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सीमा सुरक्षा के लिए मजबूत सरकार चाहिए

मृत्युंजय दीक्षित

भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान में चल रही आतंकवादी गतिविधियों से अब पूरा विश्व अपने आप को असुरक्षित मानने लगा है। विगत दिनों भारत के प्रमुख प्रतिद्वंद्वी चीन में कुछ ऐसी घटनाएं घटीं जिसके कारण उसे भी यह कहना पड़ गया  कि शिनजियांग प्रान्त की हिंसा के पीछे उइगर कटटरपंथियों का हाथ है जिन्हें पाक में प्रशिक्षण मिला है। प्राप्त समाचारों के अनुसार गुलाम कश्मीर की सीमा से लगे शिनजियांग प्रांत में हिंसक वारदातों में 22 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। इस क्षेत्र में चीन के यूघूर के मूल निवासियों का विद्रोह थमने का नाम नहीं ले रहा है। अतः चीनी सरकार ने आरोप लगाया है की कि एक प्रमुख यूघुर अलगाववादी नेता को पाकिस्तान के आतंकी शिविरों में प्रशिक्षण मिला है। यह आरोप उस दिन लगाया गया जब पाक खुफिया एजेंसी आई.एस.आई के प्रमुख अहमद शुजा पाशा बीजिंग की यात्रा पर थे। इस बयान के बाद चीनी मीडिया पूरी ताकत के साथ अपने सदाबहार मित्र पाकिस्तान के खिलाफ जमकर लिखने लग गया। ऐसा पहली बार हुआ है कि जब चीनी मीडिया ने पाक के खिलाफ खुलकर लिखा है। इस घटना से साफ है कि चीन में बढ़ रही अलगावादी हिंसा से वह भी डर गया है तथा चीनी नेताओं को भी शिनजियांग प्रान्त की हिंसा के पीछे किसी गहरे षड़यंत्र की बू नजर आने लगी है। उधर पाक पर बढ़ रहे अमेरिकी दबावों को दरकिनार करने के लिए पाक खुफिया एजेंसी प्रमुख अहमद शुजा पाशा ने चीन की गुप्त यात्रा भी की है। उनकी यह यात्रा चीन के साथ व्यापक रणनीतिक वार्ता का मार्ग प्रशस्त करने के लिए थी। पाक सेना के चीफ आफ स्टाफ लेटिनेंट जनरल वहीद अरशद भी चीन की गोपनीय यात्रा कर आए हैं। ज्ञातव्य है कि अमेरिका पाक पर दबाव बना रहा है कि वह पहले हक्कानी गुट और अन्य आतकी नेटवर्कों का सफाया करें। अमेरिका की मीडिया रिपोर्टों के अनुसार पाक में बढ़ रही राजनैतिक अस्थिरता तालिबानों की नये सिरे से बढ़ती ताकत से पाकिस्तान के परमाणु ठिकानों व हथियारों की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। अगर ये हथियार आतंकियों के हाथ पड़ गये तो वैश्विक सुरक्षा भारी खतरे में पड़ सकती है। एन. बी. सी. न्यूज के अनुसार इन खतरनाक परिस्थितियों के मद्देनजर अमेरिका ने पाकिस्तान के परमाणु हथियारों को अपने नियंत्रण में लेने की आकस्मिक योजना बना रखी है। पाकिस्तान में आंतरिक संकट, परमाणु संयंत्रो पर आतंकी हमले, भारत के साथ युध्द, चरमपंथियों द्वारा सरकार का तख्ता पलटने या सेना में विद्रोह जैसी स्थिति में अमेरिका यह कदम उठा सकता है।

इस समाचार के खुलासे के बाद पाक के पूर्व सैन्य शासक जनरल परवेज मुशर्रफ ने कहा कि यदि अमेरिका पाकिस्तान के परमाणु हथियारों पर नियंत्रण करता है तो दोनो देशों के मध्य युध्द छिड़ जायेगा। ऐसी कार्यवाही किसी भी देश की संप्रभुता पर सीधा हमला होगा। वर्तमान परिस्थितियों से यह साफ प्रतीत हो रहा है कि पाकिस्तान में पनपे आतंकवादी समूह अब पूरे विश्व के लिए खतरा बन चुके हैं। विश्व का कोई भी देश इन आतंकवादी समूहों के रडार से नहीं बच पाया है। ये आतंकवादी इस्लाम के नाम पर विश्व के किसी भी देश पर या किसी भी शहर में कोहराम मचा सकते हैं। जब पाक प्रशिक्षित आतंकियों की गतिविधियों के चलते उसका सदाबहार मित्र चीन पाकिस्तान के प्रति कड़ा रूख अपना सकता है और ओबामा के सैनिकों का विशेष दस्ता ओसामा बिन लादेन को मारने के लिए पाक सीमा का उल्लंघन कर सकते हैं फिर भारत सरकार अपने आतंकियों को पकड़ने के लिए ऐसा क्यों नहीं कर सकती? इस बात के संकेत है ंकि पाक प्रशिक्षित उइगर आतंकियों द्वारा फैलाई जा रही हिंसा से चीन में गृहयुध्द की आग तीव्र हो सकती है और वहां के अल्पसंख्यक समूह वहां के प्रान्तों को आजादी देने की मांग कर सकते हैं। पाक प्रशिक्षित उइगर कट्टरपंथियों की हिंसा के चलते चीन को अपने अस्तित्व पर खतरा नजर आया। अतः आज पाकिस्तान पूरे वैश्विक समुदाय के लिए एक बड़ा खतरा बन गया है। अमेरिका पाकिस्तान को अपने सामरिक हितों की पूर्ति के लिए उसे आर्थिक व सामाजिक तथा राजनैतिक संरक्षण प्राप्त कर रहा है। वहीं अमेरिकी व नाटो सेना की अफगानिस्तान से वापसी के चलते तालिबान अपनी ताकत का एक बार फिर प्रदर्शन करने लग गए हैं। चीन-पाक के मध्य हुई शाब्दिक बयान बाजियों के मध्य चीन पाक ने संयुक्त युध्दाभ्यास किया। पहली बार दोनों देशों का संयुक्त युध्दाभ्यास राजस्थान से लगी सीमा पर हुआ। पाकिस्तान ने इसकी सूचना भी भारत को नहीं दी। इससे चीन-पाक की गहराती मित्रता के साफ संकेत मिल रहे हैं। चीन वैसे भी पूरे दक्षिण एशिया में भारत को अपना चिर प्रतिद्वंदी मानता है और वह भारत को नीचा दिखाने के लिए हर उपाय करता रहता है। अतः भारत की सामरिक व कूटनीतिक तथा आंतरिक सुरक्षा की दृष्टि से देखा जाए तो वर्तमान व भविष्य की परिस्थितियां भारत के लिए बहुत विकट होने वाली हैं। यह बेहद निराशाजनक बात है कि भारत का वर्तमान केंद्रीय सत्ता प्रतिष्ठान इस समय बेहद कमजोर व अनिर्णायक स्थिति में है। सरकार के तहखाने से नित नये घोटाले अपराध प्रकाश में आ रहे हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार अपने गुनाहों को छिपाने के लिए संवैधानिक संस्थाओं का गला घोटने में ही लग गई हैं। गठबंधन व जातिवाद तथा क्षेत्रवाद की राजनीति का दौर है। अब न तो सत्तापक्ष में कोई स्वतंत्र विचारों वाला सबका प्रिय व दूरदर्शी तथा विद्वान विचारों वाला नेतृत्व है और नही विपक्ष में। जो कि पूरे देश को एक सूत्र में पिरोकर एक साथ लेकर चल सके। आज हमारा देश चीन-पाक जैसे खूंखार शत्रुओं की गतिविधियों से आक्रान्त हो रहा है। पग-पग पर भारत विरोधी षड़यंत्र रचे जा रहे हैं। देश की सुरक्षा पर कहीं भी-कभी भी आंच आ सकती है। वर्तमान समय में ऐसी सत्ता की आवश्यकता है जो विदेशी आक्रान्ताओं की गतिविधियों से निपटने के मद्देनजर तुरन्त कड़े निर्णय करने की क्षमता रखती हो। यह देश का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि आज देश कठिन राजनैतिक परिस्थितियों के दौर से गुजर रहा है। देश की सेना, सीमा व सुरक्षा सेना विकास के विषय में सोचने के लिए किसी भी नेता के पास समय नहीं है। अब यह देश की जनता को ही सोचना चाहिए की देश की सीमाओं पर व्याप्त संकटों को दूर करने के लिए वे किस प्रकार का सत्ता प्रतिष्ठान प्राप्त करना चाहते हैं। इस सरकार ने तो देश की सैन्य विकास की क्षमताओं को दस वर्षों पीछे धकेल दिया है। केंद्र में एक मजबूत व शक्तिशाली नेतृत्व वाली सरकार ही देश को आसन्न संकट से उबार सकेगी। नहीं तो चीन-पाक आतंकवादी गठजोड़ से देश की सुरक्षा के भविष्य पर बड़ा खतरा उत्पन्न हो जायेगा।

* लेखक स्वतंत्र चिंतक हैं। 

नौटंकी छोड काम करें

डॉ. शशि तिवारी

शरीर स्थूल होता है अतः इसमें होने वाली हर हल-चल, गतिविधि को आसानी से पकड़ा जा सकता है। शरीर प्रायः माता या पिता की ही झलक देता है, फिर वह चाहे हिन्दू हो या मुसलमान लेकिन मन थोड़ा बारीक, तरल, अस्थाई एवं चंचल होता है, जो पल-पल बदलता ही रहता है। मन को आसानी से पकड़ा नहीं जा सकता, मन को बदला भी जा सकता है। मसलन हिन्दू का बच्चा मुसलमान के घर में पले-बढ़े या मुसलमान का बच्चा हिन्दू परिवार में रख दिया जाए तो वह वैसा ही आचरण एवं व्यवहार करने लगेगा। उस छोटे से बच्चे को यह याद भी न रहेगा कि वो कौन था। कहने का आशय मन को बदला जा सकता है, मन में कट्टरता भी पैदा की जा सकती है। कहने को तो बात मनोविज्ञान की है और इसी मनोविज्ञान के आधार पर किसी को भी अतिवादिता के द्वारा न केवल कट्टरपंथी बनाया जा सकता है बल्कि इंसानियत का सबसे कुरूप चेहरा बनाया जा सकता है। आतंकी विचार से आतंकवाद की विचारधारा का भी उदय होता है। यही नहीं बल्कि किसी भी विचारधारा को पनपने या फलने-फूलने में एक लम्बा समय भी लगता है तब कहीं जाकर वह विचारधारा स्थापित हो पाती है। आतंकवाद का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म या समुदाय से नहीं होता। इसकी किसी जाति, धर्म, समुदाय में अधिकता या कमी का होना उस विचारधारा को मानने वालों की संख्या पर निर्भर करता है और इस तरह एक नया वाद ‘‘आतंकवाद’’ का जन्म होता है।

आज आतंक का नाम सुनते ही पूरे बदन में डर की सिरहन दौड़ जाती है, दिमाग में बिजलियां कौंधने लगती है, मानव न केवल भयाक्रांत हो जाता है बल्कि अपने को सिकोड़ भी लेता है, सहम भी जाता है, कई बार तो इसकी अधिकता में मनोरोगी भी बन जाता है। आतंक और आतंकवाद को ठीक-ठीक परिभाषित करना बड़ा ही दुष्कर कार्य है। देश, काल, परिस्थितियों से आतंकवाद शुरू होता है, मेरी नजर में आतंक या दहशतगर्दी का मानव के द्वारा किसी बड़े या छोटे समुदाय के विरूद्ध लम्बे समय तक चलाना या चलना ही आतंकवाद हैं। आतंक और आतंकवाद के मूल में इसके संचालन के लिये मजहब, जाति, प्रोफेशनल, उद्देश्य आधारित, राजनीतिक इनमें से कोई एक या सम्मिलित कारण भी हो सकता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आतंकवाद सीमा पर समुदाय विशेष के संदर्भ में ही देखा जा रहा है जो भारत में एक बहस का मुद्दा हो सकता है? लेकिन जो आतंकवाद देश के भीतर ही कु छ विशेष संगठनों या समुदायों के द्वारा संचालित हो रहा है उसका क्या? देश को सबसे ज्यादा खतरा या डर है तो केवल बाहरी देशों के घुसपैठियों से फिर चाहे वो पाकिस्तानी हो या बंग्लादेशी, रहा सवाल देश के भीतर पनप रहे आतंकवादियों की तो वो केवल सरकार का नाकारापन, इच्छा शक्ति की कमी है और वह अपनी जवाबदेही से किसी भी कीमत पर और बहानेबाजी से बच नहीं सकती। कहते भी है ‘‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’’ फिर भी कुछ लोग मजहब को ही लगातार बदनाम करने से बाज नहीं आ रहे हैं। इसमें देश के बाहर और देश के अंदर की परिस्थिति, राजनीति, व्यक्तिगत् महत्वकांक्षा, वर्चस्व की लड़ाई प्रमुख है।

आतंकवाद बढ़ाने या फैलाने में सामाजिक जीवन की सबसे कमजोर कड़ी धर्म, परिस्थिति और राजनीति ही होती है। मानव के धर्म भीरू होने, परिस्थितियांे या मजबूरियों के चलते या राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उससे कुछ भी करवाया जा सकता है और आज घटित भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। वस्तुतः हकीकत तो यह है कि भारत, आतंकवाद को ले कभी गंभीर रहा ही नहीं, केवल बयानों में ही चिंता, संवेदना, तंत्र, मजबूती की बा त करता रहा है। निःसंदेह अमेरिका आतंकवाद को ले न केवल गंभीर रहा है बल्कि उसके गंभीर प्रयासों को भी पूरा विश्व देख रहा है। मसलन अमेरिका में 9/11 के बाद कोई आतंकी घटना सामने नहीं आई। यह अमेरिका की दबंगाई ही है कि उसके मोस्ट वान्टेड ओसामा बिन लादेन को ढूंढने में दूसरे देश (प्रिय मित्र पाकिस्तान) में घुस मार गिराया। अमेरिका से यह राष्ट्र प्रेम, देश भक्ति, जनता के प्रति जवाबदेही सीखने योग्य है।

आतंकवाद पर राजनीति और उसमें मजहबी आधार पर वोटनीति जैसा निर्लज्ज, घिनोना कार्य राजनेता अब बन्द करें। उनका यह अपराध देशद्रोह से किसी भी सूरत में कमतर नहीं हैं? अपनी नाकामी, नाकारापन को छिपाने के लिए दूसरों पर दोषारोपण की प्रवृत्ति को भी तथाकथित नेता छोड़े? स्वयं की जवाबदेही समझ निरीह जनता से न केवल माफी मांगे बल्कि नाकाम रहने के कारण दूसरे योग्य सक्षम लोगों को मौका दें? मुम्बई, हैदराबाद, बनारस, दिल्ली शहर आतंकियों के निशाने पर शुरू से ही रहे है। मुम्बई में ही विगत् 18 वर्षों में 16 हमले हो चुके है। केन्द्र में भी इन वर्षों में सभी बड़ी राजनीतिक पार्टियां भी शासन कर चुकी है ओैर सभी का असली चेहरा जनता ने भी देखा है, प्रायः सभी तुष्टीकरण के ही इर्द-गिर्द रहे है। समझ में नहीं आता साहसी आतंकवादी है या सरकार ? डरपोक, कायर आतंकवादी है या सरकार? इसे आतंकवादियों का चैलेंज ही कहेंगे कि धर्मनगरी वाराणसी, हाईटेक शहर हैदराबाद, माया और व्यापारिक नगरी मुंबई और भारत का दिमाग दिल्ली को विगत् 20 वर्षों में इन चार शहरों को ही आतंकवाद से मुक्त नहीं कर पाए? अब सूझ नहीं पड़ता कि एवार्ड किसे दिया जाए? किसे सजा दी जाए? हिम्मत धीरे-धीरे ही बढ़ती है अचानक नहीं भारत का दिमाग अर्थात् संसद और न्यायपालिका दोनों के मगज पर हमला कर आतंकवादियों ने अभी तक अपनी चतुराई का ही परिचय दिया है? और शासन ने नपंुसक होने का? इस विषम परिस्थिति में भारत की जनता के सामने यक्ष प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि अपनी सुरक्षा के लिये वह क्या अमेरिका से मदद मांगें? क्या उन्हें भारत पर शासन करने के लिये बुलाये? चूंकि हमारे देश के नियंता सभी मोर्चों पर असफल रहे हैं फिर चाहे वो आतंकवाद हो महंगाई हो भुखमरी हो। भारत की जनता अपने खून पसीने की कमाई टैक्स में अपने अमन-चैन व शांति के लिये, सुरक्षा के लिये, विकास के लिये देती है न कि अशांति, असुरक्षा, असमय काल के गाल में समाने लिये वक्त नाजुक है, बल्कि चिंतन और शिद्दत से काम करने का है नाटक, नौटंकी का नहीं।

 

 

वोट-बैंक राजनीति के पहले शिकार

शंकर शरण 

अच्छा होता कि मोहनदास करमचंद गाँधी की विरासत का सम्यक मूल्यांकन करके उन के विचार व कर्म से दूध और पानी अलग कर के लाभ उठाया जाता। तब उन के महान कार्यों के साथ-साथ भयंकर गलतियों से भी सीख ले कर हम आगे बढ़ सकते थे। किंतु भारी अज्ञान, कांग्रेसी-वामपंथी दुष्प्रचार और राजनीतिक छल-छद्म जैसे कारणों से ऐसा न हो पाया। स्वतंत्र भारत में गाँधीजी की अंध-जयकार, चाहे वह भी खोखली ही क्यों न हो, से आगे शायद ही कुछ किया गया। जब उन के सकारात्मक कार्यों को ही किसी सत्ता या संगठन ने नीतिगत रूप देने की कोशिश नहीं की, तब उन की भूलों के प्रति कोई चेतना जगाने का काम क्या होता!

