देश के आधे किसान कर्ज के बोझ तले दबे हैं, सरकार ने इस बात को संसद में स्वीकार किया है। कृषि मंत्री शरद पवार ने गत सप्ताह सदन को बताया कि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन यानी एन.एस.एस.ओ ने अपने ताजा सर्वे में पाया है कि देश के कुल किसान परिवारों में से 48.6 प्रतिशत ऋणग्रस्त हैं। आश्चर्य इस बात का है कि किसानों की तमाम तरह की सरकारी मदद दिए जाने के बावजूद उनके कर्जदार, कंगाल और अंततोगत्वा मौत को गले लगा लेने की घटनायें बढ़ती ही जा रही हैं। सबसे ज्यादा आश्चर्य इस बात पर है कि रिपोर्ट में पंजाब, आंध्र, महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे राज्यों में सर्वाधिक ऋणग्रस्तता बतायी गयी है जो कि प्रगतिशील खेती करने वाले राज्य हैं, जिनके यहां शेष भारत की अपेक्षा कृषि जोतें अधिक बड़ी हैं और जिनका कृषि उत्पादन सदैव अच्छा रहा है। देश के छह राज्यों में यह स्थिति ज्यादा घातक है। सरकार द्वारा इन्हें ऋणमुक्त करने के लिए अब तक अपनाये गये सभी प्रयास फेल साबित हुए हैं।
भारत को अभी भी गांवों का देश कहा जाता है और 70 प्रतिशत से ज्यादा ही आबादी आज भी न सिर्फ गाॅवों में निवास करती है बल्कि देश के कुल श्रमिकों में से लगभग आधे खेती में ही समायोजित हैं। वैश्विक मंदी का देश पर असर नहीं पड़ा, हमारे खाद्य गोदामों में अनाज रखने की जगह नहीं है और हमारा भंडार मानक से दो गुना अधिक है, खाद्यान्न उत्पादन वृद्धि स्थिर है, यह सब अक्सर भारतीय कृषि की महानता को लेकर बताया जाता है। बीज, कीटनाशक, रासायनिक उर्वरक तथा ईंधन आदि भी उन्हें सरकार द्वारा रियायती दरों पर दिया जाता है और आजादी के बाद से अब तक की गई किसानों की सबसे बड़ी मदद के रुप में सरकार ने उन्हें 65,000 करोड़ रुपयांे की कृषि ऋण माफी भी वर्ष 2008 में दी। इन सबके बावजूद किसान को खुशहाल कौन कहे अगर वे ऋणमुक्त भी नहीं हो पा रहे हैं तो सोचना ही पड़ेगा कि खामी कहां है!
विदर्भ और बुंदेलखंड का उदाहरण हमारे सामने है। इन दोनों क्षेत्रों में सरकार द्वारा हजारों करोड़ रुपया अब तक व्यय कर देने के बावजूद स्थिति सुधरने को कौन कहे उल्टे बिगड़ती ही जा रही है। मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के बीच का इलाका जिसे हम बुंदेलखण्ड के नाम से जानते हैं, अब देश का दूसरा विदर्भ बनता जा रहा है। कृषि के लिए वर्षों से विपरीत रही परिस्थितियां ने यहां के लोगों विशेषकर किसानों को बैंकों या साहूकारों से कर्ज लेने को मजबूर कर दिया। अगली फसल अच्छी होने की आशा में लिया गया कर्ज बढ़ता गया और जमीन बिकने की नौबत आयी तो गरीब लेकिन स्वाभिमानी किसान ने इतनी सारी जलालत झेलने के बजाय मौत को गले लगाना उचित समझा। यह समझना चाहिए कि आत्महत्या करने जैसा कदम कोई तब उठाता है जब उसको सारे रास्ते बंद नजर आने लगते हैं। कर्जमाफी खत्म करने के कई उपाय करने के बावजूद अगर लोगों का विश्वास नहीं सरकार में नहीं बन रहा है तो यह देखा जाना चाहिए कि इसे और भरोसेमंद कैसे बनाया जा सकता है।
यह समझ लेना जरुरी है कि जिस तरह किसी मरीज को महज खून चढ़ाकर जीवित नहीं रखा जा सकता उसी तरह सामुदायिक रसोई चलाकर और एकाध राउण्ड में कर्ज माफ कर किसानांे की स्थाई मदद नहीं की जा सकती। सरकार ने कुछ किसानों का कर्ज माफ कर दिया, सो ठीक रहा अन्यथा उसे या तो बंधक रखी जमीन नीलाम करानी पड़ती या जेल जाना पड़ता लेकिन किसान को दुबारा कर्ज न लेना पड़े या अगर वह ले तो उसका भुगतान कर सके, इसकी परिस्थितियाॅ बनाई ही नहीं जा रही हैं। देश में सबसे पहले विदर्भ (महाराष्ट्र) के किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं को थामने के लिए ऋणमाफी और सहायता के पैकेज दिये गये। विदर्भ में किसानों द्वारा आत्महत्या करने का औसत प्रतिवर्ष 1000 से भी ज्यादा है। वहाॅ अब तक 4000 करोड़ रुपये से अधिक की कंेद्रीय सहायता दी जा चुकी है लेकिन हालात में जरा भी फर्क नहीं आया है। ऐसा ही बुंदेलखंड में हो रहा है जहाॅ कई हजार करोड़ रुपये खर्चने और कर्ज माफी के बावजूद किसानों द्वारा आत्महत्या करने को वो भयावह सिलसिला जारी है कि पिछले महीने उ.प्र. उच्च न्यायालय ने समााचार पत्रांे में छप रही खबरों का स्वतः संज्ञान लेते हुए न सिर्फ वहां हो रही हर प्रकार की सरकारी वसूली पर रोक लगा दी अपितु उ.प्र. सरकार को वहां चल रही राहत योजनाओं की सम्पूर्ण जानकारी देने के लिए अदालत में भी तलब किया।
आज देश के किसी भी क्षेत्र के किसान के लिए सबसे ज्यादा आवश्यक है वह आत्म निर्भरता जो उसे खेती से प्राप्त हो। खेती से आत्मनिर्भरता तभी आ सकती है जब या तो उसे उसकी उपज का बाजार के समतुल्य दाम मिले या फिर एक निश्चित जोत पर एक निश्चित सरकारी प्रतिपूर्ति की पक्की व्यवस्था हो जैसा कि पश्चिम के कई विकसित देशों में बहुत दिनों से है। यह सच है कि सरकार प्रतिवर्ष खाद्यान्नों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती हैं, लेकिन यह मूल्य किस मंहगाई को मानक मानकर निर्धारित किया जाता यह रहस्य ही होता है। इस खिलवाड़ को ऐसे समझा जा सकता है कि जब बाजार में उपलब्ध तमाम वस्तुओं के दामों में उनकी नाप-तौल की मानक इकाई के अनुसार 500 रुपये से 5000 तक की वृद्धि हो जाती है तो सरकार गेहूं और धान में 25-30 रुपये प्रति कुंतल की बढ़ोत्तरी कर देती है! वर्ष 1967 में एक कुंतल गेंहूं बेचने पर किसान 121लीटर डीजल खरीद सकता था, लेकिन आज वह एक कुंतल में महज 26 लीटर ही पाता है! ऐसा क्योंकर संभव हुआ? एक किसान को बाजार भाव पर टिकाये रखने के लिए क्या यह जरुरी नहीं था कि जैसे-जैसे बाजार चढ़े वैसे-वैसे किसान के उत्पाद का दाम भी सरकार चढ़ाये?यह जिम्मेदारी सरकार की इसलिए भी थी कि देश में खेती के अलावा छोटे से छोटा भी कोई ऐसा उद्योग-धंधा नहीं है जिसके उत्पाद का दाम सरकार लगाती हो! आप को जानकर आश्चर्य होगा कि बीते दशक में तो ऐसा भी हुआ है कि 4-5वर्षो के बीच में सरकार ने गेहॅू और धान के दामों में केवल 10रुपये की ही वृद्धि की! यानी 2रुपया सालाना!
किसी भी देश के लिए कृषि प्राणतत्व होती है। सम्पन्न से सम्पन्न व्यक्ति भी रोटी ही खाता है। देश की आबादी हर दसवें साल एक देश के बराबर बढ़ रही है। भारतीय कृषि पर तो वैसे भी वैश्विक दबाव हैं क्योंकि कृषि जमीन की यहाॅ प्रचुरता होने के कारण विश्व के वे देश जिनके यहाॅ प्राकृतिक कारणों से पर्याप्त खाद्यान्न नहीं पैदा हो पाता, वो भी भारत सरीखे देशों पर निर्भर करते हैं कि हम अपनी जरुरत से कहीं अधिक अनाज पैदा कर उन्हें बेच दें। यह जानना दिलचस्प होगा कि खाद्यान्न की कमी से डरे ऐसे कई देश दूसरे देशों में भारी मात्रा में जमीन खरीद रहे हैं ताकि वहां वे अनाज पैदा कर अपने देश को ला सके। ऐसे में भारतीय किसान की रक्षाकर उसे हर हाल में खेती की तरफ उन्मुख किये रहना अत्यंत आवश्यक है। खेती से ऊबा किसान तो अपने खाने भर को पैदा करने के बाद मजदूरी भी कर लेगा लेकिन तब हम कहीं 1970 के पहले वाली हालत में न पहुॅच जाॅय जब हम दुनिया के खाद्यान्न सम्पन्न देशों के सामने कटोरा फैलाये खड़े रहते थे। इसलिए तमाम तरह की रियायतों और कर्जमाफी के बजाय किसान को खेती द्वारा आत्म्निर्भर बनाने के प्रयास किये जाने चाहिए।
सियासी गलियारों में प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह की बिदाई की उल्टी गिनती आरंभ हो चुकी है। अब अटकलें लगाई जा रही हैं कि सोनिया गांधी के लिए मनमोहन के स्थान पर कौन सा चेहरा मुफीद होगा। एक तीर से कई शिकार करने के आदी कांग्रेस के रणनीतिकार अब मनमोहन के उत्तराधिकारी के तौर पर लोकसभाध्यक्ष मीरा कुमार एवं बिजली मंत्री सुशील कुमार शिंदे के नामों से उपजने वाली स्थितियों का अध्ययन कर रहे हैं। दरअसल कांग्रेस चाह रही है कि प्रधानमंत्री बदलकर वह एक ओर तो घपले, घोटाले और भ्रष्टाचार की अपनी छवि से पीछा छुड़ा लेगी और दूसरी ओर दलित कार्ड खेलकर इसका लाभ उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में उठा लेगी। यूपी इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि राहुल और सोनिया गांधी का संसदीय क्षेत्र भी इसी सूबे में है, अगर वहां कांग्रेस अपनी नाक नहीं बचा पाई तो भद्द तो आखिर राजमाता और युवराज की ही पिटनी है।
वास्तु के फेर में अण्णा!
हिन्दुस्तान मूल का वास्तु जब पश्चिमी सभ्यता की सील लगाकर वापस आया है तबसे यह लोगों के सर चढ़कर बोल रहा है। क्या उद्योगपति, क्या लोकसेवक, क्या जनसेवक हर कोई वास्तुविदों की मंहगी फीस का भोगमान भोगकर अपने अपने घरों दुकानों का वास्तु दोष दूर करवा रहे हैं। इसी साल अगस्त के बाद चर्चाओं में आए अण्णा हजारे को भी वास्तुविदों ने घेर लिया और फिर क्या था अण्णा के घर का वास्तु ठीक करवाने में जुट गए वास्तुविद। दिल्ली से लौटे अण्णा को वास्तु दोष ठीक होने तक मजबूरी में पद्यावती मंदिर के गेस्ट हाउस को अपना आशियाना बनाकर रहना पड़ा। एक सप्ताह से अण्णा मौन व्रत धारण किए हुए अण्णा का जब पुराना आवास ठीक हुआ तब जाकर वे अब अपने यादव माता मंदिर वाले आवास में चले गए हैं।
मनमोहन और प्रणव का हनीमून समाप्त
कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी का केम्प छोड़कर प्रधानमंत्री के तारणहार बने वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी अब वजीरे आजम से खफा खफा नजर आ रहे हैं। मंत्रीमण्डल विस्तार के एन पहले इस तरह की चर्चाएं सियासी फिजां में छा गईं थीं कि मुखर्जी ने सोनिया का दामन छोड़ अब मन से मन मिला लिया है। कहा जा रहा है कि मनमोहन सिंह ने उन्हें उप प्रधानमंत्री बनाने का वायदा भी किया था जो गृह मंत्री पलनिअप्पम चिदम्बरम के त्यागपत्र की धमकी के कारण सपना ही रह गया। इसके बाद प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा एक चिट्ठी को मीडिया में लीक किए जाने से प्रणव दा बुरी तरह आहत हुए और उन्होंने सोनिया गांधी से मिलकर सारी की सारी शिकायतें एक ही सांस में कह डाली। घपले, घोटाले, भ्रष्टाचार, बाबा रामदेव, अण्णा हजारे पर गूंगी गुड़िया बनीं सोनिया गांधी इसी इंतजार में थीं। उन्होंने प्रणव की बातें सुनकर मनमोहन को अल्टीमेटम देने का मन बना ही लिया है।
पेंच का पेंच फंसा जुलानिया के गले में
मध्य प्रदेश और केंद्र सरकार के बीच ग्यारह साल से झूला झूल रही मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा और सिवनी जिले की महात्वाकांक्षी पेंच परियोजना वैसे तो पच्चीस साल से अधिक उमर की हो चुकी है। चुनावों के दौरान राजनैतिक दल इसे उछालकर अपना मतलब साध लिया करते हैं बाद में मामला ठंडे बस्ते के हवाले ही कर दिया जाता है। हाल ही में भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी राधेश्याम जुलानिया जो एमपी में ईरीगेशन के पीएस भी हैं का सार्वजनिक अभिनंदन होते होते बचा सिवनी में। दिल्ली में डीओपीटी यानी कार्मिक विभाग के एक अधिकारी कक्ष में चल रही चर्चा के अनुसार एमपी विधानसभा के उपाध्यक्ष हरवंश सिंह जो कि कांग्रेसी नेता हैं से चर्चा में मशगूल जुलानिया द्वारा सूबे की सत्ताधारी भाजपा के नेताओं को अंडर एस्टीमेट कर दिया। फिर क्या था जनता उग्र हो गई। किसी तरह जुलानिया वहां से अपनी इज्जत बचाकर भागे।
नायर को राजभवन के लिए सोनिया की हरी झंडी
सोनिया गांधी पीएमओ में सबसे ज्यादा किसी से खफा थीं तो वह थे प्रमुख सचिव टी.के.नायर से। उनकी सेवानिवृति के उपरांत उन्हें पीएम ने अपना सलाहकार बना लिया। इससे सोनिया का गुस्सा सातवें आसमान पर आ गया। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने जब सोनिया को बताया कि उनके और चिदम्बरम के बीच रार को भड़काने में नायर की भूमिका अच्छी खासी रही है तो सोनिया ने आनन फानन उन्हें वहां से हटाने का निर्देश दे दिया। अब समस्या यह है कि नायर को आखिर भेजा कहां जाए। अमूमन बड़े नौकरशाह सेवा निवृति के बाद भी सारी सुविधाएं चाहते हैं। इसलिए सोनिया को कहा गया कि नायर को राज्यपाल बना दिया जाए तो उचित होगा। पहले तो सोनिया इसके लिए तैयार नहीं हुईं बाद में राजस्थान राजभवन के लिए उन्होंने नायर के नाम पर अपनी सहमति दे ही दी।
दादा की लाड़ली होंगी अब उत्तराधिकारी
दादा यानी राजग के पीएम इन वेटिंग रहे एल.के.आड़वाणी की लाड़ली यानी प्रतिभा उनके साथ अब राजनैतिक तौर पर सक्रिय हो चुकी हैं। वे दादा की संभावित अंतिम रथ यात्रा में उनका कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। प्रत्यक्षतः तो वे दादा का ख्याल रखने उनके साथ चल रही हैं किन्तु इसके कई अनेक मायने और हैं। दादा के साफ निर्देश हैं कि रथ यात्रा में अभिवादन वे और उनकी लाड़ली ही स्वीकार करेंगी। देश भर में दादा की रथ यात्रा के बहाने प्रतिभा भी सर्व स्वीकार्य ही हो जाएं एसी चाहत है दादा की। सालों साल राजनीति करने वाले तिरासी बसंत देख चुके एल.के.आड़वाणी की सेहत अब जवाब देने लगी है। वे समय रहते अपना राजनैतिक उत्तराधिकारी नियुक्त करना चाह रहे हैं। उनके पुत्र की दिलचस्पी राजनीति में ज्यादा नहीं है, सो बिटिया ही दादा का नाम रोशन करेंगीं।
. . . तो क्यों दौड़े गए थे दिल्ली
अगस्त 2011 से देश में चर्चा का केंद्र बन चुके गांधी वादी समाजसेवी अण्णा हजारे और उनके गांव रालेगण सिद्धि पर अब समूचे विश्व की नजर है। अगस्त में लोग अण्णा में गांधी की छवि देख रहे थे। उसके बाद टीम अण्णा की हरकतों के कारण वे विवादित होते गए। अण्णा के गांव के सरपंच सुरेश पठारे को पता नहीं क्या सूझी कि वे अपने साथियों के साथ दिल्ली कूच कर गए और जाते जाते मीडिया को स्कूप दे गए कि कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के बुलावे पर वे दिल्ली जा रहे हैं। सरपंच दिल्ली आए और बेआबरू होकर वापस लौट गए। राहुल गांधी ने उनसे मिलने की जहमत नहीं उठाई। कहा जा रहा है कि सांसद पी.टी.थामस ने यह मुलाकात अरेंज करवाई थी। राहुल के करीबियों का कहना था कि मिलना था तो मीडिया को मिलने के बाद बताना था, पहले से हल्ला कर मिलने का क्या मतलब!
