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कब उठेगा महानायक के मौत के रहस्य से परदा

संजय स्वदेश

नेताजी सुभाषचंद्र बोस। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के महानायक। ऐसा महानायक जिसका कद महत्मा गांधी से भी ज्यादा उंचा था। पर गांधी के नेहरू प्रेम से देश की राजनीति की ऐसी धारा बही कि इस महानयक को पूरी तरह से उपेक्षित कर दिया गया। आजादी के छह दशक बाद भी सरकार इस महानायक के मौत के रहस्य से परदा उठाने में कभी गंभीर नहीं रही। समय-समय पर अनेक विवाद हुए। पर जांच आयोग से मामला ठंडे बस्ते में दम तोड़ चुका है। 23 जनवरी 2011 को नेताजी की 114वीं जयंती है। नेताजी की अब तक जीवित रहने की संभावना बहुत कम बचती है। पर नेताजी के मौत या उनके गायब होने के रहस्य जानने के लिए लोगों में हमेशा उत्सुकता रही है।

एनडीए सरकार के कार्यकाल में गठित मुखर्जी आयोग ने जो रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी, उसे यूपीए सरकार ने अपने कार्यकाल में खारिज कर दिया गया था।

महानायक के मौत के रहस्य से परदा हमेशा कभी नहीं हटा। बार-बार यह बात उठी कि आखिर ताइवान में 18 अगस्त 1945 को कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त नहीं हुआ तो नेताजी अचनाक कहां गायब हो गये? कुछ वर्ष पूर्व यूपीए सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट यह कह कर खारिज कर दिया था कि उसमें कुछ भी नया नहीं है। जो बातें मुखर्जी आयोग ने कही हैं, वैसी बातें पहले भी होती रही है और उस पर काफी चर्चा हो रही है। लेकिन तब विवाद इस बात पर ज्यादा हुआ था कि मुखर्जी आयोग को अपनी जांच पूरी करने में सरकार की कई एजेसियों ने सकारात्मक रवैया नहीं अपना। यहां तक कि सरकार ने आयोग को रूस जाने तक की अनुमति नहीं दी गई थी।

सरकारी गलियारे में क्यों दबती है शोर इससे बड़ी दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है कि देश की आजादी में अपना सब कुछ न्यौछावर करने वाले वीर योद्धा का अस्तित्व कहां खो गया यह आजाद भारत के छह दशक से भी ज्यादा समय में नहीं पता लगाया जा सका। किसी भी राष्ट्र के स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनी ऐतिहासिक धरोहर होती है। आने वाली पीढ़ियां इन्हीं के आदर्शों से प्रेरणा लेते हुए एक अपने देश के लिए सोचती हैं। कुछ करती हैं और किसी विशेष दिवस पर उनकी यादों को ताजा कर गौरवांवित होती है, एक ताकत पाती है। पर वर्तमान पीढ़ी बहुत प्रोफेसनल है।

उस याद नेताजी के आदर्श से कुछ लेना नहीं है। उन्हें इतिहास तक सीमित रखना चाहती है। जिन्हें रुचि है, वे समय-समय पर नेताजी के मौत से परदा उठाने और उनके बिरासत को सहेजने की बात उठाते हैं। उनका शोर सरकारी गलियारे में दब जाता है।

खबर के लिए रिपोर्टर कानून तोड़ते हैं मुखर्जी आयोग का कहना था कि उसके जांच में ताईवान के अलावा किसी देश से भी सहयोग नहीं मिला। 1946 में सुभाष चंद्र बोस जिंदा थे। उन्हें रूस में देखा गया था, लेकिन इस दावे का कोई ठोस प्रमाण नहीं है। लेकिन जब अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए से अधिकृत जानकारी मिली थी कि 18 अगस्त 1945 में ताईवान के ताईहोकू हवाई अड्डे पर कोई विमान दुर्घटना हुई ही नहीं था।

लेकिन अमेरिका के एक अखबार शिकागो ट्रिब्यून के रिपोर्टर अल्फ्रेड बेक ने ताईहाकू हवाई अड्डे का पर दुर्घटना से संबंधित कुछ तस्वीर पेश की थी।

तब खोसला आयोग के सामने इस चित्र से संबंधित प्रमाणिकता साबित नहीं हो पाई थी। इस चित्र को प्रस्तुत करने वाले रिपोर्टर का खुद कहना था कि उस हवाई अड्डे पर चित्र खिंचना प्रतिबंधित था, तो फिर उसने कैसे ये फोटो ले लिये? पर यह कहकर रिपोर्टर की फोटो को खारिज नहीं किया जा सकता था।

क्योंकि रिपोर्ट ऐसे की चुनौतीपूर्ण कार्यों को अंजाम देते हैं। इसके लिए चोरी-छिपे कानूनी नियमों के सामने आंख मुंद लेते हैं।

कहीं जापान का षडयंत्र तो नहीं?

विमान दुर्घटना प्रकरण में एक और बात गौर करने वाली यह है कि नेताजी की विमान दुर्घटना में हुई मौत का समाचार सबसे पहले जापानी रेडियों ने प्रसारित किया था। और उसके बाद कई ऐसे दलीले मिली जिससे नेताजी के जिंदा होने पर बल मिला। इससे यह भी लगता है कि जपान ने एक सुनियोजित योजना के तहत नेताजी को मृत घोषित किया, क्योंकि ब्रिटिश सेना को नेताजी की सरगर्मी से तलाश थी। हो सकता हो कि जापान के द्वितीय विश्व युद्ध में हार जाने बाद के ब्रिटिश सेना द्वारा उन्हें जापान में खोजने की कार्यवाही से बचना चाहता हो। इसलिए उसने रेडियों से उन्हें मरने की खबर प्रसारित कर दी हो।

गुप्त मिशन से कहीं मंचुरिया तो नहीं गये पूर्व में गठित खोसला आयोग ने यह साबित किया था कि नेताजी शुरू से ही सोवियत संघ जाना चाहते थे और सोवियत संघ से ही भारत की आजादी का संघर्ष चलाना चाहते थे। लेकिन उनका सोवियत संघ से पहले जर्मनी पहुंचना जरूरी थी। क्योंकि उनको सहायता के लिए पहले ही जर्मनी से आश्वासन मिल चुका था।

इतिहास के मुताबिक उन दिनों जर्मनी में भारत के हजारों सैनिक कैद थे। जर्मनी के शासकों ने नेताजी को आश्वासन दिया था कि वे इन भारतीय सैनिकों को कैद से रिहा कर देंगे जिनका उपयो नेताजी अपनी आजाद हिंद फैज में कर सकते थे। इसी सहायता से उन्होंने अंग्रेजी सेनाओं का जमकर मुकाबला भी किया। लेकिन जब द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी और जापान हार के कगार पर पहुंचने लगे तो इसका सीधा प्रभाव आजाद हिंद फौज पर पड़ा। तब नेताजी ने एक गुप्त योजना के मुताबिक रूस की यात्रा पर जाने की तैयारी कर लिया। जिस विमान से वह सफर कर रहे थे व दुर्घटनाग्रस्त हो गया जिसमें नेताजी की मौत हो गई। लेकिन कई दस्तावेज अब भी खोसला आयोग पास है, जिसके मुताबिक नेताजी सुभाष चंद्र बोस अपने इस गुप्त मिशन के चलते मंचूरियां तक पहुंच गए थे।

बाद में मंचूरिया को रूसी सेनाओं ने जापान से छीन लिया और वहां के सैनिकों को उन्होंने बंदी बना लिया जिसमें नेताजी भी थे। फिर बंदी सैनिकों को रूस ले जाया गया, जहां उन खतरनाक जेलों में डाल दिया गया, जहां से कैदियों को सिर्फ मरने की खबर आती है। इसी प्रकरण में कहा जाता है कि नेताजी को स्टॉलिन ने फांसी दे दी थी।

पत्र लिखा, तो जवाब नहीं आया नेताजी के एक भतीजे अभियनाथ बोस ने खोसला आयोग को यह बयान दिया था कि एक बार उन्हें एक ब्रिटिश राजनयिक ने फोन पर बताया कि 1947 में नेताजी के साथ रूसी अधिकारियों ने बहुत ही बुरा बर्ताव किया था। उनके पिता यानी नेताजी के भई शरद चंद्र बोस ने 1949 में अपने बेटे से कहा था कि उन्हें कुछ कूटनीतिक सूत्रों के जरिए पता चला है कि सोवियत संघ में नेताजी को साइबेरिया के यातना शिविर में रख गया था और 1947 में स्टालिन ने उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया था। कहा जाता है कि नेताजी के बड़े भाई शरदचंद्र बोस ने इस संबंध में तत्कालीन गृहमंत्री बल्लभ भाई पटेल को सूचित किया था और पेटल ने इस बात की सारी जानकारी प्राप्त करने के लिए मास्कों में तत्कालीन भारतीय राजदूत डॉ. राधाकृष्णनन को एक पत्र लिखा। डॉ राघाकृष्णन ने गृहमंत्री के पत्र का कोई जवाब नहीं दिया।

निष्कर्ष पर नहीं पहुंची कमेटी मुखर्जी आयोग से पहले नेताजी की मृत्यु से रहस्य से पर्दा उठाने के लिए मुखर्जी आयोग से पहले शाहनवाज कमेटी और बाद में गठित खोसला आयोग कमेटी किसी भी निष्कर्ष में पर नहीं पहुंची। खोसला आयोग ने भी यह कह कर रहस्य को और गहरा दिया कि विमान दुर्घटना में नेताजी के मरने का भी कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है। किसी भी आयोग को आज तक ऐसा कोई प्रमाण हाथ नहीं लगा जो यह साबित कर सके कि जिस विमान में नेताजी सफर कर रहे थे, उसमें उन्हें बैठते हुए देखा गया था।

नेता जी ने कहा था आयोग का यह दावा को इससे भी पुष्ठि होती है कि भारतीय राष्ट्रीय सेना के एक सिपाही निजामुद्दीन का यह कहना है कि जब नेताजी के मौत की खबर प्रसारित हुई, तब उसके बाद उन्होंने खुद नेताजी का वायरलेस संदेश ग्रहण किया था, जिसमें उन्होंने कहा था – मैं जिंदा हूं, वी विल कम टू इंडिया।

लेकिन नेताजी की बेटी अनिता पैफ ने पिछले साल भारत यात्रा के दौरान साफ कहा था कि उन्हें यकीन है कि उनके पिता का निधन विमान हादसे में हो चुका है।

डीएनए टेस्ट का विचार बुरा नहीं विवाद इतना उलझ गया है कि हर पक्ष से विश्वसनीयता उठ चुकी है। जपान में रखी नेताजी की अस्थियों की असलियत पर संदेह उठने लगा है तो सरकार नेताजी की अस्थियों की डीएनए डेस्ट करार उसका मिलान उनकी बेटी से करने का विचार क्यों नहीं करती है? क्योंकि नेताजी की रहस्यमई मौते से पर्दा उठाने पर ही देश की आजादी के इतिहास से नेताजी और उनकी भारतीय राष्ट्रीय सेना के योगदान को और गौरव दिलाया जा सकता है।

… और आज के दिन यह खबर आई हर साल 23 जनवरी पर नेताजी के विषय पर कुछ न कुछ खास समाचार प्रकाशित होता है। पिछले साल प्रकाशित खबर के मुताबिक थाईलैंड में रहने वाले त्रिलोक सिंह चावला आज भी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की दो पिस्तौलों को सहेजकर रखे हुए हैं। वह अपने जीते जी नेताजी की यह अमानत भारत सरकार को सौंपना चाहते हैं। नेताजी के सचिव रहे 89 वर्षीय त्रिलोक ने इस संबंध में बात करने के लिए अपने बेटे संतोष सिंह चावला को दिल्ली भेजा है। संतोष विगत दो हफ्तों से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलने की कोशिश में हैं, ताकि इन दोनों पिस्तौलों को सरकार को सौंपकर अपने पिता की अधूरी ख्वाहिश पूरी कर सकें। बैंकॉक से बातचीत में त्रिलोक ने कहा कि नेताजी चाहते थे कि आजादी के बाद मैं उन्हें ये दोनों पिस्तौलें लाल किले में लौटा दूं।

मुझे इन हथियारों को सौंपने के आठ दिन बाद ही एक विमान हादसे में उनके निधन की खबर आई। मैं अभी भी नहीं मानता कि नेताजी हमारे बीच नहीं हैं और मैं आज तक उनकी राह देख रहा हूं। परंतु उम्र बढ़ने के साथ अब चाहता हूं कि उनकी अमानत को अपने मुल्क को ही सौंप दिया जाए। तब सरकार इन पिस्तौलों को स्वीकार करने में अनिच्छुक दिखी थी। गत एक साल में कोई दूसरी विशेष खबर नहीं आई।

कविता / तिरंगा

माँ के अंग तिरंगा चढ़ता हम ले चले भेंट मुस्काते

घर-घर से अनुराग उमड़ता, दानव छल के जाल बिछाते

लो छब्बीस जनवरी आती!

माँ की ममता खड़ी बुलाती!!

