‘प्रवक्ता डॉट कॉम’ वेब पत्रकारिता का चर्चित मंच व वैकल्पिक मीडिया का प्रखर प्रतिनिधि है। इसकी शुरूआत 16 अक्टूबर, 2008 को हुई थी। ‘प्रवक्ता’ का उद्देश्य है जनसरोकारों से जुड़ी खबरों को लोगों तक पहुंचाना एवं विचारशील बहस को आगे बढ़ाना।
विचार पोर्टल प्रवक्ता डॉट कॉम के तीन साल पूरे होने पर एक लेख प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है। इससे पूर्व ‘प्रवक्ता’ के दो सालपूरे होने पर भी ऑनलाइन लेख प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था।
प्रतियोगिता का विषय : मीडिया में व्याप्त भ्रष्टाचार
प्रथम पुरस्कार: रु. 2500/-
द्वितीय पुरस्कार: रु. 1500/-
तृतीय पुरस्कार: रु. 1100/-
योग्यता : इस प्रतियोगिता में कोई भी व्यक्ति देश या विदेश से भाग ले सकता हैं।
अंतिम तिथि : 16 नवम्बर, 2011 तक लेख भेज सकते हैं।
शब्द सीमा : लेख 2000 से 3000 शब्दों के बीच का होना चाहिए।
भाषा : लेख केवल हिन्दी भाषा में होना चाहिए।
विजेता की घोषणा : 25 नवम्बर 2011 को प्रवक्ता डॉट कॉम पर विजेता के बारे में घोषणा की जाएगी।
अन्य नियम :
आपका लेख अप्रकाशित एवं मौलिक होना चाहिए।
लेख प्रवक्ता डॉट कॉम पर प्रकाशित किया जायेगा।
लेख के साथ जीवन परिचय (नाम/मोबाइल नंबर/ई-मेल/पता/पद आदि का जिक्र) संस्थान/ एवं फोटोग्राफ भी भेजें।
पुरस्कार की राशि चेक द्वारा दी जाएगी।
पुरस्कार के संबंध में निर्णायक मंडल का निर्णय ही सर्वोपरि होगा।
अपना लेख ईमेल के जरिये यूनिकोड फ़ोंट जैसे मंगल (Mangal) में अथवा क्रुतिदेव (Krutidev) में हमें निम्न पते पर भेजें-
अन्ना का हिसार में कांग्रेस विरोध यानी गर्म लोहे पर करारी चोट कांग्रेस ने अन्ना को बदनाम-परेशान करने में कमी नहीं छोडी़ है! भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरा देश अब तक अन्ना हज़ारे के साथ एकजुट नज़र आ रहा था लेकिन अब एक वर्ग कांग्रेस के इस दुष्प्रचार का शिकार होता नज़र आ रहा है कि टीम अन्ना ने हरियाणा के हिसार लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस का विरोध करके मानो कोई बहुत बड़ा पाप कर दिया हो। किसी दल का सपोर्ट या विरोध प्रत्येक भारतीय का लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकार है। इस विरोध से बेतहाशा बौखलाई और घबराई कांग्रेस ने एक बात तो खुद ही साबित कर दी है कि टीम अन्ना का उसके विरोध का फैसला उस पर सीधी और निर्णायक चोट करने में कामयाब रहा है। जो लोग यह भोला तर्क दे रहे हैं कि अन्ना को कांग्रेस का नहीं बल्कि सरकार का विरोध करना चाहिये था, उनसे पूछा जाना चाहिये कि सरकार जब कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही है और घटक दलों को अपने हिस्से की लूट से मतलब है तो फिर विरोध तो कांग्रेस का ही किया जायेगा। दूसरी तरफ टीम अन्ना के सदस्य प्रशांत भूषण पर उनके चैम्बर में घुसकर हुआ हमला कांग्रेस के लगातार चल रहे उस अभियान की भी देन है जो वह टीम अन्ना के खिलाफ दुष्प्रचार स्वरूप चला रही है। इससे पहले यही अन्ना महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा सरकार के विरोध में कई बार आंदोलन करके अपनी मांगे मनवा चुके हैं, तब किसी ने नहीं कहा कि अन्ना कांग्रेस के आदमी हैं क्योंकि इसका सीधा लाभ कांग्रेस को मिलेगा। लोगों की याददाश्त इतनी कमज़ोर कैसे हो गयी कि वे भूल गये कि कल तक यही कांग्रेस टीम अन्ना को जनलोकपाल बिल पास करने को लेकर लगातार गच्चे पर गच्चा देती रही है। उसका इरादा अभी भी जनलोकपाल को जैसा का तैसा पास करने का कतई नहीं है। कल तक कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह, मनीष तिवारी और कपिल सिब्बल उन्हें लोकतंत्र, संसद और संविधान का दुश्मन बता रहे थे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और युवराज राहुल गांधी तक अन्ना के अनशन को गलत परंपरा बता रहे थे। टीम अन्ना के सदस्यों को इनकम टैक्स और सांसदों की मानहानि के नोटिस दिये जा रहे थे। इन्हीं अन्ना को तिहाड़ में डाल दिया गया था। इन्ही अन्ना को आज भी कांग्रेसी बिना किसी सबूत और बुनियाद के संघ परिवार का एजेंट बता रहे हैं। इन्हीं अन्ना का भाजपा सहित समस्त गैर कांग्रेसी विपक्ष का मुखौटा बताया जा रहा है। इन्हीं अन्ना को सर से पांव तक भ्रष्टाचार में डूबा बताया जा चुका है। इन्हीं अन्ना को आज यह कहकर बहकाने की कोशिश की जा रही है कि वे तो ठीक हैं लेकिन उनकी टीम के सदस्य गलत हैं। उनको एक छोटे बच्चे की तरह कांग्रेसी यह समझाने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं कि केजरीवाल, भूषण और किरण बेदी जैसे लोग उनको गुमराह कर रहे हैं। अन्ना को यह कहकर बहकाने की कोशिश भी की जा रही है कि जब आप भूखे प्यासे अनशन कर रहे थे तब आपकी टीम के सदस्य फाइव स्टार होटल का खाना खा रहे थे। अन्ना को ऐसे चढ़ाया जा रहा है मानो वे आम आदमी हों। टीम अन्ना के किसी सदस्य ने न तो अन्ना को अनशन करने के लिये उकसाया था और न ही उनके साथ खुद अनशन पर बैठने का वादा करके कोई मुकरा है। आज जो टीम अन्ना को अन्ना का दुश्मन बता रही है अगर वे लोग न होते तो कांग्रेस की चालाक, मक्कार और भ्रष्ट सरकार बाबा रामदेव के अच्छी नीयत से किये गये गैर अनुभवी आंदोलन की तरह अन्ना का अनशन भी फेल करके आज चैन की बंशी बजा रही होती। टीम अन्ना पर चौतरफा हमला इसलिए हो रहा है क्योंकि उनमें हर क्षेत्र का माहिर मौजूद है जो सरकार का कोई दांव कामयाब नहीं होने दे रहा है। जिस टीम को अन्ना को बदनाम करने वाला बताया जा रहा है वही तो अन्ना को आज तक बचाये हुए है। जो लोग अन्ना पर इस आरोप को लगा रहे हैं कि हिसार में खुलकर टीम अन्ना के कांग्रेस के खिलाफ प्रचार करने से भाजपा को लाभ हो रहा है, उनसे यह पूछा जाना चाहिये कि टीम अन्ना ने यह कहां कहा कि भाजपा समर्थित प्रत्याशी को वोट करें। हिसार में तीन दर्जन से अधिक प्रत्याशी खड़े हैं, मतदाता जिसको चाहे चुन सकता है लेकिन चूंकि कांग्रेस भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी रक्षक और पोषक बनकर सामने आ रही है लिहाज़ा उसको हराने की अपील में कोई बुराई नहीं है। हिसार में टीम अन्ना ने भ्रष्टाचार को इतना बड़ा मुद्दा बना दिया है कि वहां कांग्रेस की हार तय मानी जा रही है। कोई चमत्कार ही कांग्रेस की लाज वहां बचा सकता है। जो लोग यह दावा कर रहे हैं कि इससे वहां वह प्रत्याशी जीत जायेगा जिसको भाजपा का सपोर्ट हासिल है, उनसे पूछा जाना चाहिये कि अगर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस हारी तो भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर सकती है और अगर बीजेपी सबसे बड़ा दल बनी तो एनडीए की सरकार बनने की संभावना है। इसका मतलब एनडीए की सरकार बनने का श्रेय अन्ना को जायेगा। यह भी सच है कि भाजपा को एक वर्ग विशेष पसंद नहीं करता। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि भाजपा की सोच आरएसएस से नियंत्रित होती है और संघ हिंदुत्व की बात करता है। उसका यूपी से लेकर गुजरात तक में अच्छा रिकॉर्ड नहीं रहा। भ्रष्टाचार को लेकर भी उसका रिकॉर्ड कांग्रेस से खास बेहतर नहीं रहा लेकिन यह भी हकीकत है कि यूपीए-टू से पहले इतनी भ्रष्ट सरकार नहीं आई जितनी मनमोहन सिंह की सरकार है। सवाल यह है कि सरकार को बदलना है तो किसी और को सत्ता सौंपनी होगी। कांग्रेस की जगह भाजपा चूंकि विपक्ष में है तो वह उसकी जगह ले सकती है। अब आरोप यह लग रहा है कि अगर कांग्रेस को हराया गया और भाजपा को विपक्ष में होने से उसका लाभ मिला तो भ्रष्टाचार के खिलाफ चली सारी मुहिम के पीछे संघ परिवार के होने के अंदेशे की तस्दीक हो जायेगी। खुद संघ प्रमुख भागवत ने कहा भी है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ चलने वाले किसी भी आंदोलन को संघ परिवार पूरा सहयोग देता रहा है और आगे भी देगा। इसपर कांग्रेस और उसके समर्थक दावा कर रहे हैं कि देखिये हमारे आरोप की पुष्टि हो गयी। उधर भाजपा ने भी जनलोकपाल बिल को सपोर्ट देने के साथ ही भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष में कदम से कदम मिलाकर चलने का वादा किया है। उसके वरिष्ठ नेता एल के आडवाणी भ्रष्टाचार के खिलाफ रथयात्रा भी निकाल रहे हैं। भाजपा शासित राज्यों में भ्रष्ट छवि के सीएम को हटाकर ईमानदार और साफ सुथरी इमेज के नेताओं को सत्ता सौंपी जा रही है। नये मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार के खिलाफ सख़्त कानून भी बना रहे हैं। इतना सब कुछ होने पर भी अगर यह मानकर कांग्रेस को सत्ता में बनाये रखे जाये या फिर से चुनकर सरकार बनाने का मौका दिया जाये कि उसका कोई सेकुलर विकल्प मौजूद नहीं है तो अभी यूपीए-टू को दूसरी बार मौका देने पर तो भ्रष्टाचार, तानाशाही और मनमानी की यह हालत है अगर कांग्रेस तीसरी बार सत्ता में आ गयी तो शायद लोगों का जीना मुश्किल कर देगी। इसलिये आगे नया विकल्प उभरेगा। हमारा सवाल यह है कि अगर भाजपा सत्ता में न आती तो हमें कैसे पता लगता कि वह हिंदुत्व के नाम पर क्या क्या करेगी? अगर आज वह भ्रष्टाचार पर कांग्रेस से बेहतर विकल्प देने की बात कर रही है तो उसको एक मौका और दिये बिना हम कैसे तय कर सकते हैं कि भाजपा पहले की तरह ही भ्रष्ट और साम्प्रदायिक सोच से काम करेगी। जब अन्ना ने अपनी कोई राजनीतिक पार्टी बनाई नहीं है और क्षेत्रीय दलों सहित वामपंथी नास्तिक और दूसरे कारणों से हमें स्वीकार नहीं हैं तो फिर रास्ता क्या बचता है? अगर संघ परिवार भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में साथ देगा तो केवल इसलिये साथ नहीं लिया जाये कि वह संकीर्ण सोच रखता रहा है। अगर उसके लोग रोटी, पानी और हवा का इस्तेमाल करते हैं तो सेकुलर लोग इन चीज़ों का प्रयोग छोड़ कर ज़िंदा रह सकते हैं क्या? यह पूर्वाग्रह छोड़कर ही कोई रास्ता निकल सकता है और इसके लिये हमें तूफान से गुज़रने का जोखिम लेना होगा। हादसों की ज़द पर हैं तो मुस्कराना छोड़ दें, ज़लज़लों के खौफ़ से क्या घर बनाना छोड़ दें।।
अन्ना हजारे की हिसार हुंकार ने कांग्रेस की फिर ऐसी तैसी कर के रख दी. जानते हुए कि हिसार सीट आसान नहीं है कांग्रेस खाम्ख्वाह ही अन्ना और उसकी टीम की चमचागिरी करती नज़र आ रही है . कांग्रेस ही क्यों भा जा पा हो या कोई और सभी अन्ना कि टोपी मैं अपनी चाँद छिपाने को बेताब है. लेकिन कोई माई का लाल सच बोलने कि हिम्मत नहीं जुटा पा रहा कि अन्ना एक फर्जी संगठन की देन है इसीलिये इंडिया अगेंस्ट करप्शन नाम का संगठन जिसके नाम पर अन्ना ने भूख हड़ताल की थी खत्म हो गया है .दिग्विजय सिंह अन्ना से खत्तो किताबत मैं उलझे है. कोई भला आदमी यह तो बताए कि इंडिया अगेंस्ट करप्शन नाम का एन जी ओ जिसने रामलीला मैदान मैं लाखो करोडो जनता से लिए और खर्च किये कहाँ गया?.ऐसा संगठन जिसके संस्थापकों मैं से दो बड़े नामो स्वामी रामदेव और स्वामी अग्निवेश को अलग करदिया गया,क्या ऐसा इस संगठन के किसी प्रस्ताव से हुआ? या तुने कहा और मैंने सुना कि तर्ज़ पर दोने बड़े नाम बेगाने हो गए.
इस फर्जी संगठन कि कारगुजारियों को ढापने के लिए मीडिया महारथियों ने नाम निकला टीम अन्ना पर इसके फैसले लेने के लिए अधिकार दिया गया इंडिया अगेंस्ट करप्शन कि कोर कमेटी को, वही तय करती है कि अन्ना प्रधानमंत्री को खत लिखेगे या टीम अन्ना हिसार में कांग्रेस का विरोध करेगी , आज तक ये कही नहीं आया कि इस इण्डिया अगेंस्ट करप्शन नाम के एन जी ओ का कौन सदस्य है और कौन पदाधिकारी. इस संघठन ने पिछले दो सालो में कितने घपलेबाजो को बेनकाब किया या कोई और समाजसुधार का काम किया हो उत्तर शून्य ही आएगा .
