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लिंग रूप में शिव है, विश्व के पालक और संहारक

                आत्माराम यादव पीव

ब्रह्मा, विष्णु और महेश में से मुझे महेश के स्वरूप और उनकी महत्ता जानने की इच्छा प्रारम्भ से ही रही है। शिव पुराण , लिंगपुराण सहित अन्य पुराणों में शिव और विशेषतः शिव तथा लिंग पुराण में शिव के स्वरूप का अध्ययन करना चाहा और उसी क्रम में यह विषय संज्ञान में आया की शिव लिंग के रूप में इस सृष्टि के पालक और संहारक के रूप में जगत के कल्याण का भी कार्य सम्पादित करते आ रहे है। शिव के स्वरूप और उनके दार्शनिक तत्व चिन्तन का आज जितना प्रचार-प्रसार और पूर्ण श्रध्दापूर्वक भक्ति की जा रही है उतनी सम्भवतः श्री हनुमानजी और दुर्गा देवी को छोड़कर और किसी की नहीं की जा है। दक्षिण से लेकर उत्तर तक और पूर्व से लेकर पश्चिम तक शिव एक ऐसे देव के रूप में प्रतिष्ठित हैं, जिनका पूजन-स्मरण बड़ी मात्रा में किया जाता है और जो सभी के लिए बहुतायत से मान्य और पूज्य हैं।

  सूत जी ने जब यह लिंग पुराण प्रारम्भ कर जगत के समक्ष यह प्रकट किया कि निराकार-अव्यक्त ईश्वर शिव का व्यक्त रूप प्रकृति का नाम लिंग भी है। भगवान शंकर अलिंग, चिन्ह रहित, निराकार हैं। वे शिव शक्ति का स्वरूप हैं। शिव शक्ति के अन्तर्गत प्रधान पुरुष और प्रकृति दोनों ही परिगणित हैं। अव्यक्त, निराकार, जगदीश्वर 'तुरीय' हैं। वे जन्म-मरणादि की विकृतियों से मुक्त हैं। उनके स्वरूप का एक गुण उनका अलिंग होना भी है। उस अलिंग से स्वतः समुद्भूत जगत् ही उनका लिंग स्वरूप (विग्रह शरीर) है। लिंग पुराण में उल्लेख किया गया है कि - अलिंगो लिंगमूलं तु अव्यक्तं लिंगमुच्यते । अलिंगः शिव इत्युक्तो लिंगं शैवमिति स्मृतम् ।। प्रधानं प्रकृतिश्चेति यदाहुर्लिंगमुत्तमम् । गंधवर्णरसैर्हीनं शब्दस्पर्शादिवर्जितम् ।। सप्तधा चाष्टधा चैव तथैकादशधापुनः । लिंगान्यलिंगस्य तथा मायया विततानि तु ।। एकस्माद् त्रिष्वभूद्विश्वमेकेन परिरक्षितम् । एकेनैव हृतं विश्वं व्याप्तं त्वेवं शिवेन तु ।। अर्थात - अलिंगी शिव ने अपनी माया से अपने लिंगों को सात-आठ तथा ग्यारह भागों में विभक्त किया है। एक मूर्ति, जो ब्रह्मा रूप है उससे वे विश्व की उत्पत्ति करते हैं, दूसरी मूर्ति विष्णु रूप है, जिससे वे जगत का पालन करते हैं अर्थात् इसी उनके स्वरूप से विश्व की रक्षा होती है। और उनकी जो तीसरा मूर्ति रुद्र रूप है, वह संहारक है। इससे यह संकेत होता हे कि जो मूल रूप से अलिंगी हैं और संसार का प्रकट स्वरूप ही जिनका लिंग रूप है-अपने त्रिगुण स्वरूप से विश्व की उत्पत्ति, पालन और प्रलय का हेतु है, अलिंग, लिंग और लिंग लिंगात्मक स्वरूप मूलतः एक ही।





      लिंग का माहात्म्य लिंग पुराण में अभिव्यक्त किया गया कि- सर्वं लिंगमयं लोकं सर्वं लिंगे प्रतिष्ठितम् । तस्मात् सर्वं परित्यज्य स्थापयेत् पूजयेच्च तत् ।। लिंगस्थापन् सन्मार्ग निहित स्वायत्तासिना । आशु ब्रह्माण्डमुद्भिद्य निर्गच्छेरविशंकया ।। लिं. पु., पृ. १८८ अर्थात – सम्पूर्ण लोक लिंग रूप ही है। सभी कुछ लिंग में ही प्रतिष्ठित है। इसलिए सभी कुछ छोड़कर लिंग की पूजा ही करनी चाहिए। जो लिंग की स्थापना करते हैं, इसकी उपासना करते हैं, इसकी पूजा करते हैं, वे इस ब्रह्माण्ड का भेदन कर अपरलोक को प्राप्त कर लेते हैं।' लिंग के माहात्म्य का स्वरूप इस प्रकार का है जिसमें यह कहा गया है कि ब्रहमा, विष्णु, हरं, रमा, लक्ष्मी, धृति, स्मृति, प्रज्ञा, दुर्गा, शची, रुद्र, वसु, स्कन्द, लोकपाल, नवग्रह, गणपति, पितर, मुनि, कुवेरादि, अश्विनीकुमार, पशु, पक्षी, मृग आदि के साथ ब्रह्मा से लेकर जितना भी स्थावर और जंगम है वह सभी लिंग में प्रतिष्ठित है। इसलिए सभी का परित्याग करके लिंग की स्थापना करनी चाहिए। यत्नपूर्वक स्थापित और पूजित लिंग कल्याण के प्रदाता हैं।

भगवान शिव की सर्वत्र व्यापकता और उनका सर्वत्र होना अनेकों रूपों में कहा गया है। भगवान् के सूक्ष्म रूप का स्मरण करते हुए यह कहा गया है कि ऋषि गण ईश तत्व को सूक्ष्म कहते हैं किन्तु वह वाणी का विषय न होने से वाच्य नहीं है। अर्थात् शंकर के सूक्ष्म स्वरूप का कथन वाणी से नहीं किया जा सकता है। वह सूक्ष्म रूप ऐसा है जहाँ न वाणी पहुँचती है और आकार न होने से वहाँ मन की स्थिति भी नहीं है,’ इस रूप में सर्वत्र वही शंकर है और उसकी विभूतियों से उसकी सर्वत्र व्यापकता भी सिद्ध होती है। मुनि गण शिव की विभूतियों का स्मरण करके ही रुद्र सर्वत्र है, ऐसा कहते हैं देखे – . सूक्ष्मं वदन्ति ऋषयो यन्न वाच्यं द्विजोत्तमाः। यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।।

. लिंग पुराण के अनुसार -सिसृक्षया चोद्यमानः प्रविश्याव्यक्तमव्ययम् । व्यक्तसृष्टिं विकुरुते चात्मानाधिष्ठितो महान्।। महतस्तु तथावृत्तिः संकल्पाध्यवसायिका। महतस्त्रिगुणस्तस्मादहंकारो रजोधिकः ।। तेनैव चावृत्तः सम्यगहंकारस्तमोधिकः। महतो भूततन्मात्रंसर्गकृद् वै वभूव च।।अहंकाराच्छब्दमात्रं तस्मादाकाशमव्ययम्। सशब्दमावणोत्पश्चादाकाशं शब्दकारणम।। अर्थात -जब ईश्वर को सृष्टि रचना की इच्छा होती है तब सर्वप्रथम महत् तत्त्व का प्रादुर्भाव होता है। महत् तत्त्व से संकल्प, विकल्प की वृत्ति और उससे त्रिगुण मूल अहंकार से तन्मात्राएँ-रूप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्शादि तथा इनके आधार पर अग्नि, जल, पृथ्वी, आकाश तथा वायु की सृष्टि होती है। शब्दादि विषयों को ग्रहण करने वाली-जो कर्म में प्रवृत्त होने के कारण कर्मेन्द्रियाँ कहीं जाती हैं और ज्ञानात्मिका होने के कारण ज्ञानेन्द्रियाँ कही जाती हैं वे उत्पन्न होती हैं। मन भी यद्यपि एक इन्द्रिय है तथापि यह कर्म और ज्ञान में समान रूप से व्याप्त होने कारण कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय के रूप में कहा जा सकता है। ब्रह्ममादि अण्ड को उत्पन्न करते हैं और बूंद-बूंद से पितामह ब्रह्मा का अवतार होता है। वही भगवान रुद्र और सर्वान्तर्यामी विष्णु हैं।’

    सृष्टि के इस क्रम को विस्तार देते हुए यह कहा गया है कि अण्ड अंपने से दस गुना-जल से, जल दस गुना अग्नि से, अग्नि तेज से, तेज वायु से, वायु अहंकार से, अहंकार महत् से और महत् प्रधान से परिव्रत है। यही उस अण्ड के सात आवरण कहे जाते हैं। इन अण्डों की संख्या कोटि-कोटि है। प्रत्येक अण्ड में, ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं। प्रधान से उत्पन्न ये सभी शिव का सानिध्य प्राप्त करके लय हो जाते हैं। यही सृष्टि का आदि और अन्त है। इसका यह संकेत है कि ब्रह्मादि की उत्पत्ति सृष्टि का आदि है और ब्रह्मादि का लय सृष्टि का अन्त है।' पुराणकार लिखते हैं कि सर्ग और प्रतिसर्ग के करने वाले शंकर ही हैं। उत्पत्ति काल में वे रजोगुण से युक्त हो जाते हैं। उत्पन्न प्रजा के पालन-पोषण में वे सतोगुण में अवस्थित होते हैं। सृष्टि के विध्वंस काल में वे तमोगुण से संयुक्त रहते हैं। भगवान दिन में सृष्टि करते हैं और रात्रि में प्रलय करते हैं। सभी देवता, प्रजापति और महर्षि दिन में विद्यमान, रात्रि में विलीन तथा रात्रि के अन्त में पुनः प्रकट हो जाते हैं। यही लिंग का पालक और संहारक का रूप है देखें - लयश्चैव तथान्योन्यमाद्यंतमिति कीर्तितम। सर्गस्य प्रतिसर्गस्य स्थितेः कर्ता महेश्वरः।। लिं. पु., पृ. 4

लिंग पुराण का नाम यद्यपि भगवान शंकर के एक नाम-रूप लिंग के आधार पर किया गया है तथापि इस पुराण में शिव, शंकर, पशुपति आदि के रूप में ही शिव स्वरूप और शिव तत्व का गायन किया गया है। इसी प्रकार से एक स्थान पर इसमें शिव के अन्य नामों की गणना भी की गई है जिनमें शिव के लिंग रूप के अतिरिक्त इनके सर्व, भव, वन्हि, ईशान, भीम, रुद्र, महादेव, उग्र आठ मूर्तियों के रूप में गिना गया है। इसी क्रम में यह कहा गया है कि भगवान शंकर की अष्ट मूर्तियों से यह सम्पूर्ण जड़-चेतन व्याप्त है।’ इन आठों मूर्तियों की व्यापकता को इस पुराण में इस रूप में कहा गया है जिसमें यह वर्णन है कि सर्व इस जगत् के विधाता और भर्ता हैं। भव इस संसार के जीवों को जीवन प्रदान करते हैं। बहि ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर शीततम आदि से लोकों की रक्षा करते हैं। ईशान पवन बनकर समस्त भुवनों में व्याप्त रहते हैं। भीम रूप में वे चर और अचरों के मन में उत्पन्न हुई कामनाओं की पूर्ति करते हैं। रुद्र रूप में भगवान शंकर भक्तों को मुक्ति प्रदान करते हैं और सम्पूर्ण संसार के अन्धकार का हरण करते हैं। उनकी सप्तम मूर्ति महादेव हैं। इस रूप में वे सृष्टि में रस और शीतलता का संचार करते हैं तथा उग्र रूप में वे जगत को नियन्त्रित करते हैं और पापियों को दण्ड देते हैं।

पुरुषं शंकरं प्राहुगौरीं च प्रकृतिंद्विजाः । अर्थः शम्भुः शिवा वाणी दिवसोऽजः शिवानिशा।। आकाशं शंकरो देवः पृथिवी शंकर प्रिया। समुद्रो भगवान रुद्रो वेला शैलेन्द्रकन्यका। वृक्षः शूलायुधो देवः शूलपाणिप्रियालता।। ब्रह्माहरोपि सावित्री शंकरार्धशरीरिणी। विष्णुमहेश्वरो लक्ष्मी भवानी परमेश्वरी।।शंकरः पुरुषाः सर्वे स्त्रियः सर्वा महेश्वरी।। लि. पु., पृ. 128,159 अर्थात -शिव की व्यापकता और सर्वरूपता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि शिव पुरुष हैं और शिवा माया हैं। शिव आकाश और शिवा पृथिवी हैं। शिव दिन और शिवा रात्रि हैं। शिव समुद्र और पार्वती तरंग हैं। शिव वृक्ष और शिवा लता हैं। शिव ब्रह्मा, विष्णु हैं और शिवा सावित्री तथा लक्ष्मी हैं। इस रूप में विश्व में जितने भी पुरुष रूप हैं सब भगवान् शंकर की विभूति हैं तथा जितने स्त्री रूप हैं वे सभी भगवती की विभूति हैं।’ भगवान् शंकर के विश्व रूप में यह भी कहा गया है कि शंकर ज्ञाता तथा ज्ञेय हैं, श्रोता और श्रव्य है, दृष्टा और दृश्य हैं, आघ्राता और घ्राण्य हैं। वे उसी प्रकार से हैं जैसे अग्नि से उत्पन्न स्फुलिंग अग्नि में ही व्याप्त रहती है। इस रूप में वे सर्वत्र हैं, सभी में हैं और वे ही सभी कुछ हैं।

  जिस प्रकार से सभी के शरीर में मनतत्वरूप में अवस्थित है, उसी प्रकार से सम्पूर्ण शरीर में शिव स्वरूप अवस्थित है। भगवान शंकर ही सभी प्राणियों के शरीर में श्रोत्र, आस्वाद तथा घ्राण हैं। रूप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्श तथा इनके आधार पृथिवी, जल, तेज, अग्नि, वायु और आकाश शंकर के ही स्वरूप हैं। शिव की पांच मूर्तियां ही इन पांचों तत्त्वों का प्रवर्तन और संचालन करती हैं। पांच ज्ञानेन्द्रियों की पांच कर्मेन्द्रियां हसन, पाद, वाक्, लिंग तथा गुदा तथा इनके विषय कार्य करना, चलना, बोलना, मूत्र तथा पुरीषोत्सर्गादि भी शिव के ही मूर्तरूप हैं।' शिव क्षर हैं, अक्षर हैं और दोनों से भिन्न तथा अभिन्न हैं। वें क्षर रूप में व्यक्त और अक्षर रूप में अव्यक्त हैं। परन्तु इन दोनों से परे होने के कारण वे पर भी हैं। समष्टि को शिव का अव्यक्त और व्यष्टि को शिव का व्यक्त रूप मानना चाहिए। भगवान शंकर विद्या रूप भी हैं और अविद्या रूप भी। अविद्या रूप इसलिए हैं क्योंकि अविद्या रूप प्रपञ्च भी भगवान शंकर का ही रूप है। विद्या शंकर का उत्तम रूप है और अविद्या मायामय रूप है।

