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लोकसभा चुनावों के बारे में तथ्य

indian20parliament20-2012चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की संख्या में महत्वपूर्ण वृद्धि नज़र आई है। 1952 के पहले आम चुनावों में 489 सीटों के लिए 1,864 उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे जिनकी संख्या 1971 के आम चनावों में 2,784 तथा 1980 में यह संख्या बढ़कर 4,620 हो गई। नौवें आम चुनावों में 6,160 उम्मीदवारों ने चुनावों में हिस्सा लिया और दसवें आम चुनावों में 543 सीटों के लिए 8,699 उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे। 11वीं लोकसभा के चुनावों में 543 सीटों के लिए सर्वाधिक 13,952 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा। 12वीं लोकसभा के चुनावों में उम्मीदवारों की इस संख्या में तेजी से गिरावट आई और संख्या 4,750 रह गई जिसका कारण अगस्त, 1996 में ज़मानत राशि में की गई बढ़ोत्तरी थी। वर्ष 2004 के आम चुनावों में 5,435 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा जिनके लिए निर्वाचन आयोग ने 6,87,402 मतदान केंद्र स्थापित किये। 67,14,87,930 पंजीकृत मतदाताओं में से 38,99,48,330 मतदाताओं ने अपने मताधिकार का उपयोग किया। 

वर्ष

 

सीटों की कुल संख्या

 

उम्मीदवारों की

कुल संख्या

मतदाताओं की

कुल संख्या

डाले गए मतों की

कुल संख्या

मतदान केंद्र की

कुल संख्या

1952

 

489

 

1,874

 

17,32,12,343

 

 

 

1957

 

494

 

1,519

 

19,36,52,179

 

12,05,13,915

 

2,20,478

 

1962

 

494

 

1,985

 

12,77,19,470

 

11,99,04,284

 

2,38,031

 

1967

 

520

 

2,369

 

24,89,04,300

 

15,27,24,611

 

2,43,693

 

1971

 

518

 

2,784

 

27,41,89,132

 

15,15,36,802

 

3,42,918

 

1977

 

542

 

2,439

 

32,11,74,327

 

19,42,63,915

 

3,73,910

 

1980

 

542

 

4,629

 

35,62,05,329

 

20,27,52,893

 

4,36,813

 

1984

 

542

 

5,312

 

39,98,16,294

 

24,95,85,334

 

5,05,751

 

1989

 

543

 

6,160

 

49,89,06,129

 

30,90,50,495

 

5,80,798

 

1991

 

543

 

8,668

 

49,83,63,801*

28,27,00,942

 

5,76,353*

1996

 

543

 

13,952

 

59,25,72,288

 

34,33,08,090

 

7,67,462

 

1998

 

543

 

4,750

 

60,58,80,192

 

37,54,41,739

 

7,73,494

 

1999

 

543

 

4,648

 

61,95,36,847

 

37,16,69,104

 

7,74,651

 

2004

 

543

 

5,435

 

67,14,87,930

 

38,99,48,330

 

6,87,402

 

* जम्मू- कश्‍मीर को छोड़कर

मतदाता और राजनेताओं के मध्य लोकतन्त्र

lokराजनीति का पहला सबक या कहें कि लोकतन्त्र की पहली परिभाषा यह कि ‘‘जनता का शासन, जनता के लिए, जनता के द्वारा” का कोई सैद्धान्तिक प्रभाव नहीं रह गया है। हो सकता है कि बहुत से राजनैतिक विश्लेषकों को, राजनैतिक जानकारों को, प्राध्यापकों को हमारी यह बात न जँचे पर सत्यता तो यही है। आज जिस प्रकार से सत्ता के लिए आपसी चाल और नीतियों का खेल खेला जा रहा है उसको देखकर तो लगता ही नहीं है कि जनता का शासन वाकई जनता के लिए है।
किसी भी लोकतान्त्रिक देश की सबसे पहली महती आवश्यकता यह होनी चाहिए कि उस देश की जनता स्वयं को लोकतन्त्र का नागरिक समझे। विश्व के सबसे बड़े गणतान्त्रिक देश होने का हम दावा तो करते हैं पर देखा जाये तो किसी भी रूप में सकारात्मक लोकतन्त्र का प्रभाव हमारे ऊपर नहीं दिखाई देता है। बहुत कुछ सिद्धान्तों पर निर्भर होने के बाद भी सैद्धान्तिक स्वरूप हमारे आसपास भी फटकता नहीं दिखता है।
यदि इसे किसी पूर्वाग्रह के रूप में न देखा जाये तो क्या कोई भी इस बात से इनकार करेगा कि वर्तमान में चल रही लोकसभा के लिए जब विगत चुनावों में जनता ने अपने मत का प्रयोग किया था तो उसके सामने वर्तमान प्रधानमंत्री जी का स्वरूप था? शायद ही किसी ने सोचा होगा कि माननीय मनमोहन सिंह जी इस देश के प्रधानमंत्री बनकर सामने आने वाले हैं? लोकसभा का प्रतिनिधित्व करने वाला व्यक्ति लोकसभा का पूरे पाँच वर्ष तक सदस्य ही नहीं रहा, क्या यह लोकतन्त्र का मजाक नहीं? इसी प्रकार से विगत वर्ष में चले एक राजनैतिक ड्रामे को तो कोई भी अभी तक नहीं भूला होगा, जबकि देश की एक बड़ी राजनैतिक पार्टी के समर्थन से एक निर्दलीय को मुख्यमंत्री बनना नसीब हो गया था। क्या ऐसा हमारे संविधान निर्माताओं ने सोचा होगा कि कभी इस लोकतांत्रिक देश में ऐसा भी दिन आयेगा?
वास्तव में इस देश में लोकतन्त्र यहीं तक सीमित है। जनता के सामने मशीन रहती है, पल भर को उसके सामने किसी को भी बनाने, किसी को भी बिगाड़ने की शक्ति होती है। मतदान किया और लोकतन्त्र समाप्त। यह हास्यास्पद लगता है पर सत्यता यही है। इस देश की जनता के सामने लोकतन्त्र चुनाव के समय आता है और वह भी मात्र दो-तीन पल को। इस प्रकार के लोकतन्त्र के साथ जनता कैसे सोचे कि उसका शासन, उसके लिए, उसके द्वारा चलाया जा रहा है?
मतदाता की तरह से राजनेता विचार नहीं करते हैं। यदि विचार करते होते तो किसी को अपने खानदान का नाम, किसी को अपने विगत को बताने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इस बार तो बहुत आम रूप में देखने में आया है कि मुद्दों के स्थान पर नामों के साथ चुनाव लड़ा जा रहा है। कोई किसी को इस परिवार का तो कोई किसी को दूसरे परिवार का बता रहा है। किसी के सामने दलित वोट बैंक के रूप में स्थाापित है तो कोई मुसलमानों को अपने वोट बैंक के रूप में देखना पसंद कर रहा है। विकास के नाम पर तो किसी की लड़ाई नहीं लड़ी जा रही है तो कोई न कोई बात तो ऐसी चाहिए जो जनता के मतों को उस दल के लिए परिवर्तित कर दे। जब कुछ नहीं बन सका तो प्रधानमंत्री की दौड़ शुरू हो गई है। इससे विद्रूप स्थिति शायद भारतीय राजनैतिक इतिहास मे कभी ही रही हो जबकि नेताओं को स्वयं अपने आपको प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करना पड़ रहा हो। यह भी राजनैतिक पतन की पहचान है, अस्तित्व संकट की पहचान है।
ऐसी स्थिति में जबकि न तो मतदाता के सामने और न ही राजनेता के सामने कोई रास्ता है तब लोकतन्त्र के जीवित रहने के प्रमाण जुटा पाना भी मुश्किल प्रतीत होता है। आज किसी राजनेता के नाम पर, स्वयं को दलित का मसीहा बता कर, धर्म के नाम पर अपने आपको प्रतिस्थापित कर, धर्मनिरपेक्ष का मुखौटा धारण कर मतदाताओं को रिझाने का प्रयास किया जा रहा है। राजनेताओं के लिए भी यहीं तक लोकतन्त्र है उसके बाद तो वही करना है जो सत्ता करवायेगी, कहलवायेगी। मतदाता भी अपने इस दो पल के लोकतन्त्र का उपयोग कर सुखी है। राजनेता भी इसी दो पल के लोकतन्त्र में जनता को सुन-सूझ रहा है, बाद में तो जनता ही उसे समझती, सुनती है। मतदाता और राजनेता के मध्य लोकतन्त्र कहीं पिस कर दम ही न तोड़ दे?
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डा0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
सम्पादक-स्पंदन
110 रामनगर, सत्कार के पास,
उरई (जालौन) उ0प्र0 285001
मोबा0 9793973686

