Home Blog Page 9

यह देश है पृथ्वीराजों का….

देशभक्ति की कविता

इतिहास उठा कर देखो अपना भारत सबसे न्यारा है।
जितने भर भी देश विश्व में भारत सबसे प्यारा है।।

बलिदानों का देश है भारत बलिदानों की भूमि है।
बलिदानों की रीत यहां पर बलिदानों की धूलि है।।
मत भूलो निज बलिदानों को जिनकी छाती चौड़ी है।
जिनके कारण आजाद हुए हम भारत उनकी भूमि है।।
हर अवसर पर यहां वीरों ने फंदे को स्वीकारा है …..
जितने भर भी देश विश्व में भारत सबसे प्यारा है।।1।।

यहां सिकंदर आया था, पर गिरा मौत के कुएं में।
दाहिर की बेटी ने कासिम जोता मौत के जुए में।।
भीमदेव ने गजनी को पिटवाया हिंद की सेना से।
गौरी को भी मौत मिली पंजाब की खोखर सेना से।।
हमने इतिहास बनाया है, बजा युद्ध नक्कारा है ……
जितने भर भी देश विश्व में भारत सबसे प्यारा है।।2।।

तैमूर की छाती फाड़ी थी, योगराज सिंह गुर्जर ने।
गुलिया हरवीर के भाले ने रामप्यारी के खंजर ने।।
खानवा के मैदान में सांगा ललकार रहे थे बाबर को।
अप्रत्याशित मार पड़ी थी, उस नीच लुटेरे बाबर को।।
यह देश है राणा वीरों का, शत्रु को रण में मारा है…..
जितने भर भी देश विश्व में भारत सबसे प्यारा है।।3।।

यह देश है पृथ्वीराजों का, और पराक्रमी भोजों का।
यह देश है शौर्यपुत्रों का, बलिदान की अनुपम मौजों का।।
अकबर को महान बताना हमको नहीं गवारा हो सकता।
प्रताप पराक्रमी राणा का अपमान सहन नहीं हो सकता।।
हमने फिरंगी मुगलों की पराधीनता को ठोकर पर मारा है….
जितने भर भी देश विश्व में भारत सबसे प्यारा है।।4।।

अकबर जैसा नीच कभी भी, नहीं हमारा हो सकता।
हीरों को मिट्टी के बदले, देश कभी नहीं खो सकता।।
औरंगजेब के जुल्मों को, शिवा ने रोक दिखाया था।
छत्रसाल बुंदेले ने भी, तब गीत अनोखा गाया था।।
गोकुल देव, बैरागी का वही भगवा हमको प्यारा है…..
जितने भर भी देश विश्व में भारत सबसे प्यारा है।।6।।

गुरु तेग हिंद की चादर थे, गोविंद हमारे नायक थे।
अर्जुन वीर विनायक थे, संभाजी इसके लायक थे।।
इनके कारण ही अस्तित्व हमारा आज जगत में संभव है।
इनके कारण ही यज्ञ हवन, इनके कारण ही भगवा है।।
दूला भट्टी को नमन हमारा, शेर हिंद का न्यारा है….
जितने भर भी देश विश्व में भारत सबसे प्यारा है।।7।।

अंग्रेज यहां पर आए तो उनको भी हमने ललकारा।
ऋषि दयानंद ने दे डाला एक अनोखा हमको नारा।।
स्वराज्य हमारा मूल मंत्र है ऋषि की पुस्तक कहती है।
आजाद उसी के कारण हैं इतिहास की पुस्तक कहती है।।
“राकेश” लिखा कर गीत उन्हीं के जिनको भारत प्यारा है…
जितने भर भी देश विश्व में भारत सबसे प्यारा है।।8।।

डॉ राकेश कुमार आर्य

वायु प्रदूषण से स्मृति-लोप का बढ़ता खतरा

 ललित गर्ग 

पर्यावरण की उपेक्षा एवं बढ़ता वायु प्रदूषण मनुष्य स्वास्थ्य के लिये न केवल घातक हो रहा है, बल्कि एक बीमार समाज के निर्माण का कारण भी बन रहा है। हाल ही में हुए एक मेटा-अध्ययन ने वायु प्रदूषण और बिगड़ती स्मृति के बीच एक खतरनाक संबंध का खुलासा किया है। हवा में मौजूद विषैले कण-खासकर महीन धूल और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड जैसी हानिकारक गैसें, जो मुख्य रूप से वाहनों और औद्योगिक प्रक्रियाओं से निकलती हैं, हमारे मस्तिष्क को सीधे प्रभावित कर रही हैं। यह व्यापक शोध लगभग 3 करोड़ व्यक्तियों से जुड़े 51 अध्ययनों पर आधारित है। ये निष्कर्ष भारत जैसे देशों के लिए विशेष रूप से चिंताजनक हैं, जहाँ वायु प्रदूषण का स्तर दुनिया में सबसे अधिक है। अगर धनी और विकसित देश भी प्रदूषण के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों से जूझ रहे हैं, तो भारत लापरवाही बर्दाश्त नहीं कर सकता। वायु प्रदूषण से निपटना हमारी सर्वाेच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।
अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि प्रदूषित हवा के नियमित संपर्क में रहने से मनोभ्रंश एवं स्मृति-लोप का खतरा काफी बढ़ जाता है, यह एक ऐसी प्रगतिशील स्थिति है जो स्मृति और संज्ञानात्मक क्षमताओं को क्षीण कर देती है। दुनिया भर में, लगभग 5.74 करोड़ लोग पहले से ही मनोभ्रंश से प्रभावित हैं। वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए तत्काल कार्रवाई न किए जाने पर, यह संख्या 2050 तक तिगुनी होकर 15.28 करोड हो सकती है। मनोभ्रंश अर्थात डिमेंशिया या भूलने की बीमारी का दुनिया में बढ़ता खतरा इतना बड़ा है कि आगामी पच्चीस वर्ष में इस बीमारी से ग्रस्त लोगों की संख्या तीन गुना हो जाएगी। शोधकर्ताओं ने वायु प्रदूषण में खासकर कार से निकलने वाले धुएं या उत्सर्जन को गंभीर माना है। उल्लेखनीय है कि लंबे समय तक प्रदूषित वातावरण में रहने वाले लोगों के मस्तिष्क की कार्यक्षमता में एक दशक तक की गिरावट देखी जा सकती है, उदाहरण के लिए, लगातार जहरीली हवा में सांस लेने वाला 50 वर्षीय व्यक्ति 60 वर्षीय व्यक्ति के समान संज्ञानात्मक क्षमता प्रदर्शित कर सकता है। वायु प्रदूषण का सबसे पहला असर फेफड़ों और दिल पर पड़ता है, लेकिन यह वहीं तक सीमित नहीं रहता। हवा में मौजूद ये छोटे-छोटे कण हमारी सांस के जरिए खून में चले जाते हैं और फिर सीधे दिमाग तक पहुंच जाते हैं। इससे-याद रखने की क्षमता कमजोर होती है। ध्यान केंद्रित करना मुश्किल हो जाता है। सीखने और नई बातें याद रखने में दिक्कत होती है। कुछ मामलों में डिप्रेशन यानी अवसाद की संभावना बढ़ जाती है।
द लैंसेट प्लैनेटरी हेल्थ जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन में पाया गया कि पीएम 2.5 (सूक्ष्म कण पदार्थ) में प्रति घन मीटर 10 माइक्रोग्राम की वृद्धि से स्मृति संबंधी बीमारियों का खतरा 17 प्रतिशत बढ़ जाता है। वाहनों के धुएँ और जलती हुई लकड़ी से निकलने वाले ब्लैक कार्बन में एक माइक्रोग्राम की भी वृद्धि से यह खतरा 13 प्रतिशत बढ़ जाता है। ये सूक्ष्म कण हमारे श्वसन और परिसंचरण तंत्र को दरकिनार कर मस्तिष्क तक पहुँच सकते हैं और सूजन व ऑक्सीडेटिव तनाव पैदा कर सकते हैं, जिससे अंततः न्यूरॉन्स को नुकसान पहुँचता है। इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। प्रदूषित हवा न केवल फेफड़ों और हृदय के स्वास्थ्य को प्रभावित करती है, बल्कि याददाश्त, एकाग्रता, सीखने और भावनात्मक स्थिरता को भी कमज़ोर करती है। अध्ययनों से पता चला है कि उच्च प्रदूषण वाले क्षेत्रों में रहने वाले बच्चे स्वच्छ वातावरण में रहने वालों की तुलना में स्कूल की परीक्षाओं में खराब प्रदर्शन करते हैं। प्रदूषित हवा के संपर्क में आने वाले वयस्क अक्सर चिड़चिड़ापन, थकान और यहाँ तक कि अवसाद का अनुभव करते हैं। उनकी उत्पादकता और निर्णय लेने की क्षमता भी प्रभावित हो सकती है।
प्रदूषण से प्रेरित स्मृति हानि का प्रभाव केवल व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं है, यह शैक्षिक परिणामों, कार्यस्थल की दक्षता और सामाजिक निर्णय लेने को भी प्रभावित करता है। आँकड़े दर्शाते हैं कि उच्च-पीएम क्षेत्रों में लोग मौखिक प्रवाह, तर्क, सीखने और स्मृति परीक्षणों में कम अंक प्राप्त करते हैं, जो शिक्षा का एक पूरा वर्ष गँवाने के समान है। एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि कैसे किराने की खरीदारी जैसे नियमित कार्यों में संज्ञानात्मक विकर्षण प्रदूषण के संपर्क में आने से बढ़ जाता है। वृद्ध और कम शिक्षित व्यक्ति विशेष रूप से असुरक्षित होते हैं, अक्सर रोज़मर्रा के कार्य करने की क्षमता खो देते हैं और दूसरों पर अधिक निर्भर हो जाते हैं।
बढ़ते खतरे के बावजूद, चिकित्सा विज्ञान वर्तमान में मनोभ्रंश का कोई निश्चित इलाज नहीं देता है। मौजूदा उपचार सीमित और अक्सर अप्रभावी होते हैं, जिससे मरीज धीरे-धीरे अपनी याददाश्त और स्वतंत्रता खो देते हैं। अध्ययन के सह-प्रमुख लेखक, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के डॉ. क्रिस्टियन ब्रेडल इस बात पर ज़ोर देते हैं कि मनोभ्रंश की रोकथाम केवल स्वास्थ्य सेवा की ज़िम्मेदारी नहीं है। शहरी नियोजन, परिवहन नीतियां और पर्यावरणीय नियम, सभी इस संकट से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वायु प्रदूषण न केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाता है, बल्कि सामूहिक सोच, जीवनशैली विकल्पों और पर्यावरणीय निर्णयों को भी विकृत करता है। बड़े पैमाने पर, यह शैक्षिक उपलब्धि में कमी, उत्पादकता में कमी, स्वास्थ्य सेवा के बढ़ते बोझ और गहरी होती आर्थिक असमानताओं में योगदान देता है। वाशिंगटन में 12 लाख लोगों पर किए गए एक अलग अध्ययन से पता चला है कि जंगल की आग के धुएँ के संपर्क में आने से, जो पीएम 2.5 के स्तर को बढ़ाता है, मनोभ्रंश का खतरा 18-21 प्रतिशत तक बढ़ जाता है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय द्वारा की गई एक और व्यापक समीक्षा (51 अध्ययनों में 2.9 करोड़ लोगों पर) ने पुष्टि की कि पीएम 2.5 के संपर्क में आने से मनोभ्रंश का खतरा 13-17 प्रतिशत तक बढ़ जाता है। विज्ञान स्पष्ट है कि ये सूक्ष्म कण श्वसन तंत्र और मस्तिष्क में गहराई तक प्रवेश करते हैं, मस्तिष्क के कार्य को बाधित करते हैं और मानसिक गिरावट को तेज़ करते हैं।
हाल ही में चीन में हुए एक शोध में भी पीएम और नाइट्रोजन ऑक्साइड के संपर्क को मध्यम आयु वर्ग और वृद्ध लोगों में संज्ञानात्मक क्षमता में कमी, विशेष रूप से कार्यशील स्मृति में कमी से जोड़ा गया है। यह एक बढ़ता हुआ संकट है जिसके प्रभाव न केवल व्यक्तियों पर बल्कि पूरे समाज पर पड़ रहे हैं। हमें यह स्वीकार करना होगा कि वायु प्रदूषण अब केवल खांसी या सांस की बीमारी तक सीमित नहीं है, यह चुपचाप हमारी स्मृति, संज्ञानात्मक कार्यों और मानसिक स्वास्थ्य पर हमला कर रहा है। लोग मानसिक थकान, अवसाद या चिड़चिड़ापन महसूस कर सकते हैं। सामूहिक स्तर पर, शिक्षा और उत्पादकता में गिरावट, स्वास्थ्य पर बढ़ता बोझ और आर्थिक असमानता बढ़ती है। अगर तत्काल और निर्णायक कदम नहीं उठाए गए, तो स्थिति और बिगड़ेगी। वायु प्रदूषण शरीर में हानिकारक रासायनिक प्रतिक्रियाओं को जन्म देता है जो कोशिकाओं, प्रोटीन और डीएनए को नुकसान पहुँचाती हैं, जिससे मनोभ्रंश जैसी तंत्रिका संबंधी बीमारियों का मार्ग प्रशस्त होता है। उत्साहजनक रूप से, शोध बताता है कि वायु प्रदूषण को कम करने से स्वास्थ्य, आर्थिक, सामाजिक और जलवायु क्षेत्रों में दीर्घकालिक लाभ मिल सकते हैं। इससे मरीजों, परिवारों और देखभाल करने वालों पर बोझ भी कम होगा। अब हमें खुद से यह सवाल पूछना होगा कि हम न केवल अपने फेफड़ों, बल्कि अपने दिमाग की भी रक्षा के लिए कितनी दूर तक जाने को तैयार हैं? 