क्या चिटनिस पर होगी कार्यवाही!
मध्य प्रदेश की शिक्षा मंत्री अर्चना चिटनिस सरकारी दौरे पर दिल्ली आईं और कोहराम मचाकर चली गईं। चिटनिस ने शिक्षा मंत्रियों के सम्मेलन में भारतीय मूल की शिक्षा पद्यति को जमकर सराहा और उसे अपनाने की बातें कहकर देशप्रेम जताया। वहीं चौबीस घंटे भी नहीं बीते और अर्चना चिटनिस एक ब्रितानी संस्था के प्रोग्राम की चीफ गेस्ट की आसंदी पर जा बैठीं। ब्रिटिश काउंसिल द्वारा शिक्षकों और शालाओं को पुरूस्कार दिए जाने वाले इस प्रोग्राम में उनके सूबे का एक भी शाला या शिक्षक स्थान नहीं पा सका। देश के हृदय प्रदेश की शिक्षा मंत्री के चोबीस घंटे में ही दो चेहरे देखकर दिल्लीवासी हतप्रभ हैं। सियासी गलियारों में यह बात जमकर उछल रही है कि क्या शिक्षा मंत्री इस तरह से दो चेहरे जनता को दिखाएंगी और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ ही साथ संगठन क्या यह सब महाराज ध्रतराष्ट्र के मानिंद देखकर मौन रहेंगे।
ये रहे एलआईसी के दो चेहरे!
जीवन के साथ भी जीवन के बाद भी का नारा बुलंद करने वाले भारतीय जीवन बीमा निगम के दो चेहरे अब जनता के सामने आए हैं। लोगों का जीवन बचाने के लिए उन्हें आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने वाली सरकारी कंपनी भारतीय जीवन बीमा निगम ने तीन मार्च तक तीन सिगरेट कंपनियों में 3561 करोड़ रूपए का निवेश किया है। एलआईसी ने इंडियन टुबेको कंपनी, गुटखा कंपनी धर्मपाल लिमिटेड और एक अन्य को आर्थिक इमदाद दी है। जनकल्याणकारी संस्था एलआईसी का मौखटा उतारने पर पता चलता है कि वह लोगों को कैंसर के मुंह में ढकेल रही है इसके लिए उसने आईटीसी में अपना निवेश दुगना कर दिया है। सरकारी कंपनी ने अपने निवेशकों को बताए बिना ही पैसा जनसंहार के हथियार में लगा दिया है।
राज्यसभा की फिराक में निशंक
उत्तराखण्ड में मुख्यमंत्री की हाट सीट से उतरने के बाद रमेश पोखरियाल निशंक के तेवर कुछ तल्ख समझ में आ रहे हैं। निशंक के करीबी आला कमान पर दबाव बना रहे हैं कि उन्हें राज्यसभा के रास्ते केंद्रीय राजनीति में भेजा जाए। उधर आला कमान निशंक का उपयोग राज्य में दुबारा सत्ता पाने के लिए करना चाह रहा है। निशंक नुकसान न पहुंचाएं और उनका उपयोग भी हो जाए इसलिए पार्टी चाह रही है कि निशंक को विधानसभा अध्यक्ष बना दिया जाए। अगर निशंक स्पीकर बनते हैं तो स्पीकर को खण्डूरी मंत्रीमण्डल में कबीना मंत्री बना दिया जाएगा। दरअसल पार्टी की नेशनल लेबल की दूसरी लाईन को नेताओं को भय है कि निशंक अगर केंद्र में आए तो उनकी लाईन छोटी हो सकती है।
आईएएस देंगे तिहाड़ के आधा दर्जन कैदी!
सत्तर के दशक के उत्तरार्ध मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्वकाल में जब इंदिरा गांधी को तिहाड़ जेल भेजा गया था तबसे जबर्दस्त चर्चाओं में आया तिहाड़। इस जेल में राजनेताओं के साथ ही साथ एक से एक जरायमपेशा लोग बंद रहे हैं। तिहाड़ की जेल नंबर तीन में हत्या अपहरण, लूट, धोखाधड़ी की सजा काट रहे छः कैदियों द्वारा नया इतिहास लिखने की तैयारी की जा रही है। जेल प्रशासन भी इन कैदियों के जज़़्बे को सलाम करता नजर आ रहा है। जेल प्रशासन द्वारा भी इन कैदियों के लिए परीक्षा की तैयारियों के लिए जरूरी पाठ्य सामग्री मुहैया करवाई जा रही है। 2009 में बलात्कार के मामले में सजा काटने वाले एक कैदी को सिविल सेवा की परीक्षा पास करने पर रिहा भी किया गया था। सरकारी प्रचार के लिए जिम्मेदार पीआईबी या राज्यों के जनसंपर्क विभाग के अधिकारियों का नेता प्रेम बड़ा कारण है कि जेल का यह दूसरा चेहरा कम ही लोगों के सामने आ पाता है।
इतनी गत तो मत करिए फ्रीडम फाईटर्स की!
देश को गोरे ब्रितानियों के हाथों मुक्त करवाने वाले आजादी के परवाने दीवाने स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों की तादाद आज मुट्ठी भर भी नहीं बची है। इनको सम्मान देने के बजाए भारतीय रेल अपने उपर एक बोझ स्वरूप ही इन्हें महसूस कर रहा है। स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों को मानार्थ रेल्वे पास जारी किए जाते हैं जिसके आधार पर वे निशुल्क यात्रा के अधिकारी हो जाते हैं। केंद्र सरकार के रेल मंत्री खुद लोकसभा में इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि अंडमान के राजनैतिक कैदियों को छोड़कर शेष स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों के पास राजधानी, शताब्दी और दुरन्तो गाडियों में वैध नहीं हैं। जनसेवकों के लिए अब इन मुट्ठी भर सैनानियों के वोट भी मायने नहीं रखते। कम से कम सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस तो इनके बलिदान और जज़्बे को सलाम कर इस दिशा में कुछ प्रयास करती।
पुच्छल तारा
मैं भी अण्णा तू भी अण्णा, अगस्त में अण्णा हजारे के पक्ष में चली बयार अब लोग गुनगुनाते नजर आते हैं। यवतमाल से राहुल तेलरांधे ने ईमेल भेजकर रोचक सच्ची जानकारी भेजी है। राहुल लिखते हैं कि जनसेवक और लोकसेवकों का हवाईजहाज और हेलीकाप्टर का लोभ समझ में आता है, पर गांधीवादी अण्णा हजारे आखिर किस लोभ में पुष्पक विमान की सवारी गांठ रहे हैं। अब तो अण्णा भी चार्टर्ड प्लेन और हेलीकाप्टर का लोभ नहीं छोड़ पा रहे हैं। पिछले दिनों अण्णा की सेवा में एक राजनेता के करीबी के स्वामित्व वाली निजी एविएशन कंपनी का चार्टर्ड प्लेन अण्णा की चाकरी में लगा था। अण्णा भी मजे से मुस्कुराते हुए इस हवाई जहाज की सवारी गांठकर हवा हवाई हो गए।
लीबिया को स्वतंत्र लोकतांत्रिक राष्ट्र घोषित किया जा चुका है। पश्चिमी प्रभुत्व वाले विश्व मीडिया के अनुसार इसे एक क्रूर तानाशाह से मुक्त कराया गया है। गत फरवरी से लीबिया में शुरु हुआ जनविद्रोह आंखिरकार आठ महीनों के संघर्ष के बाद पिछले दिनों कर्नल गद्दाफी की मौत पर अपने पहले चरण को पूरा कर चुका है। अब फिर वही प्रशन उठने लगे हैं कि क्या गद्दाफी व उनके परिवार के चंगुल से लीबिया के मुक्त होने के बाद वहां पूरी तरह से अमन, शांति व अवाम की सरकार का वातावरण शीघ्र बन पाएगा या फिर भविष्य में लीबिया का हश्र भी इराक जैसा ही होने की संभावना है? इसमें कोई शक नहीं कि 1969 में लीबिया के राजा इदरीस का तख्ता पलटने के बाद मात्र 27 वर्ष की आयु में लीबिया के प्रमुख नेता के रूप में स्वयं को स्थापित करने वाले कर्नल मोअम्मार गद्दाफी ने अपने लगभग 40वर्ष के तानाशाह शासन काल के दौरान जमकर मनमानी की। अपने विरोधियों व आलोचकों को कई बार बुरी तरह प्रताड़ित कराया। उनके शासनकाल में कई बार सामूहिक हत्याकांड जैसी घटनाएं उनके विरोधयों के साथ घटीं, कई बार उन्होंने अपने विरोधियों को कुचलने के लिए बड़े ही अमानवीय व क्रूरतापूर्ण आदेश भी दिए। निश्चित रूप से यही कारण था कि लीबियाई नागरिकों के एक बड़े वर्ग में उनके प्रति नंफरत तथा विद्रोह की भावना घर कर गई थी।
टयूनिशिया से शुरु हुए जनविद्रोह ने इसी वर्ष फरवरी में जब लीबिया को भी अपनी चपेट में लिया उस समय भी गद्दांफी ने अपने ही देश के अपने विरोधियों को कुचलने के लिए सैन्यशक्ति का खुला इस्तेमाल करना शुरु कर दिया था। साम्रायवादी शक्तियों को गद्दांफी व उसकी सेना द्वारा जनसंहार किए जाने का यह कदम विश्व में मानवाधिकारों का अब तक का सबसे बड़ा उल्लंघन नार आया। परिणामस्वरूप नाटो की वायुसेना ने लीबिया में सीधा हस्तक्षेप किया और आंखिरकार आठ महीने तक चले इस संघर्ष में जीत नाटो की ही हुई। लीबिया में राजनैतिक काम-काज संभालने के लिए अस्थाई रूप से बनी राष्ट्रीय अंतरिम परिषद् ने देश में अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया तथा शीघ्र ही चुनाव कराए जाने की घोषणा भी कर दी गई। मोटे तौर पर तो यही दिखाई दे रहा है कि एक क्रूर तानाशाह के साथ जो कुछ भी होना चाहिए था लीबिया में वही देखने को मिला। इरांक में सद्दाम हुसैन के शासन के पतन के समय भी लोकतांतित्रक विचारधारा के समर्थकों की ऐसी ही राय थी। परंतु क्या पश्चिमी देशों के विशेषकर अमेरिका के सहयोगी राष्ट्रों को दुनिया के प्रमुख तेल उत्पादक देशों मेंसत्ता पर काबिज वही तानशाह, क्रूर व अमानवीय प्रवृति के तानाशाह नार आते हैं जो अमेरिका या अन्यपश्चिमी देशों की मुट्ठी में रहना पसंद नहीं करते?
