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इन घटनाओं को अनदेखा न करें राजनैतिक मान्यवर

shoesonchidambaramचिदम्बरम, जिन्दल और अब आडवानी….यह किसी चुनावी कार्यक्रम के लिए तिकड़ी जरूर न हो पर इस तिकड़ी में कुछ न कुछ साम्य अवश्य है। तीनों अपने-अपने चुनावी कार्यक्रमों में व्यस्त हैं और इस व्यस्तता के मध्य वे आम आदमी की नाराजगी का भी सामना करते हैं। हालांकि इस नाराजगी में इन तीनों में से कोई सीधे-सीधे सम्पर्क में नहीं आता है। 

चिदम्बरम हों, जिंदल हों या फिर आडवानी रहे हों, इनके ऊपर जिस प्रकार से जूते-चप्पल का वार किया गया उससे यह तो साफ है कि आम आदमी अपने गुस्से को काबू न कर उसे अलोकतांत्रिक तरीके से सामने ला रहा है। अब नेताओं को, राजनैतिक दलों को ये बात समझ में आ रही है कि क्या लोकतांत्रिक है और क्या अलोकतांत्रिक है? कहने को कुछ भी कहा जाये पर यह तो सही है कि इस प्रकार की घटनाएँ कदापि क्षम्य नहीं होनी चाहिए और सभी लोगों को एक स्वर में इनका विरोध करना चाहिए।  

इसके बाद भी एक बात गौर करने लायक है कि अब आम आदमी को अपने अगुआ लोगों पर भरोसा नहीं रह गया है। इसी कारण से वे स्वयं ही अपने स्तर पर अपनी बुद्धि-विवेक के स्तर पर स्वयं न्याय करने बैठ गये हैं। यह परम्परा कदापि सही नहीं है। ये घटनायें एक ओर यदि आम आदमी की हताशा-निराशा को प्रकट कर रहीं हैं तो दूसरी ओर वे राजनेताओं के प्रति, राजनैतिक दलों के प्रति अविश्वास को भी प्रकट करतीं हैं। जनता यह भली-भांति जानती है कि अब तक उसको मात्र यह दिलासा देकर भरमाया ही जाता रहा है कि लोकतन्त्र में बहुत शक्ति है, मतदाता बहुत ताकतवर होता है, वह जब चाहे तब सत्ता परिवर्तन करदे। अब राजनीति शास्त्र का यह सूत्रवाक्य बहुत ही घिस-पिट गया है कि जनता का शासन, जनता के द्वारा, जनता के लिए। आम आदमी को ज्ञात है कि अब शासन के निर्धारण में उसकी कोई भी भूमिका नहीं है। वह समझता है कि मतदाता के लिए लोकतन्त्र केवल मुहर लगाने भर तक – अब केवल मशीन की बटन दबाने भर तक – ही है, इसके बाद वही होता है जो राजनेता चाहते हैं, चुने गये लोग चाहते हैं, पार्टी के आलाकमान चाहते हैं। राजनीति में विगत कुछ वर्षों में ऐसे बहुत से उदाहरण सामने आये हैं जबकि सरकार गठन में, सत्ता परिवर्तन में, उच्च नेतृत्व परिवर्तन में आम मतदाता की कोई भी भूमिका नहीं रही है।  

इस प्रकार की परिस्थितियों में मतदाता कैसे वोट डालने के लिए प्रोत्साहित हो? कैसे वह अपने गुस्से को, हताशा को दबा कर रखे? जूते-चप्पल की घटनाओं ने सोचने को विवश तो किया ही है भले ही अब भी राजनेता या राजनैतिक दल इस ओर विचार न करें। चिदम्बरम को सामने रख कर और जिन्दल को सामने रखकर उनका नेतृत्व क्या विचार करता है ये अलग मुद्दा हो सकता है क्योंकि इन दोनों के मामलों में विरोधी आम नागरिक था। जबकि इसके ठीक उलट आडवानी के केस में पार्टी को सोचने और चिन्तन की आवश्यकता है। किसी दल का कार्यकर्ता ही निराशा-हताशा-कुंठा में अपने ही दल के शीर्ष नेता पर इस प्रकार से हमला बोल दे तो स्थिति सोचनीय कही जायेगी।

 आज जिस प्रकार से दलबदल की राजनीति ने अपने ही दल में निष्ठावान कार्यकर्ताओं को हाशिए पर खड़ा कर दिया है, जिस प्रकार से धन-बल और बाहु-बल ने एकदम से प्रत्येक दल में पैठ बना ली है वह अवश्य ही किसी भी दल के समर्पित कार्यकर्ता को निराश करेगी। आडवानी के ऊपर वार करने वाले को लेकर अब भले ही लीपापोती करने का तानाबाना फैलाया जाने लगा हो पर प्रथम तौर पर जो बात सामने आई थी उसने केवल भाजपा को ही नहीं प्रत्येक उस दल को विचार करने पर मजबूर किया होगा जो अपने समर्पित कार्यकर्ताओं को भुलाकर दूसरे दलों से आये प्रभुत्वपूर्ण लोगों को या फिर एकाएक अपने ही दल में धन-बल से, बाहु-बल से सम्पन्न लोगों को बढ़ावा देने में लगे हैं। चिदम्बरम, जिन्दल, आडवानी तो केवल एक उदाहरण के रूप में सामने रखे जा सकते हैं, यदि इसी प्रकार अपने कार्यकर्ताओं का, आम आदमी का शोषण होता रहा, उसकी आकांक्षाओं का गला घोंटा जाता रहा तो यकीनन एक दिन ऐसा आयेगा जब सभाओं में, प्रेस-वार्ताओं में या अन्य ऐसी जगहो पर जहाँ कार्यकर्ता तथा आम जनता जमा हो वहाँ जूते, चप्पल आदि पहनना वर्जित कर दिया जाये।  

