कविता तुझे भुलाने की कोशिश में… June 4, 2015 by प्रवक्ता.कॉम ब्यूरो | Leave a Comment -बीना रौतेला- तुझे भुलाने की कोशिश मे, खुद को ही मैं भुल गयी। दूर जाने की कोशिश मे, पास तेरे मैं आ गयी॥ मिटाकर तेरी यादे जब, दूर हो जाने लगी। कदम बढ़ाया था जो मैंने, खुद पीछे हो जाने लगी॥ तुझे भुलाने की कोशिश मे, खुद को ही मैं भुल गयी। […] Read more » Featured तुझे भुलाने की कोशिश में... कविता
कहानी चेहरा June 2, 2015 by प्रवक्ता.कॉम ब्यूरो | Leave a Comment -मोनी सिंह- सुबह उठते ही शीशे में मैं अपना चेहरा देखा करती हूं। हर दिन की शुरूआत मेरी वहीं से होती है। जिस दिन न देखूं कुछ अधूरा सा लगता है। ऐसा लगता है जैसे मैने खाना न खाया हो। किसी से बात करने का मन नही होता। अजीब से ख्याल आते मेरे मन में। […] Read more » Featured कहानी चेहरा
कविता जादूगरी जो जानते June 2, 2015 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment -गोपाल बघेल ‘मधु’- (मधुगीति १५०५२६-५) जादूगरी जो जानते, स्मित नयन बस ताकते; जग की हक़ीक़त जानते, बिन बोलते से डोलते। सब कर्म अपने कर रहे, जादू किए जैसे रहे; अज्ञान में जो फिर रहे, उनको अनौखे लग रहे । हैं नित्य प्रति आते यहाँ, वे जानते क्या है कहाँ; बतला रहे बस वही तो, आते […] Read more » Featured कविता जादूगरी जो जानते
व्यंग्य प्रमाणित करता हूं कि मैं आम आदमी हूं…! June 2, 2015 by तारकेश कुमार ओझा | Leave a Comment -तारकेश कुमार ओझा- कहते हैं गंगा कभी अपने पास कुछ नहीं रखती। जो कुछ भी उसे अर्पण किया जाता है वह उसे वापस कर देती है। राजनीति भी शायद एसी ही गंगा हो चुकी है। सत्ता में रहते हुए राजनेता इसमें जो कुछ प्रवाहित करते हैं कालचक्र उसे वह उसी रूप में वापस कर देता […] Read more » Featured आम आदमी प्रमाणित करता हूं कि मैं आम आदमी हूं व्यंग्य
व्यंग्य केले.. ले लो, संतरे.. ले लो! May 30, 2015 / May 30, 2015 by अशोक गौतम | Leave a Comment -अशोक गौतम- वह इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक का मजनू फिर अपनी प्रेमिका के कूचे से आहत हो आते ही मेरे गले लग फूट- फूट कर रोता हुए बोला,‘ दोस्त! मैं इस गली से ऊब गया हूं। इस गली में मेरा अब कोई नहीं। मैं बस अब आत्महत्या करना चाहता हूं। बिना दर्द का कोई […] Read more » केले.. ले लो व्यंग्य संतरे.. ले लो! हास्य. featured
कविता झकझोरता चित चोरता (मधुगीति १५०५०५-३) May 29, 2015 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment -गोपाल बघेल ‘मधु’- झकझोरता चित चोरता, प्रति प्राण प्रण को तोलता; रख तटस्थित थिरकित चकित, सृष्टि सरोवर सरसता । संयम रखे यम के चखे, उत्तिष्ठ सुर उर में रखे; आभा अमित सुषमा क्षरित, षड चक्र भेदन गति त्वरित । वह थिरकता रस घोलता, स्वयमेव सबको देखता; आत्मा अलोड़ित छन्द कर, आनन्द हर उर फुरकता । […] Read more » Featured कविता झकझोरता चित चोरता