बाघों के सबसे बड़े घर में सुरक्षा बनी चुनौती

प्रमोद भार्गव

मध्यप्रदेश में चल रहे मानव-बाघ संघर्श और अवैध शिकार एक बड़ी चुनौती बनकर पेश आई है। क्योंकि यह राज्य देश में ‘टाइगर स्टेट‘ कहा जाता है। बाघों की निरंतर बढ़ती संख्या इनके संरक्षण और सुरक्षा के लिए चुनौती बन रही है। अतएव वन विभाग को सुरक्षा के साथ संवेदनशीलता की भी जरूरत है। क्योंकि अब इनके आवास और प्रजनन के क्षेत्र केवल बाघों के लिए आरक्षित उद्यान नहीं रह गए हैं। ये अपना क्षेत्र विस्तृत कर रहे है। प्रदेश में वर्तमान में बाघों की संख्या 850 से लेकर 900 के बीच है। उम्मीद की जा रही है कि 2026 में होने वाली बाघ-गणना में 950 से अधिक बाघ प्रदेश के वन प्रांतरों में हो सकते है, लेकिन चिंता की बात है कि राश्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधीकरण (एनटीसीए) के ताजा आंकड़ों के अनुसार 2025 के छह माह के भीतर 29 बाघों की मौत हो चुकी है। यानी औसतन प्रतिमाह पांच बाघ या तो प्राकृतिक मौत मरे है या फिर पेशेवर शिकारियों ने उनका शिकार किया है।
हाल ही में शिवपुरी से लगे ष्योपुर से तीन बाघों की हड्डियों के साथ तीन आरोपियों को स्टेट टाइगर स्ट्राइक फोर्स ने पकड़ा है। इनमें से एक बाघिन टी-1 शिवपुरी के माधव राष्ट्रीय उद्यान की बताई जा रही है। इस बाघिन की करीब 1 वर्ष से जानकारी नहीं मिल रही है। जबकि इसके गले में आईडी कॉलर डली हुई है। इस मामले में शिवपुरी के उद्यान से लगे ग्राम भीमपुर से पकड़े गए मुख्य आरोपी सोजीराम मोगिया ने स्वीकार किया है कि उसने जहर देकर एक बाघ को मारा है। हालांकि वनसंरक्षक उत्तम षर्मा प्रमाण के अभाव में बाघिन का शिकार करना स्वीकार नहीं कर रहे है, लेकिन बाघिन किस स्थल पर हैं, इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं है। सौजीराम का 250 बीघा वनभूमि पर अवैध कब्जा भी है, जो उद्यान की सीमा से लगा है।  
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बाघ परियोजना के 50 साल पूरे होने के अवसर पर कर्नाटक के मैसूर में बाघों की नई गणना रिपोर्ट-2022 जारी की थी। हालांकि यह संख्या और ज्यादा भी हो सकती है, क्योंकि यह गिनती केवल बाघ परियोजना क्षेत्रों में लगे कैमरों में कैद हुए बाघों की, की गई थी। बाघों की यह वृद्धि दुनिया के लिए गर्व का विषय है। यह दुर्लभ प्राणी एक समय लुप्त होने के कगार पर पहुंच गया था, तब 1 अप्रैल 1973 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बाघ परियोजनाओं के जरिए बाघ संरक्षण के मजबूत उपाय किए थे।दुनिया की कुल आबादी के 75 प्रतिशत बाघ अकेले भारत में हैं। देश की सभी बाघ परियोजनाओं में 75000 वर्ग किमी क्षेत्र बाघों के लिए सुरक्षित है। दुनिया का महज 2.4 प्रतिशत भू-भाग हमारे पास है, जबकि जैव-विविधता के संरक्षण में हमारा योगदान आठ प्रतिशत है। भारत की कुल आबादी के करीब 850 बाघ मध्यप्रदेश की धरती पर विचरण कर रहे हैं। इसीलिए अब मध्यप्रदेश ‘बाघ राज्य‘ (टाइगर स्टेट) कहलाता है। बाघ संरक्षण भारत सरकार और राज्यों की साझा जिम्मेदारी है। संवेदना और सह-अस्तित्व के लिए प्रोत्साहित करने वाली हमारी सांस्कृतिक विरासत ने बाघ परियोजना की सफलता में अहम् भूमिका निभाई है। इन साझा प्रयासों का ही परिणाम है कि बाघों की संख्या में बढ़ोत्तरी दर्ज की जा रही है।
बीती सदी में जब बाघों की संख्या कम हो गई तब मध्य प्रदेश के कान्हा राश्ट्रीय उद्यान में पैरों के निशान के आधार पर बाघ गणना प्रणाली को षुरूआती मान्यता दी गई थी। ऐसा माना जाता है कि हर बाघ के पंजे का निशान अलग होता है और इन निशानों को एकत्र कर बाघों की संख्या का आकलन किया जा सकता है। कान्हा के पूर्व निदेशक एचएस पवार ने इसे एक वैज्ञानिक तकनीक माना था, लेकिन यह तकनीक उस समय मुश्किल में आ गई, जब ‘साइंस इन एशिया‘ के मौजूदा निदेशक के उल्लास कारंत ने बंगलुरु की वन्य जीव संरक्षण संस्था के लिए विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों में बंधक बनाए गए बाघों के पंजों के निशान लिए और विशेषज्ञों से इनमें अंतर करने के लिए कहा। इसके बाद पंजों के निशान की तकनीक की कमजोरी उजागर हो गई और इसे नकार दिया गया।
इसके बाद ‘कैमरा ट्रैपिंग‘ का एक नया तरीका पेश आया। जिसे कारंत की टीम ने शुरुआत में दक्षिण भारत में लागू किया। इसमें जंगली बाघों की तस्वीरें लेकर उनकी गणना की जाती थी। ऐसा माना गया कि प्रत्येक बाघ के षरीर पर धारियों का प्रारूप उसी तरह अलग-अलग है, जैसे इंसान की अंगुलियों के निशान अलग-अलग होते हैं। यह एक महंगी आकलन प्रणाली थी। पर यह बाघों के पैरों के निशान लेने की तकनीक से कहीं ज्यादा सटीक थी। इसके तहत कैप्चर और री-कैप्चर की तकनीकों वाले परिश्कृत सांख्यिकी उपकरणों और प्रारूप की पहचान करने वाले सॉफ्टवेयर का प्रयोग करके बाघों की विश्वसनीय संख्या का पता लगाने की षुरूआत हुई। इस तकनीक द्वारा गिनती सामने आने पर बाघों की संख्या नाटकीय ढंग से घट गई थी, जो अब बढ़ रही है।
      हालांकि बढ़ते क्रम में बाघों की गणना को हमेशा पर्यावरणविद्ों ने संदिग्ध माना है। क्योंकि आर्थिक उदारवाद के चलते बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्राकृतिक संपदा के दोहन की छूट जिस तरह से दी जा रही है, उसी अनुपात में बाघ के प्राकृतिक आवास भी प्रभावित हो रहे हैं। खनन और राजमार्ग विकास परियोजनाओं ने बाघों की वंश वृद्धि पर अंकुश लगाया है। इन परियोजनाओं को प्रचलन में लाने के लिए चार गुना मानव बसाहटें बाघ आरक्षित क्षेत्रों में बढ़ी हैं। नतीजतन मानव और पशुओं के बीच संघर्श बढ़ा है। केंद्र व राज्य सरकारों की नीतियां भी खनन परियोजनाओं को बढ़ावा दे रही हैं। पन्ना में हीरा खनन परियोजना, कान्हा में बॉक्साइट, राजाजी में राष्ट्रीय राजमार्ग, तड़ोबा में कोयला खनन और उत्तर-प्रदेश के तराई वन क्षेत्रों में इमारती लकड़ी माफिया बाघों के लिए जबरदस्त खतरा बने हुए हैं। इसके बावजूद खनिज परियोजनाओं के विरुद्ध बुलंदी से आवाज न राजनीतिकों की ओर से उठ रही और न ही वन अमले की तरफ से ? हां वन अमले की बर्बरता और गोपनीयता जरूर वैसी ही बनी चली आ रही है, जो फिरंगी हुकूमत के जमाने में थी। अंग्रेजों से विरासत में मिली इस शैली में बदलाव अभी तक वन अमला लाया नहीं है। इस कारण बाघों की मौतें भी बढ़ रही हैं। जबकि राष्ट्रीय उद्यानों, वनकर्मियों और वन आंवटन में निरंतर वृद्धि हो रही है। प्रत्येक आरक्षित उद्यान को 20 से 26 करोड़ रुपए दिए जाते हैं। आशंकाएं तो यहां तक हैं कि बाघों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर इसलिए बताई जाती है, ताकि इनके संरक्षण के बहाने बरस रही देशी-विदेशी धनराशि नौकरशाही का हिस्सा बनती रहे।
वर्तमान में चीन में बाघ के अंग और खालों की सबसे ज्यादा मांग हैं। इसके अंगों से यहां पारंपरिक दवाएं बनाई जाती हैं और उसकी हड्डियों से महंगी शराब बनती है। भारत में बाघों का जो अवैध शिकार होता है, उसे चीन में ही तस्करी के जरिए बेचा जाता है। बाघ के अंगों की कीमत इतनी अधिक मिलती है कि पेशेवर शिकारी और तस्कर बाघ को मारने के लिए हर तरह का जोखिम उठाने को तैयार रहते हैं। बाघों की दुर्घटना में जो मौतें हो रही हैं, उनका कारण इनके आवासीय क्षेत्रों में निरंतर आ रही कमी है। जंगलों की बेतहाशा हो रही कटाई और वन-क्षेत्रों में आबाद हो रही मानव बस्तियों के कारण भी बाघ बेमौत मारे जा रहे हैं।
 पर्यटन के लाभ के लिए उद्यानों एवं अभ्यारण्यों में बाघ देखने के लिए जो क्षेत्र विकसित किए गए हैं, उस कारण इन क्षेत्रों में पर्यटकों की अवाजाही बढ़ी है, नतीजतन बाघ एकांत तलाशने के लिए अपने पारंपरिक रहवासी क्षेत्र छोड़ने को मजबूर होकर मानव बस्तियों में पहुंचकर बेमौत मर रहे हैं। बाघ संरक्षण विशेश क्षेत्रों का जो विकास किया गया है, वह भी उसकी मौत का कारण बन रहा है, क्योंकि इस क्षेत्र में बाघ का मिलना तय होता है। बाघों के निकट तक पर्यटकों की पहुंच आसान बनाने के लिए बाघों के शरीर में रेडियो कॉलर आईडी लगाए गए हैं, वे भी इनकी मौत का प्रमुख कारण हैं। सीसीटीवी कैमरे भी इनको बेमौत मार देने की सूचना का आधार बन रहे हैं। दरअसल कैमरे के चित्र और कॉलर आईडी से इनकी उपस्थिति की सटीक जानकारी वनकर्मियों के पास होती है। तस्करों से रिश्वत लेकर वनकर्मी बाघ की उपस्थिति की जानकारी दे देते हैं। नतीजतन शिकारी बाघ को आसानी से निशाना बना लेते हैं।    
अप्रत्यक्ष व अप्रामाणिक तौर से यह सत्य सामने आ चुका है कि बाघों के शिकार में कई वनाधिकारी शामिल हैं, इसके बावजूद जंगल महकमा और कुलीन वन्य जीव प्रेमी वनखण्डों और उनके आसपास रहने वाली स्थानीय आबादी को वन्यप्राणी संरक्षण से जोड़ने की कोशिश करने की बजाय भोले-भाले आदिवासियों पर झूठे मुकदमे लादने और उन्हें वनों से बेदखल करने की कोशिशों में लगे हैं। जबकि सच्चाई है कि सदियों से वनों में आदिवासियों का बाहुल्य उनका प्रकृति और प्राणी से सह-अस्तित्व की जीवन शैली ही ईमानदारी से वन और वन्य जीवों के लिए सुरक्षा व संरक्षण का मजबूत तंत्र साबित हो सकता है।
प्रमोद भार्गव

क्या देश की व्यवस्था जनता के लिए है ?