डा0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

सम्पादक-स्पंदन

जेहादी आतंकियों के समान ही खतरनाक हैं साम्यवादी चरमपंथी – गौतम चौधरी

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naxal-cadres_ap_0उडीसा में चरम वामपथियों ने नल्को बाक्साईड खादान पर आक्रमण कर 14 औद्योगिक सुरक्षा गार्ड के जवानों को मौत के घाट उतार दिया। बिहार और झारखंड में कम से कम 02 सुरक्षा कर्मियों को नक्सली हिंसा का शिकार होना पडा है। 15 वीं लोकसभा चुनाव के प्रथम चरण में माओवादी उत्पात के कारण कम से कम 12 सुरक्षाकर्मियों सहित 18 लोगों की मौत हो गयी। माओवादियों ने आम चुनाव वहिष्कार की घोषणा की थी। छतीसगढ में सलवाजुडूम के प्रभावशाली नेता के भाई की हत्या कर दी गयी। कुल मिलाकर देखा जाये तो इस्लामी जेहादी आतंकवाद के समानांतर ही वामपंथी चरमपंथी देश और समाज को क्षति पहुंचा रहे हैं। बावजूद इसके वाम चरमपंथियों पर न तो सरकार शख्त है और न ही भारत का समाचार जगत ही यह मानने को तैयार है कि नक्सली हिंसा भी आतंकवाद के दायरे में आता है। यह ठीक नहीं है और आने वाले समय में देश की संप्रभुता के लिए यह सबसे बडी चुनौती साबित होने वाली है। विगत दिनों मीडिया जगत में आतंकवाद के प्रति दृष्टिकोण में भारी अन्तर आया है। मीडिया का एक बडा समूह यह मान कर चलता था कि बाबरी ढांचा ढहाए जाने या फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों के खडे होने से मुस्लिम समाज का एक बडा तबका असंतुष्ट है और यही कारण है कि भारत में इस्लामी जेहादी आतंकवाद का दायरा धीरे धीरे बढता जा रहा है, लेकिन इस सिध्दांत को तूल देने वाले अब बगल झांकने लगे हैं। आम मीडियाकर्मी इस सिध्दांत से सहमत नहीं है। मीडिया का एक बडा वर्ग अब यह मानने लगा है कि इस्लाम का चरम चिंतन ही इस्लामी समाज के नैजवानों को आतंक के लिए उकसाता है। इस सोच को मुम्बई हमले के बाद और बल मिला है। हालांकि मुम्बई हमले पर भी देश के कुछ बुध्दिजीवियों ने आम मीडिया कर्मियों की राय बिगारने में अपनी सक्रियता दिखाई। आनंद स्वरूप वर्मा और अजीज बर्नी जैसे पत्रकार ने तो मुम्बई हमले में पाकिस्तान को क्लिन चिट दे दिया लेकिन आम मीडियाकर्मी इस बात से सहमत नहीं हुआ कि मुम्बई हमला हिन्दुवादी संगठनों के साजिस का प्रतिफल है। इस बार हिन्दुवादी संगठनों को बदनाम करने वाली ताकत बेनकाब हो गयी और लाख चीखन के बाद भी राजेन्द्र यादव का गिरोह यह साबित करने में नामाम रहा कि मुम्बई हमले के पीछे आरएसएस लॉबी था।जिस प्रकार इस्लामी जेहादी आतंक के प्रति देश का मानस तेजी से बदला है उसी प्रकार मीडिया में इस बात के प्रचार की जरूरत है कि माओवादी आतंकवाद भी उतना ही खतरना है जितना इस्लामी जेहादी। मीडिया जगत और देश की सरकार को स्वीकारना लेनी चाहिए कि वामपंथी आतंक गरीबी और अमीरी की बढती खाई के कारण नहीं अपितु देश को अस्थिर करने वाली तथा विदेशी पैसों के द्वारा खडा किया गया एक कृत्रिम आतंकी ढांचा है जिससे गरीबों का कल्याण तो नहीं ही होगा उलट देश के कई टुकरे हो जाएंगे और भारतीय उपमहाद्वीप लंबे समय तक के लिए अशांत हो जाएगा। जेहादी आतंकी और चरम वामपंथियों में बेहद समानता है। इस बात से सहमती जताई जा सकती है कि किसी जमाने में एक पवित्र मकसद को लेकर कुछ नैजवाने ने बंदूक उठा लिया और जंगल चले गये, लेकिन नक्सलियों की वह पीढी समाप्त हो गयी है। अब वे लक्ष्य विहीन बदमाशों की टोली मात्र बन कर रह गये हैं। चौकाने वाली बात तो यह है कि चरम वामपथी संगठनों में अरबों रूपये चंदा का आता है लेकिन उसका कोई लेखा जोखा नहीं होता है। लेवी के नाम पर रंगदारी टैक्स का क्या किया जाता है उसका कही कोई हिसाब नहीं है इन संगठनों के पास। नक्सली नेताओं के बच्चे विदेश में पढ रहे हैं और आम वाममार्गी कार्यकर्ता आज भी बंदूक ढो रहे हैं। कुल मिलाकर भूमिगत साम्यवादी चरमपंथी संगठनों में विकृति और अराजकता का बोलबाला है। ये पैसे लेकर वोट बहिष्कार करते हैं और जिस पार्टी या व्यक्ति से पैसा मिलता है उसके लिए बूथ भी छापते हैं। इसके कई प्रमाण बिहार और झारखंड में देखने को मिला है। अब तो माओवादी समूह ईसाई मिशनरियों के इशारे पर काम करने लगा है। विगत दिनों उडीसा के संत लक्ष्मणानंद की हत्या में माओवादियों ने स्वीकरा की संत हिन्दुओं को भरकाता था इसलिए उसकी हत्या कर दी गयी। यह साबित करता है कि संत के खिलाफ वहां की जनता नहीं थी अपितु धर्म की खेती करने वाले ईसाई पादरियों के आंख में संत खटक रहे थे। यही कारण था कि संत की हत्या मिशनरियों के इशारे पर माओवादियों ने करयी। देश में ऐसे कई उदारण है जो माओवादियों को कठघरे में खडा करता है। यह साबित करने के लिए काफी है कि माओवादी अपने मूल सिध्दांत से भटक गये हैं और जिस प्रकार इस्लामी चरमपंथी जेहाद शब्द की गलत मिमांशा में लगे हैं उसी प्रकार साम्यवादी चरमपंथी भी वर्ग संघर्ष की गलत व्याख्या कर भोली भाली जनता को न केवल उकसाते है अपितु उसका शोषण भी करते हैं।
इस विषय पर भी गंभीरता से विचार होना चाहिए कि जेहादी आतकियों का सबसे बडा केन्द्र अफगान और पाकिस्तान में चीनी जासूस सक्रिय है। तालिबान, अमेरिकी युध्द के बाद कमजोर हो गया था लेकिन चीनी सहायता और पाकिस्तानी प्रशिक्षण ने उसे फिर से जिन्दा कर दिया है। जेहादी आतंकियों का नया क्लोन चीन में तैयार हो रहा है। इन आतंकियों को पहले रूस ने संपोषित किया, फिर रूस के खिलाफ अमेरिका ने उन्हें अपना हथियार बनाया और आज विश्व में अपना दबदबा बढाने के लिए चीन जेहादियों को हवा दे रहा है। माओवादी चरमंथी भी चीन की ही देन है। भारत में माओवादी चरमपंथी, ईसाई मिशनरी और जेहादी आतंकी एक ही योजना पर काम कर रहे हैं। सेमेटिक चिंतन समूह की योजना से भारतीय उपमहाद्वीप को अफ्रिका बनाने का प्रयास किया जा रहा है और चीन इस पूरे षडयंत्र का नेतृत्व कर रहा है। भारत की कूटनीति और विदेश नीति के साथ ही आन्तरिक सुरक्षा की नीति में माओवादी आतंकवाद को भी जेहादी आतंकवाद की श्रेणी में लाया जाना चाहिए। जिस प्रकार देश की मीडिया ने जेहादी आतंकियों को नकार दिया है उसी प्रकार मीडिया को माओवादी आतंकवाद के प्रति भी अपनी स्पष्ट नीति बनानी होगी। हां मिशनरियों के सेवा भाव के कारण और मिशनरियों द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं को ध्यान में रखकर उसके खिलाफ नकारात्मक दृष्टिकोण रखना ठीक नहीं होगा लेकिन ईसाई मिशनरियों के आय-ब्यय पर गंभीर नजर रखने की जरूरत है। याद रहे जहां जहां ईसाई मिशनरियों की पहुंच बढी है वहां आज माओवादी षडयंत्र सहज देखा जा सकता है। भारत की जासूसी संस्था से मिले संकोतों में इस बात का स्पष्ट जिक्र किया गया है कि माओवादी संरचना भारतीय लोकतंत्र, भारतीय जीवन पध्दति, भारत के सार्वभौमिकतावादी सोच से अलग है। माओवादी यह भी मानने को तैयार नहीं है कि भारत एक राष्ट्र है। वे भारत को कई संस्कृतियों का समूह मानते हैं और सोवियत रूस की तरह भारत को एक साम्यवादी संघीय ढाचे में ढालना चाहते हैं। हालांकि माओवादियों के लिए चीन प्रेरणा का श्रोत रहा है लेकिन चीन की भौगोलिक परिस्थिति और सामाजिक संरचना भारत से भिन्न है इसलिए साम्यवादी चरमपंथी भारत को साम्यवादी संघीय ढांचा देना चाहते हैं लेकिन इससे पहले वे टुकरों में बांच कर भारत पर कब्जे की योजना बना रहे हैं। यह खतरनाक है। टुकरों में बटने के बाद उपमहाद्वीप में कितना रक्तपात होगा इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। फिलवक्त विदेशी ताकत इस बात पर एक मत है कि पहले भारत के वर्तमान ढंचे को ढाहा जाये। भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में माओवाद या फिर जेहादी आतंकवाद का कही कोई स्थान नहीं है लेकिन माओवादी चरमपंथी इससे सहमत नहीं हैं। वे लगातार इस योजना पर काम कर रहे हैं कि भारत का विभाजन हो और भारत का लोकतंत्रात्मक संघीय ढांचा ध्वस्त हो जाये। फिर भारत को अपने ढंग से ढालने में सहुलियत होगी। जोहादी समूह भी कामोबेस यही चाहता है। जहां जेहादी एक खास संप्रदाय को अपना हथियर बनाया है वही चरम वामपंथियों ने एक विचार का चोला ओढ कर भारत में षडयंत्र कर रहा है।

इस पूरी योजना को समझकर जिस प्रकार भारतीय मीडिया ने जेहादी आतंकियों के प्रति रवैया अपनाया है उसी प्रकार माओवादी चरमपंथियों के प्रति भी अपनाने की जरूरत है। चाहे चरमपंथ किसी का हो उसके प्रति सहज संवेदना रखना भारत के लोकतंत्रात्मक मूल्यों के साथ अपराध करना है। हम एक सफल लोकतंत्रात्मक गणतंत्र में जी रहे हैं। यहां हर को अपनी बात रखने और अपने ढंग से काम करने, पूजा करने का अधिकार प्राप्त है। इस स्वतंत्रता को कोई छीनता है तो उसका डटकर विरोध होना चाहिए। साम्यवाद गरीबी और अमीरी की लडाई का चिंतन नहीं है। याद रहे यह विशुध्द भौतिकवादी चिंतन है। यह चिंतन भी उतना ही खतरनाक है जितना जेहादी आतंकवाद।

