण नहीं किया जा सकता। इनका प्रसारण तभी हो सकता है, जब चुनावों की अंतिम दौर की वोटिंग खत्म हो चुकी हो। ऐसे में यह जान लेना जरूरी है कि आखिर एग्जिट पोल के प्रसारण-प्रकाशन की अनुमति मतदान प्रक्रिया के समापन के पश्चात् ही क्यों दी जाती है? जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 126ए के तहत मतदान के दौरान ऐसा कोई कार्य नहीं होना चाहिए, जो मतदाताओं के मनोविज्ञान पर किसी भी प्रकार का प्रभाव डाले अथवा मत देने के उनके फैसले को प्रभावित करे। यही कारण है कि मतदान से पहले या मतदान प्रक्रिया के दौरान एग्जिट पोल सार्वजनिक नहीं किए जा सकते बल्कि मतदान प्रक्रिया पूरी होने के आधे घंटे बाद ही इनका प्रकाशन या प्रसारण किया जा सकता है। यह नियम तोड़ने पर दो वर्ष की सजा या जुर्माना अथवा दोनों हो सकते हैं।
यदि कोई चुनाव कई चरणों में भी सम्पन्न होता है तो एग्जिट पोल का प्रसारण अंतिम चरण के मतदान के बाद ही किया जा सकता है लेकिन उससे पहले प्रत्येक चरण के मतदान के दिन डाटा एकत्रित किया जाता है। एग्जिट पोल से पहले चुनावी सर्वे किए जाते हैं और सर्वे में बहुत से मतदान क्षेत्रों में मतदान करके निकले मतदाताओं से बातचीत कर विभिन्न राजनीतिक दलों तथा प्रत्याशियों की हार-जीत का आकलन किया जाता है।
अधिकांश मीडिया संस्थान कुछ प्रोफेशनल एजेंसियों के साथ मिलकर एग्जिट पोल करते हैं। ये एजेंसियां मतदान के तुरंत बाद मतदाताओं से यह जानने का प्रयास करती हैं कि उन्होंने अपने मत का प्रयोग किसके लिए किया है। इन्हीं आंकड़ों के आधार पर यह जानने का प्रयास किया जाता है कि कहां से कौन हार रहा है और कौन जीत रहा है। इस आधार पर किए गए सर्वेक्षण से जो व्यापक नतीजे निकाले जाते हैं, उसे ही ‘एग्जिट पोल’ कहा जाता है। चूंकि इस प्रकार के सर्वे मतदाताओं की एक निश्चित संख्या तक ही सीमित रहते हैं, इसलिए एग्जिट पोल के अनुमान हमेशा सही साबित नहीं होते।

दीपावली : अभिनन्दन गीत

    सखि जगमग दीवाली है आई, महिनवा कार्तिक का।
     देखो झूम झूम नाचे है मनवा, महिनवा कार्तिक का।।
         *
    अमावस की रात में अँधेरा था छाया,
    दीपों  की  ज्योति ने  उसको भगाया,
    जैसे भू  पर आकाश उतर आया, महिनवा कार्तिक का।।
         *
    लिपे  पुते घर  सजे  सजाए,
    फुलझड़ी पटाके हैं शोर मचाए,
    सजी घर घर में दीपों की माल, महिनवा कार्तिक का।।
         *
     खील-बताशे के ढेर लगे हैं,
     मेवे मिठाई भी ख़ूब सजे हैं,
     जैसे ख़ुशियों की आई बारात, महिनवा कार्तिक का।।
         *
     घर घर में गणपति-पूजन हुआ है,
     लक्ष्मी  का  आह्वान  हुआ  है ,
     गूँजी मंत्रों की पावन गुंजार, महिनवा कार्तिक का।।
          *
     बहिना ने भाई के टीका किया है,
     भाई  ने  भी  उपहार  दिया  है,
     आज प्रेमरस बरसै अँगनवा, महिनवा कार्तिक का।।
          *
      सखि जगमग दीवाली है आई, महिनवा कार्तिक का।
      सखि सबको है आज बधाई, महिनवा कार्तिक का।।
                        ****************
                                   — शकुन्तला बहादुर

क्या हाथी को फिर नए महावत की तलाश!

वाह रे सियासत सब कुछ निजी स्वार्थ और सत्ता सुख पर ही निर्भर हो चला है। अब किसी भी राजनीतिक पार्टी का कोई सिद्धान्त नहीं रहा। यदि विचार धारा की बात की जाए तो परिस्थिति के अनुसार विचार धारा से भी समझौता होना कोई नई बात नहीं है। राजनीति में सब कुछ संभव है। एक बार फिर से उत्तर प्रदेश की सियासत नई करवट लेती हुई दिखाई दे रही है जिसके संकेत पूरी तरह से स्पष्ट रूप से मिल रहे हैं। क्योंकि जब भी कोई राजनेता किसी भी दूसरी पार्टी के राजनेता के द्वारा उठाए गए किसी भी प्रकार के सियासी कदम का यदि विरोध न करे तो यह संकेत साफ एवं स्पष्ट हो जाता है कि निश्चित ही किसी प्रकार की कोई अंदरूनी खिचड़ी पक रही है। क्योंकि सियासी योद्धा तनिक भी देर नहीं लगाते और तत्काल सियासी समीकरणों को साधते हुए विरोधी राजनेता पर तुरंत पलटवार करते हैं। परन्तु यदि किसी भी प्रकार की नरमी दिखाई दे तो इसके संकेत बहुत कुछ कहते हैं। उत्तर प्रदेश की धरती से इस बार के राज्यसभा चुनाव ने एक बार फिर से नया मंच की झाँकी प्रस्तुत कर दी है की आने वाले समय में उत्तर प्रदेश की राजनीति का क्या रूप होगा। राज्यसभा चुनाव में हुई उठापटक और सियासी दांवपेंच के बाद बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती ने समाजवादी पार्टी पर जोरदार हल्ला बोला है। मायावती द्वारा कहे गए शब्द कुछ अलग ही इशारा कर रहे हैं। क्योंकि मायावती ने अखिलेश को सियासी सबक सिखाने की बात कही। उन्होंने समाजवादी पार्टी को हराने के लिए किसी भी पार्टी के साथ जाने की बात कह दी। मायावती ने सपा के संपर्क में आए 7 विधायकों को निलंबित कर दिया है। और कहा कि इन विधायकों की सदस्यता समाप्त करने की कार्रवाई आगे भी की जाएगी। बसपा सुप्रिमों ने लोकसभा चुनाव को याद करते हुए कहा कि सांप्रदायिक ताकतों से मुकाबला करने के लिए हमारी पार्टी ने समाजवादी पार्टी के साथ हाथ मिलाया था। लेकिन उनके परिवार में चल रही आंतरिक कलह की वजह से उन्हें बसपा के साथ गठबंधन का अधिक फायदा नहीं मिल सका। चुनाव के बाद उनकी तरफ से प्रतिक्रिया मिलनी बंद हो गई जिस वजह से बसपा ने अपने रास्ते अलग करने का फैसला लिया। बसपा सुप्रीमो यहीँ नहीं रुकीं उन्होंने कहा कि मैं यह खुलासा करना चाहती हूं कि जब हमने लोकसभा चुनाव एक साथ लड़ने का फैसला किया था तब पहले दिन से ही हमने कड़ी मेहनत की। लेकिन समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष पहले दिन से ही संकेत देते रहे कि अब जबकि सपा-बसपा ने हाथ मिला लिया है तो जून 1995 के केस को वापस ले लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि चुनाव प्रचार की बजाय सपा मुखिया मुकदमा वापसी कराने में लगे थे। 2003 में मुलायम ने बसपा तोड़ी उनकी बुरी गति हुई अब अखिलेश ने यह काम किया है उनकी भी बुरी गति होगी। राज्यसभा चुनाव के दौरान पार्टी के विधायकों में हुई सेंधमारी पर मायावती ने कहा लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद जब हमने समाजवादी पार्टी के व्यवहार को देखा तभी समझ में आ गया कि हमने 2 जून 1995 के केस को वापस लेकर बड़ी गलती कर दी है। हमें उनके साथ हाथ नहीं मिलाना चाहिए था और इस संबंध में गहराई से सोचना चाहिए था। मायावती यहीं नहीं रुकी उन्होंने आगे यह भी कहा कि हमने फैसला कर लिया है कि उत्तर प्रदेश में आगामी एमएलसी चुनाव में सपा के प्रत्याशी को हराने के लिए अपनी पूरी ताकत लगाएंगे। इसके लिए हमें चाहे किसी भी सियासी पार्टी के साथ जाना पड़े तो हम जाएंगे। परन्तु सपा को हम इस बार सबक निश्चित ही सिखाएंगे।