पर यह समझना आवश्यक है कि राजनीतिक समस्याओं पर ‘गाँधीगिरी’ जैसे विचार केवल हिन्दू आबादी के बीच सुरक्षित जीते हुए ही पनपते हैं। (क्या आपने कभी नोट किया है कि कश्मीर, पंजाब और बंगाल में गाँधी को चाहने वाले दीपक लेकर खोजने से भी शायद ही मिलें! क्यों?) गाँधी का जयकारा वहीं होता है जहाँ जयकारे करने वाला बुद्धिजीवी, नेता या प्रवचनकर्ता मजे से शांति, सुरक्षा के वातावरण में रह रहा हो। जिसे आस-पास की बेचारी भोली हिन्दू जनता द्वारा आदर-सम्मान पहले से प्राप्त हो – ऐसे समाज के बीच रहते हुए ही सेक्यूलर, सर्व-धर्म सम-भाव जैसे भ्रामक विचार पनपते हैं। हिन्दुओं के लिए भ्रामक! मुसलमान तो कभी इस भ्रम में पड़ नहीं सकते। उदार, सज्जन मुसलमान भी। क्योंकि उन का मजहब यह सब मानने की इजाजत ही नहीं देता। बल्कि इसे ‘कुफ्र’ कह कर उन मुस्लिमों को भी कठोरतम दंड देता है, जो इस की बात भी करते हैं। रुशदी से लेकर तसलीमा तक किसी का हश्र देख लीजिए। निरी उपेक्षा के रूप में अपने निवर्तमान राष्ट्रपति कलाम का भी हाल देखें। उन्हें कौन मुसलमान पूछता है!

इसीलिए भारत में सेक्यूलरिज्म की राजनीति अंततः हिन्दू-विरोध की राजनीति का ही दूसरा नाम बन गई। उस में इस्लामी कठमुल्लेपन, हिंसा, असंवैधानिक और अनैतिक माँगों तक का विरोध करने का साहस नहीं है। अतः सेक्यूलरिज्म ले-देकर केवल हिंदू भावना को लांछित करने तथा हिंदूवादियों को दंडित करने के काम आता है। अब इसे अनेक पत्रकार भी समझने लगे हैं, चाहे चाहे खुलकर स्वीकार करें या नहीं। सेक्यूलरिज्म की राजनीति अथवा गाँधीगिरी केवल हिन्दू जनता के बीच की जाती है। मुस्लिम जनता के बीच हरेक दल इस्लाम-परस्ती की ही प्रतियोगिता करता है, ताकि वोट मिलें। यही वोट-बैंक की राजनीति या सेक्यूलर राजनीति है। इस प्रतियोगिता में जो हारता है वह जानता है कि किस कारण हारे!

विगत लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद, रामविलास पासवान और सीपीएम की हार का असली कारण उनसे मुस्लिमों का नजर फेर लेना ही था। वह नजर कांग्रेस को इनायत की गई, इस का संकेत स्वयं ‘राष्ट्रीय’ अल्पसंख्यक आयोग ने मुस्लिम बहुल चुनाव क्षेत्रों के नतीजों का आकलन करके किया है। यानी असली बात सब जानते हैं। इस गंभीर सत्य को नोट कर लेना चाहिए कि कटिबद्ध, एकमुश्त वोट करने की प्रवृत्ति के साथ आबादी में बढ़ते प्रतिशत से मुस्लिम वोट-बैंक अब निर्णायक हो गया है। इसीलिए जिन दलों को मुस्लिम वोट नहीं मिले, वे भी मौन हैं। निरुपाय हैं। क्योंकि आगे भी उसी की आस करनी हैं।

आगामी चुनावों में भी पुनः सभी दल मुस्लिमों की कृपा-दृष्टि के लिए ही प्रतिद्वंदिता करेंगे। उसके लिए बढ़-चढ़ कर मुस्लिमों के दुःख, कष्ट और भावनाओं की माँग उठाएंगे। रंगनाथ मिश्रा, जे. बी. मुखर्जी या राजेन्द्र सच्चर जैसे मुखौटे खड़े करेंगे ताकि देश-घाती कदम उठाने की आड़ मिले। इस विचित्र वोट-बैंक राजनीति का आरंभ कब, कैसे हुआ था? वह वोट-बैंक, जो न केवल गैर-मुस्लिम राजनीतिकों के लिए सदैव छलना रहा है, बल्कि उसका भारत के हितों से एकदम विपरीत रिश्ता है। वह वोट-बैंक किसी राष्ट्रीय लक्ष्य की चिंता ही नहीं करता, क्योंकि उस का एक विशिष्ट, अंतर्राष्ट्रीय और विस्तारवादी उद्देश्य है।

भारत में वोट-बैंक राजनीति की लालसा के पहले शिकार मोहनदास करमचंद गाँधी थे। तुर्की के खलीफा की सत्ता बचाने के लिए हुए ‘खिलाफत जिहाद’ (एनी बेसेंट के शब्द) में भारतीय मुस्लिमों ने जबर्दस्त भागीदारी की। यह सन् 1916-20 की बात है। गाँधी उस संगठित, विशाल संख्या से मोहित हो गए। सोचा कि यदि ये अपने साथ हो जाएं तो अंग्रेजों से लड़ने में कितना बल मिलेगा! यह लोभ ही था, यह संपूर्ण परिस्थिति से स्पष्ट है। प्रथम, गाँधी को तुर्क-ऑटोमन साम्राज्य के खलीफा से कोई लगाव था, यह मानने का कोई कारण नहीं। दूसरे, उसी समय अंग्रेजों ने भारत में मौंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार लाया था। जिसका कांग्रेस ने भी स्वागत कर सरकार से सहयोग का निर्णय किया था। इसीलिए, 1921 में अंग्रेजों के विरुद्ध आकस्मिक, अप्रत्याशित रूप से कोई असहयोग आंदोलन छेड़ने का कोई कारण न था। गाँधी के दबाव में कांग्रस ने वह आंदोलन मात्र खलीफत को समर्थन देने के लिए आरंभ किया था।

पर तुर्की में खलीफा रहे या जाए, इस से भारतीय हितों का दूर से भी संबंध न था। अतः खिलाफत नेताओं को भी कांग्रेस समर्थन की अपेक्षा न थी। दोनों की दो दिशा थी। एक तुर्की के लिए विश्व-इस्लामी आंदोलन था। जबकि कांग्रेस विदेशी शासकों से कुछ सुधारों की माँग कर रही थी। इसीलिए जब गाँधी ने खिलाफत से कांग्रेस को जोड़ना चाहा तो मोतीलाल नेहरू को छोड़कर कोई उन के साथ न था। क. मा. मुंशी के अनुसार सभी मानते थे कि गाँधी एक गलत उद्देश्य के लिए अनैतिक काम कर रहे हैं “जिससे बड़े पैमाने पर हिंसा होगी और सुशिक्षित हिन्दू-मुस्लिमों की राजनीतिक भागीदारी घटेगी”। स्वयं जिन्ना ने भी गाँधी को चेतावनी दी कि मतांध मौलवियों को प्रोत्साहन न दें। फिर, हिंदू डरते थे कि खलीफत को मदद देने से संगठित मुस्लिम शक्ति बढ़ेगी, जिससे वे अफगानिस्तान को आक्रमण का न्योता दे भारत पर कब्जा कर सकते हैं। यह संदेह खुली चर्चा में था, जिस पर एनी बेसेंट, लाला लाजपत राय, रवीन्द्रनाथ टैगोर, श्रीअरविन्द आदि अनेक मनीषियों ने भी सार्वजनिक चिंता प्रकट की थी। अतः अनेक कारणों से खलीफत आंदोलन के समर्थन का विरोध था।

पर गाँधी के दबाव में कांग्रेस उस में लग गई। असहयोग आंदोलन वस्तुतः खलीफत के लिए हुआ था। वह किसी स्वतंत्रता या स्वशासन का आंदोलन न था। तब, खलीफत खत्म होने पर पहले तो यहाँ मुसलमानों ने कई स्थानों पर अपना क्रोध हिन्दुओं पर उतारा। एक बार ‘जिहाद और काफिरों को मारने’ का आवाहन कर देने पर अधीर जिहादियों के लिए ईसाई और हिन्दू, दोनों ही एक जैसे दुश्मन थे। मौलाना आजाद सुभानी जैसे कई मुस्लिम नेता अंग्रेजों से भी बड़ा दुश्मन ‘बाईस करोड़ हिन्दुओं’ को मानते थे। वे भारत में फिर मुस्लिम शासन के ख्वाहिशमंद थे, जिस में उन्हें हिन्दू बाधक लगते थे।

फिर वही हुआ जिसका डर था। मुसलमानों ने अफगानों को भारत पर हमला करने का निमंत्रण दे दिया। अंग्रेजों का विरोध करने के नाम पर गाँधी इसमें भी ‘सहायता’ देने को राजी हो गए (यंग इंडिया, 4 मई 1921)। जिस तुर्की खलीफा को स्वयं उसके अपने देशवासियों ने सत्ताच्युत किया, उसके रंज में केरल में मोपला मुसलमानों ने हिन्दुओं का कत्लेआम, जबरन धर्मांतरण, मंदिरों का ध्वंस और वीभत्स अत्याचार किए। यह जिहाद भावना से किया गया था। इसीलिए, गाँधीजी ने उसकी भर्त्सना के बजाए कहा कि “मुस्लिम भाइयों ने वह किया जो उन का धर्म उन्हें कहता है”, यानी इस्लामी नजरिए से गलत नहीं किया! इसीलिए, खिलाफत प्रकरण के बाद देश भर में गाँधीजी का मान बहुत घट गया था।

यह सब मात्र उस लालसा के कारण हुआ जिसने गाँधी जी को जी-जान से पकड़ लिया था। कि उन्हें मुस्लिम समर्थन हर कीमत पर लेना ही है। कि मुस्लिम उन्हें अपना नेता मान लें। यही तो वोट-बैंक राजनीति है! गाँधी के प्रियतम जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी आत्मकथा में लिखा है कि गाँधीजी, “वह सब मानने के लिए तैयार रहते थे जो मुसलमान माँगें। वह उन्हें जीतना चाहते थे।” किंतु गाँधी यह सरल सी बात भुला बैठे कि मुसलमानों को कांग्रेस से अलग रखने, और विरुद्ध प्रयोग करने के लिए अंग्रेज पहले से ही उन्हें अधिकाधिक विशिष्ट अधिकार देते रहे थे। यह 1906 से ही चल रहा था। उस में गाँधी कैसे पार पाते? पर लोभ-लालसा की तो विशेषता ही यही है कि वह मति हर लेती है।

अतएव खलीफत जिहाद का समर्थन केवल मुस्लिम समुदाय को लुभाने की चाह में किया गया था। उस में बुरी तरह पिटने के बाद भी गाँधी वही करते रहे। उसी चाह में कि मुसलमान उन्हें अपना नेता मान लें। लंदन में गोल-मेज कांफ्रेंस (1931) में यह खुल कर आया जब गाँधी ने कांग्रेस को हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों की प्रतिनिधि बताने की कोशिश की। उपस्थित मुस्लिम प्रतिनिधियों ने इसे सिरे से खारिज कर दिया। तब गाँधी जी ने मुसलमानों को ‘ब्लैंक चेक’ देने की बात की, ताकि कांफ्रेंस में उपस्थित मुस्लिम प्रतिनिधि गाँधी का नेतृत्व मान लें। उस प्रस्ताव को भी मुस्लिम नेताओं ने हिकारत से ठुकरा दिया।

फिर इतिहास साक्षी है, गाँधी अपनी लालसा छोड़ न सके। हर मोड़ पर मुस्लिम नेताओं की सभी ऊल-जुलूल सिर-आँखों उठाते रहे। हत्यारे, गुंडे मुस्लिमों से भी प्रेम दर्शाते रहे। स्वामी श्रद्धानंद जैसे महान सपूत की हत्या करने वाले को अपना ‘भाई’ कहा, जैसे बाद में कलकत्ता में पाँच हजार हिन्दुओं का कत्लेआम कराने वाले सुहरावर्दी को भी। लाहौर के वीर, निष्ठावान सपूत महात्मा राजपाल को लांछित किया जिन्होंने हिन्दू धर्म को अपमानित करने वाले एक मुस्लिम प्रकाशन का समुचित, संयमित, तथ्यपूर्ण उत्तर देते हुए इस्लाम को आइना दिखाया था। जिन राजपाल को पूरे लाहौर में सम्मान से देखा जाता था, उनके लिए गाँधी जी ने गंदे विशेषणों का प्रयोग करते हुए ‘प्रतिकार’ की माँग करते हुए मुसलमानों को स्पष्ट भड़काने तक का कार्य किया। अंततः एक जुनूनी जिहादी ने राजपाल की हत्या कर दी (1929)।

ऐसे अनेकानेक प्रसंग हैं जिस में गाँधी जी की दोहरी और सिद्धांतहीन नीति सबको एकदम साफ दिखती थी। यदि अपराधी मुस्लिम हो तो गाँधी सदैव उसी के पक्ष में खड़े दिखते थे, और एक से एक ऊल-जुलूल दलील देते थे। डॉ. अंबेदकर के अनुसार गाँधीजी ने हिन्दुओं के विरुद्ध मुस्लिमों द्वारा किए गए किसी अत्याचार, हिंसा और हत्याओं पर कभी एक शब्द न कहा।

यह कोई महात्मापन नहीं था। क्योंकि वही मोहनदास गाँधी कभी चंद्रशेखर आजाद, चंद्रसिंह गढ़वाली, भगत सिंह, मदनलाला ढींगरा और ऊधम सिंह जैसे महान सूपतों को भी भाई नहीं कहते थे। न उन के विश्वासों का आदर करते हुए कभी उदारता दिखाई। यहाँ तक कि गुरू गोविन्द सिंह और शिवाजी जैसे ऐतिहासिक महापुरुषों को भी गाँधी ने ‘दिगभ्रमित देशभक्त’ कहने तक की धृष्टता की। क्योंकि इन महापुरुषों ने अस्त्र-शस्त्र उठाकर समाज की सेवा की थी। इसलिए गाँधी उन्हें येन-केन-प्रकारेन खारिज करते थे। जबकि वही गाँधी मोपला के जिहादी हत्यारों और स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे अब्दुल रशीद जैसे जुनूनी, धोखेबाज कातिलों को भी अपना ‘भाई’ बताते थे। तब अहिंसा का सिद्धांत एकदम पीछे चला जाता था और इस्लामी कृत्य वीभत्स, हिंसक होकर भी आदरणीय हो जाता था। यह सिद्धांतहीनता वही लालसा थी जो आज सिमी, इंडियन मुजाहिदीन, हुर्रियत आदि के पक्ष में खड़े होने वाले हिन्दू सेक्यूलरपंथी नेताओं में है।

इस विचित्र लालसा को मुस्लिम भी समझते थे। इसलिए वे गाँधी पर कभी विश्वास नहीं करते थे। उन्हें लगता था कि यदि कोई हिन्दू नेता हिन्दुओं का हित और अपने ‘अहिंसा’ सिद्धांत को भी छोड़कर सदैव मुसलमानों का पक्ष लेता है तो जरूर कोई असहज बात है! अतः वह भरोसे के काबिल नहीं। यह संयोग नहीं कि जिन्ना समेत अनेक मुस्लिम नेताओं का गाँधी से अधिक सहज संबंध पंडित मालवीय या स्वामी श्रद्धानंद जैसे नेताओं से रहा, जो कृत्रिम और विचित्र बातें न कहकर स्वभाविक हिन्दू विचार रखते थे।

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि गाँधी को मुस्लिम समर्थन कभी नहीं मिला। हिन्दू जनता को बारं-बार बलिवेदी पर चढ़ा देने के बाद भी नहीं मिला। पर उस चाह ने गाँधी का पीछा न छोड़ा। खिलाफत से लेकर देश विभाजन, और उसके बाद तक गाँधी उसी भावना से चलते रहे। उन्हें कभी अनुकूल परिणाम न मिला। क्योंकि डॉ. अंबेदकर के शब्दों में, “मुसलमानों की राजनीतिक माँगें हनुमानजी की पूँछ की तरह बढ़ती जाती हैं।” उन्हें पूरा करते जाने के चक्कर में गाँधी ने देश का विभाजन तक करा लिया। उस के बाद भी पश्चिमी पंजाब, सिंध और पूर्वी बंगाल के सिखों-हिन्दुओं को राम भरोसे छोड़ दिया। पूछने पर कहा कि ‘खुशी-खुशी जान दे दें और हमला करने वाले मुसलमानों का प्रतिकार न करें’।

निश्चय ही, वोट-बैंक राजनीति के पहले शिकार गाँधी थे। देश की हानि के सिवा इस राजनीति ने कभी कुछ नहीं दिया है। यह मानना कुछ लोगों को कठिन लगेगा, क्योंकि इतिहास का पूर्ण मिथ्याकरण कर दिया गया है। किंतु 1919 से 1947 तक की घटनाओं के सविस्तार अध्ययन से यही निष्कर्ष मिलेगा। उस दौरान अनेकानेक नेताओं, मनीषियों ने गाँधी को चेतावनी दी थी। पर वह उस मोह से उबर नहीं सके। जब गाँधी जैसे व्यक्ति उस से पिट गए तब लालू, मुलायम, चंद्र बाबू और वाजपेयी आदि को उस से क्या मिलना था!

