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एग्जिट पोल: फिर खुली दावों की पोल

– योगेश कुमार गोयल
देश में लोकसभा चुनाव हों या किसी विधानसभा के चुनाव, मतदान प्रक्रिया पूरी होते ही लगभग सभी टीवी चैनल एग्जिट पोल का प्रसारण करते हैं, जिनमें दावों के साथ बताया जाता है कि किस पार्टी को कितनी सीटें मिल रही हैं और सरकार किसकी बनने जा रही है। एग्जिट पोल्स के जरिये डंके की चोट पर बताया जाता है कि कौनसा दल कहां से बाजी जीत रहा है, किस दल को कितनी सीटें मिलेंगी और अंततः विजय रथ पर कौन सवार होगा लेकिन बहुत बार ये तमाम एग्जिट पोल पूरी तरह हवा-हवाई साबित होते हैं। बिहार में पिछले तीन विधानसभा चुनावों में एग्जिट पोल गलत साबित हुए और यही इस बार के विधानसभा चुनाव में भी हुआ। अगर एग्जिट पोल की सटीकता की बात करें तो 2005, 2010, 2015 और 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में एग्जिट पोल जमीनी हकीकत से कोसों दूर साबित हुए। सही मायनों में एग्जिट पोल हकीकत कम, फसाना ज्यादा साबित होते रहे हैं।


2005 के एग्जिट पोल में किसी ने भी नीतिश कुमार के सत्ता में लौटने का अनुमान नहीं लगाया था, उसके बाद 2010 में एग्जिट पोल की भविष्यवाणियां गलत साबित हुई और 2015 के पिछले विधानसभा चुनाव में तो सभी एग्जिट पोल्स के अनुमान औंधे मुंह गिरे थे। तब चुनाव परिणामों में भाजपा गठबंधन ‘एनडीए’ महज 58 सीटों पर सिमट गया था और अन्य को मात्र 7 सीटें मिली थी जबकि महागठबंधन 178 सीटों पर विजय पताका लहराते हुए पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाने में सफल रहा था लेकिन तमाम एग्जिट पोल में एनडीए की सरकार बनने की बात कही गई थी। टुडेज चाणक्य ने एनडीए को 155 सीटें और महागठबंधन को 83 सीटें मिलने की भविष्यवाणी की थी जबकि इंडिया टुडे-सिसेरो के एग्जिट पोल में एनडीए को 113-127 सीटें तथा महागठबंधन को 111-123 सीटें मिलने का दावा किया था। सी-वोटर ने एनडीए को 101-121 तथा महागठबंधन को 112-132 जबकि नील्सन ने एनडीए को 108 तथा महागठबंधन को 130 सीटें मिलने की बात कही थी। इस बार के विधानसभा चुनाव में लगभग सभी एग्जिट पोल में महागठबंधन की सरकार बनने की भविष्यवाणी की गई लेकिन हुआ इसके उलट। एनडीए सारे कयासों को धत्ता बताते हुए बहुमत का आंकड़ा जुटाने में सफल रहा है जबकि न्यूज 18-टुडेज चाणक्य ने तो अपने एग्जिट पोल में एनडीए को महज 55 सीटों पर ही समेट दिया था जबकि महागठबंधन को 180 सीटें मिलने की भविष्यवाणी की थी। एक्सिस माय इंडिया-आज तक ने अपने एग्जिट पोल में एनडीए को 69-91 जबकि महागठबंधन को 139-161 सीटें दी थी। जन की बात-रिपब्लिक ने भी एनडीए के 104 सीटों पर समेटते हुए महागठबंधन को 128 सीटों के साथ उसकी सरकार बनने की भविष्यवाणी कर दी थी।
यदि अपवाद स्वरूप कुछ चुनाव परिणामों को छोड़ दिया जाए तो चुनाव के बाद किए गए एग्जिट पोल का इतिहास कम से कम भारत में तो ज्यादा सटीक नहीं रहा है। अतीत में कई बार साबित हो चुका है कि एग्जिट पोल्स द्वारा लगाए गए अनुमान गलत साबित हुए। अगर लोकसभा चुनावों की बात की जाए तो हालांकि 2019 के आम चुनाव के परिणाम काफी हद तक एग्जिट पोल के अनुमानों के करीब रहे थे लेकिन 1998 से 2014 के बीच के एग्जिट पोल पर नजर डालें तो हर बार एग्जिट पोल और चुनावी नतीजों के बीच काफी अंतर रहा। 1998 के आम चुनाव में लगभग सभी एग्जिट पोल ने एनडीए को सर्वाधिक सीटें देते हुए कांग्रेस सहित अन्य सभी दलों को लगभग नकार दिया था। हालांकि एनडीए को 252 सीटों पर जीत तो मिली थी लेकिन यूपीए 166 और अन्य 199 सीटें जीतने में सफल रहे थे। 13 महीने में ही वाजपेयी सरकार गिर जाने के बाद 1999 के चुनाव में एग्जिट पोल्स ने एनडीए को 350 के आसपास सीटें मिलने का अनुमान लगाया था जबकि कुछ ने तो अन्य पार्टियों को मात्र 39 सीटें ही दी थी। उस चुनाव में एनडीए को 292 जबकि अन्य पार्टियों को 113 सीटें मिली थी। 2004 में तो कांग्रेस की जीत ने सभी एजेंसियों के एग्जिट पोल आंकड़ों को गलत साबित कर दिया था। 2009 में भी वास्तविक परिणामों और एग्जिट पोल के आंकड़ों में 50 सीटों से भी ज्यादा का अंतर रहा और 262 सीटें हासिल कर यूपीए दूसरी बार सरकार बनाने में सफल हुआ था। 2014 के आम चुनाव में दो एजेंसियों को छोड़कर बाकी सभी ने अपने एग्जिट पोल में एनडीए को 270-290 के बीच और कांग्रेस को 150 के आसपास सीटें मिलने का अनुमान लगाया था लेकिन एनडीए के खाते में 336 सीटें आई थी जबकि यूपीए 60 सीटों पर ही सिमट गया था।
महत्वपूर्ण सवाल यह है कि एग्जिट पोल अपने दावों में क्यों बहुत बार इसी प्रकार फेल साबित होते रहे हैं? दरअसल एग्जिट पोल वास्तव में कुछ और नहीं बल्कि वोटर का केवल रूझान होता है, जिसके जरिये अनुमान लगाया जाता है कि नतीजों का झुकाव किस ओर हो सकता है। एग्जिट पोल के दावों का ज्यादा वैज्ञानिक आधार इसलिए भी नहीं माना जाता क्योंकि ये कुछ हजार लोगों से बातचीत करके उसी के आधार पर तैयार किए जाते हैं और प्रायः इसीलिए इन्हें हकीकत से दूर माना जाता रहा है। मतदाता जब अपना मत देकर मतदान केन्द्र से बाहर निकलता है तो एग्जिट पोल कराने वाली एजेंसियां उससे उसका रूझान पूछ लेती हैं। अधिकतर एग्जिट पोल परिणामों को प्रायः समझ लिया जाता है कि ये पूरी तरह सही ही होंगे किन्तु वास्तव में ये सिर्फ अनुमानित आंकड़े होते हैं और कोई जरूरी नहीं है कि मतदाता ने सर्वेकर्ताओं को अपने मन की सही बात ही बताई हो। दरअसल सर्वे के दौरान मतदाता बहुत बार इस बात का सही जवाब नहीं देते कि उन्होंने अपना वोट किस पार्टी या प्रत्याशी को दिया है।
मतदाताओं की राय जानने के लिए ‘ओपिनियन पोल’ और ‘पोस्ट पोल’ भी किए जाते हैं। एग्जिट पोल हालांकि ओपिनियन पोल का ही हिस्सा होते हैं किन्तु ये मूल रूप से ओपिनियन पोल से अलग होते हैं। ओपिनियन पोल में मतदान करने और न करने वाले सभी प्रकार के लोग शामिल हो सकते हैं। ओपिनियन पोल मतदान के पहले किया जाता है जबकि एग्जिट पोल चुनाव वाले दिन मतदान के तुरंत बाद किया जाता है। ओपिनियन पोल के परिणामों के लिए चुनावी दृष्टि से क्षेत्र के प्रमुख मुद्दों पर जनता की नब्ज टटोलने का प्रयास किया जाता है और क्षेत्रवार यह जानने की कोशिश की जाती है कि जनता किस बात से नाराज और किस बात से संतुष्ट है। इसी आधार पर ओपिनियन पोल में अनुमान लगाया जाता है कि जनता किस पार्टी या किस प्रत्याशी का चुनाव करने जा रही है। ओपिनियन पोल को ही ‘प्री-पोल’ भी कहा जाता है। पोस्ट पोल प्रायः मतदान की पूरी प्रक्रिया के समापन होने के अगले दिन या फिर एक-दो दिन बाद ही होते हैं, जिनके जरिये मतदाताओं की राय जानने के प्रयास किए जाते हैं और अक्सर माना जाता रहा है कि पोस्ट पोल के परिणाम एग्जिट पोल के परिणामों से ज्यादा सटीक होते हैं। देश में चुनाव प्रायः विकास के नाम पर या फिर जाति-धर्म के आधार पर लड़े जाते रहे हैं और अगर बात विधानसभा चुनावों की हो तो चुनाव में स्थानीय मुद्दे भी हावी रहते हैं, ऐसे में यह पता लगा पाना इतना आसान नहीं होता कि मतदाता ने अपना वोट किसे दिया है। दुनियाभर में अधिकांश लोग अब एग्जिट पोल को ज्यादा विश्वसनीय नहीं मानते और यही कारण है कि कई देशों में इन पर रोक लगाने की मांग होती रही है।

भारत की आत्मा ग्रामों में बसती है अतः देश में ग्रामीण विकास ज़रूरी

अर्थ की महत्ता आदि काल से चली आ रही है। आचार्य चाणक्य ने भी कहा है कि राष्ट्र जीवन में समाज के सर्वांगीण उन्नति का विचार करते समय अर्थ आयाम का चिंतन अपरिहार्य बनता है। इस दृष्टि से जब हम इतिहास पर नज़र डालतें हैं तो पता चलता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का गौरवशाली इतिहास रहा है एवं जो भारतीय संस्कृति हज़ारों सालों से सम्पन्न रही है, उसका पालन करते हुए ही उस समय पर अर्थव्यवस्था चलाई जाती थी। भारत को उस समय सोने की चिड़िया कहा जाता था। वैश्विक व्यापार एवं निर्यात में भारत का वर्चस्व था। पिछले लगभग 5000 सालों के बीच में ज़्यादातर समय भारत विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था रहा है। उस समय भारत में कृषि क्षेत्र में उत्पादकता अपने चरम पर थी एवं कृषि उत्पाद विशेष रूप से मसाले, आदि भारत से, लगभग पूरे विश्व में पहुंचाए जाते थे। मौर्य शासन काल, चोला शासन काल, चालुक्य शासन काल, अहोम राजवंश, पल्लव शासन काल, पण्ड्या शासन काल, छेरा शासन काल, गुप्त शासन काल, हर्ष शासन काल, मराठा शासन काल, आदि अन्य कई शासन कालों में भारत आर्थिक दृष्टि से बहुत ही सम्पन्न देश रहा है। धार्मिक नगर – प्रयागराज, बनारस, पुरी, नासिक, आदि जो नदियों के आसपास बसे हुए थे, वे उस समय पर व्यापार एवं व्यवसाय की दृष्टि से बहुत सम्पन्न नगर थे।  भारत में ब्रिटिश एंपायर के आने के बाद (ईस्ट इंडिया कम्पनी – 1764 से 1857 तक एवं उसके बाद ब्रिटिश राज – 1858 से 1947 तक) विदेशी व्यापार में भारत का पराभव का दौर शुरू हुआ एवं स्वतंत्रता प्राप्ति तक एवं कुछ हद्द तक इसके बाद भी यह दौर जारी रहा है।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक दृष्टि से भारत का दबदबा इसलिए था क्योंकि उस समय पर भारतीय संस्कृति का पालन करते हुए ही आर्थिक गतिविधियाँ चलाईं जाती थीं। परंतु, जब से भारतीय संस्कृति के पालन में कुछ भटकाव आया, तब से ही भारत का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर से वर्चस्व कम होता चला गया। दूसरे, आक्रांताओं ने भी भारत, जिसे सोने की चिड़िया कहा जाता था, को बहुत ही दरिंदगी से लूटा था। इस सबका असर यह हुआ कि ब्रिटिश राज के बाद तो भारत कृषि उत्पादन में भी अपनी आत्मनिर्भरता खो बैठा।