दुनिया बार-बार यह प्रश्न उठाती है कि तेल उत्पादक देशों के वे तानाशाह जिनके अमेरिका के साथ मधुर संबंध हैं वहां अमेरिका लोकतंत्र स्थापित करने की बात क्यों नहीं करता? जहां मानवाधिकारों का इस कद्र हनन होता हो कि महिलाओं को घर से बाहर निकलने तक की इजाजत न हो, वे सार्वजनिक कार्यक्रमों व खेलकूद में हिस्सा न ले सकती हों, स्कूल-कॉलेज न जा सकती हों, जहां बादशाह के विरुद्ध आवाज बुलंद करने वालों के मुंह बलपूर्वक बंद कर दिए जाते हों, जहां कभी लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया के दौर से देश की जनता न गुजरी हो वहां आखिर लोकतंत्र स्थापित करने की बात पश्चिमी देशों द्वारा क्यों नहीं की जाती? परंतु यदि इन सब नकारात्मक राजनैतिक परिस्थितियों के बावजूद ऐसे देश अमेरिका के पिट्ठू हों फिर तो ऐसे देशों में इन्हें तानाशाही स्वीकार्य है और यदि यही तानाशाह सद्दाम अथवा गद्दांफी की तरह अमेरिका की आंखों मे आखें डालकर देखने का साहस रखते हों तो गोया दुनिया में इनसे बुरा व क्रूर तानाशाह कोई भी नहीं? इन हालात में स्थानीय विद्रोह को हवा देने में यह पश्चिमी देश देर नहीं लगाते। कम से कम इरांक और लीबिया के हालात तो यही प्रमाणित कर रहे हैं।
पिछले दिनों फरवरी में जब लीबिया में विद्रोह की चिंगारी भड़की तथा गद्दाफी ने अपनी सैन्य शक्ति के द्वारा उस विद्रोह को कुचलने की कोशिश की उस समय भी मैंने एक आलेख गद्दाफी व लीबिया के विषय में लिखा था। मेरे उस आलेख के जवाब में एक ऐसे भारतीय नागरिक ने मुझे विस्तृत पत्र लिखा था जो कई वर्षों तक लीबिया में डॉक्टर की हैसियत से रह चुका थातथा वहां की विकास संबंधी जमीनी हंकींकतों से भलीभांति वांकिंफ था। उसने लीबिया के विकास की विशेषकर सड़क, बिजली,पानी,शिक्षा तथा उद्योग के क्षेत्र में लीबिया की जो हकीकत बयान की वह वास्तव में किसी विकसित राष्ट्र जैसी ही प्रतीत हो रही थी। हां गद्दाफी के क्रूर स्वभाव को लेकर लीबिया की जनता में जरूर गद्दांफी के प्रति विरोध की भावना पनप रही थी। जनता की इस भावना का पहले तो गद्दांफी के स्थानीय राजनैतिक विरोधियों ने लाभ उठाया और बाद में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गद्दांफी से खुश न रहने वाली पश्चिमी तांकतों ने गद्दांफी के विरुद्ध छिड़े विद्रोह को ही अपना मजबूत हथियार बनाकर नाटो की दंखलअंदाजी से गद्दांफी को मौत की दहलीज तक पहुंचा दिया।
गद्दांफी व लीबिया प्रकरण में विश्व मीडिया की भूमिका भी संदिग्ध रही है। इराक व अफगानिस्तान युद्ध की ही तरह लीबिया को भी दुनिया ने पश्चिमी मीडिया की नजरों से ही देखा व समझा है। सी एन एन तथा अन्य कुछ प्रमुख पश्चिमी मीडिया संगठन दुनिया को जो दिखाना व सुनाना चाहते हैं दुनिया वही देखती व सुनती है। इरांक की ही तरह यही लीबिया में भी हुआ है। गद्दांफी द्वारा लीबिया के विकास के लिए किए गए कार्यों को कभी भी विश्व मीडिया ने प्रचारित नहीं किया। जबकि गद्दांफी द्वारा ढाए गए जुल्मो-सितम को कई गुणा बढ़ा-चढ़ा कर हमेशा पेश किया जाता रहा। वर्तमान विद्रोह के हालात में भी गद्दांफी समर्थक सेना द्वारा विद्रोहियों पर किए जा रहे हमलों को कई गुणा बढ़ाकर बताया जा रहा था। परंतु गद्दाफी की मौत होने तक उसके द्वारा लीबिया के विकास के लिए किए गए कामों का इसी मीडिया ने कहीं भी कोई जिक्र नहीं किया है। हां उसकी मौत के बाद अब इस बात पर चिंता व्यक्त करते हुए हिलेरी क्लिंटन भी दिखाई दे रही हैं कि आंखिर गद्दांफी की मौत कैसे हुई व किसने मारा और इसकी जांच की जानी चाहिए वगैरह-वगैरह।
कर्नल गद्दांफी एक अरब-अफ्रीकी कबिलाई मुस्लिम तानाशाह होने के बावजूद एक धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के व्यक्ति थे। कट्टरपंथी व रूढ़ीवादी विचारधारा के वह सख्त विरोधी थे। कहने को तो पश्चिमी देश भी दुनिया में ऐसे ही शासक चाहते हैं परंतु शायद अपने पिट्ठू रूढ़ीवादी शासकों को छोड़कर। ऐसे में गद्दाफी के शासन के अंत के बाद अब लीबिया में अभी से इस प्रकार के स्वर बुलंद होने लगे हैं कि यदि आप मुसलमान हैं तो नमाज जरूर पढ़ें। गोया आधुनिकता की राह पर आगे बढ़ता हुआ लीबिया इस सत्ता परिवर्तन के बाद धार्मिक प्रतिबद्धताओं की गिरफ्त में भी आ सकता है। और यदि ऐसा हुआ तो यह रास्ता अफगानिस्तान व पाकिस्तान जैसी मंजिलों की ओर ही आगे बढ़ता है। और यदि लीबिया उस रास्ते पर आगे बढ़ा तो लीबिया का भविष्य क्या होगा इस बात का अभी से अंदाज लगाया जा सकता है। सवाल यह है कि क्या अमेरिका अथवा नाटो देश लीबिया के इन जमीनी हालात से वांकिंफ नहीं हैं। या फिर किसी दूरगामी रणनीति के तहत जानबूझ कर इस सच्चाई से आंखें मूंदे बैठे हैं। दूसरी स्थिति लीबिया में सत्ता संघर्ष की भी पैदा हो सकती है। कर्नल गद्दाफी का अंत तो जरूर हो गया है मगर उस कबीलाई समुदाय का अंत नहीं हुआ जिससे कि गद्दाफी का संबंध था तथा जो लीबिया में अपनी माबूत स्थिति रखते हैं। आने वाले समय में गद्दांफी समर्थंक यह शक्तियां चुनाव में हिस्सा ले सकती हैं तथा सत्ता पर अपने वर्चस्व के लिए सभी हथकंडे अपना सकती हैं। और संभवत: ऐसी स्थिति लीबिया में गृह युद्ध तक को न्यौता दे सकती है।
उपरोक्त सभी हालात ऐसे हैं जिनसे एक ही बात सांफतौर पर नार आती है कि लीबिया को गद्दांफी की तानाशाही व उसकी क्रूरता का बहाना लेकर तबाह व बर्बाद करने की एक सुनियोजित साजिश रची गई और इरांक के घटनाक्रम की हीतरह लीबिया के तेल भंडारों पर अपना नियंत्रण स्थापित करने की चालें पश्चिमी देशों द्वारा बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से चली जा रही हैं। इरांक की ही तरह लीबिया भी दुनिया के दस प्रमुख तेल उत्पादक देशों में एक है। लिहाजा पश्चिमी देशों को अपने दुश्मन राष्ट्राध्यक्ष की मुट्ठी में लीबिया की तेल संपदा का होना अच्छा नहीं लगा। नतीजतन इन साम्रायवादी देशों ने बैठे-बिठाए कर्नल गद्दांफी को दुनिया का सबसे क्रूर तानाशाह तथा मानवाधिकारों का हनन कर्ता बताते हुए उसे मौत की मंजिल तक पहुंचा दिया। परंतु अंत में यह कहना भी गलत नहीं होगा कि सद्दाम हुसैन रहे हों अथवा कर्नल गद्दाफी इन सभी तानाशाहों को भी यह जरूर सोचना चाहिए था कि साम्रायवादी पश्चिमी देशों की गिद्ध दृष्टियां चूंकि इन देशों की प्राकृतिक तेल संपदा पर टिकी हुई हैं लिहाजा इन्हें इनपर नियंत्रण करने हेतु कोई न कोई बहाना तो अवश्य चाहिए। और नि:संदेह इन तानाशाहों ने अपने स्वार्थपूर्ण व क्रूरतापूर्ण कारनामों के चलते इन शक्तियों को अपने-अपने देशों में घुसपैठ करने व देश को तबाह करने का सुनहरा अवसर प्रदान किया है। कहा जा सकता है कि आज इन देशों में हो रही तबाही व बर्बादी के जिम्मेदार जितना पश्चिमी देश हैं उतना ही यह तानाशाह भी।
हिमाचल प्रदेश का हिमपात के साथ सीधे तौर पर जीवन की सुख-समृद्धि का जुड़ाव हो चूका है। हिमाचल के प्रमुख उद्योगों में एक पर्यटन उद्योग भी शुमार है. यहाँ के सभी प्रमुख पर्यटन स्थलों पर सर्दियों में हिम की मोटी चादर सी जम जाती है। सर्दियों के दौरान यह सभी जगहें हिम की सफेद चादर में लिपटी रहती हैं। हिमाचल प्रदेश में शिमला, मनाली, धर्मशाला, डलहौजी और कसौली अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन केंद्र हैं।
कसौली चंडीगढ़ से मात्र डेढ़ घंटे की दूरी पर है और अक्सर ऐसा होता है कि यहाँ बर्फबारी की सूचना मिलने के बाद चंडीगढ़ और आस-पास के लोग यहाँ पहुँच कर हिमपात का आनंद उठाते हैं। अंग्रेजी हुकूमत के समय से कसौली छावनी क्षेत्र रहा है लिहाजा अभी भी यहाँ ज्यादा निर्माण नहीं होने के कारण इसकी खूबसूरती बरकरार है। कसौली से दो घंटे के सफर के बाद शिमला पहुँचा जा सकता है। अंग्रेजों की यह ग्रीष्मकालीन राजधानी आज भी बर्फ और खासकर ठंड का पर्याय मानी जाती है। करीब सात हजार फुट की ऊँचाई पर बसे इस शहर का नजारा हिमपात के बाद देखते ही बनता है। हालाँकि यहाँ स्नो लाइन नजदीक नहीं है फिर भी जनवरी में यहाँ मुख्य शहर में ही दो से तीन फुट बर्फ गिरती है जबकि कुफरी जैसे आस-पास के इलाकों में दिसंबर से मार्च तक बर्फ जमी रहती है जो सैलानियों के लिए आकर्षण बनी रहती है।
पर्यटकों के लिए हिमपात के दिनों में यहाँ स्केटिंग मुख्य आकर्षण रहता है। यहाँ पर 1920 में स्थापित एशिया का सबसे पुराना और अब एकमात्र ओपन एयर स्केटिंग रिंग है जिसमें प्राकृतिक तौर पर पानी जमाकर स्केटिंग करवाई जाती है। इसके अलावा यहाँ पर एशिया का सबसे ऊँचा गो-कर्ट ट्रैक भी है। स्कीइंग वाली ऊँचाई पर गो-कार्टिंग का अपना अलग ही मजा है। हाँ, एक खास बात यह कि यदि आप यहाँ हिमपात के दिनों में आ रहे हैं तो कालका-शिमला के बीच चलने वाली छुक-छुक रेल में जरूर बैठें। विश्व धरोहरका दर्जा हासिल कर चुकी इस रेल लाइन पर हिमपात के दौरान सफर करने का अपना अलग ही आनंद है जो बरसों जेहन में समाया रहता है।
शिमला यदि ऐसे लोगों की पसंद है जिनके पास समय कि कमी रहती है तो मनाली उन पर्यटकों को लुभाता है जो लंबे समय तक प्रकृति की गोद में रहकर हिमपात का आनंद लेना चाहते हैं। खास तौर पर मनाली हनीमून पर जाने वालों की पहली पसंद है। हर साल यहाँ हिमपात के दिनों में विशेष तौर पर ऐसे जोड़ों की बहार रहती है जो या तो विवाहित जीवन शुरू कर रहे होते हैं या फिर विशेषतौर पर शादी के बाद का वैलेनटाइंस डे मनाने स्नो प्वांइट पर आते हैं। यहाँ कीसोलंग घाटी में सर्दियों में आप एक साथ स्कीइंग के साथ-साथ पारा-ग्लाइडिंग का भी मजा ले सकते हैं। दोनों चीजें एक साथ एक जगह पर मिलना किसी वरदान से कम नहीं है।
मनाली से बेहद नजदीक स्थित है दुनिया के सबसे ऊँचे दर्रों मे से एक रोहतांग दर्रा। कोई भी मौसम हो आप यहाँ दो से तीन मीटर मोटी बर्फ की तह हमेशा देख सकते हैं। मनाली आने के लिए शिमला के अलावा सीधे चंडीगढ़ से भी जाया जा सकता है। यहाँ के लिए नियमित रूप से सरकारी वाल्वो बसें चलती हैं जो शाम को चलकर सुबह आपको मनाली पहुँचा देती हैं। आप चाहें तो हवाई मार्ग से भी मनाली आ सकते हैं। जहाज से हिम के लिहाफ में सोई कुल्लू घाटी का नजारा इतना मोहक दिखता है कि लगता है सफर और लंबा होना चाहिए था। मनाली के बाद हिमपात के नजरिए से जो शहर खास है वह है डलहौजी। पंजाब के आखिरी शहर पठानकोट से डलहौजी की दूरी साठ किलोमीटर है। पठानकोट तक रेल या हवाई मार्ग से भी पहुँचा जा सकता है।
डलहौजी बरतानवी काल से छावनी शहर है और सीमित निर्माण के चलते आज भी किसी अंग्रेजी शहर का आभास यहाँ आकर मिलता है। डलहौजी के बिलकुल साथ ही खजियार स्थित है। खजियार को भारत के मिनी स्विट्जरलैंड का दर्जा हासिल है। ऊंचे देवदारों से घिरे खजियार केमैदान पर बिछी बर्फ की मोटी चादर और बीच में स्थित छोटी सी झील किसी भी कवि के कल्पनालोक का अहसास करवाती है। डलहौजी के अलावा धर्मशाला भी हिमपात के शौकीनों का पसंदीदा शहर है। हालाँकि यहाँ बर्फबारी अपेक्षाकृत कम होती है तथापि स्नो लाइनकाफी नजदीक है। हाँ, धर्मशाला से मात्र सात किलोमीटर दूर बसे मैक्लॉडगंज मैं जमकर बर्फ गिरती है।
हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने अमीर पर्यटकों को ध्यान में रखते हुए को हेलिकॉप्टर टैक्सी सेवा की शुरुआत की है। इस सेवा के लिए सरकार ने तीन निजी कम्पनियों से समझौते किए हैं। ये कम्पनियां हैं – सिम सैम एयरलाइंस, मेस्को एयरलाइंस और शिवा एयरलाइंस। इन कम्पनियों को पूर्व निर्धारित मार्ग पर सेवा संचालित करने की अनुमति दी गई है।
पर्यटन विभाग ने राज्य में कुल 57 हेलिपैड की पहचान की है और 28 रास्ते तय किए हैं। इन का किराया 2,000 रुपए से 13,000 रुपए के बीच होगा। इस सेवा से लाहौल और स्पीति जिले में जाना सुविधाजनक हो जाएगा, जहां ताबो, धनकर, गुंगरी, लिदांग, हिकिम, सगन्म और नाको जैसे अनेक बौद्ध मठ हैं। पर्यटन हिमाचल प्रदेश में बागवानी और जलविद्युत परियोजना के साथ एक महत्वपूर्ण उद्योग है। साल 2010 में राज्य में 1.3 करोड़ पर्यटक आए थे।
हिमाचल प्रदेश को पर्यटन क्षेत्र में तीन और राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किए गए हैं। आउटलुक पत्रिका ने नीलसन द्वारा किए गए देश के सभी पर्यटक गंतव्यों के लिए किए गए स्वतंत्र सर्वेक्षण के आधार पर प्रदेश को यह पुरस्कार प्रदान किए हैं। हिमाचल प्रदेश को ‘फेवरेट हिल डेस्टिनेशन-मनाली’, ‘आउटलुक टैªवलर्स अवार्ड-2010’ तथा ‘फैवरेट एड्वेंचर डेस्टिनेशन’ पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। हिमाचल पर्यटन विश्व भर के सैलानियों को श्रेष्ठ पर्यटक सेवाएं उपलब्ध करवाने वाले राज्य के रूप में उभर रहा है।
पर्यटन उद्योग को हिमाचल प्रदेश में उच्च प्राथमिकता दी गई है और हिमाचल सरकार ने इसके विकास के लिए समुचित ढांचा विकसित किया है जिसमें जनोपयोगी सेवाएं, सड़कें, संचार तंत्र हवाई अड्डे यातायात सेवाएं, जलापूर्ति और जन स्वास्थ्य सेवाएं शामिल है। राज्य में तीर्थो और वैज्ञानिक महत्व के स्थलों का समृद्ध भंडार है। राज्य को व्यास, पाराशर, वसिष्ठ, मार्कण्डेय और लोमश आदि ऋषियों के निवास स्थल होने का गौरव प्राप्त है। गर्म पानी के स्रोत, ऐतिहासिक दुर्ग, प्राकृतिक और मानव निर्मित झीलें, उन्मुक्त विचरते चरवाहे पर्यटकों के लिए असीम सुख और आनंद का स्रोत हैं।
हिमाचल प्रदेश में पर्यटन विभाग ऩे सैलानियों को आकर्षित करने का नया तरीक़ा ईज़ाद किया है। विभाग ने शिमला की कहानी को एक किताब के ज़रिए लोगों के सामने पेश किया है। किताब का नाम “हर घर कुछ कहता है” रखा गया है। इसमें अंग्रेज़ों के समय से लेकर आज़ादी मिलने और भारत-पाक विभाजन के साथ भारत-पाक शांति वार्ता को शामिल किया गया है। इस बारे में हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल का मानना है कि इससे पर्यटकों को शिमला के बारे में ज़्यादा जानकारी मिलेगी और इससे वो ज़्यादा वक़्त शिमला में गुज़ारना चाहेंगे।
बर्फीली जगहों पर घूमने वालों शकीनों के लिए वास्तव में एक स्वर्ग के समान है. ऐसी जगहों की कल्पना से ही दिल खिल उठता है. तीन पहाड़ियों पर बसे इस शहर में आप भले ही स्कीइंग जैसे बर्फबारी से जुड़े खेलों का आनंद नहीं ले सकते लेकिन यदि आप के पास समय है तो निश्चित तौर पर आप यहाँ से नई ऊर्जा हासिल कर लौटेंगे।
हिमाचल प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धुमल हैं. इनके शासन में हिमाचल प्रदेश ने अनुपम तरक्की की है. आज हम इस लेख के द्वारा धूमल जी के जीवन के बारे में थोडा सा जानने का प्रयास करेंगे. भारतीय जीवन बीमा निगम में सहायक के तौर पर अपने कॅरियर की शुरुआत करने वाले मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धुमल का जन्म 10 अप्रैल, 1944 को हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर जिले में हुआ था. प्रेम कुमार धुमल पंजाब यूनिवर्सिटी से संबद्ध दोआबा कॉलेज (जालंधर) से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के तुरंत बाद ही एलआईसी से जुड़ गए थे.