राज्यसभा की 10 सीटों पर हो रहे चुनाव में उठा-पटक के बीच सपा समर्थित निर्दलीय प्रत्याशी प्रकाश बजाज का पर्चा खारिज हो गया। जबकि बसपा प्रत्यासी रामजी गौतम का पर्चा खारिज नहीं हुआ। यह पूरा सियासी समीकरण पर्चा खारिज एवं पर्चा स्वीकार्य से ही निकलकर चर्चा में आया क्योंकि बसपा के संख्या बल और पर्चा का स्वीकार्य होना। कई सवालो को जन्म देता है। लेकिन इन सभी दृश्यों के साथ एक बात उभर कर सामने आई है वह यह कि बसपा के अंदर एक बड़ी खिचड़ी पक रही है। क्योंकि बसपा के कुछ नेताओं को लगता है कि अगर बसपा प्रमुख भाजपा के साथ 2022 के चुनाव में हाथ मिला लेती हैं तो उनका राजनीतिक भविष्य खतरे में पड़ सकता है। क्योंकि सबका अपना-अपना वोट बैंक है। जिसके आधार पर राजनीति होती है। क्योंकि राजनीति में वोट बैंक ही मुख्य आधार है यदि वोट बैंक ही नहीं रहा तो राजनीति शून्य हो जाती है। इसलिए बसपा में विराजमान उन तमाम राजनेताओं को इस बात की चिंता सता रही है कि बसपा प्रमुख के फैसले कहीं उनका सियासी भविष्य अधर में न लटका दें। इसलिए सियासत के सभी मौसम वैज्ञानिक अपनी-अपनी सीट के मतदाताओं का आंकलन करने के बाद अपने भविष्य को सुरक्षित करने की जुगत में अभी से ही लग गए हैं। क्योंकि नई पार्टी एवं नए समीकरण को साधने में समय का लगना स्वाभाविक है। लेकिन राज्यसभा के चुनाव में एक बात तो स्पष्ट है कि जिस प्रकार से भाजपा ने अपने प्रत्यासी मैदान में उतारे हैं उसके बाद एक सीट पर बसपा को अवसर मिल गया और बसपा ने भी अपना सधा हुआ कदम उस डगर पर साध कर रख दिया उससे यह संकेत और साफ हो जा रहा है कि आने वाले 2022 के चुनाव में उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक बार फिर से नया मोड़ आएगा। क्योंकि इस बार 2022 के उत्तर प्रदेश के चुनाव में जिस प्रकार की सियासी रस्सा कसी दिखाई दे रही है वह अपने आप में बहुत कुछ कह रही है। सपा बसपा के साथ-साथ इस बार कांग्रेस भी अपनी पूरी ताकत लगाने को बेताब है। जिससे साफ है कि अगर उत्तर प्रदेश की धरती पर अगर कांग्रेस का हाथ मजबूत होता है तो निश्चित ही इसका खामियाजा मात्र दो ही राजनीतिक पार्टियों को उठाना पड़ेगा। फिर चाहे वह बसपा हो अथवा सपा। क्योंकि मुस्लिम-दलित और ब्राहम्ण-पिछड़ों की राजनीति करने वाली कांग्रेस का वोट बैंक सपा बसपा से ही निकल कर आएगा। साथ ही एक नई पार्टी ने भी अपनी मौजूदगी इस बार के उपचुनाव में दर्ज करवा दी है। चन्द्रशेखर रावण की पार्टी मजबूती के साथ दलितों के मुद्दो को उठाती है। अभी हाल ही में हुए हाथरस की शर्मनाक घटना को चन्द्रशेखर रावण ने बहुत ही मजबूती के साथ उठाया। इस सभी सियासी समीकरण से एक बात बिलकुल साफ हो जाती है कि चन्द्रशेखर रावण की आजाद समाज पार्टी के मजबूत हो जाने से सीधे-सीधे नुकसान बसपा को ही होना है। क्योंकि जो भी वोट चन्द्रशेखर रावण की पार्टी को जाएगा उसका एक बड़ा भाग बसपा से ही टूटकर आएगा। इसलिए बसपा पुनः अपना सियासी वजूद कायम करने के लिए वापस मजबूती के साथ लौटना चाहती है लेकिन बसपा के सामने कोई विकल्प नहीं है क्योंकि बसपा ने सपा से हाथ मिलाकर देख लिया। उसके बाद बची कांग्रेस तो बसपा कांग्रेस के करीब तो जाने वाली नहीं क्योंकि दलित वोट की राजनीति करने वाली बसपा भला अपने हाथ से कैसे अपने पैर में कुल्हाड़ी मार सकती है। क्योंकि कांग्रेस खुद दलितों के वोट बैंक को अपने साथ मजबूती के साथ जोड़ना चाहती है। इसलिए बसपा सुप्रिमों के द्वारा उठाया गया कदम इस बात का संकेत दे रहा है कि भविष्य में भाजपा के साथ बसपा अपने सियासी हित साध सकती है। और खुलकर भाजपा से हाथ मिला सकती है। क्योंकि राजनीति में न तो किसी का कोई दुश्मन होता है और न ही कोई स्थाई दोस्त। क्योंकि राजनीति सदैव ही समीकरण की परिकरमा करती नजर आती है। इसलिए वर्तमान दृश्य को देखकर इस बात को बल मिलता है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति का भविष्य इस बार फिर से गठबंधन की पुरानी इबारत लिखने को तैयार है।

मग से पड़ा मगध महाजनपद का नाम

—विनय कुमार विनायक
मग से पड़ा मगध महाजनपद का नाम,
गंगा के दक्षिण-पश्चिम तटपर अवस्थित
च्यवन,दधिचि ,दीर्घतमा,बृहद्रथ, जरासंध,
निषाद एकलव्य, बिम्बिसार, अजातशत्रु,
उदायिन,चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक की भूमि,
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का जन्म स्थान!

ये पुष्यमित्रशुंग, वसुदेवकण्व का ब्राह्मणी,
मौखरी और पालवंशी का बौद्ध राज था!
यही से जग ने ली कौटिल्य की कूटनीति
औ खगोलज्ञ आर्यभट्ट का अंक सिद्धांत!
यही महावीर का पुण्यक्षेत्र और गौतम के
धर्मचक्र प्रवर्तन से फैला बुद्ध का ज्ञान!

वैवस्वत मनु के पौत्र-दौहित्र बनकर आर्य
पितामह ब्रह्मा के ब्रह्मावर्त अफगान में
पहले पहल आ बसे, वहां से सप्तसिंधु से
गंगा की घाटी तक बन गया आर्यावर्त जो
हिमालय से विन्ध्य बीच पूर्व समुद्र तक,
गंगा तट पर बसा मग का मगध महान!

मग ईरान के शकस्तान क्षेत्र के आर्य थे
वैवस्वत मनु के पुत्र नरिष्यन्त के वंशज,
जब आर्यावर्त के आर्य बंटकर बन गए
ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण में
ईरानी भी मग,मशक,मानस,मन्दक थे
सबकुछ एक सा,एक जैसे देवों के नाम!

उस समय ईरान की संज्ञा थी आर्यान
और भारतवर्ष कहलाता था आर्यावर्त!
दोनों की सीमा एक थी, एक सा धर्म,
सिंधु के इसपार व्यास रच रहे थे वेद
उसपार व्यास के समकालीन जरथुष्ट्र
लिख रहे थे जिंद अवेस्ता;वेद के छंद!

पारसियों के ‘शातीर’ धर्मग्रंथ में अंकित
एक आख्या बताती उनकी समकालीनता
“अकनूं बिरहमने व्यास नाम आज हिन्द
आमद वस दाना कि अकल चुना नस्त/
चूं व्यास हिन्दी बलख आमद, गश्ताशप
जबरदस्त राव ख्वान्द”;व्यास नाम जन;

एक ब्राह्मण हिन्द से आए, जिनके सम
कोई दूसरा अक्लमन्द नही थे/जब हिन्द
का व्यास बलख में आए थे तब ईरानी
बादशाह ने जरथुष्ट्र को बुलवाया था’-से
सिद्ध होता है कि व्यास और जरथुष्ट्र
वेद वाणी संकलन कर्ता थे समकालीन!

शक थे कैस्पियन क्षीरसागर तटवर्तीय
यूरेशियाई डेन्यूब से आलताई पर्वतीय,
जिसे दूसरी सदी ईसापूर्व चीनी यूची ने
दक्षिण की ओर खदेड़ दिया पूर्वी ईरान,
जहां बन गया एक शकस्थान/सीस्तान,
फिर सिन्धु कांठे में शकद्वीप स्थान!

मग है साकलदीपी ब्राह्मण, सूर्यपूजक,
भिषग,वैद्य,ओझा, जादूगर, अथर्व वेदी
कृष्ण पुत्र साम्ब के बुलावे पर या फिर
ईरानी आक्रांता सायरस के पुरोहित बन
मग आते रहे भारत बनते रहे भारतजन,
शाकद्वीपी मग से पड़ा मगध का नाम!

भारतीय मग बने नहीं थे सिर्फ ब्राह्मण,
वे महाभारत युद्ध के योद्धा थे मुरुण्ड!
झारखंडी आदिवासी मुंडा भी सूर्योपासक,
करते रहे सूर्य उपासना का छठ महाव्रत!
पुरोहित रखते थे शाकल द्वीपी ब्राह्मण,
वर्णाश्रमी सा कराते थे संस्कार उपनयन!

शक आने तक मगध था एक वियावान,
व्रत विहिन,व्रात्य भूमि, शक द्वीपियों से
चला छठ व्रत, सूर्य पूजा का अनुष्ठान!
मगध भूमि का छठ फैला हिन्दुस्तान!
मगध भूमि राजगीर,पाटली,पारस,गया
बौद्ध,जैन,सिख, हिन्दु का तीर्थस्थान!