आज भी देश में 60 प्रतिशत से अधिक आबादी ग्रामों में निवास करती है और अपने रोज़गार के लिए मुख्य रूप से कृषि क्षेत्र पर ही निर्भर है। भारत अभी भी कृषि प्रधान देश ही कहा जाता है परंतु फिर भी भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का हिस्सा लगभग मात्र 16-18 प्रतिशत ही है। कृषि जनगणना 2015-16 के अनुसार, भारत में लघु एवं सीमांत किसानों की संख्या 12.563 करोड़ है। देश में 35 प्रतिशत किसानों के पास 0.4 हेक्टेयर से कम जमीन है। जबकि, 69 प्रतिशत किसानों के पास 1 हेक्टेयर से कम जमीन है और 87 प्रतिशत किसानों के पास 2 हेक्टेयर से कम जमीन है। आमदनी के लिहाज़ से 0.4 हेक्टेयर से कम जमीन वाले किसान औसतन सालाना रुपए 8,000 कमाते हैं और 1 से 2 हेक्टेयर के बीच जमीन वाले किसान औसतन सालाना रुपए 50,000 कमाते हैं। देश मे लघु और सीमांत किसानों की न केवल आय कम है, बल्कि इनके लिए कृषि एक जोखिम भरा कार्य भी है। इसके चलते ग्रामों में प्रति व्यक्ति आय बहुत ही कम है अतः ग़रीबी की मात्रा भी शहरों की तुलना में ग्रामों में अधिक दिखाई देती है। इस तरह से यदि यह कहा जाय कि भारत की आत्मा ग्रामों में निवास करती है तो यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

आज जब देश में आत्म-निर्भर भारत की बात की जा रही है, तो सबसे पहिले हमें देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को आत्म-निर्भर बनाए जाने की ज़्यादा महती आवश्यकता दिखती है। भारतीय आर्थिक चिंतन में भी इस बात का वर्णन किया गया है कि आर्थिक विकास एक तो मनुष्य केंद्रित हो और दूसरे यह सर्वसमावेशी हो। यदि आर्थिक विकास के दौरान आर्थिक विषमता की खाई बढ़ती जाय तो ऐसी व्यवस्था राष्ट्र के लिए घातक सिद्ध हो सकती है। शोषण मुक्त और समतायुक्त समाज को साकार करने वाला सर्व समावेशी विकास ही सामाजित जीवन को स्वस्थ और निरोगी बना सकता है। आदरणीय पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी भी कहते थे कि पंक्ति में अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति का जब तक विकास नहीं हो जाता तब तक देश का आर्थिक विकास एक तरह से बेमानी है। इस दृष्टि से आज भारत के ग्रामों में जब ग़रीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले व्यक्तियों की एक अच्छी ख़ासी संख्या विद्यमान हो तो देश के आर्थिक विकास को बेमानी ही कहा जाएगा। ग्राम, जिले, प्रांत एवं देश को इसी क्रम में आत्मनिर्भर बनाया जाना चाहिए।

अतः आज आश्यकता इस बात की है कि अब पुनः भारतीय संस्कृति को केंद्र में रखकर ही आर्थिक विकास किया जाना चाहिए। भारतीय संस्कृति में भौतिकवाद एवं अध्यात्मवाद दोनों में समन्वय स्थापित करना सिखाया जाता है एवं भारतीय जीवन पद्धति में मानवीय पहलुओं को प्राथमिकता दी जाती है। देश में आर्थिक विकास को आंकने के पैमाने में, ग्रामीण इलाक़ों में निवास कर रहे लोगों द्वारा प्राप्त किये गए स्वावलम्बन की मात्रा, रोज़गार के नए अवसरों का सृजन, नागरिकों में आनंद की मात्रा, आदि मानदंडो को शामिल किया जाना चाहिए। साथ ही, ऊर्जा दक्षता, पर्यावरण की अनुकूलता, प्रकृति से साथ तालमेल, विज्ञान का अधिकतम उपयोग, विकेंद्रीयकरण को बढ़ावा आदि मानदंडो पर भी ध्यान दिए जाने की आज आवश्यकता है। सृष्टि ने जो नियम बनाए हैं उनका पालन करते हुए ही देश में आर्थिक विकास होना चाहिए। अतः आज भी देश की संस्कृति, जो इसका प्राण है, को अनदेखा करके यदि आर्थिक रूप से आगे बढ़ेंगे तो केवल शरीर ही आगे बढ़ेगा प्राण तो पीछे ही छूट जाएंगे। इसलिए भारत की जो अस्मिता, उसकी पहिचान है उसे साथ में लेकर ही आगे बढ़ने की ज़रूरत है। पिछले छह से अधिक महीनों से पूरे विश्व पर जो कोरोना वायरस महामारी की मार पड़ रही है उसके कारण आज सारी दुनिया भी विचार करने लगी है और पर्यावरण का मित्र बनकर मनुष्य और सृष्टि का एक साथ विकास साधने वाले भारतीय विचार के मूल तत्वों की ओर पूरी दुनिया लौटती दिख रही है एवं भारत की ओर आशा भरी नज़रों से देख रही है।

भारत में ग्रामों से पलायन की समस्या भी विकराल रूप धारण किए हुए है। अभी तक उद्योग धंधे सामान्यतः उन इलाक़ों में अधिक स्थापित किए गए जहां कच्चा माल उपलब्ध था अथवा उन इलाक़ों में जहां उत्पाद का बाज़ार उपलब्ध था। महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, आदि प्रदेशों में इन्हीं कारणों के चलते अधिक मात्रा में उद्योग पनपे हैं। हालांकि, मांग एवं आपूर्ति का सिद्धांत भी तो लागू होता है। महाराष्ट्र एवं गुजरात में बहुत अधिक औद्योगिक इकाईयां होने के कारण श्रमिकों की मांग अधिक है जबकि इन प्रदेशों में श्रमिकों की उपलब्धता कम हैं। इन प्रदेशों में पढ़ाई लिखाई का स्तर बहुत अच्छा है एवं लोग पढ़ लिखकर विदेशों की ओर चले जाते हैं अथवा ब्लू-कॉलर रोज़गार प्राप्त कर लेते हैं। अतः इन राज्यों में श्रमिकों की कमी महसूस की जाती रही है। श्रमिकों की आपूर्ति उन राज्यों से हो रही है जहां शिक्षा का स्तर कम है एवं इन प्रदेश के लोगों को ब्लू कॉलर रोज़गार नहीं मिल पाते हैं अतः इन प्रदेशों के लोग अपनी आजीविका के लिए केवल खेती पर निर्भर हो जाते हैं। साथ ही, गावों में जो लोग उत्साही हैं एवं अपने जीवन में कुछ कर दिखाना चाहते हैं वे भी शहरों की ओर पलायन करते हैं क्योंकि उद्योगों की स्थापना भी इन प्रदेशों में बहुत ही कम मात्रा में हुई है। उक्त कारण से आज पलायन का दबाव उन राज्यों में अधिक महसूस किया जा रहा है जहां जनसंख्या का दबाव ज़्यादा है एवं जहां उद्योग धंधों का सर्वथा अभाव है, यथा उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, आदि।

इसलिए आज देश के आर्थिक विकास को गति देने के लिए कुटीर उद्योग तथा सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगों को ग्राम स्तर पर ही चालू करने की सख़्त ज़रूरत है। इसके चलते इन गावों में निवास करने वाले लोगों को ग्रामीण स्तर पर ही रोज़गार के अवसर उपलब्ध होंगे एवं गावों से लोगों के शहरों की ओर पलायन को रोका जा सकेगा। देश में अमूल डेयरी के सफलता की कहानी का भी एक सफल मॉडल के तौर पर यहां उदाहरण दिया जा सकता है। अमूल डेयरी आज 27 लाख लोगों को रोज़गार दे रही है। यह शुद्ध रूप से एक भारतीय मॉडल है। देश में आज एक अमूल डेयरी जैसे संस्थान की नहीं बल्कि इस तरह के हज़ारों संस्थानों की आवश्यकता है।

वास्तव में, कुटीर एवं लघु उद्योंगों के सामने सबसे बड़ी समस्या अपने उत्पाद को बेचने की रहती है। इस समस्या का समाधान करने हेतु एक मॉडल विकसित किया जा सकता है, जिसके अंतर्गत लगभग 100 ग्रामों को शामिल कर एक क्लस्टर (इकाई) का गठन किया जाय। 100 ग्रामों की इस इकाई में कुटीर एवं लघु उद्योगों की स्थापना की जाय एवं उत्पादित वस्तुओं को इन 100 ग्रामों में सबसे पहिले बेचा जाय। सरपंचो पर यह ज़िम्मेदारी डाली जाय कि वे इस प्रकार का माहौल पैदा करें कि इन ग्रामों में निवास कर रहे नागरिकों द्वारा इन कुटीर एवं लघु उद्योगों में निर्मित वस्तुओं का ही उपयोग किया जाय ताकि इन उद्योगों द्वारा निर्मित वस्तुओं को आसानी से बेचा जा सके। तात्पर्य यह है कि स्थानीय स्तर पर निर्मित वस्तुओं को स्थानीय स्तर पर ही बेचा जाना चाहिए। ग्रामीण स्तर पर इस प्रकार के उद्योगों में शामिल हो सकते हैं – हर्बल सामान जैसे साबुन, तेल आदि का निर्माण करने वाले उद्योग, चाकलेट का निर्माण करने वाले उद्योग, कुकी और बिस्कुट का निर्माण करने वाले उद्योग, देशी मक्खन, घी व पनीर का निर्माण करने वाले उद्योग, मोमबत्ती तथा अगरबत्ती का निर्माण करने वाले उद्योग, पीने की सोडा का निर्माण करने वाले उद्योग, फलों का गूदा निकालने वाले उद्योग, डिसपोज़ेबल कप-प्लेट का निर्माण करने वाले उद्योग, टोकरी का निर्माण करने वाले उद्योग, कपड़े व चमड़े के बैग का निर्माण करने वाले उद्योग, आदि इस तरह के सैंकड़ों प्रकार के लघु स्तर के उद्योग हो सकते है, जिनकी स्थापना ग्रामीण स्तर पर की जा सकती है। इस तरह के उद्योगों में अधिक राशि के निवेश की आवश्यकता भी नहीं होती है एवं घर के सदस्य ही मिलकर इस कार्य को आसानी सम्पादित कर सकते हैं। परंतु हां, उन 100 ग्रामों की इकाई में निवास कर रहे समस्त नागरिकों को उनके आसपास इन कुटीर एवं लघु उद्योग इकाईयों द्वारा निर्मित की जा रही वस्तुओं के उपयोग को प्राथमिकता ज़रूर देनी होगी। इससे इन उद्योगों की एक सबसे बड़ी समस्या अर्थात उनके द्वारा निर्मित वस्तुओं को बेचने सम्बंधी समस्या का समाधान आसानी से किया जा सकेगा। देश में स्थापित की जाने वाली 100 ग्रामों की इकाईयों की आपस में प्रतिस्पर्धा भी करायी जा सकती है जिससे इन इकाईयों में अधिक से अधिक कुटीर एवं लघु उद्योग स्थापित किए जा सकें एवं अधिक से अधिक रोज़गार के अवसर निर्मित किए जा सकें। इन दोनों क्षेत्रों में राज्यवार सबसे अधिक अच्छा कार्य करने वाली इकाईयों को राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार प्रदान किए जा सकते हैं। इस मॉडल की सफलता सरपंचो एवं इन ग्रामों में निवास कर रहे निवासियों की भागीदारी पर अधिक निर्भर रहेगी।       

भारत आज कृषि उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर हो चुका है अतः अब इस क्षेत्र से निर्यात बढ़ाने के प्रयास भी किए जाने चाहिए। इसके लिए किसानों को न केवल अपने उत्पाद की गुणवत्ता में सुधार करना होगा बल्कि अपनी उत्पादकता में भी वृद्धि करनी होगी। शीघ्र ख़राब होने वाले कृषि उत्पादों का स्टोरेज करने के लिए कोल्ड स्टोरेज की चैन को ग्रामीण स्तर पर देश के कोने कोने में फैलाना होगा एवं ग्रामीण स्तर पर ही खाद्य प्रसंस्करण इकाईयों की स्थापना करनी होगी। ग्रामों में आधारिक संरचना का विकास भी करना होगा ताकि कृषि उत्पादों को शीघ्र ही ग्रामों से उपभोग स्थल तक पहुंचाया जा सके।  देश में किसानों को भी अब समझना पड़ेगा कि कृषि क्षेत्र से निर्यात बढ़ाने के लिए ओरगेनिक खेती की ओर मुड़ना ज़रूरी है एवं अंतरराष्ट्रीय मानदंडो के अनुरूप ही कृषि उत्पादन करने की ज़रूरत है।