अन्ना के नाम लोगो ने एक और तमगा जोड़ा है गांधीवादी होने का, मीडिया हो या जनता सब के सब ढोल पीट रहे है कि अन्ना ने गाँधी कि याद ताज़ा कर दी . पर मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अन्ना का गांधीवाद सिर्फ टोपी और धोती तक है .अन्ना के कर्म या विचारों का गांधीवाद से कोई लेना देना नहीं है .अन्ना का कर्म वहां से शुरू होता है जहाँ गांधीवाद का अंतिम चरण हुआ करता था गांधी ने जितनी बार भी आमरण अनशन किया अपने आन्दोलन के अंतिम चरण मैं किया पर अन्ना का कर्म का प्रथम चरण ही अनशन से शुरू होता है .जन जागरण ,जन चेतना , न तो उनके बसकी बात है न ही उनके अजेंडे मैं ऐसा कुछ है .गांधी जी गीता के कर्म योग के उपासक थे पर अन्ना तो हठयोगी जैसा व्यवहार करते है वो भी पूरे बंदोबस्त के साथ, गांधी ने सच्चे महात्मा कि तरह कभी भी जीवन और शरीर की कभी चिंता नहीं की जबकि अन्ना ने अनशन किया नामी गिरामी डाक्टर त्रेहन कि देखरेख में ,अब आप ही सोच ले कि अन्ना को अपने जीवन से कितना मोह है .शायद ये दुनिया मैं पहला अनशन होगा जहाँ अनशनकारी अपने निजी डाक्टर के साथ उतरा हो .अन्ना को भ्रष्टाचार विरोध का एसा भूत चढा है कि वे भ्रष्टाचारियों को फांसी पर लटकाने कि बात कर पता नहीं कौन से गांधीवाद कि बात करते हैं ? अन्ना बाबू सारे के सारे सांसदो को चोर मानकर उनके काम का लेखा जोखा तो मांगने कि बात करते है पर आज तक ये कहीं साफ़ नहीं है कि सांसदों का जॉब चार्ट क्या है क्या काम उन्हें करने है , टीम अन्ना को चाहिए की फील्ड में जाकर सांसदों को क्या काम अपने क्षेत्र में करना चाहिए इसकी जानकारी जनता को देनी चाहिए.
वास्तव मैं अन्ना नकारात्मक विचारधारा कि उपज है उनके आसपास किसी निर्माण या जनकल्याण कि न तो कोई सोच है और न ही कोई योजना. जहाँ तक अन्ना कि उपलब्धियों कि बात है वे हमेशा महाराष्ट्र मैं अपने अनशनो कि बात बताते है जिसमे कई मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा था और अनेको अफ्सरों के खिलाफ कार्यवाही हुई थी, पर उसके बाद कि बाते कोई नहीं करता कि उन हटाये गए मंत्रियों मैं से कितने दुबारा मंत्री बने, केंद्रीय मंत्री बने या उन मंत्रियों के भ्रष्टाचार का आगे क्या हुआ ? मेरी जानकारी के मुताबिक़ तो सारे के सारे आज भी राजनीति मैं सक्रिय है .
अन्ना अपने जनालोकपाल बिल को आज़ादी कि दूसरी लड़ाई बताकर मुग्ध है .पता नहीं क्यों ? राजनीती के लोग, अखबारों के आंकडेबाज , टी वी चेनलो के मज्मेबाज़, एमर्जेंसी जैसी घटनाओं को इतिहास से मिटाने पर आमादा है ,पता नहीं जन लोकपाल बिल बनते ही कौन सा अलादीन का जिन्न भ्रष्टाचार को खतम कर देगा शिकायत फिर भी जनता को ही दर्ज करानी पड़ेगी और आम जन को ताकतवर लोगों से उसी तरह जूझना होगा जैसा आज है, वैसे ही सबूत, गवाह ,और अदालतो के चक्कर लगने होंगे जैसा कि आज बस फर्क इतना होगा कि जो काम पहले कई साल मैं होता था वो टाइम बाउंड एक साल में हो जाएगा यानी सबूतो के अभाव मैं दोषी जल्द छूट जायेंगे और अगर लोकपाल ने कोई दंड दिया भी तो उच्च नयायालय मैं वकील अपने पैंतरे दिखा कर लाभ पा लेंगे. और यदि घपलेबाज़ जेलो मैं पहुँच भी गए तो क्या इससे भूखो को रोटी, बेघरो को घर और बेरोजगारों को रोजगार मिल सकेगा, मेरे समाज कि अंतिम पायदान पर पड़े दरिद्रनारायण को इससे क्या मिलेगा ? हो सकता है इससे किरण बेदी जैसे अफसरों को समय पर प्रमोशन मिल जाए या केजरीवाल जैसो को नौकरी न छोडनी पड़े, पर क्या इससे सारे झूठ फरेब और धोखे बंद हो जायेंगे, खेतों मैं पैदावार बढ़ जायेगी, बिजली, सड़क पानी की समस्या दूर हो जायेगी, जूआ , शराबखोरी, दहेजप्रथा जैसी बुराइयां खतम हो जायेगी, मेरे भाई इससे ऐसा कुछ नहीं होने वाला.
ऐसे में मुझे तो आशंका है कि भीडतंत्र के सामने मजबूर लोकतंत्र और उसकी प्रक्रियाये कमजोर होकर एक ऐसे तंत्र को जन्म देंगी जिसमे स्वयं सेवी संगठनों के नाम पर नई हुक्म्शाही का राज होगा.इसे साफ़ शब्दों में कहे तो एन .जी ओ का आतंकवाद पनपेगा.
आज 16 अक्टूबर है। इसी दिन सन् 2008 में ‘प्रवक्ता डॉट कॉम’ की शुरुआत हुई थी।
सोचा यही था कि मुख्यधारा के मीडिया से ओझल हो रहे जनसरोकारों से जुड़ी खबरों व मुद्दों को प्रमुखता से प्रकाशित करें और उस पर गंभीर विमर्श हो। साथ ही एक अरब से अधिक की जनसंख्या वाले देश की राष्ट्रभाषा हिंदी को इंटरनेट पर प्रभावी सम्मान दिलाने के लिए सार्थक प्रयास हो।
इस काम में हम कितना सफल हो पाए हैं, यह तो सुधी पाठक और विद्वत लेखकगण ही बता सकेंगे।
‘प्रवक्ता’ के फलक को हम और विस्तारित करने जा रहे हैं। पूरी दुनिया में मानव-समाज का संकट गहरा रहा है। विकल्पहीनता की स्थिति है। ऐसे में हम सभ्यतामूलक विमर्श पर विशेष ध्यान केन्द्रित करेंगे। ‘भारतीय सभ्यता बनाम पश्चिमी सभ्यता’ ‘प्रवक्ता’ के विमर्श के केन्द्रबिंदू होंगे।
आशा है आपका स्नेह और सहयोग हमें पूर्व की भांति सतत् मिलता रहेगा।
इस अवसर पर हम ‘प्रवक्ता’ के प्रबंधक श्री भारत भूषण, सुधी पाठक व विद्वत लेखकगण तथा विज्ञापनदाताओं के प्रति आभार प्रकट करते हैं।
कर्ण की इस उपलब्धि पर देवराज इन्द्र का चिन्तित होना स्वाभाविक था। पांच वर्षों तक स्वर्ग में हम दोनों साथ-साथ रहे थे। वे मेरे पिता थे। उनका वात्सल्य प्रबल से प्रबलतर होता जा रहा था। वे वन में भी आकर कभी-कभी हमलोगों की सुधि लेते रहते थे, हमारे मार्ग को निष्कंटक बनाने हेतु योजनाएं भी बनाते। इसी योजना के अन्तर्गत उन्होंने चित्रसेन गंधर्व को दुर्योधन को बन्दी बनाने हेतु द्वैतवन के सरोवर पर भेजा था। युधिष्ठिर के क्षमादान के कारण यह योजना सफल नहीं हो सकी। इस बार उन्होंने अत्यन्त गोपनीयता के साथ एक योजना बनाई – कर्ण के कवच कुण्डल को दान में प्राप्त करने की।
एक दानवीर के रूप में कर्ण का यश पृथ्वी के कोने-कोने तक फैला हुआ था। कोई भी याचक उसके द्वार से निराश नहीं लौटता था। वह नित्य मध्याह्न के समय गंगा में खड़ा हो, हाथ जोड़कर भगवान दिवाकर की स्तुति करता था। नेत्र खोलने पर उपस्थित याचक जो भी मांगता, कर्ण अविलंब वह सामग्री उसे अर्पित कर देता। देवराज इन्द्र कर्ण के इस संकल्प से भलीभांति अवगत थे। एक दिन ब्राह्मण का वेश धारण कर मध्याह्न के समय कर्ण के सम्मुख उपस्थित हुए। भगवान भास्कर की स्तुति के बाद कर्ण ने जब नेत्र खोले तो एक ब्राह्मण याचक को दान प्राप्ति की कामना से सम्मुख पाया। मधुर स्वर में ब्राह्मण देवता का स्वागत करते हुए उसने कहा –
“विप्रवर! आप दान में जो भी मुझसे प्राप्त करना चाहते हैं, बताने का कष्ट करें। स्वर्ण, रजत, गौ, भूमि, जिसकी भी आप इच्छा करेंगे, मैं अर्पित कर आपको प्रसन्न करूंगा। कृपया अपने श्रीमुख से अपनी मनोकामना प्रकट करें।”
“वीरवर! मुझे स्वर्ण, रत्न या किसी प्रकार का धन नहीं चाहिए। अगर दे सकते हो तो अपना कवच-कुण्डल मुझे दान में दे दो। मुझे यही अभीष्ट है।” ब्राह्मण ने अपनी इच्छा व्यक्त की।
कर्ण हतप्रभ रह गया। एक क्षण के लिए सारा ब्रह्मांड उसे घूमता दिखाई दिया। जिस कवच-कुण्डल के बल पर वह अर्जुन को विजित करने का स्वप्न देखता था, वह दान में मांगा जा रहा था।
दान वस्तुतः मनुष्य की अतृप्त इच्छाओं का प्रकाशन है। दान कर स्वयं को दाता भाव में देखना सबको अच्छा लगता हैं। दान में वे ही वस्तुएं दी जाती हैं, जो भौतिक हों, न कि पुनर्प्राप्ति की संभावना हो। लेकिन यह दान तो अपने शरीर की शक्ति का दान था। अद्वितीय दानवीर के रूप में जो यश दिग्दिगन्त तक प्रसारित विस्तारित हुआ था, ‘ना’ कह देने से क्षण भर में रसातल को प्राप्त हो जाता। असमंजस की स्थिति में, किंकर्त्तव्यविमूढ़ बना, शान्त हो जल में खड़ा रहा कर्ण। उसने एक दृष्टि ब्राह्मण पर डाली। पहचानने में तनिक भी विलंब नहीं हुआ – ब्राह्मण वेश में साक्षात देवराज इन्द्र उपस्थित थे। गत रात्रि भगवान अंशुमालि ने स्वप्न में आकर, इन्द्र द्वारा दान में कवच कुण्डल मांगने की योजना की पूर्व सूचना कर्ण को दे दी थी। विनयपूर्वक कर्ण ने इन्द्र से निवेदन किया –
“देव देवेश्वर! कवच तो मेरे शरीर के साथ ही उत्पन्न हुआ है और दोनों कुण्डल अमृत से प्रकट हुए हैं। इन्हीं दोनों के कारण इस संसार में, मैं अवध्य बना हुआ हूं। मैं इनका त्याग कैसे कर सकता हूं? आप कृपा कर कोई दूसरा वर मांगें।”
इन्द्र भला दूसरा वर क्यों मांगते? उन्हें किस वस्तु की कमी थी? बोले –
“हे दानवीर कर्ण! आज तुम्हारी परीक्षा की घड़ी है। तुमने संकल्प ले रखा है कि किसी भी याचक को रिक्त हाथ अपने द्वार से लौटने नहीं दूंगा, चाहे याचक की इच्छा पूर्ण करने में प्राण ही क्यों न चले जाएं। आज ऐसा लग रहा है, तुम्हारा संकल्प क्षीण पड़ रहा है। मैं तुम्हारा अधिक समय न लेते हुए, अपने लोक को वापस लौटता हूं।”
“नहीं देवेन्द्र! ऐसा अनर्थ न करें। इस कवच-कुण्डल को त्यागने के पश्चात मैं अवध्य नहीं रहूंगा, यह मुझे ज्ञात है, फिर भी मैं आपकी इच्छा पूर्ण करूंगा। जब जन्म लिया है तो मृत्यु भी निश्चित है लेकिन अपयश और कीर्तिविहीन जीवन मुझे स्वीकार नहीं।” कर्ण ने गर्व से घोषणा की और खड्ग से काटकर रक्त से सने हुए अपने कवच और कुण्डल इन्द्र को अर्पित कर दिए।
देवताओं ने आकाश से पुष्पवर्षा की।
देवराज इन्द्र को भी आशा नहीं थी कि कर्ण इतनी सहजता से प्राणों से प्रिय कवच-कुण्डल दान में दे देगा। वे अभिभूत थे, बोले –
“हे यशस्वी दानवीर! तुमारी कृति युगों-युगों तक पृथ्वी पर फैलती रहेगी। इस दान के पश्चात तुम्हारा स्थान हरिश्चन्द्र के साथ सुरक्षित रहेगा। यह काया नश्वर है, इसे नष्ट होना ही है, लेकिन जब तक सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी और आकाश रहेंगे, तुम्हारे यश की किरणें विश्व को आलोकित करती रहेंगी। हे नरश्रेष्ठ! मैं तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हूं। तुम भी इच्छित वर मांगकर मुझे अनुगृहीत करो।”