बिरसा मुंडा जयंती: आर्य अनार्य विमर्श के अवसान का अवसर

बिरसा मुंडा महान क्रांतिकारी थे, जनजातीय समाज को साथ लेकर उलगुलान किया था उन्होने। उलगुलान अर्थात हल्ला बोल, क्रांति का ही एक देशज नाम। वे एक महान संस्कृतिनिष्ठ समाज सुधारक भी थे, वे संगीतज्ञ भी थे जिन्होंने सूखे कद्दू से एक वाद्ध्ययंत्र का भी अविष्कार किया था जो अब भी बड़ा लोकप्रिय है। इसी वाद्ध्ययंत्र को बजाकर वे आत्मिक सुख प्राप्त करते थे व दलित, पीड़ित समाज को संगठित करने का कार्य भी करते थे। ठीक वैसे ही जैसे भगवान श्रीकृष्ण अपनी बंशी से स्वांतः सुख व समाज सुख दोनों ही साध लेते थे। सूखे कद्दू से बना यह वाद्ध्ययंत्र अब भी भारतीय संगीत जगत मे वनक्षेत्रों से लेकर बालीवूड तक बड़ी प्रमुखता से बनाया व बजाया जाता है। वस्तुतः बिरसा मुंडा की मूल कार्यशैली जनजातीय समाज को इसाइयों के धर्मांतरण से बचाने, अत्याचारों से समाज को बचाने, समाज मे व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने व शोषक वर्ग से समाज को बचाने की रही। भारतीय समाज का एक महत्वपूर्ण व अविभाज्य अंग रहा है जनजातीय समाज। मूलतः प्रकृति पूजक यह समाज सदा से भौतिकता, आधुनिकता व धनसंचय से दूर ही रहा है। बिरसा मुंडा भी मूलतः इसी जनजातीय समाज के थे। “अबुआ दिशोम रे अबुआ राज” अर्थात अपनी धरती अपना राज का नारा दिया था वीर बिरसा मुंडा ने।

   वीर शिरोमणि बिरसा की जयंती के अवसर बिरसा के राष्ट्र हेतु प्राणोत्सर्ग करने की कहानी पढ़ने के साथ साथ यह भी स्मरण करने का अवसर है कि अब स्वतंत्र भारत मे अर्थात अबुआ दिशोम मे जनजातीय व वनवासी बंधुओं के साथ, उनकी संस्कृति के साथ क्या क्या षड्यंत्र हो रहे हैं?

      वस्तुतः जनजातीय समाज के समक्ष अब भी बड़ी चुनौतियाँ वैचारिक व सांस्कृतिक स्तर पर  लगातार रखी जा रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है समूचे भारत मे फैलाया जा रहा आर्य व अनार्य का विघटनकारी वितंडा।

तथ्य यह है कि भारत मे जनजातीय समाज व अन्य जातियों की आकर्षक विविधता को विघ्नसंतोषी विघटनकारियों ने आर्य – अनार्य का वितंडा बना दिया। कथित तौर पर आर्य कहे जाने वाले लोग भी भारत मे उतने ही प्राचीन हैं जितने कि अनार्य का दर्जा दे दिये गए जनजातीय समाज के लोग। वस्तुतः वनवासी समाज को अनार्य कहना ही एक अपशब्द की भांति है, क्योंकि आर्य का अर्थ होता है सभ्य व अनार्य का अर्थ होता है असभ्य। सच्चाई यह है कि भारत का यह वनवासी समाज पुरातन काल से ही सभ्यता, संस्कृति, कला, निर्माण, राजनीति, शासन व्यवस्था, उत्पादकता और सबसे बड़ी बात राष्ट्र व समाज को उपादेयता के विषय मे किसी भी शेष समाज के संग कदम से कदम मिलाकर चलता रहा है व अब भी चल रहा है।
यह तो अब सर्वविदित ही है कि इस्लाम व ईसाइयत दोनों ही विस्तारवादी धर्म हैं व अपने विस्तार हेतु इन्होने अपने धर्म के परिष्कार, परिशोधन के स्थान पर षड्यन्त्र, कुतर्क, कुचक्र व हिंसा का ही उपयोग किया है। अपने इसी लक्ष्य की पूर्ति हेतु पश्चिमी विद्वानों ने भारतीय जातियो मे विभेद उत्पन्न करना उत्पन्न किया व द्रविड़ों को भारत का मूलनिवासी व आर्यों को बाहरी आक्रमणकारी कहना प्रारंभ किया। ईसाइयों ने अपने धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने हेतु इस प्रकार के षड्यन्त्र रचना सतत चालू रखे। विदेशियों ने ही भारत के इतिहास लेखन मे इस बात को दुराशय पूर्वक बोया कि आर्य विदेश से आई हुई एक जाति थी जिसने भारत के मूलनिवासी द्रविड़ समाज की सभ्यता को आक्रमण करके पहले नष्ट भ्रष्ट किया व उन्हे अपना गुलाम बनाया। जबकि यथार्थ है कि आर्य किसी जाति का नहीं बल्कि एक उपाधि का नाम था जो कि किसी विशिष्ट व्यक्ति को उसकी विशिष्ट योग्यताओं, अध्ययन या सिद्धि हेतु प्रदान की जाती थी। आर्य शब्द का सामान्य अर्थ होता है विशेष। पहले अंग्रेजों ने व स्वातंत्र्योत्तर काल मे अंग्रेजों द्वारा लादी गई शिक्षा पद्धति ने भारत मे लगभग छः दशकों तक इसी दूषित, अशुद्ध व दुराशयपूर्ण इतिहास का पठन पाठन चालू रखा।
भारत मे इसी दूषित शिक्षा पद्धति ने आर्यन इंवेजन थ्योरी की स्थापना की व सामाजिक विभेद के बीज लगातार बोये। जर्मनी मे जन्में किंतु संस्कृत के ज्ञान के कारण अंग्रेजों द्वारा भारत बुलाये गए मेक्समूलर ने आर्यन इन्वेजन थ्योरी का अविष्कार किया। मेक्समूलर ने लिखा कि आर्य एक सुसंस्कृत, शिक्षित, बड़े विस्तृत धर्म ग्रन्थों वाली, स्वयं की लिपि व भाषा वाली घुमंतू किंतु समृद्ध जाति थी। इस प्रकार मैक्समूलर ने आर्य इंवेजन थ्योरी के सफ़ेद झूठ का पौधा भारत मे बोया जिसे बाद मे अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने एक बड़ा वृक्ष बना दिया। यद्द्पि बाद मे 1921 मे हड़प्पा व मोहनजोदाड़ो सभ्यता मिलने के बाद आर्यन थ्योरी को बड़ा धक्का लगा किंतु अंग्रेजों ने अपनी शिक्षा पद्धति, झूठे इतिहास लेखन व षड्यन्त्र के बल पर इस थ्योरी को जीवित रखा। सबसे बड़ी खेद की बात यह है कि अंग्रेजों के जाने के पश्चात भारत मे एक बड़ा वर्ग ऐसा जन्मा जो कहने को तो भारतीय संतति ही है किंतु उसकी मानसिकता भारत विरोधी है। यह वर्ग सेकुलर, नक्सलवादी, माओवादी, बुद्धिजीवी, प्रगतिशील, जनवादी, आदि आदि नामों से आपको यहाँ वहाँ समाज सेवा के नाम पर समाज व देश को तोड़ते हुये बड़ी सहजता से मिल जाएगा। सिंधु घाटी सभ्यता की श्रेष्ठता को छुपाने व आर्य द्रविड़ के मध्य विभाजन रेखा खींचने की यह कथा बहुत विस्तृत चली व अब भी इस कथित विघ्नसंतोषी वर्ग द्वारा चलाई जा रही है किंतु इन्हे हमारा समाज अब भी चिन्हित नहीं कर पाया है। आज सबसे महती आवश्यकता इस बात की है कि वनवासी समाज मे घुसपैठ कर रहे इस कालनेमी वर्ग को पहचानना और उनके देशविरोधी, समाज विरोधी चरित्र पर ढके हुये छदम आवरण को हटाना। इस विघ्नसंतोषी वर्ग की बातों को अलग कर यदि हम भारत के जनजातीय समाज व अन्य समाजों मे परस्पर एकरूपता की बात करें तो कई कई अकाट्य तथ्य सामने आते हैं। कथित तौर पर जिन्हे आर्य व द्रविड़ अलग अलग बताया गया उन दोनों का डीएनए परस्पर समान पाया गया है। दोनों ही शिव के उपासक हैं। प्रसिद्ध एन्थ्रोपोलाजिस्ट वारियर एलविन, जो कि अंग्रेजों के एडवाइजर थे, ने जनजातीय समाज पर किए अध्ययन मे बताया था कि ये कथित आर्य और द्रविड़ शैविज़्म के ही एक भाग है और गोंडवाना के आराध्य शंभूशेक भगवान शंकर का ही रूप हैं। माता शबरी, निषादराज, सुग्रीव, अंगद, सुमेधा, जांबवंत, जटायु आदि आदि सभी जनजातीय बंधु भारत के शेष समाज के संग वैसे ही समरस थे जैसे दूध मे शक्कर समरस होती है। प्रमुख जनजाति गोंड व कोरकू भाषा का शब्द जोहारी रामचरितमानस के दोहा संख्या 320 में भी प्रयोग हुआ है। मेवाड़ में किया जाने वाला लोक नृत्य गवरी व वोरी भगवान शिव की देन है जो कि समूचे मेवाड़ी हिंदू समाज व जनजातीय समाज दोनों के द्वारा किया जाता है। बिरसा मुंडा, टंटया भील, रानी दुर्गावती, ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, अमर शहीद बुधू भगत, जतरा भगत, लाखो बोदरा, तेलंगा खड़िया, सरदार विष्णु गोंड आदि आदि कितने ही ऐसे वीर जनजातीय बंधुओं के नाम हैं जिनने अपना सर्वस्व भारत देश की संस्कृति व हिंदुत्व की रक्षा के लिये अर्पण कर दिया।
जब गजनी से विदेशी आक्रांता हिंदू आराध्य सोमनाथ पर आक्रमण कर रहा था तब अजमेर, नाडोल, सिद्ध पुर पाटन, और सोमनाथ के समूचे प्रभास क्षेत्र में हिंदू धर्म रक्षार्थ जनजातीय समाज ने एक व्यापक संघर्ष खड़ा कर दिया था। गौपालन व गौ सरंक्षण का संदेश बिरसा मुंडा जी ने भी समान रूप से दिया है। और तो और क्रांतिसूर्य बिरसा मुंडा का “उलगुलान” संपूर्णतः हिंदुत्व आधारित ही है। ईश्वर यानी सिंगबोंगा एक है, गौ की सेवा करो एवं समस्त प्राणियों के प्रति दया भाव रखो, अपने घर में तुलसी का पौधा लगाओ, ईसाइयों के मोह जाल में मत फंसो, परधर्म से अच्छा स्वधर्म है, अपनी संस्कृति, धर्म और पूर्वजों के प्रति अटूट श्रध्दा रखो, गुरुवार को भगवान सिंगबोंगा की आराधना करो व इस दिन हल मत चलाओ यह सब संदेश भगवान बिरसा मुंडा ने दिये हैं। जिन्हे आर्य कहा गया वे और वे जिन्हे अनार्य कहा गया वे, दोनों ही वन, नदी, पेड़, पहाड़, भूमि, गाय, बैल, सर्प, नाग, सूर्य, अग्नि आदि की पूजा हजारों वर्षों से करते चले आ रहें हैं। भारत के सभी जनजातीय समुदाय जैसे गोंड, मुंडा, खड़िया, हो, किरात, बोडो, भील, कोरकू, डामोर, ख़ासी, सहरिया, संथाल, बैगा, हलबा, कोलाम, मीणा, उरांव, लोहरा, परधान, बिरहोर, पारधी, आंध, टाकणकार, रेड्डी, टोडा, बडागा, कोंडा, कुरुम्बा, काडर, कन्निकर, कोया, किरात आदि आदि के जीवन यापन, संस्कृति, दैनंदिन जीवन, खानपान, पहनावे, परम्पराओं, प्रथाओं का मूलाधार हिंदुत्व ही है। ऐसी स्थिति मे हम समस्त भारतीयों का यह कर्तव्य बनता है की आर्य विरुद्ध अनार्य के इस विघटनकारी विमर्श से इस देश को मुक्ति दिलाएँ व एकरस, एकरूप व एकात्म होकर राष्ट्रनिर्माण मे अपना अपना योगदान दें।