गुरु वल्लभ लोकनायक एवं क्रांतिकारी संत थे

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा स्टैच्यू आफ पीस का ई-लोकार्पण
-ः ललित गर्ग:-

विश्व पटल पर कतिपय ऐसे विशिष्ट व्यक्तित्व अवतरित हुए हैं जिनके अवदानों से पूरा मानव समाज उपकृत हुआ है। ऐसे महापुरुषों की परम्परा में जैन धर्मगुरुओं एवं साधकों ने अध्यात्म को समृद्ध एवं शक्तिशाली बनाया है। उनमें एक नाम है युगवीर, क्रांतिकारी आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी। वे बीसवीं सदी के शिखर आध्यात्मिक पुरुष थे। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी रहा है। जिन्होंने अपने त्याग, तपस्या, साहित्य-सृजन, जैन-संस्कृति-उद्धार के उपक्रमों से एक नया इतिहास बनाया है। एक सफल साहित्यकार, प्रवक्ता, साधक, समाजसुधारक एवं चैतन्य रश्मि के रूप में न केवल जैन समाज बल्कि सम्पूर्ण अध्यात्म-जगत में सुनाम अर्जित किया है। राष्ट्रव्यापी स्तर पर उनके 150वें जन्मोत्सव वर्ष आयोजित हुआ, जिसका समापन 16 नवम्बर 2020 को वर्तमान गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् नित्यानंद सूरीश्वरजी के सान्निध्य में हो रहा है, इस अवसर पर प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी प्रातः राजस्थान के जैतपुरा ( जिला पाली ) में 151 इंच उत्तुंग धातु निर्मित ‘गुरु वल्लभ प्रतिमा’ स्टैच्यू आफ पीस का ई-लोकार्पण करेंगे।
गुरु वल्लभ के 151वां जन्म दिवस – 16 नवम्बर, 2020 पर विशेष

गुरु वल्लभ का नाम और काम कालजयी है। उन्होंने एक नवीन समाज निर्माण का प्रयत्न किया। एक धर्माचार्य के रूप में उन्होंने जो पवित्र और प्रेरक रेखाएं अंकित की, उनकी उपयोगिता, प्रासंगिकता एवं आहट युग-युगों तक समाज को दिशा-दर्शन करती रहेगी। वे एक ऋषि, देवर्षि, ब्रह्मर्षि एवं राजर्षि थे, जिन्होंने अपने पुरुषार्थ से अनेक तीर्थों की स्थापना की है। वे पुरुषार्थ की महागाथा थे, कीर्तिमानों के कीर्तिमान थे। वे अप्रतिम प्रतिभा के धनी थे। पिछली दो शताब्दियों में जैनधर्म को ऐसा महापुरुष नहीं मिला था। वह युग भारत के इतिहास में नव जागरण एवं नवनिर्माण का था। पढ़ लिखे लोगों में देशाभिमान जन्म लेने लगा था। यहीं से आधुनिक युग का प्रारंभ हुआ और इसी दौर में गुरु वल्लभ ने सरस्वती मंदिरों की स्थापना करके एक अभिनव क्रांति का सूत्रपात किया। आपका जीवन अथाह ऊर्जा, प्रेेरणा एवं जिजीविषा से संचालित तथा स्वप्रकाशी रहा। वह एक ऐसा प्रभापुंज, प्रकाशगृह था जिससे निकलने वाली एक-एक रश्मि का संस्पर्श जड़ में चेतना का संचार कर मानवता के समुख उपस्थित अंधेरों में उजालों का काम कर रही है।
आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी एक चमत्कारी एवं प्रभावकारी संत थे। गुजरात के ऐतिहासिक नगर पाटण में प्राचीन एवं आधुनिक साहित्य के लिए ‘हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान भंडार’ की स्थापना की प्रेरणा देते हुए ऐसा प्रभावशाली और मार्मिक चित्र खींचा कि महिलाओं ने गहने उतार कर ढेर कर दिए। राजस्थान में बीकानेर में विजय वल्लभ के प्रवचन से यहां की रानी इतनी प्रभावित हुई कि उसने अपने बगीचे का नाम ‘‘विजय वल्लभ बाग’’ रखा। गुरु वल्लभ महान् क्रांतिकारी एवं समाज-सुधारक धर्माचार्य थे। उनका सामाजिक दृष्टिकोण सुधारवादी था। जिन रूढ़ियों से न तो कोई धर्म का लाभ होता है न समाज का जो केवल रूढ़ि बनकर रह गयी हैं, जिनके पालन एवं प्रचलन से किसी भी प्रकार का लाभ नहीं होता उन्हंे अस्वीकार करते थे। वह समय था कि प्रत्येक भारतीय अपने धर्म, समाज एवं देश को आगे लाने के लिए भगीरथ प्रयत्न करता था।
भारत अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहा था। नयी-नयी सामाजिक संस्थाएं सुधार का झंडा लेकर अस्तित्व में आ रही थीं। देश और समाज में हो रहे इस प्रकार के व्यापक परिवर्तन से स्वभावतः विजय वल्लभ प्रभावित हुए। जिनके विचार की खिड़कियां खुली हुई हैं। जो समाज, धर्म और देश के हित के लिए चिंतित हों। जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अध्येता हों। वे इतने गहरे और व्यापक परिवेश से स्वभावतः प्रभावित होंगे ही। महात्मा गांधी की स्वतंत्रता की ज्योति जल रही थी। स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग और विदेशी चीजों का विरोध जोरों पर था। उस समय विजय वल्लभ ने मलमल के कपड़े उतार फैंके और खुरदरी खादी के मोटे कपड़े परिधान करने प्रारंभ किए। कहना न होगा कि विजय वल्लभ की पे्ररणा से हजारों लोगों ने खादी पहनना चालू कर दिया था।
महामना मदन मोहन मालवीय और आचार्य विजय वल्लभ के बीच नैकट्य संबंध  था। उस समय साम्प्रदायिक दंग हो रहे थे। विजय वल्लभ ने मालवीयजी एक पत्र में लिखा था कि आजकल जो हिन्दू-मुस्लिम दंगे हो रहे हैं उसके पीछे दूषित राजनीति है। विजय वल्लभ ने संकीर्ण साम्प्रदायिकता से उठकर स्नेह एवं सद्भाव के उपदेश दिए। उनके प्रवचन में हिन्दू, मुस्लिम, सिख आदि विविध धर्म के लोग समान रूप से आते रहते थे। लाहौर में जब उनका प्रवेश होने वाला था, उसके पहले दिन ही हिन्दू-मुस्लिम दंगे हो गए। जिस दिन प्रवेश होने वाला था। उस दिन भी उसकी पुनरावृत्ति होने वाले थी। उसके लिए दोनों गुटों में जोरों से तैयारी हो रही थी। पर जैसे ही विजय वल्लभ का नगर प्रवेश हुआ और सार्वजनिक प्रवचन हुए तो वे आश्चर्यजनक रूप से गायब हो गया। जो कल एक दूसरे के खून के प्यासे थे वे ही विजय वल्लभ के  प्रवचन के बाद गले लगते हुए दिखाई दिए। कई मुसलमान उनके भक्त हो गए, कई मुस्लिम समाजों ने उन्हें अभिवंदन पत्र भेंट दिए।
विजय वल्लभ का सामाजिक दृष्टिकोण सुधारवादी था। वे परिवर्तनशील समाज के साथ चलना धर्म मानते थे। गुरु वल्लभ अपने समय के ऐसे महापुरुष थे, जिनकी गणना रमण महर्षि, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी दयानंद, विवेकानंद, महात्मा गांधी आदि में होती हैं। उनके चमत्कारों का राज यही था कि उनमें  आत्मविश्वास था, संयम और चरित्र की प्रबल शक्ति थी, विजय वल्लभ के चमत्कारों का वर्णन सुनते हैं तो हमारा सिर उनकी विजय महिमा सुनकर नत हो जाता है। गुरु वल्लभ की प्रेरणा से देश में अनेक निर्माण कार्य हुए। मगर विशेष बात यह है कि वे मंदिरों, धर्मशालाओं, पाठशालाओं, छात्रावासों, चिकित्सालयों, मान-स्तम्भों के निर्माण के साथ-साथ, श्रावकों का भी उत्तम निर्माण कर करते रहें, कभी शिविरों के माध्यम से तो कभी अपने प्रवचनों के माध्यम से। उन्होंने न केवल श्रावकों बल्कि छात्रों, पंडितों, विद्वानों, डाक्टरों, इंजीनियरों, शिक्षाविदों, विधि-विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों आदि के शुष्क संसार में धर्मरस का सुंदर संचार किया। आप उस कोटि के निष्पृह-संत थे जिसकी परिभाषा जैनाचार्यों के अतिरिक्त, महान कवि एवं संत कबीरदासजी ने भी की है कि -साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय। सार-सार को गहि रहे, थोथा देइ उड़ाय।।
आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी ‘प्रवरसंत’ थे, वे जगतगुरु थे, मनीषी-विचारक थे, प्रवचनकला मर्मज्ञ थे,। वे आत्मसाधना में लीन, लोक-कल्याण के उन्नायक, सर्वश्रेष्ठ लोकनायक थे। वे एक मुनि थे, संत थे, ऋषि थे, ज्ञानी-ध्यानी थे। उनकी दृष्टि में साहित्य-सृजन एक उत्कृष्ट तप एवं पवित्र अनुष्ठान था। दर्शन, धर्म, अध्यात्म, न्याय, गणित, भूगोल, खगोल, नीति, इतिहास, कर्मकाण्ड आदि विषयों पर उनका समान अधिकार था। बनावटी शिल्प से उन्हंे लगाव नहीं था, वे आत्मा से उपजी स्वाभाविक भाषा-बोली के संकेत पर लेखनी चलाते थे। आपके विद्वत् वात्सल्य की चर्चा तो यत्र-तत्र सर्वत्र थी किन्तु विद्वानों विशेषकर युवाओं के प्रति उनका सहज वात्सल्य तथा ज्ञान प्राप्ति की लालसा सुनने को मिली। इस अलौकिक, तेजोमयी व्यक्तित्व चर्चा सुनकर लगा कि इस संत-चेतना के परिपाश्र्व में जीवन-ऊर्जा का अज्ररस्रोत प्रवहमान रहा, जीवन मूच्र्छित और परास्त नहीं था।
आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नारी शिक्षा को बल देने के लिये ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का उद्घोष दिया है, गुरु वल्लभ ने एक शताब्दी पूर्व ही नारी शिक्षा एवं नारी उत्कर्ष के लिये इस तरह की अभिनव क्रांति का उद्घोष करते हुए समाज को जागृत किया था। गुरु वल्लभ के व्यक्तित्व में सजीवता थी और एक विशेष प्रकार की एकाग्रता। वातावरण के प्रति उनमें ग्रहणशीलता थी और दूसरे व्यक्तियों एवं समुदायों के प्रति संवेदनशीलता। इतना लम्बा संयम जीवन, इतने व्यक्तित्वों का निर्माण, इतना आध्यात्मिक विकास, इतना साहित्य-सृजन, इतनी अधिक रचनात्मक-सृजनात्मक गतिविधियों का नेतृत्व, इतने लोगों से सम्पर्क- वस्तुतः ये सब अद्भुत था, अनूठा था, आश्चर्यकारी था। सचमुच आपकी जीवन-गाथा आश्चर्यों की वर्णमाला से आलोकित-गुंफित एक महालेख है। आपकी  प्रेरणा से संचालित होने वाली प्रवृत्तियों में इतनी विविधता रही कि जनकल्याण के साथ-साथ संस्कृति उद्धार, शिक्षा, सेवा, प्रतिभा-सम्मान, साहित्य-सृजन के अनेक आयाम उद्घाटित हुए है। देश में अहिंसा, शाकाहार, नशामुक्ति, नारी जागृति, रूढ़ि उन्मूलन एवं नैतिक मूल्यों के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। वे भौतिक वातावरण में अध्यात्म की लौ जलाकर उसे तेजस्वी बनाने का भगीरथ प्रयत्न करते हुए मोक्षगामी बने, वे अध्यात्म को परलोक से न जोड़कर वर्तमान जीवन से जोड़ रहे थे, क्योंकि उनकी दृष्टि में अध्यात्म केवल मुक्ति का पथ ही नहीं, वह शांति का मार्ग है। जीवन जीने की कला है, जागरण की दिशा है और जीवन रूपान्तरण की प्रक्रिया है। आपका संपूर्ण जीवन साधना, समाधि, शिक्षा में क्रांति एवं सामाजिक उत्थान और मनुष्य के नैतिक जागरण का उत्कृष्ट नमूना कहा जा सकता है।