जनता जमीं पर, नेता आसमां पर – हिमांशु डबराल

leader-cartoonजी हां जमीं से आसमां के सफर की ही बात हो रही है। लेकिन आपके मन में ये सवाल उठ रहा होगा की किसका सफर? मैं नेताओं के सफर की बात कर रहा हूं…
एक समय था जब नेता जनता से मिलने के लिये पैदल यात्रा पर निकलते थे, उनकी बातें सुनते थे और उस समय के नेताओं को जमीन से जुड़ा भी माना जाता था। समय बदला, राजनीति बदली और हमारे राजनेता भी बदल गये। धीरे-धीरे नेताओं ने पैदल यात्राओं की जगह गाड़ियों को चुना। कुछ ने रथ यात्राऐं निकाली और इससे फर्क भी पड़ा, रथ यात्राओं से पार्टियों ने अच्छा खासा जनाधार भी बटोरा। अब जमीन से जुड़े नेता की परिभाषा ही बदल गयी, रथ यात्रा करने वाला नेता जमीन से जुड़ा कहलाने लगा। फिर क्या था, रथ यात्राओं का सिलसिला जोर पकड़ता गया। हद तो तब हो गई, जब नेताओं ने अपनी गाड़ियों को ही रथ कहना शुरु कर दिया। माननीय आडवानी जी की रथ यात्रा का वर्णन करने की जरुरत मुझे महसूस नहीं होती। जनता के बीच ये नेता बुलेटप्रूफ गाड़ियों में आने लगे और उसे भी रथ कहने लगे। आज तो वो ‘रथ’ भी गायब हो गये हैं।

आज के नेता पैदल तो छोड़िये, गाड़ियों से भी जनता के बीच जाना पसन्द नहीं करते हैं। आज के ये नेता जनता से हवाई दौरों से ही रुबरु हो रहे हैं। जितना बड़ा नेता, उतना बड़ा हवाई जहाज और उस हवाई जहाज में नेता जी के बगल वाली सीट पर एक पत्रकार जो नेता जी की बात जनता के बीच पहुंचाये। इतनी हवा में होने के बावजूद ये नेता खुद को जमीन से जुड़ा बताते हैं।
इन नेताओं का जमीं से आसमां तक का सफर भले ही कितना सुखद रहा हो, लेकिन आज भी जनता परिवर्तन की आस लिये इन नेताओं की ओर आषा भरी निगाहों से देख रही है। पर इतने उंचे आसमान में अपने नेताओं को देखना जनता के लिए संभव नहीं है और आसमान से नेता जी को भी जनता चींटी की तरह लगती है। फिर जनता की बात कौन सुनेगा? कौन खरा उतरेगा उनकी कसौटी पर? पहले तो नेता जी से थोड़ी बहुत बात भी हो जाती थी, बात हो न हो दर्षन तो हो ही जाते थे लेकिन सूचना तकनीक में आई वृहद क्रांति के बाद, आवागमन एवं संचार के साधन तो सुलभ हो गए पर नेताजी के दर्षन और दुर्लभ हो गए। नेताजी पलक झपकते आते हैं और पलक झपकते ही फुर्र हो जाते हैं, तो भैया जनता की बात कहां से सुनेंगे। एक दिन नेता जी किसी गरीब के यहां पहुंच जाते हैं तो बड़ी वाहवाही बटोरते हैं, लेकिन करते कुछ नहीं हैं। आज नेताओं को चाहिए कि वो आसमां से जनता के बीच न पहुंचें बल्कि जमीं से ही जनता तक पहुंचे और यथार्थ के धरातल पर कुछ प्रयास करें। ये न हो कि सिर्फ वोट बटोरने पहुंचें।

आज जरुरत है, ऐसे नेताओं की जो गांधीजी की तरह जनता के भले के लिए पैदल ही निकल पड़ें और जनता को भी चाहिए कि अपने वोट के द्वारा ऐसे नेताओं पर चोट करें ताकि ये नेता फिर से जमीं पर आ पहुंचें। नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब खाली गाड़ियों पर नेता जी की मूर्ति आकर वोट मांगेगी।

– हिमांषु डबराल

मनमोहन सिंह पर जूता फेंकने की कोशिश नाकाम

पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान जूता का इस्तेमाल कुछ ज्यादा ही हो रहा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर भी रविवार को जूता फेंकने की कोशिश की गई। अहमदाबाद में एक चुनावी सभा में यह घटना उस समय हुई, जब एक युवक ने उन पर जूता फेंकने की कोशिश की।