राजेश कुमार पासी

किसी भी देश को चलाने के लिए एक व्यवस्था की जरूरत होती है ताकि वो देश सुचारू रूप से चलता रहे । यह व्यवस्था उस देश की जनता की सेवा के लिए होती है लेकिन हमारे  देश की व्यवस्था कुछ अलग है । हमारे देश की व्यवस्था जनता के लिए नहीं है बल्कि  खुद के लिए है । ऐसा लगता है कि हमारे देश की व्यवस्था अपनी अधिकतम ऊर्जा खुद को चलाने के  लिए ही खर्च करती है. बची-खुची ऊर्जा को वो जनता के कामों के लिए इस्तेमाल करती है । राजस्थान के झालावाड़ में एक स्कूल के भवन के गिरने से सात मासूम बच्चों की असमय मौत हो गई है और 9 बच्चे गंभीर रूप से घायल बताए जा रहे हैं । बरसात में स्कूल के भवन का गिरना बता रहा है कि भवन की हालत खराब हो चुकी होगी तभी वो बरसात में गिर गया । स्कूल के बच्चों ने बताया है कि सुबह से ही भवन की छत से कंकड़-पत्थर गिर रहे थे जिसकी जानकारी उन्होंने अपने शिक्षकों की भी दी थी लेकिन उन्होंने उनकी शिकायत को अनदेखा कर दिया । उनको बताने के कुछ देर बाद ही यह हादसा हो गया । अगर शिक्षक बच्चों की बातों को गंभीरता से लेते तो बच्चों की जान बचायी जा सकती थी ।

इसके अलावा भी बच्चों ने जो कहा है उससे शिक्षकों के रवैये पर सवाल उठते हैं । जिला कलेक्टर ने बताया है कि शिक्षा विभाग की जर्जर भवनों की सूची में इस स्कूल का नाम नहीं था । सवाल यह पैदा होता है कि जिस स्कूल का नाम नहीं था, वो गिर गया और जिनका नाम है, क्या उनको ठीक कर दिया गया है । ग्रामीणों का कहना है कि स्कूल की छत पिछले चार  सालों से टपक रही थी लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया । शिक्षकों को जब शिकायत की गई तो उन्होंने ग्रामीणों को कहा कि तुम लोग पैसे जमा करके इसको ठीक करा दो । क्योंकि सात बच्चों की मौत हो गई है तो यह मामला मीडिया की सुर्खियों में आ गया है लेकिन कुछ दिनों बाद सब भुला दिया जाएगा । वास्तविकता यह है कि राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार लगभग 20 प्रतिशत स्कूलों की हालत खराब है । 

               ये घटना बताती है कि हमारे देश में सरकारी व्यवस्था सरकारी भवनों की देखरेख में कितनी लापरवाही करती है । ऐसी घटनाओं की सूचना पूरे देश से आती रहती है । इस घटना में सात बच्चों की मौत हो गई है तो घटना बड़ी बन गई है. अगर इस घटना में बच्चे नहीं मारे जाते तो कुछ नहीं होता । बच्चों की  मौत  के कारण घटना की जांच और कड़ी कार्यवाही की बात हो रही है और कहा  जा रहा है कि मुख्यमंत्री जी ने इस घटना का संज्ञान लिया है । अभी घटना मीडिया में छाई हुई है इसलिए ऐसी बातें हो रही है । जब घटना मीडिया से गायब हो जाएगी तो फिर सब कुछ पुराने  ढर्रे पर चलने  लगेगा । शिक्षा विभाग ने आदेश दिया है कि जर्जर भवनों में बच्चों को न बिठाया जाए लेकिन सवाल यह है कि फिर बच्चों को कहां बिठाया जाएगा । जब भवनों की ऐसी हालत है तो उन्हें समय पर क्यों नहीं ठीक किया गया । इस सम्बन्ध में शिक्षा निदेशक ने रिपोर्ट मांगी है लेकिन सवाल उठता है कि क्या उन्हें  पता नहीं है कि किन स्कूलों की ऐसी हालत है । सरकार को बताना चाहिए कि बच्चों की जान जोखिम में डालकर ऐसे भवनों में बच्चों को क्यों पढ़ाया जा रहा है । 

 यह भी कहा जा रहा है कि स्कूल की मरम्मत के लिए पैसा स्वीकृत किया जा चुका था लेकिन उसकी फाइल कहीं रूकी हुई थी । सवाल यह है कि फाइल क्यों रुकी हुई थी । क्या फाइल में रिश्वत का पहिया नहीं था, इसलिए रूकी हुई थी । इस बच्चों की मौत के लिए कौन जिम्मेदार है, इस पर विचार  करने की जरूरत है । वास्तव में सिर्फ स्कूलों के भवन ही खस्ताहाल नहीं है बल्कि कई सरकारी कार्यालयों की यही हालत होती है । थोड़े-थोड़े अंतराल पर ऐसी खबरें सुनने में आ जाती है कि कहीं सड़क बह गई, सड़क टूट गई, पुल टूट गया और बिल्डिंग गिर गई. सवाल यह है कि बार-बार ऐसा क्यों होता है । 

               वास्तव में इसके पीछे देश में फैला हुआ भ्रष्टाचार है जो कि सरकारी निर्माण कार्यों में जबरदस्त तरीके से होता है । मैंने अपनी सरकारी सेवा के दौरान केंद्रीय लोक निर्माण विभाग में ही काम किया है जो कि केन्द्र सरकार द्वारा होने वाले लगभग सभी निर्माण कार्य करता है । यह सच है कि कोई भी सरकारी भवन बिना कमीशन खाये नहीं बनता है । राज्य सरकारों के लोक निर्माण विभागों में तो केन्द्र सरकार के विभाग से ज्यादा बुरा हाल है । हर काम के लिए कमीशन तय होती है जो कि ऊपर से नीचे तक अधिकारियों और कर्मचारियों में बांटी जाती है । अगर ठेकेदार कमीशन न दे तो उसका कोई काम नहीं होता । उसके किये गये काम में नुक्स निकाला जाता है, उसके बिल अटक जाते हैं । वो जानता है कि उसे कितनी रकम रिश्वत के रूप में विभाग में बांटनी है. उसी के अनुसार वो काम के लिए रकम तय करता है । यह काम इतना मिलजुल कर  होता है कि कोई किसी की शिकायत नहीं करता और आराम से सब चलता रहता है । हमारे देश की सच्चाई यही है कि जिस भ्रष्टाचार से सबका फायदा होता है, वहां कोई भी एंटी करप्शन एजेंसी कुछ नहीं कर सकती । पूरी व्यवस्था ही ऐसे चल रही है, सब मिलजुल कर देश को लूट रहे हैं । फूड इंस्पेक्टर का हर दुकान से महीना बंधा होता है जो उसे बिना किसी परेशानी के हर महीने मिल जाता है । समस्या तब आती है जब वो नियत राशि से ज्यादा की मांग करता है ।

एक बार मैं सीबीआई के साथ ऐसे ही इंस्पेक्टर को पकड़ने के लिए ट्रेप  लगाने गया तो सीबीआई अधिकारियों का यही कहना था कि जब पानी सिर से ऊपर चला जाता है तब हमें कार्यवाही करनी पड़ती है । वास्तव में दुकानदार को पैसे देने में दिक्कत नहीं थी लेकिन जब उसने मंथली रकम ज्यादा बढ़ा दी तो उसने सीबीआई को शिकायत दी थी । एक बार हमारे बाजार में किसी दुकानदार ने फूड इंस्पेक्टर को सीबीआई से पकड़वा दिया तो उससे सारे दुकानदार चिढ़ गए । उनका कहना था कि महीना देने से आराम से काम चल रहा था. अब हमारे ऊपर छापे डालने शुरू हो जायेंगे । इससे पता चलता है कि भ्रष्टाचार हमारी व्यवस्था का हिस्सा बन गया है और हमने उसे स्वीकार कर लिया है । 

               सवाल फिर वही है कि क्या ये व्यवस्था जनता के लिए काम कर रही है या अपने लिये काम कर रही है । न्यायपालिका में न्यायाधीशों को  इतनी ज्यादा सुरक्षा दे दी गई है कि वो कुछ भी करें, उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हो सकती । अभी दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस वर्मा भ्रष्टाचार के मामले में फंसे हुए हैं लेकिन उनके खिलाफ एफआईआर भी दर्ज नहीं की जा सकती । उन्हें सजा देना तो बहुत दूर की बात है, उन्हें उनके पद से हटाना भी मुश्किल हो रहा है । इन हालातों में न्यायाधीश न्याय करें या अन्याय करें, जनता उनके खिलाफ कहीं कोई शिकायत नहीं कर सकती । इससे साबित होता है कि न्यायालय जनता के लिए नहीं है, अगर होते तो पांच करोड़ मुकदमे फैसले का इंतजार नहीं कर रहे होते । जो नेता वोट मांगने हमारे दरवाजे तक आ जाते हैं, जीतने के बाद उनसे मिलना भी मुश्किल हो जाता है । सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों की नौकरी इतनी सुरक्षित कर दी गई है कि वो काम करें या न करें, उनकी मर्जी पर निर्भर करता है ।

जब नव नियुक्त कुछ चपरासियों से मेरी बात हुई तो उन्होंने कहा कि हमें बताया गया है कि दो साल प्रोबेशन पीरियड है, तब तक काम करो, उसके बात तुम्हारी मर्जी हो तो करना, न मर्जी हो तो न करना, तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा । यह सोच गलत नहीं है बल्कि सरकारी नौकरियों की वास्तविकता है । छोटे कर्मचारी अपनी मर्जी से काम करते हैं और अधिकारी रिश्वत के लिए काम करते हैं । कई जगहों पर जवाबदेही होती है इसलिए काम करना पड़ता है । सरकारी अध्यापकों की जवाबदेही नहीं है इसलिए सरकारी स्कूलों की पढ़ाई बदनाम है । एक छोटे से छोटा कर्मचारी भी अपने बच्चों को पब्लिक स्कूल में पढ़ाना चाहता है । कितनी अजीब बात है कि सरकारी नौकरी वाले अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ाते और अपना इलाज सरकारी अस्पताल में नहीं करवाते । एनसीआरबी ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि देश के दस सबसे ज्यादा भ्रष्ट विभाग कौन से हैं । सवाल यह है कि जिन विभागों को उसने भ्रष्ट बताया है, क्या देश की जनता नहीं जानती कि वो विभाग भ्रष्ट हैं । क्या देश की सरकार नहीं जानती कि वो विभाग भ्रष्ट हैं । पूरा देश जानता है कि किस विभाग में कहां भ्रष्टाचार होता है लेकिन कोई कुछ नहीं कर सकता, ये बात भी जनता जानती है । भ्रष्टाचार हमारे देश में रक्त की तरह हो गया है,जो हर सरकारी व्यवस्था में जरूरी द्रव्य होकर बह रहा है । अगर ये रक्त बहना बंद हो जाये तो पूरी व्यवस्था की सांस रुक जाएगी । इसका निष्कर्ष यही है कि पूरी व्यवस्था जनता के नाम पर अपने लिए काम कर रही है । जनता को इसमें रोजगार मिलता है, इसलिए जनता भी खुश है लेकिन वो यह समझ नहीं पा रही है कि उसने नौकर को अपना मालिक बना दिया है ।