दाती कड़ी परीक्षा लेती

तीनों ऋण से मुक्ति देती

कुंकुम-रोली का क्या करना?

खप्पर गर्म लहू से भरना!

खोपे नहीं, खोपड़े अर्पित!

चण्डी मुण्डमाल से अर्चित!!

देखें कौन तिरंगा लाते? भारत माँ के लाल कहाते!

दुनिया देखे प्रेम घुमड़ता, पहुँचो जय-जयकार लगाते!

माँ के अंग तिरंगा चढ़ता…

चल-चल ओ, कश्मीरी पण्डित!

माँ की प्रतिमा होती खण्डित!

दण्डित पड़ा टेंट में क्यूँ है?

कश्यप का वंशज तो तू है!!

तेरे गाँव लुटेरे लूटें

तुझ पर देश निकाले टूटें

उठ चल अब तू नहीं अकेला

आयी दुष्ट-दलन की वेला

चल सुन पर्णकोट की बातें, प्यारे नाडीमर्ग बुलाते

तेरा भारत मिलकर भिड़ता, जुड़ते जन्मभूमि से नाते

माँ के अंग तिरंगा चढ़ता…

प्रकटा कौल किये तैयारी!

चला डोगरा चढ़ा अटारी!

भारी गोलीबारी हारी!

युक्ति बकरवाल की सारी!!

चाहे गोले वहीं फटे हैं !

गुज्जर, लामा वहीं डटे हैं !!

घिरते ”अल्ला-हू” के घेरे

हँसते भारत माँ के चेरे

प्रण को दे-दे प्राण पुगाते, देखो, कटे शीश मुस्काते!

सबके बीच तिरंगा गडता, दानव ’डल’ में कूद लगाते!!

माँ के अंग तिरंगा चढ़ता…

– डॉ. मनोज शर्मा

कविता / भ्रांति

चीखो, चिल्लाओ, नारा लगाओ।

सुनता हमारी कौन है?

(सारे बोलने में व्यस्त है।)

इसी के अभ्यस्त है।

लिखो लिखो झूठा इतिहास।

हमारा भी नहीं विश्‍वास।

पढ़ता उसे कौन है ?

चीखो, चिल्लाओ, नारा लगाओ।

करना धरना कुछ, नहीं।

नारा लगाना कार्य है।

नारा लगाना क्रांति है।

यही तो भ्रांति है।

हिंदू संस्कृति मुर्दाबाद।

वेद वेदांत, मुर्दाबाद ।

बस जाति खत्म हो गयी।

हिंदु संस्कृति खत्म हो गयी।

जाति तोडो, पांति तोड़ो।

कुछ न टूटे तो,

निरपराधी सर तोड़ो।

रेल की पटरियां उखाड़ो।

क्रांति हो गयी।

क्रांति की गाड़ी बढ़ाओ।

और दाढ़ी बढाओ।

हप्ते, हप्ते नहाओ।

सिगरेट पियो, गौ मांस खाओ।

शराब पीकर सो जाओ।

बस क्रांति हो गयी।

नारा लगाना देशसेवा।

पटरी उखाड़ना जन सेवा।

जितना बोलो—ज्यादा लिखो,

उससे भी ज्यादा छापो।

जो छपता है, वह खपता है।

कागज़ पर क्रांति होती है।

कागज़ पर होता है नाम-

बस नाम कमाओ।

दाम कमाओ।

क्या हम नहीं जानते?

क्रांति कोई सच नहीं।

क्रांति तो एक ”सपना” है।

पर, यार वह ”सपना” जो

सेविका बनने आयी थी।

क्या परी है।

छप्पन छूरी है।

ऐसी सपना मिल जाय,

तो मार गोली क्रांति को।

रचनात्मक कार्य करे वह आरएसएस वाले।

हम तो तोड़ फोड़ करते हैं।

तोड़ फोड़ ही क्रांति है।

तोड़ो फोड़ो

तोड़ो फोड़ो


-डॉ. मधुसूदन

ग्राहम स्टेन्स और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मायने

आर.एल.फ्रांसिस

जस्टिस नियोगी की रिर्पोट को हम नहीं मानते, धर्मांतरण विरोधी कानून हमारी धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला हैं। डीपी वाधवा आयोग की रिर्पोट झूठ बोलती है। कंधमाल में हुए साप्रदायिक दंगों के बाद बनाए गए जस्टिस एससी मोहपात्रा आयोग की रिर्पोट दक्षिणपंथी संगठनों के प्रभाव में बनाई गई लगती है इसलिए यह विचार करने योग्य ही नहीं है। और अब ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेन्स और उनके दो बेटों की हत्या के मामले में सुप्रीम कोर्ट के दो विद्वान न्यायाधीशों द्वारा ग्राहम स्टेन्स के काम-काज और धर्मांतरण पर की गई टिप्पणीयों पर नाराजगी जाहिर करते हुए इसे फैसले से हटाने की मांग की जा रही है। चर्च का तर्क है कि इससे कंधमाल के मामलों पर असर पड़ेगा।

भारत का चर्च आज हर उस चीज को नकारने में लगा हुआ है जो उसके काम-काज पर अंगुली उठाती हो। देश भर में मिशनरियों के काम-काज के तरीकों और धर्म-प्रचार को लेकर स्वाल उठते रहे है और कई आयोगों और जांच एजेंसियों ने ईसाई समुदाय और बहूसंख्यकों के बीच बढ़ते तनाव को मिशनरियों की धर्मांतरण जैसी गतिविधियों को जिम्मेवार माना है परन्तु भारतीय चर्च नेता ऐसी रिर्पोटों को सिरे से ही खारिज कर देते है। पर हाल ही में ऑस्टे्रलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेन्स और उनके दो बेटों की हत्या के मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया है उसके गंभीर मायने है और चर्च नेताओं को अब आत्म-मंथन की जरुरत है।

ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेन्स और उनके दो बेटों की हत्या के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दारा सिंह को मृत्यु दंड दिए जाने की केन्द्रीय सरकार की मांग को नमंजूर करते हुए उसकी उम्र कैद की सजा को बरकरार रखा है। दारा सिंह के सहयोगी महेंद्र हेंब्रम को भी उम्र कैद की सजा सुनाई गई है। अन्य 11 अभियुक्तों को कोर्ट ने रिहा करने का आदेश दिया है। केन्द्रीय जांच ब्यूरों सीबीआई ने इस मामले में मृत्यु दंड की मांग की थी।

ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेन्स और उनके दो नाबलिग बेटों फिलिप और टिमोथी को ओडिशा के क्योंझर जिले के मनोहरपुर गांव में 22 जनवरी 1999 को भीड़ ने जिंदा जला दिया था। स्टेंन्स पिछले तीन दशकों से कुष्ठ रोगियों के साथ काम कर रहे थे वे कई सामाजिक गतिविधियों में भी शामिल थे। इसी के साथ क्षेत्र में उनकी गतिविधियों को लेकर तनाव भी लम्बे समय से बरकरार था। क्षेत्र के गैर ईसाइयों का आरोप था कि सामाजिक गतिविधियों की आड़ में वह धर्मांतरण करवा रहे थे।

ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेन्स की हत्या की गंभीरता को देखते हुए एक सप्ताह के भीतर ही केन्द्र सरकार ने मामले की जांच के लिए जस्टिस डी पी वधवा की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन कर दिया था। ओडिशा सरकार ने एक महीने के अंदर स्टेन्स हत्याकांड की जांच सीबीआई को सौंप दी थी। भारतीय चर्च संगठनों और गैर सरकारी सगंठनों ने इस मामले को अंतरराष्ट्रीय तूल देने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। जिस तरह से स्टेन्स और उनके दो नाबालिग बेटों की हत्या की गई थी मानवता में विश्वास रखने वाला कोई भी व्यक्ति इसे जायज नहीं ठहरा सकता। पुलिस रिकार्ड के मुताबिक स्टेन्स ने कार से निकलकर भागने की कोशिश की लेकिन भीड़ ने उसे भागने नहीं दिया। और पिता-पुत्रों को जिंदा ही जला दिया।

जस्टिस पी सतशिवम और जस्टिस बीएस चौहान की बेंच ने सजा सुनाते हुए कहा कि फांसी की सजा ‘दुर्लभ से दुर्लभतम’ मामले में दी जाती है। और यह प्रत्येक मामले में तथ्यों और हालात पर निर्भर करती है। मौजूदा मामले में जुर्म भले ही कड़ी भर्त्सना के योग्य है। फिर भी यह दुर्लभत्म’ मामले की श्रेणी में नहीं आता है। अत: इसमें फांसी नहीं दी जा सकती। विद्वान न्यायाधीशों ने अपने फैसले में यह भी कहा कि लोग ग्राहम स्टेन्स को सबक सिखाना चाहते थे। क्योंकि वह उनके क्षेत्र में धर्मांतरण के काम में जुटा हुआ था।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा ऑस्टे्रलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेन्स की हत्या पर फैसला सुनाते हुए कहा गया कि किसी भी व्यक्ति की आस्था और और विश्वास में हस्तक्षेप करना और इसके लिए बल का उपयोग करना, उतेजना का प्रयोग करना, लालच का प्रयोग करना, या किसी को यह झूठा विश्वास दिलावना कि उनका धर्म दूसरे से अच्छा है और ऐसे तरीकों का इस्तेमाल करते हुए किसी व्यक्ति का धर्मातरंण करना (धर्म बदल देना) किसी भी आधार पर न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस प्रकार के धर्मांतरण से हमारे समाज की उस संरचना पर चोट होती है जिसकी रचना संविधान निर्माताओं ने की थी। विद्ववान न्यायाधीशों ने कहा कि हम उम्मीद करते है कि महात्मा गांधी का जो सवप्न था कि धर्म राष्ट्र के विकास में एक सकारात्मक भूमिका निभाएगा वो पूरा होगा…किसी की आस्था को जबरदस्ती बदलना या फिर यह दलील देना कि एक धर्म दूसरे से बेहतर है उचित नहीं है।

अगर चर्च नेता चाहें तो सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला मार्गदर्शक बन सकता है। चर्च खुद भी यह जानता है कि उसके धर्म प्रचार करने और ईसाइयत को फैलाने का क्या तरीका है? आज मणिपुर, नागालैड, आसम आदि राज्यों में मिशनरियों द्वारा अपना संख्याबल बढ़ाने के नाम पर खूनी खेल खेला जा रहा है। क्षेत्र के एक कैथोलिक बिशप ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ में जाकर -बपटिस्ट मिशनरियों से कैथोलिक ईसाइयों की रक्षा करने की गुहार लगा चुके है। गैर ईसाइयों की बात न भी करे तो ईसाई मिशनरियों के अंदर ही अपना संख्याबल बढ़ाने की मारामारी चलती रहती है। हाल ही में मध्य प्रदेश के कैथोलिक और कुछ गैर कैथोलिक चर्चों ने तय किया है कि वह ‘भेड़-चोरी’ को रोकेंगे और दूसरे मिशनरियों के सदस्यों को अपने साथ नहीं मिलायेंगे।

आज चर्च का पूरा जोर अपना साम्राज्यवाद बढ़ाने पर लगा हुआ है। इस कारण देश के कई राज्यों में ईसाइयों एवं बहुसंख्यक हिन्दुओं के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है। धर्मांतरण की गतिविधियों के चलते करोड़ों अनुसूचित जातियों से ईसाई बने लोगों का जीवन चर्च के अंदर दायनीय हो गया है। चर्च नेता उन्हें अपने ढांचे में अधिकार देने के बदले सरकार से उन्हें पुन: अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने की मांग कर रहे है। धर्मांतरित लोगों के जीवन स्तर को सुधारने के बदले भारतीय चर्च तेजी से अपनी संपदा और संख्या को बढ़ता जा रहा है। चर्च लगातार यह दावा भी करता जा रहा है कि वह देश में लाखों सेवा कार्य चला रहा है पर उसे इसका भी उतर ढूढंना होगा कि सेवा कार्य चलाने के बाबजूद भारतीयों के एक बड़े हिस्से में उसके प्रति इतनी नफरत क्यों है कि 30 सालों तक सेवा कार्य चलाने वाले ग्राहम स्टेन्स को एक भीड़ जिंदा जला देती है और उसके धर्म-प्रचारकों के साथ भी टकराव होता रहता है। ऐसा क्यों हो रहा है इसका उतर तो चर्च को ही ढूंढना होगा।

असीमानंद से स्वामी असीमानंद तक की यात्रा का एक पड़ाव

श्रीराम तिवारी

विगत दिनों जब राजस्थान एसटीएफ़ और सीबीआई ने मालेगांव बलोस्ट, अजमेर बलोस्ट, मक्का मसजिद और समझौता एक्सप्रेस के कथित आरोपियों के खिलाफ वांछित सबूतों को अपने-अपने ट्रैक पर तेजी से तलाशना शुरू किया और तत्पश्चात संघ से जुड़े कुछ कार्यकर्ताओं के नाम; वातावरण में प्रतिध्वनित होने लगे; तो संघ परिवार-भाजपा, वीएचपी, तथा शिवसेना ने इसे हिंदुत्व के खिलाफ साजिश करार दिया था. उनके पक्ष का मीडिया और संत समाजों की कतारों से भी ऐसी ही आक्रामक प्रतिक्रिया निरंतर आती रही हैं; जब इस साम्प्रदायिक हिंसात्मक नर संहार के एक अहम सूत्रधार (असीमानंद) ने अपनी स्वीकारोक्ति न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष दी तो एक बारगी मेरे मन में भी यह प्रश्न उठा कि यह स्वीकारोक्ति बेजा दवाव में ही सम्पन्न हुई है ….