भारतीय जीवन बीमा निगम में काम करने के साथ-साथ प्रेम कुमार धुमल ने अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर और कानून की डिग्री भी प्राप्त कर ली. इसके बाद उन्होंने पंजाबी यूनिवर्सिटी इवनिंग कॉलेज और दोआबा कॉलेज, जालंधर में अध्यापन कार्य करना शुरू कर दिया. इनके परिवार में पत्नी शीला धुमल और दो पुत्र हैं. इनके दोनों पुत्र भी राजनीति से ही जुड़े हुए हैं. प्रेम कुमार धुमल जमीन से जुड़े हुए नेता हैं. वह अपने नागरिकों के कल्याण के लिए हमेशा प्रयासरत रहते हैं.
कॉलेज में अध्यापन करने के दौरान प्रेम कुमार धुमल राजनीति से जुड़ गए थे, कई वर्षों तक वह वह शिक्षक संघों के कार्यालयों में अधिकारी पद पर आसीन रहे. प्रेम कुमार धुमल ने सक्रिय राजनैतिक जीवन की शुरुआत सबसे निचले पायदान से की थी. शुरुआती दिनों में वह पार्टी में अदने से कार्यकर्ता ही थे. इसके बाद वह भारतीय जनता युवा मोर्चा में बड़े पद पर भी रहे. प्रेम कुमार धुमल हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव जीतने के बाद नौवीं और दसवीं लोकसभा के सदस्य रहे. वर्ष 1993 में वह भारतीय जनता पार्टी के राज्य अध्यक्ष बनाए गए. वर्ष 1998 में जब प्रेम कुमार धुमल ने पहली बार विधानसभा चुनावों में जीत दर्ज की तब वह प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाए गए. वर्ष 2007 के उपचुनावों में जीतने से पहले प्रेम कुमार धुमल हिमाचल प्रदेश विधानसभा में नेता विपक्ष के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे थे. मुख्यमंत्री के रूप में यह उनका दूसरा कार्यकाल है.
प्रेम कुमार धुमल ने पूरे राज्य की सर्वआयामी उन्नति को अपना उद्देश्य माना है. उनके प्रयासों के द्वारा हिमाचल प्रदेश का चेहरा पूरी तरह परिमार्जित हो गया है. उन्होंने राज्य में ऊर्जा विकास के लिए 600 मेगावाट प्रोजेक्ट की शुरुआत की, जो पिछले पचास वर्षों से 298 मेगावाट पर ही सीमित था. हिमाचल प्रदेश के प्रत्येक जिले और गांव को सड़क परिवहन से जोड़ने के कारण स्थानीय नागरिक प्रेम कुमार धुमल को सड़क वाला मुख्यमंत्री भी कहा करते हैं. शिक्षा पद्वति में सुधार लाने के लिए भी धुमल ने कई प्रयास किए. इनमें से सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है राज्य के प्रत्येक प्राथमिक विद्यालय में तीन पक्के कमरों का निर्माण.
हिमाचल प्रदेश को देश का ‘पालीथीन मुक्त’ राज्य बनाने के उद्देश्य से मंत्रिमण्डल ने प्रदेश में 15 अगस्त, 2011 से प्लास्टिक कप, प्लेट और गिलास जैसे नष्ट न होने वाले डिस्पोज़ेबल प्लास्टिक उत्पादों के भण्डारण पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया है। किसी संस्थान अथवा वाणिज्यिक संस्थान द्वारा नष्ट न होने वाले प्लास्टिक के कचरे को निजी अथवा वाणिज्यिक संस्थान के परिसर में फैलाने पर पांच हजार रुपये तथा वैयक्तिक रूप से नष्ट न होने वाले प्लास्टिक के कचरे को किसी निजी अथवा वाणिज्यिक संस्थान के परिसर में फैलाने पर एक हजार रुपये का जुर्माना है।
प्रेम कुमार धुमल ने क्षेत्र के विकास और पर्यावरण को बचाने के लिए बहुत अधिक कार्य किए हैं. इन्हीं के प्रयासों का परिणाम है कि हिमाचल प्रदेश भारत का पहला कार्बन तटस्थ राज्य है. बच्चों की पढ़ाई को महत्व देते हुए, प्रेम कुमार धुमल ने किसी भी स्कूल में सरकारी आयोजन करने पर रोक लगा दी है. इन सबके अलावा पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन करने वाले विद्यार्थियों को बिना किसी भेद-भाव के छात्रवृत्ति प्रदान करने की पहल भी प्रेम कुमार धुमल ने ही की थी. उनके ही शासन में प्रारम्भिक शिक्षा विभाग में पुराने तथा नए भर्ती एवं पदोन्नति नियमों के अनुसार शास्त्री के 225 पद, भाषा अध्यापक के 450 पद, कला अध्यापक के 200 पद और शारीरिक शिक्षा अध्यापक के 125 पद भरने को स्वीकृति प्रदान की।
अपने प्रशंसनीय प्रयासों को प्रभावी रूप में लागू करने के लिए प्रेम कुमार धुमल को 2 बार गोल्डन पीकॉक अवार्ड भी प्रदान किया गया.
दीपावली पर्व पर प्रत्येक बच्चे की इच्छा होती है कि वो आतिशबाजी करे। वैसे आतिशबाजी करने में बड़ा आनंद आता है। लेकिन, क्या आपको पता है कि आखिर इस आतिशबाजी को बनाया कैसे जाता है? अगर नहीं तो हम आपको इसी आतिशबाजी के अवसर (दीपावली) पर बताने जा रहे हैं कि किस प्रकार बनती है आतिशबाजी?
आप सबने इतना तो सुना ही होगा कि बम-पटाखों, आतिशबाजी में मुख्य भूमिका बारूद की होती है। बारूद में जब आग लगती है तो वही चिंगारियां एवं धमाका पैदा करता है। अब एकाएक प्र्रश्न पैदा होता कि ये बारूद क्या है? बारूद पोटेशियम नाइटेªट (शोरा), गन्धक एवं काठ कोयला का मिश्रण होता है, जो कि क्रमश: ७५:१०:१५ के अनुपात में होता है। अर्थात् ७५ प्रतिशत पोटाशियम नाइटेªट, १० प्रतिशत गन्धक एवं १५ प्रतिशत काठ कोयला मिलकर बारूद का निर्माण करते हैं। इस बारूद का आविष्कारक चीन के ताओवादी किमियागर को माना जाता है।
सन् १७८८ में बरटलो ने पोटाशियम क्लोरेट का आविष्कार किया जो कि शोरे (पोटेशियम नाइट्रेट) से ज्यादा अच्छा साबित हुआ। सन् १८६५ के आसपास मैग्नीशियम का और सन् १८९४ में एल्युमीनियम और एल्युमीनियम आतिशबाजी की उन्नति में अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए। आतिशबाजी बनाने के लिए कागज के खोल को एक डंडे पर लपेट कर चिपकाया जाता है। खोल के मुंह को संकरा रखने के लिए गीली अवस्था में ही एक डोर बांध दी जाती है। खोल की अंतिम परत पर जरा सी लेई अथवा गोंद लगाकर कूटकूट कर मसाला भरा जाता है। अंत में पलीता अर्थात् शीघ्र आग पकड़ने वाली डोर लगा दी जाती है।
इसी तरह बड़े अग्निबाणों के लिए मजबूत खोल बनाकर उसे बारूद से भरा जाता है। बाण की अनुमानित शक्ति को ध्यान में रखते हुए बारूद के बीच में पोली शंकू आकार जगह छोड़ी जाती है, जिससे कि बारूद जला हुआ क्षेत्र अधिक रहे। तत्पश्चात जलती गैसों के लिए टोंटी लगाई जाती है। यह इसलिए कि खोल स्वयं न जलने लगे। बाण की चोटी पर एक टोप लगाया जाता है। इसमें रंग बिरंगी फूल झड़ियां रहती हैं। जो जलने पर आतिशबाजी की शोभा बढ़ाते हैं।
फूल झड़ियांे में अन्य मसालों के अतिरिक्त लोहे के रेतन प्रयोग किया जाता है। जो जलने पर बड़े ही चमकीले फूल छोड़ती है। चरखी अथवा चक्री में बांस का एक ऐसा ढ़ांचा प्रयोग में लाया जाता है, जो अपनी धुरी पर घूर्णन कर सके। इसकी परिधि पर आमने सामने बाण की तरह बारूद भरी दो नलिकाएं होती हैं, जिनमें जस्ता तथा एल्युमीनियम भरा होता है।
महताबी चटख प्रकाश देने के लिए एंटीमनी या आर्सेनिक के लवण रहते हैं तथा रंगीन महताबियों के लिए पोटाशियम क्लोरेट के साथ विभिन्न धातुओं के लवणों का प्रयोग किया जाता है। जैसे लाल रंग के लिए स्ट्रांशियम का नाइटेªट या अन्य लवण, पीले प्रकाश के लिए सोडियम कार्बोनेट, नीले रंग के लिए तांबे का कार्बोेनेट या अन्य लवण और चमक के लिए मैग्नीशियम या एल्युमीनियम का महीन चूर्ण मिलाया जाता है। इस प्रकार विभिन्न प्रकार की आतिशबाजियों का निर्माण किया जाता है। बच्चों को बेहद सावधानी के साथ आतिशबाजी का प्रयोग करना चाहिए और कम से कम आतिशबाजी करनी चाहिए ताकि हमारे पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाया जा सके।
चमचो की बदौलत ही कई सरकारें चलीं तो कई ताज छिन गये!
सुना आपने देहरादून के चम्मच कांड में एक दर्जन लोगों को उम्रकैद हो गयी। एक विवाह समारोह में इन लोगों ने चम्मच को लेकर हुए शुरू झगड़े में दो लोगों की हत्या कर दी थी। क्या ज़माना आ गया एक चम्मच ने पहले दो लोगों की जान ली और अब उसी चम्मच ने 12 लोगों को उम्रभर के लिये अंदर करा दिया। यह कम्बख़्त चम्मच चीज़ ही ऐसी होता है कि आदमी से ज़्यादा तवज्जो इसे दी जाने लगी है। अब देखिये ना अपने देश में कई सरकारें चमचो की वजह से बनी और उनकी मेहरबानी से ही चल रही है। हां यह अलग बात है कि जब कोई बड़ी आफत आती है तो चम्मच तोतों की तरह आंखे बदलने में ज़रा भी देर नहीं लगाते और सामने वाला हाथ मलता रह जाता है।
कार्यालयों में कुछ लोग काम की बजाये बॉस की चमचागिरी करके ही आगे बढ़ने में विश्वास रखते हैं अब भले ही मेहनती और योग्य बंदा जलभुनकर राख ही क्यों न हो जाये, उनकी बला से। यह रास्ता आसान और हंडरेड परसेंट गारंटी से कामयाबी वाला जो है। संतरी से लेकर मंत्री तक चमचो का ही दबदबा है। थाने में आईपीसी की धराआंे से अधिक चमचो की पौबारा है। सरकारी नौकरी में तो चमचागिरी का मज़ा ही कुछ निराला है। मिसाल के तौर पर प्राइमरी में टीचर हैं तो आराम से घर बैठकर मस्ती करें बस बीएसए की चमचागिरी करना याद रखें। एमपी एमएलए के चमचे भी मज़े ले रहे हैं। अगर आप किसी बदमाश के चमचे हैं तो क्या कहने, आप न केवल मुहल्ले में सब पर रौब गालिब कर सकते हैं बल्कि पुलिस से भी आपकी खूब पटेगी। सियासत में तो जलवा ही चमचागिरी का है। टिकट लेना हो तो चमचागिरी से बड़ी काबलियत और कोई नहीं और मंत्री बनने से लेकर पीएम बनना हो तो भी यही हुनर काम आयेगा। मायावती और शीला इसी खूबी से सरकार चला रहे हैं तो लालू और मुलायम चमचागिरी न करने का नतीजा सत्ता से बाहर होकर भोग रहे हैं। ज्यादा पुरानी बात नहीं है आइरन लेडी कही जाने वाली पूर्व प्रधनमंत्री इंदिरा गांधी को उनके चमचो, आप चाहें तो उनको तहज़ीब के दायरे में सलाहकार भी कह सकते हैं, ने सत्ता में बने रहने के लिये जनता का मूड देखने की बजाये एमरजैंसी लगाने की नेक सलाह दे डाली थी नतीजा यह हुआ कि वे उसी एक गल्ती से सत्ता से बाहर हो गयी। चमचो का कुछ नहीं बिगड़ा वे नारा लगाकर अपनी चमचागिरी का फर्ज अदा करते रहे ‘इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा’। चमचो की कहानी लंबी है कि कैसे पंजाब में भिंडरावाला को आस्तीन का सांप बनाकर पालने की सलाह दी गयी और फिर जब इंदिरा जी की जान चली गयी तो चमचो ने राजीव जी को चमचागिरी करके पीएम बनवा दिया। चमचागिरी के बल पर एक पायलट की सरकार हवा में चलती रही और एक दिन चमचो ने फिर वही पुराना खेल दोहराया कि बाबरी मस्जिद/ रामजन्मभूमि का जिन्न बोतल से बाहर निकालने की सलाह सीधे सादे राजीव गांधी को दे डाली जिसका नतीजा सबके सामने है। इतना ही नहीं चमचो ने विदेश तक में हाथ पांव मारने शुरू किये तो भारतीय सेना को श्रीलंका के तमिल चीतों से लड़ने ‘आ बैल मुझे मार’ की तर्ज़ पर भेज दिया गया। चमचो की गलत सलाह से न केवल राजीव गांधी की कुर्सी गयी बल्कि लिट्टे की बदले की कार्यवाही में जान भी चली गयी।
ऐसा नहीं है कि हमारे देश में ही चमचो की इतनी चलती हो बल्कि अमेरिका को देखो जो उसकी चमचागिरी करते रहते हैं वे चाहें तानाशाह हों और निकट भविष्य में उनका चुनाव कराने का इरादा भी न हो तो भी अपने अंकल सैम उनकी तरफ न खुद आंख उठाकर देखते हैं और न ही किसी को ऐसा करने की इजाज़त ही देते हैं। मिसाल के तौर पर सउूदी अरब जैसे कट्टरपंथी और पाकिस्तान जैसे आतंकवाद के पालनहार को अंकल सैम चमचागिरी करने के इनाम के तौर पर अब तक बख़्शे हुए हैं, हां एक बात और जो उनकी चमचागिरी से इनकार करता है तो वे उसे नेस्तोनाबूद करने में कोई कोर कसर भी नहीं छोड़ते। ओसामा बिन लादेन को ही लो जब तक वह अंकल सैम के इशारे पर रूस को अफगानिस्तान से भगाने के लिये जेहाद रूपी चमचागिरी करता रहा तो सब ठीक चलता रहा लेकिन जैसे ही उसने मुस्लिम मुल्कों से अमेरिका के चमचो का दख़ल ख़त्म करने का बीड़ा उठाया तो वह जेहादी से खूंखार आतंकवादी बन गया और चमचागिरी ख़त्म तो ओसामा भी ख़त्म। ऐसे ही इराक के सद्दाम हुसैन ने चमचागिरी से मना किया तो बिना ख़तरनाक हथियार बरामद किये ही सद्दाम की छुट्टी कर दी गयी। ताज़ा मिसाल लीबिया के कर्नल गद्दाफी की है ओबामा की चमचागिरी न कर पंगा ले रहा था, बेमौत मारा गया। आजकल पाकिस्तान चमचागिरी से ना नुकुर कर रहा है उसका भी भगवान ही मालिक है। ज़रदारी और गिलानी शायद ज़िया उल हक़ की चमचागिरी से मना करने का हश्र भूल गये हैं। अंकल सैम को गुस्सा आ गया तो पाक के राष्ट्रपति का चेहरा ज़र्द और प्रधनमंत्री का मुंह गिला करने लायक नहीं रहेगा। तरक्की का आज एक मात्रा रास्ता है चमचागिरी। जय हो चमचो की। अगर गुस्ताख़ी माफ करें तो यूं कहा जा सकता है।
एक के बाद एक मास व्यतीत हुए जा रहे थे। दुर्योधन के माथे पर चिन्ता की लकीरें और गहरी होती जा रही थीं। उसने आर्यावर्त के कोने-कोने में अपने गुप्तचर भेज रखे थे। कम्बोज, कश्मीर, गांधार, पंचनद, सिन्ध, कुलिन्द, तंगण, विदेह, पांचाल, कोसल, किरात, मथुरा, बंग, मगध, चेदि, दशार्ण, कलिंग, विदर्भ, अवन्ती, द्वारिका, सौराष्ट्र, विराट आदि देशों के वन-उपवन, गिरि-कन्दरा, राजपथ-जनपथ, राजगृह-जनगृह और समस्त गली कूचों में गुप्तचरों ने विकल होकर हमलोगों को ढूंढ़ा लेकिन हर ओर से असफलता के समाचार ही प्राप्त होते। दुर्योधन को विश्वास होने लगा कि स्वयं देवराज इन्द्र ने हमलोगों को अमरावती में छिपा लिया होगा। उसकी मानसिक अस्वस्थता बढ़ती जा रही थी।