देवेन्द्र के बार-बार अनुरोध करने पर कर्ण ने इन्द्र की अमोघ शक्ति की इच्छा प्रकट की। कवच-कुण्डल की तुलना में अमोघ शक्ति का क्या मूल्य? देवराज ने अविलंब अपनी अमोघ शक्ति कर्ण को प्रदान की, प्रयोग उपसंहार कि विधि समझाई और कृतार्थ स्वर में बोले –
“हे मृत्युंजय! तुम इस शक्ति से रणभूमि में गर्जना करने वाले किसी भी अत्यन्त बलशाली शत्रु का वध कर सकोगे। इसका प्रयोग सिर्फ एक बार ही किया जा सकता है। जब तक तुम्हारे पास दूसरे अस्त्र रहें और प्राण संकट में न पड़ जाएं, इसका प्रयोग निषिद्ध है। यदि प्रमादवश, यह अमोघशक्ति, यों ही किसी शत्रु पर छोड़ दोगे, तो यह उसे न मारकर, तुम्हारे उपर ही आ पड़ेगी।”
देव देवेश्वर, कर्ण को कवच-कुण्डल से वंचित कर, उसका सुयश दसों दिशाओं में फैलाकर हंसते हुए स्वर्गलोक को गए।
इस घटना के पूर्व कर्ण ने दान के रूप में, जो संपत्ति दोनों हाथों से लुटाई थी, वह हस्तिनापुर की थी। वह धन-संपत्ति हमने अर्जित की थी। लेकिन कवच-कुण्डल? ये तो त्वचा की भांति कर्ण के शरीर के अभिन्न अंग थे। इतना महान त्याग! यह कर्ण ही कर सकता था।
महात्मा विदुर के गुप्तचर ने पूरी घटना का वर्णन हम पांचो भ्राताओं की उपस्थिति में किया। युधिष्ठिर ने मुक्ति का श्वास लिया, भीम ने अट्टहास किया, मैं मौन रहा। देवराज इन्द्र के साथ-साथ, ऐसा लगा, अग्रज युधिष्ठिर और भीमसेन को भी कहीं न कहीं मेरी सामर्थ्य, मेरे पराक्रम, मेरे पुरुषार्थ पर अविश्वास था। उनके मन का कंटक निकल गया था। प्रसन्नता छिपाए नहीं छिप रही थी। पर मैं कर्ण की दानवीरता के आगे नतमस्तक था।
यह सत्य था कि कर्ण और मुझमें शत्रुभाव था। रंगभूमि से लेकर द्यूतसभा तक ऐसे अनेक प्रसंग थे जो हमलोगों के बीच वैमनस्य की खाई को बढ़ाते जा रहे थे। फिर भी मैं कर्ण के प्रति एक विशेष आकर्षण की अनुभूति करता था। वह मुझसे घृणा करता था लेकिन मैं उससे युद्धभूमि में योद्धाजनोचित द्वन्द्व करना चाहता था। उसने इन्द्र को कवच-कुण्डल दान में दे दिए तो मुझे कही एक रिक्तता का अनुभव हुआ जैसे मेरे शरीर का ही एक अंश विच्छिन्न हो गया हो। मैं कवच-कुण्डल युक्त कर्ण को युद्ध में पराजित करने की आकांक्षा रखता था।
सोचता हूं घृणा भी प्रेम और लगाव का ही एक रूप है। प्रेम में, प्रेमास्पद नित्य मनःपटल पर रहता है। हम उसे प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं। क्या ठीक उसी तरह घृणास्पद भी किसी न किसी रूप में हमारे मन के समीप नहीं रहता है? फिर चाहे हम उसे कष्टित करने के उपाय ही क्यों न सोचते रहें – रहता तो वह मन के निकट ही है। मैं था कर्ण के निकट ही। जीवन में पग-पग पर मिली पराजय ने उसे दुर्योधन का सहकर्मी बना दिया था किन्तु था तो वह महत्पुरुष ही जिसने इन्द्र को दानस्वरूप अपने जन्मजात कवच-कुण्डल दे दिए थे। उसके इस देवोचित गुण के प्रति नतमस्तक था मैं। मेरा मौन ही मेरी अभिव्यक्ति थी।
नोट : संपादकीय भूलवश लेखक का पुराना लेख प्रकाशित हो गया था। अब इसका अद्यतन पाठ यहां प्रस्तुत है। (सं. 19.10.2011)
जोसेफ लेलीवेल्ड की नई पुस्तक ‘ग्रेट सोलः महात्मा गाँधी एंड हिज स्ट्रगल विद इंडिया’ पर गुजरात में प्रतिबन्ध लगा दिया गया। महाराष्ट्र में भी वही तैयारी शुरू हुई थी। पुस्तक में विवादास्पद प्रसंग सन् 1904-13 का है, जब गाँधीजी की दोस्ती हरमन कलेनबाख (1871-1945) से हुई। गाँधी और कलेनबाख एक-दूसरे को ‘अपर हाऊस’ और ‘लोअर हाऊस’ कहते थे। इसका कोई अर्थ स्पष्ट नहीं है। गाँधी ने अपने कमरे में मैंटलपीस पर केवल कलेनबाख की तस्वीर लगा रखी थी। उन्हें अत्यंत प्रेम-पूर्ण पत्र लिखते थे। ऐसे विविध तथ्यों के आधार पर लेलीवेल्ड ने विशिष्ट संबंध का अनुमान लगाया। यद्यपि कोई निश्चित बात नहीं कही। किन्तु यूरोपीय अखबारों में छपी चटखारे वाली समीक्षाओं के आधार पर ही पुस्तक प्रतिबंधित हो गई।
हालाँकि पुस्तक गाँधीजी के निजी जीवन पर केंद्रित नहीं। 425 पृष्ठ की पुस्तक में कलेनबाख-गाँधी संबंध पर बमुश्किल बारह पृष्ठ हैं। पुस्तक का कैनवास बहुत बड़ा है। फिर, वयोवृद्ध लेलीवेल्ड एक गंभीर लेखक, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के पत्रकार, न्यूयार्क टाइम्स के पूर्व संपादक, तथा भारत और दक्षिण अफ्रीका पर चार दशक से भी अधिक समय से लिखते-पढ़ते रहे हैं। इसीलिए ब्रिटिश विद्वान मेघनाद देसाई ने कहा कि इस पुस्तक पर प्रतिबन्ध दिखाता है कि “भारत अभी राजनीतिक रूप से भीरू है जो कठिन प्रश्नों एवं आलोचनाओं का सामना करते की ताब नहीं रखता”।
यह टिप्पणी लेलीवेल्ड की बजाए भारतीयों को ही कठघरे में ला देती है। हमें देसाई की चुनौती स्वीकार करनी चाहिए, और गाँधी-नेहरू की महानता के खुले मूल्यांकन के लिए तैयार होना चाहिए। उस से यदि कोई गढ़ी गई मूर्ति टूटती है, तो टूटे। पर कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि एक व्यक्ति किसी क्षेत्र में महान हो सकता है, तो निजी जीवन में मोहग्रस्त और किसी क्षेत्र में गलत भी हो सकता है। गाँधीजी के बारे में असुविधाजनक सच कहना उनका निरादर नहीं है।
ऐसे सच की संख्या छोटी नहीं। यह केवल निजी दुर्बलताओं तक सीमित नहीं। इसमें व्यक्तिगत राग-द्वेष रखने से लेकर राजनीतिक निर्णयों का ऐसे राग-द्वेष से प्रभावित होने; सत्य-अहिंसा पर दोहरे-तिहरे तथा अंतर्विरोधी मानदंड अपनाने; जब चाहे हजारों-लाखों दूसरे लोगों को मर जाने की सलाह दे डालने (जरा इस पर सोचिए!!); अनेक महापुरुषों के प्रति कटु भाषा का प्रयोग करने; अपने आश्रितों, अनुयायियों पर रोजमर्रा बातों में भी तरह-तरह की जबर्दस्ती करने; अपनी भूल स्वीकारने में भी कई बार अहंकार की गंध होने; भिन्न मत रखने वाले शक्तिशाली व्यक्तियों के प्रति नकली सम्मान दिखाने, जो शिष्टाचार से भिन्न चीज है; आदि कई विषय में सच गाँधी की छवि पर धब्बा लगाता है। ऐसी कई बातें गाँधी के सहयोगियों और दूसरे समकालीन महापुरुषों ने कही हैं। यह सब छिपाकर ही गाँधी की महात्मा छवि बनाई गई, जो सही नहीं। वह एक महान मानवतावादी थे, पर महात्मा नहीं।
काम-भावना की दुर्दम्य शक्ति ही लें। सत्तर वर्ष का कोई महापुरुष किसी कमसिन लड़की के साथ एकांत में ब्रह्मचर्य प्रयोग की इच्छा रखे, और ताउम्र रखे रहे, यह कैसी बात है? ऐसा प्रस्ताव पाकर कौन लड़की नहीं सहमेगी? (उन सभी तस्वीरों को ध्यान से देखें जिनमें गाँधी दो युवतियों के कंधों पर एक-एक हाथ रखे हुए चले आ रहे हैं। मुख-मुद्राएं हमेशा कुछ कहती हैं।) फिर, कौन अपनी लड़की के साथ ऐसे प्रयोग करने की अनुमति स्वेच्छा से देगा? क्या गाँधी के बेटों ने भी दिया था? ऐसे प्रश्नों का उत्तर अप्राप्य नहीं है। वास्तव में इन उत्तरों को दबा दिया गया है। कई तथ्य स्वयं गाँधी के लेखन में हैं, किन्तु उन्हें विचार के लिए रखने मात्र से आपत्ति की जाती है।
गाँधीजी ने किसी भारतीय गुरू से कोई धर्म-चिंतन, योग या दर्शन की शिक्षा नहीं ली। (गोखले को उन्होंने अपना गुरू कहा, मगर किस बात में, यह स्पष्ट नहीं। क्योंकि गोखले ने ही हिन्द स्वराज को हल्की, फूहड़ रचना कहा था। यदि गोखले वास्तव में गुरू होते, तो फिर उस पुस्तिका को फेंक देना या आमूल सुधारना जरूरी था। वह गाँधी ने नहीं किया।) गीता या रामायण की शिक्षाओं पर भी गाँधी ने अपने ही मत को सर्वोपरि माना। कुल मिला कर गाँधी के जाने-माने गुरू रस्किन या टॉल्सटॉय ही रहे हैं। किन्तु क्या गाँधी टॉल्सटॉय की कसौटी पर भी खरे उतरते हैं? न केवल अहिंसा, बल्कि काम-भावना पर भी।
टॉल्सटॉय के दो उपन्यास ‘अन्ना कारेनिना’तथा ‘पुनरुत्थान’स्त्री-पुरुष संबंधों में असंयम, भटकाव तथा संबंधित सामाजिक समस्या से सीधे जुड़े हुए हैं। इसके अतिरिक्त तीन महत्वपूर्ण लघु-उपन्यास – ‘क्रूजर सोनाटा’ (1889), ‘द डेविल’ (1889), और ‘फादर सेर्जियस’ (1898)। तीनों ही स्त्री-पुरुष संबंधों में काम-ग्रस्तता और कामदेव की दुर्दम्य शक्ति पर लिखी गई है। टॉल्सटॉय की महानतम रचना ‘युद्ध और शांति’ में भी उसका प्रमुख नायक पियरे काम-भाव की शक्ति से डरता है। टॉल्सटॉय ने इस समस्या की जटिल, किन्तु यथार्थपरक प्रस्तुति की है। किन्तु ‘ब्रह्मचर्य’ पर गाँधी जितनी चिंता दिखाते रहे हैं, उसमें टॉल्सटॉय की झलक नगण्य है।
ब्रह्मचर्य का गाँधी ने जो अर्थ किया, वह भारतीय ज्ञान-परंपरा से भी पूर्णतः भिन्न है। किसी का आजीवन ब्रह्मचारी रहना, अथवा किसी गृहस्थ का ब्रह्मचारी होना, जैसी बातें भारतीय परंपरा में नहीं हैं। फिर, गाँधी प्रत्येक व्यक्ति को गुण-भाव-प्रवृत्ति में समान मान कर चलते हैं। मानो सबको एक जैसा अस्त्र-शस्त्र वितृष्ण या ब्रह्मचारी बनाया जा सकता हो। यह समझ हिन्दू ज्ञान से एकदम दूर है। भारतीय योग-चिंतन किसी में उस के गुणों, प्रवृत्तियों को देख-पहचान कर ही उस के लिए उपयुक्त शिक्षा की अनुशंसा करता है। ब्रह्मचर्य के लिए भी योग-चिंतन भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न प्रावधान करता है। कुछ व्यक्तियों में काम-भावना निष्क्रिय होती है, दूसरों में सक्रिय। सच्चे योगी पहले प्रकार के व्यक्ति को सीधे ब्रह्मचर्य में दीक्षित कर उचित चर्या में लेंगे, जबकि दूसरे को विवाह कर उस की सक्रिय काम-प्रवृत्ति को पहले सामान्य, संतुष्ट अवस्था तक पहुँचने की सलाह देंगे। सक्रिय काम-प्रवृत्ति वाले को उसी अवस्था में ब्रह्मचर्य में दीक्षित करने से वह दमित काम-भाव से ग्रस्त एक प्रकार के रोगी में बदलेगा। गाँधी के ब्रह्मचर्य संबंधी कथनों (उसे चिंतन कहना बेकार है) में इसे नजरअंदाज किया गया है। सेमेटिक अंदाज में वह सभी मनुष्यों को एक सा मानकर एक सी दवा करते हैं। उनका ब्रह्मचर्य संबंधी विविध लेखन पढ़कर तो संदेह होता है कि सन् 1906 में गाँधी द्वारा ‘ब्रह्मचर्य व्रत’ लिया जाना स्वयं उन की ही प्रवृत्ति के लिए अनुपयुक्त था। ब्रह्मचर्य लेने के बाद भी वर्षों, दशकों, बल्कि जीवन-पर्यंत ब्रह्मचर्य की ‘जाँच’ करते रहने के प्रयोग की कैफियत क्या है?