निर्देशाद् देवदेवस्य सप्तस्कंधगतो मरुत् । लोकयात्रां वहत्येव भैदैः स्वैरैवाहवादिभिः।। हव्यं वहति देवानां कव्यं कव्याशिनामपि । पाकं च कुरुते वन्हि शंकरस्यैव शासनात्।। अविलंघ्या हि सर्वेषामाज्ञा तस्य गरीयसी । देवान् पातयत्सुरान्हन्ति त्रैलोक्यमखिलं स्थितः । अधार्मिकाणां वै नाशं करोति शिवशासनात् ।। लिंग पुराण पृष्ठ-158 अर्थात- शिव के अनुशासन से ही वायु सप्त स्कन्धों में विभाजित होकर लोक यात्रा संपादित करती है। अग्नि देवताओं के लिए हव्य वहन करती है और वही पूर्वजों के निमित्त कव्य भी धारण करती है। अग्नि पाचन क्रिया का काम शंकर की शक्ति और आज्ञा से ही करती है। खाया भोजन पचाने की जो शक्ति प्राणी में होती है और जो अग्नि उदर में रहकर भुक्तान्न का पाचन करती है वह भी शंकर के आदेश से ही करती है। संसार में जो प्राणी जीवन धारण करते हैं और अपने जीवन में जो शक्ति प्राप्त करके आपत्तियों से पार कर जाते हैं, वह भी शंकर की ही शक्तिका महत्त्व है, क्योंकि शिव की आज्ञा उल्लंघन करने योग्य नहीं है। इसी प्रकार शिव अपनी कृपालुता से देवताओं की रक्षा करते हैं और दैत्यों का संहार करते हैं। सभी प्राणी संसार में अपने पुण्यों के अनुसार जो पुण्य फल पाते हैं, वह सभी शिव की कृपा से ही होता है, क्योंकि उनकी शक्ति और आज्ञा उल्लंघन योग्य नहीं हैं।’

आत्माराम यादव पीव

पूर्व में भगदड़ से हुए हादसों से कोई सबक नहीं 

संदर्भ- हरिद्वार के मंदिर में भगदड़ 


प्रमोद भार्गव

             उत्तराखंड के प्रसिद्द तीर्थस्थल के मनसा देवी मंदिर के मार्ग में मची भगदड़ से छह लोगों की मौत हो गईं और 40 लोग घायल हैं। यह शिवालिक पहाड़ियों पर 500 फीट की ऊंचाई पर यह घटना एक विद्युत मीटर के निकट बिजली का करंट फ़ैल जाने की अफवाह से लगी। सावन का महीना और रविवार का दिन होने के कारण सुबह से ही बहुत भीड़ थी। वाबजूद इस संकरे मार्ग पर सुरक्षा के कोई पुख्ता प्रबंध नहीं थे। जबकि इसी रास्ते से लोग आ-जा रहे थे। जबकि हाल ही में जगन्नाथ पुरी की रथयात्रा और बेंगलुरु में खेले गए क्रिकेट मैच के चलते दो बड़ी घटनाएं घटी हैं ,फिर भी प्रसाशन ने सबक लेते हुए कोई सतर्कता नहं बरती। आखिर सोया प्रसाशन कब जागेगा ? वैसे भी हरिद्वार धार्मिक उत्सव और कुंभ जैसे मेले को आयोजित कराने वाला नगर है ,इसलिए वहां के प्रशासन को हर वक्त चैतन्य रहने की जरूरत  है। 
       धार्मिक उत्सवों में दुर्घटनाओं का सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। यदि हरिद्वार की ही बात करें तो 1912 के कुंभ में भगदड़ से 7 लोगों की 1966 में 12 1986 में 52,1996 में 22,2010 में 7,और 2011 गायत्री यज्ञ में भगदड़ होने से 20 लोगों की मौतें हुई थीं। भारत में पिछले डेढ़ दशक के दौरान मंदिरों और अन्य धार्मिक आयोजनों में उम्मीद से कई गुना ज्यादा भीड़ उमड़ रही ह्रै। जिसके चलते दर्शन-लाभ की जल्दबाजी व कुप्रबंधन से उपजने वाली भगदड़ व आगजनी का सिलसिला हर साल इस तरह के धार्मिक मेलों में देखने में आ रहा है। साफ है, प्रत्येक कुंभ में जानलेवा घटनाएं घटती रहने के बावजूद शासन-प्रशासन ने कोई सबक नहीं लिए। धर्म स्थल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम कम से कम शालीनता और आत्मानुशासन का परिचय दें। किंतु इस बात की परवाह आयोजकों और प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं होती, अतएव उनकी जो सजगता घटना के पूर्व सामने आनी चाहिए, वह अक्सर देखने में नहीं आती ? लिहाजा आजादी के बाद से ही राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र उस अनियंत्रित स्थिति को काबू करने की कोशिश में लगा रहता है, जिसे वह समय पर नियंत्रित करने की कोशिश करता तो हालात कमोबेश बेकाबू ही नहीं हुए होते ? अतएव देखने में आता है कि आयोजन को सफल बनाने में जुटे अधिकारी भीड़ के मनोविज्ञान का आकलन करने में चूकते दिखाई देते हैं।
         जरूरत से ज्यादा प्रचार करके लोगों को यात्रा के लिए प्रेरित किया जाता है। फलतः जनसैलाब इतनी बड़ी संख्या में उमड़ जाता है कि सारे रास्ते पैदल भीड़ से जाम हो जाते हैं। इसी बीच लापरवाही यह रही कि बाहर जाने के रास्ते को नेता और नौकरशाहों के लिए आरक्षित कर दिया गया और दो ट्रक आम रास्ते से मंदिर की ओर भेज दिए। इस चूक ने घटना को अंजाम दे दिया। जो भी प्रबंधन के लिए आधुनिक तकनीकि उपाय किए गए थे, वे सब व्यर्थ साबित हुए। क्योंकि उन पर जो घटना के भयावह दृश्य दिखाई देने लगे थे, उनसे निपटने का तात्कालिक कोई उपाय ही संभव नहीं रह गया था। ऐसी लापरवाही और बदइंतजामी सामने आना चकित करती है। दरअसल रथयात्रा में जो भीड़ उमड़ी थी, उसके अवागमन के प्रबंधन के लिए जिस प्रबंध कौशल की जरुरत थी, उसके प्रति घटना से पूर्व सर्तकता बरतने की जरूरत थी ? इसके प्रति प्रबंधन अदूरदर्शी रहा। मेलों के प्रबंधन की सीख हम विदेशी साहित्य और प्रशिक्षण से लेते हैं। जो भारतीय मेलों के परिप्रेक्ष्य में कतई प्रासंगिक नहीं है। क्योंकि दुनिया के किसी अन्य देश में किसी एक दिन और विशेश मुहूर्त्त के समय लाखों-करोडों़ की भीड़ जुटने की उम्मीद ही नहीं की जाती ? बावजूद हमारे नौकरशाह भीड़ प्रबंधन का प्रशिक्षण, लेने खासतौर से योरुपीय देशों में जाते हैं। प्रबंधन के ऐसे प्रशिक्षण विदेशी सैर-सपाटे के बहाने हैं, इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। ऐसे प्रबंधनों के पाठ हमें खुद अपने देशज ज्ञान और अनुभव से लिखने होंगे।
      प्रशासन के साथ हमारे राजनेता, उद्योगपति, फिल्मी सितारे और आला अधिकारी भी धार्मिक लाभ लेने की होड़ में व्यवस्था को भंग करने का काम करते हैं। इनकी वीआईपी व्यवस्था और यज्ञ कुण्ड अथवा मंदिरों में मूर्तिस्थल तक ही हर हाल में पहुंचने की रूढ़ मनोदशा, मौजूदा प्रबंधन को लाचार बनाने का काम करती है। जो इस रथयात्रा में देखने में आई है। आम श्रद्धालुओं के बाहर जाने का रास्ता इन्हीं लोगों के लिए सुरक्षित कर दिया गया था। नतीजतन भीड़ ठसाठस के हालात में आ गई और दुर्घटना घट गई। दरअसल दर्शन-लाभ और पूजापाठ जैसे अनुश्ठान अशक्त और अपंग मनुश्य की वैशाखी हैं। जब इंसान सत्य और ईश्वर की खोज करते-करते थक जाता है और किसी परिणाम पर भी नहीं पहुंचता है तो वह पूजापाठों के प्रतीक गढ़कर उसी को सत्य या ईश्वर मानने लगता है। यह मनुष्य की स्वाभाविक कमजोरी है। यथार्थवाद से पलायन अंधविश्वास की जड़ता उत्पन्न करता है। भारतीय समाज में यह कमजोरी बहुत व्यापक और दीर्घकालीक रही है। जब चिंतन मनन की धारा सूख जाती है तो सत्य की खोज मूर्ति पूजा और मुहूर्त की शुभ घड़ियों में सिमट जाती है। जब अध्ययन के बाद मौलिक चिंतन का मन-मस्तिश्क में हृस हो जाता है तो मानव समुदाय भजन-र्कीतन में लग जाता है। यही हश्र हमारे पथ-प्रदर्शकों का हो गया है। नतीजतन पिछले कुछ समय से सबसे ज्यादा मौतें भगदड़ की घटनाओं और सड़क दुर्घटनाओं में उन श्रद्धालुओं की हो रही हैं, जो ईश्वर से खुशहाल जीवन की प्रार्थना करने धार्मिक यात्राओं पर जाते हैं।

      मीडिया इसी पूजा-पाठ का नाट्य रूपांतरण करके दिखाता है, यह अलौकिक कलावाद, धार्मिक आस्था के बहाने व्यक्ति को निष्क्रिय व अंधविश्वासी बनाता है। यही भावना मानवीय मसलों को यथास्थिति में बनाए रखने का काम करती है और हम ईश्वरीय अथवा भाग्य आधारित अवधारणा को भाग्य और प्रतिफल व नियति का कारक मानने लग जाते हैं। दरअसल मीडिया, राजनेता और बुद्धिजीवियों का काम लोगों को जागरूक बनाने का है, लेकिन निजी लाभ का लालची मीडिया, लोगों को धर्मभीरू बना रहा है। राजनेता और धर्म की आंतरिक आध्यात्मिकता से अज्ञान बुद्धिजीवी भी धर्म के छद्म का शिकार होते दिखाई देते हैं। यही वजह है कि पिछले दो दशक के भीतर मंदिर हादसों में लगभग 5000 से भी ज्यादा भक्त मारे जा चुके हैं। बावजूद श्रद्धालु हैं कि दर्शन, आस्था, पूजा और भक्ति से यह अर्थ निकालने में लगे हैं कि इनको संपन्न करने से इस जन्म में किए पाप धुल जाएंगे, मोक्ष मिल जाएगा और परलोक भी सुधर जाएगा। गोया, पुनर्जन्म हुआ भी तो श्रेष्ठ वर्ण में होने के साथ आर्थिक रूप से समृद्ध व वैभवशाली होगा। परंतु इस तरह के खोखले दावों का दांव हर मेले में ताश के पत्तों की तरह बिखरता दिखाई दे रहा है। जाहिर है, धार्मिक दुर्घटनाओं से छुटकारा पाने की कोई उम्मीद निकट भविष्य में दिखाई नहीं दे रही है ?