 – गौतम चौधरी

काव्यपाठ और राजनीति – दीपक चौरसिया ‘मशाल’

cartoon_1115669c” डा. विद्या क्या बेमिसाल रचना लिखी है आपने! सच पूछिए तो मैंने आजतक ऐसी संवेदनायुक्त कविता नहीं सुनी”, “अरे शुक्ला जी आप सुनेंगे कैसे? ऐसी रचनाएँ तो सालों में, हजारों रचनाओं में से एक निकल के आती है. मेरी तो आँख भर आई” “ये ऐसी वैसी नहीं बल्कि आपको सुभद्रा कुमारी चौहान और महादेवी वर्मा जी की श्रेणी में पहुँचाने वाली कृति है विद्या जी. है की नहीं भटनागर साब?”
एक के बाद एक लेखन जगत के मूर्धन्य विद्वानों के मुखारबिंद से निकले ये शब्द जैसे-जैसे डा.विद्या वार्ष्णेय के कानों में पड़ रहे थे वैसे वैसे उनके ह्रदय की वेदना बढ़ती जा रही थी. लगता था मानो कोई पिघला हुआ शीशा कानों में डाल रहा हो. अपनी तारीफों के बंधते पुलों को पीछे छोड़ उस कवि-गोष्ठी की अध्यक्षा विद्या अतीत के गलियारों में वापस लौटती दो वर्ष पूर्व उसी स्थान पर आयोजित एक अन्य कवि-गोष्ठी में पहुँच जाती है, जब वह सिर्फ विद्या थी बेसिक शिक्षा अधिकारी डा.विद्या नहीं. हाँ अलबत्ता एक रसायन विज्ञान की शोधार्थी जरूर थी.
शायद इतने ही लोग जमा थे उस गोष्ठी में भी, सब वही चेहरे, वही मौसम, वही माहौल. सभी तथाकथित कवि एक के बाद एक करके अपनी-अपनी नवीनतम स्वरचित कविता, ग़ज़ल, गीत आदि सुना रहे थे. अधिकांश लेखनियाँ शहर के मशहूर डॉक्टर, प्रोफेसर, वकील, इंजीनियर और प्रिंसिपल आदि की थीं. देखने लायक या ये कहें की हँसने लायक बात ये थी की हर कलम की कृति को कविता के अनुरूप न मिलकर रचनाकार के ओहदे के अनुरूप दाद या सराहना मिल रही थी. इक्का दुक्का ऐसे भी थे जो औरों से बेहतर लिखते तो थे लेकिन पदविहीन या सम्मानजनक पेशे से न जुड़े होने की वजह से आयाराम-गयाराम की तरह अनदेखे ही रहते. गोष्ठी प्रगति पे थी, समीक्षाओं के बीच-बीच में ठहाके सुनाई पड़ते तो कभी बिस्कुट की कुरकुराहट या चाय की चुस्कियों की आवाजें. शायद उम्र में सबसे छोटी होने के कारण विद्या को अपनी बारी आने तक लम्बा इन्तेज़ार करना पड़ा. सबसे आखिर में लेकिन अध्यक्ष महोदय, जो कि एक प्रशासनिक अधिकारी थे, से पहले विद्या को काव्यपाठ का अवसर अहसान कि तरह दिया गया. ‘पुरुषप्रधान समाज में एक नारी का काव्यपाठ वो भी एक २२-२३ साल की अबोध लड़की का, इसका हमसे क्या मुकाबला?’ कई बुद्धिजीवियों की त्योरियां खामोशी से ये सवाल कर रहीं थीं.
वैसे तो विद्या बचपन से ही कविता, कहानियां, व्यंग्य आदि लिखती आ रही थी लेकिन उसे यही एक दुःख था की कई बार गोष्ठियों में काव्यपाठ करके भी वह उन लोगों के बीच कोई विशेष स्थान नहीं अर्जित कर पाई थी. फिर भी ‘बीती को बिसारिये’ सोच विद्या ने एक ऐसी कविता पढ़नी प्रारंभ की जिसको सुनकर उसके दोस्तों और सहपाठियों ने उसे पलकों पे बिठा लिया था और उस कविता ने सभी के दिलों और होंठों पे कब्ज़ा कर लिया था. फिर भी देखना बाकी था की उस कृति को विद्वान साहित्यकारों और आलोचकों की प्रशंसा का ठप्पा मिलता है या नहीं.
तेजी से धड़कते दिल को काबू में करते हुए, अपने सुमधुर कन्ठ से आधी कविता सुना चुकने के बाद विद्या ने अचानक महसूस किया की ‘ये क्या कविता की जान समझी जाने वाली अतिसंवेदनशील पंक्तियों पे भी ना आह, ना वाह और ना ही कोई प्रतिक्रिया!’ फिर भी हौसला बुलंद रखते हुए उसने बिना सुर-लय-ताल बिगड़े कविता को समाप्ति तक पहुँचाया. परन्तु तब भी ना ताली, ना तारीफ़, ना सराहना और ना ही सलाह, क्या ऐसी संवेदनाशील रचना भी किसी का ध्यान ना आकृष्ट कर सकी? तभी अध्यक्ष जी ने बोला “अभी सुधार की बहुत आवश्यकता है, प्रयास करती रहो.” मायूस विद्या को लगा की इसबार भी उससे चूक हुई है. अपने विचलित मन को सम्हालते हुए वो अध्यक्ष महोदय की कविता सुनने लगी. एक ऐसी कविता जिसके ना सर का पता ना पैर का, ना भावः का और ना ही अर्थ का, या यूं कहें की इससे बेहतर तो दर्जा पांच का छात्र लिख ले. लेकिन अचम्भा ये की ऐसी कोई पंक्ति नहीं जिसपे तारीफ ना हुई हो, ऐसा कोई मुख नहीं जिसने तारीफ ना की हो और तो और समाप्त होने पे तालियों की गड़गडाहट थामे ना थमती.
साहित्यजगत की उस सच्ची आराधक का आहत मन पूछ बैठा ‘क्या यहाँ भी राजनीति? क्या यहाँ भी सरस्वती की हार? ऐसे ही तथाकथित साहित्यिक मठाधीशों के कारण हर रोज ना जाने कितने योग्य उदीयमान रचनाकारों को साहित्यिक आत्महत्या करनी पड़ती होगी और वहीँ विभिन्न पदों को सुशोभित करने वालों की नज़रंदाज़ करने योग्य रचनाएँ भी पुरस्कृत होती हैं.’ उस दिन विद्या ने ठान लिया की अब वह भी सम्मानजनक पद हासिल करने के बाद ही उस गोष्ठी में वापस आयेगी.
वापस वर्तमान में लौट चुकी डा. विद्या के चेहरे पर ख़ुशी नहीं दुःख था की जिस कविता को दो वर्ष पूर्व ध्यान देने योग्य भी नहीं समझा गया आज वही कविता उसके पद के साथ अतिविशिष्ट हो चुकी है. अंत में सारे घटनाक्रम को सबको स्मरण करने के बाद ऐसे छद्म साहित्यजगत को दूर से ही प्रणाम कर विद्या ने उसमें पुनः प्रवेश ना करने की घोषणा कर दी. अब उसे रोकता भी कौन, सभी कवि व आलोचकगण तो सच्चाई के आईने में खुद को नंगा पाकर जमीन फटने का इन्तेज़ार कर रहे थे.

– दीपक ‘मशाल’

कीचड़ उछालने वाली करतूतों को बंद करें: राजनाथ

rajnathjiभाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री राजनाथ सिंह द्वारा अप्रैल 15, 2009 को बैंगलूरू में जारी वक्तव्य

केन्द्र में संप्रग सरकार का शासनकाल अब लगभग समाप्त होने के निकट है। इस सरकार ने अपने पीछे प्राय: सभी मोर्चो पर विफलताओं की एक लम्बी सूची छोड़ी है। इन पांच वर्षो के दौरान देश को अनेक अभूतपूर्व संकटों का सामना करना पड़ा। केन्द्र में एक मजबूत इच्छाशक्ति वाली सरकार और ढृढ-संकल्पी नेतृत्व के अभाव ने इस संकट को और अधिक गहरा कर दिया है।

गर्तोन्मुख संप्रग की तुलना में मजबूत होता राजग

भाजपा को किसी भी कीमत पर सत्ता से बाहर रखने की राजनीतिक विवश्ता के कारण संप्रग 2004 में अस्तित्व में आया। कोई भी ऐसा गठबंधन लम्बे समय तक बना नही रह सकता है जो घोर अवसरवादिता और अनुचित सौदेबाजियों को आधार बना कर किया जाता है। संप्रग के कुछ घटक दलों ने अधिक घास वाले चराहागाहों को देख कर कांग्रेस से हाल ही में किनारा कर दिया है।

इससे गठबंधन का निर्वाह करने में कांग्रेस की अन्तर्निहित अक्षमता उजागर होती है। कांग्रेसनीत गठबंधन से बाहर जाने की इस अचानक फूर्ती का दूसरा कारण संप्रग सरकार का घटिया ट्रैक-रिकार्ड है। संप्रग की अक्षमता और निकम्मेपन के कारण इसके सहभागियों को उससे दूर जाने के लिए विवश होना पड़ा। इसमें कोई हैरत नहीं है कि संप्रग एक डूबता जहाज बन गया है, जिसकी डैक से उसके सहयोगी अपने आपको बचाने के लिए छलांग लगा रहे हैं।

इसके विपरीत भाजपा नीत राजग ने श्री अटल जी के कुशल नेतृत्व में गठबंधन के सहयोगियों को जोड़े रखने की कला में महारत हासिल कर ली है। अब श्री आडवाणी जी सबको साथ लेकर चलने की कला में पारंगत हो रहे है। राजग 2004 के लोकसभा चुनावों की पूर्व संध्या पर जिस स्थिति में था, आज उससे कही बेहतर स्थिति में है क्योंकि भाजपा ने अपने अधिकांश प्रमुख सहभागियों को सफलतापूर्वक अपने साथ जोड़कर रखा है। राजग के सभी घटक दलों – अकाली दल, शिव सेना, जद(यू), एजीपी, आरएलडी और ईएनएलडी ने भाजपा और प्रधानमंत्री के पद के लिए इसके प्रत्याशी श्री लालकृष्ण आडवाणी को अपने बिना शर्त समर्थन का वचन दिया है।