यदि निरादर के नाम पर तथ्यों, विश्लेषणों को प्रतिबंधित करना पड़े तब गाँधीजी के पौत्र राजमोहन गाँधी द्वारा लिखित मोहनदास (2007)पर भी प्रतिबन्ध लग जाना चाहिए। इसमें सरलादेवी चौधरानी और गाँधीजी के प्रेम-संबंध बनने से लेकर टूटने तक वर्षों की कहानी है। रवीन्द्रनाथ टैगोर की भतीजी सरलादेवी विवाहिता थीं, जब गाँधीजी उन पर लट्टू हो गए। यह 1919-20 की बात है, जब गाँधी लाहौर में सरलादेवी के घर पर टिके। उस समय उनके पति कांग्रेस नेता रामभज दत्त जेल में थे। गाँधी और सरलादेवी अनेक जगह साथ-साथ गए। बाद में गाँधी ने उन्हें रस में पगे पत्र लिखे। राजमोहन के अनुसार गाँधी के उस प्रेम में ‘हल्का कामुक’ भाव भी था। राजमोहन ने यह भी लिखा है कि वह काल गाँधीजी की पत्नी कस्तूरबा के लिए अत्यंत यंत्रणा भरा था। जब गाँधी-सरलादेवी सम्बन्ध पर चारो तरफ से ऊँगलियाँ उठीं, तो गाँधीजी ने इसे सरलादेवी के साथ अपना ‘आध्यात्मिक विवाह’ बताया जिसमें “दो स्त्री पुरूष के बीच ऐसी सहभागिता है जहाँ शरीरी तत्व का कोई स्थान न था”। हालाँकि ‘विवाह’ शब्द ही चुगली कर देता है कि गाँधीजी स्त्री-पुरुष के विशिष्ट संबंध में ही आसक्त हुए थे। स्वयं राजमोहन गाँधी ने भी ‘आध्यात्मिक विवाह’ जैसे मुहावरे का अर्थ देने से छुट्टी ले ली है, यह कह कर कि “इस का जो भी अर्थ हो”।
अंततः, गाँधीजी पर दबाव डालकर सरलादेवी से संबंध तोड़ने में उनके बेटे देवदास, कस्तूरबा, सचिव महादेव भाई तथा सी. राजगोपालाचारी जैसे कई निकट सहयोगियों, आदि द्वारा किए गए समवेत प्रयास का योगदान था। वस्तुतः गाँधीजी के पूरे जीवन पर दृष्टि डालें तो सन् 1906 से लेकर जीवन के लगभग अंत तक, ‘ब्रह्मचर्य’ व्रत धारण किए रखने और साथ ही साथ स्त्रियों, लड़कियों के साथ विविध प्रयोग करते रहने के प्रति उन की आसक्ति की कोई आसान व्याख्या नहीं हो सकती। यह गाँधीजी की भावनात्मक दुर्बलता का ही संकेत अधिक करती है। अप्रैल-जून 1938 के बीच प्यारेलाल, सुशीला नायर, मीरा बेन, और अनेक लोगों को लिखे अपने दर्जनों पत्रों और नोट में गाँधी ने इसे स्वयं स्वीकार किया है। बल्कि कई बार ऐसे शब्दों में स्वीकार किया है कि भक्त गाँधीवादियों को धक्का लग सकता है।
राजमोहन गाँधी की पुस्तक उन्हीं कारणों से चर्चित हुई थी। उस में गाँधी एक क्रूर, तानाशाह पति, लापरवाह पिता, मनमानी करने वाले आश्रम-प्रमुख, और विवाहेतर प्रेम-संबंधों में पड़ने वाले व्यक्ति के रूप में भी दिखाए गए हैं। गाँधी कभी भरपूर कामुकता से पत्नी के साथ व्यवहार करते थे, तो कभी एकतरफा रूप से शारीरिक-संबंध विहीन दांपत्य रखते थे। कभी दूसरी स्त्रियों के प्रति गहन राग प्रदर्शित करते थे। अथवा कुँवारी लड़कियों के साथ अपने कथित ब्रह्मचर्य संबंधी प्रयोग करने लगते थे। यह सब जीवन-पर्यंत चला। गाँधीजी के निकट सहयोगी और विद्वान राजगोपालाचारी ने कहा भी था कि, “अब कहा जाता है कि गाँधी ऐसे जन्मजात पवित्र थे कि उनमें ब्रह्मचर्य के प्रति सहज झुकाव था। पर वास्तव में वह काम-भाव से बहुत उलझे हुए थे।”
इसीलिए, राजमोहन ने भी यही कहा था कि वह गाँधीजी को मनुष्य के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, किसी महात्मा जैसा नहीं। अर्थात्, ‘मोहनदास’ में भी मानवोचित कमजोरियाँ थीं। वस्तुतः मीरा बेन ने तो इतने कठोर शब्दों में गाँधीजी की लड़कियों को निकट रखने, उनसे शरीर की मालिश करवाने जैसी विविध अंतरंग सेवाए लेने, और अन्य आसक्ति की भर्त्सना की, बार-बार की, उन्हें बरजा, कि गाँधीजी को तरह-तरह से सफाई देनी पड़ी। मगर गाँधी ने मीरा बेन, आश्रमवासियों और अन्य की सलाह नहीं मानी। यह कहकर कि जो काम वे पिछले चालीस वर्ष से कर रहे हैं, वह करते रहेंगे, क्योंकि ‘जरूर यही ईश्वर की इच्छा होगी, तभी तो वह इतने सालों से यह कर रहे’ हैं! इससे अधिक विचित्र तर्क, या कुतर्क नहीं हो सकता। यद्यपि यह कथन भी पूर्ण सत्य नहीं है। गाँधी की आत्मकथा 1926 में लिखी गई थी। उस में ऐसी आदतों की कोई चर्चा नहीं है, जिसे 1938 में गाँधी ‘चालीस साल पुरानी’ बताकर अपना बचाव करते हैं।
निस्संदेह, सैद्धांतिक विश्लेषण के लिए यह रोचक विषय है। गाँधी जी की काम-भावना संबंधी दिलचस्पी पर अनेक विद्वानों ने लिखा है। जैसे, निर्मल कुमार बोस (माइ डेज विद गाँधी, 1953, अब ओरिएंट लॉगमैन द्वारा प्रकाशित), एरिक एरिकसन (गाँधीज ट्रुथ, डब्ल्यू डब्ल्यू नॉर्टन, 1969), लैपियर और कॉलिन्स (फ्रीडम एट मिडनाइट, साइमन एंड शूस्टर, 1975), वेद मेहता (महात्मा गाँधी एंड हिज एपोस्टल्स, वाइकिंग, 1976), सुधीर कक्कड़ (मीरा एंड द महात्मा, पेंग्विन, 2004), जैड एडम्स (गाँधीः नेकेड एम्बीशन, क्वेरकस, 2010) आदि। इन लेखकों में एरिकसन, लैपियर-कॉलिन्स, बोस, मेहता तथा कक्कड़ अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान रहे हैं। इन में से किसी को दूर से भी सनसनी-खेज, बाजारू या क्षुद्र लेखक नहीं कहा जा सकता।
गाँधीजी के उन प्रयोगों के सिलसिले में सरलादेवी ही नहीं, सरोजिनी नायडू, सुशीला नायर, सुचेता कृपलानी, प्रभावती, अमतुस सलाम, लीलावती, मनु, आभा, आदि कई नाम आते हैं। लड़कियों और स्त्रियों के समक्ष गाँधी आकर्षक रूप में आते थे। उन्हें तरह-तरह के प्रयोग करने के लिए तैयार करते थे। जैसे, बिना एक-दूसरे को छुए निर्वस्त्र होकर साथ सोना या नहाना। घोषित रूप से कभी इस का उद्देश्य होता था ‘प्राकृतिक चिकित्सा’ तो कभी ‘ब्रह्मचर्य-शक्ति बढ़ाने’ का प्रयास। सुशीला नायर के अनुसार पहले तो ऐसे सभी कार्यों को प्राकृतिक चिकित्सा ही कहा जाता था। जब आश्रम में आवाजें उठने लगीं तो ब्रह्मचर्य प्रयोग कहकर आलोचनाओं को शांत किया गया। हालाँकि, नायर ने उन प्रयोगों में कुछ गलत नहीं कहा है। इन्ही रूपों में 77 वर्ष के गाँधीजी अपनी दूर के रिश्ते की 17 वर्षीया पौत्री को नग्न होकर अपने साथ सोने के लिए तैयार करते थे। इन बातों पर उनकी दलीलें प्रायः विचित्र और अंतर्विरोधी भी होती थीं। ऐसे प्रसंगों में गाँधी को एक ही समय अलग-अलग व्यक्तियों को अलग-अलग दलीलें देते पाया जा सकता है। इसीलिए इन सब बातों का संपूर्ण विवरण रखकर उनकी कोई ऐसी व्याख्या देना संभव नहीं, जिससे महात्मा की छवि यथावत् रह सके।
अपनी आत्मकथा (1925) में भी गाँधीजी ने ‘ब्रह्मचर्य’ पर दो अध्याय लिखे हैं। अन्य अध्यायो में भी इस विषय को जहाँ-तहाँ स्थान दिया। इसी में यह सूचना है कि 1906 ई. में ही गाँधी ने ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया था, और बहुत विचार-विमर्श के बाद लिया गया था। विचित्र यह कि इस विमर्श में पत्नी को शामिल नहीं किया गया! फिर, वहीं यह भी लिखा है कि ‘जननेन्द्रिय’ पर संपूर्ण नियंत्रण करने में ‘आज भी’ कठिनाई होती है। यह ब्रह्मचर्य व्रत लेने के बीस वर्ष बाद, और 56 वर्ष की आयु में लिखा गया था।
फिर जून 1938 में भी गाँधीजी ने ‘ब्रह्मचर्य’ पर एक लेख लिखा था। इसे उनके अनुयायियों ने दबाव डाल कर छपने नहीं दिया। उसमें 7 अप्रैल को देखा गया ‘खराब स्वप्न’ तथा ‘14 अप्रैल की घटना’, जब गाँधी का अनचाहे वीर्य-स्खलन हो गया था, इन घटनाओं पर गाँधी बहुत हाय-तौबा मचाते हैं। दो महीने से अधिक समय तक अनेक लोगों को लिखे पत्रों में उस की चर्चा करते हैं। विशेषकर महिला मित्रों और सहयोगियों को, जैसे राजकुमारी अमृत कौर, सुशीला नायर, मीरा बेन, आदि। उनसे अपने तौर-तरीके में ‘परिवर्तन’ पर विचार करते हैं, सुझाव माँगते हैं। यह शंका भी व्यक्त करते हैं कि स्त्रियों के संसर्ग में रहने से ही तो वह घटनाएं नहीं हुईं? यहाँ तक कि कांग्रेस में बढ़ते भ्रष्टाचार को न रोक पाने में भी अपनी यह ब्रह्मचर्य वाली कमी जोड़ते हैं, आदि आदि। रोचक बात यह है कि इतनी हाय-तौबा के बावजूद गाँधी अपने तौर-तरीकों में लेश-मात्र परिवर्तन नहीं करते। उन का स्त्रियों से अंतरंग सेवा लेने संबंधी व्यवहार या ब्रह्मचर्य-प्रयोग यथावत् रहा।
ऐसा चिंतन और व्यवहार निस्संदेह विचित्र था। गाँधी के सहयोगियों ने उस लेख को छपने से रोका, तो कहना चाहिए कि उनका विवेक गाँधी से अधिक जाग्रत था। जैड एडम्स के अनुसार गाँधी के देहांत के बाद उनके द्वारा लिखे ऐसे कई पत्रों को नष्ट कर दिया गया, जिस में ब्रह्यचर्य संबंधी उनके अपने तथा संबंधित व्यक्तियों के कार्यों, निर्देशों की चर्चा थी। स्वयं गाँधी ने इन प्रसंगों से संबंधित कई पत्र उसी समय नष्ट किए, करवाए थे। प्रख्यात विद्वान धर्मपाल ने भी अपनी पुस्तक ‘गाँधी को समझें’में लिखा है कि वह 1938 वाला लेख अब नष्ट हो चुका है। धर्मपाल ने वर्धा आश्रम में किसी आश्रमवासी की पुस्तिका से उस की नकल उतार ली थी, जिस का लंबा उद्धरण अपनी पुस्तक में दिया है। दिलचस्प यह कि ब्रह्मचर्य पर गाँधी का बचाव करते हुए, उसकी ‘सही और विस्तृत व्याख्या’ की जरूरत बताकर भी, स्वयं धर्मपाल ने उस की कोई व्याख्या नहीं दी।
गाँधीजी के अनेकानेक प्रसंगों से स्पष्ट है कि काम-भाव संबंधी विचारों से वे आजीवन ग्रस्त और त्रस्त रहे। इस का सबसे दारुण प्रमाण यह है कि सन् 1938 में अपनी दुर्बलता पर क्षोभ, टिप्पणी या शंका करने के बाद भी वह वही ‘प्रयोग’ करते रहे। यानी ब्रह्मचर्य लेने के चालीस वर्ष बाद भी काम-भाव संबंधी विषय उनके मानस से ही नहीं, बल्कि सक्रिय गतिविधियों से बाहर नहीं हो सके थे। अजीब यह भी है कि ब्रह्मचर्य जैसे प्रयोग गाँधीजी ने सबसे प्रियतम व्रत अहिंसा के संबंध में कभी नहीं किए! हिंसक व्यक्तियों, विचारधाराओं, संगठनों पर अहिंसा की शक्ति आजमाने की कोई व्यवस्थित जाँच गाँधी ने कभी की हो, ऐसा कुछ नहीं मिलता। अहिंसा पर गाँधी प्रायः घोषणाएं करते, फतवे देते ही पाए जाते हैं। जैसा लड़कियों के साथ ब्रह्मचर्य का करते थे, किसी हिंसक व्यक्ति के साथ अहिंसा का नाजुक प्रयोग करते गाँधी का उदाहरण नहीं मिलता। इन सभी विन्दुओं को रफा-दफा करना, या कोई मासूम-सी व्याख्या देकर असुविधाजनक सवालों को किनारे कर देना उचित नहीं है।
वैसे भी, क्या महापुरुषों द्वारा किए जाने वाले प्रयोगों, विचारों आदि की केवल एक ही व्याख्या होनी चाहिए? गाँधीजी द्वारा किन्हीं अल्पवयस्क लड़कियों को अपने ब्रह्मचर्य प्रयोगों का साधन बनाना कहाँ तक उचित था? क्या उसके लिए वह लड़कियाँ और उनके परिवार के लोग सहज तैयार होते थे? क्या ऐसी बातों पर टिप्पणियों, प्रश्नों और तथ्यों तक को प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए? यदि वही करना हो, तब स्वयं गाँधीजी के लेखन के कई अंश हटाने-छिपाने होंगे। जैसा किसी ने कहा, “यदि ‘गाँधी और सेक्स’ जैसे विषय पर लिखी बातों को प्रतिबंधित करना हो तब तो बड़ी मात्रा में गाँधी के अपने लेखन को, जो भारत सरकार द्वारा ही छापी गई है, भी जाना होगा।”