महावीर हैं अंधकारों को हरने वाले दीपक

भगवान महावीर परिनिर्वाण दिवस, 14 नवम्बर, 2020
-ललित गर्ग-

दीपावली को ही भगवान महावीर का परिनिर्वाण दिवस है। परिनिर्वाण से पूर्व महावीर ने जो शिक्षाएं दी, वे जन-जन के लिये अंधकार से प्रकाश, असत्य से सत्य एवं निराशा से आशा की ओर जाने का माध्यम बनी। इसलिये भी जैन धर्म के अनुयायियों के लिये दीपावली का महत्व है। महावीर लोकोत्तम पुरुष हंै, उनकी शिक्षाओं की उपादेयता सार्वकालिक, सार्वभौमिक एवं सार्वदेशिक है, दुनिया के तमाम लोगों ने इनके जीवन एवं विचारों से प्रेरणा ली है। सत्य, अहिंसा, अनेकांत, अपरिग्रह ऐसे सिद्धान्त हैं, जो हमेशा स्वीकार्य रहेंगे और विश्व मानवता को प्रेरणा देते रहेंगे। महावीर का संपूर्ण जीवन मानवता के अभ्युदय की जीवंत प्रेरणा है। लाखों-लाखों लोगों को उन्होंने अपने आलोक से आलोकित किया है। महावीर ने दीपावली की रात जो उपदेश दिया उसे हम प्रकाश पर्व का श्रेष्ठ संदेश मान सकते हैं। क्योंकि यह सन्देश मानव मात्र के आंतरिक जगत को आलोकित करने वाला है।
भगवान महावीर का मुक्ति दिवस हम जैसों के लिये जागने की दस्तक है। उन्होंने बाहरी लड़ाई को मूल्य नहीं दिया, बल्कि स्व कर सुरक्षा में आत्म-युद्ध को जरूरी बतलाया। उन्होंने जो कहा, सत्य को उपलब्ध कर कहा। उन्होंने सबके अस्तित्व को स्वीकृति दी। ‘णो हीणे णो अइरित्ते’-उनकी नजर में न कोई ऊंचा था, न कोई नीचा। उनका अहिंसक मन कभी किसी के सुख में व्यवधान नहीं बना। उन्होंने अपने होने का अहसास जगाकर अहं को खड़ा नहीं होने दिया। इसीलिये उनकी शिक्षाओं एवं उपदेशों का हमारे जीवन और विशेषकर व्यावहारिक जीवन में विशेष महत्व है। हम अपने जीवन को उनकी शिक्षाओं के अनुरूप ढाल सकें, यह अधिक आवश्यक है लेकिन इस विषय पर प्रायः सन्नाटा देखने को मिलता है। विशेषतः जैन समाज के लोग एवं अनुयायी ही महावीर को भूलते जा रहे हैं, उनकी शिष्याओं को ताक पर रख रहे हैं। दुःख तो इस बात का है कि जैन समाज के सर्वे-सर्वा लोग ही सबसे ज्यादा महावीर को अप्रासंगिक बना रहे हैं, महावीर ने जिन-जिन बुराइयां पर प्रहार किया, वे उन्हें ही अधिक अपना रहे हैं। हम महावीर को केवल पूजते हैं, जीवन में धारण नहीं करते हैं। हम केवल कर्मकाण्ड और पूजा विधि में ही लगे रहते हैं। महावीर का यह संदेश जन-जन के लिये सीख बने- ‘पुरुष! तू स्वयं अपना भाग्यविधाता है।’ औरों के सहारे मुकाम तक पहुंच भी गए तो क्या? इस तरह की मंजिलें स्थायी नहीं होती और न इस तरह का समाधान कारगर होता है।
भगवान महावीर कितना सरल किन्तु सटीक कहा हैं- सुख सबको प्रिय है, दुःख अप्रिय। सभी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। हम जैसा व्यवहार स्वयं के प्रति चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार दूसरों के प्रति भी करें। यही मानवता है और मानवता का आधार भी। मानवता बचाने में है, मारने में नहीं। किसी भी मानव, पशु-पक्षी या प्राणी को मारना, काटना या प्रताड़ित करना स्पष्टतः अमानवीय है, क्रूरतापूर्ण है। हिंसा-हत्या और खून-खच्चर का मानवीय मूल्यों से कभी कोई सरोकार नहीं हो सकता। मूल्यों का सम्बन्ध तो ‘जियो और जीने दो’ जैसे सरल श्रेष्ठ उद्घोष से है।
समय के आकाश पर आज कोरोना महामारी, युद्ध, शोषण, हिंसा जैसे अनगिनत प्रश्नों का कोलाहल है। जीवन क्यों जटिल से जटिलतर होता जा रहा है? इसका मूल कारण है कि महावीर ने जो उपदेश दिया हम उसे आचरण में नहीं उतार पाएं। इसी कारण मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था और विश्वास कमजोर पड़ा, धर्म की व्याख्या में हमने अपना मत, अपना स्वार्थ, अपनी सुविधा, अपना सिद्धान्त को जोड़ दिया। मनुष्य जिन समस्याओं से और जिन जटिल परिस्थितियों से घिरा हुआ है उन सबका समाधान महावीर के दर्शन और सिद्धांतों में समाहित है। हर व्यक्ति महावीर बनने की तैयारी करे, तभी समस्याओं से मुक्ति पाई जा सकती है। महावीर वही व्यक्ति बन सकता है जो लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पित हो, जिसमें कष्टों को सहने की क्षमता हो। जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समता एवं संतुलन स्थापित रख सके, जो मौन की साधना और शरीर को तपाने के लिए तत्पर हो। जिसके मन में संपूर्ण प्राणिमात्र के प्रति सहअस्तित्व की भावना हो। जो पुरुषार्थ के द्वारा न केवल अपना भाग्य बदलना जानता हो, बल्कि संपूर्ण मानवता के उज्ज्वल भविष्य की मनोकामना रखता हो।
एक और महत्वपूर्ण प्रश्न है, क्या सुख को स्थायी बनाया जा सकता है? क्या दुःख को समाप्त किया जा सकता है? इसका सीधा उत्तर होगा कि भौतिक जगत में ऐसा होना कभी संभव नहीं है। जब तक भौतिक जगत में जीएंगे तब तक यह स्वप्न लेना दिवास्वप्न है, कल्पना करना आकाश कुसुम जैसा है। आकाश में कभी फूल नहीं लगता। कमल के फूल लग सकता है, चंपक के फूल लग सकता है पर आकाश में कभी फूल नहीं लगता। यह असंभव बात है कि इंद्रिय जगत में आदमी जीए और वह सुख या दुःख एक का ही अनुभव करे, यह द्वंद्व बराबर चलता रहेगा। तब व्यक्ति के मन में एक जिज्ञासा पैदा होती है कि ऐसा कोई उपाय है जिससे सुख को स्थायी बनाया जा सके? इसका समाधान है स्वयं का स्वयं से साक्षात्कार। इसके लिये जरूरी है हर क्षण को जागरूकता से जीना। उसको जीने के लिये भगवान महावीर ने कहा था-‘खणं जाणाहि पंडिए’, जो क्षण को जानता है, वह सुख और दुःख के निमित्त को जानता है।
महावीर ने जीवनभर अनगिनत संघर्षों को झेला, कष्टों को सहा, दुख में से सुख खोजा और गहन तप एवं साधना के बल पर सत्य तक पहुंचे, इसलिये वे हमारे लिए आदर्शों की ऊंची मीनार बन गये। उन्होंने समझ दी कि महानता कभी भौतिक पदार्थों, सुख-सुविधाओं, संकीर्ण सोच एवं स्वार्थी मनोवृत्ति से नहीं प्राप्त की जा सकती उसके लिए सच्चाई को बटोरना होता है, नैतिकता के पथ पर चलना होता है और अहिंसा की जीवनशैली अपनानी होती है। व्यावहारिक जीवन में यह आवश्यक है कि हम अहंकार को मिटाकर शुद्ध हृदय से अहिंसा, क्षमा, प्रेम, सत्य, अनेकांत को अपनाकर अपना जीवन पवित्र करें।
महावीर का संपूर्ण जीवन तप और ध्यान की पराकाष्ठा है इसलिए वह स्वतः प्रेरणादायी है। भगवान के उपदेश जीवनस्पर्शी हैं जिनमें जीवन की समस्याओं का समाधान निहित है। भगवान महावीर चिन्मय दीपक हैं। दीपक अंधकार का हरण करता है किंतु अज्ञान रूपी अंधकार को हरने के लिए चिन्मय दीपक की उपादेयता निर्विवाद है। वस्तुतः भगवान के प्रवचन और उपदेश आलोक पंुज हैं। ज्ञान रश्मियों से आप्लावित होने के लिए उनमें निमज्जन होना जरूरी है। महावीर आदमी को उपदेश दृष्टि देते हैं कि धर्म का सही अर्थ समझो। धर्म तुम्हें सुख, शांति, समृद्धि, समाधि, आज, अभी दे या कालक्रम से दे, इसका मूल्य नहीं है। मूल्य है धर्म तुम्हें समता, पवित्रता, नैतिकता, अहिंसा की अनुभूति कराता है। इसलिये महावीर बनने की कसौटी है-देश और काल से निरपेक्ष तथा जाति और संप्रदाय की कारा से मुक्त चेतना का आविर्भाव। महावीर एक कालजयी और असांप्रदायिक महापुरुष थे, जिन्होंने अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत को तीव्रता से जीया। वे इस महान त्रिपदी के न केवल प्रयोक्ता और प्रणेता बने बल्कि पर्याय बन गए।
भगवान महावीर की अनुभूतियों से जनमा सच है-धम्मो शुद्धस्स चिट्टई। धर्म शुद्धात्मा में ठहरता है और शुद्धात्मा का दूसरा नाम है अपने स्वभाव में रमण। यह नितान्त वैयक्तिक विकास की क्रांति है। जीवन की सफलता-असफलता, सुख-दुख, हर्ष-विषाद का जिम्मेदार सिवाय खुद के और कोई नहीं है। धर्म का महत्वपूर्ण पड़ाव यह भी है कि हम सही को सही समझे और गलत को गलत। सम्यक्त्व दृष्टि का यह विकास मुक्ति का ही नहीं, सफल एवं सार्थक जीवन का हस्ताक्षर है। इस मायने में धर्म पवित्रता का नया आकाश, नया मार्ग, नया विचार, नए शिखर छूने की कामना, कल्पना और सपने हैं।
भगवान महावीर का एक संुदर सूक्त है-एगे सु संपन्ने एगे शीलंपन्ने। एक व्यक्ति श्रुतसंपन्न है, किन्तु शीलसंपन्न नहीं है, दूसरा शीलसंपन्न तो है, किन्तु श्रुतसंपन्न नहीं है। यह दोनों ही अपूर्णता की स्थिति है, अधूरेपन की स्थिति है। चरित्र है, किन्तु पढ़ा-लिखा नहीं है तो भी अधूरापन है। समग्रता की स्थिति तब होगी जब श्रुतसंपन्न और शीलसंपन्न दोनो बनेंगे। शिक्षा में दोनों का समावेश होना चाहिए, जो आज नहीं है। आज विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में ज्ञान-विज्ञान की इतनी शाखाएं हो गई हैं, जितनी अतीत में कभी नहीं थीं। लेकिन नैतिकता का जितना ह्रास आज हुआ है और हो रहा है, उतना अतीत में कभी नहीं था।
आज के युग की जो भी समस्याएं हैं, चाहे कोरोना महामारी या पर्यावरण की समस्या हो, हिंसा एवं युद्ध की समस्या हो, चाहे राजनीतिक अपराधीकरण एवं अनैतिकता की समस्या, चाहे तनाव एवं मानसिक विकृतियां हो, चाहे आर्थिक एवं विकृत होती जीवनशैली की समस्या हो- इन सब समस्याओं का समाधान महावीर के सिद्धान्तों एवं उपदेशों में निहित है। इसलिये आज महावीर के पुनर्जन्म की नहीं बल्कि उनके द्वारा जीये गये आदर्श जीवन के अवतरण की अपेक्षा है। जरूरत है हम बदलें, हमारा स्वभाव बदले और हम हर क्षण महावीर बनने की तैयारी में जुटें तभी महावीर निर्वाण दिवस पर महावीर की स्मृति एवं स्तुति करना