प्रमोद भार्गव

मनसा का मातमः अफवाह बनी त्रासदी की वजह

 ललित गर्ग 

हरिद्वार के प्रसिद्ध मनसा देवी मंदिर में बिजली का तार टूटने और करंट फैलने की एक अफवाह ने कई जानें ले लीं, जिसने धार्मिक स्थलों पर भीड़ प्रबंधन की गंभीर खामियों को उजागर कर दिया है। किसी धार्मिक स्थल पर भगदड़ की यह पहली घटना नहीं, लेकिन अफसोस है कि पुरानी गलतियों से सबक नहीं लिया जा रहा। ऐसी त्रासद, विडम्बनापूर्ण एवं दुखद घटनाओं के लिये मन्दिर प्रशासन और सरकारी प्रशासन जिम्मेदार है, रविवार की सुबह एक बार फिर श्रद्धालुओं के लिये मौत का मातम बनी, चीख, पुकार और दर्द का मंजर बना। लगभग साढ़े आठ से नौ बजे के बीच हजारों श्रद्धालु संकीर्ण सीढ़ीदार मार्ग से मंदिर की ओर बढ़ रहे थे। जैसे ही अचानक करंट लगने की अफवाह ने अफरा-तफरी का माहौल बनाया, श्रद्धालु घबराहट में एक-दूसरे पर गिरने लगे और कुछ ही पलों में आठ लोगों की मौत हो गई जबकि करीब तीस श्रद्धालु घायल हो गए, जिनमें कई की हालत गंभीर थी। भगदड़ में लोगों की जो दुखद मृत्यु हुई, उसका दर्द समूचा देश महसूस कर रहा है। प्रश्न है कि पुलिस का बंदोबस्त कहां था? श्रद्धालुओं की मौत एक ऐसा दर्दनाक एवं खौफनाक वाकया है जो सुदीर्घ काल तक पीड़ित और परेशान करेगा। प्रशासन की लापरवाही, अत्यधिक भीड़, निकासी मार्गों की कमी और अव्यवस्थित प्रबंधन ने इस त्रासदी को जन्म दिया। यह घटना कोई अपवाद नहीं है, बल्कि हाल के वर्षों में दुनिया भर में सामने आई ऐसी घटनाओं की कड़ी का नया खौफनाक मामला है, जहां भीड़ नियंत्रण में चूक एवं प्रशासन एवं सत्ता का जनता के प्रति उदासीनता का गंभीर परिणाम एवं त्रासदी का ज्वलंत उदाहरण है। मनसा के मातम, हाहाकार एवं दर्दनाक मंजर ने राज्य की सुरक्षा व्यवस्था की पोल ही नहीं खोली बल्कि सत्ता एवं धार्मिक व्यवस्थाओं के अमानवीय चेहरे को भी बेनकाब किया है।
भारत में भीड़ से जुड़े हादसे आम लोगों के जीवन का ग्रास बनते रहे हैं। धार्मिक आयोजनों हो या खेल प्रतियोगिता, राजनीतिक रैली हो या सांस्कृतिक उत्सव लाखों लोगों को आकर्षित करते हैं, जहाँ भीड़ प्रबंधन की मामूली चूक भयावह त्रासदी में बदलते हुए देखी जाती रही है। उदाहरण के लिये, पिछले एक साल पर नजर दौड़ाएं तो इस तरह के कई दुखद हादसे हो चुके हैं। हाल ही में पुरी में भगदड़ जानलेवा साबित हुई। पिछले साल जुलाई में ही हाथरस में एक धार्मिक आयोजन में मची भगदड़ में 121 लोगों की मौत हो गई थी। इस साल जनवरी की शुरुआत में तिरुपति मंदिर में टोकन लेने के लिए हद से ज्यादा श्रद्धालु पहुंच गए और पुलिस उनको काबू नहीं कर सकी। भगदड़ मची तो 6 लोगों की जान चली गई। इसी साल, मौनी अमावस्या पर महाकुंभ में और उसके बाद नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भी हादसा हुआ। वर्ष 2013 में मध्य प्रदेश के रत्नागढ़ मंदिर में ढाँचागत कमियों से प्रेरित भगदड़ के कारण 115 लोगों की मौत हो गई थी।
भारत ही नहीं दुनिया में धार्मिक आयोजनों में भीड़ प्रबंधन हमेशा से बड़ी चुनौती बनता रहा है। वर्ष 2022 में दक्षिण कोरिया के इटावन हैलोवीन समारोह में अत्यधिक भीड़ के कारण 150 से अधिक लोगों की जान चली गई थी। इसी तरह, वर्ष 2015 में मक्का में हज के दौरान मची भगदड़ में सैकड़ों लोगों की मौत हो गई थी। आग, भूकंप, या आतंकी हमलों जैसी आपातकालीन स्थितियांे में भी भीड़ प्रबंधन की पौल खुलती रही है। आखिर दुनिया के सर्वाधिक जनसंख्या वाले देश में हम भीड़ प्रबंधन को लेकर इतने उदासीन क्यों है? बड़े आयोजनों-भीड़ के आयोजनों में भीड़ बाधाओं को दूर करने के लिए, भीड़ प्रबंधन के लिए बुनियादी ढांचे में सुधार, सुरक्षाकर्मियों को पर्याप्त प्रशिक्षण प्रदान करना, जन जागरूकता बढ़ाना और आधुनिक तकनीकों का उपयोग करना अब नितान्त आवश्यक है। हर बार जांच, कठोर कार्रवाई करने, सबक सीखने की बातें की जाती हैं, लेकिन नतीजा के ढाक के तीन पात वाला है। न तो शासन-प्रशासन कोई सबक सीख रहा है और न ही आम जनता संयम एवं अनुशासन का परिचय देने की आवश्यकता समझ रही है। भगदड़ की घटनाओं का सिलसिला कायम रहने से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की बदनामी भी होती है, क्योंकि इन घटनाओं से यही संदेश जाता है कि भारत का शासन-प्रशासन भगदड़ रोकने में पूरी तरह नाकाम है। सार्वजनिक स्थलों पर भगदड़ की घटनाएं दुनिया के अन्य देशों में भी होती है, लेकिन उतनी नहीं जितनी अपने देश में होती ही रहती हैं। क्या इस तरह की अफवाह को रोका नहीं जा सकता था? हमारा प्रशासन कोई अनुमान लगाने में इतना अक्षम क्यों है? क्या इसका कारण उसकी संवेदनहीनता है अथवा यह कि संबंधित अधिकारी यह जानते हैं कि कैसी भी घटना हो जाए, उनका कुछ नहीं बिगड़ने वाला। आखिर हम दुनिया के अन्य देशों से कोई सबक सीखने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं? सबसे बड़ा सवाल है कि क्या धार्मिक स्थलों पर भीड़ प्रबंधन की कोई ठोस और वैज्ञानिक व्यवस्था है? मनसा देवी मंदिर की सीढ़ियां, संकरे रास्ते और अव्यवस्थित दुकानों के बीच का क्षेत्र लंबे समय से भीड़भाड़ के लिए जाना जाता है। फिर भी वहां कोई स्थायी सुरक्षा उपाय क्यों नहीं किए गए? अफवाह पर नियंत्रण के लिए कोई त्वरित सूचना तंत्र नहीं था, न ही भीड़ को दिशा देने के लिए पर्याप्त पुलिस बल या मार्गदर्शन की व्यवस्था थी। इस तरह की घटनाएं केवल अफवाह का परिणाम नहीं होतीं, बल्कि यह व्यवस्था की कमजोरियों एवं कोताही का परिणाम होती हैं। तीर्थस्थलों पर नियंत्रित प्रवेश, डिजिटल टिकटिंग, सीसीटीवी निगरानी, आपातकालीन निकासी मार्ग, और स्थानीय प्रशासन की सक्रिय मौजूदगी जैसी व्यवस्थाएं अनिवार्य होनी चाहिए। सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि भगदड़ की घटनाएं लगभग वैसे ही कारणों से रह रहकर होती रहती हैं, जैसे पहले हो चुकी होती हैं।
मृतकों में उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तराखंड के लोग शामिल थे। उनमें छह वर्षीय बच्चा आरुष, किशोर और बुजुर्ग तक शामिल थे। उनके परिवारों पर अचानक दुख का पहाड़ टूट पड़ा। इस दौरान बचे हुए श्रद्धालुओं ने बताया कि भीड़ इतनी घनी थी कि सांस लेना भी मुश्किल हो रहा था। मनसा देवी मंदिर की यह घटना हमें याद दिलाती है कि भीड़ सिर्फ भक्ति का प्रतीक नहीं है, बल्कि अगर उसे सही दिशा और सुरक्षा नहीं दी जाए तो वह भयावह त्रासदी में बदल सकती है। यह समय है कि प्रशासन, मंदिर ट्रस्ट और समाज मिलकर ठोस कदम उठाएं ताकि आस्था के केंद्र जीवन के लिए खतरा न बनें। तमाम धार्मिक स्थलों पर फैली अव्यवस्था को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। फिसलन भरे रास्ते, संकरी जगह, आने-जाने का एक ही मार्ग जैसी बातें लगभग हर जगह देखने को मिल जाएंगी। ऐसे में जब किसी खास मौके पर भीड़ बढ़ती है तो स्वाभाविक ही हादसे की आशंका भी बढ़ जाती है, जैसा सावन पर मनसा देवी में हुआ। बेंगलुरु में आरसीबी के इवेंट में हुए हादसे के बाद कर्नाटक सरकार क्राउड कंट्रोल पर एक बिल लेकर आई है, जिसमें जिम्मेदारियां तय की गई हैं। ऐसे कानून की हर जगह जरूरत है। रेलवे स्टेशन, मंदिर और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर भीड़ को संभालने के लिए पर्याप्त जगह और रास्ते नहीं हैं। कुछ स्थानों पर निकास मार्ग सीमित हैं या अनुपयुक्त हैं, जो भगदड़ का खतरा बढ़ाते हैं। भीड़ प्रबंधन के लिए पर्याप्त प्रशिक्षित एवं दक्ष सुरक्षाकर्मी नहीं हैं, जिससे सुरक्षा चूक होने की संभावना बढ़ जाती है। भीड़ प्रबंधन के लिए आधुनिक तकनीकों, जैसे कि एआई आधारित निगरानी और ड्रोन कैमरे का उपयोग सीमित है। लोगों को आपातकालीन निकास मार्गों, भीड़ नियंत्रण नियमों, और सुरक्षा उपायों के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है। गलत सूचना या अचानक दहशत से भीड़ अनियंत्रित हो सकती है और भगदड़ मच सकती है। भीड़ का व्यवहार कई बार अनियंत्रित हो जाता है, खासकर धार्मिक, खेल एवं सिनेमा आयोजनों में, जहां लोग भावनाओं में बहकर आगे निकलने की होड़ में लग जाते हैं। अच्छा यह होगा कि सरकारें भगदड़ की घटनाओं को लेकर प्रशासन को सच में जवाबदेह बनाना सीखें। इसके साथ ही आम लोगों को भी जापान जैसे देशों के लोगों से अनुशासन की सीख लेनी होगी।

भारत-ब्रिटेन व्यापार समझौताः एक क्रांतिकारी कदम

-ललित गर्ग-

भारत और ब्रिटेन के बीच ऐतिहासिक मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) की अंतिम स्वीकृति ने न केवल वैश्विक व्यापार जगत में हलचल मचा दी है, बल्कि भारत के आर्थिक भविष्य को भी एक नई दिशा दी है। दोनों देशों के बीच आखिरकार फ्री ट्रेड एग्रीमेंट होने का फायदा दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं को मिलेगा। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से संरक्षणवाद बढ़ा है, उसमें ऐसे व्यापार समझौतों की भूमिका और भी अहम हो जाती है। इस समझौते से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने न केवल अमेरिका बल्कि अन्य देशों को भी भारत की मजबूत होती स्थिति का आइना दिखाया है, जो उनकी दूरगामी एवं कूटनीतिज्ञ राजनीति का द्योतक है। इस समझौते को मौजूदा दौर में दुनियाभर में जारी बहुस्तरीय तनाव, दबाव एवं दादागिरी की राजनीति के बीच एक बेहतर एवं सूझबूझभरी कूटनीतिक कामयाबी के तौर पर देखा जा सकता है। यह छिपा नहीं है कि अमेरिका के राष्ट्रपति ने शुल्क के मोर्चे पर एक बड़ा द्वंद्व एवं संकट खड़ा कर दिया था। लेकिन भारत ने इस द्वंद्व के बीच झूकने की बजाय नये रास्ते खोजे हैं। निश्चित ही यह व्यापक आर्थिक एवं व्यापार समझौता (सीईटीए) महज एक कागज़ी करार नहीं, बल्कि ‘विकसित भारत 2047’ के स्वप्न को मूर्त रूप देने की ठोस रणनीति है। जहां एक ओर यह समझौता 99 प्रतिशत टैरिफ को समाप्त कर वस्त्र, चमड़ा, समुद्री उत्पाद, कृषि व रत्न-आभूषण जैसे श्रम-प्रधान क्षेत्रों को नई उड़ान देगा, वहीं दूसरी ओर छोटे उद्यमों, मछुआरों और किसानों को वैश्विक मंच पर पहचान दिलाएगा। भारत के ग्रामीण अंचलों से हल्दी, दाल, अचार जैसे उत्पाद अब ब्रिटिश बाजारों में अपनी महक फैलाएंगे।
मोदी सरकार ने पिछले एक दशक में जिस प्रकार से गुणवत्ता, प्रतिस्पर्धा और पारदर्शिता पर जोर दिया, उसी का परिणाम है यह करार। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि अब भारत केवल बाजार नहीं, बल्कि एक निर्णायक शक्ति बन चुका है, जो अपने हितों की रक्षा करते हुए विश्व से संवाद करता है। यह समझौता सिर्फ व्यापार तक सीमित नहीं है, यह सेवा क्षेत्र, शिक्षा, वित्तीय सेवाएं, निवेश, सामाजिक सुरक्षा, और दोहरे कराधान जैसे क्षेत्रों में भी भारतीयों के लिए नए दरवाज़े खोलता है। खासकर ब्रिटेन में काम कर रहे भारतीय पेशेवरों के लिए यह राहत का संदेश है, जिन्हें सामाजिक सुरक्षा अंशदान से छूट मिल सकेगी। यह समझौता इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि अब तक अमेरिका की ओर से पैदा किये गये किसी दबाव के आगे भारत ने झुकना स्वीकार नहीं किया और उसने भारत-ब्रिटेन जैसे नये विकल्पों को खड़ा करने और पुराने को मजबूत करने की दिशा में कदम बढ़ाये हैं।
ब्रिटेन के साथ यह एफटीए एक उदाहरण है कि कैसे भारत न्यायसंगत और समावेशी व्यापार समझौते कर सकता है, जिसमें न तो अपने किसानों, न ही डेयरी क्षेत्र या छोटे उत्पादकों को नुकसान होता है। भारत ने संवेदनशील क्षेत्रों को समझौते से बाहर रखकर आत्मनिर्भरता और खाद्य सुरक्षा की अपनी नीति को बरकरार रखा है। वर्तमान में भारत का वैश्विक व्यापार लगभग 21 अरब डॉलर है, जो इस समझौते के बाद 2030 तक 120 अरब डॉलर तक पहुँचने की संभावना रखता है। यह न केवल विदेशी निवेश को आकर्षित करेगा, बल्कि भारत की मैन्युफैक्चरिंग हिस्सेदारी को 17 प्रतिशत से 25 प्रतिशत तक बढ़ाने में सहायक होगा। इस करार के साथ, मोदी सरकार ने साबित कर दिया है कि जब नियोजित दृष्टिकोण, वैश्विक प्रतिष्ठा और साहसिक निर्णय साथ चलते हैं, तो भारत जैसे विकासशील देश भी वैश्विक मंच पर निर्णायक बन सकते हैं।
भारत और ब्रिटेन के बीच सीईटीए के अस्तित्व में आने से एक नये आर्थिक सूर्य का उदय हुआ है, जिससे रोजगार सहित अनेक उन्नत राष्ट्र-निर्माण के अवसर सृजित होंगे। सीईटीए की संकल्पना आस्ट्रेलिया, संयुक्त अरब अमीरात और कुछ अन्य देशों के साथ हुए मुक्त व्यापार समझौतों के अनुरूप ही है। यह मोदी सरकार की भारत को 2047 तक विकसित बनाने की संकल्पना से जुड़ी रणनीति का एक हिस्सा है। मोदी सरकार ने भारत को तीसरी बड़ी अर्थ-व्यवस्था बनाने के अपने संकल्प में नये पंखों को जोड़ते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था में वैश्विक विश्वास को फिर से स्थापित करने तथा इसे भारतीय और विदेशी निवेशकों के लिए आकर्षक बनाने के लिए एक दृढ़ रणनीति अपनाई है। विकसित देशों के साथ एफटीए इस रणनीति के केंद्र में है। ऐसे समझौते व्यापार नीतियों से जुड़ी अनिश्चितताओं को दूर करके निवेशकों का विश्वास बढ़ाते हैं। पिछली यूपीए सरकार ने भारत के व्यापारिक दरवाजे प्रतिद्वंद्वी देशों के लिए खोलकर भारतीय व्यवसायों को खतरे में डालने वाला रवैया अपनाया था, लेकिन अतीत की उन बड़ी भूलों को सुधारा जा रहा है, जो नये भारत-विकसित भारत का आधार है।
मोदी के मेड इन इंडिया संकल्प की दृष्टि से यह डील बेहद अहम है। इससे करीब 99 प्रतिशत निर्यात यानी यहां से ब्रिटेन जाने वाली चीजों पर टैरिफ से राहत मिलेगी। इसी तरह ब्रिटेन से आनी वाली चीजें भारत में सस्ती मिल सकेंगी। जिससे आम लोगों को अधिक गुणवत्ता वाला सामान सस्ते में सुलभ होगा और जीवनस्तर में व्यापक सुधार होगा। डील से एक बड़ा फायदा होगा टेक्सटाइल्स, लेदर और इलेक्ट्रॉनिक्स को। इनसे मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा मिलेगा। अभी ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग में भारत की हिस्सेदारी केवल 2.8 प्रतिशत है, जबकि चीन की 28.8 प्रतिशत। इसी तरह, देश की जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग का योगदान 17 प्रतिशत है और सरकार इसे 25 प्रतिशत तक बढ़ाना चाहती है। इस तरह की डील से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय, दोनों स्तर पर प्रदर्शन में सुधार होगा। कृषि सेक्टर को भी उन्नत बनाने एवं अधिक उत्पाद की दृष्टि से व्यापक फायदा होगा। इसके लिए इस समय भारत की बातचीत अमेरिका से भी चल रही है। लेकिन वहां कृषि और डेयरी प्रॉडक्ट्स को लेकर रस्साकशी है। अमेरिका इन दोनों क्षेत्रों में खुली छूट चाहता है, जबकि अपने लोगों के हितों को देखते हुए भारत ऐसा नहीं कर सकता। ब्रिटेन के साथ मुक्त व्यापार होने से भारत के कृषि उद्योग को बढ़ावा मिलेगा।
क्रांतिकारी सुधारों, नवाचार, तकनीक, कारोबारी सुगमता और प्रधानमंत्री के वैश्विक व्यक्तित्व ने भारत को एक आर्थिक सूरज के रूप में उभारने में मदद की है, जहां विपुल संभावनाएं हैं। आज दुनिया भारत की ओर आशाभरी नजरों से देख रही है और भारत की अद्भुत विकासगाथा का हिस्सा बनना चाहती है। प्रमुख देशों द्वारा एक के बाद एक एफटीए इसी मान्यता की पुष्टि करते हैं। ब्रिटेन के साथ यह व्यापार समझौता बाजार पहुंच और प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त दिलाएगा। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत के एफटीए वस्तुओं और सेवाओं से कहीं आगे तक सांस्कृतिक आदान-प्रदान एवं नागरिक हितों तक जाते हैं। आस्ट्रेलियाई एफटीए के साथ भारत ने दोहरे कराधान का मुद्दा सुलझाया, जो आईटी कंपनियों की परेशानी बढ़ा रहा था। ब्रिटेन के साथ समझौते का एक अहम बिंदु दोहरे अंशदान से जुड़ा है। यह ब्रिटेन में नियोक्ताओं, अस्थायी भारतीय कर्मियों को तीन वर्षों के लिए सामाजिक सुरक्षा अंशदान से छूट देता है। इससे भारतीय सेवा प्रदाताओं की प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। ब्रिटेन में रहने वाले भारतीयों को अब अनेक सुविधाएं मिलेगी।
साल 2014 के बाद से भारत ने मॉरिशस, यूएई, ऑस्ट्रेलिया और ईएफटीए के साथ फ्री व्यापारिक समझौते किये हैं। ईएफटीए का अर्थ है यूरोपीय मुक्त व्यापार संघ। यह एक क्षेत्रीय व्यापार संगठन और मुक्त व्यापार क्षेत्र है जिसमें चार यूरोपीय देश शामिल हैं- आइसलैंड, लिकटेंस्टीन, नॉर्वे और स्विट्जरलैंड। यूरोप से बातचीत जारी है, जिसे जल्द से जल्द अंजाम तक पहुंचाया जाना चाहिए। अर्थ-व्यवस्था के मोर्चे पर आने वाली चुनौतियों से निपटने में ऐसे समझौते सहायक होंगे। इस बीच, अगर भारत की अमेरिका के साथ अच्छी व्यापार डील होती है तो उससे भी विकसित भारत के संकल्प को पूरा करने की ओर कदम बढ़ेंगे। लेकिन ब्रिटेन से समझौता केवल व्यापार नहीं, भविष्य का निर्माण है। यह कृषि को समृद्धि, उद्योग को विस्तार, युवाओं को अवसर, और भारत को एक विकसित राष्ट्र बनने की ओर सशक्त करता है। निश्चित ही जहां बाजार बनते हैं अवसरों के, वहीं नीति बनती है भविष्य की नींव। भारत और ब्रिटेन के इस करार से विश्व सुनेगा अब भारत की गूंज!