उस अंदाज में तो पामेला एंडरसन की पुस्तक ‘इंडिया रिमेम्बर्डः ए पर्सनल एकाऊंट ऑफ द माऊंटबेटंस डयूरिंग द ट्रांसफर ऑफ पावर’ (2007) पर भी प्रतिबन्ध लगना था। जिस में लेखिका ने अपनी माता एडविना माऊंटबेटन के जवाहरलाल नेहरू के साथ प्रेम संबंधों के संदर्भ में लिखा है कि उस प्रभाव में नेहरू द्वारा कई राजनीतिक निर्णय लिए गए। इस कार्य में लॉर्ड माऊंटबेटन द्वारा जान-बूझ कर एडविना का उपयोग किए जाने की भी चर्चा है। पामेला के शब्दों में, “If things were particularly tricky my father would say to my mother, ‘Do try to get Jawaharlal to see that this is terribly important…'”। कुछ यही बात मौलाना अबुल कलाम आजाद ने भी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में भी लिखी थी कि नेहरू द्वारा देश का विभाजन स्वीकार करने में एडविना का प्रभाव उत्तरदायी था।
पामेला लिखती हैं कि नेहरू और एडविना एक-दूसरे पर बेतरह अनुरक्त थे। यहाँ तक कि दोनों के बीच एकांत में वे पामेला की उपस्थिति को भी पसंद नहीं करते थे। यद्यपि पामेला ने दोनों के बीच शारीरिक संबंध नहीं बताया, किन्तु रेखांकित किया है कि इससे उन दोनों के बीच संबंधों की शक्ति को कम करके नहीं देखना चाहिए। यह जीवन पर्यंत चला। नेहरू 1957 में एडविना को एक पत्र में लिखते हैं, “मैंने यकायक महसूस किया और संभवतः तुमने भी किया हो कि हम दोनों के बीच कोई अदम्य शक्ति है, जिससे मैं पहले कम ही अवगत था, जिसने हमें एक-दूसरे के करीब लाया।” एडविना के देहांत (1960) के बाद उन के सिरहाने नेहरू के पत्रों का बंडल मिला था। उन की अंत्येष्टि में नेहरूजी ने सम्मान स्वरूप भारतीय नौसेना का एक फ्रिगेट जहाज भेजा था।
वस्तुतः स्वतंत्र भारत में गाँधी-नेहरू के बारे में एकदम आरंभ से ही एक देवतुल्य छवि देने की गलत परंपरा बनाई गई है। गाँधीजी की हत्या के कारण देश को लगे धक्के से ऐसा करना बड़ा आसान हो गया। उस से पहले तक गाँधीजी, और उनके विविध राजनीतिक, गैर-राजनीतिक, निजी कार्यों के प्रति आलोचना के तीखे स्वर प्रायः खुलकर सुने जाते थे। यह स्वर उनके निकट सहयोगियों से लेकर बड़े-बड़े मनीषियों के थे। गाँधीजी की हत्या से उपजी सहानुभूति में इन स्वरों का अनायास लोप हो गया। उस वातावरण का लाभ उठाकर व्यवस्थित प्रचार और बौद्धिक कारसाजी ने आने वाली पीढियों के लिए गाँधी-नेहरू की एक रेडीमेड छवि बनाई। कुछ-कुछ सोवियत दौर के पूर्वार्द्ध वाले ‘लेनिन-स्तालिन’ जैसी। सत्ताधारी दल और उसके नेतृत्व ने इस का अपने हित में कई तरह से राजनीतिक उपयोग भी किया।
यह प्रमुख कारण है कि कि स्वतंत्र भारत में गाँधी-नेहरू के बारे में तथ्यों, विवरणों, प्रसंगों की अघोषित सेंसरशिप चलती रही है। जो भी बात उन की छवि पर बट्टा लगा सकती हो, उसे प्रतिबंधित या वैसा लिखने-बोलने वाले को लांछित किया जाता है। इस के पीछे सीधे-सीधे राजनीतिक उद्देश्य रहे हैं, जो देश की नई पीढियों के शैक्षिक, बौद्धिक विकास के लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध हुआ है।
(यह निबंध लेखक की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘गाँधी और ब्रह्मचर्य’ का एक अंश है)
अन्ना दल की हिसार-हुंकार ने कांग्रेस को असमंजस में डाल दिया है। हिसार में निर्वाचन का ऊंट किस करबट बैठेगा यह तो फिलहाल वोटिंग-मशीनों के गर्भ में है। अलबत्ता इतना जरूर है कि अन्ना दल के सहयोगियों ने हिसार निर्वाचन क्षेत्र में कांग्रेस उम्मीवार के खिलाफ जो प्रचार किया है, उसकी प्रतिच्छाया में कांग्रेस जरूर अनिश्चय और अनिर्णय के भ्रमजाल में भटक गई है। यह स्थिति भी तब है, जब अन्ना खुद चुनाव मैदान में नहीं आए। इस संकट से निजात के लिए दिग्विजय सिंह अन्ना की मुहिम को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सुनियोजित हिस्सा बताने में लगे हैं। वे इस बाबत बतौर प्रमाण संघ के सुरेश जोशी की अन्ना को समर्थन के संदर्भ से जुड़ी चिट्ठी का भी हवाला दे रहे हैं। दूसरी तरफ कानून मंत्री सलमान खुर्शीद लोकपाल विधेयक को संवैधनिक दर्जा देने की बात कहकर परोक्ष रूप से इसे टालने की कवायद में लगे हैं। हालांकि बाद में खुर्शीद ने दिए इस बायान की नजाकत को समझा तो वे मीडिया पर बयान तोड़-मरोडकर पेश करने का ठींकरा फोड़कर मुकर भी गए। इससे जाहिर होता है कि कांग्रेस के रणनीतिकार गफलत में हैं। वे अन्ना से निपटने का कोई ऐसा मारक मंत्र नहीं खोज पा रहे हैं जिसकी सिध्दि अचूक हो।
अन्ना एक ऐसे समझदार समाज सेवी हैं जो कांग्रेस पर दबाव बना लेने के हर अवसर को दबोच लेना चाहते हैं। इसलिए उन्होंने हिसार उपचुनाव में खंब ठोकने का जोखिम उठा लिया। यदि चुनाव परिणाम के पहले आए आंकलन को सही मानें तो अन्ना दल ने करीब 30 फीसदी मतदाताओं को प्रभावित कर कांग्रेस उम्मीदवार जयप्रकाश को तीसरे नंबर पर खदेड़ दिया है। यह अनुमान यदि मतगणना में भी सही उतरता है तो यह कांग्रेस व उसके सहयोगी दलों के लिए तो सबक होगा ही, अन्य सभी राजनीतिक दलों को भी एक ऐसी नसीहत होगी, जिसके पिरप्रेक्ष्य में अन्ना की बात को कालांतर में किसी भी दल को टालना मुश्किल होगा। यह परिणाम अन्ना आंदोलन की दिशा भी तय करेगा। हो सकता है यह रणनीति कल एक नए राजनीतिक दल के अस्तित्व के रूप में पेश आए। वैसे भी बदलाब के पैरोकारों को जोखिम तो उठाने ही पड़ते हैं। यह परिणाम कांग्रेस के खिलाफ जाता है तो छह माह के भीतर पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव की दिशा भी ये नतीजे तय करेंगे। साथ ही इसी शीतकालीन सत्र में एक मजबूत लोकपाल का भी पारित हो जाना सुनिश्चित हो जाएगा। पर्याप्त दबाव बनाए बिना संप्रग सरकार लोकपाल को पास करवाना राष्ट्रीय हित व दायित्व समझने वाली नहीं है।
अन्ना दल के इस अभियान को लेकर नैतिकता के सवाल भी उठाए जा रहे हैं। यह दलील भी दी जा रही है कि एक सामाजिक कार्यकर्ता द्वारा किसी राजनीतिक दल विशेष के खिलाफ वोट न डालने की अपील करना कहां तक उचित है। क्योंकि अन्ना-आंदोलन का बुनियादी आधार नैतिक था और वह दलगत राजनीति से ऊपर था। लोग अन्ना में महात्मा गांधी की छवि देख रहे थे और गांधी ने दलगत राजनीति को अपने आंदोलन में कभी तरजीह नहीं दी। ये दलीलें बचकानी हैं। गांधी के आंदोलनों पर नैतिकता का प्रभाव तो था ही, लेकिन उनके सभी आंदोलन राजनैतिक बदलाव के लिए राजनीति से ही प्रेरित थे। जिस अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का वे हिस्सा थे, वही आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने वाला एकमात्र अखिल भारतीय चरित्र का राजनीतिक दल था। जबलपुर में संपन्न हुए कांग्रेस अधिवेशन के दौरान कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का भी चुनाव होना था। इसमें नेताजी सुभाष चन्द्र बोष और पट्टाभि सीतारमैया आमने-सामने थे। इस समय महात्मा गांधी ने सीधे चुनाव में दखल देते हुए सीतारमैया को वोट देने की अपील की थी। हालांकि रमैया हार गए थे। इसलिए गांधी के बारे में ये दलीले व्यर्थ हैं कि वे अनशन और उपवासों के जरिए केवल रचनात्मक राजनीति को महत्व देते थे। लिहाजा हिसार में हुंकार भरना अन्ना की मजबूत नैतिक इच्छाशक्ति की ही परिणति है।
यहां अन्ना दल पर ये सवाल भी उठाए जा रहे हैं कि अन्य दलों के जो उम्मीदवार हैं वे पाक-साफ नहीं हैं। ऐसे में किसी एक दल के विरोध में जाने से उनकी करिश्माई छवि धूमिल होगी। क्योंकि अन्ना ईमानदार चरित्र के उम्मीदवारों को वोट देने की पैरवी करते रहे हैं। लेकिन जब सभी प्रमुख दलों ने ही भ्रष्ट व आपराधिक छवि के उम्मीदवारों को मैदान में उतारा हो तो मतदाता की चुनने की मजबूरी तो उन्हीं में से किसी एक उम्मीदवार की होगी। इसीलिए अन्ना चुनाव सुधारों के परिप्रेक्ष्य में उम्मीदवार को नकारने का संवैधानिक अधिकार देने की मांग कर रहे हैं।
अब तो उम्मीदवारों की यह विवशता भी हो गई है कि उनकों निर्वाचन नामांकन के समय एक हलफनामा भी देना होता है, जिसमें यह उल्लेख करना जरूरी होता है कि आपकी चल-अचल संपत्तिा कितनी है और आप पर कोई पुलिस प्रकरण तो पंजीबध्द नहीं है। यहां गौरतलब है कि जयप्रकाश के अलावा जो दो अन्य प्रमुख उम्मीदवार कुलदीप विश्नोई और अजय चौटाला हैं, उन दोनों ने ही हलफनामें के साथ जो दस्तावेज प्रस्तुत किए हैं, उनमें अपने दामन पर लगे दागों का उल्लेख किया है। ये मामले आपराधिक दुष्कृत्यों और भ्रष्टाचार से जुड़े हैं। ये सभी उम्मीदवार ‘आयाराम-गयाराम’ की राजनीति में भी बड़-चढ़कर हिस्सा लेते रहे हैं। यही नहीं यदि इन उम्मीदवारों द्वारा 2009 के लोकसभा चुनाव में और इस चुनाव में दिए शपथ-पत्र में घोषित संपत्तियों की ही तुलना की जाए तो इन दो सालों में इन उम्मीदवारों की संपत्ति चौहदवीं के चांद की तरह परवान चढ़ी है। 2009 में कुलदीप सिंह ने अपनी संपत्ति 17 करोड़ 30 लाख बताई थी, जबकि दो साल के भीतर ही यह बढ़कर 48 करोड़ 58 लाख हो गई। इसी तर्ज पर अजय चौटाला की संपत्ति 29 करोड़ 97 लाख से बढ़कर अब 40 करोड़ 16 लाख हो गई। राजनीति में समय देने के बावजूद संपत्ति में यह इजाफा किन व्यापारिक समीकरणों के बूते हुआ यह अलग अनुसंधान का विषय है। हालांकि चौटाला परिवार पर तो पहले से ही आय से अधिक संपत्ति होने के मामले पहले से ही सीबीआई ने दर्ज किए हुए हैं।
अन्ना दल पर एक बड़ा आरोप दिग्विजय सिंह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का मुखौटा होने का लगाते रहे हैं। हाल ही में उन्होंने सुरेश जोशी की एक चिट्ठी भी मिडिया को पेश की है, जिसमें अन्ना को समर्थन देने की बात लिखी है। यहां सवाल उठता है कि अन्ना को समर्थन न देने की चिट्ठी कोई भी लिख सकता है। अन्ना संघ का हिस्सा हैं यह साबित तो तब होता जब अन्ना संघ या अन्य किसी संगठन से समर्थन मांगते ? दिग्विजय सिंह अन्ना द्वारा संघ प्रमुख को लिखी चिट्ठी पेश करते ? यहां सवाल यह भी उठता है कि यदि अन्ना संघ का सहयोग व समर्थन परोक्ष रूप से ले भी रहे हैं तो भी कौनसा गुनाह कर रहे हैं ? क्या संघ कोई आंतकवादी संगठन है ? या वह प्रतिबंधित कोई गैर कानूनी संगठन है ? आखिर संघ को किस बिना पर कठघरे में खड़ा किया जा रहा है ?