राजग के बाहर भी हमारे अन्य कई मित्र हैं, जो चुनाव परिणाम घोषित हो जाने के बाद हमसे जुड़ जाएंगे। राजग अपनी उल्लेखनीय एकता, सामंजस्य और कठिन समय में दृढ़ता दर्शाने के कारण ही भारतीय राजनीति में एक सशक्त ताकत बनकर उभरा है।

इसमें एकमात्र अचरज की बात उड़ीसा में बीजद द्वारा किया गया विश्वासघात है। मूझे पूर्ण विश्वास है कि कर्नाटक के लोगों से सीख लेकर उड़ीसा के मतदाता भी बीजद के राजनीतिक विश्वासघात और अवसरवादिता को ठुकराकर उसको करारा सबक सिखाएंगे।

संप्रग की नीतियों से सबसे अधिक व्यथित आम आदमी

संप्रग शासनकाल के दौरान संप्रग की नीतियों ने सबसे भारी चोट आम आदमी को पहुंचाई है।

आज भारत की अर्थव्यवस्था मंदी के दबावों के नीचे कसक रही है। निर्यात घटकर निम्न धरातल पर आ गए है। छटनी के कारण लाखों कामगार अपना रोजगार गंवा बैठे हैं। देश में औद्योगिक उत्पादन नकारात्मक वृध्दि की मार झेल रहा है।

यद्यपि संप्रग सरकार मुद्रास्फीति को शून्य बिन्दु तक लाने की शेखी बघार रही है किन्तु यह इस तथ्य को छुपा रही है कि आवश्यक वस्तुओं के मूल्य अभी भी बढ़ रहे हैं। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक स्पष्ट रूप में दर्शा रहा है कि वास्तविक मुद्रास्फीति में अभी भी 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो रही है।

सत्ता में आने के पश्चात् श्री आडवाणी के नेतृत्व में राजग सरकार देश में मूल्यों पर नियंत्रण करने और विकास प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए एक समेकित तथा द्रुत कार्य योजना पर शिद्दत से काम करेगी।

कांग्रेस का कार्य निंदा और मिथ्यापवाद करना

कांग्रेसनीत संप्रग सरकार भाजपा और इसके नेतृत्व पर आधारहीन आरोप लगाते हुए एक मिथ्या अभियान चला रही है ताकि लोगों का ध्यान वास्तविक मुद्दों से हट जाए।

भाजपा सामयिक मुद्दों – जैसे आतंकवाद, मूल्यवृध्दि, मंदी, सुरक्षा और विकास पर एक गंभीर बहस करना चाहती है किंतु कांग्रेस ऐसी बहस से दूर भागना चाहती है क्योंकि इन मोर्चों पर उसके पास कहने को कुछ नहीं है।

कांग्रेस पार्टी की ज्यादा दिलचस्पी विगतकालीन मुद्दों को उठाने में है। परसों प्रधानमंत्री जी ने कंधार का मुद्दा उठाया और भाजपा के विरूद्ध बेबुनियाद आरोप लगाने का प्रयास किया।

यह एक सर्वज्ञात सच्चाई है कि कांग्रेस पार्टी कंधार संकट के दौरान लोगों में घबराहट फैलाने की प्रमुख दोषी थी। इस पार्टी ने ही राजग सरकार के विरूद्ध आंदोलन को समर्थन दिया था, जिसमें अगवा किए गए वायुयान के सभी यात्रियों की तत्काल रिहाई की मांग की गई थी।

जब राजग सरकार ने इस संकट को सुलझाने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई तब भी कांग्रेस पार्टी उसमें उपस्थित थी। किंतु इस पार्टी ने सभी यात्रियों की सुरक्षित रिहाई सुनिश्चित करने के लिए आम सहमति के विरूध्द एक शब्द भी विरोध में नहीं बोला था।

एक ओर कांग्रेस ने कंधार मुद्दे पर, जिसमें स्वयं कांग्रेस पार्टी लिए गए निर्णय में एक पक्षकार थी, रोष व्यक्त करती है, दूसरी ओर इसने चरारे-शरीफ में अपने स्वयं के कुकर्मों को पूरी तरह भूला दिया है जब कांग्रेस सरकार ने पांच खतरनाक आतंकवादियों को बच निकलने का सुरक्षित रास्ता सुनिश्चित किया था वह भी इस स्थिति में जब कोई बंधक नहीं बनाया गया था।

जिन लोगों ने चरारे-शरीफ में आतंकवादियों के साथ बातचीत की थी। वे ही लोग हमारे ऊपर आज उस निर्णय का दोषारोपण कर रहे हैं, जो संकटकाल में लिया गया था। कांग्रेस पार्टी को उस पुरानी कहावत को ध्यान में रखने की जरूरत है कि कांच के घरों में रहने वाले लोगों को दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकने चाहिए।

कांग्रेस पार्टी का चुनावी एजेंडा भी विगतकालीन मुद्दों पर आधारित है। जबकि भाजपा का एजेंडा अधिक समसामयिक और प्रगतिशील है क्योंकि भाजपा का चुनावी नारा सुशासन, विकास और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर आधारित है।

एक स्वस्थ्य लोकतंत्र में विपक्षी नेताओं पर वैयक्तिक प्रहारों को कभी भी ठीक नहीं माना जा सकता। जिम्मेदार प्रतिपक्षी दलों का यह नैतिक दायित्व है कि वे पदस्थ सरकार की रचनात्मक आलोचनाओं के अधिकार का प्रयोग करे। यदि प्रतिपक्षी दल प्रधानमंत्री की उनके कार्यों के लिए आलोचना करते है तब प्रधानमंत्री को स्वयं को बचाने की बजाय उनकी पार्टी को उनका बचाव करने के लिए आगे आना चाहिए।

प्रधानमंत्री को कभी भी किसी तरह के कलंकित करने वाले अभियान में वैयक्तिक रूप से शामिल नहीं होना चाहिए। मैं आशा करता हूं कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह स्वयं चुनाव अभियान के नाम पर की जा रही इन कीचड़ उछालने वाली करतूतों को बंद करने की पहल करेंगे।

जारी है चुनावी आचार संहिता उल्लंघन का दौर…

electioncommission3मशहूर उपन्यासकार जार्ज बर्नाड शॉ ने ठीक ही कहा था “चुनाव एक नैतिक सदमा है, इससे जुड़े हर किसी के लिए कीचड़ में सनना लाज़िमी है।” आज यही स्थिति हमारे आंखों के सामने मौजूद है, क्योंकि भारत में इन दिनों लोकसभा चुनावों का मौसम है। सारे नेता एक-दूसरे को बड़े प्यार से कीचड़ से नहला रहे हैं। एक दूसरे नेताओं के वक्तव्यों पर राजनीति हो रही है, मुद्दे उछाले जा रहे हैं, उपलब्धियाँ गिनाई जा रही हैं, वोट मांगे जा रहे हैं। और इन सब के बीच जारी है चुनावी आचार संहिता का उल्लंघन का दौर…

सच पूछे तो आचार संहिता का उल्लंघन सारे राजनीतिक दलों के लिए एक मज़ाक बन कर रह गया है। आयोग भी असहाय है। और वैसे भी नियम कानून बनते ही हैं तोड़ने के लिए…

हालांकि पिछले दस वर्षों में भारत में चुनाव लड़ने के तौर-तरीक़ों में काफ़ी अंतर नज़र आ रहा है, चुनाव आयोग उम्मीदवारों और पार्टियों के ख़र्च पर कड़ी नज़र रख रहा है। चुनाव आचार संहिता को भी सख़्ती से लागू कराने की कोशिश की जा रही है, पर निर्वाचन आयोग इस कार्य में बहुत ज़्यादा कामयाब नहीं है।

हर दिन कहीं न कहीं आचार संहिता उल्लंघन के मामले सामने आ रहे हैं। इस वर्ष देश में आचार संहिता उल्लंघन के कितने मामले दर्ज हुए हैं, इसका सही आंकड़ा तो नहीं बताया जा सकता है। पर वर्ष 2004 के 14 वीं लोक-सभा चुनाव में निर्वाचन आयोग में आचार संहिता उल्लंघन के कितने मामले दर्ज हुए..? साथ ही आयोग ने इन मामलों में क्या कार्रवाई किया है, यह जानना भी दिलचस्प होगा। बहरहाल, इसका आंकड़ा हमारे सामने है। यह आंकड़े सूचना के अधिकार कानून द्वारा प्राप्त हुए हैं। 

क्र.सं.

राजनीति दल जिनके खिलाफ शिकायतें दर्ज हुईं।

शिकायतों की संख्या

भारत निर्वाचन आयोग द्वारा की गई कार्रवाई

1.

तेलगू देसम पार्टी

    4

तीन शिकायतें उचित कार्रवाई हेतु आंध्र-प्रदेश के सी.ई.ओ. को भेजी गई। एक शिकायत के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई, क्योंकि यह चुनाव बाद दर्ज हुआ था।

2.