आओ शहीदों को दीप जलाए

आओ शहीदों को दीप जलाए
जो अपने घर लौट कर न आए।
केवल तिरंगे को ओढ कर आए,
उन सबका हम सम्मान बढ़ाए ।।

जो सीमा की कर रहे थे रखवाली
मना नहीं पाए घर पर दीपावली ।
आओ हम सबको शीश झुकाए,
श्रद्धा से उनको हम दीप जलाए।।

जिनके घर पर शोक है पसरा,
मन में उनके दुख है बस रहा।
उन सबके घर पर हम जाए,
सांतवना के दीप हम जलाए।।

जिनके घर निराशा बस रही है,
आशा की किरण न दिख रही हैं।
उन घरों में हम सब लोग जाए,
आशा का वहां एक दीप जलाए।।

प्रधान मंत्री सीमा पर है जाते,
दिवाली जवानों के संग है मनाते।
उन्हेंअपने हाथो से मिठाई खिलाते
हम भी उनके घर पर सब जाए,
उनके साथ ही दिवाली मनाएं।।

इंडिया गेट पर जो ज्योति जलती,
जो हमेशा निरन्तर जलती रहती।
उस अमर ज्योति पर हम जाए,
उनके सम्मान में वहां दीप जलाए

कोरोना काल में दिवाली कैसे मनाए
केवल दो गज की दूरी हम बनाए,
और मुंह पर अपने मास्क लगाए।
तब कहीं सब शुभ दिवाली मनाएं

आर के रस्तोगी

भारत की तस्वीर बदलते प्रधानमंत्री श्री मोदी

11 नवंबर 2017 से 18 फरवरी 2018 तक मुंबई में भारत के 20 लाख वर्षों के इतिहास से जुड़ी एक प्रदर्शनी लगी थी। इस प्रदर्शनी को उस समय इंडिया एंड वर्ल्डः ए हिस्ट्री इन नाइन स्टोरीज़ का नाम दिया गया था। इसमें 228 मूर्तियों, बर्तनों और तस्वीरों को इनके समय के अनुसार नौ वर्गों में बांटा गया था।
संग्रहालय के निदेशक सब्यसाची मुखर्जी के अनुसार”प्रदर्शनी का उद्देश्य भारत और शेष विश्व के बीच संबंध खोजना और तुलना करना था।”
वास्तव में इस प्रकार की प्रदर्शनी इस देश के प्रत्येक शहर में लगाई जानी आवश्यक हैं। क्योंकि इस प्रकार की प्रदर्शनी से भारत के गौरवपूर्ण अतीत को वर्तमान पीढ़ी के अंतर्मन में उकेरने में हम सफल हो सकेंगे। साथ ही जो लोग इस विश्व का इतिहास पिछले 5000 वर्ष में जबरन समाविष्ट करने का प्रयास करते हैं उनकी इस मूर्खतापूर्ण अवधारणा से भी पर्दा उठ सकेगा।
अब समय आ गया है जब सारे संसार को विश्व गुरु रहे भारत के सच्चे इतिहास को समझना चाहिए। यह एक सुखद तथ्य है कि वर्तमान प्रधानमंत्री श्री मोदी कुछ नई परिभाषाएं गढ़ रहे हैं। कुछ नए मूल्यों का सृजन कर रहे हैं और कुछ ऐसी नई चीजों को हमारे सामने लाने का प्रयास कर रहे हैं जो आज नहीं तो कल सुखद परिणाम देने वाली होंगी। वास्तव में आज के विश्व को यह बताना बहुत आवश्यक है कि जब से संसार में ईसाइयत और इस्लाम का पदार्पण हुआ तब से लड़ाई – झगड़े व उग्रवाद अधिक बढ़ा है। उससे पहले लाखों – करोड़ों वर्ष तक भारत की वैदिक संस्कृति के माध्यम से संसार में धर्म का साम्राज्य स्थापित रहा अर्थात नैतिकता और न्याय में विश्वास रखने वाले लोग सत्तासीन रहे । उन्होंने इन्हीं दोनों मूल्यों को अपनाकर संसार में सुव्यवस्था स्थापित रखी।
आज का विश्व भारत के इसी सनातन सत्य की ओर टकटकी लगाए देख रहा है । सारे विश्व में इस समय एक ऐसी जिज्ञासा का भाव है जो यह प्रकट करता है कि भारत को खोजना समय की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री श्री मोदी की कार्यशैली ने जिस तेजस्वी राष्ट्रवाद का निर्माण किया है उससे इस प्रकार के जिज्ञासा भाव में और भी अधिक वृद्धि हो गई है। भारत के प्रति जिज्ञासा को बढ़ाने में प्रधानमंत्री श्री मोदी का अपने सैनिकों के साथ दिवाली मनाने का कार्यक्रम भी विशेष रूचि पैदा करता है।
इस बार की दीपावली प्रधानमंत्री श्री मोदी ने जैसलमेर की लोंगेवाला पोस्ट पर जाकर अपने सैनिकों के साथ मनाई है । जहां उन्होंने शत्रु को ललकारते हुए कहा है कि “अगर भारत को उकसाया गया, तो भारत इसका ‘प्रचंड जवाब’ देगा।”
प्रधानमंत्री ने साम्राज्यवादी और विस्तारवादी नीतियों में विश्वास रखने वाले चीन को स्पष्ट और कड़ा संदेश देते हुए अपने ओजस्वी भाषण में कहा कि “आज पूरा विश्व विस्तारवादी ताक़तों से परेशान है। ये एक तरह से मानसिक विकृति है और 18वीं शताब्दी की सोच को दर्शाती है।”
निश्चित रूप से प्रधानमंत्री की इस प्रकार की ओजस्विता तेजस्वी राष्ट्रवाद के निर्माण में सहायक होती है। जब प्रधानमन्त्री अपने सैनिकों के बीच ऐसी बातें कहकर देश की भावनाओं को प्रकट करते हैं तो निश्चय ही उसका सेना के मनोबल पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। आज हम यह देख भी रहे हैं कि हमारे सैनिकों का मनोबल इतना ऊंचा है कि चीन जैसा देश अब आगे बढ़ने या भारत के साथ कुछ भी करने से पहले एक बार नहीं सौ बार सोच रहा है।
प्रधानमंत्री श्री मोदी ने भारत के किसी भी शत्रु को यह स्पष्ट कर दिया है कि “भारत दूसरों की बात समझने और अपनी बात समझाने की नीति पर विश्वास करता है, लेकिन यदि उकसाया जाए तो ये देश प्रचंड जवाब देने में सक्षम है।”
प्रधानमंत्री श्री मोदी का इस प्रकार का संबोधन और उद्बोधन जहां देशवासियों में आत्मबल का संचार करने वाला है , वहीं शत्रु देशों को यह स्पष्ट करने में भी सक्षम है कि भारत इस समय किसी भी प्रकार के प्रमाद का प्रदर्शन करने की स्थिति में नहीं है। वह पूर्णतया सावधान है और शत्रु के प्रत्येक इरादे को कुचलने की क्षमता और सामर्थ्य रखता है। हाल में दोनों देशों के सैन्य कमांडरों के बीच विवाद सुलझाने को लेकर आठवें दौर की बातचीत हुई थी, जिसमें दोनों देशों के राजनयिकों ने भी भाग लिया था। ये बैठक किसी परिणाम के समाप्त हो गई । ऐसे में शत्रु देशों को कड़ा संदेश दिया जाना आवश्यक था।
हमारा संविधान हमारे देश को संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित करता है । ऐसे में अपने देश की सुरक्षा के प्रति पूर्णतया सावधान रहना और वैसा ही आचरण करना जिससे यह स्पष्ट हो सके कि भारत इस समय संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य है ,किसी भी प्रधानमंत्री के लिए बहुत आवश्यक है । तभी तो लोंगेवाला पोस्ट पर सैनिकों को संबोधित करते हुए मोदी ने कहा कि ‘दुनिया की कोई भी ताक़त देश के सैनिकों को सीमा की सुरक्षा करने से रोक नहीं सकती है।’
प्रधानमंत्री श्री मोदी ने इस अवसर पर यह भी स्पष्ट कर दिया कि जो देश आतंकवाद को संरक्षण और प्रोत्साहन देते हैं उन्हें अब भारत उनके घर में जाकर मारने की स्थिति में है। स्पष्ट है कि श्री मोदी संसार के अन्य देशों को अपने इस वाक्य के माध्यम से यही संदेश देने का प्रयास कर रहे थे कि आतंक के आकाओं को जब तक उनके घर में जाकर नहीं मारा जाएगा तब तक विश्व इस्लामिक आतंकवाद से मुक्त नहीं हो सकेगा। निश्चय ही प्रधानमंत्री के इस साहसिक वक्तव्य से संसार के अन्य देशों को और नेताओं को प्रेरणा मिलेगी। आशा की जा सकती है कि वे भारत का अनुकरण करते हुए आतंकी संगठनों और आतंकवाद को संरक्षण देने वाले देशों के साथ इसी प्रकार का बर्ताव करेंगे।
पाकिस्तान का नाम लिये बिना श्री मोदी ने कहा, “जब भी ज़रूरत पड़ी है भारत ने दुनिया को दिखाया है कि उसके पास ताक़त भी है और सही जवाब देने की राजनीतिक इच्छाशक्ति भी। आज भारत आतंक के आक़ाओं को घर में घुसकर मारता है।आज दुनिया यह समझ रही है कि ये देश अपने हितों से किसी भी क़ीमत पर रत्ती भर समझौता करने वाला नहीं है।”
उन्होंने कहा, “कोरोना काल में वैक्सीन बनाने का प्रयास कर रहे वैज्ञानिकों के साथ ही मिसाइलें बनाने वाले वैज्ञानिकों ने देश का ध्यान खींचा है। इस दौरान निरंतर मिसाइलों के टेस्टिंग की ख़बरें आती रहीं. आप कल्पना कर सकते हैं कि बीते कुछ महीनों में ही देश की सामरिक ताक़त कितनी ज़्यादा बढ़ गई है।”
निश्चित रूप से इस समय भारत की परंपरागत तस्वीर बदल रही है बहुत तेजी से होते हुए परिवर्तनों के हम साक्षी बन रहे हैं। जिस बात के लिए देश के लोग बहुत देर से प्रतीक्षारत थे अब वह साकार होती दिखाई दे रही है अर्थात तेजस्वी राष्ट्रवाद का निर्माण। तेजस्वी राष्ट्रवाद के समर्थक सभी देशवासियों को प्रधानमंत्री की उस सोच के साथ अवश्य ही समन्वय स्थापित करना चाहिए जिससे भारत विश्व गुरु बने और नई ऊंचाइयों को प्राप्त हो। बड़ी तेजी से कुछ चीजें दफन हो रही हैं तो उतनी ही तेजी से कुछ नई चीजें निकल कर बाहर आ रही हैं नई चीजों का इसलिए समर्थन करना समय की आवश्यकता है कि उनसे भारत सम्मानित स्थान को प्राप्त होता जा रहा है।

हमें ज्ञात नही उस पार का संसार

—विनय कुमार विनायक
प्रकृति का नियम पुराना
आनेवाले को आना होता
जानेवाले को जाना होता
फिर क्यों शोक मनाना!

आनेवाला बहुत ही रोता है
जानेवाला चुप होके जाता
रोनेवाले को जग हंसाता है
चुप हुए को क्यों रुलाना?

हमें ज्ञात नहीं हो पाता है
आनेवाला क्योंकर रोता है
जानेवाला क्यों चुप रहता
यह रहस्य है अनजाना!

शायद जिनको छोड़ आता
उन अपनों के पास जाता
फिर हमसे तोड़कर नाता
फिर उसको क्यों बुलाना!

आनेवाला अपरिचित रोता,
जानेवाला किन्तु परिचित
रोकने पर भी नहीं रुकता
हो जाता है हमसे बेगाना!

सबका समय बंधा होता है
हमें ज्ञात नहीं है वो बंधन
जिनसे उसे फिर बंधना है
और हमें छोड़ कर जाना!

जानेवाला आश्वस्त होता
जहां उसको जाना होता है
हमें नहीं पता, ये फितरत
कैसी है हमें तो बतलाना!

हमें ज्ञात नहीं उस पार का
संसार जहां हम सबको जाना
छोड़ करके पुराना आशियाना
जरा इसे मुझे समझाओ ना!