राजेश कुमार पासी

भारत दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा ई-कचरा उत्पादक

पुनीत उपाध्याय


भारत में बढ़ता ई-कचरा या ई-वेस्ट गंभीर चुनौती बनता जा रहा है। इलेक्ट्रॉनिक कचरा या ई-कचरा दरअसल बिजली और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का वेस्ट है। राज्यसभा में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों का हवाला देकर केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय राज्य मंत्री कीर्तिवर्धन सिंह ने बताया कि वित्तीय वर्ष 2020-21 से 2022-23 तक ई-कचरे के उत्पादन में क्रमिक वृद्धि हुई हालांकि वित्तीय वर्ष 2023-24 में इसमें कमी आई है। वित्तीय वर्ष 2024-25 में इसमें मामूली वृद्धि हुई है। वित्तीय वर्ष 2024-25 में देश में 13 लाख 97 हजार मीट्रिक टन ई-कचरा पैदा हुआ।  इससे पहले 16 दिसंबर 2024 को सरकार ने राज्यसभा में बताया था कि पिछले पांच वर्षों में इलेक्ट्रॉनिक कचरे के उत्पादन में भारी वृद्धि देखी गई जो  2019-20 में 1.01 मिलियन मीट्रिक टन से बढ़कर 2023-24 में 1.751 मिलियन मीट्रिक टन हो गया है। राष्ट्रीय स्तर के आंकड़े 2019-20 से ई-कचरा उत्पादन में चिंताजनक 72.54 प्रतिशत की वृद्धि दर्शाते हैं जो देश भर में इलेक्ट्रॉनिक और बिजली उपकरणों के बढ़ते उपयोग को दर्शाता है। स्मार्टफोन और लैपटॉप से लेकर उन्नत औद्योगिक और चिकित्सा उपकरणों तक. तकनीक आर्थिक विकास, कनेक्टिविटी और नवाचार की रीढ़ बन गई है। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों पर इस बढ़ती निर्भरता का नुकसान भी है जिसे इलेक्ट्रॉनिक कचरे के रूप में जाना जाता है।

भारत में 95 फीसदी कचरे का उचित निस्तारण नहीं
दुनिया के शीर्ष ई-कचरा उत्पादकों (चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान और जर्मनी) में शुमार भारत के सामने ई-कचरे के प्रबंधन की एक कठिन चुनौती है। भारत में ई-कचरे की मात्रा छह वर्षों में 151.03 फीसदी बढ़कर 2017-18 में 7 लाख 8 हजार 445 मीट्रिक टन से बढ़कर 2023-24 में 17 लाख 78 हजार 400 मीट्रिक टन हो गई जिसमें 1 लाख 69 हजार 283 मीट्रिक टन की वार्षिक वृद्धि हुई है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा ई-कचरा उत्पादक है। यहां उत्पन्न होने वाले लगभग 95 फीसदी ई.कचरे को या तो जला दिया जाता है या लैंडफिल में फेंक दिया जाता है। तेज़ी से बढ़ते शहरीकरण के साथ यह संख्या और भी बढ़ेगी और साथ ही स्वास्थ्य को ख़तरा पैदा करने वाले लोगों की संख्या भी बढ़ेगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार ई-कचरा दुनिया में सबसे तेज़ी से बढ़ते ठोस अपशिष्ट स्रोतों में से एक है। 2022 में वैश्विक स्तर पर अनुमानित 62 मिलियन टन ई-कचरा उत्पन्न हुआ। केवल 22.3 का ही का ही औपचारिक रूप से संग्रहण और रिसाइकिल किया गया। चिंता की बात यह है कि सीसा एक सामान्य पदार्थ है जो पर्यावरण में तब उत्सर्जित होता है जब ई-कचरे को खुले में जलाने सहित अनौपचारिक गतिविधियों के माध्यम से पुनर्चक्रित, संग्रहीत या डंप किया जाता है। अनौपचारिक ई-कचरा निस्तारण के कई प्रतिकूल स्वास्थ्य प्रभाव हो सकते हैं। बच्चे और गर्भवती महिलाएं विशेष रूप से असुरक्षित हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन और विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि दुनिया भर में अनौपचारिक रिसाइकिल क्षेत्र में काम करने वाली लाखों महिलाओं और बाल श्रमिकों को खतरनाक ई-कचरे के संपर्क में आने का खतरा हो सकता है।

उत्पादन.रिसाइकिल में बड़ा गैप. पांच गुना अंतर आ चुका
 संयुक्त राष्ट्र के चौथे वैश्विक ई-कचरा मॉनिटर  के अनुसार दुनिया में इलेक्ट्रॉनिक कचरे का उत्पादन इसकी रिसाइकिलिंग की तुलना में पांच गुना तेज़ी से बढ़ रहा है। 2022 में रिकॉर्ड 62 मिलियन टन ;ई-कचरा उत्पन्न हुआ जो 2010 से 82 फीसदी अधिक है। 2030 में 32 फीसदी और बढ़कर 82 मिलियन टन होने की संभावना है जिससे अरबों डॉलर मूल्य के रणनीतिक रूप से मूल्यवान संसाधन बर्बाद होंगे।  दुनिया भर में ई-कचरे का वार्षिक उत्पादन 26 लाख टन की दर से बढ़ रहा है जो 2030 तक 8.2 करोड़ टन तक पहुंचने की संभावना है।

पुनीत उपाध्याय

कंबोडिया-थाईलैंड के बीच तनाव से चीन को होगा फायदा


राजेश जैन

दक्षिण-पूर्व एशिया एक बार फिर अशांत है। कंबोडिया और थाईलैंड खतरनाक सीमा संघर्ष में उलझ गए हैं। अब तक 27 लोगों की मौत हो चुकी है और हजारों को अपने घर छोड़ने पड़े हैं।
इस बार भी विवाद की जड़ वही पुरानी है—प्रीह विहेयर मंदिर। हजारों साल पुराना यह मंदिर खमेर साम्राज्य की धरोहर है लेकिन इस पर मालिकाना दावा थाईलैंड और कंबोडिया दोनों करते हैं। 1962 में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने इसे कंबोडिया का हिस्सा माना था पर थाईलैंड ने यह फैसला पूरी तरह स्वीकार नहीं किया।

वैसे भी 817 किलोमीटर लंबी थाई-कंबोडिया सीमा पर दशकों से विवाद चला आ रहा है। इसकी जड़ें फ्रांसीसी औपनिवेशिक काल के नक्शों में हैं। 1907 में बने नक्शों को थाईलैंड अब भी विवादित मानता है। कंबोडिया का कहना है कि प्रीह विहेयर और ता मुएन थोम जैसे ऐतिहासिक मंदिर उसके क्षेत्र में आते हैं, वहीं थाईलैंड इन्हें अपनी सांस्कृतिक विरासत मानता है।

2008 से 2011 के बीच इसी विवाद पर हुई झड़पों में 34 लोगों की मौत हो गई थी। 2025 की चिंगारी तब भड़की जब एक कंबोडियाई सैनिक की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। 24 जुलाई को हालात और बिगड़ गए जब ता मुएन थोम मंदिर के पास भारी गोलीबारी और हवाई हमले हुए।

थाईलैंड का आरोप है कि कंबोडिया ने बीएम-21 रॉकेट लॉन्चर से पहले हमला किया। वहीं कंबोडिया का दावा है कि थाई सैनिकों ने बिना उकसावे के आक्रामकता दिखाई और हवाई हमले किए। फिलहाल थाईलैंड ने सीमाएं सील कर दी हैं और कंबोडिया ने भी थाईलैंड से आने वाले आयात—जैसे फल, सब्ज़ियां, गैस और फिल्मों—पर रोक लगा दी है।

चीन को मिलेगा यह फायदा

कंबोडिया पहले से ही चीन के प्रभाव में है। पूर्व प्रधानमंत्री हुन सेन और वर्तमान प्रधानमंत्री हुन मानेट दोनों को चीन का भरोसेमंद साथी माना जाता है। यही वजह है कि चीन इस पूरे घटनाक्रम में शांत तो है पर उसकी मौजूदगी हर स्तर पर महसूस की जा सकती है।

दक्षिण कंबोडिया में चीन द्वारा विकसित किया गया रीम नौसैनिक अड्डा अमेरिका और भारत जैसे देशों के लिए चिंता का विषय है। माना जाता है कि ऐसे ठिकाने दक्षिण चीन सागर से लेकर हिंद महासागर तक चीन की सामरिक पहुंच बढ़ा सकते हैं।

थाईलैंड लंबे समय से अमेरिका का रणनीतिक साझेदार रहा है और कोबरा गोल्ड जैसे संयुक्त सैन्य अभ्यासों में अमेरिका के साथ बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता है। लेकिन बीते वर्षों में चीन से उसके आर्थिक और सैन्य रिश्ते भी गहरे हुए हैं।

अगर चीन इस टकराव में मध्यस्थ बनता है तो वह अमेरिका के प्रभाव को तो काफी हद तक कम कर ही सकता है, साथ ही दोनों देशों के साथ व्यापार और निवेश को भी अपनी शर्तों पर आगे बढ़ा सकता है।

भारत की चिंताएं और कूटनीतिक चुनौती

भारत के लिए यह संघर्ष कई वजहों से चिंता का कारण है। थाईलैंड ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ का मुख्य प्रवेश द्वार है जबकि कंबोडिया ‘मेकोंग-गंगा सहयोग’ में एक अहम साझेदार।

भारत ने दोनों देशों में डिजिटल कनेक्टिविटी, सांस्कृतिक परियोजनाओं और रणनीतिक संवादों पर काम किया है। लेकिन अगर दोनों देशों के बीच यह तनाव लंबा चलता है, तो भारत की कूटनीतिक स्थिति अस्थिर हो सकती है।

भारत को संतुलन साधना होगा—दोनों पक्षों से संबंध बनाए रखते हुए अपने हितों की रक्षा करनी होगी। भारत को चाहिए कि वह आसियान के साथ संवाद और सहयोग को और मजबूत करे। मेकोंग-गंगा सहयोग के तहत थाईलैंड और कंबोडिया दोनों में सांस्कृतिक और विकास परियोजनाओं को गति दे।

क्षेत्रीय मंचों का उपयोग करके सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था पर संवाद बढ़ाना भारत की प्राथमिकता होनी चाहिए। साथ ही भारत को स्पष्ट संदेश देना चाहिए कि क्षेत्रीय स्थिरता में उसका सीधा हित है और वह किसी भी बाहरी दबाव के खिलाफ अपने साझेदारों के साथ खड़ा रहेगा।

अमेरिकाभारत और संयुक्त राष्ट्र की नजर

कंबोडिया ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से आपात बैठक की मांग की है और मामला फिर से अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में ले जाने की तैयारी कर रहा है। लेकिन थाईलैंड ने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के अधिकार को नकारते हुए सिर्फ द्विपक्षीय बातचीत पर जोर दिया है। इसके लिए उसने पहले युद्धविराम की शर्त रखी है।

इस तनाव को सुलझाने के लिए अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता की भूमिका अहम हो सकती है। अगर चीन इस संघर्ष में ‘शांति-निर्माता’ बनकर उभरता है, तो वह दक्षिण-पूर्व एशिया में अमेरिका की साख को और कमजोर करेगा और भारत की रणनीतिक स्थिति पर भी असर डालेगा।

राजेश जैन

वैश्विक समस्याओं का समाधान भारतीय चिंतन में !