इंडियन नेशनल कांग्रेस

   7

दो शिकायतें पंजाब व हिमाचल प्रदेश के सी.ई.ओ. को भेजी गई। रिपोर्ट में इसे बेबुनियाद पाया गया।

दो शिकायतें उचित कार्रवाई हेतु असम के सी.ई.ओ. को भेजी गई।

दो शिकायतें चुनाव बाद दर्ज हुए, इसलिए कोई कार्रवाई नहीं की गई।

और एक शिकायत में कार्रवाई करना ज़रुरी नहीं था।     

 

3.

कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (Marxist-Leninist)

     1

इस शिकायत को उचित कार्रवाई हेतु असम के सी.ई.ओ. को भेजा गया था।

 

4.

भारतीय जनता पार्टी

    6

एक शिकायत को उचित कार्रवाई हेतु असम के सी.ई.ओ. को भेजा गया था।

दो मामलों में सी.ई.ओ. से रिपोर्ट मंगवाकर उसकी जांच की गई, जांच करने के बाद कार्रवाई करने की कोई ज़रुरत महसूस नहीं हुई।

एक शिकायत, भाजपा द्वारा बनाए गए विज्ञापन से संबंधित था, इसमें यह पाया गया कि यह किसी एक व्यक्ति या दल के लिए नहीं था, इसमें सिर्फ सरकार की निंदा की गई थी, इसलिए आयोग ने कोई कार्रवाई नहीं की।

दो शिकायतों को उचित कार्रवाई हेतु उत्तर-प्रदेश के सी.ई.ओ. को भेजा गया था।

 

5.

डी.एम.के.(Dravida Munnetra Kazagam)

    1

जो शिकायत दर्ज हुई, उसे डी.एम.के.पार्टी को उनकी राय जानने के लिए भेजा गया, लेकिन पार्टी ने इस इलज़ाम को बिल्कुल ही नकार दिया। पार्टी द्वारा मिले जवाब को शिकायतकर्ता के पास भी भेजा गया। साथ ही शिकायतकर्ता को सबूत पेश करने के लिए कहा गया, पर शिकायतकर्ता ने कोई सबूत पेश नहीं किए।

6.

ए.आई.ए.डी.एम.के.

(All India Anna Dravida Munnetra Kazhagam)

 

 

       2

एक शिकायत जो दर्ज हुई, उसे ए.आई.ए.डी.एम.के.पार्टी को उनकी राय जानने के लिए भेजा गया,पार्टी ने जवाब में बताया कि आयोग तभी कार्रवाई कर सकती है, जब एम.सी.सी. का उल्लंघन हो। और शिकायत में कहीं भी ये नहीं दर्शाया गया है कि एम.सी.सी का उल्लंघन हुआ है। ऐसे में मुद्दे को बंद करना ही सबसे बेहतर था

एक शिकायत जो दर्ज हुई, उसे पार्टी को उनकी राय जानने के लिए भेजा गया, लेकिन पार्टी ने इस इलज़ाम को भी नकार दिया। लेकिन जवाब संतोषजनक नहीं था, इसलिए आयोग ने श्री एस.एस.चंद्रन पर एस.सी.सी. के उल्लंघन के जुर्म में पाबंदी लगा दी।

7.

समाजवादी पार्टी

   1

आयोग ने इस मामले की जांच की, और पुन: मतदान कराए गए।

8.

बहुजन समाज पार्टी

   1

इस शिकायत को रिपोर्ट हेतु उत्तर-प्रदेश के सी.ई.ओ. को भेजा गया था।

 

 

-अफरोज आलम साहिल

 

(लेखक युवा पत्रकार हैं)

एक समसामयिक राजनीतिक व्यंग्य – दीपक ‘मशाल’

media_relations_4आज की ताज़ा खबर, आज की ताज़ा खबर… ‘कसाब की दाल में नमक ज्यादा’, आज की ताज़ा खबर….. .
चौंकिए मत, क्या मजाक है यार, आप चौंके भी नहीं होंगे क्योंकि हमारी महान मीडिया कुछ समय बाद ऐसी खबरें बनाने लगे तो कोई बड़ी बात नहीं. आप विगत कुछ दिनों की ख़बरों पर ज़रा गौर फरमाइए, ‘कसाब की रिमांड एक हफ्ते और बढ़ी’, ‘कसाब ने माना कि वो पाकिस्तानी है’, ‘कसाब मेरा बेटा है-एक पाकिस्तानी का दावा’, ‘कसाब मेरा खोया हुआ बेटा-एक इंडियन माँ’, ‘जेल के अन्दर बम्ब-रोधक जेल बनेगी कसाब के लिए’, ‘कसाब के लिए वकील की खोज तेज़’, ‘अंजलि बाघमारे लडेंगी कसाब के बचाव में’, ‘गाँधी की आत्म-कथा पढ़ रहा है कसाब’ वगैरह-वगैरह…. अरे महाराज, ये महिमामंडन क्यों? कसाब न हुआ ‘ओये लकी, लकी ओये’ का अभय देओल हो गया.ज़रा सोचिये की क्या गुज़रती होगी ये सब देख कर उन्नीकृष्णन, करकरे, सालसकर और कामते जैसे शहीदों पर. अरे इतनी बार नाम तो हमने देश को इस भयावह संकट से निकलने वाले इन वीरों का भी नहीं लिया. माफ़ कीजिये मैं ये सब व्यंग्य की भाषा में लिख सकता था मगर मैं उन मुख्यमंत्री जी की तरह संवेदनाहीन नहीं बन सकता जो शहीदों का सम्मान करना नहीं जानते. इतने के बावजूद शायद महामीडिया और तथाकथित सेकुलरों का तर्क हो की ‘ पाप से घृणा करो, पापी से नहीं’, तो ठीक है उसे उसके पापों की ही सजा दे दो, नहीं हिम्मत पड़ती तो गीता पढ़ के देदो, कुरान का सही अर्थ समझ के देदो और दो, ऐसी सजा दो, ऐसी सजा दो की हर आतंक की रूह फ़ना हो जाये, काँप जाये.

खैर ज्यादा बोल गया, क्योंकि इस सब के लिए इन मीडिया वालों को दोषी ठहराना भी सही नहीं है, इन बेचारों के लिए तो रोज़ी-रोटी वतन और इज्ज़त से प्यारी हो गयी है. तभी ‘काली मुर्गी ने सफ़ेद अण्डे दिए’ ब्रेकिंग न्यूज़ बनाते हैं और चुनावी बरसात का मौसम आते ही ये भी सत्ताधारी सरकार को पुनः बहाल करने के ‘अभियान'(साजिश नहीं कह सकता, ये शब्द चुनाव आयोग को भड़का सकता है खामख्वाह मुझ पर भी रासुका लग सकती है) के तहत अघोषित, अप्रमाणित, अप्रकट किन्तु दृष्टव्य गठबंधन बना लेते हैं. चाणक्य नीति में नयी नीति एड करनी पड़ेगी ‘ जिसकी लाठी उसकी भैंसें’ भैसें इसलिए की कई हैं जैसे की प्रेसिडेंट जी, चीफ इलेक्शन कमिश्नर जी, सी बी आई जी, मीडिया जी, न्यायाधीश जी.
कमाल देखिये कि ५ वर्ष तक मूक-बधिरों के लिए प्रोग्राम बने रहने के बाद हमारे अतिप्रतिभाशाली प्रधानमंत्री जी अक्षम प्रधानमंत्री का लेबल हटाने के लिए अचानक आजतक की तरह हल्ला बोल की मुद्रा में आ गए, मगर वो भी हाईकमान के इशारे पर. ऐसे लगा जैसे मालिक ने बोला हो ‘टॉमी छू’. अरे महाराज दया करो हमें पीअच्.डी., ऍफ़.एन.ए.सी. डिग्रीधारक प्रोफेसर नहीं चाहिए जो घड़ी देख के क्लास लेने आयें और घड़ी देख के बिना कुछ समझाए चले जाएँ(ऐसे लोग सलाहकार ही अच्छे लगते हैं). मालिक, सचिन होना एक बात है और गैरी किर्स्टन होना दूसरी, जरूरी नहीं की अच्छा खिलाडी अच्छा कोच भी साबित हो. हमें एक लीडर चाहिए न की शोपीस. ओबामा जी कलाकार आदमी हैं, खूब मीठी मीठी बातें कहीं पी ऍम साब के बारे में, भाई इलेक्शन टाइम है, वो भी मनमोहक अदा से झूमते हुए पलट के तारीफ कर गए भाई की. इसपर मुझे संस्कृत का एक श्लोक याद आता है कि-
‘उष्ट्रस्य विवाहेषु गीतं गायन्ति गर्दभः, परस्परं प्रशंस्यती अहो रूपः अहो गुणं’
ज्यादा मुश्किल अर्थ नहीं है- ऊँट के विवाह में गधे जी ने गीत गया, फिर दोनों ने आपस में ही एक दुसरे के गले(आवाज़) और रूप की प्रशंसा भी कर ली. सच है जी नेता जी वेदों की ओर लौट रहे हैं.

मुझे सच में नहीं पता कि नेहरु-गाँधी परिवार के सबसे छोटे चश्म-ओ-चिराग ने कुछ उल्टा-पुल्टा बोला था कि नहीं (क्योंकि सी.डी. नहीं देखि) मगर ये तो सच है कि आरोप लगे हैं, बाकी सच्चाई चुनाव बाद ही पता चलेगी क्योंकि अभी हाईकमान ने चीफ इलेक्शन कमिश्नर की जंजीर टाइट कर रखी है. मगर श्रीमान वरुण जी, अच्छा सुन्दर, धार्मिक नाम पाया है आपने और आपके सारे परिवार ने. ज़रा सोच समझ के ही बोल लेते, जोश में होश खो दिया, इतना भावुक होने की क्या जरूरत थी. 