दोस्ती-दुश्मनी का क्या पैमाना
कौन नहीं होता है यहां अपना
जाने किस जन्म का है रिश्ता
कौन होता बेगाना बताओ ना!
—विनय कुमार विनायक

भारत-चीनः खुश-खबर

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

भारत-चीन तनाव खत्म होने के संकेत मिलने लगे हैं। अभी दोनों तरफ की सेनाओं ने पीछे हटना शुरु नहीं किया है लेकिन दोनों इस बात पर सहमत हो गई हैं कि मार्च-अप्रैल में वे जहां थीं, वहीं वापस चली जाएंगी। उनका वापस जाना भी आज-कल में ही शुरु होनेवाला है। तीन दिन में 30-30 प्रतिशत सैनिक हटेंगे। जितने उनके हटेंगे, उतने ही हमारे भी हटेंगे। उन्होंने पिछले चार-छह माह में लद्दाख सीमांत पर हजारों नए सैनिक डटा दिए हैं। चीन ने तोपों, टैंकों और जहाजों का भी इंतजाम कर लिया है लेकिन चीनी फौजियों को लद्दाख की ठंड ने परेशान करके रख दिया है। 15000 फुट की ऊंचाई पर महिनों तक टिके रहना खतरे से खाली नहीं है। भारतीय फौजी तो पहले से ही अभ्यस्त हैं। आठ बार के लंबे संवाद के बाद दोनों तरफ के जनरलों के बीच यह जो सहमति हुई है, उसके पीछे दो बड़े कारण और भी हैं। एक तो चीनी कंपनियों पर लगे भारतीय प्रतिबंधों और व्यापारिक बहिष्कार ने चीनी सरकार पर पीछे हटने के लिए दबाव बनाया है। दूसरा, ट्रंप प्रशासन ने चीन से चल रहे अपने झगड़े के कारण उसे भारत पर हमलावर कहकर सारी दुनिया में बदनाम कर दिया है। अब अमेरिका के नए बाइडन-प्रशासन से तनाव कम करने में यह तथ्य चीन की मदद करेगा कि भारत से उसका समझौता हो गया है। लद्दाख की एक मुठभेड़ में हमारे 20 जवान और चीन के भी कुछ सैनिक जरुर मारे गए लेकिन यह घटना स्थानीय और तात्कालिक बनकर रह गई। दोनों सेनाओं में युद्ध-जैसी स्थिति नहीं बनी, हालांकि हमारे अनाड़ी टीवी चैनल और चीन का फूहड़ अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ इसकी बहुत कोशिश करता रहा लेकिन मैं भारत और चीन के नेताओं की इस मामले में सराहना करना चाहता हूं। उन्होंने एक-दूसरे के खिलाफ नाम लेकर कोई आपत्तिजनक या भड़काऊ बयान नहीं दिए। हमारे प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री ने चीनी अतिक्रमण पर अपना क्रोध जरुर व्यक्त किया लेकिन कभी चीन का नाम तक नहीं लिया। चीन के नेताओं ने भी भारत के गुस्से पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की। दोनों देशों की जनता चाहे ऊपरी प्रचार की फिसलपट्टी पर फिसलती रही हो, लेकिन दोनों देशों के नेताओं के संयम को ही इस समझौते का श्रेय मिलना चाहिए। सच्चाई तो यह है कि भारत और चीन मिलकर काम करें तो इक्कीसवीं सदी निश्चित रुप से एशियाई सदी बन सकती है। इसका अर्थ यह नहीं कि भारत चीन से बेखबर हो जाए। दोनों देशों के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा जरुर चलती रहेगी लेकिन वह प्रतिशोध और प्रतिहिंसा का रुप न ले ले, यह देखना जरुरी है।

ख़ासा तूफ़ानी भी है साल 2020!

एक ऐतिहासिक घटनाक्रम में अटलांटिक सागर के हरीकेन सीज़न में इस साल आये रिकॉर्ड संख्‍या में नाम-वाले तूफान

किसी ट्रॉपिकल या उष्णकटिबंधीय तूफान को कोई ख़ास नाम तब दिया जाता है जब वो 39 मील प्रति घंटे (63 किलोमीटर प्रति घंटे) गति तक पहुंचता है। और इस तूफान को हरिकेन तब कहते हैं जब हवा की गति 74 मील प्रति घंटे (119 किलोमीटर प्रति घंटे) तक पहुंच जाए।

अब बात साल 2020 की करें तो कोविड के साथ इसे तूफानों का साल भी कहें तो शायद गलत न होगा।

दरअसल, अटलांटिक महासागर में हाल ही में उठा थीटा तूफान इस साल का 29वां नाम-वाला चक्रवात है। और इसी के साथ वर्ष 2020 में अटलांटिक हरीकेन सीज़न ने एक साल में सबसे ज्‍यादा नाम-वाले तूफानों का रिकॉर्ड भी कायम हो गया। पिछला रिकॉर्ड साल 2005 का था।

तो आखिर ऐसा क्या हुआ जो इस साल इतने सारे तीव्र गति वाले तूफ़ान आये?

वैज्ञानिकों का इशारा जलवायु परिवर्तन की ओर है और इस साल इतनी ज्‍यादा तादाद में तूफान आने के पीछे यह भी एक बड़ा कारण हो सकता है।

पिछली एक सदी के दौरान जहां पूरी दुनिया में ट्रॉपिकल चक्रवाती तूफानों की संख्‍या में आमतौर पर निरन्‍तरता रही, वहीं अटलांटिक बेसिन में वर्ष 1980 से अब तक नाम-वाले तूफानों की तादाद में वृद्धि हुई है।

कुछ वैज्ञानिक वर्ष 2020 में रिकॉर्ड संख्या में चक्रवाती तूफान के आने का संबंध महासागरों के तापमान में हो रही वृद्धि से जोड़ते हैं। महासागरों का बढ़ता तापमान दरअसल इंसान की नुकसानदेह गतिविधियों के कारण हो रहे जलवायु परिवर्तन की वजह से हर साल नए नए रिकॉर्ड बना रहा है।

वैज्ञानिक कुछ अन्य कारणों की तरफ भी इशारा करते हैं, जिनकी वजह से हो सकता है कि क्षेत्र में दीर्घकालिक और अल्पकालिक दोनों ही तरह के ट्रॉपिकल चक्रवातों की संख्या में इजाफा हुआ हो। खास तौर पर 1980 के दशक से वायु प्रदूषण में आई एक क्षेत्रीय गिरावट, जिसकी वजह से महासागर और गर्म हुए हों और ला नीना मौसम चक्र इस साल एक कारक रहा हो।

अब एक नज़र इस साल आये तूफानों से हुए नुकसान पर डाल ली जाये:

· अगस्‍त में आये कैटेगरी 4 के हरीकेन लॉरा की वजह से लूसियाना में भूस्‍खलन हुआ, जिसमें 77 लोगों की मौत हो गयी और सैकड़ों लोगों को मजबूरन अपना घर-बार छोड़कर जाना पड़ा। एक अनुमान के मुताबिक इस आपदा से 14 अरब डॉलर का नुकसान हुआ। इस तूफान से प्रभावित 6500 से ज्‍यादा लोग दो महीने बाद भी शरणालयों में रह रहे हैं।

· लॉरा के दो हफ्ते बाद हरीकेन सैली अलबामा से टकराया। इसका असर फ्लोरिडा, मिसीसिपी और लूसियाना पर भी पड़ा। इसकी वजह से आठ लोगों की मौत हो गयी और 5 अरब डॉलर से ज्‍यादा का नुकसान हुआ।

· हरीकेन एता वर्ष 2020 का अब तक का सबसे शक्तिशाली तूफान था। बेइंतहा तेजी पकड़ने के बाद इसे चौथी श्रेणीय में रखा गया और यह नवम्‍बर में आये सबसे ताकतवर तूफानों में शामिल किया गया। यह मध्‍य अमेरिका के इलाकों से टकराया, जिसकी वजह से कम से कम 130 लोगों की मौत हुई।

· अमेरिका के कुछ क्षेत्र खासतौर पर प्रभावित हुए। उदाहरण के तौर पर इस सीजन में लूसियाना से पांच नाम-वाले तूफान टकराये, जो एक नया रिकॉर्ड है। उनमें से अनेक तूफान तो बमुश्किल कुछ हफ्तों के अंतर पर आये हैं।

जहां इस साल यूएस इन तूफानों से बेहाल हुआ है, वहीं अमेरिका महाद्वीप के बेलीज, बरमूडा, कनाडा, गुआटेमाला, होंडूरास, मेक्सिको, निकारागुआ और पनामा में भी इन तूफानों से गम्‍भीर नुकसान हुआ है।

अटलांटिक में आने वाले तूफानों का नामकरण तभी किया जाता है जब उनकी रफ्तार 39 मील/घंटा से ज्‍यादा होती है। इस बिंदु पर पहुंचने पर वे ट्रॉपिकल (उष्‍णकटिबंधीय) चक्रवात के तौर पर जाने जाते हैं। जब उनकी गति 74 मील/घंटा से ज्‍यादा हो जाती है, तब उन्‍हें हरीकेन की श्रेणी में रखा जाता है। ट्रॉपिकल चक्रवात इन शक्तिशाली तूफानों का एक सामान्‍य संदर्भ है। अटलांटिक में इन्‍हें हरीकेन के नाम से जाना जाता है, मगर अन्‍य स्‍थानों पर इन्‍हें चक्रवात या टाइफून कहा जाता है।

अपनी प्रतिक्रिया देते हुए पेन्सिलवेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी अमेरिका के अर्थ सिस्टम साइंस सेंटर के डायरेक्टर प्रोफेसर माइकल मन कहते हैं, “हमारे मौसम पूर्व सांख्यिकीय पूर्वानुमान ने यह बताया था कि इस हरिकेन सत्र में कम से कम 24 नामयुक्त समुद्री तूफान आएंगे। हालांकि यह अपनी तरह का सबसे बड़ा पूर्वानुमान था लेकिन यह सामने आई वास्तविकता के मुकाबले छोटा रह गया। अब तक आ चुके नामयुक्त तूफानों की संख्या पूर्वानुमान में बताई गई तादाद से पहले ही ज्यादा हो चुकी है। यह बढ़ी हुई संख्या उष्णकटिबंधीय अटलांटिक (इंसान की गतिविधियों के कारण उत्पन्न गर्मी भी इसके लिए कम से कम आंशिक रूप से जिम्मेदार हैं) में अप्रत्याशित रूप से बड़ी हुई गर्मी पर आधारित है। ला नीना स्थितियों की बढ़ती संभावना भी इसमें शामिल है।”

वो आगे कहते हैं, ‘‘जैसे कि हम अपनी धरती और ट्रॉपिकल अटलांटिक को लगातार गर्म करते जा रहे हैं, ऐसे में ट्रॉपिकल चक्रवात और हरिकेन और भी शक्तिशाली हो जाएंगे। जब ला नीना की स्थितियां बनती हैं तो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की पुष्टि होती हैं और हमें विनाशकारी तूफानों का सामना करना पड़ता है। जैसा कि हम इस वक्त कर रहे हैं।’’

इसी विषय पर नेशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक रिसर्च में वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉक्टर केविन ट्रेनबर्थ आगे कहते हैं, “इंसान की गतिविधियों के कारण होने वाली ग्लोबल वार्मिंग के साथ-साथ और अधिक मात्रा में ऊर्जा उपलब्ध है जो अधिक भीषण हरिकेन गतिविधि को बढ़ावा देती है। यह संपूर्ण मौसम के लिए या एकल तूफानों के तौर पर भी कई तरह से प्रकट हो सकता है। अधिक संख्या, अधिक तीव्रता, अधिक बड़ा, ज्यादा समय तक रहने वाला और सभी मामलों में अधिक वर्षा तथा बाढ़ की संभावना। वर्ष 2020 में अटलांटिक में नामयुक्त हरिकेन तूफानों की संख्या असाधारण है। सभी तूफान वाष्‍पीकृत शीतलन के रूप में समुद्र से गर्मी सोखते हैं जो अव्यक्त हीटिंग के माध्यम से तूफान के लिए ऊर्जा प्रदान करता है और बहुत बड़े तथा तीव्र तूफान बाद में आने वाले तूफानों के अवरोध के लिए उनके पीछे एक स्पष्ट कोल्ड वेक छोड़ देते हैं, वर्जिन ओशन को ढूंढने की चक्रवातों की क्षमता उनके आगे बढ़ने की संभावनाओं को बढ़ा देती है।”