बुरा वक्त भी बहुत कुछ सिखाता है


साल 2020 काफी चुनोतियों भरा है। इस साल जो घटनाएं घटित हुई है वो न ही कभी गुजरे जमाने मे देखी गई होगी और न ही आने वाले वक्त में फिर कभी कोई इस तरह की घटनाओं की कल्पना कर रहा होगा। ये सच है कि बीते कुछ महीनों में ज़िन्दगी की रफ्तार पर ब्रेक लग गया था। इस भागदौड़ भरी जिंदगी में कुछ पल जरूर मिले जब हम अपने और अपनों के लिए सोच सके। ये अलग बात है कि सभी के लिए ये पल अच्छे नहीं रहे, लेकिन इन चंद पलो ने ही हमे यह एहसास करा दिया कि हर काम हमारे मन मुताबिक हो यह जरूरी नही है। फिर चाहे कोई कितनी भी अच्छी प्लांनिग क्यों न कर ले? यहां इस बात का यह मतलब कतई नही है कि इंसान कल की परवाह करना ही छोड़ दे। 
     साल 2020 ने जो यादे और अनुभव दिए है वो जीवन मे कभी न भूलने वाले पलो की तरह हमेशा साथ रहेंगे, क्योंकि समय चाहे अच्छा रहा या फिर बुरा रहा लेकिन ये वही पल थे, जब इस भागती जिंदगी में लोग अपने लिए रुक से गए थे। जिसे घर-परिवार के लिए समय नही था। उसे घर मे कैद होकर रह जाना अपनो के बीच समय गुजारना वक्त की जरूरत बन गया था।अब शायद फिर कभी ये पल न आये,  लेकिन आज ये कहावत जरूर सच सी लगने लगी है कि बुरा वक्त कुछ अच्छा जरूर सीखा कर ही जाता है। वक़्त चाहे जैसा भी हो गुजर ही जाता है। रह जाती है सिर्फ यादें। जो हमें यह अहसास कराती है कि गुजरे पलो में हमने क्या गलतियां की है।
कोरोना महामारी ने हमारी आदतें और जीवनशैली को बदल दिया है। जिस भारतीय संस्कृति में हाथ जोड़कर प्रणाम करने की जिस परंपरा को हमने बिसार दिया था। आज फिर देश उस परम्परा की ओर लौट रहा है। पहले से कही ज्यादा अब लोग अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हो रहे है। योग प्राणायाम को अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बना रहे है। अब समय आ गया है जब हम  हदों में रहना सीख ले। प्रकृति के साथ जो निर्दयी व्यवहार किया है उस पर अब लगाम लगा दे। वर्ना प्रकृति के प्रकोप से बच पाना मानव के लिए बहुत कठिन हो जाएगा। आज तापमान बढ़ने की वजह मानव द्वारा प्रकृति का दोहन करना है। आज बाढ़ भूकम्प जैसी घटनाएं जो वर्षों के अंतराल में घटित होती थी अब ऐसा लगता है मानो ये घटनाएं हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन गयी है। क्या ये घटनाएं मानव को आईना दिखाने के लिए काफी नही है?
      एक कल्पना करें कि प्रकृति यदि अनाज उगाना बन्द कर दे। नदियां अपने जलाशय का पानी इंसान को न दे , जिन पेड़ो की इंसान अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए बलि चढ़ा रहा वह यदि फल न दे, अपनी शीतलता देना छोड़ दे, तो इस स्वार्थी इंसान का क्या होगा? स्वाभाविक सी बात है, कि मानव-जीवन ख़तरे में पड़ जाएगा। जब प्रकृति के बिना मानव जीवन की कल्पना ही निराधार है तो मानव क्यों अपने विनाश के बीज स्वयं रोप रहा है? आज कोरोना महामारी है, बाकी महामारियों की तरह इसका भी तोड़ मानव एक दिन शायद ढूंढ ही लेगा लेकिन कल फिर कोई और महामारी होगी। इन महामारियों की जड़ में जाए तो यह साफ पता चल ही जायेगा कि कही न कही ये मानव की भूल के परिणामस्वरूप ही पैदा हुई है। 

     कोरोना महामारी भी बाकी महामारियों की तरह एक दिन खत्म हो ही जाएगी। साथ ही हमारी जीवन जीने की पद्धति को भी बदल देगी। आज हम घरों में रहकर अपने जरूरी काम कर रहे है। देश ऑनलाइन शिक्षा की ओर बढ़ रहा है। यहां तक की दफ्तरों के काम भी ऑनलाइन हो रहे है। कल जब परिस्थिति सामान्य होगी तो ये परिवर्तन हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन गए होंगे। हमे इन बदलावों को सहज स्वीकार करना होगा। आधुनिकता की अंधी दौड़ में हमे अपने जीवन मूल्यों को भी ध्यान रखना होगा। तभी मानव-जीवन निरंतर गतिशील रह पाएगा।