डॉ.बालमुकुंद पांडेय 

               संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत वैश्विक समस्याओं का समाधान भारतीय चिंतन, विचार और अनुशासन में देख रहे हैं । भारत वैश्विक स्तर की प्राचीन सभ्यताओं में से एक है। भारत के पास समृद्ध सांस्कृतिक एवं नैतिक आधारित विश्व विरासत हैं जिसका अनुप्रयोग शांति, स्थिरता, स्थायित्व, सतत विकास एवं आर्थिक विकास के उन्नयन के लिए कर रहा है। भारत सामयिक परिदृश्य  में वैश्विक शांति एवं स्थिरता के उन्नयन में महनीय भूमिका निभा रहा है। भारत के नेतृत्व का अपनी उभरती शासकीय क्षमता , वैदेशिक नीति की उपादेयता एवं पड़ोसी देशों के साथ सौहार्दपूर्ण एवं  सहयोगात्मक संबंध के कारण वैश्विक स्तर पर कद बढ़ा है। भारत  वैश्विक नेतृत्व के साथ योजित होने  एवं संघर्षों के समाधान में  राज्यकर्ता (State actor) की भूमिका को बढ़ा रहा है। वैश्विक स्तर के तनाव – प्रवण क्षेत्र में भारत की कूटनीतिक, शांतिकारक एवं राजनीतिक ट्रैक भूमिका  सराहनीय एवं सम्मानपूर्वक रही है। 

                                        भारत विविधता एवं बहु संस्कृति वाला  देश है। यहां पर परंपरागत मूल्यों, आदर्शों एवं लोकतांत्रिक दृष्टिकोण की  प्रधानता रही है। यह बहुसांस्कृतिक, बहुभाषिक, एवं बहुधर्मी  देश रहा है । यहां पर सभी धर्मावलंबियों एवं मतावलंबियों  की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सम्मान  किया जाता है। भारत ने  अपने राष्ट्रीय व्यक्तित्व में  लोकतांत्रिक मूल्यों एवं संसदीय चरित्र में समानता, स्वतंत्रता एवं बंधुता को आवश्यक प्रतिदर्श दिया है। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात अस्तित्व में आया संयुक्त राष्ट्र (पहले संयुक्त राष्ट्र संघ) राष्ट्रों के मध्य शांति, स्थिरता एवं अगस्तक्षेप  के मूल्य एवं नीति को क्रियान्वित करने में असफल रहा है लेकिन भारत ने  सामयिक और सामूहिक चुनौतियों को विभिन्न मंचों से उठाकर विकसित देशों पर दबाव बनाकर पड़ोसियों एवं विकासशील राष्ट्र  – राज्यों को संतुलित किया है।

        भारत ने  भू – मंडलीय तापन के शमन, भू – राजनीतिक संकटों के समाधान में महत्वपूर्ण एवं राज्यकर्ता के रूप में सराहनीय एवं विश्वसनीय काम करके अपने कूटनीतिक क्षमता का वैश्विक स्तर पर परिचय दिया है। युद्ध के विनाशकारी दुष्प्रभाव पर रूस के राष्ट्रपति को कठोर संदेश देना, ईरान के विषय पर संयुक्त राज्य अमेरिका के दरोगा चरित्र की आलोचना करना एवं तिब्बत जैसे ‘ बफर राज्य’ के लिए चीन से विरोध करना ,महामारी जैसे विषय पर  पड़ोसियों के साथ वैश्विक राष्ट्रों को चिकित्सीय सहयोग, पड़ोसी देशों को प्राकृतिक आपदाओं में वित्तीय सहयोग एवं मानवीय रूप से मानवतावादी दृष्टिकोण एवं आतंकवाद को ‘ मानवीय समुदाय’ एवं’ मानवता का शत्रु’ की तरह शून्यसहिष्णुता (जीरो टॉलरेंस) का दृष्टिकोण अपनाकर वैश्विक स्तर के संगठनों एवं देशों  के साथ मिलकर लड़ना भारतीय चिंतन का सकारात्मक दृष्टिकोण है।

           भारतीय चिंतन में भू – मंडलीय तापन एक अति आवश्यक वैश्विक राष्ट्रों के समक्ष चुनौती है। विकासशील देश भूमंडलीय तापन से अत्यधिक प्रभावित हैं जिसे विकसित देशों के अदूरदर्शी औद्योगीकरण एवं आर्थिक विकास प्रतिमानों द्वारा बनाया गया प्रतिदर्श  हैं। भारत सतत विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने एवं ग्लोबल साउथ के देशों  का प्रतिनिधित्व कर रहा है। भारतीय चिंतन का यह प्रत्यय  सभी को ” जननी” के रूप में मानने एवं सभी के प्रति सम्मान एवं सहानुभूति दिखाने के महत्व पर जोड़ देता है।

            ट्रस्टीशिप (न्यास)एक विचार हैं जिसका आशय पर्यावरण की संरक्षा करना एवं इसको आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित करना है। इस विचार को भारतीय चिंतन में एक आंदोलन का रूप दिया है । भारत टिकाऊ जीवन को एक जन आंदोलन बनाना चाहता है एवं सर्व समावेशी वैश्विक समाधानों को उन्नयन करना चाहता है । भारतीय चिंतन पर्यावरण को अधिक समावेशी एवं टिकाऊ वैश्विक व्यवस्था की तरफ है। भारत संसार की पांचवी अर्थव्यवस्था है एवं तीसरी अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर है। भारत की आर्थिक वृद्धि विश्वसनीय है, वैश्विक स्तर पर भारत उन नीतियों का समर्थक  है जो वैश्विक आर्थिक वृद्धि एवं विकास का समर्थन करती है। भारत अपने उदीयमान  नेतृत्व का उपयोग विकासशील देशों में निवेश को बढ़ावा देने, छोटे एवं मध्यम आकार के उद्योगों के लिए वित्त तक पहुंच बढ़ाने एवं व्यापार उदारीकरण को सरल एवं सुगम  करने के लिए कर रहा है ।यह  सरलीकरण  नीतियां संसार के कई हिस्सों में रोजगार सृजन, आय बढ़ाने एवं भौतिक सुविधा को बढ़ाने में किया जा रहा है।

          समकालीन वैश्विक व्यवस्था में भारत की आर्थिक भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। भारत वर्तमान में वैश्विक स्तर की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है , जिसकी वार्षिक वृद्धि दर 7% है। हाल के वर्षों में भारत वैश्विक आर्थिक विकास का प्रमुख चालक रहा हैं ,एवं विश्व के कुल उत्पादन में भारत का योगदान 15% है। भारत एक प्रमुख राजनीतिक एवं  सैन्य शक्ति है। भारत संयुक्त राष्ट्र शांति अभियानों में संसार का दूसरे सबसे बड़ा योगदानकर्ता देश है और वैश्विक स्तर की सेनाओं  में प्रमुख स्थान रखता है। भारत मिसाइल ,परमाणु शक्ति संपन्न एवं संप्रभुता का सम्मान करने वाला राष्ट्र है।

               भारत शांति, समृद्धि एवं भाईचारे के उन्नयन में प्रमुख राज्यकर्ता है। यह अपनी राजनयिक नीतियों एवं कूटनीतियों का क्रियान्वयन वैश्विक आर्थिक विकास, नवाचार, नवोन्मेषों एवं सतत विकास में कर रहा है। यह अपने प्रौद्योगिकी का क्रियान्वयन वैश्विक स्वास्थ्य एवं लोक कल्याण के लिए कर रहा है। भारत में समृद्ध नवाचार पारिस्थितिकी तंत्र है, जिसने अनेक स्टार्टअप एवं नवोन्मेष कंपनियों को जन्म दिया है। यह  अपनी नीतियों का अनुप्रयोग वैश्विक आर्थिक विकास एवं विकास को बढ़ावा देने एवं दुनिया भर के लोगों के जीवन को बेहतर एवं गुणात्मक बनाने में सहयोग कर रहा है।

               भारत एक शक्तिशाली देश के रूप में उभर रहा हैं एवं इसके साथ-साथ इसकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और वैश्विक शांति के उन्नयन के लिए सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक दृष्टिकोण है। भारत अपने जीवंत लोकतंत्र, तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था एवं बहुसांस्कृतिक संस्कृति  के साथ वैश्विक मंचों पर एक राज्यकर्ता के रूप में ताकतवर स्थिति में  है। यह  अपनी उच्च सांस्कृतिक परंपराओं ,आध्यात्मिक परंपराओं एवं  सनातनी संस्कृति को बढ़ाकर शांति, अहिंसा एवं बंधुत्व के सार्वभौमिक मूल्यों का प्रसार कर रहा है।

वैश्विक समस्याओं के समाधान के लिए निम्न सुझाव हैं:-

1. वैश्विक समस्याओं के समाधान के लिए शांति, अहिंसा, लोकतांत्रिक मूल्यों एवं आदर्शों  से जुड़े भारतीय चिंतन/ विचार एवं दृष्टिकोण को क्रियान्वित करके;

2.  सर्वोदय या सभी के कल्याण का विचार, सर्वोदय विश्व समाज के सभी सदस्यों विशेष कर वंचितों एवं हाशिए  पर रह रहे विकासशील राष्ट्र – राज्यों के विकास की अवधारणा है;

3. वैश्विक शांति, अहिंसा एवं  समृद्धि का प्रत्यय भारत के चिंतन एवं दृष्टिकोण में गहराई से जुड़े हैं; 

4.  वैश्विक समस्याओं के प्रति मानवतावादी दृष्टिकोण का क्रियान्वयन करके समाधान किया जा सकता है;एवं

5. दीन दयाल उपाध्याय जी ‘ के एकात्म मानववाद’ की अवधारणा को अपनाकर वैश्विक समस्याओं का समाधान संभव है।

डॉ.बालमुकुंद पांडेय 

बिहार का भविष्य अनिश्चिता के गर्त में

डॉ.नर्मदेश्वर प्रसाद चौधरी

बिहार में नेताओं के अपने परिवारवाद को विकसित करने की वजह से बिहार का भविष्य अंधकार में चला गया। केवल नेताओं के वंश विकसित हो सके लेकिन बिहार अंदर से खोखला होता गया। 

वैसे तो बिहार में आजादी के बाद से स्थिति में सुधार सामाजिक और आर्थिक तौर पर बाकी राज्यों की अपेक्षा कमतर ही रहा है। जब झारखंड बिहार का हिस्सा था, फिर भी बिहार में हटिया या बोकारो स्टील प्लांट या जमशेदपुर के अलावा कोई भी औद्योगिक क्षेत्र विकसित नही हो पाया। बिहार में सबकुछ होते हुए भी राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में बिहार का विकास समुचित तरीके से नहीं हो पाया। बिहार की विडंबना ये रही कि बिहार जातीय भेदभाव में ही उलझ कर रह गया। कोई भी नेता बिहार में ऐसा नही हो पाया जो बिहारी अस्मिता की बात करता हो। जयप्रकाश नारायण या राजेन्द्र प्रसाद के अलावा सभी नेता जातीय समीकरण को ही आगे बढ़ाने में तुले रहे। बिहार का कोई भी नेता राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने में नाकाम रहा । बिहार के किसी भी नेता वह माद्दा नहीं रहा कि वह राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व दे सकें। बिहार के सारे नेता पिछलग्गू नेता ही बने रहे। बिहार का दुर्भाग्य रहा कि कांग्रेस के बाद राजद की सत्ता रही जिसने पंद्रह सालों तक बिहार को केवल अराजकता की स्थिति में डाले रखा। उसके बाद जब उस अराजकता से मुक्ति मिली तो नीतीश कुमार की सरकार रही।