बहरहाल इतना तय है कि हिसार में कांग्रेस हारती है तो केंद्र सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ बनने जा रहे लोकपाल विधेयक को आसानी से निगल नहीं पाएगी और लोकपाल का मसौदा भी वही कानूनी रूप लेगा, जैसा अन्ना चाहते हैं। इसीलिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी अन्ना को चिट्ठी लिखकर भरोसा जताया है कि उनकी सरकार लोकपाल से और आगे जाकर भ्रष्टाचार के संबंध में व्यापक अजेंडे पर काम कर रही है। इस अजेंडे पर ठीक काम नहीं हुआ तो पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव का अजेंडा बिगड़ जाने का खतरा भी कांग्रेस अनुभव कर रही है। कांग्रेसी राजकुमार राहुल गांधी की बात बनी रहे इसलिए कानून मंत्री चाहते हैं कि लोकपाल को किसी तरह संवैधानिक दर्जा हासिल हो जाए। ऐसा होता है तो मजबूत लोकपाल के लिए यह और अच्छी बात होगी।
उत्तर प्रदेश में सभी सियासी दल दोहरा मापदंड रखते हैं।उनकी नजरों मे राजनीति के खेल में महिलाएं फिट नहीं बैठती है। यही वजह है विधान सभा चुनाव के समय टिकट देने और विधान परिषद में भेजते समय विभिन्न राजनैतिक दलों के आकाओं द्वारा महिलाओं को तरजीह नहीं दी जाती है। एक रिपोर्ट के अनुसार विभिन्न सियासी दलों ने एमएलसी बनाते समय महिलाओं को पीछे रखा। उत्तर प्रदेश में विधानमंडल दल के सौ सदस्यों वाले उच्च सदन (विधान परिषद) में मात्र सात महिलाओं का चुना जाना इस बात का घोतक है,यह और बात है कि इसमें से एक मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हैं और वह सबसे धनवान विधायक भी हैं। जबकि इससे उल्ट जिस सदन में बुध्दिजीवियों,साहित्यिक मनीषियों कार् वचस्व होना चाहिए वहां अपराधियों और बाहुबलियों का वर्चस्व है। उत्तर प्रदेश विधान परिषद के वर्तमान सदन में 25 प्रतिशत ऐसे सदस्य हैं जा आपराधिक पृष्ठभूमि के है। जिनमें से आठ पर तो हत्या और हत्या के प्रयास जैसे संगीन मामले दर्ज है। विधान सभाओं की तरह विधान परिषद में भी अपराधियों ने घुसपैठ बना ली हैं,इस ओर सियासी दलों का ध्यान भले ही न गया हो लेकिर उत्तर प्रदेश इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स ( एडीआर) ने अपनी पहली रिपोर्ट में इस बात का खुलासा कर दिया है।इस खुलासे से यही लगता है कि बाहुबली आज भी विभिन्न राजनैतिक दलों की पहली पसंद हैं।
एडीआर ने हालम में ही उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्यों की पृष्ठभूमि उनकी वित्तीय स्थिति और आपराधिक विवरणों की विश्लेषणात्मक रिपोर्ट पेश की है। यह किसी राज्य के उच्च सदन के सदस्यों पर आधारित अपनी तरह की पहली रिपोर्ट हैं। विभिन्न प्रत्याशियों द्वारा नामांकन भरते वक्त पेश हलफनामों में दिए गये विवरणों पर आधारित इस रिपोर्ट के मुताबिक बुध्दिजीवियों के सदन में 25 प्रतिशत सदस्य आपराधिक छवि के हैं, जिनमें से आठ फीसदी पर गंभीर आपराधिक मामले लम्बित हैं।
उत्तर प्रदेश इलेक्शन वॉच ने राज्य विधान परिषद के 90 निर्वाचित सदस्यों में से 87 के विवरण का विश्लेषण करने पर पाया है कि उनमें से 22 सदस्यों यानि 25 प्रतिशत के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं। आपराधिक प्रवृत्ति के इन सदस्यों में से 17 सदस्य सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी के, समाजवादी पार्टी के तीन, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस का एक-एक सदस्य शामिल है।विधान परिषद में भले ही सिर्फ सात महिला सदस्य ही हैं, लेकिन करोड़पति सदस्यों की फेहरिस्त में मुख्यमंत्री मायावती सबसे ऊपर है। उनकी घोषित सम्पत्ति 87 करोड़ 27 लाख 42 हजार रूपए है। विधान परिषद के सदस्यों की औसत सम्पत्ति करीब चार करोड़ रूपए है।विश्लेषण में यह भी पाया गया है कि 23 सदस्यों ने अपने परमानेंट अकाउंट नंबर(पैन) की जानकारी नहीं दी है। इनमें चंद्र प्रताप सिंह यादव, अतहर खान, राजदेव सिंह, लेखराज, जितेन्द्र यादव ( सभी बसपा के) और विवेक बंसल ( कांग्रेस ) के रूप में करोड़पति सदस्य भी शामिल हैं।
रिपोर्ट में विधानमंडल के निचले सदन यानी विधानसभा के बारे में मुख्य बिंदुओं का जिक्र करते हुए बताया कि 403 सदस्य वाले इस सदन में 139 सदस्यों के खिलाफ आपराधिक मामले लम्बित हैं। इनमें बसपा के कुल 201 विधायकों में से 69 के खिलाफ, सपा के 95 में से 35 के विरूध्द, भाजपा के 50 में से 14 के खिलाफ, कांग्रेस के 22 में से आठ के विरूध्द और राष्ट्रीय लोकदल के 10 में से चार के खिलाफ आपराधिक मुकदमें दर्ज हैं।
बहरहाल, विभिन्न राजनैतिक दलों की मनमानी से नाराज यूपी इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्मस ने आने वाले विधान सभा चुनावों से पहले उसमें सुधार की कवायद शुरू कर दी हैं। इलेक्शन वॉच ने चुनाव आयोग और केन्द्रीय कानून मंत्री से मांग की है कि वह इस बार चुनाव में किसी को वोट न देने का विकल्प शुरू करे। साथ ही राजनीतिक दलों से मांग की है कि वह पार्टी के भीतर लोकतंत्र को बढ़ावा देने का काम करें। सरकार से विधायक निधि बंद करने की भी मांग इलेक्शन वॉच करेगा।
नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक एलायंस के नेशनल कोआर्डिनेटर अनिल बैरवाल के अनुसार उन्होंने कानून मंत्री को को एक ज्ञापन पहले दिया था,जल्द ही रजानीतिक दलों को सुधार के सुझाव भेजे जाएंगे।उनका कहना था यूपी के मंत्रियों को सालाना संपत्ति घोषित करनी चाहिए। यूपी इलेक्शन वाच की ओर से पूर्व डीजीपी आईसी द्विवेदी ने कहा कि वर्ष 2003 से शपथ पत्र देने की प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर शुरू हुई थी। इससे प्रत्याशियों का आपराधिक इतिहास व सम्पत्ति पता चल जाता हैं। उन्होंने कहा कि अब वह वोट देने के लिए जागरूकता फैलाने पर जोर देंगे।
मैंने एक न्यूज़ चैनल पे देखा. सी वोटर के एग्जिट पोल के सहारे वो बता रहा था कि हिसार में अन्ना टीम के हक़ में फैसला आता है या कांग्रेस के !
ये अन्ना आन्दोलन की प्रशंसा है तो ठीक हैं. भक्ति है तो भी ठीक है और चमचागिरी तो तब भी उनकी मर्ज़ी. लेकिन ये व्यावहारिक नहीं है. ये सच नहीं है. बल्कि मैं कहूँगा कि ये जिम्मेवार पत्रकारिता नहीं है. एक पत्रकार के नाते जब आप किसी का दोष किसी और के माथे नहीं मढ़ सकते तो किसी और का श्रेय भी किसी और को कैसे दे सकते हो? वैसे भी ये जो पब्लिक है वो सब जानती है. ज़मीनी सच्चाई इस न्यूज़ चैनल की जानकारीऔर अब हो रहे इस प्रचार से अलग है. खुद टीवी में स्ट्रिंगर से सम्पादक तक के अपने अनुभव से मैं ये कह सकता हूँ कि ज़मीनी सच्चाई या जन-धारणा के खिलाफ आप जब रिपोर्ट करते हो तो अपनी ही विश्वसनीयता और यों टीआरपी (अगर वो कोई है) तो उसका नुक्सान करते हो.
मुझे अन्ना के आन्दोलन या उसको कोई क्रेडिट जाता भी हो तो इस पर ऐतराज़ नहीं है. लेकिन मुझे दुःख होगा ये जान कर कि अगर वे या उनके साथी भी किसी ऐसी घटना के लिए वाहवाही बटोरते हैं जो उनके आगमन से बहुत पहले और उनके बिना भी घट ही रही थी. मुझे लगता है कि खुद अकेले अन्ना पर छोड़ दिया जाए तो वे शायद हिसार परिणाम का कोई श्रेय नहीं लेना चाहेंगे. इसके कारण हैं…हिसार या तो भजन लाल का था या ओमप्रकाश जिंदल का. कांग्रेस का तो वो कभी था भी नहीं. चौटाला के उम्मीदवार के रूप में सुरेन्द्र बरवाला और खुद अब कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में लड़े यही जयप्रकाश भी यहाँ से सांसद रह चुके हैं. तो पहली बात तो ये मान के चलिए कि हिसार भी किसी ग्वालियर या रायबरेली की तरह पार्टियों से अधिक व्यक्तियों का संसदीय क्षेत्र रहा है. इसे विशुद्ध पार्टी के नज़रिए से अगर देखें भी तो वो शायद चौटाला की पार्टी का तो रहा हो सकता है (दो बार जीती उनकी पार्टी यहाँ से). लेकिन कांग्रेस का वो कभी नहीं रहा. कांग्रेस के साथ कभी वो रहा तो इस लिए कि भजन लाल उसके साथ थे. हिसार अगर कांग्रेस की ही जागीर होती तो हिसार के रहने वाले नवीन जिंदल भी कुरुक्षेत्र से जा के चुनाव न लड़ते होते. तो सबसे पहली बात ये कि हिसार न कांग्रेसी कभी था. न हिसार से पिछला सांसद ही कांग्रेस से था.
दूसरी बात. हिसार में कांग्रेस जीतती तो वैसे भी नहीं रही. मगर इस बार उसकी हार तो तभी हो गई थी जब से हरियाणा में ये आम धारणा बनी कि मौजूदा मुख्यमंत्री हुड्डा को हरियाणा में सिर्फ रोहतक दिखाई देता है. पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा के बिना भी चौटाला का 90 में से 32 (एक अकाली समेत) सीटें जीत जाना इसका प्रमाण है. हरियाणा का इतिहास गवाह है कि चौटाला की पार्टी ने जब जब भी भाजपा के साथ मिल के चुनाव लड़ा है, हरियाणा में सरकार बनाई है. पिछली बार वे मिल के लड़े होते तो उनकी सीटें हो सकती थीं साथ के पार और कांग्रेस शायद बीस के नीचे. इस न्यूज़ चैनल समेत जिन मेरे पत्रकार बंधुओं ने कभी हरियाणा देखा, सुना या पढ़ा न हो उन्हें बता दें भाजपा के ऐन वक्त पे इनेलो-भाजपा गठबंधन और उधर जनहित कांग्रेस-बीएसपी गठबंधन टूट जाने से मिली ज़बरदस्त मदद के बावजूद कांग्रेस 90 में से महज़ 40 सीटें ही जीत पाई थी. दोनों विपक्षी गठबन्धनों में से कोई एक भी बचा रहता और सिर्फ दो तीन सीटें भी इधर की उधर हो गईं होतीं तो हरियाणा में आज कांग्रेस की सरकार नहीं होती.
पर, कोई कह सकता है कि बुआ के अगर मूंछें होतीं तो क्या वो तय न होती?..ठीक. माना कि राजनीति में काल्पनिक कुछ नहीं होता. जो होता है वही होता और जो होता है वो ही दिखता है. अब अगर इस आधार पर भी देखें तो अब हिसार का श्रेय अन्ना को देने वालों को जाटों की खापों का वो आन्दोलन क्यों नहीं दिखता जो उन्होनें संगोत्र विवाह के खिलाफ कानून बनाने के लिए चलाया था? उसके बाद आरक्षण के लिए उनक वो आन्दोलन क्यों दिखता मेरे इन पत्रकार मित्रों को जिसकी वजह से कोई तीन हफ्ते तक उत्तर भारत की रेल सेवाएं बाधित रहीं थीं. जाट कांग्रेस से बहुत दूर जा चुके मित्रो. ठीक वैसे ही जैसे कमलापति त्रिपाठी, ललित नारायण मिश्र और शुक्ल बंधुओं के पतन के बाद यूपी, बिहार और मध्य प्रदेश के ब्राह्मण चले गए थे. और आपरेशन ब्ल्यू स्टार के बाद किसी हद तक सिख आज भी हैं.
ऊपर से इस सब कारणों का बाप, मिर्चपुर. हरियाणा के दलित तो सन 96 मायावती के उफान पे होने के बावजूद एक अकेले जगन्नाथ की वजह से बंसीलाल की हविपा के साथ भी चले गए थे. वे किसी मायावती या कांग्रेस को नहीं, अपना हित अहित देखते हैं. वैसे भी आम तौर पर धारणा ये है कि हरियाणा में आमतौर पर जाटों को पोषित करने वाली पार्टी या नेता के साथ दलित जाते नहीं हैं. ऐसे में हुड्डा वाली कांग्रेस के साथ दलितों के जा सकने की कोई संभावना बची थी तो वो मिर्चपुर में जल कर स्वाहा हो गई थी. कोई समझता हो या न समझता हो, अरविंद केजरीवाल ये बखूबी समझ रहे थे. वैसे भी वे हरियाणा के ही हैं. उन ने दिमाग लगाया. सोचा कि कांग्रेस जब हिसार में लुढ़क ही रही है तो क्यों उसका श्रेय बटोर लें. वे कांग्रेस नहीं तो फिर क्या जैसे सवालों में घिरे. सफाई देते फिरे कि उनके समर्थकों ने उन्हीं की तरह एक सवाल खड़ा करने वाले को क्यों पीटा. मेरी समझ से हिसार के क्रेडिट बटोरने के चक्कर में टीम अन्ना अपने मुख्य एजेंडे से भटकी, जाने अनजाने उस पे भाजपा समर्थित और समर्थेक होने के आरोप लगे, छवि कुछ तो संदिग्ध हुई. इसके चर्चा फिर कभी. लेकिन एक बात तय है कि कांग्रेस का विरोध करने जब गई हिसार में अन्ना टीम तो वो बस यूं ही नहीं चल दी होगी. मैं तारीफ़ करूंगा उनकी कि उन्होंने हिसार संसदीय क्षेत्र की वोटगत ज़मीनी सच्चाई को ठीक से समझा और फिर अपनी रणनीति के तहद कांग्रेस की पहले जर्जर और ढहती हुई दीवार में एक लात मारने का प्रयास उन्होंने भी किया. लेकिन हिसार में कांग्रेस उनकी वजह से तीसरे नंबर पे आ ही रही है तो वो उन्हीं की वजह से कतई नहीं आ रही है.
सो, मेरे पत्रकार मित्रो, आप अन्ना के कसीदे पढो मगर हरियाणा में जाटों और दलितों दोनों के आन्दोलनों और कांग्रेस से विमुख होने के असल कारणों से मुंह न मोड़ो. सिर्फ आपके कह देने से वो तबके आप से सहमत नहीं हो नहीं हो जाएंगे जो अन्ना के आन्दोलन के भी बहुत पहले से आन्दोलन की राह पे और कांग्रेस से नाराज़ हैं. रही अन्ना के कांग्रेस के खिलाफ जाने की बात तो वे जाएँ. बेशक ये तर्क दे के कि सरकार उसकी है तो जन लोकपाल बिल पास करना उसी की जिम्मेवारी है. लेकिन मेरा मानना ये है कि वैचारिक द्रष्टिकोण से कांग्रेस अन्ना की राजनैतिक विचारधारा के ज्यादा नज़दीक होनी चाहिए. इसे हम प्रशांत भूषण पर हमला करने वाली फासीवादी शक्तियों के सन्दर्भ में देखें तो और भी बेहतर तरीके से समझ सकते हैं. फिर भी वे करें कांग्रेस का विरोध तो करते रहें. लेकिन पकी पकाई दाल पर हरा धनिया छिड़क भर देने से जैसे कोई कुक नहीं हो सकता, वैसे ही हिसार में पहले से तय कांग्रेस की पराजय उन ने कराई इसका कोई तुक भी नहीं हो सकता.