भारत एवं यूके के बीच मुक्त व्यापार समझौते से बढ़ेगा विदेशी व्यापार

दिनांक 24 जुलाई 2025 को भारत एवं यूनाइटेड किंगडम (यूके) के बीच द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौता भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी एवं यूके के प्रधानमंत्री श्री कीर स्टारमर की उपस्थिति में सम्पन्न हो गया। यूके के यूरोपीयन यूनियन से अलग होने के बाद यूके का भारत के साथ यह द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौता यूके के इतिहास में सबसे बड़ा द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौता कहा जा रहा है। इस द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते के सम्पन्न होने के बाद भारत एवं यूके के बीच विदेशी व्यापार में अतुलनीय वृद्धि की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। यूके ने हाल ही में अमेरिका के साथ भी एक व्यापार समझौता सम्पन्न किया है परंतु यूके के प्रधानमंत्री भारत के साथ संपन्न किए गए द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते को उससे भी बड़ी डील बता रहे हैं। अमेरिका एक ओर जहां विभिन्न देशों के साथ टैरिफ युद्ध की घोषणा कर रहा है एवं अन्य देशों से अमेरिका को होने वाले निर्यात पर भारी भरकम टैरिफ लगा रहा हैं वहीं भारत एवं यूके के बीच द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते के अंतर्गत टैरिफ की दरों को कम किया जाकर शून्य के स्तर पर लाने के प्रयास किए जा रहे हैं। अतः यह द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौता विश्व के अन्य देशों के लिए एक बहुत बड़ी सीख है।    

द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते के अंतर्गत सामान्यतः दो देशों के बीच होने वाले विदेशी व्यापार पर टैरिफ की दरों को कम किया जाता है अथवा शून्य के स्तर तक लाया जाता है ताकि इन दोनों देशों के बीच विदेशी व्यापार को बढ़ावा दिया जा सके। इसी सिद्धांत के अंतर्गत भारत को जिन क्षेत्रों में लाभ हो सकता है, इनमें फुटवीयर उद्योग, लेदर उद्योग, टेक्स्टायल उद्योग, इंजीनीयरिंग उद्योग एवं जेम्स एवं ज्वेलरी उद्योग शामिल हैं। इसी प्रकार यूके को जिन क्षेत्रों में लाभ हो सकता है, इनमे विस्की, कार, चोकलेट, बिस्किट, कासमेटिक, आदि उत्पाद निर्मित करने वाले उद्योग शामिल हैं। साथ ही, यूके को उम्मीद है कि भारत एवं यूके के बीच सम्पन्न हुए इस द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते से 800 करोड़ अमेरिकी डॉलर का निवेश भारतीय कम्पनियों द्वारा यूके में किया जा सकता है। यह यूके के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे यूके में रोजगार के नए अवसर निर्मित होंगे।

वर्तमान में भारत एवं यूके के बीच 56,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर का विदेशी व्यापार प्रतिवर्ष होता है। उक्त द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते के सम्पन्न होने के बाद भारत एवं यूके के बीच 34,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर प्रतिवर्ष का विदेशी व्यापार बढ़ सकता है। वर्ष 2030 तक भारत एवं यूके के बीच विदेशी व्यापार को 120,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर प्रतिवर्ष के स्तर तक ले जाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इसके बाद वर्ष 2040 तक दोनों देशों के बीच विदेशी व्यापार को 160,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर तक ले जाया जा सकेगा। भारत से यूके को निर्यात होने वाले लगभग 99 प्रतिशत पदार्थों पर यूके द्वारा टैरिफ की दर को शून्य  किया जा रहा है। इसी प्रकार, भारत द्वारा भी यूके से आयात किए जाने वाले 64 प्रतिशत पदार्थों पर टैरिफ की दर को शून्य किया जा रहा है। वर्तमान में भारत में यूके से आयात होने वाले पदार्थों पर औसत टैरिफ दर 15 प्रतिशत है, इसे घटाकर 3 प्रतिशत किया जा रहा है। दोनों देशों द्वारा एक दूसरे से विभिन्न पदार्थों के होने वाले विदेशी व्यापार पर टैरिफ की दरें कम करने से दोनों देशों में एक दूसरे से आयात किया जाने वाले उत्पाद सस्ते हों जाएंगे। उत्पाद सस्ते होने से उनकी बाजार में मांग बढ़ेगी, इन उत्पादों की मांग बढ़ने से उनका उत्पादन बढ़ेगा जो अंततः रोजगार के नए अवसर निर्मित करेगा। अतः इस द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते से दोनों देशों को ही लाभ होने जा रहा है।

भारत के जेम्स एवं ज्वेलरी उद्योग से प्रतिवर्ष यूके को होने वाले निर्यात, आगामी दो वर्षों में दुगने होकर 250 करोड़ अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। टेक्स्टायल उद्योग के मामले में भारत के उत्पादों को वियतनाम एवं बांग्लादेश के साथ गला काट प्रतियोगिता का सामना करना पढ़ता है। परंतु, अब भारत के उत्पादों पर टैरिफ की दरें कम अथवा शून्य होने से भारत के उत्पाद यूके में प्रतिस्पर्धी बन जाएंगे। यूके में कुल आयात होने वाले गारमेंट्स में भारत की हिस्सेदारी केवल 6 प्रतिशत है जो अब आगामी वर्षों में दुगनी होकर 12 प्रतिशत होने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। भारत के इंजीनीयरिंग उद्योग को इस मुक्त व्यापार समझौते से अत्यधिक लाभ हो सकता है और भारत के इस क्षेत्र से यूके को निर्यात, वर्ष 2030 तक दुगने होकर 750 करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर तक पहुंच जाने की सम्भावना है। समुद्रीय खाद्य उत्पाद के क्षेत्र में भी भारत से यूके को निर्यात जो अभी केवल 10 करोड़ अमेरिकी डॉलर के हैं, दुगने होकर 20 करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर को पार कर सकते हैं। अभी यूके में समुद्रीय खाद्य पदार्थों के कुल आयात में भारत की हिस्सेदारी केवल 3 प्रतिशत की है। लेदर उद्योग से होने वाले भारत से आयात पर भी टैरिफ की दर को यूके में शून्य किया जा रहा है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि उक्त वर्णित समस्त क्षेत्र/उद्योग भारत में श्रम आधारित उद्योग हैं। अतः इन क्षेत्रों से निर्यात बढ़ने पर भारत में इन क्षेत्रों में रोजगार के लाखों नए अवसर निर्मित होंगे। इन क्षेत्रों से होने वाले उत्पादों पर द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते के अंतर्गत यूके द्वारा टैरिफ की दर को शून्य करने पश्चात यूके में यह पदार्थ सस्ते होंगे इससे यूके में इन पदार्थों की मांग तेजी से बढ़ेगी और भारतीय कम्पनियों के यूके को इन पदार्थों के निर्यात बढ़ेंगे। इससे भारतीय कंपनियों को अपनी उत्पादन क्षमता में वृद्धि करनी होगी, जिससे भारत में रोजगार के नए अवसर निर्मित होंगे।

भारत में यूके से आयात किए जाने वाले पदार्थ, जिन पर भारत द्वारा आयात कर में कमी की जाने वाली हैं, उनमें शामिल हैं – स्कॉच विस्की जिस पर टैरिफ की दरों को 150 प्रतिशत से घटाकर 75 प्रतिशत किया जा रहा है। यूके में निर्मित कारों के आयात पर अभी भारत द्वारा 110 प्रतिशत का टैरिफ लगाया जा रहा है, इसे घटाकर आगे आने वाले 5 वर्षों में 10 प्रतिशत कर दिया जाएगा। इसी प्रकार ब्रिटेन में निर्मित चोकलेट, बिस्किट एवं कासमेटिक उत्पादों पर भी आयात करों में कमी होने से यह उत्पाद भारत में सस्ती दरों पर उपलब्ध होंगे। भारत में कृषकों के हितों का ध्यान रखते हुए डेयरी, तेल एवं फलों आदि जैसे कृषि पदार्थों को इस मुक्त व्यापार समझौते से बाहर रखा गया है।

भारत से यूके को अभी 1450 करोड़ अमेरिकी डॉलर का निर्यात प्रतिवर्ष होता है, यह यूके के कुल आयात का  केवल 1.8 प्रतिशत है। इस प्रकार, अभी भारत से यूके को निर्यात बहुत कम मात्रा में होता है। वर्तमान में भारत द्वारा सबसे अधिक मात्रा में निर्यात, 200 करोड़ अमेरिकी डॉलर का, पेट्रोलीयम उत्पादों का किया जा रहा है।  फार्मा सेक्टर से अभी यूके को केवल 85 करोड़ अमेरिकी डॉलर का निर्यात किया जा रहा है, जो यूके के कुल आयात का केवल 2.8 प्रतिशत है। इस प्रकार भारत को उक्त विभिन्न क्षेत्रों में यूके के रूप में एक बहुत बड़ा बाजार मिल रहा है। केमिकल, आयरन एवं स्टील, फूटवेयर, रबर, आदि भी ऐसे क्षेत्र/उद्योग हैं जिनसे भारत से यूके को बहुत कम मात्रा में निर्यात किया जाता है। भारत के लिए यह समस्त उद्योग अहम हैं क्योंकि इन क्षेत्रों/उद्योगों में रोजगार के अवसर निर्मित करने की अपार सम्भावनाएं मौजूद हैं। यूके के कुल आयात में भारत का मार्केट शेयर बहुत कम है। भारतीय उद्योगों को अपने उत्पादों की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान देना होगा और भारत में निर्मित उत्पादों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और अधिक प्रतिस्पर्धी बनाना होगा ताकि इनके निर्यात को बढ़ाया जा सके।

अमेरिका के ट्रम्प प्रशासन द्वारा लगातार विभिन्न देशों के साथ टैरिफ युद्ध की घोषणा के बीच विश्व की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं, भारत एवं यूके ने आपस में द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते को सम्पन्न कर पूरे विश्व को राह दिखाई है कि किस प्रकार एक दूसरे के हितों को ध्यान में रखकर विदेश व्यापार किया जा सकता है।        

प्रहलाद सबनानी

भारत में तेज गति से आगे बढ़ता पर्यटन उद्योग

भारत में पर्यटन उद्योग को आगे बढ़ाने के लिए कई वर्षों से लगातार प्रयास किए जाते रहे हैं, परंतु इस क्षेत्र में वृद्धि दर कम ही रही है। क्योंकि, भारत में पर्यटन का दायरा केवल ताजमहल, कश्मीर एवं गोवा आदि स्थलों तक ही सीमित रहा है। परंतु, हाल ही के वर्षों में धार्मिक क्षेत्रों यथा, अयोध्या, वाराणसी, मथुरा, उज्जैन, हरिद्वार, उत्तराखंड में चार धाम (केदारधाम, बद्रीधाम, गंगोत्री एवं यमुनोत्री), माता वैष्णोदेवी एवं दक्षिण भारत स्थित विभिन्न मंदिरों सहित, बौद्ध धर्म, जैन धर्म एवं सिक्ख धर्म के कई पूजा स्थलों पर मूलभूत सुविधाओं का विस्तार कर इन्हें आपस में जोड़कर पर्यटन सर्किट विकसित किए गए हैं। इससे भारत में धार्मिक पर्यटन बहुत तेज गति से आगे बढ़ा है। विभिन्न देशों से भी अब पर्यटक इन नए विकसित किए गए धार्मिक स्थलों पर भारी मात्रा में पहुंच रहे हैं। योग एवं आयुर्वेद भी हाल ही के समय में विदेशों में काफी लोकप्रिय हो गया है अतः इसकी खोज के लिए विदेशों से कई पर्यटक भारत में धार्मिक पर्यटन करने के प्रति आकर्षित हो रहे हैं। इससे विदेशी पर्यटन भी देश में तेजी से वृद्धि दर्ज कर रहा है।

हाल ही के समय में भारत के नागरिकों में “स्व” का भाव विकसित होने के चलते देश में धार्मिक पर्यटन बहुत तेज गति से बढ़ा है। अयोध्या धाम में प्रभु श्रीराम के भव्य मंदिर में श्रीराम लला के विग्रहों की प्राण प्रतिष्ठा के पश्चात प्रत्येक दिन औसतन 2 लाख से अधिक श्रद्धालु अयोध्या पहुंच रहे हैं। दिनांक 22 जनवरी 2024 को अयोध्या में सम्पन्न हुए प्रभु श्रीराम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह के बाद स्थानीय कारोबारी अपना उज्जवल भविष्य देख रहे हैं। अयोध्या धार्मिक पर्यटन का हब बनाने जा रहा है तथा अब अयोध्या दुनिया का सबसे बड़ा तीर्थ क्षेत्र बन जाएगा। जेफरीज के अनुसार अयोध्या में प्रति वर्ष 5 करोड़ से अधिक पर्यटक आ सकते हैं।

 यह तो केवल अयोध्या की कहानी है इसके साथ ही तिरुपति बालाजी, काशी विश्वनाथ मंदिर, उज्जैन में महाकाल लोक, जम्मू स्थित वैष्णो देवी मंदिर, उत्तराखंड में केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री एवं यमनोत्री जैसे कई मंदिरों में श्रद्धालुओं की अपार भीड़ उमड़ रही है। भारत में धार्मिक पर्यटन में आई जबरदस्त तेजी के बदौलत रोजगार के लाखों नए अवसर निर्मित हो रहे हैं, जो देश के आर्थिक विकास को गति देने में सहायक हो रहे हैं।