अज्ञातवास का वर्ष भी समाप्तप्राय था। दुर्योधन की गणना से एक या दो दिन शेष रह गए थे कि सबको आश्चर्य में डालने वाली सूचना विराटनगर से प्राप्त हुई – किसी अज्ञात गंधर्व ने द्वंद्व-युद्ध में विराट के सेनापति कीचक का वध कर दिया। द्वन्द्व-युद्ध में तो कीचक जरासंध और भीम के समकक्ष था। उसको मृत्यु का द्वार दिखाने की क्षमता एकमात्र भीम में ही थी। सन्देह के मेघ घनीभूत होते जा रहे थे। भीम को विराटनगर में ही होना चाहिए। दुर्योधन के विचारों के चक्र एक बार फिर द्रूतगति से दौड़ने लगे।
महाराज धृतराष्ट्र को विश्वास में लेकर राजसभा आमन्त्रित की गई। त्रिगर्त देश का राजा महाबली सुशर्मा मत्स्य देश का सबसे बड़ा शत्रु था। उसे कीचक ने कई बार युद्ध में पराजित किया था। कीचक की मृत्यु के बाद उसे विराटनगर पर अधिकार करने का सुनहरा अवसर अनायास प्राप्त हो गया। उसने परामर्श दिया –
“राजन! कीचक बड़ा ही बलवान, क्रूर, असहनशील और दुष्ट प्रवृत्ति का पुरुष था। उसका पराक्रम जगद्विख्यात था। उसके जीवित रहते, मत्स्य देश पर अधिकार करने की हमारी योजना सफल नहीं हो सकती थी। उसका वध किसी गंधर्व ने या महाबली भीम ने कर दिया है। इस समय राजा विराट अत्यन्त दुखी और निरुत्साही होंगे। अतः इस सुअवसर को भुनाते हुए यदि हम मत्स्य देश पर आक्रमण कर दें, तो हमें निश्चित विजय प्राप्त होगी। हमें असंख्य गोधन, धन और रत्नादि भी प्राप्त होंगे। यदि भीम भ्राताओं सहित विराटनगर में होंगे, तो पाण्डव गायों और राजा विराट की रक्षा हेतु, निश्चित रूप से प्रकट होंगे और वचन-भंग के जाल में फंस जाएंगे। इस प्रकार उन्हें पुनः वनवास स्वीकार करना होगा।”
त्रिगर्तराज सुशर्मा का परामर्श धृतराष्ट्र, कर्ण समेत समस्त कौरवों को अत्यन्त सामयिक और उचित लगा।
अचानक रणवाद्य बजने लगे। हस्तिनापुर के लक्ष-लक्ष सैनिक राजभवन के सम्मुख भव्य प्रांगण में एकत्रित हो गए। कर्ण और दुर्योधन ने व्यूह-रचना की –
“कर्ण के नेतृत्व में सभी कौरव सेनापति एक नाके पर जाएंगे और महारथी सुशर्मा त्रिगर्तदेशीय वीरों और सेना के साथ दूसरे मोर्चे पर। पहले सुशर्मा आक्रमण करेंगे, उसके एक दिन बाद कौरव प्रस्थान करेंगे।”
राजा विराट कीचक-वध का राजकीय शोक पूरी तरह मना भी नहीं पाए थे कि त्रिगर्तनरेश सुशर्मा ने पूरी तैयारी के साथ उनपर आक्रमण कर दिया। वे असावधान थे। उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि शोक की इस अवधि में कोई उनपर आक्रमण करेगा। वे जबतक अपनी सेना को संगठित करते, योद्धाओं की सभा करते, सुशर्मा ने उनकी सहस्रों गौवों को हांक लिया। विराट ने शीघ्र ही मत्स्य देश के वीरों को एकत्र किया, युद्ध के वाद्य बजवाए और युद्ध सामग्री से सन्नद्ध हो युद्ध के लिए निकल पड़े। कंक, बल्लव, तंतिपाल और ग्रन्थिक ने भी उनके छोटे भाई शतानीक के साथ दिव्य रथों में आरूढ़ हो युद्ध के लिए प्रस्थान किया। पूरी सेना गौवों के खुर के चिह्न देखती आगे बढ़ने लगी। सूर्य ढलते-ढलते विराट की सेना ने त्रिगर्तों को घेर लिया। देवासुर संग्राम की तरह भयंकर और रोमांचकारी युद्ध हुआ। पूरे युद्ध स्थल का आकाश धूल और बाणों से आच्छादित हो गया। सर्वत्र अंधेरा छा गया। बात की बात में सारी रणभूमि कटे हुए मस्तक और बाणों से बिंधे हुए शवों से पट गई।
राजा विराट और उनके छोटे भाई शतानीक ने अद्भुत पराक्रम का प्रदर्शन किया। त्रिगर्तों की सारी व्यूह-रचना छिन्न-भिन्न हो गई। सैनिकों ने गौवों को मुक्त करा लिया। सुशर्मा की सेना पलायन करने लगी। अपनी सेना के उत्साहवर्धन के लिए सुशर्मा स्वयं नई व्यूह-रचना के साथ अग्रिम मोर्चे पर आकर डट गया। उसके पराक्रम के आगे राजा विराट असहाय-से हो गए। उसने विराट के रथ के अश्वों, सारथि और अंगरक्षक का वध कर उन्हें जीवित पकड़ लिया और अपने रथ में डालकर शंख और दुन्दुभि बजाते हुए अपने देश की ओर चल पड़ा।
युधिष्ठिर यह सारा कार्य-व्यापार देख रहे थे। उन्होंने भीमसेन को राजा विराट को मुक्त कराने का आदेश दिया। भीम तो जैसे उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा ही कर रहे थे। पहले सुसज्जित रथ पर बैठकर उन्होंने सुशर्मा को युद्ध के लिए ललकारा। युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव भी अलग-अलग रथों में बैठकर युद्ध के लिए चल पड़े। क्षत्रिय युद्ध की ललकार सुन पीठ कैसे दिखा सकता था? सुशर्मा लौट पड़ा। अपने सारे भ्राताओं के साथ सबसे पहले भीम से उलझ पड़ा। भीम ने गदा लेकर, उसके सामने ही, उसके सारे भ्राताओं को एक निमिष में मृत्युलोक भेज दिया। उस प्रलयंकारी युद्ध में, अकेले भीमसेन ने सात सहस्र त्रिगर्तों को धराशाई किया, युधिष्ठिर ने एक हजार योद्धाओं को महाकाल का ग्रास बनाया, नकुल ने सात सौ वीरों को मृत्यु प्रदान की और सहदेव ने तीन सौ सैनिकों को वीरगति प्राप्त कराई। त्रिगर्तों में हाहाकार मच गया।
सुशर्मा कुछ देर तक भीमसेन के साथ धनुर्युद्ध में संलग्न रहा। लेकिन महाबली भीम के समक्ष वह कबतक टिकता? रथहीन होकर युद्धक्षेत्र से पैदल ही पलायन करने लगा। राजा विराट को मुक्त करा, भीम पूरे वेग से सुशर्मा की ओर झपटे, लपककर उसके बाल पकड़ लिए। धरती पर पटक, उसकी छाती पर चढ़ बैठे और ऐसा भीषण मुष्टिप्रहार किया कि वह अचेत हो गया।
त्रिगर्तों की बची सेना अनाथ और भयभीत होकर भागने लगी। युधिष्ठिर ने विराट की सेना का नेतृत्व करते हुए गौवों को लौटा लिया। सुशर्मा अब पराजित राजा था। उसका सारा धन अब विराट के राजकोष का अंग था। उसे दण्ड देने के लिए राजा विराट के सम्मुख उपस्थित किया गया। अपने प्राणों की याचना करते हुए उसने अपने कृत्य के लिए क्षमा मांगी और विराट की दासता स्वीकार की। राजा ने युधिष्ठिर से मंत्रणा कर उसे जीवन दान दिया।
त्रिगर्त नरेश सुशर्मा मस्तक पर पराजय का बोझ और हृदय में अपमान की पीड़ा लिए स्वदेश के लिए प्रस्थित हुआ।
युद्ध समाप्त होते-होते रात्रि का आरंभ हो चुका था। थके और घायल सैनिकों के उपचार के लिए मार्ग में ही पड़ाव डाल दिया गया। विजय का समाचार देने के लिए शीघ्रगामी दूत विराट नगर भेज दिए गए।
नगर में त्रिगर्तों पर विजय की घोषणा कर दी गई। सर्वत्र मंगल वाद्य बजने लगे। नगरवासी अपने विजयी राजा के स्वागत के लिए नगर को भांति-भांति से सजाने लगे। दिन का अभी एक प्रहर ही बीता था कि समाचार मिला – दुर्योधन ने भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, दुशासन, विविंशति, विकर्ण, चित्रसेन, दुर्मुख, दुशल तथा अनेक महारथियों के साथ यमुना ओर से विराटनगर पर आक्रमण कर दिया है। आक्रमण के प्रथम चरण में विराट की साठ हजार गौवों का अपहरण कर कौरवों ने युद्ध का न्योता भेजा।
सच्चर समिति, रंगनाथ मिश्र आयोग, आदि से लेकर सोनिया जी के सनकी सलाहकार तक सभी प्रभावशाली लोग भारत में मुसलमानों के प्रति ‘भेद-भाव’ को ही उनके पिछड़ने की वजह मान कर चलते हैं। तदनुरूप आंकड़े ढूँढते और तर्क गढ़ते है। पर जरा पूरी दुनिया पर निगाह डालें। पूरी दुनिया में लगभग 60 इस्लामी देश हैं, जहाँ शासन मुसलमानों के हाथ है। अनेक इस्लामी देश काफी समृद्ध हैं। सऊदी अरब, ईरान, अमीरात, ईराक, कुवैत, बहरीन जैसे देश इनमें आते हैं। ‘पेट्रो डॉलर’ मुहावरा उन की ताकत का प्रमाण है। विश्व की मुस्लिम आबादी करीब पौने दो अरब होने जा रही है। यह ईसाइयों के बाद दूसरी सबसे बड़ी है। इतनी संख्या, संसाधन, ताकत के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी एकता की विशिष्ट भावना – उम्मत – भी है, जो ईसाई या बौद्ध देशों में नहीं।
अतः यदि भारत में मुसलमान भेद-भाव से पिछड़े, तो इस्लाम शासित देश क्यों निकम्मे है? ज्ञान-विज्ञान, तकनीक, कला, संगीत या साहित्य में उनकी कोई गिनती क्यों नहीं? राजनीतिक-सामाजिक विकास की दृष्टि से वे क्यों इतने फिसड्डी हैं? दुनिया में मात्र सवा करोड़ यहूदी भी पूरे मुस्लिम विश्व के मुकाबले हर क्षेत्र में आगे हैं। छोटे से बौद्ध देश जापान या ताइवान से तो तुलना ही असंभव है! आखिर इस्लामी देशों की यह दुर्दशा क्यों? वहाँ तो मुसलमानों से कोई भेद-भाव करने वाला नहीं। स्थिति बल्कि उल्टी है। उन देशों में तो ‘काफिरों’ अर्थात् गैर-मुस्लिम लोगों को तो कानूनी तौर से नीचा दर्जा देकर रखा जाता है। अतः यहाँ मुस्लिमों के प्रति भेद-भाव का तर्क कोरा राजनीतिक प्रपंच है। एक घातक प्रपंच।
यह अकाट्य सच है कि ज्ञान-विज्ञान में मुसलमानों का योगदान सदियों से बंद है। जो तारीख में मुस्लिम महापुरुषों की लिस्ट बनाना चाहते हैं, उन्हें नाम नहीं मिलते। सारे नाम 14वीं सदी आते-आते खत्म हो जाते हैं। ध्यान दें, तमाम पिछड़ेपन के बावजूद हाल में दुनिया के मुसलमानों में भारतीय मुसलमान ही कई क्षेत्रों में आगे दिखे हैं। आज भी वे बेहतर हैं। कलाकार, वैज्ञानिक, उद्योगपति, समाजसेवी, साहित्यकार, लगभग हर क्षेत्र में यदि कोई मुसलमान सचमुच प्रतिभावान है, तो उसे भारत में सर्वोच्च स्थान तक पहुँचने में कोई रुकावट नहीं। मुहम्मद रफी से लेकर इस्मत चुगताई, अजीम प्रेम जी और अब्दुल कलाम तक ऐसी प्रतिभाएं किसी मुस्लिम देश में नहीं देखी जा सकतीं। इसलिए, सच्चर किस्म के लोग इसकी अनदेखी करते हैं कि उपलब्धियों में यहाँ के मुसलमान अपनी अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी से प्रायः ऊँचे ही ठहरते हैं। इस्लामी वर्चस्व की जिद से बने पाकिस्तान के आर्थिक-सांस्कृतिक आँकड़े भी भारतीय मुसलमानों से नीचे ही चले गए। सोचें तो इसी बात में दुनिया में मुस्लिम पिछड़ेपन के कारण और निदान का सूत्र भी मिल जाएगा।
जाने-माने ‘मुस्लिम इंडियन’ सैयद शहाबुद्दीन लिखते हैं, “इस्लामी दुनिया राजनीतिक रूप से अस्थिर, सैन्य रूप से बे-रीढ़, आर्थिक रूप से ठहरी, तकनीकी रूप से बाबा आदम जमाने की, सामाजिक रूप से अंधविश्वासी और पतनशील है। विद्वता के क्षेत्र में मुसलमान शायद ही कहीं दिखते हैं और विज्ञान में तो वे कहीं नहीं हैं। … दूसरी ओर मुस्लिम मानस इस्लामी अतीत की समृद्धि और ताकत के गीत गाता रहता है”।
तब दूसरों से, करते किस मुँह से हो गुरबत की शिकायत गालिब। (तुम को बेमेहरि-ए-याराने-वतन याद नहीं) ? क्या स्पष्ट नहीं कि गड़बड़ी कहाँ है? सारी समस्या इस्लामी रहनुमाओं की तंग-नजरी या बुद्धि के साथ बेवफाई है। मजहब के लिए वे सारी दुनिया के मुसलमानों को डुबाने में संकोच नही करते। सन् 1979 से ईरान के अयातुल्ला खुमैनी और सऊदी अरब के बहावियों ने यही नई प्रतियोगिता शुरू की है। जीवन की हर चीज पर इस्लाम को थोपने की जिद से सारी गड़बड़ी हो रही है। मगर लगभर सभी मुस्लिम प्रवक्ता सारा दोष सदैव अमेरिका को, भारत को, कुफ्र को, सेक्यूलरिज्म को, यानी हर चीज को देते हैं। इस्लाम को कभी नहीं देते।
इस तंग-नजरी को कई मुस्लिम विद्वान भी समझते हैं। कि इस्लाम ही उनकी बाधा है, कुछ और नहीं। बहुलवादी समाज, लोकतंत्र और सहअस्तित्व को इस्लाम खारिज करता है। कम्युनिज्म की तरह उसे भी दुनिया पर एकाधिकार चाहिए। जिसकी अनूठी अभिव्यक्ति आधुनिक युग में अल्लामा इकबाल की ‘शिकवा’ और ‘जबावे-शिकवा’ में हुई थी। जिनका कौल थाः मुस्लिम हैं हम, वतन है सारा जहाँ हमारा! इस जड़ मानसिकता पर हमारे विद्वान कूटनीतिज्ञ एम. आर. ए. बेग ने बिलकुल सही लिखा था, “इस्लाम अपने तमाम सरंजाम के साथ केवल इसी रूप में कल्पित किया गया था कि यह दूसरे सभी धर्मों का नाश कर देगा। इस रूप में इस्लाम की कभी परिकल्पना ही नहीं की गई थी जो इस के अनुयायियों को भारत या किसी भी ऐसे देश में लोकप्रिय बना सके जहाँ मुसलमान अल्पसंख्यक हों। इसी से इस बात की व्याख्या भी होती है कि क्यों किसी ऐसे देश में सेक्यूलर संविधान नहीं हो सकता जहाँ मुसलमान बहुमत में हैं और क्यों अपने मजहब का पालन करने वाला मुसलमान मानवतावादी नहीं हो सकता।” (द मुस्लिम डायलेमा इन इंडिया, 1974) सच पूछिए तो इसी बात से मुसलमानों के हर पिछड़ेपन और बदहाली की व्याख्या भी हो सकती है।-
कुछ दूसरी तरह से मौलाना वहीदुद्दीन खान भी कहते हैं कि मुसलमानों की समस्याओं की जड़ उनकी अपनी नासमझी है। मुस्लिम पत्रकारिता रंज मुद्रा में मुसलमानों के लिए दूसरों द्वारा खड़ी की गई मुश्किलें और षड्यंत्र ढूँढती रहती है। इसलिए वहीदुद्दीन के विचार से “मुस्लिम अखबारों के शीर्षक बदलकर उन्हें ‘शिकायत दैनिक’ या ‘शिकायत मासिक’ कहने में कोई ज्यादती नहीं।“ राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व-अध्यक्ष जस्टिस शमीम के अनुसार “इस देश में किसी के लिए अवसरों की कमी नहीं है। लेकिन मुसलमानों में नेतृत्व का अभाव है।“
यह अभाव जिस कारण है, उसे सच्चर और रंगनाथ जैसे मतलबी लोग जान-बूझ कर छिपाते हैं। चाहे नेतृत्व का अभाव हो या मुस्लिमों का दुनिया भर में पिछड़ना या उनमें तरह-तरह के उग्रवादियों, आतंकवादियों की वृद्धि – इन सभी समस्याओं के मूल में एक ही कारण है। उनका मजहबी नेतृत्व और उसकी किताबी जिद। उनकी रूढ़ियाँ और इस्लाम की जड़ धारणाएं, जिसे छोड़ना तो दूर, उस पर कोई विचार-विमर्श भी उन्हें नागवार है। इस ठोस सत्य को सेक्यूलर-वामपंथी बुद्धिजीवी सांप्रदायिक दुष्प्रचार बताते हैं। पर जुमे की आम तकरीरों पर या आम मदरसों में जो शिक्षा दी जाती है, उन पर गौर करें। प्रकृति, समाज, संगीत आदि के बारे में जैसी बातें बच्चों को रटाई जाती हैं – उसके बाद उनमें वैज्ञानिक, विचारक या संगीतज्ञ बनने की आकांक्षा ही क्यों होगी? यदि हिंदुओं की देखा-देखी हो भी तो बाधाएं कितनी आएंगी!