अटलांटिक में तूफानों की इतनी तादाद में आमद पर यूनिवर्सिटी कॉरपोरेशन फॉर एटमॉस्‍फेरिक रिसर्च एण्‍ड एनओएए की जियोफिजिकल फ्लूड्स डायनेमिक्‍स लैबोरेटरी में प्रोजेक्‍ट साइंटिस्‍ट डॉक्‍टर हिरोयुकी मुराकामी कहते हैं, “हो सकता है कि वर्ष 1980-2020 के दौरान मानवजनित एयरोसोल के उत्‍सर्जन में गिरावट की वजह से अटलांटिक हरीकेन में तेजी का रुख रहा हो। प्रदूषण नियंत्रण के लिये उठाये गये कदमों की वजह से पार्टिकुलेट प्रदूषण में आयी गिरावट से महासागर अधिक मात्रा में धूप अवशोषित करते हैं, जिससे उनके तापमान में बढ़ोत्‍तरी हुई है। उत्‍तरी अटलांटिक में पिछले 40 वर्षों से इस स्‍थानीय वार्मिंग की वजह से ट्रॉपिकल चक्रवाती गतिविधि में इजाफा हुआ है। एक वजह ये हो सकती है कि 1980 और 1990 के दशकों के दौरान उत्‍तरी अटलांटिक में हरीकेन अपेक्षाकृत निष्क्रिय था। ऐसा वर्ष 1982 में मेक्सिको के एल चिचोक और वर्ष 1991 में फिलीपींस के पिनाटुबो में प्रमुख ज्‍वालामुखीय विस्‍फोटों और के कारण हुआ। इनकी वजह से उत्‍तरी गोलार्द्ध का वातावरण ठंडा हो गया। वर्ष 2000 के बाद से उत्तर अटलांटिक में तूफान की गतिविधि के फिर से पलटने के कारण महासागरीय वार्मिंग का सिलसिला साल 2000 से फिर से शुरू हो गया है।”

वो आगे एक और वजह बताते हैं और कहते हैं, “ला नीना की स्थिति वर्ष 2020 की गर्मियों में विकसित हुई है। उष्णकटिबंधीय प्रशांत में इस ला नीना की स्थिति ने दूर से बड़े पैमाने पर परिसंचरण (सर्कुलेशन) को प्रभावित किया जिससे उत्तरी अटलांटिक में सक्रिय तूफान का मौसम आया।”

उनकी मानें तो उनके बताये पहले और दूसरे कारक दीर्घकालिक जलवायु परिवर्तन से संबंधित हैं, जबकि तीसरा कारक आंतरिक परिवर्तनशीलता से संबंधित है।

डॉक्‍टर हिरोयुकी मुराकामी कहते हैं, “मैं अनुमान लगाता हूं कि सक्रिय 2020 तूफान का मौसम दीर्घकालिक जलवायु परिवर्तन और आंतरिक परिवर्तनशीलता का एक संयोजन था।”

आगे, मैसाचुसेट्स इंस्‍टीट्यूट ऑफ टेक्‍नॉलॉजी में वायुमंडलीय विज्ञान के प्रोफेसर केरी इमैनुअल ने कहा, “1980 के दशक की शुरुआत से अटलांटिक उष्णकटिबंधीय चक्रवात गतिविधि के सभी मैट्रिक्स में एक असमान रूप से बढ़त का रुझान रहा है, लेकिन यह स्पष्ट होता जा रहा है कि यह ज्यादातर वैश्विक के बजाय एक क्षेत्रीय जलवायु परिवर्तन के कारण है। दरअसल सल्‍फेट एयरोसोल इंसानी गतिविधियों के कारण पैदा हुआ सबसे अच्‍छा उदाहरण है। यह एयरोसोल जीवाश्‍म ईंधन को जलाने की वजह से पैदा होते हैं। इन एयरोसोल की मात्रा में 1950 से लेकर 1980 के दशक के बीच तेजी से बढ़ोत्‍तरी हुई और फिर साफ हवा की गतिविधि की वजह से उसी रफ्तार से इनमें गिरावट भी हुई है। उनका अप्रत्‍यक्ष प्रभाव यह रहा कि इससे ट्रॉपिकल अटलांटिक ठंडा हुआ, नतीजतन 70 और 80 के दशक में हरीकेन खामोश रहे। हमारा मानना है कि उसके बाद हुआ इजाफा वायु प्रदूषण में कमी की वजह से हुआ है।”

इस साल अटलांटिक में चक्रवाती तूफानों और महासागरों की दीर्घकालिक वॉर्मिंग के बीच संभावित संबंध के साथ-साथ कई अन्य कारण भी हैं, जिनसे जलवायु परिवर्तन की वजह से ट्रॉपिकल चक्रवाती तूफानों का खतरा बढ़ता है।

तापमान और तूफान की शक्ति

अब एक नज़र तूफानों के विज्ञान पर डाल ले। चक्रवात उपलब्ध ऊष्मा से शक्ति हासिल करते हैं। गर्म होते समुद्र उन्हें उपलब्ध होने वाली ऊर्जा की वजह से इन चक्रवातों को और भी शक्तिशाली बना सकते हैं। यह ऊर्जा उनकी शक्ति या गति सीमा को प्रभावशाली तरीके से बढ़ाती है। जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप पूरी दुनिया में महासागरों का तापमान बढ़ा है और हाल के दशकों में सबसे शक्तिशाली समुद्री तूफानों की तीव्रता में वैश्विक वृद्धि हुई है। जून में प्रकाशित एक अध्ययन में इस रुख की पुष्टि की गई है। अध्ययन में यह पाया गया है कि एक दशक में सबसे शक्तिशाली तूफानों का अनुपात करीब 8% बढ़ा है। इस साल हरिकेन एता नवंबर में आये सबसे शक्तिशाली तूफानों में से एक था।

पिछले कुछ वर्षों में मानव की गतिविधियों की वजह से उत्पन्न ग्रीन हाउस गैसों के कारण समुद्र के तापमान में इजाफा हुआ है। पिछले 5 वर्ष साल 1955 के बाद से महासागरों के लिहाज से सबसे गर्म साल रहे हैं।

तीव्रता में तेजी से बढ़ोत्‍तरी

ट्रॉपिकल चक्रवाती का अनुपात तेजी से बढ़ रहा है, जिसे रैपिड इंटेंसिफिकेशन भी कहा जाता है। विभिन्न अध्ययनों के मुताबिक इन बदलावों का संबंध जलवायु परिवर्तन से है। महासागरों का गर्म पानी इस तीव्रता में वृद्धि का एक कारक है, लिहाजा मानव की गतिविधियों से उत्पन्न ग्रीनहाउस गैसों के कारण बढ़ा महासागर का तापमान इस तीव्रता की संभावना को और बढ़ा देता है। तीव्रता में तेजी से बढ़ोत्‍तरी एक खतरा है क्योंकि इससे यह अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाता है कि समुद्री तूफान कैसा होगा, लिहाजा उसके तट से टकराने की स्थिति से निपटने के लिए कैसी तैयारी की जाए।

2020 अटलांटिक सीजन के नौ ट्रॉपिकल तूफान (हन्ना, लॉरा, सैली, टेडी, गामा डेल्टा, इप्सिलोन, जीटा और एता) प्रबल तीव्रता वाले थे।

ज्यादा तेज बारिश

धरती का वातावरण कार्बन उत्सर्जन की वजह से गर्म हो रहा है। गर्म वातावरण ज्यादा मात्रा में पानी को ग्रहण कर सकता है जिसकी वजह से चक्रवातों के दौरान जबरदस्त बारिश होती है। इससे बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है। वैज्ञानिक वातावरण में नमी बढ़ने का सीधा संबंध मानव जनित जलवायु परिवर्तन से जोड़ते हैं। हाल के दशकों में रिकॉर्ड तोड़ बारिश की घटनाओं में वैश्विक स्तर पर उल्लेखनीय बढ़ोत्‍तरी हुई है। यह ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा है और वैज्ञानिकों का पूर्वानुमान है कि जलवायु परिवर्तन अगर जारी रहा तो समुद्री तूफानों के कारण होने वाली बारिश में वृद्धि होगी।

तूफानों का बढ़ता आक्रमण

चक्रवातों की वजह से तूफान के वेग को अक्सर सबसे बड़ा खतरा माना जाता है। जलवायु परिवर्तन के कारण तूफान की तेजी में होने वाली वृद्धि समुद्रों का जलस्तर बढ़ने के कारण हो सकती है। इसके अलावा बढ़ता हुआ आकार और तूफानी हवाओं की बढ़ती गति भी इसका कारण हो सकती हैं। वैश्विक जलस्तर पहले से ही करीब 23 सेंटीमीटर तक बढ़ चुका है। इंसान की गतिविधियों के कारण उत्पन्न होने वाले कार्बन प्रदूषण की वजह से ऐसा हुआ है।

मनाएंगे दिवाली का त्यौहार लेकिन कोविड और प्रदूषण की फ़िक्र बरकरार: सर्वेक्षण


 कोविड की मार सबसे ज़्यादा झेलने वाले 10 राज्यों में हुए एक सर्वे से पता चलता है कि कोरोना और वायु प्रदूषण सबसे बड़ी चिंताएं हैं इस दिवाली।
फेसबुक पर हुए इस सर्वे को कोविड-19 के मामलों में शीर्ष 10 राज्यों में किया गया। यह दस राज्य थे महाराष्ट्र, कर्नाटका, तमिलनाडु, तेलंगाना, केरला, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और दिल्ली।
पच्चीस से साठ की उम्र के 2218 उत्तरदाताओं के सैंपल साइज़ वाले, इस सर्वे के नतीजों से पता चलता है कि वायु प्रदूषण, कोविड-19 और अर्थव्यवस्था इन दिनों सबसे ज्यादा फ़िक्र का सबब बनी हुई हैं।  सर्वे का हिस्सा बने लोगों में पुरुष और महिला  समान रूप से शामिल थे।
कार्बन कॉपी द्वारा आयोजित इस सर्वे में लगभग 43% उत्तरदाताओं  ने कहा कि कोविड-19 इस दिवाली सबसे बड़ी चिंता है। वहीँ दूसरी सबसे बड़ी चिंता वायु प्रदूषण पायी गयी जिसे 23.2% वोट मिले। उसके बाद 19.5% वोटों के साथ अर्थव्यवस्था तीसरे नम्बर की चिंता बन कर दिखी तो 7.1% वोट पा कर नौकरियां चौथे, और 3.8% वोट के साथ किसानों का  मुद्दा पांचवे स्थान पर रहा। चीन से सम्बन्धों को लेकर 3.4% लोग चिंतित दिखे इस दिवाली।
सर्वे के नतीजों पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कार्बनकॉपी की प्रकाशक आरती खोसला कहती हैं, “यह आश्चर्य की बात नहीं है कि सर्वेक्षण में शामिल सभी 10 राज्यों में महामारी पर सबसे अधिक ध्यान दिया गया है। हालांकि यह ध्यान देने योग्य है कि अर्थव्यवस्था और पर्यावरण दोनों को होने वाले नुकसान की समझ समान रूप से चिंताजनक पाई गई है।”
अपनी बात आगे रखते हुए वो कहती हैं, “सर्वेक्षण में स्पष्ट रूप से दिखाया गया है कि उत्तरदाताओं ने वायु प्रदूषण और अर्थव्यवस्था को कोविड-19 जितने तत्काल रूप में संबोधित करने पर अधिक ध्यान देने का आह्वान किया है। सौभाग्य से, तीनों को एक साथ ठीक किया जा सकता है। बस उन उद्योगों का प्रोत्साहन और समर्थन करने की ज़रूरत है जो कम प्रदूषण करते हैं, अधिक नौकरियां जोड़ते हैं, और वन और उनके द्वारा समर्थित जैव विविधता के संरक्षण में मदद करते हैं।”
इन दस राज्यों में सिर्फ़ पश्चिम बंगाल से उत्तरदाताओं ने कहा कि सरकार कोविड-19 से निपटने के लिए पर्याप्त काम नहीं कर रही है।
बात अब वायु प्रदूषण की करें तो उत्तर प्रदेश के अलावा बाकी नौ राज्य के अधिकांश उत्तरदाता वायु प्रदूषण को दूर करने के लिए अपनी सरकारों के प्रयासों से संतुष्ट नहीं हैं। उत्तर प्रदेश से मिली प्रतिक्रिया उत्तरदाताओं की अनिश्चितता की ओर इशारा करती है।
वहीँ पश्चिम बंगाल, केरला, दिल्ली और कर्नाटका से 70% से अधिक उत्तरदाताओं ने वायु प्रदूषण को इस दिवाली अपनी शीर्ष चिंता के रूप में चुना और वायु प्रदूषण से निपटने में सरकार की प्रतिक्रिया को संतोषजनक नहीं पाया। कर्नाटका में यह संख्या काफी अधिक है, यहाँ कुल उत्तरदाताओं में से 88% ने वायु प्रदूषण को अपनी शीर्ष चिंता के रूप में चुना।
सर्वेक्षण किए गए सभी 10 राज्यों में अधिकांश उत्तरदाता अर्थव्यवस्था से संबंधित समस्याओं को दूर करने के लिए अपनी सरकार के प्रयासों से संतुष्ट नहीं हैं। पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में लगभग 75% से  88% उत्तरदाता अर्थव्यवस्था के प्रति अपनी सरकार की प्रतिक्रिया से संतुष्ट नहीं थे।
अर्थव्यवस्था और पर्यावरणीय मुद्दे के बारे में चिंताओं के एक समान स्तर पर होने से इस बात के स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि हमारे नज़रिये में बदलाव आ रहा है। सर्वेक्षण से यह भी पता चलता है कि भारतीय जनता में विकास के अस्थिर रूपों और वायु प्रदूषण और जलवायु संकट के साथ इसकी कड़ी के बीच की एक महत्वपूर्ण समझ है।
जिन उत्तरदाताओं ने वायु प्रदूषण को अपनी मुख्य चिंता के रूप में चुना, उनमें से 91.5% इस से भी सहमत थे कि पर्यावरण के लगातार दोहन से भारत में वायु प्रदूषण, वाटर स्ट्रेस (जल तनाव) और जलवायु परिवर्तन बढ़ रहा है। दिलचस्प बात यह है कि जिन लोगों ने चीन को अपनी मुख्य चिंता के रूप में चुना, उनमें से केवल आधे इस बात से सहमत थे।
सर्वेक्षण 27 अक्टूबर 2020 और 7 नवंबर 2020 के बीच फेसबुक के मैसेंजर ऐप के द्वारा किया गया था। दिल्ली और अन्य शहरों ने अभी ही पटाखों पर बैन की घोषणा की है। बैन से सर्वेक्षण के अंतिम कुछ दिनों में जवाबो के  पैटर्न में बदलाव नहीं हुआ, जिससे पता चलता है कि उत्तरदाताओं का यह मानने की संभावना नहीं है कि बैन की घोषणा से वायु प्रदूषण कम होगा।
पटाखों पर बैन एक ज़िम्मेदारी भरा कदम लग सकता है लेकिन असल में यह इस बात की ओर इशारा कर रहा है कि प्रदूषण जैसे गम्भीर मुद्दे को कितने हल्के में लिया जा रहा है। पटाखों पर बैन लगा देने से समस्या का हल नहीं निकलेगा। साल भर की दिक़्क़त के लिए इस तरह जल्दबाज़ी से उठाया गया कदम हवा की गुणवत्ता में सुधार करने में मदद नहीं करेगा। असलियत यह है कि भारत में जीवाश्म ईंधन को जलाना और फसल अवशेषों का जलना वायु प्रदूषण का मुख्य कारण है। प्रदूषण को कम करने के लिए हमें स्रोत पर जाने की आवश्यकता है। पटाखे बस पहले से खराब स्थिति को बदतर बनाते हैं, लेकिन यह समस्या का मुख्य स्रोत नहीं है।
कोविड-19 महामारी के बादल अभी भी हमारे आस पास मंडरा रहे हैं और ऐसे में हवा की गुणवत्ता में सुधार की प्रतिक्रिया युद्ध स्तर पर होनी चाहिए।