उधर देश और दुनिया की वाम जनतांत्रिक कतारों ने समवेत स्वर में जो-जो आरोप, जिन-जिन पर लगाए थे वे सभी आज सच सावित हो रहे हैं. आज देश के तमाम सहिष्णु हिन्दू जनों का सर झुका हुआ है; मात्र उन वेशर्मों को छोड़कर जो प्रतिहिंसात्म्कता की दावाग्नि में अपने विवेक और शील को स्वःहा कर चुके हैं. उन्हें तो ये एहसास भी नहीं कि-दोनों दीन से गए …..जिन मुस्लिम कट्टरपंथियों को सारा संसार और समस्त प्रगतिशील अमन पसंद मुसलिम जगत नापसंद कर्ता था; वे अब सहानुभूति के पात्र हो रहे हैं, और जिन सहिष्णु हिन्दुओं ने ”अहिंसा परमोधर्मः ”या मानस की जात सब एकु पह्चान्वो ….या सर्वे भवन्तु सुखिनः कहा वे बमुश्किल आधा दर्जन दिग्भ्रमित कट्टर हिंदुत्व वादियों कि नालायकी से सारे सभ्य संसार के सामने शर्मिंदा हैं.

यत्र-तत्र धमाकों और हिन्दू युवक युवतियों के मस्तिष्क को प्रदूषित करते रहने वाले असीमानंद (स्वामी?) महाराज यदि इस तरह सच का सामना करेंगे तो शंका होना स्वाभाविक है; खास तौर पर जबकि पुलिस अभी ऐसी कोई विधा का अनुसन्धान नहीं कर सकी कि पाकिस्तानी आतंकवादी कसाब से सर्व विदित सच ही कबूल कर सके.

सी बी आई कि भी सीमायें हैं; आयुषी तलवार के हत्यारे चिन्हित नहीं कर पाने के कारण या अप्रकट कारणों से अन्य अनेक प्रकरणों कि विवेचना में राजनेतिक दवाव परिलक्षित हुआ पाया गया. अब असीमानंद कीस्वीकारोक्ति के पीछे कोई थर्ड डिग्री टार्चर या प्रलोभन की गुंजायश नहीं बची.

यह बिलकुल शीशे की तरह पारदर्शी हो चुका है कि पुलिस के हथ्थ्ये चढ़ने और हैदरावाद जेल में असीमानंद को एक निर्दोष मुस्लिम कैदी के संपर्क में आने से सच बोलने की प्रेरणा मिली. किशोर वय कैदी कलीम खान ने असीमानंद को इल्हाम से रूबरू कराया. यह स्मरणीय है कि कलीम को पुलिस ने उन्ही कांडों कि आशंका के आधार पर पकड़ा था जो स्वयम असीमानंद ने पूरे किये थे. हालांकि कलीम निर्द्सोश था और उसकी जिन्दगी लगभग तबाह हो चुकी है. असीमनद को जेल में गरम पानी लाकर सेवा करने वाले लडके से जेल में आने कि वजह पूंछी तो पता चला कि मालेगांव बलोस्ट, अजमेर शरीफ बलोस्ट मक्का मस्जिद और समझोता एक्सप्रेश को अंजाम देने वाले असीमानान्दों कि कलि करतूतों कि सजा वे लोग भुगत रहे हैं जो धरम से मुस्लिम हैं बाकी उनका कसूर भी इतना ही था कि वे इस्लाम को मानने वालों के घरों में पैदा हुए. असीमानंद ने भारत और पाकिस्‍तान के राष्ट्रपतियों को पत्र भी लिख मारे हैं, उन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रपति को तो कुछ सलाह इत्यादि भी दी डाली है. मिलने का समय भी माँगा है और इस्लामिक जेहादियों के बरक्स कुछ दिशा निर्देश भी दिए हैं. ये सारे फंडे उन्होंने अपने दम पर किये हैं; भाजपा या संघ-दिग्विजय या राहुल भले ही अपने-अपने लक्ष्य से प्रेरित होकर आपस में अग्नि वमन कर रहें हों किन्तु मुझे नहीं लगता कि असीमानंद जैसे अन्य २-४ और दिग्भ्रमित भगवा आतंकियों ने शायद ही-मालेगांव, समझोता, अजमेर और मक्का मस्जिद ब्लोस्टों के लिए श्री मोहन भागवत, अशोक सिंघल, प्रवीण तोगड़िया या लाल क्रष्ण आडवानी से आज्ञा ली होगी. यह विशुद्ध प्रतिक्रियात्मक विध्वंस थे जो भारत में इस्लामिक आतंक द्वारा संपन्न रक्तरंजित तांडव के खिलाफ एक रिहर्सल भर थी. यह इस्लाम के नाम पर कि गई हिंसा का मूर्ख हिंदुत्‍ववादियों का हिंसक जवाब था हालाँकि इस्लामिक आतंक दुनिया भर में अलग-अलग कारणों सेभले ही फैला हो किन्तु भारत में यह ६ दिसंबर १९९२ के बाद तेजी से फैला और इसके लिए वे लोग ही जिम्मेदार हैं जो हिंदुत्व का रथ लेकर विवादस्पद ढांचा ढहानेअयोध्या पहुंचे थे. स्वामी असीमानंद ने किसी दवाब या धोंस में आकर नहीं बल्कि मानवीय मूल्यों में बची खुची आस्था के कारण उसके सकारात्मक आवेग को स्वीकार कर पुलिस और क़ानून के समक्ष यह अपराध स्वीकार किया है. कलिंग युद्द उपरान्त लाशों के ढेर देखकर जो इल्हाम अशोक को हुआ था वही वेदना जेलों में बंद सेकड़ों बेकसूरों को. निर्दोष कलीमों को देखकर असीमानंद को हुई और अब वे वास्तव में अपने अपराधों के लिए कोई और सजा भुगते यह असीमानंद की जाग्रत आत्मा को मंजूर नहीं;इसीलिये शायद अब उन्हें ” स्वामी” असीमानंद कहे जाने पर मेरे मन में कोई संकोच नहीं. हिन्दुओं को बरगलाने वाले. साम्प्रदायिकता को सत्ता कि सीढ़ी वनाने वाले हतप्रभ न हों. ये तो भारतीय जन-गण के द्वंदात्मक संघर्षों की सनातन प्रक्रिया है, जिसमें-दया, क्षमा, अहिंसा करुना और सहिष्णुता को सम्मानित करते हुए वीरता को हर बार कसौटी पर कसे जाने और चमकदार होते रहने का ’सत्य ’रहता है. यही भारत की आत्मा है.यही भारत के अमरत्व की गौरव गाथा का मूल मन्त्र है. जो लोग इस प्रकरण में सी बी आई के दुरूपयोग की बात कर रहे थे. कांग्रेस, राहुल और दिग्विजय सिंह पर व्यर्थ भिनक रहे थे और वामपंथियों की धर्मनिरपेक्षता पर मुस्लिम परस्ती का आरोप लगा रहे थे, छद्म धर्मनिरपेक्षता और तुष्टीकरण जैसे शब्दों के व्यंग बाण चला रहे थे वे सभी ओउंधे मुंह रौरव नरकगामी हो चुके हैं स्वामी असीमानंद से उन्हें कोई रियायत नहीं मिलने जा रही है, असीमानंद ने इकबालिया बयान जिन परिस्थितियों में दिया है उसमें कट्टर साम्प्रदायिकता का बीभत्स चेहरा बेनकाब हो चुका है.भारत का सभ्य समाज, भारत की धर्म निरपेक्षता, अजर अमर है …बाबाओं, महंतों, संतों, गुरुओं, मठ्धीशों, इमामों मौलानाओं को हिंसात्मक गतिविधियों से परे अपने-अपने धरम में यथार्थ रमण करना चाहिए राजनीत और धर्म की मिलावट से निर्दोष कलीम की जिन्दगी बर्वाद हो सकती है और गुनाहगार को सत्ता शरणम गच्छामि ………

और अब भारत में भी ‘तालिबानी फरमान

तनवीर जाफ़री

ऐसा लगता है कि आजकल इस्लाम को बदनाम करने का ठेका सिर्फ मुसलमानों ने ही ले रखा है। न सिर्फ दुनिया के तमाम मुल्कों से बल्कि भारत से भी अक्सर ऐसे समाचार प्राप्त होते रहते हैं, जिनसे इस्लाम बदनाम होता है और मुसलमानों का सिर नीचा होता है। कभी बेतुके फतवे इस्लामी तौहीन का कारण बनते हैं तो कभी तालिबानी पंचायती फरमान। पिछले दिनों ऐसी ही एक शर्मनाक खबर उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जि़ले से प्राप्त हुई। समाचारों के अनुसार जि़ले के सलेमपुर गांव की एक मुस्लिम पंचायत ने गांव के ही एक बुज़ुर्ग मुस्लिम परिवार का सामाजिक बहिष्कार करने की घोषणा की। बताया जाता है कि लगभग 1000 की मुस्लिम आबादी वाले इस गांव में मोइनुद्दीन एवं मरियम नामक एक मुस्लिम समुदाय के ही गरीब बुज़ुर्ग दम्पति अपने झोपड़ीनुमा कच्चे मकान में रहते हैं। यह परिवार गांव में ही गोली, टॉफी, नमक, बिस्कुट जैसी सस्ती चीज़ें बेचकर अपना पालन पोषण करता है। इस परिवार की गरीबी का आलम यह है कि यह अपने चंद मवेशियों के लिए घास व चारा आदि दूर दराज़ के खेतों से इकठ्ठा करता है तथा ईंधन के लिए लकड़ी भी इधर-उधर से मुहैया करता है। इनके रहन-सहन से ही इनकी आर्थिक हैसियत का आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

उधर दूसरी ओर इसी गांव के मुसलमानों ने अपनी एक मुस्लिम पंचायत अर्थात् अंजुमन बनाई हुई है। इसी गांव में एक मदरसा भी निर्माणाधीन है। इसके निर्माण के लिए तमाम स्थानीय व बाहरी लोगों से चंदा इकठ्ठा किया जा रहा है। इसी अंजुमन द्वारा मोइनुद्दीन व मरियम से भी मदरसे के चंदे के रूप में 500 रुपए की मांग की गई। इस गरीब दंपत्ति ने अपनी दयनीय आर्थिक स्थिति के मद्देनज़र 500 रुपए चंदा देने में असमर्थता व्यक्त की। बस फिर क्या था। मोइनुद्दीन तो इन जाहिलों की पंचायत की नज़र में गोया इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन बन गया। इस अंजुमन ने मोइनुद्दीन के सामाजिक व आर्थिक बहिष्कार की घोषण कर दी। उसी खस्ताहाल झोंपड़ी के बाहर एक बोर्ड लिखकर लगा दिया गया जिसमें इस तालीबानी पंचायत ने गांव वालों को यह आदेश दिया था कि कोई भी व्यक्ति मोइनुद्दीन की दुकान से कोई भी वस्तु नहीं खरीदेगा, कोई इनसे किसी प्रकार का बर्ताव, व्यवहार तथा वास्ता नहीं रखेगा। यदि किसी ने अंजुमन के आदेश का उल्लंघन किया तो उसे 500 रुपए बतौर जुर्माना अंजुमन को अदा करने होंगे। तालिबानी फरमान का अंत यहीं नहीं हुआ बल्कि इन तथाकथित इस्लामी ठेकेदारों ने इनके परिवार के लोगों को अपने खेतों में शौच के लिए जाने पर भी पाबंदी लगा दी। यही नहीं बल्कि यह आदेश भी जारी कर दिया गया कि मरणोपरांत इनके परिवार के किसी व्यक्ति को मुसलमानों के स्थानीय कब्रिस्तान में भी दफन नहीं किया जाएगा। इस फरमान के बाद यह परिवार इतने आर्थिक व मानसिक उत्पीडऩ के दौर से गुज़र रहा है कि इसे अपनी दो वक़्त की रोटी जुटा पाने में भी दिक्क़त पेश आ रही है। नतीजतन एक ओर तो गांव की मुस्लिम पंचायत तो इनकी बदहाली और भुखमरी पर स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रही है, तो दूसरी तरफ इसी गांव के पड़ोस के एक गांव का सिख परिवार इनकी बदहाली पर तरस खाकर तथा मानवता का प्रदर्शन करते हुए इन्हें दो वक़्त की रोटी मुहैया करा रहा है।