जिस विचार-प्रणाली में जीवन का हर कार्य मजहबी मसला हो, जिसके समाधान सदियों से तय हों, जिन पर कोई प्रश्न उठाना ही दंडनीय हो, वह तो सोचने-विचारने व आगे बढ़ने में पैर की बेड़ी ही है। उस से जुड़े तालिबे-इल्म बदलती, बहुरूप दुनिया में किस योगदान के लायक होंगे? सच यह है कि जिस हद तक भारतीय मुसलमान – हिन्दू परंपरा और संसर्ग के कारण – उदार बने रहे, उस हद तक वे अपने अंतर्राष्ट्रीय बिरादरों से आगे बढ़े। उदाहरणार्थ, पाकिस्तानी संगीत हिन्दू परंपरा की देन है। अन्यथा कोई मेहदी हसन या नुसरत फतेह अली खान ईरान या सऊदी अरब में क्यों नहीं बनता? केवल इसीलिए, कि वह बन ही नहीं सकता! इस्लाम में संगीत हराम है। यह खुमैनी ने ही नहीं कहा था, देवबंद के मोहतमिम भी यही बताते हैं।
अतः निष्कर्ष साफ है। मुसलमान जितना ही उलेमा की जकड़ ठुकरा कर सामान्य मानवीय दृष्टि से जीवन को देखेंगे, उतना ही वे अन्य समुदायों के साथ बढ़ने के काबिल होंगे। इस के उलट जितना ही वे इस्लामी उसूलों को हर चीज पर लागू करने की जिद ठानेंगे, उतना ही वे पिछड़ते जाएंगे। यदि जीवन के हर क्षेत्र में इस्लाम को लागू करें, जैसा अफगानिस्तान में तालिबान ने किया, तब सभी स्टूडियो, संगीत, थियेटर और साजों, साजिंदों को मिटाना ही होगा! तब मेहदी हसन को भारत से ही शोहरत मिलेगी। तब अदनान सामी को भारत में ही बसेरा बनाना ही होगा। इधर जाकर सऊदी अरब में पहली फिल्म बनी, क्योंकि इस्लाम के अनुसार तस्वीर उतारना कुफ्र है। इसीलिए सऊदी अरब में फिल्में बनाना ही गुनाह था! कृपया सच्चर साहब से पूछें – क्या ऑस्कर पुरस्कारों में किसी अरबी फिल्म का नाम कभी न आना ‘भेद-भाव’ कहा जाए?
वस्तुतः मुस्लिम पिछड़ेपन में उन के मार्गदर्शक उलेमा की केंद्रीय भूमिका है। आज भारत में चार लाख से अधिक मस्जिदें हैं। अधिकांश के साथ मदरसे हैं। फिर एक हजार दर्सगाह और तबलीगी मरकजों की संख्या भी हजारों में है। दारुल-उलूम के अनुसार नौ हजार स्कूलों की स्थापना केवल देवबंद ने ही की है। ये सभी मजहबी-शैक्षिक संस्थाएं एक-दूसरी से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हैं। इसमें कार्यकर्त्ताओं के प्रशिक्षण, फतवों की किताबों आदि जरूरियात के हुक्म दर्सगाहों से जारी होते हैं। अतः उलेमा, उनकी संस्थाओं और आश्रितों का दायरा बहुत बड़ा है। लेकिन यह पूरा दायरा बंद और अतीतोन्मुख है। उसका ध्यान अरब भूमि के एक खास अतीत की तरफ लगा रहता है। इस नजरिए, माहौल और तालीम के कारण इससे निकले तालिबान प्रायः आधुनिक पेशों के लायक नहीं होते। वे सिर्फ इस्लामी प्रचारक बन सकते हैं और ‘इल्म के मरकजों’ में जाकर अपने जैसे और प्रचारक तैयार कर सकते हैं। इस घातक प्रक्रिया का दोषी कौन है? गालिब के शब्दों में, “… अच्छा अगर न हो, तो मसीहा का क्या इलाज”!
किंतु मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा-दीक्षा की ओर मोड़ना तो दूर, संदेहास्पद मदरसों को नियंत्रित करने के प्रयास पर भी सेक्यूलरपंथियों को आपत्ति है। मार्क्सवादियों को तो दैवी शाप है कि वे हर उस चीज का समर्थन करेंगे जो देश-विरोधी होगी, और हर उस बात का विरोध जो देश-हित में होगी। इसलिए उन्होंने केरल और पश्चिम बंग में आतंकवाद को प्रश्रय देने वाले मदरसों तक को छुट्टा छोड़े रखा। अपने ही मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को डाँटा-फटकारा जब वे आतंकी मदरसों के फैलाव से त्रस्त हो रहे थे। अब यदि परम-ज्ञानी वामपंथियों का यह रुख है, तब उलेमा अपनी सदियों पुरानी बुनियादी तालीम को सुधारने का हर प्रयास विफल कर देते हैं, तो हैरानी क्या!
उलेमा के लिए जीवन का हर सवाल मजहबी सवाल है। अभी वे पोलियो के टीके को इस्लाम-विरोधी मान रहे हैं, और हवाई अड्डों पर स्कैनर मशीनों से यात्रियों के शरीर की जाँच को भी। जिस किसी बात पर फतवे देना उनका अधिकार है। इमराना, गुडिया, अमीना, जरीना जैसी हजारों स्त्रियों की दुर्गति उनके ही चित्र-विचित्र फतवे करते हैं। यह फतवे मध्ययुगीन इस्लाम पर आधारित और व्यापक होते हैं। उन फतवों का आम मुसलमान चाहे-अनचाहे पालन करता है। कुत्ते की लार नापाक होती है या पूरा जिस्म? खड़े होकर पेशाब किया जा सकता है या नहीं? कोई अपनी पत्नी की सौतेली माँ से शादी करके दोनों को एक घर में रख सकता है या नहीं? …ऐसे हजारों सवाल मुसलमानों के लिए मजहबी सवाल हैं। जिन का जबाव देने में उलेमा पूरा जोश लगा देते हैं। यही मुस्लिमों के नेता हैं। इस मानसिकता के साथ कितनी प्रगति होगी?
हाल के दशकों में यहाँ उलेमा का प्रभाव बढ़ा है। तीन दशक से चल रही खुमैनी और बहावियों की कट्टरवाद की शिया-सुन्नी प्रतिद्वंदिता ने इसमें बड़ा योगदान किया है। उनसे प्रेरित मस्जिदों, मदरसों, मकतबों और उर्दू प्रेस का वैचारिक तंत्र; सऊदी अरब, ईरान या अन्य ‘इस्लामी’ स्त्रोतों से प्राप्त संरक्षण और धन; वोट-बैंक की राजनीति तथा प्रशासन के घुटनाटेक रवैये आदि विविध कारणों से उलेमा की शक्ति और ढिठाई बढ़ी। अब वे अपनी अलग न्याय व्यवस्था, यानी शरीयत कोर्ट, अलग बैंक ‘इस्लामिक बैंकिंग’, सेना में अपने लिए अलग नियम कि ‘किसी मुस्लिम देश के विरुद्ध लड़ने’ में भाग न लेने की छूट, आदि उद्धत माँगें भी करने लगे हैं। यानी धीरे-धीरे भारतीय संविधान से पूर्ण स्वतंत्र हो जाने की माँग!
वोट के लोभ और दबाव में लगभग हर राजनीतिक दल मुस्लिमों की भारतीय संविधान से दूरी बढ़ाता जा रहा है। बाल ठाकरे को छोड़कर शायद अब कोई नेता नहीं, जो इस घातक प्रकिया में मौन-मुखर सहयोग नहीं कर रहा हो। ‘अल्पसंख्यक’ एक कोड-वर्ड हो गया है, जिसके नाम पर मुसलमानों का अलग स्कूल ही नहीं, अलग कानून, अलग मंत्रालय, अलग आयोग, अलग विश्वविद्यालय और अलग बैंक तक बनाने की तैयारियाँ चल रही हैं। वस्तुतः मुसलमानों को देश के अंदर एक देश या राज्य के अंदर एक राज्य सा स्वतंत्र अस्तित्व दिया जा रहा है। राष्ट्रीय संविधान का ऐसा भीतरघात दुनिया के किसी देश में नहीं हुआ है!
इस बीच हिंदू वामपंथी-सेक्यूलरवादी बौद्दिक जमात इस्लामी कट्टरपंथियों की बातें मानना ही सेक्यूलरिज्म समझती है। ये लोग विभिन्न मुद्दों पर वही कहेंगे जो उलेमा कह रहे हैं और उनका विरोध करने वाले को हिन्दू सांप्रदायिक कहने लगेंगे। सारे बड़े अखबारों से लेकर टी.वी. टैनलों पर यही दृश्य है। कश्मीरी आतंकवादी भी वहाँ इज्जत पाते हैं। तब उलेमा की जकड़ टूटे तो कैसे? मुस्लिम चिंतन स्वतंत्र हो तो कैसे?