राजनीति पर गैर सरकारी स्वैच्छिक संगठनों का विदेशी नागपाश

हरिकृष्ण निगम

क्या आज का भारत स्वैच्छिक और गैर-सरकारी संगठनों अथवा सिविल सोसायटी कहलाने वाले संगठनों के नागपाश द्वारा विदेशी सूत्रधारों या कुछ देशविरोधी अंतर्राष्ट्रीय लॉबियों का अखाड़ा बन चुका है? देश में सक्रिय इन एन.जी.ओ. अथवा सी. एस. ओ. ने अपनी अंदरूनी प्रतिद्वंदिता और राजनीति द्वारा वर्तमान व्यवस्था को गंभीर चुनौति ही नहीं दी है बल्कि नए संवैधानिक और सुरक्षा संबंधी खतरे भी पैदा कर दिए हैं।

जब से अन्ना हजारे के जन लोकपाल बिल को देशव्यापी समर्थन मिलने के साथ-साथ विदेशों में भी अनेक प्रबुध्द नागरिकों और मीडिया का अनुमोदन और सहयोग मिला है, सत्तारूढ़ कांग्रेस और वामपंथियों से जुड़े अनेक गैरसरकारी संगठन उत्तेजित होकर अन्ना और उनकी भ्रष्टाचार विरोधी टीम पर नकारात्मक और ध्वंसात्मक गैरसरकारी स्वैच्छिक संगठन होने का आरोप लगा रहे हैं। दूसरी ओर कांग्रेस और वामपंथी दल अपने पाले के ऐसे गैरसरकारी संगठनों चाहे वे नक्सलवादी या माओवादी विचारधारा के समर्थक हों या मानवाधिकार के नाम पर आतंकवादियों के पक्ष हों अथवा चर्च के धर्मांतरण के प्रच्छन्न एजेंड की पूति में सहायक हों, उनको भी संरक्षण देकर गले-लगाते रहे हैं। यह एक सामान्य व्यक्ति भी जान चुका हैकि इस प्रकार के एन.जी.ओ. का दूसरा गुट जिसमें नक्सलवादियों के हिमायती विनायक सेन कांग्रेसियों के जासूस की संज्ञा पाए स्वामी अग्निवेश, नेशनल एडवाईजरी कांउन्सिल की विवादित सदस्या अरूणा राय, नर्मादा बचाओ आंदोलन की मेधा पाटकर भारत में प्रजातंत्र के अंत की दुनियां में घोषणा करने वाली अरूंधती राय और विवादित शबाना आजमी जैसे दर्जनों प्रभावशाली व राष्ट्रविरोधी रू झान वाले हैं और सत्तारूढ़ संप्रग सरकार के चहेते बने हुए हैं। उपर्युक्त दो प्रकार के विदेशों द्वारा समर्थित स्वैच्छिक संगठनों की, परस्पर गलाकाट प्रतिद्वंदिता हमारी राजनीति व्यवस्था को खोखला कर अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई को कहां तक ले जाएगी यह तो समय ही बताएगा।

स्वातंत्र्योत्तर भारत में इन स्वैच्छिक गैर सरकारी संगठनों के बदलते समय की मांग के अनुरूप नामकरण में भी अनूठा रूपांतरण हुआ है। इन सबके पीछे मात्र एक ही बात समान रही है। वे बहुधा विदेशी ताकतों और अंतर्राष्ट्रीय लॉबियों के हस्तक रहे है और पहले के अनेक अमेरिकी खुलासों और स्वीकृतियों के आधार पर कहा जा सकता है कि वे अमेरिकी खुलासों और स्वीकृतियों के आधार पर कहा जा सकता है कि अमेरिकी सरकार व सी.आई.ए की आंख और कान की तरह देश में काम करते रहे हैं। वामपंथियों का समय-समय पर रूसी गुप्तचर एजेंसी के.जी.बी. के इशारों पर नीति-निर्धारण के प्रकरण तो कई बार सत्यापित किए जा सकते हैं। शीत युध्द के समय की बात यदि ध्यान में न भी लाएं तो आज भी ‘विकिल्क्सि’ के हर खुलासे में हमारे नेताओं द्वारा चाहे भारत में अमेरिकी राजदूत हो या कोई अन्य प्रतिनिधि उसके सामने वे अपने उन विचारों को रखने के लिए लालायित रहते हैं जो न वे जनता या संसद के सामने कहने का साहस नहीं कर सकते। चाहे राहुल गांधी हों, या दिग्विजय सिंह अथवा शशि थरूर जो बातें वे अमेरिकी प्रतिनिधियों से दिल्ली में गुपचुप कहते हैं वे संसद का भी अपमान है और संविधान की अवमानना भी । इन नेताओं के लिए अमेरिकी प्रतिनिधि अभी भी उनके असली आका हैं-यदि ‘विकिलिक्स’ के भारत संबंधी खुलासों में कुछ भी सच है।

वैसे हमें विस्मृत नहीं करना चाहिए कि शीतयुध्द के दौरान स्वयं हमारे देश के साम्यवादी दल बिहार, बंगाल, मध्यप्रदेश व पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में कार्यरत विदेशी ईसाई मिशनरियों को देश से निष्कासित करने की मांग करते थे। इसमें उस समय पीसकोर के अमेरिकी वालंटियर एवं पी एल-480 के अनुदानों की राशि द्वारा संचालित अमेरिकी संगठनों के सदस्य भी शामिल थे।

फिर भी आज के परिदृश्य में यह निस्संदेह है कि अन्ना हजारे के वर्तमान अभियान में वंदे मातरम् या भारत माता की जय जैसे नारों ने जिस तरह से देश के कोने-कोने को जोड़ने का प्रयास किया गया है वह स्वैच्छिक संगठनों की मानसिकता में एक अभूतपूर्व रूपांतरण है जो राष्ट्रभक्ति का एक नया वीजमंत्र बन जाता है। अन्यथा वंदे मातरम् के प्रश्न पर हमारे ढ़ोंगी और छद्म सेक्यूलरवादियों को हर बार अब तक सिर्फ विक्षिप्त श्वानों की भांति प्रतिक्रिया जताते ही देखा गया था।

इधर कुछ वर्षों से भद्र समाज या सिविल सोसाइटी कहलाने वाले जनप्रिय संगठन हमारे यहां भी पश्चिम की नकल पर लोकप्रियता पा रहे हैं। सबसे पहले विश्व बैंक ने इसकी परिभाषा और वैद्यता दी थी जो पहले एन.जी.ओ. का ही पर्याय था। एन.जी.ओ. शब्द सर्वप्रथम संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1945 में गढ़ा था और यह उन संस्थाओं के संदर्भ में था जो किसी सरकार या राजनीतिक दल के प्रत्यक्ष नियंत्रण में नहीं होते थे। पर 70 के दशक में इसकी लोकप्रियता तब बढ़ी जब पश्चिमी देशों द्वारा विकास आदि के नाम पर कुछ व्यक्तियों और संगठनों को धनराशि मुहैया कराने का दौर जारी हुआ। पिछड़े या विकासशील देशों में गरीबी-उन्मूलन, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और कृषि आदि सुधाराें के लिए यह राशि दी जाती थी। जब ये संगठन गैर-सरकारी संस्थाएं-एन.जी.ओ. नहीं कहलाते थे तब इन्हें वी.ओ. अथवा स्वैच्छिक संगठन कहा जाता था जो कुछ-कुछ बदनाम भी थे क्योंकि तब मैत्री संगठनों और शांति परिषदों या पीस कोर वालंटियर्स का जमाना था जहां यह राशि उन देशों के प्रच्छन्न एजेंडा के साथ आती थी। रूस, चीन और जापान से भारत की जुड़ी पीस फ्रेंडशाीप आदि परिषदों और सोसायटी का जमाना और सम्मोहन पिछली पीढ़ी के पत्रकारों को आज भी याद होगा बाद में वर्ल्ड बैंक ने इन्हें एन.जी.ओ. के रूप में वैद्यता दिलाने का खुलकर प्रयास किया था।

पिछले तीन दशकों में इस प्रकार के दानदाताओं और अनुदान प्राप्त करने वाले अपने को सिविल सोसायटी आर्गेनाईजेशन (सी.एस.ओ.) कहलाना अधिक पसंद करने लगे। सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में भी ऐसे स्वघोषित सिविल सोसायटी संगठन उतर आए पर न तो उनकी आय-व्यय का विस्तृत अंकेक्षण होता है और न ही वे अनुदानों से मिली राशि के प्रति उत्तरदायी होते हैं।

सत्ता का सुख भोगने वाली कांग्रेस ने आज ऐसे सैकड़ों ‘सी.एस.ओ.’ को अपने संरक्षण में रखा है। विज्ञान, पर्यावरण या गंगा रिवर बेसिन ऑथरिटी जैसे प्राधिकरण जिसके अध्यक्ष स्वयं प्रधानमंत्री हो उसमें और विज्ञान तथा पर्यावरण शोध केंद्र जैसे गैरसरकारी संगठन सरकार के संबंधित मंत्रालयों द्वारा संरक्षित और उनकी समितियों में वे लोग हैं। कुछ एन.जी.ओ. के प्रतिनिधियों ने तो अपनी सुपर कैबिनेट जैसी भी बना रखी है। सोनियां गांधी की अध्यक्षताा वाली नेशनल एडवाइजरी काउंसिल में भी गैर-सरकारी संगठनों की पहुंच है। जब हाल में यह प्रश्न उठाया गया कि क्या यह तथ्य एन.ए.सी. की वैद्यता पर प्रश्न नहीं उठाता है तब कांग्रेसी प्रवक्ता मनीष तिवारी कहते हैं एन.ए.सी के सदस्य रचनात्मक एवं सकारात्मक हैं पर अन्ना हजारे की टीम सी.एस.ओ. का ध्वंसात्मक चेहरा है।

नीति विषयक निर्णायक प्रक्रिया में सूचना के अधिकार अधिनियम के लिए अन्ना हजारे द्वारा प्रयासों को अनदेखा करना उसी तरह असंभव है जिस प्रकार आज भ्रष्टाचार विरोधी व्यापक अभियान में जनाक्रोश को जनाधार दिलवाने में सभी भेदभावों या वर्ग विषमता को भुलाकर मध्यम वर्ग में उन्होंने जागृति फैलाई है, सच देखा जाए तो इस देश में सैकड़ों कागजी स्वैच्छिक गैरसरकारी संगठन है और उनमें से अनेक प्रचार कार्य तो जोर शोर से करते हैं पर अपने कार्यक्रमों में से सौ-पचास लोग भी मुश्किल से जुटा पाते हैं और वे अनुदानों और जनहित याचिकाओं की राजनीति पर ही जीवित रहते हैं।

आज संकेत स्पष्ट है यदि आपका स्वैच्छिक संगठन कांग्रेसदल का हित साधता है तो आप सकारात्मक हैं और आपको अपनी गतिविधियों को सुचारू रूप से चलाने के लिए सबकुछ उपलब्ध हो सकता है। यदि आप भाजपा, हिंदू संगठनों और मोदी पर आक्रामक रूख से निरंतर विषवमन के लिए सन्नद् हैं तब आप के लिए हर द्वार खुला है। पर यदि आपने अन्ना हजारे की तरह कड़वा, असुविधाजनक और राजनीतिबाजों को न पचने वाली कोई सच बात कही तो आपको देश के लिए एक खतरामयी कहा जा सकता है।

जनहित याचिकाओं और सार्वजनिक हित में कानून की शरण लेने वालों की आज संख्या इतनी बढ़ चुकी है कि कभी-कभी यह प्रतीत होता है कि अनेक लोगों ने इसे स्वप्रचार के साथ-साथ अपनी सामाजिक सक्रियता को भी एक पेशे के रूप में ढ़ालने की कोशिश कर डाली है। साथ ही वे अनेक गैर सरकारी संगठन जो बहुधा विदेशी अनुदानों के बल पर देश की अनेक समस्याओं के स्वंयभू संरक्षक बन बैठे हैं अपने प्रच्छन्न राजनीतिक एजेंडे को लागू करने के लिए जनहित याचिकाओं की शरण लेते हैं। स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने हाल में कुछ ऐसी याचिकाओं को सिर्फ इसलिए खारिज किया था कि जो कुछ प्रतिष्ठित लोगों ने सिर्फ इसलिए खारिज किया था जो कुछ प्रतिष्ठित लोगों ने सिर्फ नाम कमाने व अपना सामाजिक प्रभाव जताने के लिए दायर की थी।

वैसे हमारे देश में सामाजिक न्याय की उपादेयता न्यायालयों ने पिछले अनेक वर्षों से हस्तक्षेप के उन उदाहरणों से कई बाद सिध्द की है जो न्यायिक सक्रियता या जुडीशियल एक्टिविज्म के नाम से काफी चर्चित रही है। पर आज समय इतना बदल चुका है कि राजनीतिबाजों या उनके मंतव्यों को पूरा करने वाले कुछ प्रसिध्द खेमेबाजों की शिकायतों के पुलिंदे में कुछ भी हो सकता है। किसी को हमारे राष्ट्रगान से सिंध शब्द निकलवाने की जिद हो या किसी उद्योग के अधिग्रहण से पहले स्थानीय हितों के संरक्षण के नाम पर शतप्रतिशत अपने वर्ग के लोगों को नौकरियां दिलवाना हो या अपने गांव के सामने मेल या एक्सप्रेस ट्रेन को रूकवाने के लिए स्टेशन बनवाना हो। यह एक मनोविमोह का विषय बन चुका है। आज न्यायपालिका को शहर साफ करने से लेकर शासन तंत्र को छोटी-मोटी खामियों को दूर करने में पहल करनी पड़ती हौ। इसीलिए कुछ लोग तो न्यायिक सक्रियता शब्द को ही भ्रांतिपूर्ण मानने लगे हैं क्योंकि इससे यह अर्थ निकलता है कि पहले जैसे न्यायपालिका सोई हुई थी और आज वह सक्रिय हो गई है।

कुछ अपवादों को छोड़कर अनेक प्रतिष्ठित लोगों की दायर याचिका में भी उनका स्वार्थपूर्ण संकीर्ण मंतव्य झलकता है पर फिर भी न्याय का यह उपलब्ध अब लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अभिन्न अंग कहा जा सकता है। पर अपनी अंतर्रात्मा की आवाज और राजनीति में धाक जमाने के उद्देश्य से इसका दुरूपयोग हो रहा है। किसी पुस्तक को प्रतिबंधित कराना है; नई फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगवाना हो या तस्लीमा नसरीन जैसी चर्चित लेखिका को देश में न आने देना हो-न्यायालय के लिए याचिका तैयार है। अब तो उन मुद्दों पर भी याचिकाएं दाखिल की जाती है जो देश विरोधी अंतर्राष्ट्रीय ताकतों के खेल का हिस्सा बन जाती है। नर्मदा बचाओ आंदोलन, अनेक दूसरे बांध, बिजलीघर या दूसरी बड़ी परियोजनाओं के विरूध्द विस्थापितों के नाम पर हमारे देश में ऐसा कई बार हो चुका है। पश्चिम के कुछ देश गैर-सरकारी आंदोलनकारी संस्थाओं के बांध-निर्माण में रूकावट के लिए करोड़ों रूपया दे चुका है।