यह तो था इन तथाकथित इस्लाम परस्तों का तालिबानी फरमान जो इन्होंने यह सोचकर जारी किया कि शायद यह तुगलकी सोच के जाहिल मुसलमान इस्लाम पर बहुत बड़ा एहसान कर रहे हैं। परन्तु आईए देखें कि इस्लाम दरअसल इन हालात में क्या सीख देता है। मैं अपने बचपन से कुछ इस्लामी शिक्षाएं वास्तविक इस्लामी दानिश्वरों से सुनता आया हूं। ऐसी ही एक इस्लामी तालीम थी कि पहले घर में चिरा$ग जलाओ फिर मस्जिद में। इस कहावत का अर्थ आ$िखर क्या है? यही न कि अपनी पारिवारिक ज़रूरतों से अगर पैसे बचें फिर अपने खुदा की राह में खर्च करें। यह तो कतई नहीं कि आप खुद या आपके पड़ोसी भूखे रहें और आप मस्जिद या मदरसे के निर्माण कार्य के लिए चंदा देते फिरें। जो लोग इस्लाम में वाजिब कहे जाने वाले हज के नियम से वाकिफ हैं, वो यह भलि-भांति जानते हैं कि अगर आप कर्ज़दार हैं और हज कर रहे हैं, तो वो भी जायज़ नहीं है। यहां तक कि अगर आप पर अपने बेटों व बेटियों की शादी का जिम्मा बाकी है तो पहले इन पारिवारिक ज़रूरतों को पूरा करने के बाद ही हज किया जा सकता है। हां, अगर आप आर्थिक रूप से सुदृढ़ हैं, फिर आप कभी भी हज कर सकते हैं। इसी तरह लगभग सभी इस्लामी कार्यकलापों के लिए यह बताया गया है कि हमेशा चादर के भीतर ही पैर फैलाना है। यहां तक कि $फुज़ूल$खर्ची को भी इस्लाम में गुनाह $करार दिया गया है। अपने को आर्थिक परेशानी में डालकर धर्म पर पैसे खर्च करना इस्लाम हरगिज़ नहीं सिखाता। मगर इन ‘तालिबानीÓ सोच रखने वाले मुसलमानों ने अपने गढ़े हुए इस्लाम के अंतर्गत फरमान जारी कर इन गरीब मुसलमानों को रोज़ी-रोटी तक से मोहताज कर दिया। जबकि एक गैर मुस्लिम सिख परिवार वास्तविक मानवीय इस्लामी तथा सिख धर्म की शिक्षाओं का पालन करते हुए इन्हें दो वक्त़ की रोटी मुहैय्या कराता रहा। क्या यही है इन तालिबानों का इस्लाम? क्या ऐसे फरमान इस्लाम धर्म की वास्तविक शिक्षाओं के अंतर्गत जारी किए जाने वाले फरमान कहे जा सकते हैं?

इस $गैर इस्लामी $फरमान को जारी करने के बाद पंचायत के प्रमुख एक अज्ञानी कठ्मुल्ला का कहना था कि यह परिवार नमाज़ नहीं पढ़ता, हमारे चंदे में, $खुशी और $गम में, हमारे धार्मिक कामों में शरीक नहीं होता। लिहाज़ा गांव के लोग इससे अपना वास्ता क्यों रखें? सवाल यह है कि मान लिया जाए कि वह परिवार यदि किसी धार्मिक आयोजन में या नमाज़-रोज़े में भी उनके साथ शरीक नहीं होता तो भी उन्हें इस बात का कोई अधिकार नहीं है कि वे इस पर ज़ोर ज़बरदस्ती या जब्र कर उसके विरुद्ध कोई ऐसा $फरमान जारी करें। किसी प्रकार की धार्मिक गतिविधियों में शिरकत करना या न करना किसी भी व्यक्ति का अति व्यक्तिगत् मामला है। यदि कोई व्यक्ति धार्मिक करागुज़ारी अंजाम देता है तो उसके सवाब अथवा पुण्य का वह व्यक्ति स्वयं भागीदार होगा। इसी प्रकार धार्मिक कामकाज में शरीक न होने अथवा नमाज़ आदि को अदा न करने पर पाप या पुण्य का भागीदार भी वही व्यक्ति स्वयं है। ज़्यादा से ज़्यादा धर्म प्रचारक लोग या मौलवी, मुल्ला उसे अपनी बात प्यार-मोहब्बत से समझा सकते हैं। परंतु उसका सामाजिक बहिष्कार करना या उसे आर्थिक संकट में डालना या उसके विरुद्ध कोई तालिबानी फरमान जारी करना पूरी तरह से गैर इस्लामी, गैर इन्सानी व अधार्मिक है।

दरअसल आज तमाम ऐसे ही तालिबानी सोच रखने वाले मुसलमानों व नीम हकीमों तथा कठ्मुल्लाओं ने इस्लाम धर्म को बदनाम कर दिया है। चाहे वह अफगा़निस्तान के बामियान प्रांत में महात्मा बुद्ध जैसे विश्व शांति के दूत समझे जाने वाले महापुरुष की मुर्तियों को तोप के गोलों से ध्वस्त करने जैसी कायरतापूर्ण कार्रवाई हो या पाकिस्तान में मस्जिदों, दरगाहों तथा धार्मिक जुलूसों में शिरकत करने वाले शांतिप्रिय लोगों की बड़ी सं या में जान लेना या फिर भारत में कभी बेतुके फतवे जारी करना या सलेमपुर गांव में इस प्रकार के फरमान सुनाए जाना, यह सभी कृत्य अत्यंत शर्मनाक, इस्लाम विरोधी तथा मानवता विरोधी ही नहीं बल्कि इस्लाम धर्म की प्रतिष्ठा पर धब्बा लगाने वाले भी हैं।

यह कैसी विडंबना है कि उस गांव के तथाकथित मुसलमान एक मुस्लिम परिवार को भूखा व परेशान देखकर खुश नज़र आ रहे हैं जबकि एक सिख परिवार उसी परेशानहाल मुस्लिम परिवार की भूख व परेशानियों को सहन न कर पाते हुए उनकी मदद कर रहा है। क्या संदेश देती हैं हमें ऐसी घटनाएं? क्या ऐसे फरमानों से इस्लाम का नाम रौशन हो रहा है? यहां एक सवाल यह भी उठता है कि जिस मदरसे की बुनियाद में ऐसे तालिबानी फरमान शामिल हों, उन मदरसों से भविष्य में निकलने वाले बच्चों की मज़हबी तालीम क्या हो सकती है और आगे चलकर वही तालीम क्या गुल खिलाएगी। इस बात का भी बड़ी ही सहजता से अंदाज़ा लगाया जा सकता है। इन कट्टरपंथी तालिबानी सोच के मुसलमानों को उस सिख परिवार से प्रेरणा लेनी चाहिए जो मुसलमानों द्वार भूख की कगार पर पहुंचाए गए मुस्लिम परिवार को रोटी मुहैया करा रहा है। आज भारतवर्ष में हज़ारों ऐसी मिसालें मिलेंगी जिनमें हिन्दू व सिख समुदाय के लोग इस कद्र मिलजुल कर रहते हैं कि कहीं हिन्दू नमाज़ पढ़ते हैं, कहीं रोज़ा रखते हैं। कहीं मोहर्रम में ताजि़यादारी करते हैं तो कहीं पीरों फकीरों की दरगाहों की मुहा$िफज़त करते हैं। परन्तु इन गैर मुस्लिमों का इस्लामी गतिविधियों की और झुकाव का कारण उदारवादी इस्लामी शिक्षाएं हैं न कि इस प्रकार की कट्टरपंथी शिक्षाएं या तालिबानी फरमान।

लखीमपुर जि़ले के सलेमपुर गांव की घटना से एक बात और साफ ज़ाहिर होती है कि जब इन मुसलमानों का रवैया अपने ही समुदाय के एक परिवार के साथ ऐसा है फिर आिखर दूसरे समुदाय के प्रति प्रेम व सद्भाव से पेश आने की उम्मीद इनसे कैसे रखी जा सकती है। प्रभावित परिवार आज इस स्थिति में पहुंच गया है कि उस परिवार की बुज़ुर्ग महिला यहां तक कह रही है कि हम अब इनके (तालिबानी मुसलमानों) आगे न झुक सकते हैं, न कुछ मांग सकते हैं बल्कि हमें गैर मुस्लिमों के आगे झुकने व उनसे मांगने में कोई हर्ज नहीं है। कल्पना की जा सकती है कि धर्म के इन ठेकेदारों ने बुढ़ापे में इस बुज़ुर्ग द पत्ति को अपने तालिबानी फरमान से कितना दुखी व प्रताडि़त किया है। कितना बेहतर होता यदि यही पंचायत अथवा अंजुमन गरीबों को आत्मनिर्भर बनाने, उनकी रोज़ी-रोटी व शिक्षा आदि को सुनिश्चित करने में अपनी तवज्जोह देती। बजाए इसके यही पंचायत लोगों से ज़ोर-ज़बरदस्ती कर पैसे वसूलने तथा चंदा न देने पर उसका सामाजिक व आर्थिक बहिष्कार करने जैसा अधार्मिक कृत्य अंजाम दे रही है।

लिहाजा़ ज़रूरत इस बात की है ऐसे अज्ञानी, अर्धज्ञानी, नीम हकीम कठमुल्लाओं से इस्लाम धर्म को बदनाम व रुसवा होने से बचाया जाए। ऐसे तुगलकी व तालिबानी फरमान गैर मुस्लिमों को अपनी ओर क्या आकर्षित कर सकेंगे जिनसे कि मुस्लिम समुदाय का ही कोई परिवार रुसवा व बेज़ार हो जाए। जो इस्लाम सभी धर्मों व समुदायों के साथ, यहां तक कि सभी प्राणियों के साथ, और तो और पेड़-पौधों तक के साथ मानवता व सद्भाव से पेश आने की बात करता हो, वह इस्लाम किसी को भूखा रहने पर मजबूर होने की तालीम कैसे दे सकता है। इस्लाम में सूदखोरी हराम क्यों करार दी गई है? इसीलिए कि किसी व्यक्ति पर नाजायज़ आर्थिक बोझ न पडऩे पाए। न कि चंदा न देने पर किसी का हुक्क़ा-पानी बंद कर देना। यह कौन सा इस्लाम है और इस्लाम में या हदीस में या कुरानी शिक्षाओं में इसका कहां उल्लेख किया गया है। इस्लाम में दिनो-दिन बढ़ती जा रही ऐसे लोगों की घुसपैठ को रोकना होगा। ऐसे फरमान जारी करने वालों के िखलाफ भी सख्त कार्रवाई किए जाने की ज़रूरत है। ज़ुल्म-ओ -ज़ब्र का नाम इस्लाम नहीं है बल्कि उदारवाद, मानवता व खुद को भूखा रखकर दूसरों को खाना खिलाने का नाम इस्लाम है। जो कुछ सलेमपुर गांव के गरीब दंपत्ति के साथ वहां कि स्थानीय अंजुमन ने किया है, पूरी तरह से न सिर्फ गैर इस्लामी व अमानवीय है बल्कि साफतौर पर राक्षसीय कृत्य है जिसकी जितनी घोर निंदा व भत्र्सना की जाए, उतना ही कम है।

बंगाल की प्रथम शाखा के स्वयंसेवक: कालिदास बसु

विजय कुमार

कोलकाता उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता तथा पूर्वोत्तर भारत में संघ कार्य के एक प्रमुख स्तम्भ श्री कालिदास बसु (काली दा) का जन्म 1924 ई0 की विजयादशमी पर फरीदपुर (वर्तमान बांग्लादेश) में हुआ था।

1939 में कक्षा नौ में पढ़ते समय उन्होंने पहली बार श्री बालासाहब देवरस का बौद्धिक सुना, जो उन दिनों नागपुर से बंगाल में शाखा प्रारम्भ करने के लिए आये थे। इस बौद्धिक से प्रभावित होकर वे नियमित शाखा जाने लगे। इसके बाद तो बालासाहब और उनके बाद वहां आने वाले सभी प्रचारकों से उनकी घनिष्ठता बढ़ती गयी। 1940 में वे संघ शिक्षा वर्ग में भाग लेने नागपुर गये। श्री गुरुजी उस वर्ग में कार्यवाह थे। पूज्य डा0 हेडगेवार ने वहां अपने जीवन का अंतिम बौद्धिक दिया था। इन दोनों महामानवों के पुण्य सान्निध्य से काली दा के जीवन में संघ-विचार सदा के लिए रच-बस गया।

कक्षा 12 की परीक्षा देकर वे बंगाल की सांस्कृतिक नगरी नवद्वीप में विस्तारक बन कर आ गये। यहां रहकर वे संघ कार्य के साथ ही अपनी पढ़ाई भी करते रहे। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था। लोगों में बड़ी दहशत फैली थी। जापानी बमबारी के भय से कोलकाता तथा अन्य बड़े नगरों से लोग घर छोड़-छोड़कर भाग रहे थे। बंगाल में उन दिनों संघ कार्य बहुत प्रारम्भिक अवस्था में था; पर समाज में साहस बनाये रखने में संघ के सभी कार्यकर्ताओं ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। काली दा भी इनमें अग्रणी रहे।