पाक अधिकृत कश्मीर में चीनी सेनिकों की मौजूदगी भारत के लिए गंभीर चिंता का संबब है। इसे नजरअंदाज करना भारत के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकता है। क्योंकि सेना प्रमुख वीके सिंह ने पीओके में चार हजार चीनी सेनिकों की उपस्थिति बताई है। इसके पहले वायु सेना अध्यक्ष एनएके ब्राउन भी पीओंके में चीनी सेना के बढ़ते दखल पर चिंता जता चुके है। श्री सिंह के मुताबिक ये सेनिक चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के जबान है। उन्होंने यह भी साफ किया कि पाकिस्तान के इलाके में आंतकी ढाचा जस का तस है, और ये हर वक्त भारत में घुसपैठ की फिराक में हरते है। इसके पहले भी जम्मू-कश्मीर के गिलगिद-बाल्टीस्तान में ग्यारह हजार से अधिक चीनी सेनिकों की हलचल जारी थी, जिसे चीन ने यह कहकर नकारने की कोषिष कि थी कि यह अमला किसी गलत काम में संलग्न नहीं है। किंतु चीन ने यह साफ नहीं किया कि आखिर इतनी बड़ी सशस्त्र फौज की पहलकदमी किस लिए ?
भारतीय सीमा पर चीन और पाकिस्तानी सेना का संयुक्त युद्धाभ्यास इस बात का प्रतीक है कि चीन भारत को घेरने के लिए लगातार कदम बड़ा रहा है। इस अभ्यास में कई गुप्त अजेंडों की झलक दिखाई दे रही है। एक, रास्थान के जैसलमेर से गुजरात के कक्ष के रण तक फैली 1100 किमी की पश्चिमी सीमा रेखा पर अब पाक के साथ चीन से भी भारत को सतर्क रहने की जरूरत है। दो, इस रेतीले क्षेत्र में भारत के तेल और गैस का बीस फीसदी भण्डार मौजूद है, साथ ही कई तेल और गैस कंपनियां नए भण्डारों की खोज में लगीं है, तय है इस भण्डार पर चीन की निगाहें गढ़ गई हैं। तीन, अमेरिका से संबंधों में दरार आने के बाद पाकिस्तान से चीन की दोस्ती बढ़ती जा रही है। चीन जल्दी ही पाक के पहले संचार उपग्रह का प्रक्षेपण करने जा रहा है इसके साथ ही द्विपक्षीय संबंध और प्रगाढ़ होगें। भारत को चिढ़ाने के लिए इस उपग्रह का नाम पाकसैट-1 आर रखा गया है। इस उपग्रह के प्रक्षेपण का बहाना तो यह बनाया गया है कि यह मौसम पर निगरानी और उच्च क्षमता वाली संचार सुविधा पाकिस्तान को हासिल कराएगा, लेकिन हकीकत यह है है कि इसके जरिये भारत की सामरिक और रक्षा गतिविधियों पर आसमान से नजरें टिकाए रखेगा।
अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखाओं पर चीन का लगातार बढ़ता हस्तक्षेप इस बात का संकेत है कि वह इन सीमा रेखाओं को बदलने की पुरजोर कोशिश में है। इस दृष्टि से वह भारत के चारों ओर दखल दे रहा है। कुछ समय पहले चीनी सैनिकों ने वास्तविक नियंत्रण रेखा को लांघ कर भारत की परिधि में न केवल घुसने का दुस्साहस दिखाया बल्कि लद्दाख क्षेत्र में ठेकेदार को हड़काकर निर्माणाधीन यात्री प्रतीक्षालय का काम भी रूकवा दिया था। यह निर्माण इस जिले में देमचोक क्षेत्र के गोंबीर गांव में ग्रामीण विकास विभाग की इजाजत से चल रहा था। इस बेहूदी हरकत का शर्मनाक नतीजा यह रहा कि गृह मंत्रालय के निर्देश पर भारतीय सेना ने दखल देकर राज्य सरकार को यथास्थिति बनाए रखने के लिए मजबूर कर दिया। कोई जवाबी कार्रवाई करने की बजाय लाचारी की इस स्थिति ने चीनी सैनिकों की हौसला अफजाई ही कीे।
चीन की इस तरह की हरकतें नई नहीं है। भाईचारे और व्यापारिक समझौतों की ओट में वह भारत की पीठ में छुरा भोंकने से बाज नहीं आता। नवंबर 2009 में भी चीनी सैनिकों ने भारत के लद्दाख क्षेत्र में निर्माणाधीन सड़क रोकने की चेतावनी दी थी। इस सड़क का निर्माण भी देमचोक इलाके में हो रहा था। इसे रक्षा मंत्रालय द्वारा लेह के तत्कालीन उपायुक्त एके साहू के समक्ष आपत्तियां जताने के बाद रोक दिया गया था। अक्टूबर 2009 में भी दक्षिण-पूर्वी लद्दाख क्षेत्र के देमचोक क्षेत्र में ही एक पहुंच मार्ग का निर्माण चीनी दखल के बाद रोकना पड़ा था। इसी तरह वास्तविक नियंत्रण रेखा पर देमचोक के आखिरी छोरों पर मौजूद दो ग्रामों को जोड़ने वाली सड़क के निर्माण को रोक दिया गया था।
2009 में चीनी सेना ने लेह लद्दाख के शिखरों पर चिन्हित अंतराष्ट्रीय सीमा का उल्लंघन कर पत्थरों और चट्टानों पर लाल रंग पोत दिया था। 31 जुलाई 2009 को तो चीनी सैनिक मर्यादा की सभी हदें पार कर भारत के गया शिखर क्षेत्र में डेढ़ किलोमीटर भीतर घुसकर कई चट्टानों पर लाल रंग से ‘चाइना’ और ‘चीन-9’ लिख देने की हिमाकत दिखा चुके हैं। जबकि एक समझौते के तहत शिखर गया को दोनों देश अंतरराष्ट्रीय सीमा की मान्यता देते हैं। सेना समुद्र तल से 22,420 फीट ऊंची इस चोटी को ‘फेयर प्रिंसेज ऑफ स्नो’ भी कहती है। यह जम्मू कश्मीर के लद्दाख, हिमाचल प्रदेश के स्पीति और तिब्बत के केंद्र में स्थित है। इससे पहले चीनी सैनिकों के हेलिकॉप्टरों ने 21 जून 2009 को चूमार क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा को लांघ कर दूषित खाद्य सामग्री भारतीय सीमा में गिरा कर भारत को मुंह चिढ़ाया था।
चीन लगातार 1962 के गतिरोध को तोड़ने में लगा है। अंतरराष्ट्रीय सीमा के निकट स्थित काराकोरम क्षेत्र में भी चीनी हलचलें बढ़ती जा रही हैं। चीन ने सीधे इस्लामाबाद पहुंचने के लिए काराकोरम होकर सड़क मार्ग भी तैयार कर लिया है। इस निर्माण के बाद चीन ने पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) क्षेत्र को पाकिस्तान का हिस्सा मानने के बयान भी देना शुरू कर दिए हैं। चीनी दस्तावेजों में अब इस विवादित क्षेत्र को उत्तारी पाकिस्तान दर्शाया जाने लगा है। भारत विरोधी मंशा के चलते ही चीन ने पीओके क्षेत्र में 80 अरब डॉलर का पूंजी निवेश किया है। यहां से वह अरब सागर पहुंचने की तजवीज जुटाने में लगा है। चीन की पीओके में ये गतिविधियां सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण हैं।
अरूणाचल प्रदेश में भी चीनी हस्तक्षेप लगातार मुखर हो रहा है। हाल ही में गूगल अर्थ से होड़ बरतते हुए चीन ने एक ‘ऑन लाइन मानचित्र सेवा’ शुरू की है। जिसमें उसने भारतीय भू-भाग अरूणाचल और अक्साई चीन को अपने देश का हिस्सा बताया है। मानचित्र खंड में इसे चीनी भाषा में प्रदर्शित करते हुए अरूणाचल को दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा बताया है। जिस पर चीन का दावा पहले से ही बना हुआ है। इस सिलसिले में भारतीय अधिकारियों ने सफाई देते हुए स्पष्ट किया है कि दक्षिणी तिब्बत का तो इसमें विशेष उल्लेख नहीं है, लेकिन इसकी सीमाओं का विस्तार अरूणाचल तक दर्शाया गया है। इसके अलावा अक्साई चीन को जरूर शिनजियांग प्रांत का अंग बताया गया है। यह दरअसल जम्मू-कश्मीर में लद्दाख का हिस्सा है।
चीन ने भारत पर शिकंजा कसने के लिए हाल के दिनों में नेपाल में भी दिलचस्पी लेना शुरू की है। कम्युनिष्ट विचारधारा के पोषक चीन ने माओवादी नेपालियों को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। ये नेता अब नेपाल से भारत और चीन के संबंधों का मूल्यांकन आर्थिक मदद के आधार पर करने लगे हैं। हालांकि भारत ने भी शक्ति संतुलन बनाए रखने के नजरिये से नेपाल के तराई क्षेत्रों में सड़कों के निर्माण हेतु 750 करोड़ रूपये की इमदाद की है। लेकिन यह मदद चीन की तुलना में नाकाफी है। चीन नेपाल में सड़कों का जाल बिछाने और विद्युत संयंत्र लगाने की दृष्टि से अरबों का पूंजी खर्च कर रहा है। इन्हीं कुटिल कूटनीतिक वजहों के चलते भारत और नेपाल के पुराने रिश्तों में हिंदुत्व और हिन्दी की जो भावनात्मक तासीर थी उसका गाढ़ापन ढीला होता जा रहा है। नतीजतन नेपाल में चीन का दखल और प्रभुत्व लगातार बढ़ रहा है। चीन की ताजा कोशिशों में भारत की सीमा तक आसान पहुंच बनाने के लिए तिब्बत से नेपाल तक रेल मार्ग बिछाना शामिल है। वैसे भी फिलहाल नेपाल, भारत और चीन के बीच बफर स्टेट का काम कर रहा है। चीन की क्रूर मंशा यह भी है कि नेपाल में जो 20 हजार तिब्बती शरणार्थी के रूप में जीवन यापन कर रहे हैं यदि वे कहीं चीन के विरूध्द भूमिगत गतिविधियों में संलग्न पाए जाते हैं तो उन्हें नेपाली माओववदियों के कंधों पर बंदूक रखकर नेस्तनाबूद कर दिया जाए। वैसे भी चीन के प्रभावी दखल के बाद ही नेपाल में माओवादी सत्ताा में बने रह सकते हैं। यदि चीन का नेपाल में इसी तरह दखल कायम रहा तो तय है कुछ ही दशकों में चीन, नेपाल की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को तो तिब्बत की तरह लील ही जाएगा, कालांतर में वहां की भौगोलिक संप्रभुता के लिए भी घातक सिध्द होगा।
इसमें कोई दो राय नहीं कि आजाद भारत के राजनीतिक नेतृत्व ने कभी भी चीन के लोकतांत्रिक मुखौटे में छिपी साम्राज्यवादी मंशा को नहीं समझा। हालांकि प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक महर्षि अरबिंद ने परतंत्र भारत में ही चीन के मंसूबों को भांपते हुए कहा था, ‘चीन दक्षिण-पश्चिम एशिया और तिब्बत पर पूरी तरह छाकर उसे निगलने का संकट उत्पन्न कर सकता है। साथ ही भारतीय सीमाओं तक के सारे क्षेत्र पर कब्जा जमा लेने की सीमा पार कर सकता है।’ महर्षि का यह पूर्वाभास चीनी मंसूबों पर आज खरा साबित हो रहा है। चीन ने ताइवान में पहले तो आर्थिक मदद और विकास के बहाने घुसपैठ की और फिर ताइवान का अधिपति बन बैठा। तिब्बत पर तो चीन के अनाधिकृत कब्जे से दुनिया वाकिफ है। साम्यवादी देशों की हड़प नीतियों के चलते ही चेकोस्लोवाकिया बरबादी के चरम पर पहुंचा। पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार के बंदरगाहों पर चीनी युध्दपोत लहरा रहे हैं। विश्व मंचों से चीन दुनिया के देशों को संदेश भी देने में लगा है कि भारत के पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश और म्यांमार समेत किसी भी सीमांत देश से मधुर संबंध नहीं हैं। यही नहीं चीन नकली भारतीय मुद्रा छापकर लगातार पाकिस्तान व बांग्लादेश के जरिये भारत पहुंचा कर भारतीय अर्थव्यवस्था को बिगाड़ रहा है। चीन द्वारा नकली दवाएं बनाकर उन पर ‘मेड इन इंडिया’ लिखकर तीसरी दुनिया के देशों में खपाने का सिलसिला सार्वजनिक होने के बावजूद जारी है। इन अप्रत्यक्ष व अदृश्य चीनी सामरिक रणनीतियों से आंख मूंदकर भारत अब तक मुंह चुराता रहा है लेकिन अब भारतीय सीमा से महज 25 किमी दूर संयुक्त युद्धाभ्यास को नजरअंदाज किया तो मुंह की खानी भी पड़ सकती है।
पिछले दिनों मीडिया द्वारा अगले प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा उम्मीदवार के लिए वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण अडवाणी और नरेन्द्र मोदी के बीच प्रतियोगिता होने की कहानियां बड़े जोर शोर से प्रचारित की जा रही हैं। इस प्रचार से प्रभावित होकर भाजपा की स्वस्थ समीक्षा करने वाला मीडिया भी उनकी पुरानी चाल में फँसता नजर आ रहा है। सच तो यह है कि संघ परिवार का भाजपा नामक राजनीतिक मोर्चा अच्छी तरह जानता है कि उसकी साम्प्रदायिक नीतियों के कारण भारतीय समाज का एक बड़ा वर्ग उन्हें पसन्द नहीं करता, पर वे इस बात को भी जानते हैं कि साम्प्रदायिक दुष्प्रचार से प्रभावित एक ऐसा वर्ग भी है जो आक्रामक हिन्दुत्व की छवि का प्रशंसक है और वही उनका आधार है। सत्ता में आने और गठबन्धन का नेतृत्व करने के लिए उसे दोनों तरह की शक्तियों को साधना जरूरी होता है इसलिए वे दुहरेपन के सबसे बड़े प्रतीक की तरह प्रस्तुत होते हैं।