अरे लेलेले अगर मैंने मासूम लालू के लिए नहीं लिखा तो इस महान सेकुलर का दिल टूट जायेगा और लल्ला रूठ जायेगा. खैर दद्दा आपकी तो कच्ची लोई है, जो जी में आये बोलो. वैसे भी आपकी गलती नहीं मानता मैं, चारा खा के कोई और बोलेगा भी क्या(याद रहे ये चारा है, राणा प्रताप ने भूसे की रोटियां खाई थीं वो भी अपने देश के लिए, इसलिए अपने को उस केटेगरी में मत समझना). लेकिन एक नया राज़ पता चला की चारा आपने राबड़ी को भी खिलाया है, वो तो भला हो उनकी जुबान का जिसने खुल के सब पर्दाफाश कर दिया की उनके दिमाग में जो है वो क्या खाने से हो सकता है.

आहा हा, पासवान साब तो मुझे सदाशिव अमरापुरकर की याद दिला देते हैं(रियल लाइफ नहीं रील लाइफ वाले अमरापुरकर की).

माननीय मुलायम जी के बारे में लिखने से तो कलम भी इन्कार करती है, वैसे भी मैं इस ब्लॉग और व्यंग्य की गरिमा नहीं गिराना चाहता.

बहिन मायावती जी के लिए जरूर करबद्ध निवेदन है आप लोगों से कि एक बार इस बेचारी को २-४ दिन के लिए ही सही प्रधानमंत्री बनवा दो यार. पुष्पक विमान से कुछ विदेशी दौरे मार लेगी, बाहर की धरती देख लेगी, विदेशी मेमों से कुछ फैशन टिप्स ले लेगी, देश में ५-६ हज़ार अपनी स्टेच्यू लगवा लेगी और उत्तर प्रदेश में करोड़ों के करती है यहाँ अरबों के वारे-न्यारे कर लेगी(इंटरनेशनल बर्थडे पार्टी के लिए चंदा ज्यादा चाहिए ना) और ज्यादा कुछ नहीं. फिर लल्ला कोई बड़ी समस्या जैसे ही देश के सामने आवेगी अपने आप ही भड़भड़ा के इस्तीफा दे देगी. उसकी तमन्ना पूरी कर दो यार, कम से कम सच्चाई में एक तो ‘स्लमडोग मिलियेनर’ बने.

बहुत देर से कमेन्ट किये जा रहा हूँ भइया, अब सुनो गौर से ऐसे लिखते-पढ़ते रहने से कुछ ना होने वाला, कुछ ठानो, कुछ करो. मैंने तो सोच लिया है अगला इलेक्शन लड़ने का, आप भी डिसाइड करलो या बिना मेरा नाम बताये सुसाईड कर लो. क्योंकि अब ये ही दो आप्शन हैं. सच्चाई ये है कि आज जब तक एक ऍम.पी. एक डी.ऍम. के बराबर योग्य(सिर्फ डिग्री वाला योग्य नहीं, बोलने और करने वाला योग्य) नहीं होगा तब तक देश का यूँ ही मटियामेट होता रहेगा और इस जैसे न जाने कितने व्यंग्य सामने आते रहेंगे.

एक बात दिल से बताना भाईलोग कि “क्या आप लोगों को ऐसा नहीं लगता कि उम्मीदवारों के नाम के बाद एक आखिरी ऑप्शन इनमें से कोई नहीं का होना चाहिए और यदि ५०% से ज्यादा मतदाता उस ऑप्शन को चुनते हैं तो पुनः चुनाव हो. वो भी नए उम्मीदवारों के साथ जिससे कि सभी पार्टियों को ये सन्देश जाये की अब ‘अर्द्धलोकतंत्र’ नहीं चलेगा, उनका उम्मीदवार नहीं चलेगा बल्कि जनता का नेता चलेगा. संविधान में संशोधन होना चाहिए कि कुछ विशेष योग्यता वाला व्यक्ति ही सांसद या विधायक पद का उम्मीदवार हो वर्ना ऐसे ही भैंसियों की पीठ से उतर के लोग देश की रेल ढकेलते रहेंगे.”

अरे जागो ग्राहक जागो, अब और घटिया माल मत खरीदो. एक नई क्रांति का सूत्रपात करो.

– दीपक चौरसिया ‘मशाल’

विज्ञापन एवं जनसंम्पर्क पाठ्यक्रम में प्रवेश प्रारंभ

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित एम.ए- विज्ञापन एवं जनसंम्पर्क पाठ्यक्रम में सत्र 2009-2010 के लिये प्रवेश प्रक्रिया आरंभ हो गयी है। प्रवेश के लिये आवेदन करने की अंतिम तिथि 30 अप्रेल 2009 है। पाठ्यक्रम में प्रवेश हेतु अखिल भारतीय आधार पर लिखित परीक्षा आयोजित की जायेगी। लिखित परीक्षा 31 मई 2009 को आयोजित होगी। लिखित परीक्षा के केन्द्र भोपाल ,कलकत्ता, लखनऊ, पटना, रांची, जयपुर, नोएडा एवं खंडवा बनाए गए हैं। किसी भी विषय में स्नातक उपाधि उत्तीर्ण व्यक्ति इस पाठ्यक्रम में प्रवेश ले सकता है। प्रवेश के लिए इच्छुक उम्मीदवार अपने दो पासपोर्ट आकार के फोटोग्राफ के साथ 350 रूपए का डिमांड ड्राफ्ट (अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के लिए 250 रूपये) जो माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में देय हो के साथ विश्वविद्यालय द्रारा निर्धारित प्रपत्र में आवेदन कर सकते हैं। अधिक जानकारी के लिये विश्वविद्यालय की वेबसाइट www.mcu.ac.in देख सकते हैं।

(डॉ. पवित्र श्रीवास्तव)
विभागाध्यक्ष
विज्ञापन एवं जनसम्पर्क अध्ययन केन्द्र

भाजपा का चुनावी;कॉरपोरेट कल्चरसरिता अरगरे

mpमध्यप्रदेश में बीजेपी के फ़रमान ने कई मंत्रियों की नींद उड़ा दी है। पिछले लोकसभा चुनावों की कामयाबी दोहराने के केन्द्रीय नेतृत्व के दबाव के चलते प्रदेश मंत्रिमंडल की बेचैनी बढ़ गई है। कॉरपोरेट कल्चर में डूबी पार्टी ने सभी को टारगेट दे दिया है। ‘टारगेट अचीवमेंट’ ही मंत्रिमंडल में बने रहने के लिये कसौटी होगी। प्रदेश में पचास ज़िले हैं और मंत्रियों की संख्य़ा महज़ बाइस है। ऎसे में सभी मंत्रियों को कम से कम दो – दो ज़िलों में अपना सर्वोत्तम प्रदर्शन देना ज़रुरी है, ताकि बीजेपी केन्द्र में सत्ता के करीब पहुँच सके। पार्टी ने क्षेत्रीय विधायकों को भी “लक्ष्य आधारित काम” पर तैनात कर दिया है। प्रत्याशियों को जिताने का ज़िम्मा सौंपे जाने के बाद से इन नेताओं की बेचैनी बढ़ गई है।

हाईप्रोफ़ाइल मानी जा रही विदिशा, गुना, रतलाम और छिंदवाड़ा सीट पर सभी की नज़रें लगी हैं। हालाँकि विदिशा में राजकुमार पटेल की ‘मासूम भूल’ के बाद परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका है। सूत्रों का कहना है कि सुषमा की जीत पक्की करने के लिये विकल्प भी तय था यानी सुषमा का दिल्ली का टिकट कटाओ या मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली करो। और फ़िर राजनीति में “साम-दाम-दंड-भेद” की नीति ने रंग दिखाया। अब सुषमा स्वराज के साथ ही बीजेपी भी पूरी तरह निश्चिंत हो गई है।

मध्यप्रदेश में बीजेपी के फ़रमान ने कई मंत्रियों की नींद उड़ा दी है। पिछले लोकसभा चुनावों की कामयाबी दोहराने के केन्द्रीय नेतृत्व के दबाव के चलते प्रदेश मंत्रिमंडल की बेचैनी बढ़ गई है। कॉरपोरेट कल्चर में डूबी पार्टी ने सभी को टारगेट दे दिया है। ‘टारगेट अचीवमेंट’ ही मंत्रिमंडल में बने रहने के लिये कसौटी होगी। प्रदेश में पचास ज़िले हैं और मंत्रियों की संख्य़ा महज़ बाइस है। ऎसे में सभी मंत्रियों को कम से कम दो – दो ज़िलों में अपना सर्वोत्तम प्रदर्शन देना ज़रुरी है, ताकि बीजेपी केन्द्र में सत्ता के करीब पहुँच सके। पार्टी ने क्षेत्रीय विधायकों को भी “लक्ष्य आधारित काम” पर तैनात कर दिया है।

कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया और कांतिलाल भूरिया को घेरने के लिये मुख्यमंत्री ने खुद ही मोर्चा संभाल लिया है। दिल्ली और मध्यप्रदेश की चार सर्वे एजेंसियों ने छिंदवाड़ा, गुना-शिवपुरी, रतलाम, बालाघाट, दमोह ,टीकमगढ़, भिंड, धार, होशंगाबाद और खरगोन सीट पर नज़दीकी मुकाबले की बात कही है। जीत सुनिश्चित करने के लिये काँटे की टक्कर वाले इन क्षेत्रों में मुख्यमंत्री ने सूत्र अपने हाथ में ले लिये हैं।

अपने चहेतों को टिकट दिलाने के कारण मंत्रियों की प्रतिष्ठा भी दाँव पर लगी है। मंत्री रंजना बघेल के पति मुकाम सिंह किराड़े धार से उम्मीदवार हैं। बालाघाट से के. डी. देशमुख को टिकट मिलने के बाद मंत्री गौरी शंकर बिसेन और रीवा से चन्द्रमणि त्रिपाठी को प्रत्याशी बनाने के बाद मंत्री राजेन्द्र शुक्ला पर दबाव बढ़ गया है। होशंगाबाद से रामपाल सिंह और सागर से भूपेन्द्र सिंह की उम्मीदवारी ने मुख्यमंत्री की ज़िम्मेदारी बढ़ा दी है।

उधर खेमेबाज़ी और आपसी गुटबाज़ी ने काँग्रेस को हैरान कर रखा है। आये दिन की फ़जीहत से बेज़ार हो चुके नेता अब चुप्पी तोड़ने लगे हैं। अब तक चुप्पी साधे रहे दिग्गज नेताओं का दर्द भी ज़ुबान पर आने लगा है। प्रदेश काँग्रेस चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष अजय सिंह का कहना है कि इस तरह की राजनीति उनकी समझ से बाहर है। वे कहते हैं, “पार्टी हित में सभी नेताओं को मिलजुल कर आपसी सहमति से फ़ैसले लेना होंगे।”

विधान सभा चुनाव में काँग्रेस के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद आलाकमान ने सभी नेताओं को एकजुटता से काम करने का मशविरा दिया था। लेकिन पाँच महीने बाद भी हालात में सुधार के आसार नज़र नहीं आने से कार्यकर्ता निराश और हताश हैं। जानकारों की राय में प्रदेश काँग्रेस इस वक्त अस्तित्व के संकट के दौर से गुज़र रही है। संगठन में नेता तो बहुत हैं, नहीं हैं तो केवल कार्यकर्ता।

जनता के दबाव कांग्रेस ने की उम्मीजनता के दबाव कांग्रेस ने की उम्मीदवारी निरस्तदवारी निरस्त

jagdishसंभवतः ऐसा पहली बार हुआ है, जब कांग्रेसियों ने अपने घोषित उम्मीदवार की उम्मीदवारी निरस्त कर दी। जगदीस टाइटलर और सज्जन कुमार को राजधानी से उम्मीदवार बनाया था। दिल्ली में सन 1984 के सिख विरोधी दंगों में तथाकथित विवादास्पद भूमिका के मद्देनजर दिल्ली व पंजाब में दोनों नेताओ का भारी विरोध हुआ। जनता के इस विरोध की वजह से कांग्रेस हाई कमान को दोनों की उम्मीदवारी निरस्त करनी पड़ी। यह घटना दूर तक असर डालने वाली है।

इससे पहले सन् 1989 में भागलपुर दंगे के बाद शहर के लोगों ने कांग्रेस के तात्कालिक नेता व सांसद भागवत झा आजाद को उक्त स्थान से टिकट न देने की अपील की थी। लेकिन, आजाद वहां से खड़े हुए और जनता ने उन्हें हरा दिया। इसके बाद कांग्रेस इस इलाके में अब तक अपना जनाधार मजबूत नहीं कर पाई है। हालांकि, तब इस घटना से कांग्रेस ने कोई सबक नहीं लिया था।

इन दोनों उम्मीदवारों की उम्मीदवारी निरस्त होने के बाद कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने घोषणा की कि कांग्रेस ने अपनी परम्परा का पालन करते हुए तय किया है कि टाइटलर और सज्जन कुमार अब लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगे। उन्होंने कहा कि लोगों के मन में किसी तरह का भ्रम न हो इसलिए नेतृत्व ने यह निर्णय लिया है।

उन्होंने कहा कि इससे पहेल ही दोनों नेताओं ने चुनाव न लड़ने की अपनी मंशा से कांग्रेस नेतृत्व को अवगत करा दिया था।

टाइटलर ने भी संवाददाताओं से बातचीत में स्पष्ट कर दिया था कि उन्होंने अपनी उम्मीदवारी के बारे में फैसला पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी पर छोड़ दिया है।

इससे पहले, सिखों के भारी विरोध प्रदर्शन के बीच राजधानी की एक अदालत ने टाइटलर के मामले की सुनवाई 28 अप्रैल तक के लिए स्थगित कर दी थी। केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने टाइटलर को क्लीन चिट देते हुए पिछले सप्ताह मामला बंद करने के लिए अदालत में रिपोर्ट दाखिल की थी।

जोशी की जनसंपर्क यात्रा ने बदली हवा, आंकड़े भी हुए पक्ष में

murli_manohar_joshi-250x3002प्रख्यात सर्वे एजेंसी इमेज इण्डिया और विश्व संवाद केंद्र काशी की ओर से जारी वाराणसी लोकसभा की चुनाव विश्लेषण रिपोर्ट में बताया गया है कि अभी तक के रूझानों से डा. मुरली मनोहर जोशी अपने प्रतिद्वन्दियों से काफी आगे निकल चुके हैं। सर्वे-विश्लेषण का मानना है कि चुनावी टक्कर में उनका सीधा मुकाबला बसपा प्रत्याशी मोख्तार अंसारी से हो रहा है। मोख्तार के पक्ष में मुस्लिम मतदाताओं में अंडरकरेंट चल रही है वहीं बड़ी संख्या में ब्राह्मण, बनिया, ठाकुर, कुर्मी-पटेल, मौर्य, कायस्थ, बंगाली, सिंधी, मारवाड़ी और खटिक मतदाताओं का रूझान डा. जोशी के पक्ष में स्पष्ट दिख रहा है। सर्वे रिपोर्ट ने आश्चर्यजनक रूप से यह दावा किया है कि भूमिहार और यादव मतदाताओं का 70 प्रतिशत हिस्सा भी भाजपा के पक्ष में वोटिंग का मन बना चुका है।

एजेंसी ने सरकारी दस्तावेजों का विश्लेषण कर परिसीमन के बाद बने नवीन वाराणसी संसदीय क्षेत्र में जातिवार मतदाता संख्या का विवरण भी जारी किया है। विवरण के अनुसार वाराणसी सीट पर कुल मतदाताओं की संख्या 15लाख 55 हजार के करीब है जिसमें 2लाख 51हजार ब्राह्मण, एक लाख जायसवाल मतदाता, 70 हजार क्षत्रिय, 80 हजार कायस्थ, 70 हजार मौर्य, 1लाख 80हजार पटेल-कुर्मी, बंगाली 40 हजार, सिंधी-मारवाड़ी व अन्य उच्च वर्गीय व्यवसायी वोट 50हजार, भूमिहार 90 हजार, यादव वोट 90 हजार और करीब दो लाख मुसलमान मतदाता हैं। इसके अतिरिक्त हरिजन 70 हजार, अन्य अनुसूचित जातियों में खटिक 40 हजार, भर-बिंद-मल्लाह-पाल भी लगभग 40 हजार की संख्या में हैं।

सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि आंकड़ों के विश्लेषण और सर्वे के मुताबिक डा. जोशी के पक्ष में ब्राह्मण मतदाताओं का 95 प्रतिशत,जायसवाल मत 95 प्रतिशत, क्षत्रिय मत शत प्रतिशत, कायस्थ शत प्रतिशत, बंगाली वोट शत प्रतिशत, मौर्य और कुर्मी वोटों का 80 प्रतिशत,यादव मतों का 60 प्रतिशत, खटिक मत 90 प्रतिशत, बिंद-मल्लाह-पाल-भर मतों का 70 प्रतिशत, मारवाड़ी-सिंधी व अन्य उच्च व्यवसायी वर्ग का शत प्रतिशत वोट पड़ रहा हैं। रिपोर्ट के अनुसार बड़ी संख्या में शिया मुस्लिम मत भी डा. जोशी के पक्ष में खड़े हो गए हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि भूमिहार मतों में डा. जोशी के पक्ष में अलका राय, कुसुम राय व अन्य प्रमुख भूमिहार नेताओं के दौरे के बाद तेज धु्रवीकरण हो गया है। इस प्रकार लगभग 70 प्रतिशत भूमिहार मत भी डा. जोशी को मिलने की बात रिपोर्ट में कही गई है।

रिपोर्ट के अनुसार डा. मुरली मनोहर जोशी को लोकसभा के सभी जाति-वर्गों में बढ़त मिल रही है जबकि अन्य प्रत्याशी विशेष जाति-वर्गों में ही अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। कांग्रेस प्रत्याशी डा. राजेश मिश्र को तीसरे नंबर पर और सपा प्रत्याशी अजय राय को चौथे नंबर पर बताया गया है। (विश्व संवाद केंद्र, काशी)