प्रधानमंत्री ने पुलिस से उस युवक को माफ कर दिए जाने को कहा है। राजनेताओं पर जूता फेंकने की चली परंपरा की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों ने निंदा की है। यह परंपरा उस समय से चल पड़ी है, जब गत दिसंबर महीने में अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश पर इराक में एक पत्रकार ने जूता फेंका था।

 

प्रधानमंत्री ने जूता फेंके जाने के दौरान क्षण भर के लिए अपना भाषण रोका, लेकिन तब तक विशेष सुरक्षा दस्ते (एसपीजी) का एक सदस्य जूते के पास पहुंच गया। हालांकि, जूता मंच से काफी दूर था। इस घटना के बाद जनसभा में कोई हंगामा नहीं हुआ और वहां मौजूद लोगों ने प्रधानमंत्री का पूरा भाषण शांतिपूर्वक सुना।

 

सुरक्षा बलों ने जूता फेंकने वाले व्यक्ति को हिरासत में ले लिया। इस शख्स की पहचान हितेश चौहान (20 वर्ष) के रूप में हुई है। पुलिस के मुताबिक वह प्रेस दीर्घा के समीप पहली पंक्ति में बैठा था। इस घटना के लिए कांग्रेस ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से माफी मांगने के लिए कहा है।

 

कांग्रेस के प्रवक्ता एम. वीरप्पा मोइली ने कहा कि यह स्तब्ध कर देने वाली घटना है। प्रधानमंत्री के साथ जो कुछ हुआ, उसके लिए मोदी को खेद प्रकट करना चाहिए। यह घटना गुजरात में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की घृणित राजनीति का परिणाम है।

 

इस घटना की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने भी निंदा की है। भाजपा के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने एक समाचार चैनल से बातचीत में कहा कि वे इस घटना की निंदा करते हैं। यह किसी लोकतांत्रिक अभियान का हिस्सा नहीं है।

दायरों को लांघना

images292नई दिल्ली के बीचोंबीच अपना वजूद बनाए जे.पी.कॉलोनी की कहानियां अंकुर के सहारे हम तक पहुंच रही है।ठौर-ठिकाने लोगों की ज़िन्दगी भर की दौड़धूप के बाद ही बनते हैं। किसी जगह को बनाने में कितनी ही ज़िन्दगियाँ और कितनी ही मौतें शामिल होती हैं, कितने ही मरहलों से गुज़रकर लोग अपने लिये एक मुकाम, एक घर हासिल कर पाते हैं। कितने ही पसीने की बूँदें उस मिट्टी में समाकर नई जगह का रूप देती हैं। बड़ी जतन से अपनी उस जगह को सींचते है।

आदमी तो सुबह का गया शाम को घर लौटकर आता है पर औरत को तो घर से लेकर बाहर तक सभी रहगुज़र को पार करना पड़ता है।
शौहर की पाबंदी, समाज का ख्याल, तो कहीं मज़हब की दीवार आड़े आती है। लेकिन सर्वे के दौरान कई ऐसे मौके सामने आये हैं जिसने मज़हब की दीवार को भी दरकिनार कर दिया है।

मुस्लिम समाज में जब किसी औरत का शौहर गुज़र जाता है तब से लेकर साढ़े चार महीने तक औरत को पर्दे में रहकर इद् दत करनी होती है जिसमें किसी गैर मर्द (यहाँ तक कि अपने घर के मर्दो से भी) से पर्दे में रहना होता है। इस दौरान औरत को अपने घर के आँगन या खुले आसमान तक के नीचे आने की भी इज़ाजत नहीं होती। अगर किसी मज़बूरी के तहत घर के बाहर जाना हो तो चाँदनी रात में नकाबपोश होकर निकलना पड़ता है।

लेकिन आज सर्वे के दौरान मजहबी पाबंदी होने के बावजूद उनको बाहर आना पड़ा। जब सर्वे अधिकारी ने काग़ज मांगे तो वो खुद आगे आई। आसपास खड़ी भीड़ भी उन्हें खामोशी से देख रही थी। किसी ने कहा : “इनके शौहर नहीं रहे। अभी ये इद् दत में हैं।”
इस बात को सर्वे अधिकारी भी समझते थे। उन्होंने कहा : “आप अंदर जाइये हम सर्वे कर देगें।”
वो अपने काले नकाब में ख़ुद को छुपाती हुई अंदर घर में ओझल हो गईं।

फरज़ाना

सिनेमाई गीतों का लोकराग

teesrikasam_1बात कुछ यूं है कि पचहत्तर साल के सफर में फिल्मी गानों ने अपना अंदाजे-बयां कई बार बदला। वैसे, यह अब भी जारी है। यहां एक साथ संपूर्ण चर्चा तो मुमकिन नहीं किन्तु, हम एक धार में तो गोता लगा ही सकते हैं।क्या है न कि लोकगीतों व खान-पान से हमारी संस्कृति का खूब पता चलता है। हमारी रुचि और आदतें यहीं से बनती और संवरती हैं। इससे अलग होना बड़ा कठिन है। हरी-मिर्ची और चोखा के साथ भात-दाल खाने वाले ठेठ पूरबिया को मराठवाड़ा घूमते वक्त कई-कई दिन बड़ा-पाव पर गुजारना पड़े तो उसकी हालत का अंदाजा लगाइए। फिर भी, अपने गांव-कस्बे से दूर, बहुत दूर बड़ा-पाव खाते वक्त गीतकार अनजान के गीत ”पिपरा के पतवा सरीखे मोर मनवा कि जियरा में उठत हिलोर” की धीमी आवाज कहीं दूर से कानों को छूती है तो तबीयत रूमानी हो जाती है। कदम अनायास उस ओर मुड़ जाते हैं। मन गुनगुना उठता है ”पुरबा के झोंकवा में आयो रे संदेशवा की चलो आज देशवा की ओर।”

खैर! सिनेमाई गीतों द्वारा जगाई इसी रूमानियत के बूते मराठवाड़ा में अगले कुछ दिन रस भरे हो जाते हैं। तब धीरे-धीरे बड़ा-पाव भी स्वाद के स्तर पर हमारी रुचि का हो जाता है। ठीक यही हाल पंजाब की गलियों में तफरीह करते और ‘मक्के दी रोटी और सरसों दा साग’ खाते किसी दूर प्रदेश के ठेठ आंचलिकता पंसद लोगों की भी होगी। किन्तु इस बहुसांस्कृतिक देश में जहां भी जाएं कुछ अरुचि के बाद नई रुचि जन्म ले लेगी।