प्राचीन वैदिक पर्व दीपावली एवं ऋषि दयानन्द का महाप्रस्थान दिवस

                स्वभाव से मनुष्य सुख प्राप्ति का इच्छुक रहता है। वह नहीं चाहता कि उसके जीवन में कभी किसी भी प्रकार का दुःख आये। सुख प्राप्ति के लिये  सद्कर्म व धर्म के कार्य करने होेते हैं। अतः सत्कर्मों से युक्त प्राचीन वेदों पर आधारित वैदिक धर्म का पालन करते हुए मनुष्य अपने जीवन में सुखों की अभिव्यक्ति के लिये पर्वों को मनाते हैं। हमारे देश में मुख्य पर्व चार ही होते हैं। इन्हें श्रावणी या रक्षाबन्धन, विजयादशमी, प्रकाश पर्व दीपावली तथा होली के नाम से जानते हैं। हमारे देश में आदि काल से महाभारत काल तक वर्णव्यवस्था रही है। प्राचीन ग्रन्थ मनुस्मृति में इसका उल्लेख मिलता है। प्राचीन वर्ण व्यवस्था मनुष्य के गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित थी। वेदों तथा वैदिक साहित्य में सबको वेदों सहित ज्ञान विज्ञान को अर्जित करने का अधिकार था। शिक्षा सबके लिये पक्षपातरहित तथा अनिवार्य होती थी। वर्ण शिक्षा प्राप्ति के पश्चात किसी मनुष्य की योग्यता व उसके कार्यों वा व्यवसाय को प्रदर्शित करता था जिसका चुनाव मनुष्य स्वयं व उसकी योग्यता के आधार पर उसके आचार्य करते थे।

                समाज में चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र होते थे। ब्राह्मण का कार्य ज्ञान व विज्ञान की उन्नति सहित वेदों का पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना व कराना तथा दान देना व लेना होता था। हमारे सभी ऋषि मुनि, योग साधक तथा उपाध्याय व अध्यापक ब्राह्मण कहलाते थे। वैदिक काल में जन्मना जाति व्यवस्था का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। रामायण एवं महाभारत हमारे प्राचीन सामाजिक व्यवस्था के इतिहास ग्रन्थ हैं। इनमें कहीं जन्मना जातिवाद की गन्ध भी नहीं है। यह भी सत्य है कि इन रामायण एवं महाभारत आदि ग्रन्थों में मध्यकाल के आचार्यों ने अपनी वेद विरोधी मान्यताओं व परम्पराओं को मानने व मनवाने के लिये प्रक्षेप किये जिससे लोगों में भ्रान्तियां उत्पन्न हुईं। इसके प्रभाव से समाज में विकृतियां आईं परन्तु मूल वेद और वैदिक साहित्य कभी किसी प्रकार की ज्ञान विरुद्ध परम्परा के पोषक नहीं रहे। वेदों में शुद्ध ज्ञान है जिसका पालन करना सब मनुष्यों का धर्म होता है और यह पूर्णतया पक्षपातरहित होने से इसमें किसी भी मनुष्य को किसी भी प्रकार की शंका एवं विरोध न होकर सन्तोष ही होता है। वैदिक वर्णव्यवस्था में सबको समान रूप से उन्नति के अवसर मिला करते थे। ब्राह्मण वेदों के ज्ञानी होते थे और समाज का उपकार करने के लिये इतर तीन वर्णों को शिक्षित करते व उन्हें उनके जीवन में उपस्थित क्षमताओं को विकसित करके उन्हें समाज के लिये लाभकारी बनाते थे। ब्राह्मण श्रावणी पर्व को मनाते हैं जिसके केन्द्र में ज्ञान व विज्ञान के विस्तार की भावना को केन्द्रित किया जाता था। यह पर्व सभी गुरुकुलों के ब्रह्मचारी अपने आचार्यों तथा समाज में पुरोहित वर्ग मनाता था जिसमें अन्य सभी वर्णों का सहयोग रहता था।

                ब्राह्मण वर्ण से इतर क्षत्रिय विजयादशमी पर्व को मनाते थे जिसमें देश व समाज की रक्षा के विषयों में रखकर कार्यक्रमों को आयोजित किया जाता था। इसी प्रकार से वैश्य जिसमें व्यापारी, कृषक तथा गोपालक आदि आते हैं, दीपावली का पर्व मनाते थे। वैदिक काल में सभी पर्वों को मनाते हुए परिवारों में अग्निहोत्र यज्ञ किये जाते थे और मिष्ठान्न बनाकर उसका वितरण किया जाता था। सामाजिक उन्नति के अनेक कार्य किये जाते थे। लोग आपस में मिलते थे, शुभकामनाओं का आदान प्रदान करते थे और एक दूसरे से मिलकर परस्पर कुशल क्षेम पूछते थे। इन पर्वों को मनाने में किसी भी प्रकार के अन्धविश्वासों व सामाजिक कुरीतियों का कोई स्थान नहीं होता था। सभी परम्परायें ज्ञान पर आधारित होती थी जिससे समाज में सुख का वातावरण उत्पन्न होता था। दीपावली कार्तिक अमावस्या पर मनाया जाता था। इस अवसर लोग अपने घरों पर चावल की नई फसल से उत्पन्न खील को बना कर यज्ञों में गोघृत के साथ मिलाकर इसकी आहुतियां देते थे तथा उकसा भक्षण करते व परस्पर वितरण आदि की परम्परा भी रही है। इससे समाज में एकरसता उत्पन्न होती थी। दीपावली के अवसरों पर ग्राम व नगर सभी स्थानों के लोग अपने घरों को लिपाई व पुताई, रंग-रोगन आदि करके स्वच्छ करते थे। नये वस़्त्रों को धारण करते थे। आगे शीतकाल से बचाव के उपयों पर विचार करते थे और घरों में प्रसन्नता के चिन्ह रंगोली आदि बना कर प्रसन्न होते थे। रात्रि को अपने अपने घरों में सभी स्थानों पर दीपक जलाकर प्रकाश किया जाता था। दीपावली के अवसर पर यज्ञ करना एवं प्रकाश करने के लिए दीप जलाना तो उचित होता है परन्तु पटाखें जलाना उचित नहीं होता। इसका कारण यह है कि इससे हमारी वायु जिसे हम अपने शरीर व फेफड़ों में श्वांस लेकर भरते हैं तथा जिससे हमारा रक्त शुद्ध होता है और हम स्वस्थ रहते हैं, वह प्राणवायु प्रदुषित होकर हमारे स्वास्थ्य के लिये हानिप्रद हो जाती है। अतः जहां तक हो सके पटाखों को जलाने सहित ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिये जिससे कि वायु व जल आदि में प्रदुषण हो। दीपावली का पर्व उत्साह व उमंग से अपने घरों को स्वच्छ करके, यज्ञ करके तथा रात्रि में दीपक जला कर मनाना चाहिये। मिष्ठान्न का अपने मित्रों व सभी पड़ोसियों में वितरण करना चाहिये। यही दीपावली मनाने का उचित तरीका है। वैश्य व वाणिज्य से जुड़े लोग इस दिन अपने व्यवसाय के विषय में विचार कर हानि, लाभ तथा उसके विस्तार पर विचार कर सकते हैं।

                दीपावली के ही दिन वैदिक धर्म, संस्कृति तथा ईश्वरीय ज्ञान वेद के पुनरुद्धारक, समाज सुधारक, देश को स्वदेशी राज अर्थात् आजादी के मन्त्रदाता, शिक्षा व ज्ञान के विस्तार के प्रणेता, अज्ञान व अन्धविश्वासों को दूर करने के लिए कृतसंकल्प व इसके लिये अहर्निश कार्य करने वाले ऋषि दयानन्द का मोक्ष व निर्वाण दिवस है। इसे ‘महाप्रस्थान’ दिवस भी कहा जाता है। इससे पूर्व ऋषि दयानन्द जैसे किसी विदित ऋषि या महापुरुष ने न तो उनके जैसे कार्य किये और न ही उनकी तरह से अपने देह का त्याग किया। उन्होंने देहत्याग करते हुए कहा था कि ‘हे ईश्वर! तुने अच्छी लीला की, तेरी इच्छा पूर्ण हों।’ किसी मनुष्य के ईश्वर विश्वास का यह अपूर्व उदाहरण है। इसके बाद तो ऋषि के अनेक अनुयायियों ने अपने मृत्यु समय ईश्वर को स्मरण करते हुए प्रसन्नतापूर्वक अपने प्राणों का त्याग किया।

                ऋषि दयानन्द के आविर्भाव के समय देश परतन्त्र होने सहित धार्मिक व सामाजिक अन्धविश्वासों से ग्रस्त था। विद्या व शिक्षा का समाज में उचित प्रचार नहीं था। अन्धविश्वासों, कुरीतियों की भरमार थी। जन्मना जातिवाद ने मनुष्य समाज को आपस में बांटा हुआ था। छुआछूत, अन्याय व शोषण का बोलबाला था। बाल विवाह, बाल विधवाओं की दयनीय दशा आदि ने मनुष्य जाति को कंलकित किया हुआ था। ऐसे समय में ऋषि दयानन्द ने वेदों के आधार पर धर्म का सत्य स्वरूप प्रस्तुत कर उसका जन-जन में प्रचार किया। सभी अन्धविश्वासों एवं मिथ्या परम्पराओं को दूर किया। बाल विवाह का निषेध करने सहित पूर्ण युवावस्था में गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर विवाह करने का सर्वत्र प्रचार किया। विधवाओं को उनके सभी मानवोचित उचित अधिकार प्रदान करायें। आपदधर्म के रूप में पुनर्विवाह को भी स्वीकार किया।