यदि मुस्लिमों को सचमुच आगे बढ़ना है तो मुसलमान दूसरों पर दोष मढ़ना बंद करें। समय के साथ न बदल पाने के कारण ही वे पिछड़े। इस्लामी सिद्धांतों पर आलोचनात्मक निगाह डालना जरूरी है। उलेमा जिन कायदों को जबरन लागू करते रहते हैं – जैसे स्त्रियों, काफिरों या जिहाद संबंधी – वे सब उनके मूल मजहबी ग्रंथों में ही हैं। उस की लीपा-पोती करना या कुछ टुकड़ों के सहारे उदार अर्थ निकालने से काम चलने वाला नहीं।
यह संयोग नहीं कि जब यूरोप में ईसाई जनता चर्च के शिकंजे से निकली तभी उन की चौतरफा प्रगति शुरू हुई। यूरोप के रेनेशाँ और रिफॉर्मेशन का पूरा संदेश यही है। इस्लामी समाज यह जरूरी काम आज तक नहीं कर सका। उन के पिछड़ेपन का मूल कारण यहाँ है। हमारे सारे सेक्यूलरपंथी, सच्चरपंथी, दिग्विजय सिंह पंथी और सोनिया जी की सलाहकार परिषद् के कीमियागर इसे समझें और बार-बार पाकिस्तान बनाने का सर्व-घाती मार्ग छोड़ें।
क्योंकि, यह भी समझा ही जाना चाहिए कि मुसलमानों का सब कुछ अलग करते जाते हुए अंततः अलग देश बना देने से भी मुसलमानों का कोई हित नहीं होता। पाकिस्तान इस का दयनीय उदाहरण है। वह आज चीन और अमेरिका की कूटनीतिक-आर्थिक-सैन्य भीख पर जी रहा है। उसके भौगोलिक महत्व को छोड़ दें, तो पाकिस्तान से कोई देश संबंध रखने का इच्छुक नहीं। इस दुर्गति का रहस्य कहाँ है? राजनीतिक लफ्फाजियों को छोड़ दें, तो पाकिस्तान के मुस्लिमों से भारतीय मुसलमान अधिक सहज, अधिक सम्मानित जिंदगी जी रहे हैं। मगर उसी हद तक जिस हद तक वे भारत के साथ, हिन्दुओं के साथ, कुफ्र के साथ घुले-मिले हैं! जिस हद तक वे दूर हैं, उस हद तक वे पिछड़े हैं। जैसा गालिब ने संकेत किया थाः काफिर हूँ, गर न मिलती हो राहत अजाब में।
चीन भारत के दक्षिण चीन सागर में वियतनाम के साथ संयुक्त तेल खोज परियोजना सहयोग के बहाने वियतनाम से प्रगाढ़ सम्बन्ध बनाने तथा इस सागर के अन्तर्राष्ट्रीय जल में अपने कानूनी दावों को सुदृढ़ करने से बेहद नाराज है। इसके लिए वह वियतनाम के साथ-साथ फिलीपींस को भी कोस रहा है। उसका आरोप है कि ये दोनो देश तेल से समृध्द विवादित दक्षिण चीन सागर पर चीन के दावे को खारिज करने के लिए भारत तथा अमरीका जैसी बाहरी शक्तियों की सहायता ले रहे हैं। ऐसा करके ये दोनों मुल्क इस मसले को चीन के साथ द्विपक्षीय ढंग से सुलझाने के अपने वादे से मुकर रहे हैं। उसका यह भी कहना कि ये देश सौदेबाजी के तहत बाहरी ताकतों को बुला रहे है, किन्तु उनका यह मंसूबा कभी पूरा नहीं होगा।
अब अच्छी बात यह है कि भारत उसके विरोध और धमकियों की कतई परवाह नहीं कर रहा है। सितम्बर में विदेशमंत्री एस.एम.कृष्णा की वियतनाम यात्रा को लेकर अपनी नाखुशी जतायी। इस यात्रा के दौरान भारत ने वियतनाम के साथ वैज्ञानिक, तकनीकी, शिक्षा ,व्यापार, तेल और गैस अन्वेषण, रक्षा, सेना,नौसेना और वायु सेना के संयुक्त अभ्यास, मीडिया दलों का आदान-प्रदान और ढाँचागत सुविधाओं के विकास आदि के क्षेत्र में सहयोग के समझौतों पर हस्ताक्षर किये थे। इससे पहले इसी जुलाई माह में वियतनाम की सद्भावना यात्रा गए भारतीय नौसेना पोत रावत को चीन की नौसेना ने दक्षिण चीन सागर की सीमा से बाहर जाने को कहा था। तब भारत ने इस घटना को अधिक महत्त्व नहीं दिया, लेकिन सागर की अन्तर्राष्ट्रीय सीमा में मुक्त आवागमन के अधिकार का हवाला देकर दक्षिण चीन सागर में अन्वेषण के चीनी विरोध को खारिज कर दिया।
दरअसल ,चीन अपनी विभिन्न प्रतिक्रियाओं से भारत समेत पूरी दुनिया को यह बताने-जताने की बराबर कोशिश कर रहा है कि सम्पूर्ण दक्षिण चीन सागर ही नहीं, वरन् स्प्रेतली, परसेल्स द्वीप भी उसके हैं। इन द्वीपों में काफी मात्रा में तेल और गैस मिलने की सम्भावनाएँ हैं। इस कारण दक्षिण चीन सागर में तेल और गैस की खोज करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ उसका है। चीन का आरोप है कि भारत का वियतनाम के साथ तेल की खोज का अनुबन्ध करना गम्भीर राजनीतिक’ उकसावा है। वह इस क्षेत्र के देशों के दावों को तो एक बार को मान भी सकता ह , किन्तु उसे दूसरे देशों की अपने इलाके में हस्तक्षेप मंजूर नहीं है। चीन के इस दावे के विपरीत वियतनाम का कहना है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ के समझौते के अनुसार ब्लाक संख्या-और पर उसके सम्प्रभु अधिकार हैं। इनमें तेल की खोज के लिए चीन से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है। दक्षिण चीन सागर को लेकर चीन की वियतनाम समेत इस क्षेत्र के दूसरे देशों के साथ तनातनी नयी नहीं है। चीन अपने नौसैनिक शक्ति के बल पर दक्षिण चीन सागर और इसके तेल तथा गैस पर अपने एकमात्र स्वामित्व होने का दावा कर रहा है जबकि यह सागर ही इस इलाके के मुल्कों की आर्थिक गतिविधियों के संचालन का सबसे महत्त्वपूर्ण माध्यम है। उसके इस दावों को अमरीका भी नहीं मानता,लेकिन वह इस क्षेत्र चीन, ताइवान ,फिलीपीन्स, मलेशिया,इण्डोनेशिया, वियतनाम के विवादित दावों का मध्यस्थता कर अन्तर्राष्ट्रीय तंत्र गठित करने में सहयोग करने का तैयार है, यह संकेत गत वर्ष अमरीकी विदेश मंत्री हिलेरी किलण्टन जरूर दिया था। वैसे भी चीन को भारत से ऐसी शिकायत करने का कोई नैतिक और किसी भी तरह का अधिकार नहीं है। वस्तुतः अब भारत चीन के साथ वही कर रहा है जो वह उसके साथ दशकों से अब तक करता आया है। चीन पाक अधिकृत कश्मीर में अपनी सेना के साये में कई जल विद्युत, सड़क निर्माण आदि परियोजनाओं पर काम कर रहा है, वह भारत के विरोध की लगातार अनदेखी कर रहा है। उसने जम्मू-कश्मीर के लद्दाख इलाके बहुत बड़े भू-भाग पर अनधिकृत कब्जा जमाये बैठा है और बार-बार इस इलाके में घुसपैठ भी करता आ रहा है। इसी अगस्त माह में उसके सैनिक लेह इलाके में डेढ़ किलोमीटर अन्दर घुस आये और सेना के खाली पड़े बंकरों को तोड़ गए।इससे पहले सियाचिन क्षेत्र में कराकोरम राजमार्ग बना चुका है जिससे भारत की सुरक्षा को गम्भीर खतरा पैदा हो गया।
चीन पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त के कराची नगर में ग्वादर बन्दरगाह का निर्माण में लगा,जिससे भारत की सुरक्षा का खतरा बढ़ गया है। चीन भारत के अरुणाचल प्रदेश के तवांग इलाके समेत सिक्किम आदि पर जब तक दावे करता रहता है। भारत से लगी सीमा के निकट चीन बड़ी-बड़ी सड़कें ,हवाई पट्टियाँ, बंकर, मिसाइलें लगा रखी हैं। वह भारत को हर तरफ से घेरने में भी जुटा है। भारत के पड़ोसी नेपाल में माओवादियों की मदद के साथ-साथ नक्सलियों का सहयोगी बना हुआ। चीन ने हिन्द महासागर में अपनी गतिविधियाँ बढ़ाने के साथ-साथ आर्थिक और हथियारों की आपूर्ति कर श्रीलंका में भी अपनी पैठ बढ़ा ली है। भारत के रक्षामंत्रा ए.के.एंटनी का भी कहना कि हमें दक्षिण चीन सागर में बीजिंग की बाधा से उतनी समस्या नहीं है जितनी हिन्द महासागर और भारत के चारों ओर चीन की सक्रियता से है।
पाकिस्तान का वह शुरू से ही साथी रहा है और अस्त्रों-शस्त्रों के साथ हर तरह से उसकी मदद करता रहा है। चीन द्वारा जम्मू-कश्मीर और अरुणाचल के भारतीय नागरिकों को नत्थी वीजा देने पर भारत अपना विरोध व्यक्त करता आया है, किन्तु उसने ऐसा करना बन्द नहीं किया। अब भारत ने चीन की हिन्द महासागर और दक्षिण एशिया में प्रभाव बढ़ाने की नीति का मुकाबला करने के लिए पूर्वी एशियाई देशों से हर तरह के सम्बन्ध बनाने की नीति अपना रहा है। इसके अन्तर्गत वियतनाम के साथ भारत ने सुरक्षा साझेदारी बढ़ायी है। इसी के तहत भारत को तरांग बन्दरगाह के उपयोग करने का अधिकार प्राप्त हुआ है। इस बन्दरगाह से भारत समुद्री रास्तों की पहरेदारी और समुद्री लुटेरों से जलपोतों की सुरक्षा कर पाएगा।
चीन ने भारतीय अर्थव्यवस्था में भी अपनी गहरी पैठ बना ली है। इस साल भारत और चीन का द्विपक्षीय व्यापार अरब डॉलर पर पहुँच गया है ,मगर इसमें से अरब डॉलर का भारत में सिर्फ आयात हुआ हैं। बढ़ते व्यापार घाटे को देखते हुए योजना आयोग उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया चीन के साथ पहली रणनीतिक आर्थिक वार्ता एस.ईडी में अपने बाजार खोलने की माँग रखी है, ताकि चीन के भारतीय अर्थव्यवस्था पर बढ़ते दबाव को नियंत्रित किया जा सके।
जहाँ तक चीन और वियतनाम के बीच शत्रुता का प्रश्न है तो यह कोई नयी नहीं है। पूर्व में वियतनाम चीन के कब्जे में था। सन् में चीन फ्रान्स से हार गया। इसके पश्चात हिन्द चीन (कम्बोडिया,लाओस,वियतनाम) पर चीन का नियंत्रण खत्म हो गया। तदोपरान्त वियतनाम की सोवियत संघ से मित्रता ने चीन को क्रुध्द कर दिया। अन्ततः चीन ने फरवरी, में वियतनाम पर आक्रमण कर दिया, जबकि भारत के विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी चीन की यात्रा पर थे। इस हमले से नाराज होकर वह अपनी यात्राा अधूरी छोड़ कर स्वदेश लौट आये। इस जंग में चीन को अपने हजार और वियतनाम एक लाख से ज्यादा सैनिक खोने पड़े थे।
चीनी सेना राजधानी हनोई के पास पहुँच गयी थी। उस समय कोई पन्द्रह दिनों बाद अन्तर्राष्ट्रीय दबाव में चीनी सेना को अपनी सीमा में लौटने को विवश होना पड़ा ,किन्तु सोवियत संघ के विघटन तक दोनों देशों में तनातनी बनी रही।
यद्यपि हिन्द चीन के इलाके को देश शताब्दियों से भारतीय संस्कृति एवं बौध्द धर्म के कारण हमें अपना मानते रहे, तथापि गुलामी की मानसिकता के चलते भारत केवल पश्चिमी मुल्कों की तरफ दोस्ती का हाथ पसारे खड़ा रहा। इस दौरान चीन ने इस इलाके में अपना प्रभाव विस्तार किया। दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों में वियतनाम का बड़ा महत्त्व है।
पिछले सालों में भारत और वियतनाम के आर्थिक सम्बन्ध में दस गुना से ज्यादा बढ़ोत्तरी हुई है जो अब लगभग में तीन अरब डॉलर तक पहुँच गई है। इस समय भारत वियतनाम की वायु सैनिकों को प्रशिक्षित कर रहा है। इसके अलावा भविष्य में वह वियतनाम को गैर परमाणु प्रक्षेपास्त्रों देने की सोच कर रहा है।
चीन के पूर्वी एवं दक्षिण पूर्वी क्षेत्रा में तेजी से बढ़ रहे सामरिक एवं आर्थिक प्रभाव को थामने में वियतनाम भारत का सहायक हो सकता है। नवम्बर, में भारत ने वियतनाम के साथ गंगा-मेकोंग सहयोग करार पर हस्ताक्षर किये थे। भारत की वियतनाम से मैत्री दक्षिण-पूर्वी एवं पूर्वी एशियाई क्षेत्र के चीन की चुनौतियों का जवाब देने के लिए बेहद जरूरी है। इसके बगैर चीन ड्रैगन को भारत को घेरने से रोक पाना सम्भव नहीं है।
कालचक्र अपनी पूरी गति से घूम रहा था – अनासक्त भाव से। समुद्र की लहरों की भांति वह किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। हमलोगों के जीवन में वनवास के बारह वर्ष पहाड़ की तरह थे। लेकिन काल चक्र के लिए यह अवधि एक तिनके से अधिक कुछ भी नहीं थी। अस्तु, हमने धर्मपूर्वक आचरण करते हुए, छिटपुट कष्टों और असंख्य उपलब्धियों को स्मृति पटल पर संजोए, वनवास पूरा कर ही लिया। अगला लक्ष्य था – एक वर्ष का अज्ञातवास सकुशल पूरा कर लेना। हमें छद्मवेश में पूरा एक साल व्यतीत करना था। पहचाने जाने पर पुनः बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास का सिलसिला आरंभ हो जाता। सोचकर ही मन सिहर जाता था।
अज्ञातवास के लिए हमने विभिन्न प्रदेशों का विचार किया। पांचाल, चेदि, मत्स्य, शूरसेन, पटच्चर, दशार्ण, नवराष्ट्र, मल्ल, शाल्व, युगन्धर, कुन्तिराष्ट्र, सुराष्ट्र और अवन्ती के नामों पर गहन मंत्रणा की गई। अन्त में मत्स्य देश की राजधानी विराट नगर के लिए सहमति बनी। राजा विराट अत्यन्त उदार और धर्मात्मा थे। वे पाण्डुवंश पर प्रेम भी रखते थे। उनके यहां हम सुरक्षित रह सकते थे।
हमने वहीं जाने का निर्णय लिया। वन से हमलोग छद्मवेश में विभिन्न मार्गों से बाहर निकले। कुछ योजन जाने के बाद हम पुनः मिले। विराटनगर के निकट पहुंच, हमने एक घने वन में शमी के एक विशालकाय वृक्ष के कोटर में अपने समस्त आयुध छिपाकर रख दिए। नगर में प्रवेश के पूर्व, हम सभी भ्राताओं ने द्रौपदी के साथ त्रिभुवनेश्वरी दुर्गा का स्तवन किया। देवी ने प्रकट होकर विजय तथा राज्यप्राप्ति का वरदान दिया; हमें आश्वस्त किया कि विराटनगर में हमें कोई पहचान नहीं पाएगा।
युधिष्ठिर ने सबसे पहले नगर में प्रवेश किया, राजा से मिलने की अनुमति ली। उनके सामने उपस्थित होकर मधुर वाणी में निवेदन किया –
“राजन! व्याघ्रपाद गोत्र में उत्पन्न हुआ मैं एक ब्राह्मण हूं। मेरा नाम है – कंक। पूर्व में मैं महाराज युधिष्ठिर के साथ मित्र के समान रहता था। मैं और वे, अवकाश के क्षणों में द्यूतक्रीड़ा का आनन्द लेते थे। पासा फेंकने की कला का मुझे विशेष ज्ञान है। उनके वन में चले जाने के पश्चात मैं अनाथ हो गया। उन्हें ढूंढ़ने की बहुत चेष्टा की लेकिन असफलता ही हाथ लगी। अब आपकी शरण में आया हूं। मुझे जीविका देकर एक ब्राह्मण की जीवन-रक्षा का पुण्य प्राप्त करें महाराज।” राजा विराट पर युधिष्ठिर की वाक्पटुता का सम्मोहक प्रभाव पड़ा। क्षण भर में ही निर्णय ले बोले –
“कंक! जिस प्रकार तुम महाराज युधिष्ठिर के मित्र थे, वैसे ही मेरे भी हो। आज से तुम्हें मैंने अपना मित्र स्वीकार किया। तुम्हारे भोजन, वस्त्र आवास और वेतन का दायित्व मेरे उपर होगा। मेरे राज्य, कोष और सेना के संचालन में तुम मेरे प्रमुख परामर्शदाता होगे। राजमहल का द्वार तुम्हारे लिए सदा खुला रहेगा।
तुमने जीविका की तलाश में वर्षों व्यतीत किए हैं। तुम्हें प्रत्यक्ष अनुभव है कि बिना जीविका के मनुष्य कितना कष्ट पाता है। अतः मैं तुम्हें अधिकार देता हूं कि अगर कोई भी योग्य पात्र, तुम्हारे पास आकर जीविका की याचना करता है तो उसकी प्रार्थना हर समय मुझे सुना सकते हो। मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि उन याचकों की सभी कामनाएं मैं पूर्ण करूंगा। तुम मुझसे कुछ भी कहते समय, भय या संकोच मत करना।”
राजा का विश्वास अर्जित कर वे बड़े सम्मान के साथ वहां रहने लगे। उनका रहस्य गोपन ही रहा, किसी पर प्रकट नहीं हुआ।
युधिष्ठिर की अनुशंसा पर चारो भ्राताओं और द्रौपदी को भी राजमहल में जीविका मिल गई – भीमसेन ‘बल्लव’ नामक प्रधान रसोइया बने, नकुल ‘ग्रन्थि’ नाम से अश्वपालक नियुक्त हुए, सहदेव ‘अरिष्टनेमी’ नाम से गौवों की देखरेख करने लगे। द्रौपदी ‘सैरन्ध्री’ परिचारिका के रूप में महारानी सुदेष्णा की सेवा में लग गई और मैं?