नीतीश दिखाएँ बड़ा दिल, भाजपा को सौंपे मुख्यमंत्री का तोहफ़ा

                      प्रभुनाथ शुक्ल 

बिहार में एक बार फ़िर प्रधानमंत्री नरेंद्रमोदी का जादू चला है। राज्य में नीतीश कुमार के नेतृत्व में चौथी बार सरकार बनने जा रहीं है। हालाँकि चुनाव परिणाम को लेकर कई सवाल भी उठे हैं। क्योंकि कई सीटों पर हारजीत का अंतर बेहद कम था। जिसकी वजह से राष्ट्रीय जनता दल और तेजस्वी यादव की तरफ़ से चुनाव आयोग पर गम्भीर सवाल भी उठाए गए हैं। राज्य में सबसे बड़े दल के रुप में एनडीए उभरी है। भाजपा ने बेहतर प्रदर्शन किया है। चुनाव परिणाम आने तक पूरी तरह संशय बना रहा कि कब कौन बाजीमार ले जाय यह कहा नहीँ जा सकता था। 

बिहार में पूरी मत मतगणना के दौरान नतीजे ऊपर नीचे हो रहे थे। फिलहाल राज्य में सबसे बड़े दल के रुप में नीतीश और मोदी की जोड़ी उभरी है। भाजपा ने सबसे अच्छा प्रदर्शन किया है। भाजपा को अगर उम्मीद से अधिक परिणाम आने की सम्भावना होती तो वह नीतीश कुमार को गठबंधन का नेता कभी नहीँ मानती। लेकिन उसे पता नहीँ था कि उसका प्रदर्शन इतना बेहतर होगा। राज्य में एनडीए 125 , महागठबंधन 110 , एलजेपी 01 और बसपा 01 अन्य 07 सीट हासिल करने में कामयाब रहें हैं। 

बिहार चुनाव में ओवैसी और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी ने भी उम्मीद से अधिक प्रदर्शन किया है। कई दलों के गठबंधन के इस घटक ने 05 सीटें जीती हैं। इन दलों के आपसी तालमेल की वजह से चिराग पासवान भी चित्त हो गए। चिराग की तरफ़ से बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीँ हो पाया। वह पिता रामविलास की बनाई सियासी ज़मीन को भी नहीँ सम्भाल पाए। 2015 के चुनाव में उनकी पार्टी ने दो सीटों पर जीत हासिल किया था। चिराग ने नीतीश से बगावत कर अपना सियासी भविष्य खराब कर लिया है। भाजपा के लिए भी अब वह चुसे गन्ने की तरह हैं। लेकिन उन्होंने नीतीश को नुकसान पहुंचाकर भाजपा को फायदा पहुँचाया है। जबकि सुशील मोदी ने कहा है कि चिराग की वजह से 25 से 30 सीटों का नुकसान हुआ है। 

बिहार में चुनाव पूर्व नीतीश कुमार को एनडीए का मुख्यमंत्री प्रमोट कर भाजपा फँस गई है। भाजपा को तनिक भी उम्मीद नहीँ थीं कि राज्य में आने वाला चुनाव परिणाम उसके लिए इतना बेहतर होगा। अगर इस बात का उसे पता होता तो वह मुख्यमंत्री का फैसला कभी नहीँ करती। क्योंकि एनडीए में वह सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी है। 2015 में भाजपा ने जहाँ 53 सीटों पर विजय हासिल किया था वहीँ इस पर उसने 74 सीटें जीती हैं। पाँच साल में उसका प्रदर्शन सुधरा है। वह 21 सीटें अधिक लायी है। चुनाव पूर्व प्रधानमंत्री मोदी की तरफ़ से बिहार के लिए विकास की जिन बड़ी परियोजनाओं की घोषणाएँ हुई उसका लाभ भाजपा को सीधा मिला है। जबकि जदयू को इस बार 2015 के मुकाबले 28 सीटों का बड़ा नुकसान हुआ है। 2020 में उन्हें 71 के बजाय सिर्फ 43 सीटें मिल पायी हैं। बिहार की जनता निश्चित रुप से नीतीश से खफा थीं। 

भाजपा नीतीश को छोड़ कर अन्यत्र जा भी नहीँ सकती है। क्योंकि उसके पास कोई दूसरा विकल्प नहीँ है। राज्य में राष्ट्रीय जनता दल, भाजपा और जदयू सबसे बड़े दल हैं। भाजपा नीतीश को उस हालत में बाय नहीँ कह सकती है। वह बिहार में महाराष्ट्र फॉर्मूला नहीँ लागू कर सकती है। क्योंकि अगर वह नीतीश से अलग होती भी है तो उसके पास कोई दूसरा सियासी विकल्प नहीँ बचता है। राष्ट्रीय जनता दल से मिल नहीँ सकती है फ़िर नीतीश के साथ हर-हाल में उसे बने रहना होगा।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश का नैतिक दायित्व बनता है कि वह तीन बार लगातर राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। चौथी बार मुख्यमंत्री की ताजपोशी होगी। उन्हें खुद चाहिए कि मुख्यमंत्री का पद वह भाजपा के लिए अपनी स्वेच्छा से छोड़ दें। क्योंकि उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान खुद कहा था कि उनका यह अंतिम चुनाव है। नीतीश को बड़ा दिल दिखाते हुए बिहार के सत्ता की चाबी भाजपा को सौंप देनी चाहिए। अगर यह सम्भव नहीँ है तो 20: 20 का फॉर्मूला अपना लें। क्योंकि भाजपा गठबंधन में सबसे बड़े दल के रुप हैं , उस हालात में नीतीश को इस पर विचार करना चाहिए। अगर नीतीश इस तरह का फैसला करते हैं तो भाजपा और नीतीश की दोस्ती और दूरगामी हो जाएगी। यह समय और सियासी दोस्ती की भी माँग हैं। 

राजनीतिक लिहाज से देखा जाय तो बिहार में तेजस्वी का सियासी आधार कुछ खास नहीँ था। एनडीए के मुकाबले वह महागठबंधन के अकेले नेता थे। बिहार में उन्होंने अपनी एक अलग छबि बनाई। चुनावी पोस्टर से पिता लालू और माँ राबड़ी को हटा दिया। इस फैसले पर भी विरोधियों ने उन पर खूब हमला बोला, लेकिन वह अपनी रणनीतिक पर कायम रहे।  बिहार में तेजस्वी की पार्टी सबसे बड़े दल के रुप में उभरी है। युवाओं ने उन पर भरोसा जताया है। एनडीए के पास स्टार प्रचारकों की बड़ी फौज थीं। प्रधानमंत्री मोदी जैसा जादुवी चेहरा था नीतीश जैसा अनुभवी व्यक्तित्व। जबकि तेजस्वी यादव के पास ऐसा कुछ नहीँ था। पीएम मोदी जंगलराज की बार- बार चर्चा कर लालू यादव राज की याद दिला रहे थे। इस लिहाज से तेजस्वी सारे हमलों का जवाब देकर अपनी सियासी छबि बनाने में कामयाब रहें हैं। वह सफल नेता साबित हुए हैं महागठबंधन में जबकि राहुल गाँधी फेल हुए हैं। 

हालाँकि राष्ट्रीय जनता दल को 2015 की मुकाबले उन्हें पाँच सीटों का नुकसान हुआ है। इस बार उन्हें सिर्फ 75 सीटें मिली हैं। इस सफलता की वजह भी महागठबंधन में सिर्फ तेजस्वी यादव हैं। कॉंग्रेस तो लगातर पिट रहीं हैं उसने तो पिछले चुनाव का प्रदर्शन भी नहीँ सहेज पायी है। राहुल गाँधी ने प्रधानमंत्री मोदी पर सिर्फ जुबानी हमला बोला है उसका असर काँग्रेस को राहुल गाँधी कहीँ नहीँ दिला पाए हैं। जबकि प्रधानमंत्री मोदी अपनी पार्टी को फायदे में पहुँचाया है। 2015 के मुकाबले बिहार में भाजपा ने 21 सीटें अधिक जीतीं हैं। वहीँ नीतीश, तेजस्वी और राहुल गाँधी ने अपनी ज़मीन खोई है। 

बिहार में 2015 के चुनावों में भाजपा का वोट शेयर 24.42 फीसद था। लेकिन 2020 के चुनावों में भाजपा का वोट शेयर गिरकर 19.46 प्रतिशत हो गया। नीतीश का वोट शेयर लगातर गिरा है। लेकिन राजद की सीटें जरूर कम हुई हैं, लेकिन वोट शेयर बढ़ा है। 2020 में राजद का वोट शेयर 23.11 है। सबसे अधिक वोट शेयर के बाद भी राजद सत्ता से दूर है। लेकिन तेजस्वी बिहार में युवानेता के रुप में उभरे हैं। बिहार की जनता ने उन्हें बड़ा सम्मान दिया है। मोदी और नीतीश के राजनीतिक कौशल के आगे तेजस्वी कहीँ नहीँ टिकते हैं। 

घर को लगी है आग, घर के “चिराग” से!