विश्व के कई अन्य देश भी धार्मिक पर्यटन के माध्यम से अपनी अर्थव्यवस्थाएं सफलतापूर्वक मजबूत कर रहे हैं। सऊदी अरब धार्मिक पर्यटन से प्रति वर्ष 22,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर अर्जित करता है। सऊदी अरब इस आय को आगे आने वाले समय में 35,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर तक ले जाना चाहता है। मक्का में प्रतिवर्ष 2 करोड़ लोग पहुंचते हैं, जबकि मक्का में गैर मुस्लिम के पहुंचने पर पाबंदी है। इसी प्रकार, वेटिकन सिटी में प्रतिवर्ष 90 लाख लोग पहुंचते हैं। इस धार्मिक पर्यटन से अकेले वेटीकन सिटी को प्रतिवर्ष लगभग 32 करोड़ अमेरिकी डॉलर की आय होती है, और अकेले मक्का शहर को 12,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर की आमदनी होती है। अयोध्या में तो किसी भी धर्म, मत, पंथ मानने वाले नागरिकों पर किसी भी प्रकार की पाबंदी नहीं होगी। अतः अयोध्या पहुंचने वाले श्रद्धालुओं की संख्या 5 से 10 करोड़ तक प्रतिवर्ष जा सकती है। एक अनुमान के अनुसार, प्रत्येक पर्यटक लगभग 6 लोगों को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से रोजगार उपलब्ध कराता है। इस संख्या के हिसाब से तो लाखों नए रोजगार के अवसर अयोध्या में उत्पन्न होने जा रहे हैं। अयोध्या के आसपास विकास का एक नया दौर शुरू होने जा रहा है। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि अब अयोध्या के रूप में वेटिकन एवं मक्का का जवाब भारत में खड़ा होने जा रहा है।

धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से भारत सरकार ने भी धरातल पर बहुत कार्य सम्पन्न किया है। साथ ही, अब इसके अंतर्गत एक रामायण सर्किट रूट को भी विकसित किया जा रहा है। इस रूट पर विशेष रेलगाड़ियां भी चलाए जाने की योजना बनाई गई है। यह विशेष रेलगाड़ी 18 दिनों में 8000 किलो मीटर की यात्रा सम्पन्न करेगी, इस विशेष रेलगाड़ी के इस रेलमार्ग पर 18 स्टॉप होंगे। यह विशेष रेलमार्ग प्रभु श्रीराम से जुड़े ऐतिहासिक नगरों अयोध्या, चित्रकूट एवं छतीसगढ़ को जोड़ेगा। अयोध्या में नवनिर्मित प्रभु श्रीराम मंदिर वैश्विक पटल पर इस रूट को भी रखेगा। इसके पूर्व में केंद्र सरकार ने भी देश के 12 शहरों को “हृदय” योजना के अंतर्गत भारत के विरासत शहरों के तौर पर विकसित करने की घोषणा की है। ये शहर हैं, अमृतसर, द्वारका, गया, कामाख्या, कांचीपुरम, केदारनाथ, मथुरा, पुरी, वाराणसी, वेल्लांकनी, अमरावती एवं अजमेर। हृदय योजना के अंतर्गत इन शहरों का सौंद्रयीकरण किया जा रहा है ताकि इन शहरों की पुरानी विरासत को पुनर्विकसित कर पुनर्जीवित किया जा सके। इस हेतु देश में 15 धार्मिक सर्किट भी विकसित किये जा रहे हैं। “हृदय” योजना को लागू करने के बाद से केंद्र सरकार के पर्यटन मंत्रालय ने कई परियोजनाओं को स्वीकृति प्रदान कर दी है। इनमें से अधिकतर परियोजनाओं पर काम भी प्रारम्भ हो चुका है। इन सभी योजनाओं का चयन सम्बंधित राज्य सरकारों की राय के आधार पर किया गया है। 

केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों द्वारा पर्यटन की गति को तेज करने के उद्देश्य से किए जा रहे उक्तवर्णित उपायों के चलते अब भारतीय पर्यटन उद्योग तेज गति से आगे बढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है। भारतीय पर्यटन उद्योग ने वर्ष 2024 में 2,247 करोड़ अमेरिकी डॉलर का आकार ले लिया है। वर्ष 2033 तक इसके 3,812 करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर तक पहुंचने की सम्भावना है। एक अनुमान के अनुसार, वर्ष 2034 तक भारत के सकल घरेलू उत्पाद में पर्यटन उद्योग का योगदान बढ़कर 43.25 लाख करोड़ रुपए का हो जाने वाला है। भारत के हवाईअड्डों पर भारी भीड़ अब आम बात हो गई है एवं हेरिटेज स्थलों पर विदेशी पर्यटकों की भारी भीड़ दिखाई देने लगी है। देश के नागरिक एवं अन्य देशों के पर्यटक भारत में पर्यटन के लिए घरों से बाहर निकलने लगे हैं। भारत में मध्यमवर्गीय परिवारों की संख्या में अतुलनीय वृद्धि दर्ज हुई है एवं आम भारतीयों की डिसपोजेबले आय में भी वृद्धि दर्ज हुई है। अतः भारतीय नागरिक, विदेशी स्थलों पर पर्यटन के लिए जाने के स्थान पर अब भारत में ही विभिन्न स्थलों पर पर्यटन करने लगे हैं। इस बीच देश के विभिन्न पर्यटन स्थलों पर आधारभूत सुविधाओं का विस्तार भी किया गया है। होटल उद्योग ने भारी मात्रा में होटलों का निर्माण कर पर्यटन स्थलों पर उपलब्ध कमरों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की है। रेल एवं हवाई यात्रा को बहुत सुगम बनाया गया है तथा 4 लेन से लेकर 8 लेन की सड़कों का निर्माण किया गया है, जिससे पर्यटकों के लिए यातायात की सुविधाओं में बहुत सुधार हुआ है। इससे कुल मिलाकर अब भारतीय परिवार अपने घर से बाहर भी घर जैसा वातावरण एवं आराम महसूस करने लगे है। अतः अब भारतीय परिवार वर्ष में कम से कम एक बार तो पर्यटन के लिए अपने घर से बाहर निकलने लगे हैं।  

वर्ष 2023 में भारत में अंतरराष्ट्रीय हवाई उड़ानों में 124 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है और 1.92 करोड़ विदेशी पर्यटक भारत आए हैं, जो अपने आप में एक रिकार्ड है। विदेशी पर्यटन से विदेशी मुद्रा की आय 15.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करते हुए 1.71 लाख करोड़ रुपए के स्तर को पार कर गई है। गोवा, केरल, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली, पश्चिमी बंगाल एवं पंजाब में देशी पर्यटकों की संख्या में भारी वृद्धि दर्ज हुई है। अब तो उत्तर प्रदेश भी विदेशी पर्यटकों की पहली पसंद बनता जा रहा है। वर्ष 2022 में 31.7 करोड़ भारतीय पर्यटक उत्तर प्रदेश पहुंचे हैं। वर्ष 2023 में तमिलनाडु में 10 लाख से अधिक विदेशी पर्यटक पहुंचे हैं। वर्ष 2025 में प्रयागराज में आयोजित किए गए महाकुम्भ मेले के अवसर पर लगभग 66 करोड़ श्रद्धालु त्रिवेणी के पावन तट पर आस्था की डुबकी लगाने के लिए पहुंचे हैं, जो अपने आप में विश्व रिकार्ड है।   

भारत में यात्रा एवं पर्यटन उद्योग 8 करोड़ व्यक्तियों को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से रोजगार प्रदान कर रहा है एवं देश के कुल रोजगार में पर्यटन उद्योग की 12 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। भारत में प्राचीन समय से धार्मिक स्थलों की यात्रा, पर्यटन उद्योग में, एक विशेष स्थान रखती है। एक अनुमान के अनुसार, देश के पर्यटन में धार्मिक यात्राओं की हिस्सेदारी 60 से 70 प्रतिशत के बीच रहती है। देश के पर्यटन उद्योग में लगभग 19 प्रतिशत की वृद्धि दर अर्जित की जा रही है जबकि वैश्विक स्तर पर पर्यटन उद्योग केवल 5 प्रतिशत की वृद्धि दर दर्ज कर रहा है। देश में पर्यटन उद्योग में 87 प्रतिशत हिस्सा देशी पर्यटन का है जबकि शेष 13 प्रतिशत हिस्सा विदेशी पर्यटन का है। अतः भारत में रोजगार के नए अवसर निर्मित करने के उद्देश्य से केंद्र एवं उत्तर प्रदेश सरकार धार्मिक स्थलों को विकसित करने हेतु प्रयास कर रही हैं। पर्यटन उद्योग में कई प्रकार की आर्थिक गतिविधियों का समावेश रहता है। यथा, अतिथि सत्कार, परिवहन, यात्रा इंतजाम, होटल आदि। इस क्षेत्र में व्यापारियों, शिल्पकारों, दस्तकारों, संगीतकारों, कलाकारों, होटेल, वेटर, कूली, परिवहन एवं टूर आपरेटर आदि को भी रोजगार के अवसर प्राप्त होते हैं। 

केंद्र सरकार के साथ साथ हम नागरिकों का भी कुछ कर्तव्य है कि देश में पर्यटन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से हम भी कुछ कार्य करें। जैसे प्रत्येक नागरिक, देश में ही, एक वर्ष में कम से कम दो देशी पर्यटन स्थलों का दौरा अवश्य करे। विदेशों से आ रहे पर्यटकों के आदर सत्कार में कोई कमी न रखें ताकि वे अपने देश में जाकर भारत के सत्कार का गुणगान करे। आज करोड़ों की संख्या में भारतीय, विदेशों में रह रहे हैं। यदि प्रत्येक भारतीय यह प्रण करे की प्रतिवर्ष कम से कम 5 विदेशी पर्यटकों को भारत भ्रमण हेतु प्रेरणा देगा तो एक अनुमान के अनुसार विदेशी पर्यटकों की संख्या को एक वर्ष के अंदर ही दुगना किया जा सकता है।  

सौ वर्ष बाद भी संघ आत्ममुग्ध नहीं

सचिन त्रिपाठी 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शताब्दी वर्ष की दहलीज पर खड़ा है। यह केवल किसी संस्था के 100 वर्ष पूरे होने की औपचारिकता नहीं है बल्कि भारत के आधुनिक इतिहास, समाज और विचारधारा की उस यात्रा की समीक्षा का अवसर है जिसमें संघ की भूमिका निर्णायक, विवादास्पद, किंतु निर्विवाद रूप से प्रभावशाली रही है। सौ वर्षों की यात्रा में संघ चाहे जितना बड़ा, शक्तिशाली और विस्तृत हुआ हो, वह आत्ममुग्ध नहीं हुआ है। यह वाक्य एक प्रशंसा नहीं, बल्कि एक वैचारिक अवलोकन है।

संघ की मूल प्रवृत्ति आत्मप्रशंसा या आत्ममुग्धता नहीं, आत्मसाधना है। आज की दुनिया में जहां संस्थाएं कुछ दशकों के भीतर ही ‘इमेज ब्रांडिंग’, ‘स्मार्ट मैसेजिंग’ और ‘गौरवोत्सव’ के चक्कर में अपना आत्मावलोकन खो बैठती हैं, वहीं संघ अपने आलोचकों की भी उतनी ही सावधानी से सुनता है जितनी श्रद्धा से स्वयंसेवकों की बात करता है। यह गुण उसे ‘संगठन’ से ‘संघ’ बनाता है।

1930 के दशक में जब यह ‘आंदोलन’ ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के समय में पनपा, तब इसके सामने राष्ट्रवाद को व्यावहारिक सामाजिक जीवन में उतारने की चुनौती थी। आज, जब वह राष्ट्र के नीति-निर्धारकों, शैक्षणिक परिसरों, मीडिया विमर्शों और वैश्विक मंचों पर प्रभावी भूमिका में है, तब भी वह सतत आत्मसमीक्षा करता रहा है। संघ ने कभी अपने सौ साल के संघर्ष को ‘विजय यात्रा’ की तरह प्रस्तुत नहीं किया। उसका कार्यकर्ता आज भी स्वयं को ‘स्वयंसेवक’ ही मानता है, नायक नहीं। 

यह आत्ममुग्ध न होने का भाव उसकी कार्यपद्धति में स्पष्ट झलकता है। संघ कार्यालय आज भी उतने ही साधारण हैं जैसे 1925 में नागपुर में थे। किसी भव्यता, बैनर या नारेबाजी की ज़रूरत उसे नहीं लगती। संघ शिक्षा वर्गों, शाखाओं और प्रकल्पों के ज़रिये समाज निर्माण में रमा रहता है। वह जानता है कि दिखावे से नहीं, चरित्र से परिवर्तन आता है।

संघ के आलोचकों ने अक्सर उसे ‘पुरुषप्रधान’, ‘हिंदू केंद्रित’, ‘गुप्तवादी’ या ‘राजनीतिक आकांक्षाओं से प्रेरित’ संस्था कहा है किंतु आत्ममुग्धता कभी उसकी आलोचना नहीं रही। आत्ममुग्धता वह होती है जब कोई संस्था अपनी ही छाया से अभिभूत हो जाए। संघ इसके ठीक उलट, अपनी सीमाओं का निरंतर आंकलन करता रहा है। चाहे वह सामाजिक समरसता के क्षेत्र में दलितों के लिए कार्य हो, महिलाओं की भूमिका पर विचार हो या मुस्लिम समाज से संवाद की नई पहल,  संघ हमेशा इन विषयों पर आत्मसंवाद करता रहा है।

सौ वर्षों की इस यात्रा में संघ को बहुत कुछ प्राप्त हुआ है। लाखों स्वयंसेवक, हजारों संगठन, राजनीतिक शीर्ष, शैक्षणिक नेटवर्क और सांस्कृतिक प्रभाव। फिर भी, संघ अपने आपको ‘समाप्त यात्रा’ नहीं मानता। उसकी दृष्टि में यह सब ‘कार्य विस्तार का माध्यम है, लक्ष्य नहीं।’ यह विचार ही उसे आत्ममुग्ध होने से रोकता है।

संघ का सबसे बड़ा सामाजिक योगदान यह रहा है कि उसने राष्ट्रीय चेतना को केवल भाषणों में नहीं, जीवन में उतारा। उसने स्वयंसेवक को मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर या किसी भी पूजा पद्धति से ऊपर एक भारतीय के रूप में गढ़ा। संघ की आत्मा उसके शाखा जीवन में बसती है जहां न कोई टीवी कैमरा होता है, न कोई उत्सव। वहां केवल साधना होती है तन, मन और राष्ट्र की।

आज जब वह शताब्दी की दहलीज़ पर खड़ा है, तो आत्ममुग्ध होने का अवसर उसके पास भरपूर है लेकिन वह नहीं है। न तो संघ ने अपनी 100 साल की यात्रा को कोई भव्य उत्सव बनाया, न ही मीडिया कैम्पेन। वह जानता है कि ‘कार्य की पूजा’ ही उसका मूल है, न कि प्रचार की आरती। यह उस गहराई का संकेत है, जो भारत के पारंपरिक ज्ञान और तपस्या की विरासत से जुड़ी है।