सिनेमाई गीतों ने नई रुचि पैदा करने और विभिन्न लोक संस्कृतियों से अवगत कराने का बड़ा काम किया है। इस बहुभाषीय देश में सभी की रूमानियत परवान चढ़ सके, इसका पूरा खयाल सिनेमाई गीतकारों- संगीतकारों ने रखा है। जब हिन्दी सिनेमा आवाज की दुनिया में दाखिल हुआ तो लोकगीतों को पहली मर्तबा राग-भोपाली, भैरवी, पीलु और पहाड़ी आदि में पिरोया जाने लगा। त्योहारों के गीत परदे पर उतारे जाने लगे:-
‘अरे जा रे हट नटखट न छेड़ मेरा घुंघट…
पलट के दूंगी आज तोहे गारी रे…
मुझे समझो न तुम भोली-भाली रे…।’

आशा और महेन्द्र कपूर की आवाज में गाया गया यह गीत राग-पहाड़ी पर आधारित है। पारम्परिक त्योहारों-ऋओं पर ऐसे हजारों लोकगीत हैं। इसके अलावा दैनिक जीवन में लगे लोगों के मनोभावों को अभिव्यक्त करने के लिए भी आंचलिक गीतों का सहारा लिया गया। इसकी एक बानगी-
‘उड़े जब-जब जुल्फें तेरी
क्वारियों का दिल मचले दिल मेरिये।’

यकीनन, इस गीत से पंजाब की गलियों में खिलते रोमानियत के फूल की खुशबू आती है। इन सभी गानों में इतनी मिठास है कि कई बार रिवाइन्ड करके लोग इसे सुनते हैं। तीन-चार मिनट के इन लोकगीतों में इतनी कसक और नोस्तालजिया है कि पूछिए मत! हमारे सामने सीधे गांव और वतन की तस्वीर उभर आती है। इसे बार-बार सुनने-देखने की तबीयत होती है। इसके बूते लोग दिन-महीने-साल गुजार देते हैं। लोकधुनों पर आधारित सरल संगीतमय गीतों की सफलता में तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों ने भी अपनी तरफ से महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

उसी जमाने से लोग गांव छोड़कर शहरों में बसने लगे। बड़े शहरों-महानगरों और बन पड़ा तो विदेश की ओर पलायन करने लगे। लेकिन, वे गांव की संस्कृति से अलग होकर भी वहां की स्मृतियों को जेहन से मिटा नहीं पाए। अपनी लोकधुनें कान पर पड़ी नहीं कि छोड़ आई उन गलियों की स्मृतियां लौट आती हैं। लोग गाने लगते हैं-‘मेरे देश में पवन चले पूरबाई’

भई आखिर बात ही कुछ ऐसी है, बसंत आया नहीं कि सब कुछ पीला दिखने लगता है। एक अजीब खुमारी छा जाती है जो चारो तरफ पंजाब की गलियों में गूंजने लगती हैं।
‘पीली पीली सरसों फूली
पीली उडे पतंग
पीली पीली उड़ी चुनरिया
पीली पगड़ी के संग
आई झूम के बसंत।’

लोकगीत नई अनुभूतियों के साथ खुद को बदलता जाता है। अब तो देहाती धुनों-बोलों में शहरी नवीनता मिलने लगी है। ‘बंटी और बबली’ के गाने इसके गवाह हैं। यहां ठेठ देहाती शब्दों के बीच अंग्रेजी के शब्दों का भी इस्तेमाल हुआ है। ‘कजरारे-कजरारे मोरे कारे-कारे नैना’… पर्शनल से सवाल करते हैं। यहां पर्शनल क्या है? और मोरे, कजरारे, कारे वगैरह। ये तो अंचल की खुशबू देते हैं।

तो क्या है न कि बंबई नगरिया देश के सुदूर हिस्सों से आए लोगों की जमात ने इस नगरी में बिलकुल भेलपुरीनुमा हिन्दी यानी, बंबइया हिन्दी को धानी बनाया। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि जिस जगह की अपनी कोई मातृभाषा नहीं है उसने लोकगीतों-संगीतों की नवीन रचना के वास्ते उपयुक्त जगह और माहौल प्रदान किया। संगीतकार नौशाद का मानना है कि गीतकार डीएन मधोक लोकगीत को

हिन्दी सिनेमा में स्थान देने वाले शुरूआती लोगों में बड़े महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। सन् 1940 में बनी ‘प्रेमनगर’ के लिए उन्होंने लोकगीतों पर आधारित गाने लिखे जैसे-‘मत बोले बहार की बतियां’। पर नए शोध से यह मालूम हुआ कि 1931-33 से ही कई अनजान गीतकार लोकगीतों पर आधारित गाने फिल्मों के लिए लिख रहे थे जैसे ‘सांची कहो मोसे बतियां, कहां रहे सारी रतियां’ ; फरेबीजाल-1931ई। तब से लेकर आज तक अनेक गीतकारों-संगीतकारों ने लोक-संगीत को फिल्मों में दिखाने-सुनाने में जबरदस्त रुचि दिखाई। याद कीजिए ‘गंगा-जमुना’ का गीत-‘तोरा मन बड़ा पापी सांवरिया।’ ‘मोरा गोरा अंग लईले’ ;बंदिनी, ‘जिया ले गयो री मोरा सांवरिया’ ;अनपढ़। ‘इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मोरा’ ;पाकीजा, ‘चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया’ ;तीसरी कसम। हिन्दी सिनेमा में ऐसे हजारों गीत हैं। ये गीत कानों में पड़ें तो क्यों न तबीयत रूमानी हो जाए। ।