स्मरणीय है कि स्वतंत्रता के बाद जनसंघ के विस्तार के पूर्व हिन्दुत्व का प्रतिनिधित्व हिन्दू महासभा करती थी, जिसकी जगह ही धीरे धीरे जनसंघ ने हथिया ली थी जो न केवल हिन्दुत्व की ही बात करती थी अपितु उसके ऊपर देशभक्ति का एक मुखौटा भी लगा कर चलती थी। स्वत्रंता संग्राम के दौर में देश भक्ति के प्रति समाज में गहरा सम्मान था, पर इस संग्राम में संघ ने भाग नहीं लिया था इसलिए वे इसका मुखौटा लगाने की जरूरत महसूस करते थे व इस मुखौटे के कारण उनकी साम्प्रदायिक कुरूपता छुप जाती थी जो केवल साम्प्रदायिक दंगों के समय ही प्रकट होती थी। जब राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था तो उस नारे का सर्वाधिक उत्साह से स्वागत करने वालों में जनसंघ सबसे आगे थी जिसने संविद सरकारों में घुसपैठ बनाने के लिए कुछ नेताओं की ऐसी छवि प्रचारित की कि वे संघ की साम्प्रदायिक पहचान के विपरीत कुछ उदार दिखें। जहाँ अटल बिहारी वाजपेयी की ऐसी ही छवि निर्मित कर दी गयी थी, वहीं अडवाणी को आक्रामक हिन्दुत्व के समर्थकों का नेतृत्व करने के लिए छोड़ दिया गया था। 1977 में जब जनता पार्टी का गठन हुआ था तब जनता पार्टी का संविधान स्वीकार करने वाले सब गैर कांग्रेसी दलों को अपना अपना दल जनता पार्टी में विलीन करने का आवाहन किया गया था। जनसंघ ने इस प्रस्ताव को एक रणनीति के रूप में स्वीकार करने का ढोंग तो किया किंतु उसके अन्दर ही अन्दर वे अपना अलग अस्तित्व बनाये रहे। केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में शामिल होने के मामले में अटल और अडवाणी एक ही भाषा बोलने लगे थे, और जनता पार्टी को उदार व जनसंघ को संकीर्ण दल बतलाने लगे थे। बाद में लोकदल के चौधरी चरण सिंह और राजनारायण ने इनकी गतिविधियों को पकड़ लिया और दोहरी सदस्यता को छोड़ देने की चेतावनी दी। जनता पार्टी का विभाजन भी इसी दोहरी सदस्यता के कारण हुआ और देश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार का पतन भी इसी दोहरी मानसिकता के कारण हुआ।
जनता पार्टी के टूटे हुए हिस्सों को पचाने की दृष्टि से इन्होंने अपने पुराने नाम भारतीय जनसंघ को छोड़ कर जनता पार्टी के आगे भारतीय जनसंघ का ‘भारतीय’ जोड़ कर भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। समाजवादी पृष्ठभूमि से निकली सुषमा स्वराज उसी दौर में भाजपा से जुड़ीं। प्रारम्भ में इन्होंने प्रचार के लिए अपनी नीतियों में श्रीमती इन्दिरा गान्धी के समाजवाद की लोकप्रियता को देखते हुए उसे ‘गान्धीवादी समाजवाद’ के रूप में अपने कार्यक्रम में सम्मलित किया था। यह उसी तरह था जिस तरह सेक्युलरिज्म की लोकप्रियता को देखते हुए ये अपने को ‘सच्चा सेक्युलर’ और अपने से असहमत दलों को ‘स्यूडो सेक्युलर’ बताते रहे। बाद में जब इनके चरित्र पर ‘गान्धीवादी समाजवाद’ बेतुका लगा तो इन्होंने उससे मुक्ति पा ली थी। स्मरणीय है कि 1985 के चुनावों में जब ये लोकसभा में कुल दो सीटों तक सिमिट गये थे तब इन्हें अचानक चार सौ साल पहले के रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद विवाद को मुद्दा बनाने की याद आयी और इन्होंने उसके लिए राष्ट्रव्यापी अभियान छेड़ दिया और अडवाणीजी रथ यात्रा पर निकल पड़े। उसी समय यह सावधानी बरती गयी कि दंगा उत्पादक रथयात्रा अडवाणीजी निकालेंगे और इसी दल के अटल बिहारी साधु से बने दिखेंगे ताकि जरूरत पढने पर उन्हें आगे रख कर गैर कांग्रेसी दलों से समर्थन जुटाया जा सके। स्मरणीय है कि 5 दिसम्बर 1992 को लखनउ में हुयी बैठक में अटल बिहारी वाजपेयी भी मौजूद थे जिन्हें बाबरी मस्जिद ध्वंस की योजना का पता तो था पर योजनानुसार उन्हें उससे दूर रख कर दिल्ली सरकार के साथ और संसद में गोलमोल दलीलें देने का कार्य सौंपा गया था। यह भी स्मरणीय है कि इस अवसर पर अटलजी ने संसद में कहा था कि जिस समय बाबरी मस्जिद टूट रही थी तब अडवाणीजी का चेहरा आंसुओं से भरा हुआ था, और अडवाणीजी तो कारसेवकों को रोक रहे थे पर वे मराठीभाषी होने के कारण उनकी भाषा नहीं समझ सके थे। यह बात अलग है कि प्रत्येक चुनाव में अडवानीजी प्रचार करने के लिए महाराष्ट्र जाते रहे हैं और हिन्दी में ही वोट मांगते रहे हैं।
1998 में सरकार बनने पर अटल बिहारी की अलग सी छवि काम आयी और समर्थन देने वाले बाइस दलों में से बीस ने केवल अटलजी के नाम पर ही समर्थन दिया था। कभी बामपंथियों के गठबन्धन में सम्मलित रही तेलगुदेशम ने तो मंत्रिमण्डल में सम्मलित हुये बिना ही बाहर से समर्थन दिया था जो गठबन्धन का सर्वाधिक सद्स्यों वाला दल था। इस अवसर पर उसने कहा था कि वह सिर्फ और सिर्फ अटलजी को ही समर्थन दे रहा है। इसी तरह ममता बनर्जी, रामविलास पासवान, जयललिता, नवीन पटनायक, फारुख अब्दुल्ला, शरद यादव, आदि ने संघ से असहमति दर्शाते हुए अटल जी के नाम पर ही समर्थन देकर धर्म निरपेक्ष जनता के बीच अपना चेहरा बचाया था।
भाजपा, जो अब फिर से सत्ता में आने के सपने देखने लगी है, ने एक बार फिर एक चेहरा उदार और एक कट्टर दिखाने का खेल प्रारम्भ कर दिया है। सम्भावित प्रधानमंत्री के रूप में गुजरात में 2002 के बदनाम मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को सबसे कट्टर प्रचारित कर के यह भ्रम पैदा किया जा रहा है कि लाल कृष्ण अडवानी उदार चेहरा हैं इसलिए कट्टर नरेन्द्र मोदी को आने से रोकने के लिए उन्हें स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। एक ओर जहाँ एनडीए के सबसे बड़े हिस्सेदार दल के नीतीश कुमार, नरेन्द्र मोदी के हाथ के साथ हाथ उठाते हुए फोटो छ्पने के बाद भाजपा कार्यकारिणी को दिया जाने वाला लंच केंसिल कर देते हैं और मोदी को विधानसभा चुनाव के प्रचार हेतु बिहार आने पर गठबन्धन तोड़ देने की धमकी देते हैं, वहीं सोची समझी नीति के अंतर्गत वे अडवाणी के रथ को हरी झण्डी दिखा कर उन्हें उदारता का प्रमाण पत्र दे रहे होते हैं। गत वर्षों में जिन्ना की प्रशंसा पर अडवाणीजी को अध्यक्ष पद से निकाल बाहर कर देना भी उनकी छवि को उजली करने की तरह था, पर बाद में हुए लोकसभा चुनाव में उन्हें ही प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाना भी एक चालाकी का ही हिस्सा रहा होगा। जाहिर है कि बहुत सारे उदारवादी लोग मोदी के कारनामों से आतंकित होकर अडवाणी को समर्थन देने की सोच सकते हैं, और फिर से धोखा खा सकते हैं। सच तो यह है कि ऊपर से भोले दिखने वाले मोदी और अडवाणी में कोई मतभेद नहीं है। वे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।
दुर्योधन चला गया। रथों के पार्श्व से उड़ती हुई धूल अब भी दिखाई दे रही थी। हम चारो भ्राताओं ने युधिष्ठिर का आज्ञापालन अवश्य किया लेकिन हम प्रसन्न नहीं थे। जहां बड़े भ्राता पूर्णतः शान्त और संतुष्ट दीख रहे थे, वही हम सबके मुखमण्डल पर आश्चर्य और प्रश्नवाचक चिह्न स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे थे। धर्मराज के निर्णय ने सभी की आशाओं पर तुषारापात कर दिया था। हम सभी मौन थे। द्रौपदी भी पति के निर्णय से संतुष्ट नहीं थी। दुष्टों को दण्ड देने के अवसर को युधिष्ठिर ने बड़ी सहजता से गंवा दिया था। वह अपने आवेग को रोक नहीं पाई, बोल पड़ी –
“आर्य! जितना ही आपके व्यक्तित्व को समझने का प्रयास करती हूं, उलझती चली जाती हूं। इस दुर्मति दुर्योधन ने आप सबको लाक्षागृह में जलाकर मार डालने का प्रयत्न किया, आर्य भीमसेन को अनेक बार छल से विष दिया, मुझे भरी सभा में अपमानित किया, दुबारा कपटद्यूत में हराकर हम सभी को गहन वनों में जीवन व्यतीत करने के लिए विवश किया। आज दैव योग से गंधर्वराज चित्रसेन ने हमारा मार्ग कंटकमुक्त कर दिया था लेकिन आपने सब किए कराए पर पानी फेर दिया। सहिष्णुता की भी कोई सीमा होती है। अत्याचारों को सहना हमारा स्वभाव बन गया है, इसीलिए दुर्योधन अत्याचारी बन गया है। हम समर्थ होकर भी अत्याचार का प्रतिकार नहीं करते हैं। आर्य भीमसेन का विचार समयानुकूल था। मुझे आशंका है कि द्यूत क्रीड़ा के निर्णय कि तरह ही इतिहास आपके इस निर्णय के औचित्य पर कही कोई प्रश्नचिह्न न लगा दे।”
“शान्त हो पांचाली,” युधिष्ठिर की संयत वाणी से वातावरण गूंज उठा –
“सभी निर्णय लाभ-हानि के दृष्टिकोण से नहीं लिए जाते। द्यूत में हार के पश्चात, भरी सभा में मैंने बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास स्वीकार किया था। मैं चाहता तो अपने महान पराक्रमी अनुजों और यशोदानन्दन श्रीकृष्ण के सहयोग से, उन्हीं क्षणों, अपना खोया राज्य पुनः प्राप्त कर लेता। किन्तु द्यूत खेलकर मैंने जो अपराध किया, जो विश्वासघात तुमसे और अपनी प्रजा से किया था, उसका प्रायश्चित शेष रह जाता। वनवास और अज्ञातवास उस पाप का प्रायश्चित है। जिस तरह समय से पूर्व प्रसव से उत्पन्न सन्तान स्वस्थ नहीं होती, उसी तरह समय से पूर्व प्राप्त फल भी शुभ नहीं होता। क्षमा मनुष्य का इश्वरीय गुण है। इसका प्रयोग के बाद पश्चाताप उचित नहीं। शरणागत कि रक्षा करना परम धर्म है। मैंने धर्म और कर्त्तव्य का पालन ही तो किया है।”
हम सभी शान्त और नतमस्तक थे।
वनवास के बाद हमारे और कौरवों के मध्य एक निर्णायक युद्ध होगा, यह रहस्य अब गुप्त नहीं रह गया था। दुर्योधन की हठधर्मिता से सभी परिचित थे। वन में रहकर हम ज्ञान के अतिरिक्त शक्ति-संचय भी कर रहे थे। चित्रसेन गंधर्व से पराजित और अपमानित होने के बाद, हस्तिनापुर लौटते समय, दुर्योधन ने आत्मघात करने का प्रयास किया। वह आत्मग्लानि से पीड़ित था। भरी सभा में पितामह भीष्म ने उसे लताड़ लगाई और युद्ध में पीठ दिखाकर पलायन करने के कारण कर्ण कि भर्त्सना की। उस दिन के बाद उन्होंने कर्ण को महारथी कहकर कभी संबोधित नहीं किया। वे उसे अर्धरथी कहते थे। युद्ध में पीठ दिखानेवाले को अर्धरथी ही कहा जाता था।
दुर्योधन का मनोबल धराशाई हो चुका था। कर्ण उसे बार-बार सान्त्वना देता, लेकिन उसके मुखमण्डल पर हर्ष की रेखाएं आती ही नहीं थीं। चित्रसेन के साथ युद्ध में मेरा शौर्य और कर्ण का पलायन वह देख चुका था। उसके मनोबल को बढ़ाने के लिए कर्ण ने एक साहसी निर्णय लिया। यह निर्णय था – दिग्विजय यात्रा का।
महारथी कर्ण ने अपनी दिग्विजय यात्रा पांचाल विजय से आरंभ की। महाराज द्रुपद को करदाता बनाया। वहां से उत्तर दिशा में जाकर भगदत्त समेत सारे राजाओं को पराजित किया। नेपाल को भी करदाता बनाया। हिमालय से नीचे आकर उसने पूर्व की ओर धावा बोला। अब अंग, बंग, कलिंग, शुण्डिक, मिथिला मगध आदि राज्य उसके अधीन थे। दक्षिण दिशा में प्रस्थान कर उसने अनेक महारथियों को परास्त किया। रुक्मी के साथ उसका भयंकर युद्ध हुआ, किन्तु अन्त में विजय कर्ण की हुई। रुक्मी को भी कर देने के लिए वाध्य होना पड़ा। पश्चिम दिशा में जाकर बर्बर यवन राजाओं से कर लिया। वह द्वारिका पर आक्रमण करने का साहस नहीं संजो सका। फिर भी उसकी दिग्विजय यात्रा को कम करके नहीं आंका जा सकता था। उसने एक बार पुनः सिद्ध कर दिया कि वह एक अत्यन्त पराक्रमी योद्धा था।
उसकी दिग्विजय के समाचार ने जहां दुर्योधन के मनोबलरूपी शुष्क तरु को पुनः पुष्पित पल्लवित कर दिया, वही हमारे शुभचिन्तकों के माथे पर चिन्ता की रेखाएं खींच दी। अबतक आर्यावर्त में मेरे ही शौर्य की चर्चा थी लेकिन अब कर्ण भी मेरे समकक्ष माना जाने लगा। राजसूय यज्ञ के पूर्व हमारी दिग्विजय की चर्चा अब इतिहास बन चुकी थी।