संघ का यह आत्मसंयम ही उसे दीर्घकालिक बनाता है। वह जानता है कि भारत के पुनर्जागरण की यात्रा केवल राजनीतिक सत्ता या सामाजिक संगठन से नहीं चलेगी, यह एक आत्मिक संघर्ष भी है और यह आत्मिकता, आत्ममुग्धता की दुश्मन होती है। शायद इसीलिए, जब संघ अपने 100वें वर्ष में प्रवेश करता है तो वह कोई घोषणा नहीं करता, बल्कि एक मौन साधक की तरह समाज के साथ चल पड़ता है “बिना थके, बिना रुके, बिना डिगे।”

संघ आत्ममुग्ध नहीं है क्योंकि वह जानता है कि सच्चा राष्ट्रनिर्माण आरंभिक होता है, समाप्त नहीं। वह जानता है कि समाज को हर दिन एक नई शाखा, एक नई चेतना और एक नया संकल्प चाहिए। इसलिए सौ वर्षों बाद भी वह रास्ते में है, मंच पर नहीं। इसी में उसकी मौलिकता है। इसी में उसका तप है। इसी में उसकी भारतीयता है।

सचिन त्रिपाठी 

दीवारों से घिरे लोग

डॉ. नीरज भारद्वाज

सिनेमा, साहित्य और समाज सभी हमें अलग-अलग पक्षों पर अलग-अलग शिक्षा देते हैं। सिनेमा और साहित्य दोनों ही समाज का अंग हैं। इस दृष्टि से समझे तो समाज सबसे बड़ी शक्ति है, इसमें सभी कुछ दिखाई देता है। व्यक्ति समाज में जीवन यापन करता है और समाज के साथ ही रहता है। जो समाज से कट जाता है, वह हर एक हिस्से से धीरे-धीरे कटता चला जाता है। सिनेमा जगत में एक फिल्म बनी थी दीवार, जिसमें अभिनेता अमिताभ बच्चन और उनके भाई के बीच एक दीवार खड़ी हो जाती है। एक अच्छाई के रास्ते पर चलता है तो दूसरा बुराई के रास्ते पर चलता है। इसी के चलते दोनों भाई अलग-अलग रहने लगते हैं। भाई-भाई के बीच घर का बंटवारा कितनी ही फिल्मों में दिखाया गया है। जब घर के बीच में दीवार होती है और एक ही परिवार दो हिस्सों में बट जाता है, यह बहुत ही दर्दनाक भी होता है। दूसरी ओर यह भी कहा जाता है कि अलग-अलग होकर ही यह देश-दुनिया बनी है। यहाँ ईंट-पत्थर की दीवार की बात नहीं हो रही है, विचारों के दीवार की बात हो रही है।

देखा-समझा जाए तो यह दीवार बड़े गजब की चीज है। कुछ लोग तो इन दीवारों में ही बंधे रहना चाहते हैं. कुछ लोग दीवारों को खरीदने-बेचने में ही लगे रहते हैं अर्थात बिल्डिंग, घर, फ्लैट आदि। दूसरी ओर देखें तो किसी ने अपनी पद प्रतिष्ठा की ऊंची-ऊंची दीवारें खींच ली हैं जिन्हें कोई लांघ ही नहीं सकता, ऐसा उन्हें लगता है। वह किसी से मिलना नहीं चाहते हैं. उस चार दीवारी में उनका मनचाहा ही प्रवेश करता है। लोग दीवारों को ही सजाने में लगे रहते हैं, जबकि संस्कारों से सजा हुआ घर ही सुंदर होता है। दीवारों से घिरा व्यक्ति केवल अपने स्वार्थ की पूर्ति में लगा रहता है। स्वतंत्रता से पूर्व की एक कविता में माखनलाल चतुर्वेदी लिखते हैं कि, ऊंची काली दीवारों के घेरे में अर्थात उस समय वह जेल में बंद हैं और वह देश को स्वतंत्र करना चाहता है। अंग्रेजी सरकार का विरोध करते हैं। ठीक इसके विपरीत आज का व्यक्ति स्वतंत्र होने के बाद भी दीवारों में घिरा रहना चाहता है, उन्हीं में अपने जीवन को खापा रहा है।

विचार करें तो सभी दीवारें समय के गति चक्र में अपने आप टूट जाती हैं। जिन्हें व्यक्ति तोड़ना नहीं चाहता, एक समय में व्यक्ति स्वयं टूट कर बिखर जाता है। आयु व्यक्ति को तोड़ देती है, समय उसे स्वयं उत्तर दे देता है। समय बहुत बलवान है, उसकी लाठी में आवाज नहीं होती है। भारतेंदु हरिश्चंद्र अंधेर नगरी नाटक में दीवार के गिरने की घटना को दिखाते हैं जिसके चलते आगे पूरा नाटक चलता है और पूरे नाटक में कितनी बड़ी गलतियां होती हैं, वह सब दिखाया गया है। हम लोगों के बीच दीवारें क्यों खींच रहे हैं? हम इनमें क्यों घिरे बैठे हैं, इसका उत्तर हमें स्वयं से ही जानना होगा। कवि की पंक्तियां याद आती हैं कि, मेरे घर में छह ही लोग चार दीवारें छत और मैं। एकल परिवार से आगे आज व्यक्ति अकेला रह गया है। हमें अपने जीवन को समझना होगा। दीवारें बोलती नहीं है, वह समय के साथ खंड़हर बन जाती हैं। इतिहास के पन्नों में कितनी ही दीवारें दबी हुई है, यह तो पढ़ने-समझने वाले ही जानते हैं।

डॉ. नीरज भारद्वाज

धनखड़ का त्यागपत्र और देश की राजनीति

कारण चाहे जो भी रहा , परंतु उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अपने पद से अचानक त्यागपत्र देकर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया है। उनके इस त्यागपत्र के पीछे कोई दूसरी राजनीति रही है या वह स्वयं कोई ऐसी राजनीति कर रहे थे जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा ? या फिर वह राजनीति की कौन सी बिसात का शिकार बने हैं ? उन्होंने कुचक्रों से भरी हुई राजनीति की कुचालों को झेलने से इनकार किया या वह स्वयं राजनीति में कुछ नए कुचक्र रच रहे थे? यह ऐसे प्रश्न हैं जो इस समय प्रत्येक भारतीय के मन मस्तिष्क में कौंध रहे हैं।
संविधान में व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति दोनों ही राजनीति से निरपेक्ष रहेंगे। ये दोनों ऐसे संवैधानिक पद हैं, जिन पर बैठे हुए व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की ही बात को सुनेगा और दोनों को ही अपनी बात को रखने का अवसर प्रदान करेगा। परंतु व्यवहार में सामान्यतया ऐसा होता है कि जिस सत्ता पक्ष के द्वारा राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का चुनाव किया जाता है, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को उनका ही माना जाता है। ऐसी परिस्थितियों में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चाहे कितनी ही निष्पक्ष भूमिका का निर्वाह क्यों न करें, विपक्ष उन्हें सत्ता पक्ष की ओर झुका हुआ देखता है। सत्ता पक्ष की अपेक्षा होती है कि सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों पर कम से कम ये दोनों किसी भी प्रकार का प्रश्नचिह्न न लगाएं । साथ ही साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी यह अपेक्षा की जाती है कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति अपनी सरकार के किसी कार्य में बाधक नहीं बनेंगे। इस प्रकार राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद पर बैठे व्यक्तियों की बहुत ही संतुलित, मर्यादित और अनुशासित भूमिका हो जाती है। उन्हें हर संभव यह प्रयास करना पड़ता है कि वह किसी की ओर झुके हुए दिखाई न दें।
जगदीप धनखड़ हर किसी से भिड़ जाने की अपनी प्रवृत्ति के लिए जाने जाते रहे हैं। वे देश के ऐसे पहले उपराष्ट्रपति रहे हैं, जिन्होंने इस पद पर रहते हुए देश की न्यायपालिका को भी टोकने का कार्य किया। वहां पर बैठे लोगों पर अंगुली उठाने में उन्होंने किसी प्रकार का संकोच नहीं किया। ऐसा करके उन्होंने न्यायपालिका को यह संदेश दिया कि संविधान से ऊपर कोई भी नहीं हो सकता और न ही किसी भी संस्थान को बेलगाम होने की अनुमति दी जा सकती है। कोई भी संस्थान ऐसा आचरण नहीं कर सकता कि वह सबसे ऊपर है और उस पर किसी भी प्रकार की दृष्टि रखना लोकतंत्र में पाप है। यदि भ्रष्टाचार करने वाले लोग न्यायपालिका में भी बैठे हैं तो उन पर भी अंगुली उठाई जा सकती है। क्योंकि न्यायपालिका लोकतंत्र में एक ऐसा स्तंभ होती है , जिसकी ओर सभी लोग न्याय की अपेक्षा से देखते हैं । यदि किसी कारणवश न्यायपालिका ऐसा करने में असफल हो रही है तो संविधान की सीमाओं में रहकर उसे भी ‘सही रास्ते’ पर लाने के लिए कहा जा सकता है। अपने इसी स्वभाव के कारण उपराष्ट्रपति श्री धनखड़ जस्टिस वर्मा पर महाभियोग चलाने की कार्यवाही का श्रेय लेने के लिए आतुर रहे। सरकार भी जस्टिस वर्मा के विरुद्ध कुछ करना चाहती थी। परंतु इससे पहले कि सरकार कुछ करे विपक्ष ने राज्यसभा के सभापति अर्थात देश के राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ से इस बारे में नोटिस स्‍वीकार करवाकर महाभियोग की कार्यवाही का श्रेय लूट लिया। इसके बाद सरकार इस बात को लेकर असहज थी। जो काम उसे करना चाहिए था, उसे उसके ही उपराष्ट्रपति ने विपक्ष के माध्यम से संपन्न हो जाने दिया। इतना ही नहीं, जब जस्टिस वर्मा पर महाभियोग चलाने के लिए विपक्ष के नेता उपराष्ट्रपति श्री धनखड़ से मिले तो उसका छायाचित्र भी किसी को सांझा नहीं किया गया यानी विपक्ष के नेता देश के उपराष्ट्रपति से मिलें और उसकी जानकारी किसी को भी ना हो, यह बात चुभने वाली है। यदि दाल में कुछ काला नहीं था तो उपराष्ट्रपति महोदय का ऐसा करने की आवश्यकता क्या पड़ी थी ? सब कुछ पारदर्शी रहना चाहिए था। स्वाभाविक है कि इस पर सरकार की ओर से उपराष्ट्रपति को कथित उपेक्षा झेलनी पड़ी हो। सरकार की इस प्रकार की उपेक्षा पूर्ण सोच ने उपराष्ट्रपति को कथित रूप से ‘अस्वस्थ’ कर दिया और जब उपराष्ट्रपति ने अपने पद से त्यागपत्र दिया तो उससे सरकार ‘अस्वस्थ’ अर्थात असहज हो गई। इस त्यागपत्र के अगले दिन जाकर प्रधानमंत्री श्री मोदी ने सरकार की असहजता की चुप्पी को भंग करते हुए एक्स पर लिखा- ‘श्री जगदीप धनखड़ जी को भारत के उपराष्ट्रपति सहित कई भूमिकाओं में देश की सेवा करने का अवसर मिला है। मैं उनके उत्तम स्वास्थ्य की कामना करता हूं।’
लोकतंत्र के लिए यह स्थिति वास्तव में लज्जाजनक है कि देश के शीर्ष पद पर अर्थात उपराष्ट्रपति के पद पर बैठे एक व्यक्ति के साथ सरकार की इस प्रकार की ‘अनबन’ हो। सुलझी हुई सोच का कोई भी व्यक्ति अनबन की स्थिति तक पहुंच ही नहीं सकता। सियासत की घृणास्पद चाल में फंसकर लोकतांत्रिक मूल्यों को कुचलना न तो सत्ता पक्ष के लिए अच्छा लगता है, न शीर्ष पद पर बैठे किसी व्यक्ति के लिए अच्छा लगता है। राजनीति की उठापटक का शिकार शीर्ष पद पर बैठे व्यक्ति को नहीं बनना चाहिए। क्योंकि वह संविधान, लोकतंत्र, लोकतांत्रिक मूल्यों, संवैधानिक व्यवस्थाओं और राजनीति की शुचिता का रक्षक है।
दूसरी बात ये है कि 21 जुलाई को सदन की कार्यवाही के बीच में ही लगभग 4:30 बजे बिजनेस एडवाइजरी कमेटी की एक बैठक आहूत की गई थी। जिसमें सत्ता पक्ष के प्रतिनिधि के रूप में सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री एल मुरूगन उपस्थित रहे। मुरुगन ने सभापति जगदीप धनखड़ से बैठक को अगले दिन तक स्थगित करने का आग्रह किया था। इस बैठक में संसदीय कार्य मंत्री किरण रिजिजू और राज्यसभा में नेता सदन जेपी नड्डा को भी उपस्थित रहना था। परंतु वह दोनों ही अनुपस्थित रहे। इसे लेकर उपराष्ट्रपति ने अपनी चिंता व्यक्त की थी। इसे उपराष्ट्रपति ने अपना अपमान समझा था।
बैठक में उपस्थित रहे कांग्रेस के सांसद सुखदेव भगत ने इस बैठक में जेपी नड्डा और किरेन रिजिजू की अनुपस्थिति को अच्छा न मानते हुए उस पर कई प्रकार के प्रश्नचिह्न लगाए।
भाजपा के इन दोनों मंत्रियों को भी इस प्रकार उपराष्ट्रपति की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए थी । अच्छी बात यह होती कि पर्दे के पीछे सरकार अपने उपराष्ट्रपति के साथ समन्वय स्थापित करती और जो बातें पर्दे पर आ गई हैं, वह कदापि नहीं आएं , इस प्रकार की सोच का उपयोग करती।
उपराष्ट्रपति के त्यागपत्र को लेकर एक अन्य चर्चा भी चल रही है। जिसे कांग्रेस ने ही हवा दी है। कांग्रेस के सांसद सुखदेव भगत ने उपरोक्त बिजनेस एडवाइजरी कमेटी की बैठक में जेपी नड्डा और किरेन रिजिजू की अनुपस्थिति के कुछ समय पश्चात उपराष्ट्रपति के त्यागपत्र को इस बात से जोड़ने का प्रयास किया कि बिहार विधानसभा चुनाव के दृष्टिगत यह त्यागपत्र जानबूझकर सोची समझी रणनीति के अंतर्गत दिया गया है। कांग्रेस का मानना है कि बिहार विधानसभा चुनाव को हर स्थिति में जीतने के लिए बीजेपी ने वहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ गोपनीय समझौता कर लिया है। जिसके अंतर्गत उन्हें उपराष्ट्रपति बनाया जा सकता है, जबकि बिहार को भारतीय जनता पार्टी अपने लिए लेना चाहिए।
एक बात यह भी है कि उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ को यदि अपने पद से त्यागपत्र देना ही था और उनका स्वास्थ्य वास्तव में ही साथ नहीं दे रहा था तो वह संसद के वर्षा कालीन सत्र के पहले ही अपने पद से त्यागपत्र देने की घोषणा कर सकते थे। परंतु उन्होंने ऐसा न करके पहले दिन की कार्यवाही को सही ढंग से चलाया। जब वह राज्यसभा की कार्यवाही चला रहे थे तो ऐसा नहीं लग रहा था कि वह अस्वस्थ हैं। अचानक सायं काल को ऐसा क्या हुआ कि उन्होंने राष्ट्रपति को जाकर अपना त्यागपत्र थमा दिया ? त्यागपत्र देने से पहले उन्होंने राष्ट्रपति से समय लेना भी उचित नहीं माना। यदि वह ऐसा ही करना चाहते थे तो वर्षाकालीन सत्र के पहले दिन सदन में भी अपने त्यागपत्र देने की घोषणा कर सकते थे और सदन को बता सकते थे कि वह आज देश की राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू को अपने पद से त्यागपत्र सौंप देंगे ? कुल मिला कर उपराष्ट्रपति के त्यागपत्र ने कई प्रकार के प्रश्नों को जन्म दे दिया है। इन सभी प्रश्नों का उत्तर व्यवस्था को देना ही पड़ेगा।

डॉ राकेश कुमार आर्य

नकली वोटर से लोकतंत्र कैसे रहेगा असली?