सकारात्मक राजनीति के लिए राजनीति में आना होगा

India Electionsवर्तमान लोकसभा चुनावों में तमाम प्रयासों के बाद भी मतदान का प्रतिशत प्रथम एवं द्वितीय चरण में बढ़ता नहीं दिखा। मतदाताओं की इस नकारात्मक या कहें कि उदासीन स्थिति के कारण प्रत्याशी पशोपेश में हैं। अमेठी के मतदान को लेकर तो प्रियंका ने अपनी स्थिति को स्पष्ट भी कर दिया है। लोकतन्त्र में मतदाताओं की इस स्थिति को कदापि उचित नहीं ठहराया जा सकता है।
अकसर मतदान को लेकर और प्रत्याशियों को लेकर एक ही सवाल किया जाता है कि क्या करेंगे वोट करके? मतदाताओं की यह स्थिति और सोच लोकतन्त्र के लिए कदापि सही नहीं है। इस प्रकार के कदम जहाँ एक ओर अच्छे लोगों को मतदान से दूर करते हैं वहीं दूसरी ओर गलत प्रत्याशियों का भी चुनाव करवाते हैं। इसको इस प्रकार से आसानी से समझा जा सकता है कि अपने देश में आमतौर पर औसत मतदान प्रतिशत 51-55 तक रहता है। यह भी व्यापक रूप से मतदान के बाद की स्थिति है।
मान लिया जाये कि किसी चुनाव में मात्र 55 प्रतिशत तक मतदान होता है तो यह तो तय रहता है कि मत न देने वालों का प्रतिशत 45 है। अब जीतने वाले को कितने भी मत प्राप्त हों वे अवश्य ही समाज में एक विरोधाभासी स्थिति को पैदा करते हैं। यह स्थिति मतदान में अरुचि रखने वालों के कारण हो रही है। इस बार के चुनावों में प्रत्येक स्तर पर यह प्रयास किये गये कि मतदान का प्रतिशत बढ़े किन्तु सफलता प्राप्त नहीं हो सकी। इधर कुछ तथ्यों की ओर चुनाव आयोग के साथ-साथ नीति नियंताओं को भी गौर करना होगा। मतदान में आती कमी लोकतन्त्र को ही खोखला कर रही है।
जहाँ तक सवाल अच्छे या बुरे लोगों के चयन का है तो यह तो सत्य है कि विधानसभा, लोकसभा को प्रत्येक पाँच वर्ष के बाद अपनी सीटों को भरना है। अब यदि अच्छे लोगों का रुझान इस ओर नहीं होगा तो निश्चय ही इस सीट पर उनके स्थान पर और कोई बैठेगा, अब वह अच्छा होगा या बुरा यह कैसे कहा जा सकता है। गलत लोगों के लिए तो संसद में जाने का रास्ता तो हम लोगों ने ही खोला है। यह सोचना तो नितांत बेवकूफी है कि यदि हम मतदान नहीं करेंगे तो इन राजनेताओं के दिमाग सही रहेंगे। मतदान न करके हम अपने आपको ही सीमित कर ले रहे हैं।
यह बात भी सत्य साबित हो सकती है कि आज राजनीति में माफियाओं का, बाहुबलियों का बोलबाला है। इसके साथ-साथ यह भी बात सत्य है कि तमाम सारे प्रत्याशियों में सभी ही बाहुबली नहीं होते हैं, सभी का सम्बन्ध माफिया से नहीं होता है। हम यह जानते हुए भी कि एक सीधे-सरल व्यक्ति को वोट करने से भी वह नहीं जीतेगा, सम्भव है कि हमारा मत बेकार चला जाये किन्तु क्या उस सही व्यक्ति को मिलता अधिक मत प्रतिशत यह साबित नहीं करेगा कि अब मतदाता एक लीक पर चल कर बाहुबलियों, धनबलियों को ही वोट नहीं करेंगे। मतदान के होने से उन राजनेताओं पर भी दबाव बनता है तो हमारे मत के बिना भी विजयी हो जाते हैं और हमारे मतदान न करने को मुँह चिढ़ाते हैं।
व्यवस्था से दूर रहकर व्यवस्था को सुधारा नहीं जा सकता है, उसे सुधारने के लिए उसी में शामिल होना पड़ेगा। जिस प्रकार से लोगों में मतदान के प्रति नकारात्मक भाव बढ़ता जा रहा है वह ही गलत लोगों को आगे आने को प्रोत्साहन प्रदान करता है। राजनैतिक क्षरण के लिए माफिया नहीं, हम सब जिम्मेवार हैं। सकारात्मक वोट के द्वारा हम राजनैतिक दलों पर भी दवाब बनायें कि वे ज्यादा से ज्यादा उम्मीदवार साफ-सुथरी छवि के लोगों को बनायें। वोट की चोट से ही माफिया को, बाहुबलियों को रोका जा सकता है।
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डा0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
सम्पादक-स्पंदन

मप्र में मीसा बंदियों के साथ भेदभाव

images36मध्यप्रदेश में मीसा बंदियों के साथ भेदभाव का मामला सामने आया है। यहां आपातकाल के दौरान मीसा के तहत बंदी बनाए गए लोगों को उनकी पार्टीगत निष्ठा को देखते हुए पेंशन दिया जा रहा है।साथ ही जिला स्तर पर गहरी छानबीन किए बगैर कई आपराधिक प्रवृति के लोगों को भी यह सम्मान दिया गया है। राज्य सरकार ने 20 जून 2008 को घोषणा की थी कि आपातकाल के दौरान मीसा कानून के तहत बंदी बनाए गए सभी लोगों को अप्रैल 2008 से प्रत्येक माह आजीवन जयप्रकाश नारायण सम्मान पेंशन दिया जाएगा। घोषणा के मुताबिक जिन लोगों को आपातकाल के दौरान छह माह से कम अवधि तक जेल में बंद रखा गया था, उन्हें तीन हजार रुपये और उससे अधिक समय तक जेल में बंद रहे लोगों को छह हजार रुपये दिए जाएंगे। लेकिन, जिला स्तर पर इसके क्रियान्वयन को लेकर कई सवाल उठने लगे हैं।

समाजवादी जन परिषद (मध्यप्रदेश) के प्रदेश अध्यक्ष अजय खरे ने बताया, “जयप्रकाश नारायण सम्मान निधि नियम-6 की गलत व्याख्या कर जिला प्रशासन ने समाजवादी पृष्ठभूमि वाले संघर्षशील नेताओं को सम्मान पेंशन पाने से वंचित कर दिया है।” रीवा जिला प्रशासन के इस रवैये से अजय खरे समेत कई हकदार लोग पेंशन पाने से वंचित रह गए हैं। इनमें वर्तमान सांसद चंद्रमणि त्रिपाठी समेत कई लोग शामिल हैं।

खरे के मुताबिक सम्मान पेंशन स्वीकृत करने को लेकर जिला स्तर पर जो भी कार्यवाई हुई उसमें सभी कायदे-कानूनों को ताक पर रख दिया गया। उन्होंने कहा, “संघ परिवार से संबंध रखने वाले नारायण प्रसाद, श्रीनाथ पटेल जैसे कई लोगों को पेंशन स्वीकृत कर दिया गया। लेकिन, नियमों की गलत व्याख्या और तत्समय जैसे महत्वपूर्ण शब्दों की हेराफेरी कर समाजवादी धारा से जुड़े लोगों को इस सम्मान से वंचित रखा गया है।”