नीतीश कुमार की सरकार ने शुरुआत के पाँच सालों तक बिहार में थोड़ा-  बहुत विकास का काम जरूर किया लेकिन पिछले दस सालों में नीतीश कुमार की सरकार  भी राजद  के पदचिन्हों पर चलती हुई नजर आ रही है।आज बिहार की स्थिति बद से बदतर है। नीतीश कुमार की बिहार के प्रशासन पर पकड़ एकदम  ढीली पड़ गई है। दरअसल नीतीश कुमार अचेतावस्था में सरकार की बागडोर संभाले हुए हैं। बीजेपी का बिहार में क्या रोल है ये उनको भी पता नहीं है। केवल नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाये रखना उनकी प्राथमिकता है। दरअसल बिहार में बीजेपी का कोई सशक्त नेता भी नहीं है जिसके चेहरे पर बीजेपी अपने दम पर चुनाव लड़ सके। बीजेपी अपने दम पर बिहार में चुनाव जीत जाए, ये असंभव है। बिहार अपने जातीय समीकरण से अभी तक उभर नहीं पाया है। बिहार में पहले अपनी जाति है, तब बिहार की अस्मिता की बात आती है। बिहार के गौरव की बात करने वाला एक भी बिहारी आपको  नहीं मिलेगा।एक तो बिहार की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि हर साल बिहार बाढ़ से प्रभावित रहता है जिसके कारण बहुसंख्यक बिहारिओं को अन्य राज्यों में जाकर मजदूरी करनी पड़ती है। इसके अलावा बिहार में भूमिहीन किसानों की तादाद बहुत ज्यादा है। बिहार में भूदान हो या चकबंदी का कोई ज्यादा फायदा नहीं हो पाया। बिहार में जिसकी भी सरकार रही वह केंद्र से अपना हक मांगने में विफल रही।

बिहार पर्यटन के मामले में भी फिसड्डी रहा है। बोधगया, वैशाली या पावापुरी के अलावा कुछ भी नहीं है और ये  जैनियों और बौद्धों का धार्मिक स्थल है। यहाँ ना कोई धार्मिक मंदिर या कोई पौराणिक किला बगैरह कुछ भी नहीं है। बिहार में एक भी दर्शनीय स्थल नहीं है जहाँ कोई पर्यटक आ – जा सके। बिहार में अपराध के अलावा चर्चा का कोई विषय नहीं रहता है। पिछले तीस सालों में बिहार में अपराधियों की पौ बारह रही है। राजद  के राज्य में अपहरण और अपराध एक उद्योग का रूप ले चुका था।अभी वर्तमान में अपराध की वैसी ही स्थिति निर्मित हो गई है। बिहार का अधिकारी जब ये बोलने लगे कि किसान फुर्सत में है इसलिए अपराध की घटना बढ़ रही है  तो इससे शर्मनाक बयान और क्या हो सकता है। दरअसल बिहार को जबतक योगी जैसा मुख्यमंत्री नहीं मिलेगा, तबतक बिहार का कुछ भी भला नही हो सकता है।आज योगी ने उत्तरप्रदेश को सुधार दिया है।गुंडों की हेकड़ी निकल गई है। शुक्र मनाइए न्यायालय की कि केवल हाफ एनकाउंटर हो रहा वरना अबतक कितने अपराधी स्वर्ग सिधार चुके होते। प्रशासन कैसे किया जाता है ये योगी आदित्यनाथ ने दिखला दिया है। इसी ढर्रे पर बाकी मुख्यमंत्रियों को चलना होगा।

जनसुराज पार्टी जिसके कर्ता धर्ता प्रशांत किशोर हैं वे भी कोई छाप छोड़ने में अभी तक असफल नजर आ रहे हैं। बिहार की राजनीति में उन्हें भी अभी बहुत पापड़ बेलने होंगें। दरअसल इसके पीछे की वजह  जातीय समीकरण है।आज बिहार में अगड़ी जाति का कोई नेता अपने दम पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकता। बिहार में अगड़ी जाति और पिछड़ी जातियों के बीच एक गहरी खाई निर्मित हो गई है जिसे पाटना बहुत मुश्किल है। उसके लिए जयप्रकाश नारायण जैसा कोई सर्वमान्य नेता चाहिए जो आज की परिस्थितियों में नामुमकिन है। बिहार में राजपूत भूमिहार को देखना नहीं चाहते तो यादव राजपूतों को नहीं। उसी तरह सभी जातियाँ एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते हैं। बिहार में जातियों का गणित लगाना मुश्किल है। बिहार के चुनाव में जाति ही प्रमुख मुद्दा रहता आया है। बिहार के लोगों को ना तो देश से कोई मतलब है, ना को उनके राज्य से। अपनी जाति का नेता कितना भी खराब या अपराधी हो, वोट वे उसी को देंगें। बिहार में चुनाव कभी भी मुद्दे के आधार पर नहीं लड़ा गया है। आज बिहार की राजधानी पटना अपराधियों के लिए उपजाऊ स्थल हो गया है। मुख्यमंत्री के नाक के नीचे अपराधियों के हौसले इतने बुलंद हैं तो बाकी जगहों का भगवान ही मालिक है। मुख्यमंत्री की भावभंगिमा से ही पता चल जाता है कि मुख्यमंत्री कितने होश में हैं। आने वाले समय में भी कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो अपराधियों पर अंकुश लगा सके। वर्तमान के सारे के सारे नेता केवल सत्ता का सुख भोगने में लगे हुए हैं।

बिहार को अब एक युवा नेता की जरूरत है जो बिहार की दिशा और दशा को बदल पाए। बिहार के प्रशासन में सड़ाँध पैदा हो गई है और उसमें आमूलचूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है। प्रशासन के लोग सिर्फ अपनी जेब भरने में जुटे हुए हैं। बिहार में शराबबंदी से एक नए उद्योग का जन्म हो गया। शराबबंदी का कोई असर बिहार में नहीं पड़ रहा है बल्कि पुलिस को एक नया कमाई का धंधा मिल गया है। शराबबंदी से बकवास चीज और कुछ नहीं हो सकती है।शराबबंदी लागू करनी है तो पूरे देश में ये लागू होनी चाहिए। शराब का निर्माण ही देश में नहीं होना चाहिए। बिहार के युवावर्ग को जातीय व्यवस्था से ऊपर उठकर बिहार के गौरव के लिए आगे आना होगा। कुछ युवाओं को एक अलग दल का निर्माण करना होगा और उन्हें जनता का विश्वास हासिल करना होगा। ये अब सिर्फ एक सशक्त आंदोलन के माध्यम से हो सकता है। वर्तमान में कोई चेहरा ऐसा कर सके ये दिखाई नहीं दे रहा है। बिहार का भविष्य अभी अनिश्चितता के गर्त में डूबा हुआ है। देखें आने वाले समय में क्या होता है। बिहार के राजनीति में युवाओं को आगे आना होगा . तभी बिहार का भविष्य नये मुकाम पर पहुंच पाएगा। 

डॉ.नर्मदेश्वर प्रसाद चौधरी

पर्यावरण और आध्यात्म का अनोखा संगम है नागपंचमी

नाग पंचमी 29  जुलाई 

संतोष तिवारी

 

भारत में व्रत त्यौहार कहीं न कहीं धार्मिक मान्यताओं और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर ही मनाये जाते रहे है, भले ही आज लोग अपनी भागम भाग की जिंदगी में सही से समय नहीं दे पा रहे है। भारत के समृद्ध सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं में तमाम त्यौहार हैं जिनमें  नागपंचमी का एक विशेष स्थान है। यह पर्व नाग देवता की पूजा के लिए समर्पित है, जिन्हें सनातन धर्म में जीवन रक्षक और आध्यात्मिक शक्ति के प्रतीक के रूप में माना जाता है। यह त्यौहार मध्य बारिश के समय में मनाया जाता है जो कहीं न कहीं पर्यवारण के संरक्षण और आध्यत्मिक जुड़ाव को एक करता है। नाग पंचमी के दिन पुराने समय में गावों में तमाम तरह के खेलकूद का आयोजन होता था, जो आज केवल नाम मात्र का रह गया है।                                                                                                   

नाग पंचमी की पौराणिक कथा के अनुसार, पांडवों में अर्जुन के पौत्र राजा परीक्षित के पुत्र जन्मजेय ने नागों से बदला लेने और उनके वंश के विनाश के लिए एक यज्ञ किया। वह नागों से अपने पिता राजा परीक्षित की मृत्यु तक्षक नामक सांप के काटने की वजह होने का बदला लेना चाहते थे। उनके इस यज्ञ को ऋषि जरत्कारु के पुत्र आस्तिक मुनि ने रोका था और नागों की रक्षा की थी। यह तिथि सावन की पंचमी मानी जाती है। सांपों को शीतलता देने के लिए उन्होंने उनके शरीर पर दूध की धार डाली थी। तब नागों ने आस्तिक मुनि से कहा कि पंचमी को जो भी उनकी पूजा करेगा, उसे कभी भी नागदंश का भय नहीं रहेगा। तभी से श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को नाग पंचमी मनाई जाती है। 

 नाग पंचमी के दिन घरों में नाग देवता की मिट्टी, लकड़ी या चांदी की मूर्ति बनाई जाती है। लोग नाग देवता की मूर्ति को स्नान कराकर उन्हें दूध, दूब घास, हल्दी, चावल, और फूल अर्पित करके आरती करते हैं। नाग पंचमी के दिन नागों को दूध पिलाने की प्रथा है। इस पूजा से घर में सुख-शांति और समृद्धि बनी रहती है। कुछ क्षेत्रों में लोग अपने घरों की दीवारों पर या दरवाजे के ऊपर नाग देवता की आकृतियाँ बनाते हैं और उन्हें हल्दी, कुमकुम और दूध चढ़ाते हैं। नाग पंचमी के दिन कुछ लोग उपवास रखते हैं।

  नाग पंचमी की पूजा करने से  नाग देवता की कृपा से व्यक्ति सुरक्षित रहता है जो जीवन में शांति और सुरक्षा प्रदान करता है।

 नाग पंचमी का त्योहार प्रकृति और पर्यावरण के साथ हमारे संबंध को भी दर्शाता है। नागों की पूजा से यह संदेश मिलता है कि हमें पर्यावरण और वन्यजीवों का सम्मान करना चाहिए, क्योंकि वे हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। 

                                                                                                                                               नाग पंचमी का त्योहार कृषि से भी जुड़ा है। किसान इस दिन नाग देवता की पूजा करके अच्छी फसल और बारिश की प्रार्थना करते हैं। यह माना जाता है कि नागों की पूजा से खेतों में कीड़े-मकोड़ों का आतंक समाप्त हो जाता है और फसल अच्छी होती है। नाग पंचमी हिंदू धर्म का प्रमुख त्योहार है जो नाग देवताओं की पूजा के लिए मनाया जाता है। यह त्योहार श्रावण मास की पंचमी तिथि को, जुलाई या अगस्त में, विशेष रूप से उत्तर भारत, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और दक्षिण भारत में धूमधाम से मनाया जाता है। यह पर्व प्रकृति और वन्यजीवों के प्रति श्रद्धा और जिम्मेदारी की याद दिलाता है और सुख-समृद्धि की प्रार्थना का अवसर भी है।

नाग पंचमी पर नाग की पूजा होती है, जिसका सीधा सा संदेश है कि लोग सांपों को मारने से बचे और उनका संरक्षण करे क्योंकि ज्यादातर सांप बारिश के समय अधिक दिखते है जिससे लोग मारने के लिए भी तैयार रहते है। इसी चीजों को ध्यान में रखकर पूर्वजों ने नाग पंचमी के त्यौहार को प्रमुखता से मानते और सांप को मारने की जगह लोग पूजते है और इस तरह सपों के संरक्षण में अहम भूमिका निभाते है। 

 आइये हम सभी लोग संकल्प ले कि पर्यावरण के संरक्षण के लिए किसी भी जीव को मारने के पक्ष में हम नहीं है।

संतोष तिवारी 

बंग में राष्ट्रपति शासन की संभावना

 

शिवानन्द मिश्रा

पश्चिम बंगाल में बाजी पलट गई है। चुनाव आयोग ने कड़ी कार्रवाई शुरू कर दी है। पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन की संभावनाएँ।

हाँ, यह सच है!