देवलोक की अप्सरा उर्वशी का शाप भुगतने के लिए, मैंने इसी अवसर को उपयुक्त माना। एक वर्ष के लिए नपुंसकत्व को प्राप्त हुआ। शाप भी वरदान बन जाएगा, कभी सोचा नहीं था। मेरा नया नाम था – बृहन्नला। कार्य था राजकुमारी उत्तरा को नृत्य एवं संगीत की शिक्षा देना। मैं स्त्रियों की तरह साड़ी बांध अपने कन्धे के शरचिह्न छिपा लेता, दीर्घ केशों की वेणी बांध, उनमें पुष्प लगा लेता, कान, नाक, हाथ, बाहु, कटि, पाद पर नाना अलंकार पहन लेता। होठों पर लाली, माथे पर कुंकुम बिन्दी और आंखों में काजल लगाकर, स्वयं को रमणी की भांति सुसज्जित कर लेता। एक बार सुभद्रा भी देखती तो पहचान नहीं पाती।
पुरुष मन बड़ा ही उच्छृंखल होता है। जहां सुन्दर नारी देखी, उसे अंकशायिनी बनाने का विचार आरंभ कर देता है। अगर सुन्दर नारी का कोई बलशाली रक्षक न हो तो पुरुष की बांछें खिल जाती हैं। सुसंस्कार और सुशिक्षा मनुष्य की इस आसुरी वृत्ति पर अंकुश लगाते हैं, लेकिन शक्तिमद में चूर महाराज विराट के साले, सेनापति कीचक को उचित-अनुचित, धर्म-अधर्म का प्रश्न क्या व्यापता? महाराज विराट के वृद्ध और अशक्त होने के कारण राजमहल और बाहर तक उसी का साम्राज्य था। वह भीमसे की तरह बलशाली था। शक्ति के अहंकार ने उसे कुछ अधिक ही निरंकुश बना दिया था। महारानी सुदेष्णा उसकी सगी बहन थीं। इसका लाभ लेकर अन्तःपुर में वह स्वतंत्र विचरण किया करता था।
जैसे अहेरी वनों में आखेट की तलाश में विचरते रहते हैं, उसी तरह कीचक अन्तःपुर में सुन्दर रमणियों के संधान में विचरता रहता था। द्रौपदी ने महीनों स्वयं को उसकी कुदृष्टि से दूर रखा था, लेकिन एक दिन, विश्राम के क्षणों मे अचानक वह महारानी सुदेष्णा के कक्ष में प्रविष्ट हुआ। वहां महारानी की सेवा में रत द्रौपदी पर उसकी दृष्टि पड़ी। वह कृष्णा को देखते ही काम-बाण से पीड़ित हो गया। तरह-तरह से उसे रिझाने का प्रयत्न करने लगा। सती द्रौपदी ने प्रत्येक अवसर पर उसका अपमान किया, स्पष्ट उत्तर दिया कि वह उसकी कामना कर मृत्यु को आमंत्रित न करे। उसने यह भी बताया कि उसके पांच गंधर्व पति हैं, जो अदृश्य रहकर भी उसकी रक्षा करते हैं। अगर उसने दुस्साहस किया तो वह उसके लिए विषकन्या सिद्ध होगी।
लेकिन मूढ़मति कीचक ने इसे द्रौपदी की गीदड़ भभकी अथवा परिहास समझा। उसके सिर पर वासना का भूत सवार था। उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी। उसने पहले तो नाना प्रकार के उपायों से द्रौपदी को मोहित करने का प्रयास किया, असफल होने पर कुण्ठित हो कृष्णा के सार्वजनिक अपमान पर उतर आया। पांचाली ने नित्य के अपमानों से तंग आकर उससे छुटकारा पाने का निर्णय किया, वीर भीमसेन से मंत्रणा की और कीचक को रात्रि की नीरवता में नृत्यशाला में आमंत्रित किया।
कीचक इस सुअवसर को पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसका अंग-अंग पुलकित हो रहा था। निर्धारित समय पर सुसज्जित हो नृत्यशाला में पहुंचा। उसे क्या पता था कि नृत्यशाला की शय्या पर चादर ओढ़कर महाबली भीम शयन कर रहे थे। उन्हें द्रौपदी समझ, भीमसेन को अत्यन्त प्रेम से जगाया। भीम तो जग गए लेकिन वह सदा के लिए सो गया। वीरवर भीमसेन ने उसे पृथ्वी पर पटककर, छाती को दोनों घुटनों से दबा, उसका गला घोंट दिया।
विराटनगर में इस अप्रिय घटना के अतिरिक्त और कोई दुर्घटना नहीं हुई। हमलोग सफलता पूर्वक अपने अज्ञातवास को पूर्ण करने की दिशा में अग्रसर थे। हम पांचो भ्राता और द्रौपदी, इस अवधि में किसी न किसी बहाने मिलते अवश्य थे। एक-दूसरे का कष्ट भी बांटते और भविष्य की योजनाएं भी बनाते। राजदरबार में युधिष्ठिर की प्रतिष्ठा नित्य बढ़ती जा रही थी। उनसे मंत्रणा कर राजा विराट अत्यन्त प्रसन्न होते थे। उनके माध्यम से हमें हस्तिनापुर की गुप्त सूचनाएं भी बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के प्राप्त हो जाती थीं।
भारत का योजना आयोग इस देश में गरीब को पहचानने की कोशिश में लगा हुआ है। इस आयोग ने इस काम के लिए देश के जाने-माने अर्थशास्त्रियों को भी लगाया है। वैसे तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वयं भी अपने आपको अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के अर्थशास्त्री कहते हैं। उनके मित्र मोंटेक सिंह अहलुवालिया भी दुनिया से गरीबी को समाप्त करने की नई-नई स्कीमें बताते रहते हैं। बड़ी लम्बी मशक्कत और माथा-पच्ची के बाद मनमोहन सिंह और अहलुवालिया ने योजना आयोग के द्वारा दूसरे अर्थशास्त्रियों की सहायता से अन्त में गरीब को खोज ही लिया। इनके अनुसार गांव में जो व्यक्ति एक दिन में 26 रुपये कमाता है और शहर में जो एक दिन में 32 रुपये कमाता है वह गरीब नहीं है। उससे नीचे कमाने वाले लोग गरीब हैं। गरीब की पहचान करना सरकार के लिए बहुत जरूरी है क्योंकि यदि उसकी सही शिनाख्त हो जाएगी तभी उसके उत्थान के लिए सरकार अपनी योजनाएं बना सकेगी। मोंटेक सिंह अहलुवालिया और मनमोहन सिंह आपस में घनिष्ठ मित्र भी हैं। दोनों रिसर्च स्कॉलर हैं। जाहिर है कि दोनों अपनी रिसर्च को एक-दूसरे के साथ शेयर भी करते होंगे और निष्कर्षों पर सहमति भी जताते होंगे। अहलुवालिया ने गरीब को खोजने के बाद जो निष्कर्ष निकाला, मनमोहन सिंह ने भी उस पर अपनी मुहर लगा दी। तब भारत सरकार ने अपना शोधपत्र प्रकाशित किया जिसमें 26 व 32 रुपये प्रतिदिन कमाने वाले व्यक्ति को गरीबी रेखा से ऊपर रखा गया। यदि सिंह और अहलुवालिया गरीबी रेखा को दर्शाने वाला अपना शोधपत्र विश्व बैंक के किसी सेमिनार में प्रस्तुत करें तो हो सकता है कि वहां उन्हें भरपूर तालियों का सम्मान मिले और इतनी गहरी खोज के लिए उनके लिए कशीदे भी पढ़े जाएं। परन्तु दुर्भाग्य से उनके शोधपत्र को हिन्दुस्थान की जनता समझ नहीं पाई। जिस जनता के लिए प्रधानमंत्रीनुमा रिसर्च स्कॉलर और रिसर्च स्कॉलरनुमा प्रधानमंत्री अपना शोधपत्र लिख रहे थे, उस जनता को इनकी विद्वता तो समझ नहीं आई लेकिन उसे इतना जरूर पता था कि 26 और 32 रुपये प्रतिदिन कमाने वाला व्यक्ति कम-से-कम अमीर नहीं होता है। शुरु में तो मनमोहन सिंह को गुस्सा ही आया होगा। ऐसा गुस्सा जिसमें बहुत मेहनत करके लिखे गए रिसर्च पेपर पर किसी सेमिनार में दाद न मिलने पर आता है इसीलिए उन्होंने मोंटेक सिंह अहलुवालिया को प्रेस कॉन्फ्रेंस करने के लिए कहा ताकि इस देश की अनपढ़ जनता को इस रिसर्च पेपर के कीमती निष्कर्ष को समझाया जा सके। अहलुवालिया अपनी विद्वता के सम्मान की रक्षा के लिए अंग्रेजी में एक लंबी प्रेस कॉन्फे्रस करके यह समझाने का प्रयास करते रहे कि दिनभर में 32 रुपये कमाने वाला व्यक्ति किन कारकों के आधार पर अमीर बनता है? मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलुवालिया की जोड़ी की ये हरकतें देखकर कई बार ऐसा लगने लगता है कि कहीं ये लोग चन्द्रलोक से तो नहीं आए, जिन्हें भारत में गरीब को जानने-पहचानने के लिए ही दिन-रात इतनी महेनत करनी पड़ रही है और उसके बाद जो निष्कर्ष निकलते हैं उनका वास्तविकता से कोई ताल्लुक नहीं होता। रिसर्च करते समय जब डाटा मेन्युफैक्चर किया जाता है तो आमतौर पर उसी प्रकार के नतीजे निकलते है जिस प्रकार के नतीजे इस जोड़ी ने निकाले हैं। यदि सोनिया गांधी भारत में गरीबों की ऐसी परिभाषा करती तो समझ आ सकता था क्योंकि उनको भारत की लगभग उतनी ही समझ है जितनी मणीशंकर अय्यर को वीर सावरकर की। परन्तु सिंह द्वय की इस जोड़ी ने जो कारनामा किया है वह भारत को शर्मशार करने वाला है। ऊपर से विचारणीय यह कि गरीब की इस नई परिभाषा को सोनिया गांधी की राय साहबों और राय बहादुरों की सलाहकार परिषद् ने बाकायदा पारित किया है। आजकल भारतवर्ष में सरकार को जो भी निर्णय लेना होता है उस पर इस परिषद् की मोहर लगाना वैसे भी एक प्रकार से लाजमी हो गया है। वास्तव में अब सरकार की कार्य प्रणाली एक प्रकार से उलट गई है। अब निर्णय राय साहबों और राय बहादुरों की यह परिषद् लेती है। विधानपालिका तो उस पर संवैधानिक ठप्पा लगाकर कार्यपालिका के हवाले कर देती है। कुछ विद्वानों का यह मानना है कि यह असंवैधानिक है और लोकतंत्र की शक्ति को धीरे-धीरे साेंखने वाला है। परन्तु जब बाढ़ ही खेत को खाने लगे तो इतिहास में ऐसे मरहले दिखाई देते ही हैं।
उसी पुरानी स्क्रिप्ट से भारत के रंगमंच पर एक बार फिर अभिनय चालू हो गया है। स्क्रिप्ट में लिए गए संवादों के अनुसार राहुल गांधी गरीब की इस परिभाषा को लेकर नाराज होते दिखाई दे रहे हैं। स्क्रिप्ट का अगला अंश पर्दे के पीछे का काना-फूसियां है जो बाकायदा फेंडली चैनलों में सुनाई देना शुरु प्रारंभ हो चुका है। ये काना-फूसियां राहुल गांधी के गरीब की इस नई परिभाषा के प्रति उनकी चिंता, नाराजगी और उनके गुस्से को लेकर है। यह दृश्य रंगमंच पर कुछ देर तक दिखाया जाएगा। अगला दृश्य राहुल गांधी के प्रधानमंत्री से मिलने का है। वे स्वयं प्रधानमंत्री के पास जाकर गरीब और गरीबी को लेकर अपनी चिंताए जाहिर करेंगे और प्रधानमंत्री भी उसे उतनी ही गंभीरता से सुनेंगे। यह भी हो सकता है कि यहां एक दो संवाद स्क्रिप्ट प्रधानमंत्री के लिए भी लिए गए हों जिसमें प्रधानमंत्री कह सकते हैं कि राहुल गांधी से बातचीत के आधार पर उन्हें भारत की वास्तविकता का पहली बार पता चला है और उन्हें अनुभव हुआ है कि गरीब और गरीबी को लेकर अब तक निर्धारित किए गए उनके मानदंड ठीक नहीं थे। राहुल गांधी द्वारा दी गई सीख के आलोक में अपना रिसर्च पेपर दोबारा लिखेंगे।
इधर ऐसा भी सुनने में आया है कि नाटक इस मोड़ पर स्क्रिप्ट लेखक सोनिया गांधी के भी दो-तीन संवाद डालना चाह रहे थे। जिसमें गुस्से से तमतमाती हुई सोनिया गांधी गरीबों से किए जा रहे इस मजाक पर अपना रोष प्रकट करती और प्रधानमंत्री को उनके घर में जाकर भारत में सही गरीब को पहचानने के लिए सख्त आदेश देती। लेकिन सुना गया है कि बाद में स्क्रिप्ट में इन संवादों की जरूरत नहीं समझी गई क्योंकि बीमारी से उभरने के बाद राजमहल में यह तय हो गया कि ‘लगता है कि राहुल गांधी का अब शीघ्र हीं राज्याभिषेक कर देना चाहिए।’ इसीलिए भारत में गरीबों को लेकर चिंता दर्शाने वाले सभी संवाद राहुल गांधी के खाते में ही डाल दिए गए हैं।
इधर सोनिया गांधी की राय साहबों और राय बहादुरों की सलाहकार परिषद् भी राज दरबारों की पुरानी परम्परा के अनुसार सक्रिय हो गई है। उन्होंने भी इधर-उधर चैनलों में गर्दनें निकालनी शुरु कर दी हैं। उनके लिए लिखी गई स्क्रिप्ट बिल्कुल अलग है, वे पूरे नाटक में अचानक नट-नटी की तरह प्रवेश करते हैं और मंगलगीत गाकर गायब हो जाते हैं। उनका स्वर और मंगलगीत एक ही संकेत देता है कि यदि सरकार कुछ गलत कर रही है तो उसके लिए सरकार के प्यादे जिम्मेदार है। सोनिया गांधी का इसमें कोई हाथ नहीं है। जैसे हीं उनको अपने अज्ञात-सूत्रों से पता चलता है कि यह गलत हो रहा है, उसी वक्त सरकार को डांट लगाती है और उसे फिर आम भारतीय की जरूरतों का ध्यान रखने के लिए आगाह करतीं है। गरीब और गरीबों को लेकर भी इस दरबार सलाहकार परिषद् ने इसी प्रकार के गीत गाने शुरु कर दिए हैं। लेकिन इस पूरे नाटक में एक हीं बात की दाद देनी पड़ेगी कि नाटक में भाग लेने वाले पूरे पात्र रंगमंच पर आने से पहले ग्रीनरूम में इतनी जबरदस्त पूर्वाभ्यास कर लेते हैं कि रंगमंच पर कुछ देर के लिए तो इनका अभिनय सचमुच यथार्थ लगने लगता है। जैसे गंभीर मुद्रा में मनमोहन सिंह दिखाई देते हैं वैसे ही तनकर चलते हुए राहुल गांधी उनके पास आते हैं तथा नेपथ्य में आधुनिक तकनीक का लाभ उठाते हुए सोनिया गांधी छाया की तरह डोलती नजर आती हैं। संवादों की चुस्ती से लगता है कि सभी सचमुच गरीब की चिंता से दुबले पड़ते जा रहे हैं। 32 व 26 रुपये वाला दृश्य भी शायद पूरे नाटक में यह अतिरिक्त प्रभाव पैदा करने के लिए जोड़ा गया हो कि मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह जैसे भारतीय तो भारत की गरीबी को समझ नहीं पाते लेकिन सोनिया गांधी उनके इस दर्द को समझतीं है और इसीलिए मनमोहन सिंह को ठीक से काम करने का आदेश देतीं हैं। स्क्रिप्ट लिखने वाले को शायद आशा होगी कि नाटक देख रहे लोग इस अतिरिक्त प्रभावोत्पादन से अभिभूत होकर सोनिया जी की जय के नारे पंडाल में ही लगाना शुरु कर देंगे। लेकिन उनका दुर्भाग्य कि जब दर्शकों में से अधिकांश कुछ समय के बाद टिप्पणी करने लगते हैं कि ये सारे पात्र धीरे-धीरे विदूषक की मुद्रा में क्यों आ रहे हैं?