गौरतलब है कि सरकार की और से जारी दिशा निर्देश के अनुसार सम्मान पेंशन के लिए उपयुक्त व्यक्ति की अनुशंसा के लिए जिला स्तर पर एक समिति बनाई गई थी। जिला कलेक्टर व दंडाधिकारी, जिला पुलिस अधीक्षक और जेल अधीक्षक इस समिति के सदस्य हैं, जबकि जिले के प्रभारी मंत्री को समिति का अध्यक्ष बनाया गया है।

इस समिति की ओर से जिला रीवा में सम्मान पेंशन की पात्रता के लिए 26 फरवरी 2009 को जो कार्यवाही हुई, उसपर कई सवाल खड़े किए जा रहे हैं। साथ ही रीवा की जिला समिति के गठन की प्रक्रिया ही गलत बताई गई है। प्राप्त जानकारी के मुताबिक रीवा की जिला कलेक्टर व दंडाधिकारी ने डा. एम. गीता ने जिले के अतिरिक्त जिलाध्यक्ष को भी बतौर सदस्य समिति में शामिल किया है, जो कानून सम्मत नहीं है।

खरे ने समिति के फैसले पर कड़ी आपत्ति दर्ज करते हुए कहा, “जिले में समिति के गठन की प्रक्रिया ही अवैधनिक है। इसलिए समिति की ओर से लिए गए सभी निर्णय को अमान्य करार देते हुए नए सिरे से सम्मान पेंशन प्रक्रिया का निपटारा होना चाहिए।”

उन्होंने कहा, “आपातकाल के दौरान 22 जुलाई 1977 को रीवा के तत्कालीन जिलाध्यक्ष एवं दंडाधिकारी के आदेश पर मुझे गिरफ्तार किया गया था। डेढ़ वर्ष तक मुझे जेल में रखा गया। हालांकि, इससे पहले आपराधिक गतिविधि में शामिल रहने का मेरे ऊपर कोई आरोप नहीं था। इसके बावजूद मुझे सम्मान पेंशन के योग्य नहीं समझा गया। ऐसे और भी साथी हैं। दूसरी ओर घोर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सुशील पांडे की विधवा ममता पांडे, प्रमोद सिंह, दलबीर सिंह जैसे लोगों को सम्मानित किया गया है। यह मीसा बंदियों के लिए अपमान की बात है।”

संपूर्ण क्रांति के नायक लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि आने वाले समय में आंदोलन में भाग लेने वाले मीसा बंदी अपराधी करार दिए जाएंगे, जबकि कई अपराधियों को मीसा बंदी बतलाकर सरकार सम्मानित करेगी।

वाल्मीकि व्याघ्र परियोजना – अफरोज आलम ‘साहिल’

tigerखबर है कि केन्द्र सरकार के ढाई करोड़ की राशि से वंचित होने के बाद भी वाल्मीकि व्याघ्र परियोजना कार्यालय (वाल्मीकीनगर, बिहार) की ओर से वर्ष 2009-10 के लिए नया वार्षिक योजना बनाने की कवायद तेज कर दी गयी है। सूत्रों की मानें वार्षिक योजना पर अंतिम रिपोर्ट अप्रैल माह के अंत तक तैयार कर दिया जायेगा। लगभग 900 वर्ग किलोमीटर में विस्तृत इस परियोजना क्षेत्र का विकास एवं प्रबंधन वार्षिक योजना की राशि से पूरा किया जाता है। समय पर इस राशि के नहीं मिलने से बाघों की सुरक्षा पर प्रतिकूल असर पड़ता है।

स्पष्ट रहे कि वर्ष 2008-09 में वार्षिक योजना के रूप में केन्द्र सरकार ने कुल ढ़ाई करोड़ रुपये की स्वीकृति दी थी। यह स्वीकृति जुलाई माह में मिली, लेकिन बिहार सरकार के लापरवाही के चलते समय पर वाल्मीकि व्याघ्र परियोजना को यह राशि नहीं मिल सकी। इससे जहां एक ओर इतनी बड़ी राशि से टाईगर प्रोजेक्ट को हाथ धोना पड़ा है, तो दूसरी ओर यहां के वनों की सुरक्षा एवं वन प्राणियों के अस्तित्व पर संकट उत्पन्न हो गया है। अगर समय रहते राज्य सरकार की ओर से पहल नहीं की जाती है, तो सुबे का एक मात्र टाईगर प्रोजेक्ट कुछ ही दिनों में नष्ट हो सकता है। इतना ही नहीं राज्य सरकार की लापरवाही के वजह से टाईगर प्रोटेक्शन फोर्स का गठन वर्ष 2008-09 के तहत नहीं हो सका है। वनों की सुरक्षा के लिए नियमित गश्ती भी पिछले चार माह से बंद है। जबकि बाघों की सुरक्षा के लिए केन्द्र सरकार के निर्देश पर प्रत्येक टाईगर रिजर्व क्षेत्र में टाईगर प्रोटेक्शन फोर्स का गठन किया जाना है।

 आश्चर्य की बात तो यह है कि मानदेय की राशि नहीं मिलने से सुरक्षा के लिए लगाये गये पांच भूतपूर्व सैनिक नौकरी छोड़ दिये। अब दस भूतपूर्व सैनिक ही अपनी सेवा दे रहे हैं। इधर डीएफओ एस. चन्द्रशेखर की माने, तो भूतपूर्व सैनिकों के मानदेय के भुगतान के लिए गैर योजना मद से चार लाख रुपये दिये गये हैं। इससे उनके एक वर्ष में से मात्र आठ माह का ही वेतन भुगतान हो पाया है। इसके अलावा अतिरिक्त राशि की मांग राज्य सरकार से की गयी है। स्पष्ट रहे कि टाईगर प्रोजेक्ट में सुरक्षा सहित विभिन्न योजनाओं का संचालित करने के लिए केन्द्र सरकार की ओर से प्रति वर्ष वार्षिक योजना की राशि दी जाती है। राशि की स्वीकृति के बाद केन्द्र सरकार के नेशनल टाईगर कंजर्वेशन ऑथारिटी एवं बिहार सरकार के बीच मोड ऑफ अंडरस्टैडिंग कराया जाता है। इसके बाद राशि का इस्तेमाल हो सकता है। आश्चर्य तो यह कि केन्द्र सरकार ने वर्ष 2008-09 के लिए जुलाई 08 में दो करोड़ 50 लाख रुपये स्वीकृत की थी, जिसमें प्रथम किस्त के रूप में उसी माह एक करोड़ रुपये वाल्मीकि टाईगर प्रोजेक्ट को दे दिया गया। लेकिन राज्य सरकार की ओर से एमओयू पर दस्तखत नहीं होने के कारण  31 मार्च बीत जाने के बाद भी उस राशि का इस्तेमाल नहीं किया जा सका। प्रथम किस्त की उपयोगिता प्रमाण पत्र नहीं देने के चलते दूसरी किस्त की राशि से भी हाथ धो लेना पड़ा।