चुनाव आयोग ने घोषणा की है कि पूरे देश में मतदाता सूची सत्यापन किया जाएगा।

बिहार के बाद, अगला राज्य पश्चिम बंगाल है जहाँ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसे रोकने की धमकी दी थी लेकिन चुनाव आयोग दृढ़ है। यह प्रक्रिया संवैधानिक है, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने पुष्टि की है जिसने महुआ मोइत्रा सहित कई लोगों द्वारा चुनौती दिए जाने पर भी इसे रोकने से इनकार कर दिया।

ममता और उनकी सांसद महुआ मोइत्रा के विरोध के बावजूद सत्यापन अब केवल बिहार और बंगाल में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में होगा। अवैध प्रवासियों, मृत लोगों और डुप्लिकेट प्रविष्टियों के नाम मतदाता सूचियों से हटा दिए जाएँगे।

कांग्रेस और राजद जैसी विपक्षी पार्टियाँ भी इसका कड़ा विरोध कर रही हैं, लेकिन असली वजह है अवैध प्रवासियों के वोट छिनने का डर, खासकर बंगाल में, जहाँ अवैध प्रवासी (बांग्लादेशी, रोहिंग्या आदि) बड़ी संख्या में घुस आए हैं और यहाँ तक कि उन्हें फर्जी पहचान पत्र और नौकरियाँ भी मिल गई हैं।

अब, चूँकि ममता बनर्जी इस मुहिम के खिलाफ हैं, इसलिए वे इसके खिलाफ कड़ा विरोध प्रदर्शन कर सकती हैं। यह विरोध केंद्र सरकार के खिलाफ नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र संस्था, चुनाव आयोग के खिलाफ होगा।

हम सभी ने पश्चिम बंगाल में कई विरोध प्रदर्शनों को हिंसक होते देखा है। अगर सत्यापन अभियान के दौरान ऐसा होता है, तो चुनाव आयोग की सिफ़ारिश पर बंगाल में राष्ट्रपति शासन लागू होने की प्रबल संभावना है।

यह बड़े पैमाने पर सफ़ाई अभियान पहलगाम नरसंहार और सीसीएस की बैठक के बाद शुरू हुआ जहाँ सरकार ने पाकिस्तानी उच्चायोग के कर्मचारियों की संख्या कम करने, अवैध विदेशियों (पाकिस्तानियों, बांग्लादेशियों, रोहिंग्याओं) को निर्वासित करने और भारतीय पहचान का दुरुपयोग करने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का फ़ैसला किया।

प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में, यह अभियान आतंकवादियों, नक्सलियों, ड्रग तस्करों, अवैध मदरसों और अवैध ढाँचों को भी निशाना बना रहा है। हम जो देख रहे हैं वह एक राष्ट्रव्यापी शुद्धिकरण अभियान है, और 2029 से पहले और भी बहुत कुछ होने की उम्मीद है।

उन्होंने चुनाव आयोग की जाँच और बांग्लाभाषी मुसलमानों के प्रति प्रेम को रोककर पश्चिम बंगाल को बांग्लादेशी घुसपैठियों के लिए एक सुरक्षित पनाहगाह बना दिया है।

मेरा मानना है कि ज़्यादातर घुसपैठिए पश्चिम बंगाल की ओर भागेंगे। अगर पश्चिम बंगाल के हिंदू असम, बिहार और अन्य जगहों की तरह जागरूक और मज़बूत नहीं हुए तो अगले 2 सालों में बड़े जनसांख्यिकीय बदलाव की उम्मीद है।

शिवानन्द मिश्रा

क्या छात्र-छात्राओं की खुदकुशी पर सुप्रीम कोर्ट की चिंता से शिथिल प्रशासनिक मिशनरी में कोई नई हलचल पैदा होगी?

कमलेश पांडेय

देश के शिक्षण संस्थानों में छात्र-छात्राओं (स्टूडेंट्स) की आत्महत्या और उनमें बढ़ती मानसिक स्वास्थ्य (मेंटल हेल्थ) की समस्याओं पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने शुक्रवार को जो चिंता जताई है, वह अकारण नहीं है बल्कि इसके पीछे उन हजारों परिवारों और लाखों लोगों की बेदना छिपी हुई है जो ऐसे मामलों में अपने परिजनों को गंवा चुके है। इन घटनाओं में कोई बचपन में ही अनाथ हो गया तो कोई बुढ़ापे में बेसहारा। इसलिए सुलगता हुआ सवाल है कि क्या छात्र-छात्राओं की खुदकुशी पर सुप्रीम कोर्ट की चिंता से शिथिल प्रशासनिक मिशनरी में कोई नई हलचल पैदा होगी? या फिर उसकी यह पहलकदमी भी नक्कारखाने में तूती की आवाज मानिंद दबी रह जायेगी।

बता दें कि ऐसा बिल्कुल नहीं कि केंद्र व राज्य सरकारें इन घटनाओं से अनजान हैं, बल्कि उसने तो 1960 के दशक में ही इन मामलों में संजीदगी दिखाई और राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने वर्ष 1966 से ही भारत में आकस्मिक मृत्यु और आत्महत्या (एडीएसआई) रिपोर्ट जारी करनी शुरू कर दिए। ततपश्चात आत्महत्या के कारणों और उससे बचने के उपायों पर ब्रेक के बाद आत्ममंथन किया गया लेकिन परिणाम ढाक के तीन पात निकले और देश में आत्महत्या के मामलों में हाल के वर्षों में अप्रत्याशित बढ़ोतरी दर्ज की गई है।

यही वजह है कि गत दिनों माननीय सर्वोच्च न्यायालय को यह कहना पड़ा कि आत्महत्या की रोकथाम के लिए देश में कोई माकूल कानून नहीं है। बहरहाल इसे देखते हुए कोर्ट ने 15 गाइडलाइंस जारी की जो तब तक पूरे देश में लागू और बाध्यकारी होंगी, जब तक कि कोई स्पष्ट व पारदर्शी कानून इस बारे में नहीं बन जाता है। कोर्ट के मुताबिक, ये दिशा  निर्देश (गाइडलाइंस) सभी सरकारी, सार्वजनिक व प्राइवेट स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों, प्रशिक्षण और कोचिंग संस्थानों और छात्रावासों (हॉस्टलों) पर लागू होंगी, चाहे वे किसी भी बोर्ड/विश्वविद्यालय से संबद्ध हों।

उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने नीट (NEET) की तैयारी कर रही 17 वर्षीय छात्रा की संदिग्ध हालत में मौत के मामले में सुनवाई करते हुए ये गाइडलाइंस जारी की। साथ ही, छात्रा की मौत की सीबीआई से जांच कराने का भी आदेश दिया है। कोर्ट का यह कहना सही है कि जब तक तत्सम्बन्धी कानून नहीं बनेंगे, तब तक उसके नए दिशानिर्देश लागू रहेंगे। इसके अलावा मेंटल हेल्थ नीति भी सबके लिए बनानी होगी। उसने दो टूक कहा कि सभी शिक्षण संस्थान यूनिफॉर्म मेंटल हेल्थ पॉलिसी अपनाएंगे और इसे अपने सूचना पट और वेबसाइट पर जारी करेगे। इसके अलावा,

एक सौ से अधिक (100+) छात्रों वाले संस्थानो में मेंटल हेल्थ प्रफेशनल जैसे- ट्रेड काउंसलर, सायकायट्रिस्ट को रखना होगा। इसके लिए वे दक्ष प्रफेशनल नियुक्त करें।

इन्हें स्टूडेंट-काउंसलर अनुपात का भी ध्यान रखना होगा यानी इनके यहां छोटे छोटे बैचों में समर्पित काउंसलर नियुक्त हो, जिनसे एग्जाम में सहयोग मिल सके। वहीं,

सुरक्षा उपाय भी करने होंगे जिसके तहत हॉस्टल की छतों, बालकनी और पंखों जैसी जगहों पर सुरक्षा उपकरण लगाने होंगे। कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया है कि कोचिंग सहित सभी संस्थान अव्यवहारिक बैच विभाजन नहीं करें, खासकर प्रदर्शन के आधार पर। कहने का तातपर्य यह कि सभी संस्थान प्रदर्शन के आधार पर छात्रों को अलग अलग बैच में डालने से बचें क्योंकि इससे छात्रों में कुंठा की भावना पैदा होती है।

इसके अलावा, कोर्ट ने किसी भी तरह के उत्पीड़न पर कठोर रुख अपनाया है और जाति, लिंग, धर्म, दिव्यांगता, की शिकायत का मेकेनिजम बनाने का निर्देश दिया है। खासकर यौन आधार पर उत्पीड़न के प्रयासों पर त्वरित संजीदगी दिखाने को कहा है। कोर्ट ने इमरजेंसी में हेल्प प्रदान करने की भी बात कही है और संस्थानों में अस्पताल, हेल्पलाइनों के नंबर स्पष्ट अक्षरों में प्रदर्शित किए जाने के निर्देश दिए हैं। वहीं, सभी संस्थाओं के स्टाफ ट्रेनिंग पर जोर देते हुए सुझाव दिया है कि कर्मचारियों को साल में कम से कम दो बार ट्रेंड मेंटल हेल्थ प्रफेशनल से ट्रेनिंग दी जाए।

इसके अलावा, अभिभावकों (पैरंट्स) में भी जागरूकता लायी जाए। इस नजरिए से माता-पिता के लिए जागरूकता सेशन करें और उन्हें बच्चों में अत्यधिक प्रेशर न डालने को कहें। यदि यह सबकुछ कर लिया गया तो निःसन्देह ऐसी अप्रत्याशित घटनाएं रोकी जा सकती हैं।

गौरतलब है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने वर्ष 2022 के लिए भारत में आकस्मिक मृत्यु और आत्महत्या (एडीएसआई) रिपोर्ट जारी की थी जिससे जुड़ी एडीएसआई रिपोर्ट ही आत्महत्या से होने वाली मौतों पर देश में एकमात्र सार्वजनिक रूप से उपलब्ध डेटासेट है। बताते चलें कि 1966 में पहली बार प्रकाशित एडीएसआई ( ADSI ) की रिपोर्ट के बाद से आत्महत्या की दर में नाटकीय वृद्धि देखी गई है। साल 2022 में तो आत्महत्या की दर 2021 से 4.2% बढ़कर 08 से 12.2 प्रतिशत 100,000 जनसंख्या (1,64,033 से 1,70,924) हो गई,  जो 56 वर्षों में दर्ज की गई सर्वाधिक उच्चतम दर है।

इसी वर्ष यानी 2022 में ही भारत सरकार ने राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम रणनीति शुरू की, जो आत्महत्या रोकथाम के लिए एक देशव्यापी दृष्टिकोण को स्पष्ट करने की दिशा में एक सराहनीय कदम है। इस रणनीति में 2020 के आधार वर्ष की तुलना में आत्महत्या से होने वाली मौतों में 10% की कमी लाने का स्पष्ट लक्ष्य रखा गया है। हालाँकि, दर में तीव्र वृद्धि से इस लक्ष्य को प्राप्त करने में अंतर बढ़ गया है।

इस वर्ष के आंकड़ों से कुछ उल्लेखनीय अवलोकन से पता चलता है कि आत्महत्या के पीछे उम्र, क्षेत्र और पेशे भी कारक बन रहे हैं, इसलिए छात्र जीवन से ही इन पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है। जहां तक आत्महत्या और उम्र का सवाल है तो आंकड़े इस बात की चुगली करते हैं कि सभी आयु समूहों में आत्महत्या की दर औसतन 5 प्रतिशत बढ़ी है। वहीं,18 वर्ष से कम आयु के युवाओं को छोड़कर, जिनकी आत्महत्या दर में मामूली गिरावट देखी गई। 

वहीं, 2022 में कुल आत्महत्याओं में 18-30 वर्ष की आयु के युवा वयस्कों की हिस्सेदारी 35 प्रतिशत थी, जो सबसे बड़ी हिस्सेदारी थी। इसके बाद 30 से 45 वर्ष की आयु के  वयस्कों का स्थान था, जिनकी हिस्सेदारी कुल आत्महत्याओं के अनुपात में 32 प्रतिशत थी। जबकि देश में आत्महत्या से होने वाली मौतों में दोनों आयु समूहों का संयुक्त योगदान 67 प्रतिशत है।

