Category: कविता

कविता साहित्‍य

नव रूप में नव प्रीति में !

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‘नव रूप में नव प्रीति में , आते रहेंगे ज्योति में; अनुभूति में चित दीप में, वाती जलाते श्रीति में !   वे दूर ना हम से गये, बस टहलने सृष्टि गये; अवलोकते हमको रहे, वे और भास्वर हो रहे !   देही बदल आजाएँगे, वे और प्यारे लगेंगे; दुलरा हमें पुनि जाएँगे, जो रह गया दे जाएँगे !   है लुप्त ना कोई यहाँ, बस व्याप्ति के वश जहान; है जन्मना मरना वहाँ, पर सभी कुछ उनके मना !   नाटक नियति के पात्र वे, अपना है धर्म निभा रहे; ‘मधु’ आ रहे या जा रहे, गोदी सदा प्रभु की रहे !   गोपाल बघेल ‘मधु’

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कविता

कुछ नया, कुछ पुराना

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  पुरानी धुनों पे नये गीत लिखना, पुराने गीतों को नई ताल देना, नई ताल पर पांवो का थिरकना, बुरा तो नहीं है पर , पुराने को पुराना ही रहने देना। पुरानी नीव पर नया घर बनाना, पुराने की ख़ुशबू मगर रहने देना। नये को स्वीकारो, पुराना नकारो ऐसा नहीं कभी भी होने देना। जो आज नया है, कल पुराना लगेगा पुराने को हमने कुछ यों संवारा, पुराने नये में अंतर न जाना। समय की पर्तों मे है जो पुराना, नये ढंग में लायेगा वो ज़माना, ना कुछ नया है ना ही पुराना बदलाव करने का है बहाना। ना पुराना सब सही था मैने न जाना ना नया सब गलत है,ये भी ना माना समझ जाओ तो, नयों को समझाना पुरानों और नयों को अब है पीढ़ियों का अंतर मिटाना, दोनो को जोड़कर समन्वय बनाना।

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कविता साहित्‍य

ज्वालामुखी

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हर आदमी आज यहाँ, ज्वालामुखी बन चुका है। क्रोध कुंठा ईर्ष्या की आग भीतर ही भीतर सुलग रही है। कोई फटने को तैयार बैठा हैं, कोई आग को दबाये बैठा है, किसी के मन की भीतरी परत में, चिंगारियां लग चुकी हैं। कोई ज्वालामुखी सुप्त है, कोई कब फट पड़े कोई नहीं जानता। समाज की विद्रूपताओं का सामना करने वाले या उनको बदलने वाले अब नहीं रहे क्योंकि सब जल रहे हैं भीतर से और बाहर से. क्योंकि वो ज्वालामुखी बन चुके हैं। ज्वालामुखी का पूरा समूह फटता है , तो कई निर्दोष मरते है, जब बम फटते है, नाइन इलैवन या ट्वैनटी सिक्स इलैवन होता है। किसी बड़े ज्वालामुखी के फटने से प्रद्युम्न मरते है या निर्भया, गुड़िया,या किसी मीना की इज्जत पर डाके पड़ते है, फिर हाल बेहाल, वो कही सड़क पर कहीं फेंक चलते है। कभी कार मे छोटी सी खरोंच आनेपर चाकू छुरी या देसी कट्टे चलतेहैं क्योंकि वो आदमी नहीं है ज्वालामुखी बन चुके हैं क्रोध कहीं से लिया और कहीं दाग़ दिया क्रोध कुँठा से ही ज्वालामुख बनते हैं औरों के साथ ख़ुद के लियें भी ,ख़तरा बनते हैं। कुछ ज्वालामुखी भीतर ही भीतर धदकते है ये भड़कर फटते भी नहीं हैं, अपनी ही जान लेते हैं। कोई गरीबी में जलता है, कोई प्रेम त्रिकोण में फंसता है कोई परीक्षा में असफल है, कोई उपेक्षित महसूस करता है या फिर अवसाद रोग से जलता रहा है कुछ कह नहीं रहा…,.,……. किसी की प्रेमिका ने किसी और के संग करली है सगाई……….. ये सब ज्वालामुखी धधक रहे हैं शायद ही किसी की आग कोई बुझा सके तो अच्छा हो, वरना ये ज्वालामुखी, अन्दर ही फटते है कोई पंखे पे लटक गया कोई नवीं, मंजिल से कूदा है इन ज्वालामुखियों के फटने से रोज खून इतना बहता है कि अखबार के चार पन्ने लाल होते हैं यहाँ हर आदमी ज्वालामुखी बन चुका है अब, हम जी तो रह है, पर डर के साये में, कौन कब फटे बस यही किसी को नहीं पता!

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