शिक्षा पूर्ण कर काली दा नवद्वीप में ही जिला प्रचारक बनाये गये। कुछ समय बाद देश का विभाजन हो गया और बंगाल का बड़ा हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान बन गया। बड़ी संख्या में हिन्दू लुटपिट कर भारतीय बंगाल में आने लगे। संघ ने ऐसे लोगों की भरपूर सहायता की। काली दा दो वर्ष तक नवद्वीप में ही रहकर इन सब कामों की देखभाल करते रहे। इसके बाद 1949 में उन्हें महानगर प्रचारक के नाते कोलकाता बुला लिया गया।

1952 तक प्रचारक रहने के बाद उन्होंने फिर से शिक्षा प्रारम्भ कर कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की और कोलकाता उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे। एक सफल वकील के नाते उन्होंने भरपूर ख्याति अर्जित की। संघ कार्य में लगातार सक्रिय रहने से उनके दायित्व भी क्रमशः बढ़ते गये। महानगर कार्यवाह, प्रान्त कार्यवाह, प्रान्त संघचालक, क्षेत्र संघचालक और फिर केन्द्रीय कार्यकारिणी के वे सदस्य रहे। इसके साथ ही वे अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद के मार्गदर्शक तथा कोलकाता में विधान नगर विवेकानंद केन्द्र के उपसभापति थे। उन्होंने रामकृष्ण मिशन से विधिवत दीक्षा भी ली थी।

बंगाल में राजनीतिक रूप से कांग्रेस और वामपंथियों के प्रभाव के कारण स्वयंसेवकों को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इन बाधाओं में काली दा सदा चट्टान बनकर खड़े रहे। वे कोलकाता से प्रकाशित होने वाले हिन्दू विचारों के साप्ताहिक पत्र ‘स्वस्तिका’ के न्यासी थे। पूर्वोत्तर भारत को प्रायः बाढ़, तूफान तथा चक्रवात जैसी आपदाओं का सामना करना पड़ता है। स्वयंसेवक ऐसे में ‘वास्तुहारा सहायता समिति’ के नाम से धन एवं सहायता सामग्री एकत्र कर सेवा कार्य करते हैं। काली दा इस समिति में भी सक्रिय रूप से जुड़े थे।

स्वयं सक्रिय रहने के साथ ही उन्होंने अपने परिवारजनों को भी संघ विचार से जोड़ा। उनकी पत्नी श्रीमती प्रतिमा बसु राष्ट्र सेविका समिति की प्रांत संचालिका थीं। ऐसे निष्ठावान कार्यकर्ता कालिदास बसु का 11 दिसम्बर, 2010 को न्यायालय में अपने कक्ष में हुए भीषण हृदयाघात से देहावसान हुआ।

स्वामी सत्य प्रकाश : विज्ञान, धर्म और अध्यात्म के युगधर्मी संवाहक

डॉ. स्वामी सत्य प्रकाश के महाप्रयाण 18 जनवरी पर विषेश

अखिलेश आर्येन्दु

आर्य समाज के इतिहास में विज्ञान, धर्म, वेद, समाज और साहित्य को अतुलित ऊंचाई प्रदान करने वालों में स्वामी सत्य प्रकाश का नाम सर्वोपरि है। यह आर्य समाज को ही गौरव प्राप्त है कि एक संन्यासी, वैज्ञानिक, साहित्यकार, दर्शनशास्त्री और विश्‍व प्रसिद्ध वेदज्ञ हुआ। और आर्य समाज को ही यह गौरव प्राप्त है कि पिता और पुत्र दोनों महान दर्शनशास्त्री, धर्मवेत्ता और दार्शनिक हुए।

एक महान पिता के महान बेटे की बात कही तो जाती है लेकिन जिस रूप में होनी चाहिए वैसी नहीं होती है। करोड़ों में कोई जन्म लेता है जो पिता की कीर्ति को आकाश जैसी ऊंचाई देने में सक्षम हो पाता है। उन्हीं महान बेटों में स्वामी सत्य प्रकाश जी थे, जो संन्यास लेने के पहले डॉ. सत्य प्रकाश के नाम से जाने जाते थे। स्वामी जी ऐसे अग्निपुरुष युगधर्मी महामानव थे जिन्होंने जन्मगत जाति-पांत और ऊंचनीच जैसी समाज की कुश्ठ कही जाने वाली बुराइयों को समाप्त करने के लिए जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहे। गृहस्थ जीवन में रहते हुए उन्होंने गृहस्थाश्रम का एक आदर्श प्रस्तुत किया वहीं पर संन्यास की दीक्षा लेकर एक आदर्श संन्यासी का आदर्श प्रस्तुत किया। वे कपड़ा रंगने की अपेक्षा मन को संन्यासाश्रम के अनुकूल रंगने को अधिक महत्तव देते थे। वैदिक परम्परा में एक सच्चा संन्यासी वह होता है जो ‘कामावसायी’ हो। जिसमें निज के साथ-साथ समाज, धर्म और मानवता का संवाहक हो। महर्शि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में संन्यासियों को पक्षपात रहित, न्यायाचरण, सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग, वेदोक्त ईश्‍वर की आज्ञा का पालन, परोपकार और सत्य भाषण करने की बात लिखी है। अर्थात् जिनमें ऐसे लक्षण न पाए जायें वे संन्यासी कहलाने लायक नहीं है। स्वामी सत्य प्रकाश जी संन्यासियों के इन लक्षणों को संन्यास धर्म के पालन के लिए आदर्श मानते थे।

स्वामी सत्य प्रकाश का जन्म 24 अगस्त 1905, जन्माश्टमी के दिन विश्‍व के महान दार्शनिक और साहित्यकार पं. गंगा प्रसाद उपाध्याय के ज्येश्ठ पुत्र के रूप में हुआ। बचपन से ही इन्हें धर्म, साहित्य, दर्शन, अध्यात्म, विज्ञान और चिन्तन का वातावरण प्राप्त हुआ जिसका असर बालक सत्य प्रकाश पर भी गहरे तक पड़ा। जि मेधा और प्रज्ञा बुद्धि की बात वेदों में वर्णित है स्वामी जी में ये बचपन से ही दिखाई पड़ने लगी थी। जो एक बार सुन लेते थे वह हमेशा के लिए स्मरण हो जाता था। इन्हें विज्ञान, गणित, साहित्य और दर्शन विषय से अत्यन्त लगाव था। इनकी रुचि देखकर पिता ने हिन्दी माध्यम से विज्ञान के शिक्षा दिलाने का प्रबन्ध किया। इसका प्रतिफल यह हुआ कि सत्य प्रकाश जी विज्ञान के अधिकारी विद्वान बन गए, और आगे चलकर देश के एक महान वैज्ञानिक हुए।

इलाहाबाद के सांस्कृतिक, शैक्षिक, धार्मिक, राजनीतिक और साहित्यिक वातावरण का असर जिस पर पड़ जाता है वह कभी न कभी किसी एक या अनेक क्षेत्रों में दक्षता प्राप्त ही कर लेता है। इसके प्रमाण के रूप में उपाध्याय जी का परिवार ही नहीं बल्कि हजारों की संख्या में है। विद्यार्थी जीवन में ही कुशाग्र बुद्विचेता सत्य प्रकाश की कई पुस्तकें विज्ञान, अध्यात्म, साहित्य और गणित विशय की प्रकाशित हो चुकी थीं। इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय में उच्च शिक्षा- डी.फिल की उपाधि प्राप्त कर सत्य प्रकाश जी इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय में ही रसायन विभाग में प्रवक्ता के रूप में नियुक्त हुए। इनकी लिखीं अनेक पुस्तकें अनेक विश्‍व विद्यालयों में पढ़ाई जाती थी। यह कोई एक विशय पर नहीं थीं बल्कि अनेक विषयों की थी।

अपनी योग्यता के बलपर जहां देश के विज्ञान के जाने-माने प्रोफेसर के रूप में प्रसिद्ध हुए वहीं रसायन विभाग के विभागाध्यक्ष जैसे प्रतिष्‍ठा वाला पद प्राप्त किया। प्रोफेसर रहते हुए ही 30 से अधिक पुस्तकों के लेखक बन चुके थे। देश ही नहीं विदेशों में भी इनकी पुस्तकें चर्चित हो चुकी थीं। स्वामी जी तब डॉ. सत्य प्रकाश, महज एक वैज्ञानिक, साहित्यकार, दर्शनशास्त्री, तर्कशास्त्री, भाशाविद् और शिक्षाशास्त्री ही नहीं थे बल्कि स्वाधीनता संग्राम में जेल भी गए। इलाहाबाद की नैनी जेल में लाल बहादुर शास्त्री, बाबू पुरुषोत्तम दास टण्डन और फिरोज गांधी के साथ रहे। इसी प्रकार हिन्दी को राष्‍ट्रभाषा के गरिमामय स्थान दिलाने के लिए हिन्दी आन्दोलन में भी भाग लिया और सरकार द्वारा अंग्रेजी थोपने की मंशा का विरोध किया।

एक प्रखर वेदवादी और अध्यात्मवादी परिवार के होने के कारण शिक्षक पद से अवकाश लेने के बाद गृहस्थाश्रम को परित्याग करके डॉ. सत्य प्रकाश जी ने 1971 में संन्यासाश्रम में पदार्पण किया। संन्यासी बनने का इनका उद्देष्य केवल कपड़ा बदलकर संन्यासी कहलाना नहीं था बल्कि मानवता, मानव धर्म, वेद, विज्ञान, साहित्य, संस्कृति और समाज के गिरते स्तर को सुधारना भी था। विज्ञान परिषद की स्थापना कर विज्ञान को हिन्दी माध्यम के द्वारा सर्वसाधारण तक पहुंचाने का ऐतिहासिक कार्य किया।

संन्यासी बनने के बाद तो इनके जीवन का रंग ही बदल गया। वेदों में ‘ऋषि’ के रूप में मन्त्रों के साक्षात्कर्ताओं का जैसा वर्णन किया गया है वैसी ही जीवन संन्यासी बनने के बाद स्वामी सत्य प्रकाश की भी थी। संन्यासी होने के पहले स्वामी जी वेद-वेदांगों और विज्ञान तथा वेदों पर अनेक चर्चित पुस्तकें लिख चुके थे। संन्यासी होने के उपरान्त इन्होंने जो सबसे बड़ा और ऐतिहासिक कार्य किया, वह चारों वेदों का अंग्रेजी में अनुवाद है। इनकी चर्चित पुस्तकों में वैज्ञानिक विकास की भारतीय परम्परा, प्राचीन भारत में रसायन का विकास, फाउण्डर्स ऑफ साइसेंज इनएंशिएण्ट इण्डिया, प्राचीन भारत के वैज्ञानिक कर्णधार, भारत की सम्पदा और थ्री हैजर्ड्स ऑफ लाइफ प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त महर्षि दयानन्द के दर्शन पर आधारित पुस्तक’ द क्रिटिकल स्टडी ऑफ द फिलासफी ऑफ दयानन्द, दयानन्द-ए फिलासफर, दि आर्य समाज, मैन ऐण्ड हिज डिवाइन लव के अलावा ऐसी अनेक पुस्तकें लिखीं, जो धर्म, समाज, विज्ञान, भाशा और दूसरे विशयों पर आधारित हैं।

स्वामी जी का सानिध्य प्राप्त कर देश के ही नहीं विदेशों के भी अनेक रिसर्च स्कालरों ने वेद, उपनिषद, भारतीय संस्कृति, भाषा, पर्यावरण और अन्य अनेक विषयों को अपने शोध का विशय बनाया। अनेक धर्म, अध्यात्म और साहित्य जिज्ञासु के धर्म, अध्यात्म और भाषा की गूढ़ताओं को समझने के लिए आगे आए। चारों वेदों का अंग्रेजी में अनुवाद से वेदों को विश्‍व स्तर पर समझने की धारा को गति मिल सकी। इसी प्रकार विज्ञान और धर्म या विज्ञान और अध्यात्म की पूरकता को समझाने की जो षैली स्वामी जी ने अपनाई, उससे धर्म और विज्ञान को विरोधी मानने वाले लोगों को नई दिशा मिली। यज्ञ हवन को दकियानूसी मानने वालों को भी स्वामी जी ने अपने शोध और तर्कों से समझाकर उसे विज्ञान और समाज के लिए बेहतर सिद्ध किया। अध्यात्म और विज्ञान की पूरकता बताते हुए उन्होंने कहा था-‘विज्ञान के पास शक्ति है, उसके पास हृदय भी होना चाहिए। इसके लिए विज्ञान को अध्यात्म में लगाना होगा। इसी प्रकार वेद के बारे में उनके स्पश्ट विचार थे। उन्होंने तेरा-मेरा का अलगाव समाप्त करते हुए एक बार अपने उद्बोधन में कहा था-‘मैं तो पश्चिमी लोगों से कहा करता हूं कि वेद जितना मेरा है, उतना ही तुम्हारा भी। क्योंकि इनके द्रष्‍टा(तुम्हारी दृष्टि में रचयिता)