वहीं, आत्महत्या और भूगोल यानी क्षेत्र का भी गहरा सम्बन्ध है। इसलिए देश भर में आत्महत्या की दर में काफी भिन्नता है। जहां बिहार में यह दर प्रति 100,000 जनसंख्या पर 0.6 है तो यह सिक्किम में प्रति 100,000 जनसंख्या पर 43.1 तक पहुंच चुका है। यह भिन्नता महत्वपूर्ण थी और छोटे राज्यों या केंद्र शासित प्रदेशों में सबसे अधिक स्पष्ट थी जहां जनसंख्या कम है जिसके परिणामस्वरूप रिपोर्ट की गई दरें अधिक थीं।

वहीं, भौगोलिक दृष्टि से बड़े और अधिक जनसंख्या वाले राज्यों में केरल में प्रति 100,000 जनसंख्या पर 28.5 की दर सबसे अधिक थी, उसके बाद छत्तीसगढ़ में 28.2 और फिर तेलंगाना में 26.2 थी। वहीं, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और मध्य प्रदेश, जो पूर्ण संख्या के आधार पर शीर्ष तीन राज्य हैं, सामूहिक रूप से देश में होने वाली सभी आत्महत्याओं का एक तिहाई हिस्सा हैं और इनकी आत्महत्या दर क्रमशः 18.1, 25.9 और 17.9 है।

इसप्रकार, आत्महत्या में सबसे ज़्यादा वृद्धि मिज़ोरम में हुई जहाँ 2021 और 2022 के बीच आत्महत्याओं में 54.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। पूर्वोत्तर में पड़ोसी राज्य मणिपुर में सबसे ज़्यादा 47 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। छोटे राज्यों में आत्महत्याओं की कुल संख्या में काफ़ी अंतर होने की संभावना है। वहीं, बड़े राज्यों में, हिमाचल प्रदेश में आत्महत्याओं की रिपोर्ट में उल्लेखनीय गिरावट आई है, जो 2021 और 2022 के बीच 28 प्रतिशत कम हो गई है। बिहार, पश्चिम बंगाल और पंजाब में भी आत्महत्याओं में क्रमशः 15 प्रतिशत, 6.2 प्रतिशत और 6.1 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है।

जबकि, आत्महत्याओं में सबसे ज़्यादा वृद्धि उत्तर प्रदेश में देखी गई, जो एक घनी आबादी वाला राज्य है, जहाँ आत्महत्याओं में 38 प्रतिशत की वृद्धि हुई। तीसरी सबसे ज़्यादा वृद्धि जम्मू-कश्मीर में हुई, जहाँ यह वृद्धि 31 प्रतिशत रही, उसके बाद झारखंड में 19.5 प्रतिशत रही।

जहां तक आत्महत्या के बताए गए कारण का सवाल है तो यह कहना उचित होगा कि आत्महत्याएँ किसी एक कारण से नहीं होतीं। और न ही ये सामाजिक, सांस्कृतिक, व्यवस्थागत और आर्थिक कारकों से अलग, शून्य में होती हैं। जबकि आत्महत्या पर एनसीआरबी की रिपोर्टें भ्रामक रूप से मौतों का एक ही कारण बताती हैं। लगभग 75 प्रतिशत आत्महत्याएं निम्नलिखित कारणों से होती हैं।

पारिवारिक समस्याएं और शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति के कारण उत्पन्न संकट, आत्महत्या के सभी कारणों में से 50 प्रतिशत से अधिक के लिए जिम्मेदार हैं। विवाह और रिश्तों से जुड़ी चिंताओं को मिलाकर मृत्यु का तीसरा कारण बताया गया। यह उन कुछ कारणों में से एक था जहाँ पुरुषों में आत्महत्या से होने वाली मौतों की संख्या महिलाओं में आत्महत्या से होने वाली मौतों के लगभग बराबर थी। और दहेज संबंधी कारणों से, महिलाओं में आत्महत्या से होने वाली मौतें पुरुषों से ज़्यादा थीं।

वहीं, शराब और मादक पदार्थों का सेवन तथा आर्थिक और वित्तीय असुरक्षा (ऋण, गरीबी और बेरोजगारी) दोनों ही आत्महत्या से होने वाली 14 प्रतिशत मौतों का कारण थे। चिंताजनक बात यह है कि शराब और मादक पदार्थों के सेवन के कारण आत्महत्या से होने वाली मौतों में 2021 से 2022 तक सबसे अधिक वृद्धि देखी गई, जो 10 प्रतिशत तक बढ़ गई।

जहां तक आत्महत्या और व्यवसाय के सम्बन्धों का सवाल है तो आंकड़े बताते हैं कि इनका भी इससे गहरा सम्बन्ध है।एनसीआरबी आत्महत्या से मरने वाले लोगों के पेशे पर रिपोर्ट करता है। सभी आत्महत्याओं में से लगभग 77 प्रतिशत छह पेशेवर श्रेणियों में होती हैं। पिछले साल की तरह, इस साल भी आत्महत्या से होने वाली सभी मौतों में एक-चौथाई से ज़्यादा हिस्सा दिहाड़ी मज़दूरों का है, जो पिछले साल से 8 प्रतिशत ज़्यादा है।

एनसीआरबी द्वारा गृहिणियों को दूसरे सबसे ऊंचे वर्ग में वर्गीकृत किया गया था। इस व्यापक समूह में कुल आत्महत्याओं का 15 प्रतिशत हिस्सा था और 2021 से 2022 तक इसमें 9 प्रतिशत की सबसे बड़ी वृद्धि भी देखी गई। वहीं, स्व-रोज़गार करने वालों में आत्महत्या की दर कुल आत्महत्याओं की संख्या का 11 प्रतिशत थी जो तीसरे स्थान पर थी, उसके बाद वेतनभोगी लोगों में यह दर 10 प्रतिशत थी। वेतन पाने वालों में आत्महत्या की दर पिछले वर्ष की तुलना में 3 प्रतिशत बढ़ी। वहीं, कुल आत्महत्याओं में बेरोजगार लोगों और छात्रों दोनों की हिस्सेदारी 8 प्रतिशत थी।

इस प्रकार साल 2022 में भारत में आत्महत्या की दर एक नए शिखर पर पहुँच गई। वहीं, वर्ष 2024 में भी आत्महत्या की घटनाओं में वृद्धि हुई। इस साल हुई कुल 1388 मौतों में 612 आत्महत्या की घटनाएं हुई हैं। जबकि इससे एक साल पहले भी 515 आत्महत्या की घटनाएं हुईं थीं। इससे पूरे देश में फैली इस मानसिक महामारी की जटिल स्थिति का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि आत्महत्या के कारण मानसिक स्वास्थ्य, पारिवारिक तनाव, आर्थिक समस्याएं और सामाजिक दबाव हैं। इसलिए देश में आत्महत्या की घटनाओं में भी बड़ी वृद्धि देखने को मिली है। 

यह कड़वा सच है कि यदि इस समय कोई तत्काल और ठोस कार्रवाई नहीं की गई, तो यह दर और भी ज़्यादा बढ़ने की आशंका है। इसलिए एक समर्पित आत्महत्या रोकथाम रणनीति सही दिशा में एक कदम है। लेकिन जैसा कि आंकड़े दर्शाते हैं, वास्तविक बदलाव लाने के लिए राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में हस्तक्षेप की आवश्यकता है। ऐसे हस्तक्षेप प्रत्येक क्षेत्र के विशिष्ट संदर्भ के अनुरूप होने चाहिए, व्यापक उप-राष्ट्रीय योजनाओं की आवश्यकता होनी चाहिए और महत्वपूर्ण प्रणालीगत, सामुदायिक, पारस्परिक और सामाजिक गतिशीलता को संबोधित करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों और हितधारकों की भागीदारी की आवश्यकता होनी चाहिए। तब तक, एनएसपीएस के अंतर्गत निर्धारित लक्ष्य को पूरा करना एक दूरगामी लक्ष्य बना रहेगा। इसलिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सटीक समय पर अपनी टिप्पणी की और नए दिशानिर्देश जारी किए। इससे उम्मीद है कि शिथिल प्रशासनिक मिशनरी में गति आएगी। 

कमलेश पांडेय

ये मोबाइल रिश्ते का हो गया है भस्मासुर

—विनय कुमार विनायक
मैं ढूँढ रहा हूँ अपनों में अपनापन
इंसान में इंसानियत आदमी में आदमियत
कि आज मानव से मानवता हो गई लापता!

मैं सोच नहीं पाता हूँ कि किसने की खता
मैं रहता हूँ मौन मैं करता नहीं किसी को फोन
मैं खोजता हूँ अपनों के बीच वैसा ही रिश्ता
जो बगैर फोन का बन जाया करता था फरिश्ता!

मैं सोचता हूँ जब नहीं था मोबाइल
तब मानव का दिल इतना नहीं था घायल
मानव में इतनी संवेदना होती थी जीवित
कि आसानी से मिल जाता था हर मंजिल!

जब मोबाइल की ईजाद नहीं हुई थी
तब मानव की जिंदादिली भी गुमशुदा नहीं थी
अब मोबाइल ने मन में भर दी ऐसी पेचीदगी
कि अपनों में अपनापन नहीं सिर्फ दगा दगी!

मैं खोजता हूँ वैसा कोई सगा
जिसने किसी रिश्ते को कभी नहीं हो ठगा
जो कभी देते नहीं किसी को दगा
कि मैं भी हूँ कुछ ऐसा ही आदमी अभागा!

आज फिर से चाहिए वैसा इंसानी कारिंदा
जो बिना फोन के भी रह सके जिंदा
मैं तलाशता हू उन पहले जैसे संबंधों को
जो संबंध निभाए या नहीं निभाए
पर खुद के बचाव मे दूसरे की ना करे निंदा!

जो नेकनीयत औ’ सीधा साधा हो बंदा
जो गलत किए पर हो सके शर्मिंदा
जो करता नहीं गलत-सलत गोरखधंधा
जो समझे नहीं भले आदमी को गंदा
जो पापी को कह सके पापी और दरिंदा!

मैं चाहता सबको मिले संबंधी वैसा
जो चले कंधे से मिला कर कंधा
जो संबंध को समझे नहीं बंधन या फंदा!

मैं खोजता हूँ उन बड़े लोगों को
जो छोटे को आशीर्वाद देना गए नहीं हो भूल
मैं खोजता हूँ उन छोटे लोगों को
जो बड़े से आशीष लेने का भूले नहीं हो उसूल!

अब खोजने से भी क्या फायदे वैसे रिश्ते
जो जानबूझ कर हो गए बेगाने
आज आदमी आदत से हो गया है मजबूर
ये मोबाइल रिश्ते का हो गया है भस्मासुर!

ले देकर आठोयाम रह गया एक ही बेकार काम
दूसरे के भले बुरे विचारों का वाट्सएप पर आदान प्रदान
जिसमें अपना कुछ नहीं रहता दिमागी योगदान
अब बड़े मतलबी हो गए आदमी बहुत बदल गए इंसान!

हर चीज मौजूद है इस मोबाइल में
मगर कुछ भी संवेदना नहीं आदमी के दिल में
अब किसी का घर नहीं आना जाना
अब झूठ फरेब का है जमाना बहाना ही बहाना!

अब सारे रिश्तेदार न्योता विजय लितहार
एकसाथ सभी निमंत्रण मोबाइल से भेज देते है यार
एक पैसे का खर्चा नहीं सुख दुख की भी चर्चा नहीं
किसकी कैसी आर्थिक स्थिति कैसा है घर का इंतजाम
एक दूसरे का घर आए गए बिना होता नहीं अनुमान!

अब तो रील बनाने और चैटिंग करने में लोग मशगूल
अपनों के प्रति कर्तव्य निभाना नहीं रिश्तेदार को कबूल
अब पराए लोगों को इम्प्रेस करना अपनों से दूरी बनाना
यही इस मोबाइल युग की हकीकत और यही अफ़साना!
—विनय कुमार विनायक