देश की परिस्थितियां आज जिस प्रकार करवटें ले रही है, उसमें जितना शीघ्र हम गैर सरकारी स्वैच्छिक संगठनों के प्रच्छन्न राष्ट्रविरोधी एजेंडे और मृग-मरीचिकाओं से दूर हटें उतना ही हमारे और देश के लिए अच्छा होगा।

* लेखक अंतराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं। 

साम्प्रदायिकता निरोधक विधेयक अर्थात भारत के पुनः विभाजन का षड्यंत्र

डॉ. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

सोनिया कांग्रेस धीरे-धीरे अपने गुप्त एजेंडे को लागू करने की दिशा में सक्रिय हो रही है। अरसा पहले यह षडयंत्र ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अंतर्गत यूरोप की गोरी शक्तियों ने भारत में किया था। इस प्रयोग के लिए उन्होंने मुहम्मद अली जिन्ना का प्रयोग किया था। गोरी शक्तियों के षडयंत्र के तहत जिन्ना ने भारत के मजहब के आधार पर दो समूहों में बंटा होने की दुहाई देनी शुरु कर दी और उसे ‘ द्विराष्ट्र सिध्दांत ‘ के नाम से प्रचलित करना शुरु किया। जिन्ना के अनुसार भारत में स्पष्ट ही दो वर्ग थे-एक हिन्दू वर्ग और दूसरा मुस्लिम वर्ग। उसका कहना था कि ये दोनो वर्ग एक साथ नहीं रह सकते। इसलिए मजहब को आधार बनाकर भारत को दोनो वर्गो में विभाजित कर दिया जाना चाहिए। जिन्ना की इस परिकल्पना को गोरे ब्रिटिश शासकों की शह थी, अतः उन्होंने 1947 में भारत का विभाजन कर दिया और पाकिस्तान का जन्म हुआ। यह अलग बात है कि जिन्ना की यह परिकल्पना मूल रुप में ही गलत थी और गोरी साम्राज्यवादी शक्तियों के इस देश में आने से पहले मजहब के आधार पर भारतीयों में वह वैमनस्य नहीं था जिसकी दुहाई जिन्ना और अंग्रेज दे रहे थे। उस समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस परिकल्पना को स्वीकारने में जिन्ना और गोरी यूरोपीय शक्तियों का साथ नहीं दिया, बल्कि इसका जी जान से विरोध किया। लेकिन दुर्भाग्य से निर्णायक घड़ी आने पर उसने अनेक ज्ञात-अज्ञात कारणों से द्विराष्ट्र के सिध्दांत वालों के आगे घुटने टेक दिए और इस प्रकार भारत का विभाजन हो गया।

लगता है इतिहास अपने आपको फिर दुहराने की स्थिति में पहुंच गया है। इस बार रंगमंच पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नहीं है, क्योंकि उसकी तो 1998 में एक षडयंत्र के तहत हत्या कर दी गयी थी, लेकिन उस तांत्रिक हत्या से उपजी सोनिया कांग्रेस रंगमंच पर आरुढ हो गयी है। भारत के दुर्भाग्य से सोनिया कांग्रेस मजहब के आधार पर भारत के दो वर्गों में बंटे होने के जिन्ना के झूठ को हवा ही नहीं दे रही, बल्कि बहुत ही चालाकी से साम्प्रदायिक हिंसा निरोधक एवम् लक्षित हिंसा न्याय एवं क्षतिपूर्ति विधेयक-2011 के माध्यम से सचमुच ही भारत को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के आधार पर दो वर्गो में विभाजित करने का कुत्सित प्रयास कर रही है।

इस बिल का प्रारुप किसी संविधान सम्मत अभिकरण अथवा भारत के विधि मंत्रालय ने तैयार नहीं किया है, बल्कि इसका मसौदा राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् नाम की एक ऐसी संस्था ने तैयार किया है, जिसका संविधान में कहीं उल्लेख नहीं है। इस परिषद् की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी है। एक अन्य सदस्य बेल्जियम के श्री ज्यां द्रेज हैं, जिन्होंने कुछ साल पहले ही भारत की नागरिकता ग्रहण की है। परिषद् की अध्यक्षा सोनिया गांधी ने अपने जिन विश्वस्त साथियों से इस बिल का मसौदा तैयार करवाया है उनमें फराह नकवी, अनु आगा, माजा दारुवाला, नजमी बजीरी, पी.आई. होजे, पी.सिरीवेला और तीस्ता सीतलवाड आदि के नाम प्रमुख हैं।

इस बिल को बनाने वाले यह मानकर चलते हैं कि भारत का मजहबी विभाजन बहुत ही स्पष्ट है। एक भारत बहुसंख्यकों का है और दूसरा भारत अल्पसंख्यकों का है। इस गु्रप की दूसरी अवधारणा यह है कि बहुसंख्यक समाज मजहबी अल्पसंख्यक समाज पर अत्याचार करता है, उन्हें प्रताड़ित करता है, हर स्तर पर उनसे भेदभाव करता है। बिल बनाने वालों की सोच में मजहबी अल्पसंख्यकों की बहुसंख्यक भारतीयों से तभी रक्षा हो सकती है, यदि उनके लिए अलग से फौजदारी कानून बना दिए जाएं। भारत में मजहबी अल्पसंख्यक समुदाय अपने लिए अलग सिविल कोड की व्यवस्था तो किए हुए ही है। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय यह सिफारिश कर चुका है कि सिविल विधि का आधार मजहब नहीं हो सकता। इसके लिए पूरे देश में सभी के लिए समान नागरिक संहिता लागू की जानी चाहिए।

लेकिन सोनिया कांग्रेस की सोच आम भारतीयों की सोच से अलग है। उसका मानना है कि सिविल लॉ के बाद मजहबी अल्पसंख्यकों, जिसका अर्थ आमतौर पर मुसलमानों एवं इसाईयों से ही लिया जाता है, के लिए क्रिमिनल लॉ यानी आपराधिक विधि भी अलग होनी चाहिए। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उपरोक्त बिल लाया गया है।

इस बिल में एक और परिकल्पना की गयी है। वह परिकल्पना है कि मजहबी अल्पसंख्यकों के परिप्रेक्ष्य में बहुसंख्यक भारतीय समाज दोषी माना जाएगा। वह दोषी नहीं है-इसे सिध्द करने की जिम्मेदारी भारत में बहुसंख्यक समाज की है। गोरे ब्रिटिश शासनकाल में कुछ समूहों को जरायम पेशा समूह घोषित कर दिया जाता था। किसी भी आपराधिक घटना में पुलिस उस समूह के लोगों को बिना प्रमाण, बिना शिकायत पकड लेती थी। अपने निर्दोष होने की बात इस समूह के लोगों को ही सिध्द करनी होती थी। लेकिन इस प्रस्तावित विधेयक में सोनिया कांग्रेस ने समस्त बहुसंख्यक भारतीय समाज को ही अपने देश में एक प्रकार से जरायम पेशा करार दे दिया है।

राज्य का कर्तव्य बिना जाति, मजहब और रंगरुप के सभी भारतीय नागरिकों से समान भाव से व्यवहार करना होना चाहिए। लेकिन उपरोक्त बिल मजहब के आधार पर भारतीय समाज की समरसता को, सायास एक बड़े षडयंत्र के तहत खंडित करने का प्रयास कर रहा है। यह भारत में मजहबी अल्पसंख्यक समुदाय को एक अलग टापू पर खड़ा करना चाहता है जो भारत की मुख्यधारा से अलग हो, ताकि कालांतर में उसे किसी हल्के से अभियान से भी भारत से अलग किया जा सके। दरअसल, यह प्रस्तावित विधेयक जिन्ना और गोरी यूरोपीय जातियों के मजहब के आधार पर भारत विभाजन के प्रयोग को, इक्कीसवीं शताब्दी में एक बार फिर दुहराना चाहता है। यह प्रस्तावित बिल भविष्य के इस प्रकार के भारतघाती प्रयोग की आधारभूमि है। इस बिल से पहले सोनिया कांग्रेस की सरकार द्वारा बनाए गए राजेंद्र सच्चर आयोग और रंगनाथ मिश्रा आयोगों की भूमिका को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। इन दोनों आयोगों को यह काम सौंपा गया था कि वे सरकार का करोड़ों रुपये हलाल करके यह सिध्द करें कि भारत में मुसलमान एवं ईसाईयों के अल्पसंख्यक समुदाय के साथ बहुत ही ज्यादा भेदभाव किया जाता है और उन्हें समान अवसर नहीं मिल रहे। इन दोनों आयोगों ने मालिक की इच्छा को ध्यान में रखते हुए यह काम पूरी निष्ठा से निपटा दिया। दो बड़े पोथों में इन्होंने यह सिध्द किया कि भारत में मुसलमान एवं ईसाई सबसे ज्यादा प्रताड़ित हैं। अब जब आधारभूमि तैयार हो गयी तो सोनिया कांग्रेस इसी षडयंत्र की तीसरी कड़ी में उपरोक्त विधेयक को लेकर हाजिर हो गयी है। स्पष्ट है कि सरकार मजहबी अल्पसंख्यक समुदाय और बहुसंख्यक भारतीय समुदाय में प्रयासपूर्वक गहरी खाईयां निर्माण करने का प्रयास कर रही है।

आखिर सोनिया कांग्रेस की भारत को इस प्रकार दो विरोधी खेमों में बांटने के पीछे मंशा क्या है? सोनिया कांग्रेस क्यों उस रास्ते को तैयार करने में जुटी है जो अंततः विभाजन की ओर जाता है? सोनिया कांग्रेस जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के सिध्दांत को कब्र से निकालकर क्यों भारत को मजहबी आग की तपती भट्टी में झोंकना चाहती है? बैर विरोध की जो आग आम भारतीयों में नहीं हैं, उस आग को सच्चर आयोग, रंगनाथ मिश्र आयोग और अब तथाकथित साम्प्रदायिक हिंसा निरोधक बिल के माध्यम से प्रज्जवलित करके भारतीयों को आपस में क्यों लड़ाना चाहती है। सोनिया कांग्रेस आखिर क्यों मुसलमान और हिन्दू को आमनेॠ-सामने अखाड़े में उतारने के लिए अमादा है? ये ऐसे प्रश्न है जिनका उत्तर देने की जिम्मेदारी सोनिया कांग्रेस की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी पर है। बेल्जियम के ज्यां द्रेज से इन प्रश्नों के उत्तर कोई नहीं मांगेगा, क्योंकि वे सोनिया गांधी के इस मशीन का एक पूर्जा हो सकता है लेकिन सोनिया गांधाी को तो इन प्रश्नों का उत्तर देना ही होगा, क्योंकि इन्हीं प्रश्नों के उत्तर पर भारत का भविष्य निर्भर करता है। यदि सोनिया गांधी इन तीखे भारतीय प्रश्नों के उत्तर देने से बचती हैं तो निश्चय ही भारतीयों को स्वयं परदे के पीछे हो रहे इन षडयंत्रों में भागीदार देशी-विदेशी शक्तियों को बेनकाब करना होगा। सोनिया गांधी की अध्यक्षता में बना यह बिल इस बात की तरफ तो निश्चय ही संकेत करता है कि अब भारत सोया नहीं रह सकता, अब सोने का अर्थ होगा एक और विभाजन की सुप्त स्वीकृति। लेकिन सोनिया कांग्रेस को भी जान लेना चाहिए कि इक्कीसवीं शताब्दी 1947 नहीं है।

सोने-चांदी और बचत खातों में निवेश

डॉ. सूर्य प्रकाश अग्रवाल 

गत दिनों जिस प्रकार भारतीय रिजर्व बैंक ने बैंकों के बचत खातों व सावधि खातों पर ब्याज की दरें बढायी है उससे सामान्य निवेशकों के लिए सोने-चांदी में निवेश के बाद बैंक के बचत खातों व सावधि खातों में रुपया जमा करने पर अच्छा ब्याज अथवा लाभ प्राप्त हो जाता है। सावधि जमा पर ब्याज की दरें अब 8 प्रतिशत से 10 प्रतिशत तक हो गयी है। कुछ दशाओं में यह ब्याज 12 प्रतिशत तक प्राप्त हो जाता है। बचत खातों पर 4 प्रतिशत सालाना का सुनिचित ब्याज प्राप्त हो रहा है। बैंक में जमा निवेश निवेशक के लिए एकदम से सुरक्षित निवेश है तथा निवेशक को एक सुनिश्चित लाभ एक निश्चित समयान्तर पर प्राप्त हो जाता है।

विश्व में जिस प्रकार निवेश के दृष्टिकोण से नकारात्मक सूचनाएें प्राप्त हो रही है उन सबका प्रभाव भारत के शेयर बाजार पर अनिवार्य रुप से विपरीत ही पड़ा है तथा शेयर में निवेश से होने वाली हानि के समुन्द्र में बड़े से बड़ा जहाज भी डूब गया है। जो लोग सट्टा प्रवृति रखते हैं तथा शीघ्र से शीघ्र अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करना चाहते हैं वे शेयर बाजार की ओर चले जाते हैं तथा अपना सब कुछ लुटा कर वापस चले आते हैं। वर्ष भर में कुल हानि व लाभ मिला कर उनको उनके निवेश पर लगभग शुन्य से 10 प्रतिशत तक का ही लाभ अर्जित हो पाता है। इसी प्रकार अब जिन्स बाजार में यही हरकतें देखी जा रही हे। शेयरों पर अब लाभ सोने-चांदी जैसे सुरक्षित समझे जाने वाले निवेश मदों से बहुत कम प्राप्त हो रहा है। वर्ष में शेयर बाजार के सेन्सेंक्स के अनुमान के उनसार लगभग 20 प्रतिशत तक हानि दे चुका है। सितम्बर, 2011 के अंतिम सप्ताह में निवेशकों को यूरो संकट, अमेरिकी संभावित मंदी, अमेरिकी डॉलर की तुलना में भारतीय रुपये में कमजोरी, प्रमुख भारतीय कम्पनियों के दूसरी तिमाही के खराब वित्तीय परिणाम, भारतीय रिजर्व बैंक के द्वारा ब्याज बढ़ाने की आंशका का भय बने रहने जैसे नकारात्मक सूचनाएें व समाचार आने से शेयर बाजार का सेंसेक्स 16453 अंक तक गिर गया जिससे शेयरों में निवेश करने वालों को भारी नुकसान का समाना करना पड़ा।

यदि हम विभिन्न निवेशों से प्राप्त होने वाले लाभों का विश्लेषण करें तो यह बात साफ नजर आता है कि सोने-चांदी के साथ-साथ बैंक व कम्पनियों की जमा अब अच्छे साबित हो रहे हैं। बैंकों में आम आदमी अपनी छोटी-छोटी बचतों को बचत बैंक खातों (सेंविंग बैंक खाता) में रखता है तथा जरुरत के अनुसार समय समय पर छोटी-छोटी रकम निकाल कर व्यय करता रहता है। बैंक अब इस खाते पर 4 प्रतिशत सालाना का ब्याज दे रहे है। इस ब्याज पर बैंक टीडीएस भी नहीं लगाता है। बैंक में व कम्पनियों की जमाओं पर सामान्य रुप से 9 से 10 प्रतिशत तक ब्याज प्राप्त हो जाता है। कुछ दशाओं में ब्याज की रकम 12 प्रतिशत के आसपास भी हो जाती है। इस प्रकार के निवेश को एक दम से सुरक्षित निवेश समझा जाता है। जमा धन राशि भी एक दम से सुरक्षित रहता है। गत वर्ष में चांदी ने 60 प्रतिशत व सोने ने 40 प्रतिशत का लाभ दिया है।

शेयर बाजार में सब से सुरक्षित ब्लू चिप कम्पनियों में निवेश करना समझा जाता है। जब जनवरी, 2008 में सेंसेक्स 21,000 के अंक के स्तर पर था तो देश की शीर्ष ब्लूचिप 30 कम्पनियों के शेयरों पर यदि किसी ने एक लाख रुपये निवेश किये तो अब सेंसेक्स 16,500 अंक (30 सितम्बर, 2011) पर आने पर निवेश की हुई राशि 80,000 रुपये ही रह जाता है। लाभ को तो भूल जाना चाहिए। इन ब्लूचिप कम्पनियों के अलावा देश की शीर्ष 500 कम्पनियों में निवेश को देखें तो 1जनवरी, 2008 की तुलना में इन निवेशकों को अब तक 30 सितम्बर 2011 तक 30,000 करोड रुपये से अधिक की हानि हुई है। इसी प्रकार यदि मध्यम श्रेणी जिन्हें मिडकैप कम्पनियां समझा जात है उन कम्पनियों के शेयरों के निवेशकों को 1 जनवरी 2008 की तुलना में अब तक 40,000 करोड रुपये का नुकसान हुआ है। इसी प्रकार इन से भी छोटी कम्पनियों जिन्हें स्माल कैप कम्पनी कहा जाता है उनमें भी शेयर धारकों के 50,000 करोड रुपये का नुकसान हो चुका हें इस प्रकार कुल मिला कर एक लाख बीस हजार करोड रुपये से अधिक का नुकसान शेयर बाजार में शेयर धारकों को उठाना पड गया है।