ऐसा नहीं है कि यह घटना पहली बार हुआ। इससे पूर्व भी बिहार सरकार इस तरह की लापरवाही लगातार दिखाती रही है। पिछले आठ वर्षों में केन्द्र सरकार द्वारा जारी फंड और बिहार सरकार द्वारा किए गए खर्चों को देखे तो आश्चर्य होगा। वर्ष 2000-01 में केन्द्र सरकार ने 38.7765 लाख रुपये दिए, पर बिहार सरकार ने सिर्फ 17.73454 लाख रुपये ही खर्च किया। वर्ष 2001-02 में केन्द्र सरकार ने 50 लाख रुपये जारी किए, पर बिहार सरकार सिर्फ 3.75 लाख रुपये ही खर्च कर पाई। वर्ष 2002-03 में केन्द्र सरकार ने 39.15 लाख रुपये उपलब्ध कराए, और बिहार सरकार ने इसे पूरा  खर्च कर दिया।

वर्ष 2003-04 में केन्द्र सरकार ने 50 लाख रुपये दिए, और बिहार सरकार ने खर्च किया 77.828 लाख रुपये। वर्ष 2004-05 में केन्द्र सरकार ने 85 लाख रुपये दिए, बिहार सरकार ने सिर्फ 42.7079 लाख रुपये ही खर्च किया। वर्ष 2005-06 में केन्द्र सरकार ने कोई फंड उपलब्ध नहीं कराया, लेकिन बिहार सरकार ने 73.2290 लाख रुपये खर्च किए। वर्ष 2006-07 में केन्द्र सरकार ने 63.9554 लाख रुपये दिए, और बिहार सरकार ने 73.8575 लाख रुपये खर्च किया। वर्ष 2007-08 में केन्द्र सरकार ने 92.810 लाख रुपये दिए, और बिहार सरकार ने  66.9436 लाख रुपये खर्च किया।

यह सारे आंकड़े भारत सरकार के पर्यावरण व वन मंत्रालय के नेशनल टाईगर कंजरवेशन ऑथोरिटी से लेखक द्वारा डाले गए आर.टी.आई. के माध्यम से प्राप्त हुए हैं। मंत्रालय ने यह फंड बिहार के वाल्मीकी टाईगर रिजर्व के विकास एवं संरक्षण हेतु उपलब्ध कराए थे। 

 

 

 

दुधवा टाईगर रिजर्व, उत्तर प्रदेश को केन्द्र द्वारा उपलब्ध कराई गई राशि का ब्यौरा:-

वित्तीय वर्षकेन्द्र सरकार द्वारा जारी राशिराज्य सरकार द्वारा खर्च की गई राशि
2000-01

122.36 लाख रुपये

115.96 लाख रुपये

2001-02

77.00 लाख रुपये

74.15 लाख रुपये

2002-03

30.30 लाख रुपये

30.30 लाख रुपये

2003-04

173.585 लाख रुपये

162.735 लाख रुपये

2004-05

174.715 लाख रुपये

178.402 लाख रुपये

2005-06

162.875 लाख रुपये

162.875 लाख रुपये

2006-07

183.265 लाख रुपये

101.77 लाख रुपये

2007-08

134.89 लाख रुपये

115.99 लाख रुपये

 

– अफरोज आलम ‘साहिल’

आईपीएल बनाम चुनाव

dlf-ipl-schedule-season-21आईपीएल साउथ अफ्रीका पलायन कर गया तो क्या, अपुन लोग फिर भी तो मस्त हैं। इस बार का आईपीएल उत्सव कई मायने में खास है। एक ओर फिल्म स्टार्स की टीमें दांव पर लगी हैं तो दूसरी और लोकतंत्र के नुमाइन्दो की प्रतिष्ठा।

एक ओर साउथ अफ्रीका की उछाल मारती पिचों पर बेपरवाह बाउंसर तो एक ओर चुनावी पिचों पर चोके छक्के ठोंकते डेमोक्रेटिक प्लेयर्स। साउथ अफीका का पॉलिटिक्स से खास लेना देना है। महात्मा गाँधी ने अपनी जिंदगी का एक अरसा व्यतीत किया है वहां पर। अपने विजय माल्या साब जिन्होंने गाँधी की बची खुची चीजें खरीदकर राष्ट्रपिता की लाज रखी वो भी डटे हुए हैं अपनी पूरी टीम के साथ।

आईपीएल साउथ अफ्रीका पलायन कर गया तो क्या, अपुन लोग फिर भी तो मस्त हैं इस बार का आईपीएल उत्सव कई मायने में खास है। एक ओर फिल्म स्टार्स की टीमें दांव पर लगी हैं तो दूसरी और लोकतंत्र के नुमाइन्दो की प्रतिष्ठा।

साउथ अफ्रीका काफी अरसे से रंग भेद का शिकार रहा है और इधर शिल्पा शेट्टी को रातों रात स्टार बना देने वाली जेडी गुडी का नस्लभेदी कमेन्ट। अजी भूल गए जनाब. शिल्पाजी भी राजस्थान रायल्स के बिग ब्रदर्स संग जोर आजमाइश में जुटी हुई हैं। डिम्पल गर्ल प्रीती जिंटा जो पिछली बार खिलाडियों को जादू की झप्पी देती रहीं, इस बार के सीजन में नए अंदाज में अवतरित हुई हैं सॉफ्ट ड्रिंक विथ हार्ड समोसों के काम्बिनेसन के साथ।

सल्लू मियां पार्टी निरपेक्षता के सिद्धान्त के बल पर हर दल के स्टार प्रचारक बने फिर रहे हैं तो किंग खान भी नाइट राइडर्स के स्टारडम को भुनाने के लिए फिलम विलम कर शूटिंग छोड़ पैवेलिएन में बैठ हाथ हिलाते नज़र आ रहे हैं। खुन्नस तो दादा गांगुली को हुई है जिनकी कप्तानी छीन उन्होंने रही सही इंटरनेशनल इज्जत की मिटटी पलीत कर दी। मुन्ना भाई ने अपने को सीमित कर लिया है अब वो एक ही पार्टी के लिए शूटिंग करेंगे डिफरेंट्स लोकेशंस पर।