मेरे और तुम्हारे दोनों के पूर्वज थे। तब कोई धर्म था ही नहीं। सारा विभाजन वेदों के बाद का है। ”

स्वामी जी केवल देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी जाकर वेद, विज्ञान, भारतीय विज्ञानिकों, भारतीय दर्शन, भारतीय साहित्य, संस्कृति, धर्म, अध्यात्म और आर्य समाज का प्रचार-प्रसार किया। 20 से अधिक देशों में जाकर अनेक वेद, विज्ञान और दर्शन पर आयोजित सम्मेलनों में भाषण देकर भारतीय संस्कृति, वेद, धर्म और अध्यात्म के सही रूप को प्रस्तुत किया। इसके कारण विदेशों में भी स्वामी जी के अनेक ‘फालोअर’ बन गए।

समाजिक सुधारों और देश के विकास में भी स्वामी जी का बहुत बड़ा योगदान रहा है।

समाज में प्रचलित जन्मगत भेदभाव, छुआछूत, जाति-पांत, अन्धविश्‍वास और पाखण्डों को दूर करने के लिए वे हमेशा तत्पर रहते थे।

एक सदगृहस्थ का आदर्श जीवन जैसा होना चाहिए वैसा ही उनका गृहस्थाश्रम था। एक सच्चे अर्थों में वीतराग संन्यासी कैसा होना चाहिए वैसे ही वे तपस्वी और वैरागी थे। एक वैज्ञानिक, दार्शनिक और साहित्यकार का सादा जीवन उच्च विचार वाला कैसा होना चाहिए, उसके वे प्रतीक ही थे। वेदधर्मी और विज्ञानधर्मी की महानता उनमें थी तो वे महान शिक्षाविद् और धर्मवेत्ता के रूप में समाज के लिए एक आदर्श थे। हजारों हजार लोगों को राह दिखाने वाले और हजारों विद्वानों को सही दिशा देने का जो कार्य स्वामी जी ने किया उसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है। जीवनभर विज्ञान, अध्यात्म, दर्शन, भाशा, वेद और शास्त्रों की नई धारा देने वाले स्वामी सत्य प्रकाश ने अपने 90 वर्श के जीवन में इतना किया जिसका मूल्यांकन सहज नहीं है। संन्यासी का धर्म जो वैदिक परम्परा में बताया गया है उसे जिंदगीभर निभाते रहे। यहां तक कि अपने खासमखास के किसी मरण या उत्सव में वे शामिल नहीं होते थे। बीमारी की हालात में भी बहुत कहने पर भी न तो परिवार और न तो शुभेच्छुओं की सेवा स्वीकार की। बहुत कहने पर अपने परम शिष्‍य पं. दीना नाथ की सेवा लेनी स्वीकार की। मानवता और धर्म तथा अध्यात्म के इस अग्निपुरुष ने 18 जनवरी 1995 को अंतिम सांस लीं। इस प्रकार विज्ञान, अध्यात्म, साहित्य, दर्शन और समाज की सेवा करने वाला यह महामानव का तिरोधान, आर्य जगत् के लिए ही नहीं बल्कि विज्ञान, धर्म, अध्यात्म और दर्शन की धारा की अपूर्णीय क्षति हुई। आने वाली पीढ़ी, स्वामी सत्य प्रकाश की विज्ञान और मानवता की महान सेवा को स्मरणकर प्रेरणा ग्रहण करती रहेगी।

युगों तक अमर रहेंगे पं. भीमसेन जोशी

प्रदीप चन्द्र पाण्डेय

पं. भीमसेन जोशी मां सरस्वती के ऐसे साधक थे जिनके गायन से मन और आत्मा दोनों पवित्र हो जाता था। गला फोड़ संगीत के दौर से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया और वे संगीत के माध्यम से समूची दुनियां में भारत का प्रतिनिधित्व करते थे। उनका निधन भारतीय संगीत क्षेत्र के भीष्म पितामह के असमय चले जाने जैसा है। कहते हैं सगीत में ईश्वर का वास है। भगवान शिव, मां सरस्वती सहित अनेक देवी देवता संगीत के उपासक है। भीमसेन जोशी के गायन से समय जैसे थम सा जाता था। वे पूर्णतया अलौकिक कलाकार थे और सच्चे अर्थो में मां सरस्वती के वरद पुत्र। नियति के आगे सभी बेबश है। समूचा देश ही नही वरन पूरी दुनियां भीमसेन जोशी के निधन से स्तब्ध है। ऐसे महान लोग बार-बार जन्म नहीं लेते। विन्रमता और सादगी पंडित जी की पूंजी थी। दिखावे से वे कोसो दूर थे। यही सहजता उनके गायन में झलकती थी। ‘कैराना’ घराने से सम्बद्ध भीमसेन जोशी ने 89 वर्ष की अवस्था में देह त्यागा। चार फरवरी 1922 को कर्नाटक के धारवाड़ जिले के गडग में जन्मे जोशी को बचपन से ही संगीत से लगाव था। वह संगीत सीखने के उद्देश्य से 11 साल की उम्र में गुरू की तलाश के लिए घर से चले गए। जब वह घर पर थे तो खेलने की उम्र में वह अपने दादा का तानपुरा बजाने लगे थे। संगीत के प्रति उनकी दीवानगी का आलम यह था कि गली से गुजरती भजन मंडली या समीप की मस्जिद से आती ‘अजान’ की आवाज सुनकर ही वह घर से बाहर दौड़ पड़ते थे।

शरीर नश्वर है और इसे एक न एक दिन छोड़कर जाना ही होता है किन्तु भीमसेन जोशी जैसे लोगों का शरीर नष्ट होता है और उनके सतकर्म सदियों तक भारतीय संगीत की ज्ञान गंगा को पवित्र करते हुये मार्ग दर्शन करते रहेंगे। उनका आकस्मिक निधन समूचे शास्त्रीय जगत के लिये गहरा आघात है। सरकार ने उन्हें भारत रत्न से नवाजा था, सच्चे अर्थो में वे इसके हकदार थे।

पंडित भीमसेन जोशी शायद शास्त्रीय संगीत के लिये ही जन्मे थे। संगीत का यह चितेरा अब भले ही भौतिक रूप में सामने न आये किन्तु उनके संगीत का समुद्र युगों-युगों तक मार्गदर्शक बना रहेगा। वे संगीत के अनन्य साधक थे। व्यक्तित्व का समग्र मूल्याकन देह छोड़ देने के बाद ही संभव है। आज जिस प्रकार से प्रधानमंत्री से लेकर देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोग पंडित जी के अवसान से विचलित हैं उससे समझा जा सकता है कि देश ने कितना महत्वपूर्ण रत्न खो दिया है। मां सरस्वती के अमर साधक भीमशेन जोशी को इस रूप में श्रद्धांजलि कि कठिन समय में भी उन्होने नयी पीढी का जो विरवा रोपा है वे पंडित जी के संगीत सागर का स्मरण कराते रहेंगे। संगीत के आकाश पर उनका नाम सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। संगीत के साधक का स्वत: ब्रम्ह सम्बन्ध हो जाता है। ऐसे महान गायन परम्परा के अगुआ को विनम्र श्रद्धांजलि।

खत्म होते ग्लेशियर और जमती हुई धरती

मनोज श्रीवास्तव ”मौन”

वैश्विक चिन्तन के विषय के रूप में एक नया अध्याय इस धरती ने स्वत: ही जुड़ गया है क्योंकि सदैव ही हरी भरी दिखने वाली धरा वैश्विक तापवर्द्धन के चपेट में आ गयी है। जिससे धरा की हरितिमा नष्ट होने को अग्रसर है साथ ही 1 अरब 95 करोड़ 58 लाख 85 हजार 112 वर्ष बीत जाने पर पुन: अति ताप से एक बार हिम युग की ओर गतिमान हो रही है। धरती के स्वर्ग कहलाने वाले काश्‍मीर झील और बर्फिली चोटियों के रूप में अपनी पहचान रखते है परन्तु वह हिमालय की चोटियों से बर्फ के गायब होने और झील के सतह पर बर्फ के जम जाने से आज अपनी पहचान और आकर्षण खो रहा है। वहां की झील में बर्फ जमने से बच्चों के खेल के मैदान की शक्ल लेकर हमारी पर्यावरण संरक्षण के प्रेम को मुह चिढा रही है।

भारतीय ग्लेशियरों पर निगरानी करने की दृष्टि से अहमदाबाद स्थित स्पेश एप्लीकेशन सेन्टर में एक ग्लेकिस्कोलॉजी परियोजना चलायी जा रही है। यहां उपग्रह की मदद से अतिसंवेदी ग्लेशियरों पर लगातार नजर रखी जाती है। इस परियोजना के प्रमुख डा. अनिल वी. कुलकर्णी द्वारा काफी चौंकाने वाले तथ्य पहली बार ठोस सबूत के साथ पेश किए गये है। हिमाचल प्रदेश के वसपा बेसिन स्थित 4 ग्लेशियर तबाही की ओर बढते पाये गये और बाकी 15 ग्लेशियर भी खस्ता हालात में पहुंच चुके है। डा. कुलकर्णी के अनुसार जहां ग्लेशियरों की बर्फ वैश्विक ताप से पिघल रही है वही दूसरी ओर उन स्थानों पर प्रदूषण के कारण जाड़ों में बर्फ जमने नहीं पा रही है। इस ग्लेशियरों की सत्यता यह है कि वर्ष 2000 से वर्ष 2002 के दौरान ही ग्लेशियरों ने 0.2347 क्यूबिक बर्फ लुप्त हो गयी हैं। बर्फ के क्षरण की यह दर वैश्विक स्तर पर अवश्‍य ही चिन्तादायक है।

भारत से हटकर यदि इस विषय में वैश्विक दृष्टिपात किया जाए तो ध्रुव प्रदेश भी इस कड़ी में मर्माहत ही दिखायी पड़ रहे है। पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव की अपेक्षा दक्षिणी ध्रुव अधिक ठंडा होता है यहां समुद्र तल पर बर्फ की मोटी चादर लगभग पूरे वर्षभर बनी रहती है। पृथ्वी के बर्फ का कुल 10वां हिस्सा दक्षिणी ध्रुव में ही रहता है। शिकागो विश्‍वविद्यालय के प्रो. टार्वफोर्न ने ग्लोबल कूलिंग के विषय में चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा कि धरती का दो तिहाई भाग पानी से भरा है जो कभी भी बर्फ में बदल सकता है। टार्वफोर्न के अनुसार ध्रुव प्रदेशों में सबसे ऊंची सतह पर बर्फ की मोटाई लगभग 14 हजार फुट आंकी गयी है जिसके पिघलने और प्रदूषण के कारण पुन: न जमने की प्रक्रिया ठीक तरह से होने पर धरती अवश्‍य ही हिम युग में पहुंच जाएगी।

अमेरिका के मध्य पश्चिम राज्यों में बर्फिले तूफान से पिछले पखवाड़े में जन जीवन ठप हो गया है और हर प्रभावित इलाकों में लगभग 2 फुट बर्फ का जमाव बना हुआ है। उत्तरी यूरोप में भारी बर्फबारी और कड़ाके की ठंड से विभिन्न दुर्घटनाओं में 28 लोगों की मौत हो गयी। ब्रिटेन के हीथ्रो, गैवाटिक, पेरिस, एम्सटर्डम, बर्लिन आदि स्थानों पर बर्फबारी के कारण विभिन्न उड़ानों को रद्द करना पडा जिससे इन देशों को काफी आर्थिक क्षति भी उठानी पड़ी है। बाल्कन देशों में अल्वानिया, बोस्निया, मोन्टेनेगो, और सार्विया आदि क्षेत्र में बाढ़ की विभिषिका के कारण हजारों लोग प्रभावित हो गये है। शीत के कारण विगत जनवरी में चीन के मंगोलिया प्रान्त में पिछले 6 दशकों की सबसे ज्यादा बर्फबारी हुई जिसमें एक रेलगाड़ी 6.5 फुट मोटी बर्फ की चादर में लिपट गयी इसमें 1400 आदमी को मौत से करीब 30 घन्टे तक जूझना पड़ा। ब्रिटेन के यार्कशायर में एक पब में सात लोग फंसे रहे, वहां पर 16 फुट मोटी बर्फ से पब के सभी खिड़की और दरवाजे बन्द हो गये। ब्रिटेन में आज तक बर्फ गिरने का सिलसिला जारी है। साइप्रस माउन्टेन पर आयोजित होने वाले अर्न्तराष्ट्रीय स्नोबोर्डिंग खेलों का आयोजन बर्फ की कमी के कारण निरस्त करना पड़ा जिसके कारण लगभग 20 हजार टिकट को रद्द करने पड़े थे। आयोजकों को काफी नुकसान झेलना पड़ा। यह खेल भी पर्यावरण प्रदूषण की भेंट चढ गया।