जी हां बिहार की धरती पर कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिला। जोकि राजनीतिक समीकरण में बहुत उथल-पुथल को दर्शाता है। सियासत के सधे हुए सियासी कदम ने बिहार की धरती पर वही कर दिखाया जिस बात का पूर्ण रूप से अनुमान लगाया जा रहा था। क्योंकि बिहार के चुनाव में जिस प्रकार के समीकरण बिछाए जा रहे थे वह स्पष्ट रूप से यही सिद्ध कर रहे थे कि इस बार का बिहार चुनाव अब तक के हुए बिहार चुनाव से पूर्ण रूप से भिन्न होना तय है। इस बात की शंका और आशंका पूर्ण रूप से हो चुकी थी। क्योंकि सियासी रूपी शतरंज की गोट जिस प्रकार से अपनी चाल चल रही थी उस चाल के आधार पर आने वाले परिणाम स्पष्ट रूप से संकेत दे रहे थे जिसकी मात्र पुष्टि ही बाकी थी। जोकि परिणामों को आने के बाद हो गई। बिहार चुनाव में शतरंज के हाथी घोड़े राजा सिपाही प्यादे सभी अपनी-अपनी चाल बड़ी ही रणनीतिक रूप से चल रहे थे जिनकी चालों को देखकर यह स्पष्ट हो रहा था कि आने वाले 10 नवंबर को जब नतीजे आएंगे तो स्थिति चौंकाने वाली होगी। क्योंकि गढ़े गए चक्रव्यूह के अनुसार जब परिणाम आए तो उससे पूरी रूप रेखा साफ एवं स्पष्ट हो गई।

 लोजपा जिस रणनीति के द्वारा कार्य कर रही थी वह स्पष्ट रूप से यह दर्शा रही थी कि इस बार नीतीश कुमार को सीमित करने का भरसक प्रयास किया जा रहा है साथ ही दूसरी पार्टी को खुला मैदान दिया जा रहा है और जब परिणाम आए तो सारे अनुमानों के चेहरे से पर्दा हट गया। क्योंकि अबतक जो भी अनुमान थे वह वास्तविकता में परिवर्तित हो गए और सीधे-सीधे नीतीश कुमार के पार्टी को बहुत भारी सियासी नुकसान हुआ जिसका मुख्य कारण यह था कि नीतीश कुमार की पार्टी दो मोर्चों पर चुनाव लड़ रही थी नंबर एक अपने धुर विरोधी महागठबंधन से नंबर दो सबसे बड़ा संघर्ष था वह यह था कि लोजपा की रणनीति का सामना करना। जोकि चुनावी मैदान में नीतीश के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी। क्योंकि लोजपा सीधे-सीधे नीतीश कुमार पर ही निशाना साध रही थी। यदि शब्दों को बदलकर कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा कि नीतीश कुमार की इस बार के बिहार विधान सभा चुनाव में सबसे बड़ी चुनौती लोजपा ही बनकर उभरी थी जोकि नीतीश कुमार की जेडीयू को पूर्ण रूप से हर मोर्चे पर घेरने का प्रयास कर रही थी। क्योंकि लोजपा ने जिस प्रकार से चुनाव में शब्दों का चयन किया वह जदयू के लिए बहुत ही घातक था। क्योंकि साधारण मतदाता इतनी बारीक सियासत की चाल को नहीं भांप पाता कि किस ओर डगर पकड़ी जाए। जिसका परिणाम यह होता है कि बेचारा साधारण मतदाता चुनावी चक्रव्यूह में उलझकर रह जाता है। और अपने मत सियासत के सियासी फेर में उलझा देता है। बिहार चुनाव में यही हुआ भी। बेचारा सीधा-साधा साधारण मतदाता इस बार के सियासी चक्रव्यूह उलझ गया। जिससे कि सीधे-सीधे नुकसान नीतीश कुमार की पार्टी जदयू को हुआ। क्योंकि लोजपा के द्वारा बनाया गया चक्रव्यूह मतदाताओं के लिए बहुत ही विचित्र था। इसका मुख्य कारण यह था कि लोजपा अध्यक्ष अपने आप को नरेंद्र मोदी का हनुमान बताते हुए जनता को बहुत कुछ समझाने का प्रयास करते थे। क्योंकि चिराग लगातार यही कहते थे कि आने वाले दस नवम्बर को नीतीश कुमार मुख्यमंत्री नहीं रहेंगे अब भाजपा का मुख्यमंत्री होगा जिसके साथ लोजपा बिहार में सरकार बनाएगी। जिसके कारण मतदाता पूरी तरह से भ्रमित हो गया और वोट का बंटवारा हो गया।

खास बात यह है कि सियासत की दुनिया में मतों का बिखराव पराजय का मुख्य कारण होता है। जब भी किसी भी सियासी पार्टी की पराजय होती है तो उसका मुख्य कारण होता है कि मतों का बिखराव हो जाना। क्योंकि सियासत के धरातल पर पूरा खेल मतों का ही होता है। इसलिए आज के समय में सियासी पार्टियों ने नया फार्मूला ढ़ूँढ़ निकाला है वह यह कि अपनी जीत के साथ दूसरे के लिए हार की भी रूप रेखा तैयार करना। अब सियासी पार्टियां जितना अपने लिए जीत का मानचित्र तैयार करने में मेहनत करती हैं उससे कहीं अधिक दूसरे का मार्ग रोकने का भी प्रयास करती हैं। ऐसा इसलिए की अपने लिए चुनाव को सरल बनाया जाए। वोट के बिखराव के लिए अंदर खाने तमाम प्रत्यासी उतार देना जिससे की जो मत हमें न मिले उसको अपने विरोधी खेमें में पहुँचने से रोकने के लिए तमाम प्रत्यासियों को उतार कर मतों को पूरी तरह से तितर बितर कर अपने लिए एक सीधा रास्ता तैयार करना।

लोजपा के चक्रव्यूह ने नीतीश कुमार की पार्टी को सीमित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। नीतीश को इस बात अंदाजा अब हो गया होगा कि यदि चिराग को मना लिया जाता तो शायद यह स्थिति नहीं होती। चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी ने जदयू को गहरी चोट पहुंचाई है। इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि लोजपा की वजह से ही जदयू के कई मंत्री भी चुनाव हार गए। जिसमें जय कुमार सिंह जदयू के कद्दावर नेता और बिहार सरकार के मंत्री जय कुमार सिंह रोहतास के दिनारा सीट से लगातार जीत रहे जय कुमार सिंह की हार की वजह भाजपा से लोजपा में गये राजेंद्र सिंह हैं। हालांकि राजेंद्र सिंह भी चुनाव नहीं जीत पाए वह भी चुनाव हार गए लेकिन वोट के बंटवारे ने जय कुमार को चुनाव हरा दिया। सीट बंटवारे के कारण यह सीट भाजपा ने जदयू को दिया तो राजेंद्र सिंह बागी हो गए और लोजपा से चुनाव लड़ गए। दूसरा नाम सुरेश कुमार शर्मा का है जोकि बिहार सरकार में नगर विकास थे मंत्री सुरेश शर्मा मुजफ्फरपुर से चुनाव हार गए। तीसरा नाम संतोष कुमार निराला का आता है। संतोष कुमार निराला भी चुनाव हार गए। लोजपा के प्रत्याशी निर्भय निराला चुनावी मैदान में थे जिससे कि मतों का बिखराव हो गया और मंत्री जी चुनाव हार गए। चौथा नंबर आता है शैलेश कुमार का शैलेश कुमार बिहार के ग्रामीण कार्य मंत्री लेकिन यह भी अपना चुनाव हार गए। यहां भी मतों का बिखराव हुआ और परिणाम विपरीत हो गए। इसके बाद नंबर आता है कृष्ण नंदन वर्मा का जोकि घोसी विधानसभा से सीट बदल कर जहानाबाद गए जोकि बिहार सरकार के शिक्षा मंत्री लेकिन वर्मा भी अपना चुनाव नहीं बचा पाए और चुनाव हार गए। रामसेवक सिंह जोकि हथुआ से जदयू विधायक व समाज कल्याण मंत्री रामसेवक सिंह भी अपने क्षेत्र से चुनाव हार गए। जिनके सामने लोजपा से रामदास प्रसाद ने चुनाव लड़ा जिससे मतों का बिखराव हुआ।

2020 के विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान ने जिस तरह फ्रंटफुट पर आकर नीतीश के खिलाफ लगातार आक्रामक तेवर दिखाते हुए एनडीए से बाहर जाकर भाजपा के बागियों को अपना उम्मीदवार बनाकर नीतीश के खिलाफ खड़ा किया तो उससे उनकी मंशा साफ हो गई। क्योंकि 143 उम्मीदवारों में से एक सीट पर मिली जीत के बाद भी गदगद दिख रहे चिराग पासवान ने कहा कि पार्टी का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा है और पार्टी ने अपना जनाधार खड़ा किया है। चिराग पासवान ने यह भी कहा कि उनकी पार्टी को करीब 25 लाख वोट मिले हैं यानी उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि उन्हें लगभग 9% वोट हासिल हुए हैं। चिराग पासवान यह दावा कर रहे हैं कि बिहार की जनता ने उनकी नीतियों को पसंद किया है इसलिए उनका जनाधार भी बढ़ा है। बता दें कि इस बार के चुनाव में भाजपा के कई बागी लोजपा के टिकट पर मैदान में थे। भाजपा के कई दिग्गज नेताओं ने टिकट नही मिलने पर लोजपा के चिन्ह पर चुनाव लड़ा लोकिन वह लोजपा का चिराग जला पाने में कामयाब नहीं हो सके। लेकिन जदयू को नुकसान जरूर पहुंचाया।

बिहार के ताजा राजनीतिक समीकरण ने इस बार के चुनाव में बहुत कुछ कर दिखाया क्योंकि राजनीति की दुनिया में कुछ भी निर्धारित नहीं होता क्योंकि राजनीति की संकरी एवं चिकनी पकडंडियों पर तीव्र गति से दौड़ लगाना आसान नहीं होता। तनिक भी चूक होने के बाद पूरी तरह से संभल पाना संभव ही नहीं है। लेकिन एक बात तो तय है कि नीतीश ने इस बार के चुनाव से बहुत कुछ सीख लिया होगा। अब देखना यह है कि नीतीश कुमार अपनी इस घेराबंदी से किस प्रकार से पार पाने में सफल होते हैं। क्योंकि इस प्रकार की घेराबंदी नीतीश के राजनीतिक भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं। अब बिहार की राजनीति मे नीतीश अपने जनाधार को फिर से बढ़ाने के लिए क्या कदम उठाते हैं। साथ ही मतदाओं को आगामी चुनाव में किस प्रकार से अपने पाले में कर पाने में सफल होते हैं यह देखना होगा। जोकि समय के साथ पटल पर खुद ही चलकर सामने आ जाएगा।