परन्तु एदि किसी निवेशक ने 1 जनवरी 2008 में सोने में एक लाख रुपये का निवेश किया तो उसको अब 2,40,000 रुपये अर्थात ढाई गुना रकम प्राप्त होगी वहीं चांदी में एक लाख रुपये के 2,60,000 रुपये प्राप्त हो गये। 1 जनवरी, 2008 की तुलना में सोने पर 142 प्रतिशत व चांदी में 165 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी जा रही है। मोटे तौर पर देखा जाय तो जनवरी, 2008 में सोने का भाव 11,000 रुपये प्रति दस ग्राम था जो अब बढ़कर 26,700 रुपये प्रति दस ग्राम हो गया। वहीं चांदी का भाव भी 20,000 रुपये प्रति किलोग्राम से बढ़कर 53,000 रुपये प्रति किलोग्राम हो गया। इस प्रकार अब सबसे सुरक्षित निवेश सोने व चांदी के बाद बैंक में जमा करना ही रह गया है क्योंकि जिस व्यक्ति ने जनवरी, 2008 में एक लाख रुपये बैंक में जमा कराया होगा उसको 9 प्रतिशत सालाना ब्याज तो प्राप्त हो ही जायेगा वहीं बचत खातों पर उसको 4 प्रतिशत सालाना ब्याज सुरक्षित रुप से मिल जायेगा।

अब शेयर बाजार को नियन्त्रित करने वाली संस्था भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने कहा है कि प्रासंगिक होने वाले जोखिम के घटकों का ही खुलासा कम्पनियों के द्वारा जारी करना चाहिए। जोखिम के प्रासंगिक घटक जो निवेशकों को आसानी से समझ में आ जायें उसी प्रकार सम्बध्द पक्षों के साथ सौदे व कम्पनियों के मुकदमों के खुलासे में अधिक स्पष्टता लाने वाले नियम बनाने चाहिए। संबध्द पक्षों के साथ वे सौदे होते हैं जो कम्पनी अपने वरिष्ठ प्रबंधन अधिकारियों, प्रवर्तकों तथा सहयोगी फर्मों आदि के साथ करती है। भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने कहा है कि कम्पनी के लिए संभावित जोखिमों के बारे में भारी भरकम दस्तावेज प्रस्तुत किये जाते है जिन्हें निवेशक न तो विस्तार से पढ़ ही पाता है और न ही समझ पाता है। भोले-भाले निवेशक कंपनियों की चालबाजियों में फंस कर अपना सर्वस्य लूटा देते हैं। सेबी चाहता है कि जब कोई भी कम्पनी शेयर बाजार में जायें तो अपने सभी जोखिम पूर्ण घटाकें के बारे में प्रासंगिकता के आधार पर खुलासा करे।

* लेखक सनातन धर्म महाविद्यालय, मुजफ्फरनगर के वाणिज्य संकाय में रीडर तथा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। 

कोडरमा सहित पूरे झारखंड में नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार अधिनियम की उड़ रही है धज्जियां

इन्द्रमणि

प्रकाश में आया है परिचय पत्र के नाम पर 15 लाख रूपये वसूले जाने का मामला

एक अप्रैल 2009 से झारखंड सहित पूरे देश में बच्चों के लिए नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार कानून लागू हो गया है. यह बात अलग है कि अन्य महत्वाकांक्षी कानूनों की तरह यह कानून भी जमीन पर उतर नहीं पाया है. झारखंड सरकार अब तक इस कानून के आलोक में कोर्इ नियमावली नहीं बना पायी है. जो नियम बने भी हैं वह किसी भी तरीके से झारखंडी संस्कृति एवं झारखंडी पृष्ठभूमि से मेल नहीं खाता है. ऐसे में संबंधित विभाग मनमाने तरीके से विधालय संचालित कर कानून की धजिजयां उड़ा रहे हैं. इस कानून को लेकर कोडरमा सहित पूरे राज्य में अधिकारी व अन्य पदाधिकारी उहापोह की स्थिति में है.

इस कानून को लेकर सरकार की ओर से स्पष्ट आदेश या नियमावली नहीं होने के कारण अधिकारी अपने मनमुताबिक कार्य संपादन कर रहे हैं. या फिर यूं कहें कि कमाने-खाने के वे सारे तरकीब अपनाये जा रहे हैं जो कानून के विपरीत है. ऐसा ही एक मामला अभी हाल ही में कोडरमा में देखने को मिला है.

मामला यह है कि सरकारी विधालयों के बच्चों से परिचय पत्र बनवाने के नाम पर बड़ी चलाकी से लगभग 15 लाख रूपये अधिकारियों द्वारा उगाही किये जा रहे हैं. ज्ञात हो कि जिला शिक्षा अधीक्षक कोडरमा के पत्रांक 370 दिनांक 05 अप्रैल 2011 के आलोक में प्रखंड शिक्षा प्रसार पदाधिकारी कोडरमा ने सभी प्राथमिक व मध्य विधालयों के प्रधानाध्यापकों को एक पत्र (संख्या-85 दिनांक 21 अप्रैल 2011 निर्गत किया है और निर्देश जारी किया है कि बच्चों में आत्मविश्वास एवं आत्मसम्मान बढ़ाने के उद्देश्य से बच्चों का परिचय पत्र बनवाना अनिवार्य है. इसके लिए अग्रेनोमी वेलफेयर सेंटर को नामित किया गया है. यह संस्था सभी छात्र-छात्राओं को फोटोयुक्त परिचय पत्र (लेमिनेशन के साथ) दिये जायेंगे. इसके लिए प्रत्येक छात्र-छात्राओं को 10 रूपये जमा करने का स्पष्ट आदेश जारी किया गया है. वहीं विकलांग छात्र-छात्राओं से पैसे नहीं लेने का स्पष्ट निर्देष है.

यह कार्यक्रम चाहे जैसा भी हो पर यह गैर कानूनी व अपराधपूर्ण भी है. क्योंकि इस देश में नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 लागू है. जिसमें बच्चों से किसी भी तरह का शुल्क नहीं लेने का प्रावधान है. सवाल 10 रूपये का नहीं है बलिक सवाल व्यवस्था और कानून का है. वैसे देखा जाय तो 10 रूपये बहुत छोटा रकम लगता है परंतु गणितीय सुत्र के हिसाब से जोड़ा जाये तो यह 10 रूपया 15 लाख रूपये तक पहुंच जाता है. क्योंकि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जिले में लगभग एक लाख 50 हजार बच्चे नामांकित है और परिचय पत्र के नाम पर उनसे 10 रूपये वसूले जा रहे हैं. इस हिसाब से कुल 15 लाख रूपये होता है. यह रूपैया किस कोष में जायेगा यह बताने वाला कोर्इ नहीं है. इस परिसिथति में यहां कर्इ तरह के उहाफोह की सिथति बनी हुर्इ है. जितनी मुंह उतनी बातें हो रही है.

कुल मिलाकर झारखंड में नियमावली नहीं बनने के कारण सरकारी विधालयों में कानून का बुरा हाल है. किसी-किसी जिला में अखबारों में विज्ञापन निकलवाने के बाद भी जिले में अवसिथत निजी स्कूल सरकार को छात्र-छात्राओं व शिक्षकों की संख्या फीस वर्ग कक्ष व अन्य सुविधाओं की जानकारी नहीं दे रहे हैं. प्राइवेट विधालयों के प्रबंधकों का कहना है कि सरकार की ओर से हमलोगों को कोर्इ स्पष्ट आदेश या निर्देश प्राप्त नहीं हुआ है. आज कोडरमा सहित अधिकांश जिलों में ग्राम शिक्षा समिति और स्कूल प्रबंधन समिति ये दोनों कमिटियां कार्य कर रही है और इन दोनों कमिटियों के चक्कर में स्कूल के प्रधानाध्यापक बेमौत मारे जा रहे हैं. कानून के तहत जितने सारे प्रावधान किये गये हैं उस पर अमलीजामा नहीं पहनाया जा रहा है. आखिर इस कानून का क्या होगा

– इन्द्रमणि

हिन्दी किसकी है

बीनू भटनागर

अजीब सा शीर्षक है,अजीब सा प्रश्न है कि हिन्दी किसकी है। पूरे भारत की,सभी हिन्दी भाषियों की या फिर हिन्दी के गिने चुने विद्वानों की। इसी प्रश्न का उत्तर सोचते सोचते मै अपने विचार लिखने का प्रयास कर रही हूँ। स्वतन्त्रता प्राप्त हुए 64 वर्ष हो चुके हैं,परन्तु हिन्दी को वह सम्मान नहीं मिला जो मिलना चाहिये था। यह स्थिति उन राज्यों की है जिनका जनाधार हिन्दी भाषी है। अहिन्दी भाषी राज्यों मे हिन्दी की क्या स्थिति है इस पर विचार करना भी अभी कोई मायने नहीं रखता, जब तक हिन्दी भाषी राज्यों मे हिन्दी की जड़ें मज़बूत नहीं होंगी उसकी शाखाये अहिन्दी भाषी राज्यों मे कैसे फैलेंगी और फलें फूलेंगी। सिर्फ आंकड़े गिनाने से कि कितने राज्यों मे किस कक्षा तक हिन्दी पढाई जा रही है या कितने विश्वविद्यालयो मे हिन्दी विभाग हैं या विश्व मे हिन्दी बोलने वालों की संख्या कितनी है सोचने से कोई लाभ नहीं, जब तक कि भाषा का स्तर न सुधरे और उसका सम्मान न हो। यहाँ मै केवल भाषा की बात कर रही हूँ साहित्य की नहीं।

हिन्दी भारत की राजभाषा है, जो अत्यन्त समृद्ध है। संसकृत ,पाली और प्राकृत से विकसित होकर अनेक विदेशी भाषाओं के शब्दों को समेटती हुई अपने आधुनिक रूप मे पंहुंची है।

पिछले कुछ दशकों मे देश का माहौल कुछ ऐसा बना कि सबको लगने लगा कि अंग्रेज़ी मे शिक्षा प्राप्त किये बिना कोई अच्छी नौकरी नहीं पा सकता। हम अंग्रेज़ी की ओर झुकते चले गये। अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा देने वाले स्कूलों की संख्या दिनों दिन बड़ती गई और हिन्दी माध्यम से शिक्षा देने वाले विद्यालयों की शिक्षा का स्तर गिरता चला गया।

हिन्दी मे अंग्रज़ी की इतनी मिलावट हो गई कि हम समय को टाइम कहने लगे, इस्तेमाल या उपयोग के स्थान पर यूज़ ज़बान पर बैठ गया। यदि विदेषी शब्द भाषा को समृद्ध बनायें तो उन्हें ग्रहण करने मे कोई हर्ज नहीं है।

अंग्रज़ी मे भी बाज़ार, गुरू और जंगल जैसे शब्द समा गये हैं। आजकल जो भाषा बोली जा रही है विशेषकर महानगरों मे उसमे हिन्दी और अंग्रेज़ी का इतना सम्मिश्रण हो रहा है जो भाषा को उठा नहीं रहा। हम जो भाषा बोल रहे हैं,वो न हिन्दी का मान बड़ा रही है न अंग्रेज़ी का। ना ही हिन्दी और अंग्रज़ी के सम्मिश्रण से किसी नई साफ़ सुथरी भाषा के जन्म के आसार नज़र आ रहे हैं ,जिसे कुछ लोग हिंगलिश कहने लगे हैं वह सिर्फ़ खिचड़ी है,वह भी अधपकी।

जैसा कि मैने कहा अंग्रजी के शब्द हिन्दी मे लेने मे कोई हर्ज नहीं है। “इंटरनैट” को “अंतरजाल” न कहें पर “खिलौनो” को तो हिन्दी मे “खिलौना” ही रहने दें “टौय” क्यों कहें। वाक्य के आगे पीछे “यू नो”, “आई नो” का तड़का लगाकर हिन्दी को विकृत तो न करें। यह हमारी हीन मानसिकता का परिचायक है कि हम एक वाक्य भी बिना अंग्रेज़ी के शब्द पिरोये नहीं बोल सकते। हिन्दी के सरलीकरण की बात जब उठती है तो उसका अर्थ होता है कि उसमे और अंग्रेज़ी मिलाओ। रेडियो, टैलिविजन और पत्रिकायें भी इसी तरह की भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। किसी महिला पत्रिका के लेख का शीर्षक होगा “ब्यूटी टिप्स”, हिन्दी फ़िल्म का नाम होगा “वन्स अपौन ए टाइम इन मंबुई”। अंग्रेज़ी की प्रतिष्ठित पत्रिका “इन्डिया टुडे” ने जब अपना हिन्दी संसकरण निकाला तो अंग्रेजी पत्रिका की लोकप्रियता को भुनाने के लोभ मे उन्हें यह आवश्यक नहीं लगा कि हिन्दी पत्रिका का नाम तो हिन्दी मे ही होना चाहिये। उन्होंने उसका नाम “इन्डिया टुडे” ही रहने दिया।

अंग्रेज़ी क्या किसी भी भाषा से मेरा कोई दुराग्रह नहीं है। हिन्दी को बढावा देने के लये अक्सर कहा जाता है कि उच्च शिक्षा का माध्मम हिन्दी होना चाहिये। इसके लियें चीन, जापान और रूस सहित कई देशों के नाम लिये जाते हैं, परन्तु छात्रों को यदि उच्च माध्यमिक स्तर तक हिन्दी पढने लिखने का व्यावाहरिक ज्ञान नहीं होगा तो उन्हें उच्च शिक्षा हिन्दी माध्यम मे कैसे दी जा सकती है।

इसके लियें तो प्राथमिक ,माध्यमिक और उच्च माध्यमिक विद्यालयों मे हिन्दी स्तर और पाठयक्रम को व्यावाहरिक बनाना पड़ेगा। यहाँ मै एक रोचक उदाहरण देना चाहूँगी, एक बार मैने अपनी कुछ रचनायें लिफ़ाफ़े मे रखकर पता भी हिन्दी मे लिख दिया और अपने पति से कहा कि उसे कोरियर करवा दें। वे कहने लगे कि कम से कम मुझे पता तो इंगलिश मे लिखना चाहये था, जो पत्र सही जगह पर पंहुच जाय, कोरियर वाले ज़्यादा पढ़े लिखे नहीं होते। इसका अर्थ तो यही हुआ कि एक कम पढ़ा लिखा शहरी व्यक्ति इंगलिश तो पढ़ लेगा पर हो सकता है उसे हिन्दी पढने मे दिक्कत हो। ये स्थिति किसी अहिन्दी भाषी राज्य की नहीं है राजधानी दिल्ली की है। संभव है कि बहुत छोटे शहरों मे ऐसी स्थिति न हो,परन्तु उत्तर भारत के अन्य बड़े शहरों मे भी कुछ ऐसा ही हाल है। दुख होता है, पर सत्य को स्वीकार तो करना ही पड़ेगा, तभी तो कुछ प्रयास किया जा सकेगा हिन्दी को सम्मान दिलाने की दिशा मे। छात्र हिन्दी को बोझ समझने लगे हैं। यह तो होना ही था,जब आकार और प्रकार मे पाठ्यक्रम उनकी आयु और रुचि के अनुकूल नहीं है। हमने अन्य विषयों के साथ हिन्दी का भी इतना वृहद पाठ्यक्रम बच्चों पर लाद दिया है कि उनमे उसके प्रति अरुचि पैदा हो गई है। इसमे उनका कोई दोष नहीं है। जो भाषा वो सुनते बोलते हैं, उसमे और पाठ्यक्रम की पुस्तकों मे प्रयुक्त भाषा मे ज़मीन आसमान का अन्तर है, मै मानती हूँ कि बोलचाल की भाषा लिखित भाषा से थोड़ी अलग होती है पर यहाँ इस अंतर की खाई बहुत बडी़ है। इस अंतर को कम करना होगा ।

आरंभिक वर्षों मे बच्चो को अंग्रज़ी से पहले हिन्दी सिखानी चाहिये। तीसरी या चौथी कक्षा से पहले अंग्रेज़ी सिखा ना उचित नहीं होगा। इस आयु तक बच्चे का मस्तिष्क दो भाषाऔं को एक साथ ग्रहण करने मे सक्षम नहीं होता माता पिता को बच्चों से सरल हिन्दी बोलनी चहये। कठिन शब्दों का प्रयोग न करें पर कुत्ते को कुत्ता ही रहने दे डौगी क्यों कहें, गुड़िया को भी डौल कहने की ज़रूरत नहीं है। जब अंग्रेज़ी सीखेंगे तो इन शब्दों को भी सीख लेंगे, शुरू से ही हिन्दी मे अंग्रजी की मिलावट करना क्यों सिखाया जाय। हिन्दी को मातृ भाषा की तरह और अंग्रेज़ी को विदेशी भाषा की तरह सिखाने पर जो़र होना चाहिये। यदि इसका उल्टा होता है, जो कि हो ही रहा है तो हमारे बच्चे दोनो ही भाषाऔं से न्याय नहीं कर पायेंगे।