वैश्विक स्तर पर हो रहे हिमपात, बर्फीले तुफान धीरे-धीरे अपने पैर पसार रहे है और इस तरीके से विभिन्न देश आर्थिक नुकसान को दिन प्रतिदिन महसूस कर रहे है। मैक्सिको स्थित कानकुन सम्मेलन में 194 देशों के मंत्री शामिल होकर केवल एक कोश ही बनाने पर ही राजी हो पाये लेकिन को कोश कहां से आये इसपर सहमति नहीं बना पायी। कोपेनहेगेन और कानकुन जैसे सम्मेलनों के आयोजक देश जब तक दृढ निश्‍चयी भाव से और एक मत होकर गम्भीर चिन्तन के साथ, सहयोग भाव से काम नहीं करते तब तक वैश्विक ताप पर नियंत्रण, कार्बन की मात्रा पर्यावरण से नियंत्रित करने की बात पूरी नहीं हो सकती।

ध्रुव प्रदेश की सिकुड़ती हुई बर्फ निश्‍चय ही अन्य स्थानों पर बर्फ का जमाव कभी भी कर सकती है। बढ़ती हुई वैश्विक ताप पहाड़ों पर बर्फ को पिघला रही है और बढ़ता प्रदुषण ताप के घटने पर भी पहाड़ों पर बर्फ को जमने नहीं दे रहा है। ध्रुव प्रदेशों की पिघलती हुई बर्फ समुद्री जलस्तर को ऊपर बढ़ा रही है और जिससे समुद्र तटीय शहर डूबने की दिशा में लगातार अग्रसर है। वहीं इससे हटकर जो इलाके बर्फ से सदैव दूर रहते थे वो इलाके भी धीरे धीरे बर्फबारी की चपेट में आते जा रहे है जिनसे सामान्य जन जीवन अस्त सा हो रहा है और विभिन्न राष्ट्रों को इसके चलते आर्थिक हानि हो रही है जो उन देशों की अर्थव्यवस्था को भी नुकसान पहुंचा रही है।

हमारे द्वारा नित पर्यावरण के साथ किया जाने वाला खेलवाड़ हमें कभी बाढ़ तो कभी गर्मी तो कभी ठंडक से मार रही है। ऐसे में भारत में प्रचलित कहावत कि ” दैव न मारै खुद मरे ” अर्थात हमारी विकास की नीतियों की खामिंया ही हमसे हमारी धरती को हिमयुग की ओर भेजने और हमसे छीनने की कोशिश कर रही है और हम असहाय से एक दूसरे का मुह देखते नजर आ रहे है।

ये है दिल्ली मेरी जान

लिमटी खरे

अपने घर की हालत तो सुधरिए राजमाता

देश की सबसे ताकतवर महिला श्रीमती सोनिया गांधी को सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस द्वारा राजमाता के रूप में देखा जाता है। श्रीमती सोनिया गांधी महिला हैं, पर महिला आरक्षण विधेयक वे पिछले छः से अधिक सालों में पारित नहीं करवा सकीं हैं। राजमाता की रियासत अर्थात लोकसभा के हाल बेहाल हैं। राजमाता के संसदीय क्षेत्र में प्राईमरी स्तर पर शिक्षकों की जबर्दस्त कमी है, पर राजमाता हैं कि अपनी रियाया की ओर देखने की जहमत ही नहीं उठा रही है। आंकड़ों पर अगर गौर फरमाया जाए तो रायबरेली जिले में विद्यालयों में तीन लाख चालीस हजार 274 विद्यार्थी पंजीकृत हैं, जिनमें से प्राईमरी स्तर पर दो लाख 59 हजार 130 का आंकड़ा है। अगर देखा जाए तो सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र में प्राथमिक स्तर पर दो हजार दो सौ 39 और माध्यमिक स्तर पर एक हजार 143 शिक्षकों की कमी है। एक तरफ कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार द्वारा शिक्षा के अधिकार कानून को लागू कर दिया गया है, वहीं दूसरी और इस सरकार की चाबी अघोषित तौर पर अपने हाथों में रखने वाली श्रीमति सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र का यह हाल है, जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि केंद्र सरकार की महात्वाकांक्षी योजनाएं और कानून सूदूर ग्रामीण अंचलों में किस तरह अमली जामा पहन रहे होंगे।

राजा, राडिया, कलमाड़ी बने भ्रष्टाचारियों के आईकान

लगता है संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की दूसरी पारी में एक प्रतिस्पर्धा चल रही है, वह है कि कौन कितना अधिक भ्रष्टाचार कर सकता है। जनता के गाढ़े पसीने की कमाई को घोलकर पी जाओ, कोई कुछ भी कहने वाला नहीं है। देश की पुलिस हो या दूसरी जांच एजेंसियां सब के सब आंख और मुंह पर पट्टी बांधकर ध्रतराष्ट्र के मानिंद बैठे हैं। हिन्दुस्तान की तो छोडिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सुरेश कलमाड़ी, नीरा राडिया, ए.राजा जैसे लोगों ने धूम मचा रखी है। सभी हत्प्रभ हैं कि आखिर भारत गणराज्य में यह क्या हो रहा है, सरेआम भ्रष्टाचार, घपले, घोटाले फिर भी इसमें लिप्त लोग मिस्टर क्लीन बने बैठे हैं। अब तो इंटरनेशनल लेबल पर कहा जाने लगा है कि एक हजार करोड़ का भ्रष्टाचार मतलब कलमाड़ी, दस हजार करोड़ रूपए का हुआ तो नीरा राडिया और अगर एक लाख करोड़ के उपर गया तो उसे ए.राजा के नाम से ही पुकारा जाए तो बेहतर होगा। देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस इससे ज्यादा दुर्दिन आम हिन्दुस्तानी को और क्या दिखाएगी!

थर्ड ग्रेड की है मध्य प्रदेश की झांकी

गणतंत्र दिवस परेड में मध्य प्रदेश द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली बिना आकर्षण वाली है, जिसके बल बूते एमपी इस परेड में अव्वल की बजाए फिसड्डी ही बना रहेगा। दिल्ली के छावनी इलाके में बन रही इस झांकी को जिस तरीके से बनाया जा रहा है, उससे इस बात में संशय ही लग रहा है कि इसे कोई पुरूस्कार मिल सके। बाघ प्रिंट पर आधारित इस झांकी में विदिशा जिले की शाल भंजिका की प्रतिमा को अगर छोड़ दिया जाए तो शेष में कुछ भी एसा नहीं प्रतीत हो रहा है, जो दर्शकों को बांधे रखे। झांकी की तैयारियों को देखकर लगता है मानो अफसरान ने बला टालने के उद्देश्य से किसी अनाड़ी कलाकार को इसे तैयार करने के काम में लगा दिया है। इस तरह बेरौनक और आकर्षण विहीन झांकी के माध्यम से मध्य प्रदेश सरकार आखिर क्या संदेश देना चाहती है, यह बात तो एमपी के नौकरशाह और जनसेवक ही जाने पर यह तय है कि इस तरह की झांकियों से सूबे की नाक उंची होने के बजाए सूबा उपहास का ही पात्र बनकर रह जाएगा।

ज्योतिषी नहीं राजनेता हैं मनमोहन

मंत्रीमण्डल के बहुचर्चित किन्तु नीरस फेरबदल के उपरांत वजीरे आजम डॉ.मनमोहन सिंह ने मंहगाई के मामले में अप्रत्याशित जवाब देते हुए कहा कि वे ज्योतिषी नहीं हैं, कि बता सकें कि मंहगाई कब कम होगी, वैसे उन्होंने भरोसा दिलाया कि मार्च तक महंगाई काबू में आ जाएगी। वजीरे आजम की हैसियत से बोलते वक्त डॉ.मनमोहन सिंह यह भूल जाते हैं कि वे प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं, अर्थशास्त्र के गणित को वे बेहतर समझते हैं। सारी स्थितियां परिस्थितियां उनके सामने हैं। सहयोगी दल यहां तक कि कांग्रेस के मंत्री भी आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हैं। मनमोहन क्या करें? वे भी तो पिछले सदन के भरोसे ही हैं। कठोर कदम उठाते हैं तो सरकार गिरने का डर, नहीं उठाते हैं तो मंत्री और सहयोगी दल कालर पकड़ने पर आमदा हैं। मनमोहन यह बात भी भूल गए कि उन्होंने पिछले साल आरंभ में कहा था कि मंहगाई अक्टूबर तक काबू में आ जाएगी। फिर क्या हुआ मनमोहन जी, आप भी वालीवुड के चर्चित चलचित्र ‘दामिनी‘ की तरह ‘‘तारीख पर तारीख‘ ही दिए जा रहे हैं। देश की जनता की कमर मंहगाई से टूट रही है, आपके मंत्री शरद पवार कहते हैं कि मंहगाई है कहां? अरे आप या पवार साहेब एकाध मर्तबा बाजार जाएं और वहां खीसे से पैसा निकालकर कुछ खरीदें तब तो ‘आटे दाल का भाव‘ पता चलेगा।

राहुल की जमानत पर छूटे मोईली

केंद्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोईली की बिदाई तय थी। आश्चर्यजनक तरीके से उनकी कुर्सी बच गई। प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह उनसे आजिज आ चुके थे। अब लोग पतासाजी में लगे हैं कि आखिर क्या कारण था कि माईली बच गए। राहुल के करीबी सूत्रों का कहना है कि अमेरिका में उच्च शिक्षा प्राप्त मोईली के दमाद आनंद इनके अघोषित जमानतदार बने जो राहुल गांधी के बचपन के अंतरंग मित्र हैं। फेरबदल के दो घंटे पहले तक संशय बरकरार रहा। कांग्रेस आलाकमान भी मोईली के आंध्र के कारनामों से नाखुश हैं, वे भी उनकी रूखसती की हिमायती थीं। फेरबदल के दो घंटे पहले मोईली को दस जनपथ का बुलावा आया। वहां प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह तब तक मोईली की बिदाई का सारा ताना बाना बुन चुके थे। सूत्र बताते हैं कि इसके पहले कि प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी कोई फैसला ले पाते, कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने फच्चर फसा दिया, और मोईली के तारणहार बनकर उभरे। सूत्रों ने बताया कि मोईली का कद और पद दोनों ही बचाए रखने में वीरप्पा माईली के दमाद आनंद अदकोली की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। मोईली ने भी आनंद के माध्यम से राहुल को साधा और हो गए अपनी कुर्सी बचाने में कामयाब।

इस नौटंकी का क्या मतलब हुआ जैन साहेब

केंद्रीय मंत्री प्रदीप जैन पिछले दिनों लखनउ में रिक्शे पर चले और उनके पीछे पीछे उनकी सुरक्षा में चल रहा स्कार्ट चलता रहा। दरअसल यूपी की निजाम मायावती ने एक फरमान जारी किया है कि अगर कोई केंद्रीय मंत्री अपने निजी या पार्टी के काम से उत्तर प्रदेश आता है तो उसे राजकीय अतिथि का दर्जा नहीं दिया जाएगा, न उसे सरकारी वाहन मिलेगा और न ही सरकारी खर्च पर रूकने खाने की व्यवस्था ही की जाएगी। इस व्यवस्था के लागू होने के साथ ही मंत्री जतिन प्रसाद और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति, जनजाति के अध्यक्ष पी.एल.पूनिया को भी अपनी जेबें हल्की करनी पड़ी थीं, पर उन्होंने तो बवाल नहीं काटा। प्रदीप जैन का यह आडंबर समझ से परे है, क्योंकि वे अपनी पार्टी के काम से लखनउ गए थे। बतौर सांसद रेल में उनका किराया नहीं लगा, जब वे वहां पहुंचे तो उन्हें कम से कम एक टेक्सी ही कर लेना था। मगर अगर जैन एसा करते तो मीडिया की सुर्खियां कैसे बटोर पाते। मायावती का कदम एकदम न्यायसंगत है, आप सरकारी खर्चे पर अपनी पार्टी कैसे मजबूत कर सकते हैं, आखिर वह पैसा जनता के गाढ़े पसीने की कमाई का जो ठहरा।

हाईटेक भ्रष्टाचार हुआ है कामन वेल्थ में

कामन वेल्थ गेम्स को भ्रष्टाचार का महाकुंभ कहा जाने लगा है। इसके शिकंजे में आते ही आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी ने चिंघाड़ा कि वे अकेले नहीं हैं इस दलदल में। कलमाड़ी ने परोक्ष तौर पर कह दिया था कि हमाम में बड़े बड़े निर्वस्त्र खड़े हुए हैं। सीबीआई ने जांच चालू की, नेताओं की सांसें थमी हुईं हैं। इसमें ज्यादा कुछ निकलकर आने की उम्मीद इसलिए नहीं है क्योंकि यह सर्वदलीय भ्रष्टाचार का नायाब नमूना था। चंद दिनों में लोग इसके बारे में भूल जाएंगे और फिर फाईलें धूल खाती फिरंेगी। वैसे सूत्रों ने बताया कि सीबीआई ने अब तक इस महाघोटाले में 154 ईमेल को खंगाला है। बताते हैं कि ईमेल के माध्यम से ही ठेकेदारों से सौदेबाजी होती थी, फिर उस हिसाब से ही बजट बनाकर पास करवा लिया जाता था। सूत्र बताते हैं लगभग पांच दर्जन ईमेल आयोजन समिति और ठेकेदारांे के बीच हुई सांठगांठ की ओर इशारा कर रहे हैं। इनमें से कुछ मेल क्विंस बेटन से संबंधित भी हैं।