                देश को आजाद कराने के लिये ऋषि दयानन्द ने स्वदेशीय राज्य को सर्वोपरि उत्तम बताया। ईश्वर की वैदिक रीति से सन्ध्या, पूजा या उपासना सहित वायु शोधक तथा ज्ञान प्रापक वैदिक अग्निहोत्र यज्ञों को प्रचलित किया। लोगों की अविद्या दूर करने के लिये सत्यार्थप्रकाश जैसा एक अपूर्व क्रान्तिकारी ग्रन्थ दिया। मनुष्य के अधिकांश दुःखों का कारण अविद्या होती है। ऋषि दयानन्द ने अविद्या को पूर्णतया दूर करने वाला ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश रचा व हमें प्रदान किया जिससे आज हम अविद्या से मुक्त हो सके हैं। सत्यार्थप्रकाश ऐसा ग्रन्थ है जो सत्य धर्म से परिचित कराने व उसके पालन का विधान करता है और मनुष्यों को सभी अन्धविश्वासों से दूर व मुक्त करता है। ऐसे अनेकानेक कार्य ऋषि दयानन्द तथा उनके द्वारा स्थापित वेद प्रचार आन्दोलन नामी संस्था आर्यसमाज व उनके अनुयायियों ने किये। उनके प्रयत्नों से ही देश में अन्धविश्वास व सामाजिक कुरतियां दूर हुई हैं। विद्या व ज्ञान का प्रचार प्रसार हुआ है। हमारा देश आध्यात्म से ओतप्रोत विश्व का एक प्रतिष्ठित देश बना है। ऋषि की इन देनों के कारण ही दीपावली पर्व को उनके मोक्ष व निर्वाण दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। इस दिन लोग घरों की शुद्धि कर विशेष अग्निहोत्र यज्ञ करते और आर्यसमाजों में ऋषि जीवन की प्रासंगिकता तथा देश व समाज के निर्माण में उनके योगदान की चर्चा करते हैं। सभी वेद धर्म प्रेमी सभी प्रकार के अन्धकार को दूर कर ज्ञान को प्राप्त करने का संकल्प लेते हैं। सत्य का ग्रहण एवं असत्य का त्याग करने की प्रतीज्ञा भी करते हैं। इसी प्रकार से दीपावली पर्व को मनाना उचित प्रतीत होता है।

                हमें लगता है कि दीपावली के दिन सभी देशवासियों को सत्यार्थप्रकाश को पढ़ने का संकल्प लेकर तथा इस संकल्प पूरा करने का मन में उत्साह भरकर पर्व को मनाने से हमें जन्म जन्मान्तर में अवर्णनीय लाभ होगा। इसका कारण यह है कि हमारा भविष्य हमारे वर्तमान के निर्णय व कार्यों का परिणाम होता है। इसी प्रकार से हमें दीपावली पर्व को मनाना चाहिये जिससे हमारा समाज विश्व का उन्नत समाज बने तथा हमारा देश भौतिक व आध्यात्मिक दृष्टि से विश्व का सबसे शक्तिशाली राष्ट्र बनने सहित सभी प्रकार के अज्ञान, अविद्या व अन्धविश्वासों सहित कुरीतियों व मिथ्या परम्पराओं से पूर्णतया मुक्त हो। ओ३म् शम्

अबकी बार दीए ऐसे जलाना

अबकी बार दीए ऐसे जलाना,
जिससे देश में खुशहाली हो।

मिट्टी के दीए तुम जलना सब
इससे गरीब परिवार पलते है।
कीट पतंग मच्छर आदि सभी,
तेल के दीए से ही जलते हैं।
मत लाना तुम चाइना के दीए,
इससे देश का धन बाहर जाता है।
वोकल से तुम लोकल बनना,
इससे ही देश में आनंद आता है।
यह देश तुम्हारा बगीचा हैं,
तुम इस देश के माली हो,
अबकी बार दीए ऐसे जलाना,
जिससे देश में खुशहाली हो।।

सीमाओं पर दो दुश्मन खड़े हैं,
उनसे देश को तुम्हे बचाना है,
देनी पड़ जाए प्राणों की आहुति,
फिर भी पीछे नहीं तुम्हे हटना है।
दुश्मन देश को धन जो जाता,
उससे खरीदते वे बारूद गोली है,
इसी बारूद और गोली से वे
खेलते हम से खून की होली है।
लेनी है हमे ऐसी सौगंध सभी ने
ये सौगंध न जाए अब खाली हो,
अबकी बार दीए ऐसे जलाना,
जिससे देश में खुशहाली हो।।

कार्तिक मास की अमास्या को
तुमने रात न काली करनी है।
विदेशी माल खरीद कर हमे,
उनकी झोली नहीं भरनी हैं।
बनाकर मिट्टी के दीए किसी ने,
गरीब परिवार ने आस पाली है।
उनकी मेहनत को ख़रीदो तुम,
उनके घर में भी दीवाली है।
करना ऐसे यत्न तुम सब,
सबके घर में खुशहाली हो।
अबकी बार ऐसे दीए जलाना,
जिससे देश में खुशहाली हो।।

आर के रस्तोगी

शिवराज सिंह की विनम्रता ने उप-चुनाव में जीत तय की

मनोज कुमार

किसी भी किस्म के चुनाव में मुद्दों की बड़ी अहमियत होती है लेकिन मध्यप्रदेश के हालिया उप-चुनाव में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की विनम्रता ने परिणाम को बदल दिया। मध्यप्रदेश के राजनीतिक इतिहास में पहली बार 28 सीटों पर उप-चुनाव की नौबत आयी और यह मन बनाने की कोशिश की गई कि दल-बदलुओं को परास्त करना है। मोटे-मोटे तौर पर इस बात को मान भी लिया गया और परिणाम की उम्मीद भी इसी आधार पर आंका गया था लेकिन जब परिणाम आए तो सभी राजनीतिक दलों को चौंकाने वाले थे। भाजपा को सबसे बड़ी जीत मिली तो सत्ता में वापसी की आस बांधे कांग्रेस को महज 9 सीटों पर संतोष करना पड़ा। यह परिणाम मुद्दे को लेकर नहीं था बल्कि यह परिणाम शिवराजसिंह चौहान के व्यक्तित्व एवं उनकी विनम्रता का था। बीते 13 साल और अब लगभग 9 माह के शासन में प्रदेश की जनता शिवराजसिंह चौहान को ही अपना सबकुछ मान बैठी है। मतदाताओं को इस बात का रंज भी नहीं था कि किसने पाला बदला और किसकी सरकार गयी। वे शिवराज सरकार के भरोसे थे और शिवराजसिंह के भरोसे को कायम रखा। लगभग मिनी इलेक्शन के तर्ज पर यह बाय-इलेक्शन था। कोरोना महामारी के बीच दुस्साहस के साथ लड़े गए इस उप-चुनाव में विकास का मुद्दा नदारद था। सरकार भाजपा की है तो मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ताबड़तोड़ घोषणाएं करते रहे। खाली खजाने के बाद भी उनकी इन घोषणाओं पर मतदाताओं ने सवाल नहीं उठाया क्योंकि बीते 13 साल में शिवराजसिंह आम आदमी में रच-बस गए हैं।  9 महीने पहले सत्ता में शिवराजसिंह की वापसी होती है तो मध्यप्रदेश की जनता ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया था। शिवराजसिंह चौहान मुख्यमंत्री के रूप में आम आदमी के बीच कभी गए ही नहीं। कभी मामा बनकर तो कभी भाई बनकर, किसी का बेटा बन गए तो दोस्त के रूप में सहजता से मिलते रहे। इस चुनाव में भी उनका यही रूप था। एकदम आम आदमी का। चुनावी सभा को संबोधित करते हुए जब शिवराजसिंह चौहान घुटने के बल खड़े होकर मतदाताओं का अभिवादन कर रहे थे तो जनता हर्षित थी। उधर विपक्ष ने शिवराजसिंह चौहान की इस अदा पर प्रहार किया तो शिवराजसिंह ने विनम्रता के साथ कहा कि ‘ये जनता मेरी भगवान है और मैं बार-बार उनका इसी प्रकार अभिनंदन करूंगा।’ विपक्षी गफलत में रह गए। उन्हें समझ ही नहीं आया कि यही तो शिवराजसिंह की यूएसपी है और इसी के बूते वे रिकार्ड तोड़ टाइम से मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने हुए हैं। जनता का अभिवादन करने वाले शिवराजसिंह पर ताने मारने वाले आज खुद घुटने पर खड़े होने के लिए मजबूर हैं तो यह संभव हुआ शिवराजसिंह चौहान की विनम्रता से। उनकी सादगी से और निश्च्छल भाव से।  शिवराजसिंह चौहान राजनीति करते हैं लेकिन प्रदेश की जनता के साथ नहीं। यह बार-बार और कई बार साबित हो चुका है। किसानों को राहत देने की बात हो, आदिवासियों के हितों की रक्षा करने का मुद्दा हो, बेटी-बहनों को सुरक्षा देने का मामला हो या बुर्जुगजनों को सम्मान देेने का। हर बार उन्होंने अपने वायदे को निभाया है। कोरोना संकट के समय शासकीय कर्मचारियों के वेतन-भत्ते में आंशिक कटौती का सरकार ने ऐलान किया लेकिन शिवराजसिंह सरकार के प्रति ऐसा विश्वास कि लोगों ने इस कटौती को भी सरकार के साथ सहयोग के रूप में लिया और प्रचंड बहुमत से सरकार का साथ दिया। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि शासकीय अधिकारी-कर्मचारियों को आंशिक ही सही, आर्थिक नुकसान होने के बाद भी सरकार के साथ खड़े रहे, यह विश्वास केवल शिवराजसिंह चौहान ने जीता है। इसका प्रमाण उप-चुनाव 2020 में पूरे देश ने देखा है। मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार कर्मचारी विरोधी होने के कारण भी एक बार जा चुकी है। यह महीन सा फर्क दिखता है शिवराजसिंह सरकार की लोकप्रियता में। शिवराजसिंह चौहान के कार्य-व्यवहार में चौथे बार मुख्यमंत्री होने का ताब नहीं है बल्कि विनम्र होने का ऐसा भाव है जिससे कोई भी आदमी उनकी ओर खींचा चला आता है। वे पल-पल आम आदमी की चिंता करते हैं। इस बात से किसी को शिकायत नहीं हो सकती है। यही कारण है कि त्योहार के पहले अग्रिम भुगतान के अपने वायदे को पूरा किया। किसानों की कर्जमाफी से राहत की हवा बह ही है।  कोरोना  के कारण उनकी महत्वपूर्ण कार्यक्रम ‘मुख्यमंत्री तीर्थदर्शन’ योजना स्थगित है जिसे वे जल्द ही शुरू करना चाहते हैं। यकिन किया जाना चाहिए कि एक बार फिर तीर्थ दर्शन के लिए गाड़ी दौड़ पडेगी। वक्त हमेशा परीक्षा लेता है और शिवराजसिंह चौहान भी इससे परे नहीं हैं। फर्क इतना है कि शिवराजसिंह चौहान हर परीक्षा के बाद और खरे होकर उतरे हैं। इस बार का उप-चुनाव भी उनकी परीक्षा थी जिसमें वे सौफीसदी खरे उतरे हैं। कोरोना संकट के समय स्वयं मैदान में उतर गए थे। खुद कोरोना पीडि़त होने के बाद भी प्रदेश के कामकाज में बाधा नहीं आने दी। लॉकडाउन में घर लौट रहे मजदूरों को ना केवल वापसी की सुविधा दी बल्कि उनके मन में यह भरोसा उत्पन्न करने में कामयाब रहे कि सरकार और मुख्यमंत्री शिवराजसिंह उनके साथ हैं। उनके रहने-खाने से लेकर रोजगार तक का प्रबंध शिवराजसिंह सरकार ने किया। उन्होंने ना केवल मध्यप्रदेश के श्रमजीवी परिवारोंं के लिए किया बल्कि आसपास के प्रदेशों के श्रमजीवी परिवार का साथ दिया। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की यह दरियादिली इस बात का गवाह है कि मध्यप्रदेश कहने के लिए नहीं बल्कि सचमुच में देश का ह्दयप्रदेश है.