मातृभाषा सीखने के लियें व्याकरण या भाषाविज्ञान सीखना ज़रूरी नहीं है। यदि बच्चों ने माता पिता से स्वच्छ भाषा सुनी होगी तो वे आयु के अनुसार सरल विषयों को पढने, लिखने और समझने लगेंगे। उनके पाठ्यक्रम मे आरंभिक वर्षों मे सचित्र पुस्तकें होनी चाहियें जिनमे भालू बन्दर की कहनियाँ हों जो उन्होंने अपनी नानी और दादी से सुनी थीं। धीरे धीरे भाषा का स्तर बढ़े तो शिक्षक उन्हें नये शब्दों के अर्थ बतायें। हिन्दी के उच्चस्तरीय साहित्यकारों की गूढ विषयों पर लिखी गई रचनाओं को बच्चे आठवीं-दसवीं कक्षा तक भी पचा नहीं पायेंगे। वास्तविक स्थिति यह है कि हमने उन पर ढेर सारे विलोम शब्द, पर्यायवाची शब्द, मुहावरे और लोकोत्तियाँ रटने का बोझ भी डाल दिया है,जिससे विषय के प्रति अरुचि पैदा होती है और कुछ नहीं। जब पाठ मे नये शब्द आयेंगे और शिक्षक उनको उनका अर्थ बतायेंगे तो स्वतः उनका शब्दकोष बढेगा। यदि उन्होंने अपनी नानी दादी की मुहावरेदार भाषा सुनी होगी और आयु के अनुसार कहानियाँ पढेगे तो मुहावरे भी अपने आप समझ मे आने लगेंगे, परन्तु यही नहीं दसवीं कक्षा तक आते आते तो उन पर वाक्य संश्लेषण और वाक्य विश्लेषण के साथ भाषा विज्ञान का बोझ भी डाल दिया गया है। अब परीक्षा उत्तीर्ण करनी है, तो जैसे तैसे बाजारू कुँजियों से रट रटा कर ली जाती है,पर अधिकतर बच्चे दसवीं के बाद हिन्दी से तौबा कर लेते हैं वह उसका सम्मान करना भी भूल जाते हैं। अपनी मातृभाषा को हीन समझने लगते हैं। इससे दुर्भाग्य पूर्ण किसी स्वतन्त्र राष्ट्र की भाषा के लियें और क्या हो सकता है।

बारहवीं कक्षा तक हिन्दी, हिन्दी भाषी राज्यों मे अनिवार्य होनी चाहिये। उन्हें गूढ, गहन और कठिन साहित्य पढाने की आवश्यकता नहीं है। किशोरों की रुचि के अनुसार खेलकूद से संबन्धित लेख, सरल कहानियाँ, प्रेरक प्रसंग, देश प्रेम वाली कवितायें और प्रारंभिक व्याकरण ही पाठ्यक्रम मे होनी चाहियें। निबन्ध लेखन और परिच्छेद लेखन भी आवश्यक है पर यहाँ भी ज़रूरी है कि बच्चों को अपनी भाषा लिखने के लिये प्रोत्साहित किया जाय रट कर उगलने के लियें नहीं। सब बच्चे हिन्दी साहित्य पढें यह तो ज़रूरी नहीं है। कुछ इंजीनियर कुछ डाक्टर वकील या कुछ और बनेंगे। हिन्दी मे रुचि बनी रहेगी तो कम से कम हिन्दी पढने लिखने मे वो अटकेंगे तो नहीं। हिन्दी मे अच्छी पुस्तकें और पत्रिकायें पढना चाहेंगे। इन्ही मे से भविष्य मे कोई साहित्यकार भी उभरेगा। यदि हिन्दी का व्यवाहरिक ज्ञान सबको होगा तो समय आने पर उच्च शिक्षा का माध्यम हिन्दी करने पर विचार हो सकता है।

आजकल जहाँ विभिन्न विषयों मे 90-95 प्रतिशत अंक पाकर भी विद्यार्थी अपनी पसन्द के कालिज मे पसन्द के विषय मे प्रवेष पाने के लियें संघर्ष करते रह जाते हैं, वहीं हिन्दी मे 60 – 65 अंक लेकर अच्छे कालिज मे दाख़िला मिल जाता है। ज़ाहिर है वो मजबूरी मे हिन्दी पढेंगे, रुचि से हिन्दी पढने वालो की संख्या तो बहुत कम होती है। स्नातक होना है तो हिन्दी ही सही…। डिग्री भी रटरटा कर मिल जाती है, ऐसे विद्यार्थियों का हिन्दी का ज्ञान फिर भी शून्य पर टिका रहता है। मै दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए.आनर्स हिन्दी पास किये ऐसे लोगों को जानती हूँ जिन्हें “सामंजस्य”, “समन्वय”, “विकल्प” या “दीर्घ” जैसे मामूली शब्दो के अर्थ नहीं मालूम। वे यह भी भूल चुके होंगे कि “कामायनी” या “साकेत” किस कवि ने लिखे थे। उन्होंने तो कुँजियों से रटा था, परीक्षा गई बात गई।

हिन्दी के साथ विकृतियाँ कई प्रकार से हो रहीं हैं। पढ़ा लिखा शहरी तथाकथित संभ्रान्त वर्ग अंग्रेजी की मिलावट करते नहीं थकता, दूसरी ओर एक वर्ग बिना गालिय़ों के बात नहीं कर सकता। ये शब्द गंदे हैं ,भाषा का रूप बिगाड़ रहे हैं, इनको भाषा से बाहर निकालना सभ्य समाज के लियें ज़रूरी है। कुछ फिल्मो मे इनका धड़ल्ले से प्रयोग हुआ है। निर्माता कहतें है कि उन्होने सच्चाई दिखाई है, ऐसी भाषा बोली जाती है। क्या यह गंद युवाओं को परोसना ज़रूरी था। अपने आर्थिक लाभ के लियें इस प्रकार की भाषा का सिने माध्यम से प्रचार करना अनुचित है। फ़िल्मों की नक़ल तो युवा बहुत करते है।

क्षेत्रीय भाषाओं के प्रभाव स्वरूप भी कुछ अशुद्धियाँ भाषा में आ जाती है, बंगला मे कर्ता के लिंग से क्रिया प्रभावित नहीं होती है, पर हिन्दी मे होती है, इसलियें “राम आती है” और “सीता जाता है” हो जाता है। पंजाबी मे केवल “तुसी” होता है, हिन्दी मे “तू”, “तुम” और “आप” भी होता है, तीनों के साथ क्रिया का रूप बदल जाता है। “तू देदे”, “ तुम देदो” और “आप दे दीजिये” होना चाहिये, अक्सर लोग “आप देदो” या “आप लेलो” कहते है जो सही नहीं है। कारक की भी त्रुटियाँ बहुत होती हैं, “ मैने जाना है” सही नहीं है “मुझे जाना है” सही है। शब्दो के चुनाव मे भी कुछ सामान्य ग़ल्तियाँ होती है, जैसे भोजन “परोसा” जाता है “डाला” नहीं जाता, कपड़े भी “पहने” जाते हैं “डाले” नहीं जाते। इन त्रुटयों को दूर करने के लियें छात्रों पर व्याकरण का बोझ डालना उचित नहीं है, बस शिक्षक ख़ुद सही बोलें और बच्चे ग़ल्ती करें तो उसे सुधार दें। धीरे धीरे वे सही बोलना और लिखना सीख जायेंगे। अच्छी किताबें पढ़ने से भी भाषा सुधरती है। कम से कम जिन बच्चों की मातृभाषा हिन्दी है, उन्हे तो सही साफ सुथरी भाषा बोलना, पढना और समझना आना ही चाहये।

इन छोटी छोटी त्रुटियों का बोलचाल की भाषा मे ज़्यादा महत्व भले ही इतना न हो पर लिखने मे ये ग़ल्तियाँ खटकती हैं। खेद का विषय है, कि भले ही व्याकरण का विस्तृत पाठ्यक्रम विद्यालयों मे है, फिर भी ख़ुद शिक्षक ही शुद्ध भाषा नहीं बोलते। शुद्ध भाषा से मेरा तात्पर्य क्लिष्ट या कठिन भाषा से बिल्कुल नहीं है। मेरा अपना अनुभव है कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों मे भी बहुत से शिक्षकों का न तो उच्चारण सही होता है और ना ही वो व्याकरण सम्मत भाषा का प्रयोग करते हैं। शिक्षकों का चयन करते समय केवल उनकी डिग्रियाँ देख लेना ही पर्याप्त नही है, उनका उच्चारण और लेखन भी देखना आवश्यक है। शिक्षकों की भाषा अच्छी होगी तो छात्रों की भाषा अवश्य सुधरेगी।

पाठ्यक्रम के अतिरिक्त छात्रों व सभी आयुवर्ग के लियें हिन्दी मे अच्छी पत्रिकायें उपलब्ध होनी चाहियें। य़हाँ भी एक विषम चक्र है। हिन्दी मे पाठकों की निरंतर कम होती रुचि के कारण पत्रिकाओं को विज्ञापन नहीं मिलते, उनके अभाव मे किसी पत्रिका को चला पाना आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक कठिन होता है। तथापि हिन्दी मे कई पत्रिकायें हैं, कुछ साहित्यिक कहलाने के लोभ मे पुराने प्रसिद्ध लेखको और कवियों की समीक्षायें प्रकाशित करती हैं या साहित्य जगत के समाचार छापते रहती हैं। कुछ लाइफ़स्टाइल मैगज़ीन है जो फ़ैशन जगत की जानकारी देती है या बाज़ार मे उपलब्ध मंहगे मंहगे सामान की चर्चा करती हैं। ऐसी पत्रिकायें जो चिंतन के लियें प्रेरित करें बहुत कम हैं। इंटरनेट पर कुछ अच्छी पत्रिकायें हैं, परन्तु प्रिन्ट मे स्टैन्ड पर मिलने वाली पत्रिकाऔं की बहुत कमी है।

पत्रिकाओं के महत्व को हम नकार नहीं सकते। नये लेखकों की रचनायें कोई भी प्रकाशक प्रकाशित करने का जोखिम नहीं उठाना चाहता। यह सर्वविदित है कि जाने माने अधिकतर साहित्यकार अपने प्रारंभिक दिनों मे किसी न किसी पत्रिका से जुड़े थे। पत्रिकाओं के लियें लिखना किसी का व्यवसाय नहीं हो सकता इसलियें आरंभ के दिनों मे उन्हें ग़रीबी से जूझना पड़ा था। पत्रिकाओं से पहचान बनने के बाद ही उनकी पुस्तकें प्रकाशित हुईं। हिन्दी मे साठ के दशक के बाद कोई बहुत बड़ा साहित्यकार नहीं उभरा, जिसकी चर्चा अंर्तराष्ट्रीय क्या राष्ट्रीय स्तर पर हुई हो, जिसकी रचनायें बहुत सी भाषाओं मे अनुवादित हुई हों। ऐसा भी नहीं है कि 120 करोड़ की जनसंख्या वाले इस देश मे कोई अच्छा लिख ही नहीं रहा होगा, पर ऐसी पत्रिकायें कहाँ हैं जो उन्हें उनकी पहचान बनाने मे मदद कर सकें। पिछले कुछ दशकों मे जो पुस्तकें छपी हैं, वह उन लोगों की हैं जो या तो किसी विश्विद्यालय मे व्यख्याता हैं, या किस उच्च पद पर हैं या किसी बड़ी संस्था से जुड़े हैं। केवल प्रतिभा पर आजकल पुस्तकें छापने वाले प्रकाशक कहाँ है। यदा कदा कोई अपवाद हो सकते है। कुछ भारतीय लेखकों जैसे “,अरुन्धति राय” ,, “झुम्पा लहरी” और “चेतन भगत” ने इंगलिश मे लिखकर विश्व मे अपनी एक पहचान बनाई है।

हिन्दी के उत्थान के लियें जो सरकारी प्रयास हुए है वह दिशाहीन हैं। तकनीकी शब्दो के कुछ अनुवाद हो जाते है, जो ज़्यादातर व्यावाहरिक नहीं होते। हर जगह दोनो भाषाओं के प्रयोग की बात होती है पर व्यवहार मे सरकारी काम काज की भाषा हिन्दी नहीं है। हिन्दी अकादमी एक पत्रिका निकाल देती है जिसमे जनमानस की रुचि तो होने से रही। हिन्दी दिवस पर कुछ भाषण हो जाते हैं, बस, बात वहीं की वहीं रह जाती है।

कुछ लोग जो हिन्दी मे रुचि रखते हैं, अपने वयक्तिगत स्तर पर विभिन्न क्षेत्रों मे साहित्य सभायें कर लेते हैं। एक दूसरे की रचनाओं को सुनने और पढ़ने का अवसर मिल जाता है, उन पर टिप्पणियाँ भी होती है, विचारों का आदान प्रदान हो जाता है। इन प्रयासों से राषट्रीय स्तर पर कोई बदलाव लाना मुमकिन नहीं है।

हिन्दी के उत्थान के लियें कुछ चुनी हुई अच्छी पत्रिकाऔ को सरकार से कुछ आर्थिक संरक्षण मिलना चाहिये नही तो विज्ञापनो के अभाव मे वे दम तोड़ देंगी। उभरते हुए लेखको को भी कुछ आर्थिक सहायता मिले और प्रकाशन मे मदद मिले तो अच्छा होगा।

शिक्षा के स्वरूप और पाठ्यक्रम मे मूलभूत परिवर्तन करने होंगे हिन्दी को पूरे राष्ट्र की संपर्क भाषा और राष्ट्र भाषा के रूप मे सम्मानित करने के लियें हिन्दी भाषी लोगो को अपनी सोच बदल कर पहला क़दम बढ़ाना होगा।

अपने बच्चों को “a” से पहल “अ” सिखाना होगा “cat” , “rat”, “dog” , से पहले “चल हट पनघट पर चल” पढ़ाना होगा।

पैट्रोल के दाम बार बार क्यों बढ़ा रही है सरकार?

इक़बाल हिंदुस्तानी

रूपये का मूल्य गिरने से इंटरनेषनल मार्केट में सस्ता हो रहा तेल भी मिल रहा है महंगा!