कविता मैं संस्कृति संगमस्थल हूँ May 29, 2015 by नरेश भारतीय | Leave a Comment –नरेश भारतीय- बनती बिगड़ती आई हैं युगों से सुरक्षित, असुरक्षित टेढ़ी मेढ़ी या समानांतर जोर ज़बरदस्ती या फिर व्यापार के बहाने, घुसपैठ के इरादे से वैध अवैध लांघी जाती रहीं अंतर्राष्ट्रीय मानी जाने वालीं सीमाएं प्रवाहमान हैं मानव संस्कृतियाँ सीमाओं के हर बंधन को नकारती समसंस्कृति संगम स्थल को तलाशतीं. सीमाओं को तो […] Read more » Featured कविता मैं संस्कृति संगमस्थल हूँ संस्कृति कविता
आर्थिकी व्यंग्य पोटली में रुपया May 29, 2015 by अमित राजपूत | Leave a Comment -अमित राजपूत- आज जहां पैसों को पानी की तरह बहाया जा रहा है, उसके पर्दे की वो प्रथा समाप्त हो गयी जिसके रहते लोग पैसों से कभी साध्य की तरह व्यवहार नहीं करते थे, आज भिखारी भी एक का सिक्का स्वाभिमान में वापस कर देता है। आज के समय में जहां किसी दुकान से कुछ […] Read more » Featured पोटली में रुपया महंगाई पर व्यंग्य व्यंग्य
व्यंग्य ढम-ढम बजाएंगे May 28, 2015 / May 28, 2015 by विजय कुमार | Leave a Comment -विजय कुमार- इन दिनों गर्मी काफी पड़ रही है। कल शाम छींटे पड़ने से मौसम कुछ हल्का हुआ, तो मैं शर्मा जी के घर चला गया। वहां वे छुट्टियों में आयी अपनी नाती गुंजन को कहानी सुना रहे थे। एक गांव में मन्नू नामक लड़का रहता था। जब वह पांच साल का हुआ, तो पढ़ने […] Read more » Featured गर्मी गर्मी पर व्यंग्य़ ढम-ढम बजाएंगे
व्यंग्य काश…! दादी ने शहर की कहानी सुनाई होती May 27, 2015 by कन्हैया कुमार झा | Leave a Comment काश…! दादी ने शहर की कहानी सुनाई होती लोग कहते हैं फिल्में समाज का दर्पण होती हैं मतलब समाज मे जो कुछ घटित होता है, समाज की जो भी असलियत है, जितनी संवेदना है , जैसी भी अवधारना है, फिल्में ठीक वैसी ही परोसती हैं । कभी-कभी तो हर आदमी की कहानी ही फिल्मी लगती […] Read more » काश...! दादी ने शहर की कहानी सुनाई होती: नानी विदेशनीति व्यंग सरकार
कविता बेबसी May 23, 2015 by बीनू भटनागर | Leave a Comment -बीनू भटनागर- योगेन्द्र और प्रशांत को हटा मानो बाधायें हो गईं दूर, साथ में रह गये बस, कहने वाले जी हुज़ूर। फ़र्जी डिग्री के किस्से को, जैसे तैसे रफ़ा दफ़ा किया, एक सिक्किम से ले आया, नकली डिग्री और सपूत। मैंने जनता को स्टिंग सिखाया, पर वो भी मुझ पर ही आज़माया, मियां की जूती […] Read more » Featured कविता बेबसी
कविता मुक्ति May 21, 2015 by बीनू भटनागर | Leave a Comment -बीनू भटनागर- वो ज़िन्दा ही कब थी, जो आज मर गई, सांसों का सिलसिला था, बस, जो चल रहा था। आज वो मरी नहीं है, मुक्त हो गई। घाव जितने थे उसके तन पे, कई गुना होंगे मन पे, मन के घावों का कोई, हिसाब कैसे रखे। वो झेलती रही, बयालिस साल तक पीड़ा, मुक्ति […] Read more » Featured कविता मुक्ति