राहुल की गणेश परिक्रमा में जुटे जोगी

छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी का जलजला एक बार फिर बढ़ सकता है। जोगी आजकल राहुल गांधी को प्रसन्न करने में जुटे हुए हैं। कांग्रेसियों की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी के लिए वरिष्ठ कांग्रेसी अपने अपने हिसाब से रोड़ मेप तैयार करने में जुटा हुआ है, ताकि कांग्रेस के सत्ता और शक्ति के शीर्ष केंद्र दस जनपथ का आर्शीवाद उसे मिल सके। इसी तारतम्य में अजीत जोगी द्वारा राहुल बिग्रेड के प्रचार प्रसार का जिम्मा अपने कांधों पर ले रखा है। अजीत जोगी द्वारा राहुल बिग्रेड की शाख देश के हर सूबे में खुलवाई जा रही है। इसके जरिए कमजोर तबके के लोगों की मदद, अन्न, वस्त्र वितरण के साथ ही साथ कांग्रेस शासित राज्यों और केंद्र सरकार की विकासोन्मुखी योजनाओं की जानकारियां देने का काम प्रमुख तौर पर किया जाएगा। कांग्रेस के अंदरखाने में यह चर्चा भी जोर पकड़ रही है कि राहुल बिग्रेड के नाम पर कांग्रेस की राजनीति में हाशिए पर ला दिए गए अजीत जोगी हर राज्य में अपने समर्थकों की खासी फौज खड़ी करने की तैयारी में हैं, ताकि आने वाले समय में वे कांग्रेस के आला नेताओं के साथ बारगेनिंग करने की स्थिति में आ जाएं।

फिर उलझे बाबा रामदेव!

बाबा रामदेव और विवादों का चोली दामन का साथ है। न बाबा बयान बाजी छोड़ते हैं, और न ही विवाद उनका दामन। योग गुरू बाबा रामदेव ने जगन्नाथ पुरी में मंदिर में सबके प्रवेश की वकालत कर डाली। फिर क्या था पुरी में मच गया धमाल। लोगों ने बाबा के खिलाफ जमकर नारेबाजी की, बाबा रामदेव के पुतले फूंके यहां तक कि उनकी गिरफ्तारी की मांग तक कर डाली। लोगों का कहना है कि मंदिर में प्रवेश के मसले पर निर्णय लेने का अधिकार पुरी के शंकराचार्य को है, न कि योग गुरू बाबा रामदेव को। गौरतलब है कि इस मंदिर में गैर हिन्दुओं का प्रवेश वर्जित है। स्वाभिमान पार्टी के जरिए देश की सत्ता हथियाने के लिए लालायित बाबा रामदेव राजनीति में अभी कच्चे खिलाड़ी हैं। किस वक्तव्य का क्या असर होगा इस बात से वे अनजान हैं, साथ ही बाबा के पास राजनैतिक समझ बूझ वाले कुशल प्रबंधक और रणनीतिकारों की कमी है, जिससे वे आए दिन उल जलूल बयानबाजी कर मीडिया की सुर्खियां अवश्य ही बटोर लेते हैं, पर ये सारी बातें बाबा रामदेव के खाते में उनकी लोकप्रियता में इजाफा तो कतई नहीं कर रही हैं।

दुर्लभ जीवों की तस्करी कर रही हैं कार्गो विमान कंपनियां

एक तरफ केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश द्वारा वन्य जीवों को बचाए रखने के लिए अनेक मंत्रियों से दो दो हाथ किए जा रहे हैं वहीं दूसरी और पूर्व उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल और वर्तमान वायलर रवि के नेतृत्व वाला नागरिक उड्डयन मंत्रालय इस बात से अनजान है कि देश के कार्गाे विमान संचालकों द्वारा इनके माध्यम से दुर्लभ वन्य जीवों की तस्करी की जा रही है। मध्य प्रदेश काडर की भारतीय पुलिस सेवा की अधिकारी एवं वन्य जीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो की निदेशक रीना मित्रा कहती हैं कि वन्य जीवों की तस्करी करने वाली दो कार्गाे एयरलाईंस के बारें में जांच जारी है, जब तक शक यकीन में नहीं बदल जाता तब तक इनके नाम उजागर नहीं किए जा सकते। वन एवं पर्यावरण मंत्री को जैसे ही इस बात की भनक लगी, उन्होंने तत्काल ही इस मामले को नागरिक उड्डयन मंत्री के समक्ष रखने का मन बना लिया है, अब देखना यह है कि फेरबदल के बाद जयराम रमेश की पहली भिडंत वायलर रवि से किस तरह और किस स्तर पर होती है।

भाजपा के गांधी ने पीछे छोड़ा युवराज को

भले ही कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी भाजपा के वरूण गांधी से उमर में दस साल बड़े हों पर एक मामले में राहुल गांधी को वरूण गांधी ने मात दे दी है, और वह है शादी का मसला। 19 जून 1970 को जन्मे राहुल गांधी की शादी की आधिकारिक घोषणा अभी नहीं हो सकी है, पर दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी के वरूण गांधी शादी की तैयारियां सप्तपुरियों में से एक पवित्र नगरी वाराणसी के हनुमान घाट पर कांची मठ में आरंभ हो गई हैं। सूत्रों का कहना है कि मेनका गांधी की तमन्ना है कि यह विवाह शास्त्रोक्त विधि से संपन्न हो एवं इसके साक्षी बनें स्वयं कांची कामकोटी पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी जयेंद्र सरस्वती। काशी में विवाह के उपरांत दिल्ली में एक प्रीतिभोज का आयोजन भी किया जाने वाला है। राहुल गांधी को महिमा मण्डित करने के कारण भले ही उनका ग्लेमर सर चढ़कर बोल रहा हो, किन्तु देश की निगाहें इस बात पर लगी हैं कि वरूण की शादी में उनकी ताई सोनिया, बहन प्रियंका वढ़ेरा और बड़े भाई ‘‘कुंवारे जेठ‘ राहुल गांधी शामिल होते हैं या नहीं!

पुच्छल तारा

देश के वजीरे आजम ने आखिरकार अपने उन्नीस माह पुराने मंत्रीमण्डल को मथ दिया है। इस मंथन के बाद जो निकलकर आया है वह विष है या अमृत यह तो भविष्य के गर्भ में ही छिपा हुआ है। आज के समय में मनमोहन सिंह मजाक का विषय बने हुए हैं। मध्य प्रदेश के दमोह से शुभी ने एक ईमेल भेजा है, शुभी लिखती हैं कि एक बूढ़े पहलवान ने दावा किया कि आज भी उनके अंदर उतनी ही ताकत है, जितनी कि जवानी में थी। लोगों ने पूछा कैसे भई? पहलवान बोला -‘‘वो बड़ा पत्थर देख रहे हो न, में उसे जवानी में भी नहीं उठा पाता था, और आज भी नहीं उठा पाता हूं। इसी तर्ज पर मनमोहन सिंह ने मंत्रीमण्डल फेरबदल के बाद सोचा होगा कि वे आज भी उतने ही ताकतवर हैं जितने कि चंद साल पहले थे। वे आज भी कड़े फैसले नहीं ले सके और चंद साल पहले भी कड़े फैसले नहीं ले पाए थे।

व्यंग्य/ हे गण, न उदास कर मन!!

अशोक गौतम

गण उठ, महंगाई का रोना छोड़। महंगाई का रोना बहुत रो लिया। पहले मां बच्चे को रोने से पहले खुद दूध देती थी। तब देश में लोकतंत्र नहीं था। अब समय बदल गया है। बच्चा रोता है तो भी मां उसे दूध देने के लिए सौ नखरे करती है। मां और तंत्र को अब बच्चे से अधिक अपनी फिगर का ख्याल है। उसे बच्चे से अधिक प्यारी अपनी फिगर है। अब रोते बच्चे को दूध पिलाने के दिन गए। अब रोते गण को लोरी सुना सुलाने के दिन गए। आज मां के पास बच्चे को दूध पिलाने का ही काम नहीं। और भी सैंकड़ों काम हैं। अत: हे गण! अब रोने का नया ढंग ढूंढ। सच कहना गण! एक ही तरह का रोना रोकर तुम बोर नहीं होते क्या? देख, तंत्र तेरा एक ही तरह का राग सुन सुनकर थक गया है। जो तू मुझसे पूछे तो मैं दिल पर हाथ रख कर कहूं कि मैं तो एक ही तरह का रोना रोकर दो मिनट से अधिक नहीं चल पाता। बहुत बोर हो जाता हूं। इसलिए रोने के रोज नए आयाम तलाशता हूं ताकि लोग मेरे रोने को पुराना रोना कह दुत्कार न दें। एक ही तरह का रोना रोज-रोज रोने का क्या लाभ! रोज नया रोने से रोने में ताजगी और आकर्षण दोनों बने रहते हैं। नहीं पता तो जमाने से सीख। जिस रोने में आकर्षण नहीं उसे आज की डेट में मुआ भी नहीं उठाता। और फिर तंत्र तो ठहरा तंत्र!!

देख, मां! तेरा एमए बेटा रिक्षा चलाकर आने वाला है। बेचारा पता नहीं दिन भर कहां-कहां भटका होगा? खेतों से उखड़ने का एक यही तो मजा है। उसके स्वागत के लिए चूल्हा जला। चूल्हे का मन रखने के लिए चूल्हा जला। चाहे कुछ मत पका। तंत्र का आदेश है कि हर घर में हर वक्त चूल्हा जले। भले ही उस पर कुछ न पके। तंत्र को चूल्हे से धुआं उठना पसंद है। इसलिए मन से उठता धुआं रोक पर उसका मन रखने के लिए चूल्हे से धुआं उठने दे। रसोई से धुआं न उठा तो तंत्र जुर्माना लगाएगा। रसोई से धुआं न उठा तो तंत्र जेल भिजवाएगा। देगची की इज्जत का ध्यान कर। तवे को और मत जला। उसे चूल्हे के सिर पर बैठ जलने दे।

देख गण! तुम तंत्र पर बेबुनियाद आरोप लगाते फिरते हो कि तंत्र को तुम्हारी फिक्र नहीं? अरे बाबा! तंत्र तुम्हारी फिक्र ही तो करता रहता है आठ पहर चौबीस घंटे। वह तुम्हारी फिक्र में ही सोता है और रात भर तुम्हारी फिक्र में ही पलटियां खा सुबह तुम्हारी फिक्र में ही जाग जाता है। अगर तंत्र तुम्हारी फिक्र न करे तो दूसरे दिन बिन काम हो जाए। अरे बावले! तंत्र को अपने से अधिक तो तुम्हारी चिंता रहती है। कल वह मुझसे कसम खा कह रहा था।

सुन गण! हर चीज का निरंतर बढ़ते रहना विकास का सूचक है। स्थिरता मौत की निशानी है। तू भी गतिशील बन। देख, देश में हर चीज आगे बढ़ रही है। तेरी उम्र भी तो निरंतर बढ़ रही है! वह रूक सकती तो तंत्र बहादुर महंगाई को भी रोक लेगा। देश में रिश्‍वत खोरी, बेराजगारी, लूटमार निरंतर बढ़ रहे हैं। मजा आ रहा है। देश में मिलावट, आत्महत्याएं, बलात्कार दु्रतगति से बढ़ रहे हैं। सत युग बढ़ कर द्वापर हो गया। द्वापर आगे बढ़ा तो त्रेता हो गया। त्रेता आगे बढ़ा तो कलियुग हो गया। वन माफिया आगे बढ़ रहा है। भू माफिया आगे बढ़ रहा है। देख तो सांसदों के वेतन झटके में कितने आगे बढ़ गए! ऐसे में मेरी समझ में तेरी एक बात नहीं आती कि तू महंगाई को आगे बढ़ने क्यों नहीं दे रहा है गण! आखिर तेरी महंगाई से दुश्‍मनी है क्या! तुझे नहीं लगता कि सभी की तरह महंगाई भी फूले-फले? देश में सभी को आगे बढ़ने का अधिकार है। देश में भय, भूख, भ्रष्‍टाचार सब तो आगे बढ़ रहे हैं। आगे नहीं बढ़ रही है तो बस तेरी सोच! इसलिए हे गण तू भी अपनी सोच को आगे बढ़ा। चल, मजे से गणतंत्र दिवस का सीधा प्रसारण टांगों पर टांगें रखे देख। भूख प्यास की परवाह मत कर! वैसे आगे की बात कहूं गण! रोज- रोज रोटी खाकर कौन अमर हो लिया? योगा कर। भूख पर विजय प्राप्त कर। विजयी बन! तेजस्वी बन!