आज देश में पैट्रोल की कीमत बढ़ते बढ़ते 70 रूपये तक जा पहुंची है लेकिन हमारी सरकार एक व्यापारी की तरह अधिक से अधिक मुनाफा टैक्स के रूप में कमाने से परहेज़ करने को तैयार नज़र नहीं आती। अगर पड़ौस के देशों के हिसाब से ही देखा जाये तो पाकिस्तान में 41.81रू0 और बंगलादेश में 44.80 रू0, और हमारा रोल माडल बनाया जा रहा अमेरिका भी इसको 42.22 रू0 की दर से बेच रहा है। भारत में जनवरी 2009 से पैट्रोल 65 प्रतिशत से भी महंगा हो चुका है। हालांकि आज हम अपनी ज़रूरत का 70 प्रतिशत पैट्रोल आयात करते हैं लेकिन औधोगिक संगठन एसोचैम का अनुमान है कि 2012 आते आते हमारा आयात 85 प्रतिशत तक पहुंच जायेगा। जहां तक अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में तेल के दाम बढ़ने का सवाल है तो मंदी के दौर में जहां यह 30 डालर तक नीचे उतर चुका है वहीं आमतौर पर 80 डालर प्रति बैरल इसके औसत रेट बने रहते हैं। 2008 में अधिकतम उूंचार्इ यह 147 डालर की छू चुका है। तेल की कीमतें बढ़ने का एक कारण डालर की आजकल लगातार बढ़ रही कीमत भी है। हालांकि यह माना जा रहा है कि अमेरिका में फिर से घिर रही मंदी की वजह से अभी तेल के दाम उस हिसाब से नहीं बढ़ रहे जिसका अनुमान लगाया जा रहा था।

तेल के दाम में आने वाले उतार चढ़ाव के लिये कोर्इ एक कारण जि़म्मेदार नहीं माना जा सकता। मèयपूर्व के तेल उत्पादक देशों में राजनीतिक असिथरता, जनअसंतोष और युध्द के कारण आपूर्ति में बाधा आने से और चीन व भारत जैसे विकासशील देशों में बढ़ती खपत के कारण इसके दामों में भारी उठापटख़ होती रहती है। चीन की विकास दर 9 तथा भारत की 8.5 प्रतिशत होने से दुनिया के अकेले इन दो देशों में ही तेल की मांग दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। जानकार सूत्रों का दावा है कि 2018 से तेल के उत्पादन में पहले सिथरता आयेगी और उसके बाद धीरे धीरे गिरावट का दौर शुरू होकर आने वाले 40 से 50 साल में तेल की यह दौलत ख़त्म हो जायेगी। ऐसा नहीं है कि तेल की बढ़ती मांग से तेल के भंडारों के समाप्त होने की ही आशंका है, बलिक सटटेबाज़ी और बड़ी तेल कम्पनियों का इसके मूल्यां को लेकर चलने वाला खेल इसको महंगा भी बना रहा है। शेयर बाज़ार और वित्तीय बाज़ारों में बढ़ रही अनिशिचतता और ख़स्ताहाली मुनाफाखोरों का रूख़ तेल के कारोबार की तरफ मोड़ रही है। मल्टीनेशनल कम्पनियों का प्रबंधतंत्र बाकायदा तेल के दामों को ‘मैनिपुलेट करता रहता है। उधर सरकार की नीति निजी वाहनों को बढ़ावा देते जाने की होने से तेल की खपत बेतहाशा बढ़ना स्वाभाविक ही है लेकिन इसकी पूर्ति कैसे होगी इस बारे में सरकार ने कोर्इ स्थायी नीति नहीं बनार्इ है।

मनमोहन सिंह जब 1991 में नरसिम्हा राव की सरकार में वित्तमंत्री बने थे तो उस समय तेल मूल्यों के निर्धारण के लिये एक समिति बनार्इ गयी थी। एडमिनिस्ट्रेटिव प्राइज़ मैकेनिज़्म के अनुसार हर 15 दिन बाद तेल के दामों की समीक्षा किये जाने की योजना तैयार की गयी लेकिन 2004 तक यह व्यवस्था चली और उसके बाद बंद कर दी गयी। सरकार ने 1963 में खाद एवं रसायन मंत्रालय से अलग कर पैट्रोलियम मंत्रालय का गठन किया था। तब से अब तक कुल 48 सालों में 41 पैट्रोलियम मिनिस्टर बनाये जा चुके हैं। हालत यह है कि यूपीए की सरकार में ही अब तक मणिशंकर अययर, मुरली देवड़ा के बाद अब जयपाल रेडडी सहित तीन मंत्री बनाये जा चुके हैं, यानी तेल महंगार्इ का ठीकरा मंत्री के सर फोड़ दिया जाता है। एक तरफ हमारी सरकार का दावा है कि सबिसडी देने से उसका ख़ज़ाना ख़ाली होता जा रहा है इसलिये वह तेल बाज़ार भाव पर एक व्यापारी की तरह बेचेगी, दूसरी तरफ इन दिनों अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में पैट्रोल और डीज़ल के दाम लगातार गिरने के बाद भी वह पहले से ही काफी महंगा कर दिये गये तेल के दाम घटाने को तैयार नहीं है। इसका कारण यह बताया जाता है कि विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव में हमारी सरकार रूपये का बार बार अवमूल्यन करती रहती है जिससे डालर का रेट अपने आप ही बढ़ जाता है। चूंकि इंटरनेशनल मार्केट से तेल डालर में खरीदा जाता है इससे यह सस्ता होने के बावजूद हमारे लिये लगातार महंगा होता जा रहा है। वैसे भी कारपोरेट घरानों के एजेंट की तरह काम करने वाली सरकार को आम जनता के हित से क्या लेना देना?

1967 में बने तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक के सदस्य सउूदी अरब, इराक, कुवैत, क़तर, बहरीन, सीरिया, यूएर्इ, अल्जीरिया, मिस्र, लीबिया आदि हालांकि यह दावा करते हैं कि वे तेल का उत्पादन मांग के अनुसार बढ़ाकर इसके दाम एक सीमा से अधिक बढ़ने नहीं देंगे लेकिन अन्य तेल उत्पादक देश र्इरान, ओमान, यमन, अंगोला, नार्इजीरिया, सूडान, टयूनीशिया, इथोपिया, आस्ट्रेलिया के साथ ही एशिया और यूरूप के ऐसे कर्इ देश हैं जिन पर किसी का कोर्इ ज़ोर नहीं है। तेल उत्पादक देशों में आजकल मची उथल पुथल भी इसके दाम बढ़ने का एक कारण मानी जाती है। पिछले दिनों टयूनीशिया के बाद मिस्र और लीबिया तो इस आग में झुलसे ही साथ ही यमन, बहरीन और सीरिया तक भी तेल की चिंगारी पहुुंच चुकी है। कुवैत ने 14 माह का मुफत खाना और नक़द बोनस अपनी जनता को बांटकर तो सउूदी अरब की शाही सरकार ने जनता पर 36 अरब डालर ख़र्च करने का ऐलान करने के साथ साथ महिलाओं को भविष्य में न केवल चुनाव में वोट देने बलिक प्रत्याशी बनने का कानून बनाने का वायदा किया है। इसके बाद वहां सरकारी सेवकों के वेतन में 15 प्रतिशत बढ़ोत्तरी भी कर दी गयी है। ऐसे ही लीबिया में विद्रोह दबाने के लिये सरकारी नौकरों के वेतन में 150 प्रतिशत की वृधिद और हर घर को नकद मदद दी गयी है।

उत्पादन के हिसाब से देखा जाये तो तेल का प्रतिदिन उत्पादन 3.5 करोड़ बैरल से 8 करोड़ बैरल केेे बीच रहता है। इतना भारी अंतर मांग में उतार चढ़ाव के चलते आता है। 23 जून को इसी साल अमेरिका के दबाव में अंतर्राष्ट्रीय उूर्जा एजंसी ने इसके एमरजेंसी स्टाक में से अचानक 6 करोड़ बैरल तेल खुले बाज़ार में बेचकर तेल के दामों को ब्रैक लगाने चाहे थे लेकिन यह कदम वक्ती तौर पर ही ऐसा मकसद हासिल कर सका। 31दिसंबर 2010 को कच्चे तेल का खुले बाज़ार में दाम 91.36 डालर था जो आज 88 डालर रह जाने के बाद भी अब तक तेल के दाम हमारे देश में 13.58 रूपये तक बढ़ चुके हैं। बताया जाता है कि तेल की खपत तो 25 सालों में 31 प्रतिशत की दर से बढ़ी लेकिन सटटेबाज़ी की वजह से इसके दाम ढार्इ गुना तक बढ़ चुके हैं। तेल की खपत 2030 तक चार गुना होने के आसार हैं। वैसे ओपेक के कर्इ देशों ने अपने वादे के मुताबिक तेल का उत्पादन खपत के हिसाब से लगातार बढ़ाया है जिससे इसके दाम मात्र 30 डालर प्रति बैरल रह गये थे। इस संकट से निबटने के लिये पहले सउूदी अरब ने अपना तेल उत्पादन कम कर दिया और उसके बाद 1986 में अचानक घाटा पूरा करने को जब उत्पादन 250 प्रतिशत तक बढ़ाया तो तेल की कीमत दस डालर तक आ गयी। बहरहाल सरकार चाहे तो पैट्रोल पर अपना टैक्स कम करके भी जनता को राहत दे सकती है।

अच्छी नहीं है शहर के रस्तों की दोस्ती,

आंगन में फैल जाये न बाज़ार देखना।।

 

 

भाजपा में वरिष्ठ नागरिकों की दशा

वीरेन्द्र जैन

पिछले दिनों विश्व वरिष्ठ नागरिक दिवस 1 अक्टूबर को नई दिल्ली में आयोजित एक गैर सरकारी संस्था ‘सम्पूर्णा’ की ओर से वरिष्ठ नागरिकों क सम्मान किया गया था। इस सम्मान समारोह में भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने कहा था कि न केवल समाज सेवी संस्थाएं और सरकार अपितु औद्योगिक घरानों को भी वरिष्ठ नागरिकों की सेवा के लिए आगे आना चाहिए ताकि वरिष्ठ नागरिकों के अनुभव का प्रयोग देशहित में किया जा सके। उस समय ऐसा लगा था कि वे देश के बड़े औद्योगिक घरानों के प्रमुख मुकेश अम्बानी, रतन टाटा आदि ने गुजरात में औद्योगिक लाभ की अनुकूलता के लिए मोदी की जो तारीफें की थीं उससे प्रभावित होकर ही प्रधानमंत्री पद हेतु लालायित अडवाणीजी ने उनसे ‘अनुभव’ अर्थात उन्हें न भुलाने का परोक्ष सन्देश दिया था। पर पिछले दिनों मध्य प्रदेश में घटित घटनाक्रम से ऐसा लगा कि इस राजनीतिक दल में बहुत सारे वयोवृद्ध सचमुच ही ‘यूज अंड थ्रो’ से पीड़ित चल रहे हैं।

गत दिनों भोपाल के पूर्व भाजपा सांसद सुशील चन्द्र वर्मा ने पार्टी में अपनी उपेक्षा से दुखी होकर छत से कूद कर आत्महत्या कर ली। गत 19 साल से लगातार उनके ड्राइवर रहे श्री रामवीर गौड़ ने इस दुखद अवसर पर संवाददाताओं को बताया कि वे भाजपा नेतृत्व द्वारा अपनी उपेक्षा से बहुत दुखी रहते थे। स्मरणीय है कि भाजपा ने देश की सत्ता हथियाने के अभियान में अनेक क्षेत्रों के लोकप्रिय लोगों को पार्टी में सम्मलित किया था, श्री वर्मा भी उनमें से एक थे। वे मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव रहे थे और अपनी ईमानदारी, समझदारी, व कार्य के प्रति समर्पण के लिए बहुत मशहूर थे। बाबुओं का शहर कही जाने वाली मध्यप्रदेश की इस राजधानी में सरकारी कर्मचारियों और कायस्थ समाज ने श्री वर्मा को जिताने के लिए जी जान लगा दी थी और उनके कारण ही 1967 में जगन्नाथ राव जोशी [जनसंघ] के बाद 1989 में भोपाल से पहली बार कोई भाजपा का सांसद चुना गया था। बाद में भी श्री वर्मा लगातार 1991, 1996, 1998 में चुने जाते रहे थे। उनकी अपनी लोकप्रियता और सम्पर्कों ने ही मध्य प्रदेश की राजधानी में भाजपा को जड़ें जमाने का मौका दिया था। वरिष्ठ आईएएस अधिकारी रहे इस राजनेता ने अवसर आने पर अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री सुन्दरलाल पटवा का भी सार्वजनिक विरोध करने से गुरेज नहीं किया था।

19 वर्ष तक पुत्रवत स्नेह पाये उनके ड्राइवर श्री रामवीर गौड़ ने दुखी मन से पत्रकारों को बताया था कि उसे याद नहीं कि उनके द्वारा पोषित यह सीट उनसे छीन लेने के बाद शायद ही कोई भाजपा नेता उनसे मिलने घर आया हो, पर जब तक उनके पास कुर्सी थी तब तक नेताओं की कतारें लगी रहती थीं। मुख्यमंत्री बनने के बाद एक बार बाबूलाल गौर उनसे सदस्यता का फार्म भरवाने के लिए आये थे, पर उन्होंने साफ इंकार कर दिया था। जो अडवाणीजी हर बार टिकिट देने से पहले उनसे बात करते थे उन्होंने भी उनका टिकिट काटने और उमा भारती को टिकिट देने से पहले उनसे बात भी नहीं की थी। खुद को नजरान्दाज किये जाने का यह दुख उन्हें लगातार सालता रहता था यही कारण था कि वर्माजी उसके बाद कभी भी भाजपा के किसी भी कार्यक्रम में नहीं गये। स्मरणीय है कि जिस तरह देश में कार्यरत बहु राष्ट्रीय कम्पनियां देश के जवान खून की प्यासी हैं और अच्छे वेतन का लालच देकर उन्हें चूस चूस कर फेंक रही हैं उसी तरह भाजपा भी किसी भी क्षेत्र में लोकप्रियता प्राप्त व्यक्ति की लोकप्रियता को भुना कर उसे फेंक देने में भरोसा रखती है। वर्तमान में भोपाल के सांसद कैलाश जोशी दशकों तक मध्यप्रदेश विधानसभा में विपक्ष के नेता रहे हैं जिनके द्वारा विधानसभा में की गयी बहसों का एक संकलन पिछले दिनों प्रकाशित हुआ है। इस संकलन को पढकर उनके गौरवमयी इतिहास का पता चलता है। पर भाजपा द्वारा सुषमा स्वराज को सुरक्षित सीट देने के लिए श्री जोशी का टिकिट काटा जा रहा था जिसे पाने के लिए उन्हें जी जान लगा देनी पड़ी थी। मध्य प्रदेश में ही लगातार जीतने का रिकार्ड बनाने वाले वरिष्ठ बाबू लाल गौर को हटाकर युवा शिवराज सिंह को बैठा दिया गया जबकि बहुमत उमा भारती के साथ था। इन्हीं बाबूलाल गौर ने जब अभी हैड क्वार्टर नागपुर जा कर प्रदेश की जर्जर सड़कें और शासन- प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार की शिकायत की तो मुख्यमंत्री के चापलूसों द्वारा उनको बुढापे में मुख्यमंत्री पद के लिए ललचाने वाला व्यक्ति कह कर उनकी खिल्ली उड़ाई गयी। प्रदेश में न केवल मुख्यमंत्री ही वरिष्ठता को लाँघ करके ही बनाया गया अपितु पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष पद भी स्थानीय वरिष्ठों की उपेक्षा कर बाहर के लोगों से भर दिया गया। जो अडवाणीजी औद्योगिक क्षेत्र के लोगों से अनुभव को सम्मान देने की अपील करते हैं वे ही अपनी पार्टी शासित राज्यों में अनुभव को दूर रखे जाने पर मौन बने रहते हैं।

उम्र की वरिष्ठता के कारण जब भाजपा के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता अटल बिहारी वाजपेयी सार्वजनिक जीवन से दूर होने को विवश हो गये पर पोस्टरों पर से उनके फोटो न छापे जाने का फैसला तो नीति के रूप में लिया गया। सिकन्दर बख्त, जेना कृष्णमूर्ति मदनलाल खुराना, से लेकर केशुभाई पटेल तक एक लम्बी श्रंखला है। फिल्म अभिनेता धर्मेन्द्र तक को यह कह कर विदा होना पड़ा था कि इस पार्टी ने मुझे बहुत इमोशनली ब्लेकमेल किया। उधार के सिन्दूर से सुहागन बनी फिरती इस पार्टी का आधार जिन लोकप्रिय व्यक्तियों की लोकप्रियता पर टिका हुआ है यदि सुशील चन्द्र वर्मा की शहादत से समय रहते उन्हें समझ आ गयी तो वे इस पार्टी को उमाभारती और शत्रुघ्न सिन्हा की तरह नचाने लगेंगे।

भ्रष्टाचार की आप बीती

राजकुमार साहू

देश में बढ़ रहे भ्रष्टाचार के बारे में मैं सोच ही रहा था कि अचानक भ्रष्टाचार प्रगट हुआ और मुझे अपनी आप-बीती सुनाने लगा। मुझे लगा, भ्रष्टाचार जो कह रहा है, वह अपनी जगह पर सही है। भ्रष्टाचार कह रहा था कि देश में काला पैसा बढ़ रहा है और कमीशनखोरी हावी हो रही है, भला इसमें मेरा क्या दोष है ? दोष तो उसे देना चाहिए, जो भ्रष्टाचार के नाम को बदनाम किए जा रहे हैं। केवल भ्रष्टाचार पर ही उंगली उठार्इ जाती है, एक भी दिन ऐसा नहीं होता कि कोर्इ भ्रष्टाचारियों पर फिकरी कसे और देश के माली हालात के लिए जिम्मेदार बताए।

भ्रष्टाचार बड़े भावुक होकर कहने लगा कि बार-बार उसे ही अपमानित किया जाता है। जब कोर्इ घोटाला होता है, मीडिया से लेकर देश की अवाम भूल जाती हैं कि इसमें भ्रष्टाचारियों की मुख्य भूमिका है, न कि भ्रष्टाचार की। भ्रष्टाचार, खुद को भ्रष्टाचारियों का महज सारथी बताता है। उसका कहना है कि भ्रष्टाचारी, उसे जो कहते हैं, वो वह करता है। भ्रष्टाचारियों के साथ चलने का ही दंश झेलना पड़ रहा है।