डॉ. रमेश ठाकुर

लोकतांत्रिक देश में चुनाव की पवित्रता उस बुनियादी भरोसे पर टिकी होती है जहां केवल वैध नागरिक वोट डालते हैं लेकिन जब इस भरोसे की नींव मतदाता सूची ही अविश्वसनीय हो जाए तो पूरा लोकतांत्रिक ढांचा सवालों के घेरे में आ जाता है। बिहार को लेकर हाल ही में सामने आई एक जनसांख्यिकीय रिपोर्ट ने इसी आशंका को चेताया है। रिपोर्ट में यह संकेत मिला है कि राज्य की मतदाता सूची में लाखों ऐसे नाम दर्ज हैं जिनका कोई जनसांख्यिकीय आधार नहीं है। ये न केवल प्रशासनिक उदासीनता का मामला है, बल्कि संभावित रूप से लोकतंत्र की निष्पक्षता पर गंभीर संकट की चेतावनी भी है।

डॉ. विद्यु शेखर और डॉ. मिलन कुमार द्वारा तैयार की गई ‘जनसांख्यिकीय पुनर्निर्माण और मतदाता सूची में फुलाव: बिहार में वैध मतदाता आधार का अनुमान’ रिपोर्ट, विभिन्न सरकारी स्रोतों जिसमें 2011 की जनगणना, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े, सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम, राज्य आर्थिक सर्वेक्षण और प्रवासन के आधिकारिक आंकड़ों को शामिल किया गया है। इस अध्ययन में इन आंकड़ों के आधार पर बिहार में संभावित वैध मतदाताओं की संख्या का अनुमान लगाया गया है। चुनाव आयोग के अनुसार, 2024 के चुनावों के लिए बिहार में कुल 7.89 करोड़ पंजीकृत मतदाता हैं लेकिन जनगणना और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों पर आधारित इस शोध का अनुमान है कि वैध मतदाताओं की संख्या केवल 7.12 करोड़ होनी चाहिए। इसका सीधा अर्थ है कि 77 लाख नाम ऐसे हैं जिन्हें साफ-सुथरी और अद्यतन मतदाता सूची में जगह नहीं मिलनी चाहिए थी। यह फासला न तो सामान्य माना जा सकता है और न ही इसे मात्र तकनीकी चूक करार दिया जा सकता है। 77 लाख का यह अंतर राज्य की कुल मतदाता संख्या का लगभग 10 प्रतिशत है जो किसी भी चुनाव के परिणाम को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त है।

 सबसे चिंताजनक बात यह है कि यह विसंगति राज्य के सभी हिस्सों में समान नहीं है, कुछ जिले तो ऐसे हैं जहां यह अंतर बेहद गंभीर स्तर तक पहुंच गया है। उदाहरण के लिए, दरभंगा में 21.5 प्रतिशत, मधुबनी में 21.4 प्रतिशत, मुज़फ्फरपुर में 11.9 प्रतिशत और राजधानी पटना में 11.2 प्रतिशत अतिरिक्त मतदाताओं के नाम दर्ज हैं। मात्र तीन जिलों मधुबनी, दरभंगा और मुज़फ्फरपुर में ही लगभग 15 लाख ऐसे मतदाताओं के नाम दर्ज हैं जिन्हें जनसांख्यिकीय तौर पर मौजूद नहीं होना चाहिए। कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि और मतदाता वृद्धि के आंकड़े एक-दूसरे से बिलकुल मेल नहीं खाते। उदाहरण के तौर पर शेखपुरा जिले की जनसंख्या 2011 से 2024 के बीच 2.22 प्रतिशत घटी है लेकिन मतदाताओं की संख्या 11.7 प्रतिशत बढ़ गई। इसी तरह सीतामढ़ी की जनसंख्या में 11.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि मतदाताओं की संख्या 29.3 प्रतिशत बढ़ गई। ऐसी विसंगतियाँ किसी स्वाभाविक जनसंख्या परिवर्तन का परिणाम नहीं हो सकतीं। ये आंकड़े या तो प्रशासनिक लापरवाही की ओर इशारा करते हैं या जानबूझकर किए गए हेरफेर की ओर।

दरअसल बिहार में मतदाता सूची से नाम हटाने की प्रक्रिया काफी कमजोर और ढीली है। यह काम ज़्यादातर लोगों द्वारा खुद फॉर्म भरने और फील्ड वेरिफिकेशन पर निर्भर करता है जो अक्सर अधूरा या अनियमित होता है। कई बार इस तरह की खबरें आती हैं कि कई शहरी और अर्ध-शहरी इलाकों में घर-घर जाकर या तो अधूरी जांच होती है या होती ही नहीं है। इसके अलावा मतदाता सूची को मृत्यु पंजीकरण या प्रवासन से जुड़े सरकारी आंकड़ों से जोड़ने की कोई तात्कालिक व्यवस्था नहीं है। नतीजतन जो लोग गुजर चुके हैं या राज्य से बाहर चले गए हैं, उनके नाम भी वर्षों तक सूची में बने रहते हैं।

मतदाता सूची की इन विसंगतियों का कुछ दलों को सीधा फायदा होता है। बिहार की राजनीति लंबे समय से पहचान आधारित और जातीय वोट बैंक पर टिकी रही है। ऐसे में जब मतदाता सूची में संदिग्ध या फर्जी नाम बने रहते हैं तो ये पार्टियाँ इसे अपने लिए ‘बैकडोर वोटिंग’ और चुनावी धांधली का जरिया बना लेती हैं। जब कभी सूची की सफाई की माँग उठती है, तो इसे “अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने” जैसा भावनात्मक मुद्दा बनाकर दबा दिया जाता है। बिहार की तरह पश्चिम बंगाल में भी यही पैटर्न दिखता है। सीमावर्ती इलाकों में घुसपैठ की आशंका के चलते वहां मतदाता सूची को लेकर लंबे समय से सवाल उठते रहे हैं मगर तृणमूल कांग्रेस अक्सर इन जिलों में गहन जांच का विरोध करती रही है। यह भी उसी रणनीति का हिस्सा लगता है, जैसा कि बिहार में देखा गया। वहीं असम में एनआरसी प्रक्रिया से यह तो साबित हुआ ही कि अवैध प्रवासियों की पहचान मुश्किल है, लेकिन यह भी दिखा कि अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो मतदाता सूची को सुधारना नामुमकिन नहीं है।

इस पूरे मामले का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि फर्जी मतदाताओं की इतनी बड़ी संख्या सीधे चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकती है। 2020 के विधानसभा चुनावों में बिहार की 243 सीटों में से 90 सीटें ऐसी थीं जहां जीत-हार का अंतर 10,000 से कम वोटों का था। अब अगर हर विधानसभा क्षेत्र में औसतन 25,000 से 50,000 तक फर्जी नाम दर्ज हैं तो यह निष्पक्ष चुनाव की सोच को ही सवालों के घेरे में डाल देता है। ऐसे में यह पूछना बिल्कुल जायज़ है कि क्या मतदाता सूची में मौजूद ये फर्जी नाम लोकतंत्र की आत्मा को भीतर से खोखला नहीं कर रहे? भले ही यह रिपोर्ट बिहार तक सीमित है लेकिन इसका संदेश पूरे देश के लिए बेहद अहम है। जब एक ऐसा राज्य,जहां आधार लिंकिंग, वोटर आईडी और मतदाता सूची संशोधन जैसी कोशिशें हो चुकी हैं, वहां इतनी बड़ी गड़बड़ी पाई जाती है तो उन राज्यों का क्या हाल होगा जहां पारदर्शिता और निगरानी और भी कमज़ोर है?

यह शोध रिपोर्ट महज़ आंकड़ों का विश्लेषण नहीं है, बल्कि एक गंभीर लोकतांत्रिक चेतावनी है। हर फर्जी नाम, हर मृत या पलायन कर चुके व्यक्ति का नाम जो मतदाता सूची में बना हुआ है, लोकतंत्र को हाईजैक करने का औजार है। यह किसी नकली नोट से भी ज़्यादा खतरनाक है, क्योंकि इसका नुकसान सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि राजनीतिक और संस्थागत है जो एक पूरे राज्य का प्रतिनिधित्व बदल सकता है।

बिहार की मतदाता सूची में दर्ज ये 77 लाख फर्जी नाम सिर्फ प्रशासनिक लापरवाही नहीं बल्कि एक लोकतांत्रिक संकट की दस्तक हैं। यदि मतदाता सूची ही अविश्वसनीय हो जाए तो फिर चुनाव की पवित्रता, जनादेश की वैधता और शासन की नैतिक वैधता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। यह न केवल एक राज्य का संकट है बल्कि पूरे राष्ट्र के लिए चेतावनी है कि लोकतंत्र की रीढ़ की रक्षा अब प्राथमिकता बननी चाहिए। इस संदर्भ में, चुनाव आयोग द्वारा बिहार में चलाया जा रहा स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन एक महत्वपूर्ण और समयोचित हस्तक्षेप है। इस पहल को केवल आँकड़ों की समीक्षा भर न मानकर एक लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व की पूर्ति के रूप में देखा जाना चाहिए। आयोग को चाहिए कि वह इस प्रक्रिया को और व्यापक बनाए, तकनीकी और विधिक उपायों से इसे मजबूत करे और राज्य सरकारों के सहयोग से हर मतदाता सूची को अधिक पारदर्शी, त्रुटिरहित और विश्वसनीय बनाए। बिहार से उठी यह आवाज़ देशभर में मतदाता सूची की शुचिता और पारदर्शिता की माँग को नई ताक़त देती है क्योंकि अगर मतदाता ही नकली हो गया, तो फिर लोकतंत्र असली कैसे रह पाएगा?

डॉ. रमेश ठाकुर

धनखड के अचानक इस्तीफा देने के पीछे सच में सेहत है या कोई सियासत?

रामस्वरूप रावतसरे

जगदीप धनखड़ ने उपराष्ट्रपति पद से अचानक इस्तीफा दे दिया। उन्होंने अपने इस्तीफे में सेहत का हवाला दिया है। सोमवार को मानसून सत्र का पहला दिन था। मानसून सत्र पहले दिन वह एक्टिव दिखे। पूरे दिन सदन को अच्छे से चलाया भी। मगर अचानक शाम को ऐसा क्या हुआ कि जगदीप धनखड़ ने इस्तीफा दे दिया? उनके इस्तीफे के पीछे सच में सेहत है या कोई सियासत? दरअसल, जगदीप धनखड़ के इस्‍तीफे की टाइमिंग को लेकर सवाल उठ रहे हैं। विपक्ष से लेकर तमाम लोगों को उनके अचानक इस्तीफे की बात पच नहीं रही। ऐसा नजारा शायद ही कभी देखने को मिला हो कि पहले दिन का सत्र चलाने के बाद किसी उपराष्ट्रपति ने इस्तीफा दिया हो।

जानकारों के अनुसार अगर उन्हें अपनी सेहत की चिंता थी तो संसद के मानसून सत्र से पहले भी दे सकते थे? उन्होंने अगर अपना इस्तीफा देने का मन बना भी लिया था तो उन्होंने मानसून सत्र का पहला दिन ही क्यों चुना? इस इस्तीफे के पीछे सच में सेहत है या कोई सियासत? कांग्रेस का मानना है कि उपराष्ट्रपति धनखड़ स्वस्थ हैं। कांग्रेस के अखिलेश प्रसाद सिंह, प्रमोद तिवारी और जयराम रमेश ने उपराष्ट्रपति से सोमवार की शाम 5.45 बजे जगदीप धनखड़ से मुलाकात की थी। उनके अनुसार उपराष्ट्रपति स्वस्थ थे। विपक्ष के इस दावे से भी सवाल उठ रहे हैं। जगदीप धनखड़ के सेहत वाले दावे पर कई विशेषज्ञ और विपक्षी नेता संदेह जता रहे हैं। दरअसल, जगदीप धनखड़ ने इस्तीफे से कुछ घंटे पहले ही विपक्षी सांसदों के साथ मुलाकात की थी और संसद की कार्यवाही का संचालन किया था। इस दौरान उन्होंने स्वास्थ्य संबंधी कोई शिकायत नहीं जताई थी। उनका अचानक इस्तीफा सिर्फ स्वास्थ्य कारणों तक सीमित नहीं लगता! वहीं, कुछ नेताओं ने अटकलें लगाईं कि यह शीर्ष नेतृत्व के साथ किसी टकराव का नतीजा हो सकता है। सवाल उठ रहे हैं कि सोमवार शाम 6-7 बजे तक जगदीप धनखड़ एकदम एक्टिव थे। मगर अचानक तीन घंटे में क्या हुआ कि इस्तीफा देना पड़ा?

अगर सेहत ही असल कारण होता तो उन्होंने संसद सत्र से पहले ही इस्तीफा क्यों नहीं दिया? जगदीप धनखड़ ने इस्तीफे के लिए स्वास्थ्य कारण बताया, लेकिन उसी दिन वह संसद में सक्रिय थे और कोई स्वास्थ्य समस्या नहीं जताई। उनकी सेहत अगर सच में अधिक खराब थी तो वह पूरे दिन इतने एक्टिव कैसे दिखे? अगर उनका फैसला पूर्वनियोजित था तो उन्होंने संसद सत्र में इशारा क्यों नहीं दिया? जगदीप धनखड़ का 23 जुलाई को दौरा प्रस्तावित था। इसका मतलब है कि यह सब अचानक यूं ही नहीं हुआ? क्या सरकार के साथ किसी मसले पर टकराव वजह था? क्या किसानों के मुद्दे पर धनखड़ सरकार से नाराज थे?