सस्पेंस का तड़का, थ्रिलर का लाइव शो, हारर का रोमांच सब उपलब्ध है जरूरत है बस रिमोट का बटन दबाने की। मैथ वालों के लिए मुफ्त की आंकड़ेबाजी गर्मियों की छुट्टी में फुल टाइम पास। मंदिरा बेदी की दिलकश समीक्षा सुनिए मन उकताए तो चैनेल चेन्ज कीजिये और उठाइए चुनावी पुरोधाओं की गरमा गर्म बहस का ठंडा ठंडा लुफ्त। आईपीएल की ढोल विथ चुनावी एग्जिट पोल। ढोल की पोल हर बार के माफिक खुलेगी ही आखिर जनता की परख कैच कर पाना उतना ही मुश्किल है जितना कि आईपीएल चैम्पियन का चुनाव।

चुनाव के अटकलबाज और आईपीएल के सट्टेबाज समान रूप से सक्रिय हो गए हैं। चवन्नी-अठन्नी से लेकर लाखों करोडों के वारे न्यारे कुछ ही दिनों में हो जायेंगे। कोई सत्ता जीत मालामाल होगा तो कोई सट्टा।

-पंकज प्रसून

मंदिरा बेदी का नया लुक किस के लिए?

mandira_iplआईपीएल-2 के दूसरे संस्करण की एक्सट्रा इनिंग्स मे नये लुक के साथ प्रस्तुत हुई है। अपनी पोशाक और हेयर ड्रेसिंग के लिए चर्चा में रहने वाली मंदिरा का नया लुक भी चर्चा का कारण है। आखिर यह लुक किस के लिए है। वैसे तो यह दक्षिण अफ्रीका के अनुरूप है। क्यों कि जैसा देश वैसा भेष ही ठीक रहता है। परन्तु वे सैट मैक्स के अंग्रेजी वर्जन में प्रस्तुत हो रही है। हिन्दी वर्जन में न तो मंदिरा है और न ही अन्य कोई महिला एंकर। यानि ग्लेमर विहीन है आईपीएल की हिन्दी। इसलिए अब आप तो समझ गये होगे कि मंदिरा का नया लुक अंग्रेजी जानने वालो के लिए है।

बॉलीवुड सितारों की हार
प्रतियोगिता में पहले दो दिन बॉलीवुड सितारों की चमक फीकी पड़ गईं। प्रीति जिंटा, शिल्पा शेट्टी और शाहरूख की टीमें बुरी तरह मैच हार गई। तीनों ही सितारे अपनी टीमों का जोश बढ़ाने के लिए दर्शक दीर्घा में मौजूद थे। उनकी मौजदूगी ने अखबारों में तो सूर्खियां बटोर ली परन्तु उनकी टीमें रन नहीं बटोर सकी। अब उनको समझ में आ गया होगा कि रील लाईफ सब कुछ अच्छा नहीं होता है। मैदान में सितारों की चमक से काम नहीं चलता वहां तो बल्ले की चमक ही काम आती है।

चुनाव पर भारी आईपीएल
आईपीएल शुरू हुए दो दिन नहीं हुए कि यह चुनाव पर भारी पड़ गया है। मीडिया से लेकर आम जनता तक अब चुनाव दूसरे नंबर आ गया है। नेताओं की शाम की सभाओ में भीड़ जुटाना मुश्किल हो गया है। यहां तक कि सट्टा बाजार में भी चुनाव दूसरे नंबर पर खिसक गया है। शहरों और कस्‍बों के गली और नुक्कडों पर भी आईपीएल की ही चर्चा है। ऐसे में यदि चुनावों में कहीं आईपीएल को देश से बाहर करने का मुद्दा बन गया तो आप ही सोच सकते है कि इसका किसको फायदा होगा और किसको नुकसान?

प्रस्तुति- मनीष कुमार जोशी

आईपीएल में विवाद का कारण है ‘एस’

बिलकुल सही है। आईपीएल में अधिकांश विवादो की जड़ अंग्रेजी का अक्षर ‘एस’ ही है। आईपीएल से जुड़े जितने विवाद है, वे एस नाम से शुरू होने वाले व्यक्तियों द्वारा ही किये गये है। सौरव गांगुली का विवाद अपने कोच के साथ हुआ । शाहरूख खान ने सुनील गावस्कर को भली बुरी सुनाकर बखेड़ा खड़ा किया। शेन वार्ने का विवाद अपनी ही टीम के मो. कैफ के साथ हुआ। सबसे बड़ा विवाद जिसके कारण आईपीएल दक्षिण अफ्रीका में हुआ, उसका कारण भी एस ही है। जी हां । सुरक्षा के विवाद के कारण ही आईपीएल भारत से बाहर कराना पड़ा। अब आप भी मान गये होंगे कि आईपीएल विवाद की जड़ अंग्रेजी का ‘एस’ अक्षर ही है।

हार का कारण है सुंदरिया

जिस टीम के साथ बॉलीवुड की सुंदरिया जुड़ी है। उन्हे हार का मुंह देखना पड़ा है। प्रीति जिंटा की टीम अच्छी होने के बावजूद आईपीएल .1 अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाई थी। नाईट राईडर्स का समर्थन पिछली बार जुही चावना ने किया था और टीम खिताब तक नहीं पहुंच पाई। आईपीएल .1 में मुंबई इंडियन्स का समर्थन भी बॉलीवुड अभिनेत्रियों ने किया था और टीम ने फाईनल से पहले ही दम तोड़ दिया है। अब शिल्पा शेट्टी राजस्थान रॉयल्स से जुड़ी है। अब आप ही सोच सकते है कि इस टीम का क्या होगा?

चीयर्स लीडर्स के दीवानों के लिए खुश खबर

दक्षिण अफ्रीका में आईपीएल होने से भले ही नाराजगी हो। परन्तु यह चीयर्स लीडर्स के दीवानों के लिए खुश खबर है। अब चीयर्स लीडर्स बिना बंदिश के अपना प्रदर्शन कर सकेगी। चीयर्स लीडर्स का प्रदर्शन वैसे तो कला की श्रेणी में आता है लेकिन पता नहीं लोग चीयर्स लीडर्स के किस प्रदर्शन के दीवाने है? अब कह रहे है चीयर्स लीडर्स का असली खेल तो दक्षिण अफ्रीका के स्टेडियम में ही देखेंगे। उनका कहना है वे तो मैच में चीयर्स लीडर्स ही देखते है। सो अब बिना विवाद बिना बंदिश चीयर्स लीडर्स का जलवा सबके लिए होगा।

प्रस्तुति मनीष कुमार जोशी