भ्रष्टाचार ने दर्द का इजहार करते हुए बताया कि वह चाहत तो है, किसी तरह भ्रष्टाचारियों से उसका साथ छूट जाए। इसके लिए कर्इ बार माथा-पच्ची भी की। जब भ्रष्टाचारी अपनी करतूत से देश को आर्थिक संकट में डालते हंै, उसके बाद मेरी पहली मंशा रहती है कि घपले-घोटाले की पुख्ता जांच हो और भ्रष्टाचारियों को सजा हो, मगर तब मेरी सोच पर पानी फिर जाता है, जब जांच, दशकों तक चलती रहती है और बाद में नतीजा सिफर ही रहता है। कर्इ बार तो जांच के बाद भी भ्रष्टाचारियों पर आंच नहीं आती है, ऐसी सिथति बन जाती है, जैसे सांच को आंच क्या ? बस, भ्रष्टाचार ही बदनाम होता है और मुझे कोर्इ न कोर्इ तमगा भी मिल जाता है।

भ्रष्टाचार चाहता है कि जिस तरह वह जनता का कोपभाजन बनता है और तड़पता है तथा अपने हाल पर रोता है, वैसा हाल भ्रष्टाचारियों का भी हो। फिर अफसोस भी जाहिर करता है कि यहां ऐसा संभव नहीं है। उसने कहा कि आज तक किसी भ्रष्टाचारी पर कानून के लंबे हाथ पहुंच सका है। तिहाड़ भी पहुंच गए तो मौज को भी ‘कैश से ‘कैस करते हैं। बात-बात पर मुझे ही कटघरे में खड़ा किया जाता है, जिसे जायज नहीं कहा जा सकता। भ्रष्टाचार अपनी सिथति पर आहें भरते हुए अपनी आप-बीती आगे बढ़ाते हुए कहा कि उसका हाल, ‘करे कोर्इ और भरे कोर्इ की तरह है। सब करनी भ्रष्टाचारी करते हैं और करोड़ों जनता की आंखों की किरकिरी, भ्रष्टाचार बनता है। सब खरी-खोटी भ्रष्टाचार को सुनाते हैं, दिन भर लोग उसे श्राप देते रहते हैं कि भ्रष्टाचार का नाश हो जाए। हालांकि, भ्रष्टाचार इस श्राप पर मजे लेता है और कहता है कि वह तो हर पल मिटने को तैयार है, किन्तु भ्रष्टाचारी इस देश से मिटे, तब ना। भ्रष्टाचारियों से उसका साथ तो चोली-दामन का है।

अंत में, भ्रष्टाचार ने अपने संदेश में कहा कि उस पर कीचड़ उछालने और घोटाले के लिए भ्रष्टाचार की खिलाफत कर, खुद का कलेजा जलाने से कुछ होने वाला नहीं है, क्योंकि इसमें उसका कोर्इ हाथ नहीं है, सब किया-धराया भ्रष्टाचारियों का है। जब तक देश में भ्रष्टाचारी पननते रहेंगे, मजाल है कि कोर्इ भ्रष्टाचार की शखिसयत को खत्म कर दे। भ्रष्टाचारियों की करतूत जितना देश के टकसाल को खोखला करने में लगी रहेगी, उससे भ्रष्टाचार की चांदी बनी रहेगी। भ्रष्टाचार इतराता है और कहता है, मेरा इन सब से कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। उल्टे, दिनों-दिन मेरी प्रसिद्धि बढ़ती जा रही है। आज मेरा नाम हर घर तथा जुबान तक है। मेरी पहचान इस कदर कायम है कि इतिहास से मुझे मिटाया नहीं जा सकता।

भ्रष्टाचार हुंकार भरते हुए कहता है, नहीं लगता कि भ्रष्टाचारियों का कद मेरा इतना होगा, लेकिन देश की आर्थिक कद घटाने में मेरी कोर्इ भूमिका नहीं है। इस बात को देश के लोगों को समझना चाहिए और जो भी कहना है, वह भ्रष्टाचारियों को कहें, तभी कुछ होगा। केवल मन का भड़ास निकालने से काम चलने वाला नहीं है। फिर कुछ ही क्षण बाद, भ्रष्टचार मेरी नजरों के सामने से ओझल हो गया। केवल इन पलों की यादें ही शेष रह गर्इं।

चीन का बढ़ता दखल

प्रमोद भार्गव

पाक अधिकृत कश्मीर में चीनी सेनिकों की मौजूदगी भारत के लिए गंभीर चिंता का संबब है। इसे नजरअंदाज करना भारत के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकता है। क्योंकि सेना प्रमुख वीके सिंह ने पीओके में चार हजार चीनी सेनिकों की उपस्थिति बताई है। इसके पहले वायु सेना अध्यक्ष एनएके ब्राउन भी पीओंके में चीनी सेना के बढ़तेदखल पर चिंता जता चुके है। श्री सिंह के मुताबिक ये सेनिक चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के जबान है। उन्होंने यह भी साफ किया कि पाकिस्तान के इलाके में आंतकी ढांचा जस का तस है, और ये हर वक्त भारत में घुसपैठ की फिराक में हरते है। इसके पहले भी जम्मूकश्मीर के गिलगिदबाल्टीस्तान में ग्यारह हजार से अधिक चीनी सेनिकों की हलचल जारी थी, जिसे चीन ने यह कहकर नकारने की कोशिश कि थी कि यह अमला किसी गलत काम में संलग्न नहीं है। किंतु चीन ने यह साफ नहीं किया कि आखिर इतनी बड़ी सशस्त्र फौज की पहलकदमी किस लिए ?

भारतीय सीमा पर चीन और पाकिस्तानी सेना का संयुक्त युद्घाभ्यास इस बात का प्रतीक है कि चीन भारत को घेरने के लिए लगातार कदम बढ़ा रहा है। इस अभ्यास में कई गुप्त अजेंडों की झलक दिखाई दे रही है। एक, रास्थान के जैसलमेर से गुजरात के कक्ष के रण तक फैली 1100 किमी की पश्चिमी सीमा रेखा पर अब पाक के साथ चीन से भी भारत को सतर्क रहने की जरूरत है। दो, इस रेतीले क्षेत्र में भारत के तेल और गैस का बीस फीसदी भण्डार मौजूद है, साथ ही कई तेल और गैस कंपनियां नए भण्डारों की खोज में लगीं है, तय है इस भ ण्डार पर चीन की निगाहें गड़ गई हैं। तीन, अमेरिका से संबंधों में दरार आने के बाद पाकिस्तान से चीन की दोस्ती बढ़ती जा रही है। चीन जल्दी ही पाक के पहले संचार उपग्रह का प्रक्षेपण करने जा रहा है इसके साथ ही द्विपक्षीय संबंध और प्रगा़ढ़ होगें। भारत को चीन के लिए इस उपग्रह का नाम पाकसैट1 आर रखा गया है। इस उपग्रह के प्रक्षेपण का बहाना तो यह बनाया गया है कि यह मौसम पर निगरानी और उच्च क्षमता वाली संचार सुविधा पाकिस्तान को हासिल कराएगा, लेकिन हकीकत यह है है कि इसके जरिये भारत की सामरिक और रक्षा गतिविधियों पर आसमान से नजरें टिकाए रखेगा।

अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखाओं पर चीन का लगातार बढ़ता हस्तक्षेप इस बात का संकेत है कि वह इन सीमा रेखाओं को बदलने की पुरजोर कोशिश में है। इस दृष्टि से वह भारत के चारों ओर दखल दे रहा है। कुछ समय पहले चीनी सैनिकों ने वास्तविक नियंत्रण रेखा को लांघ कर भारत की परिधि में न केवल घुसने का दुस्साहस दिखाया बल्कि लद्दाख क्षेत्र में ठेकेदार को हड़काकर निर्माणाधीन यात्री प्रतीक्षालय का काम भी रूकवा दिया था। यह निर्माण इस जिले में देमचोक क्षेत्र के गोंबीर गांव में ग्रामीण विकास विभाग की इजाजत से चल रहा था। इस बेहूदी हरकत का शर्मनाक नतीजा यह रहा कि गृह मंत्रालय के निर्देश पर भारतीय सेना ने दखल देकर राज्य सरकार को यथास्थिति बनाए रखने के लिए मजबूर कर दिया। कोई जवाबी कार्रवाई करने की बजाय लाचारी की इस स्थिति ने चीनी सैनिकों की हौसला अफजाई ही की।

चीन की इस तरह की हरकतें नई नहीं है। भाईचारे और व्यापारिक समझौतों की ओट में वह भारत की पीठ में छुरा भोंकने से बाज नहीं आता। नवंबर 2009 में भी चीनी सैनिकों ने भारत के लद्दाख क्षेत्र में निर्माणाधीन सड़क रोकने की चेतावनी दी थी। इस सड़क का निर्माण भी देमचोक इलाके में हो रहा था। इसे रक्षा मंत्रालय द्वारा लेह के तत्कालीन उपायुक्त एके साहू के समक्ष आपित्तयां जताने के बाद रोक दिया गया था। अक्टूबर 2009 में भी दक्षिणपूर्वी लद्दाख क्षेत्र के देमचोक क्षेत्र में ही एक पहुंच मार्ग का निर्माण चीनी दखल के बाद रोकना पड़ा था। इसी तरह वास्तविक नियंत्रण रेखा पर देमचोक के आखिरी छोरों पर मौजूद दो ग्रामों को जोड़ने वाली सड़क के निर्माण को रोक दिया गया था।

2009 में चीनी सेना ने लेह लद्दाख के शिखरों पर चिन्हित अंतराष्ट्रीय सीमा का उल्लंघन कर पत्थरों और चट्टानों पर लाल रंग पोत दिया था। 31 जुलाई 2009 को तो चीनी सैनिक मर्यादा की सभी हदें पार कर भारत के गया शिखर क्षेत्र में डेढ़ किलोमीटर भीतर घुसकर कई चट्टानों पर लाल रंग से ‘चाइना’ और ‘चीन9’ लिख देने की हिमाकत दिखा चुके हैं। जबकि एक समझौते के तहत शिखर गया को दोनों देश अंतरराष्ट्रीय सीमा की मान्यता देते हैं। सेना समुद्र तल से 22,420 फीट ऊंची इस चोटी को ॔फेयर प्रिंसेज ऑफ स्नो’ भी कहती है। यह जम्मू कश्मीर के लद्दाख, हिमाचल प्रदेश के स्पीति और तिब्बत के केंद्र में स्थित है। इससे पहले चीनी सैनिकों के हेलिकॉप्टरों ने 21 जून 2009 को चूमार क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा को लांघ कर दूषित खाद्य सामग्री भारतीय सीमा में गिरा कर भारत को मुंह चिढाया था।

चीन लगातार 1962 के गतिरोध को तोड़ने में लगा है। अंतरराष्ट्रीय सीमा के निकट स्थित काराकोरम क्षेत्र में भी चीनी हलचलें ब़ढती जा रही हैं। चीन ने सीधे इस्लामाबाद पहुंचने के लिए काराकोरम होकर सड़क मार्ग भी तैयार कर लिया है। इस निर्माण के बाद चीन ने पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) क्षेत्र को पाकिस्तान का हिस्सा मानने के बयान भी देना शुरू कर दिए हैं। चीनी दस्तावेजों में अब इस विवादित क्षेत्र को उत्तरी पाकिस्तान दर्शाया जाने लगा है। भारत विरोधी मंशा के चलते ही चीन ने पीओके क्षेत्र में 80 अरब डॉलर का पूंजी निवेश किया है। यहां से वह अरब सागर पहुंचने की तजवीज जुटाने में लगा है। चीन की पीओके में ये गतिविधियां सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण हैं।

अरूणाचल प्रदेश में भी चीनी हस्तक्षेप लगातार मुखर हो रहा है। हाल ही में गूगल अर्थ से होड़ बरतते हुए चीन ने एक ॔ऑन लाइन मानचित्र सेवा’ शुरू की है। जिसमें उसने भारतीय भूभाग अरूणाचल और अक्साई चीन को अपने देश का हिस्सा बताया है। मानचित्र खंड में इसे चीनी भाषा में प्रदर्शित करते हुए अरूणाचल को दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा बताया है। जिस पर चीन का दावा पहले से ही बना हुआ है। इस सिलसिले में भारतीय अधिकारियों ने सफाई देते हुए स्पष्ट किया है कि दक्षिणी तिब्बत का तो इसमें विशेष उल्लेख नहीं है, लेकिन इसकी सीमाओं का विस्तार अरूणाचल तक दर्शाया गया है। इसके अलावा अक्साई चीन को जरूर शिनजियांग प्रांत का अंग बताया गया है। यह दरअसल जम्मूकश्मीर में लद्दाख का हिस्सा है।

चीन ने भारत पर शिकंजा कसने के लिए हाल के दिनों में नेपाल में भी दिलचस्पी लेना शुरू की है। कम्युनिष्ट विचारधारा के पोषक चीन ने माओवादी नेपालियों को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। ये नेता अब नेपाल से भारत और चीन के संबंधों का मूल्यांकन आर्थिक मदद के आधार पर करने लगे हैं। हालांकि भारत ने भी शक्ति संतुलन बनाए रखने के नजरिये से नेपाल के तराई क्षेत्रों में सड़कों के निर्माण हेतु 750 करोड़ रूपये की इमदाद की है। लेकिन यह मदद चीन की तुलना में नाकाफी है। चीन नेपाल में सड़कों का जाल बिछाने और विद्युत संयंत्र लगाने की दृष्टि से अरबों का पूंजी खर्च कर रहा है। इन्हीं कुटिल कूटनीतिक वजहों के चलते भारत और नेपाल के पुराने रिश्तों में हिंदुत्व और हिन्दी की जो भावनात्मक तासीर थी उसका गा़ढापन ढीला होता जा रहा है। नतीजतन नेपाल में चीन का दखल और प्रभुत्व लगातार ब़ढ रहा है। चीन की ताजा कोशिशों में भारत की सीमा तक आसान पहुंच बनाने के लिए तिब्बत से नेपाल तक रेल मार्ग बिछाना शामिल है। वैसे भी फिलहाल नेपाल, भारत और चीन के बीच बफर स्टेट का काम कर रहा है। चीन की क्रुर मंशा यह भी है कि नेपाल में जो 20 हजार तिब्बती शरणार्थी के रूप में जीवन यापन कर रहे हैं यदि वे कहीं चीन के विरूद्ध भूमिगत गतिविधियों में संलग्न पाए जाते हैं तो उन्हें नेपाली माओववदियों के कंधों पर बंदूक रखकर नेस्तनाबूद कर दिया जाए। वैसे भी चीन के प्रभावी दखल के बाद ही नेपाल में माओवादी सत्ता में बने रह सकते हैं। यदि चीन का नेपाल में इसी तरह दखल कायम रहा तो तय है कुछ ही दशकों में चीन, नेपाल की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को तो तिब्बत की तरह लील ही जाएगा, कालांतर में वहां की भौगोलिक संप्रभुता के लिए भी घातक सिद्ध होगा।

इसमें कोई दो राय नहीं कि आजाद भारत के राजनीतिक नेतृत्व ने कभी भी चीन के लोकतांत्रिक मुखौटे में छिपी साम्राज्यवादी मंशा को नहीं समझा। हालांकि प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक महार्षि अरबिंद ने परतंत्र भारत में ही चीन के मंसूबों को भांपते हुए कहा था,’चीन दक्षिणपश्चिम एशिया और तिब्बत पर पूरी तरह छाकर उसे निगलने का संकट उत्पन्न कर सकता है। साथ ही भारतीय सीमाओं तक के सारे क्षेत्र पर कब्जा जमा लेने की सीमा पार कर सकता है।’ महर्षि का यह पूर्वाभास चीनी मंसूबों पर आज खरा साबित हो रहा है। चीन ने ताइवान में पहले तो आर्थिक मदद और विकास के बहाने घुसपैठ की और फिर ताइवान का अधिपति बन बैठा। तिब्बत पर तो चीन के अनाधिकृत कब्जे से दुनिया वाकिफ है। साम्यवादी देशों की हड़प नीतियों के चलते ही चेकोस्लोवाकिया बरबादी के चरम पर पहुंचा। पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार के बंदरगाहों पर चीनी युद्धपोत लहरा रहे हैं। विश्व मंचों से चीन दुनिया के देशों को संदेश भी देने में लगा है कि भारत के पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश और म्यांमार समेत किसी भी सीमांत देश से मधुर संबंध नहीं हैं। यही नहीं चीन नकली भारतीय मुद्रा छापकर लगातार पाकिस्तान व बांग्लादेश के जरिये भारत पहुंचा कर भारतीय अर्थव्यवस्था को बिगाड़ रहा है। चीन द्वारा नकली दवाएं बनाकर उन पर ‘मेड इन इंडिया’ लिखकर तीसरी दुनिया के देशों में खपाने का सिलसिला सार्वजनिक होने के बावजूद जारी है। इन अप्रत्यक्ष व अदृश्य चीनी सामरिक रणनीतियों से आंख मूंदकर भारत अब तक मुंह चुराता रहा है लेकिन अब भारतीय सीमा से महज 25 किमी दूर संयुक्त युद्घाभ्यास को नजरअंदाज किया तो मुंह की खानी भी पड़ सकती है।