कांग्रेस और सपा पर काशी के विद्वानों ने लगाया हिंदू और गंगाद्रोही होने का आरोप

काशी के विद्वानों ने एक दैनिक अखबार में डा.मुरली मनोहर जोशी के संदर्भ में कांग्रेस प्रत्याशी के बगल में प्रकाशित भ्रामक विज्ञापन पर आपत्ति जताई है। काशी के प्रमुख विद्वानों और वैज्ञानिकों ने कांग्रेस और सपा प्रत्याशी से कुछ गंभीर सवालों पर तत्काल उत्तर चाहा है। इन विद्वानों में डा. कामेश्वर उपाध्याय, प्रोफेसर श्यामसुंदर शुक्ल, प्रोफेसर ओम प्रकाश सिंह, प्रोफेसर यू.के. चौधरी, डा.दीनानाथ सिंह,डा. नन्दू सिंह, प्रोफेसर जेपी लाल,प्रोफेसर नागेंद्र पाण्डेय, डा. सच्चिदानंद सिंह, डा. विजय सोनकर शास्त्री, आनन्दरत्न मौर्य आदि ने पूछा है कि कांग्रेस प्रत्याशी बताएं कि क्या वेदकाल में ब्राह्मण गोमांस खाते थे? आखिर कांग्रेस पार्टी ने स्कूली पाठयक्रम में आजादी के बाद से पढ़ाए जा रहे इस पाठ पर कभी आपत्ति क्यों नहीं की।विद्वानों ने पूछा है कि क्या गुरू तेगबहादुर और सरदार भगत सिंह, पं. चंद्रशेखर आजाद लुटेरे और आतंकवादी थे। और यदि ऐसा नहीं है तो कांग्रेस 40 साल तक एनसीईआरटी की स्कूली पुस्तकों में यह गंदी बात क्यों पढ़ाती रही? विद्वानों ने सवाल पूछा है कि कांग्रेस पार्टी ने सन् 70 के दशक में मां गंगा के प्रवाह पर टिहरी बांध का निर्माण किसके कहने पर शुरू किया? महामना मालवीय और ब्रिटिश सरकार के बीच के समझौते को क्यों कांग्रेस और समाजवादी सरकारों ने जनता की नजरों से छुपाकर रखा? गंगा एक्शल प्लान का सारा पैसा कांग्रेसी नेताओं ने दबाकर उसे स्विस बैंक में रखा या नहीं? यदि नहीं तो कांग्रेस पार्टी स्विस बैंक के खातेदारों और उनकी जमा धनराशि के बारे में स्विटजरलैण्ड सरकार से हिसाब मांगने में क्यों हिचक रही है।

विद्वानों ने पूछा है कि क्या यह सच नहीं है कि कांग्रेस नेतृत्व ने सन् 1998 में केंद्र में भाजपा सरकार बनने के पहले ही टिहरी बांध के पीछे गंगा की अविरल धारा को कैद कर दिया था। क्या यह सच नहीं है कि डा. जोशी ने केंद्र में मंत्री बनने के बाद स्कूली पाठयक्रम में हिंदुओं और तमाम अन्य भारतीय मत-पंथों के बारे में लिखी अनाप-शनाप बातों को पुस्तकों से हटवा कर बच्चों के लिए सर्व शिक्षा अभियान की शुरूआत की। आखिर कांग्रेस ने ग्रैंड ट्रंक रोड को शेरशाह सूरी ने बनवाया ये झूठा पाठ देश को क्यों पढ़ाया? डा. जोशी ने अपने कार्यकाल में देश को बताया कि ग्रैंड ट्रंक रोड शेरशाह सूरी नहीं वरन् सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य और उनके प्रखर महामंत्री आचार्य चाणक्य के प्रयत्नों से बना था। सवाल यह भी पूछा गया है कि क्या अधिसूचना जारी कर देने मात्र से ही गंगा का प्रदूषण समाप्त हो जाएगा जबकि कांग्रेस पचास साल तक गंगा में तमाम शहरों का सीवरजल, टेनरी और बूचड़खानों का चमड़ा-रक्त आदि बहाने का पापकर्म करवाती रही और कांग्रेस नेतृत्व ने रूस की सरकार से करोड़ों रूपया लेकर गंगा का अविरल प्रवाह रूकवा दिया।

विभिन्न सरकारी दस्तावेजों का हवाला देते हुए विद्वानों ने कांग्रेस से जवाब मांगा है कि जोशी कमेटी ने गंगा के अविरल प्रवाह के लिए पहाड़ों को काटकर सुरंग बनाने की 450 करोड़ की जो परियोजना भारत सरकार का सौंपी उस रिपोर्ट पर अब तक केंद्र की कांग्रेस सरकार ने क्या कार्रवाई की। गंगा पर उत्तराखंड में केंद्र सरकार के एनटीपीसी ने ही अधिकांश योजनाएं पिछले पांच साल में शुरू की, कांग्रेस उन परियोजनाओं पर चुप क्यों है। भारतीय जनता पार्टी के घोषणापत्र में गंगा के प्रवाह को अविरल बनाने का मुद्दा शामिल कर लिया गया है। कांग्रेस जवाब दे कि उसने अपने घोषणापत्र में गंगा के प्रवाह को अविरल करने की घोषणा क्यों शामिल नहीं होने दी। गौमाता का राष्ट्रीय प्राणी घोषित करने में कांग्रेस क्यों चुप है। देश भर में चल रहे तमाम कत्लखानों जैसे देवनार, अलकबीर को कांग्रेस सरकारों ने बंद क्यों नहीं कराया। गीता जैसे पवित्र ग्रंथ को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित क्यों नहीं किया गया। विद्वानों ने आरोप लगाया है कि कांग्रेस ने आजादी के बाद सिर्फ और सिर्फ हिंदू द्रोह को ही शरण दी है, एक विदेशी महिला के इशारों पर नाचने वाली कांग्रेस ने एक देसी होनहार युवा वरूण गांधी को जेल की सलाखों के पीछ बंद करवा कर अपनी जहरीली मानसिकता का परिचय दे दिया है, ऐसी कांग्रेस को इस बार जनता सत्ता से खदेड़कर उसके सारे पापकर्मों का हिसाब ले लेगी।

विद्वानों ने पूछा कि कांग्रेस का गंगा प्रेम तब कहां गुम हो जाता है जब सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा देकर कांग्रेसी कहते हैं कि राम भगवान तो कभी पैदा ही नहीं हुए। रामसेतु तोड़ने और गंगा को बांधने का षड़यंत्र क्या कांगेस ने नहीं रचा है। आखिर कांग्रेस रामजन्मभूमि पर भव्य मंदिर क्यों बनने नहीं दे रही है। कांग्रेस बताए कि देश से करोड़ों बंगलादेशी घुसपैठियों को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद अभी तक क्यों बाहर नहीं किया गया। आतंकवाद विरोधी कानून पोटा क्यों निरस्त किया गया और संसद पर हमले के आरोपी सजायाफ्ता अफजल गुरू को अब तक फांसी क्यों नहीं दी गई। (विश्व संवाद केंद्र, काशी)

एक बेहतर राजनेता किसी बात से कभी इंकार नहीं करता: जयललिता

jayaअन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता ने चेन्नई में मंगलवार को कहा कि लोकसभा चुनाव के बाद की स्थिति पर बातचीत करना अभी जल्दबाजी होगी लेकिन एक बेहतर राजनेता किसी बात से कभी इंकार नहीं करता है। उन्‍होंने कहा कि चुनाव के बाद संभावित गठबंधन के लिए किसी पार्टी से बातचीत करने का कोई सवाल ही नहीं है।अन्नाद्रमुक नेता से यह पूछे जाने पर कि, ‘भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा है कि अन्नाद्रमुक के साथ चुनाव बाद गठबंधन के लिए अनौपचारिक बातचीत हो रही है।’ उन्‍होंने आडवाणी के इस दावे को खारिज करते हुए कहा कि एक बेहतर राजनेता किसी बात से इनकार नहीं कर सकता है। जया ने कहा कि उनकी पार्टी का गठबंधन तमिलनाडु में फिलहाल वाम दलों, एमडीएमके, और पीएमके के साथ है। केंद्र में गैर कांग्रेस और गैर भाजपा सरकार बनाने के लिए उनकी पार्टी काम कर रही है।

जयललिता की पार्टी ने 2004 का लोकसभा चुनाव भाजपा के साथ गठबंधन कर लड़ा था। उन्होंने यह भी कहा कि वह प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल नहीं हैं क्योंकि उनकी कोई व्यक्तिगत इच्छा नहीं है। उन्होंने एक टीवी चैनल से कहा कि चुनाव बाद गठबंधन के बारे में बातचीत करना जल्दबाजी होगी। चुनाव परिणाम आने के बाद हमलोग अपने चुनाव सहयोगी वाम दलों के साथ तथा समान विचार धारा वाले अन्य दलों से मिलकर किसी मसले पर बातचीत करेंगे। उस समय की स्थिति पर अभी से अटकलें लगाना जल्दबाजी होगी।