बहरहाल, धनखड़ के इस्तीफे के बाद आगे संसद सत्र कैसा रहेगा, इस पर भी सबकी नजरें होंगी। जगदीप धनखड़ की उम्र 74 साल है। धनखड़ ने अगस्त 2022 में उपराष्ट्रपति का पद संभाला था, और उनका कार्यकाल 2027 तक था। इससे पहले वह पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे थे। उनके कार्यकाल में उनके बेबाक बयानों और विपक्ष के साथ तनाव ने कई बार सुर्खियां बटोरीं। विपक्ष ने उन पर राज्यसभा में पक्षपात का आरोप भी लगाया था। फिलहाल, उन्होंने दो साल कार्यकाल रहते हुए इस्तीफा दिया है। अब नजरें इस बात पर हैं कि अगला उपराष्ट्रपति कौन होगा? भारत संविधान के अनुसार, 60 दिनों में नए उपराष्ट्रपति का चुनाव होना अनिवार्य है। तब तक राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह कार्यवाहक सभापति की जिम्मेदारी संभालेंगे। जगदीप धनखड़ के इस्तीफे ने न केवल राजनीतिक चर्चाओं को हवा दी है, बल्कि संसद सत्र के संचालन पर भी सवाल खड़े किए हैं।

इस बीच सोशल मीडिया पर जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा, नीतीश कुमार के साथ ही राजनाथ सिंह का भी नाम सामने आ रहा है। इन नामों की चर्चा के पीछे लोगों के अपने-अपने तर्क हैं। कई लोगों का मानना है कि यूपी के मद्देनजर भाजपा की तरफ से मनोज सिन्हा को यह बड़ी और अहम जिम्मेदारी दी जा सकती हैं। वहीं, बिहार चुनाव के मद्देनजर भाजपा राज्य में अपना मुख्यमंत्री बनाने की एवज में नीतीश कुमार को यह पद ऑफर कर सकती है।

साल 1951 में राजस्थान के झुंझुनू जिले में जन्मे धनखड़ एक किसान परिवार से हैं। उन्होंने 1979 में राजस्थान बार में दाखिला लिया। सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न उच्च न्यायालयों में राज्य के सीनियर अधिवक्ता के रूप में अभ्यास किया, और राजस्थान उच्च न्यायालय बार एसोसिएशन के अध्यक्ष के रूप में सेवा की। 1990 के दशक में राजनीति में प्रवेश करते हुए वह जनता दल के साथ झुंझुनू से लोकसभा सांसद चुने गए और चंद्रशेखर सरकार में संसदीय मामलों के राज्य मंत्री के रूप में सेवा की। वह 2003 में भाजपा में शामिल हो गए। 2019 में उन्हें पश्चिम बंगाल का राज्यपाल नियुक्त किया गया, जहां उनका ममता बनर्जी सरकार के साथ अक्सर टकराव होता रहा।

जगदीप धनखड़ 2022 में भारत के 14वें उपराष्ट्रपति चुने गए। उन्होंने 11 अगस्त 2022 को पद की शपथ ली। उनके नेतृत्व को दृढ़ता और कभी-कभी पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण के लिए जाना गया। इसके कारण दिसंबर 2024 में विपक्षी दलों की ओर से एक अभूतपूर्व महाभियोग प्रस्ताव दायर किया गया। जगदीप धनखड़ ने विपक्ष के इस कदम से गहरी निराशा व्यक्त की। उन्होंने कहा कि वह आहत महसूस कर रहे हैं। कुछ विपक्षी सांसदों जैसे कि कल्याण बनर्जी ने संसद के गेट पर धनखड़ की नकल की, जिससे उनके विपक्ष के साथ विवादास्पद संबंध उजागर हुए।

धनखड़ जब उपराष्ट्रपति चुने गए थे तब राजनीति के जानकारों ने इसे भाजपा की देशभर के जाट समुदाय को साधने की रणनीति बताया था। अब चूंकि धरखड़ ने इस्तीफा दे दिया है और वह स्वीकार भी हो गया है तो अब सियासी गलियारों में इस बात की चर्चा तेज हो गई है कि क्या अब भाजपा जाट समुदाय को फिर से किस तरीके साधेगी।

देश की शीर्ष संवैधानिक कुर्सियों में से एक पर आसीन उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के इस्तीफे ने न सिर्फ राष्ट्रीय राजनीति बल्कि राजस्थान की जाट राजनीति में भी नई सरगर्मी पैदा कर दी है। इसका असर सिर्फ दिल्ली की सत्ता तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि इससे राजस्थान की सियासी बिसात पर भी पड़ने के आसार हैं। धनखड़ एक अनुभवी वकील और पूर्व केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं। वे जाट समाज का बड़ा कद्दावर चेहरा हैं। राजनीति के जानकार मानते हैं कि धनखड़ के इस्तीफे की पूर्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से होना भाजपा के लिए परेशानी भरा हो सकता है।

धनखड़ लंबे समय से भारतीय जनता पार्टी से जुड़े हैं और 2019 से 2022 तक पश्चिम बंगाल के राज्यपाल भी रहे हैं। लेकिन इन सबसे बड़ी बात यह है कि धनखड़ राजस्थान के झुंझुनूं जिले से आते हैं और एक प्रभावशाली जाट नेता हैं। उनका नाम जाट समुदाय के बीच न केवल लोकप्रियता के लिए जाना जाता है, बल्कि वे उस नेतृत्व शून्यता को भरने वाले चेहरों में से एक हैं जो पिछले कुछ वर्षों में राज्य में नजर आया है। राजस्थान की राजनीति में जाट समुदाय एक बड़ा वोट बैंक है। खासकर पश्चिमी राजस्थान में। अब तक जाट वोट बैंक पारंपरिक रूप से कांग्रेस की ओर झुका हुआ माना जाता रहा है। खासकर अशोक गहलोत और पूर्व मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत के दौर में। लेकिन हाल के वर्षों में भाजपा की तरफ से कोई बड़ा जाट चेहरा न होने से यह वर्ग राजनीतिक रूप से अनिर्णीत सा रहा है। बाद में धनखड़ भाजपा में बड़ा चेहरा बनकर उभरे। अब उनके इस्तीफे से राजस्थान की जाट राजनीति में हलचल है।

धनखड़ का इस्तीफा एक संवैधानिक प्रक्रिया भर नहीं, बल्कि भविष्य के राजनीतिक संकेतों से जुड़ा घटनाक्रम है। स्वास्थ्य कारणों का हवाला भले ही औपचारिक हो, लेकिन इसके पीछे छिपे राजनीतिक संदेश, संस्थागत समीकरण, और शासन तंत्र में बदलाव की बयार को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

रामस्वरूप रावतसरे

मांसाहारी खाने पर जारी ‘सेक्युलर सियासी खेल’ के साइड इफेक्ट्स

कमलेश पांडेय

सनातनी हिंदुओं के पवित्र श्रावण यानी सावन के महीने में या आश्विन माह में पड़ने वाले शारदीय नवरात्र के दिनों में पिछले कुछ वर्षों से नॉन-वेज फूड को लेकर जो विवाद सामने आ रहे हैं, वह इस बार भी प्रकट हुए और पक्ष-विपक्ष की क्षुद्र राजनीति के बीच अपनी नीतिगत महत्ता खो बैठे। वहीं, तथाकथित एनडीए शासित राज्य की बिहार विधानसभा के सेंट्रल हॉल में गत सोमवार को खाने में जिस तरह से नॉन-वेज भी परोसा गया, उसे लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच तलवारें खिंच गई हैं। 

इसी तरह, यूपी में कांवड़ यात्रा मार्ग स्थित ढाबों और भोजनालयों पर दुकान मालिकों की पहचान स्पष्ट करने का मामला भी सुप्रीम कोर्ट में उठा। स्पष्ट है कि यहां भी मूल में भोजन ही है। इसलिए पुनः यह सवाल अप्रासंगिक है कि कोई क्या खाता है, क्या नहीं, यह पूरी तरह व्यक्तिगत मामला है और इस पर ऐसे विवाद से बचा जा सकता था। लेकिन ऐसे सो कॉल्ड सेक्यूलर्स और वेस्टर्न लॉ एडवोकेट्स को पता होना चाहिए कि सदियों से भारतीय समाज एक संवेदनशील व सुसंस्कृत समाज रहा है, जहां स्पष्ट मान्यता है कि खान-पान से व्यक्ति के मन का सीधा सम्बन्ध होता है। 

कहा भी गया है कि जैसा खाए अन्न, वैसा बने मन। इसलिए राजा या शासक का कर्तव्य है कि वह आमलोगों को शुद्ध और सुरुचिपूर्ण भोजन ग्रहण करने योग्य कानून बनाए और उसकी सतत निगरानी रखे। चूंकि भारतीय समाज में शाकाहारी खानपान को प्रधानता दी गई है ताकि निरोगी जीवन का आनंद लिया जा सके। इसलिए ऐसे लोगों को अभक्ष्य पदार्थों यानी अंडे, मांस-मछली का दुर्गंध नहीं मिले, इसकी भी निगरानी रखना प्रशासन का काम है। 

वहीं, खान-पान के व्यवसाय से जुड़ी कम्पनियां शाकाहारी लोगों को मांसाहारी उत्पाद डिलीवर न कर दें, मिलावटी शाकाहारी समान न डिलीवरी कर दें, यह देखना भी प्रशासन का ही धर्म है। यदि वह धर्मनिरपेक्षता की आड़ में अपने नैतिक दायित्वों से मुंह मोडता है तो उसे भारत पर शासन करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। इसलिए देश की भाजपा नीत एनडीए सरकार, या विभिन्न राज्यों की भाजपा सरकारें या एनडीए सरकारें इस बात की कोशिश कर रही हैं कि खास पर्व-त्यौहारों पर निरामिष लोगों के अनुकूल माहौल बनाए रखा जाए।

आमतौर पर यह माना जाता है कि इस्लामिक शासनकाल में और ब्रिटिश शासनकाल में सनातन भूमि पर गुरुकुल, ब्रह्मचर्य व शाकाहार को हतोत्साहित किया गया और मांसाहार तथा मद्यपान को प्रोत्साहित किया गया। जिससे कई सामाजिक कुरूतियों जैसे कोठा संस्कृति वाली वैश्यावृत्ति और अनैतिक अपराध को बढ़ावा मिला। ऐसा इसलिए कि दूषित अन्न खाने व दूषित पेय-पदार्थ पीने से मानवीय मनोवृत्ति विकृत हुई। 

इसलिए कहा जा सकता है कि उदार और सहनशील भारतीय समाज का जो नैतिक पतन हुआ है, कभी-कभी स्थिति पुलिस व अर्द्धसैनिक बलों के काबू से बाहर हो जाती है, उसका सीधा सम्बन्ध असामाजिक तत्वों के खानपान से भी है। इसलिए इस अहम मुद्दे के सभी पहलुओं पर निष्पक्षता पूर्वक विचार होना चाहिए। इस मामले में आधुनिक प्रशासन का ट्रैक रिकार्ड बेहद ही खराब रहा है, अन्यथा जानलेवा मिलावट खोरी इतनी ज्यादा नहीं पाई जाती। मीडिया रिपोर्ट्स भी इसी बात की चुगली करती आई हैं।

जहां तक व्यक्तिगत चुनाव की बात है तो यह अपने घर पर ही लागू हो सकते हैं, सार्वजनिक जगहों पर बिल्कुल नही। इस बात में कोई दो राय नहीं कि खाने-पीने की पसंद किसी

व्यक्ति की पहचान और उसकी संस्कृति का हिस्सा होती है। इसलिए भारत में जैसी विविधता पूर्ण संस्कृति रहती आई है, वैसे ही यहां के खाने में भी विविधता सर्वस्वीकार्य है। इसलिए किसी को क्या खाना चाहिए, इसकी पुलिसिंग होनी चाहिए या नहीं, विवाद का विषय है। 

कहना न होगा कि जैसे कानून किसी को भी जहर खाने की इजाजत नहीं देता है, वैसे ही मीठे जहर के रूप में प्रचलित बाजारू चीजों की भी जांच-पड़ताल की जानी चाहिए और यदि वे जनस्वास्थ्य की दृष्टि से प्रतिकूल हों तो उनपे निर्विवाद रूप से रोक भी लगनी चाहिए। यही बात मांसाहार पर भी लागू होनी चाहिए, क्योंकि इससे मानवीय शरीर में विभिन्न प्रकार के संक्रामक रोगाणुओं को भी बढ़ावा मिलता है। बर्ड फ्लू इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण है।

कुछ लोग बताते हैं कि लोगों के खानपान की पुलिसिया निगरानी या ऐसी कोई भी कोशिश संविधान के उस अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगी, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की गारंटी देता है। इसलिए भोजन और पहनावा भी इसी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा है। लेकिन यह सिर्फ घर के चहारदीवारी के भीतर होनी चाहिए, वो भी तभी तक जब तक कि पड़ोसी को आपत्ति नहीं हो। 

ऐसा इसलिए कि आधुनिक फ्लैट संस्कृति में एक घर के रसोई की सुगंध या दुर्गंध पड़ोसियों के बेडरूम तक पहुंच जाती हैं। इसलिए भोजन निजी पसंद की चीज है, लेकिन बगलगीर की भावनाओं का सम्मान करना भी मांसाहारियों की नैतिक जिम्मेदारी है, क्योंकि कुछ शाकाहारी लोग तो दुर्गंध मात्र से उल्टी कर बैठते हैं। इससे उनका जीवन भी खतरे में आ जाता है।

इसलिए यह राजनीतिक विवाद का विषय नहीं, बल्कि सियासी सूझबूझ का परिचायक समझा जा सकता है। भारतीय राजनीति की एक सबसे बड़ी कमी यह महसूस की जाती है कि हमारी कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया को जनहितैषी बनाने में यह विगत सात-आठ दशकों में भी शत-प्रतिशत क्या, पचास प्रतिशत भी सफल नहीं हुई है। लोकतंत्र और पाश्चात्य लोकतांत्रिक मूल्यों, जिस खुद पश्चिमी देश अपनी सुविधा के अनुसार चलते हैं, भारत में आँखमूद कर लागू कर दिए जाते हैं। इसलिए व्यापक जनहित का सवाल व्यवहारिक रूप से काफी पीछे छूट जाता है।

हालांकि इसके बाद भी सावन में पिछले कुछ वर्षों से नॉन-वेज फूड को लेकर विवाद खड़े होते रहे हैं। देखा जाए तो ज्यादातर के मूल में राजनीति होती है। बिहार में दो साल पहले भी सावन पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी का आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव की बेटी के घर जाकर मटन पकाना एक सियासी मुद्दा बन गया था। कुछ दिनों पहले, जब प्रशांत किशोर की पार्टी में बिरयानी बंटी, तब भी हंगामा हुआ और सफाई देनी पड़ी कि यह तो वेज थी !

यही वजह है कि खानपान को लेकर नीतिगत संतुलन की जरूरत सबको है। इसलिए आस्था को भोजन के साथ मिलाने पर जो समस्या खड़ी होती है, वैसी ही समस्या इसकी अनदेखी के पश्चात भी खड़ी होती बताई जाती है। चूंकि दोनों ही निजी मामले हैं और दोनों में ही किसी को दखल देने का हक नहीं है। हां, यह जरूर है कि जब बात किसी खास आयोजन या धार्मिक अवसर पर किसी समुदाय की भावनाओं से जुड़ी हो, तो वहां सभी पक्षों के संवैधानिक अधिकारों के बीच संतुलन की जरूरत पड़ती है। ऐसा ही होता भी आया है।

वहीं, भोजन किसी व्यक्ति की गरिमा का सवाल भी है। असल में, भोजन केवल भूख से नहीं, व्यक्ति की गरिमा से भी जुड़ा होता है। यह सम्मान के साथ कमाने और खाने का हक इस देश के सभी नागरिकों को देता है। किसी भी वजह से इन हकों को छीनने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। फिर यह भी देखना चाहिए कि खाने का इस्तेमाल राजनीति की बिसात पर न हो। साथ ही, इस राजनीति से लोगों की रोजी-रोटी पर आंच भी नहीं आनी चाहिए। 

आखिर हमें यह मानना पड़ेगा कि भजन की तरह भोजन भी स्वरूचि का विषय है लेकिन जिस तरह से भजन का नाता आतंकवाद और विघटन कारी तत्वों से जुड़ गया है, कुछ वैसी ही आशंका भोजन को लेकर भी जन्म ले रही हैं। इसलिए विधायी, प्रशासनिक, न्यायिक और मीडिया के स्वविवेक से जब इस जटिल मुद्दे का समाधान भारतीय सभ्यता-संस्कृति के अनुरूप निकाला जाएगा तो मुझे उम्मीद है कि शाकाहारी लोगों की जनभावना आहत नहीं होंगी।

कमलेश पांडेय