दीवाली का बदलता ट्रैंड

– योगेश कुमार गोयल

समाज में ज्यों-ज्यों आधुनिकता का समावेश हो रहा है, वैसे-वैसे हमारे तीज-त्यौहारों पर भी आधुनिकता का प्रभाव स्पष्ट देखा जा रहा है। दीवाली जैसा हमारा पारम्परिक त्यौहार भी आधुनिकता की चपेट से नहीं बच पाया है। पहले लोग दीवाली के दिन श्रद्धापूर्वक अपने घर के अंदर व बाहर सरसों तेल अथवा घी के दीये जलाते थे और रात के समय सपरिवार पूजन में शामिल होते थे लेकिन अब प्रतीकात्मक कुछ दीये जलाने की रस्म निभाने के साथ मोमबत्तियों व रंग-बिरंगी लाइटों का इस्तेमाल होने लगा है। पूजन के लिए तथा घर में खाने के लिए तरह-तरह के पकवान घरों में ही बनाए जाते थे लेकिन अब बाजार की मिठाईयों व ड्राई फ्रूट्स का चलन हो गया है। हल्के पटाखों की जगह कानफोडू और अत्यधिक जहरीला धुआं उगलने वाले पटाखों ने ले ली है। हर तरफ दिखावे की होड़ और उपहार संस्कृति नजर आने लगी है।
एक विद्यालय की प्रिंसिपल श्रीमती कुसुम शंकर कहती हैं कि पहले लोगों में अपने घर में अधिक से अधिक दीये जलाने और घर की मुंडेर पर दीयों की कतार सजाने के लिए अपार उत्साह देखा जाता था। लोग दीये जलाने के लिए प्रायः बच्चों के हाथों से ही रूई की बाती बनवाते थे लेकिन दीयों के लिए बाती भी अब बाजार से रेडीमेड मिलती हैं और लोगों में दीयों के बजाय रंग-बिरंगी मोमबत्तियों व इलैक्ट्रॉनिक लाइटों के प्रति आकर्षण बढ़ गया है। कुसुम शंकर बताती हैं कि वह खुद भी अब एक बड़ा दीया जलाकर दीवाली मना लेती हैं। वह कहती हैं कि कुछ समय पहले तक लोग अपने घरों में इकट्ठे दीवाली मनाते थे लेकिन अब हाई सोसायटी के लोगों में तो दीवाली भी क्लबों में जाकर मनाने का चलन बढ़ गया है, जहां दिखावे की होड़ होने लगी है कि कौन कितनी फैशनेबल ड्रैस और कितने कीमती गहने पहने हुए है। उपहारों का चलन तो इतना बढ़ गया है कि कम्पीटिशन के इस युग में हर जगह दीवाली पर महंगे-महंगे उपहार देकर बॉस को खुश करने की होड़ देखी जाती है। कुसुम कहती हैं कि बाजार की मिठाईयों का चलन बढ़ने के कारण दीवाली के अगले दिन बहुत से लोगों के गले खराब नजर आते हैं क्योंकि बाजार की मिठाईयां शुद्ध नहीं रही। वह बताती हैं कि वह तथा उनके पति ऊंचे पदों पर होने के कारण उनके घर दीवाली पर मिठाईयों का अंबार लग जाता है और वह अक्सर सोचती हैं कि इतनी मिठाईयों का क्या करें? वह कहती हैं कि अब पटाखे इतने महंगे हो गए हैं कि गरीब लोग तो फुलझडि़यां या छोटे-छोटे पटाखे चलाकर ही संतोष कर लेते हैं जबकि बड़े-बड़े लोगों की कालोनियां रातभर पटाखों के धमाकों से गूंजती रहती हैं, उधर मनुष्यों से भी ज्यादा पशु-पक्षी दीवाली की रात होने वाले प्रदूषण से सर्वाधिक प्रभावित होते हैं।
दीवाली के बदलते अंदाज पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए बैंक अधिकारी एस. के. नागपाल कहते हैं कि पहले जहां आस-पड़ोस में एक-दूसरे के घर जाकर मिठाईयां भेंट करके बधाई देने की परम्परा थी और आपसी मेलजोल तथा भाईचारे का माहौल देखने को मिलता है, वहीं अब लोग आस-पड़ोस में मिठाईयां बांटने के बजाय उन्हीं लोगों को उपहार देते हैं, जिनसे उनका कोई लाभ हो और उपहारों में भी मिठाईयां का चलन तो खत्म हो गया है। मिठाईयों की जगह अब महंगे ड्राई फ्रूट्स अथवा महंगे-महंगे उपहार दिए जाते हैं। वह बताते हैं कि पहले जहां धनतेरस पर बर्तन खरीदने की परम्परा थी, वहीं अब लोग बर्तन खरीदने के बजाय विभिन्न स्कीमों का लाभ उठाकर इस अवसर पर फ्रिज, टीवी, एसी इत्यादि खरीदते हैं। नागपाल मानते हैं कि अब दीवाली पर दिखावा ज्यादा बढ़ गया है और उसी के अनुरूप खर्च भी बढ़ रहा है। वह बताते हैं कि देश के प्रमुख बैंक अब दीवाली पर लोगों की खुशियों को पूरा करने में उनके सहभागी बन रहे हैं। नागपाल के अनुसार लोग चूंकि दीवाली पर काफी खरीददारी करते हैं और इस अवसर पर काफी पैसों की भी जरूरत होती है, इसलिए बैंक इस मौके पर ‘फेस्टीवल बोनान्जा’ इत्यादि विभिन्न आकर्षक योजनाएं शुरू करते हैं, जिसके तहत बैंकों से नवरात्र के समय से दिसम्बर के अंत तक लिए जाने वाले कर्ज पर ब्याज में कुछ छूट प्रदान की जाती है।
दिल्ली में सरकारी नौकरी कर रहे गुड़गांव के राकेश खुराना कहते हैं कि दीवाली पर अब उपहारों के आदान-प्रदान का चलन इतना बढ़ गया है कि उपहार बांटने का सिलसिला दीवाली से 15-20 दिन पहले ही शुरू हो जाता है और यह सिलसिला दीवाली के दिन तक चलता है। उपहार बांटने की कवायद में काफी धन खर्च करने के साथ-साथ इस दौरान व्यक्ति मानसिक व शारीरिक तौर पर इतना थक जाता है कि उसमें दीवाली की औपचारिकताएं निभाने की सामर्थ्य ही नहीं बचती।
किराना व्यापारी अजेश कुमार कहते हैं कि पहले दीवाली पर खील, बताशे व चीनी के बने खिलौने खूब बिकते थे और लोग लक्ष्मी पूजन में भी इनका उपयोग किया करते थे लेकिन अब मिठाईयों का चलन इतना बढ़ गया है कि इन सब चीजों का चलन बेहद कम रह गया है। पूजन भी अब मिठाईयों से ही होने लगा है। अजेश कहते हैं कि रंग बिरंगी रोशनियों वाले पटाखों की तरफ लोग जरूर पहले से भी ज्यादा आकर्षित हो रहे हैं और ज्यादातर ऐसे पटाखों का चलन बढ़ रहा है, जो धमाकेदार आवाज के साथ-साथ आसपास के माहौल को भी कुछ पलों के लिए रंगीन बना दें।
गृहिणी शीला अग्रवाल के अनुसार दीवाली पर पहले जो सौहार्दपूर्ण वातावरण देखने को मिलता था, अब वो बात नहीं रही। लोगों के बीच पहले इस अवसर पर जो सौहार्द देखा जाता था, वह खत्म हो गया लगता है और दीवाली पर पूरी तरह आधुनिकता हावी नजर आती है। शीला कहती हैं पाश्चात्य संस्कृति में रंगे युवा अब दीवाली पर अपने परिवारजनों के साथ पूजा-पाठ में भाग न लेकर क्लबों व पार्टियों में इस अवसर पर अपने तरीके से जश्न मनाते हैं।

झूठ है जाति अहं को पालना

—विनय कुमार विनायक
क्यों जाति धर्म के झगड़े हैं
क्यों रंग, वर्ण पर इतराना!
सब मानव की एक है जाति
सबको मानव ही बने रहना!

कुछ नहीं शाश्वत यहां पर
भगवान भी रंग बदलते हैं
कभी गौर, कभी श्याम हुए
तो इंसानों का क्या कहना!

गोरे थे आर्य,शक,हूण,मंगोल
भगवान क्यों होते हैं काले?
इसको समझो एशिया वाले
और जरा हमको समझाना!

सब धर्म जहां उदित हुआ है
वहां ईसा जन्म के पूर्व में ही
सारे भगवान क्यों हुए काले
काले विष्णु,काले राम,कृष्णा!

इन्द्र, वरुण दिकपाल कबके
इतिहास हो चुके हैं धरा से
उत्तर,दक्षिण, पूर्व,पश्चिम में
क्यों करते काली अराधना?

कहां गए थे गोरे आर्य इन्द्र
जब गोवर्धन उठाने वाला था
आर्यों का एक श्याम सलोना!
रसखान,रहीम खानखाना भी
जिनका हो गया था दीवाना!

विश्व ने देखा विश्वविजेता
यवन सिकंदर पराजित हुए
काले ब्राह्मण कौटिल्य से!
वर्ण नहीं है जातीय गहना!

ज्ञान बड़ा, गुणवान बड़ा पर
सबसे बड़ा विनम्र हो जाना!
छोड़ो जाति व धर्म के झगड़े
मिथ्या है बड़प्पन दिखलाना!

यहां नहीं कोई शुद्ध आर्य है,
ब्राह्मण,यवन, अनार्य जन में
सदियों से मानव के तन में
बहुजातीय रक्त का मिलना!

विविध धर्म,वर्ग, वर्ण, नस्ल से
निर्मित हुआ है मानव जीवन!
त्याग दो शुद्धतावादी दंभ को
झूठ है